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महात्मा का सपना, मोदी का मिशन - आइए, हम सभी भंगी बने

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.एक थाने के बाहर झाड़ू लगाता देश के प्रधानमंत्री, रेलवे स्टेशन की सफाई करता रेलमंत्री, सफाई के लिए अपने पैतृक गांव को गोद लेती जलसंसाधन मंत्री; नाला साफ करता विपक्षी पार्टी का एक प्रमुख, सड़कों पर झाड़ू उठाए खड़े मुंबइया सितारे और “न गंदगी करुंगा और न करने दूंगा” कहकर शपथ लेते 31 लाख केन्द्रीय कर्मचारी। दिखावटी हों, तो भी कितने दुर्लभ दृश्य थे ये! ‘नायक’ एक फिल्म ही तो थी, किंतु एक दिन के मुख्यमंत्री ने खलनायक को छोड़कर, किस देशभक्त के दिल पर छाप न छोड़ी होगी?

सफाई की छूत-अछूत


दुर्भाग्यपूर्ण है कि ‘स्वच्छ भारत’ का आगाज करने के उपक्रम में हमने भाजपा नेता, अभिनेता, सामाजिक कार्यकर्ताओं, सरकारी कर्मचारियों व आम आदमी के अलावा सिर्फ आम आदमी पार्टी के नेता व कार्यकर्ताओं को ही शामिल देखा। दूसरी पार्टियों के लोगों को अपने से यह सवाल अवश्य पूछना चाहिए कि यह राजनीति हो, तो भी क्या यह नई तरह की राजनीति नहीं है?

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गांधीजी और स्वच्छता

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Author: 
सुदर्शन अयंगर
Source: 
योजना, अक्टूबर 2014
.गुजरात विद्यापीठ के बेहतरीन कार्यकर्ताओं और शिक्षकों में से एक ने ग्राम और ब्लॉक स्तर के सरकारी अधिकारियों के रवैये को लेकर पिछले दिनों चिंता जाहिर की थी। इन अधिकारियों को व्यक्तिगत शौचालय निर्माण और उसके लिए धन की व्यवस्था के बारे में प्रस्ताव संभावित लाभार्थियों द्वारा दिए गए थे। लेकिन उन्होंने इस बात को ही नकार दिया कि उन्हें ऐसे प्रस्ताव मिले हैं।

हमारी स्वयं से की गई प्रतिबद्धता की वजह से ही शौचालय के निर्माण को संधि रूप से प्रोत्साहित करने के लिए विद्यापीठ शामिल है। यह संकल्प श्री नारायण देसाई की 108वीं गांधी कथा (भारतीय परंपरा के अनुसार पौराणिक कथाएं सार्वजनिक तौर पर सुनाई जाती हैं। गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति नारायण देसाई (गांधीजी की कहानियों को उसी तरह सुनाया करते थे) के बाद किया गया था।

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तालाबों के लिए देशी अनाजों को भी बचाना होगा

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Author: 
बाबा मायाराम
.मैं कोदो हूं, अनाजों का राजा। मेरी विंध्य क्षेत्र में तीन प्रजातियां हैं-कोदइला, लूमा और विसवरिया। मैंने 80-80 वर्षों तक कोठियों में सुरक्षित रहकर अकाल-दुर्भिक्ष के समय लोगों की सेवा की है। विंध्य क्षेत्र में पहले जो लगभग 6 हजार तालाबों का निर्माण हुआ था उसमें मेरी भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता।

यह बीज महोत्सव के मौके पर आयोजित पोस्टर प्रदर्शनी का हिस्सा है। यह कार्यक्रम 20-21 सितंबर को सतना में आयोजित किया गया था। इसे परंपरागत देसी बीज अनाज बीज महोत्सव समिति ने आयोजित किया था।

इस अवसर पर एक पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई गई थी जिसमें देशी अनाजों के महत्व पर प्रकाश डाला गया था। कुटकी, सांवा, ज्वार, मक्का, जौ, कठिया, बाजरा, आदि अनाजों की कहानी आकर्षण का केंद्र थी।

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दोस्तों को हम दूर कर रहे हैं

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विश्व वन्यजीव सप्ताह पर विशेष


.विश्व वन्यजीव संगठन के ताजा आंकड़े कह रहे हैं कि हमने पिछले 40 सालों में प्रकृति के 52 फीसदी दोस्त खो दिए हैं। बीते सदी में बाघों की संख्या एक लाख से घट कर तीन हजार रह गई है। स्थल चरों की संख्या में 39 फीसदी और मीठे पानी पर रहने वाले पशु व पक्षी भी 76 फीसदी तक घटे हैं। उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में कई प्रजातियों की संख्या 60 फीसदी तक घट गई है।

यह आंकड़ों की दुनिया है। हकीकत इससे भी ज्यादा बुरी हो सकती है। इंसान यह सोचकर बच नहीं सकता है कि वन्यजीव घट रहे हैं तो इससे उसकी तरक्की का कोई लेना-देना नहीं है। हकीकत यही है कि प्रकृति की कोई रचना निष्प्रयोजन नहीं है, अगर कोई चीज बिना प्रयोजन के होती है तो प्रकृति उसे समय के अंतराल के साथ खुद ही खत्म भी कर देती है।

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जल संरक्षण के साथ-साथ जल बचत भी आवश्यक...

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Author: 
सुरेश चिपलूनकर
उज्जैन नगर को जलप्रदाय करने अर्थात इसकी प्यास बुझाने का एकमात्र स्रोत है यहाँ से कुछ दूरी पर बना हुआ बाँध जो 1992 वाले कुम्भ के दौरान गंभीर नदी पर बनाया गया था। उल्लेखनीय है कि गंभीर नदी, चम्बल नदी की सहायक नदी है, जो कि नर्मदा नदी की तरह वर्ष भर “सदानीरा”नहीं रहती उज्जैन नगर को जलप्रदाय करने अर्थात इसकी प्यास बुझाने का एकमात्र स्रोत है यहाँ से कुछ दूरी पर बना हुआ बाँध जो 1992 वाले कुम्भ के दौरान गंभीर नदी पर बनाया गया था। उल्लेखनीय है कि गंभीर नदी, चम्बल नदी की सहायक नदी है, जो कि नर्मदा नदी की तरह वर्ष भर “सदानीरा”नहीं रहती आधुनिक युग में जैसा कि हम देख रहे हैं, प्रकृति हमारे साथ भयानक खेल कर रही है, क्योंकि मानव ने अपनी गलतियों से इस प्रकृति में इतनी विकृतियाँ उत्पन्न कर दी हैं, कि अब वह मनुष्य से बदला लेने पर उतारू हो गई है। केदारनाथ की भूस्खलन त्रासदी हो, या कश्मीर की भीषण बाढ़ हो, अधिकांशतः गलती सिर्फ और सिर्फ मनुष्य के लालच और कुप्रबंधन की रही है। इस वर्ष की मीडिया चौपाल, नदी एवं जल स्रोत संरक्षण विषय पर आधारित है।

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जिलाधीश नहीं बाबू उमराव तो जलाधीश हैं

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Author: 
स्वतंत्र मिश्र
.उत्तर प्रदेश के कानपुर के पास ही किसी गांव में जन्मे उमाकांत उमराव ने मध्य प्रदेश के देवास में जिलाधीश के पद पर लगभग डेढ़ साल की एक छोटी सी अवधि में यहां की पारंपरिक तालाब संस्कृति को अपने बूते जिंदा कर दिखाया जिसकी वजह से यहां के बच्चे-बूढ़े, औरतें सभी उनके दीवाने हो गए और उन्हें श्रद्धा से भरकर जलाधीश (जल देवता) कहकर पुकारने लगे।

मालवा क्षेत्र के सबसे सूखे जिले देवास में तबादले की खबर सुनते ही उनके घर-परिवार और दोस्त उन पर इस बात का दबाव बनाने लगे कि किसी तरह वे अपने तबादले का आदेश रुकवा लें। असल में देवास में 1990 से ही पीने का पानी रेलगाड़ियों में टैंकर भरकर लाया जाने लगा था।

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मीडिया और नदी : एक नाव के दो खेवैए

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.भारतीय जनसंचार संस्थान के परिसर में आने का पहला मौका मुझे तब मिला था, जब मुझे हिंदी पत्रकारिता पाठ्यक्रम में अस्थायी प्रवेश का पत्र मिला था। हालांकि उस वक्त संपादकीय विभागों में नौकरी के लिए पत्रकारिता की डिग्री/डिप्लोमा कोई मांग नहीं थी, सिर्फ सरकारी नौकरियों में इसका महत्व था, बावजूद इसके यहां प्रवेश पा जाना बड़ी गर्व की बात मानी जाती थी। यह बात मध्य जुलाई, 1988 की है।

कोई डाक्टर शंकरनारायणन साहब यहां के रजिस्ट्रार थे। स्थाई प्रवेश की अंतिम तिथि तक मेरे विश्वविद्यालय द्वारा डिग्री/अंकपत्र जारी न किए जाने के कारण संस्थान ने मेरे लिए अपने दरवाजे बंद कर लिए थे। इस पूरी प्रक्रिया में मेरी और संस्थान की कोई गलती नहीं थी। यह एक व्यवस्था का प्रश्न था। किंतु तब तक मैं न व्यवस्था को समझता था, न मीडिया को और न नदी को।

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गंगा: आस्था से जुड़ा कल्याणकारी आन्दोलन

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Author: 
डॉ. राधाकृष्ण दीक्षित
Source: 
द सी एक्सप्रेस, 03 अगस्त 2014
.आज लाखों लोग गंगा के अस्तित्व को लेकर चिंतित हैं। वे गंगा-जल की निर्मलता चाहते हैं, गंगा में नालों, सीवरों और उद्योगों के केमिकल युक्त कचरों के मिला देने से गंगा मैली हो गई है। गंगा भारत की नदियों में प्रमुख पवित्र नदी है। गंगा किसी के लिए आस्था, श्रद्धा और विश्वास है, तो किसी के लिए मोक्षदायनी। गंगा अपने अविरल प्रवाह से पर्यावरण को हरा भरा बनाती है, खेतों को सींचती है, अन्न और औषधियां उगाती है, तो तटवर्ती हजारों हाथों को अनेक प्रकार से रोजगार देती है, गंगा हर प्रकार से जीवनदायनी नदी है।

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कभी दिल्ली के दिल में धड़कते थे दरिया

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.ग्रामीण दिल्ली के कंझावला का जोंती गांव कभी मुगलों की पसंदीदा शिकारगाह था।, वहां घने जंगल थे और जंगलों में रहने वाले जानवरों के लिए बेहतरीन तालाब। इस तालाब का निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां ने करवाया था। आज इसका जिम्मा पुरातत्व विभाग के पास है, बस जिम्मा ही रह गया है क्योंकि तालाब तो कहीं नदारद हो चुका है। कुछ समय पहले ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संस्था इंटेक को इसके रखरखाव का जिम्मा देने की बात आई थी, लेकिन मामला कागजों से आगे बढ़ा नहीं।

ना अब वहां जंगल बचा और ना ही तालाब। उसका असर वहां के भूजल पर भी पड़ा जो अब पाताल के पार जा चुका है। रामायण में एक चौपाई है - जो जो सुरसा रूप दिखावा, ता दोगुनी कपि बदन बढ़ावा।दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, अहमदाबाद...... किसी भी शहर का नाम ले लो, बस शहर का नाम व भौगोलिक स्थिति बदलेगी, वहां रोजी-रोटी की आस में आए परदेशियों को सिर छिपाने की जगह देना हो या फिर सड़क, बाजार बनाने का काम; तालाबों की ही बलि दी गई और फिर अब लोग गला सूखने पर अपनी उस गलती पर पछताते दिखते हैं।

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नदी की तरफ पीठ करके बैठी एक सभ्यता

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Author: 
पुष्यमित्र
.इंसान नदियों के किनारे बसते ही इसलिए थे कि नदियां इंसानों के जीवन में हर तरह से सुविधा का इंतजाम करती थी। नहाने-धोने-खाने-पकाने से लेकर घर के हर काम में आने वाली पानी की जरूरत नदियां पूरी करती थी। फिर खेतों की सिंचाई से लेकर परिवहन तक में नदियां सहायक रही हैं। इसी वजह से नदियां लोगों के लिए बाद में धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व का केंद्र बनी। मगर जैसे ही इंसान ने मशीनों की मदद से धरती के अंदर से पानी निकालने का हुनर सीखा नदियां उसके लिए नकारा होने लगी।

यह कहानी अगर किसी और नदी की हो तो फर्क नहीं पड़ता, मगर जब सांस्कृतिक रूप से समृद्ध कोसी-मिथिला के इलाके के लोग नदी की तरफ पीठ करके बैठ जाएं तो सचमुच अजीब लगता है। मगर यह सच है, लगभग पिछले पचास सालों से हम कोसी वासी अपनी सबसे प्रिय नदी कोसी की तरफ पीठ करके बैठे हैं।

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सृष्टि की अनमोल देन : जल

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Author: 
डॉ. प्रीति कौशिक
Source: 
पर्यावरण विमर्श, 2012
.जल मानव सहित सभी जीवधारियों के लिए प्रकृति का एक अनुपम उपहार है, जिसका कोई विकल्प नहीं है। जीवधारियों एवं वनस्पतियों को जीवित रखने तथा उनका विकास करने में जल की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। एक तरह से कहा जाए तो जल ही जीवन है। उपग्रहों द्वारा लिए गए नीले-हरे छायाचित्रों से ज्ञात हुआ है कि पृथ्वी पर जल की पर्याप्त मात्रा है।

अनुमान है कि पृथ्वी पर 1.4 बिलियन घन मीटर जल उपलब्ध है, लेकिन इस जलराशि का केवल तीन प्रतिशत जल ही मानव-जाति की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक है। वास्तव में पृथ्वी पर पाए जाने वाले ताजे जल का तीन – चौथाई भाग आर्कटिक और अंटार्कटिक क्षेत्रों की हिमानियों में निक्षेपित है। विश्व में कुल ताजे जल संसाधन के केवल 0.36 प्रतिशत तक ही मानव की पहुंच है।

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कारसेवा का करिश्मा : निर्मल कालीबेई

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.होशियारपुर के धनोआ गांव से निकलकर कपूरथला तक जाती है 160 किमी लंबी कालीबेई। इसेे कालीबेरी भी कहते हैं। कुछ खनिज के चलते काले रंग की होने के कारण ‘काली’ कहलाई। इसके किनारे बेरी का दरख्त लगाकर गुरुनानक साहब ने 14 साल, नौ महीने और 13 दिन साधना की। एक बार नदी में डूबे, तो दो दिन बाद दो किमी आगे निकले। मुंह से निकला पहला वाक्य था: “न कोई हिंदू, न कोई मुसलमां।’’उन्होंने ‘जपजीसाहब’ कालीबेईं के किनारे ही रचा। उनकी बहन नानकी भी उनके साथ यहीं रही। यह 500 साल पुरानी बात है।

अकबर ने कालीबेईं के तटों को सुंदर बनाने का काम किया। व्यास नदी इसे पानी से सराबोर करती रही। एक बार व्यास ने जो अपना पाट क्या बदला; अगले 400 साल कालीबेईं पर संकट रहा।

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हैदराबाद: शहरीकरण के सुरसामुख में समाई झीलें

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.आंध्र प्रदेश राज्य के प्रस्तावित बंटवारे में सबसे बड़ा पेंच राजधानी हैदराबाद को ले कर है और हो भी क्यों ना, आखिर लगभग सभी सियासती दलों के बड़े नेताओं के व्यापारिक प्रतिष्ठान यहीं पर हैं। वैसे यह त्रासदी बड़ी चालाकी से छिपाई जाती रही है कि हैदराबाद की ऊपरी चकाचौंध के पीछे उसकी प्यास, पानी की कमी और प्रदूषण का विद्रूप चेहरा भी है यह हालात वहां के पारंपरिक तालाबों पर बलात कब्जों के कारण पैदा हुए हैं।

वैसे तो हैदराबाद भारत के सबसे तेजी से उभरते शहर, चारमीनार, बिरयानी और हुसैन सागर के लिए बेहद मशहूर है, लेकिन असलियत में इसकी सांसों में भीतर-ही-भीतर ऐसा जहर घुल रहा है कि आने वाले दिनों में यहां के दमकते चेहरे की चमक बनाए रखना मुश्किल होगा। असल में पंद्रहवीं सदी में बसाया गया यह शहर उस समय वेनिस की तरह ढेर सारी झीलों और तालाबों के किनारे संवारा गया था। जुड़वां शहर - हैदराबाद और सिंकंदराबाद का विभाजन दुनिया की सबसे बड़ी मानव-निर्मित झील ‘‘हुसैन सागर’’ से हुआ।

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गांधीजी का स्वच्छ भारत का सपना बनेगा हकीकत

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कुरुक्षेत्र, अक्टूबर 2014
“स्वच्छता स्वतंत्रता से ज्यादा महत्वपूर्ण है”महात्मा गांधी

.आजादी के 64 वर्ष बाद भी देश की आधी से अधिक आबादी खुले में शौच करती है जोकि वाकई में चिंता का विषय है। शौचालयों का नहीं होना, पानी का अभाव या अपर्याप्त प्रौद्योगिक के कारण संचालन और रखरखाव के अभाव के कारण हालात नहीं सुधर रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि शौचालय बनाने की दिशा में अभी तक कोई कार्य नहीं किया गया लेकिन यह कार्य बेहद धीमी गति से हुआ और जो हुआ वह भी गुणवत्ता या रखरखाव में कमी या संचालन के अभाव के कारण लोगों के जीवन-स्तर में उतना परिवर्तन नहीं ला पाया जितना कि इतने वर्षों में आना चाहिए था। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में 590 मिलियन लोग खुले में शौच करने को मजबूर हैं।

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सफाई और मनोरंजन

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Author: 
विनीत कुमार
Source: 
जनसत्ता, 26 अक्टूबर 2014
भारत को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए विज्ञापनों पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। उसी का अध्यक्ष पत्रकारों के सवालों के जवाब में यह कह रहा हो कि अभी यह समय मुख्यमंत्री कौन पर बात करने का नहीं, पटाखे जलाने का है। और हमने देखा कि लगभग सभी न्यूज चैनलों के स्क्रीन पटाखे के धुएँ से भर गए। आस्थावान समाज के लिए बेहतर है कि वह टेलीविजन की सारी सामग्री को अभियान का दूसरा संस्करण ही माने स्वच्छता अभियान के तहत दीपिका पादुकोण, शाहरुख खान और अभिषेक बच्चन ने ‘कॉमेडी नाइट्स विद कपिल’के प्रस्तोता कपिल शर्मा की झाडू से सफाई की। फिल्म ‘हैप्पी न्यू इयर’के प्रमोशन में आए इन सितारों ने पहले स्टूडियो के फर्स पर झाड़ू फिराई फिर एक-एक करके कपिल शर्मा के शरीर पर। जाहिर है, यह सब मनोरंजन के लिए किया गया। जो स्टूडियो में मौजूद दर्शक और खुद कपिल शर्मा लगातार हंसते रहे।

नरेंद्र मोदी सरकार के स्वच्छता अभियान की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ‘कॉमेडी नाइट्स विद कपिल’और ‘बिग बॉस’जैसे आधा दर्जन टेलीविजन कार्यक्रमों में इसकी चर्चा किसी न किसी रूप में हुई। कुछ में तो सीधे-सीधे पूरी टीम को सफाई करते दिखाया गया, तो कुछ में संवादों के जरिए यह बताने की कोशिश की गई कि देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है।

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मानव फांस में उलझी यमुना

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Author: 
अरुण कुमार त्रिपाठी
Source: 
कल्पतरू एक्सप्रेस, 27 अक्टूबर 2014
दिल्ली का मीडिया और केंद्र सरकार यमुना सफाई पर फतवे जारी करते रहते हैं, लेकिन नजफगढ़ नाले से लेकर 16 बड़े नालों ने दिल्ली में यमुना का जो हाल कर रखा है वह यमुना के मानव फांस का ही द्योतक है। शुक्र है आज कृष्ण नहीं हुए वरना वे कालिंदी के उद्धार के लिए दिल्ली को ही नाथते। दिल्ली ही आज का वह ‘कालिया नाग’है जिसने यमुना को विषैला कर रखा है। जरूरी है कि या तो वह अपनी आदत सुधार ले या यमुना को छोड़कर कहीं और चला जाए।यम द्वितीया के दिन जब यम फांस से मुक्ति के लिए मृत्यु लोक के वासी यमुना में डुबकी लगाकर अपने को तार रहे थे तो यमुना मानव फांस से मुक्ति के लिए छटपटा रही थी। कहते हैं कि यम द्वितीया के दिन मथुरा में स्नान का विशेष पुण्य होता है और इसीलिए भाई-बहन के इस पर्व को सफल बनाने के उद्देश्य से प्रशासन ने विशेष इंतजाम किए थे। तीन हजार क्यूसेक पानी विशेष तौर पर छोड़ा गया था। अफसरों की मुस्तैदी से सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट चलते रहे, सीवेज पंपिंग स्टेशन ओवर फ्लो नहीं हुए। लेकिन, न यमुना को ताजा पानी नसीब हुआ, न ही उसके भक्तों को। अगर आस्था के आगे मनुष्य ने आंख और नाक बंद करने की कला न सीखी होती तो उस पानी में डुबकी लगाना और अपना उद्धार करना मुश्किल था।

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सरकारी विभागों में भटक कर ‘पुर गये तालाब’

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Author: 
अनुपम मिश्र
Source: 
भारतीय धरोहर, जनवरी-फरवरी 2010
इन तालाबों को अपने आप अपने श्रम से, चंदे से, अपनी सूझबूझ से पुनर्जीवित कर लेंगे। दो महीने की लंबी बीमारी से उठ कर आए मुख्य मंत्री रामकृष्ण हेगड़े दो सौ वर्षों से बीमार रखे गए तालाबों और उन तालाबों से जुड़े किसानों का गांवों का दर्द अब भी नहीं समझ सकेंगे तो कब समझेंगे? जब गणेश जी इस तालाब में पूरे नहीं डूब पाएंगे तो समझ लेना कि गांव पर संकट आने वाले हैं, सुपारी के पत्तों की टोपी पहने उस आदमी ने अपने दादाजी की चेतावनी दुहराते हुए जोड़ा था कि पहले साल गणेश-उत्सव में कुछ ऐसा ही हुआ था।

महाराष्ट्र से जुड़े-कर्नाटक के हिस्से में इस तालाब पर आया संकट देश पर छा रहे पानी के संकट की तरफ इशारा कर रहा है। गांव-गांव में, कस्बों में और शहरों तक में सिंचाई से लेकर पीने के पानी तक का इंतज़ाम जुटाने वाले तालाब आज बड़े बांध, बड़ी सिंचाई और पेयजल योजनाओं के इस दौर में उपेक्षा की गाद में पट चले हैं। वर्षों तक मजबूती से टिकी रही अनेक तालाबों की पालें आज बदइंतजामी की ‘पछवा हवा में ढह’चली हैं।

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सिंचाई की अनूठी टेड़ा पद्धति

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.पिछले दिनों मेरा छत्तीसगढ़ में जशपुर जिले के एक गांव चराईखेड़ा जाना हुआ। वह उरांव आदिवासियों का गांव है। उनकी सरल जीवनशैली और मिट्टी के हवादार घरों के अलावा मुझे जिस चीज ने सबसे ज्यादा आकर्षित किया वह है उनकी सिंचाई की टेड़ा पद्धति।

यहां कुएं उथले हैं और उनमें साल भर लबालब पानी रहता है। कुओं से पानी निकालना आसान है, इसके लिए यहां टेड़ा का इस्तेमाल किया जाता है। टेड़ा और कुछ नहीं बांस की लकड़ी है जिसके एक सिरे पर पत्थर बांध दिया जाता है और दूसरे सिरे पर बाल्टी। पत्थर के वजन के कारण पानी खींचने में ज्यादा ताकत नहीं लगती। बिल्कुल सड़क के बैरियर या रेलवे गेट की तरह।

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कुओं का कायाकल्प

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.हाल ही में कर्नाटक से सुखद खबर आई है कि वहां कुओं को फिर से पुनर्जीवित किया जा रहा है। बेलगांव शहर में जो कुएं सूख गए थे, गाद या कचरे से पट गए थे उनका नगर निगम और नागरिकों ने मिलकर कायाकल्प कर दिया है। और शहर की करीब आधी आबादी के लिए कुओं से पीने के पानी की आपूर्ति की जा रही है।


बेलगांव में 1995 में जब पीने के पानी का मुख्य स्रोत सूख गया तब वैकल्पिक पानी के स्रोतों की खोज हुई। यहां के वरिष्ठ नागरिक मंच ने कुओं का कायाकल्प करने का सुझाव दिया। इस पर अमल करने से पहले गोवा विश्वविद्यालय के भूविज्ञान विभाग के प्रमुख चाचडी से सलाह मांगी। उन्होंने इसका अध्ययन इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी दी।

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तालाब मिटते गए सूखा बढ़ता गया

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.यहां पचास हजार से अधिक कुएं हैं कोई सात सौ पुराने ताल-तलैया। केन, उर्मिल, लोहर, बन्ने, धसान, काठन, बाचारी, तारपेट जैसी नदियां हैं। इसके अलावा सैंकड़ों बरसाती नाले और अनगिनत प्राकृतिक झिर व झरने भी इस जिले में मौजूद हैं। इतनी पानीदार तस्वीर की हकीकत यह है कि जिला मुख्यालय में भी बारिश के दिनों में एक समय ही पानी आता है।

होली के बाद गांव-के-गांव पानी की कमी के कारण खाली होने लग जाते हैं। चैत तक तो जिले के सभी शहर-कस्बे पानी की एक-एक बूंद के लिए बिलखने लगते हैं। लोग सरकार को कोसते हैं लेकिन इस त्रासदी का ठीकरा केवल प्रशासन के सिर फोड़ना बेमानी होगा, इसका असली कसूरवार तो यहां के बाशिंदे हैं, जिन्होंने नलों से घर पर पानी आता देख अपने पुश्तैनी तालाबों में गाद भर दी थी, कुओं को बिसरा कर नलकूपों की ओर लपके थे और जंगलों को उजाड़ कर नदियों को उथला बना दिया था।

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