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आपदाओं के कुदरती होने या न होने का सच

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इंटरनेशनल नेचुरल डिजास्टर रिडक्शन दिवस, 13 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.अचानक होने वाले हादसों से जिन्दगी में जो हाहाकार मचता है वो तो है ही, पर ऐसे हादसों का अन्देशा भी उतना ही भयावह होता है। सुरक्षित और निश्चिन्त जीवन के लिये मानव दस हजार साल से लगातार अपने विकास की कोशिश में लगा है। हमने पिछली सदी के आखिरी दशकों में आपदा प्रबन्धन पर ज्यादा गौर करना शुरू कर दिया था।

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में तो आपदा प्रबन्धन अकादमिक विषय भी बन गया है। अपने नागरिकों को आपदाओं के अन्देशे से मुक्त रखने के लिये विश्व की लगभग सारी सरकारें सतर्क हैं। हम भी हैं। लेकिन अभी विकसित देशों के ज्ञान और प्रौद्योगिकी के सहारे ही हैं। और हम नई पीढ़ी को सिर्फ इस बात के लिये तैयार कर रहे हैं कि आपदा की स्थिति आने पर एक जागरूक नागरिक की तरह उन्हें क्या-क्या करने के लिये तैयार रहना चाहिए।

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आखिर कौन बचाएगा प्राकृतिक आपदाओं से हमें

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इंटरनेशनल नेचुरल डिजास्टर रिडक्शन दिवस, 13 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.आपदाएँ कभी कह कर नहीं आतीं। इसलिये उनसे बचाव के प्रयास आपदा के समय सरकारें यथासम्भव करती ही हैं। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। फिर भी आपदा से होने वाले नुकसान की भरपाई नहीं की जा सकती। हाँ उसे कुछ हद तक कम जरूर किया जा सकता है। इस कटु सत्य को झुठलाया भी नहीं जा सकता। इसमें दो राय नहीं है। उस स्थिति में जबकि भारत में आपदाओं की आशंका हर समय बनी रहती है।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि हमारे देश में खासकर पर्यावरण से जुड़ी आपदाएँ सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और पारिस्थितिकीय क्रियाओं के बीच के दुरूह और जटिल पारम्परिक-पारस्परिक प्रभावों के कारण घटित होती हैं। इनमें प्रमुख हैं बाढ़, ओलावृष्टि, चक्रवाती तूफान, सूखा, भूकम्प, शीत लहर, लू और सुनामी आदि-आदि जो हर साल कमोबेश हजारों-लाखों जिन्दगियों को अनचाहे मौत के मुँह में खींच ले जाती हैं और हम मूकदर्शक बने देखते रहने को विवश हैं।

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पानीदार बुन्देलखण्ड सूख रहा है

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इंटरनेशनल नेचुरल डिजास्टर रिडक्शन दिवस, 13 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.आषाढ़ में जो बरसा बस वही था, लगभग पूरा सावन-भादो निकल गया है और जो छिटपुट बारिश हुई है, उससे बुन्देलखण्ड फिर से अकाल-सूखा की ओर जाता दिख रहा है। यहाँ सामान्य बारिश का तीस फीसदी भी नहीं बरसा, तीन-चौथाई खेत बुवाई से ही रह गए और कोई पैंतीस फीसदी ग्रामीण अपनी पोटलियाँ लेकर दिल्ली-पंजाब की ओर काम की तलाश में निकल गए हैं।

मनरेगा में काम करने वाले मजदूर मिल नहीं रहे हैं। ग्राम पंचायतों को पिछले छह महीने से किये गए कामों का पैसा नहीं मिला है सो नए काम नहीं हो रहे हैं। सियासतदाँ इन्तजार कर रहे हैं कि कब लोगों के पेट से उफन रही भूख-प्यास की आग भड़के और उस पर वे सियासत की हांडी खदबदाएँ। हालांकि बुन्देलखण्ड के लिये यह अप्रत्याशित कतई नहीं है, बीते कई सदियों से यहाँ हर पाँच साल में दो बार अल्प वर्षा होती ही है।

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आपदा को समृद्धि में बदलने के बाढ़ सूत्र

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इंटरनेशनल नेचुरल डिजास्टर रिडक्शन दिवस, 13 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.13 अक्टूबर अन्तरराष्ट्रीय प्राकृतिक आपदा न्यूनीकरण दिवस है। जब पोर्टल के श्री रमेश ने मुझसे इस मौके पर बाढ़ को विषय बनाकर लेख लिखने का अनुरोध किया, तो सबसे पहला ख्याल यह आया कि क्या वाकई बाढ़, एक आपदा है?

क्या वाकई बाढ़, एक आपदा है?


जवाब आया कि बाढ़, प्राकृतिक होती है और कृत्रिम कारणों से भी, किन्तु यह सदैव आपदा ही हो, यह कहना ठीक नहीं। आपदा के आने का पता नहीं होता; कई नदियों में तो हर वर्ष बाढ़ आती है। पता होता है कि एक महीने के आगे-पीछे बाढ़ आएगी ही; तो फिर यह आपदा कहाँ हुई?

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ताकि पानी और हम रहें निर्विवाद

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कन्फ्लिक्ट रिजोल्यूशन दिवस, 15 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.आज के दिन हम जल विवादों को निपटारे पर चर्चा कर रहे हैं, तो हमें जरा सोचना चाहिए कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गंग और हरियाणा में यमुना नहरों से अधिकांश पानी निकाल लेने के कारण इनके निचले हिस्से वालों की सेहत पर कुप्रभाव पड़ता है कि सुप्रभाव?

उत्तराखण्ड के बाँधों द्वारा पानी रोक लेने से उत्तर प्रदेश वाले खुश क्यों नहीं होते? नदी जोड़ परियोजना, ऐसी नाखुशी कोे घटाएगी कि बढ़ाएगी? क्या भारत की गंगा-ब्रह्मपुत्र पर बाँध-बैराज, बांग्ला देश के हित का काम है?

हित-अनहित की गाँठ बनते नदी बाँध


भारत, आज यही सवाल चीन से भी पूछ सकता है। चीन, पहले ही भारत की 43,800 वर्ग किलोमीटर जमीन हथियाए बैठा है।

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पड़ोसी, साझा नदियाँ और भारत

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास’

कन्फ्लिक्ट रिजोल्यूशन दिवस, 15 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.भारत के निकटस्थ पड़ोसी देश हैं नेपाल, चीन, बंगलादेश, भूटान, श्रीलंका, म्यामांर और पाकिस्तान। श्रीलंका की नदी घाटियों का भारत की नदी घाटियों के साथ साझा नहीं है इसलिये भारत और श्रीलंका के बीच नदी जल विवाद नहीं है पर पाकिस्तान, चीन, नेपाल, भूटान, म्यांमार और बांग्लादेश के बीच पानी के बँटवारा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि सिंधु, ब्रम्हपुत्र एवं गंगा नदी तंत्रों में प्रवाहित विपुल जलराशि का उपयोग कर वे अपने लोगों की खेती सहित अनेक ज़रूरतों की पूर्ति कर सकते हैं। यह बँटवारा उनके नागरिकों के योगक्षेम तथा देश की खुशहाली से जुड़ा है।

यह लेख किसी भी देश के आधिकारिक पक्ष को पेश नहीं करता। यह लेखक की सीमित राय है। इसका उद्देश्य किसी भी देश की सोच को कमतर आँकने, विपरीत टीप देने या उस पर आक्षेप करना नहीं है।

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दिल्ली के भूजल में पानी कम रसायन अधिक

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Author: 
प्रदीप सिंह
.दिल्ली में लाखों लोग पानी के साथ लेड, कैडमियम, फ्लोराइड, नाइट्रेट व क्रोमियम जैसे भारी तत्वों का सेवन कर रहे हैं। इन तत्वों से हड्डियाँ प्रभावित होती हैं और बच्चों के स्वांस तंत्र को नुकसान पहुँचता है। इतना ही नहीं, कई मामलों में तो ये कैंसर जैसी गम्भीर बीमारियों का कारण भी बन जाते हैं।

दिल्ली के कई इलाकों में सीवर लाइन का पानी पेयजल की लाइनों में मिल गया था। इससे घरों में सप्लाई होने वाला पेयजल दूषित व बदबूदार हो गया था। राजधानी दिल्ली में पानी की किल्लत को लेकर समय-समय पर आवाज़ उठती रहती है। दिल्ली में पीने का पानी हरियाणा से आता है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली में पहले भी पीने या सिचाईं के पानी की कमी थी।

यमुना के किनारे बसे इस शहर में पानी की कोई कम नहीं थी। लेकिन आधुनिक विकास ने पहले तो यमुना को निगला।

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जल संसाधनों में सुधार बिना समस्या का निदान बेमानी

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.दरअसल पानी की समस्या अकेले हमारे देश की ही नहीं समूचे विश्व की है लेकिन हमारे यहाँ जिस तरह पानी की बर्बादी होती है, उसे देखते हुए यदि इस पर समय रहते शीघ्र अंकुश नहीं लगाया गया तो फिर बहुत देर हो जाएगी और तब हम कुछ भी नहीं कर पाएँगे।

वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि वर्ष 2025 तक दुनिया के दो तिहाई देशों में पानी की किल्लत हो जाएगी, जबकि एशिया और खासतौर पर भारत में 2020 तक ही ऐसा होने की आशंका है। इसे अधिक पानी की माँग या खराब गुणवत्ता वाले जल के चलते इसके सीमित मात्रा में इस्तेमाल के तौर पर देखा जा सकता है। एशिया में यह समस्या कहीं अधिक विकराल होगी।

भारत में 2020 तक पानी की किल्लत होने की आशंका है, जिससे अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर असर पड़ेगा।

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मूर्ति विसर्जन पर एक चिट्ठी, धर्माचार्यों के नाम

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नवरात्र विशेष


धर्म जगत के सभी आचार्यों को प्रणाम।
मूर्ति विसर्जन पर एक विनम्र निवेदन प्रस्तुत कर रहा हूँ।
उचित लगे, तो स्वीकारें और अनुचित लगे, तो मुझे सुधारें।
खुशी होगी।


आचार्यवर!
.आम धारणा है कि मुख्य रूप से उद्योग, सीवेज और शहरी ठोस कचरा मिलकर हमारी नदियों को प्रदूषित करते हैं। इसीलिये प्रदूषण के दूसरे स्रोत, कभी किसी बड़े प्रदूषण विरोधी आन्दोलन का निशाना नहीं बने। समाज ने खेती में प्रयोग होने वाले रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों को नदी के लिये कभी बड़ा खतरा नहीं माना।

संस्कार व दूसरे धार्मिक कर्मकाण्डों में प्रयोग होने वाली सामग्रियों के कारण नदियों का कुुछ नुकसान होने की बात का विरोध ही हुआ। देखने में यही लगता है कि धूप, दीप, कपूर, सिंदूर, रोली-मोली, माला, माचिस की छोटी सी तीली, और पूजा के शेष अवशेष मिलकर भी क्या नुकसान करेंगे इतनी बड़ी नदी का। इसी सोच के कारण हम अपनी आस्था को आगे पाते हैं और नदी की सेहत को पीछे।

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यूँ तो सुफल नहीं ला पाएगी ‘नमामि गंगे’

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.नदी बाँध विरोधियों के लिये अच्छी खबर है कि देश की सबसे बड़ी अदालत ने दिल्ली सरकार को चेताया है कि वह बाँधों के निर्माण के लिये तब तक दबाव न डाले, जब तक कि वह दिल्ली की जल-जरूरत को पूरा करने के लिये अपने सभी स्थानीय विकल्पों का उपयोग नहीं कर लेती। जाहिर है कि इन विकल्पों में दिल्ली के सिर पर बरसने वाला वर्षाजल संचयन, प्रमुख है। आदेश में यह भी कहा गया है कि दिल्ली अपने जल प्रबन्धन को सक्षम बनाए तथा जलापूर्ति तंत्र को बेहतर करे।

पनबिजली के विरोधाभास


नदी बाँध विरोधियों के लिये बुरी खबर है कि देश की इसी सबसे बड़ी अदालत ने अलकनंदा-भागीरथी नदी बेसिन की पूर्व चिन्हित 24 परियोजनाओं को छोड़कर, उत्तराखण्ड राज्य की शेष पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी देने के लिये, पर्यावरण मंत्रालय को छूट दे दी है।

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पानी ने बना दिया समय से पहले बूढ़ा

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छत्तीसगढ़ में फ्लोराइडयुक्त पानी पीने से विकलांग हो रहे लोग

.तमड़ी शंकर (35 वर्ष) का पैर खराब हो गया है। खेती-बाड़ी का काम करने वाले शंकर अब कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है। उसके शरीर में दर्द बना रहता है। कुछ ऐसा ही हाल कोरसे मुतैया, पेंदरल बायको और तमड़ी लक्ष्मैया का है। इन सभी की उम्र करीब-करीब एक जैसी ही है और यह सभी आदिवासी बहुल इलाके भोपालपटनम से तीन किमी दूर गुल्लापेटा पंचायत के गेर्रागुड़ा गाँव में रहते हैं।

इस गाँव में पाँच नलकूप और चार कुएँ हैं। इनमें से सभी नलकूपों और कुओं में फ्लोराइडयुक्त पानी निकलता है। यही कारण है गेर्रागुड़ा गाँव में बच्‍चों के दाँत खराब हो गए हैं। जवानों के चेहरे पर झुर्रियाँ और पीठ पर कूबड़ निकल आये हैं। सरकारी तंत्र की उपेक्षा ने इन ग्रामीणों का जीवन नरक से बदतर बना दिया है।

जानकारों का कहना है कि डेढ़ पीपीएम से अधिक फ्लोराइड की मौजूदगी को खतरनाक माना गया है। गेर्रागुड़ा में डेढ़ से दो पीपीएम तक इसकी मौजूदगी का पता चला है और लोगों में इसका खतरनाक असर साफ दिख रहा है।

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चश्मों और नागों की घाटी

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Author: 
केसर
.जिसकी फ़िजा में घुली मुहब्बत और केसर की खुशबू है। जिसके जिस्मों पर बर्फ की चादर लपेटे पहाड़ हैं। जिसकी हसीं वादियों में चश्में, नाग और धाराओँ से कल-कल, छल-छल करता पानी सरगम गाता फिरता है। जहाँ चिनार के विशाल पेड़, घने जंगल जन्नत का मंज़र पेश करते हैं। तभी तो इसे पृथ्वी का स्वर्ग कहते हैं। हम कश्मीर की ही बात कर रहे हैं। जिसके खूबसूरत नजारों को देखते ही अनायास जहाँगीर ने फारसी में कह डाला - ‘गर फिरदौस बर रुए ज़मीं अस्त, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्त’अर्थात अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं पर है और केवल यहीं पर है और निश्चित रूप से यहाँ पर है ही। भारत का कोहिनूर कश्मीर देखने को किसका मन नहीं ललचाता है।

पिछले दिनों एक कार्यक्रम के बहाने हमें भी इस जीते जागते स्वर्ग को देखने का मौका मिला। मन उत्सुक था कश्मीर के बारे में जानने को। श्रीनगर से सोनमर्ग के रास्ते पर जाते हुए कारचालक हमारे सबसे पहले गुरू बने। श्रीनगर से निकले भी नहीं थे कि उनसे हमारा पहला ही सवाल था ‘क्या आप स्प्रिंग के बारे में बता सकते हैं’? ‘उसे उत्तराखण्ड में धारे, मगरे, पंदेरों के नाम से जाना जाता है’हमने सवाल को आसान करते हुए कहा।

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भूकम्प से अब कैसे बचेगी दिल्ली

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.गत दिवस अफग़ानिस्तान में राजधानी काबुल से 256 किलोमीटर दूर हिन्दूकुश घाटी में 7.7 रिक्टर स्केल की तीव्रता वाले भूकम्प से पाकिस्तान सहित देश में उत्तर भारत के तकरीब आठ राज्य जिनमें जम्मू कश्मीर, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार सर्वाधिक रूप से प्रभावित हुए हैं।

इन राज्यों में भूकम्प के तकरीब 15-20 सेकेण्ड में बार-बार आये झटके इस आशंका को बल प्रदान करते हैं कि उत्तर भारत में भूकम्प कभी भी तबाही ला सकता है। वैसे अभी तक इस भूकम्प से देश में किसी बड़े नुकसान की सूचना नहीं है लेकिन पाकिस्तान में अभी तक की सूचना के अनुसार 112 से अधिक मौतें हो चुकी हैं और सैकड़ों लोग घायल हैं। वहाँ सेना को हरसम्भव राहत कार्य में जुटने का आदेश दे दिया गया है।

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जल विज्ञान के परमारकालीन साक्ष्य

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
.मध्य प्रदेश के प्राचीन जल विज्ञान का विवरण पेश करने वाली इस छोटी-सी किताब में परमार राजा भोज के द्वारा बनवाए गए दो तालाबों का विवरण सम्मिलित है। पहला तालाब (अब अस्तित्व में नहीं) भोजपुर (230 6’ उत्तर एवं 770 38’ पूर्व) में बेतवा नदी पर बनाया गया था। भोजपुर में बनवाया तालाब भीमकुण्ड (भीमकाय कुण्ड या विशाल जलाशय) कहलाता था।

इस किताब में उसे भीमकुण्ड के ही नाम से सम्बोधित किया गया है। भोजपुर ग्राम में भीमकुण्ड के अलावा भगवान शंकर का भव्य किन्तु अधूरा मन्दिर और शिवलिंग (चित्र एक) भी स्थित है। इस भव्य किन्तु अधूरे मन्दिर का शिवलिंग 2.29 मीटर ऊँचा और उसकी व्यास लगभग 5.33 मीटर है। यह शिवलिंग 6.58 मीटर के चौकोर प्लेटफार्म पर स्थित है। इस मन्दिर का प्रशासनिक दायित्व आर्कियालाजीकल सर्वे ऑफ इण्डिया के पास है। यह संरक्षित धरोहर है। भोजपुर ग्राम, मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 30 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में स्थित है।

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दीवाली की मूल भावना को भी समझो

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दीवाली विशेष


.उत्तर वैदिक काल में शुरू हुई आकाश दीप की परम्परा को कलयुग में दीवाली के रूप में मनाया जाता है। श्राद्ध पक्ष में भारत में अपने पुरखों को याद करने के बाद जब वे वापस अपने लोकों को लौटते थे तो उनके मार्ग को आलोकित करने के लिये लम्बे-लम्बे बाँसों पर कंदील जलाने की परम्परा बेहद प्राचीन रही है। फिर त्रेता युग में राजा राम लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे तो नगरवासियों ने अपने-अपने घर के दरवाजों पर दीप जलाकर उनका स्वागत किया। हो सकता है कि किसी सैनिक परिवार ने कुछ आग्नेय अस्त्र-शस्त्र चलाए हों, लेकिन दीपावली पर आतिशबाजी चलाने की परम्परा के बहुत पुराना होने के कोई प्रमाण मिलते नहीं हैं।

हालांकि अब तो देश की सर्वोच्च अदालत ने भी कह दिया कि पूर्व में घोषित दिशा-निर्देशों के अनुरूप आतिशबाजी चलाने पर कोई पाबन्दी लगाई नहीं जा सकती। लेकिन यह भी जानना जरूरी है कि समाज व संस्कृति का संचालन कानून या अदालतों से नहीं बल्कि लोक कल्याण की व्यापक भावना से होता रहा है और यही इसके सतत पालन व अक्षुण्ण रहे का कारक भी है।

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इस दीवाली दीजिए अपनों को खास तोहफ़ा

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दीवाली विशेष


.छत्तीसगढ़ सरकार ने हर वर्ष की तरह अपनी अखण्ड परम्परा को निभाते हुए पर्यावरण संरक्षण नियम 1986 के प्रावधानों के तहत पटाखों से सम्भावित ध्वनि प्रदूषण और वायु प्रदूषण की समस्या से निजात पाने के लिये कई तरह के निर्देश जारी किये हैं। राज्य के सभी जिला कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों को परिपत्र जारी कर कहा गया है कि निर्धारित मानकों से अधिक ध्वनि प्रदूषण वाले पटाखों के उत्पादन और उनकी बिक्री को प्रतिबन्धित किया जाये।

साथ ही नसीहत भी दी गई है कि सभी स्कूल-कॉलेजों में विद्यार्थियों को ध्वनि प्रदूषण और वायु प्रदूषण की समस्या की जानकारी देकर उन्हें पटाखों के दुष्प्रभावों के बारे में भी अवगत कराया जाना चाहिए। इसके लिये समाज में जन-जागरण अभियान चलाकर उसमें छात्र-छात्राओं को भी जोड़ा जाना चाहिए।

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समाज, दीपावली और पर्यावरण

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास’

दीवाली विशेष


.भारतीय जन मानस की स्मृतियों में रचा-बसा है कि दीपावली के ही दिन भगवान राम लंका विजय कर अयोध्या लौटे थे। उनकी अयोघ्या वापसी पर नगरवासियों ने ख़ुशियाँ मनाई थीं और रात्रि में पूरे नगर को दीपों से सजाया था। अयोध्या वापसी को चिरस्थायी बनाने के लिये हर साल दीवाली मनाई जाती है। रामायण काल से यह प्रथा चली आ रही है।

इसके अलावा, लगभग पूरे देश में रामलीला का आयोजन होता है। लोग उसके रंग में रंग जाते हैं। दशहरे के दिन रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण का वध आयोजन होता है। लोग बड़ी मात्रा में इस उत्सव में हिस्सेदारी करते हैं। लोगों को बधाई देते हैं और असत्य पर सत्य की जीत का उत्सव मनाते हैं।

ग़ौरतलब है कि भारत में भरपूर बरसात के सूचक उत्तरा नक्षत्र (12 सितम्बर से 22 सितम्बर) की विदाई के साथ त्योहारों यथा हरितालिका, ऋषि पंचमी, राधाष्टमी, डोल ग्यारस, अनन्त चतुर्दशी, नवरात्रि उत्सव, विजयादशमी, शरदपूर्णिमा और फिर दीपावली का सिलसिला प्रारम्भ होता है।

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पर्यावरण सम्मेलन में भारत बनाएगा जीवनशैली को मुद्दा

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Author: 
प्रदीप सिंह
.दिसम्बर माह विश्व पर्यावरण के इतिहास में मील का पत्थर बनने जा रहा है। फ्रांस की राजधानी पेरिस में विश्व भर के पर्यावरणविदों के साथ 190 देशों के सरकारों के प्रतिनिधि इसमें हिस्सा लेंगे। सम्मेलन 30 नवम्बर से 11 दिसम्बर तक यह सम्मेलन चलेगा।

50 हजार से अधिक प्रतिनिधि, 25 हजार आधिकारिक प्रतिनिधि, अन्तरशासकीय संगठन, यूएन एजेंसीज, गैर सरकारी संगठन और सिविल सोसायटी के हजारों सदस्य भी इस पर्यावरण परिवर्तन सम्मेलन में अपनी सक्रिय भागीदारी करेंगे। जिसमें पर्यावरण परिवर्तन, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन और दिनोंदिन अनियंत्रित हो रहे मौसम पर चर्चा होगी।

फ्रांस सरकार इस सम्मेलन को लेकर काफी उत्साहित है। महीनों से सम्मेलन की तैयारी शुरू हो गई है। भारत को उम्मीद है कि पेरिस में होने वाले विश्व पर्यावरण परिवर्तन सम्मेलन दुनिया भर के देशों के बीच एक उचित सहमति होगी।

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बाढ़ के नैहर में सूखे की मार

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Author: 
अमरनाथ
.उत्तर बिहार के बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में सूखा बड़ी मारक होती है। वहाँ की महीन बालूई मिट्टी को पानी की अधिक जरूरत होती है क्योंकि ऐसी मिट्टी में पानी को रोककर रखने की क्षमता कम होती है। इसलिये सिंचाई अधिक बार करनी होती है। बाढ़ के साथ आई मिट्टी से खेतों का भूगोल बदल जाये, तब कुछ अधिक इन्तजाम करना होता है।

परन्तु जब वर्षा अधिक होती थी तो बाढ़ की चर्चा ही अधिक होती थी, तब उसके बाद के सूखा की चिन्ता नहीं होती थी। बाद में नलकूपों का समाधान उपलब्ध हो गया। लेकिन सिंचाई की आवश्यकता लगातार बढ़ती गई है। वर्षा कम होने लगी है। डीजल महंगा होते जाने से उत्तर बिहार में सूखा का संकट अधिक विकराल हो गया है।

जबकि बाढ़ में अधिक पानी को सम्भालने और उसके बाद पानी की बढ़ी हुई आवश्यकता को पूरा करने के लिये प्राचीन काल में पोखरों की बेहतरीन व्यवस्था विकसित हुई थी।

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हिमालय के प्राकृतिक जलस्रोतों की अनदेखी घातक

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.हिमालय की तेज ढलानों में बर्फ और वनों के कारण पानी ज़मीन के अन्दर जमा होता रहता है और जहाँ भी ढलान में पानी को बाहर निकलने की जगह मिलती है, यह बाहर फूट पड़ता है। ऐसे स्थानों पर लकड़ी, धातु या पत्थर के पाइप लगाकर पानी भरने का स्थान बना लिया जाता है।

पहाड़ों में 80 प्रतिशत जलस्रोत ऐसे ही हैं। इन्हें कश्मीर में चश्मा, हिमाचल में नाड़ू, छरूहड़ू, पणिहार और गढ़वाल में धारा कहा जाता है। तराई के क्षेत्रों में बावड़ियाँ भी कहीं-कहीं देखने को मिलती हैं। हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिला में चट्टानों से रिसने वाले पानी का संग्रहण करने के लिये चट्टानों को काटकर भण्डारण बावड़ियाँ बनाई जाती हैं, जिन्हें खातरी कहा जाता है।

पानी की कमी होने के कारण कई जगह खातरियों के बाहर लकड़ी के दरवाजे लगाकर इन्हें ताला लगाकर रखा जाता है। यह बड़ी अद्भुत विकेन्द्रित जल आपूर्ति व्यवस्था थी। पहाड़ी गाँव ऐसे जलस्रोतों के आसपास बसे हैं।

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