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वन अधिकार कानून 2006 को निष्क्रिय करने का प्रयास

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Author: 
विनोद पांडे

.संसद के मानसून सत्र में ‘कम्पन्सैटरी एफॉरेस्टेशन मैनेजमेंट एंड प्लानिंग ऑथरिटी’ बिल, जिसे संक्षेप में कैम्पा और हिन्दी में प्रतिपूरक वनीकरण बिल कहा जाता है, बिना किसी विशेष चर्चा के पारित हो गया। इस महत्त्वपूर्ण बिल पर मीडिया में लगभग कोई चर्चा नहीं हुई। इस बिल के क्रियान्वयन की बागडोर पहले की तरह वन विभाग को दे दी गई है।

इस कारण वनों के जनपक्षीय सरोकारों से जुड़े व्यक्ति व संस्थाएँ, जिस रूप में यह पारित हुआ है, उससे विचलित हैं। यह बिल देश के करोड़ों वनों पर आश्रित रहने वाले वनवासी ग्रामीणों को उनके वन अधिकारों से वंचित करने का एक गम्भीर प्रयास हो सकता है, जिसके दीर्घकालीन गम्भीर परिणाम हो सकते हैं।

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फ्लोरोसिस के शिकंजे में बचपन

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Author: 
मीनाक्षी अरोरा और उमेश कुमार राय

.बेहतर कल गढ़ने का दारोमदार बच्चों के कन्धों पर होता है लेकिन बचपन ही अगर विकलांगता की जद में आ जाये तो आने वाले कल की तस्वीर निश्चित तौर पर बेहद बदरंग और धुँधली होगी।

आगरा जिले के बरौली अहिर ब्लॉक के कई गाँवों में नौनिहाल फ्लोरोसिस जैसी बीमारी के चंगुल में आहिस्ता-आहिस्ता फँसे जा रहे हैं।

बरौली अहिर ब्लॉक के पचगाँय खेड़ा ग्राम पंचायत के अन्तर्गत आने वाले सभी तीन गाँवों में रहने वाले अधिकांश बच्चों में फ्लोरोसिस के संकेत देखने को मिल रहे हैं।

बच्चों में फ्लोरोसिस का प्राथमिक लक्षण दाँतों में दिखता है। दाँतों में पीले और सफेद दाग पड़ जाते हैं। इन गाँवों के बच्चों में ये दाग साफ देखे जा सकते हैं। इक्का-दुक्का बच्चों पर तो फ्लोरोसिस ने इतना असर डाल दिया है कि उनके पैरों की हडि्डयों में टेढ़ापन आ गया है।

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पानी के छलावे की फिल्म है कालीचाट

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.कालीचाट फिल्म ने एक बार फिर पानी के नाम पर चल रहे खतरनाक किस्म के गोरखधन्धों की ओर नए सिरे से ध्यान खींचा है। पानी के लिये आज का समाज किस विभ्रम की स्थिति में है, यह किसी से छुपा नहीं है।

हमने अपने परम्परागत प्राकृतिक संसाधनों और जलस्रोतों को लगभग हाशिए पर धकेलते हुए एक नई तरह की व्यवस्था कायम की है, जिसमें पानी एक छलावे के रूप में हमारे सामने पेश किया जाता है लेकिन इसके निहितार्थ में कुछ खास लोगों के लिये मुनाफा कमाना ही होता है।

मुनाफे की होड़ में वे इतने मसरूफ हैं कि उन्हें पानी के असल मुद्दों से कोई वास्ता है ही नहीं, वे जो कर रहे हैं, उसके खतरों से आगाह होने की जरूरत भी नहीं समझ पा रहे हैं।

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मैला ढोने के खिलाफ ‘सीधी कार्रवाई’ के मूड में विल्सन

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Author: 
उमेश कुमार राय

.दिल्ली के ईस्ट पटेल नगर की बेहद उदास और सुनसान सड़क पर एक फ्लैटनुमा मकान में सफाई कर्मचारी आन्दोलन का दफ्तर है। दफ्तर में बमुश्किल एक दर्जन लोग काम करते होंगे। दफ्तर की दीवारों पर बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की कई सफेद-स्याह तस्वीरें और भीम यात्रा की पोस्टरें लगी हैं। इसी दफ्तर में बैठते हैं संगठन के नेशनल कनवेनर बेजवाड़ा विल्सन। बेजवाड़ा विल्सन को इस वर्ष रेमन मैगसेसे अवार्ड मिला है। रेमन मैगसेसे अवार्ड को एशिया का नोबेल पुरस्कार माना जाता है।

उनके दफ्तर का रंग-रूप कॉरपोरेट दफ्तरों से बिल्कुल अलग है। एकदम साधारण-बेजवाड़ा विल्सन की तरह ही। अपनी बात भी वे बेहद सामान्य तरीके से रखते हैं।

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भूकम्प से डोली यूरोप और एशिया की धरती

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Author: 
प्रमोद भार्गव

.24 अगस्त को आये भीषण भूकम्प ने यूरोप से लेकर एशिया तक की धरती को हिला दिया। इटली में आये 6.2 तीव्रता के भूकम्प ने जहाँ वहाँ के सबसे खूबसूरत शहर एमट्रिस को तबाह करते हुए 120 लोगों की जान ले ली, वहीं भारत के कोलकाता समेत पूर्वी भारत में 6.8 तीव्रता के आये भूकम्प से केवल धरती हिली, लेकिन जान-माल को कोई नुकसान नहीं हुआ।

ऐसा इसलिये सम्भव हुआ, क्योंकि इटली में भूकम्प का केन्द्र राजधानी रोम से 140 किमी पूर्व नौरीसिया में जमीन से महज 10 किमी नीचे स्थित था। जबकि भारत में धरती हिलाने वाले भूकम्प का केन्द्र म्यांमार में भूमि की सतह से 58 किमी नीचे था।

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बराजों ने गंगा को बिहार का अभिशाप बनाया

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Author: 
अमरनाथ

.गंगा के प्रवाह में अवरोध का बिहार पर सबसे अधिक असर पड़ा है। फरक्का बराज की वजह से गंगा की हालत ऐसी सर्पणी की तरह हो गई है जिसके मुँह को जकड़ दिया गया हो और छटपटा रही हो। नदी फूलती है, तेजी से कटाव करती है और बराज से फुँफकारती हुई निकलती है। हर बराज से ऐसा होता है। फरक्का की हालत अधिक विकराल है। बिहार उसका शिकार है।

फरक्का बराज से टकराकर बाढ़ के पानी का उलटा प्रवाह होता है। गंगा की सहायक नदियाँ- कोशी और गंडक आदि नदियों के पानी का विसर्जन थम जाता है, बल्कि उलटा प्रवाह होता है। कटिहार जिले के बड़े इलाके में भयानक कटाव, जलजमाव होता है।

इधर भागलपुर, मुंगेर से पटना जिले तक और उधर खगड़िया, बेगुसराय, समस्तीपुर, हाजीपुर से छपरा तक जगह-जगह लोग गंगा की छटपटाहट को झेल रहे हैं।

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नीतीश आपको रोना ही चाहिए

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.जो कुछ नहीं कर सकते वे रोते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर गंगा के तलछट प्रबन्धन पर ध्यान (धन) देने की माँग की, वे प्रधानमंत्री से बोले कि गंगा की हालात पर रोने का मन करता है। नीतीश जैसे संवेदनशील मुख्यमंत्री की आँखों में गंगा के लिये पानी हो तो इसे अच्छा संकेत माना जाना चाहिए लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। उनका गंगा उवाच राजनीति से ज्यादा कुछ नहीं है।

डिसिल्टिंग यानी तलछट की समस्या आज की नहीं दशकों पुरानी है और फरक्का डैम इसका एक बड़ा कारण है। इतने सालों में बिहार ने गंगा सहित किसी भी नदी में डिसिल्टिंग की कोशिश नहीं की, वे अच्छी तरह जानते हैं कि डिसिल्टिंग एक महंगा सौदा है, अविरल बहती नदी स्वयं को डिसिल्ट कर सकती है लेकिन जब बहते को बाँधने की सरकारी प्रवृत्ति तलछट प्रबन्धन की माँग करती है तो इसमें उनका भोलापन ही छलकता है।

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बाढ़ से उपजे बड़े बाँधों पर सवाल

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.कुछ समय पहले तक सूखे और गर्मी से बेहाल हुए देश का आधा भूभाग भीषण बाढ़ की चपेट में है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम और मध्य प्रदेश में बाढ़ की विभीषिका चरम पर है। राजस्थान के दक्षिणी जिलों में हालात बदतर हैं। इस क्षेत्र का अक्सर बरसात में सूखा रहने वाला रेगिस्तानी इलाका बाढ़ के पानी से लबालब है।

गुजरात के बड़ौदा में भी लगातार बारिश की वजह से कई इलाकों में पानी भर गया है। जुलाई माह में ऐसे ही हालातों से रूबरू होते हुए हमने आधुनिक और वास्तुशिल्प की दृष्टि नए रूप से विकसित किये गए गुड़गाँव, बंगलुरु को जुलाई में देखा था।

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नब्बे फीसदी शौचालय के बावजूद भी प्रदूषण का अम्बार

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.उत्तराखण्ड में कभी गाँव को स्वच्छता का प्रतीक माना जाता था। तब गाँव में शौचालय नहीं हुआ करते थे और लोग खुले में ही शौच जाते थे, किन्तु गाँव में सीमित जनसंख्या थी। अब कहीं गाँव खाली हो रहे हैं तो कहीं गाँवों में जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। उन दिनों सरकारी सेवा या ठेकेदारी के कामों से जुड़े व्यक्ति के घर-पर ही शौचालय हुआ करते थे जो गिनती मात्र के थे।

अलबत्ता राज्य के तराई क्षेत्र में शौचालयों का जो प्रचलन था उसके निस्तारण के लिये जो समुदाय जुड़े हैं उनकी हालत ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के बावजूद भी जस-की-तस बनी है। अर्थात मैला ढोने वाली प्रथा को आज भी आधुनिक नहीं बना पाये। कुल मिलाकर ‘स्वच्छ भारत मिशन’ का सपना तब तक अधूरा ही है जब तक मैला ढोने वाली प्रथा को समाप्त नहीं किया जाता।

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साक्षात्कार: जानें मोबाइल पर पानी में फ्लोराइड की मात्रा

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Author: 
मनोरमा

सैमुअल राजकुमारसैमुअल राजकुमारजल प्रदूषण मानवता के सबसे बड़े संकटों में से एक ​है खासतौर पर प्रदूषित पेयजल। पूरी दुनिया के लोग पेय की कमी और दूषित पेयजल की समस्या से जूझ रहे हैं। आज पूरे विश्व की 85 प्रतिशत आबादी सूखे के हालात में रह रही है और कुल 78.3 करोड़ लोगों की पहुँच में साफ पानी नहीं है।

भारत की बात करें तो पानी से सम्बन्धित कुछ आँकड़ों पर नजर डालना बेहद जरूरी है जैसे दुनिया की 16 प्रतिशत आबादी भारत में बसती है लेकिन विश्व के कुल जल संसाधन का केवल 4 प्रतिशत ही भारत के पास है। जबकि भारत ​में भूजल का दोहन पूरे विश्व में सबसे ज्यादा होता है यहाँ तक ​कि चीन भी इस मामले में हमसे पीछे है।

हाल के आँकड़ों के मुताबिक भारत की कुल एक चौथाई यानी लगभग 33 करोड़ आबादी पीने के पानी की कमी से जूझ रही है।

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सागर की बदकिस्मती

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Author: 
उमेश कुमार राय

.ईंधन से भरा एक जहाज समुद्र के रास्ते इंडोनेशिया से गुजरात के लिये रवाना हुआ था। 4 अगस्त, 2011 को यह जहाज मुम्बई तट से लगभग 37 किलोमीटर दूर अरब सागर (भारतीय सीमा) में डूब गया था।

जहाज के डूबने से इसमें मौजूद ईंधन व तेल का धीरे-धीरे रिसाव होने लगा जिससे समुद्र की पारिस्थितिकी और मुम्बई तट के आसपास की जैवविविधता को नुकसान हुआ था।

इस नुकसान की भरपाई के लिये राष्ट्रीय हरित पंचाट (नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल) ने पनामा स्थित डेल्टा शिपिंग मरीन सर्विसेज और उसकी कतर स्थित दो सहयोगी कम्पनी डेल्टा नेविगेशन डब्ल्यूएलएल और डेल्टा ग्रुप इंटरनेशनल पर 100 करोड़ रुपए का पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति लगाया है।

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गाद प्रबन्धन से निकलेगी समाधान की राह

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Author: 
अमरनाथ

बिहार में बाढ़ से तबाहीबिहार में बाढ़ से तबाहीहिमालय से निकली नदियों में पानी के साथ गाद आने की समस्या नई नहीं है। बिहार, बंगाल और असम सदियों से इसे झेलते रहे हैं। इन राज्यों में गाद को व्यवस्थित करने की प्रकृति सम्मत व्यवस्था विकसित हुई थी। उस व्यवस्था के टूट जाने से यह समस्या विकराल हो गई है।

बिहार में नेपाल की ओर से आई नदियों में काफी मात्रा में गाद आती है। इस मामले में कोशी सबसे बदनाम नदी है। हिमालय के ऊँचे शिखरों से आई यह नदी बिहार में प्रवेश करने के थोड़ा ही पहले पहाड़ से मैदान में उतरती है। प्रवाह गति अचानक कम हो जाती है जिससे नदी सिल्ट छोड़ती है।

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केन-बेतवा लिंक बुन्देलखण्ड को बाढ़-सुखाड़ में डुबोकर मारने का काम है- राजेन्द्र सिंह

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अरुण तिवारी द्वारा जलपुरुष राजेन्द्र सिंह से बातचीत पर आधारित साक्षात्कार

राजेन्द्र सिंहराजेन्द्र सिंहसुना है कि पानी के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार आजकल आपके मार्गदर्शन में काम रही है?
मेरा सहयोग तो सिर्फ तकनीकी सलाहकार के रूप में है। वह भी मैं अपनी मर्जी से जाता हूँ।

उत्तर प्रदेश सरकार अपने विज्ञापनों में आपके फोटो का इस्तेमाल कर रही है। ऐसा लगता है कि आप अखिलेश सरकार से काफी करीबी से जुड़े हुए हैं। पानी प्रबन्धन के मामले में क्या आप सरकार के कामों से सन्तुष्ट हैं?

कुछ काम अच्छे जरूर हुए हैं। लेकिन सरकार के प्लान ऐसे नहीं दिखते कि वे राज्य को बाढ़-सुखाड़ मुक्त बनाने को लेकर बनाए व चलाए जा रहे हों। बाढ़-सुखाड़ तब तक आते रहेंगे, जब तक कि आप पानी को ठीक से पकड़ने के काम नहीं करेंगे।

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प्रधानमंत्री ने की नदियों को प्रदूषण से बचाने की अपील

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नरेंद्र मोदीनरेंद्र मोदीइस बार मन की बात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मन की बात कार्यक्रम में एक बहुत अच्छा और सामयिक महत्त्व का मुद्दा देश के लोगों के सामने रखा है, वह है हमारी नदियों और जलस्रोतों को प्रदूषण से बचाने के लिये त्योहारों पर बनने वाली गणेश और दुर्गा प्रतिमाओं को पीओपी से बनाने की जगह उन्हें मिट्टी से बनाए जाने पर जोर दिया है। उन्होंने कहा कि ऐसा करने से हम पानी को प्रदूषित होने से बचा सकते हैं।

गौरतलब है कि हर साल इन त्योहारों पर पीओपी की बनी मूर्तियों के नदी और अन्य जलस्रोतों में प्रवाहित कर देने से बड़ी तादाद में प्रदूषण तो बढ़ता ही है। गाद भी जम जाती है, जो उथला करने के साथ ही पानी को जमीन की नसों में भेजने से रोकती है।

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इतनी बुरी भी नहीं बाढ़

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बाढ़ को हमने मारक बना दिया हैबाढ़ को हमने मारक बना दिया हैबाढ़ के कारणों पर चर्चा के शुरू में ही एक बात साफ कर देनी जरूरी है कि बाढ़ बुरी नहीं होती; बुरी होती है एक सीमा से अधिक उसकी तीव्रता तथा उसका जरूरत से ज्यादा दिनों तक टिक जाना। बाढ़, नुकसान से ज्यादा नफा देती है। बाढ़ की एक सीमा से अधिक तीव्रता व टिकाऊपन, नफे से ज्यादा नुकसान देते हैं।

एक सीमा से अधिक वेग मिट्टी, पानी और खेती के लिहाज से बाढ़ वरदान होती हैै। प्राकृतिक बाढ़ अपने साथ उपजाऊ मिट्टी, मछलियाँ और अगली फसल में अधिक उत्पादन लाती है। यह बाढ़ ही होती है कि जो नदी और उसके बाढ़ क्षेत्र के जल व मिट्टी का शोधन करती है। बाढ़ ही भूजल भण्डारों को उपयोेगी जल से भर देती है। इस नाते बाढ़, जलचक्र के सन्तुलन की एक प्राकृतिक और जरूरी प्रक्रिया है। इसे आना ही चाहिए।

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गंगोत्री में बाढ़ का संकेत यानि गंगा घाटी में खतरा

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गंगोत्री में उफनती गंगागंगोत्री में उफनती गंगाकभी गंगोत्री से गोमुख मात्र एक किमी दूर था, अब 14 किमी दूर हो गया है और तो और अब तो गोमुखनुमा आकार भी नहीं बचा गंगोत्री ग्लेशियर का। ये परिवर्तन कई बार और लगातार पर्यावरण विज्ञानियों, चिन्तको को सता रहा है। वर्तमान में तो गंगोत्री में ही गंगा-भागीरथी का पानी दो से तीन मीटर बढ़ गया है और गंगोत्री में बने स्नान घाटों को भगीरथी का पानी अपने साथ बहाकर ले गया है। यह ग्लोबल वार्मिंग नहीं है तो क्या है?

अहम सवाल इस बात का है कि मनुष्य की लालसा जितनी विलासिता की ओर बढ़ेगी उतने ही प्राकृतिक खतरे भी बढ़ेंगे। ऐसा वैज्ञानिक कई बार सत्ता-प्रतिष्ठानों को बता चुके हैं मगर हम लोगों पर सत्ता की लोलुपता इतनी सिर चढ़ गई कि अपने लिये खुद ही आपदाओं के रास्ते बना रहे हैं। जैसा कि अभी हाल ही गंगोत्री में देखने को मिल रहा है।

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कावेरी जल विवाद पर राजनीति

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कावेरी नदीकावेरी नदीकर्नाटक और तमिलनाडु की जीवनरेखा मानी जाने वाली नदी कावेरी के जल को लेकर दोनों राज्यों में एक बार फिर विवाद गहरा गया है। दरअसल तमिलनाडु में इस साल कम बारिश होने के कारण पानी की जबरदस्त किल्लत है। इस समस्या के तात्कालिक निदान के लिये तमिलनाडु ने सर्वोच्च न्यायालय से पानी देने की गुहार लगाई थी।

तमिलनाडु ने कम बारिश के कारण राज्य में हुई दयनीय स्थिति को उजागार करते हुए कहा था कि प्रदेश की चालीस हजार एकड़ में फसल बर्बाद हो रही है, इसलिये उसे कृषि और किसानों की आजीविका के लिये तुरन्त पानी की जरूरत है। इस बाबत अदालत ने 2 सितम्बर को कर्नाटक सरकार से कहा था कि ‘जियो और जीने दो’ की तर्ज पर 15 हजार क्यूसेक पानी रोजाना 10 दिन तक तमिलनाडु को देने का आदेश दे दिया।

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विकास की उपभोगवादी अवधारणा से बिगड़ा हिमालय का सौन्दर्य

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हिमालय दिवस, 09 सितम्बर 2016 पर विशेष



हिमालयहिमालयपहली बार 09 सितम्बर 2010 को हिमालय दिवस मनाने का जो सिलसिला आरम्भ हुआ वह आज देश की राजधानी में ही नहीं बल्कि हिमालयी प्रदेशों के विभिन्न कोनों में यह आयोजन मनाया जा रहा है। ज्ञात हो कि पिछले 20 वर्षों में हिमालय में अनियोजित परियोजनाओं के कारण हिमालयीवासी और हिमालय की जैवविविधता खतरे के निशान पर आ चुकी है।

यह खतरा खुद ही लोगों ने विकास की अन्धी दौड़ के कारण मोल लिया है। अब मान लिया गया कि पुनः लोग हिमालयी संरक्षण की पुश्तैनी परम्परा को हिमालयी दिवस के बहाने बहाल करेंगे। जिसके लिये मीडिया से लेकर सामाजिक कार्यकर्ता व आम लोगों से लेकर राजनीतिक कार्यकर्ता एवं छात्रों से लेकर नौकरी पेशा लोग हिमालय के संरक्षण के लिये हाथ-से-हाथ मिला रहे हैं। भले यह कारवाँ पाँच वर्षों में बहुत ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाया मगर कारवाँ निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है।

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कैसे रुकेगी बाढ़

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बाढ़बाढ़बारिश पहले भी होती थी, ज्यादा होती थी, पर बहुत ज्यादा होती थी तभी बाढ़ आती थी। लेकिन अब तो थोड़ी भी बारिश हुई तो बाढ़ आ जाती है। एक तो कारण अब कुछ पर्यावरणविद और जानकार बताने लगे हैं कि जो बाँध पहले बाढ़ नियंत्रण के उपाय बताए जाते थे, अब वही बाढ़ के कारण बन रहे हैं। जैसा अभी गंगा के बाढ़ में हुआ। पर्यावरणविद हिमांशु ठक्कर ने इसे बाँध के प्रबन्धन की कमी बताया है। ऐसा पहले ओड़िशा में महानदी की बाढ़ और मध्य प्रदेश में नर्मदा की बाढ़ में भी हो चुका है।

लेकिन बाढ़ के कारण और भी हैं। जैसे रेत खनन, जंगल की कटाई, नदियों के आसपास की जमीन पर कब्जा होना, नदियों के रास्ते मोड़ना या रास्ता बदल देना और पानी के परम्परागत ढाँचों की उपेक्षा।

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नदी के प्रवाह क्षेत्र में तान दी बिल्डिंग

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नदी के प्रवाह क्षेत्र में खड़ी बिल्डिंगनदी के प्रवाह क्षेत्र में खड़ी बिल्डिंगलालच जब हद से बढ़ जाये तो विनाश शुरू होता है। यही बात हमारी नदियों के बारे में भी लागू होती है। बीते कुछ सालों में हमने जमीन के कुछ टुकड़ों की खातिर हमारी बेशकीमती नदियों और उनके पूरे तंत्र को खत्म कर लिया है। इससे प्रकृति का हमारा हजारों सालों से चला आ रहा ताना–बाना टूट गया है और अब हम प्राकृतिक विनाश की कगार तक पहुँच चुके हैं।

ताजा मामला मध्य प्रदेश के इन्दौर शहर के पास कनाडिया गाँव का है, जहाँ मॉर्डन मेडिकल कॉलेज के संचालक ने नदी के प्रवाह क्षेत्र में ही अतिक्रमण करते हुए कॉलेज की बिल्डिंग तान दी है। बड़ी बात यह है कि इससे गाँव में नदी की बाढ़ का खतरा बढ़ गया है।

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