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जल परियोजनाओं के लिये दिल्ली को पैसा कौन देगा

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विश्व जल दिवस पर विशेष


.यमुना की मौजूदा हालत बताने की अब कोई जरूरत नहीं। पिछले 30 साल से खूब बताया जा रहा है और यह नदी दिन प्रतिदिन बदहाल हो रही है। आज कहने की नई बात यह है कि 1376 कि.मी. लम्बी देश की इस प्रमुख नदी की जब-जब चिन्ता हुई वह तभी हुई जब दिल्ली को पानी की और जरूरत पड़ी।

निष्कर्ष यह है कि यमुना की चिन्ता उसके उद्गम स्थल बन्दरपूँछ से लेकर सिर्फ 400 कि.मी. दूर तक यानि दिल्ली तक ही की गई। तरह-तरह के बहाने बनाकर दिल्ली में पानी की जरूरत बताकर यमुना को पूरा पीकर दिल्ली में ही खत्म कर दिया गया।

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आज भी सपना है बिहार में शुद्ध पेयजल

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Author: 
पुष्यमित्र

विश्व जल दिवस पर विशेष


.तस्वीर में मौजूद इस हैण्डपम्प को देखें। यह हैण्डपम्प बिहार के पूर्णिया जिले के धमदाहा गाँव में हाल ही में राज्य सरकार की ओर से लगवाया गया है। अधिकारियों के कथनानुसार यह आयरन मुक्त जल देने वाला हैण्डपम्प है। मगर इस हैण्डपम्प के नीचे की सिमेंटेड पाट को देखें। वहाँ चन्द महीने में ही जो पीलेपन की परत जम गई है वह सरकारी दावों की पोल खोलती है।

राज्य के कोसी और मिथिलांचल इलाके का बच्चा-बच्चा जानता है कि यह पीलापन पानी में आयरन की अत्यधिक मात्रा की वजह से आता है। इसी वजह से इस इलाके के लोग सफेद और हल्के रंग का कपड़ा कम खरीदते हैं, क्योंकि अगर यहाँ के पानी में उसे साफ किया जाए तो बहुत जल्द कपड़े पर पीलापन छाने लगता है। यह तो रंग की बात है, जिसे एकबारगी लोग सह भी लेते हैं।

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नदियों को जलमार्ग में बदलने की योजना

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Author: 
प्रदीप सिंह
.केन्द्र की भाजपा सरकार एक तरफ गंगा-यमुना और देश की अन्य नदियों को पुनर्जीवित करने का अभियान चला रही है वहीं पर दूसरी तरफ सरकार की कुछ योजनाओं से नदियों के अस्तित्व और जलीय जन्तुओं के जीवन और नदी के पारिस्थितिकी तन्त्र पर बड़ा खतरा बनने वाला है।

केन्द्र सरकार ने ऐसी ही एक महत्वाकांक्षी योजना देश की 101 नदियों को जलमार्ग में तब्दील करने की बनाई है। औद्योगीकरण और शहरों के प्रदूषण ने तो पहले ही देश की नदियों के अस्तित्व पर ग्रहण बन गए हैं।

अब नदियों को माल ढुलाई के लिये जलमार्ग में तब्दील करने की योजना को अमलीजामा पहनाया जा रहा है। यह सब पर्यावरण और नदियों के साफ-सफाई के लिये नहीं किया जा रहा है। बल्कि नदियों से व्यापार की योजना बनाई जा रही है।

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गंगा और हिमालय के जलते सवाल

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Author: 
अनिल प्रकाश
.आज हिमालय से लेकर गंगा सागर तक पूरी गंगा बेसिन संकटग्रस्त है। दसियों करोड़ लोगों की जीविका, उनका जीवन तथा जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों तक के अस्तित्व पर खतरा मँडराने लगा है। गंगा की समस्या के समाधान की अब तक की कोशिशें ही उसकी बर्बादी और तबाही का सबब बनती जा रही हैं।

एक समय राजीव गाँधी ने गंगा की सफाई की योजना बड़े जोर-शोर से शुरू की थी। बीस हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा और उसकी सहायक नदियों का प्रदूषण बढ़ता ही गया। मनमोहन सिंह के समय तक गंगा सफाई के नाम पर पैंतीस हजार करोड़ रुपए विभिन्न मदों में खर्च हुए ऐसा भी कई लोग बताते हैं। उन्होंने तो गंगा को राष्ट्रीय नदी ही घोषित कर दिया था। लेकिन कुछ हुआ नहीं।

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बूँदों पर टिकी बुनियाद की मज़बूती जरूरी

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.‘पानी और सतत् विकास’ - विश्व जल दिवस-2015 के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ का सूत्र बिन्दु यही है। भारत में पानी और नदियों के बढ़ते संकट तथा विकास का आसमान छू लेने की ललक को देखते हुए यह एक चुनौती ही है।

स्वच्छ और भरपूर पानी के बगैर, न 100 स्मार्ट सिटी का सपना साकार हो सकता है और न औद्योगिक निवेश व विकास का। चाहे नमामि गंगे का संकल्प सिद्ध करना हो या स्वच्छ भारत का, स्वच्छ...निर्मल-अविरल जल के बगैर वह भी सम्भव नहीं। फिल्टर, आरओ और बोतलबन्द पानी के भरोसे विकास का पहिया चल नहीं सकता। विकास की चिन्ता करनी है, तो पानी की चिन्ता तो करनी ही होगी। आइए, भारतीय पानी प्रबन्धन की चुनौतियों पर चिन्तन करें; ताकि विकास भी सतत् रहे और पानी भी।

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जल दिवस का भारतीय संयोग

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विश्व जल दिवस पर विशेष


.कितना सुखद संयोग है! 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस के बहाने हम सब की अपनी एक नन्हीं घरेलू चिड़िया की चिन्ता; देशी माह के हिसाब से चैत्री अमावस्या यानी गोदान का दिन। 21 मार्च को चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा यानी मौसमी परिवर्तन पर संयमित जीवनशैली का आग्रह करते नवदिन और नवदिनों का प्रारम्भ।

इसी का पीछा करते हुए 22 मार्च को विश्व जल दिवस; भारतीय पंचांग के हिसाब से इस वर्ष की मत्स्य जयन्ती। नवरात्रोपरान्त महावीर जयन्ती से आगे बढ़कर बैसाख का ऐसा महीना, जिसमें जलदान की महिमा भारतीय पुराण बखानते नहीं थकते। इसी बीच 21 अप्रैल को अक्षय तृतीया है और 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस। अक्षय तृतीया, अबूझ मुहूर्त का दिन है।

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जमीन ना बचाई तो पैरों तले से खिसक जाएगी

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पृथ्वी दिवस पर विशेष


.खेती में अव्वल कहे जाने वाले हरियाणा में कोई 35 लाख हेक्टेयर खेती की ज़मीन है। राज्य का कृषि विभाग अब चिन्तित है कि यदि हालात ऐसे ही रहे तो जल्द ही हजारों हेक्टेयर खेती की ज़मीन बंजर हो जाएगी। पलवल जिले की 70 हजार हेक्टेयर भूमि में पोषक तत्व जिंक की कमी हो गई है। इसी तरह फ़रीदाबाद जिले में 46 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में, गुड़गाँव में 1 लाख 12 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में और मेवात जिले में 40 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में जिंक की कमी हो गई है।

यह सब अन्धाधुन्ध इस्तेमाल किए जा रहे केमिकल फर्टिलाइजर के उपयोग से हो रहा है। इसी तरह कई अन्य पोषक तत्व भी चुकते जा रहे हैं। कारण- बेतहाशा रसायनों व दवाइयों का इस्तेमाल। दादरी क्षेत्र के करीब पाँच हजार हेक्टेयर भूमि में धान की रोपाई की जा रही है। धान उत्पादन के लिये अधिक पानी की जरूरत होती है।

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मोदी को गंगा के लिये क्या करना चाहिए

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Author: 
सुष्मिता सेनगुप्ता
महज और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की योजना से नदी साफ नहीं होने जा रही

.नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण (एनजीआरबीए), जो कि 2009 में गठित की गई थी, की पाँचवीं बैठक की अध्यक्षता करने की तैयारी में है। गंगा एक्शन प्लान (जीएपी) के नाकाम होने के कार्यकर्ताओं के दावे और सार्वजनिक विरोध और आन्दोलन के बाद एनजीआरबीए बनाया गया और प्रधानमन्त्री के अध्यक्ष होने के नाते यह संस्था गंगा के पुनर्जीवन की सर्वोच्च इकाई बन गई।

सन् 1986 में तत्तकालीन प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने 2525 किलोमीटर लम्बी शक्तिशाली नदी की सफाई के लिये जीएपी की शुरुआत की थी।

सन् 2009 में जीएपी का फिर से शुभारम्भ किया गया और नदी घाटी प्राधिकरण को इसका प्रभारी बनाया गया। एनजीआरबीए का मकसद यह सुनिश्चित करना है कि प्रदूषण का प्रभावी ढंग से नियन्त्रण हो और नदी का संरक्षण हो।

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कालाहांडी में गरीबी का एक मुख्य कारण है परम्परागत जलस्रोतों का ह्रास

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Author: 
भारत डोगरा
.पश्चिम उड़ीसा के कालाहांडी क्षेत्र से कभी तो भुखमरी के दर्दनाक समाचार मिलते हैं तो कभी बेहद गरीबी के कारण मजबूर होकर अपने बच्चे को ही बेच देने के। कभी अनेक दिनों तक मात्र कंद-मूल पर जीवित रहने को मजबूर लोगों की व्यथा-कथा हम यहाँ से प्राप्त समाचारों में पढ़ते हैं तो कभी भीषण अभाव के कारण यहाँ से प्रवास कर दूर-दूर भटकने वाले मज़दूरों की अन्तहीन समस्याएँ हमें सुनाई पड़ती हैं। ग्रामीण दुख-दर्द और अभाव की अति का जैसे पर्याय बन गया है कालाहांडी।

कालाहांडी क्षेत्र से हमारा अभिप्राय है कालाहांडी जिला और इससे जुड़े हुए नवापाड़ा और बोलनगीर जैसे जिलों का इलाक़ा। पुराना कालाहांडी जिला बहुत बड़ा होने के कारण वैसे भी प्रशासनिक सहूलियत के लिए दो भागों में बाँट दिया गया है अतः केवल एक जिले की बात न कर तीन-चार जिलों में फैले हुए काफी हद तक एक जैसी समस्याओं वाले क्षेत्र की बात करना अधिक उचित है।

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जब पृथ्वी बोली, पानी रोको

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पृथ्वी दिवस पर विशेष


.भारतीय दर्शन में पृथ्वी को माता माना गया है। यह भगवान स्वरूपा ही है। आज भी जन-मानस में पृथ्वी को देवी मानने की आस्था इस तरह प्रबल है कि अनेक महानुभाव प्रात: नींद से जागने के बाद पृथ्वी माता को सर्वप्रथम हाथों से स्पर्श कर प्रणाम करते हैं और उनसे बेहतर जीवनयापन का आशीर्वाद भी माँगते हैं।

भारतीय परम्पराओं में पृथ्वी कोई ग्रह मात्र नहीं है अपितु जीवमान इकाई है। वह हम जीवधारियों का पालन करती है। उन्हें जीवन देती है। अन्न- इस धरती का जीव समुदाय को सबसे बड़ा उपहार है। वह वृक्ष देती है जो जीवन का आधार है। वह अपने भीतर रत्नों, खनिजों की खान रखती है। जल का संचय उसकी अद्भुत प्रक्रियाओं का हिस्सा है। पृथ्वी ठीक है तो हम ठीक है। वह 'अस्वस्थ’ होती है तो हमारे जीवन पर भी संकट के बादल मँडराने लगते हैं।

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गंगा की अविरलता सुनिश्चित करना जरूरी

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Author: 
नीतीश कुमार
.गंगा नदी की अविरलता एवं निर्मलता पुनर्स्थापित करने के लिये समेकित एवं सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए कारगर योजना के निर्माण के साथ-साथ उसके ठोस क्रियान्वयन की व्यवस्था जरूरी है, ताकि लक्ष्य की प्राप्ति के साथ-साथ सभी राज्यों के हितों का संरक्षण हो सके।

भारत सरकार द्वारा नमामि गंगे कार्यक्रम के तहत गंगा की निर्मलता और अविरलता को प्राथमिकता दी गई है, परन्तु अधिकांश योजनाएँ गंगा में निर्मलता को सुनिश्चित करने के लिये ही ली गई है। गंगा की अविरलता के बिन्दु पर यथोचित ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय गंगा नदी प्राधिकरण की चौथी बैठक दिनांक 27 अक्टूबर 2014 में गंगा के पर्यावरणीय प्रवाह पर दो समितियों के गठित होने की सूचना दी गई थी, जिसका प्रतिवेदन दिसम्बर 2014 तक प्राप्त होना था।

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तालाबों के सामुदायिक प्रबन्धन का पाठ पढ़ाते हैं ‘एरी’

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.कम वर्षा वृष्टि वाले क्षेत्रों जैसे कर्नाटक, आन्ध्र और तमिलनाडु के कई हिस्सों में परम्परागत एरी ने सिंचाई और पारिस्थितिकी तन्त्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बल्कि आज भी सिंचाई की एक तिहाई जरूरत एरी से पूरी होती है। हालांकि दक्षिण भारत सिंचाई में एरी का महत्त्व को आमतौर पर सभी स्वीकार करते हैं, लेकिन कतिपय आधुनिकतावादी इसे ‘पिछड़ी’, ‘अपरिष्कृत’ और उन्नति से बहुत दूर की प्रणाली मानते रहे हैं।

‘हरित क्रान्ति’ के बाद आधुनिक कृषि सिंचाई के लिये ज्यादा पानी, खाद और कीटनाशकों पर निर्भर हो गई और ऐसे में पानी की जरूरत भी बढ़ गई। हालांकि ये रणनीति धान के उत्पादन में निष्फल जान पड़ती है। धान दक्षिण भारत की प्रमुख फसल है। 18वीं सदी के बाद और 19वीं शताब्दी के प्रारम्भिक आँकड़े बताते हैं कि उस काल में एरी के अन्तर्गत धान की उत्पादकता 1960 की पैदावार की तुलना में बहुत ज्यादा थी।

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लालच, अनियमितता और एक नदी की लूट

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Author: 
शिरीष खरे
.जयपुर। 1727 में बसा यह शहर बनावट की दृष्टि से दुनिया के सुनियोजित शहरों में अहम स्थान रखता था। यह शहर पारिस्थितिकी विज्ञान के अनुरूप बहुत बढ़िया ढंग से बसाया गया था। शहर के उत्तरी तरफ नाहरगढ़ की पहाड़ियों पर कभी घने जंगल होने से मिट्टी का कटाव नहीं होता था। इन्हीं पहाड़ियों की तलहटी में आथुनी कुण्ड से एक नदी बहा करती थी, जिसकी धारा दक्षिण की ओर मोड़ खाती हुई ढूढ़ नदी और ढूढ़ नदी राजस्थान की मुख्य नदी बनास में मिल जाती थी।

इसी जलधारा को इतिहासकारों ने द्रव्यवती नदी कहा है। यह 50 किलोमीटर लम्बी नदी थी, जो कालान्तर में पहाड़ियों के नंगे होने के चलते छोटी होती गई। बाद में इसके किनारे अमानीशाह नाम के फकीर की मजार बनी तो द्रव्यवती नदी अमानीशाह नाला कहलाने लगी। द्रव्यवती उर्फ अमानीशाह का यही नाला जयपुर के पेयजल का सबसे बड़ा स्रोत रहा है।

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22 अप्रैल कैसे बना पृथ्वी दिवस

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पृथ्वी दिवस पर विशेष


.भारतीय कालगणना दुनिया में सबसे पुरानी है। इसके अनुसार, भारतीय नववर्ष का पहला दिन, सृष्टि रचना की शुरुआत का दिन है। आईआईटी, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. बिशन किशोर कहते हैं कि “यह एक तरह से पृथ्वी की जन्मदिन की तिथि है।तद्नुसार इस भारतीय नववर्ष पर अपनी पृथ्वी एक अरब, 97 करोड़, 29 लाख, 49 हजार, 104 वर्ष की हो गई।

वैदिक मानव सृष्टि सम्वत् के अनुसार, मानव उत्पत्ति इसके कुछ काल बाद यानी अब से एक अरब, 96 करोड़, आठ लाख, 53 हजार, 115 वर्ष पूर्व हुई। जाहिर है कि 22 अप्रैल, पृथ्वी का जन्म दिवस नहीं है। चार युग जब हजार बार बीत जाते हैं, तब ब्रह्मा जी का एक दिन होता है। इस एक दिन के शुरू में सृष्टि की रचना प्रारम्भ होती है और संध्या होते-होते प्रलय।

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कालिये ने बदला रूप...

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Author: 
अभय मिश्र
Source: 
यथावत, अप्रैल, 2015
.एक बार फिर यमुना राजनीति की शिकार हो गई। आमरण अनशन की घोषणा करके दिल्ली आए यमुना तट के बाशिन्दे कोरा आश्वासन पाकर लौट गए। न दिल्ली की यमुना में नाले गिरने रुके और न ही हथिनीकुण्ड से पानी की मात्रा बढ़ी। अन्तर एक ही आया है। सरकार का चेहरा बदल गया है, करतूत नहीं।

यमुना आन्दोलन एक बार फिर मँझधार में फँसकर रह गया। नेतृत्व के अभाव और सरकार की चालाकी से यमुना पथ के बाशिन्दे सिर्फ आश्वासन लेकर वापस लौट गए। कमोबेश 2011 और 2013 की कहानी को ही दोहराया गया।

इस बार का आन्दोलन शुरू से ही हारी हुई लड़ाई लड़ रहा था। आन्दोलन के ज्यादातर नेता केन्द्रीय मन्त्रियों के साथ अपने मधुर सम्बन्धों में शहद डालने की कोशिश में जुटे थे। 15 मार्च को कोसीकलाँ से प्रारम्भ हुई यात्रा को यही नहीं पता था कि लड़ाई किससे है।

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पृथ्वी दिवस

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
.हर साल 22 अप्रैल को पूरी दुनिया में पृथ्वी दिवस मनाया जाता है। इस दिवस के प्रणेता अमरीकी सिनेटर गेलार्ड नेलसन हैं। गेलार्ड नेलसन ने, सबसे पहले, अमरीकी औद्योगिक विकास के कारण हो रहे पर्यावरणीय दुष्परिणामों पर अमेरिका का ध्यान आकर्षित किया था।

इसके लिये उन्होंने अमरीकी समाज को संगठित किया, विरोध प्रदर्शन एवं जनआन्दोलनों के लिये प्लेटफार्म उपलब्ध कराया। वे लोग जो सान्टा बारबरा तेल रिसाव, प्रदूषण फैलाती फैक्ट्ररियों और पावर प्लांटों, अनुपचारित सीवर, नगरीय कचरे तथा खदानों से निकले बेकार मलबे के जहरीले ढ़ेर, कीटनाशकों, जैवविविधता की हानि तथा विलुप्त होती प्रजातियों के लिये अरसे से संघर्ष कर रहे थे, उन सब के लिये यह जीवनदायी हवा के झोंके के समान था।

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पृथ्वी के बदलते तेवर और हमारे मौसम

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पृथ्वी दिवस पर विशेष


.बेमौसम बारिश, बारिश के दिनों में पानी कम गिरना और इन आपदाओं की आवृत्ति दशक-दर-दशक बढ़ना प्रत्यक्ष रूप से नई जरूर है लेकिन विशेषज्ञों ने दशकों पहले आगाह करना शुरू कर दिया था। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर 1980 और 1990 के दशकों में कई गम्भीर विचार-विमर्श हो चुके हैं। हालांकि जलवायु परिवर्तन के नाम से जब भी इस संकट पर बात हुई वह भूताप यानी ग्लोबल वार्मिंग के इर्द-गिर्द घूमती रहीं। और भूताप का मसला कार्बन उत्सर्जन करने वाले उद्यमों-उपक्रमों पर चिन्ता जताने के आगे ज्यादा नहीं बढ़ पाया।

कुछ दिनों या महीनों के अन्तर से मौसम का बदलना चाहे नियमित हो या अनियमित हो, इसे हम ऋतु परिवर्तन या मौसम का बदलना कहते हैं। और इस बदलाव को पृथ्वी के भीतर या बाहर यानी वायुमण्डल की हलचल के कारण समझते आए हैं। मौसम के बदलने को हमने प्रकृति की देन समझा और अपने मुताबिक उसे बदलने की कोशिश नहीं की बल्कि उन बदलावों से अनकूलन कर लिया और अपने जीवनयापन के प्रबन्ध उसी के मुताबिक हमने करना सीख लिया।

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नेपाली तबाही कुछ कहती है

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.धरती डोली। एक नहीं, कई झटके आए। नेपाल में तबाही हुई। दुनिया की सबसे ऊँची चोटी - माउंट एवरेस्ट को जीतने निकले 18 पर्वतारोहियों को मौत ने खुद जीत लिया। जैसे-जैसे प्रशासन और मीडिया की पहुँच बढ़ती गई, मौतों का आँकड़ा बढ़ता गया। इसका कुछ दर्द तिब्बत, असम, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश ने भी झेला। दहशत में रात, दिल्लीवासियों ने भी गुजारी। जरूरी है कि हम सभी इससे दुखी हों। यमन की तरह, नेपाल के मोर्चे पर भारत सरकार मुस्तैद दिखी।

इस बार आपदा प्रबन्धन निगरानी की कमान, हमारे प्रधानमन्त्री जी ने खुद सम्भाली। एयरटेल ने नेपाल में फोन करना मुफ्त किया। बीएसएनएल ने तीन दिन के लिये नेपाल कॉल रेट, लोकल किया। स्वामी रामदेव बाल-बाल बचे। सोशल मीडिया पर लोगों ने सभी की सलामती के लिये दुआ माँगी। मीडिया ने भी जानकारी और दुआओं के लिये अपना दिल खोल दिया।

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भूजल दोहन को लक्ष्मण रेखा की तलाश

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
.भारत में भूजल का दोहन लगातार बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों सहित अनेक लोगों को लगता है कि यह दोहन लक्ष्मण रेखा लाँघ रहा है। ग़ौरतलब है कि पूरे विश्व में भूजल दोहन के मामले में हम पहली पायदान पर हैं। भारत का सालाना भूजल दोहन लगभग 230 घन किलोमीटर है। यह दोहन पूरी दुनिया के सालाना भूजल दोहन के 25 प्रतिशत से भी अधिक है।

भारत की लगभग 60 प्रतिशत खेती और लगभग 80 प्रतिशत पेयजल योजनाएँ भूजल पर निर्भर हैं। दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में हर साल प्रकृति जितना पानी भूगर्भ में रीचार्ज करती है, उससे अधिक पानी बाहर निकाला जाता है। गुजरात, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, पाण्डुचेरी और दमन में भूजल का सालाना दोहन, प्राकृतिक रीचार्ज के 70 प्रतिशत से अधिक है। देश के बाकी राज्यों में भूजल दोहन 70 प्रतिशत से कम है।

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कोकाकोला से असली लड़ाई लड़ी जानी है

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Author: 
अरुण कुमार त्रिपाठी
.यह सही है कि भारत के पर्यावरण कार्यकर्ता और उसकी कानूनी संस्थाओं ने कोकाकोला के गैर- कानूनी कारोबार को रोकने और उसे बन्द कराने में कामयाबी हासिल की है और नई जगहों पर भी सफल हो रहे हैं। लेकिन वहीं कोकाकोला भी भारतीय कानून, उसकी संस्थाओं के आपसी अन्तर्विरोध और यहाँ की राजनीतिक स्थितियों का लाभ उठाकर अपना उल्लू सीधा करती रहती है।

दूसरी तरफ हकीक़त यह भी है कि कोकाकोला के उत्पादों का स्वाद लोगों की जबान पर चढ़ गया है। इसलिये कोकाकोला के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई जो भी हो लेकिन उसकी लोकप्रियता और बाजार पर असर बरकरार है। उल्टे आम जनता उसके गैर कानूनी और अनैतिक कारोबार को भूलकर उसे किसी जीवनदायी पेय की तरह पीए जा रही है और उसके नैतिक विरोध का आन्दोलन लगातार ठंडा पड़ गया है।

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