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फ्लोराइड उन्मूलन के बीच जिन्दगी

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Author: 
प्रेमविजय पाटिल
.मध्य प्रदेश के दक्षिणी भाग में स्थित धार जिला ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध है। लेकिन यह पहले से ही पानी के संकट से जूझने वाला जिला है। यहाँ जनवरी से लेकर जून तक हर साल पानी का संकट खड़ा होता है। जिले का उत्तरी भाग मालवा अंचल में आता है। इसका मध्य भाग विंध्याचल में और दक्षिणी भाग नर्मदा घाटी से जुड़ा हुआ है।

आदिवासी बहुल जिला होने के साथ यहाँ के 12 लाख 22 हजार 814 आदिवासियों की जिन्दगी में पानी को लेकर सदैव संकट बना रहता है। अक्सर पानी धरती की गहराई में चला जाता है। भू-जलस्तर 10 से 80 मीटर तक जाता है। पानी में सबसे ज्यादा परेशानी फ्लोराइड की है। 13 विकासखण्ड में 324 ग्राम ऐसे हैं जहाँ फ्लोरोसिस की समस्या है। इनमें से 178 गाँव की 813 बसाहटें ज्यादा प्रभावित हैं। ये सभी गाँव आदिवासी बहुल हैं। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के 1 हजार 683 ऐसे स्रोत हैं जिनमें फ्लोराइड की मात्रा है।

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तालाबों के पुनरुद्धार से मिली विकास की राह

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Author: 
अमरनाथ
पचास साल पहले तक इन गाँवों में जरूरत के मुताबिक तालाब होते थे। पोखर ग्राम्य जीवन के अभिन्न अंग होते थे। इनसे कई प्रयोजन सिद्ध होते थे। बरसात के मौसम में वर्षाजल इनमें संचित होता था। बाढ़ आने पर वह पानी पहले तालाबों को भरता था। गाँव और बस्ती डूबने से बच जाते थे। अगर कभी बड़ी बाढ़ आई तो तालाबों के पाट, घाट मवेशियों और मनुष्यों के आश्रय स्थल होते थे। अगर बाढ़ नहीं आई तो अगले मौसम में सिंचाई के लिये पानी उपलब्ध होता था।कोसी तटबन्धों के बीच फँसा एक गाँव है बसुआरी। तटबन्ध बनने के बाद यह गाँव भीषण बाढ़ और जल-जमाव से पीड़ित हो गया। यहाँ भूतही-बलान नदी से बाढ़ आती थी जो अप्रत्याशित और भीषण बाढ़ के लिये बदनाम नदी है। अचानक अत्यधिक पानी आना और उसका अचानक घट जाना इसकी प्रकृति रही है। पर तटबन्ध बनने के बाद बाढ़ के पानी की निकासी में अवरोध आया और पानी अधिक दिन तक जमने लगा।

तटबन्ध बनने के पहले भी इस क्षेत्र में बाढ़ आती थी। कई बार पानी अधिक दिनों तक लगा रहता था और कई बार साल में पाँच-सात बार बाढ़ आ जाती थी। जिससे धान की फसल भी नहीं हो पाती थी या लहलहाती फसल बह जाती थी। धान का इलाक़ा कहलाने वाले इस क्षेत्र में ऐसी हालत निश्चित रूप से बहुत ही भयावह होती थी। पर धान की फसल नहीं हो, तब भी दलहन की उपज काफी होती थी। मसूर, खेसारी और तिसी की फसल में कोई खर्च भी नहीं होता था। गर्मी अधिक होने पर सिंचाई करनी पड़ती थी। जिसके लिये गाँव-गाँव में बने तालाब काम में आते थे।

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चुक रहा है भूजल

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Author: 
सुधीर जैन और केके जैन
जहाँ आज हमें पुनर्भरण बढ़ाने की जरूरत है वहाँ उसे घटाने का काम कर रहे हैं। हमारे पास जल संसाधन सीमित है। देश की ज़मीन पर प्रकृति हमें 4000 घन किलोमीटर पानी देती है। यह पानी वर्षा और हिमपात के रूप में होता है। इस 4000 घन किलोमीटर (4000 अरब घन मीटर या 4000 बीसीएम) पानी में से 20 फीसद से ज्यादा भाप बनकर उड़ जाता है। पचास से 60 फीसद पानी बाँधों, तालाबों, खेतों और कच्ची ज़मीन से रिसकर ज़मीन में चला जाता है।विश्व के सभी देश जल संकट से जूझ रहे हैं। प्राकृतिक रूप से जल विपन्न देशों के सामने यह संकट सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। भारतवर्ष भी तेजी से बढ़ी अपनी जनसंख्या के कारण अब जल विपन्न देशों की श्रेणी में है। साल-दर-साल जल प्रबन्धन करते हुए हम जैसे-तैसे काम चला रहे हैं। सिर्फ आज की स्थिति देखें तो हालात इतने डरावने हैं कि कल के इन्तज़ाम के लिये विशेषज्ञों को कोई भी विश्वसनीय और वैध उपाय सूझ नहीं रहा है।

इतनी भयावह स्थिति है कि ज़मीन के भीतर का पानी यानी भूजल ऊपर खींचकर काम चलाना पड़ रहा है। भूजल की स्थिति यह है कि पूरे देश में भूजल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। हालांकि 80 और 90 के दशक में जल विज्ञानियों ने इस मामले में हमें आगाह किया था। इसके पहले सत्तर के दशक में तत्कालीन सरकार ने पूर्व सक्रियता दिखाते हुए भूजल प्रबन्धन के लिये केन्द्रीय भूजल बोर्ड के रूप में नियामक संस्था बना ली थी। तब की सरकार की चिन्ताशीलता का एक सबूत यह भी है कि 80 के दशक के मध्य में इनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एक्ट बना लिया गया।

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यमुना के अस्तित्व पर भारी संकट

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पनबिजली परियोजनाओं में जनसुनवाई बन गई खानापूर्ति


.नदी घाटी सभ्यताओं ने मानव को आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से उन्नत बनाने में ऐतिहासिक भूमिका अदा की है। हिमालयी क्षेत्रों में उत्तराखण्ड से निकलने वाली सदानीर नदियाँ- गंगा तथा यमुना देश के करोड़ों लोगों की पेयजल तथा सिंचाई की जरूरत को पूरा कर रहीं हैं किन्तु अवैज्ञानिक एवं बेरोकटोक दोहन ने नदियों का अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया है। जलविद्युत दोहन करने की धन पिपासु हवस ने गंगा के साथ ही यमुना घाटी में भी इन परियोजनाओं की जद में आ रहें हजारों लोगों के जीवन में भारी उथल-पुथल का खतरा पैदा कर दिया है।

देश की राजधानी दिल्ली में पहुॅंचकर हालांकि यमुना का पानी विषैले जल में तब्दील हो गया है। हरियाणा से गुजरती यमुना में शहरों के गन्दे जल एवं औद्योगिक अपशिष्टों के प्रवाहित होने से ये स्थिति आ रही है। किन्तु उत्तराखण्ड की सीमा के भीतर यमुना का प्राकृतिक स्वरूप काफी हद तक बना हुआ है।

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क्या नदियाँ बची रह पाएँगी

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.आज देश के सामने नदियों पर अस्तित्व का संकट मँडरा रहा है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के हालिया अध्ययन में इस बात का खुलासा हुआ है कि देश की 35 नदियाँ बुरी तरह से प्रदूषण की चपेट में हैं। बोर्ड द्वारा 2005 से 2013 के बीच आँकड़ों के आधार पर किये अध्ययन में यह तथ्य सामने आया है कि देश की 40 नदियों की प्रदूषण जाँच में असम की एक और दक्षिण भारत की चार नदियाँ ही स्वच्छता के मानकों में खरी उतरी हैं। बाकी 35 प्रदूषण की मार से बुरी तरह कराह रही हैं।

इनमें गंगा, यमुना, सतलुज, मार्कण्डा, घग्घर, चम्बल, ढेला, किच्छा, कोसी, बहेला, पिलाखर, सरसा, रावी, माही, रामगंगा, बेतवा, सोन, स्वान, वर्धा, साबरमती, मंजीरा, ताप्ती, नर्मदा, बाणगंगा, भीमा, दमनगंगा, इंद्रावती, महानदी, चुरनी, दामोदर, सुवर्णरेखा, कृष्णा और तुंगभद्रा आदि नदियाँ शामिल हैं।

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जनसंख्या और प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता

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आजादी के समय देश में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल उपलब्धता 5000 घन मीटर थी जो न्यूनतम जरूरत की ढाई गुनी थी। तब अन्तरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर हम भी जल सम्पन्न देशों की सूची में थे। नब्बे का दशक आते-आते जनसंख्या इतनी बढ़ गई कि प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल की आवश्यकता के लिहाज से हम सीमान्त स्थिति में पहुँच गए। जल प्रबन्धन के लगभग सारे लक्ष्य हासिल करने के बावजूद खेत तक सिंचाई का पानी पहुँचाने की हमारी हैसियत जवाब देती जा रही थी।जल संकट सामान्य अनुभव है। तीस साल पहले हमने इस संकट की तीव्रता महसूस की थी और बेहतर जल प्रबधन के लिये गम्भीरता से काम करना शुरू किया था। हालांकि आजादी मिलने के फौरन बाद ही जब पहली योजना बनाने का काम शुरू हुआ तब सिंचाई प्रणाली को और ज्यादा विस्तार देने की बात हमारे नेताओं ने समझ ली थी। तभी बाँध परियोजनाओं पर तेजी से काम शुरू कर लिया गया। हालांकि सन् 1950 का वह समय ऐसा था कि देश की आबादी 36 करोड़ थी।

देश के पास प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल उपलब्धता पाँच हजार घनमीटर थी। यानी अन्तरराष्ट्रीय मानदंडों के मुताबिक हर व्यक्ति की जरूरत से ढाई गुना पानी उपलब्ध था। लेकिन इस पानी का इस्तेमाल करने लायक हम नहीं थे। ज्यादातर खेती वर्षा आधारित थी। खेती के उपकरणों का इस्तेमाल ना के बराबर था। जैसे-तैसे जरूरत भर का अनाज पैदा करने की कोशिश शुरू हुई। उसी का नतीजा था कि ब्रिटिश सरकार की बनाई सिंचाई व्यवस्था को तेजी से विस्तार देने का काम शुरू किया गया।

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आर्सेनिक : खामोश कातिल

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Source: 
नॉलेज एंड एक्शन नेटवर्क

समस्या


वर्ष 2000 से पहले आर्सेनिक के मामले बांग्लादेश, भारत और चीन से ही सामने आते थे। मगर पिछले दशक के शुरुआती सालों में आर्सेनिक प्रदूषण का फैलाव दूसरे एशियाई मुल्कों जैसे मंगोलिया, नेपाल, कम्बोडिया, म्यांमार, अफगानिस्तान, कोरिया, पाकिस्तान आदि में भी दिखने लगा है। साथ ही बांग्लादेश, भारत और चीन में भी आर्सेनिक की अधिक मात्रा के मामले कई और नए इलाकों में भी सामने आने लगे हैं।महज कुछ दशक पहले तक आर्सेनिक का जिक्र पानी के मुद्दों में अमूमन नहीं होता था। लेकिन पिछले कुछ दशकों से आर्सेनिक प्रदूषण के मामले चर्चा के केन्द्र में आ गए हैं। दुनिया भर में 20 से भी ज्यादा मुल्कों के भूजल में आर्सेनिक होने के मामले सामने आये हैं (बोरडोलोई, 2012)। खासतौर पर हमारे दक्षिण एशियाई देशों में लगातार पेयजल में आर्सेनिक के मामले प्रकाश में आ रहे हैं और बड़ी संख्या में लोगों के इससे पीड़ित होने का पता चल रहा है और अब इसे वृहद जनस्वास्थ्य समस्या के रूप में देखा जाने लगा है।

हालांकि भूजल में आर्सेनिक की उपस्थिति भूगर्भ में होने की वजह से होता है। पर कई और वजहें भी हैं भूजल में आर्सेनिक की सान्द्रता बढ़ने की। इनमें से कुछ प्राकृतिक वजहें हैं, जैसे, आर्सेनिक चट्टानों के टूटने और सेडिमेंटरी डिपोजीशन (रेजा एट एल., 2010), मानवजनित वजहें जैसे धात्विक खनन, खेती में आर्सेनिकयुक्त उर्वरकों का इस्तेमाल (स्मेडली एट एल., 1996), फर्नीचर आदि के आर्सेनिकयुक्त प्रीजरवेटिव्स और कीटनाशकों के इस्तेमाल (एफएक्यू, 2011)

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यहं सूखा, वहं बाढ़

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वर्ष-2015, भारत के लिये सूखा वर्ष है या बाढ़ वर्ष?

बाढ़ और सुखाड़ के दुष्प्रभावों के बढ़ाने में इंसानी हाथ को लेकर एक पहलू और है। घोषणा चाहे बाढ़ की हो या सुखाड़ की, तद्नुसार अपनी फसलों और किस्मों में बदलाव की सावधानी अभी ज्यादातर भारतीय किसानों की आदत नहीं बनी है। सुखद है कि पंजाब ने धान की एक तरफा रोपाई की जगह विविध फसल बोने का निर्णय लिया है। किन्तु कम वर्षा की घोषणा बावजूद, उत्तर प्रदेश और बिहार के किसानों ने इस वर्ष की धान की रोपाई में कोई कमी नहीं की।इस प्रश्न का कोई एक उत्तर नहीं हो सकता। अब तक हुई बारिश और आई बाढ़ के आधार पर एक भारतीय इसे ‘सूखा वर्ष’ कह रहा है, तो दूसरा ‘बाढ़ वर्ष’? एक जून, 2015 से 10 अगस्त, 2015 तक के आँकड़ों के मुताबिक देश के 355 जिलों में सामान्य से अधिक और 258 में सामान्य से कम बारिश हुई है। इस आधार पर वर्ष 2015 भारत के लिये अधिक वर्षा वर्ष है। एक जून से अगस्त प्रथम सप्ताह तक का राष्ट्रीय औसत देखें, तो वर्षा दीर्घावधि औसत से छह फीसदी कम रही। तय मानकों के मुताबिक, इसे आप सामान्य वर्षा की श्रेणी रख सकते हैं। इस आधार पर यह सामान्य वर्षा वर्ष है।

ग़ौरतलब है कि 1951-2000 का दीर्घावधि औसत 89 सेंटीमीटर है। किसी भी मानसून काल में यदि औसत, दीर्घावधि औसत का 96 से 104 फीसदी हो, तो सामान्य माना जाता है। यदि यह 90 से 96 फीसदी हो, तो सामान्य से कम और 90 फीसदी से कम हो, तो सूखे की स्थिति मानी जाती है और यदि यह 104 से 110 फीसदी हो, तो सामान्य से अधिक वर्षा मानी जाती है। 110 फीसदी से अधिक होने पर इसे अत्यधिक वर्षा की श्रेणी में माना जाता है।

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मौजूदा दौर में जैविक खेती

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Author: 
अनीता सहरावत
Source: 
जनसत्ता (रविवारी) 9 अगस्त 2015
खेती में रासायनिक खादों और कीटनाशकों के निरन्तर इस्तेमाल से आज अनाज, फल, सब्जी जैसी सभी खाद्य वस्तुएँ जहरीली होती जा रही हैं। इसका तोड़ अगर कुछ है तो जैविक या गैर-रासायनिक खेती। भारत के कई राज्यों में इस दिशा में सक्रिय पहल हो चुकी है। लेकिन ज़मीनी स्तर पर अब भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। इस बारे में बता रही हैं अनीता सहरावत।

.ज्यादा अरसा नहीं हुआ, जब आन्ध्र प्रदेश में रामचन्द्रपुरम गाँव के किसानों की खेती की ज़मीन गिरवी रखी जा चुकी थी। महँगी खाद-बीज तो दूर, दो जून की रोटी मयस्सर होनी मुश्किल हो गई थी। तब हारकर उन्होंने हर तरह के रासायनिक खादों और कीटनाशकों को अपनी खेती से निकाल फेंका और परम्परागत जुताई-बुआई की टेक ले ली। जैविक खेती उनके लिये रामबाण साबित हुई।

तीन साल के भीतर उन्होंने न केवल अपना पूरा कर्जा पाट दिया बल्कि अपनी जमीनें भी छुड़ा लीं।

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क्या है किसानी के संकट का समाधान

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.इन दिनों खेती- संकट और किसान आत्महत्या का मुद्दा गरम है। किसानों की मुसीबतें कम होने की बजाय बढ़ती जा रही हैं। बेमौसम बारिश ने गेहूँ की फसल चौपट कर दी थी। किसान अपनी जान देने पर मजबूर हैं। एक के बाद एक किसानों की खुदकुशी की घटनाएँ सामने आ रही हैं। दो दशकों में अब तक 3 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इस बीच खेती के संकट के समाधान के रूप में कई छोटे-छोटे रचनात्मक विकल्प सामने आए हैं जिन पर गौर करना जरूरी है। खेती के संकट में कम खर्च और कम कर्ज करना जरूरी है, जिससे किसान चिन्तामुक्त होकर खेती पर ध्यान दे सके।

देश में जीरो बजट प्राकृतिक खेती के प्रणेता सुभाष पालेकर ने आधुनिक रासायनिक कृषि पद्धति का विकल्प पेश कर रहे हैं, जिससे न केवल किसान अपनी खेती को सुधार सकते हैं बल्कि इससे उनकी खेती व गाँव आत्मनिर्भर बन सकेंगे। वे अमरावती महाराष्ट्र निवासी सुभाष पालेकर मशहूर कृषि वैज्ञानिक हैं और उनकी अनूठी कृषि पद्धति की चर्चा देश-दुनिया में हो रही है।

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कीटनाशकों के हवाले दिनचर्या

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Author: 
अभिषेक कुमार
Source: 
जनसत्ता (रविवारी) 16 अगस्त 2015
.इंसान को जीवित रहने के लिये सबसे ज्यादा संघर्ष बाहरी और भीतरी संक्रमणों और कीटों से निपटने के लिये करना पड़ता है। यह बात सदियों पहले भी सच थी और आज भी। घरों में ही नहीं, आधुनिक हवाई जहाजों तक में मक्खी-मच्छर मौजूद रहने की चुनौती इतनी बड़ी है कि विमान कम्पनियों के कर्मचारी हवाई जहाज के जमीन पर उतरते ही उसके अन्दर स्प्रे से कीटनाशकों का छिड़काव शुरू कर देते हैं। कई बार यह काम यात्रियों की मौजूदगी में किया जाता है। इस पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने हवाई सेवाओं को ऐसी बौछार को रोकने के लिये कहा है।

अमेरिका के टेक्सास में बेलर अस्पताल में कार्यरत न्यूरोलॉजिस्ट जय कुमार ने इस बारे में एक याचिका एनजीटी के पास भेजी थी कि विमान कम्पनियाँ अपने हवाई जहाजों में तब कीटनाशकों का छिड़काव करती हैं, जब वे जमीन पर होते हैं और उनमें यात्री मौजूद रहते हैं। उनका तर्क था कि मक्खी-मच्छर मारने वाले ऐसे कीटनाशकों में मौजूद फीनोथ्रीन इंसानों की सेहत को भारी नुकसान पहुँचाता है।

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बाढ़ : मानवजनित हस्तक्षेप का दुखद परिणाम

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.बाढ़ को भूकम्प की तरह ही देश के लिये प्राकृतिक प्रकोप की संज्ञा दी जाती है। कुछ हद तक इसे सही भी माना जा सकता है। लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। देश हर साल की तरह फिर इस बार बाढ़ का सामना कर रहा है। वह चाहे बादल फटने से आई बाढ़ हो या फिर बारिश से आई बाढ़, तबाही तो स्वाभाविक है।

पहाड़ से लेकर मैदान तक चारों ओर आफत की बारिश-ही-बारिश है। सच तो यह है कि इस बार देश के कमोबेश छह राज्य तो बाढ़ की भीषण चपेट में हैं। उ.प्र., बिहार और पश्चिम बंगाल में तो हाई अलर्ट जारी कर दिया है। बाढ़ से छह राज्यों यथा- राजस्थान, गुजरात, बंगाल, ओडिशा, मणिपुर और जम्मू कश्मीर में भारी तबाही हुई है। नदियों के बढ़ते जलस्तर के तांडव ने वहाँ हाहाकार मचा रखा है।

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इन अँखियन जस जन-गन-मन देखा’ : स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद

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भारत को पहचान देने वाली गंगा पर करोड़ों रुपए खर्च किये जाने के बावजूद गंगा अविरल-निर्मल नहीं हो सकी है। केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा भी गंगा की हमेशा से ही उपेक्षा किया जाता रहा है। माँ गंगा के किनारे अपना जीवन गुजर बसर करने वाले करोड़ों लोग भी इसकी उपेक्षा करते रहे हैं। कई गंगा पुत्रों ने गंगा के लिये अपने प्राण न्यौछावर कर दिये और कर रहे हैं। एक और गंगापुत्र स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद ने माँ गंगा के लिये अपने प्राणों की बाजी लगा दी है। गंगा के विभिन्न मुद्दों पर अरुण तिवारी द्वारा स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद से हुई बातचीत पर आधारित एक शृंखला प्रस्तुत कर रहे हैं;

.खास परिचितों के बीच ‘जी डी’ के सम्बोधन से चर्चित सन्यासी स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद के गंगापुत्र होने के बारे में शायद ही किसी को सन्देह हो। बकौल श्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी, वह भी गंगापुत्र हैं। “मैं आया नहीं हूँ; मुझे माँ गंगा ने बुलाया है।’’ - श्री मोदी का यह बयान तो बाद में आया, गंगा पुत्र स्वामी सानंद की आशा पहले बलवती हो गई थी कि श्री मोदी के नेतृत्व वाला दल केन्द्र में आया, तो गंगा जी को लेकर उनकी माँगों पर विचार अवश्य किया जाएगा। हालांकि उस वक्त तक राजनेताओं और धर्माचार्यों को लेकर स्वामी सानंद के अनुभव व आकलन पूरी तरह आशान्वित करने वाले नहीं थे; बावजूद इसके यदि आशा थी तो शायद इसलिये कि इस आशा के पीछे शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती जी का वह आश्वासन तथा दृढ़ संकल्प था, जो उन्होंने स्वामी सानंद के कठिन प्राणघातक उपवास का समापन कराते हुए वृन्दावन में क्रमशः दिया व दिखाया था।

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छत्तीसगढ़ की नदियाँ भी हो रही हैं मैली

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.रायपुर। प्रदेश की जीवनदायिनी तीन प्रमुख नदियाँ महानदी, अरपा और शिवनाथ का पानी प्रदूषण की सारी सीमाओं को लाँघ रहा है। हालात ये बन गए हैं कि अब जलीय जीव-जन्तुओं और पौधों का इनमें रहना मुश्किल हो रहा है और उनके जीवन के लिये खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है। इन नदियों में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) का स्तर सामान्य से दस गुना ज्यादा हो चुका है। यही वजह है कि इन्हें यमुना जैसी देश की सबसे प्रदूषित नदियों की सूची में शामिल किया गया है।

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की ताजा रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है। बैक्टीरिया हजारों गुना ज्यादा सीपीसीबी रिपोर्ट के अनुसार महानदी, अरपा और शिवनाथ जैसी नदियों का पानी स्वच्छता के पैरामीटर पर खरा नहीं उतरा। नियमों के मुताबिक 100 मिलीलीटर पानी में बैक्टीरिया की संख्या 500 से ज्यादा नहीं होनी चाहिए, लेकिन खतरनाक बात है कि इन नदियों में पैरामीटर से हजारों गुना ज्यादा बैक्टीरिया पाया गया है।

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वर्षाजल संचयन की प्रकृति सम्मत उपयोगी व्यवस्था

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Author: 
अमरनाथ
.वर्षा की बूँदें जहाँ गिरे वहीं रोक लेना और संग्रहित जल का विभिन्न प्रयोजनों में उपयोग करना सर्वोत्तम जल-प्रबन्धन है। इसकी कई तकनीकें प्रचलित हैं। कुछ तकनीकें प्राचीन और परम्परासिद्ध हैं तो कुछ नई विकसित हुई हैं। संग्रह और वितरण की इन प्रणालियों में भूजल कुण्डों के पुनर्भरण का समावेश भी होता है जिसका उपयोग संकटकालीन अवस्थाओं में हो सकता है। अतिरिक्त जल की शीघ्र निकासी की व्यवस्था भी इससे जुड़ी होती है।

नलकूल या चापाकल की तकनीक आने के बाद धरती के भीतर से पानी निकालना आसान हो गया और भूजल के उपयोग का प्रचलन लगातार बढ़ता गया। भूगर्भीय जल भण्डार को समृद्ध करने के लिये वर्षाजल के संग्रह के प्रति घोर उदासीनता बरती गई। इसकी प्राचीन संरचनाएँ उपेक्षित होकर नष्ट होती गई।

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सिर्फ अक्षरज्ञान पर नहीं टिकेगा टिकाऊ विकास

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विश्व साक्षरता दिवस पर विशेष


.वर्ष 2011 की जनगणना मुताबिक 74.04 प्रतिशत भारतीयों को अक्षरज्ञानी कहा जा सकता है। वर्गीकरण करें, तो 82.14 प्रतिशत पुरुष और 65.46 महिलाओं को आप इस श्रेणी में रख सकते हैं। आप कह सकते हैं कि आगे बढ़ने और जिन्दगी की रेस में टिकने के लिये अक्षर ज्ञान जरूरी है।

इस सन्दर्भ में उनके इस विश्वास से शायद ही किसी को इंकार हो कि इसमें साक्षरता की भूमिका, मुख्य संचालक की हो सकती है। किन्तु क्या साक्षरता का मतलब सिर्फ वर्णमाला के अक्षरों और मात्राओं को जोड़कर शब्द तथा वाक्य रूप में पढ़ लेना मात्र है? क्या मात्र अक्षर ज्ञान हो जाने से हम हर चीज के बारे में बुनियादी तौर पर ज्ञानी हो सकते हैं। नहीं!

संयुक्त राष्ट्र द्वारा ‘साक्षरता और टिकाऊ समाज’ को इस वर्ष के अन्तरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस का मुख्य विचार बिन्दु तय किया गया है। गौर कीजिए कि यह बिन्दु, हमारे उत्तर का समर्थन करता है।

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पानी वाले मास्टरजी

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Author: 
पंकज चतुर्वेदी

शिक्षक दिवस पर विशेष


.‘‘अरे जल्दी से टोटी बन्द कर ले, मास्टरजी आ रहे हैं।’’ऐसी पुकार गाज़ियाबाद के आसपास के गाँवों में अक्सर सुनाई दे जाती है। त्रिलोक सिंह जी, गाज़ियाबाद से सटे गाँव गढ़ी के हैं। गाज़ियाबाद के सरस्वती विद्या मन्दिर में अंग्रेजी के अध्यापक हैं, लेकिन क्या स्कूल और क्या समाज, उनकी पहचान ही‘पानी वाले मास्टरजी’की हो गई है।

बीते दस सालों में मास्टरजी भी सौ से ज्यादा गाँवों में पहुँच चुके हैं, पाँच हजार से ज्यादा ग्रामीणों और दस हजार से ज्यादा बच्चों के दिल-दिमाग में यह बात बैठ चुके हैं कि पानी किसी कारखाने में बन नहीं सकता और इसकी फिजूलखर्ची भगवान का अपमान है। उनकी इस मुहिम में उनकी पत्नी श्रीमती शोभा सिंह भी महिलाओं को समझाने के लिये प्रयास करती हैं।

त्रिलोक सिंह जी अपने विद्यालय में बेहद कर्मठता से बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाते हैं और उसके बाद बचे समय के हर पल को अपने आसपास इस बात का सन्देश फैलाने में व्यतीत करते हैं कि जल नहीं बचाया तो जीवन नहीं बचेगा। मास्टर त्रिलोक सिंह जी ना तो किसी संस्था से जुड़े हैं और ना ही कोई संगठन बनाया है.... बस लोग जुड़ते गए कारवाँ बनता गया.... की तर्ज पर उनके साथ सैंकड़ों लोग जुड़े गए हैं।

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दिल्ली के तालाबों में कंक्रीट के जंगल

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Author: 
प्रदीप सिंह
Source: 
यथावत, सितम्बर 2015
.दिल्ली में पानी की कमी है। दूसरे राज्यों से आने वाला पानी दिल्ली की प्यास बुझाता है। एक समय था जब दिल्ली में पानी की कोई कमी नहीं थी। दिल्ली के शासकों ने भी शहर में बड़े-बड़े तालाब और झील बनवाए थे। नीला हौज, हौज खास, भलस्वा और दक्षिणी दिल्ली रिज में कई बड़े झील थे। तब दिल्ली के तालाबों और झीलों में लबालब पानी भरा होता था जो पीने और सिंचाई के काम आता था। लेकिन आज अधिकांश झील सूखे और गन्दगी के शिकार हैं।

नीला हौज झील कभी दक्षिणी दिल्ली की प्यास बुझाने के काम आता था लेकिन अब यह खुद ही प्यासी है। झील में स्वच्छ पानी के जगह कूड़े और गन्दगी का अम्बार है। झील में गिरने वाली कॉलोनियों का सीवर पानी को दूषित कर चुका है। वसंत कुंज स्थित इस झील की गिनती कभी दिल्ली के प्राकृतिक झीलों में हुआ करती थी। हरियाली से भरे इस क्षेत्र में झील की स्थिति दयनीय है। इसमें तैरते थर्माकोल और प्लास्टिक के टुकड़े झील के सौंदर्य और अस्तित्व पर ग्रहण लगा रहे हैं।

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देश को पीछे धकेलता बाढ़

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.अजीब विडम्बना है कि देश के बड़े हिस्से में मानसून नाकाफी रहा है, लेकिन जहाँ जितना भी पानी बरसा है, उसने अपनी तबाही का दायरा बढ़ा दिया है। पिछले कुछ सालों के आँकड़ें देखें तो पाएँगे कि बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई है।

कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहाँ की नदियाँ भी उफनने लगी हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। असल में बाढ़ महज एक प्राकृतिक आपदा ही नहीं है, बल्कि यह देश के गम्भीर पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक संकट का कारक बन गया है।

हमारे पास बाढ़ से निबटने को महज राहत कार्य या यदा-कदा कुछ बाँध या जलाशय निर्माण का विकल्प है, जबकि बाढ़ के विकराल होने के पीछे नदियों का उथला होना, जलवायु परिवर्तन, बढ़ती गर्मी, रेत की खुदाई व शहरी प्लास्टिक व खुदाई मलबे का नदी में बढ़ना, ज़मीन का कटाव जैसे कई कारण दिनों-दिन गम्भीर होते जा रहे हैं।

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बूँदों से जुड़ा शिक्षण

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.पानी संचय प्रणाली और तकनीकें अब सर्वोच्च प्राथमिकता में होना चाहिए- इस भाव को गाँव-गाँव और जन-जन तक फैलाने के लिये जरूरी है कि समाज में इस तरह का वातावरण निर्मित किया जाये। इस वातावरण निर्माण के लिये यह आवश्यक है कि पानी संचय के प्रति जागरुकता को और विस्तारित किया जाये।

इसके लिये ‘पानी-शिक्षण’ (वाटर एजुकेशन) को एक आन्दोलन के रूप में समाज के बीच ले जाना पड़ेगा। एक ऐसा आन्दोलन जिसमें हर वर्ग, हर भूगोल, हर जन, हर उम्र की भागीदारी हो। हम यदि पानी संचय के क्षेत्र में आत्मनिर्भर और सम्मान की जिन्दगी के सपने देखते हैं तो इसकी बुनियाद में इस तरह के पानी शिक्षण की नितान्त आवश्यकता है।

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