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कृषि सम्बन्धी सुधारों के लिए रोडमैप

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कृषि सम्बन्धी सुधारों के लिए रोडमैपHindiWaterThu, 10/17/2019 - 10:53
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कुरुक्षेत्र, अक्टूबर 2019

फोटो-developmentnews.in

भारत में कृषि का भविष्य कृषि अनुसन्धान एवं विकास में वर्तमान में कितना निवेश किया जा रहा है, उस पर निर्भर करता है। कृषि अनुसन्धान एवं विकास क्षेत्र में नूतन प्रयोग करने की आवश्यकता है जिससे सूक्ष्म कृषि, उच्च पोषक और प्रसंस्कृत किए जाने वाली किस्में, जलवायु प्रतिरोधक प्रौद्योगिकियाँ, कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित कृषि और बाजार परामर्शों के लिए साइबर कृषि भौतिक प्रणालियाँ विकसित हो सकें।

1990 के सुधारों के बाद सभी क्षेत्र समय के साथ आगे बढ़े लेकिन कृषि क्षेत्र सुधारों में पिछड़ गया। सरकारों द्वारा शुरू किए गए कई सुधार विभिन्न कारणों से वापस ले लिए  गए। नतीजतन, कृषि क्षेत्र तो उन्नत हुआ पर किसानों को नुकसान उठाना पड़ा। 2014 के बाद इसे फिर से मजबूती प्रदान की गई है जिसकी गति और अधिक बढ़नी चाहिए। सरकारी एजेंसियों का मुख्य कार्य सुधारों की व्यापक स्वीकृति के लिए एक अनुकूल वातावरण तैयार करना है। इसके लिए तीन चीजों- जानकारी, बुद्धिमता और पारस्परिक विचार-विमर्श की आवश्यकता है।

प्रधानमंत्री द्वारा एक उच्च स्तरीय समिति के गठन के साथ, भारतीय कृषि में परिवर्तन का दौर शुरू हो गया है और 2014 में शुरू किए गए सुधारों का एजेंडा मुखर हो गया है। इस समिति में 7 राज्यों- महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा, अरुणाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण, ग्रामीण विकास और पंचायती राजतंत्र तथा सदस्य सचिव के रूप में नीति आयोग के सदस्य शामिल हैं, कृषि और उससे सम्बद्ध क्षेत्रों की भारत में किसी भी विकास योजना प्रक्रिया में अहम भूमिका है क्योंकि ये रोजगार के अवसर मुहैया करवाते हैं, खाद्यान्न और खाद्य सुरक्षा प्रदान करते हैं और चीनी, कपड़ा, हर्बल, खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों के लिए कच्चा माल सुनिश्चित करते हैं, जिनमें लोगों को बड़ी संख्या में स्तरीय रोजगार मिलते हैं। कृषि के लिए बजटीय आवंटन लगातार बढ़ रहा है। हालांकि, मौसमी उतार-चढ़ाव के कारण कृषि जीडीपी में वृद्धि कुछ कम रही। कई बार मानव-मशीन-पशु के हितों में टकराव के चलते संसाधन, उत्पाद और लोग परेशानी का सामना करते हैं। उत्पादकों को उत्पादन और कीमत के झटके मिल रहे हैं। और वे निवेश वस्तुओं की बढ़ती कीमतों और स्थापित बाजार प्रणालियों में पारिश्रमिक के अनुरूप कीमतों के न मिलने से एक कशमकश में जी रहे हैं। किसानों के इस कष्ट को कम करने के लिए सरकार ने प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना शुरू की, जिसके तहत प्रत्येक कृषक परिवार को प्रति वर्ष 6000 रुपए मिलेंगे। सुधारों के अन्तर्गत  कम मूल्य वसूली, व्यापार में अत्यधिक मध्यस्थता और बुनियादी ढांचे के विकास में बेहद कम निजी निवेश ( 2 प्रतिशत) ऐसे प्राथमिकता वाले क्षेत्र  हैं जिन्हें सभी हितधारकों के ठोस प्रयासों की आवश्यकता है। बुनियादी ढांचे में भी वृहद अन्तर एक गम्भीर समस्या है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। कोल्ड चेन विकास के राष्ट्रीय केन्द्र ने पैक हाउसों में 99 प्रतिशत, रेफर वैन में 85 प्रतिशत, कोल्ड स्टोरेज में 10 प्रतिशत और राईपिंग कक्षों में 91 प्रतिशत के अन्तर का अनुमान लगाया है। इसी तरह 463 कि.मी. पर एक बाजार का होना, 78 कि.मी पर एक बाजार के मानक से बहुत कम है।
 
नीतियों में परिवर्तन

पिछले 5 वर्षों के दौरान नीतियों और प्राथमिकताओं में बदलाव देखा गया है। 2035 तक भारत की आबादी 1.6 बिलियन
होगी। भूमि, जल और अन्य सीमित प्राकृतिक संसाधनों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता घट जाएगी और जलवायु परिवर्तन के कारण जल उपलब्धि पर भी असर पड़ेगा। खाद्यान्न की माँग 2033 तक अनुमानतः 340-356 मिलियन टन से अधिक होगी (नीति आयोग, 2018) और ऐसी ही वृद्धि अन्य वस्तुओं की माँग में भी होगी। ऐसा ही चलते रहने से कृषि में 3-4 प्रतिशत की वृद्धि होगी जिससे कुछ होने वाला नहीं है। कृषि योजना में परिवर्तन लाना होगा जिससे वह सतत रूप से लाभदायक बने और ऐसा उत्पादन कृषि व्यवसाय, मूल्य श्रृंखला, निवेश और अभिशासन को कृषि सुधारों की मुख्यधारा में लाकर सम्भव हो सकेगा। कृषि के लिए बनाई जाने वाली नीतियों और निवेश प्राथमिकताओं को आय सुरक्षा और समावेशिता के अनुरूप होना चाहिए। अनुदान की कमी से जूझते वर्षा-आधारित क्षेत्रों में जल से सम्बन्धित सकारात्मक परियोजनाओं के लिए निवेश को बढ़ाया जाना चाहिए। भागीदारी भूजल प्रबन्धन के साथ-साथ सूखे से बचाव की आवश्यकता है जिसके लिए व्यापक सहायक सिंचाई के ढांचे में निवेश के अलावा भूजल और सतही जल निकायों का संयोजन किया जाना चाहिए। अनुमानों के अनुसार वर्षासिंचित क्षेत्रों की क्षमता को 12-15000 रुपए/ हेक्टेयर के मौजूदा निवेश के मुकाबले 50,000 रुपए/हेक्टेयर तक बढ़ाकर बेहतर बनाया जा सकता है। खाद्यान्न और पोषण, आय सुरक्षा, गरीबी घटाने, व्यापार में वृद्धि और कृषि एवं कृषि से सम्बन्धित गतिविधियों में संलग्न लोगों की आय को बढ़ाने के लिए एक बहु-क्षेत्रीय और कनेक्टिविटी-आधारित विकास की आवश्यकता है।
 
अनुसंधान और प्रौद्योगिकी

भारत में कृषि वस्तुओं की उत्पादकता किसी भी वैश्विक मानक से बहुत कम है। इसके कई कारण हैं, जिनमें से प्रमुख हैं, बेहतर किस्म के बीज और उर्वरक आदि तथा उन्नत टेक्नोलॉजी का कम उपयोग। लगभग आधे कृषि क्षेत्रों में पानी की कमी के कारण कई फसलों की खेती नहीं हो पाती, जिससे भूमि संसाधनों का प्रभावी उपयोग नहीं हो पाता है। कई देशों की तुलना में हम लगभग सभी वस्तुओं में एक ही श्रेणी के आर्थिक उत्पादन में बहुत अधिक जल की मात्रा की खपत करते हैं। दोहरी फसल से किसान की आमदनी काफी हद तक बढ़ जाती है (मिश्रा, 2003)। सार्वजनिक क्षेत्र की प्रयोगशालाओं में विकसित तकनीक का अधिकांश भाग कमजोर कृषि विस्तार प्रयासों या अपर्याप्त वितरण तंत्र के कारण किसानों तक नहीं पहुँच पाता है। देश में सार्वजनिक क्षेत्र के अनुसंधान के सामने अनुदान की कमी है और वैज्ञानिक और निजी क्षेत्र के सामने नियमों और बौद्धिक सम्पदा अधिकारों की रुकावटें हैं। कुछ फसलें जैसे तिलहन और दलहन में, जहाँ परम्परागत प्रजनन के साथ वांछित आनुवांशिक वृद्धि सम्भव नहीं हो पाई है, वहाँ जीएम प्रौद्योगिकियों का प्रयोग कर के नवीन किस्मों/ संकरों का विकास आवश्यक है। साथ ही, रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल को कम करने के प्रयासों पर नए सिरे से ध्यान केन्द्रित करने के लिए कुछ नए प्रकार के पौधों और पौधों की जड़ और सूक्ष्मजीव सहजीविता की आवश्यकता होती है जो पहले से उपलब्ध फास्फोरस और अन्य पोषक तत्वों को मिट्टी से जुटा सकें। जीएम तकनीक विभिन्न जलवायु परिवर्तनों से उत्पन्न होने वाले संकटों को रोकने में भी उपयोगी हो सकती है। इसलिए, सरकार जीईएसी (जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल समिति) द्वारा उचित अनुमोदन के बाद ही जीएम प्रौद्योगिकियों के अनुसंधान और विकास की अनुमति देने पर विचार कर सकती है। बीज और बीज अनुसंधान के प्रयासों और सूक्ष्मजीवों और जीवाणुओं से सम्बन्धित सह-व्यवस्थाओं, जैव सरोपण, जैवप्रेरकों आदि से सम्बन्धित नए नियमनों की आवश्यकता है क्योंकि ये न तो आम रासायनिक उत्पाद हैं और न ही कीटनाशक हैं, लेकिन इनके व्यावसायीकरण के लिए लाइसेंस की आवश्यकता है। व्यावसायीकरण के लिए ऐसे नियमनों/ सामग्रियों की सुगमता निश्चित करने के लिए सम्बन्धित अधिनियमों में मानकों और विस्तृत विवरणों को अन्तनिर्हित किया जा सकता है।
 
कृषि अनुसंधान पर वर्तमान निवेश कृषि-जीवीए यानी सकल मूल्य संवर्धन की वर्तमान कीमतों का 0.58 प्रतिशत है। भारत में कृषि का भविष्य कृषि अनुसंधान एवं विकास में वर्तमान में कितना निवेश किया जा रहा है, उस पर निर्भर करता है। कृषि अनुसंधान एवं विकास को नूतन प्रयोग करने की आवश्यकता है जिससे सूक्ष्म कृषि, उच्च पोषक और प्रसंस्करण किए जाने वाली किस्में, जलवायु प्रतिरोधक प्रौद्योगिकियाँ, कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित कृषि और बाजार परामर्शों के लिए साइबर कृषि भौतिक प्रणालियाँ विकसित हो सकें। जल प्रशासन और जल सम्भावनाओं को खोजने के लिए विकासात्मक अनुसंधान की अति आवश्यकता है। अग्रणी क्षेत्र जैसे जीन सम्पादन, जीनोमिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, नैनो टेक्नोलॉजी जिनसे चौथी औद्योगिक क्रान्ति का सूत्रपात हो रहा है, पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। ये पूँजी-प्रधान अनुसंधान हैं और इसलिए सरकार को कृषि अनुसंधान एवं विकास में कृषि जीडीपी के कम-से-कम एक प्रतिशत निवेश पर विचार करना चाहिए।
 
जल प्रशासन

चूँकि कृषि में लगभग 84 प्रतिशत ताजे पानी का उपयोग किया जाता है इसलिए भारत में जल की माँग और आपूर्ति प्रबंधन में सुधारों की आवश्यकता है। जल की कमी वाले देश भारत में वार्षिक जल उपलब्धता 1544 मी3., प्रति व्यक्ति है और यह भीषण अभाव (<1000 मी3. प्रति व्यक्ति) की ओर बढ़ रहा है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड के 6607 इकाइयों (ब्लॉक/मंडल/तालुकों) के अध्ययन से यह ज्ञात हुआ है कि इनमें से 16.2 प्रतिशत ‘अति दोहन’ की श्रेणी में आती हैं और 14 प्रतिशत या तो ‘संकटमय’ स्थिति में या ‘आंशिक रूप से संटमय’ स्थिति में हैं। उनमें से अधिकांश उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि बड़े पैमाने पर सार्वजनिक सिंचाई प्रणाली की वितरण विफलताओं से बचने के लिए किसान के पास भूजल एक बचाव-तंत्र के रूप में उपलब्ध नहीं है। क्षमताओं का सृजन और उनके उपयोग के बीच का बड़ा अन्तर चिन्ता का विषय रहा है क्योंकि 112.53 मिलियन हेक्टेयर सृजित सिंचाई क्षमता में से केवल 89.26 मिलियन हेक्टेयर का उपयोग किया जाता है (नीति आयोग, 2016)। सभी जल निकायों और जलाशयों की व्यापक जानकारी के आधार पर कार्यक्रमों और एजेंसियों के बीच एक सशक्त तालमेल ही इसका निवारण करक सकता है। सौभाग्यवश सरकार ने प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के माध्यम से कृषि, जल संसाध, भूमि संसाधन और जल से सम्बद्ध अन्य विभागों के कार्यक्रमों के बीच तालमेल पर व्यापक नियंत्रण रखा है। प्रधानमंत्री के जल-संरक्षण और इसके प्रभावी उपयोग के लिए आह्वान के बाद इसे और अधिक महत्व मिलना चाहिए। जलशक्ति अभियान को इन मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए। माइक्रो-इरिगेशन यानी सूक्ष्म सिंचाई क्षेत्र में एक बड़े सुधार की आवश्यकता है, जो इसे मात्र किसान सब्सिडी संचालित कार्यक्रम से क्षेत्र-आधारित सार्वजनिक-निजी व्यापार मॉडल में परिवर्तित करे और जिसमें सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों का निर्माण, मरम्मत और रखरखाव शामिल हो। राज्यों को सूक्ष्म सिंचाई के लिए नाबार्ड में स्थापित 5000 करोड़ के कोष के माध्यम से ऐसे मॉडलों को प्रोत्साहित करना चाहिए। हरियाणा और कर्नाटक राज्यों में ऐसी प्रायोगिक परियोजनाओं का अध्ययन किया जा सकता है और अन्य स्थानों पर उन्हें अमल में लाया जा सकता है। जल प्रशासन को एक मजबूत प्रशुल्क व्यवस्था के आधार पर सूक्ष्म सिंचाई और जल आय-व्यय प्रणाली पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। कृषि को मुफ्त बिजली देने से सम्बन्धित नीति के स्थान पर एक मीटरिंग प्रणाली लाई जानी चाहिए जैसाकि गुजरात में किया गया है।
 
उर्वरक क्षेत्र में सुधार

शून्य बजट प्राकृतिक खेती की मजबूत हिमायत हाल के दिनों में देखी गई है जिस पर वैज्ञानिक समुदाय में प्रश्न उठे थे। उर्वरक पर सब्सिडी 2018-19 में 70079.85 करोड़ तक पहुँच गई। उर्वरक क्षेत्र में सुधार अनिवार्य हैं। माइक्रोबियल कंसेर्टिया, बायोस्टिमुलेंट, बायो कम्पोस्ट, प्लांट ग्रोथ प्रमोटरों आदि जैसे पोषण के वैकल्पिक स्रोतों और उनके विनिर्देशों को उचित रूप से उर्वरक (नियंत्रण) आदेश, 1985 और कीटनाशक अधिनियम, 1968 में शामिल किया जाना चाहिए ताकि उनके व्यापार और व्यावसायीकरण को बढ़ावा दिया जा सके जिससे इन वैकल्पिक स्रोतों द्वारा रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल घटाया जा सके। हालांकि उर्वरक सब्सिडी को समाप्त करने के सम्बन्ध में अभी तक कोई निर्णय नहीं किया जा सका है, फिर भी इस व्यवस्था का युक्तिकरण आवश्यक है। सभी प्रमुख पोषक तत्वों के लिए एनबीएस (न्यूट्रीएंट बेस्ड सब्सिडी) शुरू करने की व्यवस्था जल्दी-से-जल्दी विकसित की जानी चाहिए। उर्वरकों में डीबीटी को एक बड़ी सफलता मिली है। मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना एक अनूठी योजना है जिसकी हर खेतिहर परिवार में 100 प्रतिशत पहुँच है। 216 मिलियन से अधिक मृदा स्वास्थ्य कार्ड चक्र I और II (चित्र 1) में वितरित किए गए हैं। मृदा स्वास्थ्य कार्ड में अगले स्तर के सुधार में इसमें एकीकृत मृदा स्वास्थ्य देखरेख प्रणाली शामिल होनी चाहिए जिसके अन्तर्गत किसानों के भूमि आकार के अनुरूप उर्वरक की आवश्यकता के साथ फसलों के आंकड़ों और फसल पद्धतियों को शामिल किया जाना चाहिए। उर्वरक वितरण (प्रकार में) या उर्वरक सब्सिडी (नकदी में) को इस एकीकृत मृदा स्वास्थ्य देखरेख आंकड़ा प्रणाली के साथ जोड़ा जा सकता है।
 
जोखिम प्रबन्धन

जनवरी 2016 में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) को शुरू किया गया जिसमें अनेक पूर्ववर्ती बीमा योजनाओं का विलय हुआ। खरीफ मौसम 2017 तक इससे 2.81 करोड़ किसानों को लाभ पहुँचा, जिसमें प्रति किसान को औसतन 11881.70 रुपए मिले (तालिका-1) हालांकि, इस योजना की असली चुनौती समायोचित और सटीक अनुमान तथा भुगतान है। बीमाकृत क्षेत्र के रिकॉर्ड की दुरुस्ती और नुकसान की व्यापकता और मात्रा तथा उसके अनुरूप शीघ्र भुगतान एक चुनौती है। अब तक राज्य फसल कटाई प्रयोगों (सीसीई) के आंकड़ों को मानते हैं। इसलिए, फसल कटाई प्रयोगों की पर्याप्त संख्या का आयोजन करना महत्त्वपूर्ण है और साथ ही यह प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की सफलता के लिए सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण है। राज्य को अपनी नीतियों में सुधार लाने होंगे और बीमाकृत क्षेत्र तथा नुकसान के फील्ड-स्तर के आकलन के लिए रिमोट सेंसिंग, ड्रोन, स्मार्ट फोन इत्यादि जैसी तकनीकों को एक प्रभावी और स्वीकृत माध्यम के रूप में अपनाना होगा।
 
आवश्यकता अनुरूप ऋण
 
सारंगी समिति (2016) की सस्ते कर्ज पर सिफारिशें सरकार द्वारा लागू की गई हैं। तीन लाख रुपए तक के अल्पकालिक फसली ऋण पर सस्ती ब्याज दर और किसान क्रेडिट कार्ड योजना के आधार को व्यापक बनाया गया है जिसमें सावधि ऋण और उपभोग की जरूरतों के अलावा आकस्मिक मृत्यु पर जोखिम कवर भी शामिल हैं। ऋण लक्ष्य और उपलब्धता बढ़ रही है (चित्र 2) लेकिन किसानों और क्षेत्रों के बीच ऋण का समान वितरण चिन्ताजनक है क्योंकि कई राज्यों में छोटे और सीमांत किसानों के कारण धन ऋण देने वाले लोग फल-फूल रहे हैं। संस्थागत ऋण किराएदारों या पट्टेदार किसानों को भी उपलब्ध नहीं है। सामान्य तौर पर पट्टेदार को संस्थागत ऋण राहत प्रदान नहीं की जाती है, हालांकि पट्टे के तहत संख्या और आनुपातिक क्षेत्र समय के साथ बढ़ रहा है। राज्यों को नीति आयोग द्वारा तैयार किए गए कृषि भूमि पट्टे पर मॉडल अधिनियम 2016 के आधार पर अपने भूमि पट्टे सम्बन्धी कानूनों में सुधार करना चाहिए जिससे किराएदारों को संस्थागत कृषि ऋण के तहत मुख्यधारा में लाने में मदद मिलेगी जिसका प्रावधान सरकार ने 2018-19 के बजट में किया है। से क्षेत्रों में जहाँ ग्रामीण बैंक कम संख्या में हैं, बैंकिंग सुविधादाता के रूप में बैंकिंग की वैकल्पिक प्रणाली को मजबूत किया जाना चाहिए। अल्पकालिक फसल ऋण का लाभ उठाने के लिए बैंकिंग प्रक्रियाओं में सुधार की आवश्यकता है जिसमें कम-से-कम कागजी कार्यवाई होने से बहुत मदद मिलेगी।
 
निर्देशित विविधिकरण
 
खेतिहर परिवारों का 86 प्रतिशत भाग छोटे और सीमान्त किसानों का है जिनके पास कृषि क्षेत्र का 45 प्रतिशत भाग है, लेकिन वे अपने उत्पादन का केवल 12 से 33 प्रतिशत ही बेचते हैं। असल में केवल खेती करने से इन किसानों की आमदनी कभी नहीं बढ़ सकती। वर्ष 2013-14 के उत्पादन आंकड़ों (सीएसओ 2013-14) के मूल्य से पता चलता है कि प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन में अनाज द्वारा 0.38 लाख रुपए, दालों द्वारा 0.29 लाख रुपए और तिलहनों द्वारा 0.49, लाख रुपए के मुकाबले फल और सब्जी की फसलों का 3.30 लाख रुपए का उत्पादन होता है। सामान्य कृषि फसलों की खेती से फल और सब्जियों की खेती की ओर रुख करके कृषि उत्पादन का मूल्य काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है। आन्ध्र प्रदेश, गुजरात में पिछले 15 वर्षों के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी में तेजी से गिरावट को श्रेय विविध खेती को जा सकता है। पिछले कुछ समय में, पशुधन क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव देखा गया है (तालिका-2)। निर्देशित विविधीकरण केवल तभी हो सकता है जब किसानों को अपने उत्पादन को, जिसे वे चाहें, बेचने का पूरा अधिकार दिया जाए। अनुबंध कृषि की सुचारू कार्यप्रणाली किसान को सुनिश्चित मूल्य और साथ ही आवश्यक तकनीकि सहायता प्रदान करने की दिशा में कुछ आगे ले जाएगी। इनपुट डीलरों, एफपीओ, एग्रो-प्रोसेसरों, निर्यातकों, वित्तिय सेवा प्रदाताओं, बीमा एजेंसियों आदि को किसानों के साथ उद्यमियों के रूप में काम करने के लिए जुड़ना चाहिए। अनुबंध कृषि, प्रशुल्क और कर व्यवस्था में सुधार, कृषि में व्यावसायीकरण लाने के लिए अति महत्त्वपूर्ण है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के विकास को सुगम बनाने वाली नीतियाँ उच्च मूल्य वाली वस्तुओं की बाजार में माँग बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित होंगी।

तालिका-1 2016-18 के दौरान प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना

बीमित किसानों की संख्या

9.20 करोड़

बीमित क्षेत्र

9.03 करोड़ हेक्टेयर

बीमित राशि

333355 करोड़

भुगतान किया गया दावा

33387.7 करोड़

लाभान्वित किसानों की संख्या

2.81 करोड़

प्रति किसान औसत भुगतान

1188.17 करोड़

फसल कटाई उपरान्त प्रबन्धन
 
फसल कटाई के बाद होने वाली वार्षिक क्षति अनुमानतः 92651 करोड़ रुपए है (आइसीएआर 2015) स्टॉक होल्डिंग और भंडारण से सम्बन्धित आवश्यक वस्तु अधिनियम में सुधार से इस क्षति को काफी हद तक घटाया जा सकता है। सरकार ने इसे स्वीकारा है और प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त मुख्यमंत्रियों की उच्चाधिकार प्राप्त समिति के लिए विचारणीय विषयों में से एक के रूप में शामिल किया गया है। कृषि, खाद्य प्रसंस्करण  और वाणिज्य के बीच बेहतर तालमेल भी आवश्यक है। कृषि निर्यात नीति एक नई शुरुआत है, जिसे टेक्नोलॉजी और अहम सुधारों के साथ मजबूत किया जाना चाहिए जिससे प्रसंस्कृत की जाने वाली फसल की किस्मों और उत्पादों को विकसित करने में अधिक निवेश आकर्षित किया जा सके। (ई-नाम) और ग्राम (ग्रामीण कृषि बाजार) की पहलों के भी दूरगामी परिणाम होंगे। सरकार को दो प्रतिस्पर्धी बाजार प्रणालियों को विकसित करना चाहिए- एक को एपीएमसी के माध्यम से विकसित करना चाहिए, और दूसरे को एकीकृत मूल्य शृंखला मॉडल के माध्यम से। छोटे उत्पादकों को मूल्य शृंखला में शामिल करने के लिए एफपीओ/ संयुक्त देयता समूहों को बढ़ावा दिया जा सकता है।
 
मूल्य निर्धारण की चुनौती
 
न्यूनतम समर्थन मूल्य का अमलीकरण कभी भी उत्पाद उत्पादनकर्ता और भौगोलिक क्षेत्रों के लिए समावेशी नहीं रहा है। इसने कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पानी की अति खपत वाली फसलों के उत्पादन के तरीकों के पक्ष में बदलावों को प्रेरित किया जिससे भूजल पर प्रतिकूल असर पड़ा और परिणामस्वरूप खेती के तरीकों और किसानों की य में क्षेत्रीय पूर्वाग्रह पैदा हुए। आज सभी राज्यों के किसान चावल और गेहूँ जैसे सभी प्रमुख कृषि जिंसों के लिए मूल्य गारंटी की माँग कर रहे हैं। सरकार ने बजट 2018-19 में, उत्पादन लागत का 1.5 गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य शुरू करने की घोषणा की थी। हालंकि सी 2 या ए 2 + एफएल लागत का 1.5 गुना बहस का विषय है, सुधारों को भौतिक खरीद के वैकल्पिक तंत्र की ओर उन्मुख होना चाहिए। नीति आयोग और कृषि मंत्रालय ने राज्यों के साथ परामर्श से वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में मूल्य न्यूनता भुगतान प्रणाली और निजी स्टॉकिस्ट खरीद प्रणाली का सुझाव दिया। इन्हें जल्द से जल्द चालू किया जा सकता था। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की प्राथमिकताओं के मद्देनजर तिलहन, कपास जैसी वस्तुओं को पहले लिया जा सकता है। राज्यों को अपने मॉडल कृषि और पशुधन विपणन (एपीएलएम) अधिनियम, 2017 के आधार पर अपने कृषि उत्पाद बाजार समिति कानूनों को भी लागू करना चाहिए ताकि गैर-मंडी के लेनदेन को सुगम बनाया जा सके, खराब होने वाले उत्पादों पर बाजार शुल्क में छूट मिल सके और इलेक्ट्रॉनिक विपणन आदि में आसानी हो। अनुबन्ध कृषि जिसके तहत खरीदार किसान को आधुनिक टेक्नोलॉजी, बेहतरीन उत्पादन समाग्री, अन्य सहायता और एक सुनिश्चित मूल्य प्रदान कर सकें, एक सम्भावित समाधान है। मई, 2018 में सरकार ने किसानों को उनके उत्पादों की कीमत निर्धारित करने और प्रायोजक के साथ मोल-भाव तय करने का अधिकार देने के लिए अनुबन्ध कृषि पर मॉडल अधिनियम की शुरुआत की। राज्यों को मॉडल अधिनियम के आधार पर उपयुक्त अनुबंध कृषि अधिनियम लागू करना चाहिए।
 
भारतीय किसानों को प्रतिस्पर्धी बनाना
 
भारतीय किसानों को गुणवत्तापूर्ण उत्पादन और कीमत के लिए विश्व-स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए उद्यमी निजी क्षेत्र को बड़े पैमाने पर कृषि के लिए और कृषि में निवेश के लिए मुख्यधारा में लाना चाहिए। उदारीकरण के बाद से, निजी क्षेत्र ने कुछ क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण निवेशों में मदद की जिसके चलते उन क्षेत्रों ने गुणवत्ता वाले रोजगार पैदा किए हैं और किसानों को अतिरिक्त आय प्रदान की है। मुर्गीपालन क्षेत्र एक ऐसा उदाहरण है जो एक सुव्यवस्थित उद्योग के रूप में विकसित हुआ। व्यावसायिक सब्जी उत्पादन धीरे-धीरे प्रगति की राह पर अग्रसर हैं, हालिया समय में कुछ राज्यों में पॉलीहाउस और उच्च तकनीक बागवानी तथा मत्स्य पालन का विस्तार, सतत आपूर्ति शृंखलाओं में जो प्राथमिक उत्पादकों को व्यवहार्य बाजारों से जोड़ती है, में छोटे और मध्यम निवेशों का परिणाम हैं। आईसीटी क्रान्ति ने किसानों और उत्पादकों को बेहतर पद्धतियों को सीखने और अपनाने और बाजार की जानकारी हासिल करने में सक्षम बनाया है। निजी क्षेत्र को यह संकेत दिया जाना चाहिए कि कुछ काम उनके निवेश के बिना नहीं हो सकते हैं जबकि सरकार की अपनी नीतियों और शासन के साथ आगे बढ़ते रहना चाहिए और सार्वजनिक धन द्वारा वंचित क्षेत्रों और लोगों तक पहुँचने के प्रयास करते रहने चाहिए। निजी क्षेत्र को भारी जोखिम और उच्च सम्भावनाओं वाली परियोजनाओं में निवेश में भागीदारी के लिए प्रोत्सहित किया जा सकता है। कृषि में अधिक निवेश लाने के लिए जीएसटी में उपयुक्त संशोधनों को लाया जा सकता है। नीतिगत रूप से एनएबीएल द्वारा मान्यता-प्राप्त आधुनिकतम खाद्य परीक्षण प्रयोगशालाओं को सभी प्रमुख बन्दरगाहों पर स्थापित किया जा सकता है जो गुणवत्ता मानकों को परीक्षण करेंगे और विदेशी बाजार में भारतीय ब्रांडों को स्थापित करेंगे। निर्यात प्रतिबंध, आयात उदारीकरण, आदि के रूप में व्यापार नीति में लगातार बदलाव घरेलू कीमतों में गिरावट के माध्यम से कृषि क्षेत्र को बहुत नुकसान पहुँचाता है। इन नीतियों में जमीनी हालात में बदलाव की प्रतिक्रिया के रूप में तुरन्त बदलाव नहीं किया गया। एक निर्दिष्ट अवधि के लिए सुसंगत नीति व्यवस्था भारत को कृषि वस्तुओं के एक अच्छे खरीदार और विक्रेता के रूप में स्थापित करेगी जिनसे घरेलू उत्पादकों को लम्बे समय तक मदद मिलेगी।
 
प्रगति की राह प्रशस्त
 
सक्षम सुधारों और अन्य सकारात्मक प्रयासों से छोटे और सीमान्त किसानों का कृषक उत्पादक संगठनों (एफपीओ) के रूप में समूहीकरम ने उन लोगों का जीवन बदल दिया है जिनके पास कम जमीन है। बजट 2019-20 ने अधिक एफपीओ स्थापित करने के लिए प्रेरित किया है। इससे पहले, 2014-15 में, 2000 एफपीओ स्थापित करने के लिए नाबार्ड में 200 करोड़ के एक कोष की स्थापना की गई थी। नाबार्ड ने इसके तहत 2174 एफपीओ की स्थापना की। ये सभी एफपीओ आरम्भिक अवस्था में हैं। इसके अलावा सदस्यता बढ़ाने, पूँजी जुटाने, क्षमता निर्माण और निविष्टियों की आपूर्ति के प्रारम्भिक व्यवसाय आदि को उपयुक्त सुधार के साथ प्रोत्साहन मिलना चाहिए। एफपीओ की आय में छूट की अनुमति देने वाले आयकर कानूनों का आधुनिकीकरण, एफपीओ द्वारा खरीदारों को सीधे विपणन की अनुमति देना, निविष्टियों के व्यापार के लिए एकल राज्यव्यापी लाइसेंस जैसे कुछ सुधारों की तुरन्त आवश्यकता है। एफपीओ की वर्तमान कानूनी संरचना में बाहरी पूँजी निवेश या व्यावसायिक कर्ज का प्रावधान नहीं है। इसका समाधान एफपीओ को वित्तीय संस्थानों से 25 लाख के सहायक युक्त ऋण के प्रावधान के माध्यम से हो सकता है। एफपीओ की ब्याज दर को फसल ऋण के लिए व्यक्तिगत किसानों की ब्याज दर के अनुरूप तर्कसंगत बनाया जा सकता है। कम्पनी अधिनियम के तहत पंजीकृत एफपीओ को सहकारी बैंकों से ऋण प्राप्तकरने योग्य बनाया जा सकता है, आदि। कृषि वस्तु विशेष छूट सहकारी समितियों को बिक्री कर के लिए प्रदान की जाती है। एफपीओ को एफपीसी के समान पंजीकृत का दर्जा देकर उन्हें सहकारी समितियों की तरह सभी बिक्री कर छूट प्रदान करना और अन्य राज्य विशेष कर छूटें मिलने से काफी मदद मिलेगी। एफपीओ के एनएससी और राज्यबीज निगमों, किसान सहकारी समितियों (इफको और कृमकों) की तरह ब्रीडर बीज भी आवंटित किए जा सकते हैं जिनसे वे गुणवत्ता वाले बीज तैयार कर सकें।

तालिका-2 कृषि उपक्षेत्रों से उत्पादन का मूल्य (रु करोड़ में)

उपक्षेत्र

1999-2000

2010-11

2013-14(2011-12 शृंखला)

फसल

32523851

39668677

90310924

बागवानी

11554905

17945771

34053970

पशुधन

15122628

23901369

53087251

मत्स्य उद्योग

2776670

4202372

9020252

कृषि वानिकी

6787984

8337170

14682563

कुल

68761890

94055359

201154960

निष्कर्ष

1990 के सुधारों के बाद सभी क्षेत्र समय के साथ आगे बढ़े लेकिन कृषि क्षेत्र सुधारों में पिछड़ गया। सरकारों द्वारा शुरू किए गए कई सुधार विभिन्न कारणों से वापस ले लिए  गए। नतीजतन, कृषि क्षेत्र तो उन्नत हुआ पर किसानों को नुकसान उठाना पड़ा। 2014 के बाद इसे फिर से मजबूती प्रदान की गई है जिसकी गति और अधिक बढ़नी चाहिए। सरकारी एजेंसियों का मुख्य कार्य सुधारों की व्यापक स्वीकृति के लिए एक अनुकूल वातावरण तैयार करना है। इसके लिए तीन चीजों- जानकारी, बुद्धिमता और पारस्परिक विचार-विमर्श की आवश्यकता है। प्रखर प्रणालियों के माध्यम से एकत्रकी गई सही जानकारी को हितधारकों के सामने रखा जाना चाहिए जिससे किसी किस्से-कहानियों पर आधारित कोई निर्णय की बजाय बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लिया जा सके। कृषि को भिन्न रूप से देखने के लिए अबतक जिस नजरिए से हम उसे देख रहे थे, उसमें बदलाव की आवश्यकता है। बदलाव कठिन है लेकिन अनिवार्य है।
 
(लेखक नीति आयोग में पूर्व सलाहकार (कृषि) रह चुके हैं। वर्तमान में कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग (डीएआरई), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, कृषि भवन में सहायक महानिदेशक (योजना कार्यान्वयन और मॉनीटरिंग) हैं।)
 

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नैनीताल : प्रारम्भिक औपनिवेशिक काल

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नैनीताल : प्रारम्भिक औपनिवेशिक कालHindiWaterThu, 10/17/2019 - 11:16
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नैनीताल एक धरोहर

फोटो - nainitaltourism.com

3 मई, 1815 को ई.गार्डनर के कुमाऊँ कमिश्नर के रूप में तैनाती के तुरन्त बाद सम्पूर्ण कुमाऊँ में ब्रिटिश साम्राज्य का शिकंजा कस गया। 8 जुलाई, 1815 को जॉर्ज विलियम ट्रेल को कुमाऊँ का सहायक कमिश्नर बना दिया गया। ट्रेल 22 अगस्त, 1815 को अल्मोड़ा पहुँचे, तब कुमाऊँ के कमिश्नर गर्वनर जनरल के एजेंट, प्रशासन और राजस्व के मुखिया, न्यायाधीश के साथ सेना के अधिकारी भी थे, जबकि सहायक कमिश्नर को कलेक्टर, मजिस्ट्रेट और न्यायाधीश के अधिकार प्राप्त थे।

अंग्रेज भारत में व्यापार के लिए आए थे। उनके लिए भारत के समस्त प्राकृतिक संसाधन धन बटोरने का साधन मात्र थे। अंग्रेजों को भारत के संसाधनों का दोहन इंग्लैंड की उपजाऊ जमीन या खान के तौर पर करना था। उन्होंने वही किया भी। अंग्रेजों के लिए कुमाऊँ में धन संग्रह करने के मुख्य स्रोत यहाँ की जमीन और जंगल थे। अंग्रेजों के आने से पहले यहाँ कोई सुव्यवस्थित भू-व्यवस्था नहीं थी। जमीन और जंगलों का दस्तावेजीकरण नहीं हुआ था। कुमाऊँ में अंग्रेजी शासनकाल कायम होने से पहले यहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में कर वसूली और पुलिस के कामों के लिए थोकदारी प्रथा प्रचलित थी। थोकदार हलके के पटवारी के मातहत काम करते थे। थोकदार आमतौर पर एक ही परिवार से होते थे। थोकदार का काम अपनी थोकदारी वाले गाँवों से कर वसूल कर राजकोष में जमा करना और अपने इलाके के अपराधों की सूचना पटवारी को देना होता था। इसके एवज में थोकदारों को खुद के कब्जे-काश्त की जमीन का कर और नजराने से छूट मिली हुई थी या उन्हें राजस्व वसूली के आधार पर भुगतान किया जाता था। भूमि के स्वामित्व के अधिकार किसी को प्राप्त नहीं थे।

थोकदार मूलतः सरकार और भूमिधारकों एवं कारोबारियों के मध्यस्थ थे। कुमाऊँ में उन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता था। नैनीताल जिले में उन्हें थोकदार कहते थे। एक दौर में राजस्व प्रबन्धन में थोकदारों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही थी। थोकदारों को अपनी थोकदारी वाले गाँवों में शादी-ब्याह आदि अवसरों पर नजराना वसूलने का अधिकार प्राप्त था। कालान्तर में थोकदारों को दिए गए अधिकारों का दुरुपयोग होने लगा। थोकदारों ने प्रधानों को अप्रासंगिक बना दिया था। 1818 के ट्रेल के भूमि बंदोबस्त के दौरान भूमि धारकों एवं कारोबारियों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई।

कुमाऊँ के कमिश्नर का पदभार ग्रहण करते ही ई.गार्डनर ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी का खजाना भरने की मंशा से 1815 में भूमि बंदोबस्त शुरू कर दिया। यह कुमाऊँ का पहला भूमि बंदोबस्त था। कुमाऊँ कमिश्नर के रूप में ई. गार्डनर का कार्यकाल छह महीने ही रहा। 1815 के आखिर में अब तक सहायक कमिश्नर रहे जॉर्ज विलियम ट्रेल को कुमाऊँ का नया कमिश्नर बना दिया गया। ट्रेल ने कमिश्नर बनते ही पूर्व कमिश्नर ई. गार्डनर के पद चिन्हों का अनुसरण करते हुए अपना पूरा ध्यान भूमि बंदोबस्त पर केन्द्रित किया। ट्रेल ने सन् 1817, 1818, 1820, 1822 तथा 1829 में कुल पाँच भूमि बंदोबस्त किए। 1818 के अपने दूसरे बंदोबस्त में ट्रेल ने थोकदारों के अधिकारों में कटौती कर इनके ज्यादातर अधिकार प्रधानों को सौंप दिए। 1819 में ट्रेल ने जमीन एवं पुलिस सम्बन्धी कार्यों के लिए पटवारियों की नियुक्ति की। तब पटवारी का वेतन पाँच रुपए प्रतिमाह तय किया गया। 1821 में ट्रेल ने थोकदारों से कर वसूली के अधिकार भी छीन लिए। अब थोकदार पटवारी के मुखबिर  बन कर रह गए थे। इसके बाद थोकदारों का काम अपने गाँवों की आपराधिक गतिविधियों एवं जनहानि की सूचना हलके के पटवारी को देना, अपराधियों को पकड़ने में पटवारियों की सहायता करना तथा कुलियों की व्यवस्था करना रह गया था। इसके एवज में थोकदारों को एक निश्चित मानदेय दिया जाता था। हालांकि एक ही परिवार से थोकदारों के चयन की परम्परा को जारी रखा गया। पर अब लापरवाही एवं दुर्व्यवहार की शिकायतों पर थोकदारों को हटाया जा सकता था। 1856 में थोकदारों से पुलिस सम्बन्धी कार्य भी वापस ले लिए गए थे।
 
1822 के ट्रेल के बंदोबस्त को अस्सी साला बंदोबस्त कहा गया। इस बंदोबस्त में पहली बार जमीन की नाप-जोख की गई। पहली बार गाँवों का भूमि रिकार्ड तैयार किया गया। गाँवों की सीमाएँ तय हुई। गाँव की सीमा के अन्दर की कब्जे-काश्त की जमीन को नापा गया, जो भूमि नापी गई तथा जिस भूमि पर मालगुजारी लगाई गई थी, उस भूमि को नाप भूमि कहा गया। जबकि वनों एवं गैर आबाद या बंजर भूमि को बेनाप भूमि कहा गया। बेनाप भूमि की मालिक सरकार हो गई। जमीन में काबिज काश्तकारों को किराएदार कहा गया, उनसे जमीन का किराया या मालगुजारी वसूल की जाती थी। ट्रेल के भूमि बंदोबस्त के वक्त नैनीताल वीरान जंगल था। सम्भवतः तब यहाँ टांकी, राजभवन और तल्लीताल आदि क्षेत्रों में चरवाहों के खत्ते रहे होंगे।
 
अंग्रेजी शासनकाल में कुमाऊँ में 1815 से 1902 तक कुल 11 भूमि बंदोबस्त हुए। इन बंदोबस्तों के बाद ही यहाँ भौमिक अधिकार तय हुए। इससे पहले यहाँ किसी को भी भौमिक अधिकार हासिल नहीं थे। सकल भूमि गोपाल की थी अर्थात समस्त भूमि का स्वामी राजा था। भूमि बंदोबस्त के सिलसिले में 1817 से 1829 के दौरान तत्कालीन कुमाऊँ कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल स्वाभाविक तौर पर कई बार नैनीताल आए या नैनीताल से होकर आस-पास के गाँवों में गए। ट्रेल द्वारा किए गए भूमि बंदोबस्त में गैर आबाद भूमि को बेनाप की श्रेणी में रखा था। बेनाप जमीन की मालिक सरकार थी। ट्रेल के बंदोबस्त के आधार पर नैनीताल का यह समस्त भू-भाग निर्विवाद रूप से सरकार के स्वामित्व में था। 1863-73 के विकेट बंदोबस्त में भी केवल आबाद भूमि नापी गई। गैर आबाद भूमि को बेनाप भूमि कहा गया। बेनाप भूमि में राज्य सरकार का स्वामित्व था। भू-अभिलेखों में इस भूमि को ‘केसरेहिंद’ के रूप में दर्ज किया गया था।
 

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केवल मंत्रालय का नाम बदलने से नदियां नहीं बचेंगी

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केवल मंत्रालय का नाम बदलने से नदियां नहीं बचेंगीHindiWaterThu, 10/17/2019 - 16:25

राजेंद्र सिंह (जल पुरुष)

देश विदेश के किसी भी मंच पर जब भी गंगा नदी के संरक्षण की बात होगी, तो स्वामी सानंद के बलिदान को याद किया जाता रहेगा। स्वामी सानंद का ये बलिदान कई सोए हुए जल योद्धाओं को जगाने का कार्य तो कर गया, लेकिन अभी तक अपेक्षाकृत परिणाम प्राप्त नहीं हुए हैं। स्वामी सानंद का जैसा मानना था, उसका दस प्रतिशत कार्य भी अभी तक सरकार की तरफ से नहीं हुआ है और न ही जनता में कोई जागरुकता नजर आ रही है, लेकिन कई नए लोग हैं, तो स्वामी सानंद के इस अभियान से जुड़ रहे हैं और मातृसदन के साथ कंधे-कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। इसके स्वामी सानंद के मित्र और जल पुरुष के नाम से विख्यात डाॅ. राजेंद्र सिंह भी हैं। पेश है डाॅ. राजेंद्र सिंह की हिंदी वाटर पोर्टल से एक छोटी से बातचीत-


स्वामी सानंद के निधन के एक साल बाद क्या बदलाव आया ?

मां गंगा की रक्षा के लिए स्वामी सानंद उर्फ प्रोफेसर जीडी अग्रवाल के निधन को एक साल हो गया है। मां गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए अपने जाने से पहले स्वामी सानंद सोच रहे थे कि उनके बलिदान के बाद मां गंगा की आत्मा को बचाने के लिए ये देश/समाज खुद जग जाएगा, लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ हुआ नहीं। हालाकि उनके बलिदान के बाद देश के सभी भागों - उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में गंगा के संरक्षण के लिए चर्चा होने लगी है। स्वामी सानंद ने गंगा के लिए कठिन तप किया, लेकिन सरकार की अनदेखी में जिम्मेदारी को समझा नहीं गया। परिणामतः सरकार ने जो भी पैसा गंगा पर खर्च किया, उससे बांध और घाट आदि बनाए गए, जो आज भी निरंतर जारी है। इससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार को मां गंगा की असली बीमारी के बारे में नहीं पता है। मां गंगा को हृदय रोग की बीमारी है। हृदय रोग प्रवाह रुकने से होता है, लेकिन इसका इलाज करने वाले दांतों के डाॅक्टर हैं। इलाज के नाम पर घाट बनाए जा रहे है। स्वामी सानंद को भी इसी बात का दुख था। 

प्रवाह रोकने से गंगा में गंगत्व समाप्त हो गया है, इसलिए स्वामी सानंद गंगा की धारा में अविरलता चाहते थे। इसके लिए वे एक कानून बनाना चाहते थे। उन्होंने और हम सबने मिलकर वर्ष 2011 में गंगा का एक ड्राफ्ट बनाया और फिर 2012 में भी बनाया। उसके बाद फिर 2014 में हम सोच रहे थे कि ड्राफ्ट पास हो जाएगा। ड्राफ्ट को देखकर प्रधानमंत्री ने गंगा के प्राकृतिक प्रवाह के लिए एक कमेटी बनाई। उस कमेटी में मैं भी था। हम लोगों ने तब उस कमेटी की एक्पर्ट कमेट में ये सुझाव दिया था कि मां गंगा ‘ए श्रेणी’ की नदी है और ‘ए श्रेणी’ की नदी को गंगा के विज्ञान के अनुसार 62 प्रतिशत प्राकृतिक प्रवाह चाहिए, लेकिन दस अक्टूबर 2018 को भारत सरकार ने जो प्राकृतिक प्रवाह अधिसूचित किया उसमें केवल लीन सीजन में 20 प्रतिशत जल प्रवाह देने का निश्चय हुआ। इससे स्वामी सानंद काफी परेशान हुए। इसके बाद ही उन्हें जीने का मन नहीं किया, लेकिन अस्पताल में स्वामी सानंद के साथ जो हुआ वो दुर्भाग्पूर्ण है। ये किसी व्यक्ति विशेष का नुकसान नहीं बल्कि देश का नुकसान है। ये सरकार अच्छी सरकार तभी मानी जाएगी जब अपनी गंगा को अविरल बनाए, गंगा की अविरलता हो और फिर देश की अविरलता हो। 

हाल ही में ‘जलशक्ति मंत्रालय’’ का गठन किया गया है, तो मंत्रालयों का नाम बदलने से कितना फर्क पड़ेगा ? क्या इससे नदियों और जल को संरक्षित करने में सफलता मिलेगी ?

केवल मंत्रालयों के नाम बदलने से काम नहीं होता। मंत्रालयों का नाम बदलने से उलझन और जनता में अविश्वास पैदा होता है, कि आपने पिछली बार तो कहा था कि ‘‘मैं गंगा का बेटा हूं। मां गंगा ने मुझे बुलाया है। गंगा ने मुझे कुछ बनाया है, तो मैं गंगा को अविरल-निर्मल बना दूंगा।’’ लेकिन इस साल गंगा को भूल गए और उसी मंत्रालय का नाम बदलकर जलशक्ति मंत्रालय रख दिया। इससे जनता में अविश्वास होगा कि क्यों मंत्रालयों का बार-बार नाम बदला जा रहा है। गंगा को यदि पुनर्जीवित करने का संकल्प था, पुनर्जीवित करने के लिए मंत्रालय बनाया था, तो वो काम क्यों नहीं किया ? क्यों उस काम में इतना पैसा बर्बाद किया जा रहा है ? केवल ठेकेदारों की जेब में पैसा जा रहा है, लेकिन गंगा का कुछ भला नहीं हो रहा है, किंतु अभी भी समय है, गंगा को बचाया जा सकता है। गंगा पर जो बांध बन गए हैं, उन बांधों पर इंजीनियरिंग और तकनीकी तौर पर फिर से प्राकृतिक प्रवाह देने के सिस्टम बनाए जा सकते हैं, वो भी बांधों को तोड़े बिना। नए बांधों को रद्द कर दिया जाए और भविष्य में कोई बांध नहीं बनना चाहिए। ये कार्य सरकार को करना चाहिए। सौर ऊर्जा पर अधिक से अधिक कार्य करने की आवश्यकता है।

देश को बेपानी होने से कैसे बचाया जा सकता है ?

पानी के लिए यदि काम करना है तो फिर हमें वास्तव में काम करना पड़ता है, लेकिन आज जो हम बेपानी होते जा रहे हैं, इसका कारण पानी का ठीक से प्रबंधन न होना है। हमें इस समय विकेंद्रीकृत जल प्रबंधन का कार्य करने की जरूरत है, जो ठेकेदार और काॅर्पोरेट फ्री काम है। भूजल को रिचार्ज करने के प्रबंध करने की व्यवस्था करनी होगी। देश के प्रत्येक नागरिक को जल संरक्षण के प्रति खुद की जिम्मेदारी और कर्तव्य को समझना होगा।
 

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जलवायु परिवर्तन का वातावरण पर प्रभाव

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जलवायु परिवर्तन का वातावरण पर प्रभावHindiWaterFri, 10/18/2019 - 09:13

जलवायु परिवर्तन से तात्पर्य पर्यावरण में होने वाले किसी भी प्रकार के बदलाव से है। इस बदलाव के कारण बेमौसम बारिश, बर्फबारी, बढ़ती गर्मी और सूखा पड़ रहा है। विश्वभर की उपजाऊ भूमि मरुस्थल में तब्दील हो रही है। गर्मी बढ़ने से ग्लेशियर लगातार पिछल रहे हैं। आर्कटिक, अंटार्कटिक से लेकर ग्रीनलैंड के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। सदानीरा और जीवनदायिनी नदियां सूख रही हैं। ग्लेशियर पिघलने से समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ रहा है। जिस कारण निकट भविष्य में कई देशों का अस्तित्व विश्व के मानचित्र से मिटने की संभावना बनी हुई है। बीते कुछ वर्षो में प्राकृतिक आपदाओं में भी इजाफा देखा गया है। हालाकि जलवायु परिवर्तन के प्राकृतिक और मानवीय दोनों कारण होते हैं, लेकिन वर्तमान समय में जो परिणाम सामने रहे हैं, उसका कारण मानवीय गतिविधियां हैं। इसलिए मानवीय गतिविधियों में कुछ सकारात्मक बदलाव करके जलवायु परिवर्तन के खतरे को टाला जा सकता है, अन्यथा पृथ्वी से मानव का ही अस्तित्व समाप्त हो जाएगी। लेकिन पर्यावरण संरक्षण के लिए कुछ कार्य करने से पहले जलवायु परिवर्तन को जानना बेहद जरूरी है। तो इस वीडियो के माध्यम से जानते हैं, कि आखिर जलवायु परिवर्तन क्या है, कैसे इसका प्रभाव पड़ता है और कैसे इसे कम किया जा सकता है।

 

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बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली (ड्रिप इरिगेशन)

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बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली (ड्रिप इरिगेशन)HindiWaterFri, 10/18/2019 - 12:28
Source
कुरुक्षेत्र, अक्टूबर 2019  

बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली।बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली।

बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली कृषि क्षेत्र में नई क्रान्ति लेकर आई है। इससे पानी की खपत कम होती है, बिजली का खर्चा कम होता है और मानव श्रम भी कम लगता है। मिट्टी की उर्वरता भी प्रभावित नहीं होने पाती है।

सिंचाई संसाधनों के विकास को ध्यान में रखकर ही प्रति बूँद अधिक फसल की अवधारणा लागू की जा रही है। यानी हम सिंचाई मद में अधिक पानी भी नहीं खर्च करेंगे और सिंचाई के लिए उपयुक्त होने वाली हर बूँद का फसल के लिए फायदा लेंगे। इससे न सिर्फ सिंचाई मद में होने वाला खर्च कम होगा बल्कि कम लागत में अधिक उपज लेने का सपना भी साकार होगा। बल्कि कम लागत में अधिक उपज लेने का सपना भी साकार होगा। केन्द्र सरकार की ओर से शुरू की गई प्रधानमंत्री ग्राम सिंचाई योजना का लक्ष्य हर किसान का खेत सींचने के साथ ‘प्रति बूँद अधिक फसल’ पैदा करने की व्यवस्था करना है।

बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली से आत्मनिर्भर बनते किसान
 
बढ़ती आबादी और औद्योगिकीकरण की वजह से कृषि योग्य जमीन का रकबा तेजी से घट रहा है। ऐसी स्थिति में असिंचित जमीन को सिंचित बनाकर उत्पादन बढ़ाने के साथ ही खेती का रकबा भी बचाया जा सकता है। जब खेत को सिंचाई के लिए भरपूर पानी मिलेगा तो फसल उत्पादन अपने आप बढ़ेगा। इसी सूत्र को ध्यान में रखकर सरकार वन ड्राप मोर क्राप यानी प्रति बूँद अधिक फसल पर जोर दे रही है। केन्द्र सरकार की ओर से 2014-15 में शुरू की गई यह योजना अब परवान चढ़ने लगी है। इस सूत्र के तहत सिंचाई मद का बजट भी बढ़ाया गया है। जिस तरह से सिंचाई परियोजनाओं को मजबूत किया जा रहा है, उसका असर भी दिखने लगा है। सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए प्रतिबद्ध है। इस बार के बजट में तमाम ऐसे प्रावधान किए गए हैं। इसमें बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली का खासतौर से ध्यान रखा गया है। इससे पानी की खपत कम होती है, बिजली का खर्चा कम होता है और मानव श्रम भी कम लगता है। मिट्टी की उर्वरता भी प्रभावित नहीं होने पाती है। इस तरह से बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली कृषि क्षेत्र में नई क्रान्ति लेकर आई है। इसके पीछे तर्क है कि देश में एक बड़ी आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है। इसमें ज्यादातर किसान हैं। किसानों की तरक्की से देश में खुशहाली आएगी। इस खुशहाली को कायम रखने के लिए मैदानी और पर्वतीय क्षेत्र में समान व्यवस्थाएँ लागू करनी होंगी। मैदान के साथ ही पर्वतीय क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने का लक्ष्य रखना होगा। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली की भूमिका अहम है। पठारी इलाके में सिंचाई नहीं की जा सकती है, लेकिन बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली शुरू होने से यहाँ की फसलों को भी पानी मिल पा रहा है। इसी को ध्यान में रखकर केन्द्र सरकार ने बजट 2019-20 में कृषि एवं किसान कल्याण के विषयों को अभूतपूर्व प्राथमिकता दी है।
 
प्रधानमंत्री ने किसानों को आत्मनिर्भर और खुशहाल बनाने के सपने को साकार करते हुए सात-सूत्रीय कार्यनीति तैयार की है। इसमें ‘प्रति बूँद अधिक फसल’ के सिद्धान्त को प्रथम स्थान पर रखा गया है। इस दिशा में पर्याप्त संसाधनों के साथ सिंचाई पर विशेष बल दिया गया है। इसी तरह प्रत्येक खेत की मिट्टी की गुणवत्ता के अनुसार गुणवत्ता वाले बीज एवं पोषक तत्वों का भी प्रावधान किया गया है।
 
कृषि सुधारों में सिंचाई सहित अन्य कारकों का विस्तारीकरण करके सरकार ने किसानों की माली हालत के साथ ही देश की आर्थिक स्थिति में भी सुधार करने की पहल की है। बागवानी फसल के प्रति किसानों को आकर्षित करने के लिए सरकार ने बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली में बागवानी को वरीयता दी है। इसके लिए अतिरिक्त अनुदान की व्यवस्था की गई है। ज्यादातर किसान अनुदान के तहत इस प्रणाली का उपयोग भी कर रहे हैं। इससे असिंचित इलाके में बागवानी का दायरा बढ़ा है और उसी हिसाब से उत्पादन भी बढ़ रहा है।
 
नाबार्ड को शामिल करने से मिला फायदा

सरकार ने प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के अन्तर्गत नाबार्ड के साथ सूक्ष्म सिंचाई कोष को मंजूरी दी है। इसका फायदा किसानों को मिल रहा है। अब प्रधानंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई) के अन्तर्गत समर्पित सूक्ष्म सिंचाई कोष (एमआईएफ) स्थापित करने के लिए नाबार्ड के साथ 5,000 करोड़ रुपए की आरम्भिक राशि देने को मंजूरी दी गई है। आवंटित 2,000 करोड़ रुपए और 3,000 करोड़ रुपए की राशि का इस्तेमाल क्रमशः 2018-19 और 2019-20 के दौरान किया जा रहा है। नाबार्ड इस अवधि के दौरान राज्य सरकारों को ऋण का भुगतान करेगा। नाबार्ड से प्राप्त ऋण राशि दो वर्ष की छूट अवधि सहित सात वर्ष में लौटाई जा सकेगी। एमआईएफ के अन्तर्गत ऋण की प्रस्तावित दर तीन प्रतिशत रखी गई है जो नाबार्ड द्वारा धनराशि जुटाने की लागत से कम है। इसके खर्च को वर्तमान दिशा-निर्देशों में संशोधित करके वर्तमान पीएमकेएसवाई-पीडीएमसी योजना से पूरा किया जा सकता है। इसका ब्याज दर सहायता पर कुल वित्तीय प्रभाव करीब 750 करोड़ रुपए होगा। इसका फायदा यह मिलेगा कि समर्पित सूक्ष्म सिंचाई कोष से प्रभावशाली तरीके से और समय पर प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत ‘प्रति बूँद अधिक फसल’ का सपना साकार होगा।
 
कोप सम्मेलन में भी रही बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली की गूँज
 
14वें कोप सम्मेलन में भूमि गुणवत्ता बहाली, सूखा, जलवायु परिवर्तन, नवीकरणीय ऊर्जा, महिला सशक्तीकरण, पानी की कमी जैसे मुद्दों पर चर्चा करते हुए केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने माना कि पानी बचाने की दिशा में प्रधानमंत्री की ओर से शुरू की गई बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली मील का पत्थर साबित हो रही है। इससे मिट्टी की उर्वरक क्षमता बच रही है, क्योंकि तेज गति से पानी का बहाव होने, अधिक पानी भरने की वजह से मिट्टी को उर्वर बनाने वाले तत्व या तो नीचे चले जाते हैं अथवा पानी के बहाव के साथ बह जाते हैं। जब हम पानी बचाने की दिशा में काम करेंगे और बूँद-बूँद को उपयोगी बनाएँगे तो जलवायु परिवर्तन की दिशा में भी अहम काम होगा। पानी की बचत पर्यावरण संरक्षण का अहम हिस्सा है। बूँद-बूँद सिंचाई की महत्ता बताते हुए बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली को फसल उत्पादन के आँकड़ों पर गौर करें तो सिंचाई के क्षेत्र में सरकार की ओर से किए गए अभूतपूर्व परिवर्तन का असर साफ दिखता है।
 
बूँद-बूँद सिंचाई की कहानी, किसानों की जुबानी

केन्द्र सरकार की ओर से शुरू की गई बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली का फायदा उन किसानों को ज्यादा मिल रहा है, जिनके खेत समतल नहीं हैं। जौनपुर के निवासी किसान अखिलेश कुमार ने बताया कि उनके पास करीब 8 बीघा खेत हैं। इसमें चार बीघे में गेहूँ की खेती करते हैं। खेत समतल नहीं हैं। ऐसी स्थिति में फसल बारिश पर निर्भर रहती है। बारिश नहीं हुई तो पम्पसेट से एक या दो बार पानी देते हैं, लेकिन खेत के समतल नहीं होने की वजह से सिंचाई के दौरान पानी निचले इलाके में ज्यादा लगता था। ऐसे में खेत में तैयार पूरी फसल को पानी नहीं मिल पाता था। बारिश होने के बाद भी उत्पादन प्रभावित होता है क्योंकि बलुई दोमट मिट्टी होने की वजह से उसमें कम-से-कम दो या तीन बार सिंचाई की जरूरत होती रहती है। चार बीघे में पाँच से आठ कुतल गेहूँ पैदा होता रहा है, लेकिन बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली अपनाने के बाद चार बीघे में 12 से 14 कुतल उत्पादन होने लगा। इसी तरह दो बीघा खेत में पहले पाँच कुंतल धान पैदा होता था, लेकिन अब आठ से 10 कुंतल पैदा होने लगा है। अखिलेश बताते हैं कि धान की परम्परागत खेती में खेत में पाँच-छह इंच तक पानी का भराव जरूरी होता है, जबकि ड्रिप सिस्टम लगाने के बाद एक इंच तक पानी से ही धान की भरपूर उपज ले ली। ड्रिप सिंचाई के जरिए एक इंच पानी कुछ ही घंटों में दिया जा सकता है। अखिलेश बताते हैं कि बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली का सबसे बड़ा फायदा यह है कि पानी की हर बूँद पौधे के लिए उपयोगी होती है। पौधे को जितने पानी की जरूरत है, हम उसे उतना ही देते हैं। एक हिस्से में सिंचाई पूरी होते ही पाइप को दूसरी तरफ बढ़ा दिया जाता है। इससे कम बिजली की खपत और कम वक्त में पानी की हर बूँद उपयोगी हो जाती है। उपज भी दोगुना हो जाती है। अखिलेश की तरह ही गाँव के दूसरे किसान बलिकरन, दिनेश सिंह यादव आदि भी बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली अपना रहे हैं। खास बात यह है कि ये किसान दूसरे किसानों को भी बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली अपनाने के लिए जागरूक कर रहे हैं। ड्रिप सिस्टम से न केवल सिंचाई की जाती है बल्कि खाद एवं कीटनाशक दवा को भी घुलनशील अवस्था में पूरे खेत में पहुँचाया जाता है। उन्होंने बताया कि खेत में खुले रूप से पानी देने से पानी व्यर्थ ही चला जाता है, जबकि बूँद-बूँद पद्धति से समूचा पानी जमीन में ही समा जाता है। खुले पानी से सिंचाई करने पर फसल को फिर पानी की आवश्यकता पड़ती है, जबकि ड्रिप सिस्टम से पानी की आवश्यकता देर से महसूस हुई। बूँद-बूँद सिंचाई पद्धति के कारण पानी व बिजली की करीब 50 फीसदी बचत होती है।
 
बुंदेलखण्ड के किसान ने बूँद-बूँद सिंचाई से तैयार की बागवानी
 
बुंदेलखण्ड का नाम सुनते ही एक तरफ प्राकृतिक हरियाली का नजारा मन-मस्तिष्क पर छा जाता है तो दूसरी तरफ सूखे खेत। यहाँ के खेतों में मैदानी इलाके की अपेक्षा पैदावार का आंकड़ा बेहद कम है। ऐसे में प्रगतिशील किसान राजितराम प्रजापति भी बागवानी में बूँद-बूँद सिंचाई की तकनीक अपना रहे हैं। वह बताते हैं कि बुंदेलखण्ड में पानी कम है। ऐसे में ड्रिप सिस्टम से कम पानी में अधिक उपज ली जा सकती है। यही वजह है कि उन्होंने पहले बागवानी के लिए बूँद-बूँद सिंचाई की तकनीक अपनाई। इसके लिए राष्ट्रीय बागवानी मिशन में ड्रिप सिस्टम लगवाया। बगीचों के लिए अनुदान भी मिल गया। करीब पाँच बीघे में संतरे की खेती कर रहे हैं। फसल तैयार होने के बाद संतरों को लखनऊ भेजते हैं। इस तरह वह हर साल करीब दो से ढाई लाख के संतरे बेच रहे हैं। बागवानी के लिए लगाई गई बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली से ही अब खेतों में भी सिंचाई कर लेते हैं।
 
सिंचित भूमि का दायरा बढ़ाना जरूरी

भारत की स्थिति पर गौर करें तो भारत में कुल भूमि क्षेत्रफल करीब 329 मिलियन हेक्टेयर है। इसमें खेती करीब 144 मिलियन हेक्टेयर में होती है, जबकि लगभग 178 मिलियन हेक्टेयर भूमि बंजर है। इस बंजर भूमि को सुधारने की बेहत जरूरत है। इसी तरह 47.23 मिलियन हेक्टेयर भूमि को परती भूमि के रूप में चिन्हित किया गया जो देश के कुल भूक्षेत्र का 14,19 फीसदी हिस्सा है। घनी झाड़ी वाली करीब 9.3 मि. हेक्टेयर भूमि मुख्य परती भूमि है जबकि खुली झाड़ी वाली 9.16 मि. हेक्टेयर भूमि का दूसरा स्थान आता है। करीब 8.58 मि. हेक्टेयर भूमि कम उपयोग की गई या क्षरित वन झाड़ी भूमि है। इस भूमि को सुधारने के लिए प्रति बूँद अधिक फसले की अहम भूमिका है। आँकड़ों पर गौर करें तो विश्व की कुल भूमि का 2.5 प्रतिशत हिस्सा भारत के पास है। दुनिया की 17 प्रतिशत जनसंख्या का भार  भारत वहन कर रहा है। देश की जनसंख्या सन् 2050 तक करीब एक अरब 61 करोड़ 38 लाख से ज्यादा होने की सम्भावना है। लगातार बढ़ती जनसंख्या के अतिरिक्त भूमि कृषि के अन्तर्गत लाए जाने की जरूरत है। जिस दिन हम बंजर एवं परती जमीन को खेती योग्य बना लेंगे, उस दिन भारत के हिस्से खेती का बड़ा हिस्सा होगा। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में वर्ष 1951 में मनुष्य भूमि अनुपात 0.48 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति था जो दुनिया के न्यूनतम अनुपात में से एक है। वर्ष 2025 में घटकर यह आंकड़ा 0.23 हेक्टेयर होने का अनुमान है। ऐसे में खेती के भूमि संसाधन के जरिए एक बड़ी चुनौती से निबटा जा सकता है। ऐसे में उपजाऊ मिट्टी की सुरक्षा किया जाना और बंजर जमीन को सिंचित जमीन में बदलना भी बेहद जरूरी है। भारत में सिंचाई की स्थिति देखें तो यहाँ 64 फीसदी खेती योग्य भूमि मानसून पर निर्भर होती है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश की कृषि योग्य 14 करोड़ हेक्टेयर भूमि में से मात्र 44 प्रतिशत ही सिंचित है। बाकी खेत असिंचित क्षेत्र में हैं। खेतों के घटते रकबे को देखते हुए इन्हें सिंचित करने की जरूरत महसूस की जा रही है।

 

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गैर आबाद नैनीताल

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गैर आबाद नैनीतालHindiWaterFri, 10/18/2019 - 13:19
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नैनीताल एक धरोहर

फोटो-nainitaltourism.com

अंग्रेजों के कुमाऊँ में आने से पहले आस-पास के गाँवों के निवासियों के लिए नैनीताल रहस्यमय या अनजान स्थल नहीं था। आस-पास के गाँवों के पशुचारक अपने जानवरों को चुगाने के लिए यहाँ आते थे। सम्भव है कि एक दौर में नैनीताल चरवाहों का ग्रीष्मकालीन प्रवास भी रहा हो, यहाँ उनके खते हों। नैनीताल की पहाड़ियों के पुराने नाम और मानचित्रों से ऐसे संकेत मिलते हैं कि नैनीताल आस-पास के गाँवों के चरवाहों का अस्थाई और मौसमी प्रवास था। शेर-का-डांडा, चीना (अब नैना) पहाड़, हांडी-भांडी, अयारपाटा, देवपाटा, लरियाकांटा, गिवालीखेत और बारानली खेत आदि नैनीताल की पहाड़ियों और स्थलों के पुराने नाम हैं। सम्भव है कि नैनीताल में यूरोपियन सटेंलमेंट के बाद इन नामों का आधुनिकीकरण हुआ हो। मूलतः ये नाम चरवाहों ने ही दिए थे। हो सकता है कि नैनी-झील को नैनीताल नाम भी चरवाहों ने ही दिया हो। यानी आँख के आकृति वाली झील।
 
‘‘ताल’’ नैनीताल की भौगोलिक पहचान है। यूरोपियन के संदर्भ में नैनी का अर्थ नया हो सकता है, जबकि भारतीयों के संदर्भ में नैनी धार्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान के तौर पर भी देखा जा सकता है। दोनों स्थितियों में ‘ताल’ नैनीताल के वजूद से जुड़ा है। सम्भावना यह है कि गिवालीखेत (वर्तमान राजभवन का इलाका) में खुर्पाताल, मंगोली व बजून आदि गाँवों के चरवाहों के खत्ते रहे हों। बारा नाली खेत (तल्लीताल) बल्दियाखान एवं बेलुवाखान क्षेत्र के गाँवों के चरवाहों का प्रवास स्थल रहा हो, जबकि मल्लीताल के टांकी वाले इलाके में पंगूट, बगड़, जाख-पाडली आदि गाँवों के चरवाहे कैंप करते होंगे। चरवाहों ने नैनीताल और शेर-का-डांडा पहाड़ी में वन देवी के छोटे मंदिर भी बनाए थे।
 
1815 से पहले सम्पूर्ण कुमाऊँ अंग्रेजों के लिए एक अनजान क्षेत्र था। शुरुआती दौर में अंग्रेजों ने राजस्व प्राप्ति के उद्देश्य से अपनी जान-पहचान सिर्फ आबाद क्षेत्रों तक ही सीमित रखी। 1817 से 1829 में किए गए भूमि बंदोबस्त के दौरान कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल का कुमाऊँ के दूसरे हिस्सों के साथ नैनीताल से भी प्रत्यक्ष आमना-सामना हुआ। इस तथ्य को नैनीताल के खोजकर्ता के रूप में विख्यात पाटर बैरन ने खुद भी स्वीकारा है। बैरन ने अपनी किताब ‘नोट्स ऑफ वॉण्डरिंग्स इन द हिमाला’’ में उल्लेख किया है कि - ट्रेल ने 1823 में अपने दस्तावेजों में लिखा है कि उन्होंने छः खाता जिले के विभिन्न क्षेत्रों में बेहद गजब की झीलें ढूँढ़ी हैं, इनमें नैनीताल, भीमताल एवं नौकुचियाताल शामिल हैं। इनमें पहली झील (सम्भवतः नैनीताल) सबसे बड़ी है, जिसकी लम्बाई एक मील तथा चैड़ाई एक तिहाई मील है।
 
स्पष्ट है कि अंग्रेजों के कुमाऊँ में आने के बाद एकाएक नैनीताल का जन्म नहीं हुआ और न खोज। पृथ्वी पर नैनीताल का वजूद आदिकाल से था और है। 1841 से पहले यह जगह स्थानीय निवासियों के लिए भी सर्वज्ञात थी और चंद अंग्रेजों के लिए भी। अंग्रेज कमिश्नर ट्रेल नैनीताल के बारे में बखूबी वाकिफ थे। कुमाऊँ में ब्रिटिश राज कायम होने के बाद ट्रेल नैनीताल आ चुके थे। चूंकि ट्रेल ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक बड़े औहदेदार मुलाजिम थे। एक जिम्मेदार मुलाजिम होने की वजह से वे ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों से बंधे थे।
 
ईस्ट इंडिया कम्पनी की पहली प्राथमिकता अपने अधीनस्थ भू-भाग से येन-केन प्रकारेण अधिकतम मुनाफा कमाना था। इसके लिए यहाँ उपलब्ध संसाधनों के दोहन की कार्य योजनाएँ बनानी थी, ताकि अधिक से अधिक धन-धान्य खींचकर इंग्लैंड पहुँचाया जा सके। जाहिर है कि ईस्ट इंडिया कंपनी यहाँ विकास और सृजन के लिए नहीं, बल्कि व्यापार और संसाधनों के दोहन के लिए आई थी। ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों के मुताबिक कमिश्नर के तौर पर ट्रेल का पहला दायित्व पहाड़ के भीतर अंग्रेजी साम्राज्यवाद की जड़ों को मजबूत करना और आय के साधन बढ़ाकर इंग्लैंड का खजाना भरना था। तब गुलाम देशों के प्राकृतिक संसाधनों के शोषण और लूट का दौर था। ईस्ट इंडिया कंपनी इसी मंसूबे के साथ यहाँ आई थी। अपने पल्ले की रकम खर्च कर भारत में नए नगर बसाना उस वक्त ईस्ट इण्डिया कंपनी के नीतियों में नही था। सम्भवतः इसीलिए ट्रेल ने नैनीताल में नगर बसाने की दिशा में न सोचा और न ही अपनी ओर से ऐसी कोई पहल की।

 

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नैनीताल में बैरन

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नैनीताल में बैरनHindiWaterMon, 10/21/2019 - 14:07
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नैनीताल की धरोहर
पीटर बैरन उर्फ पिलग्रिम तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रान्त के रोजा (शाहजहाँपुर) के निवासी थे। हालांकि बैरन पेशे से मूलतः शराब के व्यवसायी थे, पर उन्हें प्रकृति से बेहद प्यार था। वे हिमालय के पुराने घुमक्कड़ थे। लेखक थे। कई सालों से हिमालय की यात्रा करते चले आ रहे थे। इन यात्राओं के दौरान बैरन ने हिमालय की विराटता, महानता और सुन्दरता को बेहद नजदीक से देखा और अनुभव किया था। पीटर बैरन हमेशा की तरह 1841 में भी हिमालयी क्षेत्र की यात्रा पर निकले। हिमालय के बर्फीले इलाकों की 15 सौ मील की यात्रा के बाद नवम्बर, 1841 को बैरन अल्मोड़ा पहुँचे। उन दिनों कुमाऊँ कमिश्नर का मुख्यालय अल्मोड़ा था। अल्मोड़ा में बैरन के एक दोस्त जे.एच. बैटन, सीनियर डिप्टी कमिश्नर के पद पर कार्यरत थे। बैरन ने नैनीताल के पहले दौरे के दौरान अपने तीसरे साथी बैटन की पहचान स्पष्ट तौर पर जाहिर नहीं की है। उन्होंने अपने इस साथी को सांकेतिक भाषा में W लिखा है। जबकि वेरल को कैप्टन C कहा है। बैटन और बैरन आपस में करीबी रिश्तेदार भी थे। बैरन के बैटन की पहचान को उजागर नहीं करने के पीछे सम्भवतः यही कारण रहा हो। पर बैरन द्वारा बाद में दिए गए विवरणों से आभास होता है कि उन्होंने W शब्द का उपयोग सम्भवतः जे.एच.बैटन के लिए ही किया था। बैरन के दूसरे कैप्टन वेलर, लोक निर्माण विभाग में कुमाऊँ के अधिशासी अभियन्ता के पद पर तैनात थे। उन दिनों कैप्टन वेलर ने खैरना के पास कोसी नदी में अपना कैंप लगाया था। पीटर बैरन अपने दोस्त सीनियर डिप्टी कमिश्नर जे.एच.बैटन के साथ कैप्टन वैलर के कोसी स्थित कैंप पहुँचे। जहाँ तीनों मित्रों ने झील को खोजने की योजना बनाई। वे झील तक पहुँचने का सही मार्ग खोजने में सफल नहीं हो सके। उन्होंने झील तक पहुँचने के लिए किसी स्थानीय मार्ग-निर्देशक की सहायता लेने का निर्णय लिया, पर उन्हें मार्ग-निर्देशक मिलना भी असम्भव हो गया। पीटर बैरन का मानना था कि सम्भव है कि आस-पास के ग्रामीणों को इस तालाब की जानकारी हो, पर वे बताते नहीं थे। पूछने पर भी सही जानकारी नहीं देते थे। आखिरकार उन्हें एक गाइड मिल तो गया, लेकिन वह उन्हें नैनीताल का सही मार्ग बताने के बजाय गुमराह करना चाहता था। बैरन का मानना था कि इसके पीछे नैनीताल की झील के प्रति स्थानीय निवासियों के अंतर्मन में धार्मिक विश्वास की भावना रही हो। बैरन के अनुसार स्थानीय निवासियों में नैनीताल की झील और पहाड़ियों के प्रति बेहद सम्मान था। सम्भवतः इसी वजह से स्थानीय लोग अंग्रेजों को नैनीताल लाना पसंद नहीं करते हों। चूंकि पीटर बैरन हिमालयी क्षेत्रों के घुमक्कड़ थे, उन्होंने घाट-घाट का पानी पिया था, उन्हें बेवकूफ बनाना आसान नहीं था। जब उन्हें इस बात का आभास हो गया कि गाइड गुमराह करने का प्रयास कर रहा है। उन्होंने एक तरकीब आजमाई। गाइड को एक भारी पत्थर दिया और कहा कि इस पत्थर को नैनीताल पहुँचाओ, इसे गिरने और टूटने मत देना। क्योंकि नैनीताल में पत्थर नहीं हैं, इसलिए यह पत्थर हमें वहाँ चाहिए। पत्थर के भारी बोझ से छुटकारा पाने की गरज से एकाएक गाइड के मुँह से यह शब्द निकल गया कि नैनीताल में पत्थरों की कोई कमी नहीं है। जाहिर है कि बिना उस जगह को देखे गाइड को यह जानकारी होना सम्भव नहीं था। एक मील चलने के बाद पीटर बैरन ने गाइड से पत्थर छोड़ देने को कहा। इसके बाद गाइड उन्हें सही रास्ते पर ले गया। अंततः 18 नवम्बर, 1841 को खैरना से कफुल्टा, जाख, चौरसा होते हुए सेंट-लू के रास्ते पीटर बैरन उर्फ पिलग्रिम अपने दो साथियों के साथ नैनीताल पहुँचने में सफल हो गए। 18 नवम्बर की रात तीनों मित्रों ने एक टेंट में बिताई। बैरन ने नैनीताल की मधुरिम हरियाली के दृश्य निहारे तो वे उल्लास एवं प्रसन्नता से उछल पडे। नैनीताल के अद्वितीय एवं अनुपम सौन्दर्य से आकर्षित होकर बैरन ने यहाँ नगर बसाने की ठान ली। बैरन ने खुद अपने और मित्रों के मकान बनाने के लिए नैनीताल में तीन जगहों पर जमीन चिन्हित की। अगले दिन 19 नवम्बर को जल्दी ही दुबारा इस जगह पर आने के इरादे के साथ तीनों लोग अपने-अपने गंतव्यों को लौट गए। सम्भव है कि कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल के अलावा उस दौरान कुमाऊँ में रह रहे किसी अन्य यूरोपीय नागरिक ने 18 नवम्बर, 1841 से पहले इस तालाब को नहीं देखा हो, पर पीटर बैरन और उनके साथी बैरन और कैप्टन वेलर नैनीताल पहुँचने वाले पहले यूरोपीय हरगिज नहीं थे। नैनीताल के पहले दौरे के बारे में पिलग्रिम ने अपनी किताब ‘नोट्स ऑफ वॉन्डरिंग्स इन द हिमाला’ में लिखा है कि उन्होंने शिमला, मसूरी, अल्मोड़ा, लोहाघाट आदि जगहों को देखा है और वह हिमालय की अधिकांश पहाड़ियों की यात्रा कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में नैनीताल का इलाका अत्यधिक खूबसूरत है। उनकी हिमालय की 15 सौ मील की यात्रा में नैनीताल सबसे खूबसूरत जगह थी। पीटर बैरन ने लिखा है कि-सात पहाड़ियों के बीच छिपे तालाब को ढूँढ़ना मुश्किल है। पहाड़ियों से पानी आकर तालाब में गिरता है। तालाब के एक छोर में पतला सा निकास है। तालाब के साथ लगा एक खेतनुमा मैदान है, जिसमें बाँज आदि के पेड़ हैं। यहाँ क्रिकेट का मैदान या रेस कॉर्स बन सकता है। तालाब के दोनों तरफ तेज ढालदार पहाड़ियाँ हैं, जिनमें घना जंगल है। एक छोटा सा पेड़ गिर गया था, जिसकी लम्बाई एक सौ दो फीट थी। तालाब से लगे पहाड़ बड़े सुन्दर एवं मनमोहक हैं। यहाँ तमाम तरह के जंगली जानवर घूमते रहते हैं। 18 नवम्बर की रात जंगली जानवरों को अपने कैंप से भगाने में उन्हें बहुत दिक्कतें हुईं।
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कृषि क्षेत्र में बुनियादी ढाँचागत सुधार

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कृषि क्षेत्र में बुनियादी ढाँचागत सुधारHindiWaterTue, 10/22/2019 - 09:57
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कुरुक्षेत्र, अक्टूबर 2019

कृषि क्षेत्र में बुनियादी ढाँचागत सुधार।कृषि क्षेत्र में बुनियादी ढाँचागत सुधार। फोटो-हिंदुस्तान टाइम्स

सरकार ने कृषि मूल्य श्रृंखला इकाइयों की पर्याप्त वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए कई उपाय किए हैं, ताकि फसल के पूर्व और कटाई के बाद के नुकसान को कम किया जा सके, रोजगार के अवसरों को बढ़ाया जा सके और किसानों एवं खेत उद्यमियों की आय का स्तर बढ़ाया जा सके।

केन्द्र सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के अपने वायदे पर जोर दिया है। इससे देश के कृषि क्षेत्र में आने वाले किसानों के संकट को सही ढंग से समझा गया है और उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उत्पादन लागत को कम करने और कृषि उपज के मूल्यों को बढ़ाने के महत्व को रेखाकिंत किया गया है। कृषि उत्पादन, उत्पादकता, कृषि लाभ और आय बढ़ाने के कई उपाय सुझाए गए हैं और अमल में लाए गए हैं। इस दिशा में प्रमुख निर्देश दिए गए हैः (क) कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को डेढ़ गुना बढ़ाया (ख) राष्ट्रीय कृषि बाजार योजना के माध्यम से अधिक मंडियों को जोड़ा जाना (ग) ग्रामीण कृषि बाजारों में ग्रामीण डाट को विकसित किया जाना (घ) कृषि बाजार अवसंरचना कोष का निर्माण और उपयोग (च) प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत सड़कों के माध्यम से ग्रामीण बाजारों को जोड़ना (छ) समेकित आधार पर कृषि उत्पादों को विकसित करना (ज) जैविक खेती को बढ़ावा देना (झ) इसके अलावा 10,000 किसान उत्पादक संगठनों, कृषि संसाधनों, प्रसंस्करण सुविधाओं तथा पेशेवर प्रबन्धन को बढ़ावा देने के लिए एक और हरितक्रान्ति लाना (ट) मत्स्य-पालन और पशुपालन करने वाले किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड सुविधा प्रदान कराना (ठ) मत्स्य और जलीय कृषि तथा पशुपालन के लिए समर्पित कोष की स्थापना (ड़) वाणिज्यिक, निजी, विदेशी और सहकारी बैंकिंग चैनलों के माध्यम से अधिक ऋण मुहैया कराना। हालांकि, ये नीति निर्देश उल्लेखनीय हैं, वास्तविक चुनौती जमीनी-स्तर पर विभिन्न योजनाबद्ध हस्तक्षेपों को प्रभावी ढंग से और कुशलतापूर्वक लागू करने के लिए उचित बुनियादी ढांचा स्थापित करना है।
 
सरकार ने कृषि में उत्पादन जोखिम और मूल्य जोखिमों के शमन को लक्षित करके कृषि उपलब्धता में कमी, बाजार उपलब्धता, बाजार मूल्य में उतार-चढ़ाव और कृषि उपज की माँग में वृद्धि पर नवम्बर 2016 के विमुद्रीकरण के विभिन्न प्रतिकूल-स्तर के प्रभावों को दूर करने का प्रयास किया है। कृषि में अनिश्चितताओं और जोखिमों को ध्यान में रखते हुए, सरकार की नीतिगत दिशाओं में अब फसल और पशुधन बीमा योजनाओं जैसे जोखिम को समाप्त करने के उपायों में सुधार, बेहतर कृषि-रसद के आधुनिकीकरण और कृषि बाजारों के निकट, पर्याप्त भंडारण सुविधाओं के प्रावधान के साथ विपणन उपायों के लिए प्रभावी सरकारी हस्तक्षेप सुनिश्चित करने पर ध्यान केन्द्रित करना शुरू कर दिया है। यद्यपि न्यूनतम समर्थन मूल्य 50 प्रतिशत से अधिक लागत पर कृषि नुकसान के जोखिम को कम करने की आवश्यक क्षमता है। यदि सरकार माँग पर ध्यान नहीं देती है और कृषि आधारभूत संरचना के दृष्टिकोण से कठिनाइयों को दूर करती है तो बड़े पैमाने पर अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है।
 
कृषि में क्रान्तिकारी बदलाव की आवश्यकता क्यों
 
भारतीय कृषि ने निर्वाह कृषि की अवधि से लेकर अधिशेष कृषि उत्पादन को बढ़ाने तक का लम्बा सफर तय किया है। यह स्थिति पूरी तरह से कृषि आधारभूत ढाँचे के पारिस्थितिकी-तंत्र के विकास की दिशा में एक क्रान्तिकारी बदलाव का आह्वान करती है। भले ही भारत ने पाँच साल की योजनाओं के दौरान गरीबी में कमी लाने की विभिन्न रणनीतियों और किसान-उत्पादन केन्द्रित दृष्टिकोणों के माध्यम से खाद्य सुरक्षा का उद्देश्य हासिल किया है, लेकिन असली चुनौती, जो अभी भी बनी हुई है, वह यह है कि किसानों के प्रयासों का लाभ कैसे उठाया जाए और ग्रामीण और असंगठित आर्थिक सेटअप में उनकी भलाई कैसे सुनिश्चित की जाए ? यह निश्चित है कि कृषि, किसी भी अन्य आर्थिक उद्यम की तरह, तभी कायम रह सकती है जब इससे किसानों को सकारात्मक आर्थिक लाभ मिले। कटाई के बाद की फसल की पर्याप्त पैदावार और विपणन बुनियादी ढाँचे के साथ विश्वसनीय, कुशल, प्रतिस्पर्धी और सुलभ बाजार में किसान उत्पादक को शुद्ध सकारात्मक लाभ देने की क्षमता है।
 
बेहतर कृषि बाजार के बुनियादी ढाँचे की आवश्यकता

कृषि उपज बाजार समिति (एपीएमसी) द्वारा विनियमित बाजारों में कृषि उत्पादों के नेटवर्क के माध्यम से कृषि उपज का विपणन परम्परागत रूप से किया जाता है। वर्तमान में 2,284 एपीएमसी हैं जो 2,339 प्रमुख बाजारों का संचालन करते हैं। इन प्रमुख बाजारों ने अपना विस्तार करके कुल 4,276 उप-बाजार यार्डों में कदम जमाया है। देश में बड़े और विविध कृषि विपणन बुनियादी ढाँचे के विकास और उन्नयन के माध्यम से बेहतर किसान बाजार सम्पर्क स्थापित करना समय की जरूरत है। देश में कृषि विपणन के समक्ष समस्याएँ और चुनौतियाँ इस प्रकार है:

  • बाजार में आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करके और बाजार के बुनियादी ढाँचे को विकसित करके बागवानी, पशुधन, मुर्गीपालन, मत्स्य, बांस, लघु वन उपज सहित कृषि और सम्बद्ध उपज के विपणन योग्य अधिशेष को प्रभावी ढंग से सम्भालना और प्रबन्धित करना।
  • कटाई और कृषि के बाद नवीन और नवीनतम तकनीकों को विकसित करना।
  • कृषि और सम्बद्ध उत्पादों के लिए प्रतिस्पर्धी विपणन चैनल विकसित करना।
  • उत्पादन के लिए निजी और सहकारी क्षेत्रों को प्रोत्साहित कर उनके माध्यम से यहाँ निवेश करना।
  • किसानों को व्यक्तिगत रूप से और सामूहिक रूप से लाभान्वित करने के लिए कृषक उत्पादक संगठनों सहकारी समितियों का गठन करने के लिए किसानों को संगठित कर उन्हें एकजुट करना।
  • प्रसंस्करण और प्रसंस्कृत उपज के विपणन के बारे में जागरुकता पैदा करना।
  • फसल कटाई और हैंडलिंग घाटे को कम करने के लिए कृषि उपज, प्रसंस्कृत कृषि उपज और कृषि आदानों आदि के भंडारण के लिए वैज्ञानिक भंडारण क्षमता के निर्माण को बढ़ावा देना।
  • प्रतिबद्ध वित्तपोषण और बाजार पहुँच को बढ़ावा देना। 

कृषि अधिशेष का अनुचित विमुद्रीकरण नजदीक के विनियमित और अनियमित ग्रामीण और कृषि बाजारों में माँग की कमी के कारण हुआ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मौजूदा स्थानीय बाजार प्रणाली, जब उत्पादन-स्तर और किसानों के हाथों में विपणन योग्य अधिशेष बहुत अधिक हैं, ऐसे समय में कृषि व्यापार को सुविधाजनक बनाने के लिए संरेखित नहीं हुई है। इस प्रकार, बाजारों को एकीकृत करने की आवश्यकता है, एक श्रृंखला के माध्यम से मध्यस्थ व्यापार को बढ़ावा देना चाहिए। यह उपज को अन्य माँग केन्द्रों से जोड़ता है और उचित और इष्टतम मूल्य दिलाने में कारगर होता है।

सामुदायिक भागीदारी से कृषि आधारभूत संरचना
 
आजादी के 72 वर्षों बाद भी, कृषि वस्तुओं की कीमत के लगातार बढ़ते अन्तर से उत्पादक के साथ-साथ उपभोक्ता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इसका कारण कृषि बाजारों में शोषण की निरन्तर मौजूदगी है। कृषि बाजार न तो कृषि उपज के लिए बेहतर कीमत मिलना सुनिश्चित करने में सक्षम थे और न ही उन्होंने किसानों की मोल-भाव करने की शक्ति को बढ़ाया। कृषि बाजारों में कुरीतियों और गाँव के व्यापारियों-साहूकारों तथा गाँव के व्यापारियों, आढ़तियों, कमीशन एजेंटों, प्रसंस्करण उद्यमों के एजेंटों आदि जैसे अन्य बिचैलियों का शोषणात्मक रवैया किसानों को औने-पौने दामों में बेचने के लिए मजबूर करता रहा। इस प्रकार, कृषि में मौजूदा सहकारी विपणन प्रणाली के सुदृढ़ीकरण और पुनरुद्धार से न केवल संगठित थोक बाजारों (एपीएमसी मंडियों) और असंगठित ग्रामीण आवधिक बाजारों ( ग्राम कृषि बाजार) में एजेंटों और बिचैलियों पर अत्यधिक निर्भरता समाप्त हो जाएगी, बल्कि प्रभावी सूचना प्रसार के मुद्दों, विपणन के डिजिटाइज्ड साधनों के उपयोग, वस्तुओं के संयुक्त परिवहन द्वारा परिवहन लागत के प्रबन्धन तथा शीघ्र नाशवान अर्थ-नाशवान वस्तुओं के प्रभावी और समय भंडारण के लिए गोदामों के नेटवर्क की स्थापना के मुद्दों को हल करके उचित मूल्य भी सुनिश्चित किया जा सकता है।
 
कृषि में मौसम पर निर्भरता को देखते हुए सक्रिय व्यापार अवधि के दौरान बड़े पैमाने पर अत्यधिक मात्रा में व्यापार शुरू करने के लिए सामुदायिक-स्तर के एफपीओ, सहकारी विपणन के बुनियादी ढाँचे को उन्नत और मजबूत करना समय की जरूरत है। एफपीओ/सहकारी विपणन इकाइयों को कृषि वस्तुओं की जाँच करने, पूर्वानुकूलन, ग्रेडिंग, मानकीकरण, पैकेजिंग और उत्पादों के भंडारण, एकत्रीकरण व परिवहन के लिए संगठित सुविधा केन्द्रों की स्थापना जैसी गतिविधियाँ करनी चाहिए। इस तरह से कृषि विपणन संरचना को कृषि उत्पादन के एकत्रीकरण और आगे की आपूर्ति की सुविधा के लिए गाँव, तालुका और जिला-स्तरों पर कार्यात्मक संभारतंत्र (लॉजिस्टिक्स) केन्द्रों की स्थापना पर विचार करने की आवश्यकता है। इस तरह से उत्तर भारत में संगठित डेयरी विपणन की तरह सहकारी विपणन समितियों के सदस्य किसानों के स्वामित्व के तहत आगे बढ़ सकते हैं।
 
किसानों को उत्पादन बिन्दुओं से उपभोक्ताओं तक पहुँचाने में शामिल लागत को कम करके कृषि उपज के विपणन को पूरी तरह से प्रबन्धित करने के लिए संवेदनशील और प्रशिक्षित किया जाना है। एफपीओ/ सहकारी बिक्री कम्पनियों/समितियों और सहकारी गोदामों की स्थापना किसानों को सामुदायिक-स्तर पर अपने उत्पादन पर सही लाभ प्राप्त करने में मदद का सबसे अच्छा समाधान हो सकता है। वस्तुओं के वास्तविक माँग आंकड़ों एवं प्रभावी तथा समय पर बाजार आसूचना के प्रसार द्वारा एक मजबूत और जीवंत कृषि विपणन बुनियादी ढाँचे में कृषि और ग्रामीण बाजारों तथा सम्बन्धित विपणन प्रणालियों को कुशल बनाने की बड़ी क्षमता है। वर्ष 2019-20 तक सही मायने में एकीकृत राष्ट्रीय कृषि बाजार को प्राप्त करने के लिए, ग्रामीण कृषि विपणन संरचना की समीक्षा, पुनः प्रचारित करने, बढ़ावा देने और राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नाम) के ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से जोड़े जाने की आवश्यकता है।
 
किसानों को संगठित करके ई-नाम को समझने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है जिसमें विभिन्न महत्त्वपूर्ण मुद्दों के तहत पुनर्विचार किया जा रहा है जैसे कि ग्रेड और मानकों का सामंजस्य, यथा उत्पादन के बाद मूल्य श्रृंखलाओं के साथ विपणन श्रृंखलाओं-भंडारण, परिवहन संसाधन, बाजार के रुझान आदि में विषमता की जानकारी के बीच समेकित नेटवर्क की कमी। एफपीओ/सहकारी समितियाँ एक गुणवत्ता वाले विपणन पारिस्थितिकी-तंत्र को सुनिश्चित करने के लिए लाभप्रद स्थिति में हैं, जिसमें उत्पादन, बाजार चैनल, रिटेलर और उपभोक्ताओं की मूल्य श्रृंखलाएँ शामिल हैं।
 
गोदाम का बुनियादी ढाँचा

भंडारण, कोल्ड स्टोरेज और गोदाम का बुनियादी ढाँचा, फसल तैयार होने के मौसम मूल्य में अत्यधिक उतार-चढ़ाव के दौरान उत्पन्न स्थिति को सम्भालने और उत्पादन अवधि से लेकर खपत अवधि तक कृषि उपज पर किसानों को पारिश्रमिक मूल्य सुनिश्चित करने के लिए महत्त्वपूर्ण है। पर्याप्त वैज्ञानिक भंडारण सुविधाओं की कमी से किसानों को भारी नुकसान होता है। भले ही केन्द्रीय और राज्य भंडारण निगमों ने विभिन्न राज्यों में गोदामों का निर्माण किया है, फिर भी यह मात्रा पर्याप्त नहीं है। किसानों के सग्रह के रूप में एफपीओ/सहकारी समितियाँ कृषि उत्पादन के लिए भंडारण और भंडारण की क्षमता का विस्तार करने में योगदान कर सकती हैं। ये इकाइयाँ बाजारों में वृद्धि और प्रत्यक्ष पहुँच सुनिश्चित कर सकती हैं, बाजार को आकर्षित करने के लिए गुणवत्ता के साथ थोक में उत्पादन का एकत्रीकरण, उत्पादों को बेहतर कीमत के लिए सौदेबाजी को बढ़ाने के लिए एक पारिस्थितिकी-तंत्र को बढ़ावा देने के साथ-साथ भंडारण सुविधाओं तक पहुँच में सुधार कर सकती हैं।
 
कृषि-मूल्य श्रृंखला के बुनियादी ढाँचे को प्रभावी और कुशल बनाना

सरकार ने कृषि-मूल्य श्रृंखला इकाइयों की पर्याप्त वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए कई उपायों को शुरू किया है, ताकि फसल के पूर्व और कटाई के बाद के नुकसान को कम किया जा सके, रोजगार के अवसरों को बढ़ाया जा सके और किसानों और खेत उद्यमियों की आय का स्तर बढ़ाया जा सके। हालांकि, कृषि खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में कृषि-मूल्य श्रृंखला इकाइयों की समग्र उन्नति और विकास प्रभावशाली नहीं रहा है।  ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि व्यवसाय इकाइयों के लिए ऋण प्रवाह में निहित समस्याओं और मुद्दों के कारण उपयुक्त कृषि उद्यमी संस्कृति का अभाव कई आर्थिक और अतिरिक्त आर्थिक समस्याओं को जन्म देता है। यदि लोग जीवन की इन बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं, तो वे आर्थिक प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग नहीं ले पाएँगे और अपने स्वयं के कल्याण और अपने समाज के कल्याण में सकारात्मक योगदान देने में विफल रहेंगे।
 
नए उद्यमों में मुनाफा कमाने की दिशा में अवसर या प्रोजेक्ट व्यवहार्यता का सही विकल्प अभियान का एक प्रमुख हिस्सा माना जाता है। ग्रामीण क्षेत्र में, अवसरों और संसाधनों के सफल दोहन (भौतिक और मानव दोनों) के लिए सक्षम प्रणालियों को लागू करने की आवश्यकता होती है। स्वयंसहायता समूह, सहकारिता और कृषक उत्पादक संगठन इकाइयाँ इंटर-लोनिंग और बैंक क्रेडिट लिंकेज गतिविधियों के माध्यम से अपनी आर्थिक इकाइयों के संचालन के लिए संसाधन पैदा कर रही हैं। हालाकि, उनकी व्यावसायिक पसन्द अक्सर उनकी गतिविधियों के प्रबन्धन, संचालन और उनको बनाए रखने की क्षमता के अनुरूप नहीं होती है। ख्याति-प्राप्त अर्थशास्त्रियों द्वारा उद्यमशीलता के रूप में मुख्य रूप से तीन केन्द्रीय पहलुओं की पहचान की गई है: (अ) अनिश्चितता और जोखिम (ख) प्रबन्धकीय क्षमता और (स) रचनात्मक अवसरवाद या नवाचार।
 
कृषि मूल्य श्रृंखला में उत्पादन प्रणाली में लगे सभी हितधारकों को लाने का प्रयास करना चाहिए। इनपुट आपूर्तिकर्ता, प्रौद्योगिकी पहुँचाने वाली एजेंसियाँ, उपयुक्त प्रौद्योगिकियाँ विकसित करने वाले वैज्ञानिक और विस्तार अधिकारी जो क्षमता निर्माण से जुड़े हैं और किसानों को एक साझा मंच और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए एक साझा मंच पर विभिन्न सेवाएँ प्रदान करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यह समुदाय-आधारित वित्तीय बिचैलिए हैं जो उत्पादन के बाद व्यावसायिक गतिविधियों में जैसे उत्पादन के संग्रह, छंटाई, ग्रेडिंग, भंडारण, परिवहन, प्रसंस्करण और विपणन की योजना में शामिल होने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। स्वयं सहायता समूह, सहकारी समितियों और कृषक उत्पादन संगठनों जैसे सामुदायिक वित्तीय संस्थान आपके द्वार पर क्रेडिट देने के अलावा बाजार सूचना केन्द्रों की भूमिका निभा सकते हैं और कृषि-मूल्य श्रृंखला में प्रमुख हितधारक बन सकते हैं। इन सामुदायिक-स्तर की वित्तीय संस्थाओं को उत्पादन, मूल्य की खोज और प्राप्ति और लाभप्रदत्ता में सुधार के लिए कृषि मूल्य श्रृंखला के विभिन्न हितधारकों के साथ कुशल सम्बन्ध सुनिश्चित करने के लिए क्षमता निर्माण की आवश्यकता है।
 
कृषि स्टार्टअप पारिस्थितिकी तंत्र का विकास
 
भारतीय कृषि परिदृश्य को देश की डिजिटल क्रान्ति से सकारात्मक रिटर्न की उम्मीदें लगाई जा रही हैं। डिजिटल नवाचारों और समाधानों से कृषि हेतु बुनियादी ढाँचे के विकास, आपूर्ति श्रृंखला प्रबन्धन और प्रौद्योगिकी सुविधा की गुणवत्ता, रसद और कृषि मूल्य श्रृंखला के वितरण में जबर्दस्त प्रयोज्यता है। देश के युवाओं को कृषि व्यवसाय को सफल बनाने के लिए नवीन विचारों के साथ आगे आना होगा। अधिक-से-अधिक कृषि से सम्बन्धित ऊष्मायन इकाइयाँ (इंक्यूबेशन यूनिट) और स्टार्टअप भारतीय कृषि के लिए अपने तरीके तलाश रहे हैं। समय की आवश्यकता है कि इस तरह के स्टार्टअप के लिए जमानत से मुक्त ऋण की सुविधा, विकास पूँजी उपलब्ध कराना, निवेश पर कराधान में छूट आदि की सुविधा प्रदान करना सुनिश्चित किया जाए।
 
मूल्य संवर्धन संसाधन केन्द्रों की स्थापना
 
किसानों/किसान समूह को लक्षित कृषि वस्तुओं के उत्पादन के बिन्दु पर सही मूल्य संवर्धन संसाधन केन्द्र स्थापित करने के लिए संवेदनशील और सशक्त बनाया जाना चाहिए। इनपुट आपूर्ति के अलावा, ये केन्द्र गुणवत्ता उत्पादन के लिए अग्रणी प्रक्रियाओं पर सख्त निगरानी के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं। मूल्य संवर्धन संसाधन केन्द्र (वीएआरसी) एग्री-इनपुट प्रबन्धन, विस्तार सेवाओं के प्रबन्धन, गाँवों में बुनियादी कृषि और सम्बद्ध बुनियादी ढाँचे के निर्माण और रख-रखाव के लिए भी जिम्मेदार हो सकता है और किसान सदस्यों को उनके शीघ्र नाशवान उत्पादन अथवा अर्ध-नाशवान कृषि-वस्तुओं की जरुरतों और मूल्य संवर्धन के लाभों के बारे में बुनियादी प्रशिक्षण/उन्मुखीकरण प्रदान कर सकता है।
 
प्रसंस्करण के माध्यम से मूल्यवर्धन

प्रसंस्करण के साथ सहकारी ऋण, विपणन, उपभोक्ता सहकारी समितियों के एकीकृत विकास को सुनिश्चित करने की सख्त आवश्यकता है। सहकारी समितियाँ कृषि-प्रसंस्करण और अन्य मूल्यवर्धन गतिविधियों में निवेश के लिए उत्प्रेरक के रूप में कार्य कर सकती हैं। सहकारी समितियाँ गाँव/ब्लॉक-स्तर पर प्रसंस्करण, ग्रेडिंग, पैकेजिंग सुविधाओं की स्थापना के लिए आसान और परेशानीमुक्त वित्त सुनिश्चित कराने के लिए सबसे उपयुक्त जमीनी इकाईयाँ हैं। इससे लाखों छोटे धारक किसान सदस्य अपने खराब होने वाले उत्पाद का मूल्य जोड़ सकते हैं, मूल्यवान कृषि उत्पादों के अपव्यय को कम कर सकते हैं और अपनी उपज के बेहतर रिटर्न प्राप्त कर सकते हैं। इसीलिए तत्कालिक कदम उठाने की आवश्यकता है। इस प्रकार समय की आवश्यकता है - 

  • ग्रामीण और शहरी विकास केन्द्रों में रणनीतिक-स्तर पर सामुदायिक-स्तर के सहकारी प्रसंस्करण और मूल्य-संवर्धन केन्द्र स्थापित करना, 
  • बैंकिंग बुनियादी सुविधा के लिए या पर्याप्त और कुशल सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से इस तरह के सहकारी प्रसंस्करण और मूल्यवर्धन इकाइयों को वित्त सुनिश्चित करना
  • उचित नीतिगत हस्तक्षेपों के माध्यम से ऐसे नवीन कृषि प्रसंस्करण स्टार्टअप्स में निवेश के लिए सहकारी प्रसंस्करण स्टार्टअप्स की सुविधा और उद्यम पूँजीपतियों को प्रोत्साहित करना 
  • सुविधाजनक और रणनीतिक स्थानों पर पर्याप्त मान्यता प्राप्त खाद्य गुणवत्ता परीक्षण प्रयोगशालाओं की स्थापना
  • किसानों को प्रसंस्करण तथा शीघ्र नाशवान व कम नाशवान कृषि उत्पादों के संरक्षण के बारे में कौशल विकास और क्षमता निर्माण के लिए बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराना
  • सहकारी विपणन समितियों के सदस्यों को कृषि जिंसों की ग्रेडिंग, परख, छंटाई और मानकीकरण पर प्रशिक्षण और बुनियादी उन्मुखीकरण प्रदान करना 

कृषक समूहों के माध्यम से अनुबंध कृषि को मजबूत बनाना
 
स्वयं सहायता समूह, सहकारिता, कृषक उत्पादन संगठनों आदि जैसे स्थानीय किसान संग्राहकों में अनुबंध कृषि और भूमि पट्टे की व्यवस्था के माध्यम से सामूहिक भागीदारी सुनिश्चित करने की आवश्यक शक्ति है जो कि कृषि उपज के लिए त्वरित प्रोद्योगिकी हस्तांतरण, पूँजी प्रवाह और सुनिश्चित बाजारों की सुविधा प्रदान कर सकता है। चूँकि कृषि बाजार बड़े पैमाने पर खरीदार-चालित और ऊध्र्वाधर रूप से एकीकृत हैं, इसलिए समुदाय-आधारित किसान सहकारी समितियों के माध्यम से अनुबंध खेती किसानों को श्रम सम्बन्धित लेन-देन लागत, अन्य आदानों की लागत, प्रौद्योगिकी और नवाचार को कम करके किसानों को सर्वोत्तम सम्भव आय का स्रोत प्रदान करेगी। व्यक्तिगत किसानों की तुलना में, सहकारी और स्थानीय किसान उत्पादक संगठन कम इनपुट लागत, स्थिरता और अनुबंध कृषि व्यवस्था के दीर्घकालिक लाभों को प्राप्त कर सकते हैं और सदस्य किसानों के बीच लाभ का एक उचित और स्थाई वितरण कर सकते हैं। इसके अलावा, सामुदायिक उत्पादक संगठनों के पास सामूहिक सौदेबाजी, निविष्ट वस्तुओं के विक्रेताओं और संभारतंत्र (लॉजिस्टिक्स) सहायता उपलब्ध कराने वालों के साथ दीर्घकालिक सम्बन्धों के निर्माण तथा रख-रखाव और किसानों द्वारा सामना किए जाने वाले जोखिम और अनिश्चितताओं के माध्यम से फर्मों और किसानों के बीच जटिल गतिशीलता को संतुलित करने की वांछित क्षमता है।
 
निष्कर्ष
 
भारतीय कृषि काफी हद तक प्रबन्धन के मुद्दों से त्रस्त हैं, जिसमें विभिन्न कृषि-बुनियादी ढाँचे जैसे की मृदा स्वास्थ्य मानचित्रण और प्रबन्धन, जल संसाधन संरक्षण, समय पर और पर्याप्त कृषि-आदानों की आपूर्ति-क्रेडिट, बीज, उर्वरक, कीटनाशक, कृषि उपकरण, बिजली आदि के प्रबन्धन और विकास के लिए सामुदायिक-स्तर के संगठनों को सशक्त बनाकर शीघ्र एक एकीकृत और उपयुक्त नीति तैयार किए जाने की जरूरत है। कृषि-आधारित विपणन में अन्त-से-अन्त समाधान सुनिश्चित करना समय की मांग है ताकि कृषि क्षेत्र में परिणामोन्मुख सुधार लाया जा सके। सामुदायिक-स्तर का किसान संगठन सरकार के कृषि विकास मिशन को बढ़ावा देने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में सक्षम माहौल बना सकता है। सहकारिता/कृषक उत्पादन संगठनों स्वयं सहायता समूह में विभिन्न महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढाँचों जैसे इनपुट सेवाओं, सिंचाई, विपणन, आपूर्ति श्रृंखला, प्रसंस्करण, भंडारण और भंडारण इत्यादि। और सम्बद्ध गतिविधियों जैसे कि मुर्गीपालन, बागवानी डेयरी, आदि में भी समकालिक, पर्याप्त और डोरस्टेप क्रेडिट समर्थन के प्रवाह को बढ़ाने के लिए समान और ठोस प्रयास सुनिश्चित करने की क्षमता है।
 
इसके अलावा, सामुदायिक-स्तर की विपणन इकाइयों को कृषि वस्तुओं, उत्पादों, परीक्षण, प्री-कंडीशनिंग, ग्रेडिंग, मानकीकरण, पैकेजिंग और कृषि के भंडारण के परिवहन के लिए संगठित सुविधा केन्द्रों की स्थापना जैसी गतिविधियों को लेने के लिए बहुउद्देशीय समितियों में बदलना होगा। इसके अलावा, सामुदायिक गोदामों और सहकारी ग्रामीण और शहरी गोदामों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए और उन्हें मजबूत किया जाना चाहिए तथा विपणन गतिविधियों से जोड़ा जाना चाहिए ताकि कृषि उत्पादों के मूल्य संवर्धन और गुणवत्ता मूल्य की खोज के सही लाभ सुनिश्चित किए जा सकें। सहकारी समितियों के रूप में सामुदायिक सामूहिकता संचार, कार्य आवंटन, भुगतान/लेनदेन, बाजार प्रणाली, आपूर्ति श्रृंखला आदि पर उन्मुख और मजबूत किया जाना चाहिए।
 
(लेखक बैकुंठ मेहता राष्ट्रीय सहकारी प्रबंध संस्थान (वैमनीकॉम) पुणे, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के निदेशक हैं।)

 

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नैनीताल में बैरन

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नैनीताल में बैरनHindiWaterMon, 10/21/2019 - 14:07
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नैनीताल की धरोहर

पीटर बैरन उर्फ पिलग्रिम तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रान्त के रोजा (शाहजहाँपुर) के निवासी थे। हालांकि बैरन पेशे से मूलतः शराब के व्यवसायी थे, पर उन्हें प्रकृति से बेहद प्यार था। वे हिमालय के पुराने घुमक्कड़ थे। लेखक थे। कई सालों से हिमालय की यात्रा करते चले आ रहे थे। इन यात्राओं के दौरान बैरन ने हिमालय की विराटता, महानता और सुन्दरता को बेहद नजदीक से देखा और अनुभव किया था। पीटर बैरन हमेशा की तरह 1841 में भी हिमालयी क्षेत्र की यात्रा पर निकले।

हिमालय के बर्फीले इलाकों की 15 सौ मील की यात्रा के बाद नवम्बर, 1841 को बैरन अल्मोड़ा पहुँचे। उन दिनों कुमाऊँ कमिश्नर का मुख्यालय अल्मोड़ा था। अल्मोड़ा में बैरन के एक दोस्त जे.एच. बैटन, सीनियर डिप्टी कमिश्नर के पद पर कार्यरत थे। बैरन ने नैनीताल के पहले दौरे के दौरान अपने तीसरे साथी बैटन की पहचान स्पष्ट तौर पर जाहिर नहीं की है। उन्होंने अपने इस साथी को सांकेतिक भाषा में W लिखा है। जबकि वेरल को कैप्टन C कहा है। बैटन और बैरन आपस में करीबी रिश्तेदार भी थे। बैरन के बैटन की पहचान को उजागर नहीं करने के पीछे सम्भवतः यही कारण रहा हो। पर बैरन द्वारा बाद में दिए गए विवरणों से आभास होता है कि उन्होंने W शब्द का उपयोग सम्भवतः जे.एच.बैटन के लिए ही किया था। बैरन के दूसरे कैप्टन वेलर, लोक निर्माण विभाग में कुमाऊँ के अधिशासी अभियन्ता के पद पर तैनात थे। उन दिनों कैप्टन वेलर ने खैरना के पास कोसी नदी में अपना कैंप लगाया था। पीटर बैरन अपने दोस्त सीनियर डिप्टी कमिश्नर जे.एच.बैटन के साथ कैप्टन वैलर के कोसी स्थित कैंप पहुँचे। जहाँ तीनों मित्रों ने झील को खोजने की योजना बनाई। वे झील तक पहुँचने का सही मार्ग खोजने में सफल नहीं हो सके। उन्होंने झील तक पहुँचने के लिए किसी स्थानीय मार्ग-निर्देशक की सहायता लेने का निर्णय लिया, पर उन्हें मार्ग-निर्देशक मिलना भी असम्भव हो गया। पीटर बैरन का मानना था कि सम्भव है कि आस-पास के ग्रामीणों को इस तालाब की जानकारी हो, पर वे बताते नहीं थे।

पूछने पर भी सही जानकारी नहीं देते थे। आखिरकार उन्हें एक गाइड मिल तो गया, लेकिन वह उन्हें नैनीताल का सही मार्ग बताने के बजाय गुमराह करना चाहता था। बैरन का मानना था कि इसके पीछे नैनीताल की झील के प्रति स्थानीय निवासियों के अंतर्मन में धार्मिक विश्वास की भावना रही हो। बैरन के अनुसार स्थानीय निवासियों में नैनीताल की झील और पहाड़ियों के प्रति बेहद सम्मान था। सम्भवतः इसी वजह से स्थानीय लोग अंग्रेजों को नैनीताल लाना पसंद नहीं करते हों। चूंकि पीटर बैरन हिमालयी क्षेत्रों के घुमक्कड़ थे, उन्होंने घाट-घाट का पानी पिया था, उन्हें बेवकूफ बनाना आसान नहीं था। जब उन्हें इस बात का आभास हो गया कि गाइड गुमराह करने का प्रयास कर रहा है। उन्होंने एक तरकीब आजमाई। गाइड को एक भारी पत्थर दिया और कहा कि इस पत्थर को नैनीताल पहुँचाओ, इसे गिरने और टूटने मत देना। क्योंकि नैनीताल में पत्थर नहीं हैं, इसलिए यह पत्थर हमें वहाँ चाहिए। पत्थर के भारी बोझ से छुटकारा पाने की गरज से एकाएक गाइड के मुँह से यह शब्द निकल गया कि नैनीताल में पत्थरों की कोई कमी नहीं है। जाहिर है कि बिना उस जगह को देखे गाइड को यह जानकारी होना सम्भव नहीं था। एक मील चलने के बाद पीटर बैरन ने गाइड से पत्थर छोड़ देने को कहा। इसके बाद गाइड उन्हें सही रास्ते पर ले गया। अंततः 18 नवम्बर, 1841 को खैरना से कफुल्टा, जाख, चौरसा होते हुए सेंट-लू के रास्ते पीटर बैरन उर्फ पिलग्रिम अपने दो साथियों के साथ नैनीताल पहुँचने में सफल हो गए।

18 नवम्बर की रात तीनों मित्रों ने एक टेंट में बिताई। बैरन ने नैनीताल की मधुरिम हरियाली के दृश्य निहारे तो वे उल्लास एवं प्रसन्नता से उछल पडे। नैनीताल के अद्वितीय एवं अनुपम सौन्दर्य से आकर्षित होकर बैरन ने यहाँ नगर बसाने की ठान ली। बैरन ने खुद अपने और मित्रों के मकान बनाने के लिए नैनीताल में तीन जगहों पर जमीन चिन्हित की। अगले दिन 19 नवम्बर को जल्दी ही दुबारा इस जगह पर आने के इरादे के साथ तीनों लोग अपने-अपने गंतव्यों को लौट गए। सम्भव है कि कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल के अलावा उस दौरान कुमाऊँ में रह रहे किसी अन्य यूरोपीय नागरिक ने 18 नवम्बर, 1841 से पहले इस तालाब को नहीं देखा हो, पर पीटर बैरन और उनके साथी बैरन और कैप्टन वेलर नैनीताल पहुँचने वाले पहले यूरोपीय हरगिज नहीं थे। नैनीताल के पहले दौरे के बारे में पिलग्रिम ने अपनी किताब ‘नोट्स ऑफ वॉन्डरिंग्स इन द हिमाला’ में लिखा है कि उन्होंने शिमला, मसूरी, अल्मोड़ा, लोहाघाट आदि जगहों को देखा है और वह हिमालय की अधिकांश पहाड़ियों की यात्रा कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में नैनीताल का इलाका अत्यधिक खूबसूरत है। उनकी हिमालय की 15 सौ मील की यात्रा में नैनीताल सबसे खूबसूरत जगह थी।

पीटर बैरन ने लिखा है कि-सात पहाड़ियों के बीच छिपे तालाब को ढूँढ़ना मुश्किल है। पहाड़ियों से पानी आकर तालाब में गिरता है। तालाब के एक छोर में पतला सा निकास है। तालाब के साथ लगा एक खेतनुमा मैदान है, जिसमें बाँज आदि के पेड़ हैं। यहाँ क्रिकेट का मैदान या रेस कॉर्स बन सकता है। तालाब के दोनों तरफ तेज ढालदार पहाड़ियाँ हैं, जिनमें घना जंगल है। एक छोटा सा पेड़ गिर गया था, जिसकी लम्बाई एक सौ दो फीट थी। तालाब से लगे पहाड़ बड़े सुन्दर एवं मनमोहक हैं। यहाँ तमाम तरह के जंगली जानवर घूमते रहते हैं। 18 नवम्बर की रात जंगली जानवरों को अपने कैंप से भगाने में उन्हें बहुत दिक्कतें हुईं।

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चंडीगढ़ के छात्र ने आलू से बनाई प्लास्टिक

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चंडीगढ़ के छात्र ने आलू से बनाई प्लास्टिकHindiWaterTue, 10/22/2019 - 10:28

चंडीगढ़ के छात्र ने आलू से बनाई प्लास्टिक।चंडीगढ़ के छात्र ने आलू से बनाई प्लास्टिक। फोटो-zeebiz

प्लास्टिक प्रदूषण पूरे विश्व के लिए चिंता का कारण बना हुआ है। सभी देश मिलकर प्लास्टिकमुक्त पृथ्वी की बात कर रहे हैं और उद्योगों को पैकेजिंग के लिए प्लास्टिक का विकल्प ढूंढने के लिए कहा गया है, लेकिन शायद किसी ने सोचा नहीं होगा कि जिस आलू को हम बड़े स्वाद के साथ खाते हैं, उससे प्लास्टिक जैसी कोई चीज बनाई जा सकती है। चंडीगढ़ की चितकारा यूनिवर्सिटी के एक छात्र प्रणव गोयल ने आलू मे मौजूद स्टार्च से प्लास्टिक जैसी एक नई चीज बनाई है।  यह प्लास्टिक की तरह ही दिख रही है और प्लास्टिक की तरह ही पारदर्शी भी है। इससे पर्यावरण को नुकसान भी नहीं होगा।

पूरा लेख पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें - https://www.zeebiz.com/hindi/technology/chandigarh-student-makes-potato-plastic-14549

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आपदा प्रबंधनः चुनौतियों में छिपा रोजगार

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आपदा प्रबंधनः चुनौतियों में छिपा रोजगारHindiWaterTue, 10/22/2019 - 13:56
Source
अमर उजाला, 21 अक्टूबर 2019

सदियों से जमीन खिसकने, भूकम्प, बाढ़, सुनामी, चक्रवात, आगजनी की घटनाएँ होती आई हैं। आज के दौर में इन आपदाओं का प्रभाव लाखों लोगों पर पड़ रहा है। आपदाग्रस्त इलाकों में उचित प्रबंधन सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। ऐसे में सही समय पर पहुँच कर लोगों की जान व माल की रक्षा करना प्राथमिकता का कार्य हो गया है। इस कार्य में खतरे से निपटने, दुर्घटना होने के बाद जान-माल की हिफाजत कैसे की जाए, इन बातों की समझ होनी जरूरी है। हमारे देश में केन्द्र व राज्य सरकारों ने इस दिशा में गम्भीरता से कदम उठाना आरम्भ किया है।
 
घरेलू उत्पाद प्रबंधन एवं ट्रेनिंग

केन्द्र और राज्य सरकार ने नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटीज का गठन किया। जिसके परिणामस्वरूप आपदा प्रबंधन के लिए देश में दो विंग है - एनडीएमए (नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी) और डायरेक्टर जनरल सिविल डिफेंस (डीजीसीडी)। नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी नियम और कानून बनाते हैं। इनके जिम्मे डिजास्टर से सम्बन्धित कई विभागों का काम होता है। वहीं डायरेक्टर जनरल सिविल डिफेंस (डीजीसीडी) के अन्तर्गत हर शहर और हर इलाके में इनकी टीमें होती हैं। यह छोटे-छोटे विंग में काम करते हैं। लेकिन इसके लिए कुछ शर्ते होती हैं। हवाई दुर्घटनाओं से बचाव के लिए सिविल एविएशन, रेल दुर्घटनाओं से बचाव के लिए रेल मंत्रालय इसके लिए विशेष प्रबंध करते हैं और प्रशिक्षित लोगों की भर्ती करते हैं। आपदा प्रबंधन की ट्रेनिंग के अन्तर्गत खतरनाक तत्वों का प्रबंधन, जोखिम विश्लेषण और अपात स्थितियों की योजना कैसे बनाए जैसे गम्भीर मुद्दों पर प्रशिक्षण दिया जाता है।
 
कोर्स और योग्यता

डिजास्टर मैनेजमेंट से सम्बन्धित कई तरह के कोर्स मौजूद हैं। अंडरग्रेजुएट व सार्टिफिकेट कोर्स के लिए छात्र ने 12वीं की परीक्षा कम से कम 50 प्रतिशत अंकों के साथ पास की हो। मास्टर तथा एमबीए सरीखे कोर्स के लिए स्नातक होना आवश्यक है। कुछ संस्थान पीएचडी भी करते हैं। अतः उसके लिए मास्टर डिग्री होना जरूरी है। इसके अलावा शॉर्ट टर्म कोर्स और डिस्टेंस लर्निंग कोर्स भी विकल्प के रूप में हैं। इस क्षेत्र में सर्टिफिकेट कोर्स इन डिजास्टर मैनेजमेंट, डिप्लोमा इन डिजास्टर मैनेजमेंट, एमए इन डिजास्टर मैनेजमेंट, एमबीए, पीजी डिप्लोमा इन डिजास्टर मैनेजमेंट, इसके अलावा इसमें एसोसिएट डिग्री इन हेल्थ सेफ्टी एंड एन्वॉयरमेंट जैसे कोर्स भी शामिल हैं। इस पाठ्यक्रम में रिस्क एसेसमेंट एंड प्रिवेंशन स्ट्रेटजीज, लेजिस्लेटिव स्ट्रक्चर फॉर कंट्रोल ऑफ डिजास्टर मिटिगेशन रेस्क्यू आदि विषय पढ़ाए जाते हैं।
 
करियर की सम्भावनाएँ
 
दिल्ली कॉलेज ऑफ फायर सेफ्टी इंजीनियरिंग के डायरेक्टर जेड.एस.लाकड़ा के अनुसार डिजास्टर मैनेजमेंट का कोर्स करने के बाद ज्यादातर जॉब पब्लिक सेक्टर में हैं। जैसे सरकारी विभागों के फायर डिपार्टमेंट, सूखा प्रबंधन विभाग आदि में प्रोफेशनल्स की भर्ती की जाती है। देश से बाहर विदेश में छात्र अपना करियर इमरजेंसी सर्विस, लोकल अथॉरिटी राहत एजेंसी, एनजीओ, यूएनओ, वल्र्ड बैंक, एमनेस्टी इंटरनेशनल, एशियन डेवलपमेंट बैंक, रेड क्रास सोसाइटी, यूनेस्को जैसी इंटरनेशनल एजेंसी में बना सकते हैं। रिस्क मैनेजमेंट, कंस्ट्रक्शन टेक्नोलॉजी कंसल्टेंसी, डॉक्यूमेंटेशन, इंश्योरेंस, स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट आदि क्षेत्रों में भी जॉब की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं। ग्रेजुएट प्रोफेशनल्स अपनी खुद की कंसल्टेंसी भी स्थापित कर सकते हैं। कोर्स के दौरान प्रायोगिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। कोर्स करने के बाद सेफ्टी मैनेजर, फायर एंड सेफ्टी ऑडिटर, स्टेशन ऑफिसर, डिवीजनल ऑफिसर, डिप्टी चीफ फायर ऑफिसर, चीफ फायर ऑफिसर, डायरेक्टर जैसी नौकरियाँ मिल सकती हैं।
 
करियर एक्सपर्ट एवं कांउसलिंग साइकोलॉजिस्ट डॉ. गीताजंली कुमार का कहना है कि आपदा एवं फाटर सेफ्टी के क्षेत्र में करियर बनाने के लिए लीडरशिप क्वालिटी और साहस व धैर्य के साथ शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता का होना जरूरी है। भारतीय पारिस्थितिक एवं पर्यावरण संस्थान, नई दिल्ली एवं अन्य कई गैर सरकारी कॉलेजों में डिजास्टर मैनेजमेंट में डिग्री और पीजी डिप्लोमा की पढ़ाई कराई जाती है। 
 
प्रमुख संस्थान

  • भारतीय पारिस्थितिक एवं पर्यावरण संस्थान नई दिल्ली
  • दिल्ली कॉलेज ऑफ फायर सेफ्टी इंजीनियरिंग, नई दिल्ली
  • इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट एंड फायर सेफ्टी, मोहाली, पंजाब
  • डिजास्टर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट, भोपाल मध्यप्रदेश

 

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वायु प्रदूषण से याददाश्त हो रही कमजोर

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वायु प्रदूषण से याददाश्त हो रही कमजोरHindiWaterTue, 10/22/2019 - 16:16

फोटो-niehs

‘‘वायु’’ पृथ्वी पर जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्वों में से एक है। जिसके बिना धरती पर न तो इंसानों का जीवन संभव है और न ही जीव-जंतुओं तथा पेड़ पौधों का। लेकिन जैसे-जैसे मानव आधुनिकता की ओर बढ़ा, उसने अपनी सुविधा व सहुलियत के लिए नई-नई तकनीकों का आविष्कार करना शुरू किया। समय के साथ पृथ्वी पर इंसानों की आबादी बढ़ने से इन तकनीकों के उपयोग में वृद्धि हुई। बढ़ती आबादी की सहुलियतनुमा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर उद्योगों को लगाया गया। परिवहन के लिए मोटर गाड़ी बाजार में आई। हवा में उड़ने के लिए एयरोप्लेन और हेलीकाॅप्टर का उपयोग होने लगा। दूर दराज बैठे किसी व्यक्ति से बात करने के लिए फोन/मोबाइल का आविष्कार हुआ। हालांकि आविष्कार करना गलत नहीं है, लेकिन ये सब करते वक्त भविष्य में पड़ने वाले प्रभावों के बारे में नहीं सोचा गया। नतीजतन, बढ़ते उद्योगों, वाहनों और प्लास्टिकयुक्त सामर्गियों को जलाने से वायु इस हद तक प्रदूषित हो गई कि हर साल 70 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण के कारण हो जाती है। अब तो वायु प्रदूषण का असर हमारी याददाश्त पर भी पड़ने लगा है और हमें चीजों को याद रखने में परेशानी होने लगी है। जिसका सबसे ज्यादा असर भारत में पड़ने की संभावना बनी हुई है।

हाल ही में वार्विक विश्वविद्यालय द्वारा इंग्लैंड के प्रदूषित और गैर प्रदूषित क्षेत्रों में रहने वाले करीब 34 हजार लोगों पर एक शोध किया गया। अध्ययन में शामिल सभी लोगों को शब्द याद रखने की परीक्षा से गुजरना पड़ा। इस परीक्षा में सभी को 10 शब्द याद रखने के लिए दिए गए। साथ ही याददाश्त पर प्रभाव डालने वाले अन्य घटकों जैसे आयु, स्वास्थ्य, शिक्षा का स्तर, जातीयता, परिवार और रोजगार आदि की स्थिति का भी ध्यान रखा गया। अध्ययन में सामने आया कि हवा/वायु में मौजूद नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और पीएम10 का बढ़ता स्तर याददाश्त पर प्रभाव डाल रहे हैं। कम प्रदूषित वायु में रहने वाले शख्स की अपेक्षा अधिक वायु प्रदूषण में रहने वाले व्यक्ति की याददाश्त में करीब दस साल का अंतर पाया गया। यानी प्रदूषित क्षेत्रों में रहने वाले 40 साल के व्यक्ति की याददाश्त कम प्रदूषण में रहने वाले 50 साल के व्यक्ति के बराबर पाई गई

दरअसल वायु प्रदूषण धीमे जहर की तरह है। जो न चाहते हुए भी हमारे भीतर जाता है और शरीर को खोखला कर देता है। इसके दुष्परिणाम का एहसास हमें तब होता है, जब स्थिति नियंत्रण के बाहर हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी वायु प्रदूषण के इस दुष्प्रभाव से दुनिया को आगाह किया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व की करीब 91 प्रतिशत आबादी वायु प्रदूषण से प्रभावित इलाकों में रहती है। दुनिया भर में होने वाले 24 प्रतिशत स्ट्रोक और 25 प्रतिशत हृदय संबंधी बीमारियों का कारण भी वायु प्रदूषण ही है, लेकिन इन सब के बावजूद हम आज भी अपने स्वास्थ्य और भविष्य के प्रति संजीदा नहीं हैं। इसके परिणाम अभी से दिखने लगे हैं, जो भविष्य में और भयावह हो सकते हैं, इसलिए अपने भविष्य को सुरक्षित रखने और स्वस्थ रहने के लिए हमें ध्वनिमत से वायु प्रदूषण के खिलाफ जंग लड़नी होगी और अपने अपने स्तर पर हानिकारक वस्तुओं का त्याग करना होगा।

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पर्यावरणीय गैर-अनुपालन के लिए विनियामक सुधार

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पर्यावरणीय गैर-अनुपालन के लिए विनियामक सुधारHindiWaterWed, 10/23/2019 - 11:26
Source
Centre For Policy Research (CPR)

भारत में औद्योगिक, ऊर्जा और अवसंरचनात्मक परियोजनाओं को पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986, वायु (प्रदूषण और प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम 1981, जल रोकथाम और नियंत्रण जैसे केंद्रीय और राज्य स्तर के कानूनों की एक श्रेणी के तहत पर्यावरणीय मंजूरी लेना कानूनी रूप से अनिवार्य है। इन कानूनों के तहत परियोजना अनुमोदन में परियोजना संचालन के कारण प्रदूषण भार को कम करना, वन हानि के लिए पुनर्वितरण और निषेध या भूजल निकासी पर सीमा जैसी पर्यावरण और सामाजिक सुरक्षा या ‘शर्तें‘ शामिल हैं, लेकिन परियोजनाओं के निर्माण और संचालन की अवधि के दौरान इन सुरक्षा उपायों का अनुपालन करने की अपेक्षा की जाती है। खनन परियोजनाओं के मामले में भूमि की बैकफिलिंग और पारिस्थितिक बहाली भी सुरक्षा उपायों का हिस्सा बनती है।

वास्तव में, सशर्त परियोजना अनुमोदन का उद्देश्य बड़ी परियोजनाओं के कारण होने वाले पर्यावरणीय और सामाजिक नुकसान को कम करना है। भारत की स्वतंत्रता के बाद के पर्यावरणीय कानूनों के कार्यान्वयन के पहले चार दशकों के दौरान परियोजनाओं द्वारा शर्तों के अनुपालन की स्थिति पर बहुत कम या कोई जोर नहीं था। एक तरफ अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय विकास की जरूरतों पर ध्यान केंद्रित किया गया था और दूसरी तरफ भूमि विस्थापन के कारण सामाजिक संघर्ष पर। भले ही इन कानूनों में पर्यावरणीय अनुपालन से संबंधित कानूनी धाराएं अस्तित्व में थीं, लेकिन इन परियोजनाओं से पर्यावरण में व्यापक गिरावट आई है। यह केवल पिछले दशक में है कि परियोजनाओं द्वारा पर्यावरण गैर-अनुपालन और कानूनों को लागू करने के लिए मौजूदा संस्थानों की अक्षमता संदेह के घेरे में आ गई है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) के  कार्यालय ने वर्ष 2010 से पर्यावरण लेखा परीक्षा रिपोर्ट बनानी शुरू की है और गैर-अनुपालन पर भी रिपोर्ट की है। अदालतों ने खनन जैसे विशिष्ट क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर कानूनी उल्लंघनों को देखा है। गैर-सरकारी अध्ययनों में गैर-अनुपालन की उच्च दर भी दर्ज की गई है।

लौकिक कालीन के अंतर्गत परेशानी से निजात न पाने के कारण सरकार ने शीघ्रता में एक तंत्र विकसित किया है। जिसमें शामिल हैंः-

  • प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अधिकारियों को सीधे प्रदूषण और अन्य प्रदर्शन
  • संकेतकों पर जानकारी कैप्चर और रिले करने के लिए प्रदूषण मॉनिटर या उपकरणों के उपयोग के माध्यम से स्व-नियमन।
  • पैनल्टी, फाइन, बैंक गारंटी और प्रदूषक सिद्धांत के भुगतान के आधार पर अन्य वित्तीय विघटनकारी प्रावधान।
  • अनुपालन के लिए लाने के प्रयास में उल्लंघन करने वाली परियोजनाओं और उल्लंघनकर्ताओं को अल्पकालिक या अस्थायी मंजूरी देने के लिए एक बार की माफी योजनाएं।

लेकिन इन उपायों ने न तो परियोजनाओं के पर्यावरण प्रदर्शन में सुधार किया है और न ही प्रदूषणकारी परियोजनाओं के खिलाफ प्रभावित लोगों द्वारा शिकायतों और कानूनी मामलों के प्रवाह को कम किया है।

क्यों अनुपालन तत्काल होना चाहिए ?

मजबूत और सुविचारित पर्यावरण अनुपालन तंत्र को भारत के विकास के लिए एक आवश्यकता के रूप में देखा जाता है। वास्तव में, सरकारों ने परियोजनाओं को एक दायित्व के रूप में विनियमित करने और आर्थिक विकास पर एक दबाव के रूप में संपर्क किया है। वे मौजूदा नियमों को लागू करने के लिए धीमा है और चयनात्मक प्रवर्तन ने उन्हें ‘‘लाइसेंस राज’’ बनाने की प्रतिष्ठा अर्जित की है। यह कोयला संयंत्रों पर अनिवार्य उत्सर्जन मानकों को लागू करने के उच्चतम न्यायालय के चल रहे प्रयासों में देखा जा सकता है। भले ही वायु और जल अधिनियमों के तहत जारी सहमति परमिट के हिस्से के रूप में मानक कई वर्षों से मौजूद हैं, लेकिन केंद्र सरकार ने मानदंडों का पालन कर परियोजनाओं को पाने से खुद को पीछे खींच लिया है। आज, अनियमित परियोजनाओं के प्रभावों ने अर्थव्यवस्था और लोगों पर उनके प्रभावों की अनदेखी करने के लिए सरकारों को राजनीतिक रूप से अक्षम बना दिया है। तमिलनाडु में स्टरलाइट कॉपर स्मेल्टर के संचालन और प्रस्तावित विस्तार के कारण हालिया संघर्ष का एक मामला है। (क) यह परियोजना भारत का सबसे बड़ा तांबा उत्पादन संयंत्र था, लेकिन विषाक्त उत्सर्जन, मिट्टी और जल प्रदूषण का कारण भी था। परियोजना द्वारा हो रहे प्रदूषण के खिलाफ कई शिकायतों और कानूनी मामलों के बावजूद कंपनी को 20 वर्षों तक अपने संचालन को जारी रखने की अनुमति दी गई थी। पिछले साल, जब कंपनी ने अपने परिचालन का विस्तार करने की अनुमति मांगी, तो 100 दिनों से अधिक समय तक स्थानीय विरोध प्रदर्शन हुए। जब स्थानीय पुलिस ने 13 प्रदर्शनकारियों को गोली मार दी, तो वे अंततः हिंसक हो गए। स्टरलाइट राज्य में अपने 2019 के चुनाव अभियान में विपक्षी दल के साथ एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया।

ऐसे कई मामले हैं जिनको लेकर पर्यावरण सुरक्षा उपायों का पालन न करने पर अदालत में मुकदमे चल रहे हैं। इनसे परियोजनाओं के लिए और समग्र रूप से संबंधित आर्थिक क्षेत्रों पर भारी वित्तीय प्रभाव पड़ा है। गोवा खनन मामला वर्ष 2012 से खनन पर राज्य व्यापी प्रतिबंध का कारण बना। 2019 की पहली तिमाही में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने पर्यावरण उल्लंघन के लिए लगभग 873 करोड़ रुपये से अधिक का जुर्माना लगाया था, ये राशि पिछले साल लगाए गए कुल जुर्माने के बराबर है।

खराब अनुपालन से पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है जिससे पानी की भीषण कमी, उत्पादकता में कमी और हवा विषाक्त होती है। हालांकि ये परिस्थितियां देश के अधिकांश हिस्सों में बन रही हैं, जलवायु परिवर्तन की गतिशीलता इन स्थानीय परिस्थितियों में जुड़ती है, जिससे उनका प्रभाव कहीं अधिक तीव्र और जटिल हो जाता है। उदाहरण के लिए, औद्योगिक उद्देश्यों के लिए बड़े पैमाने पर पानी की निकासी से प्रभावित क्षेत्र, कोयला वॉशर और थर्मल पावर प्लांट भी लगातार और अधिक स्थायी सूखे का सामना कर सकते हैं। विकास के सकारात्मक लाभों को मिटाने में पर्यावरणीय प्रभावों के दृश्य प्रभाव पहले से ही मुख्यधारा की आर्थिक सोच में बदलाव का कारण बने हैं, जिसने परंपरागत रूप से निम्नीकृत और क्षतिग्रस्त स्थान की आर्थिक लागत को नजरअंदाज कर दिया है। यह स्वीकार्य है कि संकट प्रबंधन शायद ही संभव हो, लेकिन आर्थिक और पर्यावरण परिवर्तन के लिए सुधारों और रणनीतियों की योजना बनाने की आवश्यकता है। पर्यावरण अनुपालन प्रणाली इन सुधारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनेगी। 

जलवायु परिवर्तन के समय की तुलना में पर्यावरणीय नियमन के बचाव के रूप में अनुपालन का मामला कभी भी अधिक सम्मोहक नहीं रहा है। अब तक, अनुपालन की सफलता या विफलता घरेलू राजनीति की मजबूरियों के इर्द-गिर्द घूमती रही है, लेकिन अब यह जलवायु परिवर्तन की भू-राजनीति से जुड़ी है। ग्लोबल वार्मिंग की जांच करने के लिए किसे क्या करना चाहिए, इस पर वर्षों के संघर्ष के बाद राष्ट्रों ने आखिरकार पेरिस समझौते को समाप्त कर दिया, जो 2020 तक अपने संबंधित कार्बन शमन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए उपायों का एक समूह है। हालाकि, अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए एक प्रणालीगत और मजबूत प्रोटोकॉल के बिना भारत अपने लक्ष्यों को कम करने का जोखिम उठाता रहा है। इसलिए 2019 के आम चुनावों के बाद सत्ता में आने वाले राजनीतिक दल के लिए यह राजनीतिक रूप से उल्लेख नहीं होना लाजिमी है।

किसे प्रॉजेक्ट्स रेग्युलेट करना चाहिए और कैसे ?

क्रमिक सरकारों ने आर्थिक विकास के मात्रात्मक पहलुओं पर जोर दिया है। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान स्वीकृत परियोजनाओं की संख्या बढ़ाने और प्रभाव मूल्यांकन के लिए आवश्यक समय को कम करने और अनुमोदन प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित किया है। इन परियोजनाओं को गंभीर प्रभावों के साथ-साथ प्रदूषण और पर्यावरणीय गिरावट को विकास के लिए व्यापार-बंद के रूप में देखा जाता है। हालाँकि 16 हजार से अधिक केंद्रों से स्वीकृत बड़ी परियोजनाओं के संचालन और कई अन्य लोगों ने वादा किया, लेकिन समस्या अब औद्योगिक और ग्रीनफील्ड या फिर कम औद्योगिक क्षेत्र तक तेजी से विस्तारित हो चुकी है। सरकार इस समस्या से निपटने में न तो अनदेखी कर सकती है और न ही देरी। यदि हमारी अर्थव्यवस्था की वृद्धि की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए पर्याप्त स्थिति नहीं है, तो पर्यावरण और सामाजिक सुरक्षा उपायों का अनुपालन आवश्यक है। इसलिए नई सरकार से पहले सवाल यह नहीं होगा कि ‘परियोजनाओं को विनियमित करना है, लेकिन उन्हें कैसे विनियमित किया जाए और कौन नियमित करेगा। परियोजनाओं के पर्यावरण अनुपालन की समस्या के लिए सरकार के दृष्टिकोण को स्थानांतरित करने और बेहतर परिणाम प्राप्त करने की क्षमता के साथ नीतिगत सुधारों के तीन सेट नीचे दिए गए हैं।

अनुपालन-आधारित अनुमोदन

पर्यावरण कानूनों को लागू करने वाली एजेंसियां चक्रीय (लीनीयर) के बजाये रेखीय प्रणालियों के रूप में अनुमोदन प्रदान करने की प्रक्रियाओं को देखती हैं। इस समस्या की इन प्रक्रियाओं को समझाते हुए उनके द्वारा लगाए गए फ्लोचार्ट की संख्या से सबसे अच्छा समझा जाता है। अनुपालन इन प्रक्रियाओं में नीचे की ओर आता है और प्रतिक्रिया के लिए बहुत कम जगह है। अनुपालन पर परियोजना प्रदर्शन कभी भी नए क्षेत्रों में परियोजनाएं स्थापित करने के लिए कंपनियों का उल्लंघन करके परियोजना विस्तार या अनुमति के लिए सरकारी निर्णयों को प्रभावित नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले में महानदी कोलफील्ड्स द्वारा संचालित कुलदा ओपनकास्ट खदान ने मंजूरी की कई शर्तों का उल्लंघन किया है। फिर भी इसे दो साल में दो बार विस्तार और क्षमता बढ़ाने की मंजूरी मिली वो भी एक साल की अवधि के लिए। खनन परियोजनाओं के लिए पर्यावरण मंजूरी की वैधता 30 वर्ष है। ऐसी परियोजनाओं की समीक्षा के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) अधिसूचना, 2006 के तहत गठित विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (ईएसी) का यह निर्णय तदर्थ था, जिसका कोई पूर्ववर्ती और कानूनी आधार नहीं था।

हाल के वर्षों में गैर-अनुपालन को संबोधित करने के लिए प्रणालीगत तंत्र की कमी ने नौकरशाही पर चल रहे संचालन की वित्तीय स्थिति को प्रभावित किए बिना कानूनी अनुपालन दिखाने के लिए भारी दबाव भी बनाया है। इसके लिए उन्होंने ईआईए, तटीय विनियमन क्षेत्र और जैव विविधता कानूनों के तहत परियोजनाओं के उल्लंघन के लिए माफी मांगी है, लेकिन ये उपाये केवल कागज पर अनुपालन के रिकॉर्ड में सुधार करते हैं न कि वास्तविकता में। अब पहले से ही चालू कई परियोजनाओं के साथ मंजूर की जा रही परियोजनाओं पर एक बहुत ही उच्च स्थान देना महत्वपूर्ण है। विनियामक प्रक्रियाओं का आधार अनुमोदन से अनुपालन तक स्थानांतरित होना चाहिए। केवल उन परियोजनाओं को जिनके पास उच्च अनुपालन का एक स्थापित रिकॉर्ड है या जो क्षेत्र में दूसरों के अनुपालन प्रदर्शन को पार कर सकते हैं, और निश्चित रूप से कानूनी मानकों को पूरा कर सकते हैं, उन्हें परमिट और अनुमोदन प्रदान किया जाना चाहिए। प्रदूषण के लिए अनुमेय मानक में पहले से ही प्रमुख सुधार लंबित हैं, लेकिन ये बदलाव निरर्थक साबित होंगे, अगर परियोजनाओं को उच्चतम अनुपालन मानकों तक नहीं रखा जाता है।

तृतीय-पक्ष की निगरानी

प्रभाव में परियोजना के अनुपालन की निगरानी के वर्तमान अभ्यास में दो पक्ष शामिल हैंः ‘‘परियोजना प्रस्तावक और नियामक प्राधिकरण’’। यह प्रणाली अब तक गैर-अनुपालन की समस्या का समाधान करने में सक्षम नहीं हुई है और इसके बजाय भ्रष्टाचार की चिंताओं का कारण बनी है। इस अभ्यास की समीक्षा के परिणामस्वरूप सिफारिशें हुई हैं कि एक स्वतंत्र तीसरे पक्ष द्वारा ही निगरानी की जानी चाहिए। पर्यावरण मंत्रालय ने इस सिफारिश को शामिल करने के लिए सितंबर 2018 में ईआईए अधिसूचना में संशोधन का प्रस्ताव रखा था। इसे अंतिम रूप दिया जाना बाकी है। इस संशोधन में प्रस्तावित ‘थर्ड पार्टी‘ विशेषज्ञ सरकारी संस्थान हैं।

वास्तव में, इस संदर्भ में वास्तविक ‘थर्ड पार्टी’ ऐसे समुदाय हैं जो गैर-अनुपालन के प्रभावों का अनुभव करते हैं जैसे कि आजीविका का नुकसान, खराब रहने की स्थिति और विस्थापन। हालाकि गैर-अनुपालन के कारण होने वाले नुकसान को दूर करने में उनकी सबसे बड़ी हिस्सेदारी है, लेकिन परियोजना की जांच के दौरान ये तस्वीर धरातल पर कहीं नजर नहीं आती। यह 1970 के दशक के बाद से कई देशों में पर्यावरण शासन में भागीदारी और भारत में इसके लिए संवैधानिक जनादेश के विपरीत है। चार राज्यों में पर्यावरण गैर-अनुपालन के मामलों पर हमारे शोध के आंकड़ों से पता चलता है कि जब समुदायों के सबूतों  को संग्रह में शामिल करने से नियामकों द्वारा उल्लंघन और आधिकारिक निगरानी की रिपोर्टिंग, पर्यावरण अनुपालन में काफी सुधार हो सकता है। उनकी भागीदारी से नियामकों को उपचारात्मक कार्यों के लिए सामुदायिक प्राथमिकताओं को समझने में मदद मिलती है। इन राज्यों में विनियामक निकाय सामुदायिक भागीदारी के लाभों को पहचानने लगे हैं और निगरानी के लिए उनके द्वारा आयोजित साइट यात्राओं जैसी क्रियाओं में समुदायों को शामिल करने के लिए अधिक खुले हैं। लेकिन समुदाय की भागीदारी को बढ़ावा देने वाली प्रथाएं-जैसे परियोजनाओं के सामाजिक ऑडिट (जो प्रभावित लोगों के साथ बातचीत के लिए निगरानी डेटा और औपचारिक स्थानों तक पहुंच प्रदान करते हैं) अभी तक पर्यावरण विनियमन में व्यवस्थित नहीं हैं।

अनुपालन के लिए एकीकृत क्षेत्रीय नेटवर्क

भारत के पर्यावरण नियमों को काफी हद तक परियोजना-केंद्रित दृष्टिकोण के साथ लागू किया गया है। विनियोजन निकायों द्वारा उनके प्रभाव अध्ययन, लागत-लाभ विश्लेषण और पर्यावरण प्रबंधन योजनाओं के मूल्यांकन के बाद परियोजनाओं को मंजूरी दी जाती है। ये आकलन नियमित रूप से परियोजनाओं के संभावित प्रभावों को समझते हैं, जिससे वे सौम्य या परिचालन प्रतीत होते हैं, जिनके प्रभाव को आसानी से कम किया जा सकता है। इस तरह के आकलन भी नियामक निकायों से त्वरित अनुमोदन प्राप्त करते हैं, इस प्रकार सरकार के आर्थिक विकास के लक्ष्यों को पूरा करने में मदद करते हैं। लंबे समय के लिए कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों ने संचयी प्रभाव अध्ययनों की मांग की है, ताकि अनुमोदन प्रदान करने से पहले परियोजना प्रभावों की पूरी श्रृंखला का पता लगाया जा सके। लेकिन इस तरह के व्यापक अध्ययन केवल कुछ ही मामलों में किए गए हैं। संचयी अध्ययन न केवल परियोजना स्तरों पर बल्कि उन क्षेत्रों के लिए भी आवश्यक है जो पर्यावरणीय क्षरण से प्रभावित हैं।

इसी तरह, एक परियोजना-आधारित निगरानी प्रणाली संसाधन गहन और समग्र परिणामों के संदर्भ में बहुत प्रभावी नहीं है। लेकिन अगर नियामकों को एकीकृत क्षेत्रीय नेटवर्क के रूप में पुनर्गठित किया जा सकता है, तो वे क्षेत्रीय मानकों को बेहतर बनाने के लिए उन्हें उपलब्ध संसाधनों का अधिक कुशलता से उपयोग कर सकते हैं। संबंधित क्षेत्र के भीतर कई नियामक एजेंसियां समन्वित प्रतिक्रियाओं के प्रति अपनी विशेषज्ञता और मानव संसाधन को एक दिशा में उपयोग करें। इस तरह का एक तंत्र अनुपालन निगरानी के लिए एक अंतर-विवादास्पद दृष्टिकोण ला सकता है। इस तरह के एकीकरण के लिए पहचाने गए क्षेत्र प्रशासनिक सीमाओं जैसे जिलों या राज्यों में कटौती कर सकते हैं। यह विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) जैसे बड़े औद्योगिक स्थलों के स्तर पर हो सकते हैं, जिनके भीतर कई परियोजनाएं, महानगरीय क्षेत्र, पूरे जिले या भौगोलिक क्षेत्र पहले से ही गंभीर रूप से प्रदूषित, या पूरे एयरशेड या नदी घाटियों के रूप में पहचाने जाते हैं। यद्यपि कानून द्वारा परिकल्पित, पर्यावरणीय प्रशासन के लिए इस तरह के एक क्षेत्रीय दृष्टिकोण का उपयोग केवल कुछ मामलों में किया गया है तो इसका उपयोग पर्यावरण प्रदूषण, जैसे वापी, गुजरात में औद्योगिक गतिविधि पर रोक या गोवा में खनन पर प्रतिबंध के लिए आपातकालीन प्रतिक्रियाओं में किया गया है। लेकिन परियोजनाओं के अनुमोदन के बाद के अनुपालन को व्यवस्थित रूप से बेहतर बनाने के लिए एक क्षेत्रीय दृष्टिकोण की परिकल्पना नहीं की गई  है। पर्यावरण के अनुपालन को बेहतर बनाने के लिए सुरक्षा उपायों का अनुपालन शायद ही कभी विनियमन और संस्थागत सुधारों पर ध्यान केंद्रित किया गया हो। पायलटों को विकसित करने के लिए मंत्रालय सर्वोत्तम पैमाने को समझ सकता है, जिस पर ऐसे एकीकृत अनुपालन नेटवर्क सबसे प्रभावी परिणाम दे सकते हैं। यह देखते हुए कि गैर-अनुपालन के प्रभावों का पैमाना ऐसा है कि वे अब परियोजना क्षेत्रों तक सीमित नहीं हैं, विनियमन के परिणामों में सुधार के लिए एक क्षेत्रीय दृष्टिकोण की आवश्यकता है। 

निष्कर्ष

पर्यावरण अनुपालन पर्यावरण विनियमन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। हालाकि विनियामक कार्रवाइयों ने कई दशकों तक आर्थिक विकास को प्राथमिकता दी है, लेकिन औद्योगिक और विकासात्मक परियोजनाओं के कारण पर्यावरणीय गिरावट की लागत को नजरअंदाज करना संभव नहीं है। ये मुद्दे हाल के वर्षों में राजनीतिक और आर्थिक रूप से कमजोर हो गए हैं। यह कागज पर्यावरणीय विनियमन कैसे परियोजनाओं के द्वारा लगातार और व्यापक गैर-अनुपालन के मुद्दे पर पहुंच सकता है, के लिए सिफारिशों के तीन सेट बनाता है। विकास के महँगे और हानिकारक व्यवधानों से बचने के लिए ये सुधार महत्वपूर्ण हैं।

 

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37 साल बाद ओजोन परत के छेद का आकार हुआ कम: नासा

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37 साल बाद ओजोन परत के छेद का आकार हुआ कम: नासाHindiWaterWed, 10/23/2019 - 15:58

फोटो - NASA

जिस प्रकार कपड़े इंसान के शरीर के बाहर एक लेयर की तरह होते हैं और शरीर को धूप और सर्दी से बचाते हैं, उसी प्रकार पृथ्वी के वायुमंडल के बाहर एक मोटी परत है, जिसे ‘‘ओजोन’’ कहते हैं। ओजोन सूर्य की पैराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर लेती है और धरती पर इंसानों तथा जीव-जंतुओ के रहने के लिए एक सुरक्षित वातावरण का निर्माण होता है, लेकिन इंसानों की आरामदायक जीवनशैली के कारण एयर कंडीशनरों, फ्रिज, भारी वाहनों और भारी संख्या में उद्योगों के लगने से भारी मात्रा में क्लोरोफ्लोरो कार्बन और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी विभिन्न जरीली गैसों का उत्सर्जन हो रहा है। जिसने अंटार्कटिका के ऊपर ओजन परत में छेद कर दिया है। हालाकि कि ये छेद हाल ही में नहीं हुआ है, बल्कि 1982 में वैज्ञानिकों को पहली बार इसके बारे में पता लगा था। उस समय इसका आकार काफी छोटा था। तभी से इस पर नियमित रूप से नजर रखी जा रही है, लेकिन मानवीय गतिविधियों में बदलाव न होने के कारण इस छिद्र का आकार बढ़ता रहा, जो कि जलवायु परिवर्तन का कारण भी बन रहा है और धरती पर मौसम के साथ ही जीवन चक्र को भी प्रभावित कर रहा है। किंतु हाल ही में इस छिद्र के आकार में अकल्पनीय कमी देखी गई है। जिसका पता लगाने में वैज्ञानिक जुट गए हैं।

नासा और एनओएए के उपग्रहों के आंकड़े बताते हैं कि ओजोन परत के छिद्र का आकार सितंबर के अंत और अक्टूबर की शुरुआत में करीब 2 करोड़ 72 लाख वर्ग किलोमीटर पर फैल जाता है, लेकिन वर्ष 2006 में यह बढ़कर 2 करोड़ 75 लाख वर्ग किलोमीटर तक फैल गया था, जबकि वर्ष 2002 और 1988 में भी इसके आकार में असामान्य रूप से कमी देखी गई थी। लेकिन आठ सितंबर को ओजोन छिद्र का आकार घअकर 1 करोड़ 64 लाख वर्ग किलोमीटर तक पहुंच गया था, जबकि इसके बाद एक करोड़ वर्ग किलोमीटर से भी छोटा हो गया।

वैज्ञानिक बताते हैं वर्ष 1988 और 2000 में स्ट्रैटसेस्फियर (समताप मंडल) में होने वाली वार्मिंग के कारण ओजोन के छेद का आकार कम हुआ था और अब भी वैज्ञानिक आकार में कमी का यही कारण मान रहे हैं। हालाकि वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि समपात मंडल में होने वाली घटनाएं जलवायु परिवर्तन से जुड़ी हुई नही हैं, लेकिन ओजोन परत में हुए छेद के आकार को कम किया जा सकता है, लेकिन अधिक मात्रा में क्लोरोफ्लोरो कार्बन, कार्बन डाइऑक्साइड आदि जहरीली गैसों के उत्सर्जन और मानवीय जीवनशैली में बदलाव न आता देख, ओजोन परत को ठीक करना असंभव प्रतीत हो रहा है। इसलिए पृथ्वी और अपने जीवन की रखा के लिए प्रत्येक व्यकित को खुद से ही पहल करने की आवश्यकता है।

 

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नैनीताल का पहला नजरिया नक्शा

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नैनीताल का पहला नजरिया नक्शाHindiWaterThu, 10/24/2019 - 13:00
Source
नैनीताल एक धरोहर

प्रतीकात्मक फोटो - wikipedia commons

31 दिसम्बर, 1841 को कोलकाता के ‘इंग्लिश मैन’ नाम के अखबार में अल्मोड़ा के इलाके में एक खूबसूरत झील होने की सूचना पहली बार प्रकाशित हुई। अखबार के सम्पादक को यह जानकारी इसी साल नवम्बर में यहाँ आए बैरन तथा उसके दो अन्य साथियों में से किसी एक से हुई बातचीत के आधार पर किसी अन्य व्यक्ति ने दी थी। इस विवरण के आधार पर उस सज्जन ने नैनीताल के बारे में कोलकाता के ‘इंग्लिश मैन’ अखबार में लेख लिख डाला। सुनी-सुनाई बातों के आधार पर नैनीताल के बारे में अखबार में प्रकाशित नोटिस में अनेक तथ्यात्मक त्रुटियाँ थीं। इस लेख में नैनीताल के तालाब और ऊँचाई आदि के बारे में कई गलत एवं भ्रामक जानकारियाँ दी गई थीं। इन गलतियों को सुधारने के लिए पीटर बैरन को आगरा अखबार और ‘इंग्लिश मैन’ में नैनीताल के बारे में विस्तृत विवरण/ लेख लिखने पड़े। इन विवरणों में नैनीताल का सटीक ब्यौरा दिया गया था। एक ही स्थान के बारे में दो अलग-अलग जानकारियों वाली खबरों से नैनीताल जैसी किसी जगह के अस्तित्व की सच्चाई पर गम्भीर सवाल उठने लगे।

पीटर बैरन ने अपनी बात को सही साबित करने के लिए ‘आगरा अखबार’ के माध्यम से पाठकों को नैनीताल के नजरिया नक्शे का ब्योरा भेजा, जिसका भावार्थ था कि- ‘गागर नाम की पहाड़ी में एक तालाब है, जो मैदान में लटका सा प्रतीत होता है। यह तालाब अल्मोड़ा से करीब 35 मील दूर अवस्थित है। तालाब की लम्बाई सवा या डेढ़ मील है। चौड़ाई पौन मील है। तालाब का पानी पारदर्शी एवं साफ-सुथरा है। तालाब में एक छोटी सी खूबसूरत जलधारा पहाड़ों के बीच से रुक-रुक कर गिरती है। तालाब की बिल्कुल उल्टी तरफ से एक जलधारा बाहर निकलती है। तालाब के पास एक बहुत बड़ा घास का सपाट एवं खुला मैदान है। इस मैदान के बीच-बीच में कुछ सुन्दर वृक्ष हैं। तालाब के किनारे लगे पहाड़ों में घने पेड़ हैं, जो तालाब तक पहुँचे हैं। पूरे नैनीताल और उसके आस-पास मौजूद दृश्यों को देखने में एक महीना लग सकता है।’

बैरन आगे लिखते हैं कि- यहाँ लकड़ी बहुत है, पानी साफ-सुथरा और सबसे अच्छा है। सपाट ग्राउण्ड है। चलने और वाहनों के लिए अच्छी सड़कें बन सकती हैं। भवन बनाने के लिए आवश्यक सभी सामग्री उपलब्ध है। झील में नावें चल सकती हैं, इसका उपयोग सेलिंग के लिए भी किया जा सकता है। यहाँ नगर के विकास की अपार सम्भावनाएँ हैं। यहाँ बहुत सुन्दर नगर बसाया जा सकता है। दक्षिण की तरफ एक पहाड़ी है। जिसका नाम अयारपाटा है। दक्षिण पश्चिम में एक विशाल चोटी है-देवपाटा। पश्चिम में चैनूर। उत्तर में एक पहाड़ी है-शेर-का-डांडा। अयारपाटा और शेर-का-डांडा पहाड़ी के मिलन बिन्दु में तालाब के पानी का प्राकृतिक निकास बना है। शेर-का-डांडा के ऊपरी इलाके में 20 भवन साइड्स हैं। यहाँ से हिमालय की विस्तृत एवं खूबसूरत बर्फीली पहाड़ियों का दृश्य दिखता है। पर यहाँ पानी की परेशानी है। यहाँ निचले इलाकों में मौजूद जल स्रोतों से पानी लाना पड़ेगा। लेकिन मसूरी और लंढौर के सबसे अच्छे स्थानों के मुकाबले यह मेहनत कुछ भी नहीं है।

तालाब के पश्चिम दिशा में एक सौ या इससे भी दोगुने मकान बनाए जा सकते हैं। सवाल जमीन के स्वीकृत होने का है। अयारपाटा रेंज की चोटी के नीचे मकान बनाने के लिए बहुत अधिक जगह है। अयारपाटा में समुद्र सतह से सात हजार फीट ऊँचाई पर पानी के झरने हैं। जाँच से पता चला है कि यह पानी लंदन के लिए भी पर्याप्त है। एक नगर बसाने के लिए जितने संसाधनों की आवश्यकता है, उससे कहीं ज्यादा संसाधन यहाँ उपलब्ध हैं। भवन बनाने के लिए स्थान है, पानी आस-पास है। पानी की आपूर्ति कम पड़ने की कोई सम्भावना नहीं है। भवन बनाने तथा जलाने के लिए लकड़ी का ऐसा भण्डार है, जो कभी खत्म नहीं हो सकता है। अन्य आवश्यक संसाधन असीमित मात्रा में उपलब्ध हैं। साईप्रस के इतने अधिक सूखे और अर्ध सूखे पेड़ उपलब्ध हैं कि अगले छह सालों तक मकान बनाने के लिए हरे पेड़ों को काटने की जरुरत नहीं पड़ेगी। इन हरे वृक्षों को गहनों की तरह सुरक्षित रखा जा सकता है। सूखे पेड़ काटने से यहाँ की भू-दृश्यावली और भी खूबसूरत हो जाएगी। साइप्रस के पेड़ भवन निर्माण में इस्तेमाल किए जाए तो कई सदियों तक चलेंगे।

तालाब के आस-पास पहाड़ी बाँज के विशाल पेड़ हैं। मैंने हिमालय के पूरे सफर में बाँज के इतने बड़े पेड़ नहीं देखे। बाँस भी बहुतायत में उपलब्ध है। बुरांश समेत कई प्रजाति के रंग-बिरंगे जंगली फूल हैं। वनस्पति की जो विविधता यहाँ है, ऐसी विविधता मैंने मध्य हिमालय में और कहीं नहीं देखी। प्रकृति ने इस जगह स्वयं दोनों हाथों से सुन्दरता लुटाई है। यहाँ का भौतिक पर्यावरण प्रकृति प्रदत्त इन उपहारों का लुफ्त उठाने के लिए सर्वथा अनुकूल है।

 

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महिला किसानों के सशक्तिकरण हेतु पहल

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महिला किसानों के सशक्तिकरण हेतु पहलHindiWaterThu, 10/24/2019 - 10:31
Source
कुरुक्षेत्र, अक्टूबर 2019

फोटो-hindi.newsclick

महिलाएं देश के लगभग हर राज्य में सक्रिय किसानी से जुड़ीं हैं और कई क्षेत्रों में तो वे ही खेती की मुख्य कर्ताधर्ता हैं। कृषि की स्थिति में बेहतरी लाने के लिए किया जाने वाला कोई भी प्रयास दरअसल महिलाओं के सशक्तिकरण को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करता है। सौभाग्य से इसे प्रमाणित करने के लिए देश में दर्जनों मॉडल हैं जहाँ कृषि क्षेत्र से महिलाओं के जुड़ाव ने महिला सशक्तिकरण के नए आयाम खोल दिए हैं। इन मॉडलों में स्वयं सहायता समूह मूलभूत ढाँचे की भूमिका निभा रहे हैं।

बांग्लादेश, भारत, म्यांमार, फिलिपींस और वियतनाम के 1165 गाँवों के 12,000 खेतिहर परिवारों पर किए गए इस अध्ययन में महिला सशक्तिकरण को 0 से 100 के स्केल पर उत्पादन, आमदनी, संसाधन, समय और नेतृत्व के पाँच मानकों पर आंका गया। इस अध्ययन के अनेक निष्कर्षों में एक सार्वभौमिक नतीजा यह था कि महिलाओं के सशक्तिकरण से एक तो परिवारों में खेती को लेकर प्रगतिशील रुझान बढ़ता है और दूसरा, उन्हें आर्थिक और सामाजिक तौर पर प्रगति के ज्यादा अवसर प्राप्त होते हैं।  

कृषि सुधारों का महिला सशक्तिकरण से क्या सम्बन्ध हो सकता है या ऐसे भी पूछा जा सकता है कि क्या इनका आपस में कोई सम्बन्ध हो भी सकता है ? क्लासिकल हिन्दी सिनेमा ‘मदर इण्डिया’ से लेकर आज तक खेती या किसानी से जुड़े जो भी संचार हमारे सामने आते हैं, उनमें किसान एक पुरुष ही होता है और उसमें महिलाओं की भूमिका खेतों में उन्हें दोपहर का भोजन पहुँचाने, भोजन कराने और हाथ धुलाने तक सीमित होती है। मतलब सामान्य धारणा के मुताबिक किसान-और-किसान की पत्नी दो अलग-अलग पहचान की इकाइयाँ हैं और कृषि में बेहतरी के साथ महिला सशक्तिकरण का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं हो सकता। इसलिए मूल विषय में प्रवेश से पहले उस सामान्य धारणा को सही करने की आवश्यकता है जो कई दशकों से आम जनमानस पर छपी है। एक अध्ययन के मुताबिक ग्रामीण भारत में 84 प्रतिशत महिलाओं की आजीविका कृषि पर आधारित है। अपने खेतों में जुताई करने वाले किसानों में 33 प्रतिशत महिलाएँ हैं, जबकि खेतिहर मजदूरों में इनका प्रतिशत 47 फीसदी है। दरअसल महिलाएं देश के लगभग हर राज्य में सक्रिय किसानी से जुड़ी हैं और कई क्षेत्रों में तो वे ही खेती की मुख्य कर्ताधर्ता हैं। इसका एक सीधा मतलब यह भी है कि कृषि की स्थिति में बेहतरी लाने के लिए किया जाने वाला कोई भी प्रयास दरअसल महिलाओं के सशक्तिकरण को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करता है। सौभाग्य से इसे प्रमाणित करने के लिए देश में दर्जनों मॉडल हैं जहाँ कृषि क्षेत्र से महिलाओं के जुड़ाव ने महिला सशक्तिकरण के नए आयाम खोल दिए हैं। इन मॉडलों में स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) मूलभूत ढाँचे की भूमिक निभा रहें हैं, जिसकी सदस्य महिलाएँ ही हो सकती हैं। यद्यपि एसएचजी ग्रामीण क्षेत्रों में ही प्रचलित हैं, लेकिन इनके कार्यक्षेत्र में केवल कृषि नहीं आता। एसएचजी महिलाओं को ग्रामीण अर्थव्यवस्था के केन्द्र में लाने के उद्देश्य से काम करते हैं, जिसका अन्तिम परिणाम इस रूप में होता है कि परिवार की निर्णय प्रक्रिया में उनकी राय सुनी जाने लगती है और आर्थिक तौर पर उनके फैसले मान्य होने लगते हैं। सिर्फ इन्ही दो बदलावों से महिलाओं के सामाजिक आर्थिक हालात में चमत्कारिक बदलाव हो सकते हैं और इसका सीधा प्रभाव कृषि के विभिन्न विभागों पर भी दिखने लगता है। इस तरह एक बात तो बिल्कुल साफ है कि जब हम कृषि और महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं, तो दरअसल यह एक द्विआयामी श्रृंख्लाबद्ध प्रक्रिया होती है, जिसमें एक ओर तो महिलाओं में बढ़ती जागरुकता, आत्मनिर्भरता और सक्रियता के कारण कृषि क्षेत्र पर सीधा असर पड़ता है और दूसरी ओर कृषिगत सुधारों से महिला सशक्तिकरण की प्रक्रिया और तेज होती है।
 
इसे समझने के लिए सिंगापुर ली कुआन इयू स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी के शोध विभाग में सहायक डीन रहीं सोनाया अकतर के अध्ययन की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है, जिन्होंने फरवरी 2018 में ऑस्ट्रेलेशिया एग्रीकल्चर एंड रिसोर्स इकोनॉमिक सोसायटी काॅन्फ्रेंस में अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया था। बांग्लादेश, भारत, म्यांमार, फिलिपींस और वियतनाम के 1165 गाँवों के 12,000 खेतिहर परिवारों पर किए गए इस अध्ययन में महिला सशक्तिकरण को 0 से 100 के स्केल पर उत्पादन, आमदनी, संसाधन, समय और नेतृत्व के पाँच मानकों पर आंका गया। इस अध्ययन के अनेक निष्कर्षों में एक सार्वभौमिक नतीजा यह था कि महिलाओं के सशक्तिकरण से एक तो परिवारों में खेती को लेकर प्रगतिशील रुझान बढ़ता है और दूसरा, उन्हें आर्थिक और सामाजिक तौर पर प्रगति के ज्यादा अवसर प्राप्त होते हैं। अकतर का यह अध्ययन भारत के कई गाँवों में सजीव रूप से देखा और महसूस किया जा सकता है।
 
बिहार के पूर्विया जिले में चल रही जीविका मूलतः स्वयं सहायता समूहों यानी एसएचजी के जरिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की सरकारी योजना है, जिसमें तमाम एसएचजी ही आपस में मिलकर किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) भी बनाते हैं। यहाँ क्योंकि एसएचजी की पूरी अवधारणा सीधे तौर पर महिला सशक्तिकरण से जुड़ी है, इसलिए जीविका की सफलता के साथ ही बिहार में महिला सशक्तिकरण के नए आयाम भी जुड़ रहे हैं। शुरुआत में आन्ध्रप्रदेश की महिलाओं ने यहाँ आकर एसएचजी का प्रशिक्षण दिया, लेकिन अब स्थानीय महिलाएँ राजस्थान और दूसरे राज्यों में रिसोर्स के तौर पर जा रही हैं। यह परिवर्तन केवल महिलाओं के निजी व्यक्तित्व विकास तक सीमित नहीं हैं, बल्कि समाज में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ने और परिवार में ‘नो वन’ से ‘समवन’ होने तक के सफर की बानगी है। शकीला बानो धमदाहा ब्लॉक के एक एसएचजी से जुड़ी ऐसी ही एक महिला हैं, जिन्होंने प्रशिक्षण पाकर अपनी पूरी खेती का ढाँचा बदला है। शकीला के कारण ही अब उनके परिवार ने एसआरआई विधि से धान की खेती करना प्रारम्भ किया। इतना ही नहीं, शकीला और उनके साथ दूसरी महिला किसानों को जब मक्के का अच्छा भाव पाने में मुश्किल हो रही थी, तब जीविका की मदद से उनके एसएचजी ने एग्री कमोडिटी एक्सचेंज एनसीडीईएक्स (नेशनल कमोडिटी एंड डेरिवेटिव्स एक्सचेंज) के ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करना शुरू किया। महिला किसानों का पूरा समूह आरण्यक एफपीओ के तौर पर काम करता है, जिसके 1500 से ज्यादा सदस्य हैं और इन महिलाओं के एफपीओ का कुल कारोबार पायलट प्रोजेक्ट के पहले साल में ही एक करोड़ रुपए को पार कर गया था। ये पूरी परियोजना बिहार सरकार और विश्व बैंक का साझा प्रयास है और इस सफलता ने बिहार सरकार को इस कदर उत्साहित किया कि दूसरे ही साल में आरण्यक एफपीओ की मक्का खरीद का लक्ष्य लगभग 10 गुना बढ़ाकर 10,000 टन कर दिया गया। ये महिलाएँ आज न केवल अपने एफपीओ के लिए खरीद-बिक्री के भाव और टाइमिंग का फैसला करती हैं और हेजिंग जैसे तकनीकी तरीकों की आसानी से व्याख्या करती हैं, बल्कि अपने बच्चों की पढ़ाई से लेकर घर के दूसरे आर्थिक फैसले भी खुद कर रही हैं।
 
छत्तीसगढ़ में भी महिला सशक्तिकरण के लिए कृषि उत्पादों से सम्बन्धित एक शानदार योजना चल रही है, जिसके परिणामों की चर्चा यहाँ प्रांसगिक होगी। वनवासी-बहुल इस राज्य में महिलाएँ वैसे भी समाज में मुख्य भूमिका निभाती हैं। ऐसे में उनके आर्थिक सशक्तिकरण के लिए वनोपज विभाग ने उन्हें इमली, काजू, शहद और जड़ी-बूटियों के संग्रहण और प्रोसेसिंग से जोड़ा है। यहां तक कि इन उत्पादों की मार्केटिंग के लिए जो संजीवनी रीटेल स्टोर चेन शुरू किए गए हैं, वहाँ भी महिलाएँ ही नियुक्त की जाती हैं। इन जड़ी-बूटियों को लाने से लेकर, उनकी प्रोसेसिंग और उन्हें बेचने का काम स्वयं सहायता समूहों के जरिए होता है, जिनमें अधिकतर महिलाएँ शामिल हैं। महिला स्वयं सहायता समूहों के लिए इस तरह एक-दूसरे से जुड़कर वनोपज के प्रसंस्करण से अपनी आजीविका चलाना केवल उनकी सदस्य महिलाओं को आर्थिक आजादी ही नहीं दे रहा है, बल्कि उनकी सामाजिक और पारिवारिक प्रतिष्ठा को भी बढ़ा रहा है। हर्रा, बहेड़ा, आंवला, त्रिफला, सर्पगंधा, अर्जुन छाल और ऐसी कई नायाब जड़ी-बूटियों को जंगल से चुन कर लाने और उसे प्रोसेस कर हर्बल औषधियाँ तैयार करने वाले ऐसे ही एक एसएचजी में गजपति पुरुष सदस्य हैं। गजपति के मुताबिक इलाके में अब लोग उस गाँव को हर्बल स्वयं सहायता समूह के कारण जानने लगे हैं, जिससे महिलाओं का सम्मान बढ़ गया है और घरों में भी उनको ज्यादा प्रतिष्ठा मिलने लगी है। इस और इस जैसे दूसरे समूहों ने पहली बार इन वनवासी महिलाओं को घर का कमाऊ सदस्य बना दिया है। इसी समूह की अंजलि इसे कुछ यूं बयां करती हैं, ‘हाथ में पैसे हों, तो बहुत कुछ बदल जाता है। हम लोग कालमेघ लाते हैं, गिलोय लाते हैं, नीम लाते हैं जो महिलाएँ ज्यादा मेहनत करती हैं, उनको महीनें में 3000-4000 रुपए की कमाई हो जाती है।’ कांकेर जिले के बकावंड में काजू प्रोसेसिंग प्लांट में आस-पास के इलाकों की ग्राम समितियाँ वन विभाग की जमीन से काजू संग्रहण कर लाती हैं और 21 सदस्यों वाले माँ धारिणी करिन स्वयं सहायता समूह की महिलाएँ उबालने से लेकर पैकिंग तक का चरण पूरा करती हैं। पिछले साल इस केन्द्र में करीब 1300 क्विंटल काजू आया, जिसमें 100 क्विंटल की प्रोसेसिंग की गई और बाकी को कच्चे रूप में ही बेचा गया। यह समूह कच्चे माल को वैल्यू ऐड कर बेहतर कीमत पर बेचने की रणनीति पर काम कर रहा है।
 
धौलपुर राजस्थान के 33 जिलों में मानव विकास सूचकांक के लिहाज से 30वें स्थान पर है और देश के 100 सबसे पिछड़े जिलों में शामिल है। लेकिन इस रेगिस्तान में कई मरुद्यान बसते हैं। जिले के 4000 एसएचजी से करीब 54,000 महिलाएँ जुड़ी हैं जो खेतीबाड़ी में अति सक्रिय हैं। करेरुआ ब्लॉक में रचना, मेनका, मनोज कुमारी, ब्रह्मा जैसी महिलाएँ यहाँ ऐसे ही एक समूह से जुडी हैं जिन्हें ‘कृषि सखी’ नियुक्त किया गया है। इन महिलाओं के मुताबिक कुछ वर्षों पहले तक यहाँ ये सब घरों की चारदीवारी में कैद थीं। खेतों में क्या हो रहा है, कौन-सी फसल की बोआई हो रही है और खेती में क्या इस्तेमाल हो रहा है, न इसकी उन्हें कोई समझ थी और न इसमें कोई भागीदारी, लेकिन अब कृषि सखी बनने के बाद वे घर से बाहर निकलने लगी हैं, मीटिंग में जाती हैं, बाजार जाती हैं और खेती की फसलों पर निर्णय भी लेती हैं।
 
धौलपुर के इस परिवर्तन ने एक सवाल कृषि सुधारों के स्वरूप के बारे में भी उठाया है। जब भी सुधारों की बात की जाती है, तो आमतौर पर उसे सरकारी नीतियों में बड़े बदलाव या सैकड़ों करोड़ रुपए की निवेश योजना से जोड़ दिया जाता है। लेकिन भारत में कृषि से जुड़ी बारीकियाँ इतनी महीन हैं कि उन्हें दरअसल छोटी-छोटी बातों के जरिए समझने और समझाने की आवश्यकता है। महिलाओं को कृषि से जोड़ने के लिए सबसे पहले तो समाज और परिवार की सोच को बदलने की जरूरत होती है और जब एक बार कुछ महिलाएँ इसके लिए तैयार होती हैं, तो फिर उन्हें वहाँ से सहायता देनी होती है, जहाँ वे खड़ी हैं। यह काम केवल सरकारी घोषणाओं से नहीं, बल्कि जमीन पर काम करने वाले गैर-सरकारी संगठन और उनके कार्यकर्ताओं से ही सम्भव है। धौलपुर की महिला किसानों की ट्रेनिंग का नतीजा था कि पहले जहाँ बोआई हवा में बीज बिखेर कर होती थी, वहीं अब मिट्टी की मेड बनाकर बीज की रोपाई होने लगी है। पहले जहां बीज को सीधे दुकान से खरीदकर मिट्टी में डाल दिया जाता था, वहीं अब बीजोपचार के बाद बोआई होने लगी है। इस तरह के बदलाव से एक ओर लागत में कमी आई, वहीं दूसरी ओर उत्पादन में भी बढ़ोत्तरी होने लगी है और बेहतर प्रक्रियाओं के जरिए लागत में कमी और उत्पादन में बढ़ोत्तरी के मंत्र के साथ ही इन महिलाओं ने खेती के जरिए वो कमाल कर दिखाया है, जिसके लिए तमाम सरकारें और नीति निर्माता प्रयास कर रहे हैं। केवल बहुफसलीकरण और बोआई के तरीकों में बदलाव कर कम पढ़ी-लिखी और साधनों के अभाव से जूझती इन महिला किसानों ने महज कुछ सालों के भीतर खेती से अपने परिवार की आय को दोगुना करने में सफलता पा ली है। राधाकृष्ण एसएचजी की किसान बबली देवी ने इसे कुछ यूँ बनाया, ‘पहले पूरे साल में खेत में गेहूँ, बाजरा और सरसों की दो-तीन फसल ही करते थे। अब आधे में बाजरा करते हैं, तो आधे में मूँगफली कर लेते हैं या आधे में ग्वार कर लेते हैं, थोडी-सी मूँग, उड़द भी कर लेते हैं। इससे घर की बचत हो जाती है और आमदनी में भी दोगुने तक की बढ़ोत्तरी हुई है।’
 
धौलपुर जिले के ही आदमपुर गाँव में महिलाओं का एक और स्वयं सहायता समूह पूरे इलाके में खेती का पैर्टन बदलने पर काम कर रहा है। इस समूह की महिलाओं ने अपने परिवारों को चुनौती देते हुए इलाके में पहली बार सब्जियों की खेती शुरू की और पारम्परिक खेती के मुकाबले बीघे के लिहाज से दोगुनी आमदनी हासिल कर दिखाया। अब आलम ये है कि इनकी देखा-देखी गाँव के दूसरे लोग भी सब्जियों की खेती शुरू कर रहे हैं। जय हनुमान एसएचजी की उमा देवी ने बताया, ‘इस साल पहले यहाँ किसी सब्जी की खेती नहीं होती थी, लेकिन अब आलू, बैंगन, टमाटर, मिर्च, घीया, तोरई, भिंडी जैसी फसलें पिछले साल से अपने खेतों में उगा रहे हैं। शुरू में घरवालों ने विरोध किया, लेकिन हमने छोटे से हिस्से से शुरूआत की थी। एक बीघे में मिर्ची लगाई थी। हम खेती करते हैं और हमारे पति उसे लेकर पास की मंडी में बेचने जाते हैं। एक बीघे से एक लाख रुपए तक की आमदनी हुई, जिससे धीरे-धीरे 25-30 किसानों ने अब इसकी शुरुआत कर दी है।’ ये उदाहरण दरअसल भविष्य की राह के लिए वो दिशाएँ हैं, जिन पर चल कर एक साथ दो लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं- महिलाओं का सशक्तीकरण और देश में खेती की प्रगति। ये दो ऐसे लक्ष्य हैं, जिन्हें साधकर देश की आधी से ज्यादा सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। इस लिहाज से महिला सशक्तिकरण और कृषि का सम्बन्ध इतना गहरा और दूरगामी हो सकता है, जिसकी शायद कल्पना भी मुश्किल हो।

 

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वायु प्रदूषण से हो रहा हार्ट अटैक व स्ट्रोक

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वायु प्रदूषण से हो रहा हार्ट अटैक व स्ट्रोकHindiWaterThu, 10/24/2019 - 16:38

वायु पृथ्वी पर मानव और जीव-जतुओं सहित पक्षियों तथा वनस्पतियों के जीवन के लिए महत्वपूर्ण तत्व है। स्पष्ट रूप से कहें तो ‘‘प्राण’’ ही वायु है। जैसे जल को ‘जीवन’ कहा गया है, उसी प्रकार वायु के बिना भी जीवन संभव नहीं है और वायु के अशुद्ध होने का सीधा असर स्वास्थ्य पर पड़ता है, लेकिन वाहनों, एयर कडिंशनरों, उद्यगों आदि का अधिक संख्या में बढ़ने से अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन आदि जहरीली गैसों के उत्सर्जन के कारण वायु लगातार अशुद्ध (प्रदूषित) हो रही है। बढ़ते वायु प्रदूषण (Air Pollution) के कारण विभिन्न प्रकार की बीमारियां जन्म ले रही हैं और दुनिया की करीब 91 प्रतिशत आबादी वायु प्रदूषण की जद में आ चुकी है। यानी केवल 9 फीसदी आबादी को ही शुद्ध हवा (Pure Air)  उपलब्ध हो पाती है। किंतु मानवीय गतिविधियों में सकारात्मक बदलाव न आने से ये शुद्धता कब तब संभव रहेगी ?

स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2019 (State Of Global Air 2019) की रिपोर्ट पर नजर डालें तो वायु प्रदूषण के कारण वर्ष 2017 से अभी तब करीब 50 लाख लोगों की मौत हो चुकी है। बढ़ते वायु प्रदूषण (Air Pollution) के कारण दक्षिण एशियाई देशों में बच्चों की औसत आयु में 2.5 साल की कमी आ गई है, जबकि वैश्वि स्तर पर बच्चों की आयु 20 महीने तक कम हो गई है। वर्ष 2017 में तो वायु प्रदूषण से केवल भारत में ही 12 लाख लोगों की मौत हुई थी, जिसमे अधिकांश लोगों की मौत प्रदूषित वायु के कारण हुए स्ट्रोक, शुगर, हार्ट अटैक, फेंफड़ों का कैंसर आदि के कारण हुई थी। किंतु वायु प्रदूषण अब और घातक होता जा रहा है। जिसकी पुष्टि हाल ही में हुए एक शोध में हुई है।

पर्सनलाइजिंग द हेल्थ इंपैक्ट ऑफ एयर पल्यूशन, युनाइटेड किंगडम के शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन किया। जिसमें नौ शहरों के प्रतिदिन के वायु प्रदूषण के आंकड़ों को एक़ित्रत कर प्रदूषण और कम प्रदूषण वाले दिनों में विभाजित किया गया। साथ ही हर शहर में हार्ट अटैक और स्ट्रोक के आंकड़ों को भी देखा गया। अध्ययन में ये बात सामने आई कि ज्यादा प्रदूषण वाले दिनों में 124 लोगों का हार्ट अटैक (Heart Attack) और 231 से अधिक लोगों का स्ट्रोक (Stroke) का इलाज किया गया, लेकिन कम प्रदूषण वाले दिनों में मरीजों की संख्या काफी कम थी। एक अनुमान के अनुसार ब्रिटेन (Britain) में हर साल करीब 36000 लोगों की मौत वायु प्रदूषण के कारण होती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण से विकसित देश (Developed countries) भी अछूते नहीं हैं, लेकिन गौर करने वाली ये है कि वायु प्रदूषण (Air Pollution) को कम करने के लिए सरकारी तंत्र द्वारा कोई मजबूत कदम उठते नहीं दिख रहे हैं। हां, वैश्विक मंचों पर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित कर भाषण देकर लोगों को जागरुक करने का प्रयास किया जाता है। किंतु हमारे नीति निर्माताओं (Policy Makers) को समझना होगा कि किसी भी कार्य से ज्यादा जरूरी पर्यावरण को बचाना है, क्योंकि वायु शुद्ध होगी तो पर्यावरण शुद्ध रहेगा और इंसान भी बचे रहेंगे। अन्यथा विश्वभर में आपातकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। यदि ऐसा होता है तो करोड़ों लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन होगा ?

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ग्लोबल वार्मिंग - कारण और प्रभाव

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ग्लोबल वार्मिंग - कारण और प्रभावHindiWaterThu, 10/24/2019 - 17:25
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ग्लोबल वार्मिंग (global warming) के प्रति दुनियाभर में चिंता बढ़ रही है। पृथ्वी के तापमान में लगातार हो रही वृद्धि और इससे मौसम में पड़ने वाले प्रभावों को ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है। इसका असर सीधे तौर पर इंसानी जीवन पर नहीं पड़ता, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग (global warming) पर्यावरण को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। जिससे बेमौसम बारिश, बेमौसम बर्फबारी, सूखा, अतिवृष्टि आदि की घटनाएं होने लगती हैं। जो अप्रत्यक्ष से धरती पर जीवन को प्रभावित करती हैं। इससे इंसानों सहित जीव-जंतुओं और वनस्पतियों व पेड़-पौधों का जीवनचक्र भी प्रभावित होता है, लेकिन लगातार अधिक मात्रा में जहरीली गैसों के उत्सर्जन के कारण ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती जा रही है, जिससे इंसानों को विभिन्न प्रकार की बीमारियों भी होने लगी हैं। इसलिए धरती पर जीवन को बचाने के लिए ग्लोबल वार्मिंग को रोकना बेहद जरूरी है, लेकिन ग्लोबल वार्मिंक को रोकने के लिए इसे जानना बेहद जरूरी है, तो आईए इस वीडिया के माध्यम से जानते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग क्या है, इसका कारण और ये कैसे इंसानों को प्रभावित करती है।
 

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मेथी की खेती और बोआई यंत्र

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मेथी की खेती और बोआई यंत्रHindiWaterThu, 10/24/2019 - 17:54
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फार्म एण्ड फूड, अक्टूबर 2019

फोटो - merisaheli.com

भारत में राजस्थान और गुजरात मेथी पैदा करने वाले खास राज्य हैं। 80 फीसदी से ज्यादा मेथी का उत्पादन राजस्थान में होता है। मेथी की फसल मुख्यतः रबी मौसम में की जाती है, लेकिन दक्षिण भारत में इसकी खेती बारिश के मौसम में की जाती है। मेथी का उपयोग हरी सब्जी, भोजन, दवा, सौन्दर्य प्रसाधन आदि में किया जाता है,।
 
मेथी के बीज खासतौर पर सब्जी व अचार में मसाले के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं। तमाम बीमारियों के इलाज में भी मेथी का देशी दवाओं में इस्तेमाल किया जाता है। यदि किसान मेथी की खेती वैज्ञानिक तकनीक से करें, तो इसकी फसल से अच्छी उपज हासिल की जा सकती है। मेथी की अच्छी बढ़वार और उपज के लिए ठंडी जलवायु की जरूरत होती है। इस फसल में कुछ हद तक पाला सहन करने की कूवत होती है। वातावरण में ज्यादा नमी होने या बादलों के घिरे रहने से सफेद चूर्णी, चैंपा जैसे रोगों का खतरा रहता है।
 
जमीन का चयन
 
वैसे तो अच्छे जल निकास वाली और अच्छी पैदावार के लिए सभी तरह की मिट्टी में मेथी की फसल को उगाया जा सकता है, लेकिन दोमट व बलुई दोमट मिट्टी में मेथी की पैदावार अच्छी मिलती है।
 
खेत की तैयारी
 
मेथी की फसल के लिए खेत को अच्छी तरह तैयार करने के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें और बाद में 2-3 जुताईयाँ देशी हल या हैरो से करनी चाहिए। इसके बाद पाटा लगाने से मिट्टी को बारीक व एकसार करना चाहिए।
 
बोआई के समय खेत में नमी रहनी चाहिए, ताकि सही अंकुरण हो सके। अगर खेती में दीमक की समस्या हो तो पाटा लगाने से पहले खेत में क्विनालफास (1.5 फीसदी) या मिथाइल पैराथियान (2 फीसदी चूर्ण) 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देना चाहिए।
 
उन्नत किस्में

मेथी की फसल से अच्छी पैदावार हासिल करने के लिए उन्नत किस्मों को बोना चाहिए, अच्छी उपज देने वाली कुछ खास किस्में जैसे हिसार सोनाली, हिसार सुवर्णा, हिसार मुक्ता, एएफजी 1, 2 व 3 आरएमटी 1 व 143, राजेन्द्र क्रान्ति को 1 और पूसा कसूरी, पूसा अर्ली बचिंग वगैरह खास हैं।
 
बोआई का उचित समय

आमतौर पर उत्तरी मैदानों में इसे अक्टूबर से नवम्बर माह में बोया जाता है। देरी से बोआई करने पर कीट व रोगों का खतरा बढ़ जाता है व पैदावार भी कम मिलती है, जबकि पहाड़ी इलाकों में इसकी खेती मार्च से मई माह में की जाती है। दक्षिण भारत, विशेषकर कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश व तमिलनाडु में यह फसल रबी व खरीफ दोनों मौसमों में उगाई जाती है।
 
बीज दर

सामान्य मेथी की खेती के लिए बीज दर 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए। बोआई करने से पहले खराब बीजों को छांटकर अलग निकाल देना चाहिए।
 
बीजोपचार

बीज को थाइरम या बाविस्टिन 2.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोने से बीज जनित रोगों से बचा जा सकता है। मेथी की बोआई से पहले बीजों को सही उपचार देने के बाद राइजोबियम कल्चर द्वारा उपचारित करना फायदेमंद रहता है।
 
बोआई की विधि

मेथी की बोआई छिटकवां विधि या लाइनों में की जाती है। छिटकवां विधि से बीज को समतल क्यारियों में समान रूप से बिखेर कर उनको हाथ या रेक द्वारा मिट्टी में मिला दिया जाता है।
 
छिटकवां विधि किसानों द्वारा अपनाई जा रही पुरानी विधि है। इस तरीके से बोआई करने में बीज ज्यादा लगता है और फसल के बीच में जाने वाली निराई-गुडाई में भी परेशानी होती है।
 
वहीं, इसके उलट लाइनों में बोआई करना सुविधाजनक रहता है। इस विधि में निराआ-गुड़ाई और कटाई करने में आसानी रहती है। बोआई 20 से 25 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारों में करनी चाहिए। इसमें पौधे-से-पौधे की दूरी 4-5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए।
 
खाद और उर्वरक

खेत में मिट्टी जाँच के नतीजों के आधार पर खाद और उर्वरक की मात्रा को तय करना चाहिए। आमतौर पर मेथी की अच्छी पैदावार के लिए बोआई के तकरीबन 3 हफ्ते पहले एक हेक्टेयर खेत में औसतन 10 से 15 टन सड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद डाल देनी चाहिए, वहीं सामान्य उर्वरता वाली जमीन के लिए प्रति हेक्टेयर 25 से 35 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 से 25 किलोग्राम फास्फोरस और 20 किलोग्राम पोटाश की पूरी मात्रा खेत में बोआई से पहले डाल देनी चाहिए।
 
सिंचाई प्रबंधन

यदि बोआई की शुरुआती अवस्था में नमी की कमी महसूस हो तो बोआई के तुरन्त बाद एक हल्की सिंचाई की जा सकती है, वरना पहली सिंचाई 4-6 पत्तियाँ आने पर ही करें। सर्दी के दिनों में 2 सिंचाइयों का अंतर 15 से 25 दिन (मौसम व मिट्टी के मुताबिक) और गरमी के दिनों में 10 से 15 दिन का अंतर रखना चाहिए।
 
खरपतवार नियंत्रण

खेत को खरपतवार से मुक्त रखकर मेथी की अच्छी फसल लेने के लिए कम-से-कम 2 निरी-गुड़ाई, पहली बोआई के 30 से 35 दिन बाद और दूसरी 60 से 65 दिन बाद जरूर करनी चाहिए, जिससे मिट्टी खुली बनी रहे और उसमे हवा अच्छी तरह आ जा सके।
 
खरपतवार की रोकथाम के लिए कैमिकल दवा का छिड़काव बहुत सोच समझकर करना चाहिए। अगर जरूरी हो तो किसी कृषि माहिर से सलाह लेकर ही खरपतवारनाशक का इस्तेमाल करें।

रोग व उसकी रोकथाम

छाछया रोग मेथी में शुरुआती अवस्था में पत्तियों पर सफेद चूर्णिल पुंज दिखाई पड़ सकते हैं, जो रोग के बढ़ने पर पूरे पौधे को सफेद चूर्ण के आवरण से ढक देते हैं, बीच की उपज और आकार पर इसका बुरा असर पड़ता है।
 
रोकथाम के लिए बोआई के 60 या 75 दिन बाद नीम आधारित घोल (अजादिरैक्टिन की मात्रा 2 मिलीलीटर प्रति लीटर) पानी के साथ मिलकर छिड़काव करें। जरूरत होने पर 15 दिन बाद दोबारा छिड़काव किया जा सकता है। चूर्णी फफूंद से संरक्षण के लिए नीम का तेल 10 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के घोल से छिड़काव (पहले कीट प्रकोप दिखने पर और दूसरा 15 दिन के बाद) करें।
 
मृदुरोमिल फफूंद

मेथी में इस रोग के बढ़ने पर पत्तियाँ पीली पड़ कर गिरने लगती हैं और पौधे की बढ़वार रुक जाती है। इस रोग में पौधा मर भी सकता है। इस रोग पर नियंत्रण के लिए किसी भी फफूंदनाशी जैसे फाइटोलान, नीली कॉपर या डाईफोलटान के 0.2 फीसदी सांद्रता वाले 400 से 500 लीटर घोल का प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए। जरूरत पड़ने पर 10 से 15 दिन बाद यही छिड़काव दोहराया जा सकता है।
 
जड़ गलन

यह मेथी का मृदाजनित रोग है। इस रोग में पत्तियाँ पीली पड़ कर  सूखना शुरू होती हैं और आखिर में पूरा पौधा सूख जाता है। फलियाँ बनने के बाद इनके लक्षण देर से नजर आते हैं। इससे बचाव के लिए बीज को कसी फफूंदनाशी जैसे थाइरम या कैप्टन द्वारा उपचारित करके बोआई करनी चाहिए। सही फसल चक्र अपनाना, गर्मी में जुताई करना वगैरह ऐसे रोग को कम करने में सहायक होते हैं।

फसल कटाई

अक्टूबर माह में बोई गई फसल की 5 बार व नवम्बर माह में बोई गई फसल की 4 बार कटाई करें। उसके बाद फसल को बीज के लिए छोड़ देना चाहिए वरना बीज नहीं बनेगा।
 
मेथी की पहली कटाई बोआई के 30 दिन बाद करें, फिर 15 दिन के अन्तराल पर कटाई करते रहें। दाने के लिए उगाई गई मेथी की फसल के पौधों के ऊपर की पत्तियाँ पीली होने पर बीज के लिए कटाई करें। फल पूरी तरह सूखने पर बीज निकाल कर सूखा कर साफ कर लें और भंडारण कर लें।

 

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घर में ऐसे बनाए कीटनाशक स्प्रे

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घर में ऐसे बनाए कीटनाशक स्प्रेHindiWaterFri, 10/25/2019 - 10:04
Source
फार्म एन फूड

फोटो - the prairie homestead

 घर के पीछे लहलहाती ताजा सब्जियाँ, टोकरियों में तैयार किया सलाद गार्डन, हर्बल क्यारी, पेड़ों से सटी लताओं पर लगी तोरई या लौकी, गुच्छों में लटकते टमाटर, तरह-तरह के फूल किसी भी सुघड़ गृहिणी के बागवानी के शौक के परिचायक हैं।
बागवानी के शौकीन अपनी कड़ी मेहनत और लगन से किचन गार्डन को सम्भालने की हर सम्भव कोशिश में लगे रहते हैं। उनकी कोशिशों के बावजूद सब्जियों की पत्तियों पर कीड़े व फफूंदी लग जाती है। इसके चलते पत्तियों का झड़ना जारी रहता है।
 
आम धारणा है कि सब्जियों की पत्तियों पर बाजार में मौजूद कीटनाशकों का छिड़काव करने से कीड़े मर जाते हैं, पर कृषि वैज्ञानिक पौधों पर दवाओं के छिड़काव का समर्थन नहीं करते। ऐसे में आप अपने किचन में उपलब्ध सामान से कुछ ऐसे कीटनाशक स्प्रे झटपट तैयार कर सकते हैं जो पेड़ों के लिए हानिकारक नहीं होते। एफिड, पाउडरी मिल्ड्यू, छोटी मकड़ी, फफूंदी आदि पौधों की फोटोसिंथेसिस प्रक्रिया को निष्क्रिय बना सकें, इसके लिए प्राकृतिक तरीके से कीटनाशक स्प्रे बनाएँ जो बनाने में आसान, ईकोफ्रेंडली, वातावरण का संतुलन बनाने में सहायक होने के साथ-साथ झटपट व आसानी से तैयार हो जाते हैं।
 
पौधों की देखभाल के लिए कीटनाशक स्प्रे बनाने के लिए स्प्रे बोतल, लिक्विड सोप, लहसुन पाउडर या पेस्ट और मिनरल ऑयल या बेबी ऑयल की जरूरत होती है। किसी भी साधारण से किचन गार्डन में कीटपतंगों से निबटने के लिए इन सामग्रियों से कई प्रकार के कीटनाशक स्प्रे बनाए जा सकते हैं।
 
1. सोप स्प्रे कीटनाशक
 
सामग्री -एक चम्मच लिक्विड सोप, 3 से 5 लीटर पानी।
विधि - इन दोनों को अच्छे से मिला लें। स्प्रे बोतल में डालकर पौधे के पत्तों के दोनों ओर हल्का-हल्का स्प्रे करें। कीट खुद-ब-खुद मर जाएंगे। ऐसा करने से पहले इस बात पर ध्यान अवश्य दें, ऐसा तो नहीं कि आप बाल्टी भर साबुन का पानी सीधे गमले या क्यारी में डाल रही हैं।
 
2. बेकिंग सोडा स्प्रे

सामग्री - एक चम्मच डिश वाशिंग लिक्विड 3 से 5 लीटर पानी, 3 चम्मच बैकिंग सोडा।
विधि - इन तीनों चीजों का मिश्रण बना लें। इस घोल को स्प्रे बोतल में डालकर कीटों से ग्रसित पौधों के पत्तों के दोनों ओर स्प्रे करें।
 
यदि पौधे ज्यादा खराब हैं तो गले-सड़े पत्तों को निकालकर फेंक दें। फफूंदी लगे पौधों के लिए यह स्प्रे बहुत कारगर होता है।
 
3. लहसुन स्प्रे

सामग्री - एक गांठ लहसुन 3 से 5 लीटर पानी।
विधि - लहसुन छीलकर इसकी कलियों को मिक्सी में एक कप पानी में अच्छी तरह से पीस लें। स्प्रे बोतल में डालकर फ्रिज में एक दिन के लिए रख दें। अगले दिन अच्छे से छलनी से इसे छान लें। फिर पानी में इसे डालें। स्प्रे बोतल में भरकर कीटग्रसित पौधों पर इसका हफ्ते में 1 या 2 बार छिड़काव करें।
 
4. लहसुन और मिर्चीयुक्त स्प्रे

सामग्री - 7-8 कलियाँ लहसुन, एक चम्मच लाल पिसी मिर्च, एक कद्दूकस किया प्याज, एक चम्मच लिक्विड सोप, 3 से 4 लीटर गरम पानी।
विधि -सारी सामग्री को गरम पानी में घोल लें। 2 दिन रखा रहने दें। इस घोल का स्प्रे बोतल में डालकर रखें और ग्रसित पौधों पर इसका छिड़काव करें। यह स्प्रे गोभी में लगने वाले कीड़ों जैसे रेंगते कैटरपिलर, एफिड और फ्ली बीटल को नष्ट करने में बहुत ही फायदेमंद होता है।
 
5. दूध का स्प्रे

सामग्री - कुछ मात्रा में दूध।
विधि - भगोने में जो दूध बच जाता है, कई गृहिणियाँ इसे फेंक देती हैं। ऐसा न करें, बल्कि इसमें कुछ पानी मिला दें। स्प्रे बोतल में भर कर इसका छिड़काव फफूंदीयुक्त पौधे या जिस पर पाउडरी मिल्ड्यू कीट रहता हो, सप्ताह में 3 बार करें। पौधा हरा-भरा हो जाएगा।
 

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