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समंदर की लहरों पर करियर

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समंदर की लहरों पर करियरHindiWaterThu, 12/19/2019 - 09:58
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दैनिक जागरण (जोश), 18 दिसम्बर 2019

फोटो - independent.co.uk

सेना के विभिन्न अंगो में करियर बनाना तो आम बात है, लेकिन एक ऐसा क्षेत्र भी है जो सेना से मिलता-जुलता है, जहाँ आगे बढ़ने और ऑफिसर बनकर शानदार करियर बनाने की अपार सम्भावनाएं हैं। मर्चेंट नेवी का नाम आते ही कुछ लोगों के जेहन में आता है कि यह क्षेत्र भारतीय नौसेना से जुड़ा होगा। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। इसे एक औद्योगिक क्षेत्र कहा जा सकता है। लेकिन यह क्षेत्र बहुत बड़ा है और इसमें आते ही लोगों का रोमांचकारी सफर शुरू हो जाता है। इसमें समुद्री जहाजों के जरिए सामान और यात्रियों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाया जाता है। इस व्यापक क्षेत्र में सरकारी और प्राइवेट दोनो ही तरह की कम्पनियां काम करती हैं। श्री राम इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन स्टडीज के चेयरमैन मंजीत लोचव का कहना है कि जिन लोगों को देश-विदेश घूमने का शौक हो और समुद्री लहरों का रोमांचकारी सफर पसंद हो, वे इस क्षेत्र में करियर बना सकते हैं। खास बात है कि इस क्षेत्र में शुरुआत के साथ ही आगे की पढ़ाई करके खुद को बहुत तेजी से आगे बढ़ाया जा सकता है। कोई भी अभ्यर्थी अपनी लगन और मेहनत से मर्चेंट नेवी में महज सात साल में कैप्टन के पद तक जा सकता है। यहाँ सीमैन और कैडेट से कोर्स की शुरुआत होती है। इसके अलावा, मरीन साइंस, नॉटिकल इंजीनियरिंग, ग्रेजुएट मेडिकल इंजीनियर जैसे कोर्स भी किए जा सकते हैं।

सम्भावनाओं का करियर

वैश्वीकरण होने के साथ ही एक देश से दूसरे देश की दूरियां सिमट गई हैं। खुली अर्थव्यवस्था के माहौल में राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय कम्पनियों का कारोबार एक से दूसरे देश में तेजी से बढ़ रहा है। भारत अन्तरराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए तेजी से उभरता उपभोक्ता बाजार भी साबित हो रहा है। विश्व के विभिन्न देशों में उत्पादित माल भारत आ रहा है और भारतीय उत्पाद बड़ी मात्रा में विदेश भेजे जा रहे हैं। इसके साथ ही कार्गो का क्षेत्र तेजी से बड़ा आकार ले रहा है। यही कारण है कि विश्व भर में मर्चेंट नेवी के क्षेत्र में भी काम तेजी से बढ़ रहा है। बड़ी-बड़ी कम्पनियां मर्चेट नेवी के क्षेत्र में अपने पैर पसार रही हैं। इन्ही कम्पनियों की वजह से इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर भी तेजी से बढ़ रहे हैं। मर्चेंट नेवी से जुड़े कोर्स और पाठ्यक्रम करने वालों को शत-प्रतिशत प्लेसमेंट भी मिल रहा है। हालांकि काफी हद तक अभ्यर्थी की व्यक्तिगत योग्यता भी किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।

स्किल्ड लोगों की जरूरत

मर्चेंट नेवी में तेजी से बढ़ती मांग के मुकाबले समुचित शिक्षित और प्रशिक्षित लोगों की आज भी भारी कमी है। इसलिए जरूरी है कि अभ्यर्थी किसी प्रतिष्ठित संस्थान से शिक्षा और प्रशिक्षण प्राप्त करें। इस क्षेत्र में करियर बनाने के लिए संस्थान भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। क्योंकि उचित तकनीकी प्रशिक्षण किसी प्रतिष्ठित संस्थान से ही प्राप्त किया जा सकता है। यदि आप साढ़े 17 से 25 साल के बीच की आयु के हैं और समंदर की लहरों से टकराने वाले रोमांचकारी क्षेत्र में अपना करियर बनाना चाहते हैं, तो मर्चेंट नेवी का फील्ट आपके लिए मुफीद है।

सम्भावनाएं

मर्चेंट नेवी में करियर बनाने के लिए ज्यादातर मौके नॉटिकल यानी डेक, इंजीनियरिंग और कैटरिंग के फील्ड में मिलते हैं। हालांकि 10वीं पास करने के बाद भी सी-ट्रेनिंग, इलेक्ट्रिकल, ऑफिसर, रेडियो ऑफिसर, नॉटिकल सर्वेयर, पायलट ऑफ शिप और कैप्टन के पदों तक पहुँच सकते हैं।

शैक्षिक योग्यता

मर्चेंट नेवी में शामिल होने के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता के रूप में 10वीं पास होना जरूरी है। हालांकि, 12वीं पास लोगों के लिए भी अलग कोर्स हैं, जो इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के नए-नए अवसर देते हैं। बीटेक और डिप्लोमाधारियों के लिए भी कोर्स मौजूद हैं। मर्चेंट नेवी में करियर की शुरुआत करने के लिए अभ्यर्थी का शारीरिक रूप से स्वस्थ होना भी बेहद जरूरी है।

सैलरी

मर्चेंट नेवी के क्षेत्र में करियर की शुरुआत ही 50 से 60 हजार रुपए की मासिक सैलरी से होती है। सीमैन या कैडेट से शुरुआत के बाद इस क्षेत्र में अभ्यर्थी दो साल की सेवा के बाद ऑफिसर बन सकते हैं। सात साल की सेवा के बाद कैप्टन बन जाते हैं। इस क्षेत्र में अधिकारियों की सैलरी 10 लाख रुपए मासिक तक होती है। हालांकि इसके लिए नौकरी के साथ-साथ योग्यता बढ़ाना भी जरूरी है।

प्रमुख संस्थान

  1. श्री राम इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन स्टडीज दिल्ली - www.simsnd.in
  2. जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी दिल्ली - https://jmi.ac.in
  3. महर्षि दयानन्द यूनिवर्सिटी, रोहतक, हरियाणा - http://mdu.ac.in
  4. गुरु जम्भेश्वर यूनिवर्सिटी, हिसार, हरियाणा - www.gjust.ac.in

उपलब्ध कोर्स

मर्चेंट नेवी में करियर बनाने के लिए 6 महीने के कोर्स से शुरुआत होती है। छह माह का प्री सी जनरल पर्पज रेटिंग कोर्स होता है। एक साल का डीएनएस प्री सी डिप्लोमा इन नॉटिकल साइंसेज का कोर्स कराया जाता है। हालांकि इसके लिए फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथ्स की पढ़ाई करना जरूरी है। इनके अलावा, मरीन इंजीनियरिंग एवं नेवल आर्किटेक्चर एंड शिप बिल्डिंग में बीटेक, नॉटिकल साइंस मरीनटाइम साइंस व शिप बिल्डिंग एंड रिपेयर्स में बीएससी, नॉटिकल साइंस में डिप्लोमा आदि कोर्स भी कराए जाते हैं। इन विषयों में एमटेक व पीजी डिप्लोमा भी कर सकते हैं।

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मोडिस तकनीक से जाना जा सकेगा हिमालय पर ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव

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मोडिस तकनीक से जाना जा सकेगा हिमालय पर ग्लोबल वार्मिंग का प्रभावHindiWaterThu, 12/19/2019 - 13:08

पृथ्वी पर जीवन के लिए हिमालय अहम है। यहां से निकलने वाली सदानीरा नदियां भूमि को सींचती हैं, जिससे लोगों को अन्न प्राप्त होता है। साथ ही रोजगार के अवसर भी बढ़ते हैं। वहीं मौसम चक्र को बनाए रखने में भी हिमालय का अहम योगदान है, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा है। ग्लेशियरों और हिमालय की बर्फ तो तेजी से पिघल ही रही है, साथ ही हिमालय में उथल-पुथल भी बढ़ गई है। इससे विश्वभर के वैज्ञानिक और पर्यावरणविद काफी चिंतित हैं तथा समाधान खोजने में लगे हैं, किंतु अभी तक कोई उपयुक्त और सटीक तकनीक न होने के कारण हिमालय क्षेत्र का अध्ययन करने के लिए पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध नहीं हो पाते थे। इससेे हिमालय की हर हलचल (ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव, बर्फ पिघलने की दर, जल वाष्प, पारिस्थितिकी आदि) का सटी अनुमान लगाना संभव नहीं हो पाता था, लेकिन ‘मोडिस’ तकनीक से अब ये सब संभव हो सकेगा और शोधकर्ताओं को भी हिमालयी क्षेत्र में होने वाली उथल-पुथल को जानने के लिए मौसम कंेद्रों के आंकड़ों पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं रहेगी।

हिमालय पर्वतमाला का पश्चिमार्द्ध कश्मीर घाटी से उत्तराखंड तक फैला है, जो कई नदियों का उद्गम स्थल है, लेकिन पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में होने वाली हलचल का अध्ययन करने के लिए मुक्तेश्वर और जोशीमठ स्थित भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के केंद्र पर ही निर्भर रहता पड़ता है। यहां सौ वर्षों का आंकड़ों ही उपलब्ध है, लेकिन मुश्किल परिस्थितियों केंद्रों से आंकड़ें प्राप्त करने में कठिनाई होती है, जबकि अन्य मौसम केंद्र 40 से 50 साल ही पुराने हैं। आंकड़ें समय पर, पर्याप्त या सटीक मिलने पर शोधकर्ताओं को अध्ययन करने में परेशानी का सामना करना पड़ता है। सबसे ज्यादा समस्या तो आर्कटिक जैसे स्थानों के आंकड़ों में आती हैं, जहां परिस्थितियां काफी विषम हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के लखनऊ स्थित बीरबल साहनी पुरा विज्ञान संस्थान (बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पेलिओसाइंसेज, बीएसआइपी) के वैज्ञानिक मयंक शेखर ने स्वीडन विश्वविद्यालय के साथ मिलकर ‘मोडिस’ तकनीक विकसित की है। ‘मोडिस’ (सेटेलाइट माॅडरेट रिजाॅल्यूशन इमेजिनिंग स्पेक्ट्राडायोमीटर) तकनीक की मद्द से हिमालय क्षेत्र की हर हलचल का सटीक अनुमान लगाया जा सकेगा

शोधकर्ता मयंक शेखर ने दैनिक जागरण को बताया कि क्लाउड फ्री डेटा के बिना हिमालयी क्षेत्र का अध्ययन करना संभव नहीं है, इसलिए अध्ययन के लिए क्लाउड फ्री डेटा की जरूरत पड़ती है। इसलिए हमने अपने शोध के लिए काल्पा, काजा, नामगिया, सहित मौसम विभाग के 11 केंद्रों से सात जुलाई वर्ष 2002 से 31 दिसंबर 2009 और 13 दिंसबर 2015 से 30 सितंबर 2019 के बीच का संग्रहित आंकड़ा जुटाकर ‘मोडिस’ के माध्यम से उपग्रहों के आंकड़ों से इसकी तुलना की। शोध में सामने आया कि हिमालय मे हवा और भू-सतह के तापमान में मतबूत संबंध हैं। इसके आधार पर कहा जा सकता है कि हिमालयी क्षेत्र में होने वाली उथल पुथल को जानने के लिए केवल मौसम विज्ञान केंद्रों के आंकड़ों पर निर्भर रहती की जरूरत नहीं है। साथ ही आर्कटिक जैसे इलाको की भी सटीक जानकारी हासिल की जा सकेगी, जो अध्ययन में लाभकारी सिद्ध होगी।

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कृषि आधारित उद्योग: चुनौतियां और समाधान

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कृषि आधारित उद्योग: चुनौतियां और समाधानHindiWaterThu, 12/19/2019 - 13:22
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कुरुक्षेत्र, दिसम्बर 2019

कृषि-आधारित उद्योग अर्थव्यवस्था के विकास के लिए काफी अहम हैं। चूंकि ज्यादातर कृषि-आधारित उद्योग लघु, छोटे और मध्यम श्रेणी के हैं, और मुमकिन है कि उनके पास सस्ते या सब्सिडी वाले आयात से प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता नहीं हो। ऐसे में सरकार की भूमिका काफी अहम हो जाती है। अन्य देशों के निर्यातकों की अनुचित व्यापार गतिविधियों के कारण सरकार को कृषि-आधारित उद्योगों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करने की जरूरत है।

कृषि-आधारित उद्योग, अर्थव्यवस्था के प्राथमिक और सहायक क्षेत्रों के बीच पारस्परिक निर्भरता का बेहतर उदाहरण है। जाहिर तौर पर यह निर्भरता दोनों क्षेत्रों के लिए फायदेमंद है। यह साबित हो चुकी है कि भारत में कृषि-आधारित उद्योग स्थानीय संसाधनों का उपयोग कर गरीबी और बेरोजगारी की समस्या को दूर करने में काफी मददगार हैं। हालांकि, अन्य देशों से खराब गुणवत्ता वाले आयात के कारण अक्सर इन उद्योगों की प्रतिस्पर्धा क्षमता कमजोर पड़ जाती है। इन उद्योगों को अलग-अलग देशों के व्यापार प्रतिबंधों का भी सामना करना पड़ता है। इस लेख में व्यापार सम्बन्धी उन दिक्कतों के बारे में बताया गया है, जिनका सामना इन उद्योगों को करना पड़ता है।

कृषि आधारित उद्योग

जैसाकि नाम से ही पता चलता है, कृषि-आधारित उद्योग को कृषि उत्पादों के रूप में कच्चा माल मिलता है। इस तरह के उद्योगों का दायरा कई क्षेत्रों में फैला है-मसलन खाद्य प्रसंस्करण, रबर के उत्पाद, जूट, कपास, वस्त्र, तम्बाकू, लकड़ी आदि। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के उद्योग सम्बन्धी आंकड़ों के अनुसार, ऐसे उद्योगों से जुड़ी कई इकाइयां हैं और इनमें बड़ी संख्या में लोग काम करते हैं। (सारणी-1) मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, लगभग 43.6 प्रतिशत फैक्ट्रियां कृषि-आधारित उद्योगों से सम्बन्धित है। तकरीबन इसी अनुपात में (42.7 प्रतिशत) लोग कृषि आधारित उद्योगों से जुड़े हैं। जैसा कि सारिणी-1 से स्पष्ट है, न तो स्थाई पूंजी और न ही आमदनी के मामले में इन उद्योगों की बड़ी हिस्सेदारी है। इन उद्योगों में सबसे ज्यादा फैक्ट्रियां खाद्य उत्पादों, वस्त्र और रबड़ उत्पादों से जुड़ी हैं। जहाँ तक रोजगार का सवाल है, तो खाद्य उत्पाद, वस्त्र और परिधान जैसे क्षेत्रों की कम्पनियां इसमें अग्रणी हैं।

डी.जी.सी.आई.एंड.एस. के आंकड़ों की माने, तो देश के कुल निर्यात में सूक्ष्म, लघु और मध्यम-स्तर के उद्योगों की हिस्सेदारी तकरीबन 20 फीसदी है और पिछले 4 साल में निर्यात 5,600 करोड़ डॉलर से 5,900 करोड़ डॉलर के बीच रहा है (सारणी-2)। इनमें वस्त्र, रेडीमेड कपड़े आदि के निर्यात की हिस्सेदारी ज्यादार है।

सरकारी हस्तक्षेप

कृषि-आधारित उद्योगों में रोजगार पैदा करने की जबर्दस्त सम्भावनाएं हैं। साथ ही, ये उद्योग विदेशी मुद्रा की कमाई का भी अहम जरिया हैं। जाहिर तौर पर इन उद्योगों के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। घरेलू बाजार में प्रतिस्पर्धा करने के लिए इन उद्योगों को अवसर प्रदान करने की खातिर कभी-कभी सरकार के लिए हस्तक्षेप या पहल करना जरूरी हो जाता है। उदाहरण के तौर पर इन उद्योगों को क्लस्टर या समूह के रूप में संगठित करना, कौशल और तकनीकी विकास के लिए जरूरी पहल, वित्तीय मदद की सुविधा, बाजार की चुनौतियों से निपटना, मार्केटिंग इकाइयों का नवीनीकरम, कारीगरों के उत्पादों का प्रदर्शन, प्रदर्शनी आयोजित करना, अन्तरराष्ट्रीय प्रदर्शनी में भागीदारी को बढ़ावा देना आदि। इसके अलावा, सरकार का ध्यान यह सुनिश्चित करने पर भी है कि ऐसे उद्योग अन्य देशों के निर्यातकों के अनुचित व्यापार नियमों के शिकार न बनें।

अनुचित व्यापार नियम

अन्य देशों के निर्यातकों की तरह से अपनाए गए अनुचित व्यापार नियमों के कारण कृषि-आधारित उद्योगों की प्रतिस्पर्धा क्षमता कमजोर पड़ जाती है। इस तरह का प्रचलन दो स्वरूपों में देखने को मिलता है।

सारिणी-1 एएसआई 2017-18 (पी) में प्रमुख औद्योगिक समूह से जुड़ी मुख्य जानकारी

विवरण

फैक्ट्रियां

स्थायी पूंजी

काम करने वाले कुल लोग

कुल मेहनताना

1

2

3

4

5

खाद्य उत्पाद

37,833

2,11,19,573

17,72,399

34,21,585

टेक्सटाइल

17,957

1,66,68,852

16,78,561

31,31,708

रबड़ उत्पाद

14,193

95,92,433

7,12,872

18,01,918

परिधान

10,498

28,57,883

11,89,520

20,99,762

कागज और इससे बने उत्पाद

7,109

58,59,566

2,84,057

6,81,274

तम्बाकू उत्पाद

3,591

6,08,951

4,61,335

2,94,121

चमड़ा और इससे बने उत्पाद

4,617

11,23,972

3,87,134

6,84,473

कपास से रूई तैयार करना, बीज प्रसंस्करण

3,316

4,73,207

79,471

1,16,224

लकड़ी और इससे जुड़े उत्पाद, (फर्नीचर को छोड़कर)

4,565

6,88,936

98,653

1,63,465

उप योग

1,03,679 (43,6%)

5,89,93,373 (17,9%)

66,64,002 (42.7%)

1,23,94,530 (29.6%)

सम्पूर्ण भारत का आंकड़ा

2,37,684

32,93,41,000

1,56,14,598

4,18,35,726

स्रोतः उद्योगों का वार्षिक सर्वे, 2017-18, सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय, भारत सरकार प्लास्टिक उत्पाद समेत

1. डपिंग

ऐसा देखा गया है कि अन्य देशों के निर्यातक अक्सर कापी सस्ती दरों पर भारतीय बाजार में अपना उत्पाद भेज देते हैं। निर्यातक अपने घरेलू बाजार में जिस दर पर उत्पाद बेचते हैं, उससे काफी कम में वे भारतीय बाजार में बड़ी मात्रा में माल उतार देते हैं।

2. सब्सिडी

भारत जिन देशों से आयात करता है, उन देशों की सरकारें अपनी निर्यातकों को बड़े पैमाने पर सब्सिडी मुहैया कराती हैं।

दोनों स्थितियों में कम्पनी की प्रतिस्पर्धी क्षमता चौपट हो जाती है और कुल मिलाकर घरेलू बाजार नुकसान में रहता है। विश्वर व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) ऐसे मामलों को एक समझौते के तहत अनुचित व्यापार नियमों की श्रेणी में रखता है। विश्व व्यापार संगठन से जुड़े जो देश इस तरह की गतिविधियों से परेशान हैं, वे डपिंग और सब्सिडी से नुकसान की स्थिति में क्रमशः एंटी-डपिंग ड्यूटी (एडीडी) और काउंटरवेलिंग ड्यूटी (सीवीडी) लगा सकते हैं। इन शुल्कों से आयात महंगा हो जाता है और घरेलू उद्योगों को काफी हद तक बराबरी के साथ प्रतिस्पर्धा करने का मौका मिलता है।

अन्य देशों के निर्यातकों की अनुचित व्यापार प्रथाओं के कारण भारत में बड़ी संख्या में कृषि-आधारित उद्योगों को नुकसान पहुँचा है। इन उद्योगों को बाजार हिस्सेदारी में कमी, बिना बिके हुए माल में बढ़ोत्तरी, मुनाफे में कमी, नुकसान में बढ़ोत्तरी, बेरोजगारी में बढ़ोत्तरी, विनिर्माण इकाइयों की तालाबंदी के रूप में कई तरह के नुकसान झेलने पड़ते हैं। एक और दिक्कत यह है कि सस्ते आयात की गुणवत्ता का स्तर बेहद खराब होता है, लिहाजा इससे पर्यावरण और स्वच्छता सम्बन्धी समस्याएं भी पैदा होती हैं।

व्यापार सम्बन्धी नियमन

भारत का कस्टम टैरिफ कानून, 1975 और सम्बद्ध एंटी-डपिंग नियम व सीवीडी नियम, 1995 घरेलू विनिर्माताओं को अन्य देशों के निर्यातकों के अनुचित व्यापार प्रथाओं से बचाने के लिए कानूनी कवच मुहैया कराते हैं। भारत सरकार के वाणिज्य विभाग से जुड़ी संस्था डीजीटीआर अर्ध-न्यायिक इकाई है। जब जांच में पता चलता है कि अन्य देशों के निर्यातकों की अनुचित व्यापार प्रथाओं के कारण घरेलू उद्योग को नुकसान पहुंचने की आशंका है, तो यह संस्था नियमों को ध्यान में रखते हुए जरूरी सुझाव देती है। डीजीटीआर की सिफारिश पर भारत सरकार का राजस्व विभाग ड्यूटी में बढ़ोत्तरी करता है।

सारणी-3 में बताया गया है कि भारत ने कृषि-आधारित घरेलू उद्योगों की सुरक्षा के लिए 1995 के बाद से अनुचित व्यापार नियमों के खिलाफ क्या-क्या उपाय किए हैं। 1 जनवरी, 1995 से 31 दिसम्बर, 2018 के बीच टेक्सटाइल क्षेत्र में सबसे ज्यादा एंटी-डपिंग ड्यूटी (एडीडी) लगाई गई। अगर हम कृषि-आधारित उद्योगों की बात करें, तो इसी अवधि में कोई काउंटरवेलिंग ड्यूटी (सीडीडी) नहीं लगाई गई। दरअसल, भारत ने इन उपायों का नियंत्रित इस्तेमाल किया है। विश्व व्यापार संगठन के रिकॉर्ड के मुताबिक, 1 जनवरी, 1995 से 31 दिसम्बर, 2018 के बीच भारत ने सिर्फ दो बार काउंटरवेलिंग ड्यूटी के विकल्प का इस्तेमाल किया। हालांकि, दोनों में से कोई भी कदम कृषि-आधारित उद्योग से सम्बन्धित नहीं थे।

विश्व व्यापार संगठन के मुताबिक,भारत ने 1995 से अब तक कृषि-आधारित उद्योग समेत अन्य उद्योगों के मामले में जिन देशों पर सबसे ज्यादा एंटी-डपिंग ड्यूटी लगाई है, उनमें चीन, यूरोपीय संघ, कोरिया, ताइवाव, थाइलैंड और अमेरिका शामिल है। पिछले कुछ साल में भारत ने जूट जैसे कृषि उत्पादों पर बांग्लादेश और नेपाल के निर्यातकों के खिलाफ जांच शुरू की है। कुछ कृषि उत्पादों के मामले में चीन, इंडोनेशिया, मलेशिया, सऊदी अरब और थाइलैंड के खिलाफ भी जांच शुरू की गई है।

 

सारणी- 2 कृषि-आधारित एमएसएमई का निर्यात

उप-क्षेत्र

2014-15

2015-16

2016-17

2017-18

वेजिटेबल ऑयल और सम्बन्धित अन्य उत्पाद

973

877

893

1,264

तैयार खाद्य पदार्थ, पेय पदार्थ, तम्बाकू और सम्बन्धित उत्पाद

5,918

5,837

6,010

6,205

रबड़ और इससे जुड़े सामान

7,808

7,619

7,787

9,311

चमड़ा, यात्रा सम्बन्धी सामान, हैंडबैंग और इससे मिलते जुलते आइटम आदि

3,872

3,442

3,244

3,312

लकड़ी और इससे बना सामान, लकड़ी का चारकोल, कॉर्क और इससे सम्बन्धित सामान आदि

353

456

415

428

फाइबर से जुड़ी सामग्री, रद्दी कागज या पेपर बोर्ड, कागज व पेपरबोर्ड व इससे सम्बन्धित सामान आदि

1,430

1,447

1,464

1,702

टेक्सटाइल और टेक्सटाइल-आधारित उत्पाद

37,654

36,728

36,477

36,738

उपयोग

58,009

56,405

56,290

58,959

भारत का कुल निर्यात

3,10,338

2,62,291

2,75,852

3,03,376

भारत के कुल निर्यात में कृषि-आधारित एमएसएमई निर्यात का अनुपात (प्रतिशत में)

18.7

21.5

20.4

19.4

स्रोतः डी.जी.सी.ई.एंड.एस; 2 लघु, छोटे और मध्यम उद्योग मंत्रालय

भारत सरकार कृषि-आधारित उद्योगों की सुरक्षा के लिए व्यापार नियमने से जुड़े किस तरह के उपाय करती है, इस बारे में विस्तार से बताने के लिए यहाँ जूट उद्योग का उदाहरण पेश किया जा रहा है। डीजीटीआर की वेबसाइट के मुताबिक, 2017 में डीजीटीआर की सिफारिश पर (एंटी-डपिंग के तत्कालीन महानिदेशक), राजस्व विभाग ने बांग्लादेश से आने वाले जूट उत्पादों पर एंटी-डपिंग ड्यूटी लगाई थी। हालांकि, 2018 में डीजीटीआर को एक और याचिका मिली, जिसमें कहा गया कि निर्यातक एंटी-डपिंग ड्यूटी को नजरअंदाज कर बांग्लादेश से कुछ उत्पादों का निर्यात भारत में कररहे हैं। मामले की जाँच करने पर डीजीटीआर ने पाया कि सम्बन्धित जूट उत्पाद पर एंटी-डपिंग ड्यूटी लगाए जाने के बाद उसका आयात बढ़ गया। इसके अलावा, यह भी देखने को मिला कि सम्बन्धित उत्पाद-जूट की बोरियों को जूट के थैले में बदलने में एंटी-डपिंग नियमों के हिसाब से तय गुणवत्ता सम्बन्धी मानकों का पालन नहीं किया गया। डीजीटीआर का कहना था कि भारत में निर्यातकों द्वारा जूट की बोरियों को बेचने की कीमत और उन्हें घरेलू बाजार में मिलने वाले मूल्य का अंतर ही डपिंग मार्जिन है। यह पाया गया कि बांग्लादेश के निर्यातकों के कारण भारतीय जूट निर्माताओं को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। लिहाजा, डीजीटीआर ने मार्च 2019 में जूट की बोरियों और जूट के थैलों पर मौजूदा एंटी-डपिंग ड्यूटी बढ़ाने की सिफारिश की।

ये मामले इस बात की जानकारी देते हैं कि कृषि-आधारित उद्योग वैसे मामलों में अपनी शिकायतों के निपटारे के लिए डीजीटीआर का दरवाजा खटखटा सकते हैं, जहाँ दूसरे देशों के निर्यात के कारण उन्हें नुकसान हुआ हो या किसी तरह के नियमन के अभाव में इस तरह की आशंका हो। आमतौर पर किसी घरेलू उद्योग द्वारा शिकायत दर्ज करने के बाद डीजीटीआर की तरफ से अनुचित व्यापार नियमों के खिलाफ जाँच शुरू की जाती है। हालांकि, डीजीटीआर की तरफ से खुद भी संज्ञान लिया जा सकता है।

सारिणी-3 1 जनवरी, 1995 से 31 दिसम्बर, 2018 के बीच भारत की ओर से दर्ज एडीडी के मामले

उप क्षेत्र

एडीडी के आंकड़े

रबड़ और इससे जुड़े सामान

96

टेक्सटाइल और इससे जुड़े सामान

74

लकड़ी और इससे बने सामान, लकड़ी का चारकोल, कॉर्क और इससे सम्बन्धित सामान आदि

14

फाइवर से जुड़ी सामग्री, रद्दी कागज या पेपरबोर्ड, कागज व पेपरबोर्ड व इससे सम्बन्धित सामान आदि

12

उप-योग

196

भारत के कुल एडीडी मामले

693

भारत की ओर से दर्ज एडीडी के मामलों में कृषि-आधारित उद्योगों से जुड़े एडीडी का अनुपात (प्रतिशत में)

28.3

स्रोतः विश्व स्वास्थ्य संगठ

घरेलू उद्योगों की सुरक्षा के लिए एंटी-डपिंग ड्यूटी और काउंटरवेरिंग ड्यूटी के अलावा एक और विकल्प है। अगर बड़े पैमाने पर किसी कमोडिटी के आयात के कारण घरेलू उद्योग को नुकसान हो रहा है, तो सरकार इस विकल्प को आजमा सकती है। ऐसी स्थिति में प्रभावित देश ‘सुरक्षा ड्यूटी’ लगा सकते हैं। डीजीटीआर की वेबसाइट पर बताया गया है कि भारत और मलेशिया के बीच व्यापक आर्थिक सहयोग समझौते के मुताबिक, मलेशिया से भारत में पाम ऑयल के निर्यात की अधिकता की स्थिति में द्विपक्षीय जांच शुरू करने की बात है। अन्य देशों द्वारा अनुचित व्यापार नियमों के मामले में भारतीय निर्यातकों के खिलाफ जांच शुरू किए जाने की स्थिति में उन्हें (भारतीय निर्यातकों) भी अपना पक्ष पेश करने में मदद की जरूरत हो सकती है। ऐसे मामलों में भी डीजीटीआर अपनी भूमिका निभाता है।

निष्कर्ष

कृषि-आधारित उद्योग, अर्थव्यवस्था के विकास के लिए काफी अहम हैं। चूंकि ज्यादातर कृषि-आधारित उद्योग लघु, छोटे और मध्यम श्रेणी के हैं, और मुमकिन है कि उनके पास सस्ते या सब्सिडी वाले आयात से प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता नहीं हो। ऐसे में सरकार की भूमिका काफी अहम हो जाती है। अन्य देशों के निर्यातकों की अनुचित व्यापार गतिविधियों के कारण सरकार को कृषि-आधारित उद्योगों के की मदद के लिए डीजीटीआर ने 23 सितम्बर, 2019 को सहायता केन्द्र स्थापित किया है। अन्य देशों के निर्यातकों के अनुचित व्यापार नियमों से सुरक्षा के लिए कृषि-आधारित उद्योगों के बीच जागरूकता फैलाना एक कारगर कदम है।

(लेखिका भारतीय आर्थिक सेवा की 1999 बैच की अधिकारी हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

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गाजरघास की बनाएं खाद

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गाजरघास की बनाएं खादHindiWaterThu, 12/19/2019 - 15:42
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फार्म एन फूड

फोटो - gaon connection

गाजरघास, जिसे कांग्रेस घास, चटक चांदनी, कड़वी घास वगैरह नामों से भी जाना जाता है, न केवल किसानों के लिए, बल्कि इन्सानों, पशुओं, आबोहवा व जैव विविधता के लिए एक बड़ा खतरा बनती जा रही है। इसको वैज्ञानिक भाषा में पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस कहते हैं।

ज्यादा फसल लेने के चक्कर में कैमिकल खादों का ज्यादा इस्तेमाल करने से इंसान की सेहत व आबोहवा पर होने वाला असर किसी से छिपा नहीं है। उससे मिट्टी की उर्वरा कूवत में भी लगातार गिरावट आती जा रही है। कैमिकल खादों का आबोहवा व इंसान पर होने वाला असर देखते हुए जैविक खादों का महत्व बढ़ रहा है। ऐसे में गाजर घास से जैविक खाद बना कर हम आबोहवा को महफूज करते हुए इसे आमदनी का जरिया भी बना सकते हैं, लेकिन किसान ऐसा करने से डरते हैं।

क्यों डरते हैं किसान

सर्वे में पाया गया है कि किसान गाजर घास से कम्पोस्ट खाद बनाने में इसलिए डरते हैं कि अगर गाजर घास कम्पोस्ट का इस्तेमाल करेंगे तो खेतों में और ज्यादा गाजरघास हो जाएगी।

दरअसल हुआ यह कि कुछ किसानों से जब गाजरघास से अवैज्ञानिक तरीके से कम्पोस्ट खाद बनाकर इस्तेमाल की गई, तो उनके खेतों में ज्यादा गाजर घास हो गई। इसमें हुआ यह कि इन किसानों ने फूलों सहित गाजरघास से नाडेप तकनीक द्वारा कम्पोस्ट खाद बनाकर इस्तेमाल की। इससे उनके खेतों में ज्यादा गाजर घास हो गई। इसके अलावा उन गाँवों में, जहाँ गोबर से खाद खुले हुए टांकों गड्ढों में बनाते हैं, जब फूलों सहित गाजर घास को खुले गड्ढों में गोबर के साथ डाला गया तो भी इस खाद का इस्तेमाल करने पर खेतों में ज्यादा गाजर घास हो गई।

कृषि वैज्ञानिकों ने अपने तजरबों में पाया कि नाडेप तकनीक द्वारा खुले गड्ढों में फूलों सहित गाजर घास से खाद बनाने पर इसके छोटे बीज खत्म नहीं हो पाते हैं। एक तजरबे में नाडेप तकनीक द्वारा गाजरघास से बनी हुई केवल 300 ग्राम खाद में ही 350-500 गाजर घास के पौधे अंकुरित होते हुए पाए गए,यही वजह है कि किसान गाजर घास से कम्पोस्ट बनाने में डरते हैं। पर, अगर वैज्ञानिक तकनीक से गाजर घास से कम्पोस्ट बनाई जाए तो यह एक महफूज कम्पोस्ट खाद है।

खाद बनाने का तरीका

वैज्ञानिकों द्वारा हमेशा यही सलाह दी जाती है कि कम्पोस्ट बनाने के लिए गाजर घास को फूल आने से पहले उखाड़ लेना चाहिए। बिना फूल वाली गाजर घास का कम्पोस्ट खाद बनाने में इस्तेमाल बिना किसी डर के नाडेप तकनीक या खुला गड्ढा तकनीक द्वारा किया जा सकता है।

गाजरघास के सर्दी-गर्मी के प्रति असंवेदनशील बीजों में सुषुप्तावस्था न होने की वजह से एक ही समय में फूल वाले और बिना फूल के गाजर घास के पौधे खेतों में पैदा होते हैं। निराई-गुडाई करते समय फूल वाले पौधों को उखाड़ना भी जरूरी हो जाता है। फिर भी किसानों को गाजर घास को कम्पोस्ट बनाने में इस्तेमाल करने के लिए यह कोशिश करनी चाहिए कि वे उसे ऐसे समय उखाड़े, जब फूलों की मात्रा कम हो। जितनी छोटी अवस्था में गाजर घास को उखाड़ेंगे, उतनी ही ज्यादा अच्छी कम्पोस्ट खाद बनेगी और उतनी ही फसल की उत्पादकता बढ़ेगी।

ऐसे बनाए खाद

अपने खेत में थोड़ी ऊंचाई वाली जगह पर, जहाँ पानी जमा न हो, 3x6x10 फुट (गहराई x चौड़ाई xलम्बाई ) आकार का गड्ढा बना लें। अपनी सहूलियत और खेत में गाजर घास की मात्रा के मुताबिक लम्बाई-चौड़ाई कम कर सकते हैं, लेकिन गहराई 3 फुट से कम नहीं होने पाएंगे।

  1. अगर मुमकिन हो सके तो गड्ढे की सतह और साइड की दीवारों पर पत्थर की चीपें इस तरह लगाएं कि कच्ची जमीन का गड्ढा एक पक्का टांका बन जाए। इसका फायदा यह होगा कि कम्पोस्ट के पोषक तत्त्व गड्ढे की जमीन नहीं सोख पाएगी।
  2. अगर चीपों का इंतजाम न हो पाए, तो गड्ढे के फर्श और दीवार की सतह को मुगदर से अच्छी तरह पीट कर समतल कर लें।
  3. खेतों की फसलों के बीच से, मेंड़ों और आस-पास की जगहों से गाजर घास को जड़ के साथ उखाड़कर गड्ढे के पास इकट्ठा कर लें।
  4. गड्ढे के पास ही 75 से 100 किलोग्राम कच्चा गोबर, 5-10 किलोग्राम यूरिया या रौक फास्फेट की बोरी, 1 या 2 क्विंटल भुरभुरी मिट्टी और एक पानी के ड्रम का इंतजाम कर लें।
  5. तकरीबन 50 किलोग्राम गाजरघास को गड्ढे को पूरी लम्बाई चौड़ाई में सतह पर फैला लें।
  6. 5-7 किलोग्राम गोबर को 20 लीटर पानी में घोल बनाकर उसका गाजरघास की परत पर छिड़काव करें।
  7. इसके ऊपर 500 ग्राम यूरिया या 3 किलोग्राम रौक फास्फेट का छिड़काव करें।
  8. ट्राइकोडर्मा विरिडि या ट्राइकोडर्मा हार्जीनिया नामक कवच के कल्चर पाउडर को 50 ग्राम प्रति परत के हिसाब से डाल दें। इस कवक कल्चर को डालने से गाजरघास के बड़े पौधों का अपघटन भी तेजी से हो जाता है और कम्पोस्ट जल्दी बनती है।
  9. इन सब मिलाए हुए अवयवों को एक परत या लेयर मान लें।
  10. इसी तरह एक परत के ऊपर दूसरी, तीसरी और अन्य परत तब तक बनाते जाएं, जब तक गड्ढा ऊपरी सतह से एक फुट ऊपर तक न भर जाए, ऊपरी सतह की परत इस तरह दबाएं कि सतह गुंबद के आकार की हो जाए, परत जमाते समय गाजर घास को अच्छी तरह दबाते रहना चाहिए।
  11. यहां पर गाजरघास को जड़ से उखाड़ कर परत बनाने को कहा गया है। जड़ को उखाड़ते समय जड़ों के साथ ही काफी मिट्टी आ जाती है। अगर आप महसूस करते हैं कि जड़ों में मिट्टी ज्यादा है, तो 10-12 किलोग्राम भुरभुरी मिट्टी प्रति परत की दर से डालनी चाहिए।
  12. अब इस तरह भरे गड्ढे को गोबर मिट्टी, भूसा वगैरह के मिश्रण से अच्छी तरह बंद कर दें। 5-6 महीने बाद गड्ढा खोलने पर अच्छी खाद हासिल होती है।
  13. यहां बताए गए गड्ढे में 37 से 42 क्विंटल ताजा उखाड़ी गाजर घास आ जाती है, जिससे 37 से 45 फीसदी तक कम्पोस्ट हासिल हो जाती है।

कम्पोस्ट की छनाई

5-6 महीने बाद भी गड्ढे से कम्पोस्ट निकालने पर आपको महसूस हो सकता है कि बड़े व मोटे तनों वाली गाजर घास अच्छी तरह से गली नहीं है, पर वास्तव में वह गल चुकी होती है। इस कम्पोस्ट को गड्ढे से बाहर निकालकर छायादार जगह में फैलाकर सुखा लें।

हवा लगते ही नम व गीली कम्पोस्ट जल्दी सूखने लगती है। थोड़ा सूख जाने पर इसका ढेर बना लें। अगर अभी भी गाजर घास के रेशे वाले तने मिलते हैं, तो इसके ढेर को लाठी या मुगदर से पीट दें। जिन किसानों के पास बैल या ट्रैक्टर हैं, वे उन्हें इसके ढेर पर थोड़ी देर चला दें। ऐसा करने पर घास के मोटे रेशे व तने टूटकर बारीक हो जाएंगे, जिससे और ज्यादा कम्पोस्ट हासिल होगी।

इस कम्पोस्ट को 2-2 सेंटीमीटर छेद वाली जाली से छान लेना चाहिए, जाली के ऊपर बचे ठूंठों के कचरे को अलग कर  देना चाहिए, खुद के इस्तेमाल के लिए बनाए कम्पोस्ट को बिना छाने भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इस तरह हासिल हुई कम्पोस्ट को छाया में सुखा कर प्लास्टिक, जूट के बड़े या छोटे थैलों में भरकर पैकिंग कर दें।

पोषक तत्व

कृषि वैज्ञानिकों ने अपने तजरबों में यह पाया है कि गाजरघास से बनी कम्पोस्ट में पोषत तत्वों की मात्रा गोबर खाद से दोगुनी और केंचुआ खाद के बराबर होती है। इसलिए गाजर घास से कम्पोस्ट बनाना उनका एक अच्छा विकल्प है।

इन बातों पर दें खास ध्यान

  1. गड्ढा छायादार, ऊंची और खुली हवा वाली जगह में, जहाँ पानी का भी इंतजाम हो बनाएं
  2. गाजरघास को हर हाल में फूल आने से पहले ही उखाड़ना चाहिए, उस समय पत्तियां ज्यादा होती हैं और तने कम रेशे वाले होते हैं। खाद का उत्पादन ज्यादा होता है और खाद जल्दी बन जाती है।
  3. गड्ढे को अच्छी तरह से मिट्टी, गोबर व भूसे के मिश्रण के लेप से बंद करें। अच्छी तरह बंद न होने पर ऊपरी परतों में गाजरघास के बीज मर नहीं पाएंगे।
  4. एक महीने बाद जरूरत के मुताबिक गड्ढे पर पानी का छिड़काव करते रहें। ज्यादा सूखा महसूस होने पर ऊपरी परत पर सब्बल वगैरह की मदद से छेद कर पानी अन्दर भी डाल दें। पानी डालने के बाद छेदों को बंद कर देना चाहिए।
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कांठा नदी को जीवित करने में जुटे शामली के मुस्तकीम

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कांठा नदी को जीवित करने में जुटे शामली के मुस्तकीमHindiWaterFri, 12/20/2019 - 10:28

उम्र 30 साल। रंग सांवला। निवास स्थान - गांव रामड़ा, तहसील कैराना, ज़िला शामली, राज्य उत्तर प्रदेश। भावुक इतना कि बात-बात पर रो पड़ता है। ईमानदार इतना कि खुद कह उठता है, '' उस बखत तक मैं यूँ भी नी जानता था कि एसडीएम बड़ा होवे है कि तहसीलदार।'' कहने वाले उसे ग़रीब कहते हैं; क्योंकि वह एक मल्लाह का बेटा है; क्योंकि पैसे की कमी के कारण कभी उसे अपनी पढ़ाई आठवीं में ही रोकनी पढ़ी। उसे अपनी रोज़ी कमाने के लिए, पढ़ने की उम्र में कई काम करने पडे़। उसने आइसक्रीम बेची; अख़बार बेचे। वह अमीर है; क्योंकि उसका हौसला दाद देने लायक है। हौसला, कभी हालात का मोहताज नहीं होता। वह भी नहीं है। इसी हौसले के बूते आज वह सामाजिक कार्य की पढ़ाई में भी ग्रेजुएट है और नदी के ज़मीनी कार्य में भी। उस पर झूठे मुक़दमे हुए। हतोत्साहित करने वाले भी हज़ारों मिले। किंतु वह भलीभांति जानता है कि नदी, मल्लाह की जिंदगी है। नदी सूख जाए, तो मल्लाह की जिंदगी का सुख सूखते क्या वक्त लगता है! नदी की जिंदगी में एक मल्लाह के सुख का अक्श देखते-देखते अब उसे नदियों से मोहब्बत हो गई है। उसका नदी प्रेम, उसके लिए खुदा की इबादत जैसा हो गया है। वह कहता है - ''तमाम मखलूक, खुदा की बनाई हुई है। नदियों में आई गंदगी, उनकी जान ले रही है। नदियों का सूख जाना, और भी तक़लीफदेह है। मलीन नदियों को निर्मल करके, हम करोड़ों जिंदगिया बचा सकते हैं।' वह, नदियों का दोस्त है। कांठा नदी को पानीदार बनाने का उसका प्रयास, उसकी दोस्ती का पुख्ता प्रमाण है। वह मुस्तकीम है। वर्ष - 2019 के प्रतिष्ठित भगीरथ प्रयास सम्मान से नवाजी गई अब तक की सबसे कम उम्र की शख्सियत।

भगीरथ प्रयास सम्मान -इण्डियन रिवर फोरम द्वारा वर्ष 2014 में नियोजित एक ऐसा सम्मान, जो कि प्रति वर्ष नदी पुनर्जीवन के एक ऐसे प्रयास को दिया जाता है, जो कम प्रचारित; किंतु अधिक प्रेरक हो। इस वर्ष 2019 में इस सम्मान के प्राप्तकर्ता श्री मुस्तकीम को 60 हज़ार रुपए की धनराशि, शाल और सम्मान चिन्ह भेंट किया गया; डब्लयूडब्लयूएफ (WWF) ने नदी कार्य के लिए आर्थिक सहयोग का वचन किया, सो अलग। कांठा, यमुना नदी की सहायक धारा है। इसकी लंबाई लगभग 100 किलोमीटर है। इसका जन्म उत्तर प्रदेश के ज़िला सहारनपुर, ब्लॉक नाकुर, गांव नया बांस के एक तालाब से हुआ है। ज़िला मुज़फ्फरनगर में यमुना नदी और पूर्वी यमुना नहर के बीच के इलाके से सफर करती कांठा जहां जाकर यमुना से संगम करती है, वह स्थान है - ज़िला शामली के कैराना ब्लॉक का गांव मावी।

तलहटी का सिक्का, पानी के ऊपर से चमके। घड़ियाल को देख, लोग किनारे लग जायें। किनारे पर खीरा, ककड़ी, तरबूज, खरबूज की खेती ऐसी कि रोजी की बेफिक्री खुद-ब-खुद हासिल हो जाए। पांच दशक पहले तक कांठा, एक ऐसी ही नदी थी। कांठा के पास अपना पानी था। इसी बीच नहर आई। नहर और नलकूप आधारित सिंचाई ने कांठा का पेट खाली कर दिया। शामली के पांचों ज़ोन, डार्क ज़ोन हो गए। पेट खाली हो, तो नदी की सतह भूरी हो जाती है। कांठा भी भूरी हो गई। लड़कों ने भूरी कांठा को क्रिकेट का मैदान बना लिया। लालची जमीर वालों ने भूरी कांठा की ज़मीन कब्जा ली। कभी बारहमास लहराते पानी वाली ज़मीन, बारहमासी खेती वाली ज़मीन में तब्दील हो गई। कांठा, महज् बरसाती नाला बनकर रह गई। गांवों के खेतिहर, दूसरा आसरा खोजने को मज़बूर हुए। बीमार पानी, बीमारी ले आया। रामड़ा में भी काला पीलिया फैला। कोई घर नहीं बचा। फिर भी कोई घर नहीं जागा। क्रिकेट खेलते लड़के जागे भी तो सिर्फ आते-जाते सरकारी साहबों से पूछने तक - ''म्हारे कांठे में पानी कद आवेगा ?'' एक दिन यमुना नदी का एक दोस्त, इस इलाके में आया; भीम सिंह बिष्ट - यमुना जिये अभियान और वर्तमान में सैड्रप से जुडे. एक बेहद सरल, किंतु बेहद समर्पित अध्ययनककर्ता। भीम जी ने कहा कि कांठे में पानी तब आयेगा, जब तुम कुछ करोगे। मुस्तकीम को यह बात जंच गई। वर्ष 2010 का वह दिन और आज का दिन मुस्तकीम, कांठा के हो गए।

मुस्तकीम ने यमुना ग्राम सेवा समिति का सदस्य बनकर कांठा को जाना। क्रिकेट के अपने दोस्तों को नदी का दोस्त बनाया। मुस्तकीम ने गागर से सागर की बात सुनी थी। मुस्तकीम ने इस बात को लोगों को कांठा से जोड़ने वाला औजार बनाया। मुस्तकीम ने 'एक लोटा जल दान' नदी अभियान चलाया। गांव-गांव जाकर कांठा पुनर्जीवन के फायदे बताए। ज़िम्मेदारी और हक़दारी के गठजोड़ को आगे लाने के लिए कांठा पर सीधे निर्भर केवट-मल्लाह समाज की एकता समिति बनाई। प्रशासन को जगाया। परिदों को प्रिय मामूर झील की बदहाली का आईना दिखाया। स्कूली बच्चों को पौधारोपण में लगाया। नदी में भर आई गाद पर फावड़ा चलाया। प्रशासन और समाज के सहयोग से नदी बीच दो कच्चा बंधे बनाये। कुओं और तालाबों को कब्जामुक्त करने की पैरवी की। अवैध खनन के खिलाफ आवाज़ उठाई। बाढ़ के दिनों में यमुना से कांठा में आने वाले बैकवाटर को रोक रहे रेगुलेटर को खुलवाया। इस पूरी जद्दोजहद में अखबार बांटने के साथ-साथ रिपोर्टरों को इलाके की खबर देने का रिश्ता काम आया।

शामली के पत्रकार उमर शेख, चिट्ठी-पत्री लिखने जैसे मामूली काम से लेकर तक़नीकी समझ देने व आवाज़ को आवाम तक पहुंचाने में मीडिया सहयोग दिलाने वाले मुख्य सहयोगी सिद्ध हुए, तो प्रशासन भी सहयोगी हो गया। शामली ज़िला प्रशासन ने 'गार्डियन ऑफ़ रिवर सम्मान - 2017' सम्मानित किया। जुलाई - 2019 में काम को पुनः सराहा। सराहना, घमण्ड लाती है। किन्तु मुस्तकीम अभी भी विनम्र हैं। वह गांव-गांव घूमकर कब्जा हुए कुओं-तालाबों की सूची बनाने में लगे हैं। वर्षाजल को संचित करने के ढांचे बनाने के लिए सहयोग जुटा रहे हैं। कहते हैं - ''इनकी कब्जा मुक्ति के लिए पहले लोगों से हाथ जोडूंगा। उसके बाद प्रशासन के पास जाऊंगा।'' मुस्तकीम नहीं जानते कि नदी पुनर्जीवन का सही मॉडल क्या है और ग़ल़त क्या। अतः हो सकता है कि कांठा पुनर्जीवन के उनके प्रयासों की समग्रता पर कोई सवाल उठाए, किंतु कांठा पुनर्जीवन की महत्ता पर भला कौन सवाल उठा सकता है ? हथिनीकुण्ड बैराज से वजीराबाद बैराज के बीच की दूरी में यमुना से जल सिर्फ लिया ही जाता है; देने के नाम पर करनाल में धनुआ और पानीपत में नाला नंबर दो, यमुना में मल और औद्योगिक अवजल के अलावा कुछ नहीं मिलाते। इस बीच के सफर में मिलने वाली तीसरी नदी, कांठा ही है। इसलिए भी कांठा पुनर्जीवन प्रयास की इस दास्तान का अधिक महत्व है। कांठा, पुनः पानीदार हुई, तो संभव है कि दिल्ली की यमुना की कुछ सांसें भी लौट आयें। यह कांठा के दोस्त मुस्तकीम भी महत्ता है; भगीरथ प्रयास सम्मान की भी।

 

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कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने हेतु योजनाएं

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कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने हेतु योजनाएंHindiWaterFri, 12/20/2019 - 16:05
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कुरुक्षेत्र, दिसम्बर 2019

देश के कई भागों में ‘मेक इन इंडिया’ योजना के अन्तर्गत मेगा फूड पार्कों की स्थापना की गई है, इससे रोजगार के अवसर बढ़ाने में मदद मिलेगी। मेगा फूड पार्क योजना का मूल उद्देश्य किसानों, प्रसंस्करणकर्ताओं और रिटेल कारोबारियों को एक साथ लाते हुए कृषि उत्पादों को बाजार से जोड़ने के लिए एक मशीनरी उपलब्ध कराना होता है जिससे कृषि उत्पादों की बर्बादी को न्यूनतम कर ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों का सृजन किया जा सके।

आजादी के 73 साल पूरे होने पर देश ने कई मामलों में मुख्यतः कृषि व ग्रामीण क्षेत्र के विकास में, लम्बी छलांग लगाई है। आज देश कृषि-आधारित उद्योगों का जाल बिछाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। कृषि-आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए सड़क, बिजली, पानी, आसान ऋण, सस्ती व तेज इंटरनेट सेवा की व्यवस्था मजबूत की जा रही है। साथ ही, क्वालिटी टेस्टिंग लैब और कोल्ड स्टोरेज की सुविधा भी दी जा रही है। 

कृषि आधारित उद्योग तुलनात्मक रूप से कम निवेश वाले, ग्रामीण क्षेत्रों में आय स्थापित करने और रोजगार प्रदान करने वाले होते हैं। ये उद्योग कृषि-आधारित कच्चे माल के प्रभावी और कुशल उपयोग की सुविधा प्रदान करते हैं। कृषि-आधारित उद्योग ग्रामीण क्षेत्रों में एक औद्योगिक संस्कृति का संचार करते हैं और इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में आधुनिकीकरण और नवाचार लाते हैं। कृषि-आधारित कुछ उद्योगों जैसे प्रसंस्कृत खाद्य और खाद्य पदार्थों में जबरदस्त निर्यात क्षमता है। विकास प्रक्रिया में ग्रामीणों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कृषि-आधारित उद्योगों की स्थापना वक्त की जरूरत है।

विश्व में दूध, केला, आम, मसाले, झींगा मछली और दालों के उत्पादन में भारत का प्रथम स्थान है। इसके अलावा अनाजों, सब्जियों और चाय का भारत दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। देश में वर्ष 2017-18 में 30-71 करोड़ टन बागवानी फसलों, 28.5 करोड़ टन खाद्यान्नों, 17.6 करोड़ टन दूध और 1.26 करोड़ टन मछली और समुद्री उत्पादों का उत्पादन हुआ। हमारे देश में फल और सब्जियों के प्रसंस्करण का वर्तमान-स्तर 2 प्रतिशत, पोल्ट्री उत्पादों का 6 प्रतिशत, समुद्री उत्पादों का 8 प्रतिशत और दूध का 35 प्रतिशत है। यद्यपि विभिन्न कारणों से 30 से 35 प्रतिशत कृषि उत्पाद हर वर्ष बर्बाद हो जाते हैं।

भारत विश्व में सबसे तेजी से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था है। आर्थिक विकास की दृष्टि से भारत में कृषि-आधारित उद्योगों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। राष्ट्रीय आय में 14.8 प्रतिशत के योगदान के साथ-साथ कृषि देश की 65 प्रतिशत आबादी को रोजगार व आजीविका भी प्रदान करती है। कृषि-आधारित उद्योग-धंधों में कपास उद्योग, गुड व खांडसारी, फल व सब्जियों-आधारित, आलू-आधारित कृषि उद्योग, सोयाबीन-आधारित, तिलहन-आधारित, जूट-आधारित व खाद्य संवर्धन-आधारित आदि प्रमुख उद्योग हैं। पिछले कुछ वर्षों में दूसरे उद्योगों की भांति कृषि-आधारित उद्योगों में भी काफी सुधार हुआ है। हाल ही में कृषि-आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए अनेक सरकारी योजनाओं की शुरुआत की गई, जिनमें प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना, राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन, स्टार्टअप आदि प्रमुख हैं। साथ ही, कृषि आधारित उद्योगों हेतु नई-नई प्रौद्योगिकियां, तकनीकियां एवं उन्नत मशीनें विकसित की गई हैं। परिणामस्वरूप ग्रामीण युवाओं व किसानों को स्वरोजगार के साथ-साथ आय बढ़ाने और उन्हें आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा देने में मदद मिली है।

सरकारी योजनाएं

कृषि-आधारित उद्योगों हेतु पूंजी व्यवस्था करने व संसाधन जुटाने में सरकार द्वारा संचालित विभिन्न योजनाओं द्वारा अलग-अलग तरीके से सहारा दिया जा रहा है। कृषि- आधारित उद्योगों से बड़े उद्योगों की अपेक्षा प्रति इकाई पूंजी द्वारा अधिक लाभ तो कमाया ही जा सकता है। साथ ही, यह उद्योग रोजगारपरक भी होते हैं। कृषि-आधारित उद्योगों हेतु कुछ प्रमुख सरकारी योजनाओं का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-

प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना

प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना भारत सरकार की एक महत्त्वपूर्ण योजना है। इस योजना के तहत 2020 तक एक करोड़ युवाओं को प्रशिक्षण देने की योजना है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य ऐसे लोगों को रोजगार मुहैया कराना है जो कम पढ़े-लिखे हैं या जो बीच में ही स्कूल छोड़ देते हैं। साथ ही, देश के युवाओं को उद्योगों से जुड़ा प्रशिक्षण देकर उनकी योग्यतानुसार रोजगार के काबिल बनाना है जिससे युवाओं की तरक्की के लिए कुछ नयापन लाया जा सके। यह केन्द्र सरकार की फ्लैगशिप योजनाओं में से एक है। यह योजना कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय की ओर से चलाई जाती है। इस योजना में 3 महीने, 6 महीने और 1 साल के लिए रजिस्ट्रेशन होता है। कोर्स पूरा करने के बाद एक सर्टिफिकेट दिया जाता है। यह प्रमाणपत्र पूरे देश में मान्य होता है। इसके तहत वर्ष 2022 तक 40.2 करोड़ युवाओं को शामिल करने की योजना है। इसके अलावा, इस योजना से अधिक से अधिक लोग जुड़ सकें, इसके लिए युवाओं को ऋण प्राप्त करने की भी सुविधा है। इसके अन्तर्गत सरकार ने कई टेलीकॉम कम्पनियों को इस कार्य के लिए अपने साथ जोड रखा है, जो मैसेज के द्वारा इस योजना को सभी लोगों तक पहुँचाने का कार्य करती है। जिसके तहत योजना से जुड़े लोगों को मैसेज करके एक टोल फ्री नम्बर दिया जाता है जिस पर आवेदक को मिस्ड कॉल देना होता है। मिस्ड कॉल के बाद आवेदक आईबीआर सुविधा से जुड़ जाएंगे। इसके बाद आवेदक को अपनी जानकारी निर्देशानुसार भेजनी होती है। आवेदक के द्वारा भेजी गई जानकारी कौशल विकास योजना सिस्टम में सुरक्षित रख ली जाती है। यह जानकारी मिलने के बाद आवेदनकर्ता को उसी क्षेत्र में यानी उसके निवास स्थान को आस-पास प्रशिक्षण केन्द्र से जोड़ा जाएगा।

प्रधानमंत्री किसान सम्पदा योजना

कृषि उपज की बर्बादी को कम करने के लिए भारत सरकार ने 14वें वित्त आयोग के चक्र 2016-20 की अवधि के लिए 6000 करोड़ रुपए का आवंटन प्रधानमंत्री किसान सम्पदा योजना के लिए किया है। इस योजना का उद्देश्य खेत से लेकर खुदरा बिक्री केन्द्र तक दक्ष आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन के साथ आधुनिक अवसंरचना का सृजन करना है। इसके अन्तर्गत खाद्य प्रसंस्करण में वृद्धि करना, खाद्य प्रसंस्करण का आधुनिकीकरण करना, प्रसंस्कृत खाद्य-पदार्थों का निर्यात बढ़ाना, डेयरी व मत्स्य आदि कृषि उत्पादों का मूल्य-संवर्धन करना, ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर का सृजन करना, उपभोक्ताओं को उचित मूल्य पर सुरक्षित और सुविधाजनक प्रसंस्कृत खाद्य उपलब्धता सुनिश्चित करना आदि महत्त्वपूर्ण पहल की जा रही है। इस योजना के तहत लगभग 20 लाख किसानों को फायदा होगा। साथ ही, ग्रामीण क्षेत्रों में 5 से 6 लाख प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रोजगार के अवसर सृजित होने की सम्भावना है। सरकार प्रधानमंत्री किसान सम्पदा योजना के अन्तर्गत सरकारी अनुदान, नाबार्ड और मुद्रा योजना के तहत आसान शर्तों एवं सस्ती ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध करा रही है।

राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन

राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के स्वयंसहायता समूहों के अन्तर्गत अत्यंत गरीब परिवारों की महिलाओं को शामिल करने पर जोर देने से भी यह सुनिश्चित करने में मदद मिली है कि गरीब परिवारों की अधिकता वाले क्षेत्रों को ग्रामीण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में प्राथमिकता मिले। राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन-आज महिला शक्ति द्वारा ग्रामीण उत्थान की अद्भुत मिसाल बन गया है। इसके अन्तर्गत गरीब ग्रामीण परिवार की महिलाओंको स्वयंसहायता समूहों के रूप में प्रशासनिक सहायता से संगठित किया जाता है और उन्हें किसी एक कार्य में कौशल प्रदान किया जाता है जिसमें आमदनी की पर्याप्त सम्भावना हो। कुशलता प्राप्त करने के बाद उनके लिए किसी बैंक या किसी अन्य वित्तीय संस्था से ऋण की व्यवस्था की जाती है। महिला स्वंय सहायता समूहों ने पिछले पाँच वर्षों में कुल 1.64 लाख करोड़ रुपए बैंक ऋण के रूप में जुटाए हैं।

स्टार्टअप ग्राम उद्यमिता कार्यक्रम

भारत सरकार ने कुशल और प्रशिक्षित युवाओं को आर्थिक सहायता प्रदान कर स्वरोजगार की दिशा में आगे बढ़ाने के लिए स्टार्टअप ग्राम उद्यमिता कार्यक्रम शुरू किया है। इसके अन्तर्गत देश के हर जिले में स्थित कृषि विज्ञान केन्द्रों के द्वारा कृषि-आधारित उद्योग-धंधों के लिए लघु अवधि प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए गए हैं। प्रशिक्षण के उपरांत ग्रामीण महिलाओं, युवाओं और किसानों को उद्यमिता विकास कार्यक्रमों की सहायता से अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया जाता है। इसके अलावा, क्षेत्रीय-स्तर पर ही ग्रामीणों की समस्याओं और चुनौतियों का निदान किया जाता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में मूलभूत बदलावों के उद्देश्य के साथ इस योजना की शुरुआत की गई है। आज कृषि, पशुपालन और खाद्य पदार्थों के व्यवसाय से जुड़े लोग इसका लाभ उठा रहे हैं। वर्तमान समय में देशभर में कृषि-आधारित उद्यमों/स्टार्टअप की हर क्षेत्र में भरमार है जो ग्रामीण युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। इसके पीछे दो बड़ी वजह हैं, एक तो यह कि युवा स्वरोजगार की ओर अधिक आकर्षित हैं। दूसरा, वे कुछ नया करने का जुनून रखते हैं। इसके अलावा, सरकार और सरकारी योजनाएं भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। वक्त की जरूरत को देखते हुए सरकार ने हर क्षेत्र में स्टार्टअप के लिए अनेक योजनाएं शुरू की हैं। उदाहरणनार्थ उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में ‘दृष्टि’ नामक संस्था ने तीस गाँवों की 250 महिला किसानों को कम रसायनों का प्रयोग करके सब्जियां उगाने की तकनीक सिखाई, उसके बाद स्टार्टअप शुरू किया। इसमें ‘सखी फार्मर’ ने लोगों को ताजी हरी सब्जियों का जायका चखाने का बीड़ा उठाया है। मौसमी सब्जियों को खेतों से सीधे किचन तक पहुँचाने के लिए ‘सखी फार्मर’ के नाम से एक साल पहले शुरू हुआ पॉयलट प्रोजेक्ट अब लोगों के दिल में उतरने लगा है। आज शहर के आधा दर्जन मोहल्लों में तो ‘सखी फार्मर’ ताजी हरी सब्जियों का नया सिग्नेचर बन गया है।

दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना

ग्रामीण युवाओं के कौशल विकास और रोजगार को सुनिश्चित करने के लिए इसे पूरे देश में लागू किया गया है। इस योजना का लाभ 5.5 करोड़ कुशल युवाओं को मिलने की उम्मीद है। यह योजना ‘मेक इन इंडिया’ की मुख्य भागीदार है। समाज के वंचित समुदायों के साथ-साथ दिव्यांग जन और महिलाओं को भी कौशल-विकास सम्बन्धी प्रशिक्षण प्रदान कर उन्हें इस योजना का लाभ दिया जाएगा। यह एक ऐसी पहल है जिसमें ग्रामीण युवाओं और महिलाओं को हुनरमंद बनाया जा रहा है। इस तरह, दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना युवाओं के लिए रोजगार के अपार अवसर प्रदान कर रही है। इसके अन्तर्गत, सरकार ग्रामीण युवाओं को प्रशिक्षण देकर उन्हें रोजगार के लिए तैयार करती है। इसके बाद सम्बन्धित उद्योग में उन्हें रोजगार दिलाने में भी सहायता करती है। यह एक व्यापक कार्यक्रम है, जिसके अन्तर्गत आज देशभर में ग्यारह सौ से ज्यादा प्रशिक्षण केन्द्र काम कर रहे हैं जो लगभग 300 व्यवसायों में आधुनिक कौशल प्रदान करते हैं। इन केन्द्रों द्वारा अब तक 2.70 लाख युवाओं को प्रशिक्षित किया जा चुका है जिनमें से लगभग 50 प्रतिशत विभिन्न उद्यमों में रोजगार प्राप्त कर चुके हैं।

ग्राम स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान (आर सेटी)

देशभर में गरीबी दूर करने और ग्रामीणों को रोजगार व प्रशिक्षण देने हेतु ग्राम स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान (आर सेटी) खोले जा रहे हैं जिनमें कृषि सम्बन्धी कार्यों के अलावा ग्रामीण उद्यमिता के अन्य व्यवसायों में भी प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। इनका संचालन बैंकों द्वारा किया जाता है। ग्रामीण विकास मंत्रालय और राज्य सरकारें इसमें साझेदार हैं। इनका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण युवाओं को प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता देकर स्वरोजगार के लिए सक्षम बनाना है। इसके बाद ग्रामीण युवा प्रशिक्षु के रूप में उद्योगों में प्रशिक्षण प्राप्त करके अपना रोजगार आरम्भ कर सकते हैं। इस प्रशिक्षण के दौरान भारत सरकार द्वारा युवाओं की वित्तीय मदद भी की जाती है। इस प्रकार, ग्रामीण क्षेत्रों के युवाओं का पलायन रोकने में भी यह योजना कारगर और लाभदायक सिद्ध होगी।

एस्पायर

सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग मंत्रालय द्वारा वर्ष 2015 में इनोवेशन, ऑन्त्रप्रन्योरशिप (स्वरोजगार) और कृषि-आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए इस योजना की शुरुआत की गई थी जिसे हाल में नए प्रावधानों के साथ अधिक उपयोगी बनाया गया है। इसके अन्तर्गत वर्ष 2019-20 के दौरान 80 आजीविका बिजनेस इनक्यूबेटर्स और 20 प्रौद्योगिकी बिजनेस इनक्यूबेटर्स स्थापित किए जाने का प्रस्ताव है। कुल 75,000 आकांक्षी उद्मियों को कृषि-आधारित उद्योगों में प्रशिक्षण देकर कुशल बनाया जाएगा जिससे ग्रामीण क्षेत्र में प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ, दुग्ध पदार्थ, पशु आहार, दूध के संग्रहण और विपणन जैसे कृषि-आधारित उद्योगों को बढ़ावा मिल सके।

प्रधानमंत्री मत्स्य सम्पदा योजना

देश के अनेक क्षेत्रों में जल संसाधनों की उपलब्धता के कारण किसान मछली पालन को अतिरिक्त व्यवसाय के रूप में अपना सकते हैं। भूमि के एक छोटे से टुकड़े में तालाब बनाकर या तालाब को किराए पर लेकर भी व्यावसायिक ढंग से मछली पालन किया जा सकता है। मछली उद्योग से जुड़े अन्य कार्यों जैसे कि मछलियों का श्रेणीकरण एवं पैकिंग करना, उन्हें सुखाना एवं उनका पाउडर बनाना तथा बिक्री करने आदि से काफी लोगों को रोजगार प्राप्त हो सकता है। इस सम्भावना को देखते हुए प्रधानमंत्री मत्स्य सम्पदा योजना की शुरुआत की गई है। परन्तु इसका फायदा केवल मछली उत्पादक तक सीमित न रहे, इसके लिए मत्स्य उद्यम को विकसित किया जा रहा है। इसके लिए मत्स्य उद्योग से सम्बन्धित बुनियादी सुविधाओं का विकास किया जाएगा। साथ ही, पहले से उपलब्ध सुविधाओं के आधुनिकीकरण और सरलीकरण की प्रक्रिया शुरू की जाएगी। मछली पकड़ने के बाद प्रसंस्करण और गुणवत्ता नियंत्रण पर भी ध्यान दिया जाएगा। इस प्रकार मत्स्य प्रबंधन पर एक पूरी रूपरेखा बना ली गई है ताकि इससे सम्बन्धित मूल्य-श्रृंखला विकसित हो सके।

मेगा फूड पार्क योजना

देश के कई भागों में ‘मेक इन इंडिया’ योजना के अन्तर्गत मेगा फूड पार्कों की स्थापना की गई है। इससे वहाँ रोजगार के अवसर बढ़ाने में मदद मिलेगी। मेगा फूड पार्क योजना का मूल उद्देश्य किसानों, प्रसंस्करण कर्ताओं और रिटेल कारोबारियों को एक साथ लाते हुए कृषि उत्पादों को बाजार से जोड़ने के लिए एक मशीनरी उपलब्ध कराना होता है जिससे कृषि उत्पादों की बर्बादी को न्यूनतम कर ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों का सृजन किया जा सके। इससे ग्रामीण युवाओं व किसानों को सबसे ज्यादा फायदा होगा। इस योजना का क्रियान्वयन खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय द्वारा किया जा रहा है। इस योजना के कार्यान्वयन के फलस्वरूप कुशल आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन से युक्त आधुनिक आधारभूत संरचना का विकास होगा जिससे खेत का उत्पाद सीधे रिटेल आउटलेट तक पहुँच सकेगा। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की समस्या कम करने के अलावा, देश और ग्रामीण क्षेत्र की सामाजिक व आर्थिक स्थिति में सुधार होगा।

एग्रीबिजनेस

कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने नाबार्ड के सहयोग से किसानों को आर्थिक रूप से समृद्ध बनाने और कृषि में आधुनिक तकनीकी अपनाने के लिए एग्रीबिजनेस कार्यक्रम की शुरुआत की है। इस योजना का प्रमुख उद्देश्य किसानों द्वारा फसल उत्पादन में नवीनतम प्रौद्योगिकी व प्राप्त फसल उत्पादों का मूल्य संवर्धन करना है। इसके अन्तर्गत, ग्रामीण युवाओं को कृषि तकनीकी और मैनेजमेंट तकनीकी के बारे में प्रशिक्षित करने के साथ-साथ स्वयं का एग्रीबिजनेस सेंटर स्थापित करने के लिए सक्षम बनाना है। इसके तहत, कृषि स्नात्तकों को कृषि के विभिन्न क्षेत्रों जैसे बागवानी, रेशम उद्योग, डेयरी उद्योग, मुर्गीपालन, मधुमक्खी पालन और मत्स्य पालन इत्यादि कृषि सम्बन्धी विषयों पर प्रशिक्षण दिया जाता है। सरकार ने कृषि उद्यम स्थापना के लिए विशेष स्टार्टअप ऋण सहायता योजना आरम्भ की है। इन केन्द्रों के माध्यम से ग्रामीण और स्थानीय-स्तर पर लाखों युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराया जा सकता है।

उपरोक्त योजनाओं में ग्रामीणों युवाओं, महिलाओं, किसानों व पशुपालकों को केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा सब्सिडी व ऋण सुविधा भी दी जा रही है। किसान भाई अपनी तहसील व जिले में स्थित बैंकों और कृषि विभाग के कार्यालय में जाकर इन योजनाओं के बारे में जानकारी ले सकते हैं।

प्रमुख उद्योग

ग्रामीण क्षेत्रों में फसलों से प्राप्त उत्पादों के प्रसंस्करण व परिरक्षण से अनेक कृषि-आधारित उद्योगों का प्रशिक्षण प्राप्त कर स्वरोजगार के रूप में अपनाया जा सकता है। जैसे मूंगफली से भुने हुए नमकीन दाने, चिक्की, दूध व दही बनाना; सोयाबीन से दूध व दही बनाना;फलों से शर्बत, जैली व स्क्वॉश बनाना; आलू व केले से शीरे व अंगूर से शराब व अल्कोहल बनाना; विभिन्न तिलहनों से तेल निकालना; तलहनी उत्पादों से दालें बनाना; धान से चावल निकालना आदि। इसके अलावा, दूध के परिरक्षण व पैकिंग के साथ-साथ इससे बनने वाले विभिन्न उत्पादों जैसाकि दूध का पाउडर, दही, छाछ, मक्खन, घी, पनीर आदि के द्वारा दूध का मूल्य-संवर्धन किया जा सकता है। फूलों से सुगंधित इत्र बनाना; लाख से चूड़ियां तथा खिलौने बनाना; कपास के बीजों से रूई अलग करना तथा दबाव डालकर रूई का गठ्ठर बनाना; जूट व पटसन से रेशे निकालने के अलावा कृषि के विभिन्न उत्पादों से अचार एवं पापड़ बनाना आदि के द्वारा मूल्य-संवर्धन किया जा सकता है और कम पूंजी लगाकर स्वरोजगार प्राप्त किया जा सकता है। इसके अलावा कृषि-आधारित उद्योगों में ताड़, बांस, अरहर तथा कुछ अन्य फसलों एवं घासों के तनों एवं पत्तियों द्वारा डलियां, टोकरियां, चटाईयां, टोप व टोपियां तथा हस्तचालित पंखे बुनना, मूंज या सरपत से बान (चारपाई हेतु रस्सी) व मोढ़े बनाना, बेंत से कुर्सी वे मेज बनाना आदि प्रमुख हैं। इनके अलावा, रुई से रजाई-गद्दे व तकिए बनाने के अलावा सूत बनाकर हथकरघा-निर्मित सूती कपड़ा बनाने; जूट एवं पटसन के रेशे से विभिन्न प्रकार के थैले टाट, निवाड़ व गलीचों की बुनाई करने जैसे उद्योगों को अपनाया जा सकता है। लकड़ी का फर्नीचर बनाना; स्ट्रा बोर्ड, कार्डबोर्ड व साफ्टबोर्ड बनाना तथा साबुन बनाना आदि कुछ अन्य उद्योगों द्वारा स्वरोजगार पाया जा सकता है।

कृषि-आधारित उद्योगों को अपनाते समय निम्नलिखित मुख्य बातों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए-

ऋण व्यवस्था

रोजगार सृजन में कृषि-आधारित उद्योगों की बहुत बड़ी भूमिका होती है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि पर आधारित उद्योगों द्वारा ग्रामीण युवकों को कम पूंजी से भी रोजगार मिल सकता है। कृषि-आधारित उद्योग-धंधों हेतु संसाधन जुटाने के लिए पूंजी व्यवस्था करने में ग्रामीण बैंकों के साथ-साथ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की कृषि विकास शाखाओं एवं सहकारी समितियों का बहुत बड़ा योगदान होता है। इन संस्थानों के माध्यम से कृषि-आधारित उद्योग धन्धों को आरम्भ करने हेतु सरकार द्वारा संचालित विभिन्न योजनाओं के तहत ग्रामीण बेरोजगारों को कम ब्याज दर तथा आसान किश्तों पर ऋण दिया जाता है।

कृषि-आधारित उद्योगों का चुनाव

सामान्यतः किसी उद्योग का चुनाव करने से पूर्व हम यह सोचते हैं कि इस उद्योग को करने से हमें कितना लाभ मिलेगा और लाभ मिलने की स्थिति में ही हम उस उद्योग को आगे बढ़ाते हैं। कृषि-आधारित उद्योग प्रारम्भ करते समय भी यही व्यावसायिक दृष्टिकोण होना चाहिए। प्रत्येक निर्णय लेते समय व्यावसायिक पहलुओं पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। सर्वप्रथम अपने संसाधनों के अनुरूप कृषि से सम्बन्धित उद्योग का चुनाव करें ताकि उपलब्ध संसाधनों का प्रभावी व वैकल्पिक उपयोग करके कम लागत से प्रति इकाई अधिक लाभ कमा सकें। इसके अलावा, सम्बन्धित उद्योगों से प्राप्त उत्पादों का अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए स्थानीय बाजार में इनकी मांग को सुनिश्चित करके ही इन उद्योगों की शुरुआत करनी चाहिए।

जमीन व पूंजी की उपलब्धता के अनुसार ही कृषि-आधारित उद्योग लगाएं

कृषि-आधारित उद्योगों के लिए अन्य संसाधनों के साथ-साथ जमीन एवं पूंजी महत्त्वपूर्ण घटक हैं। अतः जिनके पास पर्याप्त जमीन एवं पूंजी है, उनके लिए तो कृषि-आधारित उद्योग लगाने हेतु कोई समस्या होनी ही नहीं चाहिए। मगर जिनके पास जमीन तथा पूंजी कम है या नही है, वह भी कृषि-आधारित उद्योग हेतु जमीन को पट्टे पर ले सकते हैं। बंटाईदार या हिस्सेदारी पर कृषि-आधारित ऐसे उद्योग लगा सकते हैं जिनमें जमीन की जरूरत नहीं के बराबर होती है तथा कम पूंजी में भी काम चल जाता है। कम जमीन वाले किसानों का समूह सहकारी या सामूहिक उद्योगों को विकल्प के रूप में अपना सकता है, जिसमें समूह के सदस्य अपने-अपने संसाधनों को एकत्र करके उद्योग लगा सकते हैं, और प्राप्त लाभांश को संसाधनों की प्रति इकाई के आधार पर बांट सकते हैं।

लाभ लागत अनुपात का रखे ध्यान

दूसरे उद्योगों की भांति कृषि-आधारित उद्योग में लगाई गई लागत के द्वारा सम्भावित उत्पादन पर ध्यान देना ही कृषि का असली औद्योगिकीकरण है। कृषि-आधारित उद्योगों के चुनाव के समय पूंजी की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए कम लागत पर अधिक लाभ देने वाले उद्योगों को प्राथमिकता देनी चाहिए। इसके अलावा, कृषि-आधारित उद्योगों में लगाई जाने वाली लागत को तब तक बढ़ाते रहना चाहिए, जब तक लागत की प्रति इकाई पर लाभ होता रहे और अधिकतम लाभ पहुँचने पर लागत को बढ़ाना बंदकर देना चाहिए। कृषि-आधारित उद्योगों में लगने वाली लागत और आमदनी का ब्यौरा अवश्य रखें ताकि सही लाभ का पता चल सके और प्राप्त लाभ के आधार पर सम्बन्धित उद्योग के विस्तार पर विचार किया जा सके।

सरकारी योजनाओं का लाभ उठाएं

ग्रामीणों, किसानों, पशुपालकों व बेरोजगार युवाओं को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि कृषि-आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए कौन-कौन सी सरकारी योजनाएं, सब्सिडी तथा सुविधाएं उपलब्ध हैं। सरकार द्वारा उपलब्ध सुविधाओं में कृषि-आधारित उद्योगों के लिए कम अवधि के ऋण तथा भारी मशीनों के लिए कम ब्याज दर व आसान किश्तों पर ऋण सहजता से उपलब्ध कराए जाते हैं। कृषि-आधारित उद्योगों की सुविधाओं के विकास के लिए मशीनों की खरीद, प्रशिक्षण, बिजली, पानी, सड़क या शेड के निर्माण आदि के लिए सरकार द्वारा ऋण की सुविधा के साथ-साथ अनुदान भी मिलता है।

तकनीकी प्रशिक्षण

आज-कल कई सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाएं व बैंक किसानों, युवाओं व ग्रामीणों की सहायता के लिए कार्य कर रहे हैं। यदि कृषि-आधारित उद्योगों को छोटे-छोटे समूह बनाकर प्रारम्भ किया जाए तो निश्चित ही अधिक लाभदायक रहेगा। इसके अलावा, आजकल हर जिले में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद व राज्य कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा कृषि विज्ञान केन्द्र अथवा ज्ञान केन्द्रों की स्थापना की गई है। इन केन्द्रों पर कार्यरत वैज्ञानिक समय-समय पर कृषि आधारित उद्योगों के लिए तकनीकी प्रशिक्षण देते हैं। खाद्य प्रसंस्करण विभाग द्वारा फल व सब्जियों के मूल्य-संवर्धन व परीक्षण को प्रोत्साहित करने के लिए साहित्य व पेम्पलेटों के निःशुल्क वितरण के साथ-साथ प्रशिक्षण भी दिया जाता है। इसके अलावा, केन्द्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों, राज्य सरकारों द्वारा भी कृषि-आधारित उद्योगों के बारे में युवाओं को प्रशिक्षण दिया जाता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कई ऐसे कृषि-आधारित उद्योग हैं, जिनमें थोड़ी-सी मेहनत एवं प्रशिक्षण प्राप्त करके ग्रामीण स्तर पर स्वरोजगार आरम्भ किया जा सकता है। ग्रामीणों को चाहिए कि किसी भी उद्योग को शुरू करने से पहले उसके बारे में सम्पूर्ण जानकारी हासिल कर लें। इसके लिए तकनीकी प्रशिक्षण की भी अत्यंत आवश्यकता है। उपरोक्त योजनाओं व जानकारी के आधार पर कोई भी ग्रामीण बेरोजगार यह निर्णय कर सकता है कि कृषि-आधारित उद्योगों में से अपनी परिस्थिति के अनुसार वह कौन से उद्योग को अपनाकर अपनी आजीविका चलाने के साथ-साथ लाभ भी कमा सकता है। इसके अलावा, इन उद्योगों की शुरुआत करने से पहले किन-किन बिन्दुओं पर विचार करना आवश्यक है। सरकार द्वारा कौन-कौन सी योजनाएं, सुविधाएं व अनुदान उपलब्ध कराए जा रहे हैं, आदि जानकारियों का लाभ उठाकर ग्रामीण बेरोजगार व्यक्ति स्वरोजगार की तरफ उन्मुख हो सकता है।

(लेखक जल प्रौद्योगिकी केन्द्र, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में कार्यरत हैं।

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बांस उद्योग-ग्रामीण आजीविका का स्रोत

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बांस उद्योग-ग्रामीण आजीविका का स्रोतHindiWaterTue, 12/24/2019 - 14:44
Source
कुरुक्षेत्र, दिसम्बर, 2019

भारत सरकार ने अप्रैल 2018 में पुनर्गठित राष्ट्रीय बांस विभाग को स्वीकृति दी। साथ ही, बांस क्षेत्र को प्रोत्साहन देने के लिए पौधारोपण सामग्री से लेकर बागवानी, संग्रह सुविधा कायम करने, समेकन, प्रसंस्करण, विपणन,सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्यमों, कौशल विकास और ब्रांड कायम करने जैसी पहल के बारे में क्लस्टर दृष्टिकोण अपनाते हुए सम्पूर्ण मूल्य-श्रृंखला विकसित करने पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। इससे किसानों की आमदनी दोगुनी करने में मदद मिलेगी और कुशल तथा अकुशल कामगारों, खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों के युवाओं को रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त हो सकेंगे। बांस एक ऐसी वनस्पति है जिसके बहुत से उपयोग हैं। इसके करीब 1,500 उपयोग रिकॉर्ड किए जा चुके हैं जिनमें खाद्य पदार्थ के रूप में लकड़ी के विकल्प के रूप में, निर्माण और भवन सामग्री के रूप में, हस्ताशिल्प वस्तुओं के लिए कच्चे माल की तरह और लुगदी तथा कागज जैसे उपयोग बड़े आम हैं। दुनिया के 80 प्रतिशत बांस के जंगल एशिया में हैं और भारत, चीन तथा म्यांमार में कुल मिलाकर 1.98 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में बांस के वन हैं। भारत दुनिया के सबसे समृद्ध बांस सम्पदा वाले देशों में से एक है और इसके उत्पादन में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। भारत सरकार के कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के अनुसार देश में बांस का वार्षिक उत्पादन करीब 32.3 करोड़ टन है। भारत बांस उगाने में दुनिया में दूसर स्थान पर है। देश के 1.4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में बांस की 23 जेनेरा की 136 प्रजातियों की पैदावार होती है। फिर भी विश्व में बांस के व्यापार और वाणिज्य में भारत का हिस्सा सिर्फ चार प्रतिशत ही है। वर्ष 2015-16 और 2016-17 में भारत से बांस और बांस से बने उत्पादों का निर्यात क्रमशः 0.11 करोड़ रुपए और 0.32 करोड़ रुपए का था। बांस उत्पादन के क्षेत्र के विस्तार की व्यापक सम्भावनाएं हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण के अनुसार (2011) बांस की 50 प्रतिशत से अधिक प्रजातियाँ पूर्वी भारत में पाई जाती है जिनमें अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और मिजोरम भी शामिल है। इस क्षेत्र में बांस के बने बर्तन, मछली पकड़ने के जाल, मर्तबान, गुलदस्ते और टोकरियां बनाने की उत्कृष्ट सांस्कृतिक परम्परा रही है। भौगोलिक क्षेत्रफल की तुलना करें तो मिजोरम में बांस के सबसे बड़े जंगल हैं। राज्य के कुल क्षेत्रफल के आधे से अधिक में बांस के जंगल हैं। बांस हमारे जीवन और संस्कृति का अभिन्न अंग है और इसका इस्तेमाल धार्मिक अनुष्ठानों कला और संगीत में भी किया जाता है। यह एक ऐसा अनोखा पेड़ है जो हमारे दैनिक जीवन में समाया हुआ है। जनजातीय लोगों और वनवासियों का तो अब भी यही आदर्श वाक्य हैः रोजी-रोटी के लिए बांस और जिन्दगी के लिए बांस! रोजगार के असर बढ़ाने, आमदनी में वृद्धि और ग्रामीण लोगों के भोजन की पौष्टिकता के स्तर में सुधार के लिए बांस बुनियादी आवश्यकता है। यह छोटे और मझोले उद्यमों के क्षेत्र के विस्तार का भी आधार बन सकता है। यह ग्रामीण गरीबी को कम करने और आजीविका सुरक्षा में कारगर भूमिका निभा सकता है। बांस का पेड़ 4-5 साल में परिपक्व हो जाता है जबकि ठोस लकड़ी वाले किसी पेड़ को परिपक्व होने में करीब 60 साल लगते हैं। लेकिन इमारती लकड़ी वाले पेड़ों से अलग हटकर बांस की पर्यावरण पर बुरा असर डाले बगैर कटाई की जा सकती है। बांस का पेड़ भारी वर्षा या कम वर्षा, दोनों हीतरह की जलवायु में पनप सकता है। हर साल इसके एक पेड़ से 8-10 शाखाएं निकलती हैं। अन्य पेड़ों की तुलना में बांस का पेड़ 35 प्रतिशत अधिक ऑक्सीजन वायुमंडल में छोड़ता है और 20 प्रतिशत कार्बन-डाई-ऑक्साइड अवशोषित करता है। बांस की वैज्ञानिक तरीके से खेती करने से वायुमंडल में ऑक्सीजन का उत्सर्जन और कार्बन-डाई-ऑक्साइड का अवशोषण बढ़ाकर वायुमंडल की गुणवत्ता में नाटकीय सुधार लाया जा सकता है। हमारे देश में तेजी से हो रहे सामाजिक-आर्थिक बदलाव से कच्चे माल के रूप में बांस का महत्व न किवल कुटीर उद्योगों में बढ़ा है, बल्कि बड़े उद्योगों में भी इसके महत्व में वृद्धि हुई है। बांस पर आधारित करीब 25,000 उद्योग 2 करोड़ लोगों को रोजगार के असर प्रदान कर रहे हैं जबकि 20 लाख लोग बांस पर आधारित दस्तकारी में लगे हैं। बांस के पेड़ के आकर्षक आकार और मजबूती के कारण निर्माण और ढांचे बनाने वाली सामग्री के रूप में इसके उपयोग की व्यापक सम्भावनाएं हैं। बांस की दस्तकारी और बांस पर आधारित संसाधनों का उपयोग करने वालों में लुगदी और कागज उद्योग अग्रणी हैं। देश के विभिन्न क्षेत्रों में बांस की खपत से संकेत मिलता है कि 24 प्रतिशत बांस का उपयोग ढांचा खड़ा करने वाली सामग्री के रूप में होता है। 20 प्रतिशत का उपयोग लुगदी और कागज उद्योग में, 19 प्रतिशत हस्तशिल्प बनाने में और 15 प्रतिशत अन्य विविध रूपों में इस्तेमाल किया जाता है। बांस की रोजगार क्षमता का सारांश बांस के उपयोग का तरीका अनुमानित क्षमता/ मात्रा मात्रा/दिहाडियां (लाख वार्षिक) वन संवर्घन विज्ञान 25,000 हेक्टेयर 75.00 बांस के बागान लगाना 60 लाख टन 40.00 फसल कटाई 60 लाख टन 100.00 परिवहन/ भंडारण/लदान व उतारना 60 लाख टन 30.00 उत्पादों का निर्माण 30 लाख टन 240.00 औद्योगिक मजूदर 33 लाख टन 7.33 कुटीर उद्योग 40,000 टन 24.00 कुल 516.33 स्रोतः किसानों की आमदनी दोगुनी करने के बार में कमेटी की रिपोर्ट, कृषि मंत्रालय, भारत सरकार 2018 लेकिन अनेक मूल्य-संवर्धित उत्पादों का विनिर्माण जैसे लैमिनेटेड ब्रांड, बांस के रेशे के उत्पादन, बांस के रेशे के फाइबर सीमेंट बोर्ड बनाने, बांस की फर्श बनाने, दवाएं, खाद्य पदार्थ, लकड़ी के विकल्प, रोजगार के अवसर पैदा करने, आमदनी बढ़ाने के साथ-साथ उपलब्ध संसाधनों का चिरस्थाई उपयोग सुनिश्चित करने में किया जाता है। बांस पर आधारित टेक्नोलॉजी ने बहुत से उद्यमियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है और देश में बांस-आधारित कुछ उद्योग पहले ही स्थापित किए जा चुके हैं। बांस के उपयोग कई प्रकार से किया जा सकता है इसलिए यह मूल्य-संवर्धन गतिविधियों के लिए उपयुक्त है। इससे मूल्य-संवर्धित वस्तुएं बनाकर ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के कई अवसर पैदा किए जा सकते हैं। ग्रामीण रोजगार बढ़ाने में इसकी भूमिका का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि बांस लगाने में ही हर साल प्रति हेक्टेयर करीब 160 दिहाड़ियों का रोजगार पैदा होता है। एक टन बांस की कटाई में औसतन 8-10 दिहाड़ियों के बराबर रोजगार के अवसर पैदा होते हैं। इसी तरह, इसके परिवहन और लादने-उतारने में 5 दिहाड़ियों का रोजगार मिलता है। बांस से उपयोगी सामान बनाने में, इस्तेमाल से पहले इसका प्रसंस्करण करने में 80 दिहाड़ियों का रोजगार पैदा होता है। कुटीर उद्योगों में एक टन बांस के प्रंस्करण में प्रति टन 600 दिहाड़ियों का रोजगार मिलता है। अध्ययनों पर आधारित निम्नलिखित आंकड़ों से यह संकेत मिलता है कि बांस-आधारित अर्थव्यवस्था की रोजगार क्षमता हर साल 516.33 दिहाड़ियों का रोजगार पैदा करने की है। बांस की क्षमताओं की बड़ी उपेक्षा हुई है जिसकी वजह से यह क्षेत्र संगठित रूप से विकसित नहीं हो पाया है और इसके लिए बाजार सम्पर्क की सुविधा भी दयनीय है। उद्योग और हस्तशिल्पियों के स्तर पर इससे मूल्य-संवर्धित पदार्थ बनाने में टेक्नोलॉजी का उपयोग उपयुक्त-स्तर पर नहीं हो पाता। बांस की क्षमताओं की पहचान करते हुए राष्ट्रीय बांस प्रौद्योगिकी और व्यापार विकास मिशन 2003 की रिपोर्ट में बांस-आधारित अर्थव्यवस्था के उन्नयन की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है। इसके लिए बांस के विकास को ग्रामीण आर्थिक विकास, गरीबी उपशमन, बांस-आधारित हस्तशिल्पों और औद्योगिक विकास के कार्य में नीतिगत भूमिका सौंपी गई है। बांस की वाणिज्यिक खेती और इससे जुड़ी अन्य मूल्य-संवर्धन गतिविधियों में ग्रामीण लोगों को रोजगार दिलाने वाले आर्थिक संसाधन के रूप में बांस की क्षमता का नही के बराबर उपयोग हुआ है। इसका कारण यह है कि इस बारे में उपयुक्त नीति, बागानों के संस्थागत नेटवर्क, टेक्नोलॉजी उन्नयन, उत्पाद और बाजार –स्तर की कमी है। हमारे देश में बांस की उपयोग में नहीं की जा रही ऐसी व्यापक क्षमता है जिससे अर्थव्यवस्था में आमूल बदलाव लाया जा सकता है। बांस को वन से बाहर के क्षेत्रों में उगाने की भी जबर्दस्त संभावनाएं हैं क्योंकिः क) प्राकृतिक वनों की तुलना में ऐसे इलाकों में बांस के बागानों का प्रबंधन करना आसान होता है और ख) उपयोग करने वाली एजेंसियों से नजदीकी होने के कारण बांस की कटाई किफायती लागत पर की जा सकती है। आज भारत के सामने जमीन के खराब होने की समस्या सबसे गम्भीर है। स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायनमेंट 2017 (भारत के पर्यावरण की स्थिति) नाम की रिपोर्ट में बताया गया है कि देश की 30 प्रतिशत जमीन खराब हो चुकी है। इसे जोड़ने और ठीक करने की अपनी अनोखी क्षमता की वजह से बांस ऐसी जमीन को सुधारने के लिए सर्वोत्तम उपाय है। अक्टूबर 2006 में शुरू किए गए राष्ट्रीय बांस मिशन (एन.एम.बी.) बांस की जबर्दस्त क्षमता का फायदा उठाने के कार्य में नया जोश पैदा करने और इसे नई दिशा देने की भारत सरकार की एक पहल है। यह बहु-विषयक और बहु-आयामी दृष्टिकोण है। इसके महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जिन उपायों की योजना बनाई गई है, वे अनुसंधान और विकास, संयुक्त वन प्रबंधन समितियों या ग्राम विकास समितियों के माध्यम से वन भूमि और गैर-वन भूमि पर बांस उगाने, किसान/महिला पौधशालाओं के जरिए उच्च गुणवत्ता वाली पादप सामग्री की आपूर्ति सुनिश्चित करने, बांस के हस्तशिल्प को बढ़ावा देने, इसके विपणन व निर्यात को बढ़ावा देने, इसके विपणन व निर्यात को बढ़ावा देने और बांस के थोक और खुदरा बाजारों की स्थापना पर केन्द्रित हैं। राष्ट्रीय बांस मिशन को केन्द्र द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम के रूप में 2006-07 में शुरू किया गया और तब से 3,61,791 हेक्टेयर भूमि पर बांस के बागान लगाए जा चुके हैं जिनमें से 2,36,700 हेक्टेयर वन क्षेत्र में और 1,25,091 हेक्टेयर गैर-वन भूमि में हैं। 91,715 हेक्टेयर पर मौजूदा बांस बागानों की उत्पादकता में सुधार किया गया है। उच्च गुणवत्ता वाली पौध सामग्री उपलब्ध कराने के लिए 1,466 पौधशालाएं बनाई गई हैं। इस तरह की पौधशालाओं के प्रबंधन और बांस के बागान लगाने के लिए विभिन्न राज्यों में 61,126 किसानों और 12,710 क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण दिया गया है। इसके अलावा, गाँवों के पास बांस के 39 थोक और खुदरा बाजार बनाए गए हैं और 29 और फुटकर केन्द्र तथा 40 बांस मंडियां भी स्थापित की गई हैं। (लिंक- http://agricoop.nic.in/sites/Agenda_Note_Khariff2018)। लेकिन राष्ट्रीय बांस मिशन के अन्तर्गत 2006-17 की अवधि के दौरान 3.62 लाख हेक्टेयर क्षेत्र (जिसमें से 1.25 लाख हेक्टेयर गैर-वन क्षेत्र था) बांस की बागवानी के अन्तर्गत लाया गया, जबकि लक्ष्य दसवीं योजना में 20 लाख हेक्टेयर की वृद्धि करना और कुछ क्षेत्र को दसवीं और ग्यारहवीं योजना में 60 लाख टन करने का था। यह बात गौर करने की है कि गैर-वन क्षेत्र में उपलब्धियां क्षमता से काफी कम रही हैं। भारतीय वन अधिनियम 1927 में बांस को ‘वृक्ष’ की श्रेणी में रखा गया था, जो कानून के अनुसार एक विरोधाभास है। इससे बांस के बागानों का विकास, खासतौर पर गैर-वन क्षेत्रों में अवरुद्ध हुआ। वर्ष 2017 के अंत तक वनों से बाहर के इलाकों में उगाया जाने वाला बांस, पेड़ों को काटने और उसके परिवहन के विनियामक नियमों के अन्तर्गत आता था। ऐसा महसूस किया गया कि राष्ट्रीय बांस मिशन का जोर, कुल मिलाकर बांस की बागवानी और उपज को बढ़ाया देने पर था और इसके प्रसंस्करण उत्पाद विकास और मूल्य संवर्धन के बहुत सीमित प्रयास किए गए। इससे बांस उगाने वालों और उद्योगों के बीच कमजोर सम्पर्क कायम हो सका। आज देश में बांस उद्योग के समन्वित विकास की आवश्यकता है। भारत सरकार ने अप्रैल 2018 में पुनर्गठित राष्ट्रीय बांस मिशन को स्वीकृति प्रदान की जिसके अन्तर्गत अगले दो वर्षों में 1,290 करोड़ रुपए के निवेश का प्रावधान किया गया। इसमें बांस क्षेत्र के लिए पौधारोपण सामग्री से लेकर बागवानी, संग्रह सुविधा कायम करने, समेकन, प्रसंस्करण, विपणन, सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्यमों, कौशल विकास और ब्रांड कायम करने जैसी पहल के बारे में क्लस्टर दृष्टिकोण अपनाते हुए सम्पूर्ण मूल्य-श्रृंखला विकसित करने पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। इससे किसानों की आमदनी दोगुनी करने में मदद मिलेगी और कुशल और अकुशल कामगारों, खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों के युवाओं को रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त हो सकेंगे। किसानों को इन उपायों का फायदा मिले, इसके लिए वन क्षेत्र के बाहर बांस के स्टॉक को वृक्ष की परिभाषा से बाहर कर दिया गया है। इसके लिए भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 2 (7) में भारत सरकार ने नवम्बर 2017 में संशोधन किया। इसके अलावा स्फूर्ति (स्कीम ऑफ फंड फॉर रिजेनेरेशन ऑफ ट्रेडिशनल इंडस्ट्रीज) नाम की योजना सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय द्वारा लागू की जा रही है ताकि परम्परागत उद्योगों और बांस की दस्तकारी करने वाले हस्तशिल्पियों को बढ़ावा मिले। बांस संस्कृति की समुचित समझ और तकनीकी सहायता से एक ऐसी बांस क्रान्ति आ सकती है जिसमें बांस- आधारित उद्योगों के उत्थान की क्षमता है। नई पहल बांस उत्पादन को वाणिज्यिक-स्तर पर बढ़ावा देने के लिए हिमाचल प्रदेश सरकार ने राज्य-स्तरीय बांस विकास एजेंसी गठित करने का फैसला किया है और उद्योग की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए बांस आर्थिक क्षेत्र भी बनाया है। हिमाचल प्रदेश के निचले इलाकों में बहुत से क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ बांस उगाने की जबर्दस्त सम्भावनाएं हैं जिसकी उद्योगों में बड़ी मांग है। ऐसे में बोर्ड के गठन से किसानों को उद्योगों में बांस की जबर्दस्त मांग को पूरा करने के लिए इसकी बागवानी को अपनाने में बड़ी मदद मिलेगी। 1. तेलंगाना सरकार ने किसानों को आमदनी का चिरस्थाई स्रोत उपलब्ध कराने के लिए जून, 2018 में 506 हेक्टेयर में (1,250 एकड़) भूमि पर बांस के बागान लगाने की परियोजना शुरू करने का फैसला किया। 2. महाराष्ट्र सरकार किसानों की आमदनी के स्रोत के रूप में बांस की बागवानी को बढ़ावा देने को बड़ी उत्सुक है। इसके लिए उसने अगस्त 2018 में महाराष्ट्र बांस विकास बोर्ड का गठन किया। बोर्ड यह सुनिश्चित करेगा कि वन विभाग की बजाय ग्रामीण समुदायों का बांस की बिक्री पर पूरा नियंत्रण रहे। यहाँ तक कि राज्य सरकार ने बांस अनुसंधान केन्द्र भी गठित किया है जिसके लिए धन की व्यवस्था आटा समूह द्वारा की जाती है। 3. भारत सरकार के जनजातीय कार्य मंत्रालय के अन्तर्गत शीर्ष संगठ ट्राइफेड जनजातीय लोगों को बांस को जरा भी बर्बाद किए बिना उसका अनुकूलतम तरीके से इस्तेमाल करने और इससे अगरबत्ती, माचिस की डिब्बियां, कपड़ा आदि बनाने के बारे में प्रशिक्षण देने के लिए संस्था खोलेगा। इससे जनजातीय लोगों की आमदनी बढ़ाने और हमारे बाजारों को मुक्त बनाने में मदद मिलेगी। 4. एक रिपोर्ट के अनुसार जापान सरकार बांस उद्योग के विकास और सड़कों के निर्माण के लिए मिजोरम सरकार को मदद दे सकती है। इतना ही नहीं, जापान सरकार प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव को कम करने में भी मदद कर सकती है। उसका जोर राज्य की बांस सम्पदा के मूल्य-संवर्धन के लिए एक उद्योग लगाने पर रहेगा। राज्य में किसी ऐसे बड़े उद्योग की कमी है जो उसके संसाधनों की क्षमता का फायदा उठा सके। आगे की राह देश में जमीन के बंजर होने की रफ्तार में कमी लाने के लिए बांस उगाने के सघन कार्यक्रम को 2019-20 के बाद भी जारी रखने की आवश्यकता है और इसमें सभी सम्बद्ध पक्षों को शामिल किया जाना चाहिए। चीन का अनुसरण करते हुए भारत सरकार को चाहिए कि वह बंजर भूमि और ढलान वाली जमीन में बांस के बागान लगाने में ग्रामीण किसानों को मदद दे। प्रधानमंत्री आवास योजना के अन्तर्गत भी भवन सामग्री के रूप में बांस के उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। वजन उठाने में सक्षम संरचनात्मक घटक के रूप में बांस के विकास से ऊंची लागत वाले निर्माण कार्यों में इसके उपयोग का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। जिससे बांस की बागवानी को हमारे देश के विशाल बंजर क्षेत्र को हरा-भरा करने के आर्थिक रूप से व्यावहारिक तरीके क रूप में अपनाया जा सकेगा (स्मिता चुघ, बैम्बू-ए-ग्रीन ऑप्शन फॉर हाउसिंग)। खाने योग्य बांस की पूर्वी एशियाई व्यजनों को बनाने और दवा के रूप में भारी मांग रहती है। उत्तर-पूर्वी राज्यों में उगाए जाने वाला बांस (जो भारत में उगाए जाने वाले बांस की मात्रा का 66 प्रतिशत है) सरकार की मदद से ताइवान और जापान जैसे पूर्वी एशिया के देशों को प्रतिस्पर्धी कीमतों पर निर्यात किया जा सकता है। अगरबत्ती उद्योग का भारत में बड़ा विस्तृत बाजार है। भारत वियतनाम और चीन से 35,000 टन गोल सीकें आयात करता है। इससे पहले उत्तर-पूर्वी राज्यों की हाथ की बांस की बनी चौकोर सींकों का अगरबत्ती बनाने में उपयोग किया जाता था। लेकिन जब टेक्नोलॉजी बदली और मशीनों का उपयोग होने लगा तो गोल सींकों को प्राथमिकता दी जाने लगी। भारत इस तरह की 3,000 टन सींकों का उत्पादन करता है। इस उद्योग को जिस किस्म की सींकों की जरूरत होती है, उसे बनाने में इस्तेमाल होने वाली बांस की खास प्रजाति का स्थानीय उत्पादन बढ़ाकर आवश्यकता पूरी की जा सकती है। यह भी देखा गया है कि करीब 13 प्रतिशत बांस बंग्लादेश और म्यांमार में अवैध रूप से भेजा जाता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, देश में बांस की कमी को देखते हुए इसे काफी बड़ी मात्रा में विदेशों से आयात करना पड़ता है। इस तरह के अवैध व्यापार पर तत्काल रोक लगाने की आवश्यकता है। (लेखक की कृषि सम्बद्ध क्षेत्रों और पर्यावरण मुद्दों पर व्यापक अनुभव है। इससे पहले, योजना आयोग में उद्योग और खनिज, कृषि और सम्बद्ध क्षेत्रों आदि में विभिन्न पदों पर 25 साल से अधिक समय तक कार्य किया और हरियाणा पर्यावरण प्रबंधन सोसायटी के पूर्व मुख्य कार्यकारी भी रह चुके हैं।) ई-मेलःsclahiry@gmail.com

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देहरादून में प्रदूषण फैला रहीं 1000 इकाइयां

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देहरादून में प्रदूषण फैला रहीं 1000 इकाइयांHindiWaterWed, 12/25/2019 - 10:35
Source
दैनिक जागरण, 25 दिसंबर 2019

प्रतीकात्मक तस्वीर-amar ujala

राजधानी दून में संचालित औद्योगिक इकाइयों में एक हजार से अधिक इकाइयों का प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में पंजीकरण ही नहीं हैं।

बोर्ड की लापरवाही का आलम यह है कि इन्होंने अभी तक इनका सर्वे करने तक की जहमत नहीं उठाई। कैग ने अपनी सालाना रिपोर्ट में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों और विशेषज्ञों की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए इकाइयों का सर्वे करने और उनका पंजीकरण कराने पर जोर दिया है।

बता दें कि वायु अधिनियम की धारा 21 के तहत कोई भी व्यक्ति राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की सहमति के बिना किसी भी औद्योगिक संयंत्र की स्थापना या उसका संचालन नहीं कर सकता। जिला उद्योग केंद्र की रिपोर्ट के मुताबिक 2015-18 के बीच जिले में 1104 इकाइयां स्थापित की गई। जिनमें से 107 इकाइयों ने स्थापित करने के लिए आवेदन किया। 

लेकिन बोर्ड अधिकारियों ने पंजीकृत  उद्योगों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए न कोई सर्वेक्षण किया और न उद्योग विभाग के साथ कोई समन्वय स्थापित किया। कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि बोर्ड अधिकारियों को ऐसी औद्योगिक इकाइयों को चिंहित करने के लिए कदम उठाने चाहिए। लेकिन इस संबंध मंे जब कैग ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों से जानकारी मांगी तो बोर्ड अधिकारियों ने बचाव में कहा कि विशेषज्ञों व कर्मचारियों की कमी के कारण सर्वेक्षण नहीं हो पाया।

 

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किसानों की आय बढ़ाने में सहायक कृषि उद्योग

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किसानों की आय बढ़ाने में सहायक कृषि उद्योगHindiWaterWed, 12/25/2019 - 13:11
Source
कुरुक्षेत्र, दिसम्बर, 2019

फोटो-hindustan times

कृषि उद्योग के विकास में मदद करने वाली नीतियाँ, उच्च मूल्य वाली जिंसों एवं अन्य गैर-खाद्य कृषि उत्पादों की मांग आकर्षक मूल्यों पर तैयार करने में, दूरगामी भूमिका निभाएंगी। कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को प्रमुख निर्यात उद्योग बनाने से कामगारों के लिए रोजगार के प्रचुर अवसर भी उत्पन्न हो सकते हैं क्योंकि यह श्रम की गहनता वाला उद्योग है।

रोजगार पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के 68वें चरण में यह अनुमान लगाया गया है कि लगभग 48.9 प्रतिशत कामगारों की आजीविका का मुख्य साधन कृषि ही है। साथ ही, हमारी 70 प्रतिशत जनसंख्या (2011 की जनगणना) ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है जिसकी आय वृद्धि सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। लेकिन सबसे अधिक ग्रामीण रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र में आय बढ़ाने के लिए मूल्य-आधारित वृद्धि की रणनीति लम्बे समय तक नहीं चल सकती, इसलिए शहरी-ग्रामीण क्षेत्रों में कलस्टर- पद्धति पर कृषि औद्योगीकरण ही इकलौता रास्ता है। इससे कृषि में आय का वह पक्ष भी दुरुस्त हो जाता है, जो 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के प्रधानमंत्री के आह्वान के बाद सभी कृषि नीतियों और प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर पहुँच गया है। सौभाग्य से, हमारा देश भूख खत्म करने एवं सभी को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के एजेंडा पर बहुत आगे बढ़ चुका है क्योंकि 1950-51 से अभी तक विभिन्न खाद्य सामग्री में 2.78 से 47.57 गुना इजाफा हो चुका है। यह भारतीय कृषि की एक और विशेषता है क्योंकि जिंसो का बेचने योग्य, अधिशेष (अतिरिक्त मात्रा) बढ़ता जा रहा है, जिस कारण कटाई के बाद उत्पादों के प्रबंधन एवं प्रसंस्करण की मांग उठ रही है ताकि जिंसो को लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सके और उपयुक्त समय एवं रूप में बाजार में उतारकर सबसे अच्छी व सही, मगर बढ़िया कीमत हासिल की जा सके। दिलचस्प है कि रोजमर्रा की खाद्य सामग्री के मुकाबले अधिक मूल्य प्रदान करने वाली जिंसों के उत्पादन में अधिक तेजी से वृद्धि हो रही है। पोषण सुरक्षा की दृष्टि से यह सबसे संतोषजनक बात है, लेकिन इससे कृषि-आधारित उद्योगों के सामने उस अतिरिक्त उत्पादन के इस्तेमाल की चुनौती खड़ी हो जाती है, जिसे ताजा या कच्चा नहीं खाया जा सकता। इसलिए अब हमें पुराना नजरिया बदलना होगा, जिसमें कृषि और उद्योगों को उनकी प्रकृति तथा अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका के लिहाज से बिल्कुल अलग क्षेत्र माना जाता था और वह नजरिया इसलिए बदलना होगा क्योंकि अब कृषि के बजाय कृषि-आधारित उद्योगों में वृद्धि हो रही है। शायद इस पर बड़ी बहस की जरूरत है क्योंकि उत्पादन तथा प्रसंस्करण के पहले चरण में फर्क करना आसान है मगर उसके बाद इनमें अन्तर करना मुश्किल हो जाता है। कृषि प्रसंस्करण उद्योगों के विकास को कृषि का औद्योगीकरण और ऐसी संयुक्त प्रक्रिया मानना चाहिए, जिससे नया औद्योगिक क्षेत्र तैयार हो रहा है। हालांकि उद्योग और कृषि-आधारित उद्योगों के बीच स्पष्ट अन्तर करना वास्तव में मुश्किल है, लेकिन अकाल जांच आयोग (भारत), 1944 द्वारा की गई परिभाषा इस मामले में उपयुक्त है। आयोग ने कृषि-आधारित उद्योगों के बारे में कहा, ‘ऐसे उद्योग, जो खेतों को कृषि सामग्री प्रदान करने के साथ ही खेतों के उत्पादों का प्रबंधन भी कर रहे हैं, उन्हें कृषि-आधारित उद्योग कहा जा सकता है।’ अन्तरराष्ट्रीय मानक औद्योगिक वर्गीकरण (आईएसआईसी) में खाद्य, पेय एवं तम्बाकू, वस्त्र परिधान के विनिर्माण, चमड़ा उद्योग, काष्ठ एवं काष्ठ उत्पाद, कागज एवं कागज उत्पादों के विनिर्माण मुद्रण एवं प्रकाशन, रबर उत्पादों के विनिर्माण को कृषि-औद्योगिक उत्पादन के अन्तर्गत रखा गया है।

तालिका 1 भारत में कृषि उत्पादन का बदलता परिदृश्य

सामग्री

1950-51 में उत्पादन

2018-19 में उत्पादन (चौथे अग्रिम अनुमान)

गुना वृद्धि (प्रतिशत में)

खाद्यान्न

50.83

2849.95

5.61

दलहन

8.41

23.40

2.78

तिलहन

5.16

32.26

6.25

कपास

0.52

4.88

9.38

गन्ना

57.05

400.15

7.01

बागवानी

96.56 (1991-92 का स्तर)

314.67/

3.26

दूध

17.00

165.40

9.73

मछली

0.75

11.41

15.21

अंडा

1830

87050

47.57

मांस

1.9 (1998-99) अमसद्ध

7.37

3.88

 

आय एवं रोजगार सृजन

ऐसे वर्गीकरण से यह विश्वास जगता है कि देश के सुदूर क्षेत्रों में प्रमुख रोजगार-प्रदाता बनचुके कृषि एवं कृषि-आधारित उद्योगों (कृषि प्रसंस्करण, वस्त्र, चीनी एवं अन्य सम्बन्धित गतिविधियां) को मौजूदा सन्दर्भ में और ग्रामीण भारत में आय के स्रोतों में विविधता लाने के उद्देश्य से प्राथमिकता तय करने में अहम भूमिका निभानी हैक्योंकि कृषक परिवारों की कुल आय में खेती और पशुपालन का योगदान केवल 35 प्रतिशत रह गया है (तालिका-2) जबकि उनकी औसत मासिक आय में मजदूरी और सेवा का 50 प्रतिशत से अधिक योगदान है।
 
वर्ष 2014-15 की आर्थिक समीक्षा में खाद्य महंगाई के उच्च-स्तर प्याज, टमाटर और आलू जैसी कुछ जिंसों की कीमतों में कुछ समय के लिए अचानक आने वाले तेज उछाल के खतरों से निपटने के लिए कृषि क्षेत्र में गहरे परिवर्तन पर जोर दिया गया क्योंकि इस तरह की महंगाई अब लम्बे समय तक टिकी रहती है, जिससे आर्थिक अस्थिरता भी आ रही है। समीक्षा में कम संसाधनों में अधिक फल प्राप्त करने के लिए कृषि के प्रति दृष्टिकोण में नया प्रतिमान जोड़ने की सिफारिश की गई थी। यदि कृषि-आधारित खाद्य एवं गैर-खाद्य गतिविधियों में अधिक अवसर मुहैया कराए जाए तो ग्रामीण परिवारों की आय बढ़ सकती है। वार्षिक औद्योगिक सर्वेक्षण 2016-17 दिखाता है कि औद्योगिक रोजगार में कृषि उद्योगों का लगभग 36 प्रतिशत योगदान है (तालिका 3)। इसके अलावा, कृषि उत्पादन एवं आपूर्ति श्रृंखला में अच्छी-खासी रोजगार सृजन क्षमता है। इन विशेषताओं से संकेत मिलता है कि इन कृषि व्यापारों को विकास एवं रोजगार की राष्ट्रीय रणनीति में प्राथमिकता मिलनी ही चाहिए।

वर्ष 2016-17 के केन्द्रीय बजट में कृषि एवं गैर-कृषि क्षेत्रों में सरकारी योजनाओं को नए सिरे से दिशा देते हुए कृषि पर विशेष जोर दिया गया था ताकि सिंचाई के लिए नया बुनियादी ढांचा बनाकर, मूल्यवर्धन कर तथा खेत से बाजारों तक सम्पर्क प्रदान कर किसानों की आय 2022 तक दोगुनी की जा सके।
 
कृषि खाद्य उद्योगों में उत्पादन गतिविधियों में, प्रत्यक्ष भारी रोजगार सृजन करने और इससे जुड़े अन्य क्षेत्रों में परोक्ष रोजगार सृजन करने की क्षमता है। यह रोजगार ग्रामीण क्षेत्रों में होगा, जहाँ उद्योगों को कच्चे माल विशेषकर जल्द खराब होने वाले कृषि उत्पादों के स्रोत के निकट लगाना होगा। ये उद्योग कटाई के बाद होने वाला नुकसान कम करने में और सह-उत्पादों का अधिक प्रभावी तौर पर इस्तेमाल करने में मदद करेंगे। इससे किसानों को बेहतर दाम मिलने के कारण ग्रामीण आय में इजाफा हो सकता है और कृषि उपभोक्ता वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ने से उपभोक्ताओं की भलाई भी हो सकती है। हमारे देश में उपलब्ध प्रचुर सम्भावना का- (अ) उत्पादन के उचित-स्तर एवं प्रौद्योगिकी के चयन; (आ) मौजूदा इकाइयों की प्रौद्योगिकी के उन्नयन; (इ) उत्पादों तथा देश-विदेश में मौजूद उपभोक्ताओं के बीच उचित कड़ी की स्थापना और (ई) उचित संस्थागत व्यवस्था की स्थापना के जरिए पर्याप्त दोहन किया जा सकता है।
 
इस उद्योग की वृद्धि में सबसे बड़ी बाधा इसका छोटा परिमाण या स्तर रहा है और इसी कारण अधिकतर भारतीय किसान उच्च-मूल्य वाली कृषि को भी नहीं चुन पाते। सड़क, बिजली और संचार जैसे बुनियादी ढांचे में निवेश से कृषि व्यापार की लागत कम होगी और निजी क्षेत्र भी कृषि प्रसंस्करण, कोल्ड-स्टोरेज संयंत्रो, रेफ्रिजरेटेड आवागमन और रिटेल श्रृंखला में निवेश के लिए प्रोत्साहित होगा। ठेके पर खेती, उत्पादक संगठन और सहकारी संस्थाओं जैसी जिन व्यवस्थाओं से किसान आसानी से बाजार पहुँच सकते हैं, कीमत का जोखिम बंट जाता है और मार्केटिंग तथा लेन-देन की लागत कम हो जाती है, उच्च मूल्य वाली कृषि को आगे बढ़ाने में बहुत कारगर साबित हो सकती हैं।
 
खाद्य प्रसंस्करण उद्योग रोजगार की प्रचुरता वाला क्षेत्र है, जिसने 2012-13 में सभी पंजीकृत कारखानों से सृजित कुल रोजगार में 11.69 प्रतिशत योगदान किया। शहरी और ग्रामीण भारतीय परिवारों में सबसे अधिक खर्च भोजन पर ही होता है। शहरी परिवार द्वारा खपत पर होने वाले कुल खर्च भोजन पर ही होता है। शहरी परिवार द्वारा खपत पर होने वाले कुल खर्च में 39 प्रतिशत और ग्रामीण परिवार द्वारा खपत में 49 प्रतिशत हिस्सा भोजन का ही है। कृषि, पशु और वनोत्पादों का कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल कर, होने वाली तमाम गतिविधियां खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में ही आती हैं। कृषि पर आधारित कुछ पारम्परिक उद्योग पहले से हैं, जैसे चावल और आटे की मिलें चीनी, खांडसारी तथा गुड़ की इकाइयां, खाद्य तेल मिल तथा चाय, कॉफी एवं काजू जैसी फसलो के प्रसंस्करण की इकाइयां। कुछ आधुनिक खाद्य-प्रसंस्करण उद्योग भी हैं जैसे डेयरी उत्पाद, कनफेक्शनरी, समुद्री उत्पाद, बागवानी उत्पाद एवं सब्जियां, मांस एवं पोल्ट्री उत्पाद। साथ ही, कृषि अवशेषों और मुख्य कृषि-आधारित उद्योगों के सह-उत्पादों का प्रसंस्करण भी एक सीमा तक किया जाता है। इतनी अधिक गतिविधियों के कारण विभिन्न कृषि खाद्य उद्योगों की समस्याओं की प्रकृति भी बहुत अलग है। इसलिए विभिन्न कृषि खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों को समेटने वाले प्रौद्योगिकी नीति ढांचे की कल्पना ही करना कठिन है। उनमें ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव डालने और ग्रामीण जनसंख्या की आय बेहतर करने की क्षमता है। हालांकि प्रसंस्करण से कच्चे उत्पाद की बुनियादी विशेषताएं बदल जाना तय है, लेकिन खाद्य प्रसंस्करण गतिविधियों से जुड़ी नीतियां भी प्रसंस्करण के उद्देश्य के आधार पर अलग-अलग गतिविधियों के लिए अलग-अलग हो सकती हैं। कुछ प्रसंस्करण जरूरी हो सकते हैं, जिन्हें खपत से पहले करना ही होता है। अनाज का क्षेत्र प्रसंस्करण की इसी श्रेणी में आता है। ऐसा प्रसंस्करण देश में पहले ही किया जा ररहा है, लेकिन इस क्षेत्र में आधुनिक तकनीकों का प्रवेश दो प्रकार से लाभकारी माना जा रहा है। पहले तो इससे प्रसंस्करण की क्षमता बढ़ेगी और वांछित उत्पाद अधिक मात्रा में मिलने लगेंगे। दूसरी बात, इससे बड़ी संख्या में उपयोगी सह-उत्पाद उत्पन्न होंगे, जिनमें से कुछ का अभी पूरी तरह इस्तेमाल नहीं होता या उच्च मूल्यवर्धित उत्पाद तैयार करने में समुचित उपयोग नहीं होता। हालांकि अधिकतर प्रौद्योगिकी देश में पहले से ही उपलब्ध हैं, लेकिन इसे व्यापक स्तर पर अपनाया नहीं जा रहा क्योंकि अक्सर आर्थिक प्रोत्साहन ही नहीं होते या सह-उत्पादों के संग्रह, प्रसंस्करण एवं मार्केटिंग के लिए संस्थागत व्यवस्थाएं ही नहीं होती। चूंकि खाद्यान्न क्षेत्र में सह-उत्पादों के प्रसंस्करण से नई विनिर्माण गतिविधियां आरम्भ होती हैं या मौजूदा गतिविधियों में विस्तार होता है। इसीलिए ऐसी गतिविधियां अतिरिक्त रोजगार सृजित करती हैं। भारत के खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में करीब 65 लाख लोगों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रोजगार मिला है।
 
कृषि-आधारित खाद्य प्रसंस्करण की अगली श्रेणी कुछ खाद्य-उत्पादों की ढुलाई एवं मार्केटिंग सुगम बनाने के लिए प्रसंस्करण तथा पैकेजिंग से सम्बन्धित है। दूध एवं दुग्ध उत्पादों का प्रसंस्करण इसी श्रेणी में आता है। इससे किसानों विशेषकर छोटे किसानों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में खेतिहर कृषि मजदूरों की आय बढ़ जाएगी। इससे उपभोक्ता कल्याण को भी बढ़ावा मिलेगा। तीसरी श्रेणी ऐसी प्रसंस्करण गतिविधियों से सम्बन्धित है, जो मौसमी खाद्य उत्पादों की स्टोरेज अवधि बढ़ाने में मदद करेगी। फल और सब्जियां इसी श्रेणी में आते हैं। फलों और सब्जियों के प्रसंस्करण से कटाई के बाद होने वाला नुकसान कम करने में मदद मिलेगी तथा आय में मौसमी उतार-चढ़ाव दूर होने से किसानों को स्थिर आय भी मिलेगी।
 
एक ओर, इन बाधाओं से खड़ी हुई चुनौतियां और जटिलताएं तथा दूसरी ओर, लाभदेयता और ग्रामीण एवं लघु किसानों के विकास में योगदान समेत विभिन्न उद्देश्यों के साथ सतत वृद्धि की जरूरत भारत में कृषि व्यापार गतिविधियों के संगठन के लिए अनूठे तरीकों तथा संस्थागत मॉडलों की आवश्यकता पर जोर देती है। भाग्यवश व्यक्तिगत एवं सहकारी संस्थाओं जैसे कई मॉडल सामने आए हैं और अपना स्तर या परिमाण बढ़ाने के लिए उन्हें समुचित प्रशिक्षण प्रदान कर रहे हैं। इनमें उत्पादन, खरीद, गुणवत्ता एवं क्षमता में प्रौद्योगिकी तथा नवाचार को सार्थक रूप से सीखना और गुणवत्तापूर्ण उत्पाद तैयार करने के लिए आधुनिक प्रसंस्करण प्रौद्योगिकी में निवेश करने की क्षमता रखना शामिल है। साथ ही, अधिक पूंजी की आवश्यकता भी पूरी की जा रही है।
 

भारत की खाद्य प्रसंस्करण नीति

तालिका-2 मासिक पारिवारिक आय में विभिन्न स्रोतों का योगदान (प्रतिशत में)

आय का स्रोत

औसत मासिक में योगदान

कृषक परिवार

गैर-कृषक परिवार

सभी परिवार

खेती

35

-

19

पशुपालन

8

-

4

अन्य कार्य

6

12

8

सरकारी/निजी नौकरी

34

54

43

दिहाड़ी मजदूरी

16

32

24

अन्य स्रोत

1

2

2

स्रोतः नाबार्ड अखिल भारतीय वित्तीय समावेश सर्वेक्षण, 2016-17

खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय ने 2018 में भारत की खाद्य प्रसंस्करण नीति पेश की। अन्य बातों के साथ इस नीति में राज्यों तथा दुनिया की सबसे अच्छी पद्धतियां और तरीके भी शामिल हैं। सरकार ने भारत को दुनिया का खाद्य कारखाना और वैश्विक खाद्य बाजार बनाने पर जोर दिया है, जिससे खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र के लिए अपार अवसर खुल गए हैं। राष्ट्रीय खाद्य ग्रिड और राष्ट्रीय कोल्डचेन ग्रिड बनाकर कटाई के बाद बर्बादी एकदम खत्म कर देने के लिए कई योजनाओं की घोषणा हुई है। इन योजनाओं और कार्यक्रमों को पूरी गम्भीरता के साथ अमल में लाया जाना चाहिए ताकि कृषि-खाद्य उद्योग की समुचित वृद्धि सुनिश्चित हो और ग्रामीम रोजगार के पर्याप्त मौके भी सृजित हो सके। मल्टी-ब्रांड रिटेल में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेश निवेश (एफडीआई) की अनुमति जैसे सुधारों का दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। इसी तरह, पूंजीगत सब्सिडी, कर छूट और सीमा शुल्क एवं उत्पादन शुल्क में कमी जैसे आकर्षक प्रोत्साहनों से इस क्षेत्र में अधिक निवेश आकर्षित करने में मदद मिलेगी। आपूर्ति श्रृंखला से जुड़े बुनियादी ढांचे जैसे कोल्डचेन, बूचड़खाने और फूड पार्क आदि पर भी अधिक ध्यान दिया जा रहा है। इसके पीछे खाद्य प्रसंस्करण में वृद्धि और भी तेज करने तथा किसानों को मिलने वाला प्रतिफल बढ़ाने के लिए उन्हें मूल्य श्रृंखला से जोड़ने का विचार है। राज्यों को ऐसी व्यवस्था तैयार करनी होगी, जहाँ एक ही बिन्दु पर अनापत्ति (सिंगल विंडो क्लियरेंस) और अन्य सांविधिक अनापत्तियां प्राप्त हो सकें तथा कच्चे उत्पाद और प्रसंस्कृत खाद्य-वस्तुओं का प्रदर्शन भी हो सके। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय इस क्षेत्र से जुड़ी समस्याओं को समझने और निपटने में जुटा हुआ है ताकि निवेशकों को मदद मिल सके और उनका निवेशकों पर भरोसा बढ़ाया जा सके जिससे विदेशी निवेशकों की सक्रियता भी बढ़ेगी।

तालिका-3 भारत में कृषि उद्योग क्षेत्र की विशेषताएं

विशेषता

कारखानों की संख्या

उससे जुड़े कुल व्यक्ति (प्रतिशत)

सभी उद्योग

234865 (100.00)

100.00

कृषि-आधारित उद्योग

96685 (41.16)

34.73

कृषि-आधारित खाद्य उद्योग

40178(17.10)

11.36

कृषि आधारित गैर खाद्य उद्योग

56507 (24.06)

23.37

गैर-कृषि उद्योग

138180 (59.84)

65.27

कोष्ठक में दिए आंकड़े प्रतिशत में उद्योग क्षेत्र का योगदान बताते हैं।

स्रोतः उद्योगों की वार्षिक समीक्षा 2016-17

 

निष्कर्ष
 
उच्च मूल्य वाली जिंसों में बेहद प्रभावशाली वृद्धि और हाल के वर्षों में बढ़ती आय को देखते हुए कृषि उद्योग और भी महत्त्वपूर्ण होते जा रहे हैं। किसानों की आय दोगुनी करने पर दिए जा रहे जोर को देखते हुए इसमें और भी बढ़ोत्तरी की प्रचुर सम्भावना है। यह स्वागत योग्य कदम होगा, लेकिन इसके लिए कृषि-आधारित खाद्य एवं गैर-अखाद्य उद्योगों तथा कोल्डचेन प्रबंधन में शामिल अन्य हितधारकों से जीवंत एवं मजबूत प्रतिक्रिया भी मिलनी चाहिए। आसानी से खराब नहीं होने वाली वस्तुओं के लिए कोल्ड-स्टोरेज एवं गुणवत्तापूर्ण स्टोरेज की माँग भी बढ़ेगी। हालिया अध्ययनों में 32.8 लाख टन क्षमता की कमी बताई गई है। प्रमुख उत्पादन क्षेत्रों में कोल्ड-स्टोरेज सुविधाएं विकसित करने की आवश्यकता है ताकि किसानों के पास उत्पादों का भंडारण करने और बाजार में प्रचुरता होने पर उत्पाद रोकने तथा कमी होने पर उन्हें बाजार में उतारने की सुविधा हो।

इन सबसे भी अधिक कृषि उद्योग के विकास में मदद करने वाली नीतियां, उच्च मूल्य वाली जिंसों एवं अन्य गैर-खाद्य कृषि उत्पादों की माँग आकर्षक मूल्यों पर तैयार करने में दूरगामी भूमिका निभाएंगी। कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को प्रमुख निर्यात उद्योग बनाने से कामगारों के लिए रोजगार के प्रचुर अवसर भी उत्पन्न हो सकते हैं क्योंकि यह श्रम की गहनता वाला उद्योग है। कॉरपोरेट क्षेत्र घरेलू और वैश्विक बाजारों में उभरते अवसरों का बेहतर इस्तेमाल करने के लिए कृषि व्यापार में निवेश करने को उत्सुक दिख रहा है, इसलिए इस क्षेत्र को स्वस्थ कारोबारी माहौल प्रदान करने वाले सुधारों के लिए यह एकदम उपयुक्त समय है।
(लेखक जे.पी.मिश्रा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद में सहायक महानिदेशक (योजना क्रियान्वयन एवं मॉनीटरिंग) हैं; इससे पहले नीति आयोग में कृषि सलाहकार रह चुके हैं।)

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एल मोमेंट्स का उपयोग करते हुए सब-हिमालयन क्षेत्र के लिए विभिन्न वापसी अवधि के लिए बाढ़ का पूर्वानुमान

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एल मोमेंट्स का उपयोग करते हुए सब-हिमालयन क्षेत्र के लिए विभिन्न वापसी अवधि के लिए बाढ़ का पूर्वानुमानHindiWaterWed, 12/25/2019 - 16:27
Source
राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान, रुड़की

सारांश

जलविद्युत परियोजनाओं सहित विभिन्न प्रकार की जल संसाधन योजनाओं के नियोजन, विकास और संचालन के लिए अमापित और मापित आवाह क्षेत्र के लिए विभिन्न वापसी अवधि की बाढ़ के पूर्वानुमान के लिये उन्नत कार्यप्रणाली के अनुप्रयोग का बहुत अधिक महत्व है। इस प्रयोजन के लिए, एल-मोमेंट्स आधारित क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति दृष्टिकोण  बहुत अधिक प्रभावी हैं, क्योंकि ये प्रदर्शन के आधार पर अन्य दृष्टिकोण से बेहतर हैं। इस पत्र में, उप-हिमालयी क्षेत्र के 11 नदी प्रवाह मापक स्थलों के वार्षिक अधिकतम शिखर प्रवाह आंकड़ों का डिसकोरर्डेंसी माप (Di) का उपयोग  कर जाँच की गयी और  इस क्षेत्र की समरूपता के परीक्षण के लिये विषमता उपायों (H) का अनुप्रयोग  किया गया है। रोबस्ट  आवृत्ति वितरण की पहचान एल-मोमेंट्स अनुपात आरेख के आधार पर की गई है। मापित आवाह क्षेत्र के लिए विभिन्न वापसी अवधि की बाढ़ के पूर्वानुमान के लिए, रोबस्ट  आवृत्ति वितरण के आधार पर एक क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति संबंध विकसित किया गया है। अमापित आवाह क्षेत्र के लिये, विकसित संबंध को माध्यवार्षिक शिखरबाढ़ और  जलग्रहण क्षेत्र के बीच एक क्षेत्रीय संबंध के साथ युग्मित किया गया है।

1.0 परिचय

लघु, मध्यम और  बड़ी पनबिजली परियोजनाओं का विकास बिजली उत्पादन के लिए सबसे अधिक आशाजनक और  व्यवहार्य विकल्प में से एक है, चूंकि जल विद्युत उत्पादन पानी का गैर-उपभ¨गकारी उपयोग  है और इस तरह की योजनाएं पर्यावरण के अनुकूल हैं और  इसलिए, पर्यावरण संबंधी चिंताओं को कम से कम आकर्षित करती हैं। इसके अलावा, बिजली उत्पादन के लिए पानी एकमात्र निवेश है, जो एक अक्षय संसाधन है। हाइड्रोपावर परिय¨जनाएँ हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में बिजली उत्पादन के लिए आर्थिक रूप से सबसे अधिक व्यवहार्य हैं। सौभाग्य से, भारत जलविद्युत उत्पादन की विशाल क्षमता से संपन्न है और  इसका केवल एक महत्वपूर्ण हिस्सा अभी तक उपयोग  किया गया है। भारत की जल विद्युत क्षमता का अनुमान 60 प्रतिशत लोड फैक्टर पर 84,044 मेगावाट है। स्वतंत्रता (1947) के समय, जलविद्युत परियोजनाओं की स्थापित क्षमता 508 मेगावाट थी। 1998 के अंत तक स्थापित जल विद्युत क्षमता लगभग 22000 मेगावाट (88543 मेगावाट की कुल स्थापित क्षमता का 24.85 प्रतिशत) थी। एक अनुमान के अनुसार, भारत की बारवीं पंचवर्षीय योजना से 60,000 मेगावाट अतिरिक्त जल विद्युत का विकास करने की योजना है। इसमें दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007) केदौरान  14,393 मेगावाट, ग्यारहवीं (2007-2012) केदौरान  20,000 मेगावाट और  बारहवीं (2012-2017) पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान  26,000 मेगावाट शामिल हैं। इसके अलावा, देश के हिमालयी और  उप-हिमालयी क्षेत्रों में लघु जल विद्युत परियोजनाओं के विकास से लगभग 10,000 मेगावाट की क्षमता उपलब्ध है। इसलिए, यह न केवल वांछनीय है, बल्कि इन क्षेत्रों में बिजली उत्पादन के लिए लघु, मध्यम और  बड़ी पनबिजली योजनाओं के विकास के लिए एक मास्टर प्लान तैयार करने की आवश्यकता है।

भारतीय हाइड्रोलोजिक डिजाइन मानदंड़ों के अनुसार आवृत्ति आधारित बाढ़ विश्लेषण लगभग सभी प्रकार की हाइड्रोलिक संरचनाओं जैसे कि छोटे  आकार के बांध, बैराज, वियर, सड़क और  रेलवे पुल, जल निकासी संरचना, बाढ़ नियंत्रण संरचना आदि (बड़े और  मध्यवर्ती आकार के बांधों को छोड़कर) के लिए डिजाइन बाढ़ के आकलन में सहायक हैं। हालांकि, बड़े और  मध्यवर्ती आकार के बांधों के डिजाइन के लिए संभावित अधिकतम बाढ़ (पीएमएफ) और  मानक परियोजना बाढ़ (एसपीएफ) को क्रमशः अनुप्रयोग  किया जाता है (1)। इस प्रकार, जलविद्युत परियोजनाओं सहित छोटे  आकार की जल संसाधन परियोजनाओं की य¨जना, विकास और  संचालन के लिए, क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति की नई और  उन्नत तकनीकों का अनुप्रयोग  आवश्यक हैं।

निम्न द्वारा कुछ बाढ़ आवृत्ति विश्लेषण अध्ययन किये गये हैंः (1) लैंडवेहर एट आल (2) होस्किंग और  वालिस (3)  होस्किंग और  वालिस (4) जिन और  स्टिंडजर (5) पॉटर और  लेटनमैयर (6) फुर्काहर्सन (7) लेक¨बेलिस और  फियोरेन्टीनो (8) मार्टिंस और  स्टिंडजर (9) पील एट आल (10) क्लैप्स एवं लाय¨ (11) जिंगी और  हॉल। भारत में किए गए अध्ययनों में केंद्रीय जल आयोग  (सीडब्ल्यूसी), अनुसंधान डिजाइन और  मानक संगठन (आरडीएसअ¨) और  भारत मौसम  विज्ञान विभाग (आईएमडी) द्वारा संयुक्त रूप से किए गए अध्ययन शामिल हैं, जो भौगोलिक और मौसम  संबंधी विशेषताओं पर विचार करते हुए कत्रिम यूनिट हाइड्रोग्राफ और  डिजाइन वर्षा पर आधारित विधि का उपयोग  करते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण (यूएसजीएस) की कार्यविधि और  पूल्ड वक्र तरीकों का उपयोग  करके आरडीएसओ  द्वारा क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति अध्ययन किये गये। भारत के कुछ क्षेत्रों के लिए कुछ अनुसंधान और  शैक्षणिक संस्थानों द्वारा एल-मोमेंट्स उपागम का उपयोग  करके क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति विश्लेषण अध्ययन किये गये हैं। वर्तमान अध्ययन में, भारत के उप-हिमालयी क्षेत्र उप जोन 7 के मापित एवं अमापित जलग्रहणों के लिए विभिन्न वापसी अवधियों की बाढ़ के आकलन के लिए एल-मोमेंट्स उपागम के आधार पर क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति संबंध विकसित किए गए हैं।

2.0 एल-मोमेंट्स उपागम

एल-मोमेंट्स सांख्यिकी के भीतर एक नवीन विकास है। हाइड्रोलोजिकल अनुप्रयोगों की एक विस्तृत अनुप्रयोगों में एल-मोमेंट्स हाइड्रोलोजिक डेटा की विशेषताओं और  वितरण के मापदंड़ों के सरल और  उचित रूप से कुशल अनुमानक प्रदान करते हैं। एल-मोमेंट्स के तरीके उनके लिए बेहतर हैं जो पहले उपयोग  किए गए हैं, और  अब दुनिया भर में कई संगठनों द्वारा अपनाया जा रहा है Zafirakou-Koulourisएट आल उल्लेख करते है कि सामान्य उत्पाद मोमेंट्स की तरह, एल-मोमेंट्स सैद्धांतिक संभाव्यता वितरण और  प्रेक्षित नमूनों की विशेषताओं या आकृतियों क¨ संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। दोनों प्रकार के मोमेंट्स, वितरण स्थान (माध्य), स्केल (भिन्नता), तिरछापन (आकार) और  कुर्टोसिस (शिखर) के उपाय प्रदान करते हैं। लेखकों ने आगे उल्लेख किया है कि एल-मोमेंट्स निम्न के कारण साधारण उत्पाद मोमेंट्स की अपेक्षा, विशेष रूप से पर्यावरणीय डेटा सेट के लिए महत्वपूर्ण लाभ प्रदान करते हैंः.

(क) एल-मोमेंट्स स्थान, पैमाने और  आकार के अनुमानक लगभग निष्पक्ष होते हैं, भले ही संभाव्यता वितरण हो, जहां से अवलोकन उत्पन्न होते हैं (होस्किंग)।
(ख) एल-मोमेंट्स अनुपात के आकलनकर्ता जैसे कि एल-गुणांक भिन्नता, एल-स्केवनेस और  एल-कुर्टोसिस पारंपरिक उत्पाद क्षण अनुपात की तुलना में, विशेष रूप से अत्यधिक तिरछे नमूनों के लिए कम पूर्वाग्रह प्रदर्शित कर सकते हैं।
(ग) L-भिन्नता के गुणांक और  L-तिरछेपन के एल-मोमेंट्स अनुपात के अनुमानक की सीमा नहीं होती है, जो नमूना आकार पर निर्भर करती है, जबकि साधारण उत्पाद मोमेंट्स के अनुमानकों  में होती हैं।
(घ) एल-मोमेंट्स आकलनकर्ता टिप्पणियों के रैखिक संयोजन होते हैं और  इस प्रकार उत्पाद मोमेंट्स आकलनकर्ताओं की तुलना में नमूने में सबसे बड़ी टिप्पणियों  के प्रति कम संवेदनशील होते हैं, जो प्रेक्षणों को वर्ग या घन करते हैं।
(च) एल-मोमेंट्स अनुपात आरेख अत्यधिक तिरछे डेटा के वितरण गुणों की पहचान करने में विशेष रूप से अच्छे हैं, जबकि साधारण उत्पाद मोमेंट्स आरेख इस कार्य के लिए लगभग बेकार हैं।

2.1 संभावना भारित मोमेंट्स और एल-मोमेंट्स

होस्किंग और  वालिस ने बताया कि राज्य एल-मोमेंट्स सम्भाव्यता वितरण के आकार का वर्णन करने की एक वैकल्पिक प्रणाली है। ऐतिहासिक रूप से वे ग्रीनवुड एट आल के संभावित भारित मोमेंट्स (पीडब्लूएम) के संशोधनों के रूप में उत्पन्न हुए। संभाव्यता भारित मोमेंट्स को इस प्रकार परिभाषित किया गया हैः
                                                            (1)

 

जिसको इस रूप में भी लिखा जा सकता है
                                                             (2)

 

जहां F = F (x) x के लिए संचयी वितरण फंक्शन है, x (F)  प्रायिकता पर मूल्यांकित x का व्युत्क्रम CDF है, और r = 0, 1, 2, ;,  एक नाॅन नेगेटिक पूर्णांक है। जब r = 0,  (0वितरण के साधन μ = E 'x'  के बराबर होता है किसी भी वितरण के लिए एल-मोमेंट्स का rth PWM के rth (होस्किंग, 1990) से संबंधित हैः

                                                              (3)

उदाहरण के लिए, पहले चार एल-मोमेंट्स का उपयोग कर PWM से संबंधित हैः

 

 

 

3.0 डिसकोरडेंसी परीक्षण का उपयोग  करते हुए आंकड़ों की जांच

आंकड़ों की जांच का उद्देश्य यह जांचना है कि आंकड़े क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति विश्लेषण करने के लिए उपयुक्त हैं। इस अध्ययन में आंकड़ों की स्क्रीनिंग L- मोमेंट्स आधारित डिसकोरडेंसी परीक्षण (Di) का उपयोग  करके की गई थी। समूह में एन साइटें का विचार करके डिसकोरडेंसी परीक्षण (Di) क¨ परिभाषित किया गया है। T एक वेक्टर या मैट्रिक्स के ट्रांस्पोसिशन को दर्शाता है।

वर्गों और  क्रॉस उत्पादों के योगों की मैट्रिक्स को इस प्रकार परिभाषित किया गया हैः
                                                                  (11)

साइट i  के लिए डिसकोरर्डेंसी को निम्न के रूप में परिभाषित किया गया हैः

                          (13)

 

 

1.0 क्षेत्रीय समरूपता का परीक्षण

क्षेत्रीय समरूपता के परीक्षण के लिए, होस्किंग और  वालिस ने एक सांख्यिकीय परीक्षण एच, जिसे विषमता उपाय के रूप में कहा जाता है, प्रस्तावित किया गया था। यह स्थनों के समूह के लिए नमूना एल-मोमेंट्स में स्थलों के बीच विविधताओं की तुलना करता है, जो एक सजातीय क्षेत्र से अपेक्षित होंगे। अंतर साइट भिन्नता के एल-मोमेंट्स अनुपात को मानक विचलन (वी) के रूप में मापा जाता है। यह निर्धारित करने के लिए कि एक सजातीय क्षेत्र से क्या अपेक्षा की जाएगी, अनुकार का उपयोग  किया जाता है। चार पैरामीटर वितरण जैसे कि कप्पा वितरण का उपयोग  करके क्षेत्रीय भारित औसत  आंकड़ों के आधार पर बहुत सारे जैसे कि 500 आंकड़े क्षेत्र उत्पन्न किये जाते हैं। प्रत्येक उत्पन्न क्षेत्र की अंतर-साइट विविधता की गणना की जाती है और  गणना की गई अंतर-साइट विविधता का माध्य ((μv) और  मानक विचलन (σv) प्राप्त किया जाता है। फिर, विषमता माप H की गणना की जाती है।

                                                              (14)

 

किसी क्षेत्र की विषमता का आकलन करने के लिए मानदंड हैंः यदि H < 1,  इस क्षेत्र में एकरूप सजातीय हैय यदि 1 ≤ H < 2, क्षेत्र संभवतः विषम है; और  यदि H ≥ 2 निश्चित रूप से क्षेत्र विषम है।

5.0 रोबस्ट  क्षेत्रीय आवृत्ति वितरण का अभिनिर्धारण

एक सजातीय क्षेत्र के लिए एक उपयुक्त आवृत्ति वितरण का निर्माण क्षेत्रीय आंकड़ों  के साथ औसत  मोमेंट्स सांख्यिकी से वितरण की तुलना करके बनाया गया है। सबसे अच्छा फिट वितरण इस बात से निर्धारित ह¨ता है कि फिटेड वितरण के एल-स्कयूनेस और  एल-कुटर्¨सिस प्रेक्षित आंकड़¨ के क्षेत्रीय औसत  एल-स्कयूनेस और  एल.कुटर्¨सिस से मेल खाते हैं।

6.0 अध्ययन क्षेत्र और  डेटा उपलब्धता

अध्ययन क्षेत्र में उप-हिमालयी क्षेत्र के छोटे  और  मध्यम आकार के जलग्रहण शामिल हैं। उत्तर-पूर्व में डेरा बाबा नानक के पास माधोपुर से गुजरने वाले महान चाप के भीतर स्थित हिमालय का क्षेत्र 760 से 960 ई देशांतर और  260 से 320 एन अक्षांशों को जोन-7 के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है। जो पूरे भारत जो  विभाजित करने वाले 7 प्रमुख क्षेत्रों में से एक है। इन सात प्रमुख क्षेत्र को मध्यम आकार के 26 हाइड्रोलॉमेट्रोजिकल रूप से सजातीय उपजोन में विभाजित किया गया है। यह क्षेत्र पनबिजली उत्पादन के लिए एक बड़ी क्षमता रखता है लेकिन इस क्षेत्र के लिए बाढ़ का अनुमान एक अचूक समस्या साबित हो रहा है क्योंकि इस क्षेत्र से अपवाह में हिम गलन के साथ.साथ वर्षा भी होती है। इन दोनों महत्वपूर्ण प्रांचलों पर आंकड़ों की उपलब्धता अगर शून्य नहीं है तो  पूरी तरह से अपर्याप्त है। इस अध्ययन के लिए डेटा उपलब्ध कराने वाली साइटों के जलग्रहण क्षेत्र 6 से 2,072 वर्ग किमी तक भिन्न ह¨ते हैं और  उनकी औसत  वार्षिक बाढ़ 17.1 से
1606.8 वर्ग किमी क ह¨ती है।

7.0 परिणामों का विश्लेषण

अध्ययन क्षेत्र के सभी 11 गेजिंग साइटों के लिए एल-मोमेंट्स के संदर्भ में डिसकोरडेंसी सांख्यिकी की गणना की गई है। यह देखा गया है कि सभी 11 साइटों के लिए Di मान 0.12 से 2.45 तक पाया गया है जो Di के महत्वपूर्ण मान 2,632 से कम है। इसलिए, डिसकोरडेंसी परीक्षण के अनुसार, क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति विश्लेषण करने के लिए सभी 11 साइटों के डेटा का उपयोग  किया जा सकता है।

7.1 क्षेत्रीय समरूपता का परीक्षण

अध्ययन क्षेत्र के लिए विषमता माप (एच) के मान की गणना की गई थी, जिसमें 11 गेजिंग साइटों के डेटा का उपयोग  करने वाले कप्पा वितरण का उपयोग  करके 500 सिमुलेशन किए गए थे। गणना में इसका मान 3,29 पाया गया। जैसा कि H का मान 1 से अधिक है। इसलिए, 11 प्रवाह गेजिंग साइटों से युक्त अध्ययन क्षेत्र, एक विषम क्षेत्र के रूप में पाया जाता है। फिर, सभी 11 साइटों के Di मानकों के आधार पर, उच्चतम Di यानी 2.45 वाली साइट को डेटा सेट से हटा दिया गया और  10 साइटों के डेटा का उपयोग  करके विश्लेषण किया गया। इन 10 साइटों के डेटा सेट के लिए क्प का आँकड़ा 0.10 से 1.95 तक भिन्न पाया गया। चूंकि Di का मान 10 स्ट्रीम प्रवाह गेजिंग स्थलों वाले क्षेत्र के क्प के महत्वपूर्ण मान 2,491 से कम हैं। इसलिए, 10 साइटों का डेटा क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति विश्लेषण के लिए उपयुक्त है। 10 साइटों के डेटा का उपयोग  करते हुए, विषमता माप (एच) का मान 0.47 के रूप में गणना की गयी है। चूंकि यह मान (H) 1.0 से कम है, इसलिए अध्ययन क्षेत्र में 10 गेजिंग साइटें समरूप क्षेत्र बनाती हैं।

7.2 रोबस्ट  क्षेत्रीय आवृत्ति वितरण की अभिनिर्धारण

अध्ययन क्षेत्र के लिए रोबस्ट  वितरण की पहचान करने के लिए एल-मोमेंट्स अनुपात आरेख का उपयोग  सबसे अच्छा मानदंड के रूप में किया जाता है। L-skewness के क्षेत्रीय औसत  मान अर्थात 0.3 = 0.1649 और  L-kurtosis यानी 0.4 = 0.1770 प्राप्त होते हैं। चित्र 1 अध्ययन क्षेत्र के लिए एल-मोमेंट्स अनुपात आरेख दिखाता है। इस प्रकार, एल-मोमेंट्स अनुपात आरेख के आधार पर, जीएलओ वितरण को अध्ययन क्षेत्र के लिए रोबस्ट वितरण के रूप में पहचाना जाता है। जीएलअ¨ वितरण के लिए क्षेत्रीय आवृत्ति संबंधों को  नीचे व्यक्त किया गया है।

7.3 सामान्यीकृत लॉजिस्टिक वितरण (जीएलओ)

सामान्यीकृत लॉजिस्टिक वितरण (जीएलओ) का व्युत्क्रम रूप निम्नानुसार व्यक्त किया जाता हैः
                                                                 (15)

 

 

 

जहां  u, α और k क्रमशः स्थान, पैमाने और आकार पैरामीटर हैं। लाॅजिस्टिक वितरण, सामान्यीकृत लाॅजिस्टिक वितरण का विशेष मामला है, जब k = 0 है।

7.4 मापित आवाह क्षेत्र के लिए क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति सम्बन्ध

एल-मोमेंट्स अनुपात आरेख के आधार पर जीएलओ वितरण की अध्ययन क्षेत्र के लिए रोबस्ट  वितरण के रूप में पहचाना की गयी है। इसलिए, इस वितरण का उपयोग  करके क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति संबंध विकसित किए गये हैं। अध्ययन क्षेत्र के मापित आवाह क्षेत्र के लिए जीएलओ वितरण के क्षेत्रीय प्राचालो के मान को प्रतिस्थापित करके क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्तियों संबंधनों की व्युत्पत्ति की गयी जो निम्न प्रकार से हैः
                                                   (17)

जहां, QT (m3/s), T वर्ष की वापसी अवधि के लिए बाढ़ है और जलग्रहण का वार्षिक शिखर बाढ़ (m3/s) है। अध्ययन क्षेत्र के छोटे  से मध्यम आकार के जलग्रहण के लिए वांछित रिटर्न पीरियड की बाढ़ के आकलन के लिएए उपरोक्त क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति संबंधों का उपयोग  किया जा सकता है। वैकल्पिक रूप से, विभिन्न रिटर्न पीरियड्स की बाढ़ की गणना जीएलओ वितरण (तालिका 1 में दिए गए पर आधारित वृद्धि कारकों के संबंधित मूल्यों को जलग्रहण की औसत वार्षिक शिखर बाढ़ के साथ गुणा करके की जा सकती है।

तालिका 1ः उप-हिमाजयी क्षेत्र के लिए विभिन्न वितरणों के लिए वृद्धि कारकों () का मान
7.5 अमापित जलग्रहण के लिए क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति संबंध

किसी स्थल पर टी वर्ष के रिटर्न पीरियड के बाढ़ के अनुमान के लिए, औसत  वार्षिक शिखर बाढ़ के लिए अनुमान की आवश्यकता होती है। अमापित जलग्रहण कम किसी स्थल पर के लिए मनाया प्रवाह आंकड़ों की अनुपस्थिति में औसत  की गणना नहीं की जा सकती है। ऐसी स्थिति में, औसत  वार्षिक शिखर बाढ़ के आंकलन के लिए अमापित जलग्रहण की औसत  वार्षिक शिखर बाढ़ और  उसके प्रासंगिक शारीरिक और  जलवायु विशेषताओं के बीच एक संबंध की आवश्यकता होती है। 10 मापित स्थलों के आंकड़ों के आधार पर लीस्ट वर्गों उपागम का उपयोग  करके लॉग डोमेन में क्षेत्र के लिए क्षेत्रीय संबंध विकसित किये गये जो निम्न हैः.
                                                   (18)

 

जहां, A वर्ग किमी में जलग्रहण क्षेत्र है, और  ..... घन सेमी में औसत  वार्षिक शिखर बाढ़ है। समीकरण (18) के लिए, निर्धारण का गुणांक, r2 = 0.74 है।

अमापित जलग्रहण के लिए विभिन्न रिटर्न अवधियों की बाढ़ के आकलन के लिए क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति संबंध के विकास के लिए, समीकरण (17) में दिए गए क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति संबंध को क्षेत्रीय वार्षिक बाढ़ और  जलग्रहण क्षेत्र के बीच के क्षेत्रीय संबंधों के साथ युग्मित किया गया है, तथा समीकरण (18) में दिया गया है और  निम्नलिखित क्षेत्रीय आवृत्ति संबंधों विकसित किया गया है। .
                                                   (19)

जहां, QT बाढ़ T वापसी अवधि के लिए घन समी में बाढ़ का आंकलन है, और A वर्ग किमी में जलग्रहण क्षेत्र है।

8.0 निष्कर्ष

इस अध्ययन के आधार पर निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले गए हैंः-.


(क)उप-हिमालयी क्षेत्र के वार्षिक अधिकतम शिखर बाढ़ आंकड़ों का उपयोग  कर डिसकोरडेंसी परीक्षण (Di) का अनुप्रयोग करते हुए किए गए आंकड़ों की स्क्रीनिंग की गयी। जो संकेत करते हैं कि सभी 11 मापन स्थलों के आंकड़े क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति विश्लेषण के लिए उपयुक्त हैं। विषमता माप (H) के आधार पर अध्ययन क्षेत्र के 10 धारा प्रवाह मापन स्थलों के वार्षिक अधिकतम शिखर बाढ़ के आंकड़े एक सजातीय क्षेत्र का गठन करते हैं और क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति विश्लेषण के लिए इसका उपयोग  किया जाता है।
(ख)विभिन्न वितरण अर्थात EV1, GEV, LOS, GLO, UNF PE (3), NOR, GNO, EXP, GPA, KAP and WAK इत्यादि का अनुप्रयोग किया गया है। एल-मोमेंट्स का उपयोग  कर वितरण के क्षेत्रीय प्राचल¨ का आंकलन किया गया गया है, एल-मोमेंट्स अनुपात आरेख के आधार पर, जी एल ओ  वितरण के अध्ययन क्षेत्र के लिए रोबस्ट  वितरण के रूप में अभिनिर्धारित किया गया है।
(ग) अध्ययन क्षेत्र के मापित आवाह क्षेत्र के लिए विभिन्न रिटर्न पीरियड्स की बाढ़ के आकलन के लिए जी एल ओ का उपयोग  करते हुए या तो विकसित क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति संबंधों का उपयोग  किया जा सकता है अथवा आवाह क्षेत्र की औसत वार्षिक शिखर बाढ़ के वृद्धि कारकों के सापेक्ष मान के साथ गुणा किया जा सकता है।
(घ)अध्ययन क्षेत्र के अमापित जलग्रहण के लिए वांछित रिटर्न पीरियड की बाढ़ के आकलन के लिए, अमापित जलग्रहण के लिए विकसित क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति संबंध का उपयोग  किया जा सकता है।
(ङ)चूंकि क्षेत्र में 6 से 2,072 वर्ग किमी तक के जलग्रहण क्षेत्र के आंकड़ों का उपयोग  करके क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति संबंधों को विकसित किया गया है। इसलिए, इन संबंधों से अध्ययन क्षेत्र के जलग्रहण क्षेत्र के लिए विभिन्न रिटर्न अवधियों की बाढ़ के अनुमान प्रदान होने  की उम्मीद है, जो क्षेत्र की सीमा के लगभग समान हवाई सीमा में हैं। इसके अलावा, औसत  वार्षिक शिखर बाढ़ और  जलग्रहण क्षेत्र के बीच संबंध 74 प्रतिशत प्रारंभिक विचरण (r2 = 0.74) की व्याख्या करने में सक्षम है। इसलिए अमापित जलग्रहण के मामले में अध्ययन के परिणाम इन सीमाओं के अधीन हैं। हालाँकि, अधिक सटीक बाढ़ आवृत्ति अनुमान प्राप्त करने के लिए क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति संबंधों को  परिष्कृत किया जा सकता है। जब कुछ अधिक मापन स्थलों के लिए आंकड़ें उपलब्ध हो जाते हैं और  जलग्रहण क्षेत्र के अलावा अन्य भौतिक  विशेषताओं के साथ साथ कुछ प्रासंगिक जलवायु विशेषताओं का भी उपयोग  क्षेत्रीय बाढ़ आवृत्ति संबंधो के विकास के लिए किया गया है।

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सम्भावनाओं से भरपूर कृषि-आधारित उद्योग

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सम्भावनाओं से भरपूर कृषि-आधारित उद्योगHindiWaterThu, 12/26/2019 - 12:26
Source
कुरुक्षेत्र, दिसम्बर, 2019

कृषि-आधारित उद्योग ग्रामीण इलाकों में रोजगार के साथ-साथ औद्योगिक संस्कृति को बढ़ावा देने में भी मददगार हैं। साथ ही, खाद्य प्रसंस्करण और इससे मिलते-जुलते अन्य उद्योगों में निर्यात जबर्दस्त सम्भावना है। ये उद्योग सहकारिता प्रणाली से संचालित होते हैं। लिहाजा, विकास की प्रक्रिया में ज्यादा से ज्यादा लोगों की सहभागिता सुनिश्चित हो पाती है।

कृषि क्षेत्र में सुस्ती और उतार-चढ़ाव जैसी स्थिति है। इस क्षेत्र की वृद्धि दर के आंकड़े उत्साहजनक नहीं हैं। अगर इस चुनौती से नहीं निपटा गया, तो कृषि पर निर्भर देश की बड़ी आबादी के लिए इसके गम्भीर परिणाम होंगे। खासतौर पर विनिर्माण क्षेत्र को भी परेशानी का सामना करना पड़ेगा। विनिर्माण क्षेत्र काफी हद तक कृषि क्षेत्र के साथ भी जुड़ा हुआ है। खाद्य विनिर्माण से जुड़े कई क्षेत्र और कृषि से सम्बन्धित कारोबार कृषि क्षेत्र में विकास को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

कृषि क्षेत्र से मिलने वाले कच्चे माल को प्रसंस्कृत कर बाजार में बिकने लायक और उपयोगी उत्पाद तैयार किए जाते हैं। साथ ही, इन उत्पादों को तैयार करने वाली इकाइयों को लाभ और अतिरिक्त आय भी होती है। अगर भारत के सन्दर्भ में बात की जाए, तो कहा जा सकता है कि कृषि-आधारित उद्योगों का महत्व बढ़ाने में कई पहलुओं की भूमिका रही। उदाहरण के तौर पर इन उद्योगों को लगाना अपेक्षाकृत आसान है और ग्रामीण इलाकों में कम निवेश से इन उद्योगों के जरिए आय हासिल की जा सकती है। साथ ही, ऐसे उद्योगों में कच्चे माल के अधिकतम उपयोग की गुंजाइश होती है। कृषि-आधारित उद्योग ग्रामीण इलाकों में औद्योगिक संस्कृति को बढ़ावा देने में भी मददगार हैं। खाद्य प्रसंस्करण और इससे मिलते-जुलते अन्य उद्योगों में निर्यात की जबर्दस्त सम्भावना है। ये उद्योग सहकारिता प्रणाली से संचालित होते हैं। लिहाजा, विकास की प्रक्रिया में ज्यादा-से-ज्यादा लोगों की सहभागिता सुनिश्चित हो पाती है।

कृषि और कृषि-आधारित उद्योगों के बीच सम्बन्ध

देश की तकरीबन दो-तिहाई आबादी कृषि और कृषि-आधारित उद्योगों पर निर्भर है। भारत में कृषि क्षेत्र में विरोधाभासी स्थितियां नजर आती हैं। इस क्षेत्र की वृद्धि दर में सुस्ती है और उत्पादन में स्थिरता जैसी स्थिति है, जबकि बड़ी आजादी को रोजगार मुहैया कराने में कृषि-आधारित उद्योगों की अहम भूमिका हो सकती है। भारतीय कृषि प्रणाली में कृषि वानिकी को किसानों की आय बढ़ाने का महज पूरक जरिया माना जाता है। कृषि वानिकी का मतलब खेती के तहत पेड़-पौधे और बाग-बगीचे लगाकर आय हासिल करना है। खेती की इस प्रणाली से कृषि का व्यावसायीकरण होता है और इसमें विविधता के लिए गुंजाइश बनती है। इस प्रणाली से न सिर्फ किसानों की आय बढ़ती हैं, बल्कि खाद्य पदार्थों का भंडार भी बढ़ता है। औद्योगिक विकास के सन्दर्भ में दुनियाभर में यह एक स्थापित तथ्य है कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था का विकास होता है, कृषि क्षेत्र में कृषि-आधारित उद्योगों की भूमिका भी उसी अनुपात में बढ़ती जाती है। हमें इस बात पर जोर देना चाहिए कि खाद्य पदार्थ न सिर्फ उत्पाद हैं, बल्कि इसमें प्रसंस्कृत उत्पादों का व्यापक दायरा है। इस लिहाज से देखा जाए तो विकासशील देशों में तो कृषि-आधारित उद्योग विनिर्माण क्षेत्र का अहम हिस्सा है।

सम्भावनाएं

कृषि क्षेत्र में गिरावट और उतार-चढ़ाव जैसी स्थिति के कारण इस क्षेत्र में बढ़ोत्तरी के आंकड़े उत्साहजनक नहीं हैं। अगर इस चुनौती से नहीं निपटा गया, तो कृषि पर निर्भर देश की बड़ी आबादी के लिए इसके गम्भीर परिणाम होंगे। खासतौर पर विनिर्माण क्षेत्र को भी परेशानी का सामना करना पड़ेगा जिसका कृषि के साथ काफी जुड़ाव है। खाद्य विनिर्माण से जुड़े कई क्षेत्र और कृषि से सम्बन्धित कारोबार कृषि क्षेत्र में विकास को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। कृषि-आधारित विभिन्न उद्योगों में से खाद्य विनिर्माण के क्षेत्र में ज्यादा सामग्री की जरूरत होती है। ऐसे में कृषि क्षेत्र के विकास और कृषि उत्पादन के व्यावसायीकरण और विविधीकरण में खाद्य विनिर्माण क्षेत्र की बड़ी भूमिका हो सकती है। इसके अलावा, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में निवेश करने वाले लागत कम करने के लिए अक्सर वैसी जगह पर उद्योग लगाते हैं, जहाँ से कच्चे माल की उपलब्धता बिल्कुल नजदीक हो। अतः नीतियों में अहम बदलाव के तहत कृषि-प्रसंस्करण के व्यावसायीकरण और विविधीकरण के जरिए कृषि विकास को रफ्तार देने की जरूरत है।

अर्थव्यवस्था में अब तक इन उद्योगों, खासतौर पर खाद्य-विनिर्माण क्षेत्र की पूरी सम्भावनाओं का दोहन नहीं हो पाया है। आय में लगातार बढ़ोत्तरी, बढ़ते शहरीकरण, मध्य वर्ग के लोगों की आय में तेजी से वृद्धि और कार्यबल में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी, एकल परिवार के बढ़ते प्रचलन, साक्षरता में बढ़ोत्तरी और पश्चिमी खाद्य पदार्थों के बढ़ते चलन के कारण प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों और कृषि-आधारित अन्य उद्योगों की मांग बढ़ रही है। खाने-पीने के बाजार में पिछले तीन दशकों से प्रसंस्कृत खाद्य-पदार्थों की हिस्सेदारी में बढ़ोत्तरी देखने को मिल रही है। आय में वृद्धि के साथ-साथ प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों की मांग भी बढ़ रही है और किसी भी अन्य खाद्य के मुकाबले इसमे बढ़ोत्तरी की सम्भावना सबसे ज्यादा है। वर्ष 2020 तक खाद्य क्षेत्र में प्रसंस्कृत खाद्य-पदार्थों और पेय पदार्थों की हिस्सेदारी बढ़कर 15 फीसदी तक पहुँच जाने की सम्भावना है। इन चीजों की बढ़ती मांग, माल ढुलाई, रसद, संचार, तकनीकी नवाचार में बेहतरी व कृषि प्रसंस्करण आधारित उद्योगों के अनुकूल आर्थिक नीतियों के कारण प्रसंस्करण उद्योग में विकास की जबर्दस्त सम्भावनाएं दिख रही हैं। इससे जुड़ा घरेलू और अन्तरराष्ट्रीय बाजार काफी बड़ा है। अगर आधुनिक तकनीक और जोरदार मार्केटिंग (विपणन) के साथ बड़े पैमाने पर इस उद्योग से जुड़ी वस्तुओं का उत्पादन किया जाए, तभी घरेलू और निर्यात सम्बन्धी बाजार की सम्भावनाओं का पूरा-पूरा दोहन किया जा सकेगा। कृषि उद्योग के विकास से खेती और इससे सम्बन्धित उद्योग-कारोबार को ज्यादा आकर्षक बनाने में मदद मिलेगी। साथ ही, उत्पादन और मार्केटिंग, दोनों स्तरों पर रोजगार के बड़े मौके उपलब्ध कराए जा सकेंगे। भारत में खाद्य-प्रसंस्करण क्षेत्र में निवेश आकर्षित करने और रोजगार पैदा करने की अच्छी सम्भावना है। कृषि उत्पादों के व्यापक विकास से भारत की सामाजिक व भौतिक, दोनों तरह की आधारभूत संरचनाओं को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी।

एग्रीबिजनेस

एग्रीबिजनेस यानि कृषि-कारोबार का मतलब खेत से लेकर संयंत्र तक की व्यावसायिक गतिविधियों से है। कृषि-कारोबार पूरी दुनिया में रोजगार और आय पैदा करने का प्रमुख माध्यम है। कृषि-कारोबार में वैसा कच्चा माल शामिल है, जो आमतौर पर जल्द खराब हो जाता है और आमतौर पर उपलब्ध नहीं होता। इस क्षेत्र में उपभोक्ता सुरक्षा, उत्पाद की गुणवत्ता और पर्यावरण सम्बन्धी संरक्षण को लेकर सख्त नियम है। उत्पादन और वितरण के पारम्परिक तरीकों की जगह अब कृषि-कारोबार से जुड़ी फर्मों, किसानों, खुदरा व्यापारियों और अन्य की बेहतर और समन्वित आपूर्ति श्रृंखला देखने को मिल रही है।

किसान उत्पादक संगठन

संसाधनों और सेवाओं की कमी का सामना करने वाले छोटे और असंगठित किसानों की समस्याओं से निपटने के लिए किसानों के हित में सामूहिक कार्रवाई की जरूरत थी। इसके तहत ठेके पर खेती, किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ), संयुक्त दायित्व समूह आदि नए तरह के संस्थान अस्तित्व में आए। एफपीओ हर स्तर पर सम्पर्क सूत्र मुहैया कराते हुए छोटे किसानों और बाहरी दुनिया के बीच एक कड़ी बनकर उभरे हैं। इसके जरिए किसानों को न सिर्फ अपनी आवाज उठाने के लिए मंच मिल रहा है, बल्कि उन्हें बाजार की उपलब्धता अपनी शर्तों पर समझौता करने की ताकत और बेहतर कीमतें प्राप्त करने जैसी सहूलियतें भी प्राप्त हो रही हैं। एफपीओ का ढांचा और संगठन अलग-अलग देशों में अलग-अलग होता है। यह किसी देश की वैधानिक और नीतिगत संरचना पर निर्भर करता है।

सफलता की कुछ कहानियां

पुणे जिले के जुन्नर और अंबेगांव ताल्लुके में एफपीओ- 

यहाँ 25 जुलाई, 2014 को कृषिजीवन एग्रो फार्मर्स प्रोड्यूसर कम्पनी लिमिटेड की स्थापना की गई। इसका मकसद कृषि क्षेत्र में मौजूद बेहतर-से-बेहतर जानकारी के जरिए किसानों की क्षमता को मजबूत बनाना था, ताकि उत्पादन में बढ़ोत्तरी हो सके। इसके अलावा, अच्छी गुणवत्ता वाले कच्चे माल की उपलब्धता और उपयोग सुनिश्चित करना, अच्छी खेती के लिए सूचनाएं और सेवाएं मुहैया कराना, प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा, उत्पादक समूहों को बाजार में मौजूद अवसरों के साथ जोड़ने समेत बेहतर कीमत वाले बाजार उपलब्ध कराना भी इसका लक्ष्य है। एफपीओ ने इस क्षेत्र के 1,500 संगठित किसानों के साथ काम किया। एफपीओ ने उत्पाद की खरीदारी और बाजार ढूंढने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा, इसने प्रत्यक्ष विपणन लाइसेंस हासिल किया, जिसके तहत इस संस्था से जुड़े किसानों का टमाटर सीधे तौर पर खरीदा जा सकता था। साथ ही व्यापारियों, निर्यातकों और प्रसंस्करण उद्योगों से भी एफपीओ जुड़ा। इसके तहत उत्पादों की खरीदारी संग्रह केन्द्रों, भंडारण वाली जगहों से की जाती हैं, जहाँ सभी सुविधाएं पहले से मौजूद होती हैं। एफपीओ ने किसानों से खरीदारी के लिए माल ढोने वाले वाहनों का भी इंतजाम किया और खुदरा कारोबारियों व उपभोक्ताओं को उत्पाद का वितरण किया। किसानों की इस सामूहिक कार्रवाई से उन्हें (किसानों को) बाजार सम्बन्धी सिरदर्दी से छुटकारा मिल गया। साथ ही, किसानों का परिचालन सम्बन्धी खर्च काफी हद तक कम हुआ और उन्हें अपने उत्पाद की गुणवत्ता के मुताबिक अच्छी कीमत मिलने लगी। इसके अलावा, एफपीओ के कारण अपनी खेती को लेकर (आजीविका के लिए स्थाई पेशे के तौर पर) किसानों का नजरिया भी बदला। एफपीओ ने आधुनिक और उच्च तकनीक को अपनाने के बाद टमाटर की फसल के बेहतर प्रबंधन का लक्ष्य हासिल किया और फार्म मशीनरी बैंक की स्थापना की। साथ ही, सम्बन्धित क्षेत्र में वैश्विक जीएपी सिस्टम भी पेश किया।

पुआल से आय

अक्टूबर महीने के आखिर से नवम्बर के पहले एक-दो हफ्ते तक दिल्ली के पड़ोसी राज्यों में किसानों द्वारा खेतों में धान की कटाई के बाद खेत में बचा अवशेष पराली जलाने के कारण दिल्ली-एनसीआर में दिनभर धुंध छाई रहती है और प्रदूषण काफी बढ़ जाता है। यह समस्या मुख्य रूप से दो वजहों से पैदा हुई है। पहली, फसलों को काटने के लिए उपलब्ध उच्च तकनीक वाली मशीन के कारण, जिसमें फसल की ठूंठ खेत में ही छूट जाती है। दरअसल, मशीन से धान की कटाई मजदूरों से कटाई के मुकाबले सस्ती पड़ती है। दूसरी वजह, धान की कटाई और नई फसल की बुआई के बीच का अन्तराल काफी कम होना है। दरअसल, मजदूरों से धान की कटाई कराने पर गेहूं की फसल की बुआई में देरी हो जाती है। किसानों को अगली फसल की बुआई के लिए खेत साफ करना होता है और इसका सबसे सस्ता तरीका अवशेष को जला देना है। हरियाणा में कई किसानों ने मशरूम की खेती शुरू की है और वे धान की फसल के अवशेषों को खाद के रूप में इस्तेमाल करते हैं मशरूम की खेती ने पुआल की मांग बढ़ा दी है। अनुमानों के मुताबिक, एक हेक्टेयर धान की खेती में 2.5 टन पुआल का उत्पादन होता है। यह पुआल अब मशरूम की खेती करने वाले किसानों के लिए बेशकीमती हो चुका है। मशरूम के लिए जैविक खाद के रूप में पुआल का इस्तेमाल करने की वजह आर्थिक है। दरअसल, किसान पहले मशरूम के लिए जैविक खाद बनाने में गेहूं की फसल के अवशेष का इस्तेमाल कर रहे थे। हालांकि, यह किसानों को काफी महंगा पड़ रहा था। धान की पुआल की कीमत गेहूं की फसल के अवशेष के मुकाबले 9 गुना कम है। 0.12 हेक्टेयर जमीन पर मशरूम उगाने के लिए पांच टन अधिक धान के पुआल की जरूरतर होती है। गेहूं की फसल का अवशेष (भूसा-भूसी) महंगा है, क्योंकि इसकी मांग ईट-भट्टे पर ईंधन के तौर पर भी है। लोग इसे पशुओं के चारे के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि इसमें धान के पुआल के मुकाबले ज्यादा पोषणकारी तत्व होते हैं। इसके अलावा, धान की पुआल का इस्तेमाल थर्मल पॉवर प्लांट, बायोमास प्रसंस्करण, कार्डबोर्ड निर्माण आदि में भी होता है। सही नीतियां बनाकर और संस्थान एवं तकनीक के बेहतर इस्तेमाल से पराली जलाने से बचा जा सकता है और यह स्थाई समाधान की तरह होगा।

सोयाबीन प्रोटीन, सम्भावनाओं वाला कारोबार

पूर्वी एशियाई और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में सोयाबीन की मांग पूरी करने के मामले में भारत अन्य देशों के मुकाबले बेहतर स्थिति में है। दरअसल, इन देशों को छोटे जहाजों में कम मात्रा में सोयाबीन की जरूरत होती है और पश्चिमी देशों में ह सुविधा उपलब्ध नहीं है। भारत उनकी ऐसी जरूरतें पूरी कर सकता है। अगर किसानों को सरकार की तरफ से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी मिले, तो वे इस फसल का रकबा बढ़ा सकते हैं। यह सब कुछ सोयाबीन तेल के निर्यात में बढ़ोत्तरी, खाद्य तेल के आयात में कमी व अन्तरराष्ट्रीय घटनाक्रमों पर निर्भर करता है। सोयाबीन देश में उपलब्ध प्रोटीन के अन्य साधनों जैसा ही बेहतर प्रोटीनयुक्त खाद्य पदार्थ है। यह प्रोटीन का बेहद सस्ता साधन है। इसके अलावा, प्रसंस्करण आदि के बाद भारतीय सोयाबीन प्रोटीन अन्तरराष्ट्रीय कीमतों के मुकाबले काफी सस्ता पड़ता है। सस्ते प्रोटीन की प्रचुरता, कुपोषण से लड़ने और पोषण सुरक्षा प्राप्त करने का अहम साधन हो सकती है। सोयाबीन के प्रसंस्करण के लिए अत्याधुनिक तकनीक वाले संयंत्र को लगाने के बाद यह सम्भव हो सकता है। सोयाबीन प्रोटीन के निर्यात को बढ़ावा देने और इसका आयात समाप्त करने के लिए भारत सरकार को उचित कदम उठाने की जरूरत है।

भारत में पोस्ता दाना का कारोबार

पोस्ता दाना का व्यवसाय पूरी दुनिया में दवाएं तैयार करने में इसके इस्तेमाल के चलते काफी आकर्षक है। हालांकि, इसका पूरी दुनिया में बड़े पैमाने पर अवैध व्यापार भी होता है। भारत में पोस्ता दाना का व्यवसाय नियम-कानून के स्तर पर काफी हद तक नियंत्रित है। पोस्ता दाना के निर्यातक देशों को केन्द्रीय नारकोटिक्स बोर्ड द्वारा इसके आयात की अनुमति देने के फैसले को लेकर काफी विवाद चल रहा है। जाहिर तौर पर किसाने ऐसे फैसले को लेकर काफी चिन्तित हैं। किसानों को डर है कि उन्हें अपने पास मौजूद स्टॉक की अच्छी कीमत नहीं मिलेगी। भारत में पोस्ता दाना की खेती का नियमन केन्द्रीय नारकोटिक्स बोर्ड द्वारा किया जाता है। बोर्ड पोस्ता दाना उगाने के लिए 25,000-30,000 किसानों को लाइसेंस जारी करता है। पोस्ता दाना से प्रसंस्कृत लेटेक्स पर सरकार का मालिकाना हक होता है और सरकार से किसानों को 2,000 रुपए से 2,500 रुपए प्रति किलो तक लेटेक्स की कीमत मिलती है। पोस्ता दाना को खुले बाजार में बेचा जा सकता है और इससे दस लाख रुपए प्रति क्विंटल तक कीमत वसूली जा सकती है। लेटेक्स का प्रसंस्करण सिर्फ सरकारी क्षेत्र में होता है। लेटेक्स का इस्तेमाल दवाओं में किया जाता है। खाद्य और दवा कम्पनियां पोस्ता दाना तेल तैयार करने के लिए भी पोस्ता दाना का इस्तेमाल करती हैं। कभी-कभी समाचार-माध्यमों में यह खबर आती है कि भारतीय आयातकों के समूह ने निर्यातकों को अग्रिम भुगतान कर केन्द्रीय नारकोटिक्स बोर्ड द्वारा बड़ी संख्या में जारी आयात परमिट को दरकिनार कर दिया। उन्होंने केन्द्रीय नारकोटिक्स बोर्ड की आयात सम्बन्धी अधिसूचना जारी होने से कुछ दिन पहले ऐसा किया।

भारत सरकार द्वारा पोस्ता दाना की उपलब्धता सीमित किए जाने के कारण कई वास्तविक खरीदारों को इससे वंचित होना पड़ता है। विश्व व्यापार संगठ के नियमों के पालन के लिए सरकार पोस्ता दाना का आयात कर सकती है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) ने पोस्ता दाना को ‘आयात के लिए मुक्त’ कमोडिटी की श्रेणी में रखा है। साथ ही, सरकार ने भारत में पोस्ता दाना और अन्य मादक द्रव्यों का मुक्त आयात रोकने के लिए कई तरह की पाबंदियां लगाई हैं। हालांकि, सरकार की नीतियों से पोस्ता दाना उत्पादक किसानों को भी दिक्कत हो सकती है। पिछले कुछ साल में पोस्ता दाना का उत्पादन 10.14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर रहा है। पोस्ता दाना की घरेलू मांग को पूरा करने के लिए सरकार को बड़े पैमाने पर इसकी खेती की अनुमति देनी चाहिए किसानों के लिए पोस्ता दाना की खेती से आय बढ़ाना मुमकिन होगा। हालांकि, अनुमति देने से पहले जरूरी नियमन और सख्ती का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।

कृषि-कारोबार आधारित विनिर्माण गतिविधियों के लिए खास रणनीति तैयार करने की जरूरत है। इस क्षेत्र में सफल और मुनाफे वाला व्यवसाय स्थापित करने के लिए काफी गुंजाइश है। साथ ही, ऐसे कारोबार के लिए अपेक्षाकृत कम पूंजी की भी जरूरत होती है।

बहु-उद्देश्यीय कोल्डचेन शुरू करें- जल्द खराब होने वाली चीजें, मसलन मांस, मछली, फल और सब्जियां, दूध आदि के लिए कोल्ड स्टोरेज की सुविधा उपलब्ध कराने की जरूरत है। इस सुविधा की मदद से इन उत्पादों को ज्यादा टिकाऊ बनाया जा सकता है। भंडारण और वितरण गतिविधियों में बढ़ोत्तरी के साथ ही कृषि-आधारित खाद्य श्रृंखलाएं कारोबार के विस्तार के लिए बड़ा अवसर मुहैया कराती हैं।

(लेखक शिव कुमार प्रमुख वैज्ञानिक और छत्रपाल सिंह आईसीएआर-राष्ट्रीय कृषि अर्थव्यवस्था और नीति शोध सहायक हैं।)

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भारत में कृषि-आधारित उद्योगों का अवलोकन

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भारत में कृषि-आधारित उद्योगों का अवलोकनHindiWaterThu, 12/26/2019 - 16:58
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कुरुक्षेत्र, दिसम्बर, 2019

कृषि-आधारित उद्योग देश के भीतर और बाहर प्रतिस्पर्धी लाभ की धारणा के अनुरूप हैं। वे अधिशेष ग्रामीण श्रम को रोजगार प्रदान करने के लिए एक सुरक्षा कवच की भूमिका निभा सकते हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी/ प्रच्छन्न रोजगार की समस्या का समाधान कर सकते हैं। यहाँ वास्तविक चुनौती यह है कि सरकार अपनी योजनाबद्ध और नीतिगत हस्तक्षेप को कितने प्रभावी ढंग से लागू करती है ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी सामाजिक-आर्थिक संरचना, कृषि उत्पादन प्रणाली और बुनियादी कृषि विनिर्माण विशेषताओं की पहचान को कम किए बिना एक सर्वांगीण औद्योगिक विकास सुनिश्चित किया जा सके।

विकासशील राष्ट्रों की आर्थिक नीतियों ने हमेशा न केवल उत्पाद और उत्पादकता वृद्धि के माध्यम से, बल्कि प्रसंस्करण और विनिर्माण के माध्यम से कृषि उत्पादों में प्रणालीगत मूल्य-संवर्धन द्वारा किसानों की आय बढ़ाने की वकालत की है। भारत की विशाल जनसंख्या अभी भी कृषि और सम्बद्ध गतिविधियों में लगी हुई है। भारतीय किसान काफी हद तक असंगठित हैं। वे अपने विपणन योग्य अधिशेष के निपटान के लिए बाहरी एजेंसियों पर निर्भर रहते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में पूंजीगत सम्पत्ति की कमी के कारण उन्हें बिचौलियों/कमीशन एजेंटों को अपनी उपज बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है। प्राथमिक कृषि उत्पादन से कम आय और प्रसंस्करण तथा कृषि-मूल्य श्रृंखला में निवेश की कमी के कारण कृषि के मुनाफे में तेजी से कमी आई है एवं कृषि कार्य अब गम्भीर दवाब में आ गया है।

ग्रामीण और शहरी भारत में औद्योगिक परिदृश्य

केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (तालिका-1) के वार्षिक सर्वेक्षण में रिपोर्ट की गई संगठित विनिर्माण इकाइयों के औद्योगिक आंकड़े बताते हैं कि 2017-18 में ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा कारखानों की संख्या कम थी। हालांकि, उनके कुल उत्पादन और क्षेत्र में शुद्ध वर्धित मूल्य के सम्बन्ध में समानता थी। इससे पता चलता है कि अधिक ग्रामीण औद्योगिक इकाइयों की स्थापना ग्रामीण अधिशेष श्रम को न केवल रोजगार प्रदान करने में अहम भूमिका निभाएगी परन्तु, कुल औद्योगिक उत्पादन और मूल्यवर्धन में भी बड़े पैमाने पर योगदान देंगी।

कृषि-आधारित उद्योग- परिभाषा और प्रकार

ग्रामीण क्षेत्रों और उनके आस-पास कृषि-आधारित उद्योगों का विकास कृषि को स्वीकार्य और आकर्षक बनाने तथा स्थिरता प्रदान करने की क्षमता रखता है। ‘कृषि उद्योग’ एक सर्वव्यापी अभिव्यक्ति है जिसमें विभिन्न औद्योगिक, प्रसंस्करण और विनिर्माण गतिविधियों का समावेश कृषि पर आधारित कच्चे माल पर होता है और उन गतिविधियों और सेवाओं को भी समाहित करता है जो इनपुट के रूप में कृषि से प्राप्त होती हैं। कृषि और उद्योग किसी भी विकासशील राष्ट्र की विकास प्रक्रिया में उनकी परस्पर निर्भरता और आपसी सम्बन्धों के कारण एक-दूसरे के पूरक हैं। कृषि उद्योग को इनपुट प्रदान करती है और औद्योगिक उत्पादन का उपयोग कृषि में इसके उत्पादन और उत्पादकता आधार का विस्तार करने के लिए किया जाता है। इस प्रकार, कृषि उद्योग न केवल कृषि से प्राप्त कच्चे माल का उपयोग करने वाली गतिविधियों को शामिल करता है, बल्कि उन्हें भी शामिल करता है जो आधुनिक कृषि व्यवसाय के लिए इनपुट भी प्रदान करते हैं।

इनपुट-आउटपुट अनुबंधन और कृषि व उद्योग एक-दूसरे पर आधारित होने के कारण कृषि उद्योग दो प्रकार के हो सकते हैं-(क) प्रसंस्करण उद्योग या कृषि-आधारित उद्योग और (ख) इनपुट आपूर्ति उद्यो या कृषि उद्योग। इस प्रकार, प्राथमिक क्षेत्र के उत्पादन और उत्पादकता वृद्धि के लिए तैयार और विनिर्माण आदानों के माध्यम से कृषि का समर्थन करने वाली एजेंसियों को ‘कृषि उद्योग’ कहा जाता है, जबकि कृषि-आधारित उद्योग प्रक्रिया और मूल्य ऐसे कृषि संसाधनों को जोड़ते हैं जिनमें जमीन और पेड़-पौधे , फल और सब्जियों इत्यादि के साथ-साथ उनके दिन-प्रतिदिन के कार्यों में उपयोगी पशुधन शामिल हैं। अन्तरराष्ट्रीय मानक औद्योगिक वर्गीकरण ढांचे के अनुसार, कृषि-आधारित उद्योग में खाद्य और पेय, कपड़ा, जूते और परिधान, चमड़ा, रबर, कागज और लकड़ी, तम्बाकू उत्पाद के विनिर्माण/प्रसंस्करण शामिल हैं।

कृषि-आधारित उद्योगों को बढ़ावा क्यों ?

भारत में विश्व की 10वीं सबसे बड़ी कृषि योग्य भूमि 20 कृषि जलवायु क्षेत्र और 15 प्रमुख जलवायु हैं। जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है  कि वर्ष 2001 में देश में कुल कृषकों की संख्या 12.73 करोड़ से घटकर 11.88 करोड़ कृषक रह गई है। इसका कारण कृषि प्रसंस्करण और विनिर्माण के माध्यम से मूल्य-संवर्धन, अपव्यय में कमी और वृद्धिशील आय पर पर्याप्त ध्यान दिए बिना भारतीय कृषि का अत्यधिक उत्पादोन्मुखीकरण होना हो सकता है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सेन्ट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी ने अपनी वर्ष 2015 कीक रिपोर्ट में ‘भारत में वस्तुओं और प्रमुख फसलों की कटाई और कटाई के उपरांत होने वाली मात्रात्मक हानियों का आकलन’ शीर्षक से रिपोर्ट दी है । रिपोर्ट के अनुसार कृषि जिंसों की कटाई और कटाई के बाद का नुकसान अनाज के लिए 4.65-5.99 प्रतिशत, दालों के लिए 6.36-8.41 प्रतिशत, तिलहन के लिए 3.08-9.96 प्रतिशत, फलों के लिए 6.7-15.88 प्रतिशत और सब्जियों के लिए 4.58-12.44 प्रतिशत होते हैं। मात्रात्मक नुकसान का कुल अनुमानित आर्थिक मूल्य 2014 की औसत वार्षिक कीमतों पर 9651 करोड़ रुपए पाया गया। इस प्रकार, नुकसान को काफी हद तक कम करने, आधुनिक कृषि प्रसंस्करण प्रौद्योगिकी के संवर्धन और उसे अपनाने तथा ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक संख्या में कृषि उद्योगों की स्थापना करना समय की मांग है।

कृषि अर्थव्यवस्था के समग्र विकास का यही सही अवसर है क्योंकि शायद ही 2 से 3 प्रतिशत कृषि वस्तुओं का प्रसंस्करण किया जाता है। भारतीय कृषि में मौजूदा मूल्यों में आ रही कमी के परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए, ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश करना आवश्यक है ताकि उपयुक्त बुनियादी ढांचे का विकास हो सके और ग्रामीण क्षेत्रों में तथा आस-पास के आधुनिक कृषि-आधारित उद्योगों की स्थापना के लिए निजी-सार्वजनिक भागीदारी को आकर्षित किया जा सके।

कृषि-आधारित उद्योगों की विशेषताएं

भारत में कृषि आधारित उद्योगों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है- (1) फल एवं सब्जी प्रसंस्करण इकाइयों, डेयरी संयंत्रों, चावल मिलों, दाल मिलों आदि को शामिल करने वाली कृषि-प्रसंस्करण इकाइयां; (2) चीनी, डेयरी, बेकरी, साल्वेंट निष्कर्षण, कपड़ा इकाइयों आदि को शामिल करने वाली कृषि निर्माण इकाइयां; (3) कृषि, कृषि औजार, बीज उद्योग, सिंचाई उपकरण, उर्वरक, कीटनाशक आदि के मशीनीकरण को शामिल करने वाली कृषि-इनपुट निर्माण इकाईयां। तालिका-2 में उपलब्ध जानकारियों की समीक्षा से, भारत के कृषि-आधारित उद्योगों की जटिल और विविधतापूर्ण प्रकृति को दर्शाया गया है।

ग्रामीण और कृषि-आधारित उद्योग उत्पादन, वितरण, विनिर्माण और विपणन चरणों में रोजगार के अवसर पैदा करने में मदद करते हैं। तालिका-3 चुनिंदा कृषि उद्योगों की प्रमुख विशेषताओं का परीक्षण करती है। वर्ष 2017-18 में कृषि-आधारित उद्योगों का 45.3 प्रतिशत कुल शुद्ध मूल्य संवर्धन के लिए केवल 24.1 प्रतिशत साझा किया गया, भले ही कुल श्रमिकों का 44.2 प्रतिशत इस क्षेत्र में लगे हुए थे। इससे पता चलता है कि कृषि-आधारित औद्योगिक परिदृश्य ने स्थाई रूप से उपलब्ध संसाधनों और सरकार द्वारा विभिन्न सब्सिडी-उन्मुख केन्द्रीय योजनाओं के माध्यम से किए गए प्रयासों के लाभों को पूरी तरह से भुनाया नहीं है। वर्ष 2017-18 में कुल 1.07 लाख कृषि-आधारित इकाईयां थीं। कृषि उद्योगों की कुल संख्या में खाद्य उत्पादों और पेय पदार्थों के निर्माता कम्पनियों का 38 प्रतिशत हिस्सा है और कुल शुद्ध मूल्य में 36.8 प्रतिशत हिस्सा है। कृषि-आधारित उद्योगों में आसान मुद्दों की पहचान करने और समयबद्ध तरीके से हल करने से कृषि-आधारित उद्योगों को अधिक दृश्यमान और परिश्रमिक बनाने की एक बड़ी क्षमता है।

चुनिंदा सरकारी पहल की समीक्षा

(अ) खाद्य प्रसंस्करण और पेय पदार्थ

खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय, खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों और मूल्यवर्धन गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न केन्द्रीय क्षेत्र की योजनाओं को लागू करता है। इसने हाल ही में नई केंद्रीय क्षेत्र योजना-प्रधानमंत्री किसान सम्पदा योजना (पीएमकेएसवाई) के तहत अपनी योजनाओं को 2016-20 की अवधि के लिए रुपए 6,000 करोड़ के आवंटन के साथ पुनः संरचित किया है। योजना में निम्नलिखित घटक संस्थापित किए गए हैं- (अ) मेगा फूड पार्क (ब) एकीकृत कोल्ड चेन तथा मूल्यवर्धित आधारभूत ढांचा (स) खाद्य सुरक्षा और गुणवत्ता आश्वासन आधारभूत ढांचा (द) मानव संसाधन विकास तथा संस्थाएं। प्रधानमंत्री किसान सम्पदा योजना (पीएमकेएसवाई) में तीन नई योजनाएं शामिल हैं; कृषि प्रसंस्करण समूहों के लिए आधारभूत संरचना, विनिर्माण और विपणन सुविधाओं का निर्माण तथा खाद्य प्रसंस्करण/संरक्षण इकाइयों की स्थापना में सम्पूर्ण मूल्य श्रृंखला के साथ मजबूत आधुनिक बुनियादी ढांचे का निर्माण करने के उद्देश्य से खाद्य प्रसंस्करण और संरक्षण क्षमता का निर्माण/विस्तार। प्रधानमंत्री किसान सम्पदा योजना (पीएमकेएसवाई) के घटक जैसे एकीकृत कोल्डचेन और मूल्यवर्धन आधारभूत ढांचा एवं विनिर्माण और विपणन सुविधाओं का निर्माण, कृषि उत्पादन की कटाई और फसल के बाद के नुकसान को कम करने और ग्रामीण गैर-कृषि क्षेत्र में परिश्रमिक आय और पर्याप्त रोजगार सुनिश्चित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।

(ब) कपड़ा उद्योग

कपड़ा उद्योग को अत्यधिक रोजगार प्रदान करने वाला माना जाता है। यह 4.5 करोड़ लोगों को सीधे और अन्य 6 करोड़ लोगों को सम्बद्ध क्षेत्रों में रोजगार प्रदान करता है, जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएं और ग्रामीण आबादी भी शामिल है। भारतीय कपास कपड़ा उद्योग काफी हद तक असंगठित है और उच्च-उत्पादन तथा श्रम लागत से ग्रस्त है। उद्योग के अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं- पुरानी होती मशीनरी, कच्चे माल की गुणवत्ता और घरेलू व अन्तरराष्ट्रीय बाजारों में मूल्यवर्धित कपास उत्पादों के लिए समुचित-स्तर का अभाव। वस्त्र उद्योग को विश्व-स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने, निर्यात को बढ़ावा देने और आधुनिकीकरण को सुविधाजनक बनाने की दृष्टि से सरकार ने कई योजनाबद्ध पहल की है जैसे कि-एकीकृत टेक्सटाइल पार्क हेतु योजना एकीकृत प्रसंस्करण विकास योजना, समूहबद्ध कार्ययोजना, सामान्य सुविधा केन्द्र तथा संशोधित प्रौद्योगिकी उन्नयन निधि योजना, पॉवरलूम क्षेत्र के विकास के लिए योजना (पॉवर-टेकस) समर्थ-कपड़ा उद्योग क्षेत्र में क्षमता निर्माण की योजना, व्यापक हथकरघा, समूह विकास योजना, राज्य और केन्द्र की कर और लेवी छूट आदि।

(स) जूट उद्योग

भारत में जूट उद्योग की स्थापित क्षमता 16.5 लाख मीट्रिक टन है, जिसमें से 11.5 लाख मीट्रिक टन जूट का उत्पादन होता है। ऐसा अतिरिक्त क्षमता विपणन और आधुनिक तकनीक और उपकरणों को लाने का प्रयास किया है। राष्ट्रीय जूट बोर्ड योजनाबद्ध हस्तक्षेप एवं अन्य बातों के साथ-साथ जूट मिलों को उनके मुद्दों और चुनौतियों को हल करने के लिए पूंजीगत आर्थिक सहायता प्रदान करता है।

(द) खादी और ग्रामोद्योग

देश में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय का खादी और ग्रामोद्योग आयोग विभिन्न फसल-उपरांत कृषि और खाद्य-आधारित सूक्ष्म उद्योगों की स्थापना को बढ़ावा देता है जैसे दालों और अनाज, फलों और सब्जियों, ग्रामीण तेल उद्योग, ब्रेड बेकिंग आदि का प्रसंस्करण। प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम के माध्यम से, खादी और ग्रामोद्योग आयोग गैर-कृषि क्षेत्र में सूक्ष्म उद्यमों की स्थापना के माध्यम से स्वरोजगार के अवसर पैदा करने की कोशिश करता है, जिसमें अन्य बातों का समावेश है (i) कृषि-आधारित और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग (ii) वन आधारित उद्योग (iii) हस्तनिर्मित कागज और (iv) फाइबर/कपड़ा उद्योग।

(ड़) पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन

रोजगार और आय-सृजन क्षमता को ध्यान में रखते हुए, सरकार विभिन्न योजनाओं को लागू करती है। जैसेकि इस उप-क्षेत्र में  कृषि-आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए डेयरी गतिविधियों में डेयरी उद्यमिता विकास योजना, डेयरी प्रसंस्करणक और अवसंरचना विकास कोष, डेयरी गतिविधियों में सहायक डेयरी सहकारी समितियां और किसान उत्पादक संगठनों का एकीकरण, एकीकृत विकास व प्रबंधन तथा मत्स्य पालन एवं मत्स्य पालन आधारभूत संरचना विकास निधि का समावेश।

कृषि-आधारित उद्योग मुद्दों और समस्याओं की समीक्षा

कृषि आधारित औद्योगिक क्षेत्र, ग्रामीण क्षेत्रों में समान आय और रोजगार के अवसरों को सुनिश्चित करने के लिए अपनी उच्च-क्षमता के बावजूद अविकसित रह गया है। उपलब्ध जानकारियों की समीक्षा इंगित करती है कि भारत में कृषि-आधारित इकाइयों के प्रलंबित मुद्दों का समाधान किया जाना है जैसैकि, वित्त, औद्योगिक नीति, अनुसंधान और विकास, बुनियादी सुविधाएं विपणन, उत्पादन और मानव संसाधन सम्बन्धी चिंताएं। तालिका-4 भारत में कृषि-आधारित उद्योगों के समक्ष समस्याओं एवं सम्बद्ध प्रमुख मुद्दों को दर्शाया गया है।

निष्कर्ष

भारतीय योजनाकारों और नीति निर्माताओं ने हमेशा ग्रामीण और कृषि औद्योगीकरण को प्रोत्साहित किया है। कृषि उद्योगों के निहित लाभ स्थानीय कृषि संसाधनों का अधिकतम उपयोग, बड़े पैमाने पर निवेश को जुटाना, रोजगार अवसरों का सृजन, संकटपूर्ण ग्रामीण-शहरी प्रवास की रोकथाम, क्षेत्रों में असमानता में कमी लाना है। इन उद्योगों में गाँवों में प्रचार/लाभदायक व्यवसाय, गतिविधि विविधीकरण के लिए एक विस्तृत, विश्वसनीय और टिकाऊ मॉडल पेश करने की क्षमता है। यह उद्योग मुद्दों तथा चुनौतियों से परे नहीं है। सरकार विभिन्न केन्द्रीय योजनाओं मेक-इन-इंडिया, स्टार्टअप इंडिया जैसे नवीन प्रयासों के द्वारा अत्याधुनिक कृषि औद्योगिक आधारभूत संरचना सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहा है।

कृषि-आधारित उद्योग देश के भीतर और बाहर प्रतिस्पर्धी लाभ की धारणा के अनुरूप है। वे अधिशेष ग्रामीण श्रम को रोजगार प्रदान करने के लिए एक सुरक्षा कवच की भूमिका निभा सकते हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी/प्रच्छन्न रोजगार की समस्या का समाधान कर सकते हैं। यहाँ वास्तविक चुनौती यह है कि सरकार अपने योजनाबद्ध और नीतिगत हस्तक्षेप को कितने प्रभावी ढंग से लागू करती है ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी सामाजिक-आर्थिक संरचना, कृषि उत्पादन प्रणाली और बुनियादी कृषि विनिर्माण विशेषताओं की पहचान को कम किए बिना एक सर्वांगीण औद्योगिक विकास सुनिश्चित किया जा सके।

(लेखक वैकुंठ मेहता राष्ट्रीय सहकारी प्रबंध संस्थान, (वैमनीकॉम) पुणे, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के निदेशक हैं। तथा लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

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नर्मदा क्षिप्रा लिंक परियोजना का क्षिप्रा के जल पर प्रभाव

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नर्मदा क्षिप्रा लिंक परियोजना का क्षिप्रा के जल पर प्रभावHindiWaterFri, 12/27/2019 - 11:00
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पर्यावरण प्रबंध अध्ययनशाला विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन

सारांश

क्षिप्रा नदी उज्जैन शहर से गुजरने वाली एक पौराणिक, आध्यात्मिक एवं धार्मिक महत्व की नदी है, किंतु पिछले कुछ वर्षों में प्रदूषण एवं अन्य मानवीय क्रियाओं के द्वारा नदी के जल का प्रदूषण अपने चरम पर है, तथा नदी जल का प्रवाह भी पूर्ण रूप से रुक चुका है। उज्जैन जिले में कुछ वर्षों से वर्षा जल में भी कमी आई है व सिंचाई आदि कार्य में भी नदी का दोहन हो रहा है। इन समस्याओं के निवारण हेतु राज्य शासन द्वारा नर्मदा नदी के जल को क्षिप्रा में पाइप लाइन द्वारा जोड़ा गया जिससे कि नदी प्रवाहमान हो सके व क्षेत्र की जल समस्या से निपटा जा सके। यह इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि उज्जैन शहर में हर 12 वर्षों में सिंहस्थ (कुंभ) मेले का आयोजन किया जाता है और जल संसाधनों पर अत्यधिक दबाव रहता है।

क्षिप्रा जल के नर्मदा नदी से जुड़ने के पूर्व तथा पश्चात की स्थिति का पता लगाने के लिए जल के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक लक्षणों का परीक्षण एपीएचए (American Public Health Association, 1998) द्वारा वर्णित विधियों से किया गया। इस अध्ययन हेतु चार घाटों (नमूना संग्रह स्थल) क्रमशः त्रिवेणी घाट, गउ-घाट, रामघाट एवं मंगलनाथ घाट से जल के नमूनों को एकत्रित किया गया तथा पीएच, तापमान, चालकता, घुलित आक्सीजन, रासायनिक घुलित आक्सीजन, कठोरता, क्षारियता, फीकल कोलीफार्म, टोटल कोलीफार्म, तथा फीकल स्ट्रेप्टोकोकई आदि प्राचलों का प्रयोगशाला में विश्लेषण किया गया। अवलोकन एवं विश्लेषण के उपरांत पाया गया कि नर्मदा नदी के लिंक से पूर्व क्षिप्रा नदी का जल अपेक्षाकृत अधिक प्रदूषित था एवं जांचे गए सभी मापदंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानकों से कहीं अधिक थे। नर्मदा नदी का जल क्षिप्रा नदी से मिलने के बाद प्रदूषण के स्तर में कमी आई तथा अधिकांश मापदंड विभिन्न संस्थाओं द्वारा दर्शाए गए मानकों के करीब प्राप्त हुए।

इस अध्ययन के द्वारा इस बात को बल मिलता है कि नदी जोड़ो अभियान प्रदूषण के स्तर को कम करने में भी बहुत अधिक सहायक है, साथ ही वहां पर उपस्थित जैव विविधता के संरक्षण को भी लाभ पहुंचा सकता है। क्षिप्रा नर्मदा लिंक परियोजना इस बात को सही साबित करती है कि नदियों के आपस में जुड़ने से प्रदूषित एवं अप्रवाहमान नदियों के स्तर को सुधारा जा सकता है, एवं क्षेत्रीय जल संकट से उबरा जा सकता है।

मुख्य शब्दः American Public Health Association, भारतीय मानक ब्यूरो, पार्ट्स पर मिलियन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, मिली लीटर।

1. प्रस्तावना

भारत में नदी जोड़ों का विचार सर्वप्रथम 1858 में ब्रिटिश सिंचाई इंजीनियर सर आर्थर थाॅमस काटन ने दिया था। लेकिन तब से अब तक इस मुद्दे पर कोई खास प्रगति नहीं हुई है। दरअसल, राज्यों के बीच असहमति, केंद्र की दखलंदाजी के लिये किसी कानूनी प्रावधान का न होना और पर्यावरणीय चिंता इसकी राह में कुछ बड़ी बाधाएँ बनकर सामने आती रही हैं। जुलाई 2014 में केंद्र सरकार ने नदियों को आपस में जोड़ने संबंधी विशेष समिति के गठन को मंजूरी दी थी। नदियों को मनुष्यों और अन्य समस्त जीव-जगत की जीवन-रेखा माना जाता है तथा दुनिया की तमाम बड़ी मानव सभ्यताएँ किसी न किसी नदी के किनारे ही विकसित हुईं। सिंचाई और पेयजल का प्रमुख स्रोत नदियाँ ही होती हैं। इसके अलावा, जलमार्गों को परिवहन का सबसे किफायती माध्यम माना जाता है और नदियों के साथ लाखों लोगों की आजीविका भी जुड़ी रहती है। पानी की उपलब्धता को प्रभावित करने वाले स्थानिक और अस्थायी कारण भी हैं। इसकी वजह से भारत में सूखा और बाढ़ जैसे हालात साथ-साथ चलते हैं। ऐसे देश के लिये जहाँ की आबादी के एक बड़े हिस्से को साफ पानी उपलब्ध नहीं है, यह स्थिति निश्चित ही चिंतनीय है।

मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र पिछले 3-4 दशकों से पानी की कमी की समस्या से जूझ रहा है, जो कि कुछ वर्षो से विकराल रूप धारण करती जा रही है। लगातार हो रहा भूमि जल का दोहन, अनियमित वर्षा, तथा अनियन्त्रित जल के उपयोग ने आने वाले समय में मालवा क्षेत्र के मरुस्थल में परिवर्तन के संदेह को जन्म दे दिया है।

नर्मदा नदी को मध्य प्रदेश की जीवन दायनी कहा जाता है, जो ना केवल मालवा के क्षेत्रों बल्कि लगभग पूरे मध्यप्रदेश को सिंचित तथा जल प्रदान करने का कार्य करती है। मध्य प्रदेश की अन्य प्रमुख नदियों में उज्जैन शहर से गुजरने वाली क्षिप्रा नदी का स्थान भी है। वर्ष 2016 में उज्जैन शहर में होने वाले कुम्भ मेले को ध्यान में रखते हुए तत्कालीन सरकार द्वारा नर्मदा नदी के जल को पाइप से क्षिप्रा नदी से जोड़ा गया, जिससे की कुम्भ 2016 में आने वाले लाखांे श्रद्धालु क्षिप्रा नदी में पुण्य की डुबकी लगा सकें। राज्य शासन ने इस कार्य हेतु नर्मदा वेली डेवलपमैंट अथोरिटी (एनवीडीए) को अधिकृत किया तथा क्षिप्रा नदी को नर्मदा नदी जल से जोड़ने वाली इस योजना को "नर्मदा क्षिप्रा लिंक परियोजना" नाम दिया, जिसकी शुरुआत 29 नवंबर 2012 को हुई तथा यह प्रोजेक्ट 14 माह के रिकार्ड समय में पूर्ण हुआ। नर्मदा नदी के जल को क्षिप्रा नदी से 25 फरवरी 2014 (नर्मदा जयंती) को इन्दौर शहर के पास स्थित क्षिप्रा के उद्गम स्थल से जोड़ा गया (http//www.mpsdc-gov.in/nvda/brief%20introductionNKSL&1&3&14-pdf)। क्षिप्रा जल के नर्मदा नदी से जुड़ने के पूर्व तथा पश्चात की स्थिति का पता लगाने के लिए जल के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक लक्षणों का परीक्षण एपीएचए (1998) द्वारा वर्णित विधियों से किया गया।

2. कार्य योजना एवं रूपरेखा

क्षिप्रा जो कभी अविरल धारा के रूप में प्रवाहमान रहती थी अब केवल वर्षा के कुछ महीनों में ही प्रवाहमान रहती है। इसके किनारे बसे गाँव व उज्जैन शहर के बीच विकास एवं फैलाव के कारण इसका जल संग्रहण क्षेत्र सिकुडता जा रहा है। साथ ही जल में संदूषकों की मात्रा दिन प्रतिदिन बढती जा रही है। उससे उत्पन्न होने वाली बीमारियों तथा जीवाणुओं में भी वृद्धि हो रही है। साथ ही इन जीवों की प्रतिरोधक क्षमता का बढना भी एक जटिल समस्या बन रही है। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य था क्षिप्रा जल के मौलिक स्तर को नर्मदा नदी के जुड़ने से पूर्व तथा पश्चात की स्थिति का पता लगाना। इस हेतु चार घाटों (नमूना संग्रह स्थल) क्रमशः त्रिवेणी घाट, गऊघाट, रामघाट एवं मंगलनाथ घाटसे जल के नमूनों को एकत्रित किया गया तथा पीएच, तापमान, चालकता, घुलित आक्सीजन, रासायनिक घुलित आक्सीजन, कठोरता, क्षारियता, फीकल कोलीफार्म, टोटल कोलीफार्म, तथा फीकल स्ट्रेप्टोकोकई आदि प्राचलों का प्रयोगशाला में विश्लेषण किया गया। चारों नमूना स्थलों का वर्णन निम्न है।

त्रिवेणी घाट-यह उद्गम स्थान से लगभग 115 कि.मी. दूर है। त्रिवेणी घाट उज्जैन के दक्षिण पश्चिम में स्थित है तथा यहाँ विश्व प्रसिद्ध नवग्रह (शनि) मंदिर है। इसी स्थान पर खान नदी दक्षिण दिशा से आकर क्षिप्रा नदी में मिलती है। खान नदी इन्दौर से आते हुए अपने साथ बहुत सारा घरेलू एवं औद्योगिक अपशिष्ट लाती है एवं क्षिप्रा में त्रिवेणी पर समाहित होती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार त्रिवेणी पर तीसरी धारा को इलाहाबाद संगम की तरह सरस्वती नदी की तरह लुप्त माना गया है।

गऊघाट -यह उद्गम स्थल से लगभग 124 कि.मी. दूर स्थित है इस स्थान पर धार्मिक आयोजन तथा मानवीय गतिविधियाँ अधिक होने के कारण इस स्थान पर प्रदूषण अधिक है। इस स्थान से भी जल नमूना एकत्रित कर परीक्षण किया गया।

रामघाट -यह उद्गम स्थल से लगभग 130 कि.मी. दूर स्थित है। यह हिन्दुओं का पवित्र घाट है। सिंहस्थ मेले के दौरान समस्त शाही स्नान एवं वर्ष भर अनेकों पवित्र स्नान इसी घाट पर होते हैं। लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहाँ घाट पर स्नान करते हैं। किन्तु इसी घाट के समीप शहर के घरेलू नाले भी इसमें समाहित होते हैं, जो कि यहाँ जल प्रदूषण के मुख्य स्त्रोत माने गए हैं।

मंगलनाथ -यह उद्गम स्थल से लगभग 140 कि.मी. दूर स्थित है। यहाँ विश्व प्रसिद्ध भगवान मंगलनाथ का मंदिर है। यह स्थान भी उज्जैन के उत्तर में स्थित है। घरेलू एवं मंदिर से निकलने वाले अपशिष्ट सीधे नदी में प्रवाहित होते हैं, जिससे यहाँ का जल प्रदूषित एवं अत्यधिक सुपोषी हो रहा है।

तालिका 1ः नमूना संग्रह स्थल की जानकारी अक्षांश देशांश में


2.1 प्रतिचयन विधि

जल के नमूने निर्जर्मिकृत आसुत जल से साफ की गई प्लास्टिक बोतलों में एकत्रित किये गए। सूक्ष्मजीव परीक्षण हेतु शुुष्क बोतल का उपयोग किया गया जो 0.5 मि.ली. सोडीयम थायोसल्फेट (10 प्रतिशत घोल) द्वारा उपचारित की गई थी। परीक्षण हेतु जल नमूने जल सतह से 30-40 से.मी. की गहराई से एकत्रित कर प्रयोगशाला में ले जाये गए। जल नमूनों का परीक्षण भौतिक, रासायनिक एवं जैविक स्तर पर मानक विधियों द्वारा किया गया।

2.1.1 भौतिक परीक्षण

मुख्य भौतिक लक्ष्णों में पीएच, तापमान, धुन्धलता, चालकता, एवं कुल घुलित ठोस का परीक्षण एपीएचए (1998) द्वारा वर्णित विधियों से किया गया। चार नमूना संग्रहण को चिन्हित किया गया एवं इन घाटों पर जल नमूना संग्रहण नर्मदा नदी के क्षिप्रा से जुड़ने के पहले एवं बाद में किया गया नमूना संग्रहण दिन में तीन अलग अलग समय (प्रातः 8 बजे, दिन में 1 बजे एवं शाम 6 बजे) पर किया गया जिससे कि परिणामों का भली भांति अध्ययन किया जा सके।

पीएच - जल के पीएच का निर्धारण "सिस्ट्रोनिक  पीएचमीटर-335" द्वारा किया गया जिसमे प्रत्येक जल के नमूनों को प्रयोगशाला में नापा गया।

तापमान -  इस हेतु जल के तापमान का पता कांच के थर्मामीटर द्वारा लगाया गया।

चालकता - मापन के लिए चालकता मीटरका उपयोग किया गया जिसे पहले आसुत जल के द्वारा केलिब्रेट किया गया।

धुंधलापन - धुंधलापन को नापने के लिए सामान्य दृश्य विधि अपनाई गयी, जिसमे जल के नमूनों को आसुत जल के साथ रखकर देखा गया एवं उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा गयाः अपारदर्शी, अर्धपारदर्शी एवं पारदर्शी।

कुल ठोस - कुल ठोस के निर्धारण हेतु जल के नमूनों को दो भागो में विभाजित किया गया, जिसके एक भाग से कुल अघुलित ठोस का तथा दूसरे भाग से कुल घुलित ठोस का निर्धारण किया गया।

कुल अघुलित ठोस - इसकी मात्रा का पता लगाने के लिए छनन विधि का उपयोग किया गया, जिसमे 50 मि.ली. जल को वाह्टमन फिल्टर पेपर सं.1 के द्वारा छान लिया गया तथा इसके पश्चात पेपर को 102o से. तापमान पर सुखाया गया पेपर का भार दो बार नापा गया तथा जिन्हें पूर्व तथा पश्चात नाम भार दिया गया तथा कुल अघुलित ठोस का पता लगाया गया।

कुल घुलित ठोस - एक साफ स्वच्छ बीकर का भार लिया गया तथा इसमें 50 मिली जल लेकर 100oसे. तापमान पर इसका वाष्पोत्सर्जन किया। इसके बाद पुनः बीकर का भार लिया गया तथा कुल घुलित ठोस का पता लगाया गया।

2.1.2 रासायनिक परीक्षणः

घुलित आक्सीजन - "विंकलर विधि" का उपयोग के द्वारा घुलित आक्सीजन का निर्धारण किया गया। इस विधि में मेंगनीज सल्फेट क्षारीय माध्यम में मेंगनीज हाइड्राक्साइड के अवक्षेप बनाता है जो कि आक्सीजन की उपस्थिति में भूरे रंग के अवक्षेप बनाता है जो कि अम्लीय माध्यम में आयोडाइड आयन से अपचयित होकर आयोडाइड बनाता है, जो कि आक्सीजन की उपस्थिति एवं मात्रा को दर्शाता है।

जैव रासायनिक आक्सीजन मांग - यह आक्सीजन की वह मात्रा है जो सूक्ष्मजीव कार्बनिक पदार्थो को वायु की उपस्थिति में अपघटित करने के लिए उपय¨ग में लाते है।

रासायनिक आक्सीजन मांग - वह आक्सीजन की मात्रा जिससे जल में उपस्थित कार्बनिक पदार्थो को किसी कठोर आक्सीकारक की उपस्थिति में आक्सीकृत किया जाता है। इस विधि में जल के नमूनों को फ्लास्क में लेकर उसे लिए बिग रिफ्लक्स कंडेंसरपर लगाकर फेरोईन संसूचक की उपस्थिति में टाइट्रेशन विधि द्वारा ज्ञात किया।

कठोरता - इसके लिए काम्पलेक्सोमेट्रिक विधिका उपयोग किया गया, जो कि एपीएचए (1998) द्वारा वर्णित की गयी। कठोरता सामान्यत कैल्शियम एवं मैग्नीशियम की उपस्थिति के कारण होती है। कैल्शियम तथा मैग्नीशियम एरीक्रोम ब्लैक टीके साथ क्रिया करके वाइन रेड रंग का निर्माण करते हैं, जो कि इङीटीए की उपस्थिति में नीले रंग को बनाते है।

क्षारीयता - यह विधि एसिड बेस टाइट्रेशनपर आधारित है, जिसमें मिथाइल आरेंजतथा फिनोफ्थेलिन सूचकके रूप में उपयोग किया जाता है। क्षारीयता के प्रमुख कारण कार्बोनेट तथा बाइकार्बोनेट आयन होते हैं।

2.1.3 जीवाणवीय परीक्षण

कुल कोलीफार्म एवं विष्टा कोलीफार्म - इसके लिये जल नमूनो का परीक्षण अति समभव्य संख्या विधि द्वारा किया गया। जीवाणु की वृद्धि के लिये उपयोग में लाये गये संवर्धन माध्यम मेकान्की ब्राॅथ, ब्रिलिएंट ग्रीन लेक्टोस ब्रोथ तथा इओसिन मेथिलीन ब्लूअगर माध्यम थे।

विष्ठा स्ट्रेण्टोकोकाई - इन जीवाणुओं के परीक्षण हेतु अजाईड डेक्स्ट्रोस ब्राॅथ एवं फाइजर सेलेक्टिव एन्टेरोकोकस अगर संवर्धन माध्यम का उपयोग एपीएचए (1998) द्वारा वर्णित विधियों से किया गया। सभी परिणामों को सांख्यिकीय मानकों पर जांचा गया तथा तालिका के रूप में प्रदर्शित किया गया है।

3. परिणाम एवं विवेचना

विभिन प्रकार के मानव जनित कार्यो के द्वारा नदियों के प्रदूषण में वृद्धि होती जा रही है, जिसके परिणाम स्वरूप स्वच्छ जल के मौलिक स्तर एवं मात्रा में कमी आती जा रही है। इस अध्ययन के द्वारा उज्जैन शहर की जीवन रेखा कही जाने वाली क्षिप्रा नदी के जल नमूनों को एकत्रित कर उसके भौतिक रासायनिक तथा सूक्ष्मजीवीय स्वास्थ्य को जानने का प्रयास किया गया। इस अध्ययन में क्षिप्रा जल को एकत्रित करने के लिए जैसा कि पहले वर्णन किया जा चुका है कि चार नमूना स्थलों को जल संग्रहण के लिए चिन्हित किया गया। जल संग्रहण प्रातः 8 बजे, दिन में 1 बजे तथा शाम को 6 बजे किया गया। पहले भाग में क्षिप्रा जल से मिलने के पूर्व जल संग्रहण तथा आकलन किया गया, जबकि दूसरे भाग में क्षिप्रा जल का संग्रहण नर्मदा नदी जल के मिलने के पश्चात भी किया गया।

जल का तापमान बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योकि जीवों की कई जैव रासायनिक क्रियाएं तापमान पर निर्भर करती हैं। क्षिप्रा जल को नर्मदा नदी के जुड़ने से पूर्व एवं पश्चात नमूना स्थलों से एकत्रित कर थर्मोमीटर द्वारा मापा गया। सबसे अधिक औसत तापमान (28.4)रामघाट पर प्राप्त, जो कि नर्मदा जल के जुड़ने के पश्चात् हुआ, जबकि सबसे कम औसत तापमान गऊघाट (26.8) प्राप्त हुआ, जो कि नर्मदा जल के क्षिप्रा नदी से जुड़ने के पूर्व की स्थिति को दर्शाता है (तालिका 2)। तापमान में इस प्रकार का परिवर्तन इस बात को साबित करता है कि तापमान पर बाहरी वातावरण का भी बहुत अधिक प्रभाव होता है। जल का पीएच 6.5-8.5 होने पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव जीवो पर पड़ता है। इस अध्ययन में न्यूनतम पीएच 6.8 तथा अधिकतम पीएच 9.1 रामघाट क्षेत्र से प्राप्त हुआ।

चालकता 2.1 म्यू मोह्स/सें.मी. भी रामघाट पर प्राप्त हुई तथा न्यूनतम 0.78 गउ-घाट पर प्राप्त हुई तालिका 2 में सभी भौतिक चालकों के बारे में दर्शाया गया है। धुंधलापन का पता लगाने के आसुत जल के साथ नमूना जल को देखकर ज्ञात हुआ कि सभी स्थानों के जल के नमूने में धुंधलापन बहुत अधिक पाया गया (चित्र 5)। इसी प्रकार घुलित आक्सीजन वायवीय श्वसन करने वाले जलीय जीवों के लिए आवश्यक है। घुलित आक्सीजन की सबसे अधिक मात्रा रामघाट क्षेत्र (8..9) में प्राप्त हुई तथा सबसे कम मंगल नाथ (3.0) क्षेत्र में प्राप्त हुई। जैव रासायनिक आक्सीजन मांग तथा रासायनिक आक्सीजन मांग जल के प्रदूषण के सूचक माने जाते हैं। जैव रासायनिक आक्सीजन का सर्वाधिक मान गउ-घाट पर प्राप्त हुआ, जबकि न्यूनतम मान (12.5) मंगल नाथ घाट पर प्राप्त हुआ। रासायनिक आक्सीजन मांग के सभी नमूना स्थलों पर वि‐स्वा.सं. के मानकों से ज्यादा पाई गई, जो कि अधिकतम त्रिवेणी घाट (78.6) तथा न्यूनतम (15.9) मंगलनाथ घाट पर प्राप्त हुई। जल की कठोरता यदि 200 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) से अधिक पाई जाती है तो यह जल में पाए जाने वाले जैविक कारको के लिए हानिकारक होती है। वि‐स्वा.सं. एवं भारतीय मानक ब्यूरो के मानकों के आधार पर चारों घाटों की कठोरता बहुत अधिक पाई गयी (तालिका 3), जो कि नर्मदा जल के जुड़ने के बाद वि‐स्वा.सं. के मानकों के आसपास प्राप्त हुई। भारतीय मानकों के अनुसार 300 पीपीएम क्षारीयता वहन करने योग्य है। किन्तु इस अध्ययन में रामघाट नमूमा क्षेत्र में सर्वाधिक 510 पीपीएम कठोरता पाई गई जबकि न्यूनतम 300 पीपीएम त्रिवेणी घाट पर प्राप्त हुए (तालिका 3)। जैसा कि हम जानते हैं कि जल हमारे पारितंत्र का एक बहुत अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण अंग है। लगभग सभी जीव-जंतु को अपने जीवन यापन के लिए जल की आवश्यकता होती है। बढ़ती जनसंख्या, औद्योगीकरण, रासायनिक उर्वरकों का उपयोग तथा अन्य मानव जनित प्रदूषकों द्वारा स्वच्छ जल लगातार प्रदूषित हो रहा है। अतः यह बहुत आवश्यक है कि नदी तथा अन्य स्वच्छ जल के संसाधनों को समय समय पर जांचा जाए एवं उनका सही ढंग से उपचार किया जाए।

बस्वराजा ऐट. आल., (2011) ने यह बताया कि जल में उपस्थित जैविक एवं रासायनिक कारकों का अध्ययन बहुत आवश्यक है। शुद्ध जल की आपूर्ति के लिए आवश्यक है कि उसमें बहुत काम मात्रा में अशुद्धता हो जो कि कई बार एरोसोल कणो के कारण, कई मानव जनित क्रियाओं, तथा घरों से निकलने वाले अपशिष्ट के कारण होता है (अदेयेये, 1994; असायलु 1997)।

औद्यागिक क्षेत्र के विभिन्न प्राचलों का अध्ययन किया गया तथा यह पाया गया कि कुछ प्राचल मानकों से बहुत अधिक पाए गए गुप्ता ऐट.आल., (2009) ने कैथल नदी से 20 जल नमूनों का अध्ययन किया तथा पाया कि आई. सी. एम. आर. (भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद) एवं वि‐स्वा.सं. के मानकों के अनुरूप नहीं पाये गए, जो कि इस अध्ययन से भी स्पष्ट होता है। सावंत तथा देशमुख (2012), नवनीत कुमार ऐट.आल., (2010), डे-कल्लोल ऐट.आल., (2005), पुनकोयी तथा पर्वतम (2005) ने नदी जल के विभिन प्राचलों का अध्ययन किया तथा बताया कि भारत की कई नदियां प्रदूषण के अधिकतम स्तर पर हैं। क्षिप्रा नदी के जल के अध्ययन से साबित होता है कि नदी जल का प्रदूषण बहुत चिंता का विषय है, जिसे बड़ी एवं प्रवाहमान नदियों को आपस में जोड़कर कुछ हद तक दूर किया जा सकता है। रोकड़े एवं गणेशवाड़े (2005) ने अपने शोध में पीएच, कठोरता आदि के बारे में विस्तार से बताया। यूनेप (संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम) 1991 की रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों की 75 प्रतिशत जनसंख्या को स्वच्छ जल की आपूर्ति नहीं हो पा रही है तथा जनसंख्या विस्फोट इसका एक प्रमुख कारण है।

प्रदूषण की समस्या उज्जैन में बहने वाली क्षिप्रा नदी के लिए भी है क्योंकि लगातार जनसंख्या में वृद्धि, गाँवों से लोगों का शहर की ओर स्थाई प्रवास, शहरीकरण, उद्योगों का लगातार बढ़ना तथा कृषि में नए प्रयोगो के फलस्वरूप क्षिप्रा जल के स्तर में कमी भी आयी है तथा प्रदूषण में वृद्धि भी हुई है। कुमावत एवं शर्मा (2015) ने क्षिप्रा जल के भौतिक, रासायनिक एवं सूक्ष्मजीवीय प्राचलों का अध्ययन किया तथा यह पाया कि सभी प्राचल केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ध्वि‐स्वा.सं. के मानकों से बहुत ज्यादा है। नाइजीरिया में गंगोला नदी के जल का अध्ययन करने पर यह ज्ञात हुआ कि टोटल कोलीफाॅर्म एवं फीकल कोलीफाॅर्म की संख्या बहुत अधिक पाई गयी जो कि हमारे प्रस्तुत अध्ययन में स्पष्ट होती है (तालिका 4)। वि‐स्वा.सं. के अनुसार इ.कोली की संख्या प्रति 100 मि. ली. जल में 0 (शून्य) होनी चाहिए तथा फीकल कोलीफाॅर्म की संख्या 103 प्रति 100 मिली होनी चाहिए जो कि क्षिप्रा जल में बहुत अधिक पाई गयी (तालिका 4)। विभिन्न अध्ययनों के द्वारा यह स्पष्ट होता है कि टोटल कोलीफार्म, फीकल कोलीफार्म तथा फीकल स्ट्रेप्टोकोकाई की उपस्थिति जल को प्रदूषित करती है तथा इस प्रकार के जल का उपयोग किसी भी कार्य में नहीं किया जाना चाहिये।

4. उपसंहार

इस अध्ययन के द्वारा इस बात को बल मिलता है कि नदी जोड़ो अभियान प्रदूषण के स्तर को कम करने में बहुत अधिक सहायक है, साथ ही वहां पर उपस्थित जैव विविधता के संरक्षण को भी लाभ पहुंचा सकता है। नर्मदा क्षिप्रा लिंक परियोजना इस बात को सही साबित करती है कि नदियों के आपस में जुड़ने से प्रदूषित एवं अप्रवाहमान क्षिप्रा जैसी नदियों के स्तर को सुधारा जा सकता है, एवं क्षेत्रीय जल संकट से उभरा जा सकता है। धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए नदी के जल का समुचित उपचार बहुत आवश्यक है। वर्तमान अध्ययन के कई स्थानों पर प्रदूषण का प्रमुख कारण धार्मिक आयोजनों के द्वारा होने वाले स्वाभाविक कार्य हैं। जिन्हें रोका जाना लगभग अंसभव है किन्तु जनमानस में जागरुकता से इसे कम किया जा सकता है। चूंकि क्षिप्रा जल, जलीय वातावरण में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवों का वास स्थान है तथा इनकी अत्यधिक संख्या इस ओर संकेत करती है कि इन जीवाणुओं की उपस्थिति नदी के पानी को आने वाले समय में और अधिक प्रभावित कर सकती है।

वर्तमान अध्यनन से स्पष्ट है कि बड़ी एवं प्रवाहमान नदी का छोटी, अप्रवाहमान नदी से जुड़ना उस क्षेत्र के कृषि, व्यापार, जल आपूर्ति एवं पर्यावरण हेतु लाभप्रद हो सकता है।

5. आभार

इस शोध पत्र के लेखक तकनीकी सहयोग के लिए डा. कुमेर सिंह मकवाना (विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन) का आभार व्यक्त करते हैं, जिनके द्वारा शोध पत्र के टंकण एवं कंप्यूटर सम्बन्धी कार्य में सहायता प्रदान की गई।

तालिका 2ः भौतिक प्राचलों का अध्ययन (प्रत्येक नमूना स्थल से नर्मदा जल के क्षिप्रा नदी में मिलने केे पूर्व तथा पश्चात जल संग्रहण)

 

सभी मानक तीन समय (सुबह दोपहर एवं शाम) को लिए गए एवं दिए गए मान औसत को दर्शाते हैं।

तालिका 3ः विभिन्न रासायनिक प्राचलों की विभिन्न नमूना स्थलों पर स्थिति

सभी मानक तीन समय (सुबह दोपहर एवं शाम) को लिए गए एवं दिए गए मान औसत को दर्शाते हैं।

तालिका 4ः सूक्ष्मजीवीय प्राचलों का अध्ययन

 

सभी मानक तीन समय (सुबह दो  पहर एवं शाम) को लिए गए एवं दिए गए मान औसत को दर्शाते हैं।

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प्रदूषण से निपटने के लिए शहर का अधिकतम आकार निर्धारित करे केजरीवाल सरकार

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प्रदूषण से निपटने के लिए शहर का अधिकतम आकार निर्धारित करे केजरीवाल सरकारHindiWaterFri, 12/27/2019 - 16:03
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संयोजक,  नेचुरल हेरिटेज फर्स्ट

प्रतीकात्मक फोटो

आज हद हो गयी प्रदूषण की दिल्ली में। सांस नही आ रही। ये बीमारी दिल्ली के हुक्मरानों, इसी तरह अन्य शहरों की सरकारों की खुद की बनाई हुई है। पराली जलनी बंद हो जाये तब थोड़ी कम सही, समस्या खतरनाक ही बनी रहेगी। रहा नही गया, चिट्ठी लिख दी केजरीवाल को। वो पढ़े न पढ़े, उनका काम।

 

प्रिय श्री अरविंद केजरीवाल जी,

 नमस्कार! 

हमने विशेष रूप से पानी और हवा से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर पहले बैठकें की हैं। आज, मुझे राघव चड्ढा के एक कथन के बारे में पता चला कि दिल्ली प्रदूषित है क्योंकि यह एक जमीन से घिरा शहर है। पहली बार मैं एक बयान सुन रहा हूं, जो वायु प्रदूषण के कारणों में एक अंतर्दृष्टि को दर्शाता है। यह मुझे आशावाद की भावना देता है कि आपकी सरकार आखिर वायु प्रदूषण के मुद्दे से निपटने के बारे में कुछ गंभीर है। अपनी बात आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा इस बात पर ध्यान दें कि प्राकृतिक शक्तियाँ वायु प्रदूषण से कैसे निपटती हैं। हवा बहुत लोकतांत्रिक है। जो भी एक जगह पर उत्पन्न होता है, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, हवा द्वारा वह दुनिया भर में समान रूप से वितरित किया जाता है। यह एक स्थान पर उत्पन्न अत्यधिक प्रदूषकों को पृथ्वी के बाकी वायुमंडल में फैला देती है। इसी तरह, यह हिमालय में या यहां तक ​​कि ब्राजील में दूर के जंगलों से शुद्ध ऑक्सीजन लाती है और इसे पूरे वातावरण में फैलाती है। यही कारण है कि, शहरों या औद्योगिक क्षेत्रों द्वारा उत्पन्न सभी प्रदूषणों के बावजूद, हम कुछ घंटों के भीतर या एक या दो दिन में उस क्षेत्र में संतुलित वायु स्तर के करीब पहुंच जाते हैं। लेकिन, हवा की इस प्रक्रिया में अगर कोई  बाधा आती है या कहीं भी धीमी हो जाती है, तो उस स्थान पर उत्पन्न प्रदूषक, वहां के जीवित प्राणियों के लिए स्वास्थ्य आपातकाल का कारण बनने लगते हैं। 

इससे यह भी पता चलता है कि चेन्नई, मुंबई, कोलकाता जैसे शहर जो समुद्र के करीब हैं, वहां बेहतर वायु स्वास्थ क्यों है। इसका कारण यह है कि वहाँ अधिक से अधिक हवा का संचार होता है, क्योंकि समुद्र से नियमित हवा आती है जो शहर की हवा को शुद्ध करती है, लेकिन दिल्ली के पास, एक लैंडलॉक शहर होने के नाते यह प्राकृतिक सुविधा उपलब्ध नहीं है, इतनी अच्छी तरह से। यहाँ प्रासंगिकता शहर के आकार में आती है। एक छोटे शहर या गाँव में वायु प्रदूषण की समान मात्रा का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन यह एक बड़े शहर की तुलना में कम अवधि तक रहता है। इसकी वजह यह है कि छोटे शहर के मामले में हवा के साथ हवा का प्रचलन जल्दी होता है, क्योंकि हवा को बहुत दूर तक यात्रा नहीं करनी पड़ती है। एक शहर के मामले में, सर्दियों में जब हवाएं बहुत धीमी होती हैं, तो शहर पार करने में कई दिन लग सकते हैं, या यह कहें कि, पास के गांव, जंगलो से हवा के साथ हवा का आदान-प्रदान करने में अत्यधिक वक्त लग जाता है। तब तक, प्रदूषण शहर की हवा में केंद्रित हो जाता हैं और अपने निवासियों के लिए जीवन नरक बना देते हैं। एक अर्थ में, जब शहर बहुत फैला हुआ है, प्रदूषण की समस्या हमारे स्वयं की बनाई हुई होती है। इसीलिए एक लैंडलॉक शहर को अपने सभी कारकों जैसे हवा, पानी और अन्य को ध्यान में रखते हुए अपने अधिकतम आकार का निर्धारण करना चाहिए और उस लिमिट के बाद इसका विस्तार नहीं होना चाहिए। वायु प्रदूषण से निपटने के लिए आप जो भी स्थानीय उपाय कर सकते हैं, उसका असर निश्चित रूप से होगा, लेकिन एक सीमा तक ही। प्रदूषण की चरम अवधि को कुछ घंटों तक कम किया जा सकता है, केवल कुछ ही समय की राहत मिल सकती है। 

आपसे आग्रह है कि हमारे सुझावो  पर गौर किया जाए :- 

  1. शहर का अधिकतम आकार निर्धारित करें। 
  2. शहर के विस्तार पर रोक लगे , जब तक हम स्वच्छ  वायु  प्राप्त नहीं करते हैं। 
  3. खुले हरे भरे स्थान, विशेष रूप से शहर के वन / जैव विविधता पार्क के रूप में, शहर में प्रत्येक 1-2 किलोमीटर पर न्यूनतम प्रतिशत के साथ उपलब्ध कराया जाना चाहिए। 
  4. घनी आबादी वाले क्षेत्रों की पहचान करना और उस क्षेत्र में किसी भी अन्य निर्माण को रोकना। 
  5. मौजूदा जल निकायों को पुनर्जीवित करना और उनके आसपास वुडलैंड के लिए एक प्रावधान के साथ नए विकसित करना ताकि ये प्रदूषण के लिए सिंक बन जाएं और क्षेत्र के तापमान को संतुलित करे।
  6. प्रदूषण करने वाली औद्योगिक गतिविधियों पर रोक। 
  7. शहर में वाहनों की संख्या पर लिमिट। 
  8. नई सड़कों, फ्लाईओवर, मेट्रो जैसे बुनियादी ढाँचे का विकास केवल शहर में आगे के लिए भीड बढ़ाता है। हमें इस तरह के विकास को अब रोकना चाहिए। 
  9. सैटेलाइट शहर दिल्ली के 50-80 किलोमीटर के भीतर विकसित नहीं होने चाहिए क्योंकि 80 किलोमीटर के भीतर ऐसा कोई भी शहर दिल्ली के ही विस्तार के रूप में कार्य करता है। हवा के लिए, प्रशासनिक सीमाएं मायने नहीं रखती हैं। गुड़गांव, गाज़ियाबाद, फरीदाबाद जैसे शहर दिल्ली के मौजूदा आकार को जोड़ते हैं और हवा की समस्या को बढ़ाते हैं। इसके अलावा, यह शहर में भीड़ की समस्या को कई गुना बढ़ा देता है। 
  10. हमें प्रदूषण फैलाने वाले प्रभावों को कम करने के लिए शहरों और शहरों के बीच कम से कम ट्रिपल आकार के ग्रीन बफर (पड़ोसी शहरों / कस्बों का कुल आकार के मुकाबले ) की आवश्यकता है।
  11. बाहरी दिल्ली में ग्रीन बेल्ट का संरक्षण करना, लैंडपूलिंग या अनधिकृत कॉलोनियों के रूप में आगे शहरी विस्तार की अनुमति नहीं होनी चाहिए। किसानों को अपने कृषि व्यवसाय को बनाए रखने के लिए प्रोत्साहन देना। कोस्टा रिका में किए जा रहे PES (पर्यावरण संतुलन के लिए भुगतान) जैसी प्रणाली को किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए तैयार किया जा सकता है। पश्चिमी देशों जैसे अमेरिका और अन्य क्षेत्रों में हरित क्षेत्रों के संरक्षण के लिए कई समान प्रणालियों का पालन किया जाता है। यह दिल्ली में पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने के लिए बहुत फायदेमंद होगा। 

आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया और दिल्ली की वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए बेहतर स्वास्थ्य की उम्मीद करते हुए।

 

 सस्नेह, 

दीवान सिंह

 संयोजक, 

नेचुरल हेरिटेज फर्स्ट

 

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अक्षय ऊर्जा की संभावनाएं

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अक्षय ऊर्जा की संभावनाएंHindiWaterSat, 12/28/2019 - 09:30

उत्तर प्रदेश दूसरे राज्यों की तुलना में भारत का सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है। उत्तर प्रदेश अक्षय ऊर्जा को बढ़ाने के लिए जो भी कदम बढ़ाएगा वह न केवल, इस प्रदेश के लिए, बल्कि पूरे भारत के लिए मायने रखेगा। आइपीसीसी यानी इंटरनेशनल पैनल इन क्लाइमेट चेंज की हालिया रिपोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि समय हमारे हाथों से निकल रहा है। हम ग्लोबल वार्मिग को दो डिग्री सेंटीग्रेड तक कम करने के आस-पास भी नहीं हैं, जबकि वैज्ञानिकों के अनुसार हमें ग्लोबल वार्मिग को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित रखने की आवश्यकता है। अगर अगले कुछ दशकों में पूरी तरह से जीवाश्म ईंधन पर हमारी निर्भरता कम नहीं हुई तो मानव सभ्यता को बचाना मुश्किल होगा। कुछ दूरदर्शी समाज और उनके नेता ऐसे भी हैं जो इस गंभीर चुनौती को पहचान रहे हैं और दृढ़ संकल्प के साथ इस पर काम कर रहे हैं। अमेरिका द्वारा पेरिस समझौते से हटने के राष्ट्रपति ट्रंप के फैसले के बावजूद, अमेरिका में कैलिफोर्निया राज्य ने एक कानून बनाया है कि वर्ष 2045 तक राज्य में बिजली उत्पादन गैर-जीवाश्म ईंधन स्नोतों से होनी चाहिए। जर्मनी में एक तिहाई से अधिक बिजली की खपत अब अक्षय ऊर्जा स्नोतों से होती है और 2030 तक इसे 65 प्रतिशत करने की योजना है। उत्तर प्रदेश सौर ऊर्जा के लिए बोलियां आमंत्रित करने में आगे रहा है और इसमें बाजार से प्रतिक्रिया भी सकारात्मक रही है। इसकी योजनाएं महत्वाकांक्षी हैं और सफल होनी भी चाहिए। सवाल यह है कि क्या यूपी अधिक महत्वाकांक्षी अक्षय ऊर्जा के उपयोग में देश के दूसरे राज्यों की तुलना में अग्रणी भूमिका अदा कर सकता है। सौर ऊर्जा से थर्मल पावर प्लांट के मुकाबले बिजली जेनरेट करना सस्ता है। उत्तर प्रदेश ग्रामीण क्षेत्रों में एक मेगावॉट से कम के छोटे सौर ऊर्जा संयंत्रों को बढ़ावा देकर अग्रणी भूमिका निभा सकता है। राज्य में 97,000 से अधिक गांव हैं। यदि प्रत्येक गांव में एक से डेढ़ मेगावॉट सौर ऊर्जा की क्षमता के प्लांट स्थापित किए जाते हैं तो सौर ऊर्जा की एक लाख मेगावॉट से अधिक क्षमता की संभावना हम तलाश सकते हैं। इस क्षमता को पाने के लिए निजी निवेशकों का साथ जरूरी है। इसे हासिल करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में विकेंद्रीकृत सौर ऊर्जा के लिए फीड इन टैरिफ प्रणाली को अपनाना होगा। गांव स्तर के छोटे प्लांट के लिए प्रतियोगी नीलामी व्यावहारिक नहीं होगी। इसका मतलब ये है कि राज्य बिजली आयोग से स्वीकृत सरकारी वितरण कंपनियों को ये घोषणा करने की जरूरत है कि अगले दो या तीन साल के लिए वो आकर्षक दामों पर ‘पहले आओ पहले पाओ’ के आधार पर सोलर ऊर्जा खरीदेंगी। अगर कीमत तय हो जैसे 4.50 रुपये प्रति यूनिट तो ग्रिड को सोलर ऊर्जा की आपूर्ति के लिए बड़े पैमाने पर निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए ये बेहतर होगा। अगर तकनीकी नुकसान सहित ट्रांसमिशन की लागत भी शामिल कर ली जाए तो ग्रामीण सबस्टेशन पर 4.50 रुपये प्रति यूनिट, पारंपरिक स्नोतों से बिजली की लागत की तुलना में काफी कम है। इसलिए वितरण कंपनियां विकेंद्रीकृत सौर ऊर्जा खरीदकर आर्थिक रूप से बेहतर होंगी। प्रति यूनिट में सब्सिडी के लिए राज्य सरकार पर किए जाने वाले दावों में भी कमी आएगी। इस दिशा में आगे बढ़ने पर यह अभियान वैश्विक मोर्चे पर अपनी जगह बना सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में निजी निवेश का यह स्तर समृद्धि के साथ साथ रोजगार के अवसर भी पैदा करेगा। कृषि आय को दोगुना करने के लक्ष्य में भी इसका महत्वपूर्ण योगदान होगा। जैसा कि उत्तर प्रदेश के सभी घरों को बिजली प्रदान करने के ऐतिहासिक लक्ष्य को प्राप्त करने की राह पर है, यह इससे जुड़े सभी नए घरों को विश्वसनीय और गुणवत्तापूर्ण आपूर्ति प्रदान करने की दिशा में एक लंबा रास्ता तय करेगा। किसानों को दिन के समय बिजली दी जा सकती थी। यह उनकी दक्षता और भलाई के लिए होगा। इससे खेती के कार्यो में आसानी होगी। उत्तर प्रदेश में देश के दूसरे हिस्सों की तुलना में मवेशी ज्यादा हैं। सभी घरों के पूर्ण विद्युतीकरण और उज्‍जवला कार्यक्रम के तहत ग्रामीण परिवारों को एलपीजी सिलेंडर और कुक स्टोव की व्यवस्था में तेजी के साथ, महिलाओं के लिए गाय के गोबर के उपले और ईंधन की लकड़ी का उपयोग करना जरूरी नहीं होगा। निजी निवेश को ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे सयंत्र स्थापित करने के लिए आकर्षित करना होगा। प्रारंभ में दर उच्च हो सकती है, लेकिन बड़ी मात्र में जेनरेशन के बाद लागत में कमी आ सकती है जैसे सौर पैनल और एलईडी बल्बों के मामले में देखा गया है। ऐसे छोटे संयंत्रों के लिए प्रौद्योगिकी को पहले प्रदर्शित करने की आवश्यकता होती है, यह एक अच्छा विचार हो सकता है कि सहायता एजेंसियों और पीएसयू जैसे एनटीपीसी द्वारा समर्थित सीएसआर और एनजीओ के जरिये प्रयोगात्मक पायलट परियोजनाओं के रूप में ये प्लांट्स स्थापित किए जाएं। इससे हमें पता चलेगा कि यह प्रौद्योगिकी काम कर रही है और इससे यथार्थवादी लागत तय की जा सकती है। उत्तर प्रदेश अपने गांवों में एक लाख मेगावॉट से अधिक सौर ऊर्जा प्राप्त कर सकता है। यह अपने ग्रामीण क्षेत्रों में उन सभी अपशिष्ट बायोमास का उपयोग बिजली पैदा करने के लिए कर सकता है जिसका उपयोग मनुष्यों के लिए भोजन के रूप में, मवेशियों और अन्य पशुधन के लिए नहीं किया जाता। इसके साथ, यह न केवल भारत में, बल्कि विश्व में अक्षय ऊर्जा में पैदा करने में अग्रणी भूमिका निभा सकता है।

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कितना बदल गया दून, छिन गया ‘सांसों’ का सुकून

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कितना बदल गया दून, छिन गया ‘सांसों’ का सुकूनHindiWaterMon, 12/02/2019 - 10:43
Source
दैनिक जागरण, 2 दिसम्बर, 2019

यकीन नहीं होता कि यह वही दून है, जिसे कभी रिटायर्ड लोगों का शहर कहा जाता था। तब जहां भी नजर जाती आम-लीची से लकदक बाग और फसलों से लहलहाते खेत नजर आते थे। फिर वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड बना और दून राजधानी। इसके बाद यहां शहरीकरण की ऐसी अनियंत्रित दौड़ शुरू हुई कि प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का सवाल कोसों पीछे छूट गया।

खेतों व बगीचों में भवन खड़े होने लगे और सड़कों पर वाहनों की रेलमपेल कई गुना बढ़ गई। अब फिजा में धुआं ही धुआं नजर आता है। वायु प्रदूषण की स्थिति मानक से तीन से चार गुना तक पहुंच गई है। पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की वेबसाइट पर सबसे पुराने औसत आंकड़े 2008 के हैं और तब यह स्थिति आज की तुलना में आधी से भी कम (116 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर) थी।

 जिस रिस्पना और बिंदाल नदी को एक दौर में सदानीरा कहा जाता था, वहां अब पानी की जगह गंदगी बह रही है। इन नदियों का पानी मानक से 76 गुना प्रदूषित हो गया है। हरियाली की बात करें तो वर्ष 2000 से 2015 के बीच सरकारी आंकड़ों में ही 30 हजार से अधिक पेड़ काटे डाले गए। हर साल पर्यावरण संरक्षण के नाम पर हजारों पौधे लगाए जाते हैं, मगर उनकी प्रकृति सजावटी प्रजाति के पादपों से आगे नहीं बढ़ पाती। लिहाजा, शहर के 15 किलोमीटर के दायरे में ही तापमान में पांच डिग्री का अंतर पाया गया है। साफ है कि जहां जितनी संख्या में पेड़ कम हैं, वहां का तापमान उतना ही अधिक रहता है।

 पीएम-10 की स्थिति खतरनाक 

दून में धूल-धुएं के कण रेसपायरेबल सस्पेंडेड पार्टिकुलेट मैटर (आरएसपीएम) की मात्र औसत रूप में तीन से चार गुना तक और दैनिक आधार पर ढाई गुना तक पाई गई है। मानकों की बात करें तो आरएसपीएम-10 की मात्र औसत रूप में 60, दैनिक आधार पर 100 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि दून की हवा सेहत के लिए कितनी सुरक्षित रह गई है। हालांकि, यह आंकड़े पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के हैं, जो सीमित स्थलों पर लगे हैं। बोर्ड के समानांतर जब वर्ष 2018 में निजी संगठन गति फाउंडेशन ने शहर के विभिन्न हिस्सों से आंकड़े जुटाए तो प्रदूषण का स्तर और भी ऊपर पाया गया। दूसरी तरफ वर्ष 2017 के अंत में केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड ने देश के तमाम शहरों के वायु प्रदूषण की जो रिपोर्ट संसद में रखी थी, उसमें दून सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में छठे स्थान पर पाया गया।

प्रदूषण नियंत्रण दिवस पर विशेष

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े

स्थल

पीएम-10

पीएम 2.5

आइएस बीटी

243.12

111.06

रायपुर रोड

131.14

67

घंटाघर

171.59

97.36

 

गति फाउंडेशन के आंकड़े

स्थल

पीएम-10

पीएम-21.5

दून अस्पताल

330

240

सहारनपुर चौक

244

256

बल्लीवाला चौक

190

115

नोटः आंकड़े फरवरी 2018 के

 

संसद में रखी गई रिपोर्ट में टॉप शहरों में दून की स्थिति (2007 के अंत में)

शहर

पीएम-10

शहर

पीएम-10

दिल्ली

278

गाजियाबाद

235

वाराणसी

256

फिरौजाबाद

223

बरेली

253

सहारनपुर

218

देहरादून

241

कानपुर

217

 

शहर के तापमान में ऐसे मिला अंतर

क्षेत्र

तापमान

पटेलनगर

39 डिग्री सेल्सियस

किशन नगर चौक

38 डिग्री सेल्सियस

सुभाष नगर

35डिग्री सेल्सियस

एस्लेहॉल चौक

37 डिग्री सेल्सियस

कौलागढ़ क्षेत्र

36 डिग्री सेल्सियस

वाड़िया संस्थान

35डिग्री सेल्सियस

धर्मपुर डांडा

35 डिग्री सेल्सियस

नोटः तापमान मई 2017 के आंकड़े के अनुसार

 

वर्षवार इस तरह पेड़ काटने से भी घटी हरियाली

वर्ष

काटे गए पेड़

वर्ष

काटे गए पेड़

2000

423

2008

521

2001

685

2009

5779

2002

1056

2010

1670

2003

435

2011

3458

2004

454

2012

2827

2005

689

2013

2284

2006

542

2014

4911

2007

4268

2015

950

 

रिस्पना-बिंदाल के पानी की स्थिति

तत्व

मानक

पाई गई मात्रा

तेल-ग्रीस

0.1

11 से 18

टीडीएस

500

740 से 1200

बीओडी

02

126 से 144

डीओ

06 से अधिक

अधिकतम 1.4

लैड

0.1

0.54

नाइट्रेट

20

388 से 453

टोटल कॉलीफार्म

50

1760 से 3800

फीकल कॉलीफार्म

शून्य

516 से 1460

(नोटः टोटल कॉलीफार्म व फीकल कॉलीफार्म की मात्रा एमपीएन/100 एमएल में और अन्य की मात्रा एमजी/लीटर में)

76 गुना प्रदूषित रिस्पना- बिंदाल में टोटल कॉलीफार्म 3800 एमपीए

दून शहर के बीच से होकर गुजरती रिस्पना नदी में दूधली तक गंदगी तैरती नजर आती है,रिस्पना और बिंदाल नदी के पानी में टोटल कॉलीफार्म (विभिन्न हानिकारक तत्वों का मिश्रण) की मात्र 3800 एमपीएन (मोस्ट प्रोबेबल नंबर) पाई गई, जबकि पीने योग्य पानी में यह मात्र प्रति 100 एमएल में 50 से अधिक नहीं होनी चाहिए। जिस फीकल कॉलीफार्म की मात्र शून्य होनी चाहिए, उसकी दर 1460 एमपीएन/100 एमएल पाई गई।

पिछले साल स्पैक्स की ओर से फरवरी में कराई गई नदी के पानी जांच में प्रदूषण का यह स्तर सामने आया था। इसके अलावा नदी के पानी में जहां घुलित ऑक्सीजन (डीओ) की मात्र मानक से बेहद कम पाई गई, वहीं बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) की मात्र बेहद अधिक है। तमाम अन्य हानिकारक तत्वों की मात्र भी सीमा से कोसों अधिक रिकॉर्ड की गई।

 

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घर के अंदर का वायु प्रदूषण भी ले रहा बच्चों की जान, राजस्थान में 67 प्रतिशत मौतें

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घर के अंदर का वायु प्रदूषण भी ले रहा बच्चों की जान, राजस्थान में 67 प्रतिशत मौतेंHindiWaterSat, 12/28/2019 - 12:56

बड़ों की अपेक्षा बच्चे अधिक संवदेनशील होते हैं और जल्दी ही बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। इसी कारण बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर माता पिता चिंतित रहने के साथ ही उनका अधिक ख्याल भी रखते हैं। अधिकांशतः माता पिता बच्चों को अनाश्वयक रूप से घर से बाहर निकलने से भी मना करते हैं, विशेषकर अधिक प्रदूषण वाले शहरों में, ताकि बच्चे प्रदूषण की चपेट में न आए और घर के अंदर स्वस्थ व सुरक्षित रहें। लेकिन सोचिए यदि घर के अंदर ही वायु प्रदूषित हो और बच्चों की मौत का कारण बन रही हो, तो बच्चे कैसे सुरक्षित रह सकते हैं और कैसे देश के खुशहाल भविष्य की कल्पना की जा सकती है ? बच्चे ही नहीं बड़े भी घर के अंदर के वायु प्रदूषण से सुरक्षित नहीं हैं, लेकिन बड़ों की अपेक्षा बच्चे अधिक सांस लेते हैं तथा उनके अंग अधिक संवेदनशील होते हैं, इसलिए वें अधिक बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं और घर के अंदर का ये वायु प्रदूषण भारत में बच्चों की जान तक ले रहा है। इनमें 0 से 5 वर्ष तक की आयु के बच्चे सबसे अधिक प्रभावित हैं। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर), पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआइ) और इंस्टीट्यूट फाॅर हेल्थ मीट्रिक एंड इवोल्यूशन (आइएमएमई) द्वारा किए गए अध्ययन में ये बात सामने आई है। रिपोर्ट में वर्ष 2017 तक के आंकड़ें दिए गए हैं और इस ग्लोबल बर्डन डिजीज स्टडी रिपोर्ट को डाउन टू अर्थ पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।

बच्चों के स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषण का प्रमुख प्रदूषक तत्व पार्टीकुलेट मैटर 2.5 (पीएम 2.5) अधिक प्रभाव डालता है। ये कण इतने महीन होते हैं कि सांस लेने के बाद शरीर के भीतर प्रवेश कर निचले फेफड़ों पर असर डालते हैं। रिपोर्ट के अनुसार देश की राजधानी दिल्ली में 0 से 5 वर्ष की आयु के प्रति एक लाख बच्चों में से 41.81 फीसद और 5 से 14 साल की आयु के 1.23 प्रतिशत बच्चे घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण का शिकार हैं, जबकि भीतरी प्रदूषण से 0.19 प्रतिशत और बाहरी प्रदूषण के कारण 41.62 बच्चे अपनी जान गवा चुके हैं। हरियाणा की स्थिति तो और भी खराब है। यहां 0 से 5 वर्ष के 56.44 प्रतिशत और 5 से 14 वर्ष के 0.99 प्रतिशत बच्चे प्रभावित हैं, जिनमें से 16.3 प्रतिशत बच्चों की मौत हो जाती है, जबकि बाहरी प्रदूषण 40.44 फीसद बच्चों की जान लेता है। पंजाब में 0 से 5 साल की आयु के 39.55 प्रतिशत और 5 से 14 साल की आयु के 0.63 बच्चे भीतरी वायु प्रदूषण का शिकार हैं, जिनमें से 9.41 प्रतिशत बच्चों की मौत हो जाती है, जबकि 30.14 प्रतिशत बच्चों को भीतरी वायु प्रदूषण काल का ग्रास बना देता है। 

मध्य प्रदेश के हालात तो काफी खराब है। यहां 0 से 5 आयु वर्ग के 85.51 प्रतिशत और 5 से 14 वर्ष के 2.42 प्रतिशत बच्चे घरों के भीतर होने वाले वायु प्रदूषण की चपेट में हैं, लेकिन मध्य प्रदेश में दिल्ली, हरियाणा और पंजाब की अपेक्षा भीतरी वायु प्रदूषण अधिक बच्चों की जान ले रहा हैं। रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश में 49.9 प्रतिशत बच्चों की घर के अंदर के और 35.6 प्रतिशत बच्चों की बाहरी प्रदूषण के कारण मौत हो रही है। प्रदूषण से मौत के मामले में राजस्थान में स्थिति भयावह होने के साथ ही चैकाने वाली भी है। यहां भीतरी वायु प्रदूषण से 0 से 5 साल की आयु के 46.28 प्रतिशत और 5 से 14 आयु वर्ग के 2.17 बच्चे प्रभावित हैं, जिनमें से 67.47 प्रतिशत बच्चों की जान भीतरी प्रदूषण ले रहा है, जबकि 58.56 प्रतिशत बच्चों की मौत का कारण बाहरी प्रदूषण है। ऐसा ही कुछ हाल उत्तर प्रदेश का है, जहां आंकड़ें राजस्थान से थोड़ा कम जरूर हैं, लेकिन राहत भरे नहीं। उत्तर प्रदेश में 0 से 5 वर्ष की आयु के 111.58 प्रतिशत और 5 से 14 वर्ष के 2.59 प्रतिशत बच्चे घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण का शिकार हैं, जिनमें घर के अंदर के प्रदूषण से 39.22 प्रतिशत बच्चों की मौत हो रही है, जबकि बाहरी प्रदूषण से 72.66 प्रतिशत बच्चे असमय काल के गाल में समा रहे हैं, जो कि सबसे अधिक है। बिहार में भी बच्चे सुरक्षित और स्वच्छ हवा के लिए संघर्ष कर रहे हैं और यही संघर्ष अधिकांश बच्चांे की जान ले रहा है। रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 0 से 5 वर्ष के 105.95 प्रतिशत और 5 से 14 वर्ष की आयु के 3.46 प्रतिशत बच्चे अंदर होने वाले वायु प्रदूषण का शिकर हैं, जिनमें से 46.63 प्रतिशत बच्चों की जान भीतरी प्रदूषण ले लेता है और बाहरी प्रदूषण से 59.32 प्रतिशत लोगों की मौत हो रही है। 

हिमालयी राज्यों में भी स्थिति खतरनाक

हिमालय को जीवन का आधार माना गया है, जो देश में बहने वाली नदियों का उद्गम स्थल हैं। शहरों की भागदौड़ भरी और प्रदूषणयुक्त जिंदगी से जब लोग परेशानी हो जाते हैं, तो दो वक्त सुकून से बिताने के लिए पहाड़ों का रुख करते हैं। स्वच्छ हवा और वातावरण में यहां की वादियों को आत्मसात कर अलौकिकता का एहसास करते हैं, लेकिन इन वादियों मंे भी जहर घुल रहा है और घर के बाहर ही नहीं, घर के अंदर भी बच्चों के प्राणों को लील रहा है। धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर की बात करें तो यहां 0 से 5 वर्ष के 59.9 और 5 से 14 वर्ष के 1.43 बच्चे घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण का शिकार हैं, जबकि भीतरी वायु प्रदूषण 25.17 प्रतिशत और बाहरी प्रदूषण 34.73 प्रतिशत बच्चों की किलकारियों को इन वादियों के बीच हमेशा के लिए दफन कर देता है। यही हाल हिमाचल प्रदेश का है, जहां 0 से 5 वर्ष के 36.35 और 5 से 14 वर्ष के 0.81 प्रतिशत बच्चे भीतरी वायु प्रदूषण की चपेट में हैं। जिनमें से भीतरी वायु प्रदूषण के कारण 18.7 प्रतिशत और बाहरी वायु प्रदूषण के कारण 17.65 प्रतिशत बच्चों को ठीक से खुशहाली से जीवन जीने अवसर तक प्राप्त नहीं होता और प्रदूषण उन्हें हमेशा के लिए खामोश कर देता है। देवभूमि उत्तराखंड में मानों वायु प्रदूषण काल बना हुआ हो। यहां भीतरी वायु प्रदूषण की चपेट में 0 से 5 वर्ष के 46.28 प्रतिशत और 5 से 14 साल के 1.07 प्रतिशत बच्चे हैं, जिनमें से 14.47 प्रतिशत बच्चांे की मौत का कारण भीतरी प्रदूषण है, तो बाहरी प्रदूषण 29.82 प्रतिशत बच्चों की जान लेता है। 

हालाकि देश में भर वायु प्रदूषण से निपटने के लिए वृहद स्तर पर कवायद शुरू हो चुकी है। सरकार विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत के प्रयासों का बखान करती है, लेकिन धरातल पर शासन और प्रशासन के प्रयास नाकाफी नजर आते हैं, जिस कारण बच्चों से उनका बचपन तो दूर, जीवन की छिन रह है। घरों की दहलीज सुनसान पड़ रही है और हर साल वायु प्रदूषण के कारण भारत में 12 लाख से अधिक घरों का चिराग बुझ जाता है। ऐसे में हम कैसे एक खुशहाल भारत की कल्पना कर सकते हैं। इसके समाधान के लिए सरकार को जल्द कोई उपाय करना होगा, वरना देश का भविष्य कहा जाने वाले बच्चों के लिए अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो जाएगा। 

लेखक - हिमांशु भट्ट

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भारतवर्ष की नदियों के नामकरण का अध्ययन

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भारतवर्ष की नदियों के नामकरण का अध्ययनHindiWaterSat, 12/28/2019 - 14:24
Source
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की

सारांश

देश में उपलब्ध सतही जल संसाधनों में नदियों का स्थान सर्वोपरि है। देश में उपलब्ध सतही जल का अधिकांश भाग हमें नदियों के द्वारा प्राप्त होता है। भारत की नदियों का देश के आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास में प्राचीनकाल से ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सिन्धु तथा गंगा नदियों की घाटियों में ही विश्व की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यताओं-सिन्धु घाटी तथा आर्य सभ्यता का आविर्भाव हुआ। आज भी देश की सर्वाधिक जनसंख्या एवं कृषि का संकेन्द्रण नदी घाटी क्षेत्रों में पाया जाता है। प्राचीन काल में व्यापारिक एवं यातायात की सुविधा के कारण देश के अधिकांश नगर नदियों के किनारे ही विकसित हुए थे तथा आज भी देश के लगभग सभी धार्मिक स्थल किसी न किसी नदी से सम्बद्ध हैं।

नदियों के देश कहे जाने वाले भारत के नदी तंत्र को मुख्यतः चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता हैं। (1) हिमालय से निकलने वाली नदियाँ, (2) दक्षिण प्रायद्वीप की नदियाँ, (3) तटवर्ती नदियां एवं (4) अंतर्देशीय नालों से द्रोणी क्षेत्र की नदियाँ। उत्तरी भारत में सिंधु, मध्य भारत में गंगा, उत्तर-पूर्व भारत में ब्रह्मपुत्र तथा प्रायद्वीपीय भारत में नर्मदा, कावेरी, महानदी आदि नदियां विस्तृत नदी प्रणाली का निर्माण करती हैं। देश की अधिकांश नदियों को उनकी स्थिति, व्यवहार एवं पौराणिक किवदंतियों के आधार पर उनके मूल नामों के साथ-साथ अन्य पौराणिक एवं वैकल्पिक नामों से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त देश की अनेकों नदियों के नाम भौतिक विशिष्टताओं, रंग, स्थलाकृति आदि से भी सम्बद्ध हैं। प्रस्तुत प्रपत्र में देश की प्रमुख नदियों के मूल, पौराणिक एवं वैकल्पिक नामों को वर्णित किया गया है।

Abstract

Rivers have served as the life line for mankind and play an important role in the available water resources of the country. Rivers carry a major part of available water resources as surface water and play an important role in the economic & social development of the country. From the ancient period of India, the oldest civilization such as Indus valley civilization and Aryan Civilization were developed on the banks of Indus and Ganga River basins. Presently, the maximum development of population as well as agriculture is being developed in the river valleys in India. Due to the trade & transport facilities during the ancient time, the major cities were developed on the banks of the rivers and today almost all the religious places of the country are located on the banks of any river.

Based on the topography, the river system of India can be classified into four groups. These are (i) Himalayan rivers, (ii)Deccan Rivers, (iii) Coastal Rivers and (iv) Rivers of the inland drainage basin. Indus river system in north India, Ganga River in Central India, Brahmaputra in North – East part of the Country and Narmada, Cauvery, Mahanadi etc rivers of peninsular part of are the major river systems of India.

Naming of rivers is as interesting topic and the Indian rivers are known from different mythological as well as other names based on their life, culture and behavior etc. In the present paper, different mythological and other names of Indian rivers in addition to their original names have been described.

प्रस्तावना

संस्कृतियां समय और समाज का प्रमाणिक आइना होती हैं। यूँ तो पर्वत, नभ, भूमि, वनस्पति, नदी जैसी प्राकृतिक संरचनाएं मानवों की उत्पत्ति से लेकर संस्कृतियों के विकास तक थी, लेकिन यही संस्कृतियाँ हमे विश्व के किस भूखण्ड के लोग, किस कालखण्ड में प्रकृति की किस रचना को किस नजरिए से देखते, ये समझने में हमे मदद करती हैं। सबसे अहम बात विश्व की संस्कृतियों का विकास किसी ना किसी नदी के किनारे ही हुआ है। जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो यह मूल रूप से वैदिक संस्कृति और वैदिक संस्कृति के चार मूल ग्रंथ-ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद और सामवेद के इर्द-गिर्द ही घूमती प्रतीत होती है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति में नदियों का खासा महत्त्व रहा है। विश्व की संस्कृतियों का विकास किसी ना किसी नदी के तट पर ही हुआ है। शायद इसलिए भारतीय सामाजिक संस्कृति को भी हम गंगा-जमुनी संस्कृति कहते हैं। चित्र-1 में भारतवर्ष की प्रमुख नदियों का चित्रण किया गया है।

चित्र -1ः भारतवर्ष की प्रमुख नदियाँ

नदियों के देश कहे जाने वाले भारत के नदी तंत्र को मुख्यतः चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता हैं। (1) हिमालय से निकलने वाली नदियाँ, (2) दक्षिण प्रायद्वीप की नदियाँ, (3) तटवर्ती नदियाँ एवं (4) अंतर्देशीय नालों से द्रोणी क्षेत्र की नदियाँ। उत्तरी भारत में सिंधु, मध्य भारत में गंगा, उत्तर-पूर्व भारत में ब्रह्मपुत्र तथा प्रायद्वीपीय भारत में नर्मदा कावेरी महानदी आदि नदियाँ विस्तृत नदी प्रणाली का निर्माण करती हैं। देश की अधिकांश नदियों को उनकी स्थिति, व्यवहार एवं पौराणिक किवदंतियों के आधार पर उनके मूल नामों के साथ-साथ अन्य पौराणिक एवं वैकल्पिक नामों से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त देश की अनेकों नदियों के नाम भौतिक विशिष्टताओं, रंग, स्थलाकृति आदि से भी सम्बद्ध हैं। देश की प्रमुख नदियों के मूल, पौराणिक एवं वैकल्पिक नामों को निम्न खण्डों में वर्णित किया गया है।

हिमालय से निकलने वाली नदियाँ

गंगा नदी

गंगा नदी भारतवर्ष की सर्वाधिक पवित्र नदियों में से एक है। हिन्दुओं में गंगा नदी देवी के सामान पूज्यनीय है तथा इसे लोग गंगा माँ के नाम से पुकारते हैं। भारतवर्ष में गंगा शब्द को शुद्ध जल का पर्याय माना जाता है। गंगा नदी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेकों पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं। जिनके आधार पर गंगा नदी को विष्णुपदी, भागीरथी, पाताल गंगा, जाह्नवी, मंदाकिनी, देवनदी, सुरसरी, त्रिपथगा इत्यादि विभिन्न नामों से जाना जाता है। चित्र-2 में गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं उनकी सहायक नदियों को दर्शाया गया है।

पुराणों के अनुसार गंगा नदी की उत्पत्ति भगवान विष्णु के चरणों से उत्पन्न पसीने से हुई है, इस कथा के अनुसार भगवान् विष्णु के चरणों से उत्पन्न पसीने को ब्रह्माजी ने अपने कमंडल में भर लिया तथा इस एकत्रित जल से गंगा की उत्पत्ति की। जिसके कारण इसे विष्णुपदी के नाम से जाना जाता है।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार राजा भागीरथ के पूर्वज द्वारा राजा सागर के साठ हजार पुत्र ऋषि अगस्त के श्राप द्वारा भस्म हो गए थे। जिनके उद्धार हेतु राजा भागीरथ ने कठोर तप कर ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। राजा भागीरथ के तप के परिणामस्वरूप ब्रह्माजी ने राजा सागर के पुत्रों के उद्धार हेतु गंगा को पृथ्वी पर अवतरित होने की अनुमति प्रदान की। राजा भागीरथ के द्वारा पृथ्वी पर गंगा को लाने के कारण इसे भागीरथी के नाम से जाना जाता है।

राजा भागीरथ के द्वारा गंगा के उद्गम के सम्बन्ध में पौराणिक कथाओं के अनुसार यह कहा जाता है कि जब गंगा भागीरथ के प्रयासों से पृथ्वी पर अवतरित हुई तो उनके तीव्र वेग से ऋषि जाह्नु की तपस्या में विघ्न उत्पन्न हुआ। ऋषि जाह्नु ने क्रोध में गंगा के सम्पूर्ण जल को पी लिया। बाद में देवताओं की प्रार्थना पर इस नदी को अपने कर्ण मार्ग से मुक्त कर दिया। अतः गंगा नदी को ऋषि जाह्नु की पुत्री जाह्नवी के नाम से भी जाना जाता है।

महाभारत में गंगा नदी को अर्जुन द्वारा भूजल से उद्गमित करने का वृत्तांत भी मिलता है। यह वर्णित किया गया है कि मृतु शैया पर लेटे भीष्म पितामह की आज्ञा से अर्जुन ने तीर द्वारा भूजल को पृथ्वी पर लाकर उनकी प्यास बुझाई। अर्जुन के इस कार्य द्वारा गंगा भूजल से पृथ्वी पर अवतरित हुई, जिसके कारण गंगा को पाताल गंगा के नाम से भी जाना जाता है।

चित्र -2ः गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं उनकी सहायक नदियाँ

ऋग्वेद में गंगा को पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में वर्णित किया गया है। महाभारत के अनुसार गंगा को राजा शांतनु की पत्नी तथा भीष्म पितामह की माता के रूप में जाना जाता है।
गंगा नदी का उद्गम उत्तराखंड के गंगोत्री हिमनद के देवनज (गोमुख) से माना जाता है। अलकनंदा तथा भागीरथी धाराओं के देवप्रयाग में संगम से बनी नदी को गंगा नदी के रूप में जाना जाता है।

अलकनंदा एवं भागीरथी नदी एवं पंच प्रयाग

उत्तराखंड के चार धामों में गंगा की कई धाराएं उद्गमित होती हैं। गंगोत्री से उद्गमित होने वाली गंगा की धारा को भागीरथी, केदारनाथ से उद्गमित होने वाली धारा को मंदाकिनी और बद्रीनाथ से उद्गमित होने वाली धारा को अलकनन्दा के नाम से जाना जाता है। अलकनंदा नदी का पौराणिक नाम विष्णुगंगा है। वास्तव में अलकनंदा नदी देवप्रयाग में भागीरथी से संगम के पश्चात ये दोनों नदियां गंगा में परिवर्तित होती हैं। उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में भागीरथी एवं अलकनंदा नदियों को क्रमशः सास-बहू के रूप में जाना जाता है। अपने कोलाहल भरे प्रवाह के कारण भागीरथी नदी सास एवं अलकनंदा नदी को बहू के रूप में प्रसिद्ध हैं। अपने उदगम से भागीरथी में संगम तक अलकनंदा नदी में पांच विभिन्न नदियाँ मिलती हैं जिसके कारण उत्तराखंड में इस क्षेत्र को पंच प्रयाग कहा जाता है। प्रयाग उस स्थल को कहते है जहां दो नदियों का संगम होता है। उत्तराखंड के पंच प्रयाग क्षेत्र में अलकनंदा नदी में विभिन्न स्थलों पर क्रमशः विष्णुगंगा, नंदाकिनी, पिंडर, मंदाकिनी, एवं भागीरथी नदियों का संगम होता है। इन स्थलों को क्रमशः विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग एवं देवप्रयाग के नाम से जाना जाता है। अलकनंदा नदी का उद्गम सतोपंथ हिमनद है।

यमुना नदी

यमुना नदी को भारत की पवित्रतम नदियों में से एक है। इस नदी को देवी का रूप माना जाता है। पुराणों में यमुना नदी के नाम देवियों के नाम पर ऐशिता, आशिता, असीता, भानुजा, सूर्यतन्या, तरानिजा, आदि वर्णित किये गए हैं। इस नदी का उद्गम उत्तराखंड के यमुनोत्री नामक स्थान से हुआ है जो उत्तराखंड के चार धामों में से एक है। कालिंदी पर्वत से उद्गमित होने तथा नदी के जल का रंग काला होने के कारण कादंबरी में इस नदी को कालिंदी नदी के नाम से भी वर्णित किया गया है। यमुना नदी गंगा नदी की प्रमुख सहायक नदी है, एवं पुराणों में इसे गंगा की छोटी भगिनी के रूप में वर्णित किया गया है। इस नदी को जमुना के नाम से भी जाना जाता है।

यमुना नदी को सूर्य एवं छाया की पुत्री एवं मृत्यु के देव यम की छोटी भगिनी के रूप में वर्णित किया गया है। यह कहा गया है कि सूर्य की पत्नी छाया के श्यामल वर्ण के कारण यमुना एवं उनके अग्रज यमराज का रंग भी श्यामल है। यमुना नदी को यमराज से यह वरदान प्राप्त है कि भाई दूज के दिन जो व्यक्ति यमुना में स्नान करेगा उसके ऊपर से अकाल मृत्यु का संकट दूर हो जाता है।

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार यमुना को भगवान श्री कृष्ण की पत्नी माना जाता है। इस सम्बन्ध में सुखसागर में वर्णन मिलता है, कि जब श्री कृष्ण जन्म के समय वासुदेव कृष्ण को लेकर गोकुल जा रहे थे, तो यमुना अपने रौद्र रूप में थी, परन्तु श्री कृष्ण के चरण स्पर्श कर वह शांत हो गयी और सामान्य रूप में प्रवाहित होने लगी। जहाँ भगवान श्री कृष्ण ब्रज संस्कृति के जनक कहे जाते हैं, वहाँ यमुना इसकी जननी मानी जाती है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार मथुरा नगरी के निकट कालिया नामक एक विशाल नाग यमुना नदी में अपने परिवार के साथ रहता था, जिसके कारण नदी का जल विषैला हो गया था। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने यमुना में घुसकर कालिया मंथन कर इस नाग को यमुना छोड़कर समुद्र में जाने पर विवश कर दिया था। इस प्रकार यमुना नदी को सच्चे अर्थों में ब्रजवासियों की माता माना जाता है। ब्रज में इसे यमुना मैया कहते हैं।

सरस्वती नदी

सरस्वती नदी पौराणिक हिन्दू ग्रन्थों तथा ऋग्वेद में वर्णित मुख्य नदियों में से एक है। ऋग्वेद में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। ऋग्वेद के अनुसार सरस्वती नदी को अम्बितम (माताओं में श्रेष्ठ), नदितम (नदियों में श्रेष्ठ) एवं देवितम (देवियों में श्रेष्ठ) नामों से वर्णित किया गया है। सरस्वती नदी को मानवीकृत रूप में देवी सरस्वती का स्वरुप माना जाता था। हिन्दू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार सरस्वती नदी को भगवान् नारायण की पत्नी माना गया है, जो श्राप के कारण पृथ्वी पर अवतरित हुई। यह कहा जाता है कि सरस्वती नदी स्वर्ग में बहने वाली दूधिया नदी है, जिसके पृथ्वी पर अवतरित होने के पश्चात यह नदी मानव मात्र के लिए मृत्यु के पश्चात मोक्ष पाने का एक द्वार है।

ऋग्वेद के नदी सूत्र के एक मंत्र में सरस्वती नदी को श्यमुना के पूर्वश् और श्सतलुज के पश्चिमश् में बहती हुई बताया गया है, उत्तर वैदिक ग्रंथों, जैसे ताण्डय और जैमिनीय ब्राह्मण में सरस्वती नदी को मरुस्थल में सूखा हुआ वर्णित किया गया है, महाभारत में भी सरस्वती नदी के मरुस्थल में श्विनाशनश् नामक जगह पर विलुप्त होने का वर्णन मिलता है। महाभारत में सरस्वती नदी के प्लक्षवती नदी, वेदस्मृति, वेदवती आदि कई नाम हैं। महाभारत, वायु पुराण आदि में सरस्वती के विभिन्न पुत्रों के नाम और उनसे जुड़े मिथक प्राप्त होते हैं। महाभारत के शल्य-पर्व, शांति-पर्व, या वायुपुराण में सरस्वती नदी और दधीचि ऋषि के पुत्र सम्बन्धी मिथक थोड़े थोड़े अंतरों से मिलते हैं।

संस्कृत महाकवि बाण भट्ट के ग्रन्थ श्हर्षचरितश् में दिए गए वर्णन के अनुसार एक बार बारह वर्ष तक वर्षा न होने के कारण ऋषिगण सरस्वती का क्षेत्र त्याग कर इधर-उधर हो गए, परन्तु माता के आदेश पर सरस्वती-पुत्र, सारस्वतेय वहाँ से कहीं नहीं गया। फिर सुकाल होने पर जब तक वे ऋषि वापस लौटे तो वे सब वेद आदि भूल चुके थे। उनके आग्रह का मान रखते हुए सारस्वतेय ने उन्हें शिष्य रूप में स्वीकार किया और पुनः श्रुतियों का पाठ करवाया। अश्वघोष ने अपने बुद्धचरितश्काव्य में भी इसी कथा का वर्णन किया है।

यह कहा जाता है कि सरस्वती नदी प्राचीन काल में सर्वदा जल से भरी रहती थी और इसके किनारे अन्न की प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होता थो। यह नदी पंजाब में सिरमूर राज्य के पर्वतीय भाग से निकलकर अंबाला तथा कुरुक्षेत्र होती हुई कर्नाल जिला और पटियाला राज्य में प्रविष्ट होकर सिरसा जिले की दृशद्वती (कांगार) नदी में मिल गई थी। यह कहा जाता है कि प्रयाग के निकट तक आकर यह गंगा तथा यमुना में मिलकर त्रिवेणी बन गई थी। कालांतर में यह इन सब स्थानों से तिरोहित हो गई, फिर भी लोगों की धारणा है कि प्रयाग में वह अब भी अंतरूसलिला होकर बहती है। मनुसंहिता से स्पष्ट है कि सरस्वती और दृषद्वती के बीच का भू-भाग ही ब्रह्मावर्त कहलाता था। इस नदी को घघ्घर, रक्षी, चित्तग नामों से भी जाना जाता है।

राम गंगा नदी

रामगंगा नदी गंगा नदी की सहायक नदी है। स्कंदपुराण के मानसखण्ड में रामगंगा नदी का उल्लेख रथवाहिनी के नाम से हुआ है। इसके रहस्य व महत्व सारगर्भित पाये जाते हैं। उनमें से एक तथ्य, मानसखण्ड के उल्लेखानुसार द्रोणागिरी यानि दूनागिरी के दो श्रंगों ब्रह्मपर्वत व लोध्र पर्वत (भटकोट) के मध्य से रथवाहिनी नदी का उद्गम हुआ है। इन्हीं पौराणिक ग्रंथों में लोध्र-पर्वत शिखर (भटकोट) को जमदाग्नि ऋषि (परशुराम) की तपोभूमि बताया गया है। इसी कारण परशुराम के नाम पर ही इसका नाम रथवाहिनी पड़ा, जो बाद में परिवर्तित होकर रामगंगा हो गया।

उत्तराखण्ड के हिमालयी पर्वत श्रृंखलाओं के कुमाऊँ मण्डल के अन्तर्गत अल्मोड़ा जिले के दूनागिरी (पौराणिक नाम द्रोणगिरी) से इस नदी का उद्गम होता है। रामगंगा नदी अपने उद्गम के पश्चात पहाड़ी तथा मैदानी क्षेत्रों की यात्रा करने के पश्चात कन्नौज के निकट गंगा नदी की सहायक नदी के रूप में गंगा नदी में मिल जाती है। रामगंगा नदी पर कालागढ़ नामक स्थान पर एक बाँध बनाया गया है, जहॉं बिजली का उत्पादन तथा सिंचाई के लिए जल संचय किया जाता है।

घाघरा या सरयू नदी

घाघरा नदी का उद्गम दक्षिणी तिब्बत के मापचाचुंग ग्लेशियर से हुआ है, जहाँ इसे गोग्रा एवं कर्णाली के नाम से जाना जाता है। इसे ‘सरयू नदी’, सरजू, शारदा, आदि नामों से भी जाना जाता है। सरयू नदी वैदिक कालीन नदी है जिसका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। सरयू नदी को बौद्ध ग्रंथों में सरभ के नाम से पुकारा गया है। इतिहासविद् कनिंघम ने अपने एक मानचित्र पर इसे मेगस्थनीज द्वारा वर्णित सोलोमत्तिस नदी के रूप में चिन्हित किया है और ज्यादातर विद्वान टालेमी द्वारा वर्णित सरोबेस नदी के रूप में मानते हैं।

पुराणों में वर्णित है कि सरयू नदी भगवान विष्णु के नेत्रों से प्रकट हुई है। आनंद रामायण में उल्लेख है कि प्राचीन काल में शंकासुर दैत्य ने वेद को चुरा कर समुद्र में डाल दिया और स्वयं वहां छिप गया था। तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण कर दैत्य का वध किया था और ब्रह्मा को वेद सौंप कर अपना वास्तविक स्वरूप धारण किया। उस समय हर्ष के कारण भगवान विष्णु की आंखों से प्रेमाश्रु टपक पड़े। ब्रह्मा ने उस प्रेमाश्रु को मानसरोवर में डाल कर उसे सुरक्षित कर लिया। इस जल को महापराक्रमी वैवस्वत महाराज ने बाण के प्रहार से मानसरोवर से बाहर निकाला। यही जलधारा सरयू नदी कहलाई।

रामायण में वर्णित है कि सरयू अयोध्या से होकर बहती है। रामचरित मानस में तुलसीदास ने इस नदी का गुणगान किया है। मत्स्य पुराण के अध्याय 121 और वाल्मीकि रामायण के 24वें सर्ग में इस नदी का वर्णन है। वामन पुराण के 13वें अध्याय, ब्रह्म पुराण के 19वें अध्याय और वायु पुराण के 45वें अध्याय में गंगा, यमुना, गोमती, सरयू और शारदा आदि नदियों का हिमालय से प्रवाहित होना बताया गया है।

घाघरा नाम संस्कृत शब्द घग्घर से लिया गया है। घग्घर शब्द का अर्थ है जल की गड़गड़ाहट की आवाज। वास्तव में इस नदी के जल प्रवाह से इसी प्रकार की आवाज सुनाई देती है, जिसके कारण इस नदी का नाम घाघरा पड़ा। यह नदी हिमालय से निकलकर बलिया और छपरा के बीच में गंगा में मिल जाती है।

गोमती नदी

गोमती नदी गंगा नदी की सहायक नदी है। पुराणों के अनुसार गोमती नदी को ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की पुत्री माना गया है। पुराणों के अनुसार एकादशी को इस नदी में स्नान करने से मानव के संपूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार गोमती भारत की उन पवित्र नदियों में से है जो मोक्ष प्राप्ति का मार्ग हैं। पौराणिक मान्यता ये भी है कि रावण वध के पश्चात श्ब्रह्महत्यश् के पाप से मुक्ति पाने के लिये भगवान श्री राम ने भी अपने गुरु महर्षि वशिष्ठ के आदेशानुसार इसी पवित्र पावन आदि-गंगा गोमती नदी में स्नान किया था एवं अपने धनुष को भी यहीं पर धोया था और स्वयं को ब्राह्मण की हत्या के पाप से मुक्त किया था, लोगों का मानना है कि जो भी व्यक्ति गंगा दशहरा के अवसर पर यहां स्नान करता है, उसके सभी पाप आदि गंगा गोमती नदी में धुल जाते हैं। गोमती नदी का उद्गम उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले से हुआ है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ इस नदी के किनारे बसी हुई है। यह वाराणसी के निकट सैदपुर के पास कैथी नामक स्थान पर गंगा में मिल जाती है।

गंडक नदी

गण्डकी नदी, नेपाल और बिहार में बहने वाली गंगा की एक प्रमुख सहायक नदी है, जिसे बड़ी गंडक या केवल गंडक भी कहा जाता है। इस नदी को नेपाल एवं बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में सालिग्रामिनी या सालग्रामी, नारायणी और सप्तगण्डकी नामों से पुकारा जाता है। रामायण में इस नदी को कलिमही के नाम से वर्णित किया गया है। यूनानी के भूगोलवेत्ताओं की कोंडोचेट्स (ज्ञवदवकवबींजमे) तथा महाकाव्यों में उल्लिखित सदानीरा भी यही है। रामायण में इस नदी को कालीमही के नाम से संबोधित किया गया है।

पौराणिकताओं के अनुसार इस नदी की उत्पत्ति भगवान विष्णु के गंडे (ब्ीमंा) से उत्पन्न पसीने से हुई है। जिसके कारण इस नदी को गंडक नदी के नाम से जाना जाता है। महाभारत सभा पर्व में इस नदी को श्गंडकश् कहा गया है। गंडक देश विदेह या वर्तमान मिथिला के निकट प्रतीत होता है। गण्डकी हिमालय से निकलकर दक्षिण-पश्चिम बहती हुई भारत में प्रवेश करती है। नेपाल में इस नदी को काली नदी के नाम से भी जाना जाता है। त्रिवेणी पर्वत के पहले इसमें एक सहायक नदी त्रिशूलगंगा मिलती है। उत्तर प्रदेश तथा बिहार की सीमा में रहते हुए यह नदी पटना के पास गंगा नदी में समाहित हो जाती है।

पार्जिटर के अनुसार इस नदी को सदानीरा के नाम से भी जाना जाता है। सदानीरा जिसका उल्लेख प्राचीन साहित्य में अनेक बार आया है, संभवतरू गंडकी ही है। सदानीरा कोसल और विदेह की सीमा पर बहती थी। गंडकी का एक नाम श्महीश् भी कहा गया है। विसेंट स्मिथ ने श्महापरिनिव्वान सुत्तंतश् में उल्लिखित श्हिरण्यवतीश् का अभिज्ञान गंडक से किया है। यह नदी मल्लों की राजधानी के उद्यान शालवन के पास बहती थी।बुद्धचरित के अनुसार कुशीनगर मे। निर्वाण से पूर्व तथागत ने हिरण्यवती नदी में स्नान किया था।

कोसी नदी

कोसी नदी का उद्गम प्रारंभिक रुप से अरुणा, तमोर, सन कोशी, दूध कोशी, भोत कोशी, तम कोशी, लिखू खोला एवं इन्द्रावती नामक सात धाराओं के संगम से हुआ है जो नेपाल, हिमालय तथा कंचनजंगा पर्वत से निकलती है, जिसके कारण कोशी नदी को सप्तकोशी के नाम से भी जाना जाता है। रामायण के अनुसार इस नदी का नाम कौशिकी था। इस नदी का कौशिकी नाम ऋषि विश्वामित्र के छोटी भगिनी के नाम पर पडा। पौराणिक मान्यता है कि विश्वामित्र को इसी नदी के किनारे ऋषि का दर्जा मिला था। वे कुशिक ऋषि के शिष्य थे और उन्हें ऋग्वेद में कौशिक भी कहा गया है। कहा जाता है, कि कौशिकी को अपने अग्रज ऋषि विश्वामित्र के सामान ही शीघ्र क्रोध आ जाता था। कोसी नदी अपने मार्ग परिवर्तन एवं बाढ़ के लिए प्रसिद्ध है।

चंबल नदी

चंबल नदी मध्य भारत में यमुना नदी की सहायक नदी है। यह नदी मध्यप्रदेश के श्जानापाव पर्वतश् महू से उद्गमित होतीहै। इस नदी का वर्णन महाभारत में मिलता है। महाभारत ग्रन्थ में इस नदी को चर्मनवती या चरमावती के नाम से वर्णित किया गया है। चर्मावती का अर्थ है चमड़ा, यह कहा जाता है कि इस नदी के तट पर प्राचीन काल में चमड़ा सुखाया जाता था। पुराणों के अनुसार प्राचीन काल में राजा रतिदेव द्वारा स्वर्ग की कामना के लिए इस नदी के तट पर पशुओं की बलि दी जाती थी, जिसके परिणामस्वरूप इस नदी का रंग लाल हो गया था। पशुओं की त्वचा को इस नदी के तट पर सुखाने के कारण यह नदी चमड़े वाली नदी के नाम से भी प्रसिद्ध हुई एवं इसका नाम चरमावती पड़ा।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार सरस्वती नदी क्षेत्र से विस्थापित लोग इस नदी के तट पर बस गए थे। तेलगू जैसी कुछ द्रविण भाषाओं के साथ साथ संस्कृत भाषा में चम्बल शब्द का शाब्दिक अर्थ मतस्य है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार इस नदी के तट पर कुछ मत्स्य शासकों ने अपने शासन का उद्गम इस नदी तट पर किया।

चर्मनवती या चरमावती नदी की दक्षिणी सीमा महाभारत काल के पांचाल राज्य से मिलती थी। महाभारत के अनुसार राजा द्रुपद ने दक्षिणी पांचाल राज्य पर चर्मनवती या चरमावती नदी के तट तक शासन किया। इस नदी के बारे में यह कथा प्रचलित है कि कुंती ने अपने नवजात पुत्र को एक टोकरी में रखकर इस नदी में प्रवाहित कर दिया था। नवजात पुत्र सहित वह टोकरी प्रवाहित होते होते गंगा तट पर स्थित अंग राज्य की राजधानी चम्पापुरी पहुँची जहां कर्ण का बचपन व्यतीत हुआ।

बनास नदी

राजसमंद जिले के अरावली पर्वत श्रेणियों में कुंभलगढ़ के पास श्खमनोर की पहाडीश् से उद्गमित होने वाली बनास नदी एक पौराणिक नदी है, जिसका वर्णन पुराणों में वशिष्ठी नाम से मिलता है। इस नदी तट को भगवान परशुराम की तप स्थली, कर्म स्थली के रूप में वर्णित किया गया है। यह नदी अरावली पर्वत में बन$आस अर्थात बनास अर्थात (वन की आशा) के रूप में जानी जाती है। इसका उद्गम वेरों का मठ है, जो वीरों के मठ से अपभ्रंश हुआ है। दानवीर कर्ण को परशुराम ने यहीं शस्त्रशिक्षा दी थी। पूर्वोत्तर दिशा में बहती हुई चांडार के पास रामेश्वर घाट संगम में चम्बल (चर्मण्वती) में बनास का विलय होता है। पुराणों के अनुसार इसके किनारे मंदार वन था। अब वहां मंडावर गांव बसा है, सुरसर नाम का सरोवर अब सिरस गांव हो गया है।

बेतवा नदी

बेतवा नदी यमुना की एक सहायक नदी है जिसका उद्गम मध्य प्रदेश में है। बेतवा प्राचीन नदियों में से एक मानी गयी है। प्राचीन काल में बेतवा नदी को वेत्रवती के नाम से जाना जाता था। यह माना जाता है कि प्राचीन काल में यहाँ बेंत (संस्कृत में वेत्र) पैदा होता होगा, जिसके कारण इस नदी का नाम पड़ा था। संस्कृत के महाकवि बाणभट्ट ने कादम्बरी और कालिदास ने मेघदूत में भी वेत्रवती नदी का उल्लेख किया है।

पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार ‘सिंह द्वीप नामक एक राजा ने देवराज इन्द्र से शत्रुता का बदला लेने के लिए कठिन तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर वरुणदेव की पत्नी वेत्रवती मानुषी नदी का रूप धारण कर उसके पास आयी और बोली- मै वरुण की स्त्री वेत्रवती आपको प्राप्त करने आयी हूँ। स्वयं भोगार्थ अभिलिषित आयी हुई स्त्री को पुरुष स्वीकार नहीं करता, वह नरकगामी और घोर ब्रह्मपातकी होता है। इसलिए हे महाराज! कृपया मुझे स्वीकार कीजिये।’ राजा ने वेत्रवती की प्रार्थना स्वीकार कर ली तब वेत्रवती के पेट से यथा समय 12 सूर्यों के समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ जो वृत्रासुर नाम से जाना गया। जिसने देवराज इन्द्र को परास्त करके सिंह द्वीप राजा की मनोकामना पूर्ण की।

सोन नदी

सोन नदी गंगा की प्रमुख सहायक नदी है, जो अमरकंटक पहाड़ी से उद्गमित होकर मध्यप्रदेश तथा बिहार में बहती हुई पटना में गंगा में समाहित हो जाती है। इसे स्वर्ण नदी एवं सोहन नदी के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन काल में सोन नदी को सुषोमा के नाम से जाना जाता था। अमरकोश में इस नदी को हिरन्यवाहा के नाम से भी जाना जाता है। सोन नदी की बालू (रेत) पीले रंग की है जो सोने की तरह चमकती है। जिसके कारण इस नदी का नाम सोन पड़ा। इस नदी का रेत भवन निर्माण आदि के लिए बहुत उपयोगी है तथा इसका उपयोग पूरे बिहार के साथसाथ उत्तर प्रदेश में भी भवन निर्माण के लिए किया जाता है, इस नदी पर बाण सागर परियोजना एवं रिहंद परियोजना संचालित है।

बागमती नदी

बागमती नदी नेपाल और भारत की एक बहुत महत्त्वपूर्ण नदी है। पुराणों के अनुसार बागमती नदी को विष्णुपुराण में बागवती, स्वयम्भू एवं वर्धपुराण में बागमती एवं बौध साहित्य में बाचमती के नामों से वर्णित किया गया है। विनय पत्रिका एवं नन्दबग्गा में इस नदी का वग्गुमुदद्दा के नाम से भी वर्णन प्राप्त होता है जो वज्जी राज्य की सीमाओं में प्रवाहित होती थी। वर्तमान समय में इसी वग्गुमुदद्दा नदी को वागमती के नाम से जाना जाता है। नेपाल के तराई क्षेत्र में इस नदी के तट पर बहुतायत में बाघों (जपहमत) के पाए जाने के कारण विपत्ति द्वारा इस नदी को बाघवती का नाम भी दिया गया था। बत्थासुत्तानता में इस नदी को बाहुमती के नाम से वर्णित किया गया है।

नेपाली सभ्यता में इस नदी का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दुओं एवं बौद्धों में इस नदी को पवित्र एवं पूज्यनीय माना जाता है तथा गंगा के समान ही इस नदी के तट पर मृत्यु के पश्चात दाह संस्कार किया जाता है। यह कहा जाता है कि मृत्यु के पश्चात मृत शरीर की बागमती के जल में तीन डुबकी लगाने से मनुष्य पृथ्वी पर आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है।

नेपाल का सबसे पवित्र तीर्थ स्थल पशुपतिनाथ मंदिर भी इसी नदी के तट पर अवस्थित है। इस नदी का उद्गम स्थान बागद्वार है। काठमांडू के टेकु दोभान में विष्णुमति नदी इसमें समाहित होती है।यह नदी अंततः बूढी गंडक नदी मैं मिल जाती है।

काली नदी

पिथौरागढ़ जिले में काली गंगा के नाम से प्रचलित यह नदी गंगा नदी की सहायक नदी है। इसे शारदा नदी के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता कि देवी काली के नाम से इसका नाम काली गंगा पड़ा। काली नदी का उद्गम भारत के उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़ जिले में 3600 मीटर की ऊँचाई पर स्थित कालापानी नामक स्थान से होता है है। इस नदी का नाम काली माता के नाम पर पड़ा जिनका मंदिर कालापानी में लिपु-लेख दर्रे के निकट भारत और तिब्बत की सीमा पर स्थित है।
काली नदी जौलजीबी नामक स्थान पर गोरी नदी से मिलती है। यह स्थान एक वार्षिक उत्सव के लिए जाना जाता है। उसके बाद यह काली नदी के नाम से आगे बढ़ती है और पंचेश्वर में उत्तराखण्ड के कुमांऊ क्षेत्रों की लगभग सभी बड़ी नदियों को अपने में समेट कर आगे बढ़ती है, और टनकपुर होते हुये बनबसा में पहुंचती है, और यहां से इसे शारदा नदी के नाम से जाना जाता है, आगे चलकर यह नदी, करनाली नदी से मिलती है और बहराइच जिले में पहुँचने पर इसे एक नया नाम मिलता है, सरयू, जो आगे चलकर यह गंगा नदी में समाहित हो जाती है।

हुगली नदी

हुगली गंगा नदी की सहायक नदी है। इस नदी को प्राचीन काल में ओगोलिन के नाम से जाना जाता था। मुगल शासक शाहजहाँ ने अपने शासन काल में पुर्तगालिओंको बंगाल में व्यापार करने की अनुमति प्रदान की पुर्तगालिओं ने बंगाल में एक चर्च का निर्माण किया। चर्च के चारों और हुगला नामक घास उत्पन्न हुई, जिसके कारण इसके निकट बहने वाली नदी का नाम ओगोलिन रखा गया। बाद में ओगोलिन शब्द परिवर्तित होकर पहले उगली तथा बाद में हुगली पडा। इसी नदी के तट पर कोलकाता बन्दरगाह स्थित है जिसको पूर्व का लंदन कहा जाता है। दामोदर, एवं जलांगी इस नदी की सहायक नदियाँ है।

ब्रह्मपुत्र नदी

ब्रह्मपुत्र, हिमालय के कैलाश पर्वत के निकट मानसरोवर झील से उद्गमित एक दुर्गम एवं तेज बहाव का महानद है। भारत की अधिकाँश नदियों के नाम स्त्रीलिंग हैं जबकि ब्रह्मपुत्र का नाम पुल्लिंग है। पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्मपुत्र नदी को भगवान् ब्रह्मा के पुत्र के रूप में जाना जाता है अतः इसका नाम ब्रह्मपुत्र पड़ा है। इस नदी के नाम के सम्बन्ध में एक किवदंती प्रचलित है कि कैलाश पर्वत पर शांतनु नामक एक साधू अपनी सुंदर पत्नी अमोधा के साथ निवास करते थे। एक बार ब्रह्मा जी अमोधा के सौन्दर्य से मंत्र मुग्ध हो गए। परन्तु अमोधा ने ब्रह्मा जी के विवाह प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया। तथापि शांतनु मुनि के द्वारा ब्रह्मा जी के वीर्य को अमोधा के गर्भ में स्थापित कर देने के कारण अमोधा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम ब्रह्मपुत्र पडा। वास्तव में कैलाश क्षेत्र में आज भी एक जल स्रोत है जिसे ब्रह्मकुंड के नाम से जाना जाता है। इस जल स्रोत से ही ब्रह्मपुत्र नदी का उद्गम होता है।

ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत में सांगपो के नाम से जानी जाती है तथा भारत में अरुणाचल प्रदेश से प्रवेश करने के बाद यह दिहांग कहलाती है। असम में इसे ब्रह्मपुत्र नाम से जाना जाता है तथा बांग्लादेश में इसे जमुना कहा जाता है। गंगा एवं ब्रह्मपुत्र के संगम के बाद दोनों की सम्मिलित धारा को मेघना कहा जाता हैं। इस नदी पर असम राज्य में विश्व का सबसे बड़ा नदी द्वीप माजुली द्वीप स्थित है।

तिस्ता नदी

तीस्ता का शाब्दिक अर्थ है, तृष्णा, अर्थात जिसका कभी अंत न हो। ‘तीस्ता’ का अन्य अर्थ श्त्रि-स्रोताश् या श्तीन-प्रवाहश् भी है। वास्तव में यह नदी तीन नदियों करतोया, अत्रे एवं जमुनेश्वरी नदियों का संगम है अतः इसे ‘तीस्ता’ (‘त्रि-स्रोता’) के नाम से जाना जाता है। तीस्ता नदी को पाली भाषा में तंडा के नाम से भी जाना जाता है। कालिकापुराण में इस नदी का वर्णन किया गया है। पुराणों के अनुसार तीस्ता नदी को हिमालय की छोटी पुत्री के रूप में जाना जाता है। कहा जाता है कि यह यह नदी देवी पार्वती के स्तन से निकली है। इस नदी के सम्बन्ध मेंकालिका पुराण में एक कथा प्रचलित है। एक बार असुरों की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें शक्ति का वर दिया। यद्यपि असुर शिव भक्त थे, परन्तु वे भगवान शिव की पत्नी देवी पार्वती को पसंद नही करते थे। उन्होंने देवी पार्वतीका अपमान कर दिया जिसके परिणामस्वरुप देवी पार्वती एवं असुरों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध में घायल होने के पश्चात असुरों ने देवी पार्वती की प्रार्थना की, जिससे प्रसन्न होकर असुरों की प्यास बुझाने के लिए देवी के स्तनों से दूध जैसी अमृत धारा उद्गमित हुई, यही धारा तिस्ता के नाम से प्रसिद्ध है।

तिस्ता नदी ब्रह्मपुत्र नदी की प्रमुख सहायक नदी है। इस नदी को सिक्किम और उत्तरी बंगाल की जीवनरेखा कहा जाता है। यह सिक्किम और पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी विभाग की मुख्य नदी है। तिस्ता नदी भारत के सिक्किम तथा पश्चिम बंगाल राज्य तथा बांग्लादेश से होकर बहती है। चमकीली हरे (मउमतंसक) रंग की यह नदी सिक्किम और पश्चिम बंगाल से बहती हुई यह बांग्लादेश में प्रवेश करती है और ब्रह्मपुत्र नदी में मिल जाती है।

लोहित नदी

लोहित नदी ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी है। असम भाषा में लोहित शब्द लुइत है जो संस्कृत शब्द लोहित से बना है, जिसका अर्थ है लाल नदी संभवतः वर्षा से इस क्षेत्र की लाल मिटटी बहकर आने से इस नदी के जल का रंग लाल हो जाता है।

लोहित नदी के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा प्रचलित कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि महर्षि भ्रगु के पौत्र तथा ऋषि जमदग्नि एवं रेणुका के पुत्र राम एक आज्ञाकारी पुत्र थे। एक बार रेणुका ने नदी के तट पर चित्रताका नामक एक गन्धर्व कन्या को नदी की लहरों के साथ अठखेलियाँ करते देखा जिसपर रेणुका मोहित हो गयी। जब ऋषि जमदग्नी को इसका पता चला तो वह बहुत क्रोधित हुए तथा उन्होंने पुत्र राम से माता का वध करने को कहा। आज्ञाकारी पुत्र राम ने माता के मस्तक को परसु से काट दिया। जिसके बाद राम का नाम परशुराम पडा। परशुराम ने प्रायश्चित करने के लिए लोहित नदी में स्नान किया जिससे लोहित नदी का रंग माता के खून से लाल हो गया जिसके कारण इस नदी को लोहित नदी के नाम से जाना गया।

सिंधु नदी

सिन्धु या सिंध नदी का भारत और हिन्दू इतिहास में बहुत महत्व है। इसे इंडस भी कहा जाता है। इसी के नाम पर भारत का नाम इंडिया रखा गया। प्राचीन संस्कृत ग्रंथों (ऋग्वेद) में इस नदी का नाम सिन्धु नदी के नाम से वर्णित है। जिसका शाब्दिक अर्थ है सागर या पानी का बड़ा समूह। ईरान में इस नदी को हिंदु के नाम से जाना जाता है। इस नदी के नाम पर ही हमारे देश का नाम हिन्दुस्तान पडा। यूनानी इस नदी को इंडोस के नाम से जानते है जो रोमन में परिवर्तित होकर इंडस हो गया है।
वेदों में इन्द्र की स्तुति में गाए गए मंत्रों की संख्या सबसे अधिक है। इन्द्र के बाद अग्नि, सोम, सूर्य, चंद्र, अश्विन, वायु, वरुण, उषा, पूषा आदि के नाम आते हैं। अधिकांश मंत्रों में इन्द्र एक पराक्रमी योद्धा की भांति प्रकट होते हैं और सोमपान में उनकी अधिक रुचि है।

बादलों के कई प्रकार हैं उनमें से एक बादल का नाम भी इन्द्र है। कुछ प्रसंगों में इन्द्र को मेघों के देवता के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन ऐसी कल्पना इसलिए है क्योंकि वे पार्वत्य प्रदेश के निवासी थे और पर्वतों पर ही मेघों का निर्माण होता है। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि उनके पास एक ऐसा अस्त्र था जिसके प्रयोग के बल पर वे मेघों और बिजलियों को कहीं भी गिराने की क्षमता रखते थे। माना जाता है कि इन्द्र ने अपने काल में कई नदियों की रचना की थीं और उन्होंने सिंधु नदी की दिशा भी बदली थी। चित्र-3 सिन्धु एवं उसकी सहायक नदियों को दर्शाया गया है।
इस नदी का उद्गम तिब्बत स्थित मानसरोवर झील से हुआ है। इस नदी के किनारे ही वैदिक धर्म और संस्कृति का उद्गम और विस्तार हुआ है। सिन्धु के तट पर ही भारतीयों के पूर्वजों ने प्राचीन सभ्यता और धर्म की नींव रखी थी। सिन्धु घाटी में कई प्राचीन नगरों को खोद निकाला गया है। इसमें मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा प्रमुख हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता लगभग 3500 हजार ईसा पूर्व विकसित हो गई थी।

चिनाब नदी

चिनाब नदी हिमाचल प्रदेश के लाहौल बारालाचा दर्रे से चलती है। प्राचीन काल में चिनाब नदी को आस्किनी के नाम से जाना जाता था। इस नदी के सम्बन्ध में रोमांस की कथाएँ जुडी हैं। एक कथा के अनुसार सोहनी इस नदी मार्ग से अपने प्रेमी महिवाल से मिलने जाया करती थी। एक बार जब सोहनी, महिवाल से मिलने जा रही थी तो नदी के तीव्र बहाव के कारण वह नदी में डूब गयी। यहाँ के स्थानीय निवासी मानते हैं कि चेनाब एवं रावी नदियों के तट पर मिर्जा एवं साहिबान की प्रेम कथाएँ जुडी हैं।

चिनाब नदी पीर पंजाल के समांतर बहते हुए किश्तबार के निकट पीरपंजाल में गहरी घाटी बनाती है। यह पाकिस्तान में जाकर सतलज नदी में मिल जाती है। चिनाब नदी की प्रमुख सहायक नदी चंद्रभागा है।

चित्र -3 सिन्धु एवं उसकी सहायक नदियाँ

क्षिप्रा नदी

क्षिप्रा का शाब्दिक अर्थ होता है तीव्र गति। स्कंद पुराण के अनुसार यह नदी साक्षात् कामधेनु से प्रकट हुई है। बैकुण्ठ लोक से उत्पन्न होकर क्षिप्रा नदी तीनों लोकों में विख्यात है। भगवान वाराह के हृदय से यह सनातन नदी प्रकट हुई है। यह नदी बैकुण्ठ में-क्षिप्रा, देवलोक में-ज्वरघ्नि, यमद्वार में-पापघ्नि, पाताल में-अमृत सम्भवा, वाराह कल्प में-विष्णु देहा आदि नामों से प्रसिद्द थी। वर्तमान में इस नदी को क्षिप्रा के नाम से जाना जाता है।

क्षिप्रा नदी का पौराणिक महत्व है। क्षिप्रा चम्बल की एक प्रमुख सहायक नदी है जिसका उद्गम मालवा के इन्दौर जिले के ‘काकरी वरडी’ नामक पहाड़ी से हुआ है। शिप्रा नदी मध्य प्रदेश के इंदौर जिले में स्थित काकरी बरडी पहाड़ी से निकलती है। यह नदी इन्दौर से उद्गमित होकर देवास और उज्जैन जिलों में बहती हुई अन्त में चम्बल नदी में मिल जाती है। इस नदी को मार्कंडेय के नाम से भी जाना जाता है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक बाबा महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग इसी नदी के तट पर स्थित है। यह नदी इंदौर की जानापाव पहाड़ियों से निकली है। 12 वर्षों में पढ़ने वाला कुंभ का मेला कि क्षिप्रा नदी के तट पर संपन्न होता है।

मोक्षदायिनी क्षिप्रा का स्कंद पुराण में बड़ा महत्व बताया गया है। यजुर्वेद में उल्लेख है कि शिवजी के द्वारा जो रक्त गिराया गया वही यहाँ अपना प्रभाव दिखाते हुए नदी के रूप में प्रवाहित है। ऐसी भी कथा वर्णित है कि विष्णु की अँगुली को शिव के द्वारा काटने पर उसका रक्त गिरकर बहने से वह नदी के रूप में प्रवाहित हुई।

साबरमती नदी

साबरमती गुजरात की एक प्रमुख नदी है। प्राचीन काल में इस नदी के तट पर साम्भर बहुतायत में पाए जाते थे जिसके कारण इस नदी का नाम साबरमती पडा। इस नदी के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा के अनुसार महर्षि दधीचि ने दैत्यों पर विजय प्राप्त करने के लिए इसी नदी के तट पर अपने जीवन का बलिदान कर देवराज इंद्र को वज्र नामक अस्त्र के निर्माण के लिए अपनी अस्थियाँ प्रदान की थी। हमारे देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को साबरमती के संत की उपाधि दी गयी है तथा उनका आश्रम इसी नदी के तट पर स्थित है।

इस नदी का उद्गम राजस्थान के उदयपुर जिले में अरावली पर्वतमालाओं से है। राजस्थान और गुजरात में दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर बहते हुए यह अरब सागर की खंभात की खाड़ी में समाहित हो जाती है। इसके तट पर राज्य के अहमदाबाद और गांधीनगर जैसे प्रमुख नगर बसे हैं, और धरोई बाँध योजना द्वारा साबरमती नदी के जल का प्रयोग गुजरात में सिंचाई और विद्युत् उत्पादन के लिए होता है।

ताप्ती नदी

ताप्ती या तापी पश्चिमी भारत की प्रसिद्ध नदी है। इस नदी को सूर्यपुत्री भी कहा जाता है। यह भी कहा जाता है कि सूर्य देव ने स्वयं को अपने ताप से बचाने के लिए तापी नदी का उद्गम किया। वेदों में इस नदी को वेदों की धात्री भी कहा जाता है। यह मध्य प्रदेश राज्य के बैतूल जिले के मुलताई से निकलकर सतपुड़ा पर्वत प्रक्षेपों के मध्य से पश्चिम की ओर बहती हुई महाराष्ट्र के खानदेश के पठार एवं सूरत के मैदान को पार करती हुई अरब सागर में गिरती है। नर्मदा नदी और माही नदी के समान ही पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होने वाली भारत की मुख्य नदियों में से एक है। पुर्तगालियों एवं अंग्रेजों के इतिहास में इसके मुहाने पर स्थित स्वाली बंदरगाह का बड़ा महत्व है।

दक्षिण क्षेत्र से निकलने वाली नदियाँ

दक्षिण क्षेत्र में अधिकांश नदी प्रणालियाँ सामान्यतः पूर्व दिशा में बहती हैं और बंगाल की खाड़ी में मिल जाती हैं। गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, आदि पूर्व की ओर बहने वाली प्रमुख नदियाँ हैं और नर्मदा, ताप्ती पश्चिम की बहने वाली प्रमुख नदियाँ है। दक्षिणी प्रायद्वीप में गोदावरी दूसरी सबसे बड़ी नदी का द्रोणी क्षेत्र है जो भारत के क्षेत्र 10 प्रतिशत भाग है। इसके बाद कृष्णा नदी के द्रोणी क्षेत्र का स्थान है जबकि महानदी का तीसरा स्थान है। डेक्कन के ऊपरी भूभाग में नर्मदा का द्रोणी क्षेत्र है, यह अरब सागर की ओर बहती है, बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं।

नर्मदा नदी

पुण्यसलिला मेकलसुता मां नर्मदा के पुण्य प्रताप से हर कोई परिचित है। वैसे तो आमतौर अनेक नदियों से कोई न कोई कथा जुड़ी हुई है, लेकिन नर्मदा इनमें सबसे भिन्न हैं। नर्मदा नदी सामान्यतः नर्बदा के नाम से प्रचलित है। इस नदी को रीवा नदी भी कहा जाता है। पुराणों में इस नदी के अनेकों नाम मिलते है जिनमे दक्षिण गंगा, मेकलसूत्र, मेकल्कन्यका, पूर्व गंगा, मेकल्द्रिजा, सोम्भावा, इन्दिजा आदि प्रमुख हैं।

नर्मदा नदी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेकों कथाएँ प्रचलित हैं। इनमें से एक कथा के अनुसार नर्मदा, अमरकंटक में रहने वाले एक चरवाहे सौन्दर्यपूर्ण की पुत्री थी। नर्मदा प्रतिदिन अपने पिता को भोजन पहुंचाने खेतों में जाती थी। मार्ग में कुछ समय एक योगी की कुटिया में विश्राम कर लेती थी। कुछ समय बाद कन्या ने बिना कारण बताए आत्महत्या कर ली। जब योगी को पता चला तो उसने भी भांग पीकर आत्महत्या कर ली। मृत्यु के बाद उस योगी के कंठ से एक जलधारा निकली जिसका नाम नर्मदा पडा। यह भी कहा जाता है कि नर्मदा नामक वह कन्या गर्भवती हो गयी थी तथा उसने कपिलधारा नामक जलप्रपात में कूदकर जान दे दी थी। कन्या नें जिस नदी में कूदकर जान दी उस नदी का नाम कन्या के नाम पर नर्मदा पडा।

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव तपस्या में ध्यानमग्न थे तब उनके शरीर से पसीना बहना शुरू हो गया। भगवान शिव का पसीना एक ताल में एकत्रित हो गया जिसने नदी के रूप में प्रवाहित होना प्रारम्भ कर दिया जिसका नाम नर्मदा पड़ा। मान्यता है कि एक बार क्रोध में आकर नर्मदा नदी ने अपनी दिशा परिवर्तित कर ली और चिरकाल तक अकेले ही बहने का निर्णय लिया। ये अन्य नदियों की तुलना में विपरीत दिशा में बहती हैं। इनके इस अखंड निर्णय की वजह से ही इन्हें चिरकुंआरी कहा जाता है। चिरकुंआरी मां नर्मदा के बारे में कहा जाता है कि चिरकाल तक मां नर्मदा को संसार में रहने का वरदान है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान शिव ने मां रेवा को वरदान दिया था कि प्रलयकाल में भी तुम्हारा अंत नहीं होगा। अपने निर्मल जल से तुम युगों-युगों तक इस समस्त संसार का कल्याण करोगी।

पुराणों में ऐसा बताया गया है कि इनका जन्म एक 12 वर्ष की कन्या के रूप में हुआ था। समुद्र मंथन के बाद भगवान शिव के पसीने की एक बूंद धरती पर गिरी जिससे मां नर्मदा प्रकट हो गईं। इसी वजह से इन्हें शिवसुता भी कहा जाता है।

वैसे तो नर्मदा को लेकर अनेक मान्यताएं हैं लेकिन ऐसा बताया जाता है कि जो भी भक्त पूरी निष्ठा के साथ इनकी पूजा व दर्शन करते हैं उन्हें ये जीवनकाल में एक बार दर्शन अवश्य देती हैं। जिस प्रकार गंगा में स्नान का पुण्य है उसी प्रकार नर्मदा के दर्शन मात्र से मनुष्य के कष्टों का अंत हो जाता है। ऐसी पुरातन मान्यता है कि गंगा स्वयं प्रत्येक साल नर्मदा से भेंट एवं स्नान करने आती हैं। मां नर्मदा को मां गंगा से भी अधिक पवित्र माना गया है कहा जाता है कि इसी वजह से गंगा हर साल स्वयं को पवित्र करने नर्मदा के पास पहुंचती हैं। यह दिन गंगा दशहरा का माना जाता है।
नर्मदा नदी मध्य प्रदेश के विंध्याचल पर्वत में स्थित अमरकंटक की पहाड़ियों से निकलती हैं। इस नदी पर इंदिरा सागर परियोजना, ओंकारेश्वर परियोजना एवं सरदार सरोवर परियोजना निर्मित है।

गोदावरी नदी

दक्षिण-गंगा गोदावरी नदी का उद्गम महाराष्ट्र के नासिक जिले से होता है। गोदावरी नदी दक्षिण भारत की सबसे लंबी नदी है। अपने विशाल आकार के कारण इस नदी को दक्षिण की गंगा एवं वृद्ध गंगा नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वानों के अनुसार, गोदावरी नदी का नामकरण तेलुगु भाषा के शब्द श्गोदश् से हुआ है, जिसका अर्थ मर्यादा होता है। एक बार महर्षि गौतम ने घोर तप किया। इससे रुद्र प्रसन्न हो गए और उन्होंने एक बाल के प्रभाव से गंगा को प्रवाहित किया। गंगाजल के स्पर्श से एक मृत गाय पुनर्जीवित हो उठी। इसी कारण इसका नाम गोदावरी पड़ा। गौतम से संबंध जुड जाने के कारण इसे गौतमी भी कहा जाने लगा। इसमें नहाने से सारे पाप धुल जाते हैं। गोदावरी की सात धारा वसिष्ठा, कौशिकी, वृद्ध गौतमी, भारद्वाजी, आत्रेयी और तुल्या अतीव प्रसिद्ध है। पुराणों में इनका वर्णन मिलता है। इन्हें महापुण्यप्राप्ति कारक बताया गया है।

कृष्णा नदी

कृष्णा नदी दक्षिणी भारत में पूर्व की ओर प्रवाहित होने वाली एक विशाल नदी है। पुराणों में इस नदी को क्रिश्नावेना एवं योगीनितंत्र में कृष्णावेणी के रूप में वर्णित किया गया है। इस नदी को सम्राट अशोक के शासनकाल में खरावेला द्वारा रचित हथिगुम्फा लिपिक में कन्हापेना के नाम से एवं जातक में कान्हापेंना के नाम से भी वर्णित किया गया है। यह कहा जाता है कि पेशवाओं के शासनकाल में इस नदी के तट पर अनेकों स्मारको का निर्माण कराया गया। यह नदी महाराष्ट्र कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश में बहते हुए विजयवाड़ा के निकट विभिन्न शाखाओं में बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। कृष्णा नदी पर नागार्जुन सागर परियोजना तथा श्री शैलम परियोजना निर्मित है।

भीमा नदी

महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्यों से होकर प्रवाहित होने वाली कृष्णा नदी की प्रमुख सहायक नदी भीमा को पुण्यदायनी भीमा नदी के नाम से जाना जाता है। इस नदी को भीमरथी नदी के नाम से भी जाना जाता है। दक्षिणी भारत में भीमा नदी को गंगा नदी के समान ही पवित्र एवं सम्माननीय माना जाता है।
भीमा नदी के उद्गम के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि त्रिपुरसुर नामक दैत्य का वध करने के पश्चात जब भगवान् शिव भीमशंकर पर्वत पर पहुंचे तो उन्होंने वहां अयोध्या के महाराज भीमक को तपस्या में ध्यानमग्न पाया। महाराज भीमक ने भगवान शिव से यह वरदान माँगा कि भगवान शिव के पसीने से वहां एक नदी उद्गमित हो। भगवान शिव से प्राप्त वर के अनुसार वहां एक नदी उद्गमित हुई जिसे महाराज भीमक के नाम पर भीमा नदी के नाम से जाना गया। भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग इसी नदी के तट पर स्थित है।

तुंगभद्रा नदी

तुंगभद्रा नदी का जन्म तुंगा एवं भद्रा नदियों के मिलन से हुआ है। रामायण में तुंगभद्रा को पंपा के नाम से जाना जाता था। इसे वेदों की धात्री (मिडवाइफ) भी कहा जाता है। यह कहा जाता है कि वेदों की रचना सप्तसिंधव (सात नदियों वाले देश) में हुई थी जबकि वेदों के ठींेीलं को तुंगभद्रा नदी के तट पर लिखा गया।

स्कन्दपुराण में तुंगभद्रा नदी के उद्गम के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा मिलती है। स्कन्दपुराण में वर्णित कथा के अनुसार एक बार भगवान विष्णु अपने बाराह अवतार में बाराह पर्वत पर विश्राम कर रहे थे। तभी उनके सामने के दोदांतों से जल टपकना प्रारम्भ हो गया।यह जल दो जल धाराओं में प्रवाहित हुआ। जिन्होंने दो नदियों का रूप ले लिया। बाएँ दांत से उद्गमित होने वाले नदी को तुंगा एवं दाहिने दांत से उद्गमित होने वाले नदी को भद्रा के नाम से जाना गया। तुंगा एवं भद्रा नदियों को परस्पर बहनों के रूप में जाना जाता है। कुंडली नामक स्थल पर इन दोनों नदियों के संगम के पश्चात ये तुंगभद्रा नदी के रूप में प्रवाहित होती हैं।उत्तर-पूर्व की ओर बहती हुई, आंध्रप्रदेश में महबूब नगर जिले में गोंडिमल्ला में जाकर ये कृष्णा नदी से मिल जाती है। कृष्णा नदी को इन नदियों की माता के रूप मैं जाना जाता है। कृष्णा नदी के जल को पेय जल के रूप में विश्व में श्रेष्ठ माना जाता है।

कावेरी नदी

कावेरी कर्नाटक तथा उत्तरी तमिलनाडु में बहनेवाली एक सदानीरा नदी है। कावेरी नदी का उद्गम कर्नाटक राज्य के कुर्ग जिले में स्थित ब्रह्मगिरि की पहाड़ियों से हुआ है। इसे दक्षिण भारत की गंगा भी कहते है। कावेरी नदी के उद्गम के बारे में एक पौराणिक किवदन्ती प्रचलित है। यह कहाजाता है कि राजा कावेर की कावेरी नामक एक पुत्री थी जिसका विवाह अगस्त्य मुनि के साथ हुआ था। एक बार अगस्त्य मुनि स्नान करने जा रहे थे तब मुनि ने अपनीपत्नी की सुरक्षा हेतु उसे जल में परिवर्तित करके जल को कमंडल में भर लिया। तभी कौए के रूप में भगवान गणेश ने आकर कमंडल को उलट दिया जिससे कमंडल का जल गिरकर एक जल धारा में परिवर्तित हो गया तथा उससे कावेरी नदी का उद्गम हुआ। कावेरी नदी की प्रमुख सहायक नदियाँ हेमावती, लोकपावना, शिमला, भवानी, अमरावती, स्वर्णवती आदि हैं।

महानदी

महानदी अपने नाम के अनुरूप ही छत्तीसगढ़ तथा उड़ीसा अंचल की सबसे बड़ी नदी है। प्राचीनकाल में महानदी का नाम चित्रोत्पला था। महानन्दा एवं नीलोत्पला भी महानदी के ही नाम हैं। छत्तीसगढ़ तथा उड़ीसा में पवित्र पावनी गंगा कही जाने वाली इस नदी का उद्गम के आश्रम के निकट से होता है। इस नदी के उद्गम के सम्बन्ध में एक कथा प्रचलित है जिसका विवरण पुराणों में मिलता है। एक बार उस क्षेत्र के समस्त ऋषि कुम्भ में स्नान को जाने के लिए महर्षि श्रंगी ऋषि के आश्रम में आये। महर्षि श्रंगी ऋषि उस समय ध्यान अवस्था में थे। अतः ऋषियों ने महर्षि श्रंगी ऋषि को ध्यान मग्न छोड़कर कुम्भ की और प्रस्थान किया। जब ऋषि तपोवन वापिस लौटे तब भी महर्षि श्रंगी ऋषि को ध्यानमग्न पाया। तब ऋषियों ने महर्षि श्रंगी ऋषि के कमंडल में अपने-अपने कमंडल से थोड़ा-थोड़ा जल डालकर उसे भर दिया तथा वहां से प्रस्थान कर गए। जब महर्षि श्रंगी ऋषि का ध्यान भंग हुआ तो उनका हाथ कमंडल मैं लग गया जिससे कमंडल के भरा होने के कारण उसका जल बह निकला। जो नदी के रूप में परिवर्तित हो गया। इस नदी को महानदी के नाम से जाना गया। यह कहा जाता है कि महानदी के पवित्र जल में स्नान से लाखों लोगों की इच्छाओं की पूर्ति होती है।

सिंध नदी (काली सिंध)

सिंध नदी यमुना की प्रमुख सहायक नदी है। विष्णु पुराण के अनुसार सिंध में प्रवाहित होने वाली दसारना नदी को सिंध नदी के रूप मैं चयनित किया गया है। सिंध नदी को काली सिंध के नाम से भी जाना जाता है। मेघदूत में भी काली सिंधनदी को सिंध नदी के रूप में वर्णित किया गया है। महाभारत में इस नदी को दक्षिण सिंध के रूप में भी वर्णित किया गया है। वरहा पुराण में काली सिंध नदी को सिंध पुराण कहा गया है।

उपसंहार

नदियाँ किसी भी देश के लिए जीवन रेखा स्थापित करती हैं. विश्व की अनेकों महान सभ्यताएं नदियों के तटों पर ही विकसित हुई हैं। हिन्दुओं में नदियों को आराध्य माना गया है. जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो यह मूल रूप से वैदिक संस्कृति और वैदिक संस्कृति के चार मूल ग्रंथ- ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद और सामवेद के इर्द-गिर्द ही घूमती प्रतीत होती है। नदियों के किनारे विकसित होने वाली सभ्यता के कारण इन नदियों को श्रद्धेय माना गया है।

Refernce

 

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जल संरक्षण के लिए शहरी बुनियादी ढांचे का निर्माण

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जल संरक्षण के लिए शहरी बुनियादी ढांचे का निर्माणHindiWaterSat, 12/28/2019 - 14:52
Source
कुरुक्षेत्र, दिसम्बर, 2019

समूचे देश के शहरों में पानी की आपूर्ति और सवीरेज/सेप्टेज की चुनौतियों का कारगर समाधान खोजने और उससे जुड़े आर्थिक विकास के अवसरों का लाभ उठाने के लिए भारत सरकार द्वारा अटल नवीकरण और शहरी परिवर्तन मिशन ‘अमृत’ शुरू किया गया है। यह आलेख पाठकों को इस पहल से होने वाले शहरी परिवर्तन के विभिन्न पहलुओं से रूबरू करवाता है।

शहरी भारतः प्रमुख चुनौतियाँ और अवसर

भारत की शहरी आबादी में तेजी से वृद्धि देखी जा रही है। संयुक्त राष्ट्र की 2018 की विश्व शहरी करण सम्भावनाओं की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की लगभग 34 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में रहती है- यानी 2011 के बाद से लगभग तीन प्रतिशत अंकों की वृद्धि 2031 तक यह और 6 प्रतिशत और 2051 तक आधे से अधिक देश की जनसंख्या शहरों में रह रही होगी। इस तरह की तीव्र वृद्धि से बुनियादी ढांचागत सेवाओं जैसे पानी की आपूर्ति, स्वच्छता, अपशिष्ट प्रबंधन और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन जैसी महत्त्वपूर्ण चुनौतियां सामने आती हैं। वर्तमान में, शहर देश के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 65 प्रतिशत योगदान देते हैं, जिसके 2030 तक 70 प्रतिशथ तक जाने की सम्भावना है (मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट, 2010)। इसके मद्देनजर, बुनियादी ढांचा शहरों को जन सेवाएं पर्याप्त रूप से प्रदान करने में सक्षम बनाएगा जिससे नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार आएगा और वे देश के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्णर भूमिका निभाने में सक्षम हो सकेंगे।

भारत सरकार ने पिछले पांच वर्षों में इन क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण निवेश किए हैं, जिसके परिणामस्वरूप बुनियादी सेवाओं में उल्लेखनीय सुधार हुए हैं। हालांकि, चुनौतियां बनी हुई हैं। उदाहरण के लिए, 2011 की जनगणना के अनुसार 70 प्रतिशत शहरी घरों को पानी की आपूर्ति तक पहुँच थी, पर केवल 49 प्रतिशत के पास ही परिसर में पानी की आपूर्ति मौजूद थी। इसके अलावा, पर्याप्त शोधन क्षमता की कमी और आंशिक सीवरेज कनेक्टिविटी के कारण 65 प्रतिशत से अधिक अपशिष्ट जल को खुले नालों में छोड़ा जा रहा था जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरणीय क्षति हुई और जल निकाय प्रदूषित हुए (सीपीसीबी, 2015)।

विश्व बैंक के जल और स्वच्छता कार्यक्रम (डब्ल्यूएसपी) 2011 के अनुमान के अनुसार भारत में अपर्याप्त स्वच्छता के कारण वर्ष 2006 में 2.4 खरब रुपए की सालाना क्षति हुई जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 6.4 प्रतिशत के बराबर था। सतत विकास लक्ष्य 6 (एसडीजी 6.1 और विशेष रूप से 6.3) को हासिल करने के लिए देश में सुरक्षित पेयजल मुहैया करवाना और सेप्टेज सहित अपशिष्ट जल के वैज्ञानिक शोधन की आवश्यकता है।

भारत सरकार ने पिछले पांच वर्षों में इन क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण निवेश किए हैं, जिसके परिणामस्वरूप बुनियादी सेवाओं में उल्लेखनीय सुधार हुए हैं। अमृत को देश भर के 500 शहरों में शुरू किया गया जिसका उद्देश्य मूलभूत सेवाएं प्रदान कराना जैसे सभी घरों में जल की आपूर्ति, सीवरेज और सेप्टेज तंत्र को महत्त्वपूर्ण रूप से उन्नत बनाना और गैर-मोटर चालित परिवहन और सार्वजनिक सुविधाएं जैसे पार्कों और हर शहर में कम-से-कम एक हरित स्थल उपलब्ध कराना है।

उपरोक्त के मद्देनजर, भारत सरकार ने अटल नवीकरण और शहरी परिवर्तन मिशन, अमृत को न केवल देश भर के शहरों में पानी की आपूर्ति और सवीरेज/सेप्टेज की चुनौतियों का समाधान करने के लिए, बल्कि उससे जुड़े आर्थिक विकास के अवसरों का लाभ उठाने के लिए भी शुरू किया।

अटल नवीकरण और शहरी परिवर्तन मिशन, अमृत

आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय के प्रमुख मिशनों में से एक अमृत का शुभारम्भ माननीय प्रधानमंत्री द्वारा 25 जून, 2015 को देश के 500 शहरों में किया गया जिसका उद्देश्य बुनियादी सेवाएं जैसे सभी घरों की जलापूर्ति प्रदान करना, सीवरेज और सेप्टेज तंत्र में महत्त्वपूर्ण सुधार लाना और गैर-मोटर चालित परिवहन और सार्वजनिक सुविधाएं जैसे पार्कों और हर शहर में कम-से-कम एक हरित स्थल उपलब्ध कराना है जिससे सभी के जीवन की गुणवत्ता मे सुधार हो, विशेष रूप से गरीबों और वंचित वर्ग के जीवन में, यह एक केन्द्र प्रायोजित योजना है जिसका कुल परिव्यय 1,00,000 करोड़ रुपया है जिसमें 50,000 करोड़ रुपए की केन्द्रीय सहायता शामिल है जो 2015-2020 तक 5 वर्षों की अवधि में दी जाएगी।

बुनियादी ढांचा तैयार करने के अलावा मिशन की एक सुधार कार्यसूची भी है, जिसके अन्तर्गत 11 मदों का सेट है, जिसमें 54 लक्ष्य हैं जिन्हें चार वर्ष की अवधि में राज्यों/केन्द्र शासित प्रदेशों द्वारा हासिल किया जाना है। इन सुधारों में मोटे तौर पर नागरिकों को ऑनलाइन सेवाओं के प्रस्ताव शामिल हैं; सभी मंजूरियों के लिए सिंगल विंडो की स्थापना; नगरपालिका कैडर की स्थापना; बिलिंग और कर/उपयोगकर्ता शुल्क का कम-से-कम 90 प्रतिशत प्राप्त करना; बच्चों के लिए हर साल कम-से-कम एक पार्क तैयार करना; पार्क और खेल के मैदानों के लिए रखरखाव प्रणाली स्थापित करना; शहरी स्थानीय निकायों की क्रेडिट रेटिंग बनाना और नगरपालिका बॉन्ड जारी करना; मॉडल निर्माण के उपनियमों को लागू करना; और ऊर्जा और जल की लेखा परीक्षा करवाना।

योजना का कवरेज क्षेत्र

  1. 2011 की जनगणना के अनुसार एक लाख और उससे अधिक की आबादी वाले 476 शहर/कस्बे;
  2. राज्य/केन्द्र शासित प्रदेश की राजधानियां जो ऊपर (i) में शामिल नहीं हैं;
  3. हेरिटेज सिटी डेवलपमेंट एंड ऑग्मेंटेशन योजना (हृदय) योजना के तहत आने वाले विरासत शहर; तथा
  4. प्रमुख नदियों के निकटवर्ती और पहाड़ी राज्यों/द्वीपों और पर्यटन स्थलों के कुछ शहर।

कुल मिलाकर, 500 शहरों को इस योजना के तहत शामिल किया गया था।

धनराशि का आवंटन

मिशन के पास 1,00,000 लाख करोड़ रुपए का आवंटन है जिसमें 50,000 करोड़ रुपए की केन्द्रीय हिस्सेदारी शामिल है। शेष राशि राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों द्वारा साझा की जानी है। कुल आवंटन में से विभिन्न परियोजनाओं के लिए 77,640 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं। केन्द्र की हिस्सेदारी का दस प्रतिशत प्रशासनिक और कार्यालय व्यय (ए एंड ओई) के लिए और दूसरा 10 प्रतिशत सुधार प्रोत्साहन के लिए है।

  • केन्द्रशासित सुधार प्रोत्साहन के लिए है। द्वारा पूरी तरह से वित्त पोषित हैं। उत्तर पूर्व और पहाड़ी राज्यों में, परियोजना की लागत का 90 प्रतिशत केन्द्र द्वारा साझा किया जाता है। अन्य राज्यों में 10 लाख से ऊपर की आबादी वाले शहरों में परियोजना की लागत का एक-तिहाई और अन्य शहरों में परियोजना लागत का आधा हिस्सा केन्द्र सरकार द्वारा साझा किया जाता है।
  • केन्द्रीय सहायता (सीए) 20:40:40 के अनुपात की तीन किस्तों में जारी की जाती है। पहली किस्त राज्य वार्षिक कार्य योजना (एसएएपी) के अनुमोदन पर तुरन्त जारी की जाती है। आगामी किस्तें स्वतंत्र समीक्षा और निगरानी एजेंसी (आईआरएमए) की रिपोर्ट के साथ केन्द्रीय सहायता और उसी राज्य/शहरी स्थानीय निकाय के हिस्से के 75 प्रतिशत उपयोग प्रमाण पत्र प्राप्त होने के बाद जारी की जाती है।

अमृतः भारत के शहरीकरण की जरूरतों के साथ सम्बद्ध

सहकारी संघवाद

सहकारी संघवाद को ध्यान में रखते हुए, राज्य सरकारों को अपने अमृत शहरों के लिए परियोजनाओं के मूल्यांकन, अनुमोदन और मंजूरी का अधिकार दिया गया है-इस तरह ये तत्कालीन जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन से भिन्न है जिसमें सभी परियोजनाओं को शहरी विकास मंत्रालय से मंजूरी दी जाती थी।

संस्थागत सुधारों के लिए रूपरेखा

अमृत संस्थागत सुधारों पर मुख्य रूप से जोर देता है, जिनका उद्देश्य शहरी स्थानीय निकायों के प्रशासन और संस्थागत क्षमताओं में सुधार करना है। सुधारों का लक्ष्य बेहतर सेवाएं प्रदान और अधिक जवाबदेही व पारदर्शिता है। राज्यों और अमृत शहरों में सुधारों (सुधार की प्रकारों और प्रमुख लक्ष्यों सहित) की एक रूपरेखा निर्धारित की गई है।

‘उत्तरोत्तर वृद्धि प्रक्रिया’ और प्राथमिकता के सिद्धान्त

नागरिकों के लिए जलापूर्ति के सम्पूर्ण कवरेज को सुनिश्चित करने और स्वच्छता कवरेज में सुधार के उद्देश्य से मिशन के तहत शहरी स्थानीय निकायों द्वारा क्रम दर क्रम बेंचमार्किंग के सिद्धान्त को अपनाया गया है, जो बेंचमार्क हासिल करने की एक क्रमिक प्रक्रिया है। जल और स्वच्छता की अत्यावश्यकता को ध्यान में रखते हुए, राज्यों को जल आपूर्ति और सीवरेज परियोजनाओं को प्राथमिकता देना था जिसमें जल आपूर्ति पहली प्राथमिकता है।

दंड की जगह प्रोत्साहन

पूर्ववर्ती जेएनएनयूआरएम के दौरान परियोजनाओं के लिए अतिरिरक्त केन्द्रीय सहायता (एसीए) का 10 प्रतिशत सुधारों को पूरा न होने पर रोक लिया जाता था। इसके चलते सभी राज्यों/केन्द्र शासित प्रदेशों ने यह 10 प्रतिशत राशि गवां दी क्योंकि कोई भी 100 प्रतिशत सुधारों को प्राप्त नहीं कर सका; इसलिए कई परियोजनाओं में धनराशि की कमी हो गई और वे अधूरी रह गईं। राज्यों को प्रोत्साहित करने और उनकी पहलों को रचनात्मक रूप से पुरस्कृत करने के लिए, सुधार क्रियान्वयन को अमृत के तहत प्रोत्साहित किया जाता है- सुधार प्रोत्साहन के लिए बजटीय आवंटन का 10 प्रतिशत रखा गया है और यह परियोजनाओं के लिए आवंटन से अधिक और अलग है। क्रियान्वयन के पिछले चार वित्तीय वर्षों में बेचमार्क के अनुरूप प्राप्त सुधारों के लिए प्रोत्साहन राशि के रूप में राज्यों/संघ शासित प्रदेशों को 400 करोड़, रुपए, 500 करोड़ रुपए, 340 करोड़, और 418 करोड़ रुपए की प्रोत्साहन राशि क्रमशः 2015-16, 2016-17, 2017-18 और 2018-19 के दौरान वितरित की गई थी। यह राशि किसी से सम्बद्ध नहीं है और इसका उपयोग राज्य/शहरी स्थानीय निकायों हिस्से के साथ या बिना, अमृत के तहत आने वाली किसी भी मद पर किया जा सकत है।

मिशन की निगरानी

क्रियान्वयन में प्रगति और खामियों को समझने के लिए विभिन्न स्तरों पर कार्यक्रम की निगरानी की जा रही है। राज्य स्तर पर, मुख्य सचिव की अध्यक्षता में राज्य उच्चस्तरीय स्टीयरिंग समिति मिशन परियोजनाओं की निगरानी करती है और इसकी सम्पूर्ण रूप से मंजूरी देती है। केन्द्रीय स्तर पर, सचिव, आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय की अध्यक्षता में सर्वोच्च समिति, राज्य वार्षिक कार्य योजनाओं को मंजूरी देती है और प्रगति की निगरानी करती है। इसके अलावा, सभी परियोजनाओं की जियो टैगिंग के साथ मिशन एमआईएस डैशबोर्ड के जरिए रियल टाइम आधार पर परियोजनाओं की निगरानी की जाती है। इसके अलावा, जिला स्तरीय क्षेत्रीय समीक्षा और निगरानी समिति परियोजनाओं की विस्तृत जांच करती है। आईआरएमए प्रत्येक राज्य की समीक्षा के लिए नियुक्त किया जाता है और तीसरे पक्ष के रूप में वास्तविक स्तर पर मिशन की प्रगति की निगरानी करता है।

अब तक की प्रगति

आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय ने पहले तीन वर्षों मेंर ही सभी राज्यों/केन्द्र शासित प्रदेशों की राज्य वार्षिक कार्य योजनाओं को सम्पूर्ण मिशन अवधि के लिए 77,640 करोड़ रुपए की मंजूरी दे दी है। इसमें से 39,011 करोड़ रुपए (50 प्रतिशत) जल की आपूर्ति के लिए आवंटित किया गया है, सीवरेज और सेप्टेज परियोजनाओं के लिए 32,456 करोड़ रुपए (42 प्रतिशत), स्टॉर्म वाटर निकासी परियोजनाओं के लिए 2,969 करोड़ (4 प्रतिशत) रुपए, गैर-मोटरीकृत शहरी परिवहन के लिए 1,436 करोड़ रुपए (2 प्रतिशत), और 1,768 करोड़ रुपए (2 प्रतिशथ) हरित स्थलों और पार्कों के लिए आवंटित किया गया है।

77,640 करोड़ रुपए के स्वीकृत योजना परिव्यय में से 70,969 करोड़ रुपयों से 5,230 परियोजनाओं का अनुबंध किया गया है जिसमें से 6,469 करोड़ रुपयों की 2,111 परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं और शेष का काम प्रगति पर है। इसके अलावा 10,945 करोड़ रुपयों की परियोजनाएं निविदा के तहत हैं, जिसमें राज्यों/शहरों द्वारा लिए गए अतिरिक्त कार्य शामिल हैं।

2011 की जनगणना के अनुसार, 500 मिशन शहरों के कुल 4.68 करोड़ शहरी घरों में से, 2.98 करोड़ घरों (64 प्रतिशत) में नल के पानी की आपूर्ति की गई। अमृत के तहत 39,011 करोड़ रुपयों के निवेश से 60 लाख परिवारों को अगस्त 2019 तक नए पानी के नल कनेक्शन प्रदान किए गए हैं। चालू परियोजनाओं और संमिलन के माध्यम से अन्य 79 लाख नए पानी के नल कनेक्शन दिए जाने की सम्भावना है। इसी तरह अमृत के तहत 32,456 करोड़ रुपए का निवेश जारी है जो सीवरेज के कवरेज को, जो 2011 में 31 प्रतिशत था, मिशन अवधि के अंत तक बढ़ाकर 62 प्रतिशत तक ले जाएगा। मिशन के तहत अब तक शहरों में घरेलू स्तरर पर 40 लाख सीवर कनेक्शन जोड़े गए हैं और इसके अलावा अतिरिक्त 105 लाख सीवर कनेक्शन प्रदान किए जाएंगें।

इसके अतिरिक्त, अमृत ने नागरिकों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए शहरों में हरित स्थल और पार्क, फुटपाथ, पैदल मार्ग, स्काईवॉक आदि के निर्माण में सहायता की है।

शहरी सुधार

कुछ महत्त्वपूर्ण सुधार निम्नलिखित हैं:

ऑनलाइन बिल्डिंग परमिशन सिस्टम (ओबीपीएम)

अप्रैल 2016 से दिल्ली और मुम्बई में निर्माण परमिटों में सुगम बिजनेस की सुविधा के लिए एक ऑनलाइन बिल्डिंग परमिशन सिस्टम (ओबीपीएस) क्रियान्वित हो चुका है जिसमें कॉमन एप्लीकेशन फॉर्म और अंदरूनी/बाहरी एजेंसियों से सभी क्लीयरेंस/ने ऑब्जेशन सर्टिफिकेट का सहज एकीकरण शामिल है।

नतीजतन, विश्व बैंक की डूइंग बिजनेस रिपोर्ट (डीबीआर) के अनुसार निर्माण परमिटों में ईज ऑफ डूइंग बिजनेस (ईओडीबी) में भारत के स्थान ने पिछले 3 वर्षों में 158 स्थानों की अभूतपूर्व प्रगति दर्ज की है। भारत का स्थान डीबीआर 2017 में 185 के मुकाबले डीबीआर 2020 में 27 तक पहुँच गया।

देशभर के सभी शहरों/कस्बों में 31 मार्च, 2020 तक ओबीपीएस लागू करने का लक्ष्य रखा गया है। अब तक, यह 440 अमृत शहरों सहित 1,832 शहरों में लागू किया गया है। 13 राज्यों/केन्द्र शासित प्रदेशों में, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, आन्ध्र प्रदेश, दादरा और नागर हवेली, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, तेलंगना और त्रिपुरा में ओबीपीएस को सभी शहरी स्थानीय निकायों में लागू किया गया है।

पारम्परिक स्ट्रीट लाइटों के स्थान पर एलईडी स्ट्रीट लाइटें लगाना

65 लाख पारम्परिक स्ट्रीट लाइटों को ऊर्जा कुशल एलईडी लाइटों से बदल दिया गया है। इससे प्रति वर्ष 139 करोड़ किलोवाट आवर्स की ऊर्जा बचत और कार्बनडाइऑक्साइड के उत्सर्जन में 11 लाख टन प्रति वर्ष की कमी हुई है।

क्रेडिट रेटिंग

कुल 485 अमृत शहरों में से 469 शहरों को क्रेडिट रेटिंग दी गई है, जहां क्रेडिट रेटिंग का काम करवाया गया था। एक सौ चौंसठ शहरों को निवेश योग्य ग्रेड (आईजीआर) का दर्जा दिया गया है, जिनमें से 36 शहरों की रेटिंग ए और उससे अधिक है। कम रेटिंग वाले शहर अपने प्रदर्शन को बेहतर बनाने के उपायों का पालन कर रहे हैं ताकि वे क्रेडिट योग्य बनें और अपनी परियोजनाओं के लिए धनराशि जुटाएं।

नगर पालिका बांड

नगरपालिका बांडों के माध्यम से 2017-19 के दौरान 8 मिशन शहरों (अहमदाबाद, अमरावती, भोपाल, हैदराबाद, इंदौर, पुणे, सूरत और विशाखापत्तनम) द्वारा शहरी बुनियादी ढांचे के उन्नयन के लिए 3,390 करोड़ रुपए जुटाए गए हैं। प्रोत्साहन के रूप में, मंत्रालय प्रति शहर 100 करोड़ रुपए तक बांड जुटाने, जिसकी उच्चतम सीमा 200 करोड़ रुपए है। 13 करोड़ रुपए देता है। यह बॉन्ड की अवधि में 2 प्रतिशत के ब्याज सबवेंशन में तब्दील हो जाता है। 8 शहरों में बॉन्ड जुटाने के लिए 181 करोड़ रुपए जारी किए गए हैं। बॉन्डों को जुटाने से शहरी स्थानीय निकायों में बेहतर प्रशासन, लेखा प्रणाली, वित्त, पारदर्शिता, जवाबदेही और सेवाओं के प्रदान में सुधार हुआ है। हम अगले 4 वर्षों में कम-से-कम 50 शहरों को बॉन्ड जुटाने का लक्ष्य देते हैं। इसके जरिए नागरिकों की सेवा करने के लिए उनकी आत्म-निर्भरता और आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। नगरपालिका के अधिकारियों की कार्य क्षमता को मजबूत करने के लिए, 52,673 अधिकारियों को तकनीकी प्रशिक्षण प्रदान किया गया है।

जल शक्ति अभियान-शहरी

जल के अभाव के राष्ट्रीय मुद्दे का हल खोजने के ले, जल शक्ति मंत्रालय, भारत सरकार ने 1 जुलाई, 2019 से जल संरक्षम, पुनर्स्थापना, पुनर्भरण और पुनः उपयोग पर अभियान चलाकर जल शक्ति अभियान (जेएसए) शुरू किया है। देश भर में जल-संकट से जूझते 754 शहरों में सूचना, शिक्षा और संचार (आईईसी) की व्यापक गतिविधियों के माध्यम से जलसंरक्षण उपायों को जन आन्दोलन बनाने के लिए राज्यों/ केन्द्रशासित प्रदेशों/शहरी स्थानीय निकायों के साथ आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय ने सक्रिय रूप से भाग लिया है।

यह अभियान दो चरणों में आयोजित किया गयाः 1 जुलाई, 2019 और 15 सितम्बर, 2019 के बीच चरण 1 और 30 सितम्बर, 2019 से 30 नवम्बर, 2019 के बीच चरण 2, उन राज्यों के लिए जहाँ से मानसून लौट रहा है। जल शक्ति अभियान (शहरी) के प्रमुख क्षेत्र इस प्रकार हैः

क. वर्षा जल संचयन

शहरी स्थानीय निकायों ने भूजल स्रोतों को रिचार्ज करने और जल के भंडारण के लिए वर्षा जल संचयन सेल की स्थापना, वर्षा जल संचयन संरचनाओं का निर्माण और स्थापना के लिए कदम उठाए हैं।

ख. शोधन किए अपशिष्ट जल का पुनः उपयोग

शहरी स्थानीय निकायों ने सार्वजनिक भवनों में दोहरी पाइपिंग संरचना का निर्माण किया है और बागवानी, कार धोने, फायर हाइड्रेट आदि के लिए शोधित जल का पुनः उपयोग किया है।

ग. जल निकायों का कायाकल्प

शहरी स्थानीय निकायों ने निर्जीव कुलों और जल निकायों को फिर से साफ करने और उनका जीर्णोद्धार के लिए कई अनेक कदम उठाएं हैं।

घ. वृक्षारोपण

शहरी स्थानीय निकायों ने शहरों में वृक्षारोपण अभियान चलाने के लिए स्थानीय समुदाय के सदस्यों को जुटाने का संकल्प लिया है।

आगामी योजनाएं

अमृत ने शहरी क्षेत्रों में जल और स्वच्छता कवरेज को बेहतर बनाने में उल्लेखनीय प्रगति की है। परिकल्पना की गई हैकि मिशन की अवधि के दौरान 500 शहरों में बसी 60 प्रतिशत से अधिक शहरी आबादी को जलापूर्ति की सम्पूर्ण कवरेज के दायरे में लाया जाएगा और 60 प्रतिशत से अधिक को सीवरेज और सेप्टेज सेवाओं के कवरेज में लाया जाएगा। हालांकि, वर्तमान में 4,378 वैधानिक शहरों में से 3,500 से अधिक छोटे शहर/कस्बे जलापूर्ति और मल कीच (फेकल स्लज) और सेप्टेज प्रबंधन के बुनियादी ढांचे के निर्माण की किसी भी केन्द्रीय योजना के तहत शामिल नहीं हैं। एसडीजी के लक्ष्य 6 जिसके तहत सभी के लिए जल और स्वच्छता के सतत प्रबंधन को सुनिश्चित करना है, को ध्यान में रखते हुए और माननीय प्रधान मंत्री द्वारा बहुमूल्य जल के संरक्षण और विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग करने हेतु जल जीवन मिशन की घोषणा करने और 115 आकांक्षी जिलों की विशेष जरूरतों का प्राथमिकता के आधार पर समाधान निकालने के लिए, इस मिशन की उपलब्धियों को छोटे शहरों तक भी ले जाना अत्यावश्यक है।

सन्दर्भ

  1. एसडीजी 6.1 सुरक्षित पेयजल सुलभ कराने पर बल देता है और 6.3 का उद्देश्य 2030 तक, प्रदूषण कम करके, कचरा फेंकना बंद करके और हानिकारक रसायनों तथा सामग्री को कम-से-कम छोड़ कर पानी की गुणवत्ता सुधारना, अनुपचारित गंदे पानी का अनुपात आधा करना और दुनियाभर में पानी की रिसाइकिलिंग और सुरक्षित ढंग से दोबारा इस्तेमाल में अधिक वृद्धि का निर्वहन कर रहा है।
  2. अमरावती में आन्ध्र प्रदेश कैपिटल रीजन डेवलपमेंट अथॉरिटी को प्रोत्साहन दिया गया है क्योंकि यह वहाँ शहरी स्थानीय निकायों के कार्यों का निर्वहन कर रहा है।
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पहाड़ और हम : हिमालय के युवाओं के लिए कार्यशाला

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पहाड़ और हम : हिमालय के युवाओं के लिए कार्यशालाHindiWaterSat, 12/28/2019 - 15:14

पृष्ठभूमि

पहाड़ों में एक कहावत है कि ‘पहाड़ का पानी और जवानी कभी पहाड़ के काम नहीं’आते | सुनने पर इसका सरल और सीधा मतलब लगता है कि पहाड़ों के युवा नौकरी के अवसर लिए और पहाड़ों का पानी नदियों के रास्ते यहां से मैदानी इलाकों चला जाता है – दोनों की ऊर्जा और उर्वरकता का फायदा किसी और को होता है | पर इस एक वाक्य में एक कहानी छुपी है – कुछ अपना खो जाने की, एक प्राकृतिक संसाधन और दूसरा मानव संसाधन | इसका सन्दर्भ आज़ाद भारत, विकासशील भारत भी है, जिसमें पहाड़ी क्षेत्रों की अनदेखी हुई है और शोषण भी | और इसीलिए भारत के पहाड़ी क्षेत्रों के इतिहास में अलग राज्य और अलग पहचान संघर्ष भी शामिल हैं | इन संघर्षों में, जिनमें पहाड़ी युवा भी शामिल थे, केवल राजनीतिक पहचान का नहीं बल्कि आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक अस्मिता का सवाल जुड़ा है |

परन्तु पिछले दो दशकों में कुछ नई और विकट समस्याएं पूरे हिमालयी क्षेत्रों में नज़र आने लगीं हैं – उत्तराखंड के वीरान गाँव से लेकर मरती हुई नदियाँ; हिमाचल प्रदेश के सिकुड़ते हुए ग्लेशियर और कश्मीर में राज्य के दमन तक | जहां एक तरफ तो यह इलाका अनोखी जैव विविधता, संस्कृति और राजनीति की जन्म स्थली रहा है, वहीं दूसरी तरफ आज के दौर में यहां के युवाओं का अपनी भूमि से अलगाव बढ़ रहा है | क्या हिमालय का इतिहास आज के पहाड़ी युवाओं द्वारा पूरी तरह से समझा गया है ? या वे भी आर्थिक दौड में फंस कर इस इलाके के स्वरूप के बदल जाने से अलग-थलग हो जाते हैं ?

कार्यशाला के बारे में - छः साल पहले हमने ‘पहाड़ और हम’ नाम की एक प्रक्रिया आरम्भ की थी | एक ऐसा सफ़र जो लोगों को एक धागे में बाँधने का प्रयास है – वो है ‘हिमालय’ | ‘पहाड़ और हम’ की हर कार्यशाला में हमने अपनी सांझी और अनोखी सांस्कृतिक, सामाजिक और पारिस्थितिकीय ‘पहाड़ी’ विरासत को तलाशने की कोशिश की है | हमने अपने समाज की आंतरिक असफलताओं को गहराई से समझने और उनपे सवाल उठाने का काम किया और अन्याय और उत्पीडन से मुक्त होने के लिए हमारे अनेक संघर्षों को बांटा है | 2019 में हम फिर मिल रहें हैं, हिमालयी क्षेत्र से नए यात्रियों के साथ, चाहे किसी देश या प्रांत से हो | कार्यशाला में चर्चा, समूह कार्य, श्रम दान, नाटक आदि का प्रयोग किया जाएगा और निम्न विषयो पर बातचीत होगी :

▪    हमारा इतिहास, सांझी विरासत और पहचान
▪    पहाड़ का भूगोल और पारिस्थितिकी - जल, जंगल, ज़मीन की दशा
▪    विकास की राजनीति
▪    पहाड़ी अर्थव्यवस्था और समाज की पुनर्कल्पना
▪    हिमालय के दमन और राजनीतिक संघर्ष

अगर आप हिमालयी क्षेत्र में रहने, काम करने वाले साथी हैं और यह सवाल आपके लिए महत्वपूर्ण हैं तो आइये, पहाड़ और हम कार्यक्रम में भाग लीजिये | यह कार्यक्रम एक मौक़ा है, पहाड़ के आज के सवालों पर समझ बनाने का और अपनी पहाड़ी पहचान को एक सांझा संवाद के माध्यम से खोजने का |

कौन भाग ले सकते है - 22 से 35 साल के हिमालय क्षेत्र (हिमाचल प्रदेश (लाहौल-स्पीति समेत), कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, नेपाल, भूटान और पाकिस्तान) में रहने वाले व्यक्ति जो सामाजिक कार्यों में जुड़े हुए हैं या ज़मीनी स्तर पर हिमालय से जुड़ना चाहते हैं |

भाषा - मुख्यतः हिंदी और कुछ अंग्रेजी

कार्यशाला की योगदान राशि - संभावना आशा करता है की कुछ सहयोग राशि कार्यक्रम में पंजीकरण के रूप में अदा करें (कृपया आवेदन पत्र में दिए विकल्प में से चुनें) अगर कोई प्रतिभागी सहयोग चाहते हैं तो (जैसे पंजीकरण राशि या यात्रा खर्च के बारे) आवेदन पत्र में कारण के साथ सूचित कर सकते हैं |

आवेदन की आखरी तारीख – 20th जनवरी 2020

स्थान - संभावना परिसर हिमाचल प्रदेश के पालमपुर के पास एक गाँव में बसा है. इस परिसर में ही कार्यशाला एवं रहने-खाने की व्यवस्था है. पता है – ग्राम कंडबाड़ी, डाक घर कमलेहड, तहसील पालमपुर, जिला कांगड़ा 176061

किसी और जानकारी के लिए मेल करे -  programs@sambhaavnaa.org या Whatsapp/कॉल करें 8894227954

Fill the Application form here/ आवेदन फॉर्म यहाँ भरेंhttps://bit.ly/34qCQrQ

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