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गाय-भैंस के बछड़ों में भूजल से फ्लोरोसिस 

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गाय-भैंस के बछड़ों में भूजल से फ्लोरोसिस HindiWaterFri, 02/21/2020 - 16:32

ग्रामीण भारत के अधिकांश पशुपालकों व कृषकों को यह पता ही नहीं कि उनकी गाय-भैंस जैसे पालतू व घरेलू पशुओं के बछड़ों को हैंडपम्प, बोरवेल तथा गहरी बावड़ियों व कुओं का पानी पिलाने से फ्लोरोसिस नाम की खतरानक बीमारी भी हो सकती है। दरअसल, ये लोग इन भूमिगत जल स्रोतों के मीठे पानी को पशुओं के लिए हानिकारक नहीं मानते, बल्कि इसे पशुओं के स्वास्थ के लिए लाभदायक समझते हैं। वास्तव में ऐसा नहीं है, क्योंकि भारत के लगभग सभी राज्यों के भूजल में फ्लोराइड नाम का विषैला रसायन मौजूद है, जो पशुओं की सेहत के लिए खतरनाक और नुकसानदायक है। इसकी पुख्ता जानकारी हाल ही में किये गए शोध सर्वेक्षणों के प्रकाशित आंकड़ों से ज्ञात हुई है। ऐसे फ्लोराइडयुक्त भूजल का लम्बे समय तक व बार-बार सेवन करने से न केवल स्वस्थ पालतू पशुओं को बल्कि हट्टे-कट्टे इंसानों को भी फ्लोरोसिस बीमारी हो जाती है। 
गाय-भैंस के बछड़ों में फ्लोरोसिस बीमारी तुलनात्मक तेजी से पनपती है, लेकिन ज्यादातर ग्रामीण पशुपालक व किसान आज भी इस बीमारी के होने के बारे में बेखबर हैं। इन्हें इस बीमारी के होने का आभास अक्सर तब होने लगता है जब इनके बछड़े तेज दोड़ने के बजाए हल्के-हल्के लंगड़ा के चलने लगते हैं और जल्दी से उठ-बैठ भी नही हो पाते है। वहीँ इनकी पीठ या कमर धीरे-धीरे नीचे की ओर झुकने लगती है या फिर धनुषाकार होने लगती है। फ्लोराइड के विषैलेपन के असर से ये बछड़े दिनों-दिन शारीरिक रूप से और कमजोर व दुर्बल होने लगतें हैं तथा सुस्त पड़ जाते हैं। इनके शरीर की हड्डियां उभरी हुई साफ दिखाई देने लगती है। इनको बार-बार प्यास लगती है तथा इन्हें पतले दस्त या कब्ज रहते है। बछड़ों में इस बीमारी के होने का पता आसानी से लगाया जा सकता है। क्योंकि इस बीमारी के होने का पुख्ता लक्षण सबसे पहले इनके निकल रहे आगे के दुधिया दांतों पर स्पष्ट दिखाई पड़ता है। फ्लोराइड के असर से इन दांतों पर नीचे से ऊपर की ओर उभरती हुई हल्की या फिर गहरी पीली-भूरी-काली आड़ी धारियां स्पष्ट दिखाई देती है। कभी-कभी इनकी जगह काले-भूरे रंग के छोटे छोटे दाने भी निकल आते हैं। इन दंत विकृतियों को चिकित्सा विज्ञान में डेंटल-फ्लोरोसिस कहते हैं। ऐेेसी विकृतियाँ स्थाई दांतों में भी पनप जाती हैं।
     
बछड़ों में डेंटल-फ्लोरोसिस

बार-बार फ्लोराइडयुक्त भूजल पीने से इन बछड़ों की पैरों की हड्डियां व जोड़ों में जकड़न विकसित होने लगती है। इनसे जुडी मांसपेशियां सख्त हो जाने से ये लंगड़ापन के शिकार हो जाते हैं। जिससे ये न तो ठीक से चल-फिर पाते हैं और न ही जल्द से उठ-बैठ पाते। फ्लोराइड विष के असर ये हड्डियां कमजोर पड़ जाती हैं, जो थोड़े से दबाव में बांकी-टेड़ी होने के साथ ये जल्द से टूट भी जाती हैं।  हड्डियों में आई इन विकृतियों को स्केलेटल-फ्लोरोसिस भी कहते हैं। 

स्केलेटल-फ्लोरोसिस से पीड़ित बछड़े

फ्लोराइड से ग्रसित दांत अक्सर कमजोर हो कर जल्दी से टूटकर गिर जाते हैं। इससे बछड़े भोजन या चारा ठीक से न चबाने के कारण भूख से जल्द मर जाते हैं। दूसरी ओर हड्डियों में आयी विभिन्न विकृतियों के कारण पनपी शारीरिक विकलांगता (स्केलेटल-फ्लोरोसिस) से बछड़ों को बाजार में बेचने पर इनकी अच्छी कीमत नही मिल पाती है। जिससे पशुपालक व किसान दोनों ही स्थितियों में भारी आर्थिक नुकसान होने से निराश व हताश हो जाते हैं। बछड़ों में एक बार डेंटल-फ्लोरोसिस व स्केलेटल-फ्लोरोसिस विकसित हो जाने पर ये किसी भी औषधी या इलाज से ठीक नहीं होती है अर्थात ये विकृतियाँ लाइलाज होती हैं। सिर्फ बचाव में ही इस बीमारी का इलाज उपलब्ध है। यह बीमारी बछड़ों में न हो इसके लिए इन्हें भूजल की जगह सतही जल यानी तालाबों, नदियों, नहरों को पानी या फ्लोराइडमुक्त पानी पिलाने की जरुरत है। कई बार यह भी देखने को भी मिलता है कि पशुपालक इस बीमारी को ठीक करने के लिए इन बछड़ों की पीठ, पुठे व पैरों पर गर्म लोहे की छड़ या फिर जलती लकड़ी से दागते हैं, जो काफी ज्यादा पीड़ादायक है और गलत भी। इससे यह बीमारी ठीक तो नहीं होती बल्कि बछड़ों के मरने की संभावना और अधिक हो जाती है।

जानवरों में फ्लोरोसिस का आंकड़ा देखने के लिए यहां क्लिक करें -  फ्लोरोसिस का आंकड़ा

प्रो. शांतिलाल चौबीसा,अंतरराष्ट्रीय फ्लोराइड जर्नल के क्षेत्रीय संपादकप्रो. शांतिलाल चौबीसा, अंतरराष्ट्रीय फ्लोराइड जर्नल के क्षेत्रीय संपादक

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तो सूख जाएगी नैनीताल की नैनी झील ?

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तो सूख जाएगी नैनीताल की नैनी झील ?HindiWaterSat, 02/22/2020 - 17:01

शराब व्यवसायी पीटर बैरन उर्फ पिलग्रिम लंबे समय से हिमालय क्षेत्र की यात्रा पर थे। वर्ष 1941 में जब वे अपनी यात्रा पर निकले तो सफर वर्तमान की अपेक्षा उतना सुगम नहीं था। उन्होंने बर्फीले इलाकों की करीब 1500 मील की यात्रा की और नवंबर 1841 को अल्मोड़ा पहुंचे। इस दौरान वे अपने दो साथियों जेएच बैटन और कैप्टन वेलर के साथ पहुंचे थे। तीनों मित्रों ने झील खोजने की योजना बनाई, लेकिन झील तक पहुंचने का सही मार्ग किसी को नहीं पता था। पहले तो उन्हें मार्ग बताने के लिए कोई गाइड (मार्ग निर्देशक) नहीं मिला। एक गाइड मिला भी, तो वो मार्ग बताने के नाम पर उन्हें गुमराह करना चाहता था। हांलाकि पीटर काफी अनुभवी थे और उन्होंने घाट-घाट का पानी पिया था, जिस कारण उन्हें बेवकूफ बनाना मुश्किल था। कड़ी मशक्कत और कठिनाईयों को पार करने के बाद पीटर अंततः अपने साथियों के साथ खैरना से कफुल्टा, जाख, चैरसा से होते हुए सेंट-लू के रास्ते 18 नवंबर 1841 को झील तक पहुंचने में सफल हुए। यहां की मनोरम और मंत्रमुग्ध करने वाली प्राकृतिक सुंदरता को देख वे काफी उल्लासित हुए। स्वर्गरूपी इस सुंदरता को देख उन्होंने यहां नगर बसाने का निर्णय लिया। पीटर ने अपनी किताब ‘‘नोट्स आॅफ वाॅन्डरिंग्स इन द हिमाला’’ में शिमला, मसूरी, अल्मोड़ा, लोहाघाट आदि जगहों में से नैनीताल को सबसे खूबसूरत बताया है। उन्होंने लिखा है कि 1500 मील की यात्रा में नैनीताल सबसे सूबसूरत जगह थी’’। उन्होंने अपनी इस किताब में नैनीताल की सुंदरता को विस्तार से बताया है। साथ ही झील में जान फूंकन वाले जल स्रोतों का भी ज़िक्र किया है। 

पीटर बैरन द्वारा नैनीताल की खोज करने के बाद इस इलाके में झील होने की खबर पहली बार 31 दिसंबर 1841 को प्रकाशित हुई। खबर को तवज्जों देते हुए प्रकाशित करने वाला अखबार था, ‘इंग्लिश मैन’, जो कोलकाता (तब कलकत्ता) से प्रकाशित होता था, लेकिन भारत के मानचित्र में सात पहाड़ियों के बीच ऐसी भी कोई झील है, यूरोपीय समुदाय को इसका प्रमाण देने के लिए पीटर को अथक श्रम करना पड़ा। इसके बाद 26 फरवरी 1942 से नैनीताल में बसावट का दौर शुरू हो गया और शांत वादियों में इंसानांे की चहलकदमी होने लगी। 1942 में पीटर दूसरी बार नैनीताल आए। तब तक सरकारी दस्तावेजों में नैनीताल को अधिसूचित कर दिया गया था। आधा दर्जन से अधिक लोगों ने मकान बनाने के लिए आवेदन किया था। कई लोगों को अनुमति भी मिल चुकी थी। तत्कालीन कमिश्नर जीटी लुशिंगटन ने मल्लीताल बाजार के लिए एक स्थान चयनित कर दिया था। दुकानों को लीज पर लेने के लिए भारी संख्या में लोग आने लगे थे। हांलाकि ये देखकर पहाड़ के लोग काफी खुश थे। क्योंकि रोजगार के साधन उपलब्ध हो रहे थे। वहां के लोगों को लग रहा था कि भविष्य में नैनीताल एक फलता फूलता शहर होगा। बेशक नैनीताल एक खुशहाल शहर बना, लेकिन वक्त के साथ नैनीताल की सूरत और सीरत दोनों ही बदलने लगी।  

फोटो - Incredible India

वक्त के साथ साथ नैनीताल में आबादी बढ़ने लगी। एक वक्त में जहां नैनीताल के बारे में किसी को पता ही नहीं था, वहां सैंकड़ों लोग बसने लगे, लेकिन नगर को बसाने के चक्कर मे लोग ये भूल गए थे कि नैनीताल की पहाड़ियां काफी संवेदनशील हैं। घर, बाजार आदि बनाने के लिए जंगलों को काटने से इसकी संवेदनशीलता और भी अधिक बढ़ गई थी। शालीन और सुंदर दिखने वाली पहाड़ियों पर कंक्रीट के जंगलों का दबाव बढ़ता जा रहा था। जिस कारण 18 सितंबर 1880 को नैनीताल की पूर्वी पहाड़ी पर भयानक भूस्खलन आया। इसने नैनीताल का भूगोल ही बदल दिया था। हादसे में करीब 151 लोगों की मौत हुई थी। इसके बाद औपनिवेशिक शासकों को वादियों के बीच खतरे की वास्तविक स्थिति का पता चल गया था। दरअसल, उस दौरान शासकों का मानना था कि भूस्खलन का कारण बारिश के पानी का रिसकर जमीन के अंदर पहुंचना है, जिस कारण नैनी झील के चारों तरफ की पहाड़ियों पर नालों का निर्माण कराया गया, किंतु वास्तविक कारण पहाड़ों पर पड़ने वाला दबाव था। जिसे आसानी से स्वीकार करने को कोई राज़ी नहीं था। खैर, भवन निर्माण के नियमों में बदलाव किया गया और नियमों को काफी सख्त कर दिया गया। इन नियमों का काफी समय तक पालन हुआ, लेकिन फिर धीरे धीरे सभी नियम कानूनों को ताक पर रख दिया गया। पहाड़ की वादियों की सुरक्षा और सुकून को भ्रष्टाचार और प्रशासनिक लावरवाही की भेंट चढ़ा दिया गया। जिसके चलते नैनीताल में बेतहाशा निर्माण हुआ। 

वर्ष 1984 के बाद मानों नैनीताल में एक सैलाब ही उमड़ पड़ा। नैनीताल की खूबसूरती की खबरे जैसे जैसे लोगों तक पहुंच रही थी, यहां पर्यटकों की संख्या में लगातार इजाफा होने लगा। कश्मीर और शिमला की मनोरम वादियों को छोड़ पर्यटक नैनीताल और मसूरी का रुख करने लगे। तभी से ही नैनी झील पर मंडराता संकट भी दिखने लगा था। जिस कारण उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने ‘‘झील परिक्षेत्र प्राधिकरण’’ बनाने की घोषणा की, लेकिन धरातल पर काम निल बटे सन्नाट ही रहा और अवैध निर्माण की बाढ़ आ गई। आबादी बढ़ने और प्रकृति के अतिदोहन के कारण कई जागरुक नागरिकों ने इसका विरोध भी किया। 1985 में झील में से गाद निकालने के लिए स्वैच्छिक कार सेवा भी की गई। कई समितियों का गठन कर झील के संरक्षण के लिए सरकार को सुझाव दिए गए, लेकिन हर कार्य मानों सरकारी फाइलों में धूल खाने का आदि हो गया था। झील के संरक्षण के लिए बनने वाली योजनाओं की फाइलों में इतनी धूल पड़ गई कि अब लोगों को नैनी झील के भविष्य पर धूल के बादल छाते दिखाई देने लगे थे। 

दरअसल, बारिश का पानी, बर्फबारी के बाद मिलने वाला पानी और प्राकृति जल स्रोत ही नैनी झील के प्राण हैं। झील के नीचे भी कई स्रोत हैं। इन सभी माध्यमों से ही झील को पानी मिलता है। 19वीं शताब्दी में कई प्रमाण भी मिले थे, जिनसे पता चलता है कि नैनी झील को करीब 321 प्राकृति जल स्रोतों से पानी मिलता था। इसी झील के पानी की सप्लाई नैनीताल की जनता की प्यास बुझाने के लिए पेयजल के रूप में भी की जाती थी और वर्तमान में भी की जा रही है, लेकिन अनियमित विकास और अवैध निर्माण के कारण इन जल स्रोतों के मार्ग पर भवनों का निर्माण कर इन्हें बंद कर दिया गया है। डामरीकरण के चलते बारिश का पानी भी जमीन के अंदर पहुंचने के बजाए नालों में बह जाता है। तो वहीं नैनी झील को जल पहुंचाने का मुख्य स्त्रोत ‘‘सूखताल’’ को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया। विदित है कि सूखताल एक दलदलीय क्षेत्र है, जिसे अंग्रेजी में वैटलैंड कहते हैं। ये बरसात के दिनों में पानी से लबालब भरा रहता था, और साल के बाकी दिनों में दलदलीय क्षेत्र के रूप में इसकी पहचान थी। सूखताल से ही नैनी झील को 40 से 50 प्रतिशत पानी प्राप्त होता था, जो रिस-रिस कर नैनी झील तक पहुंचता था, लेकिन शासन और प्रशासन ने सूखताल के महत्व को हाशिये पर रखा। सूखाताल अतिक्रमण की भेंट चढ़ता गया। वर्तमान में सूखाताल पर भवन बने हुए हैं और शेष बचा क्षेत्र डंपयार्ड के रूप में नजर आता है। वहीं जलवायु परिवर्तन का असर भी नैनी झील पर पड़ रहा है।

फोटो - SANDRP

विश्वभर में ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु परिवर्तन हो रहा है। नैनीताल में कई वर्ष पहले साल के 12 महीने सर्दी रहती थी। जब मैदानों में गर्मी पड़ती तो लोग गर्मी की छुट्टियों में नैनीताल जाया करते थे। यहां वादियों में सुकून के दो पल बिताते थे। बरसात के मौसम में यहां स्वर्गलोक के समान मौसम रहता था, जो पर्यटकों को काफी आकर्षित करता था। सर्दियों में नैनीताल के पहाड़ जैसे ही बर्फ की चादर ओढ़ लेते थे, पर्यटकों का सैलाब उमड़ पड़ता था। इसी बर्फ और बारिश से यहां के स्रोतों और झील को पानी मिलता था, लेकिन जलवायु परिवर्तन की मार ऐसी पड़ी कि अब बर्फबारी भी कम होती है और बारिश भी। खैर इसका मुख्य कारण तो मानवीय आबादी है, जिसने यहां बेतहाशा जंगलों को काटा। आबादी बढ़ी तो प्रदूषण भी बढ़ा और मौसम बदलने लगा। जिस कारण नैनीताल में जहां पूरे साल लोग स्वेटर पहनते थे, आज वहां एयर कंडिशनर लगे हैं। मौसम गर्म होने लगा है। इन सभी गतिविधियों का असर नैनी झील पर पड़ रहा है।

ऐसा माना जाता है कि नैनी झील की गहराई 90 फीट से अधिक है। जिसमें मछलियों की विभिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं। नैनीताल की खुशहाली भी नैनीझील के कारण ही है, लेकिन मानवीय गतिविधियों के कारण झील की गहराई लगातार कम होती जा रही है। स्पष्ट कहें तो स्रोतों पर भवन निर्माण होने से झील को पानी नहीं मिल रहा है, जिस कारण झील का जलस्तर काफी कम हो गया है। झील में गाद काफी तेजी से बढ़ती जा रही है। वर्ष 2017 में तो नैनी झील 18 फीट तक सूख गई थी। वर्तमान में भी झील की यही स्थिति है। झील के किनारों पर डेल्टा जैसी आकृति उभर आई है। हांलाकि भू-वैज्ञानिक झील की उम्र करीब 25 वर्ष आंक रहे हैं। बढ़ते प्रदूषण के कारण झील का पानी पहले की अपेक्षा स्वच्छ नहीं रह गया है। बामुश्किल गंदे नालों का झील में गिरना रोका गया था, लेकिन अभी भी झील के किनारों पर गंदगी आपको दिख जाएगी। खैर, झील के अस्तित्व से ही नैनीताल का अस्तित्व है, पर्यटन और रोजगार है। स्पष्ट तौर पर कहें तो नैनी झील का असतित्व खतरे में है। यदि झील सूखती है तो नैनीताल का गला भी सूख जाएगा। इसके लिए मानूसन के बाद पानी की राशनिंग करना बेहद जरूरी है तथा पर्यटन अर्थव्यवस्था का विकास समझदारी के साथ करने की आवश्यकता है। 

लेखक - हिमांशु भट्ट (8057170025)

 

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खेत से खाने की मेज तक

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खेत से खाने की मेज तकRuralWaterMon, 02/24/2020 - 12:07
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अमर उजाला, 24 फरवरी, 2020

 खेत से खाने की मेज तकखेत से खाने की मेज तक। फोटो - patrika

अरुण डिके, अमर उजाला, 24 फरवरी 2020

भारत जैसे देश की, जो सीधे खेती-किसानी से जुड़ा हुआ है, पहली प्राथमिकता किसान की समृद्धि ही होनी चाहिए। कम-से-कम लागत और अपने आस-पास बिखरी प्रकृति की सम्पदा से की गई खेती ही जैविक खेती कहलाती है। अपने खेत के एक छोटे भाग में सबसे पहले अपने घर के लिए रोटी, कपड़ा और मकान के लिए उपयुक्त फसलें पैदा करना हर किसान की पहली आवश्यकता होनी चाहिए। अनाज, दालें, तिलहनी फसलें, मसाले, ग्वारपाठा जैसे कुछ औषधीय र सौन्दर्य प्रसाधन देने वाले पौधे लगाकर किसान खेती कर सकता है, जिससे इन घरेलू उपयोग की वस्तुओं के लिए बाजार पर उसकी निर्भरता शून्य हो सकती है। फिर बाकी बचे खेतों में उपभोक्ताओं की मांग के अनुसार फसलें उगाकर सीधे आम ग्राहक तक पहुंचना ही ‘जैविक सेतु’ का उद्देश्य है। इसके जरिए किसान और उपभोक्ता आपस में एक-दूसरे से जुड़ेंगे।

‘जैविक सेतु’ का मतलब खेत से सीदे आपके खाने की मेज पर आने वाला खाद्यान्न ही है। जैविक खेती पर शिद्दत से कार्य कर रहे मालवा, निमाड़ के कुछ किसानों ने महाराष्ट्र के ‘सूर्य खेती’ करने वाले श्रीपाद अच्युत दाभोलकर की तर्ज पर इंदौर में वर्ष 2014 में ‘प्रयोग परिवार’ की स्थापना कर भिचोली मर्दाना गांव में किसानों और ग्राहकों को सीधे जोड़ने वाला ‘जैविक सेतु’ प्रारम्भ किया था। विगत पांच वर्षों से यह प्रयास फल-फूल रहा है। एक तरफ, किसानों की आमदनी बढ़ी है, तो दूसरी तरफ, उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य में सुधार से दवाइयों पर उनकी निर्भरता कम हुई है। अब धार, खरगोन और भोपाल में भी ‘जैविक सेतु’ की तर्ज पर काम शुरू हो गया है। अमरिका में भी ‘सीबीए’ यानी ‘कम्युनिटी बेस्ड एग्रीकल्चर’ की शुरूआत हुई है, जिसमें मांग के अनुसार शहरी समुदाय किसानों को अग्रिम राशि देकर जैविक खाद्यान्न पैदा करवा रहा है।

जिन जैविक अर्थशास्त्रियों ने खेती-किसानों को प्राथमिकता देकर शोध किया है, उनका निष्कर्ष है कि दिन-रात मेहनत कर किसान को फसलें उगाता है, उसका मात्र 19 प्रतिशत ही उसे मिल पाता है, शेष 81 प्रतिशत बिचौलिए, बाजार,परिवहन और विज्ञापन आदि हजम कर जाते हैं। ऐसे में किसान यदि खेती को राम-राम करें या आत्मघात कर लें, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। दूसरी तरफ, यदि शुद्ध जैविक खाद्यान्न किसान से सीधे उपभोक्ता को प्राप्त हो और नतीजे में वह मोटापे, मधुमेह और यहाँ तक कि कैंसर जैसी घातक बीमारियों से बचे, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

यदि हम अपना नजरिया बदल लें, तो भारत के ग्रामीण इलाकों में आज भी यह सम्भव है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1945 में हमारी आबादी 35 करोड़ थी और इंसानों में औषधियों की खपत मात्र 12 करोड़ रुपए की थी। वर्ष 2009 में आबादी बढ़कर 105 करोड़ हो गई, तो दवाइयों की खपत में एक हजार गुना की बढोत्तरी हुई और वह खर्च बढ़कर 13 हजार करोड़ रुपए हो गया। लगता है कि आज दवाओं का खर्च 20 हजार करोड़ रुपयों को पार कर गया होगा। क्या यह स्वस्थ समाज का लक्षण है? आधुनिकता की फूहड़ विदेशी नकल करते हुए हमने खेतों के उत्पादों को बढ़ावा देने के बजाय उद्योगों से उत्पादों को प्रोत्साहित करना प्रारम्भ किया। नतीजतन गांवों में खेती हतोत्साहित होती गई और किसान खेती छोड़ शहरों में मजदूरी करने के ले मजबूर हो गए।

जिन महान विभूतियों ने इस देश की नींव पक्की की थी, वे सभी ग्रामीण भारत के पक्षधर थे। महात्मा गांधी और विनोबा भावे भी उन्हीं में से थे। सौभाग्य से हाल में गांधी जी की 150 वीं जयंती मनाई गई और यह विनोबा जी की 125 वीं जयंती वर्ष है। खेती पर विनोबा के विचार न केवल ग्रामवासी, अपितु शहरी लोगों के लिए भी पठनीय हैं। वह कहते हैं, खेत से मिली थोड़ी ‘लक्ष्मी’ भी विपुल है, क्योंकि भले ही यह थोड़ी हो, लेकिन नई पैदावार की है। अपनी बुद्धि बेचने का व्यवसाय कर बटोरा हुआ धन कमाई नहीं है।

गांवों और शहरों की लक्ष्मी का जो विश्लेषण विनोबा जी ने किया है, वह रेखांकित करता है कि मशीनों के बजाय मानव एवं पशुओं के श्रम से मिली लक्ष्मी को हमें इसलिए भी स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि वह ऊर्जा का संरक्षण भी करती है और चिरायु भी है। खेती में हर चीज का आसानी से विघटन होकर प्रदूषण शून्य रह जाता है, जबकि उद्योगों से प्राप्त किसी भी वस्तु का विघटन नहीं होता। ऊर्जा संरक्षण तो दूर, शोषण ज्यादा होता है और अविघटित वस्तुएं वातावरण में प्रदूषण फैलती हैं, चाहे वह उद्योगों से निकला धुंआ हो या प्लास्टिक। विनोबा की तरह गांधीजी की स्वदेशी की बात आज भी प्रासंगिक है। स्वदेशी का मतलब केवल देश में पैदा माल नहीं, अपितु अपने आस-पास के 50 मील के दायरे में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर किया हुआ निर्माण है।

गांधीजी ही नहीं, भारत की खेती-किसानी पर 26 साल शोध करने वाले अंग्रेज कृषि वैज्ञानिक सर अलबर्ट हॉवर्ड ने भी कहा था कि भारत का मौसम फूड प्रोसेसिंग याना डिब्बा-बंद खाद्यान्नों के अनुकूल नहीं है। यहां खेतों, बागानों से निकला हुआ ताजा अन्न ही खाना और खिलाना चाहिए। यही समय है, जब हमें खेती-बाड़ी और उससे उपजी चिरायु जीवन-शैली दुनिया को सिखाना प्रारम्भ करना चाहिए।

 

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देश में पहली बार अगले महीने से दिल्ली में होगी प्रदूषण की निगरानी

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देश में पहली बार अगले महीने से दिल्ली में होगी प्रदूषण की निगरानीHindiWaterTue, 02/25/2020 - 09:36
Source
दैनिक जागरण, नई दिल्ली, 25 फरवरी 2020

संजीव गुप्ता,  नई दिल्ली, दैनिक जागरण, 25 फरवरी 2020

25 फीसद प्रदूषण कम करने के बाद अब दिल्ली अत्यंत महीन प्रदूषण कण पीएम 1 की निगरानी और इसके निदान में भी आगे निकलने की तरफ बढ़ रही है। देश में पहली बार अगले महीने से राजधानी में न केवल इसका रियल टाइम डाटा मिलने लगेगा, बल्कि इसके कारक भी पता चल सकेंगे। इसी आधार पर इसे नियंत्रित करने के प्रयास किए जाएंगे।

देश-दुनिया में जब भी प्रदूषण की बात होती है तो पीएम 10 और पीएम 2.5 तक ही सिमट जाती है। हाल ही में संसद के शीतकालीन सत्र में भी वायु प्रदूषण पर तो विस्तृत चर्चा हुई, लेकिन पीएम 1 के रूप में एक महत्वपूर्ण और खतरनाक प्रदूषक कण को नजरअंदाज कर दिया गया। इसको लेकर अधिक शोधपरक रिपोर्ट और जानकारी भी उपलब्ध नहीं है। वातावरण में इसकी कितनी मात्र सामान्य या खतरनाक श्रेणी में होनी चाहिए, इसे लेकर भी मानक तय नहीं हैं। बाल की मोटाई से 170 गुना महीन : पीएम 2.5 इंसान के बाल की मोटाई की तुलना में लगभग 30 गुना जबकि पीएम 170 गुना तक महीन होता है। पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार प्रदूषक कण जितना बारीक होगा, नुकसान उतना ही अधिक होगा। पीएम 2.5 जहां फेफड़ों तक पहुंचता है, वहीं पीएम 1 रक्त के जरिये समूचे शरीर में प्रवेश कर सकता है। इसके प्राथमिक स्रोत वाहन और औद्योगिक उत्सर्जन है। बॉयोमास से भी इसकी मात्र में इजाफा हुआ है। स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव और इसकी विषाक्तता पर दुनियाभर में अध्ययन हो रहा है।स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक : अब तक उपलब्ध शोध बताते हैं कि पीएम 1 के कण का आकार प्रतिकूल स्वास्थ्य प्रभावों का एक अहम निर्धारक है। ये कण फेफड़ों के पैरेन्काइमा (बाहरी सतह पर पाया जाने वाला एक पदार्थ) में जमा होने की अधिक संभावना रखते हैं। इन कणों का पृष्ठीय क्षेत्रफल और आयतन अनुपात अधिक होता है, जिससे तनाव और सूजन को बढ़ावा मिलता है। धातु मिश्रित होने के कारण ये कण जीन की क्षति और कैंसर का कारक भी बन सकते हैं।

देश में इस पर बहुत कम हुआ काम : 2009 में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रलय ने पीएम 1 पर एक अध्ययन कराया तो 2010 में पुणो स्थित इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटारोलॉजी ने इस पर कार्यक्रम की शुरुआत की। आइआइटी दिल्ली में भी इस पर थोड़ा-बहुत अध्ययन हुआ। हालांकि इसके कारकों, अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक प्रभावों तथा इसके नियंत्रण के लिए मानक और दिशा- निर्देश तय करने के लिए और अध्ययन कराए जाने की आवश्यकता है। दिल्ली में वा¨शगटन डीसी यूनिवर्सिटी के सहयोग से हो रही पहल : दिल्ली सरकार ने 2019 में वा¨शगटन डीसी यूनिवर्सिटी के साथ प्रदूषण से जंग के लिए करार किया। इसके तहत यहां के विशेषज्ञों ने वर्ष भर तक दिल्ली के प्रदूषण, इसके स्वरूप और कारणों पर अध्ययन किया है और इस पर नियंत्रण के उपाय भी खोज रहे हैं। जल्द ही इसकी रिपोर्ट आएगी। दूसरी तरफ नेशनल स्टेडियम में एक ऐसा रियल टाइम मॉनिटरिंग सिस्टम भी स्थापित किया जा रहा है जो महीने भर में पीएम 10 और पीएम 2.5 सहित पीएम 1 का रियल टाइम डाटा देने लगेगा। दिल्ली सरकार के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय का कहना है कि दिल्ली सरकार प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए ‘रियल टाइम डाटा’ एकत्र करेगी। इसकी सहायता से प्रदूषण के कारक पता चलेंगे। उनसे होने वाले प्रदूषण के स्तर को मापना आसान होगा। इसी आधार पर सरकार एक रिपोर्ट तैयार करेगी, जिसके आधार पर तय होगा कि वायु प्रदूषण को कैसे कम किया जा सकता है। 

 

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तटीय जलाशय के सम्बन्ध में तटीय विज्ञान के कुछ सुझाव

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तटीय जलाशय के सम्बन्ध में तटीय विज्ञान के कुछ सुझावRuralWaterTue, 02/25/2020 - 15:39
Source
केन्द्रीय जल और विद्युत अनुसंधानशाला, पुणे

सारांश

सन 2019 के आकड़ों के हिसाब से भारत वर्ष की जनसंख्या 135 करोड़ के नजदीक है। इतनी जनसंख्या के खाद्यान और बाकी जरूरतों को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत है। भविष्य में पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए अभी से पानी के स्त्रोतों को मितव्ययी तरीके से उपयोग करना पड़ेगा। दुनिया में बड़े बांधों की संख्या के हिसाब से भारत तीसरे स्थान पर आता है। इतना पानी संग्रह करने के बावजूद गर्मी के दिनों में पानी की विशेष कमी पड़ जाती है। पानी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए भूजल का अत्यधिक उपयोग किया जाने लगा है जिसके कारण भूजल स्तर बहुत नीचे चला गया है।

भारत सरकार ने जल शक्ति अभियान के तहत ऐसे जिले जहां पर भूजल स्तर नीचे चला गया है वहाँ पर भूजल स्तर को पोषित करने का काम और देख- रेख के बड़े व्यापक तरीके से लिया है। आने वाले समय में भूजल स्तर में इससे वृद्धि होगी। तटीय जलाशय एक पानी संचय करने की विधि है जिसमें कि समुद्र के निकट उसमें मिलने वाली नदी में बांध बनाकर जल संचय किया जाता है। इसी दिशा में कुछ हद तक तटीय शहर में पानी की जरूरतों को पूरा कर सकतें हैं।

 Abstract: 

According to the 2019 statistics, the population of India is likely to be around 135 crores. The large quantity of water will be needed to meet the food and other needs of this large population. To meet the water requirements in future, the sources of water will have to be used in a very careful way. Although, India comes at the third place in the world, as far as the number of big dams is concerned. Despite storing so much water, there is a shortage of water during summer days. To meet the water requirement, groundwater is being used excessively, due to this; the groundwater has gone down drastically. The Government of India has taken up the task of rainwater harvesting, renovation of traditional and other water bodies/tanks, reuse, bore well recharge structures, water shed development and intensive forestation in 1592 water stressed blocks of 256 districts in the country in a big way under the Jal Shakti Abhiyan. In the coming years, this scheme will show its benefits resulting in an increase in the groundwater level. A coastal reservoir is a fresh water reservoir in the seawater near a river mouth to capture the sustainable river flow. It provides water by storing it from the river discharge and runoff which otherwise will flow in the sea. The water in the coastal reservoir can be used for drinking, irrigation or industrial purposes.

प्रस्तावना

आज, दुनिया की आधी आबादी के बराबर लगभग 3 बिलियन लोग समुद्र तट के 200 किलो ̈मीटर के दायरे में रहते हैं। 2025 तक यह आंकड़ा बढ़ने की संभावना है। भारत की अनुमानित आबादी, 2019 में लगभग 1.37 बिलियन है। इसमें से 250 मिलियन से अधिक लोग समुद्र तट के 25 किल ̈मीटर के दायरे में रह रहे हैं। उनमें से अधिकांशतः शहरी आबादी शामिल है। कुल आबादी का 17% 9 तटीय राज्यों के 66 जिलों के अंतर्गत आता है। तटीय क्षेत्र में 77 शहर हैं जिनमें कुछ सबसे बड़े और सबसे घने शहरी-शहर जैसे मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, कोच्चि, विशाखापतनम, तिरुवनंतपुरम आदि हैं। पिछले कुछ वर्ष में, बढ़ती जनसंख्या, बढ़ते औद्योगीकरण, कृषि का विस्तार और जीवन स्तर में वृद्धि ने पानी की मांग को बढ़ा दिया है बांधों और जलाशयों का निर्माण करके और कुओं, तालाबों आदि जैसे भूजल संरचनाओं का निर्माण करके पानी इकट्ठा करने के लिए बहुत अच्छे काम किए गए हैं। पानी का पुनर्चक्रण और विलवणीकरण अन्य विकल्प हैं, लेकिन इसमें शामिल लागत बहुत अधिक है। यहां यह उल्लेख किया जा सकता है कि हमारे पास उपलब्ध पानी वैसा ही है जैसा पहले था लेकिन पानी की आबादी और परिणामी मांग में कई गुना वृद्धि हुई है।

पानी की उपलब्धता: 1951 से 2000 तक की अवधि के लिए गणना की गर्इ लंबी अवधि का औसत वर्षा 1170 मिमी है। हालांकि चरम वर्षा की घटनाओं में काफी वृद्धि हो रही है, लेकिन होने वाली वर्षा की घटनाओं में एक स्थानिक गैर-एकरूपता है। इससे विभिन्न स्थानों पर बड़े पैमाने पर पानी के भंडारण की पूर्व योजना बनाना मुश्किल है जाता है। प्रति वर्ष, वर्षा से उपलब्ध मीठे पानी के 4,000 बिलियन घन मीटर में से प्रमुख भाग समुद्र में चला जाता है। भारत की पानी की समस्या का समाधान, प्रचुर मात्रा में मानसून के पानी के संरक्षण, इसे तटीय जलाशयों में संग्रहित करना है और इस पानी का उपयोग उन क्षेत्रों में करें जिनमें कभी-कभार अपर्याप्त वर्षा होती है या जिन्हें सूखा होने या वर्ष के उन समय में जाना जाता है जब पानी की आपूर्ति कम हो जाती है। यह अनुमान है कि लगभग 4,400 हजार मिलियन क्यूबिक फीट बारिश का पानी सिर्फ समुद्र में बह जाता है। पानी के तनाव और कमी के संकेतक आम तौर पर किसी देश या क्षेत्र में पानी की उपलब्धता को प्रतिबिंबित करने के लिए उपयोग किए जाते हैं। जब किसी देश में नवीकरणीय ताजे पानी की वार्षिक प्रति व्यक्ति संख्या 1700 क्यूबिक मीटर से कम हो जाती है, तो इसे पानी के तनाव की स्थिति में रखा जाता है। यदि उपलब्धता 1000 घन मीटर से कम है, तो स्थिति को पानी की कमी के रूप में चिह्नित किया जाता है, और जब प्रति व्यक्ति उपलब्धता 500 घनमीटर से कम हो जाती है, तो इसे पूर्ण कमी की स्थिति कहा जाता है। 1947 में स्वतंत्रता के समय, भारत में पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 6008 घन मीटर थी। यह 1971 में 5177 घन मीटर और 2001 में 1920 घन मीटर पर आ गया। तदनुसार 10 वीं योजना के मध्य अवधि मूल्यांकन अनुसार प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 2025 में 1340 घन मीटर और 2050 में 1140 घन मीटर तक गिरने की संभावना है। पानी की कमी की समस्या तब और जटिल हो जाती है जब हम जनसंख्या के संदर्भ में जल संसाधनों के क्षेत्रीय वितरण को देखते हैं, जो ब्रह्मपुत्र घाटी में 18417 घन मीटर से लेकर पेनार और कन्नियाकुमारी के बीच पूर्व में बहने वाली नदियों में 411 घन मीटर तक कम है।

यह चेतावनी दी गई है कि जल संसाधनों की कमी से भविष्य में टकराव बढ़ सकता है। जलवायु परिवर्तन की तरह जनसंख्या वृद्धि समस्या को बदतर बना देगी। जैसे-जैसे वैश्विक अर्थव्यवस्था बढ़ती है, वैसे-वैसे उसकी प्यास भी बढ़ती है। वर्तमान स्थिति के साथ, संकट से बचने के लिए सही उपायों की आवश्यकता है। एक बढ़ती जागरूकता है कि हमारे मधुर जल के संसाधन सीमित हैं और उन्हें कुशलता से उपयोग करने की आवश्यकता है। उपरोक्त परिदृश्य में, पानी की कमी को संभालने के लिए निम्नलिखित कुछ तरीकों का पालन जरूरी करना हैं। यह पेपर तटीय जलाशय की अवधारणा पर केंद्रित है। यह मूल रूप से नदी के मुहाने के पास एक भंडारण संरचना बनाने का मतलब है। इस तरह, रन-ऑफ के रूप में बर्बाद होने वाले पानी की मात्रा को संग्रहीत किया जा सकता है। तटीय जलाशय के निर्माण में कई जोखिम कारक और पुनर्वास जैसे नुकसान शामिल नहीं हैं जो अंतर्देशीय बांध निर्माण में होते हैं।

जलशक्ति अभियान

भारत सरकार ने जल शक्ति अभियान शुरू किया है, यह विभिन्न मंत्रालयों और राज्य सरकारों का एक सहयोगी प्रयास है। इस कार्यक्रम में केंद्र सरकार के अधिकारियों की टीमें पांच महत्वपूर्ण जल संरक्षण हस्तक्षेपों को सुनिश्चित करने के लिए, 256 जिलों के पानी के तनाव और कमी के 1952 प्रखंडों में जिला प्रशासन के साथ दौरा और काम करेंगी। ये जल संरक्षण और वर्षा जल संचयन होंगे; पारंपरिक और अन्य जल निकायों/पानी की टंकी का नवीकरण बोरवेल पुनर्भरण संरचनाओं का पुनः उपयोग, जलशेड विकास और गहन वनीकरण। इन जल संरक्षण प्रयासों को भी विशेष हस्तक्षेप के साथ पूरक किया जाएगा, जिसमें ब्लॉक और जिला जल संरक्षण योजनाओं का विकास, सिंचाई के लिए कुशल जल उपयोग को बढ़ावा देना और फसल का बेहतर विकल्प शामिल है। लगातार निगरानी और केंद्रित प्रयासों से निश्चित रूप से पानी के दबाव वाले ब्लॉक में भूजल की अच्छी उपलब्धता होगी। तटीय क्षेत्र में उपरोक्त पानी की मांग के अलावा तटीय जलाशय नामक एक नई अवधारणा के माध्यम से भी मुलाकात की जा सकती है।

तटीय जलाशय

अन्तरराष्ट्रीय तटीय जलाशय अनुसंधान संघ तटीय जलाशय को समुद्र के भीतर स्थित एक ताजा जलाशय के रूप में परिभाषित करता है, जिसमें दो जल निकायों को अलग करने योग्य अभेद्य बाधा है। जलाशय एक नदी के मुहाने के पास या भीतर स्थित है सकता है और इसका निर्माण एक ठोस बांध, एक नरम बांध या इसके किसी भी सयोजन के रूप में किया जा सकता है। जलाशय के भीतर के पानी का उपयोग विभिन्न घरेलू, औद्योगिक या कृषि क्षेत्रों में किया जा सकता है। भूमि आधारित जलाशयों के विपरीत तटीय जलाशयों के मामले में कई भूमि जलमग्न नहीं होती है। वे नदी के बाढ़ के पानी द्वारा समुद्र क्षेत्र पर खडे़ खारे पानी की जगह पर लोगों और प्राकृतिक आवास को परेशान किए बिना पानी जमा करते हैं। तटीय, जलाशय क्षेत्र को समुद्र के किनारे से तलकर्षण द्वारा मिट्टी के तटबंध निर्माण से अलग करके बनाया गया है। सिंचाई, नगरपालिका और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए इन जलाशयों से पानी पंप किया जाता है। कभी-कभी समुद्री तट से बाढ़ नियंत्रण और भूमि पुनर्ग्रहण के लिए उपयोग किया जाता है। भूमि आधारित जलाशयों की तुलना में तटीय जलाशयों के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव नग्ण्य हैं। निर्माण लागत भूमि आधारित जलाशयों की लागत से कुछ गुना कम है क्योंकि विशाल भूमि क्षेत्र, जलमग्न अंचल संपत्तियों और विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिए कई खर्च नहीं है। समुद्र के किनारे के जलाशय का उपयोग गहरे समुद्र के बंदरगाह के लिए भी किया जा सकता है। तटीय जलाशयों के मिट्टी तटबंध की ऊँचाई 8 मीटर Ism तक है, जो 1000 मीटर के अंतर से अलग दो समानांतर तटबंध के रूप में है। जुड़वां तटबंध का मुख्य उद्देश्य किसी भी समुद्री पानी के रिसाव को तटीय जलाशय में रोकना है क्योंकि इसका जल स्तर समुद्र के जल स्तर से नीचे है। तटबंधों के बीच का जल स्तर तटीय जलाशयों से मीठे पानी को 1000 मी. तटबंध के बीच के अंतर में पंप करके समुद्र के स्तर से हमेशा 1 मीटर ऊपर बना रहता है। दो स्तरों के बीच उच्च स्तर का ताजा जल अवरोध समुद्र के लिए ताजे पानी के रिसाव को स्थापित करके तटीय जलाशय में किसी भी समुद्री जल रिसाव को समाप्त करता है। तटीय जलाशय क्षेत्र पर गिरने वाला वर्षा जल और इसके लघु तटीय नदियों के जलग्रहण क्षेत्र का अपवाह जल तटीय जलाशय से रिसने और वाष्पीकरण के नुकसान को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। दो तटबंधों के बीच 1000 मीटर का अंतर शिपिंग जहाज तोड़ने जहाज निर्माण कच्चे तेल की सुरक्षित बर्थिंग GPL, GNL आदि के लिए गहरे पानी के अस्थायी भंडारण विकल्पों के साथ जहां, आदि मेगा बंदरगाह के, रूप में उपयोग किया जाता है। तटीय जलाशयों का तटबंध सुनामी, तूफानी लहरों और ज्वार-भाटे से संरक्षण देकर तटीय भूमि को पुनः प्राप्त करेगा। तटीय जलाशय क्षेत्र का उपयोग फ्लोटिंग सौर ऊर्जा संयंत्रों को आवश्यक जल पंपिंग शक्ति उत्पन्न करने के लिए भी किया जा सकता है। इसके अलावा तटीय जलाशयों के भीतरी भाग की शीर्ष सतह का उपयोग अंतरराष्ट्रीय राजमार्ग और रेलवे के रूप में किया जा सकता है। तटीय जलाशय शिपिंग और परिवहन, भूमि पुनग्रर्हण, सिंचाई, नवीकरणीय बिजली उत्पादन आदि सुविधाओं के साथ सही मायने में बहुउद्देशीय बुनियादी ढांचा परियोजनाएं हैं। इस मामले में वन आवरण में कई गड़बड़ी नहीं होगी और भूमि के जलमग्न होने का सवाल ही नहीं उठेगा। इसकी बदौलत किसी भी तरह से जलाशय उत्प्रेरित भूकंपीयता से संबंधित कई चिंता भी नहीं होगी। समुद्र या नदियों में मछली का प्रवास संभव है, क्योंकि नदियाँ पूरी तरह से अवरुद्ध नहीं हैं। गहरे समुद्र के बंदरगाह के माध्यम से समुद्र से नदी तक जाने वाले नौ परिवहन मार्ग मछली के प्रवास मार्ग के रूप में भी काम करेंगे। एक वसूली आधारित बंदलूप सिस्टम समय की आवश्यकता है। यह समय वापस जाने और वर्षा जल संचयन के हमारे पारंपरिक अभ्यास, जहां पानी गिरता है उसे इकट्ठा करने का शुरू करने का है। वर्तमान में भारत, दुनिया में सबसे कम अपनी वार्षिक वर्षा का केवल आठ प्रतिशत हिस्सा रखता है। एक अन्य पहलू अपशिष्ट जल का उपचार और पुनः उपयोग है। लगभग 80 फीसदी पानी जो घरों में पहुंचता है, अपशिष्ट के रूप में निकल जाता है और हमारे जल निकायों और पर्यावरण को प्रदूषित करता है। कम से कम गैर-पीने योग्य प्रयोजनों के लिए इस उपचारित अपशिष्ट जल को पुनः उपयोग और पुनर्चक्रण करने की बहुत बड़ी संभावना है, जो लागत प्रभावी है। यह सब इस तथ्य की ओर जाता है कि हमें जहां संभव हो, जल संरक्षण, स्रोतों स्थिरता, भंडारण और पुनः उपयोग पर एक महत्वपूर्ण ध्यान केंद्रित करने के साथ एक विकेन्द्रीकृत दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि पानी की स्थिति का प्रबंधन केवल इंजीनियरों का काम नहीं है, लेकिन सभी हितधारकों सहित जलविज्ञानी, अर्थशास्त्री, योजनाकार और सबसे महत्त्वपूर्ण, समुदाय स्वयं भी जिम्मेदार हैं। व्यवहार परिवर्तन पर पर्याप्त जोर के जरिये ध्यान नहीं दे रहा है क्योंकि यह अति सूक्ष्म और जटिल है। लेकिन स्थानीय लोगों /नागरिकों/समुदायों के पास खोलने के लिए एक बड़ा हिस्सा है।

पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव

नदी के मुहाने पर स्थित तटीय जलाशय अपवाह की हर एक बूंद पर कब्जा कर सकते हैं, और जलग्रहण से उत्पन्न सभी दूषित पदर्थों को एकत्र करने की क्षमता भी रखते हैं। पानी की गुणवता के लिए, तटीय जलाशय तूफान के पानी के अपवाह को पकड़ते हैं, जो कि विलवणीकरण द्वारा उत्पादित उपचारित खारे पानी की तुलना में गुणवता में पीने के पानी के करीब है। केवल उच्च गुणवत्ता वाला पानी जो दूषित पदार्थों से मुक्त है बाद में उपयोग के लिए तटीय जलाशय में प्रवेश करने की अनुमति दी जाएगी, सभी खराब गुणवत्ता वाले पानी को पानी की गुणवत्ता के स्वीकार्य स्तर की गारंटी देकर समुद्र में डाला जाएगा।

पर्यावरणीय प्रभाव के लिए, क्योंकि तटीय जलाशयों के निर्माण के लिए लगभग कई भूमि की आवश्यकता नहीं है और पानी की गुणवत्ता की गारंटी दी जा सकती है, स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्रों और वन्यजीवों को नुकसान कम से कम किया जा सकता है। कटाई की प्रस्तावित विधि किसी भी गंभीर पर्यावरणीय प्रभाव जैसे कि स्थानीय नदियों को पानी से वंचित करने से बचाएगी। जैसा कि समुद्र में जलाशयों का निर्माण के लिए कई भूमि की आवश्यकता नहीं होती है जो कि विशिष्ट अंतर्देशीय पर्वतीय जलाशयों की तुलना में पर्यावरण के लिए बेहतर होती है। केवल उच्च गुणवता वाले पानी (दूषित पदार्थों से मुक्त) को जलाशय में प्रवेश करने की अनुमति दी जाएगी, जो स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र और समुद्री वन्य जीवों पर तटीय जलाशय के प्रभाव को कम करने में मदद करेगा।

अप्रवासी लागत

जैसा कि तटीय जलाशयों को आमतौर पर समुद्र में मुहाना के पास बनाया जाता है, वहाँ लगभग कोई प्रवासी लागत नहीं है। लेकिन अंतर्देशीय जलाशय बड़ी मात्रा में लोगों ̈ को प्रभावित कर सकते हैं खासकर जब प्रमुख घाटियों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। अलवणीकरण ख्जल पुनर्चक्रण और बड़े पैमाने पर जल परिवहन के लिए, बहुत से लोंगों को खाली करने की आवश्यकता नहीं है, जबकि कुछ बुनियादी ढांचे को अभी भी संपत्ति अधिग्रहण की आवश्यकता हो सकती है। प्रयोग करने योग्य जीवन कालः तटीय जलाशय गाद और वर्षा परिवर्तनशीलता से प्रभावित होते हैं, जो अंतर्देशीय जलाशयों के समान हैं। चूंकि समुद्री जल हमेशा उपलब्ध रहेगा, अलवणीकरण मुख्य रूप से टिकाऊ ऊर्जा आपूर्ति पर निर्भर करता है। जल पुनर्चक्रण जो अलवणीकरण के समान है, क्योंकि अपशिष्ट जल हमेशा उपलब्ध रहेगा, टिकाऊ ऊर्जा आपूर्ति पर निर्भर करता है, जो कि विलवणीकरण के समान है। बड़े पैमाने पर जल परिवहन के लिए, यह स्रोतों और टिकाऊ ऊर्जा आपूर्ति की विश्वसनीयता दोनों पर निर्भर करता है।

रखरखाव का खर्च

तटीय जलाशयों और अंतर्देशीय जलाशयों पर रखरखाव की लागत कम है क्योंकि यह मुख्य रूप से सामान्य बांध रखरखाव के लिए उपयोग किया जाता है, इसके अलावा तटीय जलाशयों पर अतिरिक्त लागत में तटीय क्षरण/नमक संरक्षण शामिल है। विलवणीकरण के लिए, तटीय क्षरण/नमक को छोड़कर संरक्षण को प्रभावित करता है, रखरखाव में उपचार प्रणाली, सर्विसिंग और पुर्जें के प्रतिस्थापन भी शामिल हैं। इसलिए पानी के पुनर्चक्रण का रखरखाव करें। परिवहन उपकरण, जल अंतरण प्रणाली और प्रबंधन।

जब अंतर्देशीय जलाशयों के प्रस्ताव के साथ तुलना की जाती है, तो तटीय जलाशयों की विधि में भूमि और लोंगों के पुनर्वास को शामिल करने की कई लागत नहीं होती है, आमतौर पर यह बहुत महंगा होता है और बांध की निर्माण लागत का आधे से अधिक हो सकता है। हांगकांग में 50 वर्ष से मौजूद तटीय जलाशयों का पारिस्थितिकी तंत्र पर कोई महत्त्वपूर्ण प्रभाव नहीं है, और चीन, कोरिया और सिंगापुर आदि में अन्य तटीय जलाशयों से भी प्रभावित करने का कई प्रमाण नहीं है, यह दर्शाता है कि तटीय जलाशयों का कोई महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय प्रभाव नहीं है। इस अध्ययन में प्रस्तावित तटीय जलाशय के लिए यह निष्कर्ष मान्य हो सकता है कि जल संसाधन विकास और पारिस्थितिकी तंत्र जैसे मछली प्रजनन और एक जैसे भंडार के लिए जीत-जीत समाधान तक पहुँचने के लिए हर साल केवल अत्यधिक बाढ़ के पानी को निकाला जाएगा और पानी के मोड़ का समय और मात्रा समायोजित की जा सकती है क्योंकि मछली को अभी भी ऊपर की ओर जाने के लिए मार्ग है। यह जोर दिया जाना चाहिए कि तटीय जलाशय के पर्यावरणीय प्रभावों को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाना चाहिए।

तटीय जलाशय का मुख्य लाभ बारिश के मौसम में अधिक ताजे पानी का भंडारण करना है, और फिर कृत्रिम चैनलों या पाइपलानों के माध्यम से ताजे पानी को निकटवर्ती जलक्षेत्र में स्थानांतरित किया जा सकता है। अंतिम रूप से, लोगों को पीने और कृषि की जरूरतों को पूरा करने के लिए ताजे पानी की आपूर्ति की जा सकती है। इन्हें बांध निर्माण के लिए पर्वतीय क्षेत्रों की आवश्यकता नहीं है। जनसंख्या में उच्चतम वृद्धि और इसलिए पानी की मांग आमतौर पर तट के करीब होने की उम्मीद है। तटीय जलाशय उच्च मांग क्षेत्र के करीब स्थित हो सकता है।

पानी की मांग जनसंख्या वृद्धि से संबंधित है, सिद्धांत रूप में तटीय क्षेत्रों में आबादी अंतर्देशीय क्षेत्रों की तुलना में बहुत अधिक है, और इसलिए तटीय क्षेत्रों में पानी की मांग अंतर्देशीय क्षेत्रों की तुलना में अधिक जारी रहने की संभावना है। तटीय क्षेत्रों में भविष्य के पानी की मांग को और अधिक अंतर्देशीय जलाशयों को विकसित करना मुश्किल है, क्योंकि इसके लिए उपयुक्त हाइड्रोलॉजिकल, भूवैज्ञानिक और स्थलाकृतिक स्थिति के आदर्श संयोजन की आवश्यकता है। इसलिए, तटीय जलाशय निकट भविष्य में मीठे पानी के संसाधनों के विकास में अधिक से अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।

तटीय जलाशय के निम्न लिखित फायदे हैः

  • नदी के बेसिन को कोई नुकसान या बदलाव नही किया जाता।
  • जंगल क्षेत्र या डूबने वाले क्षेत्र में कोई बदलाव नहीं होता है।
  •  किसी का भी विस्थापन नही करना पडता।
  •  तटीय क्षेत्र मे पानी को समुद्र के पानी के मिलने से रोका जा सकेगा और कृषि के लिए पानी की उपलब्धता बढ जाती है।
  • पानी का खारापन तटीय क्षेत्रों से चला जाता है या कम हो जाता है।

इस तरह के तटीय जलाशय नीदरलैंड, दक्षिण कोरिया, हॉंग कॉंग, चीन, सिंगापुर, यूर्नाइटेड किंगडम, आदि देशों में प्रायोगिक तौर पर शुरू किए गए हैं।

अनुसंधान पत्रों से एकत्र आकडें तथा तटीय विज्ञान की तकनीकी जानकारी के हिसाब से कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हैं जिनको ध्यान में लिया जाना आवश्यक है इस शोध पत्र में उन्ही बिंदुओं पर प्रकाश डाला गया है जैसा की प्रस्तावित बॉंध की ऊचाई को समुद्रवर्ती गतीय प्राचल को देखकर रखनी चाहिए जिससे की मीठा जल किसी भी स्थिति में खारे पानी से मिल न जाए। इसलिए यदि बांध को थोडा समुद्र से दूर बनाया जाय तो तटीय जलाशय का उपयोग तटीय क्षेत्रों में भूजल स्तर ऊंचा करने तथा पानी की उपलब्धता बढ़ाने में किया जा सकता है। ऐसे स्थान को चुनना चाहिए जहां तलछट की मात्रा कम है या जब कम हो जाय उस समय पानी का संग्रह करना है। आस पास के क्षेत्रों में औद्योगीकरण कम होना चाहिए जिससे साफ पानी इकट्ठा हो तथा उस नदी का उपयोग नववहन के लिए नही होता हो।

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए इस दिशा में प्रयास की आवश्यकता है जिससे कि तटीय क्षेत्रों में पानी की समस्या दूर की जा सके।

स्वीकृति: लेखक डॉ. श्रीमती वी.वी.भोसेकर, निदेशक सी.डब्ल्यू.पी.आर.एस., पुणे को इस पत्र को प्रकाशित करने की अनुमति के लिए आभारी हैं।

Reference

  • Coastal Reservoirs Strategy for Water Resources Development–A Review of Future Trend- Jianli Liu, Shu & qing Yang, Changbo Jiang Journal of Water Resources and Protection- 2013, 5, 336&342.
  • Coastal reservoir strategy and its applications, Shu&qing Yang, Jianli Liu, Pengzhi Lin, Changbo Jiang,Water Resources planning, Development and Management, 2013 PP 95& 115-
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ग्लेशियर बिना क्या जीवन बचा पाएंगे हम

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ग्लेशियर बिना क्या जीवन बचा पाएंगे हमRuralWaterWed, 02/26/2020 - 11:38
Source
राजस्थान पत्रिका, 26 फरवरी, 2020

 जलवायु परिवर्तनजलवायु परिवर्तन स्रोतःPrabhasakhi.com

ग्लेशियर दुनिया में एक तरह के पानी के बैंक हैं और फिक्स्ड डिपॉजिट भी इन्हें माना जा सकता है। ये पृथ्वी का वही हिस्सा है जो दुनिया को एक बड़े रूप में पानी देते हैं। मतलब आप ये मानिए कि दुनिया के 75 फीसदी पीने के पानी के स्रोत ग्लेशियर ही हैं और लगभग 47 देशों में पाए जाते हैं। पृथ्वी पर जीवन से पहले ग्लेशियरों का अस्तित्व रहा है। अंटार्कटिका, अलास्का, ग्रीनलैण्ड व दुनिया भर के अन्य बड़े ग्लेशियर हैं और अपने देश में भी हिमालय एक बड़े ग्लेशियर की श्रेणी में आता है।

अकेले अंटार्कटिका के ग्लेशियर पूरी दुनिया के ग्लेशियर का 84 फीसद भाग है। इसी से सभी महाद्वीपों में कहीं न कहीं पानी की व्यवस्था तय की जाती है। दुर्भाग्य यह है कि अब ग्लेशियरों के हालात बिगड़ते शुरू हो गए हैं, जिस पर बहस भी जारी है। ग्लेशियर के अध्ययन पर आधारित एक रिपोर्ट यह दर्शाती है कि हर ग्लेशियर दुनिया में प्रति वर्ष 1-2 मीटर की गति से सिकुड़ता चला जा रहा है। अगर यही हालात रहे तो आने वाले समय में हम एक बहुत बड़े जल संकट में ही नहीं अटकेंगे, बल्कि समुद्र तल अप्रत्याशित रूप से इस हद तक पहुंच जाएगा कि दुनिया के कई प्रमुख देश व शहर डूब जाएंगे।

अभी हाल ही के मौसम विज्ञान संगठन जेनेवा के एक ताजा अध्ययन के अनुसार अंटार्कटिका के ही एक स्थान पर तापक्रम 20 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया है, जो दो साल पहले 2017 में करीब 17.5 डिग्री सेल्सियस था। लगातार अंटार्कटिका के बढ़ते हुए तापक्रम का सीधा और बड़ा मतलब यह है कि हम अपने ग्लेशियरों को तेजी से खो देंगे। ये भी सच है कि अंटार्कटिका जैसा स्थान जहां पर कभी भी 15 डिग्री. से. कम तापक्रम नहीं 5 डिग्री.से. बढ़ा है। अध्ययन का एक हिस्सा यहभी था कि अगर गर्मी इसी अनुमान से बढती रही हतो करीब आने वाले 100 वर्षों में समुद्र तल 3 मीटर ऊपर चला जाएगा और ये दुनिया के लिए एक बड़ी तबाही होगी। क्योंकि इन हालातों में अगर 1.42 करोड़ वर्ग किलोमीटर के अंटार्कटिका की पूरी बर्फ पिघल गई तो ये समुद्र तल को 60 मीटर बढ़ा देगा और ये पृथ्वी पर प्रलय मचा देगा।

वैज्ञानिकों ने बार-बार यह चेताने की कोशिश की है कि अंटार्कटिका पर औसतन 1.9 किमी परत के रूप में मौजूद बर्फ अब बिखरने को है। इसके पिघलने की गति 1989 से 2017 तक 6 गुना बढ़ चुकी है और ये सिर्फ इसलिए भी हुआ क्योंकि बहुत तेजी से गर्मी अंटार्कटिका की सभी सीमाओं को तोड़ रही है। अब अगर आज के हालातों को देख लें तो वर्ष 2100 तक इतनी बर्फ पिघल जाएगी कि कई द्वीप, देश और 11 शहर इसमें डूब जाएंगे।

बढ़ते जलस्तर के खतरे की वास्तविकता को ऐसे समझे कि वर्ष 2100 तक हिंद महासागर में मौजूद मालदीव डूब जाएगा और इसी डर से आज वह भारत, श्रीलंका व ऑस्ट्रेलिया से जमीन खरीद अपने नागरिकों को जलवायु शरणार्थी बनने से बचाने में जुटा है। दूसरी तरफ ग्रीनलैंड के बारे में भी यही माना जा रहा है जो कि दुनिया में बर्फ का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। सदी के अंत तक यहां करीब 4.5 फीसदी बर्फ पिघल जाएगी और यह समुद्र के स्तर में 13 इंच की वृद्धि कर देगा।

‘साइंस एडवांसेस’ नामक पत्रिका में छपे एक अध्ययन के अनुसार ऐसा भी है कि करीब वर्ष 2030 तक अगर यही हालात रहे और उसी तरह गर्मी बढ़ती चली गई तो ग्रीनलैण्ड की पूरी बर्फ पिघल जाएगी। अमरीका में अलास्का फेयरबैंक्स कैसा जियोफिजिकल इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन के अनुसार, आने वाले समय में ग्रीनलैण्ड कैसा दिखेगा, इसे लेकर उन्होंने एक तस्वीर पेश की है जो दर्शाती है कि आज पूरी तरह बर्फ से ढके ग्रीनलैण्ड में आपको हरियाली दिखी देगी और ग्रीनलैम्ड की बर्फ को पिघलने से रोकना मनुष्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी।

करीब 6 लाख 60 हजार वर्ग किमी. में फैली हुई बर्फ 81 फीसदी ग्रीनलैण्ड को घेरे हुए हैं, जिसमें धरती के शुद्ध जल की बड़ी उपलब्धता मानी जाती है। यहां दुनिया के वो आठ मुख्य जल निकाय हैं जिनसे दुनिया को पानी की उपलब्धता सुनिश्चित होती है। नासा के ऑपरेशन आइस ब्रिज के तहत वैज्ञानिक लगातार इस बात का अध्ययन कर रहे हैं कि ग्रीनलैण्ड में बर्फ के स्तर में क्या परिवर्तन आएंगे। उनके असार वर्ष 1991 और वर्ष 2015 के बीच ग्रीनलैण्ड की बर्फ की चादरों ने समुद्र स्तर में 0.02 इंच की वृद्धि की है और अगर ये वृद्धि इसी तरह होती रही तो ये तय मान लीजिए कि हालात और भी गंभीर हो जाएंगे। ये इसलिए भी समझना जरूरी है कि दुनिया में जो तापक्रम वृद्धि तेजी से हो रही है उसका सीधा बड़ा असर अगर कहीं पड़ता है तो ग्लेशियर पर। ये सब कुछ जलवायु परिवर्तन के साथ ही जोड़कर देखा जा सकता है। इसमें हिमालय भी है, जिसमें वर्ष 1982 से 2000 के बीच में करीब 1.5 डिग्री तापक्रम बढ़ा और प्रति वर्ष 0.6 डिग्री सेल्सियस की यहां बढ़ोत्तरी पाई गई है। यहां के बड़े ग्लेशियर चेनाब, पार्वती, वासप, गंगोत्री आदि हैं जिनमें वर्ष 1962 से वर्ष 2001 के बीच औसतन 400 मीटर की कमी आई है।

वैसे तो ग्लेशियरों को एक ऐसी संरचना के रूप में भी देखा जाता है जो गतिशील रहता है, लेकिन ये इस बात पर निर्भर करता है कि किसी भी वर्ष में वर्षा के योगदान से कितने ग्लेशियर बन पाए। क्योंकि अब देखा जा रहा है कि अनिश्चितता बढ़ती जा रही है। इस कारण ग्लेशियरों की संरचना पर लगातार संकट बढ़ा है। दूसरी बड़ी बात यह भी है कि ग्लेशियरों के बिगड़ते हालात की वजह ब्लैक कार्बन है जिसने अपनी बड़ी जगह बना ली है। साथ में घठते वन, वनाग्नि की बढ़ती घटनाएं, मनुष्य जनित कचरा व ग्रीनहाउस गैसें आदि जैसे तमाम कारक हैं जिन्होंने धीरे-धीरे दुनिया भर में ग्लेशियरों के हालात गम्भीर कर दिए हैं।

सवाल ये पैदा होता है कि बात सिर्फ अंटार्कटिका, ग्रीनलैण्ड व हिमालय की नहीं है बल्कि आने वाले समय में इनके खत्म होने से बढ़ने वाले समुद्री जलस्तर और पीने के पानी की उपलब्धता की है। ये वे सवाल होंगे, जिनका शायद हमारे पास कोई भी उत्तर नहीं होगा। अब नए सिरे से ग्लेशियर को लेकर सरकारों, नीतिकारों व वैज्ञानिकों को एक साथ मिल-बैठकर गंभीर होना होगा और ये मानकर चलना होगा कि अगर नदियों को बचाना है, अगर तालाबों में लगातार पानी को सिंचित करना है और उन्हें जीवित रखना है तो ग्लेशियरों का महत्व समझना होगा। अंततः किसी भी संकट के समय हमें यदि कोई पानी उपलब्ध करा सकता है तो वे हैं हमारे ग्लेशियरों का महत्व समझना होगा। अंततः किसी भी संकट के समय हमें यदि कोई पानी उपलब्ध करा सकता है तो वे हैं हमारे ग्लेशियर। आने वाला समय इन्ही के अस्तित्व पर निर्भर है। इसे गम्भीरता से समझने की ज आवश्यकता है और आने वाला कल इसी पर निर्भर है। इसे गंभीरता से समझने की आज आवश्यकता है और आने वाला कल इसी पर निर्भर करेगा कि हम अपने ग्लेशियरों को कितना मजबूत और समृद्ध रखते हैं। ये बात तो साफ है कि जल है तो कल है और तब ही पानी का हर पल है।

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वैदिक काल में भू-जलविज्ञान एवं जल गुणवत्ता

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वैदिक काल में भू-जलविज्ञान एवं जल गुणवत्ताHindiWaterSun, 02/02/2020 - 16:35
Source
केन्द्रीय मृदा एवं सामाग्री अनुसंधानशाला, नई दिल्ली

सारांश

प्राचीन भारतीय सभ्यता में जल ही जीवन है का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया। वैदिक साहित्य में जल स्रोतों, जल के महत्व, उसकी गुणवत्ता एवं संरक्षण की बात बारबार की गई है। जल के औषधीय गुणों की चर्चा आयुर्वेद (जोएक वेदांग है) के अतिरिक्त ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में भी मिलती है। यह माना गया है कि हमारा शरीर पंच महाभूतों अर्थात पंचतत्वों से बना है जिसमें एक तत्व जल भी है।

भारत में भू-जल विज्ञान का विकास लगभग 5000 साल से भी अधिक पुराना है। वैदिक साहित्य में इसके प्रमाण मौजूद हैं। ये प्रमाण श्लोकों सूत्रों तथा स्तुतियों के रूप में विभिन्न देवताओं (इन्द्र, वायु, अग्नि इत्यादि) की उपासना के अनुक्रम में उन्हें सम्बोधित हैं। इन श्लोकों, सूत्रों तथा स्तुतियों से जाहिर होता है कि वैदिक काल में भू-जल विज्ञान से जुड़ी खोजें विज्ञान सम्मत थीं। इसके अतिरिक्त अथर्ववेद में पानी की गुणवत्ता के बारे में भी उल्लेख है। आरंभिक बुद्धकाल या उसके थोड़े पहले रचित चरक संहिता में भी भू-जल की गुणवत्ता की चर्चा की गई है। आयुर्वेद से सम्बन्धित विभिन्न ग्रन्थों में जल की गुणवत्ता और जल में मौजूद घटकों का उल्लेख निर्विवादित रूप से प्रमाणित करता है कि प्राचीन भारत में यह विज्ञान विद्यमान था।

कृषि हेतु सिंचाई की व्यवस्था विकसित की गई। यूनानी यात्री मेगस्थनीज ने लिखा है कि मुख्य नाले और उसकी शाखाओं में जल के समान वितरण कोनिश्चित करने व नदी और कुओं के निरीक्षण के लिए राजा द्वारा अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी।

आर्यभट्ट प्रथम के शिष्य वराहमिहिर (ईसा से 587-505 साल पहले कुछ लोग इसे बाद का भी मानते हैं) ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ वृहत्संहिता में भू-जल की खोज और उसके उपयोग के बारे में 125 सूत्र प्रस्तुत किये हैं। वृहत्संहिता कोपढ़ने से पता चलता है कि उस काल में भू-जल की खोज और धरती की विभिन्न गहराइयों में उसकी मौजूदगी के बारे में जानकारी जीवों के आवास मिट्टी चट्टानों दीपक की वाल्मी पौधों की कुछ खास प्रजाजियों तथा उनके लक्षणें के आधार पर की जाती थी। वृहत्संहिता में वर्णित लक्षणों के आधार पर करीब 600 मीटर की गहराई तक उपस्थित भूजल भंडारों की खोज संभव थी। यह सर्वमान्य ज्ञात तथ्य है कि शुष्क और अर्ध शुष्क जलवायु वाले इलाकों में, अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा धरती के गर्भ में छुपी नमी और पानी जीवों तथा चट्टानों पर अधिक निर्णायक असर डालती है। पानी के इस निर्णायक असर से चट्टानों में कतिपय रासायनिक परिवर्तन होते हैं और ये परिवर्तन विभिन्न लक्षणों के रूप में धरती पर प्रगट होते हैं। उन लक्षणों के स्वरूपों तथा उन्हें पैदा करने वाले घटकों के वैज्ञानिक आधार कोसमझ कर पानी की मौजूदगी की सटीक भविष्यवाणी करना या उनकी मौजूदगी कोसूत्रों के रूप में व्यक्त कर देना, निष्चय वराहमिहिर की अदुत उपलब्धि है।

वृहत्संहिता के 54वें अध्याय में जमीन के नीचे के पानी का पता बताने वाले वृक्षों, जीवों, भूमि और चट्टानों से जुड़े विशेष संकेतकों और कुआ खोदने की विधि का वर्णन किया है।

उल्लेखनीय है कि प्रकृति में ताँबे, सीसे, जस्ते, ¨ने इत्यादि धातुओं के गहराई पर मिलने वाले भूमिगत खनिज भंडारों की उपस्थिति कोदर्शाने वाले प्राकृतिक संकेतक इन खनिज भंडारों के ऊपर अर्थात् पृथ्वी की सतह पर मिलते हैं। ये संकेतक ताँबे, सीसे, जस्ते, सोने इत्यादि धातुओं के भंडारों की खोज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसी तरह अनेक फूलों और वनस्पतियों में धरती के नीचे के खनिज भंडारों के संकेतक पाये जाते हैं। इन प्राकृतिक उदाहरणों से लगता है कि इसी तरह कतिपय वनस्पतियाँ, चट्टानें और जीव-जन्तु मूल रूप से भूजल की उपरोक्त शिराओं की उपस्थिति के सूचक की भूमिका निभाते हों इसलिये यह अनुमान लगाना उचित एवं तर्कयुक्त होगा कि वरामिहिर ने भूमिगत पानी के प्राकृतिक संकेतकों कोपहचान लिया होगा और उन संकेतकों कोजमीन के नीचे पानी की भविष्यवाणी करने में प्रयुक्त किया होगा।

प्रकृति में चन्द ऐसे वृक्ष मौजूद हैं जोअपने नीचे की जमीन में पानी की मौजूदगी की जानकारी देते हैं। प्रोसोपिस स्पाइसिजेरा, अकेसिया अरेबिका और साल्वेडोरा ओलीवायडिस नामक वृक्षों की जड़ें मरुस्थलीय परिस्थितियों में भी पानी तक पहुँचाने में सक्षम होती हैं। इसी तरह जामुन और टरमिनेलिया स्पाइसिजेरा के वृक्ष सामान्यतः नम और घाटी के निचले स्थानों में ही पाये जाते हैं। इसी तरह बलुआ, ग्रिटी तथा पीली, धूसर, किस्म की मिट्टीयों के नीचे अकसर पानी मिलता है। इकोलाजी (आधुनिक विज्ञान) और वराहमिहिर के परम्परागत विज्ञान के बीच सम्बन्ध प्रतीत होता है। इसलिये वैज्ञानिक आधार पर दोनों विज्ञानों के बीच समझ विकसित करने की आवश्यकता है।

संक्षेप में आचार्य वराहमिहिर के अनुसार भूमिगत जल धरती के नीचे शिराओं के रूप में बहता है। आधुनिक भू-जल विज्ञान की मान्यताओं के अनुसार भू-जल का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आना जाना, चट्टान के अन्दर के दोनों स्थानों के बीच के दबाव के अन्तर (presure)के अन्तर अर्थात् वाटर टेबिल के भूमिगत ढाल के कारण होता है। आधुनिक विज्ञान बताता है कि समान गुणधर्म वाली रेत कोछोड़कर सभी किस्म की चट्टानों में पानी का प्रवाह कहीं कम तोकही अधिक होता है। संभव है वराहमिहिर ने चट्टान के अन्दर पानी के अधिक प्रवाह कोशिराओं का नाम दिया हो।

प्रस्तुत शोध पत्र में हमारी प्राचीन वैदिक काल में वर्णित जानकारियों एवं आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों के मध्य एक सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया गया हे. इस तरह हम भू-जल विज्ञान एवं जल गुणवत्ता संबंधित समस्याओकोअच्छे तरीके से समझ कर सुलझा सकते हे। आधुनिक विज्ञान एवं वराहमिहिर के परम्परागत विज्ञान के बीच सम्बन्ध प्रतीत होता है। इसलिये वैज्ञानिक आधार पर दोनों विज्ञानों के बीच समझ विकसित करने की आवश्यकता है।

Abstract

In ancient Indian civilization, the importance of water for life was very well established. The issues related to different sources of water, its quality and conservation have been repeatedly talked about in Vedic literature. In addition to Ayurveda (which is a Vedanga), the medicinal properties of water are also found in the Rigveda and Atharva Veda. It is believed that our body is made up of PanchMahabhutas i.e. Panchatattva, which also has an element of water.

The development of ground hydrology in India is more than 5000 years old. There is evidence of this in Vedic literature. These evidences address them in the sequence of worship of various gods (Indra, Vayu, Agni, etc.) in the form of Shlokas, Sutras and Stuti.

It is evident from these verses, sutras and the praises that the discoveries related to ground hydrology in Vedic period were based on scientific facts. In addition, the Atharvaveda also mentions about the quality of water. The quality of ground water is also discussed in the CharakaSamhita composed in the early Buddha period or a little earlier. The mention of the quality of water and the components present in water in various texts related to Ayurveda indicated that this science existed in ancient India.

The Irrigation system wasalso developed for agriculture. The Greek traveler Megasthenes has written that officers were appointed by the king to ensure equal distribution of water in the main stream and its branches and to inspect the river and wells.

A disciple of Aryabhata I, Varahamihira (587–505 years before Christ, ) has presented 125 sutras about the discovery and use of ground water in his famous text Vrhatsamhita. The reading of Vrhatamshita shows that the discovery of ground water and its presence in the various depths of the earth during that period, was studied based on the presence of different types of habitat of the organisms, types of soil, rocks, certain species of plants and their characteristics.etc

It was possible to find groundwater deposits up to a depth of about 600 meters, based on the characteristics described in theVrhatamshita. It is a well-known fact that in areas with arid and semi-arid climates, the moisture and water hidden in the womb of the earth has more decisive effect on organisms and rocks than in other areas. This decisive effect of water causes certain chemical changes in the rocks and these changes are manifested on the earth in the form of various characteristics.

Understanding the nature of those symptoms and the scientific basis of the components that cause themand accurately predicting the presence of water or expressing their presence as formulas is an amazing achievement of Varahamihira.

The 54th chapter of the Vrhatsamhita describes the special indicators related to trees, fauna, land and rocks, and the method of digging the well, to find out the water under the ground.

It is noteworthy that natural indicators showing the presence of underground mineral deposits found in metals like copper, lead, zinc, gold etc. Many flowers and vegetation have indicators of mineral deposits under the earth.

These natural examples suggested that certain flora, rocks, and fauna play an indicator of the presence of the above mentioned veins of groundwater in origin, so it would be reasonable and reasonable to infer that Varamihir identified the natural indicators of underground water. And those indicators would have been used to predict underwater water.

There are few such trees in nature that give information about the presence of water in the ground below. The roots of trees called Prosopisspicigera, Acacia arabica and Salvedoraoleuvidis are capable of reaching water even under desert conditions. Similarly, berries and Terminaliaspicigera trees are commonly found in moist and low-lying areas of the valley.

Similarly, water is often found under sandy, grit and yellow, gray, soil types. There seems to be a connection between ecology (modern science) and Varahamihira's traditional science. Therefore, there is a need to develop an understanding between the two sciences on a scientific basis. In short, according to AcharyaVarahamihira, underground water flows under the earth in the form of veins. According to the beliefs of modern ground hydrology, the movement of ground water from one place to another is due to the difference of pressure (difference of optimum) between the two places inside the rock, ie the underground slope of the water table.

Modern science suggests that except for sand of similar quality, the flow of water in all types of rocks is much less or less. It is possible that Varahamihira has given the name of veins to the excess flow of water inside the rock.

An attempt has been made to establish a connection between the information mentioned in our ancient Vedic period and modern scientific facts. In this way we can able to understand and resolve the problems related to ground hydrology and issues related to water quality.

There seems to be a connection between modern science and Varahamihira's traditional science. Therefore, there is a need to develop an understanding between the two on a scientific basis.

प्रस्तावना

जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिये प्रकृति ने पृथ्वी के 71प्रतिशत भाग कोजलमय बनाया है। इतना ही नहीं स्वयं हमारे शरीर का 67प्रतिशत भाग जल ही है। प्राणीमात्र के जीवन के मूलतत्व प्रोटोप्लाज्म में 90प्रतिशत भाग जल का है।

भारत में जल संरक्षण का एक बेहतरीन इतिहास है। यहाँ जल संरक्षण की एक मूल्यवान पारंपरिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक परंपरा है उदाहरण स्वरूप नदी खादिन तालाब जोहड़ कुँआ इत्यादि देश के अलग-अलग हिस्सों में इनमें से अलग-अलग तरीकों कोअपनाया गया जोवहाँ के जलवायु के उपयुक्त है।

जल जीवन के लिए सर्वाधिक आवश्यक वस्तु है लेकिन आज देश में उसके स्रोत घटते जा रहे हैं। आज देश की तात्कालिक जरूरत है सुरक्षित और ताजा जल-स्रोतों की। अच्छे स्वास्थ्य की सुरक्षा और उसे बनाए रखने के लिए पेयजल और स्वच्छता-सुविधाएँ मूल आवश्यकताएँ हैं। सभी लोगों के लिए जलापूर्ति और स्वच्छता उनके स्वास्थ्य और विकास-सम्बन्धी मुद्दों की दृष्टि से एक राष्ट्रीय चुनौती हैं।

भूजल की गुणवत्ता में निरन्तर गिरावट आ रही है। कारण है भूवैज्ञानिक और मानवीय कार्यकलाप। कहा जाता है कि देश की 14लाख 23हजार बस्तियों में कुल लगभग 15प्रतिशत कु-प्रभावित हैं रासायनिक स्रोत की विभिन्न गुणवत्ता-सम्बन्धी समस्याओं से जैसे आरसेनिक की मात्रा की अधिकता फ्लोराइड नाइट्रेट और अन्य चीजों में खारापन।

वैदिक साहित्य में जल

ऋग्वेद (18.82.6) में उल्लेख है कि जल में सभी तत्वों का समावेश है। जल में सभी देवताओं का वास है। जल से पूरी सृष्टि सभी चर और अचर जगत पैदा हुआ है। यजुर्वेद (27.25) में कहा है कि सृष्टि का बीज सबसे पहले पानी ही में पड़ा था और उससे अग्नि पैदा हुई। ऋग्वेद की ऋचा (18.82.6) में प्राकृतिक जल चक्र का वर्णन है जिसके अनुसार सूर्य की गर्मी/ताप से पानी छोटे-छोटे कणों में बंट जाता है।

हवा के द्वारा ऊपर उठाया जाकर बादलों के रूप में बदलकर वह बारम्बार बरसात के रूप में धरती पर लौटता है। वेदों ने भी उपर्युक्त तथ्यों की पुष्टि की है जिसके अनुसार सूर्य एवं वायु मिलकर जल कोभाप (वाष्प) में बदलकर मेघ बनाते हैं और (मेघ से) पानी बरसात के रूप में धरती पर लौटता है। यजुर्वेद की ऋचा (13.53) में कहा गया है कि पानी का आश्रय स्थल हवा है। हवा पानी कोआकाश में इधर से उधर बहाकर ले जाती है। जल औषधियों में है। जल के कारण ही औषधियों की वृद्धि होती है। बादल का रूप ही जल का सार है। जल का प्रकश विद्युत है। जल से ही विद्युत की उत्पत्ति होती है। पृथ्वी जल का आश्रय है। जल का सूक्ष्य रूप ही प्राण है। मन जलीय तत्वों अर्थात विचारों का समुद्र है। वाणी की सरसता और जीवों में आद्र्रता का कारण भी जल ही है। आंखों की देखने की ताकत और उसकी सरसता का कारण भी जल है। जल कानों का सहवासी है। जल का निवास धरती पर है। अंतरिक्ष में जल व्याप्त है। समुद्र जल का आधार है तथा समुद्र से ही जल वाष्प बनकर वर्षा के रूप में धरती पर आता हैं उपर्युक्त सभी विवरण तत्कालीन समाज कोपानी के बारे में वैज्ञानिक जानकारी देते प्रतीत होते हैं।

अथर्ववेद में कहा गया है कि जल औषधि है। जल रोगों कोदूर करता है। जल सब बीमारियों का नाश करता है इसलिए यह तुम्हें भी सभी कठिन बीमारियों से दूर रखे। हे ईश्वर दिव्य गुणों वाला जल हमारे लिए सुखदायी होअभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति कराए हमारी प्यास बुझाए संपूर्ण बीमारियों का नाश करे रोग जनित भय से मुक्त करे तथा हमारी नजरों के सामने (सदा) प्रवाहमान रहे। यह विवरण तत्कालीन समाज कोपानी के औषधीय गुणों के बारे में वैज्ञानिक जानकारी देता प्रतीत होता है।

हमारे अपौरूषेय ग्रन्थ वेदों में जल के उपयोग सम्बन्धी वैज्ञानिक एवं तकनीकी स्तर पर विस्तृत रूप से चर्चा की गई है तथा चारों वेदों से अथर्ववेद में-शंनोदेवीरभिष्ट्य आपोभवन्तु पीयते अर्थात दिव्य जल हमें सुख दे। यह ईष्ट प्राप्ति के लिये तथा पीने के लिये हो। शंनः खनित्रिमाआपः खोदकर निकाला जल अर्थात भौम जल हमे सुख दे शिवा नः सन्तु वार्षिकी।

वृष्टि से प्राप्त जल हमारा कल्याण करने वाला हो। ऋग्वेद में जल चक्र हाइड्र¨लॉजिकल साइकिल का संकेत मिलता है। इन्द्रोदीर्घाय चक्षस आ सूर्य रोहयत्दिवि। विगोभिरद्रि मैरयत अर्थात प्रभु ने सूर्य उत्पन्न किया जिससे पूरा संसार प्रकाशमान हो। इसी प्रकार सूर्य के ताप से जल वाष्प बनकर ऊपर मेघों में परिवर्तित होकर फिर पृथ्वी पर वर्षा के रूप में आता है।

संसार में पंचतत्वों के अन्तर्गत जिन तत्वों का प्रदूषण होरहा है उनमें से एक जल भी है। वेदों में जल के एक सौएक नाम पर्यायवाची रूपों में गिनाए गए हैं जिससे इसकी महत्ता का ज्ञान होता है। ऋग्वेद में जल कोमाता कहा गया है जैसे माता सन्तान कोनहला-धुलाकर शुद्ध और पवित्र कर देती है। वैसे ही ये जल प्राणियों कोपवित्र करते हैं। इन जलों के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। अतः इन्हें अमृत कहा गया है-

3म् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।

3म् अमृतापिधानमसि स्वाहा।

संसार के छह रस अर्थात मधुर अम्ल लवण कटु कषाय और तिक्त रसों का निर्माण इसी जल से विभिन्न रूपों में हुआ है। ये जल हमारे दोषों कोदूर करते हैं तथा शरीर के मलों कोनष्ट करते हैं। अथर्ववेद में नौप्रकार के जलों का वर्णन है

परिचरा आपः- नगरों आदि के निकट प्राकृतिक झरनों से बहने वाला जल परिचरा आपः कहलाता है।

हेमवती आपः- हिमयुक्त पर्वतों से बहने वाला जल हेमवती आपः है।

उत्स्या आपः- स्रोत का जल उत्स्या आपः है।

सनिष्यदा आपः- तीव्र गति से बहने वाला जल सनिष्यदा है।

वष्र्या आपः- वर्षा से उत्पन्न जल वष्र्या है।

धन्वन्या आपः- मरुभूमि का जल धन्वन्या है।

अनूप्या आपः- अनूप देशज जल अर्थात जहाँ दलदल होएवं वात-कफ के रोग अधिक होते हों, उस देश में प्राप्त होने वाला जल अनूप्या है।

कुम्भेभिरावृता आपः- घड़ों में रखा हुआ जल कुम्भेभिरावृता जल है।

अनभ्रयः आपः- फावड़े आदि से खोदकर निकाला गया जल अनभ्रयः आपः है।

वेदों में जल की महत्ता के अनेक मंत्र प्राप्त होते हैं जिनमें कहा है-जल निश्चय ही भेषज रूप है जल रोगों कोदूर करने वाले हैं जल सब प्राणियों के भेषजभूत हैं। अतः जल से रोगों कोभगाया जाये। जल कोवैद्यों का भी वैद्य कहा गया है। जिस प्रकार माता शिशु का और बहनें अपने भाई का हित करती है उसी प्रकार ये जल सभी प्राणियों के हितैषी हैं। जहाँ ऋग्वेद का ऋषि जल कोमाताओं से भी सर्वोत्तम माता कहता है वहीं यजुर्वेद का ऋषि मातृ रूप जल की शुद्धि की कामना करता है। आपः शान्तिः कहकर वेद में इन जलों कोशुद्ध करने की प्रेरणा दी गई है। ये हमें तभी शान्ति प्रदान करेंगे जब हम इन्हें शुद्ध रखेंगे। जल कोप्रदूषित न करने का यजुर्वेद ने स्पष्ट आदेश दिया है।

वेदों के उपरान्त बनने वाले साहित्य में जल की महत्ता कोदेखते हुए कहा गया है कि नदी के स्रोतों के निकट मूत्र करने और शौच करने से करोड़ों जन्मों में भी मोक्ष प्राप्त नहीं होसकता। साथ ही लिखा है कि जोव्यक्ति नदियों में या जलाशय में थूकता है भोजन की झूठन आदि डालता है वह ब्रह्महत्या के पाप के कारण घोर नरक में जाता है। 7वैदिक साहित्य में जलों कोप्रदूषण से बचाने के लिये यह भी आदेश दिया गया था कि जल में मलमूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए।

जल कोप्रदूषण से मुक्त करने के जोप्रथम आदेश वेदों में दिये वे तोमुख्य हैं ही जल की शुद्धि के कुछ गौण उपाय भी वेदों में बताए गए हैं। जैसे कि यज्ञ करने से वर्षा की उत्पत्तिमानी गई है जिससे जल प्रवाहित होता है। उसमें गति आती है और वह शुद्ध होजाता है। प्रवाहमान जल शुद्धता कोप्राप्त होता है। वेदों में नदियों का महत्वपूर्ण स्थान है। इन्हें माताओं में भी श्रेष्ठ माता कहकर पुकारा गया है। नदियों की पवित्रता के सम्बन्ध में वेद ने कहा है कि जोनदी पहाड़ों से निकलकर समुद्र से जा मिलती है वह पवित्र होती है। प्रकारान्तर से वेद यही कहना चाहता है कि नदी के प्रवाह कोअबाध गति से बहने देना उपयुक्त है।

वेद में मित्र और वरुण शब्द आये हैं जोक्रमशः ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के वाचक हैं। ये दोनों वर्षा के प्रमुख तत्व हैं जिनके द्वारा जल का निर्माण होता है। यजुर्वेद में दोनों कोवर्षाधायक माना है। अथर्ववेद में तोइन्हें वर्षा के स्वामी मानकर इनकी उपासना की गई है मित्र और वरुण वायुओं कोमिलाने से जल की उत्पत्ति होती है। इस वैज्ञानिक सिद्धान्त कोदिखाने वाला मंत्र कहता है कि हे जल! तू मित्र और वरुण नामक वायुओं से पैदा हुआ है हे अन्नदाता जल! तू विद्युत् के सामथ्र्य से उत्पन्न हुआ है जल के रूप में परिणत तुझकोदेवजनों के अन्न के लिये सूर्य की किरणें तुझे अन्तरिक्ष में धारण करती हैं।

वेदों में जल कोशुद्ध करने के लिये वायु और सूर्य कोमहत्वपूर्ण माना है। अथर्ववेद में जल के कीटाणुओं कोनष्ट करने की बात कही गई है और वहाँ कहा गया है कि कीटाणुओं कोनष्ट करने का सामथ्र्य सूर्य की तीव्र किरणों में विद्यमान है।

जल के उपयोग

यह भलीभाँति ज्ञात है कि जल के अनेक उपयोग हैं। काफी अरसे से जल का उपयोग पीने एवं सिंचाई हेतु होता आ रहा है। यह भी प्रतिस्थापित है कि प्राचीन सभ्यता नदी घाटियों में विकसित हुई जहाँ जल भरपूर मात्रा में उपयोग हेतु उपलब्ध था। जलस्रोतों विशेषकर नदियों कूपों एवं स्रोतों के स्थल पर अनेक धार्मिक मेले भी होते आ रहे हैं। ऐसे अनेक स्रोतों कूपों के जल अपने चिकित्सकीय गुणों हेतु भी विख्यात हैं। इनमें पटना का राजगृह कुंड कांगड़ा जिला हिमाचल प्रदेश का मणिकरन कुण्ड उत्तराखण्ड़ के चमोली जिले का गोरीकुण्ड तथा वाराणसी का वृद्धताल है। ई.पू. की सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों की खुदाई में अनेक कूपकुंड तथा नहरें प्राप्त हुई हैं।

चौथी शती ई.पू. के महान वैयाकरण पाणिनी ने शकन्थु कूपों का वर्णन किया है जोमध्य एशिया के शक लोगों द्वारा उपयोग में लाया जाता था इन कूपों में जल स्तर तक उतरने हेतु सीढि़यों की व्यवस्था की। बाद में इन कूपों का चलन बावड़ी रूप में हमारे देश में भी हुआ जिसमें जानवर एवं मनुष्य भी एक ढालुआँ रास्ते से अथवा इच्छानुसार सीढि़यों द्वारा जलस्तर तक पहुँच सकते थे। यहाँ उल्लेखनीय होगा कि गुजरात में विशेषकर उत्तरी भाग में एक प्रकार की बावड़ी जिसे वाव कहते थे जो 70मीटर तक गहरी और जलस्तर तक निर्मित सीढि़यों से युक्त बनाई जाती थी। ये सीढ़ीदार कूप वातानुकूलित कक्षों का काम देते थे जिनके चारों ओर चौड़ी बारहदरी बनी होती थी। ये वाव 7शती ईस्वी तक प्राचीन और सौराष्ट्र क्षेत्र में तक आधुनिक काल में भी बनाए जाते रहे।

भूजल की अवस्थिति

हमारे पूर्वज सतह के जल के साथ-साथ भूजल की भी खोज में पीछे न रहे। संस्कृत ग्रन्थों जैसे अथर्ववेद तैतरीय आरण्यक तथा वाराहमिहिर (छठी शती ईस्वी) की वृहत्संहिता में चीटी के ढूहे एवं भूजल स्तर में एक सीधा सम्बन्ध बतलाया गया है। इन विवरणों का एक ठोस वैज्ञानिक आधार है और दिलचस्प बात यह है कि आस्ट्रेलिया, रूस, अफ्रीका में हुए अनेक आधुनिक अन्वेषणों की कसौटी पर भी खरे उतरे हैं। वाराहमिहिर ने सतह पर अनेक वनस्पतियों एवं सब्जियों कोभूजल कोइंगित करने वाला यहाँ तक कि उसकी उपस्थिति की गहराई तक का विवरण दिया है और-तो-र जल दोहन हेतु वेधन की रीतियों का भी वर्णन वाराहमिहिर ने किया है तथा वेधन की बर्मी कोधारदार बनाने की विधियों का भी वर्णन है। उनके बहुत पहले से ही हड़प्पा एवं महाभारत काल में भी अन्य रीतियों द्वारा भूजल प्राप्त करने के प्रमाण मिलते हैं। भीष्म की शर शैय्या के पास अर्जुन द्वारा बाण बेधन से जल की धारा फूट निकलने का कथ्य सर्वविदित है।

जल के स्रोत एवं गुणधर्मोंका आकलन

अत्यन्त प्राचीनकाल मे भी भारतीयों कोजल के विभिन्न स्रोतों का पता था। ऋग्वेद में जल कोचार भिन्न-भिन्न भागों में बाँटा गया था। इसके अन्तर्गत 1. आकाश से प्राप्त होने वाला 2. नदियों एवं जलधाराओं में बहने वाला 3. खनन द्वारा प्राप्त 4. भूमि से रिसकर निकलने वाला भूजल। जाहिर है कि वे आकाशीय जल सतही जल कूपजल एवं स्रोत जल की ओर इंगित करते हैं। वैदिक शब्दकोष निघंटु में कूप कोएक ऐसा जलस्रोत बताया गया है जिससे जल कोश्रम द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। यह संकेत कूप निर्माण हेतु खनन के श्रम की ओर है। भूजल के अन्य स्रोत के रूप में उत्साह तथा उत्स्त्रुत प्रकार के जल स्रोत होते हैं इसके साथ-साथ एक दर्जन अन्य प्रकार के कूपों का भी उल्लेख किया गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में भारतीयों कोभूजल का ज्ञान था। विशेषकर इसका जलोढ़ मैदानों में उपस्थिति का भान था जिस कारणवश ऐसे स्थानों पर आवश्यकतानुसार विपुल मात्रा में कूप निर्माण होते थे। इस तथ्य के प्रमाणस्वरूप अर्जुन द्वारा पृथ्वी कोबाणों से भेदकर जल प्राप्त करने वाली घटना है। घटनास्थल कुरुक्षेत्र भी एक जलोढ़ मैदान ही है।

नदियों के तट पर बरसों से मेले और महोत्सव मनाए जा रहे हैं। इस अनुक्रम में कुंभ और सिंहस्थ जल के महापर्व हैं। वे भारतीय संस्कृति में सदियों से रचे बसे हैं और हिन्दुओं की अटूट आस्था के केन्द्र हैं।

भूमिगत जल की उपस्थिति तथा शिराओं के संकेतकों कोसमझने के लिये वराही संहिता या वृहत्संहिता के सूत्र 54.6एवं 54.7का उदाहरण देना और उसके निहितार्थ कोसमझना उपयोगी होगा। इन सूत्रों में वेतस (बेत नामक वृक्ष) की मदद से भू-जल के मिलने के बारे में जानकारी दी गई है। दोनों सू़त्र इस प्रकार हैः

यदि वेसतोऽम्बुरहिते देशे हस्तैस्त्रिभिस्ततः पश्चात

सर्घे पुरूषे तोयं वहति शिरा पश्चिमा तत्र ।।6।।

चिन्हमपि चार्घुपुरुषे मण्डकः मण्डरोऽथ मृत् पीता

पुटभेदकश्च तस्मिन् पाषाणोभवति तोयमघः ।।7।।

जलविहीन क्षेत्र में यदि बेंत का वृक्ष के पश्चिम में तीन हाथ (4.5फीट या 53इंच) दूर डेढ़ पुरुष (एक पुरुष बराबर पांच हाथ या 7.5फीट) की गहराई पर पानी मिलेगा। इस निष्कर्ष का आधार पश्चिमी शिरा है जोजमीन के नीचे के पानी के मिलने वाले स्थान से बहती है।

अगले सूत्र में आगे कहा है कि पुरुष खुदाई करने पर हल्के पीले रंग का मेंडक मिलेगा उसके बाद पीले रंग की मिट्टी और उसके बाद सपाट परतों वाला पत्थर मिलेगा। इस सपाट परतदार पत्थर के नीचे पानी मिलेगा। इन दोनों सूत्रों (6एवं 7) के अनुसार 11.25फीट की गहराई पर पानी मिलेगा।

भूमिगत जल की उपस्थिति बताने एवं शिराओं के संकेतों कोसमझने के लिये वराही संहिता के एक और सूत्र 54.9एवं 54.10का उदाहरण लिया जा रहा है। इन दोनों सूत्रों में जामुन (जम्बू) के वृक्ष से जल के मिलने के बारे में जानकारी दी है। दोनों सूत्र और उनका भावार्थ इस प्रकार हैः

जम्बू वृक्षस्रू प्राग्वल्मीकोयदि भवेत समीपस्थ,

तत्माद्दक्षिणपाष्र्वे सलिलं पुरुषद्वये स्वादु।।9।।

अर्धपुरूषेच मत्स्य, पारावतसन्निभश्च पाषाण,

मृ˜वति चात्र नीला दीर्घकालं च बहु तोयम्।।10।।

जामुन के वृक्ष के पूर्व में यदि वृक्ष के पास वाल्मी (चीटियों कीड़ों अथवा सर्प द्वारा बनाया मिट्टी का स्तूप या बमीठी) होतोजामुन के वृक्ष के दक्षिण में 4.5फुट की दूरी पर 15फुट गहरा खोदने पर स्वादिष्ट मीठा जल मिलता है।

भूमिगत जल के रंग और स्वाद के परिवर्तन के संकेतों कोसमझने के लिए वराही संहिता या वृहत्संहिता के सूत्र 2का उदाहरण लेना और उसके निहितार्थ कोसमझना उपयोगी होगा।

एकेन वर्णेन रसेनचाम्भ्ष्च्युतं नमस्तोवसुधाविशेषात् नानारसत्वं बहुवर्णतां च गतं परीक्ष्यं क्षितितुल्यमेव।।2।।

उपरोक्त सूत्र के अनुसार आकाश से बरसने वाला पानी एक ही रंग और स्वाद का होता है। धरती की विविधता एवं विशेषताओं के कारण वह अनेक स्वाद और रंग वाला होजाता है। इस पानी के गुणों का परीक्षण कराना चाहिये।

कुछ स्थानों से धुंएं तथा भाप की मौजूदगी के संकेत मिलते हैं। इन संकेतों के आधार पर वराहमिहिर ने जमीन के पानी का अनुमान सूत्र 60की सहायता से लगाया है। इसके जोजमीन गर्म लगती होऔर उसमें से धुंआ या पानी की भाप निकलती दिखाई दे तोउस जमीन में दोपुरुष की गहराई पर तेज प्रवाह वाली शिरा बहती है।

यस्यामूष्मा धात्र्यां धूमोवा तत्र वारि नरयुगले

निर्देष्टव्या च शिरा महता तोयप्रवाहेण।।60।।

वराहमिहिर ने भूमिगत जल की शिराओं और कतिपय प्राणियों वनस्पतियों एवं स्थानीय भूविज्ञान के बीच गहरे सम्बन्धों के सोच कोशब्द प्रदान कर प्रतिपादित किया है। दूसरे शब्दों में वराहमिहिर की उपरोक्त साच (लेखक की मान्यता के अनुसार सिद्धान्त) का आधार धरती पर जीवन के प्राकृतिक चक्र का मूल सिद्धानत है। इस मूल सिद्धान्त के अनुसार धरती पर जीवन का आधार बीज मिट्ट और पानी है। धरती की कोख में बीज का जन्म तभी संभव होता है जब मिट्ट उसे जीवन प्रदान करने वाले तत्व देती है और पानी बीज कोअंकुरित कर उसे वृक्ष बनाता है अर्थात् उसका लालन पालन करता है। वनस्पतियों के लिये पानी जीवन है और जीवन कोउजागर करने वाले इन्ही मूल चिन्हों (वनस्पतियों मिट्टियों और पानी) का पानी की भविष्यवाणी करने में वराहमिहिर ने उपयोग किया हो।

दृकार्गल शब्द पर विचार करने के इस परिणाम पर आसानी से पहुँचा जा सकता है कि भारत में सबसे पहले यस्टिका अर्थात लकड़ी की छड़ी द्वारा ही भूमिगत जल की खोज (अनुसंधान) का अविष्कार हुआ होगा। प्रारंभ में इसी विधि से पानी की खोज की जाती होगी। कालान्तर में नई-नई खोजों की मदद से इस विद्या कोपरिष्कृत किया गया होगा। सारी खोजों और समय के बदलाव के बाद भी इसका नाम दृकार्गल है।

दृकार्गल विधि से पानी खोजने में केवल पांच किस्म के वृक्षों की ताजी टूटी हरी शाखाओं का उपयोग किया जाता है। ये पाँच वृक्ष सप्तपर्ण (Alstonia scholaris R. Br.) जामुन मेंहदी गुलर और खजूर हैं। जोजानकार इस विधि से पानी का पता बताने का काम करते हैं वे सामान्यतः स्नान करने एवं शुद्ध वस्त्र धारण करने के बाद अपने इष्ट देवता की पूजा अर्चना करते हैं। पूजा अर्चना करने के उपरांत वे पाँच वृक्षों में से किसी एक वृक्ष की अंग्रेजी अक्षर के आकार की ताजी टूटी हरी शाखा कोदोनों हाथों की मुट्टियों में पकड़ कर नंगे पैर भूमि पर धीरे-धीरे चलते हैं। जिस स्थान पर भूमिगत जल की शिरा प्रवाहित होरही होती है उस स्थान पर पहुँचते ही हरी शाखा अपने आप घूमने लगती है या अपने आप ही पानी की शिरा की दिशा में झुक जाती है। जिस स्थान पर बहुत अधिक जल होता है, उस स्थान पर पहुंचते ही हरी शाखा बहुत तेजी से घूमने लगती है। कुछ प्रकरणों में हरी शाखा भूमि के निर्दिष्ट स्थान की ओर खिंचने लगती है तोकुछ जानकार लोगों कोअपने शरीर में जल के करंट का अनुभव होता है।

वेद में जल की शुद्धि का एक उपाय यज्ञ भी है। भगवान कृष्ण ने द्रव्ययज्ञ तपोयज्ञ योगयज्ञ स्वाध्याययज्ञ ज्ञानयज्ञ का जहाँ वर्णन किया है वहाँ उनमें द्रव्ययज्ञ से अभिप्राय है कि जिसमें मंत्रोच्चारणपूर्वक शास्त्रोक्त सुगन्धित रोगनाशक, पवित्र प्राकृतिक पदार्थों का अग्नि में विधिपूर्वक समर्पण किया जाता है इसमें अग्नि कोप्राप्त हुए पदार्थ अग्नि की विशिष्ट कार्य प्रक्रिया में दहन होने पर सूक्ष्म से सूक्ष्मातिसूक्ष्म होते जाते हैं और गुणरूप होकर वायु कोप्राप्त होजाते हैं। किसी भी प्रकार की ऊष्मा कोप्राप्त हुए पदार्थ का तैलीयादि तत्व शीघ्र ही वाष्पित प्रक्रिया से वायु कोप्राप्त होजाता है यह स्वयंसिद्ध सिद्धान्त है। इससे वायु शुद्ध होजाती है यह वायु जहाँ-जहाँ जाती है तब प्रथम स्तर पर आकाशस्थ जल वाष्प कोएवं भूमिसतह पर विद्यमान जलस्रोतों जलमार्गों और जलाशयों कोस्पर्श रूप से संयोग बनाती हुई शुद्ध करती जाती है। पुनः मेघ तथा अन्तरिक्ष कोयह शुद्ध करती है। इस प्रकार द्रव्ययज्ञ से शुद्धि निरन्तर होती है। यजुर्वेद में लिखा है कि जोपदार्थ संयोग से विकार कोप्राप्त होते हैं वे अग्नि के निमित्त से अतिसूक्ष्म परमाणु रूप होकर वायु के बीच रहा करते हैं और कुछ शुद्ध भी होजाते हैं। परन्तु जैसी यज्ञ के अनुष्ठान से वायु और वृष्टि जल की उत्तम शुद्धि और पुष्टि होती है वैसे दूसरे उपाय से कभी नहीं होसकती। इस प्रकार जल का प्रदूषण हम विभिन्न वैदिक उपायों से दूर कर सकते हैं।

निष्कर्ष

आज के बदलते परिवेश मे जब सतही जल के ज्यादातर श्रोत प्रदूषित होगए हे वही भू जल की मात्र भी तेजी से घटती जा रही हैं। भू जल की उपस्थिती का सही आकलन एवं उसकी गुणवत्ता के बारे मे हमारे वैदिक साहित्य मे उपलब्ध जानकारी का उपयोग कर आने वाले समय के लिए स्वच्छ जल की उपलब्धता कोसुनिचित किया जा सकता हैं।

References

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हवा के हर कण में भारतीयों कों मिल रहा ज़हर

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हवा के हर कण में भारतीयों कों मिल रहा ज़हरHindiWaterWed, 02/26/2020 - 15:24

फोटो - niehs

पूरी दुनिया वायु प्रदूषण के प्रभावों से जूझ रही है। इसके कारण आए दिन विभिन्न बीमारियों का जन्म हो रहा है। मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। मरीजों की संख्या का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण जनित रोगों से हर साल विश्वभर में 45 लाख से अधिक लोगों की मौत हो जाती है, जिनमें से छह लाख से अधिक मौते केवल भारत में ही होती है। वायु प्रदूषण से निपटने के लिए विश्वभर में कई योजनाएं शुरू की गई है। हर देश अपने अपने स्तर पर पहल कर रहा है। भारत ने भी इससे निपटने के लिए पहल की है, लेकिन धरातल पर इसका कोई खासा असर दिखता नजर नहीं आ रहा है। जिस कारण भारत विश्व के सबसे प्रदूषित देशों में शामिल है, तो वहीं गाजियाबाद विश्व का सबसे प्रदूषित शहर है। वायु प्रदूषण देश में इस कदर बढ़ गया है कि बच्चों के स्वास्थ्य पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। हजारों बच्चों की गर्भ में ही मौत हो रही है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार पीएम 2.5 का सालाना स्तर 10 माइक्रोग्राम घन मीटर रहना चाहिए, लेकिन गाजियाबाद में ये दस गुना ज्यादा, यानी 110.2 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है। हांलाकि गाजियाबाद के वायु प्रदूषण में कमी आई है, क्योंकि वर्ष 2017 में एयर क्वालिटी इंडेक्स 144.6, 2018 में 135.2 था। इसके बावजूद भी गाजियाबाद सहित देश के लोगों को हवा के हर कण में ज़हर ही मिल रहा है। आईक्यूएयर विजुअल दुनियाभर के 5000 शहरों में वायु प्रदूषण के आंकड़ों का विशलेषण किया था। जिसमें पीएम 2.5 के आंकड़ों को भी शामिल किया गया। इस यूएस एयर क्वालिटी इंडेक्स रिपोर्ट 2019 के अनुसार गाजियाबाद पहले, राजधानी दिल्ली पांचवे, नोएडा छठे, गुरुग्राम सातवें, ग्रेटर नोएडा नौंवे, बंधवाड़ी दसवें, लखनऊ 11वें, बुलंदशहर 13वें, मुजफ्फरनगर 14वें, बागपत 15वें, जींद 17वें, फरीदाबाद 18वें, भिवाड़ी 20वें, पटना 22वें, पलवल 23वें, मुजफ्फरपुर 25वें, हिसार 26वें, कुटेल 28वें, जोधपुर 29वें और मुरादाबाद 30वें स्थान पर हैं।

रिपोर्ट में पाकिस्तान के गुजरांवाला को तीसरे, फैसलाबाद को चौथे और रावलपिंडी को 8वे स्थान पर रखा गया है, जबकि बांग्लादेश की राजधानी ढाका भी प्रदूशित देशों की सूची में शामिल है। शहरों से इतर देशों को प्रदूषिण की स्थिति के अनुसार रैंकिंग दी गई है। इसमें सबसे प्रदूषित देश होने के कारण बांग्लादेश पहले स्थान पर है, जबकि पाकिस्तान दूसरे, मंगोलिया तीसरे, अफगानिस्तान चौथे और भारत पांचवे नंबर पर है। प्रदूषण से सबसे बुरा हाल दक्षिण, दक्षिण पूर्व और मध्य एशिया का है। यहां कुछ ही शहर ऐसे हैं, जहां हवा की गुणवता तय मानकों के अनुरूप है। 

प्रदूषित शहरों की सूची
 

शहरPM 2.5 (μg/m³) 2019PM 2.5 (μg/m³) 2018
गाजियाबाद, भारत110.2135.2
होतन, चीन110.1116
गुजरांवाला, पाकिस्तान105.3-
फैसलाबाद, पाकिस्तान104.6130.4
दिल्ली, भारत98.6113.5
नोएडा, भारत97.7123.6
गुड़गांव, भारत93.1135.8
राविंडी, पाकिस्तान92.2-
ग्रेटर नोएडा, भारत91.3-
बंधवारी, भारत90.5-
लखनऊ, भारत90.3115.7
लाहौर, पाकिस्तान89.5114.9
बुलंदशहर, भारत89.4-
मुजफ्फरनगर, भारत89.1-
बागपत, भारत88.6-
काशगर, चीन87.195.8
जिंद, भारत85.491.6
फरीदाबाद, भारत85129.1
कोरौत, भारत85-
भिवंडी83.4125.4
ढाका, बांग्लादेश83.397.1
पटना, भारत82.1-
पलवल, भारत82.1-
दक्षिण तांगेरन, इंडोनेशिया81.3-
मुजफ्फरपुर, भारत81.2110.3
हिसार, भारत81-
मुरीदके, पाकिस्तान80.6-
कुतैल, भारत80.4-
जोधपुर, भारत77.2113.6
मुरादाबाद, भारत76.5104.9

लेखक - हिमांशु भट्ट (8057170025)

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बिहार में 2019 ई. का अभूतपूर्व जल संकट-एक विश्लेषण

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बिहार में 2019 ई. का अभूतपूर्व जल संकट-एक विश्लेषणRuralWaterWed, 02/26/2020 - 15:40
Source
मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा, विवेकानन्द टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज दरभंगा, एम.के. कॉलेज, लहेरियासराय

सारांश

2019 ई0 में बिहार राज्य, विशेषतः उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र, ने अभूतपूर्व जल संकट का सामना किया। शहरी क्षेत्रों की कौन कहे, ग्रामीण क्षेत्रों में भी टैंकर से पेयजल की आपूर्ति करनी पड़ी। अप्रैल-मई में इस क्षेत्र में सरकार द्वारा बनाये घाटों से सुसज्जित किन्तु पूर्णतः जलविहीन पोखरों में क्रिकेट खेलते बच्चों को देखना एक सामान्य दृश्य बन गया था। कमला एवं जीवछ सदृश नदियों में अप्रैल-मई के महीने में एक बूँद पानी के दर्श न होना दूभर हो गया। पूर्वजों द्वारा कभी लोक परलोक साधने की दृष्टि से खुदवाए गए पोखरों को आज उनके वारिस ही मिट्टी से भरकर अस्तित्व समाप्त करने में तनिक भी शर्म अनुभव नही कर रहे हैं। जलाशयों के सूखने का सर्वाधिक दुष्प्रभाव मछली-सह मखाना के उत्पादन के साथ-साथ पालतू पशुओं हेतु हरे चारे की उपलब्धता पर पड़ा है। जल की कमी से जलीय जैवविविधता विशेष रूप से दुष्प्रभावित हुयी है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए आज बिहार में स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा एवं सरकारी स्तर पर भी कई उपाय किए जा रहे हैं राज्य में व्यापक स्तर पर वृक्षारोपण अभियान चलाया जा रहा है। लुप्त एवं अतिक्रमित जलाशयों की खोज की जा रही है।

बिहार सरकार ने जल-जीवन-हरियाली अभियान चलाकर आम लोगों को भी इसमें शामिल करने की मुहिम चलायी है। इस जन अभियान में सोख्ता निर्माण, वर्षा जल संग्रहण (रेनवाटर हार्वेस्टिंग) सदृश कार्यक्रमों को जोड़ा गया है। 2019 के जल संकट ने एक बार पुनः पारम्परिक कुंओं (जिन्हें इनार या इण्डा नाम से भी जाना जाता है) को पुनर्जीवित करने की ओर आम जनता को भी प्रेरित किया है। विभिन्न प्रकार की रोजगार योजनाओं को जल संचयन अभियान से जोड़ा जा रहा है।

प्रस्तुत आलेख में 2019 ईसवी के मिथिला क्षेत्र (उत्तर बिहार) के अभूतपूर्व जलसंकट एवं इससे निदान की संभावनाओं का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।

Abstract

The state of Bihar, especially the Mithila area in north Bihar, witnessed an unprecedented water crisis in the year – 2019. What to tell of the town areas, even the rural areas had to be served with water tankers for about three to four months in the summer season. Children playing cricket in parched ponds, that boasted of pucca ghats raised over them under Govt. schemes, became a common scene. Rivers like Kamla and Jiwachh got dried and at several places not a drop of water was to be witnessed therein.

 People today are not at all ashamed with getting the ponds filled up that were excavated by their forefathers with a pious aim to attain eternal bliss. Fish – cum- Makhana cultivation and availability of green fodder for pet animals suffered a major casualty. Water crisis affected the aquatic biodiversity. Govt. as well as voluntary agencies took up ways to ameliorate the situation. Massive plantation drives have been launched. Dead and encroached water bodies are being relocated.

The State Govt. has launched the Jal-Jeevan-Hariyali campaign for associating people with the drive. Under this scheme soak-pits and rainwater harvesting structures are being raised. 2019 water crisis has made people aware of the need of revitalizing the traditional wells. Different types of employment schemes are being linked with the water harvesting mission.

The paper provides an analysis of the unprecedented 2019 water crisis in Mithila area of northern Bihar and discusses the possible steps to ameliorate the situation.

क्रिया विधि

कभी बाढ़ग्रस्त इलाके के रूप में विख्यात बिहार के मिथिला क्षेत्र में 2019 ईसवी के ग्रीष्मकाल में व्याप्त अभूतपूर्व जल संकट की स्थिति का विश्लेषण किया गया। पिछले प्रायः एक दशक से पर्यावरणीय समस्या के समाधान हेतु नागरिक समूहों द्वारा किए जा रहे प्रयास की इस शोध पत्र में चर्चा की गयी है। समस्या के निदान हेतु राज्य एवं केन्द्र सरकारों द्वारा चलाए जा रहे अभियानों पर प्रकाश डाला गया है। दो सारणीयों में एतत्सम्बंधी महत्त्वपूर्ण सूचना का समावेश किया गया है। समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में छपी सूचना के सन्दर्भों का समावेश अन्त में किया गया है।

स्थिति विश्लेषण

2019 के ग्रीष्मकालीन मौसम में बिहार राज्य एवं विशेषकर इसके उत्तरी भाग के मिथिला क्षेत्र ने अभूतपूर्व जल संकट का सामना किया। शहरी क्षेत्र की कौन कहे, देहाती क्षेत्रों में भी प्रशासन को टैंकरों से पानी की आपूर्ति करनी पड़ी। आमतौर पर 150 फीट पर जिन चापाकलों से पानी (पेयजल) मिल जाता था वे सभी फेल हो गए। जिनके पास सामर्थ्य थी उन्होंने 70-80 हजार रूपये खर्च कर सबमर्सिबल पम्प लगवाये। लेकिन आमलोंगो की तकलीफें देखने लायक थी। टैंकरों के सामने लोगों की भीड़ को देखकर स्थिति का सहज अन्दाजा लगाया जा सकता था। दक्षिण बिहार में भी स्थिति ऐसी ही थी। परन्तु उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र के लोगों ऐसी स्थिति के अभ्यस्त नहीं थे। इस क्षेत्र को नदीमातृक (अर्थात् हिमालय क्षेत्र से निकलने वाली सदानीरा नदियों का क्षेत्र) एवं “देवमातृक“ (अर्थात प्रचुर वर्षा वाला आमतौर पर 1000 से 1200 मिलीमीटर वर्षा का क्षेत्र) कहा जाता है। आमतौर पर इसे बाढ़ का क्षेत्र माना जाता रहा है। इसलिए यदि कभी वर्षा नहीं हुयी तो सतही जल भले न रहे, भूगर्भीय जल की कमी कभी नहीं रहती थी। पिछले प्रायः दस वर्षो से ठीक से वर्षा नहीं हो रही थी। वर्षा पात में इतनी कमी का कारण ढूँढने की जरूरत है। देश के परम्परागत रूप से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में अब प्राय़ः हर वर्ष बाढ़ आती हैं जबकि मिथिला सदृश बाढ़-प्रवण क्षेत्र में अब आमतौर पर सुखाड की स्थिति बनती है।

मिथिला क्षेत्र में नदियों का जाल बिछा हुआ है। इस क्षेत्र में कोसी सहित प्रायः सभी नदियाँ सदियों-सहस्राब्दियों से अपनी धाराओं में परिवर्तन करती रही है। बाढ़ की विभीषिका से बचने के लिए क्षेत्र में प्रायः सभी नदियों पर स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के वर्षो में तटबन्ध बनाए गए। इसका परिणाम अब यह देखने को मिला है कि गर्मी के दिनों में कई जगहों पर कमला, जीवछ आदि नदियों में एक बूंद भी मयस्र नहीं होता तो दूसरी ओर बरसात के महीने में दोनों तटबन्धों के भीतर के लोग लम्बे जल जमाव का दंश झेलते हैं। नेपाली उद्गम वाली नदियों में धारा बरसात में उफनाती है और तटबन्ध टूटने पर जलप्रलय का दृश्य उपस्थित करती है। दूसरी ओर उसी समय में निकटवर्ती समस्तीपुर जिले के जटमलपुर में बागमती नदी के तटबन्ध के दक्षिण सुखाड़ की स्थिति बनी रहती है। बागमती क्षेत्र के बाढ़ प्रभावित लोगों ने सरकार से तटबन्धों को ऊँचा करने की बजाय नदी की पेटी से गाद निकालकर बाढ़ की समस्या के स्थायी समाधान की पुरजोर माँग की हैं।

एक और विकट स्थिति दरभंगा शहर के भीतर प्रायः एक हजार वर्ष पूर्व कणटिवंशीय राजाओं द्वारा खुदवाये खुदवाये हराही, दिग्घी, गंगासागर जैसे वृहदाकार पोखरों के किनारे बसे मोहल्लों में देखने को मिलती है। इन वृहदाकार जलाशयों के इर्द -गिर्द भी पानी का विकट संकट उपस्थित होता है। इस का अर्थ यह हुआ कि इन बड़े जलाशयों की तलहटी पर इतनी गाद जमा हो गयी कि उनका पानी नीचे के भूगर्भीय जल को संभरित नहीं करता। पूरे शहर के नाले बहकर इन जलाशयों में घरेलू अपशिष्ट को जमा करते हैं एवं इनका पानी मनुष्य कौन कहे, पशुओं के भी उपयोग लायक नहीं रहता।

इस अभूतपूर्व जलसंकट का सर्वाधिक दुष्प्रभाव इस इलाके में सिंघाड़ा एवं मखाना तथा हरे पशुचारे की उपलब्धता पर पड़ा है। मिथिला क्षेत्र मखाना (Gofgon/Foxnut) के उत्पादन के लिए जाना जाता है। बड़े किन्तु छिछले जलाशयों में तो इस वर्ष मखाने के पौधे दिखाई दिए किन्तु कम पानी वाले छोटे जलाशय तो पूरी तरह सूख गये थे एवं उनमें मखाना के पौधे झुलसे पड़े थे। यही हाल कमल, कोका, सारूख, कशेरूक आदि का भी था। सरकार द्वारा कुपोषण मुक्ति हेतु इन जल वनस्पतियों का महत्व दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।

जल-जीवन -हरियाली कार्यक्रम

 2019 ई0 में बिहार के अभूतपूर्व जल संकट को देखते हुए जल संरक्षण के तात्कालिक और दूरगामी लक्ष्यों को सामने रखकर राज्य सरकार ने एक महत्वाकांक्षी योजना ‘‘जल-जीवन-हरियाली’’ के नाम से शुरू की है। “जल-जीवन-हरियाली“ अभियान को मिशन मोड में लागू करने, निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने तथा नियमित अनुश्रवण के लिए इसका निबन्धन सोसाइटी रजिस्ट्रेशन ऐक्ट के अन्तर्गत कराया जा रहा है। अगले तीन वर्षो तक इसके क्रियान्वयन पर 24,524 करोड़ रूपये खर्च किए जायेगें। ग्रामीण विकास विभाग को इस हेतु नोडल विभाग के रूप में नामित किया गया है। केन्द्र सरकार ने भी देश के बिहार सहित 27 राज्यों को क्षतिपूरक वनीकरण योजना में वृक्षारोपण हेतु 47,436 करोड़ रू0 निर्गत किए है।

जल संकट को देखते हुए राज्य सरकार के नगर विकास विभाग ने 100 वर्गमीटर से ज्यादा क्षेत्रफल वाले सभी निजी मकानों में रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाना अनिवार्य कर दिया है। ऐसा नहीं करने वाले भवनों को सील किया जायेगा। परन्तु इससे पहले हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाने के लिए 30 दिनों का समय दिया जायेगा। नये भवनों का नक्शा पास कराने के लिए रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम का प्रावधान अनिवार्य होगा। यह नया आदेश सरकारी निजी एवं वाणिज्यिक सभी तरह के भवनों पर लागू होगा। 15 मीटर ऊँचे व 500 वर्गमीटर क्षेत्रफल वाले वाणिज्यिक भवनों के लिए यह प्रावधान अगस्त 2019 से लागू किया गया है। जल जीवन हरियाली अभियान के तहत शुरू की गयी इस योजना के अंतर्गत नगर विकास विभाग ने बिल्डिंग बाइलॉज में संशोधन कर सभी निर्मित एवं निर्माणाधीन भवनों के लिए यह अनिवार्य किया है। सरकार ने रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाने वाले मकानों को सम्पति कर में-पांच प्रतिशत छूट देने का भी निर्णय किया हैं जो सभी नगर निकायों पर लागू होगा।

भूगर्भीय एवं वर्षाजल को बचाने के दृष्टिकोण से राज्य की प्रमुख छोटी नदियों पर “चेक डैम“ व वीयर सदृश जल संरचनाएँ बनायी जायेंगी। चेक डैम वह संरचना है जिसे किसी भी झरने नाले या छोटी नदी के जल प्रवाह की उल्टी दिशा में खड़ा किया जाता हैं। इसका प्रमुख उद्देश्य वर्षा के अतिरिक्त जल को बांधना होता हैं। यह पानी बरसात के दौरान या उसके बाद भी इस्तेमाल हो सकता है एवं इससे भूजल का स्तर बढ़ता है। पहाड़ी-पठारी इलाकों में नदी-झरनों, नालों आदि पर ऐसी संरचनाएँ बनाने पर विशेष जोर है। वन क्षेत्रों के लिए वन प्रमण्डल पदाधिकारी कार्ययोजना बनायेंगे और कार्यान्वयन पर्यावरण, वन, एवं जलवायु परिवर्तन विभाग करेगा। समतल क्षेत्रों में यह काम लघु जल संसाधन, कृषि व ग्रामीण विकास विभाग द्वारा किया जायेगा, जिलों में उपलब्ध सर्वे मानचित्र एवं गूगल मैप के सहारे सभी जल संरचनाओं की पहचान की जायेगी। इसके साथ ही राज्य भर में सभी शहरों एवं गावों में तालाबों, आहर, पइन तथा कुओं समेत ऐसे सभी जलस्रोतों को अभियान चलाकर अतिक्रमण मुक्त कराने का निर्णय किया गया है। यह भी सुनिश्चित किया जायेगा कि सभी कुएँ एवं चापाकल ठीक से काम करें। इनके आसपास सोख्ते बनाए जायेंगे।

बिहार सरकार प्रतिवर्ष 9 अगस्त को बिहार पृथ्वी दिवस के रूप में मनाती है। इस वर्ष इस अवसर पर लोगों को पर्यावरण संरक्षण से जुडे़ 11 सूत्री संकल्प दिलाए गए (सारणी-1)। इस दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जीविका दीदियों की ओर से तैयार किए गए जल जीवन हरियाली के प्रतीक चिह्न (स्वहव) एवं जलजीवन हरियाली, तभी होगी खुशहाली नामक नारा का लोकार्पण किया।

सारणी संख्या-1

जल-जीवन -हरियाली अभियान के अन्तर्गत 11 सूत्री कार्यक्रम में निर्धारित लक्ष्य

  • तालाब, पोखर, आहर, पइन, आदि सार्वजनिक जल संचयन संरचनाओं की अतिक्रमण से मुक्ति करना।
  • तालाब, पोखर, आहर, पइन, आदि सार्वजनिक जल संचयन संरचनाओं का जीर्णोद्धार।
  • सभी सार्वजनिक कुओं का जीर्णोद्धार करना।
  • सार्वजनिक कुंआ, चापाकल और नलकूपों के किनारे सोख्ता बनाना।
  • छोटी नदियों नालों और पहाड़ी इलाकों में चेकडैम का निर्माण।
  • नए जल स्रोतों का सृजन और सूखाग्रस्त इलाके में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करना।
  • व्यावसायिक भवनों में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाना।
  • पौधशाला सृजन और सघन पौधरोपण अभियान चलाना।
  • सौर ऊर्जा का उपयोग और बिजली की बचत को बढ़ावा देना।
  • वैकल्पिक फसलों, ड्रिप इरिगेशन, जैविक खेती और अन्य नई तकनीकों के उपयोग को बढ़ावा।
  • जल -जीवन-हरियाली के लिए जागरूकता अभियान चलाना।

जल की उपलब्धता का सीधा सम्बन्ध हरीतिमा से है। बिहार से झारखण्ड के अलग होने के साथ राज्य में प्रायः सात प्रतिशत क्षेत्र में प्राकृतिक जंगली क्षेत्र बच गया था। बाग-बगीचों को मिला देने पर कुल हरित पट्टी 10 प्रतिशत के आसपास थी। बिहार सरकार ने हरित पट्टी के विकास हेतु व्यापक वृक्षारोपण अभियान चलाया जिसे अब और भी तीव्र किया जा रहा है। आज की तिथि में यह हरीतिमा 15 प्रतिशत तक पहुँच गयी है। अगले तीन वर्ष मे इसे बढ़ाकर 17 प्रतिशत तक पहॅुचाने का लक्ष्य रखा गया हैं। अब राज्य का पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग अपनी सभी 180 नर्सरियों की पौधा निर्माण क्षमता बढ़ाकर 4 करोड़ प्रति वर्ष करने में लगा हुआ है। अभी यह क्षमता मात्र 1.60 करोड़ पौधे तैयार करने की है। विगत 21 जुलाई 2019 को दरभंगा जिले में एक लाख पौधे रोपने का महाअभियान चलाया गया। जिले के सभी सरकारी एवं गैर सरकारी कार्यालयों, शिक्षण संस्थाओं, क्लब एवं पार्क में यह वृक्षारोपण हुआ। जिलें में वन विभाग की चार और 32 निजी नर्सरियों की ओर से पौधे उपलब्ध कराये गए। उधर राज्य स्तर पर वन विभाग की ओर से वर्ष 2019 में एक करोड़ एवं मनरेगा की ओर से 50 लाख पौधारोपण का महत्वकांक्षी लक्ष्य रखा गया है। यह भी निर्णय किया गया है कि सड़कों के चौड़ीकरण एवं अन्य निर्माण के लिए अब पेड़ों को काटने के बदले उन्हें स्थानान्तरित करने का प्रयोग हैदराबाद की एक कम्पनी के सहयोग से किया जा रहा है। 1 से 15 अगस्त 2019 तक वन महोत्सव मनाया गया। पेड़ों के संरक्षण के लिए प्रतिवर्ष प्रतीकात्मक रूप से रक्षाबन्धन के दिन पेड़ों को रक्षासूत्र बाँधकर उन्हें बचाने का भी संकल्प लिया जाता है। झारखण्ड के अलग होने के बाद राज्य के पहले कृषि रोड मैप (2012-17) के दौरान 24 करोड़ पौधारोपण के लक्ष्य के विरूद्ध 18 करोड़ 47 लाख पौधे लगाये गए। समस्तीपुर जिले की हरपुर बोचहाँ पंचायत ने मनरेगा योजना के अन्तर्गत 1.17 लाख पौधे लगाकर राष्ट्रीय स्तर पर ग्रीन पंचायत का दर्जा पाया है। इसी जिले के उजियारपुर प्रखण्ड के चाँदचैर मथुरापुर निवासी अधिवक्ता श्री रामपुनीत चैधरी ने पटना उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर अखिल भारतीय जल योद्धा संग्राम समिति के तत्वावधान में सभी जिलो के तालाबों और कुओं की सूची प्राप्त की।

राज्य के सभी 38 जिलों में ‘‘जल जीवन हरियाली’’ योजना के अन्तर्गत कम से कम 10-10 भवनों में भवन निर्माण विभाग द्वारा पानी बचाने की योजना पर काम प्रारंभ किया जा रहा है। गाँधी जयन्ती के अवसर पर 2 अक्टूबर 2019 से यह काम प्रारंभ हो रहा है। तीन हजार वर्गफुट की छत वाले सरकारी भवन में एक यूनिट व इससे अधिक होने पर दूसरी यूनिट बनायी जायेगी। राज्य भर में कुल 7922 यूनिट बनाने में 64.5 करोड़ रूपये खर्च होने का अनुमान है। भवन निर्माण विभाग के अधीन पाटलिपुत्र कार्य प्रमण्डल में प्रयोग के तौर पर एक सरकारी आवास पर इस कार्य को पूरा कर वर्षा पानी के संग्रह का काम प्रारंभ कर दिया है। सहरसा एवं पूर्णिया प्रंमडलों मंे जहाँ जमीन के नीचे बालू मिट्टी है वहाँ बोरिंग करने पर प्रति यूनिट 45 हजार रूपये खर्च होंगे। जमीन के नीचे पानी ले जाने से पहले उसे चार बार साफ किया जायेगा। जहां जमीन के नीचे बालू मिट्टी नहीं है वहां इस पर 85 हजार रूपये प्रति यूनिट खर्च होंगे। छतों पर गिरने वाले वर्षाजल को पानी की पाइप के सहारे पहले एक स्थान पर लाया जायेगा। भवन निर्माण विभाग ने 2014 के बाद जिन भवनो को बनाया है उनमें वर्षा जल संग्रह की व्यवस्था की हुई है। पटना स्थित सरदार पटेल भवन (पुलिस मुख्यालय) में सात रेन वाटर होर्वेस्टिंग यूनिट हैं।

राज्य के नगर विकास एवं आवासन विभाग ने पेयजल उपयोग शुल्क (Water User Charge)नीति 2019 का मसौदा तैयार किया है। मसौदे को घर के क्षेत्रफल के आधार पर तीन वर्गो में बाँटा गया है। पानी के लिए अब सालाना 360 से 1500 रू0 तक देना होगा। इस हेतु कोई मीटर नहीं लगाया जायेगा। राज्य के घरेलू उपभोक्ताओं से पेयजल उपयोग शुल्क प्रोपर्टी टैक्स संग ही वसूला जायेगा।

केन्द्र सरकार द्वारा ‘‘जल जीवन मिशन’’ कार्यक्रम शुरू किया जा रहा है। केन्द्रीय जलशक्ति मन्त्रालय से इसके तहत 55 lpcd ( लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन) पानी देने का लक्ष्य रखा है जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु सदृश राज्यों ने इसे बढ़ाकर 70 lpcd करने की माँग की है। राज्य सरकार ने 2020 ई. तक हर घर नल का जल पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। दरभंगा जिले में “तालाब बचाओ अभियान“ क्रियाशील है जिसने लोगो में शहर के शताधिक छोटे-बड़े तालाबों को अतिक्रमण से बचाने हेतु मिथिला ग्राम विकास परिषद के संस्थापक श्री नारायणजी चैधरी के नेतृत्व मे जन जागृति फैलाने का काम किया है। 21 जनवरी 2014 को दरभंगा के हराही पोखरे से लहेरियासराय समाहरणालय तक इस हेतु एक बड़ी रैली निकाली गयी जिसमें प्रसिद्ध रक्षा वैज्ञानिक पद्मश्री मानस बिहारी वर्मा, प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. गणपति मिश्र, सर्वोदयी समाज सेवी हृदय नारायण चैधरी एवं डॉ. सैयद शमीम अहमद सदृश वुद्धिजीवी सम्मिलित हुए थे। हायाघाट विधायक श्री अमरनाथ गामी के प्रयास से राजकिला के भीतर स्थित जलाशय को असामाजिक तत्वों द्वारा भरे जाने पर रोक लगी।

राज्य के लघु जल संसाधन विभाग के तत्वावधान में जल-जीवन-हरियाली अभियान के तहत दरभंगा जिला के 18 तालाबों का जीर्णोद्धार कराया जा रहा है। प्राकृतिक जल स्रोतों को सवंर्द्धित एवं विकसित करने का कार्य प्राथमिकता के तौर पर करने का निर्णय लिया गया है। जिला के सभी 18 प्रखण्डों में एक हेक्टेयर से अधिक रकबा वाले तालाबों को इस हेतु चिह्नित किया गया है जो निम्न प्रकार है-

सारणी संख्या-2

दरभंगा जिला में पुनरूद्धार हेतु चिह्नित  पोखरों की विवरणी

प्रखण्ड का नाम

गांव का नाम   

पोखर का नाम

हायाघाट

पतोर

महादेव पोखर

बहादुरपुर

जलवार

बड़की पोखर

सदर प्रखण्ड

दुलारपुर

रूचैल पोखर

हनुमाननगर

रामपुरडीह

महथा पोखर

जाले

मस्सा        

रजोखर पोखर

सिंहवाड़ा

सनहपुर

कचनारी पोखर

केवटी

केवटी ग्रामर

रजोखर

बहेड़ी     

ठाठोपुर

पुरनी पोखर

मनालीछीना

उजान  

दुर्गास्थान

तारडीह 

कठरा  

महादेव पोखर

बेनीपुर

तरौनी

भटोखर पोखर

अलीनगर तुमौल  

लहटा सूहथ

पुरनी पोखर

बिरौल

रामनगर

नवकी पोखर

गौड़ा बौराम

बघरासी

जीवछ पोखर

घनश्यामपुर

तुमौल

महथा पोखर

किरतपुर

कुबौल ढांगा

ढांगा पोखर

कुशेश्वरस्थान

औराही

औराही पोखर

कुशेश्वरस्थान पूर्वी

धरमपुर

धरमपुर पोखर

अभियान की प्रमुखता में राज्य की बढ़ती जनसंख्या, मानवीय गतिविधि एवं जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न पारिस्थितिकीय चुनौतियों से निपटना तथा राज्य में पारिस्थितिकीय संतुलन का संधारण करने का व्यापक एवं बहुआयामी उद्देश्य शामिल है। जल को प्रदूषण मुक्त रखना, उसका स्तर संतुलित रखना तथा पर्याप्त जल उपलब्धता सुनिश्चिम करना जल संरक्षण के लिए अति आवश्यक है। हरित आच्छादन को बढ़ावा देना, नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग एवं ऊर्जा की बचत पर बल देना अभियान का प्रमुख अंग है। जल संचयन के तरीकों और बचाव के संबंध में लोगों को जागरूक किया जा रहा। यह बताया जा रहा है कि कि कम वर्षा होने पर भू-जल ही एकमात्र सहारा है और वर्षा जल इकट्ठा करना ही होगा। पेयजल के दुरूपयोग से बचना होगा। बदलते पारिस्थितिक परिवेश के अनुरूप कृषि एवं उससे संबद्ध गतिविधियों को नए आयाम देने के लिए विभिन्न विभागों और विशेषज्ञों के समन्वय से अभियान क्रियान्वित किया जाना है। पिछले कई वर्षों से जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप वर्षापात में कमी एवं भू-जल स्तर में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। राज्य के सभी इलाकों में भू-जल स्तर में गिरावट आने की वजह से पेयजल की समस्या के साथ-साथ फसलों के उत्पादन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

उपसंहार

जल के बिना जीव जगत के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। नित्यप्रति की आराधना में बार-बार “पवित्र जल हमारी रक्षा करे“ की प्रार्थना की जाती है। भारतीय जीवन पद्धति में पोखर खुदवा कर उसे विधिवत यज्ञ कर आमजन के हित में अर्पित करने को लोकोत्तर कर्म की संज्ञा दी गयी है। लेकिन यह एक विडम्बना है कि पूर्वजों द्वारा व्यापक लोकहित की कामना से किए कर्म को उनकी सन्तानें ही उलट रही हैं। बढ़ती जनसंख्या सभी कार्यों को तात्कालिक आर्थिक लाभ की दृष्टि से तौलती है जिसका दुष्परिणाम आज सबके सामने है।888 आज यह आवश्यक हो गया है कि हम इस बात का ध्यान रखें कि एक ओर सुखाड़ की विडम्बना है तो दूसरी ओर देश के विभिन्न भागों में वर्षाजल के यूँ ही बहकर समुद्र में चले जाने की स्थिति हैं। हमारी अर्थव्यवस्था की सार्थकता इसमें है कि हम समुचित व्यवस्था कर उस जल को रोकें। विश्व की बढ़ती जनसंख्या की जल की जरूरतों की पूर्ति करने हेतु हमारे पास दूसरा कोई उपाय नहीं बचा है। प्रकृति ने निश्चित रूप से हमारी जरूरतों की पूर्ति के सभी उपाय किए हैं किन्तु हमारी लालच का उसके पास कोई जबाब नहीं हैं।

देश में अभी दूसरी हरितक्रांति का दौर चल रहा है जिसका ध्येय बूँद बूँद खेती (More crop per drop of water) है। यह अत्यन्त आवश्यक है कि पोखरों, कुओं, नदियों से गाद की उगाही कर उन्हें गहरा बनाकर उनकी जल धारण क्षमता को बढ़ाया जाय। मिथिला में नदियों की मृत धाराओं का जाल बिछा हुआ हैं जिनकी उड़ाही कर बहुत हद तक इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।

यह एक सुखद संयोग है कि 60 साल में पहली बार 15 दिन की देरी से मानसून लौट रहा है एवं बिहार सहित 20 राज्यों में भारी वर्षा हुई है। मौसम विभाग के अनुसार 15 अक्टूबर तक भी जारी रह सकता है। इससे पहले 1960 में मानसून इतने समय तक सक्रिय रहा था। पहले एक सितम्बर से मानसून लौटना शुरू हो जाता था। देर से ही सही, धान की रोपनी शुरू हो गयी अर्थव्यवस्था पर इसका सकारात्मक प्रभाव होने की उम्मीद है। यह एक सुखद खबर है कि हाल ही में भारत में सम्पन्न 14वें (United Nations Convention to Combat Desertification (UNCCD, COP 14) में देश में 2030 ई. तक 50 लाख हेक्टेयर ऊसर क्षेत्र को हरा भरा बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इससे जल संरक्षण की दशा दिशा में क्रान्तिकारी परिवर्तन होने की उम्मीद है।

Reference

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  • Kumar, Arun. 2019. Nitish exhorts all to unite for environmental conservation. Hindustan Times, Patna edn, 10th Aug 2019.
  • Gulati, Ashok 2019. On the water front. The Indian Express, 9th July 2019.
  • Mishra, Bhavya 2019. State govt measures to prevent deforestation. The Times of India, Patna 4th July 2019.
  • Tripathi, Piyush, 2019. Harvest rain water, get 5% property tax rebate. The Times of India,Patna 14th August 2019.

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पश्चिमी राजस्थान में सूखा प्रबंधन द्वारा फसल संरक्षण

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पश्चिमी राजस्थान में सूखा प्रबंधन द्वारा फसल संरक्षणRuralWaterThu, 02/27/2020 - 11:05
Source
केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर

सारांश

भारत में वर्षा और जलवायु परिस्थितियों में उच्च अस्थायी और स्थानिक विविधताओं की वजह से अलग-अलग तीव्रता में लगभग हर वर्ष सूखा पड़ता है। देश के करीब 68 प्रतिशत भूभाग मंऔ अलग-अलग डिग्री के सूखे का खतरा रहता है। सूखे का आर्थिक, पर्यावरण और सामाजिक प्रभाव बदलता रहता है। सूखे की वजह से कृषि में होने वाला नुकसान किसानों की आमदनी और उनके क्रय शक्ति को प्रभावित करता है। पेयजल आपूर्ति की कमी और खाद्य असुरक्षा, चारे की कमी, पशुओं की बिक्री में कमी, मिट्टी की नमी और भू-जल तालिका का कम होना, कुपोषण, भुखमरी आदि इसके अन्य परिणाम हैं। भारत ने एक संस्थागत तंत्र बनाया है जो मंत्रालयों के बीच समन्वित कार्रवाई सुनिश्चित करता है। समुदाय, ग्राम सभा, स्वयंसेवी संगठन, इत्यादि अपनी भागीदारी द्वारा प्रबंधन में भूमिका निभाते हैं। सूखा प्रबंधन परंपराओं ने बड़े पैमानों पर लोगों के लिए प्रतिकूल परिणामों को कम कर दिया। हालांकि, इन प्रयासों को वर्षा जल संचयन और भूजल पुनर्भरण, बेसिन या सूक्ष्म स्तर पर जल का संरक्षण आदि की तरह ही पर्यावरण संरक्षण और प्रबंधन पर अधिक जोर देने की जरूरत है। पश्चिमी राजस्थान जैसे वर्षा सिंचित क्षेत्रों में कृषी कार्यों में समुन्नत प्रौद्योगिकियों के समावेश से वर्षा जल संचयन और इसके समुचित उपयोग, स्वस्थानी नमी संरक्षण, सूखा प्रबंधन रणनीति, बीज व चारा बैंक, समयानुरूप तथा सटीक कृषि और प्रभावी कृषि-सलाहकार प्रणाली में आईसीटी तकनीकों का उपयोग से सूखे का प्रभावी तौर से सामना किया जा सकता है जिससे छोटे तथा सीमांत किसान को लाभ मिलेगा। सूखे की आपदा के रोकथाम अच्छी प्रबंधन तकनीकी द्वारा संभव है।

Abstract

Droughts, in India, occur every year at varying intensities. It results due to high temporal and spatial variations in rainfall and climatic conditions. About 68 percent topography of the country is prone to drought of varying degrees. The economic, environmental and social impact of drought varies with the regional topography and other conditions. The loss in agriculture due to drought adversely affects the income of farmers and their purchasing power. Lack of drinking water supply and food insecurity, lack of fodder, reduction in sale of livestock, depletion of soil moisture and ground water table, malnutrition, starvation etc. are other possible impacts. India has created an institutional mechanism that ensures coordinated action between various ministries and institutions. Communities, gram sabhas, volunteer organizations, etc. play a significant role in drought management through their participation. Application of traditional values and knowledge has reduced its adverse impact on public at large scales. However, these efforts need more emphasis on environmental protection and management practices at the micro level, like rainwater harvesting and groundwater recharge, basin or water conservation. Incorporation of advanced technologies in farming operations like rainwater harvesting and its appropriate use, in-situ moisture conservation, drought management strategy, seed and fodder banks, timely and accurate farming and ICT techniques in effective agriculture and advisory system would be helpful in rain-fed areas of western Rajasthan. Drought can be effectively countered by their appropriate use, which would certainly benefit small and marginal farmers. So, mitigation of drought disaster is possible through good management techniques.

प्रस्तावना

भारतवर्ष में सूखे के बारे में सबसे पुराने उल्लेखों में से एक वायु पुराण में मिलता है। रामायण में भी राजा दशरथ के काल में सूखे का वर्णन है। महाभारत में इक्ष्वाकुओं वंश के सम्राट मान्धाता के शासनकाल के दौरान गंभीर सूखे का उल्लेख है। महाभारत युद्ध से लगभग 160 साल पहले के लिखित अभिलेख भी हस्तिनापुर के शासक राजा शांतनु के शासनकाल में घटित कई अकालों की घटनाओं का प्रमाण देते हैं। स्वतंत्रता पूर्व के काल में (उन्नीसवीं शताब्दी में) लगातार सूखे और अकाल के बड़े विनाशकारी प्रभाव ने तत्कालीन ब्रिटिश शासकों का ध्यान आकर्षित किया। उन्होनें अकाल आयोगों की एक श्रृंखला और सिंचाई आयोग की स्थापना करके समस्या के विभिन्न पहलुओं को जानने का प्रयास किये और इन आयोगों से अपेक्षा की गई कि लोगों के संकट को कम करने के लिए उपयुक्त उपाय सुझाएं। भारतीय वित्त आयोग ने उत्तर-पश्चिम प्रांत और पंजाब में 1880 के गंभीर अकाल और सूखे की स्थिति का उल्लेख किया है। 1942-44 में बंगाल में महा-अकाल पड़ा। लगभग हर क्षेत्र में जबरदस्त विकास के बावजूद, सूखा हमारे समाज को लगातार परेशान करता रहा है। यहां तक कि ऐसे क्षेत्र जिनमें सामान्य रूप से क्षेत्र की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त वर्षा होती है वे भी समय समय पर कम या अधिक अवधि के सूखे की घटनाओं का सामना करते रहते हैं।

हमारा इतिहास बताता हैं कि भारत ने अनेकानेक बार विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं जैसे भूकंप, बाढ़, सूखा/अकाल, चक्रवात, सुनामी, भूस्खलन, भू-अपरदन और कीटों (टिड्डी दल) के आक्रमण इत्यादि को झेला है। भारत की भौगोलिक अवस्थिति, जलवायु तथा अन्य भौतिक लक्षण हमें इन प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अति संवेदनशील बनाते हैं। स्वतंत्रता के पश्चात देश की जनसंख्या में अनवरत वृद्धि ने कृषक समुदाय को आपदाग्रस्त इलाकों और अन्य जोखिमपूर्ण क्षेत्रों में अधिवास करने के लिए मजबूर किया है। फसलों के नष्ट होने के लिए उत्तरदायी प्राकृतिक आपदाएं देश की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ इससे पशुधन और फसलों की भी अत्यधिक हानि होती है। आमजन के दैनिक उपयोग की वस्तुओं की कीमतें अत्यधिक बढ़ जाती हैं जिसका भार गरीब पर अत्यधिक पड़ता हैं।

भारत की कृषि मानसून आधारित है, और मानसूनी वर्षा की प्रमुख विशेषता है कि इसकी अतिवृष्टी के कारण कहीं बाढ़ और अनावृष्टी के कारण अन्यत्र सूखे का चक्र चलता रहता है। भारत में देश का लगभग 68 प्रतिशत हिस्सा विभिन्न मात्राओं में सूखे से प्रभावित रहता है। भारत का लगभग 35 प्रतिशत हिस्सा ऐसा है जिसमें 750 मिलीमीटर और 1125 मिलीमीटर के बीच वर्षा होती है और उसे सूखा प्रभावित क्षेत्र माना जाता है, जबकि भारत के 33 प्रतिशत हिस्से में 750 मिलीमीटर से कम वर्षा होती है और इसे गम्भीर सूखा प्रभावित क्षेत्र माना जाता है। राज्य और केन्द्र की सरकारें प्राकृतिक आपदाओं से ग्रस्त किसानों को क्षतिपूर्ति और अन्य वित्तीय सहायता समय-समय पर प्रदान करती है जिससे उन्हें कृषि उत्पादों में निवेश करने और फसल उत्पादन करते रहने के लिए प्रोत्साहन स्वरुप किया जाता है।

पश्चिमी राजस्थान का भौगोलिक परिचय

राजस्थान के कुल क्षेत्रफल का 61.9 प्रतिशत भाग (कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 208,751 वर्ग किमी) उत्तर-पश्चिमी रेगिस्तानी भाग है। पश्चिमी राजस्थान का अक्षांशीय विस्तार 24037‘00‘‘ से 30010‘48‘‘ उत्तर और देशांतरीय विस्तार 69029‘00‘‘ से 76005‘33‘‘ पूर्व के मध्य हैं। इसके अन्तर्गत जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, बीकानेर, गंगानगर, हनुमानगढ़, नागौर, जालौर, चूरू, सीकर, झुंझुनूँ तथा पाली जिले आते हैं। राष्ट्रीय कृषि आयोग ने भी अरावली श्रृंखला के पश्चिम व उत्तर पश्चिम में राज्य के 12 जिलों को रेगिस्तानी घोषित किया है। अरावली का वृष्टि छाया प्रदेश होने के कारण दक्षिण-पश्चिमी मानसून व बंगाल की खाड़ी केमानसून से सामान्यतः यहाँ वर्षा नहीं होती है। अतः वर्षा का वार्षिक औसत 100-500 मिमी. रहता है। पष्चिमी राजस्थान की नदियां जैसे लूणी, बनास, जवाई, साबरमती, सूकड़ी, सागी, जोजरी, इत्यादी मुख्यतः अरब सागर से मिलती हैं। राजस्थान का पश्चिमी भूभाग मुख्यतः सूखे भी प्रभावित क्षेत्र हैं। इस क्षेत्र में वर्षा-आधारित या बारानी कृषि 11.17 मिलीयन हेक्टेयर (कुल भौगोलिक क्षेत्र का 53.49 प्रतिशत) क्षेत्र में की जाती हैं।

पश्चिमी राजस्थान के बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर और पाली जिलों में सूखा 2-3 वर्ष मेंय जालोर, नागौर, बीकानेर, सीकर, गंगानगर और हनुमानगढ़ जिलों में 3-4 वर्ष में, और चुरू व झुंझुंनु जिलों में 4-5 वर्ष में एक बार होता है। जिलेवार विभिन्न जलवायु मानदंड तालिका 1 में दिये गये हैं। यह क्षेत्र तीन कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्रों में विभक्त हैं यथा पश्चिमी रेतीले मैदान, मध्य में जलोढ़ मैदान और नहर-सिंचिंत उत्तर के मैदान, जिन्हें पुनः 7 क्षेत्रों और 19 उप-क्षेत्रों में विभाजित किया गया।

तालिका 1. शुष्क पश्चिमी राजस्थान में जलवायु के मानदंड

जिले का नाम

औसत वार्षिक वर्षा (मि.मी.)

गुणांक का परिवर्तन (प्र.श.)

औसत वार्षिक संभाव्य वाष्पीकरण (मि.मी.)

फसल बढ़ने की अवधि (सप्ताह में)      

शुष्कता सूचकांक (प्र.श.)

अकाल या सूखे के वर्ष (प्र.श.)

बाड़मेर 

268

57.70 

1857

8.11

86

58

बीकानेर

259

50.65

1771

9.10

84

54

चुरू

325  

40.60

1578

11.13

77

55

गंगानगर

237

50.55

1662

9.10

85

59

हनुमानगर

281

52

जैसलमेर

185

49.91

2064

4.7

91

58

जालोर 

421

51.60

1561

11.12

76

60

झुंझुंनु 

445

36.40

1842

14.15

80

55

जोधपुर

340

35.55

1562

9.12

74

59

नागौर

383

33.50

1650

11.14

75

62

पाली  

472

41.55

1641

14.16

79

56

सीकर

460

35.40

1532

12.15

70

56

 

मानसून के समय पर न होने अथवा अपर्याप्त होने की स्थिति को ’सूखा’ पड़ता है। अपर्याप्त सिंचाई के कारण फसलों के न होने, पेय जल की कमी और ग्रामीण तथा शहरी समुदाय को संकट का सामना करना पड़ता है। राज्य सरकारें अपने राज्य अथवा राज्य के किसी एक भाग के लिए सूखा घोषित करती है।

सूखे को नियंत्रित करने और स्थिति को संभालने के उपाय

भारत में सूखे को नियंत्रित करने और स्थिति को संभालने के लिए किए जाने वाले मुख्य उपाय निम्नानुसार हैं-

अ. निगरानी और शीघ्र चेतावनी

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग नियमित रुप से देश में सूखा संबंधी निगरानी और मूल्यांकन का कार्य करता है। केन्द्र और राज्य के कृषि विभाग ऐसी स्थिति से निपटने के लिए आपातकालीन योजनाएं तैयार करते है जो किसानों को सूखा जैसी स्थिति में फसलों को बचाने में उपयोगी होती हैं।

ब. सूखे की घोषणा

राज्य अथवा तहसील के स्तर पर निरंतर वर्षा की निगरानी की जाती हैं और सूदूर संवेदी तकनीकों से सूचनाओं को एकत्र किया जाता हैं। उपग्रह से प्राप्त आंकड़ो और भौगोलिक सूचना तंत्र से सूखा प्रमाणित होने पर राज्य सरकार सूखे की स्थिति की घोषणा करती है। तत्पश्चात केन्द्र सरकार सूखे से प्रभावित लोगों को राहत देने करने के लिए वित्तीय और संस्थागत प्रक्रियाओं के द्वारा समुचित सहायता प्रदान करती है।

स. सूखे के प्रभावों की निगरानी और प्रबंधन

केन्द्र सरकार वित्त आयोग द्वारा तैयार किए गए सहायता मानदण्डों के अनुसार समुचित वित्तीय सहायता प्रदान करता है। राज्यों को सहायता आपदा राहत कोष के रूप में दी जाती है।

सूखे या अकाल के दुष्प्रभाव

देश की समग्र अर्थव्यवस्था पर सूखे का प्रभाव व्यापक (राज्य और राष्ट्र स्तर) और सूक्ष्म (ग्राम और कुटुम्ब) स्तरों पर स्पष्ट दृष्टीगोचर होता है। सूखे का प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष होने के साथ-साथ इसकी प्रकृति और तीव्रता में भी भिन्नता हो सकती हैं। सूखे के प्रत्यक्ष प्रभावों को चार व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है, अर्थात् भौतिक, सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय। सूखे के प्रारंभिक प्रत्यक्ष भौतिक प्रभाव, उत्पादन क्षेत्रों के अलावा, अर्थव्यवस्था पर स्पष्टतः दृष्टीगोचर नहीं होते है, हालांकि प्रत्येक प्रभाव के सापेक्ष और पूर्ण परिमाण विशिष्ट विशेषताओं पर निर्भर करता हैं। सूखा फसल, पशुधन और उत्पादक पूंजी की क्षति के रूप में, पानी की कमी या संबंधित बिजली कटौती के प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में संपत्ति की हानि को प्रभावित करता है

औद्योगिक क्षेत्र में कृषि आधारित उद्योग प्रत्यक्षतः प्रभावित होते हैं, क्योंकि कृषि प्रसंस्करण निविष्टियों में निम्न घरेलू उत्पादन से गैर-कृषि उत्पादन कम हो जाता है। पानी की घरेलू उपलब्धता भी प्रतिबंधित है। इस बाद के पहलू में स्वास्थ्य और घरेलू गतिविधियों के लिए निहितार्थ हैं क्योंकि पानी इकट्ठा करने के लिए समय का भी निवेश करना पड़ता हैं। जैसे-जैसे पानी की कमी होती जाएगी, विभिन्न सेक्टरों के बीच अन्तः प्रतिस्पर्धा बढ़ती जायेगी।

शुष्क पश्चिमी राजस्थान में बारानी या वर्षा-आधारित कृषि का महत्व

बारानी या वर्षा-आधारित कृषि जटिल, विविध और जोखिम से भरी होती है और निम्न स्तर की उत्पादकता और कम इनपुट का उपयोग करना इसकी विशेषता है। वर्षा आधारित फसलें के अंतर्गत आने वाली कुल फसलों में खाद्य फसलें 48 प्रतिशत क्षेत्रफल में बोई जाती हैं और 52 प्रतिशत क्षेत्रफल गैर-खाद्य फसलों के अंतर्गत हैं। कुल कार्यबल का लगभग 50 प्र.श. और 60 प्रतिशत पशुधन शुष्क क्षेत्रों में ही केंद्रीभूत हैं। अधिकांश मोटे अनाज बारानी क्षेत्रों में ही उगाए जाते हैं। खाद्यान्न के अलावा, ये क्षेत्र यहाँ के लाखों पशुओं को चारा और चारा सामग्री भी प्रदान करते हैं। सामान्य रूप से जलवायु, विशेष रूप से कृषि की परिस्थिति और फसल की उपज का एक प्रमुख निर्धारक घटक है। थोरट (1993) के अनुसार सिंचाई के तहत सकल फसली क्षेत्र का 10 प्रतिशत से भी कम है और 375 से 750 मिमी औसत वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र वर्षा आधारित शुष्क भूमि के तहत वर्गीकृत किया गया है। हमारी कृषि योग्य भूमि का तीन-चैथाई (143 मिलियन हे.) बारानी के अंतर्गत है। 90 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र ज्वार, मूंगफली और दालें के अंतर्गत है। मक्का और चना के मामले में 82 से 85 प्रतिशत क्षेत्रफल और 66 प्रतिशत क्षेत्रफल तारामीरा/सरसों बारानी के अंतर्गत है। दिलचस्प बात यह है कि 62 प्रतिशत क्षेत्रफल चावल, 44 प्रतिशत जौ और 35 प्रतिशत गेहूं के अंतर्गत है। संसाधनों की कमी वाले शुष्क क्षेत्रों में खेती एक विकास उन्मुख गतिविधि के बजाय अस्तित्व बचाने वाला तंत्र ज्यादा है।

मानसून की देरी होने से, जल संकट उत्पन्न हो जाता हैं, जिसके कारण बारानी फसलों की वृद्धि को नुकसान होता हैं। यह जल संकट वर्षा की परिवर्तनशीलता, बुवाई में देरी, फसल प्रबंधन में विविधता, उत्पादन और मिट्टी के प्रकार की परिवर्तनशीलता के कारण हो सकता है। मानसून के लंबे समय तक की देरी होने से फसल आंशिक या पूर्ण विफल हो जाती है। बारिश की मात्रा, तीव्रता और वितरण प्रतिरूप के आधार पर वर्षा-आधारित फसलों की बुवाई और उत्पादन में उतार-चढ़ाव की प्रवृत्ति दर्शाता है। सूखे के दौरान फसल उत्पादन बहुत घट जाता है। पशुधन की जनसंख्या पर 1962, 1972, 1988 और 2007 के अकाल की आपदा का दुष्प्रभाव पड़ा, और इस कारण जानवरों को जबरदस्ती मुक्त किया गया और कम दाम पर भी बेचना पड़ा। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, पश्चिमी राजस्थान की मानव जनसंख्या 27.12 मिलियन है जबकी 2012 की पशु जनगणना, 30.18 मिलियन पशुधन है। मानव जनसंख्या का घनत्व परिवर्तनशील है, यथा जैसलमेर जिले में 17 और झुंझुंनु में 361 हैं जबकी पशुधन की जैसलमेर में 83 और सीकर में 274 हैं।

सूखे की स्थिति में फसलों का संरक्षण

दीर्घावधि के लिए होने वाले सूखे का फसलों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। वर्षा की मात्रा मंै कमी होने से फसल और चारा के पौधों की विकास में कम आती है और अंततः फसल बर्बाद हो सकती है। कमजोर पौधे भी बीमारी और कीड़ों के लिए अतिसंवेदनशील होते हैं। सूखे की स्थिति भी मिट्टी की उपरी परत के पवन द्वारा क्षरण के स्तर को बढ़ा सकती है और आग के जोखिम को बढ़ा सकती है। समय पद बनायी गई अग्रीम योजना सूखे की स्थिति के दौरान किसानों की फसलों को बचाने में मदद कर सकती है।

अ. सूखा आगमन से पूर्व की तैयारी

(i) फसल प्रबंधन की योजना

  • ऐसी फसलों का चयन करना जो सूखापन झेल सकती हैं, पानी का कम उपयोग करती हैं, और सिंचाई की कम आवश्यकता पड़ती हैं।
  • फसलों की अदला-बदली इस प्रकार से कि जायें जिससे मिट्टी में नमी की मात्रा बढ़े।
  • इस प्रकार से फसल चक्र में बदलाव कियें जायें जिनकी पानी पर निर्भरता कम हों और मौजूदा चक्र की तुलना में बेहतर हो।

(ii) भूमि प्रबंधन योजना

  • सूखा होने की स्थिति में, सूखे से पहले किया गया अच्छा भूमि प्रबंधन अधिक लचीलापन प्रदान करताहै
  • मृदा को स्वस्थ बनाये रखती हैं।
  • चरागाह क्षेत्रों पर पशुधन की संख्या को संतुलित करनाय अत्यधिक चराई की इजाजत न देता हैं।
  •  न्यूनतम जुताई तकनीक का उपयोग करने का प्रयास करें।
  • गत वर्ष के फसल अवशेषों को खेत में ही छोड़ देने से मिट्टी की उपरी परत में उपस्थित नमी के वाष्पीकरण को कम करने में मदद मिलती है।
  • अपवाह, कटाव, मृदा हृस को कम करने के लिए परंपरागत संरक्षण प्रथाओं का उपयोग करें और मिट्टी में पानी के रिसाव को प्रोत्साहित करना।
  • धाराओं और पानी के अन्य स्रोतों के पास नदी-तट प्रतिरोधी, निस्पंदन पट्टीकाऐं, घास वाले जलमार्ग और अन्य प्रकार के संरक्षण निस्पंदन स्थापित करें।
  • परंपरागत संरक्षण उद्यम जैसे कि फसल चक्रण, समोच्च पंक्ति फसल, सीढ़ीदार, विंडब्रेक, आदि का उपयोग करें।

(iii) यदि वर्तमान में सिंचाई प्रणाली का उपयोग किया जा रहा है तो,

  • वर्षा, जलाशयों में भंडारण जल का स्तर, सतह और भू जल स्तंर और सूखे की परिस्थितियों में फसल की बुवाई आदि को सूखे का प्रमुख संकेतक माना जाता है। जल शक्ति मंत्रालय केन्द्रीय जल आयोग और केन्द्रीय भू-जल बोर्ड के माध्यम से वैज्ञानिक डाटा, जलाशयों, तालाबों, झीलों में जल का भंडारण, नदी प्रवाह, भूजल उत्पादन और जलभर क्षेत्रों से जल निकास, वाष्पीकरण जल-हानि, जल का टपकना, जल के रिसाव की निगरानी करता है।
  • किसान सिंचाई प्रणाली का इस प्रकार से चयन करें जो वाष्पीकरण, छिद्रण और अपवाह द्वारा पानी के नुकसान को कम करेगा।
  • किसानों को मौजूदा सिंचाई प्रणाली को अधिक कुशल बनाकर रखना चाहिये और जो रखरखाव में भी आसान हो।
  • खेत में जल भंडारण प्रणाली अर्थात् टांका इत्यादी का निर्माण समय रहते ही कर लेने से सिंचाई की आवष्यकता पड़ने पर उपयोग किया जा सकता हैं।
  • कुओं, नलकूपों पर जल उपयोग मापक यंत्रों लगाने से जल के उपयोग की समयबद्ध निगरानी रखी जा सकती हैं।
  • जल के वैकल्पिक स्रोतों (जैसे, गहरे पुराने कुएं, टांकें, बावड़ी, पुराजल) की पहचान करें जिससे फसल के नाजुक दौर में सिंचाई की व्यवस्था की जा सके।

(iv) खरपतवार प्रबंधन और नियंत्रण

  • खरपतवार, अन्य पौधों की तरह बड़ी मात्रा में पानी का उपभोग करते हैं। पानी के लिए प्रतिस्पर्धा होने से फसल उत्पादन में कमी हो जाती है।
  • पानी की कमी से शाकनाशी प्रभाव में कमी आ सकती है क्योंकि अधिकांश शाकनाशियों की प्रभावकारिता पानी पर निर्भर करती है।
  • यांत्रिक तरीके से खरपतवार नियंत्रित करने के उपायों की भी कभी-कभी आवश्यकता हो सकती है।

(v) सूखा प्रबंधन गणक

  • चारा उत्पादन पर पड़ने वाले सूखे के प्रभावों का आकलन करने में मदद करने के लिए यह एक उपकरण है, जो किसानों को बेहतर रणनीति बनाने के लिए सहायता करता हैं और सूखे का सामना करने के लिए वैकल्पिक रणनीति तैयार करने में सक्षम करता हैं।

 ब. सूखे के बाद की परिस्थिति में किये जाने वाले उपाय

(i) किसान अपने खेत की मिट्टी का परीक्षण करवाएं

  • शाकनाशी और रासायनिक उर्वरकों की वर्षों तक ढुलाई हो सकती है, इसलिए सूखे वर्ष के बाद मिट्टी का परीक्षण करना बहुत महत्वपूर्ण है।

(ii)यदि किसान पशुधन को सूखे से क्षतिग्रस्त और प्रभावित फसलें (जैसे, चारा) खिलाने की योजना बनाते हैं, तो निम्न तथ्यों से अवगत होना भी बहुत जरुरी हैं।

  • सूखे की परिस्थिति में, चारे में पोषक तत्वों और गुणवत्ता में कमी तथा रसीलेपन की भी कमी (और प्रोटीन सामग्री) आ जाती है।
  • सूखा चारा जानवरों के लिए पचाने में कठिन और कष्टकारी होता हैं।
  • सूखे की स्थिति, पौधों में विषाक्तता (जैसे, नाइट्रेट्स, माइकोटॉक्सिन) को बढ़ाती है।
  • चारा और चरी खिलाने से पहले, चारे में उपलब्ध पोषक तत्व सामग्री और संभावित विषाक्त पदार्थों के लिए इसका परीक्षण करवाना चाहिये जिससे पशुधन के स्वास्थ्य पर कोई कुप्रभाव न पड़े।

सूखा रोकने के उपाय

सिंचाई को सूखा रोकने के सबसे प्रभावी तंत्र और कृषि उत्पादन में स्थिरता लाने के बड़े उपाय के रूप में माना जाता है। भंडारण बांधों का निर्माण करने से जरूरत के समय पानी का उपयोग करके सिंचाई करने में सुविधा मिलती है। इस प्रकार सिंचाई परियोजनाओं के कमान क्षेत्र के तहत आने वाले सूखा प्रभावित क्षेत्रों को पूरे वर्ष के दौरान सुनिश्चित सिंचाई जल आपूर्ति प्रदान की जाती है।

जल शक्ति मंत्रालय ने त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम, कमान क्षेत्र विकास और जल प्रबंधन कार्यक्रम तथा जल निकायों का सुधार, नवीकरण और प्रतिरक्षण करने जैसी स्कीमों के माध्यम से सिंचाई परियोजनाओं को तकनीकी और वित्तीय सहायता प्रदान करके परियोजनाओं को समय से पहले पूरा करने के लिए राज्य सरकारों को प्रोत्साहित किया है।

उपसंहार

’’सूखा’’ शब्द पारिस्थितिक तंत्र, भूमि और मानव उपयोग के लिए पानी की कमी को इंगित करता है, जिसके परिणामस्वरूप फसलों, पशुधन, आजीविका और मानव स्वास्थ्य पर संकट आता है। सूखा एक जटिल प्राकृतिक आपदा है, जिसका प्रभाव अक्सर क्षेत्र के सामाजिक-पर्यावरणीय पृष्ठभूमि की प्रकृति पर निर्भर करते हैं, और किसी भी अन्य आपदा की तुलना में अधिक लोगों को प्रभावित करते हैं। अब आपदा प्रबंधन के स्वरुप में इसे मुख्य रूप से मौसम संबंधी या भौतिक घटना के रूप में नहीं देखा जाता है, बल्कि एक जटिल पर्यावरणीय या सामाजिक चुनौती के रूप में देखा जाता है। व्यवहार्यता या पानी की गुणवत्ता के मामले में जल संसाधनों की अनुपलब्धता, वाष्पीकरण के कारण पानी की कमी, भूजल का अत्यधिक दोहन और अपव्यय, गैर-कृषि और गैर-मानवीय उद्देश्यों के लिए पानी का अधिक उपयोग इत्यादि कृषि सूखा और पारिस्थितिक संकट को बढ़ावा देने वाले गुण हैं। अधिकांश सूखा प्रबंधन रणनीतियाँ, मैनुअल और दिशानिर्देश अभी भी सूखे के इन पहलुओं के वैज्ञानिक या रणनीतिक प्रासंगिकता को पैदा करने या खराब होने की स्थिति को पहचानने में सक्षम नहीं हैं। जलवायु परिवर्तन और अनुकूलन जागरूकता ने आपदा प्रबंधन के लिए प्राकृतिक संसाधन और पारिस्थितिकी तंत्र के दृष्टिकोण पर ध्यान देने की आवश्यकता को महसूस किया है। दीर्घावधी तक सूखे के जोखिम प्रबंधन के लिए अग्रिम पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन के उपयुक्त मॉडल विकसित किए जा सकते हैं। जबकि सूखा प्रबंधन के लिए वानिकी, जलग्रहण, सार्वजनिक स्वास्थ्य, प्रदूषण नियंत्रण, आर्द्रभूमि संरक्षण, और जैवविश्लेषण अवधारणा के कार्यक्रमों के साथ एकीकरण को अब मान्यता प्राप्त है, महामारी, जंगल की आग और कीट, पर्यावरणीय स्वास्थ्य, बिजली उत्पादन और सामाजिक-राजनीतिक के प्रबंधन के जोखिम को अभी भी संस्थागत रूप देने की आवश्यकता है। ‟शहरी सूखे‟ और ‟जलावलम्बी उद्योगों’’ के मुद्दों को प्रबंधन की दृष्टी से पहचानना भी महत्त्वपूर्ण है और समय की मांग हैं। 

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माइक फ्लड सॉफ्टवेयर का उपयोग करके जलाशय के तटबंध की विफलता के लिए बाढ़ शमन योजना

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माइक फ्लड सॉफ्टवेयर का उपयोग करके जलाशय के तटबंध की विफलता के लिए बाढ़ शमन योजनाRuralWaterFri, 02/28/2020 - 15:07
Source
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रूड़की, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान क्षेत्रीय केंद्र,पटना

सारांश

बांध के विफलताओं के परिणामों से सार्वजनिक जीवन और संपत्तियों की सुरक्षा महत्त्वपूर्ण हो गई है क्योंकि बांध की आपदाओं के लिए संवेदनशील क्षेत्रों में अधिक जनसंख्या निवास करती है। बांध स्थलों की असहज स्थलाकृति के कारण तथा कुछ अभिप्रेत उपयोगों के लिए पानी के भंडारण और आपूर्ति के लिए कृत्रिम जलाशय को विकसित किया जाता है। ये जलाशय आम तौर पर आकार में विशाल होते हैं, पानी की काफी मात्रा को संग्रह करते हैं और इनसो नदी के नीचे की ओर बाढ़ का जोखिम बनता है ज¨ अन्यथा सुरक्षित थे। जलाशय तटबंध की विफलता का उपचार बांध की विफलता के समान है। विफलताओं के मामले में सरंचनाअ¨ की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार संगठन निवारक उपायों की ऐसी योजना बनाते है ताकि नदी के निचले बहाव क्षेत्र में रहने वाली आबादी के जीवन और सम्पत्ति को होने वाले नुकसान को कम किया जा सके। बांध/तटबंध की विफलता के कारण बाढ़ की सीमा, परिमाण और बाढ़ के समय का पूर्व आकलन, बाढ़ उपचार उपायों की योजना बनाने में महत्त्वपूर्ण रूप से सहायक होता है। इसके अलावा, ये सूचनाएं विफलता के समय निचले क्षेत्र में रहने वाली आबादी को बाढ़ की चेतावनी जारी करने में मदद करते हैं। हालांकि, इन प्राचालों का विश्लेषण करना और आपदा के समय बाढ़ के संभावित आप्लावन एवं चेतावनी समय की सीमा को निर्धारित करना काफी कठिन है। इसलिए, एक काल्पनिक बांध भंग/तटबंध की विफलता की स्थिति का अनुकार करके इन मापदंडों का पूर्व निर्धारण किया जाता है। इस पत्र में कर्नाटक में एक प्रमुख औद्योगिक प्रतिष्ठान के पास मानव निर्मित एक जलाशय की तटबंध की विफलता के मामले को अध्ययन किया गया है। अध्ययन में बाढ़ के विभिन्न परिदृश्यों की पहचान, ब्रीच प्राचलों का आकलन, का निदर्शन तथा नदी के नीचे की ओर बहाव का मर्गाभिग्मन कर अधिकतम बाढ़ आप्लावन एवं इसके समय की गणना की गई है।

मुख्य शब्दः बांध-भंग बाढ़, माइक फ्लड, आपातकालीन कार्य योजना

Abstract

Protection of the public lives and properties from the consequences of dam failures has become important as population have concentrated in areas vulnerable to dam break disasters. Due to unfavorable site condition, artificial reservoir is developed for storage and supply of water for some intended use. These reservoirs are generally huge in size, impounds significant amount of water and imposes flood risk in its downstream reaches which were otherwise safer. The treatment of reservoir embankment failure is similar to the dam failure. The organizations responsible for the safety of the structure plan for preventive measures in case of failures so that damages to the lives and properties of the population living in the downstream area may be minimized. The prior assessment of extent, magnitude and time of flooding due to failure of dam/ embankment are the important input in planning for flood preparedness measures. Further, these inputs help in issuing flood warning to the downstream population at the time of failure. However, it is quite difficult to conduct analysis and determine the warning time and extent of inundation at the time of disaster. Therefore, pre-determination of these parameters is done by simulating a hypothetical dam break/ embankment failure situation. The paper discusses the case study of failure of embankment of a man made reservoir near a major industrial set up in Karnataka. The study envisages the identification of various scenarios of flooding, estimation of breach parameters, modelling of dam break flood and its routing in the downstream reach to compute the maximum flood inundation and its time of occurrences.

Key words: dam break flood, MIKE FLOOD, emergency action plan

परिचय

जान-माल की क्षति के कारण बांध की विफलता एक गंभीर चिंता का विषय है। यहां तक कि इसमें, बांध से नीचे की ओर आवासीय विस्तार और विकासात्मक गतिविधियों के कारण तथा संसाधनों और बाढ़ से सुरक्षा की भावना में वृद्धि के कारण डिजाइन चरण में की गई परिकल्पना से, अधिक नुकसान हो सकता है। तूफान से उत्पन्न बाढ़, बांध-भंग बाढ़ इस अर्थ में अलग है कि यह शायद ही आपातकालीन कार्रवाई के लिए कोई प्रतिक्रिया का समय देती है। संग्रहीत जल की अचानक और अनियंत्रित रिहाई, आमतौर पर विनाशकारी जलवायु संबंधी घटनाओं के साथ मेल खाना, बाढ़ की तीव्रता को बहुत उच्च स्तर तक बढ़ाता है और इस तरह पानी नीचे की ओर व्यापक क्षेत्र में फैलता है, जिससे सामान्य वर्षा से उत्पन्न बाढ़ की तुलना में नुकसान बहुत अधिक होता है। इसके अलावा, राष्ट्रीय और आर्थिक हितों पर अतिवादी कार्रवाइयों में वृद्धि के साथ, आपातकालीन कार्य योजनाएं पूर्व अपेक्षित हैं। इस तरह की योजनाओं में बांध की विफलताओं के विभिन्न परिदृश्यों के तहत बाढ़ आप्लावन क्षेत्र को दर्शाने वाले मानचित्र शामिल हैं। यह संभावित नुकसान का अनुमान लगाने में मदद करते है। इसमें बाढ़ का स्तर और उसके उत्पन्न होने का समय भी शामिल है। ई. ए. पी. के महत्त्वपूर्ण घटकों में आपातकालीन बचाव योजना, संचार लिंक आदि के अलावा आवासीय, सम्पत्ति और अन्य बुनियादी ढाचों का सतत हल शामिल है। काल्पनिक बांध भंग विश्लेषण संभावित बाढ़ क्षति की भविष्यवाणी करने और अग्रिम में आपातकालीन कार्य योजना (ई.ए.पी.) तैयार करने के लिए किया जाता है। इस तरह का विश्लेषण न केवल मौजूदा और पुराने बांधों के लिए बल्कि प्रस्तावित बांधों के लिए भी अनिवार्य है (MoEF, 2015)।

एक पूर्ण बांध भंग विश्लेषण में जल विज्ञान, हाइड्रोलिक, पर्यावरण और भू-तकनीकी और संरचनात्मक मानकों जो बांध और बाढ़ आप्लावन क्षेत्र से संबंधित है, पर संतुलित रूप से विचार किया जाता है। समय पर निर्भर बाढ़ की लहरों का प्रसार तथा एक टूटे हुए बांध से नीचे की ओर बहाव का आंकलन करना अत्यंत जटिल है। इसके लिए जलाशय के विभिन्न प्राचलों और बांध एवं बांध भंग के अभिलक्षणों की आवश्यकता होती हैं। इसके अलावा, बाढ़ मैदानी क्षेत्र में बाढ़ की लहर का निर्धारण अन्य कारकों द्वारा किया जाता है जैसे भूभाग और सतहों में गतिशील भिन्नता, भूमि उपयोग परिवर्तन का प्रभाव आदि, इनमें से कई का गणितीय मॉडल में अनुप्रयोग मुश्किल है। संभावित अधिकतम बाढ़ (पी.एम.एफ.),जो प्राकृतिक परिस्थितियों में बांध की विफलता का सबसे सामान्य कारण है, के पुनर्मूल्यांकन के अलावा बांध की विफलता के लिए अग्रणी विभिन्न परिदृश्यों को विकसित करके बांध भंग बाढ़ का अनुकार किया जाता है। स्पिलवेज की अपर्याप्त क्षमता पी.एम.एफ. के अनुमानित प्रवाह को प्रवाहित करने में असमर्थ हो सकती है जिसके कारण ओवरटोप की स्थिति के कारण बांध भंग होता है। बांध की विफलता के अन्य संभावित कारणों में भूकंप से प्रेरित संरचनात्मक विफलता, उपकरण विफलता, आपराधिक कार्रवाई, तोड़-फोड़ आदि शामिल हैं (सी.डब्लू,सी.,2006, ई.ए.पी.)।

तरल गतिकी गणनाओं (सी.एफ.डी.) की विधियों में प्रगति और नवीन तकनीकों जैसे; भौगोलिक सूचना प्रणाली (जी.आई.एस.) और उपग्रह चित्र, की उपलब्धता से कुछ कठिनाइयों को सफलतापूर्वक हल किया गया है। बांध भंग विश्लेषण के लिए कई प्रयोगात्मक, विश्लेषणात्मक और संख्यात्मक मॉडल विकसित किए गए हैं। संगणक सहायता प्राप्त संख्यात्मक मॉडल जैसे DAMBRK (Fread 1988), SMPDBK (Wetmore and Fread 1991),CADAMBRK (Liong et al- 1991), NWS FLDWAV(Fread, 1993), HEC RAS (USACE, 2006),BOSS DAMBRK (Kho, 2009), and MIKE 11 (DHI, 2004) आदि उनकी उच्च कम्प्यूटेशनल गति और दक्षता के कारण दुनिया भर में व्यापक रूप से सफलतापूर्वक उपयोग किए गए है। अधिकांश डैम ब्रेक विश्लेषण अध्ययन एक आयाम मॉडल का उपयोग करके किया गया है। NWS DAMBRK मॉडल का इस्तेमाल बारना बांध, मध्य प्रदेश, भारत (रा.ज.वि.,1997), घोड़ाहोदा परियोजना ओडिशा, भारत (रा.ज.वि., 2000) तथा यमुना नदी पर प्रस्तावित बांध, भारत (लोधी और अग्रवाल, 2012) के बांध भंग विश्लेषण के लिए किया गया है। BOSS DAMBRK मॉडल का उपयोग गेरुगु नदी मलेशिया ( Kho et al, 2009) पर प्रस्तावित बांध के बांध भंग विश्लेषण का अध्ययन करने के लिए किया गया था। HEC RAS मॉडल का उपयोग ओरो डैम ब्राजील (Gee, 2008), चीन की हान नदी पर डैनजियांगकौ और याहाकौ बांध भंग (Minglong and Jayawardena, 2008) और सेंटर कंट्री, पी ए, यू एस ए में फोस्टर जोसेफ लेटर्स बांध (Xiong,2011) पर किया गया है। SMPDBK मॉडल का उपयोग सेंटर कंट्री,। PA यूएसए (Shahraki et al-, 2012) में फोस्टर जोसेफ सेयर्स बांध के बांध भंग विश्लेषण के लिए किया गया है। माइक 11 मॉडल का उपयोग बिचोम और टेंगा बांध (Husain and Rai, 2000), बफ़ेल क्रीक डैम, नॉर्थ कैरोलिना, यू एस ए (Tingsanchali and Chinnarasri, 2001), इंद्र सागर और ओंकारेश्वर परियोजना, भारत (Pillai et al-, 2012) तथा हीराकुंड बांध, भारत (Mohite et al-, 2014) के बांध भंग विश्लेषण के लिए किया गया है। एक आयाम मॉडल उपयोग करने में सरल है तथा प्रवाह विशेषताओं के बारे में जानकारी प्रदान करने में सक्षम है परन्तु प्रवाह क्षेत्र के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करने में विफल रहता है। इसलिए, बाढ़ के प्रवाह की दो आयाम प्रकृति को मॉडल करने का प्रयास किया गया है। भंगता विकास और भंगता प्रवाह का वर्णन करने के लिए एक आयामी उपागम का उपयोग किया गया है और आप्लावित क्षेत्रों में बाढ़ के प्रवाह की भविष्यवाणी करने के लिए दो आयामी उपागम का उपयोग किया गया है। इस पत्र में, कर्नाटक में एक प्रमुख औद्योगिक शहर के नजदीक कच्चे पानी के भंडारण जलाशय के तटबंध की विफलता के एक परिदृश्य के अध्ययन पर चर्चा की गई है। जलाशय तटबंध की विफलता का उपचार बांध की विफलता के समान है। बांध/तटबंध की विफलता के कारण बाढ़ की सीमा, परिमाण और बाढ़ के समय का पूर्व आकलन, बाढ़ रोकथाम उपायों की योजना बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके अलावा, ये सूचनाएं भंगता के समय बांध स्थल से नीचे की ओर आबादी को बाढ़ की चेतावनी जारी करने में मदद करते हैं। अध्ययन में बाढ़ के विभिन्न परिदृश्यों की पहचान, भंगता प्राचालों का आकलन, बांध भंग बाढ़ का निदर्शन तथा नीचे की और प्रवाह का मार्गाभिग्मन कर अधिकतम बाढ़ आप्लावन और इसके उत्पन्न होने के समय की गणना का प्रयास किया गया। कच्चे पानी के जलाशय के तटबंध की विफलता को माइक 11 में अनुकारित किया गया है जबकि नीचे की ओर आप्लावन मानचित्रण को माइक फ्लड में किया गया है माइक फ्लड गतिशील रूप से दो स्वतंत्र सॉफ्टवेयर पैकेजों अर्थात माइक 11 (1-डी) और माइक 21 (1-डी) को जोड़ता है। माइक 11 एक परिमित अंतर स्कीम के द्वारा सेंट-वेनेंट समीकरणों को हल करता है। तटबंध की विफलता को ‘‘बांध भंग’’ संरचना के माध्यम से विफलता को निदर्शित किया जा सकता है। भंगता में वृद्धि को भंगता की चौड़ाई, शिखा स्तर और साइड प्रवणता के लिए समय श्रेणी द्वारा वर्णित किया जा सकता है। माइक 21 का ‘‘क्लासिक’’ संस्करण एक आयताकार ग्रिड का उपयोग करता है और एक सीमित अन्तर स्कीम के माध्यम से उथले पानी के समीकरणों को हल करता है। नीचे की ओर के प्रवाह के फैलाव के लिए, 10 मीटर ग्रिड आकार की बैथिमेट्री बाढ़ मैदानी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती है। महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अधिकतम बाढ़ का स्तर और इसके उष्म का समय और बाढ़ की चेतावनी का समय अनुमानित किया गया है। बाढ़ के विभिन्न मामलों के लिए अधिकतम बाढ़ आप्लावन की गणना भी की गई है।

अध्ययन क्षेत्र

कर्नाटक में विजयपुरा (जिसे पहले बीजापुर के नाम से जाना जाता था) जिले के बसावना बागेवाड़ी तालुक में एक थर्मल पावर प्लांट प्रस्तावित है, जो भारत के दक्षिणी राज्य के हीरे हॉल नाला में कृष्णा नदी की एक छोटी सहायक नदी पर स्थित है। प्लांट स्थल से लगभग 18 किमी की दूरी पर कृष्णा नदी में अल्माटी बांध से पाइप-लाइन के माध्यम से संयंत्र के लिए पानी की आवश्यकता को पूरा किया जाएगा। तदनुसार, 336 एकड़ के क्षेत्र में फैले कच्चे पानी के एक जलाशय की योजना बनाई गई है जहां संयंत्र के अन्य उपयोग के लिए पानी को संग्रहित किया जाएगा। 575.5 मीटर के पूर्ण जलाशय स्तर पर 10.5 एम सी एम की क्षमता के साथ चारों ओर तटबंधों के निर्माण द्वारा जलाशय का निर्माण किया जाएगा। हीरे हॉल नाला, कच्चे पानी के जलाशय के उत्तर पूर्व तटबंध के साथ प्रवाहित होने वाले क्षेत्र में प्राकृतिक जल निकासी को चित्र में दिखाया गया है। जलाशय क्षेत्र के भीतर ऊंचाई आर एल 575 मीटर से आर एल 560 मीटर तक पाई जाती है। नदी पर सर्वेक्षण किए गए अनुप्रस्थ अनुभाग के अनुसार, अल्मट्टी बांध के संगम से जलाशय स्थल के बीच निकासी की औसत प्रवणता 2.78 मीटर/किमी गणना की गई है। हीरे हॉल नाला निकासी के लिए नीचे की ओर महत्त्वपूर्ण बस्ती में गोल्सांगी (आर एल 551.3 मीटर), बुदनी (आर एल 549.6 मीटर), बीराल्डिनी (आर एल 544.9 मीटर), हंसीहाल (आर एल 528 मीटर), गुदादिनी (आर एल 537.5 मीटर) और वंदना (आर एल 532 मीटर) शामिल हैं। बीजापुर जिले को अत्यंत ग्रीष्म के साथ साथ अर्ध-शुष्क क्षेत्र में वर्गीकृत किया जा सकता है। क्षेत्र की औसत तापमान भिन्नता 200C Lks 420C के बीच है। सबसे ठंडा महीना दिसंबर ओर जनवरी में होता है। (CGWB, 2008)। बीजापुर जिले की औसत वर्षा 578 मिलीमीटर है। अधिकतम वर्षा सितंबर माह में उसके पश्चात अक्टूबर माह होती है। सितंबर माह में एक दिन में सबसे अधिक वर्षा 149.2 मिलीमीटर और फरवरी माह में न्यूनतम वर्षा 3.4 मिलीमीटर रिकार्ड की गई थी। बीजापुर जिले में सामान्य वर्षा दिवस 36.5 से 39.5 दिन तक होते हैं। (CGWB, 2008)। दक्षिण पश्चिम मानसून मुख्य वर्षा का मौसम है जो कुल वर्षा का 80% योगदान देता है, जबकि कुल वर्षा का 12% मानसून के बाद की अवधि में प्राप्त होता है। ग्रीष्म ऋतु में कुल वार्षिक वर्षा का 7% वर्षा होती है जबकि सर्दियों का मौसम (जनवरी से फरवरी) में कुल वर्षा का 1% से कम योगदान देता है (KSPCB,2012)। जलाशय स्थल पर जमीन की ऊंचाई आर एल 560 मीटर से आर एल 570 मीटर तक और बांध के शिखर पर आरएल 577 मीटर है। इसलिए, तटबंध की ऊंचाई इनसे 7.5 मीटर से 17.5 मीटर तक अधिक है। आरएल 575 मीटर के पूर्ण जलाशय स्तर (एफ आर एल) पर जलाशय की गणना की क्षमता 10.5 एम सी एम है। इसलिए एफ आर एल पर स्थिर ऊंचाई और सकल भंडारण के मानदंडों के आधार पर, बांध को छोटे बांध के रूप में श्रेणीगत किया गया है, जिसके लिए बांध की सुरक्षा के लिए अंतःप्रवाह अभिकल्प बाढ़ को 100-वर्ष की वापसी अवधि बाढ़ के रूप में निर्दिष्ट किया गया है (आईएसः 11223-1985)। CWPRS, 2013 ने बाढ़ अध्ययन किया है और 100 साल के रिटर्न पीरियड बाढ़ का आंकलन किया जिसको इस अध्ययन में उपयोग किया गया है। बांध विवरण जैसे बांध का प्रकार, निर्माण सामग्री और प्रकार, बांध और जलाशय के डिजाइन विवरण, बांध स्थल पर नदी तल का स्तर, बांध के शीर्ष की ऊंचाई आदि परियोजना प्राधिकरण से प्राप्त किए गए हैं। तटबंध के लिए सामग्री संकुचित मिट्टी का उपयोग किया गया है। तटबंध का शीर्ष स्तर आर एल 577.0 मीटर है जबकि जलाशय का एफ आर एल, आरएल 575 मीटर है। जलाशय क्षेत्र के लिए कंटूर आंकड़ों से जलाशय के लिए उन्नयन क्षमता वक्र की गणना की गई है। जलाशय क्षेत्र का कंटूर नक्शा आर्क जी आई एस का उपयोग करके तैयार किया गया है। अध्ययन में हीरे हॉल नाला के लिए 17.3 किलोमीटर लम्बाई पर 100 मीटर के अंतराल पर अनुप्रस्थ अनुभाग आंकड़ों का उपयोग किया गया है। अध्ययन क्षेत्र का डिजिटल एलिवेशन मॉडल (डी ई एम) को क्षेत्र सर्वेक्षण आंकड़ो, भारतीय सर्वेक्षण विभाग की टोपो शीट्स, कंटूर और स्पॉट स्तरों का उपयोग करके विकसित किया गया है। इन सभी उन्नयन आंकड़ों को यू टी एम कोर्डिनेट में आर्क जी आई एस में आयात कर 30 मीटर ग्रिड आकार पर क्षेत्र उत्पन्न किया गया जिसको चित्र 2 में दिखाया गया है।

कार्य विधि

तटबंध के टूटने और वर्षा से प्रेरित प्रवाह से हीरे हॉल नाला में बाह्य प्रवाह को में माईक 11 में निदर्शित किया गया है। बाढ़ मैदान क्षेत्र को ग्रीडेड डीईएम के माध्यम से प्रतिरूपित किया गया है और माईक 21 मॉडल में इसका उपयोग किया गया है जो बाढ़ मैदानी क्षेत्र में नदी तट से सतही प्रवाह एवं स्पिल तथा इसके विपरीत को अनुकारित करता है। माईक 21 मॉडल को माईक 11 मॉडल से गतिशील रूप से एकल पैकेज में जोड़ा गया है, जिसको माईक फ्लड के नाम से जाना जाता है और बाढ़ के अध्ययन के लिए व्यापक रूप से इसका उपयोग किया जाता है। माईक 11 में शासी समीकरण 1-डी (एक आयामी) और उथले पानी के प्रकार हैं, जो कि मूल सेंट-वेन्ट समीकरणों का संशोधित रूप हैं। ये निहित परिमित अंतर समीकरणों के एक सेट में बदल जाते हैं, और डबल स्वीप एल्गोरिथ्म का उपयोग करके इनको हल किया जाता है। वर्तमान सेटअप में समय पाद को बहुत कम अर्थात 10 सेकंड रखा गया है क्योंकि dx मान बहुत बड़ा अर्थात 200 मीटर है। 1 जनवरी 2015 को 08:00 बजे से 4 जनवरी 2015 को 12:00 बजे तक 3 दिनों की अवधि के लिए सिमुलेशन किया गया है। ये तिथियां काल्पनिक हैं। 30 मीटर ग्रिड डी ई एम से बैथीमीट्री तैयार की गई है। खेती की गई परिपक्व फसलों के लिए रूढ़िवादी मूल्यों पर विचार करते हुए बाढ़ मैदान क्षेत्र के लिए मैनिंग की खुरदरापन को 0.05 के रूप में निर्दिष्ट किया गया है (आइ एसः 2912,2004 )। कम्प्यूटेशनल टाइम स्टेप (Δt) अलग-अलग सिमुलेशन के लिए 2 सेकंड के निचले मान पर सेट है। हीरे हॉल नाला के साथ माईक 11 मॉडल को माईक 21 के साथ युग्मन के लिए पाश्र्व लिंक का उपयोग किया गया है। कच्चे पानी के जलाशय के तटबंध में भंग स्थान को माईक 21 ग्रिड के साथ जोड़ने के लिए मानक लिंक का उपयोग किया गया है।

 चित्र 1: कच्चा पानी का जलाशय और हीरे हॉल नाला तक अल्लापट्टी जलाशयचित्र 1: कच्चा पानी का जलाशय और हीरे हॉल नाला तक अल्लापट्टी जलाशय चित्र 2: अध्ययन क्षेत्र का डी ई एमचित्र 2: अध्ययन क्षेत्र का डी ई एम

बांध भंग बाढ़ विश्लेषण

कच्चे पानी के जलाशय से अल्माटी जलाशय (लगभग 17.6 किमी के एक खंड) तक हीरे हॉल नाला का माईक 11 में अनुकार किया गया है। जलाशय के हिस्से के लिए एक अलग शाखा बनाई गई है और तटबंध पर ब्रीच स्थान को इसके मध्य बिंदु पर परिभाषित किया गया है। तटबंध तब विफल हो जाता है जब कच्चा जल भंडार 577 मीटर के एफ आर एल पर होता है और हीरे हॉल नाला के नीचे का जल स्तर 519.6 मीटर (यानी अल्माटी बांध का एफ आर एल) के स्थिर जल स्तर पर होता है। उल्लंघन एफ आर एल यानि आर एल 577 मीटर से ब्रीच शुरू होती है और ट्रेपोजॉइडल आकार में विकसित होती है और खंड का निचला भाग एक घंटे की अवधि में आर एल 559.5 मीटर के निम्नतम स्तर पर आ जाता है। ब्रीच मापदंडों को तालिका 1 में परिभाषित किए गए हैं।

तालिका 1- ब्रीच मापदंडों का विवरण     

ब्रीच समय  ¼sec½

ब्रीच Width¼m½

ब्रीच स्तर ¼MSL½

ब्रीच प्रवणता

0

0

577

1

1800

35

570

1

3600

46

560

1

6566400

46

559&5

1

ब्रीच बाह्य प्रवाह की गणना NWS DAMBRK समीकरण का उपयोग करके की जाती है। प्रवाह अनुकरण 1/1/2015 को 8:00:00 बजे शुरू होता है, जबकि भंगता 1/1/2015 को 5:00:00 बजे विकसित होना शुरू होती है, जो कि 100 वर्ष के रिटर्न पीरियड बाढ़ के चरम के साथ मेल खाता है। ब्रीच का समय यानी ब्रीच के शुरू होने की अवधि तथा अंतिम ब्रीच के आकार के पूर्ण विकास के लिए 1 घंटा माना जाता है। नदी के प्रवाह को 1 /4/2015 को 2:00:00 बजे तक अनुकारित किया जाता है ताकि जलाशय से अधिकतम पानी का बहिर्वाह हो सके और डाउन स्ट्रीम में अधिकतम आप्लावन की गणना की सके।

पूर्व परियोजना और परियोजना के बाद के परिदृश्य सहित बाढ़ के विभिन्न मामलों पर अध्ययन में विचार किया गया है। पूर्व परियोजना परिदृश्य (केस-1) में, हीरे हॉल नाला केवल डिजाइन बाढ़ (100-वर्ष की वापसी अवधि बाढ़) को विचार किया गया है। परियोजना के बाद के परिदृश्य में, दो बाढ़ परिदृश्य पर विचार किया गया है; सबसे पहले (केस-2), तटबंध के टूटने से पृथक बाढ़ और दूसरा (केस-3), हीरे हॉल नाला में अभिकल्प बाढ़ तथा तटबंध की विफलता के कारण बाढ़ के संयोजन से बाढ़। अनुकार के सभी मामलों में तटबंध की भंग विफलता को एफआरएल के तहत माना जाता है और अल्माटी बांध पर नीचे की ओर बहाव की सीमा स्थिति अल्माटी बांध का एफआरएल यानी 519.6 मीटर है। विभिन्न डाउनस्ट्रीम वर्गों में बाढ़ हाइड्रोग्राफ का क्षीणन चित्र 3 में दिखाया गया है।

 चित्र 3: परिदृश्य-1, परिदृश्य-2 अ©र परिदृश्य-3 के बाढ़ परिदृश्य के लिए विभिन्न डाउनस्ट्रीम पर हाइड्रोग्राफचित्र 3: परिदृश्य-1, परिदृश्य-2 अ©र परिदृश्य-3 के बाढ़ परिदृश्य के लिए विभिन्न डाउनस्ट्रीम पर हाइड्रोग्राफ

ब्रीच मापदंडों की संवेदनशीलता

ऐतिहासिक बांधों की विफलता की घटनाओं और विभिन्न अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा किए गए वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर तकनीकी दिशानिर्देशों के आधार पर ब्रीच मापदंडों का चयन किया जाता है। विभिन्न निर्माण तकनीकों और कारीगरी और अन्य अप्रत्याशित स्थितियों सहित कई कारणों से ब्रीच पैरामीटर आंकलनों में अनिश्चितता रहती है। बांध की विफलता के कारण बाढ़ का शिखर ब्रीच मापदंडों से अत्यधिक प्रभावित होता है और विभिन्न ब्रीच मापदंडों के संयोजन से प्रभावित होता है। इसलिए, व्यक्तिगत ब्रीच पैरामीटर की संवेदनशीलता को तीन ब्रीच मापदंडों अर्थात ब्रीच की चौड़ाई, ब्रीच के साइड-स्लोप और ब्रीच के समय के लिए संवेदनशीलता विश्लेषण कर किया जाता है। संवेदनशीलता विश्लेषण में, ब्रीच आउटफ्लो की गणना एक पैरामीटर को एक समय में विविधता कर की जाती है, जबकि अन्य मापदंडों को नियत रखा जाता है। 50 मीटर, 70 मीटर और 100 मीटर की ब्रीच चौड़ाई के लिए ब्रीच चौड़ाई संवेदनशीलता विश्लेषण किए गए हैं। इसी प्रकार, ब्रीच समय की संवेदनशीलता का मूल्यांकन ब्रीच के समय को 0.5 घंटा, 1 घंटा और 2 घंटे विविधता करके किया गया है। विभिन्न ब्रीच मापदंडों की संवेदनशीलता को चित्र 4 में दिखाया गया है।

 चित्र 4- ब्रीच मापदंडों की संवेदनशीलताचित्र 4- ब्रीच मापदंडों की संवेदनशीलता

अधिकतम बाढ़ स्तर

माईक फ्लड में जल की गहराई की गणना को ग्रिडड रूप में किया जाता है। बाढ़ के विभिन्न मामलों के लिए महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अधिकतम बाढ़ स्तर निकाला गया है। जलाशय की डाउनस्ट्रीम में महत्त्पूर्ण आवासीय स्थान गोल्सांगी, बुदनी, बिरलनंदिनी, हंसीहाल, गुडडनी और वंडल, जिन पर बाढ़ के विभिन्न मामलों के लिए अधिकतम बाढ़ उद्विक्षेप की गणना की गई है जिसको तालिका 2 में दिखाया गया है। अधिकतम बाढ़ स्तर की घटना के समय को ब्रैकेट के भीतर दिखाया गया है। परिदृश्य-1 के लिए जिसमें कैचमेंट में डिजाइन बाढ़ के कारण अधिकतम बाढ़ का अनुकार किया गया है, हीरे हॉल नाला में डिजाइन बाढ़ के लागू होने के बाद से अधिकतम बाढ़ के समय की गणना की जाती है। परिदृश्य-2 के लिए अधिकतम बाढ़ (बांध टूटने के कारण बाढ़ को अनुकारित किया गया है) और परिदृश्य-3 (परिदृश्य-1 और परिदृश्य-2 का संयोजन) ब्रीच के आरम्भ के बाद से गणना की जाती है। इसके अलावा, तालिका बाढ़ के विभिन्न मामलों के लिए अधिकतम बाढ़ आप्लावन को भी दर्शाती है। तटबंध की विफलता और डिज़ाइन के आधार पर कैचमेंट में बाढ़ के कारण संयुक्त बाढ़ के लिए अधिकतम बाढ़ की उद्विक्षेप गोलेसांगी के पास 548.54 मीटर है, जबकि यह 977 हेक्टेयर क्षेत्र को आप्लावित करता है।

तालिका 2-  महत्त्वपूर्ण स्थानों पर विभिन्न परिदृश्यों  के लिए अधिकतम बाढ़ उद्विक्षेप

परिदृश्य

अधिकतम

आप्लावन

क्षेत्र ;हे. में)

महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अधिकतम बाढ़ उद्विक्षेप

गोल्सांगी

ब्दुगी

बिराल्नान्दिनी

हुन्सिहाल

गुदादिनी

वाण्डल

परिदृश्य 1

64

 

547.57

(1 hr 16 m)

541.34

(1 hr 31 m)

534.95

(1 hr 42 m)

527.35

(2 hr 10 m)

523.72

(2 hr 26 m)

521.5

 

परिदृश्य 2

785

 

547.14

(1 hr 11 m)

541.34

(1 hr 18 m)

535.09

(1 hr 34 m)

529.31

(1 hr 52 m)

526.23

(2 hr 5 m)

524.25

 

परिदृश्य 3

977

 

548.54

(1 hr 10 m)

542.7

(1 hr 17 m)

536.75

(1 hr 29 m)

530.29

(1 hr 42 m)

527.29

(1 hr 54 m)

525.32

 

 

(ब्रैकेट में समय महत्वपूर्ण स्थानोंके पास शिखर बाढ़ के आगमन का समय दर्शाता है)

आपदा प्रबंधन योजना

आपदा के दौरान आपातकालीन कार्य योजना तैयार करने के लिए बाढ़ का अधिकतम स्तर, बाढ़ की अवधि और बाढ़ का समय महत्त्वपूर्ण है। तालिका 2 से पता चलता है कि परिदृश्य-3 के कारण अधिकतम बाढ़ आ गई है। परिदृश्य-3 के लिए अधिकतम आप्लावन क्षेत्र को गूगल अर्थ पर देखा जाता है जहां क्षेत्र का विस्तृत विवरण उपलब्ध है। अवरलैड आप्लावन मानचित्र आपातकाल योजना बनाने में सहायक होगा। आप्लावन मानचित्र को महत्त्वपूर्ण स्थानों के आस-पास जूम (बड़ा) किया जाता है जिससे सड़क नेटवर्क के साथ-साथ आप्लावन क्षेत्र को भी देखा जा सकता है। चित्र 5 में गोल्सांगी, बुदनी, बिरलनंदिनी और हनिशाल के पास जलप्रलय को दिखाया गया है। इन क्षेत्रों से आपातकालीन निकासी को निकटतम राजमार्ग और रेलवे लाइन और अन्य ऊंचाई वाले क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है। यह आंकड़ा दर्शाता है कि एलिवेटेड एग्जिट रोड (बाढ़ से मुक्त) द्वारा सभी प्रभावित क्षेत्रों में कुछ ही मिनटों में पहुंचा जा सकता है जबकि बाढ़ के परिदृश्य के सभी मामलों के लिए 1 घंटे की न्यूनतम चेतावनी का समय उपलब्ध है (तालिका 2)। इसलिए, हीरे हॉल नाला के साथ भोंपू जैसा उपयुक्त बाढ़ चेतावनी प्रसार तंत्र पर्याप्त रूप से काम कर सकता है। इसके अलावा, इन बस्तियों को इन स्थानों पर एक दीवार के निर्माण से बाढ़ से बचाया जा सकता है। इन स्थानों पर अधिकतम बाढ़ स्तर तालिका 2 से प्राप्त किया जा सकता है जो निर्धारित मुक्त बोर्ड के साथ बाढ़ की दीवार/तटबंध के शीर्ष को परिभाषित करेगा।

 निष्कर्ष

इस अध्ययन में बाढ़ के परिदृश्य के तीन मामलों का अनुकरण किया गया है; (क) डिजाइन के आधार बाढ़, (ख) बांध टूटने के कारण बाढ़ और (ग) ‘क’ और ‘ख’ का संयोजन से बाढ़। परिदृश्य-1, परिदृश्य-2 और परिदृश्य-3 के लिए अधिकतम बाढ़ आप्लावन क्रमशः 644 हेक्टेयर, 785 हेक्टेयर और 977 हेक्टेयर है। परिदृश्य-3 बाढ़ का सबसे गंभीर परिदृश्य है, जिससे अधिकतम आप्लावन होता है। बाढ़ के नक्शे को गूगल अर्थ पर दिखाया जाता है जहां विस्तृत परिवहन नेटवर्क और अन्य सुविधाओं को देखा जा सकता है। इन मानचित्रों का उपयोग बाढ़ आपदा के दौरान आपातकालीन निकास योजना बनाने के लिए किया जा सकता है।

References

  • CWC EPA 2006. Guidelines for Development and Implementation of Emergency Action Plan (EAP) for Dams, Central Water Commission, New Delhi.
  • Fread DL 1988. The NWS DAMBRK model-Theoretical background/ user documentation. Hydrology Research Laboratory, Office of Hydrology, National Weather Service (NWS), NOAA, Silver Spring, Maryland.
  • Fread DL 1993. NWS FLDWAV Model-The replacement of DAMBRK for dam break flood prediction. Hydrology Research Laboratory, Office of Hydrology, National Weather Service (NWS), NOAA, Silver Spring, Maryland.
  • USACE 2006. HEC-RAS River Analysis System, User’s Manual Version 4.0 Beta, Hydrologic Engineering Center, US Army Corps of Engineers.
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जलवायु परिवर्तन से खतरे में तिब्बत का पठार

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जलवायु परिवर्तन से खतरे में तिब्बत का पठारHindiWaterFri, 02/28/2020 - 17:15

फोटो - Science News

‘दुनिया की छत’ के नाम से जाना जाने वाला तिब्बत का पठार उत्तर से दक्षिण तक करीब एक हजार किलोमीटर लंबा है, जबकि पूर्व से पश्चिम तक 2500 किलोमीटर चौड़ा है। तिब्बत का पठार चीन द्वारा नियंत्रित बोड स्वायत्त क्षेत्र से होता हुआ भारत के लद्दाख तक फैला है। यानी दक्षिण की पर्वत श्रृंखलाओं से लेकर उत्तर में तकलामकान रेगिस्तान तक फैला हुआ है। मध्य एशिया में स्थित इस पठार को दुनिया का सबसे ऊंचा पठार भी कहा जाता है, जो समुद्र तल से 4500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसका क्षेत्रफल करीब 25 लाख वर्ग किलोमीटर है। यानी फ्रांस के सभी देशों से चार गुना ज्यादा है। इस पठार को पृथ्वी का तीसरा ध्रुव भी माना जाता है। विश्वभर के 8 हजार मीटर से ऊंचे सभी 14 पर्वत, या तो पठार के इसी क्षेत्र में पाए जाते हैं, या फिर इसके निकटवर्ती क्षेत्र में। एशिया की कई प्रमुख नदियां इन्हीं पर्वत श्रृंखलाओं से होकर निकलती हैं, जिनमें भारत की ब्रह्मपुत्र और एशिया की मीकांग, सालवीन तथा यांग्त्सीक्यांग आदि नदियां शामिल हैं। इसी पठार पर चान्गतंग इलाका है, जो समुद्रतल से करीब पांच हजार मीटर की ऊंचाई पर है। हाडकंपाने वाली ठंड और विपरीत परिस्तिथितियों के कारण यहां आबादी काफी कम है। 

तिब्बत के पठार का चीनी नाम ‘कोंगलिंग’ है, वहीं इसे पामीर पठार के नाम से जाना जाता है, जबकि यहां उगने वाले जंगली ज्याज के नाम पर इसे प्याजी पर्वत भी कहा जाता है। इन विकट परिस्थितियों में यूं तो यहां आबादी कम ही रहती है, लेकिन चान्गतंग दुनिया का तीसरा सबसे कम आबादी वाला इलाका है। पहले नंबर पर अंटार्कटिका और दूसरे नंबर पर उत्तरी ग्रीनलैंड आते हैं। यहां ठंड इतनी भयंकर पड़ती है कि सर्दियों में पारा माइनस 40 डिग्री (.-40) से भी नीचे गिर जाता है। विशाल क्षेत्र में फैले पठार में कहीं विशाल जंगल हैं, तो कहीं घास के मैदान। पठारों का विशाल क्षेत्र जंगलों से ढ़का हुआ भी है, जहां जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की करोड़ों प्रजातियां पाई जाती हैं। जैव विविधता से भरपूर इन पठारों की अपनी विशेषता है, जो देश के ही नहीं बल्कि विश्व की जलवायु को प्रभावित करते हैं, लेकिन हाल ही में जिस प्रकार जलवायु परिवर्तित हो रही है, उसका नकारात्मक प्रभाव तिब्बत के पठार पर भी पड़ रहा है। यहां तापमान बढ़ने की दर 1.5 गुना है। इसी करण पठार के अधिकांश क्षेत्रों में साल भर होने वाली बारिश में भी इजाफा हुआ है। इससे भविष्य में गंभीर समस्या गहराने की संभावना गहराती जा रही है। इस बात की जानकारी हाल ही में हुए एक शोध से मिली है। 

शोधकर्ताओं ने पठार से मिट्टी के नमूने और पौधों के सर्वेक्षण संबंधित आकड़ों को एकत्र किया। चीन के लान्चो विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने पठार के उत्तरपूर्वी भाग में विभिन्न ऊंचाई और विभिन्न तरह की पारिस्थितिकी तंत्र से 57 नमूने लिए। उन्होंने मिट्टी के 1026 नमूने इकट्ठे किए और वहां उग रहे विभिन्न पौधों का सर्वेक्षण किया। बाद में नमूनों का अंकरुण कराया गया। मिट्टी के बीज बैंकों को जलवायु परिवर्तन के कारण विभिनन परिस्थितियां किस तरह प्रभावित कर रही हैं, ये जानने के लिए प्रायोगिक भूखंड़ों पर इन्हें उगाया गया। शोधकर्ताओं ने पाया कि तापमान बढ़ने और अधिक वर्षा के बाद भी कुछ पौधे अच्छी तरह विकसित हो रहे हैं, लेकिन छोटे बीजों पर इसका हानिकारक प्रभाव पड़ा। शोधकर्ता कोलिन्स अध्ययन में कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन का बीजों के अंकुरण, बढ़ने और जीवित रहने की क्षमता पर पड़ रहा है। हांलाकि ऐसा माना जा रहा है कि ठंड और सूखा आदि जैसे जलवायु परिवर्तन के रूपों से अंकुरण प्रभावित होता है।

दरअसल बारिश अधिक होने और तापमान बढ़ने से मिट्टी में नमी बढ़ जाती है। लंबे समय तक मिट्टी में नमी रहने या नमी अधिक होने पर बीजों को समय से पहले अनुकूल तापमान मिल जाता है, इससे बीज समय से पहले अंकुरित हो सकते हैं, लेकिन ये परिस्थितियां इतनी भी आदर्श नहीं होती कि अंकुरित होने के बाद बीज स्वस्थ रह सके। इसके लिए उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है और उनके विकास में बाधा उत्पन्न हो सकती है। इससे पहले की बीजों को अधिक रोगाणु लग सकते हैं। यह अध्ययन इकोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ अमेरिकाके जर्नल इकोलॉजिकल एप्लिकेशन में प्रकाशित हुआ है। हांलाकि ये अध्ययन प्रकृति को बचाने के इंसानी दावों की पोल खोलते हैं। वास्तव में हर कोई जलवायु परिवर्तन की बात कर रहा है। वैश्विक स्तर पर अभियान चलाए जा रहे हैं, लेकिन कोई भी व्यक्ति अपनी जीवनशैली को नहीं बदल रहा है। हमें समझना होगा कि ये खतरा के केवल तिब्बत के पठार पर नहीं बल्कि पूरे विश्व पर है, यानी इंसानों के जीवन पर भी और जीवनशैली में बदलाव के बिना पर्यावरण को बचाना संभव नहीं है।

लेखक - हिमांशु भट्ट (8057170025)

 

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उत्तराखंड में करें कांट्रेक्ट फार्मिंग, मंडी में फसल बेचने की अनिवार्यता भी खत्म

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उत्तराखंड में करें कांट्रेक्ट फार्मिंग, मंडी में फसल बेचने की अनिवार्यता भी खत्मHindiWaterSat, 02/29/2020 - 12:45

मंडी। प्रतीकात्मक तस्वीर - Dainik Jagran

फाॅरेस्ट कंजरवेशन एक्ट 1980 के तहत उत्तराखंड में 71 प्रतिशत क्षेत्र में वन है। प्रदेश के कुल क्षेत्रफल में से 7 लाख 41 हजार हेक्टेयर भूमि पर खेती होती है, जबकि लगभग तीन लाख हेक्टेयर भूमि बंजर हो चुकी है। राज्य गठन के बाद प्रदेश की कृषि योग्य भूमि में 17 प्रतिशत तक की कमी आई है। प्रदेश में बढ़ते पलायन के कारण भी हजारों गांवों की लाखों हेक्टेयर जमीन खाली पड़ी है। जो लोग बचे हैं, वे खेती करने के लिए पहले की अपेक्षा कम उत्सुक दिखते हैं। हांलाकि वे अपने गुजर-बसर के लिए खेती कर भी रहे हैं। इन लोगों द्वारा खेती न करने का कारण जंगली जानवरों की समस्या भी है। यदि पहाड़ के कई इलाकों में फसल लगाई भी जाती है, तो सुंअर जैसे जंगली जानवर और बंदर फसल को बर्बाद कर देते हैं। ऊपर से सिंचाई के लिए पानी का अभाव अलग से है। वहीं कई बार जलवायु परिवर्तन के कारण पड़ रही मौसम की मार से फसल को नुकसान भी पहुंचता है। बाजार में फसल का उचित मूल्य भी नहीं मिलता है। ऐसे में राज्य के पहाड़ी इलाकों में किसानों को खेती करना घाटे का सौदा लगता है। नई पीढ़ी तो खेती के कार्य को एक तरह से नकारती ही जा रही है। ऐसे में खेतों का खाली पड़ा रहना लाजमी भी है, लेकिन कैबिनेट के फैसले से राज्य के किसानों को राहत मिलने की संभावना है। 

उत्तराखंड सरकार ने कैबिनेट की बैठक में किसानों को साधते हुए अहम फैसला लिया और राज्य में किसानों की उपज को बेचने के लिए मंडी की अनिवार्यता को हटाते हुए खुले बाजार की व्यवस्था लागू कर दी है। राज्य सरकार का ये निर्णय केंद्र द्वारा किसानों को राहत दिए जाने के निर्णय के समान ही है। जिसमें केंद्र ने कृषि उपज एवं पशुधन विपणन अधिनियम लागू कर किसानों को राहत दी थी। उत्तराखंड की त्रिवेंद्र सरकार ने भी किसानों को राहत देने के लिए केंद्र सरकार के इसी फाॅर्मूले को अपनाया है। जिसके तहत प्रदेश में लागू उत्तराखंड़ कृषि उत्पादन मंडी विकास एवं विनियमन अधिनियम को समाप्त कर दिया गया है। इसके स्थान पर कृषि उपज एवं पशुधन विपणन अधिनियम लागू किया गया है। इससे किसानों के सामने अभी तक अपनी उपज को मंडी में बेचने की जो अनिवार्यता थी, वो समाप्त हो गई है। अब किसान कहीं भी अपनी उपज को उचित दामों पर बेच सकते हैं। इससे बिचैलियों के चंगुल से निकलने में भी किसानों को सहायता मिलेगी। तो वहीं मंडी समिति की ओर से फल-सब्जी व अन्य कृषि उत्पादों के कारोबार पर शुल्क भी नहीं लिया जाएगा। साथ ही आढ़ती किसानों के उत्पादों को बिना लाइसेंस के भी खरीद सकते हैं। इससे किसानों को उस अतिरिक्त वसूली के बोझ से भी छुटकारा मिलेगा, जो आढ़ती द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से किसानों से की जाती थी। हांलाकि ऐसा इसलिए होता था, क्योंकि आढ़ती को किसानों का उत्पाद खरीदने के लिए लाइसेंस की जरूरत पड़ती थी, जिसका शुल्क सरकर को जमा होता था, लेकिन इस शुल्क का बोझ आढ़ती सीधे, परंतु अप्रत्यक्ष रूप से किसानों के कंधे पर डाल देते थे।  

उत्तराखंड में आठ लाख से ज्यादा किसान हैं। प्रदेश के विभिन्न जनपदों में 23 मंडी समितियां हैं। खेतों में मेहनत कर फसल बेचने के बाद इन किसानों पर मार इसलिए भी पड़ती थी, क्योंकि किसानों को अपनी तैयार फसल कृषि मंडियों को बेचनी पड़ती थी। मंड़ी द्वारा निर्धारित दाम पर ही फसल का सौदा होता था। ऐसे में किसान रात दिन खेतों में मेहनत करने के बाद, जब उपज को बेचने जाता तो खुद को ठगा-सा महसूस करता था। इससे कई किसानों के हालात काफी दयनीय हो गए थे। मौसम की मार के साथ ही कर्ज के बोझ ने उन्हें परेशान कर दिया था। किसान खेती छोड़ते जा रहे थे। इन सभी बंदिशों से मुक्त होने की किसानों ने कई बार मांग भी की थी, लेकिन अब राज्य के किसान इन सभी बंदिशों से मुक्त हैं और उनके पास अपनी उपज को बेचने के लिए खुला व बड़ा बाजार है। इसके अलावा सरकार ने उन लोगों के लिए भी खेती की राह खोल दी है, जो खेती तो करना चाहते हैं, लेकिन बूढ़े होने या घर में कोई खेती करने वाला न होने के कारण उनके खेत खाली पड़े हैं। इसे लिए सरकार ने कांट्रेक्ट फार्मिंग को मंजूरी दी है। 

अभी तक देश में सबसे अधिक कांट्रेक्ट फार्मिंग कर्नाटक और मैसूर में ही होती है। यहां कंपनियां खेती की जमीन को ठेके या लीज़ पर लेकर हल्दी, मसाले या विभिन्न प्रकार की फसले उगा रही हैं, लेकिन उत्तराखंड में खेती की संपूर्ण संभावनाएं और स्थान होने के बाद भी ऐसा नहीं था। यहां खेत खाती पड़े थे। पलायन के कारण यहां कई गांवों में बूढ़े मां-बाप और बच्चे ही या महिलाएं ही हैं। ऐसे सैंकड़ों बीघा खेतों पर कोई खेती करने वाला नहीं है। बूढ़े हाथों से दो चार नाली में जितनी खेती हो सकती, अपने गुजर बसर के लिए कर लेते हैं। इसके समाधान के लिए सरकार ने कांट्रेक्ट फार्मिंग एक्ट 2018 को मंजूरी दे दी है। कृषि क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियां अपनी जरूरत के हिसाब से किसानों से खेती के लिए कांट्रेक्ट (ठेका) कर सकेंगी। हांलाकि लोगों को आशंका है, कि ठेके पर देने के बाद कहीं जमीन पर कब्जा न हो जाए। किंतु ऐसा कदाचित नहीं होगा, क्योंकि खेती करने के लिए कानूनी करारनामा जरूरी होगा। कानूनी करारनामे के बिना कोई भी व्यक्ति या कंपनी ठेके पर खेती नहीं कर सकेंगे। हांलाकि यदि कार्य योजना के अनुसार किया गया तो राज्य में बंजर होती जमीन पर भी फसल लहलहाने लगेगी और आय के साधन भी बढ़ेंगे, जो पलायन रोकने में कारगर साबित हो सकते हैं।

किसानों को ये होंगे फायदे

  • किसान के पास मंडी परिषद में शुल्क देकर फसल बेचने का विकल्प होगा और खुले बाजार में भी। जहां दाम बेहतर मिले, किसान वहां फसल बेच सकेगा।
  • मंडी क्षेत्र में विकसित अपणु बाजारों में किसान खेत से फसल लाकर उपभोक्ताओं तक सीधे पहुंचा सकेंगे।
  • गोदाम और कोल्ड स्टोर के मंडी के समकक्ष होने के चलते किसानों को अपनी फसल सुरक्षित रखने के ज्यादा से ज्यादा विकल्प मिलेंगे।
  • मंडियों और उनके समकक्ष संस्थान अधिक उपलब्ध होने से किसानों का परिवहन का खर्च भी बचेगा।
  • फल और सब्जी का कारोबार करने वाले व्यापारियों को मंडी के बारह मंडी शुल्क से मुक्ति मिलेगी।

लेखक - हिमांशु भट्ट (8057170025)


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    बंगाल के किसानों को नहीं मिल रहा पीएम किसान योजना का लाभ

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    बंगाल के किसानों को नहीं मिल रहा पीएम किसान योजना का लाभHindiWaterThu, 02/27/2020 - 16:04

    आज की मुख्य खबरें -

    • ममता बनर्जी की जिद से किसानों को नहीं मिल रहा पीएम किसान योजना का लाभ।
    • देश में पहली बार दिल्ली में होगी प्रदूषक कणों की निगरानी।
    • साध्वी पद्मावती के अनशन को 75 और आत्मबोधानंद के अनशन को 30 दिन पूरे।
    • चारधाम परियोजना का मलबा नदी में डाला जा रहा।
    • वायु प्रदूषण से बच्चों में बढ़ रही बीमारियां।

       

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      देश में पहली बार बिहार में पेश होगा ग्रीन बजट

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      देश में पहली बार बिहार में पेश होगा ग्रीन बजटHindiWaterThu, 02/27/2020 - 16:11

      आज की मुख्य खबरें

      • देश में पहली बार बिहार में पेश होगा ग्रीन बजट
      • उत्तराखंड के 10 निकायों का खुले में शौचमुक्त का दावा फर्जी
      • राजाजी नेशनल पार्क की इको सेंसिटिव से 803 गांव बाहर
      • प्लास्टिक मुक्त होगा गैरसैंण का विधानसभा सत्र

       

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      जलवायु परिवर्तन और कुपोषण के मद्देनजर विकसित की फसलों की 250 नई किस्में

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      जलवायु परिवर्तन और कुपोषण के मद्देनजर विकसित की फसलों की 250 नई किस्मेंHindiWaterSat, 02/29/2020 - 16:36

      आज की मुख्य खबरें -

      • जलवायु परिवर्तन और कुपोषण के मद्देनजर विकसित की फसलों की 250 नई किस्में।
      • जीईपी के मानक बनाने के लिए देहरादून में होगी कार्यशाला।
      • इंदौर की तर्ज पर होगा देहरादून के ट्रंचिंग ग्राउंड का इलाज।
      • मशरूम प्रोडक्शन के लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम शुरू।

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      उत्तराखंड में वन क्षेत्र निर्धारण पर फिर लगी रोक

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      उत्तराखंड में वन क्षेत्र निर्धारण पर फिर लगी रोकHindiWaterSat, 02/29/2020 - 17:04

      आज की मुख्य खबरें -

      • उत्तराखंड में वनक्षेत्र निर्धारण के आदेश पर हाइकोर्ट ने फिर लगाई रोक।
      • उत्तराखंड में ओलावृष्टि और बर्फबारी का अलर्ट।
      • अब नदियों के बहाव की भी हो होगी भविष्यवाणी।
      • किडनी को भी नुकसान पहुंचा रहा वायु प्रदूषण।
      • मंडी के बाहर फसल बेचने पर किसानों को नहीं देना होगा शुल्क।

       

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      रिसर्च : जैव विविधता पर संकट

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      रिसर्च : जैव विविधता पर संकटHindiWaterMon, 03/02/2020 - 10:46

      डॉ. दीपक कोहली, उपसचिव, वन एवं वन्य जीव विभाग


      पृथ्वी पर विविध प्रकार का जीवन विकसित हुआ है जो मानव के अस्तित्व में आने के साथ ही उसकी आवश्यकताओं को पूर्ण करता रहा है और आज भी कर रहा है । प्रकृति में अनेकानेक प्रकार के पादप एवं जीव-जन्तु हैं जो परिस्थितिक तन्त्र के अनुरूप विकसित एवं विस्तारित हुए हैं और उनका जीवन चक्र क्रमिक रूप से चलता रहता है जब तक पर्यावरण अनुकूल रहता है। जैसे ही पर्यावरण में प्रतिकूलता आती है, पारिस्थितिक चक्र में व्यतिक्रम आने लगता है। जीव-जन्तुओं एवं पादपों पर संकट आना प्रारम्भ हो जाता है । यही कारण है कि वर्तमान विश्व में अनेक जैव प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं और अनकों संकटग्रस्त हैं। इसी कारण आज जैव विविधता के प्रति विश्व सचेष्ट है और अनेक विश्व संगठन तथा सरकारें इनके संरक्षण में प्रयत्नशील हैं। यह आवश्यक है क्योंकि पारिम्स्थितिक चक्र में जीव एवं पादप आपसी सामंजस्य एवं सन्तुलन द्वार ही न केवल विकसित होते हैं अपितु सम्पूर्ण पर्यावरण को सुरक्षा प्रदान करते हैं ।

      यदि इस चक्र में व्यवधान आता है अथवा कुछ जीव विलुप्त हो जाते हैं तो सम्पूर्ण चक्र में बाधा आ जाती है जो पर्यावरण में असन्तुलन का कारण होती है और मानव सहित सम्पूर्ण जीव-जगत के लिए संकट का कारण बनती है । जैव विविधता पर वर्तमान में सर्वाधिक संकट हो रहा है तथा प्रतिवर्ष हजारों प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं । इस कारण जैव विविधता के विविध पक्षों की जानकारी इसके संरक्षण हेतु आवश्यक है ।

      जैव विविधता शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिकी कीट विज्ञानी इ.ओ विल्सन द्वारा 1986 में ‘अमेरिकन फोरम ऑन बायोलोजिकल डाइवर्सिटी’ में प्रस्तुत रिपोर्ट में किया गया । यह शब्द दो शब्दों अर्थात् ‘और का समूह है जो हिन्दी में भी’ ‘जैव’ तथा ‘विविधता’ द्वारा व्यक्त किया जाता है, जिसका साधारण अर्थ जैव जगत में व्याप्ति विविधता से है । जैव विविधता से आशय जीवधारियों (पादप एवं जीवों) की विविधता से है जो प्रत्येक क्षेत्र, देश, महाद्वीप अथवा विश्व स्तर पर होती है । इसके अन्तर्गत सूक्ष्म जीवों से लेकर समस्त जीव जगत सम्मिलित है ।

      जैव विविधता का प्रमुख कारण भौगोलिक पर्यावरण में विविधता है और यह करोडों से हजारों वर्षों की अवधि में चलने वाली अनवरत प्रक्रिया का प्रतिफल है । इस पृथ्वी पर लगभग 20 लाख जैव प्रजातियों का अस्तित्व है और प्रत्येक जीव का पारिस्थितिक तन्त्र में महत्व होता है ।

      प्रकृति के निर्माण और इसके अस्तित्व हेतु जैव विविधता की प्रमुख भूमिका है । अतः यदि इसका ह्रास होता है तो पर्यावरण चक्र में गतिसेध आता है और उसका जीवों पर भी विपरीत प्रभाव पडने लगता है । वर्तमान में जैव विविधता के प्रति सचेष्ट होने का कारण जैव विविधता की तीव्र गति से हानि होना है ।

      एक अनुमान के अनुसार विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 10000 से 20000 प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं । इस प्रकार की हानि सम्पूर्ण विश्व के लिए हानिकारक है । अतः इसके समुचित स्वरूप की जानकारी कर इसका संरक्षण करना अति आवश्यक है । जैव विविधता को आनुवांशिक, कार्यिकी के आधार पर तीन वर्गों में विभक्त किया गया है:  आनुवंशिक विविधता, प्रजातीय विविधता तथा पारिस्थितिकी

      विविधता 

      (i) आनुवांशिक विविधता - जीवों एवं पादपों में प्रत्येक आनुवांशिक आधार पर अन्तर होता है जो ‘जीन’ के अनेक समन्वय के आधार पर होता है और वही उसकी पहचान होती है, जैसा कि प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे से भिन्न होता है । यह आनुवंशिक विविधता प्राजातियों के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक होती है । यदि आनुवंशिकता के स्वरूप में परिवर्तन होता है अथवा ‘जीन’ स्वरूप बिगडता है तो अनेक विकृतियाँ आती हैं और वह प्रजाति समाप्त भी हो सकती है ।प्रजातियों की विविधता का ‘जीन भण्डार’ होता है । उसी से हजारों वर्षों से फसलें और पालतू जानवर विकसित होते हैं । वर्तमान में नई किस्मों के बीज बीमारी मुक्त पौधे एवं उन्नत पशु विकसित किए जा रहे हैं जो आनुवंशिक शोध का प्रतिफल है । किसी भी जाति के सदस्यों में आनुवंशिक भिन्नता जितनी कम होगी उसके विलुप्त होने का खतरा अधिक होगा, क्योंकि वह वातावरण के अनुसार अनुकूलन नहीं कर सकेगी ।

      (ii) प्रजातीय विविधता - एक क्षेत्र में जीव-जन्तुओं और पादपों की संख्या वहाँ की प्रजातीय विविधता होती है । यह विविधता प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र और कृषि पारिस्थितिक तंत्र दोनों में होती है । कुछ क्षेत्र इसमें समृद्ध होते हैं जैसे कि उष्ण कटिबन्धीय वन क्षेत्र, दूसरी ओर एकाकी प्रकार के विकसित किए गए वन क्षेत्र में कुछ प्रजातियाँ ही होती हैं ।वर्तमान सघन कृषि तन्त्र में अपेक्षाकृत कम प्रजातियाँ होती हैं जबकि परम्पवगत कृषि पारिस्थितिक तंत्र में विविधता अधिक होती है । एक वंश की विभिन्न जातियों के मध्य जो विविधता मिलती है, वह जातिगत जैव विविधता होती है तथा किसी क्षेत्र में एक वश की जातियों के मध्य जितनी भिन्नता होती है, वह जाति स्तर की जैव विविधता होती है ।

      (iii) पारिस्थितिक तन्त्र - पारिस्थितिक तन्त्र विविधता-पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिक तन्त्र हैं जो विभिन्न प्रकार की प्रजातियों के आवास स्थल हैं । एक भौगोलिक क्षेत्र के विविध पारिस्थितिक तन्त्र हो सकते हैं, जैसे पर्वतीय, घास के मैदान, वनीय, मरुस्थलीय आदि तथा जलीय जैसे नदी, झील, तालाब, सागर आदि । यह विविधता विभिन्न प्रकार के जीवन को विकसित करती है जो एक तन्त्र से दूसरे में भिन्न होते हैं । यही भिन्नता पारिस्थितिक भिन्नता कहलाती है ।

      उपर्युक्त जैव विविधता के अतिरिक्त कुछ विद्वान विकसित जैव विविधता तथा सूक्ष्म जीव जैव विविधता का भी वर्णन करते हैं । विकसित जैव विविधता मानवीय प्रयासों से विकसित होती हे जैसे कृषि के विविध स्वरूप, पालतू जानवों की विविधता, वानिकी की विविधता आदि । जबकि सूक्ष्म जीव विविधता में अति सूक्ष्म जीवाणुओं जैसे बैक्टीरिया, वायरस, फॅगस, आदि सम्मिलित हैं जो जैव-रसायन चक्र में महत्वपूर्ण होते हैं । यद्यपि ये दोनों प्रकार उपर्युक्त श्रेणियों में सम्मिलित हैं ।

      क्षेत्रीय विस्तार के आधार पर जैव विविधता के प्रकार हैं:  स्थानीय जैव विविधता,  राष्ट्रीय जैव विविधता तथा  वैश्विक जैव विविधता . स्थानीय जैव विविधता का विस्तार सीमित होता है । यह छोटे क्षेत्र का भौगोलिक प्रदेश हो सकता है । इस क्षेत्र में मिलने वाले जीवों एवं पादपों की विविधता को स्थानीय जैव विविधता कहते हैं । इस विविधता का कारण क्षेत्र का भौगोलिक स्वरूप होता है । एक ही जलवायु प्रदेश में भी क्षेत्रीय भिन्नता होती है ।जैसे राजस्थान के अरावली, हाड़ौती, मरुस्थली एवं मैदानी क्षेत्र में भी जैव भिन्नता है । मरुस्थली क्षेत्र में, सिंचित और असिंचित क्षेत्रों में जैव विविधता होती है । हाड़ौती में चम्बल क्षेत्र, मुकन्दरा क्षेत्र, वनीय क्षेत्र और कृषि क्षेत्र में जैव विविधता है।

      राष्ट्रीय स्तर पर जैव विविधता स्वाभाविक हैं क्योंकि एक देश में उच्चावच, जलवायु, मृदा, जलराशियों, बन आदि में भिन्नता जैव विविधता का कारण होती है । राष्ट्रीय स्तर पर जैव विविधता का अध्ययन इसके संरक्षण में महत्वपूर्ण होता है क्योंकि नीतिगत निर्णय राष्ट्रीय स्तर पर लिये जाते हैं ।

      वैश्विक जैव विविधता का सम्बन्ध सम्पूर्ण विश्व से होता है । सम्पूर्ण विश्व के स्थल एवं जलीय भाग पर लाखों प्रजाजियाँ जीवों पादपों एवं सूक्ष्म जीवों की हैं । विश्व स्तर पर विभिन्न बायोम पारिस्थितिक तन्त्र हैं उनमें जैव विविधता अत्यधिक है जो सम्पूर्ण पारिस्थतिक तन्त्र को परिचालित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।

      जैव विविधता प्रकृति का अभिन्न अंग है और यह पर्यावरण को सुरक्षित रखने तथा पारिस्थितिक तन्त्र को परिचालित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । आक्सीजन का उत्पादन, कार्बन डॉई-ऑक्साईड में कमी करना, जल चक्र को बनाए रखना, मृदा को सुरक्षित रखना और विभिन्न चक्रों को संचालित करने में इसकी महती भूमिका है ।

      जैव विविधता पोषण के पुन: चक्रण, मृदा निर्माण, जल तथा वायु के चक्रण, जल सन्तुलन आदि के लिए महत्त्वपूर्ण है । मानव की अनेक आवश्यकताएँ जैसे भोजन, वस्त्र, आवास, ऊर्जा, औषधि, आदि की पूर्ति में भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से योगदान देती है, इसी कारण इसका आर्थिक महत्व भी है । जैव विविधता से युक्त प्राकृतिक स्थल सौंदर्यबोध कराते हैं तथा मनोरंजन स्थल के रूप में भी उपयोगी होते हैं ।

      सामान्यता जैव विविधता का महत्व निम्न रूपों में हैं:

      (i) उपभोगात्मक महत्व- जैव विविधता का प्रत्यक्ष उपयोग लकड़ी, पशु आधार, फल-फूल, जड़ी-बूटियों आदि के लिए होता है इमारती लकड़ी और ईंधन के लिए वनस्पति का उपयोग सदैव से होता रहा है, यद्यपि इसका व्यापारीकरण विनाश का कारण भी बनता है । पशुओं के लिए चारI, शहद, मांस-मछली के लिए तथा औषधि के लिए इनका उपयोग स्थानीय स्तर पर होता रहा है । यद्यपि अत्यधिक उपभोक्तावादी प्रवृत्ति और स्वार्थपरता इसके विनाश का कारण है ।

      (ii) उत्पादक महत्व - वर्तमान में जैव तकनीशियन एवं वैज्ञानिक आनुवंशिकता के आधार पर नए-नए पादपों का विकास करने लगे हैं । उच्च उत्पादकता वाले कृषि बीजों का विकास तथा बीमारी प्रतिगेध क्षमता वाले पौधों का विकास कृषि क्षेत्र में क्रान्ति ला रहे हैं ।इसी प्रकार हाइब्रीड पशुओं द्वारा अधिक दूध एवं ऊन आदि प्राप्त किया जाता है । औषधि विज्ञान में प्रगति के साथ अनेक औषधीय पौधों का उपयोग दवाओं के बनाने में हो रहा है । भारतीय चिकित्सा में आयुर्वेद का आधार ही प्रकृति की जड़ी-बूटियाँ हैं ।
      वानिकी के माध्यम से वनों से अनेक पदार्थ प्राप्त किये जाते हैं विश्व का 90 प्रतिशत खाद्यान्न 20 पादप प्रजातियों से प्राप्त होता है । जैव विविधता वर्तमान में आर्थिक और औद्योगिक विकास के लिए भी आवश्यक है, अनेक उद्योग विशेषकर फार्मेसी उद्योग इस पर निर्भर है।

      (iii) सामाजिक महत्व -जैव विविधता सामाजिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है । विश्व में आज भी अनेक जातियाँ और समुदाय प्राकृतिक वातावरण में सामंजस्य स्थापित कर जीवनयापन करते हैं तथा जैव विविधता का अपनी सीमित आवश्यकताओं के लिए इस प्रकार उपयोग करते हैं कि उनको हानि नहीं पहुँचती ।अनेक क्षेत्रों में जैव विविधता परम्पसगत समुदायों द्वारा ही सुरक्षित है । वे इसका उपयोग भी करते हैं किन्तु इतना कि वे पुन: विकसित हो सकें । इसके साथ उनकी सांस्कृतिक और धर्मिक भावनाएँ भी जुड़ी रहती हैं ।

      (iv) नीतिपरक एवं नैतिक महत्व - जैव विविधता को संरक्षित करने में मानव के नैतिक मूल्यों का महत्त्वपूर्ण योग है । सभी धार्मिक ग्रन्थों में जीव जगत की सुरक्षा का सन्देश है और यह माना जाता है कि प्रत्येक जीव का पृथ्वी पर महत्व है और उसे जीने का अधिकार है । भारत में पेड़- पौधों, जंगली जानवरों एवं जीवों को धार्मिक आस्था से इतना अच्छी प्रकार से जोड़ा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति उनकी सुरक्षा करता है ।यहाँ वृक्षों में देवता का वास मानकर पूजा की जाती है. पीपल, बड़, तुलसी, आदि वृक्षों की नियमित पूजा सामान्य है । इसी प्रकार विभिन्न जीवों को देवता का वाहन अथवा प्रिय स्वीकार कर उनको सम्मान देने की यहाँ परम्परा है । 

      (v) सौदर्न्यगत महत्व - प्रकृति सदैव से सीदर्न्यपरक रही है और इस सौंदर्य में जैव विविधता की महती भूमिका होती है । वनों से आच्छादित प्रदेश, फूलों से लदे पेड़, पर्वतीय एवं घाटी स्थल हों या समुद्र तटीय क्षेत्र, मरुस्थली प्रदेश हों या झील प्रदेश सभी का अपना सौन्दर्य वहाँ की जैव विविधता से है ।जंगली जीवों से युक्त अभयारण, पक्षियों के क्षेत्र तथा विशेष पादपीय प्रदेश सभी को आकर्षित करते हैं। राष्ट्रीय उद्यान, पक्षी विहार, अभयारण्य, विशेष जानवरों के स्थल जैसे टाईगर, हाथी, चीते, आदि के स्थल हों या सागरीय जीवों के क्षेत्र सभी का सौन्दर्य विशेष होता है । इसी कारण जैव विविधता से युक्त प्रदेश पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र होते हैं ।

      (vi) पारिस्थितिक महत्व - विविध प्रजातियों द्वारा पारिस्थितिक तन्त्र परिचालित होता है, इसमें एक जीव दूसरे पर निर्भर रहता है । एक प्रजाति के नष्ट हो जाने से दूसरे जीवों पर भी संकट आ जाता है । उदाहरण के लिए एक वृक्ष का केवल आर्थिक महत्व ही नहीं होता अपितु उस पर अनेक पक्षी एवं सूक्ष्म जीवों का निवास निर्भर करता है और यह मृदा एवं जल के लिए भी महत्वपूर्ण होता है । अतः यदि इसे नष्ट किया जाता है तो इन सभी पर न केवल प्रभाव पड़ेगा अपितु कुछ जीव नष्ट भी हो जाएंगे । उत्पादक, उपभोक्ता एवं अपघटक के रूप में सम्मिलित प्रत्येक पादप एवं जीवों का पारिस्थितिक महत्व होता है ।

      विश्व में अत्यधिक जैव विविधता है । इस सम्बन्ध में जीव विज्ञानियों ने अनेक अनुमान लगाए हैं और उनमें पर्याप्त अन्तर भी है । सामान्य अनुमान के आधार पर विश्व में 17.5 लाख प्रजातियाँ वर्णित की गई हैं, और भी अनेकों हो सकती हैं ।सामान्यतया एक प्रजाति समूह में कितनी अधिक विविधता हो बकती है इसके प्रति अनभिज्ञता है । पुष्पी पादप समूह में ही 2,70,000 तथा जीवाणु समूह में 9,50,000 प्रजातियाँ पाई जाती हैं । वर्गीकरण विज्ञानी निरन्तर नवीन प्रजाति एवं उनके समूहीकरण को वर्णित करते हैं । पक्षी, स्तनधारी, मछली, पौधों की प्रजातियों को अधिक वर्णित किया गया है जबकि सूक्ष्म जीवाणुओं, बैक्टीरिया, फंगस आदि का कम । अधिकांशतः जैव विविधता के अनुमान उष्ण कटिक-धीय वर्षा वाले वनों में किए गए शोध पर आधारित हैं ।

      विश्व में अनेक क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ वृहत् जैव विविधता देखी जा सकती है । इस प्रकार के क्षेत्रों को ‘वृहत जैव विविधता क्षेत्र’ कहा जाता है । विश्व में 12 देशों को वृहत् जैव विविधता देश के रूप में चिन्हित किया गया है, वे हैं- ब्राजील, कोलम्बिया, इक्वेडोर, पेरु, मेक्सिको, जायरे, मेडागास्कर, चीन, इण्डोनेशिया मलेशिया, भारत और ऑस्ट्रेलिया ।

      भारत एक विशाल देश है, जहाँ अत्यधिक भौगोलिक एवं पर्यावरणीय विविधता पाई जाती है । भारत विश्व का क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से सातवां बड़ा देश है जो उत्तर से दक्षिण 3214 किमी और पूर्व से पश्चिम 2933 किमी. में विस्तृत है । इसके एक ओर हिमालय की सर्वोच्च श्रेणियां हैं तो दूसरी ओर समुद्रतटीय मैदान , नदियों के वृहत् मैदान दक्षिण का पठार, मरुस्थली प्रदेश के अतिरिक्त प्रत्येक वृहत् प्रदेश में भौगोलिक विविधता है । तात्पर्य यह है कि यहाँ अनेक पारिस्थितिक तन्त्र हैं, इसी कारण यह अत्यधिक जैव विविधता क्षेत्र में सम्मिलित किया जाता है।विश्व के सर्वाधिक जैव विविधता के संवेदनशील क्षेत्रों को जैव विविधता तप्त स्थल कहा जाता है । ये ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ जैव विविधता अत्यधिक है किन्तु इनमें जैव विविधता निरन्तर घट रही है, अतः इन स्थलों पर ध्यान देना और संरक्षित करना आवश्यक है ।
      विश्व के प्रमुख जैव विविधता के तप्त स्थल हैं:  भू-मध्य सागरीय बेसिन,  केरीबियन द्वीप समूह,  मेडागास्कर क्षेत्र,  सुण्डा लैण्ड (इण्डोनेशिया), वालेसी,  पोलीनेशिया, माइक्रोनेशिया (प्रशान्त महासागरीय द्वीपों का समूह),  कैलीफोर्निया, मध्य अमेरिका, उष्ण कटिबन्धीय ऐण्डीज, मध्य चिली, ब्राजील एवं अटलांटिक वन क्षेत्र, गिनी तट, केप क्षेत्र, काकेशस, पश्चिमी घाट, द.प चीन का पर्वतीय क्षेत्र, इण्डी-बर्मा,  द.प ऑस्ट्रेलिया,  न्यूजीलैण्ड । उपुर्यक्त सभी क्षेत्रों में अनेक प्रजातियाँ संकटग्रस्त हैं और अनेक विलुप्त भी हो चुकी हैं । विश्व जैव विविधता के संरक्षण के लिए इन क्षेत्रों पर सर्वाधिक ध्यान देना आवश्यक है। इन प्रमुख क्षेत्रों के अतिरिक्त प्रत्येक देश/प्रदेश में इस प्रकार के स्थल हो सकते हैं, उन्हें चिन्हित करना और इनके संरक्षण के उपाय करना आवश्यक है।

      यह सर्वविदित तथ्य है कि जैव विविधता संकटग्रस्त है और इसका निरन्तर क्षरण होने से विलोपन भी ही रहा है। विश्व संरक्षण एवं नियन्त्रण केन्द्र के अनुसार लगभग 88,000 पादप एवं 2000 जन्तु प्रजातियों पर यह खतरा मंडरा रहा है। प्रति 100 वर्ष लगभग 20 से 25 स्तनधारी एवं पक्षी विलुप्त हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त 24 प्रतिशत जन्तु एवं 12 प्रतिशत पक्षी प्रजातियाँ विश्व स्तर पर खतरे में हैं। इस प्रकार क्षरण अधिकांशतः मानवीय क्रियाओं द्वारा है। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि प्रति वर्ष 4000 से 17000 प्रजातियाँ समाप्त हो रही हैं। इनके आँकड़ों की सत्यता पर न जाकर यह देखना आवश्यक है कि किस प्रकार इनका संरक्षण किया जाए। इनमें जो जातियाँ लुप्त हो चुकी हैं उनके सम्बन्ध में केवल जानकारी जुटायी जा सकती है, जबकि संकटग्रस्त एवं सम्भावित संकटग्रस्त जातियों को बचाने के लिए विश्वव्यापी एवं देशव्यापी योजना बनाना आवश्यक है। क्यों जैव विविधता विलुप्त होती है अथवा इसके क्षरण/संकटग्रस्त होने के क्या कारण हैं ? जैव विविधता का क्षरण किसी एक कारण से न होकर अनेक कारणों के सम्मिलित प्रभाव के कारण होता है।

      संक्षेप में जैव विविधता विलोपन के निम्न कारण हैं:

      (i) आवास स्थलों का विनाश - मानव जनसंख्या में वृद्धि तथा विकास के साथ-साथ जीवों के प्राकृतिक आवास समाप्त होते जाते हैं जो जैव विविधता क्षति का प्रमुख कारण है । मानव अधिवास अर्थात् ग्राम एवं नगर्से का बसाव और फैलाव, सड़कों का निर्माण, उद्योगों का विकास, कृषि क्षेत्रों का विस्तार, खनिज, खनन बाँधों का निर्माण आदि कार्यों से वन क्षेत्र अथवा अन्य जीव आवासीय क्षेत्रों को हानि पहुँचती है । एक बड़े बाँध के निर्माण से हजारों हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो जाती है और वहाँ स्थित पादप, पशु-पक्षी तथा अन्य जीव-जन्तुओं का विनाश हो जाता है ।इसी प्रकार खनिज खनन पूर्णतया जीव आवासों को नष्ट कर देता है । आवास स्थलों का विनाश लगभग 36 प्रतिशत जैव विविधता के विनाश का कारण रहा है । UNEP और ICUN की रिपोर्ट के अनुसार उष्ण कटिबन्धीय एशिया में वन्य जीवों के 65 प्रतिशत आवास नष्ट हो चुके हैं ।

      (ii) आवास विखण्डन -प्रारम्भ में प्राकृतिक आवास स्थल विस्तृत क्षेत्रों में फैले हुए थे जिससे जीवों जैसे वन्य जीव, पक्षियों तथा अन्य जीवों को स्वक्ट विचरण करने का अवसर मिलता था । अब इनका विखण्डन हो रहा है, कहीं रेल मार्ग तो कहीं सड़क, नहर या पाइप लाइन द्वारा ।आवास विखण्डन से भूमि का स्वरूप परिवर्तित हो रहा है, वाहनों आदि के गुजरने से प्रदूषण अधिक हो रहा है तथा दुर्घटनाओं में भी जीव मारे जा रहे हैं । आवास विखण्डन के फलस्वरूप अनेक जीवों के प्राकृतिक स्थल भी बँट जाते हैं, उनमें पृथकता होने लगती है जो जैव विविधता को हानि पहुँचाते हैं ।

      (iii) कृषि एवं वानिकी की परिवर्तित प्रवृत्ति -कृषि की पद्धति और प्रारूप में परिवर्तन भी जैव विविधता को हानि पहुँचा रहा है । पहले विभिन्न प्रकार की फसलों को क्रम से उगाया जाता था जिससे भूमि की क्षमता, फसलों की कीट प्रतिसेधक क्षमता बनी रहती थी । अब अधिकांशतः व्यापारिक प्रवृत्ति के कारण एकाकी फसल की प्रकृति हो गई । साथ ही अत्यधिक ग्रसायनिक उर्वरकों का उपयोग तथा कीटनाशकों के प्रयोग से कृषि क्षेत्र के सूक्ष्म जीवों का विनाश हो रहा है । जो न केवल कृषि अपितु पर्यावरण को भी हानि पहुँचा रहा है ।इसी प्रकार वनीय क्षेत्रों में व्यापारिक उपयोग हेतु एकाकी वृक्षों का रोपण किया जा रहा है । अनेक प्राकृतिक स्थलों में यूकेलिप्टिस, विदेशी बबूल लगाया जा रहा है. वन क्षेत्रों को समाप्त कर विभिन्न प्रकार से कृषि करना भी जैव विविधता क्षरण तथा अन्त में प्रजाति विलुप्तीकरण का कारण है ।

      (iv) नवीन प्रजातियों का प्रभाव - स्थानीय प्रजातियाँ जो सदियों से वहाँ पनप रही हैं उनके स्थान पर नवीन प्रजातियों को लाना भी जैव विविधता पर आक्रमण है और इसको हानि पहुँचा रहा है । जैसे चकत्ते वाला हिरण को अण्डमान-निकोबार द्वीपों में ब्रिटिश द्वार लाया गया जो वहाँ के वन पादपों एवं खेतों को निरन्तर हानि पहुँचा रहा है ।इसी प्रकार विदेशी पौधों का आगमन स्थानीय पौधों को हानि पहुँचा रहा है । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण यूकेलिप्टिस का भारत में विस्तृत क्षेत्रों पर सेपण है जिसने स्थानीय वनस्पति को समाप्त कर दिया है 

      (v) व्यापारिक उपयोग हेतु अति शोषण -अनेक प्रजातियों का इतना अधिक शोषण किया गया है कि वे संकटग्रस्त हो गई हैं अवैध शिकार और तस्करी अनेक जीवों के न केवल संकट का कारण अपितु विलुप्त होने का कारण भी है । शेर, चीता, हाथी, का शिकार उनकी खाल, बाल, दाँत, हड्डियों आदि के लिए किया जाता है ।अनेक फर वाले जानवर, साँप तथा पक्षियों को मास जाता है या जिन्दा पकड़ कर तस्करी की जाती है । यह कार्य स्थानीय एवं प्रादेशिक स्तर पर नहीं अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होता है । अनेक जल जीवों का अत्यधिक शोषण हो रहा है इस प्रकार अनेक पादपों का अतिशय शोषण होने से वे समाप्त हो रहे हैं । अनेक दुर्लभ औषधीय पौधों को निर्दयता से समाप्त किया जा रहा है । वर्तमान में अवैध शिकार, तस्करी तथा अतिशोषण जैव विविधता को सर्वाधिक हानि पहुँचा रहा है ।

      (vi) प्रदूषण - मृदा, जल और वायु प्रदूषण पारिस्थितिकी चक्र को प्रभावित करता है और इसका प्रभाव जैव विविधता पर पड़ता है । प्रदूषण अनेक जीवों और पादपों को समाप्त कर देता है । अनेक प्रकार के हानिकारक रसायन जिनका प्रयोग कीटनाशकों के लिए होता है । उदाहरण के लिए अमेरिका कृषि क्षेत्र मिसीसीपी नदी द्वारा मैक्सिको की खाड़ी में जो रसायन गिरते हैं उनसे लगभग 7,700 वर्ग मील के क्षेत्र में मृत क्षेत्र बन गया है जहाँ 20 मीटर गहराई तक ऑक्सीजन समाप्त हो गई है उससे समस्त जल जीव मर जाते हैं।
      यह किसी एक क्षेत्र की कहानी नहीं अपितु समस्त क्षेत्रों की है। केवलादेव उद्यान, भरतपुर (राजस्थान) में सरसों में कीटनाशकों के अवशिष्ट अधिक पाये जाते हैं तथा कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान में डीडीटी. जैसे खतरनाक कीटनाशक अनेक जीवों की मृत्यु का कारण हैं। समुद्र में तेल का रिसाव तथा उद्योगों का रसायन नदी, झीलों में वहाँ के जीवों के लिए घातक है। विभिन्न प्रकार के प्रदूषण में निरन्तर वृद्धि हो रही है जो जैव विविधता के लिए संकट है।

      (vii) वैश्विक जलवायु परिवर्तन - विश्व की जलवायु में परिवर्तन आ रहा है। ओजोन परत की विरलता तथा हरित गृह प्रभाव से विश्व के तापमान में वृद्धि हो रही है। यही नहीं अपितु वनोश्वन, विभिन्न गैसों का उत्सर्जन, अम्लीय वर्षा भी जलवायु तन्त्र को प्रभावित कर रहा है। जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव विभिन्न प्रजातियों पर होता है, वे नवीन परिस्थितियों से सामंजस्य न कर पाने के कारण विलुप्त होने लगती हैं। विश्व तापमान में वृद्धि से जीवों का स्थानान्तरण होता है। द्वीपीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव अधिक होता है। जलवायु परिवर्तन केवल जीवों को ही नहीं अपितु पादपों को भी प्रभावित करता है। इससे फसल क्रम एवं फसल उत्पादन भी प्रभावित होता है।

      (viii) प्राकृतिक आपदाएँ - प्राकृतिक आपदाएं जैसे ज्वालामुखी विस्फोट, भूकम्प, भू-स्खलन भी जीव जगत को हानि पहुंचती हैं। इसी प्रकार बाढ़, सूखा, आगजनी तथा महामारी भी जैव विविधता को हानि पहुंचाते हैं। वनों में लगने वाली आग से अनेक जीव-जन्तु एवं पादप नष्ट हो जाते हैं, कभी- कभी इस प्रकार की आग विस्तृत क्षेत्रों में लगती है जिससे जैव विविधता को नुकसान पहुंचता है।

      तात्पर्य यह है कि वर्तमान में हम जैव विविधता विलोपन के संकट से जूझ रहे हैं, इसका संरक्षण प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए।


      डॉ. दीपक कोहली 

      उपसचिव, वन एवं वन्य जीव विभाग,

      5 / 104 , विपुल खंड,  गोमती नगर,  लखनऊ-  226010

      (मोबाइल-  9454410037)


       

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      जलवायु परिवर्तन के कारण 1.75 करोड़ लोग हुए विस्थापित

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      जलवायु परिवर्तन के कारण 1.75 करोड़ लोग हुए विस्थापितHindiWaterMon, 03/02/2020 - 16:14

      आज की मुख्य खबरें -

      • जलवायु परिवर्तन के कारण 1.75 करोड़ लोग हुए विस्थापित। 
      • ऑलवेदर और एलिवेटेड रोड से उत्तराखंड में रुकेगा पलायन। 
      • बदलता मौसम बिगाड़ रहा बच्चों की सेहत। 
      • साढ़े तीन घंटे में 20 हजार ग्रामीणों ने बनाई 40 हजार जल संरचनांए। 

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      नैनोटेक्नाॅलाॅजी से जल प्रदूषण नियंत्रण

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      नैनोटेक्नाॅलाॅजी से जल प्रदूषण नियंत्रणHindiWaterTue, 03/03/2020 - 11:15

      फोटो - safety and health magazine.com।

      कहना न होगा कि आज नैनो की सूक्ष्मता की प्रौद्योगिकी ने कृषि, पर्यावरण, चिकित्सा, इंजीनियरी, जैव-प्रौदृयोगिकी, सूचना-प्रौद्योगिकी इत्यादि अनेक क्षेत्रों में संभावनाओं के द्वारा खोल दिए हैं। भविष्य में इसकी असंख्य संभावनाएं हैं, जिनको कार्यरूप देना एक बड़ी चुनौती है। विकसित और विकासशील देशों के वैज्ञानिक इसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं। नैनो परिमाप पर आधारित विज्ञान एवं अभियांत्रिकी, रचनात्मक पदार्थों को क्रियात्क संरचनाओं तथा उनके गुणधर्मों को अभिव्यक्त करने वाली अतिसूक्ष्म वैज्ञानिक, क्रमबद्धता को अत्याधुनिक शब्दों में नैनोटेक्नाॅलाॅजी कहते हैं। पृथ्वी एवं जीव-जगत के निर्माण में प्रारंभिक अवस्था से ही इसकी उपयोगिता रही है। जीव के परिप्रेक्ष्य में डीएनए की द्विकुंडली का व्यास लगभग 2 नैनो मीटर तथा राइबोसोम का व्यास 25 नैनो मीटर के बराबर होता है। मानव निर्मित नैनो-आकृति पदार्थों की नूतन उत्पत्ति एक ऐसी डोमेन आकार की अवयवी कणिकाएं हैं, जिनके द्वारा पर्यावरण अभियांत्रिकी में अकल्पनीय क्रांति आने की प्रबल संभावनाएं हैं। परिणामस्वरूप विभिन्न पर्यावरणीय क्षेत्रों में नैनो कणों एवं नैनो-नलिकाओं का कुशलतापूर्वक अनुप्रयोग हो रहा है। 

      नैनो शब्द मूलतः ग्रीक भाषा का है, जिसका अर्थ अति सूक्ष्म या अति बौना होता है। मापन की अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली में नैनो का तात्पर्य अरबांश से है, जिसका मान 10.9 मीटर के बराबर होता है। नैनो मीटर कितना सूक्ष्म है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यह महज एक आॅलपिन की घुंडी के दस लाखवें हिस्से के बराबर होता है। नैनो जगत की अवधारणा सबसे पहले प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी एवं नोबेल पुरस्कार विजेता रिचर्ड फैनमेन ने की थी। नैनो टैक्नोलाॅजी जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करने में सक्षम है। नैनो-विज्ञान की व्यापकता एवं विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले प्रभाव को देखते हुए इसकी अनेक शाखाएं बन गई हैं। इस क्षेत्र में विकास के साथ-साथ नई शाखाओं का जन्म भी निरंतर हो रहा है। आज जो नैनो टैक्नोलाॅजी पर शोध हो रहे हैं उनका केन्द्र बिन्दु दूसरी तकनीकों के साथ नैनो का समन्वय है।  वास्तव में ऐसी अनेक प्रौद्योगिकियां हैं, जहाँ आज नैनोकण, नैनो पाउडर तथा नैनो नलिकाओं का सफलता से उपयोग हो रहा है। पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए भी नैनोप्रोैद्योगिकी अत्यंत उपयोगी है। वास्तव में नैनो जैसे सूक्ष्म स्तर पर पदार्थ का व्यवहार बिल्कुल ही अलग होता है। उसकी रासायनिक-प्रतिक्रिया क्षमता बहुत तीव्र हो जाती है। उसकी गुणवत्ता बढ़ जाती है। वैज्ञानिकों ने नैनो-तकनीक से ऐसी प्रक्रिया विकसित की है, जिससे हमारे पर्यावरण में व्याप्त हानिकारक रसायनों को समाप्त करने में मदद मिलेगी। 

      पर्यावरण की बात करें तो हमारे चारों ओर जो आवरण हैं जिसमें वायुमंडल, जलमंडल, और स्थलमंडल आते हैं तथा जो जीव धारियों पर सीधा या परोक्ष रूप से प्रभाव डालता है, पर्यावरण या Environment कहलाता है। वैसे तो पर्यावरण के सभी घटक महत्वपूर्ण हैं, किन्तु, इनमें से जल की महत्ता कुछ विशेष ही है। पृथ्वी का तीन-चैथाई भाग में जल है और जीवित पदार्थोंं का 70 प्रतिशत भाग जल का ही बना हुआ है। इसलिए जल को अमृत कहा गया है। दूसरे शब्दों में जल ही जीवन है। सभी जीवधारियों के लिए जल अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। जल में बहुत से खनिज तत्व, कार्बनिक-अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली होती हैं। यदि जल में घुले पदार्थ आवश्यकता से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाते हैं जो साधरणतः जल में उपस्थित नहीं होते हैं, तो जल हानिकारक हो जाता है और प्रदूषित जल कहलाता है। जल में प्रदूषण का कारण औद्योगिक संस्थानों से निकले अपशिष्ट पदार्थ, कृषि के लिए इस्तेमाल हो रही रासायनिक खाद, कीटाणुनाशक पदार्थ, अपतृणनाशी पदार्थ, दूसरे कार्बनिक पदार्थ एवं सीवेज इत्यादि है। इन सभी प्रदूषकों के कारण जल अशुद्ध हो जाता है तथा पीने लायक नहीं रहता। अशुद्ध जल के सेवन से अनेकों बीमारियां जैसे-पेचिश, पीलिया, टाइफाइड आदि होती है।

      आज वैज्ञानिक नैनोटेक्नाॅलाॅजी का उपयोग करके जल-प्रदूषण को नियंत्रित करने में सफल हो रहे हैं। उल्लेखनीय है कि प्रदूषित जल को शुद्ध करने की पारम्परिक विधियाॅं उतनी कारगर सिद्ध नहीं हुई हैं जितनी की आवश्यकता है। इसके अलावा जल-प्रदूषण नियंत्रण की पुरानी विधियों में खर्च भी अधिक आता है। हाल ही में दक्षिण ऑस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों पीटर मैजवस्की तथा च्यूपिंग चैन ने सिलिका के नैनो-कणों का उपयोग करके प्रदूषित जल को शुद्ध करने में सफलता प्राप्त की है। उनकी यह विधि पारम्परिक विधियों से अधिक सरल, कारगर एवं कम खर्चीली सिद्ध हुई है। इस विधि में सिलिका के अति-सूक्ष्म क्रियाशील नैनो-कणों द्वारा प्रदूषित जल में उपस्थित विषैले रसायनों, हानिकारक बैक्टीरिया तथा विषाणुओं को अधिक प्रभावशाली ढंग से नष्ट किया जाता है। 

      नैनोटेक्नोलाॅजी का प्रयोग करके प्रदूषित जल में उपस्थित औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों (Industrial Waste Materials) को भी आसानी से दूर किया जा सकता है। नैनो-कणों का उपयोग करके प्रदूषित अपशिष्टों को रासायनिक अभिक्रिया द्वारा अहानिकारक पदार्थों में परिवर्तित कर दिया जाता है। जिससे कि जल शुद्ध हो जाए। नैनोप्रोैद्योगिकी का उपयोग करके अशुद्ध जल में उपस्थित हानिकारक लवणों तथा धातुओं को भी प्रदूषित जल से मिटाया जा सकता है। इस विधि में डिआयोनाइजेशन विधि द्वारा नैनो साइज फाइबर्स का उपयोग करके जल को शुद्ध किया जाता है। इस तकनीक से जल के शुद्धिकरण की प्रक्रिया अधिक सरल, सस्ती एवं प्रभावशाली होती है। इसके अतिरिक्त इसमें ऊर्जा भी कम लगती है। आज हम लोग जिन स्टैण्डर्ड फिल्टर्स का प्रयोग कर रहे हैं उनसे अति-सूक्ष्म विषाणु सम्पूर्ण रूप से नष्ट नहीं होते हैं। आज शोधकर्ताओं ने नैनोटेक्नोलाॅजी द्वारा ऐसे फिल्टर्स विकसित कर लिए हैं जो इन अतिसूक्ष्म हानिकारक विषाणुओं को समाप्त करके जल को संपूर्ण स्वच्छ बनाने में सक्षम हैं। 

      जल-प्रदूषण नियंत्रण के क्षेत्र में ही वैज्ञानिकों ने लौह नैनोकणों का प्रयोग करके भूगर्भ जल में पाये जाने वाले हानिकारक रासायनिक पदार्थ कार्बन-टैट्राक्लोराइड को भी प्रदूषित भूगर्भ जल से हटाने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आज वैज्ञानिकों एवं शोधकर्ताओं ने नैनोटेक्नोलाॅजी का प्रयोग करके जल-प्रदूषण को समाप्त करने में असाधारण सफलता प्राप्त की है। विकसित देशों में इस प्रोैद्योगिकी का प्रयोग सफलतापूर्वक हो रहा है। विकासशील देश भारत में भी नैनोटेक्नाॅलाॅजी आधारित अनुसंधान तेजी से हो रहा है। वह दिन दूर नहीं कि जब हम भारतीय भी इस प्रौद्योगिकी की उपयोग करके जल-प्रदूषण की समस्या से संपूर्ण रूप से मुक्त हो सकेंगे। उल्लेखनीय है कि नैनोटेक्नोलाॅजी ऐसी विद्या है जो नैनो अर्थात अति सूक्ष्म होकर भी अत्यन्त प्रभावी बनती जा रही है एवं जिसमें भौतिक, रसायन, जीव विज्ञान तथा इंजीनियरिंग की अनेकों उपलब्धियाँ गागर में सागर की भांति समाहित हैं। 


      लेखक

      डाॅ. दीपक कोहली, उपसचिव,

      वन एवं वन्य जीव विभाग, उत्तर प्रदेश

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      nano technology, water pollution, nano technology and water pollution, nano technology reduce water pollution, water crisis india, cause of water pollution, waterborne disease.

       

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