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सोच, शौच और शौचालय

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Author: 
मीनाक्षी अरोड़ा और केसर
Source: 
पंचायतनामा, 08-14 अक्टूबर 2012
खुले में शौच तो हमें हर हाल में रोकना ही होगा। खुले में पड़ी टट्टी से उसके पोषक तत्व (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम) कड़ी धूप से नष्ट होते हैं। साथ ही टट्टी यदि पक्की सड़क या पक्की मिट्टी पर पड़ी है तो कम्पोस्ट यानी खाद भी जल्दी नहीं बन पाती और कई दिनों तक हवा, मिट्टी, पानी को प्रदूषित करती रहती है। मानव मल में मौजूद जीवाणु और विषाणु हवा, मक्खियों, पशुओं आदि तमाम वाहकों के माध्यम से फैलते रहते हैं और कई रोगों को जन्म देते हैं। सुबह-सुबह गांवों में अद्भुत नजारा होता है। रास्तों में महिलाओं की टोली सिर पर घूंघट डाले सड़कों पर टट्टी करती मिल जाएगी। पुरुषों की टोली का भी यही हाल होता है। टोली जहां-तहां सकुचाते, शर्माते और अपने भाई-भाभियों, काका-काकियों से अनजान बनते मलत्याग को डटी रहती है। हिंदुस्तान की बहुत सी भाषाओं में शौच जाने के लिए ‘जंगल जाना’, ‘बाहर जाना’, ‘दिशा मैदान जाना’ आदि कई उपयोगी शब्द हैं। झारखंड में खुले में ‘मलत्याग’ को अश्लील मानते हुए लोगों में एक ज्यादा प्रचलित शब्द है ‘पाखाना जाना’। पर जनसंख्या बहुलता वाले इस देश में न गांवों के अपने जंगल रहे और न मैदान ही। अब तो गांवों को जोड़ने वाली पगडंडियां, सड़कें, रेल की पटरियां, नदी-नालों के किनारे ही ‘दिशा मैदान’ हो गए हैं। परिणाम; गांव के गली-कूचे, घूरे-गोबरसांथ और कच्ची-पक्की सड़कें सबके सब शौच से अटी पड़ी हैं।

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हर हाल में हानिकर खुला शौच

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Author: 
राजीव चन्देल
Source: 
पंचायतनामा, 08-14 अक्टूबर 2012
महात्मा गांधी और विनोबा भावे ने कभी सुचिता यानि स्वच्छता से आत्मदर्शन की कल्पना की थी। ‘शुचिता से आत्मदर्शन’, जिसमें ‘शौचात् स्वांगजुगुप्सा’ तक भौतिक शुचिता से लेकर आध्यात्मिक शुचिता, आत्मानुभूति तक। जिससे भारत के जन-जीवन में शुचिता का दर्शन होगा। वह मानते थे कि तन व मन दोनों जब तक स्वच्छ नहीं होंगे तब तक धर्म, दर्शन व भगवान की बात करना ही बेमायने है। आज से करीब 90 साल पहले गॉंधी ने ग्राम स्वच्छता अभियान की शुरुआत की थी। उन्होंने यह बहुत पहले ही समझ लिया था कि देश में कई एक महामारियों का एक मात्र कारण है-खुले में शौच और घरों के आसपास फैली बजबजाती गंदगी। उस समय हैजा, कालरा, चिकन पॉक्स जैसी जानलेवा बीमारियों से कभी-कभी गांव की पूरी की पूरी आबादी ही साफ हो जाती थी। यही कारण था कि गांधी ने ताउम्र सफाई अभियान की न केवल वकालत की बल्कि गंदी से गंदी बस्ती में जाकर पाखाना साफ किया और लोगों को स्वच्छता के प्रति जागरूक किया। वह खुले में शौच के घोर विरोधी थे। वह गांव-गांव जाकर लोगों को खुले में शौच न करने व साफ-सफाई के विषय में वैज्ञानिक ढंग से समझाते थे।

वैज्ञानिकों के मुताबिक एक मक्खी एक दिन में कम से कम तीन किलोमीटर तक जरूर उड़ती है। इस तरह से मक्खियां एक बस्ती से दूसरी बस्ती, आसपास, खेत व जंगलों का सफर करती रहती हैं। मक्खियां मल पर बैठती हैं और फिर उड़ कर घरों में पहुंच कर खाने-पीने की चीजों पर बैठती हैं। उनके पैरों व पंखों में मल चिपका हुआ रहता है जो खान-पान की चीजों में जाकर घुल जाता है। इससे हैजा, कालरा व डायरिया जैसी जानलेवा बीमारी फैलने में देर नहीं लगती।

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जैव विविधता बनाए रखने की चुनौती

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Author: 
कुमार विजय
Source: 
अमर उजाला, 05 अक्टूबर 2012
जैव विविधता पर 01 अक्टूबर से शुरू हुआ संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन 16 अक्टूबर को खत्म होगा। भारत के हैदराबाद के इंटरनेशनल कंवेशन सेंटर और इंटरनेशनल ट्रेड एक्जीविशन में चल रहा यह सम्मेलन अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रमों की दृष्टि से एक बड़ा आयोजन है। ‘कांफ्रेंस ऑफ द पार्टीज टू द कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी (सीओपी 11)’ नाम से हो रहे इस कन्वेंशन में 150 देशों के पर्यावरण व वन मंत्री और विश्व बैंक, एडीबी जैसे संगठनों के अधिकारी भी भागीदारी करेंगे। जैव विविधता को बचाने के दृष्टिकोण से यह अनूठा सम्मेलन होगा, बता रहे हैं कुमार विजय।

दुनिया में 17 मेगा बायो डाइवर्सिटी हॉट स्पॉट हैं, जिनमें भारत भी है। हमारे देश में दुनिया की 12 फीसदी जैव विविधता है, लेकिन उस पर कितना काम हो पाया है, कितने वनस्पति और जीव के जीन की पहचान हो पाई है, यह एक अहम सवाल है। लोकलेखा समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पर्यावरण और वन मंत्रालय 45,000 पौधों और 91,000 जानवरों की प्रजातियों की पहचान के बावजूद जैव विविधता के संरक्षण के मोरचे पर विफल रहा है।आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में जैव विविधता पर पिछले एक अक्तूबर से शुरू हुआ सम्मेलन 19 अक्टूबर तक चलेगा। यह इस तरह का ग्यारहवां सम्मेलन है, जिसमें दुनिया के 193 देशों के लगभग 15,000 प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं। इस तरह का इतना बड़ा आयोजन सुबूत है कि जैव विविधता के संरक्षण और इसके टिकाऊ उपयोग के लिए इस वार्ता का कितना महत्व है। जैव विविधता के मामले में भारत एक समृद्ध राष्ट्र है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि देश में कृषि और पशुपालन, दोनों का काफी महत्व है। लेकिन दुर्भाग्य से यह विविधता अब बहुत तेजी से खत्म होती जा रही है।
इस खबर के स्रोत का लिंक: 

http://www.amarujala.com

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खुले में शौचमुक्त देश बनाने का सन्देश लेकर निर्मल यात्रा पहुंची इन्दौर

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Author: 
राजीव चन्देल,
source: 
निर्मल भारत यात्रा से, इन्दौर, 10 अक्टूबर 2012
स्कूलों में बच्चों को खुले में शौच से होने वाली जानलेवा बीमारियों के प्रति जागरूक करते कार्यकर्तास्कूलों में बच्चों को खुले में शौच से होने वाली जानलेवा बीमारियों के प्रति जागरूक करते कार्यकर्ता -वाश प्रोग्राम में स्कूली बच्चे सीख रहे हैं हैंडवाशिंग
- डांस व कनवरसेशन स्किल के माध्यम से करेबियन कोरियोग्राफर बच्चों को सिखा रहा है साफ-सफाई के तरीके

इन्दौर। वाश युनाइटेड व क्विकसैंड द्वारा देश को खुले में शौच मुक्त बनाने का सन्देश लेकर निकली निर्मल भारत यात्रा रविवार को इन्दौर पहुंची। यह यात्रा वर्धा से चली है, जो पांच राज्यों -महाराष्ट्र के वर्धा के अलावा, म.प्र. के इन्दौर, ग्वालियर, राजस्थान के कोटा, उ.प्र. के गोरखपुर से होकर बिहार के बेतिया तक जायेगी। इस दौरान इन सभी ऐतिहासिक शहरों में दो दिवसीय मेले का भी आयोजन किया जा रहा है।

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करोड़ों खर्च के बाद भी गंगा मैली क्यों?

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Source: 
एबीपी न्यूज, 15 अक्टूबर 2012

जीवनदायिनी गंगा को साफ करने के लिए अब तक करोड़ों रुपए खर्च किए जा चुके हैं। सन्यासियों, वैज्ञानिकों के साथ-साथ आम जनता गंगा को स्वच्छ करने की कोशिश में लगी हुई है, लेकिन गंगा आज भी मैली की मैली है। गंगा का पानी पीने लायक छोड़िए, नहाने और खेती करने लायक भी नहीं बचा है।
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http://abpnews.newsbullet.in

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जैव संपदा रजिस्टर योजना के किंतु-परन्तु

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जैव संपदा समृद्धि की दृष्टि से भारत दुनिया में 10वें नंबर पर है। दुनिया में मौजूदा कुल जैव संपदा का आठ फीसदी भारत में है। यह आंकड़ा एक ओर भारत की जैविक समृद्धि का प्रतीक है, तो दूसरी ओर दुनिया के जैव संपदा बाजार को भारत में आकर्षित करने का एक बड़ा कारण भी। इस कारण ने भारत की प्राकृतिक संपदा के प्रति कॉर्पोरेट सेक्टर के मन में एक बड़े लालच को जन्म दे दिया है।

केंद्र द्वारा उठाये एक नये कदम से अब पर्यावरण संरक्षण में पंचायतों की भूमिका और अहम् हो जायेगी, बशर्ते यह कदम पूरी समग्रता और ईमानदारी के साथ उठाया गया। यह कदम पंचायतों द्वारा अपने क्षेत्र की जैव संपदा का रिकार्ड तैयार करने, उसके उपयोग हेतु अनुमति देने न देने संबंधी अधिकार तथा उसके मुनाफे में स्थानीय समुदाय की हिस्सेदारी को लेकर है। इसे लागू करने में जितनी ईमानदारी की अपेक्षा सरकार से है, उससे ज्यादा समझदारी पंचायत व ग्रामसभाओं को दिखानी होगी। कहीं ऐसा न हो कि वैचारिक तौर पर अच्छा दिख रहा यह कदम कुछ लोगों के लालच व मनमानी के कारण जैव संपदा के सफाये, बाजारीकरण, कंपनियों के कब्जे व भ्रष्टाचार की पूर्ति का मान्य माध्यम बन जाये !!

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उ. प्र. नदी प्रदूषण मुक्ति, ग्राम प्रधानों की भूमिका और आगे

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छोटी नदियों की प्रदूषण मुक्ति में जब खुद समाज का पसीना लगेगा; उसकी संवेदना व सरोकारों का जगना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया होगी। नदी प्रदूषण के कारण आज जाने कितनी ही छोटी नदियों का समाज अपनी और खेती की खराब सेहत को लेकर त्रस्त है। जाहिर है कि पड़ोस की नदी की प्रदूषण मुक्ति का सबसे पहला फायदा उसी ग्रामसभा को होगा, जो प्रदूषण मुक्ति के काम में लगेगी। यह नतीजा उसे बड़ी नदियों की प्रदूषण मुक्ति का सपना लेने और उसके लिए जुटने को प्रोत्साहित करेगा। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून के तहत दिए जाने वाले काम में जल संचयन ढांचों के निर्माण व पुनरुद्धार को प्राथमिकता पर रखे जाने की बात हम सभी जानते हैं। इस कदम ने भारत के जल संचयन व जल पुनर्भरण को लेकर एक बड़ी उम्मीद जगाई थी। मनरेगा के तहत राज्य सरकारों द्वारा बनाई योजनाओं में वृक्षारोपण से भी उम्मीद जगी थी कि इससे पर्यावरण का कुछ भला होगा। हालांकि ग्रामप्रधानों की भ्रष्ट कमाई को लेकर कोई मुगालता किसी को नहीं है, बावजूद अब छोटी नदियों को साफ कराने का जिम्मा सीधे ग्राम प्रधानों को सौंपे जाने संबंधी उत्तर प्रदेश सरकार की ताजा योजना से नदी प्रेमियों को मन में फिर आशा का संचार हुआ है। इससे छोटे-छोटे प्रयासों करने वालों के लिए एक रास्ता खुलेगा।

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कचरे के ढेर पर

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Author: 
कविता वाचक्नवी
Source: 
जनसत्ता (रविवारी), 21 अक्टूबर 2012
तमाम प्रगति और तरक्की के दावों के बावजूद भारत की छवि दुनियाभर में कूड़े-कचरे से घिरे देश की बन रही है। महानगरों और नगरों में पसरी गंदगी तो लाइलाज हो चुकी है। यहां तक कि मनोरम पर्यटन और तीर्थस्थल भी साफ-सुथरे नहीं रह गए। देश में पनप रहे इस नए खतरे का जायजा ले रही हैं कविता वाचक्नवी।

अपने वातावरण के प्रति जागरूकता प्रत्येक में होनी ही चाहिए वर्ना पूरे देश को कूड़े के ढेर में बदलने में समय ही कितना लगता है? विदेश में रहने वालों के लिए इसीलिए भारत को देखना बहुधा असह्य हो जाता है और हास्यास्पद भी। प्रकृति की ओर से जिस देश को सर्वाधिक संसाधन और सौगात मिली है, प्रकृति ने जिसे सबसे अधिक संपन्न और तराशे हुए रूप के साथ बनाया है, वह देश अगर पूरा का पूरा हर जगह कचरे के ढेर में बदल चुका है, सड़ता दिखता है तो उसका पूरा दायित्व केवल सरकार का नहीं, नागरिकों का भी है। विदेशों-खासकर, यूरोप, अमेरिका और विकसित देशों में कचरे-कूड़े की व्यवस्था बहुत बढ़िया ढंग से होती है। हर परिवार के पास काउंसिल के बिंस एंड वेस्ट कलेक्शन विभाग की ओर से बड़े आकार के तीन वेस्ट बिंस खासकर मिले हुए होते हैं, जो घर के बाहर, लॉन में एक ओर या गैरेज या मुख्यद्वार के आसपास कहीं रखे रहते हैं। परिवार स्वयं अपने घर के भीतर रखे दूसरे छोटे कूड़ेदानों में अपने कचरे को तीन प्रकार से डालता रहता होता है। इसलिए घर के भीतर भी कम से कम तीन तरह के कूड़ेदान होते हैं। एक ऑर्गेनिक कचरा, दूसरा रिसाइकिल हो सकने वाला और तीसरा जो एकदम नितांत गंदगी है, इन दोनों से अलग। हफ्ते में एक सुनिश्चित दिन, विभाग की तीन तरह की गाड़ियां आती हैं, उससे पहले या (भर जाने पर यथा इच्छा) अपने घर के भीतर के कूड़ेदनों से निकाल कर तीनों प्रकार के बाहर रखे बिंस में स्थानांतरित कर देना होता है, जिसे वे निर्धारित दिन पर आकर एक-एक कर अलग-अलग ले जाती हैं।

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टाइम बम बनतीं हिमालयी झीलें

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Author: 
महेश पांडे
Source: 
नेशनल दुनिया, 07 अक्टूबर 2012
यह ग्लोबल वार्मिंग का असर है या क्षेत्रीय जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कि अब ऊंचाई पर बर्फबारी नहीं, बारिश होने लगी है। हिमालयी क्षेत्रों की ग्लेशियर निर्मित झीलें राहत नहीं बल्कि आफत बन चुकी हैं।

उत्तराखंड राज्य में एक बड़ी समस्या झीलों में होना वाला ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट भी है। कुछ समय पहले तक यहां के ऊंचाई वाले स्थानों पर अधिक बारिश नहीं होती थी लेकिन अब यहां अक्सर बरसात होती है जिससे फ्लैश फ्लड का खतरा बढ़ गया है। इस तरह की बाढ़ में अब तक कितने ही घर, खेत और पशु तबाह हो चुके हैं। यहां तक कि गांवों का नामोनिशान तक मिट गया है। हिमालयी सदानीरा नदियां कभी भी तबाही बन सकती हैं। हिमालयी क्षेत्रों से सफेद बर्फ की चादर की जगह अब काले बादल खतरे के रूप में मंडराने लगे हैं। उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र की तमाम ग्लेशियर निर्मित झीलों की पारिस्थितिकी बदलने से राज्य के ऊपरी इलाकों में तबाही का खतरा बढ़ रहा है। ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड्स (जीएलओएफ) की घटनाओं में अचानक बढ़ोतरी हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से मौसम में आए बदलाव ने भी क्षेत्र के पारिस्थितिकी को बड़े हद तक प्रभावित किया है। वैज्ञानिक यह स्पष्ट कर चुके हैं कि सिर्फ आर्कटिक या अंटार्कटिक ही नहीं, हिमालय के ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं। कभी पूरा उत्तराखंड राज्य हरे-भरे पहाड़ों से आच्छादित था लेकिन धीरे-धीरे स्थितियां बदल रही हैं। तमाम सदानीरा नदियां एवं प्राकृतिक जलस्रोतों में बदलाव आ रहे हैं उत्तराखंड की ग्लेशियर युक्त पर्वत श्रृंखलाएं व इससे जुड़ी घाटियां वाटर बैंक के रूप में जानी जाती हैं। इस क्षेत्र के 917 ग्लेशियर 3,550 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं।

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खुले में शौच यानी बीमारियों को निमंत्रण

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Author: 
मीनाक्षी अरोड़ा
Source: 
सर्वोदय प्रेस सर्विस, अक्टूबर 2012
भारत की आधी से अधिक आबादी खुले में शौच जाने को मजबूर है। इसके परिणामस्वरूप अनेक बीमारियां जिनमें उल्टी-दस्त प्रमुख हैं, बड़े पैमाने पर फैलती हैं, जिनकी परिणति कई बार मृत्यु पर ही होती है। सरकारी योजनाओं में शौचालय निर्माण की बात तो जोर-शोर से की जाती है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही तस्वीर हमारे सामने रख रही है। दुनिया में सर्वाधिक लोग दूषित जल से होने वाली बीमारियों से पीड़ित हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकड़े बताते हैं कि दुनिया में प्रतिवर्ष करीब 6 करोड़ लोग डायरिया से पीड़ित होते हैं, जिनमें से 40 लाख बच्चों की मौत हो जाती है। डायरिया और मौत की वजह प्रदूषित जल और गंदगी ही है। अनुमान है कि विकासशील देशों में होने वाली 80 प्रतिशत बीमारियां और एक तिहाई मौतों के लिए प्रदूषित जल का सेवन ही जिम्मेदार है। प्रत्येक व्यक्ति के रचनात्मक कार्यों में लगने वाले समय का लगभग दसवां हिस्सा जलजनित रोगों की भेंट चढ़ जाता है। यही वजह है कि विकासशील देशों में इन बीमारियों के नियंत्रण और अपनी रचनात्मक शक्ति को बरकरार रखने के लिए साफ-सफाई, स्वास्थ्य और पीने के साफ पानी की आपूर्ति पर ध्यान देना आवश्यक हो गया है। निश्चित तौर पर साफ पानी लोगों के स्वास्थ्य और रचनात्मकता को बढ़ावा देगा। कहा भी गया है कि सुरक्षित पेयजल की सुनिश्चितता जल जनित रोगों के नियंत्रण और रोकथाम की कुंजी है।

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दिल्ली वाटर पीपीपी की पहली सौगात : मंहगाई भी, घोटाला भी

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ऐसा नहीं है कि जलबोर्ड पहली बार महंगा पानी बेचने जा रहा हो; इससे पहले जलबोर्ड भी जार में पानी बेचता ही रहा है। लेकिन पहले वह खरीदने की क्षमता रखने लायक दक्षिणी दिल्ली की पॉश आबादी को बोतलबंद पानी बेचता था। किसी गरीब बस्ती को महंगा पानी बेचने की योजना उसने पहली बार बनाई है। कॉलोनी में पानी के लिए अब तक या तो हैंडपम्प उपलब्ध रहे हैं या टैंकर। हैंडपम्पों का पानी उतर भी रहा है और बीमार भी कर रहा है। टैंकर अब आयेंगे नहीं। तो विकल्प क्या होगा? बीमार पानी पिओ या लुटने को तैयार रहो। दिल्ली में पानी के ‘पीपीपी’ का पहला नतीजा आ गया है। ‘पीपीपी’ यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप। पहला नतीजा निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए एक हजार करोड़ रुपये की गड़बड़ी का आरोप बनकर सामने आया है। दूसरा नतीजा ऐसा है, जो कि गरीब का पानी उतारेगा और कंपनी का चढ़ायेगा। उल्लेखनीय है कि दिल्ली में जहां पानी की पाइप लाइन नहीं पहुंची हैं, वहां अब तक टैंकर पानी पहुंचाते रहे हैं। दिल्ली जल बोर्ड ने ऐसी जगहों पर अब सस्ते टैंकरों की राह रोककर, महंगा बोतलबंद पानी बेचने का फैसला किया है। कीमत- दुकान से खरीदने पर तीन रुपये और घर बैठे लेने पर छह रुपये प्रति लीटर। पाइप लाइन से मिलने वाले पानी की तुलना में कई गुना! इसका पहला निशाना बना है -सावदा घेवरा। विकेंद्रीकरण के नाम पर सोची गई योजना के पायलट प्रोजेक्ट का मुकाम।

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जल-चालीसा

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Author: 
रमेश गोयल
जल मंदिर, जल देवता, जल पूजा जल ध्यान।
जीवन का पर्याय जल, सभी सुखों की खान।।
जल की महिमा क्या कहें, जाने सकल जहान।
बूंद-बूंद बहुमूल्य है, दें पूरा सम्मान।।

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कराह रहा गंगा डेल्टा, बेअसर होती हर पहल

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Author: 
दीपक रस्तोगी
Source: 
नेशनल दुनिया, 21 अक्टूबर 2012
बंगाल में 520 किलमीटर तक बहती बड़े भूभाग का जीवन चलाती गंगा जब सागर से मिलने को होती है तो गति थामकर डेल्टा का रूप अख्तियार कर लेती है पर उत्तराखंड से निकलते ही उपेक्षा और दुर्व्यवहार झेलती गंगा का दर्द यहां बालू, पत्थर और वन माफिया और बढ़ा जाते हैं। राजनीतिक कारणों से उमा भारती की हालिया पहल भी बेअसर दिख रही है।अभी भारतीय जनता पार्टी की नेता उमा भारती ने बगाल के गंगासागर से अपने ‘गंगा समग्र अभियान’ की शुरुआत की। इस अभियान का विषय गंगा नदी के प्रदूषण और अस्तित्व के संकट की ओर ध्यान दिलाना भले था लेकिन बंगाल के राजनीतिक समीकरणों के चलते प्रभाव नहीं के बराबर रहा। शुरुआती चरण में ही बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ने इस अभियान का विरोध कर दिया था। सरकार ने गंगासागर में जनसभा करने की अनुमति रद्द कर दी थी जिससे विवाद का जिन्न अभियान पर हावी हो गया। यह छुपा नहीं रह गया है कि उमा भारती ने लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अपनी यह यात्रा शुरू की है। बंगाल के संदर्भ में भी उनके इस अभियान के राजनीतिक निहितार्थ थे लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि गंगा के डेल्टा और डेल्टा के सैकड़ों किलोमीटर क्षेत्र में प्रदूषण और गंगा के अन्य संकटों का सवाल पहली बार उठाया गया। वैसे, गंगोत्री से वाराणसी और पटना तक कई संस्थाएं सवाल उठाती मिल जाएगी।

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हाथ न धोने की कीमत रुपये 69 हजार करोड़

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Author: 
काज़ी फराज़ अहमद
Source: 
दैनिक जागरण -(आई नेक्स्ट), 04 नवंबर 2012

India loses Rs. 69,000 crore a year due to infections


इंफेक्शंस से बचने के लिए जरूरी है हाथों की सफाईइंफेक्शंस से बचने के लिए जरूरी है हाथों की सफाईलखनऊ, 3 नवम्बर, 2012। भारत को हर साल 69 हजार करोड़ रुपये का नुकसान सिर्फ छोटे इंफेक्शंस की वजह से होता है। यह बात सामने आयी है लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की स्टडी ‘द लाइफब्वॉय कॉस्ट ऑफ इंफेक्शन स्टडी’ में। ये फिगर साल 2012 में भारत के 2012 के हेल्थ बजट 34,448 करोड़ रुपये से भी लगभग दो गुना है। ऐसे में हमारे देश में लोगों की हाइजीन पर एक बड़ा सवालिया निशान लगता है।

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तबाही के निशान

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Author: 
राघवेंद्र नारायण मिश्र
Source: 
नेशनल दुनिया, 04 नवंबर 2012
बिहार हर साल बाढ़ का दंश झेलता है लेकिन स्थिति फिर भी जस की तस बनी हुई है। आबादी बेहाल है। बाढ़ की प्रलंयकारी लीला में हर साल एक लाख घर बह जाते हैं। बिहार में बाढ़ ने पिछले 31 सालों में 69 लाख घरों को क्षति पहुंचाया है। हाल में केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने बाढ़ का आकलन करने के लिए विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाई थी लेकिन उसमें बिहार को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया जबकि देश के कुल बाढ़ग्रस्त इलाकों का 17 फीसदी हिस्सा बिहार में पड़ता है।बिहार ने बाढ़ की एक और विभीषिका झेल ली। बाढ़ का पानी लौट चुका है और तबाही के निशान शेष रह गए हैं। ठेकेदारों और अफसरों की कमाऊ जमात ने एक बार फिर बाढ़ राहत के नाम करोड़ों के वारे-न्यारे किए और अगली बाढ़ से सुरक्षा के नाम पर तैयारियां शुरू हो गई हैं। यह हर साल का किस्सा है जो एक बार फिर दोहराया जा रहा है। बाढ़ की मार झेल चुके लोग ध्वस्त हो चुके मकानों को किसी तरह खड़ा करने में जुटे हैं और सरकार तबाही के लिए नेपाल को कोस रही है। इस राष्ट्रीय आपदा का स्थायी समाधान सिर्फ चर्चाओं तक सीमित रहा है। नदियों किनारे बसे लोगों के लिए तबाही उनकी नियति बन चुकी है। चार साल पहले कोसी ने कहर ढाया था तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उसे राष्ट्रीय आपदा घोषित किया था लेकिन राहत और पुनर्वास के प्रयास नहीं के बराबर हुए। कोसी क्षेत्र के हजारों एकड़ उपजाऊ खेतों में अभी तक बालू के ढेर पड़े हैं। इन खेतों में अब फसल नहीं होती। आपदा में क्षतिग्रस्त लाखों घर पुनर्निर्माण की राह देख रहे हैं।

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पुतले हम माटी के

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Author: 
सोपान जोशी
Source: 
गांधी मार्ग, नवंबर-दिसंबर 2012
विज्ञान और शोध की दुनिया में हमारे इन मित्र जीवाणुओं के प्रति प्रीति और रुचि हाल ही में बढ़ी है। वो भी इसलिए कि एंटीबायोटिक दवाओं का असर कम होने लगा है। रोगाणु इन्हें सहने की ताकत बना लेते हैं और मजबूत हो जाते हैं। फिर और नए और मंहगे एंटीबायोटिक पर शोध होता है। इस शोध के दौरान वैज्ञानिकों को समझ आया कि शरीर में कुछ और भी जीवाणु हैं और इनसे हमारा संबंध धरती पर जीवन के उद्गम के समय से है। यह कहना ज्यादा सही होगा कि ये हमारे पुरखे ही हैं।आज हम मंगल ग्रह के भूगोल के करीबी चित्र देखते हैं, चांद पर पानी खोजते हैं और जीवन की तलाश में वॉएजर यान को सौरमंडल के बाहर भेजने की कूवत रखते हैं। लेकिन हमारे शरीर पर और उसके भीतर रहने वाले अरबों जीव-जीवाणुओं के बारे में हम बहुत कम ही जानते हैं, जबकि इनसे हमारा लेन-देन हर रोज, हर पल होता रहता है। विज्ञान इस आदि-अनंत संबंध का एक सूक्ष्म हिस्सा अब समझने लगा है। इस संबंध का स्वभाव होड़, प्रतिस्पर्धा कम सहयोग ज्यादा है। इस नई खोज से हमारी एक नई परिभाषा भी उभरती है। ‘मैं कौन हूं’ जैसे शाश्वत और आध्यात्मिक प्रश्न का भी कुछ उत्तर मिल सकता है! जीव शब्द से हम सब परिचित हैं। अणु से भी हम सब नहीं तो हममें से ज्यादातर परिचित हैं ही। पर जब ये दोनों शब्द जुड़ कर जीवाणु बनते हैं तो उनके बारे में हममें से मुट्ठी-भर लोग भी कुछ ज्यादा जानते नहीं। इन सूक्ष्म जीवाणुओं को समझना हमारे लिए अभी भी टेढ़ी खीर है।

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लापोड़िया गांव : खबरों में नहीं बहा

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Author: 
लक्ष्मणसिंह खंगारोत
Source: 
गांधी मार्ग, नवंबर-दिसंबर 2012
हम छोटे-छोटे लोगों ने जैसी छोटी-छोटी योजनाएं बनाईं, हमारे बड़े देवता इंद्र ने उनको अच्छी तरह से स्वीकार कर लिया। और हमें जो प्रसाद बांटा है उसका हम ठीक-ठीक वर्णन भी आपके सामने नहीं कर पाएंगे। अब हमारे गांव में खूब अच्छी बरसात आए, तो आनंद आता है, बाढ़ नहीं आती। पानी तालाबों में भरता है, विशाल गोचर में थोड़ी देर विश्राम करता है, धरती के नीचे उतरता है। नीचे से धीरे-धीरे झिरते हुए गांव के कुंओं में उतरता है।हमारे यहां तब तक पानी गिरा नहीं था। अगस्त का पहला हफ्ता बीत गया था। आसपास, दूर-दूर सूखा ही सूखा था। सूखा राहत का काम भी शुरू हो रहा था कि अगले दिन बरसात आ गई। सात अगस्त 2012 तक सूखा। और ये लो भई आठ अगस्त से राजस्थान में राजधानी जयपुर समेत दूर-दूर बाढ़ आ गई। बाढ़ राहत की मांग उठने लगी और वह काम भी शुरू हो गया!

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पेंच बांध परियोजना : सपनों की जलसमाधि

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Source: 
आईबीएन-7, 08 नवंबर 2012

मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिला मुख्यालय से लगभग 40 किलोमीटर दूर पेंच बांध परियोजना में भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों के आंदोलन में शामिल नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता सुश्री मेधा पाटकर और 17 कार्यकर्ताओं को 4 नवम्बर को पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिया तथा 7 नवम्बर को उनके सहित सभी कार्यकर्ताओं को एक-एक हजार के निजी मुचलके पर कोर्ट के आदेश के बाद रिहा किया गया।
इस खबर के स्रोत का लिंक: 

http://khabar.ibnlive.in.com

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पुस्तक: नदियां और हम

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Author: 
रामेश्वर मिश्र पंकज
रामेश्वर मिश्र पंकज द्वारा लिखी ‘नदियां और हम’ पुस्तिका की मूल प्रति यहां पीडीएफ के रूप में संलग्न है। पूरी किताब पढ़ने के लिए इसे डाउनलोड कर सकते हैं।

पुस्तक अंश


नदियां तीर्थ हैं। इनके तट पर विशिष्ट तीर्थ भी हैं। स्कंदपुराण के काशीखंड के अनुसार तीर्थ दो प्रकार के हैं : मानस तीर्थ और भौम तीर्थ। मानस तीर्थ कहते हैं उन तपस्वी, ज्ञानी जनों को, जिनके मन शुद्ध हैं और आचरण ऊंचा है, जो समाज की भलाई के लिए ही काम करते हैं। भौम तीर्थ चार तरह के होते हैं : अर्थ तीर्थ, काम तीर्थ, धर्म तीर्थ और मुक्ति तीर्थ।

नदियों के तट और संगम पर बने बड़े व्यापारिक केंद्र ‘अर्थ तीर्थ’ कहे जाते हैं। कलाओं और सौंदर्य के साधना केंद्रों को ‘काम तीर्थ’ कहते हैं। जहां विद्या और धर्म के केंद्र हों, वे ‘धर्म तीर्थ’ होते हैं। जहां मुख्यतः पराविद्या एवं साधना के, मोक्ष साधना के केंद्र हों, वे मोक्ष तीर्थ होते हैं। जहां चारों का संगम हो वह है महापुरी। भारतीय राजधानी को अर्थ, काम एवं धर्म तीर्थ बनना चाहिए। तभी वह सच्चे अर्थों में भारतीय राष्ट्र की राजधानी होगी।

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तालाब बचेगा तभी समाज बचेगा

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Author: 
संतोष कुमार सिंह
Source: 
पंचायतनामा, 19 - 25 नवंबर 2012
अनुपम जीअनुपम जीगांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अनुपम मिश्र तालाबों के संरक्षण के काम के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। सहज-सरल व्यक्तित्व वाले अनुपम जी पानी के संरक्षण के लिए आधुनिक तकनीक की बजाय देशज तकनीक व परंपरागत तरीकों के प्रवक्ता रहे हैं। उनकी पुस्तकें ‘आज भी खरे हैं तालाब’ व ‘राजस्थान की रजत बूंदे’ काफी चर्चित रही हैं। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ ने पुस्तकों के छपने और बंटने के कई रिकार्ड तोड़ डाले। अनुपम जी से पंचायतनामा संवाददाता संतोष कुमार सिंह ने विस्तृत बातचीत की।

उत्तर भारत में प्रसिद्ध पर्व छठ हो रहा है। इस दिन नदियों या तालाबों पर जाकर मनाये जाने वाले इस त्योहार की परंपरा को कैसे देखते हैं आप?

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