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यदि समुद्र न होते तो...

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समुद्रों के खारेपन की चर्चा के बगैर समुद्र का महत्व अधूरा रहेगा। यह सच है कि यदि समुद्र में पानी कम हो जाए, तो यही खारापन बढ़कर आसपास की इलाकों की ज़मीन बंजर बना दे; ऐसे इलाकों का भूजल पीने-पकाने लायक न बचे; लेकिन सच भी है कि समुद्री खारेपन का महत्व, इस नुकसान तुलना में कहीं ज्यादा फायदे की बात है। गर्म हवाएं हल्की होती हैं और ठंडी हवाएं भारी; कारण कि गर्म हवा का घनत्व कम होता है और ठंडी हवा का ज्यादा। यह बात हम सब जानते हैं। यही बात पानी के साथ है। जब समुद्र का पानी गर्म होकर ऊपर उठता है, तो उस स्थान विशेष के समुद्री जल की लवणता और आसपास के इलाके की लवणता में फर्क हो जाता है। इस अंतर के कारण ही समुद्र से उठे जल को गति मिलती है। नदियां न होती, तो सभ्यताएं न होती। बारिश न होती, तो मीठा पानी न होता। पोखर-झीलें न होती, तो भूजल के भंडार न होते। भूजल के भंडार न होते, तो हम बेपानी मरते। पानी के इन तमाम स्रोतों से हमारी जिंदगी का सरोकार बहुत गहरा है। यह हम सब जानते हैं; लेकिन यदि समुद्र न होते, तो क्या होता? इस प्रश्न का उत्तर तलाशें, तो हमें सहज ही पता चल जायेगा कि धरती के 70 प्रतिशत भूभाग पर फैली 97 प्रतिशत विशाल समुद्री जलराशि का हमारे लिए क्या मायने है? समुद्र के खारेपन का धरती पर फैले अनगिनत रंगों से क्या रिश्ता है? समुद्री पानी के ठंडा या गर्म होने हमें क्या फर्क पड़ता है? महासागरों में मौजूद 10 लाख से अधिक विविध जैव प्रजातियों का हमारी जिंदगी में क्या महत्व है? दरअसल,किसी न किसी बहाने इन प्रश्नों के जवाब महासागर खुद बताते हैं हर बरस। आइये, जानें !

सच यह है कि यदि समुद्र में इतनी विशाल जलराशि न होती, तो वैश्विक तापमान में वृद्धि की वर्तमान चुनौती अब तक हमारा गला सुखा चुकी होती। यदि महासागरों में जैव विविधता का विशाल भंडार न होता, तो पृथ्वी पर जीवन ही न होता। यदि समुद्र का पानी खारा न होता, तो गर्म प्रदेश और गर्म हो जाते और ठंडे प्रदेश और ज्यादा ठंडे।

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गंगा को मारने की नई साज़िश

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Author: 
विमल भाई
Source: 
माटू जनसंगठन
सैंड्रप द्वारा तैयार की गई आलोचनात्मक टिप्पणी, जिसे माटू के अलावा अन्य कई जन संगठनों ने अनुमोदित किया है, बिंदुवार समिति की रिपोर्ट की बदनीयत, चालाकी और गैरजानकारी का खुलासा करती है। जो जलविद्युत परियोजनाएं भागीरथीगंगा पर रोक दिए गए हैं उन्हें भी निर्माणाधीन की श्रेणी में दिखाया गया है। ऐसे कई उदाहरण इस रिपोर्ट में मिलेंगे जो बताते हैं की समिति ने बांध समर्थन की भूमिका ली है। बांधों की स्थिति बताने वाली सारिणी भी गलत आंकड़ों से भरी है। नदी की लम्बाई का अनुपात भी गलत लगाया गया है। समिति 81 प्रतिशत भागीरथी और 69 प्रतिशत अलकनन्दा को बांधों से प्रभावित कहती है जो कि पूरी तरह से गलत है।नापे सौ गज और काटे इंच भी नहीं। प्रधानमंत्री जी बार-बार गंगा के लिए प्रतिबद्धता जताते हैं उनकी पार्टी गंगा रक्षण का दम भरते हुए वोट भी मांगती है। किंतु ज़मीनी स्तर यह नहीं दिखाई देता है। जिसका उदाहरण है हाल ही में गंगाजी पर आई अंतरमंत्रालयी समिति की रिर्पोट। सरकार ने 17 अप्रैल, 2012 को स्वामी सानंद जी के उपवास के समय राष्ट्रीय गंगा नदी प्राधिकरण की बैठक बुलाई थी। तब सानंद जी को सरकार ने एम्स में रखा हुआ था। बैठक में वे नहीं गए उनकी ओर से कुछ संत प्रतिनिधि गए थे। प्रधानमंत्री ने उन्हें अलग से मिलने का वादा किया। बैठक में डब्ल्यू. आई. आई. और आई. आई. टी. आर. की रिपोर्ट के बारे में उठ रही तमाम शंकाओं पर विराम लगाते हुए इन रिर्पोटों को सही ठहराया। इन संत प्रतिनिधियों ने इस पर कुछ कहा हो ऐसी कोई खबर बाहर नहीं आई। बैठक शांति से निबट गई। 15 जून 2012 को सरकार ने चुपचाप से गंगा के लिए चिल्लाने वालों के मुंह में अंतरमंत्रालयी समिति का लड्डू रखा दिया गया। 15 सदस्यों में बिना किसी चयन प्रक्रिया के तीन गैर सरकारी सदस्यों को भी समिति में रखा गया। रिपोर्ट के बीच बांधों के कामों पर भी कोई रोक नहीं लगाई गई थी।

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ऊंची छतों पर हरी-भरी दुनिया

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Author: 
रत्ना
Source: 
दैनिक भास्कर (रसरंग), 09 जून 2013
भीषण गर्मी में कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो चुके शहरों के मकान किस तरह भट्ठी में तब्दील हो जाते हैं, ये हममें से किसी से छिपा नहीं है, लेकिन मिट्टी और वनस्पतियों से युक्त ये छतें सीधी धूप को रोककर अवरोधक का काम करती हैं। जाहिर सी बात है कि इससे बिल्डिंग का तापमान कम हो जाता है। इससे बिल्डिंग की कूलिंग कास्ट करीब बीस फीसदी तक कम हो जाती है। जहां तक भारत की बात है तो भारत में ग्रीन रूफ्स या ग्रीन बिल्डिंग्स अभी दूर की कौड़ी लगती है। कुछ बड़े शहरों में इसकी पहल तो हो रही है लेकिन ये अभी न के बराबर है, लेकिन ये बात सही है कि अगर शहर इलाके की नई बिल्डिंग्स ग्रीन बिल्डिंग्स के कांसेप्ट को लागू करें तो भारत 3,400 मेगावाट बिजली बचा सकता है।जब पूरी दुनिया में बात ग्रीन वर्ल्ड की हो रही हो, दुनिया के तेजी से खत्म होते प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की बातें हो रही हों, तो ग्रीन हाउस की परिकल्पना बहुत तेजी से हकीक़त में बदल रही है, यानी ऐसे घर जो हरे-भरे हों, जहां छतों पर हरियाली लहलहाए। जहां छतों से रंग-बिरंगे फूल मुस्कराएं। हरे-भरे लॉन में मुलायम-सी घास हो, कुछ छोटे-बड़े पेड़-पौधे हों। ऐसी छतें हमारे देश में भले ही न हो, लेकिन अमेरिका और यूरोप में हकीक़त बनती जा रही हैं। ये ऐसी छतें होतीं हैं, जिन्हें ग्रीन टॉप या ग्रीन रूफ कहा जाता है। आने वाले समय में अपने देश में भी शायद छतों पर हरी-भरी दुनिया का नया संसार दिखेगा। छतें केवल छतें नहीं होंगी, बल्कि बगीचा होंगी, खेत होंगी, फार्महाउस होंगी, जिन पर आप चाहें तो खूब सब्जी पैदा करें। इन्हीं छतों से बिजली पैदा की जाएगी। इनसे घरों का तापमान कंट्रोल किया जा सकेगा। कुछ मायनों में एसी का काम करेंगी। इन्हीं के जरिए वाटरहार्वेस्टिंग का भी काम होगा। आप चकित होंगे, एक छत से इतने काम! क्या सचमुच छतें इतने काम की हैं। हां, साहब वाकई छतें बहुत काम की हैं। भले अभी तक हमने इनका महत्व नहीं पहचाना हो, लेकिन दुनियाभर में कम होती जमीनों और पर्यावरण के प्रति जागरूकता ने छतों को वो महत्व प्रदान कर ही दिया है, जो बहुत पहले हो जाना चाहिए था।

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गंगा : मां अब मरना चाहती है

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मां गंगा देख रही है हर बरस कभी कुंभ, कभी माघ मेला, कभी कार्तिक पूर्णिमा, कभी छठ पूजा और कभी गंगा दशहरा.. गंगा किनारे दुनिया के सबसे बड़े पानी का मेले लगते हैं; करोड़ों दीपदान होते हैं; कोटि-कोटि हाथ... एक नहीं, कई-कई बार गंगा के सामने जुड़ जाते हैं; हर हर गंगे ! जय जय मैया !! गाते हैं; लेकिन यही कोटि-कोटि हाथ गंगा के पुनरोद्धार के लिए एक साथ कभी नहीं जुटते। गरीब से गरीब परिवार भी अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च करके गंगा दर्शन के लिए आता है, लेकिन वह गंगा रक्षा के सिद्धांत को कभी याद नहीं करता। गंगा दर्शन को समझने और समझाने एक साथ कभी नहीं बैठता।कहने को गंगा दशहरा धरती पर मां गंगा के अवतरण की तिथि है; लेकिन मां गंगा की जो हालत हमने कर दी है, उससे हमने गंगोत्सव मनाने का हर हक खो दिया है। मां के कष्ट बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में मां का इच्छा मृत्यु माँगना आज हमारी असल जिंदगी में ही जब कोई अपवाद नहीं रहा, तो गंगा जैसी मां भी यदि अपने अवतरण दिवस पर मृत्यु की मांग कर बैठे, तो किसी को कोई ताज्जुब क्यों हो? रही बात इस पर दुख प्रकट करने की,यदि हमने जीते-जी ही मां की चिंता नहीं की, तो मृत्यु पश्चात शोक मनाने का क्या मतलब? यह न कोरी कल्पना है, नहीं न कोरी भावना; यह मां और संतानों के बीच बदलते संबंधों का यथार्थ भी है और गंगा का वर्तमान भी। तुम्हें गंगा की कसम! सीने पर हाथ रखकर कहो, क्या यह झूठ है?

गंगा का आर्तनाद सुनो


गंगा पर राजनीति क्षुद्रता की जिस हद तक गिर गई है; पैसे का खेल जिस कदर बढ़ गया है; गंगा रक्षा में हम सभी जिस तरह नकारा सिद्ध हुए है; मां गंगा आर्तनाद कर रही है - “तुमने मुझे मां से महरी तो बना ही दिया है।

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यह विनाश कुछ कहता है

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उत्तराखंड में बाढ़ से बढ़ती बर्बादी की हकीकत यह है कि जगह-जगह सुरंगों व झीलों में बांधने की हो रही नापाक कोशिशों के कारण नदियां गुस्सा गईं हैं। पानी आने और जाने के रास्ते को समझे बगैर जहां जगह मिली, वहीं खड़े कर दिए गए पक्के निर्माणों ने बाढ़ का प्रकोप बढ़ा दिया है। समझना जरूरी है कि जलनिकासी के प्राकृतिक मार्गों के अवरुद्ध होने से पानी रास्ता बदलने को विवश होता है। नए रास्ते में नए नुकसान करता है। चट्टाने खिसकने और बड़े पैमाने पर मिट्टी-कचरे के बहकर नदी में चले जाने की घटनाएं होती हैं; गाद बढ़ती है; नदियों का जलस्तर बढता है; कटाव बढ़ता है।

हम बचपन से यही सुनते आए हैं कि बाढ़ अपने साथ सोना लाती है; लेकिन नजारा इस बार फिर भिन्न है। किन्नौर घाटी में आसमान से आपदा बरसी। उत्तराखंड में तबाही का मंजर कुछ ऐसा है कि रास्ता सुझाए नहीं सूझ रहा। रूद्रप्रयाग से ऊपर बद्रीनाथ तक पहाड़ गिरने और रास्तों के ढह जाने से फंसे हजारों यात्रियों की जान सांसत में है। कितने गांव डुबे हैं? कुछ खबर नहीं है। उत्तरकाशी में ताश की तरह ढह गई इमारतों के संकेत और खतरनाक हैं। मौत के आंकड़ें हैं कि बढ़ते ही जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश का बिजनौर इसकी हद में आ चुका है। हरियाणा, दिल्ली, मथुरा, सहारनपुर, बागपत, हस्तिनापुर, से लेकर बदायूं, बाराबंकी, पीलीभीत तक बाढ़ पहुंच ही चुकी है। शाहजहांपुर, हरदोई और फर्रुखाबाद भी अछूते नहीं रहने वाले। कहने वाले कह रहे हैं कि बारिश अभी ही 65 प्रतिशत अधिक है; आगे कई और रिकार्ड याद कीजिए कि पिछले बरस भी कमोबेश नजारा यही था। फर्क सिर्फ इतना है कि पिछले साल यह सारा परिदृश्य मध्य जुलाई का था; इस बरस मध्य जून का। जुलाई में बारिश होती ही है।

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प्राकृतिक आपदा ऐसे ही नहीं आती

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Author: 
विपिन जोशी
Source: 
चरखा फिचर्स, जून 2013
यदि भविष्य में इस प्रकार के प्राकृतिक आपदा से बचना है तो इसकी तैयारी अभी से करनी होगी। विकास अच्छी बात है, परंतु इसके कुछ मानक तय होने चाहिए। दीर्घकालिक विकास की नीतियों को तय किये जाने की आवश्कता है। इसके लिए आवश्यक है कि समस्त हिमालयी क्षेत्रों में भारी निर्माण और दैत्याकार जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण पर प्रतिबंध लगाया जाए। हिमालयी क्षेत्र में बेतहाशा खनन और सड़क निर्माण के नाम पर विस्फोट ना किए जाएं। कब-कब किन हालात में आपदाएं आई हैं इसका आकंड़ा जुटाया जाए। सबसे जरूरी यह है कि आपदा प्रबंधन विभाग को पुनर्जीवित करने के लिए राज्य सरकार और केन्द्र मिलकर पुख्ता नीति बनाए।उत्तराखंड में बीते सप्ताह कुदरत का जो क़हर टूटा उसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी। तबाही का ऐसा खौ़फनाक मंजर पहले नहीं देखा गया। हांलाकि 1970 में चमोली जिले में गौनाताल में बादल के फटने से डरावने हालात बन गए थे, लेकिन इस प्रकार की क्षति नहीं हुई थी क्योंकि इसकी भविष्यवाणी अंग्रेजों ने 1894 में ही कर दी थी और तब नीचे की बस्तियों को सुरक्षित स्थानों में बसा दिया गया था। उस दौर में आज के जैसे परिवहन और संचार के नवीनतम उपकरण मौजूद नहीं थे, परंतु अंग्रेज अधिकारियों के बीच गजब का समन्वय और प्लानिंग थी। जिसके चलते 1970 के हादसा में आज की तरह जानमाल की अधिक क्षति नहीं हुई थी। लेकिन इस बार के हादसे ने कई सवालों को जन्म दे दिया है। केदारनाथ त्रासदी से ठीक दो दिन पूर्व मौसम विभाग ने प्रशासन को चेतावनी दी थी कि अगले 24 घंटों में भारी बारिश हो सकती है तो क्यों नहीं देहरादून से सतर्कता बरती गई? कुल कितने यात्री उस दौरान केदारनाथ में थे ये डाटा भी राज्य सरकार के पास नहीं हैं। तो ऐसे में हताहतों का अंदाजा लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।

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आखिरी नहीं यह विध्वंस

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“कहते हैं कभी तहजीबे बसती थीं नदियों के किनारे,
आज नदियां तहजीब का पहला शिकार हैं।’’


बड़े बांधों को दुष्प्रभावों के खिलाफ चेतावनी मिलते भी हमें कई दशक हो गए। बावजूद इन चेतावनियों के हम चेत कहां रहे हैं? अमेरिका और आसपास अब तक 500 से अधिक बड़े बांध तोड़े जा चुके हैं। दुनिया नदियों को फिर से जिंदा करने पर लगी है और हम हैं कि बांध पर बांध बनाकर उन्हे मुर्दा बनाने की जिद्द कर रहे हैं। विस्कोसिन ने बाराबू नदी को पुनः जिंदा किया है। कैलिफोर्निया अपनी नदियों के पुनर्जीवन के लिए आठ बिलियन डॉलर की योजना बनाकर काम कर रहा है। परिस्थितिकीय दुष्प्रभावों को देखते ही रूस ने अपनी नदी जोड़ परियोजनाओं पर ताला लगाने में ज्यादा वक्त नहीं लगाया।इन पंक्तियों को लिखते वक्त शायर के जेहन में शायद यह अक्स उभरा ही नहीं कि कभी नदियां भी पलटकर तहजीब का शिकार कर सकती हैं। हालांकि हम उत्तराखंड में हुए विनाश को महज नदियों द्वारा सभ्यता के शिकार करने की घटना कहकर भी आकलित नहीं कर सकते। तबाही का सच अभी भी पूरी तरह बाहर नहीं आया है। लेकिन हमला चैतरफा था; यह सच जरूर सामने आ गया है। मलवा, मौत, मातम, मन्नत और मदद में बीता पूरा सप्ताह। निश्चित ही तस्वीर बेहद डरावनी है। दुखद भी! लेकिन लाहौल, स्पीति, किन्नौर से लेकर कन्याकुमारी तक और जैसलमेर से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक पिछले एक दशक में जो कुछ घटा है, उसे देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि यह विध्वंस पहला है या आखिरी है। अतीत में भी मातम के ऐसे कई मौके भारत देख चुका है। अतः अब इसे महज उत्तराखंड अकेले का मसला कहकर शेष भारत नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। संकट अब पूरी सभ्यता पर है।

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मानव – निर्मित सूखा

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Author: 
परिणीता दाडेकर एवं हिमांशू ठक्कर
Source: 
सामयिक वार्ता, जुलाई 2013
महाराष्ट्र के इस साल के भयानक सूखे की तुलना 1972 से की गई है। लेकिन 1972 की तुलना में 2012 में बारिश की हालत बेहतर रही है। दरअसल गन्ने की खेती के अंधाधुंध प्रसार, बड़े बांधों पर गैर जरूरी जोर, संसाधनों की बर्बादी और पानी की उपेक्षा से कृत्रिम मानव-निर्मित संकट पैदा हुआ है।महाराष्ट्र इस वर्ष सबसे भयानक सूखे का सामना कर रहा है। केंद्रीय कृषी मंत्री शरद पवार और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान दोनों ने कहा है कि इस वर्ष का सूखा 1972 के मुकाबले ज्यादा भीषण हैं। 1972 के सूखे को अकाल की संज्ञा दी गई थी। इन राजनेताओं द्वारा इस वर्ष के सूखे की तुलना 1972 के सूखे से करना ऐसा आभास देने की कोशिश है कि 1972 के समान इस वर्ष का सूखा भी एक प्राकृतिक विपदा है।

अलबत्ता, यदि हम 17 सूखा प्रभावित जिलों (अहमदनगर, पुणे, शोलापुर, सतारा, सांगली, औरंगाबाद, जालना, बीड़, लातूर, उस्मानाबाद, नांदेड़, अकोला, नासिक, धुले, जलगांव, परभणी और बुलढाणा) में 1972 व 2012 में बारिश के आंकड़ों की तुलना सामान्य बारिश के पैटर्न से करें, तो एक अलग ही तस्वीर सामने आती है। बारिश के हिसाब से देखें तो इस वर्ष के सूखे को 1972 से बदतर नहीं कहा जा सकता।

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आपदा से पहले कई अलर्ट

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13 जून, वर्ष 2008 को प्रो. जी डी अग्रवाल ने उत्तर काशी में शुरू किया लोहारी नागपाला परियोजना के खिलाफ पहला अनशन। 23 जून, 2008 को हरकी पौड़ी में स्वामी परिपूर्णानन्द और प्रेमदत्त नौटियाल का आमरण अनशन। फिर कई अनशन हुए। गंगा में रेत खनन व पत्थर चुगान के खिलाफ मातृसदन हरिद्वार के स्वामी निगमानन्द ने आमरण अनशन कर प्राण गंवाये। जहां-जहां परियोजनाएं गईं; लगभग सभी जगह विरोध हुआ। धारी देवी के डूब में आने का मामला हुआ संवेदनशील।समझदार लोग वे होते हैं, जो समय पूर्व भविष्य को देख लेते हैं और चेत जाते हैं; दूसरों को भी चेताते हैं। वे जानते हैं कि आसमान सूना होने का मतलब है, हरियाली का सूना होना। आफत आसमान से नहीं आती, उसे धरती पर हम खुद बुलाते है। मां मारने की पहल खुद कभी नहीं करती। हम उसे मारते हैं; तब वह हमें मारती हैं। उत्तराखंड में इसे जानने वाले लोक ज्ञान और बताने वाले लोगों की कमी कभी नहीं रही। आज भी नहीं है। हां! अब उनकी सुनने वाले लोक प्रतिनिधि नहीं रहे। उनके अनपढ कहकर कुपढों ने सुनना बंद कर दिया है।

चिपको ने चेताया


नदी अलकनंदा, गांव रेणी, घाटी हमवाल, जिला चमोली। 2500 पेड़ों को काटने का सरकारी ठेका। महिलाओं ने चेताया। माना पेड़ों को प्राणाधार। उठाई आवाज। गौरादेवी ने किया नेतृत्व। घनश्याम रतूड़ी, बूचनी देवी और धूमसिंह ने किया एकजुट।

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आपदा का आर्थिक कनेक्शन

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यदि हमारे दल व मीडिया ऐसे साजिशों से अनभिज्ञ हैं, तो यह मामला और जागरूक होने का है। यदि जानते-बूझते वे इनकी वकालत कर रहे हैं, तो वे ऐसी शक्तियों के साथ खड़े हैं। क्योंकि यह बात पूर्णतया वैज्ञानिक और समय सिद्ध है कि बांध और नदी जोड़ उत्तराखंड ही नहीं, देश के किसी भी हिस्से में आई बाढ़ नियंत्रण का उपाय नहीं हो सकते। ये दोनों ही देश की आर्थिक व पर्यावरणीय आजादी तथा भूगोल के लिए बड़ा खतरा हैं।उत्तराखंड आपदा राहत के नाम पर राजनीति हुई, तो भी क्या आश्चर्य! वे करेंगे ही, क्योंकि वे लोकनेता नहीं हैं; वे राजनेता हैं। वे मां की लाश पर भी राजनीति कर सकते हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि कवि प्रदीप के लिखे गीत को गाकर देशभक्ति का परिचय देने वालों लोग “ऐ मेरे वतन के लोगों...’’ को तो भूल ही चुके हैं, वे “घायल हुआ हिमालय, खतरे में पड़ी आजादी..’’ को भी याद नहीं रख पाये। नेपाली मजदूरों ने आपदा के मारों के हाथ काटकर गहने लूटे, तो उत्तराखंडी व्यापारियों ने जीवितों को 250 रुपये का परांठा और 100 रुपये में एक लीटर पानी पिलाकर खुद की आत्मा को मार लिया। यह सब निजी मुनाफे के लिए हुआ। आपदा के आर्थिक कनेक्शन का यह छोटा सा नमूना है। बड़ा नमूना 1000 करोड़ रुपये के राहत पैकेज और राहत के नाम पर सामग्री और पैसे जमा करने वाली संस्थाओं की जांच हो, तो मिल जायेगा। बाहर जाना चाहिए बांध कंपनियों को, वे साजिश कर रही हैं कि लोग बाहर जाएं।

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हमसे संभलने को कहती धरती

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Author: 
माधुरी
Source: 
दैनिक भास्कर (रसरंग), 30 जून 2013
कोई सात हजार वर्ष पुरानी बात है, हमारे ग्रह पर तब हिमयुग समाप्त हुआ ही था, मानव ने खुलकर धूप सेंकना शुरू किया था। इसी धूप से जन्मी प्रकृति या फिर कहें आधुनिक जलवायु। हमने इस जलवायु चक्र की गतिशीलता, सुबह-शाम, मौसम सबका हिसाब बरसों से दर्ज कर रखा है। सदियों से शांत अपनी जगह पर खड़े वृक्षों के तनों की वलयें, ध्रुवों पर जमी बर्फ, समंदर की अतल गहराइयों में जमी मूंगें की चट्टानें सब हमारे बहीखाते हैं। मगर न जाने कैसे यह चक्र गडबड़ाने लगा जनवरी-फरवरी सर्दी, मार्च से मई तक गर्मी, जून से सितंबर तक बारिश, अब नहीं रहती। पता ही नहीं चलता कब कौन सा मौसम आ जाए।कुछ-कुछ हरा, कुछ ज्यादा नीला, कहीं से भूरा और कहीं-कहीं से सफेद रंग में रंगा जो ग्रह अंतरिक्ष से दिखता है, वह पृथ्वी है। मिट्टी, पानी, बर्फ और वनस्पतियों से रंगी अपनी पृथ्वी। यहां माटी में उगते-पनपते पौधे, सूर्य की किरणों से भोजन बनाते हैं और जीवन बांटते हैं। इन पर निर्भर हैं हम सभी प्राणी, यानी जीव-जंतु और मानव। इस धरती का हवा-पानी और प्रकाश, हम सब साझा करते हैं। हम सब मिलकर एक तंत्र बनाते हैं। लेकिन कुछ समय से सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है। पिछले कुछ वर्षों से हमारी धरती तेजी से गर्म हो रही है। पिछले कुछ वर्षों से हमारी धरती तेजी से गर्म हो रही है, मौसम बदल रहे हैं, बर्फ पिघल रही हैं, समंदर में पानी बढ़ रहा है और वो तेजी से जमीन को निगलता जा रहा है। कुल मिलाकर हम सभी का अस्तित्व खतरे में है। धरती के गर्म होने की रफ्तार इतनी ज्यादा है कि कुछ वर्षों बाद आप अंतरिक्ष से पृथ्वी को देखेंगे तो या तो वहां सेहरा देखेंगे या फिर समंदर।

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आपदा प्रबंधन के मोर्चे पर

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Author: 
प्रसून लतांत
Source: 
जनसत्ता (रविवारी), 30 जून 2013
कुदरत को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। अलबत्ता मुकम्मल तैयारी हो तो प्राकृतिक आपदा से होने वाली तबाही बहुत हद तक कम की जा सकती है। मौसम के तीव्र उतार-चढ़ाव और जलवायु बदलाव के दौर में आपदा प्रबंधन की अहमियत और बढ़ गई है। लेकिन उत्तराखंड की त्रासदी से एक बार फिर जाहिर हुआ है कि हमारे देश में आपदा प्रबंधन बहुत लचर है। इसकी खामियों की पड़ताल कर रहे हैं, प्रसून लतांत।

प्राकृतिक आपदाएं प्राचीन काल से आती रही हैं, जिन्हें हम प्रकृति का, ईश्वर का प्रकोप मान कर छाती पर पत्थर रख कर फिर नए सिरे से जीवन की शुरुआत करते रहे हैं। हमारे देश में न केवल बड़ी आपदाओं से बल्कि छोटी-मोटी दुर्घटनाओं और बीमारियों तक से मुकाबला करने और उससे निजात पाने के तौर-तरीके उपलब्ध थे पर नए तरह के तथाकथित आधुनिक ज्ञान-विज्ञान ने हमारी परंपराओं और सरोकारों को पिछड़ा बताकर हमें उन तौर-तरीकों से अलग-थलग कर दिया है।

उत्तराखंड में आसमान फटने, लगातार मूसलाधार बारिश होने और पहाड़ के टूट कर बिखरने से हुई तबाही में जानमाल की जो हानि हुई है, उससे एक बार फिर आपदा प्रबंधन पर सवालिया निशान लगा है। अभी तक आपदा प्रबंधन के नाम पर किसी एजेंसी की इस मामले में कोई भूमिका देखने सुनने को नहीं मिल रही है। उलटे उसका खोखलापन ही सामने आ रहा है। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने तक सीमित हैं। यह भी तय नहीं हो पा रहा है कि केदारनाथ घाटी में आई आपदा राष्ट्रीय है या स्थानीय। विपक्ष इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग कर रहा है तो केंद्र इस मामले में चुप्पी साधे हैं। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक जहां इसे प्रकृति के साथ खिलवाड़ और अंधाधुंध विकास का दुष्परिणाम बता रहे हैं वहीं कुछ अंधविश्वासी लोग ईश्वर या दैवीय प्रकोप बताकर लोगों को भ्रम में डाल रहे हैं।

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जन जुड़े, तब विनाश रुके

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समस्या के मूल कारणों को समझे बगैर बाढ़ और सुखाड़ से नहीं निपटा जा सकता। समस्या के मूल पर सुधार करना होगा। बिजली बनाने के लिए पवन, सौर और भू-तापीय ऊर्जा बेहतर व स्वच्छ विकल्प हैं। इनसे कोई विस्थापन या विनाश नहीं होता। नदियों को धरती के उपर से नहीं, बल्कि धरती के भीतर से जोड़ने की जरूरत है। यदि हम ऐसा कर सके तो न ही बाढ़ बहुत विनाशकारी साबित होगी और न ही सूखे से लोगों के हलक सूखेंगे।...तब न नदी जोड़ की जरूरत बचेगी, न भूगोल उजड़ेगा और देश भी कर्जदार होने से बच जायेगा।अभी लोग सोचते हैं कि नदियां सरकार की हैं। समस्या का समाधान भी सरकार ही करेगी। यह सोच ही समाधान के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। यह सोच बदलनी होगी। सोच बदली तो ये लोग ही सरकारों को बता देंगे कि तात्कालिक योजना बाढ़ राहत की जरूर हो, लेकिन दीर्घकालिक योजना बाढ़ निवारण की ही बने। वे यह भी बता देंगे कि बाढ़ की समस्या का समाधान नदियों को बांधने में नहीं, बल्कि मुक्त करने में ही है। नदी को नहर या नाले का स्वरूप देने की गलती भी नहीं की जानी चाहिए। हालांकि ये बातें देश के अनपढ़ भी जानते हैं, लेकिन उनकी मानने वालों की संख्या कम होती जा रही है। विकास की नई पढ़ाई के रास्ते में सर्वाधिक तोड़क तथ्य यही है।

मुझे यह लिखते हुए गर्व होता है कि मेरे जैसे अध्ययनकर्ता को भी अंगूठा छाप लोगों ने ही सिखाया है कि बाढ़ और सुखाड़ के कारण कमोबेश एक जैसे ही होते हैं। उपाय भी एक जैसे ही हैं।

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कहां से आती हैं ये त्रासदियां

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Author: 
विनोद भारद्वाज
Source: 
दैनिक भास्कर (रसरंग), 07 जुलाई 2013
प्राकृतिक संसाधनों की खपत का बेकाबू दैत्य पूरी पृथ्वी के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। विश्व भर में आवाज उठने लगी है कि विकास के नाम पर अनियंत्रित दोहन पर रोक लगनी ही चाहिए। खतरे की इस इबारत को देखने और समझने का सिलसिला अभी शुरू हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। 1704 में न्यूटन ने यह जता दिया था कि पृथ्वी 2060 तक नष्ट हो जाएगी। न्यूटन के इस विचार का आधार क्या था?प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य आदिकाल से मनुष्य को लुभाता रहा है। सौंदर्य के अलावा हमारे जीवन का स्पंदन भी इस प्रकृति के कारण ही संभव है, पर क्या हम इससे जितना लेते हैं उसका कोई अंश वापस देने की भी कोशिश करते हैं? शायद भूलकर भी नहीं, बल्कि सच तो यह है कि हम अपनी जरूरतों की सीमा-रेखा का भरपूर उल्लंघन कर रहे हैं। जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो यह बहस जरूर शुरू हो जाती है कि यह आपदा वाकई प्रकृति के कारण आई अथवा इसे प्रकृति से की जा रही छेड़छाड़ का नतीजा माना जाए। उत्तराखंड की इस बेहद विनाशकारी त्रासदी पर भी बहसों का बाजार गर्म है, लेकिन इसी के बरअक्स गांधी के एक ऐसे विचार की याद आ रही है, जिस पर कभी भी इतना ध्यान नहीं दिया गया, जितना अपेक्षित था।

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संकट में लोकटक

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पंकज चतुर्वेदी
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जनसत्ता (रविवारी), 07 जुलाई 2013
मणिपुर की लोकटक झील अपनी कुदरती सुंदरता, विशालता और जैव विविधता के लिए मशहूर है। लेकिन कुछ सालों से यह झील संकट में है। इसकी वजहों की पड़ताल कर रहे हैं पंकज चतुर्वेदी।

लोकटक झील के ऊपर स्थानीय लोगों को निर्भरता के कारण इसे मणिपुर की जीवन रेखा भी कहा जाता है और इसके पर्यावरणीय संकट का असर आबादी के बड़े हिस्से पर पड़ रहा है। विडंबना है कि समाज इसे अपने तरीके से बचाना चाहता है, जबकि सरकार अपने कायदे-कानूनों के मुताबिक। टकराव इस हद तक है कि सरकारी कानून जन विरोधी लगते हैं जबकि सरकार को सदियों पुरानी इस झील में जन-हस्तक्षेप पर्यावरण विरोधी। लोकटक झील एक तो अपना रकबा खो रही है, गहराई भी कम हो रही है और साथ में इसके पानी की गुणवत्ता भी कम हो रही है।भारत की ‘सात बहन’ के नाम से मशहूर उत्तर-पूर्वी राज्यों का रमणीक स्थल मणिपुर का नाम ‘मणि’ पड़ने का अगर कोई सबसे सशक्त कारण नजर आता है तो वह है यहां कि लोकटक झील। करीब 770 मीटर ऊंचाई पर स्थित इस झील का क्षेत्रफल 26 हजार हेक्टेयर हुआ करता था। मणिपुर घाटी के दक्षिण में स्थित यह झील पूर्वी भारत की सबसे विशाल प्राकृतिक जल निधि है। यह झील और इसके चारों तरफ का आर्द्र क्षेत्र (वेटलैंड, जिसे स्थानीय भाषा में पैट कहते हैं) इंफाल नदी के बाढ़ मैदान का अभिन्न हिस्सा है। इंफाल नदी, घाटी के पूर्वी हिस्से को घेरे हुए है और घाटी से जल निकास का एकमात्र रास्ता भी यही है जो आगे चलकर म्यांमार में चिंदवीन नदी में भी पानी गिराता है। समुद्री तल से औसतन दो से तीन हजार मीटर तक ऊंची पहाड़ियों से घिरी हुई अंडाकार मणिपुर घाटी और इंफाल नदी और इसकी छोटी-छोटी सरिताएं गाद सहित अपना सारा जल लोकटक में उड़ेल देते हैं।

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जी डी अनशन में कब दिखेगी समाज की हनक

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दुर्भाग्यपूर्ण है कि उत्तराखंड त्रासदी के बावजूद भी शासन आज हरिद्वार प्रशासन को भेजकर प्रोफेसर अग्रवाल को अनशन तुड़वाने की कोशिश तो कर रहा है, लेकिन हिमालय, गंगा और उत्तराखंड को तबाही से बचाने की कोई नीतिगत घोषणा नहीं कर रहा। नदी किनारे निर्माण पर रोक का बयान भी आधा-अधूरा ही है। यह रोक कब तक रहेगी? यह रोक किस नदी में दोनों ओर कितनी चौड़ाई में रहेगी? यह स्पष्ट नहीं है।अनशन, अनशन और फिर अनशन! आखिर कोई तो बात है कि जो गंगा दशहरा - 13 जून, 2008 को पहली बार शुरू हुआ प्रो. जी. डी. अग्रवाल के गंगा अनशन का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। इस वर्ष वह फिर 13 जून से अनशन पर हैं और अब प्रतिदिन के हिसाब से सेहत पर संकट गहरा रहा है। सावधान होने की बात है कि इस बार उनका अनशन ऐसी जगह पर है, जिसके बारे में धारणा है कि कोई साथ देने आये, न आये..वहां लिए संकल्प जान देकर भी पूरे किए जाते हैं। मातृसदन - कनखल रोड, हरिद्वार! स्वामी शिवानंद सरस्वती का आश्रम! यही वह स्थान है, जहां गंगा के लिए अनशन करते हुए इसी आश्रम के सन्यासी स्वामी निगमानंद ने प्राण त्यागे। उनकी शहादत की अग्नि के दाह से मातृसदन अभी पूरी तरह उबरा नहीं है। एक सन्यासी फिर मृत्यु की ओर अग्रसर है।

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गंगा को कब्जियायें नहीं

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Author: 
विमल भाई
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माटू जनसंगठन
पिछले कुछ वर्षों में कावड़ यात्रा, चारधाम यात्रा हेमकुंड सहित की यात्रा में अप्रत्याषित वृद्धि हुई है। जिन धार्मिक संगठनों ने इन्हें बढ़ावा दिया है। उन्होंने भी कभी गंगा जी के स्वास्थ्य को इन यात्राओं से जोड़कर नहीं देखा। आस्था के नाम पर, जिसमें आस्था है उसे ही रौंद दिया। ना यात्रियों की सुरक्षा पर कोई ध्यान दिया गया। सरकार को तो आज हम सब दोष दे ही रहे थे। वैसे सरकार अपने इस गैर जिम्मेदार व्यवहार के लिए, यात्रियों की इतनी परेशिानियों और मौंतों के दोष से सरकार बच नहीं सकती।उत्तराखंड में आई आपदा ने, जिसे मेधापाटकर जी ने ‘काफी हद तक शासन निर्मित’ करार दिया है, उत्तराखंड का नक्शा बदल दिया है। नदियों पर बने पुल टूटे और रास्ते बदले हैं। अब उत्तराखंड के पुननिर्माण में पिछली सब गलतियों को ध्यान में रखना होगा। दिल्ली जैसे तथाकथित विकास को एक तरफ करके ग्राम आधारित विकास की रणनीति बनानी होगी। केदारनाथ मंदिर निर्माण के साथ उत्तराखंड निर्माण पर ध्यान देना होगा। केदारनाथ मंदिर की स्थापत्य कला को देखे तो मालूम पड़ेगा कि पुराने समय में इंजिनीयरिंग हमसे कहीं आगे थी। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री जी का कहना है कि भू-वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की सलाह मंदिर बनाने के लिए ली जाएगी साथ में केदारनाथ यमुनोत्री के लिए पंजीकरण कराने का प्रस्ताव है। पर गंगोत्री और बद्रीनाथ के लिए हमें किसी आपदा का इंतजार नहीं करना चाहिए वहां भी इस समय काफी बर्बादी हुई है। पंजीकरण चारोधाम के लिए अनिर्वाय करना चाहिए।

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जहरीला पानी गांव को बना रहा है विकलांग

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Author: 
सूर्याकांत देवांगन
Source: 
चरखा फिचर्स, जुलाई 2013
हनुमानगढ़ में पीने के लिए कुआं, हैंडपंप, तालाब के अलावा अन्य कोई साधन नहीं है। दिन प्रतिदिन यहां की स्थिति और भयंकर होती जा रही है। ग्रामीणों की मानें तो अविभाजित मध्य प्रदेश क्षेत्रफल में बड़ा होने के कारण शायद उस समय की सरकार का ध्यान इस ओेर नहीं गया होगा, लेकिन 13 साल पहले छत्तीसगढ़ के अस्तित्व में आने के बावजूद शासन द्वारा अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाना चिंता का विषय है। सरकार की ऐसी उदासीनता गांव वालों के लिए किसी मौत की सजा से कम नहीं है।एक पल के लिए यह विश्वास करना मुश्किल है कि जो पानी हमें जीवन प्रदान करता है वह कभी किसी को इस तरह असहाय बना दे कि अपनी सारी जिंदगी विकलांग के रूप में काटने को मजबूर हो जाए। छत्तीसगढ़ के सूरजपुर जिला स्थित रामानुजनगर विकासखंड के हनुमानगढ़ में यही देखने को मिल रहा है। लगभग 1000 की आबादी वाला यह एक ऐसा गांव है जहां के हरिजन मुहल्ले की आधी आबादी विकलांग है। यह विकलांगता न तो पोलियो के कारण हुआ है और न ही कुपोषण इसका जिम्मेदार है। दरअसल हनुमानगढ़ के पानी में फ्लोराइड, सल्फर, फास्फोरस और अन्य रासायनिक तत्वों की मात्रा अधिक है। जो यहां के लोगों के लिए जहर का काम कर रहा है। वैसे तो पानी में मौजूद खनिज तत्व (फ्लोराइड) हमारे शरीर के लिए नुकसानदेय नहीं होता है। लेकिन निर्धारित मात्रा से अधिक होने पर यही फ्लोराइड हमारे शरीर के लिए हानिकारक हो जाता है। विकलांगता के कारण का पता नहीं चलने पर समस्या और गंभीर हो जाती है।

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जैविक खेती से मड़िया की पैदावार दोगुनी

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मड़िया सरसों की तरह छोटा अनाज होता है। इसे रागी, नाचनी और मड़ुआ नाम से भी जाना जाता है। इसे हाथ की चक्की में दर कर खिचड़ी या भात बनाया जा सकता है। इसके आटे की रोटी भी बनाई जा सकती हैं। खुरमी या लड्डू भी बना सकते हैं। इसमें चूना (कैल्शियम) भरपूर मात्रा में होता है और कुछ मात्रा में लौह तत्व भी पाए जाते हैं। जन स्वास्थ्य सहयोग के परिसर में देशी बीजों के संरक्षण व जैविक खेती का यह प्रयोग करीब एक दशक पहले से शुरू हुआ है।

स्कूल में पढ़ने वाली छोटी लड़की की तरह बालों की बनी सुंदर चोटियां लटक रही हैं, यह दरअसल लड़की नहीं, खेत में लहलहाती मड़िया की फसल है। लेकिन सिर्फ इसका प्राकृतिक सौंदर्य ही नहीं, यह पौष्टिकता से भरपूर है जिससे कुपोषण दूर किया जा सकता है। यह परंपरागत खेती में नया प्रयोग छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के एक छोटे कस्बे गनियारी में किया जा रहा है। जन स्वास्थ्य सहयोग, जो मुख्य रूप से स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय है, अपने खेती कार्यक्रम में देशी बीजों के संरक्षण व संवर्धन के काम में संलग्न है। यहां देशी धान की डेढ़ सौ किस्में, देशी गेहूं की छह, मुंगलानी (राजगिर) की दो, ज्वार की दो और मड़िया की छह किस्में उपलब्ध हैं। परंपरागत खेती में मड़िया की खेती जंगल व पहाड़ वाले क्षेत्र में होती है। छत्तीसगढ़ में बस्तर और मध्य प्रदेश के मंडला-डिण्डौरी में आदिवासी मड़िया की खेती को बेंवर खेती के माध्यम से करते आ रहे हैं।

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देनवा का अनुपम सौंदर्य

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कुल मिलाकर, देनवा जैसी छोटी नदियों का बहुत महत्व है। सतपुड़ा से निकलने वाली ज्यादातर नदियां धीरे-धीरे दम तोड़ रही हैं। दुधी, पलकमती, मछवासा, शक्कर आदि कई नदियां अब बरसाती नाला बन कर रह गई हैं, जो पहले सदानीरा थीं। देनवा में अभी पानी है, अपूर्व सौंदर्य भी है, जंगल भी है। लेकिन यह कब तक बचा रहेगा, यह कहा नहीं जा सकता। इसका पानी भी धीरे-धीरे कम होने लगा है। ऐसी छोटी नदियों को बचाने की जरूरत है। जंगल बचाने की जरूरत है। छोटे स्टापडेम बनाकर बारिश की बूंद-बूंद सहेजने की जरूरत है। शायद हम कुछ कर पाएं।सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला की प्रसिद्ध महादेव की पहाड़ियों से उद्गमित देनवा से मेरा कई बार साक्षात्कार हो चुका है। कभी मटकुली के पुल पर, कभी देनवा दर्शन में और कभी थोड़ा नीचे जंगल के रास्तों पर। लेकिन सतधारा में देनवा का सौंदर्य देखते ही बनता है। हल्के काले रंग की एक छोर से दूसरे छोर तक चट्टानों पर अलग-अलग सात धाराओं में उछलती-कूदती, गेंद की तरह टप्पा खाती और नाचती-गाती देनवा को घंटों निहारते रहो, तब भी मन नहीं भरता। यहां देनवा के किनारे दोंनों ओर हरा-भरा जंगल है। सरसराती हवा और चिड़ियों के सुंदर गान से माहौल मजेदार बन जाता है। सतधारा में जब हम पहुंचे तब हमें ज्यादा अंदाजा नहीं था कि यहां देनवा दर्शन और प्राकृतिक सानिध्य पाने के लिए इतने लोग आते हैं। कुछ ही घंटों में दर्जन भर गाड़ियां आ गईं और उसमें बैठे लोग ऊंचाई से उतर कर नदी में स्नान करने चले गए। कुछ लोग अपने साथ भोजन वगैरह लाए थे, वे भोजन करने लगे। बच्चे नदी की रेत में खेलने-कूदने लगे।

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