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सीवेज का पानी और कोलार की प्यासी धरती

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सीवेज का पानी और कोलार की प्यासी धरतीeditorialTue, 11/06/2018 - 15:18
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द हिन्दू, 13 अक्टूबर 2018

इसी वर्ष जून में कोलार के किसानों का खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब के. सी. वैली प्रोजेक्ट द्वारा बंगलुरु शहर के गन्दे नालों के पानी को साफ कर उसकी आपूर्ति की जाने लगी। लेकिन इस खुशी की मियाद बड़ी छोटी रही। हुआ यूँ कि एक महीने बाद ही पाइप लाइन में गड़बड़ी आ गई और उससे गन्दे पानी का रिसाव होने लगा। स्थिति और भी भयावह तब हो गई जब पाइप लाइन से निकलने वाले अपशिष्ट ने झीलों के साथ ही भूजल को भी दूषित कर दिया।

लक्ष्मीसागर झील में लगा ट्रीटमेंट प्लांटलक्ष्मीसागर झील में लगा ट्रीटमेंट प्लांट (फोटो साभार - द हिन्दू)जब 31 वर्षीय मुरली ने अपने घर में बने पीने के पानी के टैंक का ढक्कन उठाया तो वहीं खड़ा उसका बड़ा भाई, 33 वर्षीय मंजुनाथ एन. उसे देखता ही रह गया। टैंक के ढक्कन के खुलते ही हवा में तेज दुर्गन्ध फैल गई और काला गन्दा पानी नजर आने लगा। यही उनके पीने के पानी का जरिया था जिसका स्रोत उनके घर से ठीक 50 मीटर की दूरी पर बना सामुदायिक बोरिंग था। मुरली के अनुसार के. सी वैली प्रोजेक्ट के शुरू होने के पहले उसका परिवार इसी पानी का इस्तेमाल पीने के लिये करता था।

बंगलुरु से केवल 70 किलोमीटर की दूरी पर कोलार जिले के बेल्लूर गाँव में काले घने बादल ने अपना डेरा जमा लिया। फुहारों की लम्बी अवधि के बाद तेज बारिश होने लगी और पानी का रुख नारासापुरा झील की तरफ हो गया। झील मुरली के घर के सामने ही स्थित है। दुखी मुरली ने बताया कि उसके परिवार ने इस घर के निर्माण में जीवन भर की कमाई झोंक दिया था। उसका सवाल कि क्या पूरे झील का पानी बदबूदार हो जाएगा? उसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं था।

जब मुरली इस सवाल से जूझ रहा था ठीक उसी समय उसके बड़े भाई मंजुनाथ के दिमाग में दूसरी बात कौंध रही थी। वह अपने गाँव में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगमन की बाट जोह रहा था। उसे इस बात से कोई खास सरोकार नहीं था कि उसका जिला लगातार सातवीं बार सूखा प्रभावित घोषित किया जा चुका है।

दरअसल, दिसम्बर के मध्य में प्रधानमंत्री का लगभग एक शताब्दी पूर्व बेल्लूर में ही जन्में योग गुरु बी.के.एस. आयंगर को श्रद्धांजलि देने आने का कार्यक्रम है।

वह कहता है कि प्रधानमंत्री के आगमन पर वह उन्हें उसके गाँव में पानी की स्थिति के बारे में बताएगा। जब उसके इस प्लान के बारे में हो रही बात-चीत के क्रम में यह सवाल आया कि मजबूत सुरक्षा घेरे में वह प्रधानमंत्री से कैसे मिल पाएगा? उसने तपाक से कहा कि कार्यक्रम स्थल पर वह सबसे पहले पहुँच जाएगा ताकि प्रधानमंत्री से मिलने का समय उसे सबसे पहले मिल सके। मंजुनाथ ने कहा, “मैं हिन्दी नहीं बोल पाता इसीलिये उन्हें अंग्रेजी में लिखा हुआ पत्र दूँगा ताकि आसानी से वे हमारी समस्या को समझ सकें। हम उनसे आग्रह करेंगे कि वे अपने भाषण में हमारी बातों को शामिल करें। हमें यह करना ही होगा नहीं तो पूरी जिन्दगी हमें बंगलुरु के नाले का पानी पीने के लिये मजबूर होना पड़ेगा।”

बंगलुरु शहर के पूर्वी बाहरी किनारे से 60 किलोमीटर से कुछ अधिक दूरी पर कई सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बने हैं जिनमें शहर से निकलने वाले लाखों-करोड़ों लीटर गन्दे पानी का शुद्धिकरण किया जाता है। शहर के वर्थुर झील से जो पास में ही स्थित बेलंदूर झील की तरह है, शहर का शोधित मलजल एक विशालकाय पाइप के सहारे गुजरता है। 55 किलोमीटर की दूरी भूमिगत रूप से तय करते हुए मुरली और मंजुनाथ के घर की दिशा में जाता है। उनके घर से सात किलोमीटर पहले पाइप का पानी एक कंक्रीट चैनल में गिरने लगता है और सूखे की मार से प्यासे कोलार जिले के लक्ष्मीनगर झील में मिल जाता है।

अनूठा प्रयोग

के.सी. वैली प्रोजेक्ट का पूरा नाम कोरामंगला- चल्लाघट्टा वैली ड्रेनेज सिस्टम है। बंगलुरु स्थित सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से निकलने वाले पानी के सहारे पाइप के माध्यम से चलाई जा रही यह एक अनूठी सिंचाई योजना है। विवादों से घिरी देश की इस पहली प्रायोगिक योजना पर 1400 करोड़ रुपए की लागत आई है। इसकी शुरुआत 2 जून 2018 को हुई। इस अवसर पर सैकड़ों की संख्या में लोग लक्ष्मीनगर झील के सटे बने आउटलेट के पास इकठ्ठा हुए। एक खास गंध लिये हल्के हरे रंग का पानी पाइप से निकलने के बाद एक टैंक में जमा हुआ फिर धीरे-धीरे झील में गिरने लगा। झील के लबालब हो जाने के बाद पानी खुले नहर नुमा नाले के माध्यम से पास के चार अन्य झीलों में जमा होने लगा। पानी को लबालब भरे झील से पास के अन्य झीलों में जाते देख लोग खुशी से झूम उठे और सेल्फी भी खिंचवाया।

नालासापुरा झील में मिलता नाले का पानीनालासापुरा झील में मिलता नाले का पानी (फोटो साभार - द हिन्दू)इस तरह पहाड़ों से निकलने वाली जलधाराओं की ही तरह पाइपलाइन भी मानव निर्मित सदानीरा नदी का स्रोत बन गया। आने वाले समय में कोलार के आस-पास के इलाकों में स्थित 126 झीलों को शोधित सीवेज के पानी से भरे जाने की योजना है। इस योजना के तहत 400 मिलियन लीटर प्रतिदिन (एमएलडी) पानी इन झीलों में छोड़ा जाएगा। मई 2018 में प्रस्तावित चुनाव को देखते हुए पिछली सरकार ने इस काम को दो साल के समय में ही पूरा कर दिया। दरअसल, कोलार, बड़ी योजना का एक हिस्सा है। इस प्रोजेक्ट को बंगलुरु के आस-पास के समतल भूमि वाले कृषि क्षेत्रों में भी विस्तारित किया जाना है। इस योजना के तहत आधे बंगलुरु शहर से निकले लगभग 1500 एमएलडी पानी को शोधित करने के बाद इन इलाकों में पाइप के माध्यम से सिंचाई के लिये पहुँचाया जाएगा।

इसी वृहद योजना के तहत 950 करोड़ रुपए की लागत से 210 एमएलडी की क्षमता वाले एक अन्य प्रोजेक्ट का विकास किया जा रहा है। इससे बंगलुरु शहर के ग्रामीण क्षेत्र और चिकाबल्लापुर जिले के कृषि क्षेत्र को पानी की आपूर्ति की जाएगी। इसके अतिरिक्त 400 करोड़ रुपए की लागत से 120 एमएलडी की क्षमता वाले प्रोजेक्ट का निर्माण किया जा रहा है जिससे शहर के दक्षिणी इलाके में स्थित झीलों को भरा जाएगा जो शुष्क इलाका है। इनफोसिस एवं विप्रो के कैंपस भी इसी क्षेत्र में स्थित हैं।

के. सी. वैली प्रोजेक्ट के शुरू होने के महज 43 दिन बाद यानि 16 जून को परिस्थितियाँ बदलने लगीं। पाइप के सहारे बनी नदी का पानी हरे से काला होने लगा। दो दिन बाद ही यानि 18 जुलाई को पानी से उजले रंग का फेन भी निकलने लगा। इसके बाद प्रोजेक्ट के शुरू होने के मात्र 46 दिन बाद ही पाइप से बनी नदी में पानी के बहाव रोक दिया गया।

लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। बंगलुरु शहर के सैकड़ों मिलियन लीटर गन्दे अपशिष्ट से भरे पानी को दुर्भाग्यवश इस क्षेत्र में छोड़ा जा चुका था। इसके कारण आस-पास के कई नलकूपों में काले सीवेज के पानी का रिसाव हो चुका था। मुरली और मंजुनाथ के घर में बना टैंक भी इससे बच नहीं सका उसका पानी भी गन्दा हो गया था। इनके गाँव बेल्लूर के कई अन्य नलकूपों का भी यही हाल था। लक्ष्मीसागर झील में रहने वाले जीव जैसे मछलियाँ, साँप आदि मर कर पानी की सतह पर आ गए थे।

नारासापुरा झील जो आस-पास के लोगों को पीने का पानी उपलब्ध कराने का एकमात्र जरिया था वह भी सीवेज के पानी से प्रभावित हुआ। अभी भी इस झील के किनारों का पानी काला है। पानी के प्रदूषण का प्रभाव यह हुआ कि झील की तली में पैदा हुए सभी पौधे मर गए और पानी के ऊपर तैरने लगे। 60 वर्षीय लक्ष्मण ने कहा, “पिछले एक दशक से यह झील छोटे-छोटे पोखरों का एक समूह जैसी दिखती थी। पिछले साल जब झील में बरसात का पानी भरा तो हम सभी बहुत खुश हुए थे।”

लक्ष्मण एक एकड़ जमीन का मालिक थे जिसमें वह गाजर और बीन्स उगाया करता थे। लेकिन जैसे-जैसे भूजल का स्तर गिरता गया उनके कुएँ ने उनका साथ छोड़ दिया और वह खेती का पेशा छोड़ने को मजबूर हो गए। अब वह अपना जीवनयापन सब्जी बेचकर करते हैं। लक्ष्मण के जैसे ही बेल्लूर के बहुत सारे लोगों के लिये नारासापुरा झील जीवन का अभिन्न हिस्सा था। इसके प्रभाव क्षेत्र में स्थित नौ नलकूप, पीने के पानी का मुख्य जरिया थे। इतना ही नहीं झील से निकले नालों का इस्तेमाल लोग कपड़े धोने के साथ ही मलमूत्र त्याग के लिये करने के लिये भी करते थे।

लोगों में उस समय दहशत फैल गया जब 30 जुलाई के बाद झील के किनारे स्थित नलकूपों के पानी से बदबू आने लगी। इसके बाद नारासापुरा ग्राम पंचायत द्वारा एक पम्पलेट छपवाकर वहाँ के 6000 निवासियों के बीच वितरित किया गया। इस पम्पलेट में कहा गया था कि पानी की जाँच के बाद पाया गया है कि वह पीने योग्य नहीं है इसीलिये लोग फ़िल्टर यूनिट द्वारा निकाले गए पानी का ही इस्तेमाल करें। गाँव के लोगों को यह भी हिदायत दी गई थी कि वे अपने मवेशियों को भी झील का पानी नहीं पीने दें। स्थानीय दुग्ध समिति के सचिव जनार्दन राव ने बताया कि इसके बाद कुछ किसान अपने मवेशियों को भी फिल्टर किया हुआ पानी ही पिलाने लगे।

एक विभाजित जिला

के. बी. होसाहल्ली के पचास एकड़ के पुश्तैनी जोत वाले 23 वर्षीय सैयद सद्दाम का इलाका पत्थर के व्यापार युकेलिप्टस के लिये जाना जाता है। सूखा के कारण उसके 11 डीप बोरिंग बेकार हो गए। लेकिन सद्दाम के परिवार ने आस नहीं छोड़ी। उन्होंने ड्रिप सिंचाई को अपनाया और अपनी आधी जमीन पर गोभी, टमाटर जैसे फसलों को लगाया। सद्दाम ने आत्मविश्वास के साथ इस योजना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, “इसमें कोई शक नहीं की यह प्रोजेक्ट काफी अच्छा है। क्या हुआ जब पानी में अपशिष्ट मलजल मिला हुआ है? यह किसानों की खाद पर निर्भरता को ही कम करेगा।”

उद्दप्पनाहल्ली गाँव, जो के. सी. वैली प्रोजेक्ट के अन्तर्गत आता है वहाँ के किसानों का इस योजना के बारे में मत भिन्न-भिन्न हैं। इसी गाँव के 52 वर्षीय किसान कोडनडप्पा और 34 वर्षीय उदय कुमार के विचार बिल्कुल अलग हैं। हालांकि, दोनों का मानना है कि योजना के बारे में लोगों की जानकारी बहुत कम है। उदय छह एकड़ जमीन का मालिक है। उसकी जमीन में चार नलकूप हैं जो कुछ महीनों पहले तक लगभग सूखे थे। इस योजना के शुरुआत के कारण नलकूपों में पानी की मात्रा में इजाफा हो रहा है। इन्हीं नलकूपों की सहायता से वह रागी, टमाटर और सब्जियों की खेती कर रहा है। वह मानता है कि प्रोजेक्ट सूखा की मार झेल रहे इलाके के लिये एक वरदान है।

कोडनडप्पा का मत उदय से बिल्कुल भिन्न है। ढाई एकड़ जमीन के मालिक कोडनडप्पा का कहना है कि इस प्रोजेक्ट ने नई समस्या खड़ी कर दी है। वह कहता है कि यह भी कोई जिन्दगी है जब लोग झील का पानी नहीं पी सकते। पीने के लिये उसे फिल्टर करना जरूरी है। जानवर भी यदि इस पानी का प्रयोग लगातार करें तो वे भी बीमार हो जाएँगे। हालांकि, कोडनडप्पा को सूखे के कारण खेती छोड़कर ड्राइवर का पेशा अपनाना पड़ा है।

कोलार में पानी का संकट

इस प्रोजेक्ट को शुरू करने के पीछे के कारण को समझने के लिये हमें कोलार में पानी की किल्लत के स्तर को भी समझना जरूरी है। नहरों की गैर मौजूदगी, मानसून की अनिश्चितता के साथ ही दक्षिणा पिनकिनी नदी के भी लगभग सूख जाने के कारण लोगों के पास सिंचाई और पीने के पानी के लिये भूजल के इस्तेमाल के अलावा और कोई चारा नहीं था। फलस्वरूप जिले में वर्ष 2002 में नलकूपों की संख्या जो 12,670 थी वह 2014 तक बढ़कर 85,000 हो गई। जिले के किसान वर्षाजल से पोषित होने वाले फसल रागी के बदले टमाटर, बीन्स के साथ ही अन्य प्रकार की सब्जियाँ उगाने लगे जिनमें पानी की ज्यादा जरूरत होती है।

सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट ‘डाइनेमिक ग्राउंड वाटर रिसोर्स ऑफ इण्डिया रिपोर्ट 2017’के अनुसार कोलार जिले में 2013 के आते-आते भूजल की उपलब्धता 32,746 हेक्टयेर मीटर रह गई। वहीं, जिले में प्रतिवर्ष 62,359 हेक्टेयर मीटर पानी का दोहन होता है जिसका 95 प्रतिशत हिस्सा कृषि कार्य में प्रयोग किया जाता है। रिपोर्ट के अनुसार जिले में भूजल के दोहन का दर 190 प्रतिशत है जो सामान्य से बहुत ही ज्यादा है। इसके अलावा हर वर्ष पड़ने वाले सूखे ने इस परिस्थिति को और भी विकराल बना दिया है।

भूजल के गिरते स्तर और लगातार पड़ रहे सूखे के कारण ही राज्य सरकार ने जिले में 2014 के लोकसभा के चुनाव के पूर्व ही इस प्रोजेक्ट पर काम आगे बढ़ाया। इसी के तहत पश्चिमी घाट की नदी नेत्रावती की सहायक नदियों का रुख कोलार जिले की तरफ मोड़े जाने की योजना थी। जंगल के हाथियों के संचरण क्षेत्र के बीच स्थित इस प्रोजेक्ट को येटीनाहोले का नाम दिया गया।

पाइपलाइन बिछाने के अलावा पम्पिंग स्टेशन बनाए जाने की योजना थी जिससे 24 टीएमसी पानी छोड़ा जाना था। पानी की कुल मात्रा में से 10 टीएमसी पानी कोलार और चिक्कबल्लापुर जिलों में सप्लाई किया जाना था। लेकिन इससे जुड़े कई अध्ययनों में पानी की आपूर्ति से जुड़े अनुमानों पर सन्देह व्यक्त किया गया। इस योजना की अनुमानित लागत 13,000 करोड़ रुपए थी।

पर्यावरण अनुमति नहीं मिलने और राष्ट्रीय हरित न्यायालय में मुकदमे के लम्बित हो जाने के कारण यह योजना शुरू नहीं हो सकी। वर्ष 2016 में किसानों का सब्र का बाँध टूटा और 10,000 से अधिक पुलिस की बैरिकेडिंग तोड़ते हुए मुख्यमंत्री आवास तक पहुँच गए। उन पर पुलिस ने लाठियाँ बरसाईं और 35 लोगों पर आपराधिक मुकदमा भी दायर किया गया। इसी के बाद राज्य में इस योजना को लेकर जबरदस्त राजनीति शुरू हो गई और सरकार को मजबूर होकर के. सी. वैली प्रोजेक्ट की घोषणा करनी पड़ी।

38 वर्षीय अंजनेय रेड्डी ने कहा, “क्या हम तीसरे दर्जे के नागरिक हैं कि हमें अपशिष्ट जल वाला दूषित पानी पीना पड़ेगा जबकि बंगलुरु में स्थापित उद्योगों को कावेरी के साफ़ पानी की आपूर्ति की जाती है।”अंजनेय रेड्डी 2016 में इस प्रोजेक्ट के विरुद्ध हाईकोर्ट में दायर की गई जनहित याचिका के बाद इसका पुरजोर विरोध किया था। ये 30 एकड़ जमीन के मालिक हैं जो चिक्कबल्लापुर जिले में स्थित है। इनकी जमीन में 30 नलकूप हैं जिनमें से कुछ 1500 फीट तक गहरे हैं। लेकिन भूजल के नीचे चले जाने के कारण फिलहाल इनमें से तीन से ही पानी निकल रहा है।

अंजनेय रेड्डी ने कहा कि हम इस प्रोजेक्ट के विरोध में नहीं हैं लेकिन सरकार को अपशिष्ट जल की सफाई के लिये सेकेंडरी ट्रीटमेंट के बजाय टर्शियरी ट्रीटमेंट को प्राथमिकता देनी चाहिए। सरकार को पानी की गुणवत्ता में सुधार के लिये उच्च तकनीक का इस्तेमाल करना चाहिए।”

अपशिष्ट जल को साफ करने के लिये कई स्तर की तकनीक मौजूद हैं। प्राइमरी ट्रीटमेंट में पानी में तैरने वाले कणों के साथ प्लास्टिक और ठोस तलछट को ही अलग किया जाता है। सेकेंडरी ट्रीटमेंट में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट द्वारा जैविक तत्व, कीचड़ आदि को पानी से अलग किया जाता है जबकि अधिकांश रासायनिक तत्व पानी में ही घुले रह जाते हैं। वहीं, टर्शियरी ट्रीटमेंट प्लांट द्वारा नाइट्रेट, फॉस्फेट आदि रासायनिक तत्वों को भी आसानी से निकाल दिया जाता है। सिंगापुर में इस तरह के प्लांट से शोधित पानी का इस्तेमाल पीने के लिये भी किया जाता है लेकिन भारत में इसकी संख्या काफी कम है।

अंजनेय रेड्डी के कहा कि भारत में सेकेंडरी ट्रीटमेंट प्लांट से निकले जल का भूजल के साथ ही मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ता है इस दिशा में शोध किये जाने की जरुरत है। भारत में शोध की स्थिति पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि शोध के मामले में हमारी गति चूहों के सामान है। उनके अनुसार कर्नाटक हाईकोर्ट में दायर की गई जनहित याचिका में इस बात को गम्भीरता से उठाया गया था। कोर्ट ने कोलार में पाइप द्वारा अपशिष्ट मलजल की आपूर्ति के एक हफ्ते बाद 24 जुलाई को पानी की आपूर्ति रोकने का आदेश जारी किया था। कोर्ट ने इस घटना पर मौखिक टिप्पणी करते हुए कहा था, “योजना में कोई बुराई नहीं है। उचित कार्यान्वयन के न होने और पानी की गुणवत्ता से सम्बन्धित महज कुछ आश्वासन के कारण इसके परिणाम विनाशकारी हुए।”

अनुसन्धान से प्राप्त निष्कर्ष और बाधाएँ

राज्य सरकार से सम्बन्धित एजेंसियों ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि पानी का 36 प्रकार के विभिन्न मापदण्डों पर परीक्षण किया गया और इतेमाल के लिये सुरक्षित पाया गया। परीक्षण में नाइट्रेट नाइट्रोजन की मात्रा को तयशुदा मानक से अधिक पाया गया था। कर्नाटक स्टेट प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की माने तो पानी खेती के लिये एकदम उपयुक्त था।

उसके अनुसार पानी में घरों से निकलने वाले अपशिष्ट के कारण मलयुक्त कोलीफॉर्म की मात्रा अधिक थी। परन्तु विभिन्न झीलों से होकर गुजरने के कारण मलयुक्त कोलीफॉर्म की मात्रा में लगातार कमी आती गई। खास बात यह है कि पानी की गुणवत्ता से सम्बन्धित ये सभी परीक्षण अपशिष्ट जल के लिये थे न कि पीने में प्रयोग लाये जाने वाले पानी के लिये।

लघु सिंचाई विभाग के एक अफसर ने बताया कि इस प्रोजेक्ट का मूल उद्देश्य इलाके में भूजल के स्तर को बढ़ाना था न कि पीने का पानी उपलब्ध करने का। जब पानी जमीन के अन्दर जाता है उसे दूषित करने वाले तत्त्व ऊपर ही रह जाते हैं। इस तरह नलकूपों से निकलने वाला पानी बिल्कुल सुरक्षित और इस्तेमाल योग्य होता है।इस योजना के कार्यान्वयन का जिम्मा सरकार ने लघु सिंचाई विभाग को ही सौंपा था।

हालांकि, शोधकर्ताओं की एक टीम ने स्वतंत्र रूप से पानी की जाँच की और वे लघु सिंचाई विभाग के अफसर के मत से सहमत नहीं हुए। टीम ने परीक्षण के दौरान पानी में क्रोमियम, कोबाल्ट, कॉपर, जिंक, कैडमियम और लेड जैसे भारी धातुओं की मात्रा पीने योग्य पानी के लिये तय किये गए मानक से काफी अधिक पाया।

इस तथ्य के सामने आने के बाद के कुछ सवाल उभर कर सामने आते हैं। पहला, क्या यह विचार सही है कि जिले के लोग टैंक और पम्प से निकलने वाले नहीं पीने योग्य पानी पर पूरी तरह निर्भर रहें और उनसे ये आशा की जाये कि वे फिल्टर का इस्तेमाल करें? दूसरा, क्या इस पानी के इस्तेमाल से स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियाँ पैदा नहीं होंगी?

बंगलुरु से निकलने वाला अपशिष्ट जल भी अन्य भारतीय शहरों की तरह ही है। यहाँ भी केवल शौचालयों से पैदा हुआ मलजल ही नहीं बल्कि विभिन्न उद्योगों से निकलने वाला औद्योगिक कचरा भी इसमें मिला होता है। सेकेंडरी सीवेज ट्रीटमेंट द्वारा अपशिष्ट जल में घुले-मिले धातुओं को साफ नहीं किया जाना है। साफ है कि सरकार का अनुमान पूर्णतः मिट्टी की शोधन क्षमता पर आधारित था।

रिपोर्ट तैयार करने वाली टीम के एक शोधकर्ता ने नाम न छापे जाने की शर्त पर बताया कि मिट्टी की भी अपनी सीमा है खासकर तब जब दशकों तक 400 एमएलडी पानी को पम्प किया जाता रहे।बंगलुरु के वर्थुर झील के आस-पास के इलाकों के नलकूपों से लिये गए पानी के नमूनों में रिसाव के कारण भारी धातुओं की मात्रा पाई गई। वहीं, धीमे जहर के रूप में कई बीमारियों को पैदा करने वाली कोलार के नलकूपों में भारी धातुओं की उपस्थिति ने पानी को विषाक्त बना दिया था।

कर्नाटककर्नाटक (फोटो साभार - द हिन्दू)इस स्थिति से निपटने के लिये शोधकर्ताओं ने टर्शियरी ट्रीटमेंट प्लांट के साथ ही दलदली भूमि के निर्माण का प्रस्ताव दिया है। दलदली भूमि जलीय पौधों को पनपने का अवसर देती है। इन पौधों में पानी में अधिक मात्रा में उपस्थित पोषक तत्वों के साथ ही भारी धातुओं जैसे नाइट्रेट और फॉस्फेट आदि को भी सोखने की क्षमता होती है। कावेरी नदी क्षेत्र में दलदली भूमि के उपस्थित होने के कारण ही उसमें अपशिष्ट जल के बहाव के बाद भी पानी खेती में इस्तेमाल किये जाने के योग्य है। वहीं कोलार में पाइप के माध्यम से बनाई गई नदी में इसकी कमी है।

शहरों के मलजल में केवल रासायनिक तत्त्व ही नहीं रहते बल्कि बड़ी मात्रा में एंटीबायोटिक्स की भी मौजूदगी होती है। अपशिष्ट जल में एंटीबायोटिक्स की मौजूदगी का बड़ा कारण हैं रोज लाखों लोगों द्वारा इसका इस्तेमाल किया जाना। वर्ष 2017 में अशोका ट्रस्ट फॉर इकोलॉजी एंड एन्वायरनमेंट, बंगलुरु (एट्री) द्वारा बेलंदूर झील पर किये गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि अपशिष्ट जल में एंटीबायोटिक्स की उपस्थिति के कारण बैक्टीरिया के प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि हो गई है। एट्री की शोधकर्ता प्रियंका जमवाल ने कहा, “एसटीपी द्वारा बैक्टीरिया के एंटीबायोटिक प्रतिरोधी नस्लों को नहीं अलग किया जाता इसीलिये यह जरूरी है कि कोलार की स्थिति के बारे में बारीकी से अध्ययन किया जाये।”

फिर लौटा जीवन

सितम्बर के अन्त में कर्नाटक हाईकोर्ट ने इस शर्त पर विभिन्न एसटीपी से पानी छोड़ने का आदेश दिया कि पानी की गुणवत्ता की जाँच हो और रिपोर्ट कोर्ट में दाखिल किया जाये। इस आदेश के अनुसार 6 अक्टूबर को ढाई महीनों के अन्तराल के बाद कोलार की मानव निर्मित नदी फिर से जीवन्त हो उठी।

लक्ष्मीसागर झील के किनारे फिर पानी से लबालब हो गए। मुख्य पाइप के मुहाने पर स्थित टैंक को फिर से पेंट किया गया ताकि पिछली गलती की यादों को भुलाया जा सके। जो किसान वहाँ स्थिति का जायजा लेने आये थे वे एक बार फिर खुश थे। राजनीतिक पहल के साथ ही कोर्ट के आदेश ने उनके विश्वास को फिर से वापस लौटा दिया था। उनमें से कुछ तो पम्प स्टेशन के पास चाय की दुकान लगाने की भी योजना बनाने लगे। उनका मत था कि इस व्यवस्था को देखने पर्यटक आएँगे तो उनकी आमदनी में इजाफा होगा।

डोड्डाययुर गाँव के 70 वर्षीय शंकरप्पा ने कहा, “यह जानकर थोड़ी राहत महसूस हो रही है कि हमें इस्तेमाल के लिये पानी तो मिलेगा चाहे वह सीवेज का शोधित जल ही क्यों न हो।”इनका गाँव कोलार के ऊपरी बहाव क्षेत्र में स्थित है जिसे इस योजना के तहत पानी मिलना अभी बाकी है। इलाके में गिरते भूजल के स्तर के कारण इनका कुआँ भी दो दशक से सूखा पड़ा है। उनका मानना है कि इस योजना के बाद उनके कुएँ में पानी फिर लौट आएगा।

38 वर्षीय किसान मुरुगेश राजन्ना, मलजल के प्रभाव में दो एकड़ की मूली की खेती के नष्ट हो जाने के बाद इस प्रोजेक्ट के घोर विरोधी बन गए थे। इस योजना के दोबारा जीवन्त होने के बाद उन्होंने कहा, “मुझे आशा है कि बंगलुरु यह याद रखेगा कि यहाँ सारी सब्जियाँ इसी पानी में उगाई और धोई जाती हैं। वे अपनी खातिर ही हमें साफ जल तो उपलब्ध कराएँ।”

अंग्रेजी में पढ़ने के लिये दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

 

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नॉर्वे से सीखिए वनों का संरक्षण

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नॉर्वे से सीखिए वनों का संरक्षणeditorialFri, 11/16/2018 - 16:24

नॉर्वेनॉर्वे (फोटो साभार - रिसर्च गेट)यूरोप में 3 लाख 85 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ एक देश है। नाम है नॉर्वे।

एक सौ साल पहले इस देश का भूगोल कुछ अलग था। यहाँ के पेड़-पौधे धीरे-धीरे खत्म हो रहे थे। लोग अपनी जरूरतों मसलन जलावन आदि के लिये वनों की बेतहाशा कटाई कर रहे थे। एक समय तो ऐसा भी आ गया था कि लग रहा था, यहाँ की जमीन पर एक भी पेड़ नहीं बचेगा।

नॉर्वे अपने अस्तित्व बचाने के संकट से जूझने लगा था।

मानव की जिन्दगी के लिये पेड़ कितना जरूरी है, यह हम सब बचपन से पढ़ते आ रहे हैं। ऐसे में यह ख्याल अपने आप में हैरतंगेज है कि किसी देश में पेड़-पौधे गायब हो रहे हों, वहाँ किस तरह लोगों की जिन्दगी कायम रह पाती।

नॉर्वे के लोग भी शायद यही सोच रहे थे और गम्भीरता से सोच रहे थे। ये सब सोचते-विचारते ही कुछ ख्याल उनके जेहन में उभर आया होगा। उन ख्यालों और विचारों को जब जमीन पर उतारना शुरू किया गया, तो धीरे-धीरे परिणाम भी सामने आने लगा और आज नॉर्वे दुनिया के उन गिने-चुने देशों में शामिल है, जहाँ भरपूर जंगल और पेड़-पौधे मौजूद हैं।

आज से चार साल पहले तक नॉर्वे में पेड़ों की संख्या 100 साल पहले की तुलना में तीन गुना बढ़ चुकी थी। पेड़ों की कटाई पर आधारित अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचाए बिना वहाँ पेड़ पौधों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक, नॉर्वे में हर साल जितने पेड़ लगाए जाते हैं, महज उसका आधा ही काटा जाता है। इस तरह दिनोंदिन पेड़ों की संख्या में इजाफा ही हो रहा है। कहा जाता है कि नॉर्वे में जितने कार्बन का उत्सर्जन होता है, उसका 60 प्रतिशत हिस्सा पेड़-पौधे ही सोख लेते हैं।

इससे समझा जा सकता है कि नॉर्वे में प्रदूषण या पर्यावरण को होने वाले सम्भावित नुकसान को कम करने में पेड़ पौधे कितनी अहम भूमिका निभा रहे हैं।

ऊपर के जो भी आँकड़े दिये गए हैं, वे आज से चार साल पुराने हैं। अभी के हालत और भी बदल गए हैं क्योंकि पिछले चार वर्षों में वनों को बचाने के लिये नार्वे की सरकार ने और भी कई अहम और कठोर कदम उठाए हैं।

इन्हीं में एक कदम नॉर्वे सरकार ने यह उठाया कि वहाँ के पेड़ों-जंगलों की कटाई पर पूरी तरह पाबन्दी लगा दी। यही नहीं, नॉर्वे संसद की पर्यावरण व ऊर्जा पर स्थायी समिति ने शपथ के लिये एक अनुशंसा भी पेश की कि जिस भी उत्पाद में पेड़ों को काटकर उसका कोई भी तत्व इस्तेमाल किया जाएगा, उस उत्पाद का इस्तेमाल नॉर्वे में नहीं किया जाएगा।

इस शपथ को लाने में रैनफॉरेस्ट फाउंडेशन नॉर्वे ने अहम भूमिका निभाई और इसके लिये कई वर्षों तक काम किया। इसके अलावा कई वन क्षेत्रों के संरक्षण के लिये लाखों रुपए खर्च करने की मंजूरी दी गई।

यही नहीं, वनों के संरक्षण के लिये नॉर्वे सरकार ने जंगलों की कटाई पर भी पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिया है। नॉर्वे ने ये सब तब किया, जब वहाँ पर्याप्त मात्रा में वन मौजूद थे। दरअसल, नॉर्वे सरकार ने ये समझ लिया था कि पर्याप्त वन होने के चलते अगर लापरवाह हो गए, तो लोग दोबारा वनों की कटाई शुरू कर देंगे जिससे दोबारा मुश्किलें पैदा हो जाएँगी।

अभी नॉर्वे वन संरक्षण को लेकर कई देशों के साथ मिलकर काम कर रहा है। कई देशों को तो नॉर्वे फंड भी कर रहा है।

यही नहीं, नॉर्वे ने इसी साल संयुक्त राष्ट्र व इंटरपोल के साथ मिलकर अवैध रूप से वनों की कटाई पर रोक लगाने का अभियान शुरू किया है।

अभियान के तहत वनों को काटकर तस्करी करने वाले अपराधियों की नकेल कसी जाएगी।

नॉर्वे ने जिस तरह वनों का संरक्षण किया और उनकी संख्या बढ़ाई, पूरी दुनिया और भारत को उससे सबक लेने की जरूरत है।

भारत के सन्दर्भ में हम नीचे बात करेंगे, इससे पहले हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि वैश्विक स्तर पर वनों की क्या हालत है।

एक अनुमान के मुताबिक, दुनिया की कुल जमीन के महज 30 प्रतिशत हिस्से में ही वन हैं। इनमें से हर साल इंग्लैंड के आकार के वन खत्म हो रहे हैं।

बताया जाता है कि वैश्विक स्तर पर अगर इसी तरह वनों की कटाई जारी रही, तो अगले एक सौ साल में रेन फॉरेस्ट पूरी तरह खत्म हो जाएगा।

नेशनल जियोग्राफिक की एक रिपोर्ट के अनुसार, वनों की कटाई की एक प्रमुख वजह कृषि है। किसान खेती के लिये ज्यादा-से-ज्यादा जमीन चाहते हैं और इसके लिये वनों को काट रहे हैं। इसके अलावा मवेशियों के चारे के लिये भी वनों पर कुल्हाड़ी चलाई जा रही है।

वनों की कटाई की दीगर वजहों में लकड़ी आधारित कारोबार, जंगलों से होकर सड़क मार्ग का निर्माण, बढ़ती आबादी आदि शामिल हैं।

वनों की कटाई का असर पर्यावरण पर तो पड़ता ही है, इससे वन्यजीवों के अस्तित्व पर भी संकट के बादल मँडराने लगते हैं। वन असंख्यक जीव-जन्तुओं का आवास होता है। ऐसे में जब वन कटने लगते हैं, तो इन जन्तुओं का जीवन खतरे में पड़ जाता है।

वर्ष 2016 में वैश्विक स्तर वनों की स्थिति को लेकर यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के अनुसार करीब 73.4 मिलियन एकड़ वन क्षेत्र खत्म हो गया है। सिर्फ 2016 में वन क्षेत्र खत्म होने के आँकड़े लें, तो यह नुकसान 29.7 मिलियन हेक्टेयर आता है। पिछले वर्ष की तुलना में ये नुकसान 51 प्रतिशत अधिक है।

उक्त रिपोर्ट की मानें, तो विगत छह वर्षों की तुलना में वर्ष 2016 में सबसे ज्यादा वनों का नुकसान हुआ।

वनों को लेकर वैश्विक स्थिति के बाद अब आते हैं भारत में। भारत में भी वनों को लेकर स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। हालांकि, पहले की अपेक्षा भारत में वनों का विस्तार हुआ है।

पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट-2013 के अनुसार वर्ष 2011 से 2013 के बीच भारत में वनों के क्षेत्र में 5871 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोत्तरी हुई है। इनमें सबसे ज्यादा इजाफा पश्चिम बंगाल और ओड़िशा में हुआ है। अन्य राज्यों में बिहार, झारखण्ड और तमिलनाडु शामिल हैं। इसके विपरीत आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड और कर्नाटक में वनों का क्षेत्रफल घटा है।

रिपोर्ट में एक दिलचस्प बात सामने आई है कि वनों का विस्तार नई जगहों पर हुआ न कि परम्परागत वन क्षेत्र में। रिपोर्ट में बताया गया है कि महज 2 प्रतिशत वनों का विस्तार वन क्षेत्र की चौहद्दी में हुआ है। बाकी विस्तार उन क्षेत्रों में हुआ है, जहाँ वन नहीं थे।

वहीं, हालिया रिपोर्ट बताती है कि भारत में वनों के विस्तार में महज एक प्रतिशत का इजाफा हुआ है। वर्ग किलोमीटर में बात की जाये, तो वर्ष 2015 से वर्ष 2017 के बीच 8021 वर्ग किलोमीटर में वनों का विस्तार हुआ है। हालांकि, पूर्वोत्तर में वन क्षेत्र में गिरावट आई है।

वनों की इस स्थिति के बारे में इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट से पता चला है।

यह रिपोर्ट फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इण्डिया की ओर से सेटेलाइट डेटा के विश्लेषण के बाद तैयार की गई है।

रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल वन क्षेत्र 8,02,088 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है जो भारत के कुल क्षेत्रफल का 24.39 प्रतिशत है।

बताया जाता है कि रिपोर्ट देश भर के 633 जिलों के सर्वेक्षण के आधार पर तैयार की गई है। पूर्व के वर्षों में 589 जिलों को लेकर ही सर्वेक्षण किये जाते थे।

वैश्विक सन्दर्भ में अगर भारत के आँकड़े को देखें, तो यह हमारे लिये राहत भरी बात है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वन क्षेत्र के मामले में भारत विश्व में 10वें स्थान पर है। यानी कि भारत दुनिया के उन 10 देशों में शुमार है, जहाँ ज्यादा वनक्षेत्र हैं।

लेकिन, रिपोर्ट में यह भी रेखांकित किया गया है कि भारत में जिन क्षेत्रों में वनों का विस्तार हुआ है, वे आदिवासी जिले हैं। इसका मतलब है कि शहर व मुफस्सिल क्षेत्रों में वनों का विस्तार नहीं हो रहा है।

उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार ने वनों का विस्तार 33 प्रतिशत क्षेत्रफल में करने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिये जरूरी है कि देश के सभी राज्यों में वनक्षेत्रों का विस्तार 33 प्रतिशत तक हो जाये।

मौजूदा आँकड़ों के मुताबिक देश के महज 15 राज्यों में ही 33 प्रतिशत से ज्यादा वनक्षेत्र हैं। इसके अलावा पूर्वोत्तर के 7 जिलों में वनक्षेत्र 75 प्रतिशत से ज्यादा हैं।

सरकार का कहना है कि वनक्षेत्रों के विस्तार के लिये चलाई गई कई योजनाओं के परिणामस्वरूप ही वनों का क्षेत्रफल बढ़ा है।

अखिल भारतीय स्तर पर वन क्षेत्र में एक प्रतिशत का इजाफा हुआ है, जो अच्छी खबर है, लेकिन कई इलाकों में वनक्षेत्र में कमी चिन्ता की बात है।

बंगलुरु स्थित इण्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के इकोलॉजिकल साइंस सेंटर के टीवी रामचंद्र ने मोगांबे नाम की वेबसाइट के एक लेख में कहा है कि वेस्टर्न घाट के जिलों में उन्होंने जो सर्वेक्षण किया है, उसके मुताबिक इन जिलों में वनक्षेत्र घटा है। इसी तरह उत्तरी-पश्चिमी घाट के वनक्षेत्र में 2 फीसदी की गिरावट आई है। अन्य घाटों में भी वनक्षेत्र में गिरावट दर्ज की गई है।

इन घाट क्षेत्रों में वनक्षेत्र में कमी होने से जलसंकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है क्योंकि वन नहीं होने से बारिश का पानी रुक नहीं पाता है जिससे स्ट्रीम सूखे पड़ जा रहे हैं।

न केवल पर्यावरण बल्कि बारिश पर आश्रित आबादी वाले क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता के लिये वन बेहद जरूरी है। वन न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी होना चाहिए ताकि शहरों की आबोहवा दुरुस्त रहे। वन जलवायु परिवर्तन की समस्या से लड़ने में भी मददगार है।

पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को वनक्षेत्र बढ़ाने की योजना को प्राथमिकता की सूची में रखना चाहिए।

इसके लिये सरकार नॉर्वे से काफी कुछ सीख सकती है। हालांकि, देश में बढ़ी आबादी के मद्देनजर लोगों को रहने के लिये ज्यादा जमीन की जरूरत पड़ेगी, इसलिये जहाँ वन नहीं हैं, वहाँ नए सिरे से वनों को आबाद करना मुश्किल है, लेकिन सरकार को यह कोशिश करनी होगी कि जहाँ वन आबाद है, वहाँ आबाद ही रहे।

इसके अलावा शहरी क्षेत्रों में सरकार होम गार्डन की शक्ल में गैर-पारम्परिक वनों का विस्तार कर सकती है। इसके लिये सरकार को चाहिए कि वह लोगों को आकर्षक ऑफर होम गार्डन तैयार करने के लिये प्रेरित करे।

इसके अलावा और भी कई तरीके हैं, जिनके जरिए बिना अतिरिक्त जमीन लिये हरियाली बढ़ाई जा सकती है।

ऐसा ही एक अद्भुत तरीका पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर में रहने वाले एक टैक्सी चालक धनंजय चक्रवर्ती ने अपनी टैक्सी की छत पर लॉन बना रखा है। वहीं टैक्सी के भीतर आधा दर्जन से ज्यादा पौधे हैं।

वे पिछले 5-6 साल से पौधों और दूब से भरी टैक्सी चला रहे हैं। उनका कहना है कि टैक्सी की छत पर दूब लगे होने के कारण भीतर का तापमान बाहर की तुलना में कम रहता है।

पर्यावरणविदों ने धनंजय चक्रवर्ती की इस तरकीब की जमकर तारीफ की और कहा कि ऐसी ही व्यवस्था दूसरी टैक्सियों में भी की जा सकती है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सरकार और आम लोग अगर ईमानदारी से कोशिश करें, तो वक्त रहते हरियाली का क्षेत्रफल बढ़ाकर प्रदूषण जैसे मुद्दों से बेहतर तरीके से निबटा जा सकता है।

 

 

 

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कृषि क्षेत्र पर सिंचाई की मार और भारत में भुखमरी

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कृषि क्षेत्र पर सिंचाई की मार और भारत में भुखमरीeditorialSat, 12/08/2018 - 13:23

कृषि क्षेत्र पर सिंचाई की मारकृषि क्षेत्र पर सिंचाई की मारपाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के साथ ही खाद्यान्न उत्पादन में विश्व में दूसरे पायदान पर आने वाले भारत के लिये अपनी जनसंख्या का पेट भरना आज भी एक बड़ी चुनौती है। हाल ही में 119 देशों के लिये जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2018 (Global Hunger Index) में भारत 103 नम्बर पर रहा। इस मामले में भारत अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश से भी पीछे है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स का निर्धारण किसी देश में कुपोषण की स्थिति के साथ ही पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में लम्बाई की तुलना में वजन कम होने, लम्बाई कम होने तथा शिशु मृत्यु दर के आधार पर किया जाता है। वास्तव में ये सभी मानक कुपोषण के सूचक हैं। इन मानकों के आधार पर भारत मात्र 31.1 अंक ही अर्जित कर पाया।

फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (Food and Agriculture Organisation, FAO) द्वारा इसी वर्ष जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 195.9 मिलियन लोग कुपोषित हैं। यह संख्या देश की कुल जनसंख्या का 14.8 प्रतिशत है। यह तथ्य विचलित करने वाला है क्योंकि भारत ने खाद्यान्न उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि की है। वर्ष 2017 में कुल 281.7 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ जो देश की जनसंख्या के पोषण के लिये पर्याप्त था।

फिर सवाल उठता है कि देश में इतनी बड़ी संख्या में लोग दो जून की रोटी के लिये क्यों तरस रहे हैं? इस सवाल का कोई एक माकूल जवाब नहीं है। इस सवाल पर गम्भीरता से विचार करने पर जनसंख्या का बढ़ता दबाव, सिंचाई के प्रचलित साधनों में गिरावट के कारण कृषि योग्य परती भूमि में वृद्धि, जलवायु परिवर्तन, गेहूँ और चावल जैसे अनाजों के उत्पादन में गिरावट, छोटी जोत वाले किसानों की आर्थिक स्थिति में गिरावट, कृषि विकास की दर में कमी, अनाजों की आसमान छूती कीमतें, प्रति व्यक्ति कम होती अनाज की उपलब्धता आदि जैसे कारण सामने आते हैं।

भारत में खाद्य सुरक्षा का मूल आधार अनाजों का उत्पादन है। लेकिन जनसंख्या वृद्धि की तुलना में इनके उत्पादन में गिरावट दर्ज की जा रही है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 2000 के दशक में प्रतिवर्ष जनसंख्या वृद्धि की दर 1.7 प्रतिशत थी जबकि इसी दौरान मुख्य अनाजों के उत्पादन में औसतन 1.4 की दर से कमी दर्ज की जा रही थी। इससे साफ है कि बढ़ती हुई जनसंख्या के लिये मुख्य अनाजों के उत्पादन की दर बढ़ानी होगी जो वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए एक मुश्किल टास्क है। इसकी एक बड़ी वजह है देश में सिंचाई के लिये घटती पानी की उपलब्धता।

केन्द्रीय कृषि मंत्रालय के आँकड़े के अनुसार वर्ष 2017 में भूजल द्वारा सिंचाई पर आश्रित इलाकों के 40 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि को परती छोड़ दिया गया। वजह थी सिंचाई के भूजल का उपलब्ध न होना। भूमि के परती छोड़े जाने का सीधा असर धान, दलहन, तिलहन सहित अन्य अनाजों के उत्पादन पर आया। वित्तीय वर्ष 2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में भी इस रुझान को रेखांकित किया गया है। रिपोर्ट में यह साफ तौर पर कहा गया है कि पानी की कमी के कारण तमिलनाडु में रबी की फसल के लिये प्रयोग में लाये जाने वाले कुल कृषि क्षेत्र के 7 लाख हेक्टेयर जबकि खरीफ के 2.5 लाख हेक्टेयर में खेती नहीं हो सकी। इसके अलावा केरल में भी धान की खेती के अन्तर्गत आने वाले कुल क्षेत्र में काफी कमी आई है। राज्य में जहाँ 1970-71 में धान की खेती 8.75 लाख हेक्टेयर में होती थी वह 2015-16 में घटकर 1.7 लाख हेक्टेयर रह गई। देश के अन्य राज्यों में भी कमोबेश यही स्थिति है। नीति आयोग ने भी यह स्पष्ट तौर पर कहा है कि कृषि क्षेत्र में पानी की कमी का समाधान यदि समय रहते नहीं निकाला गया तो इसके गम्भीर परिणाम होंगे।

भारत में सिंचाई के प्रचलित साधनों पर यदि गौर किया जाये तो यहाँ की कुल कृषि भूमि (160 मिलियन हेक्टेयर) के दो तिहाई हिस्से की सिंचाई मानसून आधारित है। वहीं, 39 मिलियन हेक्टेयर पर भूजल और 22 मिलियन हेक्टेयर पर नहरों द्वारा सिंचाई की जाती है। मानसून की अनिश्चितता का प्रभाव फसलों के उत्पादन पर बहुत गहरा पड़ता है। इसी अनिश्चितता का प्रभाव है कि हरित क्रान्ति की शुरुआत के बाद देश में भूजल आधारित सिंचाई व्यवस्था का तेजी से विकास हुआ। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में खूब बोरिंग खोदे गए। इतना ही नहीं हरित क्रान्ति के दौरान खाद्यान्न की जरूरतों को पूरा करने के लिये धान, गन्ना आदि जैसे पानी पोषित फसलों के उत्पादन को भी काफी बढ़ावा दिया गया। यही वजह है कि भारत के कई इलाकों के भूजल स्तर में तेजी से गिरावट दर्ज हुई।

केन्द्रीय भूजल बोर्ड (Central Groundwater Board) की रिपोर्ट के अनुसार देश के 16.2 प्रतिशत हिस्से ऐसे हैं जहाँ भूजल का अतिदोहन हुआ है। इन इलाकों में कर्नाटक के उत्तरी और दक्षिणी क्षेत्रों के सूदूरवर्ती इलाके, आन्ध्र प्रदेश का रायलसीमा क्षेत्र, महाराष्ट्र का विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्र, पश्चिमी राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड के इलाके शामिल हैं। देश के 14 प्रतिशत इलाकों में भूजल की स्थिति काफी नाजुक स्तर तक पहुँच गई है। इसमें उत्तर-पश्चिमी राज्य जैसे पंजाब, हरियाणा और दिल्ली आदि शामिल हैं। वहीं, देश के पूर्वी क्षेत्र में स्थिति थोड़ी बेहतर है।

इसी रिपोर्ट के अनुसार भारत की प्रतिवर्ष भूजल पुनर्भरण क्षमता 433 बिलियन क्यूबिक मीटर (Billion Cubic Meter, BCM) है जिसमें से 398 बीसीएम इस्तेमाल के लिये उपलब्ध होता है। देश में भूजल के दोहन की स्थिति इतनी बुरी है कि कुल इस्तेमाल के लिये उपलब्ध हिस्से के 65 प्रतिशत का उपयोग हर वर्ष कर लिया जाता है। कृषि क्षेत्र में भूजल के बढ़ते इस्तेमाल का पता नहर आधारित सिंचाई के गिरते प्रतिशत से भी लगाया जा सकता है। सरकारी आँकड़े के अनुसार 2011-12 तक इसका प्रतिशत 23.6 रह गया जो 1950-51 के दौरान लगभग 40 प्रतिशत था। वहीं, इसी काल में भूजल आधारित सिंचाई का प्रतिशत 28.7 प्रतिशत से बढ़कर 62.4 प्रतिशत हो गया।

सिंचाई के लिये भूजल के बढ़ते इस्तेमाल की एक मुख्य वजह हरित क्रान्ति के दौरान फसलों के उत्पादन के लिये गलत इलाकों का चयन भी था। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में गन्ना उत्पादन को बढ़ावा दिया गया जबकि वहाँ की मिट्टी इस फसल के उत्पादन के लिये उपयुक्त नहीं थी। इसका खामियाजा यह हुआ कि प्रदेश के मात्र 4 प्रतिशत कृषि क्षेत्र पर गन्ना उत्पादन के लिये उपलब्ध 70 प्रतिशत से ज्यादा पानी का इस्तेमाल कर लिया जाता है। वहीं, राज्य के लगभग 17 प्रतिशत कृषि क्षेत्र पर उत्पादित होने वाले दलहन की सिंचाई के लिये उपलब्ध पानी के मात्र 3.4 प्रतिशत हिस्से का ही इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रकार की अविवेकपूर्ण कृषि को बढ़ावा देने का ही परिणाम है कि फसल के उत्पादन की दिनों-दिन बढ़ती लागत के कारण किसान कर्ज की जाल में फँस गए और भूजल दोहन को भी बढ़ावा मिला।

अर्ध शुष्क क्षेत्र पंजाब में धान की खेती को प्रमुखता दिया जाना भी भूजल के दोहन का मुख्य कारण है। हरित क्रान्ति की शुरुआत यानि 1960 के दशक में राज्य में धान की खेती के अन्तर्गत केवल 2,27000 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र था जो वर्ष 2000 तक बढ़कर 26,12000 हेक्टेयर हो गया। इस दौरान राज्य में धान की खेती में 1050 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इस वृद्धि का आधार भूजल का दोहन था। आँकड़े बताते हैं कि पंजाब की मौसमी दशाओं के अनुरूप वहाँ एक किलोग्राम चावल के उत्पादन पर 5,337 लीटर पानी खर्च करना पड़ता है जबकि पश्चिम बंगाल में केवल 2605 लीटर। इसका मतलब है कि पश्चिम बंगाल की मौसमी दशाएँ चावल की खेती के लिये पंजाब की तुलना में ज्यादा उपयुक्त हैं। इतना ही नहीं यूनेस्को के इंस्टीट्यूट ऑफ वाटर एजुकेशन द्वारा वर्ष 2011 में जारी किये गए एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रति टन धान के उत्पादन के लिये औसतन चीन और अमेरिका की तुलना में दोगुने से भी ज्यादा पानी की आवश्यकता होती है। इसी रिपोर्ट के अनुसार देश में कपास के उत्पादन के लिये चीन की तुलना में लगभग चार गुना पानी की आवश्यकता होती है।

यूनेस्को के इंस्टीट्यूट ऑफ वाटर एजुकेशन द्वारा जारी डाटा

 

 

फसल

भारत

चीन

अमरीका

धान

2800

1321

1275

गन्ना

159

117

103

गेहूँ

1654

690

849

कपास

8264

1419

2535

नोट:- प्रति टन पानी की खपत क्यूबिक मीटर में

राज्यों में कृषि भूमि के सिंचित क्षेत्र का प्रतिशत

 

 

 

 

 

 

 

 

राज्य

 सिंचित भूमि प्रतिशत में

पंजाब

98.70

हरियाणा 

88.90

उत्तर प्रदेश

76.10  

बिहार

67.40  

तमिलनाडु

63.50

आन्ध्र प्रदेश

62.50

मध्य प्रदेश

50.50

पश्चिम बंगाल

49.30  

गुजरात

46.00   

उत्तराखण्ड

44.00   

छत्तीसगढ़

29.70

ओड़िशा

29.00  

कर्नाटक

28.20

राजस्थान

27.70  

महाराष्ट्र

16.40

झारखंड 

7.00

असम

4.60

राष्ट्रीय औसत

49.80  

 

स्रोत: कृषि मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट

विश्व में खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि का श्रेय हरित क्रान्ति के प्रणेता नार्मन बारलोग थे जबकि भारत में इसकी सफलता का श्रेय एम स्वामीनाथन को दिया जाता है। नार्मन बारलोग को उनके इस योगदान के लिये 1970 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया जबकि एम स्वामीनाथन को 1987 में वर्ल्ड फूड प्राइज से नवाजा गया। भारत में हरित क्रान्ति की इस अप्रत्याशित सफलता के कारण ही देश में अनाजों के आयात में कमी आई और भूख की मार से त्रस्त जनता का पेट भरना सम्भव हुआ। लेकिन उपज बढ़ाने के उद्देश्य से खादों और कीटनाशकों के बेहिसाब इस्तेमाल से मिट्टी की उर्वरता में उत्तरोत्तर कमी होती गई जिसका असर देश में अनाजों के कुल उत्पादन पर भी पड़ा। इतना ही नहीं अधिक सिंचाई के कारण देश के कई हिस्सों में मिट्टी में लवणीयता बढ़ गई जिसकी वजह से जमीनें बंजर होने के कगार तक पहुँच गई हैं। पंजाब और हरियाणा के कृषि क्षेत्रों में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं।

देश में जनसंख्या के बढ़ते दबाव का असर भी प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता पर पड़ा है। डायरेक्टरेट ऑफ इकोनॉमिक्स एंड स्टेटिस्टिक्स डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर एंड कोऑपरेशन द्वारा जारी आँकड़े बताते हैं कि 1950 के दशक की तुलना में 2010 के दशक में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन अनाज की उपलब्धता में मात्र 160.1 ग्राम की वृद्धि हुई थी। हालांकि, अपवादस्वरूप 1990 के दशक में 1950 के दशक की तुलना में इस सन्दर्भ में 186.2 ग्राम की वृद्धि दर्ज की गई थी। आँकड़े यह भी बताते हैं कि बीसवीं सदी की शुरुआत की तुलना में देश में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में कमी आई है। बीसवीं सदी की शुरुआत में यह जहाँ 200 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष थी वहीं इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में यह मात्र 158 किलोग्राम रह गई। इसकी एक बड़ी वजह है आर्थिक उदारीकरण के बाद अनाजों के उत्पादन की औसत वृद्धि दर में मामूली परिवर्तन आना और कृषि अन्तर्गत आने वाली भूमि के विकास में नकारात्मक वृद्धि का दर्ज किया जाना। आर्थिक उदारीकरण के पूर्व जहाँ अनाजों के उत्पादन की औसत वृद्धि दर प्रतिवर्ष जहाँ 2.6 प्रतिशत थी इसके बाद उसमें 0.05 प्रतिशत का ही मामूली परिवर्तन हो सका। वहीं, सिंचित कृषि भूमि क्षेत्र जो उदारीकरण के पूर्व 0.2 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा था उसमें इसके बाद प्रतिवर्ष -0.41 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से गिरावट दर्ज की जाने लगी।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में गेहूँ, चावल, दलहन, तिलहन जैसे मूल अनाजों के 41 प्रतिशत से ज्यादा हिस्से का उत्पादन दो एकड़ या उससे भी कम जोत वाले किसान करते हैं। इसकी एक बड़ी वजह है उनकी अपने परिवार को पूरे वर्ष के लिये खाद्य सुरक्षा प्रदान करने की मानसिकता। आर्थिक उदारीकरण के बाद देश के सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product) में कृषि क्षेत्र के योगदान में गुणात्मक कमी दर्ज की गई। उदारीकरण के पूर्व जीडीपी में इस क्षेत्र का औसत योगदान 2.8 प्रतिशत था वह घटकर 1.98 प्रतिशत ही रह गया। वजह साफ है, सरकार का ध्यान कृषि विकास से हटकर सेवा क्षेत्र के साथ ही औद्योगिक विकास आदि पर केन्द्रित होना। इसके अलावा देश में मुद्रास्फीति की दर बढ़ने से अनाजों के दाम बढ़ते चले गए। और इसका प्रभाव खेती पर भी पड़ा। किसानों पर आर्थिक बोझ तो बढ़ा लेकिन मुनाफे में वृद्धि न के बराबर हुई। इससे छोटी जोत वाले किसान सबसे ज्यादा प्रभावित हुए और कृषि क्षेत्र में घटती आर्थिक सुरक्षा के कारण वे खेती छोड़ शहरों में पलायन करने को मजबूर हो गए। इसका असर देश में अनाजों की उत्पादकता पर पड़ा।

देश में कृषि उत्पादन को अस्थिर करने का एक बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन भी है। भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है। लेकिन इसका प्रभाव देश की खाद्य सुरक्षा के सन्दर्भ में बहुत ज्यादा है। भारत के लगभग दो तिहाई कृषि क्षेत्र में सिंचाई का आधार मानसून है। यह जाहिर है कि मानसून से जुड़ी अनिश्चितता का प्रभाव कृषि पर बहुत ज्यादा पड़ता है। प्रशान्त महासागर में पेरू के समीप पैदा होने वाली गर्म जल धारा एल नीनो (el-nino) के प्रभाव में भारतीय महाद्वीप में दक्षिणी-पश्चिमी मानसून का प्रभाव कम हो जाता है। वहीं, ठंडी जल धारा ला-नीनो (la-nino) के प्रभाव में मानसून से होने वाली वर्षा सामान्य से ज्यादा होती है। भारत में एल-नीनो वर्ष में मानसून सिंचित कृषि क्षेत्रों में अकाल जैसी स्थिति आ जाती है जिससे फसलों का उत्पादन नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। आँकड़े बताते हैं देश में अकालों की बारम्बारत में काफी वृद्धि हुई है। वर्ष 1950 से 1989 तक कुल 10 अकाल पड़े थे जबकि 2000 के बाद से अब तक देश, पाँच अकालों की मार झेल चुका है। मौसम वैज्ञानिकों की माने तो नित हो रहे पर्यावरणीय ह्रास के प्रभाव के कारण भारत में 2020 से 2049 तक अकालों की बारम्बारत में और भी वृद्धि होगी। इसके अलावा अति बारिश और उससे पैदा होने वाली बाढ़ के कारण भी फसलों को काफी नुकसान पहुँचता है। अति बारिश के कारण मिट्टी के अपरदन को भी बढ़ावा मिलता है जिससे उसकी उर्वरा क्षमता प्रभावित होती है।

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत वर्ष 2022 तक विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश हो जाएगा। और वर्ष 2050 तक देश की जनसंख्या 1.7 बिलियन हो जाएगी। इतना ही नहीं देश की जनसंख्या में नकारात्मक वृद्धि दर 2100 के बाद ही दिखाई देगी। यह अनुमान लगाया गया है कि बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने के लिये भारत को लगभग वर्तमान की तुलना में लगभग 100 मिलियन टन अतिरिक्त खाद्यान्न उत्पादन की जरूरत होगी। अतः भारत को बढ़ती खाद्य असुरक्षा से निपटने के लिये कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाने होंगे जिनमें कृषि भूमि की उत्पादन की क्षमता में वृद्धि, सिंचाई के साधनों का विकास, बरसात के पानी का उचित प्रबन्धन, फसलों का चयन पानी की उपलब्धता के साथ ही मौसमी दशाओं के अनुसार किया जाना, गाँवों में रहने वाली जनसंख्या की आर्थिक आय में वृद्धि, जन वितरण प्रणाली को भ्रष्टाचार मुक्त बनाना, खाद्यान्न की बर्बादी को रोकना आदि शामिल हैं।

कृषि भूमि की उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के लिये उन्नत बीजों की खोज को बढ़ावा देना होगा जिसमें भारत अभी बहुत पीछे है। इसके साथ ही खेतों का आकार बढ़ाने के लिये भी सरकार को पहल करनी होगी जिससे उनमें खेती के लिये जरूरी उपकरणों का इस्तेमाल आसानी से किया जा सके। इसके लिये किसानों को सामूहिक रूप से कोआपरेटिव बनाकर खेती करने के लिये प्रेरित करने की आवश्यकता होगी।

उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार विश्व में उपलब्ध कुल स्वच्छ जल का मात्र 4 प्रतिशत ही भारत के खाते में आता है जबकि कृषि के अन्तर्गत आने वाली भूमि के मामले में यह विश्व में दूसरे स्थान पर है। साफ है कि भारत में जल संसाधनों पर बहुत ज्यादा दबाव है। देश में उपलब्ध स्वच्छ जल के लगभग 83 प्रतिशत हिस्से का इस्तेमाल कृषि के लिये होता है लेकिन अत्यधिक दबाव के कारण यह तेजी से घट रहा है। विश्व बैंक द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में औसत वर्षा की मात्रा 1170 मिली मीटर है लेकिन इस पानी के 25 प्रतिशत से भी कम हिस्से का इस्तेमाल हो पाता है जबकि 65 प्रतिशत हिस्सा समुद्र में जा मिलता है। अगर इस पानी को रोकने की समुचित व्यवस्था कर ली जाये तो पानी की समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि देश में पानी के संचयित करने के साधन बढ़ाने होंगे। और इसके लिये एक ठोस जल प्रबन्धन की प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता होगी। इसी के अभाव में भारत में प्रति व्यक्ति पानी संचयित करने की क्षमता मात्र 200 क्यूबिक मीटर है जबकि विश्व स्तर 900 क्यूबिक मीटर है। इसके अलावा गिरते भूजल स्तर को नियंत्रित करने के लिये ड्रिप इरिगेशन को भी बढ़ावा देना समय की माँग है। लेकिन उपलब्ध आँकड़े के अनुसार सरकार के तमाम प्रयास के बावजूद भी देश की कुल सिंचित भूमि में ड्रिप इरिगेशन का हिस्सा मात्र 3 प्रतिशत है।

इतना ही नहीं किसी क्षेत्र विशेष में पानी की उपलब्धता और वहाँ की मौसमी दशाओं के अनुसार ही किसानों को फसलों के चयन के लिये प्रेरित किया जाना चाहिए। उदाहरणस्वरूप कर्नाटक, तमिलनाडु में भूजल आधारित कृषि क्षेत्रों के किसानों ने पानी की कमी को देखते हुए ऐसे फसलों का उत्पादन बन्द कर दिया जिनके लिये ज्यादा पानी की आवश्यकता होती है। वे उनकी जगह सब्जी, फूल, लोबिया, मूँगफली आदि की खेती को अपना रहे हैं। इसके अलावा बुन्देलखण्ड इलाके के किसान मिंट की खेती से तौबा कर रहे हैं। आँकड़े के अनुसार एक किलोग्राम मिंट के उत्पादन के लिये 1,75000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। इस क्षेत्र में पूर्व में मिंट का उत्पादन लगभग 10,000 हेक्टेयर में होता था जो अब कम होकर लगभग 1,000 हेक्टेयर रह गया है।

कृषि क्षेत्र के विकास के लिये इस पर आश्रित लोगों के अलावा गाँवों में बेरोजगार लोगों की आर्थिक विकास के लिये कदम उठाने होंगे। जैसाकि सभी जानते हैं कृषि और उससे जुड़े कार्य देश की लगभग 60 प्रतिशत जनता को रोजगार उपलब्ध कराते हैं। लेकिन देश में खासकर छोटी जोत वाले किसानों की गिरती स्थिति के कारण उनकी और उन पर आश्रित लोगों की आर्थिक दशा काफी गिरती जा रही है। यही वजह है कि लोग रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं और गरीबी के कारण भूखमरी के शिकार हो रहे हैं। अतः साफ है कि सरकार को गाँवों से पलायन रोकने के लिये खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, दुग्ध उत्पादन जैसे कृषि से जुड़े उद्योग-धंधों को बढ़ावा देने की जरूरत है।

भारत में जन वितरण प्रणाली शुरुआत का मूल उद्देश्य देश में खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करना था। इस प्रणाली के तहत देश के शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा से नीचे अथवा इससे ऊपर रहने वाले लोगों को सरकारी दर पर खाद्य सामग्री उपलब्ध कराई जाती है। लेकिन इस प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण लाभुकों को इसका उचित लाभ नहीं मिल पाता है। इतना ही नहीं गरीबी रेखा से नीचे या इससे ऊपर के लोगों का सही मूल्यांकन न हो पाने के कारण भी इन श्रेणियों के अन्तर्गत आने वाले बहुत से परिवार जनवितरण प्रणाली का लाभ पाने से वंचित रह जाते हैं। इसके अलावा इस प्रणाली की सबसे बड़ी खामी लाभार्थियों के चयन की प्रक्रिया के निर्धारण की जिम्मेवारी राज्यों के हाथ में होना। इसका खामियाजा यह है कि हर राज्य में इस प्रणाली के अन्तर्गत लाभ पाने वाले लोगों की पात्रता का पैमाना भिन्न-भिन्न है। और इसके कारण बहुत से परिवार इस प्रणाली से बाहर हो जाते हैं। अतः इस व्यवस्था में पर्याप्त सुधार के लिये उचित कदम उठाए जाने की जरूरत है।

भारत में खाद्यान्न की कमी और लोगों के कुपोषण की एक बड़ी वजह अन्न की बर्बादी भी है। फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व में प्रतिवर्ष 1.3 बिलियन टन अनाज बर्बाद हो जाता है। इसी रिपोर्ट के अनुसार एक अनुमान के मुताबिक भारत में हर वर्ष कुल अनाज के उत्पादन का 40 प्रतिशत हिस्सा नष्ट हो जाता है। अन्न की इस बर्बादी का सिलसिला खेतों से ही शुरू हो जाता है। अनाजों के रख-रखाव की उचित व्यवस्था नहीं होने के कारण भी खूब बर्बादी होती है। इस सम्बन्ध में विशेषज्ञों की राय है कि भारत को अनाजों के रख-रखाव के लिये चीन का मॉडल अपनाना चाहिए। चीन में इसके लिए बड़े स्तर पर गोदाम का निर्माण कराया गया है जबकि भारत में इसकी बहुत कमी है। यहाँ अनाजों के रख-रखाव के लिये जिम्मेवार फूड कारपोरेशन ऑफ इण्डिया के अन्तर्गत आने वाले गोदाम की स्थिति काफी दयनीय है। उचित रख-रखाव के अभाव में हर वर्ष लाखों टन अनाज सड़ जाते हैं।

एक नजर में

1. भारत विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के साथ ही खाद्यान्न उत्पादन में विश्व में दूसरे पायदान पर है

2. 119 देशों के लिये जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2018 में भारत 103 नम्बर पर रहा

3. फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन द्वारा इसी वर्ष जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 195.9 मिलियन लोग कुपोषित हैं

4. वर्ष 2017 में कुल 281.7 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ

5. कृषि मंत्रालय के आँकड़े के अनुसार पानी की कमी के कारण वर्ष 2017 में भूजल द्वारा सिंचाई पर आश्रित इलाकों के 40 लाख हेक्टयर कृषि भूमि को परती छोड़ दिया गया

6. देश में कुल कृषि भूमि (160 मिलियन हेक्टेयर) के दो तिहाई हिस्से की सिंचाई मानसून आधारित है

7. 39 मिलियन हेक्टेयर पर भूजल और 22 मिलियन हेक्टेयर पर नहरों द्वारा सिंचाई की जाती है

8. केन्द्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार देश के 16.2 प्रतिशत हिस्से ऐसे हैं जहाँ भूजल का अतिदोहन हुआ है

9. भारत की प्रतिवर्ष भूजल पुनर्भरण क्षमता 433 बिलियन क्यूबिक मीटर है जिसमें से 398 बीसीएम इस्तेमाल के लिये उपलब्ध होता है

10. कुल इस्तेमाल के लिये उपलब्ध जल के 65 प्रतिशत का उपयोग हर वर्ष कर लिया जाता है

11. महाराष्ट्र में मात्र 4 प्रतिशत कृषि क्षेत्र पर गन्ना उत्पादन के लिये उपलब्ध 70 प्रतिशत से ज्यादा पानी का इस्तेमाल कर लिया जाता है

12. पंजाब में एक किलोग्राम चावल के उत्पादन पर 5,337 लीटर पानी खर्च होता है जबकि पश्चिम बंगाल में केवल 2605 लीटर

13. 1950 के दशक की तुलना में 2010 के दशक में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन अनाज की उपलब्धता में मात्र 160.1 ग्राम की वृद्धि हुई

14. बीसवीं सदी की शुरुआत की तुलना में देश में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में कमी आई यह 200 किलोग्राम प्रतिवर्ष से घटकर इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में 158 किलोग्राम रह गई

15. सिंचित कृषि भूमि क्षेत्र जो उदारीकरण के पूर्व 0.2 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा था उसमें इसके बाद प्रतिवर्ष -0.41 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से गिरावट दर्ज की जाने लगी।

16. उदारीकरण के पूर्व कृषि क्षेत्र का जीडीपी में औसत योगदान 2.8 प्रतिशत था वह घटकर 1.98 प्रतिशत रह गया

17. भारत में गेहूँ, चावल, दलहन, तिलहन जैसे मूल अनाजों के 41 प्रतिशत से ज्यादा हिस्से का उत्पादन दो एकड़ या उससे भी कम जोत वाले किसान करते हैं

18. 1950 से 1989 तक कुल 10 अकाल पड़े थे जबकि 2000 के बाद से अब तक देश, पाँच अकालों की मार झेल चुका है

19. मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार पर्यावरणीय ह्रास के कारण भारत में 2020 से 2049 तक अकालों की बारम्बारत में वृद्धि होगी

20. भारत 2022 तक विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश हो जाएगा और 2050 तक देश की जनसंख्या 1.7 बिलियन हो जाएगी

21. विश्व में उपलब्ध कुल स्वच्छ जल का मात्र 4 प्रतिशत भारत के खाते में आता है जबकि कृषि के अन्तर्गत आने वाली भूमि के मामले में यह दूसरे स्थान पर है

22. भारत में प्रतिव्यक्ति पानी संचयित करने की क्षमता मात्र 200 क्यूबिक मीटर है जबकि विश्व स्तर 900 क्यूबिक मीटर है

23. देश की कुल सिंचित भूमि में ड्रिप इरिगेशन का हिस्सा मात्र 3 प्रतिशत है

24. विश्व में प्रतिवर्ष 1.3 बिलियन टन अनाज बर्बाद हो जाता है

25. भारत में हर वर्ष कुल अनाज के उत्पादन का 40 प्रतिशत हिस्सा नष्ट हो जाता है

 

 

 

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संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन का हासिल

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संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन का हासिलeditorialWed, 12/19/2018 - 15:05

कॉप 24कॉप 24संयुक्त राष्ट्र का जलवायु सम्मेलन 14 दिसम्बर को पोलैंड के केटोवाइस में सम्पन्न होना था। यह सम्मेलन दो दिसम्बर से शुरू हुआ था। लेकिन, कुछ मुद्दों पर आम सहमति नहीं होने के कारण 14 दिसम्बर की देर रात तक सम्मेलन को जारी रखना पड़ा।

बताया जाता है कि सम्मेलन में उपस्थित अतिथियों को देर रात तक सम्मलेन में शामिल होना पड़ा। कहा जा रहा है कि मौके पर उपस्थित विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों के बीच पेरिस समझौते पर कुछ हद तक सहमति बनी, लेकिन बड़े मुद्दों को लेकर असहमति थी।

पता चला है कि जलवायु परिवर्तन से निबटने की फंडिंग, बचाव उपाय और सभी देशों की ईमानदार कोशिशों को लेकर असहमति बरकरार रही।

शनिवार को सम्मेलन खत्म हो गया और आखिर में यह घोषणा की गई कि पेरिस समझौते में शामिल सभी देश इस समझौते को लागू करने के लिये तैयार किये गए दिशा-निर्देशों पर काम करने को राजी हो गए।

हालांकि, विशेषज्ञों की राय में इस समझौते को लागू करने के लिये जिस रूल बुक पर सहमति बनी है, वह उतनी मजबूत नहीं है, जितनी होनी चाहिए थी इसलिये इसका असर भी वैसा नहीं होगा, जैसा अपेक्षित था।

सम्मेलन में शनिवार को 156 पन्नों का रूलबुक पेश किया गया। इससे पहले शुक्रवार को भी रूलबुक पेश किया गया था, लेकिन कई मुद्दों पर असहमति के कारण शनिवार को इसमें संशोधन कर दोबारा इसे पेश किया गया। सम्मलेन के सम्पन्न होने की घोषणा की गई।

बताया जाता है कि नए रूलबुक में कुछ अहम चीजें जोड़ी गई हैं, लेकिन द्विपीय व छोटे देश इस रूल बुक के प्रावधानों से बहुत सन्तुष्ट नजर नहीं आये, लेकिन उनके पास इसे मान लेने के सिवा और कोई विकल्प भी नहीं था।

भारत की तरफ से भी इस रूलबुक के प्रावधानों को लेकर असहमति जताई गई है। भारत ने कहा है कि पेरिस समझौते को लागू करने में बराबरी नहीं होने पर असहमति है क्योंकि बराबरी का जिक्र पेरिस समझौते के आर्टिकल 14 में है और यह इस समझौते का बुनियादी सिद्धान्त है।

रूल बुक पेश किये जाने से पहले सम्मेलन के दौरान विकासशील देशों ने अमीर देशों की भूमिका के बारे में जानना चाहा और भविष्य में जलवायु परिवर्तन की लड़ाई में फंडिंग को लेकर रुख स्पष्ट करने की बात कही।

गौरतलब हो कि इस सम्मलेन में दुनिया के करीब 200 देश हिस्सा लेते हैं। इनमें विकसित से लेकर विकासशील और अविकसित देश शामिल हैं। पूरी दुनिया को यह उम्मीद रहती है कि इस सम्मेलन से कुछ ठोस निर्णय निकलेंगे, जो जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निबटने में कारगर साबित होंगे।

लेकिन, इस बार शुरू से ही यह सम्मेलन विवादों में आ गया। सम्मेलन में आरोप लगा कि अमरीका समेत अन्य कुछ देश जो सबसे ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन करते हैं, इस सम्मलेन में व्यवधान पैदा करना चाहते हैं।

सम्मेलन में इस बात पर चिन्ता जाहिर की गई कि अमरीका समेत दूसरे देश जलवायु परिवर्तन की समस्याओं से जूझ रहे हैं, लेकिन इन देशों के जिम्मेवार व्यक्ति इसको लेकर गम्भीर नहीं हैं।

विडम्बना यह भी रही कि पोलैंड के जिस क्षेत्र में यानी केटोवाइस में यह सम्मेलन किया गया, वहाँ 90 हजार कोल वर्कर रहते हैं। यह आबादी यूरोपियन यूनियन के कुल कोल वर्करों का 50 प्रतिशत है।

पोलैंड यूरोपियन यूनियन का सख्त कोयले का सबसे बड़ा उत्पादक देश है।

दुनिया भर में ऊर्जा आधारित माध्यमों से जितने कार्बन का उत्सर्जन किया जाता है, उनमें सिर्फ कोयले से 50 फीसदी कार्बन निकलता है।

हालांकि, ऐसा नहीं है कि पोलैंड में हाल के समय में कोयले का इस्तेमाल ऊर्जा के उत्पादन के लिये होने लगा है। पोलैंड को यह विरासत में मिला है। लेकिन, विशेषज्ञों के मुताबिक पोलैंड धीरे-धीरे कोयले पर निर्भरता कम कर रहा है।

बहरहाल, गौरतलब बात है कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निबटने के लिये 190 से ज्यादा देशों ने तीन वर्ष पहले पेरिस में हुए कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज के 21वें सम्मेलन (सीओपी21) में एक समझौते को लागू करने के लिये रूल बुक तैयार करने की बात कही थी।

चूँकि सम्मेलन पेरिस में आयोजित किया गया था, इसलिये इसे पेरिस अकॉर्ड या पेरिस समझौता नाम दिया गया। इस रूल बुक को तैयार करने का मुख्य उद्देश्य पेरिस समझौते को कारगर तरीके से लागू करना था ताकि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का मुकाबला किया जा सके और तापमान को कम रखा जाये।

लेकिन, अफसोस की बात यह रही कि जो रूल बुक तैयार किया गया, उसमें उन देशों को कार्बन उत्सर्जन कम करने की बाध्यता से छूट मिल गई, जो देश सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करते थे।

दूसरी तरफ पेरिस समझौते पर आपत्ति जताते हुए अमरीका ने इसे देश विरोधी बताया था। राष्ट्रपति के चुनाव के वक्त डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि अगर वह राष्ट्रपति बनते हैं, तो पेरिस समझौते से बाहर हो जाएँगे।

चुनाव जीतने के बाद उन्होंने यही किया। पिछले साल जून में वह पेरिस समझौते से बाहर निकल गए। उन्होंने कहा कि अमरीका और उसके नागरिकों के हितों की रक्षा करने के अपने कर्तव्य को निभाते हुए वह अमरीका को पेरिस समझौते से बाहर निकाल रहे हैं।

उन्होंने आगे कहा था कि अमरीका के हितों का ध्यान रखने वाले नए समझौते के लिये वह बातचीत करेंगे। डोनाल्ट ट्रंप ने ऐसे समझौते की हिमायत की थी जो अमरीका के उद्योगों, कामगारों और टैक्स देने वाले नागरिकों के हितों का ध्यान रखे।

ट्रंप ने यह भी कहा था कि पेरिस समझौता चीन और भारत जैसे देशों को फायदा पहुँचाता है। यह समझौता अमरीका की सम्पदा को दूसरे देशों में बाँट रहा है। भारत अरबों डॉलर की विदेशी मदद लेकर समझौते में शामिल हुआ है।

पोलैंड में हुए सम्मेलन में इस नियम पर आपत्ति जताते हुए कहा गया कि दुनिया को ऐसे रूल बुक की जरूरत है, जो सभी देशों पर एक समान लागू होता हो। इस रूल बुक में गरीब देशों को रियायत देने की भी अपील की गई।

रूल बुक में जिन देशों को छूट दी गई थी, उनमें अमरीका भी शामिल है। सम्मेलन में अमरीका के प्रतिनिधि भी मौजूद थे लेकिन, उनकी तरफ से इस पर कोई टिप्पणी नहीं आई।

संयुक्त राष्ट्र में कुल 196 देश हैं। इनमें से 192 देश पेरिस समझौते पर सहमति जता चुके हैं। लेकिन, चार देश सऊदी अरब, अमरीका, कुवैत और रूस इससे सहमत नहीं हैं।

अमरीका ने तो खैर इस समझौते के अमरीका और वहाँ की आवाम के खिलाफ बताया है, लेकिन खाड़ी देशों को लगता है कि पेरिस समझौते के कारण ऊर्जा उत्पादन में वैकल्पिक साधनों का इस्तेमाल बढ़ेगा जिससे उनके देश के तेल की माँग घट जाएगी और उनका कारोबार चौपट हो जाएगा।

‘द्विपीय व छोटे देश सबसे ज्यादा संकट में’

अमरीका, सऊदी अरब, कुवैत जैसे देशों की खिलाफत के इतर पोलैंड में हुए सम्मलेन में छोटे-छोटे देशों ने अपनी चिन्ता जाहिर की और बताया कि किस तरह जलवायु परिवर्तन में नगण्य भूमिका होने के बावजूद वे अस्तित्व के गम्भीर संकट से जूझ रहे हैं और इसमें उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

दरअसल, जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा खतरा छोटे-छोटे द्विपीय देश और विकासशील देश झेल रहे हैं, जबकि कार्बन उत्सर्जन और पर्यावरण प्रदूषण में उनकी बहुत कम या यों कहें कि नहीं के बराबर भागीदारी होती है। ये देश न तो आर्थिक तौर पर मजबूत हैं और न ही सियासी तौर पर। इनके पास संसाधनों का भी घोर अभाव है। ये देश महाशक्तियों का हिस्सा भी नहीं हैं, इसलिये इनकी चिन्ताओं पर शेष देश गम्भीर भी नहीं होते हैं।

सम्मेलन में अलायंस ऑफ स्मॉल आइलैंड डेवलपिंग स्टेट्स की तरफ से मालदीव के पर्यावरण मंत्री हुसैन रशीद हसन ने अपनी बात रखी और सवाल उठाया कि पेरिस समझौते पर तमाम देश लगातार विफल क्यों हो रहे हैं।

उन्होंने कहा, ‘25 साल पहले हुए यूएनएफसीसीसी समझौते और तीन वर्ष पहले हुए ऐतिहासिक पेरिस समझौते के बावजूद हम कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने के लक्ष्य से काफी पीछे हैं और पीछे की तरफ नहीं लौटने की तरफ बढ़ रहे हैं।’

कुक आइलैंड्स के प्रधानमंत्री हेनरी पुना ने पेरिस समझौते को लागू नहीं कर पाने पर चिन्ता जाहिर करते हुए कहा, <‘मैं अपने बच्चों के भविष्य और आने वाली पीढ़ी को लेकर बहुत डरा हुआ हूँ। सभी साझेदारों ने कार्रवाई की बात तो की, लेकिन यह साफ तौर पर दिख रहा है कि मौजूदा कोशिशें पर्याप्त नहीं हैं।’

दूसरे छोटे व द्विपीय देशों ने भी कमोबेश ऐसी ही चिन्ता जाहिर की और पेरिस समझौते पर अविलम्ब काम करने की बात कही।

दो दिसम्बर से शुरू हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में कार्बन न्यूट्रैलिटी और लैंगिक समानता पर विशेष फोकस दिया गया था।

2 दिसम्बर को हालांकि रवायती कार्यक्रम ही हुए। मुख्य कार्यक्रम 3 दिसम्बर से शुरू हुआ।

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने क्या कहा

जलवायु सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने जलवायु परिवर्तन के नुकसान की तरफ ध्यान आकर्षित कराया और कहा, ‘हम संकट में हैं। हमलोग जलवायु परिवर्तन के कारण गम्भीर मुश्किल में हैं। जलवायु परिवर्तन हमसे तेज रफ्तार में दौड़ रहा है और इससे पहले कि काफी देर हो जाये हमें इसे जल्द-से-जल्द पकड़ना होगा। बहुत सारे लोगों, क्षेत्रों और यहाँ तक कि देशों के लिये अब मामला जीवन और मृत्यु का हो गया है।’

उन्होंने आगे कहा कि पेरिस समझौते के बाद यह सबसे अहम सम्मेलन है।

महासचिव ने इस मौके पर कहा, हम देख रहे हैं कि विश्व भर में जलवायु परिवर्तन का भयावह असर हो रहा है, लेकिन हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं और न ही इसे रोकने के लिये तेजी से हम आगे बढ़ रहे हैं।

एंटोनियो गुटेरेस ने इस मौके पर चार सन्देश दिये। पहला सन्देश यह कि जलवायु परिवर्तन विज्ञान लक्षित प्रतिक्रिया चाहता है। दूसरा सन्देश यह कि पेरिस समझौता कार्रवाई का ढाँचा मुहैया कराता है, अतः इसे जरूर अमलीजामा पहनाना चाहिए।

तीसरा यह कि जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिये आर्थिक निवेश हमारी साझी जिम्मेवारी है। इसलिये उस पर काम करने की जरूरत है और संकट ग्रस्त समुदाय और देश को आर्थिक मदद करनी चाहिए। चौथा सन्देश यह कि जलवायु परिवर्तन हमें ऐसा अवसर दे रहा है कि हम दुनिया को बेहतरी के लिये बदल सकते हैं।

उन्होंने मौसम में बढ़ती गर्मी के बारे में कहा कि विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार हाल के सबसे गर्म 20 वर्ष पिछले 22 वर्षों के दौरान रहे और उनमें से विगत चार वर्ष सबसे ज्यादा गर्म दर्ज किये गए। 30 हजार वर्षों में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा दर्ज की जा रही है। जलवायु परिवर्तन के इंटरगवर्नमेंटल पैनल की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2030 तक तापमान 1.5 डिग्री बढ़ जाएगा, जिसका विध्वंसक परिणाम होगा।

उन्होंने आगे कहा, ‘जो देश सबसे ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन करते हैं उनकी तरफ से पेरिस समझौते को मानते हुए उत्सर्जन कम करने की दिशा में समुचित प्रयास नहीं किये गए। हमे ज्यादा लक्ष्य और ज्यादा कार्रवाई करने की जरूरत है। अगर हम विफल होते हैं तो आर्कटिक और अंटार्कटिक इसी तरह पिघलता रहेगा। समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, प्रदूषण से ज्यादा लोगों की मौत हो जाएगी। जलसंकट बड़ी आबादी को प्रभावित करेगा और संकट बढ़ेगा।’

उन्होंने कार्बन उत्सर्जन में वर्ष 2030 तक 45 प्रतिशत की कमी लाने और 2050 तक उत्सर्जन शून्य करने की सलाह दी और रेन्यूएबल एनर्जी पर ध्यान देने की जरूरत बताई।

महासचिव ने जलवायु परिवर्तन पर गम्भीरता से काम करने के फायदों की तरफ इशारा करते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन का हवाला दिया और कहा कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को अगर पूरा कर लिया जाता है, तो इससे वायु प्रदूषण काफी कम हो जाएगा जिससे वर्ष 2030 तक हर वर्ष 10 लाख से ज्यादा लोगों की जिन्दगियाँ बचाई जा सकेंगी।

जलवायु सम्मेलन में भारत का नजरिया

भारत ने जलवायु सम्मेलन में 12 दिसम्बर को वक्तव्य रखा। भारत ने पेरिस समझौते पर सहमति जताते हुए कहा कि इस समझौते की बुनियादी नीतियों के साथ समझौता नहीं किया जा सकता है।

भारत ने यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कनवेंशन एंड क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) की नीति कॉमन बट डिफरेंसिएटेड रिस्पांसिबिलिटी एंड रेस्पेक्टिव कैपेबिलिटीज (सीबीडीआर-आरसी) के प्रावधानों को खत्म करने की खिलाफत की। भारत की तरफ से पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव एके मेहता ने वक्तव्य रखा।

सीबीडीआर-आरसी जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिये आर्थिक व अन्य पहलुओं को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग देशों के लिये अलग-अलग दायित्व की वकालत करता है। विकसित देश इस प्रावधान के खिलाफ हैं और वे चाहते हैं कि इसे खत्म कर दिया जाये।

मगर, भारत व अन्य विकासशील देश इस प्रावधान को खत्म करने के खिलाफ हैं। भारत ने अपने वक्तव्य में इस प्रावधान पर जोर देते हुए इसे खत्म नहीं करने के पक्ष में दलील दी।

इसके साथ ही भारत ने ग्लोबल वार्मिंग को कम करने की दिशा में काम करने पर भी खास जोर दिया। भारत ने आईपीसीसी की विशेष रिपोर्ट का स्वागत किया है।

भारत ने कहा, ‘हमें गरीब व हाशिए पर रह रहे समुदायों के साथ खड़ा रहना होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर इन पर ही पड़ता है। हमें बताना होगा कि हम उनका ख्याल रख रहे हैं।’

भारत ने आगे कहा, ‘यह सही वक्त है कि हम आपसी सहयोग से काम करें, ताकि कोई भी पीछे न छूट जाये। सबसे नाजुक परिस्थितियों में रह रही आबादी सबसे ज्यादा प्रभावित है क्योंकि उनके पास बदले मौसम से लड़ने के लिये संसाधन नहीं हैं।’

कार्बन उत्सर्जन कम करने पर क्या हुआ

कार्बन उत्सर्जन कम करना इस पूरे सम्मेलन का मुख्य बिन्दू था क्योंकि कार्बन जलवायु को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है।

कार्बन उत्सर्जन पर इस सम्मेलन में क्या हुआ, इस पर चर्चा करने से पहले हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि कौन-से देश सबसे ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन करते हैं।

आँकड़ों के अनुसार सबसे ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन चीन करता है। दूसरे स्थान पर यूरोपियन यूनियन और तीसरे स्थान पर अमरीका आता है।

आँकड़े बताते हैं कि वैश्विक स्तर जितने कार्बन का उत्सर्जन होता है उसमें शीर्ष 10 देशों की भागीदारी तीन-चौथाई है।

आँकड़ों के मुताबिक, चीन ने वर्ष 2014 में 12454.711 मीट्रिक टन ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन किया। 6673.4497 मीट्रिक टन के साथ अमरिकी दूसरे और 4224.5217 मीट्रिक टन के साथ यूरोपियन यूनियन तीसरे स्थान पर रहा। वहीं, भारत चौथे और रूस पाँचवे स्थान पर रहा।

पोलैंड में हुए जलवायु सम्मेलन में उपस्थित विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने कार्बन उत्सर्जन में तेजी से कमी लाने पर जोर दिया और ताकि तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखा जा सके।

चिली में होगा अगला सम्मेलन

पोलैंड में खत्म हुआ संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन अगले साल चिली में आयोजित होगा। अगले साल यानी 2019 के दिसम्बर में या 2020 के जनवरी में यह सम्मेलन हो सकता है।

चिली के प्रेसिडेंट सेबेस्टियन पिनेरा ने इस घोषणा का स्वागत किया है।

यहाँ यह भी बता दें कि 2019 का जलवायु सम्मेलन ब्राजील में होना तय था, लेकिन ब्राजील के विदेश मंत्रालय की तरफ से कहा गया कि फंडिंग की समस्या की वजह से वह अपनी उम्मीदवारी वापस लेता है।

ब्राजील के शुरुआती रुख से यह साफ हो गया था कि वह पेरिस समझौते से बाहर होना चाहता है, इसलिये वर्ष 2019 का सम्मेलन बाज्रील में आयोजित करने को लेकर सरकार की असमर्थता को पेरिस समझौते से जोड़ कर देखा जा रहा है।

हालांकि, 2009 में ब्राजील ने ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन कम करने भरोसा दिलाया था और इस दिशा में बड़े कदम उठाते हुए वृक्षों की कटाई पर पाबन्दी लगाई थी। इसका असर भी दिखने लगा था। ब्राजील में कार्बन उत्सर्जन कम हो गया था और वैश्विक स्तर पर ब्राजील का खूब प्रशंसा हुई थी।

मगर हाल के वर्षों में ब्राजील में वनों पर खूब कुल्हाड़ी चली। ब्राजील सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2017 में वनों की कटाई में 14 फीसदी का इजाफा हुआ।

ब्राजील का मौजूदा प्रशासन पेरिस समझौते को एक साजिश की तरह देखता है और यही वजह रही कि वह धीरे-धीरे इससे अपने पाँव पीछे खींच रहा है।

 

 

 

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ताप विद्युत संयंत्र से भारत में सबसे ज्यादा CO2 उत्सर्जन

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ताप विद्युत संयंत्र से भारत में सबसे ज्यादा CO2 उत्सर्जन editorialWed, 12/19/2018 - 15:33

कॉप 24कॉप 24शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण भारत में ऊर्जा की माँग में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। और इसे पूरा करने का सबसे अधिक दबाव कोयला चलित ताप विद्युत संयंत्रों पर है। यही वजह है कि ये ताप विद्युत संयंत्र देश में सबसे बड़े कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक बन गए हैं।

भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक है।इस बात की चर्चा संयुक्त अरब अमीरात (United Arab Emirates) की ईस्ट एंग्लिया (East Anglia) यूनिवर्सिटी द्वारा तैयार तैयार किये गए ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट (Global Carbon Project) नामक दस्तावेज में की गई है। इस दस्तावेज को पोलैंड के केटोवाइस में जारी सम्मेलन, यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क ऑन क्लाइमेट चेंज (United Nations Framework on Climate Change or COP24) के दौरान जारी किया गया। इस सम्मलेन का मूल उद्देश्य विश्व में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का मूल्यांकन और उन्हें सीमित करने सम्बन्धी रणनीति तैयार करना है।

इस दस्तावेज के अनुसार भारत द्वारा किये जा रहे कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में वर्ष 2018 में 2017 की तुलना में 6.3 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज किये जाने का अनुमान है।वहीं, वैश्विक स्तर पर वर्ष 2017 में 37.1 बिलियन उत्सर्जन हुआ जो अब तक के इतिहास में सबसे ज्यादा है। इसमें 2018 में 2.7 प्रतिशत वृद्धि का अनुमान है। विश्व में सबसे ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करने वाला देश चीन है। इसके बाद अमरीका का स्थान आता है।

2017 में विश्व के तीन सबसे बड़े कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक

 

देश

कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन

चीन

9.8 बिलियन टन

अमरीका

5.3 बिलियन टन

भारत

2.5 बिलियन टन

स्रोत- ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट

गौरतलब है कि वर्ष 2014 से 2016 के दौरान विश्व में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का स्तर लगभग बराबर रहा। परन्तु 2017 में अचानक इसमें 1.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। भारत में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के स्तर में तेजी से हो रही वृद्धि का सबसे बड़ा कारण कोयला चलित ताप विद्युत संयंत्रों से निकलने वाला धुआँ है। आँकड़े बताते हैं कि भारत के कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का 65 प्रतिशत भाग इन्हीं संयंत्रों से पैदा होता है।

वर्ष 2017 में भारत में ईंधन के विभिन्न साधनों द्वारा उत्सर्जन

 

ईंधन के साधन

       उत्सर्जन

कोयला

1.7 बिलियन टन

तेल

0.6 बिलियन टन

गैस

0.1 बिलियन टन  

सीमेंट

0.1 बिलियन टन

स्रोत- ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट

भारत में विद्युत उत्पादन की माँग पर नजर डालने पर मालूम होता है कि यह प्रतिवर्ष 6.67 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है जबकि उत्पादन में वृद्धि 5.78 प्रतिशत की दर से हो रही है।इन आँकड़ों से साफ है कि माँग और उत्पादन की दर में लगभग एक प्रतिशत का अन्तर है। लेकिन आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि उत्पादन के 30 प्रतिशत से ज्यादा हिस्से की बर्बादी बिजली को गन्तव्य तक पहुँचाने में ही हो जाती है। यही वजह है कि यहाँ माँग और उत्पादन वृद्धि में इतने कम अन्तराल के बावजूद भी पर्याप्त बिजली की सप्लाई नहीं हो पाती है। भारत विद्युत ऊर्जा के उत्पादन में विश्व में तीसरे स्थान पर है जबकि चीन और अमरीका क्रमशः पहले और दूसरे स्थान पर आते हैं।

भारत में बिजली उत्पादन की स्थिति

 

उत्पादन के स्रोत 

प्रतिशत

कोयला

75.90     

बड़ी पनबिजली परियोजनाएँ 

09.70  

छोटी पनबिजली परियोजनाएँ

0.40  

पवन चक्की आधारित ऊर्जा

04.00

सौर ऊर्जा

02.00    

बायोमास

01.20   

परमाणु ऊर्जा

02.90    

गैस

03.90   

वित्तीय वर्ष 2017-18 के सरकारी आँकड़े के अनुसार

हालांकि, भारत सरकार ने देश में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के बढ़ते स्तर और पेरिस समझौता द्वारा तय किये गए मानकों को गम्भीरता से लेते हुए वर्ष 2030 तक इसमें 33 से 35 प्रतिशत तक कमी लाने का लक्ष्य रखा है।इसकी पूर्ति के लिये स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन को बढ़ावा देने के साथ ही कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों पर निर्भरता को क्रमिक रूप से कम करने का फैसला लिया है। सरकार ने मार्च 2022 तक स्वच्छ ऊर्जा में 175 गीगावाट (GW) तक की वृद्धि का लक्ष्य निर्धारित किया है जिसमें 100 गीगावाट सौर, 60 गीगावाट पवन जबकि 15 गीगावाट अन्य स्रोतों से पूरा करने का लक्ष्य है। सरकार द्वारा इस क्षेत्र में सुधार लाने की प्रतिबद्धता को देखते हुए यह माना जा रहा है कि इस लक्ष्य की पूर्ति निर्धारित समय से पूर्व हो जाने की सम्भावना है।

केटोवाइस में जर्मनवॉच (Germanwatch) संस्था द्वारा कैन (CAN) और न्यूक्लाइमेट इंस्टीट्यूट (NewClimate Institute) के सहयोग तैयार किया गया क्लाइमेट चेंज परफॉरमेंस इंडेक्स 2019 (Climate Change Performance Index 2019) को 10 दिसम्बर को जारी किया गया। कुल 60 देशों के लिये जारी इस इंडेक्स के मुताबिक पिछले वर्ष के मुकाबले तीन पायदान ऊपर चढ़कर भारत 11वें स्थान पर आ गया है।वहीं, अमरीका और संयुक्त अरब अमीरात सबसे निचले पायदान पर हैं जबकि स्वीडन और मोरक्को का स्थान क्रमशः पहले एवं दूसरे नम्बर पर है। भारत की स्थिति में सुधार आने का कारण सरकार द्वारा स्वच्छ ऊर्जा के विस्तार के साथ ही ताप विद्युत संयंत्रों की उत्पादन क्षमता में क्रमबद्ध रूप से कमी लाने का लक्ष्य है।

वैज्ञानिकों का दावा है कि पिछले पाँच दशकों में भारत के औसत तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। तापमान में हुई इस वृद्धि के कारण देश के विभिन्न इलाकों में गर्म हवाओं (Heatwave) के साथ कम समय में अधिक बारिश, बाढ़ आदि का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। मिनिस्ट्री ऑफ अर्थ साइंसेज (Ministry of Earth Sciences) द्वारा जारी एक डाटा के अनुसार देश में पिछले चार सालों में गर्म हवाओं के प्रभाव से 4620 लोगों की मौत हो चुकी है।जहाँ तक बाढ़ और अत्यधिक बारिश का सवाल है केरल इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

इसी साल अक्टूबर में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (Intergovernmental Panel on Climate Change, IPCC) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार औद्योगीकरण के पूर्व की तुलना में विश्व के औसत तापमान में अब तक 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की जा चुकी है। और 2040 तक इसके 1.5 और 2065 तक 2 डिग्री सेल्सियस हो जाने का अनुमान है। तापमान में हुई वृद्धि का प्रभाव पूरे विश्व में जलवायु परिवर्तन के रूप में देखने को मिल रहा है। केटोवाइस में जारी हुए ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2019 (Global Climate Risk Index) के अनुसार 1998 से 2017 के बीच, जलवायु परिवर्तन से जुड़े प्रभावों के कारण विश्व में 5,26000 लोग अपनी जान गँवा चुके हैं वहीं, 3.47 ट्रिलियन डॉलर (क्रय शक्ति समता के अनुसार, Purchasing Power Parity) की सम्पत्ति का नुकसान हो चुका है।

ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स के अनुसार जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले देशों में प्युर्टो रिको, श्रीलंका और डोमिनिका क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे। भारत इस मामले में 14 वें स्थान पर है। आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार विश्व के औसत तापमान में वृद्धि के साथ-साथ समुद्रों का जलस्तर और तापमान दोनों ही बढ़ रहे हैं। इसके अनुसार तापमान के औसत वृद्धि 1.5 अथवा 2 तक पहुँच जाने के कारण आज की तुलना में उष्णकटिबंधीय चक्रवातों (Tropical Cyclone) की संख्या में कमी आएगी। परन्तु यह अच्छा संकेत नहीं है क्योंकि इनके प्रभाव में काफी वृद्धि होगी जिससे तबाही और भी बढ़ने की उम्मीद है। मेक्सिको की खाड़ी पर किये गए एक रिसर्च के मुताबिक जमीनी भागों से टकराने से पहले तूफान की गति समुद्री जल के अपेक्षाकृत गर्म होने के कारण तेजी से बढ़ती जाती है जिससे वे बहुत अधिक तबाही पैदा करते हैं।

तापमान में हो रही वृद्धि के कारण 2017 में समुद्री जल का तापमान अब तक के इतिहास में सबसे ज्यादा रहा है। यही वजह है कि पूरे विश्व में तूफान, बारिश और सूखा के मामले में बढ़त देखने को मिल रही है। आईपीसीसी रिपोर्ट के मुताबिक यदि तापमान में हो रही इस वृद्धि पर समय रहते अंकुश लगाने के लिये कदम नहीं उठाए गए तो पूरे विश्व को भारी वित्तीय संकट का सामना करना पड़ेगा। इस रिपोर्ट के अनुसार औसत तापमान के 1.5 या 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाने पर वैश्विक अर्थव्यवस्था को क्रमशः 54 और 69 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हो सकता है।

ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2019 के माध्यम से जारी किये गए आँकड़े के मुताबिक पिछले 20 सालों में भारत में जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित जुड़ी घटनाओं के कारण हर वर्ष 3,660 लोगों की मौत हुई है।इतना ही नहीं भारत कार्बन उत्सर्जन से होने वाले सामजिक-आर्थिक नुकसान (Social Cost of Carbon) के मामले में विश्व में पहले स्थान पर है। एक टन कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन पर भारत को 86 डॉलर का नुकसान वहन करना पड़ता है जो विश्व के कुल सोशल कॉस्ट ऑफ कार्बन का 21 प्रतिशत है।वहीं, 48 डॉलर प्रति टन के नुकसान के साथ अमरीका दूसरे स्थान पर है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार जलवायु परिवर्तन से जुड़े मौसमी घटनाक्रमों में पिछले बीस वर्षों में 151 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। वहीं, इसी दरम्यान विश्व को हुई कुल आर्थिक क्षति के 77 प्रतिशत भाग की वजह जलवायु परिवर्तन ही रहा है। भारत इस सन्दर्भ में विश्व में चौथे स्थान पर है जबकि अमरीका, चीन और जापान क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। इन आँकड़ों के विश्लेषण से साफ है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सीमित करने के लिये दुनिया के सभी देशों को मिलकर कदम उठाने होंगे।

जलवायु परिवर्तन के कारण आर्थिक हानि उठाने वाले देश

 

 देश

आर्थिक हानि बिलियन डॉलर में

अमरीका

944.8  

चीन

492.2

जापान

376.3

भारत

79.5  

 

 

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नमामि गंगे के शोर के बीच नाले में तब्दील हो रही गंगा

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नमामि गंगे के शोर के बीच नाले में तब्दील हो रही गंगाeditorialSun, 02/03/2019 - 09:58

कानपुर में गंगा नदी में गिरता नाले का पानीकानपुर में गंगा नदी में गिरता नाले का पानी (फोटो साभार - द वायर)गंगा केवल नदी नहीं है। यह भारत की संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसके बिना इस देश की कल्पना नहीं की जा सकती है।

नदियों को धरती की धमनियाँ कहा जाता है। जैसे शरीर की धमनियों से बहता रक्त जीवन के लिये जरूरी है, उसी तरह नदियों का बहना भी दुनिया के वजूद के लिये अहम है। धमनी अगर सूख जाये, तो वो अंग काम नहीं करता है। उसी तरह अगर नदी सूख जाये, तो उसके आसपास के इलाकों की सुख-समृद्धि थम जाती है।

इस लिहाज से देखें, तो कहा जा सकता है कि गंगा भारत की सबसे अहम धमनी है।

गंगा नदी के साथ तमाम पौराणिक कथाएँ नत्थी हैं जिसके चलते इसका धार्मिक महत्त्व भी बहुत है। गंगाजल पवित्रता का पर्याय माना जाता है। यहाँ का शायद ही कोई हिन्दू घर होगा, जिसके पूजा घर में गंगाजल न रखा हो। यह नदी करोड़ों लोगों की जीवनरेखा भी है।

गंगा नदी करीब 2525 किलोमीटर लम्बी है और उत्तराखण्ड में पश्चिमी हिमालय से निकलती है। उत्तराखण्ड से यह उत्तर भारत के मैदानी भूभाग से बहती हुई पश्चिम बंगाल में पहुँचती है।

पश्चिम बंगाल में यह नदी दो हिस्सों में बँट जाती है। एक हिस्सा बंगाल की खाड़ी में गिरती है और दूसरा हिस्सा भी बांग्लादेश से होती हुई बंगाल की खाड़ी में ही सागर में समा जाती है।

गौरतलब है कि भारत के दर्जनों शहर इस नदी के किनारे व आसपास बसे हुए हैं। इनमें ऋषिकेश, हरिद्वार, फार्रुखाबाद, कन्नौज, कानपुर, प्रयागराज, वाराणसी, बक्सर, पटना, भागलपुर, फरक्का, मुर्शिदाबाद, पलासी, नवद्वीप व कोलकाता प्रमुख हैं।

ऐतिहासिक और धार्मिक महत्त्व वाली यह नदी पिछले कई दशकों से अपने वजूद को बचाए रखने के लिये लड़ रही है। इन दशकों में केन्द्र में जो भी सरकारें आईं, उन्होंने अपने स्तर पर गंगा को प्रदूषण मुक्त और साफ रखने के लिये कई योजनाएँ लाईं। लेकिन, जमीनी स्तर पर उन योजनाओं का वही हश्र हुआ, जो नौकरशाही के मकड़जाल में फँसी अन्य योजनाओं का होता आया है।

इसका परिणाम ये हुआ कि गंगा दिनोंदिन प्रदूषण व गन्दगी के गर्त में धँसती चली गई। गंगा को साफ करने के लिये सबसे पहली योजना राजीव गाँधी के प्रधानमंत्री रहते शुरू की गई थी।

14 जनवरी 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने और इसके पानी को साफ बनाने के लिये गंगा एक्शन प्लान शुरू किया था। उस वक्त करोड़ों रुपए इस पर झोंके गए थे, लेकिन गंगा की सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ।

इसके बाद से लेकर अब तक कई योजनाएँ बनीं। वर्ष 2014 में भाजपा की सरकार बनने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नमामि गंगे योजना शुरू की।

लोकसभा चुनाव से पहले जब वह एक चुनावी सभा को सम्बोधित करने वाराणसी गए थे, तो उन्होंने कहा था कि गंगा माँ ने उन्हें बुलाया है।

जब उनकी सरकार बनी, तो यह उम्मीद जगी कि अब शायद गंगा को बचाने के लिये गम्भीर कोशिश की जाएगी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी नमामि गंगे परियोजना शुरू की थी। इस योजना के साढ़े चार गुजर चुके हैं, लेकिन गंगा का मैल नहीं धुला।

अभी हाल ही में सरकार की तरफ से किये गए मूल्यांकन में भी गंगा नदी की जो छवि सामने आई है, वह चिन्ताजनक है।

रिपोर्ट में बताया गया है कि कम-से-कम 66 ऐसे शहर हैं, जिनके नाले या ड्रेन सीधे गंगा नदी में खुलते हैं। यानी कि इन नालों से शहरों का गन्दा पानी सीधे गंगा में प्रवाहित हो रहा है। वहीं, इन नालों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की गई है, जो कूड़ा-करकट को गंगा में पहुँचने से रोक सके। यानी गन्दे पानी के साथ ही कूड़ा भी गंगा तक पहुँच रहा है।

गंगा नदी उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल से होकर गुजरती है।

गंगा किनारे सबसे ज्यादा शहर पश्चिम बंगाल के हैं। यहाँ के करीब-करीब 40 छोटे-बड़े शहर गंगा के किनारे बसे हुए हैं। वहीं, उत्तर प्रदेश के 21, बिहार के 18, छत्तीसगढ़ के 16 और झारखण्ड के दो शहर गंगा के किनारे बसे हुए हैं।

रिपोर्ट के अनुसार, गंगा के किनारे बसे महज 19 शहरों में ही शहर के भीतर म्युनिसिपल वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट स्थित थे। जबकि 72 शहरों में लम्बे समय से घाट के आसपास डम्प साइट बने हुए मिले।

शहरी विकास मंत्रालय की ओर से क्वालिटी काउंसिल ऑफ इण्डिया द्वारा यह मूल्यांकन कराया गया है। बताया जाता है कि पिछले साल यानी वर्ष 2018 के नवम्बर-दिसम्बर में मूल्यांकन किया गया और इसमें छह हफ्ते लग गए।

क्वालिटी काउंसिल ऑफ इण्डिया के मुताबिक, गंगा के किनारे व आसपास बसे 92 शहरों को सर्वेक्षण किया गया। इनमें से 72 शहर ऐसे मिले, जिनका कूड़ा गंगा किनारे फेंका जाता है। केवल 19 ऐसे टाउन मिले, जहाँ ठोस कचरों के प्रबन्धन के लिये प्लांट मौजूद हैं।

राज्यवार बात करें, तो रिपोर्ट में पता चला है कि पश्चिम बंगाल में 40 नाले गंगा नदी में गिरते हैं। वहीं, बिहार में 18 नाले गंगा नदी में जाते हैं। उत्तर प्रदेश में 21 जबकि उत्तराखण्ड में 16 नाले गंगा नदी गिरते हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक, गंगा के किनारे व आसपास स्थित 97 शहरों में से 92 शहरों का सर्वेक्षण किया गया। बाकी पाँच शहरों के घाट गंगा किनारे नहीं थे और दो शहरों का सर्वेक्षण खराब मौसम के कारण नहीं किया जा सका।

गंगा नदी में प्रदूषण की गम्भीर स्थिति का सबूत देने वाला यह कोई पहला सर्वेक्षण नहीं है। इससे पहले भी कई रिपोर्टों में यही बातें सामने आ चुकी हैं।

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि वर्ष 2017 में गंगा नदी में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड की मात्रा काफी बढ़ गई थी। यहीं नहीं, रिपोर्ट में यह भी पता चला था कि गंगा में डिजॉल्व्ड ऑक्सीजन की मात्रा भी घट रही है।

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की जाँच में यह भी पता चला था कि 80 में से कम-से-कम 36 जगहों पर गंगा में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड प्रति लीटर 3 मिलीग्राम से ज्यादा था। वर्ष 2013 में महज 31 जगहों पर तीन मिलीग्राम से अधिक बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड पाया गया था।

शहरों की बात की जाये, तो रुद्रप्रयाग, बुलंदशहर, अलीगढ़, प्रयागराज (इलाहाबाद), गाजीपुर, वाराणसी, डायमंड हार्बर आदि में गंगा में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड की मात्रा में इजाफा हुआ है।

आरटीआई के तहत मिली जानकारी के मुताबिक, वर्ष 2014 से जून 2018 तक गंगा की सफाई के लिये 5523 करोड़ रुपए जारी किये गए थे। इनमें से 3867 करोड़ रुपए खर्च कर दिये गए, लेकिन साफ होने की बजाय गंगा गंदी ही होती चली गई।

उल्लेखनीय है कि नमामि गंगे परियोजना केन्द्र सरकार ने 2015 में ही शुरू की थी। इसके तहत सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाकर गंगा में गिरने वाले गन्दे पानी को ट्रीट करने, गंगा में पसरी गन्दगी को हटाने और कल-कारखानों से निकलने वाले गन्दगी को ट्रीट करने आदि की योजना थी।

नमामि गंगे प्रोजेक्ट के अन्तर्गत अब तक 220 से ज्यादा प्रोजेक्ट को मंजूरी मिल चुकी है। बताया जाता है कि इनमें से 105 प्रोजेक्ट सीवेज ट्रीटमेंट से जुड़े हुए थे। इनमें से महज 67 प्रोजेक्ट ही पूरे हो सके।

एक शोध पत्र में कहा गया है कि गंगा में मौजूद तत्वों के विश्लेषण से पता चलता है कि गंगा नदी के पानी की गुणवत्ता दिनोंदिन गिरती जा रही है और इसके ऊपरी हिस्से में बहुत जगहों का पानी घर में इस्तेमाल करने लायक भी नहीं है।

हालांकि, इस रिपोर्ट में गंगा तटीय क्षेत्रों में खेत में कीटनाशक व अन्य रासायनिक तत्वों के इस्तेमाल पर रोक व जागरुकता के कारण कुछ फायदा हुआ है। शोध में पता चला है कि गंगा के पानी में कीटनाशक व अन्य रासायनिक तत्वों में गिरावट आई है, लेकिन जहरीले तत्वों में बढ़ोत्तरी हुई है। इन जहरीले तत्वों से कैंसर का खतरा हो सकता है।

विशेषज्ञों का कहना है कि ये जहरीले तत्व जानलेवा हो सकते हैं क्योंकि गंगा नदी करोड़ लोगों की जीवनरेखा है। वहीं, गंगा नदी के जहरीले तत्व मछलियों तक भी पहुँच रहे हैं और उन मछलियों का सेवन लाखों लोग करते हैं।

गंगा नदी को बचाने के लिये सरकार की तरफ से जो प्रयास किये गए हैं, वो तो जगजाहिर हैं। लेकिन, गंगा नदी को बचाने के लिये अब तक कई सन्तों ने अपनी जान जरूर दे दी है। इन्हीं में एक जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद भी थे। स्वामी सानन्द ने केन्द्र सरकार से कई बार गुजारिश की थी कि गंगा को साफ रखने के लिये ठोस कदम उठाएँ, लेकिन उनकी यह गुजारिश नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई।

उन्होंने केन्द्र सरकार को कम-से-कम तीन बार कड़े लहजे में खत लिखकर गंगा को बचाने के लिये गुहार लगाई थी। इन खतों को पढ़ते हुए पता चलता है कि गंगा को बचाने के लिये वह किस तरह की मानसिक बेचैनी का सामना कर रहे थे।

लेकिन, केन्द्र सरकार ने एक भी खत का माकूल जवाब देना मुनासिब नहीं समझा। उनके सारे खत लेटर बॉक्स या दफ्तर की धूल फाँकते रह गए।

बताया जाता है कि पहला खत उन्होंने 28 फरवरी 2018 को लिखा था जिसमें प्रधानमंत्री को 2014 में उनके द्वारा किये गए वादों को याद दिलाई गई थी।

उक्त पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव तक तो तुम (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) भी स्वयं मां गंगाजी के समझदार, लाडले और माँ के प्रति समर्पित बेटा होने की बात करते थे। पर वह चुनाव माँ के आशीर्वाद से जीतकर अब तो तुम माँ के कुछ लालची, विलासिता-प्रिय बेटे-बेटियों के समूह में फँस गए हो।’

उनके खतों के मजमून बताते हैं कि गंगा नदी को लेकर भाजपा नीत केन्द्र सरकार के रवैए से नाराज थे और इसलिये उन्होंने अपने खतों के जरिए वर्ष 2014 के वादों की याद बार-बार दिलाने की कोशिश की थी।

आखिरी खत उन्होंने पाँच अगस्त 2018 को लिखा था। इस पत्र में उन्होंने अपनी चार माँगें केन्द्र सरकार के समक्ष रखी थीं। इनमें गंगा को बचाने के लिये गंगा-महासभा द्वारा प्रस्तावित अधिनियम ड्राफ्ट 2012 को संसद में पेश कराकर इस पर चर्चा कर कानून बनाने की माँग की गई थी। यह माँग पूरी नहीं होने की सूरत में उन्होंने उक्त ड्राफ्ट की धारा 1 से धारा 9 तक को लागू करने की माँग शामिल थी।

उनके इन तीनों खतों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। इस बीच वह अपनी माँगों को लेकर अनशन पर थे। लम्बे समय तक अनशन और अन्न-जल त्याग देने के कारण पिछले साल अक्टूबर में उनका निधन हो गया। उनके निधन के इतने वक्त गुजरने के बाद भी सरकार की तरफ से कोई ठोस प्रयास होता नहीं दिख रहा है।

नदियों पर काम करने वाले मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित व नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथॉरिटी के पूर्व सदस्य राजेंद्र सिंह इन दिनों गंगा सद्भावना यात्रा पर हैं। अपनी कोलकाता यात्रा के दौरान उन्होंने गंगा की दुर्दशा को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार की जमकर आलोचना की। उन्होंने कहा कि पिछले साढ़े चार वर्षों में केन्द्र सरकार ने गंगा के लिये कुछ नहीं किया।

उन्होंने द टेलीग्राफ के साथ बातचीत में कहा, ‘प्रधानमंत्री बनने से पहले मोदी ने कहा था कि वह गंगा के पुत्र हैं। उन्होंने गंगा को पुनर्जीवन देने के लिये कई वादे किये थे और कहा था कि सरकार में आने के तीन महीने के भीतर वे सारी समस्याएँ दूर कर देंगे। हम सब उम्मीदवार थे, लेकिन उन्होंने पिछले साढ़े चार वर्षों में उन्होंने गंगा के लिये कुछ भी नहीं किया।’

उन्होंने आगे कहा कि उन्होंने गंगा के नाम पर एक मंत्रालय दिया और करोड़ों रुपए जो अधिक भ्रष्टाचार का कारण बना। इस फंड का इस्तेमाल गंगा की भलाई के लिये शायद ही किया गया हो।

यहाँ सोचने वाली बात ये है कि पिछले चार दशकों से लगातार गंगा नदी की हालत पर चिन्ता जताई जा रही है, लेकिन अब तक गंगा की हालत में अपेक्षित सुधार नहीं हो सका है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर चूक कहाँ हो रही है?

विशेषज्ञों का कहना है कि गंगा को बचाने के लिये इच्छाशक्ति की कमी है और इसी वजह से नदी की ये हालत है। अगर सरकार ठान ले कि गंगा को निर्मल, अविरल बना देना है, तो वह कर सकती है।

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पेरियार नदी में कचरा नहीं डलेगाः एनजीटी

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पेरियार नदी में कचरा नहीं डलेगाः एनजीटीRuralWaterMon, 04/22/2019 - 13:19

(पश्चिमी घाट में शिवगिरी की पहाड़ियों से निकलने वाली पेरियार नदी केरल की सबसे लम्बी नदी है। 244 किमी लम्बी पेरियार केरल की जीवनदायिनी है। पर आज प्रदूषण का रोग इस नदी को भी बीमार बना रहा है। फिलहाल पेरियार के प्रदूषण के एक मामले में एनजीटी ने कड़ा रुख अपनाया है। पेरियार नदी में अवैध रूप से गिरने वाले अस्पतालों और उद्योगों के अपशिष्ट व दूषित जल के एक मामले में एनजीटी ने केरल हाईकोर्ट के पूर्व जज आर भास्करन द्वारा लिखे गए एक पत्र को ही रिट-पेटीशन मान लिया है। और एक संयुक्त कमेटी बनाने का आदेश दिया है। यह समिति पर्यावरण को होने वाले नुकसान की तो जांच करेगी ही और उन व्यक्तियों की पहचान करेगी जो पेरियार प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं ताकि नदी को अपनी पुरानी स्थिति में लाने के लिये लगने वाले खर्च की वसूली भी उनसे की जा सके। एक बार फिर ‘पॉल्यूटर पैज़’ (यानी प्रदूषक ही पैसा दे) प्रिंसिपल का सम्मान करते हुए न्यायपालिका ने कानूनी ढाँचे को मजबूत किया है। - संपादक)

पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले कितने ही मामले रोजाना सामने आते हैं। कुछ मामले कोर्ट तक पहुँच जाते हैं तो कुछ अनदेखे कर दिये जाते हैं। कितनों की सुनवाई कोर्ट में विचाराधीन है। ज्यादातर मामले तो प्रशासन की लापरवाही और अकर्मण्यता की पोल खोलते हैं। हाल ही में ऐसा ही एक मामला सामने आया पेरियार नदी का।

पेरियार नदी केरल की जीवनरेखा मानी जाती है। केरल के एक बड़े भूभाग को सिंचित करती हुई यह नदी केरल की आत्मा बन गई है। बहुत से बड़े शहरों को पेरियार नदी पानी पिला रही है। लोगों को खाना पानी देकर जीवन देने वाली नदी अपने ही जीवन की लड़ाई लड़ रही है। इधर बीच कईं ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें महज कुछ लाभ के लिये पर्यावरणीय कानूनों और नियमों को ताक पर रख दिया गया है । धन लोभियों की भेंट चढ़ती पेरियार नदी की कहानी भी कुछ अलग नहीं है। अस्पतालों और कत्लखानों से निकलने वाला कचरा बेखौफ नदी में बहाया जा रहा है। 25 जनवरी 2019 को दिये गए अपने एक फैसले में नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) ने हाल में एक संयुक्त कमेटी का गठन किया ताकि इस बात को सुनिश्चित किया जा सके कि बायो मेडिकल औऱ ठोस कचरा प्रबंधन नियमों की अवहेलना न हो और सभी नियमों का ठीक से पालन हो। इतना ही नहीं इस कमेटी को यह भी देखना था कि इन सब गैर कानूनी कामों के चलते पर्यावरण को कितना नुकसान हुआ है। पर्यावरण को हुए नुकसान का पता लगाके नुकसान कर्ता से ही भरपाई भी की जाए यह भी इस कमेटी को ही सुनिश्चित करना था।

पेरियार नदी में कचरा डाले जाने का मामला 2015 में सामने आया। केरल उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर. भास्करन ने केरल उच्च न्यायालय को एक पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने चिंता जताई कि पेरियार नदी में बड़े पैमाने पर ठोस कचरे की डंपिंग की जा रही है। अस्पतालों और बूचड़खानों का कचरा लगातार नदी में डाला जा रहा है। इस पत्र को केरल हाईकोर्ट ने एक रिट याचिका के रूप में स्वीकार कर लिया और मामले की जाँच और सुनवाई के लिये नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) (एनजीटी), नई दिल्ली को भेज दिया।

राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने 7 सितंबर 2015 की सुनवाई में नीरी यानी राष्ट्रीय इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (NEERI), नागपुर को आदेश दिया कि वह प्रतिवादियों के आउटलेट से नमूने इकट्ठा कर उनकी जाँच करे। इन प्रतिवादियों में हिंदुस्तान इनसेक्टिसाइड्स लिमिटेड, उद्योगमण्डल एलूर, द फर्टीलाइजर्स एंड केमिकल त्रावनकोट लि., मर्केम लि., एलूर ईस्ट उद्योगमण्डल, कोचीन मिनरल्स एंड रूटाइल्स लि. एडयार, एलूवा आदि शामिल थे। जाँच में धात्विक तत्वों की मात्रा तय मानकों से ज्यादा पाई गई।

संयुक्त समिति का गठन

नीरी की जाँच रिपोर्ट को गंभीरता से लेते हुए एनजीटी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) की एक संयुक्त समिति का गठन किया। जनवरी, 2016 में प्राधिकरण ने एस समिति को निर्देश दिया कि संबंधित क्षेत्र का दौरा करें, तथा इसका निरीक्षण करें और साथ ही पानी की जाँच रिपोर्ट के विश्लेषण सहित वर्तमान स्थिति की रिपोर्ट फाइल करें।

क्या कहती है संयुक्त समिति की रिपोर्ट सीपीसीबी और एसपीसीबी की संयुक्त रिपोर्ट में कहा गया है कि इस क्षेत्र और आसपास के क्षेत्रों में 19 स्वास्थ्य केंद्र (छोटे बड़े अस्पताल और अन्य स्वास्थ्य केंद्र) चल रहे हैं जिनमें से 16 कॉमन बायोमेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फैसिलिटी (सीबीएमडब्लूटीएफ/ मैसर्स इमेज) के सदस्य हैं। सीबीएमडब्लूटीएफ का काम है बायोमेडिकल वेस्ट का ट्रीटमेंट करना, रीसाइकिल करना और उसे दोबारा उपयोग के लायक बनाना, ज्यादातर स्वास्थ्य केंद्र इसके सदस्य हैं और 2 की तो खुद की ही ट्रीटमेंट फैसिलिटी है फिर भी, बायो-मेडिकल और ठोस कचरे को वन क्षेत्र के ढलान वाले इलाकों और जल निकायों में फेंका जा रहा है। गाड़ियाँ आती है और कचरा डालकर चली जाती हैं।

रिपोर्ट में सामने आए कुछ तथ्य:

  • घरेलू ठोस कचरे को अवैध तरीके से विभिन्न स्थानों पर डाला जा रहा है, ये इलाके एनएच 49 और एसएच 44 से लगे हैं हालांकि रिहायशी नहीं हैं,

  • समिति ने पाया कि राजक्कड़ मेडिकल सेंटर जैव-चिकित्सा अपशिष्टों की अवैध डंपिंग कर रहा है। अस्पताल में समुचित जैव-चिकित्सा अपशिष्टों को संग्रह करने और उपचार की सुविधा नहीं है।

  • बायो मेडिकल वेस्ट की डंपिंग हालांकि दो ही स्थानों पर पाई गई। जिनमें से एक वलारा वाटरफॉल का क्षेत्र था।

  • केरल राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पहले ही सभी स्थानीय निकायों को पत्र लिखकर सभी स्वास्थ्य केंद्रों का ब्यौरा माँगा था साथ ही यह भी निर्धेश दिये थे कि जिन केंद्रों ने उचित सहमति पत्र प्राप्त कर रखे हैं केवल उन्हें ही लाइसेंस दिये जाएं। हालांकि अभी तक 50 फीसदी स्थानीय निकायों ने उनके क्षेत्राधिकार में आने वाले ऐसे केंद्रों का कोई ब्यौरा नहीं दिया।

  • मैसर्स सेंट जॉन्स मेडिकल सेंटर, राजक्कड सीबीएमडब्लूएफ का सदस्य होने के बावजूद भी बायोमेडिकल कचरे के साथ साथ म्युनिसिपल कचरे का भी आंशिक निपटान करता है।

  • स्थानीय निकायों  द्वारा कचरों का संग्रहण अनियमित रूप से किया जाता है।

  • यह भी देखा गया कि कचरा ज्यादातर पैकिंग में था। इसमें बूचड़खानों से निकला जानवरों का कचरा, होटलों, रिसोर्ट और अन्य व्यवसायिक प्रतिष्ठानों से आने वाला कचरा शामिल था।

  • चेक पोस्टों की मौजूदगी और निगरानी के बाद भी ठोस कचरे की भारी मात्रा में अवैध डम्पिंग की जाती रही है।

  • स्थानीय निकाय पंचायतों में आधुनिक सुविधाओं को उपलब्ध करवाने में नाकामयाब रहे। जिससे घरेलू कचरे का संग्रहण, पृथक्करण, और निपटारे में अनियमितता बरती गयी। स्थानीय प्रशासन के नकारापन की वजह से इडुक्की जिले के एक बड़े क्षेत्र में कचरे की गैरकानूनी डंपिंग को बढ़ावा मिला है।

  • राज्य सरकार और एसपीसीबी ने नगरपालिका ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2010 और जैव चिकित्सा (प्रबंधन और हैंडलिंग) नियम, 1998 के कार्यान्वयन के लिए कोई कदम नहीं उठाया। तो निजी अस्पताल भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने भी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की आवश्यक अनुमति नहीं ली और नियमों के विरुद्ध कुछ गतिविधियां करते रहे है ।

 

स्वास्थ्य विभाग और वन एवं वन्यजीव विभागों को निर्देश इस रिपोर्ट के बाद, ट्राइब्यूनल ने केरल के स्वास्थ्य विभाग और वन एवं वन्यजीव विभागों को ऐसे सभी अस्पतालों की सूची जारी करने का निर्देश दिया जो नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं और कचरे की ऐसी डंपिंग में शामिल हैं ट्राइब्यूनल ने विभाग को ऐसे अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई करने के निर्देश दिए ।

कारण बताओ नोटिस

सीपीसीबी और एसपीसीबी की एक अन्य संयुक्त निरीक्षण रिपोर्ट ने राजकड्ड मेडिकल सेंटर तथा सेंट जॉन्स मेडिकल सेंटर का जिक्र किया जो न केवल जैव-चिकित्सा कचरे का आंशिक निपटान ही कर रहे थे बल्कि म्युनिसिपल वेस्ट के साथ बायो-मेडिकल वेस्ट की अवैध डंपिंग कर रहे थे । प्राधिकरण ने इन परिस्थितियों और अवैध कामों को गंभीरता से लिया और उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किए गए। नोटिस में उनसे पूछा गया कि वो स्पष्ट करें कि उन पर "पोल्यूटर्स पेज प्रिंसिपल" को लागू क्यों नहीं किया जाए। दोनों अस्पतालों ने लगातार सुनवाई में अपने जवाब दाखिल किए जिन्हें ट्राइब्यूनल ने अपर्याप्त माना और इस तरह यह स्पष्ट कर दिया कि ये अस्पताल अवैध रूप से जैव-चिकित्सा कचरे को डंप करने के लिए उत्तरदायी हैं।

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास निगरानी के लिये लोग नहीं

अस्पतालों द्वारा नियमों की अनदेखी किये जाने को प्राधिकरण नें एसपीसीबी की नाकामी माना। पूछे जाने पर एसपीसीबी के अधिवक्ता ने जवाब में सारा दोष स्थानीय निकायों के मत्थे मढ़कर मामले से पल्ला झाड़ने की कोशिश की। एसपीसीबी और से कहा कि इस तरह की सभी डंपिंग के लिए वो उत्तरदायी नहीं है क्योंकि यह पहले स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी है जो अस्पतालों को इन अवैध गतिविधियों को करने की अनुमति दे रहे हैं। साथ ही यह भी तर्क दिया गया कि एसपीसीबी के पास जिला स्तर पर ही अपने क्षेत्र के कार्यालय हैं और उद्योगों और अन्य इकाइयों की संख्या 4000-8000 तक है, तो इतनी बड़ी संख्या की निगरानी करने लिये उसके पास लोग नहीं है ऐसे में स्थानीय निकायों को जरूरत के समय में उसकी मदद करनी चाहिये। अधिवक्ता ने कहा कि बोर्ड इस क्षेत्र के अस्पतालों और अन्य इकाइयों की लगातार निगरानी करने में असमर्थ था क्योंकि यह क्षेत्र जंगल और पहाड़ी इलाका है, लेकिन अब प्रदूषण फैलाने वालों के खिलाफ मुकदमा चलाने और प्रदूषण के लिए निवारक नुकसान की वसूली के लिए कार्रवाई की जाएगी।

बोर्ड का बयान महज उसकी नाकामी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने जब अपनी नाकामी का ठीकरा स्थानीय निकायों के सर पर फोड़ना चाहा तो ट्राइब्यूनल ने कहा कि ये सबमिशन कुछ और नहीं बल्कि बोर्ड की नाकामी का एक स्पष्ट प्रमाण है। ट्राइब्यूनल ने आगे कहा कि एक नियामक निकाय यह दलील नहीं दे सकता है कि वह इसके लिए अपने कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है क्योंकि इससे संपूर्ण प्रणाली की विफल हो सकती है। आर्यावर्त फाउंडेशन बनाम मैसर्स वापी ग्रीन एनवायरो लिमिटेड और अन्य मामले में दिये गए निर्णय का हवाला देते हुए प्राधिकरण ने कहा कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को फिर से सुधारने की जरूरत है।

पॉल्यूटर पेज़ प्रिंसिपल को तरजीह

प्राधिकरण ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में सुधार करने की जरूरत पर जोर दिया ताकि कोई भी नियमों की अनदेखी न कर सके और बोर्ड कुशलता से अपना काम कर सके। इसके लिये प्राधिकरण द्वारा सीपीसीबी, केरल एसपीसीबी और जिला मजिस्ट्रेट की एक संयुक्त समिति गठित करने का आदेश दिया। समिति को यह सुनिश्चित करना है कि सभी पर्यावरणीय कानूनों का पालन हो, विशेष रूप से नगरपालिका ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2010 और बायो मेडिकल (प्रबंधन और हैंडलिंग) नियम, 1998 का पालन किया जाए। समिति को एक महीने के भीतर एक एक्शन प्लान तैयार करने का निर्देश भी दिया गया।

इतना ही नहीं पॉल्यूटर पेज प्रिंसिपल का सम्मान करते हुए प्राधिकरण ने संयुक्त समिति को निर्देश दिया कि वह स्थिति का जायजा ले और पता लगाए कि पर्यावरण को कितना नुकसान हुआ है। पर्यावरण को हुए नुकसान के लिये प्रदूषण करने वाले अस्पताल और इकाईयां ही जिम्मेदार हैं इसलिये इसकी भरपाई भी उन्हें ही करनी होगी।

इस मामले में नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) नें एक बार फिर से यह जता दिया किया कि हवा पानी को गंदा करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा, उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। पेरियार नदी में कचरा डंपिंग मामले में एनजीटी का फैसला सभी के लिये एक नजीर है।

 

 

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बेंगलुरु के गुमनाम पानी-प्रहरी: एक मछुआरा, कुआँ खोदनेवाला और किसान

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बेंगलुरु के गुमनाम पानी-प्रहरी: एक मछुआरा, कुआँ खोदनेवाला और किसान RuralWaterMon, 04/22/2019 - 16:57

विश्वनाथ श्रीकन्तैया

दक्षिण भारत में दक्कन का एक पठारी शहर बेंगलुरु अपने सदाबहार मौसम के लिए प्रसिद्ध है। कर्नाटक राज्य की राजधानी बेंगलुरु की आबादी लगभग एक करोड़ बीस लाख है। शहर समुद्र तल से 920 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और इसके आसपास कोई बारहमासी नदी नहीं बहती है। पुराने समय से बेंगलुरु में झीलें ही लाइफलाइन रही हैं, जो आपस में जुड़ी हुई थीं, पर आज वे या तो प्रदूषित हैं, कचरे से अटी पड़ी हैं और अतिक्रमण ने उनके रास्ते और रिश्ते दोनों ही तोड़ दिए हैं। हालांकि कुछ झीलों को राज और समाज द्वारा पुनर्जीवित करने की कोशिश हो रही है। फिर भी कभी 262 झीलों की मिल्कियत वाला यह शहर आज तो पानी की सभी जरूरतों के लिए कावेरी नदी पर निर्भर हो चला है। यह नदी शहर से 95 किलोमीटर दूर है और 300 मीटर नीचे है, यानि कावेरी के बहने की जो ऊंचाई है वह है 620 मीटर। बेंगलुरु को जल देने के लिए रोजाना 300 मीटर ऊंचाई और 95 किमी लम्बाई का सफर पंपिंग द्वारा कराया जाता है। 14000 लाख लीटर पानी की प्रतिदिन की यह पंपिंग भारत के सबसे महंगे पानी में से एक है।

बरसाती पानी को इन झीलों तक ले जाने वाले रास्तों में अवरोध, शहरी ज़रूरतों जैसे सड़क आदि के लिए झीलों के आगोर के साथ छेड़छाड़, बिना किसी ट्रीटमेंट कचरे को झीलों में डालना जैसे कारणों से बेंगलुरु की झीलें मरती गई हैं। यह दुखद और भयावह है, पर इस भयावहता को कम करने के लिए इस बीच ‘शहर’ वर्षाजल संचयन, भूजल पुनर्भरण, झील के पुनर्जीवन में अपना भविष्य ढूंढ रहा है। शहर के कुछ शुद्ध और सरल लोग चुपचाप इस हालात को बदलने की कोशिश में लगे हुए हैं। आइए जानते हैं ऐसे ही कुछ गुमनाम नायकों को, एक मछुआरा, एक किसान और एक कुंआ खोदने वाले के माध्यम से बंगलुरु के पानी के हालात में बदलाव की कहानी जरूर जानिए। उनकी कहानी में बेंगलुरु के पानी की कहानी भी है, और इन गुमनाम नायकों का संघर्ष और समर-गाथा भी है।

जोआचिम नाम के मछुआरे की कहानी

बेंगलुरु शहर के उत्तरी हिस्से में 50 हेक्टेयर से भी बड़ी जक्कुर-झील है। इस झील में बरसात का पानी तो आता ही है, साथ ही एक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का पानी भी आता है जो प्रतिदिन 15 मिलियन लीटर जल को संशोधित करता है। ये संशोधित पानी आगे एक कृत्रिम-वेटलैंड द्वारा साफ किया जाता है। और फिर पानी इस झील में भर जाता है। स्थानीय मछुआरा समुदाय का इस झील में मछली-पालन का पुस्तैनी काम रहा है। हाल ही में मैं इसी समुदाय के एक मछुआरा जोआचिम से मिला। जोआचिम ने बताया कि झील को साफ रखने के काम में मैं गर्व महसूस करता हूँ। हाल ही में सरकार से हमारे समुदाय को जक्कुर-झील में मछली-पालन का पांच साल का टेंडर भी मिला है। हम लोग जक्कुर-झील से प्लास्टिक कचरा और जलकुंभी साफ भी करते रहते हैं। मत्स्य पालन विभाग से सेवानिवृत्त एक अधिकारी मुझसे मिलने नियमित आते हैं, और हमें मछली और झीलों पर सलाह देते हैं। वो उम्रदराज होने के कारण खुद तो दूर तक चलकर जा नहीं सकते लेकिन जोआचिम की बाइक पर घूमकर झील के बारे में सलाह देते रहते हैं।

जक्कुर-झील, चूंकि अब भरने के लिए पूरी तरह से बरसाती पानी की जगह ट्रीटमेंट-प्लांट से निकले पानी पर निर्भर है। इसलिए ट्रीटमेंट-प्लांट से निकला पानी जो झील में जाता है, उसकी गुणवत्ता बहुत मायने रखती है। अगर उपचारित पानी की गुणवत्ता ठीक नहीं होगी, तो मछलियाँ मर जाएंगी। उपचारित पानी की गुणवत्ता यदि ठीक रहेगी तो मछलियों के बच्चे यानि मत्स्य-बीज मरेगे नहीं। झील में हर साल मछली-पालन का काम होता है। झील में 4000 मत्स्य बीज प्रति हेक्टेयर डाला जाता है। हालांकि इसमें से कुछ मर जाती हैं, कुछ को पक्षी आदि खा जाते है। यदि पानी की गुणवत्ता खराब हुई तो छोटे बच्चे मर जाएंगे। साथ ही छोटी मछलियाँ ही पक्षी, सांप और बड़ी मछलियां का भी भोजन हैं। जलकौआ या कुछ तो एक-एक दिन में पांच किलो तक मछली खा सकते हैं। झील में तो रोजाना सैकड़ों पक्षी आते हैं। जोआचिम बताते हैं पक्षीयों के आकर्षण में काफी लोग पक्षियों को देखने या उनकी तस्वीर लेने आते हैं।

झील साफ-सुथरी और आकर्षक बनी रहे और उसकी हरियाली आबाद रहे, उसके लिए पानी को साफ रखना पड़ता है और शैवाल को नियंत्रित रखना पड़ता है। इस काम के लिए नमक, फिटकरी या चूना पत्थर पानी में डालना पड़ता है। हालांकि हमें यह सब काफी मंहगा पड़ता है। क्योंकि यह सैकड़ों किलोग्राम में होता है, यह खर्चीली प्रक्रिया है। हमें अपने घर की तरह झील को साफ रखना अच्छा लगता है, इसीलिए यह खर्च उठा लेते हैं। पर हमें हमारी साफ झील पर गर्व है।

हम पूरी कोशिश करते हैं कि पानी में घुलित ऑक्सीजन के स्तर को बनाए रखने के लिए मल-जल वाला पानी उपचारित होकर ही आए, ताकि मछलियाँ आबाद रहें। झील में पंछियों का आना-जाना बना रहे। झील मछलियों से भरी रहे। जोआचिम जैसे लोग सच्चे झील-योद्धा हैं। बिना औपचारिक पढ़ाई के भी जोआचिम झील के पारिस्थितिकी तंत्र की गहरी समझ रखते हैं। यदि बेंगलुरु की सभी 200 झीलों का इसी तरह प्रबंधन किया जाए तो बेंगलुरु शहर के पास खाने के लिए खूब सारी मछलियाँ होंगी। और उनके आस-पास बहुत सारे पक्षी होंगे और भूजल ठीक होगा। झील में भरा हुआ पानी आस-पास के भूजल को भी ठीक रखता है।

कूप-खनक शंकर की कहानी

दक्षिण भारत में एक मनु-वद्दार समुदाय है, पीढ़ियों से इस समुदाय के लोग कुआँ खोदने, गहरा करने और साफ सफाई का काम करते आए हैं। बेंगलुरु शहर में जो कुएं आज भी अस्तित्व में हैं, उनके बारे में इस समुदाय से बेहतर कोई नहीं समझ सकता, पीढ़ियों से इन लोगों की आजीविका का साधन भी यही काम रहा है। बेंगलुरु शहर में आज बहुत से कुएँ ऐसे हैं जिनका इस्तेमाल लंबे वक्त से नहीं हो रहा है, क्योंकि उनमें पानी ही नहीं है। इस समुदाय की मदद से इन कुओं को फिर से जिंदा किया जा सकता है और नए कुएं भी खोदे जा सकते हैं।

शहर की झीलों में आग-झाग देखकर मनु-वद्दार समुदाय के लोग चिंतित थे। अब समुदाय के कुछ लोग कम लागत में कुएं बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। उनका मानना था कि चालीस हजार रुपये से भी कम की लागत से बीस फुट गहरे छोटे रिचार्ज वाले कुएं बनाए जो सकते हैं, जो बारिश के पानी को धरती की पेटे में पहुचाएंगे। इससे बारिश का पानी सड़कों, गलियों में नहीं भरेगा। बारिश का पानी कुओं में जाएगा तो शहरों में जल भराव की समस्या नहीं होगी और साथ ही भूजल पुनर्भरण भी होगा। बहुत सारे मामलों मे तो देखा गया है कि अगर कुएं में पानी है तो उसे बहुत सारे अन्य कामों में इस्तेमाल कर लिया जाता है।

बेंगलुरु में भूजल संकट को देखते हुए कुएं खोदने वाले भी अब वर्षाजल संचयन की तकनीकों को अपना रहे हैं जैसे रूफटोप रेनवाटर हार्वेस्टिंग करके बरसाती पानी को कुएं में डालना, ताकि भूजल में एक्विफर भी रीचार्ज हो सकें और जल स्तर बढ़े। मनु-वद्दार समुदाय के लोगों के साथ नए पानी संरक्षण तकनीकों की जानकारी साझा की जा रही है। अब वे पारम्परिक कुओं के रख-रखाव के साथ रीचार्ज कुएं भी बना रहे हैं जिससे बरसाती पानी को भूजल में डाला जा सके। जरूरत है ऐसे लोगों को साथ में लेकर, उन्हें प्रशिक्षित करके उनके और उनके कौशल के बारे में समाज को जानकारी दी जाए। इन लोगों की आजीविका सुनिश्चित करके शहर इनकी मदद से जल सुरक्षा हासिल कर सके। इससे बारिश के पानी को सहेजकर, भूजल को रीचार्ज करके भूजल स्तर उंचा करके कुंओ को फिर से इस्तेमाल करने के लायक बना सकते हैं।

शंकर और रमेश- मन्नु-वद्दार समुदाय से आते हैं। कुएं बनाना उनका पुस्तैनी काम रहा है। ये दोनों पुराने कुओं को साफ करके उनमें वर्षाजल का पुनर्भरण करके बेंगलुरु शहर को पानीदार बनाने के लिए काम कर रहे हैं। इसके लिए उनका लक्ष्य बेंगलुरु में 10 लाख से ज्यादा रीचार्ज कुएं खोदना या तैयार करना है। इनका मानना है कि ऐसा करने से शहर में गिरने वाली बारिश का आधा पानी भी अगर इन कुओं में उतार दिया तो भूजल का एक बड़ा बैंक बन जाएगा, बाढ़ और सुखाड़ दोनों से मुक्ति होगी।

किसान राजन्ना की कहानी 

2011 के जनगणना आँकड़ों के मुताबिक बेंगलुरु शहर में पांच लाख से ज्यादा गड्ढा शौचालय और सेप्टिक टैंक हैं। इसके बाद से तो यह संख्या और भी कहीं ज्यादा बढ़ गई है। 20-25 साल में शौचालय के पिट या गड्ढे जब भरने लगते हैं, तो उनको खाली कराना पड़ता है। शौचालयों के इन गडढों से मल निकालने वाले वैक्यूम-सकिंग ट्रक को ‘हनीसकर’ कहते हैं वे इन मल के भरे हुए इन गड्ढों को खाली तो कर देते हैं लेकिन उन्हें ये नहीं पता कि मल और मूत्र को कहाँ ले जाकर डालें। वे कहीं भी किसी भी ड्रेन लाइन में जाकर मल-जल खाली कर देते हैं।

राजन्ना बताते हैं कि उन्होंने ‘हनीसकर’ ट्रकों के लोगों को अपनी 6 हेक्टेयर जमीन लीज पर दे दी है। यह जमीन शहर के बाहर है इस जमीन पर वो पपीता, केला, रागी और मुख्य रूप से घास उगाते है। घास की भी कईं किस्में उगाते हैं जैसे बरमुडा घास, मेक्सिकन घास और तमाम दूसरी किस्में भी होती हैं। 'हनीसकर्स' से लिये गए मल-जल को वे उर्वरक के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इस मल-जल को एक गड्ढे में डालकर कम्पोस्ट करके सोन-खाद बना लेते हैं। और फर्टीलाइजर की तरह इसे फसल में इस्तेमाल करते हैं। इससे घास इतनी अच्छी होती, उसका दाम भी अच्छा मिलता है। राजन्ना ने सही मायने में मल-जल को सोने में बदल लिया है। राजन्ना के खेत में एक दिन में हनीसकर के 30 ट्रक का मलजल डाला जा सकता है। लगभग बीस हजार घरों से यानि एक लाख लोगों से उपजे मलजल को एक अकेला किसान राजन्ना अपने खेत में कम्पोस्टिंग करके खाद बना रहा है।

शहर की सबसे बड़ी समस्या पानी और मलजल प्रबंधन हैं जिसका समाधान हमारे किसान, मछुआरे और कूप खनक दे सकते हैं और दे रहे हैं। ये लोग अपनी आजीविका के लिये काम करते हुए बेंगलुरु शहर को अनजाने में ही इकोलॉजिकल सुरक्षा भी प्रदान कर रहे हैं। उनके काम के स्वभाव को जानते समझते हुए, हमें उन्हें जल और मलजल प्रबंधन के काम का हिस्सा बनाने पर जोर देना होगा, और उनके पेशे को सम्मान देना होगा। इससे शहर और समाज दोनों का भला होगा।

लेखक पानी के जानकार और पर्यावरणीय समस्याओं पर काम करने वाली कंपनी वायोमे के डायरेक्टर हैं।

 

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पैड वुमेन माया विश्वकर्मा महिलाओं के लिए मिसाल

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पैड वुमेन माया विश्वकर्मा महिलाओं के लिए मिसालUrbanWaterSat, 05/04/2019 - 12:50
Source
उत्तरजन टुडे, अप्रैल 2019

मेरी नजर में एक महिला तभी सशक्त होगी जब वह शिक्षित एवं स्वस्थ हो और उसके पास रोजगार के साधन उपलब्ध हों। क्योंकि जब महिला शिक्षित होगी तो उसमें आत्मविश्वास होगा और फिर वह जीवन मे किसी भी प्रकार की परिस्थितियों का सामना करने के लिए हरदम तैयार होगो। वहीं यदि महिला सशक्त है तो फिर किसी एक दिन महिला दिवस मनाने की जरूरत ही नहीं होगी बल्कि हर दिन महिला सशक्तिकरण का होगा। यह मानना है महिला सशक्तिकरण का देशभर में एक बेहतरीन उदाहरण बन चुकी पैड वुमेन के नाम से मशहूर मध्य प्रदेश की माया विश्वकर्मा का।

सुकर्मा फाउंडेशन की संस्थापक माया विश्वकर्मासुकर्मा फाउंडेशन की संस्थापक माया विश्वकर्मा

मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के महरा गांव की माया विश्वकर्मा को हम महिला सशक्तिकरण की एक बेहतर मिसाल इसलिए कह रहे हैं क्योंकि एक छोटे से गांव और आर्थिक रूप से कमजोर परिवार से होने के बावजूद माया विश्वकर्मा ने अपनी कड़ी मेहनत और लगन के दम पर पहले खुद को सशक्त बनाया और अब वे खुद रोजगार पैदा करके गांव की अशिक्षित महिलाओं को रोजगार उपलब्ध करवा रही हैं। इतना ही नहीं महिलाओं को आर्थिक के साथ-साथ शारीरिक रुप से भी सशक्त बनाने का उन्होंने बीड़ा उठाया है।

मेरी नजर में एक महिला तभी सशक्त होगी जब वह शिक्षित एवं स्वस्थ हो और उसके पास रोजगार के साधन उपलब्ध हों। क्योंकि जब महिला शिक्षित होगी तो उसमें आत्मविश्वास होगा और फिर वह जीवन मे किसी भी प्रकार की परिस्थितियों का सामना करने के लिए हरदम तैयार होगो। वहीं यदि महिला सशक्त है तो फिर किसी एक दिन महिला दिवस मनाने की जरूरत ही नहीं होगी बल्कि हर दिन महिला सशक्तिकरण का होगा। यह मानना है महिला सशक्तिकरण का देशभर में एक बेहतरीन उदाहरण बन चुकी पैड वुमेन के नाम से मशहूर मध्य प्रदेश की माया विश्वकर्मा का।

माया अपने क्षेत्र की पहली लड़की हैं जिसने अमेरिका में जाकर पढ़ाई की औए इसके बाद क्रेरसर बायोलॉजिस्ट के तौर पर  वहां काम किया लेकिन बाद में अमेरिका में काम करने की बजाए माया ने देश में रहकर गांवों की महिलाओं के लिए मासिक धर्म स्वास्थ्य पर काम करना अधिक बेहतर समझा। देशभर में पैड वुमेन के नाम से प्रसिद्ध एवं सुकर्मा फाउंडेशन की संस्थापक माया विश्वकर्मा कहती हैं कि जब तक लड़कियां एवं महिलाएं शिक्षित एवं स्वस्थ नहीं होंगी तब तक वे सशक्त नहीं हो सकती हैं। बताया कि मासिक धर्म स्वच्छता एक ऐसा विषय है जिस पर घरों में बात नहीं होती है। शहरों में तो धीरे-धीरे जागरूकता बढ़ी है लेकिन छोटे-छोटे गांवों में स्थिति गम्भीर है। यहां बच्चियों क्या महिलाओं को यह पता नहीं होता है कि मासिक धर्म होने पर किस तरह की सावधानियां रखें। जिस कारण वे इंफेक्शन, बच्चेदानी का कैंसर जैसी कई गम्भीर बीमारियों का शिकार हो जाती हैं। बताया कि वे खुद इस तकलीफ से गुजर चुकी हैं। ऐसे में उन्होंने दूसरी महिलाओं को इस दर्द से दूर करने की ठानी। 

2008-2009 में अमेरिका से कैमिकल एन्ड बायोलॉजी से इंजीनियरिंग में पीएचडी और इससे पहले 2004 से लेकर 2008 तक एम्स दिल्ली में शोध कार्य करने वाली माया गांवों में घूम-घूमकर महिलाओं को मासिक धर्म से जुड़ी स्वच्छता के बारे में बताती हैं। पहले महिलाएं इस बारे में बात नहीं करती थी लेकिन जब उन्हें सही से समझाया गया तो वे इस विषय पर बात करने लगी। बताया कि पिछले एक साल में वह मध्य प्रदेश के 15 जिलों में करीब 15-20 हजार महिलाओं से सम्पर्क कर उनकी समस्या जान चुकी हैं। महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान अस्वच्छता के कारण होने वाली बीमारियों से बचाने के लिए उन्होंने नवंबर 2017 में नरसिंहपुर में एक सेनेटरी पैड बनाने की काम कर रही हैं। यहां पर प्रतिदिन एक हजार सेनेटरी पैड बनाए जाते हैं। 

जो महिलाएँ सेनेटरी पैड खरीदने में सक्षम नहीं होती हैं उनके लिए डोनर ढूंढे जाते हैं या फिर उन्हें सस्ते दामों पर इसे उपलब्ध करवाया जाता है। इस कार्य में अमेरिका के दोस्त उनकी सहायता करते हैं। माया का कहना है कि मासिक धर्म स्वच्छता को सरकार एवं शिक्षा विभाग को कक्षा तीसरी, चौथी या पांचवी से ही पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। जिससे धीरे-धीरे कार्टून एवं कहानियों के माध्यम से लड़के-लड़कियों दोनों को ही जानकारी दी जा सके। इसके जरिए लड़कियों को मासिक धर्म के दौरान सेनेटरी पैड के उपयोग और सावधानियां के बारे में जागरूक किया जाए। जिससे कि भविष्य में होने वाली समस्याओं से उन्हें बचाया जा सके। 

पैड वुमेन माया ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यह आग्रह किया है कि जिस प्रकार से स्वच्छता अभियान एवं विज्ञापन पर बड़ी-बड़ी धनराशि का बजट खर्च किया जा रहा है उसी प्रकार से कुछ तवज्जो सेनेटरी पैड को भी दें। क्योंकि सेनेटरी पैड कोई लग्जरी आइटम नहीं बल्कि महिलाओं की जरूरत है। उन्होंने फिल्म पैडमैन के हीरो अक्षय कुमार से भी अनुरोध किया कि उन्होंने फ़िल्म से जो कमाई की है उसका कुछ अंश इस मुहिम में खर्च करे। जबकि माया ने पुरुषों से राशन की सूची में अपने घरों की महिलाओं के लिए सेनेटरी पैड को भी शामिल करने पर जोर दिया। 
 

 

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बन्द करो गंगा पर बाँधों का निर्माण - स्वामी सानंद

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बन्द करो गंगा पर बाँधों का निर्माण - स्वामी सानंदeditorialSun, 07/01/2018 - 13:02


स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंदस्वामी ज्ञानस्वरूप सानंदसाल 2005-06 में जैसे ही उत्तराखण्ड की सभी नदियों पर बाँध बनाने की सूचना फैली वैसे वरिष्ठ भू-वैज्ञानिक प्रो. जीडी अग्रवाल अब के स्वामी सानंद ने उत्तरकाशी के केदारघाट पर तम्बू गाड़ दिया था और इन्हें पर्यावरण विरोधी करार देते हुए इनके निर्माण को बन्द करने की माँग की थी।

भारी जन समर्थन लिये अग्रवाल का यह अनशन एक माह तक चला और अन्ततोगत्वा लगभग एक दर्जन ऐसी निर्माणाधीन जलविद्युत परियोजनाएँ सरकार को बन्द करनी पड़ी। अब फिर पिछले एक सप्ताह से स्वामी सानंद हरिद्वार स्थित मातृसदन में चार सूत्री माँगों को लेकर अनशन पर बैठ गए हैं। कहा कि वे तब तक साँस नहीं लेंगे जब तक उनकी माँगों का निराकरण नहीं होगा। यही नहीं उन्होंने इस बाबत प्रधानमंत्री को भी चिट्ठी लिखी है।

बता दें कि सरकार ने गंगा और उसकी सहायक नदियों पर फिर से बाँध बनाने की कवायद शुरू कर दी है। इधर स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद का कहना है कि चुनाव के वक्त पीएम नरेंद्र मोदी ने अपने को माँ गंगा का बेटा कहकर गंगा की रक्षा करने की बात कही थी। किन्तु गंगा संरक्षण विधेयक आज तक पारित नहीं हुआ है। इससे क्षुब्ध होकर प्रो. अग्रवाल 22 जून से गंगा की रक्षा के लिये हरिद्वार में अनशन पर बैठ गए हैं।

प्रो. अग्रवाल मानते हैं कि पीएम मोदी के गंगा की रक्षा की बात कहने पर उन्हें खुशी हुई थी, किन्तु चार साल बाद भी गंगा की रक्षा करने की बजाय गंगा के स्वास्थ्य खराब करने का काम किया जा रहा है। उन्होंने पीएम को पत्र लिखकर यह माँग की है कि अलकनंदा नदी पर बनी विष्णुगाड़ पीपलकोटी बाँध, मन्दाकिनी नदी पर फाटा व्योंग, सिंगोली भटवाड़ी पर हो रहे निर्माण को बन्द किया जाये। उन्होंने बाँध और खनन के विरोध में उपवास शुरू कर दिया है और प्राण त्यागने तक इसे जारी रखने की चेतावनी भी दी है।

गौरतलब है कि, स्वामी सानंद ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र प्रेषित कर यह सवाल उठाया है कि केन्द्र सरकार ने गंगा पर बाँध निर्माण और खनन के प्रबन्धन के लिये वर्ष 2014 में बनी कमेटी द्वारा रिपोर्ट सौंप दिये जाने के बाद भी उसे सार्वजनिक क्यों नहीं किया? यह पत्र उन्होंने प्रधानमंत्री को 24 फरवरी को भेजा था लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) से कोई जवाब न मिलने पर स्वामी सानंद ने नाराजगी जताई।

करोड़ों रुपए खर्च कर चलाए जा रहे नमामि गंगे जैसी योजनाओं पर भी इन्होंने सवाल उठाया है। उनका कहना है कि सरकार और सरकारी मण्डलियाँ (संस्थाएँ) गंगा जी व पर्यावरण का जानबूझकर अहित करने में जुटी हुई हैं। उनकी माँग है कि गंगा महासभा की ओर से प्रस्तावित अधिनियम ड्रॉफ्ट 2012 पर तुरन्त संसद में चर्चा हो या फिर इस विषय पर अध्यादेश लाकर इसे तुरन्त लागू किया जाये। इसके अलावा अलकनंदा, धौलीगंगा, नंदाकिनी, पिंडर, मंदाकिनी पर निर्माणाधीन व प्रस्तावित जल विद्युत परियोजनाओं को तुरन्त निरस्त किया जाये। इसके साथ ही इन्होंने विभिन्न परियोजनाओं की बली चढ़ने वाले दुर्लभ प्रजाति के पेड़ों की कटान पर रोक लगाने और नदियों में हो रहे अवैध खनन पर त्वरित प्रतिबन्ध लगाने की भी माँग की है। उनका कहना है कि उन्हें माँ गंगा के लिये यदि इस उपवास बाबत प्राण त्यागने पड़े तो उन्हें कोई मलाल नहीं है। वे कहते हैं कि प्रधानमंत्री ने गंगा को माँ कहा है इसलिये उन्हें भी माँ की रक्षा के लिये कड़े कदम उठाने चाहिए।

आईआईटीयन्स फॉर होली गंगा का समर्थन

इधर प्रोफेसर जी डी अग्रवाल के समर्थन में देश भर के आईआईटीयन्स एकत्र हो गए हैं। उन्होंने बाकायदा आईआईटीयन्स फॉर होली गंगा नाम से संगठन का निर्माण किया है। वे भी प्रो. अग्रवाल के समर्थन में देश भर में अभियान चलाएँगे। उन्होंने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा है कि सरकार आईआईटी कंसोर्टियम की सिफारिशों को लागू करे और गंगा नदी के प्राकृतिक प्रवाह को सुनिश्चित करे। इस हेतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जल संसाधन मंत्री नितिन गडकरी को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है। उन्होंने उत्तराखण्ड में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बन रही सभी पनबिजली और सुरंग परियोजनाओं के निर्माण को तत्काल बन्द करने की गुहार भी लगाई है।

आईआईटीयन्स फॉर होली गंगा ने केन्द्र के एनडीए सरकार के चार साल के कार्यकाल के दौरान गंगा संरक्षण का काम अधूरा रहने पर असन्तोष प्रकट किया है। उन्होंने कहा कि पर्यावरण और वन मंत्रालय ने 2010 में सात भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) का एक कंसोर्टियम बनाया था। इस कंसोर्टियम को गंगा नदी बेसिन पर्यावरण प्रबन्धन योजना (जीआरबी ईएमपी) बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी। इस कंसोर्टियम में आईआईटी बॉम्बे, दिल्ली, गुवाहाटी, कानपुर, खड़गपुर, मद्रास और रुड़की के लोग शामिल थे।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की ओर से तैयार और सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट में गंगा नदी बेसिन पर्यावरण प्रबन्धन योजना (जीआरबी ईएमपी) को विकसित करने के लिये रणनीति, विभिन्न सूचनाएँ और उनके विश्लेषण के साथ सुझाव की विस्तृत चर्चा की गई है। रिपोर्ट में सबसे ज्यादा जोर गोमुख से ऋषिकेश तक ऊपरी गंगा नदी सेगमेंट के प्राकृतिक प्रवाह को सुनिश्चित करने पर दिया गया है।

आईआईटीयन्स फॉर होली गंगा के अध्यक्ष यतिन्दर पाल सिंह सूरी ने केन्द्र सरकार से आईआईटी कंसोर्टियम की रिपोर्ट को सार्वजनिक कर इसे लागू करने की माँग भी की है। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार के चार साल पूरे हो गए हैं, लेकिन उत्तराखण्ड में पवित्र गंगा नदी के संरक्षण के लिये कोई सार्थक प्रयास नहीं दिख रहा, जो बेहद दुखदायी है। यहाँ तक कि प्रस्तावित गंगा अधिनियम भी अब तक नहीं बन पाया है।

श्री सूरी ने बताया कि उत्तराखण्ड में गंगा नदी पर पनबिजली परियोजनाओं और सुरंगों के निर्माण की वजह से नदी के प्रवाह का बड़ा हिस्सा प्रभावित हो रहा है और फैलाव भी संकुचित होता जा रहा है। राजमार्ग और चारधाम यात्रा के लिये चार लेन की सड़कों का निर्माण हालात को और बिगाड़ रहा है। अब गोमुख से ऋषिकेश तक महज 294 किलोमीटर नदी का केवल छोटा हिस्सा प्राकृतिक और प्राचीन रूप में बहता है।

आईआईटीयन्स फॉर होली गंगा के कार्यकारी सचिव एस के गुप्ता ने कहा कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री नितिन गडकरी से सुप्रसिद्ध पर्यावरण वैज्ञानिक और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर के पर्यावरण विज्ञान के 86 वर्षीय पूर्व प्रोफेसर जी डी अग्रवाल (स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद) की माँग को मान लेने के लिये गुजारिश करते हैं।

आईआईटीयन्स फॉर होली गंगा के कार्यकारी सदस्य पारितोष त्यागी का कहना है कि इस क्षेत्र की विभिन्न नदियों पर मौजूदा और प्रस्तावित जल विद्युत परियोजनाओं से नदी घाटी को होने वाली क्षति अपूरणीय होगी। उन्होंने कहा कि गंगा नदी के प्राकृतिक प्रवाह पर नियंत्रण बहुमूल्य पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट करने के साथ-साथ गंगाजल को भी प्रदूषित कर रहा है।

स्वामी सानंद ने उपवास करने के पूर्व पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर कई महत्त्वपूर्ण सवाल खड़े किये हैं। उन्होंने कहा कि सन 2000-01 में टिहरी और अन्य बाँधों को लेकर मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में एक कमेटी बनी थी, वे भी उस कमेटी के सदस्य थे। तब भी उन्होंने इन बाँधों के निर्माण पर सवाल उठाया था लेकिन कमेटी ने उस पर गौर नहीं किया तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। वे कहते हैं कि वे तब से अब तक उन्हीं सवालों के साथ खड़े हैं। उनके अनुसार यदि कमेटी उनकी बात मान लेती तो उत्तराखण्ड में आज पर्यावरण का इतना विनाशकारी स्वरूप हमारे सामने नहीं होता।

वर्ष 2001 में मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में बनी कमेटी के समक्ष स्वामी सानंद द्वारा पत्र के माध्यम से उठाए गए सवालों को हम अक्षरशः प्रस्तुत कर रहे हैं।

मुरली मनोहर जोशी समिति की रिपोर्ट हिन्दू समाज के विरुद्ध एवं षडयंत्र और दण्डनीय अपराध (डॉ. गुरूदास अग्रवाल, समिति सदस्य)

(1) टिहरी बाँध के भूकम्प सम्बन्धी खतरों और गंगाजी की प्रदूषण नाशिनी क्षमता पर दुष्प्रभावों का आकलन कर बाँध निर्माण को आगे बढ़ाने या न बढ़ाने के बारे में अनुशंसा देने के लिये माननीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा अप्रैल 2001 में गठित इस समिति ने जनवरी 2002 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। उक्त रिपोर्ट की ‘सूचना का अधिकार अधिनियम’ (RTI) के अन्तर्गत प्राप्त प्रति में पेज सख्या 28, 29, 30 गायब हैं। पृष्ठ 26 पर समिति का सर्ग 7.0 ‘निष्कर्ष और अनुशंसा’ है, पृष्ठ 27 पर सर्ग 8.0 ‘आभार-प्रदर्शन’ और पृष्ठ 31 पर ‘सन्दर्भ’ (References) पृष्ठ 28, 29, 30 पर क्या था, पता नहीं। निम्न विचार और विवेचना इस अपूर्ण रिपोर्ट पर ही आधारित हैं पर पृष्ठ 27 पर ‘आभार-प्रदर्शन’ आ जाने से माना जा सकता है कि गायब पृष्ठों पर निष्कर्ष, अनुशंसा या अन्य कोई महत्त्वपूर्ण सामग्री नहीं रही होगी।

(2) गंगाजल की प्रदूषणनाशिनी क्षमता के बारे में पृष्ठ 26 पर दिये निष्कर्ष बेहद अधूरे, अर्थहीन और हिन्दू समाज के लिये ही नहीं अपितु गंगा जी के लिये भी अपमानजनक है। जैसाकि नीचे देखा जा सकता हैः


(क) पैरा 4 गंगाजल के विशिष्ट गुणों को मात्र आस्था और अप्रामाणिक के रूप में मानता है- नकारता नहीं तो स्वीकारता भी नहीं, जैसा कि पेज पर it is conceivable वाक्यांश से स्पष्ट है। निष्कर्ष के रूप में यह अर्थहीन है।


(ख) पैरा 5 में गंगाजल, विशेषतया ऋषिकेश से ऊपर के गंगाजल की ‘प्रदूषण-क्षमता’ पर गहन और विशद वैज्ञानिक अध्ययन की तात्कालिक और त्वरित अध्ययन की अनुशंसा की गई है। पर ऐसे अध्ययन की स्पष्ट रूप रेखा न दिये जाने और ऐसे अध्ययन के निर्णायक निष्कर्ष मिलने तक बाँध पर आगे का काम रोक देने की बात न देने से यह अनुशंसा निपट अधूरी है। और इसमें NEERI Proposal की बात कहकर (जो Annexure के रूप में पेज 125 से 137 में दिया गया है) तो सारा गुड़-गोबर कर दिया है। NEERI के इस प्रस्ताव में अपने पेज 3 के अन्तिम पैरा में गंगाजल की विलक्षण प्रदूषणनाशिनी क्षमता को तो स्वीकारा गया है पर इस विलक्षण क्षमता के आकलन और अध्ययन के लिये आवश्यक वैज्ञानिक समझ/सामर्थ्य और मानसिक समर्पण दोनों ही के अभाव में लगभग 50 लाख लागत का यह प्रस्ताव अपने Scope of work में और विशेषतया Work Plan में बेहद अधकचरा है। इसमें प्रदूषणनाशिनी क्षमता क्या होती है और इसका आकलन या मापन कैसे किया जाएगा इसका कोई जिक्र नहीं। यह तो एक सामान्य जल-गुणवत्ता आकलन और जैविक अध्ययन का प्रस्ताव है और समिति के उद्देश्यों के लिये अर्थहीन है। रिपोर्ट से यह भी पता नहीं चलता कि यह अध्ययन हुआ भी या नहीं और इसके परिणाम मिले बिना समिति ने इस विषय में अपनी अनुशंसा क्या और किस आधार पर की।


(ग) पैरा 7 की अन्तिम अनुशंसा जो कुछ थोड़ा सा ‘अविरल’ प्रवाह बनाए रखने के अर्थ में है उतनी ही अधूरी, अनिश्चय-भरी और अर्थहीन है जितनी पैरा 4, 5 की ऊपर विवेचित अनुशंसा हैं।


(घ) सब मिलाकर पृष्ठ 26 के निष्कर्ष पूरी तरह अधूरे और अर्थहीन हैं और अनुशंसा का सच पूछें तो कोई है ही नहीं। रिपोर्ट हिन्दू समाज की आस्था और गंगा जी के प्रति अपमानजनक भी है क्योंकि वह गंगा जी को विशिष्ट स्थान न देकर उन्हें सामान्य नदियों के समकक्ष रखना चाहती है।

(3) कमेटी की 28-04-01 की बैठक में गंगाजल की प्रदूषण-विनाशिनी क्षमता के प्रश्न पर विचार करने और इस विषय पर अपनी अनुशंसा देने के लिये एक उपसमिति गठित की गई थी। इस उपसमिति के सदस्यों की सूची तो रिपोर्ट में लगी है पर 29-04-01 को लगभग 7 घंटे तक चली इस उपसमिति के सत्र में हुई चर्चा या निष्कर्षों के बारे में कोई विवरण नहीं। सम्भवतः वे पृष्ठ हमें RTI के अन्तर्गत प्रति देते समय निकाल दिये गए या शायद सरकार को भी नहीं दिये गए (हमारी प्रति में पृष्ठ 87 के बाद पृष्ठ 93 के बीच 5 के बदले केवल 2 पृष्ठ हैं- तीन नदारद हैं)। मैं (गुरूदास अग्रवाल) इस उपसमिति का अध्यक्ष था और मैंने इसकी चर्चाओं के निष्कर्ष और अनुशंसा अपने हाथ से 30-04-01 को माननीय जोशी जी को सौंपा था - उन्हें रिपोर्ट में जाने क्यों सम्मिलित नहीं किया गया। मैं चाहुँगा कि माननीय जोशी जी मेरे हाथ से लिखे निष्कर्ष-अनुशंसा को मूल रूप में हिन्दू समाज के समक्ष प्रस्तुत कराएँ।

(4) मेरी अध्यक्षता वाले उपसमूह का निष्कर्ष और मेरी अपनी स्पष्ट अनुशंसा थी कि गंगाजल की विलक्षण प्रदूषणनाशिनी क्षमता पर गहन अध्ययन और शोध का कार्य 6 मास के भीतर पूरा करा लिया जाये और ऐसे अध्ययन के स्पष्ट और निर्णायक परिणाम मिलने तक बाँध पर आगे का कार्य स्थगित कर दिया जाये। इस अनुशंसा का 30-04-01 की बैठक में श्री माशेलकर और ठाटे ने मुखर विरोध किया और ठाटे ने यह कहते हुए कि यदि काम एक मिनट के लिये भी बन्द करने की बात हों तो वह कमेटी पर काम नहीं करेंगे और अपना त्यागपत्र समिति के अध्यक्ष जोशी को सौंप दिया। इस पर श्री माशेलकर और माननीय जोशी जी ठाटे को मनाने में लग गए पर उनकी ‘ना मानूँ ना मानूँ’ जारी रही और अन्य सदस्य बस देखते रहे। जब इस तमाशे को चलते 45 मिनट हो गए तो इससे आजिज आकर कि यदि काम बन्द होने की स्थिति में ठाटे समिति में भाग लेने को तैयार नहीं तो काम न रोके जाने की स्थिति में मैं समिति के कार्य में भाग नहीं लूँगा। (यद्यपि इससे पहले मैंने ऐसा कभी नहीं कहा था, पर यदि काम आगे चलता रहे तो समिति की चर्चा चलाते रहना क्या हिन्दू समाज को धोखा देना, भुलावे में रखना नहीं था) कहते हुए मैंने अपना हाथ से लिखा तीन लाइन का सशर्त त्यागपत्र माननीय जोशी जी को सौंप दिया। जोशी जी का (और इस सारे तमाशे का) मन्तव्य स्पष्ट हो गया, जब मेरा त्यागपत्र हाथ में आते ही जोशी जी ने ‘अरे मुझे तो संसद की बैठक में जाना है’कहते हुए मीटिंग समाप्त कर बाहर चले गए उसके बाद मुझे उस त्यागपत्र की स्वीकृति/अस्वीकृति की कोई सूचना न मिलने और जोशी-माशेलकर-ठाटे तिकड़ी का खेल और अन्य सभी सदस्यों की असहायता देख लेने के बाद, उसके बाद की बैठकों में मेरे जाने का तो प्रश्न था ही नहीं। जहाँ तक मुझे ज्ञात हैं, समिति की ड्रॉफ्ट या अन्तिम रिपोर्ट मुझे दिखाने, उन पर मेरी राय या हस्ताक्षर लेने का कोई प्रयास नहीं किया गया (माशेलकर जैसे गंगा-विरोधी के होते, ऐसा भला होता भी क्यों कर!)। समिति की उपलब्ध रिपोर्ट न 30-04-2001 की बैठक में हुए इस तमाशे का जिक्र करती है न मेरे त्यागपत्र का जो स्वयं उन्होंने अपने हाथ में पकड़ा था। या तो वे इस सब का सत्य हिन्दू समाज के सामने प्रत्यक्ष रखें या हाथ में गंगा जल लेकर, गंगा जी की सौगन्ध खाकर मेरे त्याग पत्र की बात नकारें।

(4) यदि श्री दिलीप बिस्वास, डॉ. आर. एन. सिंह, और डॉ. यू. के. चौधरी को छोड़ दिया जाये जो विषय के जानकार होते हुए भी अन्ततः डरपोक सरकारी कर्मचारी थे जिनके लिये माँ गंगा और हिन्दू समाज के हितों से कहीं पहले उनके अपने स्वार्थ (Career) आते थे, तो पूरी समिति में जल गुणवत्ता और गंगाजल की प्रदूषणनाशिनी क्षमता की बात समझने वाले केवल दो ही सदस्य थे - मैं और प्रोफेसर शिवा जी राव। हम दोनों के हस्ताक्षर रहित (और प्रो. शिवा जी राव की तो स्पष्ट असहमति लिखित में होते हुए) यह रिपोर्ट कैसी होगी आप स्वयं समझ सकते हैं।

(5) यह रिपोर्ट और पूरा काण्ड, सर्व श्री जोशी जी/ माशेलकर/ ठाटे की तिकड़ी का माँ गंगा और हिन्दू समाज के विरूद्ध षडयंत्र और दण्डनीय अपराध है।

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गंगापुत्र ने प्राण की आहूति का लिया संकल्प

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बहुत अच्छा, मुझे लगता है कि मुझे वह ज्ञान मिला जो मुझे चाहिए था। मैं आपकी पोस्ट में कुछ जानकारी देख और देखूंगा। धन्यवाद     fanfiction

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नर्मदा के पानी पर 'डाका'

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नर्मदा के पानी पर 'डाका' UrbanWaterFri, 05/03/2019 - 16:06

शिप्रा नदी, उज्जैन  शिप्रा नदी, उज्जैन

 

गर्मियों में कई जगह नदी का कुछ हिस्सा सूख जाने की ख़बरें भी मिलने लगी है लेकिन इन सबके बावजूद सरकारों ने अभी तक इसके पानी के अंधाधुंध इस्तेमाल पर गंभीरता नहीं दिखाई है, इसके विपरीत मध्य प्रदेश में कहीं भी जल संकट की स्थिति से निपटने के लिए नर्मदा को ही एकमेव विकल्प मान लिया गया है। परम्परागत तरीकों तथा पीढ़ियों से साथ दे रहे जल स्रोतों को उपेक्षित कर नर्मदा का पानी खैरात की तरह दूर-दूर बाँटा जा रहा है। ऐसे में बार-बार हर पर्व स्नान से पहले नर्मदा का कीमती पानी क्षिप्रा नदी में प्रवाहित करना और इसकी भी चोरी होना पानी के प्रति हमारे समाज और प्रशासन की घोर लापरवाही साबित करता है। हम बीते 25 सालों के जल संकट से भी कोई सबक नहीं ले पा रहे हैं।

मध्यप्रदेश के लिए नर्मदा नदी के पानी का महत्त्व को सभी जानते-पहचानते हैं, लेकिन बीते कुछ महीनों से नर्मदा के बेशकीमती पानी पर डाका डाला जा रहा है। साल दर साल सूखे का सामना करने वाले इस प्रदेश में पानी की बर्बादी का आलम बहुत दुखद है। यह ठीक उसी तरह है, जैसे कोई अपनी पूर्वजों की विरासत रखे हुए हो और किसी रात कोई आकर उससे सब कुछ छीन ले जाए।

यहाँ बात नर्मदा पर बनाए बाँध, प्रदूषण या शहरों को पानी दिए जाने के नाम पर नदी को उलीचने भर की नहीं है। इससे एक कदम आगे बढ़कर नर्मदा क्षिप्रा लिंक से जो पानी नर्मदा से दूर इंदौर तक पाइपलाइन में लाकर क्षिप्रा नदी में प्रवाहित किया जा रहा है, उसकी चोरी की बात है। आज भी इसका हजारों गैलन पानी हर दिन सैकड़ों मोटर पम्प लगाकर चोरी हो रहा है। अब तक इस पर खासी धनराशि भी खर्च हो चुकी है लेकिन नर्मदा का पानी क्षिप्रा में छोड़े जाने के बाद करीब-करीब हर बार गंतव्य तक पहुँचने से पहले ही इस पानी का एक बड़ा हिस्सा क्षिप्रा नदी के आसपास के खेत मालिकों द्वारा पम्प से खींच लिया जाता है।

गौतलब है कि आज से पाँच साल पहले 16 फरवरी 2014 को मध्यप्रदेश सरकार ने उज्जैन में आयोजित होने वाले सिंहस्थ की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर 432 करोड़ की लागत से एक महती परियोजना क्रियान्वित की थी। इसमें करीब सौ किमी दूर नर्मदा नदी का पानी पाइपलाइन से होते हुए क्षिप्रा के उदगम स्थल उज्जैनी तक लाया गया और यहाँ से नदी में छोड़ते हुए इसे उज्जैन पहुँचाया गया। क्षिप्रा नदी सूख जाने से तीन साल पहले सिंहस्थ का स्नान इसी पानी से कराया गया था। इसके पानी का इस्तेमाल बाकी दिनों में पेयजल, उद्योगों तथा किसानों को देने की बात कही गई थी लेकिन इसका अब तक ज्यादातर उपयोग उज्जैन में पर्व स्नान पर आयोजित भीड़ के स्नान तक ही रहा है। हालाँकि इससे देवास शहर को पीने का पानी तथा यहाँ स्थापित उद्योगों को पानी देने का निर्णय भी हो चुका है।

उपलब्ध आँकड़ों के मुताबिक अब तक बीते पाँच सालों में नर्मदा के बहाव क्षेत्र से 90 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी उलीच कर क्षिप्रा नदी में प्रवाहित किया गया है। इस पर 200 करोड़ रूपये की भारी भरकम सरकारी धन राशि भी खर्च हो चुकी है। इस महत्त्वाकांक्षी योजना के पीछे उद्देश्य यह था कि नर्मदा के पानी से क्षिप्रा को सदानीरा रूप दिया जा सकेगा लेकिन यह उद्देश्य अपने प्रारम्भिक चरण से लेकर आज तक कभी मूर्त रूप नहीं ले सका। हमेशा ही पर्व स्नान या मेले के मौके पर पानी छोड़ा गया और हर बार गैरकानूनी तरीके से इसका पानी चोरी होता रहा। इंदौर, देवास और उज्जैन जिले के क्षेत्र में आने वाले नदी किनारे के सैकड़ों किसान अपने खेतों में सिंचाई तथा अन्य कार्यों के लिए सीधे मोटर पम्प के ज़रिये नदी से पानी खींच लेते हैं। इस बात की जानकारी होने के बाद भी आज तक स्थानीय प्रशासन ने कभी इस पर कोई बड़ी कार्यवाही नहीं की।

हर पर्व स्नान के बाद पानी चोरी हो जाता है और अगले आयोजन के लिए फिर नर्मदा का पानी बुलवाना पड़ता है। साल में करीब पंद्रह ऐसे पर्व स्नान के अवसर आते हैं जब धार्मिक महत्त्व होने के कारण आसपास के अंचल से बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहाँ जुटते हैं और क्षिप्रा नदी में डूबकी लगाने के बाद मन्दिरों में पूजा-अर्चना करते हैं। पूरे वर्षभर शनिश्चरी या सोमवती अमावस्या, संक्रांति, पूर्णिमा आदि ऐसे कई प्रसंग आते रहते हैं। शास्त्रों तथा स्थानीय लोक मान्यताओं में सदानीरा रहने वाली क्षिप्रा नदी का बड़ा महत्त्व है। इसमें पर्व प्रसंग पर स्नान करने की परम्परा रही है लेकिन बीते कुछ सालों से नदी तन्त्र के कमजोर हो जाने तथा अन्य पर्यावरणीय बदलावों के चलते सदियों से सदानीरा रहें वाली क्षिप्रा भी अब ठंड का मौसम खत्म होने से पहले ही सूखने लगती है।

पानी को नर्मदा से क्षिप्रा तक पहुँचाने की कवायद बहुत लंबी और श्रमसाध्य होने के साथ खर्चीली भी है। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अनुसार यह पानी करीब 22 रूपये 60 पैसे प्रति हजार लीटर के मान से खर्च होता है, जो सामान्य से बहुत ज़्यादा खर्च है। नर्मदा नदी का अब तक क्षिप्रा में छोड़ा गया छह एमसीएफटी पानी हर दिन की खपत वाले किसी शहर के लिए इससे 532 दिनों तक पेयजल की आपूर्ति की जा सकती थी।

गौरतलब यह भी है कि प्रदेश के एक बड़े हिसे से गुजरने वाली नर्मदा नदी पर सरकार ने बीते सालों में कई बड़े छोटे बाँध बना दिए हैं। इससे नदी का प्रवाह प्रभावित हुए है। दूसरी तरफ नर्मदा के पानी का बड़ा हिस्सा विभिन्न शहरों और कस्बों-गाँवों की प्यास बुझाने के नाम पर तो कहीं उद्योग बचाने के नाम पर करोड़ों की लागत से पहुँचाया जा रहा है। नदी के पानी की अंधाधुंध खपत, प्रदूषण की मार और इन बाँधों से बाधित होने के बाद भी नर्मदा आज भी सदानीरा बनी हुई है। हालाँकि अब वह पहले की तरह वेगवती और प्रचुर जल राशि वाली नहीं रह गई है।

गर्मियों में कई जगह नदी का कुछ हिस्सा सूख जाने की ख़बरें भी मिलने लगी है लेकिन इन सबके बावजूद सरकारों ने अभी तक इसके पानी के अंधाधुंध इस्तेमाल पर गंभीरता नहीं दिखाई है, इसके विपरीत मध्य प्रदेश में कहीं भी जल संकट की स्थिति से निपटने के लिए नर्मदा को ही एकमेव विकल्प मान लिया गया है। परम्परागत तरीकों तथा पीढ़ियों से साथ दे रहे जल स्रोतों को उपेक्षित कर नर्मदा का पानी खैरात की तरह दूर-दूर बाँटा जा रहा है। ऐसे में बार-बार हर पर्व स्नान से पहले नर्मदा का कीमती पानी क्षिप्रा नदी में प्रवाहित करना और इसकी भी चोरी होना पानी के प्रति हमारे समाज और प्रशासन की घोर लापरवाही साबित करता है। हम बीते 25 सालों के जल संकट से भी कोई सबक नहीं ले पा रहे हैं।

नदियों से पानी चोरी पर प्रशासनिक कार्यवाही कि बात करें तो बीते साल अक्टूबर में ही उज्जैन जिला कलेक्टर मनीष सिंह ने क्षिप्रा और गंभीर नदियों के पानी को सिंचाई तथा औद्योगिक प्रयोजन के लिए प्रतिबंधित कर पेयजल परिरक्षण अधिनियम के तहत इसे सिर्फ़ घरेलू प्रयोजन या पेयजल के लिए उपयोग किए जाने के आदेश जारी कर दिए थे। इसका उल्लंघन करने पर दो साल का कारावास या दो हजार रूपये का जुर्माना या दोनों सजाओं से दंडित किए जाने का प्रावधान है। इसमें उल्लेख है कि नदियों में पानी रहने से आसपास के कई कुएँ, बावड़ी और नलकूप अदि रिचार्ज होते हैं। अगर इनमें पानी कम हुआ तो ये भी सूख जाएँगे। लेकिन ये आदेश महज काग़ज़ों में ही दब कर रह गए. जबकि पानी चोरी रोकने पर ही पीएचई हर साल करीब 20 लाख रूपये खर्च करता है। बताया जाता है कि इस बार यह खर्च और अधिक बढ़ने की संभावना है। इससे वाहन के जरिये नदी के तटों की लगातार पेट्रोलिंग की जाती है। 18 कर्मचारियों के दो दल बनाए गए हैं।

आश्चर्य की बात यह है कि इसी आदेश पर गंभीर नदी के किनारों से उज्जैन नगर निगम के हस्तक्षेप से पीएचई (लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी) के दल ने नवंबर महीने में ही महज 20 दिनों के निरीक्षण में नदी से अवैध रूप से पानी खींचते 17 मोटर पम्प को जब्त कर लिया लेकिन क्षिप्रा नदी में ऐसी कोई कार्यवाही नहीं हुई. इससे क्षिप्रा में पानी लगभग खत्म हो गया। जनवरी में जब शनिश्चरी अमावस्या के पर्व स्नान के लिए भी पानी की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी और दूर-दूर से आए श्रद्धालुओं को कीचड़ वाले पानी के छींटे मरकर नहाना पड़ा। मीडिया में मामला उछला तो नई नवेली कांग्रेस सरकार ने लापरवाही के आरोप में कलेक्टर और कमिश्नर को हटा दिया। अब अधिकारी हर पर्व स्नान से पहले नर्मदा का पानी क्षिप्रा में छोड़े जाने का पूरा ध्यान रखते हैं।

मज़े की बात तो यह भी है कि प्रशासन इन मोटर पम्पों की जब्ती तो कर लेता है लेकिन किसी के ख़िलाफ़ दंडात्मक कार्यवाही नहीं की जाती। बीते दस सालों में पीएचई ने 425 मोटर पम्प जब्त किए लेकिन दंड कार्यवाही के डर से एक भी किसान इन्हें लेने नहीं आया। कमोबेश यही स्थिति देवास और इंदौर जिले में भी है।

कड़ी कार्यवाही नहीं होने से अपनी फसल को सूखने से बचाने के लिए फिक्रमंद किसान क्षिप्रा नदी में छोड़े गए नर्मदा के पानी को मोटर पम्प लगाकर उलीचते रहते हैं। क्षिप्रा नदी के किनारे बसे गाँवों के कुछ किसानों से हमने इस पर बात की तो उन्होंने बताया कि उनके सामने नदी से पानी लेना उनकी मज़बूरी है। वे अपनी आँखों के सामने अपनी फसल को सूखते हुए नहीं देख पाते और नहीं चाहते हुए भी दंड के भय के बाद भी मोटर पम्प लगाकर खेतों को पानी देते हैं।

वे बताते हैं कि कुछ सालों पहले तक नदी पूरे साल बहती रहती थी और उसके किनारे हमारे खेत होने से हमें कभी पानी की चिंता नहीं रही लेकिन इधर के कुछ सालों में जब से ठंड के बाद क्षिप्रा नदी सूखने लगी और देवास में इसका पानी रोकने के लिए बाँध बना दिया, लगभग तभी से हमारे जल स्रोत भी बैठने लगे हैं। जमीनी जल स्तर भी यहाँ लगातार नीचे खिसकता जा रहा है। नदी हमारे गाँव से होकर सदियों से बहती रही है और इसके पानी पर हमारा भी अधिकार है। हम कोई अपराध नहीं कर रहे। हमें भी इससे पानी मिलना चाहिए.

कांग्रेस ने दिसम्बर में विधानसभा चुनाव से पहले क्षिप्रा नदी और उसके पानी को चुनावी मुद्दा बनाया था। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने चुनावी सभा में नर्मदा क्षिप्रा लिंक योजना पर तंज कसते हुए क्षिप्रा का मटमैला गंदा पानी एक बोतल में भरकर मंच से दिखाया था कि यह है जनता की गाढ़ी कमाई के साढ़े चार सौ करोड़ का पानी। कांग्रेस के वचन पत्र में भी क्षिप्रा न्यास बनाने का वादा किया गया है लेकिन सरकार बनने के तीन महीने बीतने के बाद अब तक इस मामले में कोई ठोस रोडमेप नज़र नहीं आता।

पानी पर पड़ रहे इस 'डाके' को रोकने के लिए अब सरकार कवायद में जुटी है। क्षिप्रा के उदगम स्थल इंदौर जिले के उज्जैनी से देवास होते हुए उज्जैन तक नर्मदा का पानी अब पाइपलाइन से भेजे जाने की तैयारी की जा रही है। इसके लिए139 करोड़ की लागत से 66.17 किमी लंबी 1325 मिमी व्यास की पाइपलाइन बिछाई जा रही है। इसी तरह गंभीर नदी के रास्ते भी उज्जैन तक नर्मदा का पानी लाने के प्रयास तेज़ हो गए हैं। इंदौर, उज्जैन और खरगोन जिले के करीब डेढ़ सौ गाँवों को पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिए 2015 में नर्मदा मालवा-गंभीर लिंक परियोजना 1842 करोड़ की लागत से काम शुरू किया गया था। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण एनवीडीए ने हैदराबाद की एक कंपनी नवयुग को यह काम सौंपा है और इसे इस साल के अंत तक पूरा कर लेने की सम्भावना है। काम में रेलवे से अनुमति नहीं मिलने और कुछ किसानों की निजी जमीन का पर्याप्त मुआवजा नहीं दिए जाने से काम फिलहाल अटका पड़ा है।

पाँच साल पहले दो नदियों के पानी का सरकार ने संगम करवाया था तब पर्यावरण तथा पानी के मुद्दे पर एक बड़ी बहस भी देशभर में शुरू हुई थी कि क्या इस तरह एक नदी का पानी दूसरी नदी में डालकर हम उन्हें सदानीरा बना सकते हैं। तब इसके पक्ष में बड़े-बड़े दावे किए गए थे और इसके फायदे गिनाकर तेज़ी से रेगिस्तान में तब्दील होते जा रहे मालवा इलाके को हरियाली और खुशहाली का सपना दिखाया गया था। इसमें यह सोच शामिल ही नहीं थी कि सदियों से अपनी प्राकृतिक संपदा के लिए पहचाने जाने वाले मालवा इलाके को आखिर बूँद-बूँद पानी के लिए मोहताज़ क्यों हो जाना पड़ा और इसके पीछे क्या कारण रहे, उनका प्रायश्चित करने, स्थाई विकल्प ढूंढने और समाज को पानी बचाने के गुर सिखाने की जगह एक भरी-पूरी नदी का पानी सूखी नदी में डालने का फैसला लिया गया जो बमुश्किल पाँच साल में ही अव्यवहारिक लगने लगा है।

तकनीकी तौर पर ही नहीं, भावनात्मक तौर पर भी नदियाँ अपने अंचल से गहरे तक जुडी हैं। ऐसी स्थिति में दूसरी नदी का पानी लाने के बजाए प्रयास यही होना चाहिए कि हम सूखती हुई नदियों के नदी तन्त्र को मज़बूत बनाएँ, उन्हें प्रदूषित न होने दें, उनकी सहायक नदियों, नालों और पानी के प्राकृतिक प्रवाह क्षेत्र का पूरा सम्मान करें तो वही नदी अगले कुछ सालों में फिर से सदानीरा रूप ले सकती है। हालाँकि यह काम अकेले सरकार के दम पर कभी पूरा नहीं हो सकता, इसके लिए अंचल के जिंदा समाज की भूमिका सबसे बड़ी है। जब तक समाज खुद नहीं उठ खड़ा होगा तब तक नदियों को सूखने से कोई नहीं बचा सकता।

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पानी की समस्या से जूझ रहे बेंगलुरु की झीलों को बचाने उतरे आंनद मल्लिगावद !

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पानी की समस्या से जूझ रहे बेंगलुरु की झीलों को बचाने उतरे आंनद मल्लिगावद !UrbanWaterWed, 04/24/2019 - 13:24

वाबसंद्रा झील: पुनरोद्धार के बाद की तस्वीरवाबसंद्रा झील: पुनरोद्धार के बाद की तस्वीर

सिल्वर सिटी बेंगलुरु पानी की किल्लत से बेहाल हो चुका है। एक करोड़ से अधिक आबादी वाला शहर बेंगलुरु साफ़ पानी के भारी संकट से जूझ रहा है। शहर को पानी की आपूर्ति का मुख्य स्रोत  कावेरी नदी और झीलें ही रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि यहाँ की झीलों पर अतिक्रमण की बहुलता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक कर्नाटक राज्य में 14198 जल-निकायों को प्रदूषित तथा अतिक्रमण से पटा हुआ पाया गया है। यह कितनी बड़ी समस्या है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बेंगलुरु जिसे कभी ‘झीलों का शहर' की उपाधि मिली थी, वहां भूजल का स्तर इस कदर नीचे हो गया है कि शहर में पानी का संकट विकराल हो चुका है। शहर के आर के पूरम, व्हाइटफील्ड, आर टी नगर, और जे पी नगर में बोरवेल लगभग 1500 फीट की गहराई पर है।

पानी की ऐसी किल्लत के बीच यह आवश्यकता है कि स्थानीय नागरिकों द्वारा झीलों को पुनर्जीवित करने की पहल की जानी चाहिए। तब जाकर ही क्षेत्र में पानी की समस्या से निजात मिल सकेगी।

बेंगलूरू के आनंद मल्लिगावद सूखती झीलों के लिये जैसे मसीहा बन गए। आनंद कॉर्पोरेट की नौकरी छोड़ शहर से पानी की समस्या खत्म करने के लिए कूद पड़ते है। उन्होंने बेंगलुरु में ‘इंडिया रीवर्स कलेक्टिव’ नाम से अभियान  चलाया। जो झीलों, तालाबों और नदियों को बचाने के लिए काम करता है। आनंद वह व्यक्ति हैं जो बेझिझक झीलों और पर्यावरण के बारे में बात कर सकते हैं। उनका मानना है कि यदि सभी लोग हमारी इस मुहिम या ऐसे और अभियानों से जुड़कर काम करें तो हम शहर और पर्यावरण को बड़े स्तर पर प्रदूषित होने से बचा सकते हैं। मुख्यतः वह ऐसी झीलों को बचाने के अभियान पर है जो लगभग मरणासन्न हालत में है या अपने अस्तित्व को बचाने की बाट जोह रही हैं। ऐसी झीलों की तलाश में वे शहर और शहर के आस-पास यात्रा करते हैं, ताकि उन झीलों को एक नया जीवन दिया जा सके।

आनंद को देश-दुनिया में सुर्खियाँ तब मिली जब इन्होंने अपनी कॉर्पोरेट नौकरी के एक प्रोजेक्ट के दौरान एक झील पर काम कर रहे थे। इस प्रोजेक्ट की सफलता ने आनंद को पर्यावरण प्रेमी बना दिया। उनका दिल अब नौकरी में बंधकर काम करने में नहीं लग रहा था। उन्होंने स्वतंत्र रूप से पर्यावरण और समाज के लिये कुछ करने का मन बना लिया। बस फिर क्या था नौकरी से इस्तीफा दिया और चल पड़े झीलों को बचाने। फिलहाल इनका लक्ष्य 2025 तक ऐसी 45 झीलों के पुनर्निर्माण और कायाकल्प करने का है। इस कड़ी में उनका पहला लक्ष्य वाबसांद्रा झील था।

वाबसांद्रा झील की 4 एकड़ जमीन सूख चुकी थी 

कायाकल्प से पूर्व वाबसंद्रा झील की तस्वीरकायाकल्प से पूर्व वाबसंद्रा झील की तस्वीर

वाबसांद्रा झील बेंगलुरु में स्थित है। यह झील समतल सतह पर स्थित नहीं है, यह ऊँची-नीची सतहों पर करीब 10 एकड़  में फैली हुई है। शुरुआत में टीम को समझने में मुश्किलें आई कि वे कैसे इस प्रोजेक्ट को अंजाम दे। क्योंकि झील के चारो तरफ जंगली घास और गाद फैले हुए थे। झील की लगभग 4 एकड़ जमीन सूखी पड़ चुकी थी। जिसमे से 2 एकड़ जमीन को पहले खोदकर साफ़ किया गया और उसमे जलीय-जीव के साथ फ़िल्टर किया हुआ पानी भरा गया। झील की सफाई में यह ख़ास तौर पर ध्यान दिया गया कि पानी की बर्बादी न हो। सफाई की प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद झील के चारों ओर एक अवरोध का निर्माण शुरू किया गया। जिसमे वहां के स्थानीय लोगों ने भी साथ दिया और उनके साथ 8 से 30 फीट तक की गहराई को बढ़ाते हुए झील के चारों ओर 2.5 किमी के क्षेत्र में इसे फैलाया। यह भी सुनिश्चित किया कि इन सभी प्रक्रिया में मिट्टी का क्षरण नहीं हो। इसके बाद प्रवासी पक्षियों को आकर्षित करने के लिए हजारों देशी औषधीय पौधों, फलों और फूलों के साथ झील पर एक द्वीप की स्थापना की गई। इसके अलावा 1000 पौधे, जिनमें से 600 पौधे अलग-अलग किस्म के 20 प्रजातियों के फल थे, झील के चारों ओर लगाया गया। इस तरह टीम ने 2 से 2.5 एकड़ अतिक्रमित भूमि को मुक्त करने और उसे झील परिसर में पुनर्स्थापित करने में कामयाबी हासिल की।

वाबसंद्रा झील की तस्वीरवाबसंद्रा झील की तस्वीर

झील का पुनर्निर्माण हो जाने से अन्य झीलों को पानी आसानी से मिल सकेगी

वाबसांद्रा झील की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है कि इसके जल प्रवाह से अन्य झीलों को भी अपना जल-प्रवाह बनाए रख सकने में मदद मिलती है। इस झील की ऊपरी धारा होने के नाते इस झील को बहाल करने से यह सुनिश्चित हो गया कि वाबसांद्रा का पानी अन्य झीलों की यात्रा कर सकता है। बेंगलुरु की ज्यादातर झीलें अन्दर से एक-दुसरे के साथ जुडी हुई हैं। जिससे वाबसांद्रा की उंचाई पर स्थित होने के कारण नीचे की झीलों को पानी आसानी से उपलब्ध हो सकता था।

झील  के पुनर्निर्माण का कार्य 60 दिनों में  80 लाख रुपये की धनराशि के साथ पूरा किया गया 

इस प्रोजेक्ट पर काम करने हेतु आनन्द को अच्छी-खासी धन-राशि की ज़रूरत थी। वह अपने प्रोजेक्ट को लेकर कई कॉरपोरेट ऑफिसों में गए ताकि उन्हें इसके लिए कहीं से आर्थिक मदद मिल सके। तब हेवलेट-पैकर्ड (एचपी) के तरफ से इस प्रोजेक्ट के लिए आर्थिक मदद देने की आश्वासन मिली। और उनसे प्राप्त लगभग 80 लाख रुपये की धनराशि से इन्होने 5 अप्रैल, 2018 को वाबसांद्रा प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू किया और महज दो महीने में 10 एकड़ क्षेत्र में इसे अच्छी-खासी साफ़ झील में तब्दील कर दिया। इस तरह आनंद और उनके साथ के स्वयंसेवकों की एक टीम ने 60 दिनों तक काम किया और 5 जून, 2018 को झील को पूरी तरह तैयार कर लिया।

वाबसांद्रा झील अन्य झीलों को जलदार बनाए रखने में मददगार 

लगभग खत्म हो चुकी इस झील को आनंद और उनके साथियों ने अपनी मेहनत से 30 फीट गहरे पानी का भंडार बना दिया था जो पानी के स्वस्थ प्रवाह के साथ अन्य झीलों को जलदार बनाए रखने में मददगार है। बकौल आनंद भविष्य में इस क्षेत्र में आवासीय परिसरों के निर्माण की संभावना है। इसलिए यह सुनिश्चित करने के लिए कि वनस्पतियों और जीवों की निर्बाधता बनी रहे और कोई कचरा डंप न बने, इनकी टीम ने झील के परिसर में एक प्राकृतिक जैविक सीवेज संयंत्र को भी डिजाइन और निष्पादित किया है।

पुनरोद्धार के बाद की तस्वीरपुनरोद्धार के बाद की तस्वीर

आज इस जगह पर प्रकृति की छटा देखने को मिल रही हैं। नीलगिरी पहाड़ियों के बीच और ऊँचे पेड़ों के बीच स्थित यह स्थान अब एक प्रकार के छोटे ऊटी में बदल गया है, तो इसका श्रेय आनंद मल्लिगावद को जाता है। उन्होंने उम्मीद जतायी कि ऐसे ही स्थानीय लोगों के द्वारा मदद मिलती रहे तो वह  और अधिक-से-अधिक झीलों का पुनर्निर्माण कर सकेंगे और शहर को पानी की समस्या से काफी हद तक निकालने में कामयाब भी होंगे।

आज बेंगलुरु ही नहीं, देश की कई बड़े शहरों में पानी की कमोबेश यही स्थिति है। ज़रूरत है तो आनंद मल्लिगावद जैसे चेहरों की जो इस समस्या को समझे और इससे निवारण हेतु काम करे। यह जानकर खुशी होती है कि आंनद 2025 तक बेंगलुरु तथा आस-पास के 45 झीलों का पुनर्निर्माण और कायाकल्प करने के लक्ष्य के साथ अपने काम मे अग्रसर हैं।

आनंद और उनकी टीम वृक्षारोपण वाले दिन आनंद और उनकी टीम वृक्षारोपण वाले दिन


बेंगलुरु की झीलों को बचाने के इस अभियान से जुड़ने व आनंद के 'लेक रिवाइवर्स कलेक्टिव' मुहीम में मदद हेतु यहाँ सम्पर्क कर सकते हैं - 

 

Email - m.anand161980@gmail.com 

http://bit.ly/lakereviverscollective

 

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नजफगढ़ झील: विकास की धारा ने मिलाया नालों की धार से

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नजफगढ़ झील: विकास की धारा ने मिलाया नालों की धार से UrbanWaterMon, 04/29/2019 - 17:41

सरकार को चाहिए कि साहिबी नदी के उद्गम से लेकर यमुना तक इस पानी के बड़े स्रोत को पुनर्जीवित करने का बीड़ा ले और इस मिशन पर कार्य आरम्भ करे। इसके लिए अगर नज़फगढ़ झील में पड़ने वाली निजी जमीन के मालिकों को भारी धनराशि भी देनी पड़े तो पानी के लिए अविलंब देना चाहिए। इसके पूरे जलागम क्षेत्र में किसी प्रकार निर्माण कार्य आदि बंद किया जाना चाहिए। गंगा रिवर (rejuvenenation protection and management ) ऑर्डर 2016 के अंतर्गत साहिबी नदी को भी गंगा की ट्रिब्यूटरी माना जा सकता है तथा इसे पुनः इसका नाम बदल कर साहिबी नदी या साहिबी नाला ही रखा जाना चाहिए ताकि नाम बदलने के साथ ही इसको देखने की लोगों की दृष्टि भी बदल सके।

कभी प्रवासी पक्षियों के लिए विहार रह चुका नजफगढ़ झील आज नाला में तब्दील हो चुका हैकभी प्रवासी पक्षियों के लिए विहार रह चुका नजफगढ़ झील आज नाला में तब्दील हो चुका है

देश की राजधानी नई दिल्ली में एक समय यमुना नदी के बाद पानी का सबसे बड़ा स्रोत नजफगढ़ झील होता था। आज जल प्रदूषण के लिए प्रसिद्ध नजफगढ़ नाला, इस झील को यमुना से जोड़ने में महत्वपूर्ण माध्यम हुआ करता था। यह नाला कभी जयपुर के जीतगढ़ से निकलकर अलवर, कोटपुतली होते हुए हरियाणा के रेवाड़ी और रोहतक से होते हुए नजफगढ़ झील व वहां से दिल्ली की यमुना नदी से मिलने वाली साहिबी नदी के रूप में जानी जाती थी। वर्तमान में नजफगढ़ झील हरियाणा के खेडकी माजरा गाँव में स्थित है और इसका कुल क्षेत्रफल 120.80 हेक्टेयर है। साहिबी नदी के माध्यम से ही नजफगढ़ झील का अतिरिक्त पानी यमुना नदी में मिलता था। नजफगढ़ झील का कैचमेंट एरिया भी करीब 906 वर्ग किलोमीटर में बनता है। जिसके अंतर्गत गुरुग्राम, रोहतक तथा राज्य के दक्षिणी-पश्चिमी जिले भी आते हैं, जहां से इस झील में पानी एकत्रित होता है। बरसात में यह इलाका खूबसूरत और हरा-भरा दिखा करता था। सर्दी का मौसम आते ही इस इलाके में पानी का स्तर कम होता जाता था क्योंकि नजफगढ़ नाले के जरिए पानी यमुना की ओर निकलता जाता था। 

अंग्रेजों के लिए यह झील 'नजफगढ़ लेक-एस्केप' हुआ करता था

अंग्रेजों के समय मे 1856 में नजफगढ़ झील से यमुना तक 51 किमी का एक नाला खोदा गया। इसको साहिबी नाला कहा जाता था। इसे ही 1964 के बाद से नजफगढ़ नाला कहा जाने लगा। 1912 के आसपास जब दिल्ली के ग्रामीण इलाकों में बाढ़ आई तब अंग्रेजों ने नजफगढ़ नाले से पानी का निकास हेतु उसे गहरा किया। अंग्रेज इसे नाला नहीं बल्कि ‘नजफगढ़ लेक एस्केप’ कहते थे। कहा जाता है कि उन वर्षों को छुडा कर जिस वर्ष प्रदेश में बारिश नहीं होती थी तब भी झील से पानी का निकास होने के बावजूद दाहरी, बहलोलपुर, तथा जौनपुर गाँव के दक्षिण में झील का पानी भरा रहता था। 

नजफगढ़ झील का एक बड़ा हिस्सा वहां के किसानों के निजी जमीन में आता है

नजफगढ़ झील का फैलाव, साभार: विकिपीडिया नजफगढ़ झील का फैलाव, साभार: विकिपीडिया

नजफगढ़ झील का एक बड़ा एरिया निजी जमीन में आता है। धीरे-धीरे इस झील के छोटा होने और सिकुड़ जाने के बाद जब बारिश खत्म हो जाती और पानी वहां से निकल जाता तब लोगों ने उस पर खेती करना शुरू कर दिया। फिर जैसे-जैसे दिल्ली का अर्बन एरिया  विकसीत होता गया, खेत की जमीन भी मकानों में बदलती गई। इधर इस विकास के बयार में नई बनने वाली वाली कॉलोनी व कारखानों से निकलने वाला गन्दा पानी नजफगढ़ नाले में मिलने लगा और यह जाकर यमुना में जहर घोलने लगा। यही से नजफगढ़ झील के नाले में बदलने की कहानी शुरू हुई। यह कहने में कोई दो राय नही कि नजफगढ़ झील को नाला दिल्ली और फिर बाद में गुरुग्राम के विकास ने बनाया है।

नजफगढ़ झील का विस्तार कभी एक हजार वर्ग किलोमीटर हुआ करता था जिसका क्षेत्रफल आज के गुरुग्राम सेक्टर 107, 108 से दिल्ली के नए हवाई अड्डे के पास पप्पनकलां तक था। हरियाणा के झज्जर की सीमा से पाँच मील तक नजफगढ़ झील होती थी जो बरसात में और आठ मील की दूरी तय कर बहादुरगढ़ तक फैल जाया करती थी। इस झील में 15 से 30 फुट तक गहरा पानी हुआ करता था। वहीं आज नजफगढ़ व गुरुग्राम में भूजल काफी निचे चला गया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ गुरुग्राम में 1990 के बाद बड़े स्तर पर शहरीकरण के कारण न सिर्फ जल-स्रोत को प्रभावित किया बल्कि 2020 तक इस क्षेत्र में वन क्षेत्र को 20 प्रतिशत अनुमानित किया गया था लेकिन आज यह महज 6% पर सिमट गयी है।

यमुना से मिलने वाली प्राकृतिक बेसिनों में नजफगढ़ बेसिन सबसे बड़ा

नजफगढ़ नाला यमुना नदी में गिरने से पहले लगभग 57 किलोमीटर की दूरी तय करता है। जिसके बीच ढासा से लेकर ककरौला तक 28 छोटे नाले और ककरौला के बाद लगभग 74 छोटे-बड़े नाले नजफगढ़ नाले में मिलती हैं। दिल्ली में यमुना नदी से मिलने वाले तीन प्रमुख प्राकृतिक जल निकासी नाले हैं, जिनमें नजफगढ़ नाला सबसे बड़ा है। जो अब बरसाती पानी की निकासी के बजाए पूरे शहर की गंदगी बहाने का जरिया मात्र बन गया है।

वर्ष 2005 में इसे केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भारत के सबसे अधिक प्रदूषित 12 वेटलैंड में शामिल किया। हरियाणा की पिछली कांग्रेस सरकार ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में एक मुकदमे में दायर अपने हलफनामे में नजफगढ़ झील के होने को ही इंकार करते हुए यह कहा कि यह बारिश के अतिरिक्त जल के जमा होने का निचला हिस्सा मात्र है। हालाँकि इस पर न्यायाधीश ने सरकार से पूछा था कि यदि यह झील नहीं है तो फिर आप झील किसे कहेंगे।

एनजीटी के अगले आदेश तक ये फैसला बीच में ही लटका हुआ है

इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज  के एनजीटी एक्सक्यूशन एप्लीकेशन नंबर 16, 2019 के तहत दिल्ली और हरियाणा के मुख्य सचिव को निर्देश दिया था, जिसमे दोनों से एक्शन टेकेन रिपोर्ट मांगी गयी थी, जिसमे पूछा गया था नजफगढ़ झील को वेटलैंड घोषित करने सम्बन्धी प्रगति क्या है? INTACH की याचिका द्वारा पिछले साल दिल्ली तथा हरियाणा की सरकार को नजफगढ़ झील को वेटलैंड के रूप में अधिसूचित करने का निर्देश जारी किया गया था। हरियाणा सरकार की ओर से संज्ञान लेते हुए पर्यावरण, वन एवं वायु परिवर्तन मंत्रालय को एक ब्रीफ दस्तावेज़ भी भेजा गया था। लेकिन इसी दौरान वेटलैंड रूल्स (कन्जर्वेशन एंड मैनेजमेंट), 2017 के आजाने से अब राज्य को ही वेटलैंड अधिसूचित करना होगा। बहरहाल एनजीटी के अगले आदेश तक ये फैसला बीच में ही लटका हुआ है।

नजफगढ़ झील क्षेत्र को वेटलैंड घोषित करने की लड़ाई लड़ने वाले रमेश मुमुक्षु कहते हैं -

सरकार को चाहिए कि साहिबी नदी के उद्गम से लेकर यमुना तक इस पानी के बड़े स्रोत को पुनार्जिवित करने का बीड़ा ले और इस मिशन पर कार्य आरम्भ करे। इसके लिए अगर नज़फगढ़ झील में पड़ने वाली निजी जमीन के मालिकों को भारी धनराशि भी देनी पड़े तो पानी के लिए अविलंब देना चाहिए। इसके पूरे जलागम क्षेत्र में किसी प्रकार निर्माण कार्य आदि बंद किया जाना चाहिए। गंगा रिवर (rejuvenenation protection and management) ऑर्डर 2016 के अंतर्गत साहिबी नदी को भी गंगा की ट्रिब्यूटरी माना जा सकता है तथा इसे पुनः इसका नाम बदल कर  साहिबी नदी या साहिबी नाला ही रखा जाना चाहिए ताकि नाम बदलने के साथ ही इसको देखने की लोगों की दृष्टि भी बदल सके। 

कभी प्रवासी पक्षियों के लिए विहार रह चुका नजफगढ़ झील आज नाला में तब्दील हो चुका हैकभी प्रवासी पक्षियों के लिए विहार रह चुका नजफगढ़ झील आज नाला में तब्दील हो चुका है

ब्रिटिश राज में इस झील के आस पास अंग्रेज अधिकारी पक्षियों के शिकार के लिए आते थे, क्योंकि तब यह स्थान पक्षी-विहार और शिकार के लिए उपयुक्त माना जाता था। यह झील आज भी प्रवासी पक्षियों के लिए उपयुक्त स्थान है। कभी नज़फगढ़ झील में साइबेरियन क्रेन को भी देखा गया था। दिल्ली में करीब 400 पक्षियाँ पाई जाती है, जिसमे 25% विदेशी पक्षी है। अकेले नज़फगढ़ झील के क्षेत्र में ही 200 के करीब पक्षियों की प्रजाति पाई जाती है। जिनमे ब्लैक ब्रेस्टेड वीवर, लार्ज फ्लॉक ऑफ ब्लैक टेल गोडविट, ब्लैक नेक्ड स्टोर्क, पेंटेड स्ट्रोक, सारस क्रेन एवं ब्लैक फ्रैंकोलिन समेत  कई  पक्षियाँ इस क्षेत्र में पाई जाती है। अगर नज़फगढ़ झील को संरक्षित किया जाए तो पक्षी प्रेमियों के लिए  यह जगह किसी पैराडाइस से कम नही होगा।

 

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अगर बारिश में देर हुई

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अगर बारिश में देर हुईUrbanWaterFri, 05/17/2019 - 11:48
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अमर उजाला, 17 मई 2019

बारिश की देरी से किसान ही नहीं इस बार सरकार की भी मुश्किलें बढेंगी बारिश की देरी से किसान ही नहीं इस बार सरकार की भी मुश्किलें बढेंगी

निजी मौसम कंपनी स्काई मैट के बाद मौसम विभाग ने भी इस साल दक्षिण पश्चिम मानसून के देर से पहुंचने का अनुमान व्यक्त किया है, जिसके अनुसार यह छह जून को केरल के तट पर पहुंच सकता है। हालांकि मौसम विभाग का कहना है कि उसके अनुमान में चार दिन की कमी-वृद्धि हो सकती है। मौसम विभाग ने मानसून का दीर्घ अवधि औसत (एलपीए) 96 प्रतिशत रहने का अनुमान व्यक्त किया है, जिसे सामान्य के आसपास कहा जा सकता है, लेकिन स्काई मैट का अनुमान है कि एलपीए 93 प्रतिशत रह सकती है, जो कि सामान्य से कम है।

मौसम विभाग का दावा है कि पिछले 14 वर्षों में मानसून के आगमन को लेकर उसका अनुमान सिर्फ एक बार 2015 में ही गलत साबित हुआ था। दरअसल देश में होने वाली कुल 70 फीसदी वर्षा मानसून पर ही निर्भर है। और देश की 50 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या खेती पर निर्भर है, और हाल के कुछ वर्षों में कृषि क्षेत्र में जिस तरह से हताशा बढ़ी है, उसमे इन अनुमानों का महत्व सहज समझा जा सकता है। यह स्थिति इसलिए है, क्योंकि अब भी खेती का बड़ा हिस्सा वर्षा जल पर ही निर्भर है।

महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में तो पहले ही सूखे के आसार नजर आ रहे हैं, जहां हाल के वर्षों में भीषण जल संकट देखा गया है। इसके अलावा उत्तरी कर्नाटक और मध्य प्रदेश सहित कई राज्यों को लेकर व्यक्त किए गए अनुमान से वहाँ भी औसत से कम वर्षा हो सकती है, जिसका असर कृषि उत्पादन पर पड़ सकता है।

“मानसून में दो-चार दिन की देरी से खरीफ की बुआई पर भले ही बहुत बात न हो, लेकिन अगर इस साल मानसून कमजोर हुआ तो 23 मई के बाद नई दिल्ली में बनने वाली सरकार को आना ही एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है।”

यों तो मौसम विभाग ने अल नीनो के असर के बारे में कोई ठोस अनुमान व्यक्त नहीं किया है, लेकिन कई विशेषज्ञ मानसून की देरी के लिए इसे भी एक कारण बता रहे हैं। यदि अल नीनो का प्रभाव और घनीभूत हुआ, तो निश्चित रूप से यह कृषि क्षेत्र के लिए अच्छी खबर नहीं होगी।

पिछले साल मौसम विभाग के अनुमान के विपरीत वर्षा सामान्य के विपरीत 91 प्रतिशत ही हुई थी, जिससे आधिकारिक तौर पर सरकार ने भी माना था कि खरीफ की बुआई 20 प्रतिशत हुई थी। मानसून में दो-चार दिन की देरी से खरीफ की बुआई पर भले ही बहुत बात न हो, लेकिन अगर इस साल मानसून कमजोर हुआ तो 23 मई के बाद नई दिल्ली में बनने वाली सरकार को आना ही एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है।

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राजस्थान के पीलीबंगा गांव में शादी से पहले लड़कियां कुंड में पानी भरती हैं

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राजस्थान के पीलीबंगा गांव में शादी से पहले लड़कियां कुंड में पानी भरती हैंUrbanWaterFri, 05/24/2019 - 15:36
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द हिन्दू, जयपुर, 23 मई 2019

कुंड में पानी भरती शैलजा।कुंड में पानी भरती शैलजा।

राजस्थान का बिश्नोई समुदाय जो प्रकृति पूजा और वन्यजीव संरक्षण से जुड़ी अपनी मान्यताओं के लिए जाना जाता है। इस समुदाय की लड़की ने एक बेहतरीन और सराहना करने योग्य पहल की है। इस समुदाय की एक लड़की ने अपनी शादी के विवाह संस्कार से पहले हिरण जैसे पशुओं की प्यास बुझाने के लिए खेत में खोदे गए गढढों को पानी से भर दिया है। पिछले सप्ताह उनकी इस पहल ने इस तपा देने वाली गर्मी का सामना कर रहे जंगली जानवरों को बचाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 दो साल पहले गांव वालों ने अपने खेतों में छोटे-छोटे कुंड खोदने शुरू किए और सीपेज के माध्यम से पानी के नुकसान को रोकने के लिए उन्हें प्लास्टिक की चादर से ढक दिया। ये कुंड अभी भी पानी से भरे हुए हैं और हर 10 दिनों में ये फिर से भर दिए जाते हैं। पर्यावरण कार्यकर्ता अनिल बिश्नोई की 23 साल की बेटी शैलजा, पीलीबंगा में अपनी शादी से पहले अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ खेतों में गई और कई कुंडों को पानी से भर दिया।

उत्तरी राजस्थान के श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ जिलों में बिश्नोई किसानों ने लगभग 70 कुंड खोद दिए हैं। जिनमें से कई लोगों ने अपने ही खेत के 60 वर्ग किमी. भूमि के इलाके में गढढे खोदकर उनको पानी से भर दिया है। पशु पहले इस इलाके की दो प्रमुख नहरों में पानी पीने की कोशिश में डूब कर अपनी जान गंवा रहे थे। अब खेतों में कई कुंड में पानी होने से उन पशुओं को अपनी जान नहीं गंवानी पड़ेगी।

इंदिरा गांधी नहर और भाखड़ा नहर दो जिलों के सूखे इलाकों में खेतों की सिंचाई करती हैं। हिरण और बाकी पशुओं को जब प्यास लगती थी तो वे नहर के किनारों पर चढ़कर बहते पानी को पीने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन नहर के किनारों में 45 डिग्री की ढलान है। जिसकी वजह से पशुओं का वापस आना मुश्किल होता है इसी कोशिश में बहुत सारे जानवर उसी नहर में डूबकर मर जाते हैं। 

आवारा कुत्तों का डर

नहर का पानी पीने की कोशिश में हर साल लगभग 30 हिरण अपनी जान गंवा देते हैं। अगर हिरण जैसे पशु गांवों के जल स्रोतों के पास जाते हैं तो आवारा कुत्ते उन पर टूट पड़ते हैं। 40-45 डिग्री के तापमान और इस संकट की वजह से लगभग 10,000 हिरणों की आबादी को प्रभावित किया है।

इस समस्या से निपटने के लिए दो साल पहले गांव वालों ने अपने खेतों में छोटे-छोटे कुंड खोदने शुरू किए और सीपेज के माध्यम से पानी के नुकसान को रोकने के लिए उन्हें प्लास्टिक की चादर से ढक दिया। ये कुंड अभी भी पानी से भरे हुए हैं और हर 10 दिनों में ये फिर से भर दिए जाते हैं। पर्यावरण कार्यकर्ता अनिल बिश्नोई की 23 साल की बेटी शैलजा, पीलीबंगा में अपनी शादी से पहले अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ खेतों में गई और कई कुंडों को पानी से भर दिया। शैलजा ने गांव वालों से जंगली जानवरों का ध्यान रखने और पक्षियों के लिए छतों पर पानी से भरे कंटेनरों को रखने की भी अपील की।

दुल्हन ने अपनी शादी में मेहमानों को पौधे भेंट किए और उन पौधों को अपने घरों में लगाने को कहा। शैलजा अपने पर्यावरण संरक्षण के काम में अपने पिता की मदद कर रही हैं और उन्होंने कल्याण सीरवी द्वारा निर्देशित हिंदी फिल्म ‘साको- 363 अमृता की खेजड़ी’ में काम किया है। जा लीजेंड अमृता देवी की कहानी पर आधारित है, जिन्होंने गांव में पेड़ों को बचाने के लिए संघर्ष किया था। 

इस मौके पर श्री जम्भेश्वर पर्यावरण इवूम जीवक्षेत्र प्रदेश संस्था के सदस्यों ने जंगली जानवरों को पेयजल उपलब्ध कराने के लिए शैलजा की पहल की सराहना की। 2009 में राज्य स्तरीय अमृता देवी पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित श्री बिश्नोई ने कहा कि उन्होंने क्षेत्र के किसानों को पानी के गढढे खोदने के लिए विश्वास में लिया था और इस काम के लिए पैसों को इकट्ठा किया था। गांव के नजदीक में जो कुंड बनाये गये है, उन्हें पानी से भर दिया जाता है। जिसे नहरों या गांव की जलापूर्ति योजना के अंतर्गत में लाया जाता है। श्रीगंगानगर जिले की तहसील पदमपुरा, रायसिंहनगर तहसील और हनुमानगढ़ जिले की पीलीबंगा और सूरतगढ़ तहसील में पड़ने वाले गांव इस पहल का हिस्सा रहे हैं।
 

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पर्यावरण को बचाने का प्रयास कर मिसाल पेश कर रहे हैं कुछ प्रकृति प्रेमी

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पर्यावरण को बचाने का प्रयास कर मिसाल पेश कर रहे हैं कुछ प्रकृति प्रेमीUrbanWaterThu, 06/06/2019 - 15:26
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हिंदुस्तान, 05 जून 2019

ग्रीन मैन विजयपाल बघेल।ग्रीन मैन विजयपाल बघेल।

विकास की अंधी दौड़ में हम जाने अनजाने में अपने परिवेश को काफी नुकसान पहुंचा रहा है। पर देश में कई ऐसे लोग भी हैं जो अपने प्रयासों से इस वसुंधरा को हरा-भरा बनाए रखने की कोशिश में जुटे हैं। आइए रूबरू होते हैं कुछ ऐसे लोगों से जो पर्यावरण बचाने का प्रयास कर मिसाल कायम कर रहे हैं।

गाजियाबाद के ग्रीन मैन

गूलर के पेड़ पर चल रही आर से निकल रहे पानी को देखकर विजयपाल बघेल का मन विचलित हो उठा। उन्होंने जीवन में पेड़ बचाने और लगाने की ठान ली। उनके इसी कार्य ने उनको ग्रीन मैन बना दिया। ग्रीन मैन की उपाधि उन्हें अमेरिका के उपराष्ट्रपति अल्गोर ने दी थी। उन्होंने दावा किया है कि अब तक 40 करोड़ पेड़ लगवा चुके हैं।

1975 में विजयपाल बघेल अपने गांव चंद्रगढ़ी से दादा दाताराम बघेल के साथ हाथरस जा रहे थे। रास्ते में उन्हें तीन लोग दिखाई दिए जो गूलर के पेड़ को काट रहे थे। पेड़ काटने पर उनमें से पानी की धार दिखाई दी। विजयपाल ने उत्सुकतावस यह बात अपने दादा से पूछी तो उन्होंने बताया कि पेड़ कटने पर रो रहा है। यहीं से विजय का मन विचलित हो उठा और उन्होंने पेड़ लगाने व बचाने की योजना बना डाली। 1976 में उन्होंने अपने जन्मदिन पर पहला पेड़ लगाया। इसके बाद तो वे रूके ही नहीं।

वे लोगों को पेड़ लगाने की प्रेरणा देते रहे और उनके इसी कार्य ने 1993 में आंदोलन का रूप ले लिया। 1993 में पर्यावरण सचेतक समिति बनाकर मेरा बनाकर मेरा वृक्ष योजना की शुरूआत की। लोगों के घर-घर जाकर पेड़ लगवाने शुरू कर दिए। उन्होंने अब तक पेड़ बचाने और लगाने के लिए सात आंदोलन चलाए, मेरा वृक्ष योजना, आपरेशन ग्रीन, ग्लोबल ग्रीन मिशन, मेरा पेड़ मेरी शान, मिशन सवा सौ करोड़, पेड़ लगाएं सेल्फी भेजे। 

गांव-गांव अलख जगा रहे

जब पर्यावरण संरक्षण की बात आती है तो सबसे पहले बरेली के समीर मोहन का नाम लिया जाता है। जो शहर व गांव की शुद्ध आबोहवा को सामुदायिक स्तर पर काम कर रहे हैं। आज से नहीं 10-15 सालों से शहर एवं गांव-गांव पर्यावरण संरक्षण को अलख जगा जा रहे हैं। खुशहाली फाउंडेशन के नाम से उनकी संस्था हैं, जिसमें सैकड़ों की संख्या में लोग जुड़ चुके हैं।

शादी में पौधे का गिफ्ट

लखीमपुर-खीरी में रहने वाले अनुराग मौर्य को पर्यावरण बचाने का जुनून है। वह सुबह से शाम तक सिर्फ पेड़ों की चिंता करते हैं। वह पर्यावरण की अपनी मुहिम को अनोखे अंदाज में चला रहे हैं। किसी के यहां शादी हो तो अनुराग उपहार में पौधा देते हैं। किसी के यहां बच्चे का जन्मदिन हो तो उसे पौधा देकर बच्चे के नाम से रोपने को कहते हैं।

पर्यावरण-जल संरक्षण करता क्लब-60

रिटायर्ड लोग अक्सर आराम करते हैं लेकिन मेरठ के एच ब्लाक में शास्त्रीनगर स्थित वरिष्ठ नागरिकों के स्वयंसेवी संगठन क्लब-60 के 15 सदस्य जल, जीव, पेड़ व पर्यावरण बचाने के लिए अनवरत काम करते हैं। काॅलोनी को ईको फ्रेंडली और टैगोर पार्क को पर्यावरण और जल संरक्षण का अनूठा उदाहरण बना लिया।

हरि विश्वोई के नेतृत्व में नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद कुल 15 लोगों ने क्लब-60 बनाया और पर्यावरण और जल संरक्षण की कमान संभाल ली। 15 लोगों के ग्रुप में हर किसी को कोई न कोई कार्य करने की जिम्मेदारी दी गई है। इसी के जरिए पार्क को हरा-भरा और काॅलोनी को पर्यावरण और जल संरक्षण का अनूठा उदाहरण बना लिया टैगोर पार्क में दो स्प्रिंकल सिस्टम के जरिए मार्च से जून तक पौंधों की सिंचाई करते हैं।

दुर्लभ पेड़ों को उगाने का कर रहे हैं प्रयास

मेरठ के टीपीनगर निवासी प्रोफेसर डा. यशवंत राय पर्यावरण संरक्षण के लिए पिछले एक दशक से भी अधिक समय से कार्य कर रहे हैं। वह दुर्लभ प्रजातियों के पौधे के बीजों को एकत्रित करते हैं। उन्हें उगाते हैं और फिर पौधारोपण करते हैं। वह कहते हैं कि 42 से 50 डिग्री तापमान पर उगने वाली प्रजाति के पौधे तापमान को नियंत्रित करेंगे।

दस हजार पेड़ लगाए

लखीसराय के सूर्यगढ़ा प्रखंड के रामपुर निवासी महेंद्र सिंह सेवानिवृत्त शिक्षक हैं। दिव्यांग महेन्द्र सिंह ने पर्यावरण के क्षेत्र में कई कार्य किए हैं। वे अब तक दस हजार से अधिक पौधे लगाए हैं। इनमें 80 प्रतिशत पौधे, पेड़ का रूप ले चुके हैं। उन्होंने एक कुआं भी खुदवाया है। जिसके लिए किसी से कोई चंदा नहीं लिया। इस कार्य के जुनून को लेकर ही उन्होंने शादी भी नहीं की और आज तक किसी से कोई चंदा नहीं लिया।

केबीसी विनर बचा रहे हैं पर्यावरण

कौन बनेगा करोड़पति के मंच से अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने वाले मोतिहारी के सुशील कुमार अब चंपारण की पहचान चंपा पौधे को बचाने और उसके रोपण में जुटे हैं। ‘चंपा से चंपारण’ अभियान के जरिये सुशील और उनकी टीम ने एक साल में पचास हजार से अधिक पौधे लगाए हैं। इस अभियान का दोहरा मकसद है, एक तो  चंपाविहीन चंपारण को उसकी पहचान दिलाना और दूसरा पर्यावरण के गंभीर संकट से लड़ने के लिए पेड़ों को औजार बनाना। सुशील कुमार बताते हैं कि 22 अप्रैल 2018 को उन्होंने यह अभियान शुरू किया है। सुशील प्रतिदिन सुबह अपनी स्कूटी पर झोले में चंपा के पौधे लेकर निकलते हैं। रास्ते में किसी व्यक्ति के घर या परिसर में लगाकर पानी डालते हैं।

केबीसी विनर सुशील कुमार।केबीसी विनर सुशील कुमार।

77 की उम्र के पर्यावरणप्रेमी

गुरूग्राम शहर के लोग वायु प्रदूषण से जूझ रहे हैं। प्रदूषण के कारण मिलेनियम सिटी की विश्व स्तर पर बदनामी हो रही है। ऐसे में शहर के सैकड़ों लोग पर्यावरण को बचाने के लिए छोटे अभियान और कुछ बदलाव कर पर्यावरण को बचाने की पहल काफी समय से कर रहे हैं। ऐेसे ही एक 77 वर्षीय बुजुर्ग पर्यावरण को बचाने के लिए पिछले कई सालों से काम कर रहे हैं और लोगों को पर्यावरण बचाने के लिए जागरूक किया जा रहा है।

डीएलएफ फेज-4 निवासी अनिल कपूर ने बताया कि वह शहर में प्रदूषण को देखते हुए पर्यावरण बचाने के लिए मुहिम शुरू की। अनिल के मुताबिक, जब वह सुबह सैर करने निकलते हैं तो वह बैग लेकर साथ चलते हैं। इस दौरान पार्क और सड़क पर मिलने वाले प्लास्टिक को उठाकर बैग में रखते हैं। उसके बाद डस्टबिन में डालते हैं।

अपने खर्च से बांटते हैं पौधे

हल्द्वानी में मरीजों को देखने वाले डाॅक्टर आशुतोष पंत जहरीली हो रही आबोहवा को सुधारने की डाॅक्टरी में भी लगे हुए हैं। वह पिछले 31 सालों से पेड़ लगाने के अभियान में जुटे हुए हैं। वह अब तक 2.58 लाख पौधे लगा चुके हैं। हर साल उनका 15 हजार पौधे लगाने का लक्ष्य रहता है। 

डाॅक्टर आशुतोष का मानना है कि अधिक से अधिक पौधे लगाकर ही जहरीली हो रही हवा की सफाई की जा सकती है। वह लोगों को अपने खर्च से लोगों को पौधे बांटते हैं। वो बताते हैं कि गर्मी में लगाए जाने वाले पौधों का जीवित रहना बहुत मुश्किल होता है। जिसके चलते पर्यावरण दिवस पर गर्मी में लगाए जाने वाले पौधे हर साल दम तोड़ते हैं। इस तरह से 40 डिग्री तापमान के बीच हम कितने पौधों को बलि देते रहेंगे।

30 साल से हरियाली बचाने में जुटे

रांची में मल्टी स्टोर बिल्डिंग और अपार्टमेंट बनाने की होड़ मची है। इस क्रम में खाली जमीन पर खड़े हरे-भरे पेड़ काटे जा रहे हैं। कभी ग्रीष्मकालीन राजधानी के रूप में रांची का तापमान लगातार बढ़ रहा है। चौड़ीकरण में ठेला-खोमचा लगाने वालों और राहगीरों के लिए सड़क किनारे पेड़ की छाया मयस्सर नहीं है। ऐसे में सरकारी नौकरी में होने के बावजूद डाॅ बीके अग्रवाल पिछले 30 साल से हरियाली के लिए काम कर रहे हैं। वह कांके स्थित बिरसा कृषि विवि के मुख्य वैज्ञानिक हैं और मृदा विज्ञान के विशेषज्ञ हैं।

बच्चों ने नदियों के प्रति बदला सरकार का नजरिया

वो उम्र जो स्कूल जाने, होमवर्क करने और फिर खेलकूद में बिताने की होती है। उसी उम्र में देहरादून के सैकड़ों के स्कूली बच्चे दून घाटी के पर्यावरण को बचाने के लिए ‘मेकिंग ए डिफरेंस बाय बीइंग दि डिफरेंस’ की छतरी के तले जमा हुए हैं। बीते आठ साल से काम कर रही स्कूली बच्चों की यह संस्था भविष्य की पीढ़ी को न सिर्फ पर्यावरण के प्रति जागरुक कर रही है। बल्कि अपने कई अभियानों के जरिए इसे जमीन पर भी उतार रही है।

मैड का सबसे बड़ा योगदान देहरादून की पहचान रही रिस्पना और बिंदाल के प्रति सरकारी नजरिए में बदलाव लाने का है। इस संस्था ने अपने प्रयासों से पहले पहले राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान की मदद से रिस्पना में बहाव का सर्वे कराया और इस तरह रिस्पना के फिर से जिंदा करने की मुहिम आगे बढ़ी। सिटीजन फाॅर ग्रीन दून संस्था पिछले दस साल से पर्यावरण संरक्षण के लिए राज्य मे काम कर रही है। संस्थान ने राज्य में आल वेदर रोड में हजारों पेड़ कटने से बचाएं, देहरादून परेड ग्राउंड के आसपास पेड़ों के कटान पर भी रोक लगवाई।

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अघनाशिनी: भारत की अंतिम प्रमुख बहती हुई नदी 

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अघनाशिनी: भारत की अंतिम प्रमुख बहती हुई नदी UrbanWaterTue, 06/04/2019 - 15:37
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टाइम्स आफ इंडिया, 10 मई 2019

कर्नाटक की नदी अगहनशिनी।कर्नाटक की नदी अगहनशिनी।

अघनाशिनी, अर्थात पापों का नाश करने वाली। अघनाशिनी प्रायद्विपीय भारत की अविरल बहने वाली अंतिम प्रमुख नदी है। जिसके किनारों पर बसे दो लाख परिवारों का जीवन और आजीविका नदी पर ही निर्भर है। ये नदी अपने प्रोटीन से भरपूर बिरवे, केकड़ें और झींगा की फसल के लिए भी प्रसिद्ध है। नदी के कई पवित्र स्थान यहां आने वाले तीर्थयात्रियों को अध्यात्मिक संतुष्टि प्रदान करते हैं। इसके भूभाग के किनारे स्थित अद्वितीय और अनोखे स्थान पर्यटकों और शोधकर्ताओं आकर्षित करते हैं और शोध के लिए कई स्थान भी प्रदान करते हैं। इसके पवित्र घाटों पर पेड़ कभी गिरे नहीं है। घने मैंग्रोव और लुप्तप्राय शेर की पूंछ वाल लंगूर यहां पांच मिलियन वर्ष पहले आए थे। नदी के किनारों पर बसी आदिवासी आबादी यक्ष कला को जीवित रखे हुए हैं और इसके अप्पेमिडी जंगली आम का अचार सबसे अच्छा और स्वादिष्ट बनता है। इसके नमक और कीट प्रतिरोधी कग्गा चावल की सूचनी तो अंतहीन है। 

अघनाशिनी नदी सिरसी शहर के शंकर होंडा गांव में स्थित है, जो घुमावदार मोड़ों, अनोखें दलदलों और प्राचीन खेती के क्षेत्रों से होते हुए कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले के कुमता में अरब सागर में मिलती है। नदी का ये गहना अरब सागर तक के अपने 124 किलोमीटर के सफर में अविरल रूप से बहता है, जो हिमालय की रेंज से भी ज्यादा पुराना या शायद पश्चिमी घाट जितना पुराना है। पश्चिमी घाट की तरफ बहने वाली अघनाशिनी में पानी की मात्रा बड़ी काली और शरवती नदी के बराबर है, लेकिन ये लंबे समय तक बनी नहीं रहेगी। नदी का मुहाना मछलियों की दर्जनों किस्मों को पनाह देने वाले बाइवलेव्स, केकड़ों और मैंग्रोव से समृद्ध है। नदी की जंगली भूमि पर बायोलूमिनेसंसे बिछी हुई है।

प्रायद्वीपीय भारत की इस अविरल बहने वाली नदी पर समय-समय पर बुनियादी ढांचों की कई योजनाएं बनाई गईं। एक बार औद्योगिक नमक उत्पादन की कोशिश की गई, लेकिन फिर काम को बंद कर दिया गया। फिर एक पनबिजली परियोजना, एक थर्मल पाॅवर प्लांट, एक बंदरगाह और दूर-दराज के शहरों के लिए नदी के पानी को मोड़ने की योजना बनाई गई। जिसका स्थानीय लोगों, पारिस्थितिक वैज्ञानिकों, आध्यात्मिक नेताओं और मछुआरों ने निरंतर और भारी विरोध किया। विरोध के चलते योजना को बंद कर दिया गया और नदी मुक्त हो गई।

नदी में विभिन्न स्थानों पर ढाल होने के कारण यहां उन्चल्ली झरने जैसे कई झरने हैं, जहां सर्दियों की पूर्णिमा में रात की चांदनी और चांदनी से उत्पन्न इंद्रधनुष को देख सकते हैं। दरअसल, अघनाशिनी अविरल बहने, प्रदूषण रहित होने और और सदियों से अपने पुराने प्राकृतिक मार्ग पर बहने के कारण अद्वितीय नदी है, लेकिन बांध और विभिन्न चैनलों में बांधे जाने के कारण भारत की अधिकांश नदियां अविरल नही हैं। जलग्रहणों को तबाह करने और पानी की निकासी के रास्तों पर अतिक्रमण करने के कारण कई अन्य नदियों ने तो हार ही मान ली है, जिस कारण भारत की अधिकांश नदियां समुंद्र तक नहीं पहुंच पाती हैं। आज भी जल विज्ञान चक्र और मानसून समुद्र तक बहने वाली नदियों पर निर्भर करता है, लेकिन प्रचतिल हाइड्रो स्किजोर्फेनियां इस वास्तविकता को स्वीकार करने से इनकार करते हैं जिस कारण हम नदियों के बुनियादी ढांचे के साथ निर्माण जारी रखते हैं। 

प्रायद्वीपीय भारत की इस अविरल बहने वाली नदी पर समय-समय पर बुनियादी ढांचों की कई योजनाएं बनाई गईं। एक बार औद्योगिक नमक उत्पादन की कोशिश की गई, लेकिन फिर काम को बंद कर दिया गया। फिर एक पनबिजली परियोजना, एक थर्मल पाॅवर प्लांट, एक बंदरगाह और दूर-दराज के शहरों के लिए नदी के पानी को मोड़ने की योजना बनाई गई। जिसका स्थानीय लोगों, पारिस्थितिक वैज्ञानिकों, आध्यात्मिक नेताओं और मछुआरों ने निरंतर और भारी विरोध किया। विरोध के चलते योजना को बंद कर दिया गया और नदी मुक्त हो गई। अब सागरमाला के हिस्से के रूप में अघनाशिनी के मुहाने पर 40 हजार करोड़ रुपये की लागत से मेगा आल वेदर पोर्ट की कल्पना की गई है, यह बंदरगाह मौजूदा छोटे तादरी बंदरगाह का विस्तार करेगा।

कर्नाटक में पहले से ही तीन सौ किलोमीटर की तटरेखा के साथ 13 बंदरगाह हैं। जिनमें मंगलुरु एक प्रमुख बंदगाह है, जो राज्य से आने और जाने के लिए भारी यात्रा जहाजों का संचालन करता है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि जब आसपास के बंदरगाहों को कम उपयोग में लाया जाता है तो राज्य सरकार किस आधार पर तादरी बंदरगाह को व्यवहार्य बनाने की अपेक्षा करती है। 25 किलोमीटर दूर बेलेकी बंदरगाह है, जिसका उपयोग उद्योग धराशाही होने से पहले लौह अयस्क के निर्यात और कोयले के आयात के लिए किया जाता था। महज 25 किलोमीटर दक्षिण में होन्नावर बंदरगाह का सदियों पुराना समुद्री इतिहास है। ये दोनों कोंकण रेलवे लाइन और एनएच-17 के माध्यम से अच्छी तरह से जुड़े हुए हैं। हालाकि यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि यह बंदरगाह कभी आर्थिक रूप से व्यवहार्य होगा या नहीं।

इस क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा के संदर्भ में जो रिपोर्ट छोड़ी गई है और इस बंदरगाह के निर्माण के माध्यम से क्या नुकसान होगा, इस पर सामान्य विवादों के साथ पर्यावरण मंजूदरी में तेजी आई है। इसी बीच  नदी और उसके जलग्रहण द्वारा बनाए गए आर्थिक और भविष्य के प्रमाण के अवसरों को ठीक से प्रलेखित नहीं किया गया है। पश्चिमी घाट में नदी के मुहाने पर एक साथ रेत और मैंग्रोव में प्रभावी कार्बन सिंक है। जो बाढ़ और कटाव की रोकथाम सहित क्षेत्र में अनकही पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं प्रदान करते हैं। नदी के मुहानों पर पानी की गहराई मुश्किल से दो मीटर है, जिस कारण यदि बंदरगाह का निर्माण किया जाता है, तो इसे व्यापक ड्रेजिंग की आवश्यकता होगी। डॉक के जहाजों के लिए यह लगभग 20 मीटर तक घिसना होगा, जिससे कार्बन समृद्ध मिट्टी और रेत की एक बड़ी मात्रा जारी होगी। किसको होगा फायदा? हम अक्सर रोजगार सृजन के नाम पर पारिस्थितिकी आधारित आजीविका को नष्ट कर देते हैं, लेकिन समुद्री उत्पादन में गिरावट आने पर उत्तरदायी कौन होगा, जैसा कि बंदरगाहों के पास का अनुभव रहा है ?

आर्थिक अनुशासन के लिए एक पारिस्थितिक अनुशासन की आवश्यकता होती है। अगर हम सागरमाला परियोजना के लिए डिजाइन किए गए प्रत्येक बंदरगाह के साथ आगे बढ़ते हैं, तो हम अविकसित बुनियादी ढांचे में फंसी हुई संपत्ति और अरबों डॉलर बर्बाद करे देंगे। ठीक वैसा ही परिणाम हिमालय में दिखाई देता है जहां भूमि और अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का समग्र व वैज्ञानिक आकलन किये बिना ही बांधों का निर्माण किया गया था।  दरअसल यहाँ इको-टूरिज्म की क्षमता को यदि चरम प्राकृतिक सुंदरता के साथ संभाला जाए तो पर्याप्त राजस्व प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन क्या संतों, कवियों, लोक प्रशासकों और सरल वास्तुकारों के इस महान देश में, हमारी राष्ट्रीय और स्थानीय कल्पना इतनी अधिक सिकुड़ गई है कि हम आने वाली पीढ़ियों को तलाशने, आनंद लेने और लाभ उठाने के लिए, प्रायद्वीपीय भारत की अंतिम प्रमुख बहती नदी को अकेला नहीं छोड़ सकते ? भविष्य को ध्यान में रखते हुए हमें समझना होगा और अघनाशिनी की निर्मल धारा को निर्मल बहने देना होगा। 

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देरी से मानसून आने के नुकसान

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देरी से मानसून आने के नुकसानUrbanWaterSat, 06/08/2019 - 15:15
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राष्ट्रीय सहारा, 08 जून 2019

मानसून में देरी के कारण कृषि पर संकट आ रहा है।मानसून में देरी के कारण कृषि पर संकट आ रहा है।

मानसून का इंतजार कर रहे किसानों के साथ-साथ मानसून की राह देख रहे उत्तर भारत के लोगों के लिए अच्छी खबर नहीं है क्योंकि मानसून अपने समय से लेट हो चुका है। मौसम विभाग के मुताबिक मानसून एक सप्ताह की देरी से आ सकता है। स्काईमेट का दावा है कि उत्तर भारत में मानसून आने में देर हो सकती है। मौसम विभाग के अनुसार इस बार वह कमजोर रहने वाला है, जबकि प्री-मानसून में भी बारिश बहुत कम हुई है। इसके साथ ही आधिकारिक तौर पर चार माह के लिए बारिश के मौसम की शुरुआत होती है। लेकिन इस बार आठ जून को मानसून के केरल तट पहुंचते की संभावना जताई गई थी।

गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों से भारतीय मानसून को अल-नीनो ने कमजोर करते आ रहा था। कृषि, भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ होने के कारण मानसून यहां की कृषि और अर्थव्यवस्था, दोनों को समान रूप से प्रभावित करता है। वास्तव में, मानसून के आसपास भारतीय अर्थव्यवस्था घूमती है। मानसून असफल रहता है तो देश के विकास और अर्थव्यवस्था पर विपरित प्रभाव पडे़गा। दरअसल, एक खराब मानसून न केवल तेजी से बढ़ती उपभोक्ता वस्तुओं की मांग को कमजोर करता है, बल्कि आवश्यक खाद्य वस्तुओं के आयात को भी बढ़ावा देता है, और सरकार को कृषि ऋण छूट जैसे उपाय करने को भी मजबूर करता है। जिससे सरकार पर वित्त का दबाव बढ़ जाता है।

वातावरण में आ रहे बदलावों ने बीते कुछ दशकों के दौरान मानसून के मिजाज को बदल डाला है। विशेषज्ञों को लग रहा है कि हमें अपनी खेती में बड़े बदलाव लाने की जरूरत है। उनका मानना है कि अगर जल्द ही हमारी खेती ने मानसून के बदले मिजाज के साथ तालमेल नहीं बिठाया तो एक अरब से ज्यादा आबादी वाले हमारे देश में अभूतपूर्व खाद्यान्न संकट पैदा हो सकता है। जाहिर है, जिस तरह से सिंचाई भगवान भरोसे है और ग्लोबल वार्मिंग से बारिश का चक्र बदल रहा है। उसका सीधा असर कृषि पर पड़ रहा है।

इससे राष्ट्रीय आय में गिरावट के चलते सरकार का राजस्व तेजी से गिरावट आ सकती है। इसलिए कह सकते हैं कि राज्य का राजस्व और आय हर साल माॅनसून पर निर्भर करती है। इन्हीं वजहों से कहा जाता है कि माॅनसून का भारतीय अर्थव्यवस्था से गहरा नाता है। यदि मानसून कमजोर रहा तो देश के सामने कई मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। कृषि उत्पाद पर असर पड़ सकता है। पैदावार पूरी तरह प्रभावित होने से महंगाई का बढ़ना निश्चित है। इतना ही नहीं, अर्थव्यवस्था में प्राण फूंकने की कोशिशों को करारा झटका लग सकता है। वहीं ग्रामीण आमदनी और उपभोक्ता के खर्च के लिए मौसमी बारिश अहम कारक है। देश की दो-तिहाई भाग ग्रामीण क्षेत्रों में है, जहां कृषि ही आय का मुख्य स्रोत है। मानसून को लेकर जो खबरें आ रही हैं, उनसे लग रहा है कि परिस्थितियां डराने वाली होंगी।

वास्तव में किसानों के लिए गर्मी के मौसम की बारिश बड़ी अहमियत रखते है क्योंकि देश के केवल 40 फीसद कृषि क्षेत्र के बारे में कहा जा सकता है कि वहां सिंचाई की सुविधाएं हैं और एकाध मानसून में वह गड़बड़ी बर्दाश्त कर सकता है। लेकिन शेष 60 फीसद इलाका मानसून पर ही निर्भर होता है। ऐसे में बारिश सामान्य से कम हुई तो मुश्किल होना स्वाभाविक है। यों कहें बारिश और खाद्यान्न उत्पादन का कीमतों से सीधा संबंध है। कम बारिश और उच्च मंहगाई का रिश्ता स्पष्ट दिखाई देता है। चूंकि देश के 14 करोड़ से अधिक परिवार खेती पर निर्भर है, इसलिए कम बारिश की स्थिति में खेती-किसानी से जुड़े अधिकांश छोटे किसानों का जीवन सर्वाधिक प्रभावित होता है। तो कहा जा सकता है कि अभी भी भारतीय कृषि बहुत हद तक मानसून पर निर्भर है।

भारतीय खाद्यान्नों की शत-प्रतिशत पूर्ति यहां होने वाली कृषि से ही होती है, जो पूर्णतया खेती की सफलता पर निर्भर है। इसके अतिरिक्त, देश के 22 करोड़ पशुओं को चारा भी कृषि से ही प्राप्त होता है। कृषि के न होने या अत्याल्पावस्था में हो पाने की स्थिति में पशुओं से प्राप्त होने वाली आय तथा सुविधाओं में कमी आ जाती है। इस तरह मानसून के प्रतिकूल होने पर देश में खाद्यान्नों तथा कृषि से संबंद्ध विभिन्न उद्योगों के लिए कच्चा माल विदेशों से मांगना पड़ता है, जिसके लिए काफी मात्रा में विदेशी मुद्रा का व्यय होता है। मौसम अनुकूल रहता है तो इन्हीं उत्पादों का विदेशों को निर्यात कर बड़ी मात्रा में विदेशी पूंजी प्राप्त हो जाती है।

वातावरण में आ रहे बदलावों ने बीते कुछ दशकों के दौरान मानसून के मिजाज को बदल डाला है। विशेषज्ञों को लग रहा है कि हमें अपनी खेती में बड़े बदलाव लाने की जरूरत है। उनका मानना है कि अगर जल्द ही हमारी खेती ने मानसून के बदले मिजाज के साथ तालमेल नहीं बिठाया तो एक अरब से ज्यादा आबादी वाले हमारे देश में अभूतपूर्व खाद्यान्न संकट पैदा हो सकता है। जाहिर है, जिस तरह से सिंचाई भगवान भरोसे है और ग्लोबल वार्मिंग से बारिश का चक्र बदल रहा है। उसका सीधा असर कृषि पर पड़ रहा है। बेशक, दिन प्रतिदिन हमारी जरूरतें बढ़ रही हैं। 2050 में 1.6 से 1.7 अरब भारतीयों का पेट भरने के लिए हमें 45 करोड़ टन खाद्यान्न की जरूरत होगी यानी मौजूद से दुगना। ऐसे में बिना सिंचित क्षेत्र में वृद्धि के सिर्फ मानसून भरोसे इसे हासिल करना असंभव है। यह विडंबना है कि आजादी के सात दशक बाद भी हम मानसून पर निर्भरता कम नहीं कर पाए।

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16 साल की ग्रेटा थनबर्ग पर्यावरण को लेकर हमसे ज्यादा समझदार है

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16 साल की ग्रेटा थनबर्ग पर्यावरण को लेकर हमसे ज्यादा समझदार हैUrbanWaterThu, 06/13/2019 - 14:09
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वेब

ग्रेटा थनबर्ग।ग्रेटा थनबर्ग।

16 साल की उम्र में बच्चे क्या करते हैं? वो खेलते हैं, पढ़ाई करते हैं और अपने करियर में सोचते हैं। इस उम्र के बच्चों को पता नहीं होता है कि दुनिया में क्या चल रहा है? वो तो बस अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं और माता-पिता को भी लगता है कि बच्चों को अपना बचपन जीना चाहिए। जो सही भी है क्योंकि एक बार बचपन गया तो फिर वापस लौटकर नहीं आता। लेकिन वही बच्चे अपने बचपन को छोड़कर बड़ों से भी ज्यादा समझदारी भरी बातें करने लगे तो ये चिंताजनक है और सोचने लायक भी है कि क्या सच में हालात इतने बदतर हो चुके हैं?

ग्रेटा कहती है कि बिजली, बल्ब बंद करने से लेकर पानी की बर्बादी को रोकने और खाने का न फेंकने जैसी बातें मैं हमेशा से सुनती आई थी। जब मैंने इसी वजह पूछी तो मुझे बताया गया कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ऐसा किया जा रहा है। अगर हम जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को रोक सकते हैं, तो हमें इसके बारे में बात करनी चाहिए। मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि लोग इसके बारे में कम ही बात करते हैं। 

16 साल की ग्रेटा थनबर्ग पूरे दुनिया के नेताओं से अपील कर रही है कि हमें अपनी धरती को बचाना होगा और ये तभी होगा जब अपनी जरूरतें कम करेंगे। ऐसा कोई भी काम नहीं करेंगे जो हमारी पृथ्वी को, हमारे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता हो। हाल ही में ब्रिटेन क्लाइमेट इमरजेंसी लगाने वाला पहला देश बना। ब्रिटेन की संसद को ये फैसला इसलिए लेना पड़ा क्योंकि लाखों लोग ब्रिटेन की सड़कों पर इसकी मांग कर रहे थे। उन्हीं अच्छे लोगों के बीच खड़ी थी 16 साल की ये लड़की।

जागरूकता फैला रही है ग्रेटा 

ब्रिटेन में ग्रेटा थनबर्ग ने खुले मंच पर विश्व के कई बड़े नेताओं को आमंत्रित किया था और वहां ग्रेटा ने पर्यावरण के लिए चेताया। ग्रेटा कहती है कि मैं भी स्कूल जाना चाहती हूं लेकिन जब मैं देखती हूं कि हम ही अपने दुश्मन बन रहे हैं तो मुझे बहुत दुःख होता है। 5 जून को पूरे विश्व ने पर्यावरण दिवस मनाया। सभी ने पर्यावरण को सुधारने की बात कही लेकिन क्या बात करने से सब कुछ सही हो जाएगा? इस बार विश्व पर्यावरण दिवस की थीम थी- बीट एयर पाॅल्यूशन। यूएन ने एक रिपोर्ट जारी करते हुए बताया है कि दुनिया भर के 10 लोगों में से 9 लोग जहरीली हवा लेने को मजबूर हैं। हर साल 70 लाख मौतें वायु प्रदूषण की वजह से होती है। इन 70 लाख लोगों में 40 लाख का आंकड़ा एशिया से आता है।

जहरीली हवा को पूरी तरह से साफ नहीं किया जा सकता लेकिन उसे सांस लेने लायक तो बनाया ही जा सकता है। पृथ्वी दिनों दिन गर्म हो रही है इसके लिए हमें ग्रेटा थनबर्ग की बातों पर ध्यान देना होगा। ग्रेटा थनबर्ग ने हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को वीडियो संदेश भेजकर जलवायु परिवर्तन पर गंभीर कदम उठाने की मांग की। इस समय पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के गंभीर संकट से जूझ रही है। पर्यावरणविदों का मानना है कि अगर सही समय पर कार्बन उत्सर्जन को कम करने के प्रयास नहीं किए गए तो पृथ्वी के सभी जीवों का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा। धरती को बचाने के लिए दुनिया भर में कई तरह के आंदोलन चल रहे हैं। उसी कड़ी में महज 16 साल की ग्रेटा थनबर्ग का भी नाम है।

स्वीडिश पर्यावरण एक्टिविस्ट ग्रेटा को हाल ही में नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया गया है। आज 16 साल की ग्रेटा थनबर्ग को हर कोई जानता है और उनकी बात को गंभीरता से सुनता है लेकिन ग्रेटा पहले स्कूल जाती थी और वही सब करती जो बाकी सब बच्चे करते थे। ग्रेटा थनबर्ग का जन्म 2003 में स्वीडन की राजधानी स्टाॅकहोम में हुआ। ग्रेटा के पिता अभिनेता और लेखक है जबकि मां आपेरा गायिका हैं। ग्रेटा ने एक बार देखा कि फ्लोरिडा के मर्जरी स्टोनमैन डगलस हाईस्कूल के कुछ बच्चे हथियारों पर नियंत्रण के लिए मार्च कर रहे थे। ग्रेटा को वहां से प्रेरणा मिली और पर्यावरण को बचाने के लिए वे भी ऐसा ही कुछ करना चाहती थीं।

स्कूल छोड़ा, संसद के सामने दिया धरना

9 सितंबर 2018 को ग्रेटा थनबर्ग ने आम चुनाव होने तक स्कूल न जाने का फैसला किया और अकेले ही जलवायु परिवर्तन के लिए संसद के सामने हड़ताल शुरू कर  दी। ग्रेटा ने स्वीडन सरकार से मांग की थी कि वो पेरिस समझौते के अनुसार कार्बन उत्सर्जन कम करे। ग्रेटा ने अपने दोस्तों और स्कूल वालों से भी इस हड़ताल में शामिल होने की अपील की, लेकिन सभी ने इसमें शामिल होने से इंकार कर दिया। यहां तक कि ग्रेटा के माता-पिता ने ऐसा कुछ करने से रोकने की भी कोशिश की, लेकिन ग्रेटा नहीं रूकी। ग्रेटा ने स्कूल स्ट्राइक फॉर क्लाइमेट मूवमेंट की स्थापना की। ग्रेटा ने खुद अपने हाथ से बैनर पैंट किया और स्वीडन की सड़कों पर घूमने लगीं। कुछ लोगों ने ग्रेटा को देखा और पर्यावरण के प्रति सचेत हुए।

ग्रेटा थनबर्ग।ग्रेटा थनबर्ग।

बाद में हालात बदलने लगे और कई देशों के बच्चे ग्रेटा थनबर्ग के साथ आ गए। दिसंबर 2018 तक दुनिया भर के 270 शहरों से 20,000 बच्चों ने इस हड़ताल का समर्थन किया। ग्रेटा पर्यावरण की वजह से हवाई यात्रा नहीं करती है, वो सफर के लिए ट्रेन का इस्तेमाल करती हैं। ग्रेटा ने अपने माता-पिता को यकीन दिलाया कि वे सही रास्ते पर हैं। इसके बाद माता-पिता और दोस्त सहयोग कर रहे हैं। ग्रेटा की मां तो इस अभियान बहुत प्रेरति हुईं और विमान सफर करना छोड़ दिया है, ताकि वायु प्रदूषण करने में उनकी भूमिका न हो। ग्रेटा के माता-पिता ने मासांहार को त्याग दिया है। जिन लोगों ने पहले इस अभियान में जुड़ने से इंकार किया था, वे सभी अब इसके हिस्सा हैं। विभिन्न देशों के लाखों बच्चे इसका हिस्स बन रहे हैं।  

ग्रेटा कहती है कि बिजली, बल्ब बंद करने से लेकर पानी की बर्बादी को रोकने और खाने का न फेंकने जैसी बातें मैं हमेशा से सुनती आई थी। जब मैंने इसी वजह पूछी तो मुझे बताया गया कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ऐसा किया जा रहा है। अगर हम जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को रोक सकते हैं, तो हमें इसके बारे में बात करनी चाहिए। मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि लोग इसके बारे में कम ही बात करते हैं। 16 वर्षीय ग्रेटा थनबर्ग ने एमनेस्टी इंटरनेशनल का “एम्बेसडर ऑफ कॉनसाइंस” अवार्ड 2019 जीता। उन्हें यह सम्मान ग्लोबल वार्मिंग के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए दिया जा रहा है।

नोबेल पुरस्कार के लिए नामित

ग्रेटा जगह-जगह जाकर मंच पर भाषण देती हैं और लोगों को जागरूक करती हैं। आज का समय सोशल मीडिया का जमाना है। ग्रेटा सोशल मीडिया से भी लोगों तक अपनी बात पहुंचाती हैं, इसके लिए उन्होंने ट्विटर को चुना। ग्रेटा अपने भाषण में चेताते हुए कहती हैं, हम दुनिया के नेताओं से भीख नहीं माग रहे हैं। आपने हमें पहले भी नजरअंदाज किया है और आगे भी करेंगे। लेकिन अब हमारे पास वक्त नहीं है। हम आपको बताने आए हैं कि पर्यावरण खतरे में है। सही समय पर कार्बन उत्सर्जन को कम करने के प्रयास नहीं किए गए तो पृथ्वी के सभी जीवों का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा।

स्वीडिश एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग को नोबले शांति पुरस्कार के लिए नामित किया गया है। अगर उनको नोबेल पुरस्कार मिलता है तो वे सबसे कम उम्र में नोबेल पुरस्कार जीतने वाली शख्सियत बन जाएंगी। ग्रेटा थनबर्ग को नोबेल पुरस्कार मिले या न मिले लेकिन 16 साल की ये लड़की बहुत साहसिक और प्रेरणादायी काम कर रही है। जबकि लाखों लोग पर्यावरण के बारे में सोच ही नहीं रहे हैं, वे बस सरकार को कोसने का काम कर रहे हैं। हमें ग्रेटा थनबर्ग जैसे और भी लोगों की जरूरत है जो अपनी जिद पर अड़ जाएं और पर्यावरण को बचाने के लिए आगे आएं। 

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नए जल मंत्रालय को सबसे पहले पानी के इन मुद्दों पर ध्यान देना होगा

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नए जल मंत्रालय को सबसे पहले पानी के इन मुद्दों पर ध्यान देना होगाUrbanWaterFri, 06/14/2019 - 12:23

भारत का लगभग आधा हिस्सा पहले से ही सूखे की चपेट में है।भारत का लगभग आधा हिस्सा पहले से ही सूखे की चपेट में है।

वर्ष 2020 तक, 21 भारतीय शहरों में भूजल स्तर शून्य तक पहुंचने की उम्मीद है, जो 100 मिलियन लोगों के लिए पानी की पहुंच को प्रभावित करेगा। भारत का लगभग आधा हिस्सा गर्मियों के दौरान पहले से ही सूखे की चपेट में है और चेन्नई में वर्तमान जल संकट इसका ताजा उदाहरण है। नई सरकार अपने नवीनतम मंत्रालय, “जल शक्ति”  में पानी के मुद्दों को सुलझाने की कोशिश कर रही है। यह एक मंत्री के तहत पानी के मुद्दों पर सभी विभागों को लाने का वादा करती है। (इससे पहले इसे जल संसाधन, नदी विकास और गंगा कायाकल्प मंत्रालय के रूप में जाना जाता था।)

नए मंत्रालय का फोकस भारत की नदियों को जोड़ने के अपने कार्यक्रम को तेज करना और 2024 तक हर भारतीय घर में पानी सुनिश्चित करना है। यह कोई नई अवधारणा नहीं है, कई राज्यों की सरकार ने बिना ज्यादा सफलता के घरों में पानी पहुंचाने की कोशिश की है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लगभग 85 प्रतिशत वर्तमान ग्रामीण जल आपूर्ति योजनाएं भूजल स्रोतों पर आधारित हैं जो बारहमासी नहीं हैं। राजस्थान में मेरे पड़ोसी गाँव गोपालपुरा में पांच साल बाद भी जनस्वास्थ्य एवं अभियांत्रिकी विभाग द्वारा निर्मित पीने के पानी की टंकी खाली है। यह एक पाइप-लाइन के माध्यम से एक सूखे बोरवेल से जुडी हुई है। 

भूजल स्तर में गिरावट

देश के आधे से अधिक भूजल स्तर में गिरावट है, लाखों लोग अपर्याप्त या खराब जल गुणवत्ता प्राप्त कर रहे हैं। परिणामस्वरूप, समुदाय पीने के पानी के एकल या दूरस्थ स्रोत पर निर्भर करते हैं, जो अक्सर महिलाओं और लड़कियों के साथ भेदभाव को बढ़ाता है। एक और सर्वव्यापी वास्तविकता, सामान्य जन द्वारा जल-दबाव वाले क्षेत्र में भी पानी की बर्बादी है। घंटों तक, आप बिना नल के सड़कों या सड़कों पर बहती सार्वजनिक पाइप लाइनों को देख सकते हैं। नए मंत्रालय को भारत के लिए वास्तव में जल सुरक्षा प्रदान करने के लिए सोचने की आवश्यकता है। इसे पानी के निकायों को पुर्नस्थापित करना होगा और इसके भूजल को रिचार्ज करना होगा। केवल जब हमारी पीने के पानी की आपूर्ति बारहमासी सतह के जल स्रोतों पर आधारित होती है, तो हमारे पीने के पानी की सुरक्षा हासिल की जा सकती है।

मैं राजस्थान में एक हजार से अधिक किसानों के साथ काम करता हूं जिन्होंने पिछले चार वर्षों में स्प्रिंकलर तकनीकों को प्रभावी ढंग से लागू किया है। प्राप्त निष्कर्षों में प्रति एकड़ सिंचाई के लिए पानी की खपत में 40 प्रतिशत की कमी, सिंचाई के दौरान पानी की कमी में 30 प्रतिशत की कमी है। जिससे पानी की पंपिंग के लिए कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है, प्रति एकड़ सिंचाई के लिए आवश्यक मानव श्रम समय में 80 प्रतिशत की कमी होती है। 

ग्रामीण भारत में अभी भी मिट्टी और जल संरक्षण की अपार संभावनाएं हैं। सरकार को सीएसओ और सीएसआर को किसान और घरेलू स्तर पर वर्षा जल के प्रबंधन में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। पंचायत या जिला अधिकारियों को सामुदायिक स्तर पर जल संसाधनों को बहाल करना चाहिए। वर्तमान में, जल-समृद्ध जिलों या राज्यों से जल परिवहन को जल-संकट समाधान के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। मेरा मानना है कि यह एक अल्पकालिक आपातकालीन समाधान है, लेकिन एक स्थायी समाधान नहीं है। एक दशक से 150 किलोमीटर दूर जयपुर शहर ने टोंक के बीसलपुर से पानी आयात किया।  

हालांकि, अब बीसलपुर बांध अपने आप भर नहीं रहा है और स्थानीय सरकार द्वारा ब्राह्मणी और चंबल नदियों से पानी लाने की योजना बनाई जा रही है। कौन जानता है, इन नदियों को भी कितने दिनों के बाद कहीं और से पानी की आवश्यकता होगी। यह एक अंतहीन खेल है जो निश्चित रूप से दाता जिले, राज्य या बेसिन और प्राप्तकर्ताओं के बीच विवादों में परिणाम देगा। इस आयातित पानी का दुरुपयोग सबसे गंभीर अपराधों में से एक है। शहरों में उपयोगकर्ता आमतौर पर इस पानी के मूल्य को नहीं जानते हैं और इसे कार धोने, वर्षा, सड़क की सफाई आदि में उपयोग करते हैं जो कई किसानों के खेतों को पानी दे सकते हैं।

सरकार को मांग-प्रबंध पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यह तीन रणनीतियों द्वारा संभव है। पहला नियंत्रित-आपूर्ति, दूसरा मांग-नियंत्रण और तीसरा दीर्घकालिक जागरूकता होना चाहिए। पहले चरण में, सरकार को 24/7 की आपूर्ति के बजाय समय पर, रिसाव-प्रूफ और सुरक्षित-पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करनी चाहिए। दूसरा, सरकार को किसानों के लिए घरेलू स्तर या ड्रिप/स्प्रिंकलर जैसे कुशल पानी के उपयोग वाले उत्पादों और सेंसर-टैप एक्सेसरीज, ऑटोमैटिक मोटर कंट्रोलर आदि पर सब्सिडी देकर उपभोक्ताओं को प्रोत्साहित करना और उनकी सहायता करना चाहिए। वर्तमान में सार्वजनिक-सब्सिडी प्रणाली अक्षम हैं, भारी कागजी कार्रवाई और एक लंबी प्रक्रिया की आवश्यकता होती है जो किसानों को नई सिंचाई तकनीकों को अपनाने से हतोत्साहित करती है। देश की खाद्य सुरक्षा को प्रभावित किए बिना सिंचाई स्तर पर पानी के उपयोग को नियंत्रित करना, सबसे महत्वपूर्ण विचार है क्योंकि यह 85 प्रतिशत भूजल का उपभोग करता है।

जल संरक्षण के कुछ सुझाव

मैं राजस्थान में एक हजार से अधिक किसानों के साथ काम करता हूं जिन्होंने पिछले चार वर्षों में स्प्रिंकलर तकनीकों को प्रभावी ढंग से लागू किया है। प्राप्त निष्कर्षों में प्रति एकड़ सिंचाई के लिए पानी की खपत में 40 प्रतिशत की कमी, सिंचाई के दौरान पानी की कमी में 30 प्रतिशत की कमी है। जिससे पानी की पंपिंग के लिए कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है, प्रति एकड़ सिंचाई के लिए आवश्यक मानव श्रम समय में 80 प्रतिशत की कमी होती है। जिसमें अप्रत्यक्ष रूप से निराई-गुड़ाई में कमी आती है और मिट्टी की लवणता, कम कीट और बीमारी के छापे और कम खरपतवार की प्रतिस्पर्धा कम होने से फसल की पैदावार और गुणवत्ता में 20 फीसदी की वृद्धि हुई है।

तीसरा, राष्ट्रीय स्तर पर जल-साक्षरता प्राथमिक ध्यान होना चाहिए। जो अब तक गंभीरता से नहीं किया गया है। यह समय है कि पानी की बचत, संरक्षण पर कक्षाओं में विशेष मॉड्यूल पेश किए जाएं। सरकार की जल संबंधी योजनाओं को अपने माता-पिता को सूचित करने और प्रभावित करने के लिए उच्च-माध्यमिक और कॉलेज स्तर के युवाओं को जागरूक  होना चाहिए। वार्षिक या मासिक कार्यक्रम के बजाय, कुशल जल साक्षरता हमारी शिक्षा प्रणाली का घटक होना चाहिए। राष्ट्रीय स्तर पर  जल साक्षरता में, जल सरंक्षण में लगे जमीनी कार्यकर्ताओं के अनुभव से सिर्फ सीखा ही नहीं जा सकता, बल्कि उनका साथ लेकर इसे महा-अभियान बनाया जा सकता है। ये सब मानसून की पहली बूंद के साथ बंद नहीं होना चाहिए।  

भारत सरकार को सभी स्थानीय अधिकारियों को अपने अधिकार क्षेत्र के तहत जल निकायों के छह महीने के नक्शे के भीतर प्रकाशित करने के लिए आदेश देना चाहिए। राजस्व विभाग द्वारा इन दस्तावेजों को सीमांकित, अधिसूचित और राजपत्रित किया जाना चाहिए। इन जल निकायों, झीलों, नालों, नदियों, नालों आदि के लिए ‘भूमि उपयोग में कोई परिवर्तन नहीं’ का प्रावधान होना चाहिए। सरकार को भूजल के निष्कर्षण और पुनर्भरण के लिए नियमों के साथ जलमार्ग और जल निकायों के उपयोग को भी सीमित करना चाहिए। इसमें सभी निषिद्ध परिचालनों की सूची होनी चाहिए, जैसे अवैज्ञानिक रेत खनन, ड्रेजिंग और अलंकरण, आदि जो एक जल निकाय को खतरे में डाल सकते हैं, उन्हें उपयुक्त भारतीय दंड संहिता के तहत अधिकतम दंड के साथ लगाए गए अपराधों के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए।

रेत के कारण नदियों की हत्या हो रही है। सरकार को एक निर्माण सामग्री के रूप में रेत के विकल्प की पहचान करनी चाहिए। यदि वास्तविक रूप से संभव हो तो रेत का आयात एक अल्पकालिक समाधान हो सकता है। आखिरकार हम नहीं चाहते कि हमारी नदियां तस्वीरों में हमारे घर की दीवारों पर लटकी हों। नई सरकार को प्रकृति आधारित समाधानों, पारिस्थितिक बहाली का कार्यक्रम शुरू करना होगा। जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए लचीलापन बनाने और आजीविका उत्पन्न करने के लिए। नए जल शक्ति मंत्रालय का मूल दर्शन नदियों का पुनर्जीवन, संरक्षण, नदी पर प्रदूषण भार को रोकने और जलीय पुनर्भरण और निर्वहन के बीच संतुलन स्थापित करना होना चाहिए।

(लेखक जाने माने जन-संगठन तरुण भारत संघ के कार्यकारी निदेशक हैं,  भारत  के शुष्क राज्यों में  स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर वर्षा-जल संचयन जैसे रचनात्मक कार्य  कर रहे हैं।)

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