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नर्मदा अंचल के वन एवं वन्य जैवविविधता

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नर्मदा अंचल के वन एवं वन्य जैवविविधताRuralWaterMon, 03/19/2018 - 18:01
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नर्मदा के प्राण हैं वन, नर्मदा संरक्षण पहल - 2017

नर्मदा नदीनर्मदा नदीनर्मदा अंचल के वनों और नदियों के प्रवाह के बीच नाजुक रिश्ते के बारे में जानकारी दे चुकने के बाद नर्मदा अंचल के वनों और वन्य जैव विविधता के बारे में संक्षिप्त जानकारी देना प्रासंगिक होगा। यहाँ कैसे जंगल हैं और उनमें वन्य जैवविविधता कैसी है इसी विषय पर संक्षिप्त जानकारी आगे दी गई है। प्राचीन भारतीय साहित्य में नर्मदा को बड़ा महत्त्व दिया गया है। कूर्म पुराण, मत्स्य पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, वामन पुराण, नारद पुराण तथा भागवत पुराण आदि में नर्मदा के बारे में विवरण के साथ ही इसके अंचल में पाये जाने वाले वनों की शोभा भी बखानी गई है।

प्रसिद्ध स्कंद पुराण के पूरी तरह नर्मदा को ही समर्पित रेवा खण्ड में नर्मदा की उत्पत्ति, अमरकंटक के वनों, ओंकार पर्वत शूलभेद आदि क्षेत्रों के बारे में जानकारी के साथ-साथ पृथ्वी पर पड़े प्रलयकारी सूखे और अकाल के युगों में भी नर्मदा के अक्षय रहने का विवरण मिलता है। नर्मदा पुराण में भी नर्मदा अंचल के वनों की शोभा बताई गई है। इसी तरह कई अन्य प्राचीन धर्म ग्रंथों व अन्य साहित्य में उपलब्ध रोचक विवरणों से नर्मदा अंचल के वनों की प्राचीन दशा पर भी प्रकाश पड़ता है।

स्कंद पुराण के रेवा खण्ड में तथा नर्मदा पुराण के द्वितीय अध्याय में विवरण है कि पाण्डव द्रौपदी के साथ उत्तम काम्यक वन में ब्राम्हणों सहित निवास करते हुए विंध्याचल पर्वत की ओर गए जो कि चम्पा, कनेर, नागकेशर, पुन्ना-सुल्ताना, चम्पा, मौरसरी, बकुल, दाड़िम (अनार), कचनार, पुष्पित धवल-कहू, बिल्व, केतकी, कदम्ब, आम्र, मधूक, नीम, नींबू, जम्वीर, तेन्दू, नारियल, कपित्थ (कैथा), खजूर पनस (कटहल) आदि नाना प्रकार के वृक्षों एवं गुल्म लताओं से युक्त पुष्पित फल से परिपूरित कुबेर के चैत्ररथ के समान था।

इसी आख्यान में ऋषि आश्रम की जैवविविधता का वर्णन करते हुए उल्लेख है कि वह अनेक सुन्दर जलाशयों से पूर्ण था, कुमुदनी से मंडित और नील, पीत, श्वेत, लाल कमलों से आच्छादित एवं हंस के कारण्डव, चकवा, चकवी, आड़ि, काक, बगुलों की पंक्ति एवं कोकिल आदि से सुशोभित था। सिंह, बाघ, शूकर, हाथी, विशालकाय वन भैंसे, सुरभि, सारंग, भालू आदि जानवरों से युक्त था। कोक, मयूर और नाना प्रकार के पशुओं से सुशोभित हो रहा था।

इस तरह की बाधाओं से मुक्त और अतीव उत्कृष्ट सत्व गुण के कारण परम सुन्दर प्रतीत होता था। भूख-प्यास जैसी बाधाएँ वहाँ नहीं सताया करती थीं। वह वन परम सुन्दर एवं सभी तरह की व्याधियों से रहित था। उस आश्रम के वन में स्वाभाविक बैर भी नाम मात्र को नहीं था और कुरंग (हिरन) के बच्चे बड़े ही स्नेह से सिंहनी के स्तन को पीया करते थे, मार्जार (बिल्ली) और मूषक दोनों परस्पर में उन्मुख होकर अवलेहन किया करते थे। सिंहनी के पुत्रों से वह स्नेह करते और मयूर एवं सर्प भी एक दूसरे के साथ बड़े ही स्नेह से रहते। उस परमोत्तम एवं अतीव सुन्दर विपिन को देखकर पाण्डु के पुत्रों ने उसमें प्रवेश किया था।

मत्स्य पुराण में विवरण आता है कि कलिंग देश से पिछले पश्चिमी अर्ध भाग में अमरकण्टक पर्वत में प्रकटी नर्मदा तीनों लोकों में अतीव मनोरम और रमणीय है। इसी पुराण में अन्यत्र कहा गया है कि नर्मदा के तट पर कपिला नामक महानदी है जो अर्जुन के वृक्षों से ढँकी हुई है तथा खदिर वृक्षों से सुशोभित है। यह कपिला नदी माधवी अमरबेल और अन्य लताओं से भी सुशोभित गरजने वाले सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक तथा शृंगाल वानर आदि जीवों से और सुन्दर पक्षिओं से नित्य ही शब्दायमान रहती है। इस प्रकार पुराणों और अन्य प्राचीन ग्रंथों में नर्मदा के विषय में उपलब्ध विवरण से इस अंचल के वनों की रमणीयता और विविधता का पता चलता है।

नर्मदा अंचल में वनों की किस्में तथा उनका विस्तार


नर्मदा जलागम में आने वाले जिलों में असंख्य वनस्पतियों तथा प्राणियों की विविधता से युक्त मनोहारी छटा वाले वन हैं। नर्मदा बेसिन के कुल भू-भाग में 32,483.29 वर्ग किमी क्षेत्र में वन है जो पूरे बेसिन के कुल क्षेत्रफल का 32.88 प्रतिशत भाग है। इन वनों को कई प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है। एक प्रकार का वर्गीकरण तो वैधानिक आधार पर है जबकि दूसरी विधि में वनों में पाई जाने वाली मुख्य प्रजातियों के आधार पर वनों का वर्गीकरण किया जाता है।

वैधानिक वर्गीकरण की दृष्टि से वनों के दो प्रमुख वर्ग हैं- आरक्षित वन तथा संरक्षित वन। भारतीय वन अधिनियम 1927 के अन्तर्गत आरक्षित घोषित किये गए वनों में अपेक्षाकृत कठोर कानून लागू होते हैं और इनमें बिना अनुमति प्रवेश, वृक्ष कटाई, आग लगाना, पशु चराई, पत्थरों की खुदाई या खेती के लिये जंगलों की सफाई जैसी गतिविधियाँ प्रतिबन्धित रहती हैं। संरक्षित वनों में भी शासन का नियंत्रण रहता है पर इनसे सम्बन्धित कानून थोड़े लचीले हैं। इन दोनों श्रेणियों के बाहर भी कुछ अवर्गीकृत वन भी हैं।

वनों के वर्गीकरण की दूसरी विधि में मुख्य प्रजातियों के आधार पर नर्मदा जलागम के वनों को तीन प्रमुख वर्गों में बाँटा जा सकता है- साल वन, सागौन वन तथा मिश्रित वन। जिन वनों में साल प्रजाति के वृक्षों की अधिकता होती है उन्हें साल वनों की श्रेणी में, जिन वनों में सागौन प्रजाति के वृक्षों की अधिकता होती है उन्हें सागौन वनों की श्रेणी में तथा ऐसे वन जिनमें विविध वृक्ष प्रजातियों व अन्य वनस्पतियों का मिश्रण रहता है उन्हें मिश्रित वन की श्रेणी में रखा जाता है।

नर्मदा अंचल में साल वन अमरकंटक, डिंडोरी तथा मण्डला के अतिरिक्त पचमढ़ी में भी पाये जाते हैं और एक मोटे अनुमान के अनुसार पूरे नर्मदा जलागम क्षेत्र में आने वाले वनों का लगभग 10 प्रतिशत साल वनों का है। सागौन वन यहाँ का एक प्रमुख वन प्रकार है और एक मोटे अनुमान के अनुसार नर्मदा जलागम में आने वाले कुल वनक्षेत्र का लगभग 35-40 प्रतिशत भाग इसी वर्ग का है। प्रमुख वृक्ष प्रजातियों की अधिकता के आधार पर नर्मदा के तीसरे प्रकार के वनों-मिश्रित वनों को भी सलई वन, खैर-सिस्सू वन, अंजन वन जैसे उप-प्रकारों में बाँटा जाता है। नर्मदा जलागम में आने वाले कुल वनक्षेत्र का लगभग आधा भाग विभिन्न प्रकार के मिश्रित वनों से आच्छादित है। इन तीन प्रकार के वनों में मिलने वाली वनस्पतियों का विवरण तथा नर्मदा अंचल में भौगोलिक वितरण आगे बताया गया है।

साल वन (Sal Forest)


नर्मदा अंचल में पाये जाने वाले तीन मुख्य वन प्रकारों में से एक, सदा हरे रहने वाले साल वन हैं। नर्मदा अंचल में ये साल वन केवल मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्य के कुछ भागों में मिलते हैं। किसी वन क्षेत्र में साल, जिसका वैज्ञानिक नाम शोरिया रोबस्टा (Shorea robusta) है, के वृक्षों का आयतन कुल वृक्षों के 20 प्रतिशत से अधिक होने पर उसे तकनीकी तौर पर साल वन कहा जाता है। साल वृक्ष की प्रमुखता वाले इन वनों में साल के वृक्ष आमतौर पर बीज से पैदा होकर सघन अवस्था में पाये जाते हैं जिसमें 60-90 प्रतिशत तक उच्च वितान (Top canopy) 26-40 मीटर ऊँचे साल के वृक्षों का होता है।

गर्मी के प्रारम्भिक समय में 5-15 दिनों के लिये साल के पत्ते झड़ जाते हैं पर इस अवधि को छोड़कर साल वृक्ष सदाहरित ही रहता है जिसके कारण ये वन काफी आर्द्र व ठंडे रहते हैं। घने उच्च वितान के साल वनों में मध्य वितान (Middle canopy) तथा अधोवितान अन्य वनों की अपेक्षा कम विकसित होते हैं व झाड़ियाँ और गुल्म आंशिक रूप से सदाहरित होते हैं। साल वनों में बाँस आमतौर पर शुष्क भागों के खुले हिस्सों को छोड़कर अन्दरूनी भागों में नहीं मिलता है। मध्य प्रदेश के साल वनों की गुणवत्ता श्रेणी द्वितीय तथा तृतीय है और इनमें प्राकृतिक पुनरुत्पादन पर्याप्त है।

नर्मदा अंचल में साल के वन प्रमुखतः दक्षिण-पूर्वी व मध्य भाग में तथा छत्तीसगढ़ के उत्तरी पश्चिमी भाग में नर्मदा के दक्षिणी ओर पाये जाते हैं। नर्मदा अंचल के कुल वन क्षेत्र का लगभग 10 प्रतिशत साल वन हैं। ये वन प्रमुखता से अनूपपुर (पुराने शहडोल जिले का भाग), मण्डला, डिंडोरी, होशंगाबाद, छिन्दवाड़ा, बालाघाट आदि जिलों में पाये जाते हैं।

नर्मदा के उद्गम के निकट मैकल पर्वत श्रेणी साल के वन कुछ हिस्सों में पाये जात हैें। यहाँ के साल वन तृतीय से चतुर्थ-ब श्रेणी के हैं। बालाघाट जिले में साल वन कान्हा राष्ट्रीय उद्यान से लगी हुई बैहर तहसील के उत्तरी भागों तक सीमित हैं। नरसिंहपुर जिले में भी बहुत हल्के किस्म के साल वन खैरी क्षेत्र में मिलते हैं जिनमें साल कुल संनिधि का लगभग तीन चौथाई है।

यहाँ साल वन पठारी भूमि पर, नालों से दूर, अच्छी तरह अपवाहित क्षेत्रों में मिलते हैं। इस क्षेत्र में साल के वृक्ष आमतौर पर चतुर्थ श्रेणी की गुणवत्ता के हैं जिनमें मध्यम गोलाई वाले साल वृक्ष कम हैं और अधिकांश विकृत हैं। ये वन लगभग मध्य वयस्क हैं। होशंगाबाद में साल वन नागद्वारी नदी के जलग्रहण क्षेत्र में पचमढ़ी के दक्षिण-पश्चिम में तथा कुछ अन्य स्थानों पर सीमित है जिनमें से अधिकांश भाग वर्तमान में सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान का हिस्सा है। यह प्रायद्वीप में साल की धुर पश्चिमी सीमा है। नर्मदा अंचल में उपरोक्त क्षेत्रों को छोड़कर मध्य प्रदेश में साल के वन अन्यत्र नहीं पाये जाते हैं।

सागौन वन (Teak Forests)


सागौन वृक्ष जिसका वैज्ञानिक नाम टेक्टोना ग्रैन्डिस (Tectona grandis) है, नर्मदा अंचल के वनों की एक प्रमुख प्रजाति है। यह डिप्टेरोकारपेसी वानस्पतिक कुल (Family Dipterocarpaceae) का सदस्य है। सागौन के लिये मध्य प्रदेश की मिट्टी, पानी और जलवायु बहुत उपयुक्त है जिसके कारण इस प्रजाति का मध्य प्रदेश में व्यापक प्राकृतिक फैलाव है।

सागौन लगभग 80-100 वर्षों में परिपक्व होने वाला वृक्ष है। इसके विशालकाय रोएँदार पत्तों, ऊँचे-मोटे तनों और विशिष्ट प्रकार के छत्र के कारण इसे दूर से ही आसानी से पहचाना जा सकता है। इसकी लकड़ी भवन निर्माण और फर्नीचर आदि बनाने में बहुत अच्छी मानी जाती है और काफी ऊँची कीमत पर बिकती है। इस वृक्ष प्रजाति की अधिकता को देखते हुए कुछ लोग मध्य प्रदेश को सागौन प्रदेश या ‘टीक स्टेट’ (Teak State) भी कहते हैं। वैसे तो सागौन के वृक्ष नर्मदा अंचल के काफी हिस्सों में फैले हैं परन्तु जहाँ-जहाँ वनों में इस प्रजाति के वृक्षों का आयतन 20 प्रतिशत से अधिक होता है उन्हें तकनीकी तौर पर ‘सागौन वन’ कहा जाता है।

इस प्रकार के वनों में प्रमुख प्रजाति सागौन ही होती है जो कि बहुत अच्छी विकसित अवस्था में पाई जाती है। इन वनों में पर्णपाती प्रजातियों की प्रमुखता है। सागौन वनों में जहाँ हल्दू वृक्ष की अधिकता वाले खण्ड पाये जाते हैं वे अपेक्षाकृत शुष्क दशाओं के संकेत देते हैं। साजा, बीजा, लेण्डिया, धावड़ा, तेन्दू तथा शीशम इस प्रकार के वनों में अक्सर मिलते हैं। बाँस इनमें हमेशा नहीं मिलता परन्तु जहाँ मिलता है वहाँ अधिकांशतः देशी बाँस है, यद्यपि पश्चिमी भाग के कुछ क्षेत्रों में कटंग बाँस भी मिलता है। नर्मदा जलग्रहण क्षेत्र में मौजूद कुल वनों का लगभग 35-40 प्रतिशत सागौन वनों से आच्छादित है।

मिश्रित वन (Mixed Forest)


जैसा कि नाम से स्वतः स्पष्ट है साल या सागौन की प्रमुखता वाले दो वन प्रकारों से भिन्न मिश्रित वनों में विविध वनस्पति प्रजातियों का मिश्रण रहता है तथा कुछ अपवादों को छोड़कर साल या सागौन वनों की भाँति कोई एक वृक्ष प्रजाति अन्य प्रजातियों पर हावी नहीं होती। मिश्रित वन पर्यावरण की दृष्टि से अधिक उपयोगी और जैवविविधता से भरपूर होते हैं। इनके अतिरिक्त मिट्टी की विशेषता जिसे मृदीय चरमावस्था कहते हैं, के कारण छोटे-छोटे खण्डों में अंजन, सलई, पलाश, खैर, सिस्सू, करधई, बाँस इत्यादि की अधिकता वाले वन क्षेत्र आंचलिक रूप से भी पाये जाते हैं। नर्मदा अंचल में पाये जाने वाले वन प्रकारों में से सागौन और साल वनों की श्रेणी से इतर सभी प्रकार के वनों को मिश्रित वनों की श्रेणी में रखा जा सकता है।

अच्छे मिश्रित वनों में इतनी विविधता और तरह-तरह की इतनी प्रजातियों का मिश्रण होता है कि किसी प्रजाति विशेष या स्थान विशेष को लेकर इनके बारे में सारी बात एक साथ कहना बड़ा कठिन है। प्रजातिगत विशेषताओं के कारण अलग-अलग स्थानों में मिश्रित वन अलग-अलग प्रकार के विविधतापूर्ण वनस्पति मिश्रण प्रस्तुत करते हैं।

प्रकृति में विविध छटाएँ बिखेरते हुए मिश्रित वन न केवल देखने में हर प्रकार से सुन्दरता प्रस्तुत करते हैं बल्कि एक जटिल पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण भी करते हैं जिसमें एक-दूसरे पर निर्भर अनेक प्रजातियों के जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों और सूक्ष्म जीवों का सम्मिश्रण होता है तथा परस्पर पूरक खाद्य शृंखलाएँ होती हैं। नर्मदा अंचल के जिलों में आने वाले मिश्रित वनों का विस्तृत विवरण उन जिलों के जिला गजेटियर और सम्बन्धित वन मण्डलों की कार्य आयोजनाओं में देखा जा सकता है। हम इस विषय पर यहाँ बहुत विस्तार में जाने के बजाय केवल इतना ही विवरण देना चाहेंगे जिससे इनके बारे में पाठक को मोटा-मोटा आभास हो जाये।

बनावट तथा घनत्व की दृष्टि से मिश्रित वन बड़े बेतरतीब हैं और जहाँ मिट्टी की गहराई थोड़ी अधिक है वहाँ वृक्षों की बहुत अच्छी बढ़त देखने में आती है। आमतौर पर ये वन चतुर्थ (ब) स्थल गुणवत्ता के हैं परन्तु नालों के आस-पास और सघन घाटियों में जहाँ अच्छी मिट्टी भी मिल जाती है, कुछ बेहतर किस्म के मिश्रित वन भी मिलते हैं जिन्हें चतुर्थ (अ) श्रेणी में रखा जा सकता है। मिश्रित वनों में साज, सलई तथा खैर इत्यादि के वृक्ष काफी संख्या में पाये जाते हैं। पश्चिमी निमाड़ के खरगौन तथा बड़वानी जिलों में जहाँ वनों का घनत्व काफी कम हो गया है इधर-उधर बिखरे हुए वृक्षों वाले मिश्रित वन मिलते हैं। उथली मिट्टी वाले अत्यधिक सूखे क्षेत्रों में भी इनका अच्छा विकास देखने में आता है।

निमाड़ में खरगौन, भीकनगाँव, पीपलझोपा, बिस्टान, चिरिया, तितरान्या आदि इलाकों में मिश्रित वनों के क्षेत्र वन अतिक्रमण की समस्या के कारण काफी बुरी दशा में हैं। इसी प्रकार की दशा बड़वानी जिले में पाटी बोकराटा, निवाली, धनोरा व पानसेमल में तथा धार जिले के कुक्षी, डही क्षेत्रों में तथा अलीराजपुर जिले के सोण्डवा, ककराना, मथवाड़, शकरजा आदि क्षेत्रों में भी है।

इस प्रकार के मिश्रित वनों में सागौन नहीं होता या कम होता है तथा झिंगन, रोहन, कुल्लू, गलगल तथा पांगरा का अनुपात अपेक्षाकृत अधिक होता है। यहाँ अधोवन में खैर जैसी कंटीली प्रजातियों का प्रतिशत अधिक है। घटिया किस्म के बाँस केवल कुछ अप्रवेश्य तंग बेहड़ों में ही होते हैं, जहाँ वे फैल गए हैं। प्रतिवर्ष आग लगने से प्राकृतिक पुनरुत्पादन बहुत कम होता है। पिछले कुछ दशकों में मिट्टी का बहुत अधिक क्षरण होने से इन वनों में पुनरुत्पादन की सम्भावनाएँ भी कम हो रही हैं।

नर्मदा अंचल के वनों की जैवविविधता


नर्मदा अंचल जैवविविधता की दृष्टि से करोड़ों वर्षों से अत्यन्त समृद्ध रहा है। उस समय की सुखद पुरा जलवायु के कारण यहाँ रहने वाले नाना प्रकार के जीवाश्म मिले हैं जिनसे यहाँ की प्राचीन जैवविविधता की पुष्टि होती है। नर्मदा अंचल के आज के वन भी न केवल जैवविविधता की दृष्टि से समृद्ध हैं बल्कि कुछ मायनों में अद्वितीय भी हैं। यह क्षेत्र भारत में साल के वनों की दक्षिणी सीमा बनाता है। और यहाँ साल व सागौन के वन यहाँ एक साथ मिलते हैं अतः दोनों प्रकार के वनों की जैवविविधता यहाँ मिलती है। इसी प्रकार मिश्रित वनों में भी तरह-तरह की वनस्पतियाँ और जीव-जन्तु पाये जाते हैं।

इस अंचल में विशेषकर सतपुड़ा पर्वत श्रेणी के वनों में वन्य जैवविविधता की भरमार है। यह पूरा क्षेत्र प्राकृतिक सौन्दर्य, वनस्पतियों, वन्य प्राणियों और खनिजों की अपार सम्पदा से भरा पड़ा है। जैविक विविधता से परिपूर्ण सतपुड़ा तथा विंध्य पर्वत शृंखलाओं के पहाड़ नर्मदा घाटी को न केवल प्राकृतिक ऐश्वर्य बल्कि समृद्धि और पर्यावरणीय सुरक्षा भी प्रदान करते हैं। वन्य जन्तुओं की दृष्टि से भी यह पूरा अंचल काफी समृद्ध है।

नर्मदा के रहस्यमय अतीत की पुरा जैवविविधता


नर्मदा धरती की प्राचीनतम नदियों में से एक है। इसका अतीत बड़ा रहस्यमय है। यहाँ जीवन के क्रमिक विकास की पटकथा करोड़ों वर्षों की अवधि में लिखे जाने के दौरान जैवविविधता के अनेक रूप समय-समय पर प्रगट और विलुप्त हुए। नर्मदा घाटी में करोड़ों वर्ष पुरानी वनस्पतियों और जन्तुओं के जीवाश्म बड़ी संख्या में मिले हैं जिनसे यहाँ की पुरा जलवायु और तत्कालीन जैवविविधता का पता चलता है।

लगभग 6 करोड़ वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में अनेक भूकम्पों तथा भूगर्भीय उथल-पुथल के कारण पृथ्वी की सतह पर पिघले हुए गर्म लावा की सपाट परतें बिछ गईं और झील तथा जलाशयों के बीच की वनस्पतियों को खनिज पदार्थों से युक्त भूचालिक राख ने ढँक लिया। लाखों वर्षों में इन जन्तुओं तथा वनस्पतियों का पाषाणीकरण हो गया तथा लावा की परतों के बीच दब गए वृक्षों के तने फल-फूल, बीज, लताएँ व पत्तियाँ सबके सब ज्यों-के-त्यों कठोर होकर जीवाश्मों में परिवर्तित हो गए।

तत्कालीन वनों में पाई जाने वाली वनस्पतियों के जीवाश्मों की बहुतायत डिंडोरी जिले के शाहपुरा के निकट घुघुवा गाँव में पाई गई है जहाँ मध्य प्रदेश शासन द्वारा एक जीवाश्म राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना की गई है। इसी प्रकार घुघुवा में पाये गए पुष्पधारी पौधों के अनेक जीवाश्मों से कहीं अधिक पुराने अनावृतबीजी प्रजातियों के विशालकाय वृक्षों व अन्य वनस्पतियों के जीवाश्मों का जखीरा धार जिले में मनावर-जीराबाद के आस-पास के कई गाँवों में मिला है।

नर्मदा घाटी में पाये गए जन्तु जीवाश्मों में हाथी, घोड़े, हिप्पोपोटेमस व जंगली भैंसे के जीवाश्म के साथ-साथ सीहोर जिले के हथनौरा गाँव में पाये गए प्राचीन मानव के कपाल के अवशेष भी हैं। हथनौरा में नर्मदा के तट पर खुदाई से प्राप्त हुए मानव के कपाल का नाम ‘नर्मदा-कपाल’ अर्थात ‘नर्मदा-स्कलकैप’ रखा गया है तथा इस प्राचीन मानव को ‘नर्मदा मानव’ का नाम दिया गया है जिसे वैज्ञानिक मानव पूर्वज होमो इरेक्टस नर्मदेन्सिस (Homo erectus narmadensis) कहते हैं। हथनौरा के पास ही में ग्राम धांसी में नर्मदा के उत्तरी तट से प्राचीनतम विलुप्त हाथी (स्टेगोडॉन) के दोनों दाँत तथा ऊपरी जबड़े के अंश का जीवाश्म भी मिला है।

नरसिंहपुर नगर से 9 किमी दूर नर्मदा और शेर नदी के संगम के निकट भी प्राचीनतम पशुओं के अस्थि-जीवाश्म भारी संख्या में मिलने के साथ-साथ एक हाथी के मस्तक का जीवाश्म भी मिला है। जबलपुर के समीप नर्मदा की सहायिका गौर नदी के तट पर स्टेगोसॉरस नामक विशालकाय डायनोसोर के पीठ के एक काँटे का पाषाण में परिवर्तित खण्ड पाया गया है। जबलपुर में ही राजासॉरस नर्मदेन्सिस डायनोसोर के ऊपरी जबड़े का एक हिस्सा भी पाया गया था।

कुछ वर्ष पहले धार जिले में कुक्षी के निकट डायनोसोर के 104 अंडों के जीवाश्म पाये गए हैं जिन्हें 40-90 फुट आकार के शाकभक्षी सॉरोपोड के अंडे माना जा रहा है। धार जिले में ही लगभग 8 करोड़ साल पुराने सॉरोपोड की दो बड़ी फीमर हड्डियाँ भी पाई गई हैं। नर्मदा घाटी की परतदार चट्टानों के समग्र संग्रह में पिछले 1.7 अरब वर्ष से लेकर कुछ हजार वर्ष पहले तक के जीवों के अवशेष मिलते हैं। यहाँ वनस्पतियों में समुद्री, स्वच्छ जलीय और थलीय वनस्पतियाँ, आवृतबीजी-अनावृतबीजी, पुष्पधारी-पुष्परहित पौधे, झाड़ी से लेकर गगनचुम्बी अनावृतबीजी, शंकुधारी वृक्षों के जीवाश्म मिलते हैं।

नर्मदा अंचल में साल वन अमरकंटक, डिंडोरी तथा मण्डला के अतिरिक्त पचमढ़ी में भी पाये जाते हैं और एक मोटे अनुमान के अनुसार पूरे नर्मदा जलागम क्षेत्र में आने वाले वनों का लगभग 10 प्रतिशत साल वनों का है। सागौन वन यहाँ का एक प्रमुख वन प्रकार है और एक मोटे अनुमान के अनुसार नर्मदा जलागम में आने वाले कुल वनक्षेत्र का लगभग 35-40 प्रतिशत भाग इसी वर्ग का है। प्रमुख वृक्ष प्रजातियों की अधिकता के आधार पर नर्मदा के तीसरे प्रकार के वनों-मिश्रित वनों को भी सलई वन, खैर-सिस्सू वन, अंजन वन जैसे उप-प्रकारों में बाँटा जाता है।

जन्तुओं में समुद्री सीपी-शंख, जमीनी कीड़े-मकोड़ों से लेकर अनेक वन्य प्राणियों सहित दैत्याकार डायनासोरों के अनेक जीवाश्म भी मिले हैं। जीवाश्मों की इन खोजों से इस बात की पुष्टि होती है कि इस क्षेत्र में करोड़ों वर्ष पूर्व इन वनों में विशाल सरीसृपों का राज था। उपरोक्त पौराणिक तथा प्रागैतिहासिक विवरण से इन वनों के विविध पहलुओं पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। धार जिले में विभिन्न प्रकार की शार्क मछलियों के 5000 से अधिक दन्त जीवाश्मों का मिलना भी इस इलाके के रहस्यमय और रोमांचक अतीत पर प्रकाश डालता है। ये सभी जीवाश्म यहाँ की पुरा जैवविविधता के प्रमाण हैं। नर्मदा घाटी के विविध जीवाश्मों पर अधिक जानकारी के लिये लेखक की अन्य दुर्लभ, संग्रहणीय पुस्तक ‘प्रकृति के रहस्य खोलते नर्मदा घाटी के जीवाश्म, (2011)’पढ़ी जा सकती है जिसमें नर्मदा घाटी में पाये गए आज की वनस्पतियों और प्राणियों के लाखों-करोड़ों वर्ष पुराने जीवाश्मों पर नामचीन वैज्ञानिकों द्वारा शोधपरक मौलिक लेख प्रस्तुत किये गए हैं।

नर्मदा अंचल की वानस्पतिक विविधता


नर्मदा अंचल के वन विविध प्रकार की वनस्पतियों से आच्छादित हैं। इनमें अनेक औषधीय प्रजातियाँ भी सम्मिलित हैं। विन्ध्य तथा सतपुड़ा पर्वत श्रेणी के वनों में अनेक प्रकार की औषधीय वनस्पतियाँ मिलती हैं। विश्व प्रकृति निधि द्वारा संवेदनशील पारिस्थितिक अंचलों के वर्गीकरण में नर्मदा घाटी शुष्क पर्णपाती वन (Narmada Valley Dry Deciduous Forest) को एक विशिष्ट पहचान देते हुए इको रीजन कोड क्रं. IM 0207 आवंटित किया गया है। यह क्षेत्र रोजर्स और पवार (1988) द्वारा दिये गए जैविक-भू वर्गीकरण (Bio geographic classification) के जैवीय अंचल (Biotic province) 6E- सेंट्रल हाईलैण्ड्स (6E-Central Highlands) से मिलता जुलता है।

नर्मदा का उद्गम स्थल अमरकंटक तो अपनी प्रचुर और विशिष्ट वानस्पतिक जैवविविधता के लिये विख्यात है ही, नर्मदा बेसिन के मध्य में स्थित पचमढ़ी का पठार व छिंदवाड़ा जिले की पातालकोट घाटी भी समृद्ध वानस्पतिक विविधता के लिये जानी जाती है। अमरकंटक के वनों में अनेक प्रकार के औषधीय पौधों की भरमार है। यहाँ अन्य अनेक किस्म के वृक्षों, लताओं, कंद मूल, फल, फूल व नाना प्रकार के औषधीय पौधों के साथ-साथ परम्परागत भारतीय तथा चीनी उपचार पद्धति के अन्तर्गत नेत्र उपचार में अत्यन्त लाभदायक गुल-बकावली (Hedychiaum coronarium) का प्रसिद्ध पौधा भी मिलता है जिसके अर्क को आँखों के रोगों में, विशेषकर मोतियाबिन्द के इलाज में काफी प्रभावशाली बताया जाता है।

पचमढ़ी और छिंदवाड़ा में देलाखारी के पास पाया जाने वाला साल वन यहाँ की उल्लेखनीय विशेषता है। इस क्षेत्र की एक अन्य विशेषता यह है कि यहाँ मध्य प्रदेश के प्रमुख वन प्रकारों में से दो, साल तथा सागौन दोनों का मिलन स्थल निर्मित होता है। साल की विशेष उल्लेखनीय उपस्थिति के साथ-साथ पचमढ़ी क्षेत्र से लगभग 1200 वनस्पति प्रजातियाँ दर्ज की गई हैं जिनमें से कुछ प्रजातियों की प्रकृति हिमालय पर्वत की वनस्पतियों जैसी है जबकि कुछ अन्य पश्चिमी घाट के वनों जैसी। पचमढ़ी की वनस्पति में कुछ ऐसे विशिष्ट पौधे भी हैं जिनके वानस्पतिक कुल में वही एक प्रजाति है।

यहाँ पर कई दुर्लभ प्रकार के आर्किड्स, टेरीडोफाइट्स तथा औषधीय पौधे मिलते हैं। जीवित जीवाश्म कहे जाने वाले पौधे साइलोटम न्यूडम (Psilotum nudum) के प्राकृतिक अवस्था में मध्य प्रदेश में मिलने का एकमात्र स्थान यही है। ट्री फर्न साइथिया जाइजेन्टिआ (Cyathea gigantea) व अन्य कई दुर्लभ फर्न प्रजातियाँ भी यहाँ मिलती हैं। यहाँ दुलर्भ बाँस प्रजाति बेम्बूसा पॉलीमार्फा (Bambusa polymorpha) भी बोरी के वनों में पाई जाने वाली विशेषता है।

छिंदवाड़ा जिले में स्थित पातालकोट घाटी जैवविविधता की दृष्टि से नर्मदा घाटी का दूसरा अति समृद्ध क्षेत्र है। पठार की ऊँचाई से 300-400 मीटर गहराई में बसी हुई पातालकोट घाटी से नर्मदा की सहायक दूधी नदी निकलती है। यहाँ भारिया आदिम जनजाति के लोग रहते हैं। यहाँ साल, सागौन और मिश्रित तीनों प्रकार के वन पाये जाते हैं जिनमें 83 वानस्पतिक कुलों की 265 से अधिक औषधीय प्रजातियाँ मिलती हैं। इनमें से कई प्रजातियों के औषधीय गुणों पर अभी शोध भी नहीं हुई है। इस प्रकार नर्मदा अंचल के वनों में ज्ञात से कहीं अधिक संख्या में अज्ञात जड़ी-बूटियाँ पाई जाती हैं।

सतपुड़ा पर्वत श्रेणी की वन्य जैवविविधता सतपुड़ा पर्वत श्रेणी के वन न केवल जैवविविधता की दृष्टि से काफी समृद्ध हैं बल्कि कुछ मायनों में अद्वितीय भी हैं। उदाहरण के लिये भारत में साल (Shorea robusta) के सदाबहार वनों की दक्षिणी सीमा और सागौन (Tectona grandis) के वन यहाँ एक साथ मिलते हैं। ये वन हिमालय और पश्चिमी घाट के बीच में स्थित जैवविविधता से परिपूर्ण गलियारे जैसे हैं।

यहाँ अचानकमार से पेंच तक तथा सतपुड़ा-बोरी से मेलघाट तक फैले बाघ के 2 बड़े रहवास क्षेत्रों का भाग पड़ता है जिनमें अनेक प्रकार के दुर्लभ वन्यप्राणी और वनस्पतियाँ आज भी पाये जाते हैं। इन वनों में पाये जाने वाले अनेक औषधीय पौधे आज भी गाँवों की परम्परागत चिकित्सा पद्धति का महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इस प्रकार नर्मदा अंचल और विशेषकर इसका पूर्वी भाग अभी भी अपनी वानस्पतिक जैवविविधता की दृष्टि से काफी समृद्ध कहा जा सकता है।

नर्मदा अंचल की वन्यप्राणी विविधता


इस क्षेत्र में स्तनधारी वर्ग के वन्य प्राणियों की 76 प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिनमें बाघ, गौर (भारतीय बॉयसन), जंगली कृष्णमृग आदि सम्मिलित हैं। यहाँ 276 प्रजातियों के पक्षी भी मिलते हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ सरीसृपों, कीटों व अन्य जलीय व स्थलीय प्राणियों की प्रचुर विविधता है। विश्व प्रकृति निधि ने इस पारिस्थितिक अंचल को संकटापन्न की श्रेणी में रखा है। सतपुड़ा पर्वत श्रेणी के पूर्वी और मध्य खण्ड के वनों में वन्य जैवविविधता की भरमार है। इस अंचल को बाघ संरक्षण की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण क्षेत्र माना गया है। यह पूरा क्षेत्र प्राकृतिक सौन्दर्य, वनस्पतियों, वन्य प्राणियों और खनिजों अपार सम्पदा से भरा पड़ा है। जैविक विविधता से परिपूर्ण विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत शृंखला के पहाड़ नर्मदा घाटी को न केवल प्राकृतिक ऐश्वर्य बल्कि समृद्धि और पर्यावरणीय सुरक्षा भी प्रदान करते हैं।

वन्य जैवविविधता के संरक्षण के लिये स्थापित किये गए नर्मदा अंचल के कुल 12 वन्य प्राणी संरक्षण क्षेत्रों में से गुजरात के शूलपाणेश्वर अभयारण्य को छोड़कर शेष 11 मध्य प्रदेश में पड़ते हैं। मध्य प्रदेश में पड़ने वाले इन संरक्षित क्षेत्रों का क्षेत्रफल 5418.27 वर्ग किमी है जो नर्मदा बेसिन के कुल क्षेत्रफल का लगभग 5.5 प्रतिशत तथा प्रदेश के समस्त संरक्षित क्षेत्रों के कुल क्षेत्रफल का लगभग 30.2 प्रतिशत है। जैवविविधता के संरक्षण को मजबूती देने के लिये शासन द्वारा कुछ वर्ष पहले मध्य प्रदेश जैवविविधता बोर्ड का गठन किया गया है जो इस विषय पर कार्यरत है।

नीर नर्मदा का…


नर्मदा का नीर नर्मदा घाटी के वासियों के लिये अमृत जैसा है। नर्मदांचल के वन यहाँ की नदियों को साफ रखने में फेफड़ों व गुर्दों जैसे अन्दरूनी छन्नों सा काम करते हैं। अनगिनत खेतों व कारखानों से बहकर आने वाले जहरीले रसायनों को छानने और मिट्टी का कटाव रोककर जलाशयों में जाने वाले गाद पर अंकुश लगाने में भी नर्मदा घाटी के वनों की चमत्कारी भूमिका है। इसलिये नर्मदांचल में वनों का होना न होना इस पवित्र नदी के प्रवाह की निरन्तरता और जल की गुणवत्ता से सीधे-सीधे जुड़ा हुआ मुद्दा है। इन वनों के कमजोर होने से यदि नदियों के प्रवाह में कमी आ जाती है तो नर्मदा घाटी में विकास की राह में बड़े अवरोध पैदा हो जाएँगे। अपनी नदियों को न केवल जिन्दा बल्कि स्वस्थ भी रखना हो तो हमें नर्मदा घाटी के तार-तार होते वन आवरण को बचाना ही पड़ेगा। इसी मुद्दे की ओर ध्यान खींचता गीत।

कंकर में बसे शंकर, बूँदों में बसा जीवन;
भारत की कर्धनी सा है, शरीर नर्मदा का।
पानी न इसे समझो, ये बहती जिन्दगी है;
जीवन की धार जैसा, है नीर नर्मदा का।।

बूँदों की बाँध गठरी, हरियाली की चादर में;
जंगल खड़े हैं, झरनों और नदियों के आदर में।
बर्फीले हिमनदों का, मिलता नहीं सहारा;
है पर्वतों के जंगलों से, नर्मदा की धारा।
दक्षिण दिशा में, सतपुड़ा पर्वत की छटाएँ हैं।
उत्तर दिशा में विंध्य है, प्राचीर नर्मदा का।
पानी न इसे समझो, ये बहती जिन्दगी है;
जीवन की धार जैसा, है नीर नर्मदा का।।

खेतों से रसायन भी, नदियों में जा रहे हैं;
निर्मल प्रवाह को, जहरीला बना रहे हैं।
शहरों का मल भी, नालों से नदियों में जा रहा है;
आस्था का असर भी नदियों को मैला बना रहा है।
श्रद्धा भी पड़ रही है, नर्मदा के लिये भारी;
अब हो चला प्रदूषण, गम्भीर नर्मदा का।
पानी न इसे समझो, ये बहती जिन्दगी है;
जीवन की धार जैसा, है नीर नर्मदा का।।

हैं नर्मदा की सखियाँ, वनवासी अंचलों में;
इन सबके प्राण बसते हैं, पर्वत में जंगलों में।
जंगल मिटे तो, नदियों का जीना मुहाल होगा;
काँपेगी रूह सबकी, ऐसा वो हाल होगा।
नदियों को जिलाना हो तो, जंगल को बचाएँ हम;
अब तार-तार हो चला, ये चीर नर्मदा का।
पानी न इसे समझो, ये बहती जिन्दगी है;
जीवन की धार जैसा, है नीर नर्मदा का।।

कंकर में बसे शंकर, बूँदों में बसा जीवन;
भारत की कर्धनी सा है, शरीर नर्मदा का।
पानी न इसे समझो, ये बहती जिन्दगी है;
जीवन की धार जैसा, है नीर नर्मदा का।।


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युद्ध और शान्ति के बीच जल

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युद्ध और शान्ति के बीच जलHindiTue, 03/20/2018 - 18:11

प्रख्यात पानी कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह के वैश्विक जल अनुभवों पर आधारित एक शृंखला

विश्व जल दिवस, 22 मार्च 2018 पर विशेष


यह दावा अक्सर सुनाई पड़ जाता है कि तीसरा विश्व युद्ध, पानी को लेकर होगा। मुझे हमेशा यह जानने की उत्सुकता रही कि इस बारे में दुनिया के अन्य देशों से मिलने वाले संकेत क्या हैं? मेरे मन के कुछेक सवालों का उत्तर जानने का एक मौका हाल ही में मेरे हाथ लग गया। प्रख्यात पानी कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह, पिछले करीब ढाई वर्ष से एक वैश्विक जलयात्रा पर हैं। इस यात्रा के तहत वह अब तक करीब 40 देशों की यात्रा कर चुके हैं। यात्रा को 'वर्ल्ड पीस वाटर वाॅक' का नाम दिया गया है। मैंने राजेन्द्र सिंह से निवेदन किया और वह मेरी जिज्ञासा के सन्दर्भ में अपने वैश्विक अनुभवों को साझा करें और वह राजी भी हो गए। मैंने, दिनांक 07 मार्च, 2018 को सुबह नौ बजे से गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के कमरा नम्बर 103 में उनसे लम्बी बातचीत की। प्रस्तुत हैं राजेन्द्र सिंह जी से हुई बातचीत के कुछ महत्त्वपूर्ण अंश
जलपुरुष राजेन्द्र सिंह के साथ लेखक अरुण तिवारीजलपुरुष राजेन्द्र सिंह के साथ लेखक अरुण तिवारीइस वक्त जो मुद्दे अन्तरराष्ट्रीय तनाव की सबसे बड़ी वजह बनते दिखाई दे रहे हैं, वे हैं - आतंकवाद, सीमा विवाद और आर्थिक तनातनी। निःसन्देह, सम्प्रदायिक मुद्दों को भी उभारने की कोशिशें भी साथ-साथ चल रही हैं। स्वयं को राष्ट्रवादी कहने वाली ताकतें अपनी सत्ता को निवासी-प्रवासी, शिया-सुन्नी, हिन्दू-मुसलमान जैसे मसलों के उभार पर टिकाने की कोशिश कर रही हैं। ऐसे में यह कथन कि तीसरा विश्व युद्ध, पानी को लेकर होगा; आगे चलकर कितना सही साबित होगा?

पूरी दुनिया में वाटर वार की यह जो बात लोग कह रहे हैं; यह निराधार नहीं है। पानी के कारण अन्तरराष्ट्रीय विवाद बढ़ रहे हैं। विस्थापन, तनाव और अशान्ति के दृश्य तेजी से उभर रहे हैं। ये दृश्य, काफी गम्भीर और दर्द भरे हैं। पिछले कुछ वर्षों में पानी के संकट के कारण खासकर, मध्य एशिया और अफ्रीका के देशों से विस्थापन करने वालों की तादाद बढ़ी है।

विस्थापित परिवारों ने खासकर यूरोप के जर्मनी, स्वीडन, बेल्जियम पुर्तगाल, इंग्लैंड, फ्रांस, नीदरलैंड, डेनमार्क, इटली और स्विटजरलैंड के नगरों की ओर रुख किया है। अकेले वर्ष 2015 में मध्य एशिया और अफ्रीका के देशों से करीब 05 लाख लोग, अकेले यूरोप के नगरों में गए हैं। जर्मनी की ओर रुख करने वालों की संख्या ही करीब एक लाख है। जर्मनी, टर्की विस्थापितों का सबसे बड़ा अड्डा बन चुका है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, यूरोप के नगरों की ओर हुए यह अब तक के सबसे बड़े विस्थापन का आँकड़ा है।

गौर करने की बात है कि एक विस्थापित व्यक्ति, रिफ्यूजी का दर्जा हासिल करने के बाद ही सम्बन्धित देश में शासकीय कृपा के अधिकारी बनता है। अन्तरराष्ट्रीय स्थितियाँ ऐसी हैं कि विस्थापितों को रिफ्यूजी का दर्जा हासिल करने के लिये कई-कई साल लम्बी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। परिणाम यह है कि जहाँ एक ओर विस्थापित परिवार, भूख, बीमारी और बेरोजगारी से जूझने को मजबूर हैं, वहीं दूसरी ओर जिन इलाकों में वे विस्थापित हो रहे हैं; वहाँ कानून-व्यवस्था की समस्याएँ खड़ी हो रही हैं। सांस्कृतिक तालमेल न बनने से भी समस्याएँ हैं।

यूरोप के नगरों के मेयर चिन्तित हैं कि उनके नगरों का भविष्य क्या होगा? विस्थापित चिन्तित हैं कि उनका भविष्य क्या होगा? पानी की कमी के नए शिकार वाले इलाकों को लेकर भावी उजाड़ की आशंका से चिन्तित हैं। 17 मार्च को ब्राजील की राजधानी में एकत्र होने वाले पानी कार्यकर्ता चिन्तित हैं कि अर्जेंटीना, ब्राजील, पैराग्वे, उरुग्वे जैसे देशों ने 04 लाख, 60 हजार वर्ग मील में फैले बहुत बड़े भूजल भण्डार के उपयोग का मालिकाना अगले 100 साल के लिये कोका कोला और स्विस नेस्ले कम्पनी को सौंपने का समझौता कर लिया है। भूजल भण्डार की बिक्री का यह दुनिया में अपने तरह का पहला और सबसे बड़ा समझौता है। इस समझौते ने चौतरफा भिन्न समुदायों और देशों के बीच तनाव और अशान्ति बढ़ा दी है।

आप देखिए कि 20 अक्टूबर, 2015 को टर्की के अंकारा में बम ब्लास्ट हुआ। 22 मार्च को दुनिया भर में अन्तरराष्ट्रीय जल दिवस मनाया जाता है। 22 मार्च, 2016 को जब बेल्जियम के नगरों में वाटर कन्वेंशन हो रहा था, तो बेल्जियम के ब्रूसेल्स में विस्फोट हुआ। शान्ति प्रयासों को चोट पहुँचाने की कोशिश की गई। उसमें कई लोग मारे गए। 19 दिसम्बर, 2016 को बर्लिन की क्रिश्चियन मार्किट में हुए विस्फोट में 12 लोग मारे गए और 56 घायल हुए। यूरोपियन यूनियन ने जाँच के लिये विस्थापित परिवारों को तलब किया। ऐसा होने पर मूल स्थानीय नागरिक, विस्थापितों को शक की निगाह से देखेंगे ही। शक हो, तो कोई किसी को कैसे सहयोग कर सकता है?

विस्थापितों को शरण देने के मसले पर यूरोप में भेदभाव पैदा हो गया है। पोलैंड और हंगरी ने किसी भी विस्थापित को अपने यहाँ शरण देने से इनकार कर दिया है। चेक रिपब्लिक ने सिर्फ 12 विस्थापितों को लेेने के साथ ही रोक लगा दी। यूरोपियन कमीशन ने इन तीनों के खिलाफ का कानूनी कार्रवाई शुरू कर दिया है। ब्रूसेल्स और इसकी पूर्वी राजधानी के बीच, वर्ष 2015 के शुरू में ही सीरियाई विस्थपितों को लेकर लम्बी जंग चल चुकी है।

इटली और ग्रीक जैसे तथाकथित फ्रंटलाइन देश, अपने उत्तरी पड़ोसी फ्रांस और आॅस्ट्रेलिया को लेकर असहज व्यवहार कर रहे हैं। कभी टर्की और जर्मनी अच्छे सम्बन्धी थे। जर्मनी, विदेशी पर्यटकों को टर्की भेजता था। आज दोनों के बीच तनाव दिखाई दे रहा है। यूरोप के देश अब राय ले रहे हैं कि विस्थापितों को उनके देश वापस कैसे भेजा जाये। अफ्रीका से आने वाले विस्थापितों का संकट ज्यादा बढ़ गया है। तनाव और अशान्ति होगी ही।

इस तनाव और अशान्ति के मूल में पानी ही है। यह बात साबित करने के लिये आपके पास क्या तथ्य हैं?
यह साबित करने के लिये मेरे पास तथ्य-ही-तथ्य हैं। दक्षिण अफ्रीका के नगर केपटाउन के गम्भीर हो चुके जल संकट के बारे में आपने अखबारों में पढ़ा ही होगा। संयुक्त अरब अमीरात के पानी के भयावह संकट के बारे में भी खबरें छप रही हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्व जल विकास रिपोर्ट में आप जल्द ही पढ़ेंगे कि दुनिया के 3.6 अरब लोग यानी आधी आबादी ऐसी है, जो हर साल में कम-से-कम एक महीने पानी के लिये तरस जाती है। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि पानी के लिये तरसने वाली ऐसी आबादी की संख्या वर्ष 2050 तक 5.7 अरब पहुँच सकती है। 2050 तक दुनिया के पाँच अरब से ज्यादा लोग के रिहायशी इलाकों में पानी पीने योग्य नहीं होगा। मैं सबसे पहले यहाँ सीरिया के बारे में कुछ तथ्य रखूँगा।

आगे की बातचीत शृंखला को पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें

युद्ध और शान्ति के बीच जल - भाग दो

युद्ध और शान्ति के बीच जल - भाग तीन

युद्ध और शांति के बीच जल - भाग चार

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जलसंकट के भंवर में भारत

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जलसंकट के भंवर में भारतRuralWaterWed, 03/21/2018 - 12:56

जल संकटजल संकटलिओनार्दो दा विंची की एक उक्ति है-
पानी पूरी प्रकृति की संचालक शक्ति है।

लिओनार्दो कोई वैज्ञानिक नहीं थे। न ही वह कोई पर्यावरण विशेषज्ञ थे। वह पानी को लेकर काम करने वाले एक्सपर्ट भी नहीं थे।

वह इटली के विश्व विख्यात चित्रकार थे। उन्हें इतालवी नवजागरण का महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर माना जाता है।

लिओनार्दो का पानी से उतना ही सम्बन्ध था, जितना आम लोगों का होता है। मतलब नहाने-धोने व खाने-पीने का। हाँ, उनका पानी से एक और सम्बन्ध था। वह पेंटिंग्स करते थे तो रंगों को पानी में घोलकर कैनवास पर एक मायावी संसार रच देते थे।

यानी कि कैनवास पर सजने वाली उनकी बहुरंगी दुनिया में पानी एक महत्त्वपूर्ण तत्व था। इसके बिना उनकी पेंटिंग्स पूरी नहीं होती थी।

यह दीगर बात है कि उनकी पेंटिंग्स में प्रकृति का जितना कुछ चित्रण हुआ था, उसमें पानी की मौजूदगी नहीं के बराबर रही। ‘अर्नो वैली’ नाम की उनकी एक पेंटिंग, जो उन्होंने 21 साल की उम्र में बनाई थी में पेड़-पौधों के साथ पानी भी दिख जाता है। उनकी बाकी पेंटिंग्स में पानी का चित्रण शायद ही हो।

उनकी पेंटिंग्स में पानी की गैर-मौजूदगी के बावजूद इस बात को भला कौन झुठला सकता है कि पानी बिना वह कैनवास पर एक लकीर भी नहीं खींच पाते।

सम्भव है कि वहीं से उनमें यह विचार आया होगा कि पानी ही प्रकृति की संचालक शक्ति है।

यह एक अवैज्ञानिक व्यक्ति का मानना था जिसने न तो पानी को लेकर कोई शोध किया था और न ही जीवन विज्ञान की पढ़ाई की थी। लेकिन, पानी को लेकर उनका विचार विज्ञान की धरातल पर भी खरा उतरता है।

सचमुच, पानी के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। प्यास बुझाने से लेकर तमाम तरह की जरूरतें पूरी करने में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से पानी की भूमिका होती है। पूरे ब्रह्मांड का वजूद ही पानी पर टिका हुआ है।

हम-आप और पशु-पक्षी जिस ऑक्सीजन के सहारे जिन्दा रहते हैं, वह ऑक्सीजन भी हमें पानी से मिलता है। पेड़-पौधे जैव रासायनिक प्रक्रिया से पानी में मौजूद हाइड्रोजन व ऑक्सीजन को लेकर ऑक्सीजन का निर्माण करते हैं।

हम लोग रोज जो कुछ खाते हैं, वे अनाज से ही तैयार किये जाते हैं। अनाज खेत में ही उगाया जाता है और पानी बिना तो अनाज उग ही नहीं सकता है। जैसे हमें भोजन की जरूरत पड़ती है उसी तरह फसलों को पानी की जरूरत पड़ती है। सूखा पड़ने पर फसलें बर्बाद हो जाती हैं।

अपने देश में तो हाल के वर्षों में बुन्देलखण्ड, मराठवाड़ा समेत कई इलाकों में सूखे के चलते फसल खराब हो चुकी है और रोजी-रोटी के लिये किसानों का शहरों की तरफ पलायन बढ़ा है।

खेती के साथ ही मौसम में बदलाव भी पानी पर निर्भर है। पानी की उपलब्धता और उसकी हरकत से मौसम में बदलाव आता है। पानी वाष्प बनकर न केवल तापमान में फेरबदल करता है बल्कि हवा के बनने में भी मददगार होता है। पानी की वजह से ही मौसम में वैसी तब्दीली आती है, जो मानव जीवन के लिये जरूरी है।

मछली समेत दूसरे जलीय जीवों के लिये पानी जीवनरेखा है। रोचक तथ्य यह है कि ये जलीय जीव पानी के बिना जी नहीं पाते हैं और पानी मिलता है तो उसकी सफाई भी प्राकृतिक तरीके से कर दिया करते हैं।

पानी की किल्लत और अकाल (सूखा) ने बार-बार साबित किया है कि पानी का समुचित प्रबन्धन बेहद अहम है। दुनिया के इतिहास में अब तक 150 से ज्यादा बार सूखा पड़ चुका है जिसमें करोड़ों लोगों की मौत हो चुकी है।

ईसा पूर्व 26 में रोम में भीषण अकाल पड़ा था जिसमें 20 हजार लोगों की मौत हुई थी। सन 1097 में फ्रांस में आये अकाल ने 10 हजार लोगों को मौत की नींद सुला दी थी।

यही नहीं, रूस में सन 1601-03 में रूस में आये अकाल ने करीब 20 लाख लोगों की जान ले ली थी।

चीन ने तो कई बार अकाल का सामना किया। इतिहास बताता है कि सन 1810 से 1849 के बीच चीन में चार बार सूखा पड़ा था जिसने 4.5 करोड़ लोगों की जिन्दगी छीन ली थी।

इसी तरह सन 1850 से 1873 तक चीन में पड़े अकाल ने 6 करोड़ लोगों की जिन्दगी छीन ली थी। इसके बाद सन 1901 और सन 1911 में आये अकाल में 2.5 करोड़ लोगों को मौत हो गई थी।

उत्तर कोरिया में 1996 में आये अकाल में 2 लाख से अधिक लोगों की जान गई थी।

सूखा व अकाल ने भारत को बख्श दिया था, ऐसा नहीं है। सन 1344 से लेकर अब तक डेढ़ दर्जन से अधिक बार भारत सूखे का सामना कर चुका है। इनमें से सबसे भयावह अकाल सन 1896-1902 व सन 1943 में आया था जिनमें एक करोड़ से अधिक लोगों की मौत हो गई थी।

ये तो खैर हुई इतिहास की बातें। अब सवाल उठता है कि इन घटनाओं से हमनें क्या सीख ली है। शायद कुछ भी नहीं। पिछले दो-तीन दशकों में हमने पानी को बचाने की जगह उसे बर्बाद ही किया है।

संयुक्त राष्ट्र ने पानी की बर्बादी से उभरने वाले संकट को महसूस करते हुए 25 साल पहले यानी वर्ष 1992 में हर साल 22 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय जल दिवस मनाने का निर्णय लिया था।

इसके अन्तर्गत हर साल अलग-अलग थीम के साथ अन्तरराष्ट्रीय जल दिवस मनाया जाता है। इस साल का थीम है- पानी के लिए प्रकृति।

इससे पहले वर्ष 2017 में ‘पानी क्यों बर्बाद करें’, वर्ष 2016 में ‘बेहतर पानी, बेहतर काम’, वर्ष 2015 में ‘पानी व दीर्घकालिक विकास’ और वर्ष 2014 में ‘पानी व ऊर्जा’ के थीम पर अन्तरराष्ट्रीय जल दिवस का पालन किया गया था।

अन्तरराष्ट्रीय जल दिवस पालन करने का मुख्य उद्देश्य पानी को लेकर लोगों को जागरूक करना था ताकि पानी की बर्बादी रोकी जा सके। साथ ही यह भी लक्ष्य था कि हर व्यक्ति तक साफ पानी की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके।

भारत के सन्दर्भ में अगर देखें, तो पानी से सम्बन्धित तमाम तरह की समस्याएँ अभी भी मुँह बाये खड़ी हैं। करोड़ों लोग जहाँ साफ पानी से वंचित हैं, तो वहीं एक बड़ी आबादी गन्दा पानी पीकर बीमार हो रही है।

दूसरी तरफ, एक बड़े तबके तक पानी पहुँच ही नहीं रहा है। इन सबके बीच मौसम की अपनी गति है, जो कभी सूखा लेकर आती है तो कभी बाढ़। दोनों ही कारणों का सबसे ज्यादा असर गरीब लोगों पर पड़ रहा है।

द वाटर प्रोजेक्ट नामक संस्था की वेबसाइट पर छपे एक लेख के अनुसार भारत के करीब 10 करोड़ घरों में रहने वाले बच्चों को पानी नहीं मिल पाता है और हर दो में से एक बच्चा कुपोषण का शिकार है।

एक अनुमान के अनुसार देश की 7.6 करोड़ आबादी साफ पानी की पहुँच से दूर है। सरकारी आँकड़ों की मानें तो वर्ष 2013 तक देश की महज 30 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को साफ पानी मिल पाता था।

वहीं, वाटरएड की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत उन देशों की सूची में शामिल है, जहाँ रहने वाली एक बड़ी आबादी को साफ पानी नहीं मिलता है।

पानी की किल्लत को लेकर एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) ने भी चिन्ता जाहिर की है। एडीबी के अनुमान के मुताबिक वर्ष 2030 तक जल की कमी 50 प्रतिशत तक पहुँच जाएगी।

केन्द्र सरकार के आँकड़े भी बताते हैं कि भारत में जलसंकट विकराल रूप ले सकता है। केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार भारत को साल में 1100 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत पड़ती है।

मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2025 तक पानी की जरूरत 1200 बिलियन क्यूबिक मीटर और वर्ष 2050 तक 1447 बिलियन क्यूबिक मीटर के आँकड़े को छू लेगा। यानी वर्ष 2050 तक भारत के लोगों की प्यास बुझाने के लिये 1447 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत पड़ेगी क्योंकि तब तक देश की आबादी बढ़कर 140 करोड़ पर पहुँच जाएगी।

सवाल यह है कि भारत 1447 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की व्यवस्था कैसे करेगा।

दो वर्ष पहले यही महीना था जब महाराष्ट्र के लातूर में जलसंकट गहरा गया था। खेत में सिंचाई के लिये तो दूर लोगों को पीने के पानी के लाले पड़ गए थे। समस्या इतनी विकराल हो गई थी कि केन्द्र को वाटर ट्रेन भेजनी पड़ी थी।

लातूर में जलसंकट की मुख्य रूप से दो वजहें थीं - पहली वजह थी कमजोर मानसून और दूसरी वजह थी भूजल का बेइन्तहा दोहन। बुन्देलखण्ड को भी ऐसी ही समस्या से जूझना पड़ा था।अनुमान है कि वर्ष 2030 तक 40 फीसदी आबादी को पीने का पानी नहीं मिल पाएगा। इसका मतलब है कि भूजल का और ज्यादा दोहन किया जाएगा।

ग्राउंड वाटर रिसोर्सेज असेसमेंट की मानें, तो भारत के हर छठवें भूजल स्रोत का क्षमता से अधिक दोहन किया जा रहा है। ऐसे में और अधिक दोहन किये जाने से भूजल स्तर और भी नीचे जाएगा।

जलस्तर नीचे जाने से एक्वीफर में मौजूद हानिकारक तत्व मसलन आर्सेनिक और फ्लोराइड पानी के साथ बाहर आएँगे जिसे पीकर लोग बीमार पड़ेंगे।

जलसंकट होने की सूरत में सबसे पहले लोग पीने के पानी का जुगाड़ करेंगे, फिर सिंचाई के लिये पानी की तरफ ध्यान देंगे। इससे प्रत्यक्ष तौर पर खेती पर असर पड़ेगा जिससे उत्पादन घटेगा।

विश्व बैंक ने एक आकलन कर जलसंकट से सकल घरेलू उत्पाद पर पड़ने वाले असर को रेखांकित किया है।

विश्व बैंक ने कहा है कि जलसंकट बढ़ने से वर्ष 2050 तक मध्य अफ्रीका व पूर्वी एशिया का विकास दर 6 प्रतिशत तक घट सकता है।

विश्व बैंक की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जलसंकट बढ़ने से झड़प की घटनाएँ भी बढ़ेंगी और साथ ही खाद्यान्न के दाम में इजाफा होगा जिससे लोगों को आर्थिक मोर्चे पर भी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।

इस सम्बन्ध में विश्व बैंक के अध्यक्ष जिम योंग किम ने कहा है, ‘जलसंकट आर्थिक विकास व स्थायित्व के लिये बड़ा खतरा है और जलवायु परिवर्तन समस्या को और बढ़ा रहा है।’

इस संकट के मद्देनजर केन्द्र सरकार की ओर से कुछेक कदम जरूर उठाए गए हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उसका असर देखने को नहीं मिल रहा है। वर्ष 2013 में केन्द्र सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में जलापूर्ति के लिये 166000 करोड़ रुपए खर्च करने की योजना बनाई थी, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी जलसंकट बरकरार है।

पिछले साल नवम्बर में केन्द्र सरकार ने अगले तीन महीने में सिंचाई परियोजनाओं पर 80 हजार करोड़ रुपए खर्च करने की घोषणा की थी। इस योजना का जमीन पर आना अभी बाकी है।

इन सबके बीच कहीं-कहीं लोगों ने खुद पहल कर अपने और अपने आसपास की आबादी के लिये पानी की उपलब्धता सुनिश्चित की है और लोग उनसे प्रेरित भी हो रहे हैं। लेकिन, भारत जैसे विशाल देश में सरकार की सक्रिय भूमिका के बिना जलसंकट से मुक्ति सम्भव नहीं है।

जलसंकट के सन्दर्भ में आज से करीब 16 साल पहले डेवलपमेंट रिसर्च एंड कम्युनिकेशंस ग्रुप ने वाटर पॉलिसी एंड एक्शन प्लान 2020 तैयार किया था। इसमें जलसंकट से निपटने के लिये कई उपाय सुझाए गए थे। मसलन मौजूदा जलस्रोतों का समुचित प्रबन्धन, नदियों व जलाशयों का रख-रखाव, पानी की रिसाइकिलिंग व दोबारा इस्तेमाल, पानी की उपलब्धता और भविष्य में उसकी जरूरतों से सम्बन्धित ताजातरीन डेटा संग्रह, सतही व भूजल का प्रबन्धन आदि।

उक्त रिपोर्ट में पानी के घरेलू इस्तेमाल के लिये भी कई तरह के सुझाव दिये गए हैं, जिन्हें अमल में लाकर बेहतर जल प्रबन्धन किया जा सकता है।

इन सबके अलावा जो सबसे अहम बात है, वो यह है कि आम लोगों को खुद भी जागरूक होना होगा। उन्हें यह महसूस करना होगा कि पानी का इस्तेमाल वे ही कर रहे हैं, इसलिये इसका प्रबन्धन भी वे खुद करें और ईमानदारी से करें, ताकि इसकी बर्बादी न हो।

इसके अलावा बारिश के पानी को संग्रह कर उसका इस्तेमाल करने के लिये भी पहल करनी होगी, तभी जलसंकट से निपटा जा सकता है।

पानी हमें जीवन देता है, तो इसे बचाना भी हमारा दायित्व है।

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जल के लिये प्रकृति के आधार पर समाधान (Solution based on nature for water)

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जल के लिये प्रकृति के आधार पर समाधान (Solution based on nature for water)RuralWaterThu, 03/22/2018 - 13:40

विश्व जल दिवस, 22 मार्च 2018 पर विशेष


हम अपने परम्परागत जलस्रोत को भूलाते जा रहे हैंहम अपने परम्परागत जलस्रोत को भूलाते जा रहे हैंजल संकट का स्थायी तथा सहज समाधान केवल-और-केवल प्रकृति ही कर सकती है। प्रकृति ने हजारों सालों से पानी की सुगम उपलब्धता ही नहीं, पर्याप्तता बनाए रखी है। हमारा तत्कालीन समाज सदियों से प्रकृति के संग्रहित पानी का बुद्धिमत्ता और प्राकृतिक नीति-नियमों के अनुसार ही कम-से-कम जरूरत का पानी लेता रहा। उसने बारिश के संग्रहित पानी का दोहन तो किया लेकिन लालच में आकर अंधाधुंध शोषण नहीं किया।

प्रकृति ने हमें जीवित रखने के लिये पर्याप्त पानी दिया है लेकिन वह कभी भी मनुष्य को उसके शोषण की अनुमति नहीं देती। करीब पचास साल पहले जब से समाज ने पानी को अपने सीमित हितों के लिये अंधाधुंध खर्च कर पीढ़ियों से चले आ रहे समाज स्वीकृत प्राकृतिक नीति-नियमों की अनदेखी करना प्रारम्भ किया है, तभी से पानी की समस्या बढ़ती गई है। समाज ने यदि अब भी प्रकृति के आधार पर समाधान करने का प्रयास नहीं किया तो आने वाली पीढ़ी कभी पानी से लबालब जलस्रोतों को देख भी नहीं सकेगी।

इधर के कुछ सालों में हम पानी के मामले में सबसे ज्यादा घाटे में रहे हैं। कई जगहों पर लोग बाल्टी-बाल्टी पानी को मोहताज हैं तो कहीं पानी की कमी से खेती तक नहीं हो पा रही है। भूजल भण्डार तेजी से खत्म होता जा रहा है। कुछ फीट खोदने पर जहाँ पानी मिल जाया करता था, आज वहाँ आठ सौ से बारह सौ फीट तक खोदने पर भी धूल उड़ती नजर आती रहती है। सदानीरा नदियाँ अब दिसम्बर तक भी नहीं बहतीं। ताल-तलैया सूखते जा रहे हैं। कुएँ-कुण्डियाँ अब बचे नहीं या कम हो गए हैं।

बारिश का पानी नदी-नालों में बह जाता है और हम जमीन में पानी ढूँढते रह जाते हैं। लोग पानी के लिये जान के दुश्मन हुए जा रहे हैं। पानी के लिये पड़ोसी देश और पड़ोसी राज्य आपस में लड़ रहे हैं। कहा जाने लगा है कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिये हो सकता है।

पानी को किसी भी प्रयोगशाला में नहीं बनाया जा सकता। जल ही जीवन का आधार है। जल के बिना जीवन की कल्पना बेमानी ही है। कैसे सम्भव है कि पानी के बिना कोई समाज अपना अस्तित्व बचाए रख सकता है। पानी जीवन की अनिवार्यता है। पानी के बिना जीवन की धड़कन थम जाती है। प्यास दुनिया की सबसे बड़ी विडम्बना है और भारत के लिये तो और भी ज्यादा बड़ी।

जिस देश में कभी 'पग-पग नीर'की उक्ति कही जाती रही हो, वहाँ अब पानी की यह कंगाली हमें बहुत शर्मिन्दा करती है। कहा जाता है कि जल है तो कल है पर अब इसे एक सवाल की तरह देखा जाना चाहिए कि जल ही नहीं होगा तो कल कैसा? जीवन जल से ही सम्भव है, यह हमारे समाज के लिये एक बड़ा सवाल है और बड़ा खतरा भी। पर्यावरण की समझ रखने वाले लोगों को यह सवाल बड़े स्तर पर चिन्तित कर रहा है।

आज के समाज से पानी क्यों दूर होता चला गया, इसकी भी बड़ी रोचक कहानी है। ठीक उसी तरह जैसे सेठ के पास अकूत सम्पत्ति हो और उसी के बेटों को अपनी रोटी कमाने तक के लिये हाड़तोड़ मजदूरी करना पड़े। ठीक यही बात हमारे समाज पर भी लागू होती है कि कैसे हमने इधर कुछ ही सालों में पानी के अकूत भण्डारों को गँवा दिया और अब प्यास भर पानी के लिये भी सरकारों के भरोसे मोहताज होते जा रहे हैं।

प्रकृति ने हमें पानी का अनमोल खजाना सौंपा था, लेकिन हम ही सदुपयोग नहीं कर पाये। हमने दोहन की जगह शोषण करना आरम्भ कर दिया। हमने उत्पादन और मुनाफे की होड़ में धरती की छाती में गहरे-से-गहरे छेद कर हजारों सालों में संग्रहित सारा पानी उलीच लिया। नलों में पानी क्या आया, कुएँ-कुण्डियाँ पाट दीं। ताल-तलैया की जमीनों पर अतिक्रमण कर लिया। नदियों का मीठा पानी पाइप लाइनों से शहरों तक भेजा। बारिश का पानी नदियों तक पहुँचाने वाले जंगल चन्द रुपयों के लालच में काटे जाने लगे।

अब हर साल सूखा और जल संकट जैसे हमारी नियति में शामिल होते जा रहे हैं। साल-दर-साल बारिश के आँकड़े कम-से-कमतर होते जा रहे हैं। इस साल भी लगातार पाँचवें साल देश के कई हिस्सों में सूखा पड़ा है। इस साल भी 15 फीसदी से कम बारिश हुई है। 60 करोड़ किसान सूखे की मार से विचलित हैं।

देश के 20 करोड़ छोटे किसान खेती के लिये मानसून पर निर्भर होते हैं। कमजोर मानसून का प्रभाव देश की 60 फीसदी आबादी पर पड़ता है। जमीनी पानी लगातार गहरा होता जा रहा है। साल-दर-साल भूजल स्तर 3.2 फीसदी तक घट रहा है। तमाम जलस्रोतों के सूखने के साथ ही सदानीरा नदियों में भी अब पानी की कमी नजर आने लगी है।

नर्मदा जैसी नदियों में भी अब पानी की कमी हो जाती है। नदियों के कायाकल्प और उन्हें जिन्दा करने की कोशिशों पर अरबों रुपए खर्च होने के बाद भी कोई खास बदलाव कहीं नजर नहीं आता बल्कि वे और ज्यादा गन्दी होकर सिकुड़ती जा रही हैं।

संकट इसलिये भयावह होता जा रहा है कि बारिश कम होने लगी है। जमीनी पानी का भण्डार कम होता जा रहा है। बारिश का पानी जमीनी पानी के भण्डार तक पहुँचकर उसे बढ़ा नहीं पा रहा। धरती लगातार गरम होती जा रही है। उसका बुखार बढ़ता ही जा रहा है। इसके प्रभाव से कई पर्यावरणीय बदलाव हो रहे हैं। मौसम मनमाने तरीके से बदलने लगा है।

मौसम का अब न तो कोई निश्चित समय रहता है और न ही उसकी तीव्रता का कोई निर्धारित मापदण्ड। कभी कुछ इलाकों में जमकर बारिश होती है तो कहीं बिलकुल नहीं। देश के कुछ हिस्सों में बाढ़ तो ठीक उसी समय बाकी इलाके में सूखा। ओजोन परत में क्षरण का खतरा मँडराने लगा है। खेती में किसानों को नए-नए संकटों का सामना करना पड़ रहा है।

पेड़-पौधे लगातार कम होते जा रहे हैं। साल-दर-साल जंगल कम होते जा रहे हैं, जबकि नदियों तक पानी पहुँचाने में इन्हीं जंगलों का बड़ा योगदान होता है। जंगल कम होने तथा जंगलों में जलस्रोत सूखने का सीधा असर वन्य प्राणियों पर पड़ रहा है। गर्मी शुरू होते ही पानी के लिये वे जंगल से गाँवों और बस्तियों की तरफ आने लगते हैं। जंगलों के पोखर, नदी-नाले सूख जाने से उनके सामने पीने के पानी का संकट खड़ा हो जाता है। वन्य प्राणियों की तादाद घटने के पीछे भी वन्य प्राणी विशेषज्ञ जल संकट को बड़ा कारण मानते हैं।

इससे जैवविविधता को भी बड़ा संकट है। नर्मदा में कुछ सालों पहले तक 70 से ज्यादा प्रजातियों की मछलियाँ हुआ करती थीं, लेकिन मप्र में इस पर जगह-जगह बाँध बन जाने से अब महज 40 प्रजातियों तक ही सिमट गई है।

बाँध बन जाने से नर्मदा में कई जगह पानी काफी छिछला हो गया है तो कई जगह नगरीय निकायों का सीवेज का पानी मिलते रहने से नदी का पानी इतना प्रदूषित हो गया है कि इनमें मछलियाँ और अन्य जलीय जीव नहीं पनप पा रहे हैं। मप्र में राज्य मछली का दर्जा प्राप्त महाशीर मछली अब नर्मदा के पानी से लुप्त हो चली है। नदियाँ सूख रही हैं तो इसका असर जलीय जीवों की प्रजातियों के अस्तित्व पर इसका प्रभाव पड़ रहा है।

हजारों सालों से संग्रहित धरती का भूजल भण्डार अब चूकने की कगार पर है। कई जगह जमीनी पानी का जल स्तर 600 से एक हजार फीट तक गहरा चला गया है। धरती की छाती में छेद-पर-छेद करते हुए खेतों में लगातार ट्यूबवेल किये गए। खेती में पानी के लिये ट्यूबवेल को ही एकमात्र संसाधन मान लिया गया।

कुएँ और तालाब के परम्परागत स्रोत बिसरा दिये गए। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि हजारों सालों से जमीन के भीतर रिसकर इकट्ठा होने वाला भूजल भण्डार का पानी अंधाधुंध तरीके से उलीच लिया गया। बाद के दिनों में किसी ने भी जमीन के भीतर पानी रिसाने के बारे में न कभी गम्भीरता से सोचा और न ही कभी कोई ठोस काम जमीन पर हुआ।

बैंक खाते की तरह पूर्वजों का सहेजा पानी तो हमने इस्तेमाल कर लिया लेकिन हम उस खाते में कुछ भी जमा नहीं कर सके। इसलिये धीरे-धीरे वह पानी भी अब खत्म होने की कगार पर पहुँच गया है। अब किसानों पर पानी के लिये होने वाले खर्च का कर्ज इतना बढ़ गया है कि कई जगह आत्महत्याओं के मामले सामने आ रहे हैं। न ट्यूबवेल में पानी आ रहा, न फसलें ले पा रहे हैं, उल्टे कर्ज पर ब्याज बढ़ता जा रहा है।

पानी की कमी का असर मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है। पानी की कमी से कई इलाकों में लोगों को प्रदूषित पानी पीना पड़ता है। इससे उन्हें कई तरह की बीमारियाँ हो रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़े बताते हैं कि भारत में 9.7 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिल पा रहा है। खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में हालत बहुत चिन्ताजनक है।

देश में करीब 70 फीसदी लोग प्रदूषित पानी पीने को मजबूर हैं। प्रदूषित पानी में कई जगह फ्लोराइड, आर्सेनिक और नाइट्रेट जैसे घातक तत्व भी शामिल हैं। स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा करीब 80 फीसदी केवल जलजनित बीमारियों के लिये ही खर्च करना पड़ रहा है। हर साल करीब छह लाख से ज्यादा लोग पेट और संक्रमण की बीमारियों से ग्रस्त होकर दम तोड़ देते हैं। दस फीसदी पाँच साल की उम्र से छोटे बच्चे डायरिया दस्त से पीड़ित होकर मर जाते हैं।

देश में प्रतिव्यक्ति जल की उपलब्धता प्रति व्यक्ति एक हजार घन मीटर है, जबकि 1951 में यह तीन से चार हजार घन मीटर हुआ करती थी। यह जानना भी रोचक है कि 1951 से अब तक 65 सालों में जल संसाधन जुटाने के नाम पर खरबों रुपए का सरकारी धन भी खर्च हो चुका है और नतीजा यह कि पानी अब पहले के मुकाबले चौथाई ही रह गया। ऐसा क्यों हुआ, यह सब जानते हैं।

प्रकृति हमें हमेशा से ही सब कुछ देती रही है। साँस लेने के लिये हवा, पीने के लिये पानी, खाने के लिये पेड़-पौधे। उसकी इन अनमोल नेमतों का हमारे पूर्वज हजारों सालों से समझदारीपूर्वक उपयोग करते रहे हैं। प्रकृति का आवश्यक उपयोग भर ही दोहन करने से वे कई पीढ़ियों तक इसका लाभ लेते रहे लेकिन इधर के सालों में मनुष्य के लालच ने सारी सीमाएँ तोड़ते हुए इनके दोहन की जगह इनका शोषण करना प्रारम्भ कर दिया। इससे प्रकृति के नीति-नियम टूट गए. प्रकृति चाहती है उसके संसाधनों का हमारा समाज दोहन करे लेकिन कुछ नीति-नियमों और आचार संहिता में रहते हुए।

जब हम इन नियमों से परे जाकर दोहन की जगह शोषण करने लगते हैं तो फिर हमारे समाज को ऐसे ही कई संकटों का सामना करना पड़ता है। जल संकट इसका एक बड़ा रूप है लेकिन इससे कई बातें जुड़ती हैं। ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन, जंगल का घटना, जैवविविधता और वन्य प्राणियों की तादाद में कमी, खेती के संकट और सेहत पर असर आदि कई रूपों में सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय संकटों का सामना करना पड़ रहा है। आने वाले कुछ सालों में ये खतरे हमारे सामने और भी बड़ी चुनौतियों के रूप में दिखने लगेंगे।

पानी का मनमाना, अंधाधुंध और बेतरतीब दोहन ही नहीं हुआ है, हमने पानी को बाजार के उत्पाद की तरह व्यापार का हिस्सा बना लिया। बोतलबन्द पानी का व्यापार साल-दर-साल 15 से 20 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। अब हमें सिखाया जा रहा है कि शुद्ध और साफ पानी यानी बोतल का पानी। समाज में प्यासे को पानी पिलाना हमेशा से पुण्य और सामाजिक जिम्मेदारी रही है।

गर्मियों में कई स्थानों पर प्याऊ लगाई जाती थी। पर कुछ व्यवसायी मानसिकता के लोगों ने इसे भी बाजार में ला खड़ा किया है। जब हम किसी वस्तु को बाजार में ले आते हैं तो फिर हमेशा उसे मुनाफे के गणित से ही जोड़कर देखा जाता है। तालाबों और नदियों के प्रवाह क्षेत्र को तहस-नहस कर अतिक्रमण किये। रेत खनन करते हुए व्यापारी खनन माफिया बन बैठे।

प्राकृतिक नदी तंत्र को समझे बिना थोड़ी-सी बिजली या पानी के लिये बाँधना शुरू किया। बड़े बाँधों ने इनके पर्यावरणीय सरोकारों को नुकसान ही पहुँचाया है। नदियों का पानी पाइप लाइनों से पचास से डेढ़ सौ किमी तक पहुँचा दिया। नदी के आसपास जंगल बचे नहीं।

अपने पारम्परिक व प्राकृतिक संसाधनों और पानी सहेजने की तकनीकों, तरीकों को भुला दिया गया। स्थानीय रिवायतों को बिसरा दिया और लोगों के परम्परागत ज्ञान और समझ को हाशिए पर धकेल दिया। पढ़े-लिखे लोगों ने समझा कि उन्हें अपढ़ और अनपढ़ों के अर्जित ज्ञान से कोई सरोकार नहीं और उनके किताबी ज्ञान की बराबरी वे कैसे कर सकते हैं।

जबकि समाज का परम्परागत ज्ञान कई पीढ़ियों के अनुभव से छन-छनकर लोगों के पास तक पहुँचा था। समाज में पानी बचाने, सहेजने और उसके समझ की कई ऐसी तकनीकें मौजूद रही हैं, जो अधुनातन तकनीकी ज्ञान के मुकाबले आज भी मार्के की बात कहती है।

समाज और सरकारों ने व्यक्ति की बुनियादी जरूरत और जिन्दगी के लिये सबसे अहम होने के बाद भी पानी को कभी अपनी प्राथमिकता सूची में पहले नम्बर पर नहीं रखा। हमेशा इसके लिये शार्ट कट के रास्ते ही अमल में लाये गए। कभी इन पर समग्र और दूरगामी परिणामों को सोचते हुए निर्णय नहीं लिये गए। प्राकृतिक संसाधनों के पर्यावरणीय हितों की लम्बे समय तक लगातार अनदेखी की जाती रही। जल संकट का सामना करने के लिये दूर स्थित नदियों से पाइप लाइनों में पानी मँगवाया या धरती का सीना छलनी कर बोरिंग से हजारों साल से जमा हो रहे पानी के खजाने को उलीच डाला।

ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। ग्लेशियर पानी के पारम्परिक स्रोत रहे हैं और हिमालय से आने वाली गंगा सहित अन्य नदियाँ इन पर निर्भर हैं। सिर्फ नदियाँ ही नहीं इन पर आश्रित करीब 40 करोड़ से ज्यादा लोगों के पानी पर भी इसका बुरा असर पड़ सकता है। ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा खतरा बारिश पर होगा। बारिश की अनिश्चितता और भी बढ़ सकती है। यह जुड़ी है सीधे तौर पर हमारी खेती से। किसानों की आर्थिक दशा पहले ही खराब है और खेती अब फायदे का सौदा नहीं रहकर लगातार घाटे का सौदा होती जा रही है।

मध्य प्रदेश के मालवा जैसे पानीदार इलाके के शहरों और कस्बों में पीने का पानी तक नर्मदा से आ रहा है। यहाँ के उद्योगों को चलाने के लिये जरूरी पानी भी सवा सौ किमी दूर नर्मदा से आ रहा है। क्षिप्रा में कुम्भ स्नान के लिये भी नर्मदा का पानी क्षिप्रा में डाला जा रहा है। उधर पानी सहेजने के कुछ छोटे और खरे उपाय जैसे स्थानीय पारम्परिक जलस्रोतों को संरक्षित करने, बरसाती पानी के ज्यादा-से-ज्यादा उपयोग और इसमें संरचनाओं का निर्माण। नदी-नालों में छोटे बंधान और तालाब बनाने आदि में अब समाज और सरकार दोनों का विश्वास नहीं बचा।

समाज को हमने कभी जल साक्षर नहीं बनाया। नई पीढ़ी के लोगों का पानी के मामले में ज्ञान बहुत थोड़ा और सतही है। उन्हें नए समय की तकनीकों और किताबी ज्ञान का बोध तो है पर जीवन के लिये सबसे जरूरी पानी के इस्तेमाल और जरूरी खास जानकारी नहीं है। मसलन पानी कहाँ से आता है। पानी क्यों कम से कमतर होता जा रहा है। जमीनी पानी कैसे खत्म होता जा रहा है। बरसाती पानी को जमीन में रिसाना क्यों जरूरी है।

बरसाती पानी को कैसे सहेजा जा सकता है। नदियों और तालाबों के खत्म होते जाने के दुष्परिणाम क्या होंगे। इनके पानी के मनमाने दोहन का क्या और कितना बुरा असर पड़ेगा। हमें इन मुद्दों पर समझ बढ़ानी होगी। जल-जंगल और जमीन के आपसी सम्बन्धों को समझने की नए सिरे से कोशिश करनी होगी।

अकेले बड़ी लागत की योजनाएँ बना लेने या पानी के लिये हमेशा नदियों और जमीनी पानी पर निर्भर रहने भर से जल संकट का निदान सम्भव नहीं है। इस पर समूची दृष्टि से सोचने और शिद्दत से, पूरी गम्भीरता से सोच-समझ कर परम्परागत अनुभवजन्य ज्ञान को भी जोड़ते हुए इस पर काम करने की महती जरूरत है।

पानी के प्राकृतिक तौर-तरीकों को समझकर प्रकृति में ही इसका समाधान ढूँढने की कोशिश करनी होगी। बारिश के पानी के साथ प्राकृतिक जल संरचनाओं को सहेजने पर जोर देना होगा। जलस्रोतों और खासकर नदियों के अंधाधुंध दोहन की प्रवृत्ति को रोकना होगा। रेत खनन में भू-वैज्ञानिक समझ को बढ़ाना होगा। छोटी नदी परियोजनाओं पर जोर देकर भूजल भण्डार बढ़ाने की तकनीकें जमीनी स्तर पर अमल में आएँ। जंगलों और पेड़-पौधों को संरक्षित कर जल प्रदूषण पर कठोर कार्यवाही की जाये तो प्रकृति की नेमत का पानी हमें बरसों बरस तक लगातार मिलता रहेगा। जल संकट का प्राकृतिक समाधान ही बेहतर विकल्प है।

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केप टाउन का जलसंकट भारत के लिये भी सबक

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केप टाउन का जलसंकट भारत के लिये भी सबकRuralWaterThu, 03/22/2018 - 17:36

पानी के लिये कतार में खड़े केप टाउनवासीपानी के लिये कतार में खड़े केप टाउनवासीदक्षिण अफ्रीका की राजधानी केप टाउन बन्दरगाह, बाग-बगीचों व पर्वत शृंखलाओं के लिये मशहूर है।

यह एक खूबसूरत टूरिस्ट स्पॉट भी है, जो दुनिया भर के लोगों को अपनी ओर खींचता है।

यहाँ पहले जनजातियाँ रहा करती थीं। इस क्षेत्र में यूरोपियनों की घुसपैठ 1652 में हुई। चूँकि यह जलमार्ग से भी जुड़ता था, इसलिये इसे व्यापारिक केन्द्र के रूप में भी विकसित किया जाने लगा और धीरे-धीरे यह शहर दुनिया के सबसे सुन्दर शहरों में शुमार हो गया।

पर्यटकों का यह पसन्दीदा स्पॉट इन दिनों भयावह जल संकट से जूझ रहा है और हालात ये हैं कि लोग वहाँ से पलायन तक करने लगे हैं। जो वहाँ पर हैं, वे लम्बी कतारों में लगकर पीने लायक पानी ले रहे हैं।

पानी की घोर किल्लत को देखते हुए स्थानीय प्रशासन वहाँ पानी की सप्लाई पूरी तरह बन्द करना चाहता है, जिससे संकट और विकराल रूप ले लेगा।

फिलहाल वहाँ रहने वाले लोग नहाते वक्त शरीर पर पड़ने वाले पानी को बचा लेते हैं और उसका शौचालय में इस्तेमाल कर रहे हैं। हाथ धोने के लिये पानी की जगह हैंड सेनिटाइजर प्रयोग में लाया जा रहा है।

प्रशासन ने लोगों से अपील की है कि वे महज 90 सेकेंड में ही नहाने का कार्यक्रम खत्म करें और जितना हो सके पानी बचाएँ।

बताया जाता है कि पानी की किल्लत के मद्देनजर सरकार ने अप्रैल में पानी की सप्लाई बन्द कर देने की घोषणा की थी। लेकिन, लोगों में पानी के इस्तेमाल को लेकर जागरुकता बढ़ने के बाद अब जुलाई में पानी की सप्लाई रोकने का निर्णय लिया गया है।

पानी की सप्लाई रोकने के दिन को तकनीकी भाषा में डे जीरो कहा जाता है। ‘डे जीरो’ के दौरान नलों में पानी की सप्लाई पूरी तरह बन्द कर दी जाती है।

इमरजेंसी सेवाएँ देने वाले डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के फ्रेश वाटर मैनेजर क्रिस्टिन कोल्विन कहते हैं कि वह स्थिति भयावह होगी, जब लोग नल की टोटी खोलेंगे और उससे एक बूँद पानी नहीं गिरेगा।

पता चला है कि पाइप से पानी की सप्लाई करने की जगह केप टाउन प्रशासन शहर में पानी संग्रह के लिये 200 जल संग्रह केन्द्र बनाएगा और सुनिश्चित करेगा कि लोगों को कम-से-कम 25 लीटर पानी मिले।

मीडिया रपटों के अनुसार, फिलहाल केप टाउन का स्थानीय प्रशासन प्रति व्यक्ति रोज 50 लीटर पानी मुहैया करा रहा है। पानी के साथ ही कई तरह की हिदायतें भी दी जा रही हैं, ताकि पानी का बेहतर तरीके से इस्तेमाल किया जाये।

प्रशासन की तरफ से जारी दिशा-निर्देश में कहा गया है कि 50 लीटर पानी में से 10 लीटर कपड़े की सफाई के लिये 10 लीटर पानी नहाने के लिये, 9 लीटर बाथरूम में डालने के लिये, 2 लीटर मुँह व हाथ धोने के लिये, 1 लीटर घरेलू जानवरों के लिये, 5 लीटर घर की सफाई, 1 लीटर खाना बनाने के लिये, 3 लीटर पीने के लिये और बाकी पानी भोजन पकाने से पहले धोने के लिये इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

इस जल संकट ने कुछ लोगों को बचा-बचाकर पानी इस्तेमाल करने का हुनर सिखा दिया है।

सीएनएन की एक रिपोर्ट के अनुसार, केप टाउन में छुट्टियाँ मना रहे यूके निवासी ए. कोय आलू उबालने के बाद बचे हुए पानी को सम्भालकर रखते हैं ताकि दूसरी जगह उसका इस्तेमाल किया जा सके। कई स्थानीय निवासी पानी का कई बार इस्तेमाल कर रहे हैं।

स्थानीय निवासी एनी वर्विस्त ने सीएनएन को बताया कि वह नल का पानी हाथ धोने में प्रयोग करती हैं और उसी पानी को पौधे में डालती हैं। नल का पानी बिल्कुल भी पीने लायक नहीं है।वर्विस्त बताती हैं, ‘हालांकि वे (प्रशासन) कहते हैं कि पानी ठीक है, लेकिन बच्चे पानी पीने के बाद पेट में दर्द की शिकायत करते हैं।’

वर्विस्त समेत अन्य लोग न्यूलैंड्स स्प्रिंग से पानी लाते हैं। स्थानीय निवासी बताते हैं कि नल के पानी का स्वाद अजीब है, जिस कारण वह स्प्रिंग के पानी को तरजीह देते हैं।

चूँकि स्प्रिंग पानी का नया स्रोत बन गया है, इसलिये यहाँ भी लोगों की खूब भीड़ हो रही है। भीड़ को देखते हुए प्रशासन के पदाधिकारियों की वहाँ तैनाती की गई है, जो कतारों को व्यवस्थित कर रखते हैं ताकि झड़प की नौबत न आये।

केप टाउन प्रशासन अगले महीने तक स्प्रिंग की धार को स्वीमिंग पुल की तरफ मोड़ने की योजना बना रहा है, ताकि लोगों को तुरन्त पानी मिल जाये।

हालांकि, मीडिया रिपोर्ट यह भी बता रही है कि इस संकट की घड़ी में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो पानी को बचाने के लिये कोई जतन नहीं कर रहे हैं।

केपटाउन के मेयर पैट्रिक डी लिली ने सीएनएन को बताया कि जलसंकट से जूझने के बावजूद यहाँ के निवासियों ने पानी का बेहताशा इस्तेमाल करना नहीं छोड़ा है। अभी भी यहाँ 86 मिलियन लीटर पानी का इस्तेमाल हो रहा है, जो लक्ष्य से अधिक है।

पैट्रिक डी लिली ने आगे कहा, ‘यह अविश्वसनीय है कि ज्यादातर लोग अब भी पानी को लेकर संजीदा नहीं हैं और वे हमें डे जीरो की ओर धकेल रहे हैं।

जल संकट की सम्भावित वजहें


विश्व के आकर्षक शहरों में एक केप टाउन इन दिनों जलसंकट से जूझ रहा है, तो सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि यह नौबत आ गई।

सीएनएन के अनुसार, सदी के सबसे प्रभावशाली सूखे ने केप टाउन को अपनी जद में ले लिया है, जिससे जलसंकट बढ़ गया है। वहीं, यहाँ की जनसंख्या 40 लाख पर पहुँच गई है और दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। इन दो वजहों के अलावा तीसरी बड़ी वजह जलवायु परिवर्तन है।

केप टाउन शहर पर जल संकट का खतरा मँडरा रहा हैनेशनल जियोग्राफिक की रिपोर्ट में बताया गया है कि केप टाउन की जमीन पहाड़ी है जो गर्म समुद्री पानी से होकर आने वाली हवाओं को रोकती है। इससे बारिश होती है। बारिश ही नदियों को पानीदार बनाता है और भूजल स्तर को बरकरार रखता है।

यहाँ स्वीमिंग पूल और आलीशान होटल गुलजार हैं, जहाँ पानी का खूब इस्तेमाल होता है।

नेशनल जियोग्राफिक की उक्त रिपोर्ट के अनुसार पिछले दो दशकों में केप टाउन में पानी बचाने के लिये कई सराहनीय कदम उठाए गए और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी सराहना भी की गई।

लेकिन, कुछ गलतियाँ भी हुईं। केप टाउन के प्रशासन को लगा कि यहाँ बारिश उसी तरह होगी, जिस तरह पूर्व में हुआ करती थी। प्रशासन ने पुरानी समस्याओं को सुलझा लिया, लेकिन आने वाली दिक्कतों पर ध्यान नहीं दिया, जिसका परिणाम आज देखने को मिल रहा है।

बारिश नहीं होने के कारण रिजर्वायर का जलस्तर तेजी से गिरने लगा, जिससे आज केप टाउन जलसंकट के चक्रव्यूह में बुरी तरह घिर चुका है।

द गार्जियन में आई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि एक दशक पहले केप टाउन को आगाह किया गया था कि बढ़ती आबादी व जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम गर्म होगा और सर्दियों में बारिश औसत से कम हो जाएगी। इससे जलस्रोतों में पानी की कमी हो जाएगी।

इस गम्भीर चेतावनी की पूरी तरह अनदेखी कर दी गई।

बताया जाता है कि केप टाउन में पानी की सप्लाई पास के रिजर्वायर से होती है। पिछले कुछ सालों में देखा जा रहा है कि रिजर्वायर का जलस्तर काफी नीचे चला गया है, लेकिन एहतियाती कदम नहीं उठाया गया।

पलायन शुरू, आर्थिक संकट बढ़ने का अन्देशा


केप टाउन में जलसंकट से लोगों में खौफ भी बढ़ गया है। लोगों को लग रहा है कि डे जीरो उन्हें बूँद-बूँद के लिये तरसने को विवश कर देगा, इसलिये मुश्किल भरे दिन आये, इससे पहले लोग केप टाउन छोड़ देना चाहते हैं। जिनके पास पैसा और संसाधन है, वे केप टाउन छोड़ भी रहे हैं।

सीएनएन ने एक स्थानीय व्यक्ति के हवाले से लिखा है कि जो लोग समर्थ हैं, वे केप टाउन से बाहर जा रहे हैं। असल में ऐसा करने के पीछे एक विचार यह भी है कि इससे शहर पर बोझ कुछ कम हो जाएगा। हाँ, जिनके पास पैसे नहीं हैं, वे यहीं रहने को विवश हैं।

बताया जा रहा है कि केप टाउन में अब बोतलबन्द पानी की भी किल्लत होने लगी है। जिन स्टोरों में बोतलबन्द पानी मिलता है, उनका स्टॉक तुरन्त खत्म हो जा रहा है।

लोग स्टोर खुलने से पहले ही कतारों में लग जाते हैं ताकि बोतलबन्द पानी खरीदकर पी सकें।

स्थानीय लोगों का कहना है कि ऐसी स्थिति केप टाउन में पहले कभी नहीं देखी गई और यह आने वाली भयावहता का मजबूत संकेत है।

मीडिया रपटों में प्रशासन के हवाले से कहा जा रहा है कि डे जीरो के कारण आर्थिक बोझ बढ़ सकता है। द गार्जियन ने डिप्टी मेयर के हवाले से लिखा है कि शहर का बजट 40 बिलियन रियाद है। ऐसे में डे जीरो लागू करने से आर्थिक मोर्चे पर दिक्कत आ सकती है।

डिप्टी मेयर ने द गार्जियन को बताया है कि उनके लिये बड़ी चिन्ता यह है कि कहीं यहाँ की अर्थव्यवस्था औंधे मुँह न गिर जाये।

डिप्टी मेयर के अनुसार अर्थव्यवस्था पर असर का संकेत दिख रहा है, लेकिन यह किस पैमाने पर असर डालेगा, वह इस पर निर्भर है कि संकट कब तक जारी रहता है।

दूसरे शहरों में भी हो सकती है पानी की किल्लत


केपटाउन में गहराया जल संकट केवल वहीं तक महदूद रहेगा, ऐसा मानना बेवकूफी है। केप टाउन के अलावा भी कई ऐसे शहर हैं, जहाँ आज नहीं तो कल पानी की किल्लत बढ़ेगी।

कई शहरों में इसके संकेत दिखने भी लगे हैं। करीब दो करोड़ की आबादी वाले मैक्सिको शहर में दिन में एक नीयत वक्त पर ही पानी आता है। वहीं जिनके घरों में नल लगा है, उनके नलों में हफ्ते में कुछ घंटों लिये ही पानी की सप्लाई होती है।

मेलबॉर्न प्रशासन ने पिछले साल कहा था कि एक दशक के बाद शहर में पानी की कमी हो जाएगी।

जकार्ता भी जलसंकट से जूझ रहा है।


नेशनल जियोग्राफिक की रिपोर्ट बताती है कि केप टाउन की तरह ही ब्राजील के साओ पालो में भी रिजर्वायर का जलस्तर नीचे जा रहा है।

वर्ष 2015 में साओ पालो के रिजर्वायर का जलस्तर इतना नीचे चला गया था कि पाइप से मिट्टी निकलने लगी थी।

पानी की किल्लत के मद्देनजर पानी का ट्रक भेजा गया था जिसकी लूट हो गई थी। वहाँ स्थिति भयावहता की ओर जा रही थी, लेकिन गनीमत थी कि अचानक बारिश हो गई।

इन शहरों के अलावा लॉस एंजेलिस (अमेरिका), कराची (पाकिस्तान), नैरोबी (केन्या), ब्रिसबेन (ऑस्ट्रेलिया) समेत करीब दो दर्जन शहरों में जलसंकट का खतरा मँडरा रहा है।

क्या है समाधान


हालांकि मौजूदा संकट का समाधान तो बचा-बचाकर पानी के इस्तेमाल में ही है, लेकिन भविष्य में इस तरह की समस्याओं से दो-चार न होना पड़े, इसके लिये कुछ कदम जरूर उठाए जाने चाहिए।

सबसे पहले तो पानी के बेतहाशा इस्तेमाल को रोकने की जरूरत है, ताकि पानी की बर्बादी न हो। दीर्घावधि समाधान के लिये समुद्री जल से नमक हटाने वाले प्लांट लगाने होंगे।

हालांकि, प्लांट लगाने में अच्छी खासी पूँजी लगेगी और सम्भवतः इसी वजह से केप टाउन में अब तक ऐसा प्लांट स्थापित नहीं हो सका।

दूसरी बात यह है कि प्रशासन के लोग यह भी मानते हैं कि बारिश अगर सामान्य होने लगी, तो यह प्लांट की कोई उपयोगिता नहीं रहेगी और उल्टे रख-रखाव पर लाखों रुपए खर्च हो जाएँगे।

लेकिन, मौसम की अनिश्चितता को देखते हुए इस तरह की व्यवस्था जरूरी हो गई है। इसके अलावा भूजल स्तर को बरकरार रखने के लिये भी पहलकदमी करनी होगी।

केप टाउन का जलसंकट भारत के लिये भी सबक है, क्योंकि यहाँ भी कई क्षेत्रों में हाल के वर्षों में सूखे का कहर बरपा है।

यहाँ भी पानी की बेतहाशा बर्बादी हो रही है। अगर इसी तरह पानी की बर्बादी होती रही, तो वह दिन दूर नहीं जब भारत में भी कई केप टाउन तैयार हो जाएँगे।

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युद्ध और शान्ति के बीच जल - भाग दो

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युद्ध और शान्ति के बीच जल - भाग दोRuralWaterFri, 03/23/2018 - 14:38

(प्रख्यात पानी कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह के वैश्विक जल अनुभवों पर आधारित एक शृंखला)

सीरिया, दुष्काल के चंगुल में


जल संकटजल संकट20 से 25 अक्टूबर, 2015 को टर्की के अंकारा में संयुक्त राष्ट्र संघ का एक सम्मेलन था। यह सम्मेलन, रेगिस्तान भूमि के फैलते दायरे को नियंत्रित करने पर राय-मशविरे के लिये बुलाया गया था। चूँकि, अलवर, राजस्थान के ग्रामीणों के साथ मिलकर तरुण भारत संघ इस विषय में कुछ सफल कर पाया है; लिहाजा, मुझे वहाँ की नोट स्पीकर के तौर पर आमंत्रित किया गया था।मेरे भाषण के बाद सीरिया के एक वरिष्ठ अधिकारी मेरे पास आये और बोले - ''आपकी बात मेरे दिल के करीब है। किन्तु आपने अपने भाषण में सीरिया का नाम नहीं लिया। मैं चाहता हूँ कि आप मेरे देश आएँ।''

मैं तो दुनिया की धरती और पानी देखने ही निकला था। मैंने हाँ कर दी।

दुनिया के नक्शे के हिसाब से सीरिया दुनिया के मध्य-पूर्व में स्थित है। सीरिया की एक सीमा पर लेबनान, पूर्व में इराक, पश्चिम में मध्यान्ह सागर, उत्तर में टर्की, दक्षिण में जाॅर्डन और दक्षिण-पूर्व में इसराइल देश है। अब आप देखिए कि सीरिया की सभ्यता और खेती कितनी पुरानी है! सीरिया, सदियों से कृषि प्रधान राष्ट्र रहा है। आज सीरिया, अपने ही... खासकर खेतिहर नागरिकों से खाली होता देश है।

आज की बात करें तो सीरिया आज पश्चिमी एशिया में स्थित एक ऐसे देश के रूप में जाना जाता है, जो लम्बे समय से गृह युद्ध में फँसा हुआ है। पिछले साढ़े चार सालों के सैन्य युद्ध में सीरिया के तकरीबन ढाई लाख लोग मारे जा चुके हैं। मुझे बताया गया कि एक करोड़ से ज्यादा लोग दर-बदर हो गए हैं। इस दर-बदर आबादी में से मात्र 10 प्रतिशत यानी करीब 10 लाख लोगों को ही यूरोप आदि देशों में सुरक्षित शरण मिल पाई है। मैंने यह समझने की कोशिश की कि यह क्यों हुआ? लोग उजड़े तो उजड़े क्यों?

सामान्य तौर पर बताया जाता है कि सीरिया में उपद्रव की शुरुआत मार्च, 2011 में एक लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शन से हुई थी। सुरक्षा बलों द्वारा प्रदर्शनकारियों पर दागी गोलियों से हुईं मौतों को लेकर भड़के लोगों ने सीरिया के राष्ट्रपति के इस्तीफे की माँग को लेकर देशव्यापी प्रदर्शन किया था। उसी प्रदर्शन को दबाने की कोशिशें, सीरिया को गृह युद्ध के हालात में घसीट लाई। मीडिया में तो यही प्रोजेक्ट किया गया कि सीरिया से लोगों के पलायन का मूल कारण, गृह युद्ध के हालात हैं।

सीरिया के गृह युद्ध को आज शिया-सुन्नी मुद्दे रूप दे दिया गया है। लेकिन मैं आपको बताऊँ कि सीरिया के नागरिकों के व्यापक विस्थापन की सबसे पहली और बुनियादी वजह यह नहीं है; बुनियादी वजह है - पानी की कमी। पानी की भयानक कमी की वजह से सीरिया के गाँवों के लोग उजड़कर, सीरिया के नगरों में आये; दूसरे देशों में गए। सीरिया के गाँवों में आये संकट ने नगरों में अफरा-तफरी मचा दी। इससे गृह युद्ध के हालात बने।

यही सच्चाई है। आप देखिए कि आज, सीरिया की करीब 70 प्रतिशत आबादी पीने के पानी की कमी से जूझ रही है। जब पीने को पानी ही पर्याप्त नहीं, तो खेती कहाँ से हो? आज, सीरिया के करीब 20 लाख से ज्यादा लोग अपनी भूख का इन्तजाम नहीं कर पा रहे हैं। लगभग इतने ही यानी सीरिया में करीब 20 लाख बच्चे ऐसे हैं, जो स्कूल से बाहर हैं। हर पाँच में से चौथा आदमी, गरीब है। 15 अलग-अलग जगह विस्थापित लोगों में से चार लाख तो ऐसे हैं कि जो जीवन सुरक्षा के बुनियादी साधनों से महरूम हैं। यह सब क्यों हुआ? पानी की कमी की वजह से ही तो। विस्थापन की असली वजह यह है।

आप समझ लें कि पलायन और विस्थापन.. दो अलग-अलग स्थितियाँ होती हैं। पलायन होता है कि आप कमाने अथवा किसी अन्य मकसद से अपने मूल स्थान से दूसरे स्थान पर चले जरूर जाते हैं, लेकिन आपका अपने मूल स्थान पर आना-जाना बना रहता है। विस्थापन - वह स्थिति है कि जब पूरा परिवार का परिवार ही अपनी जड़ों से उजड़ जाएँ। जड़ों के प्रति संवेदनहीनता भी कभी-कभी विस्थापन कराती है, किन्तु विस्थापन अक्सर मजबूरी में ही होता है अथवा जबरन किया गया अथवा कराया गया होता है। इसीलिये बाँधों के निर्माण के कारण उजड़ने को विस्थापन कहते हैं, पलायन नहीं। सीरिया से विस्थापन हुआ।

आपने जानने की कोशिश की कि सीरिया में पानी की भयानक कमी का क्या कारण है?
हाँ, मैंने जानने की कोशिश की। मुझे वहाँ इफरेटिस (Euphrates) नदी को देखने को कहा गया। इफरेटिस को सीरिया में 'ददाद' कहते हैं। इफरेटिस- पश्चिम एशिया की सबसे लम्बी नदी है। मेसोपोटामिया सभ्यता से सम्बद्ध होने के कारण, यह एक ऐतिहासिक महत्त्व की नदी भी है। मैंने, इफरेटिस के टर्की स्थित स्रोत से यात्रा शुरू की। देखा कि टर्की ने इफरेटिस नदी पर अतातुर्क नाम का एक बहुत बड़ा बाँध बनाया है। इस बाँध ने इफरेटिस के पानी को पूरी तरह बाँध रखा था। अतातुर्क बाँध के आगे इफरेटिस नदी, एक तरह से खत्म ही दिखाई दी।

मुझे बताया गया कि सीरिया के बहुत बड़ी आबादी को अपनी खेती, मछली और रोजमर्रा की जरूरत के पानी के लिये, सदियों से इफरेटिस नदी का ही सहारा रहा है। मैंने खेत देखे; लोगों से बातचीत की तो पता चला कि नदी क्या बँधी, नदी किनारे के सीरियाई भू-भाग की खेती भी उजड़ी और लोग भी। हजार-दो हजार नहीं, लाखों की आबादी उजड़ी। उजड़ने वाले बगदाद गए; लेबनान गए; फिर ग्रीस, ग्रीस से टर्की गए।

टर्की से होते हुए जर्मनी, यू के, स्वीडन, नीदरलैंड, आॅस्ट्रिया, बेल्जियम और यूरोप के देशों तक पहुँचे। अकेले जर्मनी में पहुँचे विस्थापितों की संख्या करीब साढ़े 12 लाख हैं, फ्रांस और यू के में पाँच-पाँच लाख। स्वीडन में चार लाख तो बेल्जियम में ढाई लाख के करीब लोग आये हैं। आॅस्टिया में पहुँचने वालों की संख्या भी लाखों में है और यूरोप के 20 देशों में तो एक बहुत बड़ी आबादी पहुँची है। एक देश से उजड़कर बसने वालों की तादाद पूरी दुनिया में तेजी से बढ़ रही है।

गौर करने की बात है कि विस्थापित आबादी, सबसे ज्यादा यूरोप के नगरों में ही पहुँची है। इससे नगरों में बेचैनी बढ़ी है। मैंने जब पता किया कि विस्थापितों के एक स्थान से दूसरे स्थान भटकने के क्या कारण हैं? तो पता चला कि स्थानीय नागरिकों से तालमेल न बैठ पाना अथवा भूख का इन्तजाम न हो पाना तो था ही; रिफ्यूजी का दर्जा मिलने में होने वाली देरी और मुश्किल भी इसका एक प्रमुख कारण था।

क्या आपको किसी विस्थापित परिवार से मिलने का मौका मिला?
दिक्कत तो जरूर हुई, लेकिन हालात को समझने के लिये पिछले कुछ समय से मैं खुद चार विस्थापित परिवारों को लगातार ट्रैक कर रहा हूँ। खलील, अलाह, अहमद और यामीन। खलील और यामीन - फिलहाल, यूके डालटिंगटाॅन में हैं। अलाह और अहमद - यूके के टस्काॅन में हैं। इन चारों के परिवारों को तीन साल बाद रिफ्यूजी घोषित किया गया था।

खलील - सीरिया के बास्ते अही बियर कस्बे से आया है। खलील के विस्थापन से पूर्व, उसके कस्बे की आबादी एक लाख से ज्यादा थी; अब वहाँ 7000 ही बचे हैं। खलील के साथ-साथ इसके सात भाई और तीन बहनों को भी उजड़ना पड़ा। सारा परिवार बिखर गया। आइमान - जर्मनी में, कासिम, सलीम और सेमल - लेबनान में, जलाल - नार्वे में तो खलील और यामीन - यूके में हैं। 65 वर्ष की बहन इवा - सीरिया में पड़ी है। 54 साल की फातिमा और 44 साल की इमान तथा इनके परिवार लेबनान में हैं।

इस परिवार को सामने रखकर आप कल्पना कीजिए कि उजड़ने का दर्द कितना बड़ा और अपूर्णनीय हो सकता है। क्या कोई मदद... कितना ही बड़ा मुआवजा इस दर्द की भरपाई कर सकता है? नहीं। पहली बार जब मैं खलील से मिला तो उसके परिवार के भटकने की कहानी सुनकर और उनके रहन-सहन के हालात देखकर मेरी खुद की आँखें नम हो गईं। खलील ने बताया कि अपने कस्बे से उजड़कर जब लेबनान पहुँचा तो कैसे वहाँ उसकी पत्नी इका, दो बेटे और एक बेटी.. सभी बीमार पड़ गए थे; कैसे उनका मरने जैसा हाल हो गया था। लोग, उससे और उसके परिवार से नफरत करते थे। इसलिये उसे लेबनान छोड़ना पड़ा।

2017 में रिफ्यूजी घोषित होने के बाद से खलील और उसका परिवार यूके डालटिंगटाॅन में है। पता चला कि सुसी और सेक नामक दम्पत्ति ने यहाँ इनकी बहुत सेवा की है। अब वह वहाँ सुमाखा काॅलेज में सब्जियाँ बेचने उगाने का काम करता है। चार दिन पहले मिला, तो गले मिलकर खुशी से नाचने लगा।

अहमद - यामीन का बेटा है। यामीन, सीरिया की राजधानी का रहने वाला है। वहाँ से उजड़ने के बाद अब यूके डालटिंगटाॅन में है। वहीं पर नौवीं कक्षा में पढ़ता है।

अलाह - दोराह का रहने वाला है। अलाह को 2014 में ही घर छोड़ना पड़ा। पहले वह लेबनान गया; फिर करीब डेढ़ साल तुर्की में रहा। मल्टी बेस अपरलैंड में रहने के बाद अलाह करीब पाँच महीने तक डोम्सडोनिया में रहा। फिर फ्रांस के कैलेट शहर के जांगल में तीन दिन रहने के बाद अब वह टस्काॅन में है।

यामीन भी टस्काॅन में है। मैं आपको किस-किस के उजाड़ की कहानी बताऊँ? उजड़ने वाले परिवारों से मिलिए तो एहसास होता है कि पानी, भगवान का दिया कितना महत्त्वपूर्ण उपहार है! हमारी हवस और नासमझ करतूतों के कारण हमने पानी को उजाड़ और युद्ध का औजार बना दिया है। पानी, प्रकृति की अनोखी नियामत है। कोई इसे अपना निजी कैसे बता सकता है? अन्याय होगा तो तनाव और अशान्ति होगी ही।

अब देखिए कि सीरिया और इराक के हक का पानी न देने वाले टर्की का क्या हाल है।

 

इफरेटिस नदी पर कुछ अतिरिक्त जानकारी


इफरेटिस नदी को ग्रीक सभ्यता के समय की मूल पर्सियन भाषा में उफरातू (Ufratu) नाम से पुकारा जाता था। इसे, सुमेरी भाषा में बुरान्नुआ (Buranuna) अक्काडी में पुरात्तु (Purattu) अरबी में अल-फुरत  (Al Furat) हैं। इफरेटिस नदी को टर्की में फिरात (Firat) था सीरिया (Euphrates) पेरात (Perat) से सम्बोधित किया जाता है। अरमीनियाई उच्चारण - येपरात (Yeprat) है।


इफरेटिस - पश्चिम टर्की से उत्पन्न होती है। वह इसके बाद सीरिया और इराक से गुजरती है। करीब 145 से 195 किलोमीटर लम्बा शत्त अल अरब, इफरेटिस और टिगरिस नदी को पर्सियन गल्फ से मिलाता है। इफरेटिस नदी 3000 किलोमीटर की अपनी विशाल यात्रा में टर्की के 1230 किलोमीटर, सीरिया के 710 किलोमीटर और इराक के 1060 किलोमीटर लम्बे भू-भाग से होकर गुजरती है। इफरेटिस का जलग्रहण कितना विशाल है, इसका अन्दाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि इसके बेसिन में टर्की, सीरिया और इराक के अलावा सउदी अरब, कुवैत और ईरान भी आते हैं। वर्षा और ग्लेशियर पर आधारित होने के कारण विशेषकर अप्रैल से मई के बीच इफरेटिस में पानी बढ़ जाता है। सजुर, बालिख और खबर - सीरिया की तीन ऐसी नदियाँ हैं, जो इफरेटिस में मिलती हैं। कारा सु और मूरत नामक नदियाँ भी इफरेटिस की सहायक धाराएँ हैं।


इफरेटिस के यात्रा भू-भाग में पहाड़ भी हैं, मरुस्थल भी, ओक के जंगल भी, चारागाह भी तो खेती की समृद्ध भूमि भी। आपको जानकर खुशी होगी कि इफरेटिस नदी में मछलियों की करीब 34 प्रजातियों का खजाना रहता है।


इस नदी पर कई बाँध-बैराज हैं - इराक के हिंदिया बाँध, हादिथा बाँध और रामादी बैराज। इराक अपनी कई नहरों और झीलों के लिये इफरेटिस से ही पानी लेता है। सीरिया का तबका बाँध 1973 में बनकर पूरा हुआ। इसके बाद इफरेटिस नदी पर क्रमशः बांथ बाँध और तिशरिन नामक दो बाँध तथा इसकी सहायक धाराओं और उपधाराओं पर तीन छोटे बाँध बनाए। इफरेटिस पर टर्की का पहला बाँध - केबन बाँध 1974 में पूरा हुआ। दक्षिण-पश्चिम अंतोलिया परियोजना - टर्की द्वारा इफरेटिस और टिगरिस नदी बेसिन में करीब 22 बाँध बनाकर, 19 जलविद्युत परियोजनाओं को चलाने और करीब 17 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को सिंचित करने तथा पेयजल उपलब्ध कराने की योजना है। इस परियोजना के तहत टर्की ने अतातुर्क नामक एक ऐसा बाँध बनाया है, जो इफरेटिस में पीछे से आने वाले सारे पानी को रोकने की क्षमता रखता है। अतातुर्क बाँध की ऊँचाई - 184 मीटर और लम्बाई 1,820 मीटर बताई गई है।


अब देखिए कि इन बाँध, बैराजों ने मिलकर क्या किया? इफरेटिस के प्रवाह में 1970 में सीरिया और टर्की में बाँध निर्माण का कार्य शुरू होने के बाद से नाटकीय परिवर्तन आया। 1990 से पहले हिट नामक स्थान पर अधिकतम प्रवाह मात्रा जहाँ 7,510 क्युबिक मीटर प्रति सेकेंड थी, 1990 के बाद यह मात्र 2,514 क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड पाई गई; जबकि न्यूनतम प्रवाह मात्रा 55 क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड से घटने की बजाय, बढ़कर 58 क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड हुई है। गौर करने की बात है कि 1990 के बाद हिट नामक स्थान पर इफरेटिस के सामान्य प्रवाह में भी 356 क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड प्रतिवर्ष की गिरावट दर्ज हुई है। इसी तरह बाँध-बैराजों ने टिगरिस नदी के प्रवाह को भी दुष्प्रभावित किया।


विकिपीडिया पर दर्ज वर्ष 2016 का आँकड़ा यह है कि टर्की की दक्षिण-पश्चिम अंतोलिया परियोजना की वजह से 382 गाँवों के दो लाख लोग विस्थापित हुए। सबसे अधिक करीब 55, 300 लोगों का विस्थापन, अकेले अतातुर्क बाँध की वजह से हुआ। असाद झील में आई बाढ़ के कारण करीब 4000 हजार परिवारों को जबरन हटाया गया। सर्वे बताता है कि विस्थापित लोगों में से अधिकांश को न तो पर्याप्त मुआवजा मिला और न ही कोई स्थायी ठिकाना।


टर्की ने वर्ष 1984 में सीरिया को यह घोषणा की थी कि वह सीरिया के लिये इफरेटिस नदी में कम-से-कम 500 क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड अथवा 16 क्यूबिक किलोमीटर प्रति वर्ष की दर से पानी छोड़ेगा। 1987 में दोनो देशों के बीच संधि भी हुई। 1987 में सीरिया और इराक के बीच भी संधि हुई। उसके अनुसार, सीरिया को टर्की द्वारा छोड़े कुल पानी 60 प्रतिशत इराक में जाने देना था। जल बँटवारे को लेकर 2008 में एक संयुक्त त्रिदेशीय समिति बनी। 03 सितम्बर, 2009 को तीनों देशों के बीच पुनः सहमति हुई। लेकिन टर्की ने मूल नदी जल बँटवारा संधि (1987) का उल्लंघन करते हुए 15 अप्रैल, 2014 के बाद से इफरेटिस नदी के प्रवाह में कटौती करनी शुरू की और अपनी दादागीरी जारी रखते हुए 16 मई, 2014 को सीरिया और इराक के हिस्से का पानी छोड़ना पूरी तरह बन्द कर दिया।)

 

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युद्ध और शान्ति के बीच जल

युद्ध और शान्ति के बीच जल - भाग तीन

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बजट में खेतीबाड़ी पर फोकस किसानों में आयेगी खुशहाली

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बजट में खेतीबाड़ी पर फोकस किसानों में आयेगी खुशहालीHindiFri, 03/23/2018 - 14:52
Source
अमर उजाला, 23 मार्च 2018

उत्तराखण्ड के बजट में कृषि और पानी पर भी ध्यान दिया गयाउत्तराखण्ड के बजट में कृषि और पानी पर भी ध्यान दिया गयापाँच वर्षों के भीतर किसानों की आय दोगुनी करने के लिये सरकार ने आम बजट में कृषि और औद्यानिकी क्षेत्र पर फोकस किया है। प्रदेश के किसानों की तरक्की और कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिये बजट में नई योजनाओं की घोषणा की गई। उत्तराखंड को ऑर्गेनिक और हर्बल स्टेट बनाने के लिये 1500 करोड़ का प्रावधान किया गया। साथ ही कृषि के लिये 966.68 करोड़ एवं औद्यानिकी के लिये 311.23 करोड़ का अनुमानित बजट का प्रावधान सरकार ने किया है।पर्वतीय क्षेत्रों में ‘पर ड्रॉप-मोर क्रॉप’ के तहत किसानों को बेहतर सिंचाई की सुविधा दी जायेगी। इसके लिये बजट में 20 करोड़ की व्यवस्था की गई।

2022 तक किसानों की आय डबल करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिये सरकार ने वर्ष 2018-19 के बजट में खेती-बाड़ी को प्राथमिकता दी है। पहाड़ों में परती, बंजर भूमि, ग्राम पंचायतों की भूमि पर कृषिकरण कर किसानों की आमदनी बढ़ाने पर जोर है। पर्वतीय क्षेत्रों के 700 हेक्टेयर क्षेत्र में परम्परागत फसलों मंडुवा, सावां, गहथ, काला भट्ट, धान, मक्का, गेहूँ और मसूर आदि फसल के बीजों का उत्पादन करने कार्यक्रम चलेगा। साथ ही एकीकृत आदर्श कृषि ग्राम योजना के तहत प्रत्येक विकासखंड में एक गाँव को गोद लेकर मॉडल विलेज के रूप में विकसित किया जायेगा। कलस्टर आधारित योजना में चयनित गाँवों में कृषि, उद्यान, सब्जी, जड़ी-बूटी, पशुपालन, मशरूम पालन, मधुमक्खी पालन, डेरी रेशम, फल संरक्षण, प्रोसेसिंग कलेक्शन सेंटर आदि योजनाओं पर काम होगा।

पशुपालन और मत्स्य पालन पर जोर


सरकार ने बजट में पशुपालन व मत्स्य पालन के माध्यम से किसानों की आय बढ़ाने का फोकस किया है। पशुधन की क्षति-पूर्ति के लिये सरकार ने ‘पशुधन बीमा योजना’ शुरू की है। जिसमें एक पशुपालक के पाँच पशुओं या 50 छोटे पशुओं का बीमा किया जा रहा है। प्रदेश में इस वर्ष 12654 पशुओं का बीमा किया गया। डेयरी विभाग की ओर से ग्राम स्तर पर गठित 4060 दुग्ध सहकारी समितियों के 51750 दुग्ध उत्पादक सदस्यों द्वारा 180271 लीटर प्रतिदिन दुग्ध उत्पादन किया जा रहा है। जिसमें 46.87 लाख का दुग्ध मूल्य भुगतान प्रतिदिन हो रहा है। ‘गंगा गाय महिला डेरी योजना’ के तहत दुग्ध सहकारी समितियों की महिला सदस्यों को गाय खरीदने के लिये सहायता राशि दी जा रही है। बजट में गंगा गाय महिला डेरी योजना के अन्तर्गत 2000 महिला दुग्ध उत्पादकों को लाभान्वित करने का प्रावधान किया है।

बढ़ायेंगे मत्स्य पालकों की आय


सोलर पावर सपोर्ट सिस्टम की स्थापना कर मत्स्य पालन पर विद्युत पर हो रहे व्यय को कम कर मत्स्य पालकों की आय में वृद्धि दर्ज कराई जायेगी। मत्स्य प्रसंस्करण को विस्तारित करने के लिये वित्त मंत्री प्रकाश मंत्री ने मोबाइल फिश आउटलेट की स्थापना करने का प्रावधान किया है।

5000 प्राकृतिक जलस्रोतों को दिया जायेगा पुनर्जीवन


बजट में पेयजल विभाग के लिये 862.84 करोड़ की व्यवस्था की गई है। राज्य सरकार ने 2022 तक 5000 समस्याग्रस्त प्राकृतिक जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने और उनकी क्षमता को बढ़ाने का लक्ष्य तय किया है।

522 बस्तियों का पेयजल सुविधा उपलब्ध कराने की योजना थी। इसमें लक्ष्य के सापेक्ष जनवरी 2018 तक 401 बस्तियों में सुविधा पहुँचा दी गई है, शेष 121 बस्तियों को संतृप्त किये जाने की कार्रवाई गतिमान है। 1334 ग्रामीण पेयजल योजनाओं के जीर्णोद्धार एवं सुदृढ़ीकरण के लक्ष्य के सापेक्ष 1273 योजनाओं के जीर्णोद्धार एवं सुदृढ़ीकरण का कार्य जनवरी 2018 तक पूरा कर लिया गया है और शेष योजनाओं पर काम चल रहा है। नगरीय पेयजल के अन्तर्गत 35 योजनाओं के सापेक्ष जनवरी 2018 तक 25 नगरीय पेयजल योजनाएँ और चार जलोत्सारण योजनाएँ पूरी कर ली गई हैं।

कृषिविश्व बैंक, केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के बीच लगभग 975 करोड़ की योजना का अनुबन्ध हो चुका है और डीपीआर बनाई जा रही है। सभी नगरीय क्षेत्रों को सीवरेज से जोड़ने आच्छादित किये जाने के प्रयासों के अन्तर्गत हरिद्वार, ऋषिकेश, तपोवन, मसूरी एवं देहरादून में जलोत्सारण सुविधा के पूर्ण आच्छादन हेतु लगभग 840.00 करोड़ का प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजा गया, जिस पर जर्मनी की वित्तीय संस्था केएफडब्ल्यू से हरिद्वार, ऋषिकेश और तपोवन के लिये वित्त पोषण की सहमति बन गई है।

सिंचाई विभाग के लिये प्रावधान


1. सिंचाई विभाग के अन्तर्गत सौंग बाँध परियोजना के लिये 40 करोड़ की व्यवस्था।
2. नैनीताल झील के पुनर्जीवीकरण के लिये पाँच करोड़ की व्यवस्था
3. हरिद्वार और उत्तरकाशी में फ्लोड जोनिंग के लिये दो करोड़ की व्यवस्था
4. केन्द्र से 1 हजार करोड़ की बाह्य सहायतित परियोजनाओं पर शीघ्र स्वीकृति सम्भावित

नये जलाशयों का होगा निर्माण


सिंचाई विभाग प्रदेश में नये जलाशयों का निर्माण कर पेयजल की समस्या का समाधान करेगा। नाबार्ड की योजना के अन्तर्गत प्रदेश में सूर्यधार, कोलीढेक और थरकोट में जलाशयों के निर्माण की स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है। इससे जल संरक्षण और भूमिगत जलस्तर को नीचे जाने से रोकने में मदद मिलेगी। इस बात का उल्लेख प्रदेश के वित्त मंत्री प्रकाश पंत ने बजट भाषण में किया। उन्होंने जलागम, सिंचाई, लघु सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण के लिये बजट में 520.29 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि कोसी नदी पर बैराज के निर्माण से अल्मोड़ा शहर में पेयजल सम्बन्धी समस्या का समाधान हो चुका है। मुख्यमंत्री के निर्देश पर गैरसैंण में झील का निर्माण किया जा रहा है। नैनीताल झील के साथ-साथ प्रदेश की अन्य नदियों और झीलों का पुनर्जीवीकरण किया जायेगा। उन्होंने कहा कि जलागम विभाग के अन्तर्गत ‘प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना-समेकित जलागम प्रबन्ध कार्यक्रम’ के अन्तर्गत 1511 ग्राम पंचायतों के 2992 राजस्व गाँव लाभान्वित हो रहे हैं। इसके साथ ही विश्व बैंक वित्त पोषित उत्तराखंड विकेन्द्रीकृत जलागम विकास परियोजना-2 (ग्राम्या-2) के अन्तर्गत 1055 राजस्व गाँव लाभान्वित हो रहे हैं।

गाँव का विकास, बजट में खास


भराड़ीसैण। पर्वतीय क्षेत्रों में स्वरोजगार को बढ़ावा देकर पलायन रोकने के लिये सरकार ने बजट में गाँव के विकास पर फोकस किया है। प्रदेश के 1374 गाँवों को 1000 दिन के भीतर गरीबी मुक्त करने का लक्ष्य है। ग्राम्य विकास के लिये 2293 करोड़ रुपये बजट का प्रावधान किया गया। ग्रामीण महिलाओं की आजीविका बढ़ाने के लिये सघन विकास खण्ड रणनीति बनाई जायेगी। इसके लिया आगामी वित्तीय वर्ष में 106 करोड़ रुपये का बजट लक्ष्य रखा गया। पलायन की समस्या के समाधान के लिये सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के नये अवसर प्रदान करेगी। राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत आगामी आठ से 10 वर्षों में महिलाओं को आजीविका बढ़ाने की दिशा में सरकार काम करेगी। 2020 तक हर गाँव को सड़कों से जोड़ने के लिये सरकार ने प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के कार्यों में तेजी लाने को 30 करोड़ बजट का प्रावधान किया। शहरी क्षेत्रों से सटे गाँवों में हर प्रकार की सुविधाएँ देने के लिये श्यामा प्रसाद मुखर्जी रूरबन मिशन योजना में चयनित किया जायेगा। इसके लिये 20 करोड़ प्रस्तावित है। अन्त्योदय मिशन के माध्यम से राज्य के 1374 गाँवों को 2019 तक गरीबी मुक्त घोषित किया जायेगा।

पहाड़ से मैदान, किसान से मजदूर तक का बजट : सीएम


“मुझे खुशी है कि वित्तमंत्री ने एक ऐसा ऐतिहासिक और समावेशी बजट पेश किया है, जिसमें पहाड़ से मैदान तक, किसान से मजदूर तक, पर्यटन से पलायन रोकने तक सभी मुद्दों और तबकों का ध्यान रखा गया है। युवाओं को रोजगार देने, स्वरोजगार को बढ़ावा देने और महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण के प्रति हम गम्भीर हैं, इसका स्पष्ट रोडमैप भी बजट में दिखता है।”विधानसभा में पेश बजट पर मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए यह बात कही।

मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र ने कहा कि पहली बार राज्य के इतिहास में आम जनता की राय और सुझावों को लेकर बजट बनाया गया है। बजट के लिये लोगों की राय लेने के मकसद से ‘आपका बजट’ कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसके लिये उत्तरकाशी के गंगनानी में किसानों से लेकर पिथौरागढ़ में महिलाओं से सैकड़ों सुझाव मिले। देहरादून में छात्रों ने सुझाव दिये तो पंतनगर में उद्यमियों की राय जानी गई। सोशल मीडिया और ईमेल के जरिये भी बजट पर लोगों की राय माँगी गई थी। सीएम ने कहा कि जनता ने हमें 2000 से ज्यादा सुझाव बजट बनाने के लिये दिये। इन सुझावों में से अधिकतर सुझावों को बजट में शामिल किया गया है और जो सुझाव शामिल नहीं हो सके उन पर भविष्य में काम किया जायेगा। उन्होंने एक स्वस्थ समावेशी बजट पेश करने के लिये वित्तमंत्री को बधाई भी दी। साथ ही यह भरोसा भी दिलाया कि सरकार बजट में जो भी संकल्प लेकर चल रही है, उसको जमीन पर उतारने का भरसक प्रयास किया जायेगा। बजट के माध्यम से सरकार ने आउटकम बेस्ड परफॉर्मेंस को बढ़ावा दिया है।

आशा कार्यकरमियों/ए.एन.एम. के लिये दुर्घटना बीमा योजना, सरकारी सार्वजनिक भवनों को दिव्यांगों के लिये सुगम बनाने, कामकाजी महिलाओं के लिये क्रेच योजना को मजबूत करना, जैविक कृषि को प्रोत्साहित करने, कलस्टर आधारित खेती को बढ़ावा देने, हार्टी टूरिज्म जैसी कई योजनाएँ इस बजट में शामिल की गई हैं, जो जनभावना के अनुरूप हैं और राज्य के समग्र विकास में बड़ा योगदान देंगी। बजट के केन्द्र में खेती, किसान, उद्यान, जैविक कृषि, जड़ी-बूटी, कृषि, होम-स्टे जैसे क्षेत्रों को स्थान दिया गया है जो प्रदेश के सर्वांगीण विकास के लिये मील का पत्थर साबित होंगी। बजट में राजकीय विद्यालयों में बुक बैंक, जनपदों में आईसीयू/ट्रॉमा/ब्लड बैंक की स्थापना का प्रावधान स्वागत योग्य है। जनता की भावनाओं के अनुरूप गैरसैंण में प्रथम बार आयोजित पूर्ण बजट सत्र का यह बजट एक नये प्रगतिशील, समृद्ध उत्तराखंड का मार्ग प्रशस्त करेगा।

700 करोड़ की बागवानी विकास परियोजना दो सत्रों में पूरी होगी


विश्व बैंक सहायतित 700 करोड़ की एकीकृत बागवानी विकास परियोजना को प्रदेश में दो चरणों में पूरा करने का लक्ष्य रखा गया। औद्यानिकी फसलों पर पोस्ट हार्वेस्टिंग को कम करने के लिये सरकार कोल्ड चेन योजना को बढ़ावा देगी। इससे किसानों को मार्केटिंग सुविधा के साथ स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा। नर्सरी स्थापना, फल-सब्जी, मसाला, पुष्प उत्पादन के क्षेत्र बढ़ाकर संरक्षित खेती के लिये किसानों को प्रोत्साहित किया जायेगा। उद्यान विभाग के चयनित उद्यानों को सरकार हार्टि टूरिज्म के रूप में विकसित करेगी। पहले चरण में पंडित दीनदयाल उपाध्याय उद्यान चौबटिया व राजकीय उद्यान धनोल्टी को प्रस्ताव तैयार किया गया।

सगंध पौधों की खेती


सगंध पौधों की सफल खेती के लिये आगामी वित्त में कलस्टर आधारित सगंध खेती का बजट में प्रावधान किया गया। इससे किसानों की आय बढ़ने के साथ भूमि क्षरण, प्राकृतिक जलस्रोत रिचार्ज होंगे। 800 हेक्टेयर क्षेत्र में सगंध खेती कर 3000 हजार किसानों को जोड़ने का लक्ष्य है। पौड़ी के पीड़ा गाँव में सगंध फार्मिंग का मॉडल एरोमा कलस्टर शुरू किया गया।

खेती-किसानी के लिये अन्य प्रावधान


1. मौसम आधारित फसल बीमा योजना में शामिल होंगे व्यावसायिक फसलें
2. हार्टि टूरिज्म के रूप में विकसित होंगे औद्यानिक उद्यान
3. 800 हेक्टेयर क्षेत्र में सगंध खेती कर 3000 किसानों को जोड़ने का लक्ष्य
4. प्रत्येक विकासखण्ड में आईएमए विलेज नाम से विकसित होगा आदर्श गाँव
5. 3.16 लाख हेक्टेयर बंजर भूमि को खेती-बाड़ी के अधीन लाने का लक्ष्य
6. आधुनिक कृषि के लिये 300 फार्म मशीनरी बैंक स्थापित होंगे।
7. गंगा गाय महिला डेरी योजना में 2000 महिला दुग्ध उत्पादकों को मिलेगा लाभ

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अब गन्ना एवं चीनी आयुक्त ने भी माना कि कोरॉजन के प्रयोग से गन्ना किसानों को होगा नुकसानPrimary tabsView(active tab)EditTrackVisitors Submitted by kisanhelp on 5 April, 2018 - 17:45अब गन्ना एवं चीनी आयुक्त ने भी माना कि कोरॉजन के प्रयोग से गन्ना किसानों को होगा नुकसानकिसान हेल्प के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ.आर.के. सिंह ने जो बात 4अक्टूबर 2015 को अपने के किसान जागरूपता अभियान में कही आज वही बात उत्तर प्रदेश के गन्ना एवं चीनी आयुक्त श्री संजय आर. भूसरेड्डी ने कही । डॉ.आर.के. सिंह ने कोराजन को जीवन और जमीन दोनों के लिए घातक बताया था ।उन्होंने कोराजन से होने वाले नुकसान तथा कुछ किसानों के प्रत्यक्ष प्रमाण भी दिय जिन्होंने अपनी जमीन को सुधारने के लिए डॉ.आर.के.सिंह से सलाह ली और कोराजन के दुष्प्रभाव से बचाया । किसान अपनी फसल में कोरॉजन कीटनाशक के प्रयोग से बचें, कोरॉजन कीटनाशक के अधिक प्रयोग से किसानों को आर्थिक नुकसान के साथ-साथ मृदा स्वास्थ्य को भी नुकसान होगा।' यह सलाह उत्तर प्रदेश के गन्ना एवं चीनी आयुक्त संजय आर. भूसरेड्डी ने गन्ना किसानों को दी है।उन्होंने आगे बताया, 'विभिन्न संस्थानों की वैज्ञानिक रिपोर्ट के अनुसार कोरॉजन कीटनाशक का इस्तेमाल केवल दीमक एवं कंसुआ और टॉप बोरर नियंत्रित करने के लिए किया जा सकता है। ऐसे में कंपनी को गलत प्रचार के लिए नोटिस दिया जाएगा।'उन्होंने बताया, 'कोरॉजन कीटनाशक कंपनी DuPont विभिन्न प्रचार माध्यमों से गन्ने की फसल के अधिक पैदावार के सम्बन्ध में झूठा प्रचार कर रही है। ऐसे में गन्ने की फसल में लगने वाले कीटों में नियंत्रण के लिए अत्यधिक कीटनाशकों के असंतुलित प्रयोग से किसान बचें।'भूसरेड्डी ने गन्ना किसानों को सलाह देते हुए कहा, 'कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार फसल वर्ष में एक ही बार कोरॉजन का प्रयोग फसल में करना बेधक कीटों पर नियंत्रण के लिए काफी है क्योंकि इस कीटनाशक का प्रभाव काफी समय तक रहता है। ऐसे में किसानों को इसका अधिक प्रयोग नहीं करना चाहिए।'उन्होंने कहा, 'यह कीटनाशक काफी घातक श्रेणी का रसायन है, जिसका फसल की मिट्टी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।' बता दें कि किसानों को कोरॉजन कीटनाशक को प्रचार के जरिए बताया जा रहा है कि कोरॉजन के प्रयोग से गन्ना अधिक मोटा और लंबा होता है और यह लगातार बढ़ता रहता है। कोरॉजन एक महंगा कीटनाशक है।भूसरेड्डी ने गन्ना किसानों को सलाह देते हुए कहा, 'कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार फसल वर्ष में एक ही बार कोरॉजन का प्रयोग फसल में करना बेधक कीटों पर नियंत्रण के लिए काफी है क्योंकि इस कीटनाशक का प्रभाव काफी समय तक रहता है। ऐसे में किसानों को इसका अधिक प्रयोग नहीं करना चाहिए।'उन्होंने कहा, 'यह कीटनाशक काफी घातक श्रेणी का रसायन है, जिसका फसल की मिट्टी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।' बता दें कि किसानों को कोरॉजन कीटनाशक को प्रचार के जरिए बताया जा रहा है कि कोरॉजन के प्रयोग से गन्ना अधिक मोटा और लंबा होता है और यह लगातार बढ़ता रहता है। कोरॉजन एक महंगा कीटनाशक है।डॉ.आर.के. सिंह ने गन्ना एवं चीनी आयुक्त संजय आर. भूसरेड्डी को धन्यवाद दिया उन्होंने कहा यह मुहीम हम 2015 से प्रयास कर रहें हैं आपने हमारी मुहिम को तेजी दी है हमें आशा है कि किसान अब कोराजन जैसी कम्पनी के गलत प्रभाव से बचेंगे। साथ ही उन्होंने सरकार से कोराजन पर तत्काल प्रतिबन्ध की बात कही ।अब गन्ना एवं चीनी आयुक्त ने भी माना कि कोरॉजन के प्रयोग से गन्ना किसानों को होगा नुकसानhttp://goo.gl/zdpSrm

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एक थीं गौरा देवी

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एक थीं गौरा देवीHindiMon, 03/26/2018 - 17:12
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अपना उत्तराखंड

चिपको आन्दोलन की 45वीं वर्षगाँठ पर विशेष


चिपको आंदोलन की जननी गौरा देवीचिपको आंदोलन की जननी गौरा देवीउत्तराखंड को जन आन्दोलनों की धरती भी कहा जा सकता है, उत्तराखंड के लोग अपने जल-जंगल, जमीन और बुनियादी हक-हकूकों के लिये और उनकी रक्षा के लिये हमेशा से ही जागरुक रहे हैं। चाहे 1921 का कुली बेगार आन्दोलन, 1930 का तिलाड़ी आन्दोलन हो या 1974 का चिपको आन्दोलन, या 1984 का नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन या 1994 का उत्तराखंड राज्य प्राप्ति आन्दोलन, अपने हक-हकूकों के लिये उत्तराखंड की जनता और खास तौर पर मातृ शक्ति ने आन्दोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। चिपको आंदोलन की जननी गौरा देवी के बारे में बता रहे हैं शेखर पाठक।

जनवरी 1974 में जब अस्कोट-आराकोट अभियान की रूपरेखा तैयार हुई थी, तो हमारे मन में सबसे ज्यादा कौतूहल चिपको आन्दोलन और उसके कार्यकर्ताओं के बारे में जानने का था।

1973 के मध्य से जब अल्मोड़ा में विश्वविद्यालय स्थापना, पानी के संकट तथा जागेश्वर मूर्ति चोरी संबंधी आन्दोलन चल रहे थे; गोपेश्वर, मंडल और फाटा की दिल्ली-लखनऊ के अखबारों के जरिये पहुँचने वाली खबरें छात्र युवाओं को आन्दोलित करती थीं लेकिन तब न तो विस्तार से जानकारी मिलती थी, न ही उस क्षेत्र में हमारे कोई सम्पर्क थे।

हम लोग कुमाऊँ के सर्वोदयी कार्यकर्ताओं को भी नहीं जानते थे। सरला बहन का जिक्र सुना भर था, भेंट उनसे भी नहीं थी। हममें से अनेक भावुक युवा इस हलचल से एक गौरव-सा महसूस करते थे पर प्रेरणा के स्रोतों के बावत ज्यादा जानते न थे। तब सिर्फ सुन्दरलाल बहुगुणा, कुंवर प्रसून तथा प्रताप शिखर से शमशेर बिष्ट और मेरी मुलाकात हुई थी।

1974 के अस्कोट आराकोट अभियान के समय हमारी मुलाकात चमोली के चिपको कार्यकर्ताओं में शिशुपाल सिंह कुँवर तथा केदार सिंह रावत से ही हो पाई थी। अगले 10 सालों में हम लोग उत्तराखंड के छोटे-बड़े आन्दोलनों से जुड़े किसी व्यक्ति से अपरिचित नहीं रहे, पर किसी से अगर प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हो सकी तो वह रैणी की गौरा देवी थीं।

दसौली ग्राम स्वराज्य संघ द्वारा आयोजित चिपको पर्यावरण शिविरों में भी उनसे मिलने का मौका नहीं मिला। 1984 के अस्कोट-आराकोट अभियान के समय उनसे मुलाकात हो सकी और यह मुलाकात हमारे मन से कभी उतरी नहीं।

गौरा शिखर पर 12 जून 1984 को कुँवारी पास को पार करते हुए जब हम- गोविन्द पन्त ‘राजू’, कमल जोशी और मैं उड़ते हुए से ढाक तपोवन पहुँचे थे तो गौरा देवी एक पर्वत शिखर की तरह हमारे मन में थीं कि उन तक पहुँचना है। ढाक तपोवन में चिपको आन्दोलन के कर्मठ कार्यकर्ता हयात सिंह ने हमारे लिये आधार शिविर का काम किया। उन्होंने 1970 की अलकनन्दा बाढ़ से चिपको आन्दोलन और उसके बाद का हाल आशा और उदासी के मिले-जुले स्वर में बताया।

13 जून 1984 को हम तीनों और पौखाल के रमेश गैरोला तपोवन-मलारी मोटर मार्ग में चलने लगे। कुछ आगे से नन्दादेवी अभ्यारण्य से आ रही ऋषिगंगा तथा नीती, ऊँटाधूरा तथा जयन्ती धूरा से आ रही धौली नदी का संगम ऋषि प्रयाग नजर आया। ऋषिगंगा के आर-पार दो मुख्य गाँव हैं- रैंणी वल्ला और रैणी पल्ला।

आस-पास और भी गाँव हैं। जैसे- पैंग, वनचैरा, मुरुन्डा, जुवाग्वाड़, जुगसू आदि। ये सभी ग्रामसभा रैंणी के अन्तर्गत हैं। कुछ आगे लाटा गाँव है। इनमें ज्यादातर राणा या रावत जाति के तोल्छा (भोटिया) रहते हैं। लगभग 150 मवासे और 500 की जनसंख्या। ऋषि गंगा-धौली गंगा संगम के पास एक ऊँची दीवार की तरह बैठी साद (मलवा) इन नदियों के नाजुक जलग्रहण क्षेत्रों का मिजाज बताती थी। गौरा देवी का गाँव रैंणी वल्ला है।

आगे बढ़े तो राशन के दुकानदार रामसिंह रावत ने आवाज लगाई कि किस रैणी जाना है? ‘गौरा देवी जी से मिलना है’ सुनकर उन्होंने बताया कि वे ऊपर रहती हैं। एक लड़का पल्ला रैणी भेजकर हमने सभापति गबरसिंह रावत से भी बैठक में आने का आग्रह कर लिया। सेब, खुबानी और आड़ू के पेड़ों के अगल-बगल से कुछेक घरों के आँगनों से होकर हम सभी, जो अब 10-15 हो गए थे, गौरा देवी के आँगन में पहुँचे। मुझे तवाघाट (जिला पिथौरागढ़) के ऊपर बसे खेला गाँव की याद एकाएक आई। संगम के ऊपर वैसी ही उदासी और आरपार फैली हुई अत्यन्त कमजोर भूगर्भिक संरचना नजर आई।

छोटा-सा लिन्टर वाला मकान। लिन्टर की सीढ़ियाँ उतरकर एक माँ आँगन में आई। वह गौरा देवी ही थीं। हम सबका प्रणाम उन्होंने बहुत ही आत्मीय मुस्कान के साथ स्वीकार किया, जैसे प्रवास से बेटे घर आये हों। हम सब उन्हें ऐसे देख रहे थे जैसे कोई मिथक एकाएक यथार्थ हो गया हो। वही मुद्रा जो वर्षों पहले अनुपम मिश्र द्वारा खींची फोटो में देखी थी।

कानों में मुनड़े, सिर पर मुन्याणा (शॉल) रखा हुआ, गले में मूँग की माला, काला आँगड़ा और गाँती, चाबियों का लटकता गुच्छा और कपड़ों में लगी चाँदी की आलपिन। गेहुएँ रंग वाले चेहरे में फैली मुस्कान और कभी-कभार नजर आता ऊपर की पंक्ति के टूटे दाँत का खाली स्थान। अत्यधिक मातृत्व वाला चेहरा। स्वर भी बहुत आत्मीय, साथ ही अधिकारपूर्ण। तो गौरा देवी कोई पर्वत शिखर नहीं, एक प्यारी-सी पहाड़ी माँ थीं। वे इन्तजाम में लग गईं। जब उनको रमेश ने बताया कि पांगू से अस्कोट, मुनस्यारी, कर्मी, बदियाकोट, बलाण, रामणी, कुंवारीखाल तथा ढाक तपोवन हो कर पहुंचे हैं ये लोग, तो वे हमें गौर से देख के कहने लगीं कि यह तो दिल्ली से भी ज्यादा दूर हुआ! तख्त पर अपने हाथ से बना कालीन बिछाया।

हम सभी को बिठाया। बात करने का कोई संकेत नहीं। गोविन्द तथा कमल इस बीच हमारे अभियान, चिपको आन्दोलन, पहाड़ों के हालात तथा नशाबन्दी आदि पर बातें करने लगे तो वे सभा की तैयारी में लग गईं। इधर-उधर बच्चे दौड़ाये। महिला मंगल दल के सदस्यों को बुला भेजा। फलों और चाय के बाद खाने की तैयारी भी होने लगी। हमने बताया कि हम खाकर आये हैं तो कुछ नाश्ता बनने लगा। हमने बातचीत के लिए आग्रह किया। बातचीत के बीच ही महिलाओं-पुरुषों का इकट्ठा होना शुरू हो गया।

अपनी जिन्दगी वे बताने लगीं कि कितना कठिन है यहाँ का जीवन और फिर कुछ समय के लिए वे अपनी ही जिन्दगी में डूब गईं। यह अपनी जिन्दगी के मार्फत वहाँ की आम महिलाओं तथा अपने समाज से हमारा परिचय कराना भी था।

गौरा देवी लाता गाँव में जन्मी थीं, जो नन्दादेवी अभ्यारण्य के मार्ग का अन्तिम गाँव है। उन्होंने अपनी उम्र 59 वर्ष बताई। इस हिसाब से वे 1925 में जन्मी हो सकती हैं। 12 साल की उम्र में रैंणी के नैनसिंह तथा हीरादेवी के बेटे मेहरबान सिंह से उनका विवाह हुआ। पशुपालन, ऊनी कारोबार और संक्षिप्त-सी खेती थी उनकी। रैणी भोटिया (तोल्छा) लोगों का बारोमासी (साल भर आबाद रहने वाला) गाँव था। भारत-तिब्बत व्यापार के खुले होने के कारण दूरस्थ होने के बावजूद रैणी मुख्य धारा से कटा हुआ नहीं था और तिजारत का कुछ न कुछ लाभ यह गाँव भी पाता रहा था।

जब गौरा देवी 22 साल की थीं और एकमात्र छोटा बेटा चन्द्रसिंह लगभग ढाई साल का, तब उनके पति का देहान्त हो गया। जनजातीय समाज में भी विधवा को कितनी ही विडम्बनाओं में जीना पड़ता है। गौरा देवी ने भी संकट झेले। हल जोतने के लिए किसी और पुरुष की खुशामद से लेकर नन्हें बेटे और बूढ़े सास-ससुर की देख-रेख तक हर काम उन्हें करना होता था। फिर सास-ससुर भी चल बसे। गौरा माँ ने बेटे चन्द्र सिंह को अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बना दिया। इस समय तक तिब्बत व्यापार बन्द हो चुका था।

जोशीमठ से आगे सड़क आने लगी थी। सेना तथा भारत तिब्बत सीमा पुलिस का यहां आगमन हो गया था। स्थानीय अर्थ व्यवस्था का पारम्परिक ताना बाना तो ध्वस्त हो ही गया था, कम शिक्षा के कारण आरक्षण का लाभ भी नहीं मिल पा रहा था। चन्द्रसिंह ने खेती, ऊनी कारोबार, मजदूरी और छोटी-मोटी ठेकेदारी के जरिये अपना जीवन संघर्ष जारी रखा। इसी बीच गौरा देवी की बहू भी आ गई और फिर नाती-पोते हो गये। परिवार से बाहर गाँव के कामों में शिरकत का मौका जब भी मिला उसे उन्होंने निभाया। बाद में महिला मंगल दल की अध्यक्षा भी वे बनीं।

पारिवारिक संकट तो उन्होंने कितने सारे झेले और सुलझाये थे, आज उन्हें एक सामुदायिक जिम्मेदारी निभानी थी। कठिन परीक्षा का समय था। खाना बना रही या कपड़े धो रही महिलाएँ इकट्ठी हो गईं। गौरा देवी के साथ 27 महिलाएँ तथा बेटियां देखते-देखते जंगल की ओर चल पड़ीं। आशंका तथा आत्मविश्वास साथ-साथ चल रहे थे। होठों पर कोई गीत न था। शायद कुछ महिलाएँ अपने मन में भगवती नन्दा को याद कर रही हों। रास्ते से जा रहे मजदूरों को बताया कि वे जंगल की रक्षा के लिये जा रही हैं।

1972 में गौरा देवी रैणी महिला मंगल दल की अध्यक्षा बनीं। नवम्बर 1973 में और उसके बाद गोविंद सिंह रावत, चंडी प्रसाद भट्ट, वासवानन्द नौटियाल, हयात सिंह तथा कई दर्जन छात्र उस क्षेत्र में आये। रैणी तथा आस-पास के गाँवों में अनेक सभाएँ हुई। जनवरी 1974 में रैंणी जंगल के 2451 पेड़ों की निलामी की बोली देहरादून में लगने वाली थी।

मण्डल और फाटा की सफलता ने आन्दोलनकारियों में आत्म-विश्वास बढ़ाया था। वहाँ अपनी बात रखने की कोशिश में गये चंडी प्रसाद भट्ट अन्त में ठेकेदार के मुन्शी से कह आये कि अपने ठेकेदार को बता देना कि उसे चिपको आन्दोलन का मुकाबला करना पड़ेगा। उधर गोविन्द सिंह रावत ने ‘आ गया है लाल निशान, ठेकेदारो सावधान’ पर्चा क्षेत्र में स्वयं जाकर बाँटा। अन्ततः मण्डल और फाटा की तरह रैंणी में भी प्रतिरोध का नया रूप प्रकट हुआ।

15 तथा 24 मार्च 1974 को जोशीमठ में तथा 23 मार्च को गोपेश्वर में रैंणी जंगल के कटान के विरुद्ध प्रदर्शन हुए। आन्दोलनकारी गाँव-गाँव घूमे, जगह-जगह सभाएँ हुईं लेकिन प्रशासन, वन विभाग तथा ठेकेदार की मिलीभगत से अन्ततः जंगल काटने आये हिमाचली मजदूर रैणी पहुँच गये। जो दिन यानी 26 मार्च 1974 जंगल कटान के लिये तय हुआ था, वही दिन उन खेतों के मुआवजे को बाँटने के लिये भी तय हुआ, जो 1962 के बाद सड़क बनने से कट गये थे।

सीमान्ती गाँवों की गरीबी और गर्दिश ने मलारी, लाता तथा रैणी के लोगों को मुआवजा लेने के लिए जाने को बाध्य किया। पूरे एक दशक बाद भुगतान की बारी आयी थी। सभी पुरुष चमोली चले गये।

26 मार्च 1974 को रैणी के जंगल में जाने से मजदूरों को रोकने के लिए न तो गाँव के पुरुष थे न कोई और। हयात सिंह कटान के लिए मजदूरों के पहुँचने की सूचना दसौली ग्राम स्वराज्य संघ को देने गोपेश्वर गये। गोविन्द सिंह रावत अकेले पड़ गये और उन पर खुफिया विभाग की निरंतर नजर थी।

चंडी प्रसाद भट्ट तथा दसौली ग्राम स्वराज्य संघ के कार्यकर्ताओं को वन विभाग के बड़े अधिकारियों ने अपने नियोजित कार्यक्रमों के तहत गोपेश्वर में अटका दिया था। मजदूरों के आने की सूचना उन तक नहीं पहुंचने दी। ऐसे में किसी को जंगल बचने की क्या उम्मीद होती! किसी के मन के किसी कोने में भी शायद यह विचार नहीं आया होगा कि पहाड़ों में जिन्दा रहने की समग्र लड़ाई लड़ रही महिलाएं ही अन्ततः रैणी का जंगल बचायेंगी।

26 मार्च 1974 की ठंडी सुबह को मजदूर जोशीमठ से बस द्वारा और वन विभाग के कर्मचारी जीप द्वारा रैणी की ओर चले। रैणी से पहले ही सब उतर गये और चुपचाप ऋषिगंगा के किनारे-किनारे फर, सुरई तथा देवदारु आदि के जंगल की ओर बढ़ने लगे। एक लड़की ने यह हलचल देख ली। वह महिला मंगल दल की अध्यक्षा गौरा देवी के पास गई। ‘चिपको’ शब्द सुनकर मुँह छिपाकर हँसने वाली गौरा देवी गम्भीर थी। पारिवारिक संकट तो उन्होंने कितने सारे झेले और सुलझाये थे, आज उन्हें एक सामुदायिक जिम्मेदारी निभानी थी। कठिन परीक्षा का समय था। खाना बना रही या कपड़े धो रही महिलाएँ इकट्ठी हो गईं।

गौरा देवी के साथ 27 महिलाएँ तथा बेटियां देखते-देखते जंगल की ओर चल पड़ीं। गौरा देवी के साथ घट्टी देवी, भादी देवी, बिदुली देवी, डूका देवी, बाटी देवी, गौमती देवी, मूसी देवी, नौरती देवी, मालमती देवी, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, फगुणी देवी, मंता देवी, फली देवी, चन्द्री देवी, जूठी देवी, रुप्सा देवी, चिलाड़ी देवी, इंद्री देवी आदि ही नहीं बच्चियाँ- पार्वती, मेंथुली, रमोती, बाली, कल्पति, झड़ी और रुद्रा- भी गम्भीर थीं। आशंका तथा आत्मविश्वास साथ-साथ चल रहे थे। होठों पर कोई गीत न था। शायद कुछ महिलाएँ अपने मन में भगवती नन्दा को याद कर रही हों। रास्ते से जा रहे मजदूरों को बताया कि वे जंगल की रक्षा के लिये जा रही हैं। मजदूरों को रुकने के लिये कहा। उन्होंने कहा कि खाना बना है ऊपर। तो उनका बोझ वहीं रखवा लिया गया। माँ-बहनों और बच्चों का यह दल मजदूरों के पास पहुँच गया। वे खाना बना रहे थे। कुछ कुल्हाड़ियों को परख रहे थे। ठेकेदार तथा वन विभाग के कारिन्दे (इनमें से कुछ सुबह से ही शराब पिये हुए थे) कटान की रूपरेखा बना रहे थे।

सभी अवाक थे। यह कल्पना ही नहीं की गई थी कि उनका जंगल काटने इस तरह लोग आयेंगे। महिलाओं ने मजदूरों और कारिन्दों से कहा कि खाकर के चले जाओ। कारिन्दों ने डराने धमकाने का प्रयास शुरू कर दिया। महिलाएँ झुकने के लिये तैयार नहीं थीं। डेड़-दो घंटे बाद जब वन विभाग के कारिन्दों ने मजदूरों से कहा कि अब कटान शुरू कर दो। महिलाओं ने पुनः मजदूरों को वापस जाने की सलाह दी। 50 से अधिक कारिन्दों-मजदूरों से गौरा देवी तथा साथियों ने अत्यन्त विनीत स्वर में कहा कि- ‘यह जंगल भाइयो, हमारा मायका है। इससे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी, फल, लकड़ी मिलती है। जंगल काटोगे तो बाढ़ आयेगी। हमारे बगड़ बह जायेंगे। खेती नष्ट हो जायेगी। खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो। जब हमारे मर्द आ जायेंगे तो फैसला होगा।’

मजदूर असमंजस में थे। पर ठेकेदार और जंगलात के आदमी उन्हें डराने-धमकाने लगे। काम में रुकावट डालने पर गिरफ्तार करने की धमकी के बाद इनमें से एक ने बंदूक भी महिलाओं को डराने के लिये निकाल ली। महिलाओं में दहशत तो नहीं फैली पर तुरन्त कोई भाव भी प्रकट नहीं हुआ। उन सबके भीतर छुपा रौद्र रूप तब गौरा देवी के मार्फत प्रकट हुआ, जब बन्दूक का निशाना उनकी ओर साधा गया। अपनी छाती खोलकर उन्होंने कहा-‘‘मारो गोली और काट लो हमारा मायका।’’ गौरा की गरजती आवाज सुनकर मजदूरों में भगदड़ मच गई। गौरा को और अधिक बोलने और ललकारने की जरूरत नहीं पड़ी। मजदूर नीचे को खिसकने लगे। मजदूरों की दूसरी टोली, जो राशन लेकर ऊपर को आ रही थी, को भी रोक लिया गया। अन्ततः सभी नीचे चले गये।

ऋषिगंगा के किनारे जो सिमेंट का पुल एक नाले में डाला गया था, उसे भी महिलाओं ने उखाड़ दिया ताकि फिर कोई जंगल की ओर न जा सके। सड़क और जंगल को मिलाने वाली पगडंडी पर महिलाएँ रुकी रहीं। ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को फिर डराने-धमकाने की कोशिश की। बल्कि उनके मुँह पर थूक तक दिया लेकिन गौरा देवी के भीतर की माँ उनको नियंत्रित किये थीं। वे चुप रहीं। उसी जगह सब बैठे रहे। धीरे-धीरे सभी नीचे उतर गये। ऋषिगंगा यह सब देख रही थी। वह नदी भी इस खबर को अपने बहाव के साथ पूरे गढ़वाल में ले जाना चाहती होगी।

अगली सुबह रैणी के पुरुष ही नहीं, गोविन्द सिंह रावत, चंडी प्रसाद भट्ट और हयात सिंह भी आ गये। रैणी की महिलाओं का मायका बच गया और प्रतिरोध की सौम्यता और गरिमा भी बनी रही। 27 मार्च 1974 को रैणी में सभा हुई, फिर 31 मार्च को। इस बीच बारी-बारी से जंगल की निगरानी की गई। मजदूरों को समझाया-बुझाया गया।

3 तथा 5 अप्रैल 1974 को भी प्रदर्शन हुए। 6 अप्रैल को डी.एफ.ओ. से वार्ता हुई। 7 तथा 11 अप्रैल को पुनः प्रदर्शन हुए। पूरे तंत्र पर इतना भारी दबाव पड़ा कि मुख्यमंत्री हेमवतीनन्दन बहुगुणा की सरकार ने डॉ. वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में रैणी जाँच कमेटी बिठाई और जाँच के बाद रैणी के जंगल के साथ-साथ अलकनन्दा में बायीं ओर से मिलने वाली समस्त नदियों-ऋषिगंगा, पाताल गंगा, गरुण गंगा, विरही और नन्दाकिनी- के जल ग्रहण क्षेत्रों तथा कुँवारी पर्वत के जंगलों की सुरक्षा की बात उभरकर सामने आई और सरकार को इस हेतु निर्णय लेने पड़े। रैंणी सीमान्त के एक चुप गाँव से दुनिया का एक चर्चित गाँव हो गया और गौरा देवी चिपको आन्दोलन और इसमें महिलाओं की निर्णायक भागीदारी की प्रतीक बन गईं।

यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि और भी महिलाओं ने वनान्दोलन में हिस्सेदारी की तो गौरा देवी की ही इतनी चर्चा क्यों? इसका श्रेय चमोली के सर्वोदयी तथा साम्यवादी कार्यकर्ताओं को है। साथ ही गौरा देवी के व्यक्तित्व तथा उस ऐतिहासिक सुअवसर को भी, जिसमें वे असाधारण निर्णय लेने में नहीं चूकीं। कोई दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल पर यह आरोप लगाये कि उसने महिलाओं का इस्तेमाल किया तो यह सिर्फ पूर्वाग्रह ही कहा जायेगा।

रैणी 1984 में पौने पाँच बजे हमारी सभा शुरू हुई। 1974 के रैंणी आन्दोलन में शामिल हरकी देवी, उमा देवी, रुपसा देवी, इन्द्री देवी, बाली देवी, गौमा देवी, बसन्ती देवी आदि सभा में आ गईं। सभापति जी के साथ गाँव के अनेक बच्चे और बुजुर्ग भी जमा हो गये। गौरा देवी ने सूत्रवत् बात की और कहा-‘‘हम कुछ और नहीं सोचते। जब जंगल रहेगा तो हम रहेंगे और जब हम सब एक होंगे तो जंगल बचेगा, बगड़ बचेगा। जंगल ही हमारा रोजगार है, जिन्दगी है, मायका है। आज तिजारत नहीं रही। भेड़ पालन घट गया है। ऊपर को नेशनल पार्क (नन्दा देवी अभयारण्य) बन रहा है। बाघ ने पैंग के उम्मेद सिंह की 22 बकरियाँ एक ही दिन में मार दीं। आखिर हमारी हिफाजत भी तो होनी चाहिये।’’

सभापति जी बोले कि विष्णुप्रयाग परियोजना बंद हो रही है। छोटा मोटा रोजगार भी चला जायेगा। ऊपर नेशनल पार्क बन रहा है। हमारे हक-हकूक खत्म हो रहे हैं। उन्होंने चिपको आन्दोलन की खामियाँ भी गिनाई और कहा कि सरकार के हर चीज में टाँग अड़ाने से सब बिगड़ा है। रोजगार की समस्या विकराल थी क्योंकि यहा का भोटिया समाज नौकरियों में अधिक न जा सका था।

कुछ बातें औरों ने भी रखीं। हम बस, सुनते जा रहे थे। उन सबकी सरलता, पारदर्शिता और अहंकार रहित मानसिकता का स्पर्श लगातार मिल रहा था। सभा समाप्त हो गई। उनका रुकने का आग्रह हम स्वीकार न कर सके। विदा लेते हुए सभी को प्रणाम किया। सबने अत्यन्त मोहक विदाई दी।

गौरा देवी ने हम तीनों के हाथ एक-एक कर अपने हाथों में लिये। उन्हें चूमा और अपनी आँखों तथा माथे से लगाया। वे अभी भी मुस्कुरा रहीं थीं और हम सभी भीतर तक लहरा गये थे उनकी ममता का स्पर्श पाकर। धीरे-धीरे सड़क में उतरते, ऊपर को देखते थे। ऊपर से गौरा माता अपनी बहिनों के साथ हाथ हिला रही थीं। हम तपोवन की ओर चल दिये। इतनी-सी मुलाकात हुई थी हमारी गौरा देवी से। बिना इसके उनके व्यक्तित्व की भीतरी संरचना को हम नहीं समझ पाते

गौरा देवी और चिपको आन्दोलन


गौरा देवी चिपको आन्दोलन की सर्वाधिक सुपरिचित महिला रहीं। इस पर भी उनकी पारिवारिक या गाँव की दिक्कतें घटी नहीं। चिपको को महिलाओं का आन्दोलन बताया गया पर यह केवल महिलाओं का कितना था? अपनी ही संपदा से वंचित लोगों ने अपना प्राकृतिक अधिकार पाने के लिए चिपको आन्दोलन शुरू किया था। इसके पीछे जंगलों की हिफाजत और इस्तेमाल का सहज दर्शन था।

चिपको आन्दोलन में तरह-तरह के लोगों ने स्थायी-अस्थायी हिस्सेदारी की थी। महिलाओं ने इस आन्दोलन को ग्रामीण आधार और स्त्री-सुलभ संयम दिया तो छात्र-युवाओं ने इसे आक्रामकता और शहरी-कस्बाती रूप दिया। जिला चमोली में मण्डल, फाटा, गोपेश्वर, रैणी और बाद में डूँगरी-पैन्तोली, भ्यूंढार, बछेर से नन्दीसैण तक; उधर टिहरी की हैंवलघाटी में अडवाणी सहित अनेक स्थानों और बडियारगढ़ आदि क्षेत्रों तथा अल्मोड़ा में जनोटी-पालड़ी, ध्याड़ी, चांचरीधार (द्वाराहाट) के प्रत्यक्ष प्रतिरोधों में ही नहीं बल्कि नैनीताल तथा नरेन्द्रनगर में जंगलों की नीलामियों के विरोध में भी महिलाओं और युवाओं की असाधारण हिस्सेदारी रही।

दूसरी ओर सर्वोदयी कार्यकर्ताओं के साथ अनेक राजनैतिक कार्यकर्ताओं का भी योगदान रहा। वे जन भावना और चिपको की चेतना के खिलाफ जा भी नहीं सकते थे। जोशीमठ क्षेत्र में तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का महत्वपूर्ण योगदान था, जैसे उत्तरकाशी के लगभग विस्मृत बयाली (उत्तरकाशी) के आन्दोलन में था।

इसी तरह कुमाऊँ में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी तथा उससे जुड़े लोगों ने आन्दोलन को एक अलग रूप दिया। नेतृत्व में सर्वोदयी या गैर राजनीतिक (किसी भी प्रचलित राजनीतिक दल से न जुड़े हुए) व्यक्ति भी उभरे तो यह इस आन्दोलन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। अन्ततः सभी की हिस्सेदारी का प्रयास सफल हुआ। चिपको में मतभेद, विभाजन और विखंडन का दौर तो बहुत बाद में गलतफहमियों, पुरस्कारों और 1980 के वन बिल के बाद शुरू हुआ।

यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि और भी महिलाओं ने वनान्दोलन में हिस्सेदारी की तो गौरा देवी की ही इतनी चर्चा क्यों? इसका श्रेय चमोली के सर्वोदयी तथा साम्यवादी कार्यकर्ताओं को है। साथ ही गौरा देवी के व्यक्तित्व तथा उस ऐतिहासिक सुअवसर को भी, जिसमें वे असाधारण निर्णय लेने में नहीं चूकीं। कोई दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल पर यह आरोप लगाये कि उसने महिलाओं का इस्तेमाल किया तो यह सिर्फ पूर्वाग्रह ही कहा जायेगा।

यदि चमोली की तीस महिलाएँ एक साथ ‘वृक्षमित्र’ पुरस्कार लेने दिल्ली गई तो इससे उनकी हैसियत ही नहीं सामुहिकता भी पता चलती है। महिलाओं की स्थिति सबसे संगठित और संतोषजनक (यद्यपि यह भी पर्याप्त नहीं कही जा सकती है) चमोली जिले में ही नजर आती है क्योंकि आन्दोलन और बाद के शिविरों में भी इतनी संगठित सामूहिकता कहीं और नहीं दिखती थी। लेकिन अपने मंगल दल के अलावा महिलाओं को व्यापक नेतृत्व नहीं दिया गया।

यह नहीं कहा जाना चाहिये कि इस हेतु महिलाओं के पास पर्याप्त समय नहीं था। अब वे जंगल के अलावा और विषयों पर भी सोचने-बोलने लगीं थीं। उन्हें अपने परिवार के पुरुषों से आन्दोलन या महिला मंगल दल में हिस्सेदारी हेतु भी लड़ना पड़ा था। इसके उदाहरण उत्तराखंड में सर्वत्र मिलते हैं।

चमोली में अनेक जगह महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका प्रकट हुई लेकिन नेतृत्व को झपटने या अग्रिम पंक्ति में आने की कोशिश करना- यह पहाड़ी महिलाओं के लिए संभव नहीं था पर अनेक बार तात्कालिक रूप से उन्होंने अपना नेतृत्व किया। रैणी, डूँगरी-पैन्तोली, बछेर ही नहीं चांचरीधार तथा जनोटी-पालड़ी इसके उदाहरण हैं।

पुरुष नेतृत्व में महिलाओं की हिस्सेदारी या उनके नाम से इसे जोड़ने की होड़ थी। लेकिन यह सबको आश्चर्यजनक लगेगा कि राइटलाइवलीहुड पुरस्कार लेते हुए सुन्दरलाल बहुगुणा तथा इन्दु टिकेकर ने जो व्याख्यान दिये गये थे (हिन्दी रूप चिपको सूचना केन्द्र, सिल्यारा द्वारा प्रकाशित) उनमें गौरा देवी तो दूर चिपको की किसी महिला का भी नाम नहीं लिया गया था।

गौरा देवी अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में गुर्दे और पेशाब की बीमारी से परेशान रहीं। पक्षाघात भी हुआ। पर किसी से उन्हें मदद नहीं मिली या बहुत कम मिली। यह अवश्य सोचनीय है। यद्यपि चंडी प्रसाद भट्ट खबर मिलते ही गौरादेवी की मृत्यु के दो सप्ताह पहले उनसे मिलने जोशीमठ गये थे, जहां तब गौरादेवी का इलाज चल रहा था।

4 जुलाई 1991 की सुबह तपोवन में गौरादेवी की मृत्यु हुई। इसी तरह की स्थिति चिपको आन्दोलन के पुराने कार्यकर्ता केदार सिंह रावत की असमय मृत्यु के बाद उनके परिवार के साथ भी हुई थी। सुदेशा देवी तथा धनश्याम शैलानी को भी कम कष्ट नहीं झेलने पड़े थे। आखिर किसी को आन्दोलनों में शामिल होने का मूल्य तो नहीं दिया जा रहा था। यह काम चिपको संगठन का था। जब वह खुद फैला और गहराया नहीं, मजबूत तथा एक नहीं रह सका, तब ऐसी मानवीय स्थितियों से निपटने का तरीका कैसे विकसित होता? पर अपने अपने स्तर पर संवेदना और संगठन बने भी रहे।

उत्तराखंड के गाँवों में अपने हक-हकूक बचाने के, अपने पहाड़ों को बनाये रखने के जो ईमानदार प्रतिरोध होंगे वे ही संगठित होकर चिपको की परम्परा को आगे बढ़ायेंगे। किसी आन्दोलन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य उसका जनता की नजरों से गिरना है। चिपको आन्दोलन भी किंचित इसका शिकार हुआ है। उत्तराखंड की सामाजिक शक्तियाँ और वर्तमान उदासी का परिदृश्य शायद चिपको को रूपान्तरित होकर पुनः प्रकट होने में मदद देगा।

चिपको की महिलाओं को और गौरा देवी को पढ़े-लिखे लोग ‘अनपढ़’ कहते हैं। यह कोई नहीं बताता कि पढ़े-लिखे होने का क्या अभिप्राय है? क्या स्कूल न जा पाने के कारण वे ‘अनपढ़’ कहलाएँ? क्या अपने परिवेश को समझ चुकीं और उसकी सुरक्षा हेतु प्रतिरोध की अनिवार्यता सिद्ध कर चुकीं महिलाएँ किसी मायने में अनपढ़ हैं? क्या वे स्कूल-कालेजों की पढ़ी होतीं तो ऐसे निर्णय लेतीं? गौरा देवी की बात करते हुए कोई उन सच्चाइयों को नहीं देखता जो स्वतः दिखाई देती हैं और जिनसे उनका कद और ऊँचा हो जाता है।

12 साल की उम्र में गौरा देवी का विवाह हो गया था और वे 22 साल में विधवा हो गईं थीं। सिर्फ 10 साल का वैवाहिक जीवन रहा उनका! एक पहाड़ी विधवा के सारे संकट उन्हें झेलने पड़े पर इन्हीं संकटों ने उनके भीतर निर्णय लेने की क्षमता विकसित की। वे गाँव के कामों में दिलचस्पी रखने वाली गाँव की बुजुर्ग महिलाओं में एक थीं। एक नैसर्गिक नेतृत्व का गुण उनमें था, जो कठिन परिस्थितियों में निखरता गया। अतः 26 मार्च 1974 को जो उन्होंने किया उसे वे कैसे नहीं करतीं? यह बहुत सहज प्रक्रिया थी। यही नही वे बद्रीनाथ मन्दिर बचाओ अभियान में सक्रिय रही थीं और पर्यावरण शिविरों में भी।

चिपको आन्दोलन ने यदि उन सभी व्यक्तियों, समूहों को अपने साथ बनाये रखा होता, जो इसकी रचना प्रक्रिया बढ़ाने में योगदान देते रहे थे, तो न सिर्फ गौरा देवी की बल्कि चिपको आन्दोलन की प्रेरणा ज्यादा फैलती और खुद गौरा देवी का गाँव उन परिवर्तनों को अंगीकार करता जो उसके लिए जरूरी हैं।

कोई भी आन्दोलन सिर्फ एक जंगल को कटने से बचा ले जाय पर गाँव की मूलभूत जरूरतों को टाल जाय या किसी तरह के आर्थिक क्रिया-कलाप विकसित न करे तो टूटन होगी ही। आखिर हरेक व्यक्ति बुद्ध की तरह तो सड़क में नहीं आया है। चिपको की और गौरा देवी की असली परम्परा को आखिर कौन बनाये रखेंगे? देश-विदेश में घूमने वाले चिपको नेता-कार्यकर्ता? या चिपको पर अधूरे और झूठे ‘शोध’ पत्र पढ़ने वाले विशेषज्ञ? या अभी भी अनिर्णय के चौराहे पर खड़ा जंगलात विभाग? या इधर-उधर से पर्याप्त धन लेकर ‘जनबल’ बढ़ाने वाली संस्थाएँ? नहीं, कदापि नहीं।

चिपको को सबसे ज्यादा वे स्थितियाँ बनाये रखेंगी जो बदली नहीं हैं और मौजूदा राजनीति जिन्हें बदलने का प्रयास करने नहीं जा रही है। स्वयं गौरादेवी का परिवेश तरह-तरह से नष्ट किया जा रहा है। ऋषि गंगा तथा धौली घाटी में जिस तरह जंगलों पर दबाव है; जिस तरह जल विद्युत परियोजनाओं के नाम पर पूरी घाटी तहस-नहस की जा चुकी है और नन्दादेवी नेशनल पार्क में ग्रामीणों के अधिकार लील लिये गये है; मन्दाकिनी घाटी में विद्युत परियोजना के विरोध में संघर्षरत सुशीला भंडारी को दो माह तक जेल में रखा गया; गंगाधर नौटियाल को गिरफ्तार किया गया और पिंडर, गोरी घाटी तथा अन्यत्र जन सुनवाई नहीं होने दी गई; उससे हम एक समाज और सरकार के रूप में न सिर्फ कृतघ्न सिद्ध हो गये हैं बल्कि पर्वतवासी का सामान्य गुस्सा भी प्रकट नहीं कर सके हैं। वहां के ग्रामीण अवश्य अभी भी आत्म समर्पण से इन्कार कर रहे हैं। रैणी तथा फाटा जैसे चिपको आन्दोलन के पुराने संघर्ष स्थानों पर सबसे जटिल स्थिति बना दी गई है।

इसलिए उत्तराखंड के गाँवों में अपने हक-हकूक बचाने के, अपने पहाड़ों को बनाये रखने के जो ईमानदार प्रतिरोध होंगे वे ही संगठित होकर चिपको की परम्परा को आगे बढ़ायेंगे। किसी आन्दोलन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य उसका जनता की नजरों से गिरना है। चिपको आन्दोलन भी किंचित इसका शिकार हुआ है।

उत्तराखंड की सामाजिक शक्तियाँ और वर्तमान उदासी का परिदृश्य शायद चिपको को रूपान्तरित होकर पुनः प्रकट होने में मदद देगा। यह उम्मीद सिर्फ इसलिये है कि हमारे समाज और पर्यावरण के विरोधाभास अपनी जगह पर हैं और चिपको की अधिकांश टहनियां अभी भी हरी हैं। उनमें रचना और संघर्ष के फूल खिलने चाहिये।


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प्रदूषण के विरुद्ध सार्थक पहल है ग्रीन बजट

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प्रदूषण के विरुद्ध सार्थक पहल है ग्रीन बजटRuralWaterFri, 03/30/2018 - 11:58
Source
सर्वोदय प्रेस सर्विस, मार्च 2018

ग्रीन बजटग्रीन बजटयह जगजाहिर है कि पिछले दो-तीन दशक से दिल्ली में सरकार की उपेक्षा एवं लापरवाही के कारण प्रदूषण बड़ी समस्या बनी हुई है। दिल्ली का प्रदूषण विश्वव्यापी चिन्ता का विषय बन चला है। कई अन्तरराष्ट्रीय विशेषज्ञ यहाँ तक कह चुके हैं कि दिल्ली रहने लायक शहर नहीं रह गया है।

जाहिर है, प्रदूषण के गहराते संकट के मद्देनजर सरकारी उपायों के बेअसर होने के बाद पहले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण और सुप्रीम कोर्ट ने डीजल से चलने वाले वाहनों को इस समस्या का एक सबसे प्रमुख कारक माना है। लेकिन क्या डीजल से चलने वाले वाहन अचानक दिल्ली की समस्या बन गए हैं?

काफी समय पहले दिल्ली में सार्वजनिक बसों और ऑटोरिक्शा को डीजल के बजाय सीएनजी से चलाना इसीलिये अनिवार्य किया गया था कि प्रदूषण पर काबू पाया जा सके। लेकिन उसके बाद डीजल से चलने वाली कारों की तादाद बढ़ती गई और इस पर गौर करना किसी को जरूरी नहीं लगा। जब इससे मुश्किल बढ़ने लगी है तो फिर सरकार सक्रिय दिखाई दी और उसने एक घोषणा सम और विषम नम्बरों वाली कारों को अलग-अलग दिन चलाने के रूप में की। लेकिन इसके भी व्यावहारिकता पर सवाल उठने लगे हैं।

सवाल यह भी है कि क्या कुछ तात्कालिक कदम उठा कर दिल्ली में प्रदूषण की समस्या से पार पाया जा सकता है? लेकिन यहाँ मुख्य प्रश्न बढ़ते प्रदूषण के मूल कारणों की पहचान और उनकी रोकथाम सम्बन्धी नीतियों पर अमल से जुड़े हैं। दिल्ली में वाहन के प्रदूषण की ही समस्या नहीं है, हर साल ठंड के मौसम में जब हवा में घुले प्रदूषक तत्त्वों की वजह से जन-जीवन पर गहरा असर पड़ने लगता है, स्मॉग फॉग यानी धुआँ युक्त कोहरा जानलेवा बनने लगता है, तब सरकारी हलचल शुरू होती है।

विडम्बना यह है कि जब तक कोई समस्या बेलगाम नहीं हो जाती, तब तक समाज से लेकर सरकारों तक को इस पर गौर करना जरूरी नहीं लगता। दिल्ली में प्रदूषण और इससे पैदा मुश्किलों से निपटने के उपायों पर लगातार बातें होती रही हैं और विभिन्न संगठन अनेक सुझाव दे चुके हैं। लेकिन उन्हें लेकर कोई ठोस पहल अभी तक सामने नहीं आई है। हर बार पानी सिर से ऊपर चले जाने के बाद कोई तात्कालिक घोषणा होती है और फिर कुछ समय बाद सब पहले जैसा चलने लगता है।

पिछले पाँच सालों के दौरान दिल्ली में वाहनों की तादाद में 97 फीसद बढ़ोतरी हो गई। इनमें अकेले डीजल से चलने वाली गाड़ियों की तादाद तीस प्रतिशत बढ़ी। कभी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद डीजल से चलने वाली नई गाड़ियों का पंजीकरण रोक दिया जाता है, लेकिन सवाल है कि पहले से जितने वाहन हैं और फिर नई खरीदी जाने वाली गाड़ियाँ आबोहवा में क्या कोई असर नहीं डालेंगी? इस गम्भीर समस्या के निदान की ओर यदि दिल्ली सरकार जागी है तो इसे केजरीवाल सरकार की पहली सूझबूझ पूर्ण पहल कही जाएगी।

जाहिर है, दिल्ली की जिम्मेदारी सम्भाल रही सरकार का यह सबसे बड़ा फर्ज भी है कि वह प्रदूषण पर काबू करके इस शहर को रहने लायक बनाए। इसी को ध्यान में रखकर ग्रीन बजट में दिल्ली सरकार के चार विभागों पर्यावरण, ट्रांसपोर्ट, पावर और पीडब्ल्यूडी से जुड़ी 26 योजनाओं को शामिल किया गया है और इनके जरिए प्रदूषण नियंत्रण का अभियान शुरू किया जा रहा है।

सरकार ने प्रस्ताव किया है कि जो लोग सीएनजी फिटेड कार खरीदेंगे उन्हें रजिस्ट्रेशन चार्ज में 50 प्रतिशत की छूट मिलेगी। दिल्ली के रेस्तराँ अगर कोयले वाले तंदूर की जगह इलेक्ट्रिक या गैस तंदूर काम में लाते हैं तो सरकार उन्हें प्रति तंदूर 5 हजार रुपए तक की सब्सिडी देगी। 10 केवीए या इससे अधिक क्षमता के डीजल जेनरेटर की जगह इलेक्ट्रिक जेनरेटर का इस्तेमाल करने पर सरकार की तरफ से इसके लिये 30 हजार रुपए तक की सब्सिडी दी जाएगी।

प्रदूषण के चिन्ताजनक स्तर तक बढ़ने के मद्देनजर राज्य सरकारों की ओर से कई घोषणाएँ सामने आती रहती हैं। हाल ही में दिल्ली सरकार ने वर्ष 2018-19 के अपने बजट को ‘ग्रीन बजट’ का रूप देकर नई एवं सार्थक पहल की है। पहली बार देश की किसी सरकार ने प्रदूषण की जानलेवा समस्या पर अपने बजट में आर्थिक प्रावधान किये हैं, प्रदूषण को नियंत्रित करने का मन बनाया है। हर समय किसी-न-किसी विवाद को खड़ा करके अपनी शक्ति को व्यर्थ करने वाली दिल्ली सरकार की पर्यावरण के प्रति जागरुकता एवं प्रदूषण मुक्ति की दिशा में कदम बढ़ाना, एक नई सुबह की आहट है।इंडस्ट्रियल एरिया में पाइप्ड नेचुरल गैस का इस्तेमाल करने पर एक लाख रुपए तक की मदद सरकार की ओर से मिलेगी। दिल्ली देश का पहला ऐसा राज्य बनने जा रहा है, जहाँ जनवरी से लेकर दिसम्बर तक पूरे साल प्रदूषण का रीयल टाइम डेटा जुटाया जाएगा। सरकार ने एक हजार लो फ्लोर इलेक्ट्रिक बसें लाने का लक्ष्य भी रखा है। शहर में हरित इलाके बढ़ाए जाएँगे। इलेक्ट्रिक व्हीकल पॉलिसी भी बनाई जा रही है।

दिल्ली सरकार ने प्रदूषण से लड़ने की जो इच्छाशक्ति दिखाई है, वह देश के अन्य राज्यों की सरकारों के लिये एक मिसाल है। दिल्ली सरकार को अपनी इन योजनाओं पर अमल में दृढ़ता दिखानी होगी, हालांकि शहरवासियों के सहयोग से इसे एक आन्दोलन का रूप भी दिया जा सकता है। दिल्ली सरकार की इस सार्थक पहल में केन्द्र सरकार एवं दिल्ली के उपराज्यपाल को भी सहयोगी बनना चाहिए।

दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण से जुड़ी कुछ मूलभूत समस्याएँ मसलन आवास, यातायात, पानी, बिजली इत्यादि भी उत्पन्न हुई। नगर में वाणिज्य, उद्योग, गैर-कानूनी बस्तियों, अनियोजित आवास आदि का प्रबन्ध मुश्किल हो गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली का प्रदूषण के मामले में विश्व में चौथा स्थान है। दिल्ली में 30 प्रतिशत वायु प्रदूषण औद्योगिक इकाइयों के कारण है, जबकि 70 प्रतिशत वाहनों के कारण है।

खुले स्थान और हरे क्षेत्र की कमी के कारण यहाँ की हवा साँस और फेफड़े से सम्बन्धित बीमारियों को बढ़ाती है। प्रदूषण का स्तर दिल्ली में अधिक होने के कारण इससे होने वाली मौतें और बीमारियाँ स्वास्थ्य पर गम्भीर संकट को दर्शाती है। इस समस्या से छुटकारा पाना सरल नहीं है।

हमें दिल्ली को प्रदूषण मुक्त करना है तो एक-एक व्यक्ति को उसके लिये सजग होना होगा। जो दिखता है वह सब नाशवान है। शाश्वत तो केवल वही है जो दिखता नहीं। जो नाशवान है उसे हम स्थायी नहीं कर सकते पर उसे शुद्ध तो रख सकते हैं। प्रकृति ने जो हमें पर्यावरण दिया है और हवा, जल, सूर्य जिसे रोज नया जीवन देते हैं, उसे हम प्रदूषित नहीं करें।

इस क्षेत्र में सरकार, न्यायालय स्वायत्त संस्थाएँ और पर्यावरण चिन्तक आगे आए हैं। इनके साझा सहयोग से प्रदूषण की मात्रा में कुछ कमी तो आई है परन्तु इसके लिये आम जनता के रचनात्मक सहयोग की सबसे अधिक आवश्यकता है। तभी हम दिल्ली को प्रदूषण मुक्त कर सकेंगे। दिल्ली सरकार की पहल से पहले हमें स्वयं से शुरुआत करनी होगी।

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Submitted by Sumant das (not verified) on Fri, 04/20/2018 - 20:12

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Sir, I want to do a job, which I do not like, I am inappropriate.plz sir call me

Submitted by Sumant das (not verified) on Sat, 04/21/2018 - 06:24

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Sir, I want to do a job, which I do not like, I am inappropriate.plz sir call me

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राजस्थान की परम्परागत तकनीक

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राजस्थान की परम्परागत तकनीक RuralWaterSat, 03/31/2018 - 14:21
Source
ग्राविस, जोधपुर, 2006


राजस्थान की परम्परागत जल संरक्षण प्रणाली टांकाराजस्थान की परम्परागत जल संरक्षण प्रणाली टांकाराजस्थान विविधताओं से परिपूर्ण एक ऐसा राज्य है, जहाँ एक तरफ रेगिस्तान है तो दूसरी तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और घने जंगल हैं। यहाँ पर गरीबी अपनी चरम सीमा पर है तो महंगे शहर भी देखने को मिलते हैं। यहाँ विभिन्न प्रकार की भूमि जैसे चारागाह, गोचर, औरण, अभयारण्य आदि भी विद्यमान है। हमारी लोक संस्कृति हमारी ग्रामीण और जनजातीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है।

जनजातीय और ग्रामीण लोग चाहे गाँव में निवास करते हों या जंगल में, या फिर वर्ष भर एक जगह से दूसरी जगह पर घूमते रहते हों, उनके पास प्रतिभा की कोई कमी नहीं होती। उनके लिये तो कला भी जिन्दगी का एक आम हिस्सा है। अपनी निपुणता और रचनात्मकता के सहारे ही वे अपने साधारण से जीवन को बहुरंगी और सजीव बनाने में सफल रहते हैं।

थार रेगिस्तान 0.60 मिलियन वर्ग किलोमीटर मे फैला हुआ, संसार का सबसे अधिक सघन, अद्वितीय एवं रुक्ष प्राकृतवास है। कर्क रेखा के समानान्तर, भारतवर्ष के चार प्रदेशों में फैले थार क्षेत्र का 68.8 प्रतिशत भाग राजस्थान में स्थित है। थार के करीब 60 प्रतिशत हिस्से पर कम या ज्यादा खेती की जाती है और करीब 30 प्रतिशत हिस्से पर वनस्पतियाँ है, जो मुख्यतः चारागाह के रूप में ही काम में आती हैं।

वर्षा की अनियमितता इस तथ्य से प्रतीत होती है कि कुछ इलाकों में वर्षा की मात्रा औसतन 120 मिमी. से भी कम है। हर दस वर्ष में चार वर्ष सूखे गुजरते हैं। इससे खेती प्रायः मुश्किल हो जाती है। अधिकांश हिस्से में 4 से 5 महीनों तक तेज हवाएँ चलती हैं और गर्मियों में रेतीले तुफान बहुत आम बात है। पर इस इलाके में मौजूद हरियाली भले ही वह कितनी भी कम क्यों न हों, विविधता भरी है। यहाँ करीब 700 किस्म के पेड़ पौधे पाये जाते हैं, जिनमें से 107 किस्म की घास होती है, इनमें प्रतिकूल जलवायु में भी जीवित रहने की क्षमता रहती है।

यहाँ की ज्यादातर पैदावार पौष्टिकता और लवणों से भरी है। इसके साथ ही थार क्षेत्र में सबसे उन्नत किस्म के पशु मिलते हैं, उत्तर भारत में श्रेष्ठ किस्म के बैल यहीं से जाते हैं और देश की 50 प्रतिशत ऊन का उत्पादन यहीं होता है। थार क्षेत्र की खेती एवं जमीन का उपयोग पूर्णतः वर्षा पर ही निर्भर है। वर्षा अच्छी हुई तो फसल एवं चारा पर्याप्त मात्रा में मिल जाता है तथा वर्षाजल को नाड़ियों (तालाब), बेरियों, कुंडियों या टांकों मे संचित कर लिया जाता है।

राजस्थान में पानी की कमी का वृत्तान्त धार्मिक आख्यान के साथ पुराने लोकाख्यानों में भी उपलब्ध है। राजस्थान के सुप्रसिद्ध लोक काव्य ‘ढोला मारु रा दूहा’ में मारवाड़ निन्दा प्रकरण के अन्तर्गत मालवणी अपने पिता को सम्बोधित करती हुई कहती है –

बाबा न देइसी मारुवाँ वर, कुँआरी रहेसी।
हाथि कचोजउ सिर घड़उ, सीचति य मरेसि।।


हे पिता। मुझे मारु देश (राजस्थान) में मत ब्याहना, चाहे कुँआरी रह जाऊँ। वहाँ हाथों में कटोरा (जिससे घड़े में पानी भरी जाता है) और सिर पर घड़ा रखकर पानी ढोते-ढोते ही मर जाऊँगी। यह काव्यांश बतलाता है कि पानी की घोर कमी और इसकी पूर्ति हेतु कठिन परिश्रम राजस्थान की जनता की दारुण नियति थी। यहाँ नायिका उससे बचने के लिये कुँवारी ही मरने को तैयार है, पर उसे राजस्थान जैसे जल की कमी वाले क्षेत्र में जीवन व्यतीत करना गवारा नहीं। वस्तुतः यह तथ्य भी है कि हमारे यहाँ पानी बहुत गहरे में पाया जाता है।

पानी की न्यूनता के समाधान का नियोजन यहाँ के निवासियों के द्वारा पहले से ही आँका हुआ था। वर्षा की विफलता तथा निरन्तर सूखा पड़ने का सामना करने के लिये प्रत्येक गाँव में नाड़ियाँ, छोटे-बड़े तालाब बनाए जाते थे। उनसे जलग्रहण क्षेत्र की प्रतिरक्षा की जाती थी। वर्षा से पूर्व नाड़ियों को खोदकर उनकी संग्रहणशीलता को बढ़ाया जाता था।

हमारे गाँवों में खेती के अलग-अलग चरण ऋतुओं में आने वाले बदलावों पर ही आश्रित हैं। खेतों की जुताई, बुवाई, कटाई और अनाज निकालना तथा गोदामों में भरना ये सारे काम एक रस्म और जश्न मय माहौल में किये जाते हैं। इस तरह वार्षिक चक्र के सारे चरण बरसात, शरद, शिशिर, हेमन्त, बसन्त या गर्मी इन सभी ऋतुओं का त्योहार के रूप में स्वागत किया जाता है और उत्सव मनाया जाता है। समय आने पर ये सभी परम्पराएँ और शिल्प एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के हाथों में चले जाते हैं।

उत्तम खेती जो हरवड़ा (हल चलाने से उत्तम खेती होगी)
मध्यम खेती जो संगराहा (साथ-साथ काम करने से मध्यम खेती)
बीज बुढ़के तिनके ताहा (बीज भी डूब जाएँगे जो तीसरे को काम दिया)
जो पूछे हरवाहा कहा (हल चलाने वाले ने कहा)

परम्परागत ज्ञान सामान्यतया एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक रूप से संचारित होता रहा है। इसका उपयोग भी सामान्यतया सीमित क्षेत्र, अंचल विशेष तक ही सीमित रहा है। सही अर्थों में देखा जाये तो यह ज्ञान परिवारों के मध्य मे ही सिमट कर रह गया है। मनुष्य जाति के विकास के साथ-साथ मनुष्य ने भूख-प्यास को शान्त करने के लिये पेड़ों के फल तथा पत्ते खाते-खाते, खेती करना तथा जल को संचय करना सीखा।

कई विफलताओं के बाद उसने इस प्रक्रिया में सफलता हासिल की होगी और अपने बौद्धिक कौशल को आगे बढ़ाया होगा। अनादिकाल से वह अपने बुद्धिबल के सहारे धीरे-धीरे उन्नति कर आज इस अवस्था में पहुँचा है। किन्तु हम आज उस पुराने और पारम्परिक ज्ञान, जो अत्यन्त बहुमूल्य एवं उपयोगी है को बहुत पीछे छोड़कर निरन्तर आगे निकलने की चेष्टा में लगे हैं।

प्राचीन तकनीक किसी भी रूप में वर्तमान से कम नहीं आँकी जा सकती है। जरुरत सिर्फ प्रचार-प्रसार, संरक्षण, संवर्धन, शोध और मार्गदर्शन की है। हमारी समृद्ध लोक परम्पराओं को पुनः जीवित कर उनका संरक्षण एवं विस्तार करने के साथ-साथ आधुनिक पद्धतियों के साथ उनका सामंजस्य स्थापित किया जाये। यह भी सम्भव है कि गुणियों को संगठित कर उनमें आत्मविश्वास जागृत कर इस ज्ञान को संरक्षित करने के प्रयास किये जाएँ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कहा था कि यदि लोगों को शक्ति बोध हो तो धरती पर स्वर्ग उतर सकता है।इस सांसारिक ज्ञान और बौद्धिक सम्पदा के खजाने को एक करने की आज अत्यन्त आवश्यकता है। थार में लोगों ने जल की हर बूँद का बहुत ही व्यवस्थित उपयोग करने वाली आस्थाएँ विकसित की और लोक जीवन की इन्हीं मान्यताओं ने इस कठिन प्रदेश में जीवन को चलाया, समृद्ध किया और प्रकृति पर भी जरुरत से ज्यादा दबाव नहीं पड़ा।

आज के परिदृश्य में वर्तमान विद्यालयी पाठ्यक्रम व सीमित पढ़े-लिखे लोग, पारम्परिक प्राकृतिक जल संग्रहण विधि एवं कृषि तकनीकों को पुरानी प्रथा कह भूलने लगे हैं। शासन से अपेक्षा करने लगे कि घर-घर पानी पहुँचाना उसका दायित्व है। यथा बिजली नहीं है तो पानी नहीं है। निष्क्रिय हुए ग्रामवासी सरकार पर दोषारोपण करने लगे और प्राचीन जल प्रबन्धन व्यवस्था को अनुपयोगी मानकर उन्होंने अपने आप को इस सामाजिक आवश्यकता से स्वतंत्र कर लिया। इस कारण पारम्परिक स्रोतों का रख-रखाव प्रायः समाप्त हो गया।
 

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परम्परागत जल संरक्षण पद्धतियाँ

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परम्परागत जल संरक्षण पद्धतियाँRuralWaterMon, 04/02/2018 - 14:06
Source
ग्राविस, जोधपुर, 2006

कृषि और उद्योग


खड़ीनखड़ीनभारत एक कृषि प्रधान एवं ग्रामीण सम्पन्न देश है। भारत की खेती और उद्योग मानसून पर आधारित रहे हैं। अगर देश में मानसून समय से आता है तो खेती अच्छी होती है। पानी की चमक समाज के हर वर्ग में देखने को मिलती है। भारत की खेती और किसान का जीवन पानी के बिना वीरान और सूना है।पानी के बिना उसमें न तो उत्साह होता है और न ही उमंग। पानी के बिना उसके जीवन में पराधीनता की झलक दिखाई देती है। अच्छी वर्षा के बिना अच्छी खेती नहीं होती। देश की अधिकांश जनसंख्या गाँव में रहती है। उसका जीवन खेती पर ही आधारित होता है। बिना पानी के उनका जीवन कष्टप्रद व्यतीत होता है।

बरसात के दिनों में अच्छी बरसात होती है तो भारतीय किसान के लिये पूरे साल का संवत बन जाता है। समाज में और देश में खुशहाली का वातावरण बना रहता है। देश का प्रगति चक्र भी ठीक रहता है।

हमारे देश में कृषि को भी पर्व और उत्सव के रूप में देखा जाता है। देश में जितनी अच्छी पैदावार होती है और उसका उचित मूल्य भी मिल जाता है, तो गाँव से लेकर बड़े-बड़े शहरों के बाजारों में गहमा-गहमी भी बढ़ जाती है। बाजार की गहमा-गहमी इस बात का सबूत है कि समाज में उत्साह है, उमंग है, खुशहाली है और समाज प्रगतिशील है।

परन्तु राजस्थान वर्षा की दृष्टि से वंचित प्रदेश है। सीमित एवं कम वर्षा तथा रेतीली मिट्टी के कारण यहाँ कृषि जल एवं पेयजल की समस्या हमेशा बनी रहती है। विपरीत प्राकृतिक परिस्थितियों के बावजूद राजस्थान सबसे सघन आबादी वाला मरुस्थल है। हमारे पूर्वजों ने यहाँ की जलवायु एवं वर्षाचक्र को समझते हुए अपने जनजीवन को प्रकृति के अनुसार ढाल लिया और आजीविका चलाने के कई तरीके विकसित किये। खेती के लिये वर्षाजल संरक्षित करने के लिये कुछ परम्परागत ढाँचे (खड़ीन) बनाए गए जीनमें आज भी अकाल के वर्षों में भी फसल प्राप्त हो जाती है। वर्षाजल पीने योग्य शुद्ध होता है। पेयजल के लिये वर्षा जल संग्रहण संरचनाएँ जैसे टांका, बेरी, नाड़ी आदि हमारे पूर्वजों की देन है। ये सभी परम्परागत तकनीकें उन्होंने स्थानीय जलवायु, मनुष्य की आवश्यकता और सुलभता के आधार पर लोक व्यवहार एवं ज्ञान से विकसित की गई।

विज्ञान निरन्तर प्रगति कर रहा है, परन्तु राजस्थान की सूखी जलवायु और पानी की कमी का समाधान आज भी विज्ञान के पास नहीं है। आज के परिप्रेक्ष्य मे भी प्राचीन परम्परागत जल संग्रहण विधियाँ ही कृषि और लोक जीवन को जीवित रखने में अधिक कारगर है। इन अनमोल विधियों को एक समय के अनुसार कुछ तकनीकी सुधार कर इनके प्रयोग द्वारा हम अवश्य कुछ हद तक पानी की समस्या से निदान पा सकते हैं।

लोक विज्ञान से परिपूर्ण इन कुछ संरचनाओं का वर्णन हम कर रहे हैं जिनका सफलतापूर्वक प्रयोग हो रहा है तथा वे ग्रामीण जीवन का आधार है।

 

 

खड़ीन


खडीनखड़ीन का निर्माण सामान्यतः खरीफ या रबी की फसल कटने के बाद दिसम्बर और जून में किया जाता है क्योंकि इस दौरान किसान के पास अतिरिक्त समय होता है। मरुस्थल में जल संरक्षण की तकनीकों का विवरण बिना खड़ीन के नाम से अधूरा है। खड़ीन मिट्टी का एक बाँध है जो किसी ढलान वाली जगह के नीचे बनाया जाता है जिससे ढलान पर गिरकर नीचे आने (बहने) वाला पानी रुक सके। यह ढलान वाली दिशा को खुला छोड़कर बाकी तीन दिशाओं को घेरती है। खड़ीन से जमीन की नमी बढ़ने के साथ-साथ बहकर आने वाली खाद एवं मिट्टी से उर्वरकता में भी वृद्धि होती है। नमी की मात्रा बढ़ने से एक वर्ष में दो फसलें लेना भी सम्भव हो जाता है।

खड़ीन एक क्षेत्र विशेष पर बनने वाली तकनीक है जिसे किसी भी आम जमीन पर नहीं बनाया जा सकता। बढ़िया खड़ीन बनाने के लिये अनुकूल जमीन में दो प्राकृतिक गुणों का होना आवश्यक है।

1. ऐसा आगोर (जल ग्रहण क्षेत्र) जहाँ भूमि कठोर, पथरीली, एवं कम ढालदार हो, जिससे मिट्टी की मोटी पाल बाँधकर जल को रोका जा सके।
2. खड़ीन बाँध के अन्दर ऐसा समतल क्षेत्र होना चाहिए जिसकी मिट्टी फसल उत्पादन के लिये उपयुक्त हो।

 

 

 

 

संरचना


खड़ीन एक अर्द्धचन्द्राकारनुमा कम ऊँचाई (4 फीट से 5 फीट) वाला मिट्टी का एक बाँध होता है। यह ढाल की दिशा के विपरीत बनाया जाता है, जिसका एक छोर वर्षाजल प्राप्त करने के लिये खुला रहता है। किसी भी खड़ीन को बनाने में तीन तत्व महत्त्वपूर्ण होते हैः-

1. पर्याप्त जल ग्रहण क्षेत्र
2. खड़ीन बाँध तथा
3. फालतू पानी के निकास के लिये उचित स्थान पर नेहटा (वेस्ट वीयर) बनाना तथा पूरे पानी को बाहर निकालने के लिये खड़ीन की तलहटी में पाइप लाइन (स्लूम गेट) लगाना। सामान्य समय में मोखा (स्लूम गेट) बन्द रखा जाता है। स्लूम गेट (निकास) का उपयोग उस समय अत्यन्त आवश्यक हो जाता है, जब खड़ीन में वर्षाजल इकट्ठा हो जाये और फसल को पानी की आवश्यकता नहीं हो। यदि उस समय पानी को नहीं निकाला जाये तो फसल के सड़ जाने का खतरा रहता है। खड़ीन 150 से 500 मीटर तक लम्बा हो सकता है। इसका आकार साधारणतया उस क्षेत्र की औसत वर्षा, आगोर का ढाल तथा भूमि की गुणवत्ता पर ही निर्भर करता है।

खड़ीन बाँध (पाल) के ऊपर (टॉप) की चौड़ाई 1 से 1.5 मीटर तक तथा बाँध की दीवार में 1:1.5 का ढाल होना चाहिए।

जिस स्थान पर पर्याप्त जल आकर रुकता है उसे ‘खड़ीन’ (समरजिंग एरिया) और पानी रोकने वाले बाँध को ‘खड़ीन बाँध’ कहा जाता है। अतिरिक्त पानी के निकास के लिये बनाई गई संरचना को ‘नेहटा’ कहते हैं। खेती लायक पानी एकत्र करने के लिये खड़ीन और आगोर का आदर्श अनुपात 1:5 का होना चाहिए।

 

 

 

 

खड़ीन निर्माण पर लागत


एक 5 हेक्टेयर एकड़ की जमीन पर 650 फीट लम्बी व 5 फीट ऊँची एवं ऊपर से 3 फीट व नीचे से 18 फीट चौड़ी खड़ीन के निर्माण के लिये कुल 620 कार्य दिवस (60 रुपए प्रतिदिन) एवं नेहटा निर्माण (5000 रुपए) के हिसाब से लगभग 42,000 रुपए की लागत आती है।

मानसून की अनिश्चितता अन्न की पैदावार पर ज्यादा असर ना डाले, इसी को ध्यान में रखते हुए जुलाई में पहली बरसात के तुरन्त बाद बाजरा बो दिया जाता है। इसके बाद अगर 60-70 मिमी भी बरसात हो गई तो यह बाजरे के लिये पर्याप्त होती है। जमीन की नमी को देखते हुए बाजरा, ज्वार या ग्वार की फसल की जाती है। इनके साथ ही मोठ, मूँग और तिल जैसी दलहन और तिलहन की खेती भी की जाती है। अगर खेतों में घिरा पानी पूरे मानसून भर जमा रहता है और उसके बाद रबी की फसल लगाई जाती है।

मरु प्रदेश में वर्षा कम तो होती है, पर कई बार यह बहुत कम समय में ही तूफानी रफ्तार से गिरती है। फिर ढलान पर पानी एकदम तेज रफ्तार से उतरता है। यह अनुमान है कि 100 हेक्टेयर तक के कई चट्टानी आगोरों से एक बरसात में 1,00,000 घन मीटर तक पानी जमा होकर नीचे आ सकता है। इस प्रकार खड़ीनों पर काफी पानी जमा होता है और यह 50 से लेकर 125 सेंटीमीटर तक ऊँचा हो सकता है। साल में 80 से 100 मिमी बरसात जो कम-से-कम दो तीन दफे तेज पानी पड़ने के रूप में आये खड़ीनों को भरने और रबी तक की फसल देने के लिये पर्याप्त है।11यह पानी धीरे-धीरे नवम्बर तक सूखता है और तब जमीन में गेहूँ और तिलहन जैसी रबी की फसल बोने लायक नमी रहती है। फलौदी के उत्तर पश्चिम हिस्से में तरबूज भी बहुत उगाए जाते हैं। गेहूँ और चना भी बोया जाता है। अगर फसल लगाने के समय तक पानी टीका हो तो पहले फाटक (मोखी) खोलकर उस पानी को निकाल दिया जाता है। आमतौर पर रबी की फसल को कोई रासायनिक खाद देने की जरुरत नहीं पड़ती। मार्च तक फसल तैयार हो जाती है।

खड़ीन की खेती में न तो बहुत जुताई-गोड़ाई की जरूरत होती है, न ही रासायनिक खाद कीटनाशकों की। फिर भी बाजरा की पैदावार प्रति हेक्टेयर 9 से 15 क्विंटल तक हो जाती है। अच्छी बरसात हो और पर्याप्त पानी जम जाये तो जौ और गेहूँ की फसल प्रति हेक्टेयर 20 से 30 क्विंटल, सरसों और चने की फसल प्रति हेक्टेयर 15 से 20 क्विंटल हो जाती है। राजस्थान नहर से सिंचित खेतों की पैदावार की तुलना में यह पैदावार भले ही कम दिखे, पर यह भी याद रखना जरूरी है कि यह फसल बिना ज्यादा परिश्रम, ज्यादा खर्च और झमेले के हो जाती है और इतने मुश्किल इलाकों में भी फसल का भरोसा रहता है।

 

 

 

 

महत्त्व


खड़ीन कंकरीली और चट्टानी जमीन को भी खेती लायक बनाने में कारगर सिद्ध हुई है। यह शुष्कतम इलाकों में भी किसानों को फसल नहीं तो पशुओं के लिये चारा तो दे ही देती है। खड़ीनों में जमा पानी अपने साथ बारीक और उर्वरक मिट्टी भी लाता है। इसलिये खड़ीनों की मिट्टी की प्रकृति बदल दोमट हो जाती है और वह यहीं के दूसरे खेतों की तुलना में ज्यादा उर्वर हो जाती है। इसमें जैव कार्बन पदार्थों की मात्रा 0.2 से 0.5 फीसदी तक हो जाती है, जो आसपास की जमीन से बहुत अधिक है। फिर इसमें पोटेशियम ऑक्साइड की मात्रा भी ज्यादा होती है। आगोर क्षेत्र में चराई भी होती है, जिससे पशुओं के गोबर और पेशाब की उर्वरता भी वर्षा के पानी के साथ बहकर इसमें आ जाती है। खड़ीन के मेढ़ को पास प्राकृतिक रूप से खेजड़ी, बोरड़ी, कुमटिया आदि पेड़-पौधे स्वतः ही उग जाते हैं।

खड़ीनों से ढलान वाली मिट्टी में लवणों के बढ़ने पर भी अंकुश लगता है। मरु भूमि में जहाँ भी पानी जमा होता है, वहाँ जिप्सम की परत ऊपर होने से नुकसान होता है। पर पुरानी खड़ीनों में लवणों की मात्रा हल्की ही आती है। खड़ीन बाँधों की दूसरी तरफ जहाँ रिसकर पानी पहुँचता है लवणों की मात्रा ज्यादा पाई जाती है। स्पष्ट है कि खड़ीनों में आने वाले लवण खुद-ब-खुद बाहर फेंके जाते हैं। पानी के ऊपर आने वाली मिट्टी साल-दर-साल खड़ीन के अन्दर वाली जमीन का स्तर थोड़ा-थोड़ा ऊपर करती है और कुछ वर्षों में ही खड़ीन के अन्दर और बाहर की मिट्टी के स्तर ओर किस्म मे काफी फर्क आ जाता है। पुरानी खड़ीनों में तो ऊँचाई का फर्क चौथाई से एक मीटर तक का हो गया है। इस फर्क के चलते भी खड़ीन मे जमा पानी का रिसाव बाहर की तरफ होता है और लवण घुलकर बाहर निकलते हैं। अनेक स्थानों पर खड़ीनों के बाहर कुआँ (परकोलेशन वेल) खोद दिया गया है और इस कुएँ में भरपूर पानी आता है, जिसका उपयोग पीने और अन्य कार्यों में भी होता है। इसमें रिसाव तेज होता है और इस क्रम में खड़ीन के अन्दर की जमीन से लवणों के बाहर जाने का क्रम भी तेज होता है।

अध्ययनों से स्पष्ट हो जाता है कि जैसलमेर जिले के खड़ीन वाले किसानों की स्थिति बिना खड़ीन वाले किसानों से काफी अच्छी है। चूँकि अधिकांश खड़ीनों का निर्माण पालीवाल ब्राह्मणों ने किया था, अतः उनके पलायन से इसके कौशल में गिरावट आई। फिर इनका रख-रखाव भी उपेक्षित हुआ। बाढ़ के साथ कंकड़, पछीमकर और मोटा रेत भी आ जाता है और खड़ीनों में जमा हो जाता है। आगोर क्षेत्र में बर्बादी होने से यह क्रम तेज हुआ है। इससे मिट्टी भरने का क्रम भी बढ़ा है। उपेक्षा के चलते अनेक खड़ीन बाँध टूट गए हैं या उनमें दरार आ गई है, इनके चलते अब वे पानी को नहीं रोक पाते।

 

 

 

 

सुक्षाव


खड़ीन व्यवस्था को ठीक से चलाने के लिये उसके आगोर क्षेत्र को फिर से हरा-भरा बनाना होगा। इसमें चराई जरुरी है और लाभप्रद भी, पर एक सीमा तक ही। सिंचित जमीन को भी बराबर समतल करते रहना चाहिए जिसमें पानी का समान वितरण हो। ऐसा न करने पर पानी जहाँ-तहाँ जमा होगा और उसका कुशलतापूर्ण उपयोग नहीं हो पाएगा। तेज बारिश के बाद तूफान की रफ्तार से आया पानी अपने साथ कंकड़, पछीमकर और मोटा रेत लाकर खड़ीन में भर सकता है। इनको समय-समय पर निकालते रहना चाहिए। मिट्टी में लवणों की मात्रा पर भी नजर रखनी चाहिए और अगर ये बढ़े हुए दिखे तो पहली एक दो बरसात का पानी बह जाने देना चाहिए, क्योंकि उसके साथ में अतिरिक्त लवण भी बह जाएँगे। खड़ीन बाँध के बाहर कुआँ खोदने से भी यह काम हो जाता है। बाँध का उचित रख-रखाव किया जाना चाहिए। इसकी ऊँचाई 1.5 मीटर से कम नहीं होनी चाहिए और इसमें दरार नहीं आनी चाहिए। सामान्य स्थिति में पानी को ऊपर से निकलने भी नहीं देना चाहिए।

ग्रामीण विकास विज्ञान समिति द्वारा थार में गरीब किसानों की जमीन पर कई पारिवारिक खड़ीन बनवाए गए हैं। उनका मानना है कि खड़ीनों से उत्पादकता निश्चित रूप से बढ़ी है। सूखे के समय चारे की उपलब्धता भी एक बहुत बड़ी उपलब्धी है। समिति द्वारा शुरुआत करने के बाद खड़ीनों के चलन ने जोर पकड़ा है और अनेक गाँव के लोगों ने समिति से अपने यहाँ खड़ीन बनाने में मदद माँगी है। और सरकार द्वारा भी बड़े-बड़े खड़ीन (बाँध) नहीं बनाकर छोटे-छोटे पारिवारिक खड़ीन बनाने की शुरुआत हुई है।

 

 

 

 

टांका

टांकाटांका एक परम्परागत जल संग्रहण तकनीक है, जिसमें मूलतः वर्षाजल संग्रहण किया जाता है। यह भूमिगत तथा ऊपर से ढँका हुआ टैंक (पक्का कुंड) है, जो सामान्यतया गोल या बेलनाकार होता है। इस जल का उपयोग पीने, घरेलू, कार्यों व पालतू पशुओं को पिलाने के लिये किया जाता है। टांके थार मरुस्थल में बहुतायत संख्या में पाये जाते हैं।

पक्के टांकों के जरिए वर्षाजल को शुद्ध व सुरक्षित रखा जा सकता है। इसमें कम पानी वाले क्षेत्रों में अधिक समय तक पीने का पानी उपलब्ध रहता है। टांके मनुष्य को पेयजल समस्या से मुक्ति देते हैं। टांके व्यक्तिगत व सामूहिक दोनों स्तरों पर बनाए जाते हैं। व्यक्तिगत व पारिवारिक स्तर पर बनाए गए टांके परिवार की आवश्यकता को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। इन टांकों का निर्माण ज्यादातर निजी जमीन में होता है। टांके में संरक्षित जल का उपयोग अक्सर परिवार जन ही करते हैं। सम्बन्धित परिवार की अनुमति से ही गाँव के अन्य लोग पानी का उपयोग कर सकते है। समाज की सहभागिता से बनाए गए टांके पूरे समाज के होते हैं। ये समाज की जरूरत को ध्यान में रखकर सार्वजनिक स्थान पर ही बनाए जाते हैं। जहाँ किसी भी व्यक्ति के जाने पर बन्दिश नहीं होती। समाज के सहयोग से बनाए गए टांके संख्या में एक, अधिक व आकार में बड़े-छोटे हो सकते है। टांकों में जल को सुरक्षित रखने व उपयोग करने का काम तद्नुसार परिवार व समाज के लोगों का होता है।

 

 

 

 

टांके की संरचना


टांका एक भूमिगत पक्का कुंड है जो अधिकाशतः गोलाकार (बेलनाकार) होता है। टांकों के मुख्य तीन भाग होते हैं–

 

 

 

 

आगोर या वर्षाजल ग्रहण क्षेत्र

आगोर या जल ग्रहण क्षेत्र वर्षाजल एकत्रित करने का स्थान होता है। आगोर से वर्षाजल प्रवेश द्वार से होते हुए टांके के अन्दर जाता है। कई क्षेत्रों में कठोर जमीन होने से टांकों का जलग्रहण क्षेत्र प्राकृतिक होता है। मगर विशेषकर रेतीले स्थानों पर कृत्रिम जल ग्रहण क्षेत्र बनाना पड़ता है। इस जल ग्रहण क्षेत्र में हल्का सा ढलान टांके की ओर दिया जाता है। टांके के चारों ओर सूखा ढालदार प्लेटफार्म बनाया जाता है जिसमें पानी का बहाव टांके की ओर हो। टांकों में एक से तीन प्रवेश द्वार बनाते हैं जिसके द्वारा पानी टांके में जाता है। इस प्रवेश द्वार पर आधा इंच की वर्गाकार लोहे की जाली लगी होती है। जो कचरे के साथ छोटे-छोटे जीवों जैसे- साँप, चमगादड़, चिड़िया, गोह आदि को अन्दर जाने से रोकती है।

 

 

 

 

सिल्ट कैचर


टांके में शिल्ट कैच के तरीकेसिल्ट कैचर (टांके का प्रवेश द्वार) सुनिश्चित करता है कि पानी के बहाव के साथ आई मिट्टी व अन्य अवांछित वस्तुएँ वर्षाजल के साथ टांके में प्रवेश न कर सके। इस उद्देश्य के लिये एक पक्का लाइनदार लम्बा गड्ढा बनाया जाता है, जिसके बीच में रुकावटदार पछीमकरों की पट्टियाँ या खेली बनाई जाती है। वर्षाजल सर्वप्रथम इसमें एकत्रित होता है, इनमें मिट्टी व अन्य पदार्थ जमा हो जाते हैं व साफ पानी टांके में एकत्रित हो जाता है। टांके में दो से तीन तक प्रवेश द्वार बनाए जाने चाहिए, जिनके द्वारा वर्षाजल टांके में अधिक-से-अधिक मात्रा में शीघ्रता से आ सके। यह सिल्ट कैचर अलग-अलग डिजाइन से बनाए जाते हैं।

 

 

 

 

निकास द्वार


टांके के प्रवेश द्वार से दूसरे छोर पर 30 गुणा 30 सेमी. का जालीनुमा निकास द्वार बनाया जाता है। जिससे टांके की क्षमता से अधिक आया हुआ जल बाहर निकल सके। प्रवेश व निकास द्वार दोनों मे ही लोहे की जाली लगानी चाहिए। टांके के प्रवेश द्वार पर चूने, पछीमकर या सीमेंट की पक्की बनावट की जानी चाहिए। टांके से पानी को निकालने के लिये टांके की छत पर एक छोटा ढक्कन लगा होता है, जिसे खोलकर बाल्टी व रस्सी की सहायता से पानी खींचा जाता है।

 

 

 

 

टांकों के प्रकार


संस्था ने तीन प्रकार के टांकों का निर्माण किया है, - पहाड़ी क्षेत्र में पहाड़ के ऊपर खुले टांके, रेतीले क्षेत्र में बन्द टांके एवं छत के पानी के उपयोग के लिये घरेलू टांके।

 

 

 

 

खुले टांके


खुले टांके ऐसे पहाड़ी अथवा ढालू स्थान पर बनाए जाते हैं जहाँ बरसाती पानी आसानी से और उचित मात्रा में टांके में आ सके। स्थान ऐसा हो जहाँ कम-से-कम पशु जाते हों, जिससे उस जलग्रहण क्षेत्र में स्वच्छता बनी रहे। शौच आदि के लिये इंसानी आवागमन पर पाबन्दी हो। टांके के पानी को स्वच्छ रखने के लिये लाल दवा, फिटकरी या ब्लीचिंग पाउडर का इस्तेमाल किया जाता है।

 

 

 

 

खुले टांके बनाने की विधि


खुले टांके की गहराई 15-20 फीट तक होती है। टांके का व्यास 10-15 फीट होता है। टांके के निर्माण में पछीमकर, बजरी, सीमेंट व कुशल कारीगर का उपयोग होता है। इसके ऊपरी भाग में पानी आने व जाने के लिये रास्ते बनाए जाते हैं। टांके में पानी आने के रास्ते में कुछ छोटे-बड़े पछीमकर डाल दिये जाते हैं। आते पानी में जो कुछ भौतिक अस्वच्छता होती है, वह पछीमकरों के बीच रुक जाती है। इस तरह टाकों में स्वच्छ पानी पहुँचता है। टांके भरने के बाद पानी निकासी के रास्ते से टांके में आई गन्दगी व कचरा आदि पानी के साथ आसानी से निकल जाये, इसकी व्यवस्था भी जरूरी होती है। टांके में आये जल का उपयोग केवल पीने के लिये ही किया जाता है। इसका जल तालाब के पानी से अधिक स्वच्छ होता है, क्योंकि यह मवेशी व क्षेत्र की गन्दगी से बचा रहता है। टांके के निर्माण में संस्था ने अक्सर सीमेंट व कुशल कारीगर की मजदूरी का भुगतान ही किया। गाँव ने टांके बनवाने में पूरी मजदूरी, बजरी तथा पछीमकर का सहयोग किया।

 

 

 

 

खुले टांके के लाभ


पेयजल स्वच्छ रहता है। दूषित जल से सम्बन्धित बीमारियाँ कम होती हैं। कार्य क्षमता बढ़ती है। आर्थिक स्थिति में सुधार तथा जीवन में स्वावलम्बन आता है। पानी से चिन्तामुक्त समाज का गतिशील और विकासशील होना स्वाभाविक है।

 

 

 

 

बन्द टांके


सिणधरी, बाड़मेर में एक टांका और आगोरमारवाड़, शेखावटी के क्षेत्र में बन्द टांके बनाए गए हैं। बन्द टांके रेगिस्तानी क्षेत्र में वर्षा के पानी को धूल एवं रेत से सुरक्षित रखने में उपयोगी रहते हैं। इनमें खुले टांकों की अपेक्षा जल अधिक स्वच्छ रहता है और वाष्पीकरण भी कम होता है। बन्द टांके घर के आँगन में, बाड़े में, खेत में, सार्वजनिक स्थान पर, कच्चे रास्ते और सड़कों के किनारे बनाए जाते हैं।

 

 

 

 

निर्माण विधि


टांके के निर्माण के लिये 20-30 फीट जगह चाहिए। जिसमें बीच में 10-12 फीट के व्यास में 10 फीट गहराई में कुआँनुमा खुदाई करके ईंटों की पक्की दीवार गोलाई में बनाई जाती है। नीचे का फर्श पक्का बनाया जाता है और ऊपर पटाव किया जाता है। 20-30 फीट के शेष भाग को गोलाई में या वर्गाकार आकृति में पक्का फर्श किया जाता है। इस फर्श पर बरसा पानी ही टांके में जाता है। इस फर्श को पायतन भी कहते हैं। टांके की दीवार फर्श से डेढ़ दो फीट ऊँची होती है, जिसमें चारों तरफ टांके में पानी जाने के रास्ते होते है। इनमें लोहे की जाली लगी रहती है। जिससे पानी छनकर टांके में जाये। टांके की छत में पानी निकालने के लिये 2 गुणा 2 का दरवाजा बनाया जाता है, जिस पर लोहे का ढक्कन लगा होता है। इसमें ताला भी लगा सकते हैं। बाल्टी द्वारा आसानी से पानी निकाल मटकी को भरा जा सकता है। आवश्यकतानुसार साथ-ही-साथ छोटा हैण्डपम्प भी लगा दिया जाता है, इससे भी पानी निकालने में आसानी होती है।

 

 

 

 

बन्द टांकों के लाभ


खुले टांकों की अपेक्षा बन्द टांकों में जल अधिक सुरक्षित व स्वच्छ रहता है। ऐसे टांके मैदानी एवं रेगिस्तानी इलाकों के लिये अधिक उपयोगी होते हैं। फ्लोराइड वाले क्षेत्रों में भी टांके अधिक उपयुक्त होते हैं। अधिक फ्लोराइड युक्त पानी पीने से फ्लोरोसिस जैसी खतरनाक बीमारियाँ होती हैं। ऐसे इलाको में टांके बेहतर पेयजल उपलब्ध कराते हैं। और फ्लोरोसिस के बढ़ते खतरे से मुक्ति भी मिलती है।

 

 

 

 

जीवनी नाड़ी (केस स्टडी)


लवां, जैसलमेर में स्थित जीवनी नाड़ी के लिये माना जाता है कि यह सैकड़ों वर्ष पुरानी है। लवां गाँव के बसने के समय इसका निर्माण हुआ था। इसके निर्माण को लेकर यह किवदन्ती प्रचलित है कि जीवनी कुम्हारी नाम की एक महिला अपनी गाय के बछड़ों को चरा रही थी तभी उसने देखा कि यहाँ एक गड्ढे में पानी भरा था और वह पानी दूसरे व तीसरे दिन भी यथावत था। कुम्हारी को लगा कि यहाँ यदि बड़ा गड्डा खोद दिया जाये तो पीने के पानी का जुगाड़ हो सकता है, यही सोच रखते हुए उसने लगातार डेढ़ दो माह तक अपने पशुओं को चराने के साथ-साथ नियमित रूप से खुदाई का कार्य प्रारम्भ किया। कुछ माह पश्चात गाँव वालों ने उसके इस कार्य की प्रशंसा करते हुए उसके साथ एकजुट होकर खुदाई कार्य में सहयोग देना प्रारम्भ कर दिया और इसी के फलस्वरूप इस खुदाई ने एक बड़ी नाड़ी के स्वरूप को प्रकट किया। इस नाड़ी का आगोर लगभग 60 हेक्टेयर है और 3-4 हेक्टेयर क्षेत्र में पानी भरा हुआ है। इस नाड़ी से लोगों को वर्ष भर के लिये मीठा पानी उपलब्ध होता है।

वर्तमान में पंचायत के सहयोग से नाड़ी के चारों ओर बाड़ बनाई हुई है। जिससे कोई भी व्यक्ति नाड़ी एवं नाड़ी के आगोर को गन्दा न कर सके। इसी के साथ रामदेवरा में भरने वाले मेले के दौरान यहाँ एक व्यक्ति नियमित रूप से इसका पहरा देता है। नाड़ी में स्नान एवं कुल्ला करने की सख्त मनाही थी। भेड़ बकरी इससे पानी नहीं पी सकते थे क्योंकि यह माना जाता था कि उनकी नाक से गिरने वाली गन्दगी से पानी दूषित हो सकता है। पूर्व में किसी भी नियम के उल्लंघन के दोषी पाये जाने वाले व्यक्ति पर दस रुपए का जुर्माना था। किन्तु सन 2001 नें ग्राविस संस्था के द्वारा इस नाड़ी के खुदाई कार्य के पश्चात इसकी स्वच्छता को मद्देनजर रखते हुए ग्राम विकास समिति के सहयोग से 500 रुपए का जुर्माना तय किया गया। विगत पाँच वर्षों में इस नाड़ी का पानी एक बार भी समाप्त नहीं हुआ है।

 

 

 

 

सोमेरी नाड़ी


नाडीसोमेरी नाड़ी जोधपुर जिले के उग्रास गाँव में 1543 ईस्वी में बनाई गई। ऐसा माना जाता है कि पाँच सौ वर्ष से भी अधिक पुराने इस उग्रास गाँव में स्वामी केशवगिरी जी महाराज रहा करते थे। उस समय यहाँ पानी की बहुत कमी थी। केशवगिरी जी को गाँव वालों से अनबन के चलते गाँव छोड़ने के आदेश दे दिये गए थे। केशवगिरी जी ने उसी समय अपनी जलती हुई धूणी को अपनी झोली में भरकर गाँव से बाहर की ओर प्रस्थान कर दिया। गाँव वालों को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने महाराज से पुनः गाँव में लौट चलने के लिये विनती की, किन्तु केशवगिरी जी ने वापस लौटने से मना कर दिया और गाँव के बाहर ही बैठकर जप करने की मंशा प्रकट कर दी। यहीं जप करते-करते उन्होने लोक कल्याण के उद्देश्य से नियमपूर्वक प्रतिदिन पाँच चद्दर मिट्टी की खुदाई करना प्रारम्भ किया। तब से आज तक यह नाड़ी गाँव के सूखे कंठों को तर करने का जरिया बनी है। सोमेरी नाड़ी से पहले भी कई नाड़ियाँ बनी थीं, लेकिन देखभाल के अभाव में वे समतल हो चुकी थीं। परन्तु ग्राविस ने पाँच साल के भीतर सभी छोटी-मोटी नाड़ियों को गाँव वालों की सहभागिता से गहरा कर पुनर्जीवित किया वर्तमान में सभी नाड़ियों में पर्याप्त पानी 6-12 माह तक मनुष्यों एवं जानवरों को मिल रहा है।

 

 

 

 

आगोर से आगार तक


आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व जब विज्ञान आज की भाँति विकसित नहीं था तब भी समाज ने जल को संग्रहित करने की उन्नत विधियाँ विकसित कर ली थीं। ऐसा माना जाता है कि सबसे पहले कुईं और बेरियों के निर्माण की प्रथा थी जिसमें भूजल रिसाव से एकत्रित होता था। उसके बाद नाड़ी बनाने की शुरुआत हुई। भूमि का चयन, पात्रता, परीक्षण, निर्माण एवं सुरक्षा/संरक्षण के लिये ध्यान रखने योग्य बिन्दुओं को उन्होंने अपने निरन्तर अनुभवों से प्राप्त किया था।

नाड़ी को नाड़ा, तालाब आदि नामों से भी जाना जाता है। नाड़ी आकार में छोटी व तालाब, नाड़ा आकार में बड़े होते है। थार मरुस्थल में, तालाब और नाड़ियाँ बहुत पहले से ही घरेलू जलापूर्ति के रूप में उपयोग में लाये जाते रहे हैं।

एक नाड़ी या तालाब वर्षाजल का एकत्रीकरण है, जो मिट्टी द्वारा जल रोकने का बाँध या खुदे हुए गड्ढे के रूप में निर्मित किया जाता है। इसका बहुत बड़ा जल ग्रहण क्षेत्र होता है। नीचे का ढलाव जिसे बड़ा गढ्डा खोदकर जल संग्रह के लिये बनाया जाता है। गड्ढा खोदने के दौरान निकाली गई मिट्टी को उस गड्ढे के किनारे के ऊपर अर्द्धचन्द्राकार पंक्ति के रूप में लगाया जाता है जिससे की गड्ढे का पानी बाहर न आने पाये। सतही अप्रवाह और क्रियाशील भूमि जलस्रोत खुदे हुए तालाबों में जलापूर्ति के दो साधन हैं। शुष्क प्रदेशों में जहाँ भूमि जलस्तर बहुत गहरा होता है, केवल सतही अप्रवाह ही तालाबों और नाड़ियों की जलापूर्ति का साधन होता है।

 

 

 

 

नाड़ी का आकार


प्रकार भी एक महत्त्वपूर्ण बिन्दू है। बड़ी नाड़ियों का जल ग्रहण क्षेत्र 100 से 500 हेक्टेयर तक का होता है। इसकी भरण क्षमता 20 से 40 हजार क्यूबिक मीटर होती है व छोटी नाड़ियों की क्षमता कुछ ही हेक्टेयर जल ग्रहण क्षेत्र में 700 क्यूबिक मीटर तक हो सकती है। इन नाड़ियों को भरने के लिये 150 से 200 मिलीमीटर वर्षा पर्याप्त होती है।

गाँवो के लिये नाड़ी, जल का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत होने के साथ एक सामुदायिक जल संग्रहण की प्रभावी तकनीक भी है। नाड़ी समुदाय को विभिन्न तरीकों से लाभ पहुँचाती है। यह मनुष्य व पालतू जानवरों व पशुओं, दोनों के पेयजल की पूर्ति का स्रोत है, जो मरुस्थल में ग्रामीणों के लिये आजीविका का महत्त्वपूर्ण साधन है। इसका जल भूमि में जाकर आस-पास के कुओं-बावड़ियों में भी पानी का भराव करता है। नाड़ी उन टांकों के पुनर्भरण के काम आती है जिनमें संग्रहित वर्षाजल खत्म हो गया हो। नाड़ी के आसपास की भूमि पर घास व चारे की अच्छी पैदावार हो जाती है। इसके किनारे पर लगे पेड़ जैसे खेजड़ी, बबूल, कुमटिया, बेर, कैर, जाल, रोहिड़ा आदि वर्षा की कमी में भी हरे रहते हैं। खेजड़ी, कुमटिया, जाल व कैर फल सब्जियों के रुप में काम में लिये जाते हैं।

नाड़ी ऐसी जगह विकसित की जाती है जहाँ भूमि क्षेत्र ढालदार व थोड़ी सख्त हो, ताकि वहाँ पर वर्षाजल संग्रहित किया जा सके। ढालदार क्षेत्र जहाँ से वर्षाजल नाड़ी में एकत्रित होता है उसे जल ग्रहण क्षेत्र कहते हैं। प्रत्येक थार मरुस्थल के गाँव में उसके आकार, उम्र व जनसंख्या के आधार पर एक से पाँच तक विभिन्न आकार वाली नाड़ियाँ पाई जाती है। नाड़ी में पानी भराव की क्षमता उसके जल ग्रहण क्षेत्र और मिट्टी की गुणवत्ता पर काफी हद तक निर्भर करती है।

तालाब का ढलान गऊ घाट, पणयार घाट की ओर रखा जाता है ताकि पशु पक्षी आसानी से पानी पी सकें एवं गन्दगी आगार के केन्द्र की तरफ ना आये। साथ ही खुदाई में कुछ गहरे गड्ढे बीच में छोड़े जाते थे जिनमें पानी स्वच्छ रहता है। आबादी वाले इलाके से प्रायः नाड़ी दूर बनाई जाती है।

खुदाई से पूर्व मिट्टी एवं तल का परीक्षण किया जाता है। जिसमें मिट्टी की गुणवत्ता एवं तल के पक्के होने की जाँच होती है। जिस भूमि को नाड़ी या तालाब के लिये चिन्हित किया जाता है उसे खोदकर मिट्टी का प्रकार ज्ञात किया जाता है। यदि बलुई मिट्टी हो तो वहाँ तालाब या नाड़ी का निर्माण नहीं किया जा सकता क्योंकि यह पानी को सोख लेती है। साथ ही कुछ दिनों तक गड्ढों में पानी भरकर छोड़ा जाता है, जिससे इस तथ्य की प्रमाणिकता हो जाये कि यहाँ जल संग्रहित हो सकता है।

नाड़ियों में दो कुण्डियाँ बनाई जाती हैं। राख और मिट्टी को मिलाकर कुण्डियों पर लगाया जाता है। पशुओं को पानी पीने के लिये बनाई गई कुण्डियों को खेली के नाम से जाना जाता है जिसमें कंकर मिट्टी को गर्म कर बनाए चूने से ढाला जाता है। इन कुण्डियों को खेजड़ी एवं जाल के सूखे पत्तों से ढँका जाता है। नाड़ी/तालाब की खुदाई या इनमें बेरी की भी खुदाई हो तो लारा किया जाता है, जिसमें गाँव के सभी लोग स्वेच्छा से कार्य में सहयोग देते हैं।

ऐसे तालाब कई शताब्दियों पहले ग्राम बस्तियों के सामूहिक अभिक्रम से खोदे गए थे। उस समय शुरुआत में खोदे जाने पर जो मिट्टी का ढेर आगोर में इकट्ठा किया गया, उसे लाखेटा कहा जाता है। इन नाड़ियों के जल क्षेत्र में आई मिट्टी नियमित रूप से गाँव के श्रमदान से निकाली जाती थी, जिसमें महिलाओं की भूमिका विशेष महत्त्व रखती थी। आज भी महिलाएँ प्रत्येक अमावस्या और नवरात्र में नाड़ी से मिट्टी निकालती हैं। इस प्रकार तालाब का बाँध धीरे-धीरे ऊँचा होता जाता था। आगोर को सुरक्षित रखने, मिट्टी का कटाव रोकने तथा पेयजल की शुद्धता को बनाए रखने के लिये, आगोर में पशुओं का चरना, मनुष्यों का शौच जाना, पशुओं या मनुष्यों को तालाब मे स्नान करना, आदि पर पाबन्दी थी। जो आज भी विद्यमान है, सामान्यतया तालाबों पर धार्मिक स्थल पेड़ों को विकसित किया गया।

 

 

 

 

बेरी


बेरीबेरियाँ उथले रिसाव के कुएँ होते हैं जो ऊपर से अत्यन्त संकरे होते हैं व आधार चौड़ा होता है। इन कुओं के विस्तृत जलग्रहण क्षेत्र से वर्षाजल इकट्ठा होता है। इस प्रकार का जल वायवीय क्षेत्र में मुख्य जल धारक के ऊपर की सतह पर होता है। ऐसी संरचना उन स्थानों में बनाई जाती है जहाँ पानी के गहरे रिसाव को रोकने वाली जिप्सम परत अधोसतही स्तर पर पाई जाती है। जिप्सम परत न तो जल को अवशोषित करती है और ना ही उससे जल पारगम्य हो पाने के कारण भूजल में मिल पाता है। राजस्थान में मुख्यतः दो प्रकार की बेरियाँ पाई जाती हैं-

1. रिसाव बेरी
2. बरसाती जल संग्रहण बेरी

 

 

 

 

रिसाव बेरी


रिसाव बेरियाँ मुख्यतः रेगिस्तानी क्षेत्र के जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर एवं जैसलमेर क्षेत्रों में पाई जाती है। इस प्रकार की बेरियाँ खड़ीनों के पास या तालाबों में बनाई जाती है। भूमि का वह क्षेत्र जिसके अधोस्तर में जिप्सम पाई जाती है, उसे सामान्यतः बोलचाल की भाषा में चामी मिट्टी कहा जाता है। जहाँ जिप्सम परत के ऊपर मुड़ अर्थात कंकरीट वाला क्षेत्र हो वहाँ इस प्रकार की बेरियों का निर्माण किया जा सकता है, क्योंकि जिप्सम परत न तो पानी को अवशोषित कराती है और न ही पानी पारगम्य हो पाता है। ऐसी स्थिति में मृदा में उपस्थित वर्षाजल भूजल तक नही पहुँच पाता है। ये बेरियाँ सामान्यतः 30 से 40 फीट गहरी होती हैं।

 

 

 

 

निर्माण एवं कार्यविधि


बेरी का मुँह लगभग 3 से 5 फीट व्यास का होता है तथा अधोस्तर पर इसका व्यास 5 से 10 फीट तक हो सकता है। जिप्सम परत से ऊपर कंकरीट वाला क्षेत्र जिसे मुड़ कहा जाता है उसके नीचे जिप्सम स्तर आता है। रिसाव द्वारा जल इसमें एकत्रित होता रहता है। बेरी की खुदाई उस गहराई तक की जाती है जब तक भूमि के अधोस्तर में जिप्सम परत नहीं आ जाती है। सिद्धान्त के अनुसार द्रव्य अधिकता से कम की ओर गति करता है। जल भूजल के ढलान वाले भाग की ओर आकर संग्रहित हो जाता है। लूज स्टोन द्वारा इसकी चिनाई की जाती है, क्योंकि लूज स्टोन पानी के रिसाव को अवरोधित नहीं करता। बेरी के मुख अर्थात भू-स्तर से 3 फीट गहराई व 2 फीट ऊँचाई तक पक्की चिनाई की जाती है, ताकि बेरी धँसे नहीं। बेरी से पानी निकालने के लिये बेरी की छत पर एक छोटा ढक्कन लगा होता है, जिसे खोलकर बाल्टी व रस्सी की सहायता से पानी खींचा जा सके। साथ ही बेरी के पास एक खेली बना दी जाती है, ताकि बेकार पानी बहकर उसमें जा सके एवं पशुओं को भी सहज रूप से जल उपलब्ध हो सकें।

जिन तालाबों के अधोस्तर के नीचे जिप्सम परत पाई जाती है, उन क्षेत्रों में तालाबों के मध्य इस प्रकार की बेरियों का निर्माण उपरोक्तानुसार किया जा सकता है। तालाबों में निर्मित बेरियाँ उस समय पेयजल उपलब्ध कराने का सहज माध्यम है जब तालाब सूख चुके हों। इन बेरियों में भी रिसाव द्वारा पानी एकत्रित होता रहता है। तालाबों में पाई जाने वाली बेरियों के ऊपर पछीमकर की पट्टी रख दी जाती है ताकि वर्षाजल के साथ बहकर आने वाली मिट्टी उसमें जमा न हों सकें।

 

 

 

 

जल संग्रहण बेरियाँ


रिसाव बेरियों के आकार की ये बेरियाँ मुख्यतः जोधपुर एवं बीकानेर जिले में पाई जाती हैं। बरसाती जल संग्रहण बेरियों के निर्माण हेतु एक विशिष्ट प्रकार का भौगोलिक क्षेत्र होना चाहिए। वह स्थान जहाँ भूमि के अधोस्तर में जिप्सम लेयर, उसके ऊपर पछीमकरों का कठोर स्तर एवं उसके ऊपर मुड अथवा कंकरीट वाला स्तर होता हो उस क्षेत्र में बरसाती जल संग्रहण बेरियों का निर्माण किया जा सकता है।

 

 

 

 

निर्माण एवं कार्यविधि


बेरी के निर्माण हेतु 2 से 5 फीट व्यास की गोलाई में खुदाई प्रारम्भ की जाती है। जहाँ सतही क्षेत्र रेतीला हो वहाँ रेतीले भाग की खुदाई करने के पश्चात उसकी पक्की चिनाई कर दी जाती है, अन्यथा कई बार इसके ढहने की आशंका रहती है। रेत के स्तर के बाद जो कंकरीला क्षेत्र आता है वह मुड स्तर कहलाता है। यह 3 से 5 फीट तक पाया जाता है और इसकी खुदाई के पश्चात नीचे पछीमकरों का स्तर आता है। पछीमकरों का स्तर नीचे 5 से 10 फीट तक हो सकता है। इस पूरी प्रक्रिया को नाल बाँधना या मुँह बाँधना कहते हैं। तीनों स्तर तक खुदाई वर्तुलाकार या सिलेन्ड्रीकृत रूप से की जाती है। पछीमकर के स्तर के नीचे चामी मिट्टी या जिप्सम क्षेत्र आ जाता है। इस क्षेत्र की खुदाई अनुप्रस्थ एवं लम्बवत दोनों रूप में की जाती है क्योंकि यह जल संग्रहण क्षेत्र होता है। अनुप्रस्थ क्षेत्र की चौड़ाई 20 से 40 फीट तक एवं लम्बवत क्षेत्र में भी 25 से 35 फिट तक की खुदाई की जाती है। बेरी के जल संग्रहण क्षेत्र की चिनाई करने की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि चामी मिट्टी न तो जल को अवशोषित करती है और ना ही पारगम्य है। बेरी के मुख अर्थात भू-स्तर से 2-3 फीट ऊँचाई तक पक्की चिनाई की जाती है। बेरी से पानी निकालने हेतु छत पर एक छोटा ढक्कन लगा होता है, जिसे खोलकर बाल्टी एवं रस्सी की सहायता से पानी खींचा जाता है।

बेरी के चारों ओर वृत्ताकार सुखा ढालदार प्लेटफार्म बनाया जाता है, जिसे जलग्रहण क्षेत्र या आगोर कहा जाता है। आगोर में गिरने वाले पानी का बहाव बेरी की तरफ किया जाता है। बेरी में एक प्रवेश द्वार बनाया जाता है, जिसके द्वारा वर्षाजल बेरी में संग्रहित होता है। जिसके मुँह पर आधा इंच वाली जाली कचरा रोकने हेतु लगाई जाती है। कई क्षेत्रों में आगोर प्राकृतिक ढालदार जमीन का होता है। अतः यहाँ कृत्रिम आगोर बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। प्रवेश द्वार के पास सिल्ट कैचर बनाए जाते हैं, ताकि आने वाले बरसाती जल के साथ मिट्टी बहकर बेरी के अन्दर न जा सकें।

 

 

 

 

बेरी से लाभ


1. पूरे वर्ष परिवार के पेयजल, दैनिक आवश्यकताओं व पशुओं के लिये पीने के पानी की उपलब्धता।
2. फ्लोराइड युक्त एवं खारे पानी को पीने की मजबूरी से निजात।
3. दूर से पानी लाने की समस्या से छुटकारा।
4. अधिक रसायन वाले पानी से होने वाली बीमारियों से बचाव।
5. इसमें संग्रहित पानी कई वर्षों तक रह सकता है।
6. इसके जल में बदबू नहीं आती है।
7. पानी लाने में लगने वाले समय की बचत।
8. पानी लाने की चिन्ता के कारण होने वाले तनाव से महिलाओं को छुटकारा।
9. रेगिस्तानी क्षेत्र जहाँ पानी के प्रति टैंकर की कीमत 200 से 700 रुपए तक है, ऐसी स्थितियों मे वर्ष भर पानी उपलब्ध होने से उन्हें आर्थिक रूप में काफी राहत मिलती है।
10. बेरी का जल न सिर्फ व्यक्तियों के लिये अपितु पशुओं को भी पेयजल उपलब्ध कराने में सुलभ तकनीक सिद्ध हुई है।
11. ग्रामीण किसानों से बेरी के पानी से 20 पौधों वाले फल-बगीचे पनपाये हैं जो उन्हें फल दे रहे हैं।
12. जिनके पास बेरियों में पानी रहता है उनके लड़कों की शादी आसान हुई है।

 

 

 

 

जल वहन तथा संग्रहण


किसान लोग बरसात के मौसम के दौरान अपने पानी को टांके में इकट्ठा करते है। इसके अलावा पानी को इकट्ठा करने का एक अन्य स्रोत भी होता है, जिसे नाड़ी के नाम से जाना जाता है। गाँव के लोग पानी को नाड़ी से निकालते हैं और इसे कलसी या पखाल मे भरकर अपने घरों तक ले जाते हैं। कलसी एक बड़ा मिट्टी का घड़ा होता है तथा पखाल चमड़े से बना थैला होता है। मगर वक्त के साथ धीरे-धीरे ग्रामीण क्षेत्रों में पखाल का प्रचलन खत्म होता जा रहा है। कलसी का उपयोग मुख्यतः गर्मी के दिनों में बहुत उपयोगी साबित होता है, क्योंकि गर्मी के दिनों में इसमें पानी ठंडा रहता है। कलसी का एक फायदा यह भी है कि गाँव के लोग गर्मी के दिनो में पानी को दूर से भरकर लाते हैं तो तेज धूप होने के बावजूद भी इसमें पानी गर्म नहीं होता है जबकि धातु के बर्तन में पानी गर्म हो जाता है। अधिकांश लोग पानी को लाने का काम पैदल ही करते हैं और इसकी मुख्य जिम्मेदारी घर की महिलाओं की ही होती है। कुछ लोग जिनके पास बैलगाड़ियाँ हैं वे पानी को अधिक मात्रा में लाने के लिये बैलगाड़ियों का प्रयोग करते है। क्योंकि बैलगाड़ियों की सहायता से इसमें काफी मात्रा में कलसियों को रखकर पानी को आसानी से लाया जा सकता है। कुछ लोग पानी को पखाल में भरकर इसे ऊँट की पीठ पर रखकर पानी लाने का काम करते हैं। कुछ लोग पानी को टैंक या ड्रम में भरकर इसे बैलगाड़ियों पर रखकर लाने का काम करते हैं। खेतों की सिंचाई करने या एक बड़े जन समूह की पानी की जरूरत को पूरा करने के लिये ट्रैक्टर या टैंकर का इस्तेमाल किया जाता है। इनकी क्षमता लगभग 5000 से 7000 लीटर तक होती है।

 

 

 

 

लागत


1. कलसी की कीमत करीब 80 रुपए है।
2. पखाल की कीमत 500 रुपए होती है।
3. एक कलसी या एक पखाल पानी की कीमत 30 रुपए होती है। बैल गाड़ी का मालिक दिन में करीब 3-4 कलसी पानी बेचकर करीब 90-120 रुपए कमा लेता है।
4. पानी को ज्यादातर लोग टांकों या कलसी में संग्रहित करते हैं।

 

 

 

 

खेत तलाई


जहाँ जमीन पहाड़ी या पठारी हो अथवा तालाब निर्माण में आर्थिक-सामाजिक दिक्कत हो, वहाँ निजी स्तर पर खेत के अन्दर ही खेत तलाई बनाई जा सकती है।

 

 

 

 

खेत तलाई निर्माण विधि


खेत तलाई का निर्माण खेत में ही होता है। खेत आयताकार या वर्गाकार किसी भी आकृति के हो सकते हैं। इसमें भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार ढलान होता है। खेत के अन्तिम ढलान क्षेत्र में खेत आकार व अपनी जरूरत के अनुसार लम्बाई-चौड़ाई लेकर 5-8 फीट की गहराई का गड्ढा बनाते हैं। बारिश के दिनों मे खेत क्षेत्र में हुई बारिश की जल बूँदों को खेत तलाई में एकत्रित किया जाता है। इस एकत्रित जल को अपनी रबी की फसलों में काम में लेते हैं। जिन खेतों में खेत तलाई होती है, उस खेत में अन्य खेत में बोई गई फसल से भिन्नता होती है। अन्य खेतों में अधिकतर एक ही तरह की फसल होती है, जबकि खेत तलाई वाले में तीन-चार तरह की फसल होती है। पानी के नजदीक क्रमशः गेहूँ, जौ, सरसों, चना, तारामीरा या ऐसी अन्य फसलों को बोया जाता है। उपलब्ध पानी अथवा नमी के अनुसार किसान स्वयं निर्णय ले लेते हैं कि तलाई में कितनी दूरी पर क्या बोना है।

 

 

 

 

खेत तलाई के लाभ


पारिवारिक इकाई को जोड़ने व परिवार के जीवन स्तर को सुधारने में बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुई है। सामाजिक सम्मान, जीवन में गतिशीलता, खेती में गुणवत्ता व विविधता और रोजगार के साधनों को बढ़ाने में सहायक।

 

 

 

 

झोपा


पौधे के चारों तरफ 2 फीट के घेरे में मिट्टी खोदकर वहाँ डंडियाँ लगा देते हैं। इससे पौधे तेज गर्मी में झुलसते नहीं हैं। पौधे बढ़ जाने पर झोपा हटा देते हैं और घास खेतों में डाल देते हैं। इससे पौधों को छाया मिलती है और मिट्टी में नमी रहती है। सर्दी मे झोपा पौधों को ठंडी हवा से बचाता है।

 

 

 

 

सिंचाई


गर्मी में इन पौधों को प्रतिदिन सिंचाई की आवश्यकता होती है। कुछ किसान बूँद-बूँद सिंचाई पद्धति का इस्तेमाल करते है। इसमें मिट्टी के घड़ों में छेदकर इसे जमीन में गाड़ देते हैं व पानी भर देते हैं।

जेठी देवी अपने परिवार के 11 सदस्यों के साथ एक छोटी कच्ची झोपड़ी में पाबूपुरा गाँव के एक कोने में रहती है। ग्राम विकास समिति द्वारा गूंदा इकाई स्थापित करने के लिये लाभार्थियों में चुने जाने के बाद वह जीवन के लिये वृक्ष परियोजना से जुड़ी। उसके पास एक टांका है, ग्राविस दल के पास यह सकारात्मक आशा थी कि पेड़ सूखेंगे नहीं। परन्तु यह उनके परिवारजनों की रुचि और पौधों को जीवित रखने के वास्तविक प्रयास का नतीजा था कि जेठी देवी की इकाई को उन्होंने जमीन में गड़े घड़ों के द्वारा बूँद-बूँद सिंचाई करके इस इकाई को उदाहरण बना दिया। चार महीनों के बाद देखा गया कि लगाए 16 पौधों में से 15 पौधे भीषण गर्मी को झेलकर भी जीवित रह सके। यह जेठी देवी के लिये प्रोत्साहन योग्य था। पौधों को जीवित रखने की दर लगभग 94 प्रतिशत थी। पहले हमें पौधों को प्रतिदिन पानी देना पड़ता था, परन्तु घड़े लगाने के बाद हमें गर्मियों में भी सप्ताह में केवल एक बार पानी देना पड़ता है। ऐसा जेठी देवी ने बताया। इसके अलावा मिट्टी में लगातार नमी बने रहने से दीमक का प्रभाव भी कम हो गया। जेठी देवी की गूंदा इकाई से तीन साल बाद फल मिलने शुरू होंगे, किन्तु जेठी देवी के प्रयासों को लोगों ने अनदेखा नहीं किया। मरुस्थल की विपरित परिस्थितियों में भी बड़ी संख्या में पौधों को बचाकर उन्होंने अन्य परिवारों को भी पौधे लगाने की प्रेरणा दी।

 

 

 

 

Comments

Submitted by HARSHVARDHAN S… (not verified) on Mon, 04/02/2018 - 22:04

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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व ऑटिज़्म जागरूकता दिवस और ब्लॉग बुलेटिनमें शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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एक खो गई नदी की तलाश

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एक खो गई नदी की तलाशRuralWaterTue, 04/03/2018 - 14:28


जलालपुर में सूखी सई नदीजलालपुर में सूखी सई नदीनदी की पहली स्मृतियों में ट्रेन की खिड़की से झाँकता धुँधलका कौंधता हैं। बचपन में पुल से गुजरती ट्रेन की धड़-धड़ सुनते ही हम उचककर खिड़की से झाँकते। लगता था ऊपर से लोहे के भारी-भरकम पिलर्स गिर रहे हैं। उनके गिरने की लयबद्ध आवाज आ रही है। हमारी ट्रेन भी उतनी ही तेजी से भाग रही होती थी।

रफ्तार का असली अहसास पुल से गुजरते वक्त ही होता था। लेकिन जब हमारी निगाह इस सबके पार नदी पर टिकती तो सब कुछ शान्त और ठहरा हुआ दिखता। अक्सर दूर क्षितिज की ओर विलुप्त होती नदी की रेखा और उदास बलुई किनारे। किसी एक किनारे से थोड़ी दूर पर आहिस्ता-आहिस्ता तैरती नाव। लम्बे रेतीले तट पर लोग निर्लिप्त अपना काम करने में जुटे नजर आते। कभी खरबूजे से लदे ऊँट दिखते तो कभी दोपहरी में शरारती बच्चे झमाझम तैरते और डुबकी लगाते आँखों ओझल हो जाते। मगर नदी से हुई इन पहली मुलाकातों में हमारे और नदी के बीच बहुत दूरी थी।

पहली बार नदी से वास्तविक परिचय इलाहाबाद आने पर हुआ। पानी में डूबी घाट की पथरीली सीढ़ियाँ, हिलता हुआ जल और उस पर बहते फूल या कभी-कभार कचरा। इलाहाबाद शहर में नदी अपनी पूरी गरिमा के साथ है। एक अलहदा अस्तित्व लिये हुए। महानगर के पूरे कोलाहल को अपने में समेटती। उसमें गहराई भी है और विस्तार भी।

इलाहाबाद में रिपोर्टिंग के दौरान कई बार झूँसी के पुल पर स्कूटर से भागते हुए यह लोभ होता था कि ठहरकर धूप में नहाई नदी को या क्षितिज की ओर उसकी धुँधली पड़ती रेखाओं को देखूँ। कई बार तो शाम को नदी देखना मन को बेचैन कर देता था। मन स्पंज की तरह संध्या की उस मटियाली उदासी को सोखकर भारी हो जाता था। मगर नदी का एक और रूप देखना अभी बाकी था। यह एक लोकोत्तर रूप था, जो मन से नहीं आत्मा से जुड़ता था। गंगा-यमुना के इस संगम की अलौकिकता का अहसास मुझे तब हुआ जब मैं गोरखपुर से इलाहाबाद की बस से तकलीफदेह यात्रा करता हुआ संगम के करीब पहुँचा।

माघ करीब था। ठंड थी। बस में लोग बहुत कम थे। सारे लोग ठिठुर रहे थे। मैं पीछे की तरफ था। आखिरी सीट पर कोई सनकी व्यक्ति धीमी आवाज में लगातार गीत गाता जा रहा था। वह रहस्यमय सा युवक शायद सारी जिन्दगी मुझे याद रहेगा। जैसे-जैसे इलाहाबाद करीब आ रहा था उसका स्वर ऊँचा होता जा रहा था।

गीत छोड़कर उसने पंत और प्रसाद की कविताएँ ऊंची आवाज में पढ़नी शुरू कर दीं। पुरानी खटारा बस के इंजन की घरघराहट और हिचकोलों के बीच अचानक मेरी निगाह खिड़की से बाहर गई। बाहर फैली अनंत कालिमा के बीच कहीं दूर पीली जगमगाती रोशनी का अम्बार लगा था। क्षितिज में उसका दूर तक विस्तार था। लगा जैसे हजारों रुपहले नहीं बल्कि सुनहले सितारे जमीन पर उतर आये हों। पानी में वे झिलमिल-झिलमिल कर रहे थे।

यह नदी किनारे माघ मेले की झलक थी जो हमें दूर से बस में बैठे दिख रही थी। रात के अन्धेरे में भी नदी का विस्तार साफ पता चल रहा था। मैं पल भर के लिये सम्मोहित सा हो गया। मेरी तकलीफ और थकान दोनों मिट गए थे। उधर बस में बैठे व्यक्ति ने शायद कीट्स और शैली को पढ़ना शुरू कर दिया था। बस के सन्नाटे में एक उसकी ही आवाज गूँज रही थी। मुझे लगा कि मैं कोई स्वप्न देख रहा हूँ।

मेरे भीतर उतरी इस अलौकिकता का बड़ा महत्त्व था। इसका महत्त्व तब और समझ में आया जब मैं लौकिक जीवन में एक नदी की तलाश में निकला।

मेरे लिये यह पत्रकारिता की शुरुआत थी और मैं इलाहाबाद में अपने लिये कुछ उल्लेखनीय असाइनमेंट्स तलाश रहा था। जिनके दम पर मैं खुद को सम्भावनाशील पत्रकारों में शामिल कर सकूँ। पर्यावरण और कृषि पर अपने काम के लिये चर्चित पत्रकार प्रताप सोमवंशी उस वक्त अमर उजाला में रिपोर्टिंग इंचार्ज थे। उन्हें शायद किसी विज्ञप्ति में सई नदी में बढ़ते प्रदूषण पर कुछ जानकारी मिली। उनको सई के बारे में मिली तथ्य चौंकाने वाले लगे। पता लगा कि पानी में गिर रहे फैक्टरी के कचरे से उस नदी के पानी का रंग काला पड़ गया है।

उन्होंने मुझसे इस पर चर्चा की और सई नदी में हो रहे प्रदूषण की खोजबीन करने को कहा। थोड़ी सी पड़ताल में यह भी पता लगा कि उत्तर प्रदेश के कई जिले सई नदी के किनारे बसे हैं। खासतौर पर रायबरेली, प्रतापगढ़ और जौनपुर जैसे बड़े जिले। मेरे लिये प्रतापगढ़ और रायबरेली जाने की तैयारी हो गई। दो दिन का वक्त लेकर मुझे नदी पर रिपोर्ट्स की एक सीरीज तैयार करनी थी। इसकी शुरुआत प्रतापगढ़ से होनी थी।

वह नवम्बर के शुरुआती दिन थे। हवाओं मे सर्दियों की आहट मगर धूप में तीखापन था। दो तारीख की सुबह मैं घर से निकल गया। ऑफिस से एक गाड़ी मिली थी। जब गाड़ी शहर से बाहर निकल रही थी तो मैं मन-ही-मन जोड़-जमा कर रहा था। अभी पत्रकारिता में कदम रखे कुछ महीने हुए थे। मैंने उन दिनों अपने काम करने का एक तरीका बना रखा था।

पहले विभागों में जाकर तथ्य जुटाना। उन तथ्यों के आधार पर सीधे फील्ड में जाकर जानकारी हासिल करना और लोगों से बातचीत करना। अन्त में जरूरत पड़े तो विशेषज्ञों की राय को शामिल करना। इस खबर पर काम करना दिलचस्प लग रहा था मगर मन में बहुत उत्साह नहीं था। मैं गंगा और यमुना की भव्यता और अलौकिकता से अभिभूत था। किसी छोटी नदी की पड़ताल मुझे न सिर्फ नीरस लग रही थी बल्कि मन में यह सवाल भी उठ रहा था कि इस पर तैयार रिपोर्ट की उपयोगिता क्या होगी? आखिर कितने लोगों का हित इससे जुड़ा होगा?

बहरहाल, तय प्लान के मुताबिक सबसे पहले तथ्य जुटाने थे। नदी से जुड़े तथ्यों की छानबीन के लिये मैंने जिले के कुछ सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटे। रास्ता पूछते-पूछते हमारी गाड़ी सबसे पहले ऑफिस के गेट पर रुकी। मेरी निराशा उस वक्त और गहरी हो गई जब मुझे कागजों में इस नदी का कोई अस्तित्व ही नजर नहीं आया। विभागों का कहना था कि सई बहुत छोटी नदी है। इसका मानव जीवन पर कोई सीधा प्रभाव नहीं है। भौगोलिक तथ्यों के बारे में अस्पष्टता या तो वास्तव में थी या जानबुझकर बनाई गई थी। कुछ जगहों पर इसे ‘नाले’ की संज्ञा भी दी गई। क्या मैं इतनी दूर एक नाले की रिपोर्टिंग करने आया हूँ?

कल-कल करता पानी तेजी से बह रहा था। चौड़े पाट थे। दोनों तरफ हरियाली। मगर नदी का पानी बिल्कुल कोला के जैसा था। हाँ! उस रंग को परिभाषित करने के लिये मेरे पास कोई और शब्द नहीं हैं। मैंने गन्दे नाले तो देखे थे मगर एक पूरी नदी का स्वच्छ सा लगने वाला पानी कोला की तरह कभी नहीं देखा था। मैं नदी के पाट पर खड़ा उसे बहते हुए देख रहा था। गंगा और गोमती के बीच से बहने वाली यह जीवनरेखा की मटमैली पड़ गई थी। यह कोई अलौकिक अनुभूति नहीं थी मगर यह मन को छीजने वाली अनुभूति अवश्य थी। “मैं रिपोर्टर हूँ!” मेरे परिचय देने पर अधिकारी ने उदासीनता से मेरी तरफ देखा। उसके देखने में थोड़ा कौतुक भी था। किसी नदी की छानबीन करने वाला रिपोर्टर शायद उसने पहली बार देखा था। उसने मुझसे बैठने के लिये भी नहीं कहा मगर मैं डायरी और पेन निकालकर उसके सामने वाली कुर्सी पर जम गया और उसके बोले गए शब्दों को टीपना शुरू कर दिया। यह तय था कि इस नदी को ‘सिस्टम’ भूल चुका था। हर जगह नदी के महत्त्व को कम आँकते हुए यह अहसास दिलाया गया कि मैं किसी मूर्खतापूर्ण काम पर निकला हूँ।

लेकिन जब मैं वापस गाड़ी में बैठा और हम अपनी लिस्ट के मुताबिक जिले के उस अन्तिम दफ्तर के गेट से बाहर निकल रहे थे तब तक नदी मेरे जेहन में धुँधली सी शक्ल लेने लगी थी।

हालांकि सई और इससे लगे इलाकों के बारे में समुचित आँकड़े उस समय तक शायद ही कहीं उपलब्ध थे। फिर भी मुझे यह अनुमान लग गया कि सई नदी के किनारे बसे ग्रामीण इलाकों की 50 हजार से ज्यादा आबादी इस नदी के प्रदूषण से प्रभावित हो रही थी। इसकी जिम्मेदार दरअसल रायबरेली की औद्योगिक इकाइयाँ थीं। भौगोलिक दृष्टि से सई गोमती की एक सहायक नदी है। जो हरदोई जिले से उन्नाव, रायबरेली और प्रतापगढ़ होते हुए जौनपुर के समीप गोमती में मिल जाती है। अब हम लोगों के रास्ता पूछते हुए नदी की तरफ बढ़ रहे थे।

जब हम नदी के करीब पहुँचे तो धूप चढ़ चुकी थी। मुझे प्यास लग रही थी। गाँव में खड़ी गाड़ी को हमेशा की तरह अधनंगे बच्चे घेरे हुए थे और दूर बैठे बुजुर्ग कौतुक से ताक रहे थे। वहाँ से मुझे गाँव वालों के साथ पैदल नदी तक जाना था। मैंने उनसे पानी माँगा। थोड़ी देर में एक युवक जग में पानी लेकर आया। उसकी तली में कचरा जैसा जमा था। मगर प्यास बहुत तेज लगी थी सो मैंने कुछ घूँट पानी से गला तर कर लिया। हम नदी की तरफ बढ़े। पेड़ों का झुरमुट पार करते हुए बलुई धरती पर पैर धँसाते जब हम नदी तक पहुँचे तो मेरे मन में माघ की उस रात संगम की अनुभूति फिर छूती सी निकल गई। प्रकृति अपनी प्राचीनता और शाश्वतता में यहाँ मौजूद थी।

कल-कल करता पानी तेजी से बह रहा था। चौड़े पाट थे। दोनों तरफ हरियाली। मगर नदी का पानी बिल्कुल कोला के जैसा था। हाँ! उस रंग को परिभाषित करने के लिये मेरे पास कोई और शब्द नहीं हैं। मैंने गन्दे नाले तो देखे थे मगर एक पूरी नदी का स्वच्छ सा लगने वाला पानी कोला की तरह कभी नहीं देखा था। मैं नदी के पाट पर खड़ा उसे बहते हुए देख रहा था। गंगा और गोमती के बीच से बहने वाली यह जीवनरेखा की मटमैली पड़ गई थी। यह कोई अलौकिक अनुभूति नहीं थी मगर यह मन को छीजने वाली अनुभूति अवश्य थी। यह सब कुछ किसी भव्य त्रासदी की तरह था। उस महानायक की तरह जिसके स्तुति गीत कभी लिखे ही नहीं गए।

“यह सई नदी जो आप देख रहे हैं वह आज की नहीं त्रेता युग की है, इस नदी का हजारों साल पुराना इतिहास है।”गाँव के एक बुजुर्ग की आवाज मेरे कानों से टकराई। उन्होंने मुझे भारत की तमाम नदियों की तरह इस नदी से जुड़ी पौराणिक कथा भी बताई। सई दरअसल ‘सती’ का अपभ्रंश है। मान्यता है कि वह उस कुंड से निकली हैं जहाँ पार्वती सती हुई थीं। इसी कारण सई नदी के किनारे कई शिव मन्दिर दिखते हैं। कहते हैं राम और सीता जब चौदह वर्ष के लिये अयोध्या से वन के लिये गए तब और जिस वक्त वनवास काट कर लौटे उस दौरान सई नदी में स्नान करना नहीं भूले। इसका जिक्र रामचरितमानस में भी है। अयोध्याकांड में तुलसीदास कहते हैं-

सई उतरि गोमतीं नहाए। चौथे दिवस अवधपुर आए।
जनक रहे पुर बासर चारी। राज काज सब साज सँभारी।।


यह वही नदी थी जिसे कभी राम और सीता ने प्रणाम किया होगा। जब घर से निकलकर इस नदी के तट पर खड़े हुए होंगे तो मन में न जाने कितनी आशंकाएँ होंगी, कितने द्वंद्व होंगे, कितनी टूटन रही होगी और जब वापस आये... फिर उसी तट पर खड़े हुए। चौदह साल बाद उसी नदी के जल को जब अंजलि में उठाया होगा तो शायद उन्हें लगा हो कि एक युग जी लिया।

हथेली में जल लिये राम वो राम नहीं रहे होंगे जो चौदह साल पहले थे। सीता भी वो सीता नहीं रही होंगी। वे ज्यादा परिपक्व हो उठे होंगे। धूप में तपे होंगे। शरीर पर युद्ध में लगे घावों के निशान होंगे, अपने प्रियजनों से लम्बे बिछोह की पीड़ा मन के किसी कोने में घनीभूत होगी। नदी भी वो नदी नहीं रही होगी। समय नदी की तरह बहता जाता है और नदी की तरह ही ठहरा भी होता है। सई नदी के उस बहते पानी ने कहीं-न-कहीं राम के तप्त मन को शीतलता दी होगी। मगर त्रेता युग से बहने वाली सई नदी बीते कुछ दशकों से खुद ही दहक रही थी।

युग के युग बीत चुके हैं। ...और नदी अब खुद अपना दुख बयान कर रही है।

मैं नोट कर रहा था। और मेरे चारों तरफ गाँव के लोग नहीं नदी बोल रही थी। प्रतापगढ़ जिले का बड़ा हिस्सा इस नदी के साथ गलबहियाँ करता है। कुल फासला 450 किलोमीटर से भी अधिक का है। प्रतापगढ़ में बहुंचरा, दढ़ैला, तेजगढ़, इशीपुर, ढेकाही और राजापुर जैसे कई बड़े गाँव सई नदी के किनारे बसे हुए हैं। वहीं नदी से लगे छोटे गाँव भी कम नहीं हैं।

कोई वक्त था जब नदी के पानी से ही घर का खाना पकता था और लोग पीते भी थे। अधिकांश जगहों पर पानी जमीन की सतह के बहुत नीचे मिलता है। गाँव वाले बताते हैं कि कुएँ से एक बाल्टी पानी के लिये ‘साठ हाथ’ पानी खींचना पड़ता है। यह पानी भी खारा होता है। इसमें अगर दाल पकाएँ तो वह गलती नहीं है। इतना ही नहीं अब इन गाँवों के मवेशी नदी का पानी नहीं पी सकते।

महुआर गाँव के लोगों ने बताया कि पालतू पशुओं को नदी के करीब नहीं जाने दिया जाता। तेज गर्मी में अगर किसी जानवर ने आदतन पानी पी लिया तो उसकी मौत हो जाती है। बाद में मुझे पता लगा कि जल में घुलने वाले ऑक्सीजन की अत्यधिक कमी के कारण यहाँ के पानी में मछलियाँ नहीं के बराबर रह गई हैं। पानी में घुल रहे औद्योगिक कचरे का धात्विक आयन जलीव जीवों के भीतर एकत्र होता रहता है और उन्हें खत्म कर देता है। इस प्रदूषण का असर मनुष्यों पर भी होता है। यह इंसानों में लेड विषाक्तता और पारद विषाक्तता को जन्म देता है। इसका असर धीरे-धीरे होता है और लम्बे समय तक बना रहता है।

सई नदी के जल से देवताओ के स्नान की परम्परा थी। घुश्मेश्वर का धाम सई नदी के किनारे स्थित है। भगवान घुश्मेश्वर बाबा को भक्त सई नदी के जल से स्नान कराते थे। इसी तरह प्रतापगढ़ के बेल्हा देवी मन्दिर में सई नदी के जल से माँ बेल्हा देवी का अलंकार किया जाता था। पानी प्रदूषित होने के कारण यह भी बन्द हो चुका है। यह नदी इस इलाके के लोगों के भोजन का साधन थी, आमदनी थी, उत्सव थी या कुल मिलाकर कहें तो पूरा-का-पूरा जीवन ही थी। इन दिनों जब मई-जून की भीषण गर्मी पड़ती है तो सई नदी सूखने की कगार पर पहुँचने लगती है। जल के स्थान पर जगह-जगह बालू के रेतीले टापू नजर आते हैं।यह विषैलापन पूरी पारिस्थितिकीय को प्रभावित कर रहा है। रायबरेली समेत कई पश्चिमी जिलों की फैक्टरियों से गिरने वाले औद्योगिक कचरे से सई नदी का पानी इस कदर जहरीला हो चुका है कि यह राजेपुर के पास गोमती और कैथी (वाराणसी) में गंगा को भी प्रदूषित करता है। महुआर, बैत पट्टी, रुद्रपुर, कादीपुर, चलाकपुर, पिपरी, सुनारी, बोदी, खजुनी, गोपालपुर, बशीरपुर, देवलहा, मतुई जैसे गाँवों की लम्बी सूची मैं नोटबुक पर लिखता जा रहा था जो नदी से सीधे जुड़े थे। किसी जमाने में मल्लाह नदी के किनारे तरबूज की खेती करते थे। इन खेतों की सिंचाई नदी के पानी से ही होती थी। अब यह सब कुछ खत्म हो चुका है।

लोगों ने जब यह बताया कि विषैले पानी के कारण नदी की मछलियाँ अब लगभग खत्म हो चुकी हैं तो यह भी पता लगा कि किस तरह दस साल पहले कई गाँव आजीविका के लिये मछली पर ही आश्रित थे। रोहू, टेंगर और पहिना ऐसी मछलियाँ थीं जिन्हें इसी नदी से पकड़कर बेचा जाता था।

सई नदी के तटीय इलाकों में पानी के भीतर अजगर भी पाये जाते थे। मछली पकड़ने वाले इन अगजरों से खूब वाकिफ थे। मगर प्रदूषित पानी के कारण न तो अब इन अगजरों को न तो खाने के लिये मछलियाँ मिलती थीं और न ही ये नदी के भीतर अपना ठिकाना बना सके। लोगों ने बताया कि इन दिनों अक्सर किसी गाँव के आसपास तपती धूप से परेशान ये अगजर चोटिल अथवा घायल पड़े मिल जाते हैं। सैकड़ों बरस में जहाँ उनकी प्रजाति पनपती रही अब वही जगह उनकी मौत की वजह बन रही थी।

दोपहर ढल रही थी। मैं गाँव से लौट पड़ा। धूल में लिपटे अधनंगे लड़के कुछ दूर तक शोर मचाते हुए गाड़ी के पीछे दौड़ते रहे और धीरे-धीरे निगाहों से ओझल हो गए।

सड़क पर पीछे की तरफ भागते पेड़ों के झुरमुट के पीछे नदी के किनारे मन्दिरों की यदा-कदा झलक दिख जाती थी। कभी इन मन्दिरों में सई नदी के जल से देवताओ के स्नान की परम्परा थी। घुश्मेश्वर का धाम सई नदी के किनारे स्थित है। हमारे साथ गाड़ी में चल रहे एक गाँव वाले ने बताया कि भगवान घुश्मेश्वर बाबा को भक्त सई नदी के जल से स्नान कराते थे। इसी तरह प्रतापगढ़ के बेल्हा देवी मन्दिर में सई नदी के जल से माँ बेल्हा देवी का अलंकार किया जाता था। पानी प्रदूषित होने के कारण यह भी बन्द हो चुका है।

कुल मिलाकर यह नदी इस इलाके के लोगों के भोजन का साधन थी, आमदनी थी, उत्सव थी या कुल मिलाकर कहें तो पूरा-का-पूरा जीवन ही थी। इन दिनों जब मई-जून की भीषण गर्मी पड़ती है तो सई नदी सूखने की कगार पर पहुँचने लगती है। जल के स्थान पर जगह-जगह बालू के रेतीले टापू नजर आते हैं। राजेपुर, विजईपुर व ऊदपुर... इन तीन गाँवों के पास सई-गोमती का संगम होता है। सई ऊदपुर ग्राम की तरफ से कई बीघा उत्तर दिशा में कटाव ले चुकी है।

अगले दिन हम रायबरेली में थे।

मेरे हाथों में फिरोज गाँधी महाविद्यालय के प्राणि विज्ञान विभाग की रिपोर्ट थी। सई नदी पर तैयार की गई इस रिपोर्ट के लिये नदी के किनारे धार्मिक, सामाजिक और औद्योगिक महत्त्व की कुल 11 जगहें चुनी गई थीं, जैसे गौसगंज (हरदोई), बनी (उन्नाव), जगदीशपुर, बेला-प्रतापगढ़ (प्रतापगढ़) और राजापुर त्रिमुहानी (जौनपुर)।

रिपोर्ट में जल के नमूनों का रासायनिक विश्लेषण मौजूद है। रिपोर्ट से पता लगता है कि सई नदी के पानी में विलयशील ऑक्सीजन की मात्रा कम होती जा रही है। जल में लेड, क्रोमियम, निकेल, कोबाल्ट जैसे विषैले धात्विक आयनों की मात्रा सामान्य से बहुत ज्यादा थी। रायबरेली में राजघाट पुल के पास लिये गए नमूनों में रोग कारक जीवाणुओं की संख्या बहुत अधिक पाई गई।

कुछ साल पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रसायनशास्त्र विभाग के रीडर एके श्रीवास्तव के निर्देशन में दिनेश कुमार सिन्हा ने सई नदी पर चल रही रिसर्च में एक नई चीज जोड़ी। जल की गुणवत्ता के मानकों के आधार पर पानी का परीक्षण किया गया था। मानक के अनुसार 50 से कम पर ही नदी का पानी मनुष्यों के लिये अनुकूल होता है और अगर मानक स्तर 100 के ऊपर जाता है तो इसे अत्यधिक प्रदूषित माना जाता है। रायबरेली के ही दस अलग-अलग स्थानों से लिये गए नमूनों में इसका अधिकतम स्तर 205.5 पाया गया। शोध छात्रों की टीम ने बताया कि प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह रायबरेली की चीनी मिल, पेपर मिल का रासायनिक कचरा और नगरपालिका के अवशिष्ट हैं जो सीधे नदी में गिरते हैं।

हम वापस लौट आये थे। सई नदी पर मेरी दो छोटी-छोटी रिपोर्ट अखबार में प्रकाशित हुई।

इसके बाद करीब 14 साल बीत चुके हैं। हालात और बिगड़ चुके हैं। अखबारों में रिपोर्ट अब भी छपती हैं। सई नदी अब दम तोड़ रही है। उन्नाव में असोहा के पास से गुजरती नदी का जल लगभग सूख चुका है। नदी किनारे जर्जर नावें औंधी पड़ी हैं। मल्लाहों के पास रोजी-रोटी का कोई जरिया नहीं है।

एक अखबार के उन्नाव संस्करण में छपी खबर तो जैसे सई नदी की दुर्दशा को बयान करती हुई कविता करने लगती है। देखें- “नदी की कोर पर बैठे साधु सन्त पवित्र डुबकी लगाने को तरस रहे हैं। पशु पंक्षी भी इस नदी का पवित्र पी प्यास बुझाने की आस छोड़ इधर उधर सूखी चोंच खोले उड़ चले हैं। वर्षों से वेलौरा चौपई, भाउमऊ, मझेरिया, पथरहा सोहा रामपुर, सेमरी आदि गाँवों की निषाद विरादरी के सामने परिवार का भरण-पोषण की गम्भीर समस्या है। नदी में अब न तो कहीं नाव दिखाई पड़ती हैं न ही मछली पकड़ने वाले जाल। धोबी घाट भी उजड़ गए हैं। धोबी समाज के लोग नदी के किनारे हइया-छू करते कपड़े धोते नजर आते हैं।”

हजारों वर्ष प्राचीन सई नदी का अब लोक जीवन से तादात्म्य टूट चुका है। अखबारों में लगातार छपने वाली खबरें बताती हैं कि कभी आस्था का केन्द्र बनी इस नदी किनारे के बसे हजारों गाँवों के लोग ही इसे प्रदूषित कर रहे हैं। सैकड़ों गाँवों के गन्दे नाबदान का पानी इसी नदी में खोल दिया गया है। कूड़ा-करकट या फिर खर-पतवार सब कुछ नदी में फेंका जा रहा है। मृत व्यक्तियों के अन्तिम संस्कार से लेकर पशु पक्षियों के शव भी इसी नदी की कोख में समा रहे हैं। नदी के विशाल रेतीले तटों पर बालू खनन माफिया घूम रहे हैं। नदी में भटककर पहुँचे कछुओं का लगातार चोरी-छिपे शिकार चल रहा है। रायबरेली में सई नदी के आसपास गन्दगी लगातार बढ़ रही है। अब वहाँ का भी सारा कूड़ा नदी किनारे फेंका जाने लगता है। इसमें मरे हुए जानवर भी शामिल हैं। आसपास से गुजरते ‘सभ्य’ लोग नाक रुमाल रखकर निकलते हैं।

यह एक छोटी नदी की त्रासद महागाथा है। रिपोर्टिंग के दौरान जिसके बारे में किसी सरकारी अफसर ने ‘नाला’ कहते हुए बातचीत की थी। इस पर रिपोर्ट नहीं शायद एक महाकाव्य लिखे जाने की जरूरत थी। इसका मर्म प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट नहीं बयान कर सकती। यह वो नदी है जिससे जुड़ी राम का कथाएँ थीं, हजारों गाँव की सुबह और शाम में उसकी लहरों का स्वर गूँजता था। नदी में मछलियाँ थीं, किनारों पर उड़ते परिन्दे थे। तट पर लोग बालू खोदते थे तो दो-ढाई फीट पर पीने का स्वच्छ पानी निकल आता था। नदी हर गाँव में बहती थी। हर घर में बहती थी। हर मन्दिर, हर मन में।

हम अपने भीतर को तब पहचानते हैं जब बाहर से रू-ब-रू होते हैं। मन के आइने में परावर्तित बाहरी छवियाँ ही शायद हमारा संस्कार बन जाती हैं। नदियाँ शायद हमारे जीवन का संस्कार थीं। जो नदी किनारे नहीं रहे वो भी जीवन की उस अजस्र अलौकिक कल-कल से सिंचित होते थे। सई तो बाहर सूखी, लेकिन हम सबके भीतर भी एक नदी सूख चुकी है।

सम्पर्क
दिनेश श्रीनेत
9910999370
ईमेल - dshrinet@gmail.com
 

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युद्ध और शान्ति के बीच जल - भाग तीन

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युद्ध और शान्ति के बीच जल - भाग तीनHindiFri, 04/06/2018 - 18:53


(प्रख्यात पानी कार्यकर्ता श्री राजेन्द्र सिंह के वैश्विक जल अनुभवों पर आधारित एक शृंखला)
आत्मघाती टर्की, दबंग इज़रायल और बेपानी फिलिस्तीन

जल संकटजल संकटआज टर्की-सीरिया-इराक विवाद ने शिया-सुन्नी और आतंकवादी त्रासदी का रूप भले ही ले लिया हो, शुरुआती विवाद तो जल बंटवारा ही रहा है। टर्की कहता है कि अधिक योगदान करने वाले को अधिक पानी लेने का हक है। सीरिया और इराक कह रहे हैं कि उनकी ज़रूरत ज्यादा है। अतः उन्हे उनकी ज़रूरत के हिसाब से पानी मिलना चाहिए। टर्की का दावा है कि इफरीटिस नदी में आने वाले कुल पानी में 88.7 प्रतिशत योगदान तो अकेले उसका ही है। वह तो कुल 43 प्रतिशत पानी ही मांग रहा है।

गौर करने की बात है कि इफरीटिस के प्रवाह में सीरिया का योगदान 11.3 प्रतिशत और इराक का शून्य है, जबकि पानी की कमी वाले देश होने के कारण सीरिया, इफरीटिस के पानी में 22 प्रतिशत और इराक 43 प्रतिशत हिस्सेदारी चाहता है। गौर करने की बात यह भी है कि सीरिया और इराक में पानी की कमी का कारण तो आखिरकार टर्की द्वारा इफरीटिस और टिग्रिस पर बनाये बांध ही हैं। किंतु टर्की इस तथ्य की उपेक्षा करता है। वह सीरिया और इराक की मांग को अनुचित बताकर उसे हमेशा अस्वीकार करता रहा है।

 

 

अब देखिए कि नतीजा क्या है ?


सीरिया में जब तक इफरीटिस का प्रवाह कायम था, सीरिया में रेगिस्तान के फैलाव की गति उतनी नहीं थी। इफरीटिस के सूखने के बाद रेत उड़कर सीरिया के खेतों पर बैठनी ही थी, सो बैठी। नतीजा, तेजी से फैलते रेगिस्तान के रूप में सामने आया। सीरिया-इराक का पानी रोकते वक्त, टर्की ने यह नहीं सोचा होगा कि यह आफत पलटकर उसके माथे भी आयेगी। रेगिस्तान का फैलाव ने खुद संयुक्त राष्ट्र संघ को इतना चिंतित किया कि उसने रेगिस्तान रोकने की उच्च स्तरीय मशविरा बैठक को टर्की में ही आयोजित किया।

दरअसल, टर्की यह समझने में असमर्थ रहा कि जब तक लोगों को अपनी धरती और राष्ट्र से प्रेम रहता है, संकट चाहे जलवायु परिवर्तन का हो, आजीविका का अथवा आतंकवाद का, वह ज्यादा समय टिक नहीं सकता। कोई दूसरा-तीसरा बाहर से आकर किसी देश में आतंक पैदा नहीं कर सकता। आतंक, सदैव राष्ट्रप्रेम की कमी के कारण ही पैर फैला पाता है।

आतंकवाद से दुष्प्रभावित सभी क्षेत्रों में यही हुआ है, इराक में और टर्की में भी। इफरीटिस नदी के तीनों देशों में सत्ता ने जिस तरह प्रकृति और इंसान को नियंत्रित करने की कोशिश की, उसका दुष्परिणाम तो आना ही था। वह प्रकृति और मानव के विद्रोह के रूप में सामने आया।

यदि हम इफरीटिस में 17.3 अरब क्युबिक मीटर जल की उपलब्धता आंकडे़ देखें तो संबंधित तीन देशों की मांग की पूर्ति संभव नहीं दिखती। इस मांग-आपूर्ति के असंतुलन से तीनों देशों के भीतर तनाव बढ़ना ही था, सो बढ़ा। दूसरी ओर सीरिया विस्थापितों द्वारा वाया टर्की, जर्मनी, फ्रांस, स्वीडन जाने की प्रक्रिया ने पूरे रास्ते को खटास से भर दिया। टर्की और इराक के लोगों द्वारा सीरिया के विस्थापितों के घरों और ज़मीनों पर कब्जे की हवस ने पूरा माहौल ही तनाव और हिंसा से भर दिया। इस हवस ने हिंसा को टर्की में भी पैर पसारने का मौका दिया। जिन्हे उजाड़ा था, वे ही सिर पर आकर बैठ गये।

टर्की के महानिदेशक प्रो. सांधी ने एक सभा में कहा - ''हम तो रिफ्यूजी होस्ट कन्ट्री हैं, बजट का बहुत बड़ा हिस्सा तो शरणार्थिंयों की खातिर खर्च हो जाता है।''
अब कोई टर्की से पूछे कि सीरिया और इराक में शरणार्थी किसने पैदा किए ? टर्की द्वारा इफरीटिस और टिग्रिस पर बांधों ने ही तो। टर्की ने ही तो यह आत्मघाती शुरुआत की।

मैने 'डेमोक्रेटिक' अखबार में सोफिया की रिपोर्ट पढ़ी। उसमें लिखा था कि 15 जुलाई, 2016 को टर्की सैनिकों ने हेलीकाॅप्टर और फाइटर जेट विमानों से हमले किये। अंकारा और इस्तानबुल की अपनी गलियों में ही टैंक उतार दिये। पार्लियामेंट की इमारत पर बम फेंका। इस कार्रवाई में 2000 घायल हुए और 300 लोगों की मौत हुई। स्थानीय संगठन, हिज़मत के सूफी संस्थापक गिलान ने इसे राष्ट्र के इस्लामीकरण की कार्रवाई के तौर देखा। क्या गिलान का नजरिया आपको उचित मालूम होता है?
हाँ, यह सही है। जो मुद्दा असलियत में पानी का था, राइटिस्ट चालों ने उसे सांपद्रायिक बना दिया। इसी का नतीजा है कि टर्की आज खुद भी एक अस्थिर देश है। आप देखिए कि शिया-सुन्नी तनाव की आंच सिर्फ इफरीटिस के देशों तक सीमित नहीं रही, यह जर्मनी भी पहुंची। जनता ने विरोध किया तो चासंलर को बदलना पड़ा। जर्मनी के हनोवर में पिछले दो साल में चार बार तनाव हुआ। मुझे भी रिफ्यूजी लोगों से मिलने में बहुत दिक्कत हुई।

हमें यह बार-बार याद करने की ज़रूरत है कि दुनिया में फैली इस अशांति की जड़ में कहीं न कहीं पानी है। अब आप फिलिस्तीन को ले लीजिए। फिलिस्तीन, पानी की कमी वाला देश है। फिलिस्तीन के पश्चिमी तटों पर एक व्यक्ति को एक दिन में मात्र 70 लीटर पानी ही उपलब्ध है, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के हिसाब से काफी कम है।

( एक व्यक्ति को प्रति दिन कितना पानी चाहिए; इसके आकलन के अलग-अलग आधार होते हैं। आप गांव में रहते हैं या शहर में ? शहर में तो आपका शहर सीवेज पाइप वाला है या बिना सीवेज पाइप वाला। यदि आप बिना सीवेज पाइप वाले छोटे शहर के बासिंदे हैं तो भारत में आपका काम 70 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन में भी चल सकता है। सीवेज वाले शहरों में न्यूनतम ज़रूरत 135 से 150 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन की उपलब्धता होनी चाहिए। भारत सरकार का ऐसा कायदा है। आप किसी महानगर में कार और किचन गार्डन और बाथ टैंक के साथ रहते हैं, तो यह ज़रूरत और भी हो सकती है। - प्रस्तोता )

फिलिस्तीन में कुदरती ऐसा है या जल संकट के और कारण हैं ?
न न, फिलीस्तीन में पानी का यह संकट कुदरती नहीं है। हालांकि फिलिस्तीन की सरकार, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, यहां तक की वहां का साहित्य भी कहता तो यही है कि फिलिस्तीन का जल संकट, क्षेत्रीय जलवायु की देन है। असल में फिलिस्तीन का जल संकट, इज़रायली किबुत्जों द्वारा फिलिस्तीन के जल स्त्रोतों पर नियंत्रण के कारण है।

फिलिस्तीन के पश्चिमी तट के साझे स्त्रोतों को जाकर देखिए। उनका 85 प्रतिशत पानी इज़रायली ही उपयोग कर रहे हैं। उन्होने आॅक्युपाइड पैलस्टिन टेरीटरी (ओपीटी) के इलाके के लोगों को जलापूर्ति के लिए, इज़रायल पर निर्भर रहने को मज़बूर कर दिया है। क्या अन्यायपूर्ण चित्र है ! एक ओर देखिए तो ग्रामीण फिलिस्तीनियों को बहता पानी नसीब तक नहीं है। दूसरी ओर फिलिस्तीन में बाहर से आकर बसे इज़रायलियों के पास बड़े-बडे़ फार्म हैं, हरे-भरे गार्डन हैं और स्वीमिंग पूल हैं। सिंचाई हेतु पर्याप्त पानी है। दोहन के लिए मशीने हैं।

अब आप ही बताइये कि फिलिस्तीन का जल संकट, कुदरती है या मैन मेड ? तिस पर हालात ये हैं कि फिलिस्तीन कुछ नहीं कर सकता। क्यों ? क्योंकि इज़रायल एक दबंग देश है।

इज़रायल और फिलिस्तीन के बीच एक समझौता हुआ था ‘ओस्लो एकॉर्ड’। इस एकॉर्ड के मुताबिक, फिलिस्तीन के पश्चिमी तट के जल स्त्रोतों में 80 प्रतिशत पर इज़रायल का नियंत्रण रहेगा। यह समझौता अस्थाई था। किंतु इस समझौते को हुए आज 20 साल हो गये। आज फिलिस्तीनियों की तुलना में इज़यरायली लोग चार गुने अधिक पानी का उपभोग कर रहे हैं, बावजू़द इसके फिलिस्तीन कुछ नहीं कर पा रहा है। यह फिलिस्तीन की बेबसी नहीं है तो और क्या है ?

अभी पिछली जुलाई के मध्य में अमेरिकी राष्ट्रपति श्रीमान ट्रंप के दखल से एक द्विपक्षीय समझौता हुआ भी तो आप देखेंगे कि यह महज् एक काॅमर्शियल डील है। यह समझौता इज़रायल को किसी भी तरह बाध्य नहीं करता कि वह पश्चिमी तटीय फिलिस्तीन के जल संकट के निदान के लिए कुछ आवश्यक ढांचागत उपाय करे। यह समझौता, फिलिस्तीन प्राधिकरण को सिर्फ एक छूट देता है कि वह चाहे तो इज़रायल से 32 मिलियन क्युबिक मीटर तक पानी खरीद सकता है। इसमें से 22 मिलियन क्युबिक पश्चिमी तटीय इलाके को 3.3 सिकिल प्रति क्युबिक मीटर के हिसाब से मिलेगा। शेष 10 मिलियन क्युबिक मीटर गाज़ा पट्टी के लिए 3.2 सिकिल प्रति क्युबिक मीटर की दर से। 3.3 सिकिल यानी 0.9 डाॅलर।

यह सब देख-सुनकर मैं बहुत दुःखी हुआ।

यदि आपको कभी फिलिस्तीनियों से मिलने का मौका मिले, तो आप पायेंगे कि वे दिल के अच्छे हैं। लेकिन वे जो पानी पी रहे हैं, वह विषैली अशुद्धियों से भरा हुआ है। वे किडनी में पथरी जैसी कई जलजनित बीमारियों के शिकार हैं। उनका ज्यादातर पैसा, समय और ऊर्जा इलाज कराने में जा रहे हैं। फिलिस्तीनियों के पास ज़मीने हैं, लेकिन वे इतनी सूखी और रेगिस्तानी हैं कि वे उनमें कम पानी की फसलें भी नहीं उगा सकते। वे मांसाहारी हैं, लेकिन मांस उत्पादन को भी तो पानी चाहिए। यही वजह है कि फिलिस्तीनी, एक दुःखी खानाबदोश की ज़िंदगी जीने को मज़बूर हैं। वे किसी तरह अपने ऊंट और दूसरे मवेशियों के साथ घुमक्कड़ी करके अपना जीवन चलाते हैं। पहले मवेशी को बेचकर, कुछ हासिल हो जाता था। फिलिस्तीनी कहते हैं कि अब तो वह समय भी नहीं रहा।

फिलिस्तीन सरकार ने सामाजिक और स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए ज़रूर कुछ किया है। किंतु वह अपर्याप्त है। मुझे तो ज्यादातर फिलिस्तीनी असहाय ही दिखे। खानाबदोश फिलिस्तीनियों को खाद्य सुरक्षा और जल सुरक्षा की कितनी ज़रूरत है; यह बात आप इसी से समझ सकते हैं कि अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए वे कभी-कभी लूट भी करने लगे हैं। मज़बूरी में उपजी इस नई हिंसात्मक प्रवृति के कारण वे कभी-कभी सीरिया सुन्नी और फिलिस्तीनी शिया के बीच संघर्ष का हिस्सा भी बन जाते हैं। किंतु क्या इस झगडे़ की उपज वाकई साप्रंदायिक कारणों से हुई है ? हमें यह सवाल बार-बार अपने से पूछना चाहिए।

वहां जाकर मुझे तो जो पता चला, वह तो यह है कि शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो कि जब किसी न किसी इज़रायली और फिलिस्तीनी के बीच पानी को लेकर मारपीट न होती हो। किंतु दोनो देशों की सरकारें आपसी जल विवाद के त्वरित समाधान के लिए कोई संजीदगी नहीं दिखा रही, क्यों ? क्योंकि न तो दोनो देशों की सरकारें एक-दूसरे पर भरोसा करती हैं और न ही लोग। अतः सबसे पहले ज़रूरी है कि दोनो देश की सरकारें और लोग आपस में सकारात्मक संवाद के मौके बढ़ाएँ।

सकारात्मक संवाद बढ़ने से ही विश्वास बढ़ता है। विश्वास के बिना फिलिस्तीन के जल संकट का कोई समाधान नहीं निकल सकता। जब सकारात्मक संवाद शुरु होगा, तो पानी इंजीनियरिंग, तकनीक और अनुशासित उपयोग के मामले में फिलिस्तीन को सिखाने के लिए इज़रायल के पास बहुत कुछ है। फिलिस्तीन उससे सीख सकता है। इसी साझी सकारात्मकता से इस क्षेत्र में जल संतुलन कायम होगा। इसी से इस क्षेत्र में शांति बहाल होगी, वरना् पानी के लिए विश्व युद्ध की भविष्यवाणी तो बहुत पहले की ही जा चुकी है।

इससे पहले की आप बतायें कि इज़रायल के पास क्या है सिखाने लायक,मेरे मन में एक जिज्ञासा है। आप इतने देश गये। आपको भाषा की दिक्कत नहीं आई ?

नहीं, वैसे दूसरों को समझाने लायक इंग्लिश तो मैं बोल लेता हूं फिर भी यदि कहीं आवश्यकता हुई, ज्यादातर जगह मुझे ट्रांसलेटर मुहैया करा दिए जाते है।....... और फिर मैं वहां कोई आम सभाओं को संबोधित करने तो जाता नहीं हूं। मुझे विदेश में ज्यादातर जगह, शासकीय-प्रशासकीय अफसरों, नेताओं अथवा समाजिक-पर्यावरणीय कार्यकर्ताओं के बीच बोलने के लिए बुलाया जाता है। व्यक्तिगत बातचीत में हिंदी-अंग्रेज़ी के अलावा दूसरी भाषा का व्यक्ति से बात करने की ज़रूरत हुई, तो कोई न कोई मदद कर ही देता है।...........

आगे की बातचीत शृंखला को पढ़ने के लिये क्लिक करें।

युद्ध और शान्ति के बीच जल

युद्ध और शान्ति के बीच जल - भाग दो

 

 

 

 

 

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समावेशी विकास व अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण का द्वन्द

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समावेशी विकास व अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण का द्वन्दRuralWaterSun, 04/08/2018 - 13:31
Source
ग्रीन सिग्नल्स, 2015


यह पुस्तक पर्यावरण के प्रति संशय भरी दृष्टि रखने वाले व्यक्ति को पर्यावरण के प्रति आस्थावान बनने के बारे में है, पर उस कहानी को कहने के लिये मुझे एकदम शुरू से आरम्भ करना होगा।

ग्रीन सिग्नल्सग्रीन सिग्नल्सयूपीए सरकार के पुनः निर्वाचित होने के बाद 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मुझे पर्यावरण एवं वन विभाग के राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) का पद देने की पेशकश ने (जो कैबिनेट मंत्री के दर्जे से तनिक कमतर था) मुझे हैरान किया क्योंकि मेरी पृष्ठभूमि एक आर्थिक प्रशासक की थी। पहले मैं वाणिज्य एवं ऊर्जा विभाग में मंत्री रहा। सरकारी अधिकारी के तौर पर प्रधानमंत्री कार्यालय, वित्त मंत्रालय, योजना आयोग, उद्योग मंत्रालय और ऊर्जा सलाहकार परिषद में अपनी सेवाएँ दी थी।

ऐसा नहीं है कि मैं पर्यावरण के जुड़े मुद्दों से अनभिज्ञ या उदासीन था। मेरे करीबी दोस्तों में कई पर्यावरण प्रशासक (एनवायरनमेंटल एडमिनिस्ट्रेटर ) टीएन सेशन और समर सिंह, पर्यावरणविद टीएन खोसू और सैयद ज़हूर क़ासिम, पर्यावरण कार्यकर्ता अनिल अग्रवाल और अशोक खोसला और अकादमिक माधव गाडगिल और महेश रंगराजन शामिल रहे हैं। इसके अलावा मैंने पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर लिखा और भाषण भी दिया है।1

पदभार ग्रहण करने के तत्काल बाद मैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने गया जिन्होंने मुझे पहले 1986 में योजना आयोग में नियुक्त किया था और जिनके साथ मैंने सरकार एवं कांग्रेस पार्टी दोनों में काम किया था। उनसे मिलने के बाद मुझे मालूम हुआ कि उन्होंने इस पद के लिये मेरा चयन पर्यावरण मंत्रालय में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और उसमें पारदर्शिता एवं जवाबदेही की संस्कृति विकसित करने के लिये किया था। उन्होंने मुझसे कहा कि भारत, पारिस्थितिकीय सरोकारों की अनदेखी नहीं कर सकता, पर हमें उच्च आर्थिक विकास दर को बनाए रखने की अनिवार्यता को भी नहीं भूलना चाहिए। अन्त में उन्होंने मुझे सलाह दी कि जलवायु परिवर्तन पर अन्तरराष्ट्रीय वार्तालापों में भारत को समाधान का हिस्सा होना चाहिए, भले हमने समस्या को उत्पन्न नहीं किया है। इसके साथ ही उनकी मुझसे यह भी अपेक्षा थी कि मैं पर्यावरण सम्बन्धी वैश्विक वार्तालापों में भारत की सकारात्मक और रचनात्मक छवि प्रस्तुत करुँ।

प्रधानमंत्री के तीन सूत्री निर्देश थे, मंत्रालय के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना, उच्च विकास का पर्यावरण संरक्षण के साथ सन्तुलन बिठाना और भारत के बारे में वैश्विक समझदारी में परिवर्तन लाना।

प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने नवम्बर 1980 में पृथक पर्यावरण विभाग का गठन किया। पर्यावरण से जुड़े मुद्दों से उन्हें गहरा लगाव था। यही वजह है कि वो कई उल्लेखनीय अधिनियमों एवं नियमावलियों के निर्माण में व्यक्तिगत रूप से जुड़ी रहीं, जिनमें वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 (Wildlife (Protection) Act of 1972), वन संरक्षण अधिनियम 1980 (Forest (Conservation) Act of 1980) और वायु (प्रदूषण निरोध व नियंत्रण) अधिनियम 1981 (Air (Pollution Prevention and Control) Act, 1981) सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

उनके बाद प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने जनवरी 1985 में इस विभाग के दायरे को विस्तार देते हुए ‘वन’ को कृषि मंत्रालय से अलग कर ‘वन एवं पर्यावरण मंत्रालय’ नामक स्वतंत्र मंत्रालय का गठन किया। निर्वाचित प्रधानमंत्री के रूप में ‘राष्ट्र के नाम’ अपने पहले सम्बोधन (6 जनवरी 1985) में राजीव गाँधी ने ‘नेशनल वेस्टलैंड बोर्ड’ (National Westland Board) के गठन और गंगा नदी की सफाई के राष्ट्रीय कार्यक्रम को आरम्भ करने की घोषणा की। दिसम्बर 1984 में अभूतपूर्व भोपाल गैस-त्रासदी के बाद पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 (Environment Protection Act 1986) को कानून का जामा पहनाना भी एक उपलब्धि थी।

1980 के दशक के आखिरी दिनों में सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product - GDP) में बढ़ोत्तरी को प्राथमिकता देने के पैरोकारों और पर्यावरण संरक्षण की वकालत करने वाले समूहों के बीच खींचतान की शुरुआत हुई। इसका परिणाम पर्यावरण से जुड़े कानूनों के कार्यान्वयन को लेकर उत्पन्न विवादों के रूप में सामने आया। निवेश और आर्थिक विकास पर जोर बढ़ने की वजह से 1990 के दशक में स्थिति बदली अगले दो दशकों में मंत्रालय के बारे में आम समझदारी में दो स्पष्ट कोण उभरे और यह बस एक रबर स्टाम्प मात्र बनकर रह गया। यही वजह रही कि एक समाचार पत्र ने इसे ‘एटीएम मंत्रालय’ तक की संज्ञा दे डाली। उन दिनों आम समझ थी कि इस मंत्रालय में बैठे लोगों को अपनी जरूरत के हिसाब से मोल्ड किया जा सकता है। बेशक, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मन में भी मंत्रालय की यही छवि रही होगी, जब उन्होंने मुझे सुनिश्चित करने के लिये प्रेरित किया कि पर्यावरण नियमावली औद्योगिक लाइसेंसिंग का नया रूप न बन जाये जिसे उन्होंने जुलाई 1991 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के सम्पूर्ण राजनीतिक समर्थन और राकेश मोहन एवं मेरे जैसे सहयोगियों की बदौलत 1990 के आरम्भ में समाप्त कर दिया था।

अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस लुईस ब्रांडीस की सौ साल पुरानी टिप्पणी में काफी सच्चाई है, “काश कि दिन की रोशनी लोगों के कामों को शुद्ध कर सकती क्योंकि सूर्य की किरणें शुद्ध करने वाली होती हैं।”लेकिन अगले पच्चीस महीनों में मैंने सीखा कि भारतीय परिस्थितियों में सूर्य की रोशनी अक्सर झुलसा और जला सकती है। पर धूप चाहे जितनी तेज हुई, मैं दृढ़तापूर्वक अड़ा रहा क्योंकि पारदर्शिता न केवल उत्तरदायित्व के लिये महत्त्वपूर्ण है, बल्कि जवाबदेह और जिम्मेवार नीति-निर्माण और प्रशासन के लिये भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

मैंने पहला परिवर्तन यह किया कि अपने कार्यालय में काँच का दरवाजा लगवाया जैसाकि पहले भी जिस किसी मंत्रालय में रहा, वहाँ कराया था। पर यह अभी भी अनुत्तरित था कि मैं सारभूत ढंग से क्या करता जिससे पारदर्शिता सुनिश्चित होती? इस समस्या का समाधान मुझे श्री हरीश साल्वे जी से मिला जो उन दिनों सुप्रीम कोर्ट में वन-मामलों की पीठ में बतौर एमाइकस क्यूरे कार्यरत थे। उनसे बातचीत के दौरान पारदर्शिता के लिये मेरे प्रयासों को एक विशेष गुण प्राप्त हुआ। उन्होंने एक टिप्पणी की जो मेरे दिमाग में बैठ गई। मुझे याद है कि उन्होंने कहा था कि मंत्री अगर अपने निर्णय के कारणों को स्पष्ट रूप से लिखित में बताएँ और उसे तत्काल सार्वजनिक कर दें तो काफी हद तक विवादों से बचा जा सकता है। इससे मुझे ‘मुखर आदेश’ का विचार आया जो आमतौर पर न्यायपालिका में चलता है, सरकार में प्रचलित नहीं है। हालांकि इससे पारदर्शिता तो बहुत आई, पर मुझे स्वीकार करना होगा कि विवादों को टालने में इसका असर मामूली रहा।

मैंने देखा कि मेरा काम इसे सुनिश्चित करना है कि अधिकारी अपने पेशेगत निर्णय बिना किसी भय या पक्षपात के करें। मैंने यह भी महसूस किया कि मंत्रालय का जनहित से जुड़े होने के कारण पर्यावरणीय मामलों से सम्बन्धित ‘मुखर आदेशों’2ने लोगों को स्वतः सक्रिय किया। सूचना के अधिकार के अन्तर्गत आवेदन देने और प्रश्न पूछने का इन्तजार नहीं करना पड़ा। इससे खुलेपन और उत्तरदायित्व- बोध को मजबूती मिली।

 

 

1980 के दशक के आखिरी दिनों में सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ोतरी को प्राथमिकता देने के पैरोकारों और पर्यावरण संरक्षण की वकालत करने वाले समूहों के बीच खींचतान की शुरुआत हुई। इसका परिणाम पर्यावरण से जुड़े कानूनों के कार्यान्वयन को लेकर उत्पन्न विवादों के रूप में सामने आया। निवेश और आर्थिक विकास पर जोर बढ़ने की वजह से 1990 के दशक में स्थिति बदली अगले दो दशकों में मंत्रालय के बारे में आम समझदारी में दो स्पष्ट कोण उभरे और यह बस एक रबर स्टाम्प मात्र बनकर रह गया।

इन ‘मुखर आदेशों’ में मैंने निर्णयों का औचित्य स्थापित किया जिसमें विशेषज्ञों की सलाह और सिफारिशों को एक किनारे रखकर दूसरे कारकों जैसे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मसलों से जुड़े सरोकारों का विशेष ध्यान रखा गया। पहला ‘मुखर आदेश’3आनुवंशिक रूप से संशोधित बैंगन (बीटी बैंगन) के व्यावसायिक उत्पादन पर प्रतिबन्ध लगाने के बारे में था।

पारदर्शिता के लिये मैंने भाषण को भी एक आधार बनाया। अधिकांश मंत्री दूसरों के द्वारा तैयार नीरस भाषण पढ़ देते हैं, पर मेरा तरीका परम्परागत शैली का नहीं था इसलिये मुझे भाषण तैयार करने के लिये किसी का इन्तजार नहीं करना होता था। मैंने सोचा कि विभिन्न विषयों पर मेरे विचारों के बारे में लोगों की समझदारी और जागरुकता बढ़ाने में इस ‘दबंग सिंहासन’ का उपयोग फलप्रद ढंग से किया जा सकता है। अलबत्ता, दूसरों के भाषण लिखने में पूरा जीवन गुजार देने के बावजूद अपने लिये लिखना एकदम नया अनुभव था, खासकर बिना तैयारी के बोलने का अभ्यस्त होने की वजह से।

मंत्रियों को अक्सर सार्वजनिक भाषण4देने के लिये कहा जाता है, मेरे लिये यह नए विचारों और अवधारणाओं को अभिव्यक्त करने का अवसर बन गया जो मंत्रालय के कार्यभार के बारे में परम्परागत समझदारी और तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था की चुनौतियों के प्रति जवाबदेही के लिहाज से महत्त्वपूर्ण था। मकसद बड़ी तस्वीर दिखाना था, ताकि पर्यावरण को महज परिरक्षण और संरक्षण की बजाय व्यापक फलक पर देखने की आवश्यकता को प्रचारित किया जा सके और जन-स्वास्थ्य, गरीबी उन्मूलन के साथ इसका सम्बन्ध भी स्थापित किया जा सके।

मेरा सारभूत सन्देश रूढ़िवादों से बचते हुए ‘मध्यम मार्ग’ अपनाने की आवश्यकता बताना था, रूढ़िवाद चाहे ‘अभी उन्नति, नतीजा बाद में’ किस्म की हो या नागरिक समाज के बहुसंख्यक कार्यकर्ताओं की हो, जो उच्च जीडीपी विकास दर के विचार से ही बैर रखते हैं। दोनों स्थितियाँ एकदम विपरीत दिखती हैं जिनके समर्थक एक-दूसरे से बात करने के बजाय एक-दूसरे के बारे में बात करते हैं।

दोनों पक्ष, ऐसा अक्सर लगा, बहुलता के विचार से ही बेहद असहज थे जो उदार लोकतंत्र का आधारभूत चिन्ह होता है। तकनीकीविद और विशेषज्ञों की सोच थी कि हर नीतिगत समस्या का एक तर्कसंगत समाधान है, इसलिये बहस की कोई आवश्यकता नहीं है। जबकि कार्यकर्ता विश्वास करते थे कि वास्तविक लोकप्रिय संकल्प और भावना को वे अकेले पहचानते और उसका प्रतिनिधित्व करते हैं और इसलिये बहस की कोई आवश्यकता नहीं है। मेरी इच्छा बीच के रास्ते पर चलने की थी, यह जानते हुए कि इसमें दोनों पक्षों का प्रहार झेलने का जोखिम था।

जन-सुनवाई सार्वजनिक पक्षपोषण का दूसरा रूप है। व्यापक भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिये कि मंत्रालय या मैं भागीदारों के चयन को प्रभावित नहीं करें, इन जन-सुनवाइयों को अहमदाबाद स्थित सेंटर फॉर एनवायरनमेंट एजुकेशन (सीईई) (Center for Environment Education (CEE)) द्वारा आयोजित और संचालित किया गया। जन-सुनवाइयों की पहली शृंखला बीटी-बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन शुरू करने के मसले पर जनवरी-फरवरी 2010 में बंगलुरु, हैदराबाद, अहमदाबाद, कोलकाता, नागपुर, चंडीगढ़ और भुवनेश्वर में आयोजित हुई जिसमें आठ हजार से अधिक लोगों ने हिस्सा लिया। जन-सुनवाइयों की दूसरी शृंखला नई समुद्र तटीय नियमावलियों (New coastal zone regulation) को अन्तिम रूप देने के लिये पुरी, चेन्नई, मुम्बई, गोवा और कोच्ची में आयोजित हुई जिसमें लगभग पाँच हजार लोगों ने हिस्सा लिया। इन पारस्परिक क्रियाओं की तीसरी शृंखला ग्रीन इण्डिया मिशन (Green India Mission - GIM) के बारे में थी और वे गुवाहाटी, पुणे, देहरादून, जयपुर, भोपाल और मैसूर में आयोजित हुई। इन बैठकों में लगभग डेढ़ हजार लोगों ने हिस्सा लिया।

इन बैठकों में से प्रत्येक में मेरा उद्देश्य सभी हितधारकों, जिनके विचार विविधतापूर्ण और आलोचनात्मक हो सकते थे, को सरकार के विचारों से अवगत करना था। विविधतापूर्ण विचारों के एक प्लेटफॉर्म पर स्थिति का कोलाहलपूर्ण होना लाजमी होता है, जैसा कई बार हुआ भी। इस तरह के बैठकों से सम्पूर्ण मतैक्य कायम करना, एक व्यापक सर्वानुमति बनाना मेरा लक्ष्य था।

हितधारकों के साथ दो अन्य सार्वजनिक परामर्श अभूतपूर्व साबित हुए। कुन्नूर में फरवरी 2010 में हुई पहली सार्वजनिक पारस्परिक क्रिया थी जिसमें ‘पश्चिमी घाट विशेषज्ञ पारिस्थितिकी समिति’ (Western Ghats Specialist Ecology Committee) के गठन का रास्ता बना जिसके अध्यक्ष माधव गाडगिल बनाए गए जिनकी सिफारिशों ने एक सनसनी पैदा की और सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों तरह की प्रतिक्रियाएँ हुईं। गुवाहाटी में दूसरा विशाल पारस्परिक संवाद सितम्बर 2010 में हुआ। यह पूर्वोत्तर राज्यों खासकर अरुणाचल प्रदेश के अपार पनबिजली क्षमता के विकास के बारे में था। मैंने इस क्षेत्र की पनबिजली नीति पर पुनर्विचार करने का अनुरोध करते हुए प्रधानमंत्री को रिपोर्ट सौंपी जिस पर काफी हलचल हुई, फिर मैंने सोचा कि अपनी सरकार को भी भिन्न और विरोधी विचारों के प्रति संवेदनशील बनाना महत्त्वपूर्ण है।

अपनी व्यवस्था में पारदर्शिता सुनिश्चित करने का तीसरा रास्ता संसद की गतिविधियों में मंत्रियों की सक्रिय हिस्सेदारी है। संसद सदस्यों को सार्वजनिक मसलों के बारे में पूरी जानकारी देना और लोकसभा एवं राज्यसभा दोनों सदनों में महत्त्वपूर्ण विषयों पर बहस आयोजित करना इस सक्रियता को प्रकट करने का एक ढंग है। स्वतः सक्रिय होने और सांसदों को प्रश्न करने एवं बहस की माँग करने के लिये प्रोत्साहित करने का विचार था। मैं इस तरह के कुछेक अवसर पैदा करने में सफल रहा।5

मैं जानता था कि मेरी शैली के साथ-साथ मेरे कार्यों से भी निश्चित रूप से आलोचनाओं के द्वार खुल जाएँगे और सचमुच यही हुआ। परन्तु, तब मैंने महसूस किया कि इसने मुझे देश के सबसे प्रभावशाली मंच से अपनी बातों को तर्कपूर्ण ढंग से रखने का अवसर भी दिया है जिनका न केवल बड़े पैमाने पर प्रचार और तर्क-वितर्क होगा, बल्कि वे लिखित दस्तावेजों का हिस्सा भी बनेंगे। इससे मुझे अक्सर विभिन्न दृष्टिकोण अपनाने और उन्हें लेकर आशंकाओं को दूर करने का अवसर मिला। इससे जिन नीतियों और परिवर्तनों को मैं प्रस्तुत कर रहा था, उन्हें व्यापक स्तर पर स्वीकार्यता मिल सकी। वे संसद में महज बहस और वाद-विवाद के विषय नहीं थे। मैंने सांसदों को पत्र लिखा- कुछेक बार व्यक्तिगत तौर पर, कई बार सांसदों के समूह को और कुछ अवसरों पर सभी सांसदों को। मैंने कुछेक बार मंत्रिमंडल के सहयोगियों को लिखा ताकि पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के प्रति वे संवेदनशील बनें और योजना बनाने की प्रक्रिया में इन मुद्दों पर विचार किया जा सके। इसके लिये मंत्रालय द्वारा उन्हें जरूरी सूचनाएँ उपलब्ध कराई और पर्यावरण के प्रश्नों पर व्यापक वचनबद्धता में उनको शामिल किया गया।

पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के मेरे अभियान का अन्तिम और महत्त्वपूर्ण मुद्दा मुख्यमंत्रियों और राज्य सरकारों में अपने समकक्षों के साथ कार्य करना था। हमारी संघात्मक संरचना में राज्यों के साथ सहमति कायम करना केन्द्र सरकार का कर्तव्य है। आखिरकार नीतिगत निर्णयों का कार्यान्वयन राज्य और स्थानीय सरकार को करना होता है। निर्णय करने की प्रक्रिया में राज्यों को शामिल नहीं करने से कार्यान्वयन में प्रतिरोध हो सकता है जिससे सर्वोत्तम नीतियों का भी प्रयोजन नष्ट हो सकता है। कई मामलों में राज्य सरकारों से मिली सूचनाएँ निर्णय लेने में अनिवार्य होती हैं क्योंकि वे जमीनी स्तर पर आवश्यकताओं और मनोभावों का बेहतर आकलन करने की स्थिति में होती हैं।6अधिकांश राज्यों के मुख्यमंत्री मेरे सभी निर्णयों से प्रसन्न नहीं थे।7लेकिन मैंने जहाँ भी सम्भव था, एक कारगर सन्तुलन बनाने की कोशिश की ताकि केन्द्र सरकार की नीतियों या निर्देशों से समझौता किये बिना उनके सरोकारों को समाहित किया जा सके।8

 

 

 

 

सरकार और पार्टी में मेरा पिछला प्रोफाइल स्वच्छंद विकास और अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के पक्षधर के तौर पर थी जिसे उद्योग जगत और विकास के पक्षधर सुविधाजनक पाते थे जबकि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद से घनिष्ठ जुड़ाव और वाणिज्य मंत्रालय में मेरा कार्यकाल, जहाँ लगातार मैंने बागवानी सेक्टर पर जोर दिया जिससे पर्यावरणविदों को प्रसन्नता थी। मैं कोई अड़ियल पर्यावरणविद नहीं था, बल्कि ‘पहले विकास’ की राह पर भी भटका था। इसका मतलब था कि मैं लगातार समझौते की दिशा में काम करता रहा।

जनता के साथ पारदर्शिता बरतना मेरे निर्णय लेने की पद्धति में निश्चित ही एक प्रमुख आधार था। साथ ही मैंने प्रधानमंत्री के साथ अपनी प्राथमिकताओं, पद्धति और निर्णयों के बारे में संवाद करते रहना आवश्यक समझा। केवल इसलिये नहीं कि वे प्रधानमंत्री हैं बल्कि डॉ. मनमोहन सिंह को मैं किसी दूसरे से अधिक जानता था और वे आर्थिक उन्नति के सरोकारों में डूब नहीं गए थे बल्कि पारिस्थितिकीय प्राथमिकताओं से भी पूरी तरह अवगत और संवेदनशील थे।

मैं उन्हें अक्सर लिखता था। मेरे प्रत्येक राजनीतिक सन्देश को वो पढ़ते और समय पर उत्तर भी देते। कई बार मैंने जिन मुद्दों को उठाया, उन पर प्रधानमंत्री कार्यालय और सम्बन्धित मंत्रालयों द्वारा आगे की कार्रवाई भी की गई। लिहाजा पूर्वोत्तर की पनबिजली परियोजनाओं के बारे में उनको लिखे मेरे पत्र पर ऊर्जा मंत्रालय ने ‘क्युमुलेटिव इम्पेक्ट असेसमेंट’ (Cumulative Impact Assessment) के सन्दर्भ में बात करना आरम्भ कर दिया। फुकुशिमा परमाणु हादसे के बाद लिखे मेरे पत्र से हमारे अपने परमाणु संयंत्रों में सुरक्षा प्रणाली लगाने की विस्तृत तैयारी हुई। कोयला खनन के मामले में ‘करो, मत करो’ (Dos & Don’ts) के बारे में मेरे पत्र पर आगे का रास्ता निकालने के लिये तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में मंत्रिमंडलीय समूह का गठन हुआ।

प्रधानमंत्री ने अपनी ओर से भी मुझे लिखा। जब (जैसे-नवी मुम्बई हवाई अड्डा और महेश्वर पनबिजली परियोजना के मामले में) मेरे रुख से नाराज मुख्यमंत्रियों का पत्र उनके पास आया या उद्योगपतियों ने उन्हें लिखा जिनका प्रस्ताव किसी कारणवश विशेषकर उदाहरण के तौर पर (मध्य प्रदेश में महान की कोयला खदान के) पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव की वजह से अटक गया था, या मेरे मंत्रिमंडलीय सहयोगियों ने लिखा जो मेरे फैसलों (जैसे-शरद पवार बीटी बैंगन के मामले में) से सहमत नहीं थे। मैं प्रधानमंत्री के सामने अपने रूख के औचित्य को हमेशा स्पष्ट करता था पर उन्होंने कभी भी मुझे अपनी मान्यताओं के खिलाफ जाने के लिये नहीं कहा। लेकिन कभी-कभी मुझे यह समझाने की कोशिश जरूर की कि पारिस्थितिकीय संरक्षण की बात एकदम जायज है पर भारत को अभी अधिक तेजी से आर्थिक उन्नति करने की जरूरत है। मैं उनसे पूरी तरह असहमत नहीं था, पर मेरी राय थी कि इस तेज आर्थिक विकास को भी निश्चित तौर पर टिकाऊ होना चाहिए। उन्होंने मेरी दलीलों को कितनी गम्भीरता से लिया, यह 12वीं पंचवर्षीय योजना में स्पष्ट हुआ जो तेज, समावेशी टिकाऊ विकास को अपना लक्ष्य बताता है। ‘टिकाऊ’ शब्द का शामिल किया जाना बड़ी बौद्धिक जीत थी जो डॉ. सिंह की व्यक्तिगत पारिस्थितिकीय संवेदनशीलता की वजह से हुई। वे भारतीय उद्यमियों और उद्यमों की हर हाल में आर्थिक गतिविधियों में लगे रहने के उत्साह ‘एनिमल स्पिरिट’ (Animal spirits) को उन्मुक्त छोड़ने की चर्चा अक्सर किया करते थे।

पारिस्थितिकीय सरोकारों को उच्च आर्थिक विकास के साथ सन्तुलित करना एक बड़ी चुनौती थी और यह विवादपूर्ण भी साबित हुआ क्योंकि इससे सम्बन्धित विकल्प दुखदायी थे। एक तरफ पर्यावरणीय सुरक्षा और संरक्षण की माँग और दूसरी तरफ आर्थिक उन्नति की आवश्यकता के बीच वाद-विवाद अपरिहार्य है। दोनों ही स्थितियाँ अच्छी हैं जो रुसी दार्शनिक इसैया बर्लिन के विचार से भी मालूम होता। वे ‘निराशाजनक परिस्थिति को असहनीय विकल्प की परिघटना’कहते हैं। ऐसे में व्यवस्था सुचारु रूप से चलाने के लिये किसी भी परिस्थिति में सतर्कतापूर्वक सन्तुलन बनाए रखना जरूरी था। लेकिन यह कार्य मेरे लिये मेरी सोच से ज्यादा कठिन सिद्ध हुआ।

सरकार और पार्टी में मेरा पिछला प्रोफाइल स्वच्छंद विकास और अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के पक्षधर के तौर पर थी जिसे उद्योग जगत और विकास के पक्षधर सुविधाजनक पाते थे जबकि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद से घनिष्ठ जुड़ाव और वाणिज्य मंत्रालय में मेरा कार्यकाल, जहाँ लगातार मैंने बागवानी सेक्टर पर जोर दिया जिससे पर्यावरणविदों को प्रसन्नता थी। मैं कोई अड़ियल पर्यावरणविद नहीं था, बल्कि ‘पहले विकास’ की राह पर भी भटका था। इसका मतलब था कि मैं लगातार समझौते की दिशा में काम करता रहा।

प्रधानमंत्री की हिदायतों पर गौर करते हुए और अपनी समझदारी के आधार पर मेरा मानना था कि प्रचलित मान्यता के विपरीत एक पर्यावरण मंत्री का काम केवल देश के पर्यावरण और वनों का संरक्षण करना नहीं है। सरकार का एक जिम्मेवार सदस्य होने के नाते पर्यावरण मंत्री को पर्यावरणीय सुरक्षा और संरक्षण के काम के साथ-साथ सरकार के व्यापक लक्ष्यों, उच्च आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन सुनिश्चित करने से सन्तुलन भी बिठाना होता है। मेरा काम यह सुनिश्चित करना था कि उच्च आर्थिक विकास का लक्ष्य इस ढंग से प्राप्त किया जाये कि पारिस्थितिकी के लिहाज से टिकाऊ हो साथ ही ऐसे उपाय करना जिससे पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित हो और मानवीय एवं औद्योगिक गतिविधियों का पर्यावरण पर घातक प्रभाव न्यूनतम हो।

यह मेरे लिये नया विचार नहीं था। पर्यावरण मंत्री के काम का मोटा खाका प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने खींच दिया था। पहले पहल स्टॉकहोम में जून 1972 में मानवीय पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में इन्दिरा गाँधी ने, (सम्मेलन में मेजबान स्वीडन के प्रधानमंत्री ओलाफ पाल्मे के अतिरिक्त वे इकलौती सरकार प्रमुख थीं) कहा कि हम पर्यावरण को और अधिक दरिद्र करना नहीं चाहते, लेकिन बहुत सारे लोगों की भयंकर गरीबी को क्षण भर के लिये भी भूल नहीं सकते। क्या गरीबी और उसे दूर करने की आवश्यकता सबसे बड़े प्रदूषणकारी हैं? पर्यावरण में सुधार गरीबी की अवस्था में नहीं हो सकता। न ही विज्ञान और तकनीकों के उपयोग के बिना गरीबी दूर की जा सकती है।9उनकी समझ साफ थी कि विकास और पर्यावरण एक-दूसरे के दुश्मन नहीं हैं, जन्मगत दुश्मनी संरक्षण और विकास के बीच नहीं होकर कुशलता के नाम पर मनुष्य और पर्यावरण का अनवरत शोषण के बीच है।10

व्यावहारिक समस्या यह थी कि दिवंगत प्रधानमंत्री के शब्द एकदम स्पष्ट ढंग से मेरे पास पहुँच गए। जिस दिन मैंने मंत्री के रूप में पदभार सम्भाला, मंत्रालय की एक वैधानिक संस्था जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (Genetic Engineering Approval Committee - GEAC) की बैठक बीटी बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन के प्रस्ताव पर विचार करने के लिये थी। जीईएसी की सिफारिशें जल्दी ही मेरे पास अनुमोदन के लिये आई जिसने मुझे जटिल विषय पर कठिन फैसला लेने के लिये प्रेरित किया। यह ऐसा फैसला था जिसने मंत्री के तौर पर कर्तव्य-निर्वाह के मेरे तौर-तरीकों को तैयार किया। इससे मेरे कामकाज के प्रशंसक पैदा हुए तो दुनिया भर में कटु आलोचकों की फौज भी खड़ी हो गई।

पहले दिन से ही यह एकदम स्पष्ट था कि पर्यावरण मंत्री के रूप में मेरा काम आसान नहीं होगा। मुझे कुछ कड़े फैसले करने होंगे। मैं बर्लिन के शब्दों में ‘चुनने के लिये अभिशप्त था और हर चुनाव के साथ क्षति हो सकती थी।’प्रत्येक चुनाव और निर्णय विकास बनाम पर्यावरण के विवाद में योगदान करते। भारत ने स्टॉकहोम के उस दिन के बाद आज लम्बी दूरी तय कर ली है। देश उच्च विकास दर के रास्ते पर है, लोगों की आकांक्षाएँ और उनकी आवश्यकताएँ कई गुना बढ़ गई हैं।

एक तरफ विकसित होती अर्थव्यवस्था की आवश्यकताएँ, जिसमें उद्योग जगत प्राकृतिक संसाधनों तक आसान पहुँच चाहता है और सरकार अधिक रोजगार पैदा करना चाहती है ताकि अधिक-से-अधिक लोग उस विकास-कथा में हिस्सेदार बन सके जिसकी रचना भारत करना चाहता है। दूसरी तरफ आबादी के बड़े तबके की आजीविका प्रकृति के साथ घनिष्ठता से जुड़ी हुई है- चाहे किसान हो जो अधिकांशतः अच्छी फसल के लिये मानसून पर निर्भर रहते हैं या आदिवासी आबादी हो जो लघु वनोपजों और जलावन के लिये जंगलों पर निर्भर रहते हैं।

ऐसा विश्वास करना गलत होगा कि आर्थिक उन्नति और विकास के साथ कोई पर्यावरणीय क्षति अपरिहार्य नहीं होगी। इसके साथ ही यह सोचना भी भ्रमात्मक है कि पर्यावरणीय संरक्षण आर्थिक उन्नति में अवरोध है। लेकिन ऐसी आर्थिक उन्नति सुनिश्चित करने के लिये जो टिकाऊ और पर्यावरण के लिहाज से ठीक हो, सभी से त्याग करने की अपेक्षा होगी। लेकिन यह त्याग व्यक्तिगत लाभ के लिये नहीं होगा, न ही यह कुछ ही लोगों के लिये लाभकारी होगा। यह ऐसे विकल्प के लिये सुदृढ़ आधार तैयार करेगा जो सार्वजनिक बेहतरी के लिये होगा।

दुर्भाग्य से विकास बनाम पर्यावरण विवाद का समाधान करने का कोई रामबाण इलाज नहीं है। यह उद्योग या पर्यावरण के बीच चुनाव का मामला भी नहीं है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि चयन ही नहीं किया जाना है। इसका मतलब केवल इतना है कि इसके लिये कोई निर्धारित पैटर्न या फार्मूला उपलब्ध नहीं है। मैंने अपने काम को हेनरी किसिंगर (Henry Kissinger) के विचार से देखूँ तो उसे मैंने ‘सन्तुलित असन्तोष’ के रूप में देखा। सचमुच मेरे कार्यकाल के आखिर तक यह निश्चित रूप से वही था। उन्नति के हिमायतियों ने मुझे ‘श्रीमान नहीं’ कहा तो संरक्षणवादियों ने मुझ पर पर्याप्त साहसी नहीं होने और अपेक्षा के अनुसार कार्य नहीं करने के आरोप लगाए।

पल-पल बदलती दुनिया के दबावों और खिंचावों ने एक चीज स्पष्ट कर दी है कि पर्यावरणीय सरोकार अधिक दिनों तक हमारे उच्च विकास दर की अनवरत तलाश के समानान्तर नहीं चल सकते। पर्यावरणीय सरोकारों को न केवल दीर्घकालीन आर्थिक निर्णयों के केन्द्र में रहना होगा, बल्कि कभी-कभी मुख्य संचालक शक्ति भी बनना होगा।

ऐसे भी अवसर आये जब निर्णय पर्यावरण लॉबी के पक्ष में झुका दिखा, विकास की परियोजना का अहित हुआ। उदाहरण के लिये, मैं भागीरथी नदी पर बन रही तीन पनबिजली परियोजनाओं को लेकर कठिन निर्णय लेने की स्थिति में था। काफी विचार-विमर्श और उत्तराखण्ड के राजनीतिज्ञों के विरोध के बावजूद मैंने प्रधानमंत्री से अनुरोध किया कि इन तीनों परियोजनाओं को व्यापक पारिस्थितिकीय सरोकारों (साथ ही धर्म से सम्बन्धित सरोकारों) को देखते हुए रद्द कर दिया जाये। न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करने की शर्त सभी पनबिजली परियोजनाओं पर लगाए जाएँ और पारिस्थितिकीय प्रभाव का घाटीवार आकलन करने का शासनादेश जारी किया जाये।

कभी-कभी सन्तुलन का प्रश्न केवल पर्यावरणीय संरक्षण और उन्नति के बीच नहीं रह जाता। यह वर्तमान की उन्नति के अपेक्षाओं और भविष्य में उन्नति की सम्भावनाओं को सुनिश्चित करने के बीच सन्तुलन बिठाना हो जाता है। यह संघर्ष पश्चिमी घाट के मामले में स्पष्ट रूप से दिखा। माधव गाडगिल विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों का स्वागत और निन्दा दोनों हुई जिससे के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में समीक्षा समिति का गठन करना पड़ा, उसकी सिफारिशें भी विवादपूर्ण साबित हुईं। पश्चिमी घाट में नई प्रजाति के पौधे और जीवों की नस्लों की खोज होते रहने से मेरा यह विश्वास पुख्ता हुआ कि आलोचनाओं के बावजूद मैं सही था।

सभी परिस्थितियाँ इस तरह विवादपूर्ण नहीं होती और वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये इस ढंग से समाधान खोजे जा सकते हैं जो भविष्य की सुरक्षा करें। तटीय नियामक क्षेत्र अधिसूचना- 2011 (coastal regulation zone notification - 2011) पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकताओं के साथ आर्थिक उन्नति को सन्तुलित करने के सहयोगी प्रयास का एक उदाहरण था। भारत के 7000 किलोमीटर लम्बे समुद्र तटीय क्षेत्र में कोई 25-30 करोड़ लोग निवास करते हैं। समुद्र तट सामरिक महत्त्व के हैं और इसकी सुरक्षा इस पर निर्भर आजीविका के लिये भी करनी होगी। समुद्र तट एक पारिस्थितिकीय और आर्थिक सम्पदा है। तटीय क्षेत्रों में अधिसंरचनाएँ विकसित की जानी चाहिए, साथ ही ऐसी प्रणाली बनाने की आवश्यकता भी है जो जलवायु परिवर्तन के निर्विवाद रूप से हानिकारक प्रभावों का सामना कर सके। 2011 की अधिसूचना ने संवेदनशील इलाकों जैसे- मुम्बई, केरल और गोवा के लिये विशेष व्यवस्था की है, हालांकि ‘हर कीमत पर विकास’ के पक्षधरों ने जितनी माँग की थी उस सीमा तक नहीं, परन्तु यह निश्चित ही पूर्ववर्ती नियमावली से कम प्रतिबन्धकारी थी।

 

 

 

 

पर्यावरण कोई ऐसा गूढ़ या तकनीकी मसला नहीं है जिस पर ‘विशेषज्ञ की राय’ आवश्यक हो बल्कि यह लोगों और उनके दैनिक जीवन से जुड़ा मसला है इसलिये मैंने अपने दरवाजे सभी के लिये खोल दिये। मैंने नीति-निर्माण की प्रक्रिया में न केवल अधिक विशेषज्ञों को शामिल करने का व्यवस्थित प्रयास किया बल्कि सामाजिक कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों, संरक्षणवादियों, अकादमिक लोगों, प्रशासकों, औद्योगिक विशेषज्ञों और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों को भी शामिल किया।

सन्तुलन की तलाश केवल प्रतिद्वन्द्वी समूहों की न्यायसंगत माँगों को पूरा करने के लिये आवश्यक नहीं थी, बल्कि यह अहसास करने के लिये भी थी कि पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय सरोकारों की अनदेखी गरीबी उन्मूलन के लक्ष्यों और देश को निरन्तर उच्च-विकास के पथ पर ले जाने पर भी प्रतिकूल असर डालेगा। इस लिहाज से बहस को उन्नति बनाम पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य से अलग हटकर फिर से परिभाषित करने की जरूरत थी। यह बहस दरअसल निरर्थक है और अपनी मौजूदा स्वरूप में पर्यावरण संरक्षण और पारिस्थितिकीय सुरक्षा कभी जीत नहीं सकती।

पर्यावरणीय मसलों का समाधान करने और गरीबी न्यूनीकरण के बीच मजबूत और असन्दिग्ध सम्बन्ध है। पर्यावरणीय मसले जैसे- वायु और जल प्रदूषण का स्पष्ट प्रभाव जन-स्वास्थ्य पर होता है और इसके साथ उत्पादनशीलता के मसले जुड़े होते हैं। भारत के लिये इन निहितार्थों पर विचार करना आवश्यक है क्योंकि वह उच्च विकास दर की दौड़ में देर से शामिल हुआ है। लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकालने की जरूरत का मतलब टिकाऊ उच्च विकास दर सुनिश्चित करना है लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं होता कि हम वही गलती करें जो दूसरे देशों ने की है।

पर्यावरण से सम्बन्धित नीतियों की रचना और संचालन की अनेक चुनौतियाँ हैं क्योंकि इसे इस तरह से करना होता है कि वह प्रतियोगी माँगों और दबावों एवं खिंचावों को सन्तुलित करे। जोखिम और कीमत भी बहुत ऊँची है और सही काम करने और अच्छे फैसले के बीच लकीर अक्सर धुँधली होती हैं। मैं सचेत था कि मेरे फैसले का प्रभाव, अच्छा या बुरा, पर्यावरण मंत्री के नाते मेरे कार्यकाल से अधिक समय तक टिका रहेगा। इसलिये, मेरा कर्तव्य बनता है कि इसे सुनिश्चित करुँ कि अपने फैसलों और कार्रवाइयों की सक्षमता और परिशुद्धता पर मुझे सचमुच दृढ़ विश्वास हो।

हम जो नीतियाँ बनाते हैं और हम जो निर्णय करते हैं, वे उतनी ही अच्छी होती हैं जैसे तथ्य (इनपुट) मिले होते हैं। अलग-अलग मतों वाले लोगों के लिये भी उचित प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराना भी मेरी समझ से आवश्यक होता है। इससे सुनिश्चित होता है कि मनुष्य के गलत कामों का दिखते रहना’ और ‘अच्छे लोगों के बुनियादी कामों का छिप जाने’ की घटनाएँ पूरी तरह खत्म भले न हो, न्यूनतम जरूर हो जाएगी। मैं बताना चाहता था कि पर्यावरण कोई ऐसा गूढ़ या तकनीकी मसला नहीं है जिस पर ‘विशेषज्ञ की राय’ आवश्यक हो बल्कि यह लोगों और उनके दैनिक जीवन से जुड़ा मसला है इसलिये मैंने अपने दरवाजे सभी के लिये खोल दिये। मैंने नीति-निर्माण की प्रक्रिया में न केवल अधिक विशेषज्ञों (खासकर युवाओं) को शामिल करने का व्यवस्थित प्रयास किया बल्कि सामाजिक कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों, संरक्षणवादियों, अकादमिक लोगों, प्रशासकों, औद्योगिक विशेषज्ञों और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों को भी शामिल किया। विभिन्न मसलों का समाधान करने के लिये स्पष्ट और समयबद्ध शासनादेश के साथ समितियों और कार्यबलों का गठन किया गया। इन समितियों ने भारतीय हाथी के संरक्षण, चीता के पुनर्प्रस्तुतिकरण जो भारत में पिछले दो हजार सालों में विलुप्त हो गया अकेला स्तनपायी जानवर है, बोटेनिकल सर्वे ऑफ इण्डिया (Botanical Survey of India) और जूलॉजिकल सर्वे अॅाफ इण्डिया (Zoological Survey of India) का पुनरुद्धार, प्लास्टिक कचरे, ई-कचरे व हानिकारक कचरे के निपटारे के बारे में नई नियमावली लागू करना, उच्चस्तरीय और विवादपूर्ण परियोजनाओं की समीक्षा करना जैसे वेदान्ता, पोस्को और लवासा, वन्यजीवों के संरक्षण से सम्बन्धित कानूनों को शक्तिशाली बनाना, जैवविविधता के संरक्षण के लिये बने कानूनों को लागू करना और वनाधिकार कानून 2006 के कार्यान्वयन का आकलन करने का कार्य किया।

मंत्रालय में केवल ‘विशेषज्ञों’ का ही स्वागत नहीं होता था। मेरा हमेशा से विश्वास रहा है कि युवाओं को समुचित मार्गदर्शन और प्रोत्साहन मिले तो सरकार की अधिक सहायता कर सकते हैं। उनके पास उत्साह होता है जो संशय और अनुभव से कलुषित नहीं हुआ होता। मेरे आरम्भिक सलाहकारों में दो लवराज कुमार और आबिद हुसैन ने सरकार के दरवाजे तेज और जिज्ञासु युवाओं के लिये खोले और उन्हें प्रतिष्ठान को चुनौती देने की आजादी दी और उन्हें संरक्षण भी दिया। इस परम्परा को कायम रखते हुए जिससे मैं लाभान्वित हुआ था, मैंने पर्यावरण एवं वन मंत्रालय प्रशिक्षण कार्यक्रम आरम्भ किया जिसने काफी युवाओं को आकर्षित किया जिनमें युवा महिलाओं की संख्या कहीं ज्यादा थी। राष्ट्रीय पर्यावरण विज्ञान फेलो कार्यक्रम अगली पीढ़ी के मानव संसाधन तैयार करने का दूसरा प्रयास था। इसे आमतौर पर हम नहीं जानते कि पर्यावरण के मामले देखने वाले भारत सरकार के पहले दो सचिव, डॉ. टी एन खोसू और डॉ. सैयद जहूर कासिम प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे, पर बाद में यह पद भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के लिये सुरक्षित हो गया। मैं बहुत इच्छुक था कि मंत्रालय की वैज्ञानिक सामर्थ्य में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हो। फेलो कार्यक्रम फरवरी 2010 में आरम्भ हुआ। यह 35 वर्ष से कम उम्र के पोस्ट डॉक्टरेट रिसर्चर्स के लिये था जो देश और विदेश के चुने हुए संस्थानों में पर्यावरण विज्ञान, इंजीनियरिंग और तकनीक के क्षेत्र में अग्रिम कतार में कार्य करने के लिये उत्सुक हो। हर साल 30 लाख रुपए की दस फेलोशिप दी जानी थी जो भारतीय मानदंडों के लिहाज से अच्छी रकम होती है। इस पहल के माध्यम से मुझे उच्च स्तरीय भारतीय वैज्ञानिकों का एक कैडर और नेटवर्क तैयार कर लेने की उम्मीद थी जो परिशुद्ध विज्ञान के आधार पर हमारे पारिस्थितिकीय एजेंडा को निर्धारित करते।

चुनाव निश्चित रूप से वास्तविक तथ्यों और सूचनाओं के आधार पर किया जाना चाहिए। इसे सुनिश्चित करने की जरूरत थी कि मूल्यांकन निरपेक्ष और न्यायपूर्ण ढंग से किये जाएँ। इसके लिये तौर-तरीकों में बदलाव की जरूरत थी, नए प्रतिष्ठानों की जरूरत थी। प्रतिष्ठान बनाने में समय लगता लेकिन फैसला यहाँ और अभी ही करना था। इन उपायों के लाभ और महत्त्व के बावजूद, वैज्ञानिक और अनुभवजन्य तथ्यों के आधार पर फैसला सुनिश्चित करने का यह समाधान नहीं था। मंत्रालय में आये अधिकांश प्रस्तावों के लिये मुखर आदेशों की आवश्यकता नहीं थी। प्रश्न यह था कि वास्तविक तथ्यों के आधार यह कैसे सुनिश्चित हो कि पर्यावरणीय गिरावट से सुरक्षा, न्यूनीकरण और निपटारा करने के लिये निर्धारित शर्तों का पालन किया गया है?

इन प्रश्नों का उत्तर देने वाले समाधान प्रस्तुत करने के प्रयास में मैं एक नए प्रतिष्ठान का गठन करने पर विचार कर रहा था। वन एवं पर्यावरण मंजूरी चाहने वाली परियोजनाओं के मूल्यांकन और आकलन करने के लिये एक स्थायी संगठन। लेकिन मेरे इस विचार को मूर्तरूप लेने में इसे कई जरूरी प्रक्रियाओं से गुजरना था। पहले से प्रचलित व्यवस्था अनुसार इन कार्यों के लिये पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के अलावा कुछ तदर्थ समितियाँ थीं जो समय-समय पर बैठती थीं, निर्णय करती थीं कि किस परियोजना को अनुमति देनी चाहिए और किन शर्तों पर। इन समितियों का तदर्थ स्वरूप और किसी खास बैठक में बड़ी संख्या में परियोजनाओं को विचारार्थ लेने से कई बार उचित मूल्यांकन कठिन हो जाता, अक्सर अतिरिक्त जानकारियों की जरूरत होती ताकि उचित फैसला सुनिश्चित हो सके, जिससे फैसला आने में विलम्ब होता। परियोजनाओं की निरन्तर निगरानी के लिये भी कोई व्यवस्था नहीं थी जिससे अक्सर अनुमति दिये जाने के समय निर्धारित शर्तें महज औपचारिकता बनकर रह जाती थीं।

अपने कार्यकाल का अच्छा खासा समय मैंने एक पेशेवर और स्वतंत्र संस्था की रूपरेखा तैयार करने में लगाया, पहले राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण प्राधिकार के नाम से एक संस्था सामने आई जो मोटे तौर पर अमेरीका के एनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एजेंसी (Environment Protection Agency) की तर्ज पर बनी थी और बाद में भारतीय परिस्थितियों का ध्यान रखते हुए इसका विकास ‘राष्ट्रीय पर्यावरणीय मूल्यांकन और निगरानी प्राधिकार’ (National Environmental Appraisal and Monitoring Authority)नाम से हुआ जिसे परियोजनाओं का तथ्यों के आधार पर मूल्यांकन करने और फिर कार्यान्वयन की निरन्तर निगरानी करने का कार्य सौंपा गया। मेरा मानना था कि यह पूर्वानुमान और भविष्यवाणी की दिशा में एक नया रास्ता खोल देगी। एक स्वतंत्र नियामक प्राधिकरण उन अनिश्चितताओं और बाधाओं को दूर कर देगा जो पर्यावरण नियमावलियों के कार्यान्वयन को प्रभावित करती हैं। प्रस्तावित प्राधिकरण की रूपरेखा विभिन्न हितधारकों और दूसरे सम्बन्धित व्यक्तियों के लिये सार्वजनिक पहुँच में रखी गई ताकि ऐसी प्रणाली के विकास के लिये व्यापक बहस हो सके जो अपनी जिम्मेवारियों का सही ढंग से निर्वाह कर सके। इसके अतिरिक्त मैंने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया जिसे निगरानी-कार्य को उन्नत बनाने के लिये सुझाव देना था जिसमें दुर्भाग्य से कुछ हद तक शिथिलता थी और वह प्रभावशाली न बन सका।

 

 

 

 

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 धारा-5 के अन्तर्गत केन्द्र सरकार को उल्लंघन के मामले में नोटिस जारी करने का अधिकार है। इस प्रावधान का इस्तेमाल पूर्व में किफायत से किया जाता था, इतना किफायत से कि इसे करीब-करीब भुला दिया गया था। पर्यावरण मानकों का पालन नहीं होने के मामलों में मैंने इस प्रावधान का प्रयोग करना आरम्भ किया।

भरपूर प्रयास करने के बावजूद मैं इस योजना को फलित होते नहीं देख सका क्योंकि मुझे जुलाई 2011 में ग्रामीण विकास विभाग का कैबिनेट मंत्री बना दिया गया। हालांकि सरकार के लिये इस योजना पर समयबद्ध ढंग से काम करना जनवरी 2014 में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से अनिवार्य हो गया।11

जब चुनाव किये जाते हैं तब शिकायतों का होना स्वाभाविक होता है। इनका निराकरण किसी गतिशील व्यवस्था का आधार होता है। हालांकि वास्तविक या कथित शिकायत का निवारण ऐसा नहीं हो सकता कि उपचार बीमारी से खराब हो। भारतीय न्याय व्यवस्था पर काफी बोझ है और इसकी गति धीमी है, इसलिये शिकायतों का निपटारा बहुत अधिक समय लेता है। यह मेरे हस्तक्षेप का दूसरा फलक था- एक अपीलीय प्राधिकरण का गठन जो स्वतंत्र, सुलभ और तेज हो। हितधारकों के साथ व्यापक विचार-विमर्श के बाद एक नए संस्थान की रूपरेखा तैयार हुई।

पर्यावरण से सम्बन्धित मसलों के निपटारे के लिये नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (National Environment Tribunal) और राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण (National Environment Appellate Authority) थे, पर वे दुर्घटनाओं या केवल उत्तरदायित्व के विशिष्ट मामलों तक सीमित थे। बड़े पैमाने पर हुए हादसे के मामलों में मुकदमा करने और पर्यावरणीय नुकसान के लिये व्यापक दावों पर निर्णय करने में भारत न्यायिक तौर पर असमर्थ था।

इस स्थिति का निदान करने की आवश्यकता से राष्ट्रीय हरित पंचाट (National Green Tribunal) का विचार उत्पन्न हुआ। यह अर्द्ध-न्यायिक संस्था गलत कार्यों को दुरुस्त करने में जवाबदेही तय करने से आगे जा सकती थी। आज्ञापालन नहीं होने पर भारी जुर्माना लगाने का अधिकार इसकी संरचना में ही था, जिससे दोषियों के लिये दोबारा गलती करना आर्थिक रूप से काफी महंगा पड़ने वाला था। राष्ट्रीय हरित पंचाट एकल न्यायिक फोरम था जहाँ पर्यावरण से सम्बन्धित सभी उल्लेखनीय विवादों का निपटारा हो सकता था।

राष्ट्रीय हरित पंचाट की स्थापना 2010 में संसद द्वारा कानून बनाकर की गई, यह भारत की पहली न्यायिक संस्था बनी जो ‘प्रदूषणकारी भुगतान करे’ (polluter pays) के सिद्धान्त पर चलती है। राष्ट्रीय हरित पंचाट की स्थापना में मेरी भूमिका होने के बावजूद इसने मेरे कुछ फैसलों पर सवाल उठाए12और मुझे व्यक्तिगत तौर पर फटकारा। यह इस तथ्य का प्रमाण है कि मैं एक ऐसी व्यवस्था बनाने में सफल रहा जिस पर हितधारक अपनी चिन्ताओं और सरोकारों के न्यायपूर्ण निपटारे के लिये विश्वास और भरोसा कर सकते हैं।

संस्थानों को समय की आवश्यकता होती है और हमारे जैसे लोकतंत्र में इसके साथ बहस और वाद-विवाद अपरिहार्य होता है। इतना ही नहीं, यह साधारण तौर पर होने वाला काम नहीं हो सकता। यह एक बात थी कि सार्वजनिक भाषणों, व्याख्यानों और संसदीय बहसों में आर्थिक उन्नति के व्यापक धरातल पर पर्यावरण को रखकर बात करें, लेकिन प्रशासनिक स्तर पर ठोस कार्रवाई करना एकदम अलग बात थी। ये उपाय केवल संकेत नहीं थे कि पर्यावरण मंत्रालय अपने अधिदेशों के कार्यान्वयन को लेकर गम्भीर है बल्कि ऐसी व्यवस्था बनाना भी था जो सुनिश्चित करे कि प्रक्रियाओं के बारे में पहले से अनुमान लगाया जा सकता है, संघर्ष और मुकदमेबाजी की सम्भावनाएँ कम हों और आर्थिक उन्नति की माँगों के साथ पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता के सन्तुलन की गुंजाईश बने।

मेरी आरम्भिक कार्रवाइयों में सबसे विवादास्पद (निश्चित ही ‘हर कीमत पर विकास’ के पक्षधरों के बीच) 2 अगस्त 2009 का सर्कुलर था जो वनाधिकार कानून 2006 के प्रावधानों का तार्किक परिणाम था।13इस सर्कुलर ने ग्रामसभा की लिखित सहमति प्रस्तुत करना अनिवार्य कर दिया कि उनके वनाधिकारों का निपटारा हो गया है और उन्हें वन क्षेत्र के परिवर्तन से कोई एतराज नहीं है।14

पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 धारा-5 के अन्तर्गत केन्द्र सरकार को उल्लंघन के मामले में नोटिस जारी करने का अधिकार है। इस प्रावधान का इस्तेमाल पूर्व में किफायत से किया जाता था, इतना किफायत से कि इसे करीब-करीब भुला दिया गया था। पर्यावरण मानकों का पालन नहीं होने के मामलों में मैंने इस प्रावधान का प्रयोग करना आरम्भ किया। अनेक उद्योगों को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया, खासकर उन्हें जो गंगा की कन्नौज-वाराणसी के बीच 740 किलोमीटर की अत्यधिक प्रदूषित धारा में असंशोधित कचरा प्रवाहित कर रहे थे। महाराष्ट्र की लवासा परियोजना, छत्तीसगढ में जिंदल कोयला खदान परियोजना और गुजरात में अडानी की मुंद्रा बन्दरगाह परियोजना इत्यादि भी इनमें शामिल हैं। यह प्रक्रिया परियोजना के प्रस्तावक को अपना पक्ष रखने और सुधारात्मक उपाय करने की अनुमति देती है। इन कार्रवाइयों की काफी आलोचना हुई, जिसमें राजनीतिक वर्ग का विरोध भी शामिल है। मैं मानता हूँ कि यह पर्यावरण मंत्रालय और उसके प्रशासनिक ढाँचे की ईमानदारी को कुछ हद तक स्थापित करने में सहायक हुआ। इसने एक स्पष्ट सन्देश भी दिया कि प्रदूषणकारियों को भुगतना होगा और नियम का उल्लंघन करने वाले चाहे कितने शक्तिशाली और ऊँचे रसूख वाले हों, उनके गलत कार्यों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

मुझे खासकर उद्योग जगत के लोगों द्वारा ऐसे व्यक्ति के तौर पर देखा जाता था जो पर्यावरण का हथौड़ा चलाकर आर्थिक उन्नति को अवरुद्ध कर रहा है, जबकि दूसरे मानते थे कि मुझे यह सब छोड़ देने में अधिक दिन नहीं लगेंगे और मैं ‘किसी भी कीमत पर पहले उन्नति’ चाहने वाले समूह का हिस्सा बन जाऊँगा। नियमों का पूर्वानुमान ऐसी चीज थी जिसके बारे में कारपोरेट और उद्योगों के अगुवा लगातार कहते रहते थे, लेकिन पूर्वानुमान एक तरफा नहीं हो सकता। व्यवसाय जगत को यह जानने की जरूरत है कि कानून और नियमावलियों का प्रयोग न्यायपूर्वक और सब पर समान ढंग से होगा, यह भी महत्त्वपूर्ण है कि व्यवसाय और उद्योगों को पता हो कि उल्लंघन होने पर सभी के साथ समान कार्रवाई होगी।

पर्यावरण नियमावलियों के अपरिभाषित क्षेत्रों को कम करने के लिहाज से अनुमति देने की प्रक्रिया में मैंने कई परिवर्तनों का प्रबन्ध किया। पहला यह सुनिश्चित करना था कि परियोजनाओं को विकसित करने और उनमें खासकर कोयला और खनिज खनन से जुड़े क्षेत्रों जैसे-बिजली और इस्पात, पर्यावरण अनुमति को वन-अनुमति के लिये दबाव बनाने या प्रभावित करने में इस्तेमाल नहीं करें। यह आम प्रचलन हो गया था कि वन-अनुमति को पहले से प्राप्त मान लिया जाये, विकासकर्ता पर्यावरण-अनुमति के आधार पर काम आरम्भ कर देते और परियोजना पर हुए खर्च का ब्यौरा दिखाकर वनभूमि के उपयोग में परिवर्तन की माँग करते।

समस्या का जन्म कुछ हद तक पर्यावरण और वन-अनुमति की प्रक्रिया और समय में अन्तर होने की वजह से होता था। पर्यावरण-अनुमति परियोजना के विकासकर्ता को दी जाती थी जबकि वन-अनुमति राज्य सरकार को दी जाती थी, जो वनभूमि की मालिक थी जिस पर परियोजना लगेगी। सम्बन्धित राज्य सरकार द्वारा परियोजना का परीक्षण कर लेने के बाद केन्द्र सरकार वन-अनुमति देती थी। इसमें अक्सर सलाह करने की जरूरत होती थी और समय लगना तर्कसंगत था। इस समय का उपयोग अक्सर अनुमति के लिये दबाव बनाने में होता। इस परिस्थिति का निदान आदेशों के दो स्तरों के माध्यम से किया गया। पहला आदेश पर्यावरण-अनुमति के लिये आवेदन करने के पहले परियोजना-विकासकर्ता को वन-अनुमति प्रदान करने के बारे में था। दूसरा आदेश यह परियोजना विकासकर्ता का कर्तव्य बनाता था कि वह सम्बन्धित कोयला या खनिज क्षेत्र के लिये आवश्यक अनुमति प्राप्त कर ले जहाँ से कच्चा माल लिया जाएगा और इसे पर्यावरण अनुमति लेने के समय विभाग के सामने प्रस्तुत करें। अनुमति देने की प्रक्रिया की शुद्धत्ता को सशक्त बनाने के लिये मैंने पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट और पर्यावरण प्रबन्धन योजना बनाने वाले परामर्शदाताओं की आधिकारिक मान्यता को अनिवार्य करने की व्यवस्था आरम्भ की। कई मामलों में ये रिपोर्ट खराब गुणवत्ता की होती थी, अक्सर मूर्खतापूर्वक ‘काटो और चिपकाओ’ शैली की, जिससे विशेषज्ञ मूल्य निर्धारण समिति द्वारा समुचित आकलन कठिन हो जाता था। बाद में अधिक जानकारी और स्पष्टीकरण माँगने से भी अनुमति देने में विलम्ब होता था।परियोजनाओं को अनुमति देने में क्षेत्रवार ढंग अपनाने की आवश्यकता थी। यह समस्या केवल नदी घाटी या कतिपय जोखिमपूर्ण पारिस्थितिकी वाले इलाके जैसे पश्चिमी घाट में ही नहीं थी, औद्योगिक संकुल उन इलाकों के प्रमुख उदाहरण हैं जहाँ पर्यावरण सूचक संकटपूर्ण स्थिति में हैं। 2009 में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board - CPCB) ने 88 महत्त्वपूर्ण औद्योगिक समूह का समेकित पर्यावरणीय अाकलन किया। यह आकलन कम्प्रिहेंसिव एनवायरनमेंटल पॉल्यूशन इंडेक्स (comprehensive environmental pollution index - CEPI) के आधार पर किया गया जिसे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली (Indian Institute of Technology - IIT Delhi) की अगुवाई में अनेक प्रमुख अकादमिक संस्थानों ने विकसित किया था। वे संस्थान जमीनी स्तर पर आकलन करने के कार्य में भी शामिल थे। इन 88 औद्योगिक समूहों में से 43 को ‘अत्यधिक प्रदूषित’ चिन्हित किया गया, उनके सीईपीआई स्कोर सत्तर या उससे अधिक थे।

 

 

 

 

पहली बार संशोधित मानदंड में ओजोन, खतरनाक वाष्पशील जैविक पदार्थ और भारी धातुओं के लिये मानक भी शामिल किये गए। नियमावली और मानक महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन समान रूप से यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि वे वर्तमान परिस्थिति और जरूरतों के प्रति उत्तरदायी हैं। इस सन्दर्भ में संशोधित परिवेशी वायु गुणवत्ता मानक ने जन स्वास्थ्य की बढ़ती चिन्ताओं-साँस की बीमारियों की बढ़ती घटनाओं का ख्याल भी रखा।

इस स्थिति का निराकरण करने के लिये मंत्रालय ने 13 जनवरी 2010 को इन ‘अत्यधिक प्रदूषित’ औद्योगिक समूहों में नई परियोजना (और वर्तमान परियोजनाओं के विस्तार) को पर्यावरणीय अनुमति देने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। विचार था कि उद्योगों और सम्बन्धित राज्य सरकारों को पर्यावरण के उपचार के कार्यों के लिये प्रोत्साहित किया जाये। प्रतिबन्ध को तब तक लागू रहना था जब तक इलाके के प्रदूषण स्तर में सुस्पष्ट सुधार दिखने नहीं लगे। इसके लिये राज्य सरकार को उपचार योजना तैयार करनी थी, उसकी समीक्षा एवं अनुमोदन सीपीसीबी करता और फिर राज्य एवं स्थानीय सरकारों को उसे लागू करना था। यह एक गतिशील प्रक्रिया होती, इरादा पर्यावरण सूचकों को काबू में रखना और स्वीकार्य स्तर के भीतर रखना था। प्रभावी कार्रवाई सुनिश्चित करने में प्रतिबन्ध बेहतरीन औजार था।

वर्तमान नियमावली नई आवश्यकताओं को हमेशा पूरा नहीं करती, वायु गुणवत्ता मानक को पहली बार उनके बनने के पन्द्रह वर्षों के बाद संशोधित किया गया और उन्हें यूरोपीय संघ के सख्त मानकों के अनुसार बनाया गया। औद्योगिक और आवासीय क्षेत्रों के वायु प्रदूषण के लिये एकल मानक लागू किया गया और मैं इस विचार का था कि संशोधित राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानक उत्सर्जन को घटाने के लिये ‘स्वच्छ ईंधन’ के उपयोग को प्रोत्साहित करेगा। पहली बार संशोधित मानदंड में ओजोन, खतरनाक वाष्पशील जैविक पदार्थ और भारी धातुओं के लिये मानक भी शामिल किये गए। नियमावली और मानक महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन समान रूप से यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि वे वर्तमान परिस्थिति और जरूरतों के प्रति उत्तरदायी हैं। इस सन्दर्भ में संशोधित परिवेशी वायु गुणवत्ता मानक ने जन स्वास्थ्य की बढ़ती चिन्ताओं-साँस की बीमारियों की बढ़ती घटनाओं का ख्याल भी रखा। यह भारत में ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन को रोकने की जरूरत के लिहाज से भी उपयुक्त है।

तौर-तरीकों में बदलाव केवल इसलिये जरूरी नहीं था कि विकास की सीढ़ी पर चलने की देश की इच्छा के व्यापक ढाँचे में हम पर्यावरण के मसलों को कैसे समझते हैं? यह मंत्रालय और न्यायपालिका के बीच के सम्बन्धों में बदलाव, बाजारीकरण के प्रभाव के साथ ही अपनी गतिविधियों के केन्द्र में विज्ञान व देश के वन क्षेत्रों की सुरक्षा और संरक्षण में प्रशासन की भूमिका के लिये भी जरूरी था। कई वर्षों से न्यायपालिका ने ही हमारे प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिकी पर लगातार आक्रमण से कारगर सुरक्षा प्रदान किया था। न्यायिक सक्रियता-1984 से ही पर्यावरण संरक्षण की चर्चा के केन्द्र में रही। दरअसल यह कार्यपालिका की सुस्ती और दुराचार का स्वाभाविक परिणाम था। वर्षों तक संसद द्वारा पारित कानूनों के कार्यान्वयन को कार्यपालिका द्वारा बड़े पैमाने पर नजरअन्दाज किये जाने के कारण अदालतों ने न्यायिक समीक्षा के अधिकारों का प्रयोग करते हुए कार्यपालिका की भूमिका को धीरे-धीरे कम कर दिया। यह कार्यपालिका पर दबाव डालने का समय था कि उठो और गिनती में आओ।

इस प्रकार, न्यायपालिका के साथ साझेदारी बनाने खासतौर से सुप्रीम कोर्ट के साथ, मेरी आरम्भिक प्राथमिकताओं में एक बन गया था। 1995 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने केरल और कर्नाटक में वनों की अनधिकृत कटाई रोकने के लिये टी एन गोदावर्मन थिरूमुलपद की एक याचिका स्वीकार की। यह याचिका एक फोरम बन गई जिसमें वन और बाद में पर्यावरण के व्यापक प्रश्नों से सम्बन्धित सभी मामले नत्थी कर दिये गए और सुनवाई हुई। एक बार मैंने मूल याचिकाकर्ता की पृष्ठभूमि के बारे में पूछताछ की जो मुकदमेबाजी की ऐसी सम्पन्न विरासत छोड़ गया था तो मुझे बताया गया कि इस युगांतकारी फैसले को अपना नाम देने के सिवा उसकी कोई भूमिका बहुत पहले नहीं रही।15

दायर होने और इस मुकदमे से नत्थी होने वाले मामलों की संख्या इस तेजी से बढ़ी कि सुप्रीम कोर्ट को मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में तीन न्यायाधीशों की एक अलग खंडपीठ-‘फॉरेस्ट बेंच’ का गठन करना पड़ा जो केवल वन और पर्यावरण के मामलों को सूनने और निर्णय करने के लिये खासतौर से शुक्रवार दोपहर में बैठती थी और आज भी बैठती है। कुछ मामले दूसरों की अपेक्षा अधिक पेचीदा थे और विद्वान न्यायाधीशों ने जल्दी ही महसूस कर लिया कि उन मामलों की सुनवाई के लिये आवेदन विशेषज्ञों द्वारा तैयार कराना चाहिए जिन मामलों की अधिक विस्तृत छानबीन की जरूरत थी। इस प्रकार केन्द्रीय सशक्त समिति (central empowered committee - CEC) का जन्म हुआ। इस समिति में तीन अधिकारी रखे गए जो सभी पर्यावरण और वन-प्रशासन की पृष्ठभूमि के थे। इस खण्डपीठ और सीईसी का विस्तार एवं पहुँच 2008 तक इतनी बढ़ गई कि कार्यपालक गतिविधियों जैसे वन-अनुमति प्रदान करना भी हाथ में ले लिया। इसमें सबसे उल्लेखनीय वेदान्ता को ओड़िशा में बॉक्साइट का खनन करने के लिये स्तर-1 की अनुमति प्रदान करना था।

पदभार ग्रहण करने के पहले सप्ताह के भीतर मैं सुनिश्चित करना चाहता था कि मंत्रालय और न्यायपालिका के बीच कार्यपालक गतिविधियों को लेकर विभाजन के बजाय सद्भावपूर्ण सामंजस्य स्थापित हो जाये। मैं सीईसी के अधिकारियों से मिला जो ऐसा ही विचार रखते थे। हमारी पहली चुनौती क्षतिपूरक वनीकरण प्रबन्धन और योजना प्राधिकरण (Compensatory Afforestation Management and Planning Authority - CAMPA) के विचार को पुनर्जीवित करना था। अक्टूबर 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि एक कैम्पा कोष की स्थापना की जाएगी जिसमें वन भूमि का उपयोग करने वाली एजेंसियों से क्षतिपूर्ति के तौर पर प्राप्त सारी रकम जमा की जाएगी। अप्रैल 2004 में पूर्ववर्ती राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबन्धन (एनडीए) सरकार में मेरे मंत्रालय ने कैम्पा का गठन किया और मई 2008 में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार ने क्षतिपूरक वनीकरण कोष विधेयक (Compensatory afforestation fund bill) लोकसभा में पेश किया ताकि कैम्पा को वैधानिक आधार दिया जा सके। लेकिन वन और पर्यावरण मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने इस विधेयक को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह राज्यों के वैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। विधेयक लोकसभा से पारित हो गया, पर राज्यसभा से पारित नहीं हो सका।

परिणाम हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के स्थापित कोष सात वर्षों तक निलम्बित खाता में पड़ा रहा। मैं और मेरे सहयोगी कानून मंत्री वीरप्पा मोइली, सीईसी, अटार्नी जनरल जी ई वहनवती और अदालत के सहयोगी वकील अर्थात एमाइकस क्यूरे से मिले ताकि कोई समाधान निकले जिससे इस खाते में बन्द रकम हमें मिल सके। मेरा ध्यान सुप्रीम कोर्ट के 5 मई 2006 के एक आदेश की ओर दिलाया गया जिसमें सीईसी के अनुमोदन पर तदर्थ कैम्पा के गठन का निर्देश दिया गया था ताकि कोष संग्रह किया जा सके। (जो 30 अक्टूबर 2002 के बाद से राज्यों में जमा था।) वैधानिक संस्था के गठन होने तक इस संस्था के कार्यरत रखने का इरादा था। जब मैंने मंत्री के तौर पर पदभार ग्रहण किया तब तक कैम्पा खाता में लगभग 1 हजार करोड़ जमा हो गए थे।

आखिरकार, हमने 10 जुलाई 2009 को सुप्रीम कोर्ट की ‘फॉरेस्ट बेंच’ (forest bench) में यह अनुरोध करते हुए हलफनामा दायर किया कि तदर्थ कैम्पा समिति को संलग्न विस्तृत निर्देशावली के आधार पर कार्यरत किया जाये। अटार्नी जनरल जो मंत्रालय की ओर से उपस्थित हुए, के साथ-साथ अदालत के सहयोगी वकील ने स्वतंत्र रूप से अदालत से अनुरोध किया कि हलफनामा और तदर्थ कैम्पा के सुझावों को स्वीकार किया जाये जो सीईसी द्वारा समर्थित है। नतीजा हुआ कि फॉरेस्ट बेंच ने हमारे अनुरोध को स्वीकार कर लिया। कुल लगभग एक हजार करोड़ रुपए प्राकृतिक वनों के पुनर्सृजन और वनीकरण की गतिविधियाँ को संचालित करने के मकसद से 2009-10 में राज्यों को हस्तान्तरित किये गए। यह बड़ा ही व्यक्तिगत सन्तोष का क्षण था क्योंकि मैं पदभार ग्रहण करने के दो महीने के भीतर बड़ी अड़चन दूर करने में सफल रहा था जो करीब आठ साल से अटका हुआ था, यह सभी सम्बन्धित व्यक्तियों के लिये सन्तोषप्रद था।

 

 

 

 

मैंने जब वन एवं पर्यावरण मंत्री के रूप में कार्यभार सम्भाला, तो मेरे सामने यह स्पष्ट था कि हम पर्यावरणीय नियमावलियों के मामले में ‘1991 के समय’ में थे। हमें अपने पर्यावरण का नियमन करने के लिये अधिक नवाचारी ढंग अपनाने की जरूरत थी। नियमन के परम्परागत ‘इंस्पेक्टर राज’ मॉडल की अन्तर्निहित सीमाएँ थीं, घूस माँगे जाने का जोखिम तो सदा मौजूद था।

भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले लगभग तीस वर्षों के दौरान बहुत बदल गई। हम नियोजित समाजवादी अर्थव्यवस्था से बदलकर, इंस्पेक्टर राज के बन्धनों से हमेशा के लिये मुक्त हो गए, ऐसी अर्थव्यवस्था बने जिसमें बाजार की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी और जहाँ निजी क्षेत्र गतिशील था।

भारत, ‘अधिकार और नियंत्रण’ के युग में पीछे छूट गया था, अभी भी यह पर्यावरण नियमावलियों के क्षेत्र में विकल्प’ चुनने की स्थिति में नहीं था। मेरा विश्वास है कि पर्यावरण नियमावलियों में बाजार की एक भूमिका है। पेंच इसे समझने में है कि कहाँ बाजार फायदेमन्द हो सकता है और इसे सुनिश्चित करना कि बाजार का इस्तेमाल कैसे कारगर ढंग से जनहित में किया जा सकता है।

मैंने जब वन एवं पर्यावरण मंत्री के रूप में कार्यभार सम्भाला, तो मेरे सामने यह स्पष्ट था कि हम पर्यावरणीय नियमावलियों के मामले में ‘1991 के समय’ में थे। हमें अपने पर्यावरण का नियमन करने के लिये अधिक नवाचारी ढंग अपनाने की जरूरत थी। नियमन के परम्परागत ‘इंस्पेक्टर राज’ मॉडल की अन्तर्निहित सीमाएँ थी, घूस माँगे जाने का जोखिम तो सदा मौजूद था। भारत में पर्यावरण के क्षेत्र में कुछ सर्वाधिक प्रगतिशील और व्यापक कानून हैं, हमें ऐसी नियमावलियों की आवश्यकता थी जिनका कार्यान्वयन कुछेक इंस्पेक्टरों के सहारे हो सके। हमें ऐसी पद्धति की ओर बढ़ने की आवश्यकता थी जो तकनीकों का लाभ उठाए और बाजार का उपयोग करके पर्यावरण कानूनों एवं नियमावलियों का पालन सुनिश्चित करे।

इस सन्दर्भ में मैंने एस्थर डूफलो (Esther Duflo) (जो दुनिया के सबसे प्रमुख अर्थशास्त्रियों में से एक के रूप में प्रसिद्ध हैं।) के नेतृत्व में मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (Massachusetts institute of technology -MIT) और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी (Howard university) की एक टीम को उत्सर्जन व्यापार व्यवस्था का खाका तैयार करने के लिये कहा जिससे वायु प्रदूषण का सामना किया जा सके। विचार था कि औद्योगिक इकाइयों के बीच एक बाजार-आधारित स्व-नियमन की व्यवस्था लागू किया जाये जिसमें प्रदूषणकारी पदार्थों के उत्सर्जन का मूल्य निर्धारित हो। प्रत्येक यूनिट की एक सीमा निर्धारित होगी कि उसे कितनी मात्रा में प्रदूषणकारी पदार्थों का उत्सर्जन करने की छूट है और अगर वह इकाई उस सीमा से अधिक उत्सर्जन करती है तो उसे दूसरी ऐसी इकाई से उत्सर्जन-क्रेडिट खरीदना होगा जो अपने उत्सर्जन को निर्धारित सीमा से कम रखने का प्रबन्ध करने में सफल रहा हों। घरेलू उत्सर्जन व्यापार योजना की पायलट योजना को तमिलनाडु, गुजरात और महाराष्ट्र में आरम्भ किया गया। रीयल-टाइम ऑनलाइन उत्सर्जन रिपोर्टिंग, जो इस प्रणाली में जरूरी होता है, ने अपने आप उल्लेखनीय पारदर्शिता ला दी।

यह योजना अमेरिका में अम्लीय वर्षा से निपटने के अनुभवों के आधार पर बनी थी जहाँ सल्फर डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 40 प्रतिशत घट गया और बचत 1990 के दशक के मध्य में एक खरब डॉलर प्रतिवर्ष हुआ। चीली में 1990 के आरम्भिक दिनों में कुल सस्पेंडेड पार्टिकुलेट मैटर के मामले में उत्सर्जन समायोजन व्यापार कार्यक्रम और यूरोपीय संघ में कार्बन डाइऑक्साइड के लिये उत्सर्जन व्यापार कार्यक्रम चले। उत्सर्जन व्यापार पायलट कार्यक्रम अभी कार्यान्वयन के दौर में है। इसने हमें नए तौर-तरीकों को लागू करने में आने वाली चुनौतियों को जाँचने में सहायता की, यह ऐसा कार्यक्रम है जो भारत में पर्यावरण नियमावलियों को लागू करने में बाजार का इस्तेमाल करता है। मैं मानता हूँ कि भारत में पर्यावरण नियमावलियों को लागू करने में भविष्य में बाजार की व्यवस्था के इस्तेमाल को मजबूत करने में पायलट कार्यक्रम से मिले अनुभव काफी उपयोगी होंगे।

यहाँ भी मैं कुछ विवादों में फँस गया। उद्योगों ने इसे आगे की ओर बढ़ा कदम कहकर स्वागत किया और पर्यावरणविदों ने कहा कि मैं नियमावलियों का परित्याग कर रहा हूँ। मुझे दुखी होकर यह कहना पड़ा कि नियमावलियों का कार्यान्वयन करने के बाजार-हितैषी ढंग हो सकते हैं, जिन्हें विनियमित किया जाना है, उन्हें इंस्पेक्टरों के चंगुल से बचाने का यही रास्ता है।

काश! पर्यावरण मंत्रालय में मेरे प्रयासों की अन्तर-ध्वनि मानसिकता (और अधिक नाजुक रूप से बन्द दिमाग) बन पाती। वनों और वन-संरक्षण के मामले ने अनोखी चुनौती पेश की थी। वन प्रशासन को अपने ढंग बदलने की जरूरत थी। वे स्वयं को देश के वनों के इकलौते संरक्षक समझते थे और हर किसी को अतिक्रमणकारी, जबकि उन्हें यह स्वीकार करना चाहिए था कि लोगों का बड़ा समुदाय वहाँ सदा से मौजूद रहा है। खासकर आदिवासी आबादी जिनका दैनिक जीवन व आजीविका वनों पर निर्भर है। अधिकांश क्षेत्रों में मैंने पाया कि वन अधिकारी कुछ अपवादों को छोड़कर ऐसे लोगों को प्राकृतिक वनों के संरक्षण और पुनर्सृजन में साझीदार नहीं मानते थे। दूसरी चुनौती वन्यजीव संरक्षणवादियों द्वारा पेश की गई जो वन-प्रशासन की तरह स्थानीय आबादी को बाघ और दूसरे वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास क्षेत्र में अनाधिकार घुसपैठिया मानते थे।

इन दो रुझानों ने एक अन्य अधिक गम्भीर चुनौती को जन्म दिया जो वनक्षेत्रों में माओवादियों की बढ़ती पैठ के रूप में सामने आई। संयोग से वनक्षेत्र हमारे समाज के सबसे अविकसित क्षेत्र और सर्वाधिक वंचित समुदायों के निवास स्थल हैं। वनों से सम्पन्न इलाके, खनिजों से सम्पन्न इलाके, माओवाद प्रभावित इलाके और आदिवासी इलाके अनेक राज्यों झारखण्ड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ और आन्ध्रप्रदेश, में मिले जुले हैं। निस्सन्देह, यह साधारण समझदारी है कि वन प्रशासन का असंवेदनशील रवैया खासतौर से गार्ड और रेंजर के स्तर पर उपनिवेशकालीन कानूनों जैसे भारतीय वन अधिनियम 1927 (Indian forest act 1927) के सहारे जो बर्ताव करते हैं, वह माओवादियों को प्रचार-प्रसार करने का बेहतरीन अवसर प्रदान करते हैं।

उपाय यह सुनिश्चित करना था कि संरक्षणवादी और वन-अधिकारी दोनों अपने तौर-तरीकों को देश की जमीनी सच्चाई के साथ समायोजित करते। मेरा प्रयास उन्हें घसीटकर, बल्कि ठोक-पीटकर और विरोध करने के बावजूद इक्कीसवीं सदी में ले आना था। इस लिहाज से मैंने कष्टकारक भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 68 में संशोधन करने के लिये विशेष रूप से पहल किया ताकि वनवासियों और आदिवासियों का अनावश्यक उत्पीड़न और मामूली मामलों में कैद होने की घटनाओं में कमी आये और लगभग जबरदस्ती बाँस को गैरकाष्ठ वनोपज के रूप में पुनर्वर्गीकरण कराया और उसे उपजाने, परिवहन करने और आखिरकार बेचने का अधिकार ग्रामसभा को प्रदान किया।

बाँस के मामले में महाराष्ट्र के माओवादग्रस्त जिला गढ़चिरौली के मेंढा लेखा गाँव की पहल बहुत ही सफल रही और ग्रामसभा की वार्षिक आय एक करोड़ रूपए से अधिक हो गई और इसकी प्रशंसा उन लोगों ने भी की जो मेरे कार्यकाल को लेकर दुविधाग्रस्त थे। जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान और मैंने बाँस के परिवहन का ट्रांजिट पासबुक स्थानीय गोंड सरदार देवाजी तोफा (Devaji Tofa) को दिया तो उन्होंने बड़ा ही दिलचस्प बात कही। उन्होंने कहा कि दिल्ली, मुम्बई में हमारी सरकार, मेंढा लेखा में हम ही सरकार।मैंने सभी मुख्यमंत्रियों को इस पहल की अनुकृति तैयार करने के लिये लिखा। शुरुआत उन इलाकों से हो सकती थी जहाँ वनाधिकार कानून 2006 के अन्तर्गत सामुदायिक वन अधिकार प्रदान कर दिये गए थे हालांकि, मुझे कोई बड़ी सफलता नहीं मिली। मार्च 2013 में जब मैं ग्रामीण विकास मंत्री था, मुझे कींचित सफलता दिख सकी। ओड़िशा के कालाहांडी जिला के जामगुड़ा गाँव, आन्ध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम जिला के दादुगुला और मुनासारापल्ली गाँवों में ग्रामसभा ने बाँस के व्यापार पर नियंत्रण कायम कर लिया था।

 

 

 

 

परिषद का गठन 1986 में बड़ी उम्मीदों के साथ हुआ था और मेरी कोशिश इसे नया जीवन देने का था। किसी पर्यावरण मंत्री को अपना काम गम्भीरता से करने में कैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, इसका बेहतरीन उदाहरण कोयला खनन परियोजनाओं को अनुमति देने के मामलों में वनों में ‘करें और न करें’ के बीच फर्क करना होता है।

माओवादी चुनौती का सामना करने के लिये अन्य पहल भी किये गए थे। राज्यों को वन क्षेत्रों में सामाजिक और दूसरी अधिसंरचनाएँ स्थापित करने के लिये वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 (Forest (Conservation) Act, 1980) के अन्तर्गत अनुमति प्राप्त करने की अनिवार्यता में छूट दी गई। मैंने मुख्यमंत्रियों से आग्रह किया कि जहाँ भी सम्भव हो स्थानीय युवकों की भर्ती की प्रक्रिया आरम्भ करें, खासकर आधुनिक और ऐसे पदों पर जिनसे वन प्रशासन का आम लोगों से सम्पर्क होता है ताकि लोगों को वन प्रशासन का नया चेहरा लोगों को नजर आये। अनेक राज्यों में कई वर्षों के अन्तराल के बाद वन रक्षक, रेंजर इत्यादि पदों पर भर्ती आरम्भ हुए।

भारतीय वन सेवा (Indian forest service - IFS) की परीक्षा संघ लोक सेवा आयोग द्वारा केवल अंग्रेजी में ली जाती है। केवल विज्ञान स्नातक इसके पात्र होते हैं। मैंने महसूस किया कि यह पुराने समय की चीज है और अपने वरिष्ठ आईएफएस सहकर्मियों के ऐतराज पर मैंने संघ लोकसेवा आयोग के साथ यह मामला उठाया। अफसोस है कि यह मामला मेरे कार्यकाल में हल नहीं हो सका लेकिन, एक काम कराने में मैं कामयाब रहा कि भारतीय वानिकी शोध और शिक्षा परिषद (Indian Council of Forestry Research and Education - ICFRE) के सशक्तिकरण के लिये एकमुश्त 100 करोड़ रुपए अनुदान देने के लिये वित्तमंत्री मान गए जो अनेक वर्षों से सुस्त पड़ा था। परिषद का गठन 1986 में बड़ी उम्मीदों के साथ हुआ था और मेरी कोशिश इसे नया जीवन देने का था।

किसी पर्यावरण मंत्री को अपना काम गम्भीरता से करने में कैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, इसका बेहतरीन उदाहरण कोयला खनन परियोजनाओं को अनुमति देने के मामलों में वनों में ‘करें और न करें’ के बीच फर्क करना होता है। विडम्बना है कि मेरे सामने यह बात कोल इण्डिया के एक पूर्व अध्यक्ष के माध्यम से आई जो पहले से यह जान लेना चाहते थे कि किन परियोजनाओं को अनुमति मिलेगी और किनको आगे बढ़ने की अनुमति नहीं मिल सकेगी। समस्या इसलिये उत्पन्न हुई क्योंकि बड़े कोयला भण्डार सघन वनों के बीच स्थित थे। कमजोर वनों के इलाके में खनन से कोई परेशानी नहीं थी, पर पेड़ों की बहुलता वाले सघन वन के इलाके में यह निश्चित ही परेशानी का कारण था क्योंकि घने प्राकृतिक वन एक बार नष्ट हो गए तो हमेशा के लिये चले जाते हैं। मानवकृत वृक्षारोपण कभी प्राकृतिक वनों के विकल्प नहीं हो सकते जो मूल्यवान और अपूरणीय जैवविविधता का भण्डार होने के अलावा कार्बन को उल्लेखनीय रूप से घटाने और ग्लोबल वार्मिंग को कम करने में भी सहायक होते हैं। मैंने एक अध्ययन कराया जिसका आकलन था कि हमारे वनक्षेत्र ग्रीनहाउस गैसों के वार्षिक उत्सर्जन के आठ से दस प्रतिशत हिस्से को सोख लेते हैं।

‘करें-नहीं करें’ मामले ने मुझे व्यक्तिगत रूप से बहुत कष्ट पहुँचाया। बिजली मंत्रालय में कनिष्ठ मंत्री के रूप में काम किये होने और उस मामले के साथ पहले से सम्पर्क होने की वजह से मैं बिजली उत्पादन क्षमता में बड़े पैमाने पर बढ़ोत्तरी की आवश्यकता को जानता था और यह भी जानता था कि लघु से मध्यम अवधि में कोयला ही अकेला विकल्प है जिसका भारत में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा भण्डार है। फिर भी शुद्ध अन्तःकरण से मुझे कड़ा रुख अपनाना पड़ा, इसलिये नहीं कि मैं उलटा चलना चाहता था या मुझे पर्यावरण का महत्त्व दिखाना था, बल्कि सीधी-सी बात यह थी कि मुझे यह सही काम लगा जिसे किया जाना चाहिए। मैं संसाधनों के बेहतरीन उपयोग और भविष्य के लिये संरक्षण की आवश्यकता को लेकर काफी सचेत था। मैं यह भी मानता था कि हमारी कोयला खनन कम्पनियों को अधिक पर्यावरण-हितैषी होना और उत्पादन में अधिक कुशल होना और अपनी तकनीकी सक्षमता को अधिक उन्नत बनाने की आवश्यकता है।

कुछ अवसरों पर कोयला खनन के लिये आवश्यकताओं को समायोजित करने में मैं सक्षम हुआ, लेकिन आधा से अधिक मामलों में मेरे प्रयास को कोयला और अधिसंरचना लॉबी ने पूरा नहीं किया। कई बार जिन कम्पनियों को हरी झंडी नहीं मिल सकी, वे स्थायी रूप से मेरा विरोधी हो गईं और कुछ विडम्बनापूर्ण ढंग से क्योंकि उनमें से कई मेरे नजदीकी व्यक्तिगत दोस्त थे और उनके साथ मेरा बेहतरीन सम्बन्ध था। यह ‘करें-नहीं करें,’ बहस जिसने मुझे अपने ही सहकर्मियों के बीच काफी अलोकप्रिय बना दिया, इस पुस्तक का प्रमुख अंग है।

वन क्षेत्रों में कोयला खनन के मामले में मेरा रवैया सूक्ष्म भेदयुक्त था, लेकिन यह सूक्ष्म भेद सार्वजनिक बहसों में अधिकतर नष्ट हो गया। पर्यावरणवादी दुख प्रकट करते हैं कि मैं बहुत आगे नहीं बढ़ा और कई बार समझौते कर लिये। उद्योग दावा करते है कि मैंने निवेश के माहौल को गम्भीर नुकसान पहुँचाया। मैं यह बताने की कोशिश कर रहा था कि मूल्यांकन मामलावार किया जाये क्योंकि इसे ठीक से समझा नहीं गया। यह ऐसा मामला था जिसमें अगर ‘मैं करता’ तो धिक्कारा जाता, अगर ‘मैं नहीं करता’ तो धिक्कारा जाता। स्थिति को परमाणु ऊर्जा के मामले में मेरे रूख ने अधिक बिगाड़ दिया और जिसके बारे में मेरा विश्वास है कि सांढ़ को लाल कपड़ा दिखाना था। मेरा दृढ़ विश्वास था कि भारत को अपनी बिजली आपूर्ति क्षमता में परमाणु ऊर्जा के योगदान को बढ़ाना होगा। इसे वर्तमान लगभग 3.5 प्रतिशत से बढ़ाकर अगले दो दशकों में कम-से-कम 20 प्रतिशत तक ले जाना होगा। वही लोग जिन्होंने वेदान्ता के मामले में मेरे रुख की प्रशंसा की थी, जैतापुर परमाणु ऊर्जा पार्क को अनुमति देने की निन्दा करने लगे, तब फुकुशिमा दुर्घटना अखबारों में छाई हुई थी। मैं विश्वास करता हूँ कि परमाणु प्रकल्पों की सुरक्षा को लेकर लोगों की चिन्ता पूरी तरह गलत नहीं है लेकिन इन चिन्ताओं का सामना लोगों की बेहतर पहुँच और स्वतंत्र नियामक संस्था के माध्यम से किया जा सकता है जिस पर लोग भरोसा कर सकें।

विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच एक अस्थिर सन्तुलन कायम करने के निरन्तर प्रयास से एक महत्त्वपूर्ण सवाल पैदा हुआ। हम उसका प्रबन्धन कैसे करेंगे जिसका आकलन हमने नहीं किया है? अगर हमें पर्यावरण संरक्षण के लिये अधिक मजबूत मामला बनाना है तो निश्चित तौर पर वस्तुनिष्ट ढंग से पर्यावरण को हुए नुकसान का मूल्य बताना होगा जो हमारी विकास प्रक्रिया की वजह से हुआ।

परम्परागत रूप से राष्ट्रीय आमदनी के मूल्यांकन के लिये अर्थशास्त्री जीडीपी और एनडीपी का आकलन करते हैं। जिसका उपयोग भौतिक पूँजी के खातों में होता हैं हालांकि, जीडीपी को ‘हरित जीडीपी’ (Green gross domestic product) में बदलने की कोई स्वीकृत पद्धति नहीं है जिससे राष्ट्रीय आमदनी पैदा करने की प्रक्रिया में प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण होना प्रकट होता।

यही कारण था कि अगस्त 2010 में मैंने प्रधानमंत्री से अनुरोध किया कि कैम्ब्रिज के विशिष्ट अर्थशास्त्री और पर्यावरणीय अर्थशास्त्र के गुरुओं में एक पार्थ दासगुप्ता (Partha Dasgupta) की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन करें। दासगुप्ता समिति जिसमें प्रसिद्ध अर्थशास्त्री विजय केलकर, नितिन देसाई, कौशिक बासु और टीसीए अनंत भी थे, को राष्ट्रीय हरित खाता (National green account) की रूपरेखा विकसित करने का जिम्मा सौंपा गया जो राष्ट्रीय माइक्रो-इकोनॉमिक लेखा प्रणाली के अंग के रूप में पर्यावरणीय लागत को प्रतिबिम्बित करेगा। दासगुप्ता समिति ने अपनी रिपोर्ट सुदृढ़ रूपरेखा और कार्यान्वयन की योजना के साथ अप्रैल 2013 में प्रधानमंत्री को सौंप दी।

दासगुप्त समिति की रिपोर्ट नए तरह की पूँजी ‘मानव पूँजी’ और ‘प्राकृतिक पूँजी’,देश की पारिस्थितिकी, भूमि, पानी और मिट्टी इत्यादि संसाधनों को राष्ट्रीय लेखा में शामिल करने की बात करती है। रिपोर्ट आर्थिक उन्नति के नए प्रतिमान का प्रस्ताव करती है। उन्नति को अधिक प्रचलित ‘जीडीपी प्रति व्यक्ति’ में परिभाषित करने के बजाय ‘सम्पत्ति प्रति व्यक्ति’ में परिभाषित करती है जैसे, यह सम्भव है कि वनों से सम्पन्न किसी देश की ‘जीडीपी प्रति व्यक्ति’ काठ का निर्यात करने से बढ़ रही हो, लेकिन उसकी ‘सम्पत्ति प्रति व्यक्ति’ घट रही हो क्योंकि उसकी प्राकृतिक पूँजी (इस मामले में वन) खत्म हो रही है जबकि जीडीपी बढ़ रही है। रिपोर्ट तर्क देती है कि यह नया प्रतिमान जिसमें हम राष्ट्र की ‘प्रति व्यक्ति सम्पत्ति’ में परिवर्तन को मापते हैं, जीडीपी प्रति व्यक्ति के परम्परागत प्रतिमान की अपेक्षा देश के कल्याण का अधिक सशक्त आकलन प्रदान करती है। दासगुप्त समिति ने हरित राष्ट्रीय लेखा (National green account) तैयार करने के लिये योजना प्रस्तुत किया, जिसे लागू करने की जिम्मेवारी सरकार की थी।

2009 में जब मैंने मंत्रालय का कार्यभार सम्भाला तब जलवायु परिवर्तन का मसला अन्तरराष्ट्रीय चर्चा के केन्द्र में था। मेरे सामने यह स्पष्ट था कि जलवायु परिवर्तन का मसला संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में प्रतिवर्ष केवल वार्ताकारों और मंत्रियों के विचार विमर्श करने का ‘बन्द मसला’ नहीं हो सकता। भारत के हर तीन आदमी में से दो रोजगार के लिये कृषि पर निर्भर रहते हैं वहीं लगभग 30 करोड़ लोग समुद्र तटीय क्षेत्रों में निवास करते हैं, इसलिये जलवायु परिवर्तन भारत की वास्तविक समस्या है। पिछले कुछ वर्षों में अनगिनत वैज्ञानिक अध्ययनों ने, जिसमें ‘जलवायु परिवर्तन पर अन्तर-सरकारी समिति (आईपीसीसी)’ का आकलन भी शामिल है, जलवायु परिवर्तन का जल उपलब्धता, खाद्य उपलब्धता और सुरक्षा, तटीय क्षेत्रों और आजीविका प्रभाव पर जोर दिया है। जलवायु परिवर्तन का मानसून पर प्रभाव, समुद्र के स्तर में बढ़ोत्तरी, हिमालय के ग्लेशियरों का पीछे हटना और हमारी नदी प्रणालियों विशेषकर गंगा के स्वास्थ्य पर प्रभाव, वन विनाश की बढ़ती दर के साथ कार्बन अवशोषणों की क्षमता में गिरावट जो अपने प्राकृतिक संसाधनों का अधिक-से-अधिक दोहन करने की हमारी दयाहीन आवश्यकता के साथ-साथ होता है। सब एक सरल तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि जलवायु परिवर्तन उतना ही देशी मसला है जितना अन्तरराष्ट्रीय। यह स्थानीय आजीविका का मसला है, उतना ही यह वैश्विक साझेदारी का मसला है। जलवायु परिवर्तन की समस्याओं को दूर करना अन्तहीन अन्तरराष्ट्रीय वार्ताओं का विषय भर रह जाये, यह न केवल गलत है, बल्कि स्वाभाविक रूप से हानिकारक है।

एक अर्थ में मैं जलवायु परिवर्तन वार्तालापों की प्रामाणिकता पर प्रश्न उठा रहा था जो इस मसले को अन्तरराष्ट्रीय वार्ताओं के अधिकार क्षेत्र के लिये आरक्षित मानता था। लेकिन ऐसे पेचीदा मसले का समाधान करने के लिये शुरूआत कैसे करें? विशेष रूप से यह देखते हुए कि सार्वजनिक रूप से उपलब्ध अधिकतर वैज्ञानिक अध्ययन पश्चिम से उत्पन्न हुए हैं, ऐसे शोधकर्ताओं द्वारा किये गए हैं जो भारतीय परिस्थितियों और मजबूरियों से हमेशा परिचित नहीं होते? मेरी समझ से जवाब अपनी वैज्ञानिक क्षमता विकसित करना और उनके कार्यों को सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध कराना था, ताकि वह सामने आ सके और जब निर्णय हों तब उनका ख्याल किया जा सके। अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने कभी कहा था कि निर्णय उनके द्वारा किया जाता है जो दिखा सकें। भारतीय वैज्ञानिक समुदाय ने दिखाया नहीं है और भारत की जनसंख्या भले विश्व का 17 प्रतिशत है, हमारी आवाज जलवायु परिवर्तन और उसे नियंत्रित करने वाले विज्ञान की विवादग्रस्त वैश्विक समस्या पर विचार-विमर्श में नहीं सूनी जाती।

इसे सुनिश्चित करने के विचार के साथ कि आगामी विचार-विमर्शों में भारतीय कहानी का प्रतिबिम्बन हो, मैंने जलवायु परिवर्तन आकलन के लिये भारतीय नेटवर्क (Indian Network on Climate Change Assessment - INCCA) का गठन किया जो भारतीय वैज्ञानिकों का एक समूह है जिसे भारत में जलवायु परिवर्तन के बारे में अपनी खोज को समकक्ष-समूह में समीक्षा कर प्रकाशित करना था। नेटवर्क में भारत के 125 शोध संस्थानों के 250 वैज्ञानिक एकत्र हुए और अन्तरराष्ट्रीय संगठनों के साथ साझीदारी कायम किया।

मैंने आईएनसीसीए को भारतीय आईपीसीसी के तौर पर बनाना चाहा था। यह जलवायु विज्ञान के क्षेत्र में भारत में वर्तमान आधे-अधूरे प्रयासों की बुनियाद पर खड़ा हुआ और कई प्रकार से महत्त्वपूर्ण था। पहला, यह व्यापक कार्यक्रम था, जिसमें अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र और जलवायु परिवर्तन के प्रत्येक उल्लेखनीय आयामों जैसे ब्लैक कार्बन का अध्ययन, ग्लेशियरों और वर्षापात के तौर-तरीकों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव इत्यादि को समेटा गया था। दूसरा, इसने संस्थानों और वैज्ञानिकों की बड़ी संख्या को काम में लगाया जिनमें निजी क्षेत्र और देश से बाहर कार्यरत वैज्ञानिक भी थे ताकि सर्वोत्तम उपलब्ध विशेषज्ञों को एकीकृत ज्ञान नेटवर्क में जोड़ा जा सके। तीसरा, यह चलते रहने वाला कार्यक्रम होगा, एक बार में समाप्त नहीं हो जाएगा, इसके परिणाम सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराए जाएँगे ताकि समकक्ष समूह में समीक्षा, बहस और वाद-विवाद हो सके। चौथा, यह कार्यक्रम क्षमता निर्माण करेगा जिससे जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की अगली पीढ़ी तैयार हो सके। मेरा मनोरथ था कि भारत में बेहतरीन जलवायु नीति-निर्माण का सारतत्व तीन एम- मेजरिंग, मॉडलिंग और मॉनिटरिंग, नमूना निर्माण और निगरानी बन सके।

 

 

 

 

2009 में जब मैंने मंत्रालय का कार्यभार सम्भाला तब जलवायु परिवर्तन का मसला अन्तरराष्ट्रीय चर्चा के केन्द्र में था। मेरे सामने यह स्पष्ट था कि जलवायु परिवर्तन का मसला संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में प्रतिवर्ष केवल वार्ताकारों और मंत्रियों के विचार-विमर्श करने का ‘बन्द मसला’ नहीं हो सकता। भारत के हर तीन आदमी में से दो रोजगार के लिये कृषि पर निर्भर करते हैं वहीं लगभग 30 करोड़ लोग समुद्र तटीय क्षेत्रों में निवास करते हैं, इसलिये जलवायु परिवर्तन भारत की वास्तविक समस्या है।

यदि जलवायु परिवर्तन के घरेलू पक्षों को रेखांकित करना और इसकी प्रामाणिकता पर प्रश्न उठाना कुछ लोगों को वार्तालाप में सम्मिलित भारत की स्थिति को कमजोर करता दिखा तो अन्तरराष्ट्रीय वार्तालापों में मेरा ढंग, उनकी समझ से अनधिकृत के सिवा कुछ नहीं लगेगा। प्रधानमंत्री ने इसे आरम्भ में ही स्पष्ट कर दिया था कि यद्यपि जलवायु परिवर्तन की समस्या में भारत का योगदान बहुत कम है, फिर भी वे चाहते थे कि इसके वैश्विक समाधान में भारत को हिस्सेदारी हो।

मुझे भारत की छवि बदलने का जिम्मा सौंपा गया था। इस विवादग्रस्त वैश्विक समस्या ने जो करीब दो दशकों से वैज्ञानिकों, नौकरशाहों और राजनेताओं को परेशान किया है, का समाधान खोजने में भारत को अनवरत ‘ना’ कहने वाले से बदलकर पहले से सक्रिय हिस्सेदार बनाने की जिम्मेवारी मेरी थी। भारत के लिये अधिक सकारात्मक और पहले से सक्रिय भूमिका निभाने तक अपने राष्ट्रीय हितों पर नजरें गड़ाए रहना, मेरे लिये अभिशाप जैसा नहीं था। वास्तव मे मैं इस विचार का था और हूँ कि वार्तालाप में कोई स्थिति पत्थर की लकीर नहीं होती। वार्तालाप में हमारा रुख अपने राष्ट्रीय हित से लगातार निर्देशित और उस पर आधारित होना चाहिए। इसमें हमें आर्थिक उन्नति को बचाने की आवश्यकता, गरीबी उन्मूलन का एजेंडा, घरेलू पर्यावरण नीतियों को जारी रखना और आगे बढ़ाना तथा जलवायु परिवर्तन वार्तालापों को अपनी विदेश नीति के लक्ष्यों को पूरा करने के लिये अपने शस्त्रागार के हिस्से के रूप में उपयोग करना जैसे मुद्दों पर बल देना चाहिए। इनमें से कोई वैश्विक कल्याण, जलवायु परिवर्तन की वैश्विक समस्या से निपटने के लिये एक जीवन्त और व्यावहारिक अन्तरराष्ट्रीय प्रयास की कीमत पर नहीं होना चाहिए।

मुझे अन्तरराष्ट्रीय वार्तालापों के परिणामों को स्वरूप देने में भारत के लिये नेतृत्व ग्रहण करने का एक अवसर दिखा। ऐसा करने में भारत अपने विकास की गुंजाईश और विदेश नीति के एजेंडा को बचाने में कामयाब होगा, यहाँ तक कि इससे भारत की छवि को अन्तरराष्ट्रीय वार्तालापों में हमेशा ना कहने वाले से बदलकर समाधान खोजने में पूर्व-सक्रिय बन सकेगा। (यह छवि जलवायु परिवर्तन वार्तालाप में आगे बढ़ी)। इसका मतलब वार्तालाप में अपनी स्थिति को त्यागना नहीं है। इसका मतलब है कि आप दो कदमों पर चलना चाहते हैं। इसका मतलब राष्ट्रीय हितों का त्याग किये बिना वार्तालाप में अपनी स्थिति को बदली हुई परिस्थिति के अनुसार समायोजित करना है। इसका मतलब है कि भारत को मजबूत रुख रखते हुए बातचीत करनी है जो घरेलू मोर्चे पर पूर्व-सक्रिय ढंग से काम करने, मूलभूत नीतिगत कार्रवाई करने से आएगा। हमारे सामने चीन और अमेरिका का उदाहरण मौजूद है। इन देशों ने अन्तरराष्ट्रीय वार्तालापों में ‘कठोर’ रुख अपनाया, जबकि जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभाव का मुकाबला करने के लिये घरेलू मोर्चे पर उपाय किये। मेरी समझ से भारत दो दुनिया के बीच टंगा हुआ है, बड़ी शक्तियों के साथ वार्ता की मेज पर है और गरीबी एवं वंचना के मामले में इसकी तुलना उप-सहारा देशों के साथ की जा सकती है। यह भारत को ऐसी स्थिति प्रदान करता है जिसमें वह ऐसा समाधान खोजकर चैम्पियन बन सकता है जो सभी प्रकार के देशों के लिये उपयुक्त हो। इसने भारत को स्वाभाविक नेतृत्वकर्ता बनने का अवसर दिया है। अब यह भारत पर है कि वह इस अवसर का लाभ उठाए।

लेकिन घरेलू समझदारी, मीडिया का बड़ा हिस्सा, प्रभावशाली नागरिक संगठन, राजनीतिक और अधिकारी वर्ग, वार्तालाप के रुख में परिवर्तन और पूर्व-सक्रिय घरेलू एजेंडा को आत्मसमर्पण के चिन्ह के तौर पर देखता है। वार्तालाप के परम्परागत रुख से मेरा पहला ‘विच्छेद’ जलवायु परिवर्तन पर ‘यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज’ (United Nations Framework Convention on Climate Change - UNFCCC) के कोपेनहगेन वार्ता 2009 के पहले हुआ। जलवायु परिवर्तन का सामना करने में ‘कुछ अधिक’ करने के लिये विकासशील देशों, उभरती अर्थव्यवस्थाएँ जैसे भारत (चीन भी) पर बढ़ते दबाव से मैं बखूबी परिचित था। कोपेनगहेन में दिसम्बर 2009 में जलवायु समझौते पर केन्द्रित बातचीत में उन्नत विकासशील देशों जैसे अपने देश पर अधिक ध्यान था।

अन्तरराष्ट्रीय मानस-चित्र में भारत और चीन अक्सर एक साथ रखे जाते हैं, कारण उनकी बड़ी जनसंख्या, बढ़ती आर्थिक ताकत होना है। वार्तालाप में हमने जी 77 की छतरी के तले चीन के साथ मिलकर काम किया। चूँकि चीन बड़ी अर्थव्यवस्था है और हमसे अधिक उन्नत है, इसलिये उसने अक्सर हमें आवरण प्रदान किया। लेकिन कोपेनहगेन के पहले मैं भयभीत था कि बीजिंग आगे बढ़कर अपना अलग समझौता कर लेगा और भारत को अकेला छोड़ देगा। चीन ने अपनी जीडीपी का 40-45 प्रतिशत उत्सर्जन तीव्रता को कम करने की घोषणा कर दी। नई दिल्ली को भी कुछ करने की आवश्यकता थी या कम-से-कम कुछ करते हुए दिखने की आवश्यकता थी। इस मौके पर मैं बेसिक-चार उन्नत विकासशील देशों- ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन के समूह को सक्रिय करने का फैसला किया। चारों देश विकास के ग्राफ में अलग-अलग स्थानों पर होने के बावजूद अपने विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में साझा हित रखते थे।

मैंने केवल बेसिक के साथ ही सम्बन्ध विकसित करना नहीं चाहा, मैं दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) देशों के पास भी पहुँचा और क्षेत्रीय हितों की चर्चा करने के लिये एक मंच विकसित करने का अनुरोध किया। मुझे हताश करते हुए सार्क समूह सन्तोषजनक ढंग से आगे नहीं बढ़ा हालांकि मेरी पहल पर भारतीय अनुदान से मालदीव में दक्षेस तटीय क्षेत्र प्रबन्धन केन्द्र (SAARC Coastal Zone Management Center Maldives) और भूटान में दक्षेस वानिकी केन्द्र (Saarc Forestry Center Bhutan) की स्थापना हो सकी। क्षेत्रीय स्तर पर कैलाश-मानसरोवर पारिस्थितिकी (Kailash-Mansarovar Ecosystem) को लेकर मैं नेपाल के साथ सम्बन्ध जोड़ सका, लेकिन बांग्लादेश के साथ मिलकर सुन्दरबन पारिस्थितिकी फोरम (Sundarbans Ecosystem Forum) स्थापित करने का मेरा प्रयास सफल नहीं हो सका।

मेरा विचार था कि दूसरे विकासशील देशों के साथ मजबूत सम्बन्ध बनाने का मतलब यह नहीं होता और नहीं होना चाहिए कि विकसित देशों के साथ साझेदारी विकसित नहीं करना है। भारत जी-20 (G-20) और मेजर इकोनॉमिक फोरम (Major Economies Forum - MEF) का सदस्य है और औद्योगिक देशों के साथ संवाद जारी रखा है तथा साझेदारी विकसित कर रहा है जो इसे सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है कि भारत की आवश्यकताओं और विचारों को उचित स्थान प्राप्त हो सके। इसी सन्दर्भ में मैंने पर्यावरण से सम्बन्धित मसलों पर भारत-अमेरिका संयुक्त कार्य समूह की स्थापना के लिये काम किया। यह कार्यसमूह अन्य बातों के अलावा शीतलीकरण गैसों जैसे हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (HFC) का उपयोग घटाने पर केन्द्रित था। यह मामला जलवायु वार्तालापों में उठा और उसमें भारत एवं दूसरे देशों जैसे अमेरिका के विचारों में फर्क था। कार्य समूह मतभेदों को दूर करने और स्वीकार्य समाधान की दिशा में एक साथ काम करने की व्यवस्था था।

मेरा प्रयास दूसरे देशों, विकासशील और विकसित दोनों के साथ निकट और कार्यकारी सम्बन्ध विकसित करने का था। कोपेनहेगेन और फिर कानकुन में यूएनएफसीसीसी वार्तालापों के दौरान मेरी कोशिश द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और बहुपक्षीय स्तरों पर सम्पर्क साधना था जो भारत को ऐसा स्थान दिलाने के प्रयासों का हिस्सा था जिससे वैश्विक कार्रवाई की बनावट में नई दिल्ली को अधिक महत्त्व मिलना सुनिश्चित हो सके, साथ ही विकास के मामले में हमारे हित सुरक्षित रह सकें।

मुझे ईमानदारी से यह स्वीकार करना चाहिए कि बीस साल पहले मैं कट्टरपंथी ढंग से जीडीपी विकास को किसी दूसरी चीज से पहले रखता था। मैं मानता था कि भारत की समस्याओं का उत्तर जीडीपी विकास में है। मैं आज भी विकास में भरोसा रखता हूँ, लेकिन अब मैं इसे केवल जीडीपी को विकास के बराबर नहीं रखता। मैं मानता हूँ कि हमें सम्पत्ति बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। मैं अभी भी मानता हूँ कि विकास नितान्त आवश्यक है, पर विकास का टिकना समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। यह सुनिश्चित हो कि विकास के लाभ सभी को सुनिश्चित रूप से प्राप्त होंगे और लक्ष्य रहे कि तेज विकास का ढंग ऐसा हो जिसका पर्यावरण पर प्रभाव और परिणाम अधिक नकारात्मक न हो।

यह पुस्तक उस सफर की साक्षी है। यह कोशिश करती है कि उन विभिन्न प्रकार की अड़चनों, अक्सर परस्पर विपरीत, को सामने लाएँ जिसका सामना सतत विकास की रूपरेखा तैयार करने में भारत को करना पड़ता है। इसमें मैंने अपने सभी ‘मुखर आदेशों’ को शामिल किया है जिनमें प्रत्येक ऐसे आवश्यक चयन को प्रकट करते हैं जिनका भविष्य में भारत को आवश्यकता होगी क्योंकि भारत उच्च आर्थिक विकास के साथ पारिस्थितिकीय हितों को सन्तुलित रखना चाहता है। इसमें मेरे कुछ भाषण और सार्वजनिक व्याख्यान, पत्र और संसदीय बहसों को भी शामिल किया गया हैं जो मेरे फैसलों और नीतिगत हस्तक्षेपों को प्रभावित करने वाली मेरी सोच को प्रकट करते हैं।

वन और पर्यावरण मंत्री के नाते मेरा कार्यकाल निसन्देह उथल-पुथल वाला था। उसकी आज भी चाहे तो सराहना की जाती है या आलोचना होती है। यह पुस्तक आत्मरक्षा या आलोचकों को जवाब देने की कोशिश नहीं है। यह पुस्तक किसी भी तरह से मेरे पच्चीस महीनों के कार्यकाल का पूरा ब्यौरा प्रस्तुत नहीं करती। यह चयनात्मक है और उन मसलों को फोकस में लाती है जिन्होंने हलचल पैदा की और विवादस्पद हो गए। इस प्रकार यह राजनीतिक संस्मरण नहीं है जो पुराने बैर का गुबार निकालने और मेरी वाहवाही करने के लिये हो। मुझे उम्मीद है कि यह पुस्तक मंत्री के तौर पर मेरे कार्यकाल पर इतनी जोरदार प्रतिक्रियाएँ क्यों हुईं उसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर कुछ सीमा तक प्रकाश डालेगी। लेकिन किसी दूसरी चीज से अधिक यह पुस्तक पर्यावरण मंत्री के नाते मेरे फैसलों और कार्रवाइयों की बेहतर समझदारी कायम करने में सहायक होगी, साथ-ही-साथ उन चुनौतियों को स्पष्ट करेगी जिसका भारत को विकास की चाहत में सामना करना पड़ रहा है। पारिस्थितिकीय सुरक्षा से सम्बन्धित मसले अब राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडा और विकास की बहसों की मुख्यधारा के प्रमुख हिस्सा हैं। मैं सोचना चाहता हूँ कि यह कुछ हद तक पर्यावरण मंत्री के नाते मेरे प्रयासों और हस्तक्षेपों की वजह से हुआ है।

सन्दर्भ
1. ग्लोबलाइजेशन एंड इकोलॉजिक सिक्यूरिटी, व्याख्यान, द फाउंडेशन ऑफ इकोलॉजिकल सिक्यूरिटी, अक्टूबर 2002,। पुनर्प्रस्तुत संमर सिंह (सम्पा.) 2007, इकोलॉजिकल सिक्यूरिटी : द फाउंडेशन ऑफ सस्टनेबल डेवेलपमेंट. नई दिल्ली, शिप्रा पब्लिकेशन। द एसएचजी रिवोल्यूशनः ह्वाट नेक्स्ट, सिल्वर जुबली लेक्चर, सोसाइटी फॉर द प्रोमोशन ऑफ वेस्टलैंड डेवेलपमेंट (मई 2007) और ‘बुश फायर्स ओवर क्योटो प्रोटोकाल, इण्डिया टूडे (25 जून 2001), पुनर्प्रस्तुत-रमेश,जयराम 2000 कौटिल्य टूडे, नई दिल्ली, रिसर्च प्रेस। ‘डिमांड फॉर ए स्टेटमेंट एंड डिस्कशंस ऑन इस्सू एराइजिंग आउट ऑफ द यूनाइटेड नेशन्स क्लाइमेट चेंज कान्फ्रेंस। मैटर्स रेज्ड विथ परमिशन, राज्यसभा, 14 दिसम्बर 2005, इस पुस्तक में पहला प्रश्न शामिल किया गया है।

2. ‘‘मुखर आदेशों ’के साथ मैंने उन रिपोर्टों, पत्रों और दूसरी सामग्री को भी सार्वजनिक किया जिन्होंने फैसलों पर असर डाला था।

3. कुल मिलाकार चौदह मुखर आदेश जारी हुए और सभी इस पुस्तक में शामिल किये गए हैं।

4. दो वर्ष की अवधि के दौरान ऐसे आठ सार्वजनिक व्याख्यान हुए और उन सभी को इस पुस्तक में शामिल किया गया है। मैंने इस पुस्तक में फिनलैंड की संसद में दिये अपने भाषण को भी शामिल किया है हालांकि उस समय मैं ग्रामीण विकास मंत्री था, पर चूँकि यह उन मसलों के बारे में है जिनसे पर्यावरण मंत्री रहते मेरा मुठभेड़ हुआ था और उन कामों का परिणाम है जिसे मैंने किया था। इसमें संयुक्त राष्ट्र महासचिव के उच्च स्तरीय वैश्विक सतत विकास समिति में मेरी भागीदारी भी शामिल है।

5. संसद के दोनों सदनों में विभिन्न नियमों के अन्तर्गत विभिन्न विषयों पर 2009-11 के बीच हुई बहसें, जैसे-पूर्वोत्तर में बड़े बाँधों का पर्यावरण पर प्रभाव, गंगा नदी की अवस्था, बाघों की घटती संख्या पर चिन्ता, जलवायु परिवर्तन और अन्तरराष्ट्रीय वार्तालाप, नदियों और झीलों का प्रदुषण मुम्बई बन्दरगाह के निकट तेल छलकना उन विषयों में प्रमुख है।

6. बीटी बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन पर प्रतिबन्ध लगाने के मेरे फैसले को राज्यों से आई प्रतिक्रियाओं ने प्रभावित किया। सभी मुख्यमंत्रियों या उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों ने दलगत सीमा को दरकिनार कर मुझसे यह अनुरोध करते हुए लिखा था कि बीटी बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन की अनुमति नहीं दें।

7. नियमगिरि पहाड़ी में बाक्साइट खनन के लिये वन विभाग की अनुमति को रद्द करने के फैसले ने ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को प्रसन्न नहीं किया। न ही मुम्बई के शहरी इलाके पुनर्विकास में निजी भागीदारी को रोकने के मेरे फैसले की महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने प्रशंसा की। मुझे कांग्रेस और गैर कांग्रेस दोनों मुख्यमंत्रियों की नाराजगी झेलनी पड़ी। दलगत राजनीति करने के आरोपों के विपरीत मैं सभी पक्षों को नाराज करने वाला बन गया था। कुछ कांग्रेस सांसद मेरे रुख से इसलिये अप्रसन्न थे क्योंकि वे पश्चिमी घाट या कोयला खनन इत्यादि से सम्बन्धित थे।

8. नवी मुम्बई हवाईअड्डा के लिये अनुमति मुम्बई में नया हवाईअड्डा की आवश्यकता और सुंदरी वनों (मैंग्रोव) के लिये पारिस्थितिकीय सुरक्षा सुनिश्चित करने की आवश्यकता के बीच समझौते का रास्ता निकालने का एक उदाहरण है। सुंदरी वन समुद्री स्तर बढ़ने से प्राकृतिक सुरक्षा देने के साथ ही तटीय कटाव से भी सुरक्षा प्रदान करके महानगर को महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय सेवा प्रदान करते हैं।

9. ‘मैन एंड नेचर’, मानव पर्यावरण पर पहला संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में भाषण, स्टॉकहोम, 14 जून 1972

10. आईबीआईडी

11. उपरोक्त मंत्रालय से मेरे हटने के बाद स्वतंत्र नियामक स्थापित करने का उत्साह फीका पड़ गया। जनवरी 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने मेघालय के लफार्जे खनन मुकदमें में 2001 के फैसले को लागू करने का आदेश दिया, उसने भारत सरकार को 31 मार्च 2014 तक एक पर्यावरण नियामक स्थापित करने का निर्देश दिया था। हालांकि नियामक की नियुक्ति आज तक नहीं हुई।

12. मार्च 2014 में राष्ट्रीय हरित पंचाट ने वन सलाहकार समिति की सिफारिशों को नामंजूर करने के लिये मुझे फटकारा जो उन नीतियों पर आधारित थी जिन्हें मैंने ही बनाया था और छत्तीसगढ़ में हसदेव-अरण्य के सघन वन क्षेत्र में कोयला खनन का अनुमोदन करने के लिये भी फटकारा। मेरे इन कार्यों का कारण 23 जून 2011 के ‘मुखर आदेशों’ में विस्तार से बताया गया है जिन्हें इस पुस्तक में शामिल किया गया है।

13. सन्दर्भ-अनुसूचित जाति और अन्य परम्परागत वनवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006

14. इस सर्कुलर ने वेदान्ता और पोस्को के बारे में फैसले में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की जिसके बारे में ‘मुखर आदेशों’ को इस पुस्तक में शामिल किया गया है। हालांकि, यह स्वीकार करना आवश्यक है कि वनाधिकार कानून 2006 के प्रावधानों के आलोक में जिसमें दावा करने के लिये कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है, आदेश को लागू करना टकराव की स्थिति पैदा करेगा क्योंकि परियोजनाओं को समयबद्ध ढंग से अनुमति देनी होती है। इसे संशोधित करना आवश्यक है अन्यथा सर्कुलर की प्रकृति परामर्श जैसी है और इसके उल्लंघन के खराब परिणाम अभी दिखने वाले हैं।

15. टी.एन.गोदावर्मन बनाम भारत सरकार (रिट याचिका 202, वर्ष 1995)

 

 

 

 

 

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सूख गईं नदियाँ, रह गईं तो बस कहानियाँ

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सूख गईं नदियाँ, रह गईं तो बस कहानियाँRuralWaterTue, 04/10/2018 - 18:18


दम तोड़तीं नदियाँदम तोड़तीं नदियाँगर्मी ने दस्तक दिया नहीं कि जल संकट की खबरें आम हो जाती हैं। पर मध्य-प्रदेश के सतपुड़ा व अन्य इलाकों की स्थिति कुछ अलग है। यहाँ पानी की किल्लत मौसमी न रहकर स्थायी हो गई है। ज्यादातर नदियां सूख गई हैं। नरसिंहपुर और होशंगाबाद जिले की, सींगरी, बारूरेवा, शक्कर, दुधी, ओल, आंजन, कोरनी, मछवासा जैसी नदियां पूरी तरह सूख गई हैं। इनमें से ज्यादातर बारहमासी नदियां थीं। पीने के पानी से लेकर फसलों के लिए भी पानी का संकट बढ़ गया है।

इस समस्या पर लेखक की पैनी नज़र तब पड़ी, जब पिछले दिनों वे ट्रेन में सफर कर रहे थे। सफर के दौरान ट्रेन में एक सज्जन मिले। जब गाड़ी गाडरवारा की शक्कर नदी के पुल से गुजरी कि उन्होंने आपबीती सुनानी शुरु कर दी। वे बताने लगे कि कैसे इस नदी में वे डूबते-डूबते बचे थे। बतौर सज्जन, नदी गहरी और पानी से भरी थी, वे लगभग डूब ही गए थे कि कुछ लोगों ने उन्हें उनके बालों को पकड़कर निकाला। उनके कहने का निहितार्थ था, जिस नदी में अब पानी की एक बून्द तक नहीं दिखती,पहले पानी से लबा-लब हुआ करती थी। अब सूखकर, खुक्क ( खाली) हो गई है।

नदी की रेत में डंगरबाड़ी (तरबूज-खरबूज) की खेती होती थी और कहार, बरौआ समुदाय के लोगों का डेरा नदी इलाकों में होता था। यहां की मीठी ककड़ी याद आती है।

सतपुड़ा से निकलने वाली नर्मदा की सहायक नदियां- बारूरेवा, शक्कर, दुधी, ओल, आंजन,कोरनी, मछवासा, पलकमती आदि का अस्तित्व केवल अब बरसाती नदियों के रूप में रहा गया है जो कभी सदानीरा हुआ करतीं थीं।

नदियों से जुड़ाव की मात्र यही कहानी नहीं, ऐसी बहुत सी कहानियां हैं, उनके तटों ताल्लुक रखने वालों के पास। मछवासा नदी के पास रहने वाली एक महिला,अपने आँगन में खड़े अमरूद और आम के पेड़ों का,अपने पति और उनके नदी से लगाव का मार्मिक विवरण प्रस्तुत करती है। वह कहती है कि उन पेड़ों को उसके पति (जो अब इस दुनियां में नहीं हैं)ने नदी के पानी से सींचा था। नदी तो अब रही नहीं लेकिन पेड़ उसे उसके पति की याद जरूर दिलाते रहते हैं।

नदियों की यह हालत अचानक नहीं हुई है। पर्यावरणीय विनाश अपना असर दिखाने लगा है। सैकड़ों सालों से सदानीरा नदियां, झील, झरने, कुएं और बावडियां सूख गई हैं या सूखने के कगार पर हैं। इसके कारण मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी से लेकर समस्त जीव-जगत के लिए पानी की समस्या हो गयी है।

मध्य-प्रदेश की बात करें तो यहां विपुल वन संपदा थी। गांवों में कुआं हुआ करते थे। तालाब हुआ करते थे। नदियां पूरे बारहमासी बहती थीं। गांवों के आसपास घने जंगल व डांगें हुआ करती थी। नदियां व झरने कल-कल बहते रहते थे। नदियों के किनारे ही सभ्यताएं विकसित हुई हैं। कला, संस्कृति का विकास हुआ है। लेकिन पानी के आभाव में इन इलाकों से लोगों ने पलायन करना शुरू कर दिया।

अत्यधिक दोहन के कारण मैदानी इलाकों के साथ ही पहाड़ से भी जंगल सफाचट होते चले जा रहे हैं। जंगल में आई कमी का परिणाम तापमान में बृद्धि के रूप में सामने आया है। जंगल पानी के स्रोत तो हैं ही, तापमान को भी नियंत्रित करते हैं।

शहरों के विस्तार के कारण भी पानी का दोहन हो रहा है। भवन निर्माण, बागवानी हो या रोजमर्रा के कार्य सभी के लिए पानी की जरुरत है। पानी शहरों में तो होता नहीं तो वहां इसकी आपूर्ति के लिए आस-पास के नहरों और दूसरे जल स्रोतों का अति दोहन हो रहा, जो पानी की किल्लत का कारण बन रहा है।

जलवायु बदलाव चिंता का विषय है। इसका असर वर्षा के पैटर्न पर भी पड़ा है। आजकल बारिश या तो होती नहीं है और होती भी है तो कम। यानी मौसम की अनिश्चितता बनी रहती है। ऐसे में हमें तात्कालिक नहीं, पानी की समस्या के स्थायी समाधान की ओर बढ़ना होगा। अब सवाल है कि क्या किया जाए? पानी की कमी के कारण सतपुड़ा अंचल में किसानों ने गेहूं की जगह चना की खेती की है। बड़ी संख्या में किसान इस ओर मुड़े हैं। चना बिना सींच( सिंचाई) के बोया जाता है। सतपुड़ा के पहाड़ी इलाके में भी चना बोया जाता है। मैदानी इलाकों में कम पानी वाला चना बोया जाता है। उसमें एक या दो बार पानी देने की जरूरत होती है जबकि गेहूं में ज्यादा बार। इसी तरह तुअर, तिल, मूंग, उड़द, तिवड़ा आदि कई प्रकार की दालें बोई जाती हैं। हम दाल के प्रमुख उत्पादक देश थे। उन्हें बोना छोड़कर ज्यादा पानी वाली फसलें बोने लगे। सतपुड़ा की जंगल पट्टी में किसान परंपरागत मिश्रित खेती की पद्धति पर उतेरा। इसमें 6-7 प्रकार के अनाजों को मिलाकर बोया जाता है। इस पद्धति में ज्वार, धान, तिल्ली, तुअर, समा, कोदो मिलाकर बोते हैं। सभी बारिश की खरीफ फसलें हैं। इनमें अलग से पानी की जरूरत नहीं होती है।

इसके अलावा, हमें परंपरागत सिंचाई की ओर भी ध्यान देना चाहिए। उस समय जरूरतों व संसाधनों के बीच तालमेल बिठाते हुए सिंचाई के कई साधन विकसित किए गए थे। जिसके तहत तालाब, कुएं, नदी-नालों का बहाव को मोड़ कर खेतों तक पानी ले जाया जाता था। सतपुड़ा अंचल में ही पहाड़ी नदियों से कच्ची नाली बनाकर खेतों की सिंचाई की जाती थी। इसी अंचल में हवेली ( बंधिया) पद्धति प्रचलित थी, जिसमें खेतों में बंधिया( मेड़) बनाकर पानी भरा जाता है जिससे लंबे अरसे तक खेत में नमी रहती है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में टेढ़ा पद्धति से सब्जी बाड़ी की सिंचाई की जाती है, जिसमें बहुत ही कम पानी लगता है। छत्तीसगढ़ में ही सैकड़ों की संख्या में तालाब हैं जिनमें बारिश का पानी तालाब लबा-लब भरा रहता है। तालाबों के महत्व को अनुपम मिश्र ने अपने लेखों व किताबों में बहुत ही स्पष्ट तरीके से बताया है। यानी पानी संचयन के परंपरागत तौर-तरीकों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

कुल मिलाकर, हमें पानी के परंपरागत स्रोतों को फिर से बहाल करना होगा। देसी बीजों वाली परंपरागत खेती,असिंचित मिश्रित खेती की ओर बढ़ना होगा। वृक्ष खेती या कम से कम मेड़ों पर फलदार पेड़ों को लगाना होगा, जिससे खेतों में नमी रहे। कुपोषण कम नदियों के किनारे वनाच्छादन,छोटे स्टॉपडैम और पहाड़ियों पर हरियाली वापिसी के लिए उपाए करने होंगे। मिट्टी-पानी और पर्यावरण का संरक्षण करना होगा तभी हम पानी के संकट के स्थायी समाधान कर पाएंगे।

 

 

 

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आओ! धरती काम पर रख रही है (Earth Needs Activists)

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आओ! धरती काम पर रख रही है (Earth Needs Activists)adminTue, 04/17/2018 - 08:10


22 अप्रैल, 2018, पृथ्वी दिवस पर विशेष
पोर्टलैंड विश्वविद्यालय में पर्यावरणविद पॉल हॉकेन का व्याख्यान

पॉल हॉकिनपॉल हॉकिनइस पीढ़ी के नौजवानों! यहां से डिग्री हासिल करने के बाद अब तुम्हे यह समझना है कि धरती पर मनुष्य होने का क्या मतलब है, वह भी ऐसे समय में जब यहां मौजूद पूरा तंत्र विनाश के गर्त में जा रहा है, आत्मा तक को हिला देने वाली स्थिति है –

पिछले तीस सालों में कोई ऐसा पेपर नहीं छपा जो मेरे इस बयान को झुठलाता हो। दरअसल धरती को जल्द से जल्द एक नए ऑपरेटिंग सिस्टम की जरूरत है और आप सब उसके प्रोग्रामर हैं।

पृथ्वी नाम का यह ग्रह कुछ ऑपरेटिंग निर्देशों के सेट के साथ अस्तित्व में आया था,जिनको शायद हमने भुला दिया है। इस सिस्टम के महत्वपूर्ण नियम कुछ इस तरह थे-

जैसे पानी, मिट्टी या हवा में जहर नहीं घोलना है, पृथ्वी पर भीड़ जमा नहीं करनी है, थर्मोस्टैट को छूना नहीं है लेकिन अब हमने इन सभी नियमों को ही तोड़ दिया है। बकमिन्स्टर फुलरने कहा था कि धरती का यह यान इतना बेहतर डिजाइन किया गया है कि कोई भी यह नहीं जान पाता कि हम सभी एक ही यान पर सवार हैं, यह यान ब्रह्मांड में एक लाख मील प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ रहा है, किसी सीटबेल्ट की ज़रूरत नहीं है, इस यान में कई कमरे और बेहतर स्वादिष्ट खाना भी मौजूद हैं-पर अफसोस! अब यह सब बदल रहा है।

जो डिप्लोमा आप सब हासिल करोगे उसके पीछे अदृष्य लिखावट में कुछ लिखा होगा और अगर तुम इसे लेमन जूस का इस्तेमाल करके डिकोड न कर सके तो मैं तुम्हे बता सकता हूं कि वहां क्या लिखा होगा। वहाँ लिखा होगा- “तुम मेधावी हो और पृथ्वी तुम्हें काम पर रख रही है”। पृथ्वी किसी रिक्रूटर को तुम्हारे पास नहीं भेजेगी क्योंकि उसे भेजने का खर्च उठाने की स्थिति में वह नहीं है। इसने तुम्हारे पास बारिश,सूर्यास्त,मीठे-रसीले फल, रजनीगंधा, चमेली और वह सुंदर साथी भेजा है जिसके साथ तुम डेटिंग कर रहे हो। यही संकेत है तुम्हारे लिए, इसे सुनो-

डील यह हैः याद रखो तय समय सीमा में धरती को बचाना असंभव नहीं है। वही करो जिसे करने की जरूरत है और तुम पाओगे कि यह तभी तक असंभव था जब तक तुमने किया नहीं था।

जब कभी यह पूछा जाता है कि मैं आशावादी हूँ या निराशावादी,मेरा जवाब हमेशा यही होता है: धरती पर क्या हो रहा है, यह जानने के लिए विज्ञान की ओर देखोगे तो उस वक्त अगर आप निराशावादी नहीं हैं तो आंकडे समझ में नहीं आ सकते।

पर अगर तुम ऐसे लोगों को देखते हो जो धरती और गरीबों के जीवन को बचाने में जुटे हैं तो आशावादी हुए बिना तुम कुछ भी नहीं समझ सकते। मैंने देखा है कि दुनिया में हर जगह लोग निराशा,शक्ति और परेशानियों का सामना कर रहे हैं फिर भी सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् को बहाल करने में जुटे हैं-

कवि एड्रिने रिच कहते हैं, 'इतना कुछ बरबाद हो चुका है और अब मैंने अपनी सामर्थ्य के मुताबिक अपना सब कुछ उन्हें सौंप दिया है जो युग-युगान्तर से किसी असाधारण शक्ति के बगैर दुनिया को बनाने में जुटे हैं।' इससे बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता कि मानवता जुटी हुई है। वह दुनिया का पुनर्निर्माण करने में जुटी है और स्कूलों, खेतों, जंगलों, गांवों, मैदानो, कंपनियों, शरणार्थी शिविरों, रेगिस्तानों और झुग्गियों में काम जारी है।

तुम भी इन काम करने वाले लोगों के समूह में शामिल हो जाओ। कोई नहीं जानता कि कितने समूह और संगठन इस समय जलवायु परिवर्तन,गरीबी,वनों की कटाई, शांति, पानी, भूख, संरक्षण, मानवाधिकार आदि पर काम कर रहे हैं। यह दुनिया में अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन है। नियंत्रण के बजाय यह संपर्क चाहता है। प्रभुत्व के बजाय यह शक्ति के विकेंद्रीकरण के लिए प्रयास कर रहा है।

मरसी कोर्प्स की तरह यह पर्दे के पीछे रह कर काम कर रहा है। यह इतना बड़ा आंदोलन है कि कोई इसके सही आकार को नहीं पहचानता। यह दुनिया के अरबों लोगों को आशा, सहायता और अर्थ प्रदान कर रहा है। इसका प्रभाव विचार में है शक्ति में नहीं। शिक्षक, बच्चे, किसान, व्यवसायी, जैविक खेती करने वाले किसान, नन, कलाकार, सरकारी कर्मचारी, मछुआरे, इंजीनियर, छात्र, लेखक, मुसलमान, चिंतित माताएं, कवि, डॉक्टर, इसाई, गलियों के संगीतकार यहां तक कि संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति सब इसमें शामिल हैं और जैसा कि लेखक डेविड जेम्स डंकन कहते हैं, सृष्टिकर्ता जो हम सबों को इतना प्यार करते हैं वो भी इसमें शामिल है।

एक यहूदी बोधकथा के मुताबिक अगर दुनिया खत्म होने वाली है और मसीहा आ चुका है तो पहले एक पेड़ लगाओ और देखो कि क्या यह कहानी सच है। हमें प्रेरणा सिर्फ उन चीजों की चर्चा से नहीं मिलती जो हम पर बीती है, बल्कि यह मानवता की बहाली, निवारण, सुधार, पुनर्निर्माण, पुनर्कल्पना और पुनर्विचार की इच्छा से मिलती है। 'आखिरकार एक दिन तुम जान जाओगे कि तुम्हें क्या करना था और तब तुम काम शुरू कर दोगे, जबकि तुम्हारे चारों ओर के लोग चिल्ला-चिल्लाकर तरह तरह की बुरी सलाह देते रहेंगे।'

लाखों लोग अजनबियों के लिए काम करते हैं फिर भी शाम की खबर में आम तौर पर अजनबियों की मौत की सूचनाएं होती हैं। अजनबी की यह दयालुता, धार्मिक, मिथकीय हैं और इसकी जडें अठारहवीं शताब्दी की में हैं। उन्मूलनवाली पहले इंसान थे जिन्होंने उन लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन को खडा किया था जिन्हें वे नहीं जानते थे।

उस समय तक किसी समूह ने दूसरों की ओर से शिकायत दर्ज नहीं की थी। इस आंदोलन के संस्थापकों ग्रान्विले क्लार्क, थॉमस क्लार्कसन, योशिय्याह वेजवूड आदि ज्यादातर जाने-पहचाने नहीं थे और उनके लक्ष्य काफी हास्यास्पद थे क्योंकि उस वक्त दुनिया में हर चार में से तीन लोग ग़ुलाम थे। एक दूसरे को गुलाम बनाना यही तो लोगों ने वर्षों से किया था। उन्मूलनवादी आंदोलन का स्वागत अविश्वास के साथ किया गया। रूढ़िवादी प्रवक्ताओं ने उन्हें प्रगतिशील, भला करने वाला, हस्तक्षेप करने वाला और आंदोलनकारी तक कहकर उपहास उडाया। उन्होंने कहा कि ये लोग अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर देंगे और इंग्लैंड को गरीबी के दलदल में ढकेल देंगे।

लेकिन इतिहास में पहली बार लोगों का ऐसा समूह संगठित हुआ जो उन लोगों की मदद करना चाह रहे थे जिन्हें वे नहीं जानते थे और उनसे उन्हें किसी भी तरह का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष लाभ भी प्राप्त नहीं होने वाला था। आज करोडों लोग ऐसा हर दिन कर रहे हैं। यह स्वयंसेवी संस्थाओं, नागरिक समाज, स्कूलों, सामाजिक उद्यमिता और गैर सरकारी संगठनों की दुनिया है जो सामाजिक और पर्यावरणीय न्याय को अपनी रणनीतियों के शीर्ष पर रखते हैं। इस प्रयास की संभावनाएं और पैमाने इतिहास में अद्वितीय है।

जीवित दुनिया कहीं और नहीं बल्कि हमारे भीतर है। हम जीवन के बारे में क्या जानते हैं? जीवविज्ञानी जेनिन बेन्यूस के शब्दों में “जीवन उन परिस्थितियों की रचना करता है जो जीवन के लिए अनुकूल हैं।”मैं भविष्य की अर्थव्यवस्था के लिए कोई बेहतर आदर्श वाक्य नहीं सोच पाता हूं। हमारे पास लाखों ऐसे मकान हैं जहां कोई नहीं रहता और लाखों ऐसे लोग हैं जो घरों के बगैर रहते हैं। हमारे असफल बैंकर, असफल नीति नियंताओं को सलाह देते हैं कि असफल संपत्तियों को कैसे बचाएं। इसके बारे में सोचो: “हम इस ग्रह पर एकमात्र ऐसी प्रजाति हैं जो संपूर्ण रोजगार के बिना हैं। बहुत खूब। हमारे पास ऐसी अर्थव्यवस्था है जो बताती है कि मौजूदा समय में धरती को बरबाद कर देना कहीं अधिक सस्ता है बनिस्बत इसकी सुरक्षा,स्थायित्व और पुनर्निर्माण के।”आप एक बैंक को बचाने के लिए पैसे प्रिंट कर सकते हैं लेकिन ग्रह को बचाने के लिए जीवन को प्रिंट नहीं कर सकते। इस वक्त हम एक ओर तो भविष्य की चोरी कर उसे वर्तमान में बेच रहे हैं और दूसरी ओर इसे सकल घरेलू उत्पाद कहते हैं।

हमें तो बस एक ऐसी अर्थव्यवस्था चाहिए जो भविष्य के उपचार पर आधारित हो न कि उसकी चोरी पर। या तो हम भविष्य के लिए परिसंपत्तियां बना सकते हैं या भविष्य की परिसंपत्तियां ले सकते हैं। एक को बहाली कहा जाता है और दूसरे को शोषण।

जब हम घरती का शोषण करते हैं तो हम लोगों का भी शोषण करते हैं और अनकही पीड़ा का कारण बनते हैं। धरती के लिए काम करना अमीरी पाने का तरीका नहीं है बल्कि अमीर होने का एक तरीका है।

प्रथम जीवित कोशिका 4 करोड सदियों पहले अस्तित्व में आई थी और इसके वंशज हमारे खून में हैं। इस वक्त जिन अणुओं से तुम सांस ले रहे हो वही मूसा, मदर टेरेसा, और बोनो ने लिए थे। हम लोग बेहद करीब से जुड़े हैं। हमारा भविष्य अलग नहीं किया जा सकता। हम यहां सिर्फ इस लिए हैं क्योंकि यहाँ हर कोशिका का सपना दो कोशिकाओं में तब्दील होना है। तुममें से हर एक में दसियों खरब कोशिकाएं हैं,जिनमें से 90 प्रतिशत मानव कोशिकाएं नहीं हैं। तुम्हारा शरीर एक समुदाय है और इन लघुतर जीवों के बिना तुम्हारा शरीर कुछ पलों में खत्म हो सकता है। प्रत्येक मानव कोशिकाओं में 400 अरब अणु हैं जो दसियों खरब परमाणुओं के साथ लाखों प्रतिक्रियाएं करते हैं। एक मानव शरीर में कुल कोशिकीय गतिविधियां अस्थिर कर देने वाली है: एक पल में एक सेप्टेलियन गतिविधियां यानी एक के पीछे चौबीस शून्य। एक मिली सेकेंड में हमारा शरीर दस गुणी गतिविधियां करता है बनिस्पत ब्रह्मांड में सितारों की संख्या के - ठीक यही तो चार्ल्स डार्विनने कहा था कि विज्ञान इस बात की खोज करेगा कि प्रत्येक जीवित प्राणी में एक छोटा ब्रह्मांड है, जो स्व प्रचारित अवयवों से मिलकर बना है जो अकल्पनीय रूप से छोटा और स्वर्ग के सितारों की संख्या के बराबर है।

तो मैं तुम्हारे सामने दो सवाल रख रहा हूं: पहला कि क्या तुम अपने शरीर को महसूस कर सकते हो? एक पल के लिए ठहरो और अपने शरीर को महसूस करो। यहां एक सेप्टीलियन गतिविधियां चल रही हैं और तुम्हारा शरीर इसे इतनी अच्छी तरह से कर रहा है कि तुम्हे इसका भान तक नहीं हो रहा है और तुम इसे नजरअंदाज करके हैरान होकर सोच रहे हो कि यह भाषण कब खत्म होगा।

दूसरा सवाल: तुम्हारे शरीर का प्रभारी कौन है? जाहिर है कोई राजनीतिक दल तो है नहीं। जीवन आपके भीतर खुद से वें जरूरी परिस्थितियां ठीक उसी तरह से पैदा कर रहा है जैसे प्रकृति करती है। कुल मिलाकर मैं चाहता हूं कि आप इस बात को सोचें कि पूर्व की अवमाननाओं और घावों पर मरहम रखने के लिए सामूहिक मानवता किस तरह से समीप आने के लिए एक साथ बौद्धिकता का इस्तेमाल कर रही है।

राल्फ वाल्डोने एक बार पूछा था- अगर सितारे एक हजार साल में एक बार निकलते तो हम क्या करते? बेशक! उस रात कोई नहीं सोता! शायद पूरी रात पूजा-अर्चना में बिताते कि यह भगवान का अनोखा करिश्मा है!अब जबकि तारे हर रात निकलते हैं तो हम उंहें देखने के बजाय टीवी में मशगूल रहते हैं!

अब ऐसा अनोखा समय आ गया है कि हम विश्व स्तर पर एक दूसरे को जानते हैं और मानव सभ्यता के लिए ऐसे कईं खतरों के बारे में जानते हैं जो हजार, दस हजार सालों में भी कभी नहीं हुए। हम सभी उन सितारों की तरह ही खूबसूरत हैं। हमने बड़े-बड़े काम किए हैं और बेशक हमने सृष्टि का सम्मान भी किया है। तुम सब एक अनोखी चुनोती को पास करने जा रहे हो जिसे तुमसे पहले किसी पीढ़ी ने पास नहीं किया। वें सभी रास्ता भटक गए और इस सच्चाई को नहीं जान सके कि जीवन हर क्षण एक चमत्कार है। प्रकृति हर कदम पर तुम्हें रास्ता दिखाती है उससे ज्यादा अच्छा बोस तुम्हे मिल नहीं सकता। इस दुनिया में सबसे ज्यादा अयथार्थवादी आदमी सनकी है, स्वप्नदृष्टा नहीं। यह तुम्हारी सदी है! इसे संभालों और ऐसे चलाओ जैसे कि तुम्हारा जीवन इस पर निर्भर है।

पॉल हॉकेन एक प्रसिद्ध उद्यमी, दूरदर्शी पर्यावरण कार्यकर्ता और कई पुस्तकों के लेखक हैं।

अनूदित और संपादितः मीनाक्षी अरोड़ा

http://cforjustice.org/

 

 

 

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Submitted by ashok kumar pandey (not verified) on Tue, 12/01/2009 - 12:18

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ek behad aham mudaa...pataa nahi poonjii kii havas is duniyaa ko vinaash ke kis gart me le jaayegii.

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विकलांग हो गया विनोबा भावे का बसाया गांव

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विकलांग हो गया विनोबा भावे का बसाया गांवRuralWaterFri, 04/20/2018 - 17:24


दशरथ कुमारदशरथ कुमारगया जिले के आमस चौक से कुछ पहले स्थित एक स्कूल के करीब से बायीं तरफ एक सड़क जाती है। कुछ दूर चलने पर यह सड़क बायीं तरफ मुड़ जाती है। वहीं से दायीं तरफ एक पगडंडी शुरू हो जाती है। आड़ी-तिरछी, उतार-चढ़ाव और गड्ढोंवाली यह पगडंडी पहाड़ों के बीच से होकर एक गांव तक पहुंचती है। इस गांव का नाम भूपनगर है।

पहाड़ की तलहटी में बसे इस गांव में 50 परिवार रहते हैं और सभी अनुसूचित जाति से हैं। इस गांव में बिजली अभी तक नहीं पहुंची है। किसी के पास एलपीजी का कनेक्शन नहीं है। जंगल से लकड़ी चुनकर लोग लाते हैं और उसी से खाना पकता है। खेतों की सिंचाई के लिए पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। चार पहिया वाहन इस गांव तक नहीं जाता। मिडिल स्कूल और प्राइमरी हेल्थ सेंटर गांव से करीब 4 किलोमीटर दूर है।

सन 1998 में यह गांव तब सुर्खियों में आया था, जब अज्ञात बीमारी से करीब आधा दर्जन लोगों की मौत हो गयी थी। शायद वह पहला मौका था जब प्रशासन बीह में बसे गांव तक पहुंचा था और लोगों की सुध ली थी। घटना के बाद डॉक्टरों की एक टीम भी वहां गयी थी। टीम ने वहां के लोगों की जांच की, तो पाया कि करीब-करीब सभी लोग फ्लोरोसिस नामक बीमारी की चपेट में आ चुके हैं। वहां के भूगर्भ जल की जांच की गयी, तो देखा गया कि भूगर्भ जल में सामान्य से काफी ज्यादा फ्लोराइड है।

फ्लोराइड शरीर की अस्थियों पर बुरा असर डालता है। यह हड्डी को कमजोर कर देता है जिससे ये टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती हैं और इनमें हमेशा दर्द होता रहता है। सरकार को जब पानी में प्लोराइड की जानकारी मिली, तो यहां एक प्लांट स्थापित किया गया ताकि लोगों को साफ पानी मिल सके। उसके बाद से प्रशासनिक अधिकारी कभी वहां नहीं गये।

भूपनगर गाँवअलबत्ता राजनेता चुनाव से पहले जरूर एक बार वहां पहुंचते हैं। पहुंचे भी क्यों नहीं, वहां करीब 200-250 वोटर भी तो हैं! वाटर ट्रीटमेंट प्लांट के करीब आम के ठिगने पेड़ के नीचे सुस्ता रहे गांव के बुजुर्ग बुलाकी मांझी कहते हैं, ‘चुनाव से पहले नेता यहां आते हैं वोट मांगने। चुनाव खत्म हो जाने के बाद मुंह घुमाकर हमारी तरफ देखते भी नहीं।’

बुलाकी मांझी फ्लोरोसिस से ग्रस्त हैं। उनकी कमर में हमेशा बेतहाशा दर्द रहता है। बिना लाठी के वह एक कदम भी चल नहीं पाते हैं। बुलाकी मांझी की तरह 50 वर्षीय राम प्रवेश मांझी को भी चलने के लिए लाठी का सहारा लेना पड़ता है। फ्लोरासिस के कहर का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस गांव में शायद ही कोई घर होगा जिसमें लाठियों ने अपनी पहुँच न बनायी हो।

ये लाठियां फ्लोरोसिस से ग्रस्त लोगों का एकमात्र सहारा हैं। कमर की दर्द से परेशान राम प्रवेश मांझी कहते हैं, ‘पिछले 15-20 सालों से यह बीमारी है। डॉक्टर के पास जाते हैं, तो दर्द की दवाई देता है। दवा का असर जब तक रहता है, तब तक दर्द से आराम रहता है। दवा का असर खत्म होते ही दोबारा दर्द शुरू हो जाता है। दर्द इतना ज्यादा होता है कि झुक कर 10 किलो का सामान भी नहीं उठा पाता। कोई काम नहीं कर पाता हूं। पूरी तरह लाचार हो चुका हूं।’

गांव के आसपास न तो अच्छा अस्पताल है और न ही विशेषज्ञ डॉक्टर। इस वजह से हड्डियों में दर्द होने पर डॉक्टर यह नहीं बता पाते हैं कि फ्लोरोसिस के कारण ऐसा होता है। रामप्रवेश मांझी कहते हैं, ‘कई बार डॉक्टर के पास गया। हर बार दर्द की गोलियां ही दी गयीं। डॉक्टर ने कभी नहीं बताया कि मुझे फ्लोरोसिस है।’

रामप्रवेश मांझीराम प्रवेश मांझी से बातचीत हो ही रही थी कि एक और शख्स लड़खड़ाता हुआ पास आ गया। वह भी लाठी के सहारे ही किसी तरह चल पा रहे थे। उन्होंने अपना नाम, राम प्रवेश भोक्ता बताया। उनकी उम्र महज 40 साल है, लेकिन देखने से बूढे लगते हैं। हड्डियों में इतना दर्द होता है कि चलते वक्त कांपने लगते हैं। जन्म हुआ था, तभी से फ्लोरोसिस है।

बीमारी के कारण उनके सिर पर सेहरा भी नहीं बंध पाया। राम प्रवेश बताते हैं, ‘कमर एकदम काम नहीं कर रहा है। शादी की तो बहुत इच्छा थी, लेकिन बीमारी के कारण मैं अपनी देखभाल नहीं कर पाता हूं, पत्नी की देखभाल कैसे करता, इसलिए पिताजी ने मेरी शादी ही नहीं करायी।’राम प्रवेश जब ये सब बोलते हैं, तो उनके चेहरे पर उदासी व दर्द की झलक मुखर हो आती है।

घर-परिवार न बसा पाने का अफसोस भी उनके चेहरे पर देखा जा सकता है। रामप्रवेश अकेले नहीं हैं, जिनकी शादी बीमारी के कारण नहीं हुई। 40 वर्षीय गनौरी का भी विवाह इसलिए नहीं हो पाया कि उसे फ्लोरोसिस बीमारी थी। कुछ महीने पहले ही उनकी मौत हो गयी। इक्का-दुक्का छोड़ दें, तो इस गांव के सभी घर मिट्टी के हैं। इन्हीं में एक घर के मिट्टी के चबूतरे पर सुधीर कुमार से हमारी मुलाकात होती है। सुधीर की उम्र महज 20 साल है। उसकी दोनों टांगों की हड्डियां डेढ़ी हो चुकी हैं। उसे चलने के लिए दीवारों का सहारा लेना पड़ता है। सुधीर के पिता राजदेव सिंह भोक्ता बताते हैं, जब जन्म हुआ था, तभी से उसे यह बीमारी है। डॉक्टरों के पास ले गये, लेकिन डॉक्टर उसे ठीक नहीं कर पाये। डॉक्टर यह भी नहीं बता पाये कि उसे यह बीमारी हुई कैसे। सुधीर की तरह ही 15 साल के दशरथ कुमार को भी जन्म से ही फ्लोरोसिस है। वह भी बचपन में ही इस बीमारी का शिकार हो गया था। दशरथ के पिता को भी फ्लोरोसिस ने अपनी चपेट में ले लिया है।

सुधीर कुमारगांव के सहदेव मांझी को भी फ्लोरोसिस बीमारी है। उन्होंने बताया कि बचपन से ही उन्हें रोग है। कई बार डॉक्टर से दिखाया लेकिन कोई राहत नहीं है। यहां यह भी बता दें कि गांव में रहनेवाले लोगों की रोजी-रोटी का मुख्य जरिया खेती-बाड़ी ही है। इस गांव का अस्तित्व विनोबा भावे से जुड़ा हुआ है।

कहते हैं कि यहां रहनेवाले लोगों की पुरखें पहले जमींदारों के यहां बंधुआ मजदूर थे। उनके पास न अपनी जमीन थी और न अपना घर। यह कोई 60 के दशक की बात है। उन्हीं दिनों विनोबा भावे का भूदान आंदोलन परवान पर था। बंधुआ मजदूरों में से ही एक व्यक्ति का विनोबा भावे से मेल-जोल था। उन्होंने विनोबा भावे को अपनी और अन्य मजदूरों की दयनीय हालत के बारे में बताया, तो वे द्रवित हो उठे।

उस समय के एक जमींदार वन बिहारी प्रसाद भूप ने आमस ब्लॉक में पहाड़ की तलहटी में पड़ी अपनी 251 एकड़ जमीन विनोबा भावे को दान कर दी थी। इसी जमीन पर बंधुआ मजदूर बने अनुसूचित जातियों के 25 परिवारों को बसाया गया। चूंकि उन्हें जिस जमीन पर बसाया गया था, वह जमीन वन बिहारी प्रसाद भूप की थी इसलिए उस जगह को भूपनगर कहा जाने लगा। जंगल से भरे उक्त जगह पर तमाम दुश्वारियां थीं, लेकिन लोगों ने वहां रहना स्वीकार कर लिया, क्योंकि उन्हें बंधुआ मजदूरी से आजादी मिल रही थी। उन्हें उम्मीद थी कि राज्य सरकार की तरफ से उन्हें बुनियादी सुविधाएं मुहैया करायी जायेंगी, लेकिन वे अब निराश हो गये हैं।

भूपनगर गाँवबुलाकी मांझी कहते हैं, ‘हमें जब यहां लाया गया था, तो लगा कि अब हम खुशहाल जिंदगी जी सकेंगे, लेकिन यहां भी हमारी हालत पहले जैसी ही है। या यूं कह लीजिये कि वहां से बदतर है। वहां कम से कम फ्लोरोसिस बीमारी नहीं थी। यहां यह बीमारी हमारे सर आ गयी है।’यहां रह रहे लोगों को जो जमीन मिली है, उसमें बहुत कम उपज होती है, क्योंकि जमीन उर्वर नहीं है। दूसरी बात यह है कि यहां सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं है. इस वजह से यहां की खेती पूरी तरह बारिश पर निर्भर है। बुलाकी मांझी कहते हैं, ‘खेती-बाड़ी से 7-8 महीने के लिए खाने का जुगाड़ हो जाता है। बाकी 3-4 महीने खाने के लाले रहते हैं। रोजी-रोटी के लिए लोगों को मजदूरी करनी पड़ती है।’ 300 लोगों की आबादीवाले इस गांव के 2-3 लड़के ही मैट्रिक तक की पढ़ाई कर पाते हैं, क्योंकि स्कूल काफी दूर है।

मैट्रिक से ऊपर की पढ़ाई करने के लिए उन्हें 20 से 25 किलोमीटर दूर शेरघाटी का रुख करना पड़ता है। गांव के लोगों को साफ पानी मुहैया कराने व आनेवाली पीढ़ी को फ्लोरोसिस न हो, इसके लिए गांव के एक किनारे पर एक वाटर ट्रीटमेंट प्लांट यहां लगाया गया था, जो एक्टिवेटेड एल्युमिनिया की मदद से 3 घंटे में 10 हजार लीटर पानी से फ्लोराइड निकाल सकता है।

इस गांव के लोगों को सालभर साफ पानी मुहैया कराने के लिए 9 क्विंटल एक्टिवेटेड एल्युमिनिया की जरूरत पड़ती है। एक किलोग्राम एल्युमिनिया की कीमत करीब 105 रुपये आती है। यानी एक साल तक साफ पानी मुहैया कराने के लिए सरकार को महज 94500 रुपये खर्च करना पड़ता है। लेकिन, एक्टिवेटेड एल्युमिनिया के अभाव में करीब दो साल से यह प्लांट निष्क्रिय पड़ा हुआ है और यहां रहनेवाले लोग फ्लोराइडयुक्त पानी पीने को विवश हैं।

गांव में स्थित प्राइमरी स्कूल में पढ़नेवाले 60 बच्चों के लिए दोपहर का खाना भी फिलहाल फ्लोराइडयुक्त पानी से ही बन रहा है।स्थानीय लोगों ने बताया कि प्रशासनिक अफसरों से लगातार नालिश की जा रही है, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हो रही है।

फ्लोरोसिस पीड़ित एक बुजुर्गभूपनगर गांव के मुखिया अरविंद मिसिर कहते हैं, ‘एसडीओ से कई बार अपील की गयी कि प्लांट को एक्टिवेटेड एल्युमिनिया उपलब्ध कराया जाए, लेकिन उनका कहना है कि जिस कंपनी को सप्लाई का कॉन्ट्रैक्ट मिला हुआ है, वही कंपनी उपलब्ध कराएगी।’वहीं, इस संबंध में कंपनी से जुड़े पदाधिकारियों का कहना है कि उन्हें जो कॉन्ट्रैक्ट मिला था, उसकी मियादी खत्म हो चुकी है, इसलिए वे आगे सामान उपलब्ध नहीं करा सकते।

कंपनी के इंजीनियर हितेश कुमार सिन्हा कहते हैं, ‘हमें उक्त प्लांट की देखरेख व एल्युमिनिया मुहैया कराने का कॉन्ट्रैक्ट वर्ष 2011 में पांच साल के लिए मिला था। कॉन्ट्रैक्ट 2016 में खत्म हो गया। दोबारा कॉन्ट्रैक्ट का नवीनीकरण नहीं हुआ, जिस कारण हमने एल्युमिनिया की सप्लाई बंद कर दी।’जनप्रतिनिधि, सरकारी अफसरान व अन्य साझेदारों के बयान से साफ पता चलता है कि इस गांव की समस्या को लेकर वे गंभीर नहीं हैं। वरना ऐसी क्या दिक्कत आ रही होगी कि दो सालों में एक कॉन्ट्रैक्ट ही नहीं हो पाये?

विशेषज्ञों के अनुसार पानी में फ्लोराइड की सुरक्षित मात्रा प्रति लीटर 1 मिलीग्राम है। पानी में अधिकतम 1.5 मिलीग्राम (प्रतिलीटर) फ्लोराइड स्वीकार्य मात्रा है। भूपनगर के बच्चों के दांतों को देखकर लगता है कि यहां के पानी में फ्लोराइड की मात्रा सामान्य से कई गुना अधिक है। इस गांव को लेकर प्रशासनिक उदासीनता का सबसे बड़ा सबूत गया के विभिन्न गांवों में पानी की जांच है।

बिहार सरकार के जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग की ओर से गया के गांवों के भूजल की जाँच की गई, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसमें भूपनगर को जांच में शामिल नहीं किया गया। इसके पीछे क्या वजह थी, यह पता नहीं चल पाया।

प्लांट में लगे फिल्टरहां, इस गांव की भौगोलिक स्थिति देखकर सहज ही समझ में आ जाता है कि क्यों अब तक यह गांव हाशिये पर है। गांव मुख्य सड़क से करीब चार किलोमीटर भीतर है। चार पहिया वाहन से गांव तक पहुंचना नामुमकिन है। हां, साइकिल और मोटरसाइकिल से वहां तक पहुंचा जा सकता है। बहरहाल, जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग की ओर से वर्ष 2016 में की गयी जांच में गया जिले के लगभग 18 ब्लॉक के गांवों के पानी में फ्लोराइड की मात्रा सामान्य से बहुत अधिक पायी गयी है। जांच में आमस ब्लॉक के करमैन गांव के बेलदारबीघा, करमैन और मुरगीबीघा टोले में 3 मिलीग्राम से अधिक फ्लोराइड पाया गया है। मुरगीबीघा टोले में 3.70 मिलीग्राम फ्लोराइड मिला है।

आमस ब्लॉक के ही अकौना गांव के कम-से-कम तीन टोले ऐसे मिले जहां पानी में फ्लोराइड की मात्रा सामान्य से अधिक है। अकौना गांव के बंकट पछियारी टोला, बंकट पुसारी तथा जीटी रोड की दक्षिण ओर के टोले के जलस्रोतों में फ्लोराइड की मात्रा क्रमशः 2.30 मिलीग्राम, 2.64 मिलीग्राम और 2.16 मिलीग्राम मिली है। इसी ब्लॉक के बैदा गाँव के दो टोले, बैदा और हरिजन टोले में पानी में फ्लोराइड की मात्रा लगभग 2.5 मिलीग्राम पायी गयी है

आमस ब्लॉक के बिसुनपुर गांव के माढपर टोले में पानी में फ्लोराइड की मात्रा 2.30 मिलीग्राम मिली है जबकि बलियारी टोले में भूजल में 2.60 मिलीग्राम फ्लोराइड पायी गयी है। इसी ब्लॉक के राजपुर, सिहुली, तेतरिया, रामपुर, चकरा, बैताल गाँवों में फ्लोराइड की मात्रा सामान्य से दोगुनी है। बिहार के कुल 11 जिले फ्लोराइड से ग्रस्त हैं जबकि आर्सेनिक की चपेट में 13 जिले हैं। वहीं, 9 जिलों में आयरन का कहर है।

रामप्रवेशष भोक्ताविशेषज्ञों के अनुसार दूध, सहजन, आंवला, अण्डे जैसे खाद्यानों से फ्लोरोसिस का असर कम किया जा सकता है। विशेषज्ञों ने कहा कि अगर लोगों को बताया जाये कि इस तरह के खाद्यान से फ्लोरोसिस का असर कम किया जा सकता है, तो निश्चित तौर पर इसका फायदा मिलेगा। गांव में रहनेवाले लोग इस बात से पूरी तरह अनजान हैं कि इन खाद्य पदार्थों से फ्लोराइड का असर कम हो सकता है।

भूपनगर के लोगों का कहना है कि वर्ष 1998 में जब इस गांव में मौत का कहर बरपा था, तभी डॉक्टरों की एक टीम आयी थी। उन्होंने जांच की और फिर चले गये। इसके बाद वे दोबारा कभी यहां नहीं आये। उस घटना के बाद सरकार ने यहां रहनेवाले लोगों की शारीरिक जांच कर पता लगाने की कोशिश नहीं की कि फ्लोरोसिस का असर कितना हुआ है। मांझी ने कहा,‘जब प्लांट लगा था, तो हमें उम्मीद थी कि आनेवाली पीढ़ी फ्लोरोसिस के चंगुल से मुक्त हो जायेगी, लेकिन सरकारी रवैया देखकर लगता है कि भूपनगर की किस्मत में फ्लोरोसिस से मुक्ति नहीं बदा है।’

 

 

 

 

 

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Submitted by how to get hel… (not verified) on Mon, 07/09/2018 - 10:26

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पर्यावरण की रक्षा, अपने होने की रक्षा है

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पर्यावरण की रक्षा, अपने होने की रक्षा हैRuralWaterFri, 04/20/2018 - 18:23
Source
सर्वोदय प्रेस सर्विस, अप्रैल 2018


22 अप्रैल, 2018, पृथ्वी दिवस पर विशेष
पृथ्वी का अस्तित्व खतरे मेंपृथ्वी का अस्तित्व खतरे मेंपृथ्वी दिवस विश्व भर में 22 अप्रैल को पर्यावरण चेतना जागृत करने के लिये मनाया जाता है। पृथ्वी दिवस को पहली बार सन 1970 में मनाया गया था। आजकल विश्व में हर क्षेत्र में बढ़ता प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के रूप में आपदाएँ पृथ्वी पर ऐसे ही बढ़ती रहीं तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी से जीव-जन्तु व वनस्पति का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।

लोगों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाने के उद्देश्य से पहली बार 22 अप्रैल 1970 को पृथ्वी दिवस मनाया गया। प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिये पर्यावरण संरक्षण पर जोर देने की अवश्यकता है। यह धरती हमें क्या नहीं देती? वर्तमान समय में पृथ्वी के समक्ष चुनौती बढ़ती जनसंख्या की है। धरती की कुल आबादी आज आठ अरब के निकट पहुँच चुकी है। बढ़ती आबादी पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधनों पर अधिक दबाव डालती है, जिससे वसुंधरा की नैसर्गिक क्षमता प्रभावित होती है।

बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पृथ्वी के शोषण की सीमा आज चरम पर पहुँच रही है। जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम-से-कम करना दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है। आज हमारी धरती अपना प्राकृतिक रूप खोती जा रही है। विश्व में बढ़ती जनसंख्या, औद्योगीकरण एवं शहरीकरण में तेजी से वृद्धि के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी विकराल होती जा रही है।

पृथ्वी को बचाने के लिये हमें मुख्य तौर पर 3 बिन्दुओं पर ध्यान देने की जरूरत है-

1. जलवायु परिवर्तन को बारीकी से समझना होगा और यह समझ केवल वैज्ञानिकों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, आम जन मानस तक इस ज्ञान को पहुँचाने की जरूरत है।
2. खाद्य सुरक्षा हमें अन्न पृथ्वी से ही मिलता है। जिस हिसाब से जनसंख्या बढ़ रही है, उससे आने वाले दिनों में पृथ्वी पर दबाव निःसन्देह काफी ज्यादा बढ़ने वाला है। बढ़ती जनसंख्या को हम तभी खाद्यान्न दे सकते है, जब पृथ्वी बची रहेगी। हमें इस पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
3. हमें पानी पृथ्वी से मिलता है पानी के प्रदषण को कम करने के साथ ही पानी की मात्रा और गुणवत्ता पर भी नजर रखने की जिम्मेदारी लेनी होगी। यह बेहद जरूरी हो गया है।

मानव अपनी आदिम अवस्था से ही अपने पर्यावरण का संरक्षण करता रहा है। इन दिनों मानव और प्रकृति का सम्बन्ध सकारात्मक न होकर विध्वंसात्मक ज्यादा होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में पर्यावरण का प्रदूषण सिर्फ समुदाय या राष्ट्र विशेष की समस्या न होकर एक सार्वभौमिक चिन्ता का विषय बन गया है।

पारिस्थितिकीय असन्तुलन हर प्राणी को प्रभावित करता है अतः यह जरूरी हो जाता है कि विश्व के सभी नागरिक पर्यावरण समस्याओं के सृजन में अपनी हिस्सेदारी को पहचाने और इन समस्याओं के समाधान के लिये अपना-अपना योगदान दे। आज विश्व पर्यावरण में असन्तुलन गम्भीर चिन्ता का विषय बन गया है जिस पर अब विचार नहीं ठोस पहल की आवश्यकता है अन्यथा जलवायु परिवर्तन, गरमाती धरती और पिघलते ग्लेश्यिर मानव जीवन के अस्तित्व को खतरे में डाल देंगे।

पर्यावरण शिक्षा का पाठ सीखकर पर्यावरण मित्र ‘नागरिक की भूमिका निभाने से ही प्राकृतिक प्रकोपों से बचा जा सकेगा। वर्तमान में स्थिति यह है कि पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली हानिकारक गैसों का उत्सर्जन किया जा रहा है। मानवीय जरूरतों के लिये विश्व भर में बड़े पैमाने पर वनों का सफाया किया जा रहा है।

विकासशील देशों द्वारा विकास के नाम पर सड़कों, पुलों और शहरों को बसाने के लिये अन्धाधुन्ध वृक्षों की कटाई की जा रही है। नदियों पर बाँध बनाकर नदियों के प्रवाह को अवरुद्ध करने के साथ ही अनियोजित खनन को बढ़ावा दिया जा रहा है। वर्तमान विश्व की पर्यावरण की अधिकतर समस्याओं का सीधा सम्बन्ध मानव के आर्थिक विकास से है।

शहरीकरण औद्योगीकरण और प्राकृतिक संसाधनों के विवेकहीन दोहन के परिणामस्वरूप पर्यावरण पर बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण अवनयन की बढ़ती दर के कारण पारिस्थितिकी तंत्र लड़खड़ाने लगा है। आज विश्व के सामने ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएँ चुनौती के रूप में खड़ी हैं।

औद्योगिक गैसों के लगातार बढ़ते उत्सर्जन और वन आवरण में तेजी से हो रही कमी के कारण ओजोन गैस की परत का क्षरण हो रहा है। इस अस्वाभाविक बदलाव का प्रभाव स्थानीय, प्रादेशिक और वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु परिवर्तनों के रूप में दिखलाई पड़ता है।

सार्वभौमिक तापमान में लगातार होती इस वृद्धि के कारण विश्व के हिमनद पिघलने लगे हैं। हिमनद के तेजी से पिघलने का प्रभाव महासागर में जलस्तर के बढ़ने में दिखाई देता है। यदि तापमान में ऐसी ही बढ़ोत्तरी होती रही तो महासागरों का बढ़ता हुआ क्षेत्रफल और जलस्तर एक दिन तटवर्ती स्थल भागों और द्वीपों का जलमग्न कर देगा।

पृथ्वी के निरन्तर बदलते स्वरूप ने निःसन्देह सोचने पर मजबूर किया है कि महज परम्पराओं के रूप में पृथ्वी दिवस मनाने से मानव आबादी अपने कर्तव्यों से छुटकारा नहीं पा सकती। सही मायनों में पर्यावरणीय कसौटियों पर खरे उतरने वाले कामों को करके ही पृथ्वी दिवस की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी। वरना वह दिन दूर नहीं जब हम पृथ्वी पर अन्तरराष्ट्रीय दिवस मनाने लायक भी पृथ्वी के स्वरूप को नहीं रहने दे पाएँगे। हर व्यक्ति अपने पर्यावरण की एक सक्रिय इकाई है इसलिये यह आवश्यक है कि बेहतर जीवन जीने के लिये अपने पर्यावरण के उन्नयन और अवनयन में वे अपनी जिम्मेदारी को समझे। आज हम दूर-दराज गाँव से महानगर तक प्लास्टिक कचरे की सर्वव्यापकता से त्रस्त है जगह-जगह पॉलिथीन की थैलियों और प्लास्टिक बोतल वातावरण को प्रदूषित कर रही है इस दृश्य के रचियता हम लोग ही हैं। पर्यावरण की भयावह होती तस्वीर और पारिस्थितिकी असन्तुलन की समस्या का सामना करने के लिये प्रत्येक व्यक्ति को अपने पर्यावरण के प्रति एक सजग नागरिक का दायित्व निभाना होगा।

हमें यह नही भूलना चाहिए कि राजस्थान के खेजड़ली ग्राम की अमृता देवी एक सामान्य ग्रामीण महिला थी किन्तु उनकी पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता ने राजस्थान के कई समुदायों में वृक्ष और वन्यजीव प्रेम की नई चेतना जगाई थी।

आज आवश्यक हो गया है कि व्यक्ति ही नहीं समुदायों, राष्ट्रों और सम्पूर्ण विश्व, पर्यावरण के प्रति अपनी नीतियों और उनके क्रियान्वयन में एक सह संवेदनशीलता लाएँ। विश्व के विभिन्न भागों में पर्यावरण के प्रति सजगता धीरे-धीरे बढ़ती हुई दिखाई देने लगी है और लोग पर्यावरण अवनयन के परिणामस्वरूप होने वाली समस्याओं को समझने लगे हैं।

यह भी जनभावना पर निर्भर है कि सरकारें इसी पर्यावरण के स्वास्थ्य की कीमत पर भौतिक आर्थिक विकास को जारी रखे या अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करें। आधुनिक समाज में एक स्वस्थ सन्तुलित जीवन को एक नागरिक अधिकार के रूप में देखा जाने लगा है। औद्योगिक राष्ट्र भी यह स्वीकार करने लगे हैं कि पारिस्थितिकी दृष्टि से गैर जिम्मेदार होना आर्थिक रूप से भी फायदे का सौदा नहीं है।

आज जरूरत इस बात की है कि सरकारें पर्यावरण के विभिन्न घटकों के महत्त्व को समझकर पर्यावरण कानूनों को सख्ती से लागू कराने में अपनी महती भूमिका अदा करे। अन्यथा इस एक पृथ्वी को गरीब और अमीर की पृथ्वी में बँटने से कोई नहीं रोक सकेगा।

पृथ्वी के निरन्तर बदलते स्वरूप ने निःसन्देह सोचने पर मजबूर किया है कि महज परम्पराओं के रूप में पृथ्वी दिवस मनाने से मानव आबादी अपने कर्तव्यों से छुटकारा नहीं पा सकती। सही मायनों में पर्यावरणीय कसौटियों पर खरे उतरने वाले कामों को करके ही पृथ्वी दिवस की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी। वरना वह दिन दूर नहीं जब हम पृथ्वी पर अन्तरराष्ट्रीय दिवस मनाने लायक भी पृथ्वी के स्वरूप को नहीं रहने दे पाएँगे।

पृथ्वी दिवस के अवसर पर पर्यावरण चेतना के लिये एक कवि द्वारा कविता में व्यक्त विचार हमारे लिये प्रेरणादायी होंगे, जिसमें कहा गया है-

आकाश में बाँह फैलाये
धरती पर पैर जमाये,
आदमी का होना
सिर्फ उसका होना नहीं है।
भीतर बाहर के
हवा, पानी, आकाश, मिट्टी
और ताप से वो बनता है
और वे भी।
जब नहीं रहेंगे
बाहर हवा, पानी, आकाश
तब आदमी कहां होगा?
पर्यावरण की रक्षा,
अपने होने की रक्षा है।


डॉ. खुशालसिंह पुरोहित लेखक एवं पत्रकार हैं। रतलाम से प्रकाशित मासिक पत्रिका पर्यावरण डाइजेस्ट के सम्पादक हैं।

 

 

 

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युद्ध और शांति के बीच जल - भाग चार

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युद्ध और शांति के बीच जल - भाग चारRuralWaterSat, 04/21/2018 - 19:03


(प्रख्यात पानी कार्यकर्ता श्री राजेन्द्र सिंह के वैश्विक जल अनुभवों पर आधारित एक शृंखला)
इजराइली जल प्रबन्धन - दादागिरी भी, समझदारी भी

इजराइल का जल प्रबन्धनइजराइल का जल प्रबन्धनइजराइल का फिलिस्तीन की पानी पर दादागिरी का वर्णन आप सुना चुके। इससे पहले कि आप इजराइल के पानी प्रबन्धन के बारे में बताएँ, बेहतर होगा कि वहाँ से जुड़े पानी का कोई और विवाद हो तो पाठकों के साथ शेयर करें?

हाँ, हैं न। इजराइल और जाॅर्डन के बीच पानी का विवाद बहुत पुराना है। यह विवाद, जाॅर्डन नदी के रेपेरियन राइट से जुड़ा है।अब आप देखिए कि लेबनान, सीरिया, जाॅर्डन, इजराइल और कुछ हिस्सा फिलिस्तीन का.. कायदे से जाॅर्डन नदी के पानी के उपयोग में इन सभी की हकदारी है। ताजे जल निकासी तंत्र की बात करें तो खासकर इजराइल, जाॅर्डन और फिलिस्तीन के लिये जाॅर्डन नदी का विशेष महत्त्व है। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि जाॅर्डन के पानी पर सबसे बड़ा कब्जा, इजराइल का है। इजराइल ने फिलिस्तीन के राष्ट्रीय प्राधिकरण को पानी देने से साफ-साफ मना कर रखा है। अब ऐसे में विवाद होगा कि नहीं?

दरअसल, लोग भूल जाते हैं कि दुनिया के 195 देशों में से करीब-करीब 150 देश ऐसे हैं, जिनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ पानी का कोई संकट नहीं है। आप जड़ में जाएँगे तो पाएँगे कि पानी के संकट के कारण आई अस्थिरता ही आगे चलकर अन्य, सामाजिक, आर्थिक और सामरिक समस्याओं के रूप में उभरी हैं। आप नजर घुमाकर अपने ही देश में देख लीजिए। बांग्लादेश के हमारे पर्यावरण मित्र, फरक्का बाँध को लेकर अक्सर सवाल करते हैं। हम चीन द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी की हरकतों पर सवाल उठाते हैं। नेपाल से आने वाली नदियों में बाँधों से अचानक छोड़े पानी के कारण तबाही पर चर्चा होती ही है। पाकिस्तान और हमारे बीच विवाद का एक मुद्दा, पानी भी है। है कि नहीं?

देश के भीतर देखिए। सतलुज, कावेरी.. विवाद-ही-विवाद हैं। इन्हीं विवादों का जब राजनीतिक इस्तेमाल होता है, तो ये ही दो सत्ताओं के बीच की तनातनी की बुनियाद बन जाते हैं। आज चीन, रुस, अमेरिका जैसे देश रासायनिक हथियार को मुद्दा बनाकर सीरिया के पक्ष-विपक्ष भले ही खड़े दिखाई दे रहे हों; दुनिया को ऊपरी तौर पर भले ही लग रहा हो कि तीसरे विश्व युद्ध का कारण हथियारों की होड़ या वर्ग आधारित उन्माद है। किन्तु क्या आप इनकार कर सकते हैं कि आमने-सामने खड़े देशों में एक की नीयत, दूसरे देश के प्राकृतिक संसाधनों को हड़प लेने की नहीं है?

आप जाॅर्डन-इजराइल विवाद के बारे में बता रहे थे।
अरे हाँ, आप देखें कि इजराइल ने 156 मील लम्बी जाॅर्डन नदी पर क्या कर रखा है? उसने एक बाँध बना रखा है। यह बाँध, जाॅर्डन देश की ओर बहकर जाने वाले पानी को रोक देता है। इजराइल यह सब इसके बावजूद करता है, जबकि जाॅर्डन और उसके बीच पानी को लेकर 26 फरवरी, 2015 को हस्ताक्षरित एक औपचारिक द्विपक्षीय समझौता अभी अस्तित्व में है। इस समझौते के तहत पाइप लाइन के जरिए रेड सी को डेड सी से जोड़ने तथा एक्युबा गल्फ में खारे पानी को मीठा बनाने के एक संयंत्र को लेकर सहमति भी शामिल है। ताजा पानी मुहैया कराने तथा तेजी से सिकुड़ते डेड सी की दृष्टि से इस समझौते का महत्त्व है। आलोचना करने वालों का कहना है कि ऐसा कोई समझौता तब तक प्रभावी नहीं हो सकता, जब तक कि इजराइल द्वारा की जा रही पानी की चोरी रुक न जाये। इजराइल द्वारा की जा रही पानी की इस चोरी ने जाॅर्डन की खेती और उद्योग.. दोनों को नुकसान पहुँचाया है। जाॅर्डन के पास घरेलू उपयोग के लिये भी कोई अफरात पानी नहीं है। यहाँ भी वही हुआ? जाॅर्डन में भी लोगों ने पहले पानी के लिये संघर्ष किया और फिर अपना देश छोड़कर स्वीडन, फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड और बेल्जियम चले गए।

हालांकि, जाॅर्डन के लोग यह भी महसूस करते हैं कि समझौते के बावजूद, जल संकट बरकरार रहने वाला है। वे मानते हैं कि इसका पहला कारण, जाॅर्डन में भी गर्मी तथा मौसमी बदलाव की बढ़ती प्रवृत्ति है। इसकी वजह से जाॅर्डन में भूमि कटाव और गाद में बढ़ोत्तरी हुई है। दूसरा वे मानते हैं कि यदि वे प्रदूषित पानी को साफ कर सकें, तो उनके पास उपयोगी पानी की उपलब्धता बढ़ सकती है। किन्तु उनके पास इसकी तकनीकी का अभाव है।

वर्षाजल का उचित संचयन और प्रबन्धन वहाँ कारगर हो सकता है। किन्तु जाॅर्डन के इंजीनियर, छोटी परियोजनाओं में रुचि नहीं लेते। उनकी ज्यादा रुचि, नदी घाटी आधारित बड़ी बाँघ परियोजनाओं में रहती है। लोग आगे आएँ तो यह हो सकता है। किन्तु खुद के पानी प्रबन्धन के लिये उनमें प्रेरणा का अभाव है। जाॅर्डन में पानी पर सरकार का अधिकार है। लोगों के बीच पानी प्रबन्धन की स्वस्फूर्त प्रेरणा के अभाव के पीछे एक कारण यह भी दिखता है।

सरकार और समाज के बीच पुल बने, तो प्रेरणा को जमीन पर उतारने में सफलता मिल सकती है। लेकिन मुझे तो वहाँ ऐसे उत्साही पानी कार्यकर्ताओं का भी अभाव ही दिखाई दिया। जाॅर्डन चाहे, तो इजराइल के पानी प्रबन्धन से सीख ले सकता है। किन्तु दो देशों के बीच विश्वास का अभाव यहाँ भी आड़े आता है।

इजराइल की होशियारी देखिए कि जहाँ पराए पानी को हथियाने के मामले में वह दादागिरी से काम ले रहा है, वहीं अपने पानी के उपयोग के मामले में बेहद समझदारी से।

इजराइल, जल संरक्षण तकनीकों के बारे में अपने नागरिकों को लगातार शिक्षित करता रहता है। विविध भूगोल तथा विविध आर्थिक परिस्थितियों के कारण भारत जैसे देश के लिये यह भले ही अनुचित हो, लेकिन इजराइल ने पानी के केन्द्रित और वास्तविक मूल्य आधारित प्रबन्धन को अपनाया है। इजराइल सरकार ने वहाँ जल नियंत्रकों की नियुक्ति की है।

इजराइल ने खारे पानी को मीठा बनाने की तकनीक को बड़े पैमाने पर अपनाया है। हालांकि यह बेहद महंगी तकनीक है; फिर भी इजराइल ने इसे अपनाया है तो इसके पीछे एक कारण है। इजराइल जानता है कि उसके पास पानी का अपना एकमात्र बड़ा जलस्रोत, गलिली सागर (अन्य नाम: किनरेट लेक) है। उसके पास कोई अन्य स्थानीय विकल्प नहीं है। इजराइल की एक-तिहाई जलापूर्ति, गलिली सागर से ही होती है। खारे को मीठा बनाने की तकनीक के मामले में इजराइली संयंत्रों की खूबी यह है कि वे इतनी उम्दा ऊर्जा क्षमता व दक्षता के साथ संचालित किये जाते हैं कि खारे पानी को मीठा बनाने की इजराइली लागत, दुनिया के किसी भी दूसरे देश की तुलना में कम पड़ती है।

गौर करने की बात है कि इजराइल में घरेलू जरूरत के पानी की माँग में से 60 प्रतिशत की पूर्ति, इस प्रक्रिया से मिले मीठे पानी से ही हो जाती है। जाॅर्डन नदी पर रोके पानी को वह पूरी तरह पेयजल की माँग पूरी करने के लिये सुरक्षित कर लेता है। फिलिस्तीन के पश्चिमी घाट के जलस्रोतों का इस्तेमाल वह कर ही रहा है।

इजराइली जल प्रबन्धन की खूबी देखिए।
इजराइल ने अपने देश में एक बार उपयोग किये जा चुके कुल पानी में से 80 प्रतिशत को पुनः शुद्ध करने तथा पुनरुपयोग की क्षमता हासिल कर ली है। इजराइल अपने समस्त सीवेज वाटर का उपचार करता है। वह ऐसे कुल उपचारित सीवेज जल में से 85 प्रतिशत का उपयोग खेती-बागवानी में करता है; 10 प्रतिशत का इस्तेमाल नदी प्रवाह को बनाए रखने व जंगलों की आग बुझाने के लिये करता है और 05 फीसदी को समुद्र में छोड़ देता है।

इजराइल में उपचारित जल का कृषि में उपयोग इसलिये भी व्यावहारिक हो पाया है क्योंकि इजराइल में 270 किबुत्ज हैं।

यह किबुत्ज क्या होता है?
सामूहिक खेती आधारित बसावटों को इजराइल में 'किबुत्ज' कहते हैं। सामूहिक खेती आधारित बसावटों का यह चलन, इजराइल में अनोखा है। यह चलन, पुनर्चक्रित जल की आपूर्ति को व्यावहारिक बनाने में मददगार साबित हुआ है।

इजराइल ने सिंचाई तकनीक के क्षेत्र में जो इनोवेशन किये हैं, उनकी खूबी सिर्फ यह नहीं है कि वे पानी की बर्बादी रोकते हैं अथवा कम पानी में फसल तैयार कर देते हैं; उनकी खूबी यह है कि वे फसल के उत्पादन की मात्रा व गुणवत्ता को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। उनके ये नवाचार, ऐसे बीजों से भी सम्बन्ध रखते हैं, जो कि कम ताजे पानी में भी बेहतर उत्पाद दे पाते हैं। इजराइल ऐसे बीजों को तैयार करने वाला दुनिया का अग्रणी देश है।

इजराइल का जलापूर्ति प्रबन्धन सीखने लायक है। इजराइल ने पानी पाइपलाइनों की लीकेज रोकने के बेहतरीन प्रबन्ध किये हैं। इजराइल ने पानी को प्रबन्धन की दृष्टि से तीन श्रेणियों में बाँटा है - ए, बी और सी। वर्षाजल और नदियों के बहते जल को ‘ए’ श्रेणी में रखा है। नगरों को आपूर्ति किये जा रहे ताजे जल यानी नदी जल की पाइप अलग हैं और इनका रंग भी अलग। ये नीले रंग की हैं। खेती में उपयोग के लिये भेजे जा रहे पुनर्चक्रित जल की पाइपों का रंग भूरा है। उद्योग के पुनर्चक्रित पानी को उपयोग के लिये उद्योगों को ही भेजा जाता है। उद्योग को जाने वाले पुनर्चक्रित जल की पाइपों का रंग, लाल रखा गया है।

कह सकते हैं कि इजराइल, दुनिया का ऐसा देश है, जिसने पानी के लिये अपना प्रबन्धन कौशल, इंजीनियरिंग, संसाधन तथा सामरिक व सांस्कृतिक शक्ति.. सब कुछ समर्पित भाव से झोंक दिया है।

उसके इस समर्पण का ही परिणाम है कि कुल इजराइली भूगोल में से 60 प्रतिशत के मरुभूमि होने तथा 1948 की तुलना में आज 10 गुना आबादी हो जाने के बावजूद, इजराइल के पास आज उसकी जरूरत से इतना ज्यादा पानी है कि वह अपने पड़ोसियों को पानी बेचता है। निःसन्देह, इसमें दादागिरी से हासिल दूसरे के पानी का भी योगदान है, किन्तु इजराइली पानी प्रबन्धन का योगदान भी कम नहीं। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि पानी की तकनीकी बेचने का इजराइली व्यापार भी आज करीब 2.2 अरब डाॅलर प्रतिवर्ष का है।

अब आप पूछेंगे कि क्या भारत में ऐसा हो सकता है।...

जी, मैं पूछने ही वाला था।
...तो मैं कहूँगा कि इजराइल ऐसा कर पा रहा है क्योंकि मलिन जल को उपचारित करते हुए वह शुद्धता के उच्चतम मानकों की अनदेखी नहीं करता है। इस बारे में वहाँ अनुशासन है। पानी प्रबन्धन के ज्ञान को जमीन पर उतारने की इजराइली प्रक्रिया और तंत्र... जितना मैंने जाना है, भ्रष्टाचार में डूबे हुए नहीं हैं; वरना पानी प्रबन्धन का भारतीय ज्ञानतंत्र, कम अनूठा नहीं है। भारत की कई कम्पनियों ने इजराइल के पानी प्रबन्धन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

यदि भारत अपने पानी की नीति और नीयत.. दोनों को भ्रष्टाचार से मुक्त करने की ठान ले, तो भारत का पानी प्रबन्धन, दुनिया को राह दिखाने वाला बन सकता है। यह प्यासे को पानी पिलाने का ही काम नहीं, दुनिया में अमन और शान्ति बहाल करने का भी काम होगा। भारत की सरकार और समाज को इस बारे में संजीदगी से सोचना चाहिए।........

आगे की बातचीत शृंखला को पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें

युद्ध और शान्ति के बीच जल

युद्ध और शान्ति के बीच जल - भाग दो

युद्ध और शान्ति के बीच जल - भाग तीन

 

 

 

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बंगाल की नदियों का अस्तित्व खतरे में

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बंगाल की नदियों का अस्तित्व खतरे मेंRuralWaterTue, 04/24/2018 - 18:41

गंगा में ऐसे कई पावर प्लांट कूड़ा डालते हैंगंगा में ऐसे कई पावर प्लांट कूड़ा डालते हैंमानव सभ्यता के विकास में नदियों का बड़ा योगदान है। कमोबेश सभी सभ्यताएँ नदियों के किनारे ही विकसित हुईं हैं। वजह है जीवन के लिये जल सबसे जरूरी तत्व है और नदियों को जल के अकूत स्रोत के रूप में देखा गया।

भारत में शायद ही कोई राज्य है, जिससे होकर नदियाँ न गुजरती हों। बंगाल की खाड़ी से सटे पश्चिम बंगाल को तो ‘नदीमातृक’ नाम से नवाजा गया है।‘नदीमातृक’ यानी जिसकी माता नदियाँ हों। मतलब कि वह भूखण्ड जिसकी देखभाल नदियाँ करती हों।

पश्चिम बंगाल में नदियों का जाल बिछा हुआ है। मोटे तौर पर 80 से अधिक छोटी-बड़ी नदियाँ बंगाल से होकर बहती हैं। इनमें से प्रमुख नदियों की संख्या करीब 19 है जिनके नाम बांसलोई, पगला, मयुराक्षी, अजय, जालंगी, चुर्नी, दामोदर, द्वारकेश्वर, कंसाई, भागीरथी, पद्मा, तिस्ता, महानंद, तोरषा आदि हैं। कई नदियों के साथ पौराणिक कथाएँ भी जुड़ी हुई हैं।

वहीं, जलाशयों की बात करें, तो यहाँ 4296 जलाशय व तालाब हैं। इस लिहाज से देखा जाये, तो पानी के मामले में पश्चिम बंगाल समृद्ध रहा है। लेकिन, हाल के वर्षों में इन जलस्रोतों पर संकट बढ़ा है, जो राज्य की चिन्ता का सबब है। पहले जलाशयों पर ही संकट थे, लेकिन अब नदियाँ भी सुरक्षित नहीं रहीं।

देखभाल नहीं होने के कारण कई नदियाँ तो सूखने के कगार पर पहुँच गई हैं। पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर के बीचों-बीच बहने वाली आदि गंगा जिसे गंगा नदी का मूल स्रोत कहा जाता है, लगभग खत्म ही हो चुकी है।

हाल ही में ‘पश्चिम बंगाल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ (Pollution Control Board West Bengal) द्वारा जारी एक रिपोर्ट में राज्य में नदियों की स्थिति को लेकर गहरी चिन्ता व्यक्त की गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह नदियों के अस्तित्व पर संकट मँडरा रहा है और अगर वक्त रहते जरूरी कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले दिनों में दिक्कतें बढ़ेंगी।

रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल की नदियों में प्रदूषण का स्तर सामान्य से काफी अधिक है। कभी पीने के उपयोग में लाया जाने वाला नदियों का जल इतना खराब हो चुका है कि वह स्नान करने के योग्य भी नहीं है। राज्य में नदियों के जल की इस स्थिति की प्रमुख वजह है शहरी नालों और औद्योगिक कचरों का नदियों में निकास। गौरतलब है कि किसी भी नदी के पानी की गुणवत्ता का निर्धारण उसमें मौजूद भौतिक, रासायनिक, बायोलॉजिकल व उसकी सुन्दरता के आधार पर किया जाता है। ये तत्व ही बताते हैं कि कोई नदी कितनी सेहतमन्द है।

पश्चिम बंगाल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व नेशनल वाटर मॉनीटरिंग प्रोग्राम (National Water Monitoring Program) के अधीन केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board) द्वारा संयुक्त रूप से पश्चिम बंगाल की नदियों पर गहन निगरानी रखी गई ताकि प्रदूषण के बारे में पुख्ता जानकारी मिल सके। निगरानी का उद्देश्य प्रदूषण को नियंत्रण में लाने के लिये जरूरी कदम उठाना भी था। जाँच में दूसरी नदियों के साथ ही गंगा व भागीरथी को भी शामिल किया गया था। रिपोर्ट बताती है कि धार्मिक महत्त्व रखने वाली इन दोनों नदियों का पानी इतना गन्दा हो चुका है कि उससे नहाया भी नहीं जा सकता।

गंगा पश्चिम बंगाल की प्रमुख नदी है। यह झारखण्ड के रास्ते पश्चिम बंगाल में प्रवेश करती है। आगे चलकर गंगा नदी का नाम हुगली हो जाता है। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता हुगली नदी के किनारे ही बसा हुआ है। वहीं, भागीरथी नदी मुर्शिदाबाद जिले के मीठापुर गाँव में गंगा से कटकर निकलती है। यह दक्षिण की तरफ बहती हुई सागरद्वीप के पास बंगाल की खाड़ी में समा जाती है।

उल्लेखनीय है कि गंगा-भागीरथी में जगह-जगह सात नदियाँ मिलती हैं। रिपोर्ट के अनुसार बहरमपुर, पालता व गार्डनरीच स्टेशन के समीप भागीरथी-गंगा में कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा सामान्य से अधिक है। गार्डनरीच में गंगा में कोलीफॉर्म की मात्रा 2.40 लाख और बहरमपुर में 1.10 लाख पाई गई है। वहीं, नदी के पानी में अन्य बैक्टीरिया भी अधिक मात्रा में पाये गए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि नदी के पानी का इस्तेमाल पीने के लिये करना खतरनाक हो सकता है।

टीन ने उत्तर बंगाल की चार नदियों महानंदा, तीस्ता, कालजनी व करोला के पानी की भी जाँच की तो पाया कि इन नदियों के पानी में भी बैक्टीरिया की संख्या सामान्य से अधिक है। इन नदियों का पानी इस्तेमाल के लायक नहीं है।

उत्तर बंगाल की नदी महानंदा में कोलीफॉर्म की मात्रा 14 हजार व तिस्ता में कोलीफॉर्म की मात्रा 7000 रिकॉर्ड की गई है। करोला नदी में 14000 कोलीफॉर्म मिला है। बताया जा रहा है कि उत्तर बंगाल की नदियों में वर्ष 2014 की तुलना में कोलीफॉर्म की मात्रा में काफी इजाफा हुआ है।

इसी तरह दक्षिण बंगाल की नदियों के पानी की भी जाँच की गई। जाँच में टीम ने पाया कि दक्षिण बंगाल की नदियों का पानी भी इस्तेमाल योग्य नहीं है। खासकर दामोदर, बराकर, कंसाई व द्वारका नदियों में कोलीफॉर्म की मात्रा सामान्य से अधिक है। दामोदर नदी में आसनसोल के निकट 90 हजार कोलीफॉर्म पाई गई है। वहीं, बराकर नदी में कोलीफॉर्म की मात्रा 17 हजार मिली है।

यहाँ यह भी बता दें कि ऊपर जिन नदियों का जिक्र किया गया है, उनमें से अधिकतर नदियों में गन्दा सीवेज डाला जाता है और यही वजह है कि इनमें हानिकारक तत्वों की मात्रा सामान्य से अधिक पाई गई है। कोलीफॉर्म मानव मल में पाया जाता है इसलिये नदियों के पानी में इसके बढ़ने का मुख्य कारण सीवेज ही है।

जाँच रिपोर्ट वर्ष 2015 में लिये गए आँकड़ों के आधार पर तैयार की गई है। गंगा नदी में गन्दगी के सवाल पर पश्चिम बंगाल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के चेयरमैन कल्याण रुद्र कहते हैं, ‘गंगा नदी का पानी तो कहीं भी नहाने लायक नहीं है। चाहे वह हरिद्वार हो या गंगासागर।’

नदियों पर काम करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि राज्य सरकार की लापरवाही नदियों की दुर्दशा का कारण है। उनका कहना है कि सीवेज को बिना ट्रीट किये नदियों में गिराना, नदियों के लिये जहर है। इससे न केवल नदियों का पानी प्रदूषित होगा बल्कि भूजल भी प्रदूषित करेगा। चूँकि यहाँ पीने के लिये भूजल का इस्तेमाल अधिक होता है, इसलिये यह सीधे तौर पर राज्य के आम जनजीवन को प्रभावित करेगा।

नदियों का गन्दा होना पश्चिम बंगाल के लिये चिन्ता की बात है क्योंकि साल-दर-साल यहाँ प्रति व्यक्ति पानी खपत बढ़ रही है जबकि पानी की उपलब्धता कम होती जा रही है। अगर हम आँकड़ा देखें तो बेहद भयावह तस्वीर बनती है। दार्जिलिंग में सन 1951 में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 18355 क्यूबिक मीटर थी जो वर्ष 2011 में घटकर महज 4568 क्यूबिक मीटर पर आ गई। इसी तरह जलपाईगुड़ी की बात करें तो यहाँ सन 1951 में प्रति व्यक्ति 22881 क्यूबिक मीटर पानी था जो वर्ष 2011में घटकर 4824 क्यूबिक मीटर पर आ गया है। उत्तर बंगाल के दूसरे जिलों में भी यही हाल है। विगत 60 सालों में पानी की उपलब्धता 5 गुनी कम हो गई है।

पश्चिम बंगाल में पानी की उपलब्धता का आँकड़ा देखें तो सन 1951 में यहाँ प्रति व्यक्ति 4023 क्यूबिक मीटर पानी उपलब्ध था जो वर्ष 2011 में घटकर 1159 क्यूबिक मीटर पर आ गया। अगर किसी जगह प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 1000 से 1700 क्यूबिक मीटर हो, तो उसे ‘वाटर स्ट्रेस्ड’ क्षेत्र कहा जाता है। वर्ष 2011 के आँकड़ों के अनुसार पश्चिम बंगाल के 7 जिले ‘वाटर स्ट्रेस्ड’ हैं और 6 जिले जलसंकट से जूझ रहे हैं। वहीं चार जिलों में प्रति व्यक्ति 500 क्यूबिक मीटर से कम पानी पाया गया, जो जल की उपलब्धता के लिहाज से खतरनाक स्थिति में है।

पश्चिम बंगाल में जितने भी जलस्रोत हैं, उनकी तुलना में नदियों से सबसे ज्यादा पानी मिलता है। नदियों से पश्चिम बंगाल को हर साल 694.30 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी मिलता है, इसलिये जल संकट की मौजूदा हालत को देखते हुए नदियों को बचाया जाना बहुत जरूरी है। नदियों का संरक्षण सम्भावित जल संकट से निबटने में कारगर साबित हो सकता है।

विशेषज्ञों ने भी नदियों को संरक्षित व प्रदूषणमुक्त रखने की सलाह दी है। नदियाँ न केवल पानी का उम्दा स्रोत हैं बल्कि ये भूजल को रिचार्ज करने में भी अहम भूमिका निभाती हैं। अतः नदियों को किसी भी सूरत में बचाया जाना चाहिए। विशेषज्ञों ने सीवेज से निकलने वाले गन्दे पानी को ट्रीट करने के बाद ही नदियों में बहाने की मुखालफत करते हुए इनके कैचमेंट एरिया को दुरुस्त करने की बात कही है।

रिपोर्ट में लिखा गया है, ‘इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होनी चाहिए। जनसंख्या में इजाफा होने से पानी की खपत बढ़ी है। ऐसे में जो भी जलस्रोत हैं उन्हें संरक्षित करने की आवश्यकता है।’

पारम्परिक जलस्रोतों की संरक्षण पर चर्चा करते हुए रिपोर्ट में इन्हें आर्थिक रूप से सस्ता व पर्यावरणीय लिहाज से स्थायी समाधान बताया गया है। उक्त रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ऐसे खाद्य पदार्थों की खेती की जानी चाहिए जिसमें पानी की जरूरत कम हो और उत्पादन अधिक किया जाये। मसलन 15 क्विंटल धान उगाने में जितना पानी खर्च होता है, उतने पानी में 36 क्विंटल गेहूँ व 20 क्विंटल दाल उगाई जा सकती है। अतः सिंचाई में भी पानी का न्यायोचित इस्तेमाल होना चाहिए। विशेषज्ञों की राय है कि पश्चिम बंगाल को प्राथमिकता में रखते हुए जल्द-से-जल्द एक अलग जलनीति तैयार कर उस पर गम्भीरता से काम करना चाहिए।

गन्दगी के अलावा नदियों में गाद भी एक बड़ी समस्या है। इसके लिये भी जरूरी कदम उठाने की आवश्यकता है। इस बीच खबर है कि केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय देश भर की प्रमुख नदियों के संरक्षण के लिये योजना तैयार करने जा रहा है। नदियों के संरक्षण के लिये प्लान तैयार करने की जिम्मेवारी इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी को दी जाएगी। पता चला है कि गंगा नदी पर खास फोकस देते हुए पश्चिम बंगाल समेत बिहार, यूपी व अन्य राज्यों में गंगा के कैचमेंट एरिया का ट्रीटमेंट किया जाएगा।

हालांकि ऐसी योजनाएँ कितनी कारगर होंगी, इस पर विशेषज्ञों को सन्देह है। साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रीवर्स एंड पीपल (सैंड्रप) के हिमांशु ठक्कर कहते हैं, ‘सीवेज के ट्रीटमेंट के लिये विकेन्द्रीकृत सीवर ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित करने की जरूरत है।’उन्होंने आगे कहा कि नदियों के संरक्षण के लिये इसके सभी साझेदारों को योजना में शामिल किया जाना चाहिए।

विशेषज्ञों का कहना है कि नदियों के संरक्षण की बात ठीक है, लेकिन नदी जल को प्रभावित करने वाली नदियों को जोड़ने की योजना, रीवरफ्रंट डेवलपमेंट जैसी तमाम योजनाओं पर भी विचार किया जाना चाहिए क्योंकि ये योजनाएँ नदियों पर नकारात्मक असर डालती हैं।

 

 

 

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