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बरसाती पानी में छुपा है बीहड़ों का इलाज

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बरसाती पानी में छुपा है बीहड़ों का इलाजeditorialThu, 08/23/2018 - 15:26

बीहड़ में तब्दील होती उपजाऊ जमीनबीहड़ में तब्दील होती उपजाऊ जमीन (फोटो साभार - आईएएस अभियान)मिट्टी के कटाव का सबसे बदनुमा चेहरा यदि कहीं दिखता है तो वह बीहड़ में दिखाई देता है। बरसाती पानी से कटी-पिटी धरती ऊबड़-खाबड़ तथा पूरी तरह उद्योग, बसाहट या खेती के लिये अनुपयुक्त होती है। दूर से ही पहचान में आ जाती है। भारत में उन्हें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और बिहार में देखा जा सकता है। इस लेख में केवल मध्य प्रदेश के बीहड़ों की सुधार, पुनर्वास और बरसाती पानी की मदद से उपचार का विवरण उपलब्ध है। उपचार सुझाव की सूरत में है।

मध्य प्रदेश के लगभग सात लाख हेक्टेयर इलाके में बीहड़ हैं। हर साल उनका विस्तार हो रहा है। मध्य प्रदेश के चम्बल, ग्वालियर और सागर संभाग में बीहड़ की समस्या है। ग्वालियर संभाग के ग्वालियर जिले की एक लाख 10 हजार हेक्टेयर, दतिया जिले की 26 हजार हेक्टेयर, गुना और अशोकनगर जिलों की एक लाख हेक्टेयर और शिवपुरी जिले की लगभग 26 हजार हेक्टेयर भूमि बीहड़ प्रभावित है।

सागर सम्भाग के टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सागर और दमोह जिले में यह समस्या एक लाख हेक्टेयर के आँकड़े को पार कर चुकी है। बीहड़ बनने के कारण कस्बे, गाँव, वहाँ की जमीन और लाखों ग्रामीण तथा इंफ्रास्ट्रक्टचर प्रभावित होते हैं। विभिन्न कारणों से, मध्य प्रदेश में पाये जाने वाले बीहड़ों में सबसे अधिक प्रसिद्ध बीहड़ चम्बल कछार के हैं।

चम्बल कछार के बीहड चम्बल और उसकी सहायक नदियों (क्वारी, आसन, सीप, वैशाली, कूनों, पार्वती, सांक इत्यादि) की घाटियों में स्थित हैं। अकेले चम्बल सम्भाग की 16.13 लाख हेक्टेयर जमीन बीहड़ में तब्दील हो चुकी है। साइंस सेंटर, ग्वालियर के सर्वेक्षण से पता चला है कि भिंड और मुरैना जिलों में पिछले 30 सालों में बीहड़ क्षेत्र में 36 प्रतिशत से भी अधिक की बढ़ोत्तरी हुई है। अनुमान है कि अगले सौ सालों में मध्य प्रदेश का बीहड़ प्रभावित इलाका लगभग 14 लाख हेक्टेयर हो जाएगा।

चम्बल के बीहड़ों के सुधार और पुनर्वास के लिये पिछली सदी से प्रयास जारी हैं। सबसे पहले ग्वालियर रियासत के जमाने में प्रयास किये गए। आजादी के बाद मध्य भारत और फिर सन 1956 के बाद मध्य प्रदेश सरकार ने इस दिशा में काम किया। कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं ने भी कोशिश की।

कृषि विभाग ने बीहड़ों के शीर्ष पर स्थित खेतों से बरसाती पानी की सुरक्षित निकासी के लिये पेरीफरल बंड (Bund on the periphery of the field) तथा पक्के आउटलेट बनाए। इसके अलावा वनीकरण और गली प्लग बनाने का भी काम हुआ। इन कामों के असर से केवल उपचारित क्षेत्र में बीहड़ों का बनना रुका पर कुछ साल के बाद ही उपचारित क्षेत्र में पानी ने आउटलेट के बगल की भूमि को काट दिया। पीछे विकसित होता बीहड़, खेत को खा गया। व्यवस्था अनुपयोगी हो गई। वनीकरण और गली प्लग का काम भी अस्थायी सिद्ध हुआ।

वन विभाग ने पिछली सदी में हेलीकॉप्टर से बीहड़ की जमीन पर बीजों का छिड़काव किया था। उम्मीद थी जंगल का विकास बीहड़ बनने को रोक देगा। उन्होंने हवाई छिड़काव में मुख्यतः प्रोसोपीस जुलिफ्लोरा (prosopis juliflora), अकासिया केटेचु (acacia catechu), अकासिया लियोकोप्लोआ (acacia leucophloea), केनेरा, केलामस (canara calamus), लेगूमस (legumes), कुछ खास किस्म के घास और करील जैसी प्रजातियों का उपयोग किया था। जमीन के स्थायित्व के लिये विभाग ने 13 मीटर के अन्तराल पर कन्टूर ट्रेंच और उचित स्थानों पर गली प्लग (gully plug) भी बनाए थे। इस प्रयास की उन दिनों खूब चर्चा हुई थी। खूब सराहा भी गया था पर उसके परिणाम टिकाऊ सिद्ध नहीं हुए। कई जगह जंगल पनपा ही नहीं।

ग्वालियर रियासत, कृषि विभाग और स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा जो रणनीति अपनाई गई उसका लक्ष्य सीमित स्थानों पर भूमि कटाव रोकना और वनीकरण था। स्थानीय किसान उस रणनीति से असहमत था। वह बीहड़ की भेंट चढ़ी जमीन को वापस चाहता है। वहीं या उसके आसपास। सरकारी अमले और किसानों की सोच में अन्तर था। इसी कारण उन प्रयासों में समाज की भागीदारी का लगभग अभाव था।

भिंड और मुरैना जिलों की बीहड़ को भेंट चढ़ी अधिकांश जमीन किसानों की निजी पुस्तैनी जमीन है। इस कारण, बीहड़ में तब्दील हुई उस पुस्तैनी जमीन से उन्हें स्वाभाविक लगाव है पर बीहड़ बनने की प्रक्रिया ने उन्हें खेत छोड़ने और पलायन के लिये मजबूर किया। जैसे-जैसे उनके खेत खराब हुए वे ऊपरी इलाकों में बसते चले गए। बीहड़ की भेंट चढ़ी जमीन की टीस अभी भी उनकी स्मृति में है।

सरकारी हल्कों में जब भी बीहड़ों को खेतों में बदलने की बात होती है वह अकसर समतलीकरण पर जाकर समाप्त होती है। कहा जाता है कि चूँकि बीहड़ बहुत बड़े इलाके में फैले हैं और उनका भूगोल जटिल है इसलिये समतलीकरण के काम को मशीनों से करना होगा। वह काम बेहद खर्चीला है। बजट की कमी है। उच्च प्राथमिकता का अभाव है। इसी कारण बीहड़ों का काम सामान्यतः हाथ में नहीं लिया जाता। इसके अलावा बीहड़ों के सुधार की जो सरकारी मार्गदर्शिका है वह नए सोच या अभिनव प्रयोग की राह में सबसे बड़ी रुकावट है।

आमतौर पर शासकीय विभाग, बीहड़ों के काम को, उस मार्गदर्शिका के अनुसार, मिट्टी के संरक्षण से जोड़कर देखता है। इसलिये बीहड़ से जुड़ी हर योजना में खेत को बचाने के लिये मिट्टी को कटने से रोकने पर ही ध्यान दिया जाता है। वही योजना का केन्द्र बिन्दु होता है। सारा काम उसी के आसपास होता है। इस बात पर यदि गम्भीरता से चिन्तन किया जाये तो धीरे-धीरे लगने लगता है कि हम बीहड़ों के सुधार की नहीं अपितु उनको बनाए रखने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। इसी कारण, सरकारी अमला मिट्टी के कटाव को रोकने की अवधारणा पर काम करता है वहीं कुदरत, मिट्टी के कटाव को रोकने वाले मानवीय प्रयास को अपने काम में नाजायज रोड़ा मानती है।

समस्या का तीसरा पक्ष किसान है जो वनीकरण, फलदार वृक्ष या चारागाह को प्राथमिकता नहीं देता। वह, अपनी जमीन की वापसी चाहता है। इस स्थिति में आवश्यकता है किसान को केन्द्र में रखकर उस रणनीति को तलाशने की है जो कुदरत के कायदे-कानूनों का सम्मान करने के साथ-साथ समाज की आवश्यकता को भी यथासम्भव पूरा करती हो। इसी बात को कम-से-कम शब्दों में कहा जाये तो मामला केवल खेत वापसी का है। अब बात जमीन की बीमारी और बरसाती पानी द्वारा बीहड़ों के इलाज की।

बरसात के पानी द्वारा मिट्टी काटने से बीहड़ बनते हैं। बरसाती पानी उस मिट्टी को बहाकर आगे ले जाता है और उसके छोटे से हिस्से को कछार में अलग-अलग जगह जमा करता है। इसका अर्थ है कुदरत, नदी के कछार में मिट्टी को काटने और मिट्टी को जमा करने का काम करती है। अर्थात उपर्युक्त दोनों काम कुदरती हैं और नदी की जिम्मेदारी है।

उल्लेखनीय है कि भूमि कटाव और जमाव की जगह का फैसला भी कुदरत करती है। इस हकीकत का अर्थ है कि नदी घाटी में मिट्टी को जमा करने के काम को बढ़ावा देकर उपयुक्त स्थानों पर अलग-अलग साइज के खेत विकसित किये जा सकते हैं। इस प्रकार का काम कुदरत कर भी रही है। उसके चिन्ह कछार में नदी मार्ग के दोनों ओर दिखाई भी देते हैं।

सर्वे आफ इण्डिया की टोपोशीट (Toposheet of Survey of India) में भी उन्हें पहचाना जा सकता है। इस हकीकत को ध्यान में रखकर आवश्यकता है कि उपयुक्त स्थानों पर खेत विकसित करने की रणनीति पर काम किया जाये। मिट्टी के कटाव और जमाव को बढ़ावा दिया जाये। छोटे-छोटे खेत विकसित कर इस काम को अंजाम देने के लिये बरसात का पानी उपयोग में लाया जाये। यही समाज की चाहत है। यही है कुदरत के कायदे-कानूनों का सम्मान। यही है समाज की समस्या का समाधान। यही है बरसाती पानी की मदद से बीहड़ों का इलाज। यह फिलासफी अपनाई जा सकती है।

 

 

 

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पानी को सियासी हथियार बनाना है खतरनाक

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पानी को सियासी हथियार बनाना है खतरनाक editorialThu, 08/23/2018 - 18:21
Source
अमर उजाला, 23 अगस्त 2018

भारतीय नदी जल विवादनभारतीय नदी जल विवाद (फोटो साभार - सीडब्ल्यूसी)आन्तरिक जल विवाद भविष्य में भारत के लिये गम्भीर चिन्ता का विषय हो सकते हैं जिसकी चेतावनी लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व केन्द्रीय जल आयोग दे चुका है। आयोग ने कहा था कि पानी की सियासत देश के संघवादी ढाँचे के लिये खतरा पैदा कर रही है। भारत की प्रमुख नदियाँ- सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र आदि विवाद का विषय रही हैं। नदियों से जुड़े अन्तरराष्ट्रीय जलमार्ग भले ही ज्यादा ध्यान आकृष्ट करते हैं लेकिन इनसे सम्बन्धित आन्तरिक जल विवाद को नजरअन्दाज किया जाना परेशानी पैदा कर सकता है।

जल विवाद देश की कानून-व्यवस्था के साथ राजनीतिक व्यवस्था को भी अस्थिर कर सकता है। इसके कई उदाहरण देखने को मिले हैं। कुछ समय पूर्व दिल्ली के नजदीक, प्रदर्शनकारियों के कब्जे से एक नहर को मुक्त कराने के लिये सेना का इस्तेमाल करना पड़ा था। भारत की प्रौद्योगिकी राजधानी बंगलुरु को बन्द रखने के लिये आईटी कम्पनियों को मजबूर किया गया, दंगे भड़के और पड़ोसी राज्य के राजनेताओं के पुतले जलाए गए।

ये संघर्ष देश में क्षेत्रीय राजनीति की भावना को पुख्ता कर रहे हैं जिनका मूल कारण जल विवाद है। ये क्षेत्रीयता की भावना को भी बढ़ावा दे रहे हैं जो देश के भविष्य के लिये अच्छा नहीं है। बेशक, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने कई चुनौतियाँ हैं लेकिन देश में चल रहे अन्तरराज्यीय जल विवाद और इनसे सम्बन्धित संघर्ष को खत्म करने के लिये उन्हें इसे अपनी कार्य-सूची में प्रमुख स्थान देना ही होगा।

वास्तव में सिंधु और ब्रह्मपुत्र जैसे अन्तरराष्ट्रीय जल विवाद नीति-निर्माताओं और मीडिया का ध्यान आकर्षित करते हैं, जबकि अन्तरराज्यीय जल विवाद निश्चित रूप से भारत के विकास को जोखिम में डालते हैं। हालांकि भारत और उसके पड़ोसियों के बीच निकट भविष्य में पानी को लेकर युद्ध का खतरा कम है, लेकिन आन्तरिक जल विवाद भारत की एकता के लिये खतरनाक है।

भारत में अन्तरराज्यीय जल विवाद को जन्म देने वाले कारण जटिल हैं। इनमें से कई विवाद स्वतंत्रता पूर्व ब्रिटिश शासित हिस्से और रियासतों के बीच उत्पन्न हुए। लेकिन समय के साथ ये विवाद देश में स्थानीय राजनीति का एक हथियार बन गए। 1970 के दशक के उत्तरार्ध में भारतीय राज्यों की राजनीति के केन्द्र में जातीयता और जल विवादों ने डेरा जमा लिया। यही वजह है कि राज्यों की राजनीति में उन पार्टियों का वर्चस्व हो गया है, जिन्हें स्थानीय जातीय और भाषायी समूहों का समर्थन हासिल हो रहा है।

चूँकि भारतीय राज्यों के सीमांकन में भाषा को एक मुख्य आधार माना गया है इसीलिये राजनीतिक पार्टियों को भाषायी आधार पर समर्थक जुटाने का भरपूर मौका मिला। जाति और भाषा के आधार पर सत्ता पाने वाली राजनीतिक पार्टियों ने पड़ोसी राज्यों की जरूरत की परवाह तक नहीं की। इसे अगर भारत के विशाल कृषि क्षेत्र से जोड़ दें, जो मुख्य रूप से सिंचाई पर निर्भर है, तो पानी का इस्तेमाल एक सियासी हथियार के रूप में किया जाता है, जिसका उपयोग राज्य की पार्टियाँ समर्थकों को आकर्षित करने और पड़ोसियों पर हमला करने के लिये करती हैं। पिछले साल गोवा के जल मंत्री ने घोषणा की कि वह पड़ोसी राज्य कर्नाटक को एक बूँद भी पानी नहीं देंगे।

पानी के इस राजनीतिकरण ने न केवल अन्तरराज्यीय जल विवाद की समस्या का हल होना मुश्किल बना दिया बल्कि आर्थिक विकास की गति को भी बाधित कर दिया। पानी विवाद के कारण चल रही अदालती लड़ाइयों ने राज्यों के सामाजिक-आर्थिक सम्बन्ध को गम्भीर नुकसान पहुँचाया। विरोध प्रदर्शन ने देश के कई राज्यों के बीच व्यापार और परिवहन सम्पर्क को बाधित किया है। भारत के आन्तरिक जल संघर्ष का एक छुपा हुआ पहलू यह भी है कि राज्य खुद इसे खत्म नहीं करना चाहते। अतः यह जरूरी हो गया है कि केन्द्र सरकार देश के विभिन्न राज्यों के बीच जारी जल विवादों को खत्म करने की दिशा में ठोस कदम उठाए।

देश के नीति-निर्माताओं ने आन्तरिक जल विवादों को कम या खत्म करने में केन्द्र सरकार की भूमिका आजादी के तुरन्त बाद यानि संविधान निर्माण के दौरान ही तय कर दी थी। उनका मानना था कि अपने जलमार्गों को साझा करने के लिये राज्यों के बीच सहयोग की जरूरत है। और इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के लिये उन्होंने केन्द्र सरकार को कई महत्त्वपूर्ण अधिकार दिये, जिसमें अन्तरराज्यीय विवादों के निपटारे और प्रमुख जलमार्गों के प्रबन्धन को प्रभावी ढंग से राष्ट्रीयकृत करने के लिये ट्रिब्यूनल स्थापित करने के अधिकार शामिल हैं।

भारत में प्रचलित चुनावी व्यवस्था में विवादास्पद अन्तरराज्यीय जल संघर्ष राज्य स्तर पर नेशनल पार्टियों की भागीदारी को हतोत्साहित करते हैं। अन्तरराज्यीय विवादों में भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों के लिये राज्य स्तरीय चुनाव हारने का एक निश्चित कारक राज्यों में हावी स्थानीय मुद्दे हैं जिनमें जल विवाद की भी भूमिका होती है। इसीलिये यह हैरानी की बात नहीं जब केन्द्र सरकार राज्यों के बीच विवाद की स्थिति में अक्सर जब सर्वसम्मति बनाने की कोशिश करती है, तो वह राज्यों को बातचीत की मेज पर लाने के लिये कठिन रुख अपनाने से कतराती है। केन्द्रीय नेतृत्व के अभाव में दशकों से चल रहे अन्तरराज्यीय जल विवादों के निपटारे के लिये न्यायिक ट्रिब्यूनल स्थापित किये गए और जब उन अदालतों ने अन्ततः फैसला दिया, तो उनमें अक्सर वैधता का अभाव देखा गया।

मौजूदा सरकार ने अन्तरराज्यीय जल विवाद की समस्या से निपटने के लिये कई कदम उठाए हैं। इसने अन्तरराज्यीय जल विवादों पर केन्द्र को अधिक संवैधानिक शक्तियाँ देने और विवादों को हल करने के लिये एक समर्पित ट्रिब्यूनल स्थापित करने का प्रस्ताव रखा है। इस ट्रिब्यूनल में जल प्रबन्धन से सम्बन्धित विशेषज्ञ शामिल होंगे। इन सुधारों की प्रगति को देखना महत्त्वपूर्ण होगा क्योंकि इनमें से कई आजमाए जा चुके हैं और विफल रहे हैं। इसके अलावा यह देखना और भी महत्त्वपूर्ण होगा कि क्या केन्द्र और राज्य, जल संसाधनों के प्रबन्धन में गैर-सरकारी और नागरिक समूहों की व्यापक भूमिका सुनिश्चित करेंगे?

ये समूह प्रायः साझा जल संसाधनों के सहयोगी, टिकाऊ प्रबन्धन के लिये सार्थक आवाज उठाते हैं। फ्रांस की जल संसद मॉडल को अपनाया जा सकता है, जो देश की नदियों के प्रबन्धन के लिये जिम्मेदार है और उसमें गैर-सरकारी एवं पर्यावरण संगठनों के लिये कई सीटें आरक्षित हैं। भले भारत इसका अनुकरण न करे, लेकिन उसे अपने आन्तरिक जल विवादों पर नजर रखनी होगी, जो उसकी स्थिरता और विकास के लिये एक गम्भीर खतरा है।

लेखक विश्व बैंक में जल संसाधन प्रबन्धन विशेषज्ञ हैं

 

 

 

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केरल बाढ़, कम हो सकता था प्रभाव

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केरल बाढ़, कम हो सकता था प्रभावeditorialSun, 08/26/2018 - 12:41

केरल बाढ़केरल बाढ़ (फोटो साभार - इण्डियन एक्सप्रेस)केरल की बाढ़, राज्य में लगभग 100 वर्षों के दौरान आई सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा है। सरकारी सूचनाओं पर यदि गौर करें तो इससे पूर्व 1924 में राज्य को भीषण बाढ़ का सामना करना पड़ा था।

इस आपदा ने राज्य के कुल 14 जिलों में से 13 को अपनी चपेट में ले रखा है जिससे 57 लाख लोग प्रभावित हुए हैं। अब तक 350 लोगों की जाने जा चुकी हैं और हजारों लोगों को सरकारी कैम्पों में रहने के लिये मजबूर होना पड़ा है। पर सवाल है कि इस त्रासदी की विभीषिका के क्या कारण हैं? क्या ये पूर्णतः प्राकृतिक हैं या प्रदेश की पारिस्थितिकी में लगातार हो रहे मानवीय हस्तक्षेप ने इसे और विकराल बना दिया है। अगर पारिस्थितिकी और पर्यावरणविदों की माने तो इन सवालों के उत्तर हाँ हैं। इस प्राकृतिक विपदा के दोनों ही पहलुओं का विस्तृत विवरण इस लेख में दिया गया है।

प्राकृतिक कारण (Natural Reasons)
तापमान का बढ़ना:केरल सहित आस-पास के राज्यों के तापमान में लगातार वृद्धि दर्ज की जा रही है। इस वर्ष मार्च के महीने के शुरुआती दिनों में ही पलक्कड़ का तापमान 40 डिग्री पहुँच गया था। भारतीय मौसम विभाग ने इस वर्ष के शुरुआत में ही यह कहा था कि राज्य में मार्च से मई के महीनों का तापमान इस वर्ष ज्यादा रहेगा।

भारतीय मौसम वैज्ञानिकों द्वारा जारी किये गए एक रिपोर्ट के अनुसार केरल तथा उसके आस-पास के राज्यों के तापमान में इस सदी के अन्त तक 1 से 2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि दर्ज की जाएगी। वर्ष 2013 में 1951 से 2010 तक के मौसम और तापमान में हो रहे बदलाव सम्बन्धी आँकड़ों को आधार बनाकर मौसम विभाग द्वारा जारी किये गए एक रिपोर्ट के अनुसार केरल और उसके आस-पास के राज्यों के जाड़े के तापमान में भी वृद्धि दर्ज की जा रही है।

इस रिपोर्ट के मुताबिक तापमान में सबसे ज्यादा वृद्धि गोवा में दर्ज की गई है। गोवा के तापमान में 0.03 डिग्री सेल्सियस प्रतिवर्ष की वृद्धि दर्ज की जा रही है। मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि तापमान में हो रही इस वृद्धि का परिणाम मौसमी बदलाव के रूप में देखने को मिल रहा है। इसी का परिणाम है कि अचानक अतिवृष्टि, सूखा आदि जैसी समस्याओं से लोगों का सामना हो रहा है।

तापमान में विश्व स्तर पर भी वृद्धि दर्ज की जा रही है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि इस शताब्दी के अन्त तक विश्व स्तर पर तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी जिसका व्यापक प्रभाव चक्रवाती तूफानों और वर्षा के पैटर्न पर पड़ेगा। इसी अनुमान के तहत यह कहा जा रहा है कि वर्षा की मात्रा में 6 गुणा तथा चक्रवाती तूफानों में 10 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है।

बारिश की अधिकता:इस वर्ष पिछले ढाई महीनों में दक्षिण-पश्चिम मानसून से केरल में अत्यधिक बारिश हुई है। भारतीय मौसम विभाग द्वारा जारी आँकड़े के अनुसार इन महीनों में केरल में लगभग 2300 मिलीमीटर से अधिक बारिश हुई है जो सामान्य से लगभग 40 प्रतिशत ज्यादा है। अगस्त में अब तक 700 मिलीमीटर से ज्यादा बारिश हो चुकी है।

आँकड़ों पर यदि गौर करें तो बारिश की यह मात्रा अगस्त 2017 में अमेरिका के ह्यूस्टन में आये हरिकेन हार्वे से हुई वर्षा के समान है। बारिश की इस अत्यधिक मात्रा ने पूरे प्रदेश को बाढ़ की चपेट में ले लिया। केरल के लिये यह एक अप्रत्याशित घटना है क्योंकि यहाँ 2013 में पूरे मानसून सीजन के दौरान सामान्य से 37 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई थी। केरल में दक्षिण-पश्चिम मानसून के अतिरिक्त उत्तर-पूर्व मानसून से भी वर्षा होती है।

मानवजनित कारण (Manmade Reasons)

पश्चिमी घाट की सम्पदा का दोहन:पश्चिमी घाट, पारिस्थितिकी के दृष्टि से एक प्रमुख विरासत है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार ने वर्ष 2010 में देश के जाने-माने पारिस्थितिकी विशेषज्ञ की अध्यक्षता में ‘वेस्टर्न घाट इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनल’ (Western Ghat Ecology Expert Panel) के नाम से एक कमेटी गठित की थी। कमेटी को इस विशेष क्षेत्र के संरक्षण और उसकी वर्तमान स्थिति के बारे में रिपोर्ट देनी थी।

कमेटी ने वर्ष 2011 में केन्द्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट में कमेटी ने पश्चिमी घाट के पूर्ण विस्तार क्षेत्र में खनन गतिविधियों को बन्द करने, वनों के विनाश को रोकने, निर्माण कार्य पर प्रतिबन्ध लगाने सहित कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये थे। इसके अतिरिक्त कमेटी ने पश्चिमी घाट को पारिस्थितिकी की दृष्टि से काफी संवेदनशील हिस्सा बताया था।

पश्चिमी घाट का विस्तार केरल सहित देश के छह राज्यों में है। लेकिन केरल सरकार ने आर्थिक विकास की होड़ में इस संवेदनशील क्षेत्र के बड़े हिस्से के दोहन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया। यहाँ वनों की कटाई अबाध रूप से जारी रही और इसके साथ ही खनन की गतिविधि भी लगातार जारी रही।

एक अनुमान के मुताबिक पिछले 40 वर्षों में इस संवेदनशील क्षेत्र में पड़ने वाले राज्य के करीब 9000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में वनों का पूर्णतः विनाश कर दिया गया है। इसका परिणाम अपरदन में वृद्धि, मिट्टी की पानी शोषित करने की क्षमता में कमी, नदियों में गाद की मात्रा में वृद्धि, तापमान में वृद्धि आदि के रूप में देखने को मिला। केरल की बाढ़ पर अपना मत रखते हुए माधव गाडगिल ने कहा है कि बाढ़ का प्रभाव कम होता यदि पश्चिमी घाट की पारिस्थितिकी का बेतरतीब ढंग से दोहन नहीं किया गया होता।

भूस्खलन को मिला बढ़ावा:पश्चिमी घाट में हुई अवांक्षित गतिविधियों ने इस क्षेत्र के पहाड़ी क्षेत्रों को कमजोर कर दिया। इसी का परिणाम है कि केरल की भयावह बाढ़ में भूस्खलन की विभीषिका देखने को मिली। भूस्खलन से पलक्कड़, कन्नूर, इडुक्की, कोझिकोड, वायनाड और मालापुरम जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। इन जिलों में भूस्खलन से गम्भीर क्षति हुई है।

भूस्खलन के मलबे में दबने से दर्जनों लोगों को अपनी जान तक गँवानी पड़ी। भूस्खलन की इस तीव्रता का मुख्य कारण वनों के विनाश और खनन गतिविधियाँ हैं। पेड़ों के कटान और खनन से मिट्टी के अपरदन को बढ़ावा मिला जिससे चट्टानें कमजोर हो गईं। बारिश की अधिकता के कारण चट्टानें संगठित नहीं रह पाईं और भूस्खलन बड़े पैमाने पर हुआ।

डैमों के पानी से स्थिति हुई बदतर:इडुक्की और मुल्लापेरियार डैम से छोड़े गए पानी ने बाढ़ की विभीषिका को और भी बदतर बना दिया। ये दोनों ही डैम पेरियार नदी पर बनाए गए हैं। इडुक्की डैम से लगातार तीन दिनों तक 10 लाख लीटर प्रति सेकेंड की दर से पानी बहाया गया। यह एशिया का सबसे बड़ा आर्च डैम है।

मौसम विभाग द्वारा जारी आँकड़े के मुताबिक इडुक्की जिले में इस वर्ष सामान्य से 84 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई। यह राज्य का बारिश से सबसे ज्यादा प्रभावित जिला है। डैम केरल में मानसून आने के बाद लगातार हो रही बारिश के कारण बाढ़ के पूर्व ही भर चुका था। मिली जानकारी के अनुसार जुलाई में ही डैम में पानी, संग्रहण क्षमता के उच्च स्तर तक पहुँच चुका था जिसका मूल कारण जिले का बारिश से सबसे ज्यादा प्रभावित होना था।

डैम में पानी का स्तर 2395 फीट तक पहुँच चुका था जो उसकी कुल जल वहन क्षमता से मात्र 8 फीट कम था लेकिन डैम से पानी नहीं छोड़ा गया। न तो सरकार और न ही केरल स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड (Kerala State Electricity Board) और न ही सेंट्रल वाटर कमीशन (Central Water Commission) ने डैम से पानी छोड़ने के लिये कोई कदम उठाया। उस समय ही यदि डैम से पानी छोड़ दिया जाता तो बाढ़ के प्रभाव को कम किया जा सकता था क्योंकि वह अपेक्षाकृत कम बारिश का समय था। बारिश के लगातार होने कारण जब राज्य बाढ़ की चपेट में आ चुका था तो 16 अगस्त को डैम से पानी छोड़ने की शुरुआत की गई।

पानी छोड़ने में हुई इस देरी की मूल वजह डैम से पैदा होने वाली बिजली को माना जा रहा है। राज्य के बिजली विभाग के लोगों का मानना था कि डैम में पानी का जमाव ज्यादा रहने से अधिक बिजली पैदा की जा सकेगी। इतना ही नहीं मुल्लापेरियार डैम से छोड़े गए पानी ने भी बाढ़ के प्रभाव को और भी बढ़ा दिया। यह डैम भी केरल में स्थित है लेकिन इस पर तमिलनाडु का अधिकार है। तमिलनाडु को यह अधिकार अंग्रेजी हुकूमत के दौरान दिये गए थे जिसमें अब तक कोई बदलाव नहीं किया गया है।

गौरतलब है कि इस डैम से भी पानी तब छोड़ा गया जब यह अपनी क्षमता 142 फीट के स्तर तक पहुँच चुका था। केरल की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस सम्बन्ध में एक हलफनामा दायर किया था। इसमें उसने कहा था कि तमिलनाडु सरकार से बार-बार कहे जाने पर भी बाढ़ से पूर्व डैम से पानी नहीं छोड़ा गया। इस मुद्दे पर सुनवाई के बाद कोर्ट ने डैम में 31 अगस्त तक 139 फीट पानी के स्तर को मेन्टेन रखने का आदेश दिया है। इसके अतिरिक्त नदियों द्वारा हो रहे अपरदन के कारण पानी में घुले मिट्टी के कण डैम की तली में जम गए हैं जिससे इसकी जल संग्रहण क्षमता कम हो रही है।

आपदा से निपटने की तैयारी नहीं:यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि केरल सरकार के पास किसी भी प्रकार की आपदा से निपटने के लिये कोई विशेष दल नहीं है। सरकार ने इस तरह के किसी भी टास्क फोर्स का भी गठन नहीं किया है जो आपदा से निपटने के लिये प्रशिक्षित हो। इसी वजह से वहाँ राहत कार्य के लिये केन्द्रीय सरकारी एजेंसियों और अन्य पर पूरी तरह आश्रित होना पड़ा। राहत कार्य के लिये दिल्ली, गाँधीनगर के अलावा अन्य जगहों से एनडीआरएफ की टीम भेजी गई। इसके अलावा सेना का भी इस्तेमाल करना पड़ा। केरल में आई इस बाढ़ से सबक लेते हुए अन्य राज्यों को भी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिये पूरी तैयारी रखने की जरूरत है।

गोवा को भी है सचेत रहने की जरूरत:गोवा के पश्चिमी घाट क्षेत्र में बिना किसी रोक-टोक के चल रही खनन गतिविधियाँ भविष्य के लिये खतरनाक साबित हो सकती हैं। गोवा में पर्यावरण संरक्षण के नियमों को सरकार द्वारा समुचित तरीके से लागू नहीं करना खनन गतिविधियों के आम होने की एक बड़ी वजह है। पत्थर के लिये गोवा में पश्चिमी घाट पहाड़ी पर बड़े पैमाने पर खनन किया जाता है।

लागत कम और फायदा ज्यादा होने के कारण बहुत से लोग इस व्यापार से जुड़े हैं। लगातार हो रहे खनन के कारण पहाड़ खोखले हो रहे हैं। वनों का विनाश हो रहा है। प्रदेश के हिस्से में पड़ने वाली पहाड़ी क्षेत्र का पारिस्थितिकीय सन्तुलन बिगड़ रहा है। और इन्हीं सभी गतिविधियों का प्रतिफल है कि दक्षिणी राज्यों में गोवा के तापमान में सबसे ज्यादा वृद्धि दर्ज की जा रही है। केरल जैसी गोवा की भी स्थिति हो सकती है इसकी सम्भावना माधव गाडगिल भी जता चुके हैं।

 

 

 

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मानव जनित है केरल में बाढ़ का कहर

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मानव जनित है केरल में बाढ़ का कहरeditorialMon, 08/27/2018 - 14:14

बाढ़ की चपेट में केरलबाढ़ की चपेट में केरल (फोटो साभार - आउटलुक)देश के दक्षिणी-पश्चिमी हिस्से में मालाबार तट पर करीब 39000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में एक बेहद खूबसूरत सूबा बसा हुआ है। नाम है केरल। इस राज्य की खूबसूरती ही है कि इसे ‘ईश्वर का अपना देश’ भी कहा जाता है।

ईश्वर का यह अपना देश बीते चार हफ्ते से राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियाँ बना हुआ है क्योंकि यहाँ सदी की सबसे भयावह बाढ़ ने जबरदस्त कहर बरपाया है।

करीब 3.33 करोड़ की आबादी वाला केरल कई सूचकांकों में दूसरे राज्यों से बेहतर है। प्रदूषण के मामले में भी दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों की तुलना में इस राज्य की चर्चा कम ही होती है। इस लिहाज से यह कल्पनातीत थी कि केरल कभी सदी की सबसे भयावह बाढ़ से रूबरू होगा। इसलिये जब बाढ़ आई, तो आम आवाम से लेकर सरकार तक को एकबारगी समझ नहीं आया कि यह कैसे हो गया और अब क्या करना चाहिए?

फिर भी केन्द्र और राज्य सरकारें, आमलोग और समाजसेवी बाढ़ में फँसी बड़ी आबादी को सुरक्षित निकालने में कामयाब रहे।

बाढ़ का असर कमोबेश हर जिले में देखा गया था और इसके कारण 3 सौ से ज्यादा लोगों की जान चली गई। 11000 किलोमीटर रोड पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया जबकि 20-50 हजार घरों को नए सिरे से बनाना होगा।

पिछले दिनों बारिश में कमी आने के बाद केरल में अब बाढ़ का खतरा धीरे-धीरे कम हो रहा है। लोगबाग भी राहत कैम्पों से अपने घरों की ओर लौटने लगे हैं। पानी जम जाने से घर की जो हालत हुई है, उसे सँवारना खर्चीली प्रक्रिया है।

एक अनुमान के मुताबिक केरल को बाढ़ से जितना नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई करने के लिये तकरीबन 21 हजार करोड़ रुपए की जरूरत पड़ेगी। केरल सरकार ने बाढ़ पीड़ितों को तत्काल राहत के लिये 10-10 हजार रुपए देने का एलान किया है। सरकार ने यह भी कहा है कि बाढ़ से पीड़ित लोग नुकसान का आकलन कर सरकार के पास पंजीयन करा सकते हैं, उन्हें मुआवजा दिया जाएगा।

बाढ़ को लेकर काम करने वाले विशेषज्ञों की मानें, तो बाढ़ के दौरान की समस्याओं को लोग झेल चुके हैं लेकिन, सबसे बड़ी मुश्किल अब दोबारा केरल को सँवारना है। बाढ़ में जितनी मुश्किलें होती हैं, बाढ़ के जाने के बाद उससे ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

पानी के चले जाने के बाद सरकार भी यह मान बैठती है कि समस्या खत्म हो गई है और सरकार की तरफ से मदद मिलनी बन्द हो जाती है। लेकिन, बाढ़ का पानी उतरने के बाद जल जनित बीमारियों के साथ ही कई दूसरे तरह के रोग फैलने लगते हैं। इसके साथ ही बुनियादी ढाँचों को जल्द-से-जल्द विकसित करना होता है ताकि जनजीवन सामान्य पटरी पर लौट सके। इसके लिये भारी मानव संसाधन और पैसे की जरूरत पड़ती है। इसलिये सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती अब भी खड़ी है।

केरल में पर्यटन ही आय का सबसे अहम जरिया है और इस बाढ़ ने पर्यटन क्षेत्र को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है, इसलिये लोगों के सामने रोजगार का भी संकट होगा।

इन चुनौतियों से जूझने के साथ ही सरकार को अब यह भी देखने की जरूरत है कि आखिरकार चूक कहाँ हो गई कि बाढ़ ने इतनी खतरनाक शक्ल अख्तियार कर ली। बाढ़ के कारणों के हर पहलू पर गम्भीरता से शोध करने की आवश्यकता है ताकि आने वाले समय में इस तरह के विध्वंस की आशंकाओं को पूरी तरह टाला जा सके या इसके असर को न्यूनतम स्तर पर लाया जाये।

1924 में भी आई थी भयावह बाढ़

केरल की बाढ़ पर चर्चा हो रही है, तो यह भी बता दें कि आज से करीब 95 वर्ष पहले (जुलाई 1924 में) भी केरल में भयावह बाढ़ आई थी, जिसे ‘99 की भयावह बाढ़’ भी कहा जाता है।

99 की बाढ़ इसलिये कहा जाता है, क्योंकि मलयाली कैलेंडर के अनुसार वह साल 1099 (अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 1924) था।

यह भी कहा जाता है कि उस बाढ़ में एक पहाड़ और सड़क तक बह गए थे। सैकड़ों लोगों ने जल समाधि ले ली थी। हजारों घर जमींदोज हो गए थे। हजारों लोगों के सर से छत छिन गई थी। केरल को वर्षों लग गए थे, उस आपदा से ऊबरने में।

कहा जाता है कि पेरियार नदी में अत्यधिक पानी आ जाने के कारण बाढ़ आई थी। असल में उस साल केरल में लगातार तीन हफ्ते तक बारिश होती रही थी जिस कारण बेतहाशा पानी भर गया था।

आँकड़े बताते हैं कि उस वर्ष मानसून के सीजन में यानी जून से सितम्बर तक 3368 मिलीमीटर बारिश दर्ज की गई थी, जो सामान्य से 64 प्रतिशत अधिक थी।

भारी बारिश के कारण नदियाँ उफान पर थीं। कहते हैं कि मुल्लापेरियार स्लुइस को खोल दिया गया था, जिस कारण स्थिति और भी खराब हो गई थी। स्लुइस खुलने से यक-ब-यक भारी मात्रा में पानी राज्य में प्रवेश कर गया था और रास्ते में जो कुछ आया, उसे बहाकर अपने साथ ले गया।

1924 में केरल में आई बाढ़ का मुख्य कारण मोटे तौर पर अत्यधिक बारिश होना था। वहीं, केरल में इस साल आई बाढ़ के कारणों के बारे में अब तक ठोस तौर पर किसी नतीजे पर नहीं पहुँचा जा सका है। अलबत्ता इसके पीछे कई तरह की थ्योरीज जरूर दी जा रही है।

बाढ़ में मुल्लापेरियार बाँध का रोल

केरल में बाढ़ को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई के दौरान केरल सरकार ने बताया था कि कर्नाटक सरकार द्वारा मुल्लापेरियार बाँध से केरल में पानी छोड़े जाने के कारण केरल बाढ़ में डूब गया।

कर्नाटक सरकार ने इस आरोप को बेबुनियाद करार दिया। दोनों सरकारों के मुख्तलिफ बयानों के बीच मुल्लापेरियार बाँध भी चर्चा के केन्द्र में आ गया।

इस बाँध का निर्माण अंग्रेजी हुकूमत ने सन 1887 में शुरू करवाया था, जिसे बनकर पूरी तरह तैयार होने में 8 साल का वक्त लग गया। 176 फीट ऊँचा और करीब 1200 फीट लम्बा यह बाँध वैसे तो केरल में स्थित है, लेकिन इसकी देखभाल और ऑपरेशन का अधिकार तमिलनाडु के पास है।

मुल्ला और पेरियार नदी के मुहाने से शुरू हुए इस बाँध में इस साल अगस्त के मध्य में पानी 142 फीट पर पहुँच गया था, जो किसी भी साल से ज्यादा था।

बताया जाता है कि पेरियार नदी के पानी को सूखा प्रवण क्षेत्र मद्रास की तरफ मोड़ने के लिहाज से इस बाँध का निर्माण किया गया था। उस वक्त इस बाँध को बनाने के लिये करीब 104 लाख रुपए खर्च हुए थे। बाँध निर्माण में चूना और सुर्खी का इस्तेमाल किया गया था।

आजादी से पहले बाँध की देखरेख के लिये अंग्रेजों और स्थानीय राजा के बीच अनुबन्ध हुआ था। यही अनुबन्ध देश की आजादी के बाद भी लागू रहा और इस तरह बाँध की देखरेख और ऑपरेशन का अधिकार तमिलनाडु के हाथों में ही रहा।

केरल की माँग थी कि बाँध को लेकर सबसे ज्यादा संकट केरल पर मँडराता है, इसलिये उसकी देखरेख और ऑपरेशन का जिम्मा उसे ही दिया जाये। वहीं, तमिलनाडु सरकार का कहना था कि कई क्षेत्रों की खेती इसी बाँध के पानी पर निर्भर है, इसलिये बाँध की देखरेख और ऑपरेशन का जिम्मा उसके हाथों में ही रहने देना चाहिए। विवाद बाँध में जलस्तर बढ़ाने को लेकर भी था।

बताया जाता है कि जलस्तर बढ़ाने का मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया था। कोर्ट ने इसके लिये एक कमेटी बनाई थी जिसने तमिलनाडु सरकार को यह अधिकार दिया कि वह बाँध में जलस्तर बढ़ा सकती है।

बहरहाल, हम लौटते हैं मुल्लापेरियार बाँध से पानी छोड़ने के आरोपों की ओर। केरल सरकार का दावा है कि मुल्लापेरियार बाँध से पानी छोड़े जाने के कारण बाढ़ आई है जबकि तमिलनाडु सरकार का कहना है कि अन्य रिजर्वायरों से पानी छोड़े जाने के कारण पानी फैला और मुल्लापेरियार का मामला इसलिये उछाला जा रहा है ताकि इस बाँध में ज्यादा पानी नहीं रखा जाये।

सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट दाखिल कर केरल सरकार ने कहा, ‘इंजीनियरों की ओर से आगाह किये जाने के बाद तमिलनाडु सरकार से अपील की गई थी कि मुल्लापेरियार बाँध से सन्तुलित मात्रा में ही पानी छोड़ा जाये। लेकिन, ऐसा नहीं किया गया। नतीजतन मुल्लापेरियार बाँध से आये पानी को रोकने के लिये दूसरे रिजर्वायर से पानी छोड़ना पड़ा, जिससे बाढ़ आई।’

हालांकि, मुल्लापेरियार बाँध को बाढ़ का कारण बताए जाने के बीच एक सच तो यह भी है कि केरल के सभी 35 रिजर्वायर में 10 अगस्त तक बेतहाशा पानी जमा हो गया था, जिस वजह से इडुक्की बाँध के गेट खोलने पड़े थे।

इसके अलावा यह भी सच है कि जलवायु परिवर्तन और अत्यधिक गर्मी के कारण मध्य और दक्षिण भारत के राज्यों में मानसून की बारिश में इजाफा हुआ है। सरकार को चाहिए था कि वह मानसून की बारिश में बढ़ोत्तरी के साल-दर-साल आँकड़े जुटाती। इन आँकड़ों के जरिए सरकार को यह मूल्यांकन करने में सहूलियत होती कि कब मानसून की बारिश अधिक होने वाली है। इससे समय रहते एहतियाती कदम उठाने में सहूलियत होती और नुकसान कम-से-कम होता।

अब तक की बहसों में जो एक बात सामने आई है, वह ये है कि भारी बारिश बाढ़ की एक बड़ी वजह रही। यह संकेत नासा की ओर से जारी सेटेलाइट ईमेज में भी मिलता है। सेटेलाइज ईमेज में पता चला है कि 13 से 20 अगस्त तक केरल के आसमान में भारी मात्रा में बादल मँडरा रहे थे, जिसकी वजह से एक हफ्ते में कम-से-कम दो बार भारी बारिश हुई।

क्यों याद आई गाडगिल रिपोर्ट

केरल में बाढ़ को लेकर जितनी थ्योरियाँ दी जा रही हैं, उनमें एक अहम बिन्दू है गाडगिल रिपोर्ट की अनदेखी। गाडगिल रिपोर्ट असल में वेस्टर्न घाट्स इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनल (western ghats ecology expert panel) की रिपोर्ट है। इस पैनल के चेयरमैन पर्यावरणविद माधव गाडगिल थे, जिस कारण पैनल की रिपोर्ट को गाडगिल रिपोर्ट भी कहा जाता है।

पैनल ने अगस्त 2011 में रिपोर्ट जमा की थी, जिसमें कई अहम अनुशंसाएँ की गई थीं, लेकिन उस वक्त रिपोर्ट का खूब विरोध किया गया था।

गाडगिल रिपोर्ट में खनन पर प्रतिबन्ध लगाने की वकालत की गई थी और पहाड़ी ढलानों पर खेती नहीं करने को कहा गया था। इसके अलावा पहाड़ी ढलानों पर ज्यादा-से-ज्यादा पेड़-पौधे लगाने की सलाह दी गई थी और निर्माण कार्यों पर रोक लगाने की अनुशंसा की गई थी।

रिपोर्ट में पश्चिमी घाट के 37 प्रतिशत हिस्से को पारिस्थितिक रूप से बेहद संवेदनशील करार देने को कहा गया था। रिपोर्ट में चिन्ता जताई गई थी कि मानव के हस्तक्षेप के चलते पश्चिमी घाट (western ghats) गम्भीर खतरे में है। इस खतरे से बचाने के लिये पश्चिमी घाट में सख्त उपाय करने की भी वकालत की गई थी। इसके लिये उस क्षेत्र को विश्व धरोहर घोषित करने की बात भी कही गई थी।

यही नहीं, गाडगिल रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि पश्चिमी घाट के ज्यादातर रिजर्वायर में गाद जम गया है और उनके आसपास अतिक्रमण कर जंगलों को काट दिया गया है।

इस रिपोर्ट की उस वक्त तीखी आलोचना की गई थी और खासकर ईसाई समुदायों की तरफ सबसे ज्यादा विरोध हुआ था। क्योंकि ज्यादातर ईसाई समुदाय के लोग ही पहाड़ी ढलानों पर खेती कर रहे थे।

केरल की सरकार ने तो उस समय की यूपीए सरकार से इस रिपोर्ट को पूरी तरह खारिज करने की माँग की थी।

गाडगिल रिपोर्ट को लेकर भारी विरोध के मद्देनजर कस्तूरीरंगन कमेटी का गठन किया गया था। इस कमेटी ने गाडगिल रिपोर्ट का समर्थन किया था और बहुत मामूली बदलाव किये थे, लेकिन राजनीतिक वजहों से रिपोर्ट को अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका।

हालांकि, काफी मशक्कत करने के बाद केन्द्र की एनडीए सरकार ने पिछले साल पश्चिमी घाट के 57000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील अधिसूचित किया। इस अधिसूचित क्षेत्र में खनन, बड़े निर्माण, थर्मल पावर प्लांट और प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग को प्रतिबन्धित किया गया है।

विशेषज्ञों की राय है कि अगर गाडगिल रिपोर्ट को लागू कर दिया गया होता, तो केरल में अगर बाढ़ आती भी, तो आज जितनी बड़ी तबाही हुई है, वैसी तबाही नहीं होती।

गाडगिल के पैनल में सदस्य रहे प्रो. वीएस विजयन के अनुसार, गाडगिल कमेटी ने वर्ष 2011 में ही सिफारिशें की थीं। अगर सरकार ने उस वक्त इसे लागू कर दिया होता, तो आज केरल में जितना नुकसान हुआ है, उसका महज 50 फीसदी नुकसान होता।

वहीं, पैनल के चेयरमैन रहे माधव गाडगिल का कहना है कि केरल में जो कुछ भी हुआ है उसमें वहाँ के लोगों की गतिविधियाँ भी जिम्मेवार हैं। उन्होंने कहा, ‘केरल में आज जो भी समस्या हुई, उसका कम-से-कम एक हिस्सा मानव निर्मित है।’

उन्होंने इण्डियन एक्सप्रेस के साथ बातचीत में कहा, ‘हाँ, यह सच है कि भारी बारिश के कारण ऐसा हुआ है। लेकिन, मुझे विश्वास है कि विगत कुछ वर्षों में विकास के नाम पर इस तरह की घटनाओं को रोकने की क्षमता के साथ समझौता हुआ है और ऐसी घटनाओं की संगीनता बढ़ गई है। अगर सही कदम उठाए गए होते, तो आज जो विध्वंस देख रहे हैं वैसा बिल्कुल भी नहीं होता।’

एक अन्य शोध वनों की बेतहाशा कटाई की तरफ इशारा करता है। शोध के अनुसार, वर्ष 1920 से 1990 तक पश्चिमी घाट के तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक के हिस्से के 40 प्रतिशत वनों को या तो खत्म कर दिया या फिर उन्हें खेतों में तब्दील कर दिया गया।

इससे समझा जा सकता है कि वनों पर किस हद तक कुल्हाड़ियाँ चलाई गई हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, पेड़-पौधे पानी को रोकने का काम करते हैं। अगर वनों का कटाव इस स्तर तक नहीं किया गया होता, तो बाढ़ का असर कुछ कम होता।

बाढ़ का फैलता दायरा

केरल में तबाही मचाने के बाद अब कर्नाटक में बाढ़ का कहर शुरू हो गया है। कर्नाटक में अब तक बाढ़ से एक दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और तकरीबन 5 हजार लोग बेघर हो गए हैं।

बताया जा रहा है कि भारी बारिश के चलते कर्नाटक बाढ़ की चपेट में आया है। बाढ़ में 800 घर क्षतिग्रस्त हो गए हैं। वहीं, 123 किलोमीटर रोड को नुकसान पहुँचा है। दर्जनों पुल और सरकारी दफ्तरों को क्षति पहुँची है। यहाँ भूस्खलन की खबरें हैं। भूस्खलन की स्थिति से निबटने के लिये हिमाचल प्रदेश सरकार से मदद माँगी गई है।

कर्नाटक के अलावा तमिलनाडु, ओड़िशा, गोवा और हिमाचल प्रदेश में भी भारी बारिश के कारण बाढ़ की आशंका बनी हुई है।

माधव गाडगिल ने कहा है कि गोवा में वैसे तो पश्चिमी घाट नहीं है, लेकिन वहाँ भी मानव ने अपने स्वार्थों के लिये प्रकृति को बहुत नुकसान पहुँचाया। इसलिये गोवा में भी केरल जैसी ही विध्वंसक बाढ़ आ सकती है।

क्या है समाधान

बिहार और बंगाल व कुछ अन्य राज्यों की बात करें, तो यहाँ बाढ़ की वाजिब वजहें हैं। नतीजतन लोग भी बाढ़ को बर्दाश्त करने के आदि हो गए हैं। इन राज्यों की बाढ़ के पीछे वनों की कटाई या अन्य वजहें नहीं हैं।

इसके उलट दक्षिण भारत के राज्यों की बात करें, तो इन राज्यों में बाढ़ बहुत कम आती है। इसी वजह से यहाँ जब भी बाढ़ आती है, तो इसके पीछे मानवीय कारण ज्यादा होते हैं।

केरल में आई बाढ़ की बात करें, तो यहाँ भी मनुष्य जनित कारण सामने आये हैं। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि एहतियाती कदम अभी से उठाए जाएँ, ताकि भविष्य में बाढ़ आये भी तो नुकसान कम-से-कम हो। इसके लिये सबसे जरूरी है विकास के उस मॉडल को अपनाना जो पर्यावरण व प्रकृति को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचाता हो।

ज्यादा-से-ज्यादा पेड़-पौधे लगाए जाने चाहिए और इसके साथ ही प्रकृति के मूल चरित्र को अक्षुण्ण रखने की भी आवश्यकता है।

 

 

 

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भूकम्प के साये में है उत्तराखण्ड

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भूकम्प के साये में है उत्तराखण्डeditorialSat, 08/25/2018 - 12:15

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजीवाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (फोटो साभार - डब्ल्यूआईएचजी)उत्तराखण्ड भूकम्प की दृष्टि से अति-संवेदनशील है और राज्य के विभिन्न हिस्सों में अक्सर महसूस किये जाने वाले भूकम्प के झटकों को गम्भीरता से लेने की जरूरत है यह कहना है वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान (Wadia Institute of Himalayan Geology) से जुड़े भू-वैज्ञानिकों का।

उत्तराखण्ड में अक्सर आने वाले इन भूकम्प के झटकों की बड़ी वजह है इस प्रदेश का हिमालय क्षेत्र में स्थित होना। हालांकि भूकम्प के इन झटकों की क्षमता रिक्टर स्केल पर कम होती है लेकिन ये भविष्य में आने वाले किसी बड़े खतरे का संकेत भी हो सकते हैं।

हाल में ही वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान का स्वर्ण जयन्ती समारोह मनाया गया जिसमें देश-विदेश के 150 विशेषज्ञ और शोधकर्ताओं ने भाग लिया था। इस समारोह में बताया गया कि वर्ष 2015 में नेपाल में आये बेहद विनाशकारी भूकम्प के बाद राज्य में अब तक भूकम्प के 52 झटके महसूस किये जा चुके हैं।

500 साल के अन्तराल पर आता है विनाशकारी भूकम्प

समारोह में अपनी बात रखते हुए संस्थान के पूर्व निदेशक पद्मश्री प्रोफेसर वीसी ठाकुर ने बताया कि भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में प्रत्येक पाँच सौ वर्ष के अन्तराल पर विनाशकारी भूकम्प के आने की सम्भावना रहती है। उन्होंने बताया कि इस प्रकार के भूकम्प की क्षमता रिक्टर स्केल पर आठ या इससे अधिक भी हो सकती है। “उत्तराखण्ड के भूकम्पीय इतिहास पर यदि गौर करें तो वर्ष 1400 में गढ़वाल क्षेत्र में रिक्टर स्केल पर आठ से उच्च क्षमता वाला भूकम्प आया था। इसके बाद सम्बन्धित भूकम्पीय क्षेत्र में इतनी ही क्षमता का भूकम्प 1803 के आसपास रिकॉर्ड किया गया था। इस तरह यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वर्ष 2300 के आसपास इतनी ही क्षमता का भूकम्प फिर आएगा”प्रोफेसर वीसी ठाकुर ने कहा। उन्होंने राज्य के भूकम्प की दृष्टि से अतिसंवेदनशील होने की बात पर जोर देते हुए कहा कि यहाँ भूकम्परोधी निर्माण की तकनीक को प्रमुखता से लागू किया जाना चाहिए जिससे बड़े भूकम्पीय झटकों की स्थिति में होने वाले नुकसान को कम-से-कम किया जा सके।

हिमालय का जारी है निर्माण

वाडिया के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. कौशिक सेन व डॉ. ए के सचान ने इण्डियन व यूरेशियन प्लेट की टक्कर के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि इन दोनों प्लेटों के बीच हुई यह टक्कर केवल एक नहीं बल्कि टक्करों की एक शृंखला थी, जो 70 मिलियन से लेकर 32 मिलियन वर्ष पूर्व तक लगातार चलती रही। सम्पूर्ण पृथ्वी छह प्लेटों में विभाजित है। इन बड़े प्लेटों के कई छोटे विभाजन हैं।

इन प्लेटों के बीच होने वाली टक्कर को प्लेट विवर्तनिकी के नाम से जाना जाता है और पृथ्वी पर नजर आने वाली सभी आकृतियाँ- पहाड़, मैदान, पठार, समुद्र आदि इसी घटना का परिणाम हैं। हिमालय की उत्पत्ति भी इसी विवर्तनिक घटना के कारण हुई है जो आज भी जारी है। भूकम्प भी इसी विवर्तनिक घटना का परिणाम हैं।

प्लेटों के बीच होने वाली टकराहट ही पर्वतों के निर्माण और भूकम्प का भी कारण है। इसके अलावा संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. आर जे पेरुमल ने वर्ष 1950 में तिब्बत-असम हिमालय क्षेत्र में रिक्टर स्केल पर आये 8.6 की क्षमता वाले भूकम्प के बारे में बताने के साथ ही अन्य ववर्तनिक घटनाओं पर भी चर्चा की। विश्व भर में ज्वालामुखी विस्फोट से मिले खनिजों पर प्रकाश डालते हुए वाडिया संस्थान के पूर्व विशेषज्ञ डॉ. एस घोष ने प्रोटोजोइक टाइम प्लान के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि आज से 1800 से 542 मिलियन वर्ष पहले विश्व भर में ज्वालामुखी विस्फोट के साथ बेहद शक्तिशाली भूकम्प आये जिससे ताम्बा, जिंक आदि जैसे बेहद महत्त्वपूर्ण खनिज पृथ्वी की गर्भ से सतह पर आये।

आ सकता है विनाशकारी भूकम्प

भू-विशेषज्ञों की माने तो उत्तराखण्ड में 134 फाल्ट सक्रिय स्थिति में हैं। ये फाल्ट भविष्य में रिक्टर स्केल पर सात या उससे अधिक तीव्रता के भूकम्प लाने की क्षमता रखते हैं। वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के एक्टिव टेक्टोनिक्स ऑफ कुमाऊं एंड गढ़वाल हिमालय (Active Tectonics of Kumaon and Garhwal Himalaya) नामक ताजा अध्ययन में इस बात का खुलासा किया गया है। सबसे अधिक 29 फाल्ट उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में पाये गए हैं।

सबसे गम्भीर बात यह है कि यहाँ कई फाल्ट लाइन में बड़े निर्माण भी किये जा चुके हैं जो भूकम्प की स्थिति में काफी विनाशकारी साबित हो सकते हैं। गढ़वाल में कुल 57, जबकि कुमाऊँ में 77 सक्रिय फाल्ट पाये गए हैं। संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. आर जे पेरुमल के मुताबिक भूकम्पीय फाल्ट का अध्ययन करने के लिये गढ़वाल व कुमाऊँ मंडल को अलग-अलग जोन में विभाजित किया गया है।

फाल्ट की पहचान के लिये सेटेलाइट चित्रों का सहारा लिया गया है। इसके बाद हर फाल्ट की लम्बाई मापी गई और उनकी सक्रियता का भी पता लगाया गया। अध्ययन में पता चला कि इन फाल्टों के प्रभाव क्षेत्र में लगभग 10 हजार साल पूर्व रिक्टर स्केल पर सात व आठ की क्षमता वाले भूकम्प आ चुके हैं। इस अध्ययन में इन फाल्टों की सक्रियता की भी चर्चा की गई है। भू-विशेषज्ञों के अनुसार ये फाल्ट आज भी सक्रिय हैं और भविष्य में कभी भी एक्टिव हो सकते हैं जिससे काफी शक्तिशाली भूकम्प आ सकते हैं। कुमाऊँ मंडल में रामनगर से टनकरपुर के बीच ऐसे भूकम्पीय फाल्टों की संख्या सबसे अधिक पाई गई है।

 

 

 

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मालवा में कैंसर का कहर

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मालवा में कैंसर का कहरeditorialSat, 08/25/2018 - 14:34

कैंसर से मौत के बाद गमजदा परिवारकैंसर से मौत के बाद गमजदा परिवार'डग-डग रोटी, पग-पग नीर'और अपने स्वच्छ पर्यावरण के लिये पहचाना जाने वाला मध्य प्रदेश का मालवा इलाका इन दिनों एक बड़ी त्रासदी के खौफनाक कहर से रूबरू हो रहा है। यहाँ के गाँव-गाँव में कैंसर की जानलेवा बीमारी इन दिनों किसी महामारी की तरह फैलती जा रही है। कुछ गाँवों में घर-घर इसका आतंक है। तम्बाकू और बीड़ी पीने वालों को यह बीमारी आम है लेकिन यहाँ कई ऐसे लोग भी इस लाइलाज बीमारी के चंगुल में फँस चुके हैं, जिन्होंने कभी इनका इस्तेमाल नहीं किया।

विशेषज्ञों के मुताबिक इसका बड़ा कारण खेतों में प्रयुक्त होने वाला कीटनाशक है। कुछ साल पहले पंजाब में भी इसी तरह के हालात बने थे और कैंसर मरीजों को लाने-ले जाने वाली रेलगाड़ी को ही कैंसर ट्रेन कहा जाने लगा था। अब लगभग वैसी ही स्थिति मालवा की भी है। बड़ी बात यह है कि प्रभावितों की बड़ी तादाद होने के बाद भी यह मुद्दा अब तक मीडिया की हेडलाइन से दूर है।

हमने इलाके के उन गाँवों में जाकर स्थितियों का जायजा लिया और इसके कारणों की भी पड़ताल करने की ठानी। इन्दौर से करीब 15 किमी दूर घने जंगलों और हरे-भरे खेतों के रास्ते हम पहुँचे हरसोला गाँव में। करीब नौ हजार की आबादी और अठारह सौ घरों वाला यह गाँव आलू और सब्जियों के उत्पादन के कारण पहचाना जाता है।

यहाँ के कम स्टार्च वाले आलू विदेशों सहित देश भर में बनने वाली वेफर्स में उपयोग किया जाता है। सरपंच लक्ष्मीबाई मालवीय बताती हैं- "यहाँ कैंसर के 35 मरीज थे, जिनमें से 15 की मौत हो चुकी है। इसी महीने इस बीमारी से हजारीलाल और रमेश पिता हरिराम मोडरिया की मौत हुई है।"

गाँव के लोग बताते हैं कि करीब पाँच साल पहले यहाँ कैंसर ने दस्तक दी। 2017-18 में ही अब तक 11 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। इनमें रामकिशन चौधरी, रामचन्द्र पटेल, किशनलाल वर्मा, रमेश बारोड, लक्ष्मीनारायण सोलंकी, भागवंती बाई, कौशल्या बाई, रामकन्या बाई आदि हैं। इससे पहले 2016 में भी लीलाबाई, मदनलाल मुकाती, रामचन्द्र राव, लक्ष्मीबाई मुकाती, परमानन्द माली तथा बद्रीलाल डिंगू की मौत कैंसर से हो चुकी है।

यहाँ जब बीते महीने डॉक्टरों ने पड़ताल की तो पहले ही दिन 6400 लोगों की जाँच में 25 कैंसर के मरीज मिले। यह आँकड़ा देखकर डॉक्टर भी चौंक गए। इंदौर कैंसर फाउन्डेशन (indore cancer foundation) के डॉ. दिगपाल धारकर ने बताया, "अमूमन एक लाख लोगों में से 106.6 कैंसर के मरीज होते हैं लेकिन यहाँ तो इस अनुपात से बहुत ज्यादा हैं। मेरे अनुमान से करीब पाँच गुना ज्यादा और यह शोध का विषय है।"डॉ. हेमंत मित्तल और विकास गुप्ता के मुताबिक इस गाँव में सभी तरह के मुँह, गले, स्तन, गर्भाशय, रक्त तथा लीवर कैंसर के रोगी शामिल हैं। जबकि पूरे गाँव में महज 127 लोग गुटखा-तम्बाखू खाते हैं और 95 धूम्रपान करते हैं।

अमलाय पत्थर गाँव में कृष्णा देवी की कैंसर से मौतअमलाय पत्थर गाँव में कृष्णा देवी की कैंसर से मौत (फोटो साभार - दैनिक भास्कर)लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने गाँव में पीने के पानी के स्रोतों 6 बोरिंग सहित तालाब के पानी की भी जाँच की है। हालांकि अब तक पानी के परीक्षण की रिपोर्ट नहीं आई है लेकिन ग्रामीणों का कहना है कि डेढ़ साल पहले भी जब जाँच हुई थी तो इसमें कैल्शियम की मात्रा ज्यादा पाई गई थी।

पर्यावरण के जानकार बताते हैं कि अधिक-से-अधिक उत्पादन की होड़ में गाँव के आसपास खेतों में इतनी बड़ी तादाद में कीटनाशकों का इस्तेमाल किया गया है कि यहाँ की धरती और पानी दोनों ही जहरीले हो चुके हैं। खेतों का कीटनाशक बारिश के पानी के साथ जमीन में उतरता है और जमीन के साथ जमीनी पानी के भण्डार को भी प्रदूषित करता है।

यह साफ है कि हरसोला गाँव के ज्यादातर लोग किसान हैं और अपने खेतों में काम करते हैं। सभी मृतक किसी-न-किसी रूप में किसान ही हैं। बुजुर्ग बताते हैं कि गाँव में बीते 40 सालों में रासायनिक खादों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करीब चार से पाँच गुना तक बढ़ा है। इसी ने हमारे परिवेश में जहर और हवा में कड़वाहट घोल दी है। ये बीमारियाँ इन्हीं की देन हैं।

कमोबेश यही स्थिति शाजापुर जिले के अमलाय पत्थर गाँव की है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से करीब सौ किमी दूर करीब पौने दो हजार की आबादी और सवा तीन सौ परिवार वाले इस गाँव के हर दसवें घर में कैंसर के मरीज अपनी मौत का इन्तजार करते मिले। अब तक कैंसर से इस गाँव में 31 मौतें हो चुकी हैं।

वर्ष 2012 में पहली बार यहाँ कैंसर के चार मरीज मिले थे। लेकिन इलाज के अभाव में इन चारों की बारी-बारी से मौत हो गई। इलाके में कैंसर के कई मरीज अब भी हैं लेकिन इनमें ज्यादातर झाड़-फूँक के अन्धविश्वास में अस्पताल पहुँचते इतनी देर कर देते हैं कि उनकी मौत से बचना नामुमकिन हो जाता है। बीते छह महीनों में ही चार लोगों की मौतें हो चुकी हैं।

ग्रामीण रूपसिंह बताते हैं- "कैंसर मरीजों में बुजुर्ग ही नहीं महिलाएँ और बच्चे भी शामिल हैं। इनमें अधिकांश कोई नशा नहीं करते थे। अलग-अलग तरह के कैंसर से पीड़ित लोगों के लिये आसपास के अस्पतालों में इलाज के लिये सुविधाएँ नहीं हैं तथा इंदौर या भोपाल के कैंसर अस्पतालों में लम्बे समय तक रहकर इलाज करा पाना उनके बस में नहीं है। यही वजह है कि कैंसर होने पर सिवाय मौत के इन्तजार के अलावा इनके पास कोई चारा नहीं है। यहाँ कैंसर का खौफ इस तरह है कि लोग यहाँ के कुँआरे लड़कों के लिये अपनी लड़कियों का हाथ देने तक में कतराते हैं। गाँव का नाम सामने आते ही वे मुँह बिदका लेते हैं। अमलाय में 18 से 40 साल के करीब 60 युवक ऐसे हैं, जो अपनी शादी के इन्तजार में बुढ़ापे की तरफ बढ़ते जा रहे हैं।"

नवम्बर 2012 में गाँव के सभी 13 जलस्रोतों की जाँच की गई थी लेकिन इसकी रिपोर्ट अब तक ग्रामीणों को नहीं बताई गई है। जवाहर कैंसर हॉस्पिटल भोपाल (Jawahar cancer hospital bhopal) के शोध विशेषज्ञ डॉ. गणेश ने बताया कि गाँव के पानी, जमीन, खाद और कीटनाशकों के उपयोग की स्थिति, धूम्रपान, गुटखा तम्बाखू की लत, जीवनशैली, खानपान के तौर तरीकों सहित कई आयामों से शोध के बाद ही अमलाय में इतनी बड़ी तादाद में हो रही बीमारी के कारणों का खुलासा हो सकता है लेकिन हाँ खेतों में कीटनाशकों का अन्धाधुन्ध उपयोग इसे बढ़ा सकता है। गाँवों में यही बड़ा कारण हो सकता है। जिले के स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. जीएल सोढी का कहना है कि गाँव के लोग कैंसर के प्रति गम्भीर नहीं हैं।

कैंसर से मौत का मातमकैंसर से मौत का मातमहमारे पड़ताल की अगली यात्रा का पड़ाव है धार जिले का डेहरी गाँव। करीब 6 हजार की आबादी वाले इस गाँव में बीते दो सालों में कैंसर से 12 लोगों की मौतें हो चुकी हैं। डेहरी और उसके आसपास के पाँच गाँवों में बीते महीने 25 मरीज मिले हैं। बीते एक साल में कैंसर से खेमाजी सिर्वी, दामोदर राठौर, गणेश राठौर, बाबू खान और रफीक खान की मौत हो चुकी है। इसी तरह बीते हफ्ते ही पूर्व सरपंच दुर्गाबाई कुशवाहा की भी मौत हो चुकी है।

सरपंच शकुंतलाबाई जामोद बताती हैं, "गाँव में कैंसर का प्रकोप बढ़ने के बाद एक बार फिर पीने के पानी की जाँच जरूरी हो गई है। इससे पहले भी पंचायत के प्रस्ताव पर लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने पानी का सैम्पल तो लिया लेकिन इसके गुणवत्तापूर्ण होने या नहीं होने की कोई रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है। यदि विभाग के अधिकारी पानी को दूषित बताएँगे तो हम तुरन्त इसकी सप्लाई रोक देंगे।"

पूर्व सरपंच जफरुद्दीन मुलतानी बताते हैं- "कैंसर के साथ गाँव में कई तरह की बीमारियाँ व्याप्त हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह है पीने का पानी। यहाँ के पानी में पहले भी फ्लोराइड का आधिक्य मिला था लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। पुरानी रिपोर्ट में तीन प्रतिशत फ्लोराइड होने से कुछ स्रोतों का पानी बन्द कर दिया था लेकिन कुछ ही दिनों में लोगों ने फिर से पीना शुरू कर दिया। एक प्रतिशत से अधिक होने पर पानी पीने योग्य नहीं रहता। कुछ लोगों को इससे किडनी, लीवर, खुजली, चर्म रोग, घेंघा और दाँत पीले और टेढ़े होने के साथ अन्य बीमारियाँ हो रही हैं। फिलहाल चार ट्यूबवेल से लोगों को पानी दिया जा रहा है। धार जिले में केन्द्र सरकार का कैंसर, मधुमेह और हृदय रोग जैसे गैर संचारी रोगों के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम भी चलाया जा रहा है।"

इंदौर सम्भाग की क्षेत्रीय संचालक डॉ. लक्ष्मी बघेल भी मानती हैं कि डेहरी और उसके आसपास कैंसर का बढ़ता प्रकोप शोध का विषय है। फिलहाल हमने इन सभी गाँवों में शिविर लगाकर रोगियों को चिन्हित करने की पहल शुरू कर दी है।

धार के ही पड़ोसी जिले खंडवा में बीते एक साल में कैंसर से 31 मौतें हो चुकी हैं। इस साल यहाँ 283 नए कैंसर रोगी दर्ज हुए हैं। झाबुआ जिले के गाँवों में भी यही स्थिति है। बीते तीन साल में यहाँ करीब 30 मरीजों की मौत हुई है तथा 240 से ज्यादा नए मरीज दर्ज हुए हैं। अलीराजपुर में 223 दर्ज हैं। रतलाम में 172 कैंसर पीड़ित हैं। खरगोन में चौंकाने वाला आँकड़ा सामने आया है, जहाँ कुल 290 मरीजों में 62 फीसदी महिलाएँ शामिल हैं। देवास में बीते चार सालों में 934 मरीज दर्ज हैं। मंदसौर में तीन सालों में कैंसर पीड़ितों का आँकड़ा 33 से बढ़कर 209 तक पहुँच गया है। उज्जैन में सर्वाधिक 2787 मरीज दर्ज हैं, इनमें 30 फीसदी स्तन कैंसर पीड़ित महिलाएँ हैं। उज्जैन का कैंसर अस्पताल इलाके में मँडल के रूप में माना जाता है।
 

जिला

सरकारी अस्पताल में दर्ज कैंसर के रोगी

कैंसर से हुई मौतें

खंडवा

283 (बीते 1 साल में)

31

झाबुआ

240 (बीते 3 साल में)

30

अलीराजपुर

223 (बीते 1 साल में)

आँकड़े अप्राप्त

रतलाम

172 (बीते 1 साल में)

आँकड़े अप्राप्त

खरगोन

290 (बीते 2 साल में)

आँकड़े अप्राप्त

देवास

934 (बीते 4 साल में)

आँकड़े अप्राप्त

मंदसौर

209 (बीते 3 साल में)

आँकड़े अप्राप्त

उज्जैन

2787 (बीते 4 साल में)

आँकड़े अप्राप्त

धार

आँकड़े अप्राप्त

आँकड़े अप्राप्त

शाजापुर

आँकड़े अप्राप्त

आँकड़े अप्राप्त

बड़वानी

800 (बीते 3 साल में)

आँकड़े अप्राप्त

नीमच

आंकडें अप्राप्त

आंकडें अप्राप्त

(सरकारी जिला अस्पतालों से मिले  रिकॉर्ड के मुताबिक)

 

ये आँकड़े केवल जिले के सरकारी अस्पतालों में पहुँचने वाले मरीजों के हैं। लेकिन अधिकांश मरीज कैंसर के इलाज के लिये जिला अस्पतालों की जगह समीप के इंदौर, भोपाल, अहमदाबाद, मुम्बई और बड़ौदा के अस्पतालों की तरफ जाते हैं। इनका कोई रिकार्ड कहीं नहीं है। एक बड़े अनुमान के मुताबिक अकेले मालवा में सात हजार से ज्यादा मरीज हैं। कैंसर का आँकड़ा बड़ी तेजी से बढ़ता जा रहा है। यह चिन्ता का विषय है।

कुछ सालों पहले से पंजाब के बठिंडा से बीकानेर जाने वाली ट्रेन को कैंसर ट्रेन के नाम से ही पहचाना जाता है। इससे हर दिन 200 से ज्यादा कैंसर रोगी बीकानेर के कैंसर अस्पताल पहुँचते हैं और यह सिलसिला कई सालों से अनवरत चल रहा है। 20 स्टेशनों से गुजरते हुए यह हर दिन 325 किमी का सफर तय कर कैंसर मरीजों की बुझी हुई उम्मीदों को जिन्दा करने की कोशिश करती रही है।

हरित क्रान्ति के बाद पंजाब में उत्पादन बढ़ाने के नाम पर कीटनाशकों तथा रासायनिक खादों का अन्धाधुन्ध इस्तेमाल हुआ और इस ट्रेन में सफर करने वाले मरीजों का कारण भी यही है। यहाँ के प्रदूषित पानी, हवा और जमीन ने इन्हें कैंसर की बीमारी तोहफे में दी है।

पंजाब के बाद मध्य प्रदेश के मालवा का एक बड़ा हिस्सा भी अब इस तर्ज पर कैंसर की अनिवार्य परिणिति को भुगतने को मजबूर है। मालवा के खेतों में बीते कुछ सालों में खूब सारा जहर डाला गया। यह कीटनाशकों के प्रयोग में देश के सर्वाधिक उपयोगकर्ताओं में एक बन चुका है और इसी का खामियाजा अब इसे इन्हीं किसानों के शरीर में गाँठे पड़कर धीरे-धीरे मौत के दरवाजे तक पहुँचने का दौर शुरू हो चुका है। अकेले मध्य प्रदेश में कैंसर मरीजों का ताजा आँकड़ा तेजी से बढ़कर 93 हजार 754 तक पहुँच चुका है।

गाँव में खौफजदा लोगगाँव में खौफजदा लोगमध्य प्रदेश देश का पाँचवाँ ऐसा राज्य है, जहाँ कैंसर मरीजों की तादाद बड़ी तेजी से बढ़ रही है। कहीं कैंसर एक्सप्रेस का अगला स्टेशन मालवा तो नहीं होने जा रहा।

विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन की ताजा रिपोर्ट ताकीद करती है कि रासायनिक खादों और कीटनाशकों से पूरी दुनिया की धरती में खेती के उत्पादन, खाद्य सुरक्षा और मनुष्य की सेहत के लिये गम्भीर किस्म के खतरे खड़े कर दिये हैं। यहाँ तक कि शिशु के लिये अब अपनी माँ का दूध भी अछूता नहीं रहा। पेय और खाद्य पदार्थों के कारण भोजन खुराक से ही माँ का दूध भी प्रदूषित हो जाता है।

फेडरेशन ऑफ गायनिक सोसायटी इण्डिया (Federation of Gynaec Society of India) की अध्यक्ष डॉ राजदीप मल्होत्रा ने बताया- "पहले प्रायः 45 वर्ष या इससे अधिक उम्र की महिलाओं में ही स्तन कैंसर की आशंका होती थी लेकिन अब 25 से 35 साल की महिलाओं में यह बीमारी अधिक देखने में आ रही है। भारत में हर आठ में से एक महिला को स्तन कैंसर की आशंका रहती है। स्तन कैंसर साइलेंट किलर है तथा थोड़ी-सी भी देरी से डाइग्नोस होता है तो इसके ठीक होने की सम्भावना कम हो जाती है। यही वजह है कि ग्रामीण क्षेत्र में इससे मौतें ज्यादा होती हैं, क्योंकि वहाँ तक जाँच व निदान की तकनीक और संसाधन अब तक नहीं पहुँच सके हैं। इसका सबसे बड़ा कारण आधुनिक जीवनशैली, नशा और अनुवांशिकी के साथ सब्जियों और अनाज में कीटनाशकों के अंश का पहुँचना है।"

रासायनिक खाद के इस्तेमाल में भी मध्य प्रदेश पीछे नहीं है। देश में सबसे ज्यादा यूरिया की खपत करने वाले प्रदेशों में मध्य प्रदेश तीसरे नम्बर पर हैं।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (center for science and environment) की रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल 2015 से मार्च 2016 के बीच एक साल में 23 लाख 87 हजार 499 मीट्रिक टन यूरिया की प्रदेश के खेतों में खपत हुई है। पहले नम्बर पर उत्तर प्रदेश है, जो क्षेत्रफल की दृष्टि से काफी बड़ा है। छत्तीसगढ़ का क्षेत्रफल काफी कम होने के बावजूद यहाँ भी यूरिया की खपत 8 लाख 45 हजार 057 मीट्रिक टन हुई है। इसमें हर साल 20 फीसदी की दर से बढ़ोत्तरी हो रही है। जाहिर है कि मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ में किसान यूरिया का बेतहाशा उपयोग कर रहे हैं। हरित क्रान्ति के दौर में उत्पादन बढ़ाने के लिये किसानों को परम्परागत खेती छोड़कर रासायनिक खादों के लिये सरकारों ने प्रेरित किया। किसान उपज के मान से मालामाल हुए भी। लेकिन तब इसके दूरगामी दुष्परिणामों पर गौर नहीं किया गया।

खेतों में कीटनाशक का बेतहाशा इस्तेमालखेतों में कीटनाशक का बेतहाशा इस्तेमालआश्चर्य है कि खेतों की मिट्टी का परीक्षण किये बिना मुनाफे की होड़ में मनमाने तरीके से यूरिया सहित अन्य खादों का प्रयोग किया गया। यूरिया का 30 फीसदी हिस्सा ही पौधों को बढ़ाता है, जबकि बड़ा हिस्सा 70 फीसदी नाइट्रोजन में बदलकर बारिश के पानी के साथ धरती में जाकर भूजल भण्डार तथा मिट्टी के साथ नदी-नालों में समाकर उन्हें प्रदूषित करता है। इससे भूजल क्षारीय हो जाता है और ऐसा पानी फसलों को नुकसान पहुँचाता है। इनकी वजह से खेती में लागत लगातार बढ़कर घाटे का सौदा होती जा रही है। नदी-नालों में जलीय जन्तुओं के लिये ऑक्सीजन की कमी से उनके जीवन पर संकट आता है। यह पानी और इससे उगने वाला अन्न दोनों ही मनुष्य की सेहत को नुकसान पहुँचाते हैं और गम्भीर बीमारियों का कारण बनते हैं।

बीते बीस सालों से पर्यावरणविद और कृषि वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि जल्दी ही रासायनिक खादों और दवाओं को हटाकर जैविक खेती को नहीं अपनाया गया तो हालात गम्भीर हो सकते हैं, किन्तु तमाम सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों के बाद भी अब तक जैविक खेती को लेकर सिर्फ नारेबाजी ही हो रही है।

हमारे यहाँ जैविक खेती की अवधारणा नई नहीं है, परम्परा से हमारे पूर्वज इसे करते रहे हैं। खेती की आसन्न चुनौतियों से निपटने का एकमात्र विकल्प है- अपनी जड़ों की ओर लौटना। हमें फिर परम्परागत खेती के तरीकों पर आना होगा। अब किसानों को भी यकीन होता जा रहा है कि खेती में रसायनों का उपयोग बहुत हुआ। अब इसे रोकने का समय आ गया है। यह जमीन और स्वास्थ्य दोनों के लिये हानिकारक है और पैसों की बर्बादी भी है।

दुर्भाग्य से जिन गाँवों के कोठार कभी अन्न के दानों से भरे रहते थे, आज वहाँ दवाइयाँ हैं, जहाँ के खेत सोना उगलते थे, आज वहाँ मौतें हो रही हैं। हवाओं में दुर्गन्ध का कसैलापन है। जहाँ कभी फसलें आने पर लोक गीत गूँजते थे, आज वहाँ भयावह खौफ और मौत का सन्नाटा है। जहाँ के लोग हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी हृष्ट-पुष्ट बने रहते थे, आज वे कंकाल की तरह नजर आते हैं और निराशा इतनी कि हर दिन अपनी मौत की घड़ियाँ गिनते रहते हैं।

बीते तीस-चालीस सालों में हमने खेती की उपज बढ़ाने के नाम पर किन यमदूतों को हमारी खेती में शामिल कर लिया कि हमारी जान पर ही बन आई। भला ऐसी समृद्धि किस काम की जो मौत का तोहफा देती हो। कीड़ों को मारने वाली दवा जब हमारी खुद की सेहत पर भारी पड़ जाये तो सवाल खड़े होना लाजमी है कि आखिर कब हम इस जहर से मुक्त होंगे।

जानलेवा कैंसर के इलाज के नाम पर करोड़ों खर्च करने वाली सरकारें इन कीटनाशकों, खाद और गुटखा-तम्बाखू उत्पादों के बनाने और बिक्री पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाती। किसान तो मजबूरी में अपनी जीती जागती फसलों को बचाने के लिये इसका प्रयोग करते हैं लेकिन सरकारों की आखिर क्या मजबूरी हो सकती है। आखिर कब तक हम अपने अन्नदाता किसानों को कैंसर के दलदल में धकेलते रहेंगे। कब तक...!

 

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लखवाड़ डैम निर्माण, पर्यावरण संरक्षण नियमों का मखौल

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लखवाड़ डैम निर्माण, पर्यावरण संरक्षण नियमों का मखौलeditorialTue, 09/04/2018 - 18:22

लखवाड़ डैमलखवाड़ डैम (फोटो साभार - गूगल मैप)28 अगस्त 2018 को विश्व में पर्यावरणीय सरोकार से जुड़े दो महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये गए। पहला, भारत में यमुना नदी के ऊपरी बहाव क्षेत्र में 204 मीटर ऊँचाई वाले लखवाड़ डैम के निर्माण के लिये केन्द्र सरकार की स्वीकृति। दूसरा, फ्रांस के पर्यावरण मंत्री निकोलस हलोट का पद से इस्तीफा। पहले निर्णय में पर्यावरणीय सरोकार को अहमियत नहीं दी गई। वहीं, दूसरे निर्णय में हलोट के इस्तीफे की वजह, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन के नेतृत्व वाली सरकार का समकालीन पर्यावरणीय मुद्दों के प्रति सजग न होना बताया जा रहा है। इन दोनों ही निर्णयों में कितना विरोधाभास है।

विकास की अन्धी दौड़ में विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र में जन सरोकार जो पर्यावरण से जुड़ा है बौना साबित हो रहा है। जबकि दूसरे देश में पर्यावरण, विकास के केन्द्र बिन्दु में है। “लखवाड़ डैम का निर्माण यमुना के अस्तित्व के लिये बड़ा खतरा है। भूकम्प की दृष्टि से अतिसंवेदनशील हिस्से में इनका निर्माण भविष्य में किसी बड़े खतरे को आमंत्रण देने जैसा है”हिमांशु ठक्कर, साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रीवर्स एंड पीपुल, सैंड्रप (South Asia Network on Dams, Rivers and People, SANDRP)।

यमुना देश की प्रमुख नदी है जिसकी लम्बाई 1376 किलोमीटर है। नदी का उद्गम स्थल हिमालय क्षेत्र के बन्दरपूँछ चोटी के दक्षिण-पश्चिम ढलान पर स्थित यमुनोत्री ग्लेशियर है। यह ग्लेशियर उत्तराखण्ड की सीमा रेखा में है जिसकी ऊँचाई 6,387 मीटर है। यमुना मूलतः उत्तराखण्ड, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली से होकर गुजरती है और इलाहाबाद में गंगा में मिल जाती है।

यमुना की दो बड़ी सहायक नदियाँ टोंस और चम्बल हैं। टोंस, उत्तराखण्ड से निकलती है और हिमाचल के कुछ भागों को छूती हुई देहरादून जिले के कालसी के पास यमुना में मिल जाती है वहीं, चम्बल मध्य प्रदेश के विन्ध्य क्षेत्र से निकलती है और राजस्थान को पार करती हुई उत्तर प्रदेश में यमुना में मिल जाती है।

गौरतलब है कि परियोजना को स्वीकृति लखवाड़-व्यासी नाम से 42 वर्ष पूर्व 1976 में योजना आयोग ने दिया था।इसके तहत दो डैमों लखवाड़ और व्यासी का निर्माण किया जाना था। लखवाड़ डैम का निर्माण 1987 में शुरू हुआ लेकिन पैसे की कमी के कारण 1992 में इसे रोक दिया गया।इस समय तक डैम के 30 प्रतिशत हिस्से का निर्माण हो चुका था।

1994 में यमुना बहाव क्षेत्र में पड़ने वाले राज्यों के बीच केन्द्र सरकार की सहमति से पानी के बँटवारे के लिये एक समझौता हुआ। इसके तहत यह निश्चित हुआ कि डैम के जलाशय पर “यमुना रिवर बोर्ड” का नियंत्रण होगा।

फिर 15 वर्षों तक यह मुद्दा ठंडे बस्ते में पड़ा रहा और 2009 में केन्द्र की यूपीए सरकार ने इसे राष्ट्रीय योजना घोषित कर दिया। जिसके तहत इस बहुद्देशीय परियोजना पर आने वाले खर्च का 90 प्रतिशत हिस्सा केन्द्र सरकार द्वारा वहन करना निश्चित हुआ। इसी समय व्यासी परियोजना को लखवाड़ से अलग कर दिया गया।

2012 में लखवाड़ परियोजना के लिये फिर से प्रयास शुरू हुए और बिना एन्वायरनमेंटल इम्पैक्ट असेसमेंट (environmental impact assessment), जन सुनवाई आदि के इस प्रोजेक्ट को 1986 में दिये गए एन्वायरनमेंटल क्लीयरेंस के आधार पर हरी झंडी दे दी गई। हालांकि नवम्बर 2010 में आयोजित की गई एक्सपर्ट अप्रेजल कमिटी (Expert Apparaisal Commitee) की मीटिंग में इस परियोजना के सम्बन्ध में कई आपत्तियाँ उठाई गई थीं।

2015 में इस मामले को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में चुनौती दी गई जो अभी विचाराधीन है। इधर 120 मेगावाट वाली व्यासी परियोजना का निर्माण कार्य तेजी से चल रहा है जिसे अगले वर्ष दिसम्बर तक पूरा किया जाना है। इस परियोजना का निर्माण भी यमुना पर कराया जा रहा है जो लखवाड़ के निचले बहाव क्षेत्र में है।

28 अगस्त को केन्द्र सरकार ने लखवाड़ परियोजना को फिर से मंजूरी दे दी। इसी दिन केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री नितिन गडकरी ने पाँच राज्यों उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और केन्द्र शासित प्रदेश दिल्ली के मुख्यमंत्रियों की उपस्थिति में इस परियोजना को 2023 तक पूरा करने की घोषणा की।

इस योजना का मुख्य उद्देश्य दिल्ली सहित अन्य राज्यों में घरेलू उपयोग, पीने अथवा उद्योगों के लिये बढ़ रही पानी की जरूरतों को पूरा करना है। गडकरी की उपस्थिति में राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जल बँटवारे के लिये पूर्व में हुए समझौते पर हस्ताक्षर भी किये। इस कंक्रीट डैम की लागत 3966.51 करोड़ रुपए होगी जिसका 90 प्रतिशत भाग केन्द्र सरकार वहन करेगी। बाकी का 10 प्रतिशत हिस्सा राज्यों द्वारा वहन किया जाएगा।

निर्माण पर आने वाले इस खर्च का निर्धारण 2012 के प्रचलित मूल्य के आधार पर किया गया है। डैम का निर्माण उत्तराखण्ड जल विद्युत निगम द्वारा कराया जाएगा। डैम की कुल विद्युत उत्पादन क्षमता 300 मेगावाट होगी जिस पर केवल उत्तराखण्ड का अधिकार होगा। विद्युत उत्पादन क्षमता के विकास पर आने वाले खर्च की जिम्मेवारी उत्तराखण्ड सरकार की होगी, जो 1388.28 करोड़ रुपए होगा।लखवाड़ परियोजना के लिये अंडरग्राउंड पावर स्टेशन बनाए जाने की योजना है जबकि व्यासी के लिये पावर स्टेशन हथियारी नामक स्थान पर जमीन की सतह पर बनाया जा रहा है।विद्युत उत्पादन के बाद इन दोनों योजनाओं के पावर स्टेशन से निकलने वाले जल को कांटापत्थर में बनाए जाने वाले बैराज में संकलित किये जाने की योजना है।

कांटापत्थर, हथियारी पावर स्टेशन से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर निचले बहाव क्षेत्र में स्थित है। इसी बैराज से दिल्ली तथा अन्य राज्यों को पानी सप्लाई किये जाने की योजना है। उत्तराखण्ड 2013 में आई आपदा पर अलकनंदा, मन्दाकिनी और भागीरथी बेसिन क्षेत्र में बने डैमों के प्रभाव का आकलन करने के लिये सुप्रीम कोर्ट ने एक एक्सपर्ट पैनल का गठन किया था।

कोर्ट ने इस पैनल का हेड पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट, देहरादून (People’s Science Institute, Dehradun) के डायरेक्टर रवि चोपड़ा को नियुक्त किया था। पैनल ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि इन नदियों के बेसिन में बने डैमों का दुष्प्रभाव उस क्षेत्र पर पड़ा था। “डैम का दुष्प्रभाव सम्बन्धित इलाके पर पड़ता है और यह उसके निर्माण के पूर्व से लेकर उसके संचालित होने के बाद तक जारी रहता है।”रवि चोपड़ा

लखवाड़ डैम

कुल लागत 

3966.51 करोड़   

बिजली उत्पादन से सम्बन्धित मशीनरी की लागत (उत्तराखण्ड सरकार वहन करेगी)

1388.28 करोड़  

केन्द्र सरकार का हिस्सा

2320.41 करोड़  

राज्यों का हिस्सा

257.82 करोड़  

विद्युत उत्पादन क्षमता

300 मेगावाट

जमीन की आवश्यकता

1217.18 हेक्टेयर  

जलाशय की क्षमता

330.66 एमसीएम    

ऊँचाई

204 मीटर

सिंचित क्षेत्र

33,780 हेक्टेयर  

निर्माण पूर्ण होने की सम्भावना

दिसम्बर 2023

 

व्यासी डैम

 

कुल लागत

936.23 करोड़  

जमीन की आवश्यकता

135.42 हेक्टेयर  

विद्युत उत्पादन क्षमता

120 मेगावाट

निर्माण पूर्ण होने की सम्भावना

दिसम्बर 2019

 

लखवाड़ और व्यासी परियोजनाओं के अलावा यमुना की सहायक नदी टोंस और गिरी पर भी दो डैम का निर्माण प्रस्तावित है। टोंस पर किशाऊ बहुद्देश्यीय परियोजना का निर्माण किया जाना है जिसकी ऊँचाई 236 मीटर होगी। वहीं, गिरी नदी पर रेणुकाजी डैम का निर्माण किया जाना है। इस डैम की ऊँचाई 148 मीटर होगी। इन दोनों ही परियोजनाओं का निर्माण कार्य आरम्भ हो चुका है लेकिन प्रगति काफी धीमी है। धीमी प्रगति की वजह जमीन अधिग्रहण में आ रही अड़चने हैं। इन दोनों ही परियोजनाओं के निर्माण का उद्देश्य भी दिल्ली को पानी की आपूर्ति किया जाना है।

दिल्ली को इन डैमों से मिलेगा पानी

 

डैमों के नाम

दिल्ली को मिलने वाला पानी

लखवाड़

135 एमजीडी   

रेणुकाजी

275 एमजीडी   

किशाऊ

372 एमजीडी   

 

यमुना नदी के ऊपरी बहाव क्षेत्र में अब तक 12 छोटे डैम बनाए जा चुके हैं। लखवाड़, व्यासी, रेणुकाजी, किशाऊ जैसे स्वीकृत डैमों के अतिरिक्त 31 अन्य डैमों का निर्माण प्रस्तावित है।इन प्रस्तावित डैमों में से कई दिल्ली के आस-पास के क्षेत्रों में बनाए जाने हैं क्योंकि यमुनोत्री से दिल्ली के ओखला बैराज तक का हिस्सा यमुना का ऊपरी बहाव क्षेत्र माना जाता है।

अनुमान कीजिए इन डैमों के निर्माण के बाद यमुना की स्थिति क्या होगी जो वर्तमान में ही अपने अस्तित्व को खोने सम्बन्धी खतरों से जूझ रही है। विशेषज्ञों की माने तो यमुना पर डैमों का निर्माण भविष्य के लिये बहुत खतरनाक साबित होगा। “यमुना नदी पर डैमों का निर्माण गंगा पुनरुद्धार के उद्देश्य को बाधित करता है क्योंकि यमुना भी गंगा बेसिन का हिस्सा है। जब यमुना ही नहीं बचेगी तो गंगा का पुनरुद्धार कैसे होगा?”हिमांशु ठक्कर ने कहा।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अमेरिका, फ्रांस, जापान आदि देशों में नदियों के प्रवाह को पुनर्बहाल करने और पर्यावरण के ह्रास को रोकने के लिये डैमों को तोड़ा जा रहा है। लेकिन, भारत में पर्यावरण ह्रास से सम्बन्धित खतरों की अनदेखी करते हुए डैम निर्माण को लगातार स्वीकृति दी जा रही है। अमेरिका में पिछले 20 वर्षों में 865 डैम तोड़े जा चुके हैं।यूरोपीय देश भी इस रास्ते पर अपना कदम बढ़ा चुके हैं। फ्रांस, स्पेन आदि देशों में छोटे-बड़े डैम को नष्ट किया जा रहा है। जापान में अरासे डैम को हटाने की प्रक्रिया 2014 में ही शुरू कर दी गई थी।

सम्भावित खतरे: (Probable Risks )

मीथेन गैस का स्राव (Release of Methane):डैम के जलाशयों से बड़ी मात्रा में मीथेन गैस का स्राव होता है। इस स्राव का मुख्य कारण जलाशयों की तलहटी में जमा पेड़-पौधों का सड़ना है। अमेरिका के बायोसाइंस जर्नल में 200 से ज्यादा डैमों पर किये गए शोध से सम्बन्धित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि डैम के जलाशयों से विश्व में प्रतिवर्ष लाखों टन मीथेन का स्राव होता है जो मानवजनित मीथेन के कुल स्राव का 1.3 प्रतिशत होता है।

यह गैस कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में ग्लोबल वार्मिंग के लिये तीन गुना ज्यादा उत्तरदायी है क्योंकि इसका प्रभाव लगभग 20 वर्षों तक वातावरण में बना रहता है। वहीं, कार्बन डाइऑक्साइड पैदा होने के तीन या चार वर्षों के बाद ही समाप्त हो जाता है।

जलाशयों में पैदा होने वाले मीथेन का कुछ हिस्सा कार्बन डाइऑक्साइड में परिवर्तित हो जाता है वहीं, बचा हुआ हिस्सा बुलबुले के रूप में पानी की सतह पर आता है और वातवरण को प्रभावित करता है। अतः यह साफ है कि डैम अपने आस-पास के क्षेत्रों में हो रहे पर्यावरणीय बदलाव में काफी अहम भूमिका निभाते हैं। इनके प्रभाव से तापमान में वृद्धि के साथ ही अप्रत्याशित मौसमी बदलाव भी सम्भव हैं। विश्व में कुल 57,000 से ज्यादा डैम हैं, जिनमें से 300 ऐसे हैं जिनकी ऊँचाई 150 मीटर या उससे ज्यादा है। भारत में 4300 डैम और जलाशय हैं जिनमें सबसे ज्यादा महाराष्ट्र (1845) में हैं।

ग्लेशियर लेक आउट ब्रस्ट फ्लड (Glacier Lake Outburst Flood):मौसमी बदलाव का ही परिणाम है कि ऐसी आशंका जताई जा रही है कि आने वाले दिनों में हिमालय में बने प्रत्येक पाँच डैमों में से एक डैम क्षेत्र में ग्लेशियर के अचानक टूटने से बाढ़ की स्थिति पैदा हो सकती है। इसे ग्लेशियर लेक आउट ब्रस्ट फ्लड (Glacier Lake Outburst Flood,GLOF) कहते हैं।इतना ही नहीं इन इलाकों के तापमान में इजाफे के साथ ही वर्षा के पैटर्न में भारी बदलाव देखने को मिल सकता है।

उत्तराखण्ड में हुए पर्यावरणीय विनाश का ही प्रतिफल है कि पूर्व में प्राकृतिक रूप से बहने वाली सैकड़ों जलधाराएँ सूख गई हैं। सरकारी आँकड़े के अनुसार अनियंत्रित निर्माण और वनों की कटाई के कारण राज्य में 11000 से ज्यादा स्प्रिंग विलुप्त हो गए हैं। जलचक्र को भी व्यापक नुकसान पहुँच रहा है।

तलछट का जमाव (Sedimentation):नदियों द्वारा लगातार लाये जाने वाले तलछट का जमाव डैम की तली में होता रहता है जिससे कालान्तर में उसके जल संग्रह क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा बारिश के दिनों में डैम में पानी भर जाने पर उसे छोड़ने से भयावह स्थिति पैदा हो सकती है। इसका उदाहरण केरल की बाढ़ में देखने को मिला है। इडुक्की और मुल्लापेरियार डैम से पानी छोड़ने के कारण केरल में बाढ़ ने और भी विकराल रूप ले लिया था।ये दोनों डैम भी पश्चिमी घाट की तलहटी में पेरियार नदी पर बने हैं।

पानी में रहने वाले जीवों पर प्रभाव (Impact on Aquatic Animals):डैम, पानी में रहने वाले जीवों के आवास को पूरी तरह से छिन्न-भिन्न कर देते हैं। विश्व स्तर पर कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक जिन नदियों पर डैम बने हैं उनमें मीठे पानी में रहने वाली मछलियों (fresh water fish) की संख्या में 80 प्रतिशत तक की गिरावट आई है।

डैम के जलाशय द्वारा पैदा किये गए अवरोध के कारण मछलियाँ उनके निचले प्रवाह क्षेत्र तक नहीं पहुँच पाती हैं। इसके अलावा पानी के टरबाइन से गुजरने के कारण उसके मौलिक गुण में भी परिवर्तन हो जाता है। यह पानी मछलियों और अन्य जलीय जीवों के आवास के लिये उतना उपयुक्त नहीं रह जाता है। यमुना के ऊपरी बहाव क्षेत्र में डैमों के निर्माण के कारण ही इस नदी में पाई जाने वाली महासीर मछलियों की संख्या में काफी कमी आ गई है। ये मछलियाँ लगभग विलुप्त प्राय हो चुकी हैं।

भूकम्प की दृष्टि से सक्रिय इलाका (Seismically Active Zone):खासकर उत्तराखण्ड स्थित हिमालय क्षेत्र भूगर्भिक दृष्टि से अन्य हिमालयीय क्षेत्रों की तुलना में कमजोर है। इसका महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि यह हिमालय के अन्य भागों की तुलना में काफी नया है। इसका निर्माण हिमालय में करोड़ों वर्ष पूर्व बहने वाली नदियों द्वारा अपनी तलहटी में जमा किये गए तलछट के विवर्तनिक क्रियाओं द्वारा मुड़ने के कारण हुआ है।

हिमालय का यह हिस्सा सबसे युवा है और निर्माण की अवस्था से गुजर रहा है। यही कारण है कि इस हिमालय क्षेत्र में कई विवर्तनिक फाल्ट जागृत अवस्था में हैं और बड़े भूकम्प का कारण बन सकते हैं। वडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (Wadia Institute of Himalayan Geology) द्वारा हाल में ही जारी किये गए अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखण्ड में कुल 137 फाल्ट सक्रिय हैं।

उत्तराखण्ड के विभिन्न इलाकों में पिछले तीन सालों में भूकम्प के 52 झटके महसूस किये जा चुके हैं जिनकी क्षमता रिक्टर स्केल पर 5 अथवा उससे कम थी। इसके अलावा तलछट यानि मिट्टी, पत्थर के टुकड़ों आदि से निर्मित यह पर्वतीय क्षेत्र कमजोर हैं। यही वजह है कि यहाँ भूस्खलन की घटनाएँ आम हैं। अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि पहाड़ी क्षेत्रों में डैमों का निर्माण किसी बड़े खतरे को दावत देने से कम नहीं है।

कचरे का निस्तारण (Muck Disposal):पर्वतीय क्षेत्र में डैम अथवा अन्य निर्माण से पैदा होने वाले कचरे के निस्तारण की व्यवस्था न होना भी एक चिन्तनीय विषय है। यही कारण है कि कचरे को नदियों में फेंक दिया जाता है। इसके कारण नदियों की तलहटी में तलछट का जमाव बढ़ता है और वो उथली हो जाती हैं। इस कारण नदियों के पानी वहन करने की क्षमता में कमी आती है और बाढ़ के दौरान के कचरे भयानक क्षति पहुँचाते हैं।

2013 में उत्तराखण्ड में आई बाढ़ को और मारक बनाने में इनका बहुत बड़ा योगदान था। उल्लेखनीय है कि यमुना नदी की तलहटी में तलछट और गाद के जमाव की दर के बारे में अभी तक कोई अध्ययन नहीं कराया गया है। “ हिमालय में डैम, सड़कों आदि के निर्माण से पैदा हुआ कचरा नदियों में बहाया जाता है जो नदियों की पारिस्थितिकी पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।”रवि चोपड़ा

लखवाड़ डैम से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण आपत्तियाँ (Objections Regarding Lakhwar Dams)

1. इस योजना को 1986 में दिये गए एन्वायरनमेंट क्लीयरेंस (Environment Clearance) के आधार पर स्वीकृति दे दी गई है।

2. योजना सम्बन्धी पर्यावरणीय खतरों का भी अध्ययन नहीं कराया गया है। यानि एन्वायरनमेंटल इम्पैक्ट असेसमेंट (Environmental Impact Assessment) नहीं कराया गया है।

3. 2010 में एक्सपर्ट अप्रेजल कमिटी (Expert Appraisal Committee) ने कांटापत्थर बैराज के सम्बन्ध में कुछ आपत्तियाँ उठाई थी जिस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।

4. डैम के निर्माण के लिये सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी (Central Electricity Authority) से भी अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं लिया गया है।

5. सेन्ट्रल वाटर कमीशन (Central Water Commission) से भी अनापत्ति प्रमाणपत्र नहीं लिया गया है।

6. डैम के निर्माण से प्रभावित होने वाले गाँव के लोगों को अभी तक मुआवजे की रकम नहीं मिली है और न ही उनके पुनर्वास की व्यवस्था की गई है।

 

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मौत का कुआँ बनती शौचालय टंकियाँ

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मौत का कुआँ बनती शौचालय टंकियाँeditorialTue, 09/11/2018 - 18:55

मौत की भेंट चढ़ते सफाईकर्मीमौत की भेंट चढ़ते सफाईकर्मी (फोटो साभार - हिन्दुस्तान टाइम्स)रविवार की दोपहर का वक्त था। दिल्ली के मोती नगर में स्थित रिहायशी कॉम्प्लैक्स डीएलएफ कैपिटल ग्रीन्स के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के सेप्टिक टैंक की सफाई के लिये पाँच कर्मचारियों राजा, उमेश, पंकज, सरफराज और विशाल को टैंक में उतारा गया था।

ये जानते हुए कि सेप्टिक टैंक में जहरीली गैस होती है, जो जान भी ले सकती है, इन पाँचों मजदूरों को कोई सुरक्षा उपकरण नहीं दिया गया। खबर तो यह भी है कि जिन मजदूरों को सेप्टिक टैंक में उतारा गया, उनका यह काम नहीं था (हालांकि कानून में टैंकों की सफाई मैनुअली करने पर ही रोक है)।

टैंक के भीतर सबसे पहले उमेश दाखिल हुआ। भीतर जाते ही जहरीली गैस ने उसे अपनी जद में लिया और वह वहीं बेहोश हो गया। उसे गश खाता देखकर उसके दूसरे साथी भी टैंक के भीतर उतरे और वे भी बेहोश हो गए। मौका-ए-वारदात पर मौजूद उनके अन्य दोस्तों ने इसकी सूचना तुरन्त अपने वरिष्ठ अफसरों को दी।

इसके बाद आनन-फानन में पुलिस और दमकल विभाग को भी सूचित किया गया। दमकल व पुलिस कर्मचारी मौके पर पहुँचे और सभी पाँच मजदूरों को टैंक से बाहर निकालकर इलाज के लिये अस्पताल ले गए। अस्पताल के डॉक्टरों ने चार मजदूरों को मृत घोषित कर दिया जबकि एक की हालत गम्भीर बनी हुई है।

घटना को संज्ञान में लेकर दिल्ली सरकार ने मामले की जाँच के आदेश दिये हैं। राज्य के श्रम मंत्री गोपाल राय के प्रवक्ता संजय कम्बोज के अनुसार जाँच कमेटी तीन दिन में अपनी रिपोर्ट देगी। वहीं, दूसरी तरफ पुलिस आपराधिक मामला दर्ज करने की तैयारी कर रही है।

घटना राजधानी दिल्ली में घटी, इसलिये यह खबर न्यूज चैनलों और अखबारों की सुर्खी बन गई, लेकिन सवाल है कि क्या यह इकलौती घटना है? नहीं! दिल्ली की यह घटना देश की इकलौती घटना नहीं है, जहाँ मजदूरों के लिये सेप्टिक टैंक मौत का कुआँ साबित हुआ है। अगर हम पिछले कुछ महीनों की घटनाओं पर गौर करें, तो सेप्टिक टैंक में जहरीली गैस से डेढ़ दर्जन से ज्यादा मजदूरों की जान जा चुकी है।

इसी महीने 2 तारीख को ओड़िशा के रायगड़ा जिले में भी सेप्टिक टैंक में दम घुटने से पाँच लोगों की जान चली गई थी।

जुलाई में मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले में सेप्टिक टैंक में उतरे दो मजदूरों की दम घुटने से मौत हो गई थी।

पिछले महीने यानी अगस्त में बिहार के पूर्वी चम्पारण जिले के जितना थाना इलाके में एक ही परिवार के 4 लोग समेत कुल छह लोगों की मौत सेप्टिक टैंक की जहरीली गैस से हो गई।

बताया जाता है कि वे लोग अर्द्धनिर्मित सेप्टिक टैंक में लगी शटरिंग को खोलने के लिये नीचे उतरे थे। टैंक में प्रवेश के चन्द मिनटों के भीतर टैंक में भरे मिथेन, इथेन और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसी जहरीली गैस की जद में आ गए और उनकी मौत हो गई।

इससे पहले 30 जून को सहरसा में नवनिर्मित सेप्टिक टैंक से मचान हटाने उतरे चार मजदूरों की भी मौत जहरीली गैस के कारण हो गई थी। 12 जून को पूर्णिया में एक निर्माणादीन शॉपिंग मॉल के सेप्टिक टैंक से शटरिंग खोलते वक्त दम घुटने से 3 मजदूरों की जान चली गई थी।

ये कुछ घटनाएँ बानगी हैं, ऐसी दर्जनों घटनाएँ आये दिन देश के विभिन्न हिस्सों में हो रही हैं। ये काम करना मजदूरों की मजबूरी की है क्योंकि उनके लिये रोजी-रोटी का जुगाड़ जीने-मरने का सवाल है। उनके पास रोजगार का दूसरा कोई विकल्प नहीं है, लिहाजा वे सेप्टिक टैंक में उतरने से भी नहीं डरते हैं, यह जानते हुए कि वे टैंक उनके लिये कभी भी मौत का कुआँ साबित हो सकते हैं।

अगर हम दिल्ली की घटना की ही बात कर लें, तो जो लोग सेप्टिक टैंक में उतरे थे, वे बहुत गरीब परिवार से आते थे। हालांकि, शुरुआती छानबीन में पता चला है कि उनका काम सेप्टिक टैंक साफ करना नहीं था, लेकिन जबरदस्ती उनसे यह करवाया गया था।

खैर, देश में ऐसे मजदूरों की संख्या लाखों में है, जिनके लिये सेप्टिक टैंक या नालों की सफाई ही रोजगार का इकलौता जरिया है और यह तब है जब देश में हाथों से शौचालय की टंकियों की सफाई पर पूरी तरह प्रतिबन्ध है।

वर्ष 1993 में ही सरकार ने देशभर में शौचालय टंकियों की मानव से सफाई पर रोक लगा दी थी। वर्ष 2013 में सरकार ने मैनुअल स्कैवेंजर्स एक्ट भी पास करवा लिया जिसमें प्रतिबन्ध को कारगर तरीके से लागू करने और इन कामों से जुड़े लोगों के पुनर्वास के प्रावधान थे।

इस एक्ट के प्रावधानों में अस्वास्थ्यकर शौचालय के निर्माण पर रोक, किसी भी व्यक्ति को मैला ढोने के काम में लगाने पर प्रतिबन्ध, लोगों से सेप्टिक टैंक की सफाई पर रोक आदि शामिल थे। एक्ट में यह भी कहा गया था कि जो भी इस तरह के कामों के लिये लोगों को रखेगा, उस पर कानून कार्रवाई की जाएगी, लेकिन कानूनी तौर पर प्रतिबन्ध और तमाम प्रावधानों के बावजूद मजदूर सेप्टिक टैंक में उतर रहे हैं और अपनी जान गँवा रहे हैं। इससे यही पता चलता है कि कानून को बनाकर धूल फाँकने के लिये छोड़ दिया गया है।

विशेषज्ञों का कहना है कि अगर मौजूदा कानून को ही प्रभावी तरीके से लागू कर दिया जाये, तो स्थितियों में सुधार आएगा। मसलन अगर सेप्टिक टैंक की सफाई में लगे मजदूरों को अगर रोजगार का विकल्प मुहैया करवाया जाता है, तो वे निश्चित तौर पर जान जोखिम में डालकर सेप्टिक टैंक की सफाई करने के लिये कभी नहीं जाएँगे।

दूसरी बात यह कि सेप्टिक टैंक बनाने के लिये भी अगर मजदूरी भीतर उतरते हैं, तो उनमें यह जागरुकता फैलाई जानी चाहिए कि सुरक्षा के तमाम उपकरण से लैस होकर ही वे भीतर दाखिल हों। ऐसी ही जागरुकता उन लोगों के लिये भी जरूरी है, जो ऐसे मजदूरों से सेप्टिक टैंक का काम करवाते हैं।

सेप्टिक टैंक की सफाई व मैला ढोने वालों के लिये मुआवजे का भी प्रावधान है लेकिन हाल ही में आरटीआई से मिली जानकारी सरकारी उदासीनता को उजागर करती है।

‘द वायर’ की ओर से दायर एक आरटीआई के जवाब में केन्द्र सरकार ने बताया है कि पिछले चार सालों में मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिये एक रुपया भी जारी नहीं किया गया है।

आरटीआई में यह भी खुलासा हुआ है कि अलग-अलग वर्षों में 2014 से पहले जब भी राशि आवंटित की गई, उनका एक बड़ा हिस्सा बिना खर्च किये ही लौट गया।

सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के मुताबिक, वर्ष 2006-07 में 56 करोड़ रुपए जारी हुए थे जिनमें से महज 10 करोड़ रुपए खर्च हुए। इसी तरह वर्ष 2007-08 में जो राशि आवंटित हुई उनमें से 36 करोड़ रुपए खर्च नहीं हुए। वर्ष 2014-2015 में भी आवंटित राशि का एक बड़ा हिस्सा बचा रह गया।

इसका मतलब है कि न तो राज्य सरकार और न ही केन्द्र सरकार ही इस संगीन मामले को लेकर गम्भीर है। हैरानी की बात तो यह है कि सरकार के पास कोई आधिकारिक आँकड़ा ही नहीं है, जो बताए कि हर साल सेप्टिक टैंक की जहरीली गैसें कितने लोगों को मौत की नींद सुला देती है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो में सालाना तमाम वजहों से होने वाली मौतों को लेकर आँकड़ा जारी करती है, लेकिन इन आँकड़ों में सेप्टिक टैंक की गैस से होने वाली मौत का कोई जिक्र नहीं होता है।

वर्ष 2007 की एक रिपोर्ट के अनुसार हर 20 हजार से भी अधिक सफाई कर्मचारियों की मौत होती है। लेकिन, इस अनुमान से यह साफ नहीं होता है कि सेप्टिक टैंक में उतरने से कितने मजदूर काल की गाल में समा रहे हैं।

वहीं, मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ आन्दोलन करने वाले संगठन सफाई कर्मचारी आन्दोलन ने जुटाए गए आँकड़ों के आधार पर बताया है कि पिछले कुछ वर्षों में सीवर लाइन व सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान 1470 लोगों की मौत हो चुकी है।

यहाँ यह जानना भी दिलचस्प है कि सरकार मैला ढोने वालों और सेप्टिक या सीवर में उतरकर हाथ से सफाई करने वालों को एक नहीं मानता है। मैनुअल स्केवेंजर्स से सरकार का मतलब उन लोगों से ही है जो मैला ढोने का काम करते हैं।

सफाई कर्मचारी आन्दोलन से जुड़े रेमन मैगसेसे अवार्डी बेजवाड़ा विल्सन सीधे तौर पर इन सबके लिये केवल-और-केवल सरकार को दोषी मानते हैं।

उनका कहना है कि अगर केन्द्र सरकार के पास इच्छाशक्ति हो, तो इस पर तुरन्त रोक लग जाएगी।

दो वर्ष पहले इण्डिया वाटर पोर्टल को दिये एक साक्षात्कार में विल्सन ने केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा था, ‘वर्तमान सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति बेहद कमजोर है। प्रधानमंत्री जी से मिलकर कई बार अपील की गई, लेकिन अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।’

उन्होंने यह भी कहा था, ‘पिछले 2 सालों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को कई ज्ञापन सौंपे गए। ज्ञापन में वर्ष 1993 के कानून को लागू करने, नया कानून बनाने और सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करने को कहा गया था लेकिन सरकार की तरफ से इस पर कोई कार्रवाई अब तक नहीं हुई है। केन्द्र सरकार सफाई कर्मचारियों के लिये आवंटित पुनर्वास पैकेज को खर्च नहीं करती है। इन्हीं वजहों से यह कुप्रथा अब भी बनी हुई है।’

बहरहाल, अब वक्त आ गया है कि जिन्दा रहने के लिये जान जोखिम में डालने वाले हाशिए पर खड़े इस वर्ग पर ध्यान दिया जाये और इसके लिये सरकार को बहुत ज्यादा करने की जरूरत भी नहीं है।

अगर सरकार 2013 के कानून को ही सख्ती से लागू कर दे, तो हालात बदलने शुरू हो जाएँगे। इसके साथ ही सरकार को चाहिए कि वह इस वर्ग के लोगों का पुनर्वास करे और रोजगार का बेहतर विकल्प मुहैया कराए, ताकि उन्हें मौत के कुएँ में उतरने के जोखिम से निजात मिल सके।

 

 

 

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पानी से परवरिश

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पानी से परवरिशeditorialMon, 09/17/2018 - 14:41
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डाउन टू अर्थ, सितम्बर, 2018

उत्तर बिहार में पानी अथवा दलदली क्षेत्र लोगों को आर्थिक सम्बल और आजीविका उपलब्ध कराने में बड़ी भूमिका निभाता है लेकिन अब तक इसका पूरा दोहन नहीं हुआ है। हालांकि स्थानीय स्तर पर हुए प्रयास सफलता की कई कहानियाँ बयां करते हैं लेकिन सरकारी प्रयास न के बराबर ही हुए हैं। पानी के अर्थतंत्र के तमाम पहलुओं पर रोशनी डालती अनिल अश्विनी शर्मा व मोहम्मद इमरान खान की रिपोर्ट…

 


बिहार में दलदली क्षेत्र से मछुआरों की आजीविका सुनिश्चित होती हैबिहार में दलदली क्षेत्र से मछुआरों की आजीविका सुनिश्चित होती है (फोटो साभार - डाउन टू अर्थ)दलदली भूमि (वेटलैंड) का नाम जेहन में आते ही अक्सर लोग-बाग नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं या आमतौर पर लोगों के चेहरे पर नकारात्मकता का भाव उभरता है। लेकिन उत्तर बिहार के दरभंगा जिले के तारवाड़ा गांव के मुन्ना सहनी और सुपौल जिले के दभारी गाँव के दिनेश मुखिया ने अपनी हाड़तोड़ मेहनत के दम पर दलदली भूमि पर लोगों की इस नकारात्मकता को सकारात्मकता में तब्दील कर दिखाया। उन्होंने दलदली भूमि को उपजाऊ भूमि की तरह ही अपनी आजीविका का मुख्य साधन बनाया।

मुन्ना सहनी कहते हैं, “मेरे लिये दलदली भूमि बेकार की भूमि नहीं है बल्कि यह पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों का सबसे समृद्ध हिस्सा है। मैं इसी दलदली भूमि पर मछली पालन व मखाने की खेती साथ-साथ कर रहा हूँ और इससे अच्छी-खासी आमदनी (प्रति एकड़ 15 से 18 हजार रुपए) हुई है।”

मुन्ना सहनी एवं दिनेश मुखिया, दोनों ही छोटे किसान हैं और पिछले कुछ सालों के विपरीत अब उनके चेहरों पर चिन्ता नजर नहीं आ रही। क्योंकि उन्होंने दलदली क्षेत्रों को ही अपनी आजीविका का साधन बना लिया है।

किसी समय घोर उपेक्षित रहने वाले ये दलदली क्षेत्र अब इनके और इनके पड़ोसियों के लिये आजीविका का मुख्य स्रोत बन चुके हैं। ये किसान मुख्यतया मछुआरा जाति से हैं, जिन्हें स्थानीय लोग सहनी या मल्लाह कहकर बुलाते हैं। इनकी ही तरह सैकड़ों अन्य किसान भी हैं जो पहले की तुलना में अब काफी खुशहाल हैं।

स्थानीय भाषा में इस जमीन को ‘चौर’ कहा जाता है और अब तक इसे बंजर या बेकार ही समझा जाता था। लेकिन अब इन दलदली क्षेत्रों में मत्स्य पालन के साथ-साथ मखाना व सिंघाड़ा जैसी जलीय फसलों की खेती हो रही है। इनमें से कई लोग ऐसे हैं जो वर्षों से बेकार पड़े इन दलदली क्षेत्रों के एक या दो एकड़ के छोटे टुकड़ों पर ही मत्स्य पालन या मखाने की खेती कर रहे हैं। हालांकि इन दलदली क्षेत्रों का लाभ अकेले छोटे एवं हाशिए पर पड़े किसान ही नहीं उठा रहे हैं बल्कि कई अन्य लोगों ने भी इस भूमि को लाभप्रद बनाने के लिये भारी निवेश किया है।

उदाहरण के लिये मुजफ्फरपुर जिले में सराय्या ब्लॉक के नरसन चौर को लिया जा सकता है, जहाँ राजकिशोर शर्मा व राजेश शर्मा ने संयुक्त उद्यम की शुरुआत की है। इसके अलावा शिवराज सिंह भी मुजफ्फरपुर जिले के ही बंद्रा ब्लॉक में आने वाली कोरलाहा चौर में सफलतापूर्वक मत्स्य पालन कर रहे हैं। इसके अलावा वह दलदली भूमि का एक और बड़ा हिस्सा इसी काम के लिये विकसित करने में जुटे हुए हैं। उत्तरी बिहार में इनके जैसे लगभग 24 से अधिक लोग इस तरह के कार्यों में लगे हुए हैं।

मुन्ना सहनी दरभंगा जिले के किरतपुर ब्लॉक के अन्दर आने वाले तारवाड़ा गाँव में लगभग 10 एकड़ दलदली भूमि में मखाने की खेती के साथ-साथ मत्स्य पालन भी कर रहे हैं। लेकिन दिनेश ने सुपौल जिले के सुपौल ब्लॉक में पड़ने वाले दभारी गाँव में भूमि मालिकों (किसानों) से पट्टे पर लगभग 50 एकड़ की दलदली भूमि ली है। वह कहते हैं, “आठ साल पहले तक दलदली भूमि का कोई उपयोग नहीं था। भूमि मालिकों को इससे कोई उम्मीद नहीं है। लेकिन मैंने एक पहल की और शुरुआत में कुछ एकड़ में मछली पालन के साथ-साथ मखाने की खेती शुरू की। बाद में मैंने उसका और विस्तार भी किया।”

मुन्ना व दिनेश दोनों को मत्स्य पालन एवं मखाने की खेती के लिये और दलदली भूमि की आवश्यकता है। वे और भी जमीन पट्टे पर लेकर इस दिशा में निवेश करना चाहते हैं लेकिन पूँजी के मामले में स्थानीय प्रशासन एवं बैंकों की उदासीनता आड़े आ रही है। मुन्ना कहते हैं, “मेरे पास पूँजी नहीं है, सरकार से अब तक कोई मदद नहीं मिली है।”

आज से पाँच साल पहले तक मुन्ना कोसी नदी में बालू खोद कर एवं उसे बेचकर जीवन-यापन किया करते थे। लेकिन आज वे खुश हैं। वे पूरे ब्लॉक में अकेले ऐसे हैं जिसने अपनी आजीविका के लिये दलदली भूमि के उपयोग का एक मॉडल विकसित करने में सफलता तो पाई है, साथ ही अन्यों के लिये भी रोजगार के अवसर बनाए हैं। वह कहते हैं, “लगभग 20 से 25 स्थानीय लोग मेरे साथ मजदूरी या अन्य सम्बन्धित कामों में लगे हैं। मेरे तालाबों से मछलियाँ खरीदकर लोग उन्हें बेच भी रहे हैं। प्रारम्भ में सुधार धीमा और लाभ कम था लेकिन अब सब कुछ बदल गया है। हम खुश हैं कि दलदली भूमि ने हमारी किस्मत बदल दी है। इन दलदली क्षेत्रों की बदौलत मेरा जीवन स्तर पाँच वर्ष पहले की तुलना में काफी बेहतर हो गया है। मैं और दस एकड़ जमीन पट्टे पर लेना चाहता हूँ।”

बिहार के दलदली क्षेत्र की मखाना एक अहम उपज हैबिहार के दलदली क्षेत्र की मखाना एक अहम उपज है (फोटो साभार - डाउन टू अर्थ)मुन्ना बताते हैं कि जहाँ तक दलदली क्षेत्रों की बात है, सरकार से मिली छोटी सी सहायता भी उनके जैसे लोगों की मदद कर सकती है और एक बड़ा बदलाव ला सकती है। सरकार चाहे तो बहुत विकास हो सकता है। उनसे प्रेरित होकर तीन अन्य लोगों ने अलग-अलग चौर में ऐसा ही करने की कोशिश की लेकिन निवेश के लिये धन की कमी के कारण उन्हें काम बीच में ही बन्द करना पड़ा।

दिनेश ने कहा सरकार से मिली थोड़ी सी मदद हम जैसे लोगों के लिये, जो कि कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं, काफी बड़ी राहत होगी। कुछ मदद मिल जाए तो बड़ा बदलाव सम्भव है। पैसे की कमी से कुछ लोग नहीं कर पाते हैं। कई लोग इस क्षेत्र में आने के लिये उत्सुक हैं लेकिन शुरुआती निवेश के लिये धन की कमी उनके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा बनकर खड़ी है।

यदि उत्तर बिहार में दलदली भूमि के क्षेत्रफल को आंके तो पाएँगे कि इसका हिस्सा कुल क्षेत्रफल में ठीक-ठाक है। इस सम्बन्ध में इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) द्वारा तैयार किए गए राष्ट्रीय वेटलैंड्स एटलस के अनुसार, बिहार के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 4.4 प्रतिशत (कुल मिलाकर 4,03,209 हेक्टेयर) दलदली क्षेत्र है। 4,416 बड़े एवं 17,582 छोटे दलदली क्षेत्रों (2.25 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल) की पहचान कर ली गई है।

राज्य के कुल दलदली क्षेत्रों का 92 प्रतिशत हिस्सा प्राकृतिक है, वहीं 3.5 प्रतिशत हिस्सा मानव निर्मित है। उत्तर बिहार में 2,69,418 हेक्टेयर दलदली भूमि है जो कि इस इलाके के कुल क्षेत्रफल का 4.96 प्रतिशत है। कटिहार में अधिकतम 21,011 हेक्टेयर (जिले के कुल क्षेत्रफल का 10.30 प्रतिशत) जमीन इस श्रेणी की है।

जहाँ तक कुल दलदली क्षेत्र की बात है तो कटिहार के बाद पश्चिमी चम्पारण, सारण, बेगूसराय एवं सुपौल का नम्बर आता है। दरभंगा जिले में भी 8,709 हेक्टेयर दलदली भूमि है जो कि इसके कुल क्षेत्रफल का 3.48 प्रतिशत है। मुजफ्फरपुर में 1,049 हेक्टेयर (2.60 प्रतिशत) दलदली भूमि है जबकि सुपौल में 19,285 हेक्टेयर जो कि इस जिले के कुल क्षेत्रफल का 4.7 प्रतिशत है।

दलदली भूमि से कारोबारी लाभ

दलदली भूमि से अकेले मुन्ना और दिनेश जैसे लोग ही लाभ नहीं उठा रहे हैं बल्कि अब इस काम में इलाके के व्यवसायियों ने भी इस दिशा में काम शुरू किया है। इस सम्बन्ध में राजेश कुमार नामक एक युवा व्यवसायी ने बताया, “हमने कई उपेक्षित एवं खाली पड़े दलदली क्षेत्रों को मछली पालन के लिये कई बड़े तालाबों में परिवर्तित कर दिया है और हम कुल सत्तर एकड़ की इस दलदली भूमि को एक एकीकृत कृषि केन्द्र के रूप में विकसित करेंगे।”उन्होंने आगे बताया कि मत्स्य पालन के लिये दलदली भूमि को विकसित करने का उनका यह उद्यम केवल डेढ़ साल पुराना है और इसे पूर्णतया विकसित होने में अभी डेढ़ से दो साल और लगेंगे। वह बताते हैं, “हमने इस साल कुल 36 लाख रुपए की मछलियाँ बेची हैं। हम अगले साल तक इस आँकड़े को दोगुना कर लेंगे। बाजार हमारे लिये कोई समस्या नहीं है। स्थानीय बाजार में माँग अधिक और आपूर्ति कम है।”

राजेश की बात की पुष्टि मुजफ्फरपुर जिला प्रशासन के एक वरिष्ठ अधिकारी भी यह कह कर करते हैं, “हर रोज 12 लॉरी भरकर मछलियाँ आंध्र प्रदेश से मुजफ्फरपुर लाई जाती हैं।”वहीं दूसरी ओर मुजफ्फरपुर के गाँव के पास शिवराज सिंह ने 25 किसानों से 102 एकड़ दलदली भूमि पट्टे पर लेकर उसमें मत्स्य पालन पर केन्द्रित एकीकृत खेती का एक सफल मॉडल प्रस्तुत किया है। इसके उलट राजेश एवं राजकिशोर ने 45 किसानों से दलदली भूमि खरीदकर उसे मत्स्य पालन केन्द्र के रूप में विकसित किया है।

आगे चलकर इसे एक एकीकृत कृषि केन्द्र के रूप में विकसित करेंगे। राजकिशोर, जो कि मूल रुप से एक बिल्डर (अपार्टमेंट निर्माण का व्यवसाय) है, कहते हैं, “इसमें कोई सन्देह नहीं है कि हमने बिना किसी सरकारी मदद के अच्छा खासा निवेश किया है। लेकिन हम इसकी सफलता को लेकर काफी आशान्वित भी हैं। हमारे काम से प्रभावित होकर कुछ लोगों ने हमारे ही प्रोजेक्ट के पास दलदली भूमि का एक बड़ा हिस्सा पट्टे पर लेकर मत्स्य पालन शुरू कर दिया है।”यह एक सकारात्मक संकेत है जिससे साफ दिखता है कि दलदली क्षेत्र में काफी सम्भावनाएँ निहित हैं।

राजेश पुराने समय को याद करते हुए बताते हैं कि किसी समय किसानों के लिये ये दलदली भूमि बिना किसी मुनाफे के एक बोझ जैसी थी और जब हमने उसे खरीदने में दिलचस्पी दिखाई तो वे तुरन्त मान गए क्योंकि उस समय वह जमीन निश्चय ही बेकार थी। उन्होंने माना कि तीन साल पहले उन्हें यह जमीन कौड़ियों के भाव मिल गई थी। वहीं आज नरसन चौर स्थित उनके प्रोजेक्ट के आस-पास की जमीन के दाम काफी ऊपर हो गए हैं।

वर्तमान में कुल 8 बड़े तालाब हैं, जिनमें मत्स्य पालन हो रहा है। सबसे बड़ा तालाब, 15, उससे छोटा 13 और सबसे छोटा 5 एकड़ का है। मानसून के बाद अधिकतर तालाबों का काम पूरा हो जाएगा। इसके अलावा मुर्गी पालन, डेरी एवं बकरी पालन की भी योजना है। राजकिशोर ने एकीकृत खेती के एक हिस्से के तौर पर 1000 नारियल के पौधे लगाने की अपनी नई योजना का खुलासा करते हुए कहा कि हमने कर्नाटक से नारियल के पौधे लाने का फैसला किया है।

पास के ही गाँव के मछुआरा समुदाय के हरेंद्र सहनी ने कहा कि कुछ सालों से सूखे पड़े इस दलदली क्षेत्र को मत्स्य पालन के लिये विकसित करने की योजना बिलकुल सही है। वह कहते हैं, “मछली पकड़ने के अलावा यहाँ कोई काम नहीं हो सकता।”सिकन्दर सहनी एवं रामदेव सहनी, दोनों ही राजेश के जग भारती मछली फार्म में काम करते हैं। उन्होंने बताया कि इन मछलियों के बाजार में पहुँचते ही कई लोग उनसे दलदली क्षेत्र में मछली पालन के बारे में जानकारी माँगते हैं। वे कहते हैं, “यह दलदली क्षेत्र करीब 100 एकड़ में फैला हुआ है और कई पीढ़ियों से इसमें जल जमाव था जो कि 2016 में सूख गया। जब इस जमीन में पानी था तब 100 से भी ज्यादा मछुआरे यहाँ मछलियाँ पकड़कर अपनी आजीविका चलाते थे। उन्हें भूस्वामियों को पैसे भी नहीं देने पड़ते थे।”

मुलटुपुर के दलदली क्षेत्र को सफलतापूर्वक एकीकृत कृषि क्षेत्र में बदलने के बाद मत्स्य विज्ञान के जानकार शिवराज अब हरपुर के सरैया में करीब 65 एकड़ भूमि को विकसित करने में जुटे हुए हैं। वे चरणबद्ध तरीके से वहाँ करीब 400 एकड़ जमीन को विकसित करने की योजना बना रहे हैं। वे कहते हैं, “मुझे उम्मीद है कि इस साल आगामी नवम्बर महीने से हम मछलियाँ पकड़ना शुरू कर देंगे क्योंकि अभी काम चल ही रहा है। वर्तमान में मैंने 6 स्थानीय निवासियों को काम पर रखा है और आगे भी कामगार रखूँगा। छठ त्यौहार के बाद पहली बार मछली तालाब से निकलेगी।”सिंह पहले ही मुलटुपुर गाँव के पास 102 एकड़ की दलदली जमीन को विकसित कर चुके थे। राज्यभर में हजारों एकड़ दलदली क्षेत्र का इस्तेमाल जलीय कृषि के लिये किया जा सकता है। वह कहते हैं, “उत्तर भारत के बेकार पड़े दलदली क्षेत्र न केवल बिहार को मछली पालन में अगुवा बना सकते हैं बल्कि यह राज्य पूरे देश में मछली का एक बड़ा आपूर्तिकर्ता बन सकता है। आवश्यकता है तो बस सही इस्तेमाल और प्रबन्धन की।”

लाभदायक कारोबार उपेक्षा का शिकारलाभदायक कारोबार उपेक्षा का शिकार (फोटो साभार - डाउन टू अर्थ)मत्स्य पालन विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी यशवीर चौधरी ने बताया कि मत्स्य पालन के लिये दलदली भूमि के कई बड़े, मध्यम और छोटे क्षेत्र विकसित किए गए। राजेश एवं शिवराज सहित ऐसे दो दर्जन से अधिक और लोग हैं, जिन्होंने मत्स्य पालन के लिये दलदली क्षेत्र को विकसित किया है। उनमें से कुछ ने भारी मात्रा में निवेश किया है और वे इस काम को व्यावहारिक और लाभप्रद बनाने की दिशा में कड़ी मेहनत कर रहे हैं। वह बताते हैं कि भरत लाल ने बनका चौर में 28 एकड़ की दलदली भूमि को मत्स्य पालन के लिये विकसित किया है।

चंदन चौधरी ने इसी चौर में मत्स्य पालन हेतु 14 एकड़ भूमि विकसित की है, सुधांशु कुमार ने खरौना चौर में 26 एकड़ जमीन विकसित की। अमित कुमार ने मरवान चौर में मत्स्य पालन के लिये 22 एकड़ भूमि, प्रभात सिंह ने रुटिन्या चौर में 18 एकड़, मुकेश प्रसाद ने खजूरी चौर मविन में 28 एकड़ और प्रकाश कुमार ने पिरौछा चौर में 7 एकड़ जमीन विकसित की है और इतना सब कुछ अकेले मुजफ्फरपुर जिले में ही हुआ है।

दूसरे जिले की बात करें तो सुपौल में गिरधारी मुखिया ने 12, अक्षत वर्मा ने कंडी चौर, दरभंगा जिले में 34 एकड़, गुड्डू कुमार ने देसुआ चौर, समस्तीपुर जिले में 12 एकड़ और सुनील कुमार ने साझिआडपई चौर, समस्तीपुर जिले में 56 एकड़ दलदली भूमि विकसित की है।

उदासीन रवैया

जहाँ तक बिहार राज्य सरकार द्वारा दलदली भूमि को विकसित करने की बात है तो इसमें राज्य सरकार के महकमे का रवैया उदासीनता भरा है। तभी तो राज्य के वन और पर्यावरण विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “बिहार शायद एकमात्र ऐसा राज्य है, जहाँ दलदली क्षेत्रों की देखभाल के लिये कोई उचित निकाय नहीं है।”

ध्यान देने की बात है कि एक दलदली भूमि प्राधिकरण राज्य सरकार द्वारा 2012 में अधिसूचित अवश्य किया गया था, लेकिन अभी तक उसका गठन नहीं हो पाया है। बताया जाता है कि सदस्यों के चयन पर वर्तमान मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के बीच उपजे मतभेदों के कारण औपचारिक रूप से इसका गठन नहीं हो पाया।

हालांकि राज्य सरकार ने 2012 में बिहार दलदली भूमि विकास प्राधिकरण को दलदली क्षेत्रों से सम्बन्धित नोडल नीति निर्धारक एवं योजना एजेंसी के रूप में गठित किया है, लेकिन आज तक इससे कुछ भी आगे नहीं बढ़ पाया है। वहीं वन विभाग के अतिरिक्त प्रधान मुख्य संरक्षक भरत ज्योति ने यह अवश्य कहा, “दलदली भूमि का संरक्षण सरकार की नजर में है। हम इसके लिये पूरी तत्परता से काम कर रहे हैं, इसका जल्दी ही परिणाम सामने आएगा।”

वहीं राज्य के वन और पर्यावरण विभाग के निदेशक संतोष तिवारी ने कहा कि सरकार मॉडल के रूप में दलदली भूमि झील विकसित करने योजना बना रही है और साथ ही उसके आस-पास रह रहे समुदायों के सतत विकास के लिये दीर्घकालिक योजना भी बनाई गई है। तिवारी बताते हैं कि केन्द्रीय एजेंसियों की मदद से सैटेलाइट मैपिंग के माध्यम से 100 एकड़ से अधिक में फैले 133 दलदली क्षेत्रों को चिन्हित किया जा चुका है।

सरकार ने राज्य के अन्य दलदली क्षेत्रों के संरक्षण के लिये कई कदम उठाए हैं। 12 जिलों के 28 दलदली क्षेत्रों को अलग से चिन्हित कर लिया गया है और उनकी अधिसूचना के लिये सिफारिश भी की गई है। इस सूची के मुताबिक पश्चिम चम्पारण जिले में ललसरैया, पूर्वी चम्पारण जिले में मोती झील एवं करैया मन, मुजफ्फरपुर जिले में मोनिका मैन, कोटियाशरीफ मैन और बन्यारा रहीवीन, सारण जिले में मिरासपुर बहियारा और अतनगर मैन, सिवान जिले में सुरला चौर, सलाह चौर और वैशाली जिले में कंसार चौर, लानल जेल, महापारा, हरही झील, दीघी झील और गंगा सागर झील में ताल, बैराला। समस्तीपुर जिले में दखलचौर, कबीरताल, बसही और बेगूसराय जिले में एकम्बा। कटिहार जिले में गोगबेल और बागारबील। भोजपुर में भागवत और चरखी और बक्सर जिले में कोलिया खाप दलदली भूमि शामिल हैं।

उत्तर बिहार में दलदली भूमि को यहाँ की जीवन रेखा कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यहाँ की अर्थव्यवस्था को सुगम बनाने में दलदली भूमि की भूमिका अहम है लेकिन उसका समुचित रख-रखाव या प्रबन्धन नहीं होने के कारण स्थानीय लोगों के लिये आजीविका का साधन नहीं बन पा रही है।

दरभंगा कॉलेज के प्रोफेसर विद्यानाथ झा ने दलदली भूमि एवं मखाना पर वृहद शोध कार्य किया है। उन्होंने बताया, “इस क्षेत्र में हजारों तालाब, कुएँ, चौर एवं झील एक साथ मिलकर इस क्षेत्र की जीवन रेखा का निर्माण करते हैं। वे सिंचाई के साथ-साथ मत्स्य पालन के स्रोत भी हैं और इस इलाके के जीव-जन्तुओं एवं मनुष्यों की जीविका का एक बड़ा हिस्सा भी पीढ़ियों से बने हुए हैं।”

उत्तर बिहार अपने दलदली क्षेत्रों के लिये जाना जाता है। उत्तर बिहार के बारे में कहा जाता है कि यहाँ समृद्ध संसाधनों पर गरीब आदमी निवास करता है। उदाहरण के लिये दरभंगा जिला बाढ़ग्रस्त इलाका माना जाता है। यहाँ लम्बे समय तक जमीन पानी में डूबी रहती है।

यहाँ चावल-गेहूँ की उत्पादकता (1.07 व 1.08 टन प्रति हेक्टेयर) बहुत कम है लेकिन दूसरी ओर इस जिले के दलदली इलाकों में बोरो चावल का उत्पादन अधिक होता है। यही नहीं यहाँ की दलदली भूमि में सर्दियों में मक्का, दाल और मखाना व सिंघाड़े का भी उत्पादन होता है। इसी प्रकार से समस्तीपुर जिले में 77 फीसदी जमीन दलदली है। वहीं वैशाली में 61.5 प्रतिशत इलाका बाढ़ग्रस्त है तो मुंगेर में बाढ़ग्रस्त क्षेत्र 57 प्रतिशत है।

मिथिला के दलदली क्षेत्रों की पहचान है कि यहाँ मखाने की फसल उगाई जाती है। इसके अलावा अन्य जलीय फसलें भी हैं। इस इलाके के दलदली क्षेत्र जलीय जैव विविधता का भंडार हैं और आस-पास की जनसंख्या के लिये सतत आजीविका का आधार प्रदान करते आए हैं। झा की मानें तो उत्तर बिहार की अर्थव्यवस्था बहुत हद तक इसकी जलीय सम्पदा पर निर्भर करती है और दलदली क्षेत्र उसके अन्तर्गत आते हैं।

गंगा के तटीय क्षेत्र में परिवहन के लिये नावों का उपयोग किया जाता हैगंगा के तटीय क्षेत्र में परिवहन के लिये नावों का उपयोग किया जाता है (फोटो साभार - डाउन टू अर्थ)मत्स्य पालन की विशाल क्षमता रखने के बावजूद यह राज्य अब तक इसका दोहन करने में असफल रहा है। इस हिसाब से देखा जाए तो मत्स्य पालन क्षेत्र खाद्य सुरक्षा एवं रोजगार उत्पादन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा अपने जीवन-यापन के लिये इस पर निर्भर है। यह राज्य के लिये बहुमूल्य राजस्व भी पैदा करता है।

मखाना मुख्य रूप से मिथिलांचल, सीमांचल और कोशी क्षेत्र के आठ जिलों में उगाया जाता है। इसकी खेती दलदली क्षेत्रों एवं तालाबों में खासकर होती है। झा के अनुसार, “बिहार के कुल मखाना उत्पादन का 90 प्रतिशत यह क्षेत्र उपजाता है।”

आजीविका का साधन

उत्तर बिहार में दलदली भूमि स्थानीय लोगों के लिये आजीविका का एक बड़ा साधन है। इस बात की पुष्टि दक्षिण एशियाई देशों की सरकारों के साथ करने वाले ग्रुप एक्शन ऑन क्लाइमेट टुडे ने अपनी रिपोर्ट में की है। कहा है कि बिहार में दलदली भूमि आजीविका के मामले में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही है।

अपनी रिपोर्ट के अनुसार उत्तर बिहार में आने वाली भयंकर बाढ़ का नियंत्रण करने में भी इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसके अलावा दलदली भूमि भूजल स्तर को बढ़ाती है, पेयजल और सिंचाई में भी कारगर है। इसकी बदौलत राज्य में मत्स्य पालन को एक सुरक्षित स्थान मिलता है। यही नहीं रिपोर्ट में कहा गया है कि इसके चलते राज्य में 49 लाख मछुआरों की आजीविका सुनिश्चित होती है।

चावल, सिंघाड़ा और मखाना की खेती भी इस दलदली भूमि में ही होती है। दलदली भूमि यहाँ की संस्कृति का न केवल एक अभिन्न हिस्सा है, बल्कि वह यहाँ की जमीनी आबोहवा में रच बस गई है। यहाँ के त्यौहार, लोक प्रथाएँ और लोक कथाएँ दलदली भूमि पर पारिस्थितिकी तंत्र में एक-दूसरे में गुथ गए हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार में दलदली भूमि के विकास को लेकर दबाव बढ़ता जा रहा है। इसका प्रमुख कारण है राज्य में बढ़ती आबादी के लिये भोजन और पानी की जरूरतों को पूरा करना। राज्य में दलदली भूमि के विकास में आने वाली अड़चनों का मुख्य कारण है यहाँ के शासन व प्रशासन द्वारा पारिस्थितिकीय कार्य प्रणाली के मूल्यों की समझ का कम होना।

फिर राज्य में अभी दलदली भूमि का उपयोग केवल मौसमी तौर पर कृषि उपयोग के लिये ही होता है। उत्तर बिहार में 70 फीसदी से अधिक बाढ़ तो यहाँ बने 3,000 किलोमीटर लम्बे तटबन्धों के कारण आती है। ये तटबन्ध नदी की कनेक्टिविटी को तो प्रभावित करते ही हैं, साथ ही इसका परिणाम यह होता है कि यहाँ की दलदली भूमि में रासायनिक पदार्थों व कीटनाशकों का समावेश हो जाता है।

राज्य में बड़े पैमाने पर रोजगार की तलाश में पलायन होता आया है। इस सम्बन्ध में दरभंगा जिले के एक जल कार्यकर्ता नारायणजी चौधरी ने कहा कि मिथिलांचल की हजारों एकड़ भूमि को बंजर माना जाता है। लेकिन इसका उपयोग बड़े पैमाने पर पर मत्स्य पालन और मखाने की खेती के लिये किया जा सकता है।

इससे गरीबी और क्षेत्र में बड़े पैमाने पर होने वाले पलायन को रोकने में मदद मिलेगी। उत्तरी बिहार आमतौर पर आजीविका की खोज में राज्य से पलायन के लिये जाना जाता है। उन्होंने बताया, “कोसी तटबन्ध के दोनों किनारों पर हजारों एकड़ भूमि बेकार पड़ी है, जिसका इस्तेमाल मत्स्य पालन एवं जलीय कृषि के लिये किया जा सकता है।”

दलदली भूमि पर विशेष अध्ययन करने वाले बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग के पूर्व अतिरिक्त सचिव गजानन मिश्र कहते हैं- “नदियों एवं दलदली क्षेत्रों के बीच का सदियों पुराना सम्बन्ध टूट चुका है। ऐसा तटबन्धों, सड़कों, रेल की पटरियों एवं अन्य मानवीय गतिविधियों की वजह से हुआ है। इस इलाके में दलदली क्षेत्रों की बिगड़ती हालत के लिये यही गतिविधियाँ प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं।”

एक समय था जब मिथिलांचल (दरभंगा एवं आस-पास के 12 जिलों को मिलाकर बना) में खेती के नजरिए से दलदली भूमि काफी महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी। किसान धान और मक्का की विशिष्ट किस्में तो उगाते ही थे, साथ-ही-साथ मत्स्य पालन भी होता था। ये फसलें बिना किसी सिंचाई एवं खाद के उपजती थीं और मूल खर्च केवल बीजों का आता था।

धान और मक्का के 15 फुट लम्बे तने जानवरों के लिये चारे का काम करते थे। मिश्र ने कहा, “लेकिन अब यह सब खत्म हो चुका है। कुछ नहीं बचा।”उनका कहना है कि बिना उर्वरकों के ही इस दलदली भूमि की उत्पादकता काफी अधिक हुआ करती थी और लोग एक हेक्टेयर भूमि से 2 से 4 क्विंटल तक छोटी मछलियाँ पकड़ लिया करते थे।

अब वर्तमान उत्पादकता घट गई है और रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल चरम पर है। इसके फलस्वरूप जहरीले तत्व पानी में प्रवेश कर जाते हैं। यही कारण है कि अब समूचा दलदली क्षेत्र ही जहरीला हो चला है। उन्होंने बताया कि हाल ही में दरभंगा से यूरोपीय देशों को भेजी गई मखाने की एक खेप को अत्यधिक कीटनाशक होने की वजह से वापस भेज दिया गया।

दलदली क्षेत्र एक समृद्ध जलीय संसाधन है लेकिन लगातार इनका ह्रास होता आ रहा है। उत्तरी बिहार के हर गाँव की कम-से-कम 5 से 10 प्रतिशत जमीन इस श्रेणी में आती है। मिश्रा बताते हैं कि आर्द्र क्षेत्रों को बचाने की दिशा में नीतिगत स्तर पर राज्य सरकार द्वारा अब तक कोई कदम नहीं उठाए गए हैं।

यही कारण है कि दिन प्रतिदिन दलदली भूमि की स्थिति खराब होती जा रही है। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र के लोकगीतों में दलदली क्षेत्रों को नदियों के भाई के रूप में दर्शाया गया है। क्योंकि ये दलदली क्षेत्र ही नदियों को सूखे मौसम में जिन्दा रखते हैं। लेकिन अब ये दलदली क्षेत्र अपनी यह भूमिका नहीं निभा पा रहे और इसके कई कारणों को इंगित करते हुए मिश्रा ने बताया, “अब नदी और दलदली क्षेत्रों के बीच का पुराना गहरा रिश्ता करीब-करीब खत्म हो चुका है। यह दिख भी रहा है क्योंकि कई दलदली क्षेत्र अब सूख चुके हैं। उन्हें पुनर्जीवित करना बहुत ही कठिन है।”

आमतौर पर यह देखा जाता है कि दलदली जमीन को लेकर लोगों में काफी भ्रम होता है और लोग-बाग इसे अच्छी नजर से नहीं देखते। दरभंगा के दलदली क्षेत्रों की पारिस्थितिकी पर शोध कार्य करने वाले शमीम बार्बी ने बताया, “कालक्रम में एक धारणा बन चुकी है कि ये दलदली क्षेत्र वास्तव में बेकार हैं क्योंकि इस जमीन पर पानी भरा है। लेकिन दरअसल ये दलदली क्षेत्र प्रकृति के ‘गुर्दे’ हैं। यह स्थापित तथ्य है कि सरकार भी यह मानती है कि दलदली क्षेत्र एक मूल्यवान पर्यावरण प्रणाली है और इसे बंजर कहना कहीं से भी उपयुक्त नहीं है।”दलदली क्षेत्र मखाना, सिंघाड़ा और मत्स्य पालन के लिये उपयुक्त हैं। अगर सरकार चाहे तो वह इन दलदली क्षेत्रों को बचा सकती है। इनका बड़े स्तर पर ह्रास हुआ है लेकिन अब भी उम्मीद कायम है।

उत्तर बिहार में नदी तटबन्धों के विशेषज्ञ दिनेश मिश्र बताते हैं कि दलदली क्षेत्र बाढ़ के प्रभाव को कम करते हैं, भूजल के स्तर को बरकरार रखते हैं और जीवन-यापन में भी सहायक होते हैं। उनका कहना है- “इन दलदली क्षेत्रों को यथासम्भव बहाल करना चाहिए और इनके अतिक्रमण को भी रोकने की आवश्यकता है।”उनका मानना है कि दलदली भूमि में आजीविका की सम्भावना है और सही तरीके से विकसित किए जाने की सूरत में यह बाढ़ के साथ-साथ कोसी, सीमांचल एवं मिथिलांचल से लगातार होते पलायन को भी कम करेगा।

उत्तर बिहार में काम कर रहे एक पर्यावरण कार्यकर्ता रणजीव ने कहा कि कुछ दशकों पहले एक समय था जब देसरिया चावल (दलदली क्षेत्रों में उपजने वाली धान की एक खास किस्म) और कवई मछली के लिये मिथिलांचल प्रसिद्ध हुआ करता था। अब वैसा नहीं रहा। दलदली क्षेत्रों में उगाई जाने वाली किस्में या तो विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्त होने के कगार पर हैं। वह कहते हैं, “देसरिया चावल और कवई मछली का उपयोग मेहमानों के लिये सम्मान के प्रतीक के तौर पर किया जाता था। लेकिन अब दोनों गायब हैं।”

बिहार में मछली की माँग 6.42 लाख मीट्रिक टन से अधिक हैबिहार में मछली की माँग 6.42 लाख मीट्रिक टन से अधिक है (फोटो साभार - डाउन टू अर्थ)उत्तर बिहार में दलदली भूमि का सही प्रबन्धन नहीं होने के कारण अब इस इलाके में मखाने के उत्पादन में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। इस सम्बन्ध में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) पटना में डिवीजन ऑफ सोशियो इकोनॉमिक्स एंड एक्सटेंशन एंड ट्रेनिंग के प्रमुख और मुख्य वैज्ञानिक उज्जवल कुमार ने कहा “उत्तर बिहार में दलदली भूमि के प्रबन्धन की प्रमुख समस्या है। हम दलदली भूमि प्रबन्धन में सक्षम नहीं हैं और इसी का परिणाम है कि अब तक दलदली भूमि का ठीक से उपयोग नहीं किया जा सका है।”दलदली भूमि के साथ ही अन्य जल निकाय भी कम हो रहे हैं और यह पारिस्थितिकी तंत्र के लिये एक बुरा संकेत है। उन्होंने बताया 2009-10 में 15,000 हेक्टेयर जमीन में मखाने की खेती की जाती थी, जिसमें ज्यादातर दलदली भूमि शामिल थी लेकिन अब यह कम होकर लगभग 10,000 हेक्टेयर तक सिमट गई है। साथ ही उत्पादकता भी कम हो गई।

हालांकि आईसीएआर ने जल निकायों के संकुचन के मद्देनजर उच्च उत्पादकता के लिये मखाना की एक नई किस्म विकसित की है। दलदली भूमि का उपयोग बड़े पैमाने पर मखाना और सिंघाड़ा के उत्पादन तथा मछली पकड़ने के लिये किया जा सकता है। यहाँ ताजे पानी के झींगा होने की भी सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन आज तक दलदली भूमि का उत्पादन के लिये उपयोग शुरू नहीं हुआ।

कुमार ने डाउन टू अर्थ को बताया, “भूमि विन्यास, पुनर्वसन और नवीनीकरण के माध्यम से दलदली भूमि को उत्पादक उपयोग के लिये विकसित करने की आवश्यकता है।”दलदली भूमि समेत जल निकायों का कम उपयोग किया जा रहा है। एकीकृत खेती का प्रचार कर किसानों को दलदली भूमि का उपयोग करने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है। यह एक उपयुक्त विकल्प है। कुमार कहते हैं, “हमें मौद्रिक अवधि में प्रति व्यक्ति भूमि और जल उत्पादकता में वृद्धि करनी है। अधिकतम उपयोग काफी उपयोगी साबित होगा क्योंकि उत्पादन की कम लागत लाभ को बढ़ावा देगी। साथ ही स्थानीय निवासियों के लिये आजीविका के अवसर बढ़ेंगे और नौकरियाँ पैदा होंगी।”वहीं इस बारे में आईसीएआर पटना के पशुधन और मत्स्य प्रबन्धन के प्रमुख वैज्ञानिक कमल शर्मा ने कहा कि दलदली भूमि एक प्राकृतिक संसाधन है जो आजीविका का एक बड़ा स्रोत हो सकता है।

दलदली भूमि को एक दीर्घकालिक स्थिरता के साथ मत्स्य के लिये विकसित किया जाना चाहिए। हमें पारिस्थितिकी तंत्र से छेड़छाड़ किए बिना, दलदली भूमि का उत्पादन बढ़ाने के लिये विकसित करने पर गौर करना चाहिए।

हालांकि राज्य मत्स्य पालन निदेशालय के आँकड़े यह बता रहे हैं कि गत वर्ष के मुकाबले इस वर्ष मछली का उत्पादन अधिक हुआ है। आँकड़ों के अनुसार, राज्य ने 2017-18 के दौरान 5.35 लाख मीट्रिक टन मछली का उत्पादन किया जोकि 2016-17 के कुल उत्पादन 5.10 लाख मीट्रिक टन से अधिक है। इस अधिक उत्पादन की सच्चाई यह है कि आज भी बिहार 6.42 लाख मीट्रिक टन मछली की वार्षिक माँग को पूरा करने के लिये अन्य राज्यों की आपूर्ति पर निर्भर करता है। बिहार से 30,000 मीट्रिक टन मछली पड़ोसी नेपाल और पश्चिम बंगाल जाती है।

बिहार में मछली की प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत 7.7 किलोग्राम है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत 10 किलोग्राम प्रति व्यक्ति है। दलदली क्षेत्र समेत अन्य जल संसाधनों के होने के बावजूद बिहार अपनी माँग को पूरा करने लायक पर्याप्त मछली नहीं पैदा कर पा रहा है। राज्य सरकार ने 2021-22 के अन्त तक मछली उत्पादन को बढ़ाकर 8 लाख मीट्रिक टन करने का लक्ष्य रखा है। ऐसा बिहार को मछली सरप्लस बनाने की दृष्टि से किया जा रहा है।

कृषि वैज्ञानिक और आईसीएआर के पूर्व महानिदेशक मंगल राय ने कहा, “यदि आंध्र प्रदेश 2 लाख एकड़ में मत्स्य पालन करके देश भर के बाजारों के लिये इतनी मछलियों का उत्पादन कर सकता है, तो यह सोचने वाली बात होगी कि बिहार के दलदली क्षेत्रों में कितनी क्षमता है। आंध्र प्रदेश में पैदा की गई मछलियों से पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, झारखंड और ओडिशा एवं बिहार में मछली की लगभग 40 प्रतिशत जरूरत पूरी हो रही है।”उत्तर बिहार का दलदली क्षेत्र आज हीरे की तरह मूल्यवान है। यह एक दशक पहले सोने की खान हुआ करती थी। क्षेत्र दलदली भूमि से भरा हुआ और बाढ़ इलाके के लिये एक अभिशाप हो सकता है लेकिन यह बिहार को समृद्ध बनाने का एक बड़ा अवसर है। इसके लिये व्यवस्थित निवेश की आवश्यकता है। यह बाकी किसी भी क्षेत्र में निवेश से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।

राज्य के वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि अगर दलदली क्षेत्रों का प्रभावी उपयोग राज्य में सुनिश्चित किया जाए तो सम्भव है कि दलदली क्षेत्रों का पुराना वैभव लौट आए। किसानों को कृषि वानिकी, शुष्क भूमि बागवानी, वाणिज्यिक मत्स्य पालन, मत्स्य पालन, डेयरी, कुक्कुट और अन्य पशुपालन आधारित उद्यमों को एकीकृत कृषि के दृष्टिकोण से कार्यान्वित करने हेतु प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।

इस बारे में कृषि विशेषज्ञ व समस्तीपुर के पूसा स्थित राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति गोपालजी त्रिवेदी ने सुझाव दिया कि शुष्क भूमि कृषि दलदली भूमि क्षेत्रों के लिये अनुपयुक्त है। अगर हम मुलटुपुर में एकीकृत खेती के लिये दलदली भूमि विकसित कर सकते हैं, तो बाढ़ प्रभावित उत्तर बिहार क्षेत्र में सैकड़ों ऐसे गाँव हैं, खासकर सीमांचल, कोसी और मिथिलांचल में, जहाँ लोग कृषि के लिये अपनी दलदली भूमि को विकसित कर सकते हैं।

जलीय अर्थव्यवस्थाजलीय अर्थव्यवस्था (फोटो साभार - डाउन टू अर्थ)विश्व बैंक द्वारा तैयार की गई एक नवीनतम रिपोर्ट “वेटलैंड मैनेजमेंट इन बिहार द केस ऑफ कांवर झील”के अनुसार इस क्षेत्र की जलीय व्यवस्था को बनाए रखने में इस झील की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस दलदली क्षेत्र में 17 गाँवों के करीब 15 हजार परिवार यहीं पैदा होने वाली मछली एवं जलीय पौधों का इस्तेमाल, भोजन, चारे व पुआल के तौर पर करते हैं। कांवर झील में मत्स्य पालन में काफी कमी आई है।

पिछले पाँच वर्षों में यहाँ आने वाली वीवरबर्ड पक्षी की संख्या में भी कमी आई है। रिपोर्ट बताती है, “कांवर आर्द्र क्षेत्र फिलवक्त सिकुड़ता चला जा रहा है। इसका कारण है नदियों से लगातार टूटते सम्बन्ध और 2001 से ही लगातार कम हो रही बारिश।”

बिहार वेटलैंड्स इंटरनेशनल के राज्य संयोजक अरविंद मिश्र ने बताया कि 12 मई, 2015 को आयोजित की गई स्टेट बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ की बैठक में कांवर झील पक्षी अभयारण्य को ‘डाउनसाइज’ करने का फैसला लिया गया था। मिश्रा बताते हैं कि एजेंसियाँ अभयारण्यों में केवल वर्तमान जलाप्लावित क्षेत्रों पर ही विचार करती हैं और ये क्षेत्र समय के साथ लगातार घटते ही चले जा रहे हैं।वह बताते हैं, “यदि संरक्षित क्षेत्र 6,311 हेक्टेयर से घटाकर 3,000 हेक्टेयर कर भी दिया जाए तो वे इस 3,000 हेक्टेयर पर दबाव डालेंगे। ऐसा पानी के बहाव को रोककर और बचे-खुचे पानी को इन्हीं दलदली क्षेत्रों से काटकर निकाले गए खेतों की सिंचाई के बहाने बाहर पम्प कर किया जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो यह झील जल्दी ही खत्म हो जाएगी।”

सफल प्रयोग

आईसीएआर के वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया है कि कैसे पानी आधारित आजीविका का स्रोत समुदायों को और अधिक आय अर्जित करने में सहायक साबित हो सकते हैं। लेकिन इसके लिये सरकार को उन स्थानीय संसाधनों का उपयोग करने की एकीकृत प्रणाली शुरू करनी होगी। इससे आय कई गुना बढ़ सकती है।

आईसीएआर ने उत्तर बिहार में जहाँ-जहाँ दलदली भूमि में पारम्परिक फसलों पर प्रयोग किया है, वहाँ-वहाँ लोगों की आय में छह से सात गुना वृद्धि दर्ज हुई है। उदाहरण के लिये आईसीएआर ने वैशाली जिले के एक छोटे से भाग (2000 मीटर स्क्वायर) में प्रयोग किया। इस प्रयोग में पाया गया है कि किसानों द्वारा पारम्परिक तरीके से एकीकृत खेती की गई तो किसानों की आय में 5 से 6 गुना वृद्धि हुई।

इसी प्रकार से आईसीएआर ने मुंगेर में मखाना और सिंघाड़े के पारम्परिक बीजों का उपयोग कर खेती की गई। यह प्रयोग इस दृष्टिकोण से सफल रहा है कि मखाने की खेती से किसानों को अतिरिक्त आय 20,015 रुपए प्रति हेक्टेयर हुई। वहीं इससे 240 लोगों को रोजगार भी मिला। इसके अलावा मछली पालन में भी अतिरिक्त आय 11,806 रुपए हुई। इसमें 24 लोगों को रोजगार मुहैया हुआ। साथ ही सिंघाड़े से अतिरिक्त आय 13,445 रुपए की हुई और इससे 83 लोगों को प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष रोजगार मिला। इस प्रणाली के उपयोग से यह बात सामने आई है कि मखाना और मछलियों की औसत उपज से भी सकल और शुद्ध आय हुई।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यदि उत्तरी बिहार के दलदली क्षेत्रों में पारम्परिक तौर-तरीके से खेती की जाए तो आने वाले समय में यह दलदली क्षेत्र एक बार फिर अपनी पुरानी रंगत में लौट सकता है। जरूरत है तो इस कार्य को विस्तार देने की।

 

 

 

 

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कैग रिपोर्ट, राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना हुई फेल

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कैग रिपोर्ट, राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना हुई फेलeditorialFri, 09/21/2018 - 17:46
Source
पीआरएस इण्डिया

राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजनाराष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना (फोटो साभार - एमडीडब्ल्यूएस)राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना (National Rural Drinking Water Programme, NRDWP) लक्ष्यों को हासिल करने में नाकाम साबित हुई है जबकि इस योजना के मद में आवंटित राशि का 90 प्रतिशत हिस्सा खर्च किया जा चुका है। योजना की शुरुआत वर्ष 2009 में हुई थी जिसका उद्देश्य था सभी ग्रामीण भारतीयों को पीने अथवा घरेलू जरूरतों के लिये सतत रूप से पानी उपलब्ध कराना।

वित्तीय वर्ष 2012 से 2017 के लिये किये गए लेखा परीक्षण (audit) से यह बात सामने आई है कि यह योजना अपने लक्ष्य से कोसों दूर है। इस बाबत 9 अगस्त 2018 को भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (Comptroller and Auditor General of India,CAG) द्वारा एक रिपोर्ट जारी की गई है।

कैग की रिपोर्ट के अनुसार इस योजना के धराशायी होने का सबसे बड़ा कारण तयशुदा लक्ष्यों को हासिल करने में राज्यों का ढुलमुल रवैया है। अभी तक 21 राज्यों ने लोगों को स्वच्छ जल उपलब्ध कराने के लिये जल सुरक्षा योजना (Water Security Plan) नहीं बनाई है, और न ही योजना के कार्यान्वयन और उसके रख-रखाव सम्बन्धी कोई प्लान तैयार किया है। केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच मानकों को हासिल करने के लिये समन्वय की कमी भी इसके फेल होने का बड़ा कारण है।

योजना का लक्ष्य से पीछे रह जाने के अन्य कारणों में हितधारकों की कमी और सामुदायिक स्तर पर सहयोग की कमी, योजना में न्यूनतम सेवा स्तर की बात को शामिल नहीं किया जाना, राज्य स्तरीय योजना अनुमोदन समिति (State Level Scheme Sanctioning Committee) द्वारा इससे सम्बन्धित योजना को स्वीकृति नहीं दिया जाना भी शामिल है।

इतना ही नहीं योजना के कार्यान्वयन के जरूरी राज्य स्तरीय अंगों जैसे स्टेट वाटर एंड सेनिटेशन मिशन (State Water and Sanitation Mission), स्टेट टेक्निकल एजेंसी (State Technical Agency) और ब्लॉक रिसोर्स सेंटर्स (Block Resources Centres) या तो स्थापित ही नहीं किये गए या उनकी कार्य करने की गति काफी धीमी थी।

राष्ट्रीय पेयजल व स्वच्छता परिषद (National Drinking Water and Sanitation Council) अपने कार्यों को सम्पादित करने में लगभग नाकाम रहा। इसका गठन योजना के लक्ष्यों को सुनिश्चित करने के साथ-साथ विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय स्थापित करने के लिये किया गया था।

इसके तहत वर्ष 2017 तक सम्पूर्ण ग्रामीण भारतीयों सहित स्कूलों और आँगनबाड़ी केन्द्रों को पाइप द्वारा स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने की योजना थी लेकिन इन लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सका। अब तक केवल 44 प्रतिशत घरों, 85 प्रतिशत स्कूलों और आँगनबाड़ी केन्द्रों में पीने का पानी उपलब्ध कराया जा सका है जबकि इसे शत-प्रतिशत हासिल किये जाने की योजना थी।

तय लक्ष्य के अनुसार दिसम्बर 2017 के अन्त तक हर रोज देश की कुल ग्रामीण आबादी के 50 प्रतिशत हिस्से को 55 लीटर प्रतिव्यक्ति पीने योग्य सप्लाई का पानी उपलब्ध कराए जाने की योजना थी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। अभी तक कुल ग्रामीण जनसंख्या के 18 प्रतिशत हिस्से को ही यह सुविधा उपलब्ध कराई जा सकी है। इसके अलावा इस योजना के तहत देश के 35 ग्रामीण घरों में पानी का कनेक्शन मुहैया कराया जाना था लेकिन 17 प्रतिशत घरों में ही यह सुविधा उपलब्ध है।

योजना के लिये वर्ष 2012-2017 के लिये कुल 89,956 करोड़ रुपए का बजट निर्धारित किया गया था जिसमें 43,691 करोड़ रुपए केन्द्र और बाकी के 46,265 करोड़ रुपए राज्यों द्वारा खर्च किये जाने थे। इस बजट का 90 प्रतिशत भाग यानि 86,168 करोड़ रुपए किये जा चुके हैं मगर इन वर्षों में योजना काफी धीमी रही।

रिपोर्ट के अनुसार केन्द्र द्वारा राज्यों को राशि आवंटित करने में हुई देरी और राज्यों द्वारा इस मद में राशि को न बढ़ाए जाने की बाध्यता भी इसकी धीमी प्रगति का एक बड़ा कारण है। इस योजना के मद में वित्तीय वर्ष 2013-2014 और 2016-2017 के बीच राशि के आवंटन में कमी आ गई थी और राज्यों को केन्द्र से राशि मिलने में 15 महीनों की देरी हुई थी। कैग ने योजना की हर एक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए सक्रियता के साथ राशि के आवंटन की बात कही है।

कैग ने अपनी रिपोर्ट में ठेका प्रबन्धन (Contractual Management) में 2,212 करोड़ रुपए के कुप्रबन्धन की बात को भी उजागर किया है। उसने कहा है कि इस प्रोजेक्ट के फेल होने में अधूरे छोड़े हुए कामों के गैरजरूरी मशीनों की खरीद पर किये गए खर्च का भी योगदान है।

राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना की एक सबसे बड़ी कमी है कि इसमें सतही जल के प्रबन्धन पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। जरूरी जलीय आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु इसमें 98 प्रतिशत भूजल के इस्तेमाल की बात कही गई है।

इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कैग ने केन्द्रीय पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय (Union Ministry of Drinking Water and Sanitation) को इस योजना की सम्भाव्यता और व्यावहारिकता की समीक्षा करने की सलाह दी है। उसने यह भी कहा है कि समुदाय की सहभागिता के साथ ही जल सुरक्षा योजना और वार्षिक कार्य योजनाएँ तैयार की जानी चाहिए। इसके अलावा उसने ठेका प्रबन्धन पर बल देने के साथ ही ठेकेदारों द्वारा समय पर काम न पूरा किये जाने पर आर्थिक दंड लगाने की बात भी कही है।

 

 

 

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केन-बेतवा लिंक, मंजिल अभी दूर है

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केन-बेतवा लिंक, मंजिल अभी दूर हैeditorialMon, 09/24/2018 - 17:38

केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजनाकेन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना (फोटो साभार - स्क्रॉल)सुखाड़ प्रभावित बुन्देलखण्ड इलाके में सिंचाई और पीने के लिये पानी उपलब्ध कराने के उद्देश्य से तैयार की गई केन्द्र सरकार की बहु-प्रतीक्षित केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना एक बार फिर चर्चा में है। खबर है कि इस योजना के कार्यान्वयन में आ रही मुख्य बाधा का हल ढूँढ लिया गया है। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सरकारें इस परियोजना को लेकर समझौते के लिये तैयार हो गई हैं और आने वाले कुछ ही दिनों में इसकी आधिकारिक घोषणा कर दी जाएगी।

हालांकि इस योजना के कार्यान्वयन सम्बन्धी कई अड़चने हैं। सुप्रीम कोर्ट की सेंट्रल इम्पावर्ड कमिटी (central empowered committee) के पास और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (national green tribunal) में यह मामला लम्बित है। इसके साथ ही इसे अभी तक फॉरेस्ट क्लीरेंस नहीं मिला है।

यह परियोजना पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में तैयार की गई ‘नदी जोड़ो योजना’ का ही हिस्सा है। इस योजना के तहत देश की तीस प्रमुख नदियों को जोड़े जाने की योजना है जिनमें 14 हिमालय क्षेत्र और 16 प्रायद्वीपीय भारत की नदियाँ शामिल हैं।

इस योजना के अनुसार 30 नहरों के साथ ही 3000 जलाशयों और 34,000 मेगावाट क्षमता वाली विभिन्न जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण कराया जाना है। इसके अतिरिक्त इसके पूरा होने पर 87 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराई जा सकेगी। केन-बेतवा लिंक परियोजना इस वृहद नदी जोड़ो योजना की ही पहली कड़ी है।

गौरतलब है कि सिंचाई की व्यवस्था उपलब्ध कराने के लिये ब्रिटिश काल में ही नदियों को जोड़ने की योजना बनाई गई थी। हालांकि उस समय औपनिवेशिक सत्ता का उद्देश्य था ज्यादा-से-ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन। ऐसा इसलिये था कि उस समय भी भारतीय अर्थव्यवथा की रीढ़ कृषि ही थी और फसलों पर लगान की दर काफी ऊँची थी।

इसी योजना के तहत ब्रिटिश शासन द्वारा गंगा नदी पर नहर का निर्माण कराया गया था जिसका भारत के तत्कालीन राजा- महाराजाओं और समाज के अग्रणी लोगों ने पुरजोर विरोध किया था। विरोध को मुखर बनाने के लिये 1916 में हरिद्वार में एक सभा का भी आयोजन किया गया था।

इसके बाद इस योजना को 1982 में तत्कालीन सरकार के द्वारा फिर से पुनर्जीवित किया गया। इसके लिये इसी वर्ष नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी (National Water Development Agency) का गठन किया गया। इसे ही नदियों को जोड़ने की योजना तैयार करने का जिम्मा दिया गया। फिर कई वर्षों तक यह मामला ठंडे बस्ते में रहा और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने इसे आगे बढ़ाया। अब फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार में एक बार फिर इस योजना को लेकर हलचल शुरू हो गई है।

केन नदी मध्य प्रदेश स्थित कैमूर की पहाड़ी से निकलती है और 427 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद उत्तर प्रदेश के बांदा में यमुना में मिल जाती है। वहीं बेतवा मध्य प्रदेश के रायसेन जिले से निकलती है और 576 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में यमुना में मिल जाती है।

इस प्रोजेक्ट को पूरा होने पर मध्य प्रदेश के छतरपुर, टीकमगढ़ और पन्ना जिले के 3.96 लाख हेक्टेयर और उत्तर प्रदेश के महोबा, बांदा और झाँसी जिले के 2.65 लाख हेक्टेयर हिस्से पर सिंचाई की व्यवस्था उपलब्ध हो सकेगी। ये सभी जिले बुन्देलखण्ड क्षेत्र के हैं जो सूखा प्रभावित क्षेत्र हैं। इसके अन्तर्गत केन नदी का अतिरिक्त पानी 230 किलोमीटर लम्बी नहर के माध्यम से बेतवा नदी में डाला जाना है।

इस परियोजना को धरातल पर लाने के लिये इससे जुड़े राज्यों, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बीच 2005 में ही समझौता हुआ था लेकिन विभिन्न अड़चनों के कारण इसे अब तक नहीं शुरू किया जा सका है। जिनमें पन्ना टाइगर रिजर्व, पर्यावरण मंजूरी, पारिस्थितिकी को होने वाले नुकसान से जुड़े मुद्दे, राज्यों के बीच विवाद, फसलों के वर्तमान पैटर्न पर पड़ने वाला प्रभाव आदि शामिल हैं। अब यह बताया जा रहा है कि दोनों राज्यों के बीच जल्द ही नए सिरे से एमओयू होने वाला है।

विवाद की मुख्य वजह मध्य प्रदेश द्वारा योजना के दोनों फेजों को एक साथ जोड़े जाने की माँग और उत्तर प्रदेश द्वारा गैर वर्षा काल यानि खरीफ की फसल के लिये अधिक जल की माँग थी। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बीच नदियों को जोड़ने के लिये हुए पुराने समझौते के मुताबिक मध्य प्रदेश को 2650 मिलियन क्यूबिक मीटर (एमसीएम) और उत्तर प्रदेश को 1700 एमसीएम पानी दिया जाना था।

लेकिन उत्तर प्रदेश, खरीफ फसल के लिये 935 एमसीएम अतिरिक्त पानी माँग रहा है जिसे मध्य प्रदेश की सरकार मानने से इनकार कर रही है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश को इसके लिये 750 एमसीएम से ज्यादा पानी नहीं देना चाह रहा है। परन्तु केन्द्र सरकार की मध्यस्थता के बाद विषय पर भी दोनों राज्यों में सहमति बन गई है।

इसके अलावा पानी के बँटवारे सम्बन्धी इस विवाद के बाद मध्य प्रदेश की सरकार ने केन्द्र से इस परियोजना के दोनों फेजों को एक साथ जोड़ देने की माँग की थी। मध्य प्रदेश सरकार की माँग थी कि कोथा बैराज, लोअर ओर्र और बीना कॉम्प्लेक्स जैसी द्वितीय फेज की स्थानीय परियोजनाओं को पहले फेज में ही जोड़ दिया जाये।

मध्य प्रदेश की इस माँग को स्वीकार करते हुए केन्द्र सरकार दोनों ही फेजों को एक साथ जोड़ने पर अपनी सहमति जता दी है। इस तरह इस योजना पर कुल 26,651 करोड़ रुपए की लागत आने का अनुमान है। यह लागत वित्तीय वर्ष 2015-16 के मूल्यों पर निर्धारित की गई है।

हिन्दी इण्डिया वाटर पोर्टल से बात करते हुए साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (south asia network on dams, rivers and people) हिमांशु ठक्कर ने कहा कि नितिन गडकरी ने इस प्रोजेक्ट को जल्द शुरू करने की बात पिछले सितम्बर में ही कहा था लेकिन अब तक कुछ नहीं हो सका।उन्होंनेे आगे बताया कि ऐसा किया जाना अभी सम्भव नहीं दिखता क्योंकि कई ऐसी आपत्तियाँ हैं जो कोर्ट में विचाराधीन हैं।

केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना के सन्दर्भ में एक अन्य मुख्य आपत्ति थी पन्ना टाइगर रिजर्व के 5500 हेक्टेयर से ज्यादा हिस्से का योजना क्षेत्र में आना। लेकिन नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ (national board for wild life) ने सशर्त इस पर अपनी सहमति दे दी है।

बोर्ड के मुताबिक इस योजना के अन्तर्गत आने वाले जमीन के हिस्से की पूर्ति सरकार को करनी होगी। सरकार ने बोर्ड के इस शर्त का पालन करते हुए नौरादेही, रानी, दुर्गावती और रानीपुर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी को पन्ना टाइगर रिजर्व का हिस्सा बनाने पर अपनी सहमति दे दी है। इसे टाइगर रिजर्व का बफर एरिया घोषित किया जाएगा।

पन्ना टाइगर रिजर्व क्षेत्र में ही 73 मेगावाट क्षमता वाली प्रस्तावित डवढ़न जलविद्युत प्रोजेक्ट को लेकर अभी भी आपत्ति उठाई जा रही है। कहा जा रहा है कि यह प्रोजेक्ट इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी पर नकारात्मक प्रभाव डालेगा। यह आपत्ति एक्सपर्ट अप्रेजल कमिटी (Expert Appraisal committee) द्वारा भी उठाई गई थी लेकिन 30 दिसम्बर 2016 को उसने इस प्रोजेक्ट के लिये अपनी स्वीकृति दे दी थी।

लेकिन यह मामला सुप्रीम कोर्ट चला गया था और पन्ना टाइगर रिजर्व पर इस प्रोजेक्ट से पड़ने वाले प्रभाव का पता लगाने के लिये कोर्ट ने सेंट्रल इम्पावर्ड कमिटी (central empowered commitee) का गठन किया था। यह मामला अभी भी इसके पास लम्बित है। इसके अलावा इस प्रोजेक्ट को अभी तक फॉरेस्ट क्लीयरेंस नहीं मिला है और इससे सम्बन्धित मामला भी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के पास लम्बित है।

 

 

 

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गंगा की प्राणरक्षा के लिये प्राणोत्सर्ग कर रहे स्वामी सानंद

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गंगा की प्राणरक्षा के लिये प्राणोत्सर्ग कर रहे स्वामी सानंदeditorialFri, 09/28/2018 - 17:35
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सर्वोदय प्रेस सर्विस, सितम्बर 2018

देश के सर्वोच्च शिक्षण संस्थानों में से एक ‘आईआईटी’ कानपुर में प्राध्यापक रहे प्रोफेसर जीडी अग्रवाल को सन्यास लेकर स्वामी सानंद का आध्यात्मिक दर्जा दिलाने वाली गंगामाई को बचाने के लिये अब वे पिछले करीब 100 दिन से अनशन पर हैं। उनके द्वारा उठाए गए सवाल और उनकी माँगें एक तरफ, गंगा की मौजूदा हालातों के लिहाज से तत्काल हल करने योग्य हैं और दूसरी तरफ, मौजूदा विकास की अवधारणा की अप्रासंगिकता को उजागर करते हैं। ऐसे में सत्ता और विपक्ष की राजनीतिक जमातों की प्रतिक्रियाएँ देखना, सुनना रुचिकर होगा।


स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंदस्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद (फोटो साभार - डॉ. अनिल गौतम)गंगा की विलक्षण प्रदूषणनाशिनी शक्ति को बरकरार रखने की खातिर 22 जून 2018 से आमरण अनशन पर बैठे स्वामी सानंद को जीवन दाँव पर लगाए 100 दिन पूरे हो गए। इस बीच उनका वजन 20 किलो तक घट गया है, लेकिन फिर भी वे गंगा को बचाने की अपनी माँगों को लेकर अडिग हैं।

जो स्वामी सानंद को जानते हैं उन्हें पता होगा कि सन्यास लेने के पहले वे प्रोफेसर जीडी अग्रवाल के रूप में देश के ख्यात ‘इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलोजी’ (आईआईटी) कानपुर में वरिष्ठ प्राध्यापक थे। गंगा नदी की लगातार बढ़ती बदहाली और उसके प्रति देश की राजनीति, प्रशासन व न्यायतंत्र की आपराधिक लापरवाही से विचलित होकर उन्होंने एक जिम्मेदार नागरिक के नाते हस्तक्षेप करने का निर्णय लिया था। कई बार आवेदन, निवेदन करने, सत्ताधारियों को समझाने और समाज को उद्वेलित करने की कोशिशों के अलावा इस जीवन-मरण से जुड़े इस मुद्दे पर उन्होंने अनशन भी किया था।

करीब सवा तीन महीने से अनवरत जारी आमरण अनशन पर दिल्ली के ‘गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान’ में पिछली 18 सितम्बर को आम नागरिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और सरोकार रखने वाले अनेक साथियों ने तीन दिन का ‘गंगा सम्मेलन’ आयोजित किया था। इस सम्मेलन में केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि की हैसियत से शामिल हुए “केन्द्रीय राष्ट्रीय नदी गंगा, नदी पुनर्जीवन एवं परिवहन विभाग’ के मंत्री नीतिन गडकरी ने स्वामीजी के समर्थकों को सम्मेलन के अन्तिम दिन गंगा के पर्यावरणीय प्रवाह को सुनिश्चित कराने तथा उसकी अविरलता बनाए रखने हेतु कानून बनवाने का संकल्प घोषित किया था, लेकिन अपनी यह घोषणा उन्होंने लिखित में नहीं सौंपी। इससे निराश स्वामी जी के समर्थकों ने इस बात पर खेद जताया कि गडकरी ने अवैध खनन को रोकने, गंगा पर निर्माणाधीन बाँधों के कामों को तत्काल प्रभाव से रोकने एवं ‘गंगा भक्त परिषद’ गठित करने के विषय में कुछ नहीं कहा। स्वामी जी ने अपना अनशन जारी रखा है और 10 अक्टूबर से वे जल का भी त्याग करने के अपने निर्णय पर टिके हैं। लगता है कि स्वामी सानंद ने गंगा के जीवन के लिये अपने प्राणों का बलिदान देना सुनिश्चित कर लिया है।

इस बीच कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गाँधी ने स्वामी सानंद के समर्थन में 20 सितम्बर 2018 को प्राप्त एक पत्र भेजा है। इस पत्र में राहुल गाँधी ने स्वामी जी की माँगों को पूरा कराने के लिये उम्मीद जताई है। उन्होंने लिखा है कि वे स्वयं स्वामी जी से मिलकर उनकी माँगों को पूरा कराने का विश्वास देकर उनके प्राणों की रक्षा की पहल करेंगे। इस पत्र से स्वामीजी के समर्थकों में एक नई उम्मीद जागी हैं।

गौरतलब है कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व भाजपा के प्रधानमंत्री प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी ने जगन्नाथपुरी के शंकराचार्य के माध्यम से आन्दोलन चला रहे स्वामी सानंद को विश्वास दिलाकर उनका अनशन समाप्त करवाया था। सूत्रों के अनुसार 100 दिन पूरे हो जाने के बाद राहुल गाँधी स्वामी जी से गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिये काम करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले सकते हैं और उनके प्राण बचा सकते हैं।

पिछले कई सालों से भारत के वैज्ञानिक और इंजीनियर केवल गंगा की निर्मलता के नाम पर असीमित धन व्यय करने में जुटे हैं। इससे गंगा का प्रदूषण तो कम नहीं हो रहा, बल्कि बढ़ता ही जा रहा है। इस समय गंगा के घाटों के निर्माण तथा जल शोधन संयंत्र लगाने हेतु 18 हजार करोड़ रुपयों के प्रोजेक्ट मंजूर करके धन का वितरण किया जा रहा है। हरिद्वार स्थित मातृसदन के संस्थापक स्वामी शिवानन्द सरस्वती के अनुसार इन सब निर्माण कार्यों का गंगा के पर्यावरणीय प्रवाह पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ने वाला।

गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिये जंगल-कटाई की वजह से मिट्टी/गाद का कटाव और पानी का तेज बहाव बाँधों में रुक जाता है। बाँधों में रुका हुआ पानी, गंगाजल के बायोफाज्म नष्ट हो जाने के कारण अपनी विलक्षण, प्रदूषणनाशिनी शक्ति को खो देता है। ठहरे पानी में बायोफाज्म नीचे बैठ जाता है और पानी के ऊपर काई (अलगी) जम जाती है। यह प्रक्रिया गंगाजल के मूल तत्वों को जल से अलग करती है। काई का प्रदूषण तत्व गंगा में मिलने लगता है और मूलतत्व, अमरत्व (ब्रह्मसत्व) समाप्त हो जाता है।

जल संरक्षण का नोबल पुरुस्कार ‘स्टॉकहोम वाटर प्राइज’ के विजेता और अलवर (राजस्थान) के ‘तरुण भारत संघ’ के अध्यक्ष राजेंद्र सिंह के अनुसार गंगाजल को शुद्ध बनाने और बनाए रखने के लिये उसकी मूल गति को सतत बनाए रखना होगा। गंगा में जल के प्रवाह का सूखना और बाढ़, दोनों ही बढ़ते संकट हैं। इन संकटों को अब ‘चार धाम सड़क परियोजना’ और बढ़ाने वाली है। हमें गंगा के स्वास्थ्य की चिन्ता नहीं रहेगी तो समूचे देश का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहेगा।

स्वामी सानंद उर्फ प्रोफेसर जीडी अग्रवाल गंगा के स्वास्थ्य को सदियों तक ठीक रखने के लिये प्रयासरत हैं इसलिये उन्होंने गंगा पर अब और नए बाँध न बनाने, गंगा में खनन रोकने तथा निर्मित या निर्माणाधीन बाँधों को तत्काल रोककर नदी का पर्यावरणीय प्रवाह बनाए रखने की माँग की है। वे चाहते हैं कि गंगा के संरक्षण के लिये एक ‘गंगा भक्त परिषद’ का गठन किया जाये और एक कानून के जरिए गंगा के मूल प्रवाह को प्राचीन काल जैसा बनाने/बनाए रखा जाये।

राजेन्द्र सिंह के अनुसार सरकारी तौर पर अभी तक प्रधानमंत्री मोदी ने अपने चुनाव-पूर्व के वायदों को पूरा करने का कोई प्रयास नहीं किया है।चुनावों से पहले मोदी जी ने भारत की जनता और गंगाभक्तों के वोट लेने के लिये कहा था कि मैं गंगा का बेटा हूँ, गंगा मां ने मुझे बुलाया है... मैं गंगा मां को अविरल निर्मल बनाँऊगा।लेकिन उनके कई दूसरे वायदों की तरह यह भी सिर्फ एक जुमला भर निकला।

‘तरुण भारत संघ’ के निदेशक मौलिक सिसोदिया कहते हैं - ‘इस समय गंगाजल को बचाने के नाम पर दुनिया की बहुत सी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ लगी हैं। वे एक तरफ गंगा के नाम पर भारत को कर्जदार बना रही हैं और दूसरी तरफ अपनी कम्पनी की आय बढ़ा रही हैं। गंगा की निर्मलता के नाम पर जो धन की बर्बादी और भ्रष्टाचार हो रहा है उससे मुक्ति पाने के लिये ‘तरुण भारत संघ’ के उपाध्यक्ष प्रोफेसर जीडी अग्रवाल ने ‘मातृ सदन’ में अपने प्राणों की आहुति देना तय किया है। अब देश के प्रधानमंत्री और सभी दलों के राजनेताओं को समझना होगा कि प्रो. जीडी अग्रवाल और गंगा माईया के प्राण दोनों ही बचाने हैं।’

लेखक, दीपक पर्वतियार नई दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 

 

 

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एक किसान 52 बोरिंग

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एक किसान 52 बोरिंगeditorialSun, 09/30/2018 - 18:23

लोगों को पीने का पानी ढोकर लाना पड़ता हैलोगों को पीने का पानी ढोकर लाना पड़ता हैयह कहानी एक ऐसे गाँव की है, जहाँ पाँच हजार की आबादी में एक हजार से ज्यादा बोरवेल हैं। अब समय के साथ ये सब सूख चुके हैं। यह उस गाँव के एक किसान की कहानी भी है, जिसने अपने खेतों को पानी देने के लिये सब कुछ दाँव पर लगा दिया लेकिन जितनी ही कोशिश की गई, जमीन का पानी उतना ही गहरा धँस गया।

सारा जमा पूँजी, पत्नी के गहने और तमाम सम्पत्ति बेचकर भी जब खेतों को पानी नहीं मिला तो उसने इस कुचक्र के खिलाफ बोरिंग से ही तौबा कर ली। बड़ी बात यह है कि अब यह किसान पानी बचाने के परम्परागत तरीकों को अपनाकर खेतों को पानीदार बनाने की कोशिश में जुट गया है। यह एक किसान की कहानी है लेकिन अधिकांश किसानों की कहानी भी कमोबेश यही है। वे भी अब लगातार बोरिंग करवाते रहने से कंगाल हो चुके हैं। इस साल इलाके में बहुत कम बोरिंग हुए लेकिन तालाबों की तादाद उतनी ही बढ़ी है।

मध्य प्रदेश के मालवा में देवास जिले के हाटपीपल्या तहसील में एक छोटा-सा गाँव है- नानूखेड़ा। इस गाँव में ही पाँच हजार की आबादी पर एक हजार बोरवेल हैं यानी हर पाँच लोगों पर एक बोरवेल लेकिन फिर भी बूँद-बूँद को मोहताज हैं यहाँ के लोग...एक हजार में से बमुश्किल चार-पाँच बोरवेल ही जिन्दा होंगे और उनकी भी साँसे उखड़ने लगी हैं। जमीन का पानी गहरे और गहरे पाताल में उतर रहा है। खेत-खलिहान सूखे पड़े हैं।

गाँव के कुछ हैण्डपम्प को छोड़ दिया जाये तो बाकी के सैकड़ों बोरवेल किसानों ने अपने खेतों में इस आस में खुदवाए थे कि शायद उनकी किस्मत चेत जाये। हर साल किसान अपनी खेती के मुनाफे या फिर कर्जा लेकर खेतों में बोरवेल कर धरती की छाती को छलनी किये जा रहा है लेकिन 7-7 सौ फीट की गहराई तक भी सिवा धूल के कुछ हासिल नहीं हो रहा है। किसान जुए की तरह साल-दर-साल लाखों रुपए खर्च कर बोरवेल खुदवाए जा रहे हैं और कर्ज तले दबते ही जा रहे हैं।

आनन्दीलाल अपने सूखे बोरिंग दिखाते हुएआनन्दीलाल अपने सूखे बोरिंग दिखाते हुएभूजल भण्डार के नजरिए से यह गाँव डार्क जोन में आता है यानी यहाँ बीते कुछ सालों में बड़ी तेजी से भूजल स्तर गहरा होता गया है। फिलहाल यहाँ का जलस्तर 700 फीट है। कभी यह गाँव दूर-दूर तक फैली हरियाली और लहलहाते खेतों की वजह से पहचाना जाता था। खेत सोना उगलते थे। उपज ऐसी होती थी कि दीवाली से पहले अनाज के कोठार भर जाते थे।

नानूखेडा में करीब 500 किसान परिवार हैं और 50 किसान बड़े आसामी हैं, जिनके पास पचास बीघा तक खेती के लिये जमीनें हैं।

शुरुआत में आर्थिक रूप से सक्षम माने जाने वाले किसानों ने यहाँ ज्यादा-से-ज्यादा पानी उलीचने की होड़ में आज हालात यहाँ तक पहुँचा दिये हैं लेकिन लाखों रुपए का घाटा होने के बाद अब इनकी हालत बहुत पतली हो गई है। ये कर्ज की दलदल में बुरी तरह फँस चुके हैं। बड़े काश्तकार ही नहीं, छोटे और मझौले किसान परिवारों के सामने तो रोजी-रोटी का ही संकट मुँह बाए खड़ा है।

नानूखेड़ा गाँव के ही किसान आनन्दीलाल पाटीदार से मिलिए। ये तीन भाई हैं। तीनों के पास कुल मिलाकर 60 बीघा जमीन है। खेत खाली है, फसलें बर्बाद हो रही हैं क्योंकि खेतों में पानी नहीं है। पानी की कोशिश के लिये 60 बीघा जमीन में बीते कुछ सालों में अब तक 52 बोरवेल खोदे जा चुके हैं।

गाँव की बदनसीबी देखिए कि एक में भी पानी नहीं निकला। एक-एक कर सारे बोर सूखे ही निकले। किसी में पानी निकला भी तो कुछ ही दिनों में बोरवेल सूख गया। पहली फसल से मिलने वाला मुनाफा बोरवेल पर खर्च किया फिर कर्ज लेकर बोरवेल लगाना शुरू किया। अपनी सारी पूँजी, महिलाओं के गहने और बाकी सम्पत्ति बेचने के बावजूद वे अब भी कर्जे में हैं।

52 बोरवेल के अलावा इनके खेत में 6 कुएँ भी हैं लेकिन उनमें भी पानी का दूर-दूर तक नामों निशान नहीं है। एक बोरवेल पर एक-सवा लाख का खर्च होता है जबकि कुएँ पर 4 से 5 लाख रुपए। बीते साल तक खेती में बुरी तरह नुकसान झेलने के बाद आनन्दीलाल पर 15 लाख से ज्यादा का कर्ज है।

आनन्दीलाल ने अब एक संकल्प ले लिया है कि वे किसी भी कीमत पर अपने खेतों में बोरिंग नहीं करवाएँगे। तीस सालों से पानी के लिये सब जतन कर देख लेने के बाद अब उन्होंने तय कर लिया है कि वे परम्परागत रूप से खेती करेंगे और पानी के लिये भी परम्परागत तरीकों पर ही जोर देंगे। वे अपने खेत पर तालाब बनवा रहे हैं। वे बताते हैं कि कुएँ पर उनके बाप-दादा बैलों की चड़स से सिंचाई करते थे और अच्छा उत्पादन होता था।

बिजली के तारों के साथ पानी की पाइप लाइनबिजली के तारों के साथ पानी की पाइप लाइनहमने नादानियाँ की और धन के साथ-साथ भूजल का भी नुकसान कर बैठे। वे गाँव के अन्य ग्रामीणों को भी यह समझाने में सफल रहे हैं कि खेत तालाब और प्राकृतिक संसाधनों से जैविक खेती अब हमारे लिये बहुत जरूरी है। वे खेत के आसपास मेड़बन्दी भी करवा रहे हैं। वे मानते हैं कि एक दो साल मुनाफा कम होगा लेकिन इस तरह हम अगली पीढ़ी के लिये पानी और खेतों की जमीन दोनों बचा सकेंगे।

आनन्दीलाल की तरह अन्य किसानों को भी अब यह बात अच्छे से समझ आने लगी है। कई किसानों ने खेत तालाब बनवाए हैं तो कुछ ने इजरायली तरीके से तालाब बनवा लिये हैं ताकि बारिश के पानी को सहेजा जा सके। लोग अब यहाँ पानी बचाने और सहेजने की हर सम्भव तकनीकों का इस्तेमाल करने लगे हैं। गाँव के पास बहने वाले नाले को भी पाल बाँधकर रोकने की तैयारी चल रही है।

आनन्दीलाल बताते हैं- "ऐसी संरचनाएँ तेजी से कम होती जा रही हैं, जो बारिश के पानी को जमीन में रिसा सके। जब तक पानी भीतर जमीन की रगों तक नहीं पहुँचेगा तब तक लगातार पानी कैसे मिलता रहेगा। यह बैंक खाते से एकतरफा निकासी की तरह है। कुएँ-कुण्डियों और तालाबों से सिंचाई की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। बारिश का पानी भूजल भण्डार को बढ़ाता है। धीमी बारिश का पानी धरती में रिसता है और नीचे जाकर भूजल स्तर में बढ़ोत्तरी करता है। ऐसा हजारों साल से होता आया है, हम इसी पानी को उलीच रहे हैं। तेज बारिश का पानी व्यर्थ बहता हुआ नदी-नालों में चला जाता है और धरती को उसका कोई लाभ नहीं मिलता। इसलिये पानी को अपने गाँव-खेत के आसपास ठहराने वाली संरचनाएँ विकसित करने की सबसे बड़ी जरूरत है ताकि पानी दौड़कर न चला जाये।"

हाटपीपल्या और उसके आसपास बसे 75 गाँवों की भी कमोबेश यही स्थिति है। हर गाँव में पहले से ही दो-तीन सौ बोरवेल हैं और बीते पाँच सालों में इनकी तादाद तेजी से बढ़ी है। पहले यहाँ गेहूँ-चना की फसलें हुआ करती थीं, जिनमें पानी की आवश्यकता भी कम हुआ करती थी लेकिन कुछ सालों से यहाँ के किसान महंगे दामों के लालच में लहसुन-प्याज और आलू के उत्पादन पर जोर देने लगे।

इन फसलों के लिये बहुत अधिक पानी की जरूरत होती है और इसी वजह से यह हालात बने। धड़ाधड़ बोरिंग हुए और पानी नीचे उतरता चला गया। इस इलाके में कई गाँवों का भूजल भण्डार इसी तरह पाताल में धँसता जा रहा है। ये गाँव बीते पाँच सालों से पानी के संकट से रूबरू हो रहे हैं। भूजल स्तर लगातार कम होते जाने से नलकूपों में पानी खत्म होता जा रहा है और किसान एक के बाद एक बोरिंग कराते हुए तंग हुए जा रहे हैं। बीते तीन साल में ही इन गाँवों में साढ़े चार हजार से ज्यादा बोरवेल सूख चुके हैं।

साल-दर-साल जिले में बारिश लगातार कम होने से हालात और भी भयावह हो गए हैं। बीते पाँच सालों में यहाँ कभी पर्याप्त बारिश नहीं हुई। इस साल भी सितम्बर 2018 तक बारिश अपने औसत आँकड़े 40 इंच के मुकाबले 22 इंच को भी नहीं छू सकी है। इस पूरे साल में तालाब, कुएँ-कुण्डियाँ, नदियाँ और नाले छलके नहीं हैं।

बारिश के मौसम में भी तापमान का पारा गर्मियों की तरह तपा रहा है। पानी की कमी से फसलें नष्ट हो गई हैं। लेकिन भूजल भण्डार के कम होने का कारण महज बारिश का कम होना नहीं है। बड़ा कारण तो यह है कि यहाँ खेती के लिये बोरवेल को ही एकमात्र साधन मान लिया गया है। परम्परागत कुएँ-कुण्डियों, तालाबों और नदी-नालों को खत्म कर धरती के पानी की लूट मच गई और यही बड़ी वजह है कि धरती का पानी भी अब यहाँ खत्म होने की कगार तक पहुँच गया है।

अब आपको मिलाते हैं नानूखेड़ा के एक और किसान मुकेश पाटीदार से। मुकेश के पास 12 बीघा जमीन है। बारिश के दो महीने बाद से ही पानी की समस्या खड़ी हो जाती है। 12 बीघा जमीन में बीते कुछ सालों में ही चार बोरवेल कराए लेकिन एक भी सक्सेस नहीं हुआ। खेती से मुनाफा तो दूर अब तो उल्टे कर्ज में डूबते जा रहे हैं। मुकेश पर करीब 4 लाख रुपए का कर्ज है। चिन्ता इस बात की है कि खेती से कैसे मुनाफा कमाएँ और कैसे अब यह कर्ज चुकाएँगे।

गाँव के गणेश पाटीदार बताते हैं- "10 साल पहले गाँव में 45 से 100 फीट की गहराई में अच्छा पानी निकल आता था लेकिन अब यहाँ 700 फीट की गहराई तक भी पानी का पता नहीं है। पाँच हजार की आबादी वाले इस गाँव में कम-से-कम एक हजार बोरवेल हैं और चार-पाँच को छोड दो तो सब सूखे पड़े हैं। गाँव में पीने तक का पानी नहीं बचा है।"

पत्रकार नाथूसिंह सैन्धव बताते हैं- "यह किसानों के खिलाफ एक बड़ा कुचक्र है, जिसमें उन्हें पानी का सपना दिखाकर कंगाल बनाया जा रहा है। बाहर से बोरिंग करने आने वाले व्यापारियों ने गाँव-गाँव में अपने दलाल बना लिये हैं। वे किसानों को पानी का झूठा सपना दिखाकर खेत पर बोरिंग कराने के लिये उकसाते हैं और धरती तथा किसान दोनों का ही सीना छलनी कर देते हैं। अमूमन 70 से 80 रुपए प्रति फीट के मान से एक बोरिंग करीब तीस से पैंतीस हजार का पड़ता है और किसान कई बार एक जगह पानी नहीं आने पर दो से तीन जगह करवाता है यानी एक बार में एक लाख का फटका। कई किसानों को तो कर्ज की दलदल में फँसकर जमीन से ही हाथ धोना पड़ गया। बोरिंग का कर्ज उतारने के लिये अन्ततः जमीन बेच देनी पड़ती है। कहीं-कहीं तो एक हजार फीट तक बोरिंग कराया जा रहा है।"

स्थानीय निवासी हरिसिंह बताते हैं- "नानूखेड़ा गाँव के कुएँ-कुंडी, हैण्डपम्प सब कुछ सूख चुके हैं। अभी तो गर्मी का मौसम शुरू ही नहीं हुआ है। गाँव में कोसों दूर से लोगों को पीने के पानी का जुगाड़ करना पड़ रहा है। गाँव में रसूखदार लोगों ने बिजली के खम्भों पर बिजली लाइन की तरह समानान्तर पानी के लिये मोटी-मोटी पाइप की लाइन कई-कई हजार फीट दूर से डाल ली है लेकिन बाकी लोगों को साइकिल, बैलगाड़ी, मोटर साइकिल और पैदल चलकर पीने का पानी जुटाना पड़ता है। हालत यह है कि बाहर से आने वाले लोगों को पिलाने के लिये पानी तक नहीं है।”

खेत तालाब से नानूखेड़ा पानीदार हो रहा हैखेत तालाब से नानूखेड़ा पानीदार हो रहा हैइधर के सालों में हम भूजल का दोहन इतनी तेजी से करने लगे हैं कि भूजल भण्डार कई जगह खत्म होने की कगार पर आ चुके हैं। केन्द्रीय भूजल बोर्ड की ताजा रिपोर्ट में भी इस पर चिन्ता जताई गई है। सत्तर के दशक के बाद सिंचाई के लिये हमने दुर्भाग्य से भूजल के इस्तेमाल को ही एकमात्र संसाधन मान लिया है।

हमारे यहाँ 90 फीसदी तक सिंचाई भूजल से ही की जा रही है। हम इस मामले में दुनिया के कई देशों से आगे निकल चुके हैं। हम हर साल भूजल भण्डार से 231 बीसीएम पानी उलीचते हैं। पानी की यह मात्रा बहुत ज्यादा है। हम बड़ी तादाद में हजारों साल से इकट्ठा पानी को निकाल तो रहे हैं लेकिन कभी भी पुनर्भण्डारण के बारे में नहीं सोचते।

मध्य प्रदेश का मालवा कभी पग-पग रोटी, डग-डग नीर के लिये मशहूर था लेकिन आज पानी की बूँद-बूँद से लोग यहाँ मोहताज हो रहे हैं। भूजल स्तर लगातार गिरता जा रहा है। नदी-नाले, तालाब खत्म होते जा रहे हैं। जल्द ही पानी के प्रबन्धन पर गम्भीरता से नहीं सोचा गया तो यहाँ हालात विकराल हो सकते हैं।

 

 

 

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रोटी के लिये मलमूत्र की सफाई

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रोटी के लिये मलमूत्र की सफाईeditorialMon, 10/01/2018 - 13:45
Source
द हिन्दू, 30 सितम्बर 2018

राजस्थान के बेहनारा गाँव में सूखा शौचालय साफ करती मुन्नीराजस्थान के बेहनारा गाँव में सूखा शौचालय साफ करती मुन्नी (फोटो साभार - द हिन्दू)राजस्थान का एक गाँव जो पेपर पर खुले में शौच से मुक्त घोषित हो चुका है, लेकिन स्वच्छ भारत मिशन के चार साल बाद भी रोटी के लिये मलमूत्र की सफाई करने को मजबूर हैं।

गाँव की संकरी गली, जहाँ नालियों का जाल बिछा है। उन नालियों से मलमूत्र के अंश बाहर झाँक रहे हैं जो ऊँची जाति वाले लोगों के घरों में बने शौचालयों से निकले हैं।

सांता देवी अपनी साड़ी के कोने से मुँह ढँकती हैं और फावड़े एवं झाड़ू की सहायता से लोहे से बने डब्बे में सुबह के कोटे की गन्दगी डालने लगती हैं। गन्दगी को मोहल्ले के पास ही स्थित कचरा स्थल में फेंकने के बाद वापस आकर घरों से रोटी इकठ्ठा करती हैं जो उसकी मेहनत का एकमात्र पारिश्रमिक है।

पिछले 60 वर्षों से सांता देवी के जीवन के हर सुबह की शुरुआत इसी तरह से होती है। राजस्थान के भरतपुर जिले के बेहनारा गाँव में विनिमय प्रणाली पर आधारित स्वच्छता यही है।

इस तथ्य के बावजूद कि एक साल पूर्व ही केन्द्र सरकार के ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत सभी शुष्क शौचालयों को हटाए जाने के साथ सांता देवी के गाँव और पूरे ग्रामीण राजस्थान को खुले में शौच मुक्त घोषित किया जा चुका है, शायद की कोई बदलाव हुआ है। मैला ढोना, प्रोहिबिशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट ऐज मैन्युअल स्केवेंजिंग एंड रिहैबिलिटेशन एक्ट 2013 (prohibition of employment as manual scavengers and rehabilitation act 2013) के तहत अपराध है।

इसके लिये पैसे नहीं

“मेरी बहन मुन्नी, उसका पति और मैं- हम मैला ढोने का काम हर दिन करते हैं। इसे करने में हमें पाँच से छह घंटे लगते हैं और बदबू से भरे हम घर लौटते हैं” 65 साल की दादी बताती हैं। वह कहती हैं कि साफ-सफाई से जुड़े दूसरे कामों के लिये थोड़ा पैसा मिलता है लेकिन मैला साफ करने के बदले केवल एक रोटी मिलती है।

इस बस्ती में मेहतर समुदाय के पाँच परिवार हैं जिन पर परम्परागत रूप से अगड़ी जाति के लोगों द्वारा मैला साफ करने के लिये दबाव डाला जाता रहा है। 250 घरों के इस मोहल्ले में जाट और जाटव परिवारों के भेद है।

सांता देवी और उसके परिवार के लोग कहते हैं कि 10 जाट परिवारों के घर से उन्हें शुष्क शौचालयों से सीधे मल निकलना पड़ता है साथ ही अगड़ी जाति वाले लोगों की गलियों में बने गटरों से रोज मलमूत्र निकलना पड़ता है। सांता और मुन्नी के बेटे यह काम कभी-कभी ही करते हैं लेकिन वे भी पैसा रोज मजदूरी करके ही कमाते हैं। उन्हें पैसा कमाने के लिये शौचालयों, सेप्टिक टैंकों, ठोस अपशिष्ट के साथ ही शवों को भी हटाना पड़ता है।

मुन्नी का बेटा मुकेश कहता है कि लोग उन्हें दूसरा काम नहीं करने देते। वे उन्हें गन्दा कहते हैं। अगर वे कुछ बेचना भी चाहें तो लोग उनसे नहीं खरीदेंगे। वह बताता है कि लोग उन्हें गाँव के मन्दिर में पूजा तक नहीं करने देते।

मुन्नी को आशा है कि उसके नाती-पोते शिक्षित होकर इस चक्र को तोड़ेंगे। चौथी कक्षा में पढ़ने वाला उसका पोता संगम कहता है,“वह बड़ा होकर पुलिस वाला बनना चाहता है ताकि वह दुश्मन से लड़ सके”।

संगम के मेहतर समुदाय से होने के कारण शिक्षक उसे कक्षा में अन्य बच्चों से सबसे अलग, पीछे बैठाते हैं। वह कहता है कि बच्चे उसके साथ न खेलते हैं और न खाते हैं। अगर गलती से हम उन्हें छू देते हैं तो वे चिल्लाकर हमें नाम से बुलाते हैं”।

स्कूल के शौचालय की सफाई अमूमन संगम के दादा करते हैं। यदि किसी दिन वे सफाई नहीं कर पाये तो यह आशा की जाती है कि संगम और उसका भाई सागर यह काम करे।

“हम समझते हैं कि स्वच्छ भारत ने वास्तव में इन जातिगत बाधाओं को तोड़ दिया है।”द हिन्दू से बात करते हुए स्वच्छता सचिव परमेश्वरन अय्यर ने एक सप्ताह पूर्व जब स्वच्छ भारत अभियान अन्तिम वर्ष में प्रवेश करने वाला है कहा। उन्होंने यह भी पुष्टि की कि यदि एक गाँव या राज्य को खुले में शौचमुक्त घोषित किया जा चुका है तो इसका मतलब है कि सभी घरों में स्वच्छ शौचालयों की पहुँच है और सभी शुष्क शौचालय हटाए या स्वच्छ शौचालयों में बदले जा चुके हैं। उन्होंने यह भी बताया कि शुष्क शौचालयों से मैला ढोने के यदि कोई भी उदहारण सामने आते हैं तो वह भूल हो सकती है।

सरकार की एक अन्य शाखा यह पता लगाने के लिये कि इस समस्या का फैलाव कितना है आँकड़े जुटाने की प्रक्रिया में है। सामाजिक न्याय मंत्रालय द्वारा गठित एक अंतर मत्रिमण्डलीय टास्क फोर्स ने राष्ट्रीय गरिमा अभियान नामक स्वयंसेवी संस्था के सहयोग से 160 जिलों में 50,000 मैला ढोने वालों का पंजीकरण किया है। राष्ट्रीय गरिमा अभियान, सर्वे करने हेतु मंत्रालय का साझेदार है।

इस सर्वे के सत्यापन की प्रक्रिया अभी जारी है। लेकिन राष्ट्रीय गरिमा अभियान के कर्मियों का कहना है कि खासकर उन जिलों में जो खुले में शौच मुक्त घोषित किये जा चुके हैं उनमें मैला ढोने वालों की उपस्थिति को नकारने के लिये अफसर उन पर दबाव बना रहे हैं।

अप्रैल 2018 में सर्वे टीम द्वारा आयोजित किये गए एक कैम्प में बेहनारा मेहतर बस्ती सांता और उसके बेटों के साथ कुल 10 लोग पंजीकरण के लिये गए थे। उनके नाम सर्वे की सूची में दर्ज हैं लेकिन सत्यापन के साथ वाले कॉलम में जिले के अफसरों ने वही पुराना मुहावरा “मैला” दर्ज किया है।

अंग्रेजी में पढ़ने के लिये लिंक देखें।

अनुवाद: राकेश रंजन

 

 

 

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फ्लोरोसिस और आयोडीन की कमी है खतरनाक

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फ्लोरोसिस और आयोडीन की कमी है खतरनाकeditorialSat, 10/06/2018 - 17:54

फ्लोरोसिसफ्लोरोसिसक्या आपको पता है कि पानी के साथ ही खाद्य पदार्थों में फ्लोराइड की अधिकता और भोजन में आयोडीन की कमी से कितनी बीमारियाँ हो सकती हैं? नहीं! तो जान लीजिए। फ्लोराइड की अधिकता और आयोडीन की कमी से 10 गम्भीर बीमारियाँ हो सकती हैं। इस बात की चर्चा ए.के. सुशीलाने हाल ही में प्रकाशित अपने समीक्षा आलेख (review article) में किया है।

फ्लोराइड की अधिकता और आयोडीन की कमी से पैदा होने वाली बिमारियों में घेंघा रोग, बौनापन, लो आई क्यू, ब्रेन डैमेेज, गूँगापन और बहरापन, थायरॉइड ग्रंथि से हार्मोन के स्राव में विषमता, हड्डियों में विषमता, बौद्धिक विकलांगता, मनोरोग और गर्भवती महिलाओं द्वारा अविकसित बच्चों के साथ ही मरे हुए बच्चों को जन्म देनाआदि शामिल हैं।

भारत में फ्लोराइड की अधिकता और आयोडीन की कमी से होने वाली बीमारियाँ लगातार अपना पैर पसार रही हैं। पानी में फ्लोराइड की अधिकता से देश के कुल 35 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में से 20 बुरी तरह प्रभावित हैं।फ्लोराइड की अधिकता से होने वाली बीमारियाँ महामारी का रूप लेते जा रही हैं।

स्वच्छ पानी और खाद्य सुरक्षा सभी की एक अदद जरूरत है लेकिन भारत सरकार इन्हें सुनिश्चित करने से अभी कोसों दूर है। फ्लोरोसिस मूलतः दूषित भूजल के इस्तेमाल से होता है। भारत में करोड़ों की आबादी हैण्डपम्प, कुओं और ट्यूबवेल से निकले पानी का इस्तेमाल करती है। इसके शोधित न होने के कारण साल-दर-साल लाखों लोग फ्लोरोसिस की चपेट में आते जा रहे हैं।

तय मानक के अनुसार पानी में फ्लोराइड की मात्रा प्रति लीटर 1 मिलीग्राम से कम होनी चाहिएलेकिन देश के कई इलाकों में इसकी मात्रा काफी अधिक है। यह भी तथ्य सामने आया है कि इस मानक यानि प्रति लीटर 1 मिलीग्राम से कम फ्लोराइड की मात्रा वाले पानी का इस्तेमाल करने वाले लोग भी फ्लोरोसिस की चपेट में आ रहे हैं।इसकी मूल वजह सेंधा नमक का इस्तेमाल बताई जा रही है। सेंधा नमक में कैल्शियम फ्लोराइड की मात्रा (157.0 पीपीएम) तक पाई गई जो काफी अधिक है।

भारत में भोजन और पेय पदार्थों की लज्जत बढ़ाने के लिये सेंधा नमक का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया जाता है। इसीलिए अब फ्लोरोसिस केवल पानी के इस्तेमाल तक ही सीमित नहीं रह गया यह भोजन और पेय पदार्थों के माध्यम से भी आपके शरीर तक अपनी पहुँच बना सकता है।

फ्लोराइड के ठीक उलट आयोडीन की कमी ने पूरे देश को अपनी गिरफ्त में जकड़ रखा है। लोगों में आयोडीन की कमी से होने वाले घेंघा रोग के बढ़ते मामलों को देखते हुए भारत सरकार ने 1962 में राष्ट्रीय घेंघा नियंत्रण कार्यक्रम (national goitre control programme) चलाया था।

सरकार ने देश की पूरी आबादी (90 प्रतिशत से ज्यादा) को आयोडीन युक्त नमक मुहैया कराने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन 25 वर्षों में आयोडीन युक्त नमक का इस्तेमाल करने वाले घरों का प्रतिशत (78) तक ही पहुँच पाया है जो पूर्व में 49 प्रतिशत था।

तयशुदा मानक के अनुसार नमक में यदि आयोडीन की मात्रा 15 पीपीएम से ज्यादा हो तो उसे आयोडीनयुक्त माना जाता है और यदि 5 पीपीएम से कम हो उसे आयोडीन रहित माना जाता है। आयोडीन का इतेमाल आवश्यकतानुसार करना जरूरी होता है क्योंकि यह थायरॉइड ग्रंथि से टेट्राआयोडोथीरोनिन (T4) और ट्राइआयोडोथीरोनिन (T3) हार्मोन के स्राव के लिये बहुत जरूरी होता है।

आयोडीन के प्राकृतिक स्रोत सब्जियाँ और खाद्य पदार्थ होते हैं। इनको आयोडीन मिट्टी से मिलता है। लेकिन कालान्तर में मिट्टी में आयोडीन की मात्रा में कमी आती जा रही है इसीलिये इसे अन्य स्रोत से पूरा करना आवश्यक होता है। व्यक्ति में आयोडीन की जाँच उसके पेशाब में मौजूद इसकी मात्रा से होती है।

पूर्व में केवल घेंघा और बौनापन को ही आयोडीन की कमी से उत्पन्न होने वाली बीमारी माना जाता था लेकिन जैसाकि ऊपर बताया गया है इससे कई अन्य गम्भीर बीमारियाँ भी होती हैं। आयोडीन की कमी से होने वाली बीमारियों के लक्षण अपने प्रारम्भिक चरण में नहीं दिखते लेकिन जब इनका पता चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

इस समीक्षा आलेख का पहला उद्देश्य फ्लोराइड की अधिकता से घेंघा रोग सहित अन्य बीमारियों के होने की बात को उजागर करना क्योंकि पहले आयोडीन की कमी को ही इनके होने की वजह माना जाता था। वहीं इसका दूसरा उद्देश्य फ्लोराइड की अधिकता और आयोडीन की कमी से होने वाली बीमारियों के बीच के सम्बन्ध को उजागर करना भी है।

शरीर में आयोडीन की उचित मात्रा रहने पर भी घेंघा रोग हो सकता है। यह थायरॉइड ग्रंथि को पूरी तरह तहस-नहस कर देता है। इस सम्बन्ध में भारत में 9 अध्ययन और अन्य देशों में 8 अध्ययन किये जा चुके हैं। फ्लोराइड की अधिकता और आयोडीन की कमी से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याएँ पर्यावरण के ह्रास से भी जुड़ी हुई हैं जिनका निदान किया जाना आवश्यक है।

भारत में फ्लोरोसिस को नियंत्रित करने का प्रयास 1987 में आरम्भ किया गया। इसके लिये मूलतः ग्रामीण भारत में तयशुदा मानक के अनुसार फ्लोराइड वाले पानी की सप्लाई को बढ़ावा दिया गया। लेकिन पानी से अधिक फ्लोराइड की मात्रा को निकालने से सम्बन्धित तकनीक के फेल हो जाने के बाद लोग वही पानी पीते रहे और समस्या बढ़ती गई।

उस समय तक खाद्य पदार्थों के माध्यम से भी फ्लोरोसिस होने की बात सामने नहीं आई थी। आरम्भ में फ्लोराइड की समस्या से लड़ने की जिम्मेवारी पेयजल मंत्रालय और ग्रामीण विकास मंत्रालय मिलकर सम्भालते थे। वहीं, आयोडीन की कमी से जूझने की जिम्मेवारी इन मंत्रालयों के अलावा साल्ट कमिश्नर के कन्धों पर थी।

जब यह पता लगा कि इन समस्याओं से लड़ने के लिये लम्बा वक्त चाहिए तो इन्हें राष्ट्रीय प्लान के तहत लाया गया और यह जिम्मेवारी स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय को दी गई। पूर्व से जुड़े मंत्रालय और विभाग सहायक की भूमिका में रहे। राष्ट्रीय फ्लोरोसिस निवारण और नियंत्रण कार्यक्रम (national programme on prevention and control of fluorosis, NPPCF)को 11वीं पंचवर्षीय योजना काल में 2005 में शामिल किया गया। लेकिन इस दिशा में काम की शुरुआत 2008-09 में हुई। फिर पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय को देश के सभी पानी के स्रोतों को टेस्ट करने की जिम्मेवारी दी गई।

इस दरम्यान पानी में फ्लोराइड की मात्रा 1.1 से 48.0 मिलीग्राम प्रति लीटर तक दर्ज की गई।इसके बाद एनपीपीएफ के तहत सभी जलस्रोतों का टेस्ट किया जाना आवश्यक कर दिया गया। टेस्ट में लगे लोगों को आयोन मीटर के इस्तेमाल और रख-रखाव के लिये स्पेशल ट्रेनिंग दी गई। आयोन मीटर की सहायता से ही पानी में फ्लोराइड की उपस्थिति की मात्रा का पता लगाया जाता है।

देश में फ्लोराइड की समस्या से ग्रसित लोगों की संख्या में काफी वृद्धि दर्ज है। मनुष्य के शरीर में फ्लोराइड की मात्रा में वृद्धि पानी के अलावा अन्य माध्यमों जैसे भोजन, पेय पदार्थों, मसालों और वैसे चूर्ण जिनमें सेंधा नमक मिला होता है उनके सेवन से भी हो सकती है।इसीलिए शरीर में फ्लोराइड की मात्रा का पता लगाने के लिये अब पेशाब के जाँच की व्यवस्था अपनाई जा रही है।

इसके साथ ही फ्लोरोसिस से ग्रसित व्यक्ति को जल्दी लाभ मिले इसके लिये अब खाने में से फ्लोराइड की उपस्थित वाले सभी पदार्थों के हटाने के अलावा आहार परामर्श पर जोर दिया जा रहा है। इसके साथ ही मरीज के आहार में पोषक तत्वों, विटामिन, मिनरल्स, एंटीऑक्सीडेंट्स आदि की मौजूदगी पर भी जोर दिया जा रहा है। इसीलिए यह जरूरी हो गया है कि फ्लोरोसिस के इलाज और जाँच व्यवस्था में सुधार किया जाये।

घेंघा रोगघेंघा रोग (फोटो साभार - विकिपीडिया)आयोडीन की कमी से लड़ने के लिये चलाए जा रहे कार्यक्रम को 1992 से नेशनल आयोडीन डेफिशियेंसी डिसऑर्डर कंट्रोल प्रोग्राम (national iodine deficiency disorder control programme, NIDDCP) के नाम से जाना जाने लगा।इसके पीछे का उद्देश्य था कि आयोडीन की कमी से उत्पन्न होने वाले विकारों को प्रारम्भिक अवस्था में ही नियंत्रित कर लिया जाये। इसी का प्रतिफल है कि भारत की 92 प्रतिशत आबादी आज आयोडीन युक्त इस्तेमाल करती है।

1962 से 2017 के बीच भारत में आयोडीन की कमी से होने वाले घेंघा रोग में व्यापक स्तर पर सुधार हुआ है। लेकिन ज्यादा या पर्याप्त मात्रा में आयोडीन की उपलब्धता वाले इलाकों में घेंघा रोग के मामले अभी भी सामने आ रहे हैं। इसका कारण पानी, खाद्य और पेय पदार्थों में फ्लोराइड की अधिकता का होना माना जा रहा है।

जानवरों में फ्लोराइड की अधिकता से थायरॉइड ग्रंथि पर पड़ने वाले प्रभाव का पहला उल्लेख 1854 में फ्रांस में प्रकाशित एक जर्नल में मिलता है।इसमें कहा गया है कि सोडियम फ्लोराइड की डोज 20 से 120 मिलीग्राम प्रतिदिन एक कुत्ते को चार महीने तक दी गई जिससे उसे घेंघा रोग हो गया। इसके बाद 1979 में अमरीका के मिशिगन में हिलमैन एट अल (hillman et al ) में प्रकाशित एक स्टडी में कहा गया कि गायों की दाँत और हड्डियों पर भी फ्लोराइड के अधिक मात्रा का प्रभाव पड़ता है। उनके भोजन में अनुपूरक मिनरल की अधिक मात्रा के कारण उनके पेशाब में फ्लोराइड की मात्रा काफी बढ़ जाती है।

फ्लोरोसिस से ग्रसित जानवरों में हाइपोथायरॉइडिज्म, एनीमिया, इओसिनोफिलिया जैसी बीमारियाँ देखने को मिलती हैं। उनके पेशाब में फ्लोराइड की मात्रा के बढ़ने से फ्री टेट्राआयोडोथोरोनीन (free tetraiodothyronine (FT4)) और फ्री ट्राइआयोडोथोरोनीन (Free triiodothyronine (FT3)) जैसे तत्त्व उनके वीर्य में कम हो जाते हैं। इसके अलावा चूजों, मादा चूहों और उनके बच्चों आदि में भी अधिक फ्लोराइड से सम्बन्धित मामले देखने को मिले हैं।

चूजों में फ्लोराइड की मात्रा के अधिक होने पर उनके थायरॉइड ग्रंथि में फ्लोराइड जमा होता जाता है। शोधों में यह पाया गया है कि गायों के मेटाबोलिज्म में फ्लोराइड की अधिकता से 30 से 40 प्रतिशत तक की गिरावट आ जाती है।

1923 में यूएस पब्लिक हेल्थ सर्विस में प्रकाशित हुए आलमंड एफडब्ल्यू द्वारा सर्जन जनरल को लिखे गए पत्र में उन्होंने बताया था कि इडाहो में 12 से 15 साल के बच्चों द्वारा लगातार 6 मिलीग्राम प्रति लीटर फ्लोराइड की मात्रा वाले पानी का सेवन करने से उन्हें घेंघा रोग हो गया।उन्होंने बताया कि मनुष्य का शरीर तो 1 मिलीग्राम प्रति लीटर फ्लोराइड की मात्रा वाले पानी के लगातार सेवन को बर्दाश्त कर सकता है लेकिन 6 मिलीग्राम प्रति लीटर को नहीं।

ज्यादा फ्लोराइड की मात्रा वाले पानी का सेवन तो अमरीका में बहुत पहले से रिकॉर्ड में था लेकिन इस सूचना को वर्षों तक नजरअन्दाज किया गया। अन्ततः 2015 में अमरीकी स्वास्थ्य विभाग ने पानी में फ्लोराइड की मात्रा को नियंत्रित करने सम्बन्धी आदेश जारी किये जिसके तहत सामुदायिक स्तर पर पानी में फ्लोराइड की मात्रा के मानक तय किये गए जिसमें 1962 में जारी निर्देश के जरूरी हिस्सों को शामिल किया गया था।

नए मानक के अनुसार पानी में फ्लोराइड की मात्रा 0.7 मिलीग्राम प्रति लीटर तय की गई है जो पहले 0.7 से 1.2 मिलीग्राम थी। भारत के सन्दर्भ में फ्लोराइड से होने वाले घेंघा का पहला केस एक ब्रिटिश वैज्ञानिक द्वारा 1941 में रिपोर्ट किया गया था। पंजाब प्रान्त का एक बच्चा इस बीमारी से ग्रसित पाया गया था।इस रिपोर्ट में यह रेखांकित किया गया था कि उस बच्चे को यह बीमारी अधिक मात्रा वाले फ्लोराइड युक्त पानी के सेवन करने से हुई थी।

इसके अलावा एक चीनी रिपोर्ट में भी यह चर्चा की गई है कि पर्याप्त मात्रा में आयोडीन का सेवन करने के बाद भी लोगों में थायरॉइड से सम्बन्धित बीमारी देखने को मिल रही है। एक अन्य चीनी रिपोर्ट में कहा गया है कि 7 से 14 साल के बच्चों में आयोडीन की उचित मात्रा लेने के बाद भी अधिक फ्लोराइड की मात्रा वाले पानी के पीने से उनकी बौद्धिक क्षमता काफी कमजोर हो गई थी। इससे पता चलता है कि पानी में आवश्यकता से अधिक फ्लोराइड की मात्रा थायरॉइड के साथ ही बौद्धिक क्षमता को भी गम्भीर हानि पहुँचाता है।

गुजरात से आई एक रिपोर्ट के मुताबिक पानी में फ्लोराइड की अधिक मात्रा होने के कारण भी दाँतों के फ्लोरोसिस के अलावा घेंघा से लोग ग्रसित हो रहे हैं। रूस से आई एक रिपोर्ट के मुताबिक जो औद्योगिक कामगार जरूरत से अधिक मात्रा वाले फ्लोराइड के सम्पर्क में रहते हैं उनमें FT3 हार्मोन की मात्रा 51 प्रतिशत तक की कमी हो जाती है। दक्षिण अफ्रीका से आई एक रिपोर्ट में एक निश्चित से अधिक मात्रा वाले फ्लोराइड युक्त पानी का सेवन करने के कारण बच्चों में घेंघा रोग से ग्रसित होने के मामले बढ़ रहे हैं।

भारत के चार क्षेत्र जहाँ पानी में फ्लोराइड की मात्रा 2.4 से 13.5 मिलीग्राम तक थी उन क्षेत्रों के 6 से 12 साल के 200 बच्चों का परीक्षण किया गया। जिसका उद्देश्य उनमें सीरम पैराथायरॉइड हार्मोन्स (serum parathyroid hormones) के स्तर का पता लगाना था। सीरम पैराथायरॉइड हार्मोन, स्केलेटल फ्लोरोसिस के प्रभाव को और भी बढ़ा देता है। सभी बच्चे डेंटल फ्लोरोसिस से ग्रसित थे।

दिल्ली में भी एक ऐसा ही अध्ययन किया गया है। 2015 में केरल के बच्चों में भी पाया गया कि वे घेंघा से ग्रसित थे जबकि उनके पेशाब में आयोडीन की मात्रा सामान्य थी। डेंटल फ्लोरोसिस से ग्रसित बच्चों में हड्डी से जुड़े रोगों के होने की बात सामान्य है लेकिन अभी तक इस समस्या का समुचित हल नहीं निकाला जा सका है।

बच्चों को दूध पिलाने वाली महिलाओं के अतिरिक्त गर्भवती महिलाओं में आयोडीन की कम मात्रा उनके और उनके बच्चे दोनों के स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डाल सकते हैं। ऐसी महिलाओं में गर्भपात, समय से पहले बच्चे का जन्म, मरे हुए बच्चे का जन्म जैसी समस्याओं के होने की सम्भावना बहुत ज्यादा होती है। इसके अलावा इनके बच्चों में शिशु मृत्यु दर और कम बौद्धिक विकास की सम्भावना बहुत ज्यादा होती है।

अधिक जानकारी के लिये अटैचमेंट देखें।

 

 

 

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नौला पानी का परम्परागत स्रोत

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नौला पानी का परम्परागत स्रोतeditorialMon, 10/08/2018 - 15:05
Source
उत्तराखण्ड पॉजिटिव, सितम्बर, 2018

नौलानौलानौला पेयजल की उपलब्धता हेतु पत्थरों से निर्मित एक ऐसी संरचना है, जिसमें सबसे नीचे एक वर्ग फुट चौकोर सीढ़ीनुमा क्रमबद्ध पत्थरों की पंक्ति जिसे स्थानीय भाषा में ‘पाटा’ कहा जाता है, से प्रारम्भ होकर ऊपर की ओर आकार में बढ़ते हुए लगभग 8-10 पाटे होते हैं, सबसे ऊपर का पाटा लगभग एक डेढ़ मीटर चौड़ाई-लम्बाई व कहीं-कहीं पर ये बड़े भी होते हैं, नौला के बाह्य भाग में प्रायः तीन ओर दीवाल होती है। कहीं-कहीं पर दो ओर ही दीवालें होती हैं। ऊपर गुम्बदनुमा छत होती है।

अधिकांश नौलों की छतें चौड़े किस्म के पत्थरों जिन्हें ‘पटाल’ कहा जाता है, से ढँकी रहती है। नौला के भीतर की दीवालों पर किसी-न-किसी देवता की मूर्ति विराजमान रहती है। अधिकांश नौलों में प्रायः बड़े-बड़े पत्थरों को बिछाकर आँगन बना हुआ दिखता है। बाहरी गन्दगी को रोकने एवं पर्दे के रूप में नौलों में पत्थरों की चाहरदीवारी भी अधिकांशतया बनी हुई पाई जाती है।

नौला हमारी प्राचीन धरोहर के साथ-साथ हमारे पूर्वजों की पर्यावरण के प्रति जागरुकता को भी दर्शाते हैं। प्रत्येक नौले के पास किसी-न-किसी प्रजाति का वृक्ष अवश्य होता है, गरम घाटियों के आस-पास के नौलों में पीपल, बड़ आदि का पेड़ तो ऊँचाई वाले क्षेत्रों में बांज, देवदार आदि के पेड़ नजर आते हैं।

पूर्व से ही कई दानशील प्रवृत्ति के लोगों, राजाओं आदि के द्वारा देवालयों के समीप, नगरों के मध्य तथा पैदल मार्गों के आस-पास तथा ग्रामीण क्षेत्रों में नौलों का निर्माण किया जाता रहा है। प्राचीन समय के बने कई ऐतिहासिक महत्त्व के नौले आज भी कुमाऊँ क्षेत्र में उपलब्ध हैं। यद्यपि ये नौले कहीं-कहीं साधारण तो कहीं-कहीं पर वास्तु शिल्प के अनुसार एवं स्थापत्य, संस्कृति, धार्मिक रीति के अनुसार हमारे समाज के लिये आईना हैं।

चम्पावत का बालेश्वर मन्दिर स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। सन 1420 में राजा उघानचन्द द्वारा निर्मित कराया गया था। इस मन्दिर के पास बालेश्वर का नौला सन 1272 में राजा थोरचन्द द्वारा बनाया गया था। जहाँ अन्य नौलों में विष्णु आदि देवताओं की मूर्तियाँ होती हैं, इस नौले में भगवान बुद्ध की मूर्ति है।

चम्पावत नगर के उत्तर दिशा में ढ़कना गाँव के आगे घने देवदार जंगलों के आगे लगने वाले बांज के जंगल में एक हथिया नौला आज भी स्थापत्य कला प्रेमियों के लिये आकर्षण का केन्द्र है। जनश्रुति के अनुसार एक शिल्पी के माध्यम से किसी राजा ने कहीं कोई बेजोड़ रचना बनवाई थी, उस रचना को पुनः कहीं और न बनाया जाये इस कारण शिल्पी के दाएँ हाथ को कटवा दिया गया। शिल्पी द्वारा एक हाथ से ही पुनः उससे अच्छी रचना के रूप में इस नौले का निर्माण किया गया था, यद्यपि यह नौला भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है, लेकिन वीरान जगह होने के कारण इस नौले की दुर्दशा को देखकर दुख होता है।

जनपद चम्पावत में ही लोहाघाट के समीप पाटन पाटनी ग्राम में कालसन मन्दिर के समीप बना हुआ पाटन का नौला भी स्थापत्य कला का अनूठा उदाहरण है। यह नौला भी 14वीं सदी के आस-पास निर्मित बताया जाता है। पाटन नौला में सामने की ओर विष्णु की मूर्ति, दाईं ओर गणेश एवं बाईं ओर सम्भवतः वरुण की मूर्ति काले पत्थर पर आकर्षक रूप से बनाई गई है।

लोहाघाट-चम्पावत के मध्य मानेश्वर नामक जगह पर भगवान शिव का मन्दिर ऊँचाई पर स्थित है। मन्दिर परिसर में स्वच्छ जल का एक नौला है। जनश्रुति के अनुसार पांडव जब वनवास में थे, तो श्राद्ध की तिथि आ गई। इस हेतु पांडवों को मानसरोवर के जल की आवश्यकता थी, जिस कारण अर्जुन ने बाण से इसी मानेश्वर नौले पर जमीन से मानसरोवर का जल उपलब्ध करा दिया। इसके अतिरिक्त जनपद चम्पावत में अनेक नौले हैं।

जनपद पिथौरागढ़ के प्रसिद्ध कालिका मन्दिर, गंगोलीहाट के पास स्थित जान्हवी (भागीरथी) नौला 12वीं सदी में निर्मित होना बताया जाता है। इस क्षेत्र में इस नौले की काफी प्रसिद्धि है। जनपद पिथौरागढ़ के बेरीनाग क्षेत्र में पुगेंश्वर का नौला आकार में काफी बड़ा है। इसमें स्नान हेतु पर्याप्त स्थान है। जनपद बागेश्वर में कत्यूरी राजाओं के शासनकाल सातवीं सदी में बनाया गया बद्रीनाथ जी का नौला सबसे पुराने नौलों में बताया जाता है।

चम्पावत से चन्द राजाओं की राजधानी अल्मोड़ा स्थानान्तरित होने के बाद कुमाऊँ का सबसे मुख्य शहर अल्मोड़ा तत्कालीन गतिविधियों का केन्द्र रहा। अल्मोड़ा शहर को यदि नौलों का शहर कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अल्मोड़ा में प्रायः प्रत्येक मोहल्ले में कोई-न-कोई नौला प्रसिद्ध है। हाथी नौला, कपिना नौला, दुगालखोला का नौला आदि काफी प्रसिद्ध हैं।

आज नौलों का महत्त्व लोगों को तब याद आता है, जब सरकारी पेयजल पाइप लाइनों में नियमित आपूर्ति नहीं होती। ग्रामीण क्षेत्रों में नौलों की दुर्दशा का एक कारण पर्वतीय गाँवों से लोगों का पलायन है। इसके अतिरिक्त विभिन्न नौलों के आस-पास वर्तमान में चल रहे भवन, मार्ग निर्माण आदि से भी नौलों को क्षति होती है। नौलों के आस-पास पाये जाने वाले पेड़ों का कटान, भूकम्प, भूगर्भीय हलचलें भी नौलों के पेयजल स्रोत को नुकसान पहुँचा रही है।

ऐसी स्थिति में पर्वतीय क्षेत्र के नौले जो वर्षों से हमारे समाज में किसी-न-किसी प्रकार जुड़े हुए थे, आज सूखते जा रहे हैं। इनको बचाने के लिये प्रबुद्ध नागरिकों को आगे आकर इन अनमोल प्राचीन धरोहरों को सुरक्षित रखने हेतु पूर्ण समर्पण के साथ प्रयास करने होंगे।

अपने अनुभवों के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि इन प्राचीन जल स्रोतों के संरक्षण हेतु सर्वप्रथम जन सहयोग से नौलों की नियमित रूप से साफ-सफाई करनी होगी ताकि नौलों के अन्दर एवं आस-पास उग आई शैवाल, लाइकेन, मौस, फर्न आदि वनस्पतियाँ जो पानी एवं नौलों की दीवालों पत्थरों आदि हेतु हानिकारक है, को हटाकर पानी की गुणवत्ता बनाई रखी जा सके। जल संरक्षण एवं जल संग्रहण हेतु नौलों के आस-पास 20-25 मीटर के क्षेत्र में बांज, बुरांश, रिंगाल आदि के सदाबहार पेड़ों को रोपित कर संरक्षित करना होगा।

नौलों के ह्रास का कारण हमारी भौतिकतावादी संस्कृति है। जहाँ हम विकास के नाम पर भूमिगत पाइप लाइनों को घर के अधिकांश कमरों में जलापूर्ति हेतु लाये हैं। इससे प्रकृति पर हमारी निर्भरता कम कर रही है। अतः नौला जैसी प्राचीन धरोहर जो हमारे जीवन की मूल आवश्यकताओं से जुड़ी है, को संरक्षित करना होगा। यदि समय रहते समाज में इनके प्रति सही सोच पैदा नहीं हुई तो नौला भी अतीत का हिस्सा बन जाएँगे।

लेखक चम्पावत कलेक्ट्रेट में प्रशासनिक अधिकारी हैं।

 

 

 

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गंगा की जिद में गए ‘भीष्म’

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गंगा की जिद में गए ‘भीष्म’editorialSat, 10/13/2018 - 13:50
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राष्ट्रीय सहारा, 13 अक्टूबर, 2018

स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंदस्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद (फोटो साभार - लाइव हिन्दुस्तान)आमरण अनशनरत प्रो. जीडी अग्रवाल (जो स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद के नाम से विख्यात थे) के बीती ग्यारह अक्टूबर को निधन ने सभी को बेहद व्यथित कर दिया है। वह गंगा के लिये अलग से एक्ट तथा उत्तराखण्ड में तमाम जलविद्युत परियोजनाओं को रद्द करने की माँग को लेकर बीती 22 जून से आमरण अनशन पर बैठे थे। सरल और मृदुभाषी प्रो. जीडी अग्रवाल (स्वामी सानंद) आत्मबल के धनी थे। गंगा नदी को शुद्ध करने की मुहिम में जुटे थे। इस लड़ाई को अकेले दम लड़ रहे थे।

इससे पहले भी यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान वे पाँच दफा-2008, 2009, 2010, 2012 तथा 2013 में- अनशन पर बैठे थे। इन अनशनों के उपरान्त भारत सरकार ने भगीरथी नदी पर निर्माणाधीन अनेक जल विद्युत परियोजनाओं को रद्द करने का फैसला किया था। साथ ही, गोमुख से उत्तरकाशी तक नदी के 135 किमी लम्बे हिस्से को पारिस्थितिकीय रूप से संवेदनशील घोषित किया था।

23 अगस्त, 2010 को तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने डॉ. अग्रवाल को भेजे पत्र में बताया था कि भारत सरकार ने तीन जल विद्युत परियोजनाओं को रद्द करने का फैसला किया है। साथ ही, पर्यावरण अधिनियम, 1986 के तहत नदी के गोमुख से उत्तरकाशी तक के 135 किमी लम्बे हिस्से को पारिस्थितिकीय रूप से संवेदनशील घोषित करने का भी निर्णय लिया है। अपने फैसलों का औचित्य स्पष्ट करते हुए वित्त मंत्री ने प्रो. अग्रवाल को बताया था कि हमारे जीवन और संस्कृति में गंगा को पावन माने जाने तथा हमारी सभ्यता का मूलाधार होने के चलते हमने ये फैसले किये हैं।

प्रो. अग्रवाल पूर्व में इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, कानपुर में शिक्षक थे। वह केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य सचिव का दायित्व भी निभा चुके थे। इन शुरुआती वर्षों में उनके सम्पर्क में आये लोग आज उन्हें बड़ी शिद्दत से याद कर रहे हैं। उनके कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते नहीं थक रहे। जून माह से पूर्व उन्होंने 24 फरवरी, 2018 को भी अनशन किया था। तब प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखा था। ‘मेरे प्रिय अनुज नरेन्द्र मोदी’ के सम्बोधन से अपने पत्र को आरम्भ करते हुए उन्होंने घोषणा की थी कि वह अपनी माँगों को लेकर 22 जून, 2018 से आमरण अनशन पर बैठने की योजना बना रहे हैं।

मोदी को उनके चुनावी वादे का स्मरण कराते हुए उन्होंने कहा था कि यकीनन मोदी नदी के उद्धार के लिये कुछ-न-कुछ जरूर करेंगे क्योंकि वह स्वयं को गंगापुत्र कह चुके हैं। उम्मीद जताई थी कि नदी को निर्मल बनाने की गरज से मोदी सरकार अवश्य ही कोई प्रभावी उपाय करेगी। लेकिन वे गहरी निराशा में डूब गए।

गुस्से से तमतमाए, जो उनका स्वभाव नहीं था, प्रो. अग्रवाल ने मोदी को पत्र लिखा कि गंगा की धारा को निर्मल करने के बजाय वे या तो जलमार्ग बनाने में जुटे हैं या नदी की धारा को मोड़ रहे हैं, बेतहाशा ड्रेजिंग कर रहे हैं, नए-नए प्रोजेक्ट्स तैयार करा रहे हैं यानी कहना यह कि नित नए अनुबन्ध कर रहे हैं। अग्रवाल ने हिन्दी में लिखे अपने पत्र में अपनी माँगों का उल्लेख किया था।

पहली माँग थी, अलकनन्दा नदी पर निर्माणाधीन विष्णुगाड पिपलकोटी जल परियोजना पर कार्य रोका जाये; मन्दाकिनी नदी पर निर्माणाधीन सिंगोली भटवाड़ी तथा फाटा व्योंग जल परियोजनाओं पर काम रोका जाये। साथी ही अलकनन्दा नदी की जल वाहिकाओं पर निर्माणाधीन सभी परियोजनाओं पर काम रोका जाये। दूसरी माँग थी, दो वर्ष पूर्व एनडीए सरकार द्वारा गठित जस्टिस गिरधर मालवीय कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक गंगा संरक्षण बिल का मसौदा तैयार करके संसद में पेश किया जाये। इसे पारित कराकर क्रियान्वित किया जाये।

इस कार्य में हुए विलम्ब को जवाबदेही तय करते हुए दोषी सभी अधिकारियों और मंत्री को उनके पदों से हटाया जाये। तीसरी माँग थी, बीस सदस्यीय गंगा काउंसिल गठित की जाये, जिसमें गंगा के उद्धार के लिये प्रतिबद्ध सरकारी और गैर-सरकारी व्यक्तियों को रखा जाये। काउंसिल को वैधानिक दर्जा दिया जाये ताकि नदी को प्रभावित करने वाले किसी भी मसले पर वह अपने स्तर पर फैसले करने में सक्षम हो। अग्रवाल ने अपने पत्र में स्पष्ट कर दिया था कि वह सरकार के जवाब का गंगा अवतरण दिवस (गंगा का जन्मदिन) 22 जून तक इन्तजार करेंगे।

सरकार ने शिथिलता दिखाई तो उस दिन से आमरण अनशन पर बैठ जाएँगे। उन्होंने कहा कि उनके लिये गंगा से ज्यादा कुछ नहीं। यदि उन्हें प्राण त्यागने पड़े तो माँ गंगा और भगवान राम से विनती करुँगा कि मोदी को उनके अग्रज की मृत्यु के लिये अवश्य दंडित करें। अग्रवाल को सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। उन्होंने 13 जून, 1918 को एक और पत्र मोदी को लिखा।

मातृसदन हरिद्वार से लिखे गए पत्र में अगवाल ने अपनी माँगों को दोहराया। माँग की कि अलकनन्दा, मन्दाकिनी, धौलीगंगा, नन्दाकिनी और पिंडरगंगा पर निर्माणाधीन सभी जलविद्युत परियोजनाओं को तत्काल रोका जाये। यह भी माँग की गंगा के किनारे से रेत उत्खनन खासकर हरिद्वार के निकट किये जा रहे रेत उत्खनन को रोका जाये। उन्होंने फिर से 22 जून की अन्तिम तारीख लिखी कि उस दिन तक उनकी माँगों पर गौर नहीं किया तो वे भोजन त्याग कर प्राण त्याग देंगे जिसके लिये प्रधानमंत्री जिम्मेदार होंगे।

सरकार की ओर से उसके बाद भी कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला तो वे 22 जून, 2018 को आमरण अनशन पर बैठते हुए अपना तीसरा पत्र (पूर्व में लिखे गए दोनों पत्रों की प्रतियाँ इसके सात संलग्न करते हुए) प्रधानमंत्री को लिखा। तीन अगस्त 2018 को केन्द्रीय मंत्री उमा भारती ने अग्रवाल से भेंट की लेकिन उनकी माँगों पर कोई खास चर्चा नहीं हुई।

अग्रवाल ने फिर से प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। भारती के जरिए भेजे गए इस पत्र में उन्होंने कहा कि बीते चार साल में मोदी सरकार के कार्यकाल में गंगा जी को बचाने के लिये कुछ नहीं किया गया। नौ अक्टूबर को जल त्याग देने के समय भी उन्होंने सरकार को पत्र लिखा तो सरकार ने उन्हें जबरन उठाकर 10 अक्टूबर को एम्स ऋषिकेश में भर्ती करा दिया जहाँ उन्होंने अन्तिम साँस ली।

जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा पुनरोद्धार मंत्री नितिन गडकरी से उन्नाव तक गंगा के बेसिन को स्वच्छ रखने सम्बन्धी अधिसूचना जारी करते हुए अग्रवाल से आग्रह किया कि गंगा को स्वच्छ और निर्मल रखे जाने के इस उपाय के बाद तो उन्हें अपना अनशन त्याग देना चाहिए। लेकिन गाँधी जी के अनुयायी प्रो. जीडी अग्रवाल ने गाँधी जी के जन्म के 150वें वर्ष में इस नश्वर संसार से विदा ले ली। अब उनके अधूरे कार्य को आगे बढ़ाने के लिये जन-जन को आगे आना होगा।

(लेखक साऊथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम, रिवर्स और पीपुल्स के समन्वयक हैं)
 

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स्वामी सानंद - कलयुग का भगीरथ

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स्वामी सानंद - कलयुग का भगीरथeditorialSat, 10/13/2018 - 14:02

गंगा के लिये पंचतत्व में विलीन स्वामी सानंदगंगा के लिये पंचतत्व में विलीन स्वामी सानंद (फोटो साभार - डॉ. अनिल गौतम)मैं 10 अक्टूबर से पानी पीना भी छोड़ दूँगा। सम्भवतः मैं दशहरा से पहले ही मर जाऊँगा। अगर मैं गंगा को बचाने के दौरान मर जाऊँ, तो मुझे कोई पछतावा नहीं होगा। - स्वामी सानंद

गंगा नदी की अविरलता लौटाने के लिये करीब चार महीने से अनशन कर रहे प्रो. गुरु दास (जीडी) अग्रवाल यानी स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद ने एक इंटरव्यू में ये सब कहा था।

हुक्मरां तो गंगा को बचाने के अपने वादे पूरा नहीं कर पाये, लेकिन स्वामी सानंद ने अपना वादा निभाया।

दशहरा से पहले ही यानी गुरुवार को उन्होंने शरीर त्याग दिया। वह 86 साल के थे और लम्बे समय से गंगा के लिये निहत्थे संघर्ष कर रहे थे। सही मायनों में कहा जाये, तो वह कलयुग के भगीरथ थे। आज गंगा जितनी भी बची हुई है, उसका श्रेय निश्चित तौर पर स्वामी सानंद को जाता है। लेकिन वह इतने से सन्तुष्ट नहीं थे।

वह चाहते थे कि गंगा न केवल अपने मूल रास्ते से अविरल, निर्बाध बहे बल्कि वह गंगा में मौजूद औषधीय तत्वों का बिना रुकावट संचार भी चाहते थे।

गंगा में मौजूद औषधीय तत्वों को वह गंगत्व कहा करते थे। उनके लिये गंगा महज एक नदी नहीं थी। उससे ज्यादा ही थी। इसलिये वह कभी भी गंगा नहीं कहते थे बल्कि वह गंगा के साथ ‘जी’ या ‘माँ’ जरूर जोड़ते।

गंगा को बचाने के लिये अपना सब कुछ तज देने वाले संत का अनशन करते हुए इस तरह चले जाना हुक्मरां की संगदिली की सबसे बड़ी मिसाल है।

स्वामी सानंद गंगा को बचाने के लिये पिछले 22 जून से ही हरिद्वार में अनशन पर बैठे हुए थे। उन्हें गुरुवार को दिल्ली लाया जा रहा था कि रास्ते में ही उनका निधन हो गया।

सिंगोली भटवाड़ी बाँधसिंगोली भटवाड़ी बाँध (फोटो साभार - माटू जनसंगठन)11 अक्टूबर की सुबह 6.45 बजे उनकी तरफ से जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया था कि 10 अक्टूबर की दोपहर 1 बजे हरिद्वार प्रशासन ने उन्हें मातृसदन से उठा कर एम्स ऋषिकेश में भर्ती कराया था। विज्ञापन में उन्होंने आगे लिखा था, ‘एम्स के डॉक्टरों ने मेरे अभियान और तपस्या का समर्थन किया। मेडिकल ट्रीटमेंट के पेशेवर संस्थान के बतौर उन्होंने कहा कि उनके पास तीन ही विकल्प हैं- (1) जबरदस्ती खिलाया जाये, (2) आईवी और (3) अस्पताल में भर्ती नहीं लेना।’

प्रेस रिलीज में उन्होंने लिखा था, ‘चेकअप व जाँच में पता चला कि मेरे रक्त में पोटेशियम की भारी कमी (न्यूनतम 3.5 की तुलना में महज 1.7 मौजूदगी) हो गई है। डॉक्टरों की ओर से भरोसा दिलाने के बाद मैं पोटेशियम लेने को तैयार हो गया।’

इस हस्तलिखित प्रेस विज्ञप्ति के सार्वजनिक होने के बाद स्वामी सानंद के आध्यात्मिक गुरू अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने उनके निधन को हत्या करार देते हुए मामले की जाँच सीबीआई से कराने की माँग की है।

उन्होंने कहा, ‘उन्होंने सुबह ही मुझे पत्र भेजकर अपने स्वास्थ्य के बारे में बताया था फिर अचानक उनकी मौत कैसे हो सकती है।’

उन्होंने कहा है, ‘हमें सन्देह है कि उनकी हत्या की गई है। अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने उनके पार्थिव शरीर के पोस्टमार्टम और मामले की सीबीआई जाँच की माँग की है।’

अनशन के दौरान मातृसदन आश्रम में बैठे स्वामी सानंदअनशन के दौरान मातृसदन आश्रम में बैठे स्वामी सानंद (फोटो साभार - स्क्रॉल)इस बीच एम्स के निदेशक प्रो. रविकांत ने कहा है कि स्वामी सानंद उपवास तोड़ना चाहते थे, लेकिन उनके परिवार के बाहर का कोई सदस्य उन्हें रोक रहा था।

जब उनसे इसके पुख्ता प्रमाण के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि उनसे स्वामी सानंद की कई दफे बात हुई थी और उन्हें पता होता तो वे बातचीत को रिकॉर्ड कर लेते।

उनके निधन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने औपचारिकता निभाते हुए ट्वीट कर दुःख व्यक्त किया है। मगर, जब तक स्वामी सानंद अनशन पर थे, तब तक उनकी माँगें मानना तो दूर की बात है, उन माँगों पर विचार करने का आश्वासन तक नहीं दिया गया था।

उन्होंने हाल-फिलहाल केन्द्र सरकार को कम-से-कम तीन बार तल्ख खत लिखकर गंगा को बचाने के लिये गुहार लगाई थी। इन खतों से गुजरते हुए पता चलता है कि गंगा को बचाने के लिये वह किस तरह की मानसिक बेचैनी से गुजर रहे थे। उनके खत नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हुए। सरकार ने एक भी खत का माकूल जवाब देना मुनासिब नहीं समझा। उनके सारे खत लेटर बॉक्स या दफ्तर की धूल फाँकते रह गए।

पहला खत उन्होंने 28 फरवरी को लिखा था जिसमें प्रधानमंत्री को 2014 में उनके द्वारा किये गए वादों को याद दिलाई गई थी।

उक्त पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव तक तो तुम (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) भी स्वयं माँ गंगाजी के समझदार, लाडले और माँ के प्रति समर्पित बेटा होने की बात करते थे। पर वह चुनाव माँ के आशीर्वाद और प्रभु राम की कृपा से जीत कर अब तो तुम माँ के कुछ लालची, विलासिता-प्रिय बेटे-बेटियों के समूह में फँस गए हो और उन नालायकों की विलासिता के साधन (जैसे अधिक बिजली) जुटाने के लिये, जिसे तुम लोग विकास कहते हो, कभी जलमार्ग के नाम से बूढ़ी माँ को बोझा ढोने वाला खच्चर बना डालना चाहते हो, कभी ऊर्जा की आवश्यकता पूरी करने के लिये हल का, गाड़ी का या कोल्हू जैसी मशीनों का बैल।’

उन्होंने आगे लिखा था, ‘माँ के शरीर का ढेर सारा रक्त तो ढेर सारे भूखे बेटे-बेटियों की फौज को पालने में ही चला जाता है जिन नालायकों की भूख ही नहीं मिटती और जिन्हें माँ के गिरते स्वास्थ्य का जरा भी ध्यान नहीं।’

उनके खतों के मजमून बताते हैं कि गंगा नदी को लेकर भाजपा नीत केन्द्र सरकार के रवैए से नाराज थे और इसलिये उन्होंने अपने खतों के जरिए वर्ष 2014 के वादों की याद बार-बार दिलाने की कोशिश की थी।

आखिरी खत उन्होंने 5 अगस्त को लिखा था, जिसमें अपनी चार माँगें सरकार के समक्ष रखी थीं। इनमें गंगा को बचाने के लिये गंगा-महासभा द्वारा प्रस्तावित अधिनियम ड्राफ्ट 2012 को संसद में पेश कराकर इस पर चर्चा कर कानून बनाने की माँग की गई थी। यह माँग पूरी नहीं होने की सूरत में उन्होंने उक्त ड्राफ्ट की धारा 1 से धारा 9 तक को लागू करने की माँग शामिल थी।

अन्य माँगों में अलकनन्दा, धौलीगंगा, नन्दाकिनी, पिण्डर तथा मन्दाकिनी पर सभी निर्माणाधीन/प्रस्तावित जलविद्युत परियोजना तुरन्त निरस्त करना, ड्राफ्ट अधिनियम की धारा 4 (डी) वन कटान तथा 4(एफ) खनन, 4 (जी) किसी भी प्रकार की खदान पर पूरी तरह रोक लगाने व गंगा-भक्त परिषद (प्रोविजिनल) का गठन शामिल था।

पहला खत उन्होंने अनशन शुरू करने से पहले लिखा था, जबकि बाकी पत्र उन्होंने अनशन के दौरान लिखे थे।

मनेरीभाली बाँधमनेरीभाली बाँधहालांकि, अनशन उनके लिये कोई नई बात नहीं थी। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (संप्रग) की सरकार में भी उन्होंने कई दफे अनशन किया था और सरकार से अपनी माँगें मनवाई थीं। शायद इसीलिये उन्हें उम्मीद थी कि भाजपा की सरकार भी उनकी माँगों पर गम्भीरता से विचार करेगी, लेकिन माँगों पर विचार करना तो दूर उनके पत्रों का कोई जवाब तक नहीं भेजा गया।

बताया जाता है कि यूपीए की सरकार के वक्त जब उन्होंने अनशन किया था, तो केन्द्र सरकार ने उनकी माँगों को मानते हुए 90 प्रतिशत तैयार हो चुके लोहारी नागपाला प्रोजेक्ट को रद्द कर दिया था। इसके अलावा गंगोत्री से उत्तरकाशी तक के क्षेत्र को इको-सेंसिटिव जोन घोषित कर दिया गया था।

उन्होंने अपने खतों में लिखा था कि उन्हें यूपीए से ज्यादा उम्मीदें एनडीए सरकार से थी क्योंकि इस सरकार ने गंगा को लेकर एक अलग मंत्रालय बना दिया है।

लेकिन, साथ ही यह भी जिक्र किया कि पिछले चार सालों में सरकार ने जो कुछ भी किया उससे गंगा को कोई फायदा नहीं पहुँचा।

स्वामी सानंद मूलतः उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के कंधला के रहने वाले थे। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि खेतिहरों की थी। उनका जन्म 1932 में हुआ था। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा अपने गाँव में ली और बाद रुड़की विश्वविद्यालय से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री हासिल की।

पर्यावरण को लेकर वह बचपन से ही जुनूनी थे, लेकिन अपने करियर की शुरुआत उन्होंने उत्तर प्रदेश के सिंचाई विभाग से बतौर डिजाइन इंजीनियरिंग की थी।

इस पद पर कार्य करते हुए उन्होंने बर्कले की कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से एन्वायरनमेंटल इंजीनियरिंग में पीएचडी की डिग्री ली।

वह एक साल तक सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड में मेंबर सेक्रेटरी रहे। इसके अलावा वह रुड़की विश्वविद्यालय में एन्वायरनमेंटल इंजीनियरिंग भी पढ़ाते थे।

बतौर टीचर वह छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय थे। लोकप्रियता का आलम ये था कि आईआईटी कानपुर के उनके पूर्व छात्रों ने उन्हें बेस्ट टीचर अवार्ड से नवाजा था।

उनसे शिक्षा लेने वाले तमाम छात्र अहम पदों पर हैं। उन्हीं में से एक अनिल अग्रवाल भी हैं। अनिल अग्रवाल ने सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट की स्थापना की है।

उनकी जीवनशैली गाँधीवादी थी। वह मध्य प्रदेश के चित्रकूट में दो कमरों वाले कॉटेज में रहा करते थे। वह इतने जमीनी व्यक्ति थे कि अपने कपड़े खुद धोते, घर की सफाई खुद करते और भोजन भी खुद ही पकाते थे।

गंगा की सफाई व इसकी अविरलता बरकरार रखने को लेकर उनका नजरिया सरकारी तंत्र के नजरिए से अलग ही रहा। वह हमेशा ही कहते थे कि सरकार के इंजीनियर यह तय नहीं कर सकते कि गंगा पवित्र हुई कि नहीं। बल्कि धर्माचार्य इसका निर्धारण करेंगे।

उनका यह भी कहना था कि गंगा को साफ करने के लिये कोई भी प्लान तभी स्वीकार्य होगा जब उस प्लान को सभी चार पीठों के शंकराचार्य स्वीकार करेंगे।

जीडी अग्रवाल ने 79 वर्ष की उम्र में 2011 में संन्यास लिया था। 2011 में 11 जून को गंगा दशहरे के अवसर पर उन्होंने जोशी मठ में शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती से दीक्षा ली थी और जीडी अग्रवाल से स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद हो गए थे।

हालांकि, संन्यासी बनने से पहले ही वह गंगा को लेकर संघर्ष कर रहे थे। लेकिन, संन्यास लेने के बाद उन्होंने अपनी जिन्दगी ही गंगा को बचाने में खपानी शुरू कर दी थी।

लखवाड़-व्यासी बाँध का टनललखवाड़-व्यासी बाँध का टनलबताया जाता है कि गिरधर महाराज से मिलने के बाद ही उन्हें गंगा के लिये प्रेरणा मिली थी और तभी से वह गंगा के लिये काम करने लगे थे।

गंगा की पवित्रता लौटाने के लिये स्वामी सानंद ने 5 साल पहले भी करीब तीन महीने तक अनशन किया था। 2013 में उन्होंने जून मध्य से हरिद्वार में अनशन शुरू किया था। यह अनशन 2009 में तत्कालीन यूपीए सरकार द्वारा गठित नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथॉरिटी की कार्यशैली को लेकर था।

उनके अनशन के समर्थन में अथॉरिटी से जुड़े तीन पर्यावरण विशेषज्ञों ने इस्तीफा दे दिया था।

इससे पहले 2008 और फिर 2009 में उन्होंने हिमालय में हाइड्रोइलेक्ट्रिक डैम के खिलाफ अनशन शुरू किया था। इस प्रोजेक्ट के बारे में कई रिपोर्ट आये थे, जिनमें बताया गया था कि प्रोजेक्ट से पर्यावरण को होने वाले नुकसान का आकलन किये बगैर काम शुरू किया गया था।

स्वामी सानंद चाहते थे कि गंगोत्री से उत्तरकाशी तक यानी 125 किलोमीटर तक भागीरथी को उसके मूल मार्ग से होकर अविरल बहने दिया जाये।

इसी तरह का आमरण अनशन वह कई बार कर चुके थे। वर्ष 2008 से 2013 के बीच उन्होंने 5 बार अनशन किया था, लेकिन पाँचों बार यूपीए सरकार को झुकना पड़ा। लेकिन, इस साल का अनशन सरकार को झुका नहीं सका।

अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने कहा है कि सरकार चाहती, तो उनकी माँगों मानकर उन्हें बचा सकती थी। उन्होंने यह भी कहा है कि गंगा को लेकर आन्दोलन जारी रहेगा।

भागीरथी बचाओ संकल्प से जुड़े अनिल गौतम ने स्वामी सानंद के निधन पर गहरा शोक प्रकट करते हुए कहा कि उनके लिये गंगा नदी नहीं थी। उन्होंने गंगा को बचाने के लिये जो संघर्ष किया है, वह अप्रतिम है। उनके निधन से जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई सम्भव नहीं है।

उन्होंने कहा, ‘स्वामी जी गंगा की विलक्षण शक्तियों से भलीभाँति परिचित थे।’

अनिल गौतम ने कहा, ‘गंगा को लेकर उनके संघर्ष और उनकी बातों ने समाज को झकझोरा था। उनके बिना संघर्ष कठिन है, लेकिन इस संघर्ष को जारी रखा जाएगा।’

उन्होंने कहा, स्वामी जी अक्सर कहते थे, उन्हें विश्वास है कि गंगा की अविरलता लौटेगी। इस विश्वास को कायम रखने के लिये समाज को आन्दोलन करना होगा।

नदियों पर लम्बे समय से काम कर रहे मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित राजेंद्र सिंह ने कहा कि गंगा को बचाने के लिये स्वामी सानंद जो लड़ाई लड़ रहे थे, वह कतई नहीं थमेगी। उन्होंने कहा कि साधु-संत व आम लोग उनकी लड़ाई को जारी रखेंगे।

साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रीवर्स और पीपुल्स के हिमांशु ठक्कर उन्हें मृदुभाषी व साधारण व्यक्ति के रूप में याद करते हुए कहते हैं कि गंगा को बचाने के लिये उनमें गजब की आन्तरिक मजबूती और समर्पण था।

एक श्रद्धांजलि लेख में केन्द्र की मौजूदा सरकार की आलोचना करते हुए वह लिखते हैं, लोग गाँधी की 150वीं वर्षगाँठ को याद कर रहे हैं, तो गंगा को बचाने के लिये गाँधीवादी आन्दोलन चलाने वाले इस शख्स को भी याद किया जाना चाहिए।

ऐसे हजारों नाले गंगा को प्रदूषित करते हैंऐसे हजारों नाले गंगा को प्रदूषित करते हैंजिस तिरस्कारपूर्ण व अकड़ के साथ सरकार ने उनके संघर्ष को ट्रीट किया, उससे पता चलता है कि गाँधी और उनके आदर्शों के प्रति उसमें कितना सम्मान है।

जो भी व्यक्ति नदी को बचाने को लेकर जुनूनी है व इसके लिये संघर्ष कर रहा है तथा जो नदियों की पूजा करता है वह इस बलिदान को नहीं भूलेगा। प्रो. अग्रवाल ने गंगा को बचाने में जीते-जी व मर कर बेमिसाल योगदान दिया है।

 

 

 

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संत गोपाल दास भी स्वामी सानंद की राह पर, पानी भी त्यागा

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संत गोपाल दास भी स्वामी सानंद की राह पर, पानी भी त्यागाeditorialMon, 10/15/2018 - 14:25

एम्स में भर्ती संत गोपालदासएम्स में भर्ती संत गोपालदास (फोटो साभार - दैनिक जागरण)गंगा की अविरलता को वापस लौटाने की माँग पर करीब चार महीने से अनशन पर बैठे प्रो. जीडी अग्रवाल यानी स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद के निधन के बाद संत गोपालदास ने भी पानी ग्रहण करना छोड़ दिया है।

36 वर्षीय संत गोपाल दास 112 दिनों से अनशन पर हैं। वह भी सरकार से गंगा नदी को बचाने और उसकी अविरलता सुनिश्चित करने की माँग कर रहे हैं।

गुरुवार को स्वामी सानंद के निधन के बाद ही उन्होंने पानी भी लेना छोड़ दिया, तो सकते में आई सरकार ने उन्हें जबरदस्ती अनशन स्थल से उठाकर एम्स ऋषिकेश में भर्ती करा दिया।

संत गोपालदास ने 24 जून से बद्रीनाथ से अनशन की शुरुआत की थी और कई क्षेत्रों से होते हुए ऋषिकेश पहुँचे थे। स्वामी सानंद के निधन के बाद वह शुक्रवार से मातृसदन में स्वामी सानंद की जगह पर अनशन कर रहे थे।

शुक्रवार की रात उनकी हालत बिगड़ने लगी थी। बताया जाता है कि रात में ही उन्हें कई बार दस्त हुए जिसके बाद उनके कुछ साथियों ने जिला प्रशासन को इसकी सूचना दी। जिला प्रशासन ने हालत की गम्भीरता को देखते हुए उन्हें अनशनस्थल से उठाकर एम्स ऋषिकेश में भर्ती करा दिया। अस्पताल के एक्टिंग मेडिकल सुपरिटेंडेंट बृजेंद्र सिंह ने कहा कि शनिवार तड़के 3.45 बजे उन्हें अस्पताल लाया गया और उनका इलाज चल रहा है।

संत गोपालदास का इलाज कर रहे डॉक्टरों का कहना है कि उनके शरीर में पानी की कमी हो गई थी। शुगर का लेवल 65 पर आ गया था। डॉक्टरों का कहना है कि उन्होंने किसी भी तरह का इलाज कराने से इनकार कर दिया है। फिलहाल, अंतःशिरा के जरिए उन्हें फ्लुईड दिया जा रहा है।

संत गोपाल दास मूलतः पानीपत के राजाखेड़ी गाँव के रहने वाले हैं। उनका असली नाम डॉ आजाद सिंह मलिक है।

बताया जाता है कि गच्छाधिपति प्रकाश चंद और सुंदर मुनि के सम्पर्क में आकर उन्होंने संन्यास ले लिया था और आजाद सिंह से संत गोपाल दास हो गए।

गंगा को बचाने की मुहिम शुरू करने से पहले वह गौरक्षा और गोचर भूमि को बचाने के लिये भी लंबा आन्दोलन कर चुके हैं। गौरक्षा व गोचर भूमि बचाने की माँग को लेकर उन्होंने कई बार अनशन भी किया है।

मातृसदन से जुड़े स्वामी दयानंद ने इण्डिया वाटर पोर्टल के साथ बातचीत में कहा कि एम्स ऋषिकेश में उन्हें एसी वार्ड में रखा गया है, लेकिन ऐसी वार्ड उन्हें सूट नहीं करता है और उन्होंने कई बार माँग की कि उन्हें अन्य वार्ड में रखा जाये।

बताया जाता है कि संत गोपालदास शुक्रवार को स्वामी सानंद के पार्थिव शरीर के दर्शन करने आये थे। चूँकि वह उस वक्त भी अनशन पर ही थे, इसलिये पर्यावरणविदों व मातृसदन से जुड़े लोगों ने उनसे मातृसदन के उस कमरे में अनशन जारी रखने को कहा जिस कमरे में स्वामी सानंद अनशनरत थे।

संत गोपाल दास इसके लिये तैयार हो गए और मातृसदन में ही अनशन करने लगे।

उल्लेखनीय है कि गंगा की अविरलता की माँग को लेकर स्वामी सानंद करीब चार महीने से अनशन कर रहे थे। अनशन के दौरान उन्होंने विभिन्न माँगों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम कम-से-कम 3 खत लिखे थे, लेकिन इनमें से एक भी खत का जवाब प्रधानमंत्री कार्यालय से नहीं मिला था।

सरकार के उदासीन रवैया से नाराज स्वामी सानंद ने 10 अक्टूबर से पानी लेना भी बन्द कर दिया था। उनकी सेहत में लगातार हो रही गिरावट के मद्देनजर उन्हें एम्स ऋषिकेश में भर्ती कराया गया था, जहाँ उनका निधन हो गया।

स्वामी दयानंद ने केन्द्र की मोदी सरकार पर तानाशाही रवैया अपनाने का आरोप लगाते हुए कहा है कि यह बहुत कठिन समय है। उन्होंने कहा, ‘सैद्धान्तिक विरोध करने वालों को सरकार बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। सरकार इन आवाजों को दबाने में अपनी ताकतें लगा रही हैं।’

यहाँ यह भी बता दें कि स्वामी सानंद से पहले भी गंगा को लेकर एक सन्यासी ने अनशन करते हुए जान दे दे थी। ये संन्यासी थे- निगमानंद सरस्वती।

निगमानंद सरस्वती का जन्म 2 अगस्त 1976 को बिहार दरभंगा में हुआ था। उनका असली नाम स्वरूपम कुमार झा गिरिश था। उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में ही ली थी। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिये वह दिल्ली चले गए थे। 1995 में अचानक वह दिल्ली से कहीं और चले गए थे। कई सालों तक इधर-उधर घूमने के बाद वह हरिद्वार स्थित मातृसदन में रहने लगे थे। मातृसदन की स्थापना स्वामी शिवानंद व उनके अनुयायियों ने की थी।

स्वामी निगमानंद ने गंगा में हो रहे अवैध खनन व प्रदूषण के मुद्दे को जोर-शोर से उठाया था और कई दफे अनशन किया था। वर्ष 2011 के फरवरी महीने में उन्होंने फिर एक बार अनशन शुरू किया था, जो करीब चार महीने तक चला था। इसी दौरान उनका निधन हो गया था।

स्वामी सानंद की तरह ही स्वामी निगमानंद की मौत को लेकर भी विवाद है। बताया जाता है कि अनशन के दौरान ही स्वामी निगमानंद को अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जहाँ उनके शरीर में प्रवेश कर चुके अज्ञात जहर का इलाज किया गया था, लेकिन उनकी मौत हो गई थी।

स्वामी निगमानंद के पिता सूर्य नारायण झा ने आरोप लगाया था कि उन्हें इलाज के दौरान ही जहर देकर मारा गया था। स्वामी निगमानंद के निधन के बाद स्वामी शिवानंद ने भी अनशन शुरू कर दिया था। उस वक्त उत्तराखण्ड की भाजपा सरकार पर चौतरफा दबाव बना था। अन्ततः सरकार को झुकना पड़ा और उसने पूरे उत्तराखण्ड में ही खनन पर रोक का आदेश दिया था।

अब देखना यह है कि स्वामी सानंद के निधन और अब संत गोपाल दास के अनशन से केन्द्र सरकार पसीज कर कोई ठोस घोषणा करती है या कुंभकरणी नींद सोती रहती है।

 

 

 

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पराली और पंजाब के किसानों का दर्द

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पराली और पंजाब के किसानों का दर्दeditorialTue, 10/30/2018 - 11:12
Source
द हिन्दू, 27 अक्टूबर, 2018

प्रतिबन्ध के बावजूद पंजाब में किसानों का हर जाड़े में धान की पराली जलाने की प्रथा से मोह भंग नहीं हुआ है। यह आज भी बदस्तूर जारी है। किसान क्यों ऐसा करने को बाध्य हैं इसी बात की तस्दीक करती हुई जैकब कोशाय और विकास वासुदेव की रिपोर्ट।

अपने खेत में पराली जलाता हुआ किसानअपने खेत में पराली जलाता हुआ किसान (फोटो साभार - द हिन्दू)पटियाला शहर से 50 किलोमीटर दूर राष्ट्रीय राजमार्ग से सटे बीबीपुर कस्बा में कई एकड़ धान की फसल कट चुकी है। कुछ खेतों में धान के पौधे अभी भी हरे हैं वहीं, कुछ में धान की बालियाँ सुनहला रंग पकड़ चुकी हैं और कटने के लिये एकदम तैयार हैं। पटियाला से 200 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित अमृतसर, जहाँ मानसून का प्रभाव अपेक्षाकृत पहले खत्म हो जाता है वहाँ धान की फसल कट चुकी है और खेत जाड़े की फसल के लिये तैयार हैं। पटियाला में ऐसा होने में अभी कुछ वक्त है जिसे खेतों में लगी आग प्रमाणित करती है। राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे नीले आसमान में उजले धुएँ के गुबार को साफ देखा जा सकता है।

अक्टूबर तक अमृतसर में आग की 14,321 घटनाएँ दर्ज की गई हैं। ठीक इसके उलट पटियाला में इनकी संख्या मात्र 81 थी। लुधियाना स्थित पंजाब रिमोट सेंसिंग सेंटर दूर संवेदी उपग्रहों की सहायता से ऐसी घटनाओं पर नजर रखता है और सरकार को इनकी सूचना देता है। पंजाब में हर वर्ष 20 मिलियन टन पराली पैदा होती है जिसका दो तिहाई हिस्सा जला दिया जाता है। इतनी बड़ी मात्रा में पराली के पैदा होने की मुख्य वजह है धान की कटाई के लिये कम्बाइंड हार्वेस्टर का बढ़ता प्रयोग। किसान इन मशीनों को प्राथमिकता इसलिये देते हैं कि मजदूरों से फसल की कटाई काफी खर्चीली होती है। लेकिन इसका फायदा भी है। मजदूरों की सहायता से काटी गई फसल में पराली की छोटी सी ठूँठ ही खेतों में बच पाती है जिससे बुवाई करने में कोई परेशानी नहीं होती है। वहीं हार्वेस्टर की सहयता से की गई कटाई में 6 से 8 इंच तक लम्बी ठूँठ खेतों में बच जाती है जिसे हटाए बिना बुवाई करना सम्भव नहीं होता।

इस तरह खेतों में खड़ी पराली को हटाने के लिये केवल दो चीजों अर्थात एक माचिस और डीजल की जरुरत होती है। यह कम खर्चीला होने के साथ भी काफी आसान भी होता है। अतः यह कोई अचम्भे की बात नहीं है कि पंजाब में गेहूँ की बुआई के लिये खेतों में आग लगाने की प्रथा इतने सामान्य क्यों हो गई है। कुछ दशक पहले तक मशीन द्वारा पैदा की जाने वाली पराली का प्रबन्धन कठिन नहीं था। उन्हें पैकेजिंग उद्योग वालों को बेच दिया जाता था या खेतों में ही छोड़ दिया जाता था ताकि वे प्राकृतिक क्रिया द्वारा खेतों में ही सड़-गल जाएँ। लेकिन पराली की बढ़ती मात्रा और अगली फसल लगाने की जल्दी ने लागत के प्रति संजीदा किसानों के पास पूरी पराली को जलाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं छोड़ा।

मोहाली में एक किसान धान के खेत में पराली को काटता हुआमोहाली में एक किसान धान के खेत में पराली को काटता हुआ (फोटो साभार - द हिन्दू)एक दशक पूर्व से ही दिल्ली प्रशासन राजधानी में जाड़ों में हवा के प्रदूषण के लिये पराली जलाने की प्रथा को जिम्मेदार ठहरता रहा है। वर्ष 2013 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारों को यह निर्देश जारी किया था कि वो पराली जलाने की व्यवस्था पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाएँ और ऐसा करने वालों को कोई रियायत नहीं दें। इसके बाद ही इन राज्यों के पर्यावरण मंत्रियों और केन्द्र ने जीरो टॉलरेन्स की पॉलिसी अपनाई। एक अनुमान के मुताबिक जाड़े में पराली जलाने से फैली धुंध से जाड़े के दिनों में दिल्ली में पार्टिकुलेट मैटर की मात्रा में 7 से 78 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है।

उसी समय से इन राज्यों और खासकर पंजाब में किसानों की स्थिति खराब है। उन्हें पराली जलाने से रोकने के लिये कई प्रकार से प्रोत्साहन दिया जा रहा है जिनमें अनुनय-विनय करने से लेकर कानूनी प्रावधान भी शामिल हैं।

क्या मशीन इस समस्या के समाधान हैं?

अक्टूबर की शुरुआत में ही बीबीपुर में ग्राम परिषद के दफ्तर में किसानों का एक समूह का जमावड़ा लगा था। इस भवन के अहाते में एक हैप्पी सीडर मशीन, एक पैडी स्ट्रॉ चॉपर और एक स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम रखे गए थे। मूलतः ये मशीन ट्रैक्टर की सहायता से कार्य करते हैं और धान की पराली को छोटे टुकड़ों में काट देतें हैं जो मिट्टी में सड़-गलकर खाद के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। हैप्पी सीडर धान की पराली को काट देता है और पूरे खेत में उसे सामान रूप से बिछा देता है जिससे गेहूँ की बुआई में कोई परेशानी नहीं आती है।

सीडर और चॉपर का इतिहास भारत में बहुत पुराना है। ये अमरिका और ऑस्ट्रेलिया में प्रचलित मशीनों से मिलते-जुलते हैं और इनकी कीमत एक से दो लाख तक रुपए होती है। वर्ष 2016 तक गुरुबंस सिंह जो 70 एकड़ खेत के मालिक हैं और बीबीपुर के सबसे बड़े किसान हैं मशीन से फसल की कटाई से होने वाले फायदे पर बहुत ज्यादा विश्वास नहीं करते थे। राज्य के अबकारी विभाग में बड़े ओहदे पर काबिज गुरुबंस सिंह जब रिटायर हुए तो उन्होंने खेती को ही अपना पेशा बनाया और जमीन को लीज पर दे दिया। उन्होंने कहा कि कुछ सालों से पराली जलाने से पैदा होने वाले खतरों के बारे में हम सुनते आ रहे हैं लेकिन हमारे पास इसके बहुत कम विकल्प बचते हैं।

उन्होंने बताया कि इस साल उन्हें पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक पर्यावरण अभियन्ता ने मशीनों के उपयोग से होने वाले फायदे के बारे में बताया। इसके बाद केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा एक नई स्कीम लाई गई जिसका उद्देश्य किसानों को मशीन की खरीद पर सहायता देना था। इसके लिये केन्द्रीय कृषि मंत्रालय ने पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश को 591 करोड़ रुपए की राशि उपलब्ध कराया है जिससे किसानों को मशीनों की खरीद उनके मूल्य पर 80 प्रतिशत तक छूट देने का प्रावधान है। गुरुबंस और अन्य 9 किसान बीबीपुर कृषि परिषद के दफ्तर गए और सरकार की स्कीम के तहत उन्हें 10 लाख की मशीन 2 लाख रुपए में मिल गई।

बीबीपुर के ही एक अन्य किसान हरदीप सिंह बताते हैं कि उनके गाँव में करीब 800 घर और 1200 एकड़ धान की खेती है। फसल पक चुकी है और काटने को तैयार है। ये मशीनें एक दिन में 10 एकड़ में लगी फसल की कटाई कर सकती हैं। वे बताते हैं कि पराली को काटने सहित अन्य कामों के लिये केवल तीन से चार मशीनें उपलब्ध हैं। इनकी सहायता से यदि काम किये जाये तो लगातार इनका 120 दिनों तक इस्तेमाल करना होगा लेकिन किसानों के पास खेतों को खाली करने के लिये मात्र 60 दिनों का समय होता है। हरदीप सिंह बताते हैं कि इस साल पंजाब के विभिन्न हिस्सों में बारिश की कमी के कारण फसल की कटाई के लिये अलग-अलग समय पर हो रही है इसीलिये किसानों के पास पराली को जलाने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बच जाता है।

फसल की कटाई के लिये कम समय होने के कारण उन किसानों को जिन्हें इन मशीनों की जरूरत है क्रम के हिसाब से 150 रुपए प्रति घंटा के शुल्क पर उन्हें गाँव के दफ्तर द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। अभी ये मशीन चमक रहें हैं क्योंकि ये अभी-अभी ही फैक्टरी से आये हैं। इनकी आयु सात से आठ वर्ष की है लेकिन इनका इस्तेमाल साल में मात्र एक महीने के लिये होगा। इन मशीनों के इस्तेमाल से गेहूँ के उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। इसके अलावा इनके रख-रखाव के लिये भी पैसों की जरूरत होगी लेकिन सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी में इन्हें नहीं जोड़ा गया है।

मोहाली के एक गाँव में जलता हुआ परालीमोहाली के एक गाँव में जलता हुआ पराली (फोटो साभार - द हिन्दू)फिर भी गुरुबचन सिंह इस बात को लेकर आशावान हैं कि इस बार खेतों में पराली नहीं जलाई जाएगी। परन्तु इन हार्वेस्टरों में बहुत सारी कमियाँ हैं जैसे बीबीपुर में खरीदी गई मशीनें केवल बड़े ट्रैक्टर में फिट होने के काबिल हैं जबकि अधिकांश किसानों के पास छोटे ट्रैक्टर हैं। ऐसी ही परेशानी दूसरे गाँव में भी है।

रूपनगर के रोलु माजरा गाँव के किसान अजायब सिंह जिनके पास तीन एकड़ धान की खेती है कहते हैं कि हैप्पी सीडर के पूर्ण इस्तेमाल के लिये 45 से 55 हॉर्स पावर के ट्रैक्टर की जरूरत होती है लेकिन मेरे पास जो ट्रेक्टर है वह केवल 35 हॉर्स पावर का है। वो कहते हैं कि आप ही बताएँ कि इस मशीन का इस्तेमाल मेरे खेत में कैसे होगा? उनका कहना है कि सरकार छोटे और सीमान्त किसानों की समस्या समझे बिना ही सरकार इन मशीनों को बढ़ावा दे रही है और पराली प्रबन्धन के कारण उन पर आर्थिक बोझ भी बढ़ेगा। हैप्पी सीडर के काम करने की गति पर सवाल उठाते हुए वे यह कहते हैं कि इससे गेहूँ की बुआई में काफी वक्त लगेगा और किसानों को अपने क्रम का इन्तजार करना पड़ेगा। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि किसानों को भाड़े पर बड़ा ट्रैक्टर लेना पड़ेगा जो उन पर आन्तरिक बोझ बढ़ा देगा।अजायब सिंह ने कहा, “गाँव का स्वयं सहायता समूह मजबूत नहीं है अतः इन मशीनों का लाभ तभी मिलेगा जब इनकी संख्या में वृद्धि होगी।”

सरकारी आँकड़े के मुताबिक पंजाब में 1.85 मिलियन किसान परिवार हैं जिनमें 65 प्रतिशत छोटे और सीमान्त किसान हैं। राज्य में उपलब्ध 5.03 मिलियन हेक्टेयर जमीन में से 4.23 मिलियन हेक्टेयर पर खेती होती है। पटियाला में लगभग 270,000 हेक्टेयर जमीन कृषि के अन्तर्गत है जिसमें राज्य के अन्य भागों की तरह ही धान-गेहूँ के पैटर्न पर खेती की जाती है। धान की बुआई जुलाई में एवं कटाई अक्टूबर-नवम्बर में होती है जबकि गेहूँ जाड़े की फसल है एवं इसकी कटाई मार्च-अप्रैल के महीने में होती है।

यह एक नियमित अभ्यास है

बीबीपुर से 100 किलोमीटर की दूरी पर लुधियाना जिले में ही स्थित रोला गाँव में लगभग एक एकड़ वाले धान के खेत में आग लगी है। बिहार का रहने वाला उपेन्द्र नाम का एक मजदूर थ्रेसर से निकले भूँसी को जो खेत की परिधि में पड़ा है उसे खेत में डाल रहा है ताकि आग अच्छे से जले। उसने बताया कि वह केवल 300 रुपए प्रतिदिन की मजदूरी के खातिर अपने मालिक के आदेश का पालन कर रहा है। उसे यह भी नहीं पता था कि उसके मालिक का नाम क्या है।

रोला गाँव के ही एक अन्य किसान सरबजीत सिंह ने बताया कि धान की कटाई के बाद खेतों में आग लगाना यहाँ हर साल होने वाला एक नियमित अभ्यास है।उन्होंने बताया कि उनके गाँव सहित इलाके के अन्य 50 गाँवों में न ही कोई मशीन उपलब्ध कराई गई है और न ही पराली जलाने से होने वाले नुकसान के बारे में किसानों के बीच कोई जागृति फैलाई गई है।

हालांकि राज्य सरकार के अधिकारियों का कहना है कि उन्होंने अब तक 8000 उपकरण किसानों के बीच में वितरित कर चुके हैं। इसके साथ ही उनका यह भी दावा है कि राज्य में 4795 कस्टम हायरिंग सेंटर बनाए जा चुके हैं जहाँ से किसान इन मशीनों को किराए पर ले सकते हैं। सरबजीत के अनुसार इन मशीनों के लिये प्रति एकड़ 5000 रुपए खर्च करना पड़ता है वहीं खेतों में लगी पराली को आग के हवाले करने के लिये केवल कुछ लीटर डीजल खर्च करना पड़ता है। खेतों के आकार और डीजल के इस्तेमाल के अनुसार भी मशीनों पर आने वाला खर्च बदलता रहता है। ऐसा बहुत सारे किसानों का कहना है जिनके लिये मशीनों के इस्तेमाल पर होने वाले खर्च को वहन करना मुश्किल है। अक्टूबर के मध्य तक पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने खेतों में पराली जलने वाले किसानों पर 8,92500 रुपए का जुर्माना लगाया है लेकिन वसूली 3,05000 रुपए की ही हो सकी है। इस फाइन को एन्वायरनमेंटल कम्पनसेशन सेस का नाम दिया गया है।

पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बोर्ड के पर्यावरण अभियन्ता गुलशन राय बताते हैं कि अक्सर किसानों के पास इतना पैसा नहीं होता कि वे जुर्माने की राशि का भुगतान हाथों-हाथ कर सकें। वहीं नाम न उजागर करने की शर्त पर विभाग के एक अन्य अफसर ने बताया कि वे अक्सर किसानों पर जुर्माने के लिये दबाव नहीं बनाते हैं क्योंकि प्रति एकड़ इसके लिये उन्हें 2500 रुपए चुकाना पड़ता है। अफसर बताते हैं कि सेटेलाइट से मिली तस्वीरों के माध्यम से विभाग को पराली जलाने की सटीक जानकारी मिल जाती है लेकिन किसानों से डील करना उनके लिये बहुत ही मुश्किल भरा काम होता है।वे कहते हैं सम्बन्धित किसान के खिलाफ कार्रवाई करने के लिये उन्हें पटवारी की मदद लेनी पड़ती है। इसके अलावा किसान जुर्माने से बचने के लिये विरोध के साथ ही गरीबी और जानकारी के न होने का भी वास्ता देते हैं।

इसके अलावा अफसरों को कभी-कभी हिसंक किसानों के समूह का सामना करने का भी खतरा रहता है। फसलों की बुआई और कटाई का समय किसानों के लिये बहुत दबाव वाला समय होता है क्योंकि उन्हें मौसम और अनाज की बिक्री सम्बन्धी बहुत सारी अनिश्चितताओं का सामना करना पड़ता है। एक अन्य अफसर ने बताया- “ऐसे बहुत सारे वाकए हुए हैं जब अफसरों को किसानों ने घेर लिया है। वे पूछते हैं कि क्यों उन पर जुर्माना लगाया गया, क्यों उनके पड़ोसी को छोड़ दिया गया। इसके अलावा उन्हें ढेर सारे किसान यूनियन के साथ ही राजनीतिक पार्टियों का भी समर्थन हासिल रहता है। इस तरह की परिस्थितियों से हमारा हर साल सामना होता है। इस साल भी कुछ बदला नहीं है।”

पंजाबपंजाब (फोटो साभार - द हिन्दू)लुधियाना निवासी जसपाल सिंह नाम के एक अन्य किसान ने बताया कि डीजल की बढ़ती कीमत भी एक पहलू है जब किसान यह तय करता है कि मशीन अथवा खेतों में आग लगाकर पराली की समस्या से निपटे।जसपाल सिंह ने कहा, “प्रति एकड़ मशीन चलने के लिये पाँच लीटर डीजल की आवश्यकता होती है। अगर हम आलू उगाते हैं तो 20 लीटर प्रति एकड़। ऐसा इसलिये होता है कि हैप्पी सीडर केवल धान की पराली को ही हटा सकता है और गेहूँ की बुआई कर सकता है। इसीलिये आलू की बुआई करने के लिये मल्चर प्लाऊ जैसे उपकरणों का भी इस्तेमाल करना पड़ता है जो खर्च को बढ़ा देता है।”

पंजाब के साथ हरियाणा में भी किसानों को भूजल अतिदोहन करने की अनुमति नहीं है क्योंकि इन राज्यों के किसान धान की खेती करते हुए पूरे खेत को पानी से भर देते हैं। इसके कारण भी किसानों को अगली फसल के लिये खेतों की सफाई करने के लिये मात्र दो से तीन सप्ताह का ही समय मिलता है। इसी कारण खेतों में आग लगाना ही पसन्द करते हैं ताकि उनका समय बच सके।

सरकार का पक्ष

लेकिन अफसरों का कहना है कि पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष पराली जलाने के मामलों में कमी आई है। सरकारी आँकड़े के अनुसार इस वर्ष 21 सितम्बर से 21 अक्टूबर के बीच पूरे राज्य से मात्र 2589 पराली जलाने के मामले प्रकाश में आये हैं वहीं इसी दरम्यान पिछले वर्ष 7613 मामले प्रकाश में आये थे। इसके अलावा एक स्वतंत्र शोधकर्ता हिरेन जेठवा जो अमरीका के नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (american national aeronautics and space administration) से जुड़े हुए हैं ने बताया है कि इस वर्ष पराली जलाने के मामलों में कमी आई है। इनके द्वारा किये गए अध्ययन में यह सामने आया है कि पंजाब और हरियाणा में 1 अक्टूबर से 22 अक्टूबर के बीच इस वर्ष पराली जलाने के 5893 मामले प्रकाश में आये हैं जबकि इसी दरम्यान पिछले वर्ष 12194 और वर्ष 2016 में 16275 मामले प्रकाश में आये थे।

इन आँकड़ों के आधार पर पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बोर्ड के सदस्य सचिव कुर्नेश गर्ग कहते हैं कि पराली जलाने के मामलों में कमी लाने के लिये सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदम अपना असर दिखा रहे हैं।कुर्नेश गर्ग ने हाल ही में मीडिया से बात करते हुए बताया, “इसके लिये हमने इस वर्ष बहुत सारे कदम उठाए हैं। फसल के बचे अंश यानि पराली के इस्तेमाल से सात बायोमास आधारित पावर प्रोजेक्ट चलाए जा रहे हैं जिनकी संयुक्त रूप से उत्पादन क्षमता 62.5 मेगावाट है।”इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा कि उनके महकमें के अफसरों द्वारा यह भी बताया जा रहा है कि पराली में आग लगाने से मिट्टी में उपस्थित सभी पोषक तत्त्व खत्म हो जाएँगे और उन्हें फसल के उत्पादन के लिये ज्यादा खाद का इस्तेमाल करना पड़ेगा।उन्होंने कहा कि कृषि उपकरणों का इस्तेमाल पराली जलाने पर आने वाले खर्च की तुलना में मात्र 300 रुपए प्रति एकड़ ज्यादा है और यह वातावरण के साथ स्वास्थ्य को भी नुकसान नहीं पहुँचाता है। इसके लिये सरकार द्वारा विज्ञापन भी जारी किये जा रहे हैं ताकि लोगों को इसके बारे में प्रशिक्षित किया जा सके।

पंजाब के एडिशनल चीफ सेक्रेटरी (डेवलपमेंट) विश्वजीत खन्ना के मुताबिक टनों की मात्रा में पराली जलाने से मिट्टी की उर्वरता में कमी आती है। इसके कारण मिट्टी से 5.5 किलोग्राम नाइट्रोजन, 2.3 किलोग्राम फॉस्फोरस, 25 किलोग्राम पोटेशियम, 1.2 किलोग्राम सल्फर के साथ ही 400 किलोग्राम जैविक तत्वों की क्षति होती है। इतना ही नहीं मिट्टी उर्वरता का विकास करने वाले कृमियों का भी ह्रास होता है।वर्तमान में 4.3 मिलियन टन धान की पराली जो इसकी कुल मात्रा का 21.82 प्रतिशत है को विभिन्न माध्यमों से खपाया जा रहा है।

इस बात को इंगित करते हुए कि मशीनीकरण ही पराली से जुड़ी समस्या को खत्म करने का एक मात्र जरिया नहीं है खेती विरासत मिशन जो जैविक कृषि को बढ़ावा देने वाली एक संस्था है से जुड़े उमेन्द्र दत्त ने कहा कि इस समस्या को समाप्त करने के लिये मशीन एक मात्र आंशिक उपाय हैं क्योंकि इनका इस्तेमाल पूरे वर्ष में कुछ ही दिनों के लिये होता है।वे कहते हैं कि इसके लिये जरुरी है कि किसानों को फसलों के विविधीकरण के लिये प्रेरित किया जाये जिसका फोकस व्यापारिक के साथ-ही-साथ घरेलू जरूरतों पर भी हो।

इतना कुछ किये जाने के बाद भी पंजाब और दिल्ली के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी इस बात के लिये पूरी तरह से आशान्वित नहीं हैं कि पराली जलाने की प्रथा को पूरी तरह समाप्त किया जा सकेगा। गर्ग ने कुछ दिनों पहले मीडिया को जानकारी देते हुए यह बताया था कि वर्ष 2016 में कुल 80,879 पराली जलाने के मामले दर्ज किये गए थे जबकि 2017 में ये घटकर 43,660 हो गए।गर्ग ने कहा, “इस साल इस आँकड़े में हम 50 प्रतिशत गिरावट की आशा रखते हैं जो लगभग 2016 की तुलना में पिछले साल दर्ज की गई गिरावट के लगभग है।”परन्तु स्टेट प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अफसरों के साथ ही किसानों का भी यह मानना है कि पंजाब में पराली जलाने से दिल्ली के वातावरण पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता है। वे कहते हैं कि अक्सर हम देखते हैं कि पंजाब की तुलना में दिल्ली में प्रदूषण का स्तर काफी ज्यादा रहता है और यदि यह पराली जलाने से ही होता है तो यहाँ भी वैसी ही स्थिति होनी चाहिए थी।यह साबित हो चुका है कि प्रदूषण के लिये जिम्मेवार कण हजारों किलोमीटर का सफर तय कर सकने के साथ ही काफी लम्बे समय तक वातावरण में बने रह सकते हैं। पंजाब में खेतों में जलाई जाने वाली पराली का असर दिल्ली में जाड़े के दिनों में फैलने वाले धुन्ध पर कितना होता है यह अभी तक पूरी तौर पर निश्चित नहीं किया जा सका है। हालांकि हावर्ड विश्वविद्यालय द्वारा मार्च 2018 में प्रकाशित किये गए एक अध्ययन के मुताबिक दिल्ली में मौजूद 7 से 78 प्रतिशत PPM 2.5 कणों का कारण खेतों में लगने वाली आग है।

आईआईटी कानपुर में वायु प्रदूषण सम्बन्धित मामलों के विशेषज्ञ सचिदानंद त्रिपाठी कहते हैं कि दिल्ली में पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण को जरूरत से ज्यादा तूल दे दिया गया है।त्रिपाठी ने कहा, “मैं यह नहीं कहता कि दिल्ली में प्रदूषण के बढ़ते स्तर के लिये पराली की आग जिम्मेवार नहीं है पर उतनी नहीं जितना कहा जाता है। दिल्ली में होने वाले 60 प्रतिशत प्रदूषण के लिये वहाँ स्थित कल-कारखाने, कोयला और वाहनों से निकलने वाला धुआँ जिमेवार है।”

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