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उत्तरप्रदेश: प्रयागराज जिले के कई ग्रामीण गंदा पानी पीने पर मजबूर 

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उत्तरप्रदेश: प्रयागराज जिले के कई ग्रामीण गंदा पानी पीने पर मजबूर HindiWaterMon, 07/12/2021 - 13:44
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इंडिया हिंदी वाटर पोर्टल

उत्तरप्रदेश के प्रयागराज जिले  से लगभग 35 किलोमीटर करछना तहसील के अंतर्गति ग्रामसभा मेड़रा  में सैकड़ो घर ऐसे है जो आज भी गंदा पानी पीने  पर मजबूर है ग्रामीणों का कहना है कि जब भी वह  हैण्डपम्प और समरसेबल से पानी निकालते है तो कुछ देर बाद पानी पीला आने लगता है।जब यह सिलसिला  कई दिन तक जारी रहा तो उन्होंने धीरे-धीरे इसका उपयोग करना बंद कर दिया ।  और गांव में बने एक पुराने कुएं से पानी लेना शुरू कर दिया । जो  हैंडपंप के पानी की तुलना में बेहद साफ है । 

ग्रामीण कहते है कि उन्होंने हैंड पंप से आ रहे गंदे पानी की समस्या के बारे में  सम्बंधित विभाग और स्थानीय नेताओं से कई बार  शिकायत की।  लेकिन आज तक  कोई भी उन्हें पानी की इस  समस्या से निजात नही दिला सका है।  जिसके कारण वह आज भी  गंदा पानी पीने पर मजबूर है। 

वही इंडिया हिंदी वाटर पोर्टल के पत्रकार  अंकित तिवारी ने गांव की इस समस्या से  जलनिगम के अधिशाषी अभियंता एस पी वाजपेयी को अवगत कराया। जिसके बाद उन्होंने  पत्रकार अंकित तिवारी को  भरोसा दिलाया कि वह ग्रामीणों की इस समस्या को जल्द ही दूर करेंगे। 

अधिकारियों के आश्वासन  से गांव के लोगों में एक उम्मीद जगी है कि उन्हें अब गंदे पानी से निजात मिलेगी साथ  ही लंबे अरसे  से गांव में एक बड़ी टंकी की मांग भी पूरी हो सकेगी।

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भारी बारिश से डूब गई लाखों की फसलें

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भारी बारिश से डूब गई लाखों की फसलेंHindiWaterTue, 07/13/2021 - 16:38
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इंडिया हिंदी वाटर पोर्टल

बरसात का मौसम आते ही सबसे ज्यादा चिंता पहाड़ो की होती है क्योंकि तेज़ बारिश से जहां एक तरफ पहाड़ो से भूस्खलन का खतरा लगातार बना रहता है  तो वही रास्ते बंद होना आम हो जाता है । लेकिन इससे सबसे ज्यादा नुकसान किसानों को उठाना पड़ता है क्योंकि समय से उनकी फसले मंडी पर नही पहुँच  पाती, तो दूसरी और बादल फटने  और जल स्त्रोतों पर पानी बढ़ने से फसले  बर्बाद हो जाती है 

कुछ ऐसा ही नुकसान उत्तराखंड की राजधानी देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार में हुआ। जहाँ  11 और 12 जुलाई को आई तेज़ बारिश ने  किसानों की फसलों को पूरी तरह तबाह कर दिया जिसकी वजह से कई किसानों को लाखों का नुकसान हुआ है ।किसानों ने अपनी खेतो की वीडियो जब हिंदी वाटर पोर्टल के साथ साझा की तो पता चला कि टमाटर के खेत पूरी तरह बारिश की वजह से मलबे में दब गए है वही मंडवे की फसल भी बर्बाद हो गई। और इन सबसे अधिक  अदरख की फसल  पूरी तरह नष्ट हो गई। 

फसलों के इस नुकसान के लिए कालसी तहसील प्रशासन ने भी संज्ञान लिया और एसडीएम  संगीता कन्नौजिया ने पटवारियों को निर्देश दिए है कि वो मौके पर जाकर फसलों के हुए नुकसान का जायजा ले जिसके बाद मुआवजें  की तैयारी की जाएगी।

वही भारी बारिश  से हुए फसलों के नुकसान पर विभिन्न गांव  के  किसान कहते है कि उनकी साल भर की मेहनत बेकार हो गई बारिश के इस कहर से न सिर्फ फसलों को नुकसान हुआ है बल्कि खेतो में जो मलवा इकट्ठा हुए है उससे भविष्य में किसी दूसरी फसल को लगाने में भी अब किसानों को परेशानी का सामना करना होगा ।

फसलों के इस नुकसान से किसान  मायूस हो गए है। अब वो सरकार से अपनी बाबर्द हुए फसलों के लिये मुआवजें की उम्मीद कर रहें है।

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तिगांव के नीरज बने वाटर हीरो

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तिगांव के नीरज बने वाटर हीरोHindiWaterWed, 07/14/2021 - 16:43
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इंडिया हिंदी वाटर पोर्टल

जैसे जैसे देश में जल संकट बढ़ रहा है वैसे वैसे लोगों में जल संरक्षण को लेकर जागरुकता भी बढ़ रही है।  दिल्ली से लगभग  950  किलोमीटर दूर  मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के ग्राम तिगांव के रहने वाले नीरज वानखड़े पिछले 4 सालों से जल संरक्षण  का काम कर रहे है।नीरज जल संरक्षण के साथ  समय-समय पर नदियों की साफ सफाई , स्कूल के बच्चों और ग्रामीणों को जल संरक्षण के प्रति जागरूक भी करते रहते है।

जल संरक्षण के लिए  नीरज  की कोशिश होती है कि वो अधिक अधिक लोगों को जागरूक कर सके। इसके लिए वो कई बार  अपने इनोवेशन का भी सहारा लेते है। जैसे  गांव में सेल्फी पॉइंट बनना, जल संरक्षण का मॉडल तैयार कर किसी भी प्रदर्शनी में उसे दिखना। इसके अलावा  सोशल मीडिया मे अपने  कार्यों का प्रचार  कर लोगों को पानी बचाने के लिये प्रेरित भी करते रहते है। 

नीरज कहते है जो भी पैसा जल संरक्षण के कार्य के लिए खर्चा होता है उसका अधिकतर भुगतान वो अपनी जेब से करते है। इसके साथ ही वह आने वाले दिनों में नदियों को बचाने के लिए व्यापक स्तर पर एक अभियान भी  शुरू करने वाले है। जल संरक्षण को लेकर नीरज के इस प्रयास की सराहना भारत सरकार भी कर चुकी है  और उन्हें केंद्र के जल शक्ति मंत्रालय के द्वारा 'वाटर हीरो'के रूप में  सम्मानित  भी किया गया है ।

मंत्रलाय की और से उन्हें  10000 हज़ार की जो प्रोत्साहन राशि दी गई थी, उसे भी उन्होंने जल संरक्षण के कार्य के लिए खर्च कर दिया है। नीरज ने एक साउंड सिस्टम खरीद लिया है ताकि वह अधिक से अधिक लोगों को जल संरक्षण के प्रति जागरूक कर सके।

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कोविड महामारी के बावजूद 1,00,275 गांवों को मिल चुके है नल कनेक्शन

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कोविड महामारी के बावजूद 1,00,275 गांवों को मिल चुके है नल कनेक्शन HindiWaterThu, 07/15/2021 - 14:44
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विज्ञप्ति जल शक्ति मंत्रालय

 कोविड महामारी के बावजूद 1,00,275 गांवों को मिल चुके है नल कनेक्शन , Source:needpix.com,फोटो

देश मे कोविड महामारीके कारण हुए लॉकडाउन से जहाँ काम धंधे बंद हो गए थे वही जल शक्ति मंत्रालय ने इसके  बावजूद, 71 जिलों, 824 ब्लॉक, 50,309 ग्राम पंचायतों और 1,00,275 गांवों में 'हर घर जल' मिशन शुरू करने के लगभग दो साल बाद प्रत्येक घर में नल कनेक्शन पहुँचा दिये है 
जब पीएम मोदी ने 15 अगस्त, 2019 को इस महत्वाकांक्षी योजना का  शुभारंभ किया था। तो उससे पहले  देश के 18.94 करोड़ ग्रामीण परिवारों में से केवल 3.23 करोड़ (17 प्रतिशत) के पास नल के पानी के कनेक्शन थे। आज नल से पानी की आपूर्ति 7.72 करोड़ (40.77 फीसदी) घरों तक पहुंच गई है। अब तक  गोवा, तेलंगाना, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुडुचेरी के ग्रामीण इलाकों  में  100 प्रतिशत नल से पानी की आपूर्ति  की जा चुकी है 

साल 2024 तक  हर ग्रामीण परिवार को नल का पानी उपलब्ध कराने के इस विशाल लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए  केंद्र  सरकार ने करीब 3.60 लाख करोड़ रुपये आवंटित किए है। वहीं  2020-21 में राज्यों-केंद्र शासित प्रदेशों के लिए 11,000 करोड़ रुपये की राशि आवंटित की गई थी। केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने 2021-22 वर्ष के  लिए फंड आवंटन में चार गुना बढ़ोतरी को मंजूरी दी है, ताकि लक्ष्य को हासिल करने के लिए फंड की कमी ना हो. केवल तीन महीनों में ही  राज्यों और  केंद्रशासित प्रदेशों ने वार्षिक कार्य योजनाओं (AAP) के तहत प्रस्तावित फंड में से  8,891 करोड़ रुपये निकाल लीये है 

ग्रामीण स्थानीय निकायों/पीआरआई को पानी और स्वच्छता के लिए 15वें वित्त आयोग द्वारा  2021-22 में राज्यों को 26,940 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। अगले पांच साल यानी 2025-26 तक 1,42,084 करोड़ रुपये आवंटित करने की योजना है  देश भर के ग्रामीण क्षेत्रों में इस बड़े निवेश से आर्थिक गतिविधियों में तेजी आएगी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलने के साथ गांवों में रोजगार के नए अवसर भी पैदा होंगे।

जल जीवन मिशन के तहत पानी की कमी वाले क्षेत्रों, गुणवत्ता प्रभावित गांवों, इच्छुक जिलों, अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति बहुल गांवों और सांसद आदर्श ग्राम योजना (एसएजीवाई) वाले  गांवों को नल से पानी पहुंचाने के लिए प्राथमिकता दी जाती है। पिछले 23 महीनों के दौरान, 117 आकांक्षी जिलों में नल के पानी की आपूर्ति चार गुना बढ़कर 7 प्रतिशत से 33 प्रतिशत हो गई है। इसी तरह, जापानी इंसेफेलाइटिस-एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (जेई-आईईएस) से प्रभावित 61 जिलों में 97 लाख से अधिक घरों में नल के पानी की आपूर्ति की गई है। 696 सांसद आदर्श ग्राम योजना और 29,063 SC/ST बहुल गाँव अब 'हर घर जल' बन गए हैं।

मंत्रालय की और से यह भी  जानकारी दी गई  है कि  देश में स्कूलों, आश्रमशालाओं और आंगनवाड़ी केंद्रों में बच्चों को सुरक्षित नल का पानी सुनिश्चित करने के लिए, पीएम मोदी ने 100 दिनों के अभियान की घोषणा की थी. जिसे केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने 2 अक्टूबर 2020 को लॉन्च किया था । जिसका परिणाम यह निकला कि हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, गुजरात, आंध्र प्रदेश, गोवा, तमिलनाडु, तेलंगाना, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह जैसे राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों ने सभी स्कूलों, आश्रमशालाओं और आंगनवाड़ी केंद्रों में नल से पानी पहुँचाया गया. 

अब तक, देश भर के 6,76,789 स्कूलों (65.7 प्रतिशत) और 6,74,611 (59.8 प्रतिशत) आंगनवाड़ी केंद्रों में  साफ पानी, मिड डे मील, हाथ धोने और शौचालय के लिए उपयोग करने के नल से पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध कराया गया है।केंद्र सरकार ने राज्यों-केंद्र शासित प्रदेशों को यह सुनिश्चित करने के लिए कहा है कि कुछ महीनों में बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य, स्वच्छत के लिए सभी शेष स्कूलों, आश्रमशालाओं और आंगनवाड़ी केंद्रों में सुरक्षित नल के पानी का प्रावधान किया जाए। 

जल जीवन मिशन के तहत जल गुणवत्ता की निगरानी और उसकी  गतिविधियों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है।  जिसके लिए आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, आशा कार्यकर्ता, स्वयं सहायता समूह के सदस्य, पीआरआई सदस्य, स्कूल शिक्षक आदि को प्रशिक्षित किया जा रहा है ताकि वे फील्ड टेस्ट किट (एफटीके) का उपयोग प्रदूषित पानी के नमूनों के टेस्ट के लिये कर सके। । 

देश भर में 2,015 प्रयोगशालाएं हैं। 195 जल प्रयोगशालाएं मजबूत बुनियादी ढांचे और प्रशिक्षित तकनीशियनों के साथ एनएबीएल मान्यता प्राप्त है। राज्य जल परीक्षण प्रयोगशालाओं को सुधारने के साथ एनएबीएल मान्यता हासिल कर रहे हैं। ये प्रयोगशालाएं लोगों के लिए खुली रखने का निर्णय लिया गया है  ताकि वे बिना किसी ख़र्चे के  अपने पानी के नमूनों की जांच करा सकें।

वही मत्रांलय  की तरह खा गया है कि राज्यों के साथ साझेदारी में काम करते हुए, जल जीवन मिशन 2024 तक भारत के प्रत्येक ग्रामीण घर में नियमित और लंबे समय तक पर्याप्त मात्रा में गुणवत्ता वाला पानी को  नल से आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए सभी प्रयास किए जा रहे है 
 

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पर्यावरण संरक्षण, खुशहाली और समृद्धि का प्रतीक है हरेला

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पर्यावरण संरक्षण, खुशहाली और समृद्धि का प्रतीक है हरेलाHindiWaterFri, 07/16/2021 - 15:27
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इंडिया हिंदी वाटर पोर्टल

 पर्यावरण संरक्षण, खुशहाली और समृद्धि का प्रतीक है हरेला,फोटो:देव चौहान

श्रावण मास में पावन पर्व हरेला उत्तराखंड में धूमधाम से मनाया जाता है। आज से इस पर्व की शुरुआत हो गई है। मानव और प्रकृति के परस्पर प्रेम को दर्शाता यह पर्व हरियाली का प्रतीक है। सावन लगने से नौ दिन पहले बोई जाने वाली हरियाली को दसवें दिन काटा जाता है और इसी दिन इस पावन पर्व को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।

2016 के बाद से कुमाऊं के सांस्कृतिक हरेला पर्व को प्रदेश में एक व्यापक स्तर के पौधरोपण अभियान का रूप दिया गया और लोगों ने भी इस पहल को हाथों-हाथ लिया और अब हरेला एक तरह से प्रदेश में सामाजिक स्तर पर व्यापक पौधारोपण अभियान का पर्याय बन गया है।

हरेला पर्व सौरमास श्रावण के प्रथम दिन यानि कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है।परम्परानुसार पर्व से नौ अथवा दस दिन पूर्व पत्तों से बने दोने या रिंगाल की टोकरियों में हरेला बोया जाता है। जिसमें उपलब्धतानुसार पाँच, सात अथवा नौ प्रकार के धान्य यथा- धान, मक्का, तिल, उड़द, गहत, भट्ट, जौं व सरसों के बीजों को बोया जाता है। देवस्थान में इन टोकरियों को रखने के उपरान्त रोजाना इन्हें जल के छींटों से सींचा जाता है। दो-तीन दिनों में ये बीज अंकुरित होकर हरेले तक सात-आठ इंच लम्बे तृण का आकार पा लेते हैं।

हरेला पर्व की पूर्व सन्ध्या पर इन तृणों की लकड़ी की पतली टहनी से गुड़ाई करने के बाद इनका विधिवत पूजन किया जाता है। कुछ स्थानों में इस दिन चिकनी मिट्टी से शिव-पार्वती और गणेश-कार्तिकेय के डिकारे (मूर्त्तियाँ) बनाने का भी रिवाज है। इन अलंकृत डिकारों को भी हरेले की टोकरियों के साथ रखकर पूजा जाता है।

हरेला पर्व के दिन देवस्थान में विधि-विधान के साथ टोकरियों में उगे हरेले के तृणों को काटा जाता है। इसके बाद घर-परिवार की महिलाएँ अपने दोनों हाथों से हरेले के तृणों को दोनों पाँव, घुटनों व कन्धों से स्पर्श कराते हुए और आशीर्वाद युक्त शब्दों के साथ बारी-बारी से घर के सदस्यों के सिर पर रखती हैं।

इस दिन लोग विविध पहाड़ी पकवान बनाकर एक दूसरे के यहाँ बाँटा जाता है। गाँव में इस दिन अनिवार्य रूप से लोग फलदार या अन्य कृषिपयोगी पेड़ों का रोपण करने की परम्परा है। लोक-मान्यता है कि इस दिन पेड़ की टहनी मात्र के रोपण से ही उसमें जीवन पनप जाता है।

ही अब सवाल ये भी है कि जितना जोश पूरा प्रदेश वृक्षारोपण को लेकर हरेला पर्व पर दिखाता है अगर इसका एक फीसदी प्रयास भी साल में प्रदेशवासी दो से 4 बार करते तो शायद आज जंगलो की स्तिथि पहले से बेहतर होती हाल ही में इस पर्व पर राजकीय अवकाश घोषित किया गया जबकी पहले इस अवसर पर कोई राजकीय अवकाश नही हुआ करता था ।

वही इस दिन वृक्षारोपण को बेहद अहमियत दी जाती है लेकिन मुसीबत ये है कि व्यापक स्तर पर पौधारोपण होने के बावजूद प्रदेश को इसका फायदा बेहद कम मिल रहा है। कारण ये है कि रोपे गए पौधों की मृत्यु दर अधिक है। यह प्रदेश सरकार के लिए भी चिंता का सबब है वन विभाग के अधिकारियों के मुताबिक कुल मिला कर यह तय है कि लोगों की ओर से रोपे जा रहे पौंधों का सरवाइवल रेट बहुत ही कम है

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चरखा ने "संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स 2020" सम्मान समारोह का किया आयोजन

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चरखा ने "संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स 2020" सम्मान समारोह का किया आयोजन HindiWaterSat, 07/17/2021 - 12:10
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चरखा फीचर

 चरखा ने "संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स 2020" सम्मान समारोह का किया आयोजन,फोटो:चरखा फीचर

नई दिल्ली, चरखा डेवलपमेंट कम्युनिकेशन नेटवर्क ने शुक्रवार 16 जुलाई को " संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2020" सम्मान समारोह का ऑनलाइन आयोजन किया। जिसमें ऐसे 5 विशेष लेखकों के काम को सम्मानित किया गया जिन्होंने पिछले 6 महीनों में, देश के ग्रामीण और दूरदराज के कुछ क्षेत्रों से ऐसे मुद्दों पर रिपोर्टिंग की है जिन्हें आमतौर पर राष्ट्रीय स्तर की "मुख्यधारा" मीडिया में जगह नहीं मिल पाती है। इन 5 पुरस्कार विजेताओं को पिछले साल 11 राज्यों से प्राप्त 37 आवेदनों में से चुना गया था।इस अवसर पर मुख्य वक्ता के रूप में वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म 'अहिंसा कन्वर्सेशन' की संस्थापक रजनी बख्शी ने पुरस्कार विजेताओं को संबोधित किया और उन्हें बधाई दी। अपने संबोधन में रजनी बख्शी ने संजॉय घोष के साथ काम करने के अपने अनुभवों को साझा किया, जिन्होंने 1994 में इस विश्वास के साथ चरखा की स्थापना की थी, कि यदि विकास प्रक्रियाओं से समाज के सबसे गरीब वर्गों को लाभ पहुंचाना है तो ग्रामीण समुदायों को नीति स्तर पर सुना जाना चाहिए।

याद रहे कि 1997 में असम में उल्फा ने संजॉय का अपहरण करके उनकी हत्या कर दी थी। संजॉय घोष को याद करते हुए रजनी बख्शी ने कहा कि, "उनका जीवन प्रेरणादायी है। उन्होंने हमें सिखाया कि कैसे प्रभावी पत्रकारिता के लिए निडरता, रचनात्मकता और असंभव को संभव बनाने का जज़्बा अनिवार्य है। चरखा ग्रामीण भारत की विकास चुनौतियों को उजागर करने के लिए इन तीन मूल्यों के साथ काम कर रहा है। यह पुरस्कार समकालीन दुनिया की चुनौतियों का समाधान करने की कोशिश कर रहे लोगों के बीच पुल बनाने का एक महत्वपूर्ण मंच है।"

इस अवसर पर चरखा के अध्यक्ष तिलक मुखर्जी ने ग्रामीण महिलाओं के जीवन पर केंद्रित मुद्दों पर इन विजेताओं के योगदान को स्वीकार किया। इस ऑनलाइन कार्यक्रम में पुरस्कार विजेताओं द्वारा किए गए कामों को प्रदर्शित करने वाला एक लघु वीडियो भी दिखाया गया।ऑनलाइन समारोह को अतिथि वक्ता और जमीनी स्तर की पत्रकार, नीतू सिंह ने भी संबोधित किया। इस अवसर पर उन्होंने "संकट के समय में ग्रामीण रिपोर्टिंग: कैसे कोविड-19 ने भारत में ग्रामीण रिपोर्टिंग संकट को गहरा किया है" विषय पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों से नियमित रिपोर्टिंग महत्वपूर्ण है।

आपदाओं, महामारी और अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं के मामले में, इसे बढ़ाया जाना चाहिए, और मुख्यधारा की मीडिया द्वारा अक्सर नजरअंदाज किए जाने वाले समूहों की चिंताओं को वृहद स्तर पर दर्ज किया जाना चाहिए, ”उन्होंने ग्रामीण पत्रकारों के सामने खासकर कोविड -19 के समय में आने वाली विशिष्ट चुनौतियों पर जोर देते हुए यह बात कही। उनका मानना है कि यह पुरस्कार ग्रामीण लेखकों को वित्तीय सहायता प्रदान करके ग्रामीण पत्रकारिता को समर्थन देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस अवसर पर थिएटर कलाकार और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व छात्रों प्रियंका पाठक और मुक्ति दास ने बाबा नागार्जुन, कात्यायनी और गुलज़ार द्वारा लिखी गई ग्रामीण भारत की चुनौतियों को दर्शाती कविताओं का पाठ किया। 
सभी विजेताओं को पुरस्कार में प्रशस्ति पत्र प्रदान किया गया। पुरस्कार विजेताओं को अपने चुने हुए विषय पर पांच लेख लिखना आवश्यक था। इनका चयन वरिष्ठ मीडियाकर्मी की एक प्रतिष्ठित जूरी द्वारा किया गया। इन 5 पुरस्कार विजेताओं में बिस्मा भट (श्रीनगर), राजेश निर्मल (यूपी), रमा शर्मा (राजस्थान), रुख़सार कौसर (पुंछ) और सूर्यकांत देवांगन (छत्तीसगढ़), द्वारा लिखे गए कुल 25 लेख थे। जिन्हें चरखा की त्रिभाषी फीचर सेवा के माध्यम से हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में प्रकाशित किये गए हैं। यह कार्यक्रम चरखा के सीईओ स्व. मारियो नोरोन्हा को समर्पित था, जिनका अप्रैल में कोविड -19 के कारण निधन हो गया।
 

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गंगा की अविरलता और निर्मलता को स्थापित करने के लिये वर्चुअल मीटिंग का आयोजन 

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गंगा की अविरलता और निर्मलता को स्थापित करने के लिये वर्चुअल मीटिंग का आयोजन HindiWaterSat, 07/17/2021 - 12:48

स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंदस्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद,फोटो:मात्री सदन

साल 2008 से डॉक्टर जीडी अग्रवाल (स्वामी सांनद)ने गंगा की अविरलता के लिये संघर्ष किया। उनके निधन के बाद केंद्र और राज्य सरकारें  विकास के नाम पर अनेक कार्य कर रही है जिससे गंगा और उसकी सहायक नदियों पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ रहे है। आज फिर गंगा की अविरलता और निर्मलता को स्थापित करने के लिये एक देशव्यापी अभियान की  जरूरत पड़  गई है। ऐसे में स्वामी सांनद  के जन्मदिन 20 जुलाई को जूम पर एक वर्चुअल बैठक का आयोजन शाम 4:00 बजे से 6:00 बजे तक किया जा रहा है।

कार्यक्रम में 40 से 45 लोगों को दो दो मिनट दिए जाएंगे जो इस अभियान से जुड़कर अगले 1 साल के रोडमैप को साझा करेंगे। इस दौरान जिन लोगों को  बोलने का मौका नही मिलेगा वह लिखकर अपनी बात रख सकते है ।कार्यक्रम में भाग लेने की पुष्टि निम्न  ईमेल पतेपर 17 जुलाई तक भेज सकते है । 

  •  gdadmirers@gmail.com

 

  •  prem14049@gmail.com

 

  •  matrisadan@yahoo.com

 कार्यक्रम की विस्तृत जानकारी एवं जूम मीटिंग का लिंक 16-17 जुलाईतक आपके ईमेल पते पर भेज दिया जाएगा । 

धन्यवाद ,

स्वामी शिवानंद प्रमुख ,मात्री सदन

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गौरैया को मिल गया नया आशियाना

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गौरैया को मिल गया नया आशियानाHindiWaterMon, 07/19/2021 - 11:23
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इंडिया हिंदी वाटर पोर्टल

घर हमारे बड़े-बड़े हो गए हैं, पर दिल इतने छोटे कि उनमें नन्हीं-सी गौरैया भी नहीं आ पा रही. घर-घर की चिड़िया गौरैया आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है. ऐसे समय में  लोगों में गौरैया के प्रति जागरूकता बढ़ाने और उसकी रक्षा करने के लिए उतरप्रदेश के ललित पूर जिले के पर्यावरण प्रेमी और मानव आर्गेनाइजेशन के संस्थापक पुष्पेन्द्र सिंह चौहान आगे आये है ।

पुष्पेंद्र ने  वर्ष 2012 में गौरैया बचाओ अभियान शुरू किया. और सबसे पहले उनके लिए घर बनाना प्रारंभ किया क्योंकि जिन छपर और खपरैल के घर  में गौरैया अपना घोंसला बना कर रहती है समय बदलने के साथ  उन स्थानों में सीमेंट की छतें आलीशान मकान बन चुके है।जिसके कारण गौरैया के प्राकृतिक आवास नष्ट हो रहे है। पुष्पेंद्र ने गौरैया के  लिये लकड़ी के घोसले बनाये है जिन्हें अपने आँगन  और छतों पर लगाया हुआ  है जिसके परिणाम भी सामने आ रहे है। गौरैया  उन लकड़ी के  घोसलों में अपना ठिकाना बना रही है, उनको अब यह नया घर खूब भा रहा  है।

इसके साथ ही पुष्पेंद्र हर साल 20 मार्च गौरैया दिवस के अवसर पर अधिक से अधिक लोगों को जागरूक करने के लिए लकड़ी के बने घोसलों को भी वितरित करते है। जिससे लोग भी इस नन्ही सी चिड़िया को अपने घर मे एक छोटी से जगह देकर इसे संरक्षित करने का काम कर सके पुष्पेंद्र गौरैया के संरक्षण को लेकर नई पीढ़ी को भी जागरूक कर रहे है वह बच्चों को  गौरैया के  लकड़ी के घोसले बनाने के साथ बर्ड वाचिंग के लिये भी ले जाते है। और इस के लिये  उन्हें सम्मानित भी करते है। 

आज पुष्पेंद्र जैसे सक्रिय उत्साहित व समर्पित पर्यावरण प्रेमी की देश के हर हिस्से में आवश्यकता है जो पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक कर उनकी ऊर्जा को कर्तव्य पथ की एक सार्थक दिशा में मोड़ सकें

 

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कोविड-19 के जोखिम को बढ़ा सकता है जंगल की आग से निकला धुआं: अध्ययन 

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कोविड-19 के जोखिम को बढ़ा सकता है जंगल की आग से निकला धुआं: अध्ययन UrbanWaterMon, 07/19/2021 - 19:19

जंगल में आग का एक दृश्य (फोटोः विकिमीडिया)

नई दिल्ली, 19 जुलाई (इंडिया साइंस वायर): हाल के वर्षों में जंगल में लगने वाली आग की घटनाओं में वृद्धि से वन्य-जीवों के साथ-साथ स्थानीय जैव-विविधता पर संकट बड़े पैमाने पर बढ़ा है। एक नये अध्ययन में अब पता चला है कि जंगल की आग का धुआं सार्स-कोव-2 वायरस, जो कोविड-19 संक्रमण के लिए जिम्मेदार है, के जोखिम को भी बढ़ा सकता है। उल्लेखनीय है कि कुछ अन्य शोध अध्ययनों में वायु प्रदूषण को सार्स-कोव-2 की बढ़ती संवेदनशीलता से जोड़कर देखा गया है।

अमेरिका के रेनो, नेवाडा स्थित डेजर्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (डीआरआई) के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में यह अध्ययन किया गया है। इस अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने पता लगाने का प्रयास किया है कि जंगल की आग की घटनाओं के दौरान निकलने वाले धुएं का संबंध किस हद तक सार्स-कोव-2 संक्रमण में वृद्धि से हो सकता है। 

शोधकर्ताओं ने जंगल की आग के धुएं से निकले सूक्ष्म कण पीएम-2.5 और सार्स-कोव-2 परीक्षण में पॉजिटिव पाए जाने वाले मामलों की दर के बीच संबंधों का विश्लेषण करने के लिए विशिष्ट मॉडल्स का उपयोग किया है। सार्स-कोव-2 परीक्षण से संबंधित डेटा नेवाडा के एकीकृत हेल्थ नेटवर्क रिनाउन हेल्थ से प्राप्त किए गए हैं। 

पश्चिमी अमेरिका में वर्ष 2020 में जंगल की आग की घटनाओं के दौरान धुएं से प्रभावित क्षेत्रों में अतिरिक्त चरों जैसे - वायरस के सामान्य प्रसार, हवा के तापमान, और कोविड-19 परीक्षणों की संख्या को नियंत्रित रखकर यह अध्ययन किया गया है। 

गत वर्ष 16 अगस्त और 10 अक्तूबर के दौरान अमेरिका के नेवाडा के जंगलों में लगी आग के धुएं से निकले पीएम 2.5 कणों को कोविड-19 के मामलों में 17.7 प्रतिशत की वृद्धि के लिए जिम्मेदार पाया गया है। उत्तरी नेवाडा के वाशो काउंटी में स्थित रेनो, सैन फ्रांसिस्को सहित आसपास के अन्य महानगरीय क्षेत्रों की तुलना में वर्ष 2020 में लंबे समय के लिए पीएम-2.5 के उच्च घनत्व के संपर्क में बना हुआ था। सैन फ्रांसिस्को खाड़ी क्षेत्र में 26 दिनों के विपरीत, रेनो में अध्ययन अवधि के दौरान 43 दिनों तक पीएम-2.5 का उच्च स्तर देखा गया है। इसी आधार पर माना जा रहा है कि जंगल की आग का धुआं सार्स-कोव-2 के प्रसार को बढ़ा सकता है। अध्ययन के निष्कर्ष 'जर्नल ऑफ एक्सपोजर साइंस ऐंड एन्वायरमेंटल एपिडेमियोलॉजी' में प्रकाशित किए गए हैं।

प्रमुख शोधकर्ताओं में शामिल डैनियल केसर ने कहा है कि "इस अध्ययन में पाया गया है कि जब हम कैलिफोर्निया के जंगल की आग के धुएं से बुरी तरह प्रभावित थे, तो रेनो में कोविड-19 से पॉजिटिव होने की दर में काफी वृद्धि दर्ज की गई है।" उन्होंने कहा है कि "ये निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं क्योंकि हम विभिन्न स्थानों पर बड़े पैमाने पर जंगल की आग की घटनाओं का सामना रहे हैं और  कोविड-19 मामलों के बढ़ने का खतरा भी बना हुआ है।" 

इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय पश्चिमी अमेरिका और कनाडा के जंगलों में लगभग 70 जगहों पर भयंकर आग लगी हुई है, जिसका धुआं मीलों दूर से देखा जा सकता है। इसी प्रकार रूस के साइबेरिया क्षेत्र में भी जंगल की बेकाबू आग से स्थिति गंभीर होने की खबरें हैं। भारत के विभिन्न राज्यों में अक्सर जंगल में लगने वाली आग की घटनाएं होती रहती हैं। इस लिहाज से यह अध्ययन भारत के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण हो सकता है। (इंडिया साइंस वायर)

ISW/USM/HIN/19/07/2021 

Keywords: Wildfire, Smoke exposure, COVID-19, SARS-CoV-2, Coronavirus, Environment, Forest Fire

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वर्ल्ड एक्वा कांग्रेस 15वाँ अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन

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वर्ल्ड एक्वा कांग्रेस 15वाँ अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन HindiWaterTue, 07/20/2021 - 16:43

वर्ल्ड एक्वा कांग्रेस 15वाँ अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन

एक्वा फाउंडेशन 15वाँ वार्षिक अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस सम्मेलन 14 सितंबर  से 17 सितंबर तक वर्चुअल माध्यमसे  आयोजित करने जा रहा है। इस वर्ष का विषय 'मूल्य निर्धारण जल (मूल्य निर्धारण, पर्यावरण सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य)' पर आधारित होगा। इसके साथ ही साल 2020 में आयोजित वर्चुअल कार्यक्रम से अनुभव लेने के लिये  नीचे दिए गए लिंक क्लिक करें।  
 
वक्ता बनें 
 
सबसे बड़े ज्ञान साझा करने वाले मंच पर वक्ता बनें  निम्नलिखित विषय पर सार लिखकर जमा करें । नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके  वक्ता बनें 
 
 https://www.worldaquacongress.org/conference-abstract-information
 
 
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जल, पर्यावरण, मानवता,सतत विकास, ग्रीन हाउसिंग और ग्रीन हॉस्पिटैलिटी के क्षेत्र में सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक के लिए अपना नामांकन जमा करें। नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके उत्कृष्टता अवॉर्ड्स के लिए अपना नामांकन जमा करें
 
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सम्मेलन के लिये  पंजीकरण करें
 
सम्मेलन में भाग लेने के लिए पंजीकरण करें और इस महत्वपूर्ण संवाद का हिस्सा बनें। ताकि  कार्यक्रम के सभी क्षेत्रों,सत्रों में  प्रतिभाग कर भागीदारी प्रमाणपत्र प्राप्त करें साथ ही दुनिया भर के प्रतिभागियों और अधिक लोगों के साथ नेटवर्क स्थापित करने का अवसर प्राप्त करे ।  नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके  सम्मेलन के लिये  पंजीकरण करें
 
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उद्योग को उनकी नवीनतम तकनीकों,समाधानों,नई खोजों,नवीनतम इनोवेशन,प्रमुख सफलताओं आदि पर प्रस्तुतिकरण करने के लिए 15 मिनट का विशेष वाणिज्यिक/प्रचार स्लॉट निर्धारित किया गया है। नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर स्लॉट बुक करें 
 
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XV वर्ल्ड एक्वा कांग्रेस 2021 में अपनी सफलता अधिक से अधिक लाभ उठाएं और वर्ल्ड एक्वा कांग्रेस 2021 के प्रायोजक बनकर अपने संस्था के प्रदर्शन को बढ़ाएं। उपलब्ध स्पॉन्सरशिप की सीमा और विस्तृत विविधता में से चुनें। नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके स्पॉन्सरशिप के बारे में जानकारी लें 
 
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यह कार्यक्रम जल और पर्यावरण के क्षेत्र में निर्णय निर्माताओं और नीति निर्माताओं को आपके उत्पादों और सेवाओं को प्रदर्शित करने के लिए एक आदर्श मंच प्रदान करता है।नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके बूथ बुक करें 
 
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सम्मेलन या किसी भी प्रश्न के बारे में अधिक जानने के लिए संपर्क करें 

मो:-   +91-9818568825+91-9873556395

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ईमेल :-  wac@worldaquacongress.org

 
 
 
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यूसर्क द्वारा “वाटर एजुकेशन लेक्चर सीरीज” के अंतर्गत “जल स्रोत प्रबंधन के सफल प्रयास पर ऑनलाइन कार्यक्रम का आयोजन

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यूसर्क द्वारा “वाटर एजुकेशन लेक्चर सीरीज” के अंतर्गत “जल स्रोत प्रबंधन के सफल प्रयास पर ऑनलाइन कार्यक्रम का आयोजनHindiWaterTue, 07/20/2021 - 17:23
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यूसर्क

IASयूसर्क द्वारा “वाटर एजुकेशन लेक्चर सीरीज” के अंतर्गत “जल स्रोत प्रबंधन के सफल प्रयास पर ऑनलाइन कार्यक्रम का आयोजन

उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवम्‌ अनुसंधान केन्द्र (यूसर्क) देहरादून द्वारा आज दिनांक 20 जुलाई 2024 को 'जल शिक्षा व्याख्यानमाला श्रृंखला (वाटर एजुकेशन लेक्चर सीरीज)' के अंतर्गत 'जल स्रोत प्रबंधन के सफल प्रयास : भाग एक - भूजल (बेस्ट प्रैक्टिसिज इन वाटर रिसोर्स मैनेजमेंट: पार्ट वन - ग्राउंड वाटर)” विषय पर ऑनलाइन कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में यूसर्क की निदेशक प्रोफेसर (डॉ) अनीता रावत ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में बताया कि विगत 05 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर यूसर्क द्वारा 'उत्तराखंड में जल सुरक्षा एवं जलसंरक्षण केंद्रित पर्यावरणीय समाधान” विषय पर कार्यकम का आयोजन किया गया था जिसके अन्तर्गत विशेषज्ञों एवं वैज्ञानिकों ने जल के महत्व को देखते हुये यह निष्कर्ष दिया कि यूसर्क द्वारा जल संरक्षण, प्रबंधन, गुणवत्ता विषयक कार्यकमों को मासिक श्रंखला के आधार पर आयोजित किया जाये  जिसके क्रम  में आज “वाटर एजुकेशन लेक्चर सीरीज” के अंतर्गत प्रथम ऑनलाइन कार्यकम का आयोजन किया गया है। प्रो0 रावत ने अपने सम्बोधन में कहा कि पांच तत्वों में जल तत्व एक महत्वपूर्ण तत्व है जिसके बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना भी नहीं है। उन्होंने अपने संबोधन में उपस्थित प्रतिभागियों को बताया कि प्रभावकारी जल स्रोत प्रबंधन कार्य के लिए कम्युनिटी द्वारा पार्टिसिपेटरी एप्रोच के माध्यम से विभिन्‍न प्रकार के छोटे-बड़े जल स्रोतों का संवर्धन व संरक्षण परंपरागत तथा आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करके किया जा सकता है साथ ही साथ राज्य के विभिन्‍न भूभागों में जल से संबंधित समस्याओं के आधार पर उनके निदान की विशिष्ट तकनीकों का प्रयोग किया जा सकता है जिससे पर्वतीय जल स्रोतों का संवर्धन व संरक्षण उचित प्रकार से किया जा सकता है।

कार्यक्रम का संचालन करते हुए यूसर्क के वैज्ञानिक तथा कार्यक्रम समन्वयक डॉ भवतोष शर्मा ने कहा कि उत्तराखंड राज्य के जल स्रोतों के संवर्धन हेतु हम सभी को अपने आसपास के जल स्रोतों के संरक्षण व प्रबंधन करने के लिए सामाजिक सहभागिता के साथ कार्य करना होगा।

तकनीकी सत्र का प्रथम व्याख्यान केंद्रीय भूमि जल परिषद (सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड) उत्तरांचल क्षेत्र के क्षेत्रीय निदेशक डॉ प्रशांत राय ने “वाटर रिसोर्स मैनेजमेंट थ्रू रेन वाटर हार्वेस्टिं” विषय पर विशेषज्ञ व्याख्यान देते हुए उत्तराखंड राज्य के पर्वतीय भाग, मैदानी भाग तथा तराई भाग में भूजल की उपलब्धता, भूजल रिचार्ज के विभिन्‍न तरीके, भूविज्ञान, पृथ्वी के अंदर विभिन्‍न प्रकार की हार्ड एवम्‌ सॉफ्ट चट्टानों की स्थिति व उनमें भूजल रिचार्ज की संभावनाएं आदि पर विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि नेशनल एक्वीफर मैपिंग प्रोजेक्ट के अंतर्गत उत्तराखंड राज्य के विभिन्‍न जिलों में अवस्थित एक्वीफर का अध्ययन सीजीडब्ल्यूबी के द्वारा किया जा रहा है जिसके आधार पर भूजल रिचार्ज की विभिन्‍न विधियों को आवश्यकता के अनुसार अपनाया जाएगा।

तकनीकी सत्र का द्वितीय व्याख्यान हिमोत्थान (टाटा ट्रस्ट) देहरादून के वैज्ञानिक डॉ सुनेश शर्मा ने“वाटर सिक्युरिटी थू सिंप्रिगशेड मैनेजमेंट इन हिमालयन रीजन” विषय पर देते हुए विभिन्‍न प्रकार के एक्वीफर्स, सिंप्रग्स के सूखने के कारण व समाधान, स्प्रिग्स के डिस्चार्ज डाटा, उत्तराखंड राज्य में अलग अलग मौसम में होने वाली वर्षा में भिन्‍नता के आंकड़े व प्रभाव, वाटर गवर्नेंस, धारा जन्म पत्री व जल कार्ड के द्वारा जल स्रोतों के प्रवाह में अलग अलग समय में होने वाले परिवर्तनों के डाटा एकत्रीकरण आदि पर विस्तार से बताया। डॉ सुनेश ने कहा कि सामुदायिक प्रयासों से ही जलस्रोतों का प्रबंधन व पुनर्जीवन सफलतापूर्वक किया जा सकता है।

 द्वितीय तकनीकी सत्र में कार्यक्रम में उपस्थित प्रतिभागियों के प्रश्नों का समाधान विशेषज्ञों द्वारा प्रदान किया गया। कार्यक्रम का धन्यवाद ज्ञापन यूसर्क के वैज्ञानिक डॉ ओम्‌ प्रकाश नौटियाल द्वारा किया गया। कार्यक्रम में यूसर्क के वैज्ञानिक डॉ मंजू सुंदरियाल, डॉ राजेंद्र सिंह राणा, आईसीटी टीम के उमेश चन्द्र, ओम्‌ जोशी, राजदीप जंग, शिवानी पोखरियाल सहित डॉ दीपक खोलिया, डॉ अवनीश चौहान, नमामि गंगे के श्री रोहित ज्यारा सहित विभिन्‍न शिक्षण संस्थाओं के स्नातक, स्नातकोत्तर स्तर के विद्यार्थियों एवं शिक्षकों द्वारा प्रतिभाग किया गया।

 

 

 

 

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जलवायु परिवर्तन के संकट से कैसे लड़ रहे है पहाड़ के किसान

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जलवायु परिवर्तन के संकट से कैसे लड़ रहे है पहाड़ के किसान HindiWaterWed, 07/21/2021 - 16:10
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इंडिया हिंदी वाटर पोर्टल

पिछले करीब एक दशक से बदलते मौसम ने खेती को पूरी तरह से बदल दिया है जलवायु में आये परिवर्तन ने कुछ परंपरागत खेती पर भी असर डाला है पहाड़ो में किसान आमतौर ओर पूरी तरह बरसात के पानी पर निर्भर रहते है और अगर समय से बारिश न हो तो बोया हुआ बीज भी खेत से वापिस नही आता अब आप अंदाजा लगा सकते है कि जिस फसल के लिए किसान 6 महीने का लंबा इंतजार  करता है और 1 से 2 महीना लगातार खेतों  में काम करता है अंत मे वो फसल पूरी तरह भगवान भरोसे होती है

यानी किसान जुआ अपनी खेती के साथ हर 6 महीने में एक बार खेलता है जिसमे उसे ज्यादातर हार का ही सामना करना पड़ता है ,पानी के सरंक्षण को लेकर अगर कोई व्यक्तिगत रूप से प्रयास भी करता है तो पहाड़ो पर वो सफल नही हो पाते और अगर सरकार ग्रामीण को हौज बनाकर देती भी तो उसे भरने के लिए प्राकृतिक जल स्रोत पर्याप्त नही है ऐसे में किसान पूति तरह बरसात के पानी पर निर्भर रहता है

जनजातीय क्षेत्र जौनसार के किसान स्वराज चौहान कहते है कि मात्र एक गेंहू की फसल ही ऐसी है जिसे सबसे कम पानी की जरूरत होती है बाकी इसके अलावा हर फसल को समय समय पर पानी की जरूरत होती है और क्या कुछ कहा किसान स्वराज चौहान ने सुनिए उनके साथ हुई बातचीत का पूरा साक्षात्कार

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शेरनी:पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण पर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास

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शेरनी:पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण पर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास HindiWaterThu, 07/22/2021 - 17:36
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इंडिया हिंदी वाटर पोर्टल

अगर विकास के साथ जीना है तो पर्यावरण को बचा नहीं सकते और अगर पर्यावरण को बचाने जाओ तो विकास बेचारा उदास हो जाता है।’ ये संवाद फिल्म ‘शेरनी’ की पूरी कहानी एक लाइन में बयां कर देता है।

हाथी मेरे साथी’। उसके एक गाने की लाइन है, ‘जब जानवर कोई इंसान को मारे, कहते हैं दुनिया में वहशी उसे सारे, एक जानवर की जान आज इंसान ने ली है, चुप क्यों हैं संसार…!’ संसार की इसी चुप्पी पर निर्देशक अमित मसुरकर का दिल रोया है फिल्म ‘शेरनी’ बनकर

जन, जंगल और जिंदगी के बीच झूलती अमित की ये नई फिल्म उस फिल्मकार की विकसित होती शैली की एक और बानगी है जिसकी पिछली फिल्म ‘न्यूटन’भी इन तीन मुद्दों की भूलभुलैया का रास्ता तलाश रही थीफ़िल्म का एक बड़ा हिस्सा जंगल और इंसान के रिश्ते को दोहराता दिखता है

ये दिखाता है कि मध्य प्रदेश का वन विभाग जंगल में बसे लोगों को कैसे रोजी रोटी में मदद कर रहा है। कैसे जंगल में बसे लोगों को जंगल का दोस्त बनाकर जंगलों और इंसानों दोनों को बचाया जा सकता है। और, ये भी कि कैसे जंगल विभाग के अफसर अपने वरिष्ठों को खुश करने के लिए अपने ही पेशे से गद्दारी करते रहते हैं।

पर्यावरण और जंगली जीवो पर आमतौर पर बेहद कम फिल्में बनती है लेकिन जब भी ऐसी फिल्में बनती है तो निर्देशक की मंशा बिल्कुल साफ होती है कि की वो फ़िल्म कमाई के लिए नही संदेश के लिए बना रहे है ये फ़िल्म जानवरों और पर्यावरण से  प्यार का  एक बहुत बड़ा संदेश देता है

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गंगा का पानी प्लास्टिक और माइक्रोप्लास्टिक से प्रदूषित, अध्ययन में पता चला

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गंगा का पानी प्लास्टिक और माइक्रोप्लास्टिक से प्रदूषित, अध्ययन में पता चलाHindiWaterSat, 07/24/2021 - 12:09
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टॉक्सिक्स लिंक

गंगा का पानी प्लास्टिक और माइक्रोप्लास्टिक से प्रदूषित, अध्ययन में पता चला(फोटोःToxics link )

दिल्‍ली स्थित एनजीओ टॉक्सिक्स लिंक द्वारा जारी 'गंगा नदी के किनारे माइक्रोप्लास्टिक्स का मात्रात्मक विश्लेषण' नामक एक नए अध्ययन में आज पाया गया कि नदी माइक्रोप्लास्टिक से बहुत अधिक गंदी हो गई है।इस अध्ययन के परिणामों से हरिद्वार, कानपुर और वाराणसी में नदी से लिए गए सभी नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक पाया गयाहै। यह पाया गया है कि नदी का पानी कई प्रकार के प्लास्टिक से गंदी हो गई है, जिसमें एक बार इस्तेमाल होने वाले और लास्टिक से बनने वाले सेकेंडरी उत्पाद शामिल हैं, इसकी सबसे अधिक मात्रा वाराणसी में पाई गई है। नदी के किनारे कई शहरों से गैर-शोधित सीवेज, औद्योगिक कचरे और बिना गलने वाले प्लास्टिक में लिपटे धार्मिक प्रसाद से नदी में भारी मात्रा में प्रदूषक मिल रहे हैं क्योंकि यह ऐसे कई शहरों से होकर बहती है जो घनी आबादी वाले हैं। प्लास्टिक उत्पादों और कचरे को नदी में छोड़ दिया या फेंक दिया जाता है और जो आखिरकार छोटे-छोटे टुकड़ों में बदल जाते हैं और नदी अंततः बड़ी मात्रा में इन कचरों को नीचे समुद्र में ले जाती है जो मनुष्यों द्वारा उपयोग किए जा रहे सभी प्लास्टिक का अंतिम सिंक है। टॉक्सिक्स लिंक की मुख्य समन्वयक प्रीति महेश ने कहा कि “निश्चित तौर पर सभी माइक्रोप्लास्टिक नदी में बह रहे हैं। यह ठोस और तरल कचरा प्रबंधन दोनों की खराब स्थिति के बीच सीधे संबंध को दर्शाता या बताता है, इसलिए इसे ठीक करने के लिए कदम उठाना जरूरी है।

 
हरिद्वार, कानपुर और वाराणसी में नदी से पानी के पांच नमूने इक ट्रा कर गोवा में राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान (National Institute of Oceanography)  के सहयोग से नदी के पानी की जांच की गई है। सटीक प्रकार या मुख य गाद की पहचान केलिए एफ टी आई आर के माध्यम से नमूनों की जांच की गई और परिणाम दर्शाते हैं कि गंगा के पानी में माइक्रोप्लास्टिक के तौर पर महत्वपूर्ण रूप से 40 अलग-अलग प्रकार के पॉलिमर मौजूद हैं। सभी तीनों स्थानों  में ईवीओएच, पॉलीएसिटिलीन, पीआईपी, पीवीसी और पीवीएएल जैसे रेजिन भारी मात्रा में मौजूद थे। देखे गए रेजिन के आकार और प्रकृति रेशे से लेकर टुकड़े, पतली झिल ली और मोती के दाना जैसे थे। सभी  स्थानों  में सबसे अधिक टुकड़ों के आकार के रेजिन थे जिसके बाद पतली झिल्ली और मोती के दाना जैसे रेजिन पाए गए। अन्य दो शहरों की तुलना में वाराणसी में गंगा नदी में सबसे अधिक माइक्रोप्लास्टिक पाई गई। परिणाम की बात करें तो जहां हरिद्वार में माइक्रोप्लास्टिक गंदगी की मात्रज्ञ कम है तो वह नदी के वाराणसी तक पहुंचने पर और गंदगी दर्शा रहे हैं। वाराणसी और कानपुर में एकदम छोटे-छोटे दाने देखे गए जबकि हरिद्वार में कोई दाने नहीं पाया गया। एनआईओ के प्रमुख अनुसंधानकर्ता डॉ. महुआ साहा ने बताया कि "वाराणसी और कानपुर की तुलना में हरिद्वार में एमपी/मी (1.30+0.5148) की संख्या सबसे कम थी। सभी नमूनों में सबसे अधिक


गंगा में माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण के कई प्रभाव हो सकते हैं, क्योंकि इसके पानी का उपयोग कई तरह के कामों के लिए किया जाता है, जिससे पर्यावरण के साथ-साथ इंसान के स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। नदी अपने किनारे बसे शहरों के लिए पीने के पानी का प्रमुख स्रोत है और माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण एक चिंता का कारण है। हालांकि वर्तमान में स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है, लेकिन इस तथ्य को जानना और ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्लास्टिक में कई प्रकार के एडिटिव्स और रसायन होते हैं जो ज्ञात जहरीले पदार्थ हैं जो पानी में मिल सकते हैं। दुनिया भर के  विभिन्न संस्थानों के अनुसंधान भी बताते हैं कि माइक्रोप्लास्टिक फिल्टर सिस्टम से गुजर कर अंत में हमारे शरीर में जा सकते हैं। फेंक दिए गए  लास्टिक कचरे समुद्री पानी को गंदा कर देते हैं जिससे समुद्री जीवन और उस पर निर्भर रहने वाले जीवों को गंभीर परिणाम भुगतना पड़ता है और समुद्री जीवों द्वारा माइक्रोप्लास्टिक को खाने की वजह से खाद्य जाल प्रभावित हो रहा है। समुद्री कचरों के कारण 663 से अधिक प्रजातियों पर गलत प्रभाव पड़ा है और इनमें से 4% केवल माइक्रोप्लास्टिक खाने से संबंधित है। ये माइक्रोप्लास्टिक  नदी से निकलकर समुद्रों में जा रहे हैं जिससे कारण समुद्री जीवन और खाद्य जाल में गंभीर खतरा या असंतुलन पैदा हो सकता है।

 हालांकि देश में प्लास्टिक कचरा प्रबंधन नियम लागू है, लेकिन उसको सही तरीके से लागू नहीं किया गया है। प्लास्टिक को लागू करने में सुधार के साथ-साथ सिंगल यूज़ वाले प्लास्टिक पर सख्त प्रतिबंध लगाना बहुत जरूरी है। इसके साथ ही, माइक्रोप्लास्टिक और हमारी नदियों पर उनके प्रभावों पर अधिक डेटा और शोध की आवश्यकता है। टॉक्सिक्स लिंक के एसोसिएट डायरेक्टर सतीश सिन्हा ने कहा कि 

हमें जलीय जीवन पर प्लास्टिक के खतरे को अधिक वास्तविक रूप से देखने और भविष्य को ध्यान में रखते हुए इससे निपटने की जरूरत है। उद्योग, सरकार, नागरिक समाज संगठनों सहित विभिन्न दावेदारों को प्लास्टिक कचरा प्रबंधन में सुधार और बाद में माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण में कमी के लिए हाथ मिलाने की जरूरत है।

 

पूरी रिपोर्ट पढ़ने के  लिए संलग्न को पढ़े :-  
 

 
 

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वायु प्रदूषण के सटीक आकलन और विश्लेषण के लिए नया मॉडल

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वायु प्रदूषण के सटीक आकलन और विश्लेषण के लिए नया मॉडलHindiWaterMon, 07/26/2021 - 12:18
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इंडिया साइंस वायर

वायु प्रदूषण के सटीक आकलन और विश्लेषण के लिए नया मॉडल(फोटोःक्रिएटिव कॉमंस )

सर्दियों के दौरान उत्तर-पश्चिम भारत और विशेषकर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली केवल ठंड से ठिठुरन की चपेट में ही नही आते, बल्कि इस दौरान बढ़े वायु-प्रदूषण की समस्या भी इन इलाकों को खासा परेशान करती है। यहां तक कि अदालतें भी सर्दियों के दौरान दिल्ली-एनसीआर की आबोहवा की तुलना गैस चैंबर से कर चुकी हैं। सर्दियों के साथ आने वाली इस चुनौती से निपटने के लिए मौसम वैज्ञानिकों ने एक डिसिजन सपोर्ट सिस्टम (डीएसएस) विकसित किया है। इससे न केवल दिल्ली के प्रदूषण के स्रोतों को लेकर सटीक जानकारी उपलब्ध हो सकेगी, बल्कि सर्दियों के लिए एक व्यावहारिक परिदृश्य का अनुमान लगाना भी आसान होगा। 

व्यावहारिक परिदृश्य अनुमान से प्रदूषण के स्तर और उसके स्रोत के विषय में जानकारी मिलने से सरकार इस दिशा में आवश्यक कदम उठा सकती है और सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों के हिसाब से रणनीति बना सकती है। उदाहरण के तौर पर यदि किसी क्षेत्र में विशेष प्रकार की गतिविधियों से प्रदूषण में बढ़ोतरी हो रही है, वहां उन्हें सीमित किया जा सकता है। इससे दिल्ली की वायु गुणवत्ता सुधारने में बड़ी मदद मिलेगी। 

दिल्ली के अलावा उसके आसपास के 19 जिले ऐसे हैं, जहां सर्दियोंके दौरान प्रदूषण स्तर खतरे की सीमा रेखा को लांघ जाता है। ऐसे में इस नए मॉडल से केवल अटकल और पूर्व अनुभवों के आधार पर लिए जाने वाले फैसलों के स्थान पर ठोस निर्णय लेने में भी मदद मिलेगी। 

वायु प्रदूषण के सटीक आकलन और विश्लेषण के लिए नया मॉडल(फोटोःक्रिएटिव कॉमंस )

इस मॉडल को पुणे स्थित भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) के वैज्ञानिकों ने विकसित किया है। इस वर्ष अक्टूबर तक यह प्रयोग के लिए उपलब्ध भी होगा। आईआईटीएम के परियोजना प्रमुख सचिन घुडे बताते हैं, 'हमने दिल्ली और आसपास के 19 जिलों में प्रदूषण के प्रत्येक स्रोत का पता लगाने वाला मॉडल बनाया है। हमने प्रत्येक स्रोत की पड़ताल की है, प्रत्येक जिले और प्रत्येक गतिविधि के हिसाब से उसे वेटेज दिया है और उसके आधार पर ही हम संबंधित जिलों और संबंधित गतिविधियों के दिल्ली के प्रदूषण में योगदान को लेकर किसी नतीजे पर पहुंचे हैं।' 

यह डीएसएस मॉडल इस बात को चिन्हित कर सकता है कि परिवहन क्षेत्र की गतिविधियों से किसी दिन विशेष में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) पर कितना प्रभाव पड़ा या फिर पंजाब और हरियाणा में पराली जलने के कारण एक दिन में एक्यूआई कितना प्रभावित हुआ। इतना ही नहीं यह एक जिले की वस्तुस्थिति को दर्शाने में भी सक्षम है। जैसे यह मेरठ में प्रदूषण और उसके दिल्ली पर पड़ने वाले असर की पड़ताल करने में कारगर साबित हो सकता है। उसके आधार पर आवश्यकता और अपेक्षा के अनुरूप रणनीति बनाने में सहूलियत होगी। 

वर्तमान में आईआईटीएम वर्ष 2018 से दिल्ली के लिए तीन दिवसीय और 10 दिवसीय वायु गुणवत्ता अनुमान जारी करता है। इसके आधार पर ही केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी)आवश्यक कदम उठाता है। इसमें निर्माण गतिविधियों पर अस्थायी विराम और परिवहन के मोर्चे पर गतिविधियों को सीमित करने जैसे कई कदम उठाए जाते हैं। 

 

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पीएम मोदी का बचपन जहाँ गुजरा कभी वहां था सूखा आज बदल गई पूरी तस्वीर 

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पीएम मोदी का बचपन जहाँ गुजरा कभी वहां था सूखा आज बदल गई पूरी तस्वीर HindiWaterMon, 07/26/2021 - 12:59
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मन की बात

पीएम मोदी का बचपन जहाँ गुजरा कभी वहां था सूखा आज बदल गई पूरी तस्वीर (फोटोःमन की बात )

 पीएम मोदी ने मन की बात में जल संरक्षण को लेकर बड़ी बात कही। पीएम मोदी ने कहा जल संरक्षण मेरे दिल के बेहद करीब है। उन्होंने कहा जहां मेरा बचपन  गुजरा  वह हमेशा से पानी की किल्लत रहती थी। हम पानी के लिए तरसते थे और पानी की एक-एक बूंद बचाना हमारे संस्कारों का हिस्सा रहा है। जन भागीदारी  से जल संरक्षण के मंत्र ने वहाँ की तस्वीर बदल दी है पानी की एक-एक बूंद को बचाना किसी भी तरफ पानी की बर्बादी को रोकना है यह हमारे जीवन शैली का हिस्सा बन जाना चाहिए।

हमारे परिवारों की यह कैसी परंपरा बन जाना चाहिए जिससे हमारे प्रत्येक सदस्य को गर्व होना चाहिए। उन्होंने कहा कि प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा भारत के सांस्कृतिक जीवन में, हमारे दैनिक जीवन में, रचा बसा हुआ है। वहीं, बारिश और मानसून हमेशा से हमारे विचारों, हमारी फिलोसोसोफी और हमारी सभ्यता को आकार देते आए हैं। ऋतुसंहार और मेघदूत में महाकवि कालिदास ने वर्षा को लेकर बहुत ही सुंदर वर्णन किया है।

साहित्य प्रेमियों के बीच ये कवितायें आज भी बेहद लोकप्रिय हैं। ऋग्वेद के पर्जन्य सुक्तम में भी वर्षा के सौन्दर्य का खूबसूरती से वर्णन है। इसी तरह, श्रीमद् भागवत में भी काव्यात्मक रूप से पृथ्वी, सूर्य और वर्षा के बीच के संबंधों को विस्तार दिया गया है।सूर्य ने आठ महीने तक जल के रूप में पृथ्वी की संपदा का दोहन किया था, अब मानसून के मौसम में, सूर्य, इस संचित संपदा को पृथ्वी को वापिस लौटा रहा है।

वाकई, मानसून और बारिश का मौसम सिर्फ खूबसूरत और सुहाना ही नहीं होता बल्कि यह पोषण देने वाला, जीवन देने वाला भी होता है। वर्षा का पानी जो हमें मिल रहा है वो हमारी भावी पीढ़ियों के लिए है, ये हमें कभी भूलना नहीं चाहिए। वहीं इससे पहले भी प्रधानमंत्री पीएम मोदी ने जल संरक्षण को लेकर उत्तराखंड की सच्चिदानंद की तारीफ की थी उन्होंने जल संरक्षण करने के उनके प्रयासों की सहराना की थी।

अक्सर मन की बात में पीएम मोदी पानी और पर्यावरण को लेकर चिंता जाहिर कर चुके है। और  इसके प्रति लोगों  को जागरूक करने के लिये उन स्थानों और नागरिकों के बारे बताते है जिन्होंने जल संरक्षण के लिए बेहतर कार्य किया ।

स्वस्थ गंगा: अविरल गंगा: निर्मल गंगा

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स्वस्थ गंगा: अविरल गंगा: निर्मल गंगाHindiWaterMon, 07/26/2021 - 15:01

स्वस्थ गंगा:अविरल गंगा:निर्मल गंगार (फोटोःइंडिया वाटर पोर्टल )

20 जुलाई 2021 को गंगा भक्त डा. जी. डी. अग्रवाल (स्वामी ज्ञान स्वरूपजी सानन्द) के 89 वें जन्म दिन पर एक वीडियो मीटिंग आयोजित की गई थी। उस समाचार ने गंगा नदी परिवार की चिन्ता करने वाले अनेक लोगों को एक बार पुनः प्रेरित किया कि वे इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान आकर्षित करें। यह आलेख उसी कडी का हिस्सा है। सभी जानते हैं कि वह, देश की लगभग 43 प्रतिशत आबादी की आवश्यकताओं की पूर्ति का पर्याय है।
 
गंगा के स्वस्थ बने रहने का अर्थ है उसके कछार, उसकी सहायक नदियों, समूचे नदीतंत्र की जैव-विविधता और कछार में पल रहे जीवन का स्वस्थ रहना। अर्थात यदि गंगा अस्वस्थ है तो जाहिर है उसका कछार, उसकी सहायक नदियाँ और उसकी जैवविविधता पर खतरा है। उल्लेखनीय है कि गंगा नदी के तंत्र को स्वस्थ रखने का काम बरसाती पानी, कछार का भूगोल, भूजल तथा ग्लेसियरों का योगदान करता है। इस योगदान को प्रकृति नियंत्रित करती है। सभी जानते हैं कि गंगा कछार की हर छोटी बड़ी  नदी का प्राकृतिक दायित्व है - गाद और घुलित रसायनों को समुद्र को समर्पित करना। यह काम साल भर चलता रहता है। इस व्यवस्था के कारण धरती का अवांछित कचरा समुद्र में पहुँच जाता है। यही काम गंगा नदी का तंत्र भी करता है। वह हिमालय, अरावली तथा विन्ध्याचल पर्वत माला से कचरा (मुख्यतः गाद) एकत्रित कर गंगा की मुख्य धारा को सौंप देता है। गंगा की मुख्य धारा उसे बंगाल की खाड़ी को सौंप देती है। गंगा कछार की उथली परतों की साफ-सफाई का काम भूजल करता है। उसी के योगदान के कारण गंगा और उसकी सहायक नदियों की धारा अविरल रहती हैं।

गंगा नदी तंत्र का कैचमेंट हिमालय, अरावली और विन्ध्याचल पर्वतमाला में स्थित हैं। भारत सरकार द्वारा 1990 में प्रकाशित नेशनल वाटरशेड एटलस के अनुसार गंगा नदी तंत्र में 836 वाटरशेड, 126 सहायक केचमेंट और 22 केचमेंट हैं। उन कैचमेंटों से निकलने वाली नदियाँ, अपने से बड़ी नदी से मिलकर अन्ततः गंगा में समा जाती है। यह सही है कि गंगातंत्र की कुछ नदियाँ के पानी का का स्रोत हिमालयीन ग्लेसियर है तो कुछ के पानी का स्रोत  मानसूनी वर्षा।  हिमालय, अरावली तथा विन्ध्याचल पर्वत माला से निकलने वाली नदियों का पूरा तंत्र मिलकर उसे स्वस्थ, अविरल और निर्मल बनाता है। मौजूदा समय में गंगा नदी के समूचे नदी तंत्र की सेहत, गैरमानसूनी विरलता और निर्मलता पर संकट है। बरसात के लगभग चार माह छोडकर बाकी आठ माहों में ये सभी संकट लगातार बढ़ रहे हैं। कछार संवारें: गंगा संवरेगी भारत सरकार ने सन 1986 में गंगा एक्सन प्लान (प्रथम) प्रारंभ किया था। उस समय देश के अधिकांश लोगों द्वारा सोचा गया था कि गंगा तट पर बसे, उत्तरप्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के 25 शहरों की गंदगी को गंगा नदी में मिलने से रोकने मात्र से, गंगा नदी का पानी स्नान योग्य हो जावेगा। अनेक सीवर ट्रीटमेंट प्लान्ट बने पर बात नहीं बनी। 

अगस्त 2009 में यमुना, महानदी, गोमती और दामोदर की सफाई को जोड़कर गंगा एक्सन प्लान (द्वितीय ) प्रारंभ किया गया। जुलाई 2013 की केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल की रिपोर्ट बताती है कि गंगोत्री से लेकर डायमण्ड हार्बर तक समूची गंगा मैली है। इसके अतिरिक्त, हिमालयीन इलाके की जल विद्युत योजनाओं द्वारा रोके पानी और मैदानी इलाकों में सिंचाई, उद्योगों और पेयजल के लिये, विभिन्न स्रोतों से उठाये पानी के कारण गंगा तक के प्रवाह पर संकट के बादल हैं। 
कहा जा सकता है कि सन 1986 में प्रारंभ किये गंगा एक्शन प्लान का नजरिया सीमित था पर हालिया विमर्शों तथा सामाजिक संगठनों के सुझावों के कारण, गंगा नदी तंत्र से जुड़े गंभीर मुद्दों की समझ बेहतर हुई है। अनेक नये और प्रासंगिक आयाम सामने आये हैं। योजना प्रबन्धकों की समझ बेहद परिष्कृत हुई है। लेकिन सब जानते हैं, बिना पूरा कछार संवारे, गंगा नहीं संवरेगी। उसके कैचमेंट की वन भूमि को अभियान का अभिन्न अंग बनाए बिना प्रवाह वृद्धि का लक्ष्य परवान नहीं चढ़ेगा।

विदित है, गंगा कछार में पनपने वाली प्राकृतिक गंदगी तथा मानवीय गतिविधियों के कारण उत्पन्न सभी प्रकार के दृष्य और अदृष्य प्रदूषण को हटाने का काम बरसात करती है। इस व्यवस्था के कारण, हर साल, भारत की 43 प्रतिशत आबादी को प्रभावित करने वाली धरती और नदी-नालों में जमा गन्दगी काफी हद तक साफ हो जाती है। बिना कुछ खर्च तथा प्रयास किये, लाखों टन गंदगी, करोड़ों टन सिल्ट और प्रदूषित मलवा बंगाल की खाड़ी में जमा हो जाता है। यह भी सही है कि उसका कुछ हिस्सा बांधों के पीछे जमा होता है और बाढ़ पैदा करता है। सरकार की चुनौती बरसात बाद गंगा नदी तंत्र में मिलने वाले प्रदूषण को ठीक करने की है। यह काम एवं उपचारित पानी का पुनःउपयोग केन्द्र सरकार के प्रदूषण नियंत्रण मंडल द्वारा निर्धारित कायदे-कानूनों (मानकों) के अनुसार हो सकता है। इसके लिये ट्रीटमेंट प्लान्टों को चैबीसों घंटे पूरी दक्षता एवं क्षमतानुसार चलाना होगा। ठोस अपशिष्टों की शत-प्रतिशत रीसाइकिलिंग करना होगा। कछार की प्रदूषित मिट्टी और पानी को गन्दगी मुक्त बनाना होगा। गंगा और उसकी सहायक नदियों के पानी की गुणवŸाा की मानीटरिंग और रिपोर्ट कार्ड व्यवस्था लागू करना होगा।  पानी की गुणवत्ता पर निगरानी के लिए समाज को भी लामबद्ध करना होगा। उन्हें देशज तरीकों से की जाने वाली प्रदूषण निगरानी से जोड़ना होगा। देशज तरीकों में जलीय जीव-जन्तुओं की उपस्थिति तथा पानी के उपयोग के साइड-इफेक्ट, उत्पादन, स्वाद तथा बीमारियाँ अच्छे इंडीकेटर सिद्ध होते है।  

विदित है कि गंगा कछार में स्थित कल-कारखानों तथा बसाहटों इत्यादि का अनुपचारित प्रदूषित जल का कुछ हिस्सा धरती में रिस कर भूजल भंड़ारों को प्रदूषित करता है। भूजल भंड़ारों का पानी धरती के नीचे-नीचे चल कर गंगा और उसकी सहायक नदियों को मिलता है। उसे रोकने की आवश्यकता है। कुछ प्रदूषण गंगा कछार में हो रही रासायनिक खेती के कारण है। यह अदृश्य किन्तु बेहद व्यापक खतरा है। यह खतरा, सीमित स्थानों या प्वाईंट सोर्स पर होने वाले खतरे की तुलना में अधिक खतरनाक है। यह खतरा नंगी आँखों से नहीं दिखता। अधिकांश लोगों की समझ में भी नहीं आता लेकिन प्रदूषित भूजल, कछार की मिट्टी को जहरीला बना, सहायक नदियों के मार्फत अन्ततः गंगा और बंगाल की खाड़ी को मिलता है। आर्गेनिक खेती और जैविक कीटनाशकों की मदद से ही गंगा कछार की प्रदूषित होती मिट्टी, पानी और खाद्यान्नों को समस्यामुक्त करना संभव है। 

अनेक स्थानीय एवं प्राकृतिक कारणों से, गंगा सहित उसकी सभी सहायक नदियों में गैर-मानसूनी प्रवाह कम हो रहा है। इसका पहला कारण बाँध हैं। बाँधों के कारण जल प्रवाह अवरुद्ध होता है। उसकी निरन्तरता पर असर पड़ता है। इसके अलावा, नदियों से सीधे पानी उठाने के कारण भी जल प्रवाह घटता है। यह नदियों में जल प्रवाह के घटने का पहला कारण है। दूसरे, बरसात बाद गंगा नदी की अधिकांश नदियों के कैचमेंट तथा जंगलों से मिलने वाले पानी के योगदान में कमी आ रही है। इसका मुख्य कारण, कैचमेंट में हो रहा भूमि कटाव है। भूमि कटाव के कारण कैचमेंट की मिट्टी की परतों की मोटाई घट रही है। कहीं कहीं वह समाप्त हो गईं है। मोटाई घटने के कारण भूजल संचय घट रहा है। संचय घटने के कारण कैचमेंट की क्षमता घट गई है। क्षमता घटने के कारण, पानी देने वाले एक्वीफर, बरसात बाद, बहुत जल्दी खाली हो रहे है। यह नदियों में जल प्रवाह घटने या सूखने का मुख्य कारण है। तीसरे, गंगा कछार में भूजल का दोहन बढ़ रहा है। भूजल दोहन के बेतहाशा बढ़ने के कारण भूजल स्तर, नीचे तेजी से उतर रहा है। उसके नदी तल के नीचे पहुँचते ही नदी का प्रवाह रुक जाता है।
  
अन्त में, गंगा और उसकी सहायक नदियों की प्राकृतिक व्यवस्था को बहाल करने के लिये गंगा नदी तंत्र की सभी नदियों के प्रवाह में बढ़ोतरी  करना होगा। उनके प्रवाह को अविरल और नदियों को बारहमासी बनाना होगा। घटते जल प्रवाह को बढ़ाने के लिये गंगा नदी घाटी की चारों बेसिनों, उनके सभी 22 कैचमेंटों, 126 उप-कैचमेंटों और 836 वाटरशेडों में समानुपातिक भूजल रीचार्ज, कटाव रोकने तथा मिट्टी की परतों की मोटाई के उन्नयन के काम को लक्ष्य प्राप्ति तक करना होगा।  प्रदूषण मुक्ति के काम को युद्ध स्तर पर करना होगा। प्रदूषण करने वालों की जिम्मदारी और भूमिका तय करनी होगी। समय सीमा में काम करना होगा। समाज को प्रयासें में भागीदार बनाना होगा। तभी गंगा का कछार संवरेगा, तभी गंगा संवरेगी। तभी उसकी निर्मलता और पवित्रता लौटेगी। तभी वह स्वस्थ होगी। 
 

मिलिए 12 हज़ार गायों को बचाने वाले गौरक्षक से

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मिलिए 12 हज़ार गायों को बचाने वाले गौरक्षक सेHindiWaterTue, 07/27/2021 - 11:35
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रिपोर्ट-अंकित तिवारी

पिछले कुछ सालों से गौ क्षक अपने काम को लेकर विवादों में रहे है जो काम उन्हें करना चाहिए उसे छोड़ मोब लिंचिंग में व्यस्त हो गए है। जिसके कारण सामज में उनकी एक नकारात्मक छवि बन गई है। लेकिन  आज हम आपको एक ऐसे गौरक्षक से मिलायेंगे जिन्होंने, गौरक्षक की क्या जिम्मेदारी होती है उसकी एक छोटी सी मिसाल पेश की है

उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के रहने वाले और गौपुत्र संस्था के  संस्थापक  प्रशांत शुक्ला एक फार्मा कंपनी चलाने के साथ पिछले 6 साल से गायों की सेवा कर रहे हैं और अब तक करीब 12 हज़ार गायों  का निशुल्क इलाज करने के साथ ही उनके लिए 1100 से अधिक पानी पीने की टंकियों विभिन्न क्षेत्रों में लागा चुके है।  प्रशांत ने कई गायों को कई बार गौ तस्करों के  चंगुल से भी बचाया है। 

अब तक हजारों गायों का  इलाज कर चुके प्रशांत बताते है कि वह अपने जिले में एक एनिमल इमरजेंसी सेवा भी संचालित करते है जिसमें वह हाइवे में बीमार और सड़क दुर्घटना में चोटिल  गायों को रेस्क्यू कर उनका निशुल्क  इलाज करते है और तब तक उसे छोड़ते नही जब तक वह पूरी तरह स्वास्थ्य ना हो जाए। प्रशांत आगे कहते है कि उनकी संस्था हर साल गायों के इलाज पर  8 से 10 लाख रुपए खर्च करती है । और उन्हें ये पूरा ख़र्चा आमजन के सहयोग से प्राप्त होता है। 

प्रशांत का मानना है कि अगर आप अच्छा काम कर रहे है और  आपके  काम मे खोट भी नही है तो लोग खुदी ही आपकी मदद करने के लिये आगे आ जाते है। उन्होंने भी आज तक निरस्वार्थ भाव से काम किया इसलिए लोग इन नेक कार्य के लिये उनकी मदद कर रहे है

प्रशांत को उनके इस कार्य के लिए राज्य के मंत्री, विधायक से लेकर जिला अधिकारी तक सम्मानित कर चुके हैं । प्रशांत का गौ सेवा का  ये अनोखा  प्रयास एक दिन जरूर समाज मे गोरक्षक की नकारात्मक छवि को बदल देगा। 

 

देश के प्रमुख राज्यों में जल स्तर कम होने से बढ़ सकती है महंगाई

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देश के प्रमुख राज्यों में जल स्तर कम होने से बढ़ सकती है महंगाईHindiWaterMon, 08/02/2021 - 16:10
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देश के प्रमुख राज्यों में जल स्तर कम होने से बढ़ सकती है महंगाई (फोटोःइंडिया वाटर पोर्टल )

मानसून ने अब तक पूरे भारत को कवर किया है, लेकिन सरकारी आंकड़ों के अनुसार, पंजाब, गुजरात, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सहित नौ राज्यों के जलाशयों में जल स्तर अभी भी पिछले साल की तुलना में काफी कम है  इसके साथ ही हिमाचल प्रदेश, त्रिपुरा, नागालैंड और छत्तीसगढ़ में भी पानी सामान्य से नीचे आ गया  है।

सामान्य से कम पानी वाले प्रमुख राज्यों में पंजाब, ओडिशा, राजस्थान और मध्य प्रदेश शामिल है जिनमें 27 प्रतिशत, 15 प्रतिशत, 13 प्रतिशत और 13 प्रतिशत की कमी के साथ सबसे अधिक अंतर देखा गया। हालांकि पानी की सबसे अधिक गंभीर स्थिति नागालैंड और हिमाचल प्रदेश में  है,  जहां सामान्य से 46 फीसदी और 39 फीसदी पानी कम हो गया है 

अर्थव्यवस्था के विभिन्न दृष्टिकोण से  सिंचाई, बिजली और पेयजल आपूर्ति के लिए तजलाशय का स्तर महत्वपूर्ण हो जाता  है। देश भर में सिंचाई प्रणालियों के बढ़ते उपयोग का मतलब है कि भारत के कृषि उत्पादन के लिए पानी का भंडारण  बेहद जरुरी हो गए है। पंजाब, मध्य प्रदेश, यूपी, गुजरात, ओडिशा और राजस्थान जैसे महत्वपूर्ण कृषि राज्यों में  खाद्य उत्पादन में कमी आने की संभावना है क्योंकि ये राज्य दलहन और तिलहन जैसे खाद्य पदार्थों  का सबसे अधिक  उत्पादन करते है। यह उत्पादन मुद्रास्फीति को और अधिक बढ़ावा देगा, दालों और तिलहनों की बाजार कीमतें पिछले साल की तुलना में पहले ही अधिक हुई  हैं।

जल शक्ति मंत्रालय के पूर्व सचिव शशि शेखर  द्वारा एक निजी न्यूज़ एजेंसी को दिए गए इंटरव्यू में बताया कि

“जलाशय के पानी का उपयोग खरीफ और विशेष रूप से धान की खेती के लिए किया जाता है और यह दो बारिश के बीच के अंतराल में जल की  आपूर्ति करता है। मानसून के देर से आने और बांधों में पानी का स्तर कम होने के चलते  पिछले साल की तुलना में इस साल बुवाई में काफी कमी देखी गई है"

उन्होंने कहा कि मानसून के समय जलविद्युत संयंत्र अधिक बिजली पैदा करते हैं, बांधों में अधिक पानी जमा होने के बाद उन्हें छोड़ दिया जाता है । 

"हालांकि, पानी की निम्न स्तर होने के कारण, बिजली उत्पादन भी बाधित हुआ है क्योंकि जलाशयों को रबी फसलों के लिए भी पानी उपलब्ध कराना है ऐसे में  जलाशयों का पूरा पानी बिजली उत्पादन के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते है" 

कृषि मंत्रालय के अनुसार, वर्षा आधारित कृषि देश के कुल बोए गए क्षेत्र का 51 प्रतिशत है और कुल खाद्य उत्पादन का लगभग 40 प्रतिशत है।देश भर में 130 जलाशयों पर  केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) के  नए आंकड़े बताते है कि , 29 जुलाई तक  भारत के मध्य क्षेत्र  राज्य  - एमपी, यूपी, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में जलाशयों का भंडारण पिछले साल की तुलना में कम हुआ है ।

इन क्षेत्रों में पानी का मौजूदा स्तर भी इसी अवधि में पिछले दशक के औसत से भी कम हुआ है।उत्तरी क्षेत्र - हिमाचल प्रदेश, पंजाब और राजस्थान के जलाशयों  की  अमूमन  यही स्थिति है। इस क्षेत्र के आठ जलाशयों में भंडारण का स्तर कुल भंडारण क्षमता का 33 प्रतिशत है। पिछले वर्ष जहाँ जलाशयों में भंडारण 44 प्रतिशत था,वही पिछले दशक में इसकी औसत भंडारण 48 प्रतिशत के करीब था । 

वही सिंधु और नर्मदा जैसी प्रमुख नदियों में  भी बेसिन के भंडारण की स्थिति में कमी आई है। सीडब्ल्यूसी के आंकड़ों के अनुसार, नर्मदा, मध्य प्रदेश में एक बड़े जल निकासी क्षेत्र के आलावा भारत की सबसे बड़ी नदियों में से एक है, जिसमें इस वर्ष अब तक 25.85 प्रतिशत बेसिन में पानी का भंडारण है,जो पिछले वर्ष  26.74 प्रतिशत था।

अगर आगे भी  यही स्तिथि रही तो मध्य प्रदेश में प्रमुख आगामी फसलों की बुवाई और उत्पादन में बाधा आएगी, जो पहले से ही कम जलाशय भंडारण का सामना कर रहा है।राज्य सोयाबीन का सबसे बड़ा उत्पादक है, जो खाना पकाने के तेल और पोल्ट्री फीड के प्रमुख स्रोतों में से एक है। हालांकि, बीज कीमतों में उछाल और कम वर्षा के कारण  सोयाबीन की पैदावार कम हुई है और इससे मध्यप्रदेश उत्पादक राज्य की शीर्ष श्रेणी में अब नही रहा है।

अगर आगे यही स्थिति बरकरार रहती है तो इस साल खाना पकाने के तेल, पोल्ट्री फीड और पोल्ट्री उत्पादों की कीमतें और अधिक बढ़ सकती है, जो पहले से ही रिकॉर्ड-उच्च कीमतों को छू रहे है।

 

100 से अधिक गाँव की पानी की समस्या हुई दूर

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100 से अधिक गाँव की पानी की समस्या हुई दूरHindiWaterTue, 08/03/2021 - 11:25

जिला देहरादून के जनजातीय क्षेत्र नागथात और उसके आस पास के 100 से अधिक गांवों के हजारों ग्रामीणों को लगभग 70 साल बाद पेयजल किल्लत से जल्द निजात मिलेगी यहां 24 करोड़ की लागत से बन रही पम्पिंग  पेयजल योजना अंतिम चरण में पहुंच गई है सितंबर माह से योजना से पेयजल आपूर्ति शुरू कर दी जाएगी.

इसके लिए इन दिनों नई पेयजल लाइन बिछाने का काम चल रहा है नागथात  क्षेत्र के खत बहलाड लखवाड़ फटाड कोरु के गांव के साथ ही नागथात डूंडीलानी  विरातखाई चुरानी और खत शैली के गांव में पिछले 70 साल से पेयजल की समस्या बनी हुई है. गत वर्ष क्षेत्र के दौरे पर आए पूर्व सीएम त्रिवेंद्र रावत ने यमुना से पंपिंग पेयजल योजना निर्माण की घोषणा की थी जिसके बाद योजना पर काम शुरू कराया गया।

अब निर्माण कार्य अंतिम चरण में चल रहा है जिससे अब हजारों की आबादी को पेयजल समस्या से निजात मिलने की उम्मीद जगी है स्थानीय निवासी इंद्र सिंह नेगी गोपाल तोमर नरेश चौहान रवि चौहान भारत चौहान ने बताया कि उनकी समस्या का समाधान हो रहा है तीन चरणों में यमुना से पहुंचेगा पानी 7 किलोमीटर लंबी पम्पिंग योजना के तहत जमुना से पानी कानदोई तक पहुंचाया जाएगा उसके बाद बीसोई और फिर झुलका डांडा पानी पहुंचेगा झलका डांडा से ओवरहेड टैंक के माध्यम से अलग-अलग गांवों को पानी मुहैया कराया जाएगा.

जैविक खेती के गुर सिख रहे है किसान

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जैविक खेती के गुर सिख रहे है किसानHindiWaterWed, 08/04/2021 - 14:45
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एफइएस

भारत के पूर्वी तट पर स्थित उड़ीसा राज्य  में  किसानों के कल्याण और कृषि क्षेत्र के विकास के लिए फाउंडेशन फ़ॉर इकोलॉजिकल संस्था और  उड़ीसा कृषि विभाग के द्वारा ओडिशा आजीविका मिशन के तहत किसानों को  जैविक खेती पर प्रशिक्षण दिया जा रहा है। ताकि वह अपनी फसलों की  पैदावार बेहतर कर सके। 

कृषि मित्र ग्रामीण इलाकों में जाकर  किसानों को फसलों की अच्छी पैदावार की जानकारी देने के साथ उन्हें प्रशिक्षित भी करते हैं।भारतीय गरिया भी एक प्रशिक्षित कृषि मित्र है और उन्होंने एफइएस (F E S)  से लंबे समय तक कि जाने वाली खेती पर प्रशिक्षण लिया है। और अब वह खरीफ और धान की फसलों को बढ़ावा देने के लिए जैविक कृषि, बीज चयन , बीजामृत बनाना, बीज उपचार और गैर- रासायनिक उर्वक और कीटनाशकों आदि पर किसानों को जागरूक कर रही है।

वही मुरीबहल ग्राम पंचायत के किसनों को भारती द्वारा फसलों के उत्पादन को लेकर जो प्रशिक्षण दिया गया था उसका प्रयोग उन्होंने अपनी खेती में  भी किया। जिससे उनकी फसलों का  उत्पादन  अच्छा हो पा रहा है ।भारती कहतीं है कि वह  उन गांव और किसनों के  खेतों में गई जहाँ पानी काफी कम इस्तेमाल होता है उन्होंने मुरीबल ग्राम पंचायत के किसानो को न्यूट्री गार्डन के बारे में बताया और  जैविक कीटनाशको को बढ़ावा देने के लिये उन्हें  अज्ञेयस्त्र जीवामृत और हांडी खाता को बनाने और उपयोग करने का प्रशिक्षण दिया ।

जिन किसानों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया आज उन्हें अच्छा लाभ  के साथ बेहतर परिणाम भी मिल रहे हैं  एफइएस (F E S)  फील्ड से जुड़ी समस्याओं को दूर करने के लिए हर 15 दिन में  एक सत्र का आयोजन करता है । जहाँ हमे फील्ड की चुनौतियों और सवालों का आसनी से जवाब मिल जाता है। 

एफइएस (F E S)  ने हमें विभिन्न नई चीजों पर प्रशिक्षित किया है और इसलिए मैं। एफइएस (F E S)  को अपनी और पंचायत की और से धन्यवाद करती हूं

वही नीलांबर बिस्वाल ओड़िया पाली ग्राम पंचायत में कृषक साथी  के अलावा एक किसान भी है नीलांबर बिस्वाल कहते है कि एफइएस (F E S)  के द्वारा जो वर्चुअल प्रशिक्षण का आयोजन कराया जा रहा है उसमें बहुत सी चीजें  सीखने को मिल रही  है जैसे जीवामृत और विभिन्न अर्क को गौ मूत्र से बनाकर उसका इस्तेमाल हरे चने की फसल और अन्य खेती में किया जाए। इसके अलावा लाइन बुवाई की तकनीकों के बारे में भी   प्रशिक्षण दिया जा रहा है। 

नीलांबर कहते है प्रशिक्षण से जो भी सीखते है उसे हम किसनों के पास ले जाते है और वे भी उससे प्रशिक्षत हो रहे है। संस्था द्वारा जल बजट पर एक और प्रशिक्षण दिया जा रहा है। जिसमें हमें  कम पानी के चलते  जो  किसान जूझ रहे है वहाँ खेती से पहले पानी की जांच और बजट करना होगा।

इसलिये हमारे लिए ये जरूरी है कि हम पानी की उपलब्धता को जांचे और खेती के लिए एक योजना बनाएं। हम प्रशिक्षण से सीखकर मूंग की खेती को हाइलैंड और धान तराई क्षेत्रों में बढ़ावा देने के लिए किसानो को पानी का बजट बनाने के लिये मना रहे हैइसके साथ ही हम जूम सत्र में।नियमित रूप से भाग लेकर जो सीखते है उससे किसनों की समस्या का समाधान कर पाते है । इन सत्र से हम तो  बहुत कुछ सीख ही रहे है साथ ही  किसानो को भी सीखने को  मिल रहा है. 

लॉन्च हुआ भूकम्प की पूर्व चेतावनी देने वाला पहला मोबाइल ऐप 

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लॉन्च हुआ भूकम्प की पूर्व चेतावनी देने वाला पहला मोबाइल ऐप HindiWaterWed, 08/04/2021 - 17:39
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इंडिया साइंस वायर

गूगल प्ले-स्टोर पर मौजूद ‘उत्तराखंड भूकम्प अलर्ट’ ऐप (फोटोःइंडिया साइंस वायर )

नई दिल्ली, 04 अगस्त (इंडिया साइंस वायर): भूकम्प को लेकर उत्तराखंड विशेष रूप से संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है जहां भूकम्प का अंदेशा हमेशा बना रहता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) रुड़की ने भूकंप की पूर्व चेतावनी देने वाला एक मोबाइल ऐप (उत्तराखंड भूकम्प अलर्ट) लॉन्च किया है। भूकम्प की पूर्व चेतावनी देने वाला यह देश का पहला ऐप है। यह मोबाइल एप्लिकेशन एंड्रॉयड और आईओएस दोनों प्लेटफॉर्म के लिए उपलब्ध हैं।

भूकम्प पूर्व चेतावनी प्राप्त करने के लिए यूजर को केवल यह ऐप इंस्टॉल करना है और इंस्टॉलेशन के दौरान कुछ जरूरी जानकारियां दर्ज करनी है। ऐप में ज्ञानवर्धक वीडियो हैं जो भूकम्प के दौरान जीवन रक्षा की सिलसिलेवार जानकारी देते हैं। यह ऐप उत्तराखंड में 5 से अधिक तीव्रता के विनाशकारी भूकम्पों की ही पूर्व चेतावनी देता है। ऐप पर चेतावनी के संकेत इंटरनेट के माध्यम से पहुंचते हैं। इसलिए यूजर को इंटरनेट से जुड़े रहना होगा। हालांकि ऐप डेटा का इस्तेमाल केवल भूकम्प की सूचना देने के दौरान करता है।

यह ऐप भूकम्प की रियल टाइम चेतावनी देता है। इसकी मदद से भूकम्प के झटको का आरंभ में ही पता लग सकता है और जोर के झटके आने से पहले ही सार्वजनिक चेतावनी द्वारा लोगों को आगह किया जा सकता है। इस भूकम्प पूर्व चेतावनी तंत्र का भौतिक आधार भूकम्प की तरंगों की गति है जो फॉल्ट लाइन में गति से स्ट्रेस रिलीज पर फैलती है। धरती का जोर से हिलना तरंगों के कारण होता है जिसकी गति शुरुआती तरंगों की आधी होती है और जो विद्युत चुम्बकीय संकेतों से बहुत धीमी गति से बढ़ती है। यह सिस्टम इसी का लाभ लेता है।

आईआईटी रुड़की के निदेशक प्रोफेसर अजीत के चतुर्वेदी कहते हैं -“मुझे यह बताते हुए बहुत गर्व हो रहा है कि आईआईटीआर ने भूकंप की पूर्व चेतावनी देने वाला मोबाइल ऐप तैयार किया है, जो किसी भी तरह के जानमाल के नुकसान को रोकने के लिए भूकंप की घटना और उसके आने के अपेक्षित समय और तीव्रता की तत्काल सूचना देता है। यह परियोजना विशेष रूप से उत्तराखंड सरकार के साथ सहयोगात्मक रूप से शुरू की गई थी क्योंकि यह क्षेत्र भूकंपीय गतिविधियों से ग्रस्त है” 

इस परियोजना के तहत उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र के ऊंचे इलाकों में सेंसर लगाए गए हैं। भूकम्प के डेटा आईआईटी रुड़की के ईईडब्ल्यू सिस्टम प्रयोगशाला, सीओईडीएमएम स्थित सेंट्रल सर्वर में आते हैं। डेटा स्ट्रीम करने के लिए तीव्र गति दूरसंचार का उपयोग किया जाता है जबकि उच्च प्रदर्शन वाले कम्प्युटर गणना कार्य करते हैं। यह सर्वर सेंसर वाले क्षेत्रों में 5 से अधिक तीव्रता के भूकम्प का पता चलते ही सार्वजनिक चेतावनी देता है। भूकम्प के केंद्र से दूरी बढ़ने के साथ चेतावनी का समय बदलता है।

मोबाइल ऐप की विशिष्टता बताते हुए प्रोजेक्ट के प्रधान परीक्षक प्रोफेसर कमल के अनुसार यह ऐप भूकम्प के दौरान दुर्भाग्यवश फंस गए लोगों के स्थान का रिकॉर्ड भी रखता है और आपदा सहायता बल को इसकी सूचना देता है। 

शुरुआती समय में आईआईटी रुड़की ने राज्य के भूकंप की पूर्व चेतावानी देने के लिए दो प्रमुख शहरों (देहरादून और हल्द्वानी) में सार्वजनिक सायरन लगाने में उत्तराखंड सरकार की मदद की लेकिन पूरे राज्य को यह चेतावनी देने के लिए समय और संसाधन की कमी देखते हुए संस्थान ने स्मार्टफोन एप्लिकेशन को एक बेहतर विकल्प के तौर पर चुना क्योंकि आज अधिक से अधिक लोगों के पास स्मार्टफोन है और इसके माध्यम से चेतावनी जनता तक तुरंत पहुंचाई जा सकती है। 

‘उत्तराखंड भूकम्प अलर्ट’ मोबाइल ऐप का प्रोजेक्ट उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (यूएसडीएमए) ने स्पांसर किया है। 


अब पानी के लिये बस्ती में नही घुसेंगे काले हिरण

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अब पानी के लिये बस्ती में नही घुसेंगे काले हिरणHindiWaterFri, 08/06/2021 - 16:15
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रिपोर्ट-अंकित तिवारी

उत्तरप्रदेश के  प्रयागराज जिला मुख्यालय  से लगभग 50 किलोमीटर दूर तहसील मेजा के पहाड़ी क्षेत्रो में  पिछले साल राज्य सरकार ने प्रदेश का सबसे बड़ा काला हिरण अभयारण्य बानने की घोषणा की थी। कई सालों से यहाँ के ग्रामीण इन हिरनों को संरक्षित कर रहे थे। यहां के गांववासी बताते है कि अकसर  ये काले हिरण उनके घरों में पहुंच जाते हैं। और कई बार उनके पशुओं के लिए बने नाद से पानी पी जाते है । 

ये  काले हिरण फसल का नुकसान भी कम करते हैं। खेतों में जाकर ये घास ही चरते हैं। और  जब  तापमान अधिक हो जाता है तो  टोंस नदी के किनारे बसे गांवों में चले जाते हैं और जब मौसम ठंडा हो जाता तो वह  फिर  वापिस गांव लौट आते है। । 

इन हिरानो की सबसे बड़ी समस्या पानी की रहती है। पठारी इलाका होने से  गर्मी के मौसम में यहाँ के जलस्रोत सूख जाते हैं। ऐसे में  ये काला हिरण पानी की तलाश में आबादी वाले इलाकों में प्रवेश करने पर मजबूर हो जाते है । हिरणों की पानी की तलाश को खत्म करने के लिए 3 साल पहले एनटीपीसी ने वन विभाग को 2.50 करोड़ दिए, जिससे  आठ पक्के व तीन कच्चे तालाबों का निर्माण कराया जा चुका  है। इन तालाबों को भरने के लिए नलकूप भी लगे हैं। इन पर निगरानी रखने के लिए वॉच टावर भी बना है। वही अब इस क्षेत्र को वन्य पर्यटन स्थल बना  दिया गया है 

पिछले 20 साल से ग्रामीण इन काले हिरानो  को संरक्षित कर रहे उनके इसी प्रयास से आज प्रदेश के सबसे बड़े काला हिरण अभयारण्य में करीब साढ़े चार सौ से अधिक काले हिरण रह रहे है। लेकिन आज उन्हें  उत्तरप्रदेश वन विभाग के कार्यशैली से इन हिरणों पर खतरा होने का डर सता रहा है वो कहते है कि हिरानो  संरक्षित करने के लिये ये अभ्यारण्य बनाया गया था लेकिन विभाग की तरफ से ऐसा कोई काम नही हुआ जिससे ये  हिरण संरक्षित हो सके। 

ग्रामीण  गांव के पास अंधाधुंध निर्माण से भी नाराज है जिसके कारण आज अधिक संख्या में  काले हिरण गांव की ओर पलायन करने पर मजबूर है। वही विभाग के पास इनकी देखभाल करने के लिये पर्याप्त कर्मचारी भी नही है। ऐसे में इन काले हिरानो संरक्षित करना मुश्किल हो सकता है

देशव्यापी लॉकडाउन में नदियों की गुणवत्ता में नहीं हुआ सुधार :जल शक्ति मंत्रालय

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देशव्यापी लॉकडाउन में नदियों की गुणवत्ता में नहीं हुआ सुधार :जल शक्ति मंत्रालयHindiWaterMon, 08/09/2021 - 16:04
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राज्यसभा टीवी

जल शक्ति राज्य मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल  ने कहा कि मार्च और अप्रैल 2020 के दौरान राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) और प्रदूषण नियंत्रण समितियों (पीसीसी) द्वारा नदियों  के पानी की गुणवत्ता की निगरानी की गई ताकि कोविड -19 के कारण हुए लॉकडाउन से नदियों में पड़े प्रभाव का आकलन किया जा सके।और यह  कार्य  19 प्रमुख नदियों - ब्यास, ब्रह्मपुत्र, बैतरनी, ब्राह्मणी, कावेरी, चंबल, गंगा, घग्गर, गोदावरी, कृष्णा, महानदी, माही, नर्मदा, पेन्नार, साबरमती, सतलुज, स्वर्णरेखा, तापी और यमुना पर किया गया था।

नदियों के पानी की गुणवत्ता का यह आकलन पीएच, डिसॉल्व्ड ऑक्सीजन (डीओ), बायो-केमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) और फेकल कोलीफॉर्म जैसे मापदंडों की निगरानी पर आधारित था।राज्य मंत्री प्रलाह्द पटेल  ने कहा नदियों पर की गई जांच के परिणामों के मुताबिक़, कुछ नदियां (ब्राह्मणी, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, गोदावरी, कृष्णा, तापी और यमुना) के  पानी की गुणवत्ता में सुधार हुआ है,जिसका कारण औद्योग से निकलने वाला अपशिष्ट पदार्थ में कमी आना, मानवीय गतिविधियां, मवेशी आंदोलन, आदि नहीं  है।

उन्होंने  ने कहा कि ब्यास, चंबल, सतलुज और स्वर्णरेखा नदियों  के पानी की गुणवत्ता में  सुधार नहीं हुआ है गंगा और उसकी सहायक नदियों के विभिन्न हिस्सों में जल गुणवत्ता के मानकों में सुधार की अलग-अलग स्तिथि देखी गई, वही साबरमती और माही नदियों के पानी की गुणवत्ता किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ। 

कुल मिलाकर ऎसी कोई स्थिति नहीं देखी गई जिससे ऐसा कहा जाये कि लॉकडाउन से नदियों का पानी साफ़ हुआ है  उन्होंने कहा कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और  एसपीसीबी/पीसीसी  साथ मिलकर देश में नदियों और अन्य जल निकायों की पानी की गुणवत्ता की निगरानी जांच स्टेशनों के नेटवर्क के माध्यम से नियमित रूप से करते है. 

सितंबर, 2018 की सीपीसीबी रिपोर्ट के अनुसार 323 नदियों में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) के स्तर के आधार पर 351 प्रदूषित नदी पट्टियों की पहचान की गयी है जो जैविक प्रदूषण की चेतावनी देता है 
उन्होंने  कहा  इन नदियों में प्रदूषण के मुख्य स्रोत शहरों से निकलने वाले अशोधित और आंशिक रूप से शोधित औद्योगिक कचरे तथा सीवेज हैं और  यह राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों और स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी है कि वे प्रदूषण को रोकने और नियंत्रित करने के लिए नदियों, जल निकायों और जमीनों  में  पहले से  निर्धारित मानदंडों के अनुसार सीवेज और औद्योगिक अपशिष्ट का उपचार सुनिश्चित करें। 

पटेल ने कहा कि जल शक्ति मंत्रालय की राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (एनआरसीपी) ने अब तक 16 राज्यों में फैले 77 शहरों में 34 नदियों पर प्रदूषित हिस्सों को कवर किया है, जिसमें परियोजनाओं की स्वीकृत लागत 5965.90 करोड़ रुपये और सीवेज उपचार क्षमता 2522.03 बनाई गई है

उन्होंने कहा कि नमामि गंगे कार्यक्रम के तहत 30,235 करोड़ रुपये की लागत से 4948 एमएलडी के सीवेज ट्रीटमेंट  और 5213 किलोमीटर के सीवर नेटवर्क सहित कुल 346 परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है।

बड़वानी की बंजर पहाड़ियों ने ओढ़ी हरियाली की चुनर

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बड़वानी की बंजर पहाड़ियों ने ओढ़ी हरियाली की चुनरHindiWaterTue, 08/10/2021 - 16:04
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द टेलीप्रिंटर

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का अंकुर अभियान बड़वानी में पल्लवित और पुष्पित हो रहा है बड़वानी की बंजर पहाड़ियों को हरा भरा बनाने की कोशिश अब चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़ती हुई नजर आ रही है नॉनजरा की 22 एकड़ और रेवा कुंज की 35 एकड़ पहाड़ियों के बाद 33 एकड़ में फैली  आशा ग्राम पहाड़ी को संवारा जा रहा है । जिला प्रशासन की एक आवाज पर जन सैलाब उमड़ पड़ा। श्रम दान की  ये तस्वीर खुद जनभावना और अभिरुचि को बयां कर रही है इस पहाड़ी को सिटी फारेस्ट बनाया जा रहा है यह के क्षेत्रवासियों को लिए मुख्यमंत्री मंत्री शिवराज सिंह की ये पहल एक नई ऊर्जा और दिशा साबित हो रही है

 

जलवायु परिवर्तन पर ‘रेड कोड अलर्ट’ 

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जलवायु परिवर्तन पर ‘रेड कोड अलर्ट’ UrbanWaterWed, 08/11/2021 - 11:28
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इंडिया साइंस वायर

जलवायु परिवर्तन, फोटो: साभार  इंडिया साइंस वायरजलवायु परिवर्तन, फोटो: साभार इंडिया साइंस वायर

नई दिल्ली, 10 अगस्त (इंडिया साइंस वायर): संयुक्त राष्ट्र द्वारा 9 अगस्त को जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की ताजा रिपोर्ट जारी की गई है। इस रिपोर्ट का संदेश और सार पृथ्वी के लिए तमाम खतरों की ओर संकेत करता है। जलवायु-परिवर्तन के दुष्परिणामों से न केवल मानव जाति, बल्कि पृथ्वी पर जीवन को संभालने वाले पारिस्थितिक तंत्र का ताना-बाना ही बदल जाने की आशंका जताई जा रही है। इस रिपोर्ट को मानवता के लिए कोड रेड अलर्ट का नाम दिया जा रहा है। इसके माध्यम से वैज्ञानिकों ने एक तरह की स्पष्ट चेतावनी दे दी है कि यदि मानव ने अपनी गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगाया तो आने वाले समय में उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। 

रिपोर्ट के अनुसार, 'वातावरण लगातार गर्म हो रहा है। तय है कि हालात और खराब होने वाले हैं। भागने या छिपने के लिए भी जगह नहीं बचेंगी।' इस चेतावनी को ध्यान में रखते हुए ही शीर्ष वैश्विक संस्था संयुक्त राष्ट्र ने इसे मानवता के लिए रेड कोड अलर्ट कहा है, जिसमें जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के लिए सीधे तौर पर मानवीय गतिविधियों को जिम्मेदार बताया गया है।  

करीब 3000 पन्नों की आईपीसीसी की इस रिपोर्ट को दुनिया भर के 234 वैज्ञानिकों ने मिलकर तैयार किया है। इससे पहले ऐसी रिपोर्ट वर्ष 2013 में आई थी। ताजा रिपोर्ट में पांच संभावित परिदृश्य पर विचार किया गया है। राहत की बात सिर्फ इतनी है कि इसमें व्यक्त सबसे खराब परिदृश्य के आकार लेने की आशंका बेहद न्यून बताई गई है। इसका आधार विभिन्न सरकारों द्वारा कार्बन उत्सर्जन में कटौती कि लिए किए जा रहे प्रयासों को बताया गया है, लेकिन पृथ्वी के तापमान में जिस रफ्तार से बढ़ोतरी होती दिख रही है, उसे देखते हुए ये प्रयास भी अपर्याप्त माने जा रहे हैं। फिर भी इनके दम पर सबसे खराब परिदृश्य के घटित होने की आशंका कम बताई गई है। 

रिपोर्ट के अनुसार सबसे बुरा परिदृश्य यही हो सकता कि यदि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए प्रयास सिरे नहीं चढ़ पाते हैं तो इस सदी के अंत तक पृथ्वी का औसत तापमान 3.3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। कुछ जानकार ऐसी बढ़ोतरी को प्रलयंकारी मान रहे हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2015 में पेरिस जलवायु समझौते में विभिन्न अंशभागियों ने इस पर सहमति जताई थी कि 21वीं सदी के अंत तक पृथ्वी का अधिकतम तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देना है। अमेरिका जैसे देश की पेरिस समझौते पर असहमति से यह लक्ष्य भी अधर में पड़ता दिख रहा है। इस सदी के समापन में अभी काफी समय है और पृथ्वी का तापमान पहले ही 1.1 प्रतिशत बढ़ चुका है। स्पष्ट है कि इस सदी के अंत तक पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी लक्षित सीमा से आगे निकल जाएगी। आईपीसीसी की रिपोर्ट के सभी अनुमान इस रुझान की पुष्टि भी करते हैं। 

इस रिपोर्ट की सह-अध्यक्ष और फ्रांस की प्रतिष्ठित जलवायु वैज्ञानिक वेलेरी मेसन डेमॉट का कहना है कि अगले कुछ दशकों के दौरान हमें गर्म जलवायु के लिए तैयार रहना होगा। उनका यह भी मानना है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश लगाकर हम स्थिति से कुछ हद तक बच भी सकते हैं। रिपोर्ट में बढ़ते तापमान के लिए कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन जैसी गैसों को ही मुख्य रूप से जिम्मेदार बताया गया है। बताया गया है कि इनके उत्सर्जन के प्राकृतिक माध्यम औसत तापमान में 10वें या 20वें हिस्से के बराबर वृद्धि की कारण बन सकते हैं। 

इस रिपोर्ट को इस आधार पर भी भयावह संकेत माना जा रहा है कि बढ़ते तापमान के कारण विश्व भर में प्रतिकूल मौसमी परिघटनाओं में तेजी वृद्धि हुई है। हाल के दिनों में आर्कटिक से लेकर अंटार्कटिका तक बर्फ पिघलने की तस्वीरें देखने को मिली हैं। वहीं, हिमालयी हिमनद भी तेजी से अपना वजूद खोते जा रहे हैं। इसका परिणाम समुद्री जल के बढ़ते हुए स्तर के रूप में सामने आ रहा है। यदि औसत तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक भी रोक लिया गया तब भी माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक समुद्र के जल स्तर में बढ़ोतरी को दो से तीन मीटर तक के दायरे में रोका जा सकता है। हालांकि इसके भी खासे दुष्प्रभाव होंगे, लेकिन यह यकीनन सबसे खराब परिदृश्य के मुकाबले अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति होगी। 

आईपीसीसी की रिपोर्ट कई और खतरनाक रुझानों की ओर संकेत करती है। विश्व में पहले जो हीट वेव्स यानी गर्म हवाओं के थपेड़े आधी सदी यानी पचास वर्षों में आते थे वे अब मात्र एक दशक के अंतराल पर आने लगे हैं। इससे विषम मौसमी परिघटनाएं जन्म लेती हैं। भारत के संदर्भ में भी रिपोर्ट कहती है कि जलवायु परिवर्तन के कारण गर्म हवाएं, चक्रवात, अतिवृष्ट और बाढ़ जैसी समस्याएं 21वीं सदी में बेहद आम हो जाएंगी। महासागरों में विशेषकर हिंद महासागर सबसे तेजी से गर्म हो रहा है। इसके भारत के लिए गहरे निहितार्थ होंगे। इस पर अपनी प्रतिक्रया व्यक्त करते हुए केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा है कि यह रिपोर्ट विकसित देशों के लिए स्पष्ट रूप से संकेत है कि वे अपने द्वारा किए जा रहे उत्सर्जन में कटौती के प्रयासों को और गति दें। (इंडिया साइंस वायर)

ISW/RM/MoEFCC/HIN/10/08/2021

Keywords: Inter-governmental Panel on Climate Change (IPCC), greenhouse gas, assessment reports, climate, globe, world, environment, changes, 21 centaury, oceans, water, pollution, air, soil, forests, global warming, science, innovation, pandemic,  India.

जल संरक्षण के प्रयासों के आईने में चेन्नई का वर्तमान और कुछ सुझाव

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जल संरक्षण के प्रयासों के आईने में चेन्नई का वर्तमान और कुछ सुझावHindiWaterThu, 08/12/2021 - 10:31

 जल संरक्षण के प्रयासों के आईने में चेन्नई का वर्तमान और कुछ सुझाव,फोटो:इंडिया वाटर पोर्टल(फ्लिकर)

जल संरक्षण का इतिहास बताता है कि चेन्नई शहर में पानी की किल्लत दूर करने के लिए जितने प्रयास हुए हैं, उतने प्रयास, भारत के किसी अन्य शहर में शायद ही हुए हों। धन के मामले में भी कोई कोताही नहीं हुई। समाज का सहयोग स्वैच्छिक और लागू किए कानून, दोनों ही कारणों से काबिले तारीफ था। इसके अलावा, उन प्रयासों को सरकार और प्रशासन द्वारा जितना सहयोग मिला था उतना शायद ही कहीं और मिला होगा पर दो दिन पुरानी रिपोर्ट, जो कवरेज इंडिया में प्रकाशित हुई है से पता चलता है कि चेन्नई में 2000 फुट की गहराई तक का सारा भूजल सूख चुका है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए प्रशासन ने नए नलकूपों के खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है। जिला प्रशासन द्वारा नागरिकों से अनुरोध किया जा रहा है कि वे अपने घर के तलघर में बरसात के पानी को टांकों में संचित करें ताकि पेयजल संकट की विभीषिका को किसी हद तक कम किया जा सके। नगर पालिका ने अपनी भूमिका पेयजल आपूर्ति तक सीमित करने की बात कही है। विदित हो कि सन 1990 के दशक के अन्तिम बरसों से लेकर 2000 के प्रारंभिक सालों तक, छत के पानी के संरक्षण के लिए चर्चित और मिसाल बने चेन्नई में अब रुफ वाटर हार्वेस्टिंग की बात उतनी मुखरता से नहीं की जा रही है जितनी मुखरता से 20-25 साल पहले की जाती थी। अनुसंधान का मामला है। सबक भी लिए जा सकते हैं।

चेन्नई की सालाना बरसात लगभग 1400 मिलीमीटर है। यह मात्रा किसी भी पैमाने पर कम नहीं है। इतनी बरसात वाले इलाके में पानी की कमी के लिए कुदरत को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इस कमी या संकट के लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो नुस्खा पद्धति (Prescriptive approach) से किए जाने वाले वे प्रयास जो अस्थायी प्रकृति के हैं, परिणाम मूलक नहीं हैं, और प्रस्तावित करते समय जिनका बौनापन दिखाई नहीं देता। हमारी वह अनदेखी जिम्मेदार है जिसके चलते हम इतिहास से सबक नहीं लेते। समन्वित प्रयास नहीं करते। उल्लेखनीय है कि देश में 20 महानगर और हैं जो चेन्नई की राह पर अग्रसर हैं। उन पर मंडराता संकट दिखाई देने लगा है।

चेन्नई के जल संकट पर नागरिकों की प्रतिक्रिया लगभग औपचारिक है। नागरिक मानते हैं कि तालाबों की अनदेखी, उनकी धरती पर कालोनियों का विकास और सब जगह कंक्रीट का जंगल खडा करना ही समस्या की जड़ में है। बरसात की कमी को किसी भी नागरिक ने रेखांकित नही किया। वे वह सब करने को तैयार हैं जो सरकार कहेगी। यही उनकी भागीदारी की सीमा है। वे टिकाऊ तकनीक या तकनीक का ब्लूप्रिंट प्रदान नहीं कर सकते। वे थोड़ा-बहुत धन व्यय कर सकते हैं पर उन संरचनाओं का निर्माण नही कर सकते जो, उनका निर्माण करने वाले से, बडी राशि की व्यवस्था और तकनीकी समझ की अपेक्षा करती हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि गेंद सरकार के पाले में है। नेताओं या प्रशासनिक अधिकारियों के पाले में नहीं। अगर उनकी कुछ जिम्मेदारी है तो वह है राजनैतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक सहयोग प्रदान करने की। वह सहयोग, सफलता के पीछे-पीछे, बिना कुछ कहे, अपने आप चलता है। 

चेन्नई के संकट पर कुछ बात करने के पहले हालिया प्रयासों की बात कर लें। जल शक्ति मंत्रालय ने नगरीय निकायों (Urban Local Bodies ) के लिए मार्गदर्शिका जारी की है। इस मार्गदर्शिका के अनुसार दक्षिण-पश्चिम मानसूनी इलाकों के लिए 22 मार्च 2021 से 30 सितम्बर 2021 तक और उत्तर-पूर्व मानसूनी इलाकों के लिए 1 अक्टूबर 2021 से 30 नवम्बर 2021 तक अभियान चलाया जावेगा। अभियान में लिए जाने वाले कामों का उल्लेख है। संक्षेप में काम हैं - पुरानी वर्षा जल संरक्षण का जीर्णोद्धार और नई संरचनाओं का निर्माण, वृक्षारोपण, कुओं के माध्यम से भूजल रीचार्ज के लिए स्वच्छ जलवाहनी चैनल निर्माण, पुरानी जल संरचनाओं का जीर्णोद्धार, गंदे पानी के पुनः उपयोग के लिए प्रयास, पारगम्य    ( Permeable ) हरित भूमि का विकास और महानगरों में रेन वाटर पार्क का निर्माण। यह सारा काम उल्लेखित अवधि में पूरा किया जाना है। प्रश्न है कि क्या यह अवधि और तदर्थ काम समस्या को सुलझा सकेगे ? अब लौटें चेन्नई की समस्या के समाधान पर चर्चा के लिए।

पहला समाधान चेन्नई के जिला प्रशासन ने सुझाया है। इस सुझाव के अनुसार नागरिक अपने-अपने घर के तलघर में पानी जमा करने के लिए टंकी का निर्माण करें। यह सुझाव राजस्थान के अल्प वर्षा वाले इलाके तथा खारे पानी वाले इलाकों में सदियों से अपनाया जाता रहा है। यह व्यवस्था समय की कसौटी पर खरी हैं। यह व्यवस्था लोगों की साल भर की पेयजल आवश्यकता पूरा करती है। इसलिए सुझाव सही है पर यदि इसे स्थानीय अमले द्वारा सम्पादित कराया गया तो लाभ नहीं होगा क्योंकि वे इसकी बारीकियों से अनजान हैं। इसलिए इस काम की जिम्मेदारी राजस्थान के उन दक्ष लोगों अर्थात कारीगरों  को दी जाना चाहिए जो इस तरह के काम को बरसों से त्रुटिरहित परंपरागत तरीके से कर रहे हैं और  बिना किसी समस्या के भवन स्वामी को साल भर कीटाणु मुक्त शुद्ध पानी उपलब्ध करा रहे हैं।उनकी तकनीक पर हस्तक्षेप वर्जित हो।

 चेन्नई की तालाबों का रकबा 1983 से 2017 के बीच 12.6 वर्ग किलोमीटर से घट कर 3.2 वर्ग किलोमीटर रह गया है। परिणाम सामने है। उसे बहाल करना चाहिए। बहाल करने का अर्थ जलकुम्भी की सफाई नहीं है। उसका अर्थ केवल गाद हटाना नहीं है। उसका अर्थ है कैचमेंट से शुद्ध पानी की वांछित मात्रा में आवक सुनिश्चित करना। भविष्य में अतिक्रमण और गन्दे होने से बचाना। गाद के निपटान को कुदरती बनाना। उल्लेखनीय है कि चेन्नई में 210 वाटर बाडी हैं। उनमें से केवल 5 को ही पुनर्जीवित किया गया है। उनका जीर्णोद्धार, उनकी मूल डिजायन के अनुसार करना चाहिए अन्यथा टिकाऊ फायदा नही होगा। यहाँ के प्रमुख जलाशयों यथा पोन्डी, रेड हिल, चोलावरम और चेम्बरामबक्क्म की 20 प्रतिशत जल संग्रह क्षमता घट चुकी है। उल्लेखनीय है कि हम लोगों ने प्राचीन तालाबों का विज्ञान अर्थात कैचमेंट ईल्ड और जल भराव तथा सिल्ट निकासी के सम्बन्ध को बहुत अच्छी तरह नहीं समझा है। उसे समझने की आवश्यकता है। उस पर अनुसंधान की आवश्यकता है।

उल्लेखनीय है कि चेन्नई में खारे पानी को साफ पानी में बदलने की व्यवस्था है। उस व्यवस्था को चाक-चौबंद रखने की और उसके लिए धन की व्यवस्था हमेशा कठिन होती है इसलिए कैचमेंट में इष्टतम क्षमता के परकोलेशन तालाब बनाना बेहतर होता है। यह किया जाना चाहिए। गहराई बढ़ाकर उनका रकबा कम रखा जा सकता है क्योंकि मूल मुद्दा, रकबा नहीं अपितु पानी की मात्रा होता है। अन्त मे, जल संकट को काबू में रखने का काम निरन्तर करने वाला काम है। उसे अभियान चलाकर प्रारंभ तो किया जा सकता है पर उस तर्ज पर उसे समाप्त नहीं किया जा सकता।  
 
अप्रैल 1994 में भारत सरकार के ग्रामीण विकास विभाग को सौंपी प्रोफेसर हनुमंथ राव रिपोर्ट को याद करना बेहतर होगा। यह रिपोर्ट सूखा प्रवण इलाकों (Drought Prone Areas Program) और मरूस्थल विकास (Desert Development Program) के लिए प्रस्तुत की गई थी। इस रिपोर्ट का उद्देश्य मिट्टी और नमी के संरक्षण की मदद से इकालाजिकल संन्तुलन बहाल करना था।

तो इस तरह उत्तराखंड सरकार जल स्त्रोतों को पुनर्जीवित करेगी  

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तो इस तरह उत्तराखंड सरकार जल स्त्रोतों को पुनर्जीवित करेगी  HindiWaterThu, 08/12/2021 - 13:15
Source
जल मंत्रालय उत्तराखंड

 जल जल स्त्रोतों को पुनर्जीवित करेगी राज्य सरकार,फोटो:इंडिया वाटर पोर्टल(फ्लिकर)

उत्तराखंड में पिछले कुछ सालों से सूखे की स्थिति को देखते हुए राज्य सरकार ने जल स्रोतों को दोबारा ज़िंदा करने का निर्णय लिया है। इसके लिए राज्य  सरकार करीब 300 करोड़ रुपए खर्च करेगी। हालहि में पानी की बढ़ती समस्या को लेकर  पेयजल मंत्री बिशन सिंह चुफाल ने अधिकारियों के साथ बैठक की। जिसमें ये निर्णय लिया गया कि पानी की कमी को दूर करने के लिए जल संरक्षण की विभिन्न तकनीक और जल स्त्रोतों को पुनः पुनर्जीवित किया जाएगा।

इस दौरान उन्होंने यह कहा कि  योजना के तहत ग्राम पंचायत के जरिए उन क्षेत्रों को चिन्हित किया जाएगा जहां पेयजल की सबसे अधिक समस्या है और पानी के स्त्रोत नहीं है और इसे पंचायत के माध्यम से कार्य किया जाएगा और इसमें लगभग 300 करोड़ खर्च किए जाएंगे।

उत्तराखंड का कुल क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किलोमीटर है(सांख्यिकी डायरी के अनुसार)  जिसमें 86.07 प्रतशित भाग पर्वतीय है जबकि 13.93 भाग  मैदानी है।  राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में 8 से 10 किलोमीटर के बीच ऐसे क्षेत्र है जहां जल स्रोत नहीं है या सूख गए हैं।

ऐसे में राज्य सरकार ने निर्णय लिया है कि इन क्षेत्रों में जल की समस्या को दूर करने के लिए बरसाती जल स्त्रोत का उपयोग किया जाएगा जिसे ढाई लाख लीटर क्षमता वाले टैंक में संग्रह कर साफ सफाई के बाद बरसात के बाद  उपयोग में लाया जाएगा। पहाड़ों में पानी की उपलब्धता 95% वर्षा पर निर्भर करती है।जल संरक्षण को लेकर  राज्य सरकार ने बरसाती जल स्त्रोत पर अधिक  जोर दिया है क्योंकि इसका उपयोगपरंपरागत रूप  से किया जाता है साथ ही  इसमें खर्चा भी काफी कम आता है । 

राष्ट्रीय हिमालयी अध्ययन मिशन की ओर से साल 2020 में पहाड़ो में  बड़े जल स्त्रोतों को लेकर एक अध्ययन किया गया था जिसमें यह बात सामने आई थी  प्रदेश में  लगभग  14 जल स्रोत पूरी तरह से सूख चुके हैं। 77 स्रोतों का जल स्तर 75 प्रतिशत से अधिक पूरी तरह  सूख चुका है। 

राज्य के 330 स्रोतों के स्राव में से करीब  50 प्रतिशत की कमी आ चुकी है। वही 1229 स्प्रिंग स्रोतों के जल स्तर पर पर्यावरणीय व अन्य वजह से  प्रभावित हुए है। राज्य सरकार की ये पहल कितने जल स्त्रोतों को पुनर्जीवित करती है ये आने वाले समय बताएगा। लेकिन उत्तराखंड सरकार द्वारा बढ़ती पानी की समस्या को गंभीरता से लेना एक अच्छे संकेत है। 

मोहन मास्साब ने जगाई अलख 

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मोहन मास्साब ने जगाई अलख HindiWaterFri, 08/13/2021 - 11:04
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हिंदुस्तान, शनिवार, 20 मार्च 2010 

15 वर्षों में महिला सशक्तिकरण का एक अनूठा अभियान,फोटो:पानी बोओ

अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट एवं भिकियासैण क्षेत्र के दूरस्थ गांव में पिछले 15 वर्षों में महिला सशक्तिकरण का एक अनूठा अभियान चल रहा है। यहां के ग्रामीण महिलाओं ने महिला मंगल दलों के रूप में संगठित होकर अपनी क्षमता और संगठन की ताकत का एहसास कराया है। महिलाएं गांव स्तर पर न केवल घास, पानी, लकड़ी और खेती की समस्याओं का समाधान कर रही हैं,

बल्कि अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर सामाजिक बुराइयों का कड़ा प्रतिरोध भी कर रही हैं। चार गांवों से शुरू हुई यह मुहिम, अब पश्चिमी रामगंगा और रिस्कन नदी घाटी के 80 गांवों में फैल चुकी है। इस अभियान के प्रेरक बने हैं ‘इंटर कालेज, सुरईखेत’ में रसायन विभाग विज्ञान के प्रवक्ता मोहनचन्द्र कांडपाल।

सुरईखेत के पास के गांव कांडे में जन्मे मोहनचन्द्र कांडपाल ने कानपुर से शिक्षा पूरी करने के बाद गांव के स्कूल में शिक्षण कार्य को अपनाया। 5 जून 1993 को पर्यावरण शिक्षण एवं ग्राम उत्थान समिति (सीड) नामक संस्था का गठन किया इसके बाद सुरईखेत के पास चार गांवों में महिला मंगल दलों का गठन किया। इस अभियान का सुखद परिणाम है कि क्षेत्र के छः दर्जन से अधिक गांवों की महिलाओं ने महिला मंगल दलों के माध्यम से पानी, जंगल और जमीन में सामूहिक प्रबंधन के साथ होकर महिला सशक्तिकरण की मिसाल कायम की है।

चीड़ बहुल इस क्षेत्र में घास, पानी लकड़ी की समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए महिलाओं ने गांव स्तर पर चौड़ी पत्ती प्रजाति के वन लगाएं हैं। चारा तथा ईंधन की मात्रा और पानी की उपलब्धता के अनुरूप इनके उपयोग और संरक्षण के लिए यह महिला मंगल दलों ने आपसी सहमति से अनेक नियम बनाए हैं।

पानी की उपलब्धता के अनुरूप महिलाओं के उपयोग और संरक्षण,फोटो:पानी बोओ

शिलंग गांव की महिला मंगल दल अध्यक्षा श्रीमती हीरा नेगी बताती है कि महिलाओं ने गांव में मुक्त चराई पर रोक लगाई। गांव के ऊपर वन पंचायत और सामूहिक भूमि में 4000 बांज के पौधे लगाए गए हैं। जलस्रोतों में पानी की मात्रा बढ़ाने के लिए 310 खालों का निर्माण किया गया है।

महिला मंगल दलों ने हर गांव में एक कोष बनाया है। इसको उसमें सदस्य शुल्क के अलावा आर्थिक दंड, दल द्वारा संचालित सामूहिक टेंट, बर्तन आदि के शादी आदि समारोह में उपयोग का किराया, सामूहिक नर्सरी के अतिरिक्त पौधों के बिक्री से मिला पैसा जमा किया जाता है। इससे गांव की जरूरतमंद महिलाओं और उनके परिवारों को ऋण उपलब्ध कराया जाता है।

इस क्षेत्र के 26 गांवों में अब तक करीब 45,000 से अधिक बांज के पेड़ लगाए गए हैं। बांज के अलावा भीमल, खड़िक, आंवला, बांस, बुरांस, काफल के पौधों का रोपण किया जा रहा है। द्वाराहाट तथा भिकियासैण क्षेत्र के कान्डे, बिठौली, बांजन, रणा, सुनाड़ी, मीनार, बजीना, शिलिंग, बेडुली, गनोली, मयोली, बाड़ी, वलना, कौड़ा, सनडे, कमराड़, बहेड़ा, बिनौली, सिमलगांव, मटेला, टाना, डहल, मुनौला, छतीना, कुंई, पिमौन सहित अस्सी गांवों में महिला मंगल दल इतने सशक्त बन चुके हैं कि गांव से जुड़े मामले में अब इनकी सहमति के बिना कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता है।

पिछले विधानसभा चुनाव में इस संगठन की हेमा नेगी ने भिकियासैण विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा। महिलाओं की यह जागरूकता त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में भी भागीदारी के रूप में सामने आई है। वर्तमान में ग्राम प्रधान क्षेत्र व जिला पंचायत में करीब दो दर्जन महिलाएं पंचायतों में चुनी गई हैं।


चेन्नई से सबक लेकर पानी का सरंक्षण जरूरी

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चेन्नई से सबक लेकर पानी का सरंक्षण जरूरीHindiWaterFri, 08/13/2021 - 14:45

पानी की समस्या देशभर में लगातार बढ़ रही है चाहे वो मैदानी क्षेत्र हो या पहाड़ी क्षेत्र हर जगह पानी की समस्या से लोगो को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है अभी हाल ही में भूमिगत पानी को लेकर एक बड़ा खुलासा हुआ है किपूरे देश में भूमिगत जल समाप्त होने के मामले में चेन्नई पहला शहर बन गया है यहां पर अब भूमिगत जल के लिए 2000 फीट तक पानी नही होने के बाद शासन ने सूचना जारी की है ,

भूमिगत जल समाप्त होने के कारण बोरिंग अब पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिए गए हैं 200 फीट तक भरपूर पानी देने वाले चेन्नई की इस दुर्दशा के सड़को ओर निर्माणों से पाट देना प्रमुख हैं शहर के किसी भी भाग में पानी जमीन में जाने का कोई साधन नहीं बचा है अब चेननई  गर्मी के दिनों में भीषण जल संकट का सामना कर रहा है

शहरों के विकास और सड़कों के अलावा फूटपाथ और खुले मैदान सीमेंट से बनाये जाने के कारण  चेननई की यह दुर्दशा हो गई है इस मामले में जल संरक्षण को लेकर कोई अभियान नही चलाएं गए तो वही बेतरतीब निर्माणों के चलते चुनिदा तालाब भी पानी के लिए तरसे गए। साथ ही भूमिगत जल को लेकर कही पर कोई  विशेष कार्य नही किए गए। इसी का परिणाम है कि अब चेननई में भूमिगत जल समाप्त हो चुका है ।

वही दूसरी ओर जिला प्रशासन ने आम लोगों से आग्रह किया है कि वे अपने घरों के नीचे तलपर में बारिश का जल  जमा करने के लिए प्रयास करे ताकि कुछ माह तक उसी पानी का उपयोग अन्य कार्यो के लिए हो सके ।चेननई  महानगर पालिका ने कहा है कि वह केवल पीने के पानी के लिए ही अपनी तैयारी कर रही हैं

अब सवाल ये है कि अगर हम पानी का सरंक्षण सही तरह से नही करते तो कल अगला नंबर हमारे दूसरे शहर का होगा जो पानी की ऐसी ही गंभीर समस्या से झूझता हुआ दिखाई देगा लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी इसलिए पानी के सरंक्षण और बर्बादी पर खासा ध्यान देने की जरूरत है

गांवों को जगाता एक शिक्षक

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गांवों को जगाता एक शिक्षकHindiWaterSat, 08/14/2021 - 17:50
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6 जुलाई 2003,जनसत्ता

 महिला मंगल दल कार्यकर्ताओं के साथ उनके प्रेरणास्त्रोत मोहन चंद्र कांडपाल,फोटो:पानी बोओ

आमतौर पर किसी स्कूल शिक्षक की दिनचर्या घर से स्कूल आने-जाने तक सीमित रहती है। लेकिन ‘आदर्श इंटर कॉलेज, सुरईखेत (अल्मोड़ा)’ में रसायन शास्त्र के शिक्षक मोहन चंद्र कांडपाल अपवाद हैं। पर्यावरण एवं चेतना के अभियान में लगे हैं उनका अभियान द्वाराहाट और भिकियासैंण विकास खंडों के लगभग 50 गांवों में फैल चुका है मोहन कांडपाल कानपुर से एमएससी पास करने के बाद जब अपने गांव लौटे तो सौभाग्य से उन्हें अपने गांव सुनाड़ी के समीप विद्यालय में नौकरी मिल गई। उन्होंने शीघ्र ही यहां ‘पर्यावरण चेतना मंच’ बनाकर गोष्ठियों, रैलियों, प्रतियोगिताओं के माध्यम से विद्यार्थियों में पर्यावरण की चेतना लाने का कार्य आरंभ कर दिया। बहुत समय तक यह काम साथी अध्यापकों, स्थानीय दुकानदारों के चंदे से होता रहा। पर्यावरण सुधार के इस अभियान को स्कूल से बाहर गांव तक ले जाने के साथ ही रचनात्मक कार्यों को बढ़ाने के लिए अधिक संसाधनों और मार्गदर्शन की जरूरत पड़ी तो उन्होंने ‘उत्तराखंड सेवा निधि, अल्मोड़ा’ से संपर्क साधा। इसके साथ ही समान सोच वाले अन्य स्थानीय लोगों को जोड़कर ‘पर्यावरण शिक्षण एवं ग्रामोत्थान समिति’ ‘सीड’ के नाम से एक संस्था बनाई।

‘सीड’ आज 15 गांवों में बालवाड़ियां चला रही है। इनमें ढाई से 5 साल तक के बच्चों को न सिर्फ रोजाना 4 घंटे देखभाल की जाती है, बल्कि तरह-तरह के खेलों, बाल-कार्यों, भावगीतों इत्यादि के जरिए उनको पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों सबसे बढ़-चढ़कर अपनी मिट्टी से प्रेम करना सिखाया जाता है। ‘एक बनेंगे, नेक बनेंगे’ ‘मिलकर के हम काम करेंगे’ और ‘आज हिमालय जागेगा, दूर कुल्हाड़ा भागेगा।’ जैसे नारे पूरे गांव को एकता के सूत्र में बांधने का काम बखूबी करते रहे हैं। प्राइमरी में पढ़ रहे बच्चों के लिए शाम को गांव में संध्या केंद्र चलाते हैं, यहां बच्चे न सिर्फ अपने स्थानीय परिवेश के बारे में चर्चा करते हैं, बल्कि नन्हें हाथों से गांव के झरने, नौले-धारे आदि की साफ करने का, पॉलिथीन के बेकार थैली में पेड़-पौधे लगाने जैसा कार्य करके बड़ों को प्रेरणा दे रहे हैं। कांडे गांव की जानकी कांडपाल बताती हैं कि घर में पड़ी प्लास्टिक की थैली खाली होते ही बच्चों में उसे पाने की होड़ मची रहती है।

गांव की स्वच्छता भी पर्यावरण का ही अंग है लोगों को यह समझाने के साथ ही ‘सीड’ ग्रामीण परिवारों को शौचालय बनाने के लिए आंशिक रूप से आर्थिक मदद और फाइबर-ग्लास की बनी शौचालय सीट प्रोत्साहन स्वरूप देती है। पीढ़ियों से खुले में शौच करने के आदी रहे लोगों को शौचालय बनाने को बताना, शुरू में मुश्किल काम लगता था। लेकिन अब ग्रामीण इसके फायदे को भली-भांति समझने लगे हैं। मोहन कांडपाल बताते हैं कि अब तक 33 गांव में करीब 600 परिवारों को संस्था ने आंशिक आर्थिक मदद की है, जबकि सैकड़ों अन्य परिवारों ने इससे प्रेरित होकर बिना किसी अनुदान के ही खुद अपने लिए शौचालय बनवाए हैं।

सीड की चेतना से लगभग तीन दर्जन गांव की सुरक्षा, वनीकरण इत्यादि कार्यक्रमों में महिला संगठनों का पूरा सहयोग है।

रणा गांव में महिला संगठन ने पुराने नौलों का जीर्णोद्धार करने के लिए 2 किलोमीटर की चढ़ाई तक रेता, बजरी और सीमेंट का ढुलान किया। शिलंग की महिलाओं ने गांव की सामूहिक भूमि में वृक्षारोपण के लिए  जालली की नर्सरी से 15 से 20 किलो वजन के पौधे अपने सिर पर रखकर 1 किलोमीटर खड़ी चढ़ाई चढ़ीं। अब तो बहुत सारे महत्वपूर्ण काम बिना किसी परियोजना या पैसों के ही हो रहे हैं। 18 गांव में महिला संगठन के सामूहिक प्रयासों द्वारा मुक्त सार (पालतू मवेशियों को मरने के लिए खुला छोड़ देने की प्रथा) को बंद कर दिया गया है। इससे खेतों में खड़ी फसल घास, छोटे-बड़े पेड़-पौधे बच पा रहे हैं। महिला संगठनों की ओर से किए गए वनीकरण की सुरक्षा भी बिना किसी छेड़छाड़ के संभव हो पाई है। सभी महिला संगठनों ने अपने सदस्यों से पैसे जमा करके कोष बनाए हैं। जिससे वे जरूरत पड़ने पर अपने सदस्यों को उधार देते हैं। अपने सदस्यों को देने के बाद बचे पैसों से सामूहिक जरूरत को चीजों दरी, कंबल, शामियाना इत्यादि जोड़ते हैं, जिनको वे किराए पर उठाते हैं। शराबियों तथा जुआरियों को जिनसे पहाड़ की महिलाएं अधिक परेशान हैं समझा बुझाकर या जुर्माना लगाकर अंकुश लगाने का प्रयास ज्यादातर महिला संगठनों ने किया है।

शादी-ब्याह जैसे अवसरों पर पारस्परिक सहयोग की भावना बहुत बढ़ी है। मिसाल के तौर पर शिलंग गांव में किसी परिवार में होने वाले कामकाज को महिला संगठन ही निभाता है। बदले में जब वह परिवार पुरस्कार के रूप में कुछ धनराशि महिला संगठन को देता है, जिसे कोष में जमा कर दिया जाता है। किसी महिला पर अत्याचार होता है तो संगठन से दूर करने को तत्पर रहता है। वे महिलाएं अब अत्याचार को चुपचाप सहने के लिए तैयार नहीं हैं। बालवाड़ी से जुड़कर मुझमें अब जवाब देने की हिम्मत आ गई है यह बात एक शिक्षिका बड़े गर्व से बताती हैं। प्राइमरी प्राइमरी पाठशाला सही वक्त पर क्यों नहीं खुले? बिजली का खराब ट्रांसफर अभी तक बदला क्यों नहीं गया? जंगलात वाले गांव की जरूरतों को अनदेखी करके चौड़ी पत्तियों वाली प्रजातियों के बदले चीड़ के पेड़ क्यों लगा रहे हैं? ऐसे सवाल अब गांव की सीधी सीधी-सच्ची और अनपढ़ महिलाएं भी उठा रही हैं। कांडे की महिलाओं ने तो वन विभाग द्वारा लगाए गए चीड़ के पेड़ों को उखाड़ फेंका और उन्हें बांज के पेड़ लगाने को विवश कर दिया। बहुत सारे ग्रामीण लड़कियों ने आस्था से जुड़कर वर्षों पहले अधूरी छोड़ दी गई स्कूली पढ़ाई को फिर से आगे बढ़ाया है और अधिक उम्र के कारण अब खुद पढ़ लिख सकने में असमर्थ महिलाएं भी शिक्षा का महत्व समझ गई हैं। श्रीमती निर्मला देवी कहती हैं कि ‘लड़की पढ़-लिखकर कुछ बन जाती है, तो जिंदगी में जलालत के तले दबना नहीं पड़ता।’

मोहन मास्टर साहब स्वीकार करते हैं कि गांव के पुरुषों का इन कार्यक्रमों में उतना जुड़ाव नहीं रहा जितना कि अपेक्षित था।लेकिन दूनागिरी क्षेत्र में पर्यावरण को नुकसान पहुंचा कर हो रहे अवैध खनन के खिलाफ आंदोलन में द्वाराहाट महाविद्यालय के छात्रों ने मास्टर साहब का पूरा सहयोग दिया। सुरईखेत इंटर कॉलेज में आज 5 से 10 साल पुराने जो बांज के पेड़ दिखाई दे दे रहे हैं, वे उन विद्यार्थियों की कड़ी मेहनत का फल हैं, जो चार किलोमीटर दूर रणा की नर्सरी से पौधे लेकर के आए और रोपने के बाद उनकी देखभाल करते रहे।

अपने कार्य क्षेत्र के गांव में ‘मोहन मास्टर साहब’ और ‘पर्यावरण वाले मास्टर साहब’ के नाम से मशहूर इस अध्यापक के जुनून का ही नतीजा है कि एक नहीं बल्कि 50 गांवों में शिक्षा और पर्यावरण सुधार के प्रति लोगों में अभूतपूर्व जागृति आई है। 

बाढ़ में बेजुबान पशुओं की भूख मिटाना चुनौती है

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बाढ़ में बेजुबान पशुओं की भूख मिटाना चुनौती हैHindiWaterMon, 08/16/2021 - 15:26
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चरखा फीचर

 बाढ़ में जनजीवन,फोटो:चरखा फीचर

पूर्वी भारत के अधिकांश हिस्से इस समय बाढ़ की चपेट में है। नगर से लेकर गांव तक के ताल-तलैया, गली-मुहल्ले जलमग्न हो चुके हैं। जिसकी वजह से जन-जीवन अस्त-व्यस्त   हो गया है। बात जब आती है, ग्रामीण जीवन की, तो इस मुश्किल समय में सबसे पहले रोजी रोजगार की समस्या आती है। गांव के लोगों की जीविका खेतीबारी, पशुपालन और खेती आधारित रोज़गार है, जो बाढ़ आने के साथ काफी प्रभावित हो जाती है। ग्रामीण भारत के अधिकांश कृषक खेती के साथ साथ गाय, भैंस, बकरी और मुर्गी आदि पालन करके जीवनरूपी नईया को खेते हैं। लेकिन बाढ़ की इस त्रासदी में इनके आय का यही साधन सबसे अधिक प्रभावित होता है। जिसकी तरफ न तो सरकार और न ही प्रशासन का ध्यान होता है।

असमय बारिश के कारण किसानों की खेतीबारी भी पिछड़ गई है। अभी तक लोगों ने धान की रोपनी भी नहीं शुरू की, तबतक बाढ़ ने दस्तक दे दिया। परिणामतः खरीफ फसल धान, मक्का आदि की बुआई भी नहीं हो पाई है। वहीं यह बाढ़ सबसे ज्यादा उन किसानों के लिए शामत बनकर आई है, जो पशुपालन पर भी निर्भर होते हैं। ऐसे में उनके पशुओं के चारे की ज़बरदस्त किल्लत हो गई है। चारों तरफ पानी के भर जाने के बाद घास, दाना-साना आदि के लिए किसानों को ऊंचे स्थान पर मवेशियों को ले जाने की मजबूरी हो गई है। साथ ही पशुओं में वर्षा जनित रोग भी दस्तक देने लगे हैं। दोहरे परेशानी के बीच किसान मवेशियों के पालन-पोषण को लेकर काफी चिंतित हैं।

 बाढ़ में बेजुबान पशुओं की भूख मिटाना चुनौती,फोटो:चरखा फीचर

बिहार के तकरीबन दर्जनभर जिले मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, शिवहर, सुपौल, गोपालगंज, पश्चिमी और पूर्वी चम्पारण, सारण, किशनगंज, खगड़िया आदि के कुल पांच दर्जन प्रखंड की सैकड़ों पंचायत अंतर्गत हज़ारों गांव बाढ़ से प्रभावित हैं। जहां मवेशियों के लिए चारा और दाना-पानी जुटा पाना बहुत बड़ी समस्या बन गई है। हजारों-लाखों रुपए पूंजी लगाकर पशु पालन करने वाले किसानों के लिए अपने पशुओं की रक्षा करना बहुत बड़ी चुनौती है। इनकी रक्षा और चारा के लिए किसानों को क़र्ज़ लेने पर मजबूर होना पड़ता है। यही कारण है कि बाढ़ उपरांत अधिकांश किसान कर्ज में डूब जाते हैं और फिर उनके लिए घर-गृहस्थी चलाना भी काफी मुश्किल हो जाती है।

मुजफ्फरपुर जिले के पारू प्रखंडान्तर्गत दर्जनों पंचायत के हजारों ग्रामीणों की जीविका का आधार पशुपालन है। लेकिन इस बाढ़ की विभीषिका के बाद फतेहाबाद, ग्यासपुर, धरफरी, सोहांसा, सोहांसी, पंचरूखिया, दोबंधा, नयाटोला, पहाड़पुर, मोरहर और वासुदेवपुर से लेकर पूर्वी चम्पारण के नदी किनारे रहने वाले हजारों किसानों की जमीन के साथ-साथ पशुधन की रक्षा करना सबसे मुश्किल काम हो गया है। इस संबंध में सोहांसी गांव के किसान सिंगेश्वर शर्मा कहते हैं कि सैकड़ों की तदाद में मवेशियों को लेकर पशुपालक दूसरे गांव में चारे के लिए जाते हैं। ऐसे में पशुओं को लंबी दूरी तय करके कहीं घास मिल पाती है। यदि घास नहीं मिली तो उन बेज़ुबानों को भूखे रहने की नौबत आ जाती है। दूसरी ओर मानसूनी वर्षा के कारण मवेशियों में गलाघोटू बीमारी, लंगड़ा बुखार, स्माल पॉक्स, परजीवी रोग, खाज-खुजली आदि बिमारियों का भयंकर रूप से प्रकोप बढ़ जाता है। इस दौरान अधिकांश पशु उचित-देखभाल नहीं होने के कारण दम तोड़ देते हैं।

 बाढ़ में पशुओं के चारे की किल्लत,फोटो:चरखा फीचर

वहीं हुस्सेपुर रति पंचयात स्थित पंचरूखिया गांव के फूलदेव राय, लालबिहारी राय, शत्रुघ्न राय, मुन्नीलाल, सेवक राय बदरी राय, संजय, पप्पु, राजेश और नवल राय समेत दर्जनों पशुपालकों के पास 1200 से अधिक दुधारू पशु हैं। लेकिन बाढ़ के दौरान घर से लेकर पशुओं के खटाल तक उफनती नदी के प्रकोप का शिकार हो गए हैं। खुद साग-सतुआ खाकर रहने वाले किसान मवेशियों के लिए चारे के प्रबंध में निरंतर लगे रहते हैं। बदरी राय कहते हैं कि प्रत्येक वर्ष बाढ़ के आने के बाद गांव से पलायन करना पड़ता है। लेकिन आज तक बाढ़ से बचाव का कोई स्थाई हल नहीं निकाला गया है। शकलदेव मिश्र कहते हैं कि आज से 25 वर्ष पहले भी बाढ़ आती थी, जो ग्रामीणों के लिए जीवनदाई होती थी। बाढ़ 5 से 10 दिन ठहरती थी। धीरे-धीरे पानी उतरता था तो मिट्टी में नई जान आ जाती थी। फसल लहलहा उठती थी। पर्याप्त अन्न का उत्पादन होता था। चारों तरफ खुशहाली ही खुशहाली होती थी।

परंतु पिछले दो दशकों से जीना मुहाल हो गया है। गांव के धनी लोग अपनी-अपनी जमीन बेचकर शहर में घर बनाकर अपनी जीविका चला रहे हैं। हम जैसे निर्धन लोग गांव में रहने को मजबूर हैं। आखिर जाएं कहां? अब तो बाढ़ के साथ ही जीना और मरना लाग हुआ है। वहीं बकरी पालक विनय बैठा, कृष्णा सहनी और बसावन मियां कहते हैं कि पूरा इलाका जलमग्न है। घास नहीं मिल रही है। खुद का पेट भरना कठिन है। लेकिन बकरी पालन करने से नकद आमदनी होती है जिससे चूल्हा-चौका चलता है। ऐसे में अपने हिस्से से बकरियों को दाल-भात रोटी आदि खिलाकर किसी तरह उन्हें जिंदा रखने की कोशिश करते हैं।

 बाढ़ में लोगों के टूटे मकान,फोटो:चरखा फीचर

2019 की पशु जनगणना रिपोर्ट के अनुसार देश में 192.47 मिलियन गाय, 109.85 मिलियन भैंस, 74.26 मिलियन भेंड़ों की संख्या दर्ज की गई है। वहीं बकरियों की संख्या 148.88 मिलियन, सुअर की संख्या 9.06 मिलियन आंका गया है। सरकारी स्तर पर पशुओं की रक्षा, उनका ईलाज और पालन-पोषण के लिए बहुत सारी योजनाएं चल रही हैं। परंतु ग्रामीण किसान इन योजनाओं से अनभिज्ञ हैं। पशु संजीवनी कार्यक्रम’ के तहत मार्च माह से ही पशुओं की टैगिंग की जा रही है। टैगिंग एक यूनिक पहचान है। जिसके जरिए पशु बीमा, टीकाकरण, कृमिनाशक दवा और ईलाज की सुविधाएं दी जाती हैं। इसके बावजुद अभी तक सरकार की पहुंच इन बाढ़ प्रभावित इलाकों में नहीं है। फलस्वरूप पशुओं की सुरक्षा के साथ-साथ पशुपालकों की आर्थिक क्षति की पूर्ति भी सुदृढ़ नहीं हो पा रही है। स्थानीय जनप्रतिनिधि सरकारी चूड़ा, मिट्ठा, सतुआ, बिस्कुट लोगों के लिए बंटवाकर खानापूरी कर लेते हैं।

लेकिन पशुओं के लिए इनकी सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं। सोहांसी निवासी नीतू कुमारी कहती हैं कि गंगा मइया के जलप्रलय से सड़क, पुल-पुलिया सब ध्वस्त हो चुके हैं। अधिकांश लोग सगे-संबंधी और इष्ट-मित्रों के घर रह रहे हैं। नाव से राशन-पानी की व्यवस्था के साथ-साथ पशुओं के चारे के लिए भी लोग दूर-दूर तक जाकर किसी प्रकार से बंदोबस्त करने में जुटे हैं। यही करते-करते कुछ महीनों के बाद कार्तिक मास के समय तक जन-जीवन पुनः पटरी पर लौटता है। यह स्थिति प्रत्येक साल की है। बहुत लोगों ने उबकर गांव छोड़ने का भी निश्चय कर लिया है।

 बाढ़ में टूटे रास्ते,फोटो:चरखा फीचर

दरअसल बाढ़ की समस्या से निजात पाने और लोगों को इससे बचाने के लिए तकरीबन 3800 किमी बनाए गए लंबे तटबंध ने ही लोगों का जीवन तबाह कर दिया है। अगस्त आते आते बिहार की कोसी, कमला, बागमती, गंडक, गंगा, नारायणी, सोन आदि नदियों का जलस्तर खतरे के निशान से ऊपर जाने लगता है। दूसरी ओर पड़ोसी देश नेपाल में जब बारिश होती है, तो इसका सीधा प्रभाव इन नदियों के जलस्तर पर पड़ता है। बाढ़ से बचाव के तमाम उपाय केंद्र और राज्य सरकारें करती रही हैं, मगर तबाही भी उसी रफतार से बढ़ती रही है। बाढ़ से सबसे ज्यादा पशुओं की मौत होती है। उन्हें उपयुक्त दाना-साना और चारे नहीं मिलते हैं और वे बीमार हो जाते हैं। लोग अपनी जान बचाने में लगे रहते हैं जिसके कारण माल-मवेशी उपेक्षा के शिकार हो जाते हैं। पशुओं के इलाज के लिए प्रखंड मुख्यालय से पशु चिकित्सक सालों साल गांव में नजर नहीं आते। ग्रामीण निजी पशु चिकित्सकों को मोटी रकम चुका कर किसी तरह अपने मवेशियों का इलाज कराते हैं।

इस संबंध में वयोवृद्ध कांता सिंह कहते हैं कि सावन-भादो मास में बाढ़ की त्रासदी और बढ़ जाती है। पर्याप्त नाव की व्यवस्था बेहद जरूरी है। इसको लेकर स्थानीय प्रतिनिधियों को अगाह भी कराए गए हैं। इसके बावजूद व्यवस्था पूरी नहीं हो सकी है। केंद्र व राज्य सरकार की पशु बीमा योजना और चारा विकास योजना के बारे में किसानों को पता नहीं है। यदि किसानों को आर्थिक क्षति से बचाना है, तो स्थानीय जनप्रतिनिधियों एवं प्रखंड के अधिकारियों को नियमित टीकाकरण, पशु बीमा, चारा विकास योजना, एजोला की खेती, हाथ से चारा काटने वाली मशीन आदि का लाभ पीड़ित किसानों व पशुपालकों को देनी चाहिए। तभी सैकड़ों पशुपालकों की आर्थिक स्थिति मज़बूत की जा सकती है।

बहरहाल, हुक्मरानों की बाट जोहते किसान व पशुपालकों के पास कर्ज लेकर घर-गृहस्थी चलाने की मजबूरी कायम है। दूसरी ओर मवेशियों के चारा से लेकर रखरखाव और स्वास्थ्य की देखभाल भी आवश्यक है। जब मवेशी बचेंगे तभी आमदनी भी होगी। वरना, गाय, भैंस, बकरी, मुर्गी आदि के पालने का काम छोड़ने को बाध्य होना पड़ेगा। जिसका सीधा प्रभाव महिलाओं और बच्चों के पोषण पर पड़ेगा, जिससे उनकी समुचित देखभाल नहीं हो पाएगी। समय रहते पशुपालकों के दुख-दर्द को समझने के लिए स्थानीय नेतृत्व के साथ-साथ अधिकारियों को भी आगे आना होगा। तभी बचेगी जिंदगी और बेजुबान पशुओं की जान। 

 फोटो:अमृतांज इंदीवर

देश की इकलौती कछुआ सेंचुरी हुई शिफ्ट

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देश की इकलौती कछुआ सेंचुरी हुई शिफ्ट HindiWaterMon, 08/16/2021 - 17:27
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रिपोर्ट अंकित तिवारी

कभी देश की इकलौती कछुआ सेंचुरी  उत्‍तर प्रदेश के वाराणसी में गंगा नदी में  स्‍थ‍ित थी। लेकिन मार्च 2020 में उसे  ड‍िनोट‍िफाई कर  गंगा नदी में ही प्रयागराज के कोठारी गांव में  मिर्जापुर और भदोही के 30 किलोमीटर के दायरे में शिफ्ट किया गया है। यानी  गंगा एक्‍शन प्‍लान के तहत 1989 में चिन्‍हित की गई सेंचुरी का  वाराणसी में कोई वजूद नही है 

वन विभाग के अध‍िकारियों के मुताबिक इस सेंचुरी का एक मैनेजमेंट प्‍लान बनाया गया है जिसमें इंफ्रास्ट्रक्चर बनाना, देख रेख की व्‍यवस्‍था करना, अलग-अलग प्रजातियों के कछुओं को छोड़ने जैसी बातें शामिल  है। वन बिभाग के SDO रणवीर मिश्रा ने बताया कि  यहाँ करीब 460 कछुए  लखनऊ कुकरेल लैब से लाये गए है

कछुओं पर काम करने वाली उत्तरप्रदेश की विश्व  स्तरीय संस्था टर्टल सर्वाइवल अलायंस के उप निदेशक भास्कर दीक्षित ने बताया कि उनकी संस्था की एक बड़ी उपलब्धि ये रही कि  विश्व की सबसे प्रसिद्ध कछुए की प्रजाति  सबसे अधिक सरायू नदी में  मिली है। भास्कर दीक्षित ने आगे कहते है  कि कछुओ के लिए इस समय जो  जगह चिन्हित की गई है अगर वहाँ पर उनकी संस्था को  कछुओं  को संरक्षित करने के लिए बुलाया जाता तो वह जरूर कछुओ को संरक्षण देने  के लिये आगे आएंगे

कोठरी(kotari) गांव के घाट पर एक मंदिर बना हुआ है। मंदिर के पास ही पुजारी का घर है। यहां हमारी मुलाकात मंदिर के पुजारी से हुई   जिन्होंने बताया कि वन विभाग  अब तक  यहाँ कई कछुओ को ला चुका है जो  एक अच्छा निर्णय है जिससे गंगा का पानी साफ  होगा साथ ही  मंदिर भी सुरक्षित रहेगा|

वही कोठरी गाँव के एक ग्रामीण नागेश्वर बताते है कि यहां कछुआ संरक्षित क्षेत्र घोषित होने के बावजूद  कई संख्या में मछवारे यहाँ मछली पकड़े आते है जिसके के कारण यहाँ संरक्षित किये जा रहे कछुओं  के लिए खतरा पैदा हो गया हैवाराणसी में कछुआ सेंचुरी की जगह  अब केंद्र सरकार 1620 किलोमीटर वाटरवेज योजना तैयार कर रही है जिसमें एक लंबी कैनाल खोदी जा रही  जिससे गंगा का पानी दो हिस्‍सों में बंट जाएगा। अगर कछुआ सेंचुरी  रहती तो   यह वाटरवेज योजना कभी नही बन पाती। ऐसे में प्रशासन को कछुओं को नए क्षेत्र में  वैसे ही संरक्षित करके रखना होगा जैसे वाराणसी कछुआ सेंचुरी में किया जाता था।

एक्वा कांग्रेस के 15वाँ अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की महत्वपूर्ण जानकारियां

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एक्वा कांग्रेस के 15वाँ अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की महत्वपूर्ण जानकारियां HindiWaterWed, 08/18/2021 - 12:32
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एक्वा कांग्रेस

 एक्वा कांग्रेस 15वाँ अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन,फोटो:एक्वा कांग्रेस

विश्व एक्वा कांग्रेस के वर्ष 2021 के 15 वे  सम्मेलन  का  वर्चुअल आयोजन 14 सितंबर से 17 सितंबर तक किया जा रहा है। इस वर्ष की थीम संयुक्त राष्ट्र विश्व जल दिवस थीम के अनुरूप  तय की गई  है। इस वर्ष का विषय 'जल का महत्व' (valuing water) (पर्यावरण, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य) पर आधारित होगा। 

कार्यक्रम में इस बार पानी का लोगों के पर्यावरणीय सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों के असर को शामिल किया जाएगा।  पानी का मतलब अलग-अलग लोगों के लिए अलग अलग चीजें है। जैसे घरों, स्कूलों और कार्यस्थलों में पानी का मतलब स्वास्थ्य, स्वच्छता, गरिमा और उत्पादकता हो सकता है  तो वही  सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक स्थानों में, पानी का तात्पर्य  सृजन, समुदाय और स्वयं के साथ संबंध हो सकता है। प्राकृतिक स्थानों में, पानी का मतलब शांति, सद्भाव  और संरक्षण हो सकता है। आज, बढ़ती आबादी के कारण  कृषि और उद्योग की बढ़ती मांगों और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से पानी अत्यधिक खतरे में है।

अपने कार्यो की रिकॉर्डिंग और जश्न मनाने के साथ हम हमारे जीवन में पानी से पहुंचे लाभ के विभिन्न तरीकों और पानी को उचित रूप से महत्व देकर सभी के लिए इसे प्रभावी ढंग से सुरक्षित कर सकते हैं।

 

नामांकन भरे

जल पर्यावरण, मानवता, सतत विकास ग्रीन हाउसिंग ग्रीन हॉस्पिटैलिटी क्षेत्र में सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक के लिए अपना नामांकन जमा करें।नामांक जमा करने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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पंजीकरण करें 

भाग लेने के लिए पंजीकरण करें और इस  महत्त्वपूर्ण संवाद का हिस्सा बनें। कार्यक्रम के हर सेशन में अनिर्वाय रूप से शामिल  होकर भागीदारी प्रमाण पत्र प्राप्त  करें। साथ ही   विश्व के सभी प्रतिभागियों से मिलकर अपना नेटवर्क  स्थापित करें। पंजीकरण करने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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प्रस्तुतीकरण

उद्योगों को उनकी नवीनतम तकनीकों, संसाधनों, इन्नोवेशंस और प्रमुख सफलताओं आदि पर 15 मिनट का विशेष कमर्शियल और प्रोमोशनल स्लॉट दिया जाएगा। स्लॉट बुक करने के लिए नीचे  दिए गए  लिंक को दबाएं 

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15 वें वर्ल्ड एक्वा कांग्रेस 2021 में अपनी सफलता को और अधिक ऊंचाइयों को ले जाने के  लिए वर्ल्ड एक्वा कांग्रेस 2021 के प्रयोजक बनें और अपनी संस्था का प्रचार-प्रसार बढ़ाये। प्रयोजक की किस श्रेणी में शामिल होना चाहते उसके लिए नीचे दिए गए लिंक को दबाएं।  

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प्रदर्शनी

यह कार्यक्रम जल और पर्यावरण के क्षेत्र में निर्णय निर्माताओं और नीति निर्माताओं को आपके उत्पादों और सेवाओं को प्रदर्शित करने के लिए एक आदर्श मंच प्रदान करता है इस अनूठे अवसर में भाग ना लेना भूले। प्रदर्शनी में भाग लेने के लिए नीचे दिए गए लिंक को दबाएं

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कई सरकारी स्कूलों में पीने का पानी और शौचालय नहीं जानिए क्या है कारण 

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कई सरकारी स्कूलों में पीने का पानी और शौचालय नहीं जानिए क्या है कारण HindiWaterThu, 08/19/2021 - 13:19
Source
जनमंच

 कई सरकारी स्कूलों में पीने का पानी और शौचालय नहीं,फोटो:इंडिया वाटर पोर्टल(फ्लिकर)

वैसे तो सरकारें शौचालय मुक्त  होने  का तमाम दावे करती है  लेकिन हकीकत इसके उलट होती है। कुछ ऐसा ही मामला उत्तराखंड में भी है जहाँ 31 मई 2017 को राज्य सरकार द्वारा  प्रदेश को खुले में शौच से मुक्ति की घोषणा  की गई थी। लेकिन हालाहि  में यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन ऑन स्कूल एजुकेशन plus {UDISE+} की 2019- 20  रिपोर्ट के अनुसार , राज्य में 1000 से अधिक ऐसे स्कूल है जहाँ अभी तक शौचालय की सुविधा नहीं है। 

भारत सरकार के स्कूली शिक्षा और साक्षारता विभाग द्वारा जारी की गई रिपोर्ट से यह बात सामने आई है कि उत्तराखंड के कुल 23,295 विद्यालयों में  से 5.02% यानी 1,170 स्कूलों में शौचालय नहीं है।  रिपोर्ट में यह भी खुलासा हुआ है कि राज्य के 9.05% स्कूलों में पीने के पानी की सुविधा उपलब्ध नहीं है। जबकि पीने के पानी।की सुविधा वाले 2109 स्कूलों में तकरीबन 18,00 स्कूल ऐसे है जिन्हें सरकार द्वारा संचालित किया जाता है।

 देश के  शिक्षा मंत्री रहे रमेश पोखरियाल (निशंक) ने मार्च में राज्यसभा मे  एक प्रश्नन के लिखित उत्तर में यह जानकारी दी थी कि देश के 42,000 से अधिक सरकारी स्कूलों में पीने के पानी की सुविधा नहीं है, जबकि 15,000 से अधिक स्कूलों में शौचालय नहीं हैं वही उत्तराखंड के स्कूलों ने स्वच्छता पर अच्छा प्रदर्शन किया है, राज्य के 93 प्रतिशत स्कूल ऐसे है जहाँ  बच्चों के लिये हाथ धोने की सुविधा है । जबकि 6 प्रतशित स्कूलों में ये सुविधा नहीं है। लेकिन इन सबसे बड़ी समस्या बिजली की है राज्य के 16 प्रतिशत स्कूलों में  बिजली का कनेक्शन नहीं है। 

देश में लगभग पिछले एक दशक से  सरकार द्वारा स्कूलों में डिजिटललाइजेशन पर  लगातारजोर दिया जा रहा है । उत्तराखंड के सिर्फ 16.67% स्कूलों में  ही इंटरनेट कनेक्टिविटी है यानी प्रदेश के 19000 हजार स्कूलों में  अभी तक इंटरनेट कि सुविधा पहुँच नही पाई है । राष्ट्रीय स्तर पर (UDISE) की 2019-20 की रिपोर्ट के मुताबिक देश भर के 15 लाख स्कूलों में से महज  5.5 लाख स्कूलों (37%) के पास कंप्यूटर हैं और 3.3 लाख (22%) के पास इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। बड़े राज्यों में (जिनमें 15,000 से अधिक स्कूल हैं), केरल और गुजरात का प्रदर्शन सबसे अच्छा है।

हालांकि शिक्षाविदों का मानना है उत्तराखंड का एक पहाड़ी राज्य के चलते दूसरे सभी राज्यों से  बेहतर प्रदर्शन किया है। राज्य के शिक्षा विभाग के एक अधिकारी कहते है उत्तराखंड के  स्कूल कई मानकों में दूसरे राज्यों के स्कूलों से बेहतर प्रदर्शन किया है। और इस स्थिति को जारी रखते हुए  शिक्षा के बुनियादी ढांचे को और बेहतर करने के लिये लगातार काम करे रहे ।

वही नीति आयोग की रिपोर्ट गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने में उत्तराखंड टॉप 5 राज्य में शामिल है। उत्तराखंड, केरल, हिमाचल, गोवा के बाद चौथे स्थान पर काबिज है  । केरल 100 में से 80 अंक पाकर पहले स्थान पर  है जबकि 74 अंकों के साथ हिमाचल दूसरे और 71 अंकों के साथ गोवा तीसरे और 70 अंको के साथ उत्तराखंड चौथे स्थान पर है। 

कक्षा 11 और 12 के लिये जीईआर यानी सकल नामांकन अनुपात ( Gross Enrolment Ratio) पर राज्य ने अच्छा प्रदर्शन किया है जो लागभग 69.3% के करीब है। यानी राष्ट्रीय औसत 51.4% से भी अधिक है। उच्च माध्यमिक कक्षाओं (  higher secondary clases) में जीईआर लड़कियों का लड़को की तुलना में  बेहतर पाया गया है ।

सके साथ ही, छात्र शिक्षक अनुपात(Pupil-Teacher Ratio)  में  उत्तराखंड का प्रदर्शन राष्ट्रीय औसत से काफी अच्छा है। यह प्राथमिक से उच्च माध्यमिक तक सभी स्तरों पर तकरीबन 13.8- 18.5 की सीमा में पाया गया है। जबकि पीटीआर का राष्ट्रीय औसत 18.5- 26.5 की सीमा में था ।  यानी प्रति शिक्षक 18.5 छात्र है । कम पीटीआर शिक्षा की बेहतर गुणवत्ता को दर्शाता है कुल मिलाकर यह कहा जाये कि सरकार की शिक्षा और स्वछता के मामले स्थिति औसतरही है ।

 

एक युवक के प्रयास से घर-घर तक पहुँच रहा है पानी

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एक युवक के प्रयास से घर-घर तक पहुँच रहा है पानी HindiWaterFri, 08/20/2021 - 10:36

 पानी की टैंकर से पानी भरते हुए ग्रामीण,फोटो:जी मीडिया 

पानी की कीमत क्या है इसका जवाब अगर चाहिए तो आपको दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन शहर के लोग बड़ी बता पाएंगे और समझा भी पाएंगे क्योंकि ऐसा हो सकता है की आपको आने वाले समय में केपटाउन शहर के लोग सेना की मौजूदगी में पानी की सुरक्षा करते हुए भारतीय दिखाई देंगे अभी फिलहाल इस शहर के लोगो को 50  लीटर पानी प्रतिव्यक्ति मिल रहा है और अगर हालात ऐसे ही रहे तो शायद ये 2  से तीन सालो में 25 लीटर प्रतिव्यक्ति तक पहुंच जाएगा और जब ऐसा होगा तो आपको सेना की सुरक्षा के बीच पानी भरना होगा

लेकिन चिंता की बात ये है कि दक्षिण अफ्रीका का ये एकमात्र शहर नहीं है जो पानी की जबरदस्त किल्लत से जूझ रहा है दुनिया भर में ऐसे कई और शहर है जो पानी की गंभीर समस्या से जूझ रहे है और भारत भी इससे अछूता नहीं है आज हम आपको भारत के एक ऐसे शहर की कहानी बता रहे है जहाँ लोगो को कई किलोमीटर दूर तक पैदल जाकर पानी ढोना  होता है और ये देख एक शख्स ने कुछ ऐसा किया जो आज अखबारों की सुर्खियों में है और लोग उसे दुआएं दे रहे है 

बुंदेलखंड हमेशा पानी की किल्लत  को लेकर चर्चा में रहता है. यहां के कई गांव ऐसे हैं, जहां आज भी लोग बूंद-बूंद के लिए जद्दोजहद करते नजर आए हैं. इसी बीच एक ऐसी तस्वीर सामने आयी है, जिसकी हर जगह चर्चा है. एक युवक ने जब आदिवासियों को घाटी से चढ़कर दो किलोमीटर दूर से पानी लाते देखा तो उसका दिल पसीज गया. उसने इस समस्या को खत्म करने की ठानी और बीते चार साल से वो उन आदिवासियों को हर हाल में पानी उपलब्ध करा रहा है. ये मामला दमोह जिले के बटियागढ़ ब्लॉक के गीदन गांव का है. 

पिछले चार साल से हर दिन शाहजादपुरा निवासी नरेंद्र कटारे उस गांव में पानी का टैंकर लेकर पहुंचा रहा है, जहां प्रशासन हार मान चुका है. गौर करने वाली बात ये है कि पानी के परिवहन पर युवक अब तक 10 लाख रुपए से ज्यादा खर्च कर चुका है. गीदन में पानी की विकराल समस्या है. जलस्तर हजार फीट से भी ज्यादा नीचे है और गांव में एक भी कुआं नहीं है, कुछ बोर किए गए थे, लेकिन उनमें पानी नहीं निकला. गांव में एक हैंडपंप चालू है, जो पूरे दिन में बमुश्किल 30 लीटर ही पानी दे पाता है  

गांव वालों की समस्या देखकर नरेंद्र कटारे ने पानी पहुंचाने के लिए रोज दो टेंकर भेजना शुरू किया. ये सिललिसा पिछले चार साल से लगातार जारी है. नरेंद्र कटारे ने बताया कि गांव के प्रत्येक परिवार को टेंकर से पानी दिया जाता है, ताकि कोई प्यासा न रहे और उन्हें परेशान न होना पड़े. 

नरेंद्र कटारे खुद 45 एकड़ के किसान हैं. उनका कहना है कि वे अपने इस काम को सार्वजनिक नहीं करना चाहते हैं. इससे लोगों के मन में गलत संदेश जाता है. उनका मानना है कि समाज सेवा की जाती है, बताई नहीं जाती. नरेंद्र कटारे ने बताया कि गांव में जब किसी के घर शादी-विवाह या फिर दूसरा कार्यक्रम होता है तो अलग से दो टेंकर पानी भेजा जाता है. नरेंद्र के घर बोर है और इसी बोर से पूरे गांव की प्यास बुझ रही है. इसका न पंचायत और न ही आदिवासियों से कोई पैसा नहीं लिया जाता.

 


पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है खाने की बर्बादी जानिए कैसे निपटें इससे

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पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है खाने की बर्बादी जानिए कैसे निपटें इससेHindiWaterMon, 08/23/2021 - 11:39
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डब्ल्यूआरआई इंडिया

 पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है खाने की बर्बादी,फोटो:इंडिया वाटर पोर्टल(फ्लिकर)

यूनाइटेड नेशन की इंटर गोवेर्मेंटरल पैनल की छठी आकलन रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि हो गई है की हमारी नई पीढ़ी को जलवायु संकट के गंभीर नतीजों का सामना करना पड़ सकता है। रिपोर्ट में स्प्ष्ट कहा गया है कि ग्लोब वार्मिंग मनुष्य को भी  किसी न किसी तरह से प्रभावित करेगी।विश्वभर में प्रदूषित तत्वों से फैले प्रदूषण में  8 प्रतिशत  खाने की बर्बादी की वजह से होता है । भारत में बर्बाद हुए खाने से सामजिक, पर्यावरणीय और  आर्थिक प्रभावों और मौजूदा स्थितियों को समझने के लिए वर्ल्ड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट इंडिया ( WRI India)  द्वारा 106 प्रकाशित और अप्रकाशित  दस्तावेजों को नियमित रूप से विश्लेषण  करने  के साथ-साथ विशेषज्ञों की राय भी ली। इस अध्ययन में फूड एंड लैंड कॉल कोलिशन (FOLU)  इंडिया ने  भी सहयोग बखूबी सहयोग दिया। 

इस अध्ययन में रिसर्च, पॉलिसी और प्रशिक्षण में जो भी खामियां थी उसे व्यवस्थित रूप से बताया गया है ताकि भारत में खाने की बर्बादी को रोका जा सके। फूड लॉस एंड वेस्ट इन इंडिया: द नोन्स एंड द अननोन्स पर डब्ल्यूआरआई का नया अध्ययन देश में खराब खाने की समस्या से निपटने के लिए एक ऐसा रोडमैप  तैयार कर रहा है जिससे इसके महत्व, हॉटस्पॉट और महत्वपूर्ण नुकसान की पहचान की जा सके।

 

अध्ययन  में क्या कहा गया 

  • भारत में खराब खाने की बजाए फसल काटने के बाद होने वाले नुकसान की मात्रा पर अधिक अध्ययन किया जाता है। यहां तक कि फसल काटने के बाद होने वाले नुकसान में भी भोजन के खराब होने के कारणों को भी नजरअंदाज कर दिया जाता है।
  • हालांकि फसल काटने के बाद उसमें होने वाले नुकसान के आकलन के लिए राष्ट्रीय और उप राष्ट्रीय स्तर पर शोध होते हैं लेकिन विभिन्न अध्ययनों के तथ्यों की कभी भी तुलना नही की जाती है। क्योंकि इन सभी अध्ययनों के लिये अलग-अलग मापदंड इस्तेमाल किए जाते है । 
  • घरेलू,रिटेल और सेवा स्तर पर खराब खाने की कोई भी ऐसी अनुभवी रिसर्च अभी तक सामने नही आई है जिस पर विश्वास किया जा सके।
  • भोजन को खराब होने से बचाने के लिए जो भी प्रयास किए गए हैं वह फूड बैंक वा कंपोसिटिंग के माध्यम से बर्बाद खाने के प्रबंधन पर केंद्रित होते है।
  • भारत में खाने के खराब और बर्बाद होने के सामाजिक,आर्थिक और  पर्यावरणीय पहलुओं को अधिक खंगाला नही गया है। भोजन के खराब और बर्बाद होने पर लिंग संबंधी रिसर्च ना तो उपलब्ध है ना ही तकनीक में सुधार और इसके प्रबंधन  पर विचार किया जाता है 
  • रिसर्च में इन सभी  विचारों को ध्यान में रखते हुए  तथ्य आधारित समाधानों के आधार पर विभिन्न हितधारकों के सामने आने वाली चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए भारत मे खराब और बर्बाद खाने के प्रबंधन के लिए एक रोड मैप तैयार करने की सिफारिश की गई है ।

 

फ्रेंस ऑफ चैंपियंस 12.3 इन इंडिया' : भोजन के खराब तथा व्यर्थ होने में कमी लाने के लिए की गई एक साझेदारी

डब्ल्यूआरआई इंडिया और एफओएलयू इंडिया ने एक आधिकारिक रिपोर्ट जारी करने और '“चैंपियंस 12.3 स्ट्रेटजी ऑफ टारगेट मेजर एक्ट' पर चर्चा करने के लिए हाथ मिलाया  हैं।  इस बातचीत  में भोजन के सड़ने तथा उसके नुकसान को आधा करने से संबंधित सतत विकास  के लक्ष्य 12.3 को अपनाने, खराब होने वाले भोजन की मात्रा को नापने और जिन स्थानों पर अधिक मात्रा में भोजन बर्बाद होता है वहां पर इसे रोकने के लिए कदम उठाने जैसे समाधान शामिल किए है  इस कार्यक्रम का समापन फ्रेंड्स ऑफ चैंपियंस 12.3 इन इंडिया में शामिल होने के आग्रह के साथ हुआ । यह विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे ऐसे लोगों का एक समूह है जो भोजन के सड़ने और खराब होने में कमी लाने का लगातार प्रयास करता है । 

उदहारण :

डब्ल्यूआरआई इंडिया की सीनियर मैनेजर मोनिका अग्रवालने कहा  "भारत में एक बड़ी मात्रा में भोजन का कभी इस्तेमाल ही नहीं हो पाता, क्योंकि यह खेत से खाने की थाली तक पहुंचते पहुँचते खराब हो जाता है। यह नुकसान भोजन की मात्रा से अधिक होता है।  क्‍योंकि यह हमारे लोगों के स्वास्थ्य,पारिस्थितिकीतंत्र,पेड़-पौधों,जानवरों,मिट्टी,पानी और जैव विविधता जैसी एक दूसरे से जुड़ी चीजों से संबंधित मामला है। भोजन के उत्पादन, उसके भंडारण, ट्रांसपोटेशन,प्रक्रिया और वितरण के साथ उसकी बर्बादी को कम करने के लिए हमें बहुत से ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।"

डब्ल्यूआरआई इंडिया के सीईओ डॉक्टर ओ. पी. अग्रवाल ने कहा "इस मुद॒दे पर डब्ल्यूआरआई इंडिया द्वारा काम किये जाने का  मुख्य कारण यह है कि बड़े पैमाने पर भोजन के खराब और बर्बाद होने  पर कमी लाई जाए ताकि 2050  तक  बेहतर स्वास्थ्य भोजन का लक्ष्य प्राप्त कर सके।डॉक्टर ओ. पी. अग्रवाल कहते है कि हमें आज  खाने की बर्बादी को कम करने के लिए एक अवसर मिला है ताकि  इसके कारण जमीन ,पानी और हवा पर जो दबाव  पड़ रहा उसे कम किया जा सके।अगर ऐसा संभव होता है तो इससे भोजन की उपलब्धता में सुधार तो होगा ही बल्कि किसान, उपभोक्ता और विभिन्न समूहों की आमदनी भी बढ़ेगी। यह सही है कि इससे संबंधित शोधों में कई खामियां हैं मगर फसल कटने के बाद होने वाले खादय पदार्थों के नुकसान को लेकर उल्लेखनीय जानकारियां हैं, जिन पर सुव्यवस्थित ढंग से काम करने की जरूरत है।”

गोदरेज एंड बॉयस मैन्युफैक्चरिंग कंपनी लिमिटेड इंडिया के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक तथा डब्ल्यूआरआई इंडिया के निदेशक मंडत्र के अध्यक्ष जमशेद गोदरेजने कहा कि "डब्ल्यूआरआई इंडिया ने आर्थिक लाभ और जलवायु संबंधी फायदे को देखते हुए भोजन के खराब और बर्बाद होने पर सही  समय पर अध्ययन शुरू किया है। भारत में  खाद्य पदार्थों के उत्पादन, वितरण तथा उपभोग का बेहतर तरीके से प्रबंधन करने में फ्रेंड्स ऑफ चैंपियंस 12.3 नामक क्षेत्रीय नेटवर्क का गठन करना एक महत्वपूर्ण कदम है। मैं आशा करता हूँ कि यह नेटवर्क इस दिशा में सहयोग और कार्रवाई को बढ़ावा देगा।”

डब्ल्यूआरआई इंडिया में सस्टेनेबल लैंडस्केप एंड रीस्टोरेशन शाखा की निदेशक डॉक्टर रुचिका सिंहने कहा "भोजन को खराब और बर्बाद  होने से बचाना जलवायु के लिए अच्छा होने के साथ-साथ अनेक सामाजिक आर्थिक और पर्यावरणीय फायदों को अनलॉक करने का एक बेहतर मौका भी है।ग्रामीण क्षेत्रों की आजीविका में सुधार से मिलने वाला लाभ और हरित उद्यमिता को बनाने के अवसर के असीमित फायदे हैं जिन्हें  नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हर व्यक्ति को भोजन को खराब होने से बचाने के लिए एजेंडा बनाने का यह सही समय है।”

भारत में एफओएल्यू के कंट्री कोआर्डिनेटर डॉक्टर जयहरी केएमने कहा "एफओएलयू भोजन के खराब और बर्बाद होने में कमी लाने के लिए समूचे विश्व में  भोजन तथा पोषण सुरक्षा के लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम के तौर पर देखता है।   निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में भारतीय कृषि और वस्तुओं के आपूर्ति चेन के  प्रबंधन में व्याप्त जटिलताओं को देखते हुए एफओएलयू फ्रेंड्स ऑफ चैंपियन 12.3 साझेदारी के तहत एक ऐसा मजबूत कार्ययोजन का गठजोड़ बनाने का प्रयास कर रहा है, जिसमें अधिक व्यापक सहभागिता और लक्षित शामिल हो। मुझे आशा है कि राष्ट्रीय तथा उप-राष्ट्रीय सरकारें इस गठबंधन में शामिल्र होंगी।”

डब्ल्यूआरआई इंडिया के बारे में

डब्ल्यूआरआई इंडिया एक शोध संगठन है जिसमें ऐसे विशेषज्ञ और स्टाफ कर्मी शामिल्र हैं, जो स्वस्थ पर्यावरण को बनाए रखने के लिए नेतृत्वकर्ताओं के सहयोग से बड़े विचारों को जमीन पर उतारने के लिए काम करते हैं। स्वस्थ पर्यावरण ही आर्थिक अवसर और मानव कल्याण का आधार है।  हम एक ऐसी समानतापूर्ण और खुशहाल धरती की परिकल्पना करते हैं जो प्राकृतिक संसाधनों का ज्ञानपूर्णबप्रबंधन से संचालित होती हो। हम एक ऐसे विश्व को  बनाने की आकांक्षा रखते हैं जहां सरकार, कारोबारी वर्ग तथा विभिन्‍न समुदाय मिलकर गरीबी को हटाने और सभी लोगों के लिए एक सतत और प्राकृतिक पर्यावरण बनाने के लिए काम करते है।

क्या करता है एफओएलयू इंडिया 

फूड एंड लैंड यूज़ ऑफ वैल्यू (एफओएलयू) इंडिया दरअसल, काउंसिल ऑन एनर्जी एनवायरमेंट एंड वॉटर (सीईई डब्ल्यू), इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट अहमदाबाद (आईआईएम-ए), द एनर्जी एंड रिसोर्सेसइंस्टीट्यूट (टेरी), रिवाइटलाइजिंग रेनफेड एग्रीकल्चर नेटवर्क (आरएसएन) तथा वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट इंडिया (डब्ल्यूआरआई) इंडिया द्वारा संयुक्त रुप से शुरू की गई एक पहल है। इसके तहत खाद्य तथा भू उपयोग की सतत प्रणालियों के लिए दीर्घकालिक उपाय विकसित करने के साथ-साथ नीति संबंधित निर्णयों पर काम करता है  ।

बिहार के कई जिले बाढ़ की चपेट में,देखें तबाही का मंजर

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बिहार के कई जिले बाढ़ की चपेट में,देखें तबाही का मंजरHindiWaterTue, 08/24/2021 - 15:53

 

बरसात के इस बेहिसाब पानी को सरंक्षित करना बेहद जरूरी है क्यूंकि पानी के इस संकट से इंसान और जानवर दोनों  प्रभावित हो रहे हैएक तरफ जहाँ कुछ प्रदेश पानी की किल्लत का सामना कर रहे है वही कुछ प्रदेशो के कई हिस्से पानी से आजकल लबालब है और बाढ़ के खतरे से खुद को बहार निकालने में व्यस्त है बिहार का मुंगेर जिला भी आजकल बाढ़ की समस्या से जूझ रहा है वही दूसरी तरफ उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में में करीब 76  गाँव के करीब 50 हजार लोग बाढ़ से प्रभावित हुए है बिहार में एक और दरभंगा जिला भी बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुआ है और लोग खुद को सुरक्षित स्थानों पर पंहुचा रहे है लेकिन यहाँ सबसे बड़ा सवाल है की हर साल बरसात में इन लोगो को बाढ़ का सामना करना पड़ता है लेकिन सर्कार की तरफ से कोई दुरस्त कदम अभी तक इनके लिए नहीं उठाया गया जिससे की लोगो को बाढ़ आने पहले ही सुरक्षित स्थानों पर रखा जा सके।

जलस्तर बढ़ने पर मिलेगा 'मैसेज अलर्ट' 

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जलस्तर बढ़ने पर मिलेगा 'मैसेज अलर्ट' ShivendraMon, 08/30/2021 - 15:43

 वाटर लेवल सेंसर,फोटो:कृत्सनम टेक्नोलॉजी

 

प्राकृतिक आपदा जैसे बाढ़, सूखा, जल सैलाब, चक्रवात और भूकम्प आदि से काफी क्षति होती रही है। हमारे देश में भी प्राकृतिक आपदा की  पहले से सूचना के लिए बेहतर  तकनीक विकसित नहीं हो पाई है  जिसके कारण प्राकृतिक आपदा से बचने के लिये नहीं बल्कि आपदा के बाद की स्थिति से निपटने पर ज्यादा ध्यान देते है लेकिन कुछ वर्षों से इन चुनौतियों से निपटने के लिये हमारे  देश के नौजवान कई ऐसी  नई तकनीकों का अविष्कार कर रहे जो आपदा आने से पहले लोगों को अलर्ट कर सकेगी। 

पिछले महीने आईआईटी रुड़की के छात्रों ने भूकंप अलर्ट को लेकर एक मोबाइल ऐप बनाया था जो लोगों को भूकंप से पूर्व चेतावनी  अलर्ट देगा । साथ ही भूकंप के दौरान लोग कहीं फंसे हैं तो उनकी लोकेशन भी ट्रैक की जा सकेगी। दूसरी ओर, आईआईटी कानपुर  के पूर्व छात्रों ने नदी के जलस्तर बढ़ने पर मोबाइल पर  मैसेज के जरिये अलर्ट करने के एक 'मोबाइल फ्लड अलर्ट सिस्टम'  को बनाया है। 

सबसे अधिक आपदाओं की मार झेलने वाले उत्तराखंड के 8  जगहों में यह उपकरण  लगाए  गए  है। जिनकी  निगरानी केंद्रीय जल आयोग द्वारा की जा रही  है। आईआईटी  से वाटर रिसोर्सेज ब्रांच से एमटेक करने वाले छात्र श्रीहर्षा ने 2 साल की रिसर्च के बाद अपने 15 साथियों के टीम के साथ इस नई तकनीक को तैयार किया है।आईआईटी कानपुर से पास होने के बाद श्रीहर्षा ने कृत्सनम टेक्नोलॉजी नाम से 2017 में एक कंपनी बनाई इसमें जल सैलाब या बाढ़ आने से पहले तुरंत उस स्थिति का डाटा रिकॉर्ड किया जा सकता है।

कैसे करता है काम 

फ्लड मॉनिटरिंग टेक्नोलॉजी पर बनाया गया इस सिस्टम में वाटर लेवल सेंसर का प्रयोग किया जाता है। इस सेंसर को  किसी भी नदी व तालाब के ऊपर फिट किया जाता है उसके बाद उस का जलस्तर नाप कर हर 10 मिनट में इसकी रिपोर्ट भेजने का काम करता हैं यह 40 मीटर तक जलस्तर की घटक और बढ़त के बारे में बता सकता है सेल्यूलर नेटवर्क व सेटेलाइट के माध्यम से यह  मॉनिटरिंग केंद्र में ऑनलाइन डाटा भेजता है  साथ ही नदी की स्थिति का ब्यौरा एकत्रित करने के बाद उसे सर्वर में  भेजा जाता है । यह उपकरण जलस्तर का जो डाटा भेजा गया है उसका आकलन करता है  उसके बाद सर्वर से कई मोबाइल जोड़े जाते है फिर मोबाइल में इसका अलर्ट  आता है। 

कैसे अलर्ट करता है  ये सिस्टम

नदी का बाढ़ वाले क्षेत्रों में सेंसर लगाए जाते हैं और उन्हें सर्वर जोड़ा  जाता है फिर  सर्वर के माध्यम से  ईमेल व्हाट्सएप एसएमएस  से  जल स्तर बढ़ने की सूचना देता है। अगर जलस्तर  सामान्य से अधिक बढ़ता  है तो यह 2 मिनट में मैसेज भेजकर अलर्ट करता है। इसमें 1 से अधिक मेल आईडी और मोबाइल नंबर को जोड़ा जा सकता है।

उपकरण लगाने में  कितनी लागत आती है 

इस उपकरण को लागने में  लगभग 1.50 लाख  रुपए का खर्चा आता है। और यह उपकरण अभी तक उत्तराखंड के आठ जगह  उत्तरकाशी चमियाला,चिनका,नंदप्रयाग, रुद्रप्रयाग, देवप्रयाग और करणप्रयाग में लगाया गया है। अब इसे उत्तर प्रदेश की नदियों के जलस्तर नापने के लिए भी लगाने की योजना की जा रही है

चमोली में रहा सफल प्रयोग

इस उपकरण का उपयोग उत्तराखंड के  चमोली जिले  में किया गया था जहां पर इसने बेहतर परिणाम दिए हैं यह समय-समय पर केंद्र जल आयोग को अपडेट देता रहा और इससे पाए गए डाटा को केंद्र जल आयोग ने टि्वटर पर अपलोड करने के साथ सबंधित अधिकारियों को अलर्ट भी किया ।

उत्तराखण्ड में क्यों किया गया पहला प्रयोग 

साल 2013 में केदारनाथ में मंदाकिनी नदी में आये जल सैलाब के कारण कई लोगों की मौत हो गई थी और आज भी उस दिल दहलाने  वाले मंजर को लोग भूले नही पाए है । यह आपदा भारत के इतिहास में सबसे बड़ी आपदाओं में से एक थी  । जिसने पहली बार  लोगों को नदी के रौद्र रूप से रूबरू कराया।

कुछ इसी तरह का मंजर 7 फरवरी 2021 को सामने आया था। उत्तराखंड के ही चमोली जिले के जोशीमठ के पास रेणी गाँव में भयानक आपदा आई थी। जिसमें 1 हज़ार से अधिक लोगों की मौत हुई थी। रेणी गाँव के पास बहने वाली ऋषि-गंगा नदी  का  जल स्तर बढ़ गया और नदी ने रौद्र रूप ले लिया जिसमें ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट पर काम रहे सभी कर्मचारी इसकी चपेट आये और उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इसलिए  इस सिस्टम का प्रयोग सबसे पहले उत्तराखंड में किया गया क्योंकि आपदा के  मामले में पार्वती राज्य उत्तराखंड सबसे सवेंदनशील जगह बन गया है 

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण भी बना चुका है फ्लड अर्ली वार्निंग सिस्टम  (FEWS) 

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने सहयोग से टेरी ने पिछले साल एक ऐसा फ्लड अर्ली वार्निंग सिस्टम बनाया है  जो लोगों को उनके क्षेत्र में वर्षा के पूर्वानुमान,किसी शहर की भौगोलिक  स्थिति, जलधारण क्षमता के आकलन के साथ बाढ़ की स्थिति के बारे बताएगा। लेकिन यह ' मोबाइल फ्लड अलर्ट सिस्टम' की तरह  मोबाइल में मैसेज देकर अलर्ट नही करेगा यह पूरा डटा  कलेक्शन केंद्र में भेजेगा। फिर वहां से लोगों को बाढ़ की स्थिति के बारे में बताया जाएगा। 
 

तूफान से पूर्व चेतावनी देने वाला सिस्टम भी बनाया गया 

देश मे जिस तरह से  गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल ,बंगाल और उड़ीसा  जैसे  राज्यों में  चक्रवात की संख्या बढ़ी है उसे  देखते  हुए भारत सरकार ने चक्रवात पूर्व चेतावनी प्रणाली को भीबनाया  है। पिछले महीनें केंद्र मंत्री  जितेंद्र सिंह ने इसकी जानकारी देते हुए कहा कि पश्चिमी तट के साथ पांच राज्यों (गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक और केरल), केंद्र शासित प्रदेशों (दमन, दीव, दादरा और नगर हवेली) में चक्रवात पूर्व चेतावनी प्रणाली को लगाया गया है ताकि यह तूफान आने से पहले लोगों को सूचित कर सुरक्षित स्थानों में पहुँचाया जा सकता है 

जिस तरह से जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक चुनौतियां बढ़ रही है उसको देखते हुए हमें विज्ञान और तकनीक पर अधिक निर्भर रहना पड़ेगा। ताकि हम इन चुनौतियां का सामान कर सकें ।

 

 

डब्लू डब्लू एफ इंडिया ने किसानों को जल संरक्षण करने का दिया प्रशिक्षण

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डब्लू डब्लू एफ इंडिया ने किसानों को जल संरक्षण करने का दिया प्रशिक्षण ShivendraWed, 09/01/2021 - 11:20

 डब्लू डब्लू एफ इंडिया ने किसानों को दिया प्रशिक्षण,फोटो:डब्लू डब्लू एफ इंडिया

डब्लू डब्लू एफ इंडिया ने नदियों  के लिये जीवन कार्यक्रम के तहत  सिंचाई विभाग के साथ मिल कर जल उपभोक्ता समितियो के रख रखाव व संचालन के लिए प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया। जिसमें  लक्ष्मीकान्त वर्मा द्वारा समितियों को प्रशिक्षित किया गया।  ताकि समितियां  अपने  कर्तव्य और अधिकारों के साथ अपनी  जिम्मेदारी भी समझ सके।

इसके अलावा जल उपभोक्ता समितियों को प्रभावी रूप से संचालित करने के लिये आवश्यक सामग्री - रजिस्टर,चेक बुक और पास बुक आदि का अधिशासी अभियंता अरुण कुमार द्वारा बंटवाया गया। ताकि  समितियां हर महीने एक बैठक  का आयोजन कर  सिंचाई विभाग को नहर की साफ सफाई के लिए तय कार्यक्रम से  पहले सूचित कर सके।  

डब्लू डब्लू एफ इंडिया ने समितियों को बताया की  अगर वह बाछमई कमां के अंतर्गत आने वाली नहरों के पुनरुद्धवार कार्यों मे प्रतिभाग करेंगे तो उन्हें  नहरों के कार्यों का अच्छा अनुभव प्राप्त हो सकेगा साथ ही उनकी देखभाल भी की जा सकेगी। 

 डब्लू डब्लू एफ इंडिया ने किसानों को दिया जल संरक्षण करने का प्रशिक्षण,फोटो:डब्लू डब्लू एफ इंडिया

नहरों के मुख्य पुनरुद्धवार कार्यों के  लिए समितियों  ने सहमति जताई. ये मुख्य कार्य सात अल्पिकाओ और तीन रजवाहों मे किया जायेगा। इस कार्य का उद्देश्य जल उपभोक्ता समितियों के पदधिकारियो को प्रशिक्षित कर अल्पिका की समुचित तरीके से देखभाल की जा सके जिससे खेतों में  सिंचाई की जरूरत के समय सभी किसानो को पानी मिल सके और नहर का रख रखाव भी ठीक ढंग से हो  सके।

अमापुर विकास खंड के  एक गावों मे डब्लू डब्लू एफ (WWF) की और से जैविक और पौशक धान की खेती के विषय पर लगभग 20 गावों की 300 महिला किसानों को प्रशिक्षित किया गया। वहीं नहर से किसानों द्वारा सिंचाई करने के बाद बचे हुए पानी द्वारा नदियों को पुनर्जीवन करने  के लिए डब्लू डब्लू एफ इंडिया, सिंचाई विभाग द्वारा  किसानों को सिंचाई की उन्नत प्रणालियों में शिक्षित किया जाएगा।

 जिससे नहर से सिंचाई के लिए समुचित पानी का उपयोग किया जाए और बचे हुए पानी को पास से गुजरने वाली नदियों में या तालाबों  में जाने के लिए मार्ग प्रशस्त किया जाएगा। जिससे कि नदी के प्रवाह में बढ़ोत्तरी और भूमि में भी जल संरक्षण हो सके।

 

सावधान! जो पानी आप पी रहे हैं, वह प्रदूषित है 

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सावधान! जो पानी आप पी रहे हैं, वह प्रदूषित है ShivendraWed, 09/01/2021 - 12:36

 प्रदूषित यमुना नदी,फोटो:इंडिया वाटर पोर्टल(फ्लिकर)

क्या आपको मालूम है कि देश में उपलब्ध दो-तिहाई जल प्रदूषित हो चुका है। और इसी जल को पी कर देश के 80 फ़ीसदी आबादी हर रोज नई बीमारियां मोल ले रही है। गांव की बात तो दरकिनार दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में यमुना और काली नदी के पानी से हजारों लोग आज तपेदिक और पक्षाघात जैसी बीमारियों के शिकार हो चुके हैं। जल प्रदूषण के बढ़ते हुए खतरे और सरकार की निष्क्रियता पर अरविंद कुमार सिंह की रिपोर्ट।

दक्षिणी राजस्थान के एक हिस्से में पिछले दिनों किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि वहां की कुल आबादी लगभग सात लाख में से लगभग दो लाख लोग ‘नारू’ नामक एक भयानक बीमारी से पीड़ित हैं। वहां लोगों को यह बीमारी प्रदूषित जल पीने से हुई है। उसी तरह कुछ दिनों पहले काशी हिंदू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एक बार फिर यह चेतावनी दी है कि वाराणसी में गंगा में स्नान करने वाले गंगाजल ना पिएं, जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ सकता है। जाहिर है कि हिंदू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों को यह चेतावनी इसलिए देनी पड़ी है कि बनारस में शहर भर की गंदगी के गंगा में मिलने के कारण वहां गंगा का पानी बिहार प्रदूषित हो चुका है और इसके इस्तेमाल का मतलब है बीमारी को आमंत्रण देना। पर इन से भी ज्यादा चौंकाने वाली रिपोर्ट तो मुंबई की है। उत्तर पूर्व मुंबई से गुजरकर अरब सागर में मिलने वाली कालू-नदी का पानी इतना ज्यादा प्रदूषित हो चुका है कि इस नदी में मछलियां तो खैर बची नहीं हैं, अलबत्ता इसके पानी के इस्तेमाल से हजारों की संख्या में लोग पक्षाघात तथा दूसरी बीमारियों से पीड़ित हैं। मवेशी बीमार हो रहे हैं और मर रहे हैं और बहुत बड़े इलाके में खेती चौपट हो गई है। इन तथ्यों का पता तब चला जब इंस्टीट्यूट आफ साइंसेज के वैज्ञानिकों ने मुंबई में अंबिवली से लेकर टिटवाला तक के 10 किलोमीटर लंबे भाग में जगह-जगह से कालू नदी के पानी का नमूना लेकर उसकी जांच की तथा वहां आबादी पर इसके प्रभाव का सर्वेक्षण किया। और तो और राजधानी दिल्ली के चिकित्सा विशेषज्ञों का मत है कि यमुना पार क्षेत्र के कुल 16 लाख आबादी का 10% लगभग डेढ़ लाख लोग प्रदूषित जल को इस्तेमाल करने के कारण छह रोग के मरीज हो चुके हैं। 

यह तो खैर कुछ खबरें हैं जो कि हाल में अखबारों की सुर्खियों में थीं। पर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देश का कोई ऐसा शहर या गांव नहीं है जहां प्रदूषित जल की समस्या ना हो। सच पूछा जाए तो प्रदूषित जल आज देश में स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती हो चुका है।

देश में जल प्रदूषण इसलिए भी है क्योंकि यहां की 90% नदियां तथा सहायक नदियों से ही पेयजल की प्राप्ति होती है। जो प्रदूषण की गिरफ्त में हैं। अन्य विकासशील देशों की भांति अपने देश में भी जल प्रदूषण के खतरे से मुक्ति के लिए कोई कारगर तथा ठोस विकल्प नहीं खोजा जा सका है। यद्यपि देश में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया को पूर्णतः नहीं अपनाया गया है। तथापि जल प्रदूषण का संकट यहां ऐसे खतरनाक धरातल पर पहुंच गया है कि कभी भी देश में ‘मिनीमाता’ जैसा प्रकोप फैल सकता है। हमारी प्राचीन मान्यताएं हमें नदियों में सागर के प्रति श्रद्धा करना सिखाती हैं। पर वास्तविकता है कि हम सभी प्रकार की गंदगी और अवशेष इन्हीं पुज्य नदियों में डालकर मुक्त हो जाते हैं। अजीब स्थिति तो यह है कि सरकार भी इससे चिंतित नहीं है।

देश की 15 बड़ी नदियों के किनारे 80% आबादी निवास करती है। पर इन नदियों में प्रतिदिन हजारों जली-अधजली लाशों तथा पशुओं के शव प्रवाहित किए जाते हैं। इनके तटों पर अवस्थित हजारों औद्योगिक प्रतिष्ठान अपनी गंदगी और विषैले अवशेषों को नदी में प्रवाहित करते हुए न सिर्फ सौंदर्य नष्ट कर रहे हैं। बल्कि एक ऐसी स्थिति पैदा कर रहे हैं। जिसकी भविष्य में हमें भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। पर देश के ग्रामीण अंचलों में तो स्थिति और भी खराब है, वहां पर आया कुएं तालाब नाले का पानी उपयोग में लाया जाता है। गांव में बसने वाली भारत के तीन चौथाई आबादी में से मात्र 22% के लिए ही अभी तक पेयजल की व्यवस्था की जा सकी है। गांव में अधिकतर कुओं के ऊपर जगत नहीं है। तथा वे कच्चे हैं। बरसात में वे एक कुएं भर जाते हैं। जिससे तमाम रोगों की किटाणु उनमें आसानी से प्रविष्ट कर जाते हैं। समुचित दवा का भी गांव में प्रबंध नहीं है। दूसरी ओर ताल-पोखरों में आदमी तथा जानवर नहाते हैं। मैले कपड़े धोए जाते हैं तथा कृषि अवशेषों को साफ किया जाता है। फलतः व्यापक स्तर पर प्रदूषित होते हैं। प्रदूषित जल के कारण जनस्वास्थ्य को गंभीर खतरा पैदा हो चुका है।

यही चिंताजनक तथ्य कि देश के प्रथम श्रेणी के 142 नगरों में से मात्र 9 नगर ही ऐसे हैं। जहां पर समुचित जल शोधन तथा निकासी का प्रबंध है यानी दस लाख तक की आबादी वाले 133 नगर अपना प्रदूषित जल गंगा, कावेरी, गोदावरी, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, ताप्ती, घाघरा, यमुना आदि नदियों में प्रवाहित करते हैं। इन नदी तटों पर स्थित शहरों में देश के सात करोड़ लोग निवास करते हैं। लेकिन अब तक मात्र 300 किलोलीटर जल शोधन का ही प्रबंध किया जा सका है। हकीकत तो यह है कि देश की नगर पालिकाओं तथा महापालिकाओं द्वारा निर्मित नालियों के माध्यम से नगरों की 55% गंदगी नदी में प्रवाहित होती है। मेले त्यौहारों तथा अन्य धार्मिक उत्सव में तो प्रदूषण और भी अधिक बढ़ जाता है। उद्योगों का विषैला प्रदूषण नदी में जाकर भूमिगत जल कोई प्रभावित कर रहा है। छोटे नगरों की छोटी नदियां बड़ी मात्रा में प्रदूषित पानी बड़ी नदियों में मिला देती हैं।

चीनी उद्योग से निकलने वाले विषौले अवशेषों के परिणामस्वरूप लखनऊ तथा लखीमपुर खीरी जनपद का पानी विषाक्त होता जा रहा है। आगरा तथा मथुरा में यमुना का पानी पीने योग्य नहीं रहा है। भारतीय पर्यावरण सोसाइटी के वैज्ञानिकों ने दिल्ली के यमुना जल के परीक्षण के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि रासायनिक पदार्थों तथा गंदे तत्वों को विसर्जित किए जाने से वह विषाक्त तथा काला पड़ता जा रहा है। दिल्ली के गंदे नालों तथा 4000 औद्योगिक इकाइयों के विषैले अवशेषों को समेटते हुई, यमुना नदी फरीदाबाद की औद्योगिक गंदगी तथा मथुरा के कारखानों की रासायनिक अवशेषों को निकलती हुई जहरीली नदी के रूप में आगरा में घुसती है। 

यमुना दिल्ली के 48 किलोमीटर लंबी सीमा से होकर गुजरती है दिल्ली जलापूर्ति का दो तिहाई हिस्सा यमुना से ही आता है एक सर्वेक्षण के अनुसार यमुना से प्रतिदिन 120 करोड़ लीटर पानी काम में लिया जाता है। जिसमें से लगभग 80% यानी 96 करोड़ लीटर गंदा पानी नदी से वापस लौट जाता है। दिल्ली के गंदे पानी को निथारने के लिए लगे संयंत्र की क्षमता बहुत अपर्याप्त है। केवल 46.6 फीसदी गंदा पानी ही कुछ पूरा और कुछ अधूरा निथारा जा रहा है। बाकी 51 करोड़, पचास लाख लीटर गंदा पानी शहर के 17 खुले नालों से सीधा यमुना में जा गिरता है।

सर्वाधिक पवित्र मानी जाने वाली महानदी गंगा आज व्यापक स्तर पर प्रदूषण का शिकार बन चुकी है। केंद्रीय जल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार आठ लाख की आबादी वाले महानगर इलाहाबाद की गंदगी तथा क्षत-विक्षत लाशों की लगातार गंगा में प्रवाहित किए जाने का परिणाम यह है कि इलाहाबाद से कानपुर तक गंगा जल प्रदूषण का शिकार हो चुका है। कुंभ मेले में भयंकर भीड़ के दौरान तो गंगाजल का प्रदूषण और बढ़ जाता है। पश्चिमी बंगाल राज्य प्रदूषण बोर्ड के अनुसार वहां गंगाजल इतना प्रदूषित है कि कोलकाता के निकटवर्ती 24 परगना जिले में यह सिंचाई कार्य में प्रयुक्त होने लायक भी नहीं रह जाता है। यहीं प्रसंगवश उल्लेख अन्यथा नहीं होगा कि कोलकाता जैसे महानगर तथा लखनऊ, भुवनेश्वर, जयपुर, त्रिवेंद्रम आदि प्रांतीय राजधानी में आज भी जल निकासी एवं शोधन की आंशिक व्यवस्था ही हो पाई है।

जल प्रदूषण के भयावह खतरे से ने न सिर्फ भारत सरीखे विकासशील देशों के लिए ही नहीं, बल्कि विकसित राष्ट्रों के सामने भी चुनौती खड़ी की है। विकसित देश जल प्रदूषण समस्या से मुक्ति के लिए नवीनतम वैज्ञानिक तकनीकों पर अरबों डॉलर खर्च कर रहे हैं। दुनिया के सामने जल प्रदूषण का कितना बड़ा खतरा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता कि  प्रतिदिन 25000 व्यक्ति प्रदूषित जल के इस्तेमाल अथवा जल की कमी से मरते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष दुनिया में 50 लाख लोग दूषित जल से भयानक रोगों की चपेट में आते हैं। 

पार्ट-2: सावधान! जो पानी आप पी रहे हैं, वह प्रदूषित है 

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पार्ट-2: सावधान! जो पानी आप पी रहे हैं, वह प्रदूषित है  ShivendraThu, 09/02/2021 - 12:55
Source
साप्ताहिक रविवार, 1985 

 गंगा नदी में फैला कचरा,फोटो:इंडिया वाटर पोर्टल(फ्लिकर)

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष दुनिया में 50 करोड़ लोग दूषित जल से भयानक रोगों की चपेट में आते हैं। प्रदूषित जल में हैजा, पेचिश, पीलिया, अतिसार आदि संक्रामक रोगों के कीटाणु बसते हैं। प्रदूषित जल की वजह से विकासशील देशों में हर पांच में से चार दुधमुंहे बच्चे बीमारी का शिकार हो जाते हैं। भारत में 80 फीसद बीमारी प्रदूषित जल के कारण होती है। 

विशेषज्ञों का कहना है कि यदि प्रदूषण की वर्तमान स्थिति पर रोक नहीं लगाई गई तो सन 2000 तक देश के अधिकांश नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। और 21वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में उनका जल इतना प्रदूषित हो जाएगा कि उससे दुर्गंध फैलेगी। दरअसल नदियों का गंदाजल समुद्र में मिलकर प्रदूषण को ज्यादा फैला रहा है। हिंद महासागर में इस समय इतनी भयंकर स्तर पर प्रदूषण जारी है कि अगर यही क्रम रहा तो शीघ्र ही वह विश्व के सबसे प्रदूषित महानगरों की कोटि में आ जाएगा। समुद्रों में विसर्जित होने वाली गंदगी औद्योगिक अवशेष और आणविक परीक्षण व्यापक स्तर पर सागरों को प्रदूषित कर रहे हैं। इसका परिणाम यह है कि  सामुद्रिक खाद्य (सीफूड) के उत्पादन में 30 फीसद से अधिक की गिरावट आई है। आणविक अस्त्रों के परीक्षण से जल में रेडियोधर्मिता का प्रसार हो रहा है। और समुद्र की सतह पर तेल की जमा हो रही परतों से वर्षा प्रभावित हो रही है।

6100 किलोमीटर लंबी भारतीय समुद्र तट रेखा पर अवस्थित भारत के नगर प्रदूषित जल संकट की भयंकर गिरफ्त में हैं। ‘भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र’ द्वारा किए गए एक परीक्षण के अनुसार समुद्र में गिरने वाले दूषित जल के कारण पानी विषाक्त होता जा रहा है। और इससे मछलियों सहित अन्य समुद्री जीवो में पारे की मात्रा काफी बढ़ गई है। प्रतिदिन समुद्र तटों पर 4.2 बिलियन गैलन गंदगी विसर्जित होती है। कीटनाशक तथा अन्य रसायन और डीडीटी आदि बड़ी मात्रा में नदियों के द्वारा सागर में मिल जाते हैं। नवीनतम वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार डीडीटी से कैंसर, ट्यूमर होता है। इसलिए पश्चिमी देशों में इसका उपयोग पूर्णतः प्रतिबंधित कर दिया गया है। मगर भारत समेत अनेक विकासशील देशों में मलेरिया उन्मूलन हेतु अभी भी भारी मात्रा में इसका उपयोग किया जाता है।

परिवहन व्यय से बचने के लिए अनेक उद्योग सागर तटों पर लगाए जा रहे हैं। पर उनके अवशेषों को अलग कहीं फेंकने के बजाय सागर में ही बहाया आ रहा है। औद्योगिक इकाइयों से होने वाले प्रदूषण का ही परिणाम है कि बंगाल की खाड़ी में पानी में पारा तथा अन्य विषैले पदार्थों की मात्रा में तीव्रता से बढ़ोतरी हो रही है। परीक्षणों में यह पाया गया है कि हिंद महासागर के समुद्री जीवों में जिंक, निकल, कोबाल्ट, मैग्नीज ऐसे तत्वों की मात्रा बढ़ गई है।

पर प्रदूषण के इस खतरे का हमारे पास क्या विकल्प है? ‘केंद्रीय जल प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण बोर्ड’ ने बहुत पहले जल प्रदूषण से संभावित खतरों की चेतावनी दे दी थी। बावजूद इसके आज तक इस दिशा में कोई ठोस तथा प्रभावी कार्यवाही नहीं की जा सकी है। जल प्रदूषण को रोकने के लिए एक कानून ‘जल प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण अधिनियम 1974’ लागू किया गया है। पर यह अधूरा कानून है, तथा इसके द्वारा किसी भी अपराधी को दंडित नहीं किया जा सकता। इसमें व्यावहारिक पहलुओं का समावेश तथा प्रभावी क्रियान्वयन जरूरी है। ‘केंद्रीय जल आयोग’ द्वारा जल प्रदूषण के संकट से निपटने के लिए कुछ कारगर तथाव्यावहारिक सुझाव जरूर दिए गए हैं। जिनमें ग्रामीण क्षेत्रों में पक्के कुओं तथा शौचालय तथा कूड़ा घरों का निर्माण एवं शहरी क्षेत्रों में जल की बर्बादी रोकने के लिए गंदे जल को शोधित करने का सुझाव है। पर इन पर गंभीरता से अमल करना अभी बाकी है।

जल प्रदूषण पर रोकथाम के लिए काफी धनराशि की जरूरत होगी और उसका प्रभाव निश्चित रूप से हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। देश के 142 प्रथम श्रेणी के नगरों में जल शोधन के बाद पानी नदी में प्रवाहित किए जाने की व्यवस्था पर कर्च 1180 करोड़ पर आ गया है। साथ ही खतरे से जूझने के लिए नवीनतम वैज्ञानिक तकनीकों की भी जरूरत है। उत्तर प्रदेश समेत विभिन्न राज्यों में जल प्रदूषण अधिनियम लागू करके उसके क्रियान्वयन हेतु केंद्र सरकार द्वारा नए विभागों का खोला जाना, इस दिशा में सार्थक कदम माना जा सकता है। ‘केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ द्वारा निर्मित 15 वर्षीय योजना का पिछले वर्ष सूत्रपात किया गया है, जो तीन चरणों में पूरी होगी। शहरों में भूमिगत नालियों के निर्माण होती योजना आयोग ने अट्ठारह सौ पचास करोड़ का प्रावधान छठीं पंचवर्षीय योजना में किया है, जो कि उचित निर्णय है।

लेकिन यह उम्मीद करना बेकार है कि सिर्फ सरकारी स्तर पर प्रयास करके ही प्रदूषण को रोका जा सकता है। इसके लिए गैर सरकारी संस्थाओं और आम जनता को आगे आना होगा। इस संदर्भ में बनारस और होशंगाबाद का उदाहरण काफी प्रेरणादायक है। बनारस में नगरपालिका के एक दर्जन भूतपूर्व सभासदों ने भूतपूर्व विधायक शंकर प्रसाद जायसवाल के नेतृत्व में एक आंदोलन चला रखा है। जिसके परिणाम स्वरुप बनारस नगर महापालिका को गंगा में मिलने वाले नालों का पानी उस पार ले जाने की व्यवस्था करनी पड़ रही है। श्री जायसवाल के नेतृत्व में चलाए जा रहे इस आंदोलन के कारण लोगों में काफी चेतना आई है और अचरज नहीं होगा कि यदि निकट भविष्य में कम से कम बनारस में गंगा में मिलने वाली गंदगी पूरी तरह से बंद हो जाए। बनारस की भांति ही मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर के जागरूक नागरिक नागरिकों ने ‘नर्मदा बचाओ अभियान’ शुरू किया है और वहां पर यह अभियान 1979 से जारी है और इसमें भारी जनसमर्थन के कारण स्थानीय निकाय को नर्मदा में मिलने वाली शहरी गंदगी को रोकने के लिए कार्रवाई करनी पड़ी है। क्या अन्य शहरों के लोग भी इस उदाहरण से इन उदाहरणों से प्रेरणा लेंगे।

इससे पहले के लेख को पढ़ने के लिए इस लिंक को दबाएं :- सावधान! जो पानी आप पी रहे हैं, वह प्रदूषित है 

जल संरक्षण के लिये किसानों की स्वराज यात्रा

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जल संरक्षण के लिये किसानों की स्वराज यात्राShivendraThu, 09/02/2021 - 14:18

 जलपुरूष डॉ. राजेंद्र सिंह,फोटो:सप्रेस

किसानी जवानी और जल संरक्षण को बचाने के लिए मशहूर पर्यावरणविद और जल संरक्षक डॉ राजेंद्र सिंह द्वारा विश्व अहिंसा दिवस  के अवसर पर 02 अक्टूबर से स्वराज यात्रा का आयोजन किया जाएगा । गांधी जयंती पर शुरू होने वाली यह यात्रा 26 नवंबर 2021 यानी संविधान  दिवस के अवसर पर पूरी होगी।

56 दिन तक चलने वाली यह जन  चेतना यात्रा देश की कई राजधानियों और जिलों से होते हुए दिल्ली तक पहुंचेगी। इस यात्रा में किसान, युवा और विभिन्न राज्यों और  जिलों से कई लोग हिस्सा ले सकते है।इस यात्रा का मुख्य केंद्र किसानों की माली हालत और गहराते जल संकट रहेगा।

वही यात्रा को लेकर डॉक्टर राजेंद्र सिंह ने कहा

जल के निजीकरण और व्यापारिकरण से जल की विस्थापित होने की संभावना बढ़ रही है ऐसे में लोग पानी और खेती के लिए पानी को हर समय  खरीद नहीं सकते हैं। उन्होंने कहा कि  देश में बढ़ते निजीकरण के कारण कंपनियां  की तादाद  बढ़ रही है और यह कंपनियां  अपने हित को पूरा करने के लिए  पानी को लगातार  दूषित कर रही है।

जिससे भारतीयों के अधिकार खत्म हो रहे हैंआज लोगों में  पानी के संरक्षण को लेकर जो चेतना होनी चाहिए थी उसका कहीं न कहीं  एक अभाव  नजर आ रहा है। जिसके कारण जल व्यापार फल फूल रहा है और  जल  संकट विकट होता जा रहा ।  उन्होंने कहा बढ़ती  पानी की समस्या से हमारे खेत जीवन और जीविका पर गहरा प्रभाव पड़ा है। 

ऐसे में  सामुदायिक विकेन्द्रित जल प्रबंधन द्वारा ही भारत को  पानीदार बनाया जाये। चेतना यात्रा में इन सभी विषयों को लेकर आम नागरिकों से बातचीत की जाएगी।  और सभी को प्राकृतिक जल संसाधनों को बचाने के प्रति जागरूक किया जाएगा।

राजेंद्र सिंह ने बताया कि

 किसानी-जवानी-पानी चेतना  भारत स्वराज्य यात्रा की तैयारी आरम्भ हुई है। राज्यवार समन्वयक तय किये जा रहे हैं। पानी, जवानी, किसानी का संकट पूजीवाद है। पूजीवाद भारत को बेपानी बना रहाहै। नदियां प्रदूषण, अतिक्रमण व जल शोषण द्वारा सूख कर मर रही है।

राजेंद्र सिंह आगे कहते है  पूजीवाद में प्राकृतिक शोषण की तकनीक इंजीनियरिंग ही सिखाई जाती है। भारतीय प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी में प्राकृतिक आस्था से प्राकृतिक पोषण काव्यवहार और संस्कार मिटाकर दोहन के स्थान पर शोषण सिखा दिया है।

 


जल निकायों के अतिक्रमण के खिलाफ लोग हो रहे है जागरूक

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जल निकायों के अतिक्रमण के खिलाफ लोग हो रहे है जागरूक ShivendraFri, 09/03/2021 - 11:57
Source
इंडिया वाटर पोर्टल

 तपन दिघी (फोटो:तपन दिघी बचाओ फेसबुक पेज),फोटो:इंडिया वाटर पोर्टल(फ्लिकर)

पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में एक नदी और जल निकायों के संरक्षण करने वाले  तापस दास कई स्थानीय प्राकृतिक जल निकायों को बचाने की लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं। तापस दास अपने पुराने दिनों  को याद करते हुए  कहते है। “जब मैं अपने कॉलेज के दिनों में छात्र राजनीति में सक्रिय रूप से शामिल हुआ,तब मेरे आस-पास कई ऐसी घटना घटी जिसने कई हद तक मुझे जल निकायों पर सोचने पर मजबूर कर दिया। और इसी से मुझे नदी संरक्षण पर काम करने की प्रेरणा मिली”।

एक संयुक्त परिवार में पले-बढ़े दास की यात्रा साल 2007 में शुरू हुई थी तब उन्होंने भारत के समुद्र तट पर नंगे पांव ही यात्रा की थी। उन्होनें पश्चिम बंगाल के गंगासागर से  अपनी यात्रा शुरू की और देश के कई राज्यों को कवर करते हुए गुजरात पहुंचे थे । हालाँकि इस दौरान हर 100 किलोमीटर पर लोगों की भाषा, भोजन और संस्कृति तो बदल गई थी लेकिन पानी की उपलब्धता और समस्या सब जगह एक जैसी थी। जिसके बाद उन्होंने भारत के जल संकट के मुद्दे पर कड़ी नज़र रखने और जल निकाय संरक्षण के प्रयासों में शामिल होने का फैसला लिया ।

एक जल-समृद्ध देश, जहां भरपूर बारिश होती है और भीतरी इलाकों में सैकड़ों नदियां बहती हैं, वहां भी  विभिन्न स्थानों पर पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है। दास कहते हैं कि  “हम मानसून के दौरान बाढ़ और गर्मियों में सूखे का सामना करते हैं। और यह समस्या पानी  के लिए बेहतर योजाना नहीं बनाने के कारण उत्पन्न  हुई है  क्योंकि हम पर्यावरण की  स्थिति के बारे में बिना सोचे-समझे बुनियादी ढांचे का निर्माण करने लगते है । भारत का हमेशा नदियों और प्रकृति के साथ जो संबंध रहा है,उसे संरक्षित करना होगा और मेरा काम भी नदियों को केंद्र में रखने के आस-पास रहता है”

दास ने नदियों के आधार पर अपना आंदोलन 'नदी बचाओ, जीवन बचाओ ' के रूप में  साल  2014 में शुरू किया। वह तब प्रमुखता से सामने आए जब उन्होंने गंगा पर हर 100 किलोमीटर की दूरी पर बैराज के निर्माण के विरोध में गोमुख से गंगासागर तक 2200 किलोमीटर की एक साइकिल रैली का आयोजन किया। अधिकांश पर्यावरणविदों की तरह  उनका भी मानना था कि इससे गंगा कई टुकड़ों में बट जाएगी और प्राकृतिक मार्ग को अवरुद्ध करके छोटी झीलों में बदल जायेगी ।

भारत में वर्तमान में 5000 से अधिक बड़े बांध हैं, जिन्होंने कई मामलों में नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को नष्ट कर दिया है जिसके कारण अप्राकृतिक नदी बन रही है और उससे सूखे और बाढ़ जैसी स्थिति और आर्सेनिक प्रदूषण की समस्या पैदा हो रही है। क्योंकि बांध के पीछे तलछट में आर्सेनिक जैसी भारी धातुएं जमा हो रही है ।  

कई सम्मेलनों का नेतृत्व कर चुके दास ने, इस  समस्या से लड़ने के लिए बड़ी संख्या में लोगों को एक साथ लाने का काम किया है । वर्ष  2017 में हुए मोरीग्राम कन्वेंशन में  उनकी टीम ने इस मुद्दे से निपटने के लिए एक स्पष्ट रोडमैप तैयार किया और सरकार सहित विभिन्न साझेदारों में जागरूकता बढ़ाने के लिए अपनी लड़ाई जारी रखी।

दास को अपने गृह राज्य बंगाल की भी चिंता है। राज्य की कृषि विकास दर राष्ट्रीय औसत से कई अधिक रही है जिसका सबसे बड़ा कारण कई नदियों और उनकी सहायक नदियों की उपस्थिति है । हालांकि, पिछले कई दशकों से  कई जगह बंगाल में जल संकट और आर्सेनिक प्रदूषण का सामना करना पड़ रहा  है। राज्य की और से  बांधों,नहरों और चैनलों को बनाकर नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बदला गया है।   

शहरी क्षेत्रों में तेजी से बढ़ती आबादी ने प्रकृति के लिए जगह कम कर दी है। पिछले 5-10 वर्षों में शहरी स्थानीय निकायों द्वारा सड़कों और घरों को बनाने के लिए तालाबों और झीलों को अंधाधुंध भरते हुए देखा गया है। हालही में, दास ने यह स्तिथि अपने पड़ोसी क्षेत्र बेहाला (कोलकाता) में भी देखी।  जहां राज्य सरकार सड़क बनाने के लिए 22 किमी लंबी चरियाल खल (चारियल नहर) के कुछ हिस्से को भर रही है। चारियल सबसे पुरानी नहरों में से एक है और इसका ऐतिहासिक उल्लेख जहांगीर (मुगल सम्राट) और अंग्रेजों के शासन काल में भी हुआ है ।पहले भी कई बार इसकी जांच कर पुनर्निर्मित किया गया था, लेकिन साल 1980 के दशक में इसकी लम्बाई 3 किलोमीटर तक बढ़ा दी गई थी।  

यह नहर स्थानीय रूप से लोकप्रिय है और क्षेत्र को ठंडा रखने के अलावा भूजल पुनर्भरण में भी मदद करती है। दास  सरकार के उस अल्पकालिक दृष्टिकोण पर अफसोस जताते हैं जिसमें बड़े पैमाने पर इंफ्ररास्ट्राकर का विकास करते समय पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल दुष्प्रभावों को नजरअंदाज कर दिया जाता है  दास कहते है । "भारत इस तरह की गतिविधियों के विरोध में कई संधियों और सम्मेलनों का हस्ताक्षर कर चुका है, फिर भी कोलकाता नगर निगम ऐसे काम करना जारी रखता है जो इन्हें कमजोर करते हैं साथ ही  बुनियादी ढांचे के निर्माण की सदियों पुरानी औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाता है, इससे प्रकृति को होने वाले नुकसान की कोई परवाह नहीं की जाती है ”

 

 तपन दिघी को बचाने के लिए विरोध मार्च,फोटो:तपन दिघी बचाओ फेसबुक पेज

उनका मानना है कि इस तरह की गतिविधियों के लिए कार्यकर्ताओं को अधिक संघर्ष करना पड़ता है। जिसमें अधिवेशनों के आयोजन से लेकर प्रशासन को पत्र लिखने और धरना प्रदर्शन तक शामिल है । जलाशयों में अंधाधुंध अतिक्रमण के खिलाफ दास आज भी अपनी आवाज उठाने ने से पीछे नहीं हटते है

दास का काम केवल शहरी केंद्रों तक ही सीमित नहीं रहा है, बल्कि पश्चिम बंगाल के दक्षिण दिनाजपुर के उत्तरी जिले के एक गांव तपन जैसे दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों तक भी पहुंच गया है। गाँव का नाम एक विशाल स्थानीय जल निकाय के नाम पर रखा गया है - 'तपन दिघी' (बंगाली में दिघी का अर्थ झील है)। स्थानीय प्रशासन इस समय झील की सुरक्षा के लिए उसके चारों ओर दीवार बना रहा है।

दास को यह तर्क एकदम बेतुका लगता है जब वह ये बोलते है कि यह दीवार प्रकृति और मनुष्यों के बीच एक अवरोध पैदा करती है। दीवार का निर्माण स्थानीय समुदाय को इसके सौंदर्य दृष्टिकोण से वंचित करने के साथ विभिन्न कार्यो के उपयोग करने के लिए पाबंध  करता है  साथ ही समुदाय को इससे प्राप्त होने वाली पारिस्थितिकी   की सेवाओं को प्रतिबंधित करता है । तापस दास आंदोलन में सबसे आगे रहे हैं और स्थानीय समुदाय को एक साथ लाकर जागरूकता बढ़ाने का काम कर रहे है । सड़क पर विरोध प्रदर्शन आयोजित करने से लेकर मानव श्रृंखला बनाने तक उनकी टीम जागरूकता बढ़ाने और झील में बनी लंबी दीवार गिराने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है.

रवींद्रनाथ टैगोर और गांधीजी के अनुयायी होने के नाते, तापस दास का मानना है कि हम ऐसी परियोजनाओं के साथ आकर प्रकृति से लगातार दूर हो रहे है । ये परियोजनाएं सरकार के वित्त को खा रही हैं और कभी न ख़त्म होने वाले निवेश को खोल रही है ऐसे में ये जरूरी है कि उन नए समूहों को सुरक्षित किया जो विकास के चलते खासे प्रभावित हुए है। दास आगे कहते है कि हमने दोषपूर्ण विकास परियोजनाओं के साथ एक लंबा सफर तय किया है और अब पर्यावरण की रक्षा के लिए बुनियादी ढांचे को विकसित करने की जरूरत है।

तापस दास का मानना है कि वह इस तरह की गतिविधियों के खिलाफ लोगों की भावनाओं को प्रसारित करने में सक्षम होंगे और उम्मीद करते हैं कि नई पीढ़ी जल निकायों के संरक्षण के आंदोलन को आगे बढ़ाने में उनका साथ देगी।  

मानसून की बेरुखी से चिंतित किसान

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मानसून की बेरुखी से चिंतित किसानShivendraFri, 09/03/2021 - 13:55
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चरखा फीचर

 जलाशयों में कम होता पानी,फोटो:चरखा फीचर

भारत में कृषि पर सरकार की नीतियां हों या मौसम की मार, इसका सीधा प्रभाव किसानों पर ही पड़ता है। फिलहाल मौसम की बेरुखी ने किसानों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। देश के पूर्वी हिस्सों को छोड़कर सामान्य से कम हो रही बारिश का खामियाजा किसान भुगत रहे हैं। अगस्त महीने तक होने वाली सामान्य बारिश में इस वर्ष भारी कमी देखी गई है, जिसकी भरपाई मुश्किल हो गई है। इसकी चिंता देशभर के किसानों के साथ-साथ छत्तीसगढ़ के किसानों को भी सताने लगी है।

छत्तीसगढ़ में किसानों को आषाढ़ के महीने में हुई थोड़ी बहुत बारिश के बाद सावन महीने से अच्छी बारिश की उम्मीद थी, लेकिन सावन भी दगा दे गया। भादो का महीना आ गया है आसमान पर बादल भी छा रहे हैं लेकिन बिन बरसे ही लौट जा रहे हैं। किसानों ने समय पर बोनी का काम तो पूरा कर लिया, लेकिन रोपाई और बियासी का काम पिछड़ गया। बारिश नहीं होने से जमीन भी अब सूखने लगी है और आने वाले दिनों में फसलों को ज्यादा  पानी की जरूरत पड़ेगी लेकिन बादल हैं कि बरस ही नहीं रहे हैं। दूसरी ओर जिन क्षेत्रों में सिंचाई के लिए जलाशय हैं वहां जल भराव की स्थिति भी अच्छी नहीं है। 

 मानसून की बेरुखी से चिंतित किसान,फोटो:चरखा फीचर

इस कारण किसानों को जलाशयों से भी पर्याप्त मात्रा में पानी मिलने की उम्मीद कम ही है। मौसम की इस दशा से अब किसान चिंतित हैं और अल्प वर्षा के कारण लगभग 30 फीसदी फसल उत्पादन प्रभावित होने की आशंका जता रहे हैं।बारिश की बेरूखी से पूरे छत्तीसगढ के साथ-साथ कांकेर जिले का हाल भी चिंताजनक है, यहां नदी नाले अब भी सूखे पड़े हुए हैं। अल्प वर्षा के चलते इस वर्ष जुलाई-अगस्त बीत जाने के बाद भी नदियों व तालाबों में पर्याप्त जल भराव नहीं हुआ है और जल स्रोत अब भी खाली पड़े हैं। एक ओर किसानों को अपनी फसल की चिंता सता रही है, तो दूसरी ओर भूमिगत जलस्तर भी नीचे जा रहा है। कांकेर जिले में इस वर्ष विगत दस वर्ष की औसत वर्षा की तुलना में लगभग 45 प्रतिशत कम वर्षा हुई है। जिले में पिछले दस वर्ष की वर्षा का औसत लगभग 1174 मिमी है। वहीं इस वर्ष 640 मिमी औसत वर्षा ही रिकॉर्ड की गई है। जो औसत वर्षा का लगभग 55 प्रतिशत है।

इस संबंध में कांकेर जिला स्थित भानुप्रतापपुर ब्लॉक के ग्राम घोठा के किसान अंकाल राम हुर्रा, कृष्णा कावडे़ और अगर सिंग ने बताया कि शुरूआत में बारिश होने से हमने बुआई कर दी लेकिन फिर अब बारिश नहीं हो रही है, इससे खेतों मे फसल अच्छी तरह से नहीं बढ़ पा रहा है, यह स्थिति हमारे सभी खेतों की है। इसी तरह चारामा विकासखंड के ग्राम बांड़ाटोला, भैसाकट्टा, पत्थर्री, डोड़कावाही और भीरावाही क्षेत्र के किसान गंगाराम जुर्री, हरीशचंद्र नेताम, आनंदराम मंडावी, रहिपाल निषाद ने बताया कि रोपा और बियासी का काम प्रभावित हुआ है। बारिश नहीं होने से अब कुछ खेतों में दरार भी पड़ रही है। उन्होंने बताया कि कृषि से ही हमारा रोजगार चलता है लेकिन इस बार बहुत नुकसान होने वाला है। इसलिए हम अपने क्षेत्र को सूखा घोषित करने की मांग कर रहे हैं ताकि सरकार से मुआवजा मिल सके।


किसानों की इस आपदा पर कांकेर जिले के कृषि उप संचालक नरेन्द्र कुमार नागेश ने बताया कि जिले में सामान्य बारिश नहीं होने से रोपाई और बियासी के कार्य में देरी हुई है, जिसके कारण उत्पादन 25 से 30 प्रतिशत कम होने की आशंका है। वर्तमान में किस क्षेत्र में कितना नुकसान हुआ है इसका आकलन हमारे ग्रामीण कृषि विस्तार अधिकारी ग्राउंड पर कर रहे हैं। किसानों को उनके नुकसान की भरपाई राज्य सरकार के आरबीसी और जिन्होंने प्रधानमंत्री फसल बीमा करवाया है उन्हें उसके माध्यम से हो जाएगी।

 पानी को तरसती ज़मीन,फोटो:चरखा फीचर

अल्प वर्षा के बावजूद किसान कृषि कार्य को पूरा करने में लगे हुए हैं, लेकिन उनके सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि सिंचाई के लिए किसी जलाशय से उन्हें पर्याप्त पानी भी नहीं मिल पाएगा, क्योंकि पानी के वह स्त्रोत भी अल्प वर्षा के कारण सूखे पड़े हैं। विगत वर्ष अब तक की स्थिति में कांकेर जिले के 75 छोटे-बडे़ सिंचाई जलाशयों में औसतन 57 फीसदी जलभराव हो चुका था। लेकिन इस वर्ष अगस्त महीने तक तीन गुना कम मात्रा में 20 फीसदी ही जलभराव हो पाया है। जिले के अन्य मध्यम सिंचाई बांध मयाना में बीते वर्ष अब तक 26 फीसदी जलभराव हो चुका था जबकि इस साल मात्र 11 प्रतिशत ही हो पाया है। परलकोट जलाशय में भी विगत वर्ष 30 प्रतिशत जलभराव हो चुका था जो इस वर्ष 15 प्रतिशत हो पाया है। इसके अलावा वर्ष 2020 में अगस्त तक की 21 सिंचाई तालाबों में 100 प्रतिशत जल भराव हो गया था। जबकि इस बार एक भी जलाशयों में 100 प्रतिशत जलभराव नहीं हुआ है।

जलभराव की स्थिति पर कांकेर जिले में जल संसाधन विभाग के कार्यपालन अभियंता आरआर वैष्णव का कहना है कि बारिश काफी कम होने से विभाग के सिंचाई तालाबों में जलभराव की स्थिति संतोषप्रद नहीं है पिछले साल से कम जलभराव हुआ है। जितना लक्ष्य सिंचाई के लिए पानी देने रखा गया है उतना देना संभव नहीं हो पाएगा।राज्य स्तर के जलाशयों में जल भराव की स्थिति पर भी नजर डाले तो यहां भी पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष मुख्य 46 बांधो में औसत पानी 15 से 20 फीसदी कम है। छत्तीसगढ़ में एक जून से शुरू हुए मानसून ने आधा से ज्यादा सफर तय कर लिया है लेकिन अल्प वर्षा के कारण बड़े बांधों में शामिल गंगरेल बांध भी अब तक केवल 39 फीसदी ही भर सका है। प्रदेश के आधा दर्जन जिलों की लाइफ लाइन गंगरेल में कुल क्षमता 767 मिलियन क्यूसिक मीटर के विरूद्ध केवल 296 मिलियन क्यूसिक मीटर पानी ही इकट्ठा हो पाया है। जबकि पिछले वर्ष अगस्त महीने तक की स्थिति में गंगरेल बांध 56 से 60 फीसदी तक भर गया था। 

यही हाल प्रदेश के दूसरे बड़े बांधो का भी है जिसमें तांदुला जलाशय 19 फीसदी, दुधावा जलाशय 28 फीसदी, सिकासार जलाशय 68 फीसदी, सोंढूर जलाशय 52 फीसदी, माड़मसिल्ली 53 फीसदी,कोडार  20 फीसदी,केलो 42 फीसदी और अरपा भैंसाझार में 51 फीसदी ही जलभराव हो सका है। कुल मिलाकर राज्य के 12 बडे़ बांधो में 9 बांधों में पिछले साल के मुकाबले इस बार दो फीसदी से लेकर 48 फीसदी तक कम जलभराव हुआ है। केवल मिनीमाता बांगो जलाशय 89 फीसदी, खारंग जलाशय 100 फीसदी तथा मनियारी बांध में 100 फीसदी जल का भराव हुआ है।
 

 सूखी ज़मीन पर बुआई करती महिला किसान,फोटो:चरखा फीचर

छत्तीसगढ़ में अल्पवर्षा के कारण सूखे की स्थिति अब चिंताजनक होती जा रही है। वर्तमान में प्रदेश की 178 तहसीलों में से 124 तहसीलों में औसत से कम वर्षा दर्ज की गई है। इसमें से 56 तहसीले ऐसे हैं जिसमें 75 प्रतिशत से भी कम वर्षा हुई है। जिसके कारण धान सहित अन्य खरीफ फसल चौपट होने की कगार पर है। इसे देख अब राज्य सरकार भी प्रभावित तहसीलों को सूखाग्रस्त घोषित करने की तैयारी कर रही है। सरकार ने सभी जिला कलेक्टरों को नुकसान का आकलन कर रिपोर्ट देने के आदेश दिए हैं। मौसम की बेरुखी पर प्रदेश के कृषि वैज्ञानिक डॉ. संकेत ठाकुर का कहना है कि कम बारिश से फसलें अब तक बहुत ज्यादा खराब नहीं हुई हैं।

यह स्थिति भी नहीं है कि खेतों में जानवरों को चरने के लिए उतार दिया जाए लेकिन आगामी 10 दिनों में अच्छी बारिश नहीं हुई तो हालात बहुत बिगड़ सकते हैं। उन्होंने बताया कि इस बार मानसून अनियमित व खंडवर्षा वाला ही है जिसका सीधा असर फसलों पर पड़ रहा है। इस संबंध में रायपुर के लालपुर स्थित मौसम विज्ञान केंद्र के मौसम विज्ञानी एचपी चंद्रा ने बताया कि छत्तीसगढ़ में बारिश बंगाल की खाड़ी में निर्मित होने वाले विभिन्न सिस्टम पर निर्भर करता है लेकिन वर्तमान में अभी कोई मजबूत सिस्टम नहीं है जिससे कि प्रदेश में सामान्य वर्षा हो। इस साल राज्य में मानसून की बारिश औसत से 85 से 90 फीसदी के बीच यानी कुछ कम ही रहने वाली है।

छत्तीसगढ़ में एक तरफ ज्यादातर क्षेत्र अकाल की चपेट में हैं तो दूसरी ओर किसानों ने इस वर्ष धान की खेती निर्धारित लक्ष्य से अधिक की है। सरकार ने इस बार 36 लाख 95 हजार 420 हेक्टेयर में धान की खेती का लक्ष्य रखा था। इसके विरूद्ध किसानों ने 37 लाख 12 हजार 690 हेक्टेयर में फसल लगाया है। इस रकबे में सामान्य वर्षा होने की स्थिति में करीब 150 लाख टन से ज्यादा धान उत्पादन की संभावना है लेकिन प्रदेश में न तो इस समय सामान्य वर्षा हो रही है और न ही जलाशयों में पर्याप्त पानी उपलब्ध है। ऐसे में किसानों को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध करा पाने की स्थिति में सरकार भी नहीं है।

हालांकि सितंबर माह की शुरुआत के साथ राज्य के कुछ हिस्सों में हल्की बारिश हो रही है, लेकिन यह किसानों की फसलों को लहलहाने के लिए पर्याप्त नहीं है। ऐसे में राज्य में कम बारिश और जलाशयों में अल्प जल भराव ने किसानों के साथ-साथ सरकार की भी चिंता बढ़ा दी है क्योंकि अब मानसून के बचे हुए वक्त में सामान्य वर्षा नहीं हुई तो शहरों में पेयजल संकट भी गहरा सकता है। यानि खेतों के साथ साथ इंसानों के गले भी सूख सकते हैं।

   सूर्यकांत देवांगन,फोटो:चरखा फीचर

 
 

 

 

बाढ़ के वक्त क्या सावधानी रखनी चाहिए

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बाढ़ के वक्त क्या सावधानी रखनी चाहिए ShivendraTue, 09/07/2021 - 11:24

 

भारत विश्व के उन देशों में से है जहाँ प्रतिवर्ष किसी न किसी भाग में बाढ़ आती है। ब्रह्मपुत्र, गंगा एवं सिंधु नदी तन्त्रों की नदियों से असम, प. बंगाल, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा एवं पंजाब में भयंकर बाढ़ आती है। उड़ीसा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, राजस्थान भी प्रायः बाढ़ से प्रभावित होते रहते हैं। भारत में लगभग 400 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ के खतरे वाला है। यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का आठवां भाग है। प्रतिवर्ष औसतन 77 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित होता है; 35 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की फसलें नष्ट हो जाती हैं। सर्वाधिक विनाशकारी वर्षा में लगभग 100 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की फसलें नष्ट होने का अनुमान है। हाल ही में बिहार के 16 जिले बढ़ से जूझ रहे है । जिसके कारण अब तक कई लोग अपनी  जान गवां चुके हैं.... बाढ़ में कम कम से  लोगों की मौत हो  उसके लिए इन उपायों पर अमल किया जाना चाहिए।  

 

 

 

 

 

प्रदूषण नियंत्रण के लिए आवश्यक है लेड-एसिड बैटरियों का व्यवस्थित पुनर्चक्रण: अध्ययन 

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प्रदूषण नियंत्रण के लिए आवश्यक है लेड-एसिड बैटरियों का व्यवस्थित पुनर्चक्रण: अध्ययन ShivendraWed, 09/08/2021 - 12:41
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इंडिया साइंस वायर

 आईआईटी कानपुर के शोधकर्ता ब्रह्मेश विनायक जोशी, प्रोफेसर जनकराजन रामकुमार और डॉ बी. विपिन, और आईआईटी मद्रास के प्रोफेसर आर.के. अमित (दाएं से बाएं) ,फोटो:इंडिया साइंस वायर

नई दिल्ली, 07 सितंबर, इंडिया साइंस वायरः बढ़ते प्रदूषण की चुनौती कठिन होती जा रही जा रही है। सीसा(लेड) पर्यावरण प्रदूषण का एक प्रमुख कारक है। लेड के रीसाइकिल यानी पुनर्चक्रण की जो प्रक्रिया अपनाई जाती है, वह भी सुरक्षित नहीं है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मद्रास और आईआईटी कानपुर ने लेड-जनित प्रदूषण पर अंकुश लगाने की दिशा में एक बड़ी पहल की है।

शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन किया है, जिसमें ऐसे उपयुक्त नीतिगत उपाय सुझाए गए हैं, जो देश में लेड प्रदूषण को कम करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। अध्ययन में भारत में लेड रीसाइक्लिंग की चुनौती का गहन विश्लेषण किया गया है, क्योंकि लेड से होने वाले विभिन्न प्रकार के प्रदूषण लोगों की शारीरिक एवं मानसिक सेहत पर आघात कर रहे हैं। 

वर्तमान में लेड के पुनर्चक्रण की प्रक्रिया कई तरह के खतरों और चुनौतियों से भरी है। असंगठित क्षेत्र में लेड-एसिड बैटरियों का पुनर्चक्रण करने वाले कामगार यह काम कुछ इस प्रकार अंजाम देते हैं, जिसमें बैटरी से निकलने वाला तेजाब और लेड के कण मृदा और आसपास के परिवेश में घुल जाते हैं। इतना ही नहीं लेड को खुली भट्टी में गलाया जाता है, जिसके कारण विषाक्त तत्व हवा के माध्यम से वायुमंडल में पहुंच जाते हैं। इस प्रकार लेड के पुनर्चक्रण की यह प्रविधि न केवल पर्यावरण, अपितु इसमें सक्रिय कामगारों के स्वास्थ्य के लिए भी अत्यंत हानिकारक है। दरअसल यह प्रक्रिया बहुत सस्ती होने के कारण व्यापक स्तर पर प्रचलित है और इस काम से जुड़े लोगों के लिए एक आकर्षक विकल्प बनी हुई है। साथ ही यह विकासशील देशों में बहुत सामान्य रूप से संचालित होती है, क्योंकि यह असंगठित क्षेत्र के लिए बहुत किफायती पड़ती है। 

इस अध्ययन में कई उल्लेखनीय पहलू सामने आए हैं, जिसके आधार पर शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि नियमन के दायरे में आने वाले पुनर्चक्रण क्षेत्र के लिए करों में कुछ कटौती की जाए और लेड-एसिड बैटरी पुनर्चक्रण के कारण होने वाले प्रदूषण को घटाने के लिए संगठित पुनर्चक्रण एवं विनिर्माण क्षेत्रों को कुछ सब्सिडी दी जाए। शोध का एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह भी है कि संगठित पुनर्विनिर्माण (रीमैन्यूफैक्चरिंग) क्षेत्र के लिए पर्याप्त सब्सिडी की व्यवस्था से संगठित एवं असंगठित पुनर्चक्रण क्षेत्रों की गतिविधियां सीमित होंगी, जिससे लेड प्रदूषण को कम करने में मदद मिलेगी। 

उल्लेखनीय है कि लेड का प्रयोग पेंट, सौंदर्य-प्रसाधन, ज्वेलरी, बालों के लिए रंग और गोला बारूद जैसे अन्य उद्योगों में भी बड़े पैमाने पर होता है। फिर भी कुल उत्पादित लेड का लगभग 85 प्रतिशत उपभोग अकेला बैटरी उद्योग करता है।

आईआईटी मद्रास में प्रबंधन शिक्षा विभाग के प्रोफेसर आरके अमित ने कहा, 'चूंकि लेड के लिए उपलब्ध प्राथमिक स्रोत मांग की पूर्ति के लिए अपर्याप्त हैं, ऐसे में इस्तेमाल की हुई बैटरियों पर निर्भरता आवश्यक हो जाती है। हालांकि उनकी रीसाइक्लिंग के लिए अपनाए जाने वाले अवैज्ञानिक तौर-तरीकों के कारण यह प्रक्रिया स्वास्थ्य के लिए तमाम खतरों का कारण भी बन गई है। ऐसे में हमने इस उपक्रम को असंगठित से संगठित बनाने की दिशा में बढ़ने संबंधी विभिन्न पहलुओं का बहुत व्यापक अध्ययन किया है।'

शोधकर्ताओं की टीम में आईआईटी मद्रास के डिपार्टमेंट ऑफ़ मैनेजमेंट स्टडीज के प्रोफेसर डॉ आर के अमित, आईआईटी कानपुर के डिपार्टमेंट ऑफ़ इंडस्ट्रियल एंड मैनेजमेंट इंजीनियरिंग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ बी विपिन, डिपार्टमेंट ऑफ़ मैकेनिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर डॉ जनकराजन रामकुमार और ब्रह्मेश विनायक जोशी शामिल हैं। शोध के निष्कर्ष प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका ‘रिसोर्सेस, कंजर्वेशन एंड रिसाइकलिंग’ में प्रकाशित किये गए हैं। )

सूरज कुण्ड, मेरठ

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सूरज कुण्ड, मेरठEditorial TeamWed, 09/08/2021 - 14:16
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पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जलाशय, जनहित फाउंडेशन प्रकाशन, मेरठ. उप्र

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सूरज कुण्ड मेरठ का अत्यधिक प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण तालाब था। यद्यपि अब यह पूर्ण रूप से सूख चुका है परन्तु इसका गौरवशाली अतीत आज सोचने को विवश करता है कि हम विकास की ओर जा रहे हैं या विनाश की ओर। सूरज कुण्ड के इतिहास को हम तीन भागों में विभक्त कर सकते हैंः

  1. प्रारंभिक अथवा रामायणकालीन
  2. मध्य अथवा महाभारतकालीन
  3. अंग्रेजी काल से आज तक

1. रामायणकालीन: इस काल में मेरठ वास्तुकला के अद्भुत विद्वान एवं राक्षसों के विश्वकर्मा मयदन्त की राजधानी ‘मयराष्ट्र’ था। इसका महल पुरानी कोतवाली पर था। चारों ओर गहरी खाई थी जिसे अब खन्दक कहा जाता है। मयदन्त की पुत्री मन्दोदरी सुशिक्षित सभ्य, सुशील, सुन्दर, राजनीतिज्ञ एवं शास्त्राज्ञ थी। दोनों पिता-पुत्री ने मेरठ के लगभग चारों ओर तालाब बनवाये थे। उस समय मेरठ के चारों ओर वन था। इस वन में अनेक तापस तपस्या करते थे। वन के इसी स्थान पर एक तालाब (कुण्ड) था। शुद्ध वातावरण, तपस्थली, वैदिक ऋचाओं की स्वर लहरियों से तरंगित वायु-मण्डल, जंगली जड़ी-बूटियों, सूर्य की किरणों एवं जल के स्रोत का प्रभाव था कि इस कुण्ड के जल से चर्म रोग ठीक होते थे। सूर्य देव को दाद व कुष्ठ जैसे भयंकर रोगों को ठीक करने वाला सूर्य देव को माना गया है, इसलिए इसका नाम ‘सूर्य कुण्ड’ विख्यात हुआ। दृष्टव्य है-

  • विवस्वानादि देवश्च देव देवो दिवाकरः।
  • धन्वन्तरिर्व्याधिहर्ता दद्रु कुष्ठ विनाशकः।।

सूर्य भगवान का निवास व प्रभाव स्थल मान कर मन्दोदरी ने यहां पक्का तालाब निर्माण करा कर शिवमन्दिर की स्थापना कराई। इसका वास्तु शिल्प बिल्वेश्वर नाथ मन्दिर जैसा है। इसे आज भी मन्दोदरी का मन्दिर कहा जाता है। जनश्रुतियों के अनुसार महात्मा अगस्त्य ने आदित्य हृदय स्तोत्र की सिद्धि यहीं प्राप्त की थी। रावण से व्यथित हुए भगवान राम को अगस्त्य मुनि ने इसी शत्रु विनाशक आदित्य स्तोत्र की दीक्षा देकर रावण का अंत कराया था। इसके विषय में कहा गया है -

  • आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
  • जया वह जपन्नित्यम्क्षय परम्ं शिवम् ।।

(वाल्मिकी रामायण)

2. महाभारत कालः महाभारत काल में यह स्थान खाण्डवी वन के नाम से प्रसिद्ध रहा। महाभारत के अनुसार दुर्वासा मुनि ने कुन्ती को एक मन्त्र देकर कहा था कि इस मन्त्र द्वारा जिस देवता का आह्वान करोगी वह उपस्थित होकर आशीष देगा। एक बार कुन्ती अपने परिवार सहित कुरु प्रदेश के भ्रमण काल में सूर्य कुण्ड पर आईं। सूर्य कुण्ड की महिमा देख-सुन कर मन्त्र परीक्षार्थ उसने सूर्य देव का आह्वान किया। सूर्य देव प्रकट होकर उसे पुत्रावती का आशीर्वाद दिया। यह आशीर्वाद ही कर्ण के रूप में प्रसिद्ध हुआ। इसीलिए कर्ण को सूर्य कुण्ड से विशेष लगाव था। विशेष उत्सवों पर आकर कर्ण यहां सूर्योपासना एवं दान करता था। अन्य राजा-महाराजा, साधु-सन्त एवं ऋषि मुनि भी आते जाते रहते थे। महाभारत के विनाशक युद्ध के पश्चात् यह काल के गर्त में खो गया।

3. अंग्रेजी कालः सूर्य कुण्ड के वर्तमान का प्रारम्भ बाबा मनोहर नाथ से होता है। सूर्य कुण्ड के एक ओर महान तपस्वी एवं सिद्ध सन्त बाबा मनोहर नाथ रहते थे। बाबा मनोहर नाथ प्रसिद्ध सूफी सन्त शाहपीर के समकालीन थे। एक बार शाहपीर अपनी तपस्या का प्रभाव दिखाने शेर पर चढ़कर बाबा के पास आये। बाबा दीवार पर बैठे दातून कर रहे थे। शाहपीर को देखकर बाबा ने कहा ‘चल री दीवार पीर साहब की अगवानी करनी है’। दीवार चल पड़ी। इन्हीं बाबा के पास लगभग 300 वर्ष पूर्व कस्बा लावड़ (मवाना के पास) के प्रसिद्ध सेठ एवं किसी शासक के खजांची लाला जवाहरमल (कोई सूरजमल बताते हैं) आये और अपने कुष्ठ रोग का इलाज पूछा। बाबा ने पीने एवं स्नान के लिए सूरज कुण्ड के जल का प्रयोग बताया। कुछ दिनों में लाला ठीक हो गये तब सन् 1700 (कहीं 1714) में लाला ने इस तालाब का विस्तार एवं जीर्णोद्धार कराया (मेरठ गजेटियर वोल्यूम IV)। यहां पर बन्दरों की बहुतायत थी, इसीलिए अंग्रेज इसे ‘मंकी टैंक’ कहते थे।

नौचन्दी स्मारिका 1992 के अनुसार 1865 ई. में अंग्रेजों ने इसे नगर पालिका को सौंप दिया। बृहस्पति देव मन्दिर की दीवार पर 28 मई 1958 ई. का एक शिलालेख लगा है जिसमें नारी तालाब में स्नान का समय एवं नियम लिखे हैं। इस पर नगरपालिका अध्यक्ष के रूप में पंडित गोपीनाथ सिन्हा का नाम लिखा है। खुदाई में यहां पर भगवान बुद्ध एवं खजुराहो काल की मूर्तियां आदि अवशेष निकले हैं जो इसे पुरातात्विक खोज का विषय बनाते हैं। पहले यहां हाथी-ऊंट-घोड़े आदि की मण्डी भी लगती थी।

यहां पर एक बार सिखों के प्रथम गुरू श्री नानक देव के पुत्र श्रीचंद भी पधारे थे। उनके ठहरने के स्थान पर सन् 1937 में एक गुरूद्वारा भी स्थापित किया गया जो आज भी तालाब के नैर्ऋत्य कोण में स्थित है। यहां पर अनेक स्त्रियां सती भी हुई थीं। श्री ज्ञानों देवी का सती मन्दिर आज भी श्रद्धा का केन्द्र है। इसके पास अनेक मन्दिर बने हुए हैं। श्मशान घाट भी बना है। यहां पर रहने वाले अघोरी साधु क्रान्ति की चिंगारी सुलगाया करते थे। यहां के वीराने में क्रांतिकारियों की गुप्त बैठकें भी हुआ करती थीं। इसके अन्दर बनी ट्रैक (घूमने की पट्टी) लगभग 700 मीटर है जबकि बाहरी परिधि और भी अधिक है।

मेरठ के प्रथम मेयर अरुण जैन के समय में इस कुण्ड को भरने की पूरी तैयारियां हो चुकी थीं। परन्तु मेरठ के कुछ प्रबुद्ध नागरिकों के उठ खड़े होने के कारण वह योजना सफल नहीं हो सकीं। इस कार्य में सनातन धर्म रक्षिणी सभा, श्री विष्णुदत्त एवं प्रकाशनिधि शर्मा, एडवोकेट आदि का मुख्य सहयोग रहा।

1962 से कुछ पूर्व तक पानी से लबालब भरे सूरज कुण्ड में शहर के अनेक प्रतिष्ठित नागरिक नित्यप्रति नौका विहार के लिए आते थे। उस समय नौका का किराया पच्चीस पैसे (चवन्नी) मात्र हुआ करता था। उसके बाद इसमें कमल खिलने लगे और कमल ककड़ी, कमलपुष्प एवं कमल गट्टों का व्यापार होने लगा। कुछ समय पश्चात् जल कुम्भी ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। बाद में यह एक दम सूख गया।

भू-माफियाओं की नज़र से बचना इसका सौभाग्य ही कहा जायेगा। कुछ वर्ष पूर्व इसकी कीमत छः अरब रुपये आंकी गई थी। वर्तमान में पर्यटन विभाग इसका विकास पार्क के रूप में कर रहा है।

गंग नहर बनने के पश्चात् यह नहर से भरा जाने लगा। बाद में जब सम्पर्क राजवाहे का आबू नाला बन गया तो इसमें शहर का गन्दा पानी आने लगा। नगरवासियों के विरोध के कारण वह बन्द कर दिया गया। इस प्रकार खुशी से लहलहाते इस तालाब की मौत होना  शहरवासियों के लिए एक चुनौती है। 

सूर्य कुण्ड की एक विशेषता यह है कि 22 जून को जब सूर्य दक्षिणायन होते हैं तो वह पहले तालाब के ठीक उत्तर-पूर्वी (NE) कोने में दिखाई देते हैं और फिर धीरे-धीरे दक्षिण की ओर दिखाई देने लगते हैं। सूर्य की विशेष कृपा दृष्टि के कारण ही इसका नाम सूरज कुण्ड विख्यात हुआ। पंडित महेन्द्र पाल मुकुट इसकी दूसरी विशेषता बताते हैं कि ‘पानी भरते ही इसमें बिना बीज डाले ही कमल उग आते हैं।’

पहले यह एक मील क्षेत्र में फैला हुआ था। पुरुष-महिलाओं के स्नानार्थ एवं पशुओं के पीने के पृथक-पृथक घाट बने थे। श्मशान के कारण तांत्रिक-अघोरी एवं जंगल के कारण नागा साधुओं का यह प्रिय स्थल था।

सूरज कुण्ड ही क्यों सूरज अथवा सूर्य तालाब क्यों नहीं? क्या है इसका रहस्य? यद्यपि कुण्ड शब्द तालाब का ही पर्यायवाची है लेकिन यह शब्द स्वयं में विशिष्ट है। जिस प्रकार विशाल तालाब को भी झील नहीं कहा जा सकता उसी प्रकार किसी भी तालाब को कुण्ड नहीं कहा जा सकता। कुण्ड प्राकृतिक होते हैं। जबकि तालाब मानव निर्मित (बाद में चाहे उन्हें पक्का करा कर तालाब का रूप दे दिया जाये) इनका आकार भी कुण्ड अथवा कुंडा के आकार का होता है। कभी-कभी यह एक दम गहरा होता है तो कभी-कभी धीरे-धीरे गहराई की ओर चलता है। मेरी जानकारी में कांधला हरियाणा एवं हरिद्वार में मनसा देवी से लगभग दो किलोमीटर आगे भी सूरज कुण्ड है। अन्य स्थानों पर भी हो सकते हैं। तीनों के गुण-धर्म समान हैं। अर्थात् तीनों ही चर्म रोग नाशक हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इनके पानी में विशिष्टता है। इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला यह कि इनके भूमिगत पानी के स्रोत में ही विशिष्टता है। दूसरा यह कि इन पर सूर्य की कुछ विशेष किरणों का प्रभाव हो। यह सभी जानते हैं कि सूर्य के सात घोड़े सूर्य की सात रंगों की किरणें ही हैं। अर्थात् ऋषि-मुनियों (उस समय के वैज्ञानिकों) ने सूर्य की किरणों के प्रभाव क्षेत्र का पता लगा लिया था और यह कार्य कर्ण से सम्पन्न करा कर उनके कुण्डों का विस्तार किया। इसलिए इनके कुण्डों का नाम सूर्य कुण्ड पड़ा। एक बात अवश्य है कि कर्ण और इन सूर्य कुण्डों का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में अवश्य रहा है। इसलिए इस कुण्ड का सूखना इस क्षेत्र का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।


 

पीने के पानी के लिए संघर्ष करते जनजातीय क्षेत्र के ग्रामीण

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पीने के पानी के लिए संघर्ष करते जनजातीय क्षेत्र के ग्रामीणShivendraThu, 09/09/2021 - 12:02

देशभर में ऐसे कई गांव और शहर है जो इस वक़्त पानी की किल्लत से झूझ रहे है अक्सर लोगो को लगता है कि पहाड़ो में लोगो को पानी की किल्लत का सामना नही करना पड़ता होगा क्योंकि वहां नदियां है झरने है नौले धारा है ,लेकिन अगर बात उत्तराखंड जिले देहरादून के जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर की करे तो यहां आज भी ऐसे कई गांव है जो ऊंचाई पर स्तिथ है । और पानी की कमी से झूझ रहे है यहां के प्राकृतिक जल स्रोत आज सूखने की कगार पर है क्योंकि जल स्रोतों के लिए जरूरी है कि हर बार यहां ठीक ठाक बारिश और बर्फबारी हो लेकिन पिछले साल अच्छी बर्फबारी न होने के कारण बहुत से गाँव पीने के पानी की किल्लत से जूझ रहे है

जिनमे से एक है ग्राम बैमु यहां के ग्रामीण बताते है कि वो लंबे अरसे से पानी की किल्लत से जूझ  रहे है और कई बार शासन प्रशासन और क्षेत्रीय विधायक से भी मदद की गुहार लगा चुके है लेकिन उनकी समस्या को अभी तक हल नही किया गया और जिसकी वजह से उन्हें कई किलोमीटर दूर तक एक प्राकृतिक जल स्रोत से पानी हर रोज़ ढोना होता है।

यहां लोगो का मुख्य व्यवसाय खेती है जिसके लिए उन्हें पशुओं को भी रखना हित है। लेकिन उन पशुओं को पीने के लिए भी पर्याप्त मात्रा में पानी नही मिल पाता इसलिए अब ग्रामीण न सिर्फ करीब एक किलोमीटर दूर से पानी लाने को मजबूर है बल्कि घोड़े खच्चरों पर पानी लाद कर गांव पहुँचाया  जाता है और सुबह 7 बजे इस जल स्रोत पर ग्रामीण एक लंबी कतार लगा कर अपनी बारी का इंतज़ार  करते है।

स्कूलों में पड़ रही लड़किया यहां स्कूल जाने से पहले पानी के संघर्ष के लिए जूझती हुई नजर आती है। और स्कूल की छुट्टी होने के बाद उन्हें फिर से पानी के इस संघर्ष से जूझना पड़ता है। न तो अभी तक शासन यहां इनके लिए कोई परमानेंट पाइप लाइन बिछा पाया और न ही कोई नेता इनके लिए पानी की ककी योजना स्वीकृत करवा पाया।

हालात अब ये है कि गाँव वालों को अब उनकी मर्जी पर छोड़ दिया गया है और सिर्फ चौमासे में ही इन गाव वालो को भरपूर मात्रा में पानी मिल पाता है क्योंकि तब कई नए जल स्रोत जन्म लेते है लेकिन बरसात खत्म होड़ ही इनका संघर्ष फिर शुरू हो जाता है वर्षा के पानी को सरंक्षित किया जा सके उसके लिए भी यहां कोई इंतजाम किये गए और अब इस बात का डर ग्रामवासियों को सत्ता रहा है कि इन्हें कही पानी की वजह से पलायन तो नही करना पड़ेगा क्योंकि ऐसे कई गावं देख गए है जो सिर्फ पानी की कमी की वजह से पलायन कर गए

यही हाल रहा तो खाली रह जाएँगे मध्यप्रदेश के बड़े बाँध

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यही हाल रहा तो खाली रह जाएँगे मध्यप्रदेश के बड़े बाँधEditorial TeamThu, 09/09/2021 - 16:58

मध्यप्रदेश में इस बार कई इलाकों में भारी बारिश से तबाही मची हुई है। तो वहीं कई जगहों में अब तक अच्छी बारिश नहीं होने से नर्मदा नदी पर बने बड़े बाँधों के खाली रह जाने के कयास लगाए जा रहे हैं। इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर बाँध में अब तक ओवरफ्लो नहीं हो सका है। इधर बारिश का मौसम खत्म होने की कगार पर है तो चिंताएँ बढ़ने लगी हैं। 

5 सितंबर 2021 को शाम पाँच बजे तक इंदिरासागर का जलभराव केवल 253.13 मीटर था, जबकि इसकी कुल ऊँचाई 262.13 है। मौसम विभाग अब भी तसल्ली दे रहा है कि नर्मदा बेल्ट में 15 सितंबर तक तेज बारिश हो सकती है। बरगी, पुनासा और अमरकंटक की तरफ भी डेम प्यासे हैं। इनके भरे जाने  के बाद ही पानी छोड़ा जा सकता है,जिसकी इस बार संभावना लगभग ख़त्म होती जा रही है। दोनों बांधों के रीते रह जाने से एनएचडीसी को अरबों का घाटा हो सकता है। इससे बिजली उत्पादन भी बुरी तरह प्रभावित होगा। नर्मदा की अपस्ट्रीम में बरगी व अन्य बांध जो ऊपर बने हैं,उनमें बिजली बनाने के बाद जो पानी छोड़ा जाएगा, वह इंदिरा सागर व ओंकारेश्वर में आएगा। यहाँ से बिजली बनाने के बाद गांधी सागर गुजरात के लिए पानी छोड़ा जाएगा।

बीते साल के आँकड़े देखें तो 5 सितंबर तक इंदिरा सागर बांध से 1915 क्यूमेक्स पानी बांध एवं विद्युत गृह से बिजली बनाकर छोड़ा जा रहा था। वहीं इंदिरा सागर के तेज जल बहाव के कारण उसके पुल से बीते साल 02 सितंबर से आवागमन के लिए चारपहिया वाहन बंद कर दिए थे। विगत वर्ष 02 सितंबर के आसपास इस बांध की जल बहाव की क्षमता 2600 क्यूमेक्स थी।

परियोजना से जुड़े सूत्रों के अनुसार बांध के उपरी क्षेत्र में अभी कहीं भी जोरदार बारिश नहीं हुई है। फिलहाल नर्मदा के ऊपरी क्षेत्र में बारिश का इंतजार किया जा रहा है। ऊपरी हिस्सों के बांध से गेट खोलकर जो पानी छोड़ा जाता था, इस तरह की अभी कोई संभावना नहीं है। मौसम विभाग की मानें तो 15 सितंबर तक अच्छी बारिश की संभावना जताई जा रही है। अब तक प्रदेश में काफी कम बारिश हुई है। पिछले साल पहले इंदिरा सागर ओवरफ्लो हुआ था। जितना पानी अभी है,वह बरसात व अन्य स्थानीय स्रोतों से आया है। बाकी अस्सी फीसदी पानी बरगी बांध से छोड़ा जाता है। इस साल ओवर फ्लो की संभावनाएं लगभग खत्म हो गई है। 

विगत 3 दिनों की बारिश में बांध के जलस्तर में कोई खास वृद्धि नहीं होने से परियोजना विभाग की विद्युत टरबाइन का उत्पादन भी प्रभावित है। अब पीक-अवर्स में भी यहां से विद्युत उत्पादन नहीं हो पा रहा है। बांध के जलभराव क्षमता 262.13 मीटर है। जबकि विगत वर्ष इन्हीं दिनों में 261.63 मीटर के करीब जलस्तर आ गया था। बांध के गेट कई दिनों तक खोलना पड़े थे।

एक हजार वर्ग किमी वाला इंदिरासागर

इंदिरासागर बांध के दीवार की लंबाई 653 मीटर तथा ऊंचाई 262.13 मीटर है। बांध में कुल 14 लाख घनमीटर की कंक्रीटिंग की गई है। बांध में 20 मीटर चौड़ाई के 12 मुख्य स्पिल-वे ब्लॉक और 8 वैकल्पिक स्पिलवे ब्लाक हैं। जल नियंत्रण के लिए 20 मीटर चौड़े एवं 17 मीटर ऊंचे आकार के 20 रेडियल गेट लगाए गए हैं। विद्युतगृह नदी के दाएं किनारे पर स्थित है,जिसमें मशीन हाल 202 मीटर लंबा तथा 23 मीटर चौड़ा, सर्विस बे 42 मीटर लंबा तथा 23 मीटर चौड़ा, 24 मीटर ऊंचा है। इसी तरह ट्रांसफार्मर यार्ड 202 मीटर लंबा और 20 मीटर चौड़ा शामिल है। विद्युतगृह में 125 मेगावॉट के 8 फ्रांसिस टरबाईन स्थापित किए गए हैं। हैड रेस चैनल 350 मीटर लंबी,75 मीटर चौड़ी तथा 50 मीटर गहरी है। इसकी कुल जल बहाव क्षमता 22 सौ घन मीटर प्रति सेकेंड है। इन्टेक स्ट्रक्चर से जल 8 मीटर व्यास तथा 157 मीटर लंबी 8 पैनस्टोक से टरबाइन में प्रवेश करता है। प्रत्येक पैनस्टोक की अधिकतम जल बहाव क्षमता 275 घन मीटर प्रति सेकंड है। विद्युत उत्पादन के बाद पानी को 850 मीटर लंबी टेल रेस चैनल द्वारा फिर नर्मदा नदी में छोड़ा जाता है। 

ओंकारेश्वर बांध की भी  इस बार हालात बहुत कमज़ोर बताई जा रही है। 

ओंकारेश्वर बांध परियोजना की संस्थापित विद्युत क्षमता 520 मेगावॉट है। इससे 1167 मिलियन यूनिट का वार्षिक विद्युत उत्पादन हो रहा है,लेकिन इस बार हालात खराब हैं। यह बांध भी रीता पड़ा है। बांधस्थल पर जलग्रहण क्षेत्र का कुल क्षेत्रफल 64 हजार 880 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से 3238 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल इंदिरासागर पॉवर स्टेशन के नीचे है। इस परियोजना के तहत 949 मीटर लंबे कंक्रीट ग्रेविल बांध का निर्माण किया गया है। इसकी आधार तल से अधिकतम ऊंचाई 53 मीटर है। 88 हजार 315 घनमीटर प्रति सेकंड के अभिकल्पित प्रवाह के लिए 570 मीटर लंबा ओगी-टाइप स्पिलवे का निर्माण किया गया है। जल नियंत्रण के लिए 20 मीटर चौड़े तथा 18 मीटर ऊंचे आकार के 23 रेडियल गेट लगाए गए हैं। 208 मीटर लंबे और 49 मीटर अधिकतम ऊंचाई पर 3.5 मीटर  4.5 मीटर के 10 स्लूस गेट जल प्रवाह व्यपवर्तन हेतु लगाए गए थे। जिन्हें अब बंद कर दिए गए हैं। 65 मेगावॉट की 8 फ्रांसिस प्रकार की टरबाइनों के साथ नदी के दाएं किनारे पर विद्युत गृह 202 मीटर लंबा, 23 मीटर चौड़ा तथा 53 मीटर ऊंचा बनाया गया है। दाएं किनारे पर 7.66 व्यास के 8 पैन स्टोको द्वारा टरबाइनों तक जल ले जाया जाता है। विद्युत उत्पादन के बाद विद्युत गृह से पानी 145 मीटर लंबी टेल रेस नहर द्वारा पुन: नदी में छोड़ा जाता है।






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