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‘जल को जानें’ बनेगा गांधी शांति प्रतिष्ठान का स्वर्ण जयंती अभियान

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कहने को पानी में सबसे कम प्रदूषण औद्योगिक इकाइयां डालती हैं, लेकिन उनका प्रदूषण इतना जहरीला होता है कि अन्य प्रदूषण उनके सामने बौने पड़ जाते हैं। व्यापारिक प्रतिष्ठान तथा औद्योगिक इकाइयां भी अपने ठोस कचरे के प्रति गंभीर नहीं हैं। छोटी ही नहीं, कहीं-कहीं तो बड़ी औद्योगिक इकाइयां भी कचरा निपटान और अवजल के शोधन की आधुनिक व सफल प्रणालियों-तकनीकों की जानकारी नहीं रखती। उन्होंने कभी जानने की कोशिश नहीं की, इन्हें अपनाकर वे कैसे अपने साथ -साथ समाज व प्रकृति का भी लाभ करेंगे।मई, 2013 में गांधी शांति प्रतिष्ठान अपने 50 वर्ष पूरे कर रहा है। इसके मद्देनज़र प्रतिष्ठान ने अगले वर्ष को स्वर्ण जयंती वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। इन दिनों प्रतिष्ठान के कर्ताधर्ता स्वर्ण जयंती वर्ष के दौरान आयोजित किए जा सकने वाले विविध कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाने में जुटे हैं। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस वर्ष को ‘अंतरराष्ट्रीय जल सहकार वर्ष’घोषित किया है। इस दृष्टि से भी गांधी शांति प्रतिष्ठान ने निर्णय लिया है कि मई, 2013 से मई, 2014 के दौरान एक विशेष अभियान चलायेगा। नाम होगा - ‘जल को जानें’। मुझे यह जानकारी प्रतिष्ठान के तत्व प्रचार केन्द्र के समन्वयक श्री रमेशचन्द्र शर्मा द्वारा भेजे एक पर्चे से हुई। सुखद है कि यह अत्यंत प्रतिष्ठित संस्था पानी के काम को भी गांधी मार्ग का ही काम मानती है।

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अंतरराष्ट्रीय जल दिवस का भारतीय औचित्य

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भारत में पानी अब पुण्य कमाने का देवतत्व नहीं, बल्कि पैसा कमाने की वस्तु बन गया है। हजारों करोड़ रुपए के बोतल बंद पानी का बढ़ता व्यापार शुद्धता के नाम पर महज एक छलावा मात्र है। यदि बारिश के आने से पहले तालाब-झीलों को साफ कर लें। खेतों की मेड़बंदियां मजबूत कर लें ; ताकि जब बारिश आये तो इन कटोरे में पानी भर सके। वर्षाजल का संचयन हो सके। धरती भूखी न रहे। साल का प्रत्येक दिन विश्व जल दिवस हो, हम संकल्प लें कि बाजार का बोतलबंद पानी नहीं पिउंगा। कार्यक्रमों में मंच पर बोतलबंद पानी सजाने का विरोध करुंगा। अपने लिए पानी के न्यूनतम व अनुशासित उपयोग का संयम सिद्ध करुंगा। दूसरों के लिए प्याऊ लगाउंगा।... मैं किसी भी नदी में अपना मल-मूत्र-कचरा नहीं डालूंगा।अगले दस दिन भारतीय महत्व के कई घोषित दिवसों के नाम रहेंगे: शक संवत् का नया साल, नंदगाँव की लट्ठमार होली की शुरुआत, होलिका दहन, फाग, आनंदपुर साहिब का होला मेला, गुड फ्राइडे, ईस्टर सचरडे, क्रमशः सरदार भगतसिंह और गणेशशंकर विद्यार्थी के शहीदी दिवस, तथा संत तुकाराम और एकनाथ जयंती। इतने सारे दिवसों का सिलसिलेवार मेल एक उदार भारतीय भाव का परिचायक है। इस बार 22 मार्च को दो भिन्न दिवसों का संगम हो रहा है। एक ओर शक संवत का शुभारंभ है तो दूसरी ओर यह अंतरराष्ट्रीय जल दिवस भी है। मेरे जेहन में इसे लेकर एक मौलिक प्रश्न यह है कि अंतरराष्ट्रीय दिवसों की चिंता करना और उन्हीं महत्व के भारतीय दिवसों को भूल जाना कितना वाजिब है? मेरा मत है कि इन अंतरराष्ट्रीय दिवसों का ठेका जिन राष्ट्रों के पास है, वे उपनी सुविधा, परिस्थिति और जरूरत के अनुसार इनकी तारीखें तय करते हैं; करनी भी चाहिए। किंतु भारत का सरकारी अमला तथा इन दिवसों के नाम पर पैसा पा रही संस्थाएं ऐसी तारीखों का अंधानुकरण जिस श्रद्धा और अनुशासन के साथ करती है, वह मेरी समझ में आज तक नहीं आया।

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क्षमा करें मगर सीवर तक में हैं सियासत

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Author: 
सुनीता नारायण
Source: 
हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, अप्रैल 12, 2007, सुनीता नारायण की पुस्तक 'पर्यावरण की राजनीति' से साभार
हर समाज को यह समझना होगा कि उसके द्वारा छोड़े जा रहे कचरे का प्रबंधन उसे कैसे करना है। इससे हमें कई अहम चीजों और विषयों के बारे में सीखने को मिलता है। कचरा प्रबंधन की शिक्षा मुझे संयोग से ही मिली थी। चंद वर्षों पहले जिस कमेटी के साथ मैं काम कर रही थी उसे सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि वह नदियों में गंदगी छोड़कर उन्हें नारकीय हालात में पहुंचाने वाले शहर के नालों की सफाई इंतजामों पर राज्य सरकारों की कोशिशों की निगरानी करे। सरकार ने एक कार्ययोजना पेश की। इसमें उन्हें सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों को बनाने, मौजूदा प्लांट बेहतर करने, आवासीय कॉलोनियों में नाले-नालियों का निर्माण और कचरे को सीवेज प्लांट तक पहुंचाने वाली व्यवस्था की मरम्मत का काम करना था।

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यमुना की बीमारी क्या है

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Author: 
मनोज मिश्र
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राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 23 मार्च 2013
गंगा के बाद यमुना दूसरी नदी है, जिसके संरक्षण में लापरवाही का मुद्दा इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि पर्यावरणविदों के साथ साधु-संतों और आमजनों ने संघर्ष का एक लंबा सिलसिला शुरू कर दिया है। यमुना किनारे के विभिन्न क्षेत्रों से बढ़ता हुआ यह संघर्ष दिल्ली तक भी एकाधिक बार पहुंच चुका है। आदिवासियों के जल, जंगल और ज़मीन पर अधिकार और इनके संरक्षण के बाद गंगा और यमुना की प्रवाह निरंतरता और निर्मलता दूसरा ऐसा मुद्दा है, जिस पर शुरू हुए संघर्ष के कारण सरकार को कई पहलों और आश्वासनों के साथ सामने आना पड़ा। पर बड़ा सवाल यह है कि नदी जल संरक्षण का सवाल क्या सिर्फ पर्यावरणीय मसला है या फिर नागरिक और शहरी विकास की नई अवधारणाओं से भी इसका साझा सरोकार है? क्या अपने साथ और अपने आसपास जीवन और संस्कृति का सजल आख्यान लिखने वाली नदियों के लाचार-बीमार होने के कसूरवार वही लोग नहीं हैं, जो अब भी इन जीवनदायी प्रवाहों का अपने लालची इरादों के लिए दोहन कर रहे हैं? इस बार के हस्तक्षेप में हम यमुना के बहाने नदियों की दुर्दशा को लेकर ऐसे तमाम सवालों से दो-चार होते हुए संभव समाधानकारी विकल्प को तलाश रहे हैं।

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मुक्ति पदयात्रा

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Author: 
सिराज केसर
Source: 
राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 23 मार्च 2013
यमुना की कुल लंबाई 1375 किलोमीटर है। दिल्ली के क्षेत्र में यमुना मात्र 48 किलोमीटर बहती है। पर यमुना की कुल गंदगी में लगभग 90 फीसद दिल्ली का योगदान है। दिल्ली के मल-मूत्र को साफ करने में करोड़ों रुपया बहाया जा चुका है पर यमुना अभी तक साफ नहीं हो पाई है।

यमुना रक्षक दल की मांगों और बदले में सरकार के जवाबों से कई सवाल खड़े होते हैं। पर एक बात साफ है कि दिल्ली के नालों के संदर्भ में सरकार का जवाब यमुना रक्षक दल की जीत नहीं है। इससे भी यमुना का ही नुकसान होगा, महानाले के लिए जो ज़मीन लगेगी, आशंका है कि वह भी यमुना के हिस्से में से ही निकाली जाएगी। महानाले के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायलय को कई बार सरकार ने यह वादा किया है। यमुना रक्षक दल के सामने अपने उसी पुराने वादे को नई बोतल में भरकर पेश कर दिया और वाहवाही लूटी।

गंगा की तरह ही यमुना भी हिमालय की गोद से निकलती है। हिमाच्छादित पर्वत बंदरपुच्छ से 8 मील उत्तर-पश्चिम में कलिंद पर्वत है। इसी पर्वत की कोख से जन्मने के कारण यमुना कालिंदी भी कहलाती है। यमुना को प्यार की नदी भी कहा जाता है। भगवान कृष्ण और राधा की प्रेम लीलाओं का क्षेत्र ब्रज यमुना के किनारे ही स्थित है। मुमताज महल की याद में शाहजहां द्वारा बनवाया गया प्यार का प्रतीक ताजमहल भी यमुना के किनारे ही है। ब्रज क्षेत्र और आगरा दोनों ही यहां की संस्कृति गढ़ते हैं। यहां के सामाजिक संगठनों में भी यह प्रभाव दिखता है। यहां जन्मे आंदोलन भी गाते-बजाते, नाचते-कूदते हुए ही मांगों के लिए प्रदर्शन, पदयात्रा करते हैं। यमुना रक्षक दल, मान मंदिर, बरसाना के संतों और भक्तों का संगम ही है। बरसाना राधा जी की जन्मस्थली है। संत रमेश बाबा मान-मंदिर के मुखिया हैं। ब्रज क्षेत्र को वे कृष्ण की लीला स्थली मानते हैं। ब्रज के जंगल, पहाड़, नदियां और कुंड; सब को वे कृष्ण की विरासत मानते हैं।

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नीयत साफ हो, तब नदी

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Source: 
राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 23 मार्च 2013
कोई भारतीय सिद्धांत आज भी अमृत में विष को मिलाने की इजाज़त नहीं देता। 1932 में पहली बार बनारस के अंग्रेज कमिश्नर हॉकिन्स ने अमृत में विष मिलाने का उलटा काम शुरू कराया। गंगा से नाला जोड़ने का एक लिखित आदेश जारी किया। नदियों को प्रदूषित करने का भारत में यह पहला दर्ज आदेश है। ताज्जुब यह है कि इसके बाद एक भी आदेश ऐसा नहीं मिलता, जो नदियों को प्रदूषित करने की इजाजत देता हो। नाले को नदी से जोड़ने का कोई अन्य आदेश मेरे संज्ञान में नहीं है। कोई ऐसा आदेश नहीं, जो कहता हो कि नदी भूमि या बाढ़ क्षेत्र को शहरी कचरे-मलबे से भर दिया जाए।राधा रानी यमुना रक्षा पदयात्रा दिल्ली आई। आलीगांव को गुलजार किया। कुछ कलमें चलीं। कुछ फ्लैश लाइट चमकीं। कुछ आवाजें मुखर हुईं। राजनेताओं ने भी दिखाई थोड़ी संवेदना। आश्वासन भी मिला। एक समूह ने जताई सहमति। एक समूह वापस जंतर-मंतर पर। संघर्ष जारी रहेगा। ..अब आगे? प्रदूषण को लेकर कानून हैं, कायदे हैं, इन्हें लागू कराने के लिए मंत्रालय है, प्रदूषण नियंत्रणबोर्ड हैं, ग्रीन ट्रिब्युनल हैं; अदालतें हैं; जिला पंचायतें हैं, नगर निगम पालिकाएं हैं..प्रशासन है। अब तो एक पूरी रिवर बेसिन अथॉरिटी ही यह सुनिश्चित करने में लगी है कि नदी प्रदूषण मुक्त रहे। प्रदूषण मुक्ति के लिए जरूरी तकनीक भी है और तकनीकी संस्थान भी; बजट भी है और योजनाएं भी। विमर्श व जागृति के लिए नित्य नये सेमिनार और साहित्य की भी कमी नहीं। अनशन और आंदोलनों का सिलसिला चल ही रहा है। बावजूद इसके, भारत में एक भी नदी ऐसी नहीं, जिसके बारे में सरकार दावा कर सके कि वह उसके द्वारा पूरी तरह प्रदूषण मुक्त कर दी गई है। आखिर ऐसा क्या है, जिसके न होने से हमारी नदियां प्रदूषित हो रही हैं और हम कुछ नहीं कर पा रहे?

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उद्गम से संगम तक यमुना

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Author: 
मीनाक्षी अरोड़ा
Source: 
राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 23 मार्च 2013
नदी का स्वभाव जाने बिना यमुना को अहमदाबाद की साबरमती नदी की तरह रिवर फ्रंट बनाकर नदी को सुंदर करने की बात बार-बार हो रही है। रिवर फ्रंट बनाने के पीछे सरकार व शहरी नियोजकों की मंशा अहमदाबाद, दिल्ली, मथुरा, आगरा जैसे शहरों में भी हजारों एकड़ ज़मीन नदी से छीन लेने की है।अपने उद्गम से इलाहाबाद संगम तक बहने वाली नदी यमुना, गंगा की सहायक नदी है। यमुना की कुल लंबाई लगभग 1370 किमी. है। भू- भौतिकी के हिसाब से यमुना को लगभग पांच हिस्सों में किया जा सकता है।

पहला हिस्सा यमुनोत्री (उत्तराखंड) से हथिनीकुंड बैराज (यमुनानगर) तक 177 किमी
दूसरा हिस्सा हथिनीकुंड बैराज से वजीराबाद (दिल्ली) तक 224 किमी
तीसरा हिस्सा वजीराबाद बैराज से ओखला बैराज (दिल्ली) तक 22 किमी
चौथा हिस्सा ओखला बैराज से चम्बल नदी के यमुना में मिलने तक (इटावा के पास) 490 किमी
पांचवा हिस्सा चम्बल नदी संगम से गंगा संगम तक (इलाहाबाद) 468 किमी।

संरक्षा मुहाने से शुरू की जाए

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गंगा : अतीत से अब तक

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Source: 
यू-ट्यूब

भारतीय संस्कृति में नदियों का काफी महत्व रहा है। वैसे देखा जाए तो हर सभ्यता के विकास का मार्ग नदियों ने ही प्रशस्त किया है। दुनिया की बड़ी नदियों में से एक है गंगा। भारत में इसे बहुत ही पवित्र और आस्था के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है।
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http://www.youtube.com

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हिमालय में एक और भगीरथ प्रयास

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Author: 
आशुतोष उपाध्याय
Source: 
दूधातोली लोक विकास संस्थान, जनवरी 2003
उफरैंखाल प्रयोग उत्तरांचल में जलप्रबंध व ग्रामीण विकास के टिकाऊ विकल्प का जीता-जागता उदाहरण है और विश्वबैंक के कर्ज से अरबों रुपयों की असफल योजनाएं ढो रही सरकारों के मुंह पर करारा तमाचा यह बता रहा है कि आर्थिक तंगी से गुज़र रहे इस नवगठित राज्य में यदि प्रत्येक ग्राम पंचायत ईमानदारी से उफरैंखाल प्रयोग को अपने यहां दोहरा ले तो बिना किसी भारी खर्चे और सरकारी अमले के मौजूदा जल संकट से निजात पाई जा सकती है। लेकिन पानी के दाम लगाने की चिंता में दुबली होती जा रही राष्ट्रीय जल नीति के चश्मे से क्या उफरैंखाल के भगीरथ प्रयास के मर्म को समझा जा सकता है?आज दुनिया में पानी के संभावित भारी कारोबार पर कब्ज़ा करने के लिए मोर्चे सज रहे हैं। जल-प्रबंध धीरे-धीरे निजी कारपोरेट कंपनियों और बैंकों के दायरे में सिमट रहा है। सरकारें नदियों तक को बेच देने पर आमादा हैं और यह तय है कि जल संकट नई सदी में सबसे बड़े सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों का कारण बनेगा। अपने देश की लगभग 80 प्रतिशत आबादी को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है और यह स्थिति साल-दर-साल बिगड़ती जा रही है। ऐसे निराशा भरे दौर में हिमालय की वादियों में ग्रामीणों की संगठित शक्ति से एक ऐसा भगीरथ प्रयास चल रहा है जिसने सूखी पहाड़ियों के बीच एक गंगा उतार दी है। उत्तरांचल में चमोली, पौड़ी और अल्मोड़ा जिले में फैले दूधातोली क्षेत्र में काम कर रहे दूधातोली लोक विकास संस्थान, उफरैंखाल ने बिना किसी सरकारी इमदाद और ताम-झाम के पिछले दो दशकों में एक सूखी धारा में प्राण लौटा कर यह साबित कर दिया है कि यदि ग्रामीणों पर भरोसा किया जाय और उन्हें उनकी परंपरागत क्षमताओं का अहसास कराया जाय तो भगीरथ का गंगा अवतरण भी दोहराया जा सकता है।

इस खबर के स्रोत का लिंक: 

http://www.cseindia.org

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गंगा चिंतन

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Author: 
विमल भाई
जहां बांध बनने के समय चेतना नही थी वहां पर अब लोग खड़े हो रहे है। हां कहीं-कहीं पर प्रभावित बांध के पक्ष में भी खड़े हुए हैं और फिर भुगत रहे हैं। किंतु यह स्पष्ट है कि बांधों से कोई रोज़गार नहीं बढ़ा है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्वीकृतियों के अनुसार बांध कंपनियां ही अपनी रिपोर्ट बना कर भेज देती हैं। बाकी पर्यावरणीय और पुनर्वास के पक्ष की किसी शर्त का पालन होता है या नहीं इसकी कोई निगरानी नहीं। बस सरकारी कागजात के पुलिंदे बढ़ते जा रहे हैं।करोड़ों लोगों की आस्था का केन्द्र गंगा को मात्र बिजली बनाने का हेतु मान लिया जाए? गंगा के शरीर पर बांध बनाकर गंगा के प्राकृतिक स्वरूप को समाप्त किया जा रहा है। कच्चे हिमालय को खोद कर सुरंगे बनाई जा रही हैं। जिससे पहाड़ी जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। गंगा नदी नहीं अपितु एक संस्कृति है। पावन, पतितपावनी, पापतारिणी गंगा को मां का स्थान ना केवल हमारे पुराणों में दिया गया है वरन् गंगाजी हमारी सभ्यता की भी परिचायक हैं। वैसे तो गंगा का पूरा आधार-विस्तार अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को पार करता है। भारत देश में भी गंगा उत्तराखंड से उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में सागर से मिलती है। हम यदि गंगा की उपत्याकाओं और उनके जल संग्रहण क्षेत्र को भी समेटे तो हरियाणा-मध्य प्रदेश और उत्तर-पूर्व राज्यों को भी जोड़ना होगा। गंगा का उद्गम उत्तराखंड से होता है।

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साफ पानी की दरकार में बीमार हो रहे हैं इटावा के लोग

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उत्तर प्रदेश राज्य जल निगम की इटावा शाखा द्वारा पेयजल के लिए गए नमूनों में जिस प्रकार से पेयजल के अवयवों में फ्लोराइड आयरन एवं नाइट्रेट की मात्रा बढ़ जाने से यह पानी लोगों की अपंगता का कारण बनता जा रहा है। वहीं नाइट्रेट की बढ़ी मात्रा तो बच्चों की मौत का कारण तक बन जाती है। आश्चर्यजनक यह है कि पेयजल के लिए गए नमूनों के बाद शोधकर्ताओं ने साफ किया कि पानी के अवयवों का संतुलन नहीं बनाया जा सकता है और इसका एकमात्र उपाय यही है कि पेयजल की आपूर्ति पानी की टंकी के माध्यम से की जाए। जल ही जीवन है परंतु उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद के तमाम ब्लाकों का पानी जिंदगी के साथ खिलवाड़ कर रहा है।फ्लोराइड की अधिकता बढ़ने के कारण इटावा के कई गांव के बासिंदों में बढ़ रहा है अपंगता का खतरा। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के जिला इटावा में दर्जनों ऐसे गांव है जहां के सरकारी हैंडपंपों के पानी में लगातार फ्लोराइड की मात्रा बढ़ती चली जा रही है नतीजतन पानी का इस्तेमाल करने वालों के सामने कई किस्म के खतरे खड़े हो रहे हैं। पानी में पनप रहे इन्हीं ख़तरों की आशंकाओं के मद्देनज़र उत्तर प्रदेश सरकार की ओर स्वजलधारा योजना की शुरूआत करने की कवायद कर दी गई है लेकिन इस योजना पर भी प्रभावित लोगों की ओर से सवाल खड़े किये जा रहे हैं प्रभावित लोगों का कहना है कि राजनीति से प्रेरित होकर इस योजना को लागू कराया जा रहा है। मौसम में लगातार हो रहे असंतुलन ने भूजल को बुरी तरह प्रदूषित किया है। पीने के लिए सरकार द्वारा लगवाए गए हैंडपंपों के पानी में जिस प्रकार से रासायनिक अवयवों का संतुलन बिगड़ा है, उससे यह पानी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य जल निगम की इटावा शाखा द्वारा पेयजल के लिए गए नमूनों में जिस प्रकार से पेयजल के अवयवों में फ्लोराइड आयरन एवं नाइट्रेट की मात्रा बढ़ जाने से यह पानी लोगों की अपंगता का कारण बनता जा रहा है।

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बुंदेलखंड: कछु नई बचो राम रे...!

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Author: 
प्रशांत दुबे
Source: 
सर्वोदय प्रेस सर्विस, अप्रैल 2013
बुंदेलखंड आने वाले कल की भयावह तस्वीर आज हमारे सामने लाकर हमें चेताने का प्रयास कर रहा है, लेकिन हम यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न कि दुनिया का सबसे बढ़ा आश्चर्य क्या है कि उत्तर को ही यथार्थ मान बैठे हैं कि सब कुछ नष्ट हो जाएगा तब भी हम बचे रहेंगे। इस दिवास्वप्न को झकझोरने की कोशिश लगातार जारी है, लेकिन शुतुरमुर्ग की मानसिकता हम सब में समा गई है।एक बड़ा सवाल है कि बुंदेलखंड में क्या वास्तव में जलवायु परिवर्तन ने दस्तक दे दी है? कुछ शोध और अध्ययन सामने आए हैं जो कहते हैं कि कहीं कुछ गर्म हो रहा है और जिसके चलते ज़मीन पर भी कुछ असर दिखने लगा है। युनाइटेड नेशंस इंस्टीट्यूट फॉर ट्रेनिंग एंड रिसर्च (संयुक्त राष्ट्र प्रशिक्षण एवं शोध संस्थान) के अनुसार इस सदी के अंत तक बुंदेलखंड का तापमान 2 से 3.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। डेवलपमेंट आल्टरनेटिव की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2030 तक ही बुंदेलखंड में तापमान बढ़कर 1.5 डिग्री तक बढ़ जाएगा। वहीं पुणे स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मिटियॉरलजी (भारतीय उष्ण देशीय मौसम विज्ञान संस्थान) के मुताबिक बुंदेलखंड अंचल में शीतकालीन वाष्पीकरण घटकर 50 फीसदी से भी कम रह जाएगा। ऐसी स्थिति में खरीफ की फसल को नुकसान होगा और ज़मीन पैदावार भी कम देगी। शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसा ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से हो रहा है। इसके चलते अरब सागर के ऊपर का तापमान बढ़ रहा है।

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दो नदियों की प्रेमगाथा

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Author: 
अश्वनी वर्मा
Source: 
जनसत्ता रविवारी, 14 अप्रैल 2013
हिमाचल के लाहौल स्पीति जिले में बहती चंद्रभागा नदी का सौंदर्य और बहाव अनोखा है। किवदंतियों और पौराणिक कथाओं से जुड़ी यह नदी तीर्थयात्रियों के साथ ही दूसरे पर्यटकों को भी आकर्षित करती है। इसके धार्मिक महत्व और सुंदरता के बारे में बता रहे हैं अश्वनी वर्मा।

चंद्र और भागा नदी का मिलन स्थलचंद्र और भागा नदी का मिलन स्थलहिमाचल के लाहौल स्पीति जिले में अथाह सौंदर्य है। हिमालय की गोद में बसे इस जिले में चंद्रभागा नदी में अनोखा प्रवाह है। चंद्र नदी चंद्रमा की पुत्री और भागा सूर्य का पुत्र माना जाता है।

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दिल्ली जल बोर्ड का बजट

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Source: 
टोटल टीवी, 11 अप्रैल 2013

दिल्ली जल बोर्ड का 2013-14 का बजट 3952 करोड़ रुपए का प्रस्तावित किया गया है। बजट में 1869 करोड़ रुपए योजनागत कामों में और 2082 करोड़ रुपए गैर योजनागत मद में स्वीकृत किया गया है।

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प्रकृति

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Author: 
सोनिया कुमार
Source: 
जनसत्ता रविवारी, 14 अप्रैल 2013

एक पेड़ था बहुत बड़ा
और अपनी अनोखी छाया से भरा
जितनी सुंदर उसकी काया
उतनी अद्भुत उसकी माया

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बांधों की निगरानी

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Author: 
विमल भाई
Source: 
माटू जनसंगठन
मंत्रालय ने ये भी नहीं देखा कि टिहरी बांध परियोजना के नीचे गंगा का क्या हाल है? नीचे भागीरथी गंगा को मक डालने का क्षेत्र बनाया हुआ है। पहले से ही सूखती-भरती गंगा की स्थिति और पारिस्थितिकी बर्बाद हुई। उर्जा मंत्रालय ने भी कभी पलट कर नहीं देखा। अलकनंदा गंगा पर विष्णुप्रयाग जविप राज्य का पहला निजी बांध है। इसकी सुरंग के कारण से धसके चाई गांव के लोगो में न तो सबको ज़मीन मिली न समुचित मुआवजा कि वे अपना मकान बना सके। सरकार ने रुड़की यूनिवर्सिटी से इस बात की जांच करवाई की उनके मकान परियोजना के कारण धंसे या प्राकृतिक आपदा की वजह से।केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के कई विभाग हैं जिसमें आई. ए. डिविजन यानि प्रभाव आकलन, बड़ा ही प्रमुख विभाग है। उसका काम है कि विभिन्न परियोजनाओं के पर्यावरणीय असरों की निगरानी करना। किसी भी परियोजना को पहले मंत्रालय से पर्यावरण स्वीकृति और वन स्वीकृति लेनी पड़ती है। दोनों ही वास्तव में मज़ाक जैसे हो गये है क्योंकि ये पत्र जारी करने के बाद पर्यावरण मंत्रालय ने कभी अपनी दी गई इन स्वीकृतियों के पालन का कोई संज्ञान नही लिया। पर्यावरण मंत्रालय के लखनऊ स्थित क्षेत्रीय कार्यालय में सिर्फ चार-पांच कर्मचारी हैं। जिन पर हजारों परियोजनाएं देखने की ज़िम्मेदारी है। समझा जा सकता है कि वे कितनी निगरानी कर पाते होंगे। लोहारीनाग पाला जविप भागीरथीगंगा पर आज की तारीख में बंद है। माटू जनसंगठन की जांच से मालूम पड़ा जिस समय सुरंग से मक निकाली जाती थी तो उसे पहाड़ पर जहां-तहां और गंगा में भी सीधे भी फेंका गया। इसके चित्र लेखक के पास मौजूद है। वहां पर काम कर रही पटेल कंपनी पर बहुत बड़ा प्रश्न भी आया उसकी जांच की भी बात आई। मक को सड़क के किनारे डाला गया जिससे रास्ता कम हुआ और मई 2008 में कम रास्ते के कारण बस गंगा में गिरी।

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नदियों के पास रहने वाले समाज की अनदेखी

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Author: 
सुरेश भाई
नदियों पर बांधों की श्रृंखलाएं बनाने की परियोजनाओं को महत्व दिए जाने से नदियों से लोगों का रिश्ता टूटकर निजी कंपनियों और पूंजीपति वर्ग के हाथों में नदियां चली जाएंगी। पानी और जंगल का जिस तरह रिश्ता है, उसे बरकरार रखना भी जलनीति का मुख्य बिन्दु होना चाहिए। गाड़-गदेरों व नदियों से पानी को मोड़कर सिंचाई नहरों मे आने वाले पानी का इस्तेमाल बहु उपयोगी होना चाहिये। प्रत्येक सिंचाई नहर से एक घराट चलाकर अथवा टरबाईन चलाकर बिजली बनाने का प्रयोग हमारे प्रदेश में मौजूद हैं। जिसका अनुकरण सरकार को जलनीति बनाते समय करना चाहिए। वर्षा जल संग्रहण के पारंपरिक तरीकों से सरकार को सीखना होगा। उत्तराखंड राज्य समेत सभी हिमालयी राज्यों में सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजनाओं के कारण नदियों का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़ गया है। ढालदार पहाड़ी पर बसे हुए गाँवों के नीचे धरती को खोदकर बांधों की सुरंग बनाई जा रही है। जहां-जहां पर इस तरह के बांध बन रहे हैं वहां पर लोगों द्वारा सवाल उठाये जा रहे हैं कि, मुर्दाघाटों की पवित्रता पानी के बिना कैसे बचेगी़? इन बांधों का निर्माण करने के लिए निजी कंपनियों के अलावा एनटीपीसी और एनएचपीसी जैसी कमाऊ कंपनियों को बुलाया जा रहा है। राज्य सरकार ऊर्जा प्रदेश का सपना भी इन्हीं के सहारे पर देख रही है। ऊर्जा प्रदेश बनाने के लिए पारंपरिक जल संस्कृति और पारंपरिक संरक्षण जैसी बातों को बिलकुल भुला दिया गया है। इसके बदले रातों रात राज्य की तमाम नदियों पर निजी क्षेत्रों के हितों में ध्यान में रखकर नीति बनाई जा रही है। निजी क्षेत्र के प्रति सरकारी लगाव के पीछे भी, दुनिया के वैश्विक ताक़तों का दबाव है। दूसरी ओर इसे विकास का मुख्य आधार मानकर स्थानीय लोगों की आजीविका की मांग को कुचला जा रहा है। बांध बनाने वाली व्यवस्था ने इस दिशा में संवादहीनता पैदा कर दी है।

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कावेरी : लहर में जहर

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Author: 
पंकज चतुर्वेदी
Source: 
लोकमत समाचार, 20 अप्रैल 2013
पौराणिक कथाओं में कुर्गी-अन्नपूर्णा, कर्नाटक की भागीरथी और तमिलनाडु में पौन्नई यानी स्वर्ण-सरिता कहलाने वाली कावेरी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर विवाद से तो सभी परिचित हैं लेकिन इस बात की किसी को परवाह नहीं है कि यदि इसमें घुलते जहर पर तत्काल ध्यान नहीं दिया गया तो जल्दी ही हालात काबू से बाहर हो जाएंगे। दक्षिण की जीवन रेखा कही जाने वाली इस नदी में कहीं कारखाने का रसायन-युक्त पानी मिल रहा है तो कहीं शहरी गंदगी का निस्तार सीधा इसमें हो रहा है, कहीं खेतों से बहते जहरीले रसायनयुक्त खाद और कीटनाशक इसमें घुल रहे हैं तो साथ ही नदी हर साल उथली होती जा रही है। बैंगलुरू सहति कई विश्वविद्यालयों में हो रहे शोध समय-समय पर चेता रहे हैं कि यदि कावेरी को बचाना है तो उसमें बढ़ रहे प्रदूषण पर नियंत्रण जरूरी है, लेकिन बात कागजी घोड़ों की दौड़ से आगे बढ़ नहीं पा रही है।

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सांसत में धरती

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Author: 
शुभू पटवा
Source: 
जनसत्ता रविवारी, 21 अप्रैल 2013
इस धरती की सतह का सत्तर प्रतिशत हिस्सा सड़कों, खदानों और बढ़ते शहरीकरण की भेंट चढ़- गया है। यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि 2050 तक हमारे वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा दोगुनी हो जाएगी और हम भयानक बीमारियों की गिरफ़्त में होंगे। दुनिया की आधी से अधिक नदियां प्रदूषित होंगी और इनका जल स्तर घट जाएगा। सदा नीरा यमुना और गंगा के हालात हमारे सामने हैं। संताप हरती इनकी ‘कल कल’ ध्वनि सुनने को कान आतुर-व्याकुल ही रह रहे हैं।भारतीय परंपरा और विश्वास कहता है कि मां की सेवा करने वाला सत्पुरुष कहलाता है। वह दीर्घायु, यश, कीर्ति, बल, पुण्य, सुख, लक्ष्मी और धनधान्य को प्राप्त करता है। यदि कोई मानता हो तो, यह भी कहा गया है कि ऐसा पुरुष स्वर्ग का अधिकारी भी हो सकता है। अब स्वर्ग किसने देखा है और अगर किसी ने देखा है तो आकर कब बताया है कि स्वर्ग कैसा होता है? पर, अगर कोई सत्पुरुष है, तो क्या यही कम है? सत्पुरुष होने के साथ जो बातें जुड़ी हैं और जिनका जिक्र हमने किया है क्या वहीं स्वर्गिक नहीं है? यही स्वर्ग है। स्वर्ग या नरक - सब इस धरती पर है। संपूर्ण प्राणी जगत इसी धरती के अंग है। इसी में सब समाए हुए हैं। हम कह सकते हैं कि यही धरती सब को अपने में समाए हुए हैं, सहेजे हुए हैं। इसीलिए धरित्री है। सबको अपने में धारण किए हैं। यही धरती का धर्म है।

यह धरती तो अपना धर्म निभा रही है, पर जिस धरती को हम मां कहते हैं, क्या हम मनुष्य भी अपना धर्म निभा रहे हैं? इसी धरती में रत्नगर्भा खनिज संपदा है।

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धरती की डाक सुनो रे केऊ

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यदि हम सचमुच प्रकृति के ग़ुलाम नहीं बनना चाहते, तो जरूरी है कि प्रकृति को अपना ग़ुलाम बनाने का हठ और दंभ छोड़े। नदियों को तोड़ने, मरोड़ने और बांधने की नापाक कोशिश न करें। पानी, हवा और जंगलों को नियोजित करने की बजाय प्राकृतिक रहने दें। बाढ़ और सुखाड़ के साथ जीना सीखें। जीवन शैली, उद्योग, विकास, अर्थव्यवस्था आदि आदि के नाम पर जो कुछ भी करना चाहते हैं, करें... लेकिन प्रकृति के चक्र में कोई अवरोध या विकार पैदा किए बगैर। इसमें असंतुलन पैदा करने की मनाही है। हम प्रकृति को न छेड़ेंगे, प्रकृति हमें नहीं छेड़ेगी। हमें भले ही डाक सुनने की जल्दी न हो, धरती को जल्दी है। पिछले कुछ समय से धरती अपनी डाक जल्दी-जल्दी भेजने लगी है। डाकिए ज़रूर अलग हैं, लेकिन इधर धरती द्वारा भेजी हर डाक का संदेशा एक ही है - “जागिए! वक्त कम है।”अब हर बरस... हर ऋतु यही डाक लेकर आती है; सर्दी, गर्मी.. मानसून सभी। गर्मी आने से पहले ही महाराष्ट्र आ पहुंचा पानी के अकाल संदेशा यही है, तो ईरान से उठकर भारत तक पहुंचने वाले झटकों का संदेशा भी यही है। चीन के सियुचान प्रांत में आए ताज़ा झटके और मौतों का संदेश भी भिन्न नहीं है। एक तरफ ’ग्लोबल वार्मिंग’ को लेकर हायतौबा है, तो दूसरी ओर हिमयुग की आहट सुनाई देती रहती है। समझ न आने वाला अजीब सा विरोधाभास है यह। पिछले कुछ समय से हर बरस भारतीय राष्ट्रीय वार्षिक वर्षा औसत में मामूली ही सही, कमी आ रही है; दूसरी तरफ दुनिया के कई देशों में बारिश का औसत बढ़ा है। विषमता को लेकर इससे भी बड़ी चेतावनी बारिश की अवधि, वर्षा क्षेत्रों में आ रहे व्यापक बदलाव व मौसम की अनिश्चिंतता के तौर पर उभरी है। हिमालयी प्रदेशों में बाढ़ और बादल फटने के कारण हुई तबाही की चेतावनी संदेश और साफ हैं। हेमंत और बसंत ऋतुएं ग़ायब हो रही हैं।

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