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नदियों का दर्द

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.नदी का शुद्धीकरण अपने आप में एक जटिल प्रक्रिया है। भारतीय परम्परा में तो नदियों को माता तुल्य आदर देकर स्वच्छ रखने के प्रयास हुए। ये प्रयास एक लम्बे समय तक सफल भी हुए। जब तक हमारी सभ्यता औद्योगिक रासायनिक तरल व ठोस कचरे और शहरी मलजल को वर्तमान तरीके से निपटाने वाली व्यवस्था से मुक्त थी, हमारी नदियाँ शुद्ध थीं।

नदियों के प्रति आदर भाव के चलते उत्पन्न सावधानी से ही काम चल जाता था। हालांकि वह आदर भाव किसी भावुक सनक से पैदा नहीं हुआ था, बल्कि जल की, प्राणी जगत के लिये महत्ता की गहरी समझ का परिणाम था।

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जरूरत है पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता

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.इन दिनों अमेरिका के कई राज्यों मे पतझड़ शुरू हो गया है। नियम है कि हर पेड़ से गिरने वाली प्रत्येक पत्ती और यहाँ तक कि सींक को भी उसी पेड़ को समर्पित किया जाता है। समाज के कुछ लोग पुराने पेड़ों के तनों की मर गई छाल को खरोंचते हैं और इसे भी पेड़ की जड़ों में दफना देते हैं। पेड़ों की पत्तियों को ना जलाने और उन्हें जैविक खाद के रूप में संरक्षित करने के कई नियम व नारे तो हमारे यहाँ भी हैं, लेकिन उनका इस्तेमाल महज किसी को नीचा दिखाने या सबक सिखाने के लिये ही होता है। यहाँ तक कि कई-कई सरकारी महकमें भी अलसुबह पेड़ों से गिरी पत्तियों को माचिस दिखा देते हैं।

असल में हम अभी तक पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का पाठ अपने समाज को दे नहीं पाये हैं और अपने परिवेश की रक्षा के नाम पर बस कानून का खानापूर्ति करते हैं, इसमें वाहनों का प्रदूषण परीक्षण भी है और नदी-तालाब को सहेजने के अभियान भी।

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मेरे जीवन का सबसे कमजोर क्षण और सबसे बड़ी गलती : स्वामी सानंद

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स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद -नौवाँ कथन आपके समक्ष पठन, पाठन और प्रतिक्रिया के लिये प्रस्तुत है :

.गंगाप्रेमी भिक्षु न बोलते हैं, न सही नाम बताते हैं और जन्म स्थान। पैर में भी कुछ गड़बड़ है। 70 की आयु होगी। उन्होंने भी संकल्प लिया था। वह हरिद्वार भी गए। हरिद्वार में उन्होंने भी अन्न छोड़ने की बात कही। फल-सब्जी भी उन्हें जबरदस्ती ही दिये जाते थे। बनारस में भी वह साथ में अस्पताल साथ गए।

सरकार के दूत थे डॉ. राजीव शर्मा



कोई तय नहीं था, लेकिन खुद पहल कर सन्यासी के हिसाब से हमने सोच लिया था कि पहले कौन जाएगा। पहले मैं, फिर भिक्षु, फिर कृष्णप्रियम और फिर बाकी। इस बीच क्या हुआ कि डिवीजनल हॉस्पीटल के डॉ. राजीव शर्मा आये।

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ਔਰਤਾਂ ਦੁਆਰਾ ਸਬਜੀਆਂ ਦੀ ਜੈਵਿਕ ਖੇਤੀ

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Author: 
ਹਿਰਦੇਸ਼ ਕੁਮਾਰ ਚੁਨੇਰਾ

<br><span style="font-size: 14px; line-height: 18px; background-color: #ffffff; display: block; width: 199px; float: right; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 10px; margin-left: 9px; border-top-style: solid; border-bottom-style: solid; border-width: medium; border-color: #006600; padding: 10px" class="Apple-style-span">ਅਦਬਹੋਰਾ ਪਿੰਡ ਦੇ ਕਿਸਾਨ ਖੇਤੀ ਦੇ ਜ਼ਿਆਦਾ ਲਾਹੇਵੰਦ ਨਾ ਹੋਣ ਕਾਰਨ ਕਸਬਿਆਂ ਅਤੇ ਸ਼ਹਿਰਾਂ ਵੱਲ ਨੂੰ ਪਲਾਇਨ ਕਰ ਰਹੇ ਸਨ| ਪਿੰਡ ਦੀਆਂ ਔਰਤਾਂ ਨੇ ਇੱਕ ਗੈਰ ਸਰਕਾਰੀ ਸੰਸਥਾ ਦੀ ਮੱਦਦ ਨਾਲ ਖੁਦ ਨੂੰ ਇੱਕ ਸਮੂਹ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਸੰਗਠਿਤ ਕੀਤਾ ਅਤੇ ਹੁਣ ਟਿਕਾਊ ਖੇਤੀ ਪੱਦਤੀਆਂ ਨੂੰ ਅਪਣਾ ਕੇ ਵਧੀਆ ਫਸਲ ਲੈ ਰਹੀਆਂ ਹਨ| </span>ਪਹਾੜੀ ਖੇਤੀ ਦੀਆਂ ਆਪਣੀਆਂ ਚੁਣੌਤੀਆਂ ਹਨ - ਅਸਮਤਲ ਧਰਾਤਲ, ਖੰਡਿਤ ਅਤੇ ਬਿੱਖਰੀਆਂ ਜ਼ਮੀਨਾਂ, ਖੋਰ ਦੀ ਸ਼ਿਕਾਰ ਕਮਜੋਰ ਅਤੇ ਖਾਲੀ ਜ਼ਮੀਨਾਂ, ਮਿੱਟੀ ਵਿੱਚ ਗਿਰਾਵਟ ਅਤੇ ਹੋਰ ਕਈ ਕੁੱਝ|ਪਰਿਵਾਰ ਦੇ ਪੁਰਸ਼ ਮੈਂਬਰਾਂ ਦੇ ਪਲਾਇਨ ਕਰਨ ਕਰਕੇ ਔਰਤਾਂ ਖੇਤੀ ਦੇ ਕੰਮ ਵਿੱਚ ਲੱਗੀਆਂ| <br><br>

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ਖਾਧ ਸੁਰਖਿਆ ਲਈ ਘਰੇਲੂ ਬਗੀਚੀ

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Author: 
ਸੁਮਨ ਸਹਾਏ

<br><span style="font-size: 14px; line-height: 18px; background-color: #ffffff; display: block; width: 199px; float: right; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 10px; margin-left: 9px; border-top-style: solid; border-bottom-style: solid; border-width: medium; border-color: #006600; padding: 10px" class="Apple-style-span"> ਕੇਰਲ ਵਿੱਚ, ਰਾਜ ਸਰਕਾਰ ਦੁਆਰਾ ਕੀਤੀ ਗਈ ਹਰਿਤ ਸ਼ਹਿਰ ਦੀ ਪਹਿਲ ਗਤੀ ਪਕੜ ਰਹੀ ਹੈ| ਸ਼ਹਿਰੀ ਖੇਤਰਾਂ ਵਿੱਚ ਰਹਿਣ ਵਾਲੇ ਪਰਿਵਾਰ 'ਛੱਤ ਉੱਪਰ ਬਗੀਚੀ'ਜਿਹੇ ਅਭਿਆਸ ਨੂੰ ਅਪਣਾਉਂਦੇ ਹੋਏ ਫਲਾਂ ਅਤੇ ਸਬਜ਼ੀਆਂ ਨੂੰ ਉਗਾ ਕੇ ਆਪਣੇ ਪਰਿਵਾਰ ਦੀਆਂ ਪੋਸ਼ਣ ਦੀਆਂ ਜਰੂਰਤਾਂ ਨੂੰ ਪੂਰਾ ਕਰਨ ਵਿੱਚ ਸਹਾਇਕ ਹੋ ਰਹੇ ਹਨ|</span>ਕੋਚੀ ਦੀ ਆਪਣੀ ਹਾਲ ਦੀ ਯਾਤਰਾ ਦੇ ਦੌਰਾਨ, ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਹੋਟਲ ਦੀ ਖਿੜਕੀ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਹੋਟਲ ਦੀ ਚਾਰਦੀਵਾਰੀ ਨਾਲ ਲੱਗਦੇ ਇੱਕ ਮਾਮੂਲੀ ਘਰ ਨੂੰ ਦੇਖਿਆ ਜਿਸ ਵਿਚ ਵੇਹੜਾ ਵੀ ਸੀ| ਪਹਿਲਾਂ ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੇ ਪ੍ਰੰਪਰਿਕ ਘਰ ਪਿੰਡਾਂ ਵਿੱਚ ਹੋਇਆ ਕਰਦੇ ਸਨ, ਇਹ ਘਰ ਬਹੁਤ ਕੁਝ ਉਵੇਂ ਹੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦਾ ਸੀ| ਪ੍ਰੰਤੂ ਹੁਣ ਤਾਂ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੇ ਖਾਲੀ ਸਥਾਨਾਂ ਉੱਪਰ ਘਰ ਬਣਾ ਕੇ ਪਰਿਸਥਿਤਿਕੀ ਅਤੇ ਕੁਝ ਸਥਾਨਾਂ ਦੀ ਸੁੰਦਰਤਾ ਨੂੰ ਨਸ਼ਟ ਕੀਤਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ| ਕੋਚੀ ਸ਼ਹਿਰ ਦੇ ਵਿਚਕਾਰ ਮੇਰੇ ਗਵਾਂਢੀ ਨਿਸ਼ਚਿਤ ਤੌਰ ਤੇ ਕੁਝ ਕਦਰਾਂ ਕੀਮਤਾਂ ਦ

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ਜਲਵਾਯੂ ਪਰਿਵਰਤਨ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵਾਂ ਨਾਲ ਨਿਪਟਦੇ ਕਿਸਾਨ

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Author: 
ਅੰਜੂ ਪਾਂਡੇ, ਰਵੀ ਸ਼ੰਕਰ ਮਿਸ਼ਰਾ, ਡਾ. ਬੀ ਐਨ ਮਿਸ਼ਰਾ

<br><span style="font-size: 14px; line-height: 18px; background-color: #ffffff; display: block; width: 199px; float: right; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 10px; margin-left: 9px; border-top-style: solid; border-bottom-style: solid; border-width: medium; border-color: #006600; padding: 10px" class="Apple-style-span">ਹੜ੍ਹ ਅਤੇ ਸੇਮ  ਕਛਾਰੀ ਇਲਾਕੇ ਦੀ ਖਾਧ ਸੁਰਖਿਆ ਨੂੰ ਹਮੇਸ਼ਾ ਤੋਂ ਹੀ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਕਰਦੇ ਰਹੇ ਹਨ| ਉਸ ਤੇ ਜਲਵਾਯੂ ਪਰਿਵਰਤਨ ਨੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੇ ਸਾਹਮਣੇ ਭਿਅੰਕਰ ਸੰਕਟ ਉਤਪੰਨ ਕੀਤਾ ਹੈ, ਪ੍ਰੰਤੂ ਕੁਝ ਨਵੀਆਂ ਖੋਜਾਂ ਨੂੰ ਅਪਣਾ ਕੇ ਇਸ ਸੰਕਟ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਬਾਖੂਬੀ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸਨੂੰ ਬੜਹਲਗੰਜ ਦੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੇ ਸਿਧ ਵੀ ਕੀਤਾ ਹੈ, ਜਿੰਨਾਂ ਨੇ  ਨਾਲ ਖੇਤੀ ਕਰ ਸੇਮ ਦੀ ਸਥਿਤੀ ਵਿੱਚ ਵੀ ਵਧੀਆ ਪੈਦਾਵਾਰ ਲਈ ਹੈ|</span>ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵਧਦੀ ਹੋਈ ਜਨਸੰਖਿਆ ਦੇ ਨਾਲ ਅਨਾਜ ਦੀ ਮੰਗ ਨੂੰ ਪੂਰਾ ਕਰਨਾ ਇੱਕ ਗੰਭੀਰ ਚੁਣੌਤੀ  ਬਣੀ ਹੋਈ ਹੈ| ਝੋਨਾ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਪ੍ਰਮੁਖ ਖਾਧ ਫ਼ਸਲ ਹੈ| ਇਸਦੀ ਖੇਤੀ ਵਿਭਿੰਨ ਭੌਗੋਲਿਕ ਪਰਿਸਥਿਤੀਆਂ ਵਿਚ ਲਗਭਗ 4 ਕਰੋੜ 22 ਲਖ ਹੈਕਟੇਅਰ ਖੇਤਰਫਲ ਵਿੱਚ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ| ਝੋਨੇ ਦਾ ਉਤਪਾਦਨ ਲਗਭਗ 9 ਕਰੋੜ ਟਨ ਤੱਕ ਮੰਨਿ

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हरित पंचाट पहुँची यमुना

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.उम्मीद थी कि लोगों को जीवन जीने की कला सिखाने वाला ‘आर्ट ऑफ लिविंग’, यमुना के जीवन जीने की कला में खलल डालने से बचेगा; साथ ही वह यह भी नहीं चाहेगा कि उनके आयोजन में आकर कोई यमुना प्रेमी खलल डाले। किन्तु इस लेख के लिखे जाने तक जो क्रिया और प्रतिक्रिया हुई, उससे इस उम्मीद को झटका लगा है।

गौरतलब है कि इस आयोजन को मंजूरी दिये जाने के विरोध में ‘यमुना जिये अभियान’ संयोजक श्री मनोज मिश्र ने राष्ट्रीय हरित पंचाट में अपनी याचिका दायर कर दी है। याचिका में कहा गया है कि प्रतिबन्ध के बावजूद यमुना खादर की करीब 25 हेक्टेयर पर मलबा डम्प किया जा रहा है। उन्होंने इसे यमुना के पर्यावास के लिये घातक बताया है।

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राजनीति का विश्व सांस्कृतिक उत्सव

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.राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) के भारी विरोध के बावजूद दिल्ली में विश्व सांस्कृतिक उत्सव सम्पन्न हो चुका है। यमुना के किनारे इतने बड़े आयोजन के बाद पर्यावरण को कितना नुकसान हुआ, इसका लेखा-जोखा न तो पहले हुआ और न ही बाद में किया गया। पर्यावरणविदों का अनुमान है कि कार्यक्रम के लिये जितने पेड़-पौधे काटे गए और वाटरबॉडी में कचरा भर कर समतल किया गया। उसका खामियाजा दिल्ली की जनता और यमुना को लम्बे समय तक चुकाना पड़ेगा।

आर्ट ऑफ लिविंग के श्री श्री रविशंकर ने 11 से 13 मार्च तक यमुना के किनारे विश्व स्तरीय सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया। जिसमें लगभग 150 देशों के प्रतिनिधि भाग लिये। कार्यक्रम में लाखों लोग आये। यमुना के बाढ़ क्षेत्र में ऐसे आयोजन को लेकर पर्यावरणविदों ने विरोध किया।

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धरती के बढ़ते तापमान से संकट में है इंसानी अस्तित्व

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.इस साल जनवरी खत्म होते-होते मौसम ने अचानक तेवर बदल दिये। दिल्ली वाले इन्तजार ही करते रहे कि इस साल कड़ाके की ठंड व कोहरा कब पड़ेगा कि शरीर आधी बाँह की शर्ट के लिय मचलने लगा। और फिर मार्च शुरू होते ही जब उम्मीद थी कि अब मौसम का रंग सुर्ख होगा, फसल ठीक से पकेगी; उसी समय बादल बरस गए और ओलों ने किसानों के सपने धराशाही कर दिये।

जरा गम्भीरता से अपने अतीत के पन्नों का पलट कर देखें तो पाएँगे कि मौसम की यह बेईमानी बीते एक दशक से कुछ ज्यादा ही समाज को तंग कर रही है। हाल ही में अमेरिका की स्पेस एजेंसी नासा ने भी कहा है कि फरवरी में तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि ने पूर्व के महीनों के रिकार्ड को तोड़ दिया है।

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तब लुप्त नहीं होगी कोई सरस्वती

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Author: 
सुरेंद्र बांसल

.नदी संस्कृति के मामले में भारत कभी विश्व का सिरमौर था। संसार के किसी भी क्षेत्र की तुलना में सर्वाधिक नदियाँ हिमालय अधिष्ठाता शिव की जटाओं से निकलकर भारत के कोने-कोने को शस्य-श्यामला बनती रही हैं। तमाम नदियाँ करोड़ों लोगों की जीवन का सेतु और आजीविका का स्थायी स्रोत होने के साथ-साथ जैव विविधता, पर्यावरणीय और पारिस्थितिक सन्तुलन की मुख्य जीवनरेखा रही हैं।

ऋग्वेद में वर्णित सरस्वती नदी भी इनमें से एक थी। करीब पाँच हजार वर्ष पहले सरस्वती के विलुप्त होने के कारण चाहे कुछ भी रहे हों, लेकिन सरस्वती की याद दिलाने वाले इस पावन स्रोत को करोड़ों-करोड़ लोग आज भी गुनगुनाते हैं।

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जमीनी हकीकत के सामने दम तोड़ता सरकारी दावा

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Author: 
उमेश कुमार राय

प्रख्यात कवि अदम गोंडवी की एक मशहूर कविता की दो पंक्तियाँ कुछ यूँ हैं-
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है,
मगर ये आँकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है।


.पश्चिम बंगाल में आर्सेनिक को लेकर राज्य सरकार के दावे और उन दावों की जमीनी हकीकत को देखें तो ये पंक्तियाँ काफी मौजूँ लगती हैं।

पश्चिम बंगाल सरकार बड़े गर्व से यह दावा कर रही है कि आर्सेनिक प्रभावित 91 प्रतिशत लोगों तक आर्सेनिक मुक्त पेयजल मुहैया करवाया जा रहा है लेकिन राज्य सचिवालय से महज 70 किलोमीटर दूर उत्तर 24 परगना जिले के सुटिया ग्राम पंचायत के गाँवों में इस दावे की हकीकत दम तोड़ती दिखी।

यहाँ के मधुसूदन काठी, तेघरिया व अन्य गाँवों में रहने वाले सैकड़ों लोग अब भी आर्सेनिक मिश्रित पानी पीने को विवश हैं। तेघरिया में तो आर्सेनिक युक्त पानी के सेवन के कारण कई लोग कैंसर की चपेट में आ गए और उन्होंने दम तोड़ दिया।

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एक अभियान बने भारतीय जल दर्शन

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22 मार्च, 2016 -विश्व जल दिवस पर विशेष



यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमेव सुखम।
भूमा त्वेव विजिज्ञासित्वयः।।


विश्व जल दिवसहम जगत के प्राणी जो कुछ भी करते हैं, उसका उद्देश्य सुख है। किन्तु हम यदि जानते ही न हों कि सुख क्या है, तो भला सुख हासिल कैसे हो सकता है? यह ठीक वैसी ही बात है कि हम प्रकृति को जाने बगैर, प्रकृति के कोप से बचने की बात करें; जल और उसके प्रति कर्तव्य को जाने बगैर, जल दिवस मनायें। संयुक्त राष्ट्र संघ ने नारा दिया है: ‘लोगों के लिये जल: लोगों के द्वारा जल’।उसने 2016 से 2018 तक के लिये विश्व जल दिवस की वार्षिक विषय वस्तु भी तय कर दी हैं: वर्ष 2016 - ‘जल और कर्तव्य’; वर्ष 2017 - ‘अवजल’ अर्थात मैला पानी; वर्ष 2018 - ‘जल के लिये प्रकृति आधारित उपाय’। अब यदि हम इन विषय-वस्तुओं पर अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहते हैं, तो हमें प्रकृति, जल, अवजल और अपने कर्तव्य को जानना चाहिए कि नहीं?

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मल प्रबंधन में जुटी जीवाणुओं की फौज

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Author: 
मीनाक्षी अरोरा और केसर

बायोडाइजेस्टर टॉयलेट
फोटो साभार ‘http://wockhardtfoundation.org/’

सियाचिन, लद्दाख से आगे काराकोरम पर्वत श्रृंखला; और उसमें मौजूद 75 कि.मी. लम्बी 2-8 कि.मी. चौड़ा बर्फीला क्षेत्र। लगभग 10,000 वर्ग कि.मी. का यह एक ‘शीत मरुस्थल’है। चारों तरफ बर्फ ही बर्फ, प्राणिजात का कोई नामों निशान नहीं। चारों तरफ फैली हुई हजारों फीट बर्फ की मोटी परत। तापमान -40 डिग्री सेन्टीग्रेट से भी नीचे। भारत-तिब्बत सीमा के करीब जम्मू-कश्मीर के उत्तर में स्थित यह निर्जन, वीरान और ठण्डा हिमनद अचानक गर्म होने लगा। 1984 में पाकिस्तान ने ‘ऑपरेशन अबादील’शुरू किया और पूरे सियाचीन इलाके पर कब्जा करने की कोशिश की। जवाब में भारत को ‘ऑपरेशन मेघदूत’शुरू करना पड़ा।

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आओ! धरती काम पर रख रही है

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22 मार्च, 2016 -विश्व जल दिवस पर विशेष



पोर्टलैंड विश्वविद्यालय में पर्यावरणविद् पॉल हॉकेन का व्याख्यान


पॉल हॉकिनपॉल हॉकिनइस पीढ़ी के नौजवानों!
यहां से डिग्री हासिल करने के बाद अब तुम्हे यह समझना है कि धरती पर मनुष्य होने का क्या मतलब है, वह भी ऐसे समय में जब यहां मौजूद पूरा तंत्र विनाश के गर्त में जा रहा है, आत्मा तक को हिला देने वाली स्थिति है –
पिछले तीस सालों में कोई ऐसा पेपर नहीं छपा जो मेरे इस बयान को झुठलाता हो। दरअसल धरती को जल्द से जल्द एक नए ऑपरेटिंग सिस्टम की जरूरत है और आप सब उसके प्रोग्रामर हैं।
पृथ्वी नाम का यह ग्रह कुछ ऑपरेटिंग निर्देशों के सेट के साथ अस्तित्व में आया था,जिनको शायद हमने भुला दिया है। इस सिस्टम के महत्वपूर्ण नियम कुछ इस तरह थे-

जैसे पानी,मिट्टी या हवा में जहर नहीं घोलना है, पृथ्वी पर भीड़ जमा नहीं करनी है, थर्मोस्टैट को छूना नहीं है लेकिन अब हमने इन सभी नियमों को ही तोड़ दिया है। बकमिन्स्टर फुलरने कहा था कि धरती का यह यान इतना बेहतर डिजाइन किया गया है कि कोई भी यह नहीं जान पाता कि हम सभी एक ही यान पर सवार हैं, यह यान ब्रह्मांड में एक लाख मील प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ रहा है, किसी सीटबेल्ट की ज़रूरत नहीं है, इस यान में कई कमरे और बेहतर स्वादिष्ट खाना भी मौजूद हैं-पर अफसोस! अब यह सब बदल रहा है।
इस खबर के स्रोत का लिंक: 
http://cforjustice.org/

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लोक नियम: मलेथा गाँव की अनूठी परम्पराएं

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मलेथा सेराउत्तराखण्ड राज्य में लोगों ने स्वयं के ज्ञान से कई आविष्कार किये हैं। इनमें से श्रीनगर गढवाल के पास मलेथा गाँव में माधो सिंह भण्डारी नाम के शख्स ने बिना किसी आधुनिक यन्त्र के एक ऐसी सुरंग का निर्माण किया जो आज भी शोध का विषय बना हुआ है। इस सुरंग के मार्फत माधो सिंह ने ग्रामीणों के लिये न कि पानी की आपूर्ति की बल्कि मलेथा जैसी जमीन को सिंचित में तब्दील कर दिया। माधो सिंह भण्डारी की ही देन है कि ‘मलेथा का सेरा’ आज हजारों लोगों की आजीविका का साधन बना हुआ है। यही वजह है कि मलेथा गाँव के लोग अनाज इत्यादि खाद्य सामग्री कभी भी बाजार से नहीं लाते। माधो सिंह के मलेथा गाँव में आज भी ऐसी कई परम्पराएं हैं जो आज के युग में आदर्श बनी हुई है।

वीर योद्धा माधो सिंह ने 17वीं शताब्दी में लगभग डेढ़ सौ मीटर कठोर पहाड़ को काटकर जो सुरंग-नुमा गूल बनाई थी वह अक्सर कई कारणों से चर्चाओं में रहती है।

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बदल रही है सूरत ए हाल…

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“नदी कॉलम के लेखक इन दिनों गंगासागर से गोमुख की यात्रा पर हैं। आने वाले अंकों में गंगा पथ पर बसे नगरों, वहाँ की संस्कृति, गंगा पर निर्भर जीविकोपार्जन और गंगा पर आकार ले रही सरकारी परियोजनाओं पर केन्द्रित बातचीत होगी।”

दुनिया की हर नदी अंतत सागर में समाती है लेकिन गंगा ही विश्व की एकमात्र नदी है जिसके नाम से सागर जाना जाता है। हिन्दु तीर्थों का एक प्रसिद्ध उद्घोष है, सारे तीरथ बार-बार गंगासागर एक बार।एक समय था जब गंगासागर की यात्रा दुर्गम मानी जाती थी। सम्भवतः मंधार पर्वत (वर्तमान भागलपुर) के समीप से यह यात्रा शुरु होती थी और बंगाल सहित (उस समय कोलकाता समेत पूरे बंगाल का इलाका समुद्र से घिरा और छोटे-छोटे द्वीपों में बँटा था।) तमाम छोटे-मोटे द्वीपों को पार कर विशाल गंगा नदी में लहराती नौकाएँ कई दिनों में गंगा सागर पहुँचती थी। ना जाने कितने ही यात्रियों के लिये गंगासागर की यात्रा अन्तिम यात्रा साबित होती थी। पुराने गजेटियरों में नौका डूबने और वर्मा (म्यांमार) आदि से समुद्री लूटेरों के आने की घटनाएँ भरी पड़ी हैं। लेकिन अब तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है।

पिछले पाँच साल के अन्तराल में तीसरी बार गंगासागर आना हुआ। कचुवेड़िया घाट पर मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी का विशाल बैनर स्वागत करता है, बांग्ला में लिखे उनके सन्देश का अर्थ है, सारे तीरथ एक बार लेकिन गंगासागर बार-बार। द्वीप पर आस्थावानों को दोबारा बुलाने की उनकी अपील साफ संकेत करती है कि गंगासागर आना अब बेहद आसान है और तीर्थयात्रियों के लिये यहाँ बेहतर सुविधाएँ उपलब्ध हैं।

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मेरी कैलकुलेशन गलत निकली : स्वामी सानंद

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स्वामी सांनद गंगा संकल्प संवाद - 11वाँ कथन आपके समक्ष पठन-पाठन और प्रतिक्रिया के लिये प्रस्तुत है:

.अड्डे पर पहुँचकर हमने लखनऊ की बस पकड़ी। जब वह बस अगले स्टाॅप पर रुकी, तो पत्रकारों की टीम कैमरा लिये सामने थी। पता लगा कि जब मेरी और गुरुजी की बात हो रही थी, तो वहाँ अमर उजाला का कोई पत्रकार मौजूद था। उसी से सभी को सूचना मिली।

अर्जुन के पास फोन था। गुरुजी के पास फोन आया कि लौट आओ; फिर कहा कि अच्छा अब सन्यासी के कपड़े पहन लो।

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खाली होने की कगार पर पहुँच गया वाटर टैंक

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.अब यह सपने जैसा लगने लग रहा है कि क्या वाकई उत्तराखण्ड कभी ‘वाटर टैंक’ होगा। यह पंक्ति ठीक वैसे ही लग रही है जैसे हम लोग गाये-बगाहे कहते हैं कि हमारा देश सोने की चिड़िया है। पानी की किल्लत से गाँव के गाँव पहाड़ से नदियों के किनारे और शहरों में पलायन कर रहे हैं। राज्य में पलायन की समस्या कुछ और भी है, परन्तु मौजूदा समय में पानी की समस्या राज्य के लोगों के सामने मुँहबाये खड़ी है।

जल संस्थान ने राज्यभर में पानी की किल्लत से जूझने वाले 846 संवेदनशील क्षेत्रों को चिन्हित किया है। इसके लिये बाकायदा संस्थान ने जलापूर्ती के लिये टैंकरों और अन्य सुविधाओं का भी प्रबन्धन कर दिया है। बताते चलें कि ये वे गाँव हैं जो दुर्गम और पहाड़ी हैं। पर इन गाँवों में सड़क पहुँच चुकी है।

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जल, जंगल और जमीन का जुनून: संजय कश्यप

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.वैसे तो वे एक वकील हैं, एक राजनीतिक दल के समर्पित कार्यकर्ता भी हैं, लेकिन उनके दिल और दिमाग में हर समय जो मचलता रहता है, वह है अपनी धरती को आधुनिकता से उपजे प्रदूषण से मुक्त करना। वे हिण्डन नदी बचाने के आन्दोलन में भी उतने ही सक्रिय रहते हैं जितना कि गौरेया संरक्षण में और उतना ही पाॅलीथीन प्रयोग पर पाबन्दी को लेकर। दिल्ली से सटे गाजियाबाद जिले में उनकी पहल पर कई ऐसे काम हो गये जो यहाँ के लाखों बाशिंदों को स्वच्छ हवा-पानी मुहैया करवाने में अनुकरणीय पहल हैं। संजय कश्यप ने एमबीए कर एक कम्पनी में प्रबंधन की नौकरी की और वह भी कश्मीर घाटी में वहाँ वे बाँध व जल प्रबंधन को नजदीक से देखते तो रहे, लेकिन कभी पर्यावरण संरक्षण जैसी कोई भावना दिल में नहीं उपजी।

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ਮੋਟੇ ਅਨਾਜ ਆਧਾਰਿਤ ਜੈਵ ਵਿਭਿੰਨਤਾ ਖੇਤੀ ਪ੍ਰਣਾਲੀ - ਖਾਧ ਸੰਪ੍ਰਭੂਤਾ ਵੱਲ ਇੱਕ ਕਦਮ

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Author: 
ਪ੍ਰਸ਼ਾਂਤ ਮੋਹੰਤੀ

<br><span style="font-size: 14px; line-height: 18px; background-color: #ffffff; display: block; width: 199px; float: right; margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 10px; margin-left: 9px; border-top-style: solid; border-bottom-style: solid; border-width: medium; border-color: #006600; padding: 10px" class="Apple-style-span">ਮੋਟੇ ਅਨਾਜ ਉਚ ਪੋਸ਼ਣ ਯੁਕਤ ਖਾਧ ਫ਼ਸਲਾਂ ਜੋ ਜਲਵਾਯੂ ਪਰਿਵਰਤਨ ਦੀਆਂ ਸਥਿਤੀਆਂ ਨਾਲ ਲੜ੍ਹਨ ਵਿਚ ਸਮਰਥ ਹਨ। ਦੁਰਭਾਗਾਂ ਨਾਲ ਪਿਛਲੇ ਕੁਝ ਸਾਲਾਂ ਵਿੱਚ ਏਕਲ ਫ਼ਸਲ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਅਤੇ ਉਚ ਲਾਗਤ ਖੇਤੀ ਦੇ ਪ੍ਰਚਲਨ ਦੇ ਕਾਰਨ ਇਹਨਾਂ ਫ਼ਸਲਾਂ ਦਾ ਖੇਤਰਫਲ ਘਟਿਆ  ਹੈ।ਕੰਧਮਾਲ ਦੇ ਆਦਿਵਾਸੀ ਸਮੁਦਾਇ ਨੇ ਮੋਟੇ ਅਨਾਜ ਆਧਾਰਿਤ ਜੈਵ ਵਿਭਿੰਨਤਾ ਆਧਾਰਿਤ ਖੇਤੀ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਨੂੰ ਦੁਬਾਰਾ ਵਾਪਿਸ ਲਿਆ ਕੇ ਇਸ ਏਕਲ ਫ਼ਸ਼ਲ ਦੀ ਹਕੂਮਤ ਅਤੇ ਰੁਕਾਵਟ ਨੂੰ ਤੋੜਿਆ ਹੈ। ਉਹ ਹੁਣ ਜ਼ਿਆਦਾ ਵਾਤਾਵਰਨ ਅਨੁਕੂਲ ਅਤੇ ਜਲਵਾਯੂ ਸੰਵੇਦੀ ਖੇਤੀ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਵਿਭਿੰਨਤਾ ਅਤੇ ਜ਼ਿਆਦਾ ਪੋਸ਼ਣ ਯੁਕਤ ਖਾਧ ਭਰਪੂਰ ਮਾਤਰਾ ਵਿੱਚ ਉਗਾ ਰਹੇ ਹਨ।</span>ਉੜੀਸਾ ਪ੍ਰਾਂਤ ਦੇ ਕੰਧਮਾਲ ਜਿਲ੍ਹੇ ਵਿੱਚ ਤੁਮੁਧੀਬੰਧ ਵਿਕਾਸ ਖੰਡ ਦੇ ਚਾਰੇ ਪਾਸੇ ਪਿੰਡਾਂ ਵਿੱਚ ਨਿਵਾਸ ਕਰਨ

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