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मत्स्य बीज उत्पादन युवाओं के लिए बेहतरीन स्वःरोजगार।

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मत्स्य बीज उत्पादन युवाओं के लिए बेहतरीन स्वःरोजगार।HindiWaterMon, 10/07/2019 - 13:54

जहां कहीं भी मीठे जल के चिरस्थाई स्त्रोत हैं वहां मत्स्य पालन व्यवसाय काफी  तेजी से फलफूल रहा है। ग्रामीण भी नित नयी तकनीके अपना कर इस व्यवसाय से आर्थिक रूप से स्वावलंबी एवं सम्पन्न हो रहे हैं। वहीं इनके जीवन स्तर में भी पर्याप्त बदलाव देखने को मिल रहा है। इसका दूसरा पहलू यह है कि इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत तो होती ही है, साथ ही ग्रामीण युवा बेरोजगारों को रोजगार के अवसर भी मिलते हैं। इसलिए इस व्यवसाय को जिंदा रखना बेहद जरुरी है, परंतु यह तभी संभव है, जब विभिन्न प्रजाति की मछलियों के स्वस्थ, शुद्ध व विसंक्रमित बीज समय पर उपलब्ध हों। दूसरी ओर इनके उत्पादन केंद्र सीमित होने से इन बीजों की हर समय जबरदस्त मांग रहती है। इनकी आपूर्ति कम होने की स्थिति में इन बीजों के दाम और भी अधिक बढ़ जाते है।

अधिकांश ग्रामीण व आदिवासी पिछड़े क्षेत्रों में मत्स्य बीजोत्पादन की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। जिस कारण मत्स्य पालाकों को अन्य राज्यों में स्थित दूरस्थ बीजोत्पादन केन्द्रों पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे स्थानों से मत्स्य बीजों की परिवहन लागत तो महंगी पड़ती ही है, साथ ही मत्स्य बीजों की मृत्यु होने का जोखिम भी रहता है। ऐसे में यदि बेरोजगार ग्रामीण युवा एवं कृषक मत्स्य बीजोत्पादन का प्रशिक्षण ले कर इस व्यवसाय को अपने क्षेत्र में ही शुरू करें तो यह आमदनी का बेहतरीन ज़रिया हो सकता है। इससे न केवल इनकी आर्थिक स्थिति मजबूत होगी बल्कि गाँव के कई बेरोजगार युवाओं को भी रोजगार मिल सकेगा। इस स्वःरोजगार पर बैंक ऋण भी उपलब्ध कराता है। वहीं राज्य सरकारें इसके लिए प्रोत्साहन राशि भी मुहैया करती है। 

मत्स्य बीज उत्पादन

मछलियाँ बारिश में नदी, तालाबों इत्यादि जलाशयों में प्रजनन करती हैं। इस दौरान इन जलाशयों में इनके लाखों की तादाद में अंडे निषेचित होते हैं, जिनसे मछलियों के बच्चे बाहर निकल आते हैं, जो समय के साथ अपनी शारीरिक वृद्धि करते रहते हैं। इन्हें मत्स्य बीज ( हैचलिंग्स, स्पान, फ्राई व फिंगरलिंग्स) कहा जाता है। ये इन जलाशयों में सिर्फ एक प्रजाति की मछलियों के नहीं बल्कि कई प्रजाति की मछलियों के होते हैं। इसलिए इनका संग्रहण करना खतरों से भरा होता है क्योंकि इनके साथ परभक्षी मछलियों के बीज होने की संभावना भी बराबर रहती है। ऐसे में पालने योग्य अथवा चाही गई मछलियों के शुद्ध बीज प्राप्त करने का एक मात्र तरिका जो विकसित हुआ है वो है प्रेरक प्रजनन, जो सरल भी है और हर जगह संभव भी हो सकता है। वर्तमान में मत्स्य पालक इस तरीके को ही ज्यादा अपनाते व पसंद करते हैं तथा इस पर भरोसा भी अधिक करते हैं।

प्रेरक प्रजनन ज्यादा सुविधाजनक

इसको छोटे-बड़े प्राकृतिक चिरस्थाई व बारिश से भरे तालाबों में या फिर आधुनिक तरीके से बनी हैचरियों में अपनी-अपनी सहुलियत के अनुसार किया जाता है। यद्यपि कुछ प्रजातियों की प्रजनन योग्य वयस्क मछलियाँ तेज बारिश के दौरान प्रजनन कर लेती हैं। लोग अब इन मछलियों (ब्रूडर्स) में निश्चित मात्रा में हार्मोन्स के इंजेक्शन देकर इन्हें प्रजनन हेतु जल्दी से प्रेरित कर देते हैं। ये हार्मोन रसायन बाजार में हर जगह उपलब्ध हो जाते हैं। स इससे इन मछलियों में अंडजनन व निषेचन प्रकिया जल्दी से हो जाती है स यह प्रकिया प्रजनन कुंड या तालाब में रखे मच्छरदानी के कपड़े से निर्मित आयाताकार बक्सा जिसे हापा कहते हैं उसमें भी कराई जा सकती है लेकिन इसमें वर्षा का इंतजार करना पड़ता है स परंतु लोग अब अलग से हैचरी का निर्माण कर उसमें  कृतिम वर्षा यानी फव्वारों को चलाके इन मछलियों को प्रेरित करके इनमें प्रजनन कराने लगें हैं स इससे फायदा यह की इससे शत प्रतिशत स्वस्थ व शुद्ध पालने हेतु चाही गयी। मछली के बीज प्राप्त होतें है स निषेचित अण्डों से निकले नन्हें-नन्हें हेचलिंग्स को नेट द्वारा अन्य कुंडों में संगृहीत कर लेतें है जो बाद में स्पान (जलांडक), फ्राई (पोना) व फिंगरलिंग्स (अंगुलिकाएँ) के रूप में विकसित होतें है जिन्हें बीजों के रूप में मत्स्य पालन हेतु बेचा जा सकता है स एक एकड़ के मौसमी तालाब में मत्स्य बीज उत्पादन कर दो माह में करीब साठ हजार रुपया से अधिक शुद्ध धन राशि अर्जित की जा सकती है स शेष माह में उसी तालाब में मत्स्य अंगुलिकाओं या फिर मछली उत्पादन कर तकरीबन अस्सी हजार रुपयों से अधिक अलग से और आमदनी की जा सकती है स एक प्रकार से इस स्वःरोजगार को करने से दोहरा आर्थिक लाभ होता है स

मत्स्य बीज उत्पादन करना इतना सरल भी नहीं कि इसे हर कोई कर ले। इसमें जौखिम भी है जिससे आर्थिक नुकसान होने की संभावना भी रहती हैै। लेकिन यह आसान भी हो जाता है जब उत्पादनकर्ता इसके बारे में सम्पूर्ण तकनीकी जानकारी व प्रशिक्षण प्राप्त कर लेता है। इससे संबंधित तकनीकी जानकारियाँ, प्रशिक्षण व बीजों का प्रंबंधन कृषि विश्वविद्यालयों, मात्सिकीय महाविद्यालयों, राजकीय मत्स्य विकास अधिकारियों, मात्सिकीय शोध संस्थानों व आईसीएआर, नई दिल्ली से प्राप्त की जा सकती है।

प्रो. शांतिलाल चौबीसा, प्राणीशास्त्री एवं लेखकप्रो. शांतिलाल चौबीसा, प्राणीशास्त्री एवं लेखक

 

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जल शक्ति अभियान : जल संरक्षण की दिशा में पहल

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जल शक्ति अभियान : जल संरक्षण की दिशा में पहलHindiWaterTue, 10/08/2019 - 10:36
Source
कुरुक्षेत्र, सितम्बर 2019

पानी को लेकर पूरी दुनिया में बढ़ने वाली मुश्किलों के चलते बेहतर है कि बारिश की एक-एक बूँद को बचाया जाए और हर नागरिक को अपनी इस जिम्मेदारी का अहसास कराया जाए। सदियों से हमारे पूर्वज इस दिशा में काम करते रहे हैं। हाल-फिलहाल में भी इस दिशा में तेजी से काम हुआ है। मात्र पिछले दो महीनों में जलशक्ति अभियान के तहत जल-संरक्षण हेतु 5 लाख से अधिक बुनियादी ढाँचे बनाए गए हैं। केरल में कुट्टुमपेरूर नदी को मनरेगा के तहत मात्र 70 दिनों में पुनर्जीवित किया गया।

2018 की नीति आयोग की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में करीब 60 करोड़ लोगों को पानी की परेशानी का सामना करना पड़ता है। देश के करीब 75 फीसदी घरों में आजादी के सात दशक बाद भी पीने का पानी उपलब्ध नहीं है। जबकि ग्रामीण इलाकों के हालात तो और बदतर हैं, जहाँ 84 फीसदी घरों में अभी भी जलापूर्ति की सुविधा उपलब्ध नहीं है। इतना ही नहीं, देश में 70 फीसदी पानी दूषित है। तभी तो जल गुणवत्ता सूचकांक में भारत दुनिया की 122 देशों की सूची में 120वें स्थान पर है। जल सूचकांक रैकिंग के मामले में देश में गुजरात पहले पायदान पर है तो मध्यप्रदेश दूसरे जबकि आन्ध्रप्रदेश तीसरे नम्बर पर है। बिहार, उत्तरप्रदेश, हरियाणा और झारखण्ड सबसे पिछड़े राज्यों में शामिल हैं।  

“मेरा पहला अनुरोध है, जैसे देशवासियों ने स्वच्छता को एक जन-आन्दोलन का रूप दे दिया। आइए, वैसे ही जल-संरक्षण के लिए एक जन-आन्दोलन की शुरुआत करें।” ये शब्द भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हैं। प्रधानमंत्री ने 30 जून, 2019 को अपने दूसरे कार्यकाल में पहली बार ‘मन की बात’ कार्यक्रम में ये उद्गार व्यक्त किए। उन्होंने लोगों से जल-संरक्षण के मुद्दे पर बात करते हुए कहा कि जल-संरक्षण के लिए इस्तेमाल होने वाले पारम्परिक तौर-तरीकों को साझा करने की जरूरत है। 2014 से 2018 के बीच मनरेगा बजट से इतर केवल जल-प्रबन्धन पर ही सालाना 32 हजार करोड़ रुपए खर्च किए गए थे। 2017-18 में 64 हजार करोड़ रुपए के कुल खर्चे की 55 प्रतिशत राशि यानी करीब 35 हजार करोड़ रुपए जल-संरक्षण जैसे कामों पर ही खर्च की गई। सरकार के इन प्रयासों के चलते ही तब तीन सालों में करीब 150 लाख हेक्टेयर जमीन को इससे फायदी मिला था। प्रधानमंत्री ने पानी की एक-एक बूँद को बचाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि आने वाले वक्त में पानी को लेकर पूरी दुनिया में बढ़ने वाली मुश्किलों के चलते बेहतर है कि बारिश की एक-एक बूँद को बचाना हर किसी की जिम्मेदारी हो। सदियों से हमारे पूर्वज इस दिशा में काम करते रहे हैं। मनारकोविल, चिरान महादेवी, कोविलपट्टी या पुदुकोट्टई के साथ-साथ तमिलनाडु के मन्दिरों में जल-प्रबन्धन के बारे में शिलालेख मौजूद हैं। गुजरात में अडालज और पाटन की रानी की बावड़ी के साथ ही राजस्थान में जोधपुर में चाँद बावड़ी जल संरक्षण के प्राचीन प्रमाण हैं। पिछले 3-4 वर्षों में इस दिशा में काम भी हो रहा है। केरल में कुट्टुमपेरूर नदी को मनरेगा के तहत काम करके 70 दिनों में पुनर्जीवित किया गया। साथ ही, फतेहपुर जिले में ससुर और खदेरी नामक दो छोटी नदियों को भी पुनर्जीवित किया गया।

केन्द्र सरकार ने जल-संसाधन और पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालयों को मिलाकर एक एकीकृत मंत्रालय का गठन किया है, जिसे ‘जलशक्ति मंत्रालय’ नाम दिया गया है। इस महत्त्वपूर्ण मंत्रालय की जिम्मेदारी गजेन्द्र सिंह शेखावत को दी गई है। रतनलाल कटारिया राज्यमंत्री है। प्रधानमंत्री की जल-संरक्षण की अपील के अगले ही दिन केन्द्र सरकार ने जल-संरक्षण अभियान शुरू कर दिया। केन्द्रीय जलशक्ति मंत्री ने 1 जुलाई, 2019 को जल-संरक्षण अभियान की शुरुआत की। इसके तहत देश के 256 जिलों के ज्यादा प्रभावित 1592 ब्लॉकों को प्राथमिकता के आधार पर चुना गया। इस अभियान को दो चरणों में चलाना तय किया गया है। पहला चरण 1 जुलाई, 2019 से शुरू होकर 15 सितम्बर, 2019 तक, तो दूसरा चरण एक अक्टूबर, 2019 से शुरू होकर 30 नवम्बर, 2019 तक। इस अभियान का फोकस पानी के कम दबाव वाले जिलों और ब्लॉकों पर होगा। दरअसल इस अभियान का मकसद जल-संरक्षण के फायदों को लेकर लोगों के बीच जागरुकता पैदा करना है ताकि देश के हर घर में नल का पानी उपलब्ध कराने में सहभागिता और जागरुकता का लाभ मिल सके। जलशक्ति अभियान पेयजल और स्वच्छता विभाग की पहल पर कई मंत्रालयों के साथ-साथ राज्य सरकारों का एक मिला-जुला प्रयास है। केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि जिला प्रशासन के साथ मिलकर जल संरक्षण को लेकर मंत्रालय द्वारा तय किए गए पाँच बिन्दुओं पर काम करेंगे ताकि मंत्रालय तय समय में अपना लक्ष्य हासिल कर सके। जलशक्ति मंत्रालय का लक्ष्य साल 2024 तक देश के हर घर में पीने का साफ पानी मुहैया कराना है। इसी को ध्यान में रखते हुए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने भी अपना पहला बजट पेश करते वक्त ही साफ कर दिया था कि अगले 5 साल में देश के हर नागरिक को पीने का साफ पानी मुहैया कराना सरकार की प्राथमिकता है। इसीलिए जल-संरक्षण को मिशन के तौर पर लागू किया गया है, ताकि वर्षाजल संरक्षण, जल-संरक्षण और जल प्रबंधन को बढ़ावा मिल सके। जलशक्ति मंत्रालय ने अपनी प्राथमिकताएँ तय की हैं। इनमें प्रमुख हैं-गंगा संरक्षण, नदियों को आपस में जोड़ना, बाढ़ प्रबंधन, सिंचाई प्रबंधन, बाँध पुनर्वास, क्षमता निर्माण, राष्ट्रीय जल विज्ञान परियोजना, नमामि गंगे, राष्ट्रीय जल मिशन कार्यान्वयन, नदी बेसिन प्रबन्धन, भूजल प्रबंधन और बुनियादी ढाँचे का विकास। 

पानी के मोर्चे पर देश की मौजूदा स्थिति को भी समझना जरूरी है। साल 2018 की नीति आयोग की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में करीब 60 करोड़ लोगों को पानी की परेशानी का सामना करना पड़ता है। देश के करीब 75 फीसदी घरों में आजादी के सात दशक बाद भी पीने का पानी उपलब्ध नहीं है। जबकि ग्रामीण इलाकों के हालात तो और बदतर हैं, जहाँ 84 फीसदी घरों में अभी भी जलापूर्ति की सुविधा उपलब्ध नहीं है। इतना ही नहीं, देश में 70 फीसदी पानी दूषित है। तभी तो जल गुणवत्ता सूचकांक में भारत दुनिया की 122 देशों की सूची में 120वें स्थान पर है। जल सूचकांक रैकिंग के मामले में देश में गुजरात पहले पायदान पर है तो मध्यप्रदेश दूसरे जबकि आन्ध्रप्रदेश तीसरे नम्बर पर है। बिहार, उत्तरप्रदेश, हरियाणा और झारखण्ड सबसे पिछड़े राज्यों में शामिल हैं। यकीनन ये स्थिति बेहद गम्भीर है क्योंकि पिछड़े राज्यों में देश की आबादी का बड़ा हिस्सा रहता है। 

भूजल इस्तेमाल करने के मामले में भारत पूरी दुनिया में पहले नम्बर पर है। रिपोर्ट बताती है कि भारत अकेले इतना भूजल इस्तेमाल करता है जितना कि अमरीका और हमसे ज्यादा आबादी वाला मुल्क चीन मिलकर करते हैं। वैसे समझना ये भी जरूरी है कि हम कितने भूजल का इस्तेमाल कहाँ करते हैं। दरअसल देश के 89 प्रतिशत भूजल का इस्तेमाल कृषि में होता है। जबकि पीने के पानी के तौर पर 9 प्रतिशत भूजल का इस्तेमाल किया जाता है। वहीं उद्योग-धन्धों में केवल 2 प्रतिशत भूजल का इस्तेमाल होता है। हालांकि गाँव और शहर का तुलनात्मक अध्ययन करें तो शहरों में पीने के पानी की 50 प्रतिशत जरूरत भूजल से ही पूरी होती है जबकि ग्रामीण इलाकों में पीने के पानी की 85 प्रतिशत जरूरत के लिए अकेले भूजल पर ही निर्भर रहना पड़ता है। जाहिर है देश की आबादी का बड़ा हिस्सा पानी की अपनी जरूरत के लिए भूजल पर ही आश्रित है। इसी का असर है कि केन्द्रीय भूजल बोर्ड बताता है कि साल 2007 से 2017 के बीच देश के भूजल-स्तर में 61 प्रतिशत तक गिरावट दर्ज की गई। इसमें कोई शक नहीं कि बढ़ती आबादी, शहरीकरण, औद्योगीकरण और मानसून में देरी इस गिरावट की बड़ी वजह है।

जल-संरक्षण के मोर्चे पर इतनी गम्भीर चुनौतियों के बावजूद बीते सात दशक में देश में पानी के दोबारा इस्तेमाल को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बन सकी। तभी भारत वॉटर रिसाइकल के मामले में बेहद पिछड़ा है। आज भी देश के घरों में इस्तेमाल होने वाला 80 फीसदी पानी बर्बाद होता है, जबकि इजराइल में इस्तेमाल में लाए गए पानी का 100 फीसदी फिर से इस्तेमाल किया जाता है। देश के सर्वोच्च थिंक टैंक नीति आयोग के मुताबिक जल संकट की वजह से भारत की जीडीपी में साल 2050 तक 6 फीसदी की कमी हो सकती है। इतना ही नहीं अगले 11 सालों में यानी साल 2030 तक देश में पानी की आपूर्ति के मुकाबले माँग दोगुनी हो जाएगी। तब देश की करीब 40 फीसदी आबादी ऐसी होगी, जिनके पास पीने का पानी नहीं होगा। अगले एक साल में यानी साल 2020 तक देश के 21 बड़े शहरों से भूजल ही खत्म हो सकता है। इनमें देश की राजधानी दिल्ली के साथ-साथ हैदराबाद, चेन्नई और बेगलुरु जैसे शहर शामिल हैं।

हालांकि इस बीच दुनिया के कई देशों में पानी को बचाने की बेहतरीन पहल भी की गई है। दरअसल साल 2009 में संयुक्त राष्ट्र ने अपने यूनाइटेड नेशंस एनवॉयरमेंट प्रोग्राम में वर्षाजल संचयन को ज्यादा-से-ज्यादा प्रचारित करने पर जोर दिया था। उसके बाद से कई देश इस दिशा में आगे आए। इनमें ब्राजील, सिंगापुर, आस्ट्रेलिया, चीन, जर्मनी और इजराइल का नाम सबसे पहले आता है, जो जल संकट से निपटने के लिए बेहतरीन तकनीक का सहारा ले रहे हैं। हालांकि भारत में अब तक बारिश का केवल 8 फीसदी पानी ही संरक्षित हो पाता है।  भारत में अभी तक पानी को भी बड़े मुद्दे के तौर पर नहीं देखा गया। यहाँ तक कि हमारे संविधान तक में नदियों के संरक्षण के लिए कोई प्रावधान नहीं है। संविधान में नदियों की रक्षा करना नागरिकों का कर्तव्य भर है यानी कोई जवाबदेही नहीं। न ही कोई ठोस नीति, न ही पानी की बर्बादी रोकने के खिलाफ कोई कड़ा कानून। तभी तो अकेले मुम्बई में रोज वाहन धोने में ही 50 लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है। दिल्ली, मुम्बई और चेन्नई में पाइप लाइनों की खराबी के चलते हर रोज 40 फीसदी तक पानी बेकार बह जाता है। पानी की ऐसी बर्बादी के चलते ही बीते 70 साल में 30 लाख में से 20 लाख तालाब, कुएँ, पोखर, झील पूरी तरह खत्म हो चुके हैं। हाल-फिलहाल में भारत सरकार ने जल संकट से निपटने के लिए अलग-अलग मोर्चे पर कई कदम उठाए हैं। सरकार के एजेंडे में जल-संरक्षण प्राथमिकता पर है। इसी के मद्देनजर सरकार ने ‘जलशक्ति अभियान’ की शुरुआत की है और इस महत्त्वपूर्ण अभियान की जिम्मेदारी जलशक्ति मंत्रालय पर है। मकसद है पानी को लेकर जानकारी फैलाना ताकि जल-संरक्षण को बढ़ावा मिल सके। 

अब स्थितियाँ बदलती दिख रही हैं। घर-घर पीने का साफ पानी, जल-संरक्षण और जल⪅न सरकार की प्राथमिकता में साफ नजर आ रहा है। आंकड़े भी बता रहे हैं कि बीते कुछ सालों में घर-घर पीने के साफ पानी की उपलब्धता में इजाफा हुआ है। प्रधानमंत्री भी जल-संरक्षण को सामाजिक जिम्मेदारी मानते हुए इस मोर्चे पर सहभागिता की अपील कर चुके हैं। बीते दिनों ग्रामीण इलाकों में पानी के संकट को देखते हुए उन्होंने देश के दो लाख से ज्यादा सरपंचों और गाँव प्रधानों को निजी तौर पर पत्र लिखा, जिसमें बारिश के पानी का संरक्षण करने की अपील की गई। जाहिर है सरकार कई मोर्चों पर एक साथ काम कर रही है। साल 2024 तक बुनियादी ढाँचा क्षेत्र में 100 लाख करोड़ का निवेश करना भी उसी दिशा में एक बड़ी पहल है। जाहिर तौर पर चुनौती काफी बड़ी है। ऐसे में पानी के संकट को दूर करने का सबसे सस्ता और अच्छा उपाय है। पानी की बचत और पानी का कम-से-कम इस्तेमाल करना और इस दिशा में क्रान्तिकारी सुधार लाने के लिए जलशक्ति मंत्रालय तेजी से कार्य कर रहा है।

मनरेगा के तहत जल संरक्षण

पिछले पाँच वर्षों के दौरान मनरेगा एक ऐसी प्रमुख ताकत बनकर उभरा है, जो समस्त ग्रामीण भारत में जल संरक्षण के प्रयासों को आगे बढ़ा रहा है। इस योजना के जरिए पहले मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों में गहरा संकट कम करने पर ध्यान दिया जाता रहा है, लेकिन अब यह राष्ट्रीय संसाधन प्रबंधन (एनआरएम) से जुड़े कार्यों के जरिए ग्रामीण आमदनी बढ़ाने के एक केन्द्रित अभियान में तब्दील हो गई है। वर्ष 2014 में मनरेगा अनुसूची-1 में संशोधन किया गया, जिसके तहत यह अनिवार्य किया गया है कि कम-से-कम 60 प्रतिशत व्यय कृषि एवं उससे जुड़ी गतिविधियों पर करना होगा। परिणामस्वरूप अधिनियम के तहत स्वीकृति योग्य कार्यों की एक सूची तैयार की गई है, जिसमें ऐसी लगभग 75 प्रतिशत गतिविधियों या कार्यकलापों का उल्लेख किया गया है जो जल सुरक्षा एवं जल संरक्षण के प्रयासों को सीधे तौर पर बेहतर बनाते हैं। पिछले पाँच वर्षों के दौरान एनआरएम से जुड़े कार्यों पर किए गए खर्चों में निरन्तर बढोत्तरी दर्ज की गई है।

संसाधनों का लगभग 60 प्रतिशत राष्ट्रीय संसाधन प्रबन्धन (एनआरएम) पर खर्च किया जाता है। एनआरएम से जुड़े कार्यों के तहत फसलों के बुवाई क्षेत्र (रकबा) और पैदावार दोनों में ही बेहतरी सुनिश्चित कर किसानों की आमदनी बढ़ाने पर फोकस किया जाता है। भूमि की उत्पादकता के साथ-साथ जल उपलब्धता भी बढ़ाकर यह सम्भव किया जाता है। एनआरएम के तहत किए गए प्रमुख कार्यों में चैकडैम, तालाब, पारम्परिक जल क्षेत्रों का नवीनीकरण, भूमि विकास, तटबंध, फील्ड चैनल, वृक्षारोपण, इत्यादि शामिल है। पिछले पाँच वर्षों के दौरान 143 लाख हेक्टेयर भूमि इन कार्यों से लाभान्वित हुई है।

जहाँ तक तकनीकी पक्ष का सवाल है, समुचित धनराशि जल-संरक्षण कार्यों पर खर्च की जा रही थी, कर्मचारियों का तकनीकी प्रशिक्षण अपर्याप्त था और अक्सर ऐसी संरचनाएँ तैयार की जाती थीं, जो अपेक्षित नतीजे नहीं देती थीं। इसे ही ध्यान में रखते हुए जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय और भूमि संसाधन विभाग के साथ साझेदारी में मिशन जल-संरक्षण दिशा-निर्देश तैयार किए गए थे, ताकि ऐसे डार्क एवं ग्रे-ब्लॉक पर ध्यान केन्द्रित किया जा सके, जहाँ भूजल का स्तर तेजी से गिर रहा था। इस साझेदारी से एक सुदृढ़ तकनीकी मैनुअल बनाने के साथ-साथ अग्रिम पंक्ति वाले श्रमिकों के लिए क्षमता निर्माण कार्यक्रम के कार्यान्वयन के लिए केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड के इंजीनियरों एवं वैज्ञानिकों के तकनीकी ज्ञान का लाभ उठाने में मद्द मिली।

मनरेगा के तहत सम्बन्धित क्षेत्र के लिए विशेष रूप से बनाई गई योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए विभिन्न राज्यों के साथ सामंजस्य स्थापित कर काम किया जाता रहा है। एनआरएम कार्यों में जल संरक्षण की समस्या से निपटने के लिए पूर्ण टूलकिट शामिल है। इसके तहत विभिन्न कार्यकलापों की सूची कुछ इस तरह से तैयार की जाती है, जिससे कि यह राज्यों की विभिन्न जरूरतों की पूर्ति उनकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार कर सके। परिणामस्वरूप कई राज्य बड़े उत्साह के साथ जल-संरक्षण कार्यों को शुरू करने के लिए अपने संसाधनों को मनरेगा से जुड़ी धनराशि के साथ जोड़ने में समर्थ हो पाए हैं। इसके तहत नियोजन एवं कार्यान्वयन प्रयासों से समुदायों को भी जोड़ा जाता रहा है। हालांकि व्यक्तिगत लाभार्थियों की भी सेवाएँ ली गई हैं, ताकि उनकी जरूरतें पूरी हो सकें। समुदाय ही कार्यों के चयन, लाभार्थियों के चयन और परिसम्पत्तियों के रखरखाव के लिए जवाबदेह हैं। मनरेगा कोष को राज्यों की धनराशि के साथ जोड़ने से निम्नलिखित राज्य-स्तरीय योजनाओं को अत्यन्त सफल बनाना सम्भव हो पाया है।

इन योजनाओं को समस्त राज्यों के लगभग 50,000 गाँवों में सफलतापूर्वक कार्यान्वित किया गया है। महाराष्ट्र में जलयुक्त शिवहर अभियान से 22,590 गाँवों में सकारात्मक असर पड़ा है, जबकि मुख्यमंत्री जल स्वावलम्बन योजना राजस्थान के समस्त 12,056 गाँवों में अत्यन्त सफल रही है। राजस्थान और महाराष्ट्र में किए गए स्वतंत्र आकलन से भूजल के स्तर में 1.5 मीटर से 2 मीटर की वृद्धि, जल भंडारण क्षमता में बढ़ोत्तरी, फसल तीव्रता में 1.25 से 1.5 गुना की वृद्धि, पानी के टैकरों पर व्यय में उल्लेखनीय कमी और बेकार पड़े हैंडपम्पों, नलकूपों एवं खुले कुओं का कायाकल्प होने के बारे में जानकारी मिली है। एनआईआरडी की टीम इन गाँवों का दौरा करेगी, ताकि जल-संरक्षण कार्यों की गुणवत्ता का आकलन किया जा सके। मंत्रालय व्यापक दस्तावेजों एवं आलेखों के साथ इस तरह के गाँवों की पूरी सूची वेबसाइट पर डाल रहा है और इसके साथ ही नागरिकों से अनुरोध कर रहा है कि वे इन गाँवों का दौरा करें और जमीनी हकीकत से वाकिफ हों।

दिल्ली स्थित आर्थिक विकास संस्थान (आईईजी) ने जनवरी, 2018 में मनरेगा के तहत एनआरएम कार्यों के साथ-साथ टिकाऊ आजीविकाओं पर इसके असर का राष्ट्रीय आकलन किया था। अध्ययन के दौरान राष्ट्रीय आकलन करते वक्त उत्पादकता, आमदनी, पशु चारे की उपलब्धता के साथ-साथ एनआरएम कार्यों की बदौलत यहाँ तक कि जलस्तर में भी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। विभिन्न अन्य अध्ययनों से पता चला है कि मनरेगा कार्यों से इसके जल सम्बन्धी कार्यकलापों के जरिए ग्रामीण समुदायों को सुदृढ़ बनाने में मदद मिली है। मनरेगा के तहत हर वर्ष किए जाने वाले सार्वजनिक खर्च के नियोजन, कार्यान्वयन, निगरानी और रिपोर्टिंग को बेहतर करने के लिए नवीनतम उपलब्ध प्रौद्योगिकी को अपनाने में निरन्तर काफी मुस्तैदी दिखाई जाती रही है और इस प्रक्रिया में भारत को जल की दृष्टि से सुरक्षित बनाने की दिशा में सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों में आवश्यक सहयोग दिया जाता रहा है। 

जल शक्ति अभियान

जल शक्ति अभियान जल सुरक्षा को बढ़ाने की एक राष्ट्रव्यापी कोशिश है। एक जुलाई, 2019 से शुरू हुए जल शक्ति अभियान के तहत 256 जिलों में 5 लाख से अधिक जल संरक्षण इंफ्रास्ट्रक्चर बनाए जा चुके हैं। एक अनुमान के अनुसार जल शक्ति अभियान से 3.7 करोड़ लोग जुड़ चुके हैं और इसके तहत लगभग 12.3 करोड़ पौधे भी लगाए गए हैं। हाल ही में हुई एक समीक्षा बैठक में ये जानकारी दी गई।
 

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स्वच्छ भारत अभियान : ग्रामीण भारत में स्वच्छ पर्यावरण और साफ-सफाई हेतु पहल

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स्वच्छ भारत अभियान : ग्रामीण भारत में स्वच्छ पर्यावरण और साफ-सफाई हेतु पहलHindiWaterTue, 10/08/2019 - 14:08
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कुरुक्षेत्र, सितम्बर 2019

देश की ग्रामीण स्वच्छता कवरेज 99 प्रतिशत का आंकड़ा पार कर चुकी है और स्वच्छ भारत मिशन अपने अन्तिम चरण में है। 30 राज्य और केन्द्रशासित प्रदेश खुद को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर चुके हैं। मिशन इस प्रगति के फायदों को निरन्तर बनाए रखने और ओडीएफ-प्लस चरण को गति देने पर ध्यान केन्द्रित कर रहा है जिसमें ठोस और तरल अपशिष्ट का प्रबन्धन शामिल है। घनी आबादी के शहरी क्षेत्रों के बाहर की भूमि का एक क्षेत्र, गाँव या ग्रामीण क्षेत्र कहलाता है। भारत में ग्रामीण क्षेत्र की परिभाषा कुछ इस प्रकार दी जाती है। ‘भारत का वह क्षेत्र जिसमें लोगों की आबादी 5000 तथा जनसंख्या घनत्व 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से कम हो तथा कृषि पर आश्रित कामकाजी लोगों की संख्या कम से कम 25 प्रतिशत हो, ऐसे क्षेत्र को ग्रामीण क्षेत्र की श्रेणी में लिया जाता है’। स्वच्छ पर्यावरण को बनाए रखने के लिए शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी भारत सरकार और निजी संस्थानों के द्वारा स्वच्छ पर्यावरण और साफ-सफाई हेतु अनेक योजनाएँ एवं कार्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं। वह दिन दूर नहीं जब भारतीय ग्रामीण क्षेत्र भी स्वच्छता हेतु मिसाल कायम करेंगे।
 
स्वच्छ पर्यावरण

वह वातावरण, जिसमें परिवार रहते हैं, परिवारों के सदस्यों के स्वास्थ्य और स्वच्छता को बनाए रखने में उस वातावरण की प्रमुख भूमिका है। ‘स्वच्छ पर्यावरण’ की पहचान तीन महत्त्वपूर्ण तत्वों से की जा सकती है- (1) स्वच्छता (2)पर्यावरणीय स्वच्छता और  (3) घरेलू उपयोग के लिए सुरक्षित जल की स्थिति। विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ द्वारा लाई गई वैश्विक जल आपूर्ति और स्वच्छता आकलन रिपोर्ट 2000 में स्वच्छता को एक सीवर या सेप्टिक टैंक प्रणाली, पौर-फ्लश लैट्रिन, साधारण गड्ढे या हवादार उन्नत गड्ढे वाले शौचालय, स्थानीय विकसित स्वीकार्य तकनीक हेतु प्रौद्योगिकियों के रूप में परिभाषित किया गया है।
 
पर्यावरणीय सफाई में अपशिष्ट जल और ठोस अपशिष्ट के उपचार और निपटान की विधि शामिल है। इस प्रकार, ऑपरेटिंग ड्रेनेज सिस्टम और कचरा संग्रहण प्रणाली पर्यावरणीय स्वच्छता के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। 

जल 

घरेलू उपयोग जैसे बर्तन धोना, स्नान करना आदि के लिए पानी की कमी (पीने के अलावा) स्वच्छता प्राप्त करने में बाधा डाल सकती है। शौचालय के उपयोग के सन्दर्भ में पानी की उपलब्धता आवश्यक है। अगर पर्याप्त पानी नहीं हो तो शौचालय का उपयोग गम्भीर रूप से बाधित हो सकता है। इसलिए पर्याप्त जल स्वच्छता के लिए आवश्यक है। एनएसएसओ द्वारा किए गए सर्वेक्षण से घरों के आस-पास के वातावरण की गुणवत्ता को कुछ संकेतकों द्वारा मूल्यांकित किया जा सकता है जैसे जल निकासी व्यवस्था, अपशिष्ट जल और कचरे के निपटान की प्रणाली आदि। 

समाज को बड़े पैमाने पर स्वच्छ पर्यावरण में गिरावट की गम्भीरता का एहसास होने लगा है और पर्यावरणीय समस्याओं के निदान के लिए संगठन और व्यक्तिगत-स्तर पर कार्य किया जा रहा है। स्वच्छ पर्यावरण और पर्यावरण संरक्षण के बारे में लोगों में जागरुकता बढ़ाने के लिए भारत सरकार के प्रतिबद्ध मंत्रालयों, पर्यावरण निगरानी एजेंसियों, गैर-सरकारी संगठनों, शैक्षणिक और अनुसंधान संस्थानों से जुड़े आउटरीच और शैक्षिक कार्यक्रमों का संचालन किया जा रहा है।
 
पर्यावरण और वन मंत्रालय ने पर्यावरण निगरानी, मूल्यांकन और प्रदूषण नियंत्रण के राष्ट्रीय प्राथमिकता वाले कार्यक्रमों में अग्रणी भूमिका निभाई है। हमारे देश में, ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ पर्यावरण से सम्बन्धित कार्य के लिए स्वयंसेवी संगठनों और गैर-सरकारी संगठनों का अत्यधिक योगदान रहा है। 1991 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद ‘पर्यावरण शिक्षा’ स्कूल और कॉलेज पाठ्यक्रम का अनिवार्य घटक बन गए हैं। ग्रामीण क्षेत्रों को प्रदूषण-मुक्त बनाने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से सरकार को प्राप्त सुझावों को राष्ट्रीय-स्तर पर लागू किया जा रहा है।
 
स्वच्छ भारत मिशन

2 अक्टूबर, 2014 से स्वच्छ भारत मिशन को राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में देशभर में शुरू किया गया था। स्वच्छ भारत अभियान भारत सरकार का सबसे महत्त्वपूर्ण स्वच्छता अभियान है। दो उपमिशन, स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) और स्वच्छ भारत मिशन (शहरी) इसके अन्तर्गत आते हैं। दोनों मिशनों का उद्देश्य महात्मा गाँधी की 150वीं वर्षगांठ पर सही रूप में श्रद्धाजंलि देते हुए वर्ष 2019 तक स्वच्छ भारत के लक्ष्य को प्राप्त करना है। इस पहल से भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में ठोस और तरल अपशिष्ट पदार्थ प्रबंधन की गतिविधियों/कार्यक्रमों के माध्यम से स्वच्छता के स्तर में वृद्धि हुई है। देश के लाखों गाँवों को खुले में शौचमुक्त (ओडीएफ) बनाया जा चुका है। हालाकि अभी बहुत लम्बा सफर तय करना है।
 
साफ-सफाई हेतु सरकार और आम जनता की पहल

साफ-सफाई हेतु राज्य सरकारों ने विशेष ध्यान दिया है, जिसमें विभिन्न मुद्दों के लिए आवश्यकताओं के अनुरूप कार्यक्रम तथा कार्यनीति बनाई गई है। मिशन को पूरा करने के लिए संकेन्द्रित कार्यक्रम के जरिए राज्य सरकारों के प्रयासों को सफल बनाने में भारत सरकार की अहम भूमिका है।
 
कार्यनीति के मुख्य तत्व

  • जमीनी-स्तर पर गहन व्यवहारगत परिवर्तन गतिविधियाँ चलाने के लिए जिलों की संस्थागत क्षमता को बढ़ाना।
  • कार्यक्रम को समयबद्ध तरीके से चलाने और परिणामों को सामूहिक रूप से मापने के लिए कार्यान्वयन एजेंसियों की क्षमताओं को सुदृढ़ करना।
  • समुदायों में व्यवहारगत परिवर्तन गतिविधियों के कार्यान्वयन हेतु राज्य-स्तर की संस्थाओं के कार्य निष्पादन को प्रोत्साहन देना।

 
व्यवहारगत परिवर्तन पर बल

स्वच्छ भारत मिशन को भिन्न करने वाला कारक व्यवहारगत परिवर्तन है और इसीलिए व्यवहारगत परिवर्तन संवाद (बीसीसी) पर अत्यधिक बल दिया जा रहा है। जागरुकता सृजन, लोगों की मानसिकता को प्रेरित कर समुदाय में व्यवहारगत परिवर्तन लाने और घरों, स्कूलों, आंगनवाड़ियों, सामुदायिक समूहों के स्थलों में स्वच्छता की सुविधाओं की माँग सृजित करने तथा ठोस एवं तरल अपशिष्ट पदार्थ प्रबन्धन गतिविधियों पर बल दिया जा रहा है। चूँकि गांव के अधिकांश घरों पर वांछित व्यवहार अपनाने और खुले में शौच से मुक्ति की अपील अभियान के माध्यम से की गई है। इसका वर्तमान परिणाम यह है कि खुले में शौच में कमी आई है और स्वच्छ पर्यावरण का स्तर बढ़ गया है।
 
सरकार की स्वच्छता/स्वच्छ पर्यावरण पहल

सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए स्वच्छता सम्बन्धित अनेक काम किए जा रहे हैं। स्वच्छता/स्वच्छ पर्यावरण के विषयों को लेकर भारत सरकार ने गाँवों और ग्रामीण इलाकों के लोगों के जीवन-स्तर को सुधारने के लिए कई कार्यक्रम और योजनाएँ प्रारम्भ की हैं।
 
पर्यावरण का ह्रास और इसके विनाशकारी परिणाम दुनिया भर की सरकारों के लिए चिन्ता का विषय रहे हैं। पर्यावरण के प्रबन्धन और संरक्षण के लिए कानूनी ढाँचा प्रदान करने के लिए कई कानून पारित किए गए हैं। 5 जून, 1972 को स्टॉकहोम में आयोजित ‘मानव पर्यावरण’ पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में पर्यावरण पर पहली बार चर्चा की गई, जिसमें 5 जून को ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ घोषित किया गया। यह प्रामाणिक है कि स्टॉकहोम में हुए ऐतिहासिक सम्मेलन के चार वर्षों के भीतर भारत ने पर्यावरण-संरक्षण के उद्देश्य से कानून बनाया, जो बाद में भारतीय संविधान का एक हिस्सा बना। हमारे संविधान के अनुच्छेद 48ए के 42वें संशोधन के अनुसार ‘राज्य पर्यावरण की रक्षा और सुधार और देश में वनों और वन्यजीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा’।
 
स्वच्छ विद्यालय अभियान पहल

मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने वैसे विद्यालयों को चिन्हित किया जिसमें लड़कों और लड़कियों दोनों के लिए अलग-अलग शौचालयों की सुविधा नहीं है और गैर-कार्यशील शौचालयों को कार्यात्मक बनाने हेतु, नए शौचालय प्रदान कर स्वच्छ विद्यालय बनाने की पहल की। यह पहल व्यवहार परिवर्तन जैसे हाथ धोने, शौचालय का उपयोग करने और इसे बनाए रखने पर केन्द्रित है। छात्रों के साथ ही उनके माता-पिता और शिक्षकों के लिए जागरुकता सृजन कार्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं। अगस्त 2014 में देशभर के 33 राज्यों में यह अभियान शुरू किया गया था। शुभारम्भ के समय, 2,61,400 से अधिक सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में पर्याप्त शौचालयों की सुविधा नहीं थी। यह आकलन किया गया था कि 4,10,000 से अधिक शौचालयों के निर्माण या मरम्मत की आवश्यकता होगी ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि हर बच्चे को शौचालय की सुविधा उपलब्ध हो।
 
विभिन्न सरकारी मंत्रालयों द्वारा की गई पहल

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की कायाकल्प योजना। इस योजना में निम्नलिखित उद्देश्य निहित हैं-

  • सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं में उच्च-स्तर की स्वच्छता, और संक्रमण नियंत्रण प्रथाओं को बढ़ावा देना।
  • ऐसी सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं (केन्द्रीय अस्पतालों/संस्थानों) को प्रोत्साहन देना और उनकी पहचान करना जो स्वच्छता और संक्रमण नियंत्रण के मानक प्रोटोकॉल का पालन करने में अनुकरणीय प्रदर्शन दिखाते हैं
  • केन्द्रीय अस्पतालों/संस्थानों में स्वच्छता से सम्बन्धित प्रदर्शन के मूल्यांकन और बाह्य समीक्षा की संस्कृति को विकसित करना।
  • सकारात्मक स्वास्थ्य परिणामों से जुड़े केन्द्रीय अस्पतालों/संस्थानों में बेहतर स्वच्छता से सम्बन्धित स्थाई प्रथाओं को बनाना और साझा करना।

महिला और बाल विकास मंत्रालय

स्वच्छ भारत मिशन के उद्देश्यों को महिला और बाल विकास मंत्रालय की एकीकृत बाल विकास योजना के माध्यम से चलाया जा रहा है और इसका उद्देश्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्र, प्रत्येक आंगनवाड़ी केन्द्र में कार्यशील शौचालय प्रदान करना है। इस सम्बन्ध में, मंत्रालय ने बच्चों को साफ-सफाई और स्वच्छता के महत्व के बारे में जागरुक करने के लिए बाल स्वच्छता मिशन की शुरुआत की है। यह समुदायों के बीच व्यवहार परिवर्तन लाने और पीढ़ियों के बीच स्वच्छता की आदत को बढ़ावा देने के लिए प्रयासरत है।
 
महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा की गई गतिविधियाँ इस प्रकार है: 

  • प्रत्येक नवनिर्मित आंगनवाड़ी केन्द्र के साथ बाल सुलभ शौचालयों के निर्माण और आंगनवाड़ी केन्द्र के उन्नयन के लिए प्रावधान।
  • निर्धारित विषयों पर प्रत्येक आंगनवाड़ी केन्द्र में छह दिनों के लिए बाल स्वच्छता मिशन का उत्सव (यानी स्वच्छ आंगनवाड़ी, स्वच्छ वातावरण, स्वयं स्वच्छ, स्वच्छ भोजन, स्वच्छ पेयजल, स्वच्छ शौचालय) आयोजित करना।
  • प्रत्येक जिला और राज्य-स्तर पर नियुक्त नोडल अधिकारियों के माध्यम से आंगनवाड़ी केन्द्रों पर की जाने वाली गतिविधियों का अनुसरण करना।

मंत्रालय ने एक अभियान के माध्यम से स्वच्छता के प्रयासों को बनाए रखने पर जोर दिया है। परिणामस्वरूप, बाल स्वच्छता मिशन के तहत निम्नलिखित राज्य-स्तरीय गतिविधियाँ बताई गई हैः

  • आंगनवाड़ी केन्द्रों के माध्यम से स्वच्छता अभियान की सफलता सुनिश्चित करने के लिए भूमिकाओं और जिम्मेदारियों पर निर्णय लेने के लिए कई सम्बद्ध विभागों के साथ राज्य और जिला-स्तर पर अभिसरण बैठकें।
  • बच्चों की स्वच्छता, व्यक्तिगत स्वच्छता और ग्राम स्वास्थ्य के कई पहलुओं पर माताओं के संवेदीकरण हेतु माताओं को समिति की बैठक द्वारा और पोषण दिवस के आयोजन के माध्यम से जागरूक करना।
  • पका हुआ और बिना पका हुआ भोजन, (दोनों के लिए) तथा स्वच्छता और भोजन के प्रबन्धन पर प्रदर्शन सत्र आयोजित किए जाते हैं।
  • शौचालय का उपयोग करने से पहले और बाद में खाना खाने के बाद में हाथ धोने हेतु कई गतिविधियोंध्कार्यक्रमों के माध्यम से प्रेरणा देना।
  • आंगनवाड़ी केन्द्रों और आस-पास के परिवेश की सफाई हेतु स्वयंसहायता समूह के सदस्यों, माताओं, समिति के सदस्यों, महिलामंडल, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं, लाभार्थियों के माता-पिता के सहयोग से और सहायकों द्वारा योगदान दिया जाता है।

 
कुछ अन्य पहल

पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय के तहत काम करने वाली तेल कम्पनियों, गैर-केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों और संयुक्त कम्पनियों ने स्वच्छ भारत मिशन के तहत निम्नलिखित गतिविधियाँ आयोजित की है:

  • देशभर  के स्कूलों में 29 फरवरी, 2016 तक 20,218 शौचालयों का काम पूरा किया।
  • तेल विपणन कम्पनियों को देश में रिटेल आउटलेट्स पर स्वच्छ शौचालय की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए कहा गया।
  • देशभर में 29 फरवरी, 2016 तक 50,166 रिटेल आउटलेट्स में स्वच्छ शौचालय बनाए जा चुके थे।
  • स्वच्छता अभियान को बनाए रखने के लिए, तेल विपणन कम्पनियों के अधिकारियों द्वारा अपनी खुदरा दुकानों पर स्वच्छ शौचालयों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए नियमित निरीक्षण किया जाता है।
  • सीपीएसई ने स्वच्छता बनाए रखने के लिए अपने संचालन क्षेत्रों के आसपास 29 फरवरी 2016 तक 87 गाँवों, जल निकायों और स्थानों को अपनाया है।
  • सूचना, शिक्षा और संचार गतिविधियों में सोशल मीडिया और वेबसाइटों के माध्यम से जागरुकता अभियान शामिल हैं। आम जनता को जागरुक करने के लिए प्रतियोगिताओं, नाटकों, क्विज, वॉकथॉम आदि का आयोजन किया गया।
  • 406 से अधिक परियोजनाओं में स्वच्छता अभियान में तेल और गैस कम्पनी के कर्मचारियों द्वारा श्रमदान गतिविधियाँ आयोजित की जा रही हैं।

स्वच्छ भारत मिशन के तहत, रेल मंत्रालय ने निम्नलिखित क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित किया हैं : -

  • स्वच्छता और स्वच्छ शौचालयध्जल निकासी में सुधार।
  • जन-जागरुकता अभियान/मिशन की आवधिक निगरानी तथा वांछित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए पहल।
  • प्रमुख स्टेशनों पर सीसीटीवी कैमरों के माध्यम से सफाई की निगरानी।
  • प्रमुख स्टेशनों पर डस्टबिन की अपेक्षित संख्या का प्रावधान।
  • रेलवे स्टेशनों पर स्वच्छता में उत्कृष्ट कार्य के लिए, जोनल रेलवे द्वारा किए गए सर्वोत्तम प्रयासों को मान्यता देने के बाद पुरस्कार की व्यवस्था।

हरित कौशल विकास कार्यक्रम

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हरित कौशल विकास कार्यक्रम को पर्यावरण सूचना प्रणाली योजना के तहत प्रायोगिक तौर पर शुरू किया जिससे इस क्षेत्र में कुशल युवा को लाभप्रद रोजगार या स्वरोजगार प्राप्त हो। वर्तमान में, देशभर के 87 स्थानों पर 44 हरित कौशल विकास कार्यक्रम पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं। 80 घंटे से लेकर 550 घंटे तक की अवधि के साथ वे विभिन्न क्षेत्रों को कवर करते हैं। इनमें निम्न शामिल हैं- प्रदूषण निगरानी (वायु, पानी, मिट्टी), उत्सर्जन सूची, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट, कॉमन एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट संचालन और रखरखाव, कचरा प्रबन्धन, पर्यावरण प्रभाव आकलन, वन अग्नि प्रबन्धन, जल बजट और लेखा परीक्षा, नदी डॉल्फिन का संरक्षण, वन्यजीव प्रबन्धन, पैरा टैक्सोनॉमी जिसमें पीपुल्स बायो-डायवर्सिटी रजिस्टर शामिल है। मैंग्रोव संरक्षण, बाँस प्रबन्धन और आजीविका उत्पादन, पारिस्थितिकी-तंत्र सेवाओं का मूल्यांकन आदि।
 
भारत में अनेक स्वैच्छिक संगठन/गैर-सरकारी संगठनों द्वारा ग्रामीण और पर्यावरणीय मुद्दों के समाधान के लिए अनेक रणनीति विकसित की जाती हैं। पर्यावरण और वन के कार्य हेतु 20,521 तथा ग्रामीण विकास और गरीबी उन्मूलन के कार्य हेतु 19,599 संगठन भारत में मौजूद हैं जिनके उद्देश्य कुछ इस प्रकार है:-

  • स्थानीय समुदायों को कुशलतापूर्वक अपने प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन करने हेतु जानकारी उपलब्ध कराना।
  • मुदायों और लोगों को उनके प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए सम्भावित रूप से सफल रणनीति विकसित करना।
  • पर्यावरण संरक्षण और विकास हेतु महिलाओं को प्रशिक्षण और महिला कार्यक्रमों के माध्यम से अनेक भूमिकाओं को बढ़ावा देना।
  • साफ-सफाई, वनों की कटाई, भूमिक्षरण से निपटने हेतु ग्रामीण क्षेत्रों में वैकल्पिक स्थाई विकास रणनीतियों को बढ़ावा देना, साथ ही साथ यह भी ध्यान रखना कि इसमें ग्रामीण वित्तपोषण के वैकल्पिक मॉडल का विकास शामिल हो।
  • पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने हेतु वैधानिक ज्ञान के साथ-साथ पर्यावरणीय प्रबन्धन, प्रशिक्षण और सूचना कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए जागरुकता बढ़ाना।

 
स्वच्छ भारत मिशन की बदौलत भूजल के दूषित होने में कमी

स्वच्छता भूजल, सतही जल, मिट्टी या वायु सहित पर्यावरण के सभी पहलुओं और साथ ही साथ ओडीएफ क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों के स्वास्थ्य और कल्याण को प्रभावित करती है। डब्ल्यूएचओ के 2018 के अध्ययन में अनुमान व्यक्त किया गया था कि भारत के खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) हो जाने पर स्वच्छ भारत मिशन 3 लाख से अधिक जिन्दगियाँ बचा पाने में समर्थ होगा। स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के बारे में किए गए दो स्वतंत्र तृतीय पक्ष अध्ययनों को हाल ही में जारी किया गया। मिशन आने वाले लम्बे समय तक लोगों के जीवन पर सकारात्मक प्रभाव डालता रहेगा। यूनिसेफ और बिल एंड मेलिंडा गेट्स द्वारा कराए गए इन अध्ययनों का उद्देश्य क्रमशः स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के पर्यावरणीय प्रभाव और उनकी कम्युनिकेशन छाप का मूल्यांकन करना था। दोनों अध्ययनों की पूरी रिपोर्ट और साथ ही दोनों अध्ययनों की संक्षिप्त रिपोर्ट mdws.gov.in और sbm.gov.inपर उपलब्ध है।

 

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कैसे होगा जैव विविधता का विकास और संरक्षण ?

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कैसे होगा जैव विविधता का विकास और संरक्षण ?HindiWaterWed, 10/09/2019 - 11:27

कैसे होगा जैव विविधता का विकास और संरक्षण ? फोटो स्त्रोत-medium.com कैसे होगा जैव विविधता का विकास और संरक्षण ? फोटो स्त्रोत-medium.com

वर्ष 2020 में जब संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित जैव विविधता दशक का समय पूर्ण होगा, उसी समय भारतीय जैव विविधता अधिनियम भी वयस्क हो जाएगा। 11 दिसंबर 2002 को जैव विविधता अधिनियम पारित किया गया था। इसके अंतर्गत राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण बनाया गया। जिसका मुख्यालय चेन्नई में स्थापित किया गया। इसके साथ ही सभी राज्यों में जैव विविधता बोर्ड का गठन भी किया गया। स्थानीय निकायों, ग्राम पंचायतों और शहरी निकायों में जैव विविधता प्रबंधन समितियों के गठन का भी प्रवधान किया गया, जो इस अधिनियम को लागू और क्रियान्वयन करने के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी बनाये गए हैं। 14 सितंबर 2010 को राजस्थान में जैव विविधता बोर्ड का गठन हुआ, लेकिन बोर्ड के प्रावधान के अनुसार स्थानीय निकायों में जैव विविधता प्रबंधन समितियों का गठन नहीं हुआ है। अरावली पवर्त श्रृंखलाओं और थार का रेगिस्तान की मिश्रित जैव विविधता की पहचान रखने वाला राजस्थान ही जैव विविधता कानून और प्रावधानों से पूरी तरह वंचित है।

जैव विविधता के नष्ट होने का असर केवल रेगिस्तान पर ही नहीं पड़ेगा बल्कि दूसरे क्षेत्र भी प्रभावित होंगे। तेजी से विस्तार हो रहा रेगिस्तान प्रति वर्ष कृषि की उपजाऊ भूमि को लील रहा है। भूमि की उपजाऊ क्षमता घट रही है। फसलों और वनस्पतियों को नुकसान पहुंचाने वाले जीवों की संख्या बढ़ रही है। भूमि की क्षारीयता में वृद्धि हो रही है। पर्यावरण और पारिस्थितिक तंत्र को नष्ट कर विकास की बुलंदियों को छूने वाली मानवीय फितरत के कारण उत्पन्न जलवायु परिवर्तन केे प्रभाव ने रेगिस्तान में हो रहे इस बदलाव की गति पर विपरीत प्रभाव डाला है।

किसी भी प्राकृतिक जोन में सभ्यता का विकास जैव विविधता के बिना संभव नहीं हुआ है। यह किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में पाए जाने वाले जीवों और वनस्पतियों की संख्या पर आधारित होता है। इसका संबंध पौधों के प्रकारों, प्राणियों एवं सूक्ष्म जीवों की विविधता से है। जैव विविधता से मृदा का निर्माण, मृदा कटाव रोकथाम, परागण तथा जैविकीय अपषिष्टों के पुनःचक्रण की प्रक्रिया संचालित होती है, जो मानव सभ्यता के अस्तित्व का आधार है। जैव विविधता के कारण ही खेती, पशुपालन, फलोत्पादन और खाद्यान्न उत्पादन की गतिविधियां संचालित हो पाती है। मानव बस्तियों के आस-पास तनाव मुक्त स्वस्थ वातावरण का निर्माण इन्हीं जैविकीय क्रियाओं से संभव होता है। बहुत से औषधीय तत्व जैव विविधता के कारण ही प्राप्त होते हैं, जिनसे रोगमुक्त दवाओं का निर्माण होता है। थार का रेगिस्तान जैव विविधता का धनी होने के कारण ही यहां जीवन की संभावनाएं और उत्कृष्ट सभ्यता विकसित हुईं।  लेकिन पिछले पांच-छह दशकों में आधुनिक विकास के नाम पर कुछ ऐसी भूलें हुईं हैं, जिससे यहां की जैव विविधता के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया। बहुत से प्राणी और पादप जीव लुप्त हो गए और बहुत से लुप्त होने के नजदीक हैं। विकास के नाम पर रेगिस्तान में इंदिरा गांधी नहर के आगमन, कृषि यांत्रिकरण के तहत ट्रैक्टर से खेतों की बुआई, सिंचित खेती में रसायनों का उपयोग, पारंपरिक जल स्रोतों व चारागाहों के विकास की अनदेखी, पर्यावरणीय मानदंडों को दर किनार कर किया जाने वाला खनन कार्य, जीवों के प्राकृतिक वास के नजदीक से निकाली गई सड़कें, विद्युतिकरण के खुले तारों, मोबाइल टावरों से निकलने वाली तरंगों, विंड एनर्जी की पवन चक्कियों, समुदाय की जैव विविधता के प्रति समझ की कमी जैसे प्रमुख कारण हैं, जिससे दुनिया की अनूठी जैव विविधता पतन की तरफ बढ़ रही है। 

ट्रैक्टर से खेती ने रेगिस्तान की जैव विविधता को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। बहुत-सी वनस्पतियां धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं। रेगिस्तान को बांध कर रखने वाला फोग का पौधा लुप्त होने के नजदीक है। हल्की-सी बरसात से हरी होने वाली सेवण, धामण, मुरट, देशी बोरड़ी कुछ स्थानों पर ही देखने को मिलती है। भुरट, बेकरियां, कांटी, झेरणियां घास, साटा, चंदलिया, गंठिया घास, तूंबा, अश्वगंधा, शंखपुष्पि, धतूरा, रीगणी, चामकस जैसे असंख्य औषद्यीय पौधे भी लगभग गायब हो रहे हैं। जैव विविधता की कमी ने रेगिस्तान के प्रसार को बढ़ाया है। कृषि योग्य उपजाऊ भूमि को धीरे-धीरे रेगिस्तान निगल रहा है। इन सब बदलावों के बावजूद राजस्थान का जैव विविधता बोर्ड निष्क्रिय बना हुआ है। जीव-जंतुओं की प्रजातियों पर भी आधुनिक विकास का कहर जारी है और गिद्द, जंगली कौआ, नीलकंठ, कठफोड़वा, उल्लू और चील जैसे पक्षी रेगिस्तान से गायब हो गए। आज की नई पीढ़ी इन्हें केवल किताबों, अथवा चित्रों में ही देख पाती हैं। मृत जानवरों के अवशेष ठिकाने लगाने वाले सियार, नाहर, गादड़ा, लकड़बग्घा जैसे जीवों की अनुपस्थिति में वातावरण सड़ांध मारता है। वातावरण को दूषित करते हैं। ऐसी स्थितियां उत्पन्न होने के बावजूद राज्य का जैव विविधता बोर्ड रेगिस्तान की जैव विविधता को लेकर उदासीन है।

रेगिस्तान में पारंपरिक जल स्रोत और ओरण व गौचर के नाम से छोड़े गए चारागाह जैव विविधता विकास और संरक्षण के सबसे बड़े स्रोत हैं, लेकिन दिनों दिन इनकी हालत बिगड़ती जा रही है। विकास के नाम पर लाए गए पेयजल के वैकल्पिक स्रोत और दूसरे राज्यों से लाया गया चारा, इन्सानों और पालतु पशुओं के संकट को कुछ समय तक टाल सकते हैं, लेकिन जैव विविधता के खात्मे की भरपाई नहीं कर सकते। जीवन को चारा पानी के अतिरिक्त भी जीने के लिए कुछ और चाहिए। विकास के नाम पर जुटाई गई वैकल्पिक व्यवस्थाओं के कारण पारंपरिक जल स्रोतों, चारागाहों से सरकार व समुदाय का ध्यान हट गया। पारंपरिक जल स्रोत सूख गए और चारागाह वनस्पति विहीन हो जाने से जैव विविधता का बड़ा नुकसान हो रहा है। पानी की अनुपलब्धता और अवरुद्ध हुए स्थानीय वनस्पतियों के विकास ने यहां के प्राणियों के सामने पानी और भोजन का संकट पैदा कर दिया, जिसके कारण या तो वे समाप्त हो गए अथवा स्थान छोड़ कर अन्य अनुकूल स्थानों में प्रवास कर गए।

जैव विविधता के नष्ट होने का असर केवल रेगिस्तान पर ही नहीं पड़ेगा बल्कि दूसरे क्षेत्र भी प्रभावित होंगे। तेजी से विस्तार हो रहा रेगिस्तान प्रति वर्ष कृषि की उपजाऊ भूमि को लील रहा है। भूमि की उपजाऊ क्षमता घट रही है। फसलों और वनस्पतियों को नुकसान पहुंचाने वाले जीवों की संख्या बढ़ रही है। भूमि की क्षारीयता में वृद्धि हो रही है। पर्यावरण और पारिस्थितिक तंत्र को नष्ट कर विकास की बुलंदियों को छूने वाली मानवीय फितरत के कारण उत्पन्न जलवायु परिवर्तन केे प्रभाव ने रेगिस्तान में हो रहे इस बदलाव की गति पर विपरीत प्रभाव डाला है। रेगिस्तान का विस्तार अब दूसरे राज्यों में भी हो रहा है। पानी का संकट बढ़ रहा है। बदलते मानसून चक्र और तरीकों के कारण सामान्य बरसात होने के बावजूद सूखा और अकाल की उपस्थिति बढ़ रही है।

समाज और सरकार दोनों के लिए सोचने वाली बात है कि पौधों की जड़ों में सरंक्षण लेने वाले सूक्ष्म जीवों के खात्मे से मृदा का निर्माण कैसे होगा ? स्थानीय वनस्पतियां समाप्त होने से मृदा का कटाव कैसे रुकेगा ? परागण करने वाले कीटों की समाप्ति से भला फसलों में जान कैसे आ जाएगी ? जलस्रोतों और चारागाहों के नष्ट होने से पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण करने वाले जीव-जंतु कहां बसाएंगे अपना बसेरा ? और यह सब नहीं रहेंगे तो कैसे बचेगा मानव का अस्तित्व ? अब समय चिंता प्रकट करने और कन्वेंसन, सम्मेलन, बैठकों में संकल्प और घोषणाएं पारित करने का नहीं है। स्थितियां और बदतर हों, इससे पूर्व संभल जाने का समय है, कुछ करने का समय है, खोई हुई प्राकृतिक संपदा को पुनः जीवित करने का समय है। राज्यों में निष्क्रिय हो चुके जैव विविधता बोर्ड को फिर से जगाने का समय है। जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता ह्रास, पारिथितिक अनुकूलनता के प्रति सोए हुए जिम्मेदारों को नींद से जगाने का काम अब आमजन को करना ही होगा। (चरखा फीचर्स)

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नेटाफिम टपक सिंचन प्रणालीः गन्ने की फसल के लिए वरदान

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नेटाफिम टपक सिंचन प्रणालीः गन्ने की फसल के लिए वरदानHindiWaterWed, 10/09/2019 - 12:56

नेटाफिम टपक सिंचन प्रणाली नेटाफिम टपक सिंचन प्रणाली की जननी होने के साथ-साथ अपने प्रगत तंत्रज्ञान और तुषार/ फुहारा सिंचन उत्पादनों की विस्तृत श्रेणी के साथ विश्व में प्रथम क्रमांक की कम्पनी है आज भारत में 7 लाख एकड़ से अधिक क्षेत्र में नेटाफिम टपक सिंचन प्रणाली कार्यरत होने के साथ ही 80 हजार से अधिक किसान नेटाफिम की सेवाओं का लाभ उठा रहे हैं। इरिगेशन और फर्टिगेशन के लिए सर्वाधिक कार्यक्षम पद्धति वर्तमान में कृषि व्यवसाय में टपक सिंचन और उसके द्वारा खाद डालने की पद्धति बहुत प्रभाव बना रही है। विगत 40 वर्षों से भारत के साथ ही विश्व में भी नेटाफिम की टपक सिंचन प्रणाली लाखों एकड़ गन्ने की फसल सफलतापूर्वक सिंचाई कर रही है। फसल के लाभदायक उत्पन्न के लिए किसान नेटाफिम टपक सिंचन प्रणाली को ही अपनी पहली स्वीकृति देते है। सभी प्रकार के खर्चों में बचत और उत्पादन में वृद्धि की करामात यह प्रणाली किस प्रकार करती है, इसकी जानकारी ले लेते हैं। टपक सिंचन में ड्रिपर एक महत्त्वपूर्ण घटक है और उसकी कार्यक्षमता पर ही टपक सिंचाई की कार्यक्षमता निर्भर करती है। नेटाफिम के ड्रीपलाईन में ड्रिपर को लैटरल बनाते समय ही निश्चित दूरी पर बिठाते हैं। अति उच्च स्तर के प्रीसीजन मोल्डेड इमीटर जिससे पानी और खाद समान मात्रा में दिया जाता है। बहुत बड़ा और ढालू गहरा प्रवाह पथ जो अधिक प्रवाह क्षेत्र निर्मित करता है, जिससे ड्रिपर के बंद पड़ने का भय कम हो जाता है। इमीटर का काँटेदार हिस्सा इससे प्रवाह में भंवर निर्माण होकर ड्रिपर में फँसा हुआ कचरा बाहर निकल जाता है। ड्रिपर का विशिष्टतापूर्ण स्थान नेटाफिम कम्पना का ड्रिपर ड्रिपरलाईन में सर्वाधिक ऊँचाई पर होता है। इससे पाईप के मध्यभाग में से स्वच्छ जल ग्रिण किया जाता है और ड्रिपर बंद पड़ने की सम्भावना कम हो जाती है। ड्रिप के अग्रभाग में लगा हुआ मायक्रो फिल्टर इससे जल छनकर ड्रिपर में प्रवेश करता है जिससे ड्रिपर के बंद पड़ने की सम्भावना कम हो जाती है। नेटाफिम ड्रिपरलाईन गन्ने की सभी जातियों को, बोआई पद्धति को, उसी प्रकार प्रवाह की स्थिति और ड्रिपर के बीच की दूरी की विविध पर्यायों में उपलब्ध है। टपक सिंचाई के फायदे 1. उत्तम उगाही 2. फसल की एक जैसी वृद्धि 3. पौधों की संख्या अधिक 4. पानी की बचत 5. खाद की बचत 6. मजदूरी खर्च में बचत 7. बिजली खर्च में बचत 8. फसल के उत्पादन में वृद्धि 9. शक्कर/ चीनी की अधिक निष्पत्ती 10. कम उपजाऊ जमीन पर भी उपयोगी 11. क्षारयुक्त जल का प्रयोग सम्भव 12. मृदा का सत्त्व बना रहता है। भूमि/जमीन गन्ने के लिए मध्यम से लेकर भारी/उच्च श्रेणी की, और अच्छी निकासी की भूमि ही योग्य होती है। उसी प्रकार अच्छे उत्पादन के लिए भूमि क्षेत्र कि मात्रा 6 से 8 के बीच होना चाहिए। भूमि की देखभाल गन्ने की जड़े सतह के 20 से 40 सें.मी. में ही बढते है। इसलिए भूमि को अच्छी तरह से पोला या भुरभुरा कर लें। गन्ने की अच्छी फसल पाने हेतु भूमि की योग्य देखभाल करना आवश्यक है। बोआई की पद्धति एक कूँड पद्धति इसमें साधारणतः 2.5 फीट की दूरी पर कूँड बनाए जाते हैं। गन्ने की बोआई एक कूँड छोड़कर की जाती है। इससे ड्रिपर लाईन में 4 फीट (यानी 9.5 मीटर) की दूरी बनी रहती हो। पट्टा पद्धति इस पद्धति में साधारणतः 9.5-2.0X4-6X9.5-2 फुट दूरी पर कूँड बनाए जाते हैं। दो कूँड़ो में बोआई (1.4-2.0 फुट) करने के बाद एक कूंड बनाए जाते हैं। दो कूंडो में बोआई करने के बाद एक कूंड (5 फुट) खाली रखा जाता है। इससे दो ड्रिपलाईन के बीच की दूरी क्रमशः 1.8, 2.4 और 2.1 मीटर होती है। बोआई गन्ने की बोआई के लिए एक आँख/ गाँठ पद्धति या दो गाँठ/आँख पद्धति का इस्तेमाल किया जाता है। इसके लिए साधारणतः 2 से 5 टन प्रति हेक्टर गन्ने की आवश्यकता होतीत है। एक अक्ष पद्धति में दो आँखो/ गाठों के बीच 30 से 40 सें.मी. की दूरी हो। दो गाँठ/ आँख पद्धति में बोआई करते समय गन्ना का टुकड़ा जोड़कर करें। इस पद्धति में एकड़ में 10000 से 20000 गन्ने के टुकड़ों की बोआई आवश्यक है। बीज प्रक्रिया अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए बीजों का रोगमुक्त एवं कीड़ों से मुक्त होना आवश्यक होता है। बोआई करने से पहले बीजों को बावीस्टीन 2 से 3 ग्राम /लीटर अथवा क्लोरोपायरीफोस 1 मिली/ लीटर द्रव में पाँच मिनट डूबो कर रखे। बोआई करने के तुरन्त बाद ही सिंचन करे। अधिक मात्रा में उत्पादन प्राप्त करने के लिए नेटाफिम की सलाह 1. पट्टा पद्धति का इस्तेमाल करें। 2. दो पंक्तियों के लिए एक ड्रिपलाईन का इस्तेमाल करें। 3. दो ड्रिपलाईन के बीच की दूरी 1.8 मीटर या 2. 25 मीटर हो। 4. प्रवाह की स्थिति 1.4 से 2.0 लीटर प्रति घंटा हो। 5. भूमि, फसल, जलवायु पर आधारित सिंचन पद्धति। 6. आवश्यक पोषक द्रवों की फर्टीगेशन द्वारा पूर्ति। 7. एकीकृत कीट/ रोग नियंत्रण 8. आवश्यकतानुसार एवं समयसारिणीनुसार रोग नियंत्रण कार्यक्रम।

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कहां गए 22 लाख तालाब ?

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कहां गए 22 लाख तालाब ?HindiWaterWed, 10/09/2019 - 16:23

कहां गए 22 लाख तालाब ?। फोटो स्त्रोत-दि इंडियन एक्सप्रेसकहां गए 22 लाख तालाब ?। फोटो स्त्रोत-दि इंडियन एक्सप्रेस

एक समय था जब भारत में करीब 24 लाख तालाब हुआ करते थे। हर गांव की अपनी संस्कृति और अपना तालाब होता था। या यूं कहें कि तालाब संस्कृति का ही एक हिस्सा हुआ करते थे। हर तालाब का अपना एक नाम और महत्व होता था। तालाबों के किनारे जंगल या वृक्षों का घेरा होता था। तालाबों का कैचमेंट यानी जलग्रहण क्षेत्र घने जंगलों के बीच होने से भू-कटाव को रोकने में सहायता मिलती थी और तालाब में गाद भी कम जमा होती थी। जिस कारण तालाब हजारों साल तक चलते थे। उस दौरान तालाब, कुंए, पोखर आदि वर्षा जल संचय का सफल माध्यम होते थे। इस पानी को पीने और खेती सहित अन्य कामों में लाया जाता था। साथ ही भूजल स्तर को रिचार्ज करने में इनकी अहम भूमिका रहती थी। लोग जल संचय और जल संरक्षण को भी संस्कृति का ही अहम हिस्सा और जल संरक्षण को हर व्यक्ति अपना कर्तव्य समझता था, लेकिन आधुनिकता की दौड़ में तालाबों की संस्कृति ही खत्म हो गई। जिस कारण देश में केवल सवा दो लाख तालाब बचे और देश का नागरिक बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहा है। 

5वें माइनर इरीगेशन सेंसस (2013-14) के आंकड़ों पर नजर डाले तो देश में करीब 2 लाख 14 हजार 715 तालाब हैं। शेष लगभग 22 लाख तालाब विलुप्त हो चुके हैं, यानी इन पर भवन निर्माण कर काॅलोनियां बसाई गई हैं। इन काॅलोनियों का नाम भी तालाबों के नाम पर ही रखा गया है। इससे यहां आने वाले नए शख्स को या काॅलोनी का नाम सुनने से ही प्रतीत होता है कि यहां कोई तालाब होगा, लेकिन तसदीक करने पर पता चलता है कि यहां कभी तालाब हुआ करता था, अब तालाब की कब्र पर इमारते खड़ी हैं और इमारतों का संरक्षण तालाब पर कब्जा करने वाले इंसान कर रहे हैं। बेशक, तालाब पर कब्जा करना उस दौरान किसी को नहीं खला होगा, क्योंकि आधुनिकता की दौड़ में वोट बैंक की राजनीति में बढ़ती आबादी को आशियाने के लिए जमीन देनी थी, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम पर न तो शासन ने ध्यान दिया और न ही प्रशासन ने तथा जनता तो लाभ पाने में व्यस्त थी। 

जल संरक्षण की इन प्राकृतिक धरोहरों को नुकसान पहुंचाने का खामियाजा ये हुआ कि बरसात का पानी पोखर, कुओं, तालाबों आदि में संग्रहित होकर भूजल को रिचार्ज करने के बजाए नालों के माध्यम से नदियों और नदियों से समुद्र में जाकर व्यर्थ होने लगा। इससे वर्षा जल को भूमि के अंदर जाने का माध्यम नहीं मिला और भूजल तेजी से कम होने लगा। तो वहीं भू-जल पर अधिक निर्भर होने के कारण हमने इतना पानी खींच लिया कि हैदराबाद, दिल्ली, चेन्नई, बेंगलुरु, कोलकाता आदि बड़े शहरों में भूजल समाप्त होने की कगार पर पहुंच गया है। जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 देशों की सूची में भारत 120 पायदान पर पहुंच गया। दूसरी तरफ आधुनिकता के दौर में बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए बड़े स्तर पर जंगलों के कटान ने आग में घी डालने का काम किया। वनों के कटान से मिट्टी ढीली पड़ गई। हल्की बरसात में भू-कटाव शुरू हो गया। इसका सबसे ज्यादा नुकसान पहाड़ी इलाकों में हुआ। पेड़ों के कटने से पर्यावरण संतुलन बिगड़ने लगा और गर्मी बढ़ने लगी। भूमि में पहले से ही जल की कमी होने के कारण वनस्पतियों आदि को पर्याप्त नमी और जल नहीं मिला, इससे उपजाऊ भूमि मरुस्थलीकरण की चपेट में आ गई और भारत की करीब 24 प्रतिशत भूमि मरुस्थल में तब्दील हो चुकी है। देश की करीब 40 प्रतिशत जनता स्वच्छ जल के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जिस कारण जनता समय समय पर अपने-अपने राज्य की सरकारों कोसती है। 

जल की इस भीषण समस्या को देखते हुए कई संगठन जरूर सक्रिय हुए और उन्होंने लोगों को जागरुक करना शुरू किया। नतीजा ये रहा कि देश के कई गांवों में तालाब निर्माण का कार्य शुरू हुआ। कई लोगों/किसानों ने स्वयं के स्तर पर भी तालाबों का निर्माण व सफाई की। सभी के इन प्रयासों से देश भर में हजारों तालाब बनाए जा चुके हैं, लेकिन सरकार की नींद फिर भी नहीं टूटी। सरकार की नींद कुछ माह पूर्व ही टूटी और जलशक्ति मंत्रालय का गठन किया गया। अभी तक तो मंत्रालय के अंतर्गत जल संरक्षण का कार्य जोर-शोर से चल रहा है, लेकिन धरातल पर परिणाम ही मंत्रालय की सफलता की दास्तान को बयां करेंगे, लेकिन गौर करने वाली वाली बात ये है कि आज भी देश के करोड़ों लोग पानी बचाने के प्रति जागरुक नहीं हैं। 40 प्रतिशत जल किसी न किसी कारण से व्यर्थ हो जाता है। तालाबों और नदियों पर अधिकारियों और मंत्रियों की सांठगांठ से धड़ल्ले से अतिक्रमण हो रहा है। पर्यावरण संरक्षण की दुहाई देने वाले मंत्रियों और अधिकारियों के काल में ही विकास के नाम पर पर्यावरण को क्षति पहुंचाई जा रही है। इसलिए पर्यावरण और जल संरक्षण के लिए देश को एक ठोस नीति की आवश्यकता है। नीति केवल फाइलों नहीं बल्कि धरातल पर लागू भी हो और नियम कानून का अनुपालन सभी के लिए समान रूप से हो तथा कथनी और करनी में अंतर न हो। साथ ही जनता पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्य का अनुपालन करे। नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब हर इंसान के पास रहने के लिए घर तो होगा और घर में नल भी होगा, लेकिन नल में पानी नहीं होगा। इसलिए अपने भविष्य का निर्धारण हमें स्वयं करना होगा।

 

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नगरीय जलप्रदाय व्यवस्था में भूजल की भूमिका 

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नगरीय जलप्रदाय व्यवस्था में भूजल की भूमिका HindiWaterThu, 10/10/2019 - 12:24

नगरीय जलप्रदाय व्यवस्था में भूजल की भूमिका । फोटो स्त्रोत-commons.wikipedia.orgनगरीय जलप्रदाय व्यवस्था में भूजल की भूमिका। फोटो स्त्रोत  - commons.wikipedia.org

पिछले कुछ दशकों से पलायन के कारण ग्रामीण क्षेत्र से नगरीय क्षेत्रों में शहरों की आबादी निरंतर बढ़ रही है। शहरी क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार तथा व्यापार इत्यादि क्षेत्रों में मिल रही बेहतर सुविधाओं के कारण ग्रामीण क्षेत्र से बड़ी संख्या में लोग शहरों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इस कारण मूलभूत सेवाओं पर भार बढ़ता जा रहा है। जलप्रदाय व्यवस्था एक महत्वपूर्ण मूलभूत आवश्यकता है। बढ़ती हुई आबादी का असर इस सेवा पर दिख रहा है। यही कारण है कि जो योजनाएं पेयजल 30 साल की अनुमानित जनसंख्या के लिए बनाई जाती है, आबादी के आंकड़े, उस अनुमानित समय-सीमा के पहले ही उस लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। परिणाम-योजना बौनी हो जाती है। पिछले कुछ अरसे से संकेत मिल रहे हैं कि देश के अनेक नगर जल विहीन होने वाले हैं। यह दूसरा खतरा है। यह खतरा दिन-प्रति-दिन बढ़ रहा है। 

भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा 27 जनवरी वर्ष 2003 से हरियाली कार्यक्रम में कहा था कि ‘‘भारत देश जल की गंभीर समस्या का सामना इसलिए नहीं कर रहा है कि यहां जल के पर्याप्त स्त्रोत नहीं हैं या हमारे यहाँ वर्षा कम होती है बल्कि इसलिए कर रहा है कि यहाॅँ पर जल का समुचित रूप से संग्रह नहीं किया जा रहा है। इन्द्र देवता हम पर बहुत कृपालु रहे हैं। असली समस्या यह है कि हम वर्षा जल को संचित करने में असमर्थ रहे हैं।’’

जलप्रदाय व्यवस्था सामान्यतः सतही स्त्रोत अथवा भूगर्भीय स्त्रोतों पर आधारित रहती है। जंगलों के कटने, ग्लोबल वार्मिंग तथा पहाड़ों के वैध/अवैध उत्खनन इत्यादि कारणों से सतही स्त्रोत सिमटते जा रहे हैं। जिन शहरों की जल आपूर्ति सतही स्त्रोतों पर आधारित हैं, उन्हें अब विश्वसनीय सतही स्त्रोतों से पानी लाने के लिए काफी लम्बी दूरी तय करनी पड़ रही है। इंदौर के लिए 70 कि.मी., भोपाल के लिए 70 कि.मी., देवास औद्योगिक क्षेत्र के लिए 130 कि.मी. की दूरी से पानी लाया जा रहा है। लम्बे परिवहन के कारण योजना की लागत अधिक है। इसके अलावा संचालन तथा संधारण भी महंगा तथा कठिन है। यह विकल्प हीनता नहीं है। मुम्बई या दिल्ली जैसे नगर तो लगभग पूरी तरह बाहरी मदद पर निर्भर हैं। बढ़ती हुई आबादी को रहने के लिए मकान चाहिए। शहरी क्षेत्र में जमीन सीमित है, अतएव भवन निर्माताओं द्वारा शहर की दलदली जमीन, नालांे के किनारे की जमीन, तालाबों के आसपास की खुली जगह पर निर्माण कार्य कराये जा रहे हैं। इस कारण लगभग सभी शहरों में तालाबों का योगदान घट गया है। इसका असर भूजल आपूर्ति पर पड़ा है ।

शहरों की आबादी निरंतर बढ़ रही है। लोगों के आवास की जरूरतें पूरी करने के लिए नये-नये भवन बन रहे हैं, सड़कें तथा नालियां पक्की हो रही हैं, खुली जगहें सिमट रही है तथा हरियाली कम हो रही है। बारिश का पानी जमीन में रिसने के लिए खुली जगह बहुत कम बची है। नालियां तथा नाले कचरे से भरे पड़े हैं। इस कारण यह पानी निचली बस्तियों, सड़कों आदि पर फैल जाता है तथा आवागमन में बाधा पहुंचाता है। जनहित में उसका उपयोग नहीं हो पा रहा है। तालाब भी उपेक्षित होने के कारण सेवा नहीं दे पा रहे हैं। केवल छत के पानी को जमीन में उतारने के विकल्प पर भरोसा किया जा रहा है।  उल्लेखनीय है कि पिछली गर्मी में छत के पानी की विधा को चेन्नई ने आइना दिखा दिया है। यदि इस विधि का तरीका कारगर होता तो समूचे देश के अधिकांश नगरीय इलाकों में जल कष्ट की गंगा की दिशा कुछ और ही होती। पानी का स्वराज होता। लोग संविधान के आर्टीकल 21 की चर्चा नहीं करते। अनेक नगरों में सतही स्त्रोतों से पानी की पर्याप्त उपलब्धता भी समाधानकारक नहीं है। जलग्रहण क्षेत्र के कम होने के कारण छोटी नदियों में पर्याप्त पानी नहीं रहता। गर्मी के मौसम में जब पानी की मांग बढ़ जाती है तब इन नदियों का पानी या तो सूख जाता है अथवा बहाव बहुत कम हो जाता है। प्रदूषण के कारण पानी की गुणवत्ता भी विश्वसनीय नहीं रह पाती है। बड़ी नदियां जो एक से अधिक राज्यों से होकर बहती हैं उनमें पानी के बंटवारे को लेकर अक्सर स्थिति तनावपूर्ण ही रहती है।  

बढ़ती हुई आबादी की पानी की आवश्यकता, उद्योगों के लिए पानी की मांग, सतही स्त्रोतों से आधी-अधूरी पूर्ति के कारण नलकूपों का प्रचलन बढ़ा है। इस कारण भूजल का दोहन लगातार बढ़ रहा है। अनेक इलाकों में जमीन में रिसने वाले पानी की तुलना में नलकूपों से निकाला जाने वाला पानी अधिक हो रहा है। इस कारण भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है। इसका परिणाम यह होता है कि गर्मी के मौसम में जब पानी की मांग अधिक होती है तब ज्यादातर नलकूप सूख जाते हैं अथवा कम पानी देते हैं। देश के कई नगरों में पानी की पूर्ति एक या इससे अधिक दिन छोड़कर होती है। कई शहरों में पानी का अभाव कानून तथा व्यवस्था की स्थिति में व्यवधान उत्पन्न करता है। लोगों के बीच विवाद के और मीडिया की व्यवस्था को आईना दिखाने का अवसर देता है।

भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा 27 जनवरी वर्ष 2003 से हरियाली कार्यक्रम में कहा था कि ‘‘भारत देश जल की गंभीर समस्या का सामना इसलिए नहीं कर रहा है कि यहां जल के पर्याप्त स्त्रोत नहीं हैं या हमारे यहाँ वर्षा कम होती है बल्कि इसलिए कर रहा है कि यहाॅँ पर जल का समुचित रूप से संग्रह नहीं किया जा रहा है। इन्द्र देवता हम पर बहुत कृपालु रहे हैं। असली समस्या यह है कि हम वर्षा जल को संचित करने में असमर्थ रहे हैं।’’ उनके अनुसार समस्या का समाधान यही है कि बरसाती पानी का उचित संग्रहण किया जाए। नगरीय इलाकों में अतिरिक्त व्यवस्थाएं बनाई जाएं। तालाब जिन्दा किए जाएं। उन्हें भूजल रीचार्ज के लिए सक्षम बनाया जाए। समझदारी से उपलब्ध उपयोग किया जाए। बरसाती पानी का उचित संग्रहण कर स्थानीय निकाय पानी की उपलब्धता बढ़ा सकते हैं। नगरीय इलाकों को कन्क्रीट का जंगल कहना बन्द किया जाए। उन्हें बेहतर जल उपलब्धता का स्रोत मानकर कुदरत की जिम्मेदारी को पूरा किया जाए। बरसाती पानी के टैंकों में जमा होने के भी अनेक फायदे हैं। उसे भी नगरीय इलाकों में अपनाया जाए। सरकारी भवनों को उदाहरण पेश करने से समाज में अच्छा संकेत जाएगा। 

शुद्ध बरसाती पानी के एक्वीफरों में रिसने से अनेक फायदा हैं। वह पानी के विकेन्द्रीकृत उपलब्धता का प्रतीक हैं। भूजल ही, जहाँ पर पानी कठोर है अथवा पानी में फ्लोराईड, लौह तत्व इत्यादि अधिक मात्रा में हैं वहाँ वह उसकी गुणवत्ता सुधारता है। वह पानी को पीने योग्य बनाता है। उसे मापदंडों पर खरा उतरने में सहयोग देता है। भूजल की मदद से स्थिति में सुधार की अपार संभावनाओं के बावजूद अनेक नगरीय इलाकों में भूजल रीचार्ज की व्यवस्था का वर्तमान परिदृश्य बहुत अच्छा नहीं है। आवश्यकता उसे लागू करने की है। उसके लिए सही मार्ग चुनने और सही तकनीके अपनाने की है। बरसाती पानी के अधिकतम रीचार्ज के लिए नगरीय इलाकों में संभावनाओं को खोजने की है। वही सही मार्ग है। वही उजली संभावनाओं का द्वार खोलता है। 

 

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'जल' प्रकृति की अनमोल धरोहर

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'जल' प्रकृति की अनमोल धरोहरHindiWaterThu, 10/10/2019 - 13:19

जल प्रकृति की अनमोल धरोहरर है। बिना पानी के जीवन सम्भव नहीं है। पीने के लिए शुद्धजल हमारे लिए जरूरी है। क्योंकि स्वच्छ एवं सुरक्षित जल अच्छे स्वास्थ्य की कुँजी है। धरती के दो तिहाई हिस्से पर पानी भरा हुआ है। फिर भी पीने योग्य शुद्ध जल पृथ्वी पर उपलब्ध जल का मात्र एक प्रतिशत हिस्सा ही है। 97 प्रतिशत जल महासागर में खारे पानी के रूप में भरा हुआ है। शेष रहा दो प्रतिशत जल बर्फ के रूप में जमा है। आज समय है कि हम पानी की कीमत समझे। यदि जल व्यर्थ बहेगा तो आगे वाले समय में पानी की कमी एक महासंकट बन जाएगा।

आज कई जगहों पर लोगों को एक-एक घड़े शुद्ध पेयजल के लिए मीलों भटकना पड़ रहा है। जल के टैंकर और ट्रेन से जल प्राप्त करने के लिए घंटों कतार में खड़ा रहना पड़ता है। रोजमर्रा के कामकाज नहाने, कपड़े धोने, खाना बनाने, बर्तन साफ करने, उद्योग चलाने के लिए तो जल चाहिए वह कहाँ से लाए जबकि नदी, तालाब, ट्यूबवैल, हैण्डपम्प एवं कुएँ बावडियाँ सूख गए हैं। पशु-पक्षियों को भी पानी के लिए मीलों भटकना पड़ता है। पेड़-पौधे भी सूखते जा रहे हैं। जल की कमी से अनेक कारखाने बंद होने से लोग बेरोजगार होते जा रहे हैं। खेती-बाड़ी चौपट होती जा रही है। जल संकट हमारे पूरे दैनिक जीवन को बुरी तरह से प्रभावित करता है। इसलिए इस मसले पर प्राथमिकता से ध्यान दिए जाने की जरूरत है।

जल संकट तो हमारी भूलों और लापरवाहियों से ही उपजा है। हम अनावश्यक रूप से तथा अधिक मात्रा में जल का दोहन कर रहे हैं। दैनिक उपयोग में आवश्यकता से अधिक मात्रा में जल का अपव्यय करने की आदत ने जल संकट बढ़ा दिया है। बढ़ती जनसंख्या के कारण भी जल का उपभोग बढ़ता जा रहा है। खेती एवं उद्योगों में अधिक उत्पाद लेने की खातिर जल का उपभोग बढ़ा दिया है। जल स्रोतों से जल के उपभोक्ता तक पहुँच से पहले ही पाँचवा हिस्सा गटर में चला जाता है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई व वनों के लगातार घटने से वर्षा होने की अवधि व साथ ही वर्षा की मात्रा में भी कमी आ रही है। कुओं, नलकूपों, तालाबों से अन्धाधुन्ध जल दोहन के कारण भूजल में कमी आ गई है। धरती में जल स्तर निरन्तर नीचे जा रहा है। कल-कारखानों से निकले दूषित जल व शहरी क्षेत्रों के गटर एवं कूड़े-कचरे ने जलस्रोतों को प्रदूषित कर दिया है जिससे पीने के पानी का संकट खड़ा हो गया है। यह सब कुछ अनियन्त्रित मानवीय गतिविधियों के कारण ही हुआ है। इसका निराकरण भी मानव ही कर सकता है। आओ आज हम जल शक्ति अभियान से जुड़ संकल्प ले कि जल बर्बादी रोककर जल संरक्षण करेंगे।

 

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गंगा के प्राकृतिक प्रवाह पर स्वामी सांनद का निधन से पहले अंतिम संदेश

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गंगा के प्राकृतिक प्रवाह पर स्वामी सांनद का निधन से पहले अंतिम संदेशHindiWaterThu, 10/10/2019 - 16:16

स्वामी सांनद उर्फ प्रो. जीडी अग्रवाल का पूरा जीवन नदियों के संरक्षण को लेकर ही समर्पित रहा और गंगा की रक्षा के लिए ही उन्होंने बीते वर्ष 11 अक्टूबर को अनशन के 112वे दिन ऋषिकेश स्थित एम्स में प्राण त्याग दिए थे, लेकिन गंगा पुत्र (स्वामी सानंद) के निधन के एक वर्ष बाद भी कुछ नहीं बदला। सरकार ने उनकी मांगों को अभी तक नहीं माना। नदियों का प्राकृतिक प्रवाह निर्धारित नहीं किया गया। हरिद्वार में भोगपुर से बिशनपुर कुंडी तक गंगा के पांच किलोमीटर के दायरे में प्रतिबंध के बावजूद भी खनन धड़ल्ले से चल रहा है। नेशनल मिशन फाॅर क्लीन गंगा (एनएमसीजी) के आदेश को हरिद्वार जिला प्रशासन ने ताक पर रखा हुआ है। तो वहीं उत्तराखंड की वादियों में बांध बनाकर पर्यावरण को क्षति पहुंचाने का कार्य भी जारी है, लेकिन गंगा का प्राकृतिक प्रवाह निर्धारित न करने का नुकसान ये हुआ की मानवीय गतिविधियों के कारण गंगा दूषित होती चली गई और गंगा अपने प्राकृतिक स्वरूप को भी खोती जा रही है। इसलिए गंगा के प्राकृतिक प्रवाह को लेकर स्वामी सानंद ने 11 अक्टूबर को निधन से एक घंटे पहले गंगा के प्राकृतिक प्रवाह को लेकर अस्पताल से ही एक वीडियो जारी किया था। जो कि स्वामी सांनद का अंतिम वीडिया संदेश है।   

वीडिया के माध्यम से स्वामी सानंद ने कहा कि वर्ष 1916 में स्वर्गीय पंडित मदन मोहन मालवीय सहित 32 हिंदु प्रतिनिधियों की समिति जब गंगा के अविरल प्रवाह के बारे में चर्चा कर रही थी तो हरकी पैड़ी पर वर्ष के किसी भी समय और किसी भी मौसम में गंगा का प्रवाह एक हजार घन फीट पानी प्रति सेकेंड रखने पर समझौता हुआ था। इस प्रवाह को कई लोगों ने बाद में पूरे देश में लागू किए जाने वाला प्रवाह समझ लिया और समझौते के अनुसार पूरे देश में इसी प्रवाह को लागू किए जाने की बात कही, लेकिन जब कृष्ण मोहन मालवीय विगत 23 जुलाई 2018 को स्वामी सांनद से मिलने हरिद्वार स्थित मातृसदन आए तो उन्हें यह बात समझ आयी कि सभी स्थानों पर गंगा का प्रवाह एक-सा नहीं रखा जा सकता। 

स्वामी सानंद ने कहा था कि आईआईटी के कई वैज्ञानिक व विशेषज्ञों की टीम ने शोध कर वैज्ञानिक आधार पर गंगा का प्रवाह 50 प्रतिशत निर्धारित किए जाने की बात कही थी, लेकिन सरकार ने आईआईटी कानपुर के एक समूह को वर्ष 2010-11 में एक ड्राफ्ट सौंपा था जिसमें वैज्ञानिक आधार दर्शाए बिना ही जून से सितंबर तक गंगा का प्रवाह 30 प्रतिशत, अक्टूबर, अप्रैल और मई में 25 प्रतिशत और नवंबर से मार्च तक न्यूनतम 20 प्रतिशत रखना दर्शाया गया था, जो गंगा का अपमान है। वीडिया में कहा गया कि बरसात की अपेक्षा अन्य मौसम में पानी का प्रवाह गंगा में अधिक होना चाहिए।

प्राकृतिक प्रवाह को लेकर समझौते की पूरी जानकारी के लिए पूरा वीडियो देखें ..................

 

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फसल अवशेष प्रबन्धन क्यों और कैसे

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फसल अवशेष प्रबन्धन क्यों और कैसेHindiWaterMon, 10/14/2019 - 10:49
Source
कृषि विज्ञान केंद्र, सहारनपुर

फसल अवशेष प्रबन्धन क्यों और कैसे।फसल अवशेष प्रबन्धन क्यों और कैसे। फोटो स्त्रोत-blog.biomass.company

विभिन्न फसलों की कटाई के बाद बचे हुए डंठल तथा गहराई के बाद बचे हुए पुआल, भूसा, तना तथा जमीन पर पड़ी हुई पत्तियों आदि को फसल अवशेष कहा जाता है। विगत एक दशक से खेती में मशीनों का प्रयोग बढ़ा है। साथ ही खेतीहर मजदूरों की कमी की वजह से भी यह एक आवश्यकता बन गई है। ऐसे में कटाई व गहराई के लिए कंबाईन हार्वेस्टर का प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ा है, जिसकी वजह से भारी मात्रा में फसल अवशेष खेत में पड़ा रह जाता है। जिसका समुचित प्रबन्धन एक चुनौती है। किसान अपनी सहुलियत के लिए इसे जलाकर प्रबन्धन करते हैं। इसके पीछे किसानों के अपने तर्क हैं। उनका कहना है कि कुछ फसलें जैसे कि धान-गेहूँ के फाने जल्दी मिट्टी में गलते नहीं हैं। साथ ही धान की रोपाई के समय खेत के किनारों पर इकट्ठे होने से मजदूरों के पैरों में चुभते हैं। अलग से अवशेष प्रबन्धन में धन, मजदूर, समय आदि की आवश्यकता होती है और दो फसलों के बीच उपयुक्त समय के अभाव की वजह से भी वे ऐसा करने के लिए बाध्य हैं। उनका यह भी कहना है कि फसल अवशेषों को जला देने से खेत साफ होता है। परन्तु इस तरह फसल अवशेष प्रबन्धन, खेत की मिट्टी, वातावरण व मनुष्य एवं पशुओं के स्वास्थ्य के लिए कितना घातक है इसका अंदाजा आज भी किसानों को नहीं है।
 
हमारे देश में सालाना 630-635 मि. टन फसल अवशेष पैदा होता है। कुल फसल अवशेष उत्पादन का 58 प्रतिशत धान्य फसलों से 17 प्रतिशत गन्ना, 20 प्रतिशत रेशा वाली फसलों से तथा 5 प्रतिशत तिलहनी फसलों से प्राप्त होता है। सर्वाधिक फसल अवशेष जलाने की रिपोर्ट पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से हैं परन्तु आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, पूर्वी उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में फसल अवशेष जलाने की प्रथा चल पड़ी है और बदस्तुर जारी है। फसल अवशेष प्रबन्धन की विधियों की जानकारी न होने व होते हुए भी किसान अनभिज्ञ बने हुए हैं। आज कृषि के विकसित राज्यों में मात्र 10 प्रतिशत किसान ही अवशेषों का प्रबन्धन कर रहे हैं।

तालिका-1 विभिन्न फसलों का अवशेष उत्पादन

फसल

वार्षिक उत्पादन (मि.टन/वर्ष)

अवशेष उत्पादन (मि.टन/वर्ष)

धान

103.06

154,59

गेहूँ

94.04

159.86

मक्का

21.02

31.53

जूट

9.92

21.32

कपास

30.52

91.56

मूँगफली

6.89

13.78

गन्ना

346.72

138.68

सरसों

6.85

20.55

मिलेट्स (मोटे अनाज)

2.29

3.63

कुल

621.31

635.32

(गैड व सहयोगी 2009, बायोमास बायो एनर्जी 33ः 1532-1546 के आधार वर्ष 2015-16 के लिए गणना की गई है)

फसल अवशेष जलाने से मृदा में होने वाली हानियाँ

  • भूमि की उर्वराशक्ति में ह्रासः अवशेष जलाने से 100 प्रतिशत नत्रजन, 25 प्रतिशत फास्फोरस, 20 प्रतिशत पोटाश और 60 प्रतिशत सल्फर का नुकसान होता है।
  • भूमि की संरचना में क्षति होने से जब पोषक तत्वों का समुचित मात्रा में स्थानान्तरण नहीं हो पाना तथा अत्यधिक जल का निकासी न हो पाना।
  • भूमि के कार्बनिक पदार्थों का ह्रास।
  • फसल अवशेषों से मिलने वाले पोषक तत्वों से मृदा वंचित रह जाती है।
  • जमीन की ऊपरी सतह पर रहने वाले मित्र कीट व केंचुआ आदि भी नष्ट हो जाते हैं।
     

तालिका-2 अवशेष जलाने से पोषक तत्वों का नुकसान

फसल अवशेष

नत्रजन का नुकसान मि.टन/वर्ष

फास्फोरस का नुकसान मि.टन/वर्ष

पोटाश का नुकसान मि.टन/वर्ष

कुल मि.टन/वर्ष

धान

0.236

0.009

0.200

0.45

गेहूँ

0.079

0.004

0.061

0.14

गन्ना

0.079

0.001

0.033

0.84

कुल

0.394

0.14

0.295

0.143

स्रोतःजैन निवेदिता व सहयोगी एरोजोल एंड एयर क्वालिटी रिसर्च 14-422-430, 2014

मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव

  • अस्थमा और दमा जैसी सांस से सम्बन्धित बीमारियों के मरीजों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है साथ ही इन रोगों के मरीजों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है।
  • सल्फर डाईऑक्साइड व नाइट्रोजन ऑक्साइड के कारण आँखों में जलन।
  • चर्म रोग की शिकायत बढ़ जाती है।
  • हाल के वर्षों में फसल अवशेष जलाने के वजह से कैंसर जैसी बिमारी के मरीजों की संख्या में वृद्धि हुई है।

पर्यावरण सम्बन्धी दुष्परिणाम

  • यह वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) को बढ़ाता है।
  • स्मॉग जैसी स्थिति पैदा हो जाती है जिससे सड़क पर दुर्घटना होती है।
  • फसल अवशेष के साथ-साथ खेत के किनारे के पेड़ों को भी आग से नुकसान पहुँचता है।
  • ओजोन परत का ह्रास।
  • अत्यधिक मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन से नुकसान।
  • ग्रीन हाउस गैसों का अधिक मात्रा में उत्सर्जन से वैश्विक तपन को बढ़ावा।

अवशेष प्रबन्धन विकल्प

अभी तो मुख्यतः पशुचारा के लिए कुछ अवशेष इकट्ठा करने के उपरान्त शेष को जलाया जा रहा है जिससे पर्यावरण, मनुष्य एवं पशु स्वास्थ्य की हानि हो रही है। अवशेष प्रबन्धन विकल्प इस प्रकार हो सकते हैः

  • अवशेषों को पशुचारा अथवा औद्योगिक उपयोग के लिए इकट्ठा करना।
  • अवशेषों को मिट्टी में मिश्रित करना।
  • अवशेष के भूमि के सतह पर रखना।

1. अवशेषों को पशुचारा अथवा औद्योगिक उपयोग के लिए इकट्ठा करना

  • धान के पुआलध् पराल क पशु चारे के रूप में प्रयोग (यद्यपि इसमें सिलिका की मात्रा काफी अधिक हैं) धान के पुआल का यूरियाध्कैल्शियम हाइड्रोऑक्साइड से उपचार या फिर प्रोटीन द्वारा संवर्धन कर पशु चारे के रूप में उपयोग।
  • पुआल को भूराध् सफेद तथा मुलायम सड़न कवकों के प्रयोग द्वारा उपचार से गुणवत्ता में सुधार कर चारे के रूप में उपयोग।
  • पुआल को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर वाष्प से उपचारित कर चारा के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है।
  • स्ट्रों बेलर द्वारा खेत में पड़े फसल अवशेषों का ब्लॉक बनाकर कम जगह में भंडारित कर चारे में उपयोग।
  • रीपर का प्रयोग कर भूसा बनाना।
  • फसल अवशेषों का मशरुम की खेती में सार्थक प्रयोग किया जा सकता है।
  • धान के अवशेषों का गैसीकरण कर ऊर्जा का उत्पादनः कई सारी कम्पनियाँ धान के पुआल से बिजली पैदा कर रही है। यह फसल अवशेष का एक प्रभावी प्रबन्धन है। देश के मुख्य चावल उत्पादक राज्यों में बड़े पैमाने पर इसे प्रसारित करने की आवश्यकता है।
  • फसल अवशेषों के प्रभावी प्रयोग जैसे, गत्ता बनाना आदि नए-नए वैकल्पिक उपयोगों का पता लगाने की नितान्त आवश्यकता।

2. अवशेषों को खेत में जलाना

किसी भी दृष्टिकोण से फसल अवशेषों को जलाना उचित नहीं है अतः किसानों को फसल अवशेष प्रबन्धन के इस विकल्प पर अमल करने की जरूरत नहीं है। संरक्षण कृषि प्रणाली का अंगीकरण व फसल विविधीकरण द्वारा अवशेष जलाने की समस्या से निजात मिल सकता है।
 
3. अवशेषों को मिट्टी में मिश्रित करना

  • फसल की कटाई के उपरांत रोटावेटर से जुताई कर एक पानी लगा देने से फसल अवशेष मिट्टी में मिल जाते हैं फिर बाद में अगली फसल की बिजाई या रोपाई आसानी से की जा सकती है।
  • धान व गेहूँ के अवशेषों की जुताई कर पानी लगा देने से प्रबन्धन सम्भव है। साथ ही 20-35 कि.ग्रा. यूरियाध् हे. की दर से डाल देने से अवशेषों के विगलन की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है।बायोचार, कार्बनीकृत धान के अवशेषों द्वारा मृदा का बायोचार करने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ने के साथ-साथ उत्पादन दक्षता भी बढ़ जाती है।
  • खेतों में ही रासायनिक विधियों द्वारा कम्पोस्ट बनाने की तकनीकें विकसित कर किसानों को मुहैया कराई जाए।

4. अवशेष के भूमि के सतह पर रखना

  • गेहूँ की कटाई के बाद खड़े फानो में जीरो टिलेज मशीन या टबों हैप्पी सीडर से मूँग या ढैंटा की बुआई कर फसल अवशेष प्रबन्धन सम्भव है।
  •  धान की कटाई के बाद गेहूँ की जीरो टिलेज तकनीक से बुआई द्वारा प्रभावी ढंग से फसल अवशेष प्रबन्धन किया जा सकता है।
  • गन्ने की कटाई के बाद रोटरी डिस्क ड्रिल से गेहूँ की बीजाई को बड़े पैमाने पर प्रचलित कर गन्ना फसल में प्रभावी अवशेष प्रबन्धन किया जा सकता है।
  • खड़ी कपास की फसल में गेहूँ की रीले क्रापिंग तथा खड़ी गेहूँ का फसल में मूँग की रीले क्रापिंग द्वारा फसल अवशेष का प्रभावी प्रबन्धन किया जा सकता है। यह विधि अवशेषों को जलाने की प्रथा को रोकने में सहायक होगी।
  • अवशेषों से पलवारध् मल्च को खेती में प्रयोग कर विभिन्न फसलों में खरपतवार के प्रकोप को भी कम किया जा सकता है साथ ही मृदा के सेहत में सुधार किया जा सकता है।
  • फसल अवशेषों को सतह पर रखने से कम पानी की आवश्यकता होती है।
  • मृदा में पानी के प्रवेश की क्षमता में सुधार होता है।
  • मृदा के अपरदन में कमी।
  • तापमान का अनुकूलन अर्थात गर्मी में तापमान को कम रखता है तथा सर्दी में तापमान को बढ़ाता है।
  • फसल के कैनोपी को ठंडा रखता है जिसकी वजह से अस्तस्थ ताप का प्रभाव नहीं पड़ता है।
  • संरक्षण कृषि के लिए एक तिहाई फसल अवशेषों का मृदा के सतह पर रखना एक अनिवार्य आवश्यकता है।

 
फसल अवशेष प्रबन्धन परियोजना (इन सीटू) हेतु उन्नत कृषि यन्त्रध् मशीनरी

  • सुपर एस.एम.एस या स्ट्रा चोपर से फसल अवशेषों को बारीक टुकड़ों में काटकर भूमि पर फैलाएँ। तत्पश्चात हैप्पी सीडर द्वारा गेहूँ की सीधी बिजाई करें।
  • फसल अवशेषों को मल्चर द्वारा मिट्टी में मिलाएँ। उल्टा हल द्वारा फसल अवशेषों को मिट्टी में दबाएँ।
  • स्ट्रा चोपर, हे-रैक, स्ट्रा बेलर का प्रयोग करके फसल अवशेष की गांठें बनाएँ और आमदनी बढ़ाएँ।
  • जीरो ड्रिल, रोटोवेटर, रीपर-बाईन्डर व स्थानीय उपयोगी व सस्ते यन्त्रों को भी फसल अवशेष प्रबन्धन हेतु अपनाएँ।

 
निष्कर्षः देश के किसानों को अपनी मृदा की सेहत, अपनी व पशुओं की सेहत का ख्याल रखने और सामाजिक व राष्ट्रीय दायित्व के निर्वाह के लिए फसल अवशेषों के प्रबन्धन का समुचित उपाय करना चाहिए।

 

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जल संरक्षण एक दृष्टि में

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जल संरक्षण एक दृष्टि मेंHindiWaterMon, 10/14/2019 - 14:53
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कृषि विज्ञान केंद्र, सहारनपुर

जल संरक्षण एक दृष्टि में।जल संरक्षण एक दृष्टि में। फोटो स्त्रोत- india today.

वर्षा जल का संचयन

वर्षा जल बहकर नदी नालों में न जाए, इसके लिए निम्न उपाय करें-

  • प्रत्येक क्षेत्र में इतना बड़ा गड्ढा किया जाए कि बारिश का पानी इसी में समा जाए।
  • नदी-नालों पर चेक डैम, बैराज डैम का अधिकाधिक निर्माण किया जाए, ताकि बाढ़ का पानी रुके।
  • वर्षा-जल के भण्डारण हेतु प्रत्येक घर में टैंक हो।
  • ढलुआ सतहों को सीढ़ीदार खेत में बदला जाए ताकि इनमें पानी रुक सके।
  • नदी-नालों को आपस में जोड़ना।

जल का पुनर्प्रयोग

  • रसोई से निकले पानी से सिंचाई करें।
  • कपड़े धोने एवं नहाने के बाद निकले पानी से फर्श, कार एवं सड़क की धुलाई करें या फ्लश में प्रयोग करें।
  • समुद्री जल को शोधित कर पुनर्प्रयोग किया जाए।

पानी की बर्बादी रोकना

  • पाइपों से होने वाली रिसन रोंके।
  • टूटे जोड़, टूटे पाइप तथा टोटियाँ जल्द-से-जल्द ठीक कराई जाएँ।
  • हाथ धोते एवं शेविंग के समय टोटी बंद रखे।
  • पानी के इन्तजार में टोटी खुली न छोड़े।
  • ओवरहेड टैंकों से पानी न बहने दें।
  • कार, छत, फर्श तथा सड़क धोने में पेयजल का प्रयोग न करें।
  • सड़क एवं अन्य निर्माण-कार्यों में, जहाँ पेयजल के बिना भी काम चल सकता है, पेयजल का प्रयोग न करें।
  • नहाने में जरूरत से ज्यादा पानी न बहाएँ। स्वीमिंग पुल में इस्तेमाल से बचें।

वर्षा जल का भू-विर्सजन (वाटर-हार्वेस्टिंग)

  • घरों, ऑफिसों व अन्य सभी इमारतों में रेनवाटर हार्वेस्टिंग की जाए।
  • वर्षाकाल से पूर्व खेतों में जुलाई तथा मेंढ ऊँची की जाए।
  • फुटपाथों, सड़कों एवं फर्शों में छिद्रित सामग्री का प्रयोग किया जाए ताकि इनमें पानी समा सके।
  • मिट्टी की ढलुआ सतहों पर घास लगाई जाए।

वाटर वाडीज का संरक्षण एवं विस्तार

  • तालाब, झीलों, नालों का गहराकरण एवं पुनरोद्धार हो।
  • नये तालाबों एवं झीलों का निर्माण हो।
  • इनके अतिक्रमण पर रोक लगे।
  • इनके जलग्राही क्षेत्र का संरक्षण।
  • ढलुआ धरातल का समतलीकरण तथा मध्य में हल्का गहरा कर वाटर वाडी बनाना।

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मातृसदन में फिर शुरू होगा गंगा की रक्षा के लिए आंदोलन

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मातृसदन में फिर शुरू होगा गंगा की रक्षा के लिए आंदोलनHindiWaterMon, 10/14/2019 - 17:02

स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद उर्फ प्रोफेसर जीडी अग्रवाल के प्रथम बलिदान दिवास को हरिद्वार के जगजीतपुर स्थित मातृ सदन में संकल्प सभा के रूप में आयोजित किया गया। सर्वप्रथम स्वामी सानंद को बलिदान को याद कर सभा में दो मिनट का मौन रखा गया। सभा में स्वामी सानंद के संकल्पों को धरातल पर उतारने आवश्यक कार्यनीति का निर्धारण किया गया तथा ध्वनिगत से निश्चय किया गया कि गंगा एक्ट बनाने का कार्य पर्यावरणविद रवि चोपड़ा की अध्यक्षता वाली टीम करेगी, जिसके समन्वयक राष्ट्रीय अभिमान आन्दोलन के राष्ट्रीय अध्यक्ष बसवराज पाटिल होंगे। शेष अन्य सदस्यों में मातृ सदन का एक प्रतिनिधि तथा दो अन्य का निर्धारण वह टीम करेगी। इस टीम को सरकार से संवाद करने का दायित्व भी सुपुर्द किया गया है।
 
इस दौरान दक्षिण भारतीय फिल्मो के सुप्रसिद्ध अभिनेता पवन कल्याण ने स्वामी सानंद की अपूरणीय क्षति से उनके हृदय में हुई वेदना को सार्वजनिक करते हुए कहा कि जब उन्होंने सुना था कि स्वामी सानंद नहीं रहे तो उन्हें बहुत गहरा आघात हुआ और अपनी जिम्मेदारी का बोध हुआ। उन्होंने कहा कि स्वामी के जाते ही मुझे ऐसा लगा कि स्वामी जी के निधन का दोषी हर भारतीय है, क्योंकि मां गंगा सभी की है और गंगा को स्वच्छ रखना सभी की जिम्मेदारी है। पवन कल्याण ने कहा कि हमने 2014 में मोदी सरकार का समर्थन किया था ताकि गंगा का पुनर्जीवन सम्भव हो सके, लेकिन सौ से ज्यादा दिनों तक अनशन के बाद स्वामी सानंद जी का चला जाना अत्यन्त दुखदायक रहा। इससे हमने महसूस किया कि यदि सरकार गंगा के प्रति संवेदनशील होती तो ऐसा नहीं होता। उन्होंने कहा कि वे स्वामी सानंद के बलिदान के समय मातृसदन नहीं आ पाए थे जिसका उन्हें बहुत दुख है, लेकिन आज एक साल बाद वे यहाँ उपस्थित हैं। यहाँ बहुत से आश्रम हैं लेकिन मातृ सदन सबसे विशेष है जिसके सन्यासी गंगाजी के लिए खड़ें हैं। 

पवन कल्याण ने कहा कि गंगा को भारतवर्ष में माँ का दर्जा प्राप्त है और गंगा नदी का सम्मान विश्वव्यापी है। गंगा की रक्षा के लिए हम गंगा के इस आंदोलन से युवाओं को जोड़ेंगे।  पर्यावरणविद रवि चोपड़ा ने कहा कि हम दायित्व का निर्वाह पूरे मनोयोग से करेंगे तथा सरकार को बाध्य करेंगे कि गंगा को अविरल कैसे बनाया जा सकता है। जल पुरुष डॉ. राजेन्द्र सिंह ने कार्यक्रम का संयोजन करते हुए कहा कि गंगा के पाँच सरोकार, अध्यात्म, संस्कृति, सत्यनिष्ठा, समाज तथा युवा को बनाकर आगे के आन्दोलन चलाए जाएँगे। अध्यक्षीय वक्तव्य में स्वामी शिवानन्द सरस्वती ने कहा कि गंगा की रक्षा के लिए आंदोलन की कड़ी का आगे बढ़ाने के लिए मातृ शक्ति आगे आ रही है और 23 वर्षीय मातृ सदन की साध्वी ब्रह्मचारिणी पद्यावती अपने प्राणों का उत्सर्ग के लिए तैयार है। उन्होंने कहा कि वे अभी भी चाहते हूँ कि सरकार को सदबुद्धि हो लेकिन सरकार को सदबुद्धि तभी होगी जब जनमानस जागरुक होंगे। बसवराज पाटिल ने कहा कि बड़ा मन से बड़ा कार्य होता है तथा आन्दोलन के लिए सही समय का चुनाव करना यथार्थ रूप से सबसे अधिक आवश्यक है। साथ ही सभा की समाप्ति से पहले सभी ने स्वामी सानंद जी का संकल्प को पूरा करने के लिए अपना पूरा प्रयास करते रहने का संकल्प लिया।

 

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काॅप 14: दो डिग्री तापमान बढा तो गहराएगा भोजन का संकट

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काॅप 14: दो डिग्री तापमान बढा तो गहराएगा भोजन का संकटHindiWaterThu, 09/05/2019 - 15:31
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दो डिग्री तापमान बढा तो गहराएगा भोजन का संकट।दो डिग्री तापमान बढा तो गहराएगा भोजन का संकट।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती लगातार गर्म हो रही है, जिसने इंसानों के साथ-साथ जीव-जंतुओं की समस्या को बढ़ा दिया है, लेकिन इस वर्ष गर्मी ने हद ही हर दी। बीते माह अगस्त में गर्मी ने दिल्ली एनसीआर में अपने सख्त तेवर दिखाएं और पिछले पांच सालों का रिकाॅर्ड तोड़ दिया। अगस्त में सामान्य से चार डिग्री ज्यादा यानी 38.4 डिग्री तापमान दर्ज किया गया। पिछले दस सालों की बात करें तो 27 अगस्त 2014 को पारा 39.4 डिग्री और 3 अगस्त 2011 को 38.2 डिग्री दर्ज किया गया था। वर्ष 2014 में भी अगस्त में 38 डिग्री से अधिक तापमान रहा, लेकिन इस बार गर्मी का पांच साल पुराना रिकाॅर्ड टूट गया।

दरअसल प्रकृति का अनियमित दोहन करने के कारण धरती लगातार गर्म हो रही है। जिस कारण ग्लेशियर लगातार पिछलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। निकटवर्ती द्वीप धीरे धीरे समुद्र में समा रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद भी लोग सबक नहीं ले रहे है, जिसका खामियाजा आने वाले वर्षों में सभी को उठाना पड़ेगा।  वैश्विक ताप से जमीन पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में बताया गया है कि यदि सदी के अंत तक तापमान में दो डिग्री की बढ़ोतरी हुई तो शुष्क भूमि पर बसे 115.2 करोड लोगों के लिए जल, भोजन और जमीन का संकट पैदा हो जाएगा। यदि तापमान में बढ़ोतर 1.5 डिग्री की भी होती है तो 96.1 करोड़ लोगों .........

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नैनीतालः ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

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नैनीतालः ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यHindiWaterTue, 10/15/2019 - 10:20
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नैनीताल एक धरोहर

पृथ्वी की उत्पत्ति कब और कैसे हुई? यह एक अबूझ पहेली है। माना जाता है कि ब्रह्माण के एक हिस्से के रूप में करीब साढ़े चार अरब वर्ष पहले पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ सम्भवत: नैनीताल का यह भू-भाग भी अस्तित्व में आ गया होगा। कहते हैं कि पृथ्वी पर मानव जाति की मौजूदगी पिछले करीब 17 लाख वर्षों से है। इस दौरान करीब 99 प्रतिशत कालखण्ड में मानव जाति शिकारी और भोजन संग्रहकर्ता के रूप में रही। मानव ने करीब 10 हजार वर्ष पहले कृषि और पशुपालन प्रारम्भ किया। इस दौरान मानव जाति ने आदिम युग से वर्तमान युग तक की लम्बी यात्रा तय की है।

अपने अस्तित्व को कायम रखने और निरन्तर प्रगति के लिए मानव जाति प्रागैतिहासिक काल से ही प्रकृति को अपने वश में करने की कोशिशें करती चली आ रही है। पृथ्वी में मौजूद सब प्राणियों में सोचने और तर्क की सामर्थ्य रखने वाला अकेला प्राणी होने की वजह से मानव जाति की सभी खोजें तथा आविष्कार जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से जुडे रहे हैं। यही कारण है कि मनुष्य में सदैव प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति विशेष आकर्षण और लगाव रहा है। प्रागैतिहासिक काल में जब मानव के पास संस्कृति और सभ्यता जैसी कोई धरोहर नहीं थी, तब भी उसने अपने आवास के लिए उन्हीं गुफाओं-कंदराओं को चुना, जहाँ अपार नैसर्गिक सौन्दर्य के साथ पानी भी था।

2600 ईसा पूर्व सिन्धु घाटी सभ्यता का उदय हुआ। मैसोपोटामिया, मिस्र तथा हड़प्पा (मोहनजोदड़ो) सभ्यताएँ विकसित हुई। इन सभ्यताओं के विकास के साथ ही राज तंत्र का उदय तथा विकास हुआ। शक्तिशाली राजवंश वजूद जल में आए। शहरी सभ्यताएँ एवं संस्कृति विकसित हुई। 1500 ईसा पूर्व भूकम्प और जल प्लावन के कारण यह उच्च कोटि की सभ्यता समाप्त हो गई। हड़प्पा संस्कृति के पतन के बाद भारत में एक नई सभ्यता का आविर्भाव हुआ, इसे वैदिक सभ्यता कहा गया।

इधर कुमाऊँ में भी देशज राजवंश का उदय हुआ। प्रारम्भिक काल में यहाँ कत्यूरी राजाओं ने राज किया। उनकी पहली राजधानी जोशीमठ थी। कालान्तर में कत्यूर घाटी आ गई। कत्यूरी राजा ने झूसी (इलाहाबाद) के निवासी सोमचंद के साथ अपनी बेटी की शादी की। उन्होंने सोमचंद को दहेज के रूप में चम्पावत और तराई-भाबर भूमिदान में दे दी। धीरे-धीरे चंद पूरे कुमाऊँ में फैल गए। सातवीं शताब्दी में कुमाऊँ में कत्यूरी वंश का राज समाप्त हो गया। सोमचंद ने चंद वंश की नींव रखी। अब चंद कुमाऊँ के राजा हो गए थे। 13वीं शताब्दी में कुमाऊँ के राजा त्रिलोक चंद ने अपनी सीमाओं की सुरक्षा की दृष्टि से भीमताल में किला बनाया। तब तक नैनीताल का यह भू-भाग स्वतंत्र था।

14वीं से 17वीं शताब्दी के मध्य यूरोप में चले पुनर्जागरण और धर्म सुधार आन्दोलनों ने आधुनिक युग की नींव रखी। विश्व के कई हिस्सों में औपनिवेशिकरण शुरू हुआ। 1488 से 1503 के दौरान कुमाऊँ के राजा किरतचंद के शासनकाल में नैनीताल को चंद राज्य में शामिल कर लिया गया। 1743 में राजा कल्याण चंद ने कुमाऊँ के राजा को सहायता प्रदान की। 1600 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में व्यापार के लिए मुगल शासकों से कानूनी चार्टर हासिल किया। डेढ़ सौ साल तक व्यापार करने के बाद कम्पनी ने भारत में सियासी घुसपैठ प्रारम्भ कर दी। 1757 में रावर्ड क्लाइव ने बंगाल के नवाब को पराजित कर भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज की नींव रख दी। कुमाऊँ के राजा कल्याण चंद के शासनकाल में शिवदेव जोशी कुमाऊँ के प्रधानमंत्री थे। 1747 में राजा कल्याण चंद की मृत्यु हो गई। प्रधानमंत्री शिवदेव जोशी ने कल्याण चंद के नौजवान बेटे दीप चंद को राजा बना दिया। 1764 में शिवदेव जोशी की हत्या हो गई। उनकी हत्या के बाद समूचे कुमाऊँ में राजनैतिक अस्थिरता और अराजकता का वातावरण बन गया। गद्दी की खातिर राजवंश के भीतर षड्यंत्र और खूनी संघर्ष शुरू हो गया। सत्ता के आंतरिक संघर्ष के चलते अंततः 1790 में कुमाऊँ में गोरखा सैनिक शासन कायम हो गया।

1814 में गोरखों और अंग्रेजों के बीच युद्ध शुरू हुआ। लम्बी लड़ाई के बाद गोरखों के पांव उखड़ गए। गोरखा सैनिकों को अंग्रेजों के साथ संधि को बाध्य होना पड़ा। 17 अप्रैल, 1815 में ईस्ट इंडिया कम्पनी और गोरखों के बीच सिंगोली संधि हुई। अंग्रेजों के प्रतिनिधि ई.गार्डनर और गोरखाओं के तत्कालीन मुख्य शासक बमशाह ने इस संधि पर हस्ताक्षर किए। 27 अप्रैल, 1815 को कुमाऊँ में ईस्ट इंडिया कम्पनी का आधिपत्य हो गया। 3 मई, 1815 को ई.गार्डनर को कुमाऊँ का पहला कमिश्नर एवं एजेंट, गर्वनर जनरल बना दिया गया। अल्मोड़ा कुमाऊँ कमिश्नर का मुख्यालय बना। तब तक आस-पास के ग्रामीणों को छोड़ नैनीताल बाकी दुनिया की नजरों से ओझल था।

 

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स्वच्छता की संस्कृति और सामाजिक परिवर्तन

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स्वच्छता की संस्कृति और सामाजिक परिवर्तनHindiWaterTue, 10/15/2019 - 14:38

स्वच्छता की संस्कृति ओर सामाजिक परिवर्तन।स्वच्छता की संस्कृति ओर सामाजिक परिवर्तन।

प्रास्ताविक

स्वच्छता प्रत्येक की अनिवार्यता व आवश्यकता है। उनके उपयोग व महत्त्व को निर्विकल्प कह सकते है। स्वच्छता की ओर विध-विध द्रष्टिकोण स्थित होते हैं। स्वच्छता की विविध नजरियें से पहचान प्राप्त की गयी है। स्वच्छता की जरूरतों अपरिहार्य हैं। स्वच्छता संबंधी कई विचार प्रवर्तित हैं ?

स्वच्छता: अर्थ 

मनुष्य जीवन के लिए स्वच्छता एक बुनियादी आवश्यकता है। आंतरिक और बाह्य दो रूपों में स्वच्छता का परिचय प्राप्त हो सकता है। दृश्य, मन व दिमाग के शुद्ध एवं सात्विक विचार, धर्म व वाणी-वर्तन की पावकता, आंतरिक स्वच्छता के आयाम हैं। बाह्य स्वच्छता के तहत सामूहिक स्वास्थ्य, शिक्षा-पर्यावरण, अच्छी सामाजिक व आर्थिक स्थिति इत्यादी बातों का समावेश होता है। बाह्य स्वच्छता का मूलाधार आंतरिक स्वच्छता है। आंतरिक स्वच्छता बाह्य स्वच्छता की कारक है। समाज का विकास व उनके सुखी संपन्न होने की एक दिशा स्वच्छता को अपनाने में रही है। कहा गया है कि ‘‘स्वच्छता से समृद्धि पैदा होती है, स्वच्छता से सुख पैदा होता है।

कमजोर स्वास्थ्य व स्वच्छता का देश के लोगों के आरोग्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, जो देश के आर्थिक व सामाजिक परिवेश को भी प्रभावित करता है। वैश्विक स्तर पर भारत स्वच्छता संदर्भ में अब भी पिछड़ा हुआ है। देश के अधिकांश नगरों में अति भीड़, अनुचित जल संग्रह, मलमूत्र का अयोग्य निष्काशन, ड्रेनेज परियोजना, दूषित जल, कूड़ा-कर्कट के निष्कासन की अव्यवस्था, शौचालयों का अभाव, झुग्गियाँ, गंदे आवास, प्रदूषणयुक्त वायु, नदी-तालाबो की गंदगी आदि द्रष्टव्य हैं। स्वच्छता व्यक्त्तिगत व सार्वजनिक की जिम्मेदारी थी, वैयक्तिक, सामुदायिक व राज्य की संलग्न जिम्मेदारी है। स्वच्छता सार्वजनिक स्वास्थ्य का प्रथम लक्ष्य है, किन्तु भारत में इसका प्रबंधन कमजोर है। विकास की कमजोरी, विधि-विधान की कमी, कानून व नीति के अमलीकरण की ॠटीयां, टेक्नोलॉजी का अभाव, उद्देश्यों की अपूर्णता, क्षतियुक्त चिकित्सासेवा, गरीबी, नादुरस्ती, जैसे आयाम स्वच्छता को हानि पहुंचाते हैं। स्वच्छता की क्षतियों को समझने हेतु स्वच्छता का समाजशास्त्र महत्वपूर्ण है।

संस्कृति की विभावना 

संस्कृति मानव निर्मित है। मानव समाज के द्वारा आचार-व्यवहार के मानदंड स्थापित किये जाते हैं, जो कालान्तर में रुध होते हुए मूल्य में परिवर्तित हो जाते हैं। समय चक्र के प्रवाह के साथ ऐसे प्रतिस्थापित मूल्य ही संस्कृति का रूप धारण करते हैं। संस्कृति मानव समाज में सार्वत्रिक है। संस्कृति की ही बदौलत प्राणी एवं मानव के बीच की भिन्नता दृश्यमान  है। संस्कृति की उत्पत्ति का सम्बन्ध मनुष्य जाति  से ही है, जिसका विकास भिन्न रूपों में हुआ है। टाइलर का विचार है कि ‘’समाज में सदृश्य के रूप में मनुष्य के द्वारा प्राप्त ज्ञान, अधिगम , कला, मान्यताएं, नीति, इर्वज इत्यादी का जटिल समूह ही संस्क्रति है।’’

संस्कृति मनुष्य के समाज के द्वारा उद्धभावित, स्वीकृत, व्यवहार व विचारधारा की वह प्रणाली है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती हुई, परिवर्तनशीलता के साथ सत्य बनाये रखती है। 

स्वच्छता व संस्कृति का सम्बन्ध 

संस्कृति संबंधित देश, समय व भौगोलिकता के साथ संलग्न होती है। स्वच्छता का भी संस्कृति से संलग्न होना सहज-स्वाभाविक है। स्वच्छता समाज के भिन्न समुदायों व बिरादरियों के सांस्कृतिक मूल्यों से सम्बंधित होती है। जैसे कि कला और स्वच्छता, साहित्य और स्वच्छता, लोकजीवन और स्वच्छता, धार्मिक पर्व-त्यौहार और स्वच्छता, लोकोत्सव और स्वच्छता इत्यादी स्वच्छता के साथ सांस्कृतिक पारस्परिक सम्बन्ध है। स्वच्छता को संस्कृति के विविध आयाम प्रभावी बनाते हैं। संस्कृति के विकास व परिवर्तनों की कई प्रक्रिया से स्वच्छता भी हानिग्रस्त हुई है। स्वच्छता पर इन पहलुओं के होने वाले विपरीत असर को निम्न रूपों में देखा जा सकता है।

कला और स्वच्छता

स्वच्छता का कला के साथ प्रत्यक्ष व परोक्ष संबंध है। प्रत्येक कलाओं में स्वच्छता निहित होती है। चित्र कला, माटी कला, चर्म कला, नृत्य कला, आदि के साथ स्वच्छता का किसी न किसी रूप में संबंध है। जैसे कि चर्मकला मृतक पशुओं के चर्म को साफ करने के साथ संलग्न है। जिसमें निम्नवर्ण से लोग संलग्न होते हैं। उनके हाथों की सफाई, चर्म की सफाई-स्वच्छता अति आवश्यक बन जाती है। चर्म संबंधित जूते आदि के निर्माण में भी स्वच्छता अनिवार्य है। चर्म संबंधित कार्य में मृतक पशुओं के चर्म को निकालने की क्रिया में जल का व्यय, बदबू व गंदगी का प्रभाव बना रहता है। फलतः पर्यावरणीय प्रश्न पैदा होता है। उत्तरप्रदेश के कानपूर शहर में चर्म उद्योगों के कारखानो से निकलनेवाला जल, जो लाल रंग का भी होता है, नदी में बहाया जाता है। इससे लोगों के स्वास्थ्य पर सीधा खतरा पैदा हुआ है। यद्यपि कला का अवश्य विकास हुआ है किन्तु पर्यावरण, स्वच्छता के भी कई प्रश्न उपस्थित हुए हैं। इस व्यवसाय से जुड़े लोगों को निम्नवर्ण का माना जाता है। इस कार्य से संलग्न लोगों के प्रति भेदभाव नीति प्रवर्तित है, अतः चर्मकला के साथ स्वच्छता का संबंध है।    

जुलाहे का कार्य भी स्वच्छता से प्रभावित रहता है। इस कला का भी इनसे प्रत्यक्ष संबंध रहा है। इस कार्य के प्रत्येक चरण को सावधानीपूर्ण नहीं उठाया गया तो कार्य में निष्फलता प्राप्त हो सकती है। स्वच्छता के बिना उत्तम वस्त्र का निर्माण असंभव है। आज लोगों के पसंद करने के नजरिये बदल गये है। जुलाहे की कला संस्कृति से संबंध है। जुलाहे लोग निम्न जाति के माने जाते हैं। इस कार्य में सूक्ष्मातिसूक्ष्म गतिविधियाँ करनी पड़ती है। रूई से तार बनाये जाता हैं, छोटे तारो को बुनने का कार्य कठिन है। इस कार्य से बदबू पैदा होती है। तैयार वस्त्र को लेकर भी बदबू फैलती है। रंगकार्य, छपाई कार्य से बदबू फैलती है। लोग जुलाहे के पास से विविध उपयोग हेतु वस्त्र प्राप्त करते हैं। पूजा-विधि हेतु कपड़ों का इस्तेमाल होता है। जिससे लोग इन निम्न जाति के लोगों के द्वारा तैयार किये गये कपड़ो के प्रति भी छुआछूत का भाव रखते हैं। अतः उनकी कला को मान न देते हुए उसे सामाजिक परिप्रेक्ष्य से जोड़ दिया जाता है।

जुलाहे के कार्य के साथ पर्यावरण भी संलग्न है। वस्त्र तैयार करने में पानी का व्यापक उपयोग होता है। पानी में रासायनिक तत्वों का मिश्रण होता है, जो प्रदूषण फैलाते हैं और जमीन में उतरने वाला दूषित जल एक प्रकार का खतरा फैलाता है। अतः इस कला से भी स्वच्छता का संबंध है। मूर्तिकला या माटी कला व चित्रकला परंपरागत संस्कृति से संबंध है। स्वच्छता में संलग्न इन कलाओं का विशेष महत्त्व है। पत्थर से निर्मित मूर्तियाँ ईश्वर, राजकीय नेता व महानुभावों की होती हैं, जिससे लोगों का आदरभाव जुड़ा होता है। फलतः इससे स्वच्छता का होना अनिवार्य है। इन मूर्तियों, चित्र आदि की स्वच्छता, सुंदरता व मूर्ति का प्रभाव पूर्ण होना चाहिए। चित्रों की स्पष्टता व मूर्ति की प्रभावपूर्ण निर्मिति एक विशेष वातावरण को पैदा करती है। यद्यपि चित्रकार व मूर्तिकार उच्चवर्ण के नहीं भी हो सकते हैं। वे महेनतकश लोग भी छुयाछूत व भेदभाव की स्थिति का शिकार बनते हैं। उन्हें भी शोषण सहना पड़ता है। असामान्य कलाशक्त्ति युक्त्त इन लोगों के साथ स्वच्छता का प्रश्न बना रहा है।

मूर्ति-कला, चित्र कला, काष्ठकला पर्यावरणीय दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। काष्ठकला में लकडियों की मूर्तिकला बनाने हेतु वृक्षो की कटाई होती है। संगमरमर की मूर्ति हेतु भी मूल्यवान संगमरमर को निकाला जाता है। इसके असंतुलन से भूकंप की स्थिति पैदा होती है। मूर्तिकला में भी उर्वर भूमि से मिट्टी प्राप्त की जाती है। अतः मिट्टी का भी व्यय होने के साथ ही जमीन को भी नुकसान पहुंचता है। इन सभी कलाओं के साथ स्वच्छता का संबंध रहा है।

साहित्य और स्वच्छता

साहित्य संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। साहित्य समाज का दर्पण है। संस्कृति से हमारी सांस्कृतिक पहचान पैदा होती है। साहित्य समाज सापेक्ष होता है। भौगोलिकता, सामाजिकता, प्रादेशिकता आदि का साहित्य में विशेष प्रभाव निहित होता है। फिल्मे, टेलीविजन, विविध माध्यमों में साहित्य का दृश्य स्वरूप प्राप्त होता है। समाज की वास्तविकता का रूपायन साहित्य के द्वारा होता है। वेदकालीन साहित्य, बौद्ध व जैनकालीन साहित्य, भक्त्तिकालीन साहित्य, ब्रिटिशकालीन साहित्य तथा आधुनिक कालीन साहित्य में कई साहित्यकारो का योगदान प्राप्त हुआ है। उन्होंने अपने साहित्य में अपने समय के समाज की स्वच्छता को प्रतिबिंबित किया है। प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में स्वच्छता के चित्र अंकित किये हैं।     

स्वच्छता के संबंध में विविध कार्यक्रम, आयोजन आदि तैयार किये जाते हैं, किन्तु पाठशाला-महाविद्यालयों में इसे अभ्यासक्रम के रूप में स्थान प्राप्त नहीं हुआ है। विद्यालय स्तर पर ऐसा स्वच्छतालक्षी साहित्य अभी तैयार नहीं किया गया है। पर्यावरण विषय का इस स्तर पर स्वतंत्र अभ्यास करवाया जाता है किन्तु स्वच्छता के साहित्य के संबंध में अब भी उदासीनता प्रवर्तित है। सुलभ इन्टरनेशनल सोशल सर्विसेज़ के प्रणेता डॉ. बिन्देश्वर पाठक के द्वारा ‘स्वच्छता का समाजशास्त्र‘ एक विषय के रूप में यूजीसी के पास मान्यता प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। उनका स्वप्न है कि भारत के सभी विश्वविद्यालयों में स्वच्छता संबंध में साहित्य प्राप्त हो और एक विषय के रूप में स्वीकार हो। 

जन जीवन और स्वच्छता 

भारतवर्ष का जन जीवन, जन संस्कृति की एक विशेष पहचान है। विविधता में एकता की स्थिति भारतवर्ष का वैशिष्ट्य है। समयांतर के साथ लोकजीवन का स्वयंमेव प्रभाव प्रवर्तित होता दृष्टव्य हुआ है।  विविध जातियाँ, धर्म आचार-विचार अपने अनूठे मूल्यों व मानदण्डो के साथ प्रवर्तित हैं। जातियो के पारस्परिक आतंरिक व्यवहार विशेष प्रभाव पैदा करते हैं। विविध जाति व बिरादरियों के अन्य बिरादरियो के साथ के व्यवहार के अनूठे नियम व बंदिश हैं। पारस्परिक जातियों के बीच ‘कार्यात्मक आवश्यकता‘ के संबंध स्थित थे, जिसे जजमान व यजमान प्रथा कहा जाता है। उच्चवर्ण के लोगो का अपने से निम्न जातिवाली जातियों के साथ घनिष्ठ व्यवहार नहीं था। वर्तन-व्यवहार में जातियों के बीच विविध मानदण्ड प्रवर्तित रहे हैं। स्वच्छता के परिप्रेक्ष्य में देखे जाने पर फलित होता है कि स्वच्छता का कार्य करनेवाले निम्न माने गये हैं, जिनसे भेदभाव की निति अपनायी जाती थी। सामाजिक भेदभाव का स्वच्छता के साथ प्रत्यक्ष व परोक्ष संबंध है।

भारत देश का संविधान ‘बिन सांप्रदायिक‘ देश की पहचान देता है। सभी को समान अधिकार दिये गये हैं। इस देश में हिन्दू-मुस्लिम, सिखा, जैन, बौद्धा, पारसी आदि धर्म के लोग निवास करते हैं। इन सभी धर्मो के अपने आचार-विचार हैं, जिनसे लोग प्रभावित होते हैं। पवित्रता, मानवता, ईश्वर भक्त्ति का सन्देश सभी धर्मो से प्राप्त होता है। मन की स्वच्छता का सन्देश भी प्राप्त होता है। अतः इन धर्मो के विचारो का जन मानस पर असर पैदा होता है। भारत में विशेषतः नगरीय, ग्रामीण व आदिवासी समुदाय प्रवर्तमान है। सभी समुदायों की विशेष पहचान है। नगरीय समुदाय की अपनी संस्कृति, प्रणाली है जो अन्य समुदायो से भिन्न है। लोग स्वच्छता के आग्रही होने पर भी सार्वजनिक स्वच्छता के संबंध में लापरवाह हैं। ग्राम्य समुदाय के लोग अशिक्षित होने के कारण स्वच्छता के प्रति जागरुक नहीं हैं और आदिवासी लोग प्राकृतिक पर्यावरण पर आधारित होने के कारण स्वच्छता प्रति जागृत नहीं है। अतः भारत में स्वच्छता की स्थिति असंतुलित रही है।

भारत भौगोलिक स्थिति से भी विशिष्ट है। मैदानों की संस्कृति, पर्वतीय आबादी, वन निवासी, समुद्रतटीय लोग, शीत प्रदेश के लोग आदि विविधता प्रवर्तित है। जहाँ मैदानी इलाके हैं वहाँ कृषि व औद्योगिकता संबंध में जागरुकता है। पर्यावरणीय प्रश्नों के प्रति जागरुकता है। पर्वतीय व ढलानयुक्त्त इलाको में पशुपालन अधिक है। ऐसे इलाको में प्राकृतिक हवा और जल पर्याप्त प्राप्त होते हैं। किन्तु ऐसे इलाको में वृक्षो की कटाई भी अपनी मात्रा में होने के कारण पर्यावरणीय खतरा पैदा होता है। भारत का जनजीवन वैविध्यपूर्ण रीत-रिवाज, जीवनशैली, कला-कारीगरी, प्राचीन हस्तप्रत, चित्र, धार्मिक संस्कृति, साहित्य संगीत, भजन आदि के द्वारा चलता रहता है। सभी क्षेत्रो में स्वच्छता के संबंध में संदेश फैलाये जाते हैं। धार्मिक विचारधारा पूर्ण रूप से स्वच्छता की आग्रही है।
    
कृषिप्रधान देश भारत में कला और कारीगरी के बेमिसाल उदाहरण प्राप्त हैं। विविध व्यवसाय की जो आर्थिक स्थिति से भी संलग्न’ है जैसे कि, मिस्त्रीकार्य, लोहार का कार्य, दरजी का कार्य, सफाई कार्य, माटी कार्य, मजदूरी कार्य आदि सभी में स्वच्छता का विशेष महत्त्व है। व्यवसाय की सफलता का आधार स्वच्छता पर निर्भर है। अतः भारत के जन जीवन की स्थिति को स्वच्छता के परिप्रेक्ष्य से सम्बद्ध माना जा सकता है। विश्वभर में भारत जैसी विविधता प्राप्त नहीं होती है। ‘एकता‘ को भारत की जान माना जा सकता है। जन जीवन के प्रति उदासीनता समाप्त हो सकती है और स्वच्छता जन जीवन का एक हिस्सा बन सकती है।

धार्मिक उत्सव और स्वच्छता     

भारत देश में धार्मिकता बुलंद है। धर्म, उपधर्म की अनेक दिशाएँ प्रवर्तमान है। वर्ष के दौरान कई प्रकार के त्यौहार-उत्सवों को मनाया जाता है। किसी न किसी रूप में धार्मिक स्थानों का उपयोग होता रहता है। धार्मिक मेले, पूजा-पाठ, कीर्तन, रथयात्रा, प्रदर्शनी आदि के आयोजन समयांतर में किये जाते हैं। ऐसे माहौल में ऐसे स्थानों पर स्वच्छता की अनिवार्यता सविशेष रहती है। वास्तविकता यह है कि ऐसे माहौल में, उत्सवो में गंदगी, अस्वच्छता, मल-मूत्र का दूषण, निवास के प्रश्न, दूषित जल की समस्या आदि अनेक दुविधाएँ पैदा हो उठती हैं। कुंभ मेले का आयोजन इसका सशक्त्त उदाहरण है। लाखों की तादाद में इकठ्ठे होने वाले लोगों से पैदा होने वाली गंदगी का कोई सुनियोजित निवारण नहीं होता। अस्वच्छता का प्रभाव उत्सव की समाप्ति के लम्बे अरसे तक रहता है। ईश्वर पर रहने वाली श्रद्धा का प्रथम चरण ‘‘स्वच्छता’’ होने के बावजूद भी लोग लापरवाह हैं। सार्वजानिक, धार्मिक स्थानों पर स्नान क्रिया को पुण्य कार्य माना जाता है। किन्तु लोगों के मन में स्वच्छता की संकल्पना पैदा नहीं होती है। भारत वर्ष में कई छोटे बड़े मंदिर, गुरुद्वारा, मस्जिदों में लोग इकठ्ठे होते हैं और गंदगी फैलाते हैं। विभिन्न जुलूसो में भी लोग स्वच्छता के संबंध में लापरवाह ही रहते हैं। सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में धर्म संबंधित अनेक कार्यों में स्वच्छता अनिवार्य होने पर भी लोगों की लापरवाही दुष्प्रभाव पैदा करती है।

लोक उत्सव और स्वच्छता 

लोक उत्सव भारतीय संस्कृति की धरोहर हैं। समग्र भारत में इनका विशेष आयोजन किया जाता है। कृषि प्रधान देश भारत में कृषि विषयक विविध क्रियाओं में भी लोक उत्सव आयोजित होते रहते हैं। बोने की क्रिया, पानी वितरण की क्रिया, फसल कटाई कार्य आदि लोक उत्सवों के साथ किये जाते हैं। धार्मिक त्योहारों के उपक्रम में नौरात्र, लोकनृत्य, आदिवासी नृत्य, भवाई आदि का आयोजन किया जाता है। गुजरात में तरनेतर का मेला, वौठा का पशु मेला, डाकोर का पूर्णिमा मेला, भावनगर का निष्कलंक मेला, अम्बाजी का भाद्रपद की पूर्णिमा का मेला आदि साल भर में आयोजित होते रहते हैं। लाखों लोगों के इकठ्ठे होने पर स्वच्छता के संबंध में कई प्रश्न उठते हैं। स्वच्छता के प्रति दुर्लक्ष कई खतरे पैदा करता है।

स्वच्छता और सामाजिक परिवर्तन  

विविध परिस्थितियों के अधीन सामाजिक परिवर्तन होता है। स्वच्छता सामाजिक परिवर्तन का सशक्त्त माध्यम है। स्वच्छता को समाज का प्रत्येक व्यक्त्ति स्वीकृत करता है। कहीं कोई अस्वीकृत करे, तब भी पुनः विचारने के पश्चात उसका स्वीकारना अनिवार्य हो जाता है। स्वच्छता संबंधित कई परिवर्तन प्राप्त हुए हैं।

स्वच्छता से विविध परिवर्तन -

1. लोगों की विचारधारा में परिवर्तन -सुरक्षा व सलामती के विचार से सामान्यतः लोग परंपरागत विचारधारा से सलंग्न रहते हैं। स्वच्छता व शौचालय से रूढिगत-विचारों में परिवर्तन प्राप्त हुआ है। अपने घरों में लोग अब स्वच्छता व शौचालय के आग्रही बने हैं। सार्वजनिक शौचालय के उपयोग में बढोत्तरी हुई है। स्वच्छता व शौचालय खर्चीला होने पर भी उसे प्रतिष्ठा का माध्यम माना गया है। अतः शौचालय व स्वच्छता की स्थिति में विचारों में परिवर्तन प्राप्त हुआ है।

2. रोजगार के नये अवसर - स्वच्छता व शौचालय के उपयोग से रोजगार के नये आयाम-खुले हैं। संबंधित सामग्री, साधन इत्यादी का उत्पादन, बिक्री, नयी तकनीकों का उपयोग रोजगार के निमित्त बने हैं। रोजगारी के स्थानों पर रहनेवाली भेदभाव नीति समाप्त हुई है। केन्द्र व राज्य सरकारों के प्रयासों से सफाई कर्मियों की शिक्षा-रोजगारी की सुविधा मुहैया कराने पर आमूल सामाजिक परिवर्तन हुआ है।

3. विवाह संबंधित विचारों में बदलाव - शिक्षा व अन्य माध्यमों से विचारों में परिवर्तन देखा गया है। लोगों की मानसिकता में सुधार हुआ हैं। शौचालय सुविधायुक्त्त घरों में अपनी बेटी के विवाह का विचार लोग करने लगे हैं। स्वच्छता व शौचालय  का महत्त्व प्रस्थापित हुआ है। जीवनसाथी के चयन में भी मानदंड बदले हैं। शौचालय व स्वच्छतायुक्त्त घर प्रतिष्ठित माने जा रहे हैं। जिन घरों में इनका अब भी अभाव है उन घरों के बेटे-बेटियों के विवाह में दिक्कते पैदा होती हैं। अतः विवाह संबंधित विचारों में स्वच्छता व शौचालय की बदौलत परिवर्तन हुआ है।

4. व्यावसायिक कोटि में परिवर्तन - भारत में सभी को व्यावसाय चुनने का स्वतंत्र अधिकार प्राप्त है। बीते समय में दलित व पिछड़ी जाति के लोगों को शौचालय व स्वच्छता के कार्य अनिवार्यतः करने पड़ते थे। समाज के द्वारा रची गयी यह व्यावसायिक कोटि अपरिवर्तनीय कोटि थी। समयांतार में शौचालय कर्मियों के पुनर्वासन व उद्धार का अभियान प्रारंभ हुआ। आधुनिक शौचालय के विकास से उन लोगों को व्यवसाय चयन करने का मौका मिला। निम्न व दलित लोगों के व्यवसायों में भी अब परिवर्तन आया है। इन जाति-बिरादरियो की सामाजिक स्थितियों में बदलाव आया है।

5. ग्रामीण समूहों के स्वरूप में परिवर्तन - ग्रामीण समूहों की रुढिवादिता, मान्यताएँ, वहम, संदेह, जातिभेद, अस्पृश्यता जैसी मानसिकता थी। शौचालय व स्वच्छता संबंधित कार्यों में सफाईकर्मियों को नाना प्रकार के अन्यायों, भेदभाव व शोषण का शिकार बनना पड़ता था। उन्हे मंदिर में प्रवेश निषेध, कुँए-तालाब से जल उपयोग निषेध, अलग शमशाम, पाठशाला प्रवेशादी के अनूठे नियम प्रवर्तित थे। प्रभावी बिरादरियो का बोलबाला था। आज शौचालय संबंधित नियमों में परिवर्तित होने से सफाई कर्मियों को पर्याप्त स्वतंत्रता प्राप्त हुई है। ग्रामीण समूहों के स्वरूप में आमूल परिवर्तन प्राप्त हुआ है।

6. जन आरोग्य क्षेत्र में परिवर्तन - शौचालय की बदौलत जन आरोग्य में सुधार आया है। स्वच्छता व शौचालय लोगों के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं। खुले में होने वाली शौचक्रिया पर स्वैच्छिक पाबंदी लग गयी है। स्वच्छतालक्षी विचार, खान-पान संबंधित विचार व आदतों में बदलाव आया है। स्वच्छता के लिए लोग अब जिम्मेदाराना व्यवहार करने लगे हैं। जन जागृति के परिपाकरूप आरोग्य के प्रश्नों का समाधान प्राप्त हुआ है। स्वास्थ्य के सुधार में स्वच्छता व शौचक्रिया की अहम् भूमिका रही है।

7. शौचालय एक सामाजिक प्रतिष्ठा  - शौचालय व स्वच्छता से सामाजिक परिवर्तन प्राप्त होता रहा है। इनकी प्रभावोत्पादकता के संदर्भ में अब कोई संदेह की स्थिति नहीं है। घर में शौचालय होना प्रतिष्ठा का कारण बन गया है। जैसे जागीर, धनसंपति व गहनों का महत्त्व है वैसे ही अब शौचालय को प्रतिष्ठा का कारक माना जा रहा है। गाँव के इज्जतदार लोगों में उनकी गिनती होती है, जिनके अपने घरों में शौचालय है। घर का जनाना वर्ग तथा अतिथिगण शौचक्रिया में संकोच का अब अनुभव नहीं करते।

8. स्थानांतरण पर नियंत्रण  - विविध कारणों में शौचालय का अभाव स्थानांतरण का महत्वपूर्ण कारण है। कुछ ग्रामीण प्रांतो में आज भी निःसंकोच रूप से ग्रामीण खुले में शौचक्रिया करते हैं। आज शिक्षा के प्रचार प्रसार से, संचार माध्यमों के प्रभाव से लोगों के मन में शौचालय की गरिमा का ख्याल विकसित होने लगा है। जन जागृति से स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं के हल प्राप्त होने लगे हैं। रुढिवादी लोग जब आज भी शौचालय से विमुख हैं, तब नयी पीढ़ी मजबूरन स्थानांतरण करने लगी है। दोनों पीढियों के बीच वैचारिक व भौतिक अंतर बढ़ने लगा है। परिणाम स्वरूप रुढिवादी पुरानी पीढ़ी अब शौचालय संबंध में विधेयात्मक विचार अखत्यार करती है। फलतः स्थानांतरण की प्रक्रिया में रोक लगी है। स्नांतरण का नियंत्रण एक सटीक सामाजिक परिवर्तन है।

9. स्त्रियों के दरज्जे में परिवर्तन - ग्रामीण प्रांतो में शौचालय के उपयोग के संदर्भ में स्त्रियाँ कमजोर रही हैं। खुले में शौचक्रिया करने वाले विविध जन समूहों में साथ स्त्रियाँ भी कार्य करती हैं। गृह सफाई, जाडू-पोछा, शिशुपालन, रसोई काम, कपडे की धुलाई आदि भूमिकाएँ निभाने वाली औरतों का स्थान निम्न स्थिति में था। समयांतर में इस स्थिति में बदलाव आया है। अपने हक व अधिकार के प्रति अब स्त्रियाँ जागृत हुई हैं। शौचालय संदर्भ में स्त्रियों का अति आग्रह रहा है। समाज को स्त्रियों के प्रश्न को लेकर शौचालय को स्वीकार करना पड़ा है। औरतो के सामाजिक दरज्जे में वृद्धि हुई है। जिसे सामाजिक परिवर्तन ही कह सकते है।

10. नये कानून का प्रादुर्भाव - औपचारिकता व अनौपचारिक माध्यमों के द्वारा सामाजिक नियंत्रण संभव है। अनौपचारिक माध्यम की कमजोरी पर औपचारिक माध्यम की सक्रियता बढ़ाई जाती है। तात्पर्य है कि रिवाज, रूढ़ी, मान्यताएँ व जनरीति से नियंत्रण प्राप्त नहीं होता है। तब कानून के द्वारा, नीतियों के द्वारा प्रयत्न किये जाते हैं। स्वच्छता व शौचालय संदर्भ में भी अनौपचारिक माध्यमों के कारगर न रहने पर नये कानून, पुलिस प्रशासन, न्यायालय आदि को अपनी भूमिका निभानी पड़ती है। पूर्व कानूनों में परिवर्तन करते हुए कई नये कानून लागू किये जा रहे है। कानून के जरिये जन जागृति फैलाने का प्रयास एक सामाजिक परिवर्तन है। शौचालय की अब अनिवार्यता पैदा हो गयी है। भले ही शौचालय निर्माण को महँगा माना जा रहा है किन्तु लोग अब समझने लगे हैं कि इसमें निवेश किये गये रुपयों से दीर्घकालीन कई खर्चो पर काबू प्राप्त किया जा सकता है। लोगों की रुढिवादी व पारंपरिक विचारधाराओ में भी बदलाव पैदा हुआ है। शौचालय व स्वच्छता के द्वारा सामाजिक क्रांति, सामाजिक परिवर्तन के सुपरिणाम प्राप्त हुए हैं।

समापन 

स्वच्छता के प्रति अभिमुखता के संदर्भ में भारत अभी भी पिछड़ा हुआ देश है। स्वच्छता का परिप्रेक्ष्य अस्पष्ट है, लापरवाही, गैर जिम्मेदाराना रवैया कई जोखिम पैदा करता है। स्वच्छता को लोक साहित्य में, साहित्य के विविध स्वरुपो में स्थान प्राप्त हुआ है। कई कलाओं में भी स्वच्छता की महत्ता को स्वीकार किया गया है। भारतीय लोकजीवन, लोकोत्सव, धार्मिक सम्मेलन आदि में स्वच्छता के प्रति दुर्लक्ष बने रहे हैं। स्वच्छताभिमुख होने की अति आवश्यकता है। सांस्कृतिक दृष्टि से स्वच्छता का व्यक्त्तिगत महत्त्व है किन्तु व्यावहारिक महत्त्व नहीं है।

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  9. www.UNDP.org.

 

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किसानों की आय दोगुनी करने के लिए कृषि क्षेत्र में सुधार

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किसानों की आय दोगुनी करने के लिए कृषि क्षेत्र में सुधारHindiWaterTue, 10/15/2019 - 17:06
Source
कुरुक्षेत्र, अक्टूबर 2019

केन्द्र सरकार द्वारा किसानों की आय समन्वित तरीके से बढ़ाने के उद्देश्य से कई योजनाएँ शुरू की गई हैं और नीतिगत-स्तर पर भी काफी सुधार हुए हैं। साथ ही, इन योजनाओं को वित्तीय मदद मुहैया कराने के लिए कृषि क्षेत्र से जुड़े बजटीय आवंटन में बड़े पैमाने पर बढ़ोत्तरी की गई है। बजटीय संसाधनों के अतिरिक्त गैर बजटीय संसाधनों का भी उपयोग किया जा रहा है। लघु एवं सीमांत किसानों की मदद के लिए प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना और प्रधानमंत्री किसान मानधन योजना भी शुरू की गई है।
 
सरकार किसानों की आय बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित कर कृषि क्षेत्र को पटरी पर लाने में जुटी है। यह पूरी कोशिश सिर्फ उत्पादन के लक्ष्यों तक सीमित नहीं है। अन्य कई मोर्चों पर भी पहल की जा रही है। आय बढ़ाने से जुड़े अभियान में उत्पादन को ऊँचे स्तर पर ले जाने, जुताई का खर्च घटाने और उत्पाद मूल्य बढ़ाने पर जोर है, ताकि किसानों के लिए ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा तय किया जा सके। किसानों की आय बढ़ाने के उद्देश्य से कई योजनाएँ शुरू की गई हैं और नीतिगत-स्तर पर भी काफी सुधार हुए हैं। साथ ही, इन योजनाओं को वित्तीय मदद मुहैया कराने के लिए कृषि क्षेत्र से जुड़े बजटीय आवंटन में बड़े पैमाने पर बढ़ोत्तरी की गई है। बजटीय संसाधनों के अतिरिक्त गैर-बजटीय संसाधनों का भी उपयोग किया जा रहा है।
 
किसानों की आय दोगुनी करने सम्बन्धी सुझाव देने वाली कमेटी में जाहिर तौर पर विचार-विमर्श का मुख्य केन्द्र किसानों की आय है और मुख्य रणनीति के तौर पर इस पर ही काम किया गया। ‘भारतीय कृषि में बदलाव’ के लिए हाल में मुख्यमंत्रियों की एक उच्चस्तरीय समिति बनाई गई है और इस मुद्दे पर विचार-विमर्श व रिपोर्ट तैयार करने के लिए समिति की दो बैठकें हो चुकी हैं। ये बैठकें इसी साल 18 जुलाई और 16 अगस्त को हुई।
 
किसानों की आय बढ़ाने की दिशा में समन्वित तरीके से काम करने के लिए फिलहाल सरकार विभिन्न योजनाओं पर अमल करने के साथ-साथ नीतिगत कदम भी उठा रही हैः

उत्पादन में बढ़ोत्तरी

  1. मोटे अनाज, दाले, तिलहन, पोषण-युक्त अनाजों, व्यावसायिक फसलों के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसएम)।
  2. फल-फूल और सब्जियों से जुड़ी फसलों की ऊँची वृद्धि दर के लिए एकीकृत बागवानी विकास मिशन।
  3. तिलहन और पाम ऑयल (ताड़ का तेल) का उत्पादन बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय तिलहन एवं ऑयल पाम मिशन।

जुताई की लागत में कटौती

  1. खाद के उचित और सन्तुलित इस्तेमाल के लिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, ताकि किसानों की लागत में बचत हो सके।
  2. यूरिया के नियंत्रित इस्तेमाल के लिए नीम कोटेड यूरिया को बढ़ावा दिया जा रहा है, ताकि फसल में नाइट्रोजन की उपलब्धता बढ़ सके और खाद सम्बन्धी लागत घट सके।
  3. ‘हर खेत को पानी’ लक्ष्य के तहत प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई), जिसका मकसद सिंचाई आपूर्ति शृंखला में हर तरह की मदद उपलब्ध कराना है, मसलन जल संसाधन, वितरण नेटवर्क और खेत के स्तर पर उपयोग। पीएमकेएसवाई के लघु सिंचाई पहलू के तहत 12 लाख हेक्टेयर सालाना की सिंचाई का लक्ष्य रखा गया है।

छोटे और सीमांत किसानों की मदद के लिए

भारत सरकार ने छोटे और सीमान्त किसानों की मदद के लिए प्रधानमंत्री किसान सम्मान (पीएम-किसान) निधि योजना शुरू की है। इस योजना के तहत किसान परिवारों को 6,000 रुपए सालाना दिए जा रहे हैं। शुरू में इस योजना के दायरे में सिर्फ छोटे और सीमान्त किसानों को ही रखा गया था यानी जिन किसानों के पास 2 हेक्टेयर या इससे कम जमीन थी, वे ही इसके लाभार्थी हो सकते थे। हालांकि, अब केन्द्र सरकार ने इस योजना के दायरे में सभी किसानों को शामिल करते हुए जमीन सम्बन्धी शर्त (2 हेक्टेयर या इससे कम जमीन सम्बन्धी प्रावधान) हटा दिया है। हालांकि, इस योजना का लाभ उठाने के लिए कुछ और योग्यता व शर्तें भी तय की गई हैं, जिनका पालन जरूरी है।
 
राज्य सरकार और केन्द्रशासित प्रदेशों के प्रशासन की तरफ से उन किसान परिवारों की पहचान की जाती है, जो योजना की शर्तों के मुताबिक यह लाभ पाने के योग्य हैं। यह फंड सीधा लाभार्थियों के खाते में ट्रांसफर किया जाता है। पीएम किसान योजना के अब तक 6,37 करोड़ लाभार्थी हैं और किसान परिवारों को प्रत्यक्ष लाभ के तहत 20,520 करोड़ रुपए हस्तातंरित किए जा चुके हैं।

  1. सरकार ने प्रधानमंत्री किसान मान धन योजना (पीएम-केएमवाई) भी शुरू की है। इसके तहत योजना से जुड़ी शर्तों को पूरा करने वाले छोटे और सीमांत किसानों की उम्र 60 साल होने पर उन्हें न्यूनतम 3,000 रुपए प्रति महीना पेंशन दिए जाने का प्रावधान है। यह स्वैच्छिक और योगदान करने वाली पेंशन योजना है और इसमें योगदान के लिए आयु सीमा 18 से 40 साल है। इसमें किसान अपनी उम्र के हिसाव से 55 से 200 रुपए तक का योगदान कर सकते हैं। इस पेंशन योजना में केन्द्र सरकार इतनी ही राशि अपनी तरफ से पेंशन फंड में देगी।

लाभकारी रिटर्न सुनिश्चित करना

  1. राष्ट्रीय कृषि बाजार योजना (ई-नाम) कृषि बाजारों में क्रान्तिकारी बदलाव लाने से जुड़ी नवोन्मेषी बाजार प्रक्रिया है। इसमें रियल टाइम आधार पर कीमतों के बारे में जानकारी मुहैया कराते हुए तथा पारदर्शिता व प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देकर किसानों के लिए अपने उत्पादों का बेहतर मूल्य सुनिश्चित करने की बात है। इसके जरिए एक देश, एक बाजार दिशा मे बढ़ने का मकसद है।
  2. किसान उत्पादक संगठ ई-नाम पोर्टल से जुड़े हैं और इन संगठनों ने अपने वेब पते से व्यापार के लिए अपनी उत्पाद सम्बन्धी सूचना अपलोड करना शुरू किया है।
  3. कृषि उत्पाद और पशुधन विपणन संवर्धन और सुगमता मॉडल कानून, 2017, राज्योंध् केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए 24 अप्रैल, 2017 को जारी किया गया। इस कानून को लाने का मकसद किसानों को बेहतर कीमत दिलाने के लिए वैकल्पिक प्रतिस्पर्धी विपणन माध्यमों को बढ़ावा देना और सक्षम विपणन आधारभूत संरचना तथा मूल्य शृंखला विकसित करने के लिए निजी निवेश प्रोत्साहित करना है। इस कानून के प्रावधानों में निजी बाजार, प्रत्यक्ष विपणन, किसान-उपभोक्ता बाजार, विशेष कमोडिटी बाजार की स्थापना और बेयरहाउसध् कोल्ड स्टोरेज या इस तरह के ढाँचे को बाजार सब यार्ड के तौर पर घोषित करना शामिल हैं।
  4. मौजूदा 22,000 ग्रामीण हाटों को विकसित कर ग्रामीण कृषि बाजार में बदला जाएगा। ये ग्रामीण कृषि बाजार इलेक्ट्रॉनिक रूप से ई-नाम पोर्टल से जुड़े होंगे और कृषि उत्पाद विपणन समितियों के नियमों से मुक्त भी होंगे। ग्रामीण कृषि बाजार के जरिए किसानों को सीधा उपभोक्ताओं और थोक खरीदारों को अपना उत्पाद बेचने की सुविधा होगी।
  5. वेयरहाउसिंग और फसल तैयार होने के बाद सस्ती दर पर कर्ज की सुविधा मुहैया कराना, ताकि किसानों को मजबूरन जल्दबाजी में अपना उत्पाद बेचने की नौबत नहीं आए और उन्हें जरूरी दस्तावेजों के आधार पर वेयरहाउस में अपना उत्पाद रखने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके।
  6. कुछ फसलों के लिए समय≤ पर न्यूनतम समर्थन मूल्य सम्बन्धी अधिसूचना जारी की जाती है। किसानों की आय को बढ़ावा देने से जुड़े उपाय के तहत सरकार ने हाल में 2019-20 सीजन के लिए सभी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी की है।
  7. मूल्य समर्थन योजना के तहत सम्बन्धित राज्य सरकार के अनुरोध पर केन्द्रीय एजेंसियों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर तिलहन, दालों और कपास की खरीद की जाती है।
  8. जल्दी खराब होने वाले और पीएसएस के दायरे से बाहर फल, सब्जियाँ व अन्य कृषि उत्पादों की खरीद के लिए बाजार हस्तक्षेप योजना (एमआईएस)।

जोखिम प्रबन्धन और टिकाऊ प्रणाली के लिए
 

  1. प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और पुनर्गठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना के तहत फसल चक्र के सभी चरण में बीमा कवर मुहैया कराया जाता है। कुछ फसलों के मामले में फसल तैयार हो जाने (कटाई) के बाद का जोखिम भी शामिल होता है। ये बीमा योजनाएँ किसानों को काफी सस्ते प्रीमियम पर उपलब्ध हैं।
  2. कम अवधि वाले 3 लाख रुपए तक के कर्ज पर सरकार 5 प्रतिशत ब्याज सब्सिडी (3 प्रतिशत तुरन्त भुगतान इंसेंटिव) मुहैया कराती है। लिहाजा, तुरन्त भुगतान पर 4 प्रतिशत की दर पर ही कर्ज उपलब्ध है।
  3. देश में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए परम्परागत कृषि विकास योजना को लागू किया जा रहा है। इससे मिट्टी की गुणवत्ता और जैविक सामग्री की स्थिति में सुधार होगा और ऊँची कीमत मिलने पर किसानों की शुद्ध आय में भी बढ़ोत्तरी होगी।
  4. देश के उत्तर-पूर्वी हिस्से में जैविक खेती की सम्भावना का लाभ उठाने के लिए उत्तर-पूर्व में जैविक खेती मिशन-एमओवीसीडी (उत्तर-पूर्व)।

सम्बद्ध गतिविधियाँ
 

  1. खेती की जमीन पर फसलों के साथ पौधारोपण को प्रोत्साहित करने के लिए 2016-17 के दौरान ‘हर मेड पर पेड़’ कार्यक्रम शुरू किया गया। इस योजना पर उन राज्यों में काम शुरू हुआ है, जहाँ लकड़ियों को इधर-उधर ले जाने के लिए उदारीकृत नियमों वाली अधिसूचना जारी की गई है। खेती के साथ पेड़ लगाने से न सिर्फ मिट्टी में जैविक कार्बन को बढ़ाने  में मदद मिलेगी, बल्कि किसानों के लिए आय का अतिरिक्त साधन तैयार करने का मार्ग भी प्रशस्त होगा।
  2. बाँस क्षेत्र में मूल्य शृंखला आधारित सम्पूर्ण विकास के मकसद से केन्द्रीय बजट 2018-19 में राष्ट्रीय बाँस मिशन की शुरुआत की गई, ताकि यह किसानों की आय के पूरक के तौर पर काम कर सके।
  3. एकीकृत बागवानी विकास मिशन के तहत मधुमक्खी पालन को बढ़ावा दिया गया है, ताकि शहद का उत्पादन बढ़ाकर किसानों के लिए अतिरिक्त आमदनी का साधन तैयार किया जा सके।
  4. डेयरी के विकास के लिए तीन प्रमुख योजनाएँ हैः राष्ट्रीय डेयरी योजना-1 (एनडीपी-1), राष्ट्रीय डेयरी विकास कार्यक्रम (एनपीडीडी) और डेयरी उद्यमिता विकास योजना।
  5. गायों और भैसों की देसी नस्ल को बढ़ावा देने के लिए दिसम्बर 2014 में राष्ट्रीय गोकुल मिशन की शुरुआत की गई।
  6. पशुधन, खासतौर पर छोटे पशुओं (भेड़ध्बकरी, पोल्ट्री आदि) के विकास के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले चारे की उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ-साथ 2014-15 में राष्ट्रीय पशुधन मिशन की शुरुआत की गई।

एक किसान की आय खेती (बागवानी समेत), इससे जुड़ी गतिविधियों मसलन डेयरी, पशुधन, मुर्गीपालन, मछली पालन, मधुमक्खी पालन आदि से मिली-जुली कमाई पर निर्भर करती हैं। खेती से सम्बन्धित आमदनी के अलावा वे मजदूरी, खेती से अलग कार्यों आदि से भी कमाई करते हैं। खेती से कमाई किसी किसान की आय का प्रमुख स्रोत है। कृषि सम्बन्धी चुनौतियों और किसानों के हितों को पूरा करने के लिए ऊँची और नियमित आय जरूरी है। इन चुनौतियों के कई पहलू होने के बावजूद देश की कृषि में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। अतः पहले से उलट अब उत्पादन और विपणन (मार्केटिंग) एक साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलेंगे, जबकि बीते वक्त में इन दोनों की भूमिका क्रमबद्ध मानी जाती थी।

 

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भारत में वायु प्रदूषण से हर तीन मिनट हो रही एक बच्चे की मौत

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भारत में वायु प्रदूषण से हर तीन मिनट हो रही एक बच्चे की मौतHindiWaterWed, 10/16/2019 - 10:23

फोटो-ntp.niehs.nih.gov

अभी तक हम कहते आए थे कि बच्चे देश का भविष्य हैं, लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मैं मानता हूं कि बच्चे पृथ्वी का भविष्य हैं और बदलाव की उम्मीद की एक नई किरण हैं, लेकिन जिन बच्चों में हमें भविष्य नजर आता है, आज वही बच्चे वायु प्रदूषण के कारण दम तोड़ रहे हैं। कई लोग विशेषकर भारत में, इसके के लिए किस्मत या पूर्व जन्म के कर्म को जिम्मेदार ठहराते हैं, लेकिन वास्तव में इन सब के जिम्मेदार हम हैं। हमने आने वाली पीढ़ी की चिंता करे बिना संसाधनों का इस प्रकार दोहन किया कि आज वे समाप्त होने की कगार पर हैं। विज्ञान के नाम पर प्रदूषणयुक्त संसार का निर्माण किया। हवा, पानी और जमीन तीनों को ही दूषित कर दिया। नतीजा ये रहा कि जीवन देने वाली हवा ज़हर उगल रही है और आज वायु प्रदूषण के कारण भारत में हर तीन मिनट में एक बच्चे की मौत हो रही है। यानी ये बच्चे अपना छठा वर्ष नहीं देख पाते हैं।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, भारतीय अनुसंधान चिकित्सा परिषद और आईएचएमई ने संयुक्त रूप से अध्ययन कर एक रिपोर्ट पेश की थी। रिपोर्ट को ग्लोबल बर्डन डिजीज 2017 नाम दिया गया है। अध्ययन में सामने आया कि वायु प्रदूषण के कारण भारत में हर तीन मिनट में 0 से 5 साल तक की आयु के एक बच्चे की मौत हो जाती है। रोजाना लगभग 508 बच्चे मौत के मुंह में समा रहे हैं। साथ ही हर मिनट निचले फेंफड़े में संक्रमण (एलआरआई) के कारण एक बच्चे की मौत होती है। अध्ययन में बताया बताया गया कि वर्ष 2017 में वायु प्रदूषण के कारण 0 से 5 वर्ष की आयु के 1 लाख 85 हजार से अधिक बच्चों की मौत हो गई, लेकिन इसमें अभी तक कोई सुधार नहीं आया है और मौत का आंकड़ा हर साल बढ़ रहा है। यदि पांच वर्ष से अधिक आयु वर्ग के बच्चों का आंकड़ा देखेंगे तो उसकी भयावहता हर किसी को अचंभित कर सकती है। इसके अलावा पिछले दस सालों में इसी आयु वर्ग के बच्चों में प्रमुख दस बीमारियों से लगभग दस लाख बच्चों की मौत हो चुकी है। जिसमें एलआरआई से मरने वाले बच्चों की संख्या प्रमुख बीमारियों में दूसरे स्थान पर है। 

ग्लोबल बर्डन डिजीज 2017 की रिपोर्ट दर्शाती है कि शासन और प्रशासन की कथनी और करनी विपरीत है। सरकार राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों से प्रदूषण को कम करने की बात तो कहती है। इसके लिए नियम भी बनाए जाते हैं, लेकिन इसका अनुपालन होता नहीं दिखता। मंत्री, नेता और अधिकारी ही नियमों को तक पर रखते हैं। तो वहीं जनता में भी पर्यावरण को संरक्षित करने के प्रति जागरुकता का अभाव है, लेकिन शायद जान की कीमत सभी का पता है। इसलिए अपने भविष्य और आने वाली पीढ़ी का सुरक्षित रखने के लिए पर्यावरण संरक्षण की हमें पहल करनी चाहिए। ताकि पृथ्वी के साथ ही इंसान का अस्तित्व भी बचा रहे। 

 

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मानसखण्ड में नैनीताल

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मानसखण्ड में नैनीतालHindiWaterWed, 10/16/2019 - 10:49
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नैनीताल एक धरोहर

फोटो-nainital.info

व्यास उवाच :-

शेषस्य दक्षिणे भागे पुण्यो गर्गागिरि: स्मृत:। लतापादपंकीर्णो नानाधातुविराजित:।।1।।
कूजत्कोकिलसंघैश्च यत्र तत्र प्रणादितम्। रजताकरसंयुक्तो राजते रजतोपम:।।2।।
गौरी पद्मा शची मेगा साबित्री विजया जया। तुष्टि-प्रभृतयो दैव्यो राजन्ते यत्र वै द्विजा।।3।।
चित्रक: सत्येनश्च तथा गार्ग्यो महातपा:। यत्र सिद्धा विराजन्ते सत्यव्रतपरायण:।।4।।
कान्ता कान्तिमती पुण्या वेणुमुद्रा तथा नदी। सुवाहा देवहा चैव भद्रा भद्रवती तथा।।5।।
सुभद्रा कालभद्रा च काकभद्रा तथा नदी। पुण्यभद्रा सरिच्छेष्ठा मानसी मानसा तथा।।6।।
एतास्तु बहवो नद्यो तस्मिन् सम्भूय सुव्रता:। पूर्णपश्चिमवाहिन्यो याम्योत्तरगगतास्तथा।।7।।
विराजन्ते महानद्यो यस्मिन्पर्वतनायके। यासु स्नात्वा च मुनयो गता: स्वर्गप्रति द्विजा:।।8।।
षटषष्टीति च विख्याता यस्मिन्वै हृदनायका:। निमज्य तेषु वै विप्रा विनश्यन्त्यघकोटय:।।9।।
मां यजन्तु महाभागा यज्ञै: सुबहुदक्षिणै:। माँ निमज्जन्तु तीर्थेषु माँ कथां प्रवदन्तु हि।।10।।
पुण्यं गर्गगिरिं विप्रा: समारोहन्तु मानवा:। यत्र गर्गो महातेजास्तपस्तेपे सुदुष्करम्।।11।।
सुपुण्यं पर्वतं मत्वा लोकानां हितकाम्यया। तस्मात्रान्यतम: पुण्य: पर्वतो मनिसत्तमा:।।12।।
यत्र कीटा: पतंगाद्या: मशकाश्च। मता: शिवपुरं पुण्यं यान्ति वै मुनिसत्तमा:।।13।।
यो हिमाद्रिं प्रणम्याशु संस्थितो गिरिनायक:। तस्य व्याख्यापनं विप्रा: कथं वै कथयाम्यहम्।।14।।
तस्य वै शिखरे पुण्ये गार्ग्येशो नाम शंकर:। पूज्यते देवगन्धर्वेमनिवैश्च तपोधना:।।15।।
तत्र गार्ग्याश्रमादुत्था गार्गी नाम शंकर:। पूज्यते देवगन्धर्वेमनिवैश्च तपोधना:।।16।।
तत्र गार्ग्याश्रमादुत्था गार्गा नाम सरिद्वरा। पुण्यतोयवहा पुण्या विद्यते मुनिसत्तमा:।।17।।
वामे तस्या महाभीमो हद: संख्यायते द्विजा:।त्रिभिर्यो ऋषिभि: पुण्य: पूरितस्तर्षिसंज्ञक:।।18।।
 
ऋषय ऊचु :- 

कथं वै ऋषयो विप्र त्रय: परमधार्मिका:। हदं सम्पूरयामासु: के ते ख्यातास्तपोधना:।।19।।
 
व्यास उवाच:-


अत्रि: पुलस्त्य: सुलह: ऋषयो गर्गपर्वतम समाजग्मुर्महाभागास्तपस्तप्तुं सुदुष्करम्।।20।।
तत्र चित्रशिलां दृष्टवाअरुरुहु: पर्वतोत्तमम् आरुह्यमाणा ऋषय: सूर्यरश्मिप्रपीड़िता:।।21।।
तृषिता चाभवन्विप्रा: परिम्लानमुखश्रिय:। तत्र ते तृषिता: सर्वे खनयामासु: भूधरम्।।22।।
खनित्वा भूधरं सर्वे स्मरन्तो मानसं सरम् स्मृतमात्रस्तु ऋषिभिमानसोमुनिसत्तमा:।।23।।
जलेन पूरयामास ह्दं तं भीमसंमितम् तत्र ते पूरितं दृष्ट्वा ह्दं तं तृषिसंज्ञकम। पीत्वाअप: सुचिरं स्थित्वा ययुर्विप्रा यथागतम्।।23।।
येंनिमज्जन्ति मनुजा: सरे वै तृषि- संज्ञिते। मानसस्नानजं पुण्यं प्राप्नुवन्ति न संशय:।।24।।
इति श्री स्कन्दपुराणे मानसखण्डे गर्गाद्रिमहात्म्यं एकचत्वारिशोअध्याय:।।

अर्थात -

व्यास जी ने कहा शेषगिरि के दक्षिण भाग में पवित्र 'गर्गाचल' है। वह लताओं, वृक्षों तथा विभिन्न धातुओं से संयुक्त है। कोयलों के मधुर स्वर से निनादित एवं चाँदी की खानों से संयुक्त यह पर्वत चाँदी के समान शुभ है। हे ब्राह्मणों ! उस पर्वत पर गौरी, पद्मा, शची, मेघा, सावित्रि, विजया, जया तथा तुष्टि आदि  मातृकायें विराजमान हैं। चित्रक, सत्यसेन, तपस्वी गार्ग्य एवं सत्यव्रती सिद्धगण भी वहाँ विद्यमान हैं। कान्ता, पवित्र कान्तिमती, वेणुभद्रा, सुवाहा, देवहा, भद्रा, भद्रवती, सुभद्रा, कालभद्रा, पुष्पभद्रा, श्रेष्ठनदी, मानसी, मानसा आदि बहुत सी नदियाँ वहाँ से निकल कर पूर्व, पश्चिम, दक्षिण तथा उत्तर की ओर बहती हुई विराजमान हैं। जिनमें स्नान करने से अनेक मुनि स्वर्ग को गए। इसी पर्वतमाला में 66 सरोवर (श्रेष्ठ ह्द) विख्यात हैं। इनमें स्नान करने से पाप विनष्ट हो जाते हैं। मानव चाहे बहुदक्षिणा-सम्पन्न अनेक यज्ञ, तीर्थस्थान, कथाश्रवण आदि भले ही न करे, किन्तु केवल लोकहितार्थ गर्ग ऋषि के तपस्थल गर्गाचल पर आरुढ़ हो जाए, तो उससे बढ़कर दूसरा पुण्य कार्य नहीं है। हे व्रती ऋषियों ! वहाँ रहकर कीड़ों-मकोड़ों और मच्छरों आदि ने भी मुक्ति पाई है। जो पर्वतश्रेष्ठ गर्गाचल उसके शिखर पर पवित्र गार्ग्येश शिव का पूजन होता है। मुनिश्रेष्ठो ! वहीँ गर्गाश्रम से गार्गी नदी प्रादुर्भूत होती है। गर्गाचल के वाम भाग में बहुत बड़ा ताल है। उसे तीन ऋषियों ने भरा था। अत: वह "तृषि" (त्रिऋषि) सरोवर  नाम से प्रसिद्ध है। (1-17)

(इस बीच) ऋषियों ने पूछा - ब्रह्मर्षे ! परम धार्मिक तीन ऋषि वे कौन थे ? इन्होंने इसे किस प्रकार भरा ? (18)

वेदव्यास ने उत्तर दिया -मुनिवरो! अत्रि, पुलह, और पुलस्त्य ये तीन ऋषि कठोर तप करने हेतु गर्गाचल पर आए। मार्ग में चित्र शिला को देख, वहाँ से उन्होंने चढ़ाई आरम्भ की। पहाड़ पर चढ़ते हुए धूप की तेजी से उन्हें प्यास लग गई। उन्होंने सरोवर का स्मरण कर पर्वत को खोदना आरम्भ किया। स्मरण करते ही मानसरोवर ने उस स्थान को जल से भर दिया। उस ताल को जल से भरा देख उन सब ऋषियों ने जल पिया। बहुत दिनों तक रहने के पश्चात वे ऋषि अपने निश्चित स्थान को चले गए। जो इस तृषि (त्रिऋषि) सरोवर में स्नान करते हैं, वे नि:सन्देह मानसरोवर में स्नान करने का फल प्राप्त करते हैं। (16-24)

 

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कसूरी मेथी की खुशबूदार फसल 

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कसूरी मेथी की खुशबूदार फसल HindiWaterWed, 10/16/2019 - 12:59
Source
भानु प्रकाश राणा

 कसूरी मेथी।कसूरी मेथी।

कसूरी सुगन्धित मेथी है। इसके पौधों की ऊँचाई तकरीबन 46 से 56 सेंटीमीटर तक होती है। इस की बढ़वार धीमी और पत्तियाँ छोटे आकार के गुच्छे में होती हैं। पत्तियों का रंग हल्का हरा होता है। फूल चमकदार नारंगी पीले रंग के आते हैं। फली का आकार 2-3 सेंटीमीटर और आकृति हंसिए जैसी होती है। बीज अपेक्षाकृत छोटे होते हैं।
 
भारत में कसूरी मेथी की खेती कुमारगंज, फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) और नागौर (राजस्थान) में अधिक क्षेत्र में की जाती है। आज नागौर दुनियाभर में सब से अधिक कसूरी मेथी उगाने वाला जिला बन गया है। अच्छी सुगन्धित मेथी नागौर जिले से ही आती है और यहीं पर यह करोबारी रूप में पैदा की जाती है और इसी वजह से यह मारवाड़ी मेथी के नाम से भी जानी जाती है।
 
कसूरी मेथी की अच्छी उपज के लिए हल्की मिट्टी में कम व भारी मिट्टी में अधिक जुताई कर के खेत को तैयार करना चाहिए।
 
1. उन्नत किस्में -कसूरी मेथी की प्रचलित किस्में पूसा कसूरी व नागौरी या मारवाड़ी मेथी है।
 
2. बोआई का समय - कसूरी मेथी की बोआई के लिए सही समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर है। अगर कसूरी मेथी को बीज के लिए उगाना है तो इसे सितम्बर से नवम्बर तक बोया जा सकता है।
 
3. बीज दर -छिटकवां विधि से कसूरी मेथी की बोज दर 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और कतार विधि से 30 से 35 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती है।
 
4. बीजोपचार -कसूरी मेथी की अच्छी उपज लेने के लिए बीजोपचार जरूरी है। एक दिन पहले पानी में भिगोने पर जमाव में बढ़ोत्तरी होती है। 50 से 100 पीपेम साइकोसिल घोल में भिगोने पर जमाव में बढ़ोत्तरी और अच्छी बढ़वार होती है। बोने से पहले राइजोबियम कल्वर से बीज को जरूर शोधित करें।
 
5. बोआई का अन्तराल व विधि -कसूरी मेथी बोने की 2 विधियाँ प्रचलित हैं:- 
 

  • छिड़काव विधि

इस में सुविधानुसार क्यारियाँ बनाई जाती हैं, फिर बीजों को एक समान रूप से छिटक कर मिट्टी से हल्का-हल्का ढक देते हैं।

  • कतार विधि

इस विधि में 20 से 25 सेंटीमीटर की दूरी पर कतरों में बोआई करते हैं। पौधे से पौधे की दूरी 20 से 25 सेंटीमीटर रखी जाती है, जबकि बीज की गहराई 2-3 सेंटीमीटर से ज्यादा नहीं होना चाहिए।

 
6. सिंचाई -कसूरी मेथी की बोआई के तुरन्त बाद सिंचाई करनी चाहिए इसके बाद 10 से 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए। फूल और बीज बनते समय मिट्टी में सही नमी होनी चाहिए।
 
7. खरपतवार नियंत्रण -कसूरी मेथी की खेती मुख्यतः पत्तियों की कटाई के लिए की जाती है। बोआई के 15 दिन बाद और पत्तियों की कटाई करने से पहले खरपतवारों को हाथ से निकाल देना चाहिए।

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मां के गर्भ तक पहुंचा वायु प्रदूषण, हो रहा मूक गर्भपात

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मां के गर्भ तक पहुंचा वायु प्रदूषण, हो रहा मूक गर्भपातHindiWaterWed, 10/16/2019 - 16:28

मां के गर्भ तक पहुंचा वायु प्रदूषण, हो रहा मूक गर्भपात। मां के गर्भ तक पहुंचा वायु प्रदूषण, हो रहा मूक गर्भपात।

गर्भावस्था के दौरान भ्रूण का स्वास्थ्य मां के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। गर्भवती के आसपास के परिवेश का भी बच्चे पर प्रभाव पड़ता है, इसलिए गर्भावस्था के दौरान महिला को सकारात्मक और स्वस्थ वातावरण में रहने की हिदायत दी जाती है तथा नियमित रूप से पोषाहार दिया जाता है, लेकिन इस पोषाहार का क्या फायदा जब हवा ही जहरीली हो और बच्चों की गर्भ में ही ‘मूक मृत्यु’ हो जाए। आज के समय में ऐसा ही हो रहा है। बढ़ते वायु प्रदूषण का ज़हर अब मां के गर्भ तक पहुंच गया है और मूक गर्भपात का कारण बन रहा है। जिसका गर्भवती को न तो अंदाजा होता है और न ही पता चलता है।

बीजिंग नाॅर्मल विश्वविद्यालय, कैपिटल मेडिकल विश्वविद्यालय, पेकिंग विश्वविद्यालय, टोंगजी विश्वविद्यालय तथा चीनी अकादमी ने वर्ष 2009 से 2017 तक बीजिंग में 2 लाख 55 हजार 668 महिलाओं के रिकाॅर्ड का विश्लेषण किया था। इस दौरान पीएम 2.5, एसओ 2, ओ 3 और सीओ प्रदूषकों की भूमिका की जांच की गई, जिसमें  पता चला कि करीब 6.8 प्रतिशत यानी करीब 17 हजार 497 महिलाओं ने एमएएफटी का अनुभव किया है। जर्नल नेचर सस्टेनेबिलिलिटी में प्रकाशित इस अध्ययन के अनुसार जब गर्भवती महिला कण प्रदूषक (पीएम 2.5), सल्फर डाइऑक्साइड (एसओ 2), ओजोन (ओ 3) और कार्बन मोनोऑक्साइड (सीओ) जैसे वायु प्रदूषकों के संपर्क में आती है तो पहली तिमाही (एमएएफटी) में गर्भपात हो जाता है। एमएएफटी तब होता है, जब बच्चा बढ़ना बंद हो जाता है या उसकी मृत्यु हो जाती है, लेकिन दर्द या रक्तरिसाव जैसे कोई लक्षण नहीं दिखते हैं। महिलाएं अक्सर इस बात से अनजान रहती हैं कि गर्भवस्था समाप्त हो चुकी है। 

दरअसल जब प्रदूषक प्लेसेंटा में प्रवेश करता है तो मातृ-भ्रूण के रक्त में अवरोध उत्पन्न होता है तथा भ्रूण का रक्त अवरुद्ध और भ्रूण के विकास को प्रभावित करता है। ये प्रदूषक तत्व भ्रूण के ऊतक तत्वों से बात भी कर सकते हैं, जिससे भ्रूण की कोशिकाएं विभाजित हो जाती हैं और कोशिकाओं को अपरिवर्तनीय नुकसान होता है। इससे हाइपोक्सिक नुकसान या इम्युनोमेडियेटेड ट्रिगर हो सकता हैं। विशेषकर विकासशील देशों में चिकित्सकीय मान्यता प्राप्त गर्भधारित करीब 15 प्रतिशत महिलाओं को एमएएफटी हो सकता है। इसलिए प्रदूषक तत्वों से महिलाओं को खुद बचना चाहिए। इसका सबसे ज्यादा असर किसानी के कार्य से जुड़ी महिलाओं और ब्लू काॅलर वर्कर में 39 से अधिक आयु की महिलाओं में प्रत्येक वायु प्रदूषक के संपर्क में आने से एमएएफटी का जोखिम बढ़ गया है।

 

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