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सीमा के बाद जल विवाद

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प्रथम प्रवक्ता, जनवरी 2015
.भारत के पुरजोर विरोध के बावजूद चीन ने आखिरकार तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर देश के सबसे बड़े हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट का निर्माण कार्य पूरा कर लिया है। इससे चीन से भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों और बांग्लादेश में भी बहने वाली इस बड़ी नदी में जल का प्रवाह कभी भी प्रभावित हो सकता है। ऐसे में देखा जाए तो चीन की इस परियोजना से करोड़ों लोगों की जान खतरे में पड़ सकती है। यही कारण है कि असम आदि राज्यों में इसका तीव्र विरोध हो रहा है।

चीन की ओर से मिली जानकारी के अनुसार 1.5 अरब डॉलर की लागत से आठ साल में बनकर तैयार हुआ जांगमू हाइड्रोपावर स्टेशन की पहली जनरेटिंग यूनिट समुद्र की सतह से 3300 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। बताया जा रहा है कि इसकी पाँच अन्य बिजली उत्पादन इकाइयों के निर्माण का काम अगले साल पूरा हो जाएगा। इन छह यूनिटों के पूरी तरह शुरू होने पर विशाल परियोजना की कुल स्थापित क्षमता 5.10 लाख किलोवाट होगी।

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लीमा में नहीं बनी सहमति

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Author: 
हिमांशु शेखर
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यथावत, जनवरी 2015
.पेरू की राजधानी लीमा में आयोजित पर्यावरण सम्मेलन को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। माना जा रहा है कि इस वजह से अगले साल पेरिस में होने वाले पर्यावरण सम्मेलन में आने वाले सालों में पूरी दुनिया के लिए पर्यावरण संरक्षण के अंतिम लक्ष्य तय करना मुश्किल होगा। हालांकि, इस सम्मेलन के बाद एक बार फिर से विकसित देश भारत पर कार्बन उत्सर्जन में काफी कमी की प्रतिबद्धता देने के लिए दबाव बढ़ा रहे हैं।

लीमा में आयोजित पर्यावरण सम्मेलन में 190 देशों ने हिस्सा लिया। इन देशों में सहमति नहीं बनने की वजह से सम्मेलन अपने तय समय से 36 घण्टे अधिक चला। इसके बावजूद सभी देशों में सहमति को लेकर जो प्रारूप सामने आया, उसके बारे में पर्यावरण के जानकारों का कहना है कि यह बेहद कमजोर है।

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कोहनी का पाठ

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Author: 
अनुपम मिश्र
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गांधी-मार्ग, जनवरी-फरवरी 2015
.क्या बिना पढ़े, बिना स्कूल गए कोई इंजीनियर बन सकता है? आज तो यही जवाब मिलेगा कि ऐसा नहीं हो सकता।

इंजीनियर बनना हो तो स्कूल जाना होगा। वहां भी सिर्फ अपनी मेहनत, अपनी योग्यता काम नहीं आएगी। ट्यूशन तो पुराना पड़ गया शब्द है, उससे काम नहीं चलेगा। सब तो यही बताएंगे कि इंजीनियर बनाना है तो कोचिंग का इंतजाम भी करना पड़ेगा। इस सबमें जो खर्च आएगा, वह भी हर घर तो जुटा नहीं पाता। तो कुछ बच्चे चाह कर भी, योग्य होते हुए भी इस दौड़ में पीछे रह जाते हैं।

जो इस मोड़ से आगे बढ़ गए, उन्हें अभी पांच साल और बिताने हैं। तब वे इंजीनियर बन पाएंगे। तो जरा जोड़कर तो देखो भला कितने साल हो गए?

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असली बीमारी तो लूट की है

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Author: 
ज्योति प्रकाश
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गांधी-मार्ग, जनवरी-फरवरी 2015
आज देश में कहीं भी सादा नमक नहीं मिल सकता। पशु आहार और बर्फ बनाने वाली फैक्टरियों के नाम पर कहीं सादे नमक के डले, बोरे दिख जाएं तो अलग बात, लेकिन हमारे आपके भोजन में अब आयोडीन मिला नमक ही इस्तेमाल होता है। इसकी शुरुआत सन् 1990 से हुई है। उससे पहले की परिस्थिति बता रहा है डाॅ ज्योति प्रकाश का यह लेख जो उन्होंने सन् 1986 में लिखा था- घेंघा या थायराइड रोग पर सामाजिक दृष्टि से कुछ बुनियादी काम करते हुए।

.नमक आयुक्त ने घोषणा की है कि सन् 1990 तक देश में बनने-बिकने वाले सारे नमक को आयोडीन युक्त कर दिया जाएगा। कहा जा रहा है कि यह कदम आयोडीन की कमी से होने वाले घेंघा, थायराइड रोग से लड़ने के लिए उठाया गया है।

घेंघा रोग से लड़ने की यह कोई पहली कोशिश नहीं है। पिछले 20 साल से ‘राष्ट्रीय घेंघा नियंत्रण कार्यक्रम’इसी उद्देश्य से चलाया जा रहा है, पर वह समस्या को कुरेद तक नहीं पाया। शोषण की शिकार और कई सामाजिक कारणों से आयोडीन की कमी झेल रही गरीब आबादी को आज तक आयोडीन वाला नमक न दे पाने वाले जिम्मेदार नेताओं और अधिकारियों की आलोचना कम नहीं हुई है।

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मरूभूमि की प्यास को झुठलाते पारम्परिक जल साधन

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.‘राजस्थान’ देश का सबसे बड़ा दूसरा राज्य है परन्तु जल के फल में इसका स्थान अन्तिम है। यहाँ औसत वर्षा 60 सेण्टीमीटर है जबकि देश के लिए यह आँकड़ा 110 सेमी है। लेकिन इन आँकड़ों से राज्य की जल कुण्डली नहीं बाची जा सकती। राज्य के एक छोर से दूसरे तक बारिश असमान रहती है, कहीं 100 सेमी तो कहीं 25 सेमी तो कहीं 10 सेमी तक भी।

यदि कुछ सालों की अतिवृष्टि को छोड़ दें तो चुरू, बीकानेर, जैलमेर, बाड़मेर, श्रीगंगानगर, जोधपुर आदि में साल में 10 सेमी से भी कम पानी बरसता है। दिल्ली में 150 सेमी से ज्यादा पानी गिरता है, यहाँ यमुना बहती है, सत्ता का केन्द्र है और यहाँ पूरे साल पानी की मारा-मारी रहती है, वहीं रेतीले राजस्थान में पानी की जगह सूरज की तपन बरसती है।

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मत रोको, गंगा को बहने दो…

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Author: 
विवेक दत्त मथुरिया
Source: 
कल्पतरु एक्सप्रेस, 18 जनवरी 2015
हमारी सभ्यता का उद्भव और विकास नदियों के किनारों से जुड़ा रहा है। नदियों से शुरू हुआ हमारा विकास क्रम आज नदियों के विनाश तक जा पहुंचा है। गंगा और यमुना हमारे जीवन का आज भी आधार-भूत तत्व हैं। स्वांतः सुखाय विकास की आधुनिक अवधारणा आज नदी रूपी हमारी जीवनदायी स्रोत के लिए अभिशाप बन गई है। पतित् पावनी गंगा पिछले तीन दशकों से मुक्ति की बाट जोह रही है। गंगा मुक्ति की चिंता सरकार से ज्यादा देश की सर्वोच्च अदालत को है और वह हर बार सरकार से यक्ष प्रश्न करती है कि गंगा की सफाई कब तक होगी? इसी सवाल की पड़ताल करती सामयिकी।

.देश की पावन नदी गंगा दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है। उत्तर भारत की यमुना, पश्चिम की साबरमती, दक्षिण की पम्बा की भी हालत बहुत ही खराब है। देश की कई नदियां जैविक लिहाज से मर चुकी हैं। इसका असर पर्यावरण के साथ लोगों पर भी पड़ रहा है।

वर्ल्ड रिसोर्सेज रिपोर्ट के मुताबिक 70 फीसदी भारतीय गंदा पानी पीते हैं। पीलिया, हैजा, टायफाइड और मलेरिया जैसी कई बीमारियां गंदे पानी की वजह से होती हैं। रासायनिक खाद भी भू-जल को दूषित कर रहे हैं। कारखानों और उद्योगों की वजह से हालत और बुरी हो गई है।

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बिहार को विशेष राज्य का दर्जा और सिंचाई समस्या

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Author: 
दिनेश कुमार मिश्र
.बिहार राज्य के विभाजन के बाद से ही बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की माँग उठ रही है, मगर पिछले 12 वर्षों में इस दिशा में केन्द्र के समक्ष जो माँगें रखी गईं, उनका कोई परिणाम सामने नहीं आया है। आमतौर पर विशेष राज्य का दर्जा पाने के लिए जो शर्तें हैं, उन पर केन्द्र सरकार के अनुसार बिहार खरा नहीं उतरता।

इसके लिए राज्य के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों की अधिकता, आबादी की छिटपुट रिहाइश, उस तक पहुँचने के लिए परिवहन और संचार की मंहगी व्यवस्था और इन्फ्रास्ट्रक्चर का नितान्त अभाव जैसी परिस्थितियाँ आवश्यक होती हैं। राज्य को विशेष दर्जा न दिए जाने के पीछे यही तर्क केन्द्र सरकार द्वारा दिया जाता है।

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खुद ही विकलांग हुआ शेखपुरा का "फ्लोरोसिस रोकथाम अभियान"

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Author: 
पुष्यमित्र
.करीब साल भर पहले बिहार के शेखपुरा जिले के चोढ़ दरगाह गाँव की उषा देवी की मौत महज् 30 वर्ष की आयु में हो गई थी। फ्लोरोसिस नामक बीमारी की वजह से वह छह महीने तक बेड पर रही थी।

उनके पति हीरा रजक कहते हैं, “उसका पूरा शरीर इतना कड़ा हो गया था कि कहीं से वह मोड़ नहीं पाती थी।”खुद हीरा रजक की हालत बहुत बेहतर नहीं है, वे पिछले चार-पाँच साल से चल फिर नहीं पाते। कुछ ही दिन पहले इस बीमारी से गाँव के सुनील रूपस की 35 साल की उम्र में मौत हो गई थी। 2013 के नवम्बर महीने में गाँव की जया देवी की नवजात बच्ची की मौत का कारण भी गाँव वाले फ्लोरोसिस ही बताते हैं।

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प्रकृति नियन्त्रित जल प्रबन्ध

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
.आदिकाल से पृथ्वी पर पानी का प्रबन्ध, प्रकृति, करती आई है। यह प्रबन्ध, प्रकृति द्वारा पानी को सौंपे गए लक्ष्यों की पूर्ति का प्रबन्ध है जिसे वह, प्राकृतिक घटकों की सहायता से पूरा कर रहा है। वे घटक, एक ओर जहाँ विभिन्न कालखण्डों में मौजूद जीवन की निरन्तरता एवं विकास यात्रा को निरापद परिस्थितियाँ उपलब्ध कराते रहे हैं तो दूसरी ओर भौतिक, रासायनिक एवं जैविक प्रक्रियाओं की मदद से पृथ्वी का स्वरूप सँवारते रहे हैं।

पानी और पृथ्वी के उपर्युक्त सम्बन्ध को प्रकृति नियन्त्रित करती है। यह प्रबन्ध, एक ओर यदि जीवन के लिये निर्धारित मात्रा में जल उपलब्ध कराता है, तो दूसरी ओर उसे संरक्षित कर इष्टतम् व्यवस्था कायम करता है।

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किसान विरोधी नया कानून

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.इन दिनों केन्द्र सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का देश भर में व्यापक विरोध हो रहा है। इस कानून के खिलाफ विरोध व्यापक होता जा रहा है। हाल ही मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले एक कम्पनी के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ एक किसान ने आत्मदाह की कोशिश की गई और घटना से गुस्साए किसानों पर गोली चलाई गई है। हाल ही में सरकार ने इस अध्यादेश के जरिए लागू कर दिया है।

मध्य प्रदेश के अनूपपुर के जैतहरी में मोजर बेयर कम्पनी के बिजली संयन्त्र के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं। 17 जनवरी को एक किसान ने भूमि अधिग्रहण के खिलाफ अपने आपको आग के हवाले कर दिया। घटना के विरोध में एकत्र किसानों पर पुलिस फायरिंग की गई।

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पानी एक-रूप अनेक

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.‘‘पानी रे पानी, तेरा रंग कैसा- जिसमें मिला दो लगे उस जैसा।’’जल और जीवन एक दूसरे के पूरक हैं। प्रकृति के हर कोने में प्रत्येक जीव-जन्तु, वनस्पति में पानी अत्यावश्यक घटक है। पानी जीवन का आधार है। आलू में 80 प्रतिशत और टमाटर में 90 प्रतिशत पानी है। मानव शरीर में 70 फीसदी से अधिक पानी रहता है। जो साग, फल हम खाते हैं उसका भी बड़ा हिस्सा पानी है। यहाँ-वहाँ जहाँ देखो पानी-ही-पानी है लेकिन हर जगह रंग-रूप और अवस्थाएँ अलग हैं।

यदि पृथ्वी को बाहरी अन्तरिक्ष से देखे तो पाएँगे कि यह पानी के एक बड़े बुलबुले के समान है। इसका लगभग 70 फीसदी हिस्सा सागरों के कारण जलमय है। ध्रुव प्रदेश तथा पहाड़ों की चोटियाँ बर्फ अर्थात् पानी के ठोस रूप से ढंकी हैं। फिर असंख्य झीलें, ताल-तलैया, झरने, नदियाँ हैं। सम्पूर्ण भूमण्डल वायु की एक ऐसी चादर में लिपटा है जिसमें काफी कुछ वाष्पित जल है।

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मुम्बई में मत पीना बन्द बोतल का पानी!

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Source: 
राजस्थान पत्रिका, 29 जनवरी 2015
शोध में खुलासा, बोतलबन्द पानी में विषैले तत्वों की भरमार
.मुम्बई.मायानगरी मुम्बई के बोतलबन्द पानी भी पीने योग्य नहीं है। भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर (बीएआरसी) के हालिया शोध में पता चला है कि यहाँ पानी की बोतल में भी विषाक्त तत्व कार्किनोजेन्स भारी मात्रा में पाया जाता है। बीएआरसी की चार वैज्ञानिकों की टीम ने मुम्बई में पानी की बोतलों की बिक्री करने वाले 18 ब्राण्ड के 90 सैम्पल का परीक्षण किया। इनमें से 27 प्रतिशत सैंपल में विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों का उल्लंघन होता पाया गया।

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पर्यावरण संरक्षण और पूंजीवाद साथ-साथ नहीं चल सकता

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.पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र समर्थित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने चेतावनी देते हुए कहा कि कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया। दुनिया को खतरनाक जलवायु परिवर्तनों से बचाना है तो जीवाश्म ईंधन के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल को जल्द ही रोकना होगा।

आईपीसीसी ने कहा है कि साल 2050 तक दुनिया की ज्यादातर बिजली का उत्पादन लो-कार्बन स्रोतों से करना जरूरी है और ऐसा किया जा सकता है। इसके बाद बगैर कार्बन कैप्चर एण्ड स्टोरेज (सीसीएस) के जीवाश्म ईंधन का 2100 तक पूरी तरह इस्तेमाल बन्द कर देना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने कहा कि विज्ञान ने अपनी बात रख दी है।

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बाढ़ तो फिर भी आएगी

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Author: 
दिनेश कुमार मिश्र
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परिषद साक्ष्य, नदियों की आग, सितंबर 2004
.बिहार की गिनती भारत के सर्वाधिक बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में होती है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (1980) के अनुसार देश के कुल बाढ़ प्रवण क्षेत्र का 16.5 प्रतिशत हिस्सा बिहार में है, जिस पर देश की कुल बाढ़ प्रभावित जनसंख्या की 22.1 प्रतिशत आबादी है। इसका मतलब यह होता है कि अपेक्षाकृत कम क्षेत्र पर बाढ़ से त्रस्त ज्यादा लोग बिहार में निवास करते हैं।

1986 की बाढ़ के बाद किए गए अनुमान के अनुसार यह पाया गया कि बाढ़ प्रवण क्षेत्र का प्रतिशत सारे देश के सन्दर्भ में बढ़कर 56.5 प्रतिशत हो गया है। इसका अधिकांश भाग उत्तर बिहार में पड़ता है जिसकी जनसंख्या 4.06 करोड़ (1991) है तथा क्षेत्रफल 54 लाख हेक्टेयर है। यहाँ की 76 प्रतिशत जमीन बाढ़ से प्रभावित है जबकि जनसंख्या घनत्व लगभग 754 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है।

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फ्लोरोसिस प्रभावित 27 प्रदेश सरकारों को नोटिस

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Author: 
प्रेमविजय पाटिल
1. राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने प्रमुख सचिवों से छह सप्ताह में माँगा जवाब
2. स्वतः संज्ञान में लिया आयोग ने मामला


.धार। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उन 27 राज्यों के प्रमुख सचिवों को नोटिस जारी किए हैं जहाँ पर पानी में फ्लोराइड की अधिक मात्रा है और फ्लोरोसिस की बीमारी फैली हुई है। नोटिस जारी करते हुए आयोग ने प्रमुख सचिवों से छह सप्ताह में इस बात की जानकारी माँगी है कि उनके यहाँ की सरकार ने फ्लोरोसिस के मामले में क्या कदम उठाए हैं। यह एक विस्तृत रिपोर्ट माँगी गई है।

गौरतलब है कि केन्द्रीय जल एवं स्वच्छता मन्त्रालय द्वारा 20 जनवरी को एक प्रस्तुति दी गई थी। इसके बाद यह कदम उठाया गया है। दरअसल यह प्रस्तुति फ्लोरोसिस को लेकर थी. इसमें बताया गया था कि किस तरह से फ्लोराइड प्रभावित राज्यों में सरकारें लम्बी, छोटी व मध्यम स्तर पर गतिविधि चलाकर फ्लोराइड उन्मूलन का काम कर रही है।

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पुस्तकें समाज भी बदलती हैं और भूगोल भी

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.तो क्या पुस्तकें केवल ज्ञान प्रदान करती हैं? इसके अलावा और क्या करती हैं? यह सवाल अक्सर कुछ लोग पूछते रहते हैं। यदि दो पुस्तकों का जिक्र कर दिया जाए तो समझ में आता है कि पुस्तकें केवल पठन सामग्री या विचार की खुराक मात्र नहीं है, ये समाज, सरकार को बदलने और यहाँ तक कि भूगोल बदलने का भी जज्बा रखती हैं।

जब गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान ने ‘आज भी खरे हैं तालाब’को छापा था तो यह एक शोधपरक पुस्तक मात्र थी और आज 20 साल बाद यह एक आन्दोलन, प्रेरणा पुंज और बदलाव का माध्यम बन चुकी है। इसकी कई लाख प्रतियाँ अलग-अलग संस्थाओं, प्रकाशकों ने छाप लीं, अपने मन से कई भाषाओं में अनुवाद भी कर दिए, कई सरकारी संस्थाओं ने इसे वितरित करवाया, स्वयंसेवी संस्थाएँ सतत् इसे लोगों तक पहुँचा रही हैं।

परिणाम सामने हैं जो समाज व सरकार अपने आँखों के सामने सिमटते तालाबों के प्रति बेखबर थे, अब उसे बचाने, सहेजने और समृद्ध करने के लिए आगे आ रहे हैं।

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खाद्यान्नों-सब्जियों से अधिक फ्लोराइड ले रहे प्रभावित गाँवों के लोग

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Author: 
पुष्यमित्र
.अब तक माना जाता रहा है कि फ्लोरोसिस रोग पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा नियत सीमा से अधिक होने की वजह से होता है। इसी सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए सरकारें फ्लोराइड प्रभावित इलाकों में वैकल्पिक पेयजल की व्यवस्था कराती है और इसे ही फ्लोराइड मुक्ति का एकमात्र उपाय मानकर चलती है। मगर एक हालिया शोध ने इस स्थापना पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

इस शोध के मुताबिक फ्लोराइड प्रभावित इलाकों में उपजने वाले खाद्यान्न और सब्जियाँ भी फ्लोरोसिस का वाहक बन सकते हैं। क्योंकि भूमिगत जल से सिंचित इन फसलों में फ्लोराइड की मात्रा नियत सीमा से अधिक पाई गई है।

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काला पानी की कहानी

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Author: 
दिनेश कुमार मिश्र

पृष्ठभूमि


.काला पानी का नाम सुनते ही जे़हन में आज़ादी की लड़ाई के बांकुरों की याद आना स्वाभाविक होता है। अण्डमान और नीकोबार द्वीप समूह में बनी काल कोठरियों की तस्वीरें आँख के सामने उभरने लगती हैं जहाँ देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले उन दीवानों को अंग्रेजों ने न जाने कितनी यातनाएँ दी होंगी। काला पानी की जिन्हें सजा हुई उनमें से लौटने की कल्पना शायद ही किसी ने की हो। कुछ खुशनसीब वहाँ से लौटे जरूर पर उनके दिलों में यह हसरत दबी रह गई कि देश के लिए जान कुर्बान कर देने का उनका सपना अधूरा रह गया।

सुदूर द्वीपों में बनी उन काल-कोठरियों और उससे जुड़ी त्रासदी को जिस किसी ने भी पहली बार काला पानी कहा होगा वह निश्चित ही भविष्य द्रष्टा रहा होगा।

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फ्लोराइड का जहर पीने को मजबूर खैरा गाँव के लोग

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Author: 
कुमार कृष्णन
.मुंगेर जिले के नक्सल प्रभावित हवेली खड़गपुर प्रखण्ड का खैरा गाँव फ्लोराइड से सबसे अधिक प्रभावित है। यहाँ शुद्ध पानी के लिये पाँच साल पूर्व शुरू कराए गए पेयजलापूर्ति की बड़ी योजना के कार्यारम्भ होने के बावजूद खैरावासियों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नही हो सका है।

पेयजलापूर्ति योजना के शुरू होने के बाद लोगों में यह आस जगी थी कि बहुत जल्द खैरा के लोग पीने के शुद्ध पानी का सेवन कर पाएँगे लेकिन योजना का काम लगभग 65 प्रतिशत पूरा होने के बाद बन्द हो गया है। खैरा के ग्रामीणों के लिए बिहार के तत्कालीन मुख्यमन्त्री नीतिश कुमार ने विश्वास यात्रा के क्रम में गाँव में फलोराइड से हो रही विकलांगता को देखते हुए पेयजल आपूर्ति योजना का शिलान्यास किया था।

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नर्मदा कछार : समस्याएँ और समाधान

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
.नर्मदा नदी का कछार, सतपुड़ा और विन्ध्याचल पर्वत माला के बीच स्थित है। उसका विस्तार अमरकण्टक से लेकर भड़ौंच तक है। उसकी मुख्य सहायक नदियाँ बंजर, हिरन, तेंदुनी, शेर, शक्कर, दुधी, आंजन, मछवासा, पलकमती, तवा, कोलार, बेदा, मान, जोबट और गोई है। ये नदियाँ नर्मदा कछार पर बरसे पानी की मदद से अपने-अपने कछार की गन्दगी को नर्मदा को सौंप देती है। नर्मदा, पूरे कछार की गन्दगी को अरब सागर को सौंप देती है।

नदी कछार में पनपने वाली प्राकृतिक गन्दगी को, हर साल, हटाने का काम बरसात करती है। इस व्यवस्था के कारण नर्मदा कछार की प्रत्येक नदी अपने कैचमेण्ट पर बरसे बरसाती पानी की मदद से धरती की गन्दगी साफ करती है।

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