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अपनी मौत पर रो रही है नदी

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विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष


.रायपुर/खारून नदी के किनारे सात मीटर के एक टीले के प्रारम्भिक सर्वेक्षण में ही पुरातत्व शास्त्रियों को चौंकाने वाले सबूत मिले हैं।

दो हजार साल पुराने कुषाण राजाओं के तांबे से बने दो गोल सिक्के और सातवाहन राजा के शासनकाल का चौकोन सिक्का मिला है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर को पहचान देने वाली इस नदी के किनारे ग्राम जमराव में दो से ढाई हजार साल पुरानी एक और बसाहट मिली है। यह गाँव पाटन तहसील में आता है।

जिस तरह के मिट्टी के बर्तन, पासे और दूसरी चीजें यहाँ मिलीं हैं, उसे देखते हुए जमराव के तरीघाट की तरह बड़ी बसाहट मिलने की उम्मीद है। नतीजों से उत्साहित राज्य पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग के डायरेक्टर राकेश चतुर्वेदी अगले सीजन में यहाँ खुदाई या उत्खनन की अनुमति लेने की तैयारी में हैं।

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पांडु नदी पर गहराता संकट

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Author: 
अनिल सिंदूर

विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष


1. कानपुर में मल-मूत्र व घरेलू गन्दगी 20 करोड़ लीटर नदी के जल को ब्लैक वाटर में कर रही तब्दील
2. कानपुर में पनकी पावर प्लांट की राख से खत्म की जा रही नदी
3. नदी में डाले जा रहे दादा नगर तथा सीडीओ के नाले


.पांडु नदी फर्रुखाबाद से 120 किमी का सफर प्रारम्भ कर पाँच जिलों से गुजरती हुई फ़तेहपुर में गंगा नदी से मिलकर अपना अस्तित्व समाप्त कर देती है। लेकिन दुःख की बात ये है कि पांडु नदी का जल कानपुर नगर आते ही अपना मूल अस्तित्व खो कर एक प्रदूषण युक्त नाले में तब्दील हो जाता है।

पांडु नदी उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जनपद से प्रारम्भ होती है। माना यह जाता है कि इसका जन्म गंगा से ही है। पांडु नदी फर्रुखाबाद, कन्नौज, कानपुर देहात, कानपुर नगर तथा फतेहपुर जनपदों के गाँवों के हज़ारों एकड़ ज़मीन को सिंचाई का साधन उपलब्ध कराने में मददगार साबित होती रही है लेकिन इसे संरक्षित करने का जो प्रयास किये जाने चाहिए थे नहीं किये गए।

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नेहरू और राव जैसी संगत की जरूरत है नदियों को

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विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष


.आजादी के बाद प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की सबसे बड़ी चिन्ता देश को आत्मनिर्भर बनाने की थी। खासतौर पर खाद्य सुरक्षा के मामले में। और इसके लिये उनके विश्वस्त विशेषज्ञ सलाहकारों ने बता दिया था कि इसके लिये जल प्रबन्धन सबसे पहला और सबसे बड़ा काम है।

कभी सूखे के मारे अकाल और कभी ज्यादा बारिश में बाढ़ की समस्याओं से जूझने वाले देश में नदियों का प्रबन्धन ही एकमात्र चारा था। नदियों का प्रबन्धन यानी बारिश के दिनों में नदियों में बाढ़ की तबाही मचाते हुए बहकर जाने वाले पानी को रोककर रखने के लिये बाँध बनाने की योजनाओं पर बड़ी तेजी से काम शुरू कर दिया गया था।

वह वैसा समय था जब पूरे देश को एक नजर में देख सकने में सक्षम वैज्ञानिक और विशेषज्ञों का इन्तजाम भी हमारे पास नहीं था। अभाव के वैसे कालखण्ड में पंडित नेहरू की नजर तबके मशहूर इंजीनियर डॉ. केएल राव पर पड़ी थी।

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देश में कोई नहीं है नदियों का पुरसाहाल

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विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष


.इसे हम अपनी संस्कृति की विशेषता कहें या परम्परा कि हमारे यहाँ मेले नदियों के तट पर, उनके संगम पर या धर्म स्थानों पर लगते हैं और जहाँ तक कुम्भ का सवाल है, वह तो नदियों के तट पर ही लगते हैं जहाँ आस्था के वशीभूत लाखों-करोड़ों लोग आकर उन नदियों में स्नानकर पुण्य अर्जित कर खुद को धन्य समझते हैं। बल्कि गर्व का अनुभव करते हैं।

लेकिन विडम्बना यह है कि वे उस नदी के जीवन के बारे में कभी भी नहीं सोचते जो आज मरने के कगार पर हैं। यह उन संस्कारवान, आस्थावान, धर्मभीरू, संस्कृति के प्रतिनिधि उन भारतीयों के लिये शर्म की बात है जो नदियों को माँ मानते हैं। निस्सन्देह इससे उन्हें गर्वानुभूति तो नहीं ही होगी। इसमें दो राय नहीं है कि देश के सामने आज नदियों के अस्तित्व का संकट मुँह बाये खड़ा है।

क्योंकि आज कमोबेश देश की सभी नदियाँ प्रदूषित हैं और इनमें भी 70 फीसदी नदियाँ तो इतनी प्रदूषित हैं कि यदि यही हाल रहा तो एक दिन उनका केवल नाम ही रह जाएगा।

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नदियाँ : बूँदों का सफरनामा

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विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष


.किसी विशाल वट वृक्ष और किसी बहती नदी को देखकर जो अनुभूति होती है उसमें कहीं-ना-कहीं कुछ साम्य नजर आता है। जब वृक्ष को देखते हैं तो महसूस होता है इसका इतिहास वहाँ से प्रारम्भ होता है जहाँ एक नन्हें से बीज ने अपने जीवन के अस्तित्व की बाजी लगा दी थी और न जाने कितने सूखे, अतिवृष्टि, ओलावृष्टि, पाला आदि सहते हुए वह बीज पहले नन्हा पौधा और फिर इस विशाल वट वृक्ष में परिवर्तित होता चला गया।

एक वृक्ष न जाने कितनी प्रतिकूलताओं को सहने और उनसे पार पाते हुए आगे बढ़ने की एक सफल कहानी ही तो है। इसी तरह किसी बहती नदी को देखकर जब विचार इसके उद्भव भाव की ओर जाते हैं तो हमें नदी ‘बूँद-बूँद’ में दिखाई देने लगती है।

कविवर भवानी प्रसाद मिश्र की वही ‘बूँद’ जिसके लिये उन्होंने लिखा था- बूँद टपकी नभ से/किसी ने झुककर झरोखे से कि जैसे हंस दिया हो/ठगा सा कोई किसी का रूप देखे रह गया हो/उस बहुत से रूप को रोमांच रोके सह गया हो/बूँद टपकी एक नभ से...।

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हमारी नदियों को जीने दो

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विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष


.“हमारी नदियों को जीने दो” - दिल्ली उद्घोषणा में निहित इस अपील के साथ गत् वर्ष सम्पन्न हुए प्रथम भारत नदी सप्ताह को एक वर्ष पूरा हो चुका, किन्तु क्या इस एक वर्ष के दौरान अपील पर ध्यान देने की कोई सरकारी-गैर सरकारी समग्र कोशिश, पूरे भारत में शुरू हुई? क्या भारत की नदियों को जीने का अधिकार देने की माँग शासकीय, प्रशासनिक, न्यायिक या सामाजिक स्तर पर परवान चढ़ सकी?

क्या याद रही नदी की परिभाषा


नदी सप्ताह के दौरान देश भर के नदी कार्यकर्ताओं, अध्ययनकर्ताओं और विशेषज्ञों ने मिलकर नदी को परिभाषित करने की एक कोशिश की थी। श्री अनुपम मिश्र ने ठीक कहा था कि इंसान की क्या हैसियत है कि वह नदी को परिभाषित करे; इसीलिये नदी की परिभाषा, निष्कर्षों के कुछ टुकड़ों के जोड़ के रूप में आई

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नदियों का पर्यावरण और वहाँ का जनजीवन

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विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष


.ऊँचे पर्वत शृंखलाओं से बहते पानी का संग्रहण एक नदी के रूप में ही है। जो जीव-जन्तुओं के लिये जीवित रहने का एक प्राकृतिक वरदान माना गया। वैज्ञानिकों ने भी जिन-जिन ग्रहों को खोज निकाला, वहाँ भी जीवन की पहली ही खोज की गई। अलबत्ता जहाँ पानी के संकेत उन्हें मिले तो वहीं जीवन के भी संकेत मिले है।

बहरहाल पृथ्वी जैसे ग्रह पर पानी नदी, नालों, झरनों, तालाबों व बरसात के पानी के रूप में विद्यमान है। प्रकृति प्रदत्त यह जल धाराएँ अपने बहाव के साथ-साथ एक सभ्यता व संस्कृति का निर्माण भी करती है। इन सभ्यताओं में सबसे खूंखार प्राणी मनुष्य ही है जो प्रकृति का दोहन भी करता है तो संरक्षण भी करते पाये जाता है।

ज्ञात हो कि ‘नदी’ पृथ्वी पर दो प्रकार से बहती है। एक तो बरसाती और दूसरी सदानीरा। सदानीरा नदियाँ अधिकांश ग्लेशियरों से ही निकलती है।

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छत्तीसगढ़ के सवा लाख स्कूली बच्चों को पानी और स्वच्छता की कमी

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स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष


तीन लाख से ज्‍यादा बेटियों के लिये नहीं है शौचालय


.शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के पाँच साल बाद भी छत्तीसगढ़ के प्राइमरी, मिडिल, हाई एवं हायर सेकेंडरी स्कूलों में विद्यार्थियों को बुनियादी सुविधाओं के अभाव में पढ़ाई करनी पड़ रही है। छत्तीसगढ़ के करीब 1700 सरकारी स्कूलों में पीने के पानी का कोई इन्तज़ाम नहीं है। इसलिये पहली से बारहवीं तक पढ़ने वाले सवा लाख बच्चे पीने के पानी के लिये तरस रहे हैं।

वहीं प्रदेश के 4 हजार 347 स्कूलों में 2 लाख 88 हजार 301 बालिकाओं के लिये अभी शौचालय नहीं बन पाया है। शौचालय के अभाव में स्कूल जाने वाली बालिकाएँ लगातार शर्मसार हो रही हैं। इनमें रायपुर के 73 स्कूल शामिल हैं। बालिकाओं की तरह ही 12 हजार 893 स्कूलों में तो बालकों के लिये भी शौचालय नहीं है।

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नारे से आगे ना बढ़ पाएगा स्वच्छता अभियान

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स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.अगस्त महीना समाप्त हुआ था और सितम्बर लगा ही था कि दिल्ली व उससे सटे जिलों में डेंगू की खबरें आने लगीं, फिर डेंगू का डंक पूरे देश में फैलने लगा। हालात जब बिगड़ने लगे तो कई राज्यों के मुख्यमंत्री, नेता, नगर निगम प्रधान रेडियो व अन्य संचार माध्यमों से ज्ञान बाँटने लगे कि किस तरह यदि डेंगू हो जाये तो सरकार उनके साथ है।

ग़ौरतलब है कि इस साल देश के बड़े हिस्से में बारिश कम हुई है, इसके बावजूद डेंगू फैला। यह भी सब जानते हैं कि डेंगू मच्छरों के कारण फैलता है और मच्छरों की उत्पादन स्थली गन्दगी व रुका हुआ पानी है। एक साल पहले महात्मा गाँधी के जन्म दिवस दो अक्टूबर पर प्रधानमंत्री ने एक पहल की थी, उन्होंने आम लोगों से अपील की थी- निहायत एक सामाजिक पहल, अनिवार्य पहल और देश की छवि दुनिया में सुधारने की ऐसी पहल जिसमें एक आम आदमी भी भारत-निर्माण में अपनी सहभागिता बगैर किसी जमा-पूँजी खर्च किये दे सकता था- स्वच्छ भारत अभियान।

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क्या है स्वच्छ भारत अभियान की हकीकत

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स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.पिछले साल 2 अक्टूबर को देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महात्मा गाँधी के स्वच्छ भारत के सपने को साकार करने का बीड़ा उठाया था। दरअसल महात्मा गाँधी पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने मंच से स्वच्छता का मुद्दा पहली बार उठाया था। स्वच्छता के मसले को उन्होंने पहली बार दक्षिण अफ्रीका में उस समय उठाया जब वहाँ डरबन में प्लेग के प्रकोप का डर पैदा हुआ।

वहाँ हिन्दुस्तानियों पर अक्सर यह आरोप जिसमें कुछ तथ्य था, लगाया जाता था कि वे बहुत गन्दे रहते हैं और अपने घर-बार कतई साफ नहीं रखते हैं। महात्मा गाँधी के अनुसार- ‘‘इसका इलाज करने का काम मैंने वहाँ अपने निवास काल में ही सोच लिया था। हिन्दुस्तानियों पर लगे इस आरोप को निःशेष करने के लिये आरम्भ में सुधार की शुरुआत वहाँ हिन्दुस्तानियों के मुखिया माने-जाने वाले लोगों के घरों में से हुई। बाद में घर-घर घूमने का सिलसिला शुरू हुआ। इसमें म्यूनिसपैलिटी के अधिकारियों की सहमति भी थी और उनका सहयोग भी मिला। हमारी सहायता मिलने से उनका काम हल्का हो गया।

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गाँवों के सिर पर शहरों की गन्दगी

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स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.देश में साफ-सफाई के लिये नई सरकार का नए सिरे से अभियान का नारा लगाए जाने को एक साल होने आ रहा है। पिछले साल दो अक्टूबर को लगाए गए इस नारे के बाद क्या-क्या हुआ इसका कोई व्यवस्थित लेखा-जोखा नहीं मिलता। लेकिन जब-जब इस अभियान के लिये ब्रांड अम्बेसडरों का एलान होता है या नए नेता झाड़ू लेकर फोटो खिंचवाते हैं तो अहसास होता है कि नारा जिन्दा है।

सोचा गया होगा कि साफ-सफाई को लेकर देश के स्तर पर प्रचार की कमी है यानी जागरुकता की कमी है सो यह प्रचार अभियान जोर-शोर से चलाने का एलान किया गया होगा। यह एक तथ्य है कि गुलामी के दो सौ साल बाद आजाद हुए देश को चौतरफा अशिक्षा, कुपोषण और गरीबी विरासत में मिली थी।

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स्वच्छ भारत अभियान

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास’

स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.प्रधानमंत्री ने पिछले साल गाँधी जयन्ती के पुनीत अवसर को स्वच्छ भारत अभियान से जोड़कर एक अभिनव शुरूआत की थी। यह, देशवासियों की सेहत से जुड़ी बेहद जरूरी आवश्यकता की शुरुआत थी। स्वच्छ भारत अभियान का सन्देश मार्मिक था। लोगों को जोड़ने का तरीका अत्यन्त आत्मीय और प्रेरक था। उस तरीके में कहीं-न-कहीं राष्ट्रभक्ति तथा राष्ट्रगौरव का भी भाव छुपा था।

उस दिन प्रधानमंत्री खुद इस अभियान के साथ खड़े थे इसलिये लग रहा था कि अभियान निश्चय ही लक्ष्य हासिल करेगा। पाँच साल बाद जब देश के सामने उपलब्धता का रिपोर्ट कार्ड पेश होगा तो वह पश्चिमी देशों की पंक्ति में खड़ा दिखाई देगा।

पिछले साल, कुछ दिन तक प्रधानमंत्री की अपील का असर दिखाई भी दिया पर धीरे-धीरे वह अपील हाशिए पर चली गई।

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स्वच्छता सरकार की नहीं, हमारी जिम्मेदारी

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स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.विडम्बना है कि स्वच्छता का सीधा सम्बन्ध हमारी सेहत से होने के बाद भी हमारे समाज में स्वच्छता को लेकर कभी कोई गम्भीर किस्म का काम तो दूर, सार्थक चर्चा तक नहीं होती। हाँ, कभी-कभार कुछ बातें जरूर होती है पर वे बातें भी ज्यादातर रस्मी तौर पर ही कर ली जाती है। इधर अब की सरकारों ने स्वच्छता पर फोकस करना शुरू तो किया है पर अब भी यह सरकारीकरण से बाहर आकर लोगों के लिये जन अभियान का रूप नहीं ले पा रहा है।

महात्मा गाँधी ने सफाई की कीमत 1910–20 के दशक में ही समझ ली थी और उन्होंने इसके महत्त्व पर रोशनी डालते हुए यहाँ तक कहा था कि स्वच्छता आजादी से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। लेकिन गाँधी की इस बात को हम या तो भूल गए या अब तक नहीं समझ पा रहे हैं। इसके लिये अब भी सरकारों को निर्मल भारत और स्वच्छता अभियान चलाने पड़ रहे हैं। बात–बात पर गाँधी का अनुसरण करने की बातें करने वाले भी अपने परिवेश की साफ़–सफाई के लिये खुद भी जवाबदेह नहीं हो पा रहे हैं।

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स्वच्छ पर्यावरण पर शौचालय और शहरी सीवेज का भार

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स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.उत्तराखण्ड राज्य में भी सफाई को लेकर देश के अन्य भागों के जैसे ही हालात हैं। यहाँ भी कुछ अलग नहीं है। यहाँ अलग है तो सिर्फ-व-सिर्फ पहाड़, नदियाँ, ग्लेशियर व पर्यटन-तीर्थाटन। गाँव में आवासीय मकानों की नई पद्धति ने घर के ही पास या घर के भीतर शौचालय बनाना जरूरी समझा। इस राज्य में पहले कभी गाँव-घर में कोई शौचालय नहीं था।

चूँकि इस प्रदेश के पहाड़ी गाँव की पहचान थी कि गाँव की चारों तरफ की सरहदों पर कमोबेश अखरोट, चूलू (पहाड़ी खुबानी) के पेड़ बहुतायत में होते थे। जिस जगह को लोग चूलाण और अखलाण कहते थे। अर्थात शौच जाना था तो आम भाषा थी कि अखलाण या चूलाण में चले जाओ।

ये फलदार पेड़ गाँव की सरहद पर जहाँ प्रहरी का काम करते थे वहीं इनके कारण पर्यावरण को दूषित होने से बचाया जाता था। अब तो गाँव में इस तरह के फलदार पेड़ कहीं यदा-कदा ही दिखाई देते हैं।

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घर-घर के आगे ‘डॉक्टर’

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स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.बेगम साहिबा गुलारा की याद में बनाए महल और पास में ही उतावली नदी। मध्य प्रदेश के खंडवा जिले की बुरहानपुर तहसील से 25 किलोमीटर दूर बंजारों का गाँव सांडस। यहाँ सामाजिक-आर्थिक बदलाव की नई इबारत लिखी जा रही है। तहसील के सांडस जैसे 22 गाँव में आहिस्ता-आहिस्ता महिलाओं के चेहरे से पर्दा हट रहा है।

शराब के जाम पहले जैसी महफिल नहीं जमा पा रहे हैं। लड़ाई-झगड़ों में कमी आ रही है। सांडस गाँव की खास बात है कि यहाँ पर हर घर के सामने 24 घंटे एक ‘डॉक्टर साहब’ रहते हैं। तब भला कोई कैसे बीमार पड़ सकता है? गाँव वाले किसी दार्शनिक की भाँति जिन्दगी, भगवान, श्रम पर चर्चा करते हैं।

गाँव में अमृतालय के नाम से एक मन्दिर भी। और जनाब, गाँव के ज़मीर का क्या कहिए, किसी बंजारे के बच्चे के हाथ में 1-2 रुपए का नोट रखने की जुर्ररत तो कीजिए...।

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हमने पानी में आग लगा ही दी

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Author: 
चिन्मय मिश्र
Source: 
सर्वोदय प्रेम सर्विस, अक्टूबर 2015

स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष


ओ नई आई बादरी, बरसन लगा संसार, उठिठ् कबीर धाह दे, दाझत है संसार।कबीर

.‘‘बादल घिर आये तो लोगों ने सोचा पानी बरसेगा। इससे तपन मिटेगी, प्यास बुझेगी, पृथ्वी सजल होगी, जीवन का दाह मिट जाएगा, किन्तु हुआ ठीक उलटा। यह दूसरे तरह के बादल हैं, इनसे पानी की बूँदे नहीं, अंगारे बरस रहे हैं। संसार जल रहा है। कबीर ऐसे छल-बादल से संसार को बचाने के लिये बेचैन हो उठते हैं।”पानी में आग लगाना एक मुहावरा है और इसे एक अतिशयोक्ति की तरह अंगीकृत भी कर लिया गया। लेकिन विकास की हमारी आधुनिक अवधारणा और उसके क्रियान्वयन ने इस मुहावरे को अब चरितार्थ भी कर दिया है।

पता चला है कि पिछले दिनों कर्नाटक की राजधानी और भारत की कथित सिलिकान वेली, बैंगलुरु (बैंगलोर) की सबसे बड़ी झील, बेल्लांडुर झील में आग लग गई। इस आग की वजह उस झील में फैला असाधारण प्रदूषण था। इतना ही नहीं इस प्रदूषण की वजह से इस झील में जहरीला झाग (फेन) भी निर्मित हो जाता है, जो इसके आस-पास चलने वाले राहगीरों और वाहनों तक को अपनी चपेट में ले लेता है।

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आर्सेनिक के बारे में अक्सर पूछे जाने वाले सवाल और उनके जवाब - Frequently Asked Questions (FAQs) on Arsenic

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Source: 
आर्सेनिक : नॉलेज एण्ड एक्शन नेटवर्क

.आर्सेनिक क्या है?
आर्सेनिक (As) एक गंधहीन और स्वादहीन उपधातु है जो ज़मीन की सतह के नीचे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। यह रसायन-विज्ञान पीरियोडिक टेबल में नाइट्रोजन, फास्फोरस, एंटीमनी और बिस्मथ सहित ग्रुप VA का सदस्य है। इसका परमाणु क्रमांक (एटोमिक नंबर) 33 है और परमाणु भार (एटोमिक मास) 74.91 है।

प्रकृति में आर्सेनिक किन-किन रूपों में उपलब्ध है?
आर्सेनिक और इसके यौगिक रवेदार (क्रिस्टेलाइन), पाउडर और एमोरफस या काँच जैसी अवस्था में पाये जाते हैं। यह सामान्यतः चट्टान, मिट्टी, पानी और वायु में काफी मात्रा में पाया जाता है। यह धरती की तह का प्रचुर मात्रा में पाए जाना वाला 26वाँ तत्व है।

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उत्तराखण्ड में धारे-नौले थे कभी जीवन और जीवन-दर्शन भी

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.जीव-जगत के लिये जल के महत्त्व के बारे में लिखने की आवश्यकता नहीं है। प्राणवायु ऑक्सीजन के पश्चात जल सबसे महत्त्वपूर्ण है। ऑक्सीजन के बिना तो जीवन कुछ पल के बाद ही समाप्त हो जाता है। और, जल के बिना भी जीवन अधिक समय तक नहीं रह सकता है। यह तो रही जीवमात्र की बात, पर मनुष्य के लिये तो जल जीवन के साथ-साथ पूरा जीवन-दर्शन भी हैं।

इसीलिये विभिन्न जीवन-पद्धतियों में जल का सांस्कृतिक और सामाजिक महत्त्व ही नहीं बल्कि धार्मिक माहात्म्य भी है। भारतीय संस्कृति में तो आज भी जल को ईश्वर के रूप में देखा जाता है। युगों-युगों से भारतीय जल-दर्शन व्यवहार में है और उसके अनेक रूप हैं। जीवन-शैलियों और संस्कृतियों का स्वरूप गढ़ने में जल की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

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पारम्परिक प्रणालियाँ सक्षम हैं सूखे से निबटने में

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इंटरनेशनल नेचुरल डिजास्टर रिडक्शन दिवस, 13 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.अब देश से मानसून के बादल विदा हो गए हैं और यह तय है कि भारत का बड़ा हिस्सा सूखा, पानी की कमी और पलायन से जूझने जा रहा है।

बुन्देलखण्ड में तो सैंकड़ों गाँव वीरान होने शुरू भी हो गए हैं। एक सरकारी आँकड़े के मुताबिक देश के लगभग सभी हिस्सों में बड़े जल संचयन स्थलों (जलाशयों) में पिछले साल की तुलना में कम पानी है। बुवाई तो कम हुई है ही।

यही नहीं ऐसे भी इलाके सूखा-सम्भावित की सूची में हैं जहाँ जुलाई के आखिरी दिनों में बाढ़ आ गई थी और उससे भी खेत-सम्पत्ति को नुकसान हुआ था। लगता है यह कहावत गलत नहीं है कि आषाढ़ में जो बरस गया वह ठीक है, सावन-भादो रीते जाएँगे।

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साखर, संचय, हुनर, जैविकी : सूखे में सुख सार

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इंटरनेशनल नेचुरल डिजास्टर रिडक्शन दिवस, 13 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.सूखा पहले कभी-कभी आता था; अब हर वर्ष आएगा। कहीं-न-कहीं; कम या ज्यादा, पर आएगा अवश्य; यह तय मानिए। यह अब भारत भौगोलिकी के नियमित साथी है। अतः अब इन्हें आपदा कहने की बजाय, वार्षिक क्रम कहना होगा। वजह एक ही है कि सूखा अब आसमान से ज्यादा, हमारे दिमाग में आ चुका है।

हमने धरती का पेट इतना खाली कर दिया है कि औसत से 10-20 फीसदी कम वर्षा में भी अब हम, हमारे कुएँ, हमारे हैण्डपम्प और हमारे खेत हाँफने लगे हैं। उलटबाँसी यह कि निदान के रूप में हम नदियों को तोड़-जोड़-मोड़ रहे हैं। हमारे जल संसाधन मंत्रालय, हमेशा से जल निकासी मंत्रालय की तरह काम करते ही रहे हैं।

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