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माइक्रोप्लास्टिक : एक उभरता हुआ भूजल प्रदूषक

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माइक्रोप्लास्टिक : एक उभरता हुआ भूजल प्रदूषकHindiWaterWed, 08/21/2019 - 12:31
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विज्ञान प्रगति, अगस्त 2019

माइक्रोप्लास्टिक : एक उभरता हुआ भूजल प्रदूषक।माइक्रोप्लास्टिक : एक उभरता हुआ भूजल प्रदूषक।

माइक्रोप्लास्टिक 5 मिलीमीटर से कम लंबे प्लास्टिक के टुकड़े होते हैं जो हमारे लिए हानिकारक हो सकते हैं। 100 nm से नीचे के कणों को नैनो प्लास्टिक कहा जाता है। माइक्रोप्लास्टिक्स और नैनो प्लास्टिक्स दोनों आमतौर पर प्लास्टिक के बड़े टुकड़ों के टूटने से बनते हैं। उदाहरण के लिए शॉपिंग बैग से लेकर कार के टायरों तक भूजल संसाधन भारतीयों के लिए प्रमुख पेयजल स्रोत हैं। इसलिए प्रत्येक भारतीय के स्वस्थ जीवन के लिए सुरक्षित भूजल की आवश्यकता है।

माइक्रोप्लास्टिक प्रमुख उभरते प्रदूषक में से एक है और हाल ही में दुनिया भर में कई स्थानों में रिपोर्ट की गई है। पर्यावरण में प्लास्टिक माइक्रोस्कोपिक कणों में टूट जाती है जो एक स्थान से दूसरे स्थान तक परिवहन कर सकते हैं। माइक्रोप्लास्टिक का मुख्य स्रोत लैंडफिल साइट, ओपन डंपिंग  और विनिर्माण इकाइयां हैं। माइक्रोप्लास्टिक आमतौर पर भारी वर्षा के दौरान फ्रैक्चर के माध्यम से जल प्रवाह के साथ भूजल प्रणाली में चले जाते हैं। उदाहरण के लिए सेप्टिक अपशिष्ट जल में हजारों माइक्रो फाइबर पॉलीमर (पॉलिएस्टर और पॉलिथीन) होते हैं। आमतौर पर घरेलू अपशिष्ट जल में फाइबर/सिंथेटिक उनके कपड़े धोने से छोटे-छोटे कणों का प्रवाह शुरू हो जाता है। कल्पना कीजिए कि सिर्फ कपड़े धोने के भार से कितने हजारों पॉलिएस्टर फाइबर भूजल प्रणाली में अपना रास्ता तलाशते हैं। विशेष रूप से इस तरह से एक्वीफर्स में जहां सतह का पानी भूजल के साथ आसानी से संपर्क करता है। माइक्रोब्लैड्स एक प्रकार का माइक्रोप्लास्टिक है, जो कि पॉलीइथाइलीन प्लास्टिक के बहुत छोटे टुकड़े होते हैं, जिन्हें स्वास्थ्यवर्धक और सौंदर्य उत्पादों जैसे कुछ क्लींजर और टूथपेस्ट के रूप में जोड़ा जाता है। यह छोटे कण आसानी से जल निस्पंदन प्रणालियों से गुजरते हैं। कुछ स्वच्छता और सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों (जैसे बॉडी वॉश, शिव प्लास्टिक माइक्रोबीड्स) भी आपके घर में अपशिष्ट जल के साथ मिल सकते हैं, जो कि बाद में मिट्टी-भूजल प्रणाली में मिल जाते हैं और पर्यावरण प्रदूषित करते हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार प्लास्टिक माइक्रोबीड्स लगभग 50 साल पहले व्यक्तिगत देखभाल उत्पादों में दिखाई दिए थे, जिसमें प्लास्टिक तेजी से प्राकृतिक अवयवों की जगह ले रहा था। वायुमंडलीय जमाव माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है।

क्या है माइक्रोप्लास्टिक

माइक्रोप्लास्टिक 5 मिलीमीटर से कम लंबे प्लास्टिक के टुकड़े होते हैं जो हमारे लिए हानिकारक हो सकते हैं। 100 nm से नीचे के कणों को नैनो प्लास्टिक कहा जाता है। माइक्रोप्लास्टिक्स और नैनो प्लास्टिक्स दोनों आमतौर पर प्लास्टिक के बड़े टुकड़ों के टूटने से बनते हैं। उदाहरण के लिए शॉपिंग बैग से लेकर कार के टायरों तक भूजल संसाधन भारतीयों के लिए प्रमुख पेयजल स्रोत हैं। इसलिए प्रत्येक भारतीय के स्वस्थ जीवन के लिए सुरक्षित भूजल की आवश्यकता है।

वर्तमान में किए गए शोध

शोधकर्ताओं ने कुओं और झरनों से 17 भूजल के नमूने एकत्र किए जिसमें 11 सेंट लुइस महानगरीय क्षेत्र के पास एक अत्यधिक खंडित चूना पत्थर के एक्विफर से और 6 ग्रामीण उत्तर पश्चिमी इलिनोइस फ्रैक्चर एक्विफर से। माइक्रो प्लास्टिक फाइबर की अधिकतम सांद्रता 15.2 कण/लीर्र थी। माइक्रोप्लास्टिक की उपस्थिति के साथ में फास्फेट क्लोराइड और ट्राई क्लोसन सहित अन्य प्रदूषक भी थी वैसे ही गैर-लाभकारी पत्रकारिता संगठन और मीडिया ने बोतल बंद पानी में माइक्रोप्लास्टिक्स पर शोध किया। उन्होंने नौ विभिन्न देशों से खरीदे गए पानी की 259 बोतलों का परीक्षण किय।ा जांच की गई सभी 259 बोतलों में से 93 प्रतिशत में कुछ प्रकार के माइक्रोप्लास्टिक कण पाए गए। नेचर जनरल में प्रकाशित एक प्रयोग के अनुसार केंचुए का प्रत्येक जोड़ा पीई-माइक्रोप्लास्टिक की उपस्थिति-अनुपस्थिति (द=5) के साथ लिया गया था। केचुओं की त्वचा पर पॉलीइथिलीन सूक्ष्म कण पाए गए। शोध के अनुसार केंचुआ सतह से गहरी मिट्टी के क्षेत्र में माइक्रोप्लास्टिक पहुंचा सकता है। केंचुए केवल मिट्टी के बायोटर्स का उत्पादन करने वाले नहीं हैं पौधों की जड़े भी व्यापक बायोफोर्स का उत्पादन करती हैं। इसका मतलब यह है कि मिट्टी प्रोफाइल के नीचे माइक्रोप्लास्टिक के परिवहन को बढ़ाने की क्षमता के लिए मृदा बायोटा की भी जांच की जा सकती है। बायो प्रोड्यूसिंग बायोटा के अलावा अन्य मृदा बायोटा भी उध्र्वाधर और क्षैतिज परिवहन में योगदान कर सकते हैं। एक अन्य अध्ययन समुद्री नमक में अस्ससी प्रतिशत निकाले गए फाइबर और टुकड़े क्रमशः 2000 माइक्रोन और 500 माइक्रोन से छोटे पाॅलीइथिलीन टेरेफ्थेलेट (पीईटी), पाॅलीमाइड, पाॅलीइथाइलीन और पाॅलीस्टायरीन थे। 

अनुसंधान प्राथमिकता

माइक्रोप्लास्टिक्स के संभावित खतरों से अधिक मजबूत मात्रात्मक मूल्यांकन की आवश्यकता है। विशेष रूप से भारतीय मृदा जल प्रणाली में निम्न उपाय किए जाने चाहिए -

  • स्थलीय वातावरण में माइक्रोप्लास्टिक के वितरण को संबोधित करने के लिए अनुसंधान।
  • माइक्रोप्लास्टिक व्यवहार (परिवहन, क्षरण और विघटन) को प्रभावित करने वाली मानव जनित प्रक्रियाओं की जांच।
  • माइक्रोप्लास्टिक गुणवत्ता का पता लगाने के लिए पद्धतिगत सटीकता में सुधार।
  • हाल ही के अध्ययन व्यापक विषाक्तता का लक्ष्य और नैनो प्लास्टिक के उत्थान की ओर इशारा करते हैं। पारिस्थितिकी विषाक्तता अध्ययन आवश्यक है। पाचन तंत्र और श्वसन प्रणाली के माध्यम से नैनो प्लास्टिक के शरीर के अन्य भागों में इसके परिवहन और परिणाम स्वरूप स्थानीय प्रभावों का विश्लेषण किया जाना चाहिए।
  • इसके अतिरिक्त पर्यावरण हाइड्रोफोबिक प्रदूषकों के संपर्क की सुविधा के लिए नैनो प्लास्टिक की भूमिका को स्पष्ट किया जाता है।

भूजल प्रदूषण को रोकें

कपड़ा उद्योग के अपशिष्ट जल को शुद्ध बायोरिएक्टर मेंब्रेन फिल्टर जैसी अधिक उन्नत तकनीक द्वारा किया जाना चाहिए। कपड़े धोने के क्षेत्र के पास रेत फिल्टर सेटअप तैयार कर सकते हैं। माइक्रोंप्लास्टिक की विषाक्तता को रोकने के लिए मिट्टी में कार्बनिक प्रदूषक, डीजल ऑयल, कीटनाशक दवाएं इत्यादि नहीं छोड़नी चाहिए।
 

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कई घरों में घुसा फ्लाई ऐश, अनाज तक हुआ खत्म

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कई घरों में घुसा फ्लाई ऐश, अनाज तक हुआ खत्मHindiWaterWed, 08/21/2019 - 17:14
Source
न्यूज एजेंसी "द टेलीप्रिंटर"

कई घरों में घुसा फ्लाई ऐश, अनाज तक हुआ खत्म।कई घरों में घुसा फ्लाई ऐश, अनाज तक हुआ खत्म।

मध्‍य प्रदेश के सिंगरौली में एस्सार पॉवर प्लांट से निकलने वाले जहरीले फ्लाई ऐश का तालाब फूटने के बाद कई गांवों के लोगो की जिंदगी तबाह हो गई है। बारिश के पानी के साथ बह कर आई फ्लाई ऐश की वजह से चार गांवों की फसलें नष्ट हो गई है। इतना ही नहीं फ्लाई ऐश गांव में बने मकानों में घुस जाने से घर में रखा अनाज सहित अन्य खाद्यान आदि सबकुछ खत्म हो गया। प्रशासन ने फसलों के नुकसान का कुल आकलन महज 50 लाख रुपए किया है। दूसरी तरफ पीड़ित परिवारों की शिकायत है कि उन्हें घर-बार छोडकर पंचायत भवन में रहना पड रहा है। यहां उन्हें बच्चों का पेट भरने लायक खाना भी नसीब नहीं हो रहा है। सबसे बडी पीडा इस बात की है कि आने वाले कई सालों तक उनके खेत अब फसलों को उगाने के लायक नहीं रहेंगे। ऐसे में उनके भविष्य पर सवालिया निशान खडा हो गया है। 

दरअसल मामला मध्यप्रदेश के सिंगरौली जिले में बसे खैराही और करसुआ सहित चार गांवों का है। ये सभी गांव एस्सार पॉवर प्लांट के नजदीक हैं। बीते 7 अगस्त की रात तेज बारिश के दौरान प्लांट की फ्लाई ऐश राखड से भरा बाँध टूट गया और आसपास के 4 से 5 किलोमीटर के दायरे में पानी के साथ सैलाब की तरह खेतों और घरों के भीतर तक सब कुछ तबाह कर गया। प्लांट से निकली यह राखड़ सामान्य राख नहीं बल्कि ये राख खतरनाक केमिकलयुक्त बेहद जहरीली होती है। इसने खेतों में खडी अरहर, उड़द और धान की फसलों को चैपट कर दिया। घरों में रखा राशन का सामान तक नष्ट हो गया। करसुआ गांव के रहने वाले सुरेन्द्र जायसवाल का कहना है कि उसके पास 5 एकड जमीन है। अरहर और उडद लगाया था। राखड ने सब खत्म कर दिया। घर में खाने का सामान भी नहीं है। वहां रहा भी नहीं जा सकता। वह अपनी दो पत्नियों और 6 बच्चों के साथ एक हफ्ते से पंचायत में रह रहा है। यहां दो वक्त का इतना खाना भी नहीं मिल रहा कि पेट भरा जा सके। कमोबेश यही हाल गांव के अनुज जायसवाल का भी है। प्रशासन ने इलाके के चार गांवों की 198 एकड जमीन को खराब होना पाया है। करीब साढे चार सौ किसान हैं जो सरकारी तौर पर प्रभावित हैं, लेकिन हकीकत यह है कि यहां करीब 2 हजार लोग हैं जो इससे अप्रत्यक्ष रुप से प्रभावित हुए हैं। पानी के जरिए फ्लाई ऐश ने दूर तक के खेतों की मिट्टी को खराब कर दिया है।

जानकारों के मुताबिक ये जमीनें बंजर हो गई हैं और आने वाले कई सालों तक अब जमीन की उर्वरक क्षमता बहुत कम या लगभग खत्म हो जाएगी। प्रशासन ने फसलों के बदले 50 लाख रुपए की राशि स्वीकृत कर कंपनी को भुगतान करने के लिए कहा गया है लेकिन बडा सवाल यह है कि साढे 4 सौ किसानों की फसल का खामियाजा क्या महज 50 लाख रुपए से भरा जा सकता है। हालांकि मुख्यमंत्री कमलनाथ ने बुधवार को ट्वीट कर प्रभावितों को मदद का भरोसा दिलाया है। मिली जानकारी के अनुसार एस्सार कंपनी ने नियम के मुताबिक फ्लाई ऐश डेम को पक्का नहीं बनाया था जिससे यह हादसा हुआ। दूसरी तरफ कंपनी के लोगो का कहना है कि ज्यादा बारिश होने और कंपनी को बदनाम करने के लिए कुछ असामाजिक तत्वों ने इस घटना को अंजाम दिया है। 

टोंको-रोंको-ठोंको क्रांतिकारी मोर्चा के संयोजक उमेश तिवारी, सामाजिक कार्यकर्ता प्रभात वर्मा और आयर्न पॉवर प्लांट अधिग्रहण विरोधी आंदोलन के नेता शिवकुमार का कहना है कि ऐशडेम बनने के दौरान ही इस तरह के हादसे कि आशंका जताते हुए ग्रामीण बसाहट से दूर बांध बनाए जाने कि मांग को लेकर ग्रामीणों द्वारा आंदोलन किया गया था, किंतु कंपनी प्रबंधन के दबाव में जिला प्रशासन ने मनमानी करते हुए लोगो को अनसुना कर दिया था। बताया जा रहा है कि एस्सार कंपनी ने नियम के मुताबिक फ्लाई ऐश डैम को पक्का नहीं बनाया था जिससे यह हादसा हुआ। दूसरी तरफ कंपनी के लोगो का कहना है कि ज्यादा बारिश होने और कंपनी को बदनाम करने के लिए कुछ असामाजिक तत्वों ने इस घटना को अंजाम दिया है। घटना को लेकर अंचल में एस्सार प्रबंधन के प्रति खासा रोष है और जिला प्रशासन को दोषी माना जा रहा है। प्रभावितों की मांग है कि उन्हें-

  • जमीन के बदले जमीन दी जाये। 
  • फसल नुकसानी की क्षतिपूर्ति दी जाये। 
  • ऐशडेम को बसाहट से दूर कहीं और बनाया जाये। 
  • एस्सार प्रबंधन के विरुद्ध उनकी लापरवाही के कारण 
  • आपराधिक प्रकरण कायम किया जाये।

 

लेखक - पुष्पेन्द्र वैद्य।लेखक - पुष्पेन्द्र वैद्य।

 

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खेती पर निर्भर नहीं रहा भारत

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खेती पर निर्भर नहीं रहा भारतHindiWaterThu, 08/22/2019 - 10:57
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डाउन टू अर्थ, अगस्त 2019

खेती पर निर्भर नहीं रहा भारत।खेती पर निर्भर नहीं रहा भारत।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने अपने बजट में अगले पाँच साल में भारतीय अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन (5 खरब) डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। अभी भारत 2.8 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था है। ऐसे में यह जरूरी है कि लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमें न केवल तेज आर्थिक विकास की जरूरत है, बल्कि इसका फायदा हर वर्ग को समान रूप से पहुँचाने की भी जरूरत है।
 
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि 50 फीसदी भारतीयों को रोजगार देने वाला कृषि क्षेत्र गम्भीर संकट के दौर से गुजर रहा है। इसी तरह सरकारी खर्च पर आधारित बुनियादी ढाँचागत क्षेत्र भी ज्यादा अच्छा नहीं कर रहा है। ऐसे में 2024 के लक्ष्य को हासिल करने के लिए न सिर्फ बुनियादी ढाँचे में बल्कि विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों को जिन्दा करने के अलावा कृषि क्षेत्र में भी भारी निवेश करना होगा। लेकिन एक अहम सवाल यह है कि आर्थिक विकास का यह लक्ष्य हासिल करने में कृषि क्षेत्र की क्या भूमिका होगी ?

निजी और सरकारी निवेश धीमा रहा है, खासकर रोजगार-सघन कृषि क्षेत्र में। 2012-13 में कृषि में निवेश 2.84 लाख करोड़ रुपए था, जो 2018-19 में घटकर 2.73 लाख करोड़ रुपए रह गया है। इसका समग्र प्रभाव उच्च बेरोजगारी के रूप में देखा जा सकता है, जो वर्तमान में 45 वर्षों के सबसे ऊँचे स्तर पर है। इस प्रकार इस बजट में ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश लाकर अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने की उम्मीदभर की गई थी।

आर्थिक एवं रोजगार की दृष्टि से देखें तो भारत अब एक कृषि प्रधान देश नहीं रहा। अर्थशास्त्री एवं नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद द्वारा आयोग के लिए तैयार किए गए शोध पत्र में ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आए बदलाव के बारे में बताया गया है। इसमें साफ-साफ कहा गया है कि 2004-05 से भारत गैर कृषि अर्थव्यवस्था बन चुका है। अधिक-से-अधिक किसान खेती छोड़ रहे हैं और गैर कृषि कार्यों को कर रहे हैं। ऐसा वे अधिक आमदनी के लिए कर रहे हैं। यह बड़ा बदलाव 1991-92 से शुरू हुए आर्थिक सुधार के बाद से आया है। रमेश चंद का शोध बताता है कि 1993-94 और 2004-05 के दौरान कृषि विकास दर में 1.87 फीसदी की कमी आई। जबकि इसके मुकाबले गैर कृषि अर्थव्यवस्था में 7.93 फीसदी की वृद्धि हुई। यह संयोग है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि की भागीदारी में तेज गिरावट आई, जो 1993-94 में यह हिस्सेदारी 57 फीसदी थी, लेकिन 2004-05 में घटकर 39 फीसदी रह गई। इस तरह, साल 2004-05 से ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि से गैर कृषि पर आधारित हो गई। यह स्थिति अब तक बनी हुई है।
 
दशकों बीत चुके हैं और सभी नीतियाँ बताती हैं कि खेती छोड़ रहे लोगों के लिए देश में केवल गैर कृषि क्षेत्रों पर ध्यान दिया गया है। उदाहरण के लिए, 2004-05 और 2011-12 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि क्षेत्रों में पैदा हुई नई नौकरियों में निर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी 74 फीसदी रही। इसकी वजह यह है कि सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में काम की तलाश कर रहे लोगों को आकर्षित करने के लिए बुनियादी ढाँचे पर भारी निवेश किया। लेकिन यहाँ एक गड़बड़ है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बदलाव के बावजूद, गैर कृषि क्षेत्र लोगों को रोजगार देने में पूरी तरह सफल साबित नहीं हो रहे हैं। खासकर ये क्षेत्र उतना रोजगार उत्पन्न नहीं कर पा रहे हैं, जितने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, आर्थिक उदारीकरण से पहले कृषि क्षेत्र में रोजगार में सालाना 2.16 फीसदी की वृद्धि हो रही थी। लेकिन उदारीकरण के बाद तेज आर्थिक वृद्धि के बावजूद इसमें गिरावट आई।
 
ऐसे में यदि 5 खरब डॉलर वाली अर्थव्यवस्था का लक्ष्य हासिल हो भी जाता है और जरूरत के हिसाब से नौकरियाँ पैदा नहीं होती है तो इसे रोजगार विहीन विकास ही कहा जाएगा। खासकर तब जब लोग खेती छोड़ रहे हैं और उन्हें रोजगार देना है। वर्तमान में ये लोग न केवल बेरोजगार हैं बल्कि बेरोजगारों की संख्या बढ़ा रहे हैं। अभी वे कृषि क्षेत्र से जुड़े हुए हैं, यह जानते हुए कि यह अब फायदेमंद नहीं है, लेकिन नुकसान उठाने वाली जीविका को कितने दिन तक बनाए रखा जा सकता है ?
 
बजट 2019-20 से यह संकेत मिलता है कि भारत पहले ही एक गैर-कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था की वास्तविकता को स्वीकार कर चुका है। 2019-20 के इस ‘शुभ’ केन्द्रीय बजट ने केवल मोदी सरकार के विकास के डिजाइन को दोहराया भर है। सुविधाओं को सीधा लाभार्थियों तक पहुँचाना, एक राजनैतिक समय सीमा के साथ मोदी ने अपने पहले के कार्यकाल के साथ-साथ अपनी नई पारी में भी ने डेटा मॉनिटरिंग मैकेनिज्म के उपयोग के माध्यम से ‘सही’ लाभार्थी का चयन करने की रणनीति अपनाई है। चाहे वह स्वच्छ भारत मिशन के तहत टॉयलेट कवरेज के लिए लक्ष्य रहा हो या अपने पहले कार्यकाल में ग्रामीण परिवारों के लिए एलपीजी कनेक्शन, मोदी सरकार ने अपने विकास वितरण तंत्र को रेखांकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। और यह बजट उनकी रणनीति को एक नए स्तर पर ले गया। इस वर्ष का बजट भी भारत के आर्थिक संकट पर एक बैंड-एड से अधिक कुछ भी नही है।
 
निजी और सरकारी निवेश धीमा रहा है, खासकर रोजगार-सघन कृषि क्षेत्र में। 2012-13 में कृषि में निवेश 2.84 लाख करोड़ रुपए था, जो 2018-19 में घटकर 2.73 लाख करोड़ रुपए रह गया है। इसका समग्र प्रभाव उच्च बेरोजगारी के रूप में देखा जा सकता है, जो वर्तमान में 45 वर्षों के सबसे ऊँचे स्तर पर है। इस प्रकार इस बजट में ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश लाकर अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने की उम्मीदभर की गई थी।

 

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केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत का साक्षात्कार

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केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत का साक्षात्कारHindiWaterThu, 08/22/2019 - 11:24
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हिंदुस्तान टाइम्स, 04 अगस्त 2019

केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत।केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत।

जल शक्ति के नए मंत्रालय का ध्यान जागरुकता, तकनीकी सहायता और हैंड होल्डिंग पर होगा। जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने यह समझाते हुए कहा कि पानी एक राज्य का विषय है, यह दृष्टिकोण आवश्यक है। साथ ही, पानी से संबंधित संविधान में उल्लेखित विषय नहीं हैं, जहां केंद्र को कानून पारित करने का अधिकार है।

  • चेन्नई की स्थिति जो पानी से बाहर निकल गई, क्या यह फिर से कहीं और होगा ?

मुझे उम्मीद है कि यह फिर कभी नहीं होगा। हमें जल प्रबंधन की समस्या है। दिल्ली में, 1.1 बिलियन करोड़ लीटर पानी है, जो सिर्फ सीवेज बन जाता है। अगर हम कृषि में पानी की मात्रा का पुनः उपयोग करते हैं, तो दिल्ली को कभी भी समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा। उसके लिए राज्य को आधारभूत संरचना तैयार करनी होगी और दिल्ली और हरियाणा को समझाना होगा।

  • संसद में पानी के कुछ बिलों को लेकर चिंता है, कि वे संघवाद का उल्लंघन कर सकते हैं। ऐसे डर के बारे में आप क्या कहेंगे ? 

संविधान कहता है कि अगर नदी, पानी और बेसिन विवाद है, तो संसद किसी भी कानून को लागू करने के लिए सक्षम है। इस संबंध में पहला अधिनियम जो 1956 में लाया गया था। मेरे विपक्षी मित्रों का बांध सुरक्षा के बिल  के बारे में कहना है कि हम संघीय ढांचे में हस्तक्षेप कर रहे हैं, लेकिन मैं असहमत हूं। यदि ऐसा कोई मुद्दा है जिसका संविधान में उल्लेख नहीं है, तो संसद को उस पर कानून बनाने का अधिकार है। किसी भी सूची में बांध सुरक्षा का उल्लेख नहीं किया गया है। इसलिए हमारे पास ऐसा करने की क्षमता है। भारत में 5,100 से अधिक बांध हैं, और 400 बांधों का भी निर्माण किया जा रहा है। हम अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा बांध मालिक हैं। उनमें से एक हजार से अधिक एक सौ साल से अधिक पुराने हैं और उनके लिए कोई सुरक्षा प्रोटोकॉल नहीं है।

भारत में जलाशय टूटने के 40 उदाहरण हैं, जिनसे बहुत नुकसान हुआ था। अगर कोई जलाशय टूटता है, तो कई लोगों की जान (दांव पर) लगी है। क्या हम ऐसा कर सकते हैं ? राज्यों के पास उन्हें बनाए रखने के लिए तकनीक या समर्थन भी नहीं है। कई बांध अंतर्राज्य नदियों पर हैं, तो उन्हें कौन संभालता है ? 1982 में, उन्होंने एक बांध सुरक्षा कानून को अपनाने की कोशिश की, लेकिन केवल केरल और आंध्र प्रदेश ने इसे अपनाया। इसलिए वह सारा काम अब हमारे द्वारा किया जा रहा है।

  • हाल ही में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ एक कार्यक्रम में, किसी ऐसे व्यक्ति के साथ देखना दिलचस्प था, जिसका केंद्र के साथ कड़वा रिश्ता रहा है।

जिस परियोजना में मैंने केजरीवाल के साथ भाग लिया वह केंद्र द्वारा 85 प्रतिशत वित्त पोषित है। अंततः पानी राजनीतिक विचारों और संबद्धताओं से परे होना चाहिए। यह एक राष्ट्रीय मुद्दा है, एक वैश्विक मुद्दा है। भारत के लिए यह अधिक प्रासंगिक है क्योंकि हमारे पास दुनिया की आबादी का 18 प्रतिशत पानी है और केवल 4 प्रतिशत पानी की आपूर्ति है। हमारे पानी को सबसे अधिक दूषित माना जाता है, तो हम इसे कैसे करेंगे ? इजरायल जैसा देश जिसे हमारे जैसे ही समय के आसपास आजादी मिली, वहां 200 मिमी से कम वर्षा होती है। फिर भी, इजराइल में प्रचूर मात्रा में पानी उपलब्ध है और वह पीने का पानी निर्यात भी करता है। यहां तक ​​कि कंबोडिया, जो इजरायल के विपरीत एक गरीब देश है, में जल सुरक्षा है और हमारे पास 1000 मिमी से अधिक वर्षा (कुछ भागों में), एक कमी है। इजाराइल ने यह पानी का एकत्रीकरण, विवेकपूर्ण उपयोग, इसका पुनर्चक्रण और नदियों का कायाकल्प जैसे चार स्तंभों के साथ किया। जहां तक ​​भूजल का संबंध है, 65 प्रतिशत कृषि उसी पर निर्भर है। यह एक अदृश्य स्रोत है और एक अध्ययन कहता है कि इसका एक चैथाई हिस्सा सूख रहा है। इसलिए हमें भूजल रिचार्ज पर काम शुरू करना होगा।

समस्या जागरुकता और प्रतिबद्धता है। अब भी, हम कम पानी बरसने से बचाने की बात करते हैं और बैठकों में या उद्योग द्वारा उपयोग किए जाने वाले पानी की कम सेवा करते हैं। क्या आप जानते हैं कि घरेलू जल का उपयोग केवल 6 प्रतिशत है और उद्योग 5 प्रतिशत ? 89 प्रतिशत पानी का उपयोग कृषि द्वारा किया जाता है। अगर हम उसका 10 प्रतिशत भी बचा लेते हैं, तो भी भारत को अगले पाँच वर्षों तक पानी की कोई चिंता नहीं होगी।

  • यह आपका ध्यान तो है ?

हाँ यही है। हम खेतों में मुफ्त बिजली देते हैं, इसलिए पानी बाहर पंप किया जाता है और हम इसे बिना किसी चिंता के बाहर निकालते रहते हैं। इसलिए मैं इसकी पहल के लिए हरियाणा की सराहना करता हूं। उन्होंने धान के बजाये मक्के की वृद्धि को प्रोत्साहित किया, कहा कि यदि आप मक्का उगाते हैं तो हम सभी की खरीद करेंगे। उन्होंने कहा कि हम धान के बजाये मक्का उगाने के लिए 2,000 रुपये प्रति एकड़ देंगे। महाराष्ट्र सरकार ने गन्ने के साथ भी वही किया जो एक वाटर गेजर है। उन्होंने कहा कि अगर आप गन्ना उगाते हैं तो आपको ड्रिप इरीगेशन करनी होगी। इससे 60 प्रतिशत पानी की बचत होती है। पंजाब को लें, जिसमें किसानों के लिए मुफ्त बिजली है - उनके पास बिजली बचाओ पैसा कमाओं नाम से एक योजना है। प्रत्येक राज्य को उन नए तरीकों के बारे में सोचना होगा जो उनके लिए काम करते हैं। हमने एक संकल्प लिया है कि मार्च 2020 के अंत तक, सभी जलविदों को दिखाने के लिए 240 जलयुक्त जिलों को मैप किया जाएगा। 

  • इसलिए आप मूल रूप से जागरूकता पैदा कर रहे हैं क्योंकि एक राज्य विषय में आप बहुत कुछ नहीं कर सकते हैं ? 

जागरुकता, तकनीकी सहायता और हैंडहोल्डिंग जो हम कर रहे हैं।

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जलवायु परिवर्तन से बढ़ा संकट

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जलवायु परिवर्तन से बढ़ा संकटHindiWaterThu, 08/22/2019 - 12:04
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डाउन टू अर्थ, अगस्त 2019

 धधकते जंगल।जलवायु परिवर्तन से बढ़ा संकट।

13 जुलाई की सुबह सुपौल जिले में बीरपुर गाँव के चंदन राय को फोन पर एक सूचना मिली कि कोसी नदी का जलस्तर बढ़ रहा है, ऐसा लगता है कि बाढ़ आ रही है। इतना सुनते ही वह तुरन्त अपना बिस्तर छोड़ गाँव की ओर भागे। उन्होंने ग्रामीणों को नजदीक आ रही आपदा की जानकरी दी। धीरे-धीरे यह सूचना नदी के निचले स्तर तक बसे गाँवों में भी फैल गई। चंदन कहते हैं, ‘इस सूचना ने जीवनदाता का काम किया। खासतौर से निचले भू-भाग में रहने वाले लोगों को बाढ़ से बचने का मौका मिल गया। सूचना मिलते ही ग्रामीणों को और पशुओं को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया गया। नदी के निचले भाग पर बसे गाँव और रहने वाले लोग सबसे ज्यादा बाढ़ की चपेट में आते हैं।’
 
सुपौल और बिहार के दूसरे हिस्सों में बसे जिन लोगों तक यह सूचना नहीं पहुँची वें दुर्भाग्यशाली रहे। बाढ़ ने बिहार के 12 जिलों को चपेट में ले लिया था जिसमें 100 से अधिक लोग मारे गए। बाढ़ ने 72 लाख लोगों को प्रभावित किया। नेपाल में यह बाढ़ 64 लोगों की मृत्यु का कारण बन चुकी है और इसके चलते 16,000 परिवार विस्थापित हुए हैं। भारत और नेपाल दोनों की सीमावर्ती इलाकों में भारी बारिश के चलते यह स्थिति बनी है। नेपाल के सिमारा में 11-12 जुलाई को 311 मिलीमीटर वर्षा रिकॉर्ड की गई जबकि जनकपुर में 245 मिलीमीटर वर्षा दर्ज हुई। यदि 11 से 17 जुलाई के बीच की बात करें तो नेपाल में औसत 221 मिलीमीटर वर्षा दर्ज की गई। इसी समान अवधि में बिहार ने औसत 225 मिलीमीटर वर्षा हासिल की, जबकि 12 जुलाई को बिहार में सबसे ज्यादा 463,3 मिलीमीटर वर्षा हुई।

भारत और नेपाल सरकार के पास भी एक-दूसरे को बाढ़ सम्बन्धी सूचना देने के लिए व्यवस्था है, लेकिन इसमें सामान्य तौर पर 48 घंटे का समय लगता है, क्योंकि इसमें दोनों देशों के प्रशासनिक अधिकारियों के माध्यम से यह सूचना आगे भेजी जाती है। नेपाल का जल एवं ऊर्जा आयोग सचिवालय, जलप्लावन एवं बाढ़ प्रबन्धन पर बनी नेपाल-भारत संयुक्त समिति और जल संसाधन पर बनी भारत-नेपाल संयुक्त समिति के माध्यम से यह सूचना एक-दूसरे को दी जाती है, लेकिन ऐसे समय में, जब बार-बार मौसम में अतिशय घटनाएँ बढ़ रही हैं और तेजी से बाढ़ आ रही हैं, यह व्यवस्था कारगर साबित नहीं हो रही है।

दोनों देशों में दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के कारण यह स्थिति पैदा हुई। जब वर्षा शुरू हुई तो 7 जुलाई तक बिहार के 38 जिलों में से कुल 27 जिलों में 40 फीसदी कम वर्षा रिकॉर्ड की गई थी। इनमें से सात उत्तरी बिहार के जिले थे। अब यह सभी जिले बाढ़ झेल रहे हैं। परिस्थितियाँ 14 जुलाई को खराब हुईं जब नेपाल ने पानी निकालने के लिए कोसी बैराज के 56 फाटकों को खोलने का निर्णय लिया। इसके चलते राज्य के निचले भू-भाग में बाढ़ का संकट आया। यह पहली बार नहीं है। ऐसा करीब हर साल होता है। लुथरेन वल्र्ड रिलीफ (एलडब्ल्यूआर) फाउंडेशन के नारायण गयावली ने कहा कि नेपाल में आने वाली हर बाढ़ भारत में भी बाढ़ का कारण बनती है। 2008, 2011, 2013, 2015, 2017 और 2019 वे वर्ष हैं, जब नेपाल और भारत दोनों देशों में भीषण बाढ़ दर्ज की गई है। कोसी, नारायणी, कर्णाली, राप्ती, महाकाली वे नदियाँ हैं जो नेपाल के बाद भारत में बेहती हैं। जब नेपाल के अपस्ट्रीम यानी ऊपरी हिस्से में भारी वर्षा होती है तो तराई के मैदानी भागों और डाउनसट्रीम यानी निचले भू-भागों में बाढ़ की स्थिति बन जाती है। जनवरी, 2017 के जर्नल क्लाइमेट में प्रकाशित एक शोधपत्र के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन ने बाढ़ की विभीषिका को बढ़ाया है। यदि दीर्घ अवधि (1981-2010) तक नेपाल में वर्षा की प्रवृत्ति पर गौर करें तो ऊँची जमीनों के विपरीत अत्यधिक वर्षा के कारण निचले भू-भाग यानी तराई क्षेत्र ज्यादा जलमग्न हुए हैं। यह सामान्य मानसून वर्षा प्रवृत्ति के विपरीत है जो मैदानी इलाकों की तुलना में पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक तीव्र है। निचले क्षेत्रों में अधिक अचानक बारिश ऊपरी बाढ़ से आने वाली नियमित बाढ़ को बढ़ा सकती है, जिससे बाढ़ की तीव्रता बढ़ सकती है और नए क्षेत्रों में भी पहुँच सकती है। इस अध्ययन में एक और अहम बिन्दु की ओर इशारा किया गया है कि देश में सूखा का दायरा बढ़ा है और बारिश का दायरा घटा है। इसका मतलब है कि लम्बे समय तक बारिश रुकी रहती है और बेहद कम समय में तीव्र बारिश होती है। यह इस बार के मानसून में भी देखा गया है। पूरे देश में पहले सूखे जैसा माहौल रहा फिर अचानक तीव्र वर्षा हुई।
 
नवम्बर 2017 में नॉर्वे के बर्गन विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित एक अन्य अध्ययन से पता चलता है कि अतिशयत वर्षा वाली घटनाएँ देश के पश्चिमी हिस्से में ज्यादा घटित हो रही हैं, जहाँ अभी भारी वर्षा होने वाली है। इस तरह की वर्षा प्रवृत्ति का बदलना खासतौर से नेपाल के लिए काफी नुकसानदेह साबित होता, जहाँ पहाड़ों के कारण बाढ़ भू-स्खलन आदि समस्याएँ प्रबल हो रही हैं। वहीं, नेचर जर्नल में कहा गया है कि वैश्विक तापमान के कारण यह स्थितियाँ और खराब हो रही हैं। मसलन, मंद गति से होने वाली बारिश जिसे फसलें सोख लेती हैं, ऐसी सामान्य बारिश न होकर तूफानी बारिश की प्रवृत्ति बढ़ रही है। नेपाल और बिहार में बाढ़ भी इसी का नतीजा है।
राय के पास बाढ़ की अग्रिम सूचना न तो नेपाल से आई और न ही भारत सरकार की तरफ से। यह सूचना भगवानी चैधरी की ओर से आई, जो ट्रांसबाउंड्री सिटीजन फोरम के संयोजक हैं। यह फोरम टांसबाउंड्री फ्लड रिसाइलेंस प्रोजेक्ट का हिस्सा है, जिसे लुथेरन वल्र्ड फाउंडेशन (एलडब्ल्यूआर) द्वारा चलाया जा रहा है। इस प्रोजेक्ट के तहत नेपाल में एक नेटवर्क स्थापित किया गया है, जो भारत में 2013 में कोसी और नारायणी नदी के बेसिन पर लगाया गया था। इस प्रोजेक्ट का मुख्य उद्देश्य बाढ़ और आपदा के बारे में पूर्व चेतावनी जारी करना है। राय बताते हैं कि हम इस प्रोजेक्ट के माध्यम से नेपाल के ऊपरी हिस्से में बसे समुदायों के साथ सम्पर्क में रहते हैं। हम लोग अकसर मिलते रहते हैं और बाढ़ से होने वाले नुकसान से बचाव के तरीके और पूर्व चेतावनी सिस्टम को कैसे मजबूत बनाया जाए, इस बारे में विचार-विमर्श करते हैं। हम एक-दूसरे को व्यक्तिगत तौर पर जानने लगे हैं। चंदन राय खुद भी टीबीसीएफ सदस्य हैं। नेपाल के ऊपरी हिस्से में रहने वाले लोग हमें लगातार जल स्तर के बारे में अपडेट देते हैं और जैसे ही उन्हें बाढ़ की आशंका लगती है, वे हमें तुरन्त सृजित करते हैं। अब हमें बाढ़ से दो से तीन घंटे पहले चेतावनी सूचना मिल जाती है, जो अपने परिवार, समुदाय, पशुओं और सामान बचाने के लिए काफी समय है। आज के समय में नेपाल की कई बड़ी नदियों कांकी, कोसी, कमला, नारायण, करनाई आदि पर रियल टाइम अर्ली वार्निंग सिस्टम लगाया जा चुका है और सामूहिक एसएमएस और सामुदायिक आपदा प्रबन्धन समितियों के माध्यम से बाढ़ से पहले सूचना जारी कर दी जाती है, जिससे जान-माल को बचाने में काफी मदद मिलती है।
 
यदि भारत में भी इस तरह का सिस्टम विकसित किया जाए तो इसी तरह की सूचना भारत में भी जारी की जा सकती है। आपदा के दौरान अफवाहों पर काबू पाने में सही सूचनाएँ बहुत कारगर रहती हैं। राय बताते हैं कि कुछ साल पहले एक अफवाह उड़ी कि नेपाल में हिमालय में एक झील फट गई है और बाढ़ का खतरा बन गया है, इससे लोगों में भय फैल गया। मैंने ऊपरी इलाकों में रह रहे अपने सदस्यों से बात की तो पता चला कि नेपाल में ऐसा कुछ नहीं हुआ है। मैंने स्थानीय लोगों को यह जानकारी दी, लेकिन उन्होंने इस पर विश्वास नहीं किया और ज्यादातर परिवार सुरक्षित जंगलों में चले गए, हालांकि हम शान्त रहे। अगली सुबह, लोगों को पता चला कि उन्हें मूर्ख बनाया गया है और रात भर उन्हें बेवजह परेशान रहना पड़ा। ऐसे समय में विश्वसनीय सूचनाएँ अफवाहों को मात दे सकती हैं। अब यह आलम है कि स्थानीय लोग मुझे फोन करके हर सूचना की पुष्टि करने की कोशिश करते हैं। राय की इस बात से अंदाज लगाया जा सकता है कि टीबीसीएफ के गठन के बाद किस तरह का बदलाव आया है।
 
भारत और नेपाल सरकार के पास भी एक-दूसरे को बाढ़ सम्बन्धी सूचना देने के लिए व्यवस्था है, लेकिन इसमें सामान्य तौर पर 48 घंटे का समय लगता है, क्योंकि इसमें दोनों देशों के प्रशासनिक अधिकारियों के माध्यम से यह सूचना आगे भेजी जाती है। नेपाल का जल एवं ऊर्जा आयोग सचिवालय, जलप्लावन एवं बाढ़ प्रबन्धन पर बनी नेपाल-भारत संयुक्त समिति और जल संसाधन पर बनी भारत-नेपाल संयुक्त समिति के माध्यम से यह सूचना एक-दूसरे को दी जाती है, लेकिन ऐसे समय में, जब बार-बार मौसम में अतिशय घटनाएँ बढ़ रही हैं और तेजी से बाढ़ आ रही हैं, यह व्यवस्था कारगर साबित नहीं हो रही है। ऐसे ही हालात पिछले साल अरुणाचल प्रदेश में दिखे थे, जब चीन में हुई भारी बारिश के कारण प्रदेश में बाढ़ आ गई थी।
 
वर्तमान वर्ष में असम में बाढ़ के कारण 64 लोगों की मौत हो गई और 18 जिलों के लगभग 44 लाख लोग प्रभावित हो गए। बेशक यह चीन में आई बाढ़ के कारण नहीं हुआ, लेकिन ऐसे जोखिम की वजह से हुआ, जो दो देशों भारत और चीन के बीच प्रभावी बाढ़ प्रबन्धन नीति न होने के कारण पैदा हुई। प्रभावी बाढ़ प्रबन्धन नीति इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट के रिसर्च ग्रुप के लीडर गिरीराज अमरनाथ ने कहा कि डोकलाम को लेकर हुए राजनीतिक विवादों के कारण दोनों देशों ने आपस में एक-दूसरे को सूचनाएँ नहीं दी, जबकि ऊपरी इलाकों में जल स्तर बढ़ने के कारण भू-स्खलन की घटनाएँ काफी बढ़ गई थीं। वर्तमान में चीन की ओर से ब्रह्मपुत्र नदी पर बने तीन हाइड्रोलोजिकल स्टेशन नुगेशा, यांगकुन, नूक्सिया से आंकड़े भारत को मिल रहे हैं जो बाढ़ प्रबन्धन में काफी मदद कर सकते हैं। यदि इसी तरह सूचनाओं का आदान-प्रदान समय पर होता है तो बाढ़ से होने वाले नुकसान पर कुछ हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है।

(साथ में नेपाल के काठमांडू से राजेश घिमिरे)

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बुग्याल बचेंगे तो हम भी रहेंगे

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बुग्याल बचेंगे तो हम भी रहेंगेHindiWaterFri, 08/23/2019 - 10:45
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युगवाणी, अगस्त 2019

बेदनी बुग्याल।बेदनी बुग्याल।

मैं तो पहाड़ में ही पैदा हुआ, पहाड़ से बाहर रहने की अवधि को, पहाड़ में रहने की अवधि ने पीछे छोड़ दिया है और पहाड़ में ही राजनीतिक-सामाजिक सक्रियता भी है। इसी सक्रियता में खूब पहाड़ चढ़ना-उतरना भी किया। पर खालिस पहाड़ चढ़ने के लिए पहाड़ पहली बार चढ़ा मैं। जी हाँ, गंतव्य था- पहाड़, मकसद था-पहाड़ का सौन्दर्य निहारना।

बात की शुरुआत यूँ हुई कि भाकपा (माले) की राज्य स्थाई समिति के सदस्य कॉमरेड कैलाश पांडेय, गढ़वाल में पार्टी की बैठक के लिए राज्य कमेटी की तरफ से आ रहे थे। कैलाश भाई ने प्रस्ताव रखा कि बेदनी बुग्याल चले क्या ? मैंने भी हामी भर दी। श्रीनगर (गढ़वाल) की गर्मी असह्य लगी तो हम एक दिन पहले ही शाम को अपने एक अध्यापक मित्र के यहाँ देवाल पहुँच गए। इस क्रम में अपने गाँव जसोली (जिला रुद्रप्रयाग) लौट रहे साथी मदन मोहन चमोली को भी हमने अपने साथ कर लिया। तय हुआ कि 2 जुलाई को हम तीन लोग बेदनी बुग्याल जाएँगे, लेकिन बेदनी बुग्याल जाने की योजना बनाने वाले कैलाश भाई को अपने व्यक्तिगत कारणों से हल्द्वानी वापस लौटना पड़ा। अब रह गए हम दो यानि मदन मोहन चमोली जी और मैं। कैलाश भाई का साथ होना आश्वस्तिकारक था क्योंकि ट्रैकिंग उनका पुराना शौक रहा है। छात्र जीवन में वे लगातार ही ट्रैकिंग किया करते थे। उस समय पहाड़ पर चढ़ने की उनकी रफ्तार भी देखने लायक होती थी। पहाड़ की चढ़ाई पर ऐसा लगता था कि वे चलते नहीं थे बल्कि दौड़ रहे होते थे। ट्रैकिंग के उनके अनुभव के चलते हम आश्वस्त थे कि अंजाने, अनदेखे रास्ते पर वे हैं ही, तो न कुछ चिन्ता करनी है, न कुछ सोचना है। अचानक उनका कार्यक्रम बदल गया तो हम असमंजस में पड़ गए-जाएँ कि न जाएँ। एक विचार यह आया कि ट्रैकिंग की जानकारी रखने वाले और यह योजना बनाने वाले साथी कैलाश पांडेय ही नहीं जा रहे हैं तो हम जा कर क्या करेंगे ? एक ख्याल यह भी आया कि कैलाश भाई के साथ न जाने से जो उदासी हमको घेर रही है, उस उदासी को प्राकृतिक सुंदरता ही दूर कर सकती है। हम जाने और न जाने के पशोपेश में ही फंसे थे कि हमारे अध्यापक मित्र ने हमें जाने की दिशा में लगभग ठेल दिया। उन्होंने हमसे पूछा ही नहीं कि हमारे जाने की योजना में कोई बदलाव है या नहीं बल्कि हमको बता दिया कि ऐसे-ऐसे जाना है। सो हम चल पड़े। देवाल से वांण तक गाड़ी में और वहाँ से ऊपर पैदल।
 

‘राज्य सरकार को निर्देशित किया जाता है कि सभी बुग्यालों में यात्रियों की संख्या (200 से अधिक नहीं) नियंत्रित करे। ’राज्य के सार्वजनिक उपक्रम/निजी उद्यमी समेत कोई भी व्यक्ति उत्तराखण्ड राज्य के किसी बुग्याल में किसी स्थाई ढाँचे का निर्माण नहीं करेगा। बुग्यालों में रात को रहना प्रतिबंधित होगा। बुग्यालों में पशुओं का व्यावसायिक चरान प्रतिबन्धित होगा। केवल स्थानीय चरवाहों को ही अपने पशुओं को चराने की अनुमति होगी और उनके पशुओं की संख्या को युक्तिसंगत पाबंदियों के जरिए नियंत्रित किया जाएगा।

ट्रैकिंग से हमारा वास्ता कभी रहा नहीं, सो क्या जरूरी तैयारी होती है, इसका न हमको पता था, न हमने कोई तैयारी की। हमारे शिक्षक मित्र ने हमको स्लीपिंग बैग दे दिया तो हमने ले लिया। कैलाश पांडेय जी ने चढ़ाई चढ़ने के लिए चार चॉकलेट खरीदे थे, वो हमने रख लिए। उन्हीं 4 चॉकलेट के भरोसे हम 13 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ने निकल पड़े। रास्ते में एक स्थानीय व्यक्ति वीरेन्द्र सिंह ने लिफ्ट मांगी। पता चला वो टूरिस्ट गाइड का काम भी करते हैं। उन्होंने लोहाजंग में बलबीर दानू की दुकान दिखा दी, जहाँ से हमने एक स्लीपिंग बैग और ले लिया। बलबीर दानू ने हमसे कहा कि ऊपर बारिश होगी, उससे बचने के लिए हम पंचू भी रख लें। पंचू नाम बड़ा मजेदार लगा। पंचू दरअसल रेनकोट यानि बरसात की प्रजाति का वस्त्र है। सो दो पंचू भी हमने रख लिए। ये जगह जहाँ से हमने एक स्लीपिंग बैग और दो पंचू किराए पर लिए, उसका नाम भी काफी रोचक है-लोहाजंग। स्थानीय गढ़वाली एक्सेण्ट में तो यह-ल्वाजिंग-पुकारा जाता रहा है पर हिन्दी में आते-आते हो गया-लोहाजंग। और फिर आया मोटर मार्ग का अन्तिम गंतव्य-वांण। पहाड़ की तलहटी में बसा गाँव है-वांण। दोपहर में अलसाया, ऊँघता हुआ सा मिला वांण। एक-आध दो दुकान खुली, बाकी बंद। वहीं दो युवाओं-महीपत भाई और नरेन्द्र सिंह से हमने पूछा कि बेदनी बुग्याल कैसे जाएँगे तो उन्होंने कहा यहीं से जाएँगे। महीपत भाई ने हमको कुछ-कुछ पहचान लिया। सब सोशल मीडिया की मेहरबानी है। इस पहचान के चलते वन विभाग के कर्मचारी को उन्होंने बुला दिया। वांण से ऊपर बेदनी बुग्याल तक चढ़ने के लिए वन विभाग से अनुमति पत्र बनाना होता है और गैरोली पातल में रात को रहने के लिए कुछ शुल्क भी जमा करवाना होता है। बेदनी बुग्याल और अन्य किसी बुग्याल में रात रहने पर उच्च न्यायालय का प्रतिबन्ध है। इस पर बाद में चर्चा करेंगे। वन विभाग के कर्मचारी गोपाल सिंह शुल्क लेने और रसीद देने के बाद हमें ऊपर चढ़ने का रास्ता भी दिखा देते हैं।
 
थोड़ी दूर ही चले थे कि बारिश भी शुरू हो गई। ल्वाजिंग अर्थात लोहाजंग वाले पंचू काफी काम आए जिन्होंने हमें भीगने नहीं दिया। चढ़ाई पर पहला गाँव जो दिखा, उसका नाम मनरेगा के कामों के लेखन से पता चला-कुमतोली। यहां गेहूँ की फसल अभी खेत में खड़ी दिखाई दी, कुछ हरी, कुछ पकी हुई, कुछ कटी हुई। यहीं से बारिश की फुहारों और हल्की चढ़ाई चढ़ते हुए हम जहाँ पहुँचे, उस जगह का नाम बताया गया-रौणियाधार। बारिश में भीगी हुई हरियाली चारों ओर नजर आती है। रौणियाधार से रास्ता हमें एकाएक नीचे की ओर ले जाता है। पहाड़ में चलने के अनुभव से नीचे की ओर जाता रास्ता चिन्तित करता है। चिन्ता के दो कारण हैं। रास्ता नीचे को जा रहा है, मतलब जहाँ यह उतार खत्म होगा, समझिए वहाँ से कड़ी चढ़ाई आपके इंतजार में है। दूसरी चिन्ता यह है कि जो अभी उतराई है, वही वापसी में चढ़ाई भी होगी।
 
यह उतराई नीचे एक पुल पर ले जाती है। इसके नीचे एक छोटी, लेकिन वेगवति नदी बह रही है- नील गंगा। नील गंगा के इस पुल से बेदनी बुग्याल, भगुवावासा रूपकुंड आदि को ले जाने वाली चढ़ाई शुरू होती है। यह चढ़ाई विकट खड़ी चढ़ाई से कुछ ही दर्जा कम है। चढ़ाई है और घना जंगल है। बांज के पेड़ हैं, बुरांश के पेड़ हैं पर निचले पहाड़ी क्षेत्रों में पाए जाने वाले इसी प्रजाति के पेड़ों के मुकाबले ये पेड़ कहीं अधिक विशालकाय हैं। इतना सघन वन है कि वन आसमान भी पेड़ों की छाया के बीच से केवल कहीं-कहीं पर कतरा-कतरा सा ही दिखता है। सघन वन के पेड़ों के बीच से दिखता, ऐसा आसमान का कतरा, यह भ्रम पैदा करता है कि जैसे वो कोई जगह हो। चढ़ाई चढ़ने से थका हुआ मन यह विश्वास करना चाहता है कि यह जो कतरा दिख रहा है, वही गंतव्य है और वह बस चार पेड़ों को पार करने भर की दूरी पर है। पर अच्छा ही हुआ वह सफेद कतरा, गंतव्य न हुआ, वरना सोचिए तो कितना अरसा लग जाता, उस सफेद कतरे तक पहुँचने में।
 
घना वन है, पेड़ों की हरियाली है, हरियाली गंवा कर भूरे हो चुके पत्ते, चढ़ाई वाले रास्ते पर बिखरे हुए हैं। हम दो लोगों की आवाज के अलावा कोई आवाज नहीं है। नील गंगा के वेगवान पानी का स्वर भी धीरे-धीरे दूर हो रहा है। एक खामोशी है, लेकिन यह खुशगवार खामोशी है। चारों ओर बिखरी हरितिमा की छटा को आँखों और साँसों में समेट लेने को जी चाहता है। पर चढ़ाई पर चलते-चलते लम्बा अरसा बीत रहा है तो यह व्यग्रता भी घेर रही है कि आखिर और कितना चलना होगा ? इस बियाबान जंगल में हम दो प्राणी कब तक चढ़ाई चढ़ते रहेंगे ? चढ़ाई का ओर-छोर कहीं नजर भी आएगा या नहीं! और लगभग छह-साढ़े छह घंटे, चलने के बाद हम पहले दिन के पड़ाव स्थल-गैरोली पातल पहुँचे। गैरोली पातल जो वांण से 8-10 किलोमीटर की दूरी पर है। स्थानीय लोगों से पूछा कि उन्हें कितना वक्त लगता है यहाँ तक पहुँचने में तो अलग-अलग लोगों ने डेढ़ से तीन घंटे तक की अवधि बताई। पर चलने के मामले में बचपन में पढ़ी हुई कछुए और खरगोश की कहानी में से कछुआ अपना प्रेरणास्रोत है, इसलिए कछुआ गति अपनी प्रिय गति है। खासतौर पर पहाड़ चढ़ते हुए तो हॉर्सपावर की तर्ज पर अपनी चाल में कछुआ पावर अनायास ही समा जाती है।
रूपकुंड ट्रैक-बेदनी बुग्याल।।रूपकुंड ट्रैक-बेदनी बुग्याल। गैरोली पातल पेड़ों की हरियाली से घिरा हुआ एक छोटी-सी ढलवां जगह है। यहाँ अन्दर से फाइबर और बाहर से टिन की बनी हरे रंग की दो हट्स हैं। घंटों अकेले चलने के बाद यहाँ तीन मनुष्यों से मुलाकात हुई। दो स्थानीय लोग हैं। गैरोली पातल में लोगों के रहने-खाने की व्यवस्था संभालने वाले सुरेन्द्र सिंह हैं। वे ही एक तरह से यहाँ वन विभाग के प्रतिनिधि हैं, जो हट्स के आवंटन की व्यवस्था भी देखते हैं। सुरेन्द्र सिंह के अलावा ट्रैकिंग के लिए यहाँ आए हुए विदेश घनसाला भी गैरोली पातल में मिले। वे पौड़ी के रहने वाले हैं और कर्णप्रयाग उनकी ससुराल है। अब तक मुम्बई में फाइनेंस और शेयर से सम्बन्धित कंपनी में नौकरी करते थे, अब दिल्ली आ गए हैं। शेयर बाजार के अच्छे जानकार हैं। उनके साथ गाइड के तौर पर वांण गाँव के हीरा सिंह विष्ट ‘गढ़वाली’ हैं। यह कमाल का युवक है। बेहद होशियार और मिलनसार। हमसे पूछता है कमल जोशी जी को जानते थे ? ललिता प्रसाद भट्ट जी को जानते हैं ? संजय चैहान जी को जानते हो ? इस बात पर चैंकता है कि वो जिन-जिन को जानता है, उन सबको हम भी कैसे जानते हैं। दिवगंत फोटो पत्रकार, घुमक्कड़ कमल जोशी से हीरा का अच्छा परिचय था। कमल दा ने युगवाणी के जुलाई 2015 के अंक में हीरा पर एक लेख भी लिखा था। हीरा बताता है कि वह जब देहरादून गया तो उसने युगवाणी देखी। सहसा उसे विश्वास नहीं हुआ कि कवर पर जो फोटो है, वह उसी का है। अपने पर लिखे कमल दा के लेख को पढ़कर भी वह काफी रोमांचित हुआ।
 
बातों के इस सिलसिले के चलते हीरा हमसे काफी घुलमिल गया। फिर तो वह हमारा भी गाइड हो गया। ऊपर बेदनी बुग्याल कब चढ़ेगें, कितनी देर रहेंगे आदि-आदि हीरा ने ही तय कर दिया। सुरेन्द्र सिंह के बनाए सादे लेकिन स्वादिष्ट भोजन को खा कर हम स्लीपिंग बैग के अन्दर सो गए। सुबह उठे तो सुरेन्द्र भाई ने नाश्ता करवा दिया। फिर बेदनी बुग्याल के लिए मदन मोहन चमोली, विदेह घनसाला, हीरा सिंह बिष्ट ‘गढ़वाली’, सुरेन्द्र सिंह और मैं चल पड़े। बेदनी बुग्याल को जाने वाला रास्ता भी चढाई का ही रास्ता है। लगभग तीन किलोमीटर चढ़ कर गैरोली पातल से बेदनी बुग्याल पहुँचा जाता है। बुग्याल (alpine meadows) पहाड़ में ऊँचाई पर पे जाने वाले मखमली घास के उन मैदानों को कहते हैं, जो कि ट्री लाइन यानि वृक्ष रेखा और स्नो लाइन यानि हिम रेखा के बीच अवस्थित होते हैं। बेदनी बुग्याल लगभग 11 हजार फीट की ऊँचाई पर है।चढ़ते-चढ़ते जैसे ही पेड़ पीछे छूटने लगते हैं, वैसे ही हरियाली सौन्दर्य का एक अप्रतिम दृश्य सामने उपस्थित हो जाता है। चारों ओर हरियाली-ही-हरियाली। हरियाली के बीच खिले पीले फूल हैं। बेदनी बुग्याल के बगल वाले आती बुग्याल में तो बेदनी से भी कहीं अधिक हरियाली है। ऐसा प्रतीत होता है कि जमीन पर प्रकृति ने हरी, मुलायम, मखमली घास का दरीचा बिछा दिया हो। यह हरा मखमली घास का दरीचा किलोमीटरों तक पसरा हुआ है। हरियाली का बिखरा हुआ निश्चल, निर्मल सौन्दर्य।
 
इन बुग्यालों में चूहे की वो प्रजाति पाई जाती है, जो भूरे रंग की है और जिसकी पूँछ नहीं है। बुग्याल की इस खूबसूरत छटा में ये बिन पूँछ के चूहे भी सुन्दर लगते हैं। उड़ता हुआ मोनाल भी नजर आता है पर इतनी दूर पर है कि उसका रूप सौन्दर्य नहीं निहारा जा सकता। बर्फ से ढका पहाड़ नजर आ रहा है। साथ चलने वाले बता रहे हैं, वो नन्दा घुंघटी है, वो कैलाश है। मैं सोचता हूँ कि क्या ये बर्फीले पहाड़ भी जानते होंगे कि इनके नाम भी हैं, जिनसे ये पहचाने जाते हैं ? मुझे तो ऊँची पर्वत श्रृंखलाओं का एक ही नाम भाता है- हिमालय यानी हिम का आलय मतलब बर्फ का घर। तो ये जो हिम का आलय यानि बर्फ का घर है, जिसे कैलाश, नन्दा आदि नामों से पुकारा जा रहा है, उसकी हिमाच्छादित श्वेताब्ध्ता आँखों को शीतल करती है। पर पहाड़ बड़े छलिया होते हैं। आँखों से ऐसे दिखते हैं, जैसे हाथ भर की दूरी पर हों। बस थोड़ा और आगे बढ़ जाएँ तो हाथ से छू सकेंगे, उसकी बर्फीली सफेदी को। पर हकीकत में वे कोसों दूर हैं। आँखों से हाथ भर की दूरी पर नजर आती, इस बर्फीली सुन्दरता को मोबाइल के कैमरे में समेटने की कोशिश करता हूँ तो वहाँ यह विस्तृत बर्फीली सफेदी, बस बूँद भर ही नजर आती है। बार-बार की कोशिश के बाद भी तस्वीर वैसे नहीं आती, जैसा नयनाभिराम दृश्य आँखें देख पा रही हैं। बेदनी और आली के सौन्दर्य को आँखों और दिल में समेटे हम उतर पड़ते हैं। पहाड़ में चढ़ाई कठिन है पर उतराई भी आसान कहाँ है!
 
बुग्यालों की इस यात्रा के सन्दर्भ में यह जिक्र करना जरूरी है कि बुग्यालों में रात रहने पर उच्च न्यायालय, नैनीताल द्वारा रोक लगाई हुई है। वो लोहाजंग के दलबीर दानू और वीरेन्द्र सिंह हों या फिर वांण के महीपत सिंह और नरेन्द्र सिंह हों, इस बात से निराश हैं कि इस रोक से ट्रैकिंग का व्यवसाय धीमा पड़ गया है। वन विभाग के कर्मचारी गोपाल सिंह से भी यह सवाल किया कि बुग्यालों पर लगी रोक को वो कैसे देखते हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि बुग्यालों के लिए तो अच्छा हुआ। औली-बेदनी-बगजी बुग्याल संरक्षण समिति द्वारा दाखिल एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए 21 अगस्त, 2018 को उच्च न्यायालय, नैनीताल के तत्कालीन कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति लोकपाल सिंह की खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि ‘राज्य सरकार को निर्देशित किया जाता है कि तीन महीने के अन्दर औली-बेदिनी-बगजी समेत सभी बुग्यालों से सभी स्थाई निर्माण कार्यों को हटवाए।’ राज्य सरकार को निर्देशित किया जाता है कि राज्य के सभी ईको सेंसटिव जोन्स में 6 हफ्तों के अन्दर ईको डेवलपमेंट कमेटी (परिस्थितिकी संवर्धन समिति) गठित करें ताकि प्रकृति, पर्यावरण और परिस्थितिकी की रक्षा हो सके।
 
‘राज्य सरकार को निर्देशित किया जाता है कि सभी बुग्यालों में यात्रियों की संख्या (200 से अधिक नहीं) नियंत्रित करे। ’राज्य के सार्वजनिक उपक्रम/निजी उद्यमी समेत कोई भी व्यक्ति उत्तराखण्ड राज्य के किसी बुग्याल में किसी स्थाई ढाँचे का निर्माण नहीं करेगा। बुग्यालों में रात को रहना प्रतिबंधित होगा। बुग्यालों में पशुओं का व्यावसायिक चरान प्रतिबन्धित होगा। केवल स्थानीय चरवाहों को ही अपने पशुओं को चराने की अनुमति होगी और उनके पशुओं की संख्या को युक्तिसंगत पाबंदियों के जरिए नियंत्रित किया जाएगा। इस फैसले के चलते बुग्यालों में रात में रहने पर रोक लग गई है, जिसे आम तौर पर ट्रैकिंग व्यवसाय के लिए बड़ा धक्का समझा जा सकता है। इस फैसले के प्रभाव के सन्दर्भ में जब सुरेन्द्र सिंह और हीरा सिंह की राय जाननी चाही तो वे कहते हैं कि बुग्यालों को बचाया जाना जरूरी है। ये बुग्याल हमारी धरोहर हैं, ये ही नहीं रहेंगे तो फिर हम कहाँ रहेंगे। हीरा सिंह कहते हैं कि बुग्याल में भारी संख्या में लोगों के आने और रहने से बुग्याल नष्ट हो रहा था। इस फैसले से बुग्याल पुनर्जीवित हो गया है। हरियाली फिर खिल उठी है। वे कहते हैं कि कैम्पिंग की अनुमति भगुवावासा में मिलनी चाहिए जो पूर्णतः पथरीली जगह है। इससे बुग्याल भी बचेंगे और ट्रैकिंग व्यवसाय भी चलेगा। हीरा ने इस बारे में एक चिट्ठी भारत के प्रधानमंत्री को भी भेजी है। दरअसल ये बुग्याल बहुत सुन्दर हैं, प्रकृति का उपहार हैं, इनके व्यावसायिक उपयोग कर पाबंदी भले ही न हो पर इन्हें उजाड़ने, तहस-नहस करने की इजाजत तो नहीं दी जा सकती। इन्हें बचाना, इन्हें संरक्षित रखना बेहद जरूरी है ताकि प्रकृति के हरे मखमली दरीचे अपनी खूबसूरती यूँ ही बिखेरते रहें।

 

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जल अधिकार की दिशा में बढ़ते कदमों का लक्ष्य

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जल अधिकार की दिशा में बढ़ते कदमों का लक्ष्यHindiWaterTue, 08/27/2019 - 15:03

जल अधिकार की दिशा में बढ़ते कदमों का लक्ष्य।जल अधिकार की दिशा में बढ़ते कदमों का लक्ष्य। फोटो स्त्रोत-राष्ट्रीय हिंदी मेल

पिछले दिनों मध्यप्रदेश में समाज को पानी का अधिकार ( Right to water) सौंपने के बारे में कार्यशाला सम्पन्न हुई थी। इस कार्यशाला में सरकार ने पानी की चिन्ता करने वाले अनेक लोगों को आमंत्रित किया था। सरकार की ओर से इस कार्यशाला में विभिन्न विभागों के मुखिया, पीएचईडी के प्रमुख्य सचिव, विभाग के इंजीनियर-इन-चीफ, सारा अमला, पानी से सम्बद्ध विभागों के वरिष्ठ अधिकारीगण और राज्य के मुख्य सचिव ने भाग लिया था। विभागीय मंत्री भी मौजूद थे। इस कार्यशाला में पानी के अधिकार के साथ-साथ साल-दर-साल गहराते पेयजल संकट पर भी विचार-विमार्श हुआ था। दिन भर चली कार्यशाला के दो मुख्य सन्देश थे। पहला संदेश था - जल संकट से निपटना और दूसरा सन्देश था - समाज को पानी पर अधिकार प्रदान करना। संक्षेप में, मध्यप्रदेश सरकार हर नागरिक को पेयजल के साथ-साथ पानी का अधिकार भी मुहैया करना चाहती है।   

भास्कर में प्रकाशित खबर से पता चलता है कि भोपाल की पेयजल समस्या को निपटाने के लिए राज्य सरकार ने सिंचाई के लिए बने कोलार बांध की कुल क्षमता 273 मिलीयन क्यूबिक मीटर में से करीब 61 मिलीयन क्यूबिक मीटर पानी पेयजल के लिए आरक्षित किया है। इस आरक्षण के कारण, जल संसाधन विभाग को हर हाल में इतना पानी पेयजल के लिए देना, बन्धनकारी है। प्रकाशित खबर से पता चलता है कि राज्य सरकार, पानी की किल्लत दूर करने के लिए प्रदेश के सभी सिंचाई बांधों पर यह नियम लागू करने पर विचार कर रही है।

विदित है कि भारतीय संविधान के आर्टीकल 21 में प्रत्येक नागरिक को प्रदूषणमुक्त पानी उपलब्ध कराने का उल्लेख है। राष्ट्रीय जल नीति 2012 के पेरा 2.2 के अनुसार राज्यों द्वारा पानी के प्रबन्ध को सार्वजनिक धरोहर के सिद्धान्त के आधार पर करने की आवश्यकता पर बल दिया है। संयुक्त राष्ट्रसंघ और मानवाधिकार काउंसिल ने भी पेयजल को मानवाधिकार के रूप में दी मान्यता देने की पैरवी की है। इन सारे प्रावधानों की रोशनी में राज्य सरकार का कदम सराहनीय तथा स्वागत योग्य है।  दिनांक 18 अगस्त, 2019 को दैनिक भास्कर (भोपाल संस्करण) में प्रकाशित समाचार से पता चलता है कि प्रदेश सरकार का पीएचई विभाग पेयजल संकट से निपटने के लिए गंभीर प्रयास कर रहा है। प्रकाशित समाचार से पता चलता है कि भले ही प्रदेश में अब तक पर्याप्त बरसात हुई हो पर पिछले सालों का अनुभव बताता है कि गर्मी आते-आते अनेक इलाकों में पेयजल संकट गहरा जाता है। उस कठिन समय में सरकार और समाज पानी की किल्लत से जूझते हैं। जिन इलाकों में पानी की किल्लत सबसे अधिक त्रासद होती है उनमें बुन्देलखंड, मालवा, ग्वालियर-चम्बल क्षेत्र के अनेक स्थान सम्मिलित हैं। यह तकलीफ गहरी खदानों वाले इलाकों में भी देखी जाती है। संकट का मुख्य कारण है भूजल स्तर के बहुत नीचे गिरने के कारण नदी-नालों, कुओं, तालाबों और नलकूपों का गर्मी आते आते असमय सूख जाना। गौरतलब है कि हालात साल-दर-साल बद से बदतर हो रहे हैं। बरसात की कमी-बेशी का कुछ खास असर नहीं हो रहा है। 

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में लगातार बढ़ती आबादी को पेयजल उपलब्ध कराने के लिए राज्य सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं। सन 1963 में बडे तालाब की क्षमता बढ़ाई गई। आसपास के जल स्रोतों से पानी उठाया गया। हाल ही में नर्मदा से पानी लाकर भोपाल वासियों की प्यास बुझाई गई। इसके अलावा, नगर में अनेक निजी नलकूप हैं जो व्यक्तिगत स्तर पर पानी की कमी से निपटने में नागरिकों की पेयजल समस्या को कम करते हैं। भूजल दोहन के लगातार बढ़ने के कारण, गर्मी आते-आते नगर के कोलार इलाके में अनेक नलकूप सूख जाते हैं। इस कारण नगरवासियों को पानी प्राप्त करने के लिए भारी जद्दोजहद करनी पड़ती है। सरकार को भारी भरकम रकम खर्च करनी पड़ती है। यही सब प्रदेश के विभिन्न इलाकों की, रात दिन बढ़ने वाली कहानी है, जिसकी कुछ साल पहले तक कल्पना भी नहीं थी।  

भास्कर में प्रकाशित खबर से पता चलता है कि भोपाल की पेयजल समस्या को निपटाने के लिए राज्य सरकार ने सिंचाई के लिए बने कोलार बांध की कुल क्षमता 273 मिलीयन क्यूबिक मीटर में से करीब 61 मिलीयन क्यूबिक मीटर पानी पेयजल के लिए आरक्षित किया है। इस आरक्षण के कारण जल संसाधन विभाग को हर हाल में इतना पानी पेयजल के लिए देना, बन्धनकारी है। प्रकाशित खबर से पता चलता है कि राज्य सरकार, पानी की किल्लत दूर करने के लिए प्रदेश के सभी सिंचाई बांधों पर यह नियम लागू करने पर विचार कर रही है। अखबार का कहना है कि नए बांधों के लिए ये प्रस्ताव किया जा सकता है कि उसका 20 प्रतिशत पानी, पेयजल के लिए सुरक्षित रखा जावे। इस बिन्दु पर मध्यप्रदेश के पीएचई मंत्री का कहना है कि प्रदेश में कहीं भी जल संकट न हो, इसके लिए हम प्रयास कर रहे हैं। लोगों को पानी का अधिकार देने के लिए जो कुछ किया जा सकता है, वह कर रहे हैं। यह भी उसी दिशा में उठाया जाने वाला कदम है। 

सभी जानते हैं कि देश में पानी की सबसे अधिक खपत खेती में है। उसके बाद उद्योग में तथा सबसे कम खपत पेयजल की आपूर्ति में है। जहाँ तक पानी बचाने का प्रश्न है तो समाज से अपेक्षा है कि वह पानी की खपत कम करे। वहीं उद्योगों से पानी को रिसाइकिल कर उपयोग को तर्कसंगत बनाने की बात कही जाती है। खेती, जिसमें सबसे अधिक पानी खर्च होता है, यदि पानी की बचत करता है तो बहुत जल्दी परिदृष्य बदलेगा। हानिकारक रसायनों का उपयोग कम होगा। खाद्यान्न सुरक्षित बनेंगे। समाज की सेहत पर बुरा प्रभाव घटेगा। विदेष व्यापार बढ़ेगा। अतः मध्यप्रदेश सरकार का कदम स्वागत योग्य है।  

अन्त में, जल संकट का केनवास बहुत बड़ा है। उस संकट की अनुगूँज अब सब तरफ सुनाई दे रही है। चेन्नई, जिसे कुछ साल पहले तक रेन वाटर हारवेस्टिंग का सबसे अच्छा उदाहरण माना जाता था, आज बहुत बुरी स्थिति में है। यह स्थिति अपेक्षा करती है कि हम प्रिसक्रिपव्टिव विकल्पों के मोह से बाहर निकलें। पानी बचाओ अभियान के साथ-साथ जमीन के नीचे का पानी बढ़ाओं अभियान संचालित करें। भूजल दोहन की हर साल होने वाली वृद्धि के मुकाबले दो-तीन गुना अधिक रीचार्ज करें। अल्पायु, मंहगे और कम पानी का संचय और रीचार्ज करने वाली संरचानाओं (गली प्लग, लूज बोल्डर चेक, कंटूर बोल्डर वाल, गैबियन, सोख्ता गड्ढा, चैक डेम इत्यादि) के निर्माण के मोह को त्यागें। हमें याद रखना चाहिए कि पानी का संकट मुहल्लों, कतिपय ग्रामों या बसावटों तक सीमित नही है। उसका बीज कहीं और है। वहीं से वह संकट नीचे उतरता है और गहराता है। उसकी अनुगूँज नगरों में अधिक तथा ग्रामीण अंचल में कम सुनाई देती है। सुझाव है कि संकट के स्रोत को उसके उदगम पर ही समाप्त करना चाहिए। एक बात और, हमस ब को जल स्वराज के लिए काम करना चाहिए। इसके लिए जल स्वावलम्बन का स्वप्न संजोना होगा। तभी जल संकट से मुक्ति मिलेगी।  

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बजट में किसान कल्याण के प्रभावी कदम

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बजट में किसान कल्याण के प्रभावी कदमHindiWaterTue, 08/27/2019 - 16:41
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योजना, अगस्त 2019

बजट में किसान कल्याण के प्रभावी कदम।बजट में किसान कल्याण के प्रभावी कदम। फोटो स्त्रोत-लाइव मिंट

सरकार ने चालू योजनाओं को सहायता बढ़ाकर, नई योजनाएँ शुरू कर और कृषक समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुधारने में सहायक विभिन्न उपाय कर 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने की प्रतिबद्धता दोहराई है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में बजट पेश करते हुए केन्द्र सरकार की मंशा व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार जो कुछ भी करती है, उसके केन्द्र में गांव, गरीब या किसान होता है। इसी बयान के अनुरूप, बजट प्रस्तावों में किसानों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए प्रावधान किए गए हैं और कृषि क्षेत्र को बदलने के लिए प्रक्रियाएँ भी शुरू कर दी गई हैं।


केन्द्रीय बजट (वित्त वर्ष 2019-20) किसानों के कल्याण और कृषि को, वित्तीय आवंटन और परिवर्तन की अवधारणा, दोनों दृष्टियों से सर्वाधिक बढ़ावा देने का प्रावधान किया गया है। इसमें सरकार ने चालू योजनाओं को सहायता बढ़ाकर, नई योजनाएँ शुरू कर और कृषक समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुधारने में सहायक विभिन उपाय कर 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने की प्रतिबद्धता दोहराई है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने केन्द्र सरकार की मंशा व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार जो कुछ भी करती है, उसके केन्द्र में गाँव, गरीब या किसान होता है। इसी बयान के अनुरूप, बजट प्रस्तावों में किसानों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए प्रावधान किए गए हैं और कृषि क्षेत्र को बदलने के लिए प्रक्रियाएँ भी शुरू कर दी गई हैं।
 
समृद्धि को दृष्टि में रखते हुए आवंटन

कृषि और सम्बद्ध क्षेत्रों के लिए कुल आवंटन बढ़ाया गया है। पहले के 86,600 करोड़ रुपए के आवंटन को बढ़ाकर 1,51,500 करोड़ रुपए कर दिया गया है। यह बढ़ोत्तरी मुख्य रूप से प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के लिए 75,000 करोड़ रुपए की बड़ी राशि आवंटित किए जाने के कारण हुई है। इस अनूठी योजना के तहत प्रत्येक किसान को सीधे 6,000 रुपये की नकद सहायता दी जाती है। यह राशि एक वर्ष के दौरान दो-दो हजार की तीन किस्तों में दी जाती है। नकद सहायता से ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय आय और खपत बढ़ने की आशा है, जिससे आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन कृषि के लिए आवंटन में उर्वरक सब्सिडी शामिल नहीं है, जो अब लगभग 14 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 80,000 करोड़ रुपए हो गई है। बजट में फसलों, पशुओं और मत्स्य से सम्बन्धित विभिन्न मुख्य और केन्द्रीय योजनाओं के लिए आवंटन और फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) सहित मूल्य हस्तक्षेप (गेहूँ और धान के अलावा) के लिए बजट में 6 से 50 प्रतिशत अधिक प्रावधान किया गया है। ब्याज सब्सिडी के सकारात्मक प्रभाव को बढ़ाने के लिए इसमें पिछले वर्ष की तुलना में 20 प्रतिशत की शुद्ध वृद्धि कर 18,000 करोड़ रुपए कर दिया गया है। यह सहायता किसानों को मिलने वाले सभी अल्पकालिक ऋणों पर लागू होती है।
 
ग्रामीण अवसंरचना को मजबूत करने के लिए बजट में ग्रामीण सड़कों के लिए 19,000 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है। यह पिछले वर्ष के व्यय से 22.5 प्रतिशत अधिक है। बेहतर सड़क सम्पर्क से बाजारों तक आसानी से पहुँचा जा सकता है और इससे कृषि को बहुत मदद मिलती है। वित्त मंत्री ने पात्र बस्तियों को सड़कों से जोड़ने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इस काम में तेजी लाने पर जोर दिया। यह लक्ष्य हासिल करने की समय सीमा 2022 से घटाकर 2019 कर दी गई है। नई सड़कों के निर्माण के अलावा, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना-111 (पीएमजीएसवाई-111) में अगले पाँच वर्षों में 80,250 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत से 1.25 लाख कि.मी. सड़क मार्ग के उन्नयन की परिकल्पना की गई है। सतत विकास की प्रतिबद्धता के तहत हरित प्रोद्यौगिकी, रद्दी प्लास्टिक और कोल्ड मिक्स टेक्नोलॉजी का उपयोग करके 30,000 कि.मी सड़क का निर्माण पीएमजीएसवाई के तहत किया गया है। सरकार ने ग्रामीण सड़कों के अलावा प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई) के तहत आवंटन में 17 प्रतिशत की वृद्धि की है। वर्ष 2016 में शुरू की गई इस योजना से बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं को सहायता देने तथा इनमें तेजी लाने और सिंचाई के अन्य उपायों, जैसे की माइक्रो सिंचाई, जल-संभर विकास और पारम्परिक जल निकायों के उपयोग को बढ़ावा देने से सिंचित क्षेत्रों के विस्तार में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है।
 
कारोबार को बढ़ावा

किसानों को उनकी उपज का अधिकतम बाजार मूल्य सुनिश्चित करने के उद्देश्य से 2016 में इलेक्ट्रॉनिक नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट (ई-नेम) की शुरुआत की गई थी। सरकार का प्रस्ताव इस वर्ष इलेक्ट्रॉनिक नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट व्यवस्था लागू करने के लिए राज्य सरकारों के साथ मिलकर इस प्रकार काम करने का है जिससे किसान इसका पूरा लाभ उठा सकें। वित्तमंत्री ने कहा कि कृषि उपज विपणन सहकारी अधिनियम (एपीएमसी), किसानी को उनकी उपज का उचित मूल्य प्राप्त करने में बाधक नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि करोबार सुगमता और सहज जीवन यापन, दोनों को किसानों पर भी लागू होना चाहिए। उत्पादन बढ़ाकर लागत में कमी लाने से किसानों के लिए खेती को अधिक लाभकारी बनाना सुनिश्चित करने के लिए अगले पाँच वर्षों में 10,000 नए किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) बनाने का प्रस्ताव है। ये संगठन मूल रूप से किसान-उन्मुख कम्पनियाँ हैं जो कृषि मंत्रालय की नीति और प्रक्रिया दिशानिर्देशों के अनुसार अपनी उपज के विपणन के लिए बी-2-बी मॉडल का पालन करते हैं। ये किसानों को कुशल, सस्ते और टिकाऊ संसाधनों के उपयोग से उत्पादकता बढ़ाने और उनकी फसल की बेहतर कीमत पाने में सक्षम बनाता है। कई राज्यों में, एफपीओ ने शानदार सफलता दर्ज की है। इनकी संख्या में वृद्धि किसानों के लिए स्थाई आजीविका बढ़ाने की दिशा में एक प्रभावी कदम है।
 
पारम्परिक उद्योग पुर्नउद्भव और उन्नयन निधियन योजना (स्कीम ऑफ फंड फॉर अपग्रेडेशन एंड रिजनरेश ऑफ ट्रेडिशनल इंडस्ट्रीज-स्फूर्ति) का लक्ष्य परम्परागत उद्योग क्षेत्र को सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए अधिक संख्या में सामान्य सुविधा केन्द्र स्थापित करना है। सरकार ने परम्परागत उद्यमों को अधिक उत्पादक तथा लाभदायक बनाने और निरन्तर रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए क्लस्टर विकास के वास्ते बांस, शहद और खादी उद्योगों की पहचान की है। इस योजना का लक्ष्य 2019-20 के दौरान 100 नए क्लस्टर स्थापित करना है जिसमें 50,000 ग्रामीण कारीगरों को क्षमता विकास और विपणन सहायता के रूप में सरकार से मदद मिलेगी। बहुत जल्द, ग्रामीण कारीगर आर्थिक मूल्य श्रृंखला का एक हिस्सा होंगे। इसके अतिरिक्त, इन उद्योगों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के लिए, सरकार का प्रस्ताव है कि 2019-20 के दौरान 80 आजीविका बिजनेस इनक्यूबेटर और 20 टेक्नोलॉजी बिजनेस इनक्यूबेटर स्थापित करने के लिए नवाचार, ग्रामीण उद्योग और उद्यमिता को बढ़ावा देने की योजना को मजबूत किया जाए। इस पहल से कृषि-ग्रामीण उद्योग क्षेत्रों में 75,000 कुशल उद्यमी तैयार किए जा सकते हैं। इन उपायों से ग्रामीण क्षेत्रों में, खासकर कृषि-प्रसंस्करण क्षेत्र में मध्यम, लघु तथा सूक्ष्म उद्यमों के विकास और वृद्धि को बढ़ावा मिलेगा। वर्तमान में, खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र की विकास दर लगभग 1 प्रतिशत पर स्थिर है, लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार इसे 3 प्रतिशत से अधिक करने से कृषि परिवर्तन में मदद मिलेगी। बजट में प्रस्तावित हालिया पहलों का कृषि-खाद्य क्षेत्र पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा।
 
निवेश आकर्षित करना

सरकार ने महसूस किया है कि अन्य क्षेत्रों की तरह, कृषि को भी कॉर्पोरेट जगत से पर्याप्त निवेश की आवश्यकता है। वर्तमान में, कृषि में सफल मूल्यवर्धन का केवल 14 प्रतिशत निवेश है। इसमें किसानों द्वारा 78.01 प्रतिशत, सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा 19.4 प्रतिशत और निजी क्षेत्र द्वारा 2.5 प्रतिशत निवेश शामिल है, इसलिए, वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि सरकार किसानों की फसल और सम्बन्धित गतिविधियों जैसे बांस तथा लकड़ी के उत्पादों और नवीकरणीय ऊर्जा पैदा कर मूल्यवर्धन करने के लिए निजी उद्यमिता को बढ़ावा देने में मदद करेगी। उन्होंने कहा कि अन्नदाता (किसान), ऊर्जादाता भी बन सकते हैं। इस सम्बन्ध में, सरकार ने पहले ही मार्च, 2019 में एक विशेष योजना किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान (कुसुम) शुरू की है। इस योजना में बंजर या किसानों की व्यक्तिगत सहकारी समितियों/पंचायतों/एफपीओ की कृषि भूमि पर कृषि पम्पों के सौरकरण और सौर ऊर्जा संयंत्रों (500 किलोवाट से 2 मेगावाट) की स्थापना की परिकल्पना की गई है। यह योजना किसानों को, अधिशेष बिजली ग्रिड को बेचने का विकल्प देकर उनकी आय में इजाफा करेगी। इसके अलावा, यह वायु प्रदूषण पर काबू पाने में सहायक होगी और स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा होंगे।
 
डेयरी एक अन्य क्षेत्र है जिसमें निजी क्षेत्र और सहकारी समितियाँ किसानों की आय बढ़ाने में केन्द्रीय भूमिका निभा सकती हैं। बड़ी संख्या में उद्यमी, विशेष रूप से युवा, आजीविका के लिए पूर्णकालिक पेशे के रूप में डेयरी का सहारा ले रहे हैं, और उप-शहरी या ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर भी पैदा कर रहे हैं। इसलिए, सरकार ने पशु खाद्य उत्पादन, दूध की खरीद, प्रसंस्करण और विपणन के लिए बुनियादी ढाँचे का निर्माण करके सहकारी समितियों के जरिए डेयरी को प्रोत्साहित करने का प्रस्ताव किया है। इसी तरह, विशेष रूप से तटीय क्षेत्रों में ग्रामीण समृद्धि को बढ़ाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में मत्स्य पालन की पहचान की गई है। वित्त मंत्री ने कहा कि मत्स्य पालन और मछुआरा समुदाय खेती के साथ निकटता से जुड़े हुए हैं और ग्रामीण भारत के लिए महत्त्वपूर्ण है। वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि एक मजबूत मत्स्य प्रबन्धन ढाँचा स्थापित करने के लिए एक केन्द्रित योजना, प्रधानमंत्री मत्स्य सम्पदा योजना (पीएमएमएसवाई) शुरू करने का प्रस्ताव है। यह व्यापक योजना, मूल्य शृंखला में खामियों का समाधान करेगी। इस योजना में बुनियादी ढाँचा, आधुनिकीकरण, उत्पादन, उत्पादकता, कटाई के बाद प्रबन्धन और गुणवत्ता नियंत्रण जैसे मुद्दे शामिल होंगे। केन्द्र सरकार ने पशुपालन, डेयरी और मत्स्यपालन पर अधिक ध्यान देकर तथा इन्हें अधिक संसाधनों के साथ बढ़ावा देने के लिए पहले से ही एक विशेष मंत्रालय बनाया है। मौसम की विसंगतियों और प्रतिकूलताओं के कारण जब फसल को नुकसान पहुँचता है तो पशुधन ‘आजीविका बीम’ के रूप में कार्य करता है।
 
शून्य बजट खेती

सरकार ने शून्य बजट खेती को बढ़ावा देने का इरादा और इच्छा दिखाई है। वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि इस अभिनव मॉडल को फिर से अपनाने की आवश्यकता है। कुछ राज्यों में यह काफी लोकप्रिय हो रहा है। कई राज्यों में किसानों को इसका प्रशिक्षण दिया गया है। कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, केरल, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़ और आन्ध्रप्रदेश में इस पद्धति को अपनाया जा रहा है। इसमें कम पानी, कम निवेश और कम लागत के संसाधनों की आवश्यकता होती है, फिर भी पैदावार अधिक होती है। पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित और विदर्भ के 70 वर्षीय किसान सुभाष पालेकर इस अनूठी तकनीक के अग्रदूत हैं, जिसे वे शून्य बजट प्राकृतिक खेती कहते हैं। अधिकांश प्राकृतिक संसाधनों से की जाने वाली खेती की इस विधि में उत्पादन लागत बहुत कम होती है। शून्य बजट का अर्थ यह नहीं है कि खेती पर किसान का बिल्कुल खर्चा नहीं होगा, बल्कि उस पर आने वाली लागत की क्षतिपूर्ति, अतिरिक्त आय वाले अन्य संसाधनों या अंतर फसलों से की जाती है। केन्द्र सरकार की ओर से प्रोत्साहन और सहायता के साथ, देशभर में शून्य बजट प्राकृतिक खेती की एक लहर चलने की आशा है।
 
दलहन के बाद अब सरकार तिलहन का उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित कर रही है। ठोस प्रयासों के साथ, देश पहले ही दालों में आत्मनिर्भर हो गया है, जिससे इनके आयात पर खर्च होने वाली मूल्यवान विदेशी मुद्रा की बचत होती है। देश में 1990 के दशक में तिलहन के भरपूर उत्पादन के साथ ‘पीली क्रान्ति’ आई थी, लेकिन विभिन्न कृषि कारकों और नीतिगत मुद्दों के कारण यह अधिक समय तक टिक नहीं पाई। तिलहन की उत्पादकता बढ़ाने के लिए किए गए बजटीय प्रस्ताव के साथ, देश फिर से तिलहन में आत्मनिर्भरता की राह पर हैं। वित्त मंत्री ने आशा व्यक्त की कि किसानों की सेवा से, देश का आयात बिल कम होगा।
 
केन्द्रीय बजट में, कृषि अवसंरचना में व्यापक निवेश करने और निजी उद्यमिता को समर्थन देने के प्रस्ताव के साथ, 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए किसान कल्याण के प्रयासों को तेजी से आगे बढाया गया है। साथ ही, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करनके के लिए और प्रोत्साहन दिया गया है। आशा की जाती है कि इन उपायों से किसानों के चेहरों पर खुशी लाने और कृषि संकट को दूर करने में सहायता मिलेगी।

 

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कूड़े के ढेर पर बनाया नेचर पार्क

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कूड़े के ढेर पर बनाया नेचर पार्क HindiWaterThu, 08/29/2019 - 12:37
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दैनिक जागरण, 29 अगस्त 2019

मौहल नेचर पार्क कुल्लू, हिमाचल प्रदेश।मौहल नेचर पार्क कुल्लू, हिमाचल प्रदेश।

कुल्लू, हिमाचल प्रदेश का मौहल इलाका कुल्लू के उपायुक्त रहे आइएएस राकेश कंवर की सोच को सलाम कर रहा है। ब्यास के किनारे मौजूद डंपिंग साइट न केवल नदी के लिए खतरा बन गई थी बल्कि स्थानीय लोगों का जीना दूभर था। आज उसी जगह पर खुशहाली के फूल खिलखिला रहे हैं। लो यूं ही नहीं कहते कि मौहल के नेचर पार्क में फूल नहीं राकेश कंवर की सोच महकती है। डंपिंग साइट से नदी, पर्यावरण और लोगों की सेहत को पहुंच रहा नुकसान काफी हद तक नियंत्रण में आ चुका है। 

राकेश 2014 से 2016 तक कुल्लू के उपायुक्त रहे। उन्होंने डंपिंग साइट के कूड़ें से नदी के पर्यावरण को पहुंच रहे गंभीर खतरे को भांपा और इसके समाधान का जतन शुरू किया। डंपिंग साइट के कारण आसपास के लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ने लगा था। राकेश ने तय किया कि वे यहां उद्यान का निर्माण कराएंगे। राकेश ने जल्द ही इस काम में सफलता भी पाई। उन्होंने समस्या बन चुके उस क्षेत्र को प्रकृति से जोड़ा और फिर जिस सुंदर पार्क ने यहां आकार लिया उसे आज नेचर पार्क के रूप में ख्याति हासिल हुई है। राकेश ने नेचर पार्क के जरिये लोगों की भी प्रकृति से दोस्ती करवाई। 

मौहल नेचर पार्क कुल्लू, हिमाचल प्रदेश।मौहल नेचर पार्क कुल्लू, हिमाचल प्रदेश।

तीन साल के कार्यकाल में इस युवा अधिकारी ने कुल्लू में सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ विकास कार्यों को भी तरजीह दी। ब्यास नदी के किनारे चार हेक्टेयर में बनाए नेचर पार्क की विशेषता है कि यहां बच्चों और बड़ों के लिए आकर्षण की विभिन्न चीजें मौजूद हैं। सैर के अलावा खेलने और खाने के लिए भी पूरी व्यवस्था है। सबसे बड़ी खूबी नदी किनारे बनाया गया करीब तीन किलोमीटर का ट्रैफिक है, जो पर्यटकों को रोमांचित करता है। राकेश कहते हैं, वर्ष 2015 में डंपिंग साइट से लोगों को हो रही दिक्कत और ब्यास नदी को हो रहे नुकसान का आकलन किया गया। आज जहां नेचर पार्क है, यह जगह जब डंपिंग एरिया का ही हिस्सा थी। बगल से नेशनल हाईवे गुजरता है। दूसरी ओर ब्यास नदी है। हमने तय किया कि यहां पर हराभरा और सभी के लिए सुविधाजनक पार्क बना देने से समस्या का समाधान हो सकता है। प्रोजेक्ट शुरू किया और स्थानीय पंचायतों सहित लोगों को भी साथ जोड़ा गया। वन विभाग के सहयोग से करीब 60 लाख रुपये की लागत से यह पार्क बनकर तैयार हुआ। ब्यास किनारे बैठने या घूमने के लिए सुंदर गलियारे, बच्चों के लिए सांप-सीढ़ी सहित खेलकूद और व्यायाम के साधन-संसाधन और पर्यावरण संरक्षण का संदेश देती अनेक कलाकृतियां भी लगाई गई। इस प्रोजेक्ट को पूरा करने में सात महीने लगे थे। पंचायत को भागीदारी दी गई और महिला मंडल की सदस्यों को पार्क में दुकाने दी गई ताकि आय का साधन बन सके। नेचर पार्क में टिकट 20 रुपये रखी गई। पर्यावरण संरक्षण के लिए एनजीटी के सभी आदेशों को लागू किया गया और लोगो को जागरुक करने के लिए वेबसाइट बनाई गई।

मौहल नेचर पार्क कुल्लू, हिमाचल प्रदेश।मौहल नेचर पार्क कुल्लू, हिमाचल प्रदेश।

अब अन्य जिलों में भी बनाए जा रहे नेचर पार्क

वर्तमान में हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल के सचिव और कुल्लू के पूर्व उपायुक्त राकेश कंवर ने कहा कि कुल्लू के मौहल में बना चेर पार्क अन्य जिलों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बन गए हैं। इस पहल का यह असर हुआ कि अब अन्य जिलों में भी ऐसे पार्क बनाए जा रहे हैं। पार्क पर्यावरण संरक्षण के साथ ही यह स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य और आय का भी जरिया बना। पार्क के भीतर न केवल दुकाने दी गई बल्कि वन विभाग ने भी साहसिक गतिविधियों से जुड़े सशुल्क आयोजन शुरू किए। वन विभाग को हर महीने एक लाख रुपये की आमदनी होने लगी। महिला मंडल अपने विभिन्न उत्पाद बेचकर 25 हजार रुपये प्रतिमाह तक कमाने लगे।

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फिर लौट आई लूणी नदी की मिठास

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फिर लौट आई लूणी नदी की मिठासHindiWaterThu, 08/29/2019 - 17:13

लूणी नदी ।लूणी नदी।

यह तीसरा अवसर है लूणी में पानी के प्रवाह का। इससे पूर्व 2017 में अरावली क्षेत्र में हुई भारी बारिश से बाढ़ के हालात बने थे। सालों से सूखी पड़ी लूणी नदी में पानी के बहाव को देखने हजारों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। इस बार पाली जिले में अधिक बरसात होने के कारण सूकड़ी और बांडी नदी के उफान ने लूणी की प्यास बुझाई। अथाह पानी देखकर मरूधरा के लोगों का खुशी का ठिकाना नहीं रहा, वहीं इस नदी की कोख से मुनाफा देखने वाले भी कम खुश नहीं है। नदी के बहाव के साथ बजरी की आवक बढ़ने से अवैध खनन माफिया अभी से लाखों के मुनाफे का सपना देख रहे हैं, वहीं नदी के किनारे पर आबाद रंगाई-छपाई के कारखाने भी कुछ दिन चोरी-छिपे केमिकल युक्त रसायन पानी में डालकर इस बहती मरूगंगा में हाथ धो लेंगे। नदी के उद्गम स्थल से लेकर अंतिम छोर तक किनारे पर बसे लोगों के लिए भी हर्ष का विषय है। पिछले दो सालों में इस नदी में डंप किए गए कचरे की संड़ाध से कुछ समय मुक्ति मिल जाएगी। नदी अपने बहाव के साथ कचरा कच्छ के रण में उड़ेल देगी।

लूणी के किनारे बसे हुए सैकड़ों गांवों, कस्बों के लोगों ने लूणी से अपने जीवन की खुशहाली और बदहाली दोनों तरह के अनुभव देखे हैं। 37,363 वर्ग किलोमीटर जलग्रहण क्षेत्र वाली इस नदी के किनारों पर बसे गांवों में खेती और पशुपालन व्यवसाय फलता-फूलता था। क्षेत्र का भूजल रिचार्ज होता था। कुंओं का पैंदा तर होता था। पीने के पानी के उपयोग के साथ-साथ खेती में सिचाई के लिए भरपूर पानी था। नदी सूख जाने के बाद लोग तरबूज उगाते थे।  

विकास के नाम पर विनाश की लीला के कारण दशकों से सूखी पड़ी मारवाड़ की मरू गंगा पर कुदरत मेहरबान हो रही है। भले ही यह जलवायु परिवर्तन का असर है कि कहीं कम और कहीं ज्यादा बरसात हो रही है, लेकिन लूणी नदी के लिए यह सकारात्मक पल है। सदियों से जन-जीवन की प्यास बुझाने वाली यह नदी विकासकर्मियों, व्यवसायियों, उद्योगपतियों, खनन तथा भू-माफियाओं, नेताओं और नौकरशाहों के शोषण व जनसमुदाय की अनदेखी के चलते अपने अस्तित्व पर आसूं बहा रही थी। लेकिन कुदरत की मेहरबानी से एक बार फिर लूणी खिलखिला उठी है। अपने उद्गम स्थल पश्चिमी रेगिस्तान की धरा से बहते हुए कच्छ के रण में समाहित होने वाली लूणी में पानी के बहाव की खबर लोगों के लिए हर्ष का विषय रही। किनारों पर बसे सैकड़ों गांवों के लोग नदी के स्वागत के लिए आए। पर्यावरण प्रेमियों ने पूजा-अर्चना की। किसानों ने खोई हुई समृद्धि को याद किया। जनसमुदाय ने सूखे जल संसाधनों के फिर से भरने की कामना की।

अजमेर जिले की नाग पहाड़ियों से यात्रा शुरू कर पश्चिमी राजस्थान में 330 किलोमीटर बहने वाली यह नदी थार के रगिस्तान के लिए कभी वरदान थी। अपने उद्गम स्थल से यात्रा प्रारंभ करते हुए नागौर, जोधपुर, पाली, बाड़मेर, जालौर में बहते हुए असंख्य झरनों, नालों और आधा दर्जन सहायक नदियों का जल लेकर कच्छ के रण में प्रवाहित होने वाली इस नदी को समुदायों ने कई उप नामों से भी नवाजा है। लवणवती, सागरमती, मरूआशा, साक्री, मरुगंगा आदि नामों से जानी जाने वाली मरुप्रदेश की इसे सबसे लंबी नदी मानी जाती है। थार के रेतीले क्षेत्र में बहते हुए लवणीय कणों का मिश्रण कर लेने के कारण इसे आधी खारी आधी मीठी नदी भी कहा जाता था। बढ़ती हुई शहरी जनसंख्या की प्यास बुझाने, विकास के लिए जल जरूरतों को पूरा करने के लिए नदी की कोख को बांधते हुए बनाए गए बांधों के कारण सूख चुकी इस नदी को गंदगी डालने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा। पाली, जोधपुर, बालोतरा के वस्त्र रंगाई-छपाई एवं अन्य उद्योगों से निकलने वाला रसायनयुक्त पानी नदी में डाले जाने के बाद इसका आधुनिक नाम कैमिकल नदी रख दिया गया। बजरी खनन और अवैध कब्जाधारी भी इस नदी को दिन-रात नोचते हैं। पाली और बालोतरा के वस्त्र रंगाई-छपाई उद्योगों से निकलने वाले रसायनिक पानी की मीलों तक फैली संड़ाध सभ्य समाज को नाक पर हाथ रखने को मजबूर करती है। इस बार बहाव के कारण एक बार तो नदी की काया कंचन हो जाएगी, लेकिन भविष्य अंधकारमय दिखता है।

लूणी के किनारे बसे हुए सैकड़ों गांवों, कस्बों के लोगों ने लूणी से अपने जीवन की खुशहाली और बदहाली दोनों तरह के अनुभव देखे हैं। 37,363 वर्ग किलोमीटर जलग्रहण क्षेत्र वाली इस नदी के किनारों पर बसे गांवों में खेती और पशुपालन व्यवसाय फलता-फूलता था। क्षेत्र का भूजल रिचार्ज होता था। कुंओं का पैंदा तर होता था। पीने के पानी के उपयोग के साथ-साथ खेती में सिचाई के लिए भरपूर पानी था। नदी सूख जाने के बाद लोग तरबूज उगाते थे। मक्का, बाजरा के साथ-साथ गेहूं व मिर्च मसालों की खेती भी होती थी। जोधपुर, नागौर, पाली, सिरोही, जालौर और बाड़मेर के हजारों कुएं, कुइयां, बावड़ियां रिचार्ज होते थे। किनारे बसे लोगों का कहना है कि नदी के बहाव वाले समय में कभी पीने के पानी की कमी नहीं होती थी। चार-पांच फुट गहरा गड्ढा खोदने पर मीठा पानी मिल जाता था। बिठुजा गांव से बालोतरा क्षेत्र के सैकड़ों गांवों में पेयजल की सप्लाई होती थी। आर्थिक समृद्धि नदी के किनारों पर बसे कस्बों गांवों में प्रतिवर्ष लगने वाले पशु मेलों में दिखती थी। तिलवाड़ा का मल्लीनाथ पशु मेला, सिणधरी का पशु मेला प्रसिद्ध था जहां दूर-दूर से लोग पशुओं और कृषि उत्पादों की खरीद-फरोख्त करने आते थे। क्षेत्र में पर्याप्त पानी मिलने के कारण महीनों तक पशुपालक यहां टिके रहते थे। बाड़मेर के समदड़ी, पारलू, कनाना, सराणा, बिठुजा, बालोतरा, जसोल, सिणधरी कस्बों से जुड़े सैकड़ों गांवों की समृद्धि और खुशहाली अब केवल लोगों की स्मृतियों का इतिहास भर रह गई है। इस बार लोग खुश हैं। पिछले दो दशकों से सूखे पड़े कुंओं में फिर से पानी आएगा। जल स्तर बढ़ेगा। अस्थाई ही सही, कुछ तो छिनी हुई समृद्धि और खुशहाली हिस्से में आएगी।

हालांकि बढ़ते शहरीकरण, लोगों की पेयजल जरूरतों, उद्योगों, व्यवसायों को पानी उपलब्ध कराने के लिए बनाए गए बांधों ने लूणी की जलधार पर कब्जा किया वहीं उपयोग के बाद निकलने वाले गंदे पानी को लूणी के हवाले कर दिया। बालोतरा में लगभग 700 से अधिक वस्त्र रंगाई-छपाई की इकाइयां लगी हैं। प्रति दिन 25 करोड़ का व्यापार होता है तथा एक लाख से अधिक लोगों को रोजगार मिलता है। इन इकाईयों से निकलने वाला रसायनयुक्त पानी लूणी में छोड़े जाने के कारण न केवल नदी प्रदूषित हुई है बल्कि बालोतरा से आगे के बहाव वाले क्षेत्र का भूजल भी प्रदूषित हो गया है। उच्च न्यायालय के रोक के आदेश के बावजूद लूणी के शोषक ऊंची रसूख और अकूत दौलत के दम पर न्यायालय के आदेशों को ठेंगा दिखा रहे हैं। नदी के बचाव को लेकर जूझ रहे क्षेत्रीय लोगों की आवाज भ्रष्ट नौकरशाहों और समुदाय के प्रति गैरजवाबदार नेताओं की अनदेखी के कारण दब जाती है। अपने संकटकाल में भी यह नदी कुछ न कुछ दे रही है। लेकिन सरकार का खजाना, व्यापारियों की तिजोरियां व समुदाय को खुशहाली देने वाली इस नदी को राजकीय व्यवस्था, वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों और सामाजिक व्यवस्था ने उपेक्षा और गंदगी के अलावा कुछ भी नहीं दिया है। अभी भी वक्त है लूणी को उसके पुराने स्वरुप में लौटाने की। कुदरत ने इस नदी को फिर से लबालब भर कर हमें एक आखिरी मौका दिया है। आने वाली पीढ़ी को स्वच्छ और निर्मल लूणी से बेहतर उपहार कुछ और नहीं दिया जा सकता है।

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जल प्रबंधन के लिए जन शक्ति जरूरी

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जल प्रबंधन के लिए जन शक्ति जरूरीHindiWaterFri, 08/30/2019 - 08:18
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योजना, अगस्त  2019

जल प्रबंधन के लिए जन शक्ति जरूरी।जल प्रबंधन के लिए जन शक्ति जरूरी।

पानी, नई सरकार की विकास की कार्यसूची का शीर्ष विषय है और इस महीने के शुरू में वित्त मंत्री के बजट भाषण के बाद प्रधानमंत्री ने इस बात पर जोर भी दिया था। जल संरक्षण के लिए स्वच्छ भारत मिशन की तर्ज पर जन आन्दोलन छेड़ने का आह्वान करते हुए प्रधानमंत्री ने इस बात पर जोर दिया कि जल संचय का कार्य जनशक्ति के बिना सम्भव नहीं है। इससे पहले अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री ने कहा था कि देश में सबको जल सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए केन्द्र सरकार ने जो पहला ठोस कदम उठाया वह नए जलशक्ति मंत्रालय के गठन का था। इस सशक्त संस्थागत कदम के अन्तर्गत पूर्ववर्ती जल संसाधन मंत्रालय, नदी विकास मंत्रालय और गंगा संरक्षण मंत्रालयों को पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के साथ समेकित कर जल पर केन्द्रित नया मंत्रालय गठित किया गया है। यह जल संसाधनों के प्रबन्धन के समेकन की दिशा में एक बड़ा कदम है जिसमें पेयजल की आपूर्ति और स्वच्छता के साथ-साथ देश में सभी घरों में पाइपलाइनों के जरिए स्वच्छ और पर्याप्त जल आपूर्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने पर जोर दिया गया है।

वित्त मंत्री ने जिक्र किया, सरकार की एक प्राथमिकता 2024 तक देश के सभी परिवारों को चिरस्थाई आधार पर पाइपलाइनों के जरिए पीने का पानी उपलब्ध कराने की है। इसके लिए जलशक्ति मंत्रालय ने 2019-20 में ग्रामीण जल आपूर्ति के लिए करीब 10,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा स्वच्छ भारत मिशन ग्रामीण के लिए भी 10,000 करोड़ रुपए आवंटित करने का प्रस्ताव है।

अब तक की कहानी

अब तक भारत में पानी का संस्थागत परिदृश्य बिखराव वाला रहा है। करीब सात मंत्रालयों और 10 विभागों पर जल प्रबन्धन और इसके उपयोग के विभिन्न पहलुओं को देखने की जिम्मेदारी है। इससे जहाँ कुछ कार्यों और जिम्मेदारियों की दोहरावट होती है तो वहीं कुछ विवादग्रस्त मुद्दों को सुलझाने और आवश्यक निर्णय लेने के लिए कोई एक संगठन या प्राधिकारी उत्तरदाई नहीं है। नतीजा यह हुआ है कि ये मंत्रालय और विभाग एक दूसरे से अलग-थलग होकर कार्य कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में नीति आयोग ने पानी से सम्बन्धित उप-क्षेत्रों को समेकित कर ठोस शुरुआत की है। समेकित जल प्रबन्धन सूचकांक बनाया गया है और राज्यों को इसके आधार पर रैकिंग दी जाती है। इसी तरह नए जल शक्ति मंत्रालय का गठन अभिशासन सम्बन्धी एक जबरदस्त सुधार है जिससे जल क्षेत्र में समन्वय स्थापित करने में स्थाई और सकारात्मक असर पड़ेगा।
 
भारत में समन्वित जल प्रबन्धन का कार्य कभी उतना प्रासंगिक नहीं रहा जितना यह आज है। आज देश जल संकट के दौर में पहुँचने को है। कुछ अनुमानों के अनुसार अगर हम ‘चलता है’ रवैये से काम करते रहे, तो 2030 में पानी की माँग इसकी आपूर्ति के मुकाबले दोगुनी से अधिक हो जाएगी। इससे 2050 तक सकल घरेलू उत्पाद में 6 प्रतिशत के बराबर आर्थिक नुकसान होने के अनुमान है। इसके परिणामस्वरूप हमारी आबादी के काफी बड़े हिस्से को सीमित मात्रा में या पीने के पानी के बिना रहना पड़ सकता है। हालके उपग्रह डेटा से भी पता चला है कि मध्यम अवधि में भारत में पीने के पानी के सभी नलके पूरी तरह सूख सकते हैं और नई दिल्ली, बंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद में भूमिगत जल पूरी तरह सूख सकता है।
 
भविष्य की चुनौतियों का मुकाबला

जल क्षेत्र में कुछ अक्षमताओं के परिणामस्वरूप वर्षा जल संग्रह और कम गन्दे अवजल के परिशोधन और फिर से इस्तेमाल में लाने जैसी चुनौतियाँ पैदा हुई हैं। फिलहाल भारत में साल भर में बरसने वाले पानी के केवल 8 प्रतिशत का ही उपयोग किया जाता है, जो दुनिया में सबसे कम है। मौजूदा बुनियादी ढाँचे का समुचित रखरखाव न होने से शहरी इलाकों में पाइप लाइनों से सप्लाई किए जाने वाले पानी का करीब 40 प्रतिशत बर्बाद हो जाता है। अवजल की सफाई कर उसे फिर से काम में लाने का कार्य लगभग नहीं के बराबर होता है। मिसाल के तौर पर पानी की भारी किल्लत का सामना कर रहा एक और देश अपने यहाँ कम गन्दे पानी के शत प्रतिशत का शोधन करता है और इसमें से करीब 94 प्रतिशत का पुनर्चक्रण किया जाता है। फिर से उपयोग में लाए गए पानी से उसकी सिंचाई की आवश्यकता पूरी हो जाती है।
 
जहाँ तक पेयजल का सवाल है, कुल बसावटों में से 81 प्रतिशत में फिलहाल प्रति व्यक्ति 40 लीटर पानी किसी-न-किसी स्रोत से उपलब्ध है। भारत में सिर्फ 18 से 20 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास पाइपलाइनों के जरिए सप्लाई किए जाने वाले पानी के कनेक्शन हैं। जैसा कि वित्त मंत्री ने जिक्र किया, सरकार की एक प्राथमिकता 2024 तक देश के सभी परिवारों को चिरस्थाई आधार पर पाइपलाइनों के जरिए पीने का पानी उपलब्ध कराने की है। इसके लिए जलशक्ति मंत्रालय ने 2019-20 में ग्रामीण जल आपूर्ति के लिए करीब 10,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा स्वच्छ भारत मिशन ग्रामीण के लिए भी 10,000 करोड़ रुपए आवंटित करने का प्रस्ताव है। जल शक्ति मंत्रालय विकेन्द्रित लेकिन समन्वित जल संसाधन प्रबन्धन और सेवाएँ प्रदान करने को बढ़ावा देगा और उसका मुख्य जोर जल संरक्षण, जल स्रोत के स्थायित्व, भंडारण और अवजल के फिर से इस्तेमाल पर होगा। इस कार्य में जहाँ भी सम्भव होगा पानी का उपयोग करने वाले समाजों को शामिल किया जाएगा क्योंकि वे ही असली लाभार्थी हैं। जल संरक्षण के लिए विकेन्द्रित नियोजन के बेहतरीन तौर-तरीकों से सबक लिया जाना चाहिए। इनमें महाराष्ट्र में हिवारे बाजार और उत्तराखण्ड में समुदाय आधारित पेयजल आपूर्ति का स्वजल मॉडल शामिल है जिसका विस्तार किया जाना चाहिए।
 
जल शक्ति अभियान

पानी की किल्लत वाले इलाके, खास तौर पर चिन्हित किए गए समस्याग्रस्त ब्लॉकों और पानी की गुणवत्ता की समस्या वाले इलाकों में भूतलीय जल आधारित बहु-ग्राम योजनाओं की पहचान की जानी चाहिए। जहाँ भूमिगत जल की इफारत वाले क्षेत्रों में एक गाँव पर आधारित भूमिगत जल योजनाएँ चलाई जानी चाहिए, जिनमें एक छोर से दूसरे छोर तक स्रोत को चिरस्थाई बनाने के उपायों को बढ़ावा दिया गया हो। इन योजनाओं में वर्षा जल के पारिवारिक या सामुदायिक संचयन का भी प्रावधान किया जाना चाहिए और इस संचित जल का उपयोग भूमिगत जलाशयों को फिर से भरने में किया जा सकता है। जल संचय और संरक्षण की अन्य स्थानीय विधियों को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। जल संचय के लिए बुनियादी ढाँचे के विकास के स्थानीय तौर-तरीकों का एक उदाहरण मध्यप्रदेश के देवास जिले में देखा जा सकता है। यहाँ कृषक समुदाय को पानी के वैकल्पिक स्रोत और आपूर्ति स्रोत के रूप में तालाबों के बुनियादी ढाँचे के विकास के कार्य में सरकारी सहायता का उपयोग किया गया। इससे जिले में तालाबों के जल स्तर में 4 से 40 फुट की बढोत्तरी हुई। इतना ही नहीं इससे जिले का सिचिंत क्षेत्र भी 120-190 प्रतिशत बढ़ गया। 
जल शक्ति मंत्रालय ने इसी सिलसिले में जल शक्ति अभियान शुरू किया है। यह देश के 256 जिलों के 1592 चुने हुए ब्लॉकों में जल संरक्षण गतिविधियों में हो रही प्रगति को तेज करने का केन्द्र और राज्य सरकारों का सहयोगपूर्ण प्रयास है। इस अभियान के तहत केन्द्र सरकार के 1000 से अधिक वरिष्ठ अधिकारी राज्यों के अधिकारियों के साथ मिलकर जल संचय और जल संरक्षण के प्रयास करेंगे।
 
हर घर जल

इसके बाद प्रत्येक पेयजल योजनाओं के अन्तर्गत जल संरक्षण पर ध्यान केन्द्रित करने का एक अन्य क्षेत्र है और वह है-घरों से निकलने वाले पानी (जलमल से इतर) जैसे रसोईघर या स्नानागार से निकलने वाले पानी (जिसे ग्रे वाटर, यानी अवजल कहा जाता है) के संचय और उसकी सफाई के लिए बुनियादी ढाँचे का विकास। इस तरह का पानी घरों में इस्तेमाल के बाद निकलने वाले कुल गन्दे पानी के करीब 80 प्रतिशत के बराबर होता है। इसका संचय साधारण तालाबों, कृत्रिम रूप से बनाई गई आर्द्र भूमियों और इसी तरह की स्थानीय अवसंरचना परियोजनाओं में किया जा सकता है। इसमें जमा पानी का पुनर्चक्रण कर उसे खेतों में सिंचाई के काम में लाया जा सकता है। इस तरह के कार्यों में हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पानी का 80 प्रतिशत पानी खर्च होता है।
 
गुजरात जैसे कुछ राज्य माइक्रो इरिगेशन (सूक्ष्म सिंचाई) की सुविधा छह लाख से अधिक किसानों को उपलब्ध कराकर पानी के कुशल उपयोग के क्षेत्र में अग्रणी हैं। इन किसानों में से 50 प्रतिशत छोटे और मझोले किसान हैं। आन्ध्र प्रदेश सरकार भी खेती में पानी के दक्षतापूर्ण उपयोग के कार्य को प्राथमिकता प्रदान कर रही है और उसने अगले पाँच वर्षों में 40 लाख एकड़ जमीन को माइक्रो इरिगेशन के अन्तर्गत लाने के लिए 11,000 करोड़ रुपए का आवंटन किया है। अगर इन उपायों के साथ-साथ अगर कृषि कार्यों में अवजल के उपयोग के प्रयासों को भी जोड़ दिया जाए तो हमारे जल संसाधनों पर कृषि के लिए पानी उपलब्ध कराने का दबाव काफी कम हो जाएगा।
 
वांछित जन आन्दोलन : पानी का संरक्षण हर एक की जिम्मेदारी
 
पानी के बारे में जागरूकता बढ़ाना और सोच में बदलाव को भी महत्त्वपूर्ण प्राथमिकता बनाना जरूरी है। आज भी पानी को असीमित यानी कभी न खत्म होने वाला संसाधन माना जाता है और देश के कई भागों में इसकी जमकर बर्बादी की जाती है, जबकि दूसरे राज्यों को सूखे जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है। पानी को लेकर अंदरूनी और बाहरी सहभागियों के व्यवहार में बदलाव के लिए की जा रही संचार सम्बन्धी पहल को सफल बनाना बहुत जरूरी है। हमें राज्य सरकारों से लेकर आम नागरिक जैसे सभी सहभागियों को साथ लेकर चलना होगा और राष्ट्रीय आम सहमति तैयार करनी होगी। इसके लिए स्वच्छ भारत मिशन की व्यवहार परिवर्तन सम्बन्धी संचार पहलों को समन्वित जल प्रबन्धन उपायों के क्षेत्र में अपनाना होगा और सबसे निचले स्तर पर पानी के संरक्षण के बारे में लोगों को प्रेरित करने के लिए जल संरक्षण सेनानियों की एक फौज खड़ी करनी होगी, जो स्वच्छ भारत मिशन के स्वच्छाग्रहियों के तर्ज पर होगी। इस तरह के पैदल सेनानियों यानी सबसे निचले स्तर के कार्यकर्ताओं, सरपंचों और ब्लॉक व जिला अधिकारियों की क्षमता बढ़ाने के प्रयास पहले ही शुरू किए जा चुके हैं।
 
समग्र और समन्वित जल प्रबन्धन के बारे में यह नीति संघीय प्रणाली वाले किसी भी विशाल देश के लिए अनोखी है। देश ने स्वच्छ भारत मिशन के तहत जिस तरह से कार्य किया, उसी तरह देश में पानी से सम्बन्धित अलग-थलग पड़ी संस्थाओं को समन्वित कर तथा जल सुरक्षा को हर एक नागरिक की जिम्मेदारी बनाकर, भारत राष्ट्रीय जल सुरक्षा सुनिश्चित करने की एक मिसाल पेश कर सकता है।
 

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पर्यावरण बचाने के लिए घटाना होगा उपभोग

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पर्यावरण बचाने के लिए घटाना होगा उपभोगHindiWaterFri, 08/30/2019 - 10:07
Source
दैनिक जनवाणी, 5 जून 2019

पर्यावरण बचाने के लिए घटाना होगा उपभोग।पर्यावरण बचाने के लिए घटाना होगा उपभोग।

अंग्रेजी का ‘एन्वायरमेंट’ शब्द फ्रांसीसी शब्द एनवायरनेट से विकसित हुआ पारिस्थितिकी इस संदर्भ में ‘एन्वायरन्स’ शब्द का प्रयोग पहली बार 1956 में हुआ। 20वीं सदी के छठे दशक से पूर्व के किसी संस्कृत हिंदी ग्रंथ अथवा शब्दकोष में पर्यावरण शब्द का उल्लेख नहीं मिलता। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी विश्व पर्यावरण दिवस हेतु 1972 में पहली बार निर्देशित किया। प्रथम विश्व पर्यावरण दिवस वर्ष 1974 में मनाया गया। भारत की बात करें तो वर्ष 1985 से पहले भारत में पर्यावरण के नाम पर अलग से कानून नहीं थे। पर्यावरण को एक विषय के रूप में पढ़ने की बाध्यता भी सत्र वर्ष 2005 से पहले नहीं थी। विरोधाभास देखिए कि पर्यावरण की पढ़ाई बढ़ी; बजट बढ़ा; कानून बढ़े; इंतजाम बढ़ें; किंतु पर्यावरण सुरक्षा की गारंटी लगातार घटती जा रही है। क्यों ? क्योंकि शायद हम ऐसा इलाज कर रहेंः ताकि मर्ज बना रहेः इलाज चलता रहे। हम लक्षणों का इलाज कर रहे हैं। पर्यावरण शरण के मूल कारणों की रोकथाम हमारी प्राथमिकता नहीं बन पा रही है। 

भारत ने वर्ष 2030 तक 280 मेट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की कटौती की घोषणा की है। कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा तब घटेगी, जब हम कार्बन उत्पादों की खपत घटाएंगे। कार्बन अवशोषण करने वाली प्रणालियां बनाएंगे। ऐसी प्रणालियां बढ़ाने के लिए कचरा होगाः हरियाली और नीलिमा बढ़ानी होगी। खपत घटाने के लिए उपभोग कम करना होगा। उत्पाद चाहे खेत में पैदा हो या फैक्ट्री में, बिना पानी के कुछ नहीं बनता। जैसे ही फिजूल खर्ची घटाएंगे; कागज, बिजली, कपड़ा, भोजन आदि की बर्बादी घटाएंगे; पानी-पर्यावरण दोनों ही बचने लगेंगे।

तापमान में बढ़ोतरी का 90 प्रतिशत जिम्मेदार तो अकेले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को ही माना गया है। हमने वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा इतनी तेजी से बढ़ाई है कि अगले 11 वर्षों के बाद वायुमंडल में भी ‘नो रूम’ का बोर्ड लटक जाने का अंदेशा पैदा हो गया है। ये नुकसानदेह गैसें हमारे अतिवादी उपभोग की पूर्ति के लिए किए जा रहे उपायों की उपज है या कुछ और ? हमने धरती से इतना पानी खींच लिया है कि आज भारत के 70 फीसदी भूगर्भ क्षेत्र पानी की गुणवत्ता अथवा मात्रा के मानक पर संकटग्रस्त श्रेणी में हैं। हम मिट्टी का इतना दोहन कर चुके हैं कि पिछले कुछ सालों में भारत की 9 लाख 45 हजार हेक्टेयर खेती योग्य भूमि बंजर हो चुकी है। हम इतनी हरियाली हड़प कर चुके हैं कि हमारा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र रेगिस्तान में तब्दील हो रहा है। हमने उत्पाद और उपयोग की ऐसी शैली अपना ली है जिससे भारत आज हर रोज करीब 1.7 लाख मित्र टन कचरा पैदा करने वाला देश बन गया है। हमने हवा में इतना कचरा फेंक दिया है कि भारत के 100 से अधिक शहर वायु गुणवत्ता परीक्षा में फेल हो गए और स्वश्न तंत्र की बीमारियों से मरने वालों के औसत में भारत दुनिया का नंबर एक देश हो गया है। इन परिस्थितियों के मूल कारण क्या है ? 

मूल कारण है अतिवादी उपभोग और कम पुर्नउपयोग। अधिक उपभोग यानी प्रकृति का अधिक दोहन, अधिक क्षरणः कम पुर्नउपयोग यानी प्रकृति का अधिकाधिक कचरा, अधिक प्रदूषण, अधिक रासायनिक असंतुलन। हमारी अतिवादिता ने प्रकृति से लेने और देने का संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है। विषमता यह है कि प्राकृतिक संसाधनों की कुल सालाना खपत का 40 फीसदी वे देश कर रहे हैं, जो जनसंख्या में कुल का मात्र 15 प्रतिशत हैं। बेसमझी यह है कि हम भारतीय भी अधिक उपभोग करने वाले देशों की ही जीवनशैली को अपनाने को विकसित जिंदगी और बढ़ावा देने को असली विकास मान रहे हैं। हम भूल गए हैं कि यदि सारी दुनिया अमेरिकी लोगों जैसी जीवनशैली जीने लग जाए तो 3.9 अतिरिक्त पृथ्वी के बगैर हमारा गुजारा चलने वाला नहीं।

गौर कीजिए कि सरकारी योजनाएं लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाने में लगी हैं। बाजार और तकनीक विशेषज्ञ लोगों को सुविधा भोगी बनाने में। ऑफ सीजन मेगा सेल ‘दो के साथ एक फ्री’ का आॅफर ले आ गए हैं। ऑनलाइन शॉपिंग बिना जरूरत की चीज का खुला आमंत्रण दे रही है। ऐसे में आप प्रश्न उठा सकते हैं तो हम क्या करें ? क्या हम आदिवासियों-सा जीवन जीने लग जाएं ? जवाब है कि सबसे पहले हम स्वयं से अपने से प्रश्न करें कि यह खोना है या पाना ?  हम सभी के शुभ के लिए लाभ कमाने की अपनी महाजनी परंपरा को याद करें। हर समस्या में समाधान स्वतः निहित होता है। भारत ने वर्ष 2030 तक 280 मेट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की कटौती की घोषणा की है। कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा तब घटेगी, जब हम कार्बन उत्पादों की खपत घटाएंगे। कार्बन अवशोषण करने वाली प्रणालियां बनाएंगे। ऐसी प्रणालियां बढ़ाने के लिए कचरा होगाः हरियाली और नीलिमा बढ़ानी होगी। खपत घटाने के लिए उपभोग कम करना होगा। उत्पाद चाहे खेत में पैदा हो या फैक्ट्री में, बिना पानी के कुछ नहीं बनता। जैसे ही फिजूल खर्ची घटाएंगे; कागज, बिजली, कपड़ा, भोजन आदि की बर्बादी घटाएंगे; पानी-पर्यावरण दोनों ही बचने लगेंगे।

एक किलो चावल पैदा करने में 2000 से 5000 लीटर तक पानी खर्च होता है। हरियाणा सरकार ने पानी की किल्लत से निपटने के लिए किसानों से धान की खेती छोड़ने का आह्वान किया। उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए आर्थिक लाभ और अरहर तथा मक्का के मुफ्त बीच की प्रोत्साहन योजना लाई। पानी की सर्वाधिक जरूरत और खपत सिंचाई हेतु ही है। यदि पानी कम है तो वर्षा जल आधारित तथा कम पानी का उत्पादन करें। कम पानी अथवा प्रदूषित पानी होगा तो औद्योगिक उत्पादन करना भी मुश्किल तथा महंगा होता जाएगा। लाभ हमारा है तो हमें खुद पहल करनी चाहिए कि नहीं ? इसके लिए भी हम सरकार की ओर क्यों ताकें ? जाहिर है कि जितनी फिजूलखर्ची घटाएंगे, पुर्नउपयोग बढ़ाएंगे, प्राकृतिक संसाधन उतने अधिक बचेंगे। अतः जितनी जरूरत उतना परोसे, उतना खाए, उतना खरीदें, बर्बाद जरा-सा भी न करें, सादगी को सम्मानित करें। यह चलन अंततः पृथ्वी के आवरण के हर उस अंश को बचाएंगे जिसे हम पर्यावरण कहते हैं।

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गलत नीतियों से किसान हुए बदहाल 

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गलत नीतियों से किसान हुए बदहाल HindiWaterSat, 08/31/2019 - 11:02
Source
अमर उजाला, 12 जून 2017 

गलत नीतियों से किसान हुए बदहाल। फोटो स्त्रोत-डाउन टू अर्थ गलत नीतियों से किसान हुए बदहाल। फोटो स्त्रोत-डाउन टू अर्थ

पिछले कुछ महीनों से भारत के किसानों ने अपने हाल की तरफ राजनेताओं का ध्यान आकर्षित करने की हर तरह से कोशिश की है। तमिलनाडु के किसान दिल्ली के जंतर मंतर पहुंचे और कई दिनों तक वहां अजीब अजीब तरह से प्रदर्शन करते रहे। बड़े-बड़े राजनेता उनसे मिलने आए, जिनमें राहुल गांधी भी थे, पर प्रधानमंत्री से भेंट नहीं हुई। आखिर में तमिलनाडु के कुछ राजनेताओं ने उन्हें आश्वासन दिया और वह घर चले गए। इसके बाद महाराष्ट्र में कर्ज माफी की मांग को लेकर किसानों का एक बड़ा जत्था मुंबई पहुंचा। यह सिलसिला चल ही रहा था कि मध्यप्रदेश में किसान आंदोलन इतना हिंसक हो गया कि पुलिस की गोलियों से 6 किसानों की मौत हो गई। विपक्ष के नेताओं ने फिर से किसानों के नाम पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकीं।

प्रधानमंत्री मोदी अगर वास्तव में कृषि क्षेत्र में परिवर्तन और विकास लाना चाहते हैं तो उन्हें अपने मुख्यमंत्रियों को आदेश देना होगा कि कर्ज माफ करने के बदले उसी पैसे को उन सुविधाओं में निवेश करें, जिनका कृषि क्षेत्र में गंभीर अभाव है। इस निवेश के बिना भारत के किसान उस गुरबत में फंसे रहेंगे, जिस गुरबत में वे सदियों से फंसे रहे हैं।

मध्यप्रदेश में किसानों के आक्रोश की बात करते समय याद रखना चाहिए कि जितना निवेश कृषि क्षेत्र में शिवराज सिंह चैहान की सरकार ने किया, शायद ही पहले कभी किसी दूसरी सरकार ने किया होगा। तो सवाल यह उठता है कि क्या ग्रामीण भारत में कुछ ऐसी चीज हो रही है जिसका असली विश्लेषण अभी तक हुआ नहीं है ? मेरा ऐसा मानना है। ऐसा नहीं है कि मुझे कृषि क्षेत्र की समस्याओं की कोई विशेष जानकारी है। सिर्फ इसलिए कि मेरा भाई किसान है सो मुझे किसानों के हाल की थोड़ी बहुत समझ है। अपने भाई से जब मैंने मध्य प्रदेश की हिंसा के बारे में पूछा तो उनका कहना था कि ऐसा तब तक होता रहेगा जब तक दिल्ली में बैठे कृषि विशेषज्ञ स्वीकार नहीं करेंगे कि देश के ज्यादातर किसानों के पास अब इतने छोटे खेत रह गए हैं कि साल भर में उनकी कमाई महानगरों के घरेलू नौकरों से कम है। सोचिए 1 एकड़ जमीन से साल भर में वह करीब 40 हजार रुपये ही कमा पाता है, तो कैसे गुजारा होगा ?

इस बात को हमारे राजनेता अच्छी तरह जानते हैं लेकिन समाधान ढूंढते हैं वही पुराने बक्शीश वाले-बिजली मुफ्त में दे दो, पानी मुफ्त में दे दो, कर्ज माफ कर दो। यथार्थ यह है कि किसानों को सड़कें, सिंचाई और कोल्ड स्टोरेज चाहिए, जिनके अभाव में देश में आधी सब्जी और फल मंडी में पहुंचने से पहले ही बर्बाद हो जाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक जितनी सब्जी और फल ब्रिटेन के लोग 1 साल में खाते हैं, उससे ज्यादा भारत के खेतों में सड़ जाते हैं। सवाल है कि ग्रामीण सड़कों और कोल्ड स्टोरेज चेन में निवेश क्यों नहीं हुआ ? कर्ज माफ करवाने के बदले किसान इन चीजों के लिए आंदोलन क्यों नहीं करते हैं ? इसलिए कि ज्यादातर किसान अनपढ़ हैं और इसका फायदा राजनेता उठाते हैं। राजनेता जानते हैं कि जब तक भारत कृषि प्रधान देश रहेगा, तब तक विकास और रोजगार के बदले में खैरत बांटकर किसानों का वोट हासिल कर सकते हैं। अमेरिका में 2 फीसदी से कम आबादी कृषि पर निर्भर है और चीन में इतनी तेजी से शहरीकरण हुआ है कि अब मात्र 30 करोड लोग ही खेतीबाड़ी से गुजारा करने के लिए बचे हैं। अब समय आ गया है कि हमारे राजनेता स्वीकार करें कि देश के किसानों की समस्याओं की जड़ है उनकी गलत नीतियां। प्रधानमंत्री मोदी अगर वास्तव में कृषि क्षेत्र में परिवर्तन और विकास लाना चाहते हैं तो उन्हें अपने मुख्यमंत्रियों को आदेश देना होगा कि कर्ज माफ करने के बदले उसी पैसे को उन सुविधाओं में निवेश करें, जिनका कृषि क्षेत्र में गंभीर अभाव है। इस निवेश के बिना भारत के किसान उस गुरबत में फंसे रहेंगे, जिस गुरबत में वे सदियों से फंसे रहे हैं।

 

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नदियों को बनाया कूड़ागाड़ी और शहरों को कूड़ाघर

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नदियों को बनाया कूड़ागाड़ी और शहरों को कूड़ाघरHindiWaterSat, 08/31/2019 - 12:13
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अमर उजाला, 4 जून 2017

नदियों को बनाया कूड़ागाड़ी और शहरों को कूड़ाघर।नदियों को बनाया कूड़ागाड़ी और शहरों को कूड़ाघर।

पर्यावरण प्रतिज्ञा में हम खरे नहीं उतर पाए। दुनिया का एक भी ऐसा देश नहीं है जो यह दम भर सकता हो कि उसने अपनी प्रगति में प्रकृति को भी समान तवज्जो दी है। दशकों पहले जब विकास पर चिंतन हो रहा था तब प्रकृति व उसके उत्पादों को ज्यादा भाव नहीं मिला क्योंकि वह प्रचुरता में थे। शायद उसी समय विकास की परिभाषा तैयार करने में हमसे बड़ी चूक हो गई। यह प्रकृति ही है जिसने समानता से सबको दिया है और इसलिए इसका दंड भी सबको झेलना पड़ेगा। चाहे वह कोई भी देश और समाज हो। भारत में ही बदलते मौसम ने वर्ष 2016 में 1608 लोगों की जान ली। आईएमडी के अनुसार, वर्ष 2016 सबसे गर्म था। वैसे वर्ष 2016 में बिहार, राजस्थान और गुजरात सर्वाधिक गर्म राज्य रहे। अत्यधिक गर्मी के पीछे प्रदूषण भी एक बड़ा कारण बना है। जिस रफ्तार से गाड़ियां सड़कों पर उतरी हैं और अन्य विलासिता के लिए हमने सामान जुटाया है वह सब तापमान बढ़ाने का काम करते हैं। 

मात्र प्रदूषण के कारण दुनिया में हर वर्ष लगभग एक करोड़ 25 लाख लोगों की मौत होती है। यह हाल तब है जब 30 से 35 प्रतिशत लोग ही शहरों में रहते हैं। वर्ष 2050 तक 66 प्रतिशत लोग शहरों में रह रहे होंगे और उनकी आवश्यकताएं लगभग वैसी ही होंगी। उस हालात में प्रदूषण सारी सीमाएं पार कर चुका होगा। आज दुनिया में वायु प्रदूषण मृत्यु के लिए चैथे कारण के रूप में सामने आया है। लगातार हालात ऐसे ही रहे तो यह दुनिया का पहला और बड़ा कारण बन सकता है। अब जब प्रतिदिन इस प्रदूषण से 1000 लोग मारे जाते हैं तो कल्पना की जा सकती है कि आने वाले समय में हालात क्या होंगे ?

तेजी से बढ़ती आर्थिकी का जुनून ही हमें बढ़ती आपदाओं की तरफ ले जा रहा है। अन्य देशों की तुलना में भारत प्रदूषण की बड़ी चपेट में है। अपने देश में 13 बड़े शहर प्रदूषण की गहरी चपेट में हैं। अकेले भारत में करोड़ों रुपए का नुकसान प्रदूषण से होता है। इससे ऐसे भी समझा जा सकता है कि अगर आप मुंबई में सांस ले रहे हैं तो वह 100 सिगरेट पीने के बराबर है। यानी आज हम बिना धूम्रपान के ही विषैली हवा लेने को मजबूर हैं। प्रदूषण रोकने में वनों का बड़ा योगदान है, पर इस विकास में वन क्षेत्रों को भी बहुत नकारा गया है। दुनिया में हर साल 15 अरब पेड़ काट दिए जाते हैं। इसके अलावा हमारी कई गतिविधियां वनस्पतियों को सीधे नुकसान पहुंचाती हैं। इनमें अव्यवस्थित कृषि (31 प्रतिशत), उर्जा (3.4 फीसदी), प्रदूषण (3.34 प्रतिशत), प्रकृति में बदलाव (9.26 प्रतिशत), जलवायु परिवर्तन (3.96 प्रतिशत) मुख्य हैं। 

हमें जानना चाहिए कि 1 एकड़ का वन उतना ही कार्बन अवशोषित करता है जितना एक कार 41000 किलोमीटर चलने पर पैदा करती है। मतलब एक कार 1 साल में करीब 6 टन कार्बन डाइऑक्साइड उगलती है। एक एयर कंडीशनर जितनी ठंडक पैदा करता है उसका 30 फीसदी योगदान अकेले वृक्ष कर सकते हैं। विकास की होड़ में पर्यावरण को क्षति पहुंचाने के बहुत से रास्ते हमने तैयार किए हैं। एक तरफ जहां ऊर्जा व उत्पादकों की खपत बढ़ रही है, वहीं कचरो का कोई सीधा निदान नहीं दिखाई देता। हमने अपनी नदियों को कूड़ेदान बना दिया है और शहरों के इलाकों को कूड़ा घर और दोनों जगहों का कूड़ा वर्षा के बाद समुद्र में पहुंच जाता है। हर साल लगभग 6 किलोग्राम कचरा समुद्र में बह जाता है। इसमें प्लास्टिक सबसे अधिक है। अपने देश में ही लगभग 500 टन प्लास्टिक पैदा होता है, पर इसका एक फीसदी से भी कम रीसाइक्लिंग के योग्य होता है। बाकी या तो सड़कों के किनारे या खेतों में समुद्र में या फिर जानवरों के पेट में पहुंच जाता है। हमें गंभीर हो जाना चाहिए कि बिगड़ते पर्यावरण से हालात इतने बदतर हो सकते हैं। इनसे हमारे जीवन में क्या उठल पुथल हो सकती है और किस तरह प्रतिकूल आर्थिक सामाजिक अव्यवस्थाएं जन्म ले सकती है, इस पहल में व्यापक बहस से हम कतराए हुए हैं। पर अब इस विषय को कतई भी हल्के रूप में नहीं लिया जा सकता।

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बाढ़ से भारी तबाही 

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बाढ़ से भारी तबाही HindiWaterSat, 08/31/2019 - 16:39
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हरिभूमि, 21 अगस्त 2019  

बाढ़ से भारी तबाही।बाढ़ से भारी तबाही।

हिमाचल हो या पंजाब, उत्तराखंड हो या राजस्थान अथवा केरल या कर्नाटक, लगभग पूरे देश में इस समय मूसलाधार बारिश और बाढ़ कहर बरपा रही है। कहीं तेज बारिश, कहीं भूस्खलन तो कहीं बादल फटने की घटनाएं स्थिति को और भी विकराल बना रही है। उत्तर पश्चिम और दक्षिण भारत में पहाड़ी क्षेत्रों से लेकर तमाम मैदानी इलाकों में इस वक्त हर कहीं आसमान से आफत बरस रही है और बाहर से भयानक तबाही का मंजर नजर आ रहा है। हिमाचल में तो भारी बारिश का 70 साल का रिकॉर्ड टूट गया है और कई इलाकों में बेमौसम बर्फबारी भी हुई है। तेज बारिश के चलते पंजाब में भाखड़ा बांध तथा रणजीत सिंह सागर बांध के अलावा हिमाचल में चंबा के चमेरा बांध, उत्तराखंड के हरिद्वार भीमगोड़ा बैराज, श्रीनगर बैराज इत्यादि के ओवरफ्लो होने से अतिरिक्त पानी छोड़े जाने के कारण जहां बहुत सारे निचले इलाकों के लोगों में दहशत व्याप्त है, वहीं हरियाणा में हथिनीकुंड बैराज से लाखों क्यूसेक पानी छोड़े जाने से देश की राजधानी दिल्ली में भी बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है। इस समय हालात ऐसे हैं कि देश के जिस भी हिस्से में देखें, वहीं जल आतंक का नजारा है। वर्षा और बाढ़ के प्रकोप के चलते जहां सैकड़ों लोग काल कवलित हो गए हैं, वहीं जान-माल की भारी क्षति के साथ-साथ आम जनजीवन भी बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया है। जगह-जगह हजारों मकान ध्वस्त हो गए हैं। हजारों-लाखों एकड़ फसलें, हजारों वाहन और लाखों मवेशी बाढ़ में बह गए हैं। कई लाख लोग बेघर हो गए हैं।

मानसून की शुरुआत से लेकर अभी तक पूरे देश में 626 मिलीमीटर बारिश हुई है जो सामान्य 612 मिलीलीटर बारिश से करीब 2 फीसदी ही ज्यादा है। पहाड़ी इलाकों में भी हर साल बाढ़ या भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं विकराल रूप में सामने आने लगी है।  तो इसके कारणों की समीक्षा बेहद जरूरी है। मोटे तौर पर देखें तो हमने पर्यटन लाभ के लालच में पहाड़ों की सूरत और सीरत बिगाड़ दी है। 

मानसून के दौरान अब हर साल देशभर में इसी तरह के हालात देखे जाने लगे हैं, जब कई राज्य बाढ़ के रौद्र रूप के सामने इसी प्रकार बेबस नजर आते हैं। विडंबना यह है कि हम हर साल उत्पन्न होने वाली ऐसी परिस्थितियों को प्राकृतिक आपदा के नाम का चोला पहना कर ऐसी जल प्रलय के लिए केवल प्रकृति को ही कोसते हैं, लेकिन कड़वी सच्चाई यही है कि मानसून गुजर जाने के बाद भी पूरे साल हम ऐसा कोई प्रबंध नहीं कर पाते, जिससे आगामी वर्ष बाढ़ के प्रकोप को न्यूनतम किया जा सके। आपदा प्रबंधन के लिए केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2010 में 5 बिलियन डॉलर की भारी भरकम राशि का प्रावधान किया गया था, जिसमें तीन चैथाई योगदान केंद्र का ही है। इससे सहजता से समझा जा सकता है कि आपदा प्रबंधन कार्यों के लिए धन की कोई बड़ी समस्या नहीं है, लेकिन अगर फिर भी बाढ़ जैसी आपदाएं कहर बरपा रही हैं तो इसका सीधा-सा अर्थ है कि आपदाओं से निपटने के नाम पर देश में दीर्घकालीन रणनीतियां नहीं बनाई जाती। कई बार देखने में आता है कि आपदाओं के लिए फंड का इस्तेमाल राज्य सरकारों द्वारा दूसरे मदों में किया जाता है।

बाढ़ से भारी तबाही।बाढ़ से भारी तबाही।

बारिश प्रकृति की ऐसी नेमत है जो लंबे समय के लिए धरती की प्यास बुझाती है। इसलिए होना तो यह चाहिए कि मानसून के दौरान बहते पानी के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए जाएं, ताकि संरक्षित और संग्रहित यही वर्षा जल मानसून गुजर जाने के बाद देशभर में पेयजल की कमी की पूर्ति कर सके। प्रकृति की यही नेमत हर साल इस कदर आफत बनकर क्यों सामने आती है ? हम अगर अपने आसपास के हालातों पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि मानसून से पहले स्थानीय निकाय तेज बारिश होने पर बाढ़ के संभावित खतरों से निपटने को लेकर कभी मुस्तैद नहीं रहते। हर जगह नाले गंदगी से भरे पड़े रहते हैं। उनकी साफ-सफाई को लेकर कोई सक्रियता नहीं दिखती। विकास कार्यों के नाम पर साल भर जगह-जगह सड़कें खोद दी जाती है, लेकिन मानसून से पहले उनकी मरम्मत नहीं होती। प्रशासन तभी हरकत में आता है जब बड़ा हादसा हो जाता है या जनजीवन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है।

तेज मूसलाधार बारिश को भले ही प्रकृति की मर्जी कहा जा सकता है किंतु अगर अब साल दर साल थोड़ी तेज बारिश होते ही पहाड़ों से लेकर मैदानों तक हर कहीं बाढ़ जैसे हालात नजर आने लगते हैं, तो इसे ईश्वरीय प्रकोप या दैवी आपदा की संज्ञा हरगिज नहीं दी जा सकती। क्योंकि यह सब प्रकृति के साथ बड़े पैमाने पर की जा रही छेड़छाड़ का ही दुष्परिणाम है, जो हम हर साल कभी सूखे तो कभी बाढ़ के रूप में भुगतने को विवश हो रहे हैं। हालांकि कहा जा रहा है कि भारी बारिश के चलते ही हर कहीं तबाही का मंजर पैदा हुआ है किंतु यदि देशभर में अभी तक हुई बारिश के आंकड़ों पर नजर डालें तो बारिश इतनी ज्यादा भी नहीं हुई कि हर कहीं हालात इस कदर भयावह हो गए। मानसून की शुरुआत से लेकर अभी तक पूरे देश में 626 मिलीमीटर बारिश हुई है जो सामान्य 612 मिलीलीटर बारिश से करीब 2 फीसदी ही ज्यादा है। पहाड़ी इलाकों में भी हर साल बाढ़ या भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं विकराल रूप में सामने आने लगी है।  तो इसके कारणों की समीक्षा बेहद जरूरी है। मोटे तौर पर देखें तो हमने पर्यटन लाभ के लालच में पहाड़ों की सूरत और सीरत बिगाड़ दी है। जंगलों का सफाया कर पहाड़ों पर बनते आलीशान होटलों और बहुमंजिला इमारतों के बोझ तले पहाड़ दबे जा रहे हैं और पहाड़ों पर बढ़ते इसी बोझ का नतीजा है कि वहां बारिश से भारी तबाही और भूस्खलन का सिलसिला बहुत तेजी से बढ़ रहा है। लेकिन इसका सारा दोष हम प्रकृति के माथे पर मढ़कर स्वयं की कमियां खोजने का प्रयास नहीं करते।

प्रकृति ने बारिश को समुद्र तक पहुंचाने का जो रास्ता तैयार किया था हमने विकास के नाम पर या निजी स्वार्थ के चलते उन रास्तों को ही अवरुद्ध कर दिया है। नदी-नाले बारिश के पानी को अपने भीतर सहेज कर शेष पानी को आसानी से समुद्र तक पहुंचा देते थे, किंतु नदी नालों को ही हमने मिट्टी और गंदगी से भर दिया है, जिससे उनकी पानी सहेजने की क्षमता बहुत कम रह गई है। बहुत सारी जगह पर नदियों के इन्हीं क्षेत्रों को आलीशान इमारतों या संरचनाओं में तब्दील कर दिया गया है, जिससे नदी क्षेत्र सिकुड रहे हैं। ऐसे में नदियों में भला बारिश का कितना पानी समाएगा और नदियों से जो अतिरिक्त पानी आसानी से अपने रास्ते समुद्रों में समा जाता था, उन रास्तों के भी अवरुद्ध होने के चलते बारिश का यही अतिरिक्त पानी आखिर कहां जाएगा ? सीधा-सा अर्थ है कि जरा सी ज्यादा बारिश होते ही पानी जगह जगह बाढ़ का रूप लेकर तबाही मचाएगा। बड़े पैमाने पर वनों की कटाई और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के चलते ही इस प्रकार की पारिस्थितिकीयां त्रासदियां पैदा हो रही हैं। फिर भला इसमें प्रकृति का क्या दोष ? सारा दोष तो उस मानवीय फितरत का है जो प्रकृति प्रदत्त तमाम नेमतों में सिर्फ और सिर्फ अपने स्वार्थ तलाशती है।

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क्या है मरुस्थलीकरण और संयुक्त राष्ट्र का काॅप 14 ?

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क्या है मरुस्थलीकरण और संयुक्त राष्ट्र का काॅप 14 ?HindiWaterWed, 09/04/2019 - 13:05
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मरुस्थलीकरण जमीन के अनुपजाऊ हो जाने की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जलवायु परिवर्तन तथा मानवीय गतिवधियों समेत अन्य कई कारणों से शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और निर्जल अर्ध-नम इलाकों की जमीन रेगिस्तान में बदल जाती है। इससे जमीन की उत्पादन क्षमता में कमी और ह्रास होता है। एशियाई देशों में मरुस्थलीकरण पर्यावरण सम्बन्धी एक प्रमुख समस्या है। भारत में निर्जल भूमि के अन्तर्गत गर्म जलवायु वाले शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और अर्द्ध-नम क्षेत्र शामिल हैं। सरल शब्दों में समझे तो मरुस्थलीकरण एक तरह से भूमि क्षरण का वह प्रकार है, जब शुष्क भूमि क्षेत्र निरंतर बंजर होता है और नम भूमि भी कम हो जाती है। साथ ही साथ, वन्यजीव और वनस्पति भी खत्म होती जाती है। इसकी कई वजह होती है, इसमें जलवायु परिवर्तन और इंसानी गतिविधियां प्रमुख हैं। इसे रेगिस्तान भी कहा जाता है और दुनिया का 23 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र मरुस्थलीकरण की चपेट में आ चुका है। भारत की कुल जमीन का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा मरुस्थल बन चुका है। 

विश्व भर में तेजी से मरुस्थलीकरण होने के कारण माना जा रहा है कि वर्ष 2050 तक मरुस्थलीकरण के कारण विश्व की करीब 70 करोड़ की आबादी को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ेगा। मरुस्थलीकरण के कारण न केवल मानवीय जीवन पर प्रभाव पड़ रहा है, बल्कि वन्यजीवों पर भी इससे संकट के बादल मंडरा रहे हैं और उनका जीवन प्रभावित हो रहा है। भूमि के बंजर होने से लगातार खेती का क्षेत्र घटता जा रहा है और भू-क्षरण बढ़ रहा है। जिससे निकट भविष्य अनाज का भीषण संकट गहराने की संभावना जताई जा रहा है। यही कारण है कि पूरी दुनिया मरुस्थलीकरण को लेकर चिंतित है। इसी चिंता ने विश्व के सभी देशों को मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए एकजूट किया और इस संयुक्त राष्ट्र के काॅप 14 सम्मेलन (यूएनसीसीडी) लक्ष्य भी बढ़ते मरुस्थलीकरण को रोकना ही रखा गया तथा भारत पहली बार संयुक्त राष्ट्र के काॅप 14 (यूएनसीसीडी) की मेजबानी भी कर रहा है। 2 सितंबर से 13 सितंबर तक चलने वाले इस सम्मेलन का आयोजन ग्रेटर नाॅएडा में किया जा रहा है, जहां 196 देशों के प्रतिनिधि, बुद्धिजीवि, मीडिया प्रतिनिधि, पर्यावरणविद, छात्र-छात्राएं आदि मरुस्थलीकरण और सूखे पर मंथन करेंगे। दो सितंबर को सम्मेलन के शुभारंभ के अवसर पर केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा कि दुनिया को बढ़ते मरूस्थलीकरण को बचाने के लिए सकारात्मक प्रयास करने होंगे। ऐसा करने से जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन को रोका जा सकता है।

कॉप क्या है ?

काॅप को सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था के रूप में कन्वेंशन द्वारा स्थापित किया गया था। इसमें यूरोपीय संघ जैसे सरकारी और क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण संगठन शामिल हैं। आज तकए ब्व्च् ने तेरह सत्र आयोजित किए थे। यह वर्ष 2001 से आयोजि किया जा रहा है। वर्ष 2017 में चीन के ऑर्डोस में काॅप 13 का आयोजन किया गया था। काॅप का एक मुख्य कार्य पार्टियों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट की समीक्षा करना है कि वे अपनी प्रतिबद्धताओं को कैसे पूरा कर रहे हैं। काॅप इन रिपोर्टों के आधार पर सिफारिशें करता है। इसमें कन्वेंशन में संशोधन करने या नए एनेक्स को अपनाने की शक्ति भी है, जैसे कि अतिरिक्त क्षेत्रीय कार्यान्वयन एनेक्स। इस तरह, काॅप कन्वेंशन को वैश्विक परिस्थितियों और राष्ट्रीय जरूरतों के बदलाव के रूप में मार्गदर्शन कर सकता है। इस वर्ष भारत में काॅप के 14वे सम्मेलन की मेजबानी कर रहा है।

खेती के योग्य बनाने हेतु यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन के साथ समझौता

केंद्र सरकार बंजर जमीन को खेती के योग्य बनाने के लिए यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन के साथ समझौता भी करेगी। केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने सम्मेलन के पहले दिन कहा था कि हमारी सरकार नई दिल्ली डिक्लेरेशन में बताए गए नियम एवं कायदों के मुताबिक इस काम को आगे बढ़ाएंगी।

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क (यूएनएफसीसीसी)

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क (यूएनएफसीसीसी) एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। इसका मुख्य उद्देश्य वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना है। यह समझौता जून 1992 के पृथ्वी सम्मेलन के दौरान किया गया था। इस समझौते पर विभिन्न देशों द्वारा हस्ताक्षर के बाद 21 मार्च 1994 को इसे लागू किया गया था। यूएनएफसीसीसी की वार्षिक बैठक का आयोजन साल 1995 से लगातार किया जा रहा है। यूएनएफसीसीसी की वार्षिक बैठक को कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज (कॉप) के नाम से भी जाना जाता है।

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काॅप 14 : हर मिनट मरुस्थल में तब्दील हो रही 23 हेक्टेयर भूमि

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काॅप 14 : हर मिनट मरुस्थल में तब्दील हो रही 23 हेक्टेयर भूमिHindiWaterWed, 09/04/2019 - 19:21

भारत पर प्रकृति प्रारंभ से ही मेहरबान रही है। भारत की धरती को प्रकृति ने सदानीरा नदियां, तालाब, झील, हिमालय, पर्वत, विशाल चारागाह, रेगिस्तान, समुद्र, विशाल जंगल और सभी प्रकार की जलवायु प्रदान की है। जिस कारण भारत का प्राकृतिक सौंदर्य पूरे विश्व को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। खेती की दृष्टि से भारत की मिट्टी को सोने के समान माना गया है, जिसके उपजाऊपन ने देश को कृषि क्षेत्र में एक अलग ऊंचाई तक पहुंचाया और भारत को कृषि प्रधान देश की ख्याति भी प्रदान की, लेकिन आधुनिकता की दौड़ में अनियमित विकास ने जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ा दिया। विकास के नाम पर प्रकृति को पूरी तरह से नजर अंदाज कर दिया गया। नतीजन भारत की छोटी बड़ी करीब 4500 नदियां सूख गई। साथ ही देश की 30 प्रतिशत जमीन मरुस्थलीकरण की चपेट में आ गई।

दरअसल मरुस्थलीकरण भूमि क्षरण का एक प्रकार है, जिसमें शुष्क भूमि क्षेत्र निरंतर बंजर होता जाता है और नम भूमि भी कम हो जाती है। जिससे वनस्पति खत्म हो जाती है, जिसका प्रभाव वन्यजीवों के अस्तित्व पर भी पड़ता है। यही मरुस्थलीकरण भारत के साथ-साथ पूरे विश्व के लिए चुनौती बन गया है, लेकिन भारत इसकी भयावह चपेट में है और देश की करीब 30 प्रतिशत जमीन मरुस्थल में तब्दील हो चुकी है। जिसमें से 82 प्रतिशत हिस्सा राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू एवं कश्मीर, कर्नाटक, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना राज्यों का है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा जारी ‘स्टेट ऑफ एनवायरमेंट इन फिगर्स 2019’ की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2003 से लेकर वर्ष 2013 के बीच भारत का मरुस्थलीय क्षेत्र 18.7 लाख हेक्टेयर बढ़ा है। तो वहीं दुनिया का 23 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र मरुस्थलीकरण का शिकार हो चुका है और विश्वभर में प्रति मिनट 23 हेक्टेयर भूमि मरुस्थल में तब्दील हो रही है। भारत के सूखा प्रभावित 78 जिलों में से 21 जिलों की 50 प्रतिशत से अधिक जमीन मरुस्थल में बदल चुकी है। वर्ष 2003 से 2013 के बीच देश के नौ जिलो में मरुस्थलीकरण 2 प्रतिशत से अधिक बढ़ा है। आंकड़ों पर नजर डालें तो गुजरात में  04 जिले, महाराष्ट्र में 3, तमिलनाडु में 5, पंजाब में 2, हरियाणा में 2, राजस्थान में 4, मध्य प्रदेश में 4, गोवा में 1, कर्नाटक में 2, केरल में 2 जिले, जम्मू कश्मीर में 5 और हिमाचल प्रदेश में 3 जिले मरुस्थलीकरण की चपेट में है। तो वहीं पंजाब का 2.87 प्रतिशत, हरियाणा का 7.67 प्रतिशत, राजस्थान का 62.9 प्रतिशत, गुजरात का 52.29 प्रतिशत, महाराष्ट्र का 44.93 प्रतिशत, तमिलनाडु का 11.87 प्रतिशत, मध्य प्रदेश का 12.34 प्रतिशत, गोवा का 52.13 प्रतिशत, कर्नाटक का 36.24 प्रतिशत, केरल का 9.77 प्रतिशत, उत्तराखंड का 12.12 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश का 6.35 प्रतिशत, सिक्किम का 11.1 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश का 1.84 प्रतिशत, नागालैंड का 47.45 प्रतिशत, असम का 9.14 प्रतिशत, मेघालय का 22.06 प्रतिशत, मणिपुर का 26.96 प्रतिशत, त्रिपुरा का 41.69 प्रतिशत, मिजोरम का 8.89 प्रतिशत, बिहार का 7.38 प्रतिशत, झारखंड का 66.89, पश्चिम बंगाल का 19.54 प्रतिशत और ओडिशा का 34.06 प्रतिशत  क्षेत्र मरुस्थलीकरण से प्रभावित है। 

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यही सब चुनौतियों को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन काॅप 14 (यूएनसीसीडी) की मेजबानी भारी कर रहा है, जिसमें करीब 196 देश प्रतिभाग कर रहे हैं। सम्मेलन का आयोजन ग्रेटर नाॅएडा किया हो रहा है, जिसमें मरुस्थलीकरण बचने के उपायों पर मंथन किया जा रहा है, लेकिन सबसे अधिक मंथन हमें अपनी जीवनशैली में बदलाव के लिए करना चाहिए। क्योंकि आज प्रकृति के जिस भी प्रकार का खिलवाड़ किया जा रहा है, वह हमारी जीवनशैली के कारण ही है, जिसमें संसाधन भोगी अधिक हो गए हैं। इन संसाधनों को जुटाने ही होड में इंसान अपने अस्तित्व के लिए सबसे ज्यादा जरूरी ‘पर्यावरण’ को ही भूल गया है। जिस कारण लोगों की संसाधन भोगी इन आदतों ने इंसानों के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है। इसलिए लोगों में जागरुकता के लिए काॅप जैसे सम्मेलनों का होना आवश्यक है। साथ ही इनका धरातल पर असर भी दिखना चाहिए। 

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काॅप 14 : 30 प्रतिशत जमीन पर नहीं उग रहा अनाज का एक भी दाना

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काॅप 14 : 30 प्रतिशत जमीन पर नहीं उग रहा अनाज का एक भी दानाHindiWaterThu, 09/05/2019 - 10:17
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अच्छी खेती के लिए हर किसान चाहता है कि बारिश हो, लेकिन जब बारिश होती है तो फसल बहने से उसके हाथ निराशा लगती है। जिस कारण मानसून से पहले किसान अच्छी बारिश की उम्मीद तो लगाते हैं, लेकिन कई इलाकों में राहत की ये बारिश किसानों के लिए आफत बनकर बरसती है। इससे किसानों में बारिश को लेकर डर ने भी जगह बना ली है। यही डर महाराष्ट्र के धुले जिले में स्थित सकारी ब्लाॅक के दरेगांव में रहने वाले 35 वर्षीय चौरे का है।

सह्याद्री पर्वत श्रृंखला का क्षेत्र बंजर जमीन और पेड़ों की कमी के लिए जाना जाता है। चौरे का इसी पर्वत श्रृंखला की ढलान पर चौरे का 1.5 हेक्टेयर खेत है। यहां सालाना औसतन बारिश राजस्थान से थोड़ी-सी अधिक (674 मिमी) होती है, लेकिन ये बारिश चौरे के लिए परेशानी बन जाती है। दरअसल चौरे के खेत के आसपास के इलाके की ज़मीन काफी उथली है। जब बारिश होती है तो पहाड़ी ढलानों से बहकर आने वाला पानी मिट्टी की ऊपरी परत के साथ ही पौधों को भी बहाकर ले जाता है। चौरे बताते हैं कि वर्ष 2018 में उन्हें दो बार पौधे लगाने पड़े थे। पहले सोयाबीन लगाई, लेकिन बारिश में सोयाबीन की फसल बहने के बाद बाजरा (मोती बाजरा) की फसल लगानी पड़ी।  संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के अनुसार, ये मरुस्थलीकरण के स्पष्ट संकेत हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें ............

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काॅप 14: बंजर हो रही झारखंड की 50 प्रतिशत भूमि

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काॅप 14: बंजर हो रही झारखंड की 50 प्रतिशत भूमिHindiWaterThu, 09/05/2019 - 11:12
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झारखंड मरुस्थलीकरण के भयानक संकट से गुजर रहा है। राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का करीब 50 प्रतिशत हिस्सा बंजर हो रहा है। अहमदाबाद स्थित अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र के एटलस के मुताबिक झारखंड के भौगोलिक क्षेत्र का 50 प्रतिशत हिस्सा बंजर और भूमि-निम्नीकरण के अंतर्गत आता है। गिरिडीह जिले को 73.79 प्रतिशत हिस्सा भूमि निम्नीकरण की चपेट में है। राज्य की जनसंख्या काफी बढ़ी है। घने वन क्षेत्र में गिरावट आई है।

गिरिडीह ब्लाॅक में स्थित बरकीटांड गांव पिछले दस वर्ष में सभी कुएं और नलकूप सूख गए हैं। राज्य का भूजल स्तर दस मीटर तक चला गया है। पानी के लेकर गांव के लोगों को अक्सर टकराव की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है। दरअसल झारखंड में मिट्टी कटाव के लिए लहरदार भौगोलिक स्थिति एक प्रमुख कारक है और राजस्थान, दिल्ली, गुजरात और गोवा के अलावा झारखंड उन पांच राज्यों में शामिल है, जहां कुल भौगोलिक क्षेत्र का .........

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काॅप 14: दो डिग्री तापमान बढा तो गहराएगा भोजन का संकट

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काॅप 14: दो डिग्री तापमान बढा तो गहराएगा भोजन का संकटHindiWaterThu, 09/05/2019 - 15:31
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दो डिग्री तापमान बढा तो गहराएगा भोजन का संकट।दो डिग्री तापमान बढा तो गहराएगा भोजन का संकट।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती लगातार गर्म हो रही है, जिसने इंसानों के साथ-साथ जीव-जंतुओं की समस्या को बढ़ा दिया है, लेकिन इस वर्ष गर्मी ने हद ही हर दी। बीते माह अगस्त में गर्मी ने दिल्ली एनसीआर में अपने सख्त तेवर दिखाएं और पिछले पांच सालों का रिकाॅर्ड तोड़ दिया। अगस्त में सामान्य से चार डिग्री ज्यादा यानी 38.4 डिग्री तापमान दर्ज किया गया। पिछले दस सालों की बात करें तो 27 अगस्त 2014 को पारा 39.4 डिग्री और 3 अगस्त 2011 को 38.2 डिग्री दर्ज किया गया था। वर्ष 2014 में भी अगस्त में 38 डिग्री से अधिक तापमान रहा, लेकिन इस बार गर्मी का पांच साल पुराना रिकाॅर्ड टूट गया।

दरअसल प्रकृति का अनियमित दोहन करने के कारण धरती लगातार गर्म हो रही है। जिस कारण ग्लेशियर लगातार पिछलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। निकटवर्ती द्वीप धीरे धीरे समुद्र में समा रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद भी लोग सबक नहीं ले रहे है, जिसका खामियाजा आने वाले वर्षों में सभी को उठाना पड़ेगा।  वैश्विक ताप से जमीन पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में बताया गया है कि यदि सदी के अंत तक तापमान में दो डिग्री की बढ़ोतरी हुई तो शुष्क भूमि पर बसे 115.2 करोड लोगों के लिए जल, भोजन और जमीन का संकट पैदा हो जाएगा। यदि तापमान में बढ़ोतर 1.5 डिग्री की भी होती है तो 96.1 करोड़ लोगों .........

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