Quantcast
Channel: Front Page Feed
Viewing all 2534 articles
Browse latest View live

खनन से गंगा तट पर बसे गांव में तेजी से गिर रहा भूजल स्तर

$
0
0
Author: 
मीना कुमारी/राजकुमार भारद्वाज
.पंजनहेड़ी/ कटारपुर (हरिद्वार) गंगा तट के किनारों के आसपास पोपुलर के पेड़ों के खेतों के बीच बसे इन गांवों में खनन अब स्थायी हो गया है। पंजनहेड़ी के साधुराम कहते हैं, खनन हो कहां नहीं रहा है। सारे गांवों में हो रहा है और नियमित हो रहा है और हम लाठी-गोली के साए में जीते हैं।

इन गांवों में आने वाले हर आदमी को शक की नजरों से देखा जाता है। छोटे-छोटे बच्चे बार-बार की कोशिश के बाद ही मुंह खोलते हैं। उन्हें समझाया गया है कि वे बाहरी लोगों से कोई बात नहीं करें।

कटारपुर गांव के अक्षय मक्की के खेत में पानी देने में व्यस्त हैं, खनन कितने बजे होता है, सर रात 8 से सुबह आठ तक। इतना बोलकर फिर खेत में चले जाते हैं। गांव के बाहर गंगा तट से तकरीबन 30 मीटर दूर स्थित शिव मंदिर में बाबा बृहस्पत पिछले 10 सालों से टिके हैं।

read more


गंगा बैराजों पर जेडीयू की आपत्ति

$
0
0
.किसी नदी का तल कितना गहरा अथवा उथला होगा, यह तय करने का काम उसके उद्गम और समुद्र से उसके संगम स्थल की ऊंचाई के बीच के अंतर का काम है। इसी तरह नदी मार्ग में घुमाव, संगम या अवरोध उत्पन्न करने का काम प्रकृति का है। अतः इस बाबत् श्री अनुपम मिश्र जी के नदी जोड़ संबधी बयान से प्रेरणा लेते हुए कहा जाना चाहिए कि श्रीमान नितिन गडकरी जी गंगाजी को गहरा करने व नए बैराज निर्माण के चक्कर में न ही पड़ें, तो अच्छा है।

यह कहने का साहस पर्यावरण की पढ़ाई पढ़ आए मुख्यमंत्री टीपू भले ही न जुटा पाए हों, किंतु जनता दल यूनाइटेड के एक सांसद ने यह साहस दिखा दिया है।

सांसद अली अनवर गंगा को मां भले न कहते हों, लेकिन उन्होने जता दिया है कि उन्हे गंगा व उसके लोगों की चिंता औरों से ज्यादा है। अली अनवर नेे गंगा पर नए बैराज न बनाने की मांग पेश कर दी है। फरक्का बांध के अनुभव को सामने रखते हुए उन्होंने आपत्ति जताई है कि बैराजों के बनने से बाढ़, कटान और मछलियों पर संकट गहराएगा।

read more

जल, जीवन और गंगा

$
0
0
Author: 
अनिल प्रकाश
Source: 
कल्पतरु एक्सप्रेस, 15 जून 2014
भारत में नदियों की पूजा भले की जाती हो, पर उनकी स्वच्छता की चिन्ता नहीं किए जाने से आज देश के 60 हजार गांव प्यासे हैं, और यदि पानी मिलता है तो बीमारियों के साथ। अंधाधुंध विकास की चाहत में भूजल स्तर जिस रफ्तार से कम हो रहा है, उससे भविष्य में पानी के लिये युद्ध होने की आशंकाएं भी कम नहीं हैं। जरूरत है कि हम नदियों से छेड़छाड़ रोककर उनके प्राकृतिक बहाव को महत्त्व दें, नहीं तो हमारी सभ्यता कभी भी तबाह हो सकती है। पेश है भविष्य के संकटों को परखती रिपोर्ट।

राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में गंगा की सफाई की योजना पर बड़े शोर-शराबे के साथ काम शुरू हुआ था। गंगा एक्शन प्लान बना। अब तक लगभग बीस हजार करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद गंगा का पानी जगह-जगह पर प्रदूषित और जहरीला बना हुआ है।केंद्र की नई सरकार ने गंगा नदी से जुड़ी समस्याओं पर काम करने का फैसला किया है। तीन-तीन मंत्रालय इस पर सक्रिय हुए हैं। एक बार पहले भी राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में गंगा की सफाई की योजना पर बड़े शोर-शराबे के साथ काम शुरू हुआ था। गंगा एक्शन प्लान बना। मनमोहन सिंह सरकार ने तो गंगा को राष्ट्रीय नदी ही घोषित कर दिया। मानो पहले यह राष्ट्रीय नदी नहीं रही हो। अब तक लगभग बीस हजार करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद गंगा का पानी जगह-जगह पर प्रदूषित और जहरीला बना हुआ है। गंगा का सवाल ऊपर से जितना आसान दिखता है, वैसा है नहीं। यह बहुत जटिल प्रश्न है। गहराई में विचार करने पर पता चलता है कि गंगा को निर्मल रखने के लिए देश की कृषि, उद्योग, शहरी विकास तथा पर्यावरण संबंधी नीतियों में मूलभूत परिवर्तन लाने की जरूरत पड़ेगी। यह बहुत आसान नहीं होगा।

read more

निकालनी पड़ेगी मृत संजीवनी

$
0
0
Author: 
समाज शेखर
Source: 
डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट, 03 जनवरी 2014
जल सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व संहार का मूल आधार है। जब भी धरती पर ‘आदिम मानव’ की सृष्टि हुई, उसके जन्म के साथ जल जुड़ा रहा। जब भी उसे भूख महसूस हुई तो इसी जल ने वनस्पतियों को उगाया, जिससे उसने पेट भरा और जमकर पानी पिया। जब भी प्रलय अथवा कयामत की कल्पना की गई तो उसका आधार बना भूकंप या जलजला। सारी धरती प्रलय काल में जलमग्न हो जाएगी।

read more

आई बी रिपोर्ट से असहमति जरूरी क्यों

$
0
0
सामाजिक कार्य में धन की कमी रोड़ा बनकर खड़ी हो जाए, तो धन उस लक्ष्य समूह के साझे से ही जुटाया जाना चाहिए, जिसके हित के लिए वह कार्य किया जा रहा हो। किंतु विदेश से धन प्राप्त करना किसी को राष्ट्रविरोधी ठहराने का आधार नहीं हो सकता। भारत के कितने ही धर्मगुरुओं के धर्ममार्ग को प्रशस्त करने की मूल पूंजी उनके विदेशी शिष्यों से ही आती है। हमारी सरकारें स्वयं विदेशी सलाहकारों, दान व कर्जदाताओं के लिए पलक पांवड़े बिछाती रही है। कौन तय करेगा कि मां सरीखी नदियों को प्रदूषित करना देशद्रोह है अथवा प्रदूषण करने वालों की पोल खोलना?आप इस पर सवाल उठा सकते हैं कि 2006 से 2009 के बीच रिटर्न दाखिल न करने वाले 21,423 गैर सरकारी संगठनों को नोटिस जारी करने की याद सरकार को वर्ष 2014 में क्यों आई, किंतु इस बात से कतई असहमत नहीं हो सकते कि ऐसे संगठनों को नोटिस जारी किए ही जाने चाहिए।

गृह मंत्रालय द्वारा स्वैच्छिक संगठनों के पंजीकरण रद्द करने के लिए बनाए नए आधार से भी असहमत होने का कोई कारण नहीं है। आयुक्त स्तर हो अधिकारी को पंजीकरण रद्द करने का अधिकार देने के शासनादेश से भी आप असहमत हो सकते हैं, किंतु यदि कोई संगठन वह कार्य न करें, जिसके लिए उसने धन लिया हो; आय का आम जनता के हित में उपयोग न करना, प्रतिबंधित मद में खर्च करना, संपत्ति का निजी हित में उपयोग तथा ट्रस्टी के रिश्तेदारों को कर्ज दिए जाना निश्चित तौर पर परमार्थ की बजाय स्वार्थ की श्रेणी में गिना जाना चाहिए।

read more

केंद्रीय बजट: पर्यावरण की घोर अनदेखी

$
0
0
Author: 
आशीष कोठारी
Source: 
सर्वोदय प्रेस सर्विस, अगस्त 2014
बजट में औद्योगिक कॉरिडोर पर जबरदस्त जोर दिया गया है। यदि गुजरात मॉडल के हिसाब से चले तो बड़े पैमाने पर जबरन एवं फुसलाकर विस्थापन एवं प्रदूषण होगा। यह संघर्ष और सामाजिक टकराव को भी हवा देगा। जुलाई की शुरुआत में ही महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में मुंबई-दिल्ली औद्योगिक कारिडोर हेतु प्रस्तावित 65000 एकड़ भूमि अधिग्रहण के खिलाफ विशाल प्रदर्शन हुए थे। बजट में कई वर्षों से चर्चा में रही नदी जोड़ परियोजना हेतु भी पहल की गई है। जेटली के भाषण में इस बात पर विलाप किया गया है कि भारत को “सभी तरफ सदानीरा नदियों का वरदान नहीं मिला है।”“चूंकि वर्ष 2015 सुस्थिर विकास एवं जलवायु परिवर्तन नीति के हिसाब से ऐतिहासिक वर्ष होगा अतः सन् 2014 सभी भागीदारों के लिए आत्मविश्लेषण करने का आखिरी मौका होगा कि वे समझदारी से चुन सकें कि वे सन् 2015 के बाद कैसी दुनिया चुनना चाहते हैं।” यह महत्वपूर्ण वाक्य भारत सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण 2013-14 में लिखे गए हैं। इसका संदर्भ वर्तमान सहस्त्राब्दी लक्ष्यों जिनकी अवधि सन् 2015 तक की है, को बदलकर सुस्थिर विकास लक्ष्यों को नए सिरे से तैयार करना है।

सवाल उठता है बकाया सर्वेक्षण और बजट में आत्मविश्लेषण दिखाई देता है? नई दिल्ली में बैठे शक्ति के नए केन्द्र क्या वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भविष्य की पीढ़ियों के हितों की रक्षा हेतु समझदारी दिखाएंगे? वर्तमान पीढ़ी के करोड़ों लोग जो कि सीधे-सीधे प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है, उनकी आजीविका अधिक सुरक्षित कैसे होगी?

read more

बूंदें रचतीं जलकथा

$
0
0
Author: 
अजयेंद्रनाथ त्रिवेदी
Source: 
डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट, 28 जुलाई 2013
पूरब दिसि से उठी बदरिया
रिमझिम बरसत पानी


मॉनसूनऊंचे आकाश पर बसे बादल, हवा के पंखों पर सवार बादल, अपने अंक में चपल बिजली को समेटे बादल, देखने में श्याम बादल, गर्जन में घोर बादल द्रवित हुए जा रहे थे.. कालिदास ने बादलों की स्तुति उन्हें उच्च कुलोत्पन्न कह कर की है। ये उच्च कुलोत्पन्न बादल आज जलबूंदों का रूप लेकर मिटते जा रहे हैं।

read more

हिमालय के माथे की लकीर बनेगा-प्रस्तावित पंचेश्वर बांध

$
0
0
Author: 
सुरेश भाई
पिछले तीन दशकों में बड़े बांधों को लेकर दुनिया में जो बहस हुई उसने छोटे-छोटे बांधों की दिशा में सरकारों को सोचने के लिए बाध्य कर दिया है और कई देशों ने अपने बड़े बांधों को तोड़ा है। अब पंचेश्वर जैसा दुनिया का बड़ा बांध एक बार फिर विश्व के पटल पर वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, आमजन और सरकार के बीच निश्चित ही चर्चा का विषय बनेगा।

अब केवल यही अध्ययन होगा कि किन बांधों को पहले बनाया जाए और प्रतियोगिता होगी कि उस सरकार ने तो टिहरी बांध और हम इससे भी बड़ा बनाएंगे। यह कठिन दौर हिमालय के निवासियों को आने वाले दिनों में देखना पड़ेगा। जबकि सुझाव है कि यहां पर छोटी-छोटी परियोजनाएं बने। एक आंकलन के आधार पर मौेजूदा सिंचाई नहरों से 30 हजार मेगावाट बिजली बन सकती है, इससे स्थानीय युवकों को रोजगार मिल सकता है। आगे पानी और पलायन की समस्या का समाधान भी हो सकता है लेकिन इसका काम कौन भगीरथ करेगा?

नर्मदा और टिहरी में बड़े बांधों के निर्माण के बाद अब फिर से हिमालय में पंचेश्वर जैसा दुनिया का सबसे बड़ा बांध भारत-नेपाल की सीमा पर बहने वाली महाकाली नदी पर बनाने की पुनः तैयारी चल रही है। अभी हाल ही में नेपाल की यात्रा पर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कुमार कोइराला के साथ मिलकर इस बांध निर्माण के लिए एक समझौता पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए हैं।

इसके आधार पर पंचेश्वर विकास प्राधिकरण को महत्व देकर समझौता हुआ है कि इसका कार्यालय नेेेपाल के कंचनपुर में होगा, जिसमें भारत औेर नेपाल से 6-6 अधिकारी होंगे। बिजली उत्पादन पर दोनों देशों का बराबर हक होगा, लेकिन इस परियोजना पर होने वाले कुल खर्च में से भारत 62.5 प्रतिशत और नेपाल शेेष 37.5 प्रतिशत राशि खर्च करेगा।

read more


संकट में पहाड़ियां

$
0
0
Author: 
प्रयाग पांडे
Source: 
जनसत्ता (रविवारी), 03 अगस्त 2014
मशहूर नगरी नैनीताल की कई पहाड़ियां भूस्खलन की दृष्टि से काफी संवेदनशील हैं। पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों की चेतावनी के बावजूद सरकार इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रही है। इस बारे में बता रहे हैं प्रयाग पांडे।

बेतरतीब बसाहटनैनीताल की कमजोर पहाड़ियों, तालाबों और नालातंत्र की देखरेख के लिए पचासी साल पहले बनी हिल साइट सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ समिति सरकारी उपेक्षा की वजह से अपनी अहमियत गवां चुकी है। जबकि, जिस समस्या के निवारण के लिए इसका गठन हुआ था, वह और बढ़ गई है।

read more

बुंदेलखंड और पलायन

$
0
0
Author: 
चिन्मय मिश्र और सचिन जैन
Source: 
बुंदेलखंड : पलायन की निरंतरता, 2012, विकास संवाद

बुंदेलखंड पलायन की प्रस्तावना


बुंदेलखंड के गांवों में अब लोग घरों में ताले लगाने के बजाए उनके आगे दीवारे चुन रहे हैं। घरों पर घास उग आई है। पति-पत्नि अपने बच्चों को लेकर जब गांव से बाहर निकलते हैं तो आंसू से भरी आंखों से पीछे पलटकर नहीं देखते क्योंकि पीछे निराश्रित माता-पिता अपनी निर्विकार आंखों से उन्हें ताकते रहते हैं, सिर्फ मां की गोदी में चढ़ा बच्चा मां के कंधे के पीछे अपने बिछुड़ते दादा-दादी को देखता रहता है। उसे नहीं मालूम कि नियति उसे कहां ले जा रही है। पिछले एक दशक में बुंदेलखंड से हो रहे पलायन एवं अकाल की निरंतरता पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। कई तरह से यहां की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक स्थितियों का विश्लेषण तकरीबन सभी विधाओं के संत यानि विद्वान लोग कर चुके हैं। इसके बावजूद क्या कहने, सुनने और लिखने को कुछ बच रहता है? निश्चित तौर पर कुछ-न-कुछ तो हमेशा ही बच रहता है। बुंदेलखंड का गौरवशाली अतीत रहा है। यह क्षेत्र कला और साहित्य में भी अग्रणी रहा है। वैसे शस्त्रकला का तो यह स्तंभ रहा है। यहां के जंगल अत्यंत घने एवं जैव विविधता भरे थे। दिल्ली के हुक्मरानों को यहां के जंगलों के हाथियों की खेप भेजी जाती थी और अकाल पड़ने पर भी इस क्षेत्र को बाहर का मुंह नहीं देखना पड़ता था। ओरछा और खजुराहो के मंदिरों व महलों के स्थापत्य से साफ जाहिर होता है कि यहां इस विधा की भी अपने विशिष्ट शैली विद्यमान थी। क्षेत्र के तालाबों की चर्चा तो 10वीं 11वीं शताब्दी के ग्रंथ तक करते हैं। तो आखिर पिछले चार दशकों में ऐसा क्या हो गया कि यहां के निवासी लगातार पलायन को मजबूर हो गए?

read more

ਸਬਜ਼ੀਆਂ ਦੀ ਬਹੁਪਰਤੀ ਖੇਤੀ

$
0
0

ਕਿਸਾਨ ਅਕਸਰ ਆਪਣੇ ਖੇਤਾਂ ਵਿੱਚ ਨਵੇਂ ਵਿਚਾਰ ਅਪਣਾਉਂਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਅਵਿਸ਼ਕਾਰਾਂ ਅਤੇ ਅਨੁਕੂਲਨ ਰਾਹੀ ਕਈ ਸਾਰੀਆਂ ਸਥਾਨਕ ਤਕਨੀਕਾਂ ਵਿਕਸਿਤ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਇਹ ਅਵਿਸ਼ਕਾਰ ਸਥਾਨੀ ਵਾਤਾਵਰਣ ਆਧਾਰਿਤ ਡੂੰਘੇ ਗਿਆਨ ਉੱਪਰ ਆਧਾਰਿਤ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਲੇਖ ਵਿੱਚ ਅਸੀਂ ਉੱਤਰਾਖੰਡ ਸੂਬੇ ਦੇ ਇੱਕ ਪਿੰਡ ਵਿੱਚ ਸੀਮਾਂਤ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੁਆਰਾ ਸਬਜੀਆਂ ਉਗਾਉਣ ਦੀ ਨਵੀਨ ਤਕਨੀਕ ਬਾਰੇ ਜਾਣਕਾਰੀ ਦੇਵਾਂਗੇ।

ਮਕਰਾਓ, ਸਮੁੰਦਰ ਤਲ ਤੋਂ 1100 ਮੀਟਰ ਉਚਾਈ 'ਤੇ ਵਸਿਆ ਉੱਤਰਾਖੰਡ ਸੂਬੇ ਦੇ ਕੁਮਾਂਊ ਖੇਤਰ ਦਾ ਇੱਕ ਛੋਟਾ ਜਿਹਾ ਪਿੰਡ ਹੈ। ਇਸ ਪਿੰਡ ਵਿੱਚ 85 ਘਰ ਹਨ ਜੋ ਕਿ ਮੁੱਖ ਤੌਰ 'ਤੇ ਖੇਤੀ ਅਤੇ ਉਸ ਨਾਲ ਸੰਬੰਧਿਤ ਗਤੀਵਿਧੀਆਂ ਉੱਪਰ ਨਿਰਭਰ ਹਨ। 50 ਹੈਕਟੇਅਰ ਦੇ ਲਗਭਗ ਖੇਤਰ ਖੇਤੀ ਅਧੀਨ ਹੈ। 90 ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਤ ਦੇ ਲਗਭਗ ਜ਼ਮੀਨ ਵਰਖਾ ਆਧਾਰਿਤ ਹੈ ਜਿਸ ਉੱਪਰ ਕੰਗਨੀ, ਕੋਧਰਾ ਝੋਨਾ, ਕਣਕ ਅਤੇ ਸਰੋਂ ਉਗਾਉਂਦੇ ਹਨ। ਸਿੰਚਾਈ ਵਾਲੀ ਜ਼ਮੀਨ ਦੇ ਛੋਟੇ-ਛੋਟੇ ਟੁਕੜਿਆਂ ਉੱਪਰ ਸਬਜੀਆਂ ਉਗਾਈਆਂ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ। ਪਿੰਡ ਵਿੱਚ ਵਾਹੀਯੋਗ ਔਸਤ ਜ਼ਮੀਨ 0.58 ਹੈਕਟੇਅਰ ਹੈ। ਪ੍ਰਵਾਸੀਆਂ ਦੀ ਵਾਹੀਯੋਗ ਜ਼ਮੀਨ ਨੂੰ ਜਾਂ ਤਾਂ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਰਿਸ਼ਤੇਦਾਰ ਵਾਹੁੰਦੇ ਹਨ ਜਾਂ ਗਵਾਂਢੀ। ਇਸ ਤਰਾ ਸਾਰੀ ਜ਼ਮੀਨ ਨੂੰ ਉਪਯੋਗ ਵਿੱਚ ਲਿਆਂਦਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਪਿੰਡ ਸੜਕਾਂ ਨਾਲ ਵਧੀਆ ਜੁੜਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ਇਸ ਲਈ ਬਾਜ਼ਾਰ ਤੱਕ ਪਹੁੰਚ ਅਤੇ ਆਵਾਜਾਈ ਦੀ ਵਧੀਆ ਸੁਵਿਧਾ ਹੈ।
ਅਵਿਸ਼ਕਾਰ- ਸਬਜੀਆਂ ਦੀ ਬਹੁਪਰਤੀ ਖੇਤੀ
ਇੱਕ ਸਦੀ ਪਹਿਲਾ, ਪਿੰਡ ਦੇ ਬਜ਼ੁਰਗਾਂ ਨੇ ਮਿਲ ਕੇ ਪਿੰਡ ਦੀ 5 ਹੈਕਟੇਅਰ ਜ਼ਮੀਨ ਸਬਜ਼ੀਆਂ ਦੀ ਬਿਜਾਈ ਲਈ ਤਿਆਰ ਕੀਤੀ। ਪਹਿਲਾਂ ਜ਼ਮੀਨ ਦੀ ਸਿੰਚਾਈ ਸਥਾਨੀ ਵਿਕਸਿਤ 'ਗੂਲ'ਜੋ ਕਿ ਪਾਣੀ ਇਕੱਠਾ ਕਰਨ ਦਾ ਟੈਂਕ ਸੀ, ਰਾਹੀ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ ਸੀ। ਹੁਣ ਸਰਕਾਰੀ ਵਿਭਾਗਾਂ/ਸਕੀਮਾਂ ਰਾਹੀ ਵਿਕਸਿਤ ਨਹਿਰਾਂ ਰਾਂਹੀ ਸਿੰਚਾਈ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਸ਼ੁਰੂਆਤ ਵਿੱਚ ਸਬਜ਼ੀਆਂ ਜਿਵੇਂ ਗਾਜਰ, ਆਲੂ, ਅਰਬੀ, ਹਰੀਆਂ ਪੱਤੇਦਾਰ ਸਬਜ਼ੀਆਂ ਅਤੇ ਮਸਾਲੇ ਜਿਵੇਂ ਧਨੀਆ, ਹਲਦੀ, ਲਹੁਸਣ ਆਦਿ ਏਕਲ ਫ਼ਸਲ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਉਗਾਈਆਂ ਜਾਂਦੀਆਂ ਸਨ।

read more

ਉਤਪਾਦਕ ਅਤੇ ਟਿਕਾਊ ਪਰਿਵਾਰਿਕ ਖੇਤੀ

$
0
0

ਤਾਮਿਲਨਾਡੂ ਦੇ ਨਾਗਾਪੱਟੀਨਮ ਜ਼ਿਲੇ ਦੀ ਸਰਕਾਜ਼ੀ ਤਾਲੁਕਾ ਦੇ ਪਿੰਡ ਨਿਮੱਲੀ ਦੇ ਸ਼੍ਰੀ ਥੀਲਗਰ 7 ਏਕੜ ਖੇਤੀ ਦੇ ਮਾਲਕ ਹਨ ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਆਜੀਵਿਕਾ ਲਈ ਪੂਰੀ ਤਰਾ ਇਸੇ ਖੇਤੀ ਉੱਪਰ ਨਿਰਭਰ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਸੰਨ 2002 ਤੋਂ ਉਸਨੇ ਆਪਣੇ ਖੇਤ ਵਿੱਚ ਖਾਧ ਉਤਪਾਦਨ ਦੇ ਟਿਕਾਊ ਤਰੀਕਿਆਂ ਦੇ ਤਜ਼ਰਬੇ ਕਰਨੇ ਸ਼ੁਰੂ ਕੀਤੇ। ਉਸਨੇ ਖੇਤੀ ਵਿੱਚ ਰਸਾਇਣਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਯੋਗ ਘਟਾ ਦਿੱਤਾ। ਪ੍ਰੰਤੂ, ਜੈਵਿਕ ਖੇਤੀ ਤਕਨੀਕਾਂ ਨੂੰ ਲਾਗੂ ਕਰਨ ਬਾਰੇ ਸਹੀ ਅਗਵਾਈ ਦੀ ਕਮੀ ਕਰਕੇ ਉਹ ਪੂਰੀ ਤਰਾ ਰਸਾਇਣਾਂ ਨੂੰ ਬੰਦ ਕਰਨ ਦਾ ਫ਼ੈਸਲਾ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕੇ। ਉਹ ਖੇਤੀ ਵਿੱਚ ਕੋਈ ਵੀ ਜੋਖ਼ਿਮ ਲੈਣ ਲਈ ਤਿਆਰ ਨਹੀਂ ਸਨ ਕਿਉਂਕਿ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਰੋਜ਼ੀ-ਰੋਟੀ ਇਸੇ ਉੱਪਰ ਹੀ ਨਿਰਭਰ ਸੀ।
ਖੇਤ ਵਿੱਚ ਜੈਵ ਵਿਭਿੰਨਤਾ ਵਿਕਸਿਤ ਕਰਨਾ
ਰਸਾਇਣਿਕ ਤੋਂ ਜੈਵਿਕ ਖੇਤੀ ਦਾ ਬਦਲਾਅ ਅਸਲ ਵਿੱਚ 2006 ਤੋਂ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋਇਆ ਜਦੋਂ ਉਹ ਟਿਕਾਊ ਖੇਤੀ ਅਤੇ ਸੰਬੰਧਿਤ ਤਕਨੀਕਾਂ ਰਾਹੀ ਕਿਸਾਨ ਸਮੂਹਾਂ ਦਾ ਸ਼ਸ਼ਕਤੀਕਰਨ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਗੈਰ-ਸਰਕਾਰੀ ਸੰਗਠਨ ਸੀ ਆਈ ਕੇ ਐਸ ਨਾਲ ਕੰਮ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਕਿਸਾਨ ਸਮੂਹ ਦੇ ਮੈਂਬਰ ਬਣੇ। ਪੌਦਿਆਂ, ਜਾਨਵਰਾਂ ਅਤੇ ਕੁਦਰਤ ਦੇ ਪ੍ਰੇਮੀ ਥੀਲਗਰ ਨੇ ਸ਼ੁਰੂਆਤ ਵਿੱਚ ਆਪਣੀਆਂ ਖੇਤੀ ਗਤੀਵਿਧੀਆਂ ਝੋਨਾ, ਛੋਲੇ, ਮੂੰਗੀ ਅਤੇ ਸਬਜ਼ੀਆਂ ਲਗਾਉਣ ਤੱਕ ਸੀਮਿਤ ਕਰ ਲਈਆਂ।
ਥੀਲਗਰ ਦਾ ਕਹਿਣਾਂ ਹੈ ਕਿ “ਸਥਾਨਕ ਜ਼ਰੂਰਤਾਂ ਮੁਤਾਬਿਕ ਢਲੀਆਂ ਬੀਜਾਂ ਦੀਆਂ ਪ੍ਰੰਪਰਿਕ ਕਿਸਮਾਂ ਹੀ ਕਿਸਾਨ ਦਾ ਅਸਲੀ ਧਨ ਹਨ ਅਤੇ ਇਹ ਕਿਸਾਨ ਦਾ ਕਰਤੱਵ ਹੈ ਕਿ ਜਿੰਨੀਆਂ ਵੱਧ ਤੋਂ ਵੱਧ ਹੋ ਸਕੇ, ਬੀਜਾਂ ਦੀਆਂ ਕਿਸਮਾਂ ਨੂੰ ਬਚਾਉਣ।” ਆਪਣੇ ਖੇਤ ਵਿੱਚ ਉਹ ਬੀਜ ਬਚਾਉਣ ਦੇ ਉਦੇਸ਼ ਨਾਲ ਝੋਨੇ ਦੀਆਂ ਚਾਰ ਅਲੱਗ-ਅਲੱਗ ਦੇਸੀ ਕਿਸਮਾਂ- ਸੀਰਗਾ ਸਾਂਬਾ, ਮਪਿਲੱਈ ਸਾਂਬਾ, ਥਾਂਗਾ ਸਾਂਬਾ ਅਤੇ ਥੂਇਆ ਮੱਲੀ ਬੀਜਦੇ ਹਨ। ਹਾਲਾਂਕਿ, ਵੇਚਣ ਦੇ ਲਈ ਉਹ ਰਬੀ ਵਿੱਚ ਸਫਦ ਪੋਨੀ ਅਤੇ ਖਰੀਫ਼ ਵਿੱਚ ਏ ਡੀ ਟੀ 43 ਲਗਾਉਂਦੇ ਹਨ। ਔਸਤ ਤੌਰ 'ਤੇ ਉਹ ਖਰੀਫ਼ ਦੇ ਝੋਨੇ ਤੋਂ 1.26 ਲੱਖ ਦੀ ਆਮਦਨ ਅਤੇ ਰਬੀ ਵਾਲੇ ਝੋਨੇ ਤੋਂ 1.5 ਲੱਖ ਦੀ ਆਮਦਨ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਰਬੀ ਦੌਰਾਨ, ਝੋਨੇ ਤੋਂ ਬਾਅਦ, ਉਹ ਛੇ ਏਕੜ ਵਿੱਚ ਛੋਲੇ ਲਗਾਉਂਦੇ ਹਨ ਅਤੇ 50,000 ਦੀ ਆਮਦਨ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਆਪਣੇ ਖੇਤ ਦਾ ਸਾਰਾ ਉਤਪਾਦਨ ਸਰਕਾਜ਼ੀ ਵਿੱਚ ਸਰਕਾਜ਼ੀ ਜੈਵਿਕ ਕਿਸਾਨ ਸੰਘ ਨੂੰ ਵੇਚਦੇ ਹਨ ਜਿੱਥੇ ਉਹ ਬਾਜ਼ਾਰ ਕੀਮਤ ਨਾਲੋਂ ਜ਼ਿਆਦਾ ਵਧੀਆ ਕੀਮਤ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਦੇ ਹਨ।

read more

ਰਾਈਜ਼ੋਬੀਅਮ ਖਾਦ

$
0
0

ਅਸੀ ਅੱਜ ਜੈਵਿਕ ਖੇਤੀ ਦੇ ਲਈ ਜ਼ਰੂਰੀ ਖਾਦ ਦੇ ਬਾਰੇ ਵਿੱਚ ਚਰਚਾ ਕਰਾਂਗੇ ਜਿਸਨੂੰ ਜੈਵਿਕ ਖਾਦ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ। ਸਭਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਜੈਵਿਕ ਖਾਦ ਜੋ ਰਾਈਜ਼ੋਬੀਅਮ ਨਾਮਕ ਜੀਵਾਣੂ ਤੋਂ ਬਣਦਾ ਹੈ, ਉਸਦੇ ਬਾਰੇ ਵਿੱਚ ਗੱਲ ਕਰਦੇ ਹਾਂ। ਇਹ ਫ਼ਸਲਾਂ ਨੂੰ ਨਾਈਟ੍ਰੇਜਨ ਉਪਲਬਧ ਕਰਵਾਉਂਦਾ ਹੈ। ਵਾਯੂਮੰਡਲ ਵਿੱਚ 78 ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਤ ਨਾਈਟ੍ਰੋਜਨ ਉਪਲਬਧ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਸਾਰੇ ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ ਸ਼ਰੀਰਕ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਆ ਪੂਰੀ ਕਰਨ ਲਈ ਨਾਈਟ੍ਰੋਜਨ ਦੀ ਜ਼ਰੂਰਤ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਪ੍ਰੰਤੂ ਸਾਰੇ ਜੀਵ ਵਾਯੂਮੰਡਲ ਵਿੱਚ ਉਪਲਬਧ ਨਾਈਟ੍ਰੋਜਨ ਦਾ ਉਪਯੋਗ ਨਹੀਂ ਕਰ ਪਾਉਂਦੇ। ਵਾਯੂਮੰਡਲੀ ਨਾਈਟ੍ਰੋਜਨ ਨੂੰ ਉਪਲਬਧ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਬਦਲਣ ਨੂੰ ਨਾਈਟ੍ਰੋਜਨ ਸਥਿਤੀਕਰਨ ਜਾਂ ਨਤਰ ਸਥਿਰੀਕਰਨ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ। ਫ਼ਸਲਾਂ ਦੇ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਲਈ ਨਤਰ (ਨਾਈਟ੍ਰੋਜਨ) ਦੀ ਜ਼ਰੂਰਤ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਫ਼ਸਲਾਂ ਨਤਰ ਸਥਿਰੀਕਰਨ ਤੋਂ ਪ੍ਰਾਪਤ ਨਤਰ ਦਾ ਉਪਯੋਗ ਕਰਦੀਆਂ ਹਨ। ਨਤਰ ਸਥਿਰੀਕਰਨ ਤਿੰਨ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਆਵਾਂ ਰਾਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ :- (1) ਵਾਯੂਮੰਡਲੀ ਸਥਿਰੀਕਰਨ (2) ਉਦਯੌਗਿਕ ਸਥਿਰੀਕਰਨ (3) ਜੈਵਿਕ ਸਥਿਰੀਕਰਨ।
ਜੈਵਿਕ ਸਥਿਰੀਕਰਨ
ਜੈਵਿਕ ਸਥਿਰੀਕਰਨ ਮਿੱਟੀ ਵਿੱਚ ਉਪਲਬਧ ਜੀਵਾਣੂ ਦੀ ਮੱਦਦ ਨਾਲ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਜੈਵਿਕ ਨਤਰ ਸਥਿਰੀਕਰਨ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਜੀਵਾਣੂਆਂ ਵਿੱਚ ਰਾਈਜ਼ੋਬੀਅਮ ਮਹੱਤਵਪੂਰਨ ਜੀਵਾਣੂ ਹੈ।ਹਰਸ਼ਲਤਾ ਭੋਜਨੇ
ਰਾਈਜ਼ੋਬੀਅਮ : ਇਹ ਜੀਵਾਣੂ ਦਲਹਨ (ਦੋ ਦਲੀਆਂ) ਫ਼ਸਲਾਂ ਦੀਆਂ ਜੜਾਂ ਵਿੱਚ ਗੰਢਾਂ ਬਣਾ ਕੇ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਦੋ ਦਲੀਆਂ ਫ਼ਸਲਾਂ ਦੇ ਨੇੜੇ ਵਾਲੀ ਮਿੱਟੀ ਵਿੱਚ ਪਾਇਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਦਲਹਨ ਫ਼ਸਲਾਂ ਦੀਆਂ ਜੜਾਂ ਦੇ ਨਾਲ ਸਹਿਜੀਵੀ ਸੰਗਠਨ ਬਣਾ ਕੇ ਜੜਾਂ ਵਿੱਚ ਗੰਢਾਂ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਉੱਥੋਂ ਹੀ ਵਾਯਮੰਡਲੀ ਨਤਰ ਨੂੰ ਸਥਿਰ ਕਰਕੇ ਫ਼ਸਲਾਂ ਨੂੰ ਉਪਲਬਧ ਕਰਵਾਉਂਦਾ ਹੈ। ਰਾਈਜ਼ੋਬੀਅਮ ਫ਼ਸਲਾਂ ਨੂੰ ਨਤਰ ਉਪਲਬਧ ਕਰਵਾਉਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਖ਼ੁਦ ਦੇ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਲਈ ਫ਼ਸਲਾਂ ਤੋਂ ਊਰਜਾ ਅਤੇ ਪੋਸ਼ਕ ਤੱਤ ਲੈਂਦਾ ਹੈ। ਇਸਨੂੰ ਸਹਿਜੀਵੀ ਸੰਗਠਨ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ। ਰਾਈਜ਼ੋਬੀਅਮ ਦੀਆਂ ਵਿਭਿੰਨ ਜਾਤੀਆਂ ਹਨ ਜੋ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਦਲਹਨ ਫ਼ਸਲਾਂ ਉੱਪਰ ਕਾਰਗਰ ਹਨ।
ਜੜਾਂ ਵਿੱਚ ਗੰਢਾਂ ਕਿਵੇਂ ਬਣਦੀਆਂ ਹਨ?

read more

ਇਰਵਾ-ਇੱਕ ਬੀਜ ਕ੍ਰਾਂਤੀ ਦੀ ਗਾਥਾ

$
0
0

ਮਹਾਂਰਾਸ਼ਟਰ ਦੇ ਵਿਦਰਭ ਭਾਗ ਵਿੱਚ ਹੈ ਯਵਤਮਾਲ ਜਿਲਾ। ਵਿਡੰਬਨਾ ਦੇਖੋ ਕਿ ਇਹ ਭਾਗ ਹੁਣ ਤੱਕ ਸੁਰਖੀਆਂ ਵਿੱਚ ਇਸਲਈ ਸੀ ਕਿ ਇੱਥੇ ਆਤਮਹੱਤਿਆ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੇ ਚਰਚੇ ਖ਼ਾਸ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਨਰਮਾ ਉਗਾਉਣ ਵਾਲੇ ਇਹ ਕਿਸਾਨ ਇਸ ਇੱਕ ਫ਼ਸਲੀ ਖੇਤੀ ਤੋਂ ਏਨੇ ਦੁਖੀ ਸਨ ਕਿ ਫ਼ਸਲ ਦੇ ਲਗਾਤਾਰ ਖਰਾਬ ਹੋਣ ਕਰਕੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਕਮਰ ਟੁੱਟ ਜਾਂਦੀ ਅਤੇ ਨਿਰਾਸ਼ਾ ਨਾਲ ਘਿਰੇ ਹੋਣ 'ਤੇ ਮਾਤਰ ਆਤਮਹੱਤਿਆ ਹੀ ਇਹਨਾਂ ਦੇ ਨਸੀਬ ਵਿੱਚ ਲਿਖੀ ਹੁੰਦੀ। ਕਿਸਾਨ ਪੁਰਸ਼ ਤਾ ਆਤਮਹੱਤਿਆ ਕਰਕੇ ਤ੍ਰਾਸਦੀ ਤੋਂ ਮੁਕਤੀ ਪਾ ਜਾਂਦਾ ਪ੍ਰੰਤੂ ਪਿੱਛੇ ਬਚੇ ਪਰਿਵਾਰ ਦਾ ਕੀ? ਪਤਨੀ, ਬੱਚੇ, ਬੁੱਢੇ ਮਾਂ-ਬਾਪ ਕੀ ਕਰਦੇ? ਇੱਕ ਨਵੀਂ ਤ੍ਰਾਸਦੀ ਦੀ ਸ਼ੁਰੂਆਤ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਲਈ।
ਮਹਾਂਰਾਸ਼ਟਰ ਦੇ ਪੂਰਬੀ ਭਾਗ ਵਿੱਚ ਹੈ ਵਿਦਰਭ ਅਤੇ ਇੱਥੋਂ ਦੀ ਮੁੱਖ ਫ਼ਸਲ ਹੈ ਨਰਮਾ। ਨਾਲ ਹੀ ਥੋੜੀ ਬਹੁਤ ਜਵਾਰ ਅਤੇ ਅਰਹਰ ਅਤੇ ਉਹ ਵੀ ਨਰਮੇ ਦੇ ਨਾਲ ਮਿਲਵੀਂ ਖੇਤੀ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ, ਬਸ। ਇੱਥੇ ਆ ਕੇ ਹੀ ਕਿਸਾਨ ਦੀ ਕਾਸ਼ਤਕਾਰੀ ਰੁਕ ਜਾਂਦੀ ਸੀ। ਇਸ ਨਕਦੀ ਫ਼ਸਲ ਵਿਵਸਥਾ ਦੇ ਕਾਰਨ ਉਸਦੇ ਪੁਸ਼ਤੈਨੀ ਫ਼ਸਲ ਚੱਕਰ ਨੂੰ ਜਿਵੇਂ ਲਕਵਾ ਮਾਰ ਗਿਆ ਸੀ। ਉਸਦੀ ਵਰਿਆਂ ਪੁਰਾਣੀ ਪੁਸ਼ਤੈਨੀ ਬਹੁਫ਼ਸਲੀ ਵਿਵਸਥਾ ਤੋਂ ਮਿਲਣ ਵਾਲੀ ਖੁਸ਼ਹਾਲੀ ਜਿਵੇਂ ਰੁੱਸ ਚੁੱਕੀ ਸੀ। ਇਸ ਇਨ-ਮੀਨ-ਤੀਨ ਫ਼ਸਲੀ ਚੱਕਰ ਨਾਲ ਨਾ ਕੇਵਲ ਉਸਦੀ ਅਰਥਵਿਵਸਥਾ ਨੂੰ ਗ੍ਰਹਿਣ ਲੱਗ ਗਿਆ ਸੀ ਬਲਕਿ ਉਸਦੀ ਭੋਜਨ ਵਿਭਿੰਨਤਾ ਵੀ ਚੌਪਟ ਕਰ ਦਿੱਤੀ ਸੀ। ਉਸਦੀ ਖੁਰਾਕ ਵਿੱਚੋਂ ਫ਼ਲ, ਸਬਜ਼ੀਆਂ, ਮਸਾਲੇ ਸਭ ਗਾਇਬ ਹੋ ਗਏ ਸਨ। ਅੱਵਲ ਤਾਂ ਇਹਨਾਂ ਜਿਣਸਾਂ ਨੂੰ ਉਗਾਉਣ ਲਈ ਉਸਦੇ ਖੇਤ ਵਿੱਚ ਜਗਾ ਨਹੀਂ ਸੀ ਅਤੇ ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਖਰੀਦਣ ਦੇ ਲਈ ਜੇਬ ਵਿੱਚ ਪੈਸੇ ਵੀ ਗਾਇਬ ਸਨ। ਇਸ ਸਭ ਦਾ ਮਿਲਿਆ-ਜੁਲਿਆ ਅਸਰ ਸੀ ਗਰੀਬੀ ਅਤੇ ਕੁਪੋਸ਼ਣ।
ਮਹਿਲਾਵਾਂ ਨੇ ਬਣਾਇਆ ਬੀਜ ਬੈਂਕ
ਯਵਤਮਾਲ ਜਿਲੇ ਦੀਆਂ ਤਿੰਨ ਤਹਿਸੀਲਾਂ ਦੇ ਸੱਤ ਪਿੰਡਾਂ ਦੀਆਂ ਕਿਸਾਨ ਪਤਨੀਆਂ ਨੇ ਇਸ ਦਰਦ ਨੂੰ ਮਹਿਸੂਸ ਕੀਤਾ ਅਤੇ ਇਸਤੋਂ ਉੱਭਰਨ ਦੀ ਠਾਣੀ। ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਪਾਇਆ ਕਿ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਥਾਲੀ ਵਿੱਚੋਂ ਮੂੰਗ, ਛੋਲੇ, ਬਾਜਰਾ, ਸਥਾਨਕ ਦਾਲਾਂ ਜਿਵੇਂ ਪੋਪਟਵਾਲ, ਨਕੁਲੀਵਾਲ, ਗਵਾਰਾ ਫਲੀ ਅਤੇ ਸਬਜ਼ੀਆਂ ਜਿਵੇਂ ਬੈਂਗਣ (ਗੋਲ ਹਰਾ, ਕੰਡੇਦਾਰ), ਟਮਾਟਰ ਅਤੇ ਭਿੰਡੀ ਗਾਇਬ ਹੋ ਗਏ ਹਨ। ਇਸਦੇ ਨਾਲ ਹੀ ਪੱਤੇਦਾਰ ਸਾਗ, ਸੂਆ-ਪਾਲਕ, ਚੌਲਾਈ, ਤਾਂਦਲਾ, ਮਾਠ ਵੀ ਗਾਇਬ ਸਨ। ਤਾਂ ਪਕਾਉਣ ਕੀ ਅਤੇ ਪਰੋਸਣ ਕੀ? ਇਹ ਜਿਵੇਂ ਇੱਕ ਸਮਾਜਿਕ ਤ੍ਰਾਸਦੀ ਬਣ ਗਈ ਸੀ। ਘਰ-ਘਰ ਦੀ ਕਹਾਣੀ।

read more

ਜੈਵਿਕ ਖੇਤੀ-ਮੇਰੀ ਕਹਾਣੀ ਮੇਰੀ ਜ਼ੁਬਾਨੀ

$
0
0

ਬਹੁਤ ਥੋੜੇ ਸਮੇਂ ਵਿੱਚ ਸੁਭਾਸ਼ ਸ਼ਰਮਾ ਨੇ ਜੈਵਿਕ ਖੇਤੀ ਨੂੰ ਆਤਮਸਾਤ ਕਰ ਲਿਆ ਹੈ। ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਨਿਰੀਖਣ, ਜਲ ਅਤੇ ਮਿੱਟੀ 'ਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਯੋਗ ਕਰਕੇ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕੀਤਾ ਹੋਇਆ ਗਿਆਨ ਅਤੁਲਨੀਯ ਹੈ। ਇਸੇ ਕਾਰਨ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਪ੍ਰਸ਼ੰਸਕਾਂ ਵਿੱਚ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਆਪਣਾ ਅਲੱਗ ਮੁਕਾਮ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਲਿਆ ਹੈ। ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਟਾਟਾ ਸਕਾਲਰਸ਼ਿਪ ਮਿਲੀ ਅਤੇ ਬਾਬਾ ਰਾਮਦੇਵ ਜੀ ਦੇ ਜੈਵਿਕ ਖੇਤੀ ਪ੍ਰਯੋਗ ਖੇਤਰ ਦੇ ਸਲਾਹਕਾਰ ਵੀ ਹਨ।
ਸੰਨ 1975 ਵਿੱਚ ਮੈਂ ਖੇਤੀ ਸ਼ੁਰੂ ਕੀਤੀ। ਉਸ ਸਮੇਂ ਮੈਂ ਖੇਤਾਂ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰੰਪਰਿਕ ਫ਼ਸਲਾਂ ਹੀ ਬੀਜਦਾ ਸੀ। ਜਵਾਰ, ਨਰਮਾ, ਅਰਹਰ, ਮੂੰਗ, ਕਣਕ, ਛੋਲੇ ਅਤੇ ਸਬਜ਼ੀਆਂ ਸਭ ਬੀਜਦਾ ਸੀ। ਉਹਨਾਂ ਦਿਨਾਂ ਵਿੱਚ ਮੈਂ ਰਸਾਇਣਿਕ ਖਾਦ ਅਤੇ ਕੀਟਨਾਸ਼ਕ ਦਵਾਈਆਂ ਦਾ ਭਰਪੂਰ ਪ੍ਰਯੋਗ ਕਰਦਾ ਸੀ। ਸੰਨ 1978 ਵਿੱਚ ਮੈਨੂੰ 14 ਕੁਇੰਟਲ ਨਰਮਾ, 10 ਕੁਇੰਟਲ ਅਰਹਰ, 200 ਕੁਇੰਟਲ ਸਬਜ਼ੀਆਂ, 15 ਕੁਇੰਟਲ ਕਣਕ, 10 ਕੁਇੰਟਲ ਛੋਲੇ ਪ੍ਰਤਿ ਏਕੜ ਮਿਲਦੇ ਸਨ। ਇਹ ਸਿਲਸਿਲਾ 1980 ਤੱਕ ਚਲਦਾ ਰਿਹਾ। 1983 ਵਿੱਚ ਮਹਾਂਰਾਸ਼ਟਰ ਸ਼ਾਸਨ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਸਨਮਾਨਿਤ ਵੀ ਕੀਤਾ ਪਰ 1987 ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਪੈਦਾਵਾਰ ਘਟ ਹੁੰਦੀ ਗਈ। 1990 ਤੋਂ 1994 ਤੱਕ ਖਰਚ ਵਧਦਾ ਗਿਆ ਅਤੇ ਪੈਦਾਵਾਰ ਘਟ ਹੁੰਦੀ ਗਈ। ਰਸਾਇਣਾਂ ਦੇ ਕਾਰਨ ਮਿੱਟੀ ਵਿੱਚ ਵਿਆਪਤ ਸੂਖ਼ਮ ਜੀਵਾਣੂ ਮਰਦੇ ਗਏ।
ਸਾਡੇ ਪਿੰਡ ਵਿੱਚ ਚਰਚਾ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋਈ ਕਿ ਇਸਦਾ ਬਦਲ ਕੀ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ? 1994 ਵਿੱਚ ਮੈਂ ਜੈਵਿਕ ਖੇਤੀ ਸ਼ੁਰੂ ਕੀਤੀ। ਪਰ ਰਸਾਇਣ ਬੰਦ ਨਹੀਂ ਕੀਤੇ। ਮੈਂ ਪ੍ਰਯੋਗ ਆਰੰਭ ਕੀਤੇ। 1 ਪਲਾਟ ਵਿੱਚ ਰਸਾਇਣਾਂ ਦੀਆਂ 4 ਬੋਰੀਆਂ ਅਤੇ ਦੂਸਰੇ ਵਿੱਚ 1 ਬੋਰੀ ਇਸਤੇਮਾਲ ਕੀਤੀ। ਮਜ਼ੇ ਦੀ ਗੱਲ ਇਂਹ ਹੋਈ ਕਿ ਦੋਵਾਂ ਪਲਾਟਾਂ ਵਿੱਚ ਪੈਦਾਵਾਰ ਇੱਕ ਸਮਾਨ ਰਹੀ। ਭਾਵ ਸਿੱਟਾ ਇਹ ਨਿਕਲਿਆ ਕਿ 3 ਬੋਰੀ ਰਸਾਇਣਿਕ ਖਾਦ ਜੋ ਮੈਂ ਦਿੱਤੀ ਸੀ ਉਹ ਫ਼ਿਜੂਲਖਰਚੀ ਸੀ। ਹੋਰ ਇੱਕ ਚੀਜ਼ ਮੈਂ ਪਾਈ ਕਿ ਉੱਥੇ ਉੱਗ ਰਹੇ ਚਾਰੇ ਨੂੰ ਮੈਂ ਜੇਕਰ ਜੈਵਿਕ ਖਾਦ ਦੇ ਕੰਮ ਵਿੱਚ ਲਵਾਂ ਤਾਂ ਮੈਨੂੰ 50 ਰੁਪਏ ਜ਼ਿਆਦਾ ਮਿਲਦੇ ਹਨ। ਦੂਸਰਾ ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਯੋਗ ਸੀ ਕਿ ਜਿੱਥੇ ਮੈਂ ਜ਼ਿਆਦਾ ਕੀਟਨਾਸ਼ਕ ਛਿੜਕਦਾ ਸੀ ਉੱਥੇ ਪੈਦਾਵਾਰ ਘੱਟ ਮਿਲੀ ਅਤੇ ਜਿੱਥੇ ਕੀਟਨਾਸ਼ਕ ਪਾਏ ਹੀ ਨਹੀਂ ਸਨ ਉੱਥੇ ਪੈਦਾਵਾਰ ਦੁੱਗਣੀ ਮਿਲੀ।

read more


ਨਾਲਿਆਂ ਦੇ ਕਿਨਾਰੇ ਵਸੀ ਸੱਭਿਅਤਾ

$
0
0

ਜਲ ਹੀ ਜੀਵਨ ਹੈ। ਪਰ ਅੱਜ ਸਾਡਾ ਜੀਵਨ ਆਪਣੇ ਪਿੱਛੇ ਜੋ ਗੰਦਗੀ, ਸੀਵਰੇਜ ਛੱਡਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਨਾਲ ਜਲ ਦਾ ਜੀਵਨ ਹੀ ਖਤਮ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਸਾਨੂੰ ਜੀਵਨ ਦੇਣ ਵਾਲੇ ਜਲ ਦੀ ਇਹ ਹੈ ਦੁਖਦ ਕਥਾ। ਬੇਤਹਾਸ਼ਾ ਸ਼ਹਿਰੀਕਰਨ ਆਉਣ ਵਾਲੇ ਦਿਨਾਂ ਵਿੱਚ ਹੋਰ ਤੇਜ ਹੋ ਜਾਵੇਗਾ। ਇਹ ਤੇਜੀ ਰਫ਼ਤਾਰ ਅਤੇ ਦਾਇਰਾ, ਦੋਵੇਂ ਹੀ ਮਾਮਲਿਆਂ ਵਿੱਚ ਦਿਖਾਈ ਦੇ ਰਹੀ ਹੈ। ਪਾਣੀ ਦੀਆਂ ਆਪਣੀਆਂ ਜਰੂਰਤਾਂ ਨੂੰ ਅਸੀਂ ਕਿਸ ਤਰਾ ਵਿਵਸਥਿਤ ਕਰੀਏ ਕਿ ਅਸੀਂ ਆਪਣੇ ਹੀ ਮਲ-ਮੂਤਰ ਵਿੱਚ ਨਾ ਡੁੱਬ ਜਾਈਏ, ਇਹ ਅੱਜ ਦੇ ਦੌਰ ਦਾ ਬਹੁਤ ਵੱਡਾ ਸਵਾਲ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸਦਾ ਜਵਾਬ ਸਾਨੂੰ ਹਰ ਹਾਲ ਵਿੱਚ ਲੱਭਣਾ ਪਏਗਾ।
ਇਸ ਮਾਮਲੇ ਵਿੱਚ ਆਪਣੀ ਖੋਜਬੀਨ ਦੇ ਦੌਰਾਨ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡੀ ਦਿੱਕਤ ਸਾਡੇ ਸਾਹਮਣੇ ਇਹ ਆਉਂਦੀ ਹੈ ਕਿ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਵਿੱਚ ਨਾ ਤਾਂ ਇਸ ਨਾਲ ਸੰਬੰਧਿਤ ਕੋਈ ਅੰਕੜੇ ਮਿਲਦੇ ਹਨ, ਨਾ ਇਸ ਉੱਪਰ ਕੋਈ ਠੀਕ ਕੰਮ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਇਸ ਮੁੱਦੇ 'ਤੇ ਕਿਤੇ ਕੋਈ ਸਮਝ ਦੇਖਣ ਵਿੱਚ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦੀ। ਇਹ ਹਾਲ ਉਦੋਂ ਹੈ ਜਦ ਇਸ ਗੰਦਗੀ, ਸੀਵਰੇਜ ਦਾ ਤਾਲੁਕ ਸਾਡੀ ਸਭ ਦੀ ਜਿੰਦਗੀ ਨਾਲ ਹੈ।
ਸਾਨੂੰ ਪਾਣੀ ਦੀ ਜਰੂਰਤ ਪੈਂਦੀ ਹੈ। ਇਹ ਸਾਨੂੰ ਭਲੇ ਹੀ ਥੋੜੀ ਤਕਲੀਫ਼ ਨਾਲ, ਪਰ ਆਮ ਤੌਰ 'ਤੇ ਆਪਣੇ ਘਰ ਵਿੱਚ ਹੀ ਹਾਸਿਲ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਆਪਣਾ ਮਲ-ਮੂਤਰ ਅਸੀਂ ਫਲੱਸ਼ ਕਰਕੇ ਘਰ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਵਹਾ ਦਿੰਦੇ ਹਾਂ। ਆਪਣੀਆਂ ਨਦੀਆਂ ਨੂੰ ਅਸੀਂ ਮਰਦੇ ਹੋਏ ਦੇਖ ਸਕਦੇ ਹਾਂ। ਪਰ ਇਹਨਾਂ ਅਲੱਗ-ਅਲੱਗ ਗੱਲਾਂ ਦੇ ਵਿਚਕਾਰ ਕੋਈ ਸੂਤਰ ਅਸੀਂ ਨਹੀਂ ਜੋੜਦੇ। ਆਪਣੇ ਫਲੱਸ਼ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਨਦੀ ਨਾਲ ਜੋੜ ਕੇ ਦੇਖਣਾ ਸਾਡੀ ਆਦਤ ਵਿੱਚ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਅਜਿਹਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ ਕਿ ਇਸ ਬਾਰੇ ਵਿੱਚ ਅਸੀਂ ਕੁੱਝ ਜਾਣਨਾ ਹੀ ਨਹੀਂ ਚਾਹੁੰਦੇ। ਸਾਨੂੰ ਪੁੱਛਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਕਿ ਅਜਿਹਾ ਕਿਉਂ ਹੈ। ਕੀ ਇਹ ਭਾਰਤੀ ਸਮਾਜ ਵਿੱਚ ਮੌਜ਼ੂਦ ਜਾਤੀ ਵਿਵਸਥਾ ਦੀ ਮਾਨਸਿਕ ਪਰਛਾਈ ਹੈ, ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਮਲ-ਮੂਤਰ ਹਟਾਉਣ ਦਾ ਕੰਮ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਦਾ ਹੋਇਆ ਕਰਦਾ ਸੀ? ਜਾਂ ਇਸ ਵਿੱਚ ਹੁਣ ਮੌਜ਼ੂਦਾ ਪ੍ਰਸ਼ਾਸਨ ਤੰਤਰ ਪ੍ਰਤਿਬਿੰਬਿਤ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਪੀਣ ਵਾਲੇ ਪਾਣੀ ਅਤੇ ਕਚਰੇ ਦਾ ਨਿਪਟਾਰਾ ਇੱਕ ਸਰਕਾਰੀ ਕੰਮ ਹੈ, ਉਹ ਵੀ ਜਲ ਅਤੇ ਸਵੱਛਤਾ ਵਿਭਾਗ ਦੀ ਹੇਲੇ ਦਰਜੇ ਦੀ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹੀ ਦਾ? ਜਾਂ ਫਿਰ ਇਸ ਵਿੱਚ ਸਿਰਫ਼ ਠੇਠ ਅੱਖੜਪਣ ਜ਼ਾਹਿਰ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਜਿਸਦੇ ਤਹਿਤ ਅਸੀਂ ਇਹ ਮੰਨ ਕੇ ਚਲਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਬਸ ਪੈਸਾ ਹੱਥ ਵਿੱਚ ਹੋਵੇ ਤਾਂ ਸਭ ਕੁੱਝ ਠੀਕ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ।

read more

ਖਰਪਤਵਾਰ: ਇੱਕ ਸਿੱਕੇ ਦੇ ਦੋ ਪਾਸੇ

$
0
0

ਖਰਪਤਵਾਰ (ਨਦੀਨ) ਭਾਵ ਉਹ ਪੌਦੇ ਜੋ ਗੈਰ-ਜਰੂਰੀ ਤੌਰ 'ਤੇ ਗਲਤ ਜਗਾ ਉੱਗਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਉਪਸਥਿਤੀ ਨਾਲ ਫ਼ਸਲ ਨੂੰ ਨੁਕਸਾਨ ਪਹੁੰਚਾਉਂਦੇ ਹਨ। ਸੋ, ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਪੁੱਟ ਸੁੱਟਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ, ਨਸ਼ਟ ਕਰ ਦੇਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਪਰਿਭਾਸ਼ਾ ਹੈ ਵੀਡਸ ਦੀ ਭਾਵ ਖਰਪਤਵਾਰਾਂ ਦੀ ਜਿਸਨੂੰ ਸਿੱਧ ਕਰਨ ਦੇ ਲਈ ਲੱਖਾਂ-ਕਰੋੜਾਂ ਰੁਪਇਆਂ ਦੇ ਨਦੀਨਨਾਸ਼ਕ ਰਸਾਇਣ ਖੇਤਾਂ ਵਿੱਚ ਪਾਏ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਇੱਥੇ ਯਾਦ ਆਉਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਅਮਰੀਕੀ ਫੌਜਾਂ ਨੇ ਵਿਯਤਨਾਮ ਯੁੱਧ ਦੇ ਦੌਰਾਨ ਜੰਗਲਾਂ ਵਿੱਚ ਲੁਕੇ ਹੋਏ ਵਿਯਤਨਾਮੀ ਸੈਨਿਕਾਂ ਨੂੰ ਬਾਹਰ ਖਦੇੜਨ ਲਈ ਉੱਥੋਂ ਦੇ ਜੰਗਲਾਂ ਉੱਪਰ ਹਜਾਰਾਂ ਟਨ ਨਦੀਨਨਾਸ਼ਕਾਂ ਦਾ ਛਿੜਕਾਅ ਕਰਕੇ ਭਿਆਨਕ ਤਬਾਹੀ ਮਚਾਈ ਸੀ।
ਖੇਤੀ ਵਿਗਿਆਨਕ ਦੱਸਦੇ ਹਨ ਕਿ ਖਰਪਤਵਾਰ ਪੌਦੇ ਖੇਤਾਂ ਵਿੱਚ ਉੱਗ ਕੇ ਮੁੱਖ ਫ਼ਸਲ ਦੇ ਨਾਲ ਉਪਲਬਧ ਪੋਸ਼ਕ ਤੱਤਾਂ ਅਤੇ ਸੂਰਜ ਦੀ ਰੌਸ਼ਨੀ ਦੇ ਲਈ ਮੁਕਾਬਲਾ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਨਾਲ ਉਪਜ 15 ਤੋਂ 20 ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਤ ਤੱਕ ਘਟ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਇਹ ਗੱਲ ਸੱਚ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ ਉਸ ਹਾਲਤ ਵਿੱਚ ਜਿੱਥੇ ਖਰਪਤਵਾਰਾਂ ਨੂੰ ਅਨਿਯੰਤ੍ਰਿਤ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਵਧਣ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਅਜਿਹੇ ਖੇਤ, ਖੇਤ ਨਾ ਰਹਿ ਕੇ ਚਰਾਗਾਹ ਕਹਾਉਣ ਦੇ ਲਾਇਕ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਕਿਸਾਨ ਜਦ ਯੋਜਨਾਬੱਧ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਖੇਤੀ ਕਰਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਖੇਤ ਵਿੱਚ ਗੁਡਾਈ ਆਦਿ ਦੇ ਲਈ ਕਸੀਆ ਚਲਾਉਂਦਾ ਹੈ। ਜੋ ਕਿ ਖੇਤ ਦੀ ਮਿੱਟੀ ਸਾਧਣ ਦੇ ਨਾਲ ਹੀ ਖਰਪਤਵਾਰਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਉਖਾੜ ਸੁੱਟਦਾ ਹੈ।
ਇਸ ਸੰਦਰਭ ਵਿੱਚ ਦੱਸਣਾ ਹੋਵੇਗਾ ਕਿ ਜੈਵਿਕ ਖੇਤੀ ਦੇ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਸਾਧਕ ਦੇਹਰੀ, ਉਬਰਗਾਂਵ (ਗੁਜਰਾਤ) ਦੇ ਭਾਸਕਰ ਸਾਵੇ ਇਹਨਾਂ ਖਰਪਤਵਾਰਾਂ ਨੂੰ ਧਰਤੀ ਮਾਂ ਦੀ ਜਾਇਜ਼ ਔਲਾਦ ਮੰਨਦੇ ਹਨ ਕਿਉਂਕਿ ਇਹ ਆਪਣੇ ਆਪ ਉੱਗਦੇ ਹਨ। ਪਹਿਲੀ ਬਾਰਿਸ਼ ਦੇ ਨਾਲ, ਬਿਨਾਂ ਕਿਸੀ ਦੇ ਬੀਜਿਆਂ। ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਸ਼ਬਦਾਂ ਵਿੱਚ, ਬੀਜੀਆਂ ਗਈਆਂ ਫ਼ਸਲਾਂ ਧਰਤੀ ਮਾਂ ਦੀ ਗੋਦ ਲਈਆਂ ਹੋਈਆਂ ਸੰਤਾਨਾਂ ਹਨ ਜਿੰਨਾਂ ਨੂੰ ਮਨੁੱਖ ਨੇ ਉਸਦੀ ਗੋਦ ਵਿੱਚ ਧੱਕ ਦਿੱਤਾ ਹੈ।

read more

ਧੀਰੇਂਦਰ ਅਤੇ ਸਮਿਤਾਬੇਨ ਸੋਨੇਜੀ ਦੀ ਜੈਵਿਕ ਖੇਤੀ

$
0
0

ਵੈਸੇ ਪਿੰਡਾਂ ਤੋਂ ਸ਼ਹਿਰਾਂ ਵੱਲ ਪਲਾਇਨ ਕਰਨਾ ਭਲੇ ਹੀ ਆਧੁਨਿਕ ਯੁੱਗ ਵਿੱਚ ਵਿਕਾਸ ਦਾ ਪੈਮਾਨਾ ਮੰਨਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੋਵੇ ਪਰ ਉਹਨਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਵੀ ਕਮੀ ਨਹੀਂ ਹੈ ਜੋ ਸ਼ਹਿਰਾਂ ਤੋਂ ਉਕਤਾ ਕੇ ਪਿੰਡਾਂ ਵਿੱਚ ਆਪਣਾ ਡੇਰਾ ਲਾਉਂਦੇ ਹਨ। ਕਿਉਂਕਿ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਪਿੰਡਾਂ ਦਾ ਸੁਗਠਿਤ ਸ਼ਰੀਰ ਅਤੇ ਸ਼ਹਿਰਾਂ ਦਾ ਮੋਟਾਪਾ, ਇਸ ਵਿੱਚ ਫ਼ਰਕ ਨਜਰ ਆਉਂਦਾ ਹੈ। ਇਸੇ ਜਮਾਤ ਦੇ ਹਨ ਧੀਰੇਂਦਰ ਅਤੇ ਸਮਿਤਾਬੇਨ ਸੋਨੋਜੀ। ਧੀਰੇਂਦਰ ਭਾਈ ਪੇਸ਼ੇ ਤੋਂ ਇਲੈਕਟ੍ਰੀਕਲ ਇੰਜੀਨੀਅਰ ਹਨ। ਇੱਕ-ਦੋ ਸਾਲ ਅਹਿਮਦਾਬਾਦ ਦੇ ਕਿਸੇ ਉਦਯੋਗ ਵਿੱਚ ਚੰਗੀ ਤਨਖ਼ਾਹ ਲੈਂਦੇ ਸਨ। ਪਰ ਉੱਥੇ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦੀ ਗਰੀਬੀ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਉੱਪਰ ਹੋ ਰਹੇ ਅੱਤਿਆਚਾਰਾਂ ਤੋਂ ਵਿਚਲਿਤ ਹੋ ਕੇ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਨੌਕਰੀ ਛੱਡੀ ਅਤੇ ਅਹਿਮਦਾਬਾਦ ਦੇ ਸ਼ਾਸਕੀ ਪੌਲੀਟੈਕਨਿਕ ਕਾਲਜ ਵਿੱਚ ਪੜਾਉਣ ਲੱਗੇ। ਧੀਰੇਂਦਰ ਭਾਈ ਨਿਮਨ ਮੱਧਵਰਗੀ ਪਰਿਵਾਰ 'ਚੋਂ ਸਨ। ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਮਾਤਾ-ਪਿਤਾ ਧਾਰਮਿਕ ਪ੍ਰਵ੍ਰਿਤੀ ਦੇ ਸਨ ਜਿੰਨਾਂ ਦੇ ਸੰਸਕਾਰ ਧੀਰੇਂਦਰ ਭਾਈ ਨੂੰ ਵੀ ਮਿਲੇ। ਉਸੇ ਕਾਲਜ ਵਿੱਚ ਭੌਤਿਕ ਸ਼ਾਸਤਰ ਪੜਾਉਦੇ ਸਨ ਸਮਿਤਾਬੇਨ। ਘਰ ਦਾ ਭਰਿਆ-ਪੁਰਿਆ ਪਰਿਵਾਰ, ਪਿਤਾ ਜੀ ਗਾਂਧੀਵਾਦੀ ਵਿਚਾਰਾਂ ਦੇ, ਸਰਵੋਦਿਆ ਵਿਚਾਰਾਂ ਦੇ ਪਿਤਾਜੀ ਦੇ ਮਿੱਤਰਾਂ ਦਾ ਘਰ ਆਉਣਾ-ਜਾਣਾ ਰਹਿੰਦਾ ਸੀ। ਇਹੀ ਸੰਸਕਾਰ ਸਮਿਤਾਬੇਨ ਨੂੰ ਵੀ ਮਿਲੇ।
ਧੀਰੇਂਦਰਭਾਈ ਦੇ ਇੱਕ ਹੋਰ ਇੰਜੀਨੀਅਰ ਮਿੱਤਰ ਜਵਾਹਰਭਾਈ ਪੰਡਿਆ ਦੀ ਅੰਕਲੇਸ਼ਵਰ ਦੇ ਕੋਲ ਖੇਤੀ ਸੀ। ਧੀਰੇਂਦਰਭਾਈ ਸ਼ਨੀਵਾਰ-ਐਤਵਾਰ ਉੱਥੇ ਜਾਂਦੇ। ਸ਼ਹਿਰ ਦੀ ਬਣਾਵਟੀ ਅਰਥਵਿਵਸਥਾ, ਦੂਸ਼ਿਤ ਹਵਾ, ਅੰਨ ਅਤੇ ਪਾਣੀ ਇਹਨਾਂ ਸਭ ਲਈ ਇੰਜੀਨੀਅਰ ਸਭ ਤੋਂ ਜ਼ਿਆਦਾ ਜਿੰਮੇਦਾਰ ਹਨ। ਇਹ ਜਵਾਹਰਭਾਈ ਦਾ ਵਿਚਾਰ ਸੀ। ਇਸਲਈ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਆਪਣੇ ਇੰਜੀਨੀਅਰ ਮਿੱਤਰਾਂ ਦੇ ਨਾਮ ਇੱਕ ਸਾਰਵਜਨਿਕ ਅਪੀਲ ਜਾਰੀ ਕੀਤੀ। ਉਸਦਾ ਪਰਿਣਾਮ ਇਹ ਹੋਇਆ ਕਿ ਸਮਾਨ ਵਿਚਾਰਾਂ ਵਾਲੇ ਕਰੀਬ ਸੌ ਲੋਕ ਇਕੱਠੇ ਹੋਏ। ਤਕਨੀਕ ਦਾ ਗੁਲਾਮ ਹੋਣ ਦੀ ਬਜਾਏ ਉਸਦਾ ਵਿਵੇਕਪੂਰਨ ਉਪਯੋਗ ਕਿਵੇਂ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ, ਇਸ ਉੱਪਰ ਇਸ ਸਮੂਹ ਦੀਆਂ ਸਮੁਦਾਇਕ ਚਰਚਾਵਾਂ ਆਰੰਭ ਹੋਈਆਂ। ਇਹ ਸੰਨ 1984 ਦੇ ਆਸਪਾਸ ਦੀ ਗੱਲ ਹੈ। ਆਪਣੇ ਯਤਨਾਂ ਨੂੰ ਉਹਨਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਨਾਮ ਦਿੱਤਾ ਮਾਨਵੀ ਟੈਕਨਾਲੋਜੀ ਫਾਰਮ (ਅੱਜ ਵੀ ਇਹ ਚੱਲ ਰਿਹਾ ਹੈ)। ਸਮਿਤਾਬੇਨ ਅਤੇ ਧੀਰੇਂਦਰਭਾਈ ਵੀ ਇਸਦੇ ਮੈਂਬਰ ਬਣੇ। ਸਮਿਤਾਬੇਨ ਦੁਆਰਾ ਸਮੇਂ-ਸਮੇਂ 'ਤੇ ਦਿੱਤੀਆਂ ਗਈਆਂ ਸਰਵੋਦਿਆ ਵਿਚਾਰਾਂ ਵਾਲੀਆਂ ਕਿਤਾਬਾਂ ਧੀਰੇਂਦਰਭਾਈ ਨੂੰ ਆਕਰਸ਼ਿਤ ਕਰ ਰਹੀਆਂ ਸਨ।

read more

ਉਮੀਦ ਦੀ ਫ਼ਸਲ

$
0
0

ਕਿਸਾਨ, ਖੇਤ, ਜੰਗਲ ਅਤੇ ਨਦੀ ਦੇ ਨਾਲ ਜਿਉਂਦੇ ਹਨ। ਸ਼ਹਿਰੀ ਜੀਵਨ ਵਿੱਚ ਖੇਤਾਂ, ਨਦੀਆਂ, ਜੰਗਲਾਂ ਦਾ ਹੋਣਾ, ਨਾ ਹੋਣਾ ਅਰਥ ਨਹੀ ਰੱਖਦਾ। ਸ਼ਹਿਰੀ ਲੋਕ ਹਰ ਚੀਜ਼ ਆਪਣੀ ਮੁੱਠੀ ਵਿੱਚ ਕਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਲਈ ਇੱਥੇ ਨਦੀਆਂ, ਜੰਗਲ, ਪਹਾੜ ਦੂਰ ਹੁੰਦੇ ਜਾ ਰਹੇ ਹਨ। ਸਾਡੇ ਜਲ-ਸ੍ਰੋਤ ਸ਼ਹਿਰਾਂ ਦੇ ਮਲ-ਮੂਤਰ ਵਹਾਉਣ ਦੇ ਨਾਲੇ ਬਣ ਗਏ ਹਨ। ਇਹ ਸਥਿਤੀ ਉਦੋਂ ਹੈ ਜਦ ਆਬਾਦੀ ਦੇ ਵੱਡੇ ਹਿੱਸੇ ਦੇ ਕੋਲ ਟਾਇਲਟ ਦੀ ਸੁਵਿਧਾ ਉਪਲਬਧ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਅਸੀਂ ਕਲਪਨਾ ਕਰ ਸਕਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਜੇਕਰ ਦੇਸ਼ ਵਿੱਚ ਹਰ ਆਦਮੀ ਦੇ ਕੋਲ ਫਲੱਸ਼ ਵਾਲਾ ਟਾਇਲਟ ਹੋਵੇਗਾ ਤਾਂ ਪਾਣੀ ਕਿੱਥੋਂ ਆਵੇਗਾ! ਇਸਦੀ ਚਿੰਤਾ ਨਾ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਹੈ, ਨਾ ਹੀ ਸਾਡੀ ਸ਼ਹਿਰੀ ਆਬਾਦੀ ਨੂੰ।
ਪਰ ਰੂਪੌਲੀਆ ਪਿੰਡ ਦੇ ਕਿਸਾਨ ਪਾਣੀ ਨੂੰ ਧਰਤੀ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਖੇਤਾਂ ਦੇ ਲਈ ਬਚਾਉਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਇਸਲਈ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਘੱਟ ਪਾਣੀ ਵਾਲੇ ਟਾਇਲਟ ਦੀ ਵਿਵਸਥਾ ਨੂੰ ਲੈ ਕੇ ਕਈ ਪ੍ਰਯੋਗ ਕੀਤੇ ਹਨ। ਇਹ ਪ੍ਰਯੋਗ ਸਾਡੀਆਂ ਨਦੀਆਂ ਨੂੰ ਬਚਾਉਣ ਅਤੇ ਖੇਤਾਂ ਨੂੰ ਜ਼ਿਆਦਾ ਉਪਜਾਊ ਬਣਾਉਣ ਦੇ ਲਈ ਹਨ। ਬਿਹਾਰ ਦੇ ਪੱਛਮੀ ਚੰਪਾਰਨ ਜਿਲੇ ਵਿੱਚ ਬੇਤੀਆ ਤੋਂ ਲਗਭਗ 50 ਕਿਲੋਮੀਟਰ ਦੂਰ ਸਥਿਤ ਰੂਪੌਲੀਆ ਪਿੰਡ ਇੱਕ ਨੰਗੇ ਪਠਾਰ ਦੇ ਕੇਂਦਰ ਵਿੱਚ ਹੈ। ਇਸਦੇ ਤਿੰਨ ਪਾਸੇ ਚਮਕਦੀਆਂ ਹੋਈਆਂ ਪਹਾੜੀਆਂ ਦਾ ਘੇਰਾ ਹੈ। ਕੋਲ ਹੀ ਇੱਕ ਨਦੀ ਵਹਿੰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਚਾਰੇ ਪਾਸੇ ਸੰਘਣੇ ਜੰਗਲ ਹਨ, ਮਿੱਠੇ ਪਾਣੀ ਦੇ ਕਈ ਝਰਨੇ ਹਨ। ਇੱਥੋਂ ਦਾ ਬਾਸਮਤੀ ਚਾਵਲ ਪੂਰੀ ਦੁਨੀਆ ਵਿੱਚ ਖੁਸ਼ਬੂ ਬਿਖੇਰਦਾ ਹੈ। ਪਿੰਡ ਦੇ ਇੱਕ ਹਿੱਸੇ ਵਿੱਚ ਮਿਆਂਮਾ ਤੋਂ ਆਏ ਲਗਭਗ 72 ਪਰਿਵਾਰ ਹਨ ਜੋ ਅੱਜ ਤੋਂ 34 ਸਾਲ ਪਹਿਲਾਂ ਇੱਥੇ ਆਏ ਸਨ। ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਵਸਣ ਲਈ ਜਗਾ ਦਿੱਤੀ। ਪਿੰਡ ਦੇ ਦੂਸਰੇ ਪਾਸੇ ਬੰਗਲਾਦੇਸ਼ ਤੋਂ ਆਏ ਕਰੀਬ 49 ਪਰਿਵਾਰ ਹਨ। ਸਾਰੇ ਕਿਸਾਨ ਹਨ। ਇਹਨਾਂ ਨੇ ਆਪਣੇ ਜੀਵਨ ਵਿੱਚ ਕਈ ਛੋਟੇ-ਛੋਟੇ ਪ੍ਰਯੋਗ ਕੀਤੇ, ਜਿਸਨੇ ਇਸ ਪਿੰਡ ਦੀ ਪੂਰੀ ਸੰਸਕ੍ਰਿਤੀ ਹੀ ਬਦਲ ਦਿੱਤੀ।

read more

वो सुबह कभी तो आएगी : प्रयाग पाण्डे

$
0
0
Author: 
प्रयाग पाण्डे

सरोवर-नदी को लेकर न्यायपालिका गंभीर


.जब कायदे-कानून बनाने वाले चुनिंदा नुमाइंदे और उन्हें लागू करने के लिए जिम्मेदार सरकारी मशीनरी खुद ही कायदे-कानूनों को अगूंठा दिखाने पर आमादा हो तो आम लोगों से नियम-कानूनों के पालन करने की उम्मीद बेमानी हो जाती है। नतीजे में समाज के भीतर कानून का इक़बाल खतरे में पड़ जाता है। "जिसकी लाठी, उसकी भैंस"वाली कहावत सच होने लगती है।

समाज के भीतर प्रकारांतर में सीना ठोककर कानून की परवाह नहीं करने की अघोषित प्रतिस्पर्धा-सी शुरू हो जाती है। ऐसी सूरत में न्यायपालिका की एक छोटी-सी पहल भी किसी इलाके और वहां के निवासियों के लिए संजीवनी का काम कर सकती है। नैनीताल के बारे में उत्तराखंड उच्च न्यायालय, नैनीताल खंडपीठ ने इस महीने की तीन तारीख को एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान दिया अंतरिम आदेश इस बात की ताजा मिशाल है।

read more

Viewing all 2534 articles
Browse latest View live




Latest Images