Quantcast
Channel: Front Page Feed
Viewing all 2534 articles
Browse latest View live

महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त पोषण

$
0
0
महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त पोषणHindiWaterWed, 01/29/2020 - 12:42
Source
कुरुक्षेत्र, जनवरी, 2020

डॉ.संतोष जैन पासी, कुरुक्षेत्र, जनवरी, 2020

मनुष्य की उम्र, लिंग, वर्ग और पंथ चाहे कोई भी हो- उपयुक्त पोषण सभी के अच्छे स्वास्थ्य, विकास एवं वृद्धि के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बच्चों के संदर्भ में, उनकी तीव्र गति से हो रही वृद्धि और विकास के कारण उनका उचित पोषण और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इसी प्रकार महिलाओं के लिए भी उचित पोषण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है चूंकि वे गर्भधारण व बच्चे/बच्चों को जन्म देने के साथ-साथ स्तनपान के जरिए उनका लालन-पालन भी करती हैं।

उपयुक्त पोषण और अच्छे स्वास्थ्य का मानव संसाधन विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है। मानव विकास सूचकांक के अनुसार, 209 देशों में से हमारा देश भारत 160वें स्थान पर है जोकि चिंताजनक है। 

मनुष्य की उम्र, लिंग, वर्ग और पंथ चाहे कोई भी हो-उपयुक्त पोषण सबके अच्छे स्वास्थ्य, विकास एवं वृद्धि के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बच्चों के सन्दर्भ में, उनकी तीव्र गति से हो रही वृद्धि और विकास के कारण उनका उचित पोषण और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इसी प्रकार महिला के लिए भी उचित पोषण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है चूंकि वे गर्भधारण व बच्चे/बच्चों को जन्म देने के साथ-साथ स्तनपान के जरिए उनका लालन-पालन भी करती हैं। इसलिए, महिलाओं और बच्चों के उचित शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके भोजन में सभी आवश्यक पौष्टिक तत्व पर्याप्त मात्रा में नियमित रूप से सम्मिलित किए जाए।

हम अक्सर देखते हैं कि घर-घर में पुरुषों के आहार को गुणवत्ता और मात्रा के सन्दर्भ में अधिक महत्ता दी जाती है, और इसके विपरीत महिलाओं के आहार एवं पोषण की आमतौर पर उपेक्षा की जाती है। जबकि तथ्य यह है कि पुरुषों और महिलाओं की पोषण सम्बन्धी आवश्यकताएं एक दूसरे से ज्यादा भिन्न नहीं हैं, और यह तथ्य तालिका-1 (आईसीएमआर, 2010) में दिए गए आंकड़ों से स्पष्ट हैं।

महिलाओं के लिए आहार पर्याप्तता का अत्यधिक महत्व है और यह न केवल शादी के बाद, बल्कि किशोरावस्था और बचपन के दौरान भी ध्यान रखने की जरूरत है। इसलिए, जन्म के बाद से ही एक बालिका के पोषण और देखभाल को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए ताकि कुपोषण के पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाले चक्र को बाधित किया जा सके।

यद्यपि पुरुषों की तुलना में, महिलाओं की ऊर्जा की जरूरत थोड़ी कम लगभग 80 प्रतिशत है जिसका कारण उनके शारीरिक वजन व संरचना में अंतर है; अक्सर पुरुष कद-काठी में लम्बे और भारी होते हैं। महिलाओं की प्रोटीन और विभिन्न सूक्ष्म पोषक तत्वों की जरूरतें (केवल थियामिन, राइबोफ्लेविन) और नियासिन तथा जिंक को छोड़कर) या तो तकरीबन बराबर हैं, और लोहे जैसे कुछ पोषक तत्वों के लिए अधिक भी हैं। इसी तथ्य को बेहतर तौर पर समझने के लिए, मध्यम श्रम श्रेणी के वयस्क पुरुषों और महिलाओं के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकताओं को चित्र-1 से समझा जा सकता है। ग्राम स्पष्ट रूप से दर्शाया है कि महिलाओं का आहार भी पौष्टिकता की दृष्टि से पर्याप्त होना चाहिए और खासतौर पर उनकी प्रजनन भूमिका को देखते हुए इस तथ्य की महत्ता और भी बढ़ जाती है। गर्भावस्था व स्तनपान की स्थितियां महिलाओं की पौष्टिक तत्वों की जरूरतों को और भी बढ़ा देती हैं, जिसके फलस्वरूप उनके शरीर में संचित पोषक तत्वों का कोष कम होने लगता है और माताएं अक्सर पोषण-सम्बन्धी कमियों का शिकार हो जाती हैं।

चूंकि माता का पोषण-स्तर गर्भावस्था से पहले और गर्भावस्था के दौरान दोनों ही अवस्थाओं में, भ्रूण की वृद्धि और विकास को अत्यधिक प्रभावित करता है। अतः यह बहुत जरूरी है कि माता शारीरिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ हो और उसका पोषण-स्तर सही बना रहे।

कई शोधों के आधार से संकेत मिलते हैं कि भ्रूण, शिशु या बच्चे में विकासात्मक विफलताएं, खासकर छोटी बालिकाओं में, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली जाती हैं। इसलिए कुपोषण के पीढ़ी-दर-पीढ़ी चक्र को तोड़ने के लिए, बालिकाओं के साथ-साथ महिलाओं, विशेषकर गर्भवती व धात्री माताओं के लिए, उचित पोषण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।

जब एक सुपोषित महिला (गर्भाधान से पहले या गर्भाधान के समय) पोषक तत्वों के उचित भंडार के रहते गर्भावस्था में प्रवेश करती है, तो वह बढ़ते हुए भ्रूण की पोषण-सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने में सूक्ष्म होती हैं खासकर पहली तिमाही के दौरान। इसके बाद, गर्भवती माता की बढ़ती हुई पोषक तत्वों की जरूरतों को पूरा करने के लिए उसके आहार को आवश्यकतानुसार संशोधित किया जाना चाहिए। गर्भावस्था के दौरान भ्रूण की उचित वृद्धि व विकास के लिए, गर्भवती माता के वजन में पर्याप्त बढ़ोत्तरी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है, जिसके लिए महिला का उचित पोषण ही एक विशेष कारक है।

गर्भावस्था की दूसरी और/या तीसरी तिमाही के दौरान मातृ-वजन में होने वाली बढ़ोत्तरी में कमी के कारण भ्रूण के अंतर-गर्भाशयी विकासम  मंदता (IUGR) का जोखिम बढ़ जाता है। भ्रूण की अंतर-गर्भाशय वृद्धि के अन्य संकेतक हैं- फंडल हाइट(Fundal height) और एब्डोमिनल गर्थ (abdominal girth)।

इसके अलावा, गर्भावस्थाओं में कम अंतराल होने से भी अगली गर्भावस्था के लिए माँ का शरीर पूर्ण रूप से तैयार नहीं हो पाता जिसके फलस्वरूप ना केवल माँ का स्वास्थ्य ही प्रभावित होता है अपितु गर्भ के परिणाम  पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है।

आयरन की कमी से होने वाले एनीमिया का चलन गर्भवती महिलाओं और धात्री माताओं में सबसे अधिक व्यापक है जो बढ़ते हुए मातृ-मृत्यु, पूर्वकाल-प्रसव और शिशु मृत्युदर जैसे गम्भीर परिणामों का मुख्य कारण है। इसी तरह, फोलिक एसिड की कमी, अकस्मात गर्भपात और प्रसूति सम्बन्धित जटिलताओं (जैसे समय से पूर्व/ अपरिपक्व या कम वजन वाले नवजात /LBW प्रसव), से जुड़ी है। गर्भावस्था के प्रारम्भिक चरण के दौरान फोलिक एसिड की कमी शिशुओं में जन्मजात विकृतियों का कारण होती है- जैसे कि तंत्रिका-सम्बन्धी ट्यूब दोष (एनटीडी-स्पिनैबिफिडा, हाइड्रोसेफली और एनेसेफली)।अतः प्रजनन क्षमता की उम्र की (15-45 वर्ष) सभी महिलाओं को गर्भाधान से पहले ही फोलिक एसिड का सेवक बढ़ा देना चाहिए।

इसके विपरीत, सुपोषित महिलाएं न केवल स्वस्थ शिशुओं को ही जन्म देती हैं अपितु उनके नवजात शिशुओं को कम जटिलताओं का सामना करना पड़ता है। साथ ही, ऐसी सुपोषित माताएं स्तनपान अवस्था की अत्यधिक पोषक तत्वों की जरूरतों के साथ-साथ अपनी अगली गर्भावस्था/गर्भावस्थाओं के लिए भी पर्याप्त ऊर्जा संग्रहित कर पाती हैं।

गर्भवती महिलाओं की तरह, धात्री माताओं के लिए भी पर्याप्त पोषण अति महत्त्वपूर्ण है। शिशुओं और छोटे बच्चों के आहार सम्बन्धी राष्ट्रीय दिशानिर्देश (2006) के अनुसार, सभी शिशुओं को जीवन के पहले छह महीनों (180 दिन) तक केवल स्तनपान कराया जाना चाहिए, और उसके बाद, पूरक आहार के साथ, स्तनपान कम से कम दो साल या उससे अधिक समय तक जारी रखा जाना चाहिए। इसीलिए, धात्री माताओं को पर्याप्त मात्रा में दुग्धस्राव के लिए अतिरिक्त पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है ताकि वे बच्चे की पोषण सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। माता के आहार में किसी भी प्रकार की अपर्याप्तता उसके दूध की मात्रा और गुणवत्ता दोनों को ही प्रभावित करतकी है। सुपोषित माताएं, औसतन दिनभर में 850 ग्राम दुग्धस्राव कर सकती हैं; जबकि गम्भीर रूप से कुपोषित माताएं अपने शिशु को दिनभर में केवल 400 ग्राम दूध ही पिला पाती है।

अगर हम गुणवत्ता के सम्बन्ध में बात करें तो मां के अन्दर अपने बच्चे को भली प्रकार स्तनपान कराने की एक उत्कृष्ट क्षमता होती है, यहाँ तक कि जब आहार उसकी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त भी हो। ऐसी स्थिति में, माताएं स्वयं के स्वास्थ्य की कीमत पर अपने शरीर के पोषक तत्वों के भंडार में से स्तनपान की जरूरतों को पूरा करती हैं। हालांकि, पानी में घुलनशील विटामिन (एस्कॉर्बिक एसिड और ‘बी’समूह के विटामिन की आहार में कमी होने माँ के दूध में इन विटामिनों का स्तर कम हो जाता है। इस प्रकार स्तनपान को बढ़ावा देने के लिए, धात्री माताओं के इष्टतम पोषण-स्तर को बनाए रखने पर जोर देना अति आवश्यक है।

माँ का दूध बच्चे के लिए एक सम्पूर्ण आहार है और नवजात शिशु की चयापचय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विशिष्ट रूप से अनुकूलित भी है। स्तनपान, इस प्रकार, बच्चे को पोषण प्रदान करने का एक प्राकृतिक तरीका है, जो उसे पूरी तरह से निर्भर-सह-सुरक्षित इंट्रा-यूटेराइन वातावरण से निकालकर स्वतंत्र  एक्स्ट्रा-यूरेटाइन जीवन के अनुकूल बनाने में भी मदद करता है।

माँ का दूध केवल पचाने में आसान होता है, बल्कि यह अत्यधिक पौष्टिक भी होता है तथा विभिन्न संक्रमणों और बीमारियों से शिशु को प्रतिरक्षा प्रदान करता है। स्तन (मानव) दूध में पर्याप्त मात्रा में ओमेगा-3 और ओमेगा-6 जैसे आवश्यक फैटी एसिड्स होते हैं जो तंत्रिका विकास और मस्तिष्क के विकास के लिए आवश्यक होते हैं जिससे जीवन के शुरुआती महीनों में संज्ञानात्मक विकास होता है। इस प्रकार, ऊपरी आहार की तुलना में, स्तनपान करने वाले शिशुओं में बेहतर दृश्य तीक्ष्णता, बारीक मोटर कौशल एवं भाषा का जल्दी विकास भी शामिल हैं। हालांकि, धात्री माताओं- विशेषकर नई माताओं, को स्तनपान की सही विधि के बारे में सलाह देनी आवश्यक है।

भारत में, महिलाओं के आहार को सबसे कम प्राथमिकता दी जाती है और वे पूरे परिवार की भली-प्रकार देखभाल करके भी सबसे आखिरी में और बहुत कम खाती हैं। इसलिए, महिलाओं के पोषण को अधिक नहीं तो कम-से-कम एक समान महत्व दिया जाना चाहिए और परिवार के बाकी सदस्यों द्वारा इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। महिलाओं को खुद, विशेष रूप से गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान, अपने आहार पर ध्यान देने की जरूरत है- मात्रा और गुणवत्ता दोनों के सन्दर्भ में, न केवल खुद के लिए बल्कि पैदा होने वाले बच्चे के लिए भी (बढ़ते भ्रूण) जोकि शुरुआती जीवन में विशेष रूप से माँ पर पूरी तरह से निर्भर है।

शिशुओं में, जठरात्र सम्बन्धी मार्ग (सुरक्षात्मक बाधा) की श्लेष्म झिल्ली अपरिपक्व होती है और इसलिए बच्चों में संक्रमण रोगों के होने का भारी खतरा सदैव बना रहता है। इसी प्रकार, प्रारम्भिक शैशवावस्था विकास का एक नाजुक दौर है, इस अवस्था में आजीवन अच्छे स्वास्थ्य की नींव रखने के लिए इष्टतम पोषण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। एक पूर्ण अवधि के बच्चे में प्रोटीन/कार्बोहाइड्रेट्स और पायसीकारी वसा को पचाने की क्षमता होती है। हालांकि, छह महीने की उम्र के बाद, शिशु भोजन को पचाने के लिए विभिन्न एंजाइमों के उत्पादन के साथ-साथ उसे संक्रमण से सुरक्षा प्रदान करने के लिए एंटीबॉडी का उत्पादन करने की क्षमता भी प्राप्त करता है। हालांकि, शरीर में पानी का उच्च अनुपात होने के कारण दस्त और उल्टी जैसी स्थिति शिशु को निर्जलीकरण के लिए प्रवण बनाती है और गम्भीर स्थितियों में यह घातक भी साबित हो सकता है। तथ्य यह है कि माँ का दूध शिशु के दूध को पचाने की क्षमता के अनुसार ही बना होता है जोकि जन्म से लेकर छह महीने प्रसव के बाद तक सिर्फ स्तनपान करने के महत्व पर प्रकाश डालता है।

जन्म के पहले 5-6 महीनों के दौरान मस्तिष्क की कोशिकाओं (न्यूरॉन्स) की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है जोकि हालांकि धीमी दर पर जीवन के दूसरे वर्ष तक जारी रहती है। अतः इस अवधि के दौरान, किसी भी प्रकार का कुपोषण/अल्पपोषण, विशेष रूप से सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी जैसे लौह, आयोडीन, जस्ता और अन्य, बच्चे के मस्तिष्क के विकास को प्रभावित कर सकते हैं तथा जो धीमे मानसिक विकास की ओर ले जा सकता है। इसीलिए दो वर्ष से कम उम्र के बच्चों के पोषण को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए और वर्तमान में सबसे अधिक जोर पहले 1,000 महत्त्वपूर्ण दिनों (गर्भधारण से लेकर 2 वर्ष की आयु तक; 270 दिन जन्म से पूर्व अर्थात भ्रूणावस्था+ 730 दिन प्रसवोत्तर जीवन) पर दिया जाना चाहिए। इस अवधि के दौरान लक्षित हस्तक्षेपों के साथ उचित देखभाल बच्चे के विकास पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकती है और साथ ही यह कुपोषण के अंतर-पीढ़ी चक्र को तोड़ने में भी मदद कर सकती है। इस प्रकार, यह अवधि बच्चे के उचित विकास एवं स्वस्थ नींव रखने के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त, समय पर पूरक आहार शुरू किया जाना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पूरक खाद्य पदार्थ बढ़ते बच्चे की पोषण सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त ऊर्जा, प्रोटीन और विभिन्न सूक्ष्म पोषक तत्व प्रदान करें। इस परिवर्तन चरण के दौरान शिशु अत्यधिक असुरक्षित होते हैं (सिर्फ स्तनपान करने वाले चरण से लेकर पूरक खाद्य पदार्थों की शुरुआत तक)। अतः इस दौरान उचित स्वच्छता/रखरखाव को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। पूरक खाद्य पदार्थों को भली प्रकार घर में तैयार, संग्रहति करके बच्चे को खिलाया जाना चाहिए (बोतल/निप्पल निषिद्ध)। इष्टतम स्तनपान और पूरक आहार प्रथाएं, दस्त और निमोनिया जैसे संक्रमणों के कारण होने वाली 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की (अंडर 5) मृत्युदर (USMR) को कम  करने में भी, महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

शिशुओं और बच्चों को इष्टतम पोषण प्रदान करना बेहद महत्त्वपूर्ण है लेकिन विकास की नियमित निगरानी भी उतनी ही आवश्यक है। जो न केवल यह दर्शाता है कि बच्चे की वृद्धि और विकास उचित है या नहीं, अपितु यह सम्भावित पोषण/स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के सामने आने से कहीं पहले उजागर भी करता है। शरीर के वजन के आधार पर, किसी भी अन्य उम्र/लिंग समूह  की तुलना में शिशुओं और छोटे बच्चों की पोषक तत्वों की जरूरत सबसे अधिक है। माता-पिता और बच्चे की देखभाल करने वाले लोगों के दिमाग में इस बात की बार-बार पुष्टि की जानी चाहिए, जो आमतौर पर उनकी बढ़ती जरूरतों को अनदेखा करते हैं।यह आमतौर पर माना जाता है कि बच्चे छोटे हैं और इसलिए उनकी पोषक आवश्यकताएं भी कम हैं और इसलिए छोटे शिशु/बच्चे को उनकी जरूरतों के अनुसार नही खिलाया जाता है। अतः यह कुपोषण के साथ-साथ अक्सर अनुचित एवं अपरिवर्तनीय शारीरिक/मानसिक विकास को जन्म देता है। इसलिए, शिशु और छोटे बच्चों के पोषण पर अत्यधिक महत्व दिया जाना चाहिए और उचित (आईवाईसीएफ-इंफेंट एंड यंग चाइल्ड फीडिंग) प्रथाओं का लोगों द्वारा पालन किया जाना चाहिए।

उचित वृद्धि और विकास के लिए, बचपन में भी पर्याप्त पोषण महत्त्वपूर्ण है। हालांकि, बचपन या किशोरावस्था में विकास दर उतनी तीव्र नही होती है इसलिए, प्रति किलो शरीर के वजन के आधार पर उनकी पोषक तत्वों की जरूरत विशेष रूप से ऊर्जा की जरूरतें शिशुओं की तुलना में अपेक्षाकृत कम होती हैं। इस दौरान, भोजन की कई आदतें, पसंद और नापसंद आदि तय होती हैं जो उनके भोजन व खाने के पैटर्न को भी प्रभावित करते हैं और जिनमें से कुछ उनके बाद के जीवन में समस्याएं भी उत्पन्न कर सकती हैं। सावधानीपूर्वक समझ और सूझबूझ से इस आयु वर्ग में स्वस्थ खाने की आदतों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। खेल में शामिल बच्चों की पोषण सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करना उनकी उचित वृद्धि और इष्टतम विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

बाल्यावस्था के दौरान खाना खाने की कम क्षमता और तुलनात्मक रूप से ऊर्जा व विभिन्न पोषक तत्वों की अत्यधिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए, बच्चों को ऊर्जा व पौष्टिक तत्वों से भरपूर भोजन खाना आवश्यक है। अतः उन्हें पौष्टिक तत्वों से भरपूर व आसानी से आए जाने वाले खाद्य पदार्थ देने की प्रथा को बढ़ावा दिया जाना चाहिए और उन्हें कम अंतराल पर थोड़ी-थोड़ी मात्रा में भोजन खिलाया जाना चाहिए। लम्बे समय तक कुपोषण स्टंटिंग, वेस्टिंग, गैर-संचारी रोगों (एनसीडी), रुग्णता और मृत्यु-दर में वृद्धि के साथ-साथ कार्यक्षमता में कमी की ओर अग्रसर करता है; और ये सभी देश को भारी आर्थिक नुकसान पहुँचाने के लिए भी जिम्मेदार है।

चूंकि व्यापक रूप से कुपोषण आहार की अपर्याप्तता के कारण होता है, इसलिए दैनिक आहार में सुधार लाना आवश्यक है। विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों को शामिल करके मात्रा, गुणवत्ता दोनों पर ध्यान देने के साथ-साथ आहार-विविधता को बढ़ावा देने की भी आवश्यकता पोषक तत्वों के पर्याप्त सेवन को सुनिश्चित करने में मदद मिलती है। अतः संतुलित आहार में विभिन्न खाद्य पदार्थों को शामिल करके आम जन तक पहुँचाने की आवश्यकता है। उचित पोषण के साथ-साथ पर्याप्त शारीरिक गतिविधियां अच्छा स्वास्थ्य और फिटनेस बनाए रखने का सबसे अच्छा नुस्खा है।

बचपन से ही स्वस्थ  खाने की आदतों को अपनाना बेहद जरूरी है, जिसे बाद में वयस्कता के दौरान बनाए रखा जा सकता है। स्वस्थ भोजन की आदतों को अपनाने से बच्चों को न केवल बचपन में बल्कि सम्पूर्ण जीवन में स्वस्थ जीवनशैली का पालन करने में मदद मिलेगी। कुपोषण के दोहरे बोझ (अल्पपोषण के साथ-साथ अधिक वजन/मोटापा) को बचपन में ही ठीक करने की बहुत जरूरत है।

(लेखिका सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं पोषण विशेषज्ञ, पूर्व निदेशक इंस्टीट्यूट ऑफ होम इकोनॉमिक्स, दिल्ली विश्वविद्यालय और एसोसिएट, न्यूट्रीशन फाउडेशन ऑफ इंडिया हैं।)

ई-मेलः sjpassi@gmail.com

Disqus Comment

जल संपत्ति एवं यथोचित आपूर्ति-एक अवलोकन

$
0
0
जल संपत्ति एवं यथोचित आपूर्ति-एक अवलोकनHindiWaterWed, 01/29/2020 - 13:11
Source
केंद्रीय जल एवं विद्युत् अनुसंधानशाला, पुणे

सारांश

भारत में प्रचुर मात्रा में जल स्रोत हैं, परंतु उनका नियोजन और संचालन ही उनका भविष्य निर्धारित कर सकता है। विश्व की जनसंख्या का तो 17% भारत में है परंतु विश्व के मात्र 4% स्वच्छ पेय जल के स्रोत हमारे देश में हैं। हमारे आर्थिक विकास को बढ़ाने में और हमारे नागरिकों के जीवन स्तर को उठाने में जल का ही महत्वपूर्ण योगदान रहेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे देश के कृषि क्षेत्र में जल के उचित नियोजन की कमी है। उदाहरण के लिए हमारे जिन क्षेत्रों में पानी की कमी है वहाँ पर भी चावल और गन्ने जैसी फसल पाई जाती है जिन्हें बड़े पैमाने पर पानी की आवश्यकता होती है। प्रति एक किलो चावल को उगाने में पंजाब, बिहार की तुलना में तीन गुना और पश्चिम बंगाल की तुलना में दुगना पानी प्रयोग कर रहा है। इसके लिए प्रयुक्त जल का 80% तो भूजल से ही दोहा जाता है। आज भारत जिस बासमती चावल का निर्यात कर रहा है, अपरोक्ष रूप से उसकी कीमत 10 ट्रिलियन लीटर पानी के बराबर है।

यदि आज आवश्यकता है तो परम्परागत तरीके से नदी, तालाब, झील, जलाशय और कुओं को संवर्धित करने की और उन्हें पुनर्जीवित करने की। भूगर्भीय जल का दोहन करने के साथ-साथ आधुनिक तकनीक से उसके स्तर पर भी नजर रखनी पड़ेगी और केवल खेती के लिए प्रयोग में आने वाले जल के व्यय का अलग से आंकलन करना होगा। नल-कूपों से पानी निकालने के साथ-साथ उनको फिर से कैसे रिचार्ज किया जाए, इसका नियोजन भी आवश्यक है। कम पानी वाले इलाकों में उसके अनुकूल फसल लगाकर और कपास तथा गन्ने की खेती को हतोत्साहित करके तथा उसके स्थान पर ऐसी अन्य वैकल्पिक फसलें, जैसे टमाटर, खरबूजा, विभिन्न प्रकार की फलियाँ, जिनको कम पानी की आवश्यकता होती है, को लगाकर जल-नियोजन किया जाना चाहिए।

हमारे किसान एक फसल की पैदावार में चीन, इजराइल और अमेरिका के किसानों की तुलना में तीन से पांच गुना अधिक पानी इस्तेमाल करते हैं। हमारे किसानों की गणना, फसल में इस्तेमाल किये जाने वाले जल की तुलना में पैदावार की उत्पादकता की दक्षता में विश्व में सबसे कम दक्षता वाले देशों में होती है। इस प्रकरण का एक सुझाव यह हो सकता है कि ऐसी फसलों, जैसे ज्वार, बाजरा, रागी, उर्द, अरहर, चना और मूंग, जिनमें प्रचुर मात्रा में प्रोटीन है और पानी भी कम लगता है, को उगाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जाए और स्थानीय प्रबंधन करके स्कूलों में मिड-डे मील के लिए इन सभी प्रोटीन-युक्त अनाज और दालों को इस्तेमाल के लिए उपलब्ध कराकर उन्हें उनकी इस पैदावार के लिए अधिकतम कीमत दी जाए।

Abstract

Natural resources in India are aplenty, but the proper planning and management can determine their future. While 17% of the population of the world is in India but only 4% of the fresh water sources are in our country. Water is essential to increase our economic development and to raise the social strata of our citizens. It is worth to emphasize that, in the agriculture sector of our country, proper planning of water usage is much to be improved. For example, in the regions where there is scarcity of water, we find the crops like rice and wheat, which require water on a large scale. For growing one kilogram of rice, Punjab is using three times of water in comparison to Bihar and twice as much as of West Bengal and for this purpose 80% of the water is exploited from ground. Today, the Basmati rice, which is exported by India, is indirectly costing us equivalent to 10 million litres of water.

There is a necessity to revive rivers, ponds, lakes, reservoirs and wells in a conventional manner. Along with exploiting ground water, we will also have to keep watch on its level and will have to separately assess the expenditure of water in agriculture through modern techniques. Along with lifting water from the bore well, how to recharge them again is an urgent issue. By adopting appropriate crops and by discouraging farming of cotton and sugarcane in water scarce areas, and in its place farming of other alternative crops like tomato, melon, various types of beans, which require less water, there is good scope for efficient farming.

Our farmers are using three to five times more water to produce one crop compared to the farmers of China, Israel and America. When we talk about the yields of productivity as compared to the water used in the farming, our farmers are counted among the lowest in the world. One suggestion could be to encourage the farmers to grow crops, such as millets, various types of pulses and gram, which are high in protein and use less amount of water be given maximum price for this yield by using local distribution of all these rich protein cereal and pulses for mid-day meal in the schools.

1.0 परिचय

जल मानव अस्तित्व और उन्नति के लिए एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है। पानी हमारे ग्रामीण और शहरी समुदायों के लिए स्वच्छता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पानी एक महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधन भी है। यह कृषि के सभी रूपों और अधिकांश औद्योगिक उत्पादन प्रक्रियाओं के लिए आवश्यक है। पानी पारिस्थितिकी तंत्र और विभिन्न पर्यावरणीय प्रक्रियाओं में भी सहायक होता है। यह औद्योगिक अपशिष्टों और घरेलू मल के समावेश के लिए भी आवश्यक है। पानी को व्यापारिक रूप में पर्यटन और परिवहन के रूप में इस्तेमाल करने का काम अभी शेष ही है।

आज दुनिया भर में मीठे-पानी (पीने योग्य पानी) के संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है। वृहद परिप्रेक्ष्य में तो दुनिया भर में मीठे पानी की कुल उपलब्धता एक स्तर पर नियत बनी हुई है परंतु एक सूक्ष्म परिप्रेक्ष्य में, जलवैज्ञानिक संतुलन में परिवर्तन, अति-दोहन और मीठे पानी के भंडार के बढ़ते प्रदूषण के कारण कई क्षेत्रों और इलाकों में मीठे पानी की आपूर्ति कम हो रही है। कई तीसरी-दुनिया (ऐसे देश जो शीत युद्ध के समय न तो नाटो के साथ थे और न ही सोवियत गुट के साथ) के देश पहले से ही पानी की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं। विश्व की बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्यान्न उत्पादन, पारिस्थतिकी संतुलन की सुरक्षा और राष्ट्रों के बीच शांति बनाए रखने की राह में पानी की कमी एक बड़ी बाधा के रूप में सामने आ रही है।

भारत इस संकट का अपवाद नहीं है। बढती हुई जनसंख्या ने, जोकि जल्द ही 1.5 बिलियन को छूने वाली है, अत्यधिक जल प्रयोग वाली कृषि और तेजी से होते हुए शहरी औद्योगीकरण ने मीठे पानी के संसाधनों पर भारी दबाव डाला है। जल की बढ़ती समस्याएं पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन, सामाजिक स्थिरता और आर्थिक विकास के लिए गंभीर खतरा पैदा करती हैं। भारत में सदियों से सिंचाई, पीने और घरेलू जल आपूर्ति के लिए जल की सामुदायिक प्रबंधन की स्वदेशी प्रणाली अस्तित्व में थी। औपनिवेशिक शासन के दौरान पारंपरिक समुदाय आधारित जल प्रबंधन में एक भारी तब्दीली देखी गई। अंग्रेजों ने बड़े बैराजों और नहरों का निर्माण तो किया, लेकिन सिंचाई प्रणाली पर प्रबंधन की जगह शासन का दबाव रहा।

अविभाजित भारत में 15.2 मिलियन हेक्टेयर नहर द्वारा सिंचित भूमि को मिलाकर, 28.2 मिलियन हेक्टेयर कुल सिंचित भूमि थी। देश के विभाजन ने कई सिंचाई स्रोतों को पाकिस्तान को खो दिया। 1949-50 के दौरान देश का खाद्यान्न उत्पादन लगभग 62 मिलियन टन था। कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने और भोजन में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए एक के बाद एक कई पंचवर्षीय योजनाओं में सिंचाई के विकास के क्षेत्र में बड़े निवेश को प्राथमिकता दी गई। कई बड़ी, मध्यम और लघु सिंचाई योजनाओं का निर्माण किया गया। नतीजतन, कुल सिंचित क्षेत्र 1991 में 46.2 मिलियन हेक्टेयर हो गया जिससे 1995 तक खाद्यान्न उत्पादन 2.42 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि के साथ 180 मिलियन टन पहुँच गया। सिंचित क्षेत्र में विस्तार के कारण ही 1964-65 से 1970-71 के दौरान खाद्य-अनाज उत्पादन 3.3 प्रतिशत की उत्कृष्ट दर से बढ़ा।

भारत में, विशेषकर शहरी क्षेत्रों में, पिछले कुछ दशकों से जनसंख्या में वृद्धि के कारण, भोजन तथा घरेलू पानी की जरूरत बढ़ने से और इसी के साथ-साथ औद्योगिक विकास होने से उत्पादन तथा अपशिष्टों के निकास हेतु पानी की मांग में तेजी से वृद्धि हुई है। सतह और भूजल के दोहन के माध्यम से मांग के साथ तालमेल बनाए रखने के लिये आपूर्ति कई गुना बढ़ गई है। नतीजतन, भूजल संसाधनों का कई शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में अत्यधिक दोहन हुआ, जिससे बड़े पैमाने पर जल-स्तर, भूजल की गुणवत्ता और अच्छे भूजल की उपलब्धता में भारी गिरावट आई है। बढ़ते हुए औद्योगिक अपशिष्ट और महानगरीय अपशिष्ट से मीठे पानी की आपूर्ति तेजी से प्रदूषण के खतरे में आ रही है।

यह स्थिति लगातार अभूतपूर्व रूप से बढ़ती गई है। स्वतंत्रता के बाद 1951 में देश में प्रति व्यक्ति मीठे पानी की उपलब्धता 5177 घन मीटर प्रतिवर्ष थी। देश में प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक जल उपलब्धता जनसंख्या में वृद्धि के कारण उत्तरोत्तर कम हो रही है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए पानी की औसत वार्षिक प्रति व्यक्ति उपलब्धता, 2001 की जनगणना, 2011 की जनगणना और वर्ष 2025 तथा 2050 के लिए जनसंख्या के अनुमान के अनुसार तालिका-1 में इस प्रकार हैः

यह शोधपत्र जल के एक विश्लेषणात्मक अवलोकन को प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। पत्र दो खण्डों में विभाजित है; एक खंड चुनौतियों, मुद्दों तथा संकटों और दूसरा उससे निपटने के वैकल्पिक मार्गों का विश्लेषण प्रदान करता है।

2.0 भारत में जल सम्बंधित संकट

भारत का भौगोलिक स्वरुप इस प्रकार का है कि इसका एक भाग जिस समय सूखे की मार झेलता हो उसी समय दूसरे हिस्से में बाढ़ का प्रकोप होता है। उसी प्रकार किसी भाग की भूमि और जलवायु कृषि के लिए बहुत अच्छी है तो किसी भाग की भूमि कृषि के लिए बिलकुल ही विपरीत। देश के प्रमुख जल संकटों को हम आगे के भाग में देख सकते हैं।

2.1 प्राकृतिक आपदाएं

पानी की कमी और उपलब्धता दोनों ही मौसमी एवं सामयिक कारकों पर निर्भर करती है। मौसमी स्थितियां, किसी क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों के साथ मिलकर, देश के जल-परिदृश्य को काफी प्रभावित करती हैं। इन्हीं विशेष भू-आकृतिक विशेषताओं के चलते भारत विभिन्न भू-भौतिकीय खतरों से घिरा हुआ है। भारत का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा छोटे-बड़े भूकम्पों की आशंकाओं से ग्रसित है। 12 प्रतिशत भाग बाढ़, 8 प्रतिशत चक्रवात और 60 प्रतिशत सूखे के खतरे से घिरा है। यहाँ उदाहरण के तौर पर उड़ीसा, असम और उत्तराखंड जैसे राज्यों को देख सकते हैं। उपयुक्त संगठनात्मक प्रणाली की कमी, अनुचित भूमि प्रबंधन, उच्च जोखिम वाले इलाकों में बढ़ती बस्तियों के कारण इन आपदाओं के आर्थिक और मानवीय प्रभाव बढ़ रहे हैं। निरंतर प्राकृतिक और मानवजनित आपदाएं अर्थव्यवस्था के लिए एक गंभीर बाधा हो सकती हैं। वर्ष 2009 में ही भारत को, जल और मौसम संबंधी आपदाओं के कारण लगभग 121.14 बिलियन रू. का नुकसान हुआ था जोकि पूरे विश्व की चौथी सबसे बड़ी राशि थी। महाराष्ट्र में 2003 के सूखे और 2005 की बाढ़ में, कृषि और ग्रामीण विकास के 2002-07 के निर्धारित बजट (152 बिलियन) से अधिक पैसा (175 बिलियन) खप गया।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारी और अनियमित वर्षा कई राज्यों में बाढ़ का एक कारण है। लेकिन हाल ही में महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल के साथ अन्य राज्यों में जलप्रलय के तहत, उनकी बाढ़ प्रबंधन प्रणाली पर सवाल उठाए जा रहे हैं। यह आपदा उसी समय, क्षेत्र में स्थित बांधों से पानी छोड़ने के कारण बढ़ जाती है, जब लगातार बारिश हो रही हो। विभिन्न बांधों से पानी छोड़ने के कुप्रबंधन ने महाराष्ट्र के कोल्हापुर, सांगली और सतारा जिलों में बाढ़ से युद्धस्तर पर बचाव करने योग्य स्थिति उत्पन्न कर दी। जब बाढ़ शुरू हुई उस समय क्षेत्र में तीन बड़े बाँध-कोयना, राधानगरी और वारणा लगभग 100% भर गए थे। उसके पहले तक उनसे कोई पानी नही छोड़ा गया। यदि पानी पहले से ही छोड़ना शुरू किया गया होता तो भारी बारिश के दौरान उनके पास पर्याप्त जगह होती। यहाँ पर हम 2018 में केरल की भीषण बाढ़ को याद कर सकते हैं जिसने वहाँ की पहाड़ी इलाकों के जन जीवन और अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। इस दिशा में बाढ़ की स्थिति से निपटने के लिए एक केन्द्रीय नियम नीति की अति आवश्यकता है।

2.2 भूतल जल की संभावित क्षमता में गिरावट

हालांकि, हमारे द्वारा प्राकृतिक अपवाह के उपयोग का स्तर बहुत कम है, लेकिन बहुत से ऐसे कारण हैं कि आगे के लिए उनका प्रयोग सीमित ही है। पहला कारण तो यह कि लगभग सभी व्यवहारिक स्रोत पहले से ही शोषित और काफी गहनता से प्रयोग किये जा रहे हैं। भविष्य में इनके शोषण की सामाजिक और पर्यावरणीय कीमत बहुत अधिक होगी। बड़े बांधों के निर्माण के परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर समुदायों का विस्थापन हुआ और वे अपने पारंपरिक आजीविका के स्रोतों और अवसरों से वंचित हुए। मौलिक मानवाधिकार, बराबरी और सामाजिक न्याय के मुद्दे जो विकास के इस स्वरुप में निहित हैं, विस्थापन जैसे छोटे मुद्दे की तुलना में कहीं अधिक गंभीर हैं। बुनियादी बात यह है कि जो लोग विकास के फल प्राप्त करते हैं, वे वो लोग नहीं होते जिनको कीमत चुकानी पड़ती है। ऐसा भी पाया गया है कि बड़े-बड़े जल-विद्युतीय पॉवर प्लांटो के आस-पास के क्षेत्र बिजली से वंचित रह जाते हैं जबकि उन तक यह सुविधा सबसे पहले पहुंचनी चाहिए। इसका एक उदहारण चित्र-1 में प्रदर्शित मणिपुर का लोकतक जल-विद्युत पॉवर प्लांट है जहाँ आज भी उसके पास के क्षेत्र बिजली से वंचित हैं।

चित्र-1: लोकतक जल-विद्युत पॉवर प्लांट और आस-पास के परिवेश का एक दृश्य

दूसरा कारण यह कि भारत में बड़ी जल परियोजनाएं तेजी से पर्यावरणविदों और सामाजिक न्याय कार्यकर्ताओं की जांच के दायरे में आ रही हैं। बड़े बाधों से पर्यावरण और पारिस्थितिकी संतुलन को होने वाले खतरे अच्छी तरह से जाने-बूझे हुए हैं। पारंपरिक रूप से समझा जाता है कि बड़े बाँधों के बड़े पैमाने पर जलमग्न होने से नकारात्मक पर्यावरणीय परिणाम होते हैं, जबकि सिंचाई के सकारात्मक पर्यावरणीय और पारिस्थितिक प्रभाव की अनदेखी की जाती है। तीसरा कारण यह कि बड़ी जल परियोजनाओं के लिए पूँजी की उपलब्धता भी सवालों के घेरे में है। बड़ी बाँध परियोजनाओं के सामाजिक और पर्यावरणीय परिणामों के बारे में जागरूकता बढ़ने से कई अंतर्राष्ट्रीय सहायता प्राप्त एजेंसियां सार्वजनिक निगरानी में लगी हुई हैं। इससे भारत में बड़ी बाँध परियोजनाओं के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्तिया सहायता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

एक ओर जहाँ 1991 में प्रति हेक्टेयर जलग्रहण क्षेत्र के लिए औसत वार्षिक उपलब्धता अधिकतम 20000 मी3 और न्यूनतम 2000 मी3 थी (चित्र-2), वही उपलब्धता 2025 तक अधिकतम 10000 मी3 और न्यूनतम 400 मी3 से भी कम रह जाएगी (चित्र-3)।

2.3 मौजूदा योजनाओं की क्षमता में कमी

भारत में बड़े जलाशय वाली योजनाओं के सामने गंभीर समस्याएं हैं। जलग्रहण क्षेत्र में तेजी से मिट्टी का कटाव और इसके बाद जलाशयों का तेजी से बहना जल विज्ञानियों के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है। प्रायः मृदा अपरदन और गाद (सिल्टेशन) की वास्तविक दर गणना किये गए अनुमानों की तुलना में बहुत अधिक होती है। उदाहरण के तौर पर, साबरमती नदी पर बने धरोई जलाशय के लिए नियोजन के समय पर गाद की अनुमानित दर 1.6 एमसीएम थी। लेकिन 1994 में हुए सर्वे में पाया गया कि गाद लगभग 10 एमसीएम प्रतिवर्ष की दर से हो रही थी। इसका परिणाम जलाशय की घटती भंडारण क्षमता के रूप में सामने आता है। इसके अतिरिक्त नहरों से अत्यधिक जल रिसाव और सिंचित खेतों में ख़राब जल-निकासी के कारण कई नहर संचालित क्षेत्रों में जलभराव और लवणता की व्यापक समस्या पैदा हो रही है। लम्बे समय तक जलभराव और लवणता कृषि भूमि की उत्पादकता में गिरावट का कारण बनते हैं और उसे बंजर भूमि में बदल देते हैं। आज, पंजाब और हरियाणा के कुछ क्षेत्र, जो लवणता और जलभराव से पीडि़त हैं, घटती हुई उत्पादकता दिखा रहे हैं।

2.4 प्राकृतिक मीठे पानी की क्षीण होती आपूर्ति

आज, विकासशील देशों में जल-प्रदूषण एक बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि मानव कल्याण और आर्थिक विकास पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। भारत में यह उदार आर्थिक नीतियों के माध्यम से हुए औद्योगीकरण के पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक दुष्परिणाम के रूप में सामने आया है। जल आपूर्ति की उपलब्धता पर उद्योगों का कई गुना प्रभाव पड़ा है। उद्योग, श्रम की मांग के फलस्वरूप प्रवासी आबादी उत्पन्न करते हैं जिससे नए शहरी केंद्र और मलिन बस्तियां बनती हैं। उद्योग अपशिष्ट उत्पन्न करते हैं। सघन आबादी भी घरेलू मल के रूप में भारी मात्रा में अपशिष्ट उत्पन्न करती है। प्रायः उद्योग अपने उपचारित, अनुपचारित या आंशिक रूप से उपचारित अपशिष्ट को नदियों में ही बहाते हैं जोकि मीठे पानी की उपलब्धता को प्रभावी रूप से कम करता है। घरेलू और नगरपालिकाओं के अपशिष्ट भी बहती धाराओं में अपना रास्ता तलाशते हैं!

भारत में नदियों का प्रदूषण काफी व्यापक है। सेंट्रल बोर्ड फॉर प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ़ वाटर पॉल्यूशन द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार, 1979 की शुरुआत में ही, औद्योगिक कचरे के अंधाधुंध निपटान के कारण सभी 14 प्रमुख नदियों के बड़े हिस्से दूषित हो गए थे। समस्या की गंभीरता का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि ये नदियाँ देश की 82 प्रतिशत आबादी को सुविधा देती हैं। भारत की सबसे पवित्र नदी, गंगा नदी के किनारे स्थित उद्योग और कस्बे, प्रतिदिन करीब 1700 मिलियन लीटर अपशिष्ट का नदी में बहाव करते हैं। इससे नदी के जैविक और रासायनिक प्रदूषण का स्तर खतरनाक रूप से बढ़ रहा है।

2.5 भूमिगत जल का अति दोहन

भूमिगत जल संसाधन भारत में अति दोहन के संकेत दिखा रहे हैं। लेकिन भूमिगत जल के राष्ट्रीय स्तर के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार रिचार्ज हो सकने वाले भूमिगत जल का केवल 30 प्रतिशत भाग ही अब तक प्रयोग किया गया है। हालाँकि, ये आंकड़े भारत के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी इलाकों के भूजल अधिशेष क्षेत्रों से प्रभावित हैं। लम्बे समय तक असीमित अक्षय प्राकृतिक संसाधन के रूप में देखे जाने वाले भूमिगत जल की आपूर्ति पर खतरा अब तेजी से स्पष्ट हो रहा है। यह संसाधन कई क्षेत्रों में पहले से ही अतिदोहित है। उत्तर गुजरात के जलोढ़ क्षेत्रों में जल स्तर में गिरावट और कच्छ तथा सौराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों में समुद्री जल का घुसना सर्वविदित है। राजस्थान, पंजाब, तमिलनाडु और कर्नाटक के कई हिस्सों में भूजल स्तर के गिरने की समस्याएं देखी ही गई हैं।

भूजल के अतिदोहन में बहुत से कारक योगदान करते हैं। भू-स्वामी के पास पूरा अधिकार है कि वह अपनी भूमि के नीचे उपस्थित जल का कैसे उपयोग कर रहा है। पम्पिंग किये गए जल की मात्रा पर भी कोई प्रतिबन्ध नहीं है। पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य से, भूमिगत जल सूखे के समय एक बफर भंडार की तरह काम करता है। यह बफर भंडार उस समय फसलों को बचने के काम आता है जब कम अथवा बिलकुल भी वर्षा न हुई हो। लम्बे कालखण्ड में, यह स्थिति खाद्य सुरक्षा और सूखे के प्रतिरोध के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकती है।

भारत के कई हिस्सों में भूजल की गुणवत्ता में भी गिरावट देखी जा रही है। देश के 184 जिलों में फ्लोराइड की मात्रा 1.5 पीपीएम की अनुमेय सीमा से अधिक है जिससे 25 मिलियन से अधिक लोग प्रभावित हैं। पूर्वी और उत्तर-पूर्वी इलाकों में आयरन अधिकांशतः 0.3 पीपीएम की अपनी सीमा से ऊपर है। यहाँ तक कि आर्सेनिक जैसा जहरीला तत्व भी प0 बंगाल के कई जिलों को प्रभावित कर चुका है। असम में स्थित को पिली जलाशय में सल्फर युक्त पानी की वजह से पूरा जल-जीवन खतरे में है।

चित्र-4 में देखा जा सकता है कि लाल रंग से प्रदर्शित पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु के क्षेत्र भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन कर चुके हैं।

3.0 भारत का जल संकटः स्थायी समाधान की आवश्यकता

प्रमुख भारतीय शहरों, विशेष रूप से चेन्नई में पानी की अत्यधिक कमी ने भारत में पानी की कमी के मुद्दे पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। हालांकि विशेषज्ञ, पर्यावरणविद और गैर-सरकारी संगठन लंबे समय से इस संकट के बारे में बता रहे थे परन्तु वे तब तक सफल नहीं हुए जब तक बड़े शहरों में नल सूखने शुरू नहीं हो गए। नीति आयोग ने जून 2018 में समग्र जल प्रबंधन सूचकांक नामक एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें यह स्वीकार गया कि देश इतिहास के सबसे बुरे जल संकट से पीडि़त है और लगभग 600 मिलियन लोग या लगभग 45 प्रतिशत भारतीय आबादी गंभीर जल तनाव से ग्रसित है। इसके अलावा रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया कि 2020 तक 21 भारतीय शहरों में भूजल समाप्त हो सकता है (जोकि अधिकाँश भारतीय शहरों में पानी का मुख्य स्रोत है), और 2030 तक लगभग 40 प्रतिशत आबादी के पास पीने के पानी की कोई सुविधा नहीं होगी। पानी की किल्लत के कारण 2050 तक भारत की जीडीपी का 6: नुकसान होगा। इस रिपोर्ट के जारी होने के ठीक एक साल बाद सरकार ने 2024 तक सभी ग्रामीण घरों में पीने का साफ़ पानी उपलब्ध करने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य की घोषणा की है जोकि सराहनीय है।

3.1 कृषि और सिंचाई के स्वरुप में जरूरी बदलाव

कृषि, औद्योगिक और घरेलू, सिंचाई में लगभग 90% ताजे पानी की निकासी की जाती है। इसलिए देश में जल प्रबंधन की दिशा में किसी भी गंभीर प्रयास को कृषि सिंचाई के प्रबंधन पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। भारत की वार्षिक कृषि जल निकासी चीन और अमरीका को पीछे छोड़ते हुए दुनिया में सबसे अधिक है। तालिका-2 से पता चलता है कि चीन, जिसके पास भारत की तुलना में सिंचाई के लिए बड़ा क्षेत्र है, कृषि प्रयोजनों के लिए काफी कम पानी निकाला जाता है।

सिंचित क्षेत्रों में नहर द्वारा सिंचाई की हिस्सेदारी में गिरावट आई है और भूजल सिंचाई अब कुल सिंचित क्षेत्र के आधे से अधिक भाग में देखी जाती है। भूजल अतिदोहन की यह अधिकता देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में अधिक है। इसके अलावा भूजल का उपयोग पंजाब, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में धान और गन्ना जैसी कुछ सबसे अधिक पानी वाली फसलों की खेती के लिए किया जाता है। चावल, जोकि भारत की मुख्य खाद्य फसल है, एक किलोग्राम के लिए 3500 लीटर पानी की खपत करता है।

पंजाब, जो चावल का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, पूरी तरह से चावल के उत्पादन के लिए भूजल पर निर्भर है। हालांकि राज्य भूमि उत्पादकता के मामले में अच्छा है लेकिन जल उत्पादकता में पूर्वी राज्यों से पीछे है। एक किलोग्राम चावल का उत्पादन करने में पंजाब को बिहार और पश्चिम बंगाल से दो से तीन गुना अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती है। राज्य खरीद नीति और बिजली पर सब्सिडी पंजाब के किसानों के चावल के उत्पादन को लाभकारी बनाती है जबकि बिहार, प0 बंगाल, असम और त्रिपुरा जैसे राज्यों में, जो बारिश के मामले में बेहतर हैं, इस प्रकार के प्रोत्साहनों की कमी है। भारत चावल के एक प्रमुख निर्यातक के रूप में उभरा है जिसका अर्थ है कि भारत जैसा जल-संकट से जूझता देश वास्तव में प्रतिवर्ष लाखों लीटर पानी का निर्यात कर रहा है! गन्ने की कहानी भी इसी समान है जो कि महाराष्ट्र में एक और अधिक पानी की फसल है। महाराष्ट्र में किसान भूजल का उपयोग करके गन्ने की खेती करते हैं क्योंकि उन्हें चीनी मिलों द्वारा विपणन का आश्वासन दिया जाता है जबकि बिहार जो गन्ने के उत्पादन के लिए अधिक उपयुक्त है, देश के कुल गन्ने के उत्पादन का केवल 4% उत्पादन करता है।

राज्य सरकारों को पानी की कमी वाले क्षेत्रों में दलहन, बाजरा और तिलहन जैसी कम पानी उपयोग वाली फसलों की खेती को प्रोत्साहित करना चाहिए और विशेषकर चावल को केवल जल-समृद्ध क्षेत्रों में ही उगाया जाना चाहिए। फसल के दोषपूर्ण स्वरुप के अलावा, कृषि में जल उपयोग दक्षता भी बहुत कम है। बाढ़ सिंचाई, भारत में सिंचाई का सबसे सामान्य रूप है, जिससे पानी की बहुत अधिक हानि होती है।

सबसे पहले तो देश के उत्तर-पश्चिमी और मध्य भाग में, जो पानी के लिए गंभीर रूप से तनावग्रस्त हैं, चावल और गन्ना जैसी अधिक जल प्रयोग वाली फसलों की खेती को बंद कर देना चाहिए। किसानों को बाजरा जैसी फसल, जिसमें बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है, की तरफ स्थानांतरित करने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। दूसरा, राज्य समर्थन के साथ ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली का प्रसार तेजी से करना चाहिए। तीसरा, उप-सतही सिंचाई, रिज-फरो विधि से बुवाई, सटीक खेती इत्यादि नयी कृषि प्रथाओं, जो कि जल उपयोग को कम करने की क्षमता रखती हैं, को भी अपनाया जाना चाहिए (चित्र-5 व 6)।

जल के सामान्य और कृषि में उपयोग को अनुकूलित करने में इजराइल दुनिया के लिए उदहारण है। इजराइल में माइक्रो इरीगेशन का विकास हुआ और धीरे-धीरे दुनिया भर में फैला। यही वह तकनीक है जिसमें भारतीय कृषि का चेहरा बदलने की क्षमता है। इस प्रकार के समाधानों को व्यापक रूप से अपनाने और सभी को उपलब्ध कराने के लिए सरकार द्वारा किये जाने वाले कार्यों को और अधिक आक्रामक प्रचार के साथ, और माइक्रो इरीगेशन पर किसानों के लिए सब्सिडी प्रक्रिया को सरल बनाकर करना होगा। जल प्रबंधन के क्षेत्र में अच्छी तरह से स्थापित इजराइल ने सिंचाई के लिए अपशिष्ट जल का पुनः उपयोग करने के लिए एक खाका तैयार किया है। इजराइल अपने घरेलू अपशिष्ट जल का 80% कृषि उपयोग के लिए पुनर्नवीनीकरण करता है जिससे कृषि में प्रयोग किये जाने वाले जल का 50% हिस्सा तैयार होता है। इसी के साथ वहाँ पानी की बर्बादी को कम करने के लिए ड्रिप सिंचाई को प्रभावी रूप से लागू किया गया है जिसमें पानी को अलग-अलग पौधों की जड़ों तक या तो मिट्टी की सतह पर या फिर सीधे पाइप और उत्सर्जक के माध्यम से जड़ों तक धीरे-धीरे रिसने दिया जाता है।

3.2 नदियों को परस्पर जोड़ना

नदियों को परस्पर जोड़ने का कार्यक्रम एक राष्ट्रीय महत्व का कार्यक्रम है। इस कार्यक्रम का मिशन सूखा प्रवण तथा वर्षा-सिंचित क्षेत्र में जल की उपलब्धता को बढ़ाकर जल वितरण में संतुलन सुनिश्चित करना है। जल संसाधन मंत्रालय द्वारा तैयार की गई राष्ट्रीय संदर्शी योजना (एनपीपी) के अंतर्गत एनडब्ल्यूडीए ने क्षेत्रीय सर्वेक्षण और जांच तथा व्यापक अध्ययन के आधार पर अंतर बेसिन अंतरण हेतु हिमालयी नदी घटक के अंतर्गत 14 लिंक और प्रायद्वीपीय नदी घटक के अंतर्गत 16 लिंकों (चित्र-7) की पहचान की है।

इस कार्यक्रम के पूरी तरह लागू हो जाने से 35 मिलियन हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होगी, जिसमें समग्र सिंचाई क्षमता 140 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर 175 मिलियन हेक्टेयर हो जाएगी और बाढ़ नियंत्रण, नौवहन, जलापूर्ति, मातिस्यिकी, लवणता तथा प्रदूषण नियंत्रण इत्यादि लाभों के अतिरिक्त 34000 मेगावाट विद्युत् का उत्पादन भी होगा जोकि बहुत महत्वपूर्ण है।

3.3 वाहितमल उपचार एवं पुनः उपयोग

मलजल प्रशोधन या घरेलू अपशिष्ट जल प्रशोध, अपवाही और घरेलू दोनों प्रकार के अपशिष्ट जल और घरेलू मलजल से संदूषित पदार्थों को हटाने की प्रक्रिया है। इस प्रकार से उपचारित जल को फिर से घरेलू लॉन या उद्यानों में प्रयोग के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है और तो और इस जल को किसी प्रकार की खाद की आवश्यकता भी नहीं पड़ती। इसके अतिरिक्त घरेलू स्तर पर हम अनेक ऐसे उपाय कर सकते हैं जिससे जल को कुछ प्रतिशत तक हम अपने ही स्तर पर बचा सकते हैं। इसी प्रकार का एक घरेलू उपाय चित्र-8 में दिखाया गया है जिसमे हाथ धोने के पानी को पुनः फ्लश के रूप में प्रयोग किया जा रहा है।

3.4 वर्षा जल संचयन

वर्षा जल संचयन वर्षा के जल को किसी खास माध्यम से संचय करने की प्रक्रिया है। इस जल संरक्षण पद्धति का अभ्यास दुनिया भर में व्यक्तिगत घरों, अपार्टमेंटों, पार्कों, कार्यालयों और मंदिरों में भी आसानी से किया जा सकता है। आमतौर पर इसके लिए सतही फैलाव तकनीक अपनाई जाती है (चित्र-9) क्योंकि ऐसी प्रणाली के लिए जगह प्रचुरता में उपलब्ध होती है तथा पुनर्भारित जल की मात्रा भी अधिक होती है। शहरी क्षेत्रों के लिए छतों से वर्षा जल संचयन अधिक उपयुक्त है जिसे बाद में पाइप के द्वारा भूमि अथवा टैंक में भेज दिया जाता है (चित्र-10)।

3.5 नल से जल: जल जीवन मिशन

अगले पाँच वर्षों में गाँव के प्रत्येक घर के नल में पानी सुनिश्चित करने के लिए सरकार एक नयी योजना की तैयारी में है। योजना के अंतर्गत 14 करोड़ घरों के लिए जल जीवन मिशन जल्द ही शुरू किया जायेगा। योजना के अनुसार जिन गाँवों में जल की गुणवत्ता अच्छी है वहाँ गाँव स्तर पर ही जल की आपूर्ति की जाएगी और जिन इलाकों में जल की गुणवत्ता अच्छी नहीं है वहाँ पर कई गाँवों के एक समूह का निर्माण करके किसी अन्य गाँव से पानी क¨ पाइप के माध्यम से वहाँ तक पहुँचाया जायेगा और इसका क्रियान्वयन तथा रख-रखाव ग्राम पंचायत जैसे संगठन करेगे। बाड़मेर जैसी मरुभूमि में इसी तरह 150 गाँवों में पानी पहुँचाया जा रहा है। इस पूरे मिशन में लागत एक समस्या बन सकती है क्योंकि आज पूरे देश के केवल 18% घरों में ही पाइप के माध्यम से जल-पूर्ति होती है।

4.0 निष्कर्ष

लगातार बढती पानी की मांग के इस युग में, किसानों को आवश्यकता है कि वे ड्रिप सिंचाई और ऐसे अन्य नवीन तरीकों को अपनाएँ और ऐसी फसलों की खेती करें जिनमें पानी की कम जरूरत पड़ती है। हमें पानी की कीमत आंककर उसे खरीदने के लिए दाम निर्धारित करना पड़ेगा। परन्तु जब तक जन-जागृति नहीं होगी तब तक इस विषय में चर्चा करना उपयुक्त नहीं है। सरकार की पहल इस दिशा में सराहनीय है, इसके बाद ही हम पानी की कीमत लगाने के विषय में स¨च सकते हैं। परन्तु इसके लिए जन-भागीदारी अत्यावश्यक है। हमारा विकास और खुशहाली तभी हो सकती है जब हम नीतिबद्ध तरीके से सक्षमतापूर्वक जल-संवर्धन को नियोजित करेंगे। हमें ऐसे भारत की जरूरत है जिसे जल का अभाव न हो। व्यक्तिगत तौर पर प्रत्येक नागरिक को जल-संरक्षण की नीति अमल में लानी पड़ेगी जिसके लिए जन-जागृति अभियान अत्यंत आवश्यक है।

कृतज्ञता

लेखक, सक्रिय हिंदी कार्यान्वयन कार्यक्रम के अंतर्गत इस शोधपत्र को तैयार करने में निरंतर प्रोत्साहन के लिए डॉ. (श्रीमती) व. वि. भोसेकर, निदेशिका, केन्द्रीय जल और विद्युत अनुसन्धान शाला, पुणे के अत्यंत ऋणी हैं। डॉ. रा. गो. पाटिल, वैज्ञानिक ‘‘ई’’, केन्द्रीय जल और विद्युत अनुसन्धान शाला, पुणे के प्रोत्साहन और सहायता के लिए लेखक आभार व्यक्त करते हैं।

References:

• P.M. Abdul Rahiman and others, 2012, “Loktak Jheel aur uski god mein basi sanskriti”, Jalvani 19thEdition, Central Water & Power Research Station, Pune

• M. Dinesh Kumar and Vishwa Ballabh, 2000, “Water Management Problems & Challenges in India”

• UNICEF Report (2013), Water in India: Situation & Prospects

• Water Budget of India: Water Resources System Division, National Institute of Hydrology, Roorkee

• Niti Aayog Report, 2018, “Composite Water Management Index” Websites of:

• Hydrology & Water Resources Information System for India

• Central Water Commission

• India Water Portal

• Jal Shakti Ministry, Water Resources, River Development & Ganga Rejuvenation Department: jalshakti-dowr.gov.in

• Observer Research Foundation

• Central Ground Water Board

Disqus Comment

भारतीय प्रिंट मीडिया में जलवायु परिवर्तन कवरेज: एक लेख विश्लेषण

$
0
0
भारतीय प्रिंट मीडिया में जलवायु परिवर्तन कवरेज: एक लेख विश्लेषणHindiWaterThu, 01/30/2020 - 11:45
Source
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रूड़की

सारांश

हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन ने राजनीतिज्ञों और मीडिया का अधिक ध्यान आकर्षित किया है। जबकि पश्चिमी मीडिया ने इस मुद्दे को अच्छी तरह से प्रस्तुत किया है परन्तु विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में जलवायु परिवर्तन कवरेज के मीडिया विश्लेषण का अभाव है। यह शोधपत्र भारत के तीन प्रमुख अंग्रेजी भाषा दैनिकों (मध्यमार्गी और रुड़ीवादी समाचार पत्र) में प्रमुख वैश्विक जलवायु परिवर्तन घटनाओं के दौरान संवादकी जाँच करता है। मात्रात्मक विश्लेषण से पता चलता है कि अधिकतम कवरेज उस समय हुआ जब फरवरी 2007 में आईपीसीसी की चौथी मूल्यांकन रिपोर्ट जारी हुई थी और तब जबजलवायु परिवर्तन पुरुधाओने अक्तूबर 2007 में नोबेल शांति पुरस्कार जीता था। विषय-सूची केगुणात्मक विश्लेषण से पता चलता है कि संभ्रांत भारतीय प्रेस द्वारा प्रासंगिक सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक मुद्दे उठाने के लिए वैज्ञानिक सत्यता, ऊर्जा चुनौती , सामाजिक विकास, सार्वजनिक जबावदेही और उभरते आपदा जैसे तंत्र मुद्दे व्यापकरूप से प्रयोग किये जाते हैं। मीडिया निर्माण की पार सांस्कृतिक तुलना, विशेषतः यूरोप व अमेरिका के साथ, इस क्षेत्र के जोखिम संचार के भविष्य के विकास को पहचानने में सहायता करती है। व्यापक रूप में वैश्विक तात्पर्य यह है कि यह कार्य अंतरराष्ट्रीय स्तर परतेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन के साथ यूरोपियन शोधकर्ताओ द्वारा सुझाये ‘‘क्लाइमेटिक टर्न’’ के विचार से जोड़ा जा सकता है। मुख्य शब्द: जलवायु परिवर्तन, वैश्विक गर्माहट, लेख विश्लेषण, मीडिया रिपोर्टिंग, प्रिंट मीडिया, जलवायु परिवर्तन, जलवायु कवरेज।

Abstract

Climate change has attracted much political and media attention in recent years- While western media coverage of this issue has been well&documented] there is a paucity of media analysis for climate change coverage in developing economies- This paper examines the media discourse generated in India among three leading English&language dailies ¼with centrist and conservative news values½ during globally prominent climate change events- A quantitative analysis shows a peak in coverage when the Fourth Assessment Report by the IPCC was released in February 2007] and when climate change crusaders won the Nobel Peace Prize in October 2007- A qualitative content analysis reveals that frames such as scientific certainty] energy challenge] social progress] public accountability and looming disaster are widely employed by the elite Indian press to raise relevant social] economic and political issues- Cross&cultural comparisons of media constructs] especially with Europe and America] help identify the further development of risk communication in this field- In a broader] global sense] this work can be tied in to the idea of the ‘climatic turn’ as suggested by European researchers with climate change evolving into a grand] transnational narrative-

Keywords: Climate Change] Global Warming] Discourse Analysis] Media Reporting] Indian Print Media] Climatic Turn] Climate Coverage

परिचय

भारत के भीतर जलवायु परिवर्तन पर अधिक ध्यान आकर्षित हो रहा है, और इसके साथ-साथ भारत जलवायु बहस में और अधिक ध्यान आकर्षित कर रहा है। यह ध्यान भारत की भौतिक और राजनीतिक स्थिति दोनों को दर्शाता है। प्राकृतिक रूप से, देश की 1.03 बिलियन की आबादी, जिसका 70% अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है और जिसका बड़े पैमाने पर निर्वाह खेती या श्रम पर आधरित है, तथा हिमालय के बहुत बड़े दक्षिणए-शियाई डेल्टा में इसकी अवस्थिति, के कारण यह जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है (ओ.आर.जी 2001; मड्सले 2011; टोमान इत्यादि 2003) इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC 2007) की चौथी आकलन रिपोर्ट निकट भविष्य में हिमशैल के पिघलने से पानी की वृद्धि से बाढ़ के रूप में हिमालय की तलहटी के बड़े क्षेत्रों के लिए उत्पन्न खतरे को उजागर करती है। इसके अलावा, निचले इलाकों के आसपास में संभावित मॉनसून परिवर्तन और समुद्र के स्तर में वृद्धि के कारण भारत के बड़े तटीय मेट्रो शहरों को खतरा है (टोमन इत्यादि 2003; शुक्ला इत्यादि 2003)। इन जोखिमों पर इस वास्तविकता के साथ विचार किया जाना चाहिए कि भारत वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का एक प्रमुख उत्पादक है। विश्व की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में, 2006 में 8.7% की आर्थिक वृद्धि के साथ, भारत की ऊर्जा खपत 2001 और 2006 के बीच की अवधि में 3.7% बढ़ी है (एम.इ.एफ 2007)। इस बड़े पैमाने पर जीवाश्म ईंधन आधारित विकास ने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 1990 में 682 MtCO2 से बढ़कर 2004 में 1,342 MtCO2 तक बढ़ाने में योगदान दिया है - (वाटकिंस 2007)। जबकि पूर्ण विकास अभूतपूर्व रहा है, फिर भी भारत प्रति व्यक्ति आय के संदर्भ में एक गरीब देश बना हुआ है, और यह विभाजन प्रति व्यक्ति कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन असमानताओं में परिलक्षित होता है। भारत में सबसे अधिक आय वर्ग का एक नागरिक-जिसमें आबादी का सिर्फ 1% शामिल है-सबसे गरीब 38% आबादी की तुलना में चार गुना अधिक CO22 का उत्सर्जन करता है (1,494 किलोग्राम प्रति व्यक्ति, 335 किलो प्रति व्यक्ति की तुलना में) सबसे अमीर 14% नागरिक भारत के 24% CO2 का उत्सर्जन करते हैं (अनंतपùनाभन इत्यादि 2007)। जबकि प्रति व्यक्ति औसत के रूप में, अमीर देशों के प्रत्येक नागरिक के उत्सर्जन की तुलना का यह 1/11 है, वास्तविक रूप में भारत के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सामाजिक स्तरीकरण के कारण बहुत बदलाव है (वाटकिंस 2007: 69)। इस संदर्भ में, भारत इन राष्ट्रीय भौतिक खतरों के जवाब में और जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई के संदर्भ में भी राजनीतिक रूप से रक्षात्मक बना हुआ है। सरकार अपनी ऐतिहासिक स्थिति के लिए प्रतिबद्ध है कि गरीबी की स्थिति में पर्यावरण में सुधार नहीं किया जा सकता (पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मानव पर्यावरण पर 1972 में स्टॉकहोम में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में)। इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं के दौरान अतीत और वर्तमान में भारत ने यह तर्क दिया है कि जलवायु परिवर्तन के लिए ऐतिहासिक जिम्मेदारी विकसित दुनिया की रहती है; सबसे पहले आई.पी.सी.सी सम्मेलनों में, भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता ने तर्क दिया किः यदि सभी देशों का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विकासशील राज्यों के समान स्तर पर होता, तो दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग के खतरे का सामना नहीं करना पड़ता (संयुक्त राष्ट्र आई.पी.सी.सी सम्मेलन, 1991 दिल्ली, के दौरान पर्यावरण और वन मंत्रालय (एम.ओ.ई.एफ), के भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता का बयान)। इसके विपरीत, भारत ने 1993 में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यू.एन.एफ.सी.सी.सी) पर ‘‘एक गैर-अनुलग्नकराज्य’’ के रूप में हस्ताक्षर किए, बाध्यकारी उत्सर्जन-घटाने के लक्ष्य पर नहीं ।सरकार और व्यापक सिविल सोसाइटी दोनों द्वारा अंतरराष्ट्रीय उत्सर्जन अधिकतम सीमा को भारत परलागू करने को ‘उत्तर-दक्षिण विभाजन’ को गहरा करने के रूप में देखा जाता है, जैसे कि इसका विकास बंद हो (अग्रवाल और नारायण 1991:1)। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट जो मीडिया को जानकारी और राय प्रदान करने वाले भारत के सबसे प्रमुख पर्यावरण समूहों में से एक है, ने वर्तमान जलवायु वार्ताओं का वर्णन करने के लिए नियमित रूप से ‘कार्बन उपनिवेशवाद’ शब्द का इस्तेमाल किया है, जिसमें तर्क दिया गया है कि विकसित देशों द्वारा भारत को उत्सर्जन कम करने के लिए बल देने के प्रयास भारत के विकास को बाधित करने के लिए विकसित दुनिया का एक और प्रयास है। जलवायु परिवर्तन को मुख्य रूप से उत्तर-दक्षिण जलवायु परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है, जहाँ वर्तमान और भविष्य के बदलाव की जिम्मेदारी विकसित देशों की है (सेड1978)।

मीडिया उन कारकों पर ध्यान केंद्रित कर सकता है जो पर्यावरणीय समस्याओं के साथ-साथ लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। पर्यावरणीय समस्याएं, जो वर्तमान के अस्तित्व के साथ-साथ मानवता के भविष्य के लिए खतरा हैं, मीडिया द्वारा लोगों के ध्यान में लायी जाती हैं। इन तीन मुद्दों में से कुछ वास्तव में काफी चिंताजनक हैं और उन पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, ताकि लोगों को उनकी तीव्रता के बारे में जागरूक किया जा सके। विशेषज्ञों द्वारा सीधे रिपोर्ट, चर्चा, फोटो फीचर और लेख, जलवायु परिवर्तन के मुद्दे के विभिन्न पहलुओं के बारे में लोगों को सूचित करने में मदद करते हैं। हो सकता है कि आम आदमी अपने आसपास की कई पर्यावरणीय समस्याओं के प्रभाव का आकलन करने में सक्षम न हो। यदि मीडिया ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर जनता को शिक्षित करने का प्रयास करता है, तो कम से कम, बुद्धिमान और सही सोच वाले लोग एहतियाती उपाय करने की आवश्यकता के बारे में जागरूक हो जाएंगे और वे प्राकृतिक संसाधन संरक्षण और संरक्षण के प्रति संवेदनशील हो जाएंगे। इस शोधपत्र में यह जांच की गई है कि मीडिया द्वारा, भारतीय संदर्भ में जलवायु विज्ञान और जलवायु राजनीति दोनों का प्रतिनिधित्व और संचार कैसे किया जाता है।

1.3 भारतीय मीडिया

अमेरिका या चीन के विपरीत, भारत ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि उसकी विदेश नीति काफी हद तक अपने विकास की खोज में पूरी दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों को सुरक्षित रखने के इरादे से होगी (गिडेंस 2009, पृष्ठ 47)। वैकल्पिक रूप से, भारत एक ऐसे पथ पर है (कम से कम आंशिक रूप से) जो समृद्धि के विचारों का अनुसरण करता है। भारत में विचार के प्रवाह और विकास की स्वतंत्रता हैं (द इकोनॉमिस्ट, 2010 ए)। यह पर्यावरण के लिए सकारात्मक परिणामों और जलवायु परिवर्तन के इर्द-गिर्द घूमने वाली अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं के साथ आर्थिक रूप से, बल्कि राजनीतिक रूप से भी लाभदायक है। इसके अलावा, भारत ने यह प्रदर्शित किया है कि उसे पारंपरिक या विकसित देशों द्वारा अनुमोदित प्रक्षेपपथ का पालन करने की आवश्यकता नहीं है।

मीडिया भारत में पर्यावरण के मुद्दों की सार्वजनिक समझ को आकार देने में सहायक है (चैपमैन इत्यादि 1997)। हाल के सार्वजनिक मतदान से पता चलता है कि प्रिंट मीडिया जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर साक्षर जनता के लिए सूचना का प्रमुख स्रोत है; 2007 ग्लोबल नील्सन सर्वे ने सुझाव दिया कि सर्वेक्षण में शामिल आबादी का 74% जलवायु परिवर्तन की जानकारी के प्राथमिक स्रोत के रूप में समाचार पत्रों का उपयोग करता है। कई अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं के विपरीत, भारत में लगभग सभी बड़े सार्वजनिक मीडिया राज्य नियंत्रण से स्वतंत्र हैं; 2004/2005 में बेचे जाने वाले अखबारों का सिर्फ 0.42% सरकारी स्वामित्व वाले मीडिया हाउस (India Stat 2007) द्वारा प्रकाशित किया गया था। भारत में समाचार पत्र 30 से अधिक भाषाओं में प्रकाशित होते हैं, जिनमें हिंदी और अंग्रेजी सबसे प्रमुख हैं; केवल राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित समाचार पत्र अंग्रेजी भाषा के हैं। ये अंग्रेजी-साक्षर वर्गों की सेवा करते हैं, और ब्रिटिश ब्रॉडशीट पत्रों के समान रूप ले लेते हैं। सभी चार प्रमुख अंग्रेजी-भाषा के पत्र, द टाइम्स ऑफ इंडिया, द हिंदू, हिंदुस्तान टाइम्स और द इंडियन एक्सप्रेस-क्रमशः 7.4, 4.05, 3.85, और 0.95 मिलियन के परिचलन के साथ कार्य सूची तय करने वाले लोगों की पठन सामग्री के रूप में व्यापक रूप से स्वीकार किए जाते हैं (इंडियास्टैट 2007; सोनवलकर 2002)। इस समूह को जलवायु परिवर्तन पर सार्वजनिक जानकारी सूचित किए जाने का आकलन करके, हम समाज के इस प्रभावशाली क्षेत्र के बीच निजी धारणा के निर्माण में एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया को समझने लगते हैं।

तालिका 1 और चित्र 1 में तीन समाचार पत्रों के तुलनात्मक विश्लेषण को दर्शाया गया है। यह देखा गया है कि हिंदू ने अधिकतम लेखों को कवर किया है इसके बाद टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स हैं। 2008 के बाद कवरेज में वृद्धि देखी गई है। संबंधित समाचार पत्रों द्वारा लेखों का प्रतिशत तालिका 3 में दिया गया है।

निष्कर्ष

इस शोध पत्र का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन वार्ताओं के संबंध में राष्ट्रीय दृष्टिकोण को रेखांकित करने वाले मुद्दों की समझ में योगदान करना था। स्वाभाविक रूप से, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति जटिल है, और यहां तर्क यह नहीं है कि भारत, या कोई अन्य देश, दूसरे देशों के साथ सार्वजनिक राय की समझ के आधार पर सख्ती से बातचीत करता है। वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का देना और लेना इस प्रकार के मुद्दों के लिए अनुकूल नहीं है। हालांकि, एक लोकतांत्रिक संदर्भ में, मुद्दे की सार्वजनिक धारणा और उस मुद्दे के बारे में राष्ट्रीय नीति के बीच एक मजबूत संबंध मौजूद होता है। लोकप्रिय संवाद को प्रभावित करने वाले कारकों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, विशेष रूप से ऐसे मामलों में जब मुद्दा संवाद से उपजा होता है जो जनता तक सीधे पहुंच के लिए भी विशेष होता है।

जैसा कि प्रदर्शित किया गया है, मीडिया में जलवायु परिवर्तन के प्रतिनिधित्व पर हित धारकों के हित और शक्तियों का बहुत का बड़ा प्रभाव होता है। किसी भी लोक तांत्रिक राष्ट्र के अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन वार्ताओं में भाग लेने के दृष्टिकोण से सार्वजनिक भावना बेहद प्रभावित होती है। इसलिए, यह समझना आवश्यक है कि जलवायु परिवर्तन चित्रण को किस प्रकार से और क्यों सार्वजनिक संवाद में शामिल किया जाता है। यदि जनता को जलवायु परिवर्तन पर निर्णायक कार्रवाई का समर्थन करना है, तो उन्हें वैज्ञानिक संवादों के परिणामों के बारे में सटीक जानकारी दी जानी चाहिए ताकि वर्तमान स्थिति और वैज्ञानिक भविष्यवाणियों का सही मूल्यांकन हो सके, जिस पर विचारों को आधार बनाया जाए कि प्रगति कैसे की जाए। समकालीन मीडिया प्रथाओं की प्रकृति के कारण, जनता को सटीक और स्थापित वैज्ञानिक जानकारी के प्रसारण में हस्तक्षेप होना तय है। समाज को सीखने की उत्पादक प्रक्रिया की पेशकश के लिए इसे पहचाना जाना चाहिए और जहां तक संभव हो ठीक किया जाना चाहिए। यह स्वीकृति और संशोधन नागरिक समाज और सार्वजनिक क्षेत्र की जिम्मेदारी है।

हालांकि अध्ययन में महानगरीय-प्रकार की एक जुटता की कुछ धारणाएं सामने आईं, भारतीय जनता के परिप्रेक्ष्य को निर्धारित करने में राष्ट्रीय पहचान बहुत बड़ा कारक बना हुई है। अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर बहस अभी भी भारतीय पहचान पर आधारित है, जलवायु परिवर्तन के कारण और शमन की प्रमुख भूमिका के लिए अन्य जिम्मेदार हैं। हालाँकि, जैसा कि भारतीय संवादो में जलवायु परिवर्तन पर अधिक महत्व दिया जा रहा है (यहाँ, हम जलवायु परिवर्तन संवादों में उचित परिभाषा के परिणामों को देखते हैं), यह स्वीकार करना आम होता जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन भारत को जल्द और उत्तर की तुलना में अधिक सीधे प्रभावित करेगा। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तर को जिम्मेदार ठहराने का प्रयास जारी रहता है, क्योंकि प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और शमन तथा अनुकूलन हेतु सहायता के लिए निरंतर दबाव रहता है। इसके साथ ही, समस्या के कारण के लिए जिम्मेदारियों से अछूता रह कर, शमन और अनुकूलन पर अधिक घरेलू कार्रवाई के लिए एक सामान्य अनुमोदन और आखान है। यह एक तेजी से अस्थिर घरेलू और स्थानीय वातावरण के बारे में जागरूकता से बाहर है जिसमें लोग रहना जारी रखेंगे।

References

• Adams WM, Mulligan M (2003) Decolonising nature, 1st edn. Earthscan, London.

• Agarwal A, Narain S (1991) Global warming in an unequal world: a case of environmental colonialism. Centre for Science and Environment, New Delhi.

• Ananthapadmanabhan G, Srinivas K, Gopal V (2007) Hiding behind the poor: a report by Greenpeace on climate injustice in India. Greenpeace, New Delhi

• Antilla L (2005) Climate of scepticism: US newspaper coverage of the science of climate change. Global Environmental Change: Human and Policy Dimensions. Glob Environ Change 15(4):338–352

• Boykoff MT, Boykoff JM (2004) Balance as a bias: global warming and the US prestige press. Glob Environ Change 14:125–136 Burgess J (1990) The production and consumption of environmental meanings in the mass media: a research agenda for the 1990s. Trans Inst Br Geogr 15(2):139–161

• Carvalho A (2005) Representing the politics of the greenhouse effect; discursive strategies in the British Media. Crit Discourse Stud 2(1):1–29

• Carvalho A, Burgess J (2005) Cultural circuits of climate change in the UK broadsheet newspapers, 1985–2003. Risk Anal 25(6):1457

• Chapman G, Kumar K, Fraser C, Gaber I (1997) Environmentalism and the mass media: the north–south divide, 1st edn. Routledge, New York

• Demeritt D (2006) Science studies, climate change and the prospects for constructivist critique. Econ Soc 35(3):453–479

• Fairclough N (2003) Analysing discourse: textual analysis for social research. Routledge, London

• Farbotko C (2005) Tuvalu and climate change: constructions of environmental displacement in The Sydney Morning Herald. Geogr Ann Ser B Hum Geogr 87(4):279–293

• Fernandes L (2000) Nationalizing ‘the global’: media images, cultural politics and the middle class in India. Media Cult Soc 22(611):628

• Fowler R (1991) Language in the news, 1st edn. Routledge, London

• Global Nielsen Survey (2007) Available at http://www.nielsen.com/media/2007/pr_070605.html. Accessed 2 September 2007

• Hilgartner S, Bosk CL (1988) The rise and fall of social problems: a public arenas model. Am J Sociol 94(1):53–78

• IndiaStat (2007) IndiaStat online media database. Available at http://www.indiastat.com. Accessed 15 Jan 2008

• IPCC (2007) Climate change 2007: impacts, adaptation and vulnerability. Contribution of Working Group II to the Fourth Assessment Report of the Intergovernmental Panel on Climate Change. Cambridge University Press, Cambridge, UK

• Krippendorff K (2004) Content analysis: an introduction to its methodology. Sage, London

• Lankala S (2006) Mediated nationalisms and ‘Islamic terror’: the articulation of religious and postcolonial secular nationalsim in India.

• Westminster Papers in Communication and Culture 3(2):86–102

• Mawdsley E (2004) India’s middle classes and the environment. Dev Change 25(1):79–103

• McManus PA (2000) Beyond Kyoto? Media representation of an environmental issue. Aust Geogr Stud 38(3):306–319

• Ministry of Environment and Forests (MoEF), Govt. of India (2007) GHG interventions: how far feasible in India. Presentation during the 4th Dialogue Workshop to UNFCCC at Vienna, 28 August

• Neuendorf KA (2002) The content analysis guidebook. Sage, New York

• O’Brien KL, Leichenko RM (2000) Double exposure: assessing the impacts of climate change within the context of economic globalization. Glob Environ Change 10(3):221–232

• Office of the Registrar General and Census Commissioner (ORG), Govt. of India (2001) Census of India 2001

• Parameswaran RE (1997) Colonial interventions and the postcolonial situation in India: the English

• language, mass media and the articulation of class. Int Comm Gaz 59(1):21–41

• Pellechia MG (1997) Trends in science coverage: a content analysis of three US newspapers. Public Underst Sci 6(1):49–68

• Pielke R (2005) Misdefining ‘climate change’: consequences for science and action. Environ Sci Policy 8(6):548–561

• Radcliffe S (2005) Development and geography: towards a postcolonial development geography? Prog Hum Geogr 29(3):291–298

• Rajagopal A (2001) Politics after television: religious nationalism and the re-shaping of the public in India. Cambridge University Press, Cambridge, UK

• Said E (1978) Orientalism. Routledge & Kegan Paul, London

• Shukla PR, Sharma SK, RavindranathNH, GargA, Bhattacharya S (2003) Climate change and India: vulnerability assessment and adaptation. Universities Press, Hyderabad, India

• Sonwalkar P (2002) ‘Murdochization’ of the Indian press: from by-line to bottom line. Media Cult Soc 24:821–834

• Sundblad E, Biel A, Gärling T (2008) Knowledge and confidence in knowledge about climate change: experts, journalists, politicians, and laypersons. Environ Behav 41:281–302. doi:10. 1177/0013916508314998

• Toman MA, Chakravorty U, Gupta S (2003) India and global climate change. Oxford University Press, London

• Trumbo CW (1996) Constructing climate change: claims and frames in US news coverage of an environmental issue. Public Underst Sci 5(3):269–283

• Trumbo CW, Shanahan J (2000) Social research on climate change: where we have been, where we are, and where we might go. Public Underst Sci 9:199–204

• Von Stroch H, KraussW(2005) Culture contributes to perceptions of climate change. A comparison between the United States and Germany reveals insights about why journalists in each country report about this issue in different ways. Niemann Reports Winter 99:102

• Watkins L (2007) UNDP Human Development Report 2007/2008: fighting climate change: human

• solidarity in a divided world. Palgrave Macmillan, New York WilsonKM(2000) Drought, debate, and uncertainty: measuring reporters’ knowledge and ignorance

Disqus Comment

पौधरोपण के जुनून को पद्मश्री

$
0
0
पौधरोपण के जुनून को पद्मश्रीHindiWaterFri, 01/31/2020 - 09:54

इस वर्ष पद्म पुरस्कार पाने वालों में ऐसे कई नाम हैं जो गुमनाम रहकर अपने स्तर से देश में परिवर्तन ला रहे हैं। हर साल पद्म पुरस्कारों के जरिये देश के विभिन्न कोनों से ऐसे कई लोग सामने आते हैं, जो प्रसिद्धि से दूर रहकर समाज का भला कर रहे होते हैं। उनके मन में सरोकार का ऐसा जज्बा होता है, जो कई लोगों को परोपकार के लिए प्रेरित करता है।

इन्हीं गुमनामों की सूची में एक नाम है कर्नाटक की 72 वर्षीय पर्यावरणविद् और ‘जंगलों की एनसाइक्लोपीडिया’ के रूप में प्रख्यात तुलसी गौड़ा का। आज तुलसी गौड़ा का नाम पर्यावरण संरक्षण के सच्चे प्रहरी के तौर पर लिया जाता है। तुलसी ने शायद ही कभी सोचा होगा कि पौधे लगाने और उन्हें बचाने का जूनून एक दिन उन्हें पद्मश्री का हकदार बना देगी! तुलसी गौड़ा एक आम आदिवासी महिला हैं, जो कर्नाटक के होनाल्ली गांव में रहती हैं। वह कभी स्कूल नहीं गईं और ना ही उन्हें किसी तरह का किताबी ज्ञान ही है, लेकिन प्रकृति से अगाध प्रेम तथा जुड़ाव की वजह से उन्हें पेड़-पौधों के बारे में अद्भुत ज्ञान है। उनके पास भले ही कोई शैक्षणिक डिग्री नहीं है, लेकिन प्रकृति से जुड़ाव के बल पर उन्होंने वन विभाग में नौकरी भी की। चौदह वर्षो की नौकरी के दौरान उन्होंने हजारों पौधे लगाए जो आज वृक्ष बन गए हैं। रिटायरमेंट के बाद भी वे पेड़-पौधों को जीवन देने में जुटी हुई हैं। अपने जीवनकाल में अब तक वे एक लाख से भी अधिक पौधे लगा चुकी हैं। आमतौर पर एक सामान्य व्यक्ति अपने संपूर्ण जीवनकाल में एकाध या दर्जन भर से अधिक पौधे नहीं लगाता है, लेकिन तुलसी को पौधे लगाने और उसकी देखभाल में अलग किस्म का आनंद मिलता है। आज भी उनका पर्यावरण संरक्षण का जुनून कम नहीं हुआ है। तुलसी गौड़ा की खासियत है कि वह केवल पौधे लगाकर ही अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो जाती हैं, अपितु पौधरोपण के बाद एक पौधे की तब तक देखभाल करती हैं, जब तक वह अपने बल पर खड़ा न हो जाए। वह पौधों की अपने बच्चे की तरह सेवा करती हैं। वह पौधों की बुनियादी जरूरतों से भलीभांति परिचित हैं। उन्हें पौधों की विभिन्न प्रजातियों और उसके आयुर्वेदिक लाभ के बारे में भी गहरी जानकारी है। पौधों के प्रति इस अगाध प्रेम को समझने के लिए उनके पास प्रतिदिन कई लोग आते हैं।

तुलसी गौड़ा पर पौधरोपण का जुनून तब सवार हुआ, जब उन्होंने देखा कि विकास के नाम पर निदरेष जंगलों की कटाई की जा रही है। यह देख वह इतनी व्यथित हुईं कि उन्होंने पौधरोपण का सिलसिला शुरू कर दिया। एक अनपढ़ महिला होने के बावजूद वह समझती हैं कि पेड़-पौधों का संरक्षण किए बगैर खुशहाल भविष्य की कल्पना नहीं की सकती, लिहाजा अपने स्तर से इस काम में जुटी हुई हैं। जीवन के जिस दौर में लोग अमूमन बिस्तर पकड़ लेते हैं, उस उम्र में भी तुलसी सक्रियता से पौधों को जीवन देने में जुटी हुई हैं। पर्यावरण को सहेजने के लिए उन्हें इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष मित्र अवॉर्ड, राज्योत्सव अवॉर्ड, कविता मेमोरियल समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। लेकिन जो खुशी उन्हें पौधे लगाने और उसके पेड़ बनने तक के बीच किए गए देखभाल से मिलती है, वह खुशी उन्हें पुरस्कार पाकर भी नहीं मिलती! सोचिए, बिना किसी लाभ की उम्मीद लगाए एक महिला पिछले करीब छह दशकों से पर्यावरण को संवार रही है। एक ऐसी महिला जिसके अपने बच्चे नहीं हैं, लेकिन अपने द्वारा लगाए गए लाखों पौधों को ही अपना बच्चा मानती हैं और उनकी बेहतर ढंग से परवरिश भी करती हैं। आदिवासी समुदाय से संबंध रखने के कारण पर्यावरण संरक्षण का भाव उन्हें विरासत में मिला है। दरअसल धरती पर मौजूद जैव-विविधता को संजोने में आदिवासियों की प्रमुख भूमिका रही है। वे सदियों से प्रकृति की रक्षा करते हुए उसके साथ साहचर्य स्थापित कर जीवन जीते आए हैं। जन्म से ही प्रकृति प्रेमी आदिवासी लालच से इतर प्राकृतिक उपदानों का उपभोग करने के साथ उसकी रक्षा भी करते हैं। आदिवासियों की संस्कृति और पर्व-त्योहारों का पर्यावरण से घनिष्ट संबंध रहा है। यही वजह है कि जंगलों पर आश्रित होने के बावजूद पर्यावरण संरक्षण के लिए आदिवासी सदैव तत्पर रहते हैं। आदिवासी समाज में ‘जल, जंगल और जीवन’ को बचाने की संस्कृति आज भी विद्यमान है, पर औद्योगिक विकास ने एक तरफ आदिवासियों को विस्थापित कर दिया तो दूसरी तरफ आर्थिक लाभ के चलते जंगलों का सफाया भी किया जा रहा है। उजड़ते जंगलों की व्यथा प्राकृतिक आपदाओं के रूप में प्रकट होती है। लिहाजा इसके संरक्षण के लिए तत्परता दिखानी होगी।

पद्मश्री सम्मान मिलने के बाद तुलसी गौड़ा की जिंदगी में कोई खास परिवर्तन हो या ना हो, पर अपने जज्बे से वह सबके जीवन में परिवर्तन लाने का सिलसिला जारी रखने वाली हैं। तुलसी गौड़ा के प्रयासों से हमें सीख मिलती है कि हमें भी पर्यावरण संरक्षण की दिशा में धरातल पर काम करना चाहिए। एक तुलसी गौड़ा या एक सुंदरलाल बहगुणा पर्यावरण को संरक्षित नहीं कर सकते! मालूम हो कि बीती सदी के आठवें दशक में उत्तराखंड के जंगलों को बचाने के लिए वहां की महिलाओं ने पेड़ों को गले से लगाकर उसकी रक्षा की थी। आज वैसे चिपको आंदोलन और सुंदरलाल बहगुणा तथा तुलसी गौड़ा जैसे पर्यावरणविदों की जरूरत हर जिले में है। यदि पर्यावरण का वास्तव में संरक्षण करना है और दुनिया को जलवायु परिवर्तन के खतरे से बाहर निकालना है, तो इसके लिए साङो प्रयास करने होंगे। पौधरोपण की आदत सेल्फी लेने भर तक सीमित न रहे। पौधरोपण सुखद भविष्य के लिए किया जाने वाला एक जरूरी कर्तव्य है। जरूरी नहीं कि इसके लिए दिखावा ही किया जाए!

पौधरोपण और पर्यावरण संरक्षण को दैनिक जीवन का अंग बनाया जाना चाहिए। प्राकृतिक संतुलन के लिए जंगलों का बचे रहना बेहद जरूरी है। पृथ्वी पर जीवन को खुशहाल बनाए रखने का एकमात्र उपाय पौधरोपण पर जोर देने तथा जंगलों के संरक्षण से जुड़ा है। इसके लिए सभी को मिलकर प्रयास करना होगा।

Disqus Comment

हवा में घुलते जहर का कहर

$
0
0
हवा में घुलते जहर का कहरHindiWaterWed, 01/15/2020 - 12:55
Source
विज्ञान प्रगति

हमारी पृथ्वी के चारों ओर वायुमंडल की एक मोटी परत है। हमारी सांसों का खजाना है यह। इसमें जो हवा भरी है, उसी में हम और इस धरती पर जी रहे असंख्य जीवधारी सांस ले रहे हैं जिनमें पेड़-पौधे भी शामिल हैं। यानी, यों समझ लें कि जैसे हम एक विशाल हवा भरे गुब्बारे के भीतर जी रहे हैं जिसके बीच में पृथ्वी का गोला लटका हुआ है। हवा की यह मोटी परत वायुमंडल कहलाती है। अनुमान है कि यह पृथ्वी की सतह से करीब 110 किलोमीटर ऊपर तक फैली हुई है। वैज्ञानिक कहते हैं, इसकी पांच परतें हैः क्षोभमंडल (ट्रोपोस्फीयर, समतापमंडल (स्ट्रेटोस्फीयर), मध्य मंडल (मीजोस्फीयर), तापमंडल (थर्मोस्फीयर) और ब्राह्मंडल (एक्जोस्फीयर)।

सभी जीवधारियों के जीवित रहने के लिए कुदरत की एक नायाब सौगात है- हवा। वह हवा, जिसमें प्रकृति ने ठीक उतनी मात्रा में गैसों का मिश्रण बनाया था, जिसमें सांस लेकर हम जीवनधारी जीवित रहें और हमारी सेहत ठीक रहे। यानी, करीब 78 प्रतिशत नाइट्रोजन, 21 प्रतिशत ऑक्सीजन, 0.9 प्रतिशत ऑर्गन, 0.038 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड और सूक्ष्म मात्रा में नियॉन, हीलियम क्रिप्टॉन, जेनॉन तथा मीथेन। इन गैसों के अलावा हवा में न्यून मात्रा में जल वाष्प की नन्हीं बूंदे भी मौजूद होती हैं।

सर्दियों से हमारे वायुमंडल में गैसें इसी मिकदार में थीं। कई लोगों को यह गलतफहमी रहती है कि शायद हवा में सबसे अधिक मात्रा में ऑक्सीजन होती है जबकि यह गैस केवल करीब 21 प्रतिशत ही होती है। लेकिन हां, सभी जीव-जन्तुओं के लिए यह प्राणवायु है। हम अपनी सांस में इसे फेफड़ों में भीतर लेते हैं और फेफड़ों से सांस में कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। वह कार्बन डाइऑक्साइड हवा में मिल जाती है और हवा से वह पेड़-पौधों के खाना बनाने के काम आती है। वे अपनी पत्तियों के हरे रंग यानी क्लोरोफिल, हवा से ली हुई कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल वाष्प के साथ सूर्य के प्रकाश में अपना भोजन यानी ग्लूकोज बना लेते हैं। भोजन बनाने की इस क्रिया में वे हवा में ऑक्सीजन छोड़ते हैं। तो, समझे आप? हमारी सांस में बाहर छोड़ी हुई कार्बन डाइऑक्साइड उनके काम आ जाती है और उनकी छोड़ी हुई ऑक्सीजन हमारे सांस लेने के काम आती है। यह हमारा और पेड़-पौधों का अटूट रिश्ता है। कार्बन डाइऑक्साइड न मिले तो वे नहीं जी सकेंगे और ऑक्सीजन न मिले तो हमारा तथा अन्य जीव-जंतुओं का जीना मुश्किल हो जाएगा। इसीलिए माँ प्रकृति ने हवा की ऐसी घुट्टी बनाई कि इस धरती पर जीवन पनपता रहे।

हजारों साल से प्रकृति के हिसाब से ही सब कुछ ठीक चल रहा था। जीव-जन्तु और पेड़-पौधे वायुमंडल की हवा में खूब पनपते रहे। फिर भी, कभी ज्वालामुखी फूटते और धरती पर गर्म लावा उड़ेलने के साथ-साथ आसमान में बड़े पैमाने पर धुआं उगल देते। कभी जंगलों में आग भड़क उठती और धू-धू कर जलते जंगलों की आग आसमान में काला धुआं भर देती। लेकिन, प्रकृति के लिए इस धुएं से निबटना कोई कठिन काम नहीं था। विशाल वायुमंडल में उस धुएं की कार्बन डाइऑक्साइड को खपा लेने की बड़ी गुंजाइश थी।

लेकिन, तभी आदिमानव ने बस्तियां बना कर रहना और जंगलों को काटकर, जलाकर खेती करना शुरू कर दिया। जंगल कटने लगे और सूखे, जलाए गए पेड़-पौधों का आसमान में धुआं भरने लगा। इसे भी प्रकृति ने सहन कर लिया। मगर, फिर एक दिन भाप का इंजन सामने आ खड़ा हुआ। उससे रेलगाड़ियां चलने लगीं। भाप बनाने के लिए बड़े पैमाने पर कोयला बनाया और जलाया जाने लगा। फिर धरती की कोख में छिपे कोयले और पेट्रोलियम के अकूत भंडारण का पता लग गया। वह फॉसिल फ्यूल यानी जीवाश्म ईंधन था। नए-नए प्रकार के इंजन बने और उनमें जीवाश्म ईंधन जलने लगा। इंजनों ने जीवाश्म ईंधनों का धुआं उगलना शुरू कर दिया जो सीधे वायुमंडल में जाकर उसे प्रदूषित करने लगा। इंजनों से मशीनें चलने लगीं। फैक्ट्रियां खड़ी हो गई। कल-कारखाने लग गए। उनकी चिमनियां आसमान में लगातार काला, जहरीला धुआं उगलने लगीं। बड़े पैमाने पर हवा में जहर घोलता यह धुआं स्वयं मनुष्य के कल-कारखानों, रेलगाड़ियों और सड़कों पर बढ़ती हजारों-लाखों मोटरगाड़ियों का नतीजा था।

तो, इसका नतीजा यह हुआ कि वायुमंडल में धुएं की जहरीली गैसों की मिकदार बढ़ती गई। शहरों के कदम बढ़ते गए तो जंगलों की हरियाली तिरोहित होती चली गई। लहलहाती फसलें पैदा करने वाले खेत और हरे-भरे जंगल कंक्रीट के जंगलों मं तब्दील होते गए। फल यह हुआ कि प्रकृति के तय किए गए हवा के मिश्रण का हिसाब गड़बड़ा गया। वह जीवनदायिनी घुट्टी जहरीले कणों, द्रव कणों और जहरीली गैसों से भर गई।

क्या हैं ये कण

इन कणों को पीएम कहा जाता है। यानी, पार्टिकल पॉल्यूशन। मतलब है, कण प्रदूषण। लेकिन, कण क्या हैं? ये हैं हवा में घुले-मिले ठोस कण और द्रवों की नन्हीं बुंदकियां। बड़े कणों को हम कोरी आंख से देख सकते हैं जैसे कोयला, कालिख, धूल और धुएं के कण। लेकिन, इनसे भी सूक्ष्म कणों को आंख से नहीं बल्कि इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से ही देख सकते हैं।

वैज्ञानिक जब वायु प्रदूषण की बात करते हैं तो वे दो तरह के सूक्ष्म कणों का जिक्र करते हैः पी एम 10 और पी एम 2.5। इन कणों को इनके व्यास से जाना जाता है। जिन कणों का व्यास 10 माइक्रो मीटर या इससे कम होता है, वे पी एम 10 कहलाते हैं। मतलब पार्टिकुलेट मैटर 10। हम जब प्रदूषित हवा में सांस लेते हैं तो ये कण हमारे फेफड़ों में पहुँच जाते हैं। इनसे भी छोटे जिन कणों का व्यास 2.5 माइक्रोमीटर या इससे कम होता है, वे पी एम 2.5 कणों की श्रेणी में आते हैं। ये कितने सूक्ष्म होते हैं, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि हमारे सिर के बाल का व्यास करीब 70 माइक्रोमीटर होता है! सवाल है कि ये कण बनते क्यों हैं? असल में ये वायु प्रदूषण की देन हैं और कई आकार-प्रकार के होते हैं। हमारे थर्मल पावर प्लाटों, कल-कारखानों और सड़कों पर दौड़ती लाखों मोटर-कारों से जो मैला धुआं आसमान में जाता है, यह धूल-धक्कड़ और धुएं से गुबार से आसमान में पहुँचे कणों से मिलकर प्रदूषण के कण यानी पीएम बना देता है। प्रदूषण के ये कण हवा में डोलते रहते हैं और उसे प्रदूषित कर देते हैं। ऐसी हवा हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होती है। पीएम 10 के 10 माइक्रोमीटर या उससे छोटे कण फेफड़ों में जाकर गहरे धंस जाते हैं और खून में भी जा मिलते हैं। यह जहर हमें बीमार बना देता है। 2.5 माइक्रोमीटर व्यास के कण और भी खतरनाक हैं। ये भी फेफड़ों में पहुँच जाते हैं। ये कण हवा में फैल कर गहरी धुंध भी फैला देते हैं। यह धुंध दृश्यता को कम कर देती है और हवाई यातायात के लिए परेशानियां पैदा कर देती हैं।

धुंध से दृश्यता कम होने और उसके कारण होने वाली परेशानी का एक ताजा उदाहरण सामने आया है। भारत के सर्वेयर जनरल का कहना है कि पृथ्वी के सबसे ऊंचे पहाड़ एवरेस्ट की ऊंचाई की तीसरी बार नापने की तैयारी की जा रही है। लेकिन, भारतीय सर्वेक्षक इस बार उसे नेपाल जाकर नापेंगे क्योंकि धुंध के कारण भारत से अब एवरेस्ट नहीं दिखाई देता। जबकि, पिछले दो सर्वेक्षणों में अंग्रेज तथा भारतीय सर्वेक्षकों ने बिहार में छह स्थानों से एवरेस्ट की ऊंचाई मापी थी। उसके आधार पर एवरेस्ट की औसत ऊंचाई 29,002 फुट तय की गई थी। अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अपने उपग्रहों से अध्ययन करके बताया है कि भारत के वायुमंडल की निचली परतों में भारी धुंध फैल चुकी है। यह वायु प्रदूषण का परिणाम है।

यह तो हुई बात पार्टिकुलेट मैटर यानी पीएम की, लेकिन वे कौन से पदार्थ हैं जो हमारी हवा को प्रदूषित करके उसे जहरीली बनाते जा रहे हैं? ये हैः कार्बने डाइऑक्साइड (CO2), सल्फर ऑक्साइड(SO2), नाइट्रोजन ऑक्साइड(NO2), कार्बन मोनोक्साइड (CO), उड़नशील कार्बनिक यौगिक(VOC), पर्टिकुलेट मैटर (पीएम), विषैले धातु कण, क्लोरोलुओरोकार्बन (CFC), अमोनिया (NH3), तरह-तरह की गंधें और रेडियोएक्टिव प्रदूषक पदार्थ। इनके अलावा स्मॉग और जमीनी स्तर पर मौजूद ओजोन से भी वायु प्रदूषण होता है।

वायु प्रदूषण फैलाने वाले प्रदूषक पदार्थ स्वयं मनुष्य के बनाए स्रोतों से तो फैलते ही हैं, प्राकृतिक स्रोतों से भी ये हवा में जाकर मिल जाते हैं। मनुष्य के लगाए कल-कारखानों, ताप बिजलीघरों, फैक्ट्रियों, भट्टियों, लकड़ी और कोयले से जलने वाले चूल्हों-अंगीठियों, फसल काटने के बाद बची सूखी पराली को जलाने से हवा में प्रदूषक कण पहुँच जाते हैं। इनके अलावा शहरों में दौड़ती हजारों बसों, लाखों मोटर-कारों, जलपोतों और हवाई जहाजों से भी वायु प्रदूषण फैलता है। एयरोसॉल स्प्रे, डीओ, हेयर स्प्रे, पेंट और वार्निश भी वायु प्रदूषण को बढ़ाते हैं। शहरों में जहाँ कचरा फेंका जाता है वे जगहें लैंडफिल कहलाती हैं। उनमें कचरा सड़ता रहता है और उससे मीथेन गैस पैदा होती रहती है। यह बहुत जल्दी आग पकड़ लेती है, इसलिए इससे आग का भी खतरा रहता है। इसकी मौजूदगी में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। अगर बंद जगह हो तो मीथेन की मात्रा अधिक होने और ऑक्सीजन कम हो जाने के कारण दम घुटने लगता है। मनुष्य के बनाए बम, नाभिकीय बम, उपग्रहों तथा अंतरिक्षयानों को अंतरिक्ष में छोड़ने वाले शक्तिशाली राकेट, युद्ध में इस्तेमाल की जाने वाली खतरनाक विषैली गैसें और जैविक हथियार भी वायु प्रदूषण में इजाफा करते हैं।

प्राकृतिक स्रोतों से भी प्रदूषक हवा में मिलते रहते हैं, जैसे धूल, मीथेन गैस, रेडॉन गैस, जंगलों की आग से उठा धुआं और उसमें मौजूद कार्बन मोनोक्साइड। इसके अलावा दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में समय-समय पर अचानक फूट पड़ने वाले ज्वालामुखी भी आसमान में बड़े पैमाने पर धुआं उगलते हैं।

वे तो रहे घर बाहर के प्रदूषक, लेकिन घर भीतर की हवा भी प्रदूषण से मुक्त नहीं है। घर हो या ऑफिस या किसी संस्था की इमारत, उसके भीतर हवा में प्रदूषण, फैलाने वाले तरह-तरह के प्रदूषक मौजूद रहते हैं। भवन निर्माण सामग्री, कालीन और दरियां, प्लाइवुड वगैरह से फॉर्मेल्डिहाइड जैसे प्रदूषक निकलते हैं। पेंट आदी रसायनों से उड़नशील कार्बनिक, यौगिक मुक्त होते हैं। सीसे वाला पेंट सूखकर चूर्ण बन जाता है और उसके नन्हें टुकड़े हवा में मिल जाते हैं। हम घर भीतर मच्छर, तिलचट्टे या अन्य कीड़े-मकोड़े मारने के लिए जिन कीटनाशक रसायनों का छिड़काव करते हैं, उनके विषैले कण भी हवा में मिल जाते हैं। कमरे में हम जो एयर फ्रैशनर छिड़कते हैं, अगरबत्तियां जलाते हैं या चूल्हे में आग पर कुछ जलाते-भूनते हैं त उससे भी प्रदूषक कण हवा में मिल जाते हैं। कई लोग बंद कमरों में अंगीठियों में कोयला जला कर सो जाते हैं और जलते कोयले से निकली कार्बन मोनोक्साइड गैस उन्हें मौत की नींद सुला देती है। कई घरों में अब भी छत के लिए एस्बस्टस की चादरों का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी धूल से सांस के रोगों के साथ-साथ फेफड़ों का कैंसर भी हो जाता है। पालतू पशुओं के बाल झड़ने से भी वायु प्रदूषण फैलता है।

आइए, एक नजर इन प्रदूषक पदार्थों पर डालें जो हमारी सांसों के खजाने यानी वायुमंडल को जहरीला बना रहे हैं। कार्बन डाइऑक्साइड गैस को नम्बर एक प्रदूषक माना जाता है। यह हवा को तो जहरीला बनाती ही है, जलवायु में भी भारी फेर-बदल कर देती है। जलवायु परिवर्तन में इसी का सबसे बड़ा हाथ माना जाता है। अनुमान है कि हर साल करीब 3.2 अरब टन कार्बन ऑक्साइड वायुमंडल में पहुँच रही है।

औद्योगिकीकरण से पहले की तुलना में आज यह गैस 30 प्रतिशत से भी अधिक बढ़ चुकी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले साढ़े छह लाख वर्षों में वायुमंडल में कभी इतनी कार्बन डाइऑक्साइड नहीं थी। औद्योगिक क्रान्ति से पहले यानी 19वीं सदी की शुरुआत में यह हवा में केवल लगभग 280 भाग प्रति दस लाख भाग थी। जितनी तेजी से हवा में इसकी मात्रा बढ़ी है, अगर यही हाल रहा तो अनुमान है कि 2050 तक वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 450 से 550 भाग प्रति दस लाख भाग तक बढ़ जाएगा। वर्तमान समय में इसका स्तर 405 भाग प्रति दस लाख भाग आंका गया है।

सल्फर के ऑक्साइड और विशेष रूप से सल्फर डाइऑक्साइड गैसे भी प्रमुख वायु प्रदूषकों में मानी जाती है। कोयले और पेट्रोलियम में सल्फर के यौगिक होते हैं। इनके जलने से सल्फर डाइऑक्साइड गैस बनती है। हमारे कल-कारखानों से बड़ी मात्रा में यह गैस निकलकर वायुमंडल में जा रही है। तेजाबी वर्षा इसी के कारण होती है। बहुत ऊंचे तापमान पर नाइट्रोजन डाइऑक्साइड गैस भी बनती है। यह वायुप्रदूषक है। यह लाल-भूरे रंग की विषैली गैस होती है। लेकिन, वायु को प्रदूषित करने वाली कार्बन मोनोऑक्साइड का न कोई रंग होता है और न उसमें कोई गंध होती है। इसीलिए कोयले की अंगीठी से निकलकर यह बंद कमरे में चुपचाप किसी को मौत की नींद सुला देती है। बसों, ट्रकों और मोटर कारों के धुएं में यह खूब निकलती है और हवा में मिल जाती है।

क्लोरोफ्लोओरो कार्बन यानी सीएफसी ऐसे हानिकारक प्रदूषक हैं जो एयरकंडीशनरों, रेफ्ररीजरेटरों और एयरोसॉल स्प्रे में निकल कर हवा में मिल जाते हैं। हवा में ऊपर उठते-उठते ये प्रदूषक ओजोन की परत तक पहुँच जाते हैं। वहाँ इनसे ओजोन की परत को भारी नुकसान होता है। ओजोन की परत में छेद का मुख्य कारण यही प्रदूषक हैं। इनके अलावा अमोनिया गैस भी वायु में प्रदूषण फैलाती है। इसी तरह कूड़े-कचरे, सीवेज और औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाली दुर्गंध भी वायु को प्रदूषित करती हैं।

स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है वायु प्रदूषण। इससे हमें सांस के रोग हो सकते हैं, दिल का दौरा पड़ सकता है और फेफड़ों का कैंसर हो सकता है। वायु प्रदूषण अधिक होने पर खांसी, कफ, छींके आना, सांस लेने में कठिनाई और अस्थमा तक कि शिकायत हो सकती है। राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषित माहौल में इसीलिए डॉक्टर राय देते रहते हैं कि सुबह-शाम की सैर से लाभ के बजाय हानि अधिक हो सकती है। ऐसा प्रदूषित माहौल बुर्जुर्गो और पांच वर्ष की उम्र तक के बच्चों के लिए विशेष रूप से नुकसानदेह हो सकता है। वायु प्रदूषण क्रोनिक ब्रोकाइटिस और एम्फिसीमा रोग का कारण माना जाता है। देश की राजधानी दिल्ली में दीपावली के त्योहार के दौरान इतने बड़े पैमाने पर पटाखे और आतिशबाजी छोड़ी जाती है कि आसमान बुरी तरह धुएं से भर जाता है और अस्पतालों में उन दिनों बिस्तरों की संख्या बढ़ा दी जाती है।

वायु प्रदूषण से हृदय और धमिनियों के रोग भी बढ़ जाते हैं। पता लगा है कि पीएम 2.5 की बहुलता वाले माहौल में लम्बे समय तक रहने पर फेफड़े और हृदय रोगों के मामले बढ़ जाते हैं। इन अति सूक्ष्म कणों का दिल के दौरे से सम्बन्ध पाया गया है। इसी तरह नाइट्रोजन ऑक्साइड की बहुलता वाले माहौल में अधिक रहने पर फेफड़ों के कैंसर का खतरा अधिक होता है। वायु प्रदूषण से दिमाग और स्नायुतंत्र पर भी बुरा असर पड़ता है।

प्रदूषित शहर

इतने गम्भीर खतरे, फिर भी हमारे शहरों में वायु प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ) की सूचना के अनुसार सन 2018 में विश्व के 20 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से 13 प्रदूषित शहर हमारे देश में थे। कानपुर विश्व के सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में प्रथम स्थान पर रहा। पार्टिकुलेट कणों के हिसाब से इसके बाद सबसे प्रदूषित शहर रहे- फरीदाबाद, गया, वाराणसी, पटना, दिल्ली, लखनऊ, आगरा, गुड़गांव, मुजफरपुर, जयपुर, पटियाला और जोधपुर। अक्टूबर 2019 तक गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश शहरों में सर्वोच्च स्थान पर पहुँच गया।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ) की वर्ष 2018 की रिपोर्ट के अनुसार विश्व के सबसे अधिक वायु प्रदूषण वाले शहरों में भारत प्रथम स्थान पर रहा। अगले सात स्थानों पर भी भारत के ही शहर रहे। आठवें स्थान पर कैमरून, बारहवे-तेरहवें स्थान पर पेशावर तथा रावलपिंडि

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ) की वर्ष 2018 की रिपोर्ट के अनुसार विश्व के सबसे अधिक वायु प्रदूषण वाले शहरों में भारत प्रथम स्थान पर रहा। अगले सात स्थानों पर भी भारत के ही शहर रहे। आठवें स्थान पर कैमरून, बारहवे-तेरहवें स्थान पर पेशावर तथा रावलपिंडि (पाकिस्तान), पद्रहवें स्थान पर यूगांडा, अठारहवें स्थान पर बांग्ला देश, फिर चीन और कतर रहे। ये स्थान हवा में पीएम 10 की मात्रा 2.5 माइक्रोग्राम प्रति मिलीलीटर वर्ग के रेंज में पाई गई। यों, अगर पूरे देश पर विचार किया जाए तो उत्तरी भारत में वायु प्रदूषण बहुत अधिक पाया गया है। उपग्रहों और भूमि पर स्थित निगरानी केन्द्रों आदि के सर्वेक्षणों से यह नतीजा निकला है कि वायु प्रदूषण से भारत में हर साल लाखों लोगों की मृत्यु हो जाती है। अनुमान है कि वर्ष 2018 में विश्व में वायु प्रदूषण के कारण लगभग 70 लाख लोग मौत के शिकार हुए।

पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाली गैर सरकारी संस्था ग्रीनपीस इंडिया ने वायु प्रदूषण को भारत की राष्ट्रीय समस्या बताया है। वैश्विक वायु प्रदूषण के एक अध्ययन से पता चला है कि वायु प्रदूषण के कारण भारत में हर साल लगभग 10.10 लाख से अधिक लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है। वर्ष 2017 में वायु प्रदूषण के कारण 12 लाख 40 हजार लोगों की मृत्यु हुई। अब तक चीन में वायु प्रदूषण के कारण मरने वालों की संख्या विश्व में सबसे अधिक थी, लेकिन, भारत में बढ़ते वायु प्रदूषण के हालात शायद इस मामले में चीन को पीछे छोड़ देंगे। उक्त अध्ययन के अनुसार वर्ष 1990 से 2015 के दौरान वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्यु दर में 50 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इतनी ही नहीं, देश में औद्योगिकरण जितना ही अधिक बढ़ रहा है, वायु प्रदूषण में भी उतना ही इजाफा होता जा रहा है। इसलिए भारत को वायु प्रदूषण में कमी करने के लिए ठोस नीतिगत निर्णय लेने होंगे और इससे सम्बन्धित कानूनों का सख्ती से पालन कराना होगा।

एक और चिन्ता का विषय यह है कि भारत में ओजोन प्रदूषण और इसके कारण पैदा हुए सांस के रोगों के कारण अकाल मृत्यु की दर बढ़ रही है। फरवरी 2014 में जारी स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2017 रिपोर्ट के अनुसार ओजोन तथा इससे जनित सांस के रोगों से विश्व भर में लगभग 2.54 लाख मौतें हुई हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि विश्व की 92 प्रतिशत आबादी प्रदूषित हवा में जी रही है।

हमारे आस-पास ओजोन का स्तर बढ़ने का मुख्य कारण है तापमान का बढ़ते जाना। होता यह है कि लाखों मोटर-कारों से धुएं और उसमें मौजूद हाइड्रोकार्बन रसायनों के कारण तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से भी अधिक हो जाता है। हवा में मौजूद गैसें इस ऊंचे तापमान पर आपस में क्रिया करके ओजोन गैस बनाने लगती हैं। दिल्ली में इसका स्तर 300 एक्यूआई यानी एयर क्वालिटी इंडैक्स तक मापा गया है जबकि इसे 100 एक्यूआई से अधिक नहीं होना चाहिए।

वायु प्रदूषण के खतरे इतने, लेकिन इसमें कमी कैसे की जाए? पहली बात तो यह कि हमें स्वीकार करना चाहिए कि इस निराले ग्रह के वायुमंडल को प्रदूषित करने में सबसे बड़ा हाथ स्वयं हम मनुष्यों का है। हमने इसे इतना प्रदूषित कर दिया है कि इसमें सांस तक लेना दूभर हो गया है। वर्ष 2016 की दीपावली के बाद काफी समय तक आसमान बुरी तरह धुंध से ढका रहा। तब कुछ अन्य देशों की तरह राजधानी दिल्ली में भी सप्ताह के विभिन्न दिनों में सम और विषम नम्बर की कारें चलाने का प्रयोग किया गया। नवम्बर 2019 में यह प्रयोग फिर दोहराया गया। पड़ोसी देश चीन के लिए कहा जाता है कि वहाँ कई दिन हवा में इतना प्रदूषण हो जाता है कि उसमें सांस लेने वाले व्यक्ति को एक दिन में 60 सिगरेट पीने वाले व्यक्ति के बराबर नुकसान होता है। हमारे प्रदूषित शहरों में भी हालात बेहतर नहीं हैं।

वायु प्रदूषण में कमी करने के लिए सबसे पहले तो हमें कड़ा कानून बनाकर सड़कों पर दौड़ती मोटर-कारों के धुएं में कमी करनी होगी। इसके लिए कारगर तरीके अपनाने होंगे। इसके अलावा जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को भी कम करना होगा। वैकल्पिक ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देना होगा। प्रकृति ने हवा को स्वच्छ बनाए रखने के लिए धरती पर हरियाली बढ़ाई। लेकिन, हम विकास और औद्योगिकीकरण के नाम पर जगंलों का सफाया करते जा रहे हैं। कभी घर-आंगन में नीम की छांव होती थी। पीपल, बरगद और अमराइयां गांव-कस्बे की पहचान होती थी। सड़कों और राजमार्गों के किनारे घने, छायादार पेड़ लगाए जाते थे। हमें फिर पेड़ों से प्यार करना होगा और यह महसूस करना होगा कि वे हमें हमारी सांसें देते हैं। अस्पताल के बिस्तर पर वेंटिलेटर से ऑक्सीजन लेते हुए यह याद आए तो क्या लाभ? बल्कि, घर भीतर और घर की बगिया या बालकनी में भी पौधे लगाएं। घर के भीतर धुआं न फैलाएं और न धूम्रपालन करें।

शहरों में आस-पास खेतों में फसल की कटाई के बाद बची पराली को आग न लगाएं। उस धुएं से आसमान में प्रदूषण फैलाने वाले कण फैल जाते हैं जिनसे आस-पास के शहर की हवा प्रदूषित हो जाती है। दिल्ली में इस कारण वायु प्रदूषण गम्भीर समस्या बनता जा रहा है। मतलब यह कि अगर सावधानी बरती जाए तो वायु प्रदूषण के खतरों में कमी की जा सकती है।

Disqus Comment

हाइड्रोलॉजी में साइंटोमेट्रिक्स: एक समीक्षा पत्र

$
0
0
हाइड्रोलॉजी में साइंटोमेट्रिक्स: एक समीक्षा पत्रHindiWaterFri, 01/31/2020 - 11:26
Source
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रूड़की

सारांश

जैसा कि तकनीकी प्रगति होती है, किसी भी क्षेत्र में काम करने के रुझान में एक बदलाव होता है। जब किसी भी अनुसंधान डोमेन के मौजूदा रुझानों का अध्ययन किया जाता है, फिर उभरते रुझानों कोदेखने और नए विकास का प्रस्ताव करने की सिफारिश की जाती है। बिब्लियोमेट्रिक विश्लेषण और साइंटोमेट्रिक मैपिंग एक समय अवधि में शोध कार्यों का अध्ययन करके शोधकर्ताओकी मानसिकता तथा रुझान में परिवर्तन दिखा सकते हैं। इसके अलावा वर्तमान में जल क्षेत्र में अनुसंधान के सवालों की पहचान करके, किसी भी क्षेत्र में भविष्य में अनुसंधान के बारे में जानकारी होसकती है। साइंटोमेट्रिक्स किसी भी प्रकार के प्रकाशित वैज्ञानिक साहित्य का मात्रात्मक और गुणात्मक अध्ययन है। यह अलग-अलग समय अवधि पर विचार के साथ किया जा सकता है जोउस समय अवधि में अध्ययन के विशेष क्षेत्र के अनुसंधान में रुझान का संकेत दे सकता है। जलविज्ञान वह विज्ञान है जोपृथ्वी पर सभी प्रकार के जल, इसकी घटना, वितरण और परिसंचरण, इसके भौतिक और रासायनिक गुणों, पर्यावरण पर इसके प्रभावों और सभी रूपों के जीवन से संबंधित है। चूंकि पानी सबसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों में से एक है और इसकी कमी और अप्रभावी प्रबंधन के कारण इन दिनों इसे बहुत महत्व मिला है, इसलिए जल क्षेत्र में अनुसंधान भी बढ़ाया गया है। कई डेटाबेस (जैसे वेबऑफसाइंस, स्कोप्स) ने भारत में पिछले कुछ दशकों में हाइड्रोलॉजिकल शोध में वृद्धि का संकेत दिया है। विभिन्न संगठनों और विश्वविद्यालयों के कई शोधकर्ताओं ने विभिन्न मंचों पर कई विदेशी शोधकर्ताओं के सहयोग से विभिन्न वैज्ञानिक लेख प्रकाशित किए हैं। इसलिए इस तरह के साहित्य की उपयोगिता का पता लगाने में बिब्लियोमेट्रिक विश्लेषण और साइंटोमेट्रिक मैपिंग बहुत उपयोगी साबित होसकते हैं। प्रस्तुत समीक्षा लेख साइंटोमेट्रिक्स के विकास और भारत में हाइड्रोलॉजिकल रिसर्च में इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालेगें।

की-वड्र्स: साइंटोमेट्रिक्स, बिब्लियोमेट्रिक, हाइड्रोलॉजी, वैज्ञानिक पत्रिकाएँ, लेखकों, उद्धरण

Abstract:

As technology progresses, there is a change in the trend of working in any field. When the current trends of any research domain are studied, then it is recommended to look at emerging trends and propose new developments in that particular study domain. Changes in the mindsets and attitudes regarding the research of researchers can be shown with the help of bibilometric and scientometric mapping.Apart from this, by identifying the gap areas in research from the water sector at present, one can get information about future research in this field. Scientometrics is a quantitative and qualitative study of any type of published scientific literature. This can be done with consideration of different time periods which may indicate trends in the research of a particular field of study over that time period.Hydrology is the science that deals with all types of water on the earth, its occurrence, distribution and circulation, its physical and chemical properties, its effects on the environment and all forms of life. Since water is one of the most important natural resources and due to its scarcity and ineffective management, it has gained a lot of importance these days, so research in water sector has also been increased.Several databases (eg. Web of Science, Scopus) have indicated an increase in hydrological research in India in the last few decades. Many researchers from various organizations and universities have published various scientific articles at different forums in collaboration with many foreign researchers.Therefore, bibliometric analysis and scientometric mapping can prove very useful in finding the utility of such literature. The review articles presented will throw light on the development of scientometrics and its utility in hydrological research in India.

Key words: Scientometrics, Bibilometrics, Hydrology, Scientific Articles, Citations of Authors

परिचय

जब नए विचारों और ज्ञान कोबड़े पैमाने पर फैलाया जाता है, तोवे बड़े प्रभाव और इसके विपरीत प्रभाव भी पैदा करते हैं। दुनिया कुछ महान शोध निष्कर्षों कोभूल जाती है, जबकि अन्य तेज गति से दुनिया कोप्रभावित कर जाते हैं या कुछ धीरे-धीरे फैलते हैं (Gao et al., 2013)। ऐसी समस्या से निपटने के लिए अधिक विकसित वैज्ञानिक अनुसंधान पद्धति विकसित की जानी चाहिए।

बिब्लियोमेट्रिक एक ऐसा क्षेत्र है जोकिसी भी डोमेन में शोध कोमात्राबद्ध और प्रबंधित करने में काफी मददगार है। यह विभिन्न सांख्यिकीय और गणितीय उपकरणों का उपयोग करके वैज्ञानिक और तकनीकी गतिविधियों का मात्रात्मक विश्लेषण करता है। बिब्लियोमेट्रिक अध्ययन के लिए उपयोग किए गए डेटा मुख्य रूप से शोधकर्ता के संचार की गतिविधि द्वारा उत्पादित जानकारी से उपजा है। बिब्लियोमेट्रिक शब्द पहली बार 1968में एलन प्रिचार्ड द्वारा गढ़ा गया था और 1980के दशक में लोकप्रिय होगया था।

साइंटोमेट्रिक्स वैज्ञानिक प्रकाशनों के विश्लेषण के लिए एक और पद्धति है। साइंटोमेट्रिक्स की परिभाषा ‘‘उन मात्रात्मक तरीकों का अनुप्रयोग है जोएक सूचना प्रक्रिया के रूप में देखे गए विज्ञान के विश्लेषण के साथ काम कर रहे हैं’’ (Nalimov-Mulchenko, 1969)साइंटोमेट्रिक्स किसी दिए गए वैज्ञानिक क्षेत्र के विकास कोट्रेस करने का एक प्रभावी उपकरण साबित होसकता है, जोअनुसन्धान में उभरते हुए अंतराल क्षेत्रों की पहचान, उभरती हुई शोध समस्याओं और वैज्ञानिक योगदान के मूल्यांकन और किसी संस्थान या देश की अनुसंधान उत्पादकता साबित करने में सक्षम है

जलविज्ञान की प्राचीन काल से शुरू होने वाली एक विशाल पृष्ठभूमि है। इसका संबंध पृथ्वी के सभी जल, इसकी घटना, वितरण और परिसंचरण, इसके भौतिक और रासायनिक गुणों, पर्यावरण पर इसके प्रभावों और सभी रूपों के जीवन से है। इसकी सामाजिक-आर्थिक प्रासंगिकता है क्योंकि पानी सीधे लोगों के जीवन स्तर कोप्रभावित करता है। इसकी भौगोलिक विविधता भी है। जल विज्ञान कोअन्य विज्ञानों जैसे मौसम विज्ञान, भूविज्ञान, सांख्यिकी, रसायन विज्ञान, भौतिकी और द्रव यांत्रिकी से भी समर्थन मिलता है। जलवायु परिवर्तन और अप्रभावी प्रबंधित मानव गतिविधियों से जल संसाधन और जलविज्ञान चक्र बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, जिसने वैश्विक स्तर पर प्रभाव दिखाया है। (Barnett et al.,2008; Milly et al., 2008 Wagener et al.,2010 vogel,2011)बाढ़, सूखा, मृदा अपरदन, जलवायु परिवर्तन और जल संबंधी विभिन्न पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के लिए जल के संचलन पर शोध किया जाता है। नदी के जल प्रबंधन में नदी की गुणवत्ता महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है (Wang et al.,2016)। इसके अलावा पानी की कमी हमारे देश में एक ज्वलंत मुद्दा है जिस पर चर्चा की जानी चाहिए और समाधान प्रत्येक सूक्ष्म और प्रमुख प्लेटफार्मों पर पाए जाने चाहिए।

जलविज्ञान क्षेत्र में महत्वपूर्ण शोध 1930के दशक से किया गया था, इसलिए इसे काफी युवा विज्ञान कहा जा सकता है। आधुनिक प्रौद्योगिकी के विकास के कारण पिछले कुछ दशकों के दौरान हाइड्रोलॉजिकल अनुसंधान में तेजी से वृद्धि देखी जा सकती है। इस अवधि में अधिक विकसित सैद्धांतिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण का अध्ययन और विकास किया गया है।

भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) आगमन और विकास के साथ, जल संसाधनों के बेहतर प्रबंधन के लिए जलविज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों के लिए परिष्कृत हाइड्रोलॉजिकल मॉडलिंग प्रक्रियाएं विकसित की गई हैं । इन सभी कारकों ने देश में होरहे पानी के क्षेत्र में अनुसंधान कोसकारात्मक रूप से प्रभावित किया है जिसका प्रभाव IITs, IISc,जैसे विभिन्न प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों और NIH, रुड़की, CGWB, जल शक्ति मंत्रालय जैसे विभिन्न अन्य संस्थानों में तीव्र गति से बढ़ रहा है। इसलिए यह देश में अनुसंधान गतिविधियों कोबेहतर तरीके से प्रबंधित करने और क्षेत्र में उभरते क्षेत्रों का पता लगाने की चुनौती प्रस्तुत करता है जोसमाज और देश के विकास में सहायक होसकते हैं ।

पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों के शोध प्रभाव का पता लगाने के लिए इम्पैक्ट फैक्टर जैसी विभिन्न विधियाँ हैं, लेकिन ये तकनीकें कभी-कभी वैज्ञानिक कार्यों के वास्तविक प्रभाव कोमापने के लिए अक्षम होती हैं क्योंकि जलविज्ञान का अनुशासनात्मक चरित्र ऐसा है कि 2साल के इम्पैक्ट फैक्टर की गणना करने के लिए उपयोग किए जाने वाले समय विंडोके बाद बड़े पैमाने पर उद्धरण होते हैं। इसी कारणवश 2साल का इम्पैक्ट फैक्टर, अपने आप में जल विज्ञान पत्रिकाओं के उद्धरण प्रभाव कोसार्थक नहीं करता है। ‘Declaration on Research Assessment (DORA), http://www.ascb.org/dora/,की सिफारिशें, एक उपयोगी दिशानिर्देश प्रदान करती हैं, जिसका उपयोग हाइड्रोलॉजिक अनुसंधान की उत्पादकता का आकलन करने के लिए किया जा सकता है। इसीलिए जलविज्ञान क्षेत्र के लिए बिब्लियोमेट्रिक या साइंटोमेट्रिक्स जैसी मात्रात्मक तकनीक बहुत फायदेमंद है।

वैज्ञानिक प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य विज्ञान कोआगे बढ़ाने में जुटे हुए साथियों के लिए नए, महत्वपूर्ण निष्कर्षों का संचार करना है। विश्व स्तर पर, सामाजिक और तकनीकी परिवर्तनों का प्रकाशन परिदृश्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। कुछ अन्य विषयों की तरह, जलविज्ञान पत्रिकाओं में प्रकाशन की अपनी चुनौतियां हैं, उदाहरण के लिए खुले डेटा और खुले मॉडल की नीति पर जोर, जलविज्ञान पत्रिकाओं का अपेक्षाकृत कम इम्पैक्ट फैक्टर, आदि। अधिकांश जलविज्ञान पत्रिकाएं अंतःविषय प्रकाशन आवश्यकताओं के लिए रणनीतिक रूप से प्रतिक्रिया दे रही हैं, उदाहरण के लिए, विषयों के एक विविध सेट से संपादकों और समीक्षकों का चयन करना (Quinn et al. 2018)। यह भी तर्क दिया जाता है कि जलविज्ञान शोध में अनुसंधान एजेंडा कोआज की समस्याओं से इतनी संकीर्णता से नहीं जोड़ा जाना चाहिए, और विभिन्न एजेंसियां 21वीं सदी में, बुनियादी और लागू दोनों तरह के अनुसंधानों कोसंबोधित करने के लिए इसके अलावा अनुसंधान कोबढ़ावा देने के लिए अभिनव एजेंडा विकसित कर रही हैं। इसके अलावा जितना ज्ञात है उसमें, भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा जलविज्ञान क्षेत्र में एक साइंटोमेट्रिक विश्लेषण अभी तक नहीं किया गया है। साइंटोमेट्रिक अध्ययन न केवल अंतराल वाले क्षेत्र, उभरते रुझानों, और जलविज्ञान के अनुसंधान कोआगे ले जाने के संभावित अवसरों कोउजागर करेगा, बल्कि Sustainable Development goals (SDG)कोसंबोधित करने के लिए भारत में नीति नियोजकों कोएक रोडमैप प्रदान करेगा।

साहित्य की समीक्षा

भारतीय जलविज्ञान क्षेत्र पर साइंटोमेट्रिक्स पर प्रारंभिक अध्ययनों में से एक का 1994तक पता लगाया जा सकता है। Furqan Ullah (1994) ने 1981-93की अवधि में जर्नल ऑफ हाइड्रोलॉजिस्ट में भारतीय हाइड्रोलॉजिस्ट के योगदान का अध्ययन किया। पत्रिका के सभी संस्करणों का विश्लेषण किया गया। जर्नल के सभी संस्करणों के कुल 2145में से, कुल 163यानी 7.6ः पत्रों का भारतीय लेखकों द्वारा योगदान दिया गया था। पत्रिका की लोकप्रियता कोदेखते हुए, यह बहुत महत्वपूर्ण योगदान होसकता है। वर्षवार विश्लेषण, भारतीय लेखकों का परिमाणीकरण, संबद्ध संगठन चाहे भारतीय संस्थान हों या विदेशी, अन्य घरेलू और विदेशी लेखकों के साथ सहयोग, अधिकतम प्रकाशन वाले शोधकर्ता का विश्लेषण इस पत्रिका में किया गया है। जलविज्ञान की 14व्यापक श्रेणियों में विस्तृत विषय-वार विश्लेषण किया गया था। इस विश्लेषण से पता चलता है की भूजल जलविज्ञान कोभारतीय शोधकर्ताओं के लिए पसंदीदा माना गया है फिर भू-आकृति (Geomorphology) विज्ञान कोन्यूनतम महत्व दिया गया है। सहयोग पैटर्न का भी अध्ययन किया गया है और यह पता चला है कि दोलेखक पत्रों की संख्या सबसे ज्यादा है। जलविज्ञान अनुसन्धान में शामिल अनुसंधान संस्थानों कोभी तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया था अर्थात् शैक्षिक, अनुसंधान और अन्य। इसके अलावा, उनका विस्तृत विश्लेषण के पश्चात यह यह निष्कर्ष निकाला गया कि जोशोधकर्ता उच्चतम डिग्री के लिए काम कर रहे थे उनके पास प्रकाशनों का उच्च अनुपात था। जलविज्ञान के क्षेत्र में संस्थानों का भी अध्ययन किया गया। यह निष्कर्ष निकाला गया है कि अग्रणी दोसंगठन NGRIहैदराबाद और IIScबेंगलुरू थे। उच्चतम प्रकाशनों वाले लेखकों का अध्ययन किया गया और परिणाम प्रस्तुत किए गए। इन लेखकों की ग्रन्थकारिता (Authorship) पैटर्न (जैसे पहले लेखक, दूसरे लेखक ...) का भी अध्ययन किया गया। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह अध्ययन मैन्युअल रूप से किया गया था वोभी एकल पत्रिका के लिए भी जोकि वर्तमान जलविज्ञान क्षेत्र के दायरे पर विचार किया जाए तोलगभग असंभव कार्य है।

Singhऔर Furqan Ullahके 2008के एक अन्य प्रकाशन में, जलविज्ञान सहित विज्ञान में रुड़की शहर के योगदान का मूल्यांकन किया। लेकिन देशव्यापी पैमाने पर इस प्रकार के अध्ययनों की कमी है। जल क्षेत्र के क्षेत्र में किए गए बिब्लियोमेट्रिक और साइंटोमेट्रिक अध्ययन के विभिन्न उदाहरण हैं ।

जैव प्रद्योगिकी (Biosorption Technology) जोअनिवार्य रूप से एक जल उपचार है पर शोध प्रकाशन जिसे 1991 -2004तक प्रकाशित किया गया उनका विश्लेषण Yun Shan Ho (2008) द्वारा किया गया था। की-वर्ड के रूप में केवल इपवेवतचजपवद का उपयोग करके पर्यावरण इंजीनियरिंग, पर्यावरण विज्ञान और जल संसाधनों इन तीन विषय श्रेणियों में एक सौतिरासी पत्रिकाओं कोसूचीबद्ध किया गया था। परिणाम दर्शाता है कि कुछ प्रारंभिक वर्षों के दौरान संख्या में गिरावट कोछोड़कर संबंधित विषय में प्रकाशनों की संख्या 1991के बाद से बढ़ रही है। ऑथरशिप का पैटर्न, प्रकाशन का देश, उद्धरण विश्लेषण के आधार पर प्रकाशनों के मात्रात्मक विश्लेषण का उत्पादन किया गया है। साथ ही लेखकों के आधार पर संदर्भ विश्लेषण का हवाला दिया गया है। इस अध्ययन ने बताया है कि जैव प्रौद्योगिकी में सबसे अधिक उत्पादक देश अमेरिका, कनाडा और भारत हैं ।

Sun et al., (2011) ने मुहाना प्रदूषण (estuary pollution) पर 1991-2010से उत्पादित शोध प्रकाशनों पर अध्ययन किया। WoS-SCI (Web of Science-Science Citation Index) विस्तारित डेटा का विश्लेषण की-वर्ड चयन की मदद से किया गया है। पिछले अध्ययनों की तरह ही देशवार वितरण, एकल लेखकों या लेखकों के सहयोग, एकल या कई संस्थानों के लेखकों, दस्तावेजों के प्रकार, प्रकाशनों की भाषा और विषय श्रेणियों और पत्रिकाओं में आउटपुट के वितरण जैसे आंकड़ों का विश्लेषण करते समय कुछ मापदंडों कोध्यान में रखा गया है। अध्ययन ने इन मापदंडों के आधार पर मात्रात्मक परिणाम उत्पन्न किए और प्रत्येक श्रेणी में आधारित विस्तृत आउटपुट दिए हैं।

निर्मित आद्र्र भूमि (Constructed Wetlands) पर बिब्लियोमेट्रिक अध्ययर्न Zhi and ji (2012) द्वारा किया गया है। WoSडेटाबेस का उपयोग करके विश्लेषण किया गया है। संबंधित विषय से संबंधित कई की-वर्ड चुने गए हैं और वेटलैंड रिसर्च में अलग-अलग कीवर्ड के अनुसार प्रकाशन की भाषा, जर्नल प्रकाशनों के पैटर्न, देशों और संस्थानों के प्रदर्शन और लेखकों के जोर के आधार पर ग्रंथ सूची विश्लेषण उत्पन्न किया गया है। एमएस-एक्सेल का उपयोग डेटा विश्लेषण के लिए किया गया है। इस शोध अध्ययन ने अंत में भविष्य के कुछ प्रचलित विषयों कोइंगित किया है जिनका ठीक से पता लगाया जाना बाकी है।

Raymond et al.,2014ने 1977से 2011तक समय-समय पर अनुसंधान आउटपुट का विश्लेषण करके दक्षिण अफ्रीका में पानी से संबंधित शोध में क्रांतिकारी बदलावों का अध्ययन किया। समय कोइस अध्ययन के लिए तीन भागों में वर्गीकृत किया गया था (1977-1991, 1991-2001, 2001-2011) और की-वर्ड के साथ कुछ सवालों कोसाइंटोमेट्रिक मैपिंग के लिए उठाया गया है। इस अध्ययन ने इन समय अवधि में शोध अध्ययनों में पाए गए अधिकांश खोज शब्दों का विश्लेषण करके क्रांतिकारी बदलावों का अनुमान लगाया है। प्रारंभ में अनुसंधान पानी से संबंधित हाइड्रोलिक और इंजीनियरिंग गतिविधियों पर केंद्रित था जोकि आगे के वर्षों में पानी की गुणवत्ता की कमी, जल योजना और प्रबंधन में स्थानांतरित कर दिया गया है। जल क्षेत्र में संधारणीय विकास दक्षिण अफ्रीका में अनुसंधान का केंद्र बन गया है।

भूजल अध्ययन के लिए बिब्लियोमेट्रिक दृष्टिकोण कोNiu et al., (2014) द्वारा अपनाया गया है। अध्ययन में SCIEडेटा बेस उपयोगी है। 1993-2012 के बीस साल के शोध कार्य कोभूजल से संबंधित खोज शब्दों का उपयोग करके खोजा गया। परिणाम तीन मानदंडों कोध्यान में रखते हुए प्रकाशित किए गए थे (ए) अनुसंधान उत्पादन के रुझान (बी) विषयश्रेणियों और प्रमुख पत्रिकाओं पर आधारित (सी) अनुसंधान संस्थानों के भौगोलिक वितरण पर आधारित (डी) भूजल अनुसंधान में प्रचलित विषय और भूजल अनुसंधान में बढ़ते विषय।

Navaneetharishan and Sivakumar (2015) ने श्रीलंका में संबद्धता वाले जल संसाधन क्षेत्र में अनुसंधान प्रकाशनों की कुल संख्या का विश्लेषण किया है। उन्होंने स्कोप्स डेटाबेस से लगभग 42शोध के आंकड़ों का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया है कि पत्रिका के लेख प्रकाशन 86.26%की हिस्सेदारी के साथ शोध प्रकाशनों का नेतृत्व कर रहे थे, जबकि पुस्तक अध्याय और मुद्रित सामग्री केवल 0.1%की हिस्सेदारी वाले अनुसंधान प्रकाशनों में से सबसे कम पसंदीदा प्रकार हैं ।

Wang et al., (2016) ने नदी के पानी की गुणवत्ता के आकलन और सिमुलेशन के क्षेत्र से वैज्ञानिक लेखों का बिब्लियोमेट्रिक विश्लेषण किया है। अध्ययन में 2000से 2014Science Citation Index Expanded (SCIE) और Social Science Citation Index (SSCI)डेटाबेस का उपयोग किया गया है। अध्ययन ने विभिन्न श्रेणियों में आउटपुट दिए हैं। (ए) प्रकाशन आउटपुट पर आधारित (बी) विषय श्रेणियों और पत्रिकाओं के आधार पर (सी) मुख्य लेखक (डी) देशानुसार वितरण (इ) अनुसंधान संस्थानों के आधार पर (एफ) प्रचलित विषयों पर आधारित भूजल अनुसंधान के क्षेत्र में अंतः विषय सहयोग का अध्ययन Barthel and Seidl (2017) द्वारा किया गया है। 1990-2014के प्रकाशनों कोअध्ययन में लिया गया और कई पद्धतियों का उपयोग किया गया। यह पता चला है कि केवल कुछ पेपर में बहु-विषयक दृष्टिकोण होता है और बड़ी संख्या में प्रकाशन एकल लेखक के होते हैं । पर्यावरण मूल्यांकन और मॉडलिंग अनुप्रयोगों के शोध विषयों में बिब्लियोमेट्रिक अध्ययन संख्या में बहुत सीमित हैं।

Zare et al., (2017) ने एकीकृत वाटरशेड मूल्यांकन और प्रबंधन (IWAM) डोमेन में साहित्य के बिब्लियोमेट्रिक विश्लेषण के लिए आठ चरण पद्धति का उपयोग किया; (1) विषय कोपरिभाषित करते हुए, (2) अध्ययन की सीमा, डेटा के स्रोतों का चयन, (3)पुनः प्राप्त करना (4) डेटा का पूर्व-प्रसंस्करण (5) विश्लेषण, (6) गुणवत्ता की जाँच, (7) विज़ुअलाइज़ेशन, (8)मूल्यांकन।

Wen et al., 2017ने साइंटोमेट्रिक विश्लेषण के लिए तीन क्लस्टरिंग तकनीक का पता लगाया जर्नल क्लस्टर (JJCR),साझा लेखक की-वर्ड (SAK) और साझा शब्द संदर्भ संयोजन (TWCR) के माध्यम से WoSडेटाबेस में प्रकाशन समूहों, संख्या प्रकाशनों, उद्धरणों और लेखकों का विश्लेषण किया गया है। जबकि अध्ययन का मुख्य उद्देश्य त्रिकोणासन तकनीक (तीन क्रॉस-टेबल की तुलना) का विश्लेषण करना है जोउपर्युक्त विभिन्न बिब्लियोमेट्रिक दृष्टिकोणों के परिणामों से संबंधित है। तीनों दृष्टिकोणों ने पत्रिका के नाम, साझा किए गए की-वर्ड और साझा शीर्षक शब्दों-उद्धृत संदर्भ संयोजनों का उपयोग करके प्रकाशित लेखों के समूह बनाए गए। ‘‘यूट्रोफिकेशन जल गुणवत्ता के लिए खतरा’’ (COV = 0.40) कोअधिक बहु-विषयक दिखाया गया है जबकि ‘‘उन्नत ऑक्सीकरण तकनीकें’’ जोकि जल उपचार प्रक्रिया पर फार्मास्यूटिकल (एंटीबायोटिक्स) निष्कर्षण’’ (COV = 1.26) के विषय में तैनात है कम बहु-विषयक दिखाया गया है।

‘‘बिब्लियोमेट्रिक ’’ Rप्रोग्रामिंग भाषा में विकसित एक टूल है जिसका उपयोग ।Aria and Cuccurullo (2017) द्वारा प्रभावी विज्ञान मानचित्रण के लिए किया गया है। Rभाषा डेटा फ्रेम में डेटा स्कोप्स और वेब ऑफ़ साइंस से अधिग्रहीत ऑर उपयोग किया गया है। 1985से 2015तक प्रबंधन, व्यवसाय और सार्वजनिक प्रशासन के विषयों पर केवल अंग्रेजी में लेखों का बिब्लियोमेट्रिक विश्लेषण करता है। इस टूल ने डेटा संग्रह संबंध में निम्नलिखित 10शीर्ष में मुख्य जानकारी की विस्तृत वर्णनात्मक तालिका तैयार की है; अधिकांश उत्पादक लेखक, अधिकांश उद्धृत पत्र, अधिकांश उत्पादक देश, सबसे लगातार पत्रिकाएं, सबसे लगातार की-वर्ड, अधिकांश उद्धृत संदर्भ, अधिकांश उद्धृत लेखक इस टूल ने की-वड्र्स के क्लस्टर मैप, सह-घटना का नेटवर्क मैप और देश के सहय¨ग के नेटवर्क मैप पर क्लस्टर मैप भी बनाए। हिस्टोरिओग्राफ भी उत्पन्न हुआ है। यह अध्ययन बताता है कि ‘‘ बिब्लियोमेट्रिक ’’ R टूल बहुत व्यापक टूल है। इस टूल के मुख्य लाभ यह हैं कि यह खुला स्रोत टूल है और अन्य सांख्यिकीय और ग्राफिकल पैकेजों के साथ संगत होने के लिए बहुत लचीला है।

जलीय पारिस्थितिक तंत्र के यूट्रोफिकेशन में अनुसधान क्षेत्र में कई वैज्ञानिक तरीकों कोDe costa et al., (2018) ने लागू किया गया है। WoSडेटाबेस से इस विषय पर 2001से 2006तक का डेटा प्राप्त किया गया। कुछ महत्वपूर्ण की वर्ड का उपयोग किया गया और प्रासंगिक जानकारी कोलेखों से बरकरार रखा गया यानी प्रकाशन का वर्ष, प्रथम लेखक का नाम और मेलिंग पता, लेखको की संस्थाओं का पता, की-वड्र्स आदि। अध्ययन की अवधि के दौरान विषय पर प्रकाशनों मे लौकिक रुझानों का अध्ययन करने के लिए प्रतिगमन विश्लेषण (Regression Analysis) किया गया है। सबसे अधिक प्रकाशन वाले देशों की पहचान संबंधित लेखक के पते से की गई और की-वर्ड ने अधिकांश शोध किए गए पर्यावरण और संबधित समूहों का सुझाव दिया गया है। पत्राचार विश्लेषण (Corresponding Analysis CA) एक Rपैकेज है जोसम्बंधित वर्षों के बीच सम्बन्ध दिखाने के लिए की-वड्र्स के आधार पर ची स्क्वायर टेस्ट का उपयोग करके परिणाम उत्पन्न करता है। अंतर्राष्ट्रीय सहयोगी नेटवर्क सामाजिक नेटवर्क विश्लेषण (Social Networking Analysis SNA) का उपयोग करके बनाया गया है। देशों के भौगोलिक, आर्थिक और सामाजिक आर्थिक मुद्दों का उपयोग करते हुए थिस्सोनोमेट्रिक विश्लेषण भी किया गया है और उन अपेक्षित देशों का पता लगाया है जिनका उच्च मानव विकास और बड़े क्षेत्र में अधिक संख्या में वैज्ञानिक लेख प्रकाशित करते हैं।

Chhatar (2018) ने अपनी टिप्पणी में विभिन्न प्रकार के साइंटोमेट्रिक संकेतकों का उल्लेख किया है, जैसे कि सहयोगात्मक सूचकांक, सहयोग की डिग्री, सह-प्रमाणीकरण सूचकांक, गतिविधि सूचकांक आदि। हाल ही में, कुछ लेखक साइंटोमेट्रिक्स के कुछ नए टूलोंके साथ आए हैं और कुछ ने साइंटोमेट्रिक्स के सैद्धांतिक पहलुओं कोदेखा है। Brindha and Murugesapandian (2016) ने विभिन्न तकनीकों पर विस्तार से और हाल ही में साइंटोमेट्रिक विश्लेषण के लिए उन्नत वैज्ञानिक टूल विकसित किए हैं। उन्होंने अपनी आयामिता (एक, दोऔर बहुआयामी तकनीक) के आधार पर कई प्रकार की साइंटोमेट्रिक तकनीकों पर भी टिप्पणी की, जोमुख्य रूप से गणना, की-वर्ड, उद्धरण आदि और उनकी घटनाओं की संख्या पर आधारित है।

Tanudjajaand Kow (2017) द्वारा एक ओपन सोर्स टूल बिबिक्सकेल (BibExcel)का उपयोग किया गया है। उन्होंने वैज्ञानिक प्रकाशन जोनेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर (NUS) के साथ सहयोग रखते हैं उनकी ग्रन्थ सूचि बनायी है और जिन्होंने संस्थान के प्रकाशन कोपाँच वर्षों (2012-2017) के समय में उद्धृत किया है। परिणाम VOSViewerकी मदद से दिखाए गए हैं। हालाँकि परिणामों में Bib Excelका उपयोग करते हुए विभिन्न नेटवर्क मानचित्र बनाए गए थे, लेकिन उन्होंने अध्ययन में कुछ सीमाओं कोदर्ज किया जोकि उनके द्वारा उपयोग किए जाने वाले वेबऑफ़ साइंस डेटा के संवर्धन और शोधन के संबंध में थे।

Eck Waltman (2018) ने स्वतंत्र रूप से उपलब्ध टूल Cite Net Explorerका प्रदर्शन किया है, जोप्रकाशित वैज्ञानिक लेखों के विभिन्न उद्धरणों के क्लस्टर मानचित्र तैयार करने के लिए और क्रमशः उन क्लस्टरिंग समाधानों का विश्लेषण करने के लिए, Citations Network Explorerऔर VOSviewerका संक्षिप्त नाम है। Cit Net Explorerमें पहले से निर्मित मौजूदा क्लस्टरिंग तकनीकों का उपयोग वेब ऑफ साइंस डेटाबेस से खरीदे गए डेटा पर किया गया है।

निष्कर्ष

मुख्य रूप से जलविज्ञान के क्षेत्र से साइंटोमेट्रिक्स और बिब्लियोमेट्रिक से संबंधित लेखों की समीक्षा की गई है। ये लेख बताते हैं कि जलविज्ञान के विभिन्न उप डोमेन में कई अध्ययन किए गए हैं। इन विश्लेषणों के लिए विभिन्न प्रकार की कार्य प्रणाली विकसित की गईं हैं। क्षेत्र में उन्नति दिखाने के लिए कई सूचकांक पहले ही विकसित किए जा चुके हैं। साइंटोमेट्रिक विश्लेषण करने के लिए विभिन्न प्रकार के खुले स्रोत टूल उपलब्ध हैं। लेकिन किसी भी देश के किसी भी विशेष वैज्ञानिक क्षेत्र में ऐसे अध्ययनों का अभाव है जोबड़ी संख्या में डेटा कोकवर करता है। भारत में भी इस तरह के अध्ययन का अभाव है। भारत में, कई संस्थान हाइड्रोलॉजिकल रिसर्च में काम कर रहे हैं, इसलिए बड़ी संख्या में प्रकाशन उत्पन्न होरहे हैं। इस तरह के अनुसंधान के प्रभाव का पता लगाने के लिए, भारत में जलविज्ञान संबंधी साइंटोमेट्रिक्स पर आधारित शोध करने की सलाह दी जाती है।

References

• Aria, M., & Cuccurullo, C. (2017). bibliometrix: An R-tool for comprehensive science mapping

• analysis. Journal of Informetrics, 11(4), 959-975.

• Balaram, P. (2004). Science, scientists and scientometrics. Current Science, 86(5), 623-624.

• Barthel, R., &Seidl, R. (2017). Interdisciplinary collaboration between natural and social sciences–Status and trends exemplified in groundwater research. PlOS one, 12(1), e0170754.

• Boyack, K. W., Klavans, R., & Börner, K. (2005). Mapping the backbone ofscience. Scientometrics, 64(3), pp351-374.

• Brinda, T. & Dr. Murugesapandian N. (2016). Scientometrics tools and techniques: An overview.Shanlax International Journal of Arts, Science & Humanities, Vol: 4(2). pp 90-92.

• Chattar, D.C. (2018). Measuring the growth of science through scientometrics indicators: A

• theoretical consideration. Journal of Advancements in Library Sciences, Vol: 5(2), pp87-90.

• Chen, X., Zhang, Y., Zhou, Y., & Zhang, Z. (2013). Analysis of hydrogeological parameters andnumerical modeling groundwater in a karst watershed, southwest China. Carbonates and

evaporites, 28(1-2), pp89-94.

• Choi, M., Lin, B., Hamm, R., Viehweger, G., Tolera, H., & Kolb, T. (2013). Site groundwater

• management strategies: groundwater metal remediation using Permeable Reactive Barriers.

• Conference paper. https://www.researchgate.net/publication/260517033

• Clark, M P and R B Hanson (2017). The citation impact of hydrology journals, Water Resources

• Research, 53, 4533-4541.

• Costa, Jessica Alves da & Souza; Joao Paulo de; Teixeira, Ana Paula; Nabout, Joao Carlos &

• Carneiro, Fernanda Melo (2018). Eutrophication in aquatic ecosystems: a scientometric study. ActaLimnological Brasiliensia, Vol: 30. http://dx.doi.org/10.1590/S2179-975X3016.

• Duran-Sanchez, Amador; Alvarez-Garcia, Jose & Maria de la Cruz del Rio-Rama (2018). Sustainablewater resources management: A bibliometric overview, Water, Vol: 10 (9), 1191, pp3-19. DOI:10.3390/w10091191.

• Eck, Nees Jan Van & Waltman Ludo (2017). Citation-based clustering of publications using

 

• CitNetExplorer and VOSviewer. Scientometrics, 111, pp1053-1070. DOI: 10.1007/s11192-017-2300-7.

• Famiglietti, J. S., & Rodell, M. (2013). Water in the balance. Science, 340(6138), pp1300-1301.

• Garg, Kailash Chandra (2018). Whither scientometrics in India. Journal of scientometrics 7(3),pp215-218.

• Ho, Y. S. (2008). Bibliometric analysis of biosorption technology in water treatment research from1991 to 2004. International Journal of Environment and pollution, 34(1-4), pp1-13.

• Jiang, D.K. and Liu, Z.K. (2014) Research on Application of Balanced Scorecard in the GovernmentPerformance Appraisal. Open Journal of Social Sciences, 2, 91-96.

• Jyoti, D K, Banwet and S G Deshmukh (2006). Balanced scorecard for performance evaluation ofR&D organization: a conceptual model. Jl. Scientific & Industrial Research, Vol. 65, pp. 879-886.

• Navaneethakrishnan, S. & Sivakumar, S.S. (2015). Bibliometric Analysis of Water ResourceDevelopment and Utilization Based Research Studies in Sri Lanka. International Journal of Scientific& Engineering, Vol: 6, Issue 8, pp1432-1439.

• Niu, B., Hong, S., Yuan, J., Peng, S., Wang, Z. & Zhang, X. (2014). Global trends in sediment-relatedresearch in earth science during 1992–2011: A bibliometric analysis. Scientometrics, 98(1), pp511-

• 529.

• Niu, B., Loaiciga, H. A., Wang, Z., Zhan, F. B. & Hong, S. (2014). Twenty years of global

• groundwater research: A Science Citation Index Expanded-based bibliometric survey (1993–

• 2012). Journal of Hydrology, 519, 966-975.

• Parker, P., Letcher, R., Jakeman, A., Beck, M. B., Harris, G., Argent, R. M., & Sullivan, P. (2002).Progress in integrated assessment and modelling. Environmental modelling & software, 17(3), pp209-217.

• Patel, Vimlesh (2018). A scientometric study of research productivity of the national institute of

• technology, Hamirpur (2013-2017). International journal of library information network and

knowledge, Vol: 3, Issue 2, pp22-33.

• Patel, Vimlesh (2018). Scientometric analysis of research productivity: A case study of national

• environmental engineering research institute, Nagpur. International journal of library informationnetwork and knowledge, Vol: 3, Issue 1, pp43-53.

• Quinn, Nevil, Bloschl, Gunter, Bardossy, Andras et.al. (2018). Joint editorial: Invigorating

• hydrological research through journal publications. Hydrology and earth system sciences, Vol: 22,pp5735-5739.http://doi.org/10.5194/hess-22-5735-2018.

• Rotmans, J. (1998). Methods for IA: The challenges and opportunities ahead. Environmental

Modeling & Assessment, 3(3), pp155-179.

• Scanlon, B. R., Healy, R. W., & Cook, P. G. (2002). Choosing appropriate techniques for quantifyinggroundwater recharge. Hydrogeology journal, 10(1), pp18-39.

• Selvavinayagam, A.V., Muthu, M. & Boopalan, E. (2018). Scientometrics, techniques, sources andtheir key points to analysis of LIS research: An overview. International journal of science andtechnology, Vol:8(1),pp10-18.

• Siebrits, Raymond, Winter, Kevin, & Jacobs, Inga (2014). Water research paradigm shifts in SouthAfrica. South African Journal of Science, Vol: 110, No.5-6, pp01-09.

• http://dx.doi.org/10.1590/sajs.2014/20130296.

• Singh, A., & Minsker, B. S. (2008). Uncertaintbyased multiobjective optimization of groundwater remediation design. Water resources research, 44(2).

• Singh,Yogendra & Ullah M. Furqan (2008). A small town in the world of big science: Contributionsof Roorkee to Scientific and Technological Research, 1996-2005. H. Kretschmer & F. Havemann. (Eds.): Proceedings of WIS 2008, Berlin, pp1-8.

• Sun, J., Wang, M. H., & Ho, Y. S. (2012). A historical review and bibliometric analysis of research onestuary pollution. Marine Pollution Bulletin, 64(1), pp13-21.

• Tanudjaja, Irine & Kow, Gerrie Yu (2018). Exploring bibliometric mapping in NUS using BibExceland VOSviewer. IFLA WLIC 2018, Kualalumpur, pp1-9. Licence: http://

• creativecommons.org/licenses/by 4.0

• Ullah, M. Furqan (1994). Contribution of Indian Hydrologists in Journal of Hydrology: Ascientometric analysis. Annals of Library Science and Documentation, Vol: 41, No.3, pp95-101.

• Wang, D., &Hejazi, M. (2011). Quantifying the relative contribution of the climate and direct humanimpacts on mean annual streamflow in the contiguous United States. Water Resources

Research, 47(10).

 

• Wang, Yuan, Xiang, Cuiyun, Zhao, Peng, Mao, Guozhu, & Du, Huibin (2016). A bibliometric

• analysis for the research on river water quality assessment and simulation during 2000–

• 2014. Scientometrics, 108(3), pp1333-1346.

• Wen, Bei, Horlings, Edwin, Zouwen, Marielle van der, & Besselaar, Peter Van den (2017). Mappingscience through bibliometric triangulation: An experimental approach applied to water

• research. Journal of the Association for Information Science and Technology, 68(3), pp724-738.DOI:10.1002/asi.23696.

• Wolf, B, Manfred Szerencsits and H Gaus (2014). Developing a documentation system for evaluatingthe societal impact of science. Procedia Computer Science (Elsevier), 33, 289-296.

• Yeung, Andy Wai Kan, (2018). Data visualization by alluvial diagrams for bibliometric reports,systematic reviews and meta analyses. Current Science Vol.115, No. 10, pp1942-1947.

• Doi:10.18520/cs/v115/i10/1942-1947.

• Youngblood, Mason & Lahti, David (2018). A bibliometric analysis of the interdisciplinary field ofcultural evolution. Palgrave Communications, 4:120, pp1-9. DOI:10.1057/s41599-018-0175-8

• Zare, Fateme, Elsawah, Sondoss, Iwanaga, Takuya, Jakeman, Anthony J., & Pierce, Suzanne A.(2017). Integrated water assessment and modelling: A bibliometric analysis of trends in the waterresource sector. Journal of Hydrology, 552, pp765-778.http://dx.doi.org/10.1016/j.jhydrol.2017.07.031.

• Zhi, W., & Ji, G. (2012). Constructed wetlands, 1991–2011: a review of research development,

• current trends, and future directions. Science of the Total Environment, 441, pp19-27.

Disqus Comment

गंगा की चिंता भी कीजिए

$
0
0
गंगा की चिंता भी कीजिएHindiWaterSat, 02/01/2020 - 12:59

23 वर्षीया साध्वी पद्मावती को 20 घंटे बाद दून अस्पताल द्वारा पूरी तरह स्वस्थ घोषित किए जाने पर प्रशासन को आखिर उनको सम्मान वापस मातृ सदन, हरिद्वार लाना पड़ा। उनको बृहस्पतिवार की रात्रि 11:00 बजे उत्तराखंड प्रशासन-पुलिस द्वारा मातृसदन आश्रम, हरिद्वार से उठाया गया था।

एक युवती सन्यासी जो अपने आश्रम में 15 दिसंबर से गंगा के अविरल निर्मल प्रवाह व  अन्य मांगों को लेकर तपस्यारत हो उसको रात्रि 11:00 बजे, उसके आश्रम में जबरन घुसकर जबरदस्ती स्ट्रेचर पर ले जाने की कोशिश और बहुत प्रतिरोध के बाद फिर उसको उठाकर पुलिस एंबुलेंस में ले जाना क्या कानूनी रूप से सही है ?

वीडियो https://youtu.be/-aaOAKNE4qM में साफ दिखता है कि उनका स्वास्थ बिल्कुल सही था। वह काफी तेज स्वर में बोल भी रही है और पुलिस के साथ पूरे तर्क कर रही है। जिनका पुलिस कोई जवाब नहीं देती। बस उनको उठाकर ले गई।

माटू जनसंगठन इसकी घोर निंदा करता है और मांग करता है कि गंगा की अविरलता के लिए सरकार तुरंत कदम उठाए। यह जांच होनी चाहिए कि आखिर सभी रिपोर्ट सही होने के बावजूद उनको जीवन रक्षा के नाम पर देर रात्रि में जबरदस्ती क्यों उठाकर ले जाया गया?

गंगा की रक्षा करने की बजाय मात्र सन्यासियों के तथाकथित जीवन रक्षा के नाम पर उनको उनके तपस्थली से उठाना गलत है। पूर्व में स्वामी निगमानंद और स्वामी सानंद के उदाहरण हमारे सामने है। जिनको आश्रम से उठाया गया और बाद में उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में अस्पताल में मृत्यु हुई।

हरिद्वार स्थित मातृ सदन में उत्तराखंड में प्रस्तावित और निर्माणाधीन बांधों को तुरंत प्रभाव से रोकने गंगा की अविरलता निर्मलता की अन्य मांगों के साथ साध्वी पद्मावती मात्र पानी,नींबू व शहद लेकर तपस्या कर रहीं हैं।

इस बीच उनके गुरु स्वामी शिवानंद जी की जल मंत्री के साथ भी बातचीत हुई। इस बैठक में गंगा मिशन के निदेशक श्री राजीव भी मौजूद रहे। साध्वी पद्मावती नालंदा बिहार से हैं इस नाते बिहार के मुख्यमंत्री ने भी सप्ताह भर पहले उनको अपने प्रतिनिधि के माध्यम से पत्र भेजकर उपवास समाप्त करने और सरकार से बात उनकी मांगों पर ध्यान देने का आग्रह किया था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पूर्व में उत्तराखंड के निवासी अजय बिष्ट ने भी उन को पत्र भेजकर ऐसे ही आग्रह किया था। अजय बिष्ट जी को गंगा यात्रा आरंभ करनी थी शायद इसलिए यह पत्र भेजकर गंगा के प्रति अपना प्रेम दिखाने की कोशिश की गई थी।

नए बांध नहीं! किंतु सरकार का सात बांधों पर रुख अड़ियल 

ज्ञातव्य है कि मातृ सदन के ही एक सन्यासी ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद ने 194 दिन का उपवास इस समझ के साथ समाप्त किया था कि सरकार उनकी मांगों पर कार्यवाही करेगी। फरवरी 2019 के अंतिम सप्ताह में प्रधानमंत्री कार्यालय में तत्कालीन प्रधान सचिव श्री नृपेन मिश्रा की अध्यक्षता में उत्तराखंड के उत्तराखंड के प्रमुख सचिव व अधिकारियों के साथ एक बैठक में यह निर्णय लिया गया था कि गंगा पर प्रस्तावित बांध अब नहीं बनेंगे। नितिन गडकरी ने भी तत्कालीन जल संसाधन मंत्री होने के नाते उस समय कई बार व्यक्तिगत मुलाकात में भी यह कहा की  गंगा पर नए बांध नहीं बनेंगे।  भले ही उन पर 10 या 15% कार्य हो चुका हो। किंतु उस बैठक की मिनट आधिकारिक रूप से बाहर नही आये। यद्यपि जल मंत्री तथा पर्यावरण सचिव ने व्यक्तिगत बातचीत में कहा कि हम कोई नोटिफिकेशन नहीं लाएंगे, मगर गंगा पर नए बांध नहीं बनेंगे।

सरकार का सात निर्माणाधीन बांधों पर रुख अड़ियल रहा है।

फरवरी 2019 की बैठक में इन 7 बांधों पर समिति भेजकर स्थिति जानने की घोषणा भी की गई।  समिति तो गई मगर उनकी रिपोर्ट कभी बाहर नहीं आई। बांध के काम चालू रहे।

1-मध्यमेश्वर व 2-कालीमठ यह दोनों ही 10 मेगावाट से कम की परियोजनाएं हैं जो की मंदाकिनी की सहायक नदी पर है। 3- फाटा बयोंग (76 मेगावाट) और 4-सिंगोली भटवारी (99 मेगावाट) मंदाकिनी नदी पर है 5-तपोवन-विष्णुगाड परियोजना (520 मेगावाट) का बैराज धौलीगंगा और पावर हाउस अलकनंदा पर निर्माणाधीन है। इससे विष्णुप्रयाग समाप्त हो रहा है। विश्व बैंक के पैसे से बन रही 6- विष्णुगाड- पीपलकोटी परियोजना (444 मेगावाट) अलकनंदा पर स्थित है। 7-टिहरी पंप स्टोरेज (1000 मेगा वाट) टिहरी और कोटेश्वर बांध के बीच पानी का पुनः इस्तेमाल करने के लिए।

इन बांधों के नाम बनने से राज्य को होने वाले प्रतिवर्ष 12% मुफ्त बिजली के नुकसान को केंद्र सरकार ग्रीन बोनस के रूप में दे सकती है। जो कि 200 करोड़ से भी कम होगा।

सरकार ने पिछले दिनों गंगा की बजट में 50% के करीब कमी की है! यह बताता है कि सरकार को गंगा की कितनी चिंता है? एक तरफ बांधों से गंगा की हत्या, दूसरी तरफ सफाई के बजट में इतनी कमी?

अर्थशास्त्री डॉक्टर भरत झुनझुनवाला ने केंद्र व राज्य सरकार की अधिकारियों यहां तक कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तक यह बात पहुंचाई की खासकर सिंगोली भटवारी और विष्णुगाड-पीपलकोटी परियोजना राज्य के आर्थिक हित में भी नहीं है। किंतु उत्तराखंड सरकार व केंद्र सरकार इसी पर अड़ी रही हैं। विष्णुगाड-पीपलकोटी बांध परियोजना प्रभावित लगातार अपनी मांगों को लेकर धरना देते रहे हैं।

2013 की आपदा के बाद सिंगोली भटवाड़ी

परियोजना की पर्यावरणीय आदि मुद्दों पर भी कोई जांच नहीं हुई। यह परियोजना अभी पूरी होने को आई है। भविष्य में यह घातक ही रहेगी। गंगा के अविरल प्रवाह के लिए इन परियोजनाओं को निरस्त करना अत्यंत आवश्यक है।

गंगा के प्रभाव को अविरल और निर्मल रखने के लिए गंगा पर निर्माणाधीन बांधों को निरस्त करना होगा सिंगोली भटवारी विष्णुगाड-पीपलकोटी और तपोवन-विष्णुगाड परियोजना को तुरंत प्रभाव से रोका जाए। 

तप करने वाले संतो को निशाना ना बनाया जाए वरन उत्तराखंड में बांधों से हो रहे आर्थिक, पर्यावरणीय और जनहक नुकसान वह गंगासागर  तक गंगा की और भविष्य के खतरों को देखते हुए केंद्र व राज्य सरकार को चाहिए कि वह गंगा के लिए सकारात्मक कदम उठाए।

 

Disqus Comment

वैदिक काल में भू-जलविज्ञान एवं जल गुणवत्ता

$
0
0
वैदिक काल में भू-जलविज्ञान एवं जल गुणवत्ताHindiWaterSun, 02/02/2020 - 16:35
Source
केन्द्रीय मृदा एवं सामाग्री अनुसंधानशाला, नई दिल्ली

सारांश

प्राचीन भारतीय सभ्यता में जल ही जीवन है का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया। वैदिक साहित्य में जल स्रोतों, जल के महत्व, उसकी गुणवत्ता एवं संरक्षण की बात बारबार की गई है। जल के औषधीय गुणों की चर्चा आयुर्वेद (जोएक वेदांग है) के अतिरिक्त ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में भी मिलती है। यह माना गया है कि हमारा शरीर पंच महाभूतों अर्थात पंचतत्वों से बना है जिसमें एक तत्व जल भी है।

भारत में भू-जल विज्ञान का विकास लगभग 5000 साल से भी अधिक पुराना है। वैदिक साहित्य में इसके प्रमाण मौजूद हैं। ये प्रमाण श्लोकों सूत्रों तथा स्तुतियों के रूप में विभिन्न देवताओं (इन्द्र, वायु, अग्नि इत्यादि) की उपासना के अनुक्रम में उन्हें सम्बोधित हैं। इन श्लोकों, सूत्रों तथा स्तुतियों से जाहिर होता है कि वैदिक काल में भू-जल विज्ञान से जुड़ी खोजें विज्ञान सम्मत थीं। इसके अतिरिक्त अथर्ववेद में पानी की गुणवत्ता के बारे में भी उल्लेख है। आरंभिक बुद्धकाल या उसके थोड़े पहले रचित चरक संहिता में भी भू-जल की गुणवत्ता की चर्चा की गई है। आयुर्वेद से सम्बन्धित विभिन्न ग्रन्थों में जल की गुणवत्ता और जल में मौजूद घटकों का उल्लेख निर्विवादित रूप से प्रमाणित करता है कि प्राचीन भारत में यह विज्ञान विद्यमान था।

कृषि हेतु सिंचाई की व्यवस्था विकसित की गई। यूनानी यात्री मेगस्थनीज ने लिखा है कि मुख्य नाले और उसकी शाखाओं में जल के समान वितरण कोनिश्चित करने व नदी और कुओं के निरीक्षण के लिए राजा द्वारा अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी।

आर्यभट्ट प्रथम के शिष्य वराहमिहिर (ईसा से 587-505 साल पहले कुछ लोग इसे बाद का भी मानते हैं) ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ वृहत्संहिता में भू-जल की खोज और उसके उपयोग के बारे में 125 सूत्र प्रस्तुत किये हैं। वृहत्संहिता कोपढ़ने से पता चलता है कि उस काल में भू-जल की खोज और धरती की विभिन्न गहराइयों में उसकी मौजूदगी के बारे में जानकारी जीवों के आवास मिट्टी चट्टानों दीपक की वाल्मी पौधों की कुछ खास प्रजाजियों तथा उनके लक्षणें के आधार पर की जाती थी। वृहत्संहिता में वर्णित लक्षणों के आधार पर करीब 600 मीटर की गहराई तक उपस्थित भूजल भंडारों की खोज संभव थी। यह सर्वमान्य ज्ञात तथ्य है कि शुष्क और अर्ध शुष्क जलवायु वाले इलाकों में, अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा धरती के गर्भ में छुपी नमी और पानी जीवों तथा चट्टानों पर अधिक निर्णायक असर डालती है। पानी के इस निर्णायक असर से चट्टानों में कतिपय रासायनिक परिवर्तन होते हैं और ये परिवर्तन विभिन्न लक्षणों के रूप में धरती पर प्रगट होते हैं। उन लक्षणों के स्वरूपों तथा उन्हें पैदा करने वाले घटकों के वैज्ञानिक आधार कोसमझ कर पानी की मौजूदगी की सटीक भविष्यवाणी करना या उनकी मौजूदगी कोसूत्रों के रूप में व्यक्त कर देना, निष्चय वराहमिहिर की अदुत उपलब्धि है।

वृहत्संहिता के 54वें अध्याय में जमीन के नीचे के पानी का पता बताने वाले वृक्षों, जीवों, भूमि और चट्टानों से जुड़े विशेष संकेतकों और कुआ खोदने की विधि का वर्णन किया है।

उल्लेखनीय है कि प्रकृति में ताँबे, सीसे, जस्ते, ¨ने इत्यादि धातुओं के गहराई पर मिलने वाले भूमिगत खनिज भंडारों की उपस्थिति कोदर्शाने वाले प्राकृतिक संकेतक इन खनिज भंडारों के ऊपर अर्थात् पृथ्वी की सतह पर मिलते हैं। ये संकेतक ताँबे, सीसे, जस्ते, सोने इत्यादि धातुओं के भंडारों की खोज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसी तरह अनेक फूलों और वनस्पतियों में धरती के नीचे के खनिज भंडारों के संकेतक पाये जाते हैं। इन प्राकृतिक उदाहरणों से लगता है कि इसी तरह कतिपय वनस्पतियाँ, चट्टानें और जीव-जन्तु मूल रूप से भूजल की उपरोक्त शिराओं की उपस्थिति के सूचक की भूमिका निभाते हों इसलिये यह अनुमान लगाना उचित एवं तर्कयुक्त होगा कि वरामिहिर ने भूमिगत पानी के प्राकृतिक संकेतकों कोपहचान लिया होगा और उन संकेतकों कोजमीन के नीचे पानी की भविष्यवाणी करने में प्रयुक्त किया होगा।

प्रकृति में चन्द ऐसे वृक्ष मौजूद हैं जोअपने नीचे की जमीन में पानी की मौजूदगी की जानकारी देते हैं। प्रोसोपिस स्पाइसिजेरा, अकेसिया अरेबिका और साल्वेडोरा ओलीवायडिस नामक वृक्षों की जड़ें मरुस्थलीय परिस्थितियों में भी पानी तक पहुँचाने में सक्षम होती हैं। इसी तरह जामुन और टरमिनेलिया स्पाइसिजेरा के वृक्ष सामान्यतः नम और घाटी के निचले स्थानों में ही पाये जाते हैं। इसी तरह बलुआ, ग्रिटी तथा पीली, धूसर, किस्म की मिट्टीयों के नीचे अकसर पानी मिलता है। इकोलाजी (आधुनिक विज्ञान) और वराहमिहिर के परम्परागत विज्ञान के बीच सम्बन्ध प्रतीत होता है। इसलिये वैज्ञानिक आधार पर दोनों विज्ञानों के बीच समझ विकसित करने की आवश्यकता है।

संक्षेप में आचार्य वराहमिहिर के अनुसार भूमिगत जल धरती के नीचे शिराओं के रूप में बहता है। आधुनिक भू-जल विज्ञान की मान्यताओं के अनुसार भू-जल का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आना जाना, चट्टान के अन्दर के दोनों स्थानों के बीच के दबाव के अन्तर (presure)के अन्तर अर्थात् वाटर टेबिल के भूमिगत ढाल के कारण होता है। आधुनिक विज्ञान बताता है कि समान गुणधर्म वाली रेत कोछोड़कर सभी किस्म की चट्टानों में पानी का प्रवाह कहीं कम तोकही अधिक होता है। संभव है वराहमिहिर ने चट्टान के अन्दर पानी के अधिक प्रवाह कोशिराओं का नाम दिया हो।

प्रस्तुत शोध पत्र में हमारी प्राचीन वैदिक काल में वर्णित जानकारियों एवं आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों के मध्य एक सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया गया हे. इस तरह हम भू-जल विज्ञान एवं जल गुणवत्ता संबंधित समस्याओकोअच्छे तरीके से समझ कर सुलझा सकते हे। आधुनिक विज्ञान एवं वराहमिहिर के परम्परागत विज्ञान के बीच सम्बन्ध प्रतीत होता है। इसलिये वैज्ञानिक आधार पर दोनों विज्ञानों के बीच समझ विकसित करने की आवश्यकता है।

Abstract

In ancient Indian civilization, the importance of water for life was very well established. The issues related to different sources of water, its quality and conservation have been repeatedly talked about in Vedic literature. In addition to Ayurveda (which is a Vedanga), the medicinal properties of water are also found in the Rigveda and Atharva Veda. It is believed that our body is made up of PanchMahabhutas i.e. Panchatattva, which also has an element of water.

The development of ground hydrology in India is more than 5000 years old. There is evidence of this in Vedic literature. These evidences address them in the sequence of worship of various gods (Indra, Vayu, Agni, etc.) in the form of Shlokas, Sutras and Stuti.

It is evident from these verses, sutras and the praises that the discoveries related to ground hydrology in Vedic period were based on scientific facts. In addition, the Atharvaveda also mentions about the quality of water. The quality of ground water is also discussed in the CharakaSamhita composed in the early Buddha period or a little earlier. The mention of the quality of water and the components present in water in various texts related to Ayurveda indicated that this science existed in ancient India.

The Irrigation system wasalso developed for agriculture. The Greek traveler Megasthenes has written that officers were appointed by the king to ensure equal distribution of water in the main stream and its branches and to inspect the river and wells.

A disciple of Aryabhata I, Varahamihira (587–505 years before Christ, ) has presented 125 sutras about the discovery and use of ground water in his famous text Vrhatsamhita. The reading of Vrhatamshita shows that the discovery of ground water and its presence in the various depths of the earth during that period, was studied based on the presence of different types of habitat of the organisms, types of soil, rocks, certain species of plants and their characteristics.etc

It was possible to find groundwater deposits up to a depth of about 600 meters, based on the characteristics described in theVrhatamshita. It is a well-known fact that in areas with arid and semi-arid climates, the moisture and water hidden in the womb of the earth has more decisive effect on organisms and rocks than in other areas. This decisive effect of water causes certain chemical changes in the rocks and these changes are manifested on the earth in the form of various characteristics.

Understanding the nature of those symptoms and the scientific basis of the components that cause themand accurately predicting the presence of water or expressing their presence as formulas is an amazing achievement of Varahamihira.

The 54th chapter of the Vrhatsamhita describes the special indicators related to trees, fauna, land and rocks, and the method of digging the well, to find out the water under the ground.

It is noteworthy that natural indicators showing the presence of underground mineral deposits found in metals like copper, lead, zinc, gold etc. Many flowers and vegetation have indicators of mineral deposits under the earth.

These natural examples suggested that certain flora, rocks, and fauna play an indicator of the presence of the above mentioned veins of groundwater in origin, so it would be reasonable and reasonable to infer that Varamihir identified the natural indicators of underground water. And those indicators would have been used to predict underwater water.

There are few such trees in nature that give information about the presence of water in the ground below. The roots of trees called Prosopisspicigera, Acacia arabica and Salvedoraoleuvidis are capable of reaching water even under desert conditions. Similarly, berries and Terminaliaspicigera trees are commonly found in moist and low-lying areas of the valley.

Similarly, water is often found under sandy, grit and yellow, gray, soil types. There seems to be a connection between ecology (modern science) and Varahamihira's traditional science. Therefore, there is a need to develop an understanding between the two sciences on a scientific basis. In short, according to AcharyaVarahamihira, underground water flows under the earth in the form of veins. According to the beliefs of modern ground hydrology, the movement of ground water from one place to another is due to the difference of pressure (difference of optimum) between the two places inside the rock, ie the underground slope of the water table.

Modern science suggests that except for sand of similar quality, the flow of water in all types of rocks is much less or less. It is possible that Varahamihira has given the name of veins to the excess flow of water inside the rock.

An attempt has been made to establish a connection between the information mentioned in our ancient Vedic period and modern scientific facts. In this way we can able to understand and resolve the problems related to ground hydrology and issues related to water quality.

There seems to be a connection between modern science and Varahamihira's traditional science. Therefore, there is a need to develop an understanding between the two on a scientific basis.

प्रस्तावना

जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिये प्रकृति ने पृथ्वी के 71प्रतिशत भाग कोजलमय बनाया है। इतना ही नहीं स्वयं हमारे शरीर का 67प्रतिशत भाग जल ही है। प्राणीमात्र के जीवन के मूलतत्व प्रोटोप्लाज्म में 90प्रतिशत भाग जल का है।

भारत में जल संरक्षण का एक बेहतरीन इतिहास है। यहाँ जल संरक्षण की एक मूल्यवान पारंपरिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक परंपरा है उदाहरण स्वरूप नदी खादिन तालाब जोहड़ कुँआ इत्यादि देश के अलग-अलग हिस्सों में इनमें से अलग-अलग तरीकों कोअपनाया गया जोवहाँ के जलवायु के उपयुक्त है।

जल जीवन के लिए सर्वाधिक आवश्यक वस्तु है लेकिन आज देश में उसके स्रोत घटते जा रहे हैं। आज देश की तात्कालिक जरूरत है सुरक्षित और ताजा जल-स्रोतों की। अच्छे स्वास्थ्य की सुरक्षा और उसे बनाए रखने के लिए पेयजल और स्वच्छता-सुविधाएँ मूल आवश्यकताएँ हैं। सभी लोगों के लिए जलापूर्ति और स्वच्छता उनके स्वास्थ्य और विकास-सम्बन्धी मुद्दों की दृष्टि से एक राष्ट्रीय चुनौती हैं।

भूजल की गुणवत्ता में निरन्तर गिरावट आ रही है। कारण है भूवैज्ञानिक और मानवीय कार्यकलाप। कहा जाता है कि देश की 14लाख 23हजार बस्तियों में कुल लगभग 15प्रतिशत कु-प्रभावित हैं रासायनिक स्रोत की विभिन्न गुणवत्ता-सम्बन्धी समस्याओं से जैसे आरसेनिक की मात्रा की अधिकता फ्लोराइड नाइट्रेट और अन्य चीजों में खारापन।

वैदिक साहित्य में जल

ऋग्वेद (18.82.6) में उल्लेख है कि जल में सभी तत्वों का समावेश है। जल में सभी देवताओं का वास है। जल से पूरी सृष्टि सभी चर और अचर जगत पैदा हुआ है। यजुर्वेद (27.25) में कहा है कि सृष्टि का बीज सबसे पहले पानी ही में पड़ा था और उससे अग्नि पैदा हुई। ऋग्वेद की ऋचा (18.82.6) में प्राकृतिक जल चक्र का वर्णन है जिसके अनुसार सूर्य की गर्मी/ताप से पानी छोटे-छोटे कणों में बंट जाता है।

हवा के द्वारा ऊपर उठाया जाकर बादलों के रूप में बदलकर वह बारम्बार बरसात के रूप में धरती पर लौटता है। वेदों ने भी उपर्युक्त तथ्यों की पुष्टि की है जिसके अनुसार सूर्य एवं वायु मिलकर जल कोभाप (वाष्प) में बदलकर मेघ बनाते हैं और (मेघ से) पानी बरसात के रूप में धरती पर लौटता है। यजुर्वेद की ऋचा (13.53) में कहा गया है कि पानी का आश्रय स्थल हवा है। हवा पानी कोआकाश में इधर से उधर बहाकर ले जाती है। जल औषधियों में है। जल के कारण ही औषधियों की वृद्धि होती है। बादल का रूप ही जल का सार है। जल का प्रकश विद्युत है। जल से ही विद्युत की उत्पत्ति होती है। पृथ्वी जल का आश्रय है। जल का सूक्ष्य रूप ही प्राण है। मन जलीय तत्वों अर्थात विचारों का समुद्र है। वाणी की सरसता और जीवों में आद्र्रता का कारण भी जल ही है। आंखों की देखने की ताकत और उसकी सरसता का कारण भी जल है। जल कानों का सहवासी है। जल का निवास धरती पर है। अंतरिक्ष में जल व्याप्त है। समुद्र जल का आधार है तथा समुद्र से ही जल वाष्प बनकर वर्षा के रूप में धरती पर आता हैं उपर्युक्त सभी विवरण तत्कालीन समाज कोपानी के बारे में वैज्ञानिक जानकारी देते प्रतीत होते हैं।

अथर्ववेद में कहा गया है कि जल औषधि है। जल रोगों कोदूर करता है। जल सब बीमारियों का नाश करता है इसलिए यह तुम्हें भी सभी कठिन बीमारियों से दूर रखे। हे ईश्वर दिव्य गुणों वाला जल हमारे लिए सुखदायी होअभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति कराए हमारी प्यास बुझाए संपूर्ण बीमारियों का नाश करे रोग जनित भय से मुक्त करे तथा हमारी नजरों के सामने (सदा) प्रवाहमान रहे। यह विवरण तत्कालीन समाज कोपानी के औषधीय गुणों के बारे में वैज्ञानिक जानकारी देता प्रतीत होता है।

हमारे अपौरूषेय ग्रन्थ वेदों में जल के उपयोग सम्बन्धी वैज्ञानिक एवं तकनीकी स्तर पर विस्तृत रूप से चर्चा की गई है तथा चारों वेदों से अथर्ववेद में-शंनोदेवीरभिष्ट्य आपोभवन्तु पीयते अर्थात दिव्य जल हमें सुख दे। यह ईष्ट प्राप्ति के लिये तथा पीने के लिये हो। शंनः खनित्रिमाआपः खोदकर निकाला जल अर्थात भौम जल हमे सुख दे शिवा नः सन्तु वार्षिकी।

वृष्टि से प्राप्त जल हमारा कल्याण करने वाला हो। ऋग्वेद में जल चक्र हाइड्र¨लॉजिकल साइकिल का संकेत मिलता है। इन्द्रोदीर्घाय चक्षस आ सूर्य रोहयत्दिवि। विगोभिरद्रि मैरयत अर्थात प्रभु ने सूर्य उत्पन्न किया जिससे पूरा संसार प्रकाशमान हो। इसी प्रकार सूर्य के ताप से जल वाष्प बनकर ऊपर मेघों में परिवर्तित होकर फिर पृथ्वी पर वर्षा के रूप में आता है।

संसार में पंचतत्वों के अन्तर्गत जिन तत्वों का प्रदूषण होरहा है उनमें से एक जल भी है। वेदों में जल के एक सौएक नाम पर्यायवाची रूपों में गिनाए गए हैं जिससे इसकी महत्ता का ज्ञान होता है। ऋग्वेद में जल कोमाता कहा गया है जैसे माता सन्तान कोनहला-धुलाकर शुद्ध और पवित्र कर देती है। वैसे ही ये जल प्राणियों कोपवित्र करते हैं। इन जलों के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। अतः इन्हें अमृत कहा गया है-

3म् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।

3म् अमृतापिधानमसि स्वाहा।

संसार के छह रस अर्थात मधुर अम्ल लवण कटु कषाय और तिक्त रसों का निर्माण इसी जल से विभिन्न रूपों में हुआ है। ये जल हमारे दोषों कोदूर करते हैं तथा शरीर के मलों कोनष्ट करते हैं। अथर्ववेद में नौप्रकार के जलों का वर्णन है

परिचरा आपः- नगरों आदि के निकट प्राकृतिक झरनों से बहने वाला जल परिचरा आपः कहलाता है।

हेमवती आपः- हिमयुक्त पर्वतों से बहने वाला जल हेमवती आपः है।

उत्स्या आपः- स्रोत का जल उत्स्या आपः है।

सनिष्यदा आपः- तीव्र गति से बहने वाला जल सनिष्यदा है।

वष्र्या आपः- वर्षा से उत्पन्न जल वष्र्या है।

धन्वन्या आपः- मरुभूमि का जल धन्वन्या है।

अनूप्या आपः- अनूप देशज जल अर्थात जहाँ दलदल होएवं वात-कफ के रोग अधिक होते हों, उस देश में प्राप्त होने वाला जल अनूप्या है।

कुम्भेभिरावृता आपः- घड़ों में रखा हुआ जल कुम्भेभिरावृता जल है।

अनभ्रयः आपः- फावड़े आदि से खोदकर निकाला गया जल अनभ्रयः आपः है।

वेदों में जल की महत्ता के अनेक मंत्र प्राप्त होते हैं जिनमें कहा है-जल निश्चय ही भेषज रूप है जल रोगों कोदूर करने वाले हैं जल सब प्राणियों के भेषजभूत हैं। अतः जल से रोगों कोभगाया जाये। जल कोवैद्यों का भी वैद्य कहा गया है। जिस प्रकार माता शिशु का और बहनें अपने भाई का हित करती है उसी प्रकार ये जल सभी प्राणियों के हितैषी हैं। जहाँ ऋग्वेद का ऋषि जल कोमाताओं से भी सर्वोत्तम माता कहता है वहीं यजुर्वेद का ऋषि मातृ रूप जल की शुद्धि की कामना करता है। आपः शान्तिः कहकर वेद में इन जलों कोशुद्ध करने की प्रेरणा दी गई है। ये हमें तभी शान्ति प्रदान करेंगे जब हम इन्हें शुद्ध रखेंगे। जल कोप्रदूषित न करने का यजुर्वेद ने स्पष्ट आदेश दिया है।

वेदों के उपरान्त बनने वाले साहित्य में जल की महत्ता कोदेखते हुए कहा गया है कि नदी के स्रोतों के निकट मूत्र करने और शौच करने से करोड़ों जन्मों में भी मोक्ष प्राप्त नहीं होसकता। साथ ही लिखा है कि जोव्यक्ति नदियों में या जलाशय में थूकता है भोजन की झूठन आदि डालता है वह ब्रह्महत्या के पाप के कारण घोर नरक में जाता है। 7वैदिक साहित्य में जलों कोप्रदूषण से बचाने के लिये यह भी आदेश दिया गया था कि जल में मलमूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए।

जल कोप्रदूषण से मुक्त करने के जोप्रथम आदेश वेदों में दिये वे तोमुख्य हैं ही जल की शुद्धि के कुछ गौण उपाय भी वेदों में बताए गए हैं। जैसे कि यज्ञ करने से वर्षा की उत्पत्तिमानी गई है जिससे जल प्रवाहित होता है। उसमें गति आती है और वह शुद्ध होजाता है। प्रवाहमान जल शुद्धता कोप्राप्त होता है। वेदों में नदियों का महत्वपूर्ण स्थान है। इन्हें माताओं में भी श्रेष्ठ माता कहकर पुकारा गया है। नदियों की पवित्रता के सम्बन्ध में वेद ने कहा है कि जोनदी पहाड़ों से निकलकर समुद्र से जा मिलती है वह पवित्र होती है। प्रकारान्तर से वेद यही कहना चाहता है कि नदी के प्रवाह कोअबाध गति से बहने देना उपयुक्त है।

वेद में मित्र और वरुण शब्द आये हैं जोक्रमशः ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के वाचक हैं। ये दोनों वर्षा के प्रमुख तत्व हैं जिनके द्वारा जल का निर्माण होता है। यजुर्वेद में दोनों कोवर्षाधायक माना है। अथर्ववेद में तोइन्हें वर्षा के स्वामी मानकर इनकी उपासना की गई है मित्र और वरुण वायुओं कोमिलाने से जल की उत्पत्ति होती है। इस वैज्ञानिक सिद्धान्त कोदिखाने वाला मंत्र कहता है कि हे जल! तू मित्र और वरुण नामक वायुओं से पैदा हुआ है हे अन्नदाता जल! तू विद्युत् के सामथ्र्य से उत्पन्न हुआ है जल के रूप में परिणत तुझकोदेवजनों के अन्न के लिये सूर्य की किरणें तुझे अन्तरिक्ष में धारण करती हैं।

वेदों में जल कोशुद्ध करने के लिये वायु और सूर्य कोमहत्वपूर्ण माना है। अथर्ववेद में जल के कीटाणुओं कोनष्ट करने की बात कही गई है और वहाँ कहा गया है कि कीटाणुओं कोनष्ट करने का सामथ्र्य सूर्य की तीव्र किरणों में विद्यमान है।

जल के उपयोग

यह भलीभाँति ज्ञात है कि जल के अनेक उपयोग हैं। काफी अरसे से जल का उपयोग पीने एवं सिंचाई हेतु होता आ रहा है। यह भी प्रतिस्थापित है कि प्राचीन सभ्यता नदी घाटियों में विकसित हुई जहाँ जल भरपूर मात्रा में उपयोग हेतु उपलब्ध था। जलस्रोतों विशेषकर नदियों कूपों एवं स्रोतों के स्थल पर अनेक धार्मिक मेले भी होते आ रहे हैं। ऐसे अनेक स्रोतों कूपों के जल अपने चिकित्सकीय गुणों हेतु भी विख्यात हैं। इनमें पटना का राजगृह कुंड कांगड़ा जिला हिमाचल प्रदेश का मणिकरन कुण्ड उत्तराखण्ड़ के चमोली जिले का गोरीकुण्ड तथा वाराणसी का वृद्धताल है। ई.पू. की सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों की खुदाई में अनेक कूपकुंड तथा नहरें प्राप्त हुई हैं।

चौथी शती ई.पू. के महान वैयाकरण पाणिनी ने शकन्थु कूपों का वर्णन किया है जोमध्य एशिया के शक लोगों द्वारा उपयोग में लाया जाता था इन कूपों में जल स्तर तक उतरने हेतु सीढि़यों की व्यवस्था की। बाद में इन कूपों का चलन बावड़ी रूप में हमारे देश में भी हुआ जिसमें जानवर एवं मनुष्य भी एक ढालुआँ रास्ते से अथवा इच्छानुसार सीढि़यों द्वारा जलस्तर तक पहुँच सकते थे। यहाँ उल्लेखनीय होगा कि गुजरात में विशेषकर उत्तरी भाग में एक प्रकार की बावड़ी जिसे वाव कहते थे जो 70मीटर तक गहरी और जलस्तर तक निर्मित सीढि़यों से युक्त बनाई जाती थी। ये सीढ़ीदार कूप वातानुकूलित कक्षों का काम देते थे जिनके चारों ओर चौड़ी बारहदरी बनी होती थी। ये वाव 7शती ईस्वी तक प्राचीन और सौराष्ट्र क्षेत्र में तक आधुनिक काल में भी बनाए जाते रहे।

भूजल की अवस्थिति

हमारे पूर्वज सतह के जल के साथ-साथ भूजल की भी खोज में पीछे न रहे। संस्कृत ग्रन्थों जैसे अथर्ववेद तैतरीय आरण्यक तथा वाराहमिहिर (छठी शती ईस्वी) की वृहत्संहिता में चीटी के ढूहे एवं भूजल स्तर में एक सीधा सम्बन्ध बतलाया गया है। इन विवरणों का एक ठोस वैज्ञानिक आधार है और दिलचस्प बात यह है कि आस्ट्रेलिया, रूस, अफ्रीका में हुए अनेक आधुनिक अन्वेषणों की कसौटी पर भी खरे उतरे हैं। वाराहमिहिर ने सतह पर अनेक वनस्पतियों एवं सब्जियों कोभूजल कोइंगित करने वाला यहाँ तक कि उसकी उपस्थिति की गहराई तक का विवरण दिया है और-तो-र जल दोहन हेतु वेधन की रीतियों का भी वर्णन वाराहमिहिर ने किया है तथा वेधन की बर्मी कोधारदार बनाने की विधियों का भी वर्णन है। उनके बहुत पहले से ही हड़प्पा एवं महाभारत काल में भी अन्य रीतियों द्वारा भूजल प्राप्त करने के प्रमाण मिलते हैं। भीष्म की शर शैय्या के पास अर्जुन द्वारा बाण बेधन से जल की धारा फूट निकलने का कथ्य सर्वविदित है।

जल के स्रोत एवं गुणधर्मोंका आकलन

अत्यन्त प्राचीनकाल मे भी भारतीयों कोजल के विभिन्न स्रोतों का पता था। ऋग्वेद में जल कोचार भिन्न-भिन्न भागों में बाँटा गया था। इसके अन्तर्गत 1. आकाश से प्राप्त होने वाला 2. नदियों एवं जलधाराओं में बहने वाला 3. खनन द्वारा प्राप्त 4. भूमि से रिसकर निकलने वाला भूजल। जाहिर है कि वे आकाशीय जल सतही जल कूपजल एवं स्रोत जल की ओर इंगित करते हैं। वैदिक शब्दकोष निघंटु में कूप कोएक ऐसा जलस्रोत बताया गया है जिससे जल कोश्रम द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। यह संकेत कूप निर्माण हेतु खनन के श्रम की ओर है। भूजल के अन्य स्रोत के रूप में उत्साह तथा उत्स्त्रुत प्रकार के जल स्रोत होते हैं इसके साथ-साथ एक दर्जन अन्य प्रकार के कूपों का भी उल्लेख किया गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में भारतीयों कोभूजल का ज्ञान था। विशेषकर इसका जलोढ़ मैदानों में उपस्थिति का भान था जिस कारणवश ऐसे स्थानों पर आवश्यकतानुसार विपुल मात्रा में कूप निर्माण होते थे। इस तथ्य के प्रमाणस्वरूप अर्जुन द्वारा पृथ्वी कोबाणों से भेदकर जल प्राप्त करने वाली घटना है। घटनास्थल कुरुक्षेत्र भी एक जलोढ़ मैदान ही है।

नदियों के तट पर बरसों से मेले और महोत्सव मनाए जा रहे हैं। इस अनुक्रम में कुंभ और सिंहस्थ जल के महापर्व हैं। वे भारतीय संस्कृति में सदियों से रचे बसे हैं और हिन्दुओं की अटूट आस्था के केन्द्र हैं।

भूमिगत जल की उपस्थिति तथा शिराओं के संकेतकों कोसमझने के लिये वराही संहिता या वृहत्संहिता के सूत्र 54.6एवं 54.7का उदाहरण देना और उसके निहितार्थ कोसमझना उपयोगी होगा। इन सूत्रों में वेतस (बेत नामक वृक्ष) की मदद से भू-जल के मिलने के बारे में जानकारी दी गई है। दोनों सू़त्र इस प्रकार हैः

यदि वेसतोऽम्बुरहिते देशे हस्तैस्त्रिभिस्ततः पश्चात

सर्घे पुरूषे तोयं वहति शिरा पश्चिमा तत्र ।।6।।

चिन्हमपि चार्घुपुरुषे मण्डकः मण्डरोऽथ मृत् पीता

पुटभेदकश्च तस्मिन् पाषाणोभवति तोयमघः ।।7।।

जलविहीन क्षेत्र में यदि बेंत का वृक्ष के पश्चिम में तीन हाथ (4.5फीट या 53इंच) दूर डेढ़ पुरुष (एक पुरुष बराबर पांच हाथ या 7.5फीट) की गहराई पर पानी मिलेगा। इस निष्कर्ष का आधार पश्चिमी शिरा है जोजमीन के नीचे के पानी के मिलने वाले स्थान से बहती है।

अगले सूत्र में आगे कहा है कि पुरुष खुदाई करने पर हल्के पीले रंग का मेंडक मिलेगा उसके बाद पीले रंग की मिट्टी और उसके बाद सपाट परतों वाला पत्थर मिलेगा। इस सपाट परतदार पत्थर के नीचे पानी मिलेगा। इन दोनों सूत्रों (6एवं 7) के अनुसार 11.25फीट की गहराई पर पानी मिलेगा।

भूमिगत जल की उपस्थिति बताने एवं शिराओं के संकेतों कोसमझने के लिये वराही संहिता के एक और सूत्र 54.9एवं 54.10का उदाहरण लिया जा रहा है। इन दोनों सूत्रों में जामुन (जम्बू) के वृक्ष से जल के मिलने के बारे में जानकारी दी है। दोनों सूत्र और उनका भावार्थ इस प्रकार हैः

जम्बू वृक्षस्रू प्राग्वल्मीकोयदि भवेत समीपस्थ,

तत्माद्दक्षिणपाष्र्वे सलिलं पुरुषद्वये स्वादु।।9।।

अर्धपुरूषेच मत्स्य, पारावतसन्निभश्च पाषाण,

मृ˜वति चात्र नीला दीर्घकालं च बहु तोयम्।।10।।

जामुन के वृक्ष के पूर्व में यदि वृक्ष के पास वाल्मी (चीटियों कीड़ों अथवा सर्प द्वारा बनाया मिट्टी का स्तूप या बमीठी) होतोजामुन के वृक्ष के दक्षिण में 4.5फुट की दूरी पर 15फुट गहरा खोदने पर स्वादिष्ट मीठा जल मिलता है।

भूमिगत जल के रंग और स्वाद के परिवर्तन के संकेतों कोसमझने के लिए वराही संहिता या वृहत्संहिता के सूत्र 2का उदाहरण लेना और उसके निहितार्थ कोसमझना उपयोगी होगा।

एकेन वर्णेन रसेनचाम्भ्ष्च्युतं नमस्तोवसुधाविशेषात् नानारसत्वं बहुवर्णतां च गतं परीक्ष्यं क्षितितुल्यमेव।।2।।

उपरोक्त सूत्र के अनुसार आकाश से बरसने वाला पानी एक ही रंग और स्वाद का होता है। धरती की विविधता एवं विशेषताओं के कारण वह अनेक स्वाद और रंग वाला होजाता है। इस पानी के गुणों का परीक्षण कराना चाहिये।

कुछ स्थानों से धुंएं तथा भाप की मौजूदगी के संकेत मिलते हैं। इन संकेतों के आधार पर वराहमिहिर ने जमीन के पानी का अनुमान सूत्र 60की सहायता से लगाया है। इसके जोजमीन गर्म लगती होऔर उसमें से धुंआ या पानी की भाप निकलती दिखाई दे तोउस जमीन में दोपुरुष की गहराई पर तेज प्रवाह वाली शिरा बहती है।

यस्यामूष्मा धात्र्यां धूमोवा तत्र वारि नरयुगले

निर्देष्टव्या च शिरा महता तोयप्रवाहेण।।60।।

वराहमिहिर ने भूमिगत जल की शिराओं और कतिपय प्राणियों वनस्पतियों एवं स्थानीय भूविज्ञान के बीच गहरे सम्बन्धों के सोच कोशब्द प्रदान कर प्रतिपादित किया है। दूसरे शब्दों में वराहमिहिर की उपरोक्त साच (लेखक की मान्यता के अनुसार सिद्धान्त) का आधार धरती पर जीवन के प्राकृतिक चक्र का मूल सिद्धानत है। इस मूल सिद्धान्त के अनुसार धरती पर जीवन का आधार बीज मिट्ट और पानी है। धरती की कोख में बीज का जन्म तभी संभव होता है जब मिट्ट उसे जीवन प्रदान करने वाले तत्व देती है और पानी बीज कोअंकुरित कर उसे वृक्ष बनाता है अर्थात् उसका लालन पालन करता है। वनस्पतियों के लिये पानी जीवन है और जीवन कोउजागर करने वाले इन्ही मूल चिन्हों (वनस्पतियों मिट्टियों और पानी) का पानी की भविष्यवाणी करने में वराहमिहिर ने उपयोग किया हो।

दृकार्गल शब्द पर विचार करने के इस परिणाम पर आसानी से पहुँचा जा सकता है कि भारत में सबसे पहले यस्टिका अर्थात लकड़ी की छड़ी द्वारा ही भूमिगत जल की खोज (अनुसंधान) का अविष्कार हुआ होगा। प्रारंभ में इसी विधि से पानी की खोज की जाती होगी। कालान्तर में नई-नई खोजों की मदद से इस विद्या कोपरिष्कृत किया गया होगा। सारी खोजों और समय के बदलाव के बाद भी इसका नाम दृकार्गल है।

दृकार्गल विधि से पानी खोजने में केवल पांच किस्म के वृक्षों की ताजी टूटी हरी शाखाओं का उपयोग किया जाता है। ये पाँच वृक्ष सप्तपर्ण (Alstonia scholaris R. Br.) जामुन मेंहदी गुलर और खजूर हैं। जोजानकार इस विधि से पानी का पता बताने का काम करते हैं वे सामान्यतः स्नान करने एवं शुद्ध वस्त्र धारण करने के बाद अपने इष्ट देवता की पूजा अर्चना करते हैं। पूजा अर्चना करने के उपरांत वे पाँच वृक्षों में से किसी एक वृक्ष की अंग्रेजी अक्षर के आकार की ताजी टूटी हरी शाखा कोदोनों हाथों की मुट्टियों में पकड़ कर नंगे पैर भूमि पर धीरे-धीरे चलते हैं। जिस स्थान पर भूमिगत जल की शिरा प्रवाहित होरही होती है उस स्थान पर पहुँचते ही हरी शाखा अपने आप घूमने लगती है या अपने आप ही पानी की शिरा की दिशा में झुक जाती है। जिस स्थान पर बहुत अधिक जल होता है, उस स्थान पर पहुंचते ही हरी शाखा बहुत तेजी से घूमने लगती है। कुछ प्रकरणों में हरी शाखा भूमि के निर्दिष्ट स्थान की ओर खिंचने लगती है तोकुछ जानकार लोगों कोअपने शरीर में जल के करंट का अनुभव होता है।

वेद में जल की शुद्धि का एक उपाय यज्ञ भी है। भगवान कृष्ण ने द्रव्ययज्ञ तपोयज्ञ योगयज्ञ स्वाध्याययज्ञ ज्ञानयज्ञ का जहाँ वर्णन किया है वहाँ उनमें द्रव्ययज्ञ से अभिप्राय है कि जिसमें मंत्रोच्चारणपूर्वक शास्त्रोक्त सुगन्धित रोगनाशक, पवित्र प्राकृतिक पदार्थों का अग्नि में विधिपूर्वक समर्पण किया जाता है इसमें अग्नि कोप्राप्त हुए पदार्थ अग्नि की विशिष्ट कार्य प्रक्रिया में दहन होने पर सूक्ष्म से सूक्ष्मातिसूक्ष्म होते जाते हैं और गुणरूप होकर वायु कोप्राप्त होजाते हैं। किसी भी प्रकार की ऊष्मा कोप्राप्त हुए पदार्थ का तैलीयादि तत्व शीघ्र ही वाष्पित प्रक्रिया से वायु कोप्राप्त होजाता है यह स्वयंसिद्ध सिद्धान्त है। इससे वायु शुद्ध होजाती है यह वायु जहाँ-जहाँ जाती है तब प्रथम स्तर पर आकाशस्थ जल वाष्प कोएवं भूमिसतह पर विद्यमान जलस्रोतों जलमार्गों और जलाशयों कोस्पर्श रूप से संयोग बनाती हुई शुद्ध करती जाती है। पुनः मेघ तथा अन्तरिक्ष कोयह शुद्ध करती है। इस प्रकार द्रव्ययज्ञ से शुद्धि निरन्तर होती है। यजुर्वेद में लिखा है कि जोपदार्थ संयोग से विकार कोप्राप्त होते हैं वे अग्नि के निमित्त से अतिसूक्ष्म परमाणु रूप होकर वायु के बीच रहा करते हैं और कुछ शुद्ध भी होजाते हैं। परन्तु जैसी यज्ञ के अनुष्ठान से वायु और वृष्टि जल की उत्तम शुद्धि और पुष्टि होती है वैसे दूसरे उपाय से कभी नहीं होसकती। इस प्रकार जल का प्रदूषण हम विभिन्न वैदिक उपायों से दूर कर सकते हैं।

निष्कर्ष

आज के बदलते परिवेश मे जब सतही जल के ज्यादातर श्रोत प्रदूषित होगए हे वही भू जल की मात्र भी तेजी से घटती जा रही हैं। भू जल की उपस्थिती का सही आकलन एवं उसकी गुणवत्ता के बारे मे हमारे वैदिक साहित्य मे उपलब्ध जानकारी का उपयोग कर आने वाले समय के लिए स्वच्छ जल की उपलब्धता कोसुनिचित किया जा सकता हैं।

References

• Rig Veda Samhita (3000 B.C.), (i) Bhasya by MaharshiDayanandaSaraswati (Hindi),

• Published by DayanandaSansthan, New Delhi-5.

• Atharva Veda (the latest Veda), Bhasya by Pt. Khem Karan Das Trivedi, Sarvadeshik

• AryaPratinidhiSabha, MaharshiDayanandaBhavan, RamlilaMaidan, New Delhi.

• VrhatSanhita (550 A.D.) by Varahamihira, Edited and Bhasya by Pt. AchyntanadaJha,

• Chow KhambaVidyabhawan, Varanasi=221 001 1988.

• Meghamala (around 900 A.D.), Manuscript No. 37202,

• Baker, B.N. and Horton, R.E. (1936). Historical Development of Ideas Regarding theOrigin

• of springs and Ground Water, Trans of American Geophysical Union, Vol. 17,pp. 395-400.

• Biswas, A.K. (1967). Hydrologic Engineering prior to 600 B.C. Jr. of the Hydraulic

• Division, ASCE, Vol. 93, Hy. 5, pp. 115-135.

• Biswas, A.K. (1969). Science in India, Firma K.L. Mukhopadhyaya, Calcutta, 154 p.

• Chow, V.T. (1964). Hand Book of Applied Hydrology Mcgrew-Hill Company, NewYork.

• Law, B.C. (1984). Historical Geography of Ancient India, MunshiamManoharlal, NewDelhi.

Disqus Comment

क्षेत्रीय जल की कमी के सतत समाधानहेतु जम्मू क्षेत्र के कंडी बेल्ट में तालाबों का जल वैज्ञानिकीय अध्ययन-एक समीक्षा

$
0
0
क्षेत्रीय जल की कमी के सतत समाधानहेतु जम्मू क्षेत्र के कंडी बेल्ट में तालाबों का जल वैज्ञानिकीय अध्ययन-एक समीक्षाHindiWaterMon, 02/03/2020 - 10:58
Source
पश्चिमी हिमालय क्षेत्रीय केंद्र-जम्मू, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की

सारांश

जम्मू और कश्मीर तीन अलग-अलग भौतिक क्षेत्रों में विभाजित देश का उत्तरी राज्य है। जम्मू, कश्मीर और लद्दाख, क्रमशः चिनाब, झेलम और सिंधु नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में आते हैं। कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र जल संसाधनों की पर्याप्त मात्रा के साथ संपन्न हैं, जो ज्यादातर हिमनद, हिमपात, झीलों और आर्द्रभूमि के रूप में हैं। जम्मू क्षेत्र में उपोष्णकटिबंधीय, मध्यवर्ती और समशीतोष्ण क्षेत्र शामिल हैं। उपोष्णकटिबंधीय बेल्ट के अधिकांश भाग में जल की आपूर्ति वर्षा द्वारा ही होती है, इस क्षेत्र को स्थानीय रूप से कंडी बेल्ट कहा जाता है। राज्य में कंडी बेल्ट पूर्व में रावी नदी और जम्मू और कठुआ जिलों के भीतर पश्चिम में मुनव्वरतवी के बीच विस्तारित है। कंडी बेल्ट का कुल क्षेत्रफल लगभग 811 वर्ग किलोमीटर माना जाता है, जिनमें से ऊपरी भाग 610 वर्ग किलोमीटर एवं निचला भाग 201 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का है। कंडी बेल्ट का अधिकांश भूभाग उदिनीय स्थलाकृति का है जिसमें मुख्य रूप से तीव्र एवं अनियमित ढलान हैं एवं कटाव प्रवरत मिट्टी जिसकी जल धारण क्षमता बहुत ही कम है। क्षेत्र में भूजल का स्तर भी गहरा है। मिट्टी के ढीले स्वरूप के चलते अत्यंत कटाव होता है जिससे कृषि एवं जल संबंधी समस्याएँ आए दिन उत्पन्न होती हैं। बरसाती नालों के आकस्मिक और तेज प्रवाह के कारण ऊपरी सतह की उपजाऊ मिट्टी का निरंतर कटाव होता रहता है। यह क्षेत्र मानसून के अलावा वर्ष भर जल की भीषण कमी से गुजरता है।

अर्ध पहाड़ी कंडी बेल्ट आम तौर पर चश्मों, बाओली से रहित है जबकि स्थानीय बहने वाले नालो में बरसात में तो बहुत ज्यादा पानी रहता है परन्तु वर्ष के अन्य समय ये बिल्कुल सूख जाते हैं। पानी की ऐसी गंभीर कमी के चलते ‘परम्परागत तालाब’ पानी का एक महत्वपूर्ण स्रोत थे और लगभग 60 के दशक तक स्थानीय समुदाय की पानी की जरूरतों को पूरा करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। अधिकांश तालाबों की रचना इस तरह से करी गयी थी कि आसपास के नालों से अपवाह का एक हिस्सा तालाबों में आ जाता था। समय के साथ सामुदायिक संस्थाओं में आयी गिरावट के कारण इनके रखरखाव में निरंतर कमी आयी साथ ही स्थानीय लोगों द्वारा जलग्रहण क्षेत्र में अतिक्रमण के कारण इस पौराणिक जल भंडारण प्रणाली को गंभीर रूप से बाधित किया है। 20 वीं शताब्दी के मध्य तक घरों में पाइप द्वारा पेयजल की पूर्ति के कारण इन तालाबों की उपेक्षा होने लगी। जल संचयन की इस पारंपरिक प्रणाली का अभी तक कोई विकल्प नहीं है, इस प्रणाली को जीवंत करने के लिए पश्चिमी हिमालयी क्षेत्रीय केंद्र-जम्मू, राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान-रुड़की ने कंडी क्षेत्र के विभिन्न तालाबों की एक सूची तैयार कर इनके विभिन्न पहलुओं जैसे की जल गुणवत्ता, भौतिक-रसायनिक अध्ययन, जीवाणु विज्ञानीय विश्लेषण एवं जलीय सर्वेक्षण आदि का अध्ययन किया। स्थानीय योजनाकारों को व्यापक आकड़े प्रदान करने के लिए, कंडी बेल्ट में स्थित तालाबों की एक विस्तृत सूची तैयार की गई है। सर्वे ऑफ इंडिया टॉपोशीट (पैमाना 1: 50,000) से कुल 365 तालाबों के क्षेत्र विस्तार का अंकीकरण किया गया है, जिसमें 249 तालाब जम्मू जिले एवं 116 तालाब कठुआ जिले में पाये गए। इन 365 तालाबों में केवल 165 तालाब ही ऐसे पाये गए जो की साल के 12 माह में जल से पूरित रहते हैं। यह पाया गया है कि कंडी क्षेत्र के सभी तालाबों का कुल जल फैलाव क्षेत्रफल 1.5 वर्ग किलोमीटर का है जिनमें से की 16 तालाब ऐसे पाये गए जिनका क्षेत्रफल 1 हेक्टेयर से ज्यादा का है, 4 तालाब पाये गए जिनका क्षेत्रफल 2 हेक्टेयर से ज्यादा का है। इनमें सर्वाधिक क्षेत्रफल ‘सुंगवाल’ तालाब का पाया गया जोकि सांबा तहसील में है। कुल 71 ऐसे तालाब पाये गए जिनका क्षेत्रफल 0.5 से 1 हेक्टेयर के बीच है।

मुख्य रूप से घरेलू कार्यों के लिए तालाब के पानी की उपयुक्तता को देखने के लिए 32 तालाबों की जल गुणवत्ता का आंकलन किया गया है। BIS और WHO मानकों के संदर्भ में भौतिक-रसायनिक और जीवाणुविज्ञानीय आकड़ों का विश्लेषण किया गया है। सभी भौतिक-रासायनिक घटकों की सांद्रता वांछनीय सीमा के भीतर पाई गई, जबकि तालाब के पानी का बैक्टीरियोलॉजिकल विश्लेषण सभी तालाबों का बैक्टीरिया से दूषित होने का संकेत देता है। तालाबों में बैक्टीरिया के संदूषण के लिए तालाब के आस-पास अनुचित स्वच्छता और फैली गन्दगी जिम्मेदार हो सकती है और यह बहुत चिंता का विषय है। ऐसे स्रोतों से निकले गए पानी को घरेलू उद्देश्य में काम लाने से पहले विसंक्रमित करने की अति आवश्यकता है।

मासिक आधार पर ग्राम बड़होरी (तहसील सांबा, जिला जम्मू) में एक तालाब के जलविज्ञानीय जल संतुलन अध्ययन से पता चलता है कि प्रचलित जलवायु और मिट्टी की स्थिति के तहत केवल एक तिहाई क्षमता का उपयोग किया जा रहा है। यदि वाष्पीकरण और अन्य नुकसानों को उपयुक्त उपायों के माध्यम से कम किया जा सकता है, तो स्थानीय खपत के लिए अधिक पानी उपलब्ध होगा, और तालाब की उपलब्ध क्षमता का उपयोग मवेशियों और बागवानी प्रयोजनों के लिए सफलतापूर्वक किया जा सकता है। सोहल तालाब के एक अन्य जलविज्ञानीय अध्ययन से पता चलता है कि यदि तालाब के जल का प्रयोग न किया जाये तो वर्ष भर इसमें 0.5 मीटर गहरा जल बना रह सकता है। मानसून के मौसम में, तालाब से काफी मात्रा में प्रवाह निकलता है। यदि इस तरह के अधिशेष अवधि के दौरान तालाब के पानी को सिंचाई या अन्य घरेलू उपयोग के लिए मोड़ दिया जाता है, तो तालाब के भंडारण का उपयोग बेहतर तरीके से किया जा सकता है।

संक्षेप में, गांव के तालाबों के माध्यम से जल संचयन की सदियों पुरानी प्रणाली के विलुप्त होने के परिणामस्वरूप गैर-मानसून महीनों के दौरान पानी की अत्यंत कमी होने लगी है। यद्यपि इस क्षेत्र में 1200 मिमी से अधिक की औसत से वर्षा होती है, फिर भी इस पानी के संचय में कमी है, जो जल संकट के मूल कारणों में से एक है। कंडी-बेल्ट के गावों के तालाबों के कायाकल्प के लिए एक योजना की आवश्यकता है, जो पारंपरिक लोक ज्ञान और आधुनिक तकनीके जैसे रिमोट सेंसिंग और जीआईएस, भूविज्ञान और भूभौतिकी, मृदा विज्ञान आदि के कौशल का उपयोग करके इन तालाबों को पुनर्जीवित करे। कुंजीशब्दः कंडी बेल्ट, परम्परागत तालाब, जलविज्ञानीयअध्ययन

Abstract

Jammu and Kashmir is the northern state of the country divided into three distinct physiographic regions, i.e., Jammu, Kashmir and Ladakh which are drained by three distinct River basins, namely Chenab, Jhelum and Indus River. Kashmir and Ladakh regions are endowed with ample amount of water resources mostly in the form of glaciers, snowmelt, lakes and wetlands. Jammu region comprises of subtropical, intermediate and temperate areas.Maximum of area under tropical belt is rain-fed, locally known as Kandi belt. The Kandi belt in the state is extended between River Ravi in the east and Munawar Tawi on the west within the Jammu and Kathua Districts. Total area of the Kandi belt is estimated to be 811 km2, of which the upper and lower Kandi belts constitute 610 km2 and 201 km2, respectively. Most of the terrain of Kandi belt has undulating topography, steep and irregular slopes, erodible and low water retentive soils and badly dissected terrain by numerous gullies. Ground water table is deep.The soil loss has affected the agricultural production and hydrological regime to a large extent. Flashy flows of the streams and rivulets in the Kandi belt has denudedmost of the top fertile soil, and due to excess runoff, the area remains devoid of water except in the monsoon months.

The semi hilly kandi belt is generally devoid of any spring or baolies and the number of Choes (torrential streams) pass through the Kandi-belt, manifesting “too little or too high” syndrome. In such severe water scarcity situation, ponds were single vital source of water and played a crucial role for meeting local community water needs till 1960. Most ponds were so designed that a part of the runoff from adjoining rivulets could be trapped. Over the years, poor maintenance due to decline in community institutions and encroachment in the catchment area by local persons have severely hampered this old-age water storage system. By the middle of 20thcentury, introduction of piped drinking water supply speeded the negligence of these ponds. To rejuvenate this traditional system of water harvesting, not having any substitute yet, Western Himalayan Regional Centre-Jammu, a regional centre of National Institute of Hydrology-Roorkee, conducted a series of studies comprisingdifferent aspect of Kandi ponds, such as hydrological problems of the area, mapping and inventory of Kandi ponds, physico-chemical and bacteriological analysis of pond waters and hydrological evaluation of selected ponds of the Kandi belt.

To provide comprehensive data for the local planners, a detailed inventory of ponds located in the Kandi belt has been prepared. A total of 365 ponds have been delineated from SOI toposheet (scale 1:50000), 249 ponds are located in the Kandi belt falling in Jammu district and remaining 116 in Kathua district. Among 365 ponds, only 165 ponds are perennial in nature. It is found that the total water spread area of all ponds in the Kandi belt comes to 1.5 km 2. Sixteen ponds, with water spread area greater than 1 hectare, were mapped in the study area. Four ponds have a water spread area of more than 2 ha. The largest pond is located at Sungwal in Samba tehsil of Jammu district. Seventy one ponds have water spread area between 0.5 hectare and 1 hectare.

The water quality of thirty two ponds has been assessed to see the suitability of pond water mainly for domestic purposes. The physico-chemical and bacteriological data wereanalyzed with reference to BIS and WHO standards. Concentrations of all physico-chemical constituents were found within the desirable limits, whereas the bacteriological analysis of the pond water indicates bacterial contamination in all the ponds. Improper sanitation and unhygienic conditions around the structure may be responsible for bacterial contamination in theses ponds and is a cause of great concern. It is recommended that the water drawn from such sources should be properly disinfected before use for drinking and other domestic purposes.

Hydrological water balance study of a pond in village Badhori(Tehsil Samba, district Jammu) on monthly basis shows that only about one third capacity is being utilised under the prevailing climatic and soil conditions. If evaporation and other losses can be reducedthrough suitable measures, more water will be available for local consumption, and the available capacity of pond can be successfully used for cattle and horticulture purposes.Another hydrological study of Sohal pondreveals that pond remains perennial throughout the year with minimum water depth of 0.5 meter by considering no consumptive use from the pond. In the monsoon season, the spill from the pond is also appreciable. If the water of the pond is diverted for irrigation or other domestic use during such surplus periods, the storage of the pond can be optimally utilised.

In a nutshell, extinction of the age-old system of water harvesting through village ponds has resulted in the water scarcity during non-monsoon months. Though the area receives a fairly high average annual rainfall of more than 1200 mm, yet harvesting of this water is lacking, which is one of the root-causes for water crisis. A long-term solution to solve the water scarcity problem in the Kandi-belt lies in the rejuvenation of the existing village ponds and construction of new ponds at suitable sites by considering the present hydro-geology of the area and their water could be utilized for domestic purposes and, to a limited extent, for irrigation purposes (e.g. in horticulture, agro-forestry). These ponds would also help in improving the ground water regime in the region. A sound scheme for rejuvenation of the village ponds is required, which should use the traditional folk wisdom and the skills of the modern techniques, e.g. inputs from the hydrology, geology and geophysics, soil sciences, remote sensing and GIS.

परिचय

जम्मू और कश्मीर तीन अलग-अलग भौतिक क्षेत्रों में विभाजित देश का उत्तरी राज्य है। जम्मू, कश्मीर और लद्दाख, क्रमशःचिनाब, झेलम और सिंधु नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में आते हैं। कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र जल संसाधनों की पर्याप्त मात्रा के साथ संपन्न हैं, जो ज्यादातर हिमनद, हिमपात, झीलों और आद्र्रभूमि के रूप में हैं। जम्मू क्षेत्र में उपोष्ण कटिबंधीय, मध्यवर्ती और समशीतोष्ण क्षेत्र शामिल हैं। उपोष्ण कटिबंधीय बेल्ट के अधिकांश भाग में जल की आपूर्ति वर्षा द्वारा ही होती है, इस क्षेत्र को स्थानीय रूप से कंडी बेल्ट कहा जाता है। राज्य में कंडी बेल्ट पूर्व में रावी नदी और जम्मू और कठुआ जिलों के भीतर पश्चिम में मुनव्वरतवी के बीच विस्तारित है। कंडी बेल्ट का कुल क्षेत्रफल लगभग 811 वर्ग किलोमीटर माना जाता है, जिनमें से ऊपरी भाग 610 वर्ग किलोमीटर एवं निचला भाग 201 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का है। कंडी बेल्ट का अधिकांश भूभाग उदिनीय स्थलाकृति का है जिसमे मुख्य रूप से तीव्र एवं अनियमित ढलान हैं एवं कटाव प्रवरत मिट्टी जिसकी जल धारण क्षमता बहुत ही कम है। क्षेत्र में भूजल का स्तर भी गहरा है। मिट्टी के ढीले स्वरूप के चलते अत्यंत कटाव होता है जिससे कृषि एवं जल संबंधी समस्याएँ आए दिन उत्पन्न होती हैं। बरसाती नालों के आकस्मिक और तेज़ प्रवाह के कारण ऊपरी सतह की उपजाऊ मिट्टी का निरंतन कटाव होता रहता है। यह क्षेत्र मानसून के अलावा वर्ष भर जल की भीषण कमी से गुज़रता है।

कंडी बेल्ट के तालाब

अर्ध पहाड़ी कंडी बेल्ट आम तौर पर चश्मों, बाओली से रहित है जबकि स्थानीय बहने वाले नालो में बरसात में तो बहुत ज्यादा पानी रहता है परंतु वर्ष के अन्य समय ये बिलकुल सूख जाते हैं। पानी की ऐसी गंभीर कमी के चलते परंपरागत तालाब पानी का एक महत्वपूर्ण स्रोत थे और लगभग 60 के दशक तक तक स्थानीय समुदाय की पानी की जरूरतों को पूरा करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। कंडी-बेल्ट में स्थित तालाब मुख्य रूप से जम्मू और कठुआ जिलों में केंद्रित हैं। उधमपुर जिला मुख्यतः पहाड़ी है और इसमें कम तालाब हैं। जम्मू क्षेत्र में तीन प्रकार के तालाब हैं- छपरिस, बड़े तालाब और पक्के टैंक। छपरिस छोटे उथले तालाब हैं जिनमें कोई चिनाई का काम नहीं होता है, वे एक ही बौछार में भरते हैं और मवेशियों और चरवाहों की जरूरतों को पूरा करते हैं, और गर्मियों के दौरान सूख जाते हैं। लगभग सभी कंडी गाँवों में साल भर घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए एक बड़ा तालाब होता है। इन बड़े तालाबों का निर्माण तीन तरफ से चिनाई के काम के साथ किया गया था, चौथा हिस्सा पानी के बहने के लिए खुला छोड़ दिया। पक्के टैंकों में चार तरफा बाड़े हैं और अक्सर मंदिरों, किलों या राजमागोर्ं के पास पाए जाते हैं। लगभग सभी कंडी तालाबों के किनारे बरगद और पीपल के पेड़ थे। इन पेड़ों ने यात्रियों और जानवरों को आश्रय प्रदान किया, और वाष्पीकरण मंदक के रूप में भी भूमिका निभाई।

वर्तमान अध्ययन की अनिवार्यता

अधिकांश तालाबों की रचना इस तरह से की गयी थी कि आसपास के नालों से अपवाह का एक हिस्सा तालाबों में आ जाता था। सामुदायिक संस्थानों में गिरावट और स्थानीय लोगों द्वारा जलग्रहण क्षेत्र में अतिक्रमण के कारण खराब रखरखाव ने इस पौराणिक जल भंडारण प्रणाली को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। 20 वीं शताब्दी के मध्य तक घरों में पाइप द्वारा पेयजल की पूर्ति के कारण इन तालाबों की उपेक्षा होने लगी। भूमि पर दबाव और सामुदायिक संस्थानों में गिरावट ने भी इनकी हालत को और गंभीर बना दिया। कंडी-बेल्ट में अधिकांश तालाब आज पूरी तरह से निर्जन और अनुपयोग्य स्थिति में हैं। गाँव की संस्थाएँ, जो की सामुदायिक श्रम-दान के माध्यम से वार्षिक गाद निष्काशन का आयोजन किया करती थी और प्रदूषण से तालाबों की रक्षा करती थी वह एकाएक खत्म होने लगी। कई जगह पर नालियों के गंदे पानी को भी इन तालाबो में छोड़ा जाने लगा। ज्यादा गाद जमा होने के कारण इनकी भंडारण क्षमता में भी भरी गिरावट आने लगी, गाँव के लोग जो की इस गाद का प्रयोग अपने घरों की लिपाई में करते थे वह भी पक्के मकान बनने के कारण इस गाद को निकालना अब ज़रूरी नई समझते थे।

जल संचयन की इस पारंपरिक प्रणाली का अभी तक कोई विकल्प नहीं है, इस प्रणाली को जीवंत करने के लिए पश्चिमी हिमालयी क्षेत्रीय केंद्र-जम्मू, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान-रुड़की ने कंडी क्षेत्र के विभिन्न तालाबों में विभिन्न पहलुओं जैसे की जल गुणवत्ता, तालाब के पानी का भौतिक-रसायनिक अध्ययन एवं जीवाणुविज्ञानीय विश्लेषण एवं जलीय संरक्षण आदि का अध्ययन किया गया। साथ ही साथ इन तालाबों को सूचीवद्ध कर उनका मानचित्रण भी किया गया। एक वर्ष तक वार्षिक औसत वर्षा के आधार पर एक बड़े तालाब के लिए दैनिक प्रवाह श्रृंखला का मूल्यांकन किया गया है और जल संतुलन समीकरण विकसित किया गया है।

अध्ययन का वर्णन

स्थानीय योजनाकारों को व्यापक आकड़े प्रदान करने के लिए, कंडी बेल्ट में स्थित तालाबों की एक विस्तृत सूची तैयार की गई है। सर्वे ऑफ इंडिया टॉपोशीट (पैमाना 1: 50000) से कुल 365 तालाबों के क्षेत्र विस्तार का अंकीकरण किया गया है, जिसमें 249 तालाब जम्मू जिले एवं 116 तालाब कठुआ जिले में पाये गए। इन 365 तालाबों में केवल 165 तालाब ही ऐसे पाये गए जो की साल के 12 माह में जल से पूरित रहते हैं। यह पाया गया है कि कंडी क्षेत्र के सभी तालाबों का कुल क्षेत्रफल 150 हेक्टेयर का है जिनमें से की 16 तालाब ऐसे पाये गए जिनका क्षेत्रफल 1 हेक्टेयर से ज्यादा का है, 4 तालाब पाये गए जिनका क्षेत्रफल 2 हेक्टेयर से ज्यादा का है। इनमे सर्वाधिक क्षेत्रफल ‘सुंगवाल’ तालाब का पाया गया जो के सांबा तहसील में है। कुल 71 ऐसे तालाब पाये गए जिनका क्षेत्रफल 0.5 से 1 हेक्टेयर के बीच का है।

मुख्य रूप से घरेलू कायोर्ं के लिए तालाब के पानी की उपयुक्तता को देखने के लिए 32 तालाबों की जल गुणवत्ता का आकलन किया गया है। BIS और WHO मानकों के संदर्भ में भौतिक-रसायनिक और जीवाणुविज्ञानीय आकड़ो का विश्लेषण किया गया है। सभी भौतिक-रासायनिक घटकों की सांद्रता वांछनीय सीमा के भीतर पाई गई, जबकि तालाब के पानी का बैक्टीरियोलॉजिकल विश्लेषण सभी तालाबों का बैक्टीरिया से दूषित होने का संकेत देता है। तालाबों में बैक्टीरिया के संदूषण के लिए संरचना के आसपास फैली गन्दगी जिम्मेदार हो सकती है और यह बहुत चिंता का विषय है। ऐसे स्रोतो के पानी को घरेलू उद्देश्य में प्रयोग करने से पहले विसंक्रमित करने की अति आवश्यकता है।

मासिक आधार पर ग्राम बड़होरी (तहसील सांबा, जिला जम्मू) में एक तालाब के जलविज्ञानीय जल संतुलन अध्ययन से पता चलता है कि प्रचलित जलवायु और मिट्टी की स्थिति के तहत केवल एक तिहाई क्षमता का उपयोग किया जा रहा है। यदि वाष्पीकरण और अन्य नुकसानों को उपयुक्त उपायों के माध्यम से कम किया जा सकता है, तो स्थानीय खपत के लिए अधिक पानी उपलब्ध होगा, और तालाब की उपलब्ध क्षमता का उपयोग मवेशियों और बागवानी प्रयोजनों के लिए सफलतापूर्वक किया जा सकता है। सोहल तालाब के एक अन्य हाइड्रोलॉजिकल अध्ययन से पता चलता है कि तालाब न्यूनतम 0.5 मीटर की गहराई के साथ पूरे वर्ष भर बना रहता है यदि इसका जल उपयोग में ना लाया जाए। मानसून के मौसम में, तालाब से काफी मात्रा मे प्रवाह निकलता है। यदि इस तरह के अधिशेष अवधि के दौरान तालाब के पानी को सिंचाई या अन्य घरेलू उपयोग के लिए मोड़ दिया जाता है, तो तालाब के भंडारण का उपयोग बेहतर तरीके से किया जा सकता है।

निष्कर्ष

संक्षेप में, गांव के तालाबों के माध्यम से जल संचयन की सदियों पुरानी प्रणाली के विलुप्त होने के परिणामस्वरूप गैर-मानसून महीनों के दौरान पानी की अत्यंत कमी होने लगी है। यद्यपि इस क्षेत्र में 1200 मिमी से अधिक की औसत से वर्षा होती है, फिर भी इस पानी के संचय में कमी है, जो जल संकट के मूल कारणों में से एक है। कंडी-बेल्ट में पानी की कमी की समस्या को हल करने के लिए एक दीर्घकालिक समाधान मौजूदा गाँव के तालाबों को जीवंत करने और क्षेत्र के वर्तमान जल-भूविज्ञान पर विचार करके उपयुक्त स्थलों पर नए तालाबों के निर्माण में निहित है। उनके पानी का उपयोग सिंचाई के लिए (जैसे बागवानी, कृषि वानिकी में) अथवा एक सीमित सीमा तक घरेलू उद्देश्य में किया जा सकता है। ये तालाब इस क्षेत्र में भूजल व्यवस्था को सुधारने में भी मदद करेंगे। गाँव के तालाबों के कायाकल्प के लिए एक योजना की आवश्यकता है, जो पारंपरिक लोक ज्ञान और आधुनिक तकनीके जैसे कि रिमोट सेंसिंग और जीआईएस, भूविज्ञान और भूभौतिकी, मृदा विज्ञान आदि के कौशल का उपयोग करके इन तालाबों को पुनर्जीवित करे।

References

• Agrawal, Anil and Sunita Narain (Eds.), (1997). “Dying Wisdom - Rise, Fall and Potential of India’s Traditional Water Harvesting Systems”, State of India‟s Environment - A Citizen‟s Report No. 4, Centre for Science and Environment, New Delhi

• Bhan, L. K., U. S. Bali, and J. L. Raina, (1994). “Fertility status of the dryland soils of Jammu region of Jammu & Kashmir state”. In: Dryland Farming in India: Constraints and Challenges, Pointer Publishers, Jaipur.

• Carter, Martin R. (Ed.). (1993). “Soil sampling and methods of analysis”, Lewis Publishers, Boca Raton.

• CGWB, (1986). “Report of the estimation of ground water resource potential and calculation of irrigation potential from ground water for Jammu & Kashmir”, Central Ground Water Board, NWR, Chandigarh.

• CGWB, (1996). “National perspective plan for recharge to ground water by utilizing surplus monsoon runoff”, Central Ground Water Board, Faridabad.

• Goyal, V.C. (2002). “Evaluation of rainwater availability in the Kandi Belt of Jammu region”, Report of the National Institute of Hydrology, Roorkee.

• Goyal, V.C. and S. P. Rai (1999-2000). “Hydrological problems in the Kandi belt of Jammu Region”, Report No. SR-1/1999-2000, National Institute of Hydrology, Roorkee.

• Gupta, R. D., S. V. Bali, H. Singh, M. R. Khajuria, and V. K. Koul, (1990). “Ecology of Kandi-belt of the outer Himalayas of Jammu division, Jammu & Kashmir state”, In: Chadha, S K (Ed.), 1990. Himalayas: Environmental Problems. Ashish Publishing House, New Delhi.

• Kumar, Vijay, V. C. Goel, S. P. Rai, Omkar Singh, and C. K. Jain, (2003). “Mapping and inventory of village ponds for water harvesting in Kandi belt of Jammu region”, report of National Institute of Hydrology, Roorkee (Unpublished).

• Maidment, David R. (1992). “Handbook of Hydrology”, McGraw-Hill, Inc., New York.

• Pitale, (1967). “Systematic geohydrological survey of the foot hills zone in parts of Jammu District, Jammu and Kashmir”, Geological Survey of India (Unpublished).

• Prabhakara, J. and A. K. Raina, (1997). “Water resources of J&K: Judicious utilization and management for irrigated agriculture”, Brain Storming Session, Western Himalayan Regional Centre, National Institute of Hydrology, Jammu. 78

• Samra, J. S., B. L. Dhyani, and A. R. Sharma, (1999). “Problems and prospects of natural resource management in Indian Himalayas - A base paper”, Hill and Mountain Agro-ecosystem Directorate, National Agricultural Technology Project, CSWCRTI, Dehradun.

• Sharma, Ram Rattan, (1994a). “Geomorphology of Jammu Siwalik and its Impact on Agriculture”, Ph.D. Thesis (unpublished), Dept. of Geography, University of Jammu.

• Singh, Omkar, S. P. Rai, Vijay Kumar, (1998). “Ground water quality monitoring and evaluation in Jammu and Kathua districts”, Report no. CS-28 of the National Institute of Hydrology, Roorkee, Uttarakhand, India.

• Verma, H. N., (1992). “Engineering measures for soil and water conservation in the rainfed Kandi watersheds”, Journal of Indian Water Resources Society, Vol. 12, No. 3 & 4.

Disqus Comment

खेती किसानी के लिए बजट 2020

$
0
0
खेती किसानी के लिए बजट 2020HindiWaterMon, 02/03/2020 - 11:14
Source
हिन्दुस्तान, 2 फरवरी 2020

फोटो - The Financial Express

अरविंद सिंह, हिन्दुस्तान, 2 फरवरी 2020

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने शनिवार को आम बजट में किसानों की आय दोगुनी करने के लिए 16 सूत्रीय कार्ययोजना पेश की। इसमें सबसे अहम ‘किसान रेल’ और ‘कृषि उड़ान’ योजना है। इसके तहत जल्द खराब होने वाले फल-सब्जियों और अन्य खाद्य उत्पादों को रेलगाड़ियों और विमानों के जरिए देश के कोने-कोने तक पहुँचाया जाएगा। सरकार ने कृषि तथा ग्रामीण विकास के लिए बजट आवंटन में 18 प्रतिशत की वृद्धि की है और यह 2.83 लाख करोड़ रुपए हो गया है।

बजट में किसानों की 15 लाख करोड़ रुपए का संस्थागत कर्ज देने का लक्ष्य रखा गया है। पीएम किसान योजना के सभी लाभार्थियों को किसान क्रेडिट कार्ड योजना से जोड़ा जाएगा। वित्त मंत्री निर्माला सीतारमण ने कहा कि अन्नदातों को ऊर्जादाता भी बनाएंगे। इसके लिए प्रधानमंत्री कृषि ऊर्जा उत्थान महाभियान (पीएम-कुसुम) के तहत खेतों में सोलर यूनिट लगाकर उन्हें बिजली की ग्रिड से जोड़ा जाएगा ताकि बिजली पैदा करके ये किसान लाभ कमा सकें। इस योजना से 2022 तक 25,750 मेगावाट सौर ऊर्जा बनाने की योजना है।

सरकार ने कृषि उत्पादों की ढुलाई के लिए ‘किसान रेल’ चलाने की घोषणा की है। इसके तहत वातानुकूलित किसान मालगाड़ियां चलाई जाएंगी। सरकार और निजी भागीदारी के तहत उन्हें चलाया जाएगा। इसके अलावा फल,सब्जी, डेयरी उत्पाद, मछली, मांस आदि की लम्बी दूरी की ढुलाई के लिए मेल-एक्सप्रेस भी चलेंगी।

सरकार का सबसे ज्यादा जोर खेती की लागत कम करने और ज्यादा मुनाफा देने पर रहा। इसके लिए बजट में शून्य बजट जैविक खेतीबाड़ी योजना पर जोर दिया गया है। जैविक उत्पादों की बिक्री के लिए ऑनलाइन पोर्टल बनाया जाएगा, जिसकी मदद से किसान अपने उत्पाद खुद बेच सकेंगे। हालांकि, सरकार ने चालू वित्त वर्ष में पीएम किसान निधि योजना के लिए आवंटन घटाकर 54,370.15 करोड़ रुपए कर दिया है। पहले 75,000 करोड़ रुपए का प्रावधान था। बजट में कमी का कारण कुछ राज्यों में योजना लागू करने में समस्या है।

प्रो. स्वामीनाथन ने तारीफ की

प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन ने बजट की प्रशंसा करते हुए कहा कि उन्हें खुशी है कि सरकार ने कृषि क्षेत्र और ग्रामीण विकास के लिए एक विस्तृत योजना प्रस्तुत की है।

16 सूत्रीय कार्ययोजना से बदलेगी खेती-किसानी की तस्वीर

  1. 20 लाख किसानों को सोलर पम्प लगाने में सरकार मदद करेगी। बंजर जमीन पर किसान सौर ऊर्जा उत्पादन यूनिट लगाकर पैसा कमा सकेंगे।
  2. 15 लाख करोड़ रुपए कृषि ऋण के तहत किसानों को दिए जाएंगे। पीएम किसान योजना के सभी लाभार्थियों को किसान क्रेडिट कार्ड योजना से जोड़ा जाएगा
  3. 200 लाख टन तक मछली उत्पादन बढ़ाएंगे दो साल मे। मत्स्य पालन क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए 3477 सागर मित्रों व 500 मत्स्य उत्पादक संगठनों को जोड़ा जाएगा।
  4. उन राज्य सरकारों को प्रोत्साहन दिया जाएगा जो कृषि उपज विपणन कानून ठेके पर खेती जैसे मॉडल कानून को अमल में लाएंगे।
  5. पानी की किल्लत से जूझ रहे 100 जिलों के लिए व्यापक कार्ययोजना बनाई जाएगी। वहाँ भूजल स्तर बढ़ाने व जल संचयन पर जोर दिया जाएगा।
  6. रासायनिक उर्वरकों के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल को रोकने के लिए पारम्परिक जैविक उर्वरकों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाएगा।
  7. हम ब्लॉक और तालुका स्तर पर शीतगृह बनाने को बढ़ावा देंगे। फूड कॉर्पोरेशन अपनी जमीन पर भी कोल्ड स्टोरेज बनाएंगे।
  8. स्वयं सहायता समूहों खासकर महिला स्वयं सहायता समूह योजना के जरिए ग्राम भंडारण योजना की शुरुआत होगी। यहाँ बीज संग्रह किए जाएंगे।
  9. किसान रेल योजना के तहत किसान अपने उत्पादों को रेलगाड़ियों के जरिए बाजारों तक भेज सकेंगे। ट्रेन में इसके लिए वातानुकूलित डिब्बे लगेंगे।
  10. ‘कृषि उड़ान’ की शुरुआत होगी। इससे पूर्वोत्तर और आदिवासी इलाकों से कृषि उपज को कम समय में बाजार तक पहुँचाया जा सकेगा।
  11.  बागवानी में अभी ज्यादा ध्यान देना है। हम इसे क्लस्टर में बांटक एक जिले में एक उत्पाद को बढ़ावा देंगे, ताकि किसानों को बेहतर दाम व बाजार मिले।
  12. जीरो बजट खेती और जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाएगा ताकि कृषि में लागत कम करके उसे ज्यादा प्रतिस्पर्धी बनाया जा सके।
  13.  वेयरहाउसिंग पर ध्यान देंगे। इसके तहत ग्रामीण स्तर पर ऐसे भंडारण गृह के लिए ऋण सहायता मुहैया कराई जाएंगी।
  14.  दुग्ध प्रसंस्करण क्षमता को दोगुना कर 53 लाख मीट्रिक टन से 108 लाख मीट्रिक टन करेंगे। 2025 तक पशुओं में होने वाली बीमारियां दूर हो जाएंगी।
  15.  नीली क्रान्ति के तहत समुद्री मत्स्य संसाधनों के प्रबंधन के लिए एक ढांचा स्थापित किया जाएगा।
  16.  दीनदयाल अत्योदय योजना के तहत स्वयं सहायता समूहों को बढ़ावा देंगे।

____________________________________________________________________________________________

किसानों और ग्रामीण विकास के लिए अधिक धन चाहिए

देवेन्द्र शर्मा, हिन्दुस्तान 2 फरवरी, 2020

कृषि क्षेत्र की उपेक्षा कर देश में छायी आर्थिक मंदी से निपटने में सरकार चूक गई वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आम बजट में कृषि के लिए की नई योजना का प्रस्ताव नहीं किया है।

ज्यादातर योजनाएं पुरानी हैं। ग्रामीण भारत व किसानों के लिए यह बजट पूरी तरह से निराशजनक है। देश की अर्थव्यवस्था में रफ्तार लाने के लिए बजट में कृषि क्षेत्र व ग्रामीण विकास के लिए अधिक धन की व्यवस्था करनी चाहिए थी। इस बार महज 2.83 लाख करोड़ रुपए दिए गए हैं जोकि पिछले साल की उपेक्षा महज तीन फीसदी अधिक है। हर साल बढ़ने वाली मंहगाई दर इससे अधिक बढ़ जाती है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना मद में अधिक बजट देने की जरूरत थी। किसानों को सालाना छह हजार करोड़ के बाजार 18 हजार करोड़ रुपए देने की जरूरत है। किसान जेब में पैसा होगा तो खर्च करेगा। इससे मांग व खपत बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था में तेजी आएगी। मनरेगा में भी 70 हजार करोड़ बजट का प्रावधान करते ही जरूरत थी। निर्मला सीतारण किसानों की आय दोगुनी करने के लिए 16 सूत्रीय कार्यक्रम लेकर आई है।

एक जमाने में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी 20 सूत्रीय कार्यक्रम लागू किए थे। वित्त मंत्री पुराने ढर्रे पर चल रही हैं। उर्वरक संतुलित प्रयोग, सोलर पंप, सौर ऊर्जा, जानवरों को मुंह-पैर की बीमारी आदि सब पुरानी योजनाएं हैं। सरकार ने गत वर्ष सितम्बर में एक लाख 45 हजार करोड़ रुपए कॉरपोरेट जगत को दिए जिससे निवेश बढ़ाया जा सके, लेकिन हकीकत यह है उक्त पैसा उनकी जैब में गया। यही पैसा यदि ग्रामीण विकास व कृषि क्षेत्र को दिया जाता तो देश की अर्थव्यवस्था इतनी बुरी स्थिति में नहीं पहुंचती।

______________________________________________________________

ये भी पढ़ें -

TAGS

agriculture, agriculture india, agriculture budget 2020, agriculture budget india 2020, Union budget 2020 india, Union budget 2020 hindi, farming india.

 

budget_0.jpg40.19 KB
Disqus Comment

जल के लिए बजट 2020

$
0
0
जल के लिए बजट 2020HindiWaterMon, 02/03/2020 - 16:05
Source
हिन्दुस्तान, 2 फरवरी, 2020

मोदी सरकार के सबसे अहम मिशन में शामिल ‘जल जीवन मिशन’ के लिए केन्द्रीय बजट में 11,500 करोड़ रुपए के आवंटन की घोषणा की गई है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने इस मिशन का उल्लेख करते हुए कहा है कि योजना में स्थानीय जल स्रोतों के परिवर्धन, मौजूदा स्रोतों के पुनर्भरण और जल संरक्षण एवं विलणीकरण पर जोर दिया जाएगा। सीतारमण ने कहा कि दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों को इसी वित्तवर्ष में लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।

सीतारमण ने कहा कि सरकार का लक्ष्य सभी घरों तक पाइप से पानी पहुँचाने का है, जैसा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से घोषण की थी। सरकार ने इस मिशन के लिए 3 लाख 60 हजार करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। वित्तवर्ष 2020-21 में योजना के लिए 11,500 करोड़ रुपए की बजटीय सहायता दी जाएगी। जलशक्ति मंत्रालय के पेयजल व स्वच्छ विभाग के कुल बजट 21,518 करोड़ के लगभग आधा इसी योजना का है। विभाग के कुल बजट में 1500 करोड़ रुपए की बढ़ोत्तरी की गई है।

जल संसाधन, नदी विकास व गंगा संरक्षण विभाग का बजट आवंटन भी 700 करोड़ रुपए बढ़ा है। विभाग को इस बार 8960 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं, जबकि बीते साल का बजट आवंटन 8245 करोड़ रुपए था। इसमें ‘नमामि गंगे’ योजना के तहत 800 करोड़ रुपए का आवंटन है। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के बजट में एक हजार करोड़ रुपए की बढ़ोत्तरी की गई है।

घोषणा

  1. 800 करोड़ रुपए का प्रावधान नमामि गंगे योजना के लिए
  2. 1000 करोड़ ज्यादा प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना में भी
  3. 3.6 लाख करोड़ हर घर पाइप से पानी पहुँचाने के लिए मंजूर
  4. 11,500 करोड़ हर घर जल योजना के लिए दिए जाएंगे 2020-21 में
  5. 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में यह स्कीम इसी साल लागू करने का लक्ष्य है

______________________________________________________________

ये भी पढ़ें -

TAGS

water budget 2020, jal jeevan mission, budget for jal jeevan mission, water ciris india, union budget 2020 india, budget 2020 india, water budget 2020 india hindi, jal jeevan mission 2020 hindi.

 

Disqus Comment

वायु प्रदूषण कम करने के लिए बजट 2020

$
0
0
वायु प्रदूषण कम करने के लिए बजट 2020HindiWaterMon, 02/03/2020 - 16:22
Source
हिन्दुस्तान, 2 फरवरी 2020

आम बजट को लेकर भले ही कई क्षेत्रों में निराशा का माहौल हो लेकिन जलवायु खतरों, पर्यावरण की सुरक्षा आदि को लेकर इसमें सकारात्मक पहल की गई है। सबसे बड़ी 4400 करोड़ रुपए की घोषणा ‘स्वच्छ हवा कार्यक्रम’ के लिए है। इससे शहरों में प्रदूषण से निपटने के लिए कारगर योजनाएं बनाना सम्भव होगा।

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने शनिवार को आम बजट पेश करते हुए जलवायु परिवर्तन के खतरों का जिक्र किया। सबसे बड़ी बात उन्होंने यह कहा कि परियोजनाओं के निर्माण में प्राकृतिक आपदाओं के खतरे का ध्यान रखा जाएगा। जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाए बढ़ रही हैं। लेकिन यदि योजनाओं को बनाते समय खतरे का पूर्व आकलन किया गया, तो इसे कम किया जा सकता है। नवीन ऊर्जा को बढ़ाने के लिए भी उपायों की घोषणा की गई है। रेलवे की बेकार भूमि, किसानों की बंजर जमीन पर सौर और पवन ऊर्जा परियोजनाएं लगेंगी। इससे रेलवे की आय बढ़ेगी। किसानों की बेकार जमीन भी उनके लिए फायदेमंद हो जाएगी।

उत्सर्जन के मानक तय

सीतारमण ने यह भी ऐलान किया है कि कोयले से चल रहे पुराने बिजलीघरों को बंद किया जाएगा। देश में 300 से ज्यादा बिजलीघर हैं, जिनके लिए उत्सर्जन मानक सरकार ने तय किए हैं, लेकिन उन्हें लागू नहीं किया जा सका है।

____________________________________________________________________________________________

आवंटन बढ़ने से 102 से ज्यादा शहरों की हवा स्वच्छ होगी

आरती खोसला, हिन्दुस्तान, 2 फरवरी, 2020

जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपने और स्वच्छ हवा के लिए सरकार की घोषणाएं सकारात्मक हैं। सरकार ने बजट में इस मुद्दे को प्रमुखता देकर इसकी गम्भीरता को समझा है। अब असली चुनौती इसके क्रियान्वयन की होगी। स्वच्छ हवा कार्यक्रम के लिए 4400 करोड़ रुपए का आवंटन बड़ी घोषणाओं में एक है। पिछले बजट में मद में 460 करोड़ रुपए ही दिए गए थे। यह छोटी राशि थी, लेकिन इस बार इसमें दस गुना से भी ज्यादा की बढोत्तरी की गई है।

दरअसल, सरकार द्वारा शुरू किए गए राष्ट्रीय स्वच्छ हवा कार्यक्रम (एनएसीसी) में अभी तक 102 शहर शामिल हैं, जिन्हें दस-दस करोड़ रुपए सरकार ने देने का ऐलान किया था. लेकिन दस लाख से ज्यादा आबादी वाले एक बड़े शहर की हवा दस-करोड़ में नहीं सुधारी जा सकती। इसलिए, बजट बढ़ाया गया है। इससे जहाँ शहरों को ज्यादा आवंटन होगा, वहीं और दूसरे प्रदूषित शहरों को भी इस कार्यक्रम में शामिल किया जा सकेगा। देश के सिर्फ 102 शहर नहीं बल्कि करीब-करीब सभी शहर प्रदूषण की चपेट में हैं।

बंजर व खाली जमीन पर सौर ऊर्जा परियोजनाएं लगाने का ऐलान भी अच्छा है इससे पर्यावरण के साथ उस खाली जमीन के मालिक का भी फायदा हगा। वैसे भी सौर ऊर्जा के उत्पादन में भारत विश्व को नेतृत्व प्रदान कर रहा है। आज जब भी भारी बारिश, तूफान या बाढ़ का प्रकोप होता है तो जाने के खतरे के साथ-साथ इससे हमारे बुनियादी ढांचे को भी भारी क्षति पहुंचती है। सड़कें, बिजली, फोन के टावर टूट जाते हैं। यदि हम ऐसी सड़कें बना दें जो बाढ़ से टूटें और डूबें नहीं तो ठीक रहेगा। तूफान से टेलीफोन टावर और बिजली की लाइनों को नुकसान नहीं पहुंचेगा, तो यह बड़ी बात होगी।

______________________________________________________________

ये भी पढ़ें -

TAGS

Union budget 2020 india, Union budget 2020 hindi, budget 2020, air pollution budget 2020 india, air pollution budget india hindi, environment budger 2020 india, AQI india, clean air india.

 

Disqus Comment

स्वास्थ्य के लिए बजट 2020

$
0
0
स्वास्थ्य के लिए बजट 2020HindiWaterMon, 02/03/2020 - 16:41
Source
हिन्दुस्तान, 2 फरवरी 2020

स्वास्थ्य बजट में मात्र चार फीसदी का इजाफा

स्कन्द विवेक घर, हिन्दुस्तान, 2 फरवरी, 2020

भारत सरकार के तंगहाल खजाने का असर सामाजिक क्षेत्र से जुड़े मंत्रालयों, खासकर स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर पड़ा है। इस साल स्वास्थ्य बजट में मात्र चार फीसदी का इजाफा किया गया है। यहाँ तक कि स्वास्थ्य मंत्रालय की दो फ्लैगशिप योजनाओं के लिए भी बजट आवंटन में बढ़ोत्तरी नहीं की गई है। पिछले साल स्वास्थ्य मंत्रालय को 64,559 करोड़ रुपए आवंटित हुए थे, जो इस साल बढ़कर 67,112 करोड़ रुपए हो गए। यानी कुल 2553 करोड़ रुपए का इजाफा।

स्वास्थ्य मंत्रालय की सबसे पड़ी योजना राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन को इस साल 33,400 करोड़ रुपए आवंटित हुए हैं। यह पिछले साल के बजट से 505 करोड़ रुपए अधिक और सशोधित बजट की तुलना में 390 करोड़ रुपए कम है। बजट में प्रधानमंत्री जनआरोग्य योजना को 6400 करोड़ का आवंटन हुआ है। आयुष्मान भारत के एक अन्य हिस्से हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर के लिए 1350 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है, जो कि पिछले साल के ही बराबर है। नए एम्स के निर्माण के लिए चल रही प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना को इस साल 6020 करोड़ रुपए का आवटंन हुआ है। दिल्ली एम्स के लिए 3489.96 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है। यह राशि पिछले साल आवंटित 3599.65 करोड़ से करीब 110 करोड़ कम है।

____________________________________________________________________________________________

2025 तक स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2.5% खर्च करना चुनौती

के.सुजाता राव,पूर्व स्वास्थ्य सचिव
हिन्दुस्तान, 2 फरवरी, 2020

स्वास्थ्य बजट में भले ही ज्यादा बढ़ोत्तरी नहीं हुई हो, लेकिन राहत की बात ये है कि आर्थिक संकट के बावजूद स्वास्थ्य बजट में कटौती नहीं की गई है। इससे कम से कम जो योजनाएं चल रही हैं, उनमें कटौती नहीं होगी। वहीं, कुछ योजनाओं को प्राथमिकता के अनुसार अधिक राशि दी जा सकेगी।

बजट में दो महत्त्वपूर्ण योजनाओं राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन और प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के आवंटन को बरकरार रखा गया है। जिलों में निजी क्षेत्र में सहयोग से जिला अस्पतालों को अपग्रेड करने की योजना में मुझे चुनौती नजर आ रही है। निजी अस्पताल तो बड़े शहरों में पहले से ही नुकसान में हैं। ऐसे में वे पिछड़े जिलों में क्यों जाएंगे? सरकार जो वायबिलिटी गैप फंड देने की बात कर रही है, इस फंड से वह खुद ही इन जिला अस्पतालों की तस्वीर क्यों नहीं सुधार देती? सरकार को यह भी सोचना होगा कि अगर इसी रफ्तार से स्वास्थ्य के क्षेत्र में आवंटन बढ़ेगा तो हम 2025 तक स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2.5 फीसदी कैसें खर्च कर पाएंगे?

पिछले साल के मुकाबले इस साल 67112 करोड़ रुपए स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए प्रस्तावित हैं। 20 हजार से ज्यादा अस्पताल प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के तहत पैनल में हैं। 112 आकांक्षी जिलों में निजी सरकारी भागीदारी से अस्पतालों का निर्माण किया जाएगा। जहाँ पैनल में अस्पताल नहीं हैं, उन्हें तवज्जों दी जाएगी। बड़ी संख्या में रोजगार के अवसर पैदा होंगे। हालांकि, आने वाला वक्त ही बताएगा कि केन्द्र सरकार की इन भारी भरकम योजनाओं को कैसे लागू किया जाएगा और इनसे लोगों को कितना फायदा मिलेगा। 

______________________________________________________________

ये भी पढ़ें -

TAGS

budget 2020, health budget 2020 india, health budget 2020, health budget india, health budget 2020 india hindi, health issues india. union budget 2020 india, national helath mission india, rashtriya swasthaya mission.

 

Disqus Comment

कुपोषण से होने वाली बीमारियां और उनसे बचाव

$
0
0
कुपोषण से होने वाली बीमारियां और उनसे बचावHindiWaterTue, 02/04/2020 - 10:33
Source
कुरुक्षेत्र, जनवरी, 2020

एक कुपोषित बच्चे में सही समय पर कुपोषण की पहचान और सही निदान बहुत महत्त्वपूर्ण है, ताकि कुपोषण से बच्चे पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को रोका जा सके और समय रहते बेहतर इलाज किया जा सके। शरीर में पर्याप्त मात्रा में पोषक-तत्वों के स्तर को बनाए रखने के लिए संतुलित आहार लेना जरूरी है।888 विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक बच्चों में कुपोषण की समस्या पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय बनी हुई है। विश्व भर में 15 करोड़ से अधिक बच्चे कुपोषण प्रभावित हैं। आंकड़ों के अनुसार पांच साल के कम उम्र के बच्चों की मौतों में से आधी कुपोषण के कारण ही होती हैं।

यूं तो कुपोषण सभी उम्र के लोगों के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है लेकिन गर्भवती महिला और शिशु के आरम्भिक वर्षों में बेहतर पोषण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। बच्चे के मस्तिष्क और शारीरिक विकास के लिए आवश्यक है कि वाटामिन, कैल्शियम, आयरन, वसा और कार्बोहाइड्रेट वाले पोषक तत्वों के साथ संतुलित आहार बच्चे और माँ को दिया जाए। जब बच्चे को आवश्यक पोषक तत्व, खनिज और कैलोरी प्राप्त नहीं होते, जो बच्चे के अंगो के विकास में मदद करते हैं तब बच्चे का शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। कुपोषण के कारण बच्चे के शारीरिक व मानसिकता विकास में रुकावट ही नहीं बल्कि मानसिक विकलांगता, जी.आई. ट्रैक्ट संक्रमण, एनीमिया और यहां तक कि मृत्यु भी हो सकती है। शोधों के अनुसार कुपोषण न केवल पोषक तत्वों की कमी के कारण होता है, बल्कि अत्यधिक सेवन के कारण भी समस्या हो सकती है।

बच्चों में कुपोषण की एक बड़ी चुनौती स्टंटिंग और वेस्टिंग (सामान्य भाषा में नाटापन और दुबलापन) के रूप में सामने आई है। स्टंटिंग (नाटापन) से तात्पर्य है उम्र के अनुसार बच्चे की लम्बाई का विकास न होना और वेस्टिंग (दुबलापन) यानी बच्चे का लम्बाई के अनुपात में कम वजन होना। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2015-16 में, पांच साल से कम उम्र के 38.4 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग से ग्रसित थे और 35.8 प्रतिशत बच्चों में कम वजन की समस्या थी। ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट 2018 के अनुसार, भारत में दुनिया के सर्वाधिक ‘स्टंटेड’ बच्चे और ‘वेस्टेड’ बच्चे पाए गए हैं। भारत में विश्व के सर्वाधिक 4.66 करोड़ स्टंटेड बच्चे हैं (स्टंटेड बच्चों की कुल संख्या का लगभग एक तिहाई), इसके बाद नाइजीरिया (1.39 करोड़) और पाकिस्तान (1.07 करोड़) हैं।

देश के मध्य और उत्तरी जिलों में सबसे अधिक स्टंटेड बच्चों की संख्या पाई जाती है। उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में 65.1 प्रतिशत बच्चे स्टंटेड हैं, जो देश में सबसे बड़ा आंकड़ा है। आस-पास के जिलों श्रावस्ती और बलरामपुर में दूसरे और तीसरे स्थान पर सबसे अधिक संख्या में स्टंटेड बच्चे हैं।

विश्व बैंक के अनुसार, ‘बचपन में स्टंटिंग के कारण वयस्क की औसत ऊंचाई में 1 प्रतिशत की कमी, आर्थिक उत्पादकता में 1.4 प्रतिशत के दर से नुकसान पहुंचा रही है। स्टंटिंग का भविष्य की पीढ़ियों पर भी प्रभाव पड़ता है। साल 2015-16 में 53.1 प्रतिशत महिलाएं रक्तहीनता या एनीमिया से पीड़ित थीं, इसलिए भविष्य में उनके गर्भधारण और बच्चों पर इसका स्थाई प्रभाव पड़ेगा। इसके अलावा, स्थिति तब और बिगड़ जाती है जब शिशुओं को अपर्याप्त आहार खिलाया जाता है।’

रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के आधे से अधिक बच्चे ‘वेस्टिंग’ से प्रभावित हैं, जो दक्षिण एशिया में रहते हैं। इन तीन देशों में, जो विश्व के स्टंटेड बच्चों के लगभग आधे (47.2 प्रतिशत) का घर हैं, दो देश एशिया में हैं, जिनमें भारत 4.66 करोड़ (31 फीसदी) और पाकिस्तान के पास 1.07 करोड़ बच्चे हैं। भारत उन देशों के समूह में भी शामिल है जहाँ 10 लाख से ज्यादा अधिक वजन वाले यानी मोटापे के शिकार बच्चे हैं। जहाँ अधिक वजन वाले बच्चे पाए जाते हैं, उन देशों में भारत सहति चीन, इंडोनेशिया, मिस्र, अमरिका, ब्राजील और पाकिस्तान भी शामिल हैं।

कुपोषण या दीर्घकालिक कुपोषण कहे जाने वाले ‘वेस्टिग’ और ‘स्टंटिंग’ के कारण बच्चा अपनी उम्र के अनुसार वजन/लम्बाई में नहीं बढ़ता है। यदि बच्चे के पोषण की जरूरतों में सुधार किया जाए, तो बच्चे में वजन सम्बन्धी कमियों को सुधारा जा सकता है, पर बच्चे की लम्बाई में आई कमियों को सही करना चुनौतीपूर्ण है। बच्चे में स्टंटिंग का सम्बन्ध जन्म से पहले, गर्भावस्था के दौरान माँ के खराब स्वास्थ्य से होता है। स्टंटिंग लम्बे समय तक चलती है और इसीलिए इसके दीर्घगामी परिणाम भी दिखाई देते हैं। स्टंटिंग के मुख्य कारण स्तनपान न कराना, पोषक तत्वों की अपर्याप्त आपूर्ति और निरंतर संक्रमण का शिकार होना है। स्टंटिंग बच्चे के लिए खतरनाक है, क्योंकि एक उम्र के बाद इसे ठीक नहीं किया जा सकता है। इसलिए गर्भवती महिलाओं के लिए गर्भावस्था के दौरान उचित स्वास्थ्य और जन्म के बाद बच्चे की व्यापक देखभाल सुनिश्चित करना बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

कुपोषण का एक बड़ा कारण शरीर में विटामिन ए,बी,सी,और डी की कमी के साथ-साथ, फोलेट, कैल्शियम, आयोडीन, जिंक और सेलेनियम की कमी भी है। इन पोषक तत्वों में से प्रत्येक शरीर में महत्त्वपूर्ण अंगों के विकास और कार्य में सहायता करता है और इसकी कमी से अपर्याप्त विकास और एनीमिया, अपर्याप्त मस्तिष्क विकास, थाइरॉयड की समस्या, रिकेट्स, प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होना, तंत्रिका का अधपतनः नजर कमजोर होना और हड्डियों का अपर्याप्त विकास आदि जैसे रोग हो सकते हैं। विटामिन ए की कमी से खसरा और डायरिया जैसी बीमारियों का संक्रमण बढ़ जाता है। लगभग 40 प्रतिशत बच्चों को पूर्ण टीकाकरण और विटामिन ए की खुराक नहीं मिल पाती है।

‘वेस्टिंग’ तीव्र कुपोषण के चलते अचानक व बहुत अधिक वजन घटने की स्थिति है। वेस्टिंग क्वाशिरकोर, मरास्मस और मरास्मिक-क्वाशिरकोर के मिश्रण के रूप में दिखाई देती है। क्वाशिरकोर में, पैरों और पंजों में द्रव के अवरोध के कारण कम पोषण के बावजूद बच्चा मोटा दिखता है। मरास्मस प्रकार के कुपोषण में शरीर की वसा और ऊतक, शरीर में पोषक तत्वों की कमी की भरपाई नहीं कर पाते और आंतरिक प्रक्रियाओं की गतिविधि को धीमा कर देता है। मरास्मिक-क्वाशिरकोर में गम्भीर वेस्टिंग के साथ-साथ सूजन भी शामिल है।

एक कुपोषित बच्चे क सही निदान और सही समय पर कुपोषण की पहचान करना बहुत महत्त्वपूर्ण है, ताकि कुपोषम से बच्चे पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को रोका जा सके और समय रहते बेहतर इलाज किया जा सके। शरीर में पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों के स्तर को बनाए रखने के लिए संतुलित हार लेना जरूरी है। शिशुओं और बच्चों में कुपोषण के संकेत और लक्षण बच्चे की पोषण सम्बन्धी कमी पर निर्भर करते हैं। कुपोषण के कुछ संकेतों और लक्षणों में शामिल हैः थकान और कमजोरी, चिड़चिड़ापन, खराब प्रतिरक्षा प्रणाली के कारण संक्रमण के प्रति संवेदनशील बढ़ जाती है, सूखी और पपड़ीदार त्वचा, अवरुद्ध विकास, फूला हुआ पेट, घाव, संक्रमण और बीमारी से ठीक होने में लम्बा समय लगना, मांसपेशियों का कम होना, व्यावहारिक और बौद्धिक विकास का धीमा होना, मानसिक कार्यक्षमता में कमी और पाचन समस्याएं आदि।

राष्ट्रीय पोषण मिशन, जिसे ‘पोषण अभियान’ के नाम से भी जाना जाता है, की शुरुआत भारत सरकार द्वारा वर्ष 2018 में की गई। राष्ट्रीय पोषण मिशन की अभिकल्पना नीति आयोग द्वारा ‘राष्ट्रीय पोषण रणनीति’ के तहत की गई है। इस रणनीति का उद्देश्य वर्ष 2022 तक ‘कुपोषण-मुक्त भारत’ बनाना है। इसके तहत वर्ष 2022 तक प्रति वर्ष बच्चों में स्टंटिंग की समस्या को तीन प्रतिशत तक कम करना और माँ बनने की उम्र में पहुंची महिलाओं में एनीमिया की समस्या को एक तिहाई कम करना है। यह एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य है, क्योंकि अगर आंकड़ों पर गौर करे तो हम पाएंगे कि स्टंटिंग की समस्या में गिरावट पिछले 10 वर्षों में प्रति वर्ष केवल एक प्रतिशत की हुई है अर्थात यह 2006 में 48 प्रतिशत थी और 2016 में कुछ कम 38.4 प्रतिशत तक रही। आंकड़ों के अनुसार जन्म के एक घंटे के भीतर केवल 41.6 प्रतिशत बच्चों को स्तनपान कराया जाता है, 54.9 प्रतिशत को विशेष रूप से छह महीने के लिए स्तनपान कराया जाता है; 42.7 प्रतिशत को समय पर पूरक आहार प्रदान किया जाता है और दो साल से कम उम्र के केवल 9.6 प्रतिशत बच्चों को पर्याप्त आहार प्राप्त होता है।

स्टंटिंग की समस्या लगभग 12 या उससे अधिक वर्षों तक स्कूली शिक्षा प्राप्त करने वाली माताओं की तुलना में अशिक्षित माताओं से पैदा होने वाले बच्चों में अधिक पाई जाती है। अन्तरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के एक अध्ययन (2015-16) के अनुसार स्टंटिंग की समस्या जिला-स्तर पर (12.4-65.1 प्रतिशत) अलग-अलग है और लगभग 40 प्रतिशत जिलों में स्टंटिंग का स्तर 40 प्रतिशत से ऊपर है। उत्तर प्रदेश सूची में सबसे ऊपर है जहाँ 10 में से छह जिलों में स्टंटिंग की उच्चतम दर है। इस रिपोर्ट में शोधकर्ताओं ने स्टंटिंग के वितरण में स्थानिक अंतर को समझने के लिए मैपिंग और वर्णनात्मक विश्लेषण का उपयोग किया। मैपिंग से पता चला कि स्टंटिंग की समस्या का प्रतिशत जिलेवार भिन्न होता है, जिसमें 12.4 प्रतिशत से 65.1 प्रतिशत तक का अंतर पाया जाता है। 604 जिलों में से 239 में स्टंटिंग का स्तर 40 प्रतिशत से अधिक पाया गया। अध्यन में ज्ञात हुआ कि महिलाओँ के कम बीएमआई (बॉडी मास इंडेक्स) जैसे कारकों में निम्न बनाम उच्च कुपोषण बोझ वाले जिलों के बीच का अंतर 19 प्रतिशत था। स्टंटिंग सम्बद्ध कुपोषण के अन्य कारणों में शामिल थे- मातृ शिक्षा (12 प्रतिशत), विवाह के समय आयु (7 प्रतिशत), प्रसव-पूर्व देखभाल (6 प्रतिशत), बच्चों का खानपान (9 फीसदी), सम्पत्ति (7 प्रतिशत), खुले में शौच (7 प्रतिशत), घरेलू आकार (5 प्रतिशत)। रिपोर्ट से जुड़े विशेषज्ञों के अनुसार ‘आंकड़े तत्काल कार्रवाई के लिए कहते हैं। कुपोषण किसी भी अन्य कारण से अधिक बीमार होने के लिए जिम्मेदार है। अधिक वजन और मोटापे के कारण वैश्विक-स्तर पर अनुमानित 40 लाख मौतें होती हैं।’

हाल ही में केन्द्रीय महिला और बाल विकास मंत्री ने विश्व बैंक की वैश्विक पोषण रिपोर्ट 2018 का हवाला दिया जिसमें कहा गया है कि भारत को कुपोषण के मामले में वार्षिक रूप से कम से कम 10 बिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है। यह नुकसान उत्पादकता, बीमारी और मृत्यु से जुड़ा है और गम्भीर रूप से मानव विकास तथा बाल मृत्युदर में कमी लाने में बाधक है। उन्होंने कहा कि पोषण सभी नागरिकों के जीवन के लिए एक अभ्यास है और इसे महिलाओं और बच्चों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। महिला और बाल विकास मंत्रालय बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन तथा दीनदयाल शोध संस्थान के साथ एक पोषण मानचित्र विकसित कर रहा है जिसमें देश के विभिन्न क्षेत्रों की फसलों और खाद्यान्नों को दिखाया जाएगा, क्योंकि कुपोषण संकट का समाधान कुछ हद तक क्षेत्रीय फसल को प्रोत्साहित करने और प्रोटीन समृद्ध स्थानीय खाद्य पदार्थ को अपनाने में है। महिला और बाल विकास मंत्रा ने सुझाव दिया कि पोषण अभियान के अनाम नायकों को मान्यता देने के लिए स्वास्थ्य और पोषण मानकों पर राज्यों की रैंकिंग की प्रणाली विकसित की जा सकती है और इसके लिए नीति आयोग राज्यों के लिए ढांचा विकसित कर सकता है ताकि जिलों की रैंकिंग की जा सके। उन्होंने कहा कि रैंकिंग प्रक्रिया में नागरिकों और सिविल सोसाइटी को शामिल किया जा सकता है।

विभिन्न राज्यों में वर्ष 1990 से 2017 के दौरान इंडिया स्टेट लेवल डिसीज बर्डन इनीशिएटिव द्वारा दिए गए अध्ययन में पता चला है कि कुपोषण के मामलों में दो-तिहाई गिरावट हुई है। हालांकि, पांच साल से कम उम्र के बच्चों की 68 प्रतिशत मौतों के लिए कुपोषण एक प्रमुख कारक बना हुआ है। बच्चों के अलावा, अलग-अलग उम्र के 17 प्रतिशत लोग भी कुपोषण-जनित बीमारियों का शिकार पाए गए हैं। राष्ट्रीय दर की तुलना में कुपोषण के मामले राज्य-स्तर पर सात गुना अधिक पाए गए हैं। सबसे अधिक कुपोषण राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, नागालैंड और त्रिपुरा में पाया गया है। यह अध्ययन भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद, पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया तथा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की संयुक्त पहल पर आधारित है। इस अध्ययन के अनुसार लम्बे समय तक पोषक तत्वों की कमी और बार-बार संक्रमण से बच्चों का संज्ञानात्मक, भावनात्मक और शारीरिक विकास प्रभावित होता है, जो कुपोषण के प्रमुख संकेतक माने जाते हैं। कुपोषण से होने वाली मौतों के लिए जन्म के समय बच्चों का कम वजन मुख्य रूप से जिम्मेदार पाया गया है। बच्चों का समुचित विकास न होना भी कुपोषण से जुड़ा एक प्रमुख जोखिम है। उम्र के अनुपात में कम लम्बाई और लम्बाई के अनुपात में कम वजन बच्चों की मौतों के लिए जिम्मेदार कुपोषण-जनित अन्य प्रमुख कारकों में शामिल हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि भारत में 21 प्रतिशत बच्चों का वजन जन्म के समय से ही कम होता है। उत्तर प्रदेश में यह संख्या सबसे अधिक 24 प्रतिशत और सबसे कम मिजोरम में 09 प्रतिशत है। नवजात बच्चों में पोषण बनाए रखने में स्तनपान की भूमिका अहम होती है। बच्चों को सिर्फ स्तनपान कराने की दर 1.2 प्रतिशत बढ़ी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि सामान्य से अधिक वजन वाले बच्चों की संख्या 12 प्रतिशत है, जिनकी संख्या विकसित राज्यों में सबसे ज्यादा है। लेकिन, धीरे-धीरे ऐसे बच्चों की संख्या पूरे देश में पांच प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। सामान्य से अधिक वजन वाले बच्चों की संख्या मध्य प्रदेश में सर्वाधिक 7.2 प्रतिशत और मिजोरम में सबसे कम 2.5 प्रतिशत है। हालांकि, राष्ट्रीय-स्तर पर जन्म के समय बच्चों के कम वजन के मामलों में 1.1 प्रतिशत की दर से वार्षिक गिरावट हुई है। राज्यों के स्तर पर यह गिरावट दिल्ली में सबसे कम 0.3 प्रतिशत और सिक्किम में सबसे अधिक 3.8 प्रतिशत देखी गई है।

कुपोषण से लड़ने के लिए तीन सस्ते खाद्य-पदार्थों को खाने की सलाह एक शोध में सामने आई है। अमरीका की वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक शोध में पाया है कि मूंगफली, चने और केले से तैयार किए गए आहार से आंतों में रहने वाले लाभदायक जीवाणुओं की हालत में सुधार होता है जिससे बच्चों का तेजी से विकास होता है। बांग्लादेश में बहुत से कुपोषित बच्चों पर किए शोध के नतीजे के मुताबिक, लाभदायक जीवाणुओं की संख्या बढ़ने से बच्चों की हड्डियों, दिमाग और पूरे शरीर के विकास में मदद मिलती है।

कुपोषित बच्चे न सिर्फ सामान्य बच्चों की तुलना में कमजोर और छोटे होते हैं बल्कि इनमें से कई के पेट में लाभदायक बैक्टीरिया नहीं होते या बहुत कम होते हैं। इस शोध के प्रमुख वैज्ञानिक जेफरी गार्डन के अनुसार कुपोषित बच्चों के धीमे विकास की वजह उनकी पाचन नली में अच्छे बैक्टीरिया की कमी हो सकती है। वैज्ञानिकों ने बांग्लादेश के स्वस्थ बच्चों के शरीर में रहने वाले बैक्टीरिया की किस्मों की पहचान की। फिर उन्होंने चूहों और सूअरों पर प्रयोग किया और देखा कि कौन-सा आहार लेने से आंतों के अन्दर इन महत्त्वपूर्ण बैक्टीरिया की संख्या बढ़ती है। इसके बाद उन्होंने 68 महीनों तक 12 से 18 महीनों की आयु तक के 68 बांग्लादेशी बच्चों को अलग-अलग तरह का आहार दिया। जिन बच्चों को सोया, पिसी हुई मूंगफली, चने और केले आहार में दिए गए थे, उनकी सेहत में सुधार हुआ। इस आहार से आंतों में रहने वाले उन सूक्ष्मजीवों की संख्या बढ़ी जो हड्डियों, दिमाग और रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मददगार माने जाते हैं। शोधार्थियों के अनुसार अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि यह आहार क्यों इतना कामयाब रहा।

कुपोषण का समय पर निदान करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। किसी व्यक्ति को कुपोषण का खतरा है, यह पहचानने के लिए, मालन्यूट्रीशन यूनिवर्सल स्क्रीनिंग टूल (एमयूएसटी) एक जाँच उपकरण है, जो कुपोषण का पता लगाने में मदद करता है। बच्चों के मामले में, डॉक्टर बच्चे की लम्बाई और वजन का परीक्षण करते हैं, बच्चों में कुपोषण को निर्धारित करने के लिए नैदानिक प्रक्रियाओं में हाथ के मध्य-ऊपरी व्यास का मापन किया जाता है। यदि मध्य-ऊपरी बांह की परिधि 110 मिमी. से नीचे है, तो यह आपके बच्चे में कुपोषण का एक स्पष्ट संकेत है। विशिष्ट रक्त-परीक्षण जैसे रक्त कोशिकाओं की गिनती, रक्त शर्करा, रक्त प्रोटीन या एल्बुमिन-स्तर और अन्य नियमित रक्त परीक्षण बच्चों में कुपोषण की पहचान करने में मदद करते हैं। अन्य परीक्षण जैसे कि थायराइड परीक्षण, कैल्शियम, जिंक और विटामिन की जांच करना आदि। यह सभी परीक्षण करने के लिए डॉक्टर बताते हैं क्योंकि यह बच्चों में कुपोषण को पहचानने में मदद करते हैं।

कुपोषण के इलाज के लिए पहले मूल कारण की पहचान करना महत्त्वपूर्ण है। एक बार मूल कारण पता हो जाने के बाद, डॉक्टर कुपोषण या अतिपोषण की समस्या को ठीक करने के लिए सप्लीमेंट और आहार में भोजन की सही मात्रा को शामिल करने के लिए विशेष बदलाव का सुझाव देते हैं। कुपोषण से बचाव के लिए खाद्य पदार्थों जैसे फल और सब्जियां, दूध, पनीर, दही जैसे डेयरी उत्पाद, चावल, आलू, अनाज और स्टार्च के साथ प्रोटीन से भरपूर खाद्य पदार्थ, मांस, मछली, अंडे, बींस और वसा तेल, नट बीज पर्याप्त मात्रा में आवश्यक हैं।

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के निदेशक प्रोफेसर बलराम भार्गव का कहना है कि देश में कुपोषण की निगरानी बढ़ाने के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाए जा रहे हैं। राष्ट्रीय पोषण संस्थान और दूसरी सहभागी संस्थाओं की कोशिश राज्यों से कुपोषण सम्बन्धी अधिक से अधिक आंकड़े जुटाने की है, ताकि कुपोषण की निगरानी के लिए प्रभावी रणनीति बनाई जा सके। इस अध्ययन से विभिन्न राज्यों में कुपोषण में विविधता का पता चला है। इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है कि कुपोषण में कमी की योजना ऐसे तरीके से बनाई जाए जो प्रत्येक राज्य के लिए उपयुक्त हो।

(लेखक विज्ञान प्रसार में वैज्ञानिक ई हैं एवं विज्ञान संचार के राष्ट्रीय कार्यक्रमों से सम्बद्ध हैं।)

ईमेलः nimish2047@gmail.com

Disqus Comment

ग्रामीण विकास व मनरेगा के लिए बजट 2020

$
0
0
ग्रामीण विकास व मनरेगा के लिए बजट 2020HindiWaterTue, 02/04/2020 - 11:37
Source
हिन्दुस्तान, 2 फरवरी, 2020

फ़ोटो - live mint

  • ग्रामीण विकास विभाग के अंतर्गत विभिनन योजनाओं के लिए आवंटन 1.20 लाख करोड़। वित्त वर्ष 2019-20 में ये बजट 1.22 लाख करोड़ रुपये था।
  • रोजगार गारंटी योजना मनरेगा के लिए 61500 करोड़ रुपये का प्रावधान। वित्त वर्ष 2019-20 में अनुमानिक व्यय 71,001.81 करोड रुपये था, जो किस इस वर्ष आवंटित बजट से 13 प्रतिशत (9500 करोड़ रुपये) ज्यादा था ।
  • 2008-14 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के कार्यकारल में मनरेगा के तहत कुल खर्च 1.91 लाख करोड़ रुपये रहा।
  • 2014 से 2020 तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार के कार्यकाल में बढ़कर 2.95 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया।

सरकार गरीब के हाथ में रुपया पहुँचाने के लिए जतन करे

अंजना शर्मा,हिन्दुस्तान, 2 फरवरी, 2020

ग्रामीण विकास के क्षेत्र में सरकार को ज्यादा खर्च करने की जरूरत है। सरकार ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था व किसान को अपने एंजेडे में शामिल किया है, लेकिन अपेक्षा कुछ ज्यादा थी। क्योंकि ग्रामीण स्तर पर खर्च या उपभोग लगातार कम हो रहा है। आज की जरूरत है कि सरकार कृषि और ग्रामीण क्षेत्र की योजनाओं को समग्र रूप से देखें, 16 सूत्रीय कार्ययोजना इस दिशा में कदम है।

अगर सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में माहौल सकारात्मक करना चाहती है तो उसे यहां ज्यादा निवेश करना होगा। ग्रामीण अंचल में जिस तरह की आर्थिक सुस्ती का माहौल है, उसके सुधार के लिए सरकार को गांव, गरीब और किसान पर इस प्रकार ध्यान देना होगा कि उनके हाथ में ज्यादा रुपया आए। एक तरफ सरकार को गन्ना किसानों के तुरंत भुगतान के लिए बीएचएसएल जैसे संस्थानों की सेहत सुधारने की जरूरत है। वहीं, ग्रामीण क्षेत्र में आजीविका के लिए छोटे-छोटे उद्योगों को बढ़ावा देना जरूरी होगा। मनरेगा को ज्यादा तर्कसंगत बनाने की जरूरत है ताकि गांवों से पलायन रोका जा सकें। इसके लिए ज्यादा आवंटन भी समय की दरकार थी, क्योंकि गांवों में रोजगार बढ़ाने की आवश्यकता है। खासकर ऐसे वक्त में जब, ऑटो-रियल्टी सेक्टर में सुस्ती के चलते शहरी क्षेत्र में रोजगार सृजन नहीं हो रहा है। हालांकि प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) और ग्रामीण इलाकों में सड़क और आवास की कल्याण योजनाओं के लिए आवंटन बढ़ाना सराहनीय कदम है। पीएम-किसान जैसी कई योजनाओं को लागू किया जा रहा है, जिसके कृषक समुदाय को लाभ मिल रहा है। विशेषज्ञ अंजना शर्मा की संस्था ‘अचूक पॉलिसी थिंक टैक’ ग्रामीण क्षेत्र व पोषण पर काम करती है।


ये भी पढ़ें -

TAGS

budget 2020, budget 2020 hindi, NREGA budget 2020 india, budget 2020 india, NREGA hindi, Rural development budget 2020, Rural development budget 2020 hindi, rural development india, gramin vikas india.

Disqus Comment

स्वास्थ्य और पोषण के बारे में जागरूकता जरूरी

$
0
0
स्वास्थ्य और पोषण के बारे में जागरूकता जरूरीHindiWaterWed, 02/05/2020 - 09:59
Source
आकांक्षा जैन कुरुक्षेत्र, जनवरी, 2020

 स्वास्थ्य और पोषण के बारे में जागरूकता जरूरीस्वास्थ्य और पोषण के बारे में जागरूकता जरूरी

पौष्टिक भोजन स्वास्थ्य की एक महत्त्वपूर्ण आधारशिला है। इसलिए शरीर की जरूरतों को पूरा करने के लिए भोजन में उचित मात्रा में आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति होनी चाहिए। पोषक तत्वों की अधिकता और कमी-दोनों समान रूप से हानिकारक हैं और व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामुदायिक स्वास्थ्य पर लम्बे समय तक चलने वाले प्रतिकूल प्रभाव हैं। इस प्रकार, इस मुद्दे को प्रभावी ढंग से सम्बन्धित करना और समुदाय को अच्छे स्वास्थ्य और इष्टतम पोषण के महत्व के बारे में जागरूक करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अच्छा पोषण, नियमित शारीरिक गतिविधि और पर्याप्त नींद स्वस्थ जीवन के आवश्यक नियम हैं। सम्पूर्ण राष्ट्र में इष्टतम पोषण की अवधारणा को बढ़ावा देने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

विश्वभर में कुपोषण, सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी, मोटापा और आहार सम्बन्धी गैर-संक्रामक बीमारियों की समस्याओं में लगातार वृद्धि हो रही है। ऊर्जा/पोषण असंतुलन के परिणामस्वरूप शारीरिक और संज्ञानात्मक विकास, रुग्णता मृत्युदर पर दुष्प्रभाव पड़ने के साथ-साथ मानव क्षमता का बहुपक्षीय नुकसान भी हो सकता है तथा इस प्रकार सामाजिक/आर्थिक विकास को भी प्रभावित कर सकता है।

भारत सहित की विकासशील राष्ट्र वर्तमान में कुपोषण के दोहरे बोझ के पोषण-स्पेक्ट्रम के दोनों छोर पर गम्भीर स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का सामना कर रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार कुपोषम ऊर्जा और/या पोषक तत्वों के एक व्यक्ति के सेवन में कमियों, बढोत्तरी, या असंतुलन को दर्शाता है। एक ओर लाखों लोग अत्यधिक या असंतुलित आहार के कारण गैर-संचारी रोगों से पीड़ित हैं और मोटापे को रोकने और आहार से सम्बन्धित गैर-संचारी रोगी (एनसीडी) के इलाज पर भारी खर्च का भी सामना कर रहे हैं। वही दूसरी ओर, अभी भी कई देश आबादी को खिलाने मात्र के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वर्ष 2019 ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मुताबिक भारत 117 योग्य देशों में से 102 वें स्थान पर है।

संविधान के अनुच्छेद 47 के अनुसार पोषण-स्तर, रहन-सहन और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार लाना राज्य का कर्तव्य है-

सामाजिक/आर्थिक/औद्योगिक विकास के साथ जीवनशैली में बदलाव के कारण संचारी से गैर-संचारी रोगों के पैटर्न में भारी बदलाव आया है। इसके अलावा, सामाजिक न्याय/ इक्विटी में असमानता मौजूदा चिंताओं को बढ़ावा देती है। विभिन्न कारकों के कारण, इन रोगों का उपचार आम लोगों के लिए दुर्गम बना हुआ है और इनके निदान में भी अक्सर कमी देखी गई है। वर्तमान स्थिति में, रोग-निवारक दृष्टिकोण से उपचारात्मक दृष्टिकोण में बदलाव व्यक्तिगत-स्तर के साथ-साथ जनसंख्या-स्तर पर भी आवश्यक है। एनसीडी सम्बन्धी स्वास्थ्य निर्धारकों को सम्बोधित करने के लिए, सभी क्षेत्रों के लिए स्वस्थ आहार/वातावरण बनाने की आवश्यकता है और यह चुनौतियों का सामना करने के लिए सबसे प्रभावी तरीका भी है। इसके अलावा, स्वास्थ्य संवर्धन दृष्टिकोण अपनाने से यह परिकल्पित किया गया है कि यह जनसंख्या को भली-भांति सूचित एवं उचित स्वास्थ्य सम्बन्धी विकल्पों को चुनने के लिए सशक्त बनाता है।

उचित स्वास्थ्य नीतियों के साथ-साथ स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों/नई तकनीकों का उपयोग करके जागरूकता बढ़ाना तथा अधिक सामुदायिक जुड़ाव पैदा करने के लिए प्रभावी संचार रणनीति अपनाना समय की आवश्यकता है। शोध द्वारा स्वास्थ्य संवर्धन और पोषण सम्बन्धी हस्तक्षेप को स्वास्थ्य के विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय निर्धारकों को सम्बोधित करने हेतु अत्यधिक प्रभावी साबित किया गया है। देश के लोगों में पोषण/स्वास्थ्य सम्बन्धी व्यवहार को प्रभावित करने हेतु जागरुकता पैदा करने के ले मीडिया का प्रभावित रूप से उपयोग करना आवश्यक है। ‘सभी के लिए स्वास्थ्य और पोषण’ का लक्ष्य अच्छे स्वास्थ्य/ कल्याण और अच्छे पोषण के उच्चतम सम्भव स्तर को प्राप्त करना है।

बचपन के कुपोषण-स्तर को कम करने के लिए आर्थिक विकास का बहुत कम प्रभाव पड़ता है और इसलिए अच्छा स्वास्थ्य/पोषण सम्बन्धित शिक्षा, बच्चे को खिलाने की प्रथाएं (स्तनपान सहित), संतुलित आहार, उचित स्वास्थ्य, स्वच्छता, आहार विविधीकरण, माइक्रोन्यूट्रिएंट पूरकता, बायोफोर्टिफिकेशन जैसे हस्तक्षेप तथा रोगों की रोकथाम को नियमित रूप से व्यवस्थित करने की आवश्यकता है। पोषण एक दोहरे धार वाली तलवार है- अल्प-पोषण और अति-पोषण दोनों ही हानिकारक हैं। इसलिए, नियमित शारीरिक गतिविधि के साथ इष्टतम पोषण अच्छे स्वास्थ्य की आधारशिला है। पोषण-सम्बन्धी डाटाबेस बनाने के लिए भारत सदैव आगे रहा है तथा भारतीय खाद्य संरचना टेबल्स (2017) सहित विभिन्न शोध अध्ययन/सर्वेक्षण जिसमें खाद्य, कृषि पोषण संक्रमण का विवरण रहता है, करता रहा है। हमारा देश खाद्य एवं पोषण सुरक्षा में सुधार लाने के लिए कई पोषण हस्तक्षेप कार्यक्रमों में भी निवेश करता रहा है, जिससे समाज के कमजोर वर्गों के पोषण-स्तर में सुधार हो रहा है। भारत सरकार निरंतर पोषण सम्बन्धी प्रयासों में सुधार लाने के लिए वचनबद्ध है तथा मौजूदा कार्यक्रमों को समय-समय पर परिवर्तित करने और आवश्यकतानुसार नई योजनाएं शुरू करने के लिए सदैव तत्पर हैं- सभी का उद्देश्य राष्ट्र में कुपोषण की रोकथाम, शीघ्र पता चलाना और दूर करने के लिए प्रभावी प्रबंधन करना है। कुपोषण से निपटने तथा स्वास्थ्य/पोषण स्थिति में सुधार लाने के लिए भारत सरकार द्वारा विभिन्न कार्यक्रम और योजनाएं लागू की गई हैं। पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा को पोषण संवर्धन के लिए एक महत्त्वपूर्ण तकनीक के रूप में मान्यता दी गई है जोकि सामुदायिक और राष्ट्र जीवन और विकास की गुणवत्ता में सुधार के लिए सबसे अधिक लागत प्रभावी तकनीक भी है। स्वास्थ्य/पोषण शिक्षा के लिए एकीकृत दृष्टिकोण के महत्व को मद्देनजर रखते हुए सरकार जमीनी-स्तर के अधिकारियों के प्रशिक्षण का आयोजन ग्रामीण/ब्लॉक-स्तर पर करती है जोकि कृषि, स्वास्थ्य, महिला और बाल विकास, शिक्षा, ग्रामीण विकास आदि क्षेत्रों से सम्बन्धित हैं।

पोषण अभियान

(राष्ट्रीय पोषण मिशन) भारत का प्रमुख कार्यक्रम है, जोकि मार्च 2018 में शुरू किया गया है। इसका उद्देश्य 6 वर्ष तक के बच्चों, किशोरियों, गर्भवती महिलाओं और धात्री माताओं के पोषण की स्थिति में सुधार लाना है ताकि कम वजन वाले शिशुओं, स्टंटिंग, अल्प-पोषण, एनीमिया आदि में कमी जैसे विशिष्ट लक्ष्यों को अगले तीन वर्षों में प्राप्त किया जा सके। पोषण अभियान एक जन-आन्दोलन और भागीदारी है। पोषण अभियान को गति देने के लिए, 24 जुलाई, 2018 को नेशनल कौंसिल ऑफ इंडिया के न्यूट्रिशन चैलेंजेज ने सितम्बर को राष्ट्रीय पोषण माह के रूप में मानने का निर्णय लिया। इस महीने के दौरान पोषण से जुड़ी जागरूकता सम्बन्धी गतिविधियां सभी राज्यों/केन्द्रशासित प्रदेशों द्वारा जमीनी-स्तर पर की जाती हैं। पोषण अभियान का उद्देश्य छोटे बच्चों, किशोरियों, गर्भवती महिलाओं/धात्री माताओं, परिवार के सदस्यों (पति, पिता, सास), सामुदायिक सदस्यों, स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं (एएनएम, आशा, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता) में पोषण सम्बन्धी जागरूकता को बढ़ाना है।

कुछ अन्य प्रमुख योजनाएं हैं

एकीकृत बाल विकास योजना, मध्याह्न भोजन योजना, लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली, सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान, निर्मल भारत अभियान, राष्ट्रीय ग्रामीण पेय कार्यक्रम, स्वच्छ भारत अभियान, सामुदायिक खाद्य और पोषण विस्तार इकाइयों के माध्यम से पोषण शिक्षा और प्रशिक्षण।

प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा

योजना की शुरुआत 2003 में सस्ती एवं विश्वसनीय तृतीयक स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता हेतु क्षेत्रीय असंतुलन में सुधार के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा शिक्षा प्रदान करने के लिए की गई थी।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन

(एनएचएम) के अन्तर्गत दो उप-मिशन, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य स्वास्थ्य मिशन शामिल हैं। प्रोग्राम के मुख्य घटकों में स्वास्थ्य प्रणाली सुदृढ़ीकरण, प्रजनन-मातृ नवजात शिशु और किशोर स्वास्थ्य (आरएमएनसीएच+ए), और संचारी और गैर-संचारी रोग शामिल हैं। एनएचएम सार्वभौमिक रूप से समान, सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं को पहुंचाने तथा लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जिम्मेदार और उत्तरदाई है।

नेशनल हेल्थकेयर इनोवेशन पोर्टल भारत के सार्वजनिक और निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में नवीन कार्यक्रमों के डिजाइन, प्रथाओं, प्रौद्योगिकी समाधान और उत्पादों को पूल-इन और भली प्रकार प्रदर्शित करने का एक अहम प्रयास है।

आयुष्मान भारत

स्वास्थ्य और कल्याण केन्द्र, एक चयनात्मक दृष्टिकोण से उचित स्वास्थ्य देखभाल की ओर बढ़ने के साथ-साथ व्यापक सेवाएं जैसे कि निवारक, प्रोत्साहन, उपचार, पुनर्वास और उपशासक देखभाल आदि प्रदान करते हैं। इसके दो घटक हैः

 1. पहले घटक के तहत, व्यापक प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल देने के लिए 1.5 लाख हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर (एचडब्ल्यूसी) बनाए जा रहे हैं, जो उपयोगकर्ताओं के लिए सार्वभौमिक और मुफ्त हैं। यह समुदाय के कल्याण एवं व्यापक सेवाओं को प्रदान करने पर ध्यान केन्द्रित करते हैं (गैर-संचारिक रोगों के लिए देखभाल, उपशामक/पुनर्वास सम्बन्धी देखभाल, ओरल, आई और ईएनटी देखभाल मानसिक स्वास्थ्य और आपातस्थिति/ आघात के दौरान प्रथम-स्तरीय देखभाल, मुफ्त आवश्यक दवाएं और नैदानिक सेवाएं)।

2. दूसरा घटक प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएम-जेएवाई) जो माध्यमिक/तृतीयक स्वास्थ्य देखभाल के लिए 10 करोड़ से अधिक गरीब और कमजोर परिवारों को प्रति वर्ष 5 लाख रुपए तक का स्वास्थ्य बीमा कवर प्रदान करती है।

‘मेरा अस्पताल’ स्वास्थ्य मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा उपयोगकर्ताओं के अनुकूल कई चैनलों जैसे लघु संदेश सेवा (एसएमएस), आउटबाउंड डायलिंग (ओबीडी) मोबाइल एप्लिकेशन और वेबपोर्टल के माध्यम से अस्पताल में प्राप्त सेवाओं के लिए रोगी की प्रतिक्रिया प्राप्त करने की पहल है। इसका उद्देश्य सरकार को सार्वजनिक सुविधाओं में स्वास्थ्य सेवा वितरण की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए उचित निर्णय लेने में मदद करना है, जिससे रोगी के अनुभव में सुधार हो सके।

 टीकाकरण कार्यक्रम को और सशक्त बनाने के लिए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने 8 अक्टूबर, 2017 को गहन मिशन इन्द्रधनुष का शुभारम्भ किया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य 2 वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे और उन सभी गर्भवती महिलाओं तक पहुँचना है, जिन्हें नियमित टीकाकरम कार्यक्रम/ यूनिवर्सल इम्यूनाइजेशन प्रोग्राम के तहत छोड़ दिया गया था। हाल ही में मिशन इंद्रधनुष 2.0 शुरू किया गया है जोकि दिसम्बर 2019 से मार्च 2020 तक चलेगा।

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने स्वास्थ्य शिक्षा और प्रारम्भिक निदान प्रदान करने के अतिरिक्त स्वास्थ्य देखभाल सम्बन्धी सेवाएं पूरी तरह से मुफ्त प्रदान करने के लिए स्वास्थ्य मेला आयोजित करने की रणनीति अपनाई है। इन स्वास्थ्य मेलों की परिकल्पना आवश्यक पैथोलॉजिकल परीक्षणों/दवाओं के साथ गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं का लाभ उठाने के इच्छुक नागरिकों को आकर्षित करना है। मेला केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, गैर-सरकारी संगठनों और चिकित्सा की विभिन्न प्रणालियों (एलोपैथी, होम्योपैथी, आयुर्वेद और यूनानी आदि) द्वारा किए जा रहे विभिन्न स्वास्थ्य कार्यक्रमों के बारे में लोगों को अवगत कराने में एक शक्तिशाली वाहक साबित हो रहा है।

ईट राइट इंडिया

आन्दोलन जन-जागरूकता उत्पन्न करने के लिए सोशल मीडिया सहित बड़े पैमाने पर मीडिया को शामिल करता है। ईट राइट इंडिया का ‘लोगों’ इष्टतम आहार के घटकों को दर्शाता है। फ्रंटलाइन हेल्थकेयर अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण; स्वस्थ आहार को बढ़ावा देने वाला एक ऑनलाइन रिटेलर; और उपयुक्त पोषण के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए ऑनलाइन क्विज करता है। इसके अलावा, स्कूल/कॉलेज वातावरण में भोजन और पोषण सम्बन्धित शिक्षा बच्चों, किशोरों, स्कूल स्टाफ और समुदायों को स्वस्थ खाने की आदतों और अन्य सकारात्मक स्वास्थ्य और इष्टतम पोषण से सम्बन्धित व्यवहारों को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ सीखने के अनुभव को भी बेहतर करती है। शोध के अनुसार और व्यावहारिक रूप से भी, केन्द्रित शैक्षिक-रणनीतियों के संयोजन का उपयोग करना महत्त्वपूर्ण है जिसमें छात्रों, स्कूल/कॉलेज के कर्मचारियों और व्यापक समुदाय की सक्रिय भागीदारी शामिल है। राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली में स्वास्थ्य/पोषण की परिभाषित भूमिका सुनिश्चित करने के लिए स्वास्थ्य-उन्मुख, खाद्य/पोषण पाठ्यक्रम को लागू करने हेतु उचित मार्गदर्शन राष्ट्रीय-स्तर पर स्थापित किया जाना चाहिए। हालांकि, स्कूली पाठ्यक्रम को स्थानीय परिदृश्य, संसाधनों की उपलब्धता और लोगों की जरूरतों के अनुसार प्राथमिकता दी जानी चाहिए। स्वास्थ्य, खाद्य और पोषण शिक्षा असंख्य लाभ प्रदान कर सकती है। शोधकर्ताओं ने सूक्ष्म पोषक तत्वों के सेवन का मोटापे की रोकथाम में व्यापक रूप से सकारात्मक प्रभाव प्रलेखित किया है। एफ.ए.ओ. (2010, 2013) के अनुसार, पाठ्यक्रम को स्थानीय खाद्य संस्कृतियों, जैव विविधता से जोड़कर, सांस्कृतिक संरक्षण और पर्यावरणीय स्थिरता के तत्वों को प्रभावी रूप से एक अधिक एकीकृत दृष्टिकोण में शामिल किया जा सकता है। खाद्य और पोषण शिक्षा को स्कूली-मील से जोड़ना भी छात्रों और उनके परिवारों को पाठ्यक्रम के अहम अंगों का अनुभव कराने में मदद करता है, जैसे विविध पौष्टिक खाद्य पदार्थ खाने के तरीके, स्थानीय खाद्य प्रथाओं/संस्कृतियों को शामिल करना और स्थानीय रूप से विकसित खाद्य पदार्थों के उपयोग एवं लाभों को प्राप्त करना।

स्कूल, कॉलेज, रसोईघर, सामुदायिक उद्यान व्यक्तियों और उनके परिवारों की पोषण स्थिति को बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं। जनता को अपने स्थानीय वातावरण में पौष्टिक मौसमी उत्पाद उगाने, फसल लगाने और तैयार करने के लिए शिक्षित करने की आवश्यकता है। यह एक तरीके से सामुदायिक पर्यावरण, समाज और भौतिक रूप से समुदाय को बेहतर बनाएगा, जिससे लोगों में प्रकृति की स्थिरता की गहरी समझ को बढ़ावा मिलेगा। इसके अलावा, होम गार्डन को जोड़कर हम इस अवधारणा को और भी सुदृढ़ कर सकते हैं, स्कूलों/कॉलेजों और समुदाय के बीच ज्ञान और अनुभव के आदान-प्रदान का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं; और स्वस्थ भोजन और जीवनशैली सम्बन्धी आदतों के बारे में सीख सकते हैं।888 खाद्य/पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा कार्यक्रमों को लागू करने से छात्रों को आजीवन ज्ञान और कौशल प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होता है तथा इसका असर पीढ़ी-दर-पीढ़ी रहता है। शिक्षक, स्कूल/कॉलेज के कर्मचारी, छात्र, अभिभावक, कैटरर, खाद्य विक्रेता और किसान पोषण और स्वास्थ्य व्यवहार परिवर्तन एजेंट बन सकते हैं तथा सभी सकारात्मक स्वास्थ्य/पोषण व्यवहार को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसके लिए, इन बदलाव एजेंटों के लिए क्षमता विकसित करना और उन्हें अच्छे स्वास्थ्य, पोषण, स्वच्छता, रखरखाव, स्वस्थ आहार, जीवनशैली आदि के बारे में उचित ज्ञान/कौशल से प्रशिक्षित करना सर्वोपरि है। कई देशों द्वारा सकारात्मक कदम उठाए जा रहे हैं और भारत में भी इसे लागू करने की योजना है ताकि स्वस्थ भोजन/पेयजल को बढ़ावा दिया जा सके और स्कूल/कॉलेज के कैफेटेरिया, दुकानों में और आस-पास स्कूल परिसर में जंक फूड/चीनी-मीठे पेय पदार्थों की बिक्री या सेवा पर प्रतिबंध लगाया जा सके। 

स्वास्थ्य-उन्मुख भोजन और पोषण-आधारित शैक्षिक हस्तक्षेपों में लोगों के सकारात्मक व्यवहार को सीधे तौर पर सुधारने की क्षमता है। हस्तक्षेप राष्ट्रीय खाद्य-आधारित आहार सम्बन्धी दिशा-निर्देशों पर आधारित होना चाहिए, जिसमें पारम्परिक, उपेक्षित और अल्प-भोजन पदार्थों के उपयोग सहित आहार विविधता को बढ़ावा देना, फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थों/पोषक तत्वों की खुराक को शामिल करना (अगर पोषक तत्वों की कमी को पूरा नहीं किया जा सकता है), जैव विविधता संरक्षण और पर्यावरणीय स्थिरता को बढ़ावा देना शामिल है। सभी स्वास्थ्य और पोषण हस्तक्षेपों को दीर्घकालिक स्थिरता के लिए बनाया जाना चाहिए। लोगों के स्वास्थ्य/पोषक की स्थिति में एक प्रगतिशील सुधार लाने के लिए यह आवश्यक है कि लोगों को स्वस्थ जीवनशैली अपनाने और अभ्यास करने के लिए शिक्षित किया जाए। जागरूकता की कमी और खराब स्वास्थ्य व्यवहार को की गैर-संचारित बीमारियों का प्रमुख अंतनिर्हित कारण पाया गया है- जिन्हें शीघ्र निदान द्वारा, स्वास्थ्य शिक्षा प्रदान करके, समय पर रेफरल और प्रबंधन प्रदान करके रोका जा सकता है। विभिन्न अध्ययनों में स्पष्ट रूप से सुझाव दिया गया है कि प्रारम्भिक निदान और रोकथाम-रुग्णता को कम करने और मृत्यु दर को रोकने पर महत्त्वपूर्ण रूप से सकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं।

शिक्षाविदों को चाहिए कि वह इष्टतम आहार प्रथाओं और लागत प्रभावी नीतियों पर शैक्षिक हस्तक्षेप को प्राथमिकता दें, सकारात्मक स्वास्थ्य संकेतों और नीति परिणामों की निगरानी और मूल्यांकन, समुदायों, मीडिया, नीति निर्माताओं के साथ संलग्न, और नियमित रूप से चल रहे हस्तक्षेप का मूल्यांकन अति आवश्यक है। स्वास्थ्य प्रणाली, डॉक्टरों/चिकित्सकों को रोगी के व्यवहार में उचित बदलाव लाने हेतु रणनीतियों को लागू करने की आवश्यकता है। नियोक्ताओं, समुदायों,स्कूलों, अस्पतालों और धार्मिक निकायों को स्वस्थ भोजन के लिए संगठनात्मक रणनीतियों को लागू करना जरूरी है। विभिन्न स्वास्थ्य संगठनों/गैर-सरकारी संगठनों को सर्वोत्तम स्वास्थ्य/पोषण सम्बन्धी प्रथाओं को जन-जन तक पहुंचाने के लिए वैज्ञानिकों के साथ हाथ मिलाने की भी आवश्यकता है। आहार सम्बन्धी दिशानिर्देशों को बढ़ावा देना भी जरूरी है।

खाद्य पदार्थों की आदतों में तीव्र बदलाव व शारीरिक गतिविधि में कमी दुनिया भर में बढ़ती जा रही है। लोग ऊर्जा, संतृप्त वसा, ट्रांस वसा, शर्करा, अधिक नमक/सोडियम युक्त खाद्य पदार्थों का अत्यधिक सेवन कर रहे हैं; और इसके विपरीत डायट्री-फाइबरयुक्त खाद्य पदार्थ जैसे फल, सब्जियां, साबुन अनाज/दालों का सेवन कम हो गया है। पौष्टिक भोजन स्वास्थ्य की एक महत्त्वपूर्ण आधारशिला है। इसलिए, शरीर की जरूरतों को पूरा करने के लिए भोजन में उचित मात्रा में आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति होनी चाहिए। पोषक तत्वों की अधिकता और कमी-दोनों समान रूप से हानिकारक हैं और व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामुदायिक स्वास्थ्य पर लम्बे समय तक चलने वाले प्रतिकूल प्रभाव है। इस प्रकार, इस मुद्दे को प्रभावी ढंग से सम्बोधित करना और समुदाय को अच्छे स्वास्थ्य और इष्टतम पोषण के महत्व के बारे में जागरूक करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अच्छा पोषण, नियमित शारीरिक गतिविधि और पर्याप्त नींद स्वस्थ जीवन के आवश्यक नियम हैं।

सम्पूर्ण राष्ट्र में इष्टतम पोषण की अवधारणा को बढ़ावा देने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है। बहु-क्षेत्रीय नवीन दृष्टिकोणों की आवश्यकता है जो समाज के सभी वर्गों को, सभी आयु समूहों को शामिल करके लोगों की खाद्य आदतों/प्रथाओं, क्रयशक्ति समानता व सांस्कृतिक विविधता को ध्यान में रखते हुए स्वस्थ पोषण के प्रति जागरूक बनाएं। स्कूलों, बाल-देखभाल केन्द्रों और परिवारों में बचपन से ही उचित ज्ञान देने की आवश्यकता है, ताकि स्वस्थ भोजन की आदतों और अच्छे स्वास्थ्य की नींव सही उम्र में रखी जाए और भविष्य की पीढ़ियों में भी इसे अच्छी तरह से प्रसारित किया जा सके।

(लेखिका भगिनी निवेदिता कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर (खाद्य और पोषण) हैं।)

ई-मेलः jainakansha24@gmail.com

Disqus Comment

उत्तरकाशी में भागीरथी नदी के तट पर खड़ा हो रहा कूड़े का पहाड़

$
0
0
उत्तरकाशी में भागीरथी नदी के तट पर खड़ा हो रहा कूड़े का पहाड़HindiWaterThu, 02/06/2020 - 09:42

शैलेंद्र गोदियाल, उत्तरकाशीभागीरथी (गंगा) नदी के उत्तर में बसे उत्तरकाशी शहर के शीर्ष पर वरुणावत पर्वत विराजमान है, लेकिन बीते एक साल से भागीरथी के किनारे एक दूसरा पहाड़ आकार ले रहा है। यह पहाड़ है उत्तरकाशी शहर और आसपास की आबादी से निकलने वाले कूड़े का, जो धीरे-धीरे भागीरथी की ओर फैल रहा है। हालांकि, इस कूड़े के प्रबंधन के लिए प्रशासन ने पालिका क्षेत्र में करीब डेढ़ नाली (360 वर्ग गज) भूमि उपलब्ध कराई थी, जिस पर पालिका को कूड़ा प्रबंधन के लिए संयंत्र स्थापित करना था, लेकिन बजट के अभाव में यह संभव नहीं हो पाया। अब पालिका ने कूड़ा प्रबंधन संयंत्र लगाने के लिए शासन से एक करोड़ की धनराशि मांगी है।बाड़ाहाट (उत्तरकाशी) नगर पालिका क्षेत्र से हर दिन 20 से 25 क्विंटल कूड़ा एकत्र होता है। यहां घर-घर से कूड़ा एकत्र करने की जिम्मेदारी जीरो वेस्ट कंपनी की है, जबकि शहर में सफाई की व्यवस्था पालिका स्वयं संभालती है। शहर से निकलने वाला सारा कूड़ा तांबाखाणी के पास भागीरथी नदी से 20 मीटर की दूरी पर डंप किया जा रहा है। इसके चलते उत्तरकाशी बाजार के एक छोर से दूसरे छोर तक कूड़े का पहाड़ खड़ा हो रहा है। हां, इतना जरूर है कि जीरो वेस्ट कंपनी के कर्मियों ने इस कूड़े से कुछ प्लास्टिक एकत्र कर उसे कॉम्पेक्ट किया। इसे पालिका ने 19 हजार रुपये में बेचा। अगर पालिका समय पर कूड़ा प्रबंधन संयंत्र लगाती तो कई गुना कमाई भी करती, लेकिन मुश्किल यह है कि पालिका के पास संयंत्र लगाने का बजट ही नहीं है।निर्मल गंगा अभियान को भी पलीता : भागीरथी के किनारे कूड़े का पहाड़ खड़ा होने से नदी के अस्तित्व के लिए भी खतरा पैदा हो गया है। दरअसल, बारिश होने पर यह कूड़ा सीधे भागीरथी में पहुंचता है। इससे नदी तो प्रदूषित हो ही रही है, निर्मल गंगा अभियान को भी पलीता लग रहा है।

उत्तरकाशी में भागीरथी के निकट तांबाखानी सुरंग के बाहर इस तरह से बना है कूड़े का पहाड़। जागरण

कूड़ा प्रबंधन संयंत्र की डीपीआर शासन को भेजी है। इसके तहत कूड़े की छंटनी, खाद बनाने का काम, किल वेस्ट मशीन और कॉम्पेक्टर लगाया जाएगा। इस पूरे संयंत्र को लगाने में एक करोड़ की धनराशि खर्च होगी। धनराशि मिलते ही काम शुरू कर दिया जाएगा। फिलहाल कूड़ा तांबाखाणी के पास ही डाला जा रहा है।

- रमेश सेमवाल, पालिकाध्यक्ष बाड़ाहाट (उत्तरकाशी)

कूड़े के प्रबंधन के लिए प्रशासन की ओर से पालिका को भूमि उपलब्ध करा दी गई है। कूड़ा प्रबंधन की जिम्मेदारी पालिका की है। हां, शहर के निकट

Disqus Comment

मलबा बिगाड़ रहा नैनी झील की सेहत

$
0
0
मलबा बिगाड़ रहा नैनी झील की सेहतHindiWaterThu, 02/06/2020 - 09:52

सरोवरनगरी की पहाड़ियों के कटाव समेत नालों से आ रहा मलबा नैनी झील की सेहत बिगाड़ रहा है। कुमाऊं विवि के शोध अध्ययन में सामने आया है कि पहाड़ियों से औसतन हर साल एक सेंटीमीटर गाद नैनी झील में समा रही है। 140 वर्षो से झील में करीब 130 सेमी मिट्टी जमा हो चुकी है।शोध के अनुसार नैनी झील में हर साल भीमताल झील से 30 गुना अधिक मलबा समा रहा है। शोध में इसके लिए कंक्रीट के रास्तों व सड़क के निर्माण पर सख्ती से रोक लगाने की सिफारिश की गई है।

दरअसल 2016 में झील का जलस्तर काफी गिर गया था, जिससे झील में टापू उभर आए थे। तब तीन मई 2016 को कुमाऊं विवि के भूगर्भ विज्ञानी प्रो. बहादुर सिंह कोटलिया द्वारा अध्ययन के मकसद से तल्लीताल आर्मी होली-डे होम के समीप जेसीबी से खोदाई कराई। प्रो. कोटलिया ने नमूनों की जांच के बाद निकले निष्कर्ष को बेहद चौंकाने वाला बताया। उन्होंने बताया कि 50 हजार साल पूर्व बनी नैनी झील की तलहटी में 20 मीटर तक मिट्टी जमा हो चुकी है। दूसरी झीलों में एक हजार साल में 30 सेमी गाद भरती है, जबकि नैनी झील में एक साल में एक सेमी गाद भर रही है।

तल्लीताल तक था भूस्खलन का प्रभाव

प्रो. कोटलिया के अनुसार, 1880 के आल्मा लॉज की पहाड़ी में हुए भूस्खलन का जबरदस्त प्रभाव तल्लीताल क्षेत्र में भी था। उन्होंने कहा कि झील का अस्तित्व बनाए रखने के लिए नैनीताल में कंक्रीट के रास्तों का निर्माण पूरी तरह बंद करना होगा। सीसी मार्ग की वजह से बारिश का पानी व्यर्थ बह रहा है।

सूखाताल में 10 फुट मलबा जमा

 प्रो. बहादुर सिंह कोटलिया के अनुसार, सूखाताल में करीब 10 फुट मलबा जमा हो चुका है। उन्होंने कहा कि सूखाताल में केएमवीएन की पार्किग के दो मंजिले तक झील का कैंचमेंट है। पंप हाउस से लेकर करबला शरीफ तक झील का हिस्सा है। सूखाताल झील क्षेत्र के दायरे में करीब ढाई दर्जन निर्माण हैं। यहां बता दें कि लोनिवि, पालिका व प्राधिकरण के संयुक्त सर्वे में भी सूखाताल में डूब क्षेत्र में तीन दर्जन निर्माण होने की पुष्टि हुई है।

Disqus Comment

स्वच्छ जीवन की पहली सीढ़ी स्वच्छता

$
0
0
स्वच्छ जीवन की पहली सीढ़ी स्वच्छताHindiWaterThu, 02/06/2020 - 10:36
Source
कुरुक्षेत्र, जनवरी, 2020

स्वच्छ जीवन की पहली सीढ़ी स्वच्छतास्वच्छ जीवन की पहली सीढ़ी स्वच्छता

पांच वर्ष पूर्व शुरू हुए स्वच्छ भारत अभियान के अन्तर्गत देश भर में लगभग 12 करोड़ शौचालयों के निर्माण की बात हो या देश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ जल पहुंचाने की मुहिम हो या फिर नागरिक समाज द्वारा लोगों को स्वच्छता एवं स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता करने की सार्थक पहल हो, सभी के संयुक्त प्रयास से स्वच्छता की दिशा में एक बड़ी मुहिम चलाने में भारत सफल रहा है। जरूरत इस बात की है कि भारत के सभी लोग इस अभियान का और विस्तार देने के लिए आगे आएं और स्वच्छता अभियान को मजबूती प्रदान करें।

विगत पांच वर्षों में स्वच्छता को लेकर देश में जनमानस का मन बहुत ही सकारात्मक हुआ है। कूड़ा कहीं भी फेंकते समय हाथ खुद-ब-खुद रुकने लगे हैं। घर के छोटे-छोटे बच्चों ने भी स्वच्छता के संदेश को अंगीकार किया है। ऐसा कई बार देखने को मिला है कि घर के छोटे बच्चे बड़ों को ‘स्वच्छता’ का पाठ पढ़ा रहे हैं। इधर-उधर कचरा फेंकने पर टोकते हुए दिख जाते हैं। यह एक सकारात्मक बदलाव का प्रतीक है। इस बदलाव को और तेजी से आगे बढ़ाने की जरूरत है। इस दिशा में सरकार के साथ-साथ आम जन की जितनी भागीदारी होगी, यह अभियान उतना ही मजबूत होगा। साथ ही, देश के स्वास्थ्य पर बीमारियों का बोझ भी कम होगा।

किसी भी राष्ट्र के विकास को मापने का उत्तम मानक वहाँ का स्वस्थ समाज होता है। नागरिकों के स्वास्थ्य का सीधा असर उनकी कार्यशक्ति पर पड़ता है। नागरिक कार्यशक्ति का सीधा सम्बन्ध राष्ट्रीय उत्पादन शक्ति से है। जिस देश की उत्पादन शक्ति मजबूत है, वह वैश्विक-स्तर पर विकास के नए-नए मानक गढ़ने में सफल होता रहा है। इस सन्दर्भ में स्पष्ट है कि किसी भी राष्ट्र के विकास में वहाँ के नागरिक स्वास्थ्य का बेहतर होना बहुत ही जरूरी है। शायद यही कारण है कि अमेरिका जैसे वैभवशाली राष्ट्र की राजनीतिक हलचल में भी स्वास्थ्य को अहम स्थान प्राप्त है। दरअसल किसी भी राष्ट्र के लिए अपने नागरिकों की स्वास्थ्य की रक्षा करना पहला धर्म होता है।

स्वास्थ्य एक चुनौती

 जब से मानव की उत्पत्ति हुई है, तभी से खुद को स्वस्थ रखने की जिम्मेदारी उसी पर रही है। बदलते समय के साथ-साथ स्वास्थ्य की चुनौतियां भी बदलती रही हैं। वर्तमान में किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है राष्ट्र की जनसंख्या के अनुपात में स्वास्थ्य सुविधाओं को मुहैया कराना। इस समस्या से हम भारतीय भी अछूते नहीं है। यदि हम भारत की बात करें तो 2011 की जनगणना के हिसाब से मार्च 2011 तक भारत की जनसंख्या का आंकड़ा एक अरब 21 करोड़ पहुंच चुका था व निरंतर इसमें बढ़ोत्तरी हो रही है। हालांकि जनसंख्या की स्वच्छता और स्वास्थ्य की औसत वार्षिक घातीय वृद्धि दर तेजी से गिर रही है। यह 1981-91 में 2.14 फीसदी, 1991-2001 में 1.97 फीसदी थी वहीं 2001-11 में यह 1.64 फीसदी थी। बावजूद इसके जनसंख्या का यह दबाव भारत सरकार के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्थित व्यवस्था करने में बड़ी मुश्किलों को पैदा कर रहा है।

स्वास्थ्य और स्वच्छता में सम्बन्ध

 ठीक से देखें तो कई ऐसे बीमारियां हैं जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध साफ-सफाई की आदतों से है। मलेरिया, डेंगू, डायरिया और टीबी जैसी बीमारियां इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। यह सर्वविदित है कि साफ-सफाई मानव स्वास्थ्य पर सीधा असर डालती है। जिन बीमारियों के मामले ज्यादातर सामने आते हैं और जिनसे ज्यादा मौतें होती हैं, अगर उनके आंकड़ों पर गौर करें तो कहा जा सकता है कि शरीर की तथा परिवेश की वह अचूक मांग है जिसके माध्यम से न सिर्फ स्वस्थ जीवन जिया जा सकता है बल्कि बीमारियों से लड़ने पर देश भर में हो रहा अरबों का सालाना खर्च भी बचाया जा सकता है। स्वस्थ शरीर में निवसित स्वस्थ मस्तिष्क की उत्पादकता, बढ़ने से देश की उत्पादकता जो बढ़ेगी, सो अलग। इतना ही नहीं, शरीर के स्वस्थ रहने के लिए हर स्तर पर स्वच्छता आवश्यक है और इस तथ्य को हमारे महापुरुषों ने भी लगातार स्वीकारा है।

 जिस महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया गया, वहीं महात्मा स्वास्थ्य का नियम बताते हुए कहते है, ‘मनुष्य जाति के लिए साधारणतः स्वास्थ्य का पहला नियम यह है कि मन चंगा तो शरीर भी चंगा है। निरोग शरीर में निर्विकार मन का वास होता है, यह एक स्वयंसिद्ध सत्य है। मन और शरीर के बीच अटूट सम्बन्ध है। अगर हमारा मन निर्विकार यानी निरोग हों, तो वे हर तरफ से हिंसा से मुक्त हो जाए, फिर हमारे हाथों तंदुरुस्ती के नियमों का सहज भाव से पालन होने लगे और किसी तरह की खास कोशिश के बिना ही हमारा शरीर तंदुरुस्त रहने लगे।’ (व्यास, 1963, पृ. 181)

 स्वास्थ्य के लिए स्वच्छता का महत्व

 2 अक्टूबर, 2014 को भारत सरकार ने जब स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी तब तक इसके महत्व के बारे में आम लोगों को उतनी जानकारी नहीं थी, जितनी आज हुई है। वे स्वच्छता एवं स्वास्थ्य के सम्बन्ध को भी ठीक से नहीं समझ पा रहे थे। इस अभियान की आलोचनाएं भी कई लोगों ने की थी। लेकिन आज इस अभियान का सकारात्मक असर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिलने लगा है। घर से बाहर शौच करने जाने वाली महिलाओं को अब शौचालय उपलब्ध हैं। इससे न सिर्फ उनके स्वास्थ्य की रक्षा हो रही है बल्कि सामाजिक सुरक्षा भी इससे बढ़ी है। स्वस्थ भारत यात्रा-2 के दौरान देश भ्रमण करते समय इस बात को मैं आसानी से समझ पाया कि स्वच्छ भारत अभियान ने स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से कितना बड़ा सामाजिक व मनोवैज्ञानिक बदलाव किया है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन हो या यूएनओ, सभी ने स्वास्थ्य एवं स्वच्छता सम्बन्धी अपने दिशा-निर्देशों में साफ-साफ यह कहा है कि मानसिक विकास एवं सामाजिक कल्याण में सुधार के साथ-साथ संक्रमण को रोकने के लिए स्वच्छता एवं स्वास्थ्य अत्यंत आवश्यक है। सुरक्षित स्वच्छता प्रणालियों की कमी के कारण संक्रमण और बीमारियां होती हैं जिसमें डायरिया, उष्णकटिबंधीय बीमारियां जैसे- मिट्टी से फैलने वाले हेल्मिनथ संक्रमण, सिस्टोसोमियासिस और ट्रेकोमा (कुकरे) तथा वेक्टरजनित रोग जैसे कि वेस्ट नाइल वायरल, लसीका फाइलेरिया और जापानी इंसेफेलाइटिस शामिल हैं। विश्व-स्तर पर पांच वर्ष से कम आयु के लगभग एक-चौथाई बच्चों को बार-बार दस्त और पर्यावरणीय आंत्र रोग प्रभावित करता है जिसे अस्वास्थ्यकर स्थितियों में विकास की कमी (स्टंटिंग) से जोड़ा गया। सुरक्षित प्रणालियों की कमी रोगाणुरोधी प्रतिरोध के उद्भव तथा प्रसार में योगदान करती हैं।

इन एजेंसियों ने मानव विकास के मुद्दे को भी स्वच्छता से जोड़ा है। दुनिया भर में बहुत से क्षेत्रों में लोग खुले में शौच करते हैं तथा उनके पास ऐसी सेवाएं मौजूद नहीं होती हैं जोकि मल अपशिष्ट को पर्यावरण को दूषित करने से रोक सकें। कई निम्न और मध्यम आय वाले देशों में आज भी ग्रामीण क्षेत्र इन सेवाओं से अछूते हैं, जबकि शहरी क्षेत्र तेजी से शहरीकरण के कारण स्वच्छता सम्बन्धी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न चुनौतियों के चलते सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुरक्षा करने वाली स्वच्छता प्रणालियों को बनाए रखने के लिए निरंतर अनुकूलन की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र ने अंतराष्ट्रीय स्वच्छता वर्ष के साथ 2008 में वैश्विक विकास एजेंडा की शुरुआत की जिसमें स्वच्छता को महत्व दिया गया। इस क्रम में 2010 में सुरक्षित जल एवं स्वच्छता के मानवाधिकार को मान्यता देने तथा 2013 में संयुक्त राष्ट्र के उपमहासचिव द्वारा खुले में शौच को समाप्त करने का आह्वान किया गया। स्वच्छता के सुरक्षित प्रबंधन के साथ ही अपशिष्ट जल उपचार एवं पुनः उपयोग आदि को सतत विकास लक्ष्यों के तहत केन्द्रीय स्थान दिया गया।

स्वच्छता के महत्व को रेखांकित करते हुए 2010 में संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने स्वच्छता मानवाधिकार की बात कही। यूएन द्वारा कहा गया कि सभी लोगों की बिना भेदभाव के (सबसे कमजोर तथा वंचित व्यक्तियों एवं समूहों को प्राथमिकता देते हुए) पर्याप्त स्वच्छता सेवाओं तक पहुंच सुनिश्चित की जानी चाहिए। प्रासंगिक भाषाओं और मीडिया द्वारा नियोजित उपयुक्त कार्यक्रमों और परियोजनाओं के माध्यम से उन लोगों तक, जो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे, स्वच्छता सम्बन्धी जानकारी स्वतंत्र रूप से उपलब्ध कराई जानी चाहिए। साथ ही, यह भी कहा गया कि स्वच्छता सेवाओं तक पहुंच सुनिश्चित करने में किसी भी प्रकार की विफलता के लिए राज्य सरकार जवाबदेह है। राज्य सरकार द्वारा स्वच्छता सेवाओं तक पहुंच (और पहुंच की कमी) की निगरानी की जानी चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि स्वच्छता सेवाओं तक सभी की पहुंच लम्बी अवधि तक बनी रहे। साथ ही, सेवाओं की उपलब्धता में सभी समुदायों की आर्थिक स्थिति (ऐसे वर्गों को शामिल करते हुए जो यह खर्च उठाने में सक्षम नही हैं) और शारीरिक स्थिति (शारीरिक अक्षमता इत्यादि) को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। वैश्विक चिंताओं को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार स्वच्छता को लेकर गम्भीरता दिखा रही है। आज के समय में दुनिया में भारत एक मार्गदर्शक की भूमिका निभा रहा है। भारत की स्वच्छता अभियान की तारीफ दुनिया भर में ह रही है।

अस्वच्छता जनित बीमारियां

भारत एक बहुसंख्यक आबादी वाला देश है। इसके भूगोल, रहन-सहन एवं खान-पान में भी बहुत विविधता पाई जाती है। यही कारण है कि यहाँ पर अलग-अलग क्षेत्रों में अलग प्रकार की बीमारियां पाई जाती हैं। बीमारियों के वाहक भी अलग-अलग हैं। अस्वच्छता के खिलाफ भारत में सभी जगहों पर एकजुटता के साथ अभियान चलाया जा रहा है। पिछले कुछ दशकों में अस्वच्छता-जनित बीमारियों ने भारत में बीमारियों के भार को बहुत बढ़ाया है। आइए, इनको संक्षेप में जानते हैं।

 मलेरिया

इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के अनुसार वेक्टरजनित बीमारियों में मलेरिया अपनी भयावहता की कसौटी पर प्रथम स्थान पर है। वर्ष 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एनएमसीपी) के शुरू होने से पहले मलेरिया से लगभग 75 लाख लोग प्रभावित थे और यह बीमारी 8 लाख मौतों का कारण थी। राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम 1965 आते-आते सफलता के सोपान छू रहा था, मलेरिया से मरने वालों की संख्या शून्य पर जा पहुंची थी लेकिन 1976 में मलेरिया ने फिर से अपना सिर उठाया और इसकी चपेट में 64 लाख लोग आ गए और बड़ी संख्या में मौतें हुई। इसके बाद राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एनएमईपी) की शुरुआत की गई। फिर नेशनल एंटी मलेरिया कार्यक्रम (एनएएमपी) चलाया गया। फिलहाल राष्ट्रीय वेक्टरजनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम (एनवीबीडीसीपी) चलाया जा रहा है। वर्तमान में मलेरिया उन्मूलन की दिशा में बहुत कारगर कदम उठाए गए हैं।

डेंगू

विश्व स्वास्थ्य संगठन के 16 जनवरी, 2013 के वक्तव्य में कहा गया है कि वैश्विक-स्तर पर डेंगू पिछले 50 वर्षों में 30 गुना तेजी से बढ़ा है। भारत भी इसकी चपेट में तेजी से आ रहा है। दिल्ली और मुम्बई में हर साल डेंगू के मामले बड़ी संख्या में सामने आते हैं और इन शहरों में तो अस्पताल तथा सरकारी विभाग बकायदा नियमित तौर पर डेंगू के मामलों की बुलेटिन भी जारी करते रहते हैं। स्वच्छता के प्रति बढ़ रही जागरूकता से इस बीमारी को रोकने में बहुत हद तक सफलता मिली है।

टीबी

डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार 2012 में वैश्विक स्तर पर टीबी के 86 लाख नए मामले दर्ज किए गए और 13 लाख लोगों की टीबी से मौतें हुई। टीबी से होने वाली मौतों में से 95 प्रतिशत से अधिक मौतें निम्न और मध्यम आय वाले देशों में होती हैं। कहने की जरूरत नहीं कि निम्न आय वर्ग के लोगों के बीच स्वच्छता की स्थिति दयनीय ही रहती है। यह रिपोर्ट बताती है कि 15-44 आयु वर्ग की महिलाओं की मौत के शीर्ष तीन कारणों में से क टीबी भी है। इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में लगभग 20-23 लाख लोग प्रत्येक साल टीबी से ग्रसित होते हैं जोकि वैश्विक टीबी मरीजों का 26 फीसदी है।

जल स्वच्छता पर सरकार दे रही है ध्यान

अब तक हमने देखा कि स्वास्थ्य के लिए जल व जलस्रोतों की स्वच्छता एक आवश्यक पहलू है। सरकार ने 2020 तक देश के सभी ग्रामीण लोगों को सुरक्षित पेयजल सुविधा उपलब्ध कराने की योजना बनाई है। 17 लाख घरों को 2020 तक पेयजल सुविधाएं दी जाएंगी। ध्यान देने वाली बात यह है कि देश में 78 हजार गांवों में प्रदूषित जल जैसे फ्लोराइड, आर्सेनिक तथा अन्य भारी धातु की गम्भीर समस्या है और सरकार की प्राथमिकता इस समस्या से युद्ध-स्तर पर निपटने की है। जल गुणवत्ता की बहाली के लिए केन्द्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों द्वारा जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 का कार्यान्वयन किया जा रहा है। हाल ही में सरकार ने जल शक्ति मंत्रालय का गठन भी इसी बात को ध्यान में रखकर किया है। घर-घर नल-जल योजनाओं के माध्यम से देश को नागरिकों के स्वच्छ जल पहुंचाने की कोशिश की जा रही है।

स्वच्छता हेतु कुछ जरूरी कदम

स्वच्छता एवं स्वास्थ्य का एक-दूसरे से अन्तरसम्बन्ध है। यदि आप अस्वस्थ रहते हैं तो एक बार अपनी जीवनचर्या पर चिंतन कीजिए आपका मन आपके अस्वस्थ होने के कई कारण आपके समक्ष प्रस्तुत करेगा। इन कारणों में स्वच्छता का अभाव भी एक कारण निश्चित रूप से होगा। इसी सन्दर्भ में यहां पर कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी साझा की जा रही है, जिसको अपनाकर आप स्वच्छ व स्वस्थ रह सकते हैं।

आपके घर का बर्तन व जीवाणु

आपके स्वास्थ्य से स्वस्थ भोजन का जितना सम्बन्ध है, उतना ही सम्बन्ध स्वच्छ बर्तन का भी है। आपके बर्तन की स्वच्छता का सम्बन्ध आपके स्वास्थ्य से सीधे-सीधे है। गंदे बर्तनों को साफ करने के बावजूद सिंक में कितने सारे जीवाणु रह जाते हैं। जो जीवाणु आपके सिंक में पैदा होते हैं, वे आपके हाथों, बर्तन साफ करने वाले स्पंज या स्कर्ब और इससे भी बदतर आपके भोजन के सम्पर्क में आ सकते हैं। इसलिए दिन में एक बार अपने सिंक को ब्लीच व पानी से अच्छी तरह से धोएं और उसे सूखने दें। इससे जीवाणु खत्म हो जाएंगे।

आपका टूथब्रश

हर रोज इस्तेमाल के बाद अपने टूथब्रश को न सिर्फ सूखा रखने की जरूरत है, बल्कि वॉशरूम को भी बिल्कुल स्वच्छ रखना चाहिए। यह सामान्य-सी बात लग सकती है लेकिन क्या आप जानते हैं कि जब प टॉयलेट को फ्लश करते हैं, तो इसके दो घंटे बाद तक पूरे वॉशरूम में जीवाणु तैरते रहते हैं? अतः टूथब्रश को वाशरूम से दूर रखें।

सेहत और आपका हाथ

जरा गौर से सोचिए कि आप दिन भर में कितनी सारी चीजों को अपने हाथों से छूते हैं। फिर आप यह सोचिए कि आपके घर के लोग किन-किन चीजों को हाथ लगाते है, यहां हम घरेलू चीजों की बात कर रहे हैं। मसलन, दरवाजे के हैंडल, पॉवर स्विच, कम्प्यूटर की-बोर्ड (घर और दफ्तर, दोनों जगह) और सबसे अधिक रिमोट कंट्रोल। इन चीजों की हमेशा सफाई करते रहना आपका विवेकपूर्ण कदम होगा, क्योंकि ऐसा करके आप घर के सदस्यों और दफ्तर में सहयोगियों की सेहत की रक्षा करेंगे।

20 सेकेंड और हाथ की सफाई

इसमें कोई दो राय नहीं कि अपनी सेहत का खयाल रखते हुए आप अपने हाथ बार-बार धोते रहते हैं। लेकिन जरा ठहरिए, साबुन की कुछ बूंदें अपनी हथेली पर गिराकर उन्हें झट-से टोंटी की नीचे धो डालना काफी नहीं है। साबुन के झाग में अपने हाथ को मलें, कम से कम 20 सेकंड तक तो हाथ जरूर मलना चाहिए। 

पानी को ठहरने न दें

सभी जानते हैं कि बिस्तर के आस-पास मच्छर मारने वाला स्प्रे करना चाहिए और मच्छरदानी लगाकर सोना चाहिए ताकि मच्छरों को शरीर से दूर रखा जा सके। क्योंकि वे डेंगू या मलेरिया की सौगात हमें दे सकते हैं। स्थिर पानी में मच्छर हजारों की संख्या में अंडे देते हैं? ऐसा पानी घर के भीतर अनेक जगहों पर हो सकता है, मसलन फूलदानों, पालतू जानवरों के पानी रखने के बर्तनों या फिर मछलीघर में। इन बर्तनों के पानी को सप्ताह में एक बार जरूर बदलना चाहिए और उन्हें अच्छी तरह से साफ करना चाहिए ताकि रोगों की गिरफ्त में आने से बचा जा सके। इस तरह आप मच्छरों को यह पैगाम देंगे कि उनका आपके घर में कतई स्वागत नहीं होने वाला।

उपसंहार

प्रधानमंत्री ने जिस स्वच्छ भारत की परिकल्पना को देश के सामने रखा था, यह परिकल्पना वैसे नई नहीं है; लेकिन जिस अंदाज व मुस्तैदी के साथ इस बार भारत सरकार ने स्वच्छता के मसले को उठाया है, उसके परिणाम बहुत ही सार्थक दिख रहे हैं। इसके पूर्व भी सरकारों ने स्वच्छता के लिए कार्य किए हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता कवरेज की गति बढ़ाने के उद्देश्य से भारत सरकार ने वर्ष 1986 में केद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम (सीआरएसपी) शुरू किया था। सीआरएसपी को नया दृष्टिकोण अपनाते हुए वर्ष 1999 में नए सिरे से तैयार सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान (टीएससी) नाम दिया गया। स्वच्छता अभियान शुरू करने के बाद पत्रकारों से मुलाकात में प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘मुझे खुशी है कि कलम उठाने वाले हाथों ने कलम को झाडू बना लिया।’ प्रधानमंत्री का यह वक्तव्य महात्मा गांधी के इस कथन की याद दिलाता है, ‘अगर ऐसा उत्साही कार्यकर्ता मिल जाए, जो झाडू और फावड़े को भी उतनी ही आसानी और गर्व के साथ हाथ में ले ले जैसे वे कलम और पेंसिल को लेते हैं, तो इस कार्य में खर्च का कोई सवाल ही नहीं उठेगा। अगर किसी खर्च की जरूरत पड़ेगी भी तो वह केवल झाडू फावड़ा, टोकरी, कुदाली और शायद कुछ कीटाणुनाशक दवाइयां खरीदने तक ही सीमित रहेगा।’ (व्यास, 1963, पृ. 180-81)

 (लेखक स्वस्थ भारत न्यास के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

 ई-मेलःashutoshinmedia@gmail.com

Disqus Comment

जिम कॉर्बेट पार्क में प्लास्टिक खा रहे बाघ

$
0
0
जिम कॉर्बेट पार्क में प्लास्टिक खा रहे बाघHindiWaterThu, 02/06/2020 - 11:47
Source
हिन्दुस्तान, 06 फरवरी 2020

रामगंगा नदी में बहकर आई प्लास्टिक की वस्तु को एक बाघिन और उसके दो शावक खाते दिखे।

राजू वर्मा,हिन्दुस्तान, 06 फरवरी 2020

कॉर्बेट नेशनल पार्क में पहली बार रामगंगा नदी में प्लास्टिक चबाते तीन बागों की तस्वीर सामने आई है। वन्य जीव विशेषज्ञों ने प्लास्टिक को बाघों के लिए जानलेवा बताया है। हैरानी इस बात की है कि कॉर्बेट के भीतर प्लास्टिक पूर्णता प्रतिबंधित होने के बावजूद यह बाघों तक कैसे पहुंचा। हालांकि, प्लास्टिक के नदी में बहकर आने को लेकर भी संशय बना है। कार्बेट प्रशासन ने पूरे मामले की जांच बैठा दी है। उत्तराखंड के नैनीताल जिले के अन्तर्गत रामनगर स्थित कार्बेट पार्क के 1288 वर्ग किलोमीटर के जंगल में 250 से अधिक बाघ हैं।

वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर त्रिकांश शर्मा ने बीते 30 जनवरी को ढिकाला जोन की बाघिन व उसके दो शावकों को सांभर रोड स्थित रामगंगा नदी में ही अठखेलियां करते देखा था। त्रिकांश कुछ दूरी से फोटो खींचते रहे। इसी दौरान उन्होंने बाघों को नदी से प्लास्टिक की कोई वस्तु को शिकार की तरह झपटकर खाते देखा। त्रिकांश के अनुसार बाघों के प्लास्टिक खाने की यह घटना कई पर्यटकों ने भी देखी है। इस तस्वीर के सामने आने से कार्बेट में वनराज के भोजन को लेकर बड़े सवाल खड़े हो रहे हैं।

शावकों के लिए जानलेवा

कॉर्बेट पार्क के वन्यजीव डॉक्टर दुष्यंत कुमार ने बताया कि बाघ के प्लास्टिक खाने से उनके पाचन तंत्र में इसका सीधा असर पड़ता है। पेट में प्लास्टिक रुकने से इंफेक्शन का खतरा रहता है। इससे बाघ की मौत भी हो सकती है। प्लास्टिक आंतों में अटककर कुछ ही समय बाद इंफेक्शन करने लगता है। उनके अनुसार अब तक उत्तराखंड में बाघ के प्लास्टिकक खाने और इससे मौत का मामला सामने नहीं आया है।

कॉर्बेट प्रशासन ने जांच बैठाई

कॉर्बेट नेशनल पार्क निदेशक राहुल ने कहा कि कॉर्बेट पार्क के अन्दर प्लास्टिक पूरी तरह से प्रतिबंधित है। ताजा मामले में ऐसी सम्भावना है कि रामगंगा नदी में प्लास्टिक की कोई वस्तु बहकर पार्क में आई हो। इस मामले की जांच के निर्देश दिए गए हैं। नदी में बहकर आने वाली प्लास्टिक की वस्तुओं को रोकने का प्रयास किया जाएगा।

TAGS

jim corbett national park, tigers in jim corbett, tigers india, nainital, plastic pollution, plastic ban.

 

Disqus Comment
Viewing all 2534 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>