Quantcast
Channel: Front Page Feed
Viewing all 2534 articles
Browse latest View live

मातृशक्ति ने थामी गंगा रक्षा की कमान, होगा आंदोलन

$
0
0
मातृशक्ति ने थामी गंगा रक्षा की कमान, होगा आंदोलनUrbanWaterMon, 06/17/2019 - 11:31

मातृ सदन में स्वामी शिवानंद और ब्रम्हचारी आत्मबोधानंद।मातृ सदन में स्वामी शिवानंद और ब्रम्हचारी आत्मबोधानंद।

गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए मातृसदन बीस वर्षों से संघर्षरत है। हरिद्वार की पवित्र भूमि पर गंगा की रक्षा के लिए मातृसदन के दो संत स्वामी निगमानंद और प्रख्यात वैज्ञानिक स्वामी ज्ञानस्परूप सानंद उर्फ प्रो. जीडी अग्रवाल अपने प्राणों की आहुति दे चुके हैं, लेकिन इसके बावजूद भी गंगा के प्रति शासन और प्रशासन की उदासीनता कम नहीं हुई। विभिन्न योजनाओं में करोड़ों रुपये व्यय करने के बाद भी गंगा में प्रदूषण कम नहीं हुआ। केंद्र सरकार और नेशनल मिशन फाॅर क्लीन गंगा (एनएमसीजी) द्वारा गंगा की रक्षा के लिए मातृसदन को दिए लिखित आश्वासन पर भी अभी तक अमल नहीं किया गया है। केंद्र सरकार और एनएमसीजी के इस रवैया से रुष्ठ होकर मातृसदन ने अब पहले से वृहद आंदोलन का बिगुल फूंक दिया है और इस बार मातृसदन के आंदोलन को देशभर में फैलाते हुए मातृशक्ति मातृसदन के आंदोलन की बागडोर संभालेंगी तथा आंदोलन को धार देने का काम करेंगी। इससे पूर्व गंगा की रक्षा हेतु मातृसदन को दिए आश्वासन को पूरा करने के लिए सरकार को दो माह का समय दिया गया है।

गंगा की अविरलता के लिए मातृसदन के स्वामी निगमानंद ने 19 फरवरी 2011 को अनशन शुरू किया था। अनशन के 68वें दिन 27 अप्रैल  को प्रशासन ने उन्हें जबरन उठाकर अस्पताल में भर्ती कराया था। आरोप था कि अस्पताल में नर्स द्वारा इंजेक्शन देने के बाद निगमानंद कोमा में चले गए, जिसके बाद उन्हें देहरादून स्थित जोलीग्रांट में भर्ती कराया गया था, जहां 46 दिन तक इलाज के बाद 11 जून 2011 को स्वामी निगमानन्द को मृत घोषित कर दिया गया। यही स्वामी सानंद के साथ हुआ।

24 जून 2018 को स्वामी सानंद के गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए विशेष एक्ट पास करने की मांग को लेकर अनशन शुरू किया था। अनशन के 110वे दिन 10 अक्टूबर को उन्हें जबरन उठाकर ऋषिकेश एम्स में भर्ती कराया गया। 11 अक्टूबर की सुबह तक वे बिलकुल सही हालत में थे और उन्होंने एक पत्र भी लिखा था, लेकिन दोपहर को उनका देहांत हो गया। स्वामी सानंद की मांगो के समर्थन में मातृसदन के ब्रह्मचारी 24 अक्टूबर को अनशन पर बैठे। उन्होंने नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा के महानिदेशक राजीव रंजन मिश्रा के आश्वाशन पर 194 दिन बाद 4 मई 2019 को अनशन समाप्त किया। एनएमसीजी के महानिदेशक के भोगपुर से बिशनपुर कुण्डी तक गंगा के पांच किलोमीटर के दायरे के खनन पर रोक लगाने,  गंगा के किलोमीटर के दायरे में स्टोन क्रेशर बंद करने, गंगा पर बन रही बिजली परियोजनाओं पर दोबारा समीक्षा कर जल्दी की कार्यवाही करने सहित अन्य आश्वासन दिए थे, लेकिन अभी तक धरातल पर कार्य होता नहीं दिखा रहा है।

मातृ सदन में गोष्ठी में संबोधित करते स्वामी शिवानंद। मातृ सदन में गोष्ठी में संबोधित करते स्वामी शिवानंद।

जिसके चलते मातृसदन ने देशभर के गंगाप्रेमियों के आंदोलन को लेकर उनके विचार मांगे और स्वामी निगमानंद की पुण्यतिथि पर मातृसदन में गोष्ठी का आयोजन भी कराया गया। जिसमें सभी ने अनशन शुरू करने का समर्थन किया, लेकिन मातृसदन को दिए गए आश्वाशन को पूरा करने के लिए सरकार और एनएमसीजी को दो माह का समय देने की बात कही। लेकिन इस बार ब्रह्मचारी आत्मबोधनंद, ब्रह्मचारी दयानंद, पुण्यानंद सहित केदारघाटी से आई सुशीला भंडारी ने खुद भी अनशन पर बैठे की बात की, किन्तु पद्मावती ने स्वामी शिवानंद सरस्वती के समक्ष अनशन पर बैठने का संकल्प लिया। जिससे अब मातृसदन के आंदोलन को मातृशक्ति की ताकत मिल गयी है और ये पहली दफा होगा कि गंगा की रक्षा के लिए कोई महिला आमरण अनशन पर बैठेगी। इससे गंगा की रक्षा के लिये मातृसदन के आंदोलन को धार मिलेगी और इसे अब देशव्यापी आंदोलन बनाया जायेगा। स्वामी शिवानन्द सरस्वती ने कहा कि यदि सरकार बलिदान चाहती है तो हम बलिदान के लिए तैयार हैं। गंगा की रक्षा के लिए अंतिम सांस तक संघर्ष जारी रहेगा।

 

TAGS

matrisadan, swami shivanand, brahmachari atmabodhanand, swami sanand, swami nigmanand, hunger strike for ganga, matrisadan haridwar, clean ganga, save ganga, ganga, nmcg, pollution ganga, what is ganga river.

 

Disqus Comment

अब गंगा को बचाने की जिम्मेदारी हमारी है

$
0
0
अब गंगा को बचाने की जिम्मेदारी हमारी हैUrbanWaterTue, 06/18/2019 - 14:48
Source
दैनिक जागरण, 13 जून 2019

50 करोड़ से अधिक लोगों की आजीविका केवल गंगा के जल पर निर्भर है।50 करोड़ से अधिक लोगों की आजीविका केवल गंगा के जल पर निर्भर है।

धूमधाम से मनाए गए गंगा दशहरा को लेकर यह मान्यता है कि इसी दिन भागीरथ की घोर तपस्या के पश्चात मां गंगा का स्वर्ग से धरती पर अवतरण हुआ था। मां गंगा राजा सगर के साठ हजार पुत्रों का उद्धार करने के लिए धरती पर आईं थीं और तब से लेकर आज तक गंगा पृथ्वीवासियों को मुक्ति, शांति और आनंद प्रदान कर रही है। मां गंगा का दर्शन, स्पर्श, पूजन और स्नान ही मानव मात्र के लिए काफी है।
गंगा उत्तराखंड के गंगोत्री से निकली एक पावन नदी है। भारत जैसे आध्यात्मिक राष्ट्र में गंगा को मां का स्थान दिया गया है। गंगोत्री से पश्चिम बंगाल के गंगासागर तक गंगा के तट पर अनेक तीर्थ हैं।

50 करोड़ से अधिक लोगों की आजीविका केवल गंगा के जल पर निर्भर है। इसमें भी 25 करोड़ लोग तो पूर्ण रूप से गंगा के जल पर आश्रित हैं। स्पष्ट है कि गंगा आस्था ही नहीं, आजीविका का भी स्रोत है। नदियां केवल जल का नहीं बल्कि जीवन का भी स्रोत होती है। विश्व की अनेक संस्कृतियों और सभ्यताओं का जन्म नदियों के तट पर ही हुआ है। नदियां संस्कृति की संरक्षक हैं और संवाहक भी हैं। नदियों ने मनुष्यों को जन्म तो नहीं, परंतु जीवन दिया है। वास्तव में जिस प्रकार मनुष्य को जीने का अधिकार है, उसी प्रकार हमारी नदियों को भी स्वच्छंद होकर अविरल एवं निर्मल रूप से प्रवाहित होने का अधिकार है। नदियों को जीवनदायिनी कहा जाता है, फिर भी लाखों-करोड़ों लीटर प्रदूषित जल इनमें प्रवाहित किया जाता है। आज नदियों में शौच करना, फूल और पूजन सामग्री डालना, उर्वरक कीटनाशक डालना आम बात हो गई है।

समय के साथ अब सब कुछ बदलता नजर आ रहा है। जानकारी के अभाव और अवैज्ञानिक विकास के कारण हमने अपने प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया। जिसका परिणाम जीवनदायिनी नदियों का अमृततुल्य जल विषाक्त होता जा रहा है। नदियां सूखती जा रही हैं। कुछ नदियों का तो अब अस्तित्व ही नहीं बचा है। वे किताबों और कहानियों तक सीमित हो गई हैं। गंगा ने हमें जीवनदान दिया है, अब गंगा को जीवन देने की हमारी बारी है।  

इसी तरह से घरों, शहरों, उद्योगों से निकलने वाला अपशिष्ट जल बिना पुनर्नवीनीकरण एवं उपचारित किए विशाल मात्रा में नदियों एवं प्रकृति में प्रवाहित कर दिया जाता है। जो हमारे पर्यावरण को प्रदूषित करता है। इससे प्रकृति के मूल्यवान पोषक तत्व नष्ट हो रहे हैं और जलीय जीवन भी प्रवाहित हो रहा है। अनुपचारित जल से पेचिश, टायफाइड जैसी गंभीर बीमारियों में वृद्धि हो रही है। स्वच्छ जल, स्वच्छता एवं स्वच्छता सुविधाओं की आवश्यकता मनुष्य के साथ जलीय प्राणियों एवं पर्यावरण को भी है। तीव्र वेग से बढ़ती आबादी तथा औद्योगीकरण, शहरीकरण और अवैज्ञानिक विकास के कारण जल संसाधन विशेष रूप से नदियों का अपक्षरण हुआ है। भारत की 14 बड़ी नदियां प्रदूषित ग्रस्त हैं, जिसमें एक गंगा भी है। गंगा और अन्य नदियों में कूड़ा-कचरा, प्लास्टिक, नालों के गंदे पानी के साथ ही अधजले शवों को भी प्रवाहित किया जाता है।

आंकड़ों के अनुसार बनारस में एक साल में 33,000 से अधिक शवदाह होते हैं औन अनुमानतः 700 टन से अधिक अधजले कंकाल को प्रवाहित किया जाता है। इससे पतित पावनी गंगा का जल प्रदूषित हो रहा है। ये आंकड़े तो एक शहर के हैं। देश के अन्य धार्मिक स्थलों, गंगा तटों और कैचमेंट एरिया की स्थिति तो और भी चिंताजनक है। अतः हमारी शवदाह की पद्धति में परिवर्तन करना नितांत आवश्यक है। गंगा में प्रवाहित किए गए शव और अधजले शवों से जलीय जीवन प्रभावित होता है। शव जहां पर जाकर रूकते हैं उसके आस-पास का वातावरण दुर्गंधयुक्त एवं प्रदूषित हो जाता है। जागरूकता के अभाव में लोग मृत जानवरों को भी जल में प्रवाहित करते हैं, जिससे जल प्रदूषित होता है। इसे पूर्ण रूप से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। इसके साथ-साथ भंडारा, धार्मिक आयोजन और कुंभ के दौरान प्लास्टि के थैले, कप-प्लेट, बैग को पूर्ण रूप से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। नहीं तो इसके घातक परिणाम सामने आ सकते हैं।

पृथ्वी को ‘जलीय ग्रह’ कहा गया है और इसका सबसे अच्छा स्रोत महासागर और नदियां हैं। पृथ्वी का 71 प्रतिशत भाग जल से घिरा है। आज बढ़ते प्रदूषण के कारण यह जलीय ग्रह भी बिना जल के होने की कगार पर खड़ा है। तथ्य बताते हैं कि प्रदूषण के कारण एक ओर तो जल संकट बढ़ रहा है वहीं दूसरी ओर जलीय जीवन नष्ट हो रहा है। वर्तमान की बात करें तो विश्व की कुल आबादी का 18 प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है, परंतु यहां कुल जल संसाधनों का केवल चार प्रतिशत भाग ही मौजूद है। जाहिर है देश के जल संकट का समाधन करने के लिए नदियों को जीवंत रखना नितांत आवश्यक है। इसके लिए आदिकाल से ही हमारे ऋषियों-मुनियों ने नदियों और प्राकृतिक संसाधनों को अध्यात्म से जोड़ा था, ताकि उनका संरक्षण किया जा सके।

उनके लिए लोगों के दिलों में आस्था के साथ अपनत्व का भाव भी जाग्रत रहे, लेकिन समय के साथ अब सब कुछ बदलता नजर आ रहा है। जानकारी के अभाव और अवैज्ञानिक विकास के कारण हमने अपने प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया। जिसका परिणाम जीवनदायिनी नदियों का अमृततुल्य जल विषाक्त होता जा रहा है। नदियां सूखती जा रही हैं। कुछ नदियों का तो अब अस्तित्व ही नहीं बचा है। वे किताबों और कहानियों तक सीमित हो गई हैं। गंगा ने हमें जीवनदान दिया है, अब गंगा को जीवन देने की हमारी बारी है। गंगा सहित भारत की अन्य नदियों को स्वच्छ करने के लिए करोड़ों रुपए के प्रोजेक्ट बनाए गए और लागू भी हुए। फिर भी गंगा स्वर्ग लौटाने की स्थिति में पहुंच गई है। गंगा सहित भारत की अन्य नदियों को धरा पर देखना है तो हमें अपने दृष्टिकोंण में परिवर्तन करना होगा, सोच को बदलना होगा और गंगा को नदी की तरह नहीं। बल्कि एक जाग्रत स्वरूप, भारत की पहचान और अमूल्य धरोहर के रूप में संरक्षण प्रदान करना होगा।

यही हमारा संकल्प होना चाहिए। एक अच्छी बात यह है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गंगा के लिए जो कार्य किए जा रहे हैं वे पहले कभी नहीं हो पाए थे। इसे देखते हुए अगले पांच वर्षों में बहुत कुछ होने की संभावना है। फिर भी यदि गंगा को बचाना है तो हमें मां गंगा की ओर लौटना होगा। सरकार के साथ-साथ हम सभी का जो सरोकार है उसे समझना और ईमानदारी से निभाना होगा। इसके लिए एक सेतु बनाना होगा। यह भागीरथ सेतु होगा जो सभी को जोड़ेगा और सबसे जुड़ेगा। इस नवोदित प्रयास से ही हम गंगा जैसी जीवनदायिनी नदी को बचाने में सफल हो पाएंगे।

 

TAGS

pollution in ganga, gannga, namami gange project, pollute ganga, garbage in ganga, save ganga and clean ganga, water crisis, importance of ganga, ganga river.

 

ganga.jpg87.68 KB
Disqus Comment

धरती की कोख सोखने की तैयारी

$
0
0
धरती की कोख सोखने की तैयारीUrbanWaterWed, 06/19/2019 - 15:10

भारत इस समय गंभीर जल संकट से जूझ रहा है।भारत इस समय गंभीर जल संकट से जूझ रहा है।

भारत इस समय गंभीर जल संकट से जूझ रहा है। साफ पानी न मिलने के कारण हर साल दो लाख लोग जान गवां रहे हैं। देश के करीब 60 लाख लोग पानी की गंभीर किल्लत का सामना कर रहे हैं। वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए अनुमान लगाया जा रहा है कि बढ़ती आबादी के कारण 2030 तक भारत में पानी की मांग उपलब्धता से दोगुनी हो जाएगी। 2030 के बाद ये संकट और भी ज्यादा गहरा सकता है। जिससे भारत की जीडीपी में 6 प्रतिशत तक कमी आने की संभावना जताई जा रही है,  लेकिन इन सभी समस्याओं के बीच उत्तर प्रदेश में पांच करोड़ यूकेलिप्टिस के पौधे लगाने का निर्णय धरती की कोख को सोखने की तैयारी करने के समान प्रतीत हो रहा है। जिससे पानी की भीषण कमी झेल रहे उत्तर प्रदेश में निकट भविष्य में पानी की और बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है। जिसका नुकसान आसपास के इलाकों को भी उठाना पड़ेगा।

यूकेलिप्टिस प्रजाति के फूलदार वृक्ष आस्ट्रेलिया में प्रमुख हैं। आस्ट्रेलिया में यूकेलिप्टिस की छह सौ से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। यूकेलिप्टिस का पेड़ काफी तेजी से बढ़ता है और इसके तेल का इस्तेमाल सफाई और प्राकृतिक कीटनाशक आदि के रूप में किया जाता है। यूकेलिप्टिस को नीलगिरी भी कहा जाता है। जिसके फूल में काफी मात्रा में रस पैदा होता है, जो कीट, पक्षी, चमगादड़ और पाॅसम सहित अनेक सेचन करने वालों के भोजन के काम आता है। नीलगिरी की लकड़ी काफी लंबी, टिकाऊ और मजबूत होती है। इसकी लकड़ी पर पानी का भी कोई असर नहीं होता है। जिस कारण लकड़ी की बाजार में काफी मांग रहती है और आय भी अधिक होती है। ब्राजील की अर्थव्यवस्था को तो यूकेलिप्टिस से काफी फायदा भी हुआ था।

वर्ष 1951 में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 54 लाख 10 हजार लीटर थी, जो 40 साल बाद वर्ष 1991 में घटकर 23 लाख 1 हजार लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष रह गई। वर्ष 2001 में पानी की उपलब्धता प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति 19 लाख 2 हजार लीटर, जो वर्ष 2011 में घटकर 15 लाख 88 हजार लीटर पर पहुंच गई, लेकिन बढ़ती आबादी और संसाधनों का इसी प्रकार दोहन होता रहा तो, वर्ष 2025 में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता केवल 13 लाख 99 हजार लीटर ही रह जाएगी। 

ऑस्ट्रेलिया भी यूकेलिप्टिस के काफी आर्थिक लाभ उठा रहा है। आर्थिक दृष्टि से फायदेमंद होने के कारण अफ्रीका, अमेरिका, एशिया और यूरोप के 50 से ज्यादा देशों में यूकेलिप्टिस के पेड़ हैं। भारत में भी अब धीरे-धीरे किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर यूकेलिप्टिस के पौधों को लगाया गया और अब उत्तरप्रदेश वन विभाग भी पांच करोड़ यूकेलिस्टिस के पौधे लगाने की तैयारी में है। जिससे भूजल स्तर कम होने की आशंका से पर्यावरणविदो में हड़कंप मचा हुआ है। पर्यावरणविदों का मानना है कि बेशक यूकेलिप्टिस की खेती से काफी धन अर्जित किया जा सकता है, लेकिन धन-अर्जन के लाभ की इस दौड़ में यूकेलिप्टिस से होने वाले नुकसान को नजर अंदाज किया जा सकता है।

दरअसल, भारत जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 देशों में 120वें पायदान पर है। यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर के 180 करोड़ लोग पूरी तरह से दूषित पानी पीने को मजबूर हैं। दूषित पानी पीने के कारण दुनिया भर में हर साल 8 लाख 42 हजार लोगों की मौत होती है। भारत में भी पानी की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। भारत के जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़ो के अनुसार वाॅटर रिचार्ज न होने के कारण देश के 18 राज्यों का भूजल स्तर काफी तेजी से कम हो रहा है। सबसे बुरा हाल तमिलनाडु का है, जहां 374 इलाकों में भूमिगत जल काफी कम हो चुका है। सेंट्रल वाॅटर कमीशन की बीते वर्ष आई रिपोर्ट के अनुसार देशभर के 91 बड़े जलाशयों में 59 प्रतिशत पानी सूख चुका है। तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश के 31 जलाशयों में पानी 80 प्रतिशत तक कम हो गया है। तेलंगाना में दो बड़े जलाशयों में 62 प्रतिशत पानी बचा है, जबकि केरल के सभी बड़ें जलाशयों में पानी 50 प्रतिशत तक कम हो चुका है। केरल का दूसरा सबसे बड़ा जलाशय 94 प्रतिशत तक सूख गया है, जो हर तरफ से पानी से लबालब भरे केरल की एक भयावह तस्वीर बयां करते हैं।

पानी को स्वच्छ रखना समाज का संस्कार है, लेकिन ये संस्कार हमारे देश से गायब होता जा रहा है। जिस कारण भारत की संस्कृति और परंपराओं को जीवित रखने वाले गांव के लोग आज बूंद बूंद पानी का तरस रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय संस्था वाटर ऐड के मुताबिक ग्रामीण भारत में 6 करोड़ 30 लाख लोगों की पहुंच साफ पानी तक नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर के दस प्रतिशत प्यासे भारत के ग्रामीण इलाकों में रहते हैं, जो वैश्विक स्तर पर भारत की एक भयावह तस्वीर को प्रदर्शित करती है, लेकिन हमारी सरकार और प्रशासन विकराल होती पानी की समस्या के प्रति गंभीर नहीं दिख रहे हैं, जिसका अंदाजा यूपी में यूकेलिप्टिस के पेड़ो को लगाने  के निर्णय से लगाया जा सकता है।

दरअसल यूकेलिप्टिस की जड़ें जमीन में काफी गहराई तक जाती हैं और अन्य वृक्षों की अपेक्षा कई गुना जल सोखती हैं। जिस कारण मुख्यताः ऑस्ट्रेलिया और चीन में दलदल भूमि को सामान्य भूमि में परिवर्तित करने के लिए यूकेलिप्टिस के पेड़ लगाएं जाते हैं, लेकिन इसकी पत्तियों से वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया भी काफी तेजी से होता है। पेड़ों की संख्या अधिक होने से भू-जलस्तर में कमी आने लगती है। इससे भूमि की उर्वरता क्षमता प्रभावित होती है और भूमि बंजर होने लगती है, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार और वन विभाग दोनों ने ही इस ओर ध्यान दिए बिना ही 22 करोड़ पौधों का रोपण करने का निर्णय लिया, जिसमें पांच करोड़ यूलेलिप्टिस के पेड़ शामिल किये गए हैं। हालांकि 22 करोड़ पौधे लगाने का निर्णय काफी सकारात्मक पहल है, लेकिन यूकेलिप्टिस के स्थान पर सागौन, पोपलर, नीम, पीपल, बरगद आदि के मिश्रित प्रजातियों के पौधे लगाये जाने चाहिए, जिससे भूजल स्तर को बनाए रखा या रिचार्ज किया जा सके, जो भारत में सूखते जल स्त्रोतों को पुनर्जीवित कर भूमिगत जलस्तर को रिचार्ज करने में निश्चित रूप से सहायक सिद्ध होंगे। जिससे केवल सरकारी विभाओं के ही नहीं बल्कि जनभागीदारी से ही संभव बनाया जा सकता है।

कम हो रही प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता

वर्ष 1951 में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 54 लाख 10 हजार लीटर थी, जो 40 साल बाद वर्ष 1991 में घटकर 23 लाख 1 हजार लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष रह गई। वर्ष 2001 में पानी की उपलब्धता प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति 19 लाख 2 हजार लीटर, जो वर्ष 2011 में घटकर 15 लाख 88 हजार लीटर पर पहुंच गई, लेकिन बढ़ती आबादी और संसाधनों का इसी प्रकार दोहन होता रहा तो, वर्ष 2025 में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता केवल 13 लाख 99 हजार लीटर ही रह जाएगी। यानी 2025 में भारत में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 3 हजार 800 लीटर पानी उपलब्ध होगा। साल 2050 में स्थिति और भी भयावह हो जाएगी और वर्ष 2050 तक पूरी दुनिया की 40 प्रतिशत आबादी पानी की कमी वाले इलाकों में रहेगी।

Disqus Comment

सबको पेयजल पहुंचाने की चुनौती

$
0
0
सबको पेयजल पहुंचाने की चुनौतीUrbanWaterThu, 06/20/2019 - 16:42
Source
दैनिक जागरण, 20 जून 2019

हर घर पानी पहुंचाना बड़ी चुनौती।हर घर पानी पहुंचाना बड़ी चुनौती।

आजादी के बाद से ही बिजली-पानी को केन्द्र में रखकर चुनाव लड़े गए, लेकिन आम आदमी को बिजली, पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं अपेक्षा के अनुरूप उपलब्ध नहीं हो पाईं। 16वीं लोकसभा चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में बिजली, पानी, सड़क, शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं आम आदमी तक पहुंचाने का वादा किया था। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से 1,000 दिनों के भीतर अंधेरे में डूबे 18,452 गांवों तक बिजली पहुंचाने का लक्ष्य रखा जिसे तय समय से पहले हासिल कर लिया गया।

इसके बाद घर को रोशन करने के लिए सौभाग्य योजना शुरू की गई। इसे भी अभूतपूर्व कामयाबी मिली। इसी तरह का अभियान शौचालय बनवाने के लिए चलाया गया। 2014 में जहां 33 फीसद परिवारों तक शौचालय सुविधा थी वहीं 2019 में यह अनुपात बढ़कर 99 फीसद तक पहुंच गया। जिस देश में योजनाओं की लेटलतीफी का रिकाॅर्ड रहा हो वहां ऐसी उपलब्धि किसी क्रांति से कम नहीं हैं। बिजली आपूर्ति और शौचालय निर्माण को मिली अभूतपूर्व कामयाबी से उत्साहित भाजपा ने 17वीं लोकसभा चुनाव से पहले जारी संकल्प पत्र में वादा किया कि सत्ता में वापसी पर जल प्रबंधन के लिए नए मंत्रालय का गठन करेंगे। सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनावी वादे को अमली जामा पहनाते हुए जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय के साथ-साथ पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय का विलय कर नए जलशक्ति मंत्रालय का गठन कर दिया। मंत्रालय ने अपनी पहली बैठक में ही 2024 तक देश के हर घर तक ‘नल से जल’ पहुंचाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय कर दिया है।

2013-14 में गांवों में पाइपलाइन के जरिये पानी पहुंचाने की वृद्धि दर 12 फीसद थी वह 2017-18 में बढ़कर 17 फीयद हो गई। इस कार्यक्रम के तहत फरवरी 2017 में राष्ट्रीय जल गुणवत्ता योजना शुरू की गई। इसके तहत 2020 तक आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रभावित 28,000 बस्तियों को साफ पानी देने का लक्ष्य है। 2018-19 से 2022-23 तक पांच वर्षों के लिए विश्व बैंकों के सहयोग से भूजल प्रबंधन के लिए 6,000 करोड़ रुपए की लागत से अटल भूजल योजना लागू की गई।

जिस देश में 82 फीसद ग्रामीण परिवारों की साफ पेयजल तक पहुंच न हो वहां पांच साल के अंदर 14 करोड़ घरों तक नल से जल पहुंचाना असंभव नहीं तो मुश्किल काम जरूर है। इसका कारण है कि देश के ग्रामीण इलाकों में स्वच्छ पेयजल की स्थिति बेहद गंभीर है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश के 22 फीसद ग्रामीण परिवारों को पानी लाने के लिए आधा किलोमीटर और इससे अधिक दूर पैदल चलना पड़ता है। इनमें से अधिकतर बोझ महिलाओं को ढोना पड़ता है। गांवों में 15 फीसद परिवार बिना ढके कुओं पर निर्भर हैं तो अन्य लोग दूसरे अपरिष्कृत पेयजल संसाधनों जैसे नदी, झरने, तालाबों आदि पर निर्भर रहते हैं। महज 18 फीसद परिवारों के पास ही पाइपलाइन से स्वच्छ पेयजल की सुविधा है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे कुछ राज्यों में जलापूर्ति की स्थिति बेहद खराब है जहां पाइपलाइन से आपूर्ति पांच प्रतिशत से भी कम है। अभी देश के एकमात्र राज्य सिक्किम के 99 फीसद घरों में नलों से जलापूर्ति की जाती है। इसके बाद गुजरात का स्थान जहां 75 फीसद लोगों को पाइपलाइन से पेयजल मिलता है।

जलापूर्ति की ऐसी स्थिति के बावजूद कई राज्य सरकारें केन्द्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय पेयजल कार्यक्रम के तहत आवंटित धनराशि का भी उपयोग नहीं कर पाती हैं। नीति आयोग ने 2018 में अपने दृष्टिकोंण पत्र में बताया था कि 60 करोड़ भारतीय गंभीर जल संकट से जूझ रहे हैं। हर साल दो लाख लोग साफ पानी न मिलने से होने वाली बीमारियों के कारण मौत के मुंह में समा जाते हैं। अनुमान है कि 2030 तक देश में पानी की मांग आज की तुलना में दो गुनी हो जाएगी। यदि इसे पूरा नहीं किया गया तो इससे सकल घरेलू उत्पाद में छह प्रतिशत तक गिरावट आ सकती है। सबसे चिंता की बात यह है कि देश में 70 प्रतिशत जल भंडार प्रदूषित हो चुके हैं। इसका कारण केन्द्रीय भूजल बोर्ड की भीमकाय परियोजनाएं हैं जिन्हें 1970 के दशक में भौगोलिक परिस्थितियों की उपेक्षा करके लागू किया गया, जिनसे भूजल का तेजी से दोहन हुआ।

यह विडंबना ही है कि जो देश चांद पर उपग्रह प्रक्षेपित कर चुका हो वहां की 82 फीसद ग्रामीण आबादी साफ पानी के लिए तरस रही है। ऐसा नहीं है कि आजादी के बाद गांवों में पेयजल पहुंचाने की योजनाएं नहीं बनीं। कई योजनाएं बनीं और धन का आवंटन भी हुआ, लेकिन जवाबदेही की कमी और भ्रष्टाचार के चलते नतीजे ढाक के तीन पात वाले रहे। ग्रामीण इलाकों में पेयजल की समस्या दूर करने के लिए भारत सरकार ने पहला ठोस प्रयास 1986 में किया, जब राष्ट्रीय पेयजल मिशन की शुरूआत की गई। आगे चलकर इसका नाम बदलकर राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन कर दिया गया। इसके तहत ग्रामीण इलाकों में प्रतिदिन में 40 लीटर सुरक्षित पेयजल मुहैया कराने का लक्ष्य रखा गया। इस कार्यक्रम को उपेक्षित सफलता न मिलने पर 2009 में राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम शुरू हुआ, लेकिन राजनीतिक-प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते इसे भी सफलता नहीं मिली। 2014 में मोदी सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम को पुनर्गठित करते हुए इसे परिणामोन्मुखी और प्रतिस्पर्धी बनाया।

इसका नतीजा यह हुआ कि जहां 2013-14 में गांवों में पाइपलाइन के जरिये पानी पहुंचाने की वृद्धि दर 12 फीसद थी वह 2017-18 में बढ़कर 17 फीयद हो गई। इस कार्यक्रम के तहत फरवरी 2017 में राष्ट्रीय जल गुणवत्ता योजना शुरू की गई। इसके तहत 2020 तक आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रभावित 28,000 बस्तियों को साफ पानी देने का लक्ष्य है। 2018-19 से 2022-23 तक पांच वर्षों के लिए विश्व बैंकों के सहयोग से भूजल प्रबंधन के लिए 6,000 करोड़ रुपए की लागत से अटल भूजल योजना लागू की गई। इसमें उन इलाकों पर फोकस किया जा रहा है जहां भूजल का अतिदोहन किया गया है। राजनीतिक-प्रशासनिक प्रतिबद्धता और सतत निगरानी से हर घर तक नल से जल पहुंचाने में सरकार भले ही कामयाब हो जाए, लेकिन इन नलों से जलापूर्ति होती रहे। इसके लिए अलग से प्रयास करने होंगे। गौरतलब है कि देश में औसत 117 सेंटीमीटर बारिश होती है जिसमें महज छह प्रतिशत का भंडारण हो पाता है। 

इसके अलावा कई तरह की भौगोलिक, तकनीकी और आर्थिक कठिनाइयां आएंगी जैसे ग्रामीण इलाकों में वोल्टेज उतार-चढ़ाव से मोटर की खराबी, पाइपलाइन का रखरखाव, पानी का लीकेज। इसे देखते हुए न ल से जल को पूरा करने के लिए सरकार ने लचीला दृष्टिकोंण अपनाने का निश्चय किया है। इसके तहत भूजल भूजल और सतह के जल, दोनों का ही इस्तेमाल किया जाएगा जो क्षेत्र विशेष की परिस्थितियों पर निर्भर रहेगा। सबसे बढ़कर इस योजना में आपूर्ति में संतुलन बनाए रखने के लिए जल संरक्षण पर जोर दिया जाएगा। इसके लिए सरकार जलदूतों की नियुक्ति करेगी।

(लेखक केंद्रीय सचिवालय सेवा में अधिकारी हैं)

Disqus Comment

चिंताजनकः हिमालय के ग्लेशियर दोगुनी गति से पिघल रहे हैं

$
0
0
चिंताजनकः हिमालय के ग्लेशियर दोगुनी गति से पिघल रहे हैंUrbanWaterSat, 06/22/2019 - 12:14
Source
हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, 20 जून 2019

जलवायु परिवर्तन ग्लेशियरों को खा रहा है।जलवायु परिवर्तन ग्लेशियरों को खा रहा है।

अमेरिकी जासूसी उपग्रहों की तस्वीरों से वैज्ञानिकों ने नतीजा निकाला, ग्लेशियरों के पिघले से प्रतिवर्ष आठ अरब टन जल की हानि। ग्लेशियर से निकलने वाली नदियों पर भारत, चीन, नेपाल, भूटान की 80 करोड़ आबादी निर्भर है। इन नदियों से सिंचाई, पेयजल और विद्युत उत्पादन किया जाता है। ग्लेशियर पिघल गए तो तमाम संसाधन खत्म हो जाएंगे।

ग्लोबल वार्मिंग एक बहुत बड़ी समस्या बन गया, जिससे खतरे की आशंका दिनों दिन बढ़ती जा रही है। इसी बढ़ते तापमान के कारण हिमालय के साढ़े छह सौ ग्लेशियर पर भी बड़ा खतरा मंडरा रहा है। एक अध्ययन में दावा किया गया है कि ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार पहले से दोगुनी हो गई है।

पानी की क्षति

साइंस एडवांसेज जर्नल में प्रकाशित शोध के मुताबिक 1975 से 2000 के बीच ये ग्लेशियर प्रति वर्ष 10 इंच घट रहे थे लेकिन 2000 से 2016 के दौरान प्रति वर्ष 20 इंच तक घटने लगे। इससे करीब आठ अरब टन पानी की क्षति हो रही है। कोलंबिया विश्वविद्यालय के अर्थ इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं ने उपग्रह से लिए गए 40 वर्षों के चित्रों को आधार बनाकर यह शोध किया है। ये चित्र अमेरिकी जासूसी उपग्रहों द्वारा लिए गए थे। इन्हें थ्री डी माड्यूल में बदल कर अध्ययन किया गया। तस्वीरें भारत, चीन, नेपाल व भूटान में स्थित 650 ग्लेशियर की हैं। जो पश्चिम से पूर्व तक दो हजार किमी. में फैले हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन ग्लेशियरों को खा रहा है।

हिमालय क्षेत्र में तापमान एक डिग्री बढ़ा

शोध के मुताबिक 1975-2000 और 2000-2016 के बीच हिमालय क्षेत्र के तापमान में करीब एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई। जिससे ग्लेशियरों के पिघलने की दर बढ़ गई। हालंाकि सभी ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार एक समान नहीं है। कम ऊंचाई वाले ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। कुछ ग्लेशियर तो पांच मीटर सालाना तक पिघल रहे हैं।

खतरा 

  • ग्लेशियर पिघलने से ऊंची पहाड़ियों में कृत्रिम झीलों का निर्माण होता है। इनके टूटने से बाढ़ की संभावना बढ़ जाती है जिससे ढलान में बसी आबादी के लिए खतरा उत्पन्न होता है।
  • ग्लेशियर से निकलने वाली नदियों पर भारत, चीन, नेपाल, भूटान की 80 करोड़ आबादी निर्भर है। इन नदियों से सिंचाई, पेयजल और विद्युत उत्पादन किया जाता है। ग्लेशियर पिघल गए तो तमाम संसाधन खत्म हो जाएंगे।

60 करोड़ टन बर्फ             

हिमालय के 650 ग्लेशियरों में करीब 60 करोड़ टन बर्फ जमी हुई है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के बाद यह तीसरा बड़ा क्षेत्र है जहां इतनी बर्फ है। इसे हिमालयी ग्लेशियर क्षेत्र को तीसरा ध्रुव भी कहते हैं। ग्लेशियर पिघलने से हर साल आठ अरब टन पानी बर्बाद हो रहा है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में बर्फ पिघलने से समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है। इसलिए कई द्वीपों पर खतरा बढ़ेगा।
 

Disqus Comment

हिमालयी जैव विविधता पर खतरा है काली बासिंग

$
0
0
हिमालयी जैव विविधता पर खतरा है काली बासिंगUrbanWaterMon, 06/24/2019 - 10:35
Source
विज्ञान प्रगति, जून, 2019

काली बासिंग जैव विविधता पर कैंसर की तरह है।काली बासिंग जैव विविधता पर कैंसर की तरह है।

काली बासिंग जैव विविधता पर कैंसर की तरह है जो अन्य पौधों से पोषक पदार्थों और आवास के लिए प्रतिस्पर्धा करता है, सफल भी होता है। जिसके कारण अन्य पौधों को पोषक तत्व और आवास नहीं मिल पाता। वो धीरे-धीरे कम हो जाती है जिससे जैविक रूप से महत्वपूर्ण प्रजातियां संकटग्रस्त हो रही हैं जिसका प्रभाव प्रकृति से मिलने वाले पदार्थों पर पड़ रहा है।

जैविक आक्रमण आज जैव विविधता के लिए सबसे बड़ा खतरा माना जा रहा है और जैव विविधता की हानि और स्थानीय प्रजातियों के विलुप्त होने के लिए प्राथमिक कारण के रूप में जाना जाता है। विदेशी जातियां जो स्थानीय रूप से प्रभारी हो जाती हैं और प्राकृतिक समुदायों पर आक्रमण करती हैं उन्हें आक्रमक प्रजाति के रूप में जाना जाता है। एक आक्रमणकारी पौधे, पशु या सूक्ष्म जीवों की एक प्रजाति है जो आम तौर पर मनुष्यों के द्वारा अनजाने या जानबूझकर कर नुकसान पहुंचाया जाता है। आक्रमणकारी प्रजातियां अपने आक्रामक स्वभाव के कारण त्वरित गति से अपने अधिग्रहण क्षेत्र का विस्तार करती हैं और स्थानीय जातियों से प्रतिस्पर्धा करती हैं। धीरे-धीरे पूरे क्षेत्र में अपना साम्राज्य स्थापित कर लेती हैं। 

काली बासिंग को नियंत्रित करने के लिए प्रोसेसिडोकेर्स यूटिलिस का प्रयोग किया जा रहा है, लेकिन यह केवल पौधों के तनों पर गाॅल बनाता है तथा पौधे को अधिक नुकसान नहीं पहुंचता तथा इसका प्रयोग भी अधिक सफल नहीं हो पा रहा है। अतः भविष्य में हमें जैवविविधता को बचाने के लिए काली बासिंग का इसके अतिदोहन के द्वारा ही इसका उन्मूलन किया जा सकता है। इसके गुणों का उपयोग कई लाभदायक उत्पाद भी प्राप्त किये जा सकते हैं। 

काली बासिंग या वनमारा एस्टरेसी कुल का एक विदेशी पौधा है जिसकी उत्पत्ति का स्थान उत्तरी अमरीका का मैक्सिको माना जाता है और यह पूरे विश्व में अनाज के बीजों के साथ यहीं से फैला। यह पौधा समुद्र तल से 4000 फीट से 6500 फीट पर सार्वाधिक रूप से पाया जाता है। हिमालयी क्षेत्र की जलवायु इसके लिए सबसे अनुकूल मानी जाती है इसी कारण यह इन क्षेत्रों में सर्वाधिक रूप से पाया जाता है। काली बासिंग पूरी दुनिया के लिए आतंक बना हुआ है। यह पौधा मुख्य रूप से ऊष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों एंव शीतोष्ण क्षेत्रों जैसे अमरीका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी अफ्रीका, भारत, थाइलैण्ड और चीन में बहुत तेजी से फैल रहा है। यह पौधा लगभग 93 देशों और 250 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर फैला हुआ है। 

अपने गुणों के कारण यह पौधा बहुत कम समय में ही पूरी दूनिया में पैर पसार चुका है। उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन के साथ खेत बंजर हो रहे हैं इन पर पनपने के लिए इसको स्थान मिल रहा है। यहां चीड़ और बांज दोनों के जंगलों में हर साल आग लगती रहती है जिसके कारण यहां की वनस्पतियां तो समाप्त हो रही हैं लेकिन इनकी जगह काली बासिंग ले रहा है। बांज के जंगलों में इसको नमी के साथ-साथ पोषक पदार्थ भी प्राप्त होते हैं इसलिए यहां भी यह तेजी से फैल रहा है। इसके अलावा पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन के कारण खाली हो चुके खेतों और नई बन रही सड़कों में भी यह बहुत तेजी से बढ़ रहा है। जो जैव विविधता को नुकसान पहुंचा रहा है।

काली बासिंग के कुप्रभाव 

काली बासिंग के द्वारा वनों, कृषि योग्य भूमि, छोटी नदियों, चरागाहों पर कब्जा कर लिया गया है जिसके कारण वनों से मिलने वाले वस्तुएं नहीं मिल पा रही हैं। दुधारु जन्तुओं के लिए चारा उपलब्ध नहीं हो रहा है। छोटी नदियां सूख रही हैं और पानी की कमी के कारण खेतों को पानी नहीं मिल रहा पा रहा है। काली बासिंग को फैलाने में मनुष्य का बड़ा हाथ रहा है मैक्सिको से भारत की यात्रा भी मनुष्य के द्वारा की गयी। आज यह नदियों के द्वारा लायी जाने वाली रेत के कारण यह दूर-दूर तक फैल रहा है और नई जगहों पर उग रहा है। काली बासिंग हवा के द्वारा अपने आस पास के क्षेत्र में फैलता रहता है। 

काली बासिंग वहां पर अधिक पाया जाता है जहां औषधीय पौधे अधिक पाये जाते हैं। इसके कारण कई औषधीय पौधे जैसे- समुया, जीरा हल्दी, ब्राम्ही, कन्डाली, पुदीना, किनगौड़ आदि धीरे-धीरे कम हो रहे हैं और विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुके हैं। काली बासिंग के अतिक्रमण के कारण जंगलों और चारागाहों में घास कम हो रही है जिसकी वजह से पालतू पशुओं के लिए चारा नहीं मिल पा रहा है। जिससे दूध की मात्रा घट रही है और पशुओं की कार्य क्षमता कम हो रही है जिसका प्रभाव प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हमारी आर्थिक और शारीरिक स्वास्थय पर पड़ा है। हमारे क्षेत्र में पायी जाने वाली छोटी नदियों के किनारे काली बासिंग की मात्रा बढ़ रही है जिसके कारण पानी की मात्रा कम हो रही है और खेतों के लिए पानी नहीं मिल पा रहा है। छोटी नदियों में पाई जाने वाली निमैकैलिस मछली तो लगभग गायब हो चुकी है। काली बासिंग की झाड़ियां नमी वाले क्षेत्रों में बहुत अधिक फैल रही है और सुअर भी नमी वाले स्थानों पर अधिक रहते हैं जिसके कारण सुअरों को पर्याप्त एवं आरामदायक आवास उपलब्ध हो रहा है। जिसके कारण उनकी जनसंख्या में बहुत अधिक वृद्धि हो रही है। 

काली बासिंग के उपयोग

पर्वतीय क्षेत्रों में यूपैटोरियम एडेनोफोरम की जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है इसकी जनसंख्या बढ़ने का मुख्य कारण है एक तो इसके एलीलेपैथिक गुणों के कारण असके आस पास कोई भी पौधा वृद्धि नहीं कर पाता है। दूसरा इसकी पत्तियों को कोई भी जन्तु नहीं खाता और यह पौधा आसानी से कहीं भी उग सकता है, बड़ी तेजी से वृद्धि करता है। इसकी गन्ध से कई जीव दूर भागते है इसकी इन्हीं खूबियों का इस्तेमाल कर इससे कई तरह के पदार्थ बनाए जा सकते हैं जिससे यहां के स्थानीय लोग इसका इस्तेमाल अपनी जीविकोपार्जन के लिए कर सके और जैवविविधता को नष्ट होने से बचाया जा सके।

हरी खाद के रूप में

काली बासिंग को हरी खाद के रूप में प्रयोग करने के लिए सबसे पहले इसके पौधों को जड़ से काटकर लाया जाता है फिर इसके कोमल भागों एंव पत्तियों को काटकर इसके छोटे छोटे टुकड़े किए जाते हैं ताकि ये मिट्टी के साथ आसानी से मिल जाये। खेतों में हल चलाते समय भी नालियां बनाकर उसमें काली बासिंग की पत्तियों एंव कोमल तनों को डालकर उसके ऊपर पाटा लगा दिया जाता है जिससे ये मृदा के नीचे दब जाते हैं और सड़ने के बाद इनकी खाद बन जाती है।

धूमक के रूप में-उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में मच्छरों की संख्या लगातार बढ़ रही है इसकी पत्तियों तथा टहनियों को सुखाकर जलाने से मच्छर दूर भागते हैं। इनको भागने के लिए भी काली बासिंग का उपयोग किया जा सकता है।

जैव उर्वरक के रूप में-इसका प्रयोग जैव उर्वरक के रूप है तथा साथ ही साथ इसका उपयोग हरी खाद के रूप में भी किया जा सकता है। 

जैविक दवाईयों-इसका प्रयोग कई प्रकार की दवाईयां बनाने के लिए भी किया जा रहा है। जैसे यदि चोट लग जाती है तो घाव को संक्रमण से बचाने के लिए इस पर काली बासिंग की पत्तियों को पीसकर लगा दिया जाता है। तथा रक्त प्रवाह को रोकने के लिए भी इसका प्रयोग किया जा रहा है। इसका प्रयोग प्रतिदाह या सूजन कम करने के लिए भी किया जाता है।

भूमि संरक्षण-जहां एक तरफ काली बासिंग छोटे पौधों को नष्ट करता है वहीं यह मृदा संरक्षण का कार्य भी करता है क्योंकि इसकी जड़ें मिट्टी को जकड़ कर रखती हैं। जहां पर मृदा कटाव बड़ी तेजी से हो रहा है वहाँ पर इसका उपयोग किया जा सकता है।

काली बासिंग का जैविक नियंत्रण

काली बासिंग को नियंत्रित करने के लिए प्रोसेसिडोकेर्स यूटिलिस का प्रयोग किया जा रहा है, लेकिन यह केवल पौधों के तनों पर गाॅल बनाता है तथा पौधे को अधिक नुकसान नहीं पहुंचता तथा इसका प्रयोग भी अधिक सफल नहीं हो पा रहा है। अतः भविष्य में हमें जैवविविधता को बचाने के लिए काली बासिंग  का इसके अतिदोहन के द्वारा ही इसका उन्मूलन किया जा सकता है। इसके गुणों का उपयोग कई लाभदायक उत्पाद भी प्राप्त किये जा सकते हैं।

himalya.jpg546.33 KB
Disqus Comment

प्रसिद्ध सरसईनावर वेटलैंड के सूखने से सारस पानी-पानी का मोहताज 

$
0
0
प्रसिद्ध सरसईनावर वेटलैंड के सूखने से सारस पानी-पानी का मोहताज UrbanWaterMon, 06/24/2019 - 16:05

राज्य पक्षी सारस के सामने पानी का संकट खडा हो गया है।राज्य पक्षी सारस के सामने पानी का संकट खडा हो गया है।

कहर ढाती गर्मी के कारण उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में विख्यात सरसईनावर स्थित वेटलैंड के सूखने से राज्य पक्षी सारस के सामने पानी का बडा संकट खडा हो गया है। वन विभाग कर्मियों की लापरवाही और शिकारियों हस्तक्षेप के कारण संरक्षित क्षेत्र वेटलैंड सूखा पड़ा है । क्षेत्र में संरक्षित सारस और अन्य पक्षी पलायन कर गए हैं। पानी के अभाव में क्षेत्र के पेड़-पौधे भी सूखने लगे हैं।

भारतीय वन्य जीव संस्थान, देहरादून में नमामि गंगे परियोजना के संरक्षण अधिकारी डा. राजीव चौहान बताते हैं कि जब उत्तराखंड नहीं बना था तो उत्तर प्रदेश की सबसे अधिक जैव विविधता उत्तराखंड इलाके में थी। लेकिन बंटवारे के बाद उत्तर प्रदेश की 45 फीसदी जैव विविधता यहां बिखरे पड़े वेटलैंड में समाहित है। ये वेटलैंड वातावरण से कार्बनडाई ऑक्साइड का अवशोषण कर ग्लोबल वाॅर्मिंग को कम करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। 

वेटलैंड क्षेत्र के एक हिस्से में जो थोड़ा बहुत पानी बचा हुआ है। उस पर अराजक तत्वों ने अधिकार जमा रखा है वह प्रतिबंधित क्षेत्र होने के बाद भी यहां मछलियों का शिकार करते रहते हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि उनके इस काम में वन विभाग के कर्मचारी और अधिकारीयों की संलिप्तता रहती है। मछलियों के अवैध शिकार का एक हिस्सा उनको भी दिया जाता है स्थानीय लोग इन अराजक तत्वों से भय के कारण इनका विरोध नहीं कर पाते हैं।

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य संरक्षक (वन्य जीव) रूपक डे ने बताया कि विश्व में एक लाख से ज्यादा वेटलैंड क्षेत्र हैं। दुनिया भर में 30 से 35 हजार सारस पाये जाते हैं जिनमें 20 से 25 हजार भारत में हैं, इनमें से 14 हजार उत्तर प्रदेश में हैं। राज्य में विश्व के 40 फीसद सारस रहते हैं। वैज्ञानिकों ने बताया कि क्रेन विलुप्तप्राय पक्षियों में एक है। इनकी विश्व में पाई जाने वाली 15 में से 11 प्रजातियों के पक्षियों की संख्या निरंतर घट रही है। भारत में इसकी छह प्रजातियां हैं, जिसमें सारस सर्वाधिक लोकप्रिय है। इटावा और आसपास का क्षेत्र सारस की स्वभाविक राजधानी हैं लेकिन अब यहां के वेटलैंड अतिक्रमण की वजह से कम हो गया है। उनका कहना है कि उत्तर प्रदेश में वेटलैंड (दलदली) क्षेत्र में काफी तेजी से गिरावट आई है और यहां पर दो-तिहाई वेटलैंड क्षेत्र घट गया है। 

सरसईनावर के वेटलैंड क्षेत्र राजकीय पक्षी सारस के लिए संरक्षित है। सारस समेत कई प्रजाति के पक्षियों के संरक्षण के लिए कई योजनाओं पर काम किया जा रहा है। वेटलैंड क्षेत्र में पानी के लिए कोई साधन नहीं है। रजबहा का पानी भी सरसईनावर तक नहीं पहुंचता है। दरअसल, रजबहे से वेटलैंड तक पानी पहुंचाने वाली नालियों पर अतिक्रमण है। पानी न होने से क्षेत्र से सारस और अन्य पक्षी मैनपुरी जनपद के वेटलैंड को पलायन कर गए हैं। पानी के अभाव में पौधे भी सूखने लगे हैं। परिसर के पास पानी की टंकी भी बनी है, उससे भी पानी झील क्षेत्र में नहीं लाया जा रहा है। 

वेटलैंड के कुछ हिस्से में थोड़ा पानी है। इसमें कुछ मछली का शिकार करने वाले कब्जा जमाए हैं, ये क्षेत्र मछली के शिकार के लिए प्रतिबंधित है। वनकर्मियों के संरक्षण में यहां शिकार किया जा रहा है। मछलियों के शिकार में वनकर्मियों की भी हिस्सेदारी रहती है। वेटलैंड क्षेत्र में वर्ष भर पानी मिल सके इसके लिए शासन ने सारस पर्यटन स्थल में सोलर पम्प लगाया हुआ है लेकिन इसका लाभ पक्षियों को न मिलकर स्थानीय किसान अपने खेतों को भरकर उठा रहे हैं। इसमें वन विभाग के कर्मचारी ही शामिल हैं जो किसानों से जमकर वसूली करते हैं। लाखों रुपये की लागत से लगाए गए सोलर पम्प का उद्देश्य वेटलैंड में पक्षियों को पानी मिलता रहे उसके लिए लगाया गया है। लेकिन इसकी एक भी बूंद वेटलैंड क्षेत्र में नहीं पहुंच पाई है जबकि आसपास के खेत भर चुके हैं। यदि यह पानी वेटलैंड क्षेत्र को मिलता तो सारसों का पलायन रूक सकता था साथ ही हजारों अन्य पक्षियों को भी पानी मिल सकता था।

हजारी महादेव मंदिर से जुड़े शांतिदास और सरसईनावर के राहुल ने बताया कि पर्यटन स्थल में सोलर पंप लगा है लेकिन इससे आसपास के किसान खेतों की सिंचाई करते हैं। ये सब वनविभाग कर्मियों की मिलीभगत से होता है। वनविभाग कर्मी खेतों में सिंचाई के एवज में किसानों ने रुपये वसूलते हैं। वेटलैंड क्षेत्र के एक हिस्से में जो थोड़ा बहुत पानी बचा हुआ है। उस पर अराजक तत्वों ने अधिकार जमा रखा है वह प्रतिबंधित क्षेत्र होने के बाद भी यहां मछलियों का शिकार करते रहते हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि उनके इस काम में वन विभाग के कर्मचारी और अधिकारीयों की संलिप्तता रहती है। मछलियों के अवैध शिकार का एक हिस्सा उनको भी दिया जाता है स्थानीय लोग इन अराजक तत्वों से भय के कारण इनका विरोध नहीं कर पाते हैं। एसडीएम सत्यप्रकाश ने कहा कि वेटलैंड क्षेत्र जाकर खुद स्थिति देखेंगे। वहां सारस के लिए पानी की व्यवस्था कराई जाएगी।

sarus.png211.85 KB
Disqus Comment

भारत इस समय सूखे के भयावह दौर से गुजर रहा है

$
0
0
भारत इस समय सूखे के भयावह दौर से गुजर रहा हैUrbanWaterTue, 06/25/2019 - 16:12

जल संस्कृति वाला देश पानी की कमी से जूझ रहा है।जल संस्कृति वाला देश पानी की कमी से जूझ रहा है।

कहते हैं कि जल है तो कल है, जल ही जीवन का आधार है। जल को किसी लैब में भी नहीं बनाया जा सकता है। भारत में जल और नदियों को संस्कृति का हिस्सा माना गया है, जहां ‘पग पग पर नीर है’ की उक्ति अक्सर बोली जाती थी, लेकिन आज वही देश नदी, तालाब, झील आदि सूखने के कारण बूंद-बूंद पानी के लिए मोहताज हो गया है। उत्तर, मध्य और प्रायद्वीपीय भारत के जिले भयानक व गंभीर सूखे की मार झेल रहे हैं। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने आंध्र प्रदेश, उत्तर आंतरिक कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और झारखंड में सूखे की भयावह तस्वीर अपनी रिपोर्ट में पेश की है। जिसमे आंध्र प्रदेश सबसे ज्यादा जल संकट से जूझ रहा है। यदि यही स्थिति रही तो आने वाले समय में भारत की जनता को बूंद-बूंद के लिए मोहताज़ होना पड़ेगा।

जल संस्कृति वाला भारत देश पिछले कुछ समय से पानी की भारी कमी से जूझ रहा है। भूजल स्तर तेजी से कम होता जा रहा है। जहां पांच से दस मीटर खोदने पार पानी मिलता था, आज वहां तीन सौ मीटर खोदने पर भी पानी नहीं मिल रहा है। नौले, धारे, तालाब, झील और नदियां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। पानी की कमी के कारण खेती प्रभावित हो रही है। इस वर्ष तो स्थिति में सुधार आने के बजाए समस्या और विकट हो गई है। दरअसल एसपीआई की सकारात्मक मात्रा औसत बारिश से अधिक और नकारात्मक मात्रा औसत से कम बारिश होने का संकेत देते हैं। एसपीआई लगातार नकारात्मक होने और इसकी मात्रा -1.0 व इससे कम होने पर किसी भी समय सूखा पड़ सकता है, किंतु एसपीआई सकारात्मक होने पर सूखा भी समाप्त हो जाता है, लेकिन एसपीआई डाटा के अनुसार इस बार उत्तर, मध्य और प्रायद्वीपीय भारत के कई जिले भीषण सूखे की चपेट में हैं। 

बंगाल की खाड़ी में कम दबाव प्रणाली उत्पन्न होने से वायु चक्रवात के बाद मानूसन में तेजी आई थी, लेकिन अभी प्रणाली कमजोर पड़ रही है। मानसून प्रचलन को और आगे ले जाने के लिए मौसम विभाग के पास बंगाल की खाड़ी मे कोई मौसम प्रणाली नहीं है, इसलिए वैज्ञानिक 27 से 1 जुलाई के बीच मानसून की प्रगति कम होने की उम्मीद जता रहे हैं। हालाकि वैज्ञानिक मानते हैं कि अगले हफ्ते उन्हें पता चल जाएगा कि पूर्वानुमान में एक और निम्न दबाव क्षेत्र बन रहा है या नहीं। 


23 मई से 19 जून तक का एसपीआई मानचित्र दर्शाता है कि आधे से ज्यादा भारत में अपर्याप्त बारिश हुई है। यहां तक कि उत्तरी और प्रायद्वीपीय भारत के कुछ जिले पिछले मानसून से ही सूखे की चपेट में हैं। जून 2018 से मई 2019 के एसपीआई दर्शाता है कि आंध्र प्रदेश के काफी बड़े हिस्से में, आंतरिक कर्नाटक, मध्य प्रदेश के कुछ जिले, महाराष्ट्र, बिहार और झारखंड में एक वर्ष से भी अधिक समय से गंभीर व अत्यंत सूखा है। जलाशयों के संबंध में केंद्रीय जल आयोग की हाल की अपडेट ये पता चलता है कि कई जलाशयों से जल विद्युत उत्पन्न की जा रही है, जबकि प्रायद्वीपीय भारत के जलाशयों में पानी का भंडाराण काफी कम हो गया है।

आंकड़ों पर नजर डाले तो तेलंगाना के जलाशय सामान्य से 36 प्रतिशत नीचे हैं, जबकि आंध्र प्रदेश के  भयावह रूप से 83 प्रतिशत तक सूख चुके हैं। कर्नाटक के 23 प्रतिशत, तमिलनाडु के 43 प्रतिशत और केरल के सामान्य से 38 प्रतिशत कम हो चुके हैं। चेन्नई को पानी सप्लाई करने वाले तमिलनाडु के तीन जलाशय पोंडी, शोलावरम और चेम्बरामबक्क्म में पानी काफी कम हो गया है। नतीजतन आईटी कंपनी को अपनी परियोजना को फिर से तैयार करना पड़ा और कई भोजनालयों को तो दोपहर का भोजन और जल निकायों की सेवाओं को बंद करना पड़ा। चेम्बरामबक्क्म और पुझहल झील का पानी भी काफी कम हो रहा है।

अल्प प्री-मानसून वर्षा और मानसून में देरी के कारण भी सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मानसून में देरी और कम वर्षा के कारण नदियों के किनारे भी सूख गए हैं। तापी नदी का किनारा दस वर्षों के औसत भंडारण से 81 प्रतिशत नीचे है, जबकि साबरमती 42 प्रतिशत, कृष्णा 55 प्रतिशत, कावेरी 45 प्रतिशत और गंगा का किनारा दस वर्षों के औसत भंडारण से 9.25 प्रतिशत नीचे है। 22 जून तक मानसून में भी 39 प्रतिशत की कमी देखी गई है। भारतीय मौसम विज्ञान की रविवार के बुलेटिन के अनुसार मानसून अभी मध्य महाराष्ट्र के हिस्सों, मराठवाड़ा के कुछ हिस्सों, विदर्भ, कर्नाटक के कुछ क्षेत्रों, तेलंगाना, उडीसा, झारखंड, गैंगेटिक पश्चिम बंगाल और बिहार, छत्तीसगढ़ के काफी हिस्सों सहित उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में प्रवेश कर चुका है।

हालांकि वायु चक्रवात के कारण मानसून की सामान्य प्रगति बाधित होने से मानसून में देरी हुई थी, लेकिन अब मानसून की प्रगति सामान्य होने से ये मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में प्रवेश कर चुका है। आने वाले कुछ दिनों में दिल्ली में भी बारिश होगी। हालाकि 27 जनू से 1 जुलाई के बीच मानसून की प्रगति में कमी देखने को मिल सकती है। मौसम वैज्ञानिक मानसून की प्रगति में मद्द करने वाली बंगाल की खाड़ी पर एक कम दबाव के क्षेत्र की उम्मीद कर रहे हैं। दरअसल बंगाल की खाड़ी में कम दबाव प्रणाली उत्पन्न होने से वायु चक्रवात के बाद मानूसन में तेजी आई थी, लेकिन अभी प्रणाली कमजोर पड़ रही है। मानसून प्रचलन को और आगे ले जाने के लिए मौसम विभाग के पास बंगाल की खाड़ी मे कोई मौसम प्रणाली नहीं है, इसलिए वैज्ञानिक 27 से 1 जुलाई के बीच मानसून की प्रगति कम होने की उम्मीद जता रहे हैं। हालाकि वैज्ञानिक मानते हैं कि अगले हफ्ते उन्हें पता चल जाएगा कि पूर्वानुमान में एक और निम्न दबाव क्षेत्र बन रहा है या नहीं।

Disqus Comment

वाटर माफिया हमारे भविष्य को ‘प्यासा’ कर रहे हैं

$
0
0
वाटर माफिया हमारे भविष्य को ‘प्यासा’ कर रहे हैंUrbanWaterWed, 06/26/2019 - 14:27
Source
आईनेक्सट, 22 जून 2019

साल 2025 तक भारत भीषण जल संकट वाला देश बन जाएगा।साल 2025 तक भारत भीषण जल संकट वाला देश बन जाएगा।

पानी जब हमें आसानी से मिल जाता है तो हम शायद उसकी कीमत नहीं समझते। लेकिन आंखें तब खुलती हैं जब किसी बड़े शहर में एक पानी के टैंकर के पास लोगों की लाइन लग जाती है। इसकी कीमत का एहसास तब होता है जब किसी शहर की बस्ती में एक दिन भी सप्लाई का पानी न आने से जिंदगी भी ‘सूख’ जाती है और गुस्सा तब आता है। जब यह यह पता चले कि हमारे ही पानी को लोग न सिर्फ बर्बाद कर रहे हैं बल्कि उसका ‘काला’ कारोबार कर रहे हैं, जो कि भविष्य में हमें ही संकट में डाल सकता है। आज हम ऐसे ही कुछ वाटर माफियाओं के बारे मे बात करेंगे। जो हमारे बेमोल पानी का मोल लगाकर अपनी जेब तो भर रहे हैं, लेकिन हमारे भविष्य को ‘प्यासा’ कर रहे हैं।

क्या आपको पता है कि पानी को प्यूरीफाई करते समय करीब तीन गुना पानी बर्बाद हो जाता है? ऐसे में आपके लिए तैयार किया गया 20 लीटर पानी 60 लीटर पानी को वेस्ट करने के बाद आता है। अब जबकि हमें पता है कि पानी को लेकर कई शहरों में इमरजेंसी जैसे हालात बन जाते हैं। वहां पानी की इस कदर बर्बादी और वो भी चोरी से सोचने पर विवश कर देती है। 

अवैध वाटर प्लांट

दुकानों, मार्केट और कई घरों में पहुंचने वाला जार वाला पानी, जगह-जगह बिकने वाली अन ब्रांडेड बोतल बंद पानी आप खरीदते हैं। लेकिन आपको पता है यह पानी कहां से आता है? आपके शहर में ज्यादातर लोकल ब्रांड का पानी उन छोटे-छोटे वाटर प्लांट से आता है जो न सिर्फ अवैध होते हैं, बल्कि सेहत से भी खिलवाड़ करते हैं। शहर में पंजीकृत वाटर प्लांट तो आप उंगलियों में गिन सकते हैं लेकिन बिना पंजीकृत प्लांट की संख्या सैकड़ों और हजारों में पहुंच जाती है। इन तमाम पंजीकृत वाले प्लांट पर लगाम लगा पाना भी आसान नहीं दिख रहा है।

देश में पानी की उपलब्धता

  • इस समय देश में कुल 190 खरब क्यूबिक मीटर कुल पानी है। अतिरिक्त पानी बंग्लादेश, नेपाल चला जाता है।
  • पूरे देश में 20 हजार किमी. तटबंध वाली 14 बड़ी नदियां हैं। पूरे देश में 44 फीसदी पानी संचय करने की व्यवस्था है।
  • 30 अरब एकड़ फीट वर्षा पानी सालाना मिलता है, लेकिन अधिकांश पानी वाष्प हो जाता है।

राजस्व का नुकसान

हम सभी अपने घरों में उपयोग किए जाने वाले पानी पर वाटर टैक्स देते हैं। जो पानी हम 20 रुपए या उससे अधिक की कैन के लिए खर्च करते हैं, उस कैन के सप्लायर जब बिना रजिस्ट्रेशन के पानी का काम करते हैं तो वो कमाई तो अच्छी करते हैं, लेकिन इसके बदले सरकार को कोई टैक्स नीं देते। अगर आप अपने घर में सबमर्सिबल पंप लगवाना चाहते हैं तो आपको जल संस्थान से परमिशन लेनी होती है, वरना जुर्माना देना होगा। देश के कई शहरों में सैंकड़ों फर्जी वाटर प्लांट लगे हैं जो सरकार का राजस्व का नुकसान कर रहे हैं।

पानी की बर्बादी

शहर में ज्यादातर वाटर प्लांट प्रशासन की निगरानी में नहीं हैं। ऐसे में इनकी गुणवत्ता की कोई चेकिंग नहीं हो पाती। कई प्लांट तो सिर्फ पानी ठंडा कर केन में भरके बेच देते हैं। वाटर प्यूरीफायर का प्रोसेस ही नहीं फाॅलो होता है। ऐसे में लोग जिस पानी को प्यूरीफाइड मानकर पीते हैं वो ठंडा होता है लेकिन शुद्ध नहीं। ऐसे वाटर माफियाओं पर लगाम लगाने के लिए सीधे कोई कानून नहीं है। रजिस्टर्ड न हो पाने के कारण ये प्रशासन और जिम्मेदार लोगों की नजर में भी नहीं आ पाते। जो नजर में आते भी हैं, वो बाहरी रास्तों से हल निकालकर अपना काम चला लेते हैं।

क्या आपको पता है कि पानी को प्यूरीफाई करते समय करीब तीन गुना पानी बर्बाद हो जाता है? ऐसे में आपके लिए तैयार किया गया 20 लीटर पानी 60 लीटर पानी को वेस्ट करने के बाद आता है। अब जबकि हमें पता है कि पानी को लेकर कई शहरों में इमरजेंसी जैसे हालात बन जाते हैं। वहां पानी की इस कदर बर्बादी और वो भी चोरी से सोचने पर विवश कर देती है।

चौंकाने वाली स्थिति

  • देश में गिरता भूगर्भ जलस्तर सबसे बड़ी समस्या बन चुका है। अगर हालातों पर  संजीदगी से अभी कदम नहीं उठाए गए तो यकीन मानिये साल 2025 तक भारत भीषण जल संकट वाला देश बन जाएगा।
  • आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2025 तक भारत की जनसंख्या 139 करोड़ और वर्ष 2050 तक 165 करोड़ तक पहुंच जाएगी।
  • इस बढ़ती हुई जनसंख्या का असर सीधे तौर पर जल की उपलब्धता पर पड़ेगा। देश के तमाम शहरों में अवैध तरीके से चल रहे आरओ प्लांट जमकर जल दोहन कर रहे हैं। जिन पर सरकारी विभाग भी नियंत्रण नहीं लगा पाए हैं।

 

TAGS

ground water, ground water level in india, water mafia, water mafia,water mafia in india, RO water, tanker mafia, illegal water, water crisis, water crisis in india.

 

Disqus Comment

क्या भारत और पाकिस्तान जल युद्ध की कगार पर हैं?

$
0
0
क्या भारत और पाकिस्तान जल युद्ध की कगार पर हैं?UrbanWaterSun, 06/30/2019 - 17:07

सिंधु जल समझौता बन रहा रोड़ा।सिंधु जल समझौता बन रहा रोड़ा।

ग्लोबल एनवायरमेंटल चेंज में जारी एक शोध पत्र के अनुसार, गंगा-ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदी घाटी क्षेत्र सबसे ज्यादा संवेदनशील भूभाग है। यहां जल राजनैतिक समस्याएं, भू-राजनैतिक तनाव को जन्म दे रही हैं और संभवतः जल युद्ध की संभावनाओं को भी पोषित कर रही हैं। गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु चीन, पाकिस्तान और भारत से बहने वाली विशाल नदियां हैं। मनुष्य के लिए पानी का टकराव कोई नई बात नहीं है। जल संघर्ष डेटाबेस बताता है कि हमारे इतिहास में कितने प्रचलित जल संघर्ष रहे हैं।

कुछ मामलों में, पानी संघर्ष के लिए एक ‘कारण’ के रूप में कार्य करता है, दूसरों में यह एक ‘हथियार’ के रूप में कार्य करता है। जाहिर है कि भू-राजनीतिक विवाद ज्यादा व्यापक हैं लेकिन लेकिन पानी की भूमिका को भी कम नहीं आंका जा सकता। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि अगले 50 से 100 वर्षों में जल युद्ध की संभावना 75 से 95 प्रतिशत होगी। एशिया में जल युद्ध की और भी अधिक घातक संभावनाएं हैं क्योंकि भारत, पाकिस्तान और चीन के शस्त्रागार में परमाणु हथियार हैं। क्या वे कभी पानी के लिए लड़ाई करेंगे? 2009 में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी सार्वजनिक रूप से लिखते हैं ‘पाकिस्तान में जल संकट भारत के साथ संबंधों से सीधे जुड़ा हुआ है। दृढ संकल्प ही दक्षिण एशिया में एक पर्यावरणीय तबाही को रोक सकता है, लेकिन ऐसा करने में विफलता, असंतोष की आग को भड़का सकती है जो चरमपंथ और आतंकवाद को जन्म देगी।’

भारत और पाकिस्तान को उभरते जलवायु और जनसंख्या संकट को देखते हुए वर्तमान संधि की समीक्षा करनी चाहिए। लेकिन कोई भी बिल्ली के गले घंटी नहीं बांधना चाहता है, क्योंकि इसके अपने फायदे और नुकसान होंगे। चीन और अफगानिस्तान भी इस बार बातचीत का हिस्सा बनने की पेशकश रख सकते हैं। सिंधु नदी के दीर्घकालिक अधिकारों और स्वास्थ्य की रक्षा के लिए, पूरी नदी घाटी की संयुक्त रूप से एकीकृत योजना और प्रबंधन प्रणाली पर विचार किया जाना चाहिए। आखिरकार, हर किसी कीे चाहत और जरुरत तो एक जीवित नदी है। 

2010 में, पाकिस्तानी आतंकवादी समूह लश्कर-ए-तैयबा के प्रमुख हाफ़िज़ सईद ने भारत के खिलाफ जल जिहाद की धमकी दी थी। 2016 में, उरी हमले जिसमें 18 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे। उस हमले के बाद सिंधु जल संधि पर जल मंत्रालय के अधिकारियों के साथ बैठक में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘खून और पानी एक साथ नहीं बह सकता है।’ 2019 की शुरुआत में, भारत सिंधु जल संधि को तोड़ने के करीब पहुंच गया था। यह पुलवामा, कश्मीर में भारतीय सैन्यकर्मियों पर पाकिस्तानी आतंकवादियों के हमले के जवाब में भारतीय प्रतिक्रिया थी। लेकिन अब तक उसे अमली जामा नहीं पहनाया गया और चीजें एक असहज सह-अस्तित्व में वापस आ गई हैं। इस संवेदनशील संधि के ध्वस्त होने से दोनों देशों के पास खोने के लिए बहुत कुछ है।

भारत-पाकिस्तान के पानी का मसला 

1960 में, दोनों देशों ने सिंधु जल संधि पर हस्ताक्षर किए थे। जो पाकिस्तान और भारत के बीच सिंधु बेसिन की छः मुख्य नदियों को विभाजित करता है। तीन पूर्वी नदियां- रावी, व्यास और सतलुज पर अधिकार भारत और तीन पश्चिमी नदियां- सिंधु, झेलम और चिनाब में 80 प्रतिशत पानी का अधिकार पाकिस्तान को दिए गये। जो भारतीय प्रशासित कश्मीर से होकर बहती है। इसका मतलब है कि जल वार्ता हमेशा क्षेत्रीय संप्रभुता से जुडी रहेगी और यही कारण है कि कश्मीर में तनाव बहुत जल्दी पानी को लेकर टकराव की स्थिति पैदा कर देता है।

कुछ समय पहले मीडिया में बताया जा रहा था कि भारत ने पाकिस्तान में बहने वाले पानी को रोक दिया है। वास्तव में, भारत ने तीन पूर्वी नदियों रावी, ब्यास और सतलुज पर बांधों में से अतिरिक्त पानी को बहने से रोका है, जिस पर पाकिस्तान का कोई हक़ नहीं है। भारत और पाकिस्तान के बीच कई युद्धों और संकटों के बावजूद दोनों देशों के बीच सिंधु जल बंटवारे को, विश्वभर में एक अनुकरणीय उदाहरण के तौर पर देखा जाता है। भारत ने मानवीय आधार पर कई क्लेशों के बावजूद भी पाकिस्तान को बहने वाले पानी को कभी नहीं रोका। भारत जानता है कि पाकिस्तान में सिंधु जल पर निर्भर 18 करोड़ लोगों के लिए जीवित रहना कितना मुश्किल होगा।

भारत को सतर्क रखने वाला एक और कारक चीन है। जिसने सिंधु जल संघर्ष में अब तक मूक भूमिका निभाई है और वो पाकिस्तान का सबसे बड़ा सहयोगी भी है। भारत जानता है कि पानी को नियंत्रित करने में बहुत आक्रामक नहीं हुआ जा सकता है, क्योंकि सतलुज और ब्रह्मपुत्र चीन की भूमि से निकलती है। चीन, ब्रह्मपुत्र के पानी को अपने स्वयं के सूखे क्षेत्रों में मोड़ सकता है। जिससे भारत के पूर्वी हिस्से में पानी की कमी हो सकती है या फिर अप्रत्याशित रूप से बड़ी मात्रा में पानी छोड़ सकता है जो बाढ़ का कारण बन सकती है। इन सबसे ऊपर दक्षिण एशिया में ग्लेशियरों और नदियों के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक उभरता जलवायु संकट है। जलवायु संकट समुद्र के स्तर को बढ़ा देगा और सिंधु स्रोत को तेजी से पिघला देगा। भारतीय ग्लेशियोलॉजिस्ट द्वारा किए गए हाल के अध्ययन से एक अनुमान लगाया है कि पाकिस्तान को भारत की तुलना में सिंधु के जल की अधिक मात्रा प्राप्त होगी। जबकि पाकिस्तान के लिए भी औसतन गिरावट का अनुमान है, लेकिन भारत के लिए ये स्थिति बहुत खराब होने वाली है।

ऐसे भी साक्ष्य पाये गए हैं कि पानी वास्तव में दक्षिण एशिया के भू-राजनीति में एक प्रमुख मुद्दा बनकर उभर रहा है। राजनैतिक स्तर पर हमेशा संयम की अपेक्षा नहीं की जा सकती है इसलिए पानी को लेकर संघर्ष छिड़ सकता है। एक ऐसा संघर्ष जहां सीमा के दोनों तरफ रहने वाली इंसानियत हमेशा हारेगी। भारत और पाकिस्तान को उभरते जलवायु और जनसंख्या संकट को देखते हुए वर्तमान संधि की समीक्षा करनी चाहिए। लेकिन कोई भी बिल्ली के गले घंटी नहीं बांधना चाहता है, क्योंकि इसके अपने फायदे और नुकसान होंगे। चीन और अफगानिस्तान भी इस बार बातचीत का हिस्सा बनने की पेशकश रख सकते हैं। सिंधु नदी के दीर्घकालिक अधिकारों और स्वास्थ्य की रक्षा के लिए, पूरी नदी घाटी की संयुक्त रूप से एकीकृत योजना और प्रबंधन प्रणाली पर विचार किया जाना चाहिए। आखिरकार, हर किसी कीे चाहत और जरुरत तो एक जीवित नदी है।

Indus.jpeg444.92 KB
Disqus Comment

जल संकट और मन की बात का सन्देश

$
0
0
जल संकट और मन की बात का सन्देशUrbanWaterThu, 07/04/2019 - 13:05

यह अभियान तीन चरणों में संचालित किया जायेगा।यह अभियान तीन चरणों में संचालित किया जायेगा।

भारत के प्रधानमंत्री ने 30 जून 2019 को ‘मन की बात’ कार्यक्रम में देशवासियों से जल संकट से मुक्ति के लिए जागरूकता अभियान चलाने का अनुरोध किया है। इस अभियान के पहले हिस्से का फोकस जल संचय, जल संरक्षण और जल संवर्धन पर होगा। दूसरा हिस्सा पानी के कुशल उपयोग पर केन्द्रित होगा। यह अभियान तीन चरणों में संचालित किया जायेगा, प्रत्येक चरण तीन-तीन दिन का होगा। अर्थात अभियान की कुल अवधि नौ दिन की होगी। पहला चरण एक जुलाई 2019 से 15 सितम्बर 2019 के बीच चलेगा और दूसरा चरण एक अक्टूबर 2019 से 30 नवम्बर 2019 के बीच संचालित किया जायेगा। एक जुलाई 2019 से प्रारंभ होने वाले अभियान का फोकस नार्थ-ईस्ट के राज्यों को छोड़कर बाकी देश पर होगा।  एक अक्टूबर से प्रारंभ होने वाले अभियान का फोकस नार्थ-ईस्ट पर होगा। 

भूजल दोहन की हर साल होने वाली वृद्धि के मुकाबले अधिक रीचार्ज करें। यह तभी संभव है जब हम अल्पायु, मंहगे, कम पानी का संचय और रीचार्ज करने वाली संरचानाओं के निर्माण के मोह को त्यागेंगे। हमें याद रखना चाहिए कि पानी का संकट नदी और नाले तक सीमित नही है। उसका बीज कहीं और है। उसका बीज कछार की सीमाओं से पनपता है। वहीं से वह नीचे उतरता है। अतः उसे स्रोत पर ही समाप्त करना चाहिए। एक बात और, मन की बात में कहे इलाकों को आगे जाकर पूरे देश में काम करना चाहिए।

यह अभियान देश के 36 राज्यों के 255 जिलों के 1,593 विकासखंडों में संचालित होगा। उल्लेखनीय है कि 1,593 विकासखंडों में से 1,186 विकासखंड, जमीन के नीचे के पानी अर्थात भूजल के मामले में अतिदोहित श्रेणी में और 313 विकासखंड क्रिटिकल श्रेणी में आते हैं। इसके अलावा, 94 विकासखंडों में पानी की उपलब्धता बेहद कम है। विदित हो कि अतिदोहित विकासखंड में भूजल का सालाना दोहन, कुदरती तौर पर होने वाले सालाना रीचार्ज की तुलना में अधिक होता है। क्रिटिकल विकासखंड में भूजल का सालाना दोहन, कुदरती तौर पर होने वाले सालाना रीचार्ज के 90 से 100 प्रतिशत के बीच होता है। तीसरी श्रेणी में वे विकासखंड शामिल किए गए हैं जहां पानी की उपलब्धता में बेहद कठिनाई है। 

मन की बात में अपेक्षा की गई है कि जागरूकता अभियान के अन्र्तगत समाज को पानी से जुडी समस्याओं के बारे में विस्तार से बताया जाए। यह काम बहुत जरुरी भी है। जागरुकता से ही जिम्मेदारी का अहसास पैदा होता है। अभियान का यह हिस्सा लोगों के बीच कर्तव्यबोध पैदा करेगा। उन्हे अतिदोहित श्रेणी और क्रिटिकल श्रेणी का अर्थ समझ में आयेगा। भूजल के दोहन के बढ़ने का दुष्परिणाम समझ में आयेगा। कुओं, तालाबों और नलकूपों के सूखने का असली वजह समझ में आयेगी और सबसे बड़ी गुमराह होने से बचेंगे। मुझे लगता है कि जब समाज से भूजल के दोहन के बढ़ने के दुष्परिणामों पर मंथन होगा तब तकनीकी और प्रशासनिक अधिकारियों को अहसास होगा कि अब भूजल दोहन को बढ़ाने वाली गतिविधियों को प्रोत्साहित करने का समय खत्म हो गया है। यही समझ, भूजल दोहन की योजनाओं को बनाने वाले योजनाकारों के लिए भी बेहद आवश्यक है। यदि वे ऐसी योजनाओं को मंजूरी देते हैं तो अकल्पनीय संकट को आमंत्रण करते हैं।

मुझे लगता है कि अभियान के पहले हिस्से के दौरान हासिल होने वाला यह सबक, सेन्ट्रल ग्राउन्ड वाटर बोर्ड और राज्यों के भूजल संगठनों को भूजल के दोहन की सुरक्षित सीमा को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करेगा। मन की बात का दूसरा बिन्दु पानी बचाने के तरीकों के बारे में है। मुझे लगता है पानी बचाने के साथ-साथ इसमें जल संचय, जल संरक्षण और जल संवर्धन भी शामिल है। यदि किसी को सन्देह हो तो उस सन्देह को दूर करने के लिए जल संचय, जल संरक्षण और जल संवर्धन को अनिवार्य रुप से जोडा जाए। मेरी अपेक्षा है कि जब समाज से पानी से जुड़ी समस्याओं पर चर्चा होगी। उस समय जल संचय, जल संरक्षण और जल संवर्धन के बारे में विस्तार से बताया जाए। यह विवरण सैद्धान्तिक नही होना चाहिए। इस मंथन में प्रत्येक संरचना की प्रमाणिकता, उपयोगिता अवधि और प्रभाव क्षेत्र की चर्चा होना चाहिए। उसके साइड इफेक्ट की भी चर्चा होना चाहिए। तभी मन की बात का लक्ष्य पूरा होगा और तभी उस इलाके के जल संकट का पूरी तरह निर्मूलन संभव होगा, ये मन्थन बहुत जरुरी है। 

मन की बात कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी।मन की बात कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी।

इस प्रक्रिया से विकसित समझ ही अन्ततः समाज को अभियान का जागरुक और जिम्मेदार भागीदार बना सकेगी, लोगों के बीच कर्तव्यबोध पैदा करेगी। इसी हिस्से में पानी के कुशल उपयोग पर भी चर्चा होगी। इस चर्चा में उन गतिविधियों को रेखांकित किया जा सकेगा जो स्थानीय स्तर पर जल संकट अर्थात मुसीबत का कारण हैं। इस दौरान उन लोगों को समझाया जा सकता है जो जाने-अनजाने में जल संकट को पैदा करने में कहीं न कही जिम्मेदार है। यही मंथन लोगों के बीच कर्तव्यबोध पैदा करेगा।  

मन की बात का तीसरा बिन्दु समाज की प्रमुख हस्तियों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए आमंत्रित करता है। यह बिन्दु अभियान के लिए आस्था और विश्वास जगाने का कारगर कदम है। मुझे लगता है कि प्रमुख हस्तियों को केवल सन्देश देने या मीडिया में दिखने के आगे जाकर कुछ नया करना होगा। लोगों को उपदेश देने की जगह खुद पर लागू करके दिखाना होगा। इस बारे में मुझे महात्मा गांधी का एक किस्सा याद आता है जिसमें उन्होंने एक बच्चे को गुड़ खाने के बारे में शिक्षा देने के पहले खुद गुड़ खाना छोडा था। मुझे लगता है मन की बात में, यही संकेत छुपा हुआ है। उम्मीद की जाना चाहिए कि प्रमुख हस्तियों के आचरण का बदलाव, प्रमाणिकता को संबल प्रदान करेगा।  जल संकट का केनवास बहुत बड़ा है। उस संकट का अहसास सूखती नदियों, सूखते तालाबों, कुओं और नलकूपों से उजागर होता है। जल संसाधन विभागों की लंबी अनदेखी के कारण उसके निराकरण की राह कठिन हुई है। इसी कारण, हर साल उसमें नए-नए इलाके जुड रहे हैं। चेन्नई जिसे कुछ साल पहले तक रेन वाटर हारवेस्टिंग का सबसे अच्छा उदाहरण माना जाता था, आज सबसे बुरी स्थिति में है। यह स्थिति हमसे आत्मावलोकन चाहती है और अपेक्षा करती है कि हम पूर्वाग्रहों तथा प्रिसक्रिपव्टिव विकल्पों के नारद मोह से बाहर निकलें।

भूजल दोहन की हर साल होने वाली वृद्धि के मुकाबले अधिक रीचार्ज करें। यह तभी संभव है जब हम अल्पायु, मंहगे, कम पानी का संचय और रीचार्ज करने वाली संरचानाओं (गली प्लग, लूज बोल्डर चेक, कंटूर बोल्डर वाल, गैबियन, सोख्ता गड्ढा, चैक डेम इत्यादि) के निर्माण के मोह को त्यागेंगे। हमें याद रखना चाहिए कि पानी का संकट नदी और नाले तक सीमित नही है। उसका बीज कहीं और है। उसका बीज कछार की सीमाओं से पनपता है। वहीं से वह नीचे उतरता है। अतः उसे स्रोत पर ही समाप्त करना चाहिए। एक बात और, मन की बात में कहे इलाकों को आगे जाकर पूरे देश में काम करना चाहिए। जल स्वराज के लिए काम करना चाहिए। यह अभियान कोई इवेंट नही है ये तो जल स्वावलम्बन हासिल करने का एक संकल्प है। उसे पूरा करने के लिए सभी को आगे आना चाहिए, तभी प्रधानमंत्री का सपना पूरा होगा।

 

TAGS

Prime Minister NarendraModi, man ki bat, water crisis, water crisis in india, water crisis in man ki bat, pm modi about water crisis, ground water, water crisis in chennai water crisis mission, water conservation, water conservation in india, water crisis india in hindi, water conservation india hindi.

 

Disqus Comment

अब हमें अपनी ‘तालाब संस्कृति’ की ओर लौटना होगा

$
0
0
अब हमें अपनी ‘तालाब संस्कृति’ की ओर लौटना होगाUrbanWaterThu, 07/04/2019 - 16:21

हमने अपनी तालाब संस्कृति को भूलते जा रहे हैं।हमने अपनी तालाब संस्कृति को भूलते जा रहे हैं।

भारत एक कृषि प्रधान देश है, तकनीकी के इस दौर में भी 60 फीसदी आबादी खेती पर ही निर्भर है और खेती की रीढ़ होती है पानी। इस समय भारत जिस बड़ी समस्या से जूझ रहा है वो भी पानी है। दुर्भाग्य की बात ये है कि जिस देश को जल समृद्ध देश कहा जाता रहा है वही देश आज जल संकट की इस भयावह स्थिति में है। नीति आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया, 2021 तक भारत के 21 बड़े शहरों से भूजल पूरी तरह से खत्म हो चुका है। इस स्थिति की सबसे बड़ी वजह है अपनी संस्कृति को खोना, तालाब संस्कृति को खोना।

आज देश में तालाब न के बराबर है 1947 में देश में तालाबों की संख्या चौबीस लाख थी। आज तालाबों की संख्या घटकर पांच लाख रह गई है, जिसमें से 20 फीसदी तालाब तो बेकार पड़े है। उनमें या तो पानी नहीं या फिर उनको लोगों ने अपने कूड़े का ढेर बना लिया है। जो राज्य इस समय सूखे की मार झेल रहे हैं, वो कभी तालाबों से सराबोर रहा करते थे। बाद में विकास के नाम पर आधुनिकता का बीज बो दिया गया और लोग अपनी तालाब संस्कृति को भूलने लगे। 

हमारी संस्कृति में जितना महत्व कुआं, नदियों और पोखरों का है, उतना ही महत्व तालाब का है। तालाब सिर्फ ग्रामीण संस्कृति के ही नहीं, कस्बों और शहरों की पहचान हुआ करते थे। तालाब के आसपास ही सभी महत्वपूर्ण काम हुआ करते थे शादी-ब्याह, मेला, यज्ञ और सुबह-शाम की बैठकी भी तो यहीं हुआ करती थी। तालाब हमारी जल परंपरा थी, तब तक देश में पानी की कोई किल्लत नहीं होती थी। तालाब सामाजिक जीवन से तो जुड़ा हुआ ही था लोगों के आर्थिक जीवन पर भी असर डालता था। तालाब से ही किसान खेतों में सिंचाई करते थे, अपने ईंट-खपरैल के भट्टे बनाने में भी तालाब के पानी का उपयोग करते थे। जिन्हें वे बाद में बेच देते थे, खेती के अलावा ये उनकी अलग आमदनी का जरिया था।

आज देश में तालाब न के बराबर है 1947 में देश में तालाबों की संख्या चौबीस लाख थी, तब देश की जनसंख्या 36 करोड़ थी। आज तालाबों की संख्या घटकर पांच लाख रह गई है, जिसमें से 20 फीसदी तालाब तो बेकार पड़े है। उनमें या तो पानी नहीं या फिर उनको लोगों ने अपने कूड़े का ढेर बना लिया है। जो राज्य इस समय सूखे की मार झेल रहे हैं, वो कभी तालाबों से सराबोर रहा करते थे। बाद में विकास के नाम पर आधुनिकता का बीज बो दिया गया और लोग अपनी तालाब संस्कृति को भूलने लगे। आजादी के बाद तालाबों के संरक्षण और सुरक्षा की परंपरा धीरे-धीरे परंपरा खत्म होती गई। आज उसी का ये आलम है कि हर जगह पानी के लिए त्राहि-त्राहि कर रहे हैं।

मुझे अच्छी तरह से याद है मेरे गांव (जो बुंदेलखंड के झांसी में है) में तीन बड़े तालाब थे। जहां हमेशा लोगों और गाय-भैंसों का जमावड़ा बना ही रहता था। हम बच्चे लोग सुबह-शाम वहां खेला करते थे, महिलाएं मंदिर आया करतीं थीं और गाय-भैंसे गर्मियों के दिनों में तालाब के पानी से ठंडक पाया करती थीं। आज मेरे गांव के तालाब में एक बूंद पानी नहीं है। जिस तालाब में पानी हुआ करता था, वहां बच्चे अब क्रिकेट खेला करते थे। अब वहां न महिलाएं आती हैं और न ही गाय-भैंसे। हैंडपंप-ट्यूबवेल आये तो लोगों ने तालाब की ओर जाना बंद कर दिया और मेरा गांव तालाब से दूर गया।

छत्तीसगढ़ के तालाब

मैं यहां तालाब के सामाजिक स्वरूप के लिए छत्तीसगढ़ का जिक्र जरूर करना चाहूंगा। छत्तीगढ़ जिसे धान का कटोरा कहा जाता है वो कभी बड़े-बड़े तालाबों का क्षेत्र हुआ करता था। छत्तीसगढ़ की लोककथाओं और लोकगीतों में तालाबों के महत्व को सुना जा सकता है। अहमिन रानी और नौ लाख ओड़िया की गाथा में तालाब खुदता है और तालाब स्नान का जिक्र होता है। सरगुजा अंचल कथा में जिक्र है कि पछिमाहा देव ने सात सौ तालाब खुदवाये थे। राजा बालंद के बारे में तो कहा जाता है कि वो कर के रूप में लोहा वसूलता और फिर तालाब खुदवाता। बड़ी संख्या में तालाब का जिक्र होने का मतलब यही है कि छत्तीसगढ़ भी तालाबों का प्रदेश था। छत्तीसगढ़ में एक लाख से ज्यादा तालाब थे जिनकी संख्या अब चार सौ भी नहीं है। छत्तीसगढ़ में तालाबों से जुड़ीं कई विशिष्ट मान्यताएं हैं। भीमादेव बस्तर में पाण्डव नहीं बल्कि पानी, कृषि के देवता हैं।

विवाह के बाद तालाब में एक रस्म पूरी करता दूल्हा।विवाह के बाद तालाब में एक रस्म पूरी करता दूल्हा।

बस्तर में विवाह के कई रीति-रिवाज पानी और तालाब से जुड़े हैं। कांकेर में विवाह के अवसर पर वर-वधू तालाब के सात चक्कर लगाते हैं। दूल्हा अपनी नव विवाहिता को पीठ पर लाद कर स्नान कराने जलाशय भी ले जाता है और पीठ पर लाद कर ही लौटता है। ये जानने वाली बात है कि आमतौर पर समाज से दूरी बनाए रखने वाले नायक, सबरिया, लोनिया, मटकुड़ा, मटकुली, बेलदार और रामनामियों की भूमिका तालाब बनाने में बहुत महत्वपूर्ण होती है। वर्ष 1900 में छत्तीसगढ़ में भीषण अकाल पड़ा था, तब रायपुर जिले के लगभग एक हजार तालाबों की मरम्मत की गई थी। जिन्हें एग्रीकल्चर एंट हार्टिकल्चर सोसायटी ऑफ इंडिया के सचिव रहे जे. लेंकेस्टर की पहल पर खुदवाए गए थे। उनके नाम पर स्मारक भी बना हुआ है।

बुंदेलखंड और तालाब

तालाब आज न के बराबर हैं, बुंदेलखंड जहां पहले खूब संरचनाएं हुआ करती थीं, जहां हर गांव में तालाब हुआ करता था वहां से भी तालाब गायब हो चुके हैं। सूखा तो बुंदेलखंड की जागीर रहा है, यहां लड़ाई मीठे और खारे पानी की नहीं होती है सिर्फ पानी की होती है। उत्तर प्रदेश कृषि विभाग की 2017 की रिपोर्ट बताती है कि बुंदेलखंड में चार दशक में लगभग 4,000 तालाब गायब हो चुके हैं। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तालाब योजना लाये और दावा भी किया कि उनकी सरकार ने 2000 तालाबों का निर्माण करा दिया है। इस समय योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं और उन्होंने भी तालाब बनाने का जिम्मा लिया है लेकिन अभी तक जमीनी स्तर पर कोई बड़ी सफलता मिली नहीं है। 2017 में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस दिशा में काम किया था लेकिन बनना तो दूर उसके उलट कई जल संरचनाओं का नामोनिशान ही मिटा दिया गया। 

अब एक बार फिर से बुंदेलखंड की उन जल संरचनाओं को पुनर्जीवित करने के लिए काम किया जा रहा है और उसके लिए एक बड़ी पहल की है विश्व बैंक ने। विश्व बैंक के अधीन आने वाले ‘2030 वाटर रिसोर्स ग्रुप’ ने इस काम को पूरा करने के लिए राज्य सरकार और सामाजिक संगठनों के साथ तालाबों को पुनर्जीवित करने की पहल तेज कर दी है। ये ग्रुप बुंदेलखंड के अधिकारियों और तालाब पर काम करने वाले लोगों से बात कर रहा है। बुंदेलखंड के तालाबों को सर्वेक्षण किया जाएगा, जिससे पता चल सकेगा कि तालाबों की क्या स्थिति है? उसके बाद ही तालाबों को पुनर्जीवित करने वाली योजना को अमल में लाया जायेगा।   

इस समय देश जल संकट से जूझ रहा है। अब एक बार फिर से हमें अपनी वही तालाब संस्कृति की ओर लौटना होगा। तालाब, जल सरंक्षण का सबसे कारगर तरीका है। कई लोग तो जल संकट की स्थिति को समझ भी रहे हैं और उस पर काम भी कर रहे हैं। मध्य प्रदेश का देवास इसका अच्छा उदाहरण है वहां लोगों ने अपनी मेहनत से कई बड़े तालाब बनाये। मध्य प्रदेश में तो पानी की किल्लत रहती है लेकिन देवास के लोगों को पानी की समस्या से जूझना नहीं पड़ता है। पानी के अत्यधिक दोहन के कारण पानी की समस्या बढ़ी है, पहले हम दूषित पानी की बात करते थे। लेकिन अब तो पानी मिल जाए वही बढ़ी बात है, इस समय देश की 40 करोड़ आबादी पानी की समस्या का सामना कर रहा है। जब हमारी जनसंख्या ज्यादा है, हमारी पानी की खपत ज्यादा है तो फिर जल संरक्षण और संचयन भी तो जरूरी है।

 

TAGS

Bundelkhand and Water Crisis, Water Crisis, Water crisis in india, Ponds, Ponds in india, Importance of ponds, Ponds for water crisis, importance of ponds in hindi, ponds for water conservation, ponds in chhattisgarh, ponds in bundelkhand, history of ponds, yogi adiyanath, akhilesh yadav, shivraj singh chauahan, water resources group 2030, water conservation in hindi, cultural and social side of ponds, water crisis solution, niti aayog report. Relief Package for Drought, 14th Finance Commission.

 

ponds.jpg346.89 KB
Disqus Comment

बुन्देलखण्ड में जल स्रोतों का फैला जाल, फिर भी पड़ता अकाल

$
0
0
बुन्देलखण्ड में जल स्रोतों का फैला जाल, फिर भी पड़ता अकालUrbanWaterFri, 07/05/2019 - 11:14
Source
बुन्देलखण्ड कनेक्ट, जून 2019

बुंदेलखंड में छोटी-बड़ी करीब 35 नदियां हैं।बुंदेलखंड में छोटी-बड़ी करीब 35 नदियां हैं।

बुंदेलखंड प्राकृतिक संपदा का धनी इलाका है। यहां का भौगोलिक स्वरूप समतल, पठारी व वनों से आच्छादित है। प्राकृतिक सुंदरता तो देखते ही बनती है। बुंदेलखंड में पानी की बात करें तो यहां प्राकृतिक जल स्रोतों का एक बड़ा व सशक्त जाल है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के दो भागों में फैले बुंदेलखंड में छोटी-बड़ी करीब 35 नदियां हैं। यमुना, बेतवा, केन, बागै समेत लगभग 7 नदियां राष्ट्रीय स्तर की हैं।

हरियाली के लिए पौधारोपण तो हर साल होता है लेकिन इसके ज्यादातर अभियान महज पौधे लगाने तक ही सिमट कर रह जाते हैं। यही कारण है कि हर साल लाखों की संख्या में पौधे लगाने के बावजूद बुंदेलखंड में वन क्षेत्र का औसत नहीं बढ़ रहा है। जिस तरह से प्राकृतिक संसाधन उपेक्षा के चलते सिमटने लगे हैं, उन्हें बचाने के लिए, अब खानापूर्ति की नहीं बल्कि निष्ठा व निस्वार्थ भाव से काम करने की जरूरत है। 

बुंदेलखंड में साढ़े 17 हजार से अधिक प्राचीन तालाब हैं, सरकारी व निजी प्रयासों से काफी संख्या में नए तालाब भी खोदे जा चुके हैं। पेयजल के लिए कुएं हमारी अमूल्य धरोहर हैं, इनकी संख्या 35 हजार से ज्यादा है। बुंदेलखंड में जल संरक्षण का जो प्राचीन फार्मूला है, वह अकेले तालाब व कुंओं तक ही सीमित नहीं था। इसमें बावड़ी व बिहार का भी अहम रोल रहा। आज भले ही ये दोनों गुमनामी की कगार पर हैं लेकिन बुंदेलखंड में इन दोनों की संख्या करीब 400 रही है इसमें 360 बीहर व 40 बावड़ी शामिल हैं। दस विशेष प्राकृतिक जल स्रोत हैं, जिन्हें हम कालिंजर दुर्ग, श्री हनुमान धारा पर्वत, गुप्त गोदावरी व बांदा के तुर्रा गांव के पास नेशनल हाईवे पर विसाहिल नदी में देखते हैं।

इन प्राकृतिक स्रोतों से हर समय जलधाराएं निकलती रहती हैं। यहां बांधों की संख्या आधा सैकड़ा से ज्यादा है। मोटे तौर पर देखा जाए तो आज ही बुंदेलखंड में प्राकृतिक व परंपरागत स्रोतों की कमी नहीं है। फिर भी यहां के लोगों को अक्सर सूखा जैसी आपदाओं का सामना करना पड़ता है। सर्वोदय आदर्श ग्राम स्वराज अभियान समिति के संयोजक उमा शंकर पांडेय कहते हैं कि बुंदेलखंड में जल को संरक्षित करने वाले संसाधनों की कमी नहीं है। हमने जो नए तालाब व कुंए बनाए उनके साथ ही पूर्वज हमें इतने तालाब, कुंए, बीहर और बावड़ी दे गए कि यदि उनका संरक्षण कर लिया जाए तो बारिश का ज्यादा से ज्यादा पानी संरक्षित करने में सक्षम हो जाएंगे। घटती हरियाली को बचाना होगा क्योंकि पेड़ काटे तो जा रहे हैं लेकिन नए पौधे लगाकर उन्हें वृक्ष नहीं बना पा रहे हैं।

हरियाली के लिए पौधारोपण तो हर साल होता है लेकिन इसके ज्यादातर अभियान महज पौधे लगाने तक ही सिमट कर रह जाते हैं। यही कारण है कि हर साल लाखों की संख्या में पौधे लगाने के बावजूद बुंदेलखंड में वन क्षेत्र का औसत नहीं बढ़ रहा है। जिस तरह से प्राकृतिक संसाधन उपेक्षा के चलते सिमटने लगे हैं, उन्हें बचाने के लिए, अब खानापूर्ति की नहीं बल्कि निष्ठा व निस्वार्थ भाव से काम करने की जरूरत है। मेरा गांव जखनी जलग्राम बन गया है, यह उपाधि यूं ही नहीं मिली बल्कि पूरे गांव वालों के सामुदायिक सहयोग से परिश्रम कर इसे हासिल किया है। 31 मई 2016 को तत्कालीन मंडलायुक्त एल वेकेटेश्वर लू, जिलाधिकारी योगेश कुमार द्वारा जखनी गांव को जलग्राम घोषित किया गया था।

तब से बराबर गावं के लोगों द्वारा आज और कल के लिए जल पर काम किया जा रहा है। सर्वोदयी कार्यकर्ता श्री पाण्डेय बताते हैं कि जल के महत्व और उसके संरक्षण की सीख मां से मिली थी। जब मैं छोटा था तीर्थ यात्रा कर घर लौटीं तो साथ में एक लोटा लिए थीं। मेरे पूछने पर उन्होंने जल के महत्व को बताया तभी से मेरे मन में जल संरक्षण की अवधारणा बनी जो आज भी मेरे साथ है। श्री पांडेय कहते हैं कि जिस तरह से हम अपने घरों में तीर्थों का जल सहेज कर रखते हैं। उसी प्रकार गांव के तालाब, कुंओं, बीहर और बावड़ी को बचाकर रखा जा सकता है। ऐसे ही संकल्प व प्रयासों से जखनी की तरह हर गांव जलग्राम बन जाएगा। 

Disqus Comment

जैतून की खेती करके पानी की बचत कर रहे हैं राजस्थान के किसान

$
0
0
जैतून की खेती करके पानी की बचत कर रहे हैं राजस्थान के किसानUrbanWaterSat, 07/06/2019 - 13:58
Source
कृषि चौपाल, जून 2019 

जैतून के तेल उत्पादन के सूखे को दूर करेगी।जैतून के तेल उत्पादन के सूखे को दूर करेगी।

राजस्थान की मरुभूमि भारत में जैतून के तेल उत्पादन के सूखे को दूर करेगी। इस कहानी की भूमिका राजस्थान में जैतून के हरे-भरे पेड़ों की खेती लिख रही है। एक किसान पेड़ की शाखाओं पर लगे जैतून की तरफ इशारा करते हुए कहता है कि ‘उनकी तरफ देखो वे हरे हैं। धीरे-धीरे वे लाल हो जाएंगे और कुछ ही महीनों में जैतून की फसल तैयार हो जाएगी। उसके बाद तेल निकालने का काम शुरू हो जाएगा।

महत्वाकांक्षी परियोजना

भारत इस महत्वाकांक्षी परियोजना के माध्यम से जैतून तेल उत्पादन में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अग्रणी देश बनना चाहता है। राजस्थान इसके उत्पादन से स्पेन, इटली और ग्रीस को चुनौती देने के लिए तैयार हो रहा है। राजस्थान सरकार द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त ऑलिव कल्टीवेशन लिमिटेड के योगेश वर्मा कहते हैं कि ‘एजेंसी इस प्रोजेक्ट को विस्तार देने के लिए काम कर रही है। 2008 से अब तक 1 लाख 44 हजार जैतून के पेड़ लगाए जा चुके हैं’। इसके पेड़ लगभग 260 हेक्टेयर में सरकारी और निजी भूमि पर लगाए गए हैं। राजस्थान की लंबी गर्मी और सर्दियों का छोटा मौसम जैतून के उत्पादन के अनुकूल माने जाते हैं। ऐसे मौसम में जैतून के पेड़ तेजी से विकसित होते हैं।

राजस्थान में जैतून की खेती के विस्तार की अपार संभावनाएं हैं। जो ग्रीस के कुल क्षेत्रफल से ढाई गुना ज्यादा है। ग्रीस दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा जैतून उत्पादक देश है। जैतून के तेल का उत्पादन करने के लिए इटली से एक रिफाइनरी लाई जा रही है। इससे भारत के घरेलू बाजारों में जैतून के तेल की बढ़ती मांग को पूरा करने में मदद मिलेगी। मैड्रिड के इंटरनेशनल ऑलिव काउंसलिंग के आंकड़ों के अनुसार स्पेन और इटली से जैतून के तेल का अधिकांश आयात होता है।

खेती के लिए सब्सिडी

योगेश बताते हैं कि 2007 में किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि यहां जैतून का उत्पादन हो सकता है लेकिन जैतून की खेती में होने वाली तूरी को देखा जा सकता है। ये तो बस शुरुआत है अगले तीन सालों में जैतून की खेती को 5,000 हेक्टेयर तक बढ़ाने की योजना है। बहुत सारे किसानों ने जैतून के बारे में पहले कभी सुना भी नहीं था। लेकिन अब वे भी इसकी खेती करने की सोच रहे हैं। किसानों को लुभाने के लिए राजस्थान सरकार किसानों को सब्सिडी दे रही है। जैतून के पेड़ की लागत है 130 रुपए है लेकिन इसके लिए किसानों को केवल 28 रुपए देने पड़ रहे हैं। इसकी खेती की 90 फीसदी लागत ड्रिप सिंचाई व्यवस्था करने में लगती है। यह प्रक्रिया काफी खर्चीली है, लेकिन इससे पानी का प्रभावशाली तरीके इस्तेमाल होता है। 

सिंचाई की समस्या

साहबराम शर्मा की उम्र 55 साल है। पाकिस्तान की सीमा पर स्थित गांव मदेरा में दशकों से वे गेहूं और कपास की खेती करते आ रहे हैं। इसके लिए ज्यादा पानी की जरूरत होती है। लेकिन अप्रैल में उन्होंने दस एकड़ क्षेत्रफल में जैतून के पेड़ लगाए। अब वे अगस्त महीने में जैतून की खेती के लिए पांच हेक्टेयर की वृद्धि करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि राजस्थान में पानी की भारी कमी है, जो खेती के लिए पर्याप्त नहीं हैं। साबराम बताते हैं, ‘जैतून के के बारे काफी समय से जानता हूं इसलिए मैंने जैतून की खेती करने का फैसला किया। मैंने अभी शुरुआत की है, जैतून के पेड़ चार सालों में बड़े हो जाएंगे। मुझे पता है कि जैतून का तेल निकाला जाता है और मैं भी वही करूंगा’।

राजस्थान में जैतून की खेती के विस्तार की अपार संभावनाएं हैं। जो ग्रीस के कुल क्षेत्रफल से ढाई गुना ज्यादा है। ग्रीस दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा जैतून उत्पादक देश है। जैतून के तेल का उत्पादन करने के लिए इटली से एक रिफाइनरी लाई जा रही है। इससे भारत के घरेलू बाजारों में जैतून के तेल की बढ़ती मांग को पूरा करने में मदद मिलेगी। मैड्रिड के इंटरनेशनल ऑलिव काउंसलिंग के आंकड़ों के अनुसार स्पेन और इटली से जैतून के तेल का अधिकांश आयात होता है। यह अक्टूबर 2012 से फरवरी 2013 के बीच 48 प्रतिशत तक हो गया है।

हर साल 25 टन उत्पादन 

जैतून के तेल से होने वाले स्वास्थ्य पर संभावित सकारात्मक प्रभावों को लेकर भारत में जागरूकता बढ़ रही है। इससे उच्च-निम्न रक्तचाप, दिल की बीमारियों के खतरे और कैंसर के कुछ खास प्रकारों से बचाव होता है।राजस्थान ऑलिव कल्टीवेशन लिमिटेड में काम करने वाले इसराइली कृषि विशेषज्ञ गिड्योन पेग कहते हैं कि ‘जब मैं पहली बार यहां आया था तो एक भी बोतल जैतून का तेल खोजना कठिन था। इसकी छोटी बोतलें, त्वचा संबंधी उपयोग के लिए केवल फार्मेसी पर उपलब्ध है’। जैतून के तेल उत्पादन में लगे किसानों का कहना है कि पानी की कमी जैतून की खेती के विस्तार में प्रमुख बाधा है। योगेश वर्मा कहते हैं कि सितंबर से हर साल 25 टन जैतून के तेल का उत्पादन होने की उम्मीद है। जैतून का तेल अगले साल से भारतीय दुकानों में उपलब्ध हो जाएगा। नई दिल्ली के सुपर मार्केट में उच्च स्तर का जैतून तेल 750 रुपए में मिलता है। ऐसी उम्मीद है कि घरेलू स्तर पर उत्पादन के बाद कीमतें नीचें गिरेंगी और अधिकांश आबादी इसका उपयोग कर सकेगी। 

मार्केटिंग की रणनीति

पेग कहते हैं कि उत्पादन के बारे में उत्पादन के बाद की अगली चुनौती राजस्थानी जैतून के तेल के मार्केटिंग की होगी। स्पेन जैतून के तेल का सबसे बड़ा उत्पादक है। पिछले साल उसने दुनिया के 50 फीसद तेल का उत्पादन किया। जैतून के तेल को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में बढ़ावा देने के लिए लाखों डाॅलर खर्च किए।  भारत को भी अपनी अंतरराष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उसी तरह की रणनीति अपनानी होगी। इंडियन ऑलिव एसोसिएशन के प्रमुख और लियोनार्दो ऑलिव ब्रांड के मालिक वीएम डालमिया का मानना है कि उपभोग की किसी भी वस्तु के लिए मार्केटिंग प्रोग्राम और सेल्स नेटवर्क की जरूरत होती है। राजस्थान के जैतून तेल को निम्न गुणवत्ता का समझे जाने की छवि से बाहर निकालना होगा।

Disqus Comment

सरकार के 2019-20 के बजट में पानी और पर्यावरण को जगह

$
0
0
सरकार के 2019-20 के बजट में पानी और पर्यावरण को जगहUrbanWaterSat, 07/06/2019 - 16:20

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में अपना पहला बजट पेश किया।वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में अपना पहला बजट पेश किया।

भारत की पहली पूर्णकालिक महिला वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में अपना पहला बजट पेश किया। निर्मला सीतारमण के इस बजट को विशेषज्ञ संतुलन भरा बता रहे हैं। इस बजट में लुभावने वायदे नहीं है बल्कि कमजोर होती अर्थव्यस्था से निपटने के तरीके हैं। लेकिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण एक जरूरी मुद्दे पर बात करना ही भूल गईं, पर्यावरण और पानी। इस समय देश पानी की किल्लत से जूझ रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मन की बात में भी इसका जिक्र किया था लेकिन उनकी सरकार के पहले बजट में ही पानी और पर्यावरण नदारद थे।

इस बजट से पहले सरकार ने पानी की सारी समस्याओं के लिए ‘जल शक्ति मंत्रालय’ बनाया है। जिसने लक्ष्य रखा है कि 2024 तक हर घर तक जल पहुंचाएगा। जल के लिए इस बजट में वही जगह दी गई। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पर्यावरण मंत्रालय के बजट, जल शक्ति मंत्रालय का लक्ष्य और स्वच्छ भारत मिशन के बारे में अपनी स्पीच में जानकारी दी। जब देश जल संकट के भयावह दौर से गुजर रहा है, नीति आयोग की रिपोर्ट साफ-साफ कह रही है कि 2021 तक देश के 21 बड़े शहर जल संकट की चपेट में होंगे। इसके बावजूद इस बजट में जल संकट और जल संरक्षण को बहुत कम जगह दी गई।

2024 तक हर घर को लक्ष्य

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में बजट पेश करते हुए बताया कि केन्द्र सरकार 2024 तक देश में हर घर तक पाइपलाइन के जरिए पानी पहुंचाने के लिए ‘जल जीवन मिशन’ के तहत राज्य सरकारों के साथ मिलकर काम करेगी। वित्त मंत्री ने बताया कि इस मशीन के तहत केन्द्र और राज्यों की योजनाओं को जोड़ते हुए काम किया जाएगा। इसमें स्थानीय स्तर पर जल प्रबंधन, मांग और आपूर्ति को ध्यान में रखते हुए वर्षा जल संरक्षण, भूजल संरक्षण के लिए काम किया जाएगा। इसके अलावा परिवारों परिवारों द्वारा उपयोग किया हुआ जल यानी अपशिष्ट जल को खेती के काम में उपयोग किया जा सकता है।

नीति आयोग की इस बार की रिपोर्ट जल के बारे में बताती है कि 2030 तक देश की 40 प्रतिशत जनसंख्या तक पीने के पानी की पहुंच खत्म हो जायेगी। देश के चार बड़े शहर दिल्ली, बंगलुरू, चेन्नई और हैदराबाद में पानी की सबसे ज्यादा किल्लत होगी और 10 करोड़ लोगों के लिए जल्द ही परेशानी शुरू होने वाली है। सरकार को जल संकट से निकलने के लिए राष्ट्रीय नीति भी बनाई जानी चाहिए।

इस नए मिशन के लिए सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना के तहत 9,150 करोड़ रुपए का बजट निर्धारित किया है। पिछले साल के बजट में ये राशि सिर्फ 5,391 करोड़ रुपए थी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपनी स्पीच में कहा, ‘सरकार इस लक्ष्य के लिए वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण के तहत उपलब्ध अतिरिक्त फंड की संभावनाओं को तलाशेगी। 

स्वच्छ भारत मिशन

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने स्वच्छ मिशन के बारे में बताते हुए कहा कि केन्द्र सरकार ने 9.5 करोड़ से अधिक शौचालयों का निर्माण कराया। उन्होंने बताया कि 5,64,658 गांव खुले में शौच से मुक्त हो गए हैं। देश के 95 प्रतिशत शहरों को ओडीएफ घोषित कर दिया है। देश के 1700 शहरों में 45 हजार शौचालयों का निर्माण किया गया। सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन के लिए अब नए लक्ष्य निर्धारित कर लिए हैं। इसके तहत कचरे का उपयोग अब बिजली बनाने के लिए किया जाएगा। सरकार अब हर गांव में कचरे के स्थायी प्रबंधन के करेगा। इसके अलावा नदियों की सफाई, ग्रामीण स्वच्छता, रिवर फ्रंट डेवलेपमेंट, वनीकरण अैर जैव विविधता के संरक्षण पर भी ध्यान दिया जाएगा।

ग्रीन बजट

नरेन्द्र मोदी ने इस बजट को ग्रीन बजट करार दिया है। बजट में प्रदूषण नियंत्रण के लिए 2,954 करोड़ रुपए तय किये हैं। प्रदूषण को खत्म करने के लिए बजट में 10.4 फीसदी की बढ़ोतरी की है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि राष्ट्रीय स्वच्छता हवा कार्यक्रम के लिए 460 करोड़ दिए गए हैं। सरकार भविष्य में धरती माता को हरा-भरा बनाने और नीले आकाश की धारणा पर काम कर रही है। पिछले बजट में एनसीपी के लिए महज पांच करोड़ रुपए तय किये गये थे।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण।वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण।

गंगा

नरेन्द्र मोदी सरकार गंगा को स्वच्छ और निर्मल करने का वायदा किया था। पिछले कार्यकाल में कितनी ही बार कार्यक्रम हुए, योजनाएं बनीं, करोड़ रुपए खर्च किए लेकिन गंगा पहले से और गंदी हो गई है। शायद इसलिए इस बार के बजट में गंगा का जिक्र ही नहीं किया गया। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने गंगा का जिक्र बस जल परिवहन के लिए किया। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बताया कि चार सालों में गंगा में माल परिवहन में चार गुना वृद्धि होगी। सागरमाला जैसी योजनाएं ग्रामीण-शहरी क्षेत्र क बीच के अंतर को पाटने का काम कर रही है।
इसके तहत सरकार ने 2019-20 वित्तीय वर्ष के लिए 550 करोड़ रुपए बजट देने की घोषणा की है। सरकार का सबसे पहला फोकस गंगा नदी में वराणसी-हावड़ा रूट पर है। सरकार की मंशा गंगा में नाव उतारने की तो है कि लेकिन उसी गंगा को स्वच्छ करने का माद्दा नहीं रखती है। जो गंगा पूरे देश की जीवनदायिनी है उसे निर्मल बनाने के लिए इस बार के बजट में कोई जगह ही नहीं दी गई।

जल सरंक्षण

बजट में जल के लिए जो प्रावधान किए गए हैं उनकी सराहना की जानी चाहिए और सरकार से आशा की जानी चाहिए कि बजट में जो कहा गया है उनको पूरा करें। नीति आयोग की इस बार की रिपोर्ट जल के बारे में बताती है कि 2030 तक देश की 40 प्रतिशत जनसंख्या तक पीने के पानी की पहुंच खत्म हो जायेगी। देश के चार बड़े शहर दिल्ली, बंगलुरू, चेन्नई और हैदराबाद में पानी की सबसे ज्यादा किल्लत होगी और 10 करोड़ लोगों के लिए जल्द ही परेशानी शुरू होने वाली है। सरकार को जल संकट से निकलने के लिए राष्ट्रीय नीति भी बनाई जानी चाहिए। जल संरक्षण तभी हो पाएगा जब इसके लिए जन भागीदारी की जाएगी। 

हमारे देश का तो इतिहास रहा है कि जब-जब जल संकट आया है उससे निपटने के लिए राजा खुद ही समाधान खोजने में जुट जाते थे। जबसे जन भागीदारी खत्म हुई है जल संकट गहराने लगा है। नरेन्द्र मोदी सरकार कहती है कि जल सुरक्षा और उसकी उपलब्धता उनकी प्राथमिकता है। वो ऐसे लोगों से बचत करने की मंशा रख रहे हैं जो हमेशा से जल का दोहन ही करते आए हैं। गांव के लोग तो पानी की बचत करने में सहयोग भी करते हैं लेकिन शहरों में जल संरक्षण कैसे होगा? इसके लिए या तो शहर के बाहर जाकर योगदान करना होगा या फिर अपने इस्तेमाल के पानी को बचाने के लिए आर्थिक सहायता करनी चाहिए। 

सरकार ने अपने बजट में जल संरक्षण के बारे में अलग से कुछ नहीं रखा गया है। की। बारिश का 90 प्रतिशत जल बह जाता है जिसे संरक्षित किया जाना चाहिए। 70 साल से लगातार जल का दोहन ही हो रहा है किसी भी सरकार ने जल संरक्षण के लिए कोई खास काम नहीं किया है। पिछली सरकार ने 60 नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव जरूर दिया था लेकिन उसे अमलीजामा में नहीं लाया जा सका। नीति आयोग ने जल संरक्षण के लिए देश की 450 नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव रखा है। हम बारिश का सिर्फ 8 फीसद जल की संचित कर पा रहे हैं, अगर हम बारिश के पानी को ज्यादा से ज्यादा संचित करें तो भूजल स्तर भी बढ़ेगा और पानी की संकट से बचा जा सकेगा। जिस तरह सरकार बिजली के लिए ध्यान देती है उसी तरह अब पानी की ओर ध्यान देने की जरूरत है। जो इस बार के बजट से तो नदारद ही है। बजट में पानी और पर्यावरण की वही पुरानी बातें दोहराई गईं जो पहले से ही थीं।                                                                                                                                                    

TAGS

water crisis, water crisis in india, water crisis in hindi, water conservation, union budget 2019-20, union budget 2019, finance minister nirmala sitaraman, nirmala sitaraman, environment and water in budget 2019, all about budget, swachch bharat mission, water pollution, water polllution hindi, jal shakti ministry, green budget,rain water harvesting, water harvesting, water harvesting in india, namami gange, ganga, clean ganga, pollution free ganga,water crisis, water crisis in india.

Disqus Comment

क्या है मानसून का अर्थ?

$
0
0
क्या है मानसून का अर्थ?UrbanWaterMon, 07/08/2019 - 12:02
Source
झंकार, दैनिक जागरण, 7 जुलाई 2019

पर्यावरण संकट से मानसून भी बिगड़ने लगा है।पर्यावरण संकट से मानसून भी बिगड़ने लगा है।

एक भारतीय चीज ऐसी है जो गांव-शहर, गरीब-अमीर में बंटे सभी लोगों के बीच फैली है, वह है मानसून। जिसे हम हर वर्ष देखने के लिए बेसब्री से इंतजार करते हैं। तापमान का चढ़ना और मानसून का दस्तक देना, यह हर वर्ष बिना किसी बाधा के होता है। किसान बहुत ही बेसब्री से इसका इंतजार करते हैं क्योंकि उन्हें नई फसल की बुआई के लिए समय पर बारिश चाहिए। शहर के प्रबंधकों को भी मानसून का इंतजार होता है क्योंकि हर वर्ष मानसून की शुरुआत से पहले उनके जलाशय खाली होते हैं और शहर की जलापूर्ति सामान्य से कम होती है। हम सभी इंतजार करते हैं, इसके बावजूद इसके बावजूद कि हम वातानुकूलित कमरों और घरों में दुबके रहते हैं। बारिश हमें झुलसा देने वाली धूप और धूल से राहत दिलाती है। यह शायद ऐसा समय होता है जब पूरा देश एक तरह की मायूसी में होता है, बारिश होने तक सांसें थमी होती हैं।

आज जब बारिश नहीं होती है तो हम रोने लगते हैं। हम तब भी चिल्लाने लगते हैं जब बारिश की वजह से बाढ़ और बीमारियां आती हैं। शहरों में ट्रैफिक जाम होता है, जरा भयानक जल संकट और सालाना आने वाली बाढ़ का चक्र देखिए। इसमें 2016 की बाढ़ भी शामिल करिए, जब भारत ने हाल-फिलहाल के वर्षों की सबसे वीभत्स बाढ़ देखी। बदलाव सिर्फ तभी मुमकिन है जब हम दोबारा हर वर्ष गिरने वाली पानी के इस्तेमाल की कला सीख जाएं। 

हवा पर छिड़ी बहस 

जब मैं यह लिख रही हूं, कई तरह के सवाल मेरे दिमाग में आ रहे हैं। आखिर हम इस अवधारणा के बारे में कितना जानते हैं, जो हर एक भारतीय के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। क्या हम वाकई जानते हैं कि बारिश क्यों होती है? क्या आपको पता है कि वैज्ञानिक खुद मानसून की परिभाषा को लेकर लड़ रहे हैं। उनके पास एकमात्र परिभाषा है जो कि एक मौसम मौसमी पवन पर आधारित है। यह पवन जब एक निश्चित दिशा में बहती है तब मानसून आता है। जैसे ही यह पवन अपना रास्ता बदलती है, वे भौंचक्के रह जाते हैं। 

बस कुछ घंटों की प्रक्रिया

क्या हम जानते हैं हमारा मानसून एक वैश्वीकृत अवधारणा है? सुदूर प्रशांत महासागर की समुद्री जलधाराएं हों या फिर तिब्बत के पठार का तापमान, यूरेशिया की बर्फ, यहां तक कि बंगाल की खाड़ी का ताजा पानी, मानसून इन सभी से जुड़ा और एकीकृत है। क्या हम यह भी जानते हैं कि भारतीय मानसून वैज्ञानिक अप्रत्याशित और विविधता वाले मानसून का ठीक से पीछा करने के लिए कितनी तल्लीनता से अध्ययन कर रहे हैं, शायद नहीं जानते। हमने स्कूल में कुछ विज्ञान पढ़ा था लेकिन असल जिंदगी में कभी नहीं। यह उपयोगिता वाले ज्ञान का हिस्सा नहीं है। हम यह सोचते हैं कि आज हमारी दुनिया को बचाए रखने के लिए जानने की बेहद जरूरत है लेकिन हम गलत हैं। भारतीय मानसून के बारे में एक बड़े जानकार और बुजुर्ग, जो अब दुनिया में नहीं है। पीआर पिशोरती ने बताया था कि सालाना घटने वाली इस घटना के तहत सिर्फ 100 औसत घंटों में समूची बारिश हो जाती है जबकि एक वर्ष में कुल प्रदूषण 8,765 घंटे होते हैं।

यही है मूल संकट

हमारी असल चुनौती यह है कि हम इस बारिश का प्रबंध किस तरह से करें। पर्यावरणविद् अनिल अग्रवाल ने मानसून इस घटना के बारे में विस्तार से बताया था कि कैसे प्रकृति इस काम के लिए अपने बल के बजाय कमजोर बल का इस्तेमाल करती है। जरा सोचिए, तापमान का छोटा-सा अंतर लगभग 40,000 अरब टन पानी समुद्रों से उठाकर पूरे भारत के हजारों किलोमीटर क्षेत्र में गिरा देता है। प्रकृति के प्रकृति के इस अनूठे ज्ञान से बेवाकिफ रहना ही आज के पर्यावरणीय संकट का मूल है।

मानसून सही मायने में अभी भारत का वित्त मंत्री है।मानसून सही मायने में अभी भारत का वित्त मंत्री है।

समझें इस मानसून को

इसे समझिए कि हम कोयला और ईंधन जैसे केंद्रित ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसकी वजह से स्थानीय वायु प्रदूषण और वैश्विक जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं पैदा हो रही हैं यदि हम प्रकृति के रास्ते को समझें तो हम प्रकृति के ही कमजोर ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल कर सकते हैं। जैसे सौर ऊर्जा और वर्षा के पानी का इस्तेमाल। हमें इंतजार नहीं करना चाहिए कि पानी बहकर नदियों और जलाशयों तक जाए। अग्रवाल अक्सर कहते थे कि बीते 100 सालों में मानव समाज केंद्रित जल स्रोतों जैसे नदियों और जलाशयों के इस्तेमाल पर ज्यादा आश्रित हुआ है। इनका ज्यादा इस्तेमाल ज्यादा दोहन बढ़ाएगा। वे जोर देते थे कि कि 21वीं शताब्दी में मानव को एक बार फिर कमजोर जल स्रोतों जैसे बारिश के पानी का इस्तेमाल करने की ओर बढ़ना होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो जितना ज्यादा हम मानसून को समझेंगे उतना ज्यादा हम समावेशी विकास को समझेंगे।

रुक जाती हैं धड़कनें

एक और सवाल है मेरे पास? क्या हमें भी जानते हैं कि मानसून के बिना कैसे जीवित रहा जाए? मैं एकदम निश्चित हूं कि आपने यह तर्क भी जल्दी ही सुना होगा कि हम विकसित होंगे और मानसून की बिल्कुल जरूरत नहीं रहेगी। यहां आपको स्पष्ट कर दें यह किसी भी समय और जल्दी नहीं होने जा रहा। आजादी के इतने सालों बाद और सतह पर सिंचाई के लिए सूची निवेश के बाद भी बड़ी संख्या में किसान पानी को लेकर चिंतित है। इसका आशय है कि किसान इस मनमौजी और गैरभरोसेमंद देवता की दया पर निर्भर हैं लेकिन पूरी तस्वीर नहीं है। 60 से 80 फीसदी सिंचित क्षेत्र भू-जल पर निर्भर है। इस भू-जल को दोबारा इस्तेमाल करने के लिए बारिश के जरिए रिचार्ज करने की जरूरत होती है, इसलिए भी बारिश चाहिए। यही कारण है कि हर वर्ष जब मानसून केरल से कश्मीर या बंगाल से राजस्थान की ओर बढ़ता है और कहीं रुक जाता है तो हमारी धड़कनें थम जाती है या मंद पड़कर रुक भी जाती हैं। न्यून दबाव क्षेत्र और डिप्रेशन जैसे शब्द भारतीय शब्दकोश का ही हिस्सा हैं।

संबंध बना लें गहरा

मानसून सही मायने में अभी भारत का वित्त मंत्री है। इसलिए मैं मानती हूं कि मानसून पर निर्भरता खत्म करने की चाह की बजाए हमें मानसून का उत्सव मनाना चाहिए और उसके साथ अपने संबंधों को और गहरा करना चाहिए। हमारे मानसून कोश का भी जरूर विस्तार लेना चाहिए ताकि जहां और जब भी बारिश हो तो हम उसकी हर एक बूंद को इस्तेमाल में ला सकें। यह हमारा एक राष्ट्रीय जुनून होना चाहिए। बारिश की हर एक बूंद का मोल हमें समझना होगा। हमें अपने भविष्य को पानी पर निर्भरता के आधार पर बनाना होगा। चेक डैम, झील, कुएं, तालाब, घास और पेड़ हर चीज बारिश के पानी को समुद्र में जाने से रोक सकती है, उसके सफर को धीमा बना सकती है। यदि हम ऐसा कर पाए तो हमारे अंतिम और दर्द  भरे सवाल का जवाब शायद मिल जाए।

सीखनी होगी कला 

हमें अपने शहर और मैदानों में बारिश का उत्सव कैसे मनाना चाहिए? आज जब बारिश नहीं होती है तो हम रोने लगते हैं। हम तब भी चिल्लाने लगते हैं जब बारिश की वजह से बाढ़ और बीमारियां आती हैं। शहरों में ट्रैफिक जाम होता है, जरा भयानक जल संकट और सालाना आने वाली बाढ़ का चक्र देखिए। इसमें 2016 की बाढ़ भी शामिल करिए, जब भारत ने हाल-फिलहाल के वर्षों की सबसे वीभत्स बाढ़ देखी। बदलाव सिर्फ तभी मुमकिन है जब हम दोबारा हर वर्ष गिरने वाली पानी के इस्तेमाल की कला सीख जाएं। मानसून हम सभी का हिस्सा है, अब हमें इसे वास्तविक बनाना होगा।

Disqus Comment

जल प्रबंधन प्रणाली एवं उपेक्षित आदर्श मूल्य

$
0
0
जल प्रबंधन प्रणाली एवं उपेक्षित आदर्श मूल्यUrbanWaterTue, 07/09/2019 - 11:16
Source
 दैनिक अंबर, 7 मार्च 2016

जल की समस्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है।जल की समस्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है।

गर्मी आते ही कुछ समाचारों का सिलसिला शुरू हो जाता है जैसे ‘आज फलां जगह पर पानी की किल्लत से धरना, हंगामा हुआ, मटके फोड़े गए, जल विभागाधिकारी का पुतला फूंका गया। इतना ही नहीं आजकल तो मोबाइल टावर टावर पर चढ़कर पानी की पूर्ति करने की धमकी देते हुए भी देखे जा सकते हैं'। क्या यह सब पानी की किल्लत दूर करने के सही कदम हैं? क्या हम आने वाली पीढ़ियों के लिए इस तरह कोई स्थाई हल निकल पाएंगे, बिल्कुल नहीं। हमारे पास ना तो ऐसा सोचने की शक्ति रही है और ना ही इतना दृढ़ निश्चय कि कुछ करके इसका स्थायी समाधान निकाल सकें। 

आज आधुनिक समाज में एक अंग्रेजी शब्द का बहुत प्रचार हो रहा है, वाटर हारवेस्टिंग। यह सब समाज बिना किसी प्रचार के सुव्यवस्थित रूप से कर लेता था। मार्च-अप्रैल के महीनों में फंसल के कार्य से निपटकर जल प्रबंधन के लिए वर्षा आगमन पूर्व ही वाटर हारवेस्टिंग के समस्त कार्य करने शुरू कर लिए जाते थे। तालाबों की सामूहिक रूप से खुदाई, गहराई और पुराने जलाशयों की मरम्मत की जाती थी।

आज सरकार देश की नदियों को आपस में जोड़ने की योजना बना रही है। क्या हम इतना बड़ा प्रबंधन करके मरुस्थल में जल समस्या को दूर कर पाएंगे? हम क्यों भूल जाते हैं कि हम अपनी विरासत में मिली एक सुव्यवस्थित जल प्रबंधन प्रणाली को जानते हुए भी उससे अनजान बने हुए हैं। आज की आधुनिक जीवन शैली में जीते हुए इतना भी समय नहीं निकाल पा रहे हैं कि कुछ समय संपूर्ण प्राणीजन और वनस्पतियों के लिए परंपरागत समाज के जल प्रबंधन के रूप में किए जाने वाले सामाजिक-पुण्यार्थ कार्यों एवं विचारों में व्यतीत कर सकें। जल की समस्या एवं अभाव से राजस्थान का मरूस्थलीय भाग ही नहीं बल्कि पूरा देश त्रस्त है। अनेक प्राचीन जलाशयों के अवशेष, बड़े-बुजुर्गों की कहानियों और विभिन्न ऐतिहासिक लेखन सामग्री से विदित होता है कि मरुस्थलीय क्षेत्र में जल प्रबंधन के समुचित प्रबंधन किए जाते थे।

ये प्रबंधन अप्रैल-मई से शुरू होकर वर्षा के चले जाने तक किए जाते थे। जल की समस्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है, परंतु कुछ दिन ही सभी का ध्यान इस तरफ होता है। ऐसा नहीं है कि यह समस्या अचानक आती है बल्कि यह तो सदियों से चली आ रही है और जिस समय यह अपने बारे में सोचने को मजबूर कर देती है, उसका भी समय निश्चित है, मई-जून। पर व्यवहार ऐसा होता है कि यह इस साल की आई हुई नई विपत्ति की समस्या है। जल प्रबंधन के जो कार्य हमें सही समय पर करने चाहिए वे बिल्कुल नहीं हो पाते हैं। इसी कारण अब स्वच्छ एवं पीने के पर्याप्त पानी अभाव पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ जाता है। पहले शायद हमारा समाज बड़े प्रशासन के बिना अपनी इंतजाम करना बखूबी जानता था। इसलिए गर्मी के समय में वह परेशान नहीं होता था।

राजस्थान की परंपरागत जल प्रणाली, टांका।राजस्थान की परंपरागत जल प्रणाली, टांका।

राजस्थान का मरुस्थलीय भाग जहां रेत के ऊंचे-ऊंचे धोरों (टीलों) का सूरज से तपना, वर्षा की कमी और अनियमितता, साथ ही भू-जल का खारेपन के साथ गहराई में मिलना। क्या कसर रह गई थी ऊपर से अकाल दर अकाल का दंश झेलती मरुधरा। फिर भी यहां के समाज ने इन सब परिस्थितियों को अपनी जीवनशैली में, जीवन दर्शन में समाहित कर इसे आत्मसात किया। प्रकृति के विराट रूप में वह एक छोटी-सी बूंद की तरह शामिल हुआ। उसमें कोई घमंड और छोटे-बड़े काम को करने की कोई शर्म नहीं थी। वह इस प्रकृति से लड़ लेगा, उसे जीत लेगा, ऐसा भी घमंड नहीं किया। वह इन परिस्थितियों के आगोश में कैसे रह सकता है- इसका उसने अभ्यास करके रखा था। लेकिन पिछले 50-60 साल में हमारे समाज ने ऐसी बहुत सारी चीजें और कार्य किए हैं, जिनसे उनका विनम्र स्वभाव बदला है, उसके मन में शर्म और घमंड स्थान ले लिया है। 

समाज ने पीढ़ियों से परंपरागत जल प्रबंधन को अपनाकर जीवन जीने की कला सीखी थी। वह कला आज धीरे-धीरे मिटती जा रही है। जल अभाव वाले इस क्षेत्र में सैकड़ों कच्चे-पक्के जोहड़े (तालाब), कुएं-कुईंया और कुण्ड होते थे। समाज के प्रत्येक उत्सव और कार्य इन्हीं जलाशयों के इर्द-गिर्द मनाये जाते थे। इतना ही नहीं राजस्थान की मरूभूमि में तो गांव के नाम भी इन्हीं जोहड़ों के नाम पर ही होते थे। 19वीं शताब्दी में ऐसे दौर की शुरुआत हुई है कि आज अधिकतर जलाशय और उसके आगौर (पायतन) अतिक्रमण के शिकार हो चुके हैं। सरकार द्वारा चलाए गए नरेगा कार्य में कुछ तालाबों की खुदाई करवाई गई थी। परंतु क्या इससे कोई स्थाई समाधान हुआ है, इस पर वर्तमान में समीक्षा करनी होगी। करोड़ों रुपए इस योजना में खर्च होने के बावजूद जल संरक्षण कितना हुआ? इससे न केवल व्यक्ति निराश हो जाता है बल्कि हमारी मेहनती श्रम-साधक को अवश्य पंगु बना दिया है। जबकि सरकारी तंत्र की कार्यशैली जल संकट का लक्षण करवा रही है। 

आज आधुनिक समाज में एक अंग्रेजी शब्द का बहुत प्रचार हो रहा है, वाटर हारवेस्टिंग। यह सब समाज बिना किसी प्रचार के सुव्यवस्थित रूप से कर लेता था। मार्च-अप्रैल के महीनों में फंसल के कार्य से निपटकर जल प्रबंधन के लिए वर्षा आगमन पूर्व ही वाटर हारवेस्टिंग के समस्त कार्य करने शुरू कर लिए जाते थे। तालाबों की सामूहिक रूप से खुदाई, गहराई और पुराने जलाशयों की मरम्मत की जाती थी। जिससे अधिक से अधिक जल का प्रबंध साल भर के लिए हो सके। यहां का समाज सदियों से न केवल जल प्रबंधन को खेल की तरह खेलता आया था, अपितु जलाशयों और उसमें आने वाले जल के स्थान (पायतन) को पूजा-स्थल की भांति स्वच्छ एवं पवित्र रखा जाता था। जल की एक-एक बूंद को मूल्यवान समझकर उपयोग में लाया जाता था। परंतु आज का आधुनिक समाज बिना किसी सोच-समझ के जल बर्बाद कर रहा है।, परंतु इस अनुपात में जल प्रबंधन की चिंता नहीं है।

जल विशेषज्ञों के अनुसार, राजस्थान की टांका प्रणाली को मोरक्को में अपनाया जा रहा है और वहां के सैकड़ों की संख्या में टांके निर्मित किए गए हैं। ‘इंडिया वाटर पोर्टल’ का फ्रेंच भाषा में अनुवाद किया गया है क्योंकि अफ्रीका के मरूस्थलीय क्षेत्रों में ज्यादातर फ्रेंच भाषा ही चलती है। इतना ही नहीं आज से 100 वर्ष पूर्व 1914 में चीन के एक चित्रकार ने राजस्थान के जलाशयों के जलाशयों के चित्रों को अपनी प्रदर्शनी में शामिल किया था। इस तरह के जलाभाव वाले देश हमारी प्राचीन जल प्रणाली को अपनाने के लिए जागरूक हो रहे हैं। हमारा समाज और हमारी अलग-अलग दलों की सरकार इसके प्रति प्रति जागरुक नहीं हैं। आज जरूरत है जागरूक समाज की महत्वपूर्ण एवं उपयोगी परंपरागत जल प्रणाली के प्रबंधन को अपने जीवन के आदर्श मूल्यों और संस्कारों में शामिल करना।

 

TAGS

water crisis, water crisis in rajasthan, water management in rajasthan, water harvesting, water harvesting in hindi, water harvesting in rajasthan, traditional water harvesting, traditional water harvesting system in rajasthan, water conservation, water conservation in rajasthan, water management, water management in rajasthan.

 

Disqus Comment

जलवायु परिवर्तन खेती के लिए बड़ी चुनौती

$
0
0
जलवायु परिवर्तन खेती के लिए बड़ी चुनौतीUrbanWaterWed, 07/10/2019 - 10:52
Source
गांव कनेक्शन, 07-13 जुलाई 2019

जलवायु परिवर्तन से फसलों पर प्रभाव पड़ रहा है।जलवायु परिवर्तन से फसलों पर प्रभाव पड़ रहा है।

फसल उत्पादन के फेल होने, फसल की उत्पादकता कम होने, खड़ी फसलों का नुकसान होना, नये फसली कीटों और बदलते खेती के तरीके की वजह से खेती में नुकसान उठाना पड़ता है। महाराष्ट्र, जो हाल-फिलहाल फिलहाल भयंकर सूखे से गुजर रहा है। किसान बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन कृषि के लिए सबसे बड़ा खतरा है। जलवायु परिवर्तन से मतलब है कि जलवायु की अवस्था में काफी समय के लिए बदलाव। जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक आंतरिक बदलावों या बाहरी कारणों जैसे ज्वालामुखियों में बदलाव या इंसानों की वजह से जलवायु में होने वाले बदलावों से माना जाता है।

जलवायु परिवर्तन मनुष्य की ओर से

संयुक्त राष्ट्र ने जलवायु परिवर्तन पर हाल में बड़े स्तर पर एक सम्मेलन का आयोजन किया था। सम्मेलन का विषय था जलवायु परिवर्तन मनुष्य की ओर से। इसमें जलवायु परिवर्तन के प्राकृतिक कारणों में अंतर बताने की कोशिश की है। इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन को इस तरह से परिभाषित किया गया कि जलवायु परिवर्तन सीधे-सीधे मानव जनित कारणों पर निर्भर रहता है। पूरे वातावरण पर प्रभाव पड़ता है। भारत में ग्रामीण क्षेत्रों के किसान ‘संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन’ की वैज्ञानिक शब्दावली नहीं समझते हैं।  वह सबसे पहले जलवायु परिवर्तन से दो-चार होते हैं। जलवायु सीधे तौर पर उनके जीवनयापन और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव डालता है।

इस साल दक्षिण-पश्चिम मानसून की शुरुआत भी देरी से हुई है। इससे किसान भी परेशान हैं। सामान्य मानसून के बावजूद देश के कई राज्य सूखे का सामना कर सकते हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, बारिश की अनियमितता और नहरों की सिंचाइ्र पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। कई किसानों ने भूजल का अत्याधिक दुरूपयोग करना शुरू कर दिया है। वर्ष 1950-51 से लेकर 2012-13 के बीच शुद्ध सिंचित क्षेत्र में नहर की हिस्सेदारी 39.8 प्रतिशत से घटकर 23.6 प्रतिशत हो गई है, जबकि भूजल स्रोत 28.7 प्रतिशत से बढ़कर 62.4 प्रतिशत हो गई है।

पश्चिम सिक्किम जिले के हीपटेल गांव के इलायची के किसान तिल बहादुर छेत्री बताते हैं, ‘जब मैं नौजवान था और अब 92 साल के होने के बाद तक यहां की जलवायु में काफी तरह के बदलाव आए हैं। सर्दी के मौसम में गर्मी और सूखा होने लगा है। मानसून के सीजन में भी गिरावट दिखने लगी है’। कई फलों के पेड़ जंगल से गायब हो चुके हैं। नए-नए कीट फसलों पर हमला कर रहे हैं। इन पेस्ट्स की वजह से छेत्री बताते हैं कि उनकी खुद की पूरी फसल भी कीटों वजह से खराब हो गई। इंटरगोवमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेंट चेंज की क्लाइमेंट चेंज 2014  की रिपोर्ट में विस्तार से फसलों पर जलवायु परिवर्तन से पड़ने वाले प्रभाव को दिखाया गया है।

गेहूं और मक्के की उत्पादकता पर भी प्रभाव

वर्ष 2014 की इस रिपोर्ट में गेहूं और मक्के की खेती पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों सहित भारत के अन्य क्षेत्रों में भी जलवायु परिवर्तन से पड़ने वाले प्रभावों की बात कही गई है। उष्णकटिबंधीय और और अधिक तापमानी क्षेत्रों में 30वीं सदी के बाद तापमान में दो डिग्री सेल्सियस के इजाफा से नकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना है। इससे गेहूं और मक्के की उत्पादकता पर भी प्रभाव पड़ेगा। इंटरनेशनल क्राप रिसर्च इंस्टीट्यूट के रिसर्च स्कॉलर ओम प्रकाश घिमिरे कहते हैं, बढ़ते तापमान की वजह से चावल और गेहूं के उत्पादन पर तगड़ा प्रभाव पड़ता है। जैसे-जैसे तापमान में इजाफा होगा। वैश्विक स्तर पर चावल और गेहूं के उत्पादन में भी करीब 6 से 10 प्रतिशत की गिरावट होने की संभावना है’।

दिन में बढ़े हुए तापमान के मुकाबले रात में बढ़े हुए तापमान से चावल के उत्पादन पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है। बड़े हुए तापमान के कारण खड़ी फसलों में कीड़े और बीमारी लगने की संभावना ज्यादा पाई जाती है। इन कीटों से भारी मात्रा में फसलों का नुकसान होता है। रिपोर्ट में यह भी बात निकलकर सामने आई कि तापमान में इजाफे से अनाज की गुणवत्ता में कमी आती है। महाराष्ट्र के खड़ेविलेज के मनोज लक्ष्मणराव पाटिल कहते हैं कि हर मौसम में हम अपनी फसलों को खो देते हैं, उत्पादकता में गिरावट आती है। जलवायु परिवर्तन पर खेती में सरकारी प्रयोग शायद ही कभी जरूरतमंद किसानों तक पहुंचते हैं। लगभग हर साल फसल उत्पादकता में गिरावट आती है। पाटिल ने बताया, पिछले साल फरवरी में ओलावृष्टि ने मेरी खड़ी रबी फसल को बर्बाद कर दिया था। फिर खरीफ की कपास की फसल गुलाबी बालवार्म कीट ने खराब कर दी। सूखे की वजह से मैं इस साल की शुरुआत में रबी की फसल नहीं कर पाया और अब तक खरीफ की फसल की बुवाई नहीं की है क्योंकि मानसून आने में देरी हो रही है’।

देश की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

वर्ष 2018 में हुए आईएमडी के अध्ययनकर्ता चेतावनी देते हैं कि भारतीय क्षेत्र में जलवायु में परिवर्तन, विशेष रूप से दक्षिण पश्चिमी मानसून के दौरान, कृषि उत्पादन, जल संसाधन प्रबंधन और देश की अर्थव्यवस्था पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। कृषि क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने के लिए, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 2010-11 में जलवायु परिवर्तन कुषि पर एक राष्ट्रीय परियोजना की शुरुआत की। इस परियोजना का उद्देश्य सुधार प्रबंधन तकनीकों के विकास और प्रयोगों से जलवायु परिवर्तन के लिए फसलों, पशुधन और मत्स्य पालन के उत्पादन को बढ़ाना है। इसके साथ ही इसका उद्देश्य कृषि में जोखिम उठाने की क्षमता को भी आगे बढ़ाने की है। सूखा, गर्मी और बाढ़ से बचाने वाली फसलों की किस्मों को बढ़ावा देना। मृदा स्वास्थ्य में सुधार, पानी की बचत की तकनीकों को अपनाना, मौसम संबंधी कृषि-सेवाएं को सेवाओं को 100 जिलों के एक-एक पंचायत में से प्रभावी रूप से लागू करने की सरकार की कोशिश है।

बढ़ती गर्मी और बारिश का बदलता पैटर्न

वर्ष 2013 में भारतीय मानसून विभाग ने भारत में राज्य स्तरीय जलवायु परिवर्तन नाम से एक मोनोग्राफ निकाला था। इसमें जलवायु परिवर्तन मद्देनजर 1951 से लेकर 2010 तक के मानसून विभाग के डेटा और साल भर में बदलते तापमान और बारिश के ट्रेंड का विश्लेषण किया गया था। मोनोग्राफ के अनुसार राज्य स्तर पर साल भर में औसतन अधिकतम तापमान आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, सिक्किम और तमिलनाडु में लगातार बढ़ता हुआ दिखा। वार्षिक औसतन तापमान में सबसे ज्यादा इजाफा हिमाचल प्रदेश में दर्ज किया गया। हिमाचल प्रदेश के तापमान में 0.06 डिग्री की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। वहीं गोवा में 0.04 डिग्री के साथ दूसरे स्थान पर हैं। इसके साथ ही मणिपुर, मिजोरम और तमिलनाडु में 0.03 डिग्री के तापमान में इजाफा दर्ज किया गया है।

साल भर में होने वाली और औसतन बारिश में भी कमी दर्ज की गई है। छत्तीसगढ, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, सिक्किम और उत्तर प्रदेश में आईएमडी की रिपोर्ट के अनुसार साल भर में होने वाली बारिश में कमी दर्ज की गई। सबसे ज्यादा बारिश में कमी मेघालय और अंडमान-निकोबार में दर्ज की गई है। वर्ष 1951 से 2010 के बीच उत्तर प्रदेश में साल भर में होने वाली बारिश में 4.42 डिग्री की कमी रिकार्ड की गई। पिछले साल आईएमडी के वैज्ञानिकों की मासिक नामक पत्रिका में छपी रिपोर्ट में 1901 से 2013 के बीच होने वाली वार्षिक सीजनल बारिश का विभिन्न जिलों में विश्लेषण और मौसम संबंधी उप विभाजन का भी विश्लेषण किया था। वर्ष 1961 से लेकर 2013 में होने वाले वार्षिक बारिश के ट्रेंड का भी विश्लेषण किया गया था। वर्ष भर में होने वाली बारिश के ट्रेंड का विश्लेषण करने पर शोधकर्ता पाते हैं कि 1961 से 2013 के बीच 64 जिलों में साल भर में औसतन बारिश में इजाफा दर्ज किया गया। वहीं 85 जिलों में साल भर साल भर में होने वाली बारिश में कमी दर्ज की गई। वर्ष 2018 में हुए अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश के सबसे ज्यादा जिलों में साल भर में होने वाली बारिश में कमी आई है। आगरा, फिरोजाबाद, गोरखपुर, कानपुर, मथुरा उन्नाव में सबसे कम बारिश हुई इै।

जलवायु परिवर्तन कृषि के लिए सबसे बड़ा खतरा है।जलवायु परिवर्तन कृषि के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

महाराष्ट्र के खड़ेविलेज के मनोज लक्ष्मणराव कहते हैं, ‘लगता है भगवान हमसे नाराज है। अब बारिश समय पर नहीं आती है, जब बारिश होती है तो इतनी भयानक होती है कि फसल से लेकर जमीन की पहली परत को बर्बाद कर देती है। हर साल में बेमौसम तूफान खड़ी रबी की फसल को बर्बाद कर देता है।’ बारिश के बदलते पैटर्न और एक्सट्रीम वेदर की बढ़ती घटनाएं एक देश के लिए बड़ी चिंता है जिस देश क पानी और अनाज की सुरक्षा खतरे में है। भारत के लगभग 61 प्रतिश वर्षा आधारित कृषि पर निर्भर हैं। 52 प्रतिशत हिस्सा असिंचित और वर्षा आधारित है। साथ ही भारत वर्षा आधारित खेती में विश्व में पहले स्थान पर है। उपज और मूल्य में भी भारत पहले नंबर पर है। नीति आयोग में दर्ज आंकड़ों के अनुसार जितना दाल, तिलहन और काॅटन पूरे देश में उत्पादित होता है। उसमें से 80 प्रतिशत दाल, 73 प्रतिशत तिलहन और 80 प्रतिशत काॅटल की फसल वर्षा पर आधारित है।

रविंदर सिंह जामवाल जम्मू के सूखाग्रस्त इलाके गांव को कांडी कहते हैं। वहां की खरीफ और रबी की फसल पूरी तरह से बारिश पर निर्भर है। उन्होंने कहा कि इससे पहले ठंड के मौसम में बारिश दिसंबर से शुरू हो जाती थी। दो-तीन दिन लगातार हल्की बारिश होती थी। जिसे वहां की स्थानीय भाषा में झारी बोलते थे। अब वैसी बारिश बहुत कम देखने को मिलती है। यह रबी के फसलों पर सीधे तौर पर प्रभाव डालती है। अरविंद सिंह जो वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं और ऑल इंडिया रिसर्च प्रोजेक्ट साइंस के काॅर्डिनेटर। वे कहते हैं, जम्मू के सूखाग्रस्त किसान सबसे पहले अनियमित बारिश से दो-चार होते हैं। वहां के ज्यादातर किसानों के पास इस जलवायु परिवर्तन और उससे कृषि पर पड़ने वाले प्रभाव से निपटने का कोई तरीका नहीं है।

तापमान का असर

सही तापमान और अनियमित बारिश पर इंटरनेशनल क्राॅप रिसर्च इंस्ट्टीयूट के रिसर्च स्काॅलर ओम प्रकाश घिमिरे कहते हैं, ‘अनियमित बारिश से बंजर जमीन और सिंचित भूमि के इतर वर्षा आधारित भूमि पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है। बीज बोने के मौसम के शुरुआती चरण में बारिश से खेतों में बीज लगाने में देरी होती है। इससे कुल उत्पादित पौधों में कमी आती है। गेहूं में देर से बुवाई सीजन के दौरान फसलों में उच्च तापमान से पैदा होने वाले जोखिम को बढ़ावा दे सकती हैं। जिससे फसल में भी तापमान का तनाव पैदा होगा। इससे गेहूं का उत्पादन भी प्रभावित होगा।’

गेहूं की देरी से बुवाई देर से सीजन के दौरान उच्च तापमान के जोखिम को जन्म दे सकती है, जिससे फसल में तापमान का तनाव होता है। आर्थिक सर्वेक्षण 2018 में देश में खरीफ और रबी की फसल के मौसम में औसत तापमान और औसत वर्षा में बदलाव दर्ज किया गया था। यह दिखाता है कि 1970 और अंतिम दशक के बीच खरीफ वर्षा में औसतन 26 मिलीमीटर और रबी में 33 मिलीमीटर की गिरावट आई थी। इस दौरान औसत वर्षा में लगभग 86 मिलीमीटर की गिरावट आई थी। इसी अवधि के दौरान, 0.45 डिग्री सेल्सियस और 0.63 डिग्री सेल्सियस का इजाफा हुआ था। घिमिरे ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘अलियमित बारिश और उच्च तापमान से चावल और गेहूं की उपज को 80 प्रतिशत तक कर सकता है।’ 

नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, अनाज दाल, खाद्य तेल, सब्जियों और फलों की वार्षिक मांग में 1.3 प्रतिशत, 3 प्रतिशत, 3.5 प्रतिशत, 3.3 प्रतिशत और 5 प्रतिशत का इजाफा हो रहा है। जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञों के अनुसार पहले से ही 43 प्रतिशत देश सूखे का सामना कर रहा है और इस साल दक्षिण-पश्चिम मानसून की शुरुआत भी देरी से हुई है। इससे किसान भी परेशान हैं। सामान्य मानसून के बावजूद देश के कई राज्य सूखे का सामना कर सकते हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, बारिश की अनियमितता और नहरों की सिंचाइ्र पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। कई किसानों ने भूजल का अत्याधिक दुरूपयोग करना शुरू कर दिया है। वर्ष 1950-51 से लेकर 2012-13 के बीच शुद्ध सिंचित क्षेत्र में नहर की हिस्सेदारी 39.8 प्रतिशत से घटकर 23.6 प्रतिशत हो गई है, जबकि भूजल स्रोत 28.7 प्रतिशत से बढ़कर 62.4 प्रतिशत हो गई है।

TAGS

climate change, climate change in india, climate change in hindi, water crisis, water crisis in india, impact of climate change, climate change impact in india, climate change impact on agriculture, agriculture in india, late mansoon in india, reasons of late mansoon, niti aayog, niti ayog report, rain in india, water management in india, water conservation, climate change effect, harmful effect of climate change on agriculture.

 

Disqus Comment

उत्तराखंड में 1.59 करोड़ पौधरोण से दूर होगी वन्यजीवों के भोजन की कमी

$
0
0
उत्तराखंड में 1.59 करोड़ पौधरोण से दूर होगी वन्यजीवों के भोजन की कमीHindiWaterTue, 07/02/2019 - 17:53

उत्तराखंड में होगा 1.59 करोड़ पौधों का रोपण।

उत्तराखंड में होगा 1.59 करोड़ पौधों का रोपण।

उत्तराखंड़ का 71 प्रतिशत यानी 38 हजार वर्ग किलोमीटर भूभाग वनों से आच्छादित है, जहां वन्यजीवों और वन संपदा के संरक्षण के लिए केदारनाथ वन्यजीव प्रभा, राजाजी टाइगर रिजर्व, जिम काॅर्बेट नेशनल पार्क, नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान आदि रिजर्व वन क्षेत्र हैं, जिनकी वन एवं पर्यावरण मंत्रालय व वन विभाग द्वारा नियमित रूप से निगरानी की जाती है। नियमित रूप से निगरानी का ही नतीजा है कि प्रदेश में हाथियों की संख्या में 2015 के 779 हाथियों की अपेक्षा बढ़कर वर्तमान में 18 सौ से अधिक हो गई है। तो वहीं बारहसिंगा, सांभर, नील गाय आदि वन्यजीवों की संख्या में भी काफी वृद्धि हुई है, लेकिन इंसानों की बढ़ती आबादी के कारण जंगल लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं। घटते जंगलों के कारण वन्यजीवों के लिए जंगल पर्याप्त नहीं पड़ रहे हैं और न ही जंगल में जानवरों की बढ़ती संख्या में अनुरूप भोजन की पर्याप्त उपलब्धता है। नतीजन, वन्यजीव आबादी वाले इलाकों का रुख कर रहे हैं। जिससे वन्यजीवों के संरक्षण पर सकंट गहरा गया है। तो वहीं अधिकांश बंदर जंगल छोड़कर आबादी की तरफ आ गए हैं और जनता के लिए मुसीबत बने हुए हैं। भोजन न मिलने के कारण कई बंदर आक्रामक भी हो गए हैं और लोगों को काटकर घायल कर रहे हैं। वन्यजीवों को भोजन उपलब्ध कराकर जनता को इस समस्या से निजात दिलाने के लिए उत्तराखंड वन विभाग ने 1 करोड़ 59 लाख फलदार पौधों का रोपण करने का निर्णय लिया है, जो प्रदेश के सभी 13 जनपदों में लगाए जाएंगे और ये पौधारोपण केवल वन्यजीवों के लिए ही नहीं, बल्कि जंगल की आग को रोकने के लिए भी लाभकारी सिद्ध हो सकता है। 

उत्तराखंड में गर्मी हर साल आफत बनकर आती है। गर्मी के कारण हर साल उत्तराखंड में हजारों हेक्टेयर में वन संपदा जलकर राख हो जाती है। इस वर्ष 2 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र जलकर राख हो गया है। दरअसल उत्तरखंड में अधिकांश वनक्षेत्र में चीड़ के पेड़ हैं और चीड़ का पीरूल जंगल की आग का मुख्य कारण है। जंगल की इस आग को रोकने के लिए वन विभाग द्वारा लंबे से प्रयास होते नहीं दिख रहे थे, लेकिन इस बार वन विभाग ने भले ही वन्यजीवों को भोजन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से राज्य में 16 हजार 483 हेक्टेयर में 1 करोड़ 59 लाख पौधों का रोपण करने का निर्णय लिया है, जिनमें से गढ़वाल मंडल में 9677.17 हेक्टेयर जंगल में 92.85 लाख और कुमाऊं मंडल में 6805.88 हेक्टेयर में 66.48 लाख पौधे लगाए जाएंगे। वन विभाग का दावा है कि पौधारोपण के लिए पौधालयों में विभिन्न प्रजातियों के 206.14 लाख पौधे तैयार हैं। जिनमें से उत्तरकाशी में 6.90 लाख, चमोली में 19.59 लाख, टिहरी में 26.55 लाख, देहरादून में 10.94 लाख, पौड़ी में 23.96 लाख, रुद्रप्रयाग में 2.44 लाख, हरिद्वार में 2.45 लाख, नैनीताल में 12.69 लाख, ऊधमसिंह नगर में 6.99 लाख, अल्मोड़ा में 10.66 लाख, बागेश्वर में 10.53 लाख, पिथौरागढ़ में 18.49 लाख और चंपावत में 7.09 लाख पौधों का रोपण किया जाएगा। इतने वृहद स्तर पर पौधारोपण करने के पीछे वन विभाग की मंशा कहीं न कहीं मिश्रित वन बनाकर वनों की आग को नियंत्रित करने की भी है। प्रमुख मुख्य वन संरक्षक जयराज के मुताबिक जंगलों में फलदार पौधे लगाने के पीछे मंश यही है कि वहां वन्यजीवों के लिए भोजन की उपलब्धता बनी रहे। वन मुख्यालयों के सभी वन संरक्षकों और डीएफओं को भी रोपित पौधों की देखभाल के लिए निर्देशित कर दिया गया है। 

 

TAGS

plantation in uttarakhand, benefits of plantation, plantation agriculture in hindi,tree plantation project, importance of plantation,plantation meaning in hindi, planting trees essay, tree plantation project, tree plantation in english, tree plantation drawing,tree plantation in hindi, importance of tree plantation, deforestation in english, deforestation effects, deforestation in india, deforestation essay, deforestation causes, deforestation introduction, 10 causes of deforestation, deforestation wikipedia,plantation wikipedia.

 

Disqus Comment

भारत में दस साल में सूख गईं 4500 नदियां

$
0
0
भारत में दस साल में सूख गईं 4500 नदियांHindiWaterWed, 07/03/2019 - 18:31

इस तरह सूख गई हैं भारती की हजारों नदियां।

इस तरह सूख गई हैं भारत की हजारों नदियां।

हमारे देश में ‘‘डग-डग रोटी, पग-पग नीर’’ की कहावत प्रचलित थी। यानी देश में पानी इतनी प्रचुर मात्रा में था कि देश के हर बाशिंदे की पानी से संबंधित सभी आवश्यकता पूरी जो जाती थी। जल संपदा से संपन्न होने के साथ ही भारत की नदियों का जल निर्मल और पवित्र भी था, जो विभिन्न प्रकार के रोगों का नाश करता था। गंगा के जल को तो अमृत का दर्जा दिया गया है, तो वहीं कृष्ण की यमुना, नर्मदा, सरस्वती का जल भी अर्मत समान था, लेकिन आबादी बढ़ने के साथ-साथ वनों की अंधाधुंध कटाई की गई। इंसानों के रहने के लिए कंक्रीट के जंगल खड़े किए गए। विज्ञान के विस्तार के साथ नए-नए संसाधनों का आविष्कार हुआ। इंसानों के शौक व जरूरतों को पूरा करने तथा बढ़ती आबादी को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए बड़े पैमाने पर उद्योग लगाए गए। इन उद्योगों का कचरा व केमिकल वेस्ट को सीधे नदियों में बहाया जाने लगा। प्लास्टिक के आविष्कार ने इसानों को प्लास्टिक का इस हद तक आदि बना दिया कि धरती के गर्भ से लेकर समुद्र की गहराई व ऊपरी सतह पर तक प्लास्टिक कचरे का अंबार लग गया है। जिससे भूजल जल प्रदूषित होकर नदियों और नदियों से समुद्र में मिल रहा है और अब यही प्लास्टिक इंसानों के शरीर के अंदर भी पहंच गया है। खेती में रसायनों के उपयोग से भोजन के साथ ही भूमि की सतह भी विषाक्त होती जा रही है। आधुनिकीकरण की इस दौड़ में लोगों के साथ ही सरकारों ने भी पर्यावरण को उपेक्षित रखा और इसका निरंतर दोहन करते चले गए। नतीजन देश की 4500 से ज्यादा नदियां सूख गई और जल से संबंधित देश में सभी कहावते केवल इतिहास बनकर रह गई हैं।

आजादी से पहले भारत में करीब सात लाख गांव हुआ करते थे। बंटवारे में पाकिस्तान के अलग देश बनने के बाद लगभग एक लाख गांव पाकिस्तान में शामिल हो गए। हर गांव में करीब पांच जल संरचनाएं हुआ करती थी, यानी आजाद भारत में 30 लाख जल संरचनाएं थीं, लेकिन अति उपयोग व लगातार दोहन और पर्यावरण चक्र बिगड़ने के कारण बीस लाख तालाब, कुएं, पोखर और झील आदि पूरी तरह सूख चुके हैं। दस साल पहले देश में लगभग 15 हजार नदियां हुआ करती थीं, लेकिन 30 प्रतिशत यानी लगभग 4500 नदियां पूरी तरह से सूख कर केवल बरसाती नदियां ही बनकर रह गई हैं। राजस्थान और हरियाणा में 20 प्रतिशत स्थानों का भूजल स्तर 40 मीटर या इससे अधिक नीचे चला गया है, जबकि गुजरात में 12 प्रतिशत, चंडीगढ़ में 22 प्रतिशत और मध्य प्रदेश में 4 प्रतिशत स्थानों का भूजल स्तर 40 मीटर या इससे अधिक चीने चला गया है। 

अमेरिका 6 हजार मीटर क्यूब प्रति व्यक्ति वर्षा जल संग्रहित करता है, जबकि ऑस्ट्रेलिया 5 हजार, चीन 2500, स्पेन 1500 और भारत केवल 200 मीटर क्यूब प्रति व्यक्ति बारिश का पानी जमा करता है। देश की 16 करोड़ से अधिक आबादी की पहुंच साफ पानी से दूर है, जबकि इथोपिया 6.1 करोड, नाइजीरिया 5.9 करोड़, चीन 5.8 करोड़ और कांगो की 4.7 करोड़ जन संख्या की पहुंच साफ पानी से दूर है।

राजस्थान में यदि तालाबों की बात की जाए तो शहरी इलाकों में 772 तालाब और बावड़ियों में से 443 में पानी है, जबकि 329 सूख चुके हैं या इन पर अतिक्रमण है। पेजयल और सिंचाई के उपयोग में आने वाली राजस्थान की 11 प्रमुख नदियों में ज्यादातर बरसाती हैं, लेकिन जल संरचनाओं की जितनी उपेक्षा उत्तर प्रदेश में हुई शायद ही कहीं हुई होगी। उत्तर प्रदेश के 1 लाख 77 हजार कुओं में से पिछले पांच सालों में 77 हजार कुएं सूख चुके हैं। 24 हजार 354 तालाब व पोखरों में से 23 हजार 309 में ही पानी है, तो वहीं 24 में से 12 झीलें बीते पांच सालों में पूरी तरह सूख चुकी हैं। बिहार की स्थिति में इससे इतर नहीं है। बिहार में 4.5 लाख हैंडपंपों में पानी आना बंद हो गया है, यानी ये भूजल गिरने से सूख गए हैं। 8386 में से 1876 पंचायतों में भूजल स्तर कम हो गया है। बीते 20 वर्षों में सरकारी और निजी तालाबों की संख्या राज्य में 2.5 लाख से घटकर 98 हजार 401 रह गई है। 150 छोटी-बड़ी नदियों में से 48 सूख चुकी हैं। देश के अन्य राज्यों की स्थिति भी इससे इतर नहीं है और उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, कनार्टक, तमिलनाडु, दिल्ली, हैदराबाद, महाराष्ट्र सहित देश के अन्य राज्य भी पानी के भीषण संकट से जूझ रहे हैं। जिसका मुख्य कारण वर्षा जल का संरक्षण न करना और कृषि में पानी का अति उपयोग करना आदि हैं।

भारत में सबसे ज्यादा पानी का उपयोग खेती के लिए किया जाता है। उपलब्ध पानी का लगभग 76 प्रतिशत हिस्सा देश में सिचांई के उपयोग में लाया जाता है, जबकि उद्योगों में 7 प्रतिशत, घरों में 11 प्रतिशत और अन्य कार्यों में 6 प्रतिश पानी का उपयोग किया जाता है, लेकिन इस समस्या को दूर करने के लिए भारत में अभी तक वर्षा जल संरक्षण करने की परंपरा विकसित नहीं हुई है। दरअसल भारत में हर साल 4 हजार घन मीटर बारिश होती है। जिसमें से हम केवल 17 प्रतिशत यानी 700 अरब घनमीटर का ही उपयोग करते हैं और 2131 अरब घन मीटर वर्षा जल का वाष्पीकरण हो जाता है, लेकिन वर्षा जल संरक्षण की ओर देश की सरकारों ने भी ध्यान नहीं दिया, जिस कारण वर्षा जल संरक्षण में भारत अन्य देशों से पिछड़ रहा है। यदि आंकड़ों पर नजर डाले तो अमेरिका 6 हजार मीटर क्यूब प्रति व्यक्ति वर्षा जल संग्रहित करता है, जबकि ऑस्ट्रेलिया 5 हजार, चीन 2500, स्पेन 1500 और भारत केवल 200 मीटर क्यूब प्रति व्यक्ति बारिश का पानी जमा करता है। देश की 16 करोड़ से अधिक आबादी की पहुंच साफ पानी से दूर है, जबकि इथोपिया 6.1 करोड, नाइजीरिया 5.9 करोड़, चीन 5.8 करोड़ और कांगो की 4.7 करोड़ जन संख्या की पहुंच साफ पानी से दूर है। विकराल होती इस समस्या के कारण भारत सरकार ने बीते वर्ष 343.3 करोड़ रुपये खर्च किए थे, जबकि इस वित्त वर्ष 398.9 करोड़ रुपये खर्च किए जाने, जो कि वर्ष 2010 में केवल 62.3 करोड़ ही था, लेकिन हाल ही में नीति आयोग ने भी एक रिपोर्ट में कहा कि 2030 तक 40 प्रतिशत लोगों की पहुंच पीने के पानी तक खत्म हो जाएगी। जिससे करोड़ों रुपया खर्च करने के बाद भी इस बात की गारंटी नहीं दी सकती की देश की जनता को साफ पानी उपलब्ध होगा।

दरअसल, देश को पानी के संकट से पार पाने के लिए जन भागीदारी की आवश्यकता है। किसी और को दोष देने के लिए बजाए देश के प्रत्येक नागरिक को पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्य का समझना होगा। जीवन-शैली में बदलाव लाकर पानी की खपत को कम करना होगा। ज्यादा से ज्यादा वर्षा जल को संग्रहित करने की पंरपरा को विकसित करना होगा। सरकार को चाहिए कि भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए देश में करोड़ों रुपया विभिन्न योजनाओं में व्यय करने के बजाए देशभर में लाखों की संख्या में रिचार्ज कुए बनाए जाए। देश में तालाबों की संस्कृति को विकसित किया जाए। पहाड़ी इलाकों के साथ ही मैदानी इलाकों में वृहद स्तर पर मिश्रित पौधों का रोपण किया जाए। साथ ही इन पौधों का पूरी तरह से संरक्षण भी किया जाए। इसके लिए देश के प्रत्येक नागरिक को भी अपने स्तर पर पहल करनी होगी, और प्लास्टिक जैसी अन्य सभी वस्तुओं का बहिष्कार करना होगा, जो पर्यावरण के लिए नुकसानदायक हैं, क्योंकि इन सभी वस्तुओं से जल प्रदूषित होता है और हम कितने भी प्रयास करके जल का संरक्षण भले ही कर लें, लेकिन यदि उसे स्वच्छ नहीं रख पाएंगे तो हमारे किसी भी प्रयास का कोई औचित्य नहीं रहेगा। जिससे स्वच्छ जल केवल इतिहास बनकर रह जाएगा।

 

TAGS

water crisis in india essay, water crisis in india facts, water scarcity, what are the main causes of water scarcity, water problems in india, water crisis in india in hindi, water crisis wikipedia in hindi, water wikipedia in hindi, water wikipedia, water in world, water pollution effects, what are the causes of water pollution, types of water pollution, water pollution project, water pollution essay, water pollution introduction, water pollution causes and effects, sources of water pollution, water crisis in india, water crisis in india in hindi,drought meaning in english, famine meaning in hindi, flood meaning in hindi, draught meaning in hindi, prone meaning in hindi, evaporation meaning in hindi, cyclone meaning in hindi, scarcity meaning in hindi, groundwater recharge techniques, groundwater recharge methods ppt, water pollution effects, what are the causes of water pollution, water pollution project, water pollution essay, types of water pollution, water pollution images, longest rivers in india, list of rivers in india pdf, rivers in india map, india river map with names, how many rivers are there in india, rivers of india in english, rivers in india in hindi, indian rivers wikipedia in hindi, indian rivers wikipedia, rivers india wikipedia, river india wikipedia in hindi, how many rivers in india, water pollution causes and effects, water pollution introduction.

 

Disqus Comment
Viewing all 2534 articles
Browse latest View live


Latest Images

<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>