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नर्मदा के घाट पर

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एक महिला मिली, जो स्थानीय थी। नर्मदा तट के किनारे की प्लास्टिक की पन्नियां बीन रही थी। मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया, आप सफाई कर रही हैं, किसकी तरफ से? हमारा घाट है, हमारी नर्मदा है, हम सफाई करते रहते हैं। उसकी बात सुनकर मन श्रद्धा से भर गया। नर्मदा किनारे दोनों तरफ बड़ी संख्या में माझी, केवट और कहार लोग रहते हैं जो मछली पकड़ने व नर्मदा की रेत में तरबूज-खरबूज की खेती करते थे। तरबूज-खरबूज की खेती तो अब नहीं हो पाती लेकिन मछली अब भी पकड़ी जाती है।जब नर्मदा के तटों पर भीड़ नहीं होती, उसका एक अनूठा सौंदर्य दिखाई देता है। स्केटिंग की तरह धीरे-धीरे सरकती, डूबती उतराती, कहीं इठलाती, बलखाती जलधारा, सूर्य की किरणों का सुनहरा प्रतिबिंब, आकाश में उड़ते पंछी दल, दूर-दूर तक शांत, सौम्य नर्मदा। कुछ ऐसा वातावरण बनाते हैं तो मन चहक-चहक पड़ता है। परसों जब मैं अपने परिवार के साथ नर्मदा गया तो दिन भर नर्मदा के इस अपूर्व सौंदर्य के दर्शन करते रहा। वैसे तो सांडिया हमारा जाना होता रहता है, लेकिन पिछले एक वर्ष से हम नहीं जा पाए थे। जब शहर की भीड़-भाड़ से मन उचड़ता है और तब हमें नदियां, जंगल और पहाड़ ही याद आते हैं, जहां हमें सुकून और शांति मिलती है। पिपरिया जहां मैं रहता हूं, यहां से पचमढ़ी पास है और सांडिया भी, जहां से नर्मदा गुजरती है। ऐसा संयोग बना कि पचमढ़ी व सतपुड़ा के जंगल तो कई बार गए, सांडिया न जा पाए। नर्मदा की रेत में हम दोपहर से शाम तक बैठे रहे। यहां हमने कई छवियां देखी।

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छोटे किसान तकनीक से ले सकते हैं भरपूर फसल

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Author: 
विजय प्रताप सिंह आदित्य
Source: 
रोजगार समाचार, 11-17 अगस्त 2012

एक गांव ऐसा तत्काल प्लेटफार्म देने वाला नेटवर्क इंटीग्रेटर है जहां सेवा प्रदाता दक्षिण एशिया तथा अफ्रीका के अल्प-सेवित उपभोक्ता सेवा बाजारों के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं ‘वनफार्म’ एक ब्रांडेड सेवा पैकेज है जो छोटे एवं सीमांत किसानों के लिए बड़ा आश्वासन देता है तथा इसके सेवा एवं व्यवसाय मॉडल अन्य चैनल सहभागियों में, मोबाइल नेटवर्क ऑपरेटरों में अपनी पहुंच बना कर एवं सहभागी बनकर एक मोबाइल महत्व समर्पित से सेवा के रूप में सेवाओं के विस्तार की धारणीय संभावना बनाते हैं। भारत विश्व में सबसे तेजी से फैलने वाला मोबाइल फोन का बाजार बनने जा रहा है।

सभी परिसम्पत्तियों में से भूमि का किसी भी परिवार से लंबे समय से अंतरंग संबंध रहा है, चाहे वह निवास हो, खाद्य हो या जीविका, भूमि से इनके संबंध मजबूत हुए हैं। भूमि से किसानों का पुराना संबंध है और भारतीय समाज में इसे बहुमूल्य माना गया है। किसान कार्य-बल का सबसे बड़ा वर्ग है। 70% से अधिक किसान बड़े पैमाने पर स्व-रोज़गाररत हैं, जो भारत में 1.2 बिलियन से भी अधिक लोगों को खाद्य-सुरक्षा देते हैं। तथापि, नई सहस्त्राब्दि में, एक वर्धमान सार्वभौमिक बाजार स्थान के साथ ही भूमि भोजन दाता के साथ अंतरंग संबंध आयदाता के रूप में परिवर्तित हो रहे हैं। यह परिवर्तन सार्वभौमिक आर्थिक बलों द्वारा प्रेरित है, जिसका खेतों तथा छोटे किसानों पर व्यवस्थित तथा दूरगामी प्रभाव है।

भारत में 70% से भी अधिक किसान 0.7 एकड़ से भी कम भूमि के स्वामी हैं, इसलिए विश्व की तुलना में भारत में छोटे तथा सीमांत किसानों की संख्या सबसे अधिक है।

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देशी बीजों की खेती

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इस वर्ष 300 किसानों ने मेडागास्कर पद्धति से धान की खेती की है, जो पूरी तरह जैविक व देशी धान बीजों से की जा रही है। धान की रासायनिक खेती में प्रति एकड़ 5-6 हजार रूपए लागत आती है और जैविक खेती में एक से डेढ़ हजार रूपए। जबकि उत्पादन दोगुना मिलता है। अगर मेढ़ पर पौधे लगाए तो इससे हमें लकड़ी, फल, शुद्ध हवा, और ज़मीन को पानी सब कुछ मिलेंगे। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि यह प्रयोग अनूठा है, छत्तीसगढ़ में एक मौन क्रांति की तरह है जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय है।छत्तीसगढ़ में एक अनूठा अस्पताल है जहां बीमारी के इलाज के साथ उसकी रोकथाम पर जोर दिया जाता है। स्वस्थ रहने के लिए लोगों को अच्छा भोजन मिले इसके लिए कृषि कार्यक्रम चलाया जा रहा है। बिलासपुर जिले के कई गाँवों में किसान जैविक खेती से धान पैदावार बढ़ा रहे हैं। जब वर्ष 2000 में जन स्वास्थ्य सहयोग नामक गैर सरकारी संस्था ने बिलासपुर जिले में स्वास्थ्य का काम शुरू किया और अपने अध्ययन के दौरान यह पाया कि ज्यादातर बीमारियों का संबंध कुपोषण से है तब संस्था ने अपना कृषि कार्यक्रम शुरू किया। जन स्वास्थ्य सहयोग ने अपने एक डेढ़ एकड़ की भाटा (कमजोर) ज़मीन पर बिना रासायनिक वाली जैविक खेती शुरू की। आज यहां धान की डेढ़ सौ से ज्यादा किस्में संग्रहीत हैं। इसके अलावा ज्वार की तीन, मडिया की छह, गेहूं की छह और अरहर की छह देशी किस्में हैं। चना, अलसी, कुसुम, मटर, भिंडी आदि देशी किस्में भी हैं। रंग-बिरंगे देशी बीज न केवल सौंदर्य से भरपूर हैं बल्कि स्वाद में भी बेजोड़ हैं। औषधि गुणों से सम्पन्न हैं और स्थानीय मिट्टी पानी और हवा के अनुकूल हैं।

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जीएम फूड : जहरीली थाली

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Source: 
यूट्यूब
तबाही और हादसों के इतने मंजर देखने के बावजूद हम एक ऐसे हादसे की तरफ लगातार बढ़ते जा रहे हैं जिसके सामने अब तक के सभी हादसे बौने पड़ जाएंगे। क्योंकि धरती पर रहने वाला कोई भी प्राणी इस नए हादसे के घातक असर से खुद को नहीं बचा पाएगा।
इस खबर के स्रोत का लिंक: 

http://www.youtube.com

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केन नदी को प्रदूषित कर रहे बांदा शहर के तीन नाले

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Author: 
आशीष सागर दीक्षित
नदियों में कचरा डालने के साथ-साथ बांदा, महोबा, चित्रकूट और हमीरपुर में प्राचीन तालाबों में भी नगर का सीवर गिराया जाता है और ये प्रशासन की नाक के नीचे होता है। इस कचरे के अतिरिक्त लावारिस लाशों का विसर्जन भी केन में ही किया जाता है जिसमे नवजात शिशु से लेकर अन्य लाश भी शामिल हैं जो तालाब कभी हमारे बुजुर्गों ने जल प्रबंधन के लिए बनाए थे वे ही आज मानवीय काया से उपजे मैला को ढोने का सुलभ साधन बने हैं।बांदा – जबलपुर मध्य प्रदेश से निकल कर पन्ना, छतरपुर, खजुराहो और उत्तर प्रदेश के बांदा से होकर चिल्ला घाट में बेतवा और यमुना में केन (कर्णवती) नदी का संगम होता है। हजारों किलोमीटर कि प्रवाह यात्रा तय करने के बाद बुंदेलखंड के रहवासी इस नदी के जल से अपनी प्यास बुझाते है। किसान खेतों के गर्भ को सिंचित करके खेती करते है। खासकर जबलपुर,पन्ना और बांदा की 70% आबादी इस एक मात्र नदी के सहारे अपने जीवन के रोज़मर्रा वाले कार्यों को पूरा करते हैं। करीब 20 लाख की जनसंख्या अकेले बांदा जिले में ही केन का पानी पीकर जिंदा है।

मगर शहर को इसी केन नदी से जलापूर्ति करने वाले प्राकृतिक स्रोत में तीन गंदे नाले पेयजल को जहरीला बना रहे हैं। निम्नी नाला, पंकज नाला और करिया नाला का सीवर युक्त पानी बिना जल शोधन प्रक्रिया, वाटर ट्रीटमेंट के खुले रूप में केन में गिरता है।

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बंजर बनाया तीर्थ, तीरथ पटेल ने

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Author: 
केसर भाई और मलखान सिंह लोधी, दमोह से

11 नवम्बर 2013, ग्राम नादिया महूना, पटेरा, दमोह। तीरथ पटेल मूलरूप से जबलपुर के पाटन के प्रवासी हैं। लगभग 6 वर्ष पूर्व वे पाटन से नादिया-महूना में आए। और खेती के लिए जमीन खरीदी, जिस क्षेत्र में जमीन ली, वहां सिचाई हेतु पानी की पर्याप्त तीरथ पटेल के तालाब पर शंकर गौतमतीरथ पटेल के तालाब पर शंकर गौतम

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आज बीस में, कल साठ में सींचेगा हमारा तालाब - रुपेश पटेल

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Author: 
केसर भाई और मलखान सिंह लोधी, दमोह से
11 नवंबर 2013, छेवला, दमोह। पटौंहा पंचायत का हिस्सा है गांव छेवला। वहां जाने पर रतिराम पटेल जी के बेटे रुपेश पटेल से मुलाकात हुई। रुपेश पटेल ने बताया कि उनका दो एकड़ में तालाब बन रहा है। सचमुच में हमने देखा भी। 35-40 फीट गहरा, खूब मोटी पाल का एक खूबसूरत तालाब बनने की प्रक्रिया में है। नवंबर 2012 में ही उन्होंने काम शुरू किया था। तालाब की पाल बना ली है। पाल उन्होंने चेन वाली पोकलैंड मशीनों से बनवाई है। खुदाई लगभग एक-तिहाई ही हो पाया है। 6 लाख रुपये से ज्यादा उनका खर्च हो चुका है। रुपेश पटेल का अनुमान है कि तालाब का काम पूरा होते-होते 10-12 लाख रुपये अभी और लगेंगे।

रुपेश पटेल, छेवला, पटौंहा, दमोह।लगभग 18-20 लाख रुपये का निवेश रुपेश पटेल का परिवार अपने तालाब के लिए करेगा। हमारी उत्सुकता थी कि क्या उनका निवेश सुरक्षित है? उनका निवेश कब तक वापस मिलेगा?

एक-तिहाई खुदे तालाब से इस बार उनके 20 एकड़ खेत की सिंचाई हुई है। 20 एकड़ खेत से उनको लगभग 3 लाख रुपये का अतिरिक्त फायदा होगा। उनका अंदाजा है कि दो साल में उनका तात्कालिक निवेश वापस हो जाएगा। और पूरे निवेश के बाद तालाब बन जाने के बाद तो उनका अनुमान है कि लगभग 10-12 लाख रुपये का अतिरिक्त फायदा होगा। दो साल में निवेश वापस होगा। तालाब तो आजीवन फायदा देता रहेगा।

रुपेश पटेल कहते हैं कि हमें शौक है खेतों में काम करने का। हमने तालाब के लिए जी-जान लगा दिया। अपने उपलब्ध सभी संसाधनों का पूरा इस्तेमाल किया और किराए पर भी कई वाहन ले आए।

संपर्क –
रुपेश पटेल, छेवला, पटौंहा, दमोह।
मो. 09977520801

‘मिसिंग शौचालय’ बांदा में

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Author: 
आशीष सागर दीक्षित
Missing Toilet in Bandaबांदा, उत्तर प्रदेश। प्रदेश भर में सरकारी अनुदान से बनाये गए शौचालयों के हाल, बेहाल हैं। इनमें किया गया भ्रष्टाचार अपने आप में इनके पारदर्शिता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। बात चाहे केन्द्र सरकार के निर्मल भारत अभियान की हो या फिर सम्पूर्ण स्वक्छ्ता अभियान की। जिन गांवों को निर्मल गाँव की श्रेणी में चुना गया, सर्वाधिक घाल–मेल भी उन्हीं गांवों की सड़क और पगडण्डी में देखने को मिला। आप बुंदेलखंड के किसी भी नेशनल हाइवे से जुड़े गांव की सड़क पर सफ़र में सुबह निकलें तो सहज ही ‘मेरा भारत महान’ की बदबूदार तस्वीर से रूबरू हो जायेंगे। घरों में देहरी के अन्दर लम्बा सा घूँघट निकालने को बेबस महिला यहाँ आम सड़क के किनारे सबेरे-सबेरे और संध्या में एक अदद आड़ के लिए भी तरसती नजर आती है। इनके लिए यह ही कहना पड़ता है कि – “मैं नंगे पैर चलती हूँ, खेत की पगडण्डी पर लोटा लिए, कहीं तो आड़ मिल जाये, इज्जत छुपाने के लिए!“

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भूजल प्रबंधन : बूंदों पर टिकी बुनियाद

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पानी की बूंदों को सहेजने के ये उदाहरण नए जमाने के लिए भले ही नए हों, लेकिन दुनिया में इनका इतिहास बहुत पुराना है। ताल, पाल, झाल, चाल, खाल, बंधा, बावड़ी, जोहड़, कुंड, पोखर, पाइन, तालाब, झील, आपतानी आदि अनेक नामों से जलसंचयन की अनेक प्रणालियां भारत में समय-समय पर विकसित हुई। जिनके पास नकद धेला भी नहीं था, उन्होंने भी बारिश के पहले अक्षया तृतीया से अपने पुराने पोखरों की पालें ठीक करने का काम किया। बारिश के बाद देवउठनी एकादशी से जागकर इस देश ने लाखों-लाख तालाब बनाए।यह बात अक्सर कही जाती है कि भारत में पानी की कमी नहीं, पानी के प्रबंधन में कमी है। एक ही इलाके में बाढ़ और सुखाड़ के विरोधाभासी चित्र इस बात के स्वयंसिद्ध प्रमाण हैं। प्रमाण इस बात के भी हैं कि पानी का प्रबंधन न सरकारों को कोसने से ठीक हो सकता है, न रोने से और न किसी के चीखने-चिल्लाने से। हम इस मुगालते में भी न रहें कि नोट या वोट हमें पानी पिला सकते हैं। हकीक़त यह है कि हमें हमारी जरूरत का कुल पानी न समुद्र पिला सकता है, न ग्लेशियर, न नदियां, न झीलें और न हवा व मिट्टी में मौजूद नमी। पृथ्वी में मौजूद कुल पानी में सीधे इनसे प्राप्त मीठे पानी की हिस्सेदारी मात्र 0.325 प्रतिशत ही है। आज भी पीने योग्य सबसे ज्यादा पानी (1.68 प्रतिशत) धरती के नीचे भूजल के रूप में ही मौजूद है। हमारी धरती के भूजल की तिजोरी इतनी बड़ी है कि इसमें 213 अरब घन लीटर पानी समा जाए और हमारी जरूरत है मात्र 160 अरब घन लीटर।

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हकदारी-जवाबदारी की बाट जोहता पानी प्रबंधन

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पानी के स्थानीय, अंतरराज्यीय व अंतरराष्ट्रीय विवाद हैं। इसी के कारण लोग पानी प्रबंधन के लिए एक-दूसरे की ओर ताक रहे हैं। इसी के कारण सूखती-प्रदूषित होती नदियों का दुष्प्रभाव झेलने के बावजूद समाज नदियों के पुनर्जीवन के लिए व्यापक स्तर पर आगे आता दिखाई नहीं दे रहा। बाजार भी इसी का लाभ उठा रहा है। याद रखने की जरूरत यह भी है कि कुदरत की सारी नियामतें सिर्फ इंसान के लिए नहीं हैं, दूसरे जीव व वनस्पतियों का भी उन पर बराबर का हक है। अतः उपयोग की प्राथमिकता पर हम इंसान ही नहीं, कुदरत के दूसरे जीव व वनस्पतियों की प्यास को भी सबसे आगे रखें।

हम अक्सर दावा करते हैं कि भारत में जलप्रबंधन की परंपरागत प्रणालियां अति उत्तम थे। आप पूछ सकते हैं कि यदि ये प्रणालियां और प्रबंधन इतने ही सुंदर और उत्तम थे, तो टूट क्यों गए ? समाज व सरकारें इन्हें जीवित क्यों नहीं रख सका? ये फिर कैसे जीवित होंगे?

क्यों टूटा साझा प्रबंधन?


अतीत गवाह है कि पानी का काम कभी अकेले नहीं हो सकता। पानी एक साझा उपक्रम है। अतः इसका प्रबंधन भी साझे से ही संभव है। वैदिक काल से मुगल शासन तक सामिलात संसाधनों का साझा प्रबंधन विशः, नरिष्ठा, सभा, समिति, खाप, पंचायत आदि के नाम वाले संगठित ग्राम समुदायिक ग्राम्य संस्थान किया करते थे। अंग्रेजी हुकूमत ने भूमि-जमींदारी व्यवस्था के बहाने नए-नए कानून बनाकर ग्राम पंचायतों के अधिकारों में खुला हस्तक्षेप प्रारंभ किया। इस बहाने पंचों को दण्डित किया जाने लगा। परिणामस्वरूप साझे कार्यों के प्रति पंचायतें धीरे-धीरे निष्क्रिय होती गईं। नतीजा यह हुआ कि सदियों की बनी-बनाई साझा प्रबंधन और संगठन व्यवस्था टूट गई।

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मुंगेर जिले के खैरा गाँव में फ्लोराइड का प्रबंधन (एकीकृत-समेकित तरीका)

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Author: 
पवित्र सिंह

1 परिचय


अच्छे स्वास्थ हेतु शुद्ध जल एक मूलभूत अवश्यकता है तथा बिहार राज्य के लिए इसके 8.3 करोड़ लोगों को स्वच्छ पानी उपलब्ध कराना आज भी एक समस्या है। पिछले कई सालों से PHED ईमानदारी के साथ लोगों को शुद्ध जल उपलब्ध कराने में लगी है परंतु समस्याएँ लगातार बढ़ ही रहे हैं। भूजल का संक्रमित होना लगातार बढ़ ही रहा है तथा राज्य के विभिन्न जिलों में भूजल में फ्लोराइड की समस्या देखने को मिल रही है।अधिक मात्रा में फ्लोराइड के सेवन से समान्यतः पीने वाले पानी के द्वारा फ्लोरोसिस नाम की बीमारी होती है जो दाँतों तथा हड्डियों को प्रभावित करती है। निर्धारित सीमा से कुछ अधिक फ्लोराइड के सेवन द्वारा दंतीय फ्लोरोसिस तथा अधिक समय तक अत्यधिक मात्रा में फ्लोराइड का सेवन करने पर खतरनाक कंकालीय समस्याएँ उत्पन्न होती है। इसलिए फ्लोरोसिस की रोकथाम के लिए पीने वाले पानी की गुणवत्ता सही होनी चाहिए फ्लोरोसिस के तरीके एवं प्रकार लोगों के द्वारा सेवन की गई फ्लोराइड की मात्रा पर निर्भर करता है, दंतीय फ्लोरोसिस अधिक मात्रा में फ्लोराइड के सेवन के द्वारा कम समय में ही दिखने लगती है, जबकि कंकालीय प्रभाव अत्यधिक फ्लोराइड के सेवन से होता है। चिकित्सा विज्ञान में दंतीय फ्लोरोसिस के लक्षण दाँतों में लाल, पीले, भूरे तथा काले रंग के धब्बे एवं अधिक खतरनाक अवस्था में दाँतों के एनामेल तक नष्ट हो जाते है।

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तीस साल बाद

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Author: 
नीति दीवान
Source: 
गांधी मार्ग, नवंबर-दिसंबर 2013
भूजल प्रभावित इलाकों में जिंक, मैगनीज, कॉपर, पारा, क्रोमियम, सीसा, निकिल जैसी हानिकारक धातुओं की मात्रा मानक से अधिक मिली है। अभी केवल 350 टन कचरे के निपटान को लेकर प्रक्रिया चल रही है, किंतु उससे कहीं अधिक न दिखने वाला कचरा कारखाने के आसपास पानी और मिट्टी में पाया गया है। उसका निपटान करना भी उतना ही जरूरी है। तीन किलोमीटर के क्षेत्र में किए गए अध्ययन से साफ हो गया है कि यहां घातक और जहरीले रसायन भीतर मिट्टी और पानी में मौजूद हैं।भोपाल गैस त्रासदी को इस दिसंबर में 30 साल हो जाएंगे। इस बड़ी अवधि में मध्य प्रदेश और केन्द्र सरकार मिलकर भी यहां पड़े जहरीले कचरे का निपटान नहीं कर पाई हैं। हर साल बारिश के साथ इसका रिसाव भूमि में होता है और अब आशंका की जा रही है कि यह रिसाव लगभग तीन किलोमीटर के दायरे में फैल गया है। तीन दिसंबर सन् 1984 को भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने में हुई गैस त्रासदी के बाद के तीस वर्षों के दौरान यहां कई तरह के अध्ययन हुए हैं। अभी हाल ही में दिल्ली की संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा एक अध्ययन किया गया है। अध्ययन के बाद इस संस्था ने देश भर के विशेषज्ञों के साथ बैठकर इस घातक प्रदूषण से मुक्ति पाने की एक योजना बनाई ताकिवर्तमान और आने वाली पीढ़ियों को इसका ख़ामियाज़ा न भुगतना पड़े। उस भयानक हादसे के बाद किसी संस्था ने पहली बार इस तरह के काम की सामूहिक पहल की है।

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सीरिया का सबक

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Author: 
नयन चन्दा
Source: 
गांधी मार्ग, नवंबर-दिसंबर 2013
सचमुच घर की लड़ाई। गृह युद्ध। भाई ने भाई को मारा। दूर बैठे देशों ने दोनों को अपने-अपने हथियार बेचे, एक दूसरे को मारने के लिए। नतीजा है कोई एक लाख लोग मारे जा चुके हैं और करीब 20 लाख लोग अपने घरों से उजड़ कर पड़ोसी देशों में शरणार्थी बन कर भटक रहे हैं। सीरिया की इस भारी विपत्ति के पीछे सिर्फ संप्रदायों के सद्भाव की कमी नहीं है। वहां तो पर्यावरण, प्रकृति के प्रति भी सद्भाव की कमी आई और सबका नतीजा निकला यह रक्तपात। हम कुछ सबक सीखेंगे?

वैज्ञानिक हमें बराबर चेतावनी दे रहे हैं कि आने वाले बीस-तीस बरस में हमारे देश के भूजल भंडार का कोई 60 प्रतिशत भाग इस बुरी हालत में नीचे चला जाएगा कि फिर हमारे पास ऊपर से आने वाली बरसात, मानसून की वर्षा के अलावा कुछ बचेगा नहीं। हमारा समाज ऐसी किसी प्राकृतिक विपदा को सहने के लिए और भी ज्यादा मजबूत हो चला है। लेकिन इससे बेफ्रिक तो नहीं ही हुआ जा सकता। धरती गरम हो रही है। मौसम, बरसात का स्वभाव बदल रहा है। इसलिए बिना सोचे समझे भूजल भंडारों के साथ ऐसा जुआ खेलना हमें भारी पड़ सकता है।अपने ही लोगों पर जहरीले रासायनिक हथियारों से हमला करने वाले सीरिया को सबक सिखाना चाहता है अमेरिका। उस पर हमला कर। पर अमेरिका के ही संगी साथी देश उसे इस हमले से रोकने में लगे हैं। लेकिन बाकी दुनिया अभी भी ठीक से समझ नहीं पा रही कि सीरिया के शासक बशर अल-असद ने आखिर अपने लोगों पर यह क्रूर अत्याचार भला क्यों किया है। तुर्की के पुराने उसमानी साम्राज्य के खंडहरों में से कांट-छांट कर बनाया गया था यह सीरिया देश। इसमें रहने वाले अलाविया और सुन्नियों, दुरूजी और ईसाइयों के बीच पिछले कुछ समय से चला आ रहा वैमनस्य निश्चित ही इस युद्ध का एक कारण गिनाया जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि अभी कुछ ही समय पहले अरब में बदलाव की जो हवा बही थी और जो छूत के रोग की तरह आसपास के कई देशों में फैल चली थी, उसी हवा ने अब सीरिया को भी अपनी चपेट में ले लिया है।

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शहरीकरण ने बर्बाद किया जलस्रोत

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Source: 
राज्यसभा टीवी, 03 सितंबर 2013

हाल ही में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट नामक एनजीओं की एक भारीभरकम रिपोर्ट आई। इस रिपोर्ट में कुछ ऐसे तथ्यों को उजागर किया गया है जो किसी भी भारतीय शहर के वजूद के लिए बेहद जरूरी है। ये रिपोर्ट हमें बताती है कि किस तरह से भारतीय शहरों ने अपने पानी के स्रोतों को बर्बाद कर दिया है।
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तालाब सही जगह नहीं, तो फायदा नहीं

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Author: 
मलखान सिंह (सम्यक, दमोह से)

Ram Narayan Rawat Ponds (9 Dec 2012)
09 दिसम्बर 2013 ग्राम नोहटा-नयांगांव, ब्लॉक जबेरा, दमोह। रामनारायण रावत जो नयांगांव कुलुआ में अपनी निजी 5 एकड़ भूमि पर खेती करते हैं। उनने बताया कि वर्ष 2008-09 में बलराम तालाब योजना से अपनी लगभग एक एकड़ भूमि पर तालाब निर्माण कराया, तालाब 6 फीट गहरा हुआ, और कड़े पत्थर के रूप में समस्या खड़ी हो गई। जैसे तैसे मशीनों का उपयोग कर पत्थर को तोड़कर तालाब की गहराई एक फीट और बढ़ाई गई और तालाब 7 फीट गहरा किया जिसमें लगभग एक लाख सोलह हजार रुपयें

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जल संग्रहण एवं प्रबंध

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Author: 
विष्णु शर्मा
Source: 
इंटर कोऑपरेशन

भूमिका


‘हमारी पृथ्वी अन्य ज्ञात खगोल-पिंडों में अनूठी है: यहां जल है।’

पिछले कुछ वर्षों में विकास और विकास प्रक्रियाओं में जल की महत्ता की चेतना बढ़ी है। भूत, वर्तमान, भविष्य के समस्त समाजों विकास और जीवन के लिए पर्याप्त स्वच्छ जल की आवश्यकता होती है। साथ-ही-साथ स्वच्छ जल की उपलब्धता भौगोलिक और मौसमी कारणों से प्रभावित होती रही है और मानवीय सभ्यताओं ने इस पारिस्थितिकी को अनेक प्रकार से प्रभावित किया है, उनका अनेक प्रकार से दोहन किया है। इसकी जानकारी के लिए कि किस तरह स्वच्छ जल की कमी ने विकास के सामने अनेक बाधाएं खड़ी की हैं, विकासशील देशों की विकास नीतियों के अध्ययन की आवश्यकता है।प्रकृति के पांच उपादानों में जल सबसे महत्वपूर्ण है जो पृथ्वी पर जीवन को संभव करने में मदद करता है। जल का उपयोग बुनियादी मानवीय जीवन और विकास के लिए किया जाता है, साथ ही वह सारे जीवन-चक्र के लिए महत्वपूर्ण है। पानी हमेशा से सभ्याताओं का अवलंब रहा है। लगभग सभी प्राचीन सभ्यताएं, जिनमें से हमारी भी निकली है, जल के नज़दीक पली-बढ़ी हैं। पानी सदा से अपरिहार्य रहा है, न केवल मानवीय विकास के संदर्भ में बल्कि कृषि और मानवीय गतिविधियों के विकास में भी। पृथ्वी को अक्सर जल ग्रह कहा जाता है क्योंकि इसके 71 प्रतिशत भाग पर महासागरों का राज है। वर्षा के माध्यम से जल घटता भी है और फिर बढ़ता भी रहता है। इसलिए पानी के लिए चिंता करने की फिर क्या जरूरत है?

वास्तव में विश्व के जल-भंडार का केवल एक प्रतिशत हमारे उपयोग योग्य है। लगभग 97 प्रतिशत जल समुद्री खारा जल है और पृथ्वी के कुल जल-भंडार का 2.7 प्रतिशत ही स्वच्छ जल है। उस 2.7 प्रतिशत का भी काफी हिस्सा हिमनदों और पहाड़ों की चोटियों पर जमा हुआ है।

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जल - एक संसाधन

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Author: 
एस.सी महनोत और डी.सी. शर्मा
Source: 
इंटर कोऑपरेशन

उपलब्ध जल के अपरोधन, या संचयन के लिए निर्मित गड्ढों के जल से भर जाने एवं भू-सतह पर वर्षा की तीव्रता, मृदा की अंतःस्यंदन क्षमता से अधिक होने पर पृथ्वी की सतह पर जल प्रवाह होने लगता है। यह सतही प्रवाह के रूप में अपना रास्ता नदियों, झीलों या समुद्र की ओर करता है जो सतही अपवाह के रूप में जाना जाता है। फिर यह अन्य प्रवाह घटकों के साथ मिलकर संपूर्ण अपवाह बनाता है। अपवाह शब्द का उपयोग साधारणतया जब अकेले होता है तो इसे सतही अपवाह ही कहा जाता है।

कल्पना करें एक ऐसी बाल्टी की जिसके पेंदे में एक छेद हो। इस बाल्टी में रखा है पृथ्वी का संपूर्ण जलः सतही जल, भू-जल और वायुमंडल की आर्द्रता। यदि इसे ज्यों का त्यों छोड़ देंगे तो बाल्टी जल्दी ही खाली हो जाएगी। इस बाल्टी में जलस्तर बनाए रखने हेतु आवश्यक है कि जितनी मात्रा में इसका जल रिस रहा है, उतनी ही मात्रा में वह वापस आए। अनेक प्रक्रियाएं साथ-साथ चलते रहकर पृथ्वी के जल चक्र को गतिशील बनाए रखती हैं। यह सतत चक्र जलीय चक्र कहलाता है।

जलीय चक्र


जलीय शास्त्र पृथ्वी के विज्ञान का वह अंग है जो संपूर्ण पृथ्वी के ऊपर और नीचे व्याप्त जल एवं उसके प्रवाह के बारे में जानकारी देता है। संपूर्ण वर्षा पृथ्वी के जलीय चक्र का परिणाम होती है।

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देवास के भगीरथ

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Source: 
हिंदी वाटर पोर्टल

साल 2005 तक देवास जिले के खेत-खलिहान सब सूखे पड़े थे। लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे थे तथा किसान अपने घरों से पलायन कर रहे थे। देवास जिले के पारंपरिक जलस्रोतों को पाट दिया गया और उन पर मकान, कल-कारखाने खुल गए। पानी का कोई स्रोत नहीं बचा तो शहर को ट्रेन से पानी मंगाना पड़ा।
इस खबर के स्रोत का लिंक: 

http://www.youtube.com

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तालाबों का कोई विकल्प नहीं : उमाकांत उमराव

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Author: 
राजु कुमार
.जल संरक्षण को अपने जीवन का ध्येय बना चुके मध्य प्रदेश कैडर के आइ.ए.एस. उमाकांत उमराव ने जल संरक्षण का मॉडल खड़ा कर देवास जिले को सूखे से निजात दिलाने में सफलता हासिल की। उनके इस कार्य को मॉडल मानते हुए यू.एन. ने सम्मानित भी किया है। उमाकांत उमराव प्रदेश के विभिन्न जिलों में कलेक्टर रहने के बाद संचालक, राजीव गांधी वाटरशेड मिशन के पद पर भी कार्य कर जल संरक्षण को लेकर कई महत्वपूर्ण कार्य किए। जल संरक्षण के प्रति उनके खास जुड़ाव को लेकर राजु कुमार ने बातचीत की थी, जो संक्षिप्त रूप में "गवर्नेंस वॉच"में प्रकाशित हुई थी। कुछ संशोधन के बाद पूरी बातचीत प्रस्तुत है -

आपके जीवन में जल संरक्षण पर काम करने का विचार कब आया?

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इस शहर का क्या करें

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Author: 
प्रदीप सिंह
Source: 
जनसत्ता (रविवारी), 22 दिसंबर 2013
भारत में अनियोजित शहरीकरण ने नए तरह का संकट पैदा कर दिया है। रोजगार और जीविका की तलाश में गांवों की आबादी तेजी से पलायन कर रही है। नतीजतन शहरी जीवन प्रदूषण, गंदगी, जाम जैसी समस्याओं से बदरंग होता जा रहा है। क्या इसे रोका जा सकता है? जायजा ले रहे हैं प्रदीप सिंह।

शहरीकरण से कृषि और जंगलों पर संकट बढ़ रहा है। नए-नए शहरों के बसने के कारण खेती की जमीन खत्म हो रही है। जिससे सदियों से कृषि आधारित जीवनचर्या खत्म होती जा रही है। वनों के कटने से पर्यावरण का नुकसान हो रहा है। शहरीकरण से विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर वन काटा जाता है। अकेले भारत में 10 लाख हेक्टेयर वन काटा जा रहा है। वनों के विनाश के कारण हमारे देश का आदिवासी समाज खतरे में हैं और तमाम वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं। वनों के क्षेत्रफल में लगातार होती कमी के कारण भूमि का कटाव और रेगिस्तान का फैलाव बड़े पैमाने पर होने लगा है।गांव उजाड़ हो रहे हैं और शहरों में इंसानी भीड़ बढ़ती जा रही है। भारतमाता ग्रामवासिनी से शहरवासिनी होती जा रही हैं। यह बदलाव इस मायने में घातक है कि सब कुछ अंधाधुंध और अनियोजित है। शहरों के भीतर ऐसे गांव पनप रहे हैं जो परंपरागत गांवों की तुलना में कई गुना बदतर हैं। मलिन बस्तियों और अवैध बस्तियों में इंसानी जीवन जैसे सड़ांध मार रहा हो। नब्बे के दशक में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन ने देश में ऐसे वातावरण बनाना शुरू किया मानों शहरीकरण ही सारे रोगों का इलाज हो। शहरीकरण के साथ ही सत्ता से लेकर रोजगार तक के केंद्रीयकरण ने हर किसी को शहर भागने के लिए उकसा दिया। आज हालत यह है कि मुंबई हो या दिल्ली, तमाम बड़े शहरों से लोगों को मारपीट कर भगाया जा रहा है। कहीं कानून बनाकर, कहीं डंडा लेकर। अब गांवों में रोजगार के साधन कम हो गए हैं। परंपरागत काम धंधे भी बंद हो चुके हैं। किसी जमाने में खेती-किसानी के काम आने वाले छोटे-मोटे औजार गांव के कारीगरों द्वारा तैयार किए जाते थे। उनका एक बड़ा बाजार था।

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