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स्वच्छता और पर्यावरण 

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स्वच्छता और पर्यावरण HindiWaterThu, 11/07/2019 - 13:15

फोटो - The Better India

स्वच्छता और पर्यावरण का प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। स्वच्छता की स्थिति में पर्यावरणीय स्थिति भी स्वच्छ व स्वस्थ रहेगी। आम पर्यावरण की समस्या एक वैश्विक समस्या है, अस्वच्छता के कारण पर्यावरण पर जोखिम पैदा हुआ है। नगरीय एवं ग्राम्य समाज में स्वच्छता के प्रति कम जागरुकता से पर्यावरणीय विविध पहलू प्रभावित हुए हैं। जलावरण, वातावरण, मृदावरण, जिवावरण आदि पर विपरीत असर पहुँचा है। अनुप्रयोगों की बदौलत, विविध रासायनिक उद्योगों, यातायात, जंगलों की कटाई, प्लास्टिक का अतिरेकपूर्ण उपयोग, प्रदूषित जल, प्रदूषण अन्य उद्योगों आदि के कारण पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हुआ है। जिसका सीधा प्रभाव जन जीवन पर लक्षित है।
 
स्वच्छता व पर्यावरण सामाजिक आयाम है जो समाज को प्रभावित करते हैं, जिसका अभ्यासक्रम इस समाज शास्त्र का विषयवस्तु है।
 
पर्यावरणीय स्वच्छता और गंदे निवास स्थान

गंदे निवास स्थानों से स्वच्छता का प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। स्वच्छता के अभाव में अपने आप ही गन्दी बस्तियाँ पैदा होने लगेगी। गंदे निवास महानगरों की प्रमुख समस्या है। विशेषतः मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, जैसे महानगरों में भौतिक विकास के साथ ही साथ गंदे निवासों की समस्या भी तेजी से बढ़ने लगी है। नगरों में उद्योगों का दूषित जल और जहरीले वायु के द्वारा पर्यावरण को नुकसान हुआ है। झुग्गियाँ, गंदे मलबे, प्लास्टिक के कूड़े और नदी, व तालाबों का दूषित जल, यातायात का धुँआ प्राथमिक सुविधाओं का अभाव अस्वच्छता के प्रश्न पैदा करते हैं। गाँवों में खुले में शौचक्रिया, खुले ड्रेनेज, शुद्ध पेयजल, खुले मलबे, पाठशाला व घरों में शौचालय की असुविधाएँ पर्यावरण को हानी पहुँचाती है।
 
इस प्रकार ग्राम व नगर समुदायों में गंदे आवास व निम्न जीवनशैली से स्वच्छता पर विपरीत असर पैदा किया है।
 
पर्यावरणीय स्वच्छता और पेयजल

जल मानव जीवन के अस्तित्व का बुनियादी आधार है। बिना जल मानव जीवन असम्भव है। सजीव सृष्टि का मूलाधार जल ही है। पेयजल के लिए स्वच्छ जल ही महत्त्वपूर्ण है क्योंकि प्रदूषित जल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बन जाता है। अनेक रोगों का कारक बनता है।
 
पानी की स्वच्छता हेतु कई बातें महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे की समयांतर में जल की जाँच करना, आवश्यक दवाइयों का विनियोग करना आदि। यदि ऐसी सावधानी नहीं रखी जाती तो जल पीने लायक नहीं रहता। राष्ट्रीय व राज्य स्तर पीने के पानी के लिए बांध का निर्माण करना, उचित वितरण प्रबंधन होना, स्वच्छता की सावधानी रखना व उचित व्यवस्था हेतु प्रशासन का आयोजन करना अनिवार्य है।
 
स्वच्छता व पेयजल एक दूसरे से संबंधित हैं। उचित व्यवस्थापन से उचित जल प्राप्त हो सकता है।
 
जहाँ स्वच्छता वहाँ ईश्वर का निवास यह उक्ति वास्तव में सार्थक है। हमें बचपन से ही यह शिक्षा दी जाती है। मानवीय अस्तित्व की चर्चा में स्वच्छता का प्रश्न चिरस्थाई प्रश्न रहा है। सेहतमंद तन, स्वास्थ्य, मन, स्वस्थ देश का निर्माण करता है। देश व मानव विकास हेतु स्वच्छता की अनिवार्यता है। स्वच्छता विहीन मनुष्य पंगु के समान है।
 
स्वच्छता का सम्बन्ध वय-उम्र के साथ नहीं है। बच्चों से बूढ़ो तक इसका विशेष महत्व रहा है। मानव शरीर को रोगमुक्त रखने के लिए पर्यावरणीय शुद्धता के लिए स्वच्छता की अनिवार्यता है। व्यक्ति के शरीर, चीज-पदार्थ के उपभोग, तमाम सजीव-निर्जीव स्थितियों से स्वच्छता का ख्याल संलग्न है। स्वच्छता केवल हाथ-मुँह-पैर धोने तक सीमित नहीं है। देश की विकास रेखा में भी स्वच्छता का सविशेष योगदान रहा है। देश के विकास में कार्यरत विभूतियाँ, सेवाकर्मियों को प्रोत्साहित कर सकती है। किसी भी देश के विकास का प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से आधार स्वच्छता पर निर्भर है। गरीबी, बेरोजगारी, निम्न स्वास्थ्य, अल्प शिक्षा, निरक्षरता आदि में कहीं-न-कहीं अस्वच्छता जिम्मेदार है। भारत की वास्तविकता है कि निवास स्थानों के आस-पास गंदगी के ढेर बने रहते हैं। गरीबी का विषचक्र लोगों के जीवन को तहस-नहस कर देता है। डब्ल्यूएचओ का मंतव्य है कि किसी भी देश की विकास रेखा स्वच्छता के मानदण्ड पर आधारित है। लोगों का स्वयंमेव विकास सम्भव है।
 
भारत या विश्व के किसी भी देश के सन्दर्भ में स्वच्छता कि सावधानी हेतु देश की सरकार, व्यक्ति विशेष, संगठन, स्वैच्छिक संस्थान व कार्यालय आदि के द्वारा जिम्मेदारियाँ निभाई जाती हैं। वैश्विक स्तर पर स्वच्छता का प्रश्न चर्चा का विषय बना रहता है।
 
पर्यावरणीय कचराः सार्वजनिक स्थान व निजी स्थान
 
भारत देश कला, संस्कृति व स्थापत्यों का देश है। भारतीय प्रजा अपने इतिहास को लेकर विश्वभर में विख्यात है। भारतीय इतिहास के मद्देनजर सार्वजनिक स्थानों को विविध क्षेत्रों में विभाजित किया 
जा सकता है। सार्वजनिक स्थान वे हैं जहाँ लोग बेझिझक घूम-फिर सकते हैं। आनन्द उठा सकते हैं। शहरों में ग्राम्य की तुलनामे घन कचरे का निकाल मुश्किल है। गाँव में घन, द्रव्य कचरा कुछ समय में जमीन में घुल-मिल जाता है और जमीन को उर्वर बनाता है। कचरे की निकास व्यवस्था हमारे ले ‘प्रथम ग्रास मक्षिका’ के समान है।
 
सार्वजनिक स्थानों पर प्रदूषण की स्थिति विकट रहती है। भारत में सरकार, संस्थानों के द्वारा सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता हेतु प्रचार-प्रसार किए जाते हैं, फिर भी लोगों की लापरवाही उनको नजरअंदाज कर देती है। बाग-बगीचों का उपयोग लोगों के द्वारा ऐसे होने लगा है, जैसे उस स्थान पर दूसरी बार किसी को जाना न हो। बाग-बगीचों में खाद्य पदार्थ, चीज-वस्तुएँ कूड़े के रूप में फेंक जाते हैं।
 
भारत में देव स्थानों को भी बक्शा नहीं गया है। ऐसे सार्वजनिक स्थानों को भी गंदगी का रोग लग गया है। गरीबों को दूध-पानी नसीब नहीं और मंदिरों में व्यर्थ बहाया जाता है।
 
भारत में सार्वजनिक स्थानों पर स्वच्छता की आवश्यकता
 
वैश्विक स्तर पर स्वच्छता का विशेष महत्व है। वैयक्तिक स्वच्छता के साथ-ही-साथ सार्वजनिक स्वच्छता भी आवश्यक है। सार्वजनिक स्थानों के प्रति लोगों की लापरवाही एक प्रश्नार्थ है। सार्वजनिक स्थान लोगों के आवागमन के स्थान हैं, जहाँ एक ही स्थान पर कई लोग इकट्ठे होते रहते हैं। ऐसे स्थानों पर स्वयंमेव लोगों के आवागमन के स्थान हैं, जहाँ एक ही स्थान पर कई लोग इकट्ठे होते रहते हैं। ऐसे स्थानों पर स्वयंमेव स्वच्छता ही श्रेष्ठ रास्ता है।
 
परिवार में व्यक्ति स्वच्छता का ख्याल रखता भी है। तब भी सार्वजनिक स्थानों पर वह इन नियमों का परिपालन नहीं करता। भारत देश में पर्व-त्योहारों के अवसर पर लोग सार्वजनिक स्थानों पर इकट्ठे होते हैं। लोगों के द्वारा विविध चीजों का प्रयोग होता है जिनसे पैदा होने वाला कचरा जहाँ-तहाँ फेंक दिया जाता है और अस्वच्छता की स्थिति का निर्माण होता है। अस्वच्छता की स्थिति आरोग्य के लिए खतरा पैदा करने लगती है। मानवीय विकास हेतु सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता अनिवार्य है।
 
सार्वजनिक स्थानों पर अस्वच्छतालक्षी समस्याएँ
 
द्रव्य व सघन कचरे से अस्वच्छता पैदा होती है। सघन कचरा गंदगी का मूल कारण है। कागज, झूठी खुराक, प्लास्टिक बैग, आदि सघन कचरा गंदगी फैलाता है।
 
भारत में लोगों के द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर कचरा न फैले इस हेतु से थूंकदानी, कचरादान जैसी व्यवस्था की गई है, फिर भी अस्वच्छता पैदा होती है। इससे अनेक समस्याएँ पैदा होती हैं। पर्यावरणीय सुरक्षा हेतु भी अस्वच्छता निषेध आवश्यक है।
 
बढ़ती आबादी के कारण गंदे निवास का बढ़ना, मानवीय संघर्ष, नगरीयकरण, आधुनिकीकरण की समस्याएँ बढ़ी हैं। लोग सार्वजनिक स्थानों पर भी दिन बिताने लगे हैं। बाग-बगीचे, सार्वजनिक स्थान, मंदिर, अस्पताल, रेलवे-स्टेशन आदि पर गंदगी का साम्राज्य फैलता जा रहा है।
 
दूषित वातावरण

सार्वजनिक स्थानों के अस्वच्छ रहने पर वातावरण भी दूषित होने लगा है। दूषित वातावरण मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए खतरा बन गया है। रोगों का फैलाव होने लगा है।
 
मानवीय विकास का अवरोध

सार्वजनिक स्थानों पर कचरें के निकास के कारण आर्थिक, स्वास्थ्य जैसी अन्य समस्याएं उद्भावित होने लगती हैं। देश की संपरी को हानि पहुँचती है। सार्वजनिक अस्वच्छता मानव विकास के लिए खतरा है।
 
मानवीय जीवन की सामाजिक समस्याएँ

मानव जीवन हेतु पर्यावरण एक मूलाधार है। सार्वजनिक स्थानों पर कचरे के निकास के कारण हम सामाजिक आन्दोलन में निष्फल सिद्ध होते हैं। समाज के अस्वस्थ बनने पर समाज की सामाजिक अन्तक्र्रियाएँ सामाजिक सम्बन्धों पर गहरा असर फैलता है।
 
विभाजन

सार्वजनिक स्थानों पर जनसमूह के इकट्ठे होने पर लापरवाही के कूड़े-कचरे का फैलाव होने लगता है। फलस्वरूप धनि और गरीबों के बीच विभाजन भी पैदा होने की सम्भावना है। धनिकवर्ग निजी 
स्थानों की ओर कि जहाँ स्वच्छता है, उस दिशा में अपना चयन करेंगे। अतः प्रवासन की स्थिति में भी भेदभाव की स्थिति परवर्तित होने लगेगी।
 
सार्वजनिक स्थानों पर अस्वच्छता का असर
 
भारत में सार्वजनिक स्थान पर्याप्त मात्रा में हैं। मन्दिर, अस्पताल, दरगाह, बाग-बगीचे, स्नानगृह, आश्रम, भोजनालय, पाठशालाएँ आदि सार्वजनिक स्थानों की पहचान हैं।
 
भारत के लोगों का अधिकांश समय सार्वजनिक स्थानों पर बसर जाता है। बच्चे पाठशाला में जाते हैं, स्त्रियाँ वृद्धि आदि मंदिरों में, युवावर्ग थियेटर, क्लब, बाग-बगीचे में पहुँचते हैं। अतः सभी को स्वच्छता हेतु कार्यशील होना पड़ेगा।
 
अस्वच्छता हमेशा निषेधात्मक प्रभाव पैदा करती है। अस्वच्छता ऐसा प्रदूषण है, जिनसे स्वास्थ्य को भी खतरा पैदा हो सकता है। सघन कचरे का उचित निकाल सार्वजनिक स्थानों पर आने वाले लोगों के हित का कदम है। अस्वच्छता के कारण लोगों में शारीरिक-मानसिक बीमारी के फैलने का डर बना रहता है।

सामाजिक भेदभाव के फलस्वरूप सार्वजनिक स्थानों पर अस्वच्छता  का भी माहौल देखा गया है। देश के विकास में अस्वच्छता बाधारूप बन जाती है।
 

सार्वजनिक स्थानों पर स्वच्छता के प्रयास
 

भारत वैविध्य भर बिन सांप्रदायिक देश है। संस्कृति, परिधान, रीत-रिवाज आदि में पर्याप्त विविधता द्रष्टव्य है। सार्वजनिक स्थानों से तात्पर्य किसी गाँव के सीमान्त, नुक्कड़, पाठशाला, अस्पताल, पंचायत घर आदि सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता लोगों का स्वास्थ्य बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं। इस सन्दर्भ में कई सुझाव प्राप्त हुए हैं।
 
1. स्वच्छता की शिक्षा

भारतीय समाज व्यवस्था में लोगों को स्वच्छता की शिक्षा आवश्यक है। परिवार के द्वारा शैक्षिक संस्थानों के द्वारा स्वच्छता सम्बन्ध में लोगों को अवगत कराया जाना आवश्यक है।
 
2. स्वच्छता के उपकरणों का उपयोग

सार्वजनिक स्थानों पर स्वच्छता हेतु सरकार, स्थायीत्व संस्थान, समवायो के द्वारा स्वच्छता के उपकरण रखे गए हैं। कूड़ादानी, थूंकदानी, ड्रेनेज व्यवस्था, शौचालय आदि। लोगों को चाहिए कि उनका ही उचित उपयोग कर स्वच्छता निर्माण में सहभागी बनते रहे।
 
3. जागरुकता

अस्वच्छता की स्थिति से प्रतीत होता है कि लोगों में स्वच्छता सम्बन्ध में स्वयंमेव का अभाव है। स्वजागृति हेतु विविध कार्यशालाएँ, प्रवचन, प्रशिक्षण आदि का आयोजन किया जाता है।
 
भारत में निजी स्थानों की स्थिति

भारत में सार्वजनिक व निजी स्थानों की स्थिति परवर्तित है। दोनों स्थानों के बीच बहुत बड़ा अन्तर देखा गया है। किसी मालिक की निगरानी में उनकी सम्पत्ति के रूप में निजी स्थानों का समावेश होता है।
 
निजी स्थानों का अधिकार वैयक्तिक व सामूहिक भी रहता है। निजी स्थान निश्चित समुदाय, दर्म, वर्ण या वर्ग के लोगों के लिए ही आरक्षित रहते हैं। सम्बन्धित स्थानों के सन्दर्भ में तमाम निर्णय किसी व्यक्ति विशेष के रहते हैं। स्वच्छता सम्बन्ध में भी मालिक के द्वारा नियमों का गठन होता है। अपनी इच्छानुसार मालिक स्वच्छता सम्बन्ध में उपकरणों का उपयोग करता है। निजी स्थानों को लिए प्रतिष्ठा विशेष महत्त्वपूर्ण मानी गई है।
 
भारत में निजी स्थानों में संस्थान, पाठशाला, कॉलेज, क्लब, थियेटर आदि का समावेश होता है। सार्वजनिक स्थानों की तुलना में इसकी स्थिति अच्छी होती है। कई बार अस्वच्छता हेतु जुर्माना लगाने का भी नियम होता है। भारत में लोग स्वास्थ्य की परिस्थिति अच्छी है। पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में लोग स्वास्थ्य के प्रति जागरुक हुए हैं। निजी संस्थानों व स्थानों में स्वच्छता के भी आग्रही बने हैं।
 
निजी स्थानों पर स्वच्छता की आवश्यकता

सार्वजनिक व निजी स्थानों पर लोगों का आवागमन नित्य रहता है। ऐसे माहौल में स्वच्छता के कड़े नियमों की आवश्यकता है। स्वच्छता के उपकरणों का उपयोग गंदगी हटाता है। निजी स्थानों पर उनके मालिकों के द्वारा इसका अनुरोध किया जाता है।

  1. आरोग्य प्राप्ति हेतु
  2. संस्थान की प्रतिष्ठा
  3. बाजार में एक प्रभाव हेतु
  4. उत्पादकता की वृद्धि हेतु

भारत में निजी स्थानों पर स्वच्छता के प्रयास

भारत में निजी स्थानों की स्वच्छता के लिए विविध प्रयास द्रष्टव्य हैं। पाठशाला, कॉलेज, आदि शैक्षिक संस्थानों के सफाई कार्य हेतु सफाईकर्मियों की नियुक्ति की जाती है। बच्चों के स्वास्थ्य को हानि से बचाया जाता है। स्वच्छ वातावरण का निर्माण किया जाता है।
 
सफाई व्यवस्था खेल-कूद के मैदान में भी की जाती है। शौचालयों, वर्गखंडों, कक्षा, भोजनालय, कम्प्यूटर कक्ष आदि में विशेष ध्यान रखा जाता है। अनेक निजी कम्पनियों में भी स्वच्छता की संभावना द्रष्टव्य है। सफाईकर्मियों के साथ-साथ संस्थान के सभी कर्मचारियों को स्वच्छता की सूचना दी जाती है। स्वच्छता के उपकरणों के द्वारा सुबह दोपहर एवं शाम के समय सफाई की जाती है। कई निजी कम्पनियों व निजी स्थानों पर लोगों की स्वच्छता जागृति सम्बन्ध में विधेयात्मक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। लोगों को पुरस्कृत करने की योजना सोची जाती है। स्वच्छता भंग करने वाले पर कानूनी कार्यवाही करते हुए उस पर जुर्माना लागू किया जाता है।
 
प्रवर्तमान समय में स्वच्छता सम्बन्ध में ऐसा करने का एक कारण है-प्रतिस्पर्धा। समाज में प्रतिष्ठा हेतु मालिक गण ये प्रवृत्तियाँ करते रहते हैं।
 
भारत में सार्वजनिक स्थानों व निजी स्थानों की स्वच्छता

प्रत्येक क्षेत्रों में सार्वजनिकता व निजता के बीच तुलना का माहौल है। अच्छे स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए प्रत्येक देश की सरकार व स्वैच्छिक संस्थानों कई प्रयत्नशीलता काबिलेदाद है। अर्थोपार्जन करने वाले संस्थान भी इस सन्दर्भ में प्रयत्नशील रहते हैं।
 
सार्वजनिक स्थानों पर सरकार प्रयत्नशील है। स्वच्छता हेतु खर्च भी किया जाता है। नागरिकों के द्वारा वसूले गए कर से ही सरकार यह प्रावधान कर सकती है। किन्तु लोग अपने ही रुपए का मूल्य न समझकर स्वच्छता भंग करने लगते हैं। दोष सरकार के सिर पहनाया जाता है।
 
निजी स्थानों पर यह एक बड़ी जिम्मेदारी उठाई जाती है। मालिक स्वयं इस सन्दर्भ में निगरानी रखता है। संस्था से संलग्न व आगंतुकों पर यह अंकुश डाला जाता है कि स्वच्छता भंग हो न पाए। अतः निजी स्थानों पर स्वच्छता की स्थिति सार्वजनिक स्थानों की तुलना में बेहतरीन होती है।
 
सार्वजनिक स्थानों व निजी स्थानों पर कचरा निकाल पद्धति
 
स्वच्छता सम्बन्धित नियमों का परिपालन अनिवार्य होता है। हमने चीजों के उपयोग के बाद सघन कचरे का जहाँ-तहाँ निकाल कर दिया है। इसके निकाल हेतु उचित व्यवस्था भी आवश्यक है। नगर पालिका, ग्राम-पंचायत आदि के द्वारा इनका प्रबन्ध किया जाता है।
 
जिला, तहसील तथा ग्राम्य स्तर पर लोगों की स्वच्छता हेतु सघन कचरे के निकाल की व्यवस्था की गई है। निधि-अनुदानों के द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर इसका आयोजन किया जाता है। किन्तु भ्रष्टाचार व सामाजिक समस्याओं की बदौलत प्रशासन के द्वारा लापरवाही देखी गई है।
 
आज कचरे के निकाल हेतु स्थान-स्थान पर डिब्बों का प्रबन्ध किया गया है। किन्तु सच यह है कि अब तक लोगों को इसकी आदत डलवाई जाए, तबतक यह सब निष्फल है। निजी स्थानों पर नियमों का सख्त पालन करना पड़ता है। अतः निजी स्थानों पर पूर्ण सजगता के साथ यह कार्य किया जाता है।
 
स्वच्छता हेतु चीज-पदार्थों के उपयोग की पद्धति को विकसित करना, साधनों की वैयक्तिक रूप से प्राप्ति कराना, आदि कार्य अब भी शेष है। निजी स्थानों पर कचरा निकाल की विशेष जिम्मेदारी सौंपी गई होती है। सार्वजनिक स्थानों पर उचित जगह पर स्थान न रखने पर उसका उपयोग सम्भव नहीं बनता।
 
निजी स्थानों पर कचरा निकाल हेतु कचरादानी, ड्रेनेज प्रबंध, शौचालय आदि का उचित प्रबंधन है। समयांतर में उसको साफ किया जाता है। कचरा निकाल पद्धति में पानी का उपयोग, दूषित पानी का निकाल, सघन कचरे की सफाई, वायु प्रदूषकों का नाश आदि का समावेश होता है। निजी संस्थान इन सभी के प्रति सजग होते हैं। मानव जीवन के लिए स्वच्छता का मूल्य अधिक मूल्यवान है।
 
पर्यावरणीय स्वास्थ्य के अभाव से उत्पन्न समस्याएँ

मानव जीवन ‘स्वास्थ्य’ पर आधारित है। उसका अस्तित्व स्वच्छता पर निर्भर है। स्वास्थ्य के सुधरने के अभाव में मनुष्य व पशु के बीच का अन्तर समाप्त हो जाता है। स्वास्थ्य के सम्बन्ध में ही इंसान का सामाजिक स्तर निम्न हो जाता है। स्वास्थ्य का अभाव अनेक समस्याओं को पैदा करता है।
 

  • सामाजिक समस्याएँ

स्वास्थ्य की अपूर्णता व्यक्ति के सामाजिक जीवन को भी विचलित कर देती है। इंसान-इंसान के बीच के सम्बन्धों में तनाव पैदा होने लगता है। मनुष्य को एक सामाजिक प्राप्ति होने के नाते ऐसी स्थिति में जीवन जीना दूभर हो जाता है। स्वास्थ्य की अपूर्णता से बीमारी के फैलाव से तनाव-दबाव से जीवन बोझिल हो रहा है।
 
सामाजिक नियंत्रण का अभाव भी मनुष्य को स्वास्थ्य के अभाव का अहसास देता है। अनियंत्रित रहने वाले लोग रोग को निमंत्रण देते हैं। समाज के लिए अनुचित कार्य करने लगते हैं। विविध सामाजिक संस्थान जैसे की विवाह संस्थान, परिवार संस्थान, बिरादरी संस्थान आदि भी स्वास्थ्यपरक स्थिति से मुक्त नही हैं। प्रत्येक संस्थान व्यक्ति विशेष पर निर्भर है। व्यक्ति के बीमार होने पर, मानसिक समस्या पैदा होने पर उसके निषेधात्मक प्रभाव को देखा जाता है। संवेदना कम होना, तलाक प्राप्त करना, सम्बन्धों में तनाव पैदा होने जैसी निषेधात्मक क्रियाएँ देखी जाती हैं। स्वास्थ्य की अपूर्णता के कारण सामाजिक संरचना भी अस्त-व्यस्त हो उठती है। व्यक्ति विशेष के निम्न स्तर की ओर जाने के डर से लघुता, हताशा का अनुभव होने लगता है। जिसका प्रत्यक्ष असर सामाजिक जीवन पर फैलता जाता है। व्यक्ति अपने सामाजिक अस्तित्व के लिए संघर्षरत बन जाता है।
 

  • आर्थिक समस्याएँ

स्वास्थ्य की अपूर्णता के कारण व्यक्ति अपना रोज-ब-रोज का कार्य ठीक ढंग से नहीं कर पाता। अपने अर्थोपार्जन के कार्य पर विक्षेप पैदा होने लगता है। आमदनी प्राप्ति का वह प्रयास करता है किन्तु मानसिक विचलितता के कारण वह सफल नहीं हो पाता।
 
स्वास्थ्य की अपूर्णता गरीबी जैसी समस्याओं को पैदा करती है। प्रत्येक व्यक्ति स्वस्थ जीवन जीने के लिए लालचित होता है। किन्तु स्वास्थ्य जन्य समस्याएँ व्यक्ति को ऋण में डुबो देती हैं और जीवन से हताश कर देती है।
 
व्यक्ति ठीक ढंग से अपना विकास साध नहीं सकता। बीमार व रोगयुक्त व्यक्ति अपने शारीरिक व मानसिक अस्वच्छता को चिंता व हताशा में रत रहता है। विकास के अवसरों को प्राप्त नहीं कर पाता। चिन्ता के कारण सृजनात्मकता पैदा नहीं कर सकता। बीमारी के ही कारण सूद पर पैसा लेना उनकी मजबूरी बन जाती है।
 
अस्वच्छता के कारण वह सूद के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल सकता। अर्थाभाव के कारण वह अपराध के रस्ते अपनाने लगता है। देश के विकास में मानव संसाधन का बहुमूल्य योगदान है।
 
भारत देश में सबसे अधिक मानव संसाधन प्राप्त होता है। यदि इस मानवशक्ति का आर्थिक विकास हेतु सदुपयोग किया जाना आवश्यक है। लोगों के जीवन स्तर-ऊँचाई प्राप्त कर सकता है। आरोग्य की विप्रस्थिति देश के पिछड़ेपन का कारण बनती है।

  • धार्मिक समस्याएँ

कुरिवाज, गलत मान्यताएँ आदि के लिए स्वास्थ्यपरक स्थिति जिम्मेदार है। धार्मिक विधियों व रिवाजों के अनुसार स्वास्थ्य समस्या को हल करने का प्रयास किया जाता है। अन्धविश्वास, दोरे-धागे व जादू-टोने से आरोग्य की सुरक्षा सोची जाती है जो सरासर गलत है।

  • स्वास्थ्यजन्य समस्याएँ

स्वास्थ्य की अपूर्णता व्यक्ति विशेष को हताशा की गर्त में खो देती है। स्वास्थ्य का अभाव कई बीमारियों को न्योता देता है। आरोग्यपूर्ण स्थिति अर्थात रोगमुक्त रहने की प्रक्रिया। प्रक्रिया शब्द इसलिए प्रयुक्त है कि यह एक निरन्तर क्रिया है। व्यक्ति हवा, जल, खुराक आदि को ध्यान में रखते हुए जीवन व्यतित करता है। इसके प्रति की लापरवाही स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा करती है। कई बीमारी का भोग बनने वाले लोग वास्तव में मानसिक रूप से भी बीमार हो जाते हैं। अतः यह स्थिति अनेक रोगों का कारक बनती है।
 
पर्यावरणीय स्वास्थ्यपूर्ण समाज निर्माण के आवश्यक सोपान
 
सामूहिक प्रयासों से स्वास्थ्यपूर्ण समाज का निर्माण होता है। समाज के सभी वर्ग के लोगों के स्वास्थ्य हेतु सनिष्ट प्रयास किये जा सकते हैं। प्रत्येक परिवारों को एक निश्चित जीवनशैली अपनानी अनिवार्य है। स्वास्थ्यपूर्ण समाज निर्माण हेतु हवा, पानी, खुराक, वातावरण व स्वास्थ्यपरक नियमों की आवश्यकता है।

  • शुद्ध हवा

हवा मनुष्य जीवन का आवश्यक स्रोत है। मनुष्य के जीवित रहने का आधार हवा है। वर्तमान समय में हवा की शुद्धता की समस्या बनी रहती है। भाँव, रजकण, कचरे से हवा प्रदूषित होती है। मनुष्य की श्वसन क्रिया से इतने दूषित तत्व उनके शरीर में प्रवेश करते हैं। अतः फेफड़े, पेट, नाक आदि के सम्बन्धित रोग पैदा होते हैं।
 
वायु प्रदूषण का निषेध ही स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकता है। वाहनों का कम प्रयोग, औद्योगिक समवायो का धुँआ, आदि का नियंत्रण वायु प्रदूषण का रोक सकता है। शुद्ध हवा के द्वारा अरोग्यपूर्ण समाज सम्भव है।

  • शुद्ध व स्वच्छ जल

शुद्ध जल स्वस्थ समाज निर्माण का कारक है। अशुद्ध जल से अनेकानेक बीमारियों का फैलाव होता है। दूषित जल के लिए कड़े कदम उठाने आवश्यक है। लोगों को चर्म, आँख, आँतें, बाल आदि के रोग दूषित जल के कारण लागू हो जाते हैं। हमें चाहिए कि हम इस बात की जाँच करे कि प्रयुक्त किया जाने वाला जल शुद्ध है या नही? जल के प्रदूषित होने पर स्वास्थ्य के लिए जोखिम पैदा हो उठता है।

  • पौष्टिक आहार

कुपोषण भारत देश की सबसे बड़ी आरोग्य जन्य समस्या है। सभी नागरिकों के लिए पौष्टिक आहार की आवश्यकता होती है। ऐसे आहार के प्रयोग से तंदरुस्ती पैदा होगी और स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकेगा। अन्न का चयन और स्वच्छता भी स्वास्थ्यजन्य बातों को असर पहुँच सकता है।

  • स्वास्थ्यपरक नियम

उचित स्वस्थ हेतु समाज में स्वास्थ्यपरक नियमों का गठन आवश्यक है। सुबह जल्दी उठना, रात को जल्दी से सो जाना, नियमित व्यायाम, योग करना। शुद्ध जल, खुराक प्राप्त करना। नियमित तौर पर स्वास्थ्य की जाँच कराना, उपयोगी सिद्ध होता है।

  • स्वच्छ वातावरण

आरोग्यमयता के लिए शुद्ध पर्यावरण का होना अनिवार्य है। वातावरण की शुद्धता जिनसे खण्डित होती है ऐसे माध्यमों को जैसे कि हवा, पानी, गदंगी, कचरा, भाप आदि का उचित समाधान ढूँढना आवश्यक है। स्वच्छ वातावरण स्वच्छ-स्वास्थ्य समाज का निर्माण कर सकता है।

  • आरोग्य व स्वच्छता की शिक्षा

समाज की स्वच्छता हेतु उचित शिक्षा आवश्यक है। बच्चों, युवा व औरतों को स्वास्थ्य सम्बंध में प्रशिक्षित किया जाए, स्वच्छता की गरिमा समझाई जाए यही जरुरी है। स्वच्छता कब,कहा, कैसे महत्त्वपूर्ण है इस प्रकार की शिक्षा स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकती।

पर्यावर्णीय स्वच्छता का महत्व

इंसान की जिन्दगी के लिए साँसे जितनी महत्त्वपूर्ण है उतनी ही स्वच्छता भी महत्त्वपूर्ण है। कदाचित स्वच्छता बनाए रखना एक व्यक्ति का कार्य नहीं है किन्तु उसके लिए सभी का प्रयास आवश्यक है। गंदी बस्ती में एक दिन रहने पर स्वच्छता का महत्व स्पष्ट हो सकता है।
 
स्वच्छता केवल आन्तरिक नहीं बाह्य वातावरण को भी प्रभावित करती है। मनुष्य को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए स्वच्छता का होना जरूरी है। स्वच्छता का स्वास्थ्य से प्रत्यक्ष सम्बन्ध अनुभव करने के लिए अस्पताल की मुलाकात अनिवार्य हो जाती है। संक्रामक रोग के भोग बनने वाले अब सजग होने लगे हैं।
 
स्वच्छता के महत्व को स्वीकार करते हुए ही सामाजिक विकास की भी दिशा तय की जा सकती है। सामाजिक संम्बन्धों के अस्तित्व हेतु स्वास्थ्य आवश्यक है और स्वास्थ्य हेतु स्वच्छता। कमजोर स्वास्थ्य, सामाजिकता का कुप्रभाव पैदा करता है। गाँधी जी ने भी भारत की स्वच्छता से नाराज होकर देश को पश्चिमी समाज की स्वच्छता समझने का संदेश दिया था। लोग साथ जीना नहीं बल्कि अस्वच्छता के कारण साथ मरना जानते हैं। हम आज तकनीकों का उपयोग करते हैं, समय से ताल मिलाते है किन्तु स्वच्छता केन्द्री अभी भी नहीं बने है, स्वच्छता ही मानव का गौरव है।

हमारे समाज में स्वच्छता जागृति के जितने प्रयास होते हैं, उतने स्वच्छता प्राप्ति हेतु नहीं होते। सभी उम्र, वर्ग के लिए स्वच्छता आवश्यक है। सामाजिक अन्तर्क्रियाओं में सामाजिक व्यवस्थापन बनाए रखने में स्वच्छता अनिवार्य है। स्वच्छता का महत्व राजनैतिक क्षेत्र में, शैक्षिक क्षेत्र में व आर्थिक क्षेत्र में रहा है। स्वच्छता केवल जैविक बात न होकर पर्यावरणीय तालुक भी रखती है। स्वास्थ्यपूर्णता स्वच्छता के द्वारा ही सम्भव है।
 
व्यावसायिक स्थानों, संस्थानों, पाठशालाओं, सार्वजनिक स्थानों आदि पर स्वच्छता आवश्यक है। ऐसे स्थानों पर लोगों की तादाद अधिक होती है जिससे स्वास्थ्य के प्रश्न भी पैदा होते हैं। निजी संस्थानों में कुछ मात्रा में स्वच्छता देखी गई है। इस सन्दर्भ में निजी संस्थान के संयोजकों ने विशेष प्रावधान किए होते हैं। अतः समाज के स्थायित्व के लिए स्वच्छता सविशेष जरूरी है।
 
स्वास्थ्यपूर्ण अनेक प्रश्नों का समाधान ढूँढ सकती है, वैसे ही स्वच्छता कई नई दिशाओं को उद्घाटित कर सकती है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए शिक्षा प्राप्ति हेतु, समाज के सदस्य के रूप में स्वच्छता को स्वीकार करना अब अनिवार्य है।

सन्दर्भ सूची
 

  1. चाकले, ए.एम.  हेल्थ वर्कर के लिए पाठ्य पुस्तक (प्रथम खण्ड) एन.आर.ब्रदर्स, इन्दौर। चतुर्थ आवृत्ति (2002)
  2. ओमवेट गेल जयपुर। (2009), दलित और प्रजातान्त्रिक क्रान्ति, रावत पब्लिकेशन,
  3. परीख सूर्यकान्त,  शौचालय (परिचय पुस्तिका)
  4. सुलभ स्वच्छता आन्दोलन, सुलभ इन्टरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन।
  5. ओमवेट गेल, दलित और प्रजातान्त्रिक क्रान्ति, रावत पब्लिकेशन, जयपुर (2009)
  6. शर्मा, रामशरण, शुद्रो का प्राचीन इतिहास राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली। (1992)
  7. पटेल अर्जुन, गुजरात में दलित अस्मिता सेन्टर फॉर सोशियल स्टडीज, सूरत। (2005)
  8. मेकवान मार्टिन, विश्वभर में विस्तरित दलितों की आवाज परिवर्तन ट्रस्ट, बरोड़ा। (2002)
  9. सुलभ स्वच्छता आन्दोलन, सुलभ इन्टरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन, नई दिल्ली।
  10. डॉ. बिन्देश्वर पाठक,  स्वच्छता का समाजशास्त्र (पर्यावरणीय स्वच्छता, जन स्वास्थ्य और सामाजिक उपेक्षा, सुलभ) इन्टरनेशनल, सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन, नई दिल्ली। (2009)

Journal

  1. Sulabh India, Nomber, 2012, Issue: 11, Volume-24 Website
  2. www.sulabhinternational.org,
  3. www.sulabhtoilet museum.org,
  4. www.sociology of sanitaition.com,
  5. www.masafoundation.org,
  6. www.safai vidhyalaya.org,
  7. www.harijan sevak sangh.org,
  8. www.Govt of india.com
  9. www.govt of Gujarat.com,
  10. www.UNDP.org,

 

डॉ.अनिल वाघेला,
एसोसिएटेड प्रो. एंड हेड ऑफ सोसिओलोजी डिपार्टमेंट.
एम.के.भावनगर यूनिवर्सिटी,
शामलदास आर्ट्स कॉलेज भावनगर,गुजरात, इंडिया -364002

 

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नैनीताल में बसावट की प्रक्रिया शुरू

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नैनीताल में बसावट की प्रक्रिया शुरूHindiWaterThu, 11/07/2019 - 16:19
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नैनीताल एक धरोहर

नैनीताल से लौटने के करीब दो महीने बाद 26 फरवरी, 1842 को पीटर बैरन ने शाहजहाँपुर से कुमाऊँ के तत्कालीन वरिष्ठ सहायक कमिश्नर जे.एच.बैटन को प्रार्थना-पत्र भेजकर नैनीताल में घर और बगीचा बनाने के लिए लीज पर जमीन स्वीकृत करने का अनुरोध किया। बैरन नैनीताल में जमीन के लिए आवेदन करने वाले सम्भवतः पहले व्यक्ति थे। इसके जवाब में बैटन ने बैरन को पत्र भेजकर जानकारी दी कि उनके प्रार्थना-पत्र पर विचार करने से पहले कुमाऊँ के कमिश्नर मिस्टर जी.टी.लुशिंगटन खुद मौके पर जाएँगे। नैनीताल में जमीन देने के नियम तय करेंगे।

नार्थ वेस्टर्न प्रोविंसेस के सदर बोर्ड ऑफ रेवन्यू के सचिव एच.एम. इलियट ने कुमाऊँ के कमिश्नर को नैनीताल में लीज पर जमीन देने के नियम एवं शर्ते तय करने के आदेश दिए थे। इसी बीच कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर जी.टी.लुशिंगटन भी नैनीताल में खुद के लिए जमीन आवंटित करने का प्रार्थना-पत्र दे चुके थे। कमिश्नर लुशिंगटन और बैरन के अलावा बैरन के शाहजहाँपुर के पड़ोसी जी.बी.सॉन्डर्स, मिस्टर मैक्लेअल और डॉ.कोलकुहन नैनीताल में जमीन माँगने वाले शुरुआती आवेदकों में थे। 1842 में नार्थ वेस्टर्न प्रोविंसेस की सरकार ने नैनीताल के बंदोबस्त प्रावधान को स्वीकृति दे दी थी। 21 अक्टूबर, 1842 को सदर बोर्ड ऑफ रेवन्यू के सचिव एच.एम.इलियट ने नार्थ वेस्टर्न प्रोविंसेस के सचिव एन.सी.हैमिल्टन को एक पत्र लिखा। पत्र में कहा गया कि जिला अधिकारी की रिपोर्ट से ज्ञात हुआ है कि नैनीताल में तालाब के किनारों की जमीन खाली और बेकार पड़ी है। यह जमीन सरकार के प्रबन्धाधीन एवं स्वामित्व में है।

इस सम्बन्ध में सरकार जैसा उचित समझे, निर्णय ले सकती है। नैनीताल में दो आना प्रति कच्चा बीघा लीज रेंट तय किया गया है। कहा गया है कि लीज रेंट के रूप में प्राप्त धनराशि को जमा कर लिया जाए। यह धनराशि भविष्य में नैनीताल की बेहतरी में खर्च होगी। अगर बैरन को यह शर्त मंजूर हो तो उनके द्वारा मांगी गई जमीन चिन्हित कर उन्हें दे दी जाए। बोर्ड ऑफ रेवन्यू ने नैनीताल में जमीन आवंटित करने से पहले यहाँ का सर्वे करा लेने का भी सुझाव दिया।

नार्थ वेस्टर्न प्रोविंसेस के सचिव एच.बी. रिड्डेल ने बोर्ड ऑफ रेवन्यू के सचिव एच.एम.इलियट को 3 दिसम्बर, 1842 को पत्र लिखा कि गवर्नर जनरल नैनीताल में जमीन की लीज देने सम्बन्धी नियमों पर सहमत हैं। बोर्ड ऑफ रेवन्यू को आदेश दिया गया कि जमीन आवंटन सम्बन्धी प्रकरणों में यदि आवश्ययक हो तो विस्तृत आदेश पारित किए जाएँ। किसी को बहुत ज्यादा जमीन आवंटित नहीं की जाए। अच्छी जमीनें बाजार, मेले, सार्वजनिक भवनों, चर्च आदि के लिए अलग छोड़ दी जाए, इन बातों का खास ध्यान रखा जाए। फिर गवर्नर जनरल ने अगला आदेश दिया कि बोर्ड ऑफ रेवन्यू, लेफ्टिनेंट गवर्नर की अनुमति से नैनीताल के सर्वे के लिए किसी अधिकारी को नियुक्त करे। फिलहाल बैरन द्वारा माँगी गई जमीन का सर्वे करा लिया जाए।

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सूबे में 1951 के अभिलेखों में दर्ज तालाबों को करें बहाल: हाईकोर्ट

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सूबे में 1951 के अभिलेखों में दर्ज तालाबों को करें बहाल: हाईकोर्टHindiWaterThu, 11/07/2019 - 16:40
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अमर उजाला, 06 नवंबर 2019

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो - Hindustan Times

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रदेश  भर के तालाबों को अतिक्रमण से मुक्त कराकर बहाल करने को लेकर कड़ा आदेश दिया है। कोर्ट ने कहा है कि प्रदेश में 1951-52 के राजस्व अभिलेखों में दर्ज तालाबों से अतिक्रमण हटाकर उन पर दिए गए पट्टे समाप्त किए जाएं और तालाबों को पूर्व की स्थिति में बहाल किया जाए।

कोर्ट ने मुख्य सचिव को राजस्व परिषद के चेयरमैन के परमर्श से एक माॅनिटरिंग कमेटी गठित करने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने कहा कि मुख्य सचिव प्रदेश के हर जिलाधिकारी, अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) को आदेश दें कि वह तालाबों की एक सूची तैयार करें और उन पर हुए अतिक्रमण का भी खाका तैयार करें तथा तालाबों से अतिक्रमण हटाकर बहाली रिपोर्ट पेश करें। सपोर्ट इंडिया सोसाइटी आगरा की जनहित याचिका पर न्यायमूर्ति पीकेएस बघेल और न्यायमूर्ति पीयूष अग्रवाल की पीठ ने सभी जिलाधिकारियों को तालाबों से अतिक्रमण हटा कर पुनर्बहाली का आदेश दिया है। कार्रवाई रिपोर्ट मुख्य सचिव द्वारा गठित माॅनिटरिंगकमेटी को हर छह माह में देनी होगी। कोर्ट ने कमेटी को भी तीन या चार माह में अवश्य बैठक करने तथा तालाबों की बहाली की रिपोर्ट पर विचार करने का आदेश दिया है। माॅनिटरिंग कमेटी में हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रामसूरत राम मौर्या को भी आमंत्रित करने का निर्देश दिया है।

नाराजगीः अफसरों ने सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट के आदेशों के पालन में घोर लापरवाही बरती, करें कार्रवाई

कोर्ट ने कहा कि राज्य के अफसरों ने सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट के आदेशों के पालन में घोर लापरवाही बरती है। अब यदि लापरवाही बरती जाती है, तो उनके खिलाफ संबंधित नियमों के अनुसार कार्रवाई की जाए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 18 साल बीत जाने के बाद भी उनका पालन नहीं किया जा रहा है। कोर्ट ने जिलाधिकारी आगरा को तालाब को बहाल कर अपनी रिपोर्ट तीन माह के भीतर महानिबंधक के समक्ष पेश करने का आदेश दिया है। आगरा के राजपुर गांव के प्लाट संख्या 253 व 254 स्थित तालाब को लेकर यह जनहित याचिका दाखिल की गई थी। कोर्ट ने कहा है कि किसी तालाब पर पट्टे दिए गए हैं तो जिलाधिकारी कानूनी कार्रवाई करें और अवैध कब्जे हटा कर उसे पुनर्बहाल किया जाए।
 

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समुद्री खनन-एक नई खलबली

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समुद्री खनन-एक नई खलबलीHindiWaterFri, 11/08/2019 - 09:37
Source
राजस्थान पत्रिका, 3 सितम्बर, 2019

फोटो - EU MSP Platform

धरती के बाद अब समुद्र के भीतर छिपे खनिजों पर उद्योगों की नजर पड़ चुकी है। खनिज, जो बड़े उद्योगों के लिए कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल होते हैं, उनकी लगातार कमी होती जा रही है। इस कमी के अन्तर को पाटने के लिए समुद्र के दोहन की कोशिशे तेज हो गई है। यह सोच वैसे तो 1982 में बन चुकी थी कि समुद्र में अथाह सम्पदा है और इसका भी दोहन विकास के लिए होना चाहिए। इसके लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी’ बना दी गई। इसके उद्देश्य खनिज सम्पदा के दोहन के सन्दर्भ में देशों पर नियंत्रण रखना और उन्हें अनुमति प्रदान करना है।

 भारत भी पीछे नही है। यहाँ भी ‘डीप ओशन मिशन’ के तहत प्रोजेक्ट की पहल की है। इसमें पॉलीमेटेलिक खनिज जैसे-कोबाल्ट, मैगनीज, निकल का खनन होगा। करीब 6000 मीटर तलहटी में यह दोहन किया जाएगा। वैसे भारत को 1987 में ही खनन की अनुमति मिल गई थी।

इस संगठन ने दोहरे मापदंड अपनाए हुए हैं, जहाँ एक तरफ यह समुद्र संरक्षण की चिन्ता जताता है, वहीं दोहन की अनुमति भी इसका उद्देश्य है। इसकी अनुमति के मुताबिक फिलहाल करीब 5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में लगभग 11 हजार मीटर समुद्र के भीतर तक खनन हो सकेगा। वैसे समुद्र के 200 मीटर से नीचे सतह पर पाए जाने वाले खनिजों के दोहन के लिए आज लगभग सभी देश उत्सुक दिखाई पड़ते हैं। इसका कारण है नए उद्योग और उनकी जरूरतें। उदाहरण के तौर पर दुनिया में कम्प्यूटर व स्मार्ट फोन का व्यापार तेजी से पनप रहा है। इनके निर्माण में इस्तेमाल होने वाले खनिज समुद्र में बहुतायात में उपलब्ध है। खासतौर से कॉपर, निकल, एल्युमिनियम, जिंक, मैंगनीज आदि खनिज लगातार भू-खनन से समाप्ति की ओर हैं। इसीलिए अब विभिन्न देशों की दृष्टि समुद्र की ओर है। केवल स्मार्ट फोन और कम्प्यूटर तक ही इन खनिजों के उपयोग सीमित नहीं हैं, बल्कि मिल टरबाइन, सोलर पैनल व बैटरी आदि इन खनिजों पर निर्भर हैं। समुद्र खनन के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर 29 लाइसेंस जारी किए जा चुके हैं, जिसमें करीब 15 लाख वर्ग किमी के कॉन्ट्रेक्ट दिए जा चुके हैं।
 
समुद्र एक बड़ा पारिस्थिति तंत्र है और इसको एक नए उद्योग के रूप में देखे जाने तक बात खत्म नहीं होनी चाहिए, बल्कि इस पर गम्भीरता से विचार होना चाहिए, जितने क्षेत्र में खनन के लिए लाइसेंस दिए गए हैं, उनमें प्रशांत, अटलांटिक व हिन्द महासागर खनन के लिए पहले दर्जे के स्थान होंगे। यद्यपि यह साफ नही है कि खनन किस तरह होगा, इसका क्या स्वरूप होगा, लेकिन यह तय है कि ये समुद्र में एक नई खलबली मचा देंगे। खासतौर से जब पृथ्वी का पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में पड़ चुका हो और अब समुद्र की बारी हो तो ये अनुमान लगाया जा सकता है कि हालात क्या होंगे ? भारत भी पीछे नही है। यहाँ भी ‘डीप ओशन मिशन’ के तहत प्रोजेक्ट की पहल की है। इसमें पॉलीमेटेलिक खनिज जैसे-कोबाल्ट, मैगनीज, निकल का खनन होगा। करीब 6000 मीटर तलहटी में यह दोहन किया जाएगा। वैसे भारत को 1987 में ही खनन की अनुमति मिल गई थी।
 
ऐसा नहीं है कि समुद्र में होने वाले खनन के कारण पर्यावरण पर दुष्प्रभाव की आशंकाएँ ही ना हों। ब्रिटेन के एक बड़े अखबार गार्जियन ने इसका विरोध करने के लिए कमर कसी है। लेकिन सीबेड अथॉरिटी ने दावा किया है कि जो भी खनन होगा, वो उचित तकनीक से होगा। पर सच तो यह है कि अभी तक हमारे पास कोई भी ऐसा अध्ययन व रिपोर्ट नहीं है, जो यह बता सके कि समुद्र में खनन की शैली क्या होगी ? इसमें प्रयोग होने वाले जो तमाम उपकरण होंगे, वे किस स्तर के होंगे। ऐसा कोई भी आधारभूत अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है। यही नही, इनके पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन की कोई जानकारी भी हमारे पास नही है। खनन क्षेत्र में कुछ इलाके ऐसे भी हैं, जहाँ विशिष्ट जीव प्रजातियाँ हैं और उनके पास सूरज की किरणें भी नहीं पहुँचती। फिर कुछ धातु जैसे- कोबाल्ट, मैगनीज, निकल आदि के विषैले प्रभाव भी होते हैं। यदि हमने समुद्र की तलहटी में खनन के लिए छेड़छाड़ की तो इसकी आशंका है कि यही तत्व पानी में भी घुलकर जहरीली परिस्थितियाँ पैदा करेंगे। फिर वहाँ कि जीव प्रजातियों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। आज हम हर पारिस्थितिकी तंत्र को संकट में डाल रहे हैं, चाहे वह पृथ्वी का हो या समुद्र का। इस तरह के विकास, जिससे विनाश की आशंका रहती हो, इसके कई उदाहरण हमारे सामने आ चुके हैं। इसलिए ऐसी शुरुआत से पहले हमें एक गहरी समझ बनानी होगी। सबसे बड़ी बात इस कार्य से जनता को भी जोड़ना होगा और उसके माध्यम से एक आम सहमति बनानी चाहिए, क्योंकि ऐसे विकास में लाभ मुट्ठी भर लोगों का होता है, पर नुकसान सबको उठाना पड़ता है।

 

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जलती पराली सुलगते सवाल

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जलती पराली सुलगते सवालHindiWaterFri, 11/08/2019 - 10:12
Source
राजस्थान पत्रिका, 17 अक्टूबर, 2019

जलती पराली सुलगते सवाल।जलती पराली सुलगते सवाल। फोटो - punjab kesari

अन्नदाता किसानों पर हाल के कुछ वर्षों में पराली जलाकर पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने का आरोप लगने लगा है। कुछ हद तक यह सही भी है। पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार गत वर्ष 27 सितम्बर से 9 नवम्बर के बीच राज्य में पराली जलाने की कुल 39,973 घटनाएँ दर्ज की गई। इनमें से 22,313 घटनाएँ 1 से 9 नवम्बर के बीच सामने आई।

अप्रैल में गेहूँ की फसल काटने के बाद धान उगाने के बीच लगभग तीन माह का समय होता है। इस बीच गेहूँ के अवशेष को आसानी से पर्यावरण हितैषी तरीके से निस्तारित किया जा सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में कुछ किसानों ने न सिर्फ पराली को खेतों में दबाकर बनी खाद से अच्छी फसल ली बल्कि कुछ ने तो खाद को बेचकर नकदी भी अर्जित की।

इन्हें देखते हुए राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने पर्यावरण व किसानों के हित में इन राज्यों में पराली जलाने पर दिसम्बर, 2015 में रोक लगा दी थी। साथ ही सरकार को आदेश दिया था कि किसानों को मशीनों पर सब्सिडी दी जाए, उन्हें जागरुक किया जाए, ताकि वे पराली को लाने के बजाय उसका उचित निस्तारण कर सके। हालांकि इन आदेशों का पालन सरकार ठीक से नहीं कर रही है, जिससे पराली की समस्या जस की तस बनी हुई है। पराली (stubble) जलाने का सिलसिला पंजाब-हरियाणा से शुरू होकर आंध्र प्रदेश, असम, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल से होते हुए उत्तर प्रदेश तक पहुँच गया है। पंजाब-हरियाणा को इसलिए ज्यादा नोटिस किया जाता रहा है, क्योंकि इनकी दूरी देश की राजधानी के तकरीबन सौ किलोमीटर है। इसलिए पराली जलाने से प्रदूषण की जो बयार पंजाब और हरियाणा से चलती है वह दिल्ली की आबादी को सबसे पहले प्रदूषित करती है। एक शोध के अनुसार, एक टन पराली जलाने पर हवा में 3 किलो कार्बन कण, 60 किलो कार्बन मोनोऑक्साइड, 1500 किलो कार्बन डाईऑक्साइड, 200 किलो राख व 2 किलो सल्फर डाईऑक्साइड फैलते हैं। इससे लोगों की त्वचा व सांस सम्बन्धी तकलीफें बढ़ जाती हैं। पराली जलाने से मिट्टी में मौजूद मित्र कीट भी नष्ट हो जाते हैं। एक ग्राम मिट्टी में करीब 20 करोड़ लाभकारी जीवाणु होते हैं। उनमें से मात्र 15 लाख के लगभग रह जाते हैं। अगली फसल पर सिंचाई और खाद पर भी ज्यादा खर्च करना पड़ता है।

तो उपाय क्या हैं ? अब कुछ दशक पीछे जाते हैं, जब खेती में मशीनों का उपयोग कम, मजदूरों व पशुओं का ज्यादा था, लेकिन जैसे-जैसे हमने कृषि में विकास किया, पैदावार बढ़ी। वैसे-वैसे मशीनों का उपयोग बढ़ता गया। पराली जलाना (stubble burning) मशीनीकरण के बाद आने वाले परिणामों का एक नमूना है। पहले धान व गेहूँ की फसल हाथों से काटी जाती थी, जिसमें कृषि का कोई अवशेष खेत में नहीं बचा था। उसका भूसा आदि बना लिया जाता था। अब मशीन से फसल कटाई में धान व गेहूँ की पराली को छोड़कर अनाज को ले लिया जाता है। किसानों के पराली जलाने के मुख्य कारणों में कटाई के लिए मजदूरों का ज्यादा पैसे की मांग और अधिक समय लगना भी है। यहाँ समझने की जरूरत है कि पराली (stubble) बहुपयोगी स्रोत भी हो सकता है। अप्रैल में गेहूँ की फसल काटने के बाद धान उगाने के बीच लगभग तीन माह का समय होता है। इस बीच गेहूँ के अवशेष को आसानी से पर्यावरण हितैषी तरीके से निस्तारित किया जा सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में कुछ किसानों ने न सिर्फ पराली को खेतों में दबाकर बनी खाद से अच्छी फसल ली बल्कि कुछ ने तो खाद को बेचकर नकदी भी अर्जित की। अब सवाल यह है कि पराली निस्तारण को लेकर ऐसी आम जानकारियाँ भी लोगों तक पहुँची नहीं हैं, तो इसके पीछे क्या कारण है। डिजिटल इंडिया के इस दौर में भी बहुत से किसान पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन (climate change) और कम्पोस्ट खाद (compost manure)  जैसे नामों से अनजान हैं। सरकार ने जिन एजेंसियों को ऐसे मामलों में जागरूकता की जिम्मेदारी सौंपी है, वे गाँवों में जाते तक नहीं हैं। ऐसे में पराली अब एक विकराल समस्या बन कर खड़ी हो गई हैं।

हालाकि, कुछ सुझाव किसानों की तरफ से भी आए, जिनका कहना है कि पर्यावरण मित्र तरीके से पराली ठिकाने लगाने का मतलब है प्रति एकड़ अतिरिक्त खर्चा, जिसके लिए उन्होंने सरकार से पर्याप्त क्षतिपूर्ति की माँग की। खासतौर से पंजाब के किसानों ने। एक सुझाव यह भी आया कि धान की खरीद की तरह ही सरकार किसानों की पराली उठाने का प्रबंध भी करें। इसका इस्तेमाल नवीकरण योग्य ऊर्जा संयंत्रों में ईंधन के रूप में करने के अलावा गत्ता निर्माण के लिए भी किया जा सकता है। वैसे देखा जाए तो पराली की समस्या भी जैसे फसली होकर रह गई है। जब अक्टूबर-नवम्बर आता है अथवा चुनावों का माहौल होता है तो इसकी गूँज हर तरफ सुनाई देती है और जैसे ही यह समय पार हो जाता है, फिर से चुप्पी छा जाती है, जबकि पराली को बड़ी समस्या मानते हुए वर्ष भर जागरुकता अभियान चलाने और लोगों को पराली के उचित निस्तारण की जानकारी देने की जरूरत है। साथ ही सरकार, जनप्रतिनिधियों और पंचायत स्तर तक सभी को शामिल करते हुए एक ठोस नीति बनाने की आवश्यकता है। 

 

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बैरन का दूसरा नैनीताल दौरा

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बैरन का दूसरा नैनीताल दौरा HindiWaterFri, 11/08/2019 - 12:48
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नैनीताल एक धरोहर

दिसम्बर, 1842 में पीटर बैरन दूसरी बार नैनीताल आए। बैरन 9 दिसम्बर को बरेली से भीमताल को रवाना हुए। उनके तराई पहुँचने तक रात हो गई थी। उन्होंने हल्द्वानी से पालकी में बैठकर रात में तीन घंटे का सफर तय किया। उसी रोज देर रात भीमताल पहुँचे गए। बैरन के नैनीताल की पहली यात्रा के दोनों साथी जे.एच.बैटन और कैप्टन वेलर भीमताल के बंगले में पहले से ही उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। इस बार बैरन अपने साथ बीस फीट लम्बी नाव और दो हल्के पतवार भी लाए थे। इस नाव को 60 मजदूरों ने बमुश्किल भीमताल पहुँचाया था। बैरन की भीमताल की यह पहली यात्रा थी। पर वे भीमताल की सुन्दरता से बिल्कुल भी प्रभावित नहीं हुए।

भीमताल के आस-पास और भी झीलें थीं। लेकिन बैरन की दृष्टि में नैनीताल की झील के सौन्दर्य का की मुकाबला नहीं था। बैरन का मानना था कि नैनीताल का दृश्य इतना मनमोहक है कि जितना देखो उतना ही ज्यादा खूबसूरत नजर आता है। बैरन की राय में पहाड़ के लोगों का सभी झीलों के प्रति आदरपूर्ण बर्ताव था। यहाँ के लोग झीलों को धार्मिक दृष्टि से देखते थे। इन झीलों को मानसरोवर झील की तरह पवित्र मानते थे। 10 दिसम्बर, 1842 को बैरन और उनके साथियों ने भीमताल की झील में नौकायन किया। बिशप हेबर से मुलाकात की। फिर बोट को मजदूरों के कंधों पर लादकर नैनीताल को रवाना कर दिया। बोट के क्षतिग्रस्त हो जाने की स्थिति में उसकी मरम्मत करने के लिए बैरन एक कारपेंटर और डामर भी अपने साथ लाए थे। स बार बैरन के साथ नौकर-चाकरों की लम्बी-चौड़ी फौज भी थी। 11 दिसम्बर को बैरन और उनके साथी सूर्यास्त के समय नैनीताल पहुँचे। बैरन के शब्दों में- जैसे ही मैं नैनीताल पहुँचा। आधा सूरज डूब चुका था। तालाब की सतह में आग की परत जैसी बिछी दिखाई दे रही थी। आयारपाटा की पहाड़ी काली और मार्बल की तरह चिकनी लग रही थी। इस बार मैं नैनीताल की विशालता और खूबसूरती से पिछली यात्रा के मुकाबले कहीं ज्यादा अचंभित था। पिछली बार मैं हिमालय के बर्फीले इलाकों की यात्रा के बाद नैनीताल आया था। इस बार मैदानी क्षेत्र से आया हूँ। इसलिए भी मुझे नैनीताल का सौन्दर्य अद्भुत नजर आ रहा है। बैरन के 1842 के दूसरे दौरे तक नैनीताल को सरकारी दस्तावेजों में अधिसूचित कर लिया गया था। आधे दर्जन से ज्यादा लोगों ने यहाँ मकान बनाने के लिए जमीन आवंटन हेतु आवेदन कर दिया था। इनमें कुछ को इजाजत मिल भी गई थी। कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर जी.टी.लुशिंगटन ने यहाँ एक छोटा सा घर बनाना शुरू कर दिया था। उन्होंने कुछ आउट हाउस भी बना लिए थे। उन्हीं में से एक आउट हाउस पीटर बैरन और उनके साथियों ने रहने के लिए लिया। कमिश्नर लुशिंगटन ने मल्लीताल बाजार के लिए स्थान तय कर बाजार की परिकल्पना भी तैयार कर ली थी और सार्वजनिक भवनों के लिए स्थानों का चयन हो गया था।

बाजार के लिए नियत स्थान में दुकानों के लिए लीज में जमीन लेने को बड़ी संख्या में लोग आने लगे थे। पहाड़ के लोग बहुत खुश थे। उन्हें उम्मीद थी कि भविष्य में नैनीताल एक फलता-फूलता नगर बनेगा। बैरन की नाव बहुत मुश्किल से दो दिन में भीमताल से नैनीताल पहुँच पाई। अनेक कठिनाई के बाद अंततः 12 दिसम्बर, 1842 को पीटर बैरन अपनी नाव को नैनीताल की झील तक पहुँचाने में सफल रहे। नाव झील में डाली गई। सबसे पहले बैरन और उनके साथियों ने नाव में बैठकर तेज रफ्तार के साथ पूरी झील की परिक्रिया की, जो कि करीब साढ़े तीन मील की थी। नैनीताल के तालाब के सीने पर तैरने वाली यह पहली नाव थी। झील में नाव के दौड़ने का यह नजारा देख पहाड़ के लोग अचम्भित थे। सभी लोग बच्चों की तरह खुश हो रहे थे। नौकायन के बाद बैरन और उनके साथी जब तालाब के किनारे जमीन पर आए तो वहाँ मौजूद लोगों ने उन्हें विष्णु भगवान के अवतार से जोड़कर देखा। बधाइयाँ दी। लोगों ने नाव को कमल का फूल बताया और बैरन को विष्णु की संज्ञा दी। बैरन और उनके साथियों ने झील में दूसरी बार नौकायन किया। उन्होंने इस बार भीड़ में मौजूद थोकदार नरसिंह बोरा को भी अपनी बोट में बैठा लिया। बैरन के साथ मौजूद जे.एच.बैटन नरसिंह को पहले जानते थे। क्योंकि थोकदार नरसिंह ने नैनीताल और इसके आस-पास की पहाड़ियों पर अपने स्वामित्व का दावा कुमाऊँ के तत्कालीन वरिष्ठ सहायक कमिश्नर जे.एच.बैटन की अदालत में ही किया था। जे.एच.बैटन की अदालत थोकदार नरसिंह का दावा खारिज कर चुकी थी। फिलहाल यह मामला प्रोविंसेस के गवर्नर या बोर्ड ऑफ रेवन्यू के समक्ष विचाराधीन था। बैरन की नाव जब तालाब के काफी भीतर चली गई, बैरन ने थोकदार नरसिंह से कहा कि वे अपना दावा वापस लेकर इस झील पर ईस्ट इंडिया कंपनी का स्वामित्व स्वीकार लें। बैरन ने थोकदार नरसिंह से कहा कि या तो वे अपना दावा वापस लें अन्यथा उन्हें उनकी कथित जायदाद के साथ यहीं छोड़ देंगे। बैरन ने कहा कि अगर वे नाव को डगमगाएँगे तो नरसिंह तालाब में डूब सकते हैं। ऐसी स्थिति में वे लोग खुद को बचा लेंगे। इस पर थोकदार नरसिंह अपना दावा वापस लेने पर राजी हो गए। चूंकि बैरन एक घुमक्कड़ी स्वभाव के इंसान थे, पेन्सिल और डायरी हमेशा उनके जेब में रहती थी।

बैरन ने अपनी जेब से डायरी और पेन्सिल निकाली और उस डायरी में थोकदार नरसिंह से तालाब पर उनका कोई दावा नहीं है लिखवा लिया। इस दौरान नाव में बैरन और उनके साथी गम्भीर बने रहे। उनके व्यवहार से नरसिंह को भी इस बात का पूरा यकीन हो गया कि इस मामले में बैरन और उनके साथी वास्तव में बेहद गम्भीर हैं। जब नाव तालाब के किनारे आई। सब लोग जमीन पर आ गए। बैरन ने वहाँ मौजूद सभी लोगों को यह डायरी दिखाई। फिर थोकदार नरसिंह को बताया गया कि यह उनके साथ किया गया महज एक मजाक था। यह जानकर वहाँ उपस्थित सभी लोग खिलखिलाकर हँसे और लोगों ने नरसिंह की खूब मजाक उड़ाई। बैरन के अनुसार पहाड़ में आमतौर पर किसी की ऐसी मजाक नहीं उड़ाई जाती है। बैरन एक मजाकिया स्वभाव के इंसान थे। बैरन ने खुद भी इस वाकये को सिर्फ एक मजाक बताया है. बैरन ने लिखा है कि पहाड़ के लोग भले ही गरीब क्यों न हो, पर वे समझदार थे। पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे। फिर भी वहाँ मौजूद लोगों ने थोकदार नरसिंह से मजाक में लिखाए गए उस कागज के मजमून को बिना किसी अड़चन के समझ लिया था। बाद में थोकदार नरसिंह का स्वामित्व दावा अंतिम तौर पर खारिज हो गया। थोकदार नरसिंह ने उनसे पाँच रुपए प्रतिमाह के वेतन पर नैनीताल के बंदोबस्त का पटवारी नियुक्त करने का अनुरोध किया। पर नरसिंह पटवारी नियुक्त हो पाए होंगे, स पर संदेह है। संदेह के दो कारण हैं। पहला यह कि पीटर बैरन ईस्ट इंडिया कंपनी के मुलाजिम नहीं थे, वे एक सामान्य यूरोपियन नागरिक थे। लिहाजा बैरन को किसी भी व्यक्ति को सरकार पद पर नियुक्त करने का कोई अधिकार नहीं था। दूसरा 10 मार्च, 1847 के एक अदालती फैसले में नरसिंह को मौजा-चौसला, भाबर का प्रधान बताया गया है। नरसिंह के खिलाफ यह मुकदमा कालाढूंगी के प्रधान रामसिंह ने किया था। उस दौर में थोकदारों को अपने कब्जे-काश्त की जमीन का कर और नजराने से छूट के अलावा कोई विशेष अधिकार हासिल नहीं थे।

अंग्रेजों के कुमाऊँ में आने से पहले यहाँ किसी को भी भौमिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। ट्रेल के 1822 के भूमि बंदोबस्त में पहली बार जमीनों की नाप-जोख और गाँवों की सीमाएँ तय हुईं थीं। इस बंदोबस्त में कब्जे-काश्त की आबाद जमीन को नाप जमीन माना गया था। वन, बंजर और गैर आबाद सम्पूर्ण भमि की मालिक सरकार थी। बैरन और थोकदार नरसिंह के बीच हुए इस प्रहसन से पहले सरकार नैनीताल की समस्त भूमि को सरकारी भूमि के रूप में अधिसूचित कर चुकी थी। नैनीताल में जमीन आवंटन की प्रक्रिया शुरु हो गई थी। आधा दर्जन लोग नैनीताल में जमीन पाने के लिए आवेदन कर चुके थे, इनमें से कुछ लोगों को जमीन आवंटित भी हो चुकी थी। पीटर बैरन ने खुद के लिए तीन स्थानों पर जमीन चिन्हित की थी। बैरन नैनीताल में जमीन पाने के लिए खुद सरकार से जद्दोजहद कर रहे थे। इस यात्रा के दौरान पीटर बैरन और उनके साथियों ने तीन दिन झील के इर्द-गिर्द बिताए। यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता का जमकर लुफ्त उठाया। उन दिनों नैनीताल में बर्फ की सफेद चादर बिछी हुई थी। मार्च महीने के आखिर या अप्रैल के पहले हफ्ते तक बर्फ के पिघलने की उम्मीद थी। नैनीताल की झील के ऊपर स्थित एक छोटी झील (सूखाताल) पूरी तरह बर्फ से जमी हुई थी। बैरन और उनके साथी इस जमी हुई झील में स्लाइडिंग करना चाहते थे। पर उनके पास स्कैट्स नहीं थे। उन्हें बर्फ में चलने पर भी ठंड का अहसास नहीं हो रहा था। नैनीताल की झील के पूरी तरह ऊँची पहाड़ियों से घिरा होने की वजह से इसी ऊँचाई में मौजूद दूसरी झीलों के मुकाबले यहाँ की जलवायु कहीं ज्यादा स्थित समझी जाती थी। उन दिनों नैनीताल का दिन का तापमान 12.2 डिग्री सेंटीग्रेट और रात का तापमान 7.7 डिग्री सेंटीग्रेट था। 1842 के जून के महीने में यहाँ आए एक यात्री ने नैनीताल का तापमान 13.8 डिग्री सेंटीग्रेट नापा था।

विशालता और खूबसूरती के लिहाज से तब नैनीताल में मौजूद पेड़ों का कोई मुकाबला नहीं था। इन सब खूबियों के चलते पीटर बैरन की राय थी कि नैनीताल की जलवायु इंग्लैंड से बेहतर नहीं तो उसके मुकाबले की अवश्य थी। 1842 में नैनीताल की झील में नौकायन करते समय बैरन और उनके साथियों का काला भालू दिखा। 14 दिसम्बर को कैप्टल वैरल और शेर की आमने-सामने की मुठभेड़ हुई। 14 दिसम्बर को कैप्टन वेलर अल्मोड़ा और बैरन एवं बैटन खुर्पाताल होते हुए निहाल नदी के रास्ते मैदान की ओर रवाना हो गए। बैरन 50 लोगों को नाव का स्टैण्ड बनाने की जिम्मेदारी के साथ अपनी नाव नैनीताल में ही छोड़ गए।

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कैंसर की खेती

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कैंसर की खेतीHindiWaterFri, 11/08/2019 - 12:59
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डाउन टू अर्थ, नवम्बर 2019

फोटो - The Better Indiaओडिशा के बरगढ़ में मौत बताकर आती है। यह हर दूसरे दिन, किसी-न-किसी को चपेट में लेकर आगमन की सूचना दे देती है। पश्चिमी ओडिशा के इस जिले में स्थित भोईपाली गाँव में रहने वाले 55 वर्षीय जापा प्रधान के परिवार में वृद्धावस्था से ज्यादा मौतें कैंसर के कारम हुई हैं। महज कुछ दशकों के भीतर जापा ने अपने पिता, दो चाचा और एक चाची को ब्लड कैंसर की वजह से खो दिया। अब कैंसर ने उनकी पीढ़ी पर भी हमला बोल दिया है। उनके चचेरे भाई जुलाई 2015 से लीवर कैंसर से जूझ रहे हैं। जापा कहते हैं, ‘मुझे अंदाजा नहीं है कि मेरे परिवार पर आखिर कैंसर के कहर की वजह क्या है।’
 
भोईपाली में केवल यही परिवार कैंसर से तबाह नहीं है। 2012 में त्वचा के कैंसर की वजह से अपनी बेटी को खोने के बाद सेवानिवृत्त शिक्षक कृष्ण चन्द्र बारीक सम्भाले नहीं सम्भल रहे थे। उस समय उनकी बेटी उम्र के महज 20 साल की थी। उनकी पड़ोसी 45 वर्षीय रुक्मिणी प्रधान, खुद को स्तन कैंसर का चमत्कारिक सर्वाइवर मानती हैं। 2011 में मौत ने आशा वर्कर बसंती भुझ के दरवाजे पर भी दस्तक दी, उन्होंने मस्तिष्क कैंसर के शिकार हुए अपने भाई को खो दिया था। अभी एक शोक से वह उबर भी न पाई थीं कि लीवर कैंसर ने उनकी माँ की जान ले ली। भुई बताती हैं, ‘इस 200 परिवारों वाले गाँव में कम से कम 15 परिवार इस समय कैंसर से जूझ रहे हैं।’ भोईपाली बरगढ़ जिले में कैंसर से सबसे ज्यादा प्रभावित दो प्रखंडों में एक, भेडने में स्थित है। इस जिले में कैंसर से दूसरा सर्वाधिक प्रभावित प्रखंड अट्टाबीरा है।
 
जब डाउन टू अर्थ भोईपाली पहुँचा तो रिपोर्टर के चारों ओर आस-पास के गाँवों तक के लोगों की भीड़ लग गई। यहाँ तक कि बगल के गाँव से भी लोग जमा हो गए। सब अपनी-अपनी मुसीबतें सुना रहे थे। यह बिल्कुल साफ था कि कैंसर का खौफ पूरे बरगढ़ जिले पर कायम है। इस ग्रामीण जिले के 6 गाँवों की महज 72 घंटे की यात्रा के दौरान रिपोर्टर को कैंसर की वजह से कम से कम 15 मौतों के बारे में पता चला। कई इस जानलेवा बीमारी से जूझ रहे हैं। 14 लाख की आबादी और 1,249 गाँवों वाले इस जिले को कैंसर ने अपनी चपेट में ले लिया है. नजदीक के सम्बलपुर जिले में स्थित वीर सुरेन्द्र साई चिकित्सा विज्ञान और अनुसंधान संस्थान (विमसार) के फार्माकोलॉजी विभाग में कार्यरत अशोक पाणिग्रही के अनुसार, यहाँ सबसे ज्यादा हो रहे सर्वाइकल कैंसर से लेकर स्तन कैंसर, सर और गले के कैंसर, पेट, फेफड़ों, रक्त, कोलोरेक्टल, और अंडाशय के कैंसर के मरीज हैं।
 
बरगढ़ में 1990 के दशक से डॉक्टरी कर रहे राम के पुरोहित ने बताया, ‘मैं पूरी जिम्मेदारी से ये बात कह सकता हूँ कि कैंसर हमारे जीवन चक्र में प्रवेश कर चुका है और यहाँ का हर दूसरा परिवार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इससे प्रभावित है।’ बरगढ़ के राजेश त्रिपाठी भी पुरोहित के दावे का समर्थन करते हैं। उन्होंने 2005 में 50 बिस्तरों वाला साई कृपा नर्सिंग होम खोला था, जहाँ आज हर महीने 10-15 कैंसर के मामले आ रहे हैं। उनके अनुसार, अस्पताल में हर महीने की जाने वाली कुल सर्जरी में से कम-से-कम पाँच कैंसर के लिए होती है। ओडिशा में कैंसर किस कदर अपनी जड़े जमा रहा है, इस बात को समझने के लिए पाणिग्रही ने राज्य के 23 जिलों के ऊपर एक अध्ययन किया। इस अध्ययन में उन्होंने पाया कि कैंसर के कुल सूचित मामलों में से 26.3 प्रतिशत के साथ बरगढ़ सबसे बुरी तरह प्रभावित जिला है। उनके आंकड़े बताते हैं कि पश्चिमी ओडिशा में कैंसर के मरीजों कि संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। 2014-15 में कुल 1,017 मामले दर्ज हुए थे। 2015-16 के दौरान यह संख्या बढ़कर 1,066 और 2016-17 के दौरान 1,098 हो गई। उनका शोध पत्र आईओएसआर जर्नल ऑफ डेंटल एंड मेडिकल साइंसेज के अक्टूबर 2018 के अंक में छपा था।
 
हरे-भरे धान के खेतों के बीच से जमुर्दा गाँव को जाती हुई संकरी गलियों को पार करते हुए हवा में कीटनाशकों की भारी गंध अपनी मौजूदगी का एहसास कराती है। यहाँ सुधांशु बारिक की माँ नम आँखे लिए बैठी हैं। वह कहती हैं, ‘जब भी मेरा 11 साल का बेटा मुझसे पूछता है कि वह स्कूल क्यों नहीं जा सकता, मेरी जुबान लड़खड़ा जाती है। मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि उसे बता सकूं कि उसे ब्लड कैंसर हैं।’ सिर्फ छह महीने में ही उनके बेटे का वजन काफी घट गया है और वह इतना कमजोर और हतोत्साहित हो चुका है कि स्कूल का तनाव नहीं ले सकता। सुधांशु के पिता महेश एक खेतिहर मजदूर हैं। कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर बसे कुलपटी गाँव के गणेश का भी यही हाल है। कैंसर की यह दुर्भाग्यपूर्ण कड़ी सुधांशु को गणेश की 40 वर्षीय बहन, हरा प्रधान से जोड़ती है। बेहद कमजोर हालत में वह एक अंधेरे कमरे में बिछी चारपाई पर अचेत-सी पड़ी हैं। पिछले दो वर्षों से लगभग लगातार ही उनकी योनि से रक्तस्राव हो रहा है। उनके भाई गणेश ने बताया कि उनकी साड़ी अक्सर ही खून से सन जाती है।
 
विधवा हरा एक मानसिक रोग से ग्रस्त है। वह मुश्किल से अपना काम कर पाती हैं। उनके भाई हताशा में कहते हैं, ‘उन्हें गर्भाशय का कैंसर है। पिछली बार जब हम उसे अस्पताल ले गए, तब वह रक्ताधान (ब्लड ट्रांसफ्यूजन) कराने में असमर्थ थीं। अब हमारे पास अस्पताल जाने के लिए पैसे नहीं हैं।’ वह हरा को पीड़ा में छटपटाते देख रो पड़ते हैं और कहते हैं कि इतनी तकलीफ सहने से तो बेहतर होता कि वह मर जाती। न गणेश और न ही महेश इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि कौन-सी चीज उनके परिवारों में तबाही लेकर आई है। अत्ताबिरा क्षेत्र के विधायक, स्नेहंगिनी छुरिया कहती हैं कि इसकी कड़ी धान की खेती से जुड़ती है। सम्बलपुर के हीराकुंड बाँध से बरगढ़ को प्रचुर मात्रा में जल प्राप्त होता है। यहाँ के सारे किसान धान उगाते हैं, जिसके लिए पानी की अत्यधिक आवश्यकता होती है। बरगढ़ को इतना पानी मिलता है कि यहां के किसान आमतौर पर साल में दो बार धान उगाते हैं। 2018 की खरीफ ऋतु में कुल 3.4 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से 2.4 लाख हेक्टेयर पर धान उगाया गया था। निसंदेह, बरगढ़ को ओडिशा का धान का कटोरी भी कहा जाता है।
 
छुरिया बताती हैं कि करीब 15 साल पहले पानी की कमी झेल रहे पड़ोसी राज्य, आंध्रप्रदेश से किसान बरगढ़ पलायन कर गए। उन्होंने आदतन कीटनाशकों का छिड़काव किया। उनकी देखा देखी यहाँ के मूल किसानों ने भी यही पद्धति अपनाई। वह जोर देते हुए कहती हैं कि आज यही सारी समस्या का मूल कारण है। यहाँ के किसानों पाइरेथ्रोइड, ऑर्गोफास्फेट, थायोकार्बामेट और नेओनिकोटेनाइड जैसे कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन इन्हें खतरनाक कीटनाशकों के द्वितीय वर्ग की श्रेणी में रखता है। प्रथम वर्ग के कीटनाशकों को सबसे खतरनाक माना गया है। सम्बलपुर विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर, बीआर महानंदा अपने 2016 के शोधपत्र के माध्यम से कहते हैं कि द्वितीय वर्ग के कीटनाशक भी पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर गम्भीर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
 
विमसार के पाणिग्रही कहते हैं कि वैज्ञानिक दस्तावेज बरगढ़ में फैल रहे कैंसर की वजह कीटनाशकों को बताते हैं। यहां पर कैंसर प्रभावित मरीजों की औसत उम्र 50 साल है। उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया, ‘यहां सरकार ने भूजल के दूषित होने को लेकर किसी तरह का कोई परीक्षण नहीं किया गया है। लेकिन, यह साफ है कि बरगढ़ में कैंसर के मामलों की अत्यधिक संख्या का कारण कीटनाशक ही हैं।’ किसान लम्बे समय तक लगातार कीटनाशकों के सम्पर्क में रहते हैं। इसके सुरक्षित इस्तेमाल के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है और न ही कोई प्रशिक्षण ही दिया गया है। महानंदा ने अपने शोध में पाया कि उन्होंने जिन धान किसानों पर अध्ययन किया, उनमें से 11 फीसदी को पता ही नहीं था कि कीटनाशक हानिकारक हैं। 35 फीसदी ने कीटनाशकों के कंटेनर पर दिए गए निर्देशों का पालन नहीं किया और 18 फीसदी किसानों को तो यही नहीं पता था कि कंटेनरों पर कीटनाशकों के इस्तेमाल के लिए निर्देश दिए गए हैं। करीब 64 फीसदी किसानों ने कीटनाशकों का छिड़काव करते समय दस्ताने, जूते, तौलिए, फुल पेंट और फुल शर्ट जैसे सुरक्षा उपायों का इस्तेमाल नहीं किया था।
 
बरगढ़ स्थित कृषि विज्ञान केन्द्र के प्रमुख अनिल कुमार स्वाइन कहते हैं, ‘कीटनाशक कारसीनोजेनिक हैं, उनकी वजह से कैंसर हो सकता है, लेकिन गरीब किसान कीटों के हमलों से निपटने के लिए इनका उपयोग करने को मजबूर हैं।’ उदाहरण के तौर पर 2017 में धान की फसल पर ब्राउन लीफ हॉपर, जिसे स्थानीय तौर पर चकड़ा कीट कहते हैं, ने हमला कर दिया। इससे बचने के लिए किसानों ने आक्रामक तरीके से कीटनाशकों का छिड़काव किया। इसके बावजूद इन जिद्दी कीटों के हमले में 95 फीसदी फसल नष्ट हो गई। कीटनाशक 80 फीसदी कीटों को मार सकते हैं, लेकिन चकड़ा इससे कई गुना तेजी से बढ़ते हैं। एक मादा चकड़ा महज 20 दिनों में 250 कीटों को जन्म देती है। 2017 में गर्मियों में लम्बे समय तक रहीं और सर्दी देरी आई, मौसम में इस बदलाव से कीटों की पैदावार के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बन गईं।
 
वह कीटनाशक डीलरों के लिए भी माकूल समय था। कीटनाशकों की खपत 2016 में 440.702 टन के मुकाबले 2017 में बढ़कर 713.867 टन तक पहुँच गई। डीलरों ने कीटनाशकों को फसलों के रक्षक के तौर पर प्रचारित किया और खेतों में जाकर इसका प्रदर्शन भी किया। यह प्रचार अब भी जारी है। अगर कोई कीटनाशक किसी साल फेल हो जाता है, तो कम्पनी उसे नए नाम से मार्केट में उतार देती है। स्वाइन कहते हैं, ‘हमारा हानिरहित जैव कीटनाशों के इस्तेमाल का संदेश इन डीलरों के आक्रामक प्रचार में खो जाता है। हालांकि, जैव कीटनाशक मंहगे भी हैं और उनसे परिणाम मिलने में लम्बा समय लग जाता है। इसके लिए सभी किसान इतने समर्थ नहीं हैं।’
 
विश्व बैंक के अनुसार, ओडिशा भारत के 7 सबसे निम्न आय वाले राज्यों में शामिल है। इतने गरीब राज्य में कैंसर के हमले ने लोगों का बजट बिगाड़ दिया है। उदाहरण के तौर पर महेश ने सुधांशु के मासिक कीमोथेरेपी सत्रों के लिए करीब डेढ़ लाख रुपए का लोन लिया है। अभी आधे स्पेशन भी खत्म हुए हैं और उनके पास सिर्फ 20,000 रुपए बचे हैं। उन्हें हर रोज एंटीबायोटिक टेबलेट भी लेने की जरूरत है। 4 टेबलेट के एक पत्ते की कीमत 700 रुपए है। महेश ने अब गाँव के दूसरे लोगों की तरह मुख्यमंत्री राहत कोष से आर्थिक सहायता के ले आवेदन किया है। इसी तरह, मेहना गाँव में रहने वाले 60 साल के मोहन काम्पा के पास उनके दाएँ कान में हुए ऑडिटरी कैनल कैंसर के इलाज के लिए पैसे नहीं हैं। डॉक्टरों ने उन्हें 300 किमी दूर कटक में स्थित आचार्य हरिहर क्षेत्रीय कैंसर केन्द्र में रेफर कर दिया है। उन्हें मई में दवा दी गई थी और 2 महीने बाद दोबारा बुलाया गया था। वह कहते हैं, ‘मेरे पास पैसे नहीं हैं। मेरे बेटे मुझे पैसे भेजते हैं, लेकिन उनकी कमाई भी बहुत कम है। ऐसे में अस्पताल जाने का क्या मतलब है?’
 
बरगढ़ में कैंसर का इलाज करवाना आसान नहीं है। जिले में सिर्फ एक सरकारी अस्पताल और तीन 50 बिस्तरों वाले निजी अस्पताल हैं। जब से प्रदेश सरकार ने अपने सभी अस्पतालों में मुफ्त कीमोथेरेपी की सुविधा शुरू की है, यहां के सरकारी हॉस्पिटल में हमेशा मरीजों की लम्बी कतार लगी रहती है। लेकिन, अस्पताल में एमआरआई, एंडोस्कोपी या सीटी स्कैन कराने की बुनियादी सुविधाएँ भी मौजूद नहीं हैं।
 
निजी अस्पतालों में एंडोस्कोपी कराने में 2,000 रुपए का खर्च आता है, जबकि सीटी स्कैन पर 2,000 से 5,000 रुपए तक खर्च हो जाते हैं। डॉक्टर मरीजों को आस-पास स्थित बेहतर सुविधाओं वाले वीएसएस अस्पताल में रेफर कर देते हैं।यहाँ मरीजों की भीड़ इतनी ज्यादा है कि 30 बेड वाली कैंसरयूनिट में 260 मरीजों को दाखिल करना पडता है। इस अस्पताल में सिर्फ तीन ऑन्कोलॉजिस्ट और 13 नर्स हैं। ऐसे हड़बड़ी भरे माहौल में कुछ मरीज गलत निदान के शिकार हो जाते हैं। रेमुंडा गाँव में रहने वाली संजुक्ता सत्पथी के पेट में सूजन है। वह अगस्त 2017 से विभिन्न अस्पतालों के चक्कर लगा रही हैं। उनका पेट के कैंसर का ऑपरेशन किया गया था और कीमोथेरेपी भी की गई थी। जून 2018 में जब उन्हें दोबारा समस्या हुई, तो डॉक्टरों ने बताया कि उन्हें सिर्फ अल्सर की शिकायत हो सकती है।
 
पुरोहित कहते हैं कि सरकार ने संकट को मानने से इनकार कर दिया है। यहाँ तक कि वह एक प्रारम्भिक सर्वेक्षण भी कराने पर ध्यान नहीं दे रही है। यही नहीं, ओडिशा नेशनल कैंसर रजिस्ट्री का हिस्सा भी नहीं है, जो व्यवस्थित रूप से कैंसर रजिस्ट्री का हिस्सा भी नहीं है, जो व्यवस्थित रुप से कैंसर का डेटा एकत्रित करता है। हालांकि, मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने हाल ही में घोषणा की थी कि इस पर काम जल्द ही शुरू होगा, लेकिन अब तक इस सम्बन्ध में कोई भी कदम नहीं उठाए गए हैं।
 
डाउन टू अर्थ ने राज्य के स्वास्थ्य मंत्री नाबा किशोर दास और प्रदेश स्वास्थ्य आयुक्त प्रमोद कुमार मेहेरदा को एक विस्तृत प्रश्नावली भेजी और पूछा गया कि ठोस सबूतों के बावजूद सरकार ने बरगढ़ में कैंसर के मामलों को काबू करने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाए। हम अब तक जवाब का इंतजार कर रहे हैं। मेहेरदा को कई बार कॉल की गई लेकिन उन्होंने की जवाब नहीं दिया।
 
बरगढ़ के डॉक्टर सर्वसम्मति से मानते हैं कि मृत्यु दर को कम करने के लिए शुरुआती स्तर पर इसका पता लगाना ही एकमात्र तरीका है और इसमें बरगढ़ मे कैंसर अस्पताल खुलने से मदद मिल सकती है। लेकिन सरकार टाटा मेमोरियल अस्पताल (टीएमेच) की एक शाखा कटक में खोलना चाहती है, जहाँ पहले से एक कैंसर अस्पताल मौजूद है। गैर लाभकारी संस्था यूनाइटेड फोरम ने बरगढ़ में टीएमएच की शाखा खोलने की माँग करते हुए 2018 में केन्द्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान को पत्र लिखा था, जो खुद पश्चिमी ओडिशा से आते हैं। संस्था ने जनवरी 2019 में राज्य के स्वास्थ्य मंत्री को भी इस सम्बन्ध में पत्र लिखा था।
 
किसी तरह की कोई सरकारी सहायता न मिलते देख तेजागोला गाँव के एक किसान सरोज कुमार साहू ने सुधारात्मक उपाय अपनाने का निर्णय लिया। कैंसर में अपने पिता और चाचा को खोने के बाद उन्होंने जैविक खेती की ओर रुख कर लिया है। वह कहते हैं, ‘मैं अपने चाचा का इलाज कराने के लिए उन्हें कटक के कैंसर अस्पताल लेकर जाया करता था। मैं वहाँ अपने कई परिचितों को इलाज करवाते देखता था। यह दिल दहला देने वाला था। मैंने महसूस किया कि कीटनाशक धीमे जहर है। मेरी पत्नी और बेटा है। मैं उनकी जिन्दगी को जोखिम में नहीं डाल सकता।’ साहू अब महंगे जैविक कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं हालांकि, आस-पास के खेतों में किसान अब भी अंधाधुंध कीटनाशकों का इस्तेमाल कर रहे हैं, इसलिए कीट उनके खेतों में आ जाते हैं।
 
हताशा के बीच सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत लोगों का एक समूह आशा की नई किरण बन उभरा है। ये लोग मूलतः भुनवेश्वर में रहते हैं लेकिन इन्होंने बरगढ़ को अपना दूसरा घर बना लिया है। उम्मीदें नामक यह समूह बरगढ़ में शिविर आयोजित कर और घर-घर घूमकर कैंसर की जल्द-से-जल्द पहचान के लिए लोगों को जागरूक करता है। यह कैंसर चालीसा नाम की पॉकेट साइज पत्रिकाएँ वितरित करता है, जिसमें कैंसर की जल्द से पहचान के लिए उड़िया में जानकारी दी गई। डाउन  टू अर्थ ने आंगनबाड़ी सहायकों के लिए आयोजित ऐसे ही एक शिविर में भाग लिया। उम्मीदें के संस्थापकों में से एक, निताई पाणिग्रही बताते हैं, ‘हमने इस अभियान के द्वारा कई मरीजों की पहचान की है।’ पाणिग्रही कहते हैं, ‘यह तो स्पष्ट है कि बरगढ़ संकट से जूझ रहा है। अब सरकार को इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए और इससे निपटने के लिए पहले कदम के तौर पर एक कैंसर रजिस्ट्री बनाने पर काम शुरू करना चाहिए।’

 

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पशुओं का उत्तम आहार है अजोला

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पशुओं का उत्तम आहार है अजोलाHindiWaterSat, 11/09/2019 - 10:21
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खेत खलिहान, अक्टूबर 2019

पशुओं का उत्तम आहार है अजोला। फोटो - krishi sewa

अजोला जल से मुक्त रूप से तैरने वाला एक जलीय फर्न एवं सुंदर बारीक पत्तियों वाला पौधा है। अजोला तालाबों, पानी के गड्ढों और नम-गर्म उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाता है। इसे लगभग 25-50 प्रतिशत प्रकाश की आवश्यकता होती है। यह जल की उपलब्धता के प्रति बहुत ही संवेदनशील है और जल के बिना पनप नहीं सकता। इसके प्रजनन और विकास के लिए सर्वोत्तम तापमान 20-30 डिग्री सेंटीग्रेड की आवश्यकता होती है तथा सापेक्षिक आर्द्रता 95-90 प्रतिशत अच्छी मानी जाती है। इसका सर्वोत्तम पीएच मान 5-7 है। अजोला जल से ही आवश्यक पोषक तत्व प्राप्त करता है।
 
तालाब का चयन

आवश्यक देखभाल के लिए अजोला के लिए घर के निकट के तालाब का चयन करना बेहतर होता है। नियमित जल की आपूर्ति करना आवश्यक है। जिस स्थान पर तालाब का चयन किया हो, वहाँ पर आंशिक सूर्य प्रकाश का रहना बेहतर पैदावार सुनिश्चित करेगा अन्यथा छांव प्रदान करनी होगी। इससे न केवल जल का वाष्पीकरण कम होगा, बल्कि अजोला की उपज भी बढ़ेगी।
 
तालाब का आकार और निर्माण

तालाब का आकार पशुओं की संख्या पर निर्भर करेगा। छोटे पशुधारकों के लिए प्रतिदिन 0.7 किग्रा. से अधिक पूरक चारा उत्पादन करने के लिए अजोला की खेती के लिए 6 बाय 4 फीट का क्षेत्र पर्याप्त है। चयनित क्षेत्र पूरी तरह समतल होना चाहिए। तालाब की दीवारों को या तो ईंटों से या खुदाई की मिट्टी के साथ बनाया जा सकता है। तालाब में टिकाऊ प्लास्टिक शीट बिछाने के बाद दीवारों पर ईंट रखकर सभी दीवारों को सुरक्षित किया जाना चाहिए। पानी के रिसाव को रोकने के लिए छेद या दरार नहीं होनी चाहिए तथा तालाब को शुद्ध जालीदार आवरण से ढक देना चाहिए। इससे आंशिक छाया प्रदान हो सके और तालाब में पत्तियाँ और अन्य मलबा रुक सके।
 
रेडीमेड एचडीपीई या पीवीसी से बना तालाब

ये तालाब विभिन्न आकारों जैसे 10 बाय 3, 15 बाय 3, 20 बाय 3 फीट आदि में आते हैं। किसान अपने पास उपलब्ध पशुओं की संख्या और अजोला की दैनिक आवश्यकता के आधार पर तालाब का आकार चुन सकते हैं, जो उन्हें खिलाने के लिए प्रतिदिन चाहिए। 20 बाय 3 फीट के तालाब से प्रतिदिन लगभग 2 किग्रा. ताजा अजोला का उत्पादन किया जा सकता है। ये एचडीपीई तालाब पॉलिथीन शीट से बने तालाबों की तुलना में लम्बे समय तक चलते हैं।
 
अजोला उत्पादन

उपजाऊ मिश्रित मिट्टी के साथ गोबर और पानी को समान रूप से मिलाकर तालाब में समान रूप से फैलाने की जरूरत होती है। 6 बाय 4 फीट आकार के एक तालाब के लिए यह आवश्यक है। यह समान रूप से समूचे तालाब में दिया जाना चाहिए। तालाब में पानी की गहराई 4-6 इंच होनी चाहिए। तालाब की सतह भी समतल होनी चाहिए जिससे पूरे तालाब क्षेत्र में पानी की गहराई समान रहे। मानसून के मौसम के दौरान बारिश के पानी का संचयन छत आदि से किया जा सकता है। अजोला की खेती के लिए यह संचित जल का इस्तेमाल किया जाए, तो यह एक उत्कृष्ट और तीव्र विकास सुनिश्चित करेगा।
 
तालाब का रखरखाव

एक किग्रा. गोबर और 100 ग्राम सुपर फॉस्फेट को तालाब में 15 दिनों में एक बार प्रयोग करने से अजोला का बेहतर विकास होगा। तालाब को छह महीने में एक बार खाली कर दिया जाना चाहिए। अधिक अजोला को खेतों में भी उपयोग कर सकते हैं।
 
अजोला की निकासी

तीन सप्ताह के समय में अजोला की पैदावार पूरी हो जाती है। पूर्ण विकास के बाद इसे दैनिक तौर पर निकाला जा सकता है। अजोला के अधिक उत्पादन की स्थिति में इसे छाया में सुखाया जा सकता है। इसे सुरक्षित रूप से भविष्य में इस्तेमाल के लिए संरक्षित किया जा सकता है। एनएआईपी आजीविका परियोजना के तहत कर्नाटक के चित्रदुर्ग जिले के विभिन्न गाँवों के 100 से अधिक डेयरी किसानों के पशुओं को खिलाए जाने वाले अध्ययन में अजोला प्रतिदिन औसतन (ताजा वजन) 700 ग्राम प्रति गाय को खिलाने से मासिक दुग्ध उत्पादन में सुधार होकर 10 लीटर प्रतिदिन का उत्पादन गाय से प्राप्त हुआ है। इसके स्वाद से रूबरू होने के लिए जानवरों को कुछ दिन लग जाते हैं। बेहतर उपयोग के लिए प्रारम्भिक चरणों में दानों को अच्छी तरह से ताजे पानी से धोना चाहिए। जब अधिक उत्पादन होता है तो अजोला को छाया में सुखाकर प्लास्टिक के ड्रमों में संग्रहित किया जा सकता है। सूखे अजोला का प्रयोग पशु चारे की कमी के समय में किया जा सकता है।
 
अजोला की खेती के फायदे

  1. इसका उत्पादन बहुत ही किफायती है और यह पशुओं के लिए एक पोषक और पूरक आहार है।
  2. न्यून उत्पादन क्षमता वाले पशुओं में दुग्ध उत्पादन में सुधार देखा गया है।
  3. दानों की आवश्यकता का एक हिस्सा अजोला द्वारा पशु आहार में पूर्ति करने से दूध उत्पादन की लागत कम कर सकते हैं।
  4. जैसा कि अजोला में शुष्क पदार्थ सामग्री केवल 5-6 प्रतिशत है। यह मुश्किल है कि अजोला को पूर्ण फीड संसाधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सके।
  5. बहुत अधिक या कम तापमान, कम पानी अथवा सीमित जल उपलब्धता और पानी की खराब गुणवत्ता जैसी पर्यावरण बाधाएँ अजोला उत्पादन को अपनाने में रुकावट पैदा कर सकती हैं।

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सूक्ष्म जीवों से मृदा सुधार

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सूक्ष्म जीवों से मृदा सुधारHindiWaterSat, 11/09/2019 - 11:06
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खेत खलिहान, अक्टूबर 2019

फोटो - fj.agronaturetech.com/

आधुनिक समय में हमारे पर्यावरण में असंतुलन पैदा हो गया है। हमारी मृदा, जल, वायु व वन सभी प्रदूषित हो रहे हैं। जिसके कारण जैव-विविधता के लिए संकट, बाढ़, सूखा व अन्य प्राकृतिक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। इस कारण अब समय यह चेतावनी दे रहा है कि हमें प्राकृतिक स्रोतों की शुद्धता बनाए रखने के लिए प्रयास करना होगा। प्राकृतिक स्रोतों की शुद्धता बनाए रखने में सूक्ष्म जीवों का कितना बड़ा योगदान है ? बता रहे हैं, चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कानपुर के डॉ. खलील खान एवं डॉ. ममता राठौर
 
पर्यावरण में सूक्ष्म जीवों का उपयोग

मृदा में मुख्य रूप से फफूंद ही है, जो उपस्थित रहते हैं तथा इनकी पदार्थों के अपघटन में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इनका मुख्य कार्य हानिकारक पदार्थों को पोषक तत्वों में परिवर्तित करना होता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है कम्पोस्टिंग, जो पूर्ण रूप से एक जैविक प्रक्रिया है, जिसमें फफूंद द्वारा ही वायुवीय दशाओं में जैविक पदार्थों का जैविक अपघटन होता है। फफूंद अपघटित पदार्थों की अपघटित क्रिया के द्वारा ही कम्पोस्ट बनाने में सहायता करते हैं। अपने वातावरण को शुद्ध रखने के लिए तथा मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए इन्हें किसानों के मित्र के रूप में जाना जाता है। फसल के अवशेषों को जलाने से उसमें उपस्थित मुख्य पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश जलकर नष्ट हो जाते हैं और बहुत-सी विषैली व जहरीली गैसें कार्बन डाईऑक्साइड, मोनो ऑक्साइड, मीथेन, बेंजीन आदि प्रभाव वातावरण को दूषित करता है, इस कारण फसल अवशेषों को कम्पोस्ट में परिवर्तित कर देना चाहिए, जिससे मृदा में जीवांश कार्बन की बढ़ोत्तरी होती है।
 
प्रदूषण का निदान

कृषि कार्य में सिंचाई हेतु बड़ी मात्रा में जल का उपयोग होता है। कृषि में उपयोग होने वाले पानी के उस भाग को छोड़कर जो कि वाष्पित हो जाता है या भूमि द्वारा सोख लिया जाता है, शेष बहकर पुनः जल धाराओं में मिल जाता है। इस तरह यह जल खेतों में डाली गई प्राकृतिक या रासायनिक उर्वरकों सहित कीटनाशकों, कार्बनिक पदार्थों, मृदा एवं इसके अवशेषों आदि को बहाकर जलस्रोतों में मिला देता है।
 
जल कार्बनिक पदार्थों पर प्रभाव

मल-जल या इसी प्रकार के दूषित जल जिसमें कार्बनिक पदार्थ बड़ी मात्रा में उपस्थित होते हैं, स्वच्छ जलस्रोतों में मिलकर उनका बीओडी (बायोलॉजिक ऑक्सीजन डिमांड) भार बढ़ा देते हैं अर्थात कार्बनिक पदार्थ जो कि जैविक रूप से विनष्ट होते हैं, के जलस्रोतों में मिलने से सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रियाशीलता से जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। साथ ही हानिकारक बैक्टीरिया के पेयजल में होने से डायरिया, हेपेटाइटिस, पीलिया आदि रोगों सहित अनेक चर्म रोगों के होने का खतरा भी हो जाता है।
 
फफूंद की भूमिका
 
फफूंद से जैविक विघटन की क्रिया के बाद खाद बनाने का नया विचार आजकल आधुनिक कृषि में बहुत उपयोगी है। इसके लिए लिग्नीसेल्युलोलिटिक फफूंद का कम्पोस्ट कल्चर बनाया जाता है। यह कम्पोस्ट मृदा में उपस्थित पोषक तत्वों का सुधार कर देती है, अतः इसे जैविक खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है।
 
कम्पोस्ट के उपयोग से होने वाले लाभ

  • कम्पोस्ट के उपयोग के कारण मिट्टी के अन्दर अधिक मात्रा में कार्बनिक पदार्थ का संग्रह हो जाता है, जिसका बहुत लाभ होता है।
  • कम्पोस्ट के लगातार उपयोग में लाने से मिट्टी की अपने अन्दर वायु व पानी को अवशोषित करने की क्षमता में वृद्धि हो जाती है।
  • कम्पोस्ट के उपयोग से मिट्टी के स्वास्थ्य में काफी सुधार होता रहता है।
  • खाद की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए खनिजों और सूक्ष्म जीवाणुओं को एक साथ बढ़ाया जा सकता है।
  • इस कम्पोस्ट का एक विशेष गुण यह है कि वह अनपे वजन से चार गुना अधिक पानी को ग्रहण कर मृदा की जल अवशोषण क्षमता बढ़ा देता है।
  • पर्यावरण को स्वस्थ रखने के लिए, किसानों को कृषि अपशिष्ट को कभी भी नष्ट या जलाना नहीं चाहिए।
  • फसल में कीटों से बचाव के लिए किसान रासायनिक, कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं, जो वातावरण और इंसानों के लिए खतरनाक होते हैं। साथ ही धीरे-धीरे इन कीटनाशकों का असर भी कम होने लगा है। ऐसे में किसान हानिकारक कीटों से बचाव के लिए सूक्ष्मजैविक प्रबंधन कर सकते हैं।

जीवाणु (बैक्टीरिया)
 
मित्र जीवाणु प्रकृति में स्वतंत्र रूप से भी पाए जाते हैं लेकिन उनके उपयोग को सरल बनाने के लिए इन्हें प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से तैयार करके बाजार में पहुँचाया जाता है, जिससे कि इनके उपयोग से फसल को नुकसान पहुँचाने वाले कीड़ों से बचाया जा सकता है।
 
बैसिलस थुरिजिनिसिस
 
यह एक बैक्टीरिया आधारित जैविक कीटनाशक है। इसके प्रोटीन निर्मित क्रिस्टल में कीटनाशक गुण पाए जाते हैं, जो कि कीट के अमाशय के लिए घातक जहर है। यह लेपिडोपटेरा और कोलिओपेटेरा वर्ग की सुडियों की 90 से ज्यादा प्रजातियों पर प्रभावी है। इसके प्रभाव से सुडियों के मुखांग में लकवा हो जाता है जिससे की सुडियाँ खाना छोड़ देती है और सुस्त हो जाती हैं तथा 4-5 दिन में मर जाती हैं। यह जैविक सुंडी की प्रथम और द्वितीय अवस्था पर अधिक प्रभावशाली है। इनकी चार अन्य प्रजातियाँ बैसिलस पोपुली, बैसिलस स्फेरिक्स, बैसिलस मोरिटी, बैसिलस लेतीमोर्बस भी कीट प्रबंधन के लिए प्रभावी पाई गई हैं। इस जीवाणु से विभिन्न फसलों में नुकसान पहुँचाने वाले शत्रु कीटों जैसे-चने की सुंडी, तम्बाकू की सुंडी, सेमिल पर लाल बालदार सुंडी, सैनिक कीट एवं डायमंड बैक मोथ आदि के विरूद्ध एक किग्रा, प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने पर अच्छा परिणाम मिलता है।
 
पॉली हाइड्रोसिस वायरस

यह वायरस प्राकृतिक रूप से मौजूद सूक्ष्म जैविक है। वे सूक्ष्म जीव जो केवल न्यूक्लिक एसिड एवं प्रोटीन के बने होते हैं, वायरस कहलाते हैं। यह कीट की प्रजाति विशेष के लिए कारगर होता है।
 
ग्रेनुलोसिस वायरस

इस सूक्ष्मजैविक वायरस का प्रयोग सूखे मेवे के भण्डार, कीटों, गन्ने की अगेती तनाछेदक, इटंरनोड़ बोरर और गोभी की सुंडी से बचने के लिए किया जाता है। यह विषाणु संक्रमित भोजन के माध्यम से कीट के मुख में प्रवेश करता है और मध्य उदर में वृद्धि करता है। कीट की मृत्यु पर विषाणु वातावरण में फैलकर अन्य कीटों को संक्रमित करते हैं। गन्ने और गोभी की फसल में कीट प्रबन्धन के लिए 1 किग्रा. पाउडर का 100 ली. पानी में घोल बनाकर छिड़काव करने से कीड़ों की रोकथाम में मदद होती है। सुंडी के लिए एन.पी.वी. का प्रयोग किया जाता है।
 

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नैनीताल का भूगोल

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नैनीताल का भूगोलHindiWaterSat, 11/09/2019 - 11:33
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नैनीताल एक धरोहर

नैनीताल का भूगोल। फोटो - Hindustan Times

नैनीताल की झील बाहरी हिमालय में मेन बाउन्ड्री थ्रस्ट के करीब स्थित प्रकृति की दुर्लभ रचना है। सात ऊँची पर्वत श्रृंखलाओं से घिरे नैनीताल की भू-आकृति कटोरानुमा है। नैनीताल, पट्टी/ परगना छः खाता के अन्तर्गत आता है। छः खाता शब्द संस्कृत का अपभ्रंश है। छः खाता का भावार्थ है- 60 झीलों वाला क्षेत्र। जिसमें से नैनीताल, भीमताल, सातताल, नौकुचियाताल, मलुवाताल, खुर्पाताल, सरियाताल और बरसाती झील सूखाताल आदि शामिल है।

नैनीताल का भौगोलिक क्षेत्रफल 11.73 वर्ग किलोमीटर है। यहाँ पहाड़ियों के बीच समुद्र सतह से 1938 मीटर की ऊँचाई पर एक भव्य झील स्थित है। एक दौर में इस झील की लम्बाई करीब 1,433 मीटर और चौड़ाई करीब 465 मीटर गहराई 28.3 मीटर और झील की परिधि 3,621 मीटर थी। तालाब की सतह का क्षेत्रफल 487.639 मीटर था। झील का क्षेत्रफल 120.5 एकड़ था। तालाब के पानी का रंग नीला-हरा था। पानी एकदम साफ-सुथरा पीने योग्य था। बरसात और पहाड़ियों में स्थित सदाबहार झरने तालाब को सदैव पानी से भरा रखते थे।
 
नैनीताल के उत्तर में 2,611 मीटर ऊँची चोटी नैना पीक है। इससे आगे 2,270 मीटर ऊँची आलमा पहाड़ी है। पूर्वी छोर में 2,267 मीटर ऊँची शेर-का-डांडा पहाड़ी है। पश्चिम में  2,273 मीटर ऊँची देवपाटा पहाड़ी है, इसे कैमल्स बैक भी कहते हैं। दक्षिण में 2,235 मीटर ऊँची अयारपाटा पहाड़ी है। इसके अतिरिक्त हांडी-भांडी 2,139 मीटर और 2,292 मीटर ऊँची टिफन टॉप पहाड़ियाँ हैं। यहाँ की जलवायु समशीतोष्ण है। यहाँ गर्मियों में अधिकतम औसत तापमान 26,7 डिग्री सेंटीग्रेट तथा औसत न्यूनतम तापमान 10.6 डिग्री सेंटीग्रेट रहता है। जाड़ों में यहाँ का सत तापमान 16.6 डिग्री सेंटीग्रेंट तथा न्यूनतम 2.8 डिग्री सेंटीग्रेट रहता है। ठंड के दिनों बर्फ गिरने पर यहाँ का तापमान कभी ऋण (-) 4 डिग्री सेंटीग्रेट से नीचे चला जाता है। आर्द्रता सौ प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक रहती है।
 
नैनीताल में वर्षा का औसत 90 से 120 इंच तक आंका गया है। यहाँ मानसून के अलावा अन्य ऋतुओं में भी वर्षा होती है। जाड़ों में हिमपात भी होता है। नगर की वायु दिशा चक्रवातीय एवं प्रति चक्रवातीय है। यहाँ की जलवायु को प्रभावित करने में झील महत्त्वपूर्ण कारक है। गर्मियों के मौसम में भी ठंडी हवा के झोंके यहाँ की जलवायु की प्रमुख विशेषता हैं।

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बंजर जमीन पर बहार लाना बड़ी चुनौती

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बंजर जमीन पर बहार लाना बड़ी चुनौतीHindiWaterSat, 11/09/2019 - 13:14
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राजस्थान पत्रिका, 17 अक्टूबर 2019

बंजर जमीन पर बहार लाना बड़ी चुनौती। फोटो - Chetak Times

आज देश में जबकि भोजन और पानी इंसान के बुनियादी अधिकारों में मानकर इसे आम आदमी इसे आदमी तक पहुँचाने की चिन्ता कानूनी बाध्यता बन चुकी है, इस हालात में अन्न उत्पादन को लेकर उभरती चुनौतितयों से जूझना सरकार की नैतिक मजबूरी बन गई है। 

केन्द्र सरकार के बंजर भूमि को आबाद किए जाने के फैसले को दुनिया भर में सहारा गया है। वहीं दूसरी ओर, विश्व में तेजी से मरुस्थलीकरण के कारण वर्ष 2050 तक दुनिया की करीब 70 करोड़ की आबादी को पलायन के लिए मजबूर होने की खबर से मानव सभ्यता में खलबली मची हुई है। आंकलन है कि भूमि केक बंजर होने से लगातार खेती का क्षेत्र घटता जा रहा है और भू-क्षरण बढ़ रहा है। जिससे निकट भविष्य में अनाज का भीषण संकट गहराने की सम्भावना जताई जा रही है।

इन्ही बातों को ध्यान में रखकर सितम्बर में सम्पन्न संयुक्त राष्ट्र के कान्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज यानी कॉप के 14 वें अधिवेशन में भारत ने स्पष्ट किया था कि केन्द्र सरकार बंजर जमीन को खेती के योग्य बनाने के लिए यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन के साथ समझौता भी करेगी। खास बात यह है कि समरोह में शिरकत कर रहे 196 देशों और यूरोपीय संघ के करीब 8 हजार प्रतिभागियों ने जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और बढ़ते रेगिस्तान जैसे मुद्दों का हल निकालने के सम्बन्ध में भारत के रुख की सहारना की थी। चिन्ता और सक्रियता अन्य देशों के लिए मायने रखती है। चूँकि दुनिया भर के तमाम मुल्कों में जल-जंगल के अबाध दोहन से विकट हालात पैदा हो चुके हैं। इस कारण जमीन का बंजर होना और बारिश के बिना सूखे के हालात निरन्त बने रहना एक बड़ी समस्या बन चुकी है। आज इंसानी सभ्यता के लिए मरुस्थलीकरण एक बहुत बड़ी समस्या है। आंकड़ों के मुताबिक, दुनिया का 23 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र मरुस्थलीकरण कीक चपेट में आ चुका है।

भारत की चिन्ता इस वजह से मायने रखती है क्योंकि देश की कुल जमीन का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा मरुस्थल बन चुका है। जमीन का बंजर होना जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करता है। साथ ही इससे खाद्य आपूर्ति से लेकर सेहत पर भी असर पड़ता है। लिहाजा इससे निपटने के लिए सरकार को प्रयास करने होंगे। द गार्जियन अखबार में प्रकाशित ‘ग्लोबल फूड क्रइसिस लूम्स एज क्लाइमेट चेंज एंज पॉपुलेशन ग्रोथ स्ट्रिप फर्टाइल लैड’ शीर्षक लेख में चर्चा है कि 2007 में दुनिया की लगभग 40% कृषि योग्य भूमि का स्तर गम्भीर रूप से गिर गया। इनमें से ज्यादातर उर्वर भूमि उन आदिवासी इलाकों में जहाँ की जमीन रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से अछूती है। धान स्थित ‘इंस्टिट्यूट फॉर नेचुरल रिसोर्सेज इन अफ्रीका’ की रिपोर्ट के मुताबिक अगर अफ्रीका में मिट्टी के स्तर में गिरावट के मौजूदा रुझान जारी रहे तो यह महाद्वीप 2025 तक अपनी आबादी के सिर्फ 25% हिस्से को ही भोजन प्रदान करने में सक्षम होगा। उल्लेखनीय है कि अफ्रीका के आदिवासी बहुल इलाकों में कॉरपोरेट घुसपैठ और उनके द्वारा खेती की पद्धति में रोक-टोक के चलते भयंकर पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हुआ है।

भारत के हालात भी सही नहीं दिख रहे हैं। आज जबकि भोजन और पानी इंसान के बुनियादी अधिकारी में मानकर उसे आम आदमी तक पहुँचाने की चिन्ता कानूनी बाध्यता बन चुकी है, इस हालात में अन्न उत्पादन को लेकर उभरती चुनौतियों से जूझना सरकार की नैतिक मजबूरी बन गई है। हालांकि भारत की सरकारों ने आदिवासी आबादी और वहाँ की जमीन का मनमाना इस्तेमाल किया है। हद तो तब हो गई कि झारखण्ड, ओडिशा और मध्यप्रदेश की लाल माटी की बेहद उपजाऊ जमीन पर ‘उत्तम खेती’ को लेकर सरकार ने तरीके से मन बनाया ही नहीं। अधिक उपज के नाम पर रासायनिक उर्वरकों से ठसाठस बाजार में पड़ा जहर खेतों में बिखेरा जाने लगा। प्रचार की वजह भले ही उन राज्यों में एक-से-एक बेहतर सुविधायुक्त कृषि अनुसंधान संस्थान खोले गए लेकिन कृषि वैज्ञानिकों ने जमीन पर पाँव रखना जरूरी नहीं समझा। इस वजह से माटी की सेहत की चिन्ता किए जाने वाली सोच और संस्कृति बिसर गई और समय के साथ जमीन बंजर होती गई।

आदिवासी इलाकों में नकारात्मक राजनीति और प्रशासन से दखल के कारण समाज का जमीन से नाता जुड़ा नहीं रह पाया। बल्कि जरूरतमंद आदिवासियों ने राहत और स्पेशल पैकेज के बूते जिन्दगी जीना बेहतर समझा। किसानों ने जमीन पर किसानों की बजाय राहत के पैकेज के अनाज से पेट भरकर खेत को परती छोड़ना मुनासिब समझा। वर्षा जल संचयन की न जाने कितनी पद्धतियों के नाम का अरबों का फण्ड किसी का साबित नहीं हुआ। नतीजतन कुछ प्रयोग नजीर जरूर बने लेकिन वर्षा जल के ठहराव नहीं होने के हाल में हर साल सूखा एक आयोजन बन गया।

देश में जंगलों के कटने से वर्षा चक्र का बाधित होना, धरती की कोख से पानी का खत्म होना और बंजर जमीनों का दायरा बढ़ना एक बड़ी चुनौती है। आज इंसानी सभ्यता के सामने अकाल का तात्कालीक उपाय निकल जाता है किन्तु मरुस्थलीकरण का समाधना न तो सहज है और न सस्ता। भारत में माटी की सेहत और देशज नस्ल के पेड़ों को बचाकर उन्हें लोकोपयोगी बनाने की दिशा में एक-से-एक प्रयोग किए जा चुके हैं। खासतौर से वॉटर शेड मैनेजमेंट यानी जलछाजन के जरिए सफलता और समृद्धि की एक-से-एक गाथाएँ देश के लोकमानस में गेय हैं। इसके लिए जरूरी है कि इलाकों में जिन जनपयोगी मॉडल की सफलता लोकसिद्ध हो चुकी है उसे भौगोलिक रचना माटी की तासीर और आवोहवा के मुताबिक क्यों ने बार-बार प्रयोग में लाया जाए। खेद की बात है कि इस तरह के उपायों के बदले हम सरकार को कोस रहे हैं कि अकाल क्यों है, सरकार कुछ करती क्यों नहीं। ऐसे में भविष्य भयावह लगता है, विशेषकर उस हालात में जब दुनिया भर में खेती के चौपट होने और जलवायु परिवर्तन से हो बर्बादी के उदाहरण किसी बड़े विनाश की दस्तक जैसे है।

यदि निवारण के रूप में जलछाजन के विभिन्न सफल प्रोजेक्ट्स और उससे सुनिश्चित कार्य योजना को अमल में लाए तो इसके परिणाम बेहतर होंगे। चूँकि जल छाजन से जल, जंगल, जमीन, जन एवं जानवर के विकास एवं संवर्धन के साथ-साथ टिकाऊ जीविकोपार्जन एवं खेती के विकास की दिशा ततय होती है, इसलिए जनसहभागिता और पारदर्शिता से कोई भी कार्यक्रम सफल हो सकता है। बंजर में बहार लाने की प्रतिबद्धता को सफल बनने के लिए पाश्चात्य अवधारणा को दरकिनार कर बन जन की पारम्परिक अवधारणा के पन्ने उलट-पुलट लें तो एक आसान सा मगर उपाय भरा रास्ता जरूर निकलेगा।
 

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भारत में स्वच्छता आन्दोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

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भारत में स्वच्छता आन्दोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमिHindiWaterSat, 11/09/2019 - 17:07

भारत में स्वच्छता आन्दोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

प्रस्ताविक

भारत का इतिहास गवाह है कि कई समाज सुधारको के द्वारा स्वच्छतालक्षी आन्दोलन चलाए गए हैं। मुख्यतः महात्मा गाँधी, डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर, संत गाडसे बाबा व सूर्यकान्त परीख उल्लेखनीय हैं। इन लोगों ने स्वच्छता व स्वास्थ्य सुधार, शौचालय के गंदेपन का निकास, शौचालय व स्नानगृह की सफाई आदि के लिए जनजागृति की मुहिम छेड़ी है। गाँधी जी ने स्वच्छता व अश्पृश्यता निवारण को स्वतंत्रता संग्राम प्रवृत्ति का एक हिस्सा बनाया था। स्वच्छ परिधान, घर की स्वच्छता, स्वच्छ कार्यों के लिए डॉ. बाबासाहेब प्रेरक रहे हैं। ग्रामीण प्रान्तों में सफाई, शौचालय सुविधा का प्रयोग व सार्वजनिक स्वच्छता के लिए संत गाडसे बाबा ने जनजागृति फैलाई थी। सार्वजनिक रास्तों की सफाई, पे एण्ड यूझ सुविधाएँ आदि के लिए सूर्यकान्त परीख कार्यशील थे। डॉ. बिन्देश्वर पाठक ने निम्न जाति के लोगों के गदंगी उठाने के कार्य का विरोध किया है। शौचालय के नवीनीकरण को प्रेरणा दी है। सफाईकर्मियों को प्रशिक्षित करने की सफल कोशिश की गई है। सामाजिक उत्थान, मानव अधिकार के सन्दर्भ में डॉ. पाठक सदैव कार्यरत रहे हैं। स्वतंत्रता के पश्चात केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने भी कई अभियान चलाए हैं। निर्मल भारत, टोटल सेनिटेशन, कम्पेइन (टीएससी) ग्लोबल सेनिटेशन एण्ड प्रोग्राम, नेशनल-सरल हेल्प मिशन-वास्मो आदि के द्वारा वैयक्तिक व सार्वजनिक स्वच्छता, शौचालय सम्बन्धी जागृति व शौचालय निर्माण का प्रचार-प्रसार किया जाता है। इस प्रकार में कई आन्दोलन शौचालय एवं स्वच्छता सन्दर्भ में सफल परिणाम के द्योतक रहे हैं।
 
हड़प्पा और मोहन-जोदड़ो नगर की स्वच्छता सुविधा
 
मोहन-जोदड़ो के निवासियों ने स्वच्छता सन्दर्भ में जिस जागृति का परिचय दिया कदाचित ही किसी अन्य संस्कृति में ऐसी जागृति का उदाहरण प्राप्त हो। इस संस्कृति में शौचालय व उसके स्वच्छता सम्बन्ध के विचार क्रान्तिकारी विचार रहे हैं। सुनिश्चित व पूर्ण विचार-विमर्श की फलश्रुति का अनुभव इस संस्कृति में होता है। घर में स्नानागार, शौचालय का विशेष ध्यान प्रबंध देखा गया है। स्वच्छता संदर्भित कई अवशेष इस संस्कृति के संशोधनों में पुरातत्व विभाग को प्राप्त हुए हैं।
 
महात्मा गाँधी व स्वच्छता आन्दोलन

भारत में सफाई कर्मियों, अस्पृश्यता स्वच्छता समस्याओं हेतु चिन्तित होने वाले सर्वप्रथम भारतीय गाँधी जी थे। गाँधी जी ने सफाई कर्मियों व अस्पृश्यों को ‘हरिजन शब्द से’ विभक्त किया। अस्पृश्यों व सफाईकर्मियों की बदहालत देख गाँधी जी अत्यंत व्यथित हुआ करते थे। गाँधी जी ने जीवन पर्यन्त प्रयास करते हुए इन लोगों को पीड़ा मुक्त करेन का आन्दोलन चलाया तथापि उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त न हुई। गदंगी उठाने की प्रथा में कोई बदलाव नही्र आया।
                    
अस्पृश्यता को गाँधीजी पाप मानते थे। मानवता के लिए उसे खतरा मानते थे, हिन्दू धर्म के कलंक के रूप में मानते थे। अस्पृश्यता निवारण को स्वतंत्रता की लड़ाई की एक आवश्यक क्रिया बताया गया है। स्वराज प्राप्ति की मुहिम में उसने अस्पृश्यता को स्थान दिया था।
 
अहर्निश अस्पृश्यों की सेवा के लिए गाँधीजी तत्पर रहते थे। सफाईकर्मियों में सहज क्रियाएँ थी। हरिजनों से विवाह सम्बन्ध में भी गाँधीजी विधेयात्मक रहे हैं। हरिजन बच्चों को गोद लेते हुए समाजोद्धार का कार्य किया। सवर्णों को हरिजन कन्याओं से विवाह हेतु प्रोत्साहित किया गया। शिक्षा में क्षेत्र में भी सफाईकर्मियों को जोड़ते हुए उनके उद्धार की कोशिश की। शराब से दूर रहने की हिदायत देते हुए गाँधीजी ने लोगों के कल्याण का कार्य किया।
 
वैयक्तिक स्वच्छता गाँधी जी की विशेषता थी। साथ-ही-साथ सार्वजनिक स्वच्छता, मानव गरिमा के वे पक्षधर थे। गाँधी जी ने कहा था कि ‘स्वतंत्रता से स्वच्छता विशेष महत्त्वपूर्ण है।’ जीवन के अभिन्न अंग के रूप में स्वच्छता को प्राधान्य दिया गया था। 1920 में गाँधी जी ने स्वच्छता आन्दोलन प्रारम्भ किया। उनका लक्ष्य गदंगी उठाने वाले की यातना मुक्ति सामग्री जैसे कि सुलभ शौचालय हेतु ईंट, पत्थर, पानी, लकड़ी आदि का उपयोग करता है। पर्यावरणीय स्वच्छता भी गाँधी जी के विचार थे। गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका के फिनिक्स आश्रम में शौचालय सम्बन्धित प्रयोग किए थे। अस्पृश्यता निवारण, सफाई कर्मियों के सम्पन्न आदि का प्रयास गाँधी जी ने किया था।
 
गाँधीजी ने गदंगी उठाने से विरोध, शराब न पीने की सलाह, अस्पृश्यता की समस्या का समाधान ढूंढने का प्रयास किया था।
 
डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर और स्वच्छता आन्दोलन
 
डॉ.आम्बेडकर महर जाति के महान नेता थे। उनके खान-पान, रहन-सहन, परिधान आदि के लिए वे मार्गदर्शक बने। महर लोग मृतक पशुओं को उठाते थे, उस पर पाबन्दी लगाई गई।

डॉ. आम्बेडकर ने अस्पृश्य लोगों के कल्याण व उत्कर्ष हेतु विशिष्ट कार्य किए थे। कई किताबों के द्वारा उन्होंने अपने विचार प्रदर्शित किए। अस्पृश्यों के लिए गाँधी जी के कार्यों के विवरण का उल्लेख अपनी किताब में 1925 में लिखा है। 1943 में गाँधीजी और अस्पृश्यता मुक्ति, 1946 में अस्पृश्यों के उद्भव में वर्तमान स्थिति का परिचय व्यक्त करने वाली किताब लिखी है। उनके विचारों में स्पृश्य-अस्पृश्य के उद्भव, उनकी विडम्बनाएँ, उनका सामाजिक-सांस्कृतिक पिछड़ापन, स्पृश्यों के द्वारा उन पर होने वाला दमन आदि के प्रति डॉ. आम्बेडकर ने विचार व्यक्त किए हैं। अस्पृश्यों के शैक्षिक स्तर को ऊँचा उठाने का भी प्रयास किया गया। उन्हें राजनैतिक दर्जा प्राप्त करवाने का उनका ध्येय था। अस्पृश्यता निवारण हेतु उन्होंने कई गतिविधियाँ की थी। महर जाति के पीने के पानी का प्रश्न महर सत्याग्रह एक विशेष व उदाहरणीय आन्दोलन था। उनकी विविध मुहिमों में दलितवर्ग के दक्षिण भारत की स्वमान रक्षण मुहिम उल्लेखनीय है।
 
डॉ. आम्बेडकर ने दबे हुए दलितों के लिए धार्मिक दृष्टिकोण व शुद्धि-अशुद्धि के ख्यालों में बदलने का प्रयास किया था। स्वच्छता सम्बन्धी उनका ठोस कार्य नहीं है तथापि उनके विचारों या लेखन तथा सम्भाषणों में इस सन्दर्भ में विचार किया गया है। स्वच्छ पोषक, पेयजल का अधिकार, जातिगत असमानता, निम्न शिक्षास्तर, कमजोर स्वास्थ्य, गंदे निवास, शौचालय सफाई कार्य, आदि सम्बन्धी उनकी लड़ाई देखी गई है। महर सत्याग्रह, स्वमान रक्षण, जाति प्रथा विरोधी मुहिम आदि आम्बेडकर के कार्य थे।
 
संत गाडगे बाबा महाराज और स्वच्छता आन्दोलन

19वीं सदी में महाराष्ट्र के गाँवों में ग्रामीण स्वच्छता की मुहिम छेड़ने वाले संत गाडगे बाबा का कार्य उल्लेखनीय रहा है। पर्यावरणीय जागृति, रास्तों की स्वच्छता, ऊर्जा बचत की महिमा, बीमारी सम्बन्धित, चिकित्सालय निर्माण आदि क्षेत्रों में बाबा गाडगे की सक्रिय भूमिका रही है। सामाजिक दूषणों के खिलाफ उनकी मुहिम रही है।
 
उनका सही नाम डेबुश्री झींगराजी भानोरकर था। 1876 के 23 फरवरी को महाराष्ट्र के अमरावती जिलों के शेणाओन् गाँव में एक धोबी परिवार में उनका जन्म हुआ था। अपनी जमीन गवांने के बाद मजदूरी करके जीवनयापन कर रहे थे। एक बार वे अन्न की रखनेवाली का कार्य कर रहे थे। उस समय एक साधु वहाँ से गुजरा। साधु ने उनसे अनाज के मालिक के लिए पूछा। उस साधु ने डेबुश्री का मजाक उडाया। इस अनुभव से डेबुश्री की विचारधारा ही बदल गई। विविध घटनाओं से वे परेशान होते रहते थे।
 
ग्रामीण समूहों में निम्न सामाजिक रिवाज धार्मिक, अंध श्रद्धा, भेदभाव, महिलाओं से अन्याय, गरीबों का परावलम्बन गदंगी आदि को लेकर संत गाडगे बाबा ने विरोध प्रदर्शित किया। स्वच्छता आन्दोलन चलाया। ग्राम्य समस्याओं के समाधान में उपाय खोजे। ‘कीर्तनों’ के माध्यम से अधंकार में रहनेवाली जनता को उम्मीद की नई किरण का अनुभव करवाया। मानवता-धार्मिकता व अच्छे जीवन की सीख देते हुए सामाजिक परिवर्तन का प्रयास किया। लोगों के योगदान से रास्तों की सफाई, शैक्षिक संस्थानों, चिकित्सालय, धर्मशालाएँ, पशुओं के लिए आश्रय स्थानों का निर्माण करवाया।
 
पशुबलि का विरोध किया, मेहनतकश जीवन जीने का बोध दिया। समाज के उच्चवर्ग को निम्न वर्ग की निस्वार्थ सेवा के लिए प्रेरित किया। 20 नवम्बर 1956 के दिन उनका निधन हुआ। वे ‘महानसंत’ के नाम से विख्यात बने। भारत सरकार ने 2000-2001 में ‘गाडगे बाबा-स्वच्छता अभियान’ स्वच्छता कार्यक्रम का गठन करते हुए ग्राम्य स्वच्छता का अभियान प्रारम्भ किया। ग्राम्य स्वच्छता सम्बन्ध में अवार्ड घोषित हुआ। महाराष्ट्र की अमरावती यूनिवर्सिटी की संत गाडगे बाबा यूनिवर्सिटी का दर्जा देते हुए संत गाडगे बाबा का सम्मान किया है।
 
डॉ. बिन्देश्वर पाठक

डॉ. बिन्देश्वर पाठक का जन्म 2 अप्रैल, 1943 के बिहार के वैशाली जिले के रामुपर बाघेल नाम के गाँव के रुढिगत मैथिल ब्राह्मण परिवार में हुआ था। डॉ. बिन्देश्वर को बचपन में ही स्वशुद्धिकरम हेतु उनकी दादी ने गाय के गोबर का उपला खिलाया था, गंगा जल पिलाया था। कारण यही था कि वे घर की ‘अस्पृश्य’ कामवाली का गलती से स्पर्श कर गए थे।
 
सन 1968 में मास्टर डिग्री की प्राप्ति हेतु डॉ. पाठक सागर विश्वविद्यालय जाने के हेतु ट्रेन से रवाना हुए। रास्तों में उनके नाती भैय्या मिल गए। डॉ. पाठक विपरीत दिशा में जा रहे थे- वे नाती भाई के अनुरोध से उनके पास ही ठहर गए। डॉ. पाठक को नाती भैय्या के प्रयास से बिहार गाँधी जन्म शताब्दी समिति में काम मिल गया। वहाँ सरयू प्रसाद के सानिध्य में ‘हरिजन उद्धार’ का कार्य आरम्भ किया। उन दिनों बिहार के हरिजनों की स्थिति विकट थी। गंदा उठाने की उन लोगों की विवशता थी। शौचालय के डिब्बे का निकाल करना उनकी मजबूरी थी। डॉ. पाठक को इसके उद्धार हेतु जिम्मेदारी सौपी गई।
 
डॉ. पाठक इस समस्या को निकटता से समझने के लिए ‘बेलिया’ नामक हरिजनों की आबादी में रहने लगे थे। इस कॉलोनी की दो घटनाओं ने उसे बहुत प्रेरित किया था। कॉलोनी के किसी एक परिवार की नवोढ़ा को शादी के पहले ही दिन गंदगी उठाने पर उनके सास-ससुर व पति के द्वारा दबाव बढ़ाया जा रहा था। पुत्रवधू की अनिच्छा होने पर भी उस पर दबाव बढ़ता जाता है। आखिर नई दुल्हन को यह कार्य करना ही पड़ा।
 
दूसरी घटना में एक लड़के को बैल ने टक्कर मार दी। लड़का गिर गया। हरिजन होने से कोई उसे बचाने न गया। तब डॉ. पाठक व उनके मित्रों ने बच्चे को बचाया, किन्तु अस्पताल पहुँचने से पूर्व बच्चे की मौत हो गई। इन दो घटनाओं से डॉ. पाठक विशेष प्रभावित हुए सेवा करने का सुरुर आज भी गत्वर है।
 
डॉ. पाठक ने पाँच साल पुरानी गदंगी उठाने की प्रक्रिया से मुक्त कराने का प्रयास किया है। 1970 में पाठक ने स्वच्छता आन्दोलन को प्रभावोत्मक बनाने हेतु ‘सुलभ स्वच्छता संस्था’ की स्थापना की। इसका मूल उद्देश्य सफाईकर्मी और अस्पृश्य लोगों को यातना मुक्त करना था। इन लोगों के पुनर्वासन, प्रशिक्षण व सामाजिक दर्जे की प्राप्ति का प्रयास किया। ग्रामीण व नगरीय लोगों में स्वच्छता व शौचालय सन्दर्भ में जागरुकता फैलाने का कार्य किया गया। सुलभ टेक्नोलॉजी के द्वारा पर्यावरणीय सुविधा व संरक्षण पैदा किया।
 
डॉ. बिन्देश्वर पाठक ने स्वच्छता सुलभ आन्दोलन के द्वारा भारत व विश्व में विविध देशों में स्वच्छता व स्वास्थ्य के क्षेत्र में क्रान्ति पैदा की। इस संस्थान के द्वारा देश के प्रतिष्ठित स्थानों में 8000 से भी अधिक सार्वजनिक शौचालय का निर्माण हुआ है। ‘पे एण्ड यूज’ की पद्धति का आविष्कार किया। इस सुविधा का तकरीबन दैनिक उपयोग 1.5 करोड़ लोग करते हैं। जिसमें 200 शौचलायों को बायोगेस प्लांट से जोड़ा गया है। जिससे बिजली पैदा की जाती है। सड़कों की बिजली, खाद का उत्पादन बढ़ाने हेतु बिजली का उपयोग किया जाता है। स्वच्छता आन्दोलन के द्वारा देश के 13 लाख पारम्परिक शौचालयों को सुलभ शौचालयों में तब्दील कर दिया गया है। 10 लाख से अधिक सफाईकर्मियों को गंदे कार्य से मुक्ति मिली है। 640 नगरों में वे मुक्त हुए हैं। बिहार के एक जिले से प्रारम्भ होने वाला यह आन्दोलन आज देश के 25 राज्य, 4 केन्द्र शासित प्रदेश व 506 जिलों में तथा अफगानिस्तान, भूटान जैसे देश में भी कार्यरत है।
 
डॉ. बिन्देश्वर पाठक ने पिछले 43 वर्षों से सफाईकर्मियों को गंदे कार्य से मुक्ति, पुनर्वासन, मानवीय गौरव, मानवाधिकार के लिए प्रयास किया है। देश में उन्होंने मुक्ति कार्यक्रम, सुलभ पब्लिक स्कूल प्रशिक्षण केन्द्र आदि की स्थापना की है। अस्पृश्यता के सन्दर्भ में डॉ. पाठक ने सुधारात्मक कार्य करते हुए क्रान्ति पैदा की है।
 
डॉ. पाठक ने 1970 सुलभ स्वच्छता संस्थान के उपरान्त सफाईकर्मियों के बच्चों को अग्रेजी माध्यम में शिक्षा हेतु 1992 में सुलभ पब्लिक स्कूल की स्थापना की। 1994 में ‘सुलभ इन्टरनेशनल स्वास्थ्य स्वच्छता संस्थान’ का प्रारम्भ, पर्यावरणीय सुरक्षा, पोषकयुक्त भोजन, परिवार नियोजन आदि के हेतु किया गया। 1984 में सुलभ इंटरनेशल में पर्यावरणीय स्वच्छता एकेडमी और जन स्वास्थ्य, 1994 में सुलभ इन्टरनेशनल म्यूजियम ऑफ टॉयलेट (शौचालय संग्रहालय) की स्थापना हुई। महिलाओं के व्यावसायिक पुनर्वासन के लिए शिक्षण व प्रशिक्षण हेतु 2003 में नई दिशा, प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना की गई। इन तमाम संस्थानों के द्वारा सफाईकर्मियों की मुक्ति, व्यावसायिक प्रशिक्षण, सफाईकर्मियों के बच्चों की शिक्षा, सामूहिक भोजन सामाजिक उत्थान, मानवीय गौरव व मानवाधिकारों की मुहिम उठाई गई है।
 
डॉ. बिन्देश्वर पाठक और सुलभ इंटरनेशनल कर्मियों को बिहार या भारत ही नहीं किन्तु वैश्विक फलक पर स्वच्छता के विशेष स्थान को अंकित करने का प्रयास करने पर अभिनंदन दिया जा सकता है। इसके परिणाम स्वरूप ग्रामीण व नगरीय इलाकों में सुलभ शौचालय व सार्वजिनक शौचालय द्वारा लोगों का फायदा हो रहा है।
 
सूर्यकान्त परीख और स्वच्छता आन्दोलन

अपनी 86 वर्ष की उम्र में सूर्यकान्त परीख ने स्वच्छता हेतु सफाई व स्वच्छता अभियान चलाया है। ‘सुलभ इंटरनेशनल’ से प्रेरित होकर 1988 में न फायदे न नुकसान की निति से ‘नासा’ फाउंडेशन के कर्मियों ने ‘पे एंड यूज’ के रूप में सामूहिक शौचालयों का निर्माण किया। 1988 में श्री परीख ने मित्रों की मदद से ‘नेशनल सेनिटेशन एंड एन्वायरमेंट इंप्रुवमेंट फाउंडेशन’ की स्थापना की। सार्वजनिक शौचालय निर्माण व उनके रखरखाव की जिम्मेदारी ‘नासा’ ने उठाई है। विविध तीर्थ स्थानों, अस्पताल, सरकारी स्कूल, आश्रम आदि में सार्वजनिक शौचालय व स्नानागारों का निर्माण किया है।
 
शौचालय ही सेवा करने का माध्यम क्यों बनाया ? उस प्रश्न पूछने पर सूर्यकान्त परीख ने बताया था कि, ‘जीवन की यह अनिवार्यता पर होने पर भी लोग खुलेआम चर्चा नहीं कर सकते। शौचालय की बातों से ही लोग चिड़ते हैं। ईश्वर की देन है कि मैं ऐसे कार्य की ओर खींचता चला हूँ।’ 1982-85 के दौरान वे गुजरात ऊर्जा विकास संस्था के एक सदस्य थे। उन्होंने ऊर्जा का पारम्परिक अभ्यास किया है। मल-मूत्र से बायोगैस की उन्हें पहचान थी। सुलभ का उन्होंने बिहार जाकर अनुभव प्राप्त किया था।
 
सुलभ ने गुजरात में भी बायोगैस का प्लांट निर्मित किया, जिसकी बागडोर सूर्यकान्त परीख को दी गई। चार साल में सुलभ के द्वारा उन्हें गुजरात विभाग का अध्यक्ष बनाया गया। अतः शौचालय व स्नानागारों से परीख का प्रत्यक्ष सम्बन्ध था। सुलभ के द्वारा उनका हरियाणा तबादला किया गया। किन्तु उन्होंने यह कार्य छोड़ दिया। तत्पश्चात सफाईक्षेत्र पर उन्होंने ध्यान केन्द्रित किया। गुजरात में सफाईकार्य को अच्छे नेता की आवश्यकता थी। फलतः 63 वर्ष की आयु में उन्होंने नासा फाउंडेशन की संस्थापना की। आज 85 स्थानों पर यह संस्था कार्यरत है।
 
आजतक गुजरात में अछूता रहने वाला यह क्षेत्र अब लोगों का ध्यानाकर्षण केन्द्र बन गया। परीख को चारों ओर से प्रोत्साहन प्राप्त होने लगे। परीख ने सुलभ के अपने अनुभव से विविध योगदानों के द्वारा, सरकार की सहायता के द्वारा अपने कार्य को अंजाम दिया। दाहोद की एक आश्रमशाला से उसके कार्य का प्रारम्भ हुआ। छात्रालयों के शौचालयों से बायोगैस प्लांट तैयार किया गया। भावनगर म्युनिसिपल कॉर्पोरंेशन ने भी इस संस्थान को कुछ प्रोजेक्ट की जिम्मेदारी सौंपी है। नए शौचालय निर्माण में प्रगति देखी गई।
 
अहमदाबाद में अस्पताल, बस अड्डे उद्यान आदि 26 स्थानों पर आधुनिक शौचालय निर्माण किए। सत्ताधार, बहुचराजी, सोमनाथ, डकोर, अंबाजी आदि तीर्थ स्थानों पर स्वच्छता शौचालयों का निर्माण किया। नदी ग्राम के पास से आदिवासी गाँवों के कई घरों में शौचालय बनाए गए।
 
प्रवर्तमान समय में शौचालय के अभाव से बुजुर्गों व महिलाओं को जो आपत्ति उठानी पड़ रही थी इसमें अब सुधार हुआ है। सूर्यकान्त भाई ने आशीर्वादरूप कार्य किया। उन्हें दाताओं से पर्याप्त अनुदान प्राप्त होता है। नासा के कार्यकर्ता अपना सम्पूर्ण सहयोग दे रहे हैं। नासा की बहने गुजरात की अदालतों की सफाई का कार्य करती हैं। संस्थान का लक्ष्य है कि नए सुलभ की स्थापना हो। सूर्यकान्त परीख  और नासा के कार्यकर्ताओं ने स्वच्छता आन्दोलनों के द्वारा गुजरात में एक उदाहरणीय भूमिका निभाई है।
 
केन्द्र सरकार और स्वच्छ आन्दोलन

केन्द्र सरकार के द्वारा 1947 के बाद सफाईकर्मियों की स्थिति में सुधार हेतु कुछ कदम उठाए गए हैं। स्वच्छता, सफाईकर्मियों की मुक्ति, सामाजिक-धार्मिक सुधार, मानवाधिकार आदि हेतु समितियों का गठन किया गया है। राष्ट्रीय-अनुसूचित आयोग, राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग, राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी फाइनेंस एंड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन आदि संगठन कार्यरत हैं। भारत सरकार के जन कल्याण मंत्रालय (सामाजिक न्याय व अधिकारी) (सशक्तिकरण मंत्रालय) ने कुछ जनकल्याण सम्बन्धित कार्यक्रमों को प्रारम्भ किया है। सन 1991-92 में सफाईकर्मियों व उनके आश्रित की मुक्ति की राष्ट्रीय योजना, बच्चों की मैट्रिक पूर्व की स्काॅलरशिप, मैट्रिक पश्चात की स्काॅलरशिप, उच्च शिक्षा की स्काॅलरशिप, राजीव गाँधी राष्ट्रीय स्काॅलरशिप हेतु केन्द्र द्वारा संचालित योजनाएँ तैयार की गई हैं। परम्परागत शौचालयों को सुलभ शौचालयों में तब्दील करने की योजना, नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण अधिनियम) तथा लोगों के शिक्षण हेतु आरक्षण नीति का नियम लागू किया गया है। सन 1993 में सरकार के द्वारा परम्परागत शौचालयों की सफाई हेतु राष्ट्रीय आयोग का गठन किया है। इन तमाम प्रयासों से सफाईकर्मियों को निसंदेह फायदा प्राप्त होने लगा है। विविध अभियान, कार्यक्रम, योजनाओं के द्वारा केन्द्र सरकार अस्पृश्यता निवारण व सफाईकर्मियों के लाभ हेतु प्रयास कर रहे हैं। तथापि सत्य वह है कि वे लोग अब भी पूर्णतः मुक्त नही हुए हैं। आज भी दूरदराज के प्रान्तों में पुरानी परम्पराएँ कार्यान्वित हैं।
 
केन्द्र सरकार ने स्वच्छता अभियान को प्रभावी बनाने हेतु भारत निर्मल अभियान, टोटल सेनिटेशन कम्पेईन (टीएससी), वोटर एण्ड सेनिटेशन मेनेजमेंट ऑर्गनाइजेशन (वास्मो) आदि परियोजनाएँ लागू की गई हैं। यूनेस्को के ‘मिशन सेनिटेशन’ अभियान द्वारा स्वच्छता, स्वास्थ्य, पर्यावरणीय आदि क्षेत्रों में सुधारात्मक कार्य हुए हैं।
 
राज्य और स्वच्छता आन्दोलन

भारत गणतंत्र के विविध राज्यों के द्वारा स्वच्छता सम्बन्धित मुहिम चलाई गई है। विविध अभियान, कार्यक्रमों को अपनाया गया है। विविध राज्यों के गाँव व नगरों की शौचालय सुविधाएँ भिन्न-भिन्न हैं। फलतः विविध संस्कृति, सामाजिकता के मद्देनजर अभियान चलाए जाते हैं।
 
भारत सरकार के द्वारा सभी राज्यों में निर्मल भारत अभियान, टोटल सेनिटेशन कम्पेईन, वास्मो, सार्वजनिक शौचालय निर्माण योजना, चलाए जा रहे हैं। राज्य में भी इसका निरीक्षण-मूल्यांकन आदि किया जा रहा है। बिहार में बिहार सरकार और सुलभ संस्थान द्वारा सार्वजनिक शौचालय, स्वच्छता, पर्यावरणीय जागृति के कार्यक्रम चलाए जाते हैं।
 
महाराष्ट्र के संत गाडगे बाबा सुलभ स्वच्छता अभियान चलाया जाता है। ग्रामीण जन जीवन में इसके परिणाम स्वरूप सुधार हुआ है। गुजरात शौचालय योजना कार्यरत है। नगर एंव ग्रामीण इलाकों में इस योजना को लागू कर गुजरात को स्वच्छ करने का अभियान सन 2008 से चलाया जा रहा है।
 
विविध राज्यों में कार्यरत स्वैच्छिक संस्थान जैसे कि सुलभ इंटरनेशनल, सफाई विद्यालय, नासा फाउंडेशन, हरिजन सेवक संघ, सिटीजन फाउंडेशन, केर इंडिया हुडको आवास (एसोसिएशन फॉर वॉटर सेनिटेशन एडं हाइजिंग) आदि स्वच्छता आन्दोलन के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार की प्रवृत्तियों के संस्थापक व कार्यकर्ताओं के प्रयासों से ग्रामीण व शहरी इलाकों में (झुग्गियों में) स्वच्छता जागृति अभियान, सफाईकर्मी मुक्ति अभियान, शौचालय निर्माण, रखरखाव, स्नानागारों का निर्माण, सफाईकर्मियों का मन्दिर प्रवेश, भेदभाव हीनता आदि का जोर-शोर से प्रसार हो रहा है। स्वास्थ्य सम्बन्धित सुधारात्मक कार्य, पर्यावरणीय चिन्तित सहभोजन, सांस्कृतिक संरक्षण के भी प्रयास इन संस्थानों के द्वारा होते रहे हैं।
 
निष्कर्ष

‘मिशन सेनिटेशन’ सामूहिक स्वच्छता व स्वास्थ्य हेतु अनिवार्य है। स्वस्थ बचपन स्वस्थ राष्ट्र के सूत्र के साथ भारत में स्वच्छता आन्दोलन सक्रिय है। आज के स्वच्छ पर्यावरणीय माहौल का श्रेय महात्मा गाँधी डॉ. बाबा साहेब आम्बेडकर, संत गाडगे बाबा, आदि समाज सुधारक व डॉ. बिन्देश्वर पाठक व सूर्यकान्त परीख जैसे कार्यकर्ता तथा भारत सरकार एवं राज्य सरकारों को प्राप्त होता है।
 
सन्दर्भ सूची

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  2. ओमवेट गेल  दलित और प्रजातांत्रिक क्रान्ति, रावत पब्लिकेशन जयपुर। (2009)
  3. परीख सूर्यकान्त शौचालय (परिचय पुस्तिका)
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  5. ओमवेट गेल दलित और प्रजातांत्रिक क्रान्ति, रावत पब्लिकेशन, जयपुर। (2009)
  6. शर्मा, रामशरण ‘शुद्रो का प्राचीन इतिहास’ राजकमल प्रकाशन, नई। (1992)
  7. पटेल अर्जुन गुजरात में दलित अस्मिता सेन्टर फॉर सोसियल स्टडीज, सूरत। (2005)
  8. मेकवान मार्टिन  विश्वभर में विस्तारित दलितों की आवाज परिवर्तन ट्रस्ट बरोडा। (2000)
  9. सुलभ स्वच्छता आन्दोलन सुलभ इंटरनेशल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन नई दिल्ली।
  10. डॉ. बिन्देश्वर पाठक  स्वच्छता का समाजशास्त्र( पर्यावरणीय स्वच्छता, स्वास्थ्य और सामाजिक उपेक्षा), सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन, नई दिल्ली। (2013)

Website

  1. www.sulabhinternational.org
  2. www.sulabhtoilet museum.org
  3. www.sociology of sanitaition.com
  4. www.nasafoundation.org
  5. www.safai vidhyalaya.org
  6. www.harijan sevak sangh.org
  7. www. Govt of india.com
  8. www.govt of Gujarat.com
  9. www.UNDP.org

डॉ.अनिल वाघेला,
एसोसिएटेड प्रो. एंड हेड ऑफ सोसिओलोजी डिपार्टमेंट.
एम.के.भावनगर यूनिवर्सिटी,
शामलदास आर्ट्स कॉलेज भावनगर, गुजरात, इंडिया-364002

 

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किसानों की आय बढ़ाने में सहायक कृषि-सम्बद्ध क्षेत्र

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किसानों की आय बढ़ाने में सहायक कृषि-सम्बद्ध क्षेत्रHindiWaterMon, 11/11/2019 - 11:40
Source
कुरुक्षेत्र, अक्टूबर 2019

आर्थिक विशेषज्ञों ने सिर्फ प्रति एकड़ कृषि उत्पादकता बढ़ाने पर समूचा ध्यान न केन्द्रित करते हुए कृषि-सम्बद्ध व्यवसायों/गतिविधियों को भी प्रोत्साहन देने पर जोर देना शुरू किया है। कृषि-सम्बद्ध गतिविधियों से विशाल ग्रामीण आबादी को जोड़ने के काफी सकारात्मक नतीजे देखने को मिल सकते हैं और कृषक आय बढ़ाने में आशातीत सफलता हासिल हो सकती है।

वर्तमान सरकार द्वारा वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दोगना करने का संकल्प किया गया है। अगर कृषि क्षेत्र की वर्तमान 3 प्रतिशत वार्षिक विकास दर के आधार पर बात करें तो यह लक्ष्य पूरा होने में 25 वर्षों का लम्बा समय लग सकता है। सम्भवतः यही कारण है कि आर्थिक विशेषज्ञों ने सिर्फ प्रति एकड़ कृषि उत्पादकता बढ़ाने पर समूचा ध्यान न केन्द्रित करते हुए अन्य कृषि-सम्बद्ध व्यवसायों/गतिविधियों को भी प्रोत्साहन देने पर ज्यादा जोर देना शुरू किया है। वर्ष 2019-20 के लिए पेश किए गए केन्द्र सरकार के बजट में भी कृषि सम्बद्ध गतिविधियों को बढ़ावा देने की बात कही गई है। इनमें खासतौर पर खादी, बांस, मधुमक्खी पालन आदि का उल्लेख बजट भाषण के दौरान किया गया। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में फूड प्रोसेसिंग और अन्य उद्योगों की बड़े पैमाने पर स्थापना किए जाने की फौरी आवश्यकता का भी इस बजट में उल्लेख किया गया। इसके लिए ग्रामीण आबादी का बाजार से जुड़ा होना सबसे आवश्यक शर्त है। कमोबेश यही नीतिगत दृष्टिकोण शहरी क्षेत्रों में रहने वाले आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग के लोगों के उत्थान के लिए अपनाया गया और कहने की जरूरत नहीं कि सेवा क्षेत्र के विस्तार से उनकी आमदनी में उल्लेखनीय वृद्धि सम्भव हो सकी। निसंदेह इसी प्रकार उम्मीद की जा सकती है कि कृषि-सम्बद्ध गतिविधियों से विशाल ग्रामीण आबादी को जोड़ने के काफी सकारात्मक नतीजे देखने को मिल सकते हैं और कृषक आय बढ़ाने में आशातीत सफलता हासिल हो सकती है।
 
इस क्रम में यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक होगा कि ग्रामीण क्षेत्रों में बसने वाली आबादी का बड़ा हिस्सा भूमिहीन श्रमिकों और सीमांत कृषकों का है। सिर्फ परम्परागत कृषि कार्यकलापों के बल पर इनकी आमदनी में पर्याप्त वृद्धि कर पाना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि कृषि से इतर किन्तु कृषि सम्बद्ध अन्य कुटीर उद्योगों और मानव-श्रम आश्रित हुनर से जुड़ी गतिविधियों के विकास पर केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा विभिन्न योजनाओं के माध्यम से ध्यान दिया जा रहा है। इसमें स्थानीय लोगों को भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करना और आय बढ़ाने में ऐसी गतिविधियों के महत्व के प्रति उन्हें जागरूक करना सबसे बड़ी चुनौती है।
 
कृषि-सम्बद्ध कार्यों की बदौलत आमदनी बढ़ने के सफल उदाहरण विश्व के कई विकासशील देशों में देखने को मिले हैं। इस अतिरिक्त आय से इन देशों की कृषि पर गुजर-बसर करने वाली बहुसंख्यक आबादी को न सिर्फ गरीबी-रेखा से ऊपर उठाने में मदद मिली बल्कि जीवन, स्वास्थ्य तथा शिक्षा के स्तर में भी काफी प्रगति देखने को मिली। प्रस्तुत लेख में देश के ग्रामीण अंचलों में कृषि कार्यकलापों से आमदनी एवं रोजगार के अवसरों के सृजन करने की उपयोगिता पर चर्चा करते हुए विभिन्न वैकल्पिक व्यवसायों के बारे में भी संक्षिप्त जानकारी देने का प्रयास किया गया है। इसमें ऐसी ही चुनिंदा कृषि-सम्बद्ध गतिविधियों को शामिल किया जा रहा है जिनमें कम-से-कम निवेश की आवश्यकता पड़े तथा बिना किसी विशेष ट्रेनिंग के किसान एवं उनके परिवार के लोग खेती के दौरान बचे खाली समय में इन्हें आसानी से कर अतिरिक्त आमदनी का स्रोत विकसित कर सकें। कच्चे माल से प्रसंस्करित उत्पाद तैयार करने का सबसे अच्छा उदाहरण लिज्जत पापड़ का है, जिसने ग्रामीण इलाकों की 43,000 से अधिक महिलाओं को जोड़कर अत्यंत कम समय में यह सफलता हासिल की।
 
डेयरी और पशुपालन

कृषि के साथ पशुपालन करना बहुत ही पुरानी परम्परा है, लेकिन इसे मुख्य व्यवसाय के तौर पर नहीं किया जाता है। भारत विश्व में शीर्ष दुग्ध उत्पादक के तौर पर अपनी पहचान बना चुका है और लगभग 17 करोड़ टन दूध उत्पादन के साथ वैश्विक दुग्ध उत्पादन का लगभग 19 प्रतिशत का योगदान करता है। आज जरूरत है पशुपालन पर अधिक ध्यान दिए जाने और दूध एवं इससे तैयार होने वाले उत्पादों की मार्केटिंग पर बल देने की। कृषि से प्राप्त विभिन्न उत्पादों के बूते डेयरी का काम बड़ी ही सुगमता से चलाया जा सकता है। बल्कि इनसे प्राप्त गोबर का उपयोग खेतों में खाद के रूप में भी किया जाता है। अच्छी नस्ल के पशुओं और उनकी संततियों के सहारे इस काम का विस्तार भी किया जा सकता है। इसमें गाय और भैंस दोनों प्रकार के पशुओं को शामिल किया जाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि दूध और इससे तैयार होने वाले पनीर, छाछ, घी, मिल्क पाउडर जैसे प्रसंस्कृत उत्पादों से मिलने वाली आय के साथ पशु बिक्री से भी पशुपालकों को आमदनी हो जाती है। इतनी ही नहीं, देशभर में फैली डेयरी कोऑपरेटिव सोसायटीज से भी लाखों की संख्या में लोगों को रोजगार मिला हुआ है। इसी तरह से पशुपालन के जरिए पशुओं के बाल, मांस, चमड़े, एवं हड्डियों पर आधारित उद्योगों को कच्चे माल के तौर पर सप्लाई कर आय बढ़ाई जा सकती है।
 
पशुपालन में सरकारी पहल

पशुपालन को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय कामधेनु आयोग की स्थापना किए जाने की घोषणा बजट में की गई है, इस योजना पर 750 करोड़ रुपए का खर्च किया जाएगा। यही नहीं, डेयरी स्थापना के लिए नाबार्ड से 25 प्रतिशत सब्सिडी दिए जाने का प्रावधान किया गया है। देश में दुधारू पशुओं से रोजगार की बढ़ती सम्भावनाओं के बीच केन्द्र सरकार ने डेयरी उद्यमिता विकास योजना भी शुरू की है। नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड द्वारा 42 डेयरी प्रोजेक्ट्स की शुरुआत करने की घोषणा की गई है और इसके लिए 221 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। इसके अन्तर्गत उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु जैसे राज्यों में दुग्ध उत्पादकता बढ़ाने पर जोर दिया जाएगा।
 
मछली पालन

मछली को आहार के तौर पर सिर्फ पश्चिम बंगाल और दक्षिणी भारत के प्रदेशों में ही नहीं बल्कि देश के प्रायः प्रत्येक हिस्से में बड़े शौक से खाया जाता है। नदियों और ताल-तालाबों से मछली पकड़ने के साथ ग्रामीण-स्तर पर खेत में ऐसे जलाशय बनाकर भी बड़े पैमाने पर मछली पालन का काम किया जा रहा है। इस कार्य में एक बार खेत की खुदाई करने और जलाशय तैयार करने का मोटा खर्च तो अवश्य है, पर इसके बाद यह सतत आमदनी का जरिया भी बन जाता है। एक मोटे अनुमान के अनुसार प्रति एकड़ तालाब से 3 लाख रुपए से अधिक मूल्य की मछलियों का वार्षिक उत्पादन सम्भव है। कृषि तथा शूकर पालन के बचे अपशिष्ट इन मछलियों के लिए आहार का काम करते हैं। इस कार्य में देखभाल की जरूरत पड़ती है और समय≤ पर मछलियों के स्वास्थ्य की जाँच करनी जरूरी होती है। अन्यथा रोग होने पर समूचे तालाब की मछलियाँ मर सकती हैं। प्रायः इसके लिए मत्स्य वैज्ञानिकों की सेवाएँ ली जाती हैं। स्थानीय तौर पर बिक्री के अतिरिक्त बाहरी खरीदारों को भी कॉन्ट्रेक्ट आधार पर बेचने की व्यवस्था करने का विकल्प भी विकसित किया जा सकता है। यहाँ यह जिक्र करना भी प्रासंगिक होगा कि भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक देश बन चुका है।
 
मछली पालन में सरकारी पहल

बजट में मछली पालन और मछुआरा समुदाय को लाभ पहुँचाने पर भी फोकस किया गया है। बजटीय भाषण में यह ऐलान किया गया कि प्रधानमंत्री मत्स्य सम्पदा योजना के अन्तर्गत मात्स्यिकी विभाग में इससे सम्बन्धित मजबूत ढाँचा तैयार किया जाएगा, जो मत्स्य कृषकों को आवश्यक सहायता और संसाधन उपलब्ध करवाने में मदद करेगा।
 
नीली क्रान्ति का उद्देश्य किसानों की आय को दोगुना करने से भी सम्बन्धित है। गत चार वर्षों के दौरान इसके कार्यान्वयन के लिए 1915.33 करोड़ रुपए जारी किए गए। मत्स्य पालन एवं जल कृषि अवसंरचना विकास निधि से मत्स्य पालन तथा सम्बन्धित गतिविधियों में 9.40 लाख मछुआरों एवं उद्यमियों के लिए रोजगार के अवसरों का सृजन करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। इस अवधि में जलकृषि के अन्तर्गत 29,128 हेक्टेयर क्षेत्रफल का विकास किया गया। कुल 7441 पारम्परिक मछली पकड़ने वाली नौकाओं को मोटरचालित नौकाओं में परिवर्तित किया गया। मात्स्यिकी एवं जलकृषि में 7522 करोड़ रुपए की निधि का सृजन किया गया।
 
खाद्य प्रसंस्करण
 
ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय तौर पर उपजने वाले अधिकांश कृषि उत्पादों का मूल्य संवर्धन या वैल्यू एडिशन करके बेचने से अधिक कीमत मिल पाना सम्भव है। उदाहरण के लिए आलू एवं केले के चिप्स, विभिन्न प्रकार के अचार, पापड़, बड़ियां दूध से तैयार होने वाला पनीर, खोया, छाछ जैसे प्रोडक्ट्स, गेहूँ से दलिया, चने से सत्तू, धान से चिड़वा, आम की चटनी, मुरब्बा, विभिन्न मसालों से तैयार स्वादिष्ट बुकनू, मक्के एवं बाजरे का आटा, मूँगफली के भुने हुए दाने, चिक्की, सोयाबीन से दूध, फलों से शर्बत, गन्ने से गुड़, तिलहनों से तेल निकालना, दलहनी फसलों से दालें तैयार करना, धान से चावल निकालना आदि का काम खासतौर पर लिया जा सकता है। ऐसे उत्पादन कार्यकलापों से जुड़कर खाली समय में स्थानीय महिलाएँ अतिरिक्त आय कमा सकती हैं। अमूमन ऐसे कार्यों के लिए पूर्व-प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती है।
 
इनके अतिरिक्त फूलों से इत्र बनाना, लाख से चूड़ियाँ एवं खिलौने बनाना, कपास के बीजों से रुई अलग करना एवं पटसन से रेशे निकालने आदि को भी इस क्रम में आय अर्जन का साधन बनाया जा सकता है।
 
प्रोसेसिंग में सरकारी पहल

सेल्फ एम्प्लॉयमेंट इन एग्रो प्रोसेसिंग के अन्तर्गत सरकारी एजेंसियों द्वारा कृषि प्रसंस्करण-आधारित कौशल प्रशिक्षण दिया जाता है और ऐसी लघु ग्रामीण इकाइयों में तैयार उत्पादों के लिए मार्केटिंग करने में सहायता देकर बड़ी संख्या में ग्रामीण युवाओं को आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दिया जाता है।
 
ग्रामीण कुटीर उद्योग
 
देश के ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन और आय बढ़ाने में कुटीर उद्योगों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ग्राम-स्तर पर अत्यंत लघु इकाई के रूप में कई तरह के कुटीर उद्योग भी शुरू किए जा सकते हैं जिनके लिए कच्चे माल की आपूर्ति स्थानीय तौर पर उपजने वाले कृषि उत्पादों से होती है। ऐसी इकाइयों का सबसे बड़ा फायदा यह है कि बड़ी संख्या में ग्रामीण युवाओं को रोजगार के मौके मिल जाते हैं। ऐसे कुटीर उद्योग में प्रमुख तौर पर कृषि औजार बनाना, मिट्टी के बर्तन बनाना, टोकरियाँ और चटाइयाँ बुनना, बांस से फर्नीचर बनाना, जूट के बोरे/टाट तैयार करना, हस्तचालित पंखे बनाना, मूंज से रस्सी व मोढ़े तैयार करना, बेंत से कुर्सी व मेज बनाना, रूई से रजाई-गद्दे एवं तकिए बनाना, सूत बनाकर हथकरघा निर्मित सूती वस्त्र बनाना, गलीचा तैयार करने जैसे उद्यमों का काम लिया जा सकता है।
 
सरकारी प्रोत्साहन

समाज के कमजोर और पिछड़े वर्गों के उत्थान के उद्देश्य के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों की योजनाओं के निर्देशानुसार बैंको द्वारा ऐसे कुटीर उद्योगों की स्थापना के लिए अत्यंत रियायती दरों पर ऋण की सुविधा दी जाती है। ग्रामीण बैंकों के अलावा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की कृषि विकास शाखाओं एवं सहकारी समितियां इस बाबत अहम भूमिका रही हैं। इन संस्थानों के माध्यम से कृषि-सम्बद्ध आधारित कुटीर उद्योग-धन्धों को आरम्भ करने के लिए सरकार द्वारा संचालित विभिन्न योजनाओं के माध्यम से ग्रामीण बेरोजगारों को कम ब्याज दर तथा आसान किश्तों पर ऋण दिया जाता है।
 
बकरी पालन

औसतन प्रति बकरी से 1200-1500 रुपए तक की कमाई वार्षिक आधार पर सम्भव है। हालांकि दूध, मांस और बकरी की खाल बेचकर इसे 2000 रुपए की आमदनी के स्तर तक भी लाया जा सकता है। इस प्रकार 10-15 को पालकर 15,000 रुपए से लेकर 20,000 रुपए तक की वार्षिक आय सम्भव हो सकती है। इसके अलावा, बकरी के दूध के संग्रहण और मार्केटिंग का नेटवर्क या सरकारी एजेंसी का इसके साथ विकास किया जा सकता है।
 
मधुमक्खी पालन

परंपरागण के जरिए विभिन्न फसलों की पैदावार बढ़ाने के साथ मधुमक्खियों से स्वास्थ्यवर्धक शहद भी अच्छी-खासी मात्रा में मिलता है। मधुमक्खी पालन के काम को किसानों द्वारा अत्यन्त कम लागत में शुरू किया जा सकता है। इनकी देखभाल के लिए ज्यादा समय की आवश्यकता नहीं पड़ती। एक मधुमक्खी छत्ते से औसतन 40 किलोग्राम तक शहद का उत्पादन सम्भव है। प्रति किलो 75 रुपए की विक्रय दर से भी प्रति छत्ता 30,000 रुपए की कमाई की जा सकती है। इस प्रकार 10-15 छत्ते रखने पर 30 से 45 हजार रुपए तक की अतिरिक्त सालाना आमदनी मिल सकती है।
 
सरकारी पहल

सरकार द्वारा भी मधुमक्खी पालन को प्रोत्साहित करने के लिए कई तरह की योजनाएँ संचालित की जाती हैं। इससे सम्बन्धित प्रशिक्षण के लिए भाकृअनुप-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली से सम्पर्क किया जा सकता है। यही नहीं नेशनल बी बोर्ड (http:///nbbA.gov.in) द्वारा भी ऐसे प्रशिक्षण कार्यक्रम और मधुमक्खी पालन का काम शुरू करने के इच्छुक लोगों के लिए वित्तीय सहायता भी उपलब्ध करवाई जाती है।
 
मोती संवर्धन

हाल के वर्षों में यह कार्य भी किसानों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ है। इस काम को शुरू करने के लिए बहुत बड़े ताल या तालाब की आवश्यकता नहीं पड़ती है। मोती संवर्धन में ऑयस्टर पालन से लेकर मोती तैयार करने की सम्पूर्ण प्रक्रिया शामिल है। इसके लिए विशेष ट्रेनिंग लेने की जरूरत पड़ती है। कहने की जरूरत है कि हमारे देश में ही नहीं विदेशों में ऐसे मोतियों की कम माँग नहीं है। इससे सम्बन्धित ट्रेनिंग भुवनेश्वर स्थित सरकारी संस्थान से ली जा सकती है।
 
मशरूम की खेती

हमारे स्वास्थ्य के लिए संतुलित आहार में प्रोटीन का विशेष महत्व है। मशरूम में प्रोटीन प्रचुर मात्रा में होता है। इसके उत्पादन के लिए न तो ज्यादा जमीन की और न ही अधिक पूँजी की आवश्यकता पड़ती है। मशरूम का उत्पादन कर अच्छी-खासी आमदनी हासिल की जा सकती है। इस व्यवसाय के लिए तकनीकी प्रशिक्षण लेना जरूरी है ताकि खाद्य मशरूमों की पहचान के साथ-साथ उन्हें अवांछनीय मशरूमों व अन्य सूक्ष्मजीवों के संक्रमण से बचाया जा सके।
 
मुर्गीपालन

आजकल अंडो एवं मुर्गा मांस का कारोबार करने और मुर्गियों का आहार तैयार करने वाली कितनी ही कम्पनियाँ ग्रामीण युवाओं को पोल्ट्री फार्म स्थापित करने के लिए कॉन्ट्रेक्ट आधार पर हर सम्भव सहायता देती हैं। इसके लिए युवा के पास अपनी जगह होने के साथ मुर्गी पालन के लिए श्रम उपलब्ध करवाने की शर्त रखी जाती है। इन कम्पनियों के साथ करार करने पर ये चूज़ों के साथ मुर्गी आहार भी उपलब्ध करवाती हैं। इन चूंजों को लगभग 6 से 8 सप्ताह तक पालने का जिम्मा युवाओं का होता है। समय≤ पर इन कम्पनियों की ओर से चिकित्सक चूज़ों के वजन और स्वास्थ्य की जाँच भी करने के लिए आते हैं। रोग होने पर आवश्यक दवा कम्पनी द्वारा ही दी जाती है। निर्धारित वजन होने पर ये पली-बढ़ी मुर्गियों को वापिस ले लेते हैं और इसके बदले में प्रति पक्षी पूर्व तयशुदा रकम का भुगतान कर दिया जाता है। इस काम में हर दो माह बाद अच्छी खासी रकम युवाओं को मिल जाती है। कमोबेश इसी तरह से बत्तख पालन का भी काम है जिसके जरिए कम समय और लागत में अच्छी-खासी आमदनी हासिल की जा सकती है। पोल्ट्री के काम में आजकल चिकन के प्रसंस्करित उत्पादों का चलन भी तेजी से बढ़ रहा है। युवा इससे सम्बन्धित ट्रेनिंग लेकर अपनी आय को बढ़ा सकते हैं।
 
सूअर पालन

कृषि-सम्बद्ध कार्यकलापों में यह भी एक ऐसा महत्त्वपूर्ण व्यवसाय है, जिसमें कम-से-कम पूंजी निवेश से बिना अधिक मेहनत के आय अर्जन सम्भव है। कई विदेशी नस्लें हैं जो एक बार में 10-12 तक शिशुओं को एक बार में जन्म देती हैं। यही नहीं, अन्य पशुओं के मुकाबले इनके शिशुओं का वजन कहीं तेजी से बढ़ता है। कृषि और घरेलू अपशिष्ट इन्हें आहार के तौर पर दिया जाता है, इसलिए अत्यंत न्यून खर्च पर इनका पालन कर पाना सम्भव है।
 
गन्ने से तैयार विभिन्न उत्पाद

ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत से ऐसे किसान हैं, जो बैलों या छोटी मशीनों से गन्ने का रस निकालकर उससे गुड़ और शक्कर जैसे उत्पाद बनाते हैं। इन्हें स्थानीय दुकानदारों या लोगों को बेचकर ये थोड़ा-बहुत मुनाफा कमा लेते हैं। इस प्रक्रिया में रोजगार के अवसरों का भी सृजन होता है। किसान मिलों को गन्ना उपज देने और उसके दाम मिलने में काफी समय लगने के कारण छोटे किसान ऐसे छोटे गुड़ निर्माताओं को कम कीमत पर गन्ना देकर नगद राशि लेना बेहतर समझते हैं।
 
रेशम उत्पादन

कृषि-सम्बद्ध गतिविधियों के अन्तर्गत रेशम पालन भी ऐसा कार्य है जिससे किसान अपनी आय को बढ़ा सकते हैं। सरकार द्वारा भी राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत रेशम उत्पादन को कृषि कार्य से सम्बद्ध व्यवसाय के तौर पर मान्यता प्रदान की गई है। इसी कारणवश रेशम के कीड़ों को पालने वाले किसानों को इस योजना के अन्तर्गत दी जाने वाली समस्त सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जाती हैं। यही नहीं, सरकारी तौर पर वन अधिनियम में संशोधन कर गैर-मलबरी रेशम की खेती को वन-आधारित गतिविधियों में शामिल कर लिया गया है ताकि किसानों को रेशम के कीड़ों को जंगल के माहौल में पालने में मदद मिल सके।

सरकारी पहल

कैबिनेट द्वारा रेशम उद्योग के विकास के लिए एकीकृत योजना को मंजूरी दी गई है, इससे वर्ष 2020 तक उच्चस्तरीय रेशम के उत्पादन में 62 प्रतिशत तक वृद्धि होने का अनुमान है। सरकार का लक्ष्य रेशम के क्षेत्र में कार्यरत 85 लाख लोगों की संख्या को बढ़ाकर अगले तीन वर्षों तक संख्या को एक करोड़ तक पहुँचाने का है। यही नही इनमें से 50 हजार लोगों को प्रशिक्षण भी देने का प्रावधान किया गया है। किसानों और रेशम उत्पादक संघों द्वारा बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए केन्द्र सरकार द्वारा वित्तीय सहायता भी उपलब्ध करवाई जाएगी।
 

ग्रामीण महिलाओं को रोजगार

बीज उत्पादन एवं नर्सरी

फल, फूलों और सब्जियों के बीज अत्यंत छोटे होते हैं जो बिना उपचार के नहीं उगते। कुछ का तो सिर्फ प्रवर्धन ही किया जाता है। इसलिए बाग-बगीचों एवं पुष्प वाटिकाओं में फल-फूल एवं शोभाकारी पेड़-पौधों की बागवानी की अन्य फसलों के लिए सामान्यतः बीजों की सीधी बुआई न करके नर्सरी में पहले उनकी पौध तैयार की जाती है। इसके बाद खेतों या बागों में इनका रोपण किया जाता है। नर्सरी में पौध तैयार करने के लिए कई तकनीकों का प्रयोग किया जाता है। इसके लिए ट्रेनिंग लेना भी आवश्यक है। यही नहीं, शिक्षित बेरोजगार भी सब्जी बीज उत्पादन को एक व्यवसाय के रूप में अपनाकर अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं।
 
औषधीय एवं सुगंधित पौधों की खेती

लहसुन, प्याज, अदरक, करेला, पुदीना और चोलाई जैसी सब्जियाँ पौष्टिक होने के साथ-साथ औषधीय गुणों से भी भरपूर हैं। इनसे कई तरह की आयुर्वेदिक औषधि एवं खाद्य पदार्थ बनाकर ग्रामीण युवा अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं। सुगन्धित पौधों की खेती के बारे में अधिक जानकारी के लिए राष्ट्रीय औषधीय एवं सुगंधित पादप अनुसंधान केन्द्र, बोर्यावी, आणंद से सम्पर्क किया जा सकता है।
 
इसी तरह से ग्रामीण क्षेत्रों के लिए कृषि-सम्बद्ध अन्य उपयोगी व्यवसायों का भी काम लिया जा सकता है जिनके माध्यम से रोजगार के सृजन के साथ आमदनी का स्रोत भी बेरोजगार युवाओं के लिए अत्यंत कम पूँजी से विकसित कर पाना सम्भव है। प्रायः सभी तरह की ऐसी गतिविधियों को प्रोत्साहन देने के लिए केन्द्र सरकार और प्रत्येक राज्य सरकारों द्वारा कार्यक्रम संचालित किए जाते हैं। बेहतर होगा कि सम्बन्धित राज्य सरकार के विभागों द्वारा चलाई जा रही योजनाओं, प्रशिक्षण कार्यक्रमों और वित्तीय सहायता के प्रावधानों की जानकारी वेबसाइट से प्राप्त करने का प्रयास करें। इनसे सम्पर्क करें और समुचित विवरण हासिल करने के बाद ही ऐसे कार्य शुरू करें।
 

(लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के कृषि ज्ञान प्रबंध निदेशालय, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली में प्रधान सम्पादक (प्रभारी) हैं।

 

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नैनीताल में झील की उत्पत्ति

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नैनीताल में झील की उत्पत्तिHindiWaterMon, 11/11/2019 - 12:18
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नैनीताल एक धरोहर

इतनी ऊँचाई पर तालाब की मौजूदगी को लेकर वैज्ञानिकों के अलग-अलग मत हैं। भू-गर्भ विज्ञानी एचएफ बलैण्डफोर्ड ने 1877 और डब्ल्यू थिओबॉल्ड ने 1880 में कहा था कि यह झील ग्लेशियर की वजह से बनी। तर्क था कि ग्लेशियर का पानी भू-स्खलन के बाद यहाँ भर गया था। जबकि डॉ. बेल ने इस थ्योरी को नकारते हुए तालाब की उत्पत्ति की वजह भूस्खलन बताया। नैनीताल में हुए 1880 के भूस्खलन के बाद भू-गर्भ विज्ञानी आरडी ओल्डहम ने भूस्खलन की थ्योरी की हिमायत की। कहा कि ऐसा सम्भव हो सकता है कि भूस्खलन की वजह से यह झील अस्तित्व में आई हो। जबकि डब्ल्यू बाल्कर नेमिस्टर ने भू-वैज्ञानिक मिस्टर थिओबॉल्ड के हवाले से लिखा है कि नैनीताल जिले में मौजूद तालाबों के बनने का तरीका तकरीबन एक सा है। ये सभी झीलें ग्लेशियर की देन हैं। इन तालाबों के स्थायित्व की वजह ग्लेशियरों के कारण बने पत्थरों का ढांचा है।
 
ताजा शोधों से यह बात भी उभर कर सामने आई है कि टेक्टॉनिक प्लेटों के खिसकने से भू-स्खलन या भूकम्प की वजह से भी तालाब की उत्पत्ति सम्भव हो सकती है। एक मत यह भी है कि यहाँ से एक नदी गुजरती थी। टेक्टॉनिक प्लेटों के खिसकने से भू-स्खलन या भूकम्प की वजह से अयार पाटा और आलमा की पहाड़ियाँ ऊपर को उठीं। नदी का पानी ठहरने से तालाब का जन्म हो गया। प्रसिद्ध भू-गर्भ विज्ञानी पद्मभूषण प्रो.खड्ग सिंह वल्दिया, नैनी झील की उत्पत्ति की वजह नैनीताल भ्रंश को मानते हैं। प्रो.वल्दिया के अनुसार बलियानाले से नैनापीक पहाड़ी के बीच एक भ्रंश (दरार) गुजर रही है, जिसकी लम्बाई करीब 14-15 किलोमीटर है। यह भ्रंश बलियानाले से होता हुआ दक्षिण पूर्व में तल्लीताल बस अड्डे से जी.एस.बी. परिसर को छूता हुआ परदाधारा, ए.टी.आई. होते हुए उत्तर पश्चिम में देवपाटा तथा नैनी शिखर के बीच छिना पार तक जाता है। प्रो वल्दिया के अनुसार नैनीताल भ्रंश पर जो विवर्तनिक हलचलें हुई, उनके कारण शेर-का-डांडा और नैनी शिखर वाली श्रेणी कुछ ऊपर उठी और अयारपाटा-देवपाटा वाली श्रेणी कुछ धंस गई और साथ ही पश्चिमोत्तर की ओर कुछ झुक भी गई, टिल्ट हो गई। परिणामस्वरूप इन दो पर्वतों के बीच बहने वाली सरिता का प्रवाह अवरुद्ध हो गया, वह बंध गई और बना नैनी सरोवर या नैनीताल। वैज्ञानिकों के अनुसार नैनीताल में पाए जाने वाले पत्थर 2,300 से 2,800 लाख वर्ष पुराने हैं। इन पत्थरों को क्रोल कहा जाता है।

पेड़-पौधे एवं वनस्पति

यहाँ चैड़ी पत्ती वाले वृक्ष अधिक संख्या में है। पया, उदेश, उतीश, खर्सू, रियांज, तिलौंज, फणियोंट, पटगलिया, लौथ, बुरांश तथा बांस की अनेक प्रजातियाँ हैं। पहले अयारपाटा में अयार का घना जंगल था, सम्भवतः इसी कारण इस पहाड़ी का नाम अयारपाटा पड़ा। इसके अलावा सुरई, चीड़, अंगू, चमखिड़क, देवदार, पुतली, चिनार जैसी अनेक प्रजातियों के पेड़-पौधे एवं वनस्पतियां पाई जाती हैं। यहाँ उप हिमालयी क्षेत्र में पाए जाने वाली औषधीय जड़ी-बूटियाँ भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। इनमें अनेक स्थानिय प्रजातियाँ भी हैं। एक दौर में टांकी के क्षेत्र में बुरांश के पेड़ों की भरमार थी, इसे बुरांश का डांडा भी कहा जाता था।
 
वन्यजीव एवं जन्तु

यहाँ काला गिद्ध, भूरा-पीला गिद्ध, स्लेटी-भूरा गिद्ध, सफेद पीठ वाला गिद्ध और दाढ़ी वाला गिद्ध समेत गिद्धों की छह प्रजातियाँ पाई जाती हैं। बाज की पाँच प्रजातियाँ हैं। जंगली बिल्ली, भालू, बाघ, गुलदार, सांभर, सराऊँ, साही, उड़न गिलहरी, घुरड़, काकड़, गीदड़ और लोमड़ी आदि वन्य जीव हैं। यहाँ विविध प्रजातियों के पक्षी हैं, जिनमें कोक्लास, चीड़ फीजंट, रेड जंगल फाउल, रफस बैलीड निल्तावा, वरडीटर, फ्लाई केचर, अल्ट्रा मरीन फ्लाई कैचर, पल्मबस रेड स्टार्ट, ब्लू विश्लिंग थ्रश ( कलचुनिया), बार टेल्ड ट्री कीपर, चेस्टनट बेल्लिड नथैच ओरिएण्टल वाइट आइ, वाइट थ्रोटेड लाफिंग थ्रश, रस्टी चीक्ड सिमिटार वैब्लर, हिमालयन बुलबुल, ब्लैक लोरेड टिट, ग्रीन बैक्ड टिट, ग्रेट बारबेट (न्योली) एवं किंग फिशर आदि प्रजातियाँ शामिल हैं। इधर कुछ समय से नैनीताल में अनेक नई प्रजातियों की रंग-बिरंगी चिड़ियों के झुण्ड भी दिखाई देने लगे हैं। अब नैनीताल के सभी वन क्षेत्रों में कांकड़ और घुरड़ आसानी से देखे जा सकते हैं। नैनीताल के झील में एक दौर में महासीर, हिल ट्राउड, चीन से लाई गई मिरर कार्प और स्थानिक प्रजाति की कार्प मछलियाँ पाई जाती थीं। जिनका वजन 28 से 35 पाउंड तक होता था।

 

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भारत में कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निजी भागीदारी

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भारत में कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निजी भागीदारीHindiWaterMon, 11/11/2019 - 15:26
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कुरुक्षेत्र, अक्टूबर 2019

भारत सरकार बुनियादी ढाँचे के निर्माण में निवेश के लिए अनुकूल माहौल बनाने के प्रयास करती रही है। सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पीपीपी) ने सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को सुविधा प्रदाता और सहायक के रूप में फिर से परिभाषित करने में सफलता प्राप्त की है, जबकि निजी क्षेत्र वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने वाले, निर्माता और सेवाओं या सुविधाओं के संचालक की भूमिका निभाता है। अगर पीपीपी को सफलतापूर्वक लागू किया जाए तो इससे संचालनात्मक दक्षता, टेक्नोलॉजी सम्बन्धी नवसृजन, प्रभावी प्रबंधन और अतिरिक्त वित्त तक पहुँच सुनिश्चित की जा सकती है।
 
सार्वजनिक निजी भागीदारी (जिसे पीपीपी, 3पी या पी3 भी कहा जाता है। सार्वजनिक और निजी क्षेत्र केक दो या दो से अधिक संगठनों के बीच एक ऐसा सहकारी गठबंधन है जिसकी विशेषता इसका दीर्घावधि का होना है। इतिहास में भी इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि सरकारों ने सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बीच इस तरह के गठजोड़ बनाए हैं। 20वीं सदी के बाद के वर्षों और 21वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में इस बात के ढेरों प्रमाण मिलते हैं। दुनिया भर में सरकारों ने विभिन्न प्रकार के पीपीपी गठबंधन बनाए।
 
सार्वजनिक-निजी भागीदारी दृष्टिकोण को अपनाने से कृषि, स्वास्थ्य, विज्ञान और टेक्नोलॉजी, शिक्षा और बुनियादी ढाँचे के विकास जैसे अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से कामयाबी की मिसालें बड़ी तादाद में सामने आई है। दरअसल, देश में कृषि विकास के विभिन्न चरणों में इसी तरह की पहल करने के प्रयास किए गए लेकिन इस दिशा में विशेष तेजी कृषि टेक्नोलॉजी प्रबंधन एजेंसी (एटीएमए) को लागू करने के बाद देखी गई। (पोन्नुसामी और अन्य 2012)।
 
भारत सरकार पी3 को सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (प्रायोजक प्राधिकारी) और निजी क्षेत्र के उपक्रम (ऐसे कानूनी उपक्रम जिनकी 51 प्रतिशत या इससे अधिक हिस्सा पूंजी निजी क्षेत्र के साझेदार के पास हो) के बीच साझेदारी के रूप में परिभाषित करती है जिसका उद्देश्य एक निश्चित अवधि (छूट की अवधि) के लिए सार्वजनिक उद्देश्य वाले बुनियादी ढाँचे का सृजन और/या प्रबंधन वाणिज्यिक शर्तों पर करना है। इसमें निजी साझेदार का चयन पारदर्शी और खुली प्रक्रिया के जरिए किया जाता है।
 
भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के वित्तीय मामलों के विभाग के अन्तर्गत वर्ष 2006 में स्थापित पीपीपी सेल पीपीपी मूल्यांकन समिति (पीपीपीएसी) के लिए सचिवालय के तौर पर तथा वायविलिटी गैप फंड द्वारा आर्थिक मदद हेतु प्रस्तावित परियोजनाओं हेतु एम्पावर्ड समिति (ईसा) और एम्पावर्ड संस्थान (ईआई) के स्वरूप में कार्य करता है। विश्व बैंक के अनुसार, कार्यान्वयन के विभिन्न पड़ावों में लगी 1500 पीपीपी परियोजनाओं के साथ,भारत पीपीपी (मॉडल) के प्रति तत्पर तमाम राष्ट्रों में अग्रणी स्थान पर है। इकोनॉमिक इंटेलिजेंस यूनिट की 2015 की इन्फ्रास्कोप रिपोर्ट के अनुसार भारत पीपीपी परियोजनाओं के कार्यरूप में पूर्ण परिणति के मामले में प्रथम, उप-राष्ट्रीय पीपीपी सक्रियता में तृतीय एवं पीपीपी परियोजनाओं हेतु आदर्श वातावरण के मामले में पांचवे स्थान पर है। (www.ppindia.gov.in)
 
महाराष्ट्र में बुनियादी ढाँचे के विकास की प्रमुख परियोजनाएँ ( 50 प्रतिशत से अधिक) पी3 मॉडल पर ही आधारित हैं। 2000 में कर्नाटक, मध्यप्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु जैसे दूसरे राज्यों ने भी इस मॉडल को अपनाया। अगर क्षेत्रवार विचार करें तो संख्या की दृष्टि से कुल परियोजनाओं में से 53.4 प्रतिशत और लागत के लिहाज से कुल लागत में से 46 प्रतिशत लागत की परियोजनाएँ पीपीपी मोड में चलाई जा रही है। इसके बाद बंदरगाहों का स्थान है जिनका परियोजनाओं की कुल संख्या में 8 प्रतिशत और हिस्सा है। (कुल लागत के अनुसार 21 प्रतिशत)। बिजली, सिंचाई, दूरसंचार, जल आपूर्ति और हवाई अड्डा जैसे क्षेत्रों में भी पी3 मॉडल से तेजी आई है। आवागमन संरचना में पीपीपी के विकास में भारत का रिकॉर्ड अच्छा है। यद्यपि कृषि आधारित संरचना के मामले में पीपीपी मॉडल को उसी उत्साह के साथ समन्वित नहीं किया गया।
 
भारतीय कृषि में पीपीपी के आयाम

भारत आज दुनिया की सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है जिसकी वार्षिक विकास दर का लक्ष्य 8 प्रतिशत है। देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर को इस रफ्तार से आगे बढ़ाने के लिए बुनियादी ढाँचे से सम्बन्धित सेवाओं का विकास बहुत जरूरी है और सार्वजनिक-निजी भागीदारी यानी पीपीपी की पहचान इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सर्वाधिक कारगर प्रणाली के रूप में की गई है। (पोन्नुसामी, 2013)।
 
पिछले वर्षों में भारतीय कृषि की औसत वार्षिक विकास दर 2.7 प्रतिशत रही है और यह अर्थव्यवस्था का सबसे धीमी गति से विकास करने वाला क्षेत्र बना हुआ है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना में चार प्रतिशत की एक समान औसत दर हासिल करने में विफलता से इस बात का संकेत मिलता है कि कृषि क्षेत्र में हमारे सामने बड़ी चुनौती है। इसके लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच साझेदारी के जरिए नवाचार को बढ़ावा देने की तत्काल आवश्यकता भी रेखांकित होती है। (पोन्नुसामी, 2013)।
 
पिछले वर्षों में भारतीय कृषि की औसत वार्षिक विकास दर 2.7 प्रतिशत रही है और यह अर्थव्यवस्था का सबसे धीमी गति से विकास करने वाला क्षेत्र बना हुआ है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना में चार प्रतिशत की एक समान औसत दर हासिल करने में विफलता से इस बात का संकेत मिलता है कि कृषि क्षेत्र में हमारे सामने बड़ी चुनौती है। इसके लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच साझेदारी के जरिए नवाचार को बढ़ावा देने की तत्काल आवश्यकता भी रेखांकित होती है। (पोन्नुसामी, 2013)।
 
कृषि के विकास और कृषक समुदाय के उत्थान के लिए कुछ निजी संस्थान कार्य कर रहे हैं। महाराष्ट्र इस परिवर्तनात्मक दिशा में पहले करने वाला प्रथम राज्य बना जिसने समेकित कृषि विकास हेतु अपनी तरह का अभिनव महाराष्ट्र पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप शुरू की जिससे चुनिंदा फसलों हेतु समेकित वैल्यू चेंस का पीपीपी एवं सह-निवेश द्वारा विकास किया जा सके।
 
मंडल के अनुसार (2014), पार्टनरशिप का विकास पाँच विभिन्न चरणों द्वारा होता है जोकि चक्रीय क्रिया भी हो सकती है।
 
कृषि के विभिन्न पक्षों में पीपीपी दृष्टिकोण

कृषि क्षेत्र में पीपीपी मॉडल एक (महत्त्वपूर्ण बदलाव का कारक) बड़ा बदलाव हो सकता है। यह सभी स्टेकहोल्डरों की सामूहिक शक्तियों का समन्वय करते हुए कृषि क्षेत्र में विभिन्न स्तरों पर (सभी को एक साथ लाते हुए) महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ला सकता है।
 
कृषि के विभिन्न पक्षों जैसे अनुसंधान और विकास, गुणवत्ता संवर्धन, फसल उत्पादन, कृषि प्रसार और विपणन में पीपीपी दृष्टिकोण अपनाया जा सकता है। पीपीपी सम्पर्कों के प्रकार्यात्मक और संचालनात्मक घटक साझेदारों की क्षमता, बजट और समयावधि के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न होते हैं।
 
अनुसंधान में पीपीपी

विकासशील देशों में कृषि जैव प्रौद्योगिकी, जैव सुरक्षा विनियमन, बौद्धिक सम्पदा अधिकार (आईपीआर) और टेक्नोलॉजी हस्तातंरण के तौर-तरीकों के बारे में पीपीपी के माध्यम से किए गए कई अध्ययनों में गरीबों की मदद पर जोर दिया गया। (स्पीलमैन और अन्य, 2007)।
 
भारत में कई अनुसंधान कार्यक्रमों में साझेदार के रूप में निजी हितधारकों और अनुसंधानकर्ताओं के साथ और अधिक सम्पर्क की जोरदार वकालत की गई क्योंकि उन्हें पीपीपी के बीच बेहतर तालमेल के लिए कई तरह के संस्थागत नवाचार तथा प्रोत्साहनों की आवश्यकता होती है। इससे उत्पादन का स्वामित्व लेने और उन्हें प्रभावी तरीके से बढ़ावा देने में सुधार होता है। इनमें से कुछ पहल नीचे दी गई हैं।
 
कृषि बायो-टेक्नोलॉजी सहायता कार्यक्रम (एबीएसपी)-द्वितीय मॉडल जिसमें माहयको, भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान (आईआईवीआर), कृषि विज्ञानि विश्वविद्यालय (यूएएस) धारवाड़ और तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय (टीएनएयू) कोयम्बटूर, बैंगन की ऐसी ट्रांसजेंडर यानी परिवर्तित जीन वाली किस्मों के विकास में लगे हैं जो फ्रूट एंड शूट बोरर नाम के कीट से बेअसर रहती हैं। इस परियोजना में एबीएसपी ने वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था की, जैव टेक्नोलॉजी विभाग ने विनियामक ढाँचा तैयार करने में मदद दी, माहयको ने क्राय जीन उपलब्ध कराया और आईआईवीआर ने प्रतिरोध क्षमता वाली किस्मों के विकास की जिम्मेदारी ली।
 
सब्जियों से सम्बन्धित बायो-टेक्नोलॉजी के बारे में पीपीपी परियोजना एशिया और अफ्रीका में ब्रैसिकाज नाम के कीट के प्रबंधन के बारे में है। कोलेबोरेशन ऑन इनसेक्ट मैनेजमेंट फॉर ब्रैसिकाज इन एशिया फंड अफ्रीका (सीआईएमबीएए) के अन्तर्गत भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, ताइवान के एशियन वेजिटेबल रिसर्च एण्ड डेवलेपमेंट सेंटर, ऑस्ट्रेलिया की मेलबर्न यूनिवर्सिटी, ब्रिटेन के ग्रीनविच विश्वविद्यालय के प्राकृतिक संसाधन संस्थान, अमरिका के कॉर्नेल विश्वविद्यालय, और नुनहेम्स इंडिया ने संयुक्त निवेश और सहयोगपूर्ण अनुसंधान के जरिए जैव खेती, प्रिसीजन यानी सुनिश्चित खेती, बीमारियों और सूखे के प्रति प्रतिरोध क्षमता रखने वाली परिवर्तित-जीन वाली किस्मों के उत्पादन के क्षेत्र में सहयोग किया। इस अनुसंधान से जलवायु परिवर्तन जैसी उभरती समस्याओं के समाधान में मदद मिलेगी। (एपीसीओएबी, 2007)।
 
चूँकि भारत में छोटे और मझोले किसानों को निर्यात के उद्देश्य से अंगूर की खेती के वास्ते व्यक्तिगत रूप से ‘यूरेपगैप’ प्रमाणपत्र हासिल करना बड़ा महंगा है, इसलिए माहग्रेप्स ने किसानों की सहकारी समितियों को यह प्रमाणपत्र और अन्य सहायता देने की व्यवस्था कर ली है। इसके लिए महाराष्ट्र राज्य कृषि विपणन बोर्ड (एमएसएएमबी), अंगूरों के एनआरसी, राष्ट्रीय सहकारिता विकास आयोग (एनसीडीसी), अपीडा और एनएचबी को योजना में सहभागी बनाया गया है। इसका फायदा यह हुआ कि सहकारी समिति के सदस्यों को प्रमाणपत्र के लिए सिर्फ 1200 रुपए देने पड़े जोकि व्यक्तिगत सदस्यता हासिल करने की लागत से काफी कम है। (रॉय और थोराट, 2006)।
 
विश्व बैंक की आर्थिक सहायता से संचालित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का नेशनल एग्रिकल्चर इमेजरी प्रोग्राम (एनएआईपी) परियोजना के अन्तर्गत सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के साझेदारों का सहयोगात्मक बाजारोन्मुख गठबंधन तैयार किया गया और गेंदे के फूलों, कपास, कृषि वानिकी, कोबिया, न्यूट्रास्यूटिकल्स, ट्रिकोग्रामा उत्पादन आदि के क्षेत्र में 51 मूल्य श्रृंखला बनाई गई। (कोचु बाबू और अन्य, 2011)।
 
रीकॉम्बिनेंट टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से बीमारियों के इलाज के टीकों के विकास, बीमारियों के निदान के लिए एंजाइम से सम्बद्ध इम्यूनोसोर्बेट एसे (एलिस) परीक्षण किट, जीन साइलेंसिंग, स्टेम सेल और जीन चिकित्सा बायो टेक्नोलॉजी, अनुसंधान और विकास के कुछ प्रमुख क्षेत्र हैं। (एपीसीओएबी, 2007)।
 
कृषि में महिलाओं को मुख्यधारा में लाने में पीपीपी मॉडल का उपयोग भारत के छह राज्यों में एक्शन रिसर्च मोड में प्रारम्भ किया गया जिससे कृषक महिलाओं को टेक्नोलॉजी और बाजार तक पहुँच का फायदा मिला। (पोन्नुसामी और अन्य, 2012)। संयुक्त उद्योग और संस्थाओं के बीच पारस्परिक साझेदारी पर जोर देने से नेटवर्किंग की सम्भावनाएँ अधिकतम करने में मदद मिल सकती है और कृषि में परिणामोन्मुखी अनुसंधान से किसानों को बहुमूल्य उत्पाद प्राप्त हो सकते हैं।
 
कृषि प्रसार में पीपीपी
 
पीपीपी का दायरा बहुत बड़ा है और इसके अन्तर्गत प्रसार सेवाएँ भी शामिल हैं जिससे चिरस्थाई विकास के लिए टेक्नोलॉजी अपनाने को बढ़ावा मिल सकता है। कृषि टेक्नोलॉजी प्रबंधन एजेंसी (एटीएमए) ने बिहार में बासमती चावल और औषधीय पौधों, आन्ध्रप्रदेश में मक्का और महाराष्ट्र में आम के उत्पादन तथा वितरण में जिंस पर आधारित समूहों को निजी क्षेत्र की एजेंसियों के साथ साझेदारी करने में मदद की। (श्रीनाथ और पोन्नुसामी, 2011)।
 
पीपीपी प्रसार सम्बन्धी सुधार उन लोगों तक पहुँचने का तरीका है जिन तक अभी तक पहुँचा नहीं जा सका है। हालांकि तत्काल नतीजे प्राप्त करना मुश्किल है क्योंकि प्रसार के कार्य में किसानों की भागीदारी बढ़ाने और उन्हें नए तौर-तरीके अपनाने को राजी करने के लिए उनकी सोच में बदलाव जरूरी है जिसमें पीपीपी को काफी वक्त लगसकता है। प्रसार कार्य में पीपीपी के साझेदारों का लक्षित लोगों के साथ लगातार तीव्र और चिरस्थाई तालमेल होना जरूरी है ताकि अध्ययन के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। संस्थाओं को अपने ज्ञान, टेक्नोलॉजी और संसाधनों को अन्य लोगों के साथ स्वेच्छा से बांटने के लिए आगे आना चाहिए क्योंकि पीपीपी के तरीके में सभी पक्षों का फायदा है।
 
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल एक्सटेंशन मैनेजमेंट (मैनेज) ने धानुका एग्रीटेक समूह, जोकि एक कीटनाशक (उत्पादक) कम्पनी है तथा कृषि विभाग के साथ एक रूपरेखा तैयार की है, जिसमें मध्यप्रदेश के कृषि विभाग के साथ साझीदारी है, तथा होशंगाबाद जिले के किसानों को विभिन्न प्रकार की सेवाएँ देने का लक्ष्य है।
 
बाजार और बुनियादी ढाँचा विकास में पीपीपी

भारत सरकार का आदर्श कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम प्रत्यक्ष विपणन को बढ़ावा देता है ताकि किसानों को उनकी उपज का बेहतरीन दाम मिले और बैंकों व वित्तीय तथा लॉजिस्टिक कम्पनियों के साथ ऐसी साझेदारी कायम हो जिससे न्यूनतम लागत पर वित्त सुविधा मिले और उपज का विपणन सम्भव हो। इससे विपणन के बुनियादी ढाँचे के निर्माण में निजी निवेश आकृष्ट करने और प्रतिस्पर्धा के सृजन में मदद मिलेगी तथा किसानों को बेहतर सेवाएँ भी मिल सकेंगी। (अज्ञात, 2005)
 
भारत में इक्रिसैट के हाइब्रिड पेरेंट्स रिसर्च कंसोर्टिया ने चारा फसलों, ज्वार और अरहर के व्यावसायीकरण के लिए 34 छोटी और मझोली घरेलू बीज कम्पनियों को एक साथ ला दिया है। इससे देश में घरेलू बीज कम्पनियों और विस्तृत बीज बाजार, दोनों ही की वाणिज्यिक व्यवहार्यता बढ़ाने में मदद मिली है। आईटीसी ई-चौपाल और राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के सार्वजनिक-निजी साझेदारी से ई-मार्केटिंग के मॉडल ने छोटे किसानों को व्यावहारिक विकल्प उपलब्ध कराया है.
 
अनाज भंडारण के मामले में आने वाली चुनौतियों एवं कमियों से निपटने के लिए, सरकार ने फूड कार्पोशन ऑफ इंडिया (एफसीआई) के द्वारा एक चरणबद्ध कार्यान्वयन नीति के तहत स्टील के आधुनिक भंडारगृहों, जिनकी क्षमता 10 मिलियन मीट्रिक टन होगी, के वर्ष 2020 तक पीपीपी मॉडल के तहत निर्माण का निर्णय किया है।
 
कृषि एवं कृषक कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार के अनुसार, 2016 के आंकड़ों के मुताबिक माइक्रो इरीगेशन अर्थात लघु सिंचाई के अन्तर्गत मात्र 8.6 मिलियन हेक्टेयर भूमि है जोकि भारत की कुल कृषि योग्य भूमि का लगभग 5 प्रतिशत है। पीपीपी माइक्रो इरीगेशन के प्रयोग को सुविधाजनक बनाते हुए इरीगेशन अर्थात सिंचाई क्षमता में वृद्धि कर सकती है। पीपीपी के द्वारा समन्वित माइक्रो इरीगेशन नेटवर्क बनाए जा रहे हैं।
 
पीपीपी मॉडल का कृषि पर असर

जमीनी-स्तर पर पीपीपी का अच्छा असर तमाम उपलब्ध सार्वजनिक और निजी कौशलों को एकजुट करने और सहयोग हासिल करने में संस्थाओं की सहभागिता पर निर्भर करता है। पीपीपी ने कृषि उत्पादों के बाजार से सम्बन्धों, कृषक परिवारों में क्षमता निर्माण, जोखिम और अनिश्चितताएँ, कम करने, सामाजिक लामबंदी और किसानों के आर्थिक सशक्तिकरण के बाजार से सम्बन्धों के क्षेत्र में सकारात्मक बदलाव ला दिया है। (पोन्नुसामी, 2013)।
 
ज्ञान प्रबंधन

पीपीपी के सन्दर्भ में ज्ञान प्रबंधन रणनीति के नतीजे बढ़े हुए उत्पादन और बेहतर सेवाओं के रूप में सामने आ सकते हैं। पीपीपी दृष्टिकोण से बिहार के पटना जिले में चावल की परम्परागत किस्मों के स्थान पर बासमती चावल, औषधीय तथा सुगंधित पौधों और मशरूम की खेती को बढ़ावा देने में मदद मिली है। इसी तरह आध्रप्रदेश के चित्तूर जिले में मूंगफली और धान के स्थान पर मक्का की खेती को अपनाने से किसानों की आमदनी में वृद्धि हुई है और मक्का की फसल का क्षेत्र बढ़ाने में मदद मिली है। (श्रीनाथ और पोन्नुसामी, 2011)।
 
परिष्कृत टेक्नोलॉजी का विकास

पीपीपी से उच्च लागत वाली परिष्कृत टेक्नोलॉजी के विकास में मदद मिली है। परिणामस्वरूप प्रबंधन की दक्षता में सुधार हुआ है और संस्थागत बौद्धिक सम्पदा प्रबंधन कौशल तथा सार्वजनिक क्षेत्र में उपलब्ध टेक्नोलॉजी के बारे में सूचनाओं का डाटाबेस भी समृद्ध हुआ है। विश्व की नौ प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सुपर चारे के विकास और 2004 में चावल की जीनोम सीक्वेंसिंग पूरी हो जाने से पीपीपी दृष्टिकोण के जरिए अत्यन्त परिष्कृत टेक्नोलॉजी अपनाना सम्भव हुआ है। (खुश, 2005)।
 
पारिस्थितिकीय आघातों के प्रति किसानों को लचीला/सहनशील बनाना तथा जोखिम और अनिश्चितताएँ कम करना
 
पीपीपी मॉडल के द्वारा कृषि क्षेत्र को मौसमी आघातों के प्रति तैयार करने एवं किसानों को स्वयं को बीमा आदि के द्वारा जोखिम मुक्त करने में सहायता मिली है। पीपीपी में फसलों के खराब होने, फसली महामारियों और बीमारियों, प्राकृतिक आपदाओं और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन से सम्बन्धित जोखिमों और अनिश्चितताओं को कम करने की क्षमता है। भारत में अंगूर के निर्यात के मामले में खाद्य सुरक्षा सम्बन्धी बाधाओं को पीपीपी दृष्टिकोण के जरिए दूर किया गया (नैरोड और अन्य, 2007)।
 
कृषि का मशीनीकरण

कृषि उपकरण निर्माता प्रमुख कम्पनी जॉन डीरे ने गुजरात के जनजातीय इलाकों में यांत्रिक खेती को बढ़ावा देने के लिए पीपीपी के माध्यम से आठ कृषि उपकरण संसाधन केन्द्रों की स्थापना की जिनमें से प्रत्येक केन्द्र के अन्तर्गत 600 एकड़ जमीन आती थी। (रेड्डी और राव, 2011)।
 
सामाजिक लामबंदी

विकास से सम्बन्धित विभाग स्वयंसहायता समहों, किसान क्लबों, सामुदायिक समूहों, किसान सहकारी समितियों और परिसंघों के जरिए बेहतर सामाजिक सम्पर्क विकसित करने के लिए साझेदारियाँ विकसित करते हैं। कृषि टेक्नोलॉजी प्रबंधन एजेंसियों (एटीएमए) ने नेल्लुरु, संगरूर, रत्नगिरी, चित्तौड़ और पटना में बड़े पैमाने पर किसान हित समूहों का गठन किया है। उन्हें निजी क्षेत्र के प्रसारकर्मियों के साथ सहयोग के लिए मदद दी जाती है ताकि कई फार्म उत्पादों का सीधे तौर पर विपणन हो सके (श्रीनाथ और पोन्नुसामी, 2011)। यूएएस, बेंगलुरु ने ग्रामीण बायोफ्यूल उत्पादक एसोसिएशन के गठन में मदद की जिसने 75 गाँवों के किसानों को आत्मनिर्भर उद्यमिता मॉडल में अंशदान करने एवं मदद करने की सुविधा प्रदान की। (एपीएएआरआई, 2012)। 2011 में जनजातीय पुरुष और महिला कृषकों को शामिल करके उत्पादकों के एक समूहका गठन किया गया जिसका उद्देश्य ओडिशा के खार्दा जिले में पीपीपी मोड के जरिए मक्का का उत्पादन और बिक्री करना था। (पोन्नुसामी, 2014।)
 
उत्पादन में वृद्धि

भारत को बीटी कपास टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण के बारे में मोनसेंटो के साथ वार्ता भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और भारत सरकार के बायो टेक्नोलॉजी विभाग ने शुरू की। बाद में माहिको ने मोनसेंटो के साथ साझेदारी कर ली जिसके परिणामस्वरूप भारत में बीटी कपास की शुरुआत हुई। (एपीसीओएबी, 2007)। स किस्म के कपास को अपनाने से उत्पादन क्षेत्र और उत्पादकता में बढ़ोत्तरी हुई तथा उत्पादन की वास्तविक लागत में कमी आई। (रामासुंदरम और अन्य, 2011)
 
अनाज उत्पादन इंडस्ट्री में मिली अद्वितीय सफलता एवं पूर्णकालिक प्रभावों में बायोटेक्नोलॉजी का सफल प्रभाव दिखता है। इसी सफलता को तिलहन औ दलहनी फसलों जो सघन-आयातित हैं, में पीपीपी मॉडल की मदद से दोहराया जा सकता है।
 
अनुकूल माहौल तैयार करने में पीपीपी का योगदान भारत के आर्थिक परिदृश्य में स्पष्ट नजर आने लगा है जहाँ पिछली तीन पंचवर्षीय योजनाओं में बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं में पीपीपी परियोजनाओं की संख्या बढ़ी है और 12वीं योजना में तो इनके निवेश खर्च में भी 50 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इस तरह की परियोजनाओं में आर्थिक बुनियादी ढाँचे वाली परियोजनाओं का हिस्सा काफी अधिक है। पीपीपी ठेकों के प्रकार की दृष्टि से लगभग सभी ठेके बनाओ-चलाओ-सौंप दो (बीओटी)/बनाओ-रखो-चलाओ-सौंप दो (बीओओटी) किस्म की हैं जिनमें या तो टॉल या वार्षिक राशि वाला मॉडल अपनाया जाता है। पीपीपी की ज्यादातर परियोजनाएँ सड़क निर्माण क्षेत्र की हैं (कुल परियोजनाओं में से 53.43 प्रतिशत) और इसके बाद शहरी विकास परियोजनाओं का स्थान है (20.05 प्रतिशत) और इसके बाद बिजली परियोजनाओं का नम्बर (7.39 प्रतिशत) आता है।
 
स्मार्ट वैल्यू चेन्स (मूल्य श्रृंखला) में निवेश
 
कृषि क्षेत्र का एक उदीयमान अनुक्षेत्र, फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री, जोकि निजी एवं सरकारी दोनों ही प्रकार के निवेशों द्वारा संरक्षित है, कृषि, विस्तार/ विकास सेवाओं, मूल्य संवर्धन, बिचौलियों का निराकरण तथा पूर्ववर्ती एवं अग्रणी कड़ियों के माध्यम से सप्लाई चेन (विपणन श्रृंखला) में सुधार आदि ये सभी कार्यों के लिए (सुविधा प्रदान) प्रावधान कर सकता है।
 
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के कृषि हेतु नया दृष्टिकोण (न्यू विजन फॉर एग्रीकल्चर) द्वारा उत्प्रेरित होकर महाराष्ट्र पीपीपी आईएडी समन्वित मूल्य श्रृंखलाओं के निर्माण हेतु प्रस्तुत है। वर्ष 2013 में 11 परियोजनाओं की शुरुआत के बाद इसमें वर्ष 2014-15 में 33 मूल्य श्रृंखला कार्यक्रमों का दायरा विस्तार किया जिसमें 60 से ज्यादा कम्पनियाँ सहभागी रहीं। 15 मुख्य फसलों को केन्द्रित करते हुए इसने अब तक आधा मिलियन किसानों पर पहुँच बना ली और 2020 तक 5 मिलियन किसानों का लक्ष्य रखा है।
 
भारत सरकार फसल कटाई उपरान्त विपणन श्रृंखलाओं को एकीकृत करने हेतु प्रारम्भिक तौर पर पीपीपी परियोजनाएँ बना रही हैं जिनमें मुख्य रूप से पूर्ण नाशवान फसले एवं पुष्पीय वस्तुएँ होंगी जो एक ‘हब और स्पोक’ मॉडल के तहत कृषि संचयन केन्द्र और प्राथमिक प्रसंस्करण केन्द्र होंगे, जो अग्रगामी एवं पूर्ववर्ती कड़ियों द्वारा समर्थित होंगे।
 
कृषि क्षेत्र में पीपीपी मॉडल की सीमाएँ

भारत में निजी क्षेत्र की बीज कम्पनियाँ हाइब्रिड यानी संकर बीज पर ध्यान केन्द्रित कर रही हैं जिनमें मुनाफा काफी ऊँचा और निश्चित होता है। लेकिन किसानों के फायदे के लिए, खासतौर पर अपने पूर्वजों के तौर-तरीकों से हाइब्रिड बीज से खेती करने वाले किसानों के लिए पीपीपी मॉडल में कई कमियाँ हैं जिनसे किसानों को फायदा नहीं मिल पाता। (रामासुंदरम और अन्य, 2011)।
 
पीपीपी दृष्टिकोण की चुनौतियाँ और आगे का रास्ता

भारत में पीपीपी क्षेत्र अब भी नया और हाल का है। किसी भी आर्थिक परिघटना प्रभाव और असर को मापने के लिए उसका एक खास न्यूनतम अवधि गुजर जाना जरूरी होता है। भारत में सार्वजनिक-निजी साझेदारी का ज्यादातर कार्य पिछले 7 से 10 वर्षों में हुआ है। जाहिर है कि इस सम्बन्ध में रिपोर्ट और समीक्षाएँ भारतीय अर्थव्यवस्था पर सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पीपीपी) के सकारात्मक प्रभाव की ओर इशारा करते हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों ने पीपीपी के लिए अनुकूल माहौल बना दिया है जिससे निजी क्षेत्र के निवेश से निजी सार्वजनिक साझेदारियाँ हो रही हैं।
 
सार्वजनिक-निजी भागीदारी के अनुबंध तैयार करना बड़ा अनोखा कार्य है। कोई भी दो पीपीपी अनुबंध एक समान नहीं होते। इसलिए पीपीपी अनुबंधों के प्रारूप का मानकीकरण बड़ा मुश्किल है। इसका कारण यह है कि पीपीपी परियोजना बनाते समय जो मानदंड अपनाए जाते हैं वे हमेशा एक समान नहीं हो सकते। एक पीपीपी दूसरे से कई आधारों पर भिन्न हो सकता है जैसे उसके लिए वांछित बुनियादी ढाँचे के स्वरूप और प्रकार की दृष्टि से तथा उसमें शामिल क्षेत्र और उसके लिए अपनाए गए मॉडल आदि के लिहाज से भिन्न हो सकता है। इसके अलावा, पीपीपी परियोजना में केन्द्र और राज्य सरकार का हिस्सा और परियोजना से होने वाली आमदनी, जिम्मेदारी और परियोजना के जोखिम में साझेदारी जैसी बातें भी परिस्थितिजन्य होती हैं और इस आधार पर भी एक अनुबंध दूसरे से भिन्न होता है।
 
निष्कर्ष
भारत सरकार बुनियादी ढाँचे के निर्माण में निवेश के लिए अनुकूल माहौल बनाने के प्रयास करती रही हैं। सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पीपीपी) ने सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को सुविधा प्रदाता और सहायक के रूप में फिर से परिभाषित करने में सफलता प्राप्त की है, जबकि निजी क्षेत्र वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने वाले, निर्माता और सेवाओं या सुविधाओं के संचालक की भूमिका निभाता है। अगर पीपीपी को सफलतापूर्वक लागू किया जाए तो इससे संचालनात्मक दक्षता, टेक्नोलॉजी सम्बन्धी नवसृजन, प्रभावी प्रबंधन और अतिरिक्त वित्त तक पहुँच सुनिश्चित की जा सकती है। पीपीपी में, सार्वजनिक और निजी, दोनों ही क्षेत्रों की विशेषताओं को अपनाकर अन्तरराष्ट्रीय-स्तर की सेवाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं। कृषि के क्षेत्र में कुछ चुने हुए मॉडलों की सफलता के बावजूद अभी इसे वांछित सफलता हासिल करने के लिए लम्बा रास्ता तय करना है।

महाराष्ट्र पीपीपीआईएडी परियोजना जैसे पीपीपी मॉडल ही वास्तव में भारतीय कृषि के उपयुक्त हैं। भारत ने वर्ष 2015-16 की तुलना में वर्ष 2022-23 तक कृषकों की आय को वास्तविक मूल्यों में दोगुना करने का लक्ष्य लिया है, जिसमें विशेष और विशाल निवेश की आवश्यकता है। इस हेतु प्राइवेट सेक्टर को साझेदारी के लिए तैयार करने के लिए ज्यादा ठोस कदमों की आवश्यकता है।
 (लेखक द्वय क्रमशः कृषि संचार विभाग, जी.बी.पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, पंतनगर, उधमसिंह नगर, उत्तराखण्ड और कृषि प्रसार विभाग, कृषि संस्थान, विश्व भारती विश्वविद्यालय, श्रीनिकेतन, बीरभूम, (पं.बंगाल) से सम्बद्ध हैं।)

 

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स्वच्छता पर गांधी जी के विचार

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स्वच्छता पर गांधी जी के विचारHindiWaterMon, 11/11/2019 - 16:11
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योजना, नवंबर 2019

फोटो - mkgandhi.org

दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद दो वर्ष तक पूरे देश की यात्रा करते हुए गांधी जी को महसूस हुआ कि सफाई और सामाजिक स्वच्छता बड़ी और अजेय समस्या है। जानकारी का अभाव इसका इकलौता कारण नहीं था, वह मानसिकता भी इसका एक कारण थी, जो लोगों को स्वास्थ्य एवं पर्यावरण पर प्रभाव डोलने वाली इस सबसे गंभी समस्या पर सोचने से रोकती थी। दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी ने स्वीकार किया कि भारतीयों को सफाई और स्वच्छता से दिक्कत है, जैसा आरोप अंग्रेज लगाते रहे हैं। लेकिन उन्होंने विरोध करते हुए यह बात सफलतापूर्वक सामने रखी कि रंग को लेकर पूर्वाग्रह और प्रतिस्पद्र्धा का खतरा ही भेदभाव का मुख्य कारण है। लेकिन उनके अपने ही देश में वह जहां भी गए, उन्हें गंदगी, धूल, कचरा और सफाई करने वाले समुदाय के साथ जुड़ी वर्जना, कलंक और शौषण दिखाई दिया। गांधी जी 1909 में हिंद स्वराज लिख चुके थे। स्वशासन के रूप में ग्राम स्वराज और हिंद स्वराज की उनकी योजना में देश की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए लड़ा अलग बात नहीं हो सकती थी और उन्होंने इसके सिद्धांत तथा कार्य बताए। बाद में इसे आश्रम के अनुपालन और रचनात्मक कार्य के रूप में प्रस्तुत किया गया। इस तरह सफाई एवं स्वच्छता तथा छुआछूत दूर करना दो बड़े रचनात्मक कार्यक्रम हो गए। 

चंपारण में गांधी जी

गांधी जी और उनके साथियों के सामने देश में ग्रामीणों के बीच सफाई और स्वच्छता की समस्या की गंभीरता तब स्पष्ट हो गई, जब उन्होंने चंपारण में कार्य शुरू किया। सबसे पहले यह बात गांधी जी के ध्यान में आई कि समुचित ग्रामीण शिक्षा के बगैर स्थायी कार्य असंभव है। चंपारण के गांवों में सफाई मुश्किल काम था। गांधी जी ने कहा कि भूमिहीन श्रमिक परिवार भी अपना मैला खुद उठाने को तैयार नहीं थे। चंपारण के दल में शामिल हुए डाॅ. देव ने नियमित रूप से सड़कों और मैदानों में झाडू लगाई, कुएं साफ किए और तालाब भरे। धीरे-धीरे गांव की सफाई के मामले में आत्मनिर्भरता का वातावरण तैयार होने लगा। 

किसी कार्य से परिचित कराने और उसके प्रति झुकाव पैदा करने के लिए शिक्षा, प्रशिक्षण एवं व्यवहार की जरूरत के बारे में अपनी दृढ़ता के कारण गांधी जी ने चंपारण तथा सत्याग्रह आश्रम स्कूलों में सफाई तथा स्वच्छता की शिक्षा देनी शुरू की। चंपारण दल की महिलाओं को बताया गया कि सफाई, स्वच्छता और सदाचार की शिक्षा को साक्षरता से भी अधिक प्राथमिकता दी जाए। गौरतलब है कि उसके बाद से सफाई एवं स्वच्छता सभी राजनीतिक कार्यक्रमों एवं समाज सुधारों के अभिन्न अंग और आधार बन गए। 

आश्रमों में 

गांधी जी और उनके साथ रहने वालों के लिए सफाई के सबक दक्षिण अफ्रीका के फीनिक्स आश्रम में आरंभ हुए। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में फ्लश वाले शौचालय काफी प्रचलित हो चुके थे और मल से होने वाले प्रदूषण के प्रभावों से लोग अच्छी तरह परिचित थे। लेकिन समुचित नालियों और निस्तारण प्रणाली से जुड़े फ्लश शौचालयों को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त एवं सुनिश्चित जलापूर्ति बहुत जरूरी थी। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसा कर पाना बहुत कठिन था। सही विज्ञान एवं समुचित तकनीक फीनिक्स में गांधी जी के सामने चुनौती थी। मानव मल को पर्याप्त सूखी मिट्टी से ढकना और उसे इकट्ठा कर सुरिक्षत रूप से उसका निस्तारण करना सभी माॅडललों में स्थापित प्रचनल था। सभी प्रयोग में मल को अंत में खेतों में भेल दिया जाता था और जैविक उर्वरक के रूप में प्रयोग किया जाता था। प्रभुदास गांधी ने लिखा है कि गांधी जी के आश्रमों का इतिहास सतर्कतापूर्वक देखा जाए तो पता चलेगा कि शौचालयों में प्रयोगों को अनूठा स्थान है। यदि इस प्रक्रिया को आरंभ से अंत तक बारीकी से लिखा जाए तो शौचालय निर्माण एवं प्रयोग पर प्रामाणिक एवं उपयुक्त पुस्तिका तैयार हो सकती है।

गांधी के लिए सफाई और स्वच्छता भारत में महत्वपूर्ण काम था। भारतीय समाज से अस्पृश्यता का धब्बा हटाने की गांधी जी की इच्छा ने उन्हें शौचालयों और स्वचछता पर काम करने के लिए प्रेरित किया। उन्हें समाज की यह परंपरा स्वीकार नहीं थी कि कुछ लोग सफाई का काम करें और वे सही काम करने तथा करते रहने के लिए अभिशप्त हों। सफाई के प्रति संकल्प समाज सुधार का मुख्य तत्व है। आश्रम में इस बात पर विशेष जोर दिया गया कि इस का के लिए बाहर से किसी को नहीं बुलाया जाए। सदस्य स्वयं ही बारी बारी पूरी सफाई करते थे। आश्रमवासियों को ध्यान रखना होता था कि सड़कों और गलियारों में पीक या थूक आदि से गंदगी नहीं फैलाई जाए। गांधी जी राष्ट्रवादी उत्साह से भरे उन जोशीले और संकल्पबद्ध युवाओं का स्वागत करते थे, जो आश्रम से जुड़ना चाहते थे। लेकिन वह चेतावनी भी देते थे कि उन्हें शौचालय की बाल्टी साफ करने की परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी।

वर्धा में जमनालाल बजाज द्वारा स्थापित एवं सहायता प्राप्त आश्रम में रहते हुए मीराबेन -सुश्री स्लेड ने उन्हें बताया कि जब वह सुबह टहलने गई तो उन्होंने पड़ोसी गांव सिंदी के लोगों को सड़ेक पर खुले में शौच करते देखा। गांधी जी ने उन्हें रोज गांव जाने और सड़कें साफ करने का सुझाव दिया। सफाई और स्वच्छता सेगवाग्राम आश्रम के एजेंडा में भी थी, जहां गांधी जी अप्रैल 1936 से अगस्त 1946 तक रहे। ‘सेवाग्राम आश्रम के नियमों’ में कहा गया था कि पानी की बर्बादी नहीं होनी चाहिए। पीने के लिए उबले पानी का उपयोग होता है। थूकना या नाक छिनकना सड़क पर नहीं होना चाहिए बल्कि ऐसी जगह होना चाहिए, जहां लोग चलते नहीं हों।

मल-मूत्र त्याग निर्दिष्ट स्थानों पर ही करना चाहिए। ठोस पदार्थों के डिब्बे शौच के तरल पदार्थ के डिब्बों से अलग होने चाहिए। मल को सूखी मिट्टी से इस तरह ढका जाना चाहिए कि मक्खियां नहीं आएं और केवल सूखी मिट्टी नजर आए। शौचालय की सीट पर सावधानी से बैठना चाहिए ताकि सीट गंदी न हो। अंधेरा हो तो लालटेन जरूर होनी चाहिए। जिस पर मक्खियां आएं, उसे पूरी तरह ढक देना चाहिए।

जनसभाओं एवं नागरिक समारोहों में

गांधी जी ने कई जनसभाओं, बैठकों, छोटे समूहों, स्वयंसेवकों, महिलाओं एवं आश्रमवायियों को संबोधित किया। कई नगरपालिकाओं ने उनका नागरिक अभिनंदन किया। ऐसे अधिकतर अवसरों पर उनहोंने सफाई एवं स्वच्छता की बात की। कांग्रेस के लगभग प्रत्येक बड़े सम्मेलन में गांधी जी अपने भाषण में सफाई का मुद्दा जरूर उठाते थे। गांधी जी के लिए गंदगी बुराई थी। उन्होंने कहा था-बुराईयों की तिकड़ी है- ‘‘गंदगी, गरीबी और आलस-जिसका सामना आपको करना है, और आप झाडू, कुनीर तथा अरंडी का तेल और मेरा यकीन करें तो चरखा लेकर उससे लड़ेंगे।

गांधी जी ने शहर और नगर पालिकाओं द्वारा किए गए अभिनंदन समारोहों में अपनी बात रखी और गंदगी की तरफ ध्यान आकर्षित कर सफाई की स्थिति सुधारने का आह्वान किया। वह सफाई के काम को नगर पालिकाओं का सबसे महत्वपूर्ण काम मानते थे। जब कांग्रेस ने नगर पालिका चुनावों में हिस्सा लेने की इच्छा जताई तो उन्होंने सलाह दी कि पार्षद बनने के बाद कांग्रेस कार्यकर्ताओं को अच्छा सफाईकर्मी बनना चाहिए। सफाई के मामले में वह पश्चिम के नगरपालिका प्रशासन की सराहना करते थे। 21 दिसंबर, 1924 को बेलगाम में  एक नागरिक समारोह में उन्होंने कहा, पश्चिम से हम एक चीज सीख सकते हैं, और सीखना चाहिए वह है, नागरिक सफाई का विज्ञान। हमें ग्रामीण जीवन की आदत है, जहां सामूहिक सफाई की जरूरत ज्यादा महसूस नहीं होती। लेकिन पश्चिम की सभ्यता भौतिकवादी है और इसीलिए उसका झुकाव गांवों को अनदेखा कर शहरों के विकास की ओर है। पश्चिम के लोगों ने सामूहिक सफाई का विज्ञान विकसित किया है और उससे हमने बहुत कुछ सीखा है। हमारी संकरी और कष्टप्रद गलियां, हमारे घुटन भरे मकान, पेयजल के स्त्रोतों की अपराधियों जैसी अनदेखी को सुधारना होगा। लोगों से सफाई के कानूनों का पालन कराना ही नगरपालिका की ओर से सबसे बड़ी सेवा होगी।

पत्र-पत्रिकाओं में

गांधी जी ने कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और उनमें लेख लिखे। उन्होंने नवजीवन और यंग इंडिया और बाद में हरिजन में सफाई तथा स्वच्छता के बारे में खूब लेख लिखे। देश में गांवों और शहरी बस्तियों में गंदगी की बात उनके दिमाग में थी। खेड़ा सत्याग्रह के दौरान उन्होंने सफाई तथा स्वच्छता के मामले में घरों, तालाबों और खेतों की स्थिति पर नवजीवन में लिखा। उन्हें इस बात की पीड़ा थी कि किसान और उनके परिवार अनभिज्ञता और बेफिक्री के कारण गंदी और अस्वच्छ स्थितियों में रह रहे हैं।

खुले में शौच के लिए आजकल राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टों में अंग्रेजी में ‘ओपन डेफिकेशन’ शब्द इस्तेमाल होता है, लेकिन गांधी जी ने उसके लिए अधिक परिमामय ‘ओपन इवैक्यूएशन’ शब्द का इस्तेमाल किया। उन्होंने कहा कि शौचालयों का प्रयोग नहीं करने और खुले में शौच नहीं करने से कई बीमारियां होती हैं। परिवारों तथा बस्तियों में बुजुर्ग, बच्चे, रोगी और कमजोर व्यक्ति शौच के लिए बाहर नहीं जा सकते, इसलिए आंगन, गलियां और मकान ही शौचालयों में तब्दील हो जाते हैं और जगह गंदी हो जाती है और हवा दूषित हो जाती है। उसके बाद उन्होंने सुझाव दिया कि लोग सादा शौचालय बनाएं या डिबें की व्यवस्था करें, जिसमें मल को सूखी मिट्टी से ढका जाए।

गांधी जी हरेक अवसर पर सफाई और स्वच्छता के बारे में लिखते रहे। हालाकि वे कभी इस बात से सहमत नहीं हुए मर वह समझते थे कि बेसहारा, गरीब और दलित वर्ग के लोग गंदगी को अपने जीवन का हिस्सा मान बैठे हैं। गांधी जी के शब्दों में सफाई और स्वच्छता की समस्या ‘सामूहिक’ स्तर पर थी। उन्होंन यह भी कहा कि भारतीय अपने घर-आंगन को धूल, कीड़ों और छिपकलियों से मुक्त रखते हैं, लेकिन सब कुछ अपने पड़ोसी के आंगन में फेंकने में नहीं हिचकिचाते! इस बुराई को हम लोग आज भी खत्म नहीं कर पाए हैं। 

जनवरी 1935 की एक शाम को दिल्ली के सेंट स्टीफंस काॅलेज के प्रोफेसर विनसर ने एक दर्जन छात्रों के साथ गांधी जी से मुलाकात की। ग्रामीणों को चिकित्सा मदद के बारे में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए गांधी जने ने कहा कि उन्हें बताना चाहिए कि एहतियात और इलाज के बाद की देखभाल के रूप में सफाई और स्वच्छता कितनी महत्वपूर्ण है। मलेरिया की एक हजार गोलियां बांटना अच्छा है, लेकिन प्रशंसनीय नहीं है। मल के गड्ढे भरकर, गंदा पानी निकालकर, कुओं और टैंकों की सफाई कर बीमारियों से बचने की शिक्षा अधिक प्रशंसनीय होगी। हरिजनों के लिए स्कूल में पढ़ने के बारे में निर्देश मांगे जाने पर गांधी जी ने सफाई और स्वच्छता के बारे में शिक्षा को प्राथमिकता देने की बात दोहराई। उन्होंने कहा कि, आप निश्चिंत रहें कि आपकी प्रयोग में करने, दोबारा प्रयोग करने और रीसाइकल करने की शिक्षा सफाई और स्वच्छता की अच्छी शिक्षा के सामने कुछ भी नहीं है... किताबी प्रशिक्षण का बहुत फायदा नहीं है। मैंने बताया कि उसका ध्यान रखिए। याद रखें कि अशिक्षित लोगों को बड़े राज्यों पर शासन करने में कोई दिक्कत नहीं हुई है। उन्हें अपनी शिक्षा कर तरह से दें, लेकिन उस शिक्षा की अंधभक्ति न कराएं।

गांधी जी विद्यार्थियों और कार्यकर्ताओं  को सफाई के महत्व के बारे में बताते रहे और उन्हें पहला काम यही करने का सझाव दिया। 1946 से जनवरी 1948 तक उन्होंने सफाई और स्वच्छता की शिक्षा पर और अधिक जोर दिया। उनके मुताबिक रेलेव और जहाज से यात्रा के दौरान सफाई एवं स्वच्छता पर सार्वजनिक शिक्षा के सबसे अवसर होते हैं। गांधी जी के दिमाग में सफाई और स्वच्छता बहुत अधिक छाई थी, क्योंकि आजादी के फौरन बाद शारणार्थी शिविरों में वह जो देख रहे थे, उससे बहुत अधिक विचलित हुए थे। 13 अक्तूबर, 1947 को उन्होंने कहा कि शरणार्थी शिविरों में सफाई की समस्या और स्वच्छता की स्थिति को वह बहुत महत्व देते हैं। उन्होंने कहा कि हालाकि भारतीयों को मेले, धार्मिक समारोह और कांग्रेस के सत्र तथा सम्मेलन आयोजित करने का अनुभव है, लेकिन सामान्य जन के रूप में हमें शिविरों के जीवन की आदत नहीं है। भारतीयों में सामाजिक स्वच्छता का भाव नहीं है, जिससे गंदगी खतरनाक स्तर तक पहुंच जाती है, और संक्रामक एंव संचारी रोग फैलने का खतरा पैदा हो जाता है।

अपनी शहादत से एक दिन पहले 29 जनवरी 1948 को उन्होंने प्रस्तावित लोक सेव संघ का संविधान तैयार किया। बाद में उसे गांधी जी की अंतिम वसीयत माना गया। इस दस्तावेज में सेवक का छठा काम यहं था:

उसे ग्रामीणों को सफाई और स्वच्छता की शिक्षा देनी होगी और उन्हें खराब सेहत तथा बीमारियों से बचाने के लिए एहतियात के सभी उपाय करने होंगे। 

सफाई और स्वच्छता गांधी जी के पूरे जीवन में और जीवन के अंत तक प्राथमिकता बनी रही। 

( ‘इन द फुटस्टेप ऑफ महात्मा गांधी एंड सैनिटेशन’ पुस्तक (प्रशाशन विभाग, 2016) के अंश)
 

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जिम कार्बेट की नजर से नैनीताल

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जिम कार्बेट की नजर से नैनीतालHindiWaterTue, 11/12/2019 - 10:44
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नैनीताल एक धरोहर

फोटो - ।

आप एक बढ़िया-सी दूरबीन ले लीजिए और मेरे साथ चलिए चीना पहाड़ी की चोटी पर। यहाँ से आपको नैनीताल के आस-पास के इलाके का नजारा वैसे ही दिखाई देगा - जैसे किसी ऊँची उड़ती चिड़िया की आँखों से आप देख रहे हों। सड़क एकदम सीधी चढ़ाई वाली है, लेकिन यदि चिड़िया, पेड़ों और फूलों में आपकी दिलचस्पी है तो तीन मील की यह चढ़ाई आपको अखरेगी नहीं। ऊपर यदि आपको भी उन तीनों ऋषियों की तरह प्यास लगे तो मैं आपकी स्फटिक के समान धौला और चमकदार पानी का एक स्रोत बताऊँगा, जहाँ आप अपनी प्यास बुझा सकते हैं। थोड़ा सुस्ताने और  अपना लंच करने के बाद अब हम उत्तर की तरफ मुड़ते हैं। आपको ठीक नीचे घने पेड़ों से भरी जो घाटी दिखती है, वह कोसी नदी तक फैली हुई है। नदी के पार एक-दूसरे के साथ चलती पहाड़ियों की चोटियाँ हैं, जिन पर यहां-वहां गाँव बसे हुए हैं।। इन्हीं में से एक चोटी पर अल्मोड़ा शहर है और दूसरी पर रानीखेत की छावनी। इन चोटियों के पार और चोटियाँ हैं, जिनमें सबसे ऊँची पहाड़ी ढूँगर बुकाल है, लेकिन 14,200 फीट ऊँची यह पहाड़ी बर्फ से ढके हिमालय पर्वतों के सामने बौनी पड़ जाती है। यदि कौए की उड़ान के हिसाब से सोचें तो आपके उत्तर में 60 मील दूर त्रिशूल है और 23,406 फीट ऊंची इस पहाड़ी के पूरब और पश्चिम में बर्फ के पहाड़ों की अटूट लकीर सैकड़ों मील लम्बाई में है। जहाँ बर्फ निगाहों में ओझल होती है, वहाँ त्रिशूल के पश्चिम की तरफ पहले तो गंगोत्री वाले पहाड़ हैं, फिर बर्फ की नदियों और पहाड़ों के ऊपर केदारनाथ और बद्रीनाथ के पवित्र स्थान हैं और स्मिथ की वजह से मशहूर माउन्ट कामेट पर्वत (25,447 फीट) है। त्रिशूल के पूरब की तरफ थोड़ा और पीछे आपको नंदादेवी पर्वत (25,689 फीट) दिखाई देगा, जो कि हिन्दुस्तान में सबसे ऊँचा पर्वत है। उसके दाहिनी तरफ सामने नंदाकोट है- देवी पार्वती का बेदाग तकिया और थोड़ा आगे पूरब में पंचाचूली की खूबसूरत चोटियाँ हैं। पंचाचूली, मतलब पाँच चूल्हे-तिब्बत में कैलास के रास्ते जाते पांडवों ने यहीं खाना पकाया था। सूरज की पहली किरण के आने पर चीना और बीच की पहाड़ियाँ जब रात के अंधेरे के आगोश में ही होती हैं, तब बर्फीले पर्वतों का माथा गहरे रंग से बदलकर गुलाबी हो जाता है और जैसे ही आसमान की सबसे करीबी चोटी को सूरज छूता है, यह गुलाबी रंग हौले-हौले चकाचैंध सफेदी में बदल जाता है.
 
दिन के वक्त ये पहाड़ शीतल और दूधिया दिखते हैं- चोटियों के पीछे बर्फीली धुंध की झीनी परत नजर आती है। सूरज के डूबते वक्त ये नजारा कुदरत के चितेरे के मन की उड़ान के मुताबिक गुलाबी, सुनहरी या लाल रंग लिए होता है। अब बर्फ के पहाड़ों की तरफ आप पीठ कर लीजिए और चेहरा दक्षिण की तरफ। अपनी दूर निगाह की आखिरी हद पर तीन शहर आपको दिखाई देंगे- बरेली, काशीपुर और मुरादाबाद। इन तीन शहरों में काशीपुर हमारे सबसे नजदीक है और फिर यदि कौए की उड़ान से हम आसमानी दूरी मापें तो यह हमसे 50 मील दूर है। ये तीनों शहर कोलकाता और पंजाब को जोड़ने वाली रेलवे लाइन के किनारे बसे हैं। रेलवे लाइन और इन पहाड़ियों के बीच की जमीन तीन किस्म की पट्टियों में बंटी है। पहली पट्टी में खेती-किसानी होती है और यह करीब 20 मील चैड़ी है। दूसरी पट्टी घास की है। करीब 10 मील चैड़ी इस पट्टी को तराई कहा जाता है और तीसरी पट्टी भी 10 मील चैड़ी है, जिसे भाबर कहा जाता है। भाबर पट्टी सीधे निचली पहाड़ियों तक फैली हुई है। इस पट्टी में साफ किए गए जंगलो की उपजाऊ जमीन को सींचने के लिए कई नदी-नाले हैं और इस पट्टी में छोटे-बड़े कई गाँव बस गए हैं।
 
इनमें से सबसे नजदीकी गाँव कालाढूँगी सड़क के रास्ते नैनीताल से 15 मील दूर है और इसी बस्ती के ऊपरी सिरे पर हमारा गाँव है- छोटी हल्द्वानी, जो कि तीन मील लम्बी पत्थर की दीवार से घिरा हुआ है। नैनीताल से कालाढूँगी आने वाली सड़क जहाँ पर निचली पहाड़ियों के किनारे बनी सड़क से आ मिलती है-ठीक वहीं मौजूद हमारी कॉटेज की छत पेड़ों के झुरमुट से झांकती दिखाई देती है। यहाँ की निचली पहाड़ियों के करीब-करीब पूरे इलाके के पत्थरों में लोहा है। उत्तरी हिन्दुस्तान में पहली बार लोहा कालाढूँगी में ही गलाया गया था। लोहा गलाने में लकड़ी का ईधन इस्तेमाल किया गया था, कुमाऊँ के बेताज बादशाह सर हेनरी रैमजे को जब यह डर लगा कि भाबर के पूरे जंगल ही इन भट्टियों में झोंक दिए जाएंगे तो उन्होंने भट्टियाँ बन्द करा दी।
 
चीनी पहाड़ी पर जहाँ आप बैठे हैं, वहाँ से लेकर कालाढूँगी तक निचली पहाड़ियों में साल के घने जंगल हैं। इन पेड़ों की लकड़ी रेलवे स्लीपर बनाने के काम आती है। पहाड़ी की सबसे नजदीकी चोटी की नजदीकी परत के पास है छोटी सी झील खुर्पाताल, जिसके इर्द-गिर्द फैले खेतों में हिन्दुस्तान के सबसे उम्दा आलू पैदा होते हैं। अपनी दांई तरफ थोड़ा आगे, आपको सूरज की रोशनी में चमकती गंगा दिखाई देती है और बांई तरफ यही रोशनी शारदा के पानी पर चमकती दिखाई देती है। इन दोनों नदियों और निचली पहाड़ियों से होकर इनके गुजरने के बीच की दूरी करीब दो सौ मील है।
 
अब आप पूरब की तरफ मुड़ें। अब आपके सामने और बीच की दूरी में फैला जो इलाका दिखाई देता है, उसे पुराने गजेटियरों में साठ झीलों वाला जिला कहा गया है। इनमें से बहुत-सी झीलें गाद जमने से भर गई हैं। कुछ झीले तो मेरे सामने ही भरकर खत्म हुई हैं और अब कुछ मायने रखने वाली जो झीलें बची हैं वे हैं- नैनीताल, सातताल, भीमताल और नौकुचियाताल। नौकुचियाताल के आगे आइसक्रीम के कोन जैसी जो पहाड़ी दिखाई दे रही है, वो है छोटा कैलास। इस पवित्र पहाड़ी पर किसी परिंदे या जानवर का शिकार यहाँ के देवताओं को गवारा नहीं। लाम से छुट्टी पर लौटा एक सिपाही जिसने देवताओं की मर्जी के खिलाफ एक पहाड़ी पर बकरी का शिकार किया था, यहाँ शिकार करने वाला आखिर इंसान साबित हुआ था। पहाड़ी बकरी को अपना शिकार बनाने के बाद अपने दो साथियों के देखते-देखते बगैर किसी जाहिर वजह के वह गिरा और हजार फुट गहरी घाटी में समा गया। छोटे कैलास के आगे काला आगर पहाड़ियाँ हैं, जहाँ मैं चैगढ़ के आदमखोर की तलाश में दो बरस तक घूमता रहा था। इन पहाड़ियों के बाद नेपाल के पर्वत आँखों से ओझल होते दिखते हैं।
 
अब जरा पश्चिम की ओर मुड़ें। लेकिन पहले यह जरूरी है कि आप कुछ सौ फीट नीचे उतर कर देवपट्टा की 7991 फुट ऊँची और चीना से सटी हुई चोटी पर आ जाए। ठीक नीचे पेड़ों से भरपूर बीच की तंग पट्टी वाली गहरी घाटी चीना और देवपट्टा के जोड़ से शुरू होती है और दाचुरी से होती हुई कालाढूँगी तक चली जाती है। हिमालय की किसी भी घाटी के मुकाबले यहाँ कई गुना ज्यादा पेड़-पौधे, फल-फूल, परिंदे और जानवर हैं। इस खूबसूरत घाटी के आगे की पहाड़ियों की अटूट माला गंगा तक चली जाती है। गंगा का धूप में चमकता पानी आप सौ मील दूर से भी देख सकते हैं। गंगा के उस तरफ शिवालिक की पहाड़ियाँ हैं- वो पहाड़ियाँ, जो बुलन्दी से खड़े हिमालय के जन्म के पहले ही बूढ़ी हो चुकी थीं।

 

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दमघोंटू दिल्ली

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दमघोंटू दिल्लीHindiWaterTue, 11/12/2019 - 12:10
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युगवार्ता, 10 नवंबर 2019

फोटो - Times Now Hindi

आंखों में जलन और सांस लेने में दिक्कत इन दिनों पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की पहचान बन गई है। हरियाणा, पंजाब से आए पराली के धुएं और दीवाली की रात की गई आतिशबाजी ने दिल्ली समेत आसपास के शहरों को स्माॅग की चादर में लपेट दिया। स्माॅग खतरनाक प्रदूषित कण और धुएं का मिश्रण है, इसलिए इसे खतरनाक माना जाता है। धुआं-धुआं हुई दिल्ली तो मानो पूरी तरह से गैस के चैंबर के रूप में तब्दील हो गई थी। हवा की गुणवत्ता खतरनाक स्तर पर पहुंच गई थी। स्वास्थ्य विशेषज्ञ लोगों को जहां तक संभव हो घर से बाहर न निकलने की सलाह दे रहे थे। लेकिन सवाल पापी पेट का है, सो बाहर तो निकलना ही पड़ेगा। शासन-प्रशासन के तमाम प्रयासों के बावजूद लोगों ने न तो पटाखे चलाने में कोई कमी छोड़ी और न ही किसानों ने पराली जलाने में रियायत करती। नतीजतन दिल्ली के आसमान पर प्रदूषण खतरनाक स्तर को पार कर गया था। हालाकि सरकारी नुमाईंदे आंकड़ों की बाजीगरी कर यह बताने में लगे हुए हैं कि इस बार दीपावली पर पिछले तीन सालों की बनिस्बत कम पटाखे फोड़े गए हैं।

बेशक, दिल्ली में प्रदूषण को लेकर पहले भी बुरी हाल रही है। दिल्ली की गिनती दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषिण शहरों में की जाती रही है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर राष्ट्रीय हरित न्यायालय (एनजीटी) ने समय समय  पर केंद्र-राज्य सरकारों को प्रदूषण रोकने के लिए कठोर से कठोर कदम उठाने को कहा हैं। सरकारें अपनी ओर से इस बाबत प्रयास भी करती रही हैं। फिर भी समस्या सुलझने की बजाय उलझती ही जा रही हैं। प्रदूषण के कारण छाए स्माॅग से हवा में ऑक्सीजन की मात्रा घट गई है, जबकि नाइट्रोजन, सल्फर और कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा हद से अधिक बढ़ गई है। स्थिति में सुधार तेज हवा के चलने या बारिश होने पर निर्भर है, जिसकी संभावना फिलहाल दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रही है। अलबत्ता यह धुंध, धुआं या स्माॅग पर भी अपनी आदत के अनुसार सियासतदां राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज नहीं आ रहे। दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार जहां कांग्रेस शासित पंजाब व भाजपा शासित हरियाणा में किसानों द्वारा जलाई जाने वाली पराली पर रोक लगा पाने की अक्षमता के लिए भाजपा व कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा रही हैं, वहीं भाजपा व कांग्रेस इसे दिल्ली सरकार की अक्षमता करार दे रही हैं। एक दूसरे पर ठीकरा फोड़कर अपना दमन पाक साफ बताने की इस कवायद में आम आदमी हाशिये पर है। यानी वह प्रदूषण की मार झेलने के लिए अभिशप्त है।

बहरहाल, दिल्ली-एनसीअर में एयर क्वाॅलिटी इंडेक्स खतरनाक स्तर पर पहुंच जाने से चिंतित सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एजेंसी ने गैस चैंबर जैसे हालात पर संज्ञान लेते हुए इसे पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी घोषित किया है। पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण ने प्रदूषण पर रोकथाम के लिए दिल्ली-एनसीआर में हर तरह के निर्माण कार्य पर पूरी तरह से बैन कर दिया था। दिल्ली में प्रदूषण के स्तर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह भारत में सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में शामिल तो है ही, दुनिया का भी सबसे प्रदूषित शहर है। आपको यकीन नहीं होगा लेकिन दिल्ली एनसीआर में कई जगह एयर क्वाॅलिटी इंडेक्स 500 के पार यानी खतरनाक स्तर पर पहुंच गया था। प्रदूषण लेवल के इस स्तर पर तक पहुंचने के लिए वास्तव में हम स्वयं भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। पाबंदियों के बावजूद दीवाली के मौके पर जमकर पटाखे फोड़े गये, जिसका नतीजा यह रहा कि दिल्ली-एनसीआर की हवा बेहद जहरीली हो गई थी और लोगों का सांस लेना भी मुश्किल हो गया था। बावजूद इसके रोजी रोटी के लिए बाहर तो निकलना ही होगा। 

इतने गंभीर वायु प्रदूषण का हमारी सेहत पर कई तरह से बुरा असर पड़ता है। खतरनाक और  जहरीली हवा में सांस लेने की वजह से अस्थमा, ब्राॅन्काइटिस, कार्डियोवस्क्युलर डिजीज यानी दिल से जुड़ी बीमारियां और सीपीओडी जैसी दिक्कतें हो सकती हैं। इतनी ही नहीं वायु प्रदूषण की वजह से डिप्रेशन और कैंसर तक होने का खतरा रहता है। हालाकि सावधानी बरतकर इन मुसीबतों से काफी हद तक बचा जा सकता है। मसलन, गुड़ व तुलसी में ऐसी कई खूबियां होती हैं, जो टाॅक्सिन्स यानी हानिकारक तत्वों को शरीर से बाहर निकालने में मदद करती हैं। गुड़ में मौजूद नैचुरल डिटाॅक्सिंग प्राॅपर्टी खून, फेफड़े, खाने की नील, सांस की नली आदि जगहों पर मौजूद धूल और डस्ट को शरीर से बाहर करने में मदद करता है। साथ ही रोजाना 10-15 एमएल तुलसी का जूस पीन से सांस की नली से प्रदूषण के कणों को हटाने में मदद मिलती है। इसके अलावा घी या शहद के साथ एक चम्मच हल्दी का पाउडर लें, ध्यान रखें ये काम खाली पेट ही करें। हल्दी का पाउडर यें ही नहीं खा पा रहे तो आप हल्दी वाला दूध पी सकते हैं। हल्दी वाला दूध बच्चे और बड़े दोनों के लिए फायदेमंद है।

बहरहाल, घड़ी की सुइयां बड़ी तेजी से भाग रही हैं। भारत में वायु प्रदूषण से हालात इतने भयंकर हो गए हैं कि अब ये लोगों से सेहत की भारी कीमत वसूल रहा है। आईआईटी मुंबई के एक अध्ययन के मुताबिक, वायु प्रदूषण से वर्ष 2015 में अकेले दिल्ली को ही 6.4 अरब डाॅलर का नुकसान हुआ था। वायु प्रदूषण रूपी ये राक्षस, दिनों-दिन हमारी कल्पना से भी ज्यादा विशाल समस्या का रूप धरता जा रहा है। ‘द ग्रेट स्माॅग ऑफ इंडिया’ नाम की किताब के लेखकों ने दावा किया है कि आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध में जितने लोग मारे गए, उनसे कहीं ज्यादा लोगों की जान एक हफ्ते में वायु प्रदूषण से चली जाती है। बहरहाल, जल, जंगल, जमीन और पहाड़ आदि से प्रकृति का निर्माण होता है। इस का संतुलन बिगड़ने का मतलब प्रकृति का असंतुलित होना है। आधुनिकीकरण के इस दौर में इन संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हमें मौत की अंधी सुरंग की ओर ले जा रहा है। बावजूद इसके हम समझन को तैयार नहीं हैं। जंगलों की कटाई और नित्य नये कंक्रीट के जंगल खड़ा करने की आपाधापी में भूजल स्तर में लगातार कमी आ रही है। नतीजा, उपजाऊ भूमि भी रेगिस्तान में तब्दील हो रही है। पर्यावरण हमारे जीवन से जुड़ा ऐसा मुद्दा है, जिसकी अनेदखी कर हम न केवल स्वयं का बल्कि आने वाली पीढ़ियों तक का नुकसान करते हैं। बावजूद इसके भौतिक चकाचैंध की अंधाधुंध दौड़ में हम इस सच्चाई से आंखें मूंदे वायु व जल को प्रदूषित कर खुद के ही पैरों पर कल्हाड़ी मार रहे हैं। शर्मानाक स्थिति है कि दुनिया के सबसे प्रदूषित 20 शहरों में से 14 शहर भारत के हैं। वल्र्ड हेल्थ आॅर्गनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) की हालिया ग्लोबल रिपोर्ट में दिल्ली को विश्व का सबसे प्रदूषित शहर बताया गया है। प्रदूषित शहरों की सूची में कानुपर दूसरे और गुरुग्राम तीसरे स्थान पर है। आलम यह है कि देश में केवल प्रदूषण की वजह से ही हर साल करीब 20 लाख लोगों की मौत हो जाती है। यह तादाद दुनिया में सबसे ज्यादा है। लेकिन अफसोस! जानलेवा होते प्रदूषण पर कारगर रोक लगे, इस पर लीपापोती के सिवाय अब तक कहीं भी कोई गंभीरता नहीं दिखाई दी है।

प्रदूषण पर डब्ल्यूएचओ की ताजा रिपोर्ट 2018 ग्लोबल डाटाबेस के आंकड़ें वाकई बेहद डरावने हैं। यह खतरा कितना बड़ा है, इसको इसी से समझा जा सकता है कि दुनिया में प्रदूषित हवा से होने वाली चार मौतों में से एक भारत में हो रही हैं। जलवायु परिवर्तन और स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में काम करने वाले संगठन ‘क्लाइमेट ट्रेंड्स’ के एक अध्ययन के मुताबिक देश में वायु प्रदूषण के प्रति व्यापक पैमाने पर जागरुकता अभी नहीं फैल सकी है। शोध में इसके मूल जगहों के बारे में प्रदूषण के लिए जिम्मेदार कारकों की अपर्याप्त निगरानी और वायु प्रदूषण से संबंधित आंकड़ों के नाकाफी होने को बताया गया है। उल्लेखनीय है कि 2013 में दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में चीन के शहर सबसे ऊपर थे। लेकिन पिछले सालों में चीन ने बेहतर कार्ययोजना तैयार कर दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करते हुए प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए समय सीमा तय की। नतीजा यह निकला कि वायु गुणवत्ता में बहुत हद तक सुधार कर पाने में वह सफल रहा। जाहिर है, कि हमें भी इसी तरह की कार्ययोजना बनाने की जरूरत तो है ही, साथ ही मजबूत इच्छाशक्ति दिखाते हुए इस पर सख्ती से काम करने की भी आवश्यकता है। 

इंडेक्स लेवल श्रेणी

0 से 50अच्छा
51 से 100संतोषजनक
101 से 200मध्यम
201 से 300खराब
301 से 400अति खराब
401 से अधिकखतरनाक

इस तरह बच सकती है दिल्ली

पर्यावरण के मामले में बेहद संपन्न भौगोलिक भू-भाग पर अवस्थित दिल्ली को प्रकृति ने अनेक उपहार दिए थे। यमुना और अरावली दिल्ली को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए काफी थे, लेकिन अंधाधुंध विकास के नाम पर इनकी बलि चढ़ चुकी है। नतीजा, जितने तरह के प्रदूषण हो सकते हैं, दिल्ली आज उन सभी से भरी पूरी है। हरी-भरी दिल्ली को बंजर बना दिया गया। तालाब और जंगल, जो कभी दिल्ली के चारों ओर पाये जाते थे, नष्ट कर दिए गए। दिल्ली में और दिल्ली के बाहर चारों ओर कंक्रीट के जंगल तैयार किए गए और इसे ही वास्तविक विकास माना गया। परिणाम यह हुआ कि दिल्ली में स्वच्छ हसवा आने के सारे रास्ते अवरुद्ध हो गए। पूरी दिल्ली गैस चैंबर बन कर रह गई है। जब स्वच्छ हवा आने के रास्ते ही नहीं बचे तो जाहिर है दूषित हवा बाहर जा भी नहीं पानी। कंक्रीट  के जंगलों से घिरी दिल्ली और इन जंगलों का कचरा गंदे जल के रूप में यमुना को समर्पित कर एक स्वच्छ नदी को कचरा ढोने वाले नाले में तब्दील कर देने की करामात हमने कर दिखाई। नतीजा, वायु के बाद जल प्रदूषण दिल्ली की स्थायी पहचान बन गए हैं। अगर वाकई दिल्ली की इस सूरत को बदलना है, तो सिर्फ बयानबाजी और योजनाओं के पिटारे से काम नहीं चलेगा बल्कि राजनीतिक नफा-नुकसान से ऊपर उठकर ठोस कदम उठाने होंगे। मसलन, अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाईयों को दिल्ली से बाहर शिफ्ट करने के साथ यमुना की स्वच्छता लौटाई जाए और अरावली की पहाड़ियों को अधिकततम हरा-भरा किया जाए।

 

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गंगा के न्याय के लिए अविरल गंगा साक्षरता यात्रा

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गंगा के न्याय के लिए अविरल गंगा साक्षरता यात्राHindiWaterTue, 11/12/2019 - 13:03

अविरल गंगाजल साक्षरता यात्रा 27 अक्टूबर को  दिवाली के दिन तरुण आश्रम भीकमपुरा से शुरू हुई। ऐसा प्रयास किया जा रहा है कि यह यात्रा 25 नवम्बर 2020  तक देश भर के सभी शहरों में और  जिलों में जाये। तरुण भारत संघ के  अध्यक्ष  राजेन्द्र सिंह ने बताया क फड़ कि सभी नदी जोड़ की बातें करते हैं परन्तु अगर लोग ही नदियों से जुड़ जाएँ तो नदियों की देखभाल अच्छे से होगी। हालाकि  उनकी सरकार से कुछ मांगे भी हैं। विस्तृत जानकारी के लिए देखें वीडियो ।

 

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तिल-तिल मरती बारहमासी नदियां

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तिल-तिल मरती बारहमासी नदियांHindiWaterTue, 11/12/2019 - 16:49
Source
डाउन टू अर्थ, नवंबर 2019

फोटो - Isha Foundation

मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र के साथ अत्यधिक छेड़खानी ने भारी की हर नदी के प्राकृतिक परिदृश्य, उसके स्वरूप और प्रवाह को प्रभावित किया है। पिछले तीन दशकों में बारहमासी नदियां अब खंडित और रुक-रुक कर बने वाली मौसमी नदियां बन रही हैं। भारत की मैदानी नदियां जैसे-गोमती, रामगंगा, चंबल, केन, बेतवा के प्रवाह का एकमात्र आधारभूत स्त्रोत भूजल और वर्षा जल है।

भारत की स्वतंत्रता के समय, प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता लगभग 5200 क्यूबिक मीटर थी। जो अब घटकर 1500 क्यूबिक मीटर रह गई है। इसका मतलब यह है कि वर्तमान में उपलब्ध पानी को साझा करने के लिए पहले के मुकाबले बड़ी आबादी है। जनसंख्या, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण में तेजी से वृद्धि के साथ-साथ, नदियों को बांधों और नहरों द्वारा नियंत्रित किया गया। वहीं कृषि, घरेलू और औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नदियों का अति दोहन किया गया।

हमने 1970 के दशके के उत्तरार्द्ध से शुरू होने वाली ‘‘हरित क्रांति’’ और ‘‘पंप-क्रांति’’ के दौर में धान, गेहूं और गन्ने की अधिक उपज वाली फसलें उगाईं। इन फसलों ने मोटे अनाज, तिलहन और दालों की जगह ले ली। अधिक फसलों को उगाने के लिए हमने विभिन्न ‘‘क्विक-फिक्स’’ समाधानों का सहारा लिया, जो अंधाधुंध भूजल पंपिंग द्वारा किया गया था, जिसके कारण कई नदियां सूख गईं। नदियां अनियोजित महानगरीय विकास के अधिकांश दुष्प्रभावों को सहन करती हैं। हमारी शहरी विकास परियोजनाएं ऐतिहासिक घाटों और पारिस्थितिक रूप से समृद्ध नदी-तटों से जीवन निचोड़ रही हैं। नदियों के बाढ-प्रभावित क्षेत्र (फ्लडप्लेन्स) और रिवर काॅरिडोर स्थानिक और बेमेल अनियोजित महानगरीय विकास के साथ संघर्ष कर रहे हैं। पारिस्थितिक और सांस्कृतिक संवर्धन के बिना नदियों में बड़ी और दोषपूर्ण परियोजनाओं  द्वारा जान फूंकने की कोशिश की जा रही है। फ्लडप्लेंस और रिवर-काॅरिडोर्स तेजी से कृषि भूमि और शहरी बस्तियों में बदल रहे हैं। गंगा के साथ-साथ इसकी अधिकांश सहायक नदियों का बहाव 1978 के बाद कम होता गया। अकेली रमगंगा नदी का प्रवाह वर्ष 2000 से 2018 के बीच 65 प्रतिशत तक गिर गया है।

कृष्णा नदी जल प्रवाह और नदी बेसिन क्षेत्र के मामले में भारत की चौथी सबसे बड़ी नदी है, लेकिन प्रत्येक गुजरते साल के साथ इसका प्रवाह कम हो रहा है। कृष्णा नदी डेल्टा को कई प्रमुख और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं से रेगिस्तान में परिवर्तित किया जा रहा है। स्थिति इतनी भयावह है कि बेलगावी जिले के कई गांवों में बोरवेल और कुएं भी सूखने लगे हैं। इसी तरह, कावेरी नदी पिछले कई वषों से गर्मियों के दौरान कई जगहों पर सूख रही है। कावेरी नदी तमिलनाडु में प्रवेश करने से पहले कर्नाटक में हासन, मांड्या और मैसूर जिलों से होकर बहती है। इसकी कई सहायक नदियां सूख रही हैं। गोदावरी नदी, जो तेलंगाना के लिए एक बारहमासी जल-स्त्रोत हुआ करती थी, अब अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं। स्थानीय लोगों के अनुसार, नदियों के लिए यह समय पिछले 45 वर्षों में सबसे खराब है। वर्तमान में प्रवाह में गिरावट, प्रदूषण का बोझ और जलीय जीवन की स्थिति दयनीय है।

नदियों के प्रति केंद्र और राज्यों दोनों की नीतियां खराब रही हैं। यहां तक कि भारत की जल नीति नदी प्रणालियों को बहाल करने के लिए एक ठोस योजना तैयार करने में बुरी तरह से विफल रही है। मुख्य रूप से नदी के सीमित पानी का उपयोग कर बांध और नहरों का निर्माण किया गया है। नदियों का प्रबंधन अपने आप सिंचाई विभाग में चला गया है, जिसके इंजीनियर नदी के प्रवाह और संरक्षण की बहाली के स्त्रोत, जलग्रहण और कई प्राकृतिक चैनलों की अनदेखी करते हुए जल संरचना के रख-रखाव को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है। शहरी योजनाकारों ने कई तरह की रणनीतियों के साथ ‘‘नए शहरीवाद’’ को रुख किया है। शहरों के विस्तार के साथ नदियां काफी हद तक अदृश्य हो गईं।

गोमती की दुर्दशा

लखनऊ में सबसे खराब हालत है, जहां गोमती नदी का अधिकांश हिस्सा एक नाली की तरह दिखता है। गोमती अपने जलग्रहण क्षेत्रों में भूजल के अधिक दोहन के कारण घटती हुई प्रवृत्ति दर्शा रही है। वर्ष 1978 से 2016 के बीच इसके प्रवाह में लगभग 52 प्रतिशत की गिरावट आई है। शहीद पथ तक सीतापुर बाईपास से गोमती नदी में कुल 40 नालों का मल-मूत्र निकलता है। कई नालियों को अभी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में डायवर्ट किया जाना बाकी है। राइट साइड (सिस गोमती) से निकलने वाली नालियों का पीक डिस्चार्ज 660 एमएलडी है और लेफ्ट साइड (ट्रांस गोमती) साइड से निकलने वाले नालों का पीक डिस्चार्ज 515 एमएलडी है। जल निगम और नगर निगम केवल 401 एमएलडी सीवेज को ही ट्रीट कर सकते हैं। बाकी सीधे गोमती नदी में जाता है। नदी के दोनों ओर कंक्रीट मजबूत दीवार ने उसे बांध दिया है। दीवार की गहराई 16 मीटर है जो नदी के किनारे से 11 मीटर नीचे जाती है। इससे मछली की विविधता के साथ पानी की गुणवत्ता में भी गिरावट आई है। सीतापुर और लखनऊ के बीच कई चीनी कारखानों, कागज और प्लाईवुड उद्योगों, ऑटोमोबाइल कार्यशालाओं से नदी में अनुपचारित अपशिष्ट का निर्वहन होता है, जिसके परिणामस्वरूप मछलियों की मौत हो जाती है। पीलीभीत के निचले इलाकों में कई सहायक नदियां, जैसे कथिना, भैंसी, सरायन, गोन, रीथ, सई, पिली और कल्याणी हैं, जो विभिन्न कस्बों और औद्योगिक इकाइयों के अपशिष्ट और औद्योगिक अपशिष्टों को नदी में ले जाती है।

प्रयास जरूरी

भारत की प्रमुख नदियां, छोटी सहायक नदियों और प्राकृतिक चैनलों पर निर्भर हैं। इनकी स्थिति बहुत खराब हो चुकी है। ताजे पानी का सबसे बड़ा हिस्सा, लगभग 85 प्रतिशत हमारे खेतों की सिंचाई करता है। अत्यधिक  पंपिंग के कारण भूजल स्तर नदी के तल से काफी नीचे पहुंच गया है। इस वजह से बारहमासी नदियां मर रही हैं। हमारी नदियों में बारहमासी प्रवाह के रख-रखाव के लिए आधार-प्रवाह (बेस-फ्लो) और नदी की निरंतरता महत्वपूर्ण हैं। इसलिए, बेस-फ्लो में सुधार के लिए कैचमेंट में भूजल के पुनर्भरण में सुधार के प्रयास किए जाने चाहिए। हिमालय क्षेत्रों में वर्षां के पुनर्भरण द्वारा धाराओं (स्प्रिंग्स) को बहाल किया जाना चाहिए। नदियों के पारिस्थितिक कार्यों का सम्मान किया जाना चाहिए और उनके साथ छोड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए।

नदियों के पारिस्थितिक कार्यों को बहाल करने और बनाए रखने के लिए इस क्षेत्र में उचित नीतिगत बदलाव लाने के सभी पहलुओं पर काम करने की आवश्यकता है, जिसमें भूजल पुनर्भरण, पानी की गुणवत्ता में सुधार, जैव विविधता का रख-रखाव और स्वास्थ जलीय जीवन की निरंतरता और प्रवाह शामिल हैै। इसके अलावा नदी प्रणालियों के पारिस्थितिक-प्रवाह और नदी प्रणालियों पर निर्भर सभी गैर-मानव प्राणियों की आवश्यकता को पहचानने की जरूरत है। बेस-फ्लो में सुधार के लिए कैचमेंट में भूजल के पुनर्भरण में सुधार के प्रयास किए जाने चाहिए। पीलीभीत, हरदोई, सीतापुर और लखीमपुर खीरी जिलों में कई बड़े जल निकाय, आर्द्रभूमि और धाराएं हैं। उन्हें तुरंत पुनजीर्वित किया जाना चाहिए। इन जल निकायों के भूजल के पुनर्भरण से नदी में पानी वापस आ जाएगा। इन जिलों में पानी खाने वाली फसलें जैसे ‘‘सथा धान’’ पर तुरंत रोक लगाई जानी चाहिए क्योंकि यह गर्मियों के दौरान अधिकतम भूजल लेती है। इसे पकने में 60 दिन लगते हैं, और नियमित धान की तुलना में 10 गुना अधिक पानी की आवश्यकता होती है। नदी के उद्गम स्थल से 90 किलोमीटर नीचे तक कुछ किसानों ने नदी के सक्रिय चैनल का अतिक्रमण किया है। नदी की भूमि नदी में वापस किया जाना चाहिए। भूमि राजस्व विभाग को नदी की भूमि को ठीक से दर्ज करना चाहिए और नदी चैनल का सीमांकन करना चाहिए। बेस-फ्लो द्वारा समर्थित स्ट्रीम फ्लो के अंध (भूजल और सतह जल) को संयुक्त संसाधन के रूप में माना चाहिए ताकि बेसिन में वर्तमान और भविष्य के जल संसाधनों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित किया जा सके। 

 

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