नौला एक जल मंदिर
कैसे पानीदार हो उत्तर प्रदेश
जहां पानी ने कई सभ्यताएं आबाद की हैं, वहीं पानी लोगों को उजाड़ भी देता है। बेपानी होकर कोई गांव/शहर टिक नहीं सकता। उसे उजड़ना ही होता है। छोटे-मोटे गांव और शहर की तो औकात ही क्या, दिल्ली जैसी राजधानी को पानी के ही कारण एक नहीं कई बार उजड़ना पड़ा। ऐसे संकट के समाधान के लिए सरकार की तरफ मुंह ताकना छोड़ना होगा। जिस दिन गांव के लोग अपने कुदाल-फावड़े उठाकर पानी के बर्तनों को खुद ठीक करने की ठान लेंगे, उसी दिन उत्तर प्रदेश की तकदीर बदल जाएगी।
खबर है कि नदियोें के प्रदूषण पर सतीश महाना द्वारा उठाए सवाल को लेकर 26 जून को उत्तर प्रदेश विधानसभा में खूब हंगामा हुआ। सरकार से उसकी योजना पूछी गई। कृष्णी और हिंडन जैसी अति प्रदूषित नदियों को लेकर जवाब मांगा गया। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में फैले भ्रष्टाचार पर उंगली उठी।भाजपा और कांग्रेस ने सदन से बर्हिगमन किया। आजम खां ने इसे प्रचार पाने की कोशिश कहकर भले ही हवा में उड़ाने की कोशिश की। उन्होंने यह भी कहा कि प्रदूषण नियंत्रण की जिम्मेदारी प्रदेश से ज्यादा केन्द्र की है।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक ओर सूखे की आहट से किसान चिंतित है, तो दूसरी ओर उत्तर प्रदेश के सत्तारूढ़ माननीय चिंतित और गंभीर होने की बजाय जिम्मेदारी से भागते दिखाई दे रहे हैं।
गंगा और नर्मदा : मां-बेटी दोनों ही संकट में है
यह रमणीयता यहां के बाशिंदों के लिए केवल आत्मिक ही नहीं है, भौतिक भी है। हवा, पानी, मिट्टी, पेड़ जो प्राकृतिक छटा के अंग है, उनके जीवनाधार भी है। गंगोत्री से नीचे जाते हुए लोगों से पूछिए “कहां जा रहे हो?” वे कहते हैं - “गंगाघर” जा रहे हैं। गंगा उनकी मां है और उसके किनारे बने घर दूर गए बेटों की मां के घर है।
नालों के किनारे बसी सभ्यता
पानी की अपनी जरूरतों को हम किस तरह व्यवस्थित करें कि हम अपने ही मल-मूत्र में डूब न जाएं, यह आज के दौर का बहुत बड़ा सवाल है और इसका जवाब हमें हर हाल में खोजना पड़ेगा।
इस मामले में अपनी खोजबीन के दौरान सबसे बड़ी दिक्कत हमारे सामने यह आती है कि हमारे देश में न तो इससे संबंधित कोई आंकड़े मिलते हैं, न इसे लेकर कोई ठीक काम हुआ है। इस मुद्दे पर कहीं कोई समझ देखने में नहीं आती है। यह हाल तब है, जब इस गंदगी, सीवेज का ताल्लुक हम सब की जिंदगी से है।
शेर-शेरनी या हम
हमारा परिवार मध्य प्रदेश का है, पर कोई पच्चीस बरस का हो जाने तक भी मुझे पता नहीं था कि मध्य प्रदेश में एक जगह सचमुच पाताल जैसी गहरी है। इसका नाम ही है पातालकोट। छिंदवाड़ा जिले में। इसकी जानकारी और फिर इस पाताल में उतरने का संजोग भी एक विचित्र घटना से मिला था। वे दिन आपात्काल लगने के आसपास के थे। महीना वगैरह तो अब याद नहीं।
दिल्ली से निकलने वाले उस समय के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार में एक दिन पहले पन्ने पर खबर छपी थी- मध्य प्रदेश के एक बहुत ही दुर्गम इलाके पातालकोट में एक शेर नरभक्षी हो गया है और उसने अब तक छह लोगों को मार डाला है।
के डले विकास है, पाणी नहीं तो विकास किसा
जल संरक्षण व संग्रहण सबसे जरूरी
शहरीकरण की मुश्किलें
भारत की कुल आबादी का 8.5 प्रतिशत हिस्सा देश के छब्बीस महानगरों में रह रहा है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले बीस-पच्चीस सालों में दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या साठ से अधिक हो जाएगी, जिनका देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान सत्तर प्रतिशत होगा। मगर चौंकाने वाली बात है कि शहरों में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। विशेषज्ञ आशंकित हैं कि कहीं भारत की बड़ी आबादी शहरी मलिन बस्तियों में न तब्दील हो जाए।
शहरीकरण को विकास और आधुनिकता का पैमाना माना जाता है। स्वाभाविक ही है कि भारत भी इस डगर पर चलना चाह रहा है। लेकिन, जिन विकसित देशों ने शहरीकरण को अपनाया है, उन्होंने शहरीकरण से होने वाली दूसरी मुश्किलों का हल भी तलाश लिया है।लेकिन भारत जैसे विकासशील व्यवस्था वाले देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट है। और विडंबना यह है कि इस संकट की ओर से हमारे देश में योजनाकार और नीतिकार आंखें मूंदे हुए हैं। असल में शहरीकरण स्वच्छ पानी, स्वच्छ वायु में बाधा बन रहा है।
देश में सौ नए शहर बसाने की तैयारी हो रही है। बस उम्मीद ही कर सकते हैं कि नए बनने वाले शहर ऊर्जा, यातायात, पानी के मामलों में अपने संसाधनों पर ही निर्भर होंगे, वर्ना यह प्रयोग देश के लिए नया संकट होगा।
गंगा पर ये करें पहल
पाणी दवा घणी अनमोल
यह सब करते हुए मैंने जो कुछ सीखा और समझा है, उसके आधार पर मैं एक बात दावे से कह सकता हूं कि पानी सिर्फ प्यास बुझाने की चीज नहीं है, पानी एक शानदार औषधि भी है; उतनी ही शानदार, जितनी कि कोई मंहगी-से-मंहगी दवाई हो सकती है।
शुद्ध पानी का नियमानुसार पर्याप्त सेवन शरीर को सेहतमंद बनाए रखने का अपने आप में एक अचूक नुस्खा है। इस नाते आप कह सकते हैं कि इलाज भी है और दवा भी।
समग्र नदी-संस्कृति एवं पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन के लिए 14 नदी-सूत्र
भारत की अधिकांश नदियां मृत हो रही है, यह हमारे अस्तित्व के लिए एक बुरा संकेत है। एक नदी की स्थिति पारिस्थितिक तंत्र की स्थिति को प्रतिबिंबित करती है, जिसका हम एक अविभाज्य हिस्सा है और यह वास्तविकता है कि यदि हमारी नदियां मृत होती रही तो हम भी अधिक काल तक जीवित नहीं रहेंगे।
एक नदी कैसे मृत हो जाती है? अत्यधिक जल के दोहन से नदियां सूख रही हैं अथवा सूखाग्रस्त होने के कगार पर हैं , नदियों में अपशिष्ट एवं विषाक्त जल प्रवाहित करने से नदियों में हर प्रकार का जीवन नष्ट हो रहा है , इसके जल को हमने इतना गंदा कर दिया है की हम अब इनके किनारों पर स्नान-ध्यान, मनोरंजन, तथा धार्मिक अनुष्ठान को करना बंद कर दिया है।
अभी और कितने ठिकाने बदलेगी राजधानी
सन् 1052 में यमुना से 18 किलोमीटर दूर महरौली के निकट किला राय पिठौरा मुगलिया सल्तनत का पहली राजधानी थी। 1296 में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा बसाई दूसरी दिल्ली का केन्द्र वर्तमान सिरीफोर्ट था और हौजखास, जलापूर्ति का मुख्य स्रोत। आबादी बढ़ने और पानी का संकट गहराने पर गियासुद्दीन तुगलक (1320-25) ने तुगलकाबाद को चुना।
बादल है उड़ती नदी और नदी है बहता बादल
मेघ बहुत साहसिक कहार हैं। यह खूब भारी डोली यानी ढेर सारा तरल वाष्प लेकर हजारों मील दूर से भारत की यात्रा की शुरुआत करते हैं।
बोल बजटिया कित्ता पानी...
यमुना : आदि से अनंत प्रवाह
हिमालय बचेगा तो गंगा बचेगी
हमारे देश की सरकार को पांचवी पंचवर्षीय योजना में हिमालयी क्षेत्रों के विकास की याद आई थी जो हिल एरिया डेवलपमेंट के नाम से चलाई गई थी, इसी के विस्तार में हिमालयी क्षेत्र को अलग-अलग राज्यों में विभक्त किया गया है, लेकिन विकास के मानक आज भी मैदानी है। जिसके फलस्वरूप हिमालय का शोषण बढ़ा है, गंगा में प्रदूषण बढ़ा है, बाढ़ और भूस्खलन को गति मिली है। इसलिए हिमालय बचेगा तो गंगा बचेगी इस पर गंभीरतापूर्वक गंगा नदी अभियान को कार्य करना होगा।
भगीरथ ने गंगा को हिमालय रूपी स्वर्ग से धरती पर उतारा है। उनके प्रयास से गंगा के पवित्र जल को स्पर्श करके भारत ही नहीं दुनिया के लोग अपने को धन्य मानते हैं।गंगा को अविरल बनाए रखने के लिए हिमालय में गोमुख जैसा ग्लेशियर है। इसके साथ ही जितनी भी हिमालय से निकलने वाली नदियां हैं उनको 9 हजार से भी अधिक ग्लेशियरों ने जिंदा रखा हुआ है। इसलिए गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरलता हिमालयी ग्लेशियरों पर टिकी हुई है।
हरिद्वार गंगा का पहला द्वार कहा गया है लेकिन गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ से गंगा में मिलने वाली सैकड़ों नदी धाराएं गंगा जल को पोषित एवं नियंत्रित करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। हिमालय के साथ विकास के नाम पर जो छेड़छाड़ दशकों से चल रही है उस पर गंगा बचाने की दिशा में सोचना पहली आवश्यकता है।
जल नहीं जीवन निधियां हैं ये
यज्ञ के पश्चात पूरे समाज को उस पोखर के जल, मछली, मखाना, घोंघा, सितुआ जैसी जल की वस्तुओं के स्वच्छंद उपयोग का अधिकार हो जाता है। राजनेता व प्रख्यात लेखक जाबिर हुसैन के संपादकत्व में बिहार विधान परिषद की पत्रिका ‘साक्ष्य’ का अक्तूबर-2004 अंक नदियों पर केंद्रित था। कुल 1178 पेज की इस पत्रिका में वैसे तो प्रत्येक आलेख नदी पर था लेकिन एक आलेख प्राचीन मिथिला में पोखरों पर भी है और ‘विरासत’ खंड के प्रारंभ में ये वाक्य दर्ज हैं। यह अकेले मिथिला के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए सटीक वाक्य हैं।
बदली है चाल मेघों की या...
बहुत से नेता आपको यह कहते हुए मिलेंगे कि हमारी खेती भगवान भरोसे है, इसलिए हम पिट जाते हैं। वे कहते हैं कि यह हमारे भरोसे होनी चाहिए और हम विज्ञान से उसको करके दिखा सकते हैं। इसीलिए बड़े-बड़े बांध बनते हैं, फिर उनकी सैकड़ों किलोमीटर की नहरें बनती हैं। वे यह मानते हैं कि मेघ अपनी चाल बदल देंगे, तो हमारे पास उनको अंगूठा दिखाने का एक तरीका है कि हमने भी अपनी चाल इतनी आधुनिक कर ली है कि हम तुमको याद भी नहीं करने वाले और हमारे खेतों में पानी पहुंच जाएगा।अकसर यह कहा जाता है कि अब मेघों ने अपनी चाल बदल दी है। असल में मेघों की चाल बदली या नहीं बदली, यह पक्के तौर पर कहना कठिन है। उससे ज्यादा भरोसे के साथ यह कहा जा सकता है कि हमारी चाल जरूर बदल गई है।
पिछले सौ-सवा सौ साल में मौसम विभाग-जैसा कोई विभाग हमारे समाज में, हमारे देश में और दुनिया के विभिन्न देशों में अस्तित्व में आया है। दो- पांच वर्ष का अंतर होगा, लेकिन ऐसी चीजें बहुत पुरानी नहीं हैं। वर्षा, मेघ, पानी का गिरना, आषाढ़ का आना, सावन-भादों- ये सब हजारों साल के अनुभव हैं समाज के, उसके सदस्यों के, विशेषकर किसानों के-जिनका पूरा जीवन इस पर टिका रहता है।
उन्होंने कभी अपनी चाल नहीं बदली, बल्कि मेघों की चाल देखकर अपना व्यवहार तय किया था।
अभी से रखनी होगी तैयारी
जाने के पहले अंग्रेज दो बातें छोड़ गए। एक तो यह कि अकाल सूखे से निपटने के लिए जो सिंचाई योजनाएं अगर आर्थिक रूप से सरकार को फायदा न पहुंचाती हो और उनसे थोड़ा बहुत नुकसान भी होता हो तो उन्हें चलाना चाहिए क्योंकि इन योजनाओं की वजह से सिंचित इलाके में कृषि उत्पादन के अलावा और भी कई आर्थिक गतिविधियां चलती हैं। जिससे जनता को और सरकार को फायदा पहुंचाता है। दूसरी बात यह है कि बड़े बांधो से देश की काया पलट दी जा सकती है।एक कथा के अनुसार त्रेता और द्वापर युग के संधि काल में बारह साल तक पानी नहीं बरसा और अकाल जैसी स्थिति पैदा हो गई। छोटे-छोटे जलाशय एकदम सुख गए। जलाभाव के कारण बाजार-हाट बंद हो गए। मांगलिक उत्सव ना के बराबर थे। खेती चौपट हो गई। नगर के अधिकांश भाग उजाड़ हो गए तथा गांव और घर जल गए। चोरों और भूखे लोगों द्वारा लूट-पाट का भय चारों ओर व्याप्त हो गया। लोग हिंसा के भय से एक दूसरे से डरने लगे। बालक और बूढ़े गए। गाय, भेड़, बकरी और भैंसे प्रायः समाप्त हो गई। औषधियों के समूह (अनाज और फल आदि) नष्ट हो गए।
चारों ओर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़ते थे। ऐसे दुर्दिन में महर्षि विश्वामित्र भूख से पीड़ित होकर अपना परिवार और आश्रम छोड़ कर भोजन की तलाश में निकले।
क्यों है खास चतुर्मास
गुरू पूर्णिमा, हरियाली तीज, नागपंचमी, रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, विजयदशमी, अहोई अष्टमी, करवा चौथ, दीपावली, भैया दूज, छठ पूजा और नदी स्नान के विशेष महत्व वाली कार्तिक पूर्णिमा ऐसे ही मौके हैं।
चतुर्मास में ‘पितृपक्ष’ का पखवाड़ा और नवरात्र के नौ दिन ऐसे अवसर होते हैं, जब स्वास्थ्य और आध्यात्म दोनोंं की दृष्टि से आम गृहस्थ को विशेष निर्देश की जरूरत होती है। रोजे का पाक महीना भी इसी चौमासे में आता है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो यह ऋतु बदलाव का समय होता है।