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उम्र घटा रहा वायु प्रदूषण

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उम्र घटा रहा वायु प्रदूषणHindiWaterWed, 11/13/2019 - 10:20
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दैनिक जागरण, 13 नवम्बर 2019

फोटो - The Third Pole

इंसानों को जीने के लिए हवा पहली जरूरत है। इसके बिना जीवन असंभव है, लेकिन आज मनुष्य ने अपने क्रियाकलापों से वायुमंडल को विषाक्त बना दिया है। इससे दिल्ली और एनसीआर सहित उत्तर भारत के कई नगरों में हवा इस हद तक प्रदूषित हो गई है कि लोगों द्वार सांस लेना मुश्किल हो गया है। इस वायु प्रदूषण का प्रभाव मानव वर्ग पर ही सीमित नहीं है, जीव-जंतु, पेड़-पौधे भी इसके शिकार हैं। इस प्रदूषण का मुख्य कारण बढ़ते उद्योग-धंधों के साथ-साथ मोटर गाड़ियों से निकलने वाला धुआं है।

दिवाली पर पटाखों का धुआं भी हवा को जहरीला बना रहा है। इसका एक कारण पंजाब, हरियाणा और उप्र के किसानों द्वारा अपने खेतों में धान के अवशेषों का जलाना भी है। इसके अलावा नगर निगमों द्वारा कूड़े का ढेर भी जलाया जाना है। उत्तर भारत में प्रदूषण बाकी भारत के मुकाबले तीन गुना अधिक जानलेवा है। इसके कारण गंगा के मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों की आयु सात साल तक कम हो गई है। यहां देश की 48 करोड़ से अधिक आबादी या भारत की करीब 40 फीसद जनसंख्या निवास करती है। एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स (एक्यूएलआइ) के अनुसार भारत अगर राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) के लक्ष्यों को हासिल कर लेता है और मौजूदा प्रदूषण में 25 फीसद की कटौती कर लेता है तो भारतीयों का औसत जीवन करीब 1.3 साल बढ़ जाएगा।

मनुष्य के जीने के लिए हवा में ऑक्सीजन का होना बहुत जरूरी है। इसके बिना हम जी नहीं सकते। ऑक्सीजन हमें पेड़-पौधों और वृक्षों से मिलती है। इसलिए हर नागरिक का यह कर्तव्य है कि वायु प्रदूषण को रोकने के लिए वृक्ष लगाए और उनकी रक्षा भी करे। इसके साथ-साथ प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग-धंधों के खिलाफ आवाज उठाए। दीपावली पर अंधाधुंध पटाखों को दागने वाले के खिलाफ माहौल बनाए। वायु प्रदूषण के कारण इंसानों के साथ-साथ फसलें भी प्रभावित हो रही हैं। लहलहाते खेत सूख रहे हैं, पैदावार कम हो रही है, फल-सब्जियों के स्वाद में अंतर हो रहा है। वायुमंडल में व्याप्त धूल और धुएं के कारण पौधों को प्रकाश की वांछित मात्रा नहीं मिल पा रही है, जिससे उनका पूर्ण विकास नहीं हो पा रहा है।

प्रदूषण से पत्तियों पर धब्बे पड़ जा रहे हैं। इससे पत्तियां मुरझाने लग रही हैं और फूल खिलने से पहले ही गिरने लग रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार मिर्जापुर में सीमेंट कारखानों के निकटवर्ती क्षेत्रों में पौध नाटे, पत्तियां छोटीं, बालियां अविकसित तथा दाने अपुष्ट पाए गए हैं। बहुत से क्षेत्रों में आम की फसलें अत्यधिक प्रभावित हुई हैं।  देश में हर आठ में से एक व्यक्ति की मौत वायु प्रदूषण के कारण हो रही है। वक्त आ गया है कि साफ हवा के लिए केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर काम करें और कुछ कड़े कदम उठाए जाएं। यदि ऐसा नहीं किया गया तो आने वाले दिनों में हमें सांस लेने के लिए शुद्ध हवा का मिलना मुश्किल हो जाएगा और लोग बड़े पैमाने पर दमा, टीबी सहित कई तरह की गंभीर बीमारियों के शिकार होंगे।

 

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इंग्लैंड में स्वच्छता अभियान और भारत में स्वच्छ नगर

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इंग्लैंड में स्वच्छता अभियान और भारत में स्वच्छ नगरHindiWaterWed, 11/13/2019 - 10:47
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नैनीताल एक धरोहर

फोटो - The Indian Express 14वीं शताब्दी के दूसरे दशक के बाद विश्व के अनेक देशों में पारिस्थितिक तंत्र का सन्तुलन गड़बड़ा गया था। उस दौरान यूरोप अनेक पर्यावरणीय संकटों से जूझ रहा था। पारिस्थितिक तंत्र के गड़बड़ा जाने से यूरोप में मिट्टी में प्रदूषण बढ़ गया, जिस कारण मिट्टी की उर्वरता कम हो गई। अनाज की उपज घट गई। परिणामस्वरूप भुखमरी बढ़ी और अकालों का युग आ गया। अकाल और भुखमरी से लोगों में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो गई। महामारियाँ फैली। 1348-1351 की अवधि को काली मौत का दौर कहा गया। इस दौरान फैली हैजे की बीमारी ने यूरोप की करीब आधी आबादी को निगल लिया था। 14वीं शताब्दी के अन्त तक यूरोप की 40 प्रतिशत जनसंख्या घट गई। श्रमिकों का अभाव हो गया। कृषक विद्रोह पर उतर आए।
 
1837 में रानी विक्टोरिया ब्रिटेन के सिंहासन की उत्तराधिकारी बनीं। उन्होंने अतीत के कुछ कटु अनुभवों के मद्देनजर पारिस्थितिकीय, पर्यावरण और स्वच्छता पर ध्यान केन्द्रित किया। 1842 में इंग्लैंड में गंदगी को शत्रु की संज्ञा देते हुए गंदगी हटाओ अभियान शुरू हुआ। इस अभियान को सफाई प्रबन्ध की जागरुकता के नाम से जाना गया। स्वच्छता का यह अभियान प्रकारांतर में पुनर्जागरण और धर्म सुधार आन्दोलन के चिंतन से जन्मे मानववाद की अवधारणा से प्रेरित था। चूँकि रेनेसां के बाद मानव शरीर पाप का प्रतीक नहीं रह गया था। अब इसे सुन्दरता, गरिमा और आनन्द की वस्तु माना जाने लगा था। रेनेसां से जन्मी मानववादी सोच के चलते ही कस्बों एवं नगरों में नागरिक स्वतंत्रता का उदय हुआ था। सुन्दरता, गरिमा और आनंद की अनुभूति के लिए स्वच्छता को बुनियादी तत्व माना गया।
 
इधर भारत के मैदानी क्षेत्रों की भीषण गर्मी ब्रिटिश अभिजात्य वर्ग के लिए बर्दाश्त से बाहर होती जा रही थी। उस दौर में भारत के मैदानी हिस्सों में फैलने वाले मलेरिया, हैजा और काला ज्वर जैसी जानलेवा बीमारियों से अंग्रेज त्रस्त थे। उन्हें स्वास्थ्यवर्धक हवा और साफ पानी की सख्त जरूरत थी। भारतीय मौसम के कडुवे अनुभवों से गुजर रहे अंग्रेजों को भारत के पहाड़ों की आह्लादित कर देने वाली शुद्ध हवा, प्राकृतिक वातावरण की शुद्धता, शाश्वत नीरवता, मनमोहक नैसर्गिक सौन्दर्य तथा हिमालय की रोमांचक, अनोखी और मनोहारी छवि बेहद आकर्षित करती थी।
 
अंग्रेज भारतीय पहाड़ों के पर्यावरण की वजह से ही भारत में हिल स्टेशन विकसित नहीं करना चाहते थे। ब्रिटिश साम्राज्यवादी राज्य की व्यवहारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी उन्हें हिल स्टेशनों को विकसित करने के लिए प्रेरित किया। अंग्रेज अपनी श्रेष्ठता की भावनाओं को बनाए रखते हुए भारत के भीतर दूसरी संस्कृति के प्रभाव में आए बगैर स्वच्छ और सुरक्षित स्थानों में अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा सकते थे। क्योंकि तब तक अभिजात्य वर्ग के ब्रिटिश हुकमरानों, सिविल सेवा और सेना के उच्चधिकारियों को अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए अपने से बहुत दूर सात समुद्र पार इंग्लैंड भेजना पड़ा था। भारत में हिल स्टेशनों के विकसित होने के बाद यहाँ के शिक्षा केन्द्रों में अंग्रेजी शासक और उनके बच्चों को दूसरे लोगों के मुकाबले पदानुक्रम में सर्वोच्च रखा जाना सम्भव था। पीटर बैरन द्वारा नैनीताल की भौगोलिक एवं पर्यावरणीय स्थिति के बारे में दिए ब्योरे ने तब भारतमें रह रहे स्वच्छता एवं प्रकृति प्रेमी अंग्रेजों के मन की मुराद पूरी कर दी। उधर इंग्लैंड में स्वच्छता अभियान चला और इधर भारत में नैनीताल को स्विट्जरलैंड की तर्ज पर एक स्वास्थ्यवर्धक नगर के रूप में विकसित करने की प्रक्रिया शुरू हो गई।
 
बसावट के प्रारम्भिक दौर में नैनीताल का उच्चारण एवं शब्द-विन्यास बदलता रहा। पिलग्रिम ने अपनी किताब- नोट्स ऑफ वॉण्डरिंग्स इन द हिमाला में NAINEETAL और NYNEETAL लिखा है। जबकि 1867 के स्टेट्स प्लान एवं 1872 के दौरान बने यहाँ के सेटेलमेंट के मानचित्रों में NYNEETAL (नयनीताल) लिखा गया है। 1880 के बाद के दस्तावेजों में NAINITAL लिखा जाने लगा था।

 

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तालाबों की बलि

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तालाबों की बलिHindiWaterWed, 11/13/2019 - 11:36

जम्मू क्षेत्र मुख्यतः उप-हिमालयी पहाड़ियों और उनसे सटे हुए मैदानों में पड़ता है। यहाँ लघु सिंचाई की परम्परा रही है। कुहल अथवा कुह्ल (शाखा नहरें) सम्भवतः इस क्षेत्र की सर्वाधिक प्राचीन सिंचाई प्रणाली का प्रतिनिधित्व करती हैं। सामाजिक प्रबंधन की एक सुविकसित प्रणाली के चलते कुहलों ने उच्च श्रेणी की क्षमता अर्जित कर ली। दुर्भाग्यवश, स्वतंत्रता के बाद सरकार द्वारा इन नहरों के अधिग्रहण के चलते कुहलों की व्यवस्था को भारी धक्का लगा। अर्द्ध-पर्वतीय क्षेत्र कंडी में पेयजल के लिए तालाब अथवा कुंड पारम्परिक रूप से प्रमुख स्रोत रहे हैं। एक विस्तृत अध्ययन से पता चला कि तालाब बहुत लम्बे समय से जम्मू की परम्परा में शामिल रहे हैं। पारम्परिक रूप से कम पानी वाले इस क्षेत्र में पानी के इस विशेष स्रोत के इर्द-गिर्द कई मिथक बुने गए हैं। 1960 के दशक तक, तालाब पेयजल का मुख्य स्रोत थे।
 
तालाब न केवल छोटे ग्राम समुदायों की सेवा करते थे, बल्कि राजशाही और उसकी सेनाओं के भी आते थे। शेरशाह सूरी के बेटे आलमसूर ने, जो अपने पिता के शासनकाल में लाहौर का सूबेदार था, कंडी पहाड़ियों के भीतरी इलाकों में चार किले बनवाए। जब शेरशाह की मृत्यु के बाद मुगल बादशाह हुमायूँ इस इलाके को फिर से हासिल करने में कामयाब हुआ, तब आलमसूर ने इन्ही किलों में शरण ली। ये किले अलग-अलग पहाड़ियों पर स्थित हैं और इन तक पहुँचना बहुत कठिन है। इन किलों के भीतर बने बड़े तालाब सैनिकों और उनके स्वामियों की पानी की जरूरतें पूरी करते थे। इन किलों के भीतर स्थित गाँव अब भी तालाब का ही पानी पीते हैं, क्योंकि नलके का पानी अभी तक वहाँ नहीं पहुँच पाया है।

जम्मू जिला अपेक्षाकृत कम पर्वतीय है और इसमें अधिकतम संख्या में से तालाब हैं जो आकार में अपेक्षाकृत बड़े भी हैं। ऐसे तालाब अर्द्ध-पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं, जबकि ऊँची पहाड़ियों में सोते मिलते हैं। जम्मू क्षेत्र में तीन किस्म के तालाब हैं- छप्परी, बड़े तालाब और पक्का तालाब। छप्परी उथले तालाब होते हैं और उनमें राजमिस्त्री का कोई काम नहीं होता। वे एक बारिश में भर जाते हैं और पशुओं तथा चरवाहों की जरूरतें पूरी करते हैं। ये गर्मियों में सूख भी जाते हैं।

एक लोकप्रिय मिथक यह है कि मौजूदा जम्मू शहर की उत्पत्ति एक रहस्यमय तालाब के ही इर्द-गिर्द हुई थी। एक लोककथा के अनुसार, राजा जंबूलोचन एक बार शिकार करते हुए तवी नदी के पार एक जंगल में चले गए। वहाँ उन्होंने एक शेर और एक बकरी को एक तालाब में पानी पीते देखा। उन्होंने शान्ति के प्रतीक के रूप में इसी स्थान के इर्द-गिर्द एक शहर बसाने का फैसला किया। यह तालाब पुरानी मंडी क्षेत्र में (डोगरी में मंडी का अर्थ महल होता है) शहर के कई अन्य तालाबों के साथ अभी पचास वर्ष पहले तक मौजूदा था। जम्मू शहर में तालाब जलापूर्ति के महत्त्वपूर्ण स्रोत थे। तवी नदी इसके किनारों पर रहने वाले लोगों की पेयजल जरूरतें पूरी करती थी। लेकिन बाकी शहर नदी के किनारों के काफी ऊपर एक पठार में स्थित था। शहर की जरूरतें कई तालाब पूरी करते थे, जिनमें से कुछ को 11वीं सदी के दौरान पक्का भी किया गया था। जम्मू शहर के मुख्य तालाब थे-1877 में बना मुबारक मंडी तालाब, 1860 में बना रघुनाथ मंडी तालाब, 1875 में प्रिंस ऑफ वेल्स के दौरे के समय बना अजायबघर तालाब, पुंछ की रानी द्वारा बनवाया गया रानी तालाब, महाराजा रणवीर सिंह की एक रानी द्वारा बनवाया गया कहलूरी तालाब और 1880 में एक शाही रसोइए बुआ भूटानी द्वारा बनवाया गया रामतलाई नाम का एक छोटा तालाब। वहाँ कई अन्य कम महत्त्वपूर्ण तालाब और कुंड ते। तालाब खटिकान और तालाब टिल्लो नाम के मौजूदा मोहल्ले वहाँ मौजूद बड़े तालाबों के नाम पर ही बसे हुए हैं। रानी कलहूरी तालाब और बुआ भूटानी के रामतलाई को छोड़कर जम्मू शहर के बाकी सारे तालाब व्यापारिक भवन और पार्क बनवाने के लिए नष्ट किए जा चुके हैं।
 
अर्द्ध-पर्वतीय कंडी क्षेत्र में सोते और बावड़ियाँ प्रायः नहीं हैं, जिसके चलते इस क्षेत्र के जनसमुदाय की जरूरतें पूरी करने के लिए तालाब महत्त्वपूर्ण जल स्रोत बन जाते हैं। छह नदियाँ-रावी, उझ, बसंतार, तवी, चिनाव और मुनव्वर तवी कंडी क्षेत्र से ही होकर बहती हैं। ये नदियाँ नहरी घाटियों से होकर बहती हैं। जबकि इस क्षेत्र के गाँव ऊँचे पठारों पर स्थित हैं। लिहाजा, इस क्षेत्र के लोगों को तालाब खुदवाने पड़े। जम्मू क्षेत्र के तालाब सूखे अर्द्ध-पर्वतीय क्षेत्र में लगभग तीन लाख हेक्टेयर के ऐसे क्षेत्र में स्थित हैं जो मैदानों और पर्वतीय क्षेत्र के बीच पड़ते हैं। वहाँ एक कनाल अथवा ज्यादा की माप वाले कुल 336 तालाब हैं, जो जम्मू और कठुआ जिलों में केन्द्रित हैं। पुंछ, राजौरी और डोडा की ऊँची पहाड़ियों में शायद ही कोई तालाब मौजूद होगा। उधमपुर जिला मुख्यतः पर्वतीय है और उसमें और भी कम तालाब हैं। भूक्षेत्र की प्रकृति और तालाबों की संख्या और उनके आकार के बीच कोई सम्बन्ध मालूम पड़ता है। जम्मू जिला अपेक्षाकृत कम पर्वतीय है और इसमें अधिकतम संख्या में से तालाब हैं जो आकार में अपेक्षाकृत बड़े भी हैं। ऐसे तालाब अर्द्ध-पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं, जबकि ऊँची पहाड़ियों में सोते मिलते हैं। जम्मू क्षेत्र में तीन किस्म के तालाब हैं- छप्परी, बड़े तालाब और पक्का तालाब। छप्परी उथले तालाब होते हैं और उनमें राजमिस्त्री का कोई काम नहीं होता। वे एक बारिश में भर जाते हैं और पशुओं तथा चरवाहों की जरूरतें पूरी करते हैं। ये गर्मियों में सूख भी जाते हैं। कंडी के लगभग सभी गाँवों में बड़े तालाब हैं, जो सालभर उनकी जरूरतें पूरी करते हैं। इन तालाबों में तीन तरफ से राजमिस्त्री का काम हुआ रहता है और चौथी दिशा को बाहर से पानी बहकर भीतर आ के लिए खुला छोड़ दिया जाता है। इन तालाबों के किनारों पर जमाए गए पत्थर उच्चकोटि के होते हैं। पक्का तालाब कुलीन घरानों द्वारा बनाए गए थे और इनमें चूना-सुर्खी का काम किया गया था। साथ ही इनमें सीढ़ियों और चारदीवारियों की भी व्यवस्था की गई थी। ये मन्दिरों और किलों के पास तथा राजमार्गों के किनारे बनाए गए थे। यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कौन से खुदाई के जरिए बने थे और कौन से सिर्फ किनारे ऊँचे कर देने पर बन गए थे।
 
तालाब निर्माण स्थलों का चयन बहुत सावधानी से किया जाता था। मैदानी तालाबों के विपरीत, जिनका जलग्रहण क्षेत्र चारों तरफ होता है, कंडी के तालाब किसी मौसमी नाले के करीब बनाए जाते थे। बाढ़ के समय में इस नाले के पानी का एक हिस्सा इस तालाब की तरफ मोड़ दिया जाता था। लेकिन यह बात केवल उन बड़े तालाबों के लिए सच थी, जिनके तीन तरफ ऊँचे किनारे बने होते थे। इन तालाबों की देखरेख के लिए एक बहुत सुव्यवस्थित सामूहिक प्रबंधन प्रणाली विकसित की गई थी। पानी के किफायती इस्तेमाल और इसके प्रदूषण को रोकने के लिए कड़ा नियंत्रण लागू किया जाता था। सामूहिक नेतृत्व यह सुनिश्चित करता था कि पेयजल तालाबों का जलग्रहण क्षेत्र स्वच्छ बना रहे। कई गाँवों में मनुष्यों के लिए अलग तालाब होते थे, जिन पर पहरेदार बिठाए जाते थे और उन्हें ग्राम समुदायों की ओर से इसके लिए वेतन दिया जाता था कि वे पशुओं को इनका प्रयोग न करने दें। कई गाँवों में हर परिवार से एक व्यक्ति क्रमवार ढंग से पहरेदारी किया करता था। तालाबों का निर्माण और उनकी नियमित मरम्मत प्रायः स्वैच्छिक श्रम द्वारा होती थी। यह परम्परा उन गाँवों में अब भी बनी हुई जहाँ तालाब अब भी पेयजल के प्रमुख स्रोत हैं। लेकिन बाकी जगहों पर सामूहिक नेतृत्व में हुए क्षय के ही चलते इस परम्परा का भी लोप हो चुका है।
 
यद्यपि कंडी में औसत वार्षिक वर्षा लगभग 1,000 मिमी, हुआ करती है, फिर भी गर्मियों में इसे पानी की भारी कमी का सामना करना पड़ता है, क्योंकि वर्षा का वितरण वहाँ बहुत आसमान है और जल बहाव बहुत ज्यादा है। मानसून के महीनों में बरसाती पानी का एक बड़ा हिस्सा कंडी क्षेत्र में वनों की भारी कटाई के चलते यूँ ही बेकार चला जाता है। कंडी क्षेत्र की नाजुक जलवायु के चलते, जिसमें भूक्षरण का अंदेशा बहुत होता है, वहाँ के तालाब तेजी से गाद भरने की समस्या से ग्रस्त रहते हैं। अतः समय-समय पर उनसे गाद हटाना जरूरी हो जाता है। पहले आमतौर पर गाँव के बुजुर्गों द्वारा इस उद्देश्य के लिए कोई दिन निश्चित किया जाता है और हर परिवार को इसमें श्रम के लिए एक व्यक्ति को भेजना पड़ता है। यदि कोई परिवार अपना एक सदस्य नहीं भेज पाता तो वह उसके बदले में मजदूरी देकर एक मजदूर को भेजता था। उत्सवों के मौकों पर भी लोग तालाब के एक हिस्से की सफाई करते थे। जम्मू से 15 किमी. दूर श्यामाचक गाँव में 15वीं सदी के एक अध्यात्मिक किसान नेता जिल्लों बाबा के भक्त अब भी हर साल नवम्बर माह में लगने वाले झीरी मेले के दौरान तालाब की सफाई करते हैं।
 
कंडी क्षेत्र के लोगों के लिए तालाब निर्माण और उसका रख-रखाव लोक बुद्धि का काम था। सारे तालाबों के बाहर दो व्यवस्थाएँ जरूर हुआ करती हैं। कपड़ा धोने के लिए एक सपाट पत्थर और पत्थर का बना हुआ एक बड़ी मांद जिसमें जानवरों के पीने के लिए पानी भरा रहता है। यह व्यवस्था वहाँ अब भी प्रचलित हैं। इस इलाके के तालाब बहुत छोटे हैं और मिस्त्रियों का काम उनमें से बहुत कम में ही है।  कंडी के सारे तालाबों के किनारे बरगद और पीपल के पेड़ हुआ करते थे। इन पेड़ों को धार्मिक महत्व दिया जाता था और ये जलवायु की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे। ये बड़े पेड़ राहगीरों और घरेलू पशुओं को छाया दिया करते थे और तालाब की सतह से वाष्पन के चलते होने वाले नुकसान को रोकते थे। स्थानीय जनता ने अनुभव के जरिए यह भी सीख लिया था कि एक खास गहराई से ज्यादा तालाब की गाद नहीं निकाली जानी चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से काफी भुरीभुरी सतह खुल जाएगी और इसके चलते तालाब की तली से होकर पानी नीचे रिस जाएगा। महीन गाद पानी का रिसाव रोकने के काम आती थी। तालाब की गाद को बतौर खाद इस्तेमाल करने के लिए एक तय मात्रा में ही निकाला जा सकता था। गाद की मिट्टी का इस्तेमाल कंडी क्षेत्र में कच्चे घरों की छत्तों, दीवारों-फर्शों के निर्माण में गारे के बतौर भी किया जाता था। आज भी इनमें से कुछ घरों की दीवारें उन पर बने रंगीन चित्रों के चलते सुन्दर दृश्य उपस्थित करती हैं।
 
कंडी क्षेत्र की अत्यन्त नाजुक जलवायु में ये तालाब महापूर्ण भूमिका अदा करते थे। दुर्भाग्यवश, इस सदी के मध्य तक टोंटी से पेयजल की आपूर्ति ने इन तालाबों की उपेक्षा का रास्ता साफ किया। जमीन पर पड़ रहे आबादी के दबाव और सामूहिक संस्थाओं के पतन ने उनकी गिरावट को और तेज कर दिया। जम्मू के तालाब सिंचाई के काम नहीं आते थे, फसलें ज्यादातर बारिश के पानी से होती थीं। वे स्थानीय जलवायु को ठंडा रखने में मदद करते थे। ड्रिप (बूंद-बूंद) सिंचाई की एक स्थानीय प्रणाली यहाँ बहुत पहले से ही मौजूद थी। किसी फल के पौधे के बगल में खुदे एक गड्डे में एक छिदी तली वाला घड़ा रख दिया जाता था। घड़ा नियंत्रित ढंग से पानी छोड़ता था।, जो पौधे की जड़ों के नजदीक की जमीन को नम रखता था और गर्मी की तनावपूर्ण अवधि का सामना करने में उसकी मदद करता था। पड़ोस के किसी तालाब से पानी उठाकर उस घड़े को भर दिया जाता था।

 

(‘’बूँदों की संस्कृति’’ पुस्तकों से साभार)

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माहवारी पर खुलकर बात करती हैं छात्राएं

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माहवारी पर खुलकर बात करती हैं छात्राएंHindiWaterWed, 11/13/2019 - 13:17

फोटो - Medical Daily

हम भले ही आधुनिक समाज की बात करते हों, नई नई तकनीकों के आविष्कार का दंभ भरते हों, चाँद से आगे बढ़ कर मंगल पर बस्तियां बसाने का खाका तैयार करते हों, लेकिन एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि महिलाओं के प्रति आज भी समाज का नजरिया बहुत ही संकुचित है। बराबरी का अधिकार देने की बात तो दूर, उसे अपनी आवाज उठाने तक का मौका नहीं देना चाहते हैं। विशेषकर माहवारी जैसे विषयों पर बात करना आज भी समाज में बुरा माना जाता है। यही कारण है कि भारतीय उपमहाद्वीप में माहवारी से जुड़ी कई गलतफहमियां लंबे अर्से से चली आ रही हैं। जैसे पीरियड्स के दौरान महिलाओं को अछूत माना जाना, पूजा घर में प्रवेश नहीं देना, अचार नहीं छूना और स्कूल नहीं जाने देने के साथ साथ नहाने से भी परहेज किया जाना जैसा अंधविश्वास हावी है।

वर्ष 2016 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस द्वारा कराये गये एक स्टडी के अनुसार 10 में से 8 लड़कियों को पीरियड्स के दौरान धार्मिक स्थलों में जाने की मनाही थी। जबकि 10 में से 6 को खाना छूने नहीं दिया जाता था और इस दौरान किचन में प्रवेश वर्जित था। कुछ इलाकों में माहवारी के दौरान लड़कियों को घर के कोने में अलग कमरे में रखा जाता था। इस स्टडी में देशभर के 97 हजार लड़कियों से बातचीत की गई थी। सर्वे में चौंकाने वाली बात यह थी कि बहुत सी लड़कियों को पीरियड्स से जुड़े साफ-सफाई के बारे में जानकारी तक नहीं थी। जबकि माँ या घर की बुजुर्गों की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए थी कि वह किशोरावस्था में पहुँचने वाली घर की लड़कियों को माहवारी और अन्य शारीरिक बदलावों के बारे में समय रहते अवगत कराएं। उचित जानकारी के अभाव में पहली बार माहवारी का सामना करने वाली लड़कियां दिग्भ्रमित रहती हैं। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति और भी खराब रही है। जहाँ लड़कियों को पानी लाने तालाब पर जाना पडता है, लेकिन हाइजीन के कारण उन्हें बैक्टिरिया और इंफेक्शन होने का खतरा रहता है।

तालाब के पानी स्थिर से उनमें बैक्टीरिया फैलने का डर बना रहता है। सभी शोधों से यह साबित हो चुका है कि माहवारी के दौरान महिलाओं के अशुद्व होने का कोई वैज्ञानिक कारण नहीं हैं बल्कि यह समाज में सदियों से चली आ रही गलत परंपरा रही है। अक्सर पीरियड्स में महिलाओं के लिये एक असुविधाजनक स्थिति रहती है। इस अवधि में उन्हें कई प्रकार की पीड़ा सहनी पडती है। मासिक धर्म के दौरान महिलाएं उचित खान पान नहीं ले पाती हैं और न ही वह इस मुद्दे पर खुलकर चर्चा कर पाती हैं। लेकिन बदलते वक्त के साथ अब यह विषय शर्म और झिझक वाला नहीं रहा है। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर ही नहीं बल्कि झारखंड जैसे राज्यों की किशोरियां भी अब पीरियड्स में आने वाली समस्याओं पर खुलकर स्कूलों में शिक्षिका और घर में माँ से बातें करने लगी हैं। इसकी एक प्रमुख वजह राज्य सरकार द्वारा चलाये गए जन जागरूकता कार्यक्रम भी है। झारखंड के स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ने वाली और महिला छात्रावास में रहनेवाली छात्राओं को उड़ान कार्यक्रम के माध्यम से शरीर में हो रहे बदलाव को लेकर कई प्रकार की जानकारियां दी जा रही हैं। इस सफल कार्यक्रम के बाद किशोरियां अब बेझिझक अपनी महावारियों और शारीरिक बदलावों के बारे में शिक्षिकाओं से बात करने लगी हैं। इस संबंध में कस्तूरबा गाँधी आवासीय बालिका विद्यालय की शिक्षिका उषा किरण टुडू बताती हैं कि विद्यालय में पढ़ने वाली 11 वर्ष से 14 वर्ष की बालिकाओं को मासिक धर्म के बारे में बताया जाता है। उन्हें बताया जाता है कि उनके शरीर के अंदर अब बदलाव होने वाला है और पीरियड्स से घबराना नहीं है। विद्यालय में उड़ान कार्यक्रम छठी क्लास से ही शुरू हो जाती है, जो काफी लाभप्रद साबित हो रही है। उन्होंने बताया कि पहले की अपेक्षा अब छात्राओं में जागरूकता बढ़ी है और वह इसपर खुलकर बात करने लगी हैं। इस दौरान वह न सिर्फ स्वछता के प्रति जागरूक हो गईं हैं बल्कि अपने गांवों में भी सहेलियों के साथ विद्यालय की बातें शेयर करने लगी हैं।

एक अन्य शिक्षिका सोहागिनी मरांडी बताती हैं कि कुछ विद्यालयों में सरकार की ओर से सेनिटरी पैड और इंसिनेटर उपलब्ध कराई गई है, जहां सेनिटरी पैड के लिये प्रति छात्रा 5 रूपये देने होते हैं। लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर कई छात्राएं इसका उपयोग नहीं कर पा रही थी। जिसके बाद सरकार की ओर से सभी बालिका विद्यालय और छात्रावास में रहने वाली छात्राओं के लिए मुफ्त सेनिटरी पैड दिया जाने लगा है। हालांकि उपयोग किये गए पैड का उचित निस्तारण अब भी एक बड़ी समस्या। है। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि मेरे विद्यालय में चार सौ छात्राएं हैं, जबकि केवल एक इंसिनेटर मशीन है, जिसमें पैड को जलाया जाता है, यह उसकी क्षमता से अपेक्षाकृत कम है। ऐसे में कई छात्राएं विद्यालय के शौचालय से सटा अस्थाई इंसिनेटर में जाकर पैड को जलाती है। जिससे निकलने वाले धुएं पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक होते है। इन्हें खुले में जलाने का एक कारण बिजली की कमी भी है। क्योंकि इंसिनेटर के लिये बिजली की जरूरत होती है, जबकि बहुत से विद्यालय में बिजली की कमी है, ऐसे में यह मशीन बेकार साबित हो रही है। ज्ञात हो कि आदिवासी बहुल झारखंड में ग्रामीण क्षेत्रों की अधिकांश महिलाएं सेनिटरी पैड का प्रयोग नहीं करती हैं, वह परंपरानुसार सादा कपडा का प्रयोग करती हैं। लेकिन युवा अब पैड का प्रयोग कर रही है। जेंडर को-आर्डिनेटर मिनी टुडू बताती हैं कि देश में आज प्लास्टिक पर बैन लग चुका है, लेकिन सैनिटरी पैड बनाने वाली कंपनियां अब भी उसमें प्लास्टिक का उपयोग कर रही हैं, जिसको जलाने से प्रदूषण बढ़ता है। उन्होंने बताया कि सरकार को अविलंब इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है और इस दिशा में बेहतर विकल्प तलाश करने की जरूरत है ताकि महिलाओं के बेहतर स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण का संरक्षण भी हो सके।

दुमका सदर अस्पताल में कार्यरत महिला परामर्शी सुनीता कुमारी बताती हैं कि पीरियड्स के समय महिलाओं को साफ सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए, इस दौरान उनमें कमजोरी, चिड़चिड़ापन और पेट दर्द होना आम बात है। सुनीता महिलाओं को सलाह देती हैं कि माहवारी के दौरान उन्हें अधिक-से-अधिक पानी का सेवन करना चाहिए, ऐसे में तरबूज का सेवन लाभदायक होता है। जबकि खाने में फल और दूध की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। उन्होंने बताया कि पीरियड्स के दौरान महिलाओं को पालक का साग अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक खाना चाहिए क्योंकि इसमें आयरन की मात्रा अधिक होती हैं जो खून की कमी को पूरा करता है। वहीं आहार विशेषज्ञा निरूपमा सिंह बताती हैं कि मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को केले का भी सेवन अधिक करना चाहिए, इस फल में पोटेशियम और विटामिन बी की उच्च मात्रा होती है। जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थय के लिये आवश्यक है। महिला खानपान पर कम ध्यान देती हैं। इस पीरियड में महिलाओं को अक्सर थकान, मूड खराब रहना और शरीर में ऐंठन आदि की समस्याएं होती रहती हैं। अब महिलाएं स्वच्छ जिंदगी जी रही हैं और जिंदगी जीने के सारे संसाधन उपलब्ध हैं। बहरहाल अब माहवारी पर खुलकर बात करना गलत नहीं बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उचित है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसपर खामोशी न केवल महिलाओं के लिए घातक है बल्कि स्वस्थ्य समाज के निर्माण में भी बाधा है। जब बच्चियां बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश करती हैं तो यह समय उनके लिए बेहद अहम् होता है। शारीरिक बदलाव का प्रभाव सीधे उनके कोमल मन पर पड़ता है। यही वह समय है जब उनके मन से भ्रांतियों को दूर किये जाने की आवश्यकता होती है। (चरखा फीचर्स)

 

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शैलेन्द्र सिन्हा,लेखक

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गाँव: स्वच्छ भारत अभियान का मूल

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गाँव: स्वच्छ भारत अभियान का मूलHindiWaterThu, 11/14/2019 - 11:18
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योजना, नवम्बर, 2019

‘हम लोगों पर अपनी बात थोपकर विकास से जुड़ी दीर्घकालिक जीत हासिल नहीं कर सकते। समुदायों द्वारा इसे खुद से सहजता के साथ स्वीकार कर आगे बढ़ते हुए और इसे लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी का स्वाभाविक हिस्सा बनाए जाने पर ही इस दिशा में सफलता सम्भव है।’
- हेनरिएटा एच फोर,यूनीसेफ के कार्यकारी निदेशक की  ‘स्वच्छ भारत आन्दोलन’ पुस्तक से उद्धृत

 स्वच्छता कार्यक्रमों का इतिहास

आजादी के वक्त से ही भारत में व्यापक स्तर पर स्वच्छता की मौजूदगी का अभाव रहा है। यहाँ तक कि जब पोषण और स्वास्थ्य से जुड़े अन्य सूचकांकों में प्रगति देखने को मिल रही थी, उस वक्त भी स्वच्छता का ग्राफ सुस्त गति से बढ़ रहा था। उस वक्त खुले में शौच के बुरे परिणामों को लेकर व्यापक स्तर पर स्वीकार्यता थीं, लेकिन कई लोगों का मानना था कि सामाजिक परम्पराओं, सामाजिक स्तर पर पदानुक्रम और लैंगिक बंदिशों जैसी ढाँचागत चीजों का असर भी स्वच्छता सम्बन्धी आदतों और स्वच्छता से जुड़े निजी निवेश पर पड़ा था। कहने का मतलब यह है कि 1970 और 80 के दशक में जब राष्ट्रीय टीकाकरण अभियान से जुड़ने की रफ्तार तेज थी, उस वक्त स्वच्छता कवरेज की औसत विकास दर 1 प्रतिशत सालाना थी। इस दर के लिहाज से बात करें, तो भारत को सम्पूर्ण स्वच्छता का लक्ष्य हासिल करने में साल 2080 तक का समय लगता। वह भी तब,जब जनसंख्या में और बढ़ोत्तरी नहीं हो।
 
बहरहाल, इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि भारत सरकार ने स्वच्छता कार्यक्रम को आगे नहीं बढ़ाया। भारत ने 1946 में न्यूयॉर्क में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के संविधान पर हस्ताक्षर किए थे। इसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन को अन्य विशेषज्ञ एजेंसियों के सहयोग से पोषण, आवास, स्वच्छता, मनोरंजन, आर्थिक हालात व पर्यावरण स्वच्छता के अन्य पहलुओं को बढ़ावा देने की दिशा में काम करने का अधिकार दिया गया था। भारत में सैद्धान्तिक तौर पर 1977 में हुए संयुक्त राष्ट्र के जल सम्मेलन के प्रस्तावों का भी समर्थन किया था, जिसमें सभी सदस्य देशों को सुझाव दिया गया था कि वे सामुदायिक, जल-आपूर्ति और स्वच्छता अभियान के लिए आवश्यकता और प्रभावित आबादी के अनुपात में फंड का आवंटन करें। भारत ने 2010 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में पानी और स्वच्छता को मानवाधिकार से जोड़ने सम्बन्धी प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए थे। हालांकि, इनमें से कुछ वादों और समझौतों को बाद में संसद ने हरी झंडी नहीं दी, लेकिन इससे स्वच्छता को नियमित विमर्श का हिस्सा बनाने में मदद मिली।
 
स्वच्छता से जुड़ा सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य और सतत विकास के मौजूदा लक्ष्यों ( खास तौर पर एसडीजे 6) का मकसद इसी तरह का महत्वाकांक्षी ढाँचा मुहैया कराना है, जिसे भारत ने अपने राष्ट्रीय प्रयासों में शामिल किया है। गौरतलब है कि एसडीजे 6 का मकसद सबके लिए पानी की आपूर्ति और स्वच्छता सुनिश्चित करना है।
 
स्वच्छता की समस्या से निपटने के लिए विभिन्न सरकारें पिछले 35 साल से कार्यक्रम चला रही हैं। केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम (सीआरएसपी) और इसके पुनर्गठित स्वरूप, समग्र स्वच्छता अभियान (टीएससी) को क्रमशः 1986 और 1999 में लागू किया गया। ये कार्यक्रम केन्द्र सरकार की तरफ से शुरू किए गए थे। हालांकि, ये कार्यक्रम ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता की पहुँच बढ़ाने के लिए राज्य स्तर पर अमल पर निर्भर थे। समग्र स्वच्छता अभियान के तहत समुदाय आधारित गोलाबंदी और शौचालय निर्माण के लिए प्रोत्साहन पर फोकस रहा। हालांकि, इन कार्यक्रमों का मूल्यांकन करने के बाद पाया गया कि टीएससी ने काफी बड़े लक्ष्य तय किए और सीमित फंडिंग के कारण ये लक्ष्य बिखर गए। इसके अलावा, केन्द्र और राज्यों के स्तर पर उस वक्त के बाकी सामाजिक कार्यक्रमों की तुलना में इस कार्यक्रम को लेकर राजनीतिक प्रतिबद्धता और सक्रियता कम थी। कार्यक्रमों को जमीन पर उतारने के मकसद से क्षमता में बढ़ोत्तरी के लिए केन्द्रों की स्थापना की गई, लेकिन आखिरकार जरूरी मानव संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जा सके।
 
ऐसा ही एक और कार्यक्रम ‘निर्मल ग्राम पुरस्कार 2005’ में शुरू किया गया, लेकिन इसके परिणाम भी काफी अच्छे नहीं रहे। हालांकि, इसमें अच्छा प्रदर्शन करने वाले ग्राम पंचायतों (खुले में शौच से मुक्त होने वाले पंचायत) को वित्तीय पुरस्कार देने का भी ऐलान किया था। इस कार्यक्रम के बाद 2012 में हर घर के लिए बड़ी वित्तीय प्रोत्साहन राशि (10,000 रुपए) के साथ निर्मल भारत अभियान शुरू किया गया। यह कार्यक्रम फंडिंग के साधनों के लिए मनरेगा और सम्बन्धित योजनाओं पर निर्भर था। निर्मल भारत अभियान में जिला स्तर पर संमिलन पर ध्यान केन्द्रित किया गया, लेकिन फंड जुटाने में दिक्कत, राज्य और जिला प्रमुखों की प्राथमिकता सूची में इसका नहीं होना और सुव्यवस्थित सूचना प्रणाली की कमी से यह भी रफ्तार नहीं पकड़ सका।
 
स्वच्छता भारत अभियान तैयार करने में ये सबक रहे कारगर
 
कुछ स्वतंत्र आकलनों के जरिए पता चला कि सरकार द्वारा सिर्फ शौचालयों के निर्माण पर ध्यान केन्द्रित किए जाने से खुले में शौच की समस्या बना रही। यहाँ तक कि जिनके यहाँ शौचालय बने, वे भी खुले में ही शौच कर रहे थे। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि टीएससी जैसे पुराने अभियान में सूचना, शिक्षा और संचार के लिए बजट का प्रावधान तो किया गया, लेकिन उनका सही ढंग से उपयोग नहीं हुआ। लिहाजा, फोकस सिर्फ शौचालयों के निर्माण पर रहा और लोगों के व्यवहार में बदलाव पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। हालांकि, सामाजिक कार्यक्रमों में व्यवहार सम्बन्धी बदलाव को शामिल करने से सम्बन्धित लोगों तक सीधा संदेश पहुँचता और यह ज्यादा प्रभावकारी होता है। यह बेहतर परिणामों के लिए स्थानीय समुदाय के महत्व को भी रेखांकित करता है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री ने 2 अक्टूबर, 2014 को स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत करते हुए इसमें जन आन्दोलन के महत्व पर जोर दिया। यह अभियान आखिर में स्वच्छ भारत अभियान-ग्रामीण बन गया।
 
साल 2014 में तैयार स्वच्छ भारत अभियान ग्रामीण के दिशा-निर्देशों में इस तरह के पिछले प्रयासों से सीखे गए सबक को भी शामिल किया गया। सम्बन्धित मसौदे में ग्राम पंचायतों को अपने स्तर पर खुले में शौच से मुक्ति के लिए योजना बनाने का भी अधिकार दिया गया। ग्राम पंचायतों को व्यवहार सम्बन्धी बदलाव के लिए प्रेरित करने की खातिर भी प्रोत्साहित किया गया। साथ ही, इन सब के लिए खासतौर पर फंड के आवंटन की भी बात कही गई। माँग और आपूर्ति के असंतुलन को दूर करने के लिए ग्राम पंचायतों को स्थानीय प्रशिक्षित राजमिस्त्री के साथ काम करने को कहा गया, ताकि शौचालयों के निर्माण से जुड़ी माँग को पूरा किया जा सके। अनुकूल माहौल उपलब्ध कराने के लिए ग्राम पंचायतों को कोई भी फंड इस्तेमाल करने को कहा गया। इसके तहत सफाई सम्बन्धी सेवाओं के लिए 14वें वित्त आयोग के आवंटन का भी इस्तेमाल करने की अनुमति दी गई।
 
स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण का ढाँचा इस तरह से तैयार किया गया, जिसमें कार्यान्वयन के स्तर पर ज्यादा स्वतंत्रता थी। इसमें कुछ अन्य बातें भी शमिल थीः

  1. पिछले 5 साल में प्रधानमंत्री द्वारा मजबूत सार्वजनिक और राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन।
  2. पर्याप्त फंडिंग के जिसके जरिए 10 करोड़ घरों को जरूरी प्रोत्साहन राशि का भुगतान किया गया (तकरीबन 1,00,000 करोड़ रुपए)।
  3. अभियान का दायरा बढ़ाने के लिए जरूरी गतिविधियों को अंजाम देने के मकसद से जिला स्तर पर सहूलियतें। इसके तहत रचनात्मक और स्थानीय स्तर पर जरूरी पहल की इजाजत दी गई, खास तौर पर समुदायों को बड़े पैमाने पर गोलबंद करने के मकसद से व्यवहार सम्बन्धी बदलाव से जुड़ा अभियान।
  4. हार्डवेयर (शौचालयों के निर्माण आदि) में वित्तीय निवेश का अनुपात बेहतर करना, जबकि सामुदायिक स्तर पर परिणाम हासिल करने के मकसद से सॉफ्टवेयर (व्यवहार सम्बन्धी बदलाव के प्रचार-प्रसार) में जबरदस्त निवेश।
  5. स्वच्छता प्रक्रिया में सामुदायिक तौर-तरीकों का इस्तेमाल करना, इससे भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ सामने आई, मसलन खुले में शौच की परम्परा को लेकर घृणा।
  6. कार्यक्रम में महिलाओं की अगुवाई वाले घरों और अनुसूचित जाति और जनजातियों को प्राथमिकता दी गई। उनका विशेष तौर पर जिक्र किया गया और सम्बन्धित दिशा-निर्देशों में प्रोत्साहन का भी प्रावधान किया गया।

इसके साथ ही, पंचायती राज मंत्रालय ने सेवाएँ मुहैया कराने की ग्राम पंचायतों की क्षमता को और मजबूत बनाने में अहम भूमिका निभाई, जिसमें स्वच्छ भारत अभियान-ग्रामीण के लक्ष्य भी शामिल थे। भारतीय संविधान के 73वें संशोधन में पेय जल और स्वच्छता को पंचायत राज संस्थानों (ग्राम पंचायत समेत) की जिम्मेदारी बताई गई है। जिला प्रशासन की तरफ से भी इस मोर्चे पर महत्त्वपूर्ण काम किए गए। पंचायती राज मंत्रालय ने राष्ट्रीय ग्राम पंचायत विकास योजना सम्बन्धी दिशा-निर्देश 2018 के जरिए यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि स्वच्छता सम्बन्धी निवेश और अन्य पहल को मौजूदा बजटीय प्रावधानों से जोड़ा जाए।
 
हालांकि, कई प्रयास तय लक्ष्यों से पीछे छूट जाते हैं। केन्द्रिय मंत्रालयों (खास तौर पर पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय) द्वारा कई सलाह जारी की गई, लेकिन ग्राम पंचायतों की सक्रियता इस बात पर निर्भर करती है कि किन-किन राज्यों ने कार्यक्रमों में मिली सहूलियतों का इस्तेमाल किया गया। ग्राम पंचायत शुरू में परिवारों के प्रतिनिधि के तौर पर काम कर रहे थे और पंचायतों के जरिए शौचलायों के निर्माण के लिए कच्चा माल प्राप्त किया जा रहा था। हालांकि, धीरे-धीरे पंचायतों की भूमिका कम होती गई और राज्यों के स्तर पर विभागों को सीधा परिवारों से सम्पर्क करना ज्यादा आसान लगा। लिहाजा, आमतौर पर ग्राम पंचायतों को कार्यक्रम के कार्यान्वयन के प्रत्यक्ष दायरे में नहीं रखा गया।
 
ग्राम पंचायतों की भूमिका

पिछले कार्यक्रमों के मुकाबले स्वच्छ भारत अभियान के तहत ग्राम पंचायतों में निवेश का फायदा देखने को मिला। इसके अलावा, ग्रामीण परिवारों के लिए अपने स्थानीय नेताओं द्वारा जारी निर्देशों को समझना ज्यादा आसान था। देश को बदलने से जुड़े प्रयासों में इस पहलू को शामिल किया गया है। हाल में 10 करोड़ परिवारों तक स्वच्छता को पहुँचाने के लक्ष्य से लेकर कार्यक्रम के अगले चरण की अवधि के दौरान स्थानीय पंचायत की भूमिका पर जोर दिया गया। नए चरण में न सिर्फ उन घरों तक पहुँचने की जरूरत है, जहाँ शौचालय नहीं हैं, बल्कि इसमें मौजूदा शौचालयों के रखरखाव और उसे सुरक्षित बनाए रखने और परिवार के सभी सदस्यों द्वारा इसके इस्तेमाल पर भी जोर दिया गया है। इसके लिए व्यवहार सम्बन्धी बदलाव के लिए अनुकूल माहौल बनाने की खातिर निवेश जारी रखने और स्वच्छता के अगले चरण में निवेश में बढ़ोत्तरी की आवश्यकता है। अतः साल 2018 में सरकार ने ग्राम पंचायत विकास योजना सम्बन्धी दिशा-निर्देश 2018 में संशोधन किया। इसमें विशेष तौर पर कहा गया कि ‘स्वच्छता, ठोस कचरा प्रबंधन, पेयजल को राज्य स्तर पर संशोधित ग्राम पंचायत विकास योजना सम्बन्धी दिशा-निर्देश में प्राथमिकता देने की जरूरत है।’
 
नया चरण शुरू करने के मकसद से सरकार ने सितम्बर 2019 में 10 साल के लिए ग्रामीण स्वच्छता रणनीति का मसौदा जारी किया। इसमें स्वच्छता का बेहतर स्तर बनाए रखने और इसमें और बढ़ोत्तरी के लिए 2029 तक उठाए जाने वाले कदमों के बारे में बताया गया है। उस रणनीति का मकसद खुले में शौच से मुक्ति के सिलसिले को बनाए रखने के लिए केन्द्र, राज्य और स्थानीय सरकारों, नीति निर्माताओं और अन्य सम्बन्धित पक्षों को नियोजन के लिए दिशा-निर्देश मुहैया कराना है। रणनीति के मुताबिक, खुले में शौच से मुक्ति के सिलसिले को बनाए रखना और हर गाँव के पास ठोस और तरल कचरे के प्रबंधन की सुविधा सुनिश्चित करना है। भारत इस दीर्घकालिक लक्ष्य को पूरा करने की दिशा में काम कर रहा है। सतत विकास लक्ष्य (एसडीजे)-6, खासतौर पर 6.2 का लक्ष्य हासिल करने के लिए यह जरूरी है। एसडीजे 6.2 के लक्ष्य के मुताबिक, साल 2030 तक सबको पर्याप्त और बराबर स्वच्छता की सुविधा उपलब्ध कराना, खुले में शौच के चलन को खत्म करना, महिलाओं, लड़कियों और अन्य वंचितों पर विशेष ध्यान देना शामिल हैं।
 
इन कार्यक्रमों का मकसद स्वच्छ भारत ग्रामीण की उपलब्धियों को बरकरार रखना, देश के सभी गाँवासियों के लिए स्वच्छता का सुरक्षित प्रबंधन और ठोस कचरा प्रबंधन के जरिए साफ-सुथरा पर्यावरण का लक्ष्य हासिल करना है।
 
नई प्रणाली में ग्राम पंचायतों को रणनीतिक तौर पर गाँवों में हो रहे ठोस और तरल कचरा प्रबंधन सम्बन्धी प्रयासों के केन्द्र में रखा गया है। इसमें कहा गया है कि निर्मय हमेशा यथासम्भव निचले स्तर पर लिए जाने चाहिए, जहाँ वे ज्यादा प्रभावी होंगे। ‘विकेन्द्रीकृत शासन प्रणाली और संस्थागत ढांचा’ अध्याय में ग्राम पंचायतों की अहम भूमिका और जिम्मेदारी के बारे में कहा गया है। इसमें स्वच्छाग्रहियों के उन्नयन और प्रशिक्षण की भी बात कही गई है, ताकि वे पानी और स्वच्छता को लेकर अपनी भूमिका और जिम्मेदारी के बारे में जान सकें और जरूरी सेवाओं के लिए प्रबंधन प्रणाली तैयार कर सकें। इसमें यह भी बताया गया है कि किस तरह से सभी सम्बन्धित पक्ष अलग-अलग मंत्रालयों और विभागों को थोड़ी-थोड़ी जिम्मेदारी बांटकर निवेश और काम को रफ्तार दे सकते हैं। सभी पक्षों को नियमित रूप से एक-दूसरे के सम्पर्क में रहना चाहिए और उन्हें विकास की प्रक्रिया से जुड़े साझीदारों मसलन निजी क्षेत्र, सिविल सोसायटी संगठनों और अकादमिक संस्थानों को जरूरत के हिसाब से शामिल करना चाहिए।
 
शहरी क्षेत्र भले कचरा ट्रीटमेंट प्लांट तैयार करने और उसका इस्तेमाल करने में सक्षम हैं, लेकिन ग्रामीण समुदायों को स्थानीय स्तर पर टिकाऊ विकल्पों को पेश करना होगा, जो ग्राम पंचायत स्तर पर बेहतर ढंग से काम कर सकें। कचरा प्रबंधन और संसाधनों की रिसाइक्लिंग सम्बन्धी कोशिशों के लिए यही बात लागू होती है। इसमें ठोस कचरा प्रबंधन का मामला भी शामिल है। इसके अलावा, प्रधान/सरपंच, स्वच्छाग्रही और जमीनी स्तर अन्य अहम लोगों की भूमिका और उनके प्रभाव को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि सेवाओं को प्रासंगिक, असरदार और टिकाऊ बनाने के लिए उनसे जुड़ी सम्भावनाओं का इस्तेमाल किया जाए। साथ ही, यह समुदाय से जुड़े नेताओं की पूरी तरह से जवाबदेही सुनिश्चित करने की भी जरूरत है।
 
इसके अलावा, जल जीवन मिशन की शुरुआत की गई है, जिसका मकसद 2024 तक सभी घरों में पीने का पानी मुहैया कराना है। स्वच्छता कार्यक्रम से जल आपूर्ति अभियान को जोड़ना आवश्यक है। इससे पानी के संसाधन सुरक्षित रह सकेंगे और स्वच्छता सेवाएँ भी जारी रहेंगी। जिला और राज्य स्तर के नेता मौखिक रूप से संमिलन की वकालत कर सकते हैं, लेकिन असली कोशिश ग्राम पंचायतों को ही करनी होगी, जिन्हें विभिन्न कार्यक्रमों के तहत फंड और बाकी चीजें मुहैया कराई जाती है।
 
आगे की राह

नई रणनीति के तहत तय फॉर्मूले को लागू करने के लिए सरकार (जल शक्ति मंत्रालय) पहले ही व्यावहारिक कदम उठा चुका है। ये कदम स्वच्छ भारत मिशन की मौजूदा रणनीति से ओडीएफ प्लस की तरफ बढ़ने के दौरान उठाए गए हैं। यूनिसेफ की मदद से इस साल सितम्बर से केन्द्र सरकार देश के सभी ग्रामीण इलाकों में पानी की आपूर्ति और स्वच्छता प्रशिक्षण कार्यक्रम लागू कर रही है। इसके तहत हर ग्राम पंचायत के प्रधान समेत पंचायत के उच्च स्तरीय प्रतिनिधियों की अहम भूमिका पर जोर दिया गया है। इस अभियान का मकसद प्रशिक्षकों के प्रशिक्षण मॉडल का इस्तेमाल कर तकरीबन अगले साल 2,58,000 ग्राम  पंचायतों तक (तकरीबन 7,74,000 व्यक्ति) पहुँचना है। केन्द्र सरकार और यूनिसेफ राज्य और जिला स्तर पर बेहतर प्रशिक्षक तैयार करने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं। ये प्रशिक्षक तमाम राज्यों में ग्राम पंचायतों के प्रतिनिधियों के साथ संवाद करेंगे।
 
प्रशिक्षण में रणनीतिक ढाँचे को वास्तविक स्वरूप प्रदान करने के लिए व्यावहारिक गतिविधियों पर जोर दिया गया है। प्रतिनिधियों को हर तरह के सत्र में बुलाए जाने की बात है, मसलन मौजूदा जल संसाधनों के प्रबंधन से लेकर कचरा प्रबंधन से जुड़ी जानकारी वाले व्याख्यानों तक, तमाम आयोजकों में उन्हें बुलाया जाता है। साथ ही, यह भी बताया जाता है कि स्वच्छाग्रहियों, राजमिस्त्री और अन्य स्थानीय समूहों को जोड़कर किस तरह से स्वच्छता चक्र के अगले अभियान को कैसे बढ़ावा दिया जाए। सफाई के संदेश को भी प्रमुखता से प्रसारित किया जाता है (साबुन से हाथ धोना आदि)। कम खर्च वाली यह आदत काफी हद तक डायरिया जैसी बीमारियों का बोझ कम कर सकती है।
 
हमें इन प्रयासों के परिणाम के इंतजार है और इससे यह भी पता चलेगा कि भारत सरकार के अगले चरण के अभियान में ये प्रयास किस तरह से योगदान करेंगे। हालांकि, अभी भी कई चीजें सीखना बाकी है, मसलन मासिक धर्म से जुड़े कचरे का प्रबंधन, बच्चों के मल का सुरक्षित निपटान और गड्ढे वाले शौचालयों को टिकाऊ और काम के लायक बनाने के लिए उनमें कई सुविधाएँ जोड़ना। इन समस्याओं से असरदार ढंग से तभी निपटा जा सकता है, जब ग्राम पंचायतों को पर्याप्त अधिकार दिए जाएँ और उस स्तर पर नेतृत्व को सक्रिय किया जाए। दरअसल, लोगों की जिंदगी में दीर्घकालिक बदलाव लाने की ताकत उनके पास ही है।
 
सन्दर्भ

  1. https://www.who.int/governance/eb/who_constitution_en_pdf
  2. https://www.ircwash.org/sites/default/files/71UN77&161.6.pdf
  3. https://www.centreforpublicimpact-org/case&study/total&sanitation&cam-paign&india/
  4. https://link.springer.com/article/10.1186/s12889&017&4382&9
  5. https://www.povertyactionlab.org/evaluation/effect&defecation&behave-iors&child&health&rural
  6. Ibid](2)
  7. http://www.cbgaindia.org/wp&content/up-loads/2011/04/TSC.pdf
  8. https://dictionary.cambridge.org/diction-arh/english/subsidiarity
     

 

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स्वच्छता के लिए व्यवहार में स्थाई बदलाव जरूरी

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स्वच्छता के लिए व्यवहार में स्थाई बदलाव जरूरीHindiWaterThu, 11/14/2019 - 12:53
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योजना, नवम्बर 2019

स्वच्छ भारत मिशन समूचे समुदाय के सामूहिक व्यवहार विषयक परिवर्तन पर ध्यान केन्द्रित करता है। शौचालयों के निर्माण मात्र से यह सुनिश्चित नहीं होता है कि ग्रामीण आबादी नियमित आधार पर शौचालयों का इस्तेमाल करेगी। कई ऐसे महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक और व्यवहार विषयक घटक हैं, जो शौचालयों के इस्तेमाल में बाधक हैं। व्यवहार विषयक बदलाव के अधिकतर कार्यक्रमों में यह देखा गया है कि कुछ समय पश्चात शौचालयों के इस्तेमालकर्ता फिर से खुले में शौच जाने की पुरानी प्रवृत्ति अपनाने लगते हैं, जिससे इस कार्यक्रम का प्रयोजन विफल हो जाता है।

स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) के रूप में देश में शौचालयों के निर्माण में एक मूक क्रान्ति आई है। इस आन्दोलन की शुरुआत 2 अक्टूबर, 2014 को हुई थी, जिसके बाद से 2 अक्टूबर, 2019 तक 10 करोड़ से अधिक शौचालयों का निर्माण किया गया। इन व्यापक प्रयासों की वजह से देश के करीब 700 जिलों में लगभग 6 लाख गाँवों को खुले में शौच जाने से मुक्त घोषित किया गया। पूर्ववर्ती अन्य सभी कार्यक्रमों की तुलना में एसबीएम की एक बड़ी खासियत यह रही है कि इसका स्वरूप माँग-संचालित है, जिसमें प्राथमिक लक्ष्य व्यवहार विषयक बदलाव रहा है, जिसकी परिणति शौचालयों के निर्माण की माँग सृजित होने के साथ ही शौचालयों के उपयोग में बढ़ोत्तरी के रूप में होती है।
 
व्यवहार विषयक बदलाव के अधिकतर कार्यक्रमों में यह देखा गया है कि कुछ समय पश्चात शौचालयों के इस्तेमालकर्ता फिर से खुले में शौच जाने की पुरानी प्रवृत्ति अपनाने लगते हैं, जिससे इस कार्यक्रम का प्रयोजन विफल हो जाता है। इस अध्ययन का आंशिक लक्ष्य शौचालयों के निर्माण के बाद उनका उपयोग करने और उपयोगकर्ताओं के फिर से पुराने ढर्रे पर लौट आने अथवा निर्मित शौचालयों का उपयोग न करने की प्रवृत्ति के कारणों का पता लगाना था। इस प्रकार शौचालयों के निर्माण मात्र से यह सुनिश्चित नहीं होता है कि ग्रामीण आबादी नियमित आधार पर शौचालयों का इस्तेमाल करेगी।
 
कई ऐसे महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक और व्यवहार विषयक घटक हैं, जो शौचालयों के इस्तेमाल में बाधक हैं। अनेक लोगों के लिए खुले में शौच जाना प्रातः भ्रमण, फसलों की देखरेख और सामाजिक मेल-मिलाप का एक हिस्सा होता है। (नील, वुजसिक, बर्न्स, वुड और डिवाइन 2015:10)। महिलाओं के मामले में अंधेरे में खुले में शौच के लिए बाहर जाना, परिवार के बड़े सदस्यों, विशेष रूप से पति और सास-ससुर की निगरानी से इतर अन्य महिलाओँ के साथ खुल कर मिलने का दिन में एकमात्र अवसर हो सकता है।
 
व्यवहार विषयक घटकों के अलावा, यह देखा गया है कि शौचालय का डिजाइन, स्वच्छता सामग्री की उपलब्धता, पानी की व्यवस्था और राजनीतिक या सामाजिक नेतृत्व जैसे कारक निर्माण की माँग में बढ़ोत्तरी और शौचालयों के इस्तेमाल में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं (ओ.रेली और लुई)। परन्तु, अनेक गाँव सजातीय नहीं होते हैं और जाति तथा धर्म के आधार पर विभाजित होते हैं। समूचा गाँव सजातीय होने की स्थिति में उसमें व्यवहार विषयक सामूहिक बदलाव लाना आसान होता है, लेकिन अधिक संघर्ष होने की स्थिति में इसमें कठिनाई आती है (गुप्ता, कोफे और स्पियर्स)। इतना ही नहीं, पवित्रता और प्रदूषण की जाति आधारित धारणा ऐसे गड्ढा शौचालयों के निर्माण में कठिनाई पैदा करती है, जिन्हें भविष्य में खाली करने की आवश्यकता हो। इस प्रकार शौचालयों को अपनाना हमेशा जल या शौचालयों की उपस्थिति अथवा अभाव से सम्बद्ध नहीं होता है, बल्कि ‘सामाजिक निर्धारक’ और सामाजिक विश्वास परम्परागत धारणाओं को प्रबलित करते हैं।
 
भारतीय समाज में विविधता के कारण व्यवहार विषयक बदलाव की चुनौती अक्सर बढ़ जाती है, और इसीलिए अधिक संदर्भगत समझ आवश्यक होती है। तथ्य यह है कि स्थानीय जानकारी पर विचार किए बिना स्वच्छता अभियान निष्फल गतिविधियों में बदल जाता है। इस पृष्ठभूमि में हमने उन कारकों (सामाजिक, भौतिक और व्यवहार विषयक) का पता लगाने और विश्लेषण करने का प्रयास किया, जो लोगों में खुले में शौच न जाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं और शौचालयों के निर्माण और व्यवहार विषयक बदलाव के लिए सूचना, शिक्षा, संचार (आईईसी) जैसे कारगर तत्वों को निष्फल कर देते हैं। इसके अतिरिक्त हमने शौचालयों के निर्माण के लिए सहमति को प्रभावित करने में आपूर्ति-पक्ष की प्रमुख रुकावटों का पता लगाने और पानी की उपलब्धता तथा भूमि उपयोग में परिवर्तन की भूमिका को समझने की कोशिश की।
 
पृष्ठभूमि
 
हमने अपने नमूने में देश की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता को शामिल करने का प्रयास किया। इसलिए हमने तीन राज्यों (बिहार, तेलंगाना और गुजरात) को चुना। ये तीन राज्य तीन अलग-अलग सामाजिक-सांस्कृतिक, भाषायी और आर्थिक पृष्ठभूमि का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो विविधता के हमारे मानदंड से मेल खाते हैं। शौचालयों तक पहुँच सबसे अधिक गुजरात (85 प्रतिशत), उसके बाद तेलंगाना (61 प्रतिशत), और फिर बिहार (30 प्रतिशत) में देखी गई। प्रत्येक राज्य से हमने दो जिलों (उत्कृष्ट कार्य निष्पादन और सबसे खराब निष्पादन के आधार पर), प्रत्येक जिले से दो ब्लॉकों (उत्कृष्ट कार्य निष्पादन और सबसे खराब निष्पादन आधार पर), और प्रत्येक ब्लॉक से दो ग्राम पंचायतों (उत्कृष्ट कार्य निष्पादन और सबसे खराब निष्पादन के आधार पर) और प्रत्येक ग्राम पंचायत से एक गाँव का चयन किया। नमूने के आकार में 1252 [बिहार (एन=441), गुजरात (एन=409), और तेलंगाना (एन=402)] इकाइयाँ शामिल थीं।
 
व्यवहार विषयक पद्धतियाँ
 
पृथक रसोईघर और शौचालय होने के बीच एक सुदृढ़ सम्बन्ध देखा गया। मकान के भीतर स्वच्छ रसोई के लिए अलग स्थान की ही भाँति शौचालय के लिए पृथक स्थान महत्त्वपूर्ण समझा गया(रविन्द्र, और स्मिथ, 2018)। तीनों राज्यों में हमारे नमूना परिवारों में अधिसंख्य मामलों में पृथक रसोईघर (64.3 प्रतिशत) नहीं पाए गए। जबकि शौचालयों के लिए पहुँच होने के बावजूद सभी परिवारों में करीब 8 प्रतिशत अथवा कुछ सदस्य शौचालयों का इस्तेमाल नहीं कर रहे थे। परिवार में शौचालयों के निर्माण का प्रमुख कारण निजता और सुविधा था। इसके बाद समकक्ष का दबाव, सामाजिक प्रतिष्ठा, महिलाओं की माँग और पंचायत नेताओं तथा अन्य राजनीतिक नेताओं और स्वास्थ्य एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं की प्रेरणा शामिल थी।
 
आँकड़ों के हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि शौचालयों तक पहुँच का पेयजल के प्रमुख स्रोत के साथ मजबूत रिश्ता है। जिन गाँवों में पाइप के जरिए जलापूर्ति की व्यवस्था थी, वहाँ शौचालयों तक पहुँच और उनके इस्तेमाल में अधिकता देखी गई। इसके अलावा परिवार के मुखिया के लिंग का भी शौचालयों तक पहुँच पर असर देखा गया। जिन परिवारों की प्रमुख महिलाएँ हैं, उनमें पुरुष प्रधान परिवारों की तुलना में शौचालयों के इस्तेमाल की प्रवृत्ति अधिक पाई गई। कृषि इतर स्व-रोजगाररत परिवारों में खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति कम देखी गई।
 
शौचालयों तक पहुँच के मामले में किसी परिवार के जीवन की गुणवत्ता एक महत्त्वपूर्ण घटक पाई गई। अन्य बुनियादी सेवाओं तक पहुँच को भी शौचालयों तक पहुँच में महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में देखा गया। परिवार के लिए पेयजल सुविधा की पृथक व्यवस्था होने की स्थिति में पृथक शौचालय के इस्तेमाल की प्रवृत्ति अधिक देखी गई। आवासीय इकाई के भीतर पेयजल स्रोत होने की स्थिति की तुलना में आवास परिसर से पेयजल स्रोत की दूरी 400 मीटर से अधिक होने की स्थिति में, खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति अधिक पाई गई। इसी प्रकार आवास के भीतर जल स्रोत होने की तुलना में आवास से बाहर पेयजल स्रोत होने की स्थिति में परिवार के उपयोग के लिए पृथक शौचालय 10 प्रतिशत कम देखे गए। स्नानघर सुविधा शौचालयों तक पहुँच में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि परिवार में स्नानघर नहीं है, तो खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति बढ़ने की आशंका रहती है। अटैच बाथरूम सुविधा होने से परिवार के सभी सदस्यों द्वारा शौचालय के उपयोग के अवसर बढ़ जाते हैं। वर्ष के दौरान विभिन्न अवधियों में पानी की अपर्याप्त उपलब्धता का शौचालयों के उपयोग पर नकारात्मक असर पड़ता है। आवास की स्थिति, जो जीवनस्तर का सूचक होती है, की भी शौचालय उपयोग में महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
 
परिवारों की आर्थिक स्थिति और कुल खर्च क्षमता का शौचालयों तक पहुँच और उनके उपयोग की प्रवृत्ति पर सकारात्मक असर पड़ता है। मासिक परिवार व्यय 1000 रुपए से अधिक होने की स्थिति से खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति में कमी आने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसके अलावा टिकाऊ सामान पर व्यय में एक प्रतिशत बढोत्तरी होने से शौचालयों के उपयोग के अवसर 48 प्रतिशत बढ़ जाते हैं। इसका निहितार्थ यह है कि बेहतर आर्थिक स्थिति और बेहतर जीवन स्तर से शौचालयों के निर्माण और इस्तेमाल के अवसर बढ़ जाते हैं।
 
शौचालय निर्माण सम्बन्धी सरकारी कार्यक्रमों और वित्तीय सहायता के बारे में जानकारी होने का रचनात्मक असर क्रमशः शौचालयों के निर्माण और इस्तेमाल पर पड़ता है। स्वच्छ भारत मिशन के प्रति जागरूकता खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति में 10 प्रतिशत कमी लाती है। उत्तरदाता (विशेष रूप से परिवार के मुखिया) या महिलाओं के दबाव के कारण निर्मित शौचालयों का इस्तेमाल परिवार के सभी सदस्यों द्वारा किए जाने की सम्भावना बढ़ जाती है। आस-पास के वातावरण की स्वास्थ्य और स्वच्छता सम्बन्धी स्थितियाँ शौचालयों के निर्माण और उपयोग की सम्भावना बढ़ा देती हैं।
 
सामाजिक-आर्थिक ढाँचागत और पर्यावरण प्रभावों के बावजूद शौचालयों तक पहुँच और उनके इस्तेमाल में राज्य-विषयक प्रभावों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। गुजरात की तुलना में बिहार में खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति 13 प्रतिशत अधिक और परिवार के विशेष इस्तेमाल के लिए शौचालय होने की सम्भावना 37 प्रतिशत कम देखी गई। गुजरात की तुलना में बिहार में 15 वर्ष से ऊपर आयु के पुरुष और महिला सदस्यों और वृद्धजनों द्वारा शौचालयों के उपयोग की सम्भावना 20 प्रतिशत कम देखी गई। बिहार की तुलना में तेलंगाना में खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति 30 प्रतिशत अधिक पाई गई।
 
फोकस ग्रुप विचार विमर्श, भागीदारी पूर्ण ग्रामीण आकलन (पीआरए), स्वच्छता सम्बन्धी चित्रों और विसंरचित साक्षात्कार की मदद से जागरूकता के दिलचस्प नतीजे सामने आए। निजी और सामाजिक खुशहाली के प्रति जागरूकता के बावजूद, परिवार खुल में शौच जाने को नपी खुशहाली के प्रति कोई खतरा नहीं समझते हैं। शौचालयों की तुलना में स्वयं के लिए घर, पूजा स्थल, मनोरंजन के स्रोत के रूप में मेले या सामाजिक उत्सवों की मांग अधिक पाई गई। गाँवों में कुछ परिवारों द्वारा शौचालय को स्वीकार न किए जाने का अन्य पर नकारात्मक असर देखा गया। इसे देखते हुए जो शौचालयों का इस्तेमाल कर रहे थे, उन्होंने भी किसी एक या अन्य बहाने से उनका इस्तेमाल करना बंद कर दिया। विभिन्न स्वयं-सहायता समूहों के सदस्यों ने बताया कि शौचालय का ढाँचा दिव्यांगजनों के अनुकूल नहीं है। अनेक परिवारों में वृद्धजनों के लिए शौचालय का इस्तेमाल करना आरामदायक नहीं पाया गया। पीआरए और एफजीटी ने मिलकर यह उद्घाटित किया कि सूचना, शिक्षा संचार का एसबीएम (जी) के कार्यान्वयन की समूची प्रक्रिया में कम इस्तेमाल किया गया। प्रातः कालीन सतर्कता, खुले में शौच जाने वालों को उजागर करना (व्हिसल ब्लोइंग), बैठकों, प्रशिक्षण आदि उपायों के जरिए इस प्रवृत्ति के बारे में जागरूकता पैदा करने के प्रयास किए गए। समुचित स्वच्छता प्रणाली, शौचालयों की आवश्यकता, मलके समुचित निपटान और मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता के महत्व के बारे में समुदायों में शिक्षा का अभाव देखा गया।
 
पवित्रता और प्रदूषण के प्रति सामाजिक सांस्कृतिक मानदंड लोगों को घर में शौचालय रखने से रोकते हैं। इसी प्रकार अनेक लोगों की प्राथमिकताएँ भिन्न होती हैं। उदाहरण के लिए तेलंगाना के मेदक जिले के एक गाँव में समुदाय के सदस्यों ने पूजा स्थल के निर्माण के लिए धन एकत्र किया, लेकिन शौचालय के निर्माण पर धन खर्च करने में रुचि प्रदर्शित नहीं की।
 
सिफारिशें

 

स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण की व्यापक सहारना हुई है, परन्तु, इसमें शामिल नए लोगों के फिर से मूल व्यवहार में वापसी की आशंका बनी हुई है। इस समस्या से निपटने के लिए कार्यक्रम में बड़े परिवारों के लिए एक से अधिक शौचालय का प्रावधान करना शामिल किया जा सकता है। जमीनी स्तर पर सूचना सम्प्रेषण पर अधिक बल दिया जा सकता है। स्वास्थ्य और सामाजिक कार्यकर्ता लोगों को प्रभावित करने में अधिक बड़ी भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं।
 
स्वच्छता में सुधार का सम्बन्ध जीवन स्थितियों के अन्य सूचकांकों के साथ है, अतः परिवार के स्तर पर और साथ ही सार्वजनिक सेवा के स्तर पर बेहतर ढाँचा कायम करना बड़ा महत्त्वपूर्ण है। बेहतर जलापूर्ति सेवा, आवास, स्नानघर का निर्माण जैसे उपाय शौचालय तक पहुँच और उसके इस्तेमाल की प्रवृत्ति में बढ़ोत्तरी कर सकते हैं। इसके साथ ही परिवारों की अधिक आय और टिकाऊ सामान की ऊँची क्रय शक्ति का प्रभाव जीवन स्तर को बेहतर बनाने और इस तरह स्वच्छता पद्धति को बढ़ावा देने पर पड़ता है। बेहतर स्वच्छता कवरेज के लिए महिला साक्षरता पर जोर देना भी अत्यन्त आवश्यक है।
 

  1. http://sbm.gov.in(ATHARVA) से 1 अक्टूबर, 2019 को लिया गया
  2. स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण के अन्तर्गत शौचालय कवरेज के मूल्यांकन के लिए परिवार सर्वेक्षण, रिपोर्ट 2017 वेबसाइट:https://mowQs.gov.in/sites/default/files/Final_iQCI_report_2017.pdf

 सन्दर्भ

  1. नील डी. वुजसिक.जे.बर्न्स, आर.वुड.डब्ल्यू और डिवाइन, जे. (2015)। खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति में बदलाव के लिए प्रेरित करना: व्यवहार विज्ञान से नई तकनीक। जल और स्वच्छता कार्यक्रम, विश्व बैंक, वाशिंगटन डीसी।
  2. ओ रेली, के. और लुई, ई. (2014)। दि टॉयलेट ट्राइपोड, अंडरस्टैंडिंग सक्सेसफुल सेनिटेशन इन रूरल इंडिया, हेल्थ एंड प्लेस, 29, 43-51
  3. गुप्ता ए. कोफे डी. और स्पियर्स डी. (2016)। पवित्रता, प्रदूषण और अस्पृश्यता: ग्रामीण भारत में स्वच्छता कार्यक्रमों के अंगीकरण, इस्तेमाल और स्थायित्व की चुनौतियाँ और नवाचार, पेट्रा बोंगार्ज, नाओमी वेरनोन और जॉन फोकस द्वारा सम्पादित, प्रैक्टिकल एक्शन पब्लिशिंग, वारविकशायर(यूके)।

 

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जैविक खेती की राह आसान नहीं, सरकारी प्रयास बेदम

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जैविक खेती की राह आसान नहीं, सरकारी प्रयास बेदमHindiWaterThu, 11/14/2019 - 16:20

अभी हाल ही में (23 अक्टूबर को) बिहार के एक गांव ने पूर्ण रूप से जैविक खेती को अपनाने का जश्न मनाया।  जमुई ज़िले का केड़िया गांव पिछले 3-4 सालों से काफ़ी चर्चित रहा है। इसकी एकमात्र वजह यहां के किसानों द्वारा परंपरागत खेती के मॉडल को विकसित करना रहा है। क़रीब 100 परिवारों वाले इस छोटे गांव ने पिछले साल नवंबर में आधिकारिक रूप से 'जैविक गांव' का दर्जा पा लिया। यानी यहां शत प्रतिशत जैविक खेती होती है, हालांकि सच्चाई सिर्फ़ इतना नहीं है। इसकी चर्चा आगे होगी, अभी जैविक खेती की ज़रूरतों और इसके प्रोत्साहन के लिए सरकारी प्रयासों को समझने की कोशिश करते हैं।
 
खेती-किसानी की जब बात आती है तो हम किताबों या हर जगह हरित क्रांति की चर्चा अवश्य पाते हैं। 1960 के दशक के मध्य में शुरू हुई हरित क्रांति ने देश की बढ़ती आबादी का पेट भरने का लक्ष्य रखा। इसका फ़ायदा यह हुआ कि हम खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर ज़रूर बने। लेकिन रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग से जैवविविधता और मिट्टी व फसलों की गुणवत्ता पर धीरे-धीरे व्यापक असर पड़ा। पर्यावरण के साथ-साथ हमारा स्वास्थ्य भी बिगड़ता चला गया।
 
पिछले साल 'डाउन टू अर्थ' पत्रिका में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, 120 से अधिक वैज्ञानिकों ने भारत में नाइट्रोजन की स्थिति का मूल्यांकन किया। इसके मुताबिक भारतीय किसान पिछले 5 दशकों में औसतन 6,610 किलोग्राम यूरिया का इस्तेमाल कर चुके हैं क्योंकि यह सस्ता पड़ता है। 67 फ़ीसदी यूरिया मिट्टी, जल और पर्यावरण में पहुंच जाता है। क़रीब 33 फ़ीसदी यूरिया का इस्तेमाल ही फसल कर पाती है। 3 लाख टन नाइट्रस ऑक्साइड भारत के खेत छोड़ते हैं जो पर्यावरण में पहुंच कर वैश्विक तापमान में वृद्धि करते हैं।
 
खेतों में रसायनों के इस्तेमाल से मिट्टी में प्राकृतिक सूक्ष्म पोषक तत्वों की लगातार कमी हुई है और हो रही है। जिसके कारण पिछले एक दशक में जैविक खेती को अपनाने की दिशा में चर्चा तेज हुई। 3 साल पहले सिक्किम देश का पहला जैविक राज्य घोषित हो चुका है। बाकी राज्य अभी इस पहल से काफ़ी दूर नज़र आते हैं। जिन राज्यों में जैविक खेती हो भी रही है, वहां सरकारी प्रयास काफ़ी कम नज़र आ रहे हैं। हालाकि सरकार का दावा है कि इस दिशा में तेज़ी से प्रयास किए जा रहे हैं। पर्यावरण संरक्षण और मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिए जैविक खेती आज ज़रूरी हो गयी है।
 
केंद्र सरकार मुख्य रूप से पूर्वोत्तर क्षेत्र जैविक मूल्य श्रृंखला विकास मिशन (MOVCDNER), परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY) और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (NFSM) के ज़रिये जैविक खेती को बढ़ावा देने का काम कर रही है। संसद के मानसून सत्र में लोकसभा में कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने जैविक खेती को लेकर पूछे गए सवाल के जवाब में कहा था कि PKVY के अंतर्गत 3 वर्षों में प्रति हेक्टेयर 50,000 रुपये की सहायता दी जाती है। इसमें से किसानों को आदानों (जैव उर्वरकों, जैव कीटनाशकों, वर्मी कम्पोस्ट वनस्पतिक, अर्क आदि) के उत्पादन/खरीद, फसलोपरांत अवसंरचना आदि के लिए डीबीटी के माध्यम से 31,000 रुपये (61 फ़ीसदी) की वित्तीय सहायता की जाती है। इसके अलावा पूर्वोत्तर क्षेत्र जैविक मूल्य श्रृंखला विकास मिशन के तहत किसानों को ऑन फार्म और ऑफ़ फार्म जैविक आदानों के उत्पादन/खरीद के लिए 3 वर्षों में प्रति हेक्टेयर 7,500 रुपये की वित्तीय सहायता की जाती है। वहीं राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अंतर्गत जैव उर्वरक (राइजोबियम/पीएसबी-फास्फेट घुलनशील बैक्टीरिया) के संवर्धन के लिए प्रति हेक्टेयर 300 रुपये की लागत सीमा के 50 फ़ीसदी की दर से वित्तीय सहायता की जाती है। 
 
वर्ल्ड ऑफ आर्गेनिक एग्रीकल्चर रिपोर्ट 2018 के अनुसार, भारत में प्रमाणित ऑर्गेनिक उत्पादकों की संख्या पूरी दुनिया में सबसे ज़्यादा है। पूरे विश्व के क़रीब 27 लाख जैविक उत्पादकों में 30 फ़ीसदी यानी 8.35 लाख उत्पादक भारत में हैं। हालांकि इसके बावजूद भारत की कुल कृषि में जैविक खेती की साझेदारी मात्र 0.8 फ़ीसदी ही है। भारत में जैविक खेती की दिशा में किए जा रहे कामों को लेकर कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं, "अभी इसके संक्रमण में समय लगेगा क्योंकि इसके लिए रिसर्च और नीतियों की जरूरत है। इसकी तरफ़ संयुक्त राष्ट्र का भी ज़ोर है। भारत में भी कोशिशें जारी हैं। किसानों के पास विकल्प नहीं हैं। उन्हें प्रमाण दिखाने की ज़रूरत है। सरकार की तरफ से आधा-अधूरा खेल चल रहा है। इसको लेकर जो प्रयास होना चाहिए, वो अभी तक नज़र नहीं आ रहा है। इसके लिए अच्छी मार्केटिंग की ज़रूरत है। एक माहौल बनाने की ज़रूरत है, क्योंकि कंज़्यूमर भी जैविक उत्पादों की मांग कर रहे हैं।"
 
केंद्र या राज्य सरकारें जैविक खेती को लेकर जितना प्रचार कर रही है, वो ज़मीन पर नज़र नहीं आता है। केंद्र सरकार जैविक खेती की बात आने पर सिक्किम का उदाहरण ज़रूर देती है। लेकिन सिक्किम की पूर्व सरकार ने जैविक खेती को प्रोत्साहन देने के साथ रासायनिक खेती पर नियमन भी लागू किया था। बाद में रासायनिक खेती पर प्रतिबंध लगाने के लिए वहां कड़े क़ानून भी बनाए गए। दूसरी ओर, जो ग़लत और अपोषणीय प्रैक्टिस है उसे रोकने की भी ज़रूरत है। अगर हम सिक्किम का उदाहरण लें, तो वहां एक तरफ़ जैविक खेती की कार्यप्रणाली का प्रचार होता है और दूसरी तरफ़ रासायनिक खेती पर रेगुलेशन भी काम करता है।
 
जैविक खेती की मौजूदा चुनौतियों को लेकर अलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड हॉलिस्टिक एग्रीकल्चर (ASHA) की संयोजक कविता कुरुगंती कहती हैं, "इसके लिए किसानों को संगठित करने की ज़रूरत है। जो भी जैविक खेती का कार्यक्रम आता है, वो अगर 3-4 साल के लिए आता है तो वो कुछ किसानों को ही साथ लाकर प्रैक्टिस करता है। कृषि विभाग के लोग एक ही गांव में जाकर कुछ किसानों को जैविक खेती अपनाने को कहते हैं और कई किसानों को रासायनिक खेती के लिए भी कहते हैं। बड़े पैमाने पर दूसरा ढांचा ही चलता है। ये नहीं चलेगा।" 
वो कहती हैं, "दूसरी चीज़ यह है कि आपने अपने कृषि विश्वविद्यालयों में और कृषि शिक्षा में बदलाव लाया है कि नहीं। क्या आज भी कृषि वैज्ञानिक किताबों में अमेरिका की मिट्टी के बारे में पढ़ते हैं या यहां की स्थिति को पढ़ रहे हैं। अगर ये ढांचागत बदलाव नहीं होता है तो सिर्फ़ स्कीम लाकर क्या होगा?"
 
एक तो देश में कृषि शिक्षा पहले से हाशिये पर है और किसानी की ज़रूरत से काफ़ी दूर नज़र आती है। उसमें भी जैविक खेती की दिशा में ज़्यादा प्रयास विश्वविद्यालयों के अनुसंधान में शामिल नहीं है। ये सच है कि सरकार जैविक खेती को लेकर विरोधाभास में नज़र आती है। एक तरफ़ प्राकृतिक खेती को लेकर प्रचार कर रही है, तो दूसरी तरफ़ यूरिया पर सब्सिडी की बड़ी रकम भी जारी करती है। इसके अलावा केंद्र और राज्य सरकारों की राजनीतिक इच्छाशक्ति भी इस पर हावी है।
 
इस पर कविता कहती हैं, "यहां पर (जैविक खेती) आप पूरे देश के लिए 250-300 करोड़ रुपये की स्कीम चला रहे हैं और फर्टिलाइजर पर 80,000 करोड़ रुपये का सब्सिडी दे रहे हैं। ये बहुत बड़े मुद्दे हैं, इसको लेकर आपकी राजनीतिक इच्छाशक्ति कितनी है, आपने इसे सस्टेनेबल बनाने के लिए प्रोग्राम को डिजाइन किया है या नहीं, क्या 3-4 साल स्कीम चलाकर भाग जाते हैं, क्या आपकी कृषि नीतियां रसायनों और जीएम फसलों को बढ़ावा दे रही है या प्राकृतिक खेती को प्रोमोट कर रही है। ये सब पर निर्भर करता है।" PKVY के कार्यान्वयन को लेकर 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, त्रिपुरा, ओडिशा और कर्नाटक को छोड़कर सभी राज्यों ने इस योजना के तहत अपने फंड का 50 फ़ीसदी भी ख़र्च नहीं किया। जबकि केंद्र सरकार ने इसी साल के लिए योजना में आवंटन की राशि 44 फ़ीसदी बढ़ा दी थी। 
देविंदर शर्मा भी कहते हैं, "किसान के लिए, पर्यावरण के लिए, देश के लिए, कंज़्यूमर के लिए, सबके लिए जैविक खेती ही फ़ायदेमंद होगी। अभी जितने राष्ट्रीय और स्थानीय प्रमाण मौजूद हैं, उससे यही पता चलता है कि नीतियों पर ज़ोर देने की ज़रूरत है। राज्य सरकारों और केंद्र को भी अपनी मज़बूत इच्छाशक्ति दिखानी पड़ेगी।"
 
शुरू में बिहार के केड़िया गांव के शत प्रतिशत जैविक होने की अधूरी सच्चाई का ज़िक्र किया था। केड़िया के 'जीवित माटी किसान समिति' नामक संगठन का दावा है कि गांव में सभी किसान जैविक खेती करते हैं। सच यह है कि गांव के कई किसान अब भी रासायनिक खादों का इस्तेमाल करते हैं। बहुत सारे किसान जैविक खाद का ही उपयोग करते हैं, लेकिन कई किसान जैविक खाद के साथ यूरिया का भी इस्तेमाल करते हैं। जिन किसानों के पास मवेशी नहीं है या कम है, वे ख़ुद से वर्मी कम्पोस्ट बनाने में सक्षम नहीं हैं। गांव के 15-20 किसानों से बातचीत करने पर पता चला कि सरकार ने 'जैविक गांव' घोषित करने में जल्दबाजी की है। जिन किसानों से बात हुई, उनके घरों में उज्ज्वला योजना के तहत गैस सिलेंडर भी नहीं मिला है। लेकिन सरकारी दावा ठीक इन सबके उलट है।
 
कई राज्य अभी तक जैविक खेती को अपनी प्राथमिकता में ही नहीं ला पाई है। कुछ राज्य इसे प्रदर्शनी के तौर पर ही इसे देख रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के व्यापक प्रभावों को कम करने के लिए प्राकृतिक खेती ही विकल्प है। ग्रीनपीस इंडिया के द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार, 69.7 फीसदी किसानों ने बताया कि उनके पास कीटनाशकों और रासायनिक खादों का इस्तेमाल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. जब किसानों से पूछा गया कि वे पर्यावरणीय खादों का इस्तेमाल क्यों नहीं करते हैं, तो 72.9 फीसदी किसानों ने इसकी अनुपलब्धता को कारण बताया। पंजाब में खेती विरासत मिशन के कार्यकारी निदेशक उमेंद्र दत्त कहते हैं कि पंजाब सरकार जैविक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए वैसा कुछ नहीं कर रही है। सरकार के एजेंडे में अभी जैविक खेती है ही नहीं। "सरकारी प्रचार-प्रसार सेवा जैविक खेती को लेकर प्रशिक्षित ही नहीं हैं। कृषि विकास केंद्र और कृषि विश्वविद्यालय रसायन को ही प्रोमोट कर रहे हैं। दूरदर्शन और आकाशवाणी पर जो किसानी के कार्यक्रम होते हैं उनका झुकाव भी केमिकल की ओर है। हम पंजाब में अपने संगठन की तरफ़ से कुछ जगहों पर जैविक खेती अपनाने के लिए मदद कर रहे हैं", दत्त कहते हैं। केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकारों को भी कोशिश करनी चाहिए कि जैविक खेती के लिए योजना बनाने के साथ कृषि विश्वविद्यालयों में रिसर्च को बढ़ाया जाय। साथ ही कृषि अधिकारियों को जैव उर्वरकों, जैव कीटनाशकों, वर्मी कम्पोस्ट बेड आदि उपलब्ध कराने के लिए और प्रत्यक्ष रूप से किसानों की मदद के लिए ज़मीन पर भेजने की आवश्यकता है। साथ ही हरित क्रांति की तरह ही देश में एक व्यापक जैविक क्रांति का माहौल बनाने की सख़्त ज़रूरत है।

 

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भगवान भरोसे सांभर झीलः 40 साल में नही देखा मौत का ऐसा मंजर

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भगवान भरोसे सांभर झीलः 40 साल में नही देखा मौत का ऐसा मंजरHindiWaterFri, 11/15/2019 - 11:04
Source
राजस्थान पत्रिका, 14 नवम्बर 2019

फोटो - The Pigeon Express

अभिषेक सिंघल
 
मीलों फैली सांभर झील में हजारों प्रवासी पक्षियों की मौत की आहट का सन्नाटा पसरा है। झील के पेट में झपोक बाँध से लेकर मां शाकम्भरी मन्दिर के सामने और पहाड़ी के पीछे झील में सौ मीटर अन्दर जाते ही हर दस फीट के दायरे में प्रवासी पक्षियों के शव दिखाई देते हैं। यही हाल नागौर जिले में नावा क्षेत्र का भी है। इस आपदा का दायरा कई किलोमीटर का क्षेत्र है। ग्रामीणों के मुताबिक पक्षियों की मौत का सिलसिला कई दिनों से जारी है। झील में सांभर साल्ट नमक उत्पादन की गतिविधियाँ संचालित करता है। इसके अलावा भी प्रशासन की अन्य एजेंसियाँ हैं, लेकिन किसी को भी मूक पक्षियों की मौत नजर नहीं आई। अब यह आपदा सुर्खिया बनी तो प्रशासन की नींद खुल रही है।
 
प्रदेश में वन्य जीवों, पशु-पक्षियों के संरक्षण की जिम्मेदारी जिन्हें है वे उस विश्वनोई समाज से आते हैं जिसने पर्यावरण और जीव मात्र की रक्षा के लिए कई बार सबकुछ दाव पर लगाया है। राजस्थान के मुख्यमंत्री और वन मंत्री दोनों ही मारवाड़ से ताल्लुक रखते हैं और सांभर झील भी मारवाड़-ढूंढाड़ के संधिस्थल पर है। पशु-पक्षी संरक्षण को प्रथम रखने की मारवाड़ और ढूंढाड़ सहित पूरे प्रदेश में प्राचीन परम्परा रही है। हजारों प्रवासी पक्षियों के आगमन-प्रवास व विशिष्ट पर्यावास के चलते यह झील क्षेत्र रामसर साइट भी घोषित है। ऐसे में इस महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में हजारों मील से उड़ कर आए मेहमान परिंदों का यूँ एकाएक बड़ी तादात में मृत होना और उस पर जिम्मेदारों का लापरवाह अंदाज कई सवाल खड़े करता है। सांभर साल्ट जब नमक उत्पादन की  व्यावसायिक हितपूर्ति में जुटा है तो झील के पर्यावास और वहाँ के मेहमान परिंदों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उसे लेनी होगी। अन्यथा सरकार को चाहिए कि इस सम्पूर्ण झील को ही संरक्षित क्षेत्र घोषित कर वन विभाग के अधीन करें ताकि वन विभाग यहाँ परिंदों की आवश्यकताओं के अनुरूप स्थाई इंतजाम कर सके।
 
अब सरकारी तंत्र जागा है और अमला झील के पेटे में उतरा है, लेकिन आधे अधूरे इंतजामों के साथ। अभी भी मृत पक्षियों के शवों और घायल पक्षियों को निकालने के लिए जितने संसाधनों को दरकार है उसके मुकाबले बहुत कम संसाधन हैं। राहत इंतजाम के नाम पर प्रशासन के अलग-अलग विभागों की इक्का-दुक्का टीमें पक्षियों के शवों को इकट्ठा करने में जुटी हैं। बदइंतजामी की हद तो यह है कि जो पक्षी घायल हैं उनके इलाज के लिए करीब 25 किलोमीटर दूर वन विभाग की काचरोदा नर्सरी में अस्थाई इतंजाम किए गए हैं। यदि यह शिविर झील के निकट ही लगाया जाए तो पक्षियों को जल्द चिकित्सकीय सहायता मिल सकेगी। पक्षियों की मृत्यु के कारण और उसके अनुरूप इंतजाम के लिए तो भले ही सरकार रिपोर्ट्स का इंतजार कर ले पर तत्काल राहत पहुँचाने के लिए इसकी आड़ लेना ठीक नहीं है।
 
एक मुद्दा झील के क्षेत्राधिकारी को लेकर उठ रहा है। जयपुर जिले और नागौर जिले के अधिकारी अपने-अपने हिस्से के इंतजाम की बात कह रहे हैं वहीं झील के बीच पक्षियों को मदद का इंतजार है। जरूरत है कि तत्काल झील को कई सेक्टर में बाँट कर प्रत्येक सेक्टर में समुचित इंतजाम करें ताकि आपदा फैलने से रुके। आश्चर्य है कि पक्षियों के इतने बड़े केन्द्र पर पक्षियों को पर्यटकों को दिखाने की तैयारियाँ तो खूब हैं लेकिन उन्हें चिकित्सकीय सुविधाएँ प्रदान करने के इंतजाम शून्य हैं। पर्यटन सुविधाओं के लिए करोड़ों खर्च करने वाली सरकार को पक्षियों के लिए भी स्थाई इंतजाम करना ही चाहिए। मारवाड़ में अभिवादन की ‘नून-प्रणाम’ की परम्परा है। अतः मुख्यमंत्री और वन मंत्री को ‘नून-प्रणाम’ का वास्ता है कि वे इन मूक मेहमानों की रक्षा के लिए अधिकारियों के बताए फौरी इंतजाम से ऊपर समय रहते सख्त एवं स्थाई कदम उठाएँ।

मंदिर के पीछे कदम कदम पर पड़े हैं मृत पक्षी

देवेंद्र सिंह राठौड़, राजीव श्रीवास्तव

विश्वविख्यात सांभर झील में आने वाले पक्षियों का इंतजार घर आने वाले मेहमानों की तरह रहता है। इस बार उनकी मौत से हर कोई दुखी है। मंदिर के पीछे झील किनारे कदम कदम पर मृत पक्षी पड़े हैं।

40 साल में हमने कभी इतने पक्षियों की मौत नहीं देखी। यह घटना बेहद दुखदायी है। यह कहना है सांभर झील स्थित प्राचीन मंदिर के पुजारी गौरी शंकर व्यास का। उन्होंने पत्रिका से बातीचीत करते हुए कहा कि इस बार पक्षियों की संख्या ज्यादा था और वे जल्दी भी आ गए थे। इससे लोग खुश थे। लेकिन 15-20  दिन से चल रहे मौत के मंज से सब परेशान हैं। इसमें साफ तौर पर प्रशासन की लापरवाही है। सूचना भी दे चुके, फिर भी नहीं चेते। वहीं स्थानीय निवासी सलामुद्दीन ने बताया कि झील क्षेत्र में कभी पक्षियों की मौत के बारे में किसी से सुना भी नहीं। संभवतः इनकी मौत पानी से हुई है। क्योंकि इस बार झील के उस भू-भाग में पानी भर गया था, जहां पहले नमक जमा हुआ था। वहीं वन्यजीव चिकित्सकों के मुताबिक रेस्क्यू में लाए गए कई पक्षियों के पैर में दिक्कत है। कुछ के पैर गायब मिले, तो कई लकवाग्रस्त हो गए। वहीं पशुपालन और वन विभाग के अधिकारी मौत का कारण स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार में हाथ में हाथ धरे बैठे हैं। 

नमक बना दुश्मन

पक्षियों की मौत का कारण नमक ही है। झील क्षेत्र के झपोक से मंदिर तक करीब एक किलोमीटर की दूरी के नमक में रासायनिक परिवर्तनहो गया। इस बात का उल्लेख सासकटून विश्वविद्यालय के टीके बौलिंगर पी मिनेउ व एमएल विकस्टौम एक रिसर्च पेपर में कर चुके हैं। एक वाइल्ड लाइफ बुलेटिन में नमक का पक्षियों पर घातक असर के बारे में लिखा गया कि, खुराक में अत्याधिक नमक की मात्रा होने से हाइपरन्क्ट्रेमिया नामक असर पैदा होता है। जो पीने के सादे पानी की कमी से हो जाता है। इसका दूसरा नाम सोडियम इंटोक्सीकेशन है। 

दूर बना दिया रेस्क्यू सेंटर

सांभर झील स्थित रतन तालाब से शाकंभरी माता मंदिर के समीप सर्वाधिक मृत पक्षी पाए गए। इसके बावजूद भी वन विभाग ने बीमार पक्षियों के बचाव के लिए कोई इंतजाम नहीं किए। वहीं रेस्क्यू सेंटर भी करीबन 10 किमी दूर बना दिया। जहां एकत्र करके पक्षी को भिजवाया जा रहा है। यह रेस्क्यू सेंटर रतन तालाब से करीब 18 किमी तो शाकंभरी माता मंदिर से 36 किमी दूर है। वहां इंतजाम भी नाकाफी नजर आए।

पर प्रजातियों पर खतरा

वन विभाग के मुताबिक मृत पक्षियों में सर्वाधिक विदेशी पक्षी हैं। इसमें ज्यादातर नार्थन शाउलर, काॅमन कूट, लिटिल टींक, कैंटिस प्लोवर, रफ, काॅमन टिल, ब्लैक हैड गल आदि प्रजातियां शामिल हैं। पशुपालन और वन विभाग के बड़े अफसर इस मामले में सुस्त नजर आ रहे हैं। अभी तक जिम्मेदार केवल 35 पक्षियों को ही बचा पाए हैं, जबकि तीन दिन में साढ़े चार हजार पक्षी दफन हो चुके हैं। मृत पक्षियों को उठाने, जीवित के इलाज के लिए स्टाफ बहुत कम है। इससे उपचार और मृत को दफनाने में देरी हो रही है।

यह है मौके की वर्तमान स्थिति

  1. माता मंदिर के पीछे झील क्षेत्र से लेकर रतन तालाब तक हजारों की तादाद में मृत पक्षी मिले।
  2. कई जगह पक्षियों के शव खराब अवस्था में दिखाई दिए। 
  3. अन्य पक्षियों में संक्रमण की बढ़ी आशंका।
  4. दोनों विभाग केवल स्वयंसेवी संस्थाओं के भरोसे। अभी तक बता नहीं पा रहे हैं कि मौत का कारण और जीवित या मृत पक्षियों की संख्या।
  5. खासकर मृत पक्षियों में विदेशी प्रजातियां, एक फ्लेमिंगों भी बीमार हालात में मिला।

 

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नैनीताल के शिल्पी मोतीराम शाह

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नैनीताल के शिल्पी मोतीराम शाहHindiWaterFri, 11/15/2019 - 11:24
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नैनीताल एक धरोहर

विविध प्रजाति के वन्य जीवों की आश्रय स्थली एक वीरान जंगल को सुव्यवस्थित नगर के रूप में बसाना और संवारना अंग्रेजों के लिए बड़ी चुनौती थी। अंग्रेज भारी निवेश के बगैर स्थानीय स्तर से ही सभी आवश्यक संसाधन और ऊर्जा जुटा कर नैनीताल को एक आदर्श नगर के रूप में बसाना चाहते थे। उन्होंने ऐसा ही किया भी। अंग्रेजों को एक ऐसे स्थानीय साहूकार की तालश थी जो कि नैनीताल में उनके शुरुआती बंगलों का निर्माण कर सके। बैरन ने इस बारे में नैनीताल के अपने पूर्व दौरों के साथी रह कुमाऊँ के तत्कालीन वरिष्ठ सहायक कमिश्नर जे.एच.बैटन और जिला इंजीनियर कैप्टन वेलर से बात की। ये दोनों अल्मोड़ा में तैनात थे, वे अल्मोड़ा के एक ऐसे सज्जन को जानते थे, जो वास्तुशिल्पी, ठेकेदार और साहूकार के साथ बेहद आर्थिक एवं सामाजिक व्यक्ति थे। इनका नाम था-मोतीराम शाह। धार्मिक तथा सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहने के कारण मोतीराम शाह अल्मोड़ा के ख्याति प्राप्त लोगों में शामिल थे।
 
पीटर बैरन ने अपने मित्रों जे.एच.बैटन और कैप्टन वेलर के माध्यम से मोतीराम शाह से सम्पर्क साधा और उन्हें नैनीताल में शुरुआती कुछ बंगले बनाने में सहयोग करने के लिए राजी कर लिए। नैनीताल में बंगले बनाने में सहयोग करने के लिए पीटर बैरन को मोतीराम शाह के रूप में ठेकेदार, वास्तुशिल्पी और साहूकार तीनों एक साथ मिल गए थे।
 
मोतीराम शाह धार्मिक प्रवृत्ति के इंसान थे। कहा जाता है कि जब मोतीराम शाह नैनीताल पहुँचने तो उनकी पहली मुलाकात परमहंस महाराज से हुई। उन दिनों परमहंस महाराज वर्तमान बोट हाउस क्लब के समीप तालाब के किनारे स्थित अपनी कुटिया में माँ नयना देवी की अराधना में लीन थे। मोतीराम शाह ने परमहंस महाराज को अपने नैनीताल आने का मंतव्य बताया। इस पर परमहंस महाराज ने उन्हें सुझाव दिया कि वे नैनीताल में अपना लक्षित कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व मन्दिर का निर्माण कर उसमें माता नया देवी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करें तो भविष्य सुरक्षित एवं सुखमय होगा।
 
परमहंस महाराज के इस सुझाव को माँ नयना देवी का आदेश समझकर मोतीराम शहर ने ऐसा ही किया। उन्होंने नैनीताल में अंग्रेजों के लिए बंगले बनाने का काम प्रारम्भ करने से पूर्व मौजूदा बोट हाउस क्लब के निकट 1842 में मन्दिर का निर्माण कराया। मन्दिर में माँ नयना देवी की मूर्ति को प्रतिष्ठित किया। बाद में उन्होंने पीटर बैरन के बंगले पिलग्रिम लॉज सहित नैनीताल के शुरुआती दौर के करीब एक दर्जन बंगलों का निर्माण कार्य कराया। मोतीराम शाह नैनीताल में बसने वाले सम्भवतः पहले हिन्दुस्तानी थे। नैनीताल में अंग्रेजों ने शुरुआती एक दर्जन बंगले मौजूदा नैनीताल क्लब के आस-पास मल्लीताल में बनवाए। 1842 में अयारपाटा में कब्रिस्तान बना। यह नैनीताल का पहला और सबसे पुराना कब्रिस्तान है, 1892 में इसे बन्द कर दिया गया था।

 

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उत्तराखण्ड बनेगा जैविक प्रदेश

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उत्तराखण्ड बनेगा जैविक प्रदेशHindiWaterFri, 11/15/2019 - 16:36
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अमर उजाला 15 नवम्बर, 2019

फोटो - Hindustan

उत्तराखण्ड को जैविक कृषि प्रदेश बनाने के लिए प्रदेश में मंत्रिमंडल ने उत्तराखण्ड जैविक कृषि विधेयक 2019 को मंजूरी दे दी है। आगामी विधानसभा सत्र में विधेयक सदन के पटल पर रखा जाएगा।
 
विधेयक लागू होने के बाद प्रदेश के 10 ब्लॉकों को जैविक खेती के लिए अधिसूचित किया जाएगा। इन ब्लॉकों में रासायनिक और सिथेंटिक उर्वरक, कीटनाशक, खरपतवार नाशक, रासायनिक पशुचारा की बिक्री निषेध की जाएगी। अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने पर एक वर्ष का कारावास और एक लाख रुपए के जुर्माने का भी प्रावधान है। पायलट स्तर पर प्रयोग के बाद इसे पूरे प्रदेश में लागू किया जाएगा। मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में प्रस्तुत 30 प्रस्तावों में से 28 को मंजूरी मिली है। कैबिनेट मंत्री और शासकीय प्रवक्ता मदन कौशिक ने बताया कि कैबिनेट ने जैविक कृषि विधेयक को मंजूरी दी है। पहले चरण में चिन्हित ब्लॉकों में रासायनिक खाद्य और अन्य कृषि में इस्तेमाल होने वाले रसायन भी प्रतिबंधित रहेंगे। जैविक प्रमाणीकरण के लिए किसानों को हर तरह की सुविधाएँ मुहैया करवाई जाएगी। किसानों को प्रमाणीकरण, बीज, प्रशिक्षण, विपणन से लेकर हर तरह की मदद मिलेगी।
 
उत्तराखण्ड फल पौधशाला विधेयक को मंजूरी

प्रदेश में हार्टिकल्टर को बढ़ावा देने के लिए मंत्रिमंडल ने उत्तराखण्ड फल पौधशाला (नर्सरी) विधेयक को मंजूरी दी है। इसमें पौध नर्सरी खोलने के लिए कड़े प्रावधान किए गए हैं। नर्सरी के पौधे की गुणवत्ता के लिए संचालक जिम्मेदार होगा। राज्य के बाहर से आने वाले पौधों को बेचने के लिए नियम कड़े रहेंगे। नए फलदार पौधों को पेटेंट करवाने की व्यवस्था रहेगी। तय मानकों के अनुसार पौधे नहीं पाए जाने पर 50 हजार रुपए जुर्माने और छह माह के कारावास का प्रावधान रहेगा।
 
स्टोन क्रशर लगाने की नीति में बदलाव

मंत्रिमंडल ने स्टोन क्रशर, स्क्रीनिंग प्लांट, मोबाइल स्क्रीनिंग प्लांट, हाट मिक्स प्लांट और मोबाइल स्टोन क्रशर की नीति में संशोधन प्रस्ताव को मंजूरी दी है। अब उन्हीं व्यक्तियों या फर्मों को स्टोन क्रशर आदि लगाने की इजाजत होगी, जिनके नाम पर खनन पट्टा होगा या उन्होंने पट्टाधारक से एमओयू हस्ताक्षरित कर रखा हो। वहीं, स्टोन क्रशर या प्लांट लगाने की अनुमति अब पाँच वर्ष के स्थान पर 10 वर्ष के लिए दी जाएगी। इसके लाइसेंस शुल्क में भी बढ़ोत्तरी कर दी गई है।
 
जैविक खेती के लिए बना सुरक्षा कवच

प्रदेश में आर्गेनिक एक्ट को मंजूरी देकर सरकार ने जैविक खेती को सुरक्षा कवच दिया है। इस एक्ट को पहले चरण में प्रदेश के 10 ब्लाकों में लागू किया जाएगा। जहाँ पर रसायनिक, सेथेंटिक उर्वरकों, कीटनाशक, खरपतवार नाशक, पशुचिकित्सा,दवाइयों की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध रहेगा। इसका उल्लघंन करने पर एक लाख का जुर्माना व एक साल के कारावास का प्रावधान किया गया है। एक्ट में किसानों के लिए जैविक उत्पाद के प्रमाणीकरण और उत्पाद क्रय करने वाली कम्पनियों के पंजीकरण की प्रक्रिया को सरल किया गया है। वहीं, जैविक उत्तराखण्ड ब्रांड के रूप में प्रदेश के आर्गेनिक उत्पादों की राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मार्केटिंग को बढ़ावा दिया जाएगा।

पिछले डेढ़-दो साल से चल रही प्रक्रिया के बाद आखिरकार उत्तराखण्ड जैविक कृषि विधेयक पर बुधवार को कैबिनेट की मुहर लग गई है। पहली बार प्रदेश में इस एक्ट के लागू होने से जैविक खेती में सरकार को अच्छे संकेत मिलने की उम्मीद है। आर्गेनिक एक्ट में प्रमाणीकरण से लेकर मार्केटिंग और किसानों को उन्नत जैविक बीज उपलब्ध कराने का प्रावधान है। किसानों को उत्पाद के प्रमाणीकरण के लिए ऑनलाइन और ऑफ लाइन आवेदन की प्रक्रिया शुरू की जाएगी। उत्पादों को खरीदने वाली कम्पनियों को पंजीकरण करना अनिवार्य होगा। इसके लिए कोई फीस नहीं ली जाएगी। बता दें कि आर्गेनिक कृषि योजना के तहत प्रदेश में 3900 जैविक क्लस्टर विकसित करने पर काम चल रहा है। इसके लिए केन्द्र सरकार की ओर से 400 करोड़ की राशि भी स्वीकृत की जा चुकी है।
 
जैविक राज्य मिशन के प्रयोग में लगे 13 वर्ष

सिक्किम देश का पहला जैविक राज्य है। छोटे से क्षेत्रफल के बावजूद इस मुकाम तक पहुँचने में राज्य को 13 वर्ष लगे। इस दौरान वहाँ किसानों ने कई दुश्वारियाँ झेली। कृषि उत्पादन गिरना बड़ी समस्या रही, वहीं दावों के अनुरूप ऊँचे दाम नहीं मिले। किसानों के सामने विपणन और स्टोरेज सबसे बड़ी समस्या पूर्ण जैविक राज्य बनने के बाद भी खत्म नहीं हुई। उत्तराखण्ड को पूर्ण जैविक प्रदेश बनने में नीति निर्धारकों को सिक्किम से सीख लेनी होगी।
 
सिक्किम ने वर्ष 2013 में जैविक मिशन शुरू किया। वर्ष 2016 में सिक्किम को पूर्ण जैविक प्रदेश घोषित किया गया। जैविक खेती की दिशा में बढ़ने वाले उत्तराखण्ड के अलावा नौ प्रदेश हैं। कर्नाटक, मिजोरम, केरल, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु और गुजरात में जैविक खेती को लेकर नीति या कानून है। उत्तराखण्ड ने काफी हद तक सिक्किम का मॉडल अपनाया है। सिक्किम के जैविक प्रदेश में तब्दील होने पर सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरमेंट ने वहाँ के चारों जिलों का सर्वेक्षण कर अपनी रिपोर्ट दी थी। यह रिपोर्ट जैविक खेती की ओर बढ़ रहे राज्यों के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकती है। इस रिपोर्ट में सबसे बड़ी समस्या किसानों के सामने कृषि उत्पादन गिरने के बताई गई है। रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग को खत्म करने से किसानों का उत्पादन तेजी से गिरा। कई जगह एक तिहाई रह गया।
 
विशेषज्ञ मानते हैं कि शुरूआती चरण में ऐसी समस्या होती है, लेकिन समय के साथ उसमें सुधार आ सकता है अगर सही तरीके से प्राकृतिक खाद का इस्तेमाल किया जाए। सिक्किम सरकार ने इसके लिए पूरी व्यवस्था बनाई और किसानों के प्रशिक्षण दिया। उत्तराखण्ड को भी ऐसा करना होगा, लेकिन फसलों की उत्पादकता गिरने पर भरपाई के लिए कोई फार्मूला भी देना होगा। किसानों को भूमि प्रमाणिकता में दिक्कतें आई। इसके लिए भी ट्रेनिंग बेहद जरूरी है। सिक्किम ने चरणबद्ध तरीके से रसायनिक उर्वरक कम किए।
 
मिशन को शुरू करने के 11 वर्ष बाद 2014 में पूर्ण प्रतिबंध लगाया। इसके बाद बेचने पर दंड और सजा का प्रावधान किया। प्रदेश ने 10 हजार से अधिक केचुआ खाद और प्राकृतिक खाद के गड्ढे बनवाए। किसानों के सामने दूसरी समस्या कीटनाशकों का उपयोग नहीं होने से खेती पर लगने वाला कीट और खरपतवार रही। इसके अलावा विपणन की ठोस प्रणाली विकसित करने के लिए सिक्किम से सबक लेना होगा, जहाँ विपणन को लेकर किसान अब तक समस्याएँ झेल रहे हैं।
 
80 हजार किसान कर रहे जैविक खेती

उत्तराखण्ड में परम्परागत कृषि विकास योजना के तहत प्रदेश में 500 क्लस्टरों में करीब 80 हजार किसान आर्गेनिक खेती से जुड़े हैं। नैनीताल, पौड़ी, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़, चम्पावत, देहरादून, टिहरी, उत्तरकाशी, चमोली जिले के अलावा जैविक उत्पादन परिषद के क्लस्टरों में जैविक खेती की जा रही है। जिसमें मंडुवा, गहत, बासमती चावल, मक्की, चैलाई, सोयाबीन, काला भट्ट, रामदाना, राजमा, गेहूँ, मसूर, सरसों के अलावा सब्जी व मसालों का उत्पादन शामिल है। प्रदेश में 176279 क्विंटल जैविक कृषि उत्पादों का उत्पादन हो रहा है। जिसकी मार्केट वैल्यू करीब 4254 लाख रुपए हैं।
 
आर्गेनिक राज्य के रूप में विकसित होगा उत्तराखण्ड

कृषि मंत्री सुबोध उनियाल ने कहा कि प्रदेश सरकार जैविक कृषि विधेयक ला रही है, जिसका उद्देश्य राज्य में जैविक खेती को बढ़ावा देना होगा और उत्तराखण्ड आर्गेनिक राज्य के रूप में विकसित हो सकेगा। उन्होंने कहा कि जिन आर्गेनिक उत्पादों का एमएसपी केन्द्र सरकार ने भी घोषित नहीं किया, उनका एमएसपी घोषित करने वाला उत्तराखण्ड बीज एवं तराई विकास निगम की बैठक ले रहे थे। उन्होंने कहा कि परम्परागत कृषि विकास योजना के तहत दो लाख एकड़ भूमि पर आर्गेनिक खेती की जा रही है। इसके तहत 10 ब्लाकों को आर्गेनिक घोषित किया जा चुका है। पहले चरण में इन बलाकों में किसी भी तरह के रसायन, कीटनाशक, खरपतवार नाशक की बिक्री पर पूरी तरह से पाबंदी लगाई गई है। उन्होंने कहा कि जिन आर्गेनिक उत्पादों का केन्द्र सरकार ने एमएसपी घोषित करने वाला उत्तराखण्ड देश का पहला राज्य बनेगा। उन्होंने बताया कि मंडी परिषद में रिवालविंग फंड जनरेट करने का निर्णय लिया गया है। फंड के माध्यम से पूरे आर्गेनिक उत्पाद को मंडी खरीदेगी और उसकी प्रोसेसिंग करने के बाद उसकी मार्केटिंग करेगी। जो लाभ होगा, उसे किसानों में बांट दिया जाएगा। उद्यानिकी क्षेत्र में नर्सरी को अधिनियम के दायरे में लाया जा रहा है।
 
प्रदेश में बंजर जमीन का हो सकेगा उपयोग

प्रदेश में बंजर और किसी उपयोग में नही लाई जा रही कृषि भूमि को 30 साल के अनुबंध के आधार पर अब भू स्वामी किसी अन्य को लीज पर दे सकेगा। इससे सम्बन्धित जमींदारी एवं भूमि विनाश अधिनियम के संशोधन को मंत्रिमंडल ने मंजूरी दे दी है। पूर्व में इस संशोधन प्रस्ताव को प्रदेश सरकार ने अध्यादेश के रूप में राज्यपाल को भेजा था। राजभवन ने इसमें हैंप पर आपत्ति जताई थी। मंत्रिमंडल ने बुधवार को हैंप हटाकर इस संशोधन प्रस्ताव को मंजूरी दे दी।
 
कैबिनेट से अनुमोदित प्रस्ताव के मुताबिक कृषि बागवानी, जड़ी-बूटी उत्पादन, बेमौसमी सब्जियाँ, औषधीय पौधों, सुगन्धित पौधों, पशुपालन, दुग्ध उत्पादन आदि कार्यों के लिए किसी व्यक्ति, संस्था, न्यास समिति एवं स्वयं सहायता समूह को अधिकतम 30 साल के लिए शर्तें तय करते हुए लीज पर दिया जा सकेगा। यह लीज नगद, उपज या उपज के किसी अंश को शामिल करते हुए हो सकती है। इसी तरह मंत्रिमंडल ने अधिनियम की धारा 156 में संशोधन करते हुए लीज पर देने में कृषि एवं फल संस्करण, औद्योगिक, चाय बागान और प्रसंस्करण, वैकल्पिक ऊर्जा को भी शामिल कर लिया गया है।
 
मंत्रिमंडल के इस फैसले से प्रदेश में भूस्वामी अब अपनी अनुपयोगी कृषि भूमि को पट्टे पर दे सकेंगे। इससे वैकल्पिक ऊर्जा परियोजनाओं के लिए आवेदन करने वालों को राहत मिलेगी। इसके लिए कई आवेदनकर्ताओं को अब जमीन उपलब्ध होगी। दरअसल किसी अन्य की जमीन पर प्लांट लगाने से इन्हें बैंकों स लोन नहीं मिल पा रहा था। अब एग्रीमेंट के आधार पर ये बैंकों से ऋण ले सकेंगे। हालांकि प्रदेश सरकार को इसमें भांग के औद्योगिक उत्पादन के मंसूबे से हाथ पीछे खींचना पड़ा है। राजभवन ने इस संशोधन में हैंप (भांग) की खेती को मंजूरी देने से मना कर दिया था।

आर्गेनिक खेतीः ब्रांडिंग और मार्केटिंग हैं असल चुनौती

त्रिवेन्द्र सरकार राज्य में आर्गेनिक खेती क बढ़ावा देने के लिए कानून तो बनाने जा रही है। लेकिन आर्गेनिक खेती का वातावरण तैयार करने के लिए सरकार व किसानों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। आर्गेनिक खेती के सामने सबसे बड़ी चुनौती उत्पादों की ब्रैडिंग व मार्केटिग की है।
पिछले कई वर्षों से आर्गेनिक खेती का राग अलाप रहे उत्तराखण्ड अब तक अपना आर्गेनिक ब्रांड के तौर पर पहचान नहीं बना पाया है। पर्वतीय क्षेत्रों में भारी सम्भावनाओं के बावजूद मंडियों और कोल्ड स्टोरेज की अनुपलब्धता जैविक खेती की राह में बड़ी अड़चन है।
 
राज्य गठन के बाद से अब तक पर्वतीय क्षेत्रों में लघु और सीमांत किसानों के सामने कृषि उत्पादों की मार्केटिंग सबसे बड़ी समस्या रही है। विपणन की सुविधा न होने के कारण किसानों को उत्पाद का सही दाम नहीं मिल पाता है। प्रदेश में आर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने कानून तो बना रही है। लेकिन उत्तराखण्ड को आर्गेनिक स्टेट बनाने की राह में कई तरह की चुनौतियाँ हैं। जो किसान जैविक विधि से खेती बाड़ी उत्पादन कर रहे हैं। उन्हें बाजार में सही दाम नहीं मिल रहे हैं। आम कृषि उत्पाद की तुलना में आर्गेनिक की कीमत ज्यादा है। राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आर्गेनिक उत्पाद की माँग होने के बावजूद ही उत्तराखण्ड अपना आर्गेनिक ब्रांड तैयार नहीं  कर पाई हैं। वहीं, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की तर्ज पर प्रदेश के आर्गेनिक उत्पादों की पैकेजिंग नहीं है। जिससे किसानों के उत्पादों को वैश्विक बाजार में पहचान मिल सके। हालांकि आर्गेनिक एक्ट में सरकार ने आर्गेनिक उत्पादों की ब्रांडिंग का प्रावधान है।

उत्पादन कम फिर भी किसानों को फायदा

कृषि विभाग के एक आकलन के मुताबिक जैविक खेती में लागत अधिक है और उत्पादन भी कम है। इतना होने पर भी जैविक में अगर उत्पाद माँग के हिसाब से बिक जाए तो कुल मिलाकर किसान को लाभ होने का ही अनुमान है। कृषि विभाग ने हरिद्वार के कुछ क्षेत्रों में परम्परागत रूप से हो रही खेती और जैविक खेती का तुलनात्मक अध्ययन किया था। इस अध्ययन में पाया गया कि परम्परागत रूप से खेती करने पर धान की उत्पादकता 25.9 क्विंटल तथा जैविक धान की उत्पादकता 22.78 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई गई। कृषि विभाग ने माना कि कुल मिलाकर इससे किसानों को फायदा ही होगा।

प्रदेश में किसानों को घटिया फलदार पौधे बेचकर धोखाधड़ी करने पर अब नर्सरी संचालकों को जेल जाना पडेगा। राज्य के करीब 10 लाख किसानों के हितों को सुरक्षित करने के लिए उत्तराखण्ड फल पौधशाला विनियमन विधेयक (नर्सरी एक्ट) को कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। नर्सरी संचालकों को पौधों की गुणवत्ता की गारंटी देनी होगी।
 
घटिया पौधे बेचने पर संचालक को छह माह की कैद और 50 हजार रुपए जुर्माना किया जाएगा। इस विधेयक को पारित करने के लिए आगामी सत्र में विधानसभा पटल पर रखा जाएगा। राज्य में सरकारी और निजी पौधशाला से किसान विभिन्न प्रकार के फलदार पौधे खरीदते हैं। तीन से चार साल की मेहनत करने के बाद जब पौधा फल देने के लायक होता है, तो कई बार पौधे पर फल ही नहीं लगते हैं। इससे किसानों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। अब सरकार ने नर्सरी एक्ट बना कर किसानों के हितों को सुरक्षित किया है। किसान जिस नर्सरी से पौधे खरीदेंगे। संचालकों को उसकी उन्नत किस्म व गुणवत्ता की गारंटी देनी होगी। इसके बावजूद भी खरीदे गए पौधों पर फल नहीं लगते हैं तो संचालकों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का प्रावधान एक्ट में किया गया है।
 
हर साल संचालकों को नर्सरी का नवीनीकरण करना होगा। इसके साथ ही पौधों के आयात-निर्यात, नई खोज का पेटेंट, उत्पादन, प्रबंधन समेत तमाम जानकारी का रिकॉर्ड रखना अनिवार्य होगा। एक्ट का पालन न करने पर लाइसेंस निरस्त किया जाएगा।

बिच्छू घास (कंडाली) के रेशे से बनी जैकेट

प्रदेश के जंगलों और गंदेरों में प्राकृतिक रूप से उगने वाला बिच्छू घास यानी हिमालयन नेटल (पहाड़ी बोली में कंडाली) के रेशे से तैयार जैकेट पहनकर बुधवार को मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत और उनके मंत्री कैबिनेट की बैठक में पहुँचे। उद्योग विभाग के सहयोग से चमोली जनपद के मंगरौली और उत्तरकाशी के भीमताल में कंडाली के रेशे से जैकेट बनाई जा रही है। बाजार में इस जैकेट की कीमत 2000 से 3 हजार रुपए तक है। इस जैकेट की खास बात ये है कि पैरा बैंगनी किरणों से बचती है। वहीं, गर्मी व सर्दी दोनों ही मौसम में इसे पहना जा सकता है। प्रदेश के उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए बुधवार को मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्रियों से इस जैकेट को पहनकर मंत्रिमंडल की बैठक में भाग लिया।
 

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वायु प्रदूषण से निपटने को स्मॉग टावर लगाएगी सरकार

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वायु प्रदूषण से निपटने को स्मॉग टावर लगाएगी सरकारHindiWaterSat, 11/16/2019 - 10:26
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दैनिक जागरण, 16 नवम्बर 2019

प्रतीकात्मक फोटो - South China Morning Post

दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए केंद्र सरकार स्मॉग टावर लगाने पर विचार कर रही है। शुक्रवार को प्रदूषण मामले पर सुनवाई के दौरान अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एएनएस नादकर्णी ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि अधिकारी और विशेषज्ञ इसकी संभावनाओं पर विचार कर रहे हैं। इस विचार-विमर्श में शामिल आइआइटी बांबे के एक प्रोफेसर ने अदालत को इसके तकनीकी और अन्य पहलुओं के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि चीन में स्मॉग टावर लगाया जा चुका है। इस पर जस्टिस अरुण मिश्र और दीपक गुप्ता की पीठ ने पूछा कि आप दुनिया की सर्वश्रेष्ठ तकनीक का इस्तेमाल क्यों नहीं करते? आप उच्च श्रेणी के उपकरणों का इस्तेमाल कीजिए।

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण कम करने के सिलसिले में उठाए गए कदमों की जानकारी प्राप्त करने के लिए पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली के मुख्य सचिवों को 25 नवंबर को तलब किया है। पीठ ने कहा कि वायु प्रदूषण कम करने के लिए प्रभावी कदम उठाने चाहिए और दिल्ली में प्रदूषण वाले 13 मुख्य स्थानों को प्रदूषकों से मुक्त किया जाना चाहिए।

अदालत ने कहा कि ऐसी खबरें मिल रही हैं कि डीजल वाहनों में केरोसिन का इस्तेमाल किया जा रहा है। यह एक गंभीर बात है। इसके तीखे धुएं से फेफड़े का कैंसर तक हो सकता है। अदालत ने दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति को निर्देश दिया कि वह औचक निरीक्षण करे और केरोसिन से वाहन चलाने वाले ड्राइवर और उसके मालिक के साथ संबंधित निगम या विभाग को भी जिम्मेदार मानकर कार्रवाई करे।

अदालत के तीखे सवाल

  • पराली जलनी कम हुई, फिर भी प्रदूषण कम क्यों नहीं हो रहा?
  • दिल्ली सरकार से कोर्ट ने पूछा, दुपहिया और तिपहिया वाहनों को ऑड इवेन स्कीम से छूट क्यों दी?
  • यह भी पूछा कि क्या इस स्कीम से राजधानी को कोई लाभ हुआ?

दिल्ली-एनसीआर में चौथे दिन भी हेल्थ इमरजेंसी

दिल्ली-एनसीआर की हवा में घुला प्रदूषण का जहर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। लगातार चौथे दिन भी हेल्थ इमरजेंसी के हालात रहे। शुक्रवार को दिल्ली का एयर इंडेक्स पांच अंकों की मामूली कमी के साथ 458 रहा। शुक्रवार को भी गाजियाबाद देश का सबसे प्रदूषित शहर रहा। यहां एयर इंडेक्स 471 दर्ज किया गया। हवा में प्रदूषक कणों की मौजूदगी अभी भी पांच गुना ज्यादा है। शाम के पांच बजे हवा में प्रदूषक कण पीएम 10 की मात्र 526 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर और पीएम 2.5 कणों की मात्र 379 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर रही। हालांकि पंजाब में एयर इंडेक्स में थोड़ा सुधार हुआ है, लेकिन हरियाणा में स्थिति खतरनाक बनी हुई है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी), सफर और स्काईमेट के अनुसार शनिवार को स्थिति में मामूली सुधार आएगा। रविवार से तेज हवा चलने पर कुछ राहत मिलेगी। हालांकि प्रदूषण का स्तर बेहद खराब स्थिति में 400 के नीचे रहने का अनुमान है।दिल्ली आ रहीं दो उड़ानें डायवर्ट : स्मॉग की वजह से आइजीआइ एयरपोर्ट पर शुक्रवार को कम दृश्यता के कारण दिल्ली आ रही दो उड़ानों को डायवर्ट कर उन्हें लखनऊ और जयपुर एयरपोर्ट पर उतारा गया। कुछ उड़ानों के संचालन में भी देरी हुई।लोग सांस कैसे ले रहे हैं

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण के मद्देनजर पूछा कि लोग यहां सांस कैसे ले रहे हैं? अदालत ने कहा कि दिल्ली का प्रदूषण के मारे बुरा हाल है। वायु गुणवत्ता सूचकांक कमरे के अंदर छह सौ से ज्यादा है। कमरे के बाहर तो और खराब हालत है। ऐसे में लोग सांस कैसे ले रहे हैं? अधिकारियों को प्रदूषण कम करने के लिए प्रभावी उपाय करने की जरूरत है। हम दिल्ली को स्वच्छ क्यों नहीं कर सकते? हमेशा हरा-भरा और हमेशा स्वच्छ?

एयर क्वालिटी इंडेक्स

गाजियाबाद471
नोएडा469
गुरुग्राम460
दिल्ली458
फरीदाबाद450
पलवल448
ग्रेटर नोएडा443

(स्त्रोत : केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड)

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मेथी की खेती और बोआई यंत्र

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मेथी की खेती और बोआई यंत्रHindiWaterThu, 10/24/2019 - 17:54
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फार्म एण्ड फूड, अक्टूबर 2019

फोटो - merisaheli.com

भारत में राजस्थान और गुजरात मेथी पैदा करने वाले खास राज्य हैं। 80 फीसदी से ज्यादा मेथी का उत्पादन राजस्थान में होता है। मेथी की फसल मुख्यतः रबी मौसम में की जाती है, लेकिन दक्षिण भारत में इसकी खेती बारिश के मौसम में की जाती है। मेथी का उपयोग हरी सब्जी, भोजन, दवा, सौन्दर्य प्रसाधन आदि में किया जाता है,।
 
मेथी के बीज खासतौर पर सब्जी व अचार में मसाले के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं। तमाम बीमारियों के इलाज में भी मेथी का देशी दवाओं में इस्तेमाल किया जाता है। यदि किसान मेथी की खेती वैज्ञानिक तकनीक से करें, तो इसकी फसल से अच्छी उपज हासिल की जा सकती है। मेथी की अच्छी बढ़वार और उपज के लिए ठंडी जलवायु की जरूरत होती है। इस फसल में कुछ हद तक पाला सहन करने की कूवत होती है। वातावरण में ज्यादा नमी होने या बादलों के घिरे रहने से सफेद चूर्णी, चैंपा जैसे रोगों का खतरा रहता है।
 
जमीन का चयन
 
वैसे तो अच्छे जल निकास वाली और अच्छी पैदावार के लिए सभी तरह की मिट्टी में मेथी की फसल को उगाया जा सकता है, लेकिन दोमट व बलुई दोमट मिट्टी में मेथी की पैदावार अच्छी मिलती है।
 
खेत की तैयारी
 
मेथी की फसल के लिए खेत को अच्छी तरह तैयार करने के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें और बाद में 2-3 जुताईयाँ देशी हल या हैरो से करनी चाहिए। इसके बाद पाटा लगाने से मिट्टी को बारीक व एकसार करना चाहिए।
 
बोआई के समय खेत में नमी रहनी चाहिए, ताकि सही अंकुरण हो सके। अगर खेती में दीमक की समस्या हो तो पाटा लगाने से पहले खेत में क्विनालफास (1.5 फीसदी) या मिथाइल पैराथियान (2 फीसदी चूर्ण) 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देना चाहिए।
 
उन्नत किस्में

मेथी की फसल से अच्छी पैदावार हासिल करने के लिए उन्नत किस्मों को बोना चाहिए, अच्छी उपज देने वाली कुछ खास किस्में जैसे हिसार सोनाली, हिसार सुवर्णा, हिसार मुक्ता, एएफजी 1, 2 व 3 आरएमटी 1 व 143, राजेन्द्र क्रान्ति को 1 और पूसा कसूरी, पूसा अर्ली बचिंग वगैरह खास हैं।
 
बोआई का उचित समय

आमतौर पर उत्तरी मैदानों में इसे अक्टूबर से नवम्बर माह में बोया जाता है। देरी से बोआई करने पर कीट व रोगों का खतरा बढ़ जाता है व पैदावार भी कम मिलती है, जबकि पहाड़ी इलाकों में इसकी खेती मार्च से मई माह में की जाती है। दक्षिण भारत, विशेषकर कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश व तमिलनाडु में यह फसल रबी व खरीफ दोनों मौसमों में उगाई जाती है।
 
बीज दर

सामान्य मेथी की खेती के लिए बीज दर 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए। बोआई करने से पहले खराब बीजों को छांटकर अलग निकाल देना चाहिए।
 
बीजोपचार

बीज को थाइरम या बाविस्टिन 2.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोने से बीज जनित रोगों से बचा जा सकता है। मेथी की बोआई से पहले बीजों को सही उपचार देने के बाद राइजोबियम कल्चर द्वारा उपचारित करना फायदेमंद रहता है।
 
बोआई की विधि

मेथी की बोआई छिटकवां विधि या लाइनों में की जाती है। छिटकवां विधि से बीज को समतल क्यारियों में समान रूप से बिखेर कर उनको हाथ या रेक द्वारा मिट्टी में मिला दिया जाता है।
 
छिटकवां विधि किसानों द्वारा अपनाई जा रही पुरानी विधि है। इस तरीके से बोआई करने में बीज ज्यादा लगता है और फसल के बीच में जाने वाली निराई-गुडाई में भी परेशानी होती है।
 
वहीं, इसके उलट लाइनों में बोआई करना सुविधाजनक रहता है। इस विधि में निराआ-गुड़ाई और कटाई करने में आसानी रहती है। बोआई 20 से 25 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारों में करनी चाहिए। इसमें पौधे-से-पौधे की दूरी 4-5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए।
 
खाद और उर्वरक

खेत में मिट्टी जाँच के नतीजों के आधार पर खाद और उर्वरक की मात्रा को तय करना चाहिए। आमतौर पर मेथी की अच्छी पैदावार के लिए बोआई के तकरीबन 3 हफ्ते पहले एक हेक्टेयर खेत में औसतन 10 से 15 टन सड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद डाल देनी चाहिए, वहीं सामान्य उर्वरता वाली जमीन के लिए प्रति हेक्टेयर 25 से 35 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 से 25 किलोग्राम फास्फोरस और 20 किलोग्राम पोटाश की पूरी मात्रा खेत में बोआई से पहले डाल देनी चाहिए।
 
सिंचाई प्रबंधन

यदि बोआई की शुरुआती अवस्था में नमी की कमी महसूस हो तो बोआई के तुरन्त बाद एक हल्की सिंचाई की जा सकती है, वरना पहली सिंचाई 4-6 पत्तियाँ आने पर ही करें। सर्दी के दिनों में 2 सिंचाइयों का अंतर 15 से 25 दिन (मौसम व मिट्टी के मुताबिक) और गरमी के दिनों में 10 से 15 दिन का अंतर रखना चाहिए।
 
खरपतवार नियंत्रण

खेत को खरपतवार से मुक्त रखकर मेथी की अच्छी फसल लेने के लिए कम-से-कम 2 निरी-गुड़ाई, पहली बोआई के 30 से 35 दिन बाद और दूसरी 60 से 65 दिन बाद जरूर करनी चाहिए, जिससे मिट्टी खुली बनी रहे और उसमे हवा अच्छी तरह आ जा सके।
 
खरपतवार की रोकथाम के लिए कैमिकल दवा का छिड़काव बहुत सोच समझकर करना चाहिए। अगर जरूरी हो तो किसी कृषि माहिर से सलाह लेकर ही खरपतवारनाशक का इस्तेमाल करें।

रोग व उसकी रोकथाम

छाछया रोग मेथी में शुरुआती अवस्था में पत्तियों पर सफेद चूर्णिल पुंज दिखाई पड़ सकते हैं, जो रोग के बढ़ने पर पूरे पौधे को सफेद चूर्ण के आवरण से ढक देते हैं, बीच की उपज और आकार पर इसका बुरा असर पड़ता है।
 
रोकथाम के लिए बोआई के 60 या 75 दिन बाद नीम आधारित घोल (अजादिरैक्टिन की मात्रा 2 मिलीलीटर प्रति लीटर) पानी के साथ मिलकर छिड़काव करें। जरूरत होने पर 15 दिन बाद दोबारा छिड़काव किया जा सकता है। चूर्णी फफूंद से संरक्षण के लिए नीम का तेल 10 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के घोल से छिड़काव (पहले कीट प्रकोप दिखने पर और दूसरा 15 दिन के बाद) करें।
 
मृदुरोमिल फफूंद

मेथी में इस रोग के बढ़ने पर पत्तियाँ पीली पड़ कर गिरने लगती हैं और पौधे की बढ़वार रुक जाती है। इस रोग में पौधा मर भी सकता है। इस रोग पर नियंत्रण के लिए किसी भी फफूंदनाशी जैसे फाइटोलान, नीली कॉपर या डाईफोलटान के 0.2 फीसदी सांद्रता वाले 400 से 500 लीटर घोल का प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए। जरूरत पड़ने पर 10 से 15 दिन बाद यही छिड़काव दोहराया जा सकता है।
 
जड़ गलन

यह मेथी का मृदाजनित रोग है। इस रोग में पत्तियाँ पीली पड़ कर  सूखना शुरू होती हैं और आखिर में पूरा पौधा सूख जाता है। फलियाँ बनने के बाद इनके लक्षण देर से नजर आते हैं। इससे बचाव के लिए बीज को कसी फफूंदनाशी जैसे थाइरम या कैप्टन द्वारा उपचारित करके बोआई करनी चाहिए। सही फसल चक्र अपनाना, गर्मी में जुताई करना वगैरह ऐसे रोग को कम करने में सहायक होते हैं।

फसल कटाई

अक्टूबर माह में बोई गई फसल की 5 बार व नवम्बर माह में बोई गई फसल की 4 बार कटाई करें। उसके बाद फसल को बीज के लिए छोड़ देना चाहिए वरना बीज नहीं बनेगा।
 
मेथी की पहली कटाई बोआई के 30 दिन बाद करें, फिर 15 दिन के अन्तराल पर कटाई करते रहें। दाने के लिए उगाई गई मेथी की फसल के पौधों के ऊपर की पत्तियाँ पीली होने पर बीज के लिए कटाई करें। फल पूरी तरह सूखने पर बीज निकाल कर सूखा कर साफ कर लें और भंडारण कर लें।

 

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समाधान नहीं हैं मास्क-एयर प्यूरीफायर

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समाधान नहीं हैं मास्क-एयर प्यूरीफायरHindiWaterSat, 11/16/2019 - 10:58
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राजस्थान पत्रिका, 15 नवम्बर 2019

‘टेरी’ (द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट) के महानिदेशक और जल-वायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री की परिषद के सदस्य डॉ. अजय माथुर।

प्रदूषण से निपटना है तो परिवहन और खेती में नई तकनीक लानी होगी। किसानों को पराली की कीमत दिलानी होगी। आधुनिक तकनीक और नए इनोवेसन पर जोर देना होगा। यह कहना है ‘टेरी’ (द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट) के महानिदेशक और जल-वायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री की परिषद के सदस्य डॉ. अजय माथुर का। इसी तरह वे मास्क और एयर प्यूरीफायर जैसे उत्पादों से परहेज की बात नहीं करते, मगर समस्या की जड़ तक पहुँचना जरूरी बताते हैं। उनसे मुकेश केजरीवाल की बातचीत के अंशः

ऑड-ईवन कितना प्रभावी है ? कुछ कहते हैं बंद हो, तो कुछ लोग दूसरे शहरों में भी लागू करने की वकालत करते हैं।

दिल्ली के 6-7 प्रतिशत वायु प्रदूषण का कारण कारें हैं। कई तरह की छूट के बाद इस दौरान लगभग 65 प्रतिशत कारें चल रही होती हैं। 50 फीसदी कारें भी रोक दी जाएँ तो अधिकतम 3 प्रतिशत का असर हो सकता है। नम्बर प्लेट की बजाय इसे गाड़ियों के प्रदूषण स्तर से जोड़ें।
 
बीएस-1.2 और 3 वाली गाडियों को इस दौरान रोका जाए और सिर्फ बीएस-4 को चलने दिया जाए। यही वे गाड़ियाँ हैं जो कारों से होने वाले प्रदूषण में 60 फीसदी का कारण हैं। साथ ही आरामदेह सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध करवाने पर जोर देना होगा।
 
कोई भी शहर ले लें, जरूरी संख्या में बसें ही नहीं हैं। सड़कों पर बसों के रास्ते पर कारें चलती हैं और दोनों की रफ्तार धीमी हो जाती है। इससे प्रदूषण बढ़ता है। दोनों के लिए चलने की जगह अलग-अलग रखनी होगी। बसों के अलावा मिनी बसें और कम सवारियों वाले आरामदेह वाहन भी चलाने होंगे। कैब सेवाओं में पूल व्यवस्था भी एक विकल्प हो सकती है।

मास्क, एयर प्यूरीफायर...जैसे उत्पाद बाजार का खेल हैं या हालात का मजबूरी ?

यह बात सही है कि इनका प्रभाव सीमित होता है, किन्तु लगता है कुछ तो राहत मिली। इसीलिए ये बिक रहे हैं। लेकिन यह समाधान नहीं है। समाधान तो प्रदूषण को कम करना ही है।
 
नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम से कितनी उम्मीदें हैं ?

पहली बार सरकार ने प्रदूषण को एक समस्या मान राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया है। इसमें शहरों के स्तर पर फोकस किया। तीन पहलू हैं- शहरों के स्तर पर प्रदूषण का स्रोत पता करना, कार्य योजना बनाना और तीसरा स्थानीय निवासियों की भागीदारी। यह कार्यक्रम मददगार हो सकता है।
 
शहरों में मैकेनिकल स्वीपर (सड़कें बुहारने वाली गाड़ियों) के प्रयोग को बढ़ावा देना होगा। साथ ही यह सुनिश्चित करना होगा कि इन गाड़ियों से उठाई जाने वाली धूल का निष्पादन सही हो। इनके रूट ऑप्टमाइजेशन और बेहतर प्लानिंग की भी जरूरत है।
 
सिंगल यूज प्लास्टिक का समाधान कैसे निकलेगा ?

इसका उपयोग कम करें। बहुत से विकल्प हैं। 20 साल पहले हम कपड़े का थैला लेकर बाजार जाते थे। फिर जा सकते हैं। टूथ ब्रश में इतना बड़ा प्लास्टिक हैंडल होता है। अब तक जितने ऐसे ब्रश आपने इस्तेमाल किए, वे कहीं व कहीं वैसे ही जमा हैं, डिकम्पोज नहीं हुआ। क्या लकड़ी का हैंडल नहीं हो सकता? ऐसे विकल्प तलाशने होंगे। साथ ही रिसाइकल करना होगा।
 
आपने बीईई में रहते हुए घरों और दफ्तरों में एनर्जी एफिशिएंसी को साकार करने में बड़ी भूमिका निभाई। अब क्या करने की जरूरत है?

एनर्जी इंटेसिटी के मामले में हम दुनिया के शीर्ष 6 देशों में आ चुके हैं। लेकिन काम खत्म नहीं हुआ है। अब खासतौर पर छोटे और मंझोले स्तर के उद्योगों को आकर्षक बिजनेस मॉडल उपलब्ध करवाने होंगे। इसी तरह परिवहन के क्षेत्र में भी ऊर्जा दक्षता लाना है, क्योंकि हमारा पेट्रोलियम उत्पाद 70 फीसदी तो आयातित होता है। इलेक्ट्रिक वाहन मददगार हो सकते हैं। तीसरी जरूरत है खेती में बिजली के उपयोग को ऊर्जा दक्ष बनाने की।
 
एयर कंडिशनर का उपयोग बहुत तेजी से बढ़ रहा है। इससे हमारी जिंदगी अच्छी होती है और उत्पादकता भी बढ़ती है। लेकिन कम बिजली से चलने वाले एसी लाने पर ध्यान देना होगा।
 
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रयासों की क्या स्थिति है?

सौर ऊर्जा में भारत ने काफी सक्रिय और अग्रणी भूमिका निभाई है। हमें परिवहन और उद्योगों में भी कार्बन उत्सर्जन को कम करना है।
 
केन्द्र और राज्य सरकारों को इस लिहाज से क्या कदम उठाने चाहिए?

सड़कों से बीएस-4 पहले के मानक की गाड़ियाँ जल्द हटाएँ, खासतौर पर बड़ी गाड़ियाँ। इसके लिए कोई आर्थिक मदद दें। सौर ऊर्जा जैसी पहल बिजली चलित वाहनों को बढ़ावा देने और उद्योगों में कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए भी करें।

राजस्थान बन सकता है देश का पॉवर हाउस

राजस्थान में सौर ऊर्जा को लेकर सम्भावनाएँ काफी हैं। यह देश का पॉवर हाउस बन सकता है। सौर ऊर्जा में समस्या यह है कि बिजली तब मिलेगी जब धूप हो। इन दिनों बिजली की माँग सबसे ज्यादा होती है रात 8 से 11 बजे तक, जब धूप बिल्कुल नहीं होती। लेकिन राजस्थान के पास पर्याप्त जमीन है। फोटोवोल्टेइक्स (पीवी) के साथ बैट्री बैंक भी बना सकते हैं। दिन में बिजली जमा हो और जरूरत के समय उपयोग हो। इस तरह राजस्थान की पूरी अर्थव्यवस्था बदल सकती है। राज्य बिजली बेचें और सौर पम्पर का उपयोग कर अपनी खेती को बढाएँ।

पराली बने प्रॉफिट वाली
 

मौजूदा प्रदूषण में पराली का कितना योगदान है ?

इस मौसम में उत्तर भारत में बड़े हिस्से में वायु प्रदूषण अचानक जो बढ़ता है, उसकी वजह पंजाब और हरियाणा में फसलों के अवशेषों को जलाया जाना ही है। इसे तुरन्त रोकना होगा। कई कोशिशें हो रही हैं। भारत सरकार ने इसके लिए उपकरणों पर सब्सिडी दी है। लेकिन आवश्यक प्रभाव नहीं हुआ है। कृषि अनुसंधान विभाग का शोध है कि पराली को जमीन में मिलाने से अगली पैदावार में 15 प्रतिशत बढ़ोत्तरी होती है। लेकिन किसानों को इसका विश्वास दिलाना होगा।
 
पहले धान हाथ से काटे जाते थे तो जमीन से एक इंच ऊपर फसल काटी जाती थी। अब थ्रेशर सिर्फ ऊपर के आठ इंच काटता है और बाकी छोड़ देता है। इसी तरह धान की कटाई और गेहूँ की बुआई के बीच का अन्तराल बहुत कम हो गया है, ऐसे में किसान जल्दबाजी में पराली जलाता है। उसे कई विकल्प देने होंगे।
 
पर ऐसा समाधान क्या होगा, जिससे किसानों को इसकी कीमत मिले?

जरूरी है कि किसानों की आधी पराली की बिक्री हो जाए और आधी वह खेत में मिला दे। पराली से किसान कुछ धन हासिल कर सके। इसके लिए तकनीक तैयार है। पराली से क्लीन एनर्जी पैदा कर सकते हैं और उसका उपयोग भी किसानों की फसलों के भंडारण में किया जा सकता है। पराली के ब्रिकेट बनाने होंगे, उससे गैस पैदा की जाएगी और उससे बिजली बनेगी। उस बिजली से कोल्ड स्टोरेज चलेंगे। अभी बिजली की कमी की वजह से गाँवों में बहुत कम कोल्ड स्टोरेज हैं। लखनऊ में ऐसा कोल्ड स्टोरेज चलाया जा रहा है। यह कारोबार के लिहाज से भी फायदेमंद हैं।
 
इसके अलाबा पंजाब और हरियाणा प्रावधान करें कि पॉवर स्टेशन 10 प्रतिशत तक पराली के ब्रिकेट का इस्तेमाल कर सकते हैं। साथ ही बायोमास गैसीफायर और कोल्ड स्टोरेज बनाने के लिए कमर्शियल लोन दें।
 
सरकार पराली काटने के उपकरणों पर सब्सिडी दे रही है, वे कितने प्रभावी और फायदेमंद हैं ?
खेती ऐसा व्यवसाय है जिसमें पैसा लगता ही चला जाता है, जबकि किसान की जेब में ज्यादा पैसा होता नहीं। ऐसे में उसे इस मशीन को चलाने पर भी खर्च करना होता है और उसे लगता है कि तुरन्त उसके पास पैसा नहीं आ रहा।
 

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कृषि विज्ञान में बनाएँ करियर

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कृषि विज्ञान में बनाएँ करियरHindiWaterSat, 11/16/2019 - 12:35
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गाँव कनेक्शन, 16 नवम्बर 2019

फोटो - Daily Hunt

भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारत में कृषि कई वर्षों से की जा रही है। कृषि (Agriculture) के क्षेत्र से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 64 प्रतिशत लोग जुड़े हुए हैं। कृषि केवल पारम्परिक किसनों के लिए ही नहीं है बल्कि इस क्षेत्र से आजकल युवा भी अपना करियर बना सकते हैं। इस क्षेत्र में रोजगार के लिए आप नए व आधुनिक तरीके से फसलों की खेती करके कृषि उत्पादों की मार्केटिंग करके भी अपना बेहतर भविष्य बना के अच्छी सैलरी कमा सकते हैं।

क्या है कृषि विज्ञान

बीएचयू के प्रोफेसर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह बताते हैं ‘एग्रीकल्चर साइंस, साइंस की ही एक प्रमुख विधा है, जिसमें कृषि उत्पादन, खाद्य पदार्थों की आपूर्ति, फार्मिंग की क्वालिटी सुधारने, क्षमता बढ़ाने आदि के बारे में बताया जाता है। इसका सीधा सम्बन्ध बायोलॉजिकल साइंस से है। इसमें बायोलॉजी, फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथमेटिक्स के सिद्धान्तों को शामिल करते हुए कृषि क्षेत्र की समस्याओं को हल करने का प्रयास किया जाता है।’ राजेन्द्र आगे बताते हैं ‘प्रोडक्शन टेक्निक को बेहतर बनाने के लिए रिसर्च एवं डेवलपमेंट को इसके सिलेबस में शामिल किया गया है। इसकी कई शाखाएँ जैसे प्लांट साइंस, फूड साइंस, एनिमल साइंस व सॉयल साइंस आदि है, जिनमें स्पेशलाइजेशन कर इस क्षेत्र का जानकार बना जा सकता है।’
 
कब ले सकेंगे दाखिला

एग्रीकल्चर साइंस में करियर बनाने के इच्छुक छात्रों को बॉटनी, फिजिक्स, केमिस्ट्री व मैथ्स की जानकारी होना बहुत जरूरी है। ऐसे कई अंडरग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, डिप्लोमा व डॉक्टरल कोर्स हैं, जो एग्रीकल्चर साइंस की डिग्री प्रदान करते हैं। इसके बैचलर कोर्स (बीएससी इन एग्रीकल्चर) में दाखिले के लिए साइंस स्ट्रीम में 50 प्रतिशत अंकों के साथ 10+2 पास होना जरूरी है। कोर्स की अवधि चार वर्ष है। दो वर्षीय मास्टर प्रोग्राम के लिए बीएससी अथवा बीटेक की डिग्री आवश्यक है। मास्टर डिग्री (एमएससी/एमटेक) के बाद पीएचडी की राह आसाना हो जाती है। कई ऐसे संस्थान हैं, जो पीजी डिप्लोमान कोर्स कराते हैं।
 
प्रमुख कोर्स

  1. बीएससी इन एग्रीकल्चर
  2. बीएससी इन एग्रीकल्चर (ऑनर्स)
  3. एमएससी इन एग्रीकल्चर
  4. एमएससी इन एग्रीकल्चर इंजीनियरिंग
  5. इन एग्रीकल्चर (बायोटेक्नोलॉजी)
  6. एमएससी इन एग्रीकल्चर (बायोकेमिस्ट्री/इकोनॉमिक्स)
  7. एमटेक इन एग्रीकल्चर वॉटर मैनेजमेंट
  8. पीएचडी इन एग्रीकल्चर इकोनॉमिक्स
  9. पीजी डिप्लोमा इन एग्री बिजनेस मैनेजमेंट
  10. पीजी डिप्लोमा इन एग्री मार्केटिंग मैनेजमेंट
  11. पीजी डिप्लोमा इन एग्री वॉटर मैनेजमेंट

एग्रीकल्चर साइंस के क्षेत्र में प्रोफेशनल्स की वेतन उनकी योग्यता, संस्थान और कार्य अनुभव पर निर्भर करती है। सरकारी क्षेत्र में कदम रखने वाले ग्रेजुएट प्रोफेशनल्स को प्रारम्भ में 20-25 हजार रुपए प्रतिमाह मिलते हैं। कुछ साल के अनुभव के बाद यह राशि 40-50 हजार रुपए प्रतिमाह हो जाती है, जबकि प्राइवेट सेक्टर में प्रोफेशनल्स की स्किल्स के हिसाब से वेतन दिया जाता है। यदि आप अपना फर्म या कंसल्टेंसी सर्विस खोलते हैं तो आमदनी की रूपरेखा फर्म के आकार एवं स्वरूप पर निर्भर करती है। टीचिंग व रिसर्च के क्षेत्र में भी पर्याप्त सेलरी मिलती है।
 
इन पदों पर मिलता है काम

  1. एग्रीकल्चर एक्सटेंशन ऑफिसर
  2. रूरल डेवलपमेंट ऑफिसर
  3. फील्ड ऑफिसर
  4. एग्रीकल्चर क्रेडिट ऑफिसर
  5. एग्रीकल्चर प्रोबेशनरी ऑफिसर
  6. प्लांट प्रोटेक्शन ऑफिसर
  7. सीड प्रोडक्शन ऑफिसर
  8. एग्रीकल्चर असिस्टेंट/टेक्निकल असिस्टेंट
  9. प्लांट पैथोलॉजिस्ट

प्रवेश प्रक्रिया

प्रोफेसर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इसके सभी कोर्सों में दाखिला प्रवेश प्रक्रिया के बाद मिलता है। प्रवेश परीक्षाएँ सम्बन्धित संस्थान, यूनिवर्सिटी अथवा इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर), नई दिल्ली द्वारा कराई जाती है। कुछ चुनिंदा संस्थान आईसीएआर के अंक को आधार बनाकर प्रवेश देते हैं। आईसीआर पोस्टग्रेजुएट के लिए फेलोशिप भी प्रदान करता है।
 
आवश्यक स्किल्स

प्रोफेसर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद बताते हैं ‘एग्रीकल्चरल साइंटिस्ट बनने के लिए छात्रों के पास विज्ञान की अच्छी समझ होनी चाहिए। उसे फसलों, मिट्टी के प्रकार, प्रमुख केमिकल्स के बारे में जानकारी नही चाहिए। साथ ही उसके पास तार्किक दिमाग, धैर्य, शोध का गुण, घंटों काम करने का जज्बा, लिखने-बोलना का कौशल, कम्युनिकेशन स्किल, प्रजेंटेशन क्षमता आदि गुणों का होना जरूरी है। आजकल इस सेक्टर में भी बायोलॉजिकल केमिकल, प्रोसेसिंग कट्रोल करने व डाटा आदि निकालने में कम्प्यूटर का प्रयोग होने लगा है, इसलिए कम्प्यूटर का ज्ञान होना बहुत जरूरी है।’
 
आकार लेतीं सम्भावनाएँ

शोध - वैश्विक समस्या का रूप ले रहे खाद्यान्न संकट ने इस क्षेत्र को शोध संस्थाओं की प्राथमिकता का केन्द्र बना दिया है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद सहित देश की तमाम कृषि शोध संस्थाएँ कृषि उत्पादकता बढ़ाने वाली तकनीकें और फसलों की ज्यादा उपज देने वाली प्रजातियाँ विकसित करने में जुटी हैं।
 
प्रोसेसिंग - निजी क्षेत्र की कई कम्पनियाँ कृषि उत्पादों का ज्यादा समय तक उपभोग सुनिश्चित करने के लिए बड़े पैमाने पर फूड प्रोसेसिंग शुरू कर चुकी हैं। डिब्बाबंद जूस, आइसक्रीम, दुग्ध उत्पाद और चिप्स जैसे उत्पाद प्रोसेस्ड फूड के उदाहरण हैं।
 

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क्या है स्माॅग टाॅवर, कैसे सोखता है हवा से प्रदूषण 

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क्या है स्माॅग टाॅवर, कैसे सोखता है हवा से प्रदूषण HindiWaterSat, 11/16/2019 - 16:55

प्रतीकात्मक फोटो - ENS Clean Air

पराली जलना कम होने के बाद भी दिल्ली में वायु प्रदूषण कम होता नहीं दिख रहा है। बीते एक माह से दिल्ली और आसपास के इलाकों में साफ सांसों का आपातकाल लगा हुआ है। यहां एयर क्वालिटी इंडेक्स फिर से 500 के पार पहुंच गया है। दिल्ली के आसपास के इलाकों गुरुग्राम, गाज़ियाबाद, पलवल, नोएडा, ग्रेटर नोएडा आदि में हवा मानकों से कई गुना ज्यादा ज़हरीली हो गई है, जिस कारण दिल्ली और इसके समीपवर्ती इलाकों में लोगों का रहना दूभर हो गया है। लोगों को सांस संबंधी विभिन्न प्रकार की बीमारियों के साथ ही गले और आंखों में एलर्जी होने लगी है, पर सरकार के प्रयास ‘‘ऑड-ईवन’’ योजना के आगे बढ़ते नजर नहीं आ रहे, लेकिन लोगों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार से कई तीखे प्रश्न किए। साथ ही दिल्ली में वायु प्रदूषण को कम करने के लिए स्माॅग टाॅवर लगाने का सुझाव दिया है। तो आइए जानते हैं, कि क्या है स्माॅग टाॅवर।

क्या है स्माॅग टाॅवर ?

स्माॅग टाॅवर एल्युमिनियम से बना करीब 7 मीटर ऊंचा टाॅवर होता है, जो वातावरण में मौजूद पीएम 10 और पीएम 2.5 जैसे हानिकारक कणों को सोख लेता है। ये टाॅवर एक घंटे में लगभग 30 हजार क्यूबिक मीटर हवा को शुद्ध करता है। टाॅवर द्वारा अवशोषित कार्बन का उपयोग हीरे के क्रिस्टल बनाने में किया जा सकता है और काफी कम ऊर्जा की खपत करते हैं। हालाकि टाॅवर सौर ऊर्जा पर भी कार्य करते हैं और उम्मीद जताई जा रही है कि दिल्ली में लगने वाले स्माॅग टाॅवर सौर ऊर्जा चालित ही होंगे।

स्टार्ट अप इंडिया के तहत किया जाएगा तैयार 

एक समय था जब चीन वायु प्रदूषण के भयावह दौर से गुजर रहा था। चीन का बीजिंग दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में शुमार था, लेकिन चीन के शासन और प्रशासन के साथ जनता ने भी वायु प्रदूषण के खिलाफ जंग छेड़ दी। नई नीतियां और कानून बनाए गए। सख्ती ने इनका पालन किया गया। जिसका नतीजा ये रहा कि बीजिंग की वायु गुणवत्ता में काफी सुधार आया और अब विश्व के टाॅप 10 प्रदूषित शहरों में भी बीजिंग का नाम शामिल नहीं है। वायु प्रदूषण के जंग के लिए चीन में ही सबसे पहले स्माॅग टाॅवर भी लगाया गया था, जिसका काफी सकारात्मक परिणाम रहा था, लेकिन भारत के लिए वायु प्रदूषण गंभीर चुनौती है, लेकिन अब भारत की राजधानी दिल्ली में भी स्माॅग टाॅवर लगाए जाने हैं, जो स्टार्ट अप इंडिया के तहत की तैयार किया जाएगा। हालाकि अभी दिल्ली की कुरीन सिस्टम्स नामक एक कंपनी ने करीब 40 फुट लंबा एयर प्यूरीफायर बनाया है, जो तीन किलोमीटर के दायरे में प्रतिदिन 3.2 करोड घन मीटर हवा को स्वच्छ करने करीब 75000 लोगों को साफ हवा दे सकता है। कंपनी के सह संस्थापक संस्थापक पवनीत सिंह पुरी को दुनिया के सबसे लंबे और साथ ही सबसे मजबूत प्यूरीफायर के लिए पेटेंट मिला है।

ऐसे हुई एयर प्यूरींफायर की शुरुआत

स्माॅग टाॅवर का पहला प्रोटोटाइम नीदरलैंड्स के डैन रूजगार्डे ने बनाया था, जिसे सबसे पहले वर्ष 2016 में चीन के बीजिंग के लगाया गया था। अब विश्व के कई अन्य देशों में भी विशालकाय वैक्यूम क्लीनर यानी स्माॅग प्यूरीफायर लगाए जा चुके हैं, लेकिन बीते वर्ष ही चीन ने विश्व का सबसे ऊंचे स्माॅग टाॅवर लगाकर उसका परीक्षण भी किया था। विदित हो कि डैन रूजगार्डे ने हवा को साफ करने वाली साइकिल भी बनाई है।

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पिलग्रिम लॉज में पहला क्रिसमस

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पिलग्रिम लॉज में पहला क्रिसमसHindiWaterMon, 11/18/2019 - 16:49
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नैनीताल एक धरोहर
पीटर बैरन 23 अक्टूबर, 1843 को पीलीभीत से चलकर 25 अक्टूबर को लोहाघाट होते हुए लोधिया (अल्मोड़ा) पहुँचे। 27 अक्टूबर को वापस लोहाघाट गए। एक नवम्बर को वहाँ से चले और अल्मोड़ा होते हुए 4 नवम्बर, 1843 तीसरी बार नैनीताल पहुँचे। उस समय नैनीताल में एक बहुत बड़ा किलेनुमा मकान बन रहा था। पाँच दूसरे बंगलों का निर्माण शुरू हो चुका था। पर कोई भी बंगला अभी पूरी तरह बनकर तैयार नहीं हुआ था। उस साल पाँच नवम्बर को नैनीताल की पहाड़ियों में खूब बर्फबारी हुई। इस बार बैरन 15 दिन तक नैनीताल में रुके, फिर लोहाघाट को चल दिए। दो सप्ताह तक पहाड़ में विचरण करने के बाद बैरन थकान मिटाने के लिए 3 दिसम्बर 1843 को नैनीताल लौट आए। बैरन का मानना था कि इंसान कितना ही थका क्यों न हो, नैनीताल आते ही थकान दूर हो जाती है। 9 दिसम्बर को नैनीताल में जबरदस्त बर्फीला तूफान आया, जो 20 घंटे तक जारी रहा। तूफान की वजह से भवनों का निर्माण कार्य रोकना पड़ा था। सभी लोग नैनीताल छोड़कर मैदानी क्षेत्रों की और पलायन कर गए थे। कुछ दिनों बाद नैनीताल का मौसम तो साफ हो गया, पर सूखाताल की झील पूरी तरह जम गई थी। यहाँ तक कि नैनीताल की झील में भी बर्फ की एक परत जमा हो गई थी। बैरन के अनुसार नैनीताल के तालाब में जमीं बर्फ की परत इतनी मजबूत थी कि उसमें हाथी भी चल सकते थे। हर क्षण बदलते नैनीताल के मौसम के मिजाज को देख बैरन ने लिखा है कि- नैनीताल एक काँच की परत की तरह नाजुक है। 1843 में पीटर बैरन ने क्रिसमस का त्योहार अपने निर्माणाधीन बंगले पिलग्रिम लॉज में मनाया। तब तक पिलग्रिम लॉज के चार कमरे बन गए थे और उनके ऊपर छत डालने का काम पूरा हो गया था। 25 दिसम्बर, 1843 को पिलग्रिम लॉज में पीटर बैरन सहित छः पुरुषों और तीन महिलाओं ने एक साथ रात्रि भोज किया और रात में पटाखे जलाए। एक प्रकार से यह पीटर बैरन के गृह प्रवेश का भी जश्न था। 27 दिसम्बर को बैरन खुर्पाताल होते हुए मैदानी क्षेत्र को चले गए। दिसम्बर 1843 तक नैनीताल में कोई भी मकान पूरी तरह बनकर तैयार नहीं हो पाया था। तालाब के पास कुछ नई नावें बनने लगी थीं। इस दौरान नैनीताल में बसने के इच्छुक अंग्रेज अपनी मनपसन्द जमीन का चयन कर पेड़ों पर खास निशान लगा जाते थे। कुछ सम्पन्न अंग्रेज उनके द्वारा चुनी गई जमीन की देखभाल के लिए चौकीदार भी रख जाते थे। चुनी गई जमीनों के निशानों को किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा मिटाना दंडनीय अपराध समझा जाता था। जमीन के चुनाव के बाद चयनित जमीन की लीज प्राप्त करने के लिए पूरे ब्योरे के साथ आवेदन-पत्र देना होता था। जमीन की लीज स्वीकृत होने के बाद ही निर्माण कार्य किया जा सकता था। तब कुमाऊँ के ज्यादातर लोग पीटर बैरन को नैनीताल का मालिक मानने लगे थे। ज्यादातर लोगों की नजर में बैरन ही नैनीताल के मालिक थे। आमतौर पर पहाड़ के लोगों का बैरन से अन्य सवालों के अलावा एक सनातन सवाल यह भी होता था कि- क्या बैरन उन्हें रोजगार दे सकते हैं।
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दिल्ली का पानी भी पीने लायक नही

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दिल्ली का पानी भी पीने लायक नहीHindiWaterTue, 11/19/2019 - 11:37
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अमर उजाला, 17 नवम्बर 2019

फोटो - Amar Ujala

दिल्ली की हवा ही नहीं पानी की गुणवत्ता भी बेहद खराब है। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) की जाँच में दिल्ली में 11 जगहों से लिए सभी नमूने फेल हो गए। इसका मतलब है कि यहाँ पानी पीने लायक नहीं। वहीं उत्तराखण्ड राजधानी देहरादून इसमें 12वें स्थान पर है। चेन्नई व कोलकाता के नमूने भी 10 से ज्यादा मानकों पर फेल हुए। जबकि मुम्बई के सभी दस नमूने पास हो गए। रिपोर्ट के मुताबिक, 21 शहरों की सूची में शिमला छठवें, चंडीगढ़ 7वें, लखनऊ-जम्मू 11वें स्थान पर रहे।
 
केन्द्रीय उपभोक्ता मामले व सार्वजनिक वितरण मंत्री रामविलास पासवान ने शनिवार को 21 राज्यों की राजधानियों में पानी की गुणवत्ता की रिपोर्ट जारी की। पासवान ने कहा, जांच में इसका पूरा ध्यान रखा गया है कि सैंपल लेने के पक्षपात न हो। मंत्रालय का मकसद किसी सरकार को दोष देना नहीं, बल्कि नागरिकों को साफ पेयजल उपलब्ध करना है। देश में पेयजल आपूर्ति के लिए गुणवत्ता मानक अनिवार्य करने से इसका हल हो सकता है। मंत्रालय ने सभी राज्यों को इस सम्बन्ध में लिखा है। पासवान ने कहा, फिलहाल पेयजल गुणवत्ता मानक न होने से सख्त कार्रवाई नहीं हो सकती। इसके लागू होने पर कार्रवाई करेंगे।
 
तीन चरणों में जांच

  • पहले चरण में सभी राज्यों की राजधानियों में पानी की जांच की गई।
  • दूसरे चरण में 100 स्मार्ट शहरों का पानी जांचा जाएगा। यह काम 15 जनवरी 2020 तक पूरा हो जाएगा।
  • तीसरे चरण में सभी जिलों में 15 अगस्त तक होगी जांच।
     

48 मानकों पर परखा पानी

केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने शनिवार को राजधानियों में पानी की गुणवत्ता की रिपोर्ट जारी की। उन्होंने कहा, हम 2024 तक हर घर तक साफ पानी पहुँचाने के प्रधानमंत्री मोदी के अभियान की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। राजधानियों से लिए गए नमूनों की जाँच भारतीय मानक ब्यूरों के 10500:2012 मानक के हिसाब से हुई है। पेयजल को 48 मानकों पर परखा गया। इनमें आर्गनोलेप्टिक एंड फिजिकल टेस्ट, केमिकल टेस्ट, टॉक्सिक सबस्टेंस और बैक्टेरियल एवं वायरस टेस्ट शामिल हैं।

पानी गुणवत्ता किस राजधानी के कितने सैंपल हुए फेल - 

रैंक

राजधानी

सैंपल/फेल

मानक फेल

1

मुम्बई

10/0

0

2

हैदराबाद

10/1

1

2

भुवनेश्वर

10/1

1

3

रांची

10/5

4

4

रायपुर

10/6

3

5

अमरावती

10/9

7

6

शिमला

10/10

1

7

चंडीगढ़

10/10

2

8

तिरुवनंतपुरम

10/10

3

9

पटना

10/10

4

9

भोपाल

10/10

4

10

गुवाहाटी

10/10

5

10

बंगलुरु

10/10

5

10

गाँधीनगर

10/10

5

11

लखनऊ

10/10

6

11

जम्मू

10/10

6

12

जयपुर

10/10

7

12

देहरादून

10/10

7

13

चेन्नई

10/10

9

14

कोलकाता

9/9

10

15

दिल्ली

11/11

19

 

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उत्तराखण्ड में प्राकृतिक स्रोत का साफ पानी घर पहुँचने तक गंदा

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उत्तराखण्ड में प्राकृतिक स्रोत का साफ पानी घर पहुँचने तक गंदाHindiWaterTue, 11/19/2019 - 12:48
Source
अमर उजाला, 19 नवम्बर 2019

उत्तराखण्ड के ज्यादातर स्थानों पर प्राकृतिक स्रोत से निकल रहा साफ पानी लोगों के घरों तक पहुँचने में दूषित हो रहा है। नालियों में बिछाई गई और क्षतिग्रस्त पेयजल लाइनों को इसका मुख्य कारण माना जा रहा है। जल संस्थान की राज्य स्तरीय लैब की मासिक रिपोर्ट के आधार पर इस तथ्य की तस्दीक की जा सकती है।
 
स्टेट लेबल वाटर क्वालिटी टेस्टिंग एंड मॉनिटरिंग लैब के पिछले तीन माह के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह साफ हो जाता है कि उत्तराखण्ड में ज्यादातर प्राकृतिक स्रोत का पानी गंदा नहीं है। लेकिन यही पानी जब पेयजल लाइनों के जरिए लोगों के घरों तक पहुँचता है, तो इसमें कई तरह की गदंगी मिली होती है।
 
क्लोरीन से साफ होती है गदंगी

जल संस्थान अधिकारियों के मुताबिक स्रोत से जमा होने वाले पानी में सोडियम हाइपो क्लोराइड मिलाया जाता है। इसमें 11 से 12 प्रतिशत क्लोरीन होती है। यह पानी में घुलकर जीवाणुओं को समाप्त कर पानी साफ कर देता है। सभी स्थानों पर पानी साफ करने में फिलहाल इसी तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है।
 
पानी में जीवाणु ज्यादा

उत्तराखण्ड के ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में स्थित जलस्रोतों में जीवाणुओं की संख्या ज्यादा होती है। कई इलाकों में लोग जल स्रोतों के पास शौच करते हैं, जिससे पानी दूषित हो जाता है। प्राकृतिक स्रोतों के पानी में ज्यादातर यही जीवाणु होते हैं।
 
घरों में गंदे पानी के प्रमुख कारण

  • क्षतिग्रस्त पेयजल लाइनें
  • नालियों में बिछाई गई लाइन
  • टंकियों में जमा गदंगी 

आप भी कराएँ पानी की जाँच

स्टेट लेवल वाटर क्वालिटी टेस्टिंग एंड मॉनिटरिंग लैब में कोई भी व्यक्ति अपने घरों में सप्लाई होने वाले पानी की जाँच करवा सकता है। इसके लिए निर्धारित शुल्क जमा कराना होता है। सैंपल लेकर खुद ही जमा कराना होगा, जिसकी जाँच के बाद लैब से उसकी रिपोर्ट प्राप्त की जा सकती है।
 
बोलते आँकड़े

माह  स्रोतों के सैंपलफेल घरों के सैंपलफेल
अगस्त04000701
सितम्बर03001505
अक्टूबर03001916

 

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मध्य प्रदेश में 42 लाख हेक्टेयर जमीन सरकारी रिकाॅर्ड से गायब

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मध्य प्रदेश में 42 लाख हेक्टेयर जमीन सरकारी रिकाॅर्ड से गायबHindiWaterTue, 11/19/2019 - 16:19

फोटो - nai duniya

संसद में नियम व कानून बनने के बाद जब उसे लागू किया जाता है तो कानून का नियमित रूप से पालन करवाना प्रशासन का काम होता है। इसके लिए विभिन्न विभागों में भिन्न-भिन्न अधिकारियों और कर्मचारियों की तैनाती होती है। किसी भी जिले में प्रशासनिक व्यवस्था को बनाए रखना जिलाधिकारी और कानून व्यवस्था को बनाए रखना एसएसपी (वरिष्ठ पुलिस अधिक्षक) की जिम्मेदारी होती है। जिलाधिकारी के अंतर्गत ही शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, नगर निगम, तहसील सहित समस्त विभाग आते हैं। यूं तो नगर निगम की जिम्मेदारी मुख्य रूप से मेयर और नगर आयुक्त, तहसील की तहसीलदार और एसडीएम। इसी प्रकार हर विभाग के लिए एक मुख्य अधिकारी नियुक्त होता है, जिसके जिम्मे अपने विभाग की पूरी जिम्मेदारी होती है। हालाकि विकास कार्यों के लिए मुख्य विकास अधिकारी, शिक्षा के लिए मुख्य शिक्षाधिकारी, स्वास्थ्य के लिए मुख्य चिकित्साधिकारी, खाद्य आपूर्ति के लिए जिला पूर्ति अधिकारी आदि जिम्मेदार होते हैं। जिलाधिकारी इन सभी से किसी भी वक्त अपने अपने कार्यों की रिपोर्ट तलब कर सकते हैं। यही रिपोर्ट जिलाधिकारी राज्य स्तर पर बैठे अपने वरिष्ठ अधिकारी को तलब करते हैं। लेकिन इन अधिकारियों से संबंधित विभागों के मंत्री कभी भी कार्य की जानकारी मांग सकते हैं। यानी कि हर कार्य के लिए अधिकारी और कर्मचारियों की जिम्मेदारी निर्धारित होती है। लेकिन जब स्थानीय, जिला और प्रदेश स्तर पर अधिकारी व कर्मचारी और मंत्री ठीक प्रकार व सत्यनिष्ठा से कार्य न करें तो इसका भारी नुकसान उठाना पड़ता है। यदि बात भूमि से संबंधित हो तो पर्यावरण को भी भारी क्षति पहुंचने की संभावना बनी रहती है। ऐसा ही कुछ मध्यप्रदेश में हुआ, जहां अधिकारियों और मंत्रियों की लापरवाही अथवा सांठगांठ से 42 लाख हेक्टेयर जमीन सरकारी रिकाॅर्ड से गायब हो गई है। 

नई दुनिया में छपी खबर के अनुसार मध्य प्रदेश के राजस्व विभाग ने हाल में एक पत्र जारी किया है। जिसमें प्रदेश भर में करीब 42 लाख हेक्टेयर और भोपाल में 65 हजार हेक्टेयर जमीन सरकारी रिकाॅर्ड से गायब होने की बात कही गई है। सरकारी रिकाॅर्ड से जमीन गायब होने का ये पूरा मामला वर्ष 1980 से 2000 के बीच का बताया जा रहा है, जिसमें शहडोल, सीधी, शिवपुरी, बालाघाटा और छिंदवाड़ा में सबसे ज्यादा जमीन गायब हुई है। यहां वर्ष 1980 से 2000 के बीच दो लाख हेक्टेयर से लेकर पांच लाख हेक्टेयर तक जमीन का रिकाॅर्ड नहीं मिल पा रहा है। शहडोल की बात करें तो वर्ष 1980 से पहले यहां सरकारी जमीन करीब 13 लाख 55 हजार 066 हेक्टेयर थी, जो वर्ष 2000 में घटकर मात्र 6 लाख 44 हजार 964 हेक्टेयर ही रह गई है। यानी कि 5 लाख 41 हजार 042 हेक्टेयर जमीन का ही सरकारी रिकाॅर्ड उपलब्ध है। सीधी में 3 लाख 62 हजार 030 हेक्टेयर, शिवपुरी में 3 लाख 12 हजार 200 हेक्टेयर, बालाघाट में 2 लाख 28 हजार 322 हेक्टेयर, छिंदवाड़ा में 2 लाख 16 हजार 560 हेक्टेयर और सतना में 2 लाख 3 हजार 485 हेक्टेयर सरकार जमीन गायब है। हालाकि सागर में 407 हेक्टेयर, उज्जैन में 663 हेक्टेयर और देवास में 985 हेक्टेयर जमीन गायब है, जबकि होशंगाबाद और विदिशा में जमीन का रिकाॅर्ड सही पाया गया है। 

जमीन गायब होने के पूरे मामले ने शासन और प्रशासनिक गलियारे में खलबली मचा दी है। ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि अधिकारियों ने मोटी रकम लेकर जमीन भू-माफियाओं को बेच दी है या फिर इसमें सरकार की मिलीभगत का ही खेल है। ये भी सवाल उठ रहे हैं कि ये जमीन कहीं निजी तो नहीं हो गई ?, किसे लाभ या हानि पहुंचाने के लिए जमीन गायब की गई, जमीन गायब होने की वजह और आखिर रिकाॅर्ड से जमीन गायब किसने की ? इस प्रकार के कई प्रश्न और जो आजकल मध्यप्रदेश में सत्ता और प्रशासनिक गलियारे में गूंज रहे हैं। साथ ही जमीनों के रिकार्ड को लेकर 20 वर्षों से गहरी नींद में सोए प्रशासन की कार्यप्रणाली पर भी इसने सवाल खड़े कर दिए हैं। हालाकि जमीन गायब होने का पता लगाने के लिए अभियान चलाया जा रहा है। सभी जिलों के कलेक्टरों को पत्र लिखा गया है। कलेक्टरों से सभी तहसीलदारों को दस दिन के अंदर गायब हुए जमीन के रिकाॅर्ड का पता लगाने का आदेश दिया है। अब देखना ये होगा कि ये मामला सुलझना है या फिर जमीन की तरह ही मुद्दा भी सत्ता और प्रशासनिक गलियारे से गायब हो जाता है। हालाकि प्रमुख सचिव राजस्व मनीष रस्तोगी का कहना है कि जमीन गायब नहीं हुई है। रिकाॅर्ड खंगाला जा रहा है।

आंकड़े

शहर1980 में जमीन 2000 में जमीन

     गायब जमीन

शहडोल1355066644964541042
सीधी1039194677164362030
शिवपुरी1017348705146312200
बालाघाट658808430285228322
छिंदवाड़ा1013405795745216560
सतना742432538947203485
होशंगाबाद7458427458420
विदिशा730197

730197

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सागर831552831145407
देवास496258495270988
land_1.jpg67.92 KB
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मछलियों की अंत: ग्रंथियों पर कीटनाशक डाल रहे दुष्प्रभाव

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मछलियों की अंत: ग्रंथियों पर कीटनाशक डाल रहे दुष्प्रभावHindiWaterWed, 11/20/2019 - 10:16
Source
दैनिक जागरण, 20 नवंबर 2019

प्रतीकात्मक फोटो - CSIROscope

फसलों में प्रयोग किए जा रहे कीटनाशकों का जल की रानी मछलियों पर भी दुष्प्रभाव पड़ रहा है। ये कीटनाशक उनकी अंतः ग्रंथियों को खराब कर रहे हैं। वहीं, ऐसी मछलियों को खाने से मनुष्य कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों की शिकार हो सकता है। यह चैंकाने वाली बात हरियाणा के हिसार जिले के सीआरएम जाट काॅलेज के प्रोफेसर डाॅ. सुरेश कुमार की रिसर्च में सामने आई है। डाॅ. सुरेश कुमार ने मछली समेत अन्य जलीय जीव-जंतुओं की अंतः ग्रंथियों पर कीटनाशकों के प्रभाव विषय पर यह रिसर्च की है। इस रिसर्च को उन्होंने हाल ही में लंदन में टोक्सीकोलाॅजी एंड क्लीनिकल टोक्सीकोलाॅजी विषय पर आयोजित इंटरनेशनल काॅफ्रेंस में भी प्रस्तुत किया। डाॅ. कुमार को उपरोक्त रिसर्च के लिए सर्वश्रेष्ठ शोध प्रस्तुति के लिए पुरस्कार व प्रमाण पत्र देकर सम्मानित भी किया गया।

लंबदन में आयोजित इस इंटरनेशनल काॅफ्रेंस में करीब 50 देशों के 150 वैज्ञानिकों ने भाग लिया था। इस काॅफ्रेंस में डाॅ. सुरेश कुमार के अलावा राजस्थान के प्रोफेसर प्रेम सिंह बुगासरा भी शामिल हुए थे। डाॅ. सुरेश को अमेरिका सहित अन्य देशों में भी उनके द्वारा की गई विभिन्न विषयों की रिसर्च प्रस्तुत करने का मौका मिल चुका है। 

ये कीटनाशक डाल रहे जीव-जंतुओं पर बुरा प्रभाव

डाॅ. सुरेश ने बताया कि रिसर्च में सामने आया कि आॅर्गेनोक्लोरिन, आॅर्गेनोफोस्टेट और कार्बोनेट जैसे कीटनाशकों को छिड़काव कपास, गेहूं, धान, तिलहन जैसी फसलांे में प्रयोग किया जाता है। उन्होंने बताया कि ये कीटनाशक फसलों के माध्यम से जमीन के पानी में मिल रहे हैं, जो बाद में तालाब, नदियों व समुद्र के जल में मिक्स हो जाते हैं। इन कीटनाशकों में डेल्टामेथ्रिन की मात्रा 0.017 पीपीएम (पोर्ट पर मिलियन) से ज्यादा हो जाएग तो यह जलीय जीव जंतुओं की जान के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। वहीं, ऐसी प्रभावित मछली खाने वाले लोगों पर इसका सीधा प्रभाव पड़ता है और वे बीमारियों के शिकार हो सकते हैं।

हांसी के एक तालाब में प्रदूषण के कारण मछलियों की हुई थी मौत

डाॅ. सुरेश के अनुसार हांसी में करीब छह महीने पहले दिल्ली रोड के नजदीक स्थित एक तालाब में बहुत सी मछलियों की मौत हो गई थी। इसका कारण तालाब के पानी में लगातार बढ़ता प्रदूषण था।

तीन साल में पूरी हुइ रिसर्च

डाॅ. सुरेश ने बातया कि उन्होंने जीव-जंतुओं की एंडोक्राइन ग्रंथियों और आयनिक संतुलन पर डेल्टामेथ्रिन विषय से रिसर्च वर्ष 2017 में शुरू की थी। इसे पूरा करने में करीब तीन साल लगे हैं। उन्होंने बताया कि यह रिसर्च प्रोजेक्ट टूर यूजीसी की ओर से स्पाॅन्सर किया गया। देश भर से यूजीसी ने इंटरनेशनल काॅन्फ्रेंस में शिक्षण संस्थानों से रिसर्च टाॅपिक मांगे थे, जिसमें देशीार से टाॅपिक में से उनके व राजस्थान के वैज्ञानिक के टाॅपिक को चुना गया था। 

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