कहने को पानी में सबसे कम प्रदूषण औद्योगिक इकाइयां डालती हैं, लेकिन उनका प्रदूषण इतना जहरीला होता है कि अन्य प्रदूषण उनके सामने बौने पड़ जाते हैं। व्यापारिक प्रतिष्ठान तथा औद्योगिक इकाइयां भी अपने ठोस कचरे के प्रति गंभीर नहीं हैं। छोटी ही नहीं, कहीं-कहीं तो बड़ी औद्योगिक इकाइयां भी कचरा निपटान और अवजल के शोधन की आधुनिक व सफल प्रणालियों-तकनीकों की जानकारी नहीं रखती। उन्होंने कभी जानने की कोशिश नहीं की, इन्हें अपनाकर वे कैसे अपने साथ -साथ समाज व प्रकृति का भी लाभ करेंगे।मई, 2013 में गांधी शांति प्रतिष्ठान अपने 50 वर्ष पूरे कर रहा है। इसके मद्देनज़र प्रतिष्ठान ने अगले वर्ष को स्वर्ण जयंती वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। इन दिनों प्रतिष्ठान के कर्ताधर्ता स्वर्ण जयंती वर्ष के दौरान आयोजित किए जा सकने वाले विविध कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाने में जुटे हैं। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस वर्ष को ‘अंतरराष्ट्रीय जल सहकार वर्ष’घोषित किया है। इस दृष्टि से भी गांधी शांति प्रतिष्ठान ने निर्णय लिया है कि मई, 2013 से मई, 2014 के दौरान एक विशेष अभियान चलायेगा। नाम होगा - ‘जल को जानें’। मुझे यह जानकारी प्रतिष्ठान के तत्व प्रचार केन्द्र के समन्वयक श्री रमेशचन्द्र शर्मा द्वारा भेजे एक पर्चे से हुई। सुखद है कि यह अत्यंत प्रतिष्ठित संस्था पानी के काम को भी गांधी मार्ग का ही काम मानती है।
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‘जल को जानें’ बनेगा गांधी शांति प्रतिष्ठान का स्वर्ण जयंती अभियान
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अंतरराष्ट्रीय जल दिवस का भारतीय औचित्य
भारत में पानी अब पुण्य कमाने का देवतत्व नहीं, बल्कि पैसा कमाने की वस्तु बन गया है। हजारों करोड़ रुपए के बोतल बंद पानी का बढ़ता व्यापार शुद्धता के नाम पर महज एक छलावा मात्र है। यदि बारिश के आने से पहले तालाब-झीलों को साफ कर लें। खेतों की मेड़बंदियां मजबूत कर लें ; ताकि जब बारिश आये तो इन कटोरे में पानी भर सके। वर्षाजल का संचयन हो सके। धरती भूखी न रहे। साल का प्रत्येक दिन विश्व जल दिवस हो, हम संकल्प लें कि बाजार का बोतलबंद पानी नहीं पिउंगा। कार्यक्रमों में मंच पर बोतलबंद पानी सजाने का विरोध करुंगा। अपने लिए पानी के न्यूनतम व अनुशासित उपयोग का संयम सिद्ध करुंगा। दूसरों के लिए प्याऊ लगाउंगा।... मैं किसी भी नदी में अपना मल-मूत्र-कचरा नहीं डालूंगा।अगले दस दिन भारतीय महत्व के कई घोषित दिवसों के नाम रहेंगे: शक संवत् का नया साल, नंदगाँव की लट्ठमार होली की शुरुआत, होलिका दहन, फाग, आनंदपुर साहिब का होला मेला, गुड फ्राइडे, ईस्टर सचरडे, क्रमशः सरदार भगतसिंह और गणेशशंकर विद्यार्थी के शहीदी दिवस, तथा संत तुकाराम और एकनाथ जयंती। इतने सारे दिवसों का सिलसिलेवार मेल एक उदार भारतीय भाव का परिचायक है। इस बार 22 मार्च को दो भिन्न दिवसों का संगम हो रहा है। एक ओर शक संवत का शुभारंभ है तो दूसरी ओर यह अंतरराष्ट्रीय जल दिवस भी है। मेरे जेहन में इसे लेकर एक मौलिक प्रश्न यह है कि अंतरराष्ट्रीय दिवसों की चिंता करना और उन्हीं महत्व के भारतीय दिवसों को भूल जाना कितना वाजिब है? मेरा मत है कि इन अंतरराष्ट्रीय दिवसों का ठेका जिन राष्ट्रों के पास है, वे उपनी सुविधा, परिस्थिति और जरूरत के अनुसार इनकी तारीखें तय करते हैं; करनी भी चाहिए। किंतु भारत का सरकारी अमला तथा इन दिवसों के नाम पर पैसा पा रही संस्थाएं ऐसी तारीखों का अंधानुकरण जिस श्रद्धा और अनुशासन के साथ करती है, वह मेरी समझ में आज तक नहीं आया।
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क्षमा करें मगर सीवर तक में हैं सियासत
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हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, अप्रैल 12, 2007, सुनीता नारायण की पुस्तक 'पर्यावरण की राजनीति' से साभार 
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यमुना की बीमारी क्या है
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राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 23 मार्च 2013 ↧
मुक्ति पदयात्रा
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राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 23 मार्च 2013 यमुना रक्षक दल की मांगों और बदले में सरकार के जवाबों से कई सवाल खड़े होते हैं। पर एक बात साफ है कि दिल्ली के नालों के संदर्भ में सरकार का जवाब यमुना रक्षक दल की जीत नहीं है। इससे भी यमुना का ही नुकसान होगा, महानाले के लिए जो ज़मीन लगेगी, आशंका है कि वह भी यमुना के हिस्से में से ही निकाली जाएगी। महानाले के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायलय को कई बार सरकार ने यह वादा किया है। यमुना रक्षक दल के सामने अपने उसी पुराने वादे को नई बोतल में भरकर पेश कर दिया और वाहवाही लूटी।
गंगा की तरह ही यमुना भी हिमालय की गोद से निकलती है। हिमाच्छादित पर्वत बंदरपुच्छ से 8 मील उत्तर-पश्चिम में कलिंद पर्वत है। इसी पर्वत की कोख से जन्मने के कारण यमुना कालिंदी भी कहलाती है। यमुना को प्यार की नदी भी कहा जाता है। भगवान कृष्ण और राधा की प्रेम लीलाओं का क्षेत्र ब्रज यमुना के किनारे ही स्थित है। मुमताज महल की याद में शाहजहां द्वारा बनवाया गया प्यार का प्रतीक ताजमहल भी यमुना के किनारे ही है। ब्रज क्षेत्र और आगरा दोनों ही यहां की संस्कृति गढ़ते हैं। यहां के सामाजिक संगठनों में भी यह प्रभाव दिखता है। यहां जन्मे आंदोलन भी गाते-बजाते, नाचते-कूदते हुए ही मांगों के लिए प्रदर्शन, पदयात्रा करते हैं। यमुना रक्षक दल, मान मंदिर, बरसाना के संतों और भक्तों का संगम ही है। बरसाना राधा जी की जन्मस्थली है। संत रमेश बाबा मान-मंदिर के मुखिया हैं। ब्रज क्षेत्र को वे कृष्ण की लीला स्थली मानते हैं। ब्रज के जंगल, पहाड़, नदियां और कुंड; सब को वे कृष्ण की विरासत मानते हैं।↧
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नीयत साफ हो, तब नदी
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राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 23 मार्च 2013 ↧
उद्गम से संगम तक यमुना
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राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 23 मार्च 2013 पहला हिस्सा यमुनोत्री (उत्तराखंड) से हथिनीकुंड बैराज (यमुनानगर) तक 177 किमी
दूसरा हिस्सा हथिनीकुंड बैराज से वजीराबाद (दिल्ली) तक 224 किमी
तीसरा हिस्सा वजीराबाद बैराज से ओखला बैराज (दिल्ली) तक 22 किमी
चौथा हिस्सा ओखला बैराज से चम्बल नदी के यमुना में मिलने तक (इटावा के पास) 490 किमी
पांचवा हिस्सा चम्बल नदी संगम से गंगा संगम तक (इलाहाबाद) 468 किमी।
संरक्षा मुहाने से शुरू की जाए
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गंगा : अतीत से अब तक
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यू-ट्यूब भारतीय संस्कृति में नदियों का काफी महत्व रहा है। वैसे देखा जाए तो हर सभ्यता के विकास का मार्ग नदियों ने ही प्रशस्त किया है। दुनिया की बड़ी नदियों में से एक है गंगा। भारत में इसे बहुत ही पवित्र और आस्था के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है।
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हिमालय में एक और भगीरथ प्रयास
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दूधातोली लोक विकास संस्थान, जनवरी 2003 इस खबर के स्रोत का लिंक:
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गंगा चिंतन
जहां बांध बनने के समय चेतना नही थी वहां पर अब लोग खड़े हो रहे है। हां कहीं-कहीं पर प्रभावित बांध के पक्ष में भी खड़े हुए हैं और फिर भुगत रहे हैं। किंतु यह स्पष्ट है कि बांधों से कोई रोज़गार नहीं बढ़ा है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्वीकृतियों के अनुसार बांध कंपनियां ही अपनी रिपोर्ट बना कर भेज देती हैं। बाकी पर्यावरणीय और पुनर्वास के पक्ष की किसी शर्त का पालन होता है या नहीं इसकी कोई निगरानी नहीं। बस सरकारी कागजात के पुलिंदे बढ़ते जा रहे हैं।करोड़ों लोगों की आस्था का केन्द्र गंगा को मात्र बिजली बनाने का हेतु मान लिया जाए? गंगा के शरीर पर बांध बनाकर गंगा के प्राकृतिक स्वरूप को समाप्त किया जा रहा है। कच्चे हिमालय को खोद कर सुरंगे बनाई जा रही हैं। जिससे पहाड़ी जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। गंगा नदी नहीं अपितु एक संस्कृति है। पावन, पतितपावनी, पापतारिणी गंगा को मां का स्थान ना केवल हमारे पुराणों में दिया गया है वरन् गंगाजी हमारी सभ्यता की भी परिचायक हैं। वैसे तो गंगा का पूरा आधार-विस्तार अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को पार करता है। भारत देश में भी गंगा उत्तराखंड से उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में सागर से मिलती है। हम यदि गंगा की उपत्याकाओं और उनके जल संग्रहण क्षेत्र को भी समेटे तो हरियाणा-मध्य प्रदेश और उत्तर-पूर्व राज्यों को भी जोड़ना होगा। गंगा का उद्गम उत्तराखंड से होता है।
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साफ पानी की दरकार में बीमार हो रहे हैं इटावा के लोग
उत्तर प्रदेश राज्य जल निगम की इटावा शाखा द्वारा पेयजल के लिए गए नमूनों में जिस प्रकार से पेयजल के अवयवों में फ्लोराइड आयरन एवं नाइट्रेट की मात्रा बढ़ जाने से यह पानी लोगों की अपंगता का कारण बनता जा रहा है। वहीं नाइट्रेट की बढ़ी मात्रा तो बच्चों की मौत का कारण तक बन जाती है। आश्चर्यजनक यह है कि पेयजल के लिए गए नमूनों के बाद शोधकर्ताओं ने साफ किया कि पानी के अवयवों का संतुलन नहीं बनाया जा सकता है और इसका एकमात्र उपाय यही है कि पेयजल की आपूर्ति पानी की टंकी के माध्यम से की जाए। जल ही जीवन है परंतु उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद के तमाम ब्लाकों का पानी जिंदगी के साथ खिलवाड़ कर रहा है।फ्लोराइड की अधिकता बढ़ने के कारण इटावा के कई गांव के बासिंदों में बढ़ रहा है अपंगता का खतरा। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के जिला इटावा में दर्जनों ऐसे गांव है जहां के सरकारी हैंडपंपों के पानी में लगातार फ्लोराइड की मात्रा बढ़ती चली जा रही है नतीजतन पानी का इस्तेमाल करने वालों के सामने कई किस्म के खतरे खड़े हो रहे हैं। पानी में पनप रहे इन्हीं ख़तरों की आशंकाओं के मद्देनज़र उत्तर प्रदेश सरकार की ओर स्वजलधारा योजना की शुरूआत करने की कवायद कर दी गई है लेकिन इस योजना पर भी प्रभावित लोगों की ओर से सवाल खड़े किये जा रहे हैं प्रभावित लोगों का कहना है कि राजनीति से प्रेरित होकर इस योजना को लागू कराया जा रहा है। मौसम में लगातार हो रहे असंतुलन ने भूजल को बुरी तरह प्रदूषित किया है। पीने के लिए सरकार द्वारा लगवाए गए हैंडपंपों के पानी में जिस प्रकार से रासायनिक अवयवों का संतुलन बिगड़ा है, उससे यह पानी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य जल निगम की इटावा शाखा द्वारा पेयजल के लिए गए नमूनों में जिस प्रकार से पेयजल के अवयवों में फ्लोराइड आयरन एवं नाइट्रेट की मात्रा बढ़ जाने से यह पानी लोगों की अपंगता का कारण बनता जा रहा है।
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बुंदेलखंड: कछु नई बचो राम रे...!
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सर्वोदय प्रेस सर्विस, अप्रैल 2013 ↧
दो नदियों की प्रेमगाथा
Source:
जनसत्ता रविवारी, 14 अप्रैल 2013 
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दिल्ली जल बोर्ड का बजट
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टोटल टीवी, 11 अप्रैल 2013 दिल्ली जल बोर्ड का 2013-14 का बजट 3952 करोड़ रुपए का प्रस्तावित किया गया है। बजट में 1869 करोड़ रुपए योजनागत कामों में और 2082 करोड़ रुपए गैर योजनागत मद में स्वीकृत किया गया है।
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प्रकृति
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जनसत्ता रविवारी, 14 अप्रैल 2013 
एक पेड़ था बहुत बड़ा
और अपनी अनोखी छाया से भरा
जितनी सुंदर उसकी काया
उतनी अद्भुत उसकी माया
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बांधों की निगरानी
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माटू जनसंगठन ↧
नदियों के पास रहने वाले समाज की अनदेखी
नदियों पर बांधों की श्रृंखलाएं बनाने की परियोजनाओं को महत्व दिए जाने से नदियों से लोगों का रिश्ता टूटकर निजी कंपनियों और पूंजीपति वर्ग के हाथों में नदियां चली जाएंगी। पानी और जंगल का जिस तरह रिश्ता है, उसे बरकरार रखना भी जलनीति का मुख्य बिन्दु होना चाहिए। गाड़-गदेरों व नदियों से पानी को मोड़कर सिंचाई नहरों मे आने वाले पानी का इस्तेमाल बहु उपयोगी होना चाहिये। प्रत्येक सिंचाई नहर से एक घराट चलाकर अथवा टरबाईन चलाकर बिजली बनाने का प्रयोग हमारे प्रदेश में मौजूद हैं। जिसका अनुकरण सरकार को जलनीति बनाते समय करना चाहिए। वर्षा जल संग्रहण के पारंपरिक तरीकों से सरकार को सीखना होगा। उत्तराखंड राज्य समेत सभी हिमालयी राज्यों में सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजनाओं के कारण नदियों का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़ गया है। ढालदार पहाड़ी पर बसे हुए गाँवों के नीचे धरती को खोदकर बांधों की सुरंग बनाई जा रही है। जहां-जहां पर इस तरह के बांध बन रहे हैं वहां पर लोगों द्वारा सवाल उठाये जा रहे हैं कि, मुर्दाघाटों की पवित्रता पानी के बिना कैसे बचेगी़? इन बांधों का निर्माण करने के लिए निजी कंपनियों के अलावा एनटीपीसी और एनएचपीसी जैसी कमाऊ कंपनियों को बुलाया जा रहा है। राज्य सरकार ऊर्जा प्रदेश का सपना भी इन्हीं के सहारे पर देख रही है। ऊर्जा प्रदेश बनाने के लिए पारंपरिक जल संस्कृति और पारंपरिक संरक्षण जैसी बातों को बिलकुल भुला दिया गया है। इसके बदले रातों रात राज्य की तमाम नदियों पर निजी क्षेत्रों के हितों में ध्यान में रखकर नीति बनाई जा रही है। निजी क्षेत्र के प्रति सरकारी लगाव के पीछे भी, दुनिया के वैश्विक ताक़तों का दबाव है। दूसरी ओर इसे विकास का मुख्य आधार मानकर स्थानीय लोगों की आजीविका की मांग को कुचला जा रहा है। बांध बनाने वाली व्यवस्था ने इस दिशा में संवादहीनता पैदा कर दी है।
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कावेरी : लहर में जहर
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लोकमत समाचार, 20 अप्रैल 2013 
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सांसत में धरती
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जनसत्ता रविवारी, 21 अप्रैल 2013 यह धरती तो अपना धर्म निभा रही है, पर जिस धरती को हम मां कहते हैं, क्या हम मनुष्य भी अपना धर्म निभा रहे हैं? इसी धरती में रत्नगर्भा खनिज संपदा है।
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धरती की डाक सुनो रे केऊ
यदि हम सचमुच प्रकृति के ग़ुलाम नहीं बनना चाहते, तो जरूरी है कि प्रकृति को अपना ग़ुलाम बनाने का हठ और दंभ छोड़े। नदियों को तोड़ने, मरोड़ने और बांधने की नापाक कोशिश न करें। पानी, हवा और जंगलों को नियोजित करने की बजाय प्राकृतिक रहने दें। बाढ़ और सुखाड़ के साथ जीना सीखें। जीवन शैली, उद्योग, विकास, अर्थव्यवस्था आदि आदि के नाम पर जो कुछ भी करना चाहते हैं, करें... लेकिन प्रकृति के चक्र में कोई अवरोध या विकार पैदा किए बगैर। इसमें असंतुलन पैदा करने की मनाही है। हम प्रकृति को न छेड़ेंगे, प्रकृति हमें नहीं छेड़ेगी। हमें भले ही डाक सुनने की जल्दी न हो, धरती को जल्दी है। पिछले कुछ समय से धरती अपनी डाक जल्दी-जल्दी भेजने लगी है। डाकिए ज़रूर अलग हैं, लेकिन इधर धरती द्वारा भेजी हर डाक का संदेशा एक ही है - “जागिए! वक्त कम है।”अब हर बरस... हर ऋतु यही डाक लेकर आती है; सर्दी, गर्मी.. मानसून सभी। गर्मी आने से पहले ही महाराष्ट्र आ पहुंचा पानी के अकाल संदेशा यही है, तो ईरान से उठकर भारत तक पहुंचने वाले झटकों का संदेशा भी यही है। चीन के सियुचान प्रांत में आए ताज़ा झटके और मौतों का संदेश भी भिन्न नहीं है। एक तरफ ’ग्लोबल वार्मिंग’ को लेकर हायतौबा है, तो दूसरी ओर हिमयुग की आहट सुनाई देती रहती है। समझ न आने वाला अजीब सा विरोधाभास है यह। पिछले कुछ समय से हर बरस भारतीय राष्ट्रीय वार्षिक वर्षा औसत में मामूली ही सही, कमी आ रही है; दूसरी तरफ दुनिया के कई देशों में बारिश का औसत बढ़ा है। विषमता को लेकर इससे भी बड़ी चेतावनी बारिश की अवधि, वर्षा क्षेत्रों में आ रहे व्यापक बदलाव व मौसम की अनिश्चिंतता के तौर पर उभरी है। हिमालयी प्रदेशों में बाढ़ और बादल फटने के कारण हुई तबाही की चेतावनी संदेश और साफ हैं। हेमंत और बसंत ऋतुएं ग़ायब हो रही हैं।
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