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17 प्रतिशत जल स्त्रोत भयावह रूप प्रदूषित, केरल, तेलंगाना और तमिलनाडु में स्थिति गंभीर

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17 प्रतिशत जल स्त्रोत भयावह रूप प्रदूषित, केरल, तेलंगाना और तमिलनाडु में स्थिति गंभीरHindiWaterTue, 01/07/2020 - 10:11

फोटो - https://india.blogs.nytimes.com/

लेखक - हिमांशु भट्ट इंसान को धरती पर सबसे बुद्धिमान जीव माना जाता है। जिसने विभिन्न आविष्कार कर जीवन की जटिलताओं को सुगम बनाया है और विज्ञान को अकल्पनीय ऊंचाईयों तक पहुंचाया है, लेकिन इस बुद्धिमानी का उपयोग इंसान शायद पर्यावरण संरक्षण और जल संरक्षण के लिए नहीं कर पाया। इसी कारण जीवन का आधार कहा जाने वाला जल देश के विभिन्न हिस्सों में पीने योग्य नहीं रह गया है। देश में 17 प्रतिशत जल स्त्रोत भयावह रूप प्रदूषित हैं। गंगा जैसी पवित्रतम नदी के जल में भी विष प्रवाहमान है। यमुना सहित देश की सैंकड़ों नदियां या तो सूख गई हैं, या नाले में तब्दील हो चुकी हैं। प्रदूषण के कारण जमीन के अंदर का जल भी स्वच्छ नहीं रहा। कुएं, तालाब, पोखर, बावड़ी, नौले धारे तो मानो इतिहास के पन्नों में दर्ज होते जा रहे हैं। ऐसे में देश को जल संकट से उभारना चुनौती बना हुआ है।

हाल ही में केंद्रीय जल आयोग ने नदियों के किनारे बने स्टेशन की जल गुणवत्ता का अध्ययन किया। अध्ययन में 414 स्टेशनों से जल के सैंपल लिए गए। सैंपलों की जांच के बाद सामने आया कि 168 स्थानों पर आयरन की मात्रा अधिक होने के कारा पानी पीने योग्य नहीं है। वहीं पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार देश के 17 प्रतिशत जल स्त्रोत गंभीर रूप से प्रदूषित हो चुके हैं, जिनमें 38 नदियां, 27 झीलें, 3 तालाब और 18 टैंक शामिल हैं। जल स्त्रोतों के प्रदूषित होने का मुख्य कारण सीवेज है। दरअसल देश में सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट मांग के अनुरूप काफी कम हैं। साथ ही इन प्लांटों की क्षमता भी काफी कम है, जिस कारण सीवेज का करीब 37 प्रतिशत हिस्से का ही शोधन हो पाता है और 62 प्रतिशत सीवरेज सीधे नदियों और अन्य जल स्त्रोतों में बहा दिया जाता है। इसका असर नदियों के साथ ही भूजल और खेती पर भी पड़ रहा है।

पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के आंकड़ों पर नजर डाले तो जम्मू और कश्मीर में झेलम नदी, हिमाचल प्रदेश में गिरि, सुखना, उत्तराखंड में भल्ला, ढेला, पंजाब में घग्गर, सतलुज, हरियाणा में घग्गर, दिल्ली में युमना, उत्तर प्रदेश में हिंडन, काली (पश्चिम), कालिंदी (पूर्व), बिहार में सिकराना, मेघालय में उमखाह, नागालैंड में धनसीरी, पश्चिम बंगाल में दामोदर, मध्य प्रदेश में बेतवा, गौर, खान और नर्मदा, महाराष्ट्र में मिठी, पातालगंगा, तेलंगाना में मूसी, कर्नाटक में भीमा, तमिलनाडु में कावेरी, साराबंगा, तिरुमनीमूथर, वशिष्ट, केरल में चित्रापुजा, पेरियार, पंवा, नीलेश्वरम, कारानामा, कोरायार, थिरूर नदियां अधिक प्रदूषित हैं। तो वहीं दमन, दीव और दादरा नगर हवेली में दमन गंगा और गुजरात में भादर, खारी तथा साबरमती नदी अधिक प्रदूषित हैं। जलस्त्रोतों की बात करें तो हिमाचल प्रदेश में खजियार, असम में एलंगावील, तेलंगाना में फाॅक्स सागर, लक्ष्मीनारायण, मिरालम, नूर मुहम्मद कुंटा, सरूरनगर, असानी, कुंटा, साई चिरूवू, चिन्ना वड्डेपल्ली, गांधीगुडूम, काजीपल्ली, किस्तारेड्डी, मल्लापुर, प्रेमाजीपेट, कर्नाटक में अराकेरे, वेलांदूर, दालावाई, हेव्वल, हुलीमावू, करीहोवनाहल्ली, मुलभागल, पुट्टेनाहल्ली, शेट्टीकेरे, सिंगासंदरा, सोमासुद्रापल्या, उल्सूर, येदीयूर, येनेहोल, आइनाकेरे, वीन्नीगानाहल्ली, ढोरेकेरे, हेरेकेरे, माडावारा, मावेनाकेरे, मेलेकोटे, पावागाड़ा, शिवपुरा, उत्तराहल्ली, डोराइकेरे, वीरापुरा, वेंगइनाकेरे, केरल में कामयकुला कायल, कोडुनगल्लूर, परावूर, पुन्नामदा कायल, वेंवानाड, वेंवानाडु, गुजरात में मूंसर, छत्तीसगढ़ में हितकासा टेलिंग जलाशय सबसे अधिक प्रदूषित हैं। हालाकि देश के अन्य जलस्त्रोत और नदियां भी प्रदूषित हैं, जिससे जल संकट गहरा रहा है। देश की आधी से ज्यादा आबादी को साफी पानी नहीं मिल रहा है। जिससे दिन प्रतिदिन जल की समस्या गहराती जाती है। इसलिए ये समय सभी को एक साथ मिलकर जीवन के आधार जल के संरक्षण के लिए कार्य करने की आवश्यकता है।

फोटो - Down To Earth

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गंगा रक्षा के प्रति सरकार का रवैया दुर्भाग्यपूर्ण

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गंगा रक्षा के प्रति सरकार का रवैया दुर्भाग्यपूर्णHindiWaterTue, 01/07/2020 - 11:44

गंगा की रक्षा के लिए मातृसदन के अंदोलन की बागड़ोर इस बार महिलाशक्ति के हाथों में है। मातृसदन में साध्वी पद्मावती पिछले 23 दिनों से अनशन/तप पर बैठी हैं। उनके अनशन के समर्थन में दो दिवसीय सम्मेलन में देशभर के पर्यावरणप्रेमी और पर्यावरणविद मातृसदन में जुटे थे। सभी ने प्रदूषित होती गंगा नदी के प्रति चिंता व्यक्ति की। साथ ही गंगा और मातृसदन के अनशन को नजरअंदाज करने के सरकार के रवैया के प्रति आक्रोश व्यक्त किया। सभी ने गंगा और पर्यावरण की रक्षा के लिए प्रभावी कदम उठाने की जरूरत पर जोर दिया तथा आम जन से भी इस आंदोलन से जुड़ने की अपील की।

हरिद्वार के जगजीतपुर स्थित मातृसदन पिछले एक दशक से भी अधिक समय से गंगा की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है। अभी तक मातृसदन के संतों द्वारा 60 से अधिक बार अनशन किया जा चुका है। कई अनशन सौ से अधिक दिनों तक चले, जबकि ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद वर्ष 2019 में 194 दिनों तक अनशन पर बैठे थे। गंगा की रक्षा के लिए स्वामी सानंद सहित मातृसदन के तीन संत अपने प्राणों को न्योछावर कर चुके हैं, लेकिन ये पहला अवसर है जब गंगा की रक्षा के लिए मातृसदन में एक महिला (साध्वी पद्मावती) अनशन कर रही है। उनके समर्थन में जल बिरादरी के विभिन्न पर्यावरण प्रेमी जलपुरुष राजेंद्र सिंह के नेतृत्व में रविवार को मातृसदन पहुंचे। इसके साथ ही राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, नेपाल सहित विभिन्न कोनो से भी पर्यावरणप्रेमी यहां पहुंचे। सभी ने बारी बारी गंगा, मातृसदन और सरकार के प्रति अपने विचार रखे। वक्ताओं के विचारों में सरकार की नीतियों के प्रति आक्रोश दिखा, तो वहीं गंगा की इस दुर्दशा पर आंसुओं के रूप में दर्द भी छलकता दिखा। किसी ने सरकार की भाषा में ही सरकार को जवाब देने की बात कही, तो किसी ने अहिंसा के मार्ग पर चलकर सरकार की बुद्धि में शुद्धता लाने के लिए कार्य करने की बात कही। वक्ताओं ने यहां तक कहा कि देश के अन्य संतों को भी गंगा की रक्षा के लिए जगाने का कार्य करना होगा। हालाकि इस दौरान सभी को ये डर भी सताता दिखा कि कहीं साध्वी पद्मावती का अनशन की सरकार के षडयंत्र की भेंट न चढ़ जाए। इसलिए उनके प्रति चिंता भी सभी के चेहरे पर दिखी। 

सम्मेलन के दौरान वक्ताओं ने माना कि सरकार गंगा रक्षा के नाम पर करोड़ों रुपया खर्च करने की बात कहकर जनता के साथ छल कर रही है। हालाकि वक्ताओं ने ये माना कि सरकार गंगा पर करोड़ों रुपया खर्च कर रही है, लेकिन ये रुपया गंगा स्वच्छता के लिए नहीं बल्कि बांधों आदि का निर्माण कर नदी के जल को बांधने के लिए किया जा रहा है। उन्होंने सीधे तौर पर सरकार को व्यापारी कहा। इस दौरान मातृसदन के परमाध्यक्ष स्वामी शिवानंद सरस्वती ने कहा कि एक समय था जब भारत विश्व गुरु था, लेकिन अब हम पिछड़ गए हैं। पहले गंगा के लिए स्वामी सानंद ने बलिदान दिया और साध्वी पद्मावती तप कर कर रही हैं, लेकिन हरिद्वार के संतों, शिक्षाविदों आदि ने गंगा संरक्षण से दूरी बनाए रखी है, जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने कहा कि हर कोई अपने स्वार्थ के लिए गंगा का दोहन करने को तैयार है, लेकिन मां गंगा के हितों की किसी को परवाह नहीं। इस दौरान सभी ने दुनियाभर में प्रचार करने के लिए गंगाजल यात्रा निकालने का निर्णय लिया। साथ ही न्यायपालिका, सरकारों, राजनीतिक दलों और संयुक्त राष्ट्र से गंगा की निर्मलता के लिए प्रभावी कदम उठाने की अपील की। 

लेखक - हिमांशु भट्ट

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गांधी का प्रकृति चिन्तन

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गांधी का प्रकृति चिन्तनHindiWaterTue, 01/07/2020 - 11:34

महात्मा गांधी के प्रकृति चिन्तन से सम्बन्धित सन्देष आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि उनके लेखों तथा विचारों में पर्यावरण सम्बन्धी दृष्टिबोध तथा पर्यावरण पर काम करने वालों के लिए कालजयी मार्गदर्शन मौजूद है इसलिये उपभोक्तावाद से त्रस्त अनेक लोग, गांधी दर्षन में मुक्ति तथा विकास का मार्ग खोज रहे हैं। आज से एक शताब्दी पूर्व 1909 में गांधीजी ने पश्चिमी समाज के आनन्द तथा समृद्धि की अंतहीन दौड़ को, समूची धरती तथा उसके संसाधनों के लिए गंभीर खतरा माना था। उनके लेखों को हिन्द स्वराज में संकलित किया गया है। इस पुस्तक में उन्होंने पश्चिमी समाज को, उनकी जीवनषैली के दुःप्रभावों के प्रति सचेत किया है। इसके साथ ही उन्होंने भारतवासियों से अनुरोध किया है कि वे भौतिक लाभों के लालच में न उलझें।

महात्मा गांधी जी के पर्यावरण से जुडे कुछ प्रसिद्ध उद्धरण निम्नानुसार हैं-

  • पृथ्वी, सभी व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त है किन्तु उनके लालच की पूर्ति के लिये नही।
  • पृथ्वी, वायु, भूमि तथा जल हमारे पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्तियाँ नहीं हैं। वे, हमारे बच्चों की धरोहरें हैं। वे जैसी हमें मिली हैं वैसी ही उन्हें भावी पीढ़ियों को सौंपना होगा।
  • विश्व में एक नियमितता है। जो भी अस्तित्व में होता है उसके नियमन के लिए अपरिवर्तनशील नियम है। अन्धा नियम, किसी भी मनुष्य के व्यवहार को नियमित नहीं कर सकता।
  • हम, विश्व में वनों के प्रति जो कुछ कर रहे हैं वह केवल उसका प्रतिबिम्ब है, जो हम अपने तथा एक दूसरे के साथ करते हैं।
  • जब तक मानव-संस्कृति के भौतिक नियमों के केन्द्र में अहिंसा नहीं होगी, हम प्रकृति के विरुद्ध हिंसा को रोकने के लिए, पर्यावरण सम्बन्धी गतिविधियाँ नहीं चला सकते।
  • वन्य जीवन, वनों में कम हो रहा है किन्तु वह शहरों में बढ़ रहा है।”
  • विकास का त्रुटिपूर्ण ढांचा, गांवों से शहरों की ओर पलायन को प्रोत्साहित करता है। 
  • गांधीजी का दृष्टिकोण, पर्यावरण के प्रति व्यापक था। उन्होने देशवासियों से, तकनीकों के अन्धानुकरण के विरुद्ध, जागरूक होने का आव्हान किया था। उनका मानना था कि पश्चिम के जीवन स्तर की नकल करने से, पर्यावरण का संकट पनप सकता है। उनका मानना था कि यदि विश्व के अन्य देश भी आधुनिक तकनीकों के मौजूदा स्वरूप को स्वीकार करेंगे तो पृथ्वी के संसाधन नष्ट हो जायेंगे।

महात्मा गांधी का प्रकृति चिन्तन

महात्मा गांधी ने अपने प्रकृति चिन्तन में निम्न बिन्दुओं को महत्व दिया था-

1. ग्रामों की आत्मनिर्भरता - ग्राम स्वराज
2. कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन
3. आयातित उपभोक्ता वस्तुओं पर नियंत्रण
4. कृषि में सुधार,
5. अक्षय समाज,
6. आर्थिक समानता,
7. अंहिसा तथा जीवों के प्रति संवेदना तथा
8. स्वच्छता।

इक्कीसवी सदी का मनुष्य, महात्मा गांधी के प्रकृति चिन्तन के विपरीत, अपनी नियति खुद गढ़ रहा है। वह अंतरिक्ष में कालोनी, रोबो द्वारा चलित मशीनें, कम्प्यूटर जैसी बुद्धि का विकास करने के लिये लगातार प्रयासरत है। उपरोक्त नियति निर्धारण के कारण, विश्व में उपभोग की प्रवत्ति तथा विविध उत्पादनों में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है जिसके कारण, वैष्विक पर्यावरण तथा स्थानीय मौसम पर विपरीत प्रभाव पड रहा है। इसके उदाहरण हैं - वैष्विक ऊष्मता, ओजोन परत का हृास, अम्लीय वर्षा, समुद्र स्तर में वृद्धि, वायु, जल तथा भूमि संक्रमण और मरुस्थलों के क्षेत्रफल में हो रही वृद्धि। यह वही नियति है जिससे बचने की बात महात्मा गांधी ने अपने प्रकृति चिन्तन में कही है। गांधीजी का सोच, पर्यावरण के प्रति मैत्री पूर्ण था। उस सोच में समाज के अंतिम व्यक्ति के हितों का ध्यान रखा गया है। उनका विष्वास था कि गरीबी और प्रदूषण एक दूसरे के पोषक हैं। गांधी जी का सरल जीवन का नुस्खा, प्राकृतिक साधनों के असीमित उपभोग तथा अंतहीन शोषण पर रोक लगाता है। यह उनके पर्यावरण सम्बन्धी सोच का सबसे बडा उदाहरण है। महात्मा गांधी की उपरोक्त सोच उस कालखंड में विकसित हुई जब वैज्ञानिक जगत भी पर्यावरण के कुप्रभावों से लगभग अपरिचित था। महात्मा गांधी के अनुसार गरीबों का शोषण रोकने के लिये बडे-बडे उद्योग-धन्धों और ग्रामोद्योगों को साथ साथ संचालित करना चाहिये।

ग्राम उद्योग को प्रोत्साहन

गांधी जी का कहना था कि जहाँ मानव श्रम द्वारा काम संभव नही हों तभी जन उपयोगी भारी भरकम कामों को मषीनों से कराया जावे। कार्य, राज्य की अधिकारिता में हों तथा जन-कल्याण उसका उद्देष्य हो। केन्द्रीकृत तथा विकेन्द्रीकृत तरीकों से उत्पादन किया जाय। आय तथा धन का वितरण समान हो तथा जन साधारण के हित साधे जा सकें। गांधी जी के अनुसार, मशीनीकरण तभी उपयोगी है जब काम करने वाले व्यक्तियों की संख्या कम तथा जल्दी कार्य पूरा करने की अनिवार्यता हो। भारत में मजदूरों की संख्या बहुत अधिक है इसलिये मशीनों का उपयोग हानिकारक है। इस सोच के कारण, वे, मशीनों के प्रति अत्याधिक रूचि के खिलाफ थे। वे, ऐसे उपकरणों के पक्षधर थे जो अनावश्यक मानव - श्रम को कम करते हैं। वे, विशाल उत्पादन नही, अपितु बहु-श्रमिक उत्पादन चाहते थे।

भारत में गरीबी, बेरोजगारी, आय की असमानता, भेद-भाव इत्यादि को देखते हुए गांधी जी ने चरखे के उपयोग को, प्रतीक के रुप में, प्रोत्साहित किया था। उनका उद्देष्य, खादी तथा ग्राम आधारित उद्योगों को प्रोत्साहित कर बेरोजगारी तथा गरीबी को कम करना था। गांधी जी का पूरा जीवन तथा उनके समस्त कार्य, मानवता के लिए पर्यावरण सम्बन्धी विरासत हैं। उन्होंने जीवन पर्यन्त, व्यक्तिगत जीवन शैली द्वारा, समग्र विकास की अवधारणा को प्रतिपादित किया। यद्यपि उनका लगभग सम्पूर्ण जीवन ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध संर्घष में बीता, किन्तु वे हमेषा प्रकृति तथा शान्ति से जुड़े रहे। उनकी ताकत, उनका आत्मबल था। उनका संदेश पर्यावरण संरक्षण तथा समग्र विकास आधारित था। उनके सन्देष, भारत ही नही अपित सम्पूर्ण विश्व के 

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वारंगल जिले का भूजल पुनर्भरण आकलन

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वारंगल जिले का भूजल पुनर्भरण आकलनHindiWaterTue, 01/07/2020 - 20:25
Source
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की और लोकसभा सचिवालय, नई दिल्ली

सारांश

पानी की बढ़ती मांग ने हम सभी को भूजल के प्रयोग पर अत्यंत निर्भर बना दिया है, मुख्यतः उन क्षेत्रों में जहां सतही पानी के संसाधन अपर्याप्त हैं तथा सामयिक वर्षा असमान है। अनेकों कारणों से भूजल के अत्यधिक दोहन के फलस्वरूप वर्तमान भारत के कई क्षेत्र और जिले भूस्तर के तेजी से घटने की समस्या से गुजर रहे हैं। ऐसे में भूस्तरीय जल के कुशल प्रबंधन हेतु भूजल पुनर्भरण का आकलन करना अत्यंत आवश्यक बन जाता है। प्रस्तुत शोध पत्र भूजल संभावनाओं के आकलन की विभिन्न विधियों का अध्ययन सर्वाधिक उपयुक्त विधि को समझने हेतु, विधियों की तुलना तथा वारंगल जिले के भूजल स्तर के स्वरूप की जांच के लिए एक प्रयत्न है। भूमि जल विभाग द्वारा वारंगल जिले के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित 50 पर्यवेक्षण कुओं का 2003 से 2012 के अवधि तक पिजोमेट्रिक स्तर डाटा प्राप्त किया गया। सरफर नामक सॉफ्टवेयर की मदद से पिजोमेट्रिक लेवेल, भूजल ढाल (ग्राउंडवॉटर स्लोप) तथा फ्लो कॉटून्र्स के प्लॉट की रचना की गई। इन प्लॉट्स की मदद से यह अवगत होता है कि अध्ययन वर्षों में ग्राउंडवॉटर स्लोप सामान्य है जबकि जल स्तर 2003 की तुलना में 2012 में 8 से 10 प्रतिशत का घटाव अभिलेख करती है। भूजल पुनर्भरण आकलन के लिए तीन विधियां-वार्षिक जल स्तर अस्थिरता (ईयर्ली वॉटर लेवेल फ्लक्चुएशन), भूजल आंकलन समिति (जी.ई.सी. 1997) द्वारा संस्तुत विधि मानसून काल में जल स्तर अस्थिरता (मानसून सीजन वाटरलेवेल फ्लक्चुएशन) तथा दस वर्षीय जल स्तर अस्थिरता का औसत (एवरेज वॉटरलेवेल फ्लक्चुएशन), तथा दस वर्षीय जल स्तर अस्थिरता का औसत (एवरेज वॉटरलेवेल फ्लक्चुएशनओवर 10 ईयर) इन सभी विधियों की तुलना यह स्पष्ट करती है कि दूसरी विधि अनुदार है जबकि तीसरी विधि वारंगल जिले की भूजल क्षमता आकलन हेतु सबसे उपयुक्त है। यह अध्ययन वारंगल जिले के भूजल दोहन का पूर्ण विवरण देता है, अतः अध्ययन का परिणाम भूजल प्रबंधन से संबंधित सभी तरह के नीति एवम् कानून बनाने में अत्यंत आवश्यक साबित होंगे। मुख्यत शब्द: भूजल, भूजल आकलन समिति (जी.ई.सी), सॉफ्टवेयर सर्फर

1. प्रस्तावना 

जल जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है। सभ्यताओं की शुरूआत तथा उनका विकास नदियों के किनारे हुआ है। जल हमें तीनों अवस्थाओं में मिलता है अर्थात् ठोस, तरल तथा गैस। विश्व का 96 प्रतिशत पानी सागर तथा महासागर में पाया जाता है। शेष 3 प्रतिशत अन्य सभी सतही जल निकायों, भूजल, वायुमंडलीय जल आदि द्वारा साझा किया जा रहा है। भूजल ताजे पानी का सबसे बड़ा स्रोत है। उपलब्ध भूजल ताजे पानी का कुल 30 प्रतिशत है जो सभी मानव आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयोग किया जा रहा है। भूजल वह पानी है जो मिट्टी में छिद्र स्थानों में तथा चट्टानों के फ्रेक्चर में पाया जाता है, उपसतही जल को मुख्यतः वातन के क्षेत्र (जोन आफ एरियेशन) और संतृप्ति क्षेत्र (सेचुरेशन जोन) में विभाजित किया गया है। जोन ऑफ एरियेशन में पानी आंशिक रूप से छिद्रों को भरता है जबकि सेचुरेशनजोन में सभी अंतर भरे जाते हैं। सेचुरेशन जोन में निहित पानी इंजीनियंरिंग कार्यों, भूगर्भिक अध्ययन और जल आपूर्ति विकास के लिए महत्वपूर्ण है जबकि जोन ऑफ एरियेशन में पेड़ो तथा पौधों की जड़ों की उपस्थिति होने के फलस्वरूप, यह कृषि, वनस्पति विज्ञान और मिट्टी विज्ञान के लिए महत्वपूर्ण है। भूजल उपयोग की समझ हमें भूजल की उत्पत्ति, उपस्थिति और मूवमेंट की समझ सदियों पहले हो चुकी थी। भूविज्ञान की मौलिकता अठ्ठारहवीं शताब्दी में स्थापित की गई थी जो भूजल की उत्पत्ति और मूवमेंट (टॉड और मई, 2011) को समझने के लिए एक आधार प्रदान करती थी। भूवैज्ञानिक संरचनाएं जो पानी को संचय करने, संचारित करने और पैदावार करने में सक्षम हैं, उन्हें जलभृत (Aquifer) कहा जाता है। जलभृत जमीन सतह के नीचे अपेक्षाकृत उथले गहराई पर हो सकते हैं और उनमें भूजल वायुमंडलीय दबाव पर पाया जाता है। ऐसे जलभृतों को अपुष्ट जलविभाजक कहा जाता है। जब वे अधिक गहराई के साथ चट्टानों से आच्छादित होते हैं और उनके बीच निहित पानी दबाव में पाया जाए, तो ऐसा एक्वीफर एक गोपनीय जलभृत होता है। भूजल का उपयोग या तो असीमित जलभृत से खोदे गए कुओं का उपयोग करके या सीमित जलमार्ग से बोर कुओं का उपयोग करके किया जाता है। इसे पीने, कृषि और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए निकाला जाता है। भूजल प्रणालियों की एक मूलभूत समस्या यह है कि अधिकांश उपसतह दुर्गम है, इसलिए भूजल और इसके प्रवाह के साथ-साथ एक्विफर विशेषताओं से संबंधित अधिकांश माप आमतौर पर अप्रत्यक्ष हैं। सबसे प्रत्यक्ष भूजल माप कुओं में भूजल स्तर मापा जाता है। भूजल स्तर के आंकड़े समग्र भूजल प्रवाह शासन और जलभृत के जल बजट के बारे में जानकारी प्रदान करने में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। भूजल उच्च क्षमता वाले क्षेत्रों से कम क्षमता वाले क्षेत्रों में बहता है। भूजल संचलन की दर हाइड्रोलिक ढाल और जलभृत और द्रव गुणों पर निर्भर करती है। भूजल स्तर की दीर्घकालिक इन-सीटू निगरानी और भूजल क्षमता का मूल्यांकन क्षेत्रीय जल तालिका प्रवृत्ति के विकास के लिए उपयोगी है जो मानव उपभोग, कृषि, उद्योग और विभिन्न अन्य प्रयोजनों के लिए पानी के स्रोतों को स्थापित करने में मदद करता है।
प्राकृतिक भूजल पुनर्भरण का आकलन करने के लिए विधि का चुनाव अध्ययन के उद्देश्यों, उपलब्ध आंकड़ों और पूरक डेटा प्राप्त करने की संभावनाओं द्वारा निर्देशित किया जाना चाहिए। जल संतुलन दृष्टिकोण, दरअसल लम्प्ट मॉडल अध्ययन, वर्षा पुनर्भरण गुणांक की स्थापना और अन्य स्रोतों से निर्वहन और पुनर्भरण के लिए अपनाई गई विधियों का मूल्यांकन करने का एक व्यवहार्य तरीका है। ऊपरी गंगा नहर कमान क्षेत्र के लिए मौसमी भूजल संतुलन अध्ययन के आधार पर, कुमार और सीतापति (2000) ने उचित सटीकता के साथ वर्षा से भूजल पुनर्भरण के आकलन के लिए एक अनुभवजन्य संबंध विकसित किया। यह अनुभवजन्य संबंध चतुर्वेदी के सूत्र (कुमार और सीतापति द्वारा दिए गए) के समान था, जहां पुनर्भरण को वर्षा के कार्य के रूप में व्यक्त किया जाता है। पुनर्भरण का अनुमान लगाने के लिए एक और भूजल संतुलन अध्ययन थुशांति और डी सिल्वा (2012) द्वारा किया गया था। उनका अध्ययन श्रीलंका के जाफना प्रायद्वीप में स्थित चूना पत्थर एक्विफर के भूजल संसाधनों का मात्रात्मक अनुमान था, जो कृषि, घरेलू उपयोग और पानी की आपूर्ति का मुख्य संसाधन है। इन्फ्लो (Inflow) में वर्षा और सिंचाई रिचार्ज था और आउट्फ्लों (Outflow) में पाश्र्व भूजल बहिर्वाह और भूजल निष्कर्षण शामिल थे। भूजल पुनर्भरण अनुमान के लिए उपलब्ध विभिन्न विधियां स्ट्रीम हाइड्रोग्राफ विश्लेषण, भूजल स्तर में उतार-चढ़ाव, प्रवाह जल और जलग्रहण संतुलन तकनीक हैं।

मलावी में समग्र भूजल संसाधनों की जांच करने के लिए न्यागवमबो (2006) द्वारा तकनीकों को नियोजित किया गया है। उनके काम में, भूजल संसाधन और इसकी घटना की मात्रा निर्धारित की गई थी। अच्छी तरह से उपलब्ध डेटा के साथ क्लोराइड द्रव्यमान संतुलन तकनीक का उपयोग भूजल परिमाणीकरण के लिए भी किया जा सकता है। घाना में स्थित एंजीसु जुबेन जिले में उपलब्ध भूजल संसाधनों का एक मात्रात्मक अनुमान बनाने के लिए अनोरनु एट अल (2009) द्वारा ग्राउंड वाटर संसाधनों के कुशल उपयोग और प्रबंधन के लिए प्रयास किया गया था। ओकोग्यू और ओमाना (2013) ने मध्य नाइजीरिया में एग्बे मोपा क्षेत्र की भूजल क्षमता पर काम किया। भूजल के आकलन के पारंपरिक तरीकों के बजाय उनकी जांच में ऊध्र्वाधर विद्युत ध्वनि के उपयोग से उपसतह की मैपिंग, भूजल की गहराई का मापन और हाइड्रोलिक चालकता, संचारण और उपज का मूल्यांकन पंपिंग टेस्ट व्याख्या के माध्यम से होता है। अध्ययन ने उच्च, माध्यम और निम्न उत्पादकता के तीन एक्विफर संभावित प्रकारों की पहचान की। ओवरबर्डन (overburden) इकाइयों के अनुदैध्र्य चालन के आधार पर, चार अलग-अलग एक्विफर सुरक्षात्मक क्षमता वाले जोन को खराब, निम्न, मध्यम और अच्छे के रूप में चित्रित किया गया था। बाओमी (2007) ने सऊदी अरब के वादी यालमलाम के निचले हिस्से में भूजल की क्षमता का अध्ययन करने का प्रयास किया, जो मक्का शहर को संभावित जल आपूर्ति स्रोत हो सकता है। संभावित ताजे पानी के स्रोत को निर्धारित करने के लिए जल विज्ञान और भूभौतिकीय जांच की गई। अध्ययन ने वाडी यालमलाम में भूजल जलभृत के ज्यामितीय आकार और हाइड्रोलिक गुणों को निर्धारित करने में मदद की, जिससे उपलब्ध भूजल रिजर्व को निर्धारित करने में मदद मिली। अध्ययन मक्का क्षेत्र की आपूर्ति के लिए 7500 m3/ दिन की अक्षय राशि का उत्पादन करने के लिए 14 पानी के कुओं की ड्रिलिंग की संभावना को इंगित करता है। भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) इंजीनियरिंग के सभी क्षेत्रों में एक आशाजनक उपकरण के रूप में उभरा है। मिस्टीयर (2000) ने आयरलैंड में भूजल पुनर्भरण अनुमान के लिए उपलब्ध कई दृष्टिकोणों का उपयोग किया जैसे प्रवाह अनुमान, एक्विफर प्रतिक्रिया विश्लेषण, बहिर्वाह अनुमान और जलग्रहण संतुलन। अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला कि तरीकों का चुनाव प्रवाह प्रणाली की अवधारणा और अध्ययन के विशिष्ट उद्देश्य पर निर्भर करेगा। यह भी कहा गया है कि चूंकि प्रत्येक विधि में एक निश्चित डिग्री अनिश्चितता है, इसलिए अनुमान में एक से अधिक तरीकों को नियोजित किया जाना चाहिए।

2. अध्ययन क्षेत्र

वारंगल जिला तेलंगाना के दस जिलों में से एक है। इसकी अक्षांशतथा देशांतर क्रमशः 180उ. और 79035 हे। इसे 5 राजस्व प्रभागों और 51 मंडलों में विभाजित किया गया है। जिले में लगभग 990 मिमी की सामान्य वार्षिक वर्षा के साथ काफी अच्छी वर्षा होती है। जिले में रेतीली दोमट, मध्यम और गहरी काली कपास मिट्टी पाई जाती है, जलवायु उप-आर्द्र और उष्णकटिबंधीय है। दक्षिण-पश्चिम मानसून (जून-सितंबर) लगभग 80% वर्षा में योगदान देता है, जबकि पूर्वोत्तर मानूसन (अक्टूबर-दिसंबर) में 12% का योगदान होता है और शेष 8% का योगदान सर्दियों और गर्मियों के महीनों (जनवरी-मई) से होता है। जिले में विभिन्न भूवैज्ञानिक संरचनाओं का जन्म हुआ है जो सबसे पुराने अर्चानेस से लेकर हाल के जलोढ़ (अल्यूवियम) तक की आयु के हैं। जलविज्ञानीय रूप से संरचनाओं को समेकित चट्टानों में विभाजित किया जा सकता है, जिसमें पुराणों के ग्रेनाईट और गनीस पुराणों के बलुआ पत्थर, कार्टजाइट, चूना पत्थर, शैले और फिलाइल शामिल हैं और शेष क्षेत्र उत्तर के पूर्वी भाग में गोंडवाना समूह की अर्द्ध समेकित चट्टानों से आच्छादित हैं। जिले का हाइड्रोजियलॉजिकल मानचित्र चित्र-1 में दर्शाया है। भूजल का स्तर ग्राउंड लेवल से 3 मीटर नीचे से लेकर प्रि-मानसून के दौरान 21 मीटर तक होता है। जिले के कुछ हिस्सों में जल स्तर 5 मीटर से कम देखा जाता है। जिले के पश्चिमी भाग में 20 मीटर से अधिक के गहरे जल स्तर को देखा जाता है। जिले के बाकी हिस्सों में यह 5-20 मीटर से भिन्न होता है।

चित्र 1: वारंगल जिले का हाइड्रोजियोलॉजिकल मानचित्र

भूजल पुनर्भरण समिति (GEC 1997) द्वारा अनुशंसित भूजल पुनर्भरण के अनुमान के लिए आमतौर पर इस्तेमाल की जाने वाली विधि है,
Q = कुआँ को प्रभावित करने वाला क्षेत्र x भूजल तालिका में उतार-चढ़ाव की गहराई x स्पेसिफिक यील्ड
Q = भूजल मूल्यांकन के लिए उपयोग की जाने वाली इकाई को निदिषर्ट नहीं करता है, लेकिन यह निहित है कि मूल्यांकन एक प्रशासनिक इकाई, अर्थात् एक ब्लॉक के लिए किया जाना है। जबकि एक प्रशासनिक इकाई विकास के दृष्टिकोण से सुविधाजनक है, यह एक प्राकृतिक हाइड्रोलॉजिकल इकाई नहीं है। वाटरशेड वैज्ञानिक तथा सुविधा के दृष्टिकोण से अच्छा विकल्प है। जल तालिका में उतार-चढ़ाव के क्षेत्र में पंपिंग परीक्षणों द्वारा प्राप्त स्पेसिफिक यील्डका पुनर्भरण अनुमान में उपयोग किया गयाहै। भूजल पुनर्भरण का आकलन यहां तीन विधियों अर्थात वार्षिक जल स्तर में उतार-चढ़ाव, मानसून के मौसम में जल स्तर में उतार-चढ़ाव और दस वर्षों के लिए उच्चतम और निम्नतम जल स्तर के बीच औसत जल स्तर के अंतर से किया गया है।

3.1 प्रति वर्ष जल स्तर में उतार-चढ़ाव से पुनर्भरण 

इस विधि में भूजल के उतार-चढ़ाव का आकलन एक वर्ष के दो सीजन्स के उच्चतम तथा सबसे कम होने वाले जल स्तर के अंतर को लिया जाता है।
भूजल के उतार-चढ़ाव=उच्चतम (दूसरे सीजन) - सबसे कम (पहले सीजन)

3.2 मॉनसून सीजन में जल स्तर में उतार-चढ़ाव से पुनर्भरण

इस विधि में भूजल पुनर्भरण का अनुमान लगाने के लिए जल स्तर के उतार-चढ़ाव की गणना मानसून के मौसम (जून से सितंबर) के दौरान उच्चतम और निम्नतम जल स्तर के बीच के अंतर से करते हैं।
भूजल के उतार-चढ़ाव = उच्चतम (जून से सितंबर)-सबसे कम (जून से सितंबर)

3.3 दस वर्षों में औसत जल स्तर अंतर से पुनर्भरण

हर साल के उच्चतम और सबसे कम उतार-चढ़ाव के बीच का अंतर लिया जाता है और औसतन दस वर्षों की गणना की जाती है।

4. परिणाम और चर्चा

जी.ई.सी द्वारा सुझाये गए समीकरण के उपयोग हेतु कुआँ को प्रभावित करने वाले क्षेत्र की जानकारी आवश्यक है जिसे हम तेससें पॉलाइगॉन के तरीके से प्राप्त करते हंै। तेससें पॉलाइगॉन बनाने के लिए आर्क जी. आइ. एस तथा ऑटो सी. ए.ड सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया गया है,जिसमे जरूरी जानकारी जैसे कुआँ की ग्लोब पर स्थिति, समुद्र तल से उनकी ऊंचाई, आदि का उपयोग किया गया है। प्राप्त जानकारी चित्र-2 में दर्शायी गयी है।

पुनर्भरण आकलन के लिए दूसरी आवश्यक जानकारी स्पेसिफिक यील्ड है। अतःजी.ई.सी मानदंडों के अनुसार, अराचाए आना और गोंडवॅना क्षेत्रों को 2.75 जबकि पुराना क्षेत्रों के लिए 2 निर्धारित किया गया है। यह अध्ययन निम्नलिखित तीन विधियों से2003-2012 की अवधि तक की गयी है।

वार्षिक जल स्तर उतार-चढ़ाव विधि द्वारा पुनर्भरण 

सारणी-1 जिले के वार्षिक जल स्तर में उतार-चढ़ाव की पुनर्भरण गणना दर्शाता है। यह देखा गया है कि चेरियाला मंडल में अधिकतम

रिचार्ज हुआ और न्यूनतम नरसमुहुलपेट मंडल में हुआ है।

तालिका-1: वार्षिक जल स्तर में उतार-चढ़ाव विधि से पुनर्भरण आकलन 

ख) मानसून सीज़न विधि में उतार-चढ़ाव द्वारा पुनर्भरण 

तालिका-2 मानसून सीजन विधि में उतार-चढ़ाव से जिले में पुनर्भरण को दर्शाती है। विधि के अनुसार, हसनपार्थी क्षेत्र में अधिकतम 71.81 एम.सी.एम रिचार्ज हुआ और लिंगनघपुरम में न्यूनतम 9.72 एम.सी.एम हुआ। तालिका-2 मानसून सीजन विधि में उतार-चढ़ाव से जिले में पुनर्भरण आकलन

दस साल की विधि से औसतन रिचार्ज तालिका 3. में दस साल की विधि द्वारा उतार-चढ़ाव द्वारा जिले में पुनर्भरण की गणना को दिखाया गया है। इस पद्धति से यह देखा गया है कि 88.11 एमसीएम का अधिकतम रिचार्ज हसनपर्थी क्षेत्र में और न्यूनतम 12.30 एमसीएम लिंगागनपुरम क्षेत्र में हुआ है। 

तालिका 3- में दस साल की विधि द्वारा उतार.चढ़ाव द्वारा जिले में पुनर्भरण आकलन

तीन तरीकों की तुलना 

वार्षिक जल स्तर में उतार-चढ़ाव विधि, मानसून सीजन विधि में उतार-चढ़ाव और दस वर्षों की औसत से औसत रिचार्ज की गणना क्रमशः 1576.43 एम.सी.एम, 1244.58 एम.सी.एमऔर 1773.84 एम.सी.एम है। तीनों विधियों द्वारा पुनर्भरण की तुलना चित्र-3 की गयी है।
Photo


सर्फर सॉफ्टवेयर का उपयोग वारंगल जिले के कंटूर मानचित्र बनाने के लिए किया गया था। इसने जिले के अनुदैर्ध्य और क्रॉस सेक्शन को बनाने में भी मदद की। वर्ष 2003 और 2012 में जिले के पाईजोमेट्रिक स्तर के पैटर्न का भी उपयोग करके प्लॉट किए गए थे। भूखंड चित्र 4.2, 4.3, 4.4 में दिखाए गए हैं।

भूखंडों से पता चला कि जल स्तर रेखा का ढलान वर्षों से समान था। लेकिन अध्ययन की अवधि में स्तरों में 8-10% की गिरावट देखी गई।

चित्र 4.4 वर्ष 2003 में पाईजोमेट्रिक लाइन के साथ वारंगल जिले की स्थलाकृति का कंटूर मानचित्र, केंद्रीय भूजल बोर्ड द्वारा जारी नवीनतम रिपोर्ट (2008-09) के अनुसार औसत से अधिक दस साल की विधि द्वारा प्राप्त मूल्य निकटतम है। हालाँकि अन्य दो तरीकों से प्राप्त परिणामों का उपयोग वारंगल जिले के जल संसाधन नियोजन के लिए भी किया जा सकता है। मानसून सीजन पद्धति में उतार-चढ़ाव तीनों में सबसे अधिक रूढ़िवादी है क्योंकि यह संभावित मूल्य को लगभग 40% तक कम आंकता है। सर्फर भूखंड भूजल के स्तर में गिरावट को दर्शाता है।

References 

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  • Groundwater Estimation Committee (GEC, 1997). Ministry of Water Resources, Government of India (GOI). 

 

ई-मेल: anjali.nihr@gov.in, 01332-249232

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भारतीय चिन्तन परम्परा में जल एवं पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा 

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भारतीय चिन्तन परम्परा में जल एवं पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा HindiWaterWed, 01/08/2020 - 11:32
Source
अमर नाथ मिश्र पी.जी. कालेज दूबेछपरा, बलिया (उ.प्र.) 

प्रतीकात्मक

सारांश

प्राचीन काल में मानव जब प्रकृति के संरक्षण में रहता था और प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रहता था, पर्यावरण प्रदूषण एवं पारिस्थितिकी असंतुलन संबंधी कोई भी समस्या नहीं थी। किन्तु जैसे-जैसे मानव विकास की दौड़ में आगे बढ़ता गया, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन एवं शोषण तीव्र गति से बढ़ता गया, जिससे एक तरफ जहाँ पारिस्थितिकी असंतुलन में वृद्धि हुई, वहीं दूसरी तरफ मानव की भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन में पर्यावरण के प्रत्येक पक्ष को प्रदूषित करने में अहम् भूमिका निभाई, जिससे अब मानव का अस्तित्व ही संकट में पड़ता नजर आ रहा है, क्योंकि प्रकृति ने मानव के कुकृत्यों का बदला लेना प्रारम्भ कर दिया है और ‘‘हम ही शिकारी, हम ही शिकार’’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। किन्तु प्रश्न यह उठता है कि इस बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण एवं पारिस्थितिकी असंतुलन को कैसे दूर किया जाय एवं किस तरह से पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी की सुरक्षा की जाय। वैसे तो हमारे भारतीय चिन्तन परम्परा में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा अनादि काल से चली आ रही है और सम्भवतः यही कारण है कि अपने देश में पर्यावरण प्रदूषण एवं पारिस्थितिकी असंतुलन की समस्या अन्य देशों से कम है। हमारी भारतीय संस्कृति प्राकृतिक अनुराग एवं प्रकृति संरक्षण की चिन्तन धारा है। हमारे भारतीय चिन्तन परम्परा में प्रकृति प्रेम इस तरह समाया एवं रचा-बसा हुआ है कि प्रकृति से जुदा अस्तित्व की बात सोच भी नहीं सकते हैं। हमारे भारतीय ऋषि-मुनि इतने उच्च कोटि के वैज्ञानिक थे कि उन्होंने जड़-चेतन सभी तत्वों की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए विधान बनाये हैं। यही कारण है कि पर्यावरण संरक्षण एवं पारिस्थितिकी संतुलन की बात हमारे प्राचीन भारतीय साहित्य में कूट-कूट कर भरी पड़ी है। चूँकि अपने देश की जनता धार्मिक एवं आध्यात्मिक प्रकृति की रही है। इसीलिए प्रकृति के सभी अंगों (तत्वों) में किसी न किसी देवी-देवता का अंश मानकर उनकी सुरक्षा एवं संरक्षण हेतु पूजा का विधान बना दिया गया। हमारे भारतीय मनीषियों ने सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियों को आराध्य माना है और उनके संरक्षण की अवधारणा को प्रस्तुत किया है।

Abstract

When, in ancient India human lived in a co-relationship and conservation of nature, there was no any problems of environmental conservation and ecological inbalances. But when human plays a fast developmental role, the factors of environment and ecology are decrease very rapidely and thats reason environmental polution and ecological embalances are increases fastly. In other way the trend of human epicurean and luxarious life give a most importante role to polute every aspects of environment and ecology. In this respect nature also revenge from human beings and the substance of human life is also calamity.

The main objective of this study to find out the concepts of environmental and ecological conservation in Indian perspectives for the knowledge of man and society. In this study the analytical and descriptive methodology have been used for the identity of concepts of water and environmental conservation in Indian perspectives. In above respect questions does arise that what we do from the reduction, protection and conservation of environmental pollution and ecological imbalances. In this respect in this study I find out that the concepts of environmental and ecological conservation in India run out along very-very ago that's call Vedic period or Ancient Indian period. Due to these concepts in India environmental pollution and ecological imbalances are very low in comparison to other countries. The main thought and reflection of our Indian culture is natural affection and nature conservation.

In Indian thought nature affection is goes in the root of every man and society. Our Rishies and Munies are relevent scientist in that period, who creat the path and laws to protect and conservate the every aspect of biotic and abiotic component. Environmental and ecological conservation concepts are alo found in our ancient Indian literature, just like Vedas, Puranas, Smrities, Ramayan, Mahabharat and ancient Sanskrit books and other books. 

It is most important factor that Indian are Prays of Nature as a God thates call "Bhagwan". Every aspect and components of nature such as water, wind atmosphere, fire, land (Dharati), trees, animals, birds (Elora and funa) are prays by Indian 'Devies' and 'Dewatas'. It is shows that our Indian Rishies munies and maharisies are recognise the 'Whol Natural Power" as a GOD (BHAGWAN= Bha=Bhumi, G=Gagan, W=ind, A=Agni, N=Neer). It means these factors of Bhagwan's are the basic elements of nature and we protect and conservate to nature from spretual processes and this is the Indian concepts of conservation to protect and save the environment and ecology.

अध्ययन का उद्देश्य 

प्रस्तुत अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य भारतीय चिन्तन परम्परा में निहित पर्यावरण संरक्षण की अवधारणाओं को प्रकाश में लाना है, ताकि आम जनता उससे अवगत होकर प्रर्यावरण संरक्षण में अपनी अहम भूमिका निभा सके। 

अध्ययन की विधितंत्र

प्रस्तुत अध्ययन में विश्लेषणात्मक एवं विवेचनात्मक विधितंत्रों का प्रयोग करते हुए भारतीय वांगमय में प्रस्तुत पर्यावरण संरक्षण की अवधारणाओं की पहचान कर उनका विश्लेषण एवं विवेचना किया गया है। 

विश्लेषण एवं व्याख्या 

भारतीय चिन्तन परम्परा में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा कूट-कूट कर भरी पड़ी है। हमारे ऋषि-मुनि चूँकि प्रकृति के सम्पर्क में एवं संरक्षण में रहते थे, इसलिए प्रकृति के संरक्षण हेतु सभी विधानों का प्राविधान किया गया है। 

भारतीय चिन्तन परम्परा में जल को भी देवता मानते हुए नदियों को जीवनदायिनी कहकर सम्बोधित किया गया है। यही नहीं, नदियों, तालाबों एवं पोखरों में मल-मूत्र विसर्जन पर भी रोक लगायी गयी है। जैसा कि मनुस्मृति में भी कहा गया है कि- 

‘नात्सु मूत्रं पुरीषं वाष्टोवनं समुरसृजेत।
अमेध्यलिप्तभव्यद्वा लोहिवं वा विषाणि वा।।’

अर्थात् जल में मूल-मूल, थूक अथवा अन्य दूषित पदार्थ, रक्त या विष का विसर्जन न करें। यही नहीं वैदिक ऋषियों द्वारा जल की प्राप्ति के लिए भी कामना की गयी है, जैसा कि अथर्ववेद के भूमि सूक्त (12/1/30) में उल्लेख आया है कि-

‘शुद्धा व आपस्तन्वे क्षरन्तु..................।’

अर्थात् हमारे शरीर में शुद्ध जल प्रवाहित होता रहे। हमारी नदियों के बारे में कहा गया है कि गंगा के दर्शन मात्र से ही मुक्ति मिल जाती है। यथा- 

‘गंगे, तव दर्शनात मुक्तिः।’
 

एक अन्य स्थान पर कहा गया है कि- 

‘गंगे व यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलस्मिन सन्निधि कुरू।।

भारतीय चिन्तन परम्परा में जल को इतनी महत्ता प्रदान की गयी है कि जल स्रोतों में प्रातः काल स्नान करने से पहले कंकड़ी मारकर सो रही गंगा को जगाया जाता है, तब उसमें स्नान किया जाता है और स्नान करने से पूर्व उनका चरण स्पर्श किया जाता है। इस तरह प्रत्येक जल स्रोत में गंगा का स्वरूप देखा जाता है। यही नहीं, सभी प्रकार के जल स्रोतों को देवता मानकर पूजा करने का विधान हमारे भारतीय संस्कृति में निहित है, ताकि इन जल स्रोतों का संरक्षण किया जा सके। 

हमारे जितने पर्व, त्यौहार, रीति-रिवाज एवं परम्परायें हैं, उन सभी में जल संरक्षण की अवधारणा छिपी हुई है। इनसे सम्बन्धित जो भी लोकोक्तियाँ, कहावतें, मुहावरे एवं लोकगीत परम्परागत रूप से हमारे समाज में प्रचलित हैं एवं गाये जाते हैं, उन सभी में जल संरक्षण की अवधारणा परिलक्षित होती है।

हमारे भारतीय मनीषियों (ऋषि-मुनियों) द्वारा प्रकृति का भरपूर गुणगान किया गया है। उन्होंने वनों एवं वन्य जीवों का गुणगान किया है एवं उनकी महिमा का वर्णन किया है। कारण कि वे प्रकृति के बीच रहते थे, सोचते, विचारते एवं प्रकृति में ही अपनी इहलीला समाप्त कर विलीन हो जाते। यही कारण है कि वे प्रकृति को जीवनदायिनी, सुषमा एवं सम्पदा का स्रोत समझते थे। यही कारण है कि हमारी भारतीय संस्कृत अरण्य संस्कृति रही है।

भारतीय मनीषियों ने सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियों को ही देवता स्वरूप माना है। ऊर्जा के अजस्र स्रोत सूर्य को देवता मानते हुए ‘‘सूर्य देवो भव’’ कहा गया है। हम जानते हैं कि सूर्य के बिना इस पृथ्वी पर प्राणी जगत का अस्तित्व सम्भव नहीं है। सम्भवतः इसी तथ्य को ध्यान में रखकर हमारे मनीषियों ने ऋग्वेद में कहा है कि सूर्य से हमारा कभी भी वियोग न हो- 

‘नः सूर्यस्य संदृशो मा युयोधाः’ (ऋग्वेद, 2/33/1)
 

यही नहीं सूर्य को स्थावर-जंगम की आत्मा कहकर पुकारा गया है। यथा- 

‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्रच’ (ऋग्वेद, 1/115/1)


उपनिषदों में भी सूर्य को प्राण की संज्ञा दी गयी है। यथा-

‘आदित्यो ह वै प्राणः (प्रश्नोपनिषद-1/5)

सूर्य प्रकाश हमें निरन्तर प्राप्त होता रहे एवं सूर्य रश्मियों से हमारा जीवन संचारित होता रहे, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ही घर का द्वार पूरब की तरफ अथवा उत्तर की तरफ रखने का प्रावधान हमारे मनीषियों द्वारा किया गया है। कारण कि इन दिशाओं में सूर्य प्रकाश निरन्तर मिलता रहा है। यथा- 

‘प्राङ्गमुखमुदङ्ग मुखं वा विमुखतीर्थ कूटागारं कारयेत’

(चरक, शा.अ. 14/46)

भारतीय चिन्तन परम्परा में जल संरक्षण की अवधारणा कूट-कूट कर भरी पड़ी है। भारतीय चिन्तन परम्परा में वायु को देवता माना गया है। उपनिषदों में वायु की दैवीय शक्ति की संकल्पना का वर्णन किया गया है, जिसमे कहा गया है कि वायु ही प्राण बनकर शरीर में बास करता है। यथा- 

‘वायुवै वै प्राणो भूत्वा शरीरमाविशत्।’

वेदों में वायु को औषधीय गुणों से युक्त माना गया है और प्रार्थना किया गया है कि ‘हे वायु, अपनी औषधि ले आओ एवं यहाँ से सभी दोषों को दूर करो, क्योंकि तुम ही सब औषधियों से युक्त हो।’ यथा-

‘आ वात वाहि भेषजं विवात वाहि पदुपः।
त्वंहि विश्वभेषजो देवानां दूत ईयसे।।
(ऋग्वेद-137/3)

भारतीय चिन्तन परम्परा में वैदिक मंत्रों के माध्यम से मानव को यह शिक्षा दी गयी है कि वह पशु-पक्षियों को अपने से हेय न समझें एवं नदियों, पर्वतों, वृक्षों तथा प्रकृति के अन्य अंगों में देवी शक्ति का दर्शन करें। इसी दृष्टि से मानव एवं पशु-पक्षी को आश्रय प्रदान करने वाली इस पृथ्वी को माता एवं अपने को उसका पुत्र माना गया है। यथा-

‘माता भूमिः पुत्रों अहं पृथिव्याः।’

अर्थात् भूमि हमारी माता है एवं हम पृथ्वी के संतान हैं। यह पृथ्वी हमें अपना पुत्र मानकर उसी तरह निरन्तर अजस्र स्रोत के समान धन-धान्य प्रदानकरती रहती है, जैसे कि गाय से दूध मिलता है। यथा-

‘सहस्त्रं धारा द्रविणस्य मेदुहां,
ध्रवेत धेनुः अनवस्युरन्ती तथा
मणिं हिरण्यं पृथिवी ददातु में।

पृथ्वी के इस महत्व को समझ कर ही पृथ्वी को बार-बार प्रणाम किया गया है। यथा-

नमो मात्रे पृथिव्यैः, नमो मात्रे पृथिव्यैः।

भारतीय चिन्तन परम्परा में वृक्षों को भी देवता माना गया है। भारतीय आयुर्विज्ञान के अनुसार विश्व में कोई भी वनस्पति ऐसी नहीं है जो औषधि न हो। सम्भवतः इसीलिए ‘श्वेताश्वरोपनिषद’ में वृक्षों को साक्षात ब्रह्म के समान माना गया है। यथा-

वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकः।

मत्स्यपुराण में भी कहा गया है-

दशकूप समावापी दशवापी समोहृदः।
दशहृदः समः पुत्रो, दश पुत्रो समोवृक्षः।

अर्थात् दस कुंओं के बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब है, दस तालाब के बराबर एक पुत्र है एवं दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष है।

वृक्षों के प्रति ऐसा प्रेम एवं अनुराग शायद ही किसी अन्य देश की संस्कृति एवं चिन्तन परम्परा में मिलता हो जहाँ वृक्ष को पुत्र से भी उच्च दर्जा दिया गया है एवं पूजा की जाती है, वहाँ वृक्षों को काटने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती है। सम्भवतः इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर वृक्षों को पूजनीय एवं वंदनीय माना गया है एवं ‘भामिनी विलास’ में कहा गया है कि-

‘धत्ते भरं कुसुमपत्रफला वली नां धर्मव्यथां।
वहाति शीत भवा रुजश्च।।
यो देहमर्ययति चान्यसुखस्य हेतोस्तस्मै।
वादाव्यगुरवे तस्ये नमोस्तु।।’

अर्थात् जो वृक्ष फूल, पत्ते एवं फलों के बोझ को उठाए हुए धूप की गर्मी एवं शीत की पीड़ा को बर्दाश्त करता है एवं दूसरों के सुख के लिए अपना शरीर अर्पित कर देता है, उस वन्दनीय श्रेष्ठ वृक्ष को नमस्कार है। ‘नृसिंह पुराण’ में भी वृक्ष को ब्रह्म स्वरूप मानकर उसे आदर प्रदान किया गया है। यथा- 

एतद् ब्रह्म परं चैव ब्रह्म वृक्षस्य तस्य तव।

जातक कथाओं में तो वृक्षों को हमारी सभी आवश्यकताओं को पूरा करने वाले कल्पवृक्ष के रूप में कल्पना की गयी है। 

सर्वकामदा वृक्षाः।

महाभारत एवं रामायण में कल्पवृक्षों का विवरण प्रस्तुत है। महाभारत के भीष्मपर्व में वृक्ष को सभी मनोरथों को पूरा करने वाला कहा गया है। यथा-

‘सर्वकामः फलाः वृक्षा।’

महाभारत के आदि पर्व में किसी गाँव के अकेले फले-फूले वृक्ष को चैत्य के समान पूजनीय माना गया ह। यथा- 

एको वृक्षा हियो ग्रामे भवेत पर्णकलान्वितः।
चैत्यो भवति निज्ञांतिर्चनीयः सपूजितः।।

‘स्कन्दपुराण’ में वृक्षा में विष्णु का वास माना गया है- 

‘एको हरिः सकल वृक्षगतो विभाति।’

‘अथर्ववेद’ में पीपल के वृक्ष को देवसदन माना गया है- 

‘अश्वत्थः देवसदन।’

‘विष्णुधर्म सूत्र’ में कहा गया है कि प्रत्येक जन्म में लगाये गये वृक्ष अगले जन्म में संतान के रूप में प्राप्त होते हैं-

वृक्षारोपयितु वृक्षाः परलोके पुत्राः भवन्ति।

‘चाणक्य नीति’ में कहा गया है कि एक वृक्ष से वन उसी प्रकार सुन्दर लगता है, जिस प्रकार अकेले पुत्र से कुल। यथा-

एकेनापि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगंधिना।
वासितं स्याद वन सर्व सुपुत्रेण कुलं यथा।

‘वाराह पुराण’ में उल्लेख आया है कि जो पीपल, नीम या बरगद का एक, अनार या नारंगी का दो आम के पांच एवं लताओं के दस वृक्ष लगाता है वह कभी नरक में नहीं जाता।

अश्वस्थमेकं पिचुमिन्दमेकं व्यग्ग्रेषमेकं दसुपुष्पजातीं।
द्वे-द्वे दाडिम मातुलुंगे पंचाभ्ररोपी, नरकं न याति।।

तुलसी के पौधे के बारे में कहा गया है जिस घर में तुलसी की नित्य पूजा होती है, उसमें यमदूत भी नहीं आते। यथा-

तुलसी यस्य भवने तत्यहं परिपूज्ये।
तद्गृहं नोवर्सन्ति कदाचित यमकिंकरा।।

विष्णुधर्म सूत्र, स्कंदपुराण एवं याज्ञवल्क्यस्मृति में वृक्ष को काटने को अपराध माना गया है और उसके लिए राजा द्वारा दण्ड का विधान बनाया गया है। 

वृक्षों की तरह ही पशु-पक्षियों की सुरक्षा की भावना भी भारतीय चिन्तन परम्परा में युगों-युगों से निहित है। यही कारण है कि हिंसक एवं अहिंसक तथा विषधर जीव जन्तुओं को भी किसी न किसी देवता का वाहन बनाकर इनकी श्रेष्ठता प्रदान करते हुए इनकी सुरक्षा एवं संरक्षण का प्रावधान किया गया है। यही कारण है कि इन पशु-पक्षियों की भी पूजा का विधान बनाया गया है। गाय एवं बैल तो भारतीय संस्कृति की पहचान हैं। ‘बाघ, शेर, चीता, हाथी, चूहा, गरुण, सर्प, कच्छप, हंस, उल्लू और आदि छोटे एवं बड़े हिंसक एवं अहिंसक सभी जीव-जन्तुओं का संबंध देवी देवताआं से उनके वाहन के रूप में जोड़कर उन्हें सुरक्षा एवं संरक्षण प्रदान करने की जो उदात्त भावना भारतीय चिन्तन परम्परा में है, वह अन्यत्र कहाँ। 

जैन एवं बौद्ध साहित्य में वन यात्राओं एवं वृक्ष महोत्सवों का मनोहर विवरण प्रस्तुत है, जो वन वृक्षों एवं पशु-पक्षियों के संरक्षण की उदात्त भावना से ही प्रेरित है। गौतम बुद्ध को भी पीपल के वृक्ष के नीचे ही ज्ञान प्राप्त हुआ था, तभी से उसे ‘बोधिवृक्ष कहा जाता है। सुंग कुषाणकला में बोधिवृक्ष की पूजा का सुन्दर चित्रण मिलता है। भारत में वृक्ष पूजा की परम्परा की पुष्टि सिन्धु घाटी की सभ्यता में भी मिलती है। सिन्धु घाटी से शप्तमुद्राओं पर वृक्ष पूजा के दृश्य चित्रित हैं। मौर्यकाल के श्रीचक्रों पर भी सघन वृक्षों से घिरी श्रीलक्ष्मी को चित्रत्रित किया गया है। विदिशा से प्राप्त एक शिल्प पर कल्पवृक्ष का मनोहर दृश्य अंकित है, जो कोलकाता के इंडियन म्यूजियम में है। वेदिका से मंडित इस वृक्ष को ‘श्रीवृक्ष’ कहकर सम्बोधित किया गया है। 

पर्यावरण संरक्षण में ‘यज्ञ’ भी अहम् भूमिका निभाता है और भारत में ‘यज्ञ’ करने की परम्परा प्रागैतिहासिक काल से ही रही है। हम जानते हैं कि ‘यज्ञ’ में जो हवन किया जाता है, उसमें औषधीय पदार्थों का ही प्रयोग किया जाता है, जिसका धुँआ वातावरण में व्याप्त होकर पर्यावरण को शुद्ध करने में अहम् भूमिका निभाता है। इन औषधियों के साथ घी आदि के धूम वायुमण्डल को संक्रमण मुक्त करते हैं। इससे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश की शुद्धि होती है, जिससे मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है। यज्ञ के दौरान आग में जो घी डाला जाता है, वह समाप्त नहीं होता, अपितु परमाणुओं के रूप में आस-पास के वातावरण में फैला जाता है। हवन में जो कुछ भी डाला जाता है, वह परमाणुओं में टूटकर सम्पूर्ण वायुमण्डल को शुद्ध कर देता है। शक्कर के धुंए में भी वायु को शुद्ध करने की क्षमता होती है। यज्ञ से वर्षा प्रदान करने वाले बादलों की भी उत्पत्ति होती है। वेदों में भी यज्ञ हवन क्रिया से व्याधि एवं प्रदूषण निवारण की स्पष्ट व्याख्या की गयी है। प्रकृति देवता की पूजा का एकमात्र माध्यम अग्निहोत्र को ही माना गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि यज्ञ द्वारा शुद्ध एवं स्वच्छ वातावरण का निर्माण होता है। यज्ञ से वातावरण संशोधित होता है एवं परिशोधन होता है। 

आज प्राकृतिक तत्वों के दोहन एवं शोषण का आलम यह है कि जल, जंगल, जीव, जमीन एवं जीवन के लिए घोर संकट उत्पन्न हो गया है। भावी पीढ़ी के लिए भी ये प्राकृतिक संसाधन बचेंगे या नहीं, यह सोचनीय एवं चिंतनीय बात हो गई है। इन सबके चलते निकट भविष्य में मानव सभ्यता का अंत अभी से परिलक्षित होने लगा है। प्रकृति में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती जा रही है, जिसके चलते हमारी धरती जीवन-चक्र भी समाप्त होता नजर आ रहा है। प्रकृति में बढ़ते असंतुलन के कारण बाढ़, सूखा, भूस्खलन, मृदा अपर्दन, मरूस्थलीकरण, भूकम्प, जलवायु, सुनामी, ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन जैसी प्रलयंकारी प्राकृतिक आपदायें उत्पन्न होकर हमारा अस्तित्व मिटाने के लिए तत्पर हैं। 

प्रश्न यह उठता है कि आखिर प्रकृति को विनष्ट होने से कैसे बचाया जाय? यह भी बात सत्य है कि हम विकास को रोक नहीं सकते। ऐसी स्थिति में हमें समविकास, पारिस्थितिकीय विकास, सम्पोषित विकास, समन्वित विकास एवं सतत् विकास की अवधारणा को दृष्टिगत रखते हुए विकास करना होगा, जिससे कि हमारा विकास भी हो और हमारे प्रकृति का विनाश भी न हो और इन प्राकृतिक तत्वों को विनाश से बचाने हेतु हमें भारतीय संस्कृति की अवधारणा के सहारे ही चलना होगा। 

हम भगवान की पूजा करते हैं, भगवान में भ=भूमि, ग=गगन, व=वायु, अ=अग्नि, एवं न=नीर की अवधारणा छिपी हुई है। अर्थात् हमारे प्रकृति के मूल पांच तत्वों क्षितिज, जल, पावक, गगन एवं समीर की ही पूजा भगवान के रूप में करते हैं और इस तरह भगवान की पूजा के रूप में प्रकृति के मूलभूत पांच तत्वों की रक्षा के लिए एवं संरक्षण के लिए पूजा करते हैं। पर्यावरण संरक्षण के प्रति इतनी उत्कृष्ट संकल्पना हमें कहीं नहीं दिखायी पड़ती है।

आज प्रकृति संरक्षण के लिए सबसे आवश्यक है कि हम प्राकृतिक तत्वों के अतिशय दोहन एवं शोषण तथा अतिशय उपभोग पर विशेष ध्यान दें। प्राकृतिक तत्वों एवं प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, बचत प्रक्रिया, दीर्घकालीन उपयोग, बरबादी पर रोक, विकल्प की खोज, गुणवत्ता में वृद्धि, समुचित उपयोग, एकाधिकार पर रोक, अनियंत्रित दोहन एवं शोषण पर रोक, आवश्यकता में कमी तथा जनजागरूकता आदि उपायों एवं सिद्धान्तों को अपनाकर किया जा सकता है।

आवश्यकता इस बात है कि आज हम प्रकृति संरक्षण से जुड़ी इन सभी संकल्पनाओं को आम जनता से अवगत करायें ताकि हमारे जन-मन एवं नैतिक कार्यों से जुड़े प्रकृति संरक्षण के इन संकल्पनाओं को अपने जीवन में अपनाकर हम प्रकृति को सुरक्षा एवं संरक्षा प्रदान कर चिरकाल तक संरक्षित कर इस धरा के अस्तित्व को बचा सके अन्यथा इस धरा के साथ-साथ हमारा भी अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। 
और अन्त में- 

जब प्रकृति का करेंगे अधिक शोषण,
तो नहीं मिलेगा किसी को पोषण।
X    X    X
जब प्रकृति का करेंगे अधिक क्षरण,
तो नहीं मिलेगा किसी को शरण।

इस प्रकार स्पष्ट है कि भारतीय चिन्तन परम्परा में जल एवं पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा कूट-कूट कर भरी पड़ी है। किन्तु अफसोस तो इस बात का है कि आज हम अपनी इस विरासत को भूलते जा रहे हैं, जो कि हमारे जीवन में रचा-बसा था एवं हमारे जीवन का क्रम था। यदि आज पुनः हम भारतीय चिन्तन परम्परा का अनुशीलन करते हुए अपना जीवन निर्वाह करें तो निश्चित है कि पर्यावरण संरक्षण को बल मिलेगा एवं पारिस्थितिकी संतुलन बना रहेगा।

References: 

  1. Rigved
  2. Charak Sanhita
  3. Prashnopnishad
  4. Manusmriti 
  5. Atharvaved
  6. Yajurved
  7. Shwetashwaropanishad
  8. Mahabharat (Bhishm Parva) 
  9. Nrisingh Puran 
  10. Bhamini Vilas 
  11. Skand Puran 
  12. Varah Puran
  13. Vishnu Dharm Sutra
  14. Chanakya Niti
  15. Yagyavalkya Smriti
     
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स्वामी चिदानंद मुनि और याचिकाकर्ता प्रतिशपथ पत्र दाखिल करें : हाईकोर्ट

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स्वामी चिदानंद मुनि और याचिकाकर्ता प्रतिशपथ पत्र दाखिल करें : हाईकोर्टRuralWaterWed, 01/08/2020 - 12:24
Source
संवाद न्यूज एजेंसी, अमर उजाला, देहरादून, 8 जनवरी 2020

स्वामी चिदानंद मुनि

संवाद न्यूज एजेंसी, अमर उजाला, देहरादून, 8 जनवरी 2020

नैनीताल हाईकोर्ट ने ऋषिकेश में गंगा नदी किनारे अतिक्रमण करने, अधिकारियों से मिलीभगत कर आश्रम बनाने के मामले में दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद याचिकाकर्ता और स्वामी चिदानंद मुनि को प्रतिशपथ पत्र दाखिल करने के निर्देश दिए हैँ। पक्षों की सुनवाई के बाद हाईकोर्ट की खंडपीठ ने मामले की अगली सुनवाई के लिए 14 फरवरी की तिथि नियत की है।

इस प्रकरण में पौड़ी गढ़वाल के डीएम धीराज गर्ब्याल की ओर से कोर्ट में विस्तृत रिपोर्ट दाखिल की गई है। इसमें कहा गया कि 1956-57 में 2.392 एकड़ लीज भूमि स्वामी सुखदेवानंद ट्रस्ट परमार्थ निकेतन को वन प्रभाग लैंसडौन की ओर से स्वीकृत की गई थी। भूमिधरी की भूमि पर छोटे-बड़े 833 कमरे, खाली पार्किंग, चार दुकानें, रास्ते और दो बैंक हैं। मुख्य न्यायाधीश रमेश रंगनाथन एवं न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ के समक्ष मामले की सुनवाई हुई। अधिवक्ता विवेक शुक्ला ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर कहा था कि परमार्थ निकेतन स्वर्गाश्रम में गंगा किनारे 70 मीटर के दायरे में कब्जा किया गया है जो सरकारी भूमि है।

याचिका में कहा कि गंगा में पुल का निर्माण कर नदी में एक मूर्ति बनाने के साथ ही व्यावसायिक भवन का निर्माण किया गया है। याचिकाकर्ता की ओर से इस पर रोक लगाने व इस स्थान को अतिक्रमण मुक्त करने की मांग की गई थी। याचिका में आश्रम की ओर से बैंक अथवा अन्य को किराए पर भी आपत्ति किया गया है। याचिका में कहा गया कि इसका किराया आश्रम द्वारा लिए जाने के कारण सरकार को राजस्व की हानि हो रही है। याचिका में यह भी कहा गया कि आश्रम से होने वाले कूड़े को गंगा नदी में डाला जा रहा है, जिससे गंगा भी प्रदूषित हो रही है।

दून में अतिक्रमण पर प्रतिशपथ पत्र मांगा

हिन्दुस्तान समाचार, 23 नवंबर 2019
नैनीताल। हाईकोर्ट ने शुक्रवार को देहरादून में नदी-तालाब और नालों पर अतिक्रमण के मामले में सुनवाई की। राज्य सरकार ने कोर्ट में रिपोर्ट पेश कर कहा कि अतिक्रमणकारियों को चिह्नित कर वहां से हटाया जा रहा है।  इस पर याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने कहा कि, सरकार गरीबों के कब्जे हटा रही है। रसूखदारों के अतिक्रमण नहीं हटाए जा रहे हैं। इस मामले में कोर्ट ने याचिकाकर्ता से दो हफ्ते में प्रतिशपथ पत्र देने को कहा। मुख्य न्यायाधीश रमेश रंगनाथन, न्यायाधीश आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ ने इस मामले की सुनवाई की। यह याचिका राजपुर क्षेत्र की पार्षद उर्मिला थापा ने दायर की है। थापा ने कहा है कि, राजपुर क्षेत्र के नालों, चाल-खालों और ढांग पर कब्जे कर निर्माण किए गए हैं।

फुटबॉल के 205 मैदानों के बराबर है अतिक्रमण
शुक्रवार को सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता ने अधिवक्ता के जरिये हाईकोर्ट को बताया कि देहरादून में नदी-नालों पर अतिक्रमण का आकार फुटबॉल के करीब 205 मैदानों के बराबर है। 

डीएम ने दिया अतिक्रमण का ब्योरा
हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान देहरादून के डीएम ने शपथपत्र पेश कर दून घाटी की नदियों के 270 एकड़ क्षेत्र में अतिक्रमण को स्वीकार किया। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि देहरादून में 100 एकड़, विकासनगर में 140 एकड़, ऋषिकेश में 15 एकड़ और डोईवाला में 15 एकड़ नदियों की जमीन पर अतिक्रमण हुआ है।

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बांधों की सेहत जांचेगा डैम सेफ्टी रिव्यू पैनल

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बांधों की सेहत जांचेगा डैम सेफ्टी रिव्यू पैनलHindiWaterWed, 01/08/2020 - 13:03
Source
दैनिक जागरण, 8 जनवरी 2020

प्रतीकात्मक

दैनिक जागरण, 8 जनवरी, 2020
 
उत्तराखंड में नदियों, झीलों पर बने बांध कितने साल पुराने हैं, मौजूद स्थिति क्या है, कहीं ये जनसामान्य के लिए खतरनाक तो नहीं, ऐसे तमाम बिन्दुओं की जाँच के लिए सरकार डैम सेफ्टी रिव्यू पैनल बनाने जा रही है। विधानसभा के विशेष सत्र में प्रश्नकाल के दौरान उठे सवाल के जवाब में सिंचाई मंत्री सतपाल महाराज ने सदन को यह जानकारी दी। उन्होंने यह भी माना कि कुमाऊं में भीमताल झील पर बने बांध से जल रिसाव हो रहा है।
 
प्रदेश में आजादी से पहले झीलों, नदियों पर कई बांध बने, लेकिन ये कब बने और इनकी आयु कितनी है, इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। भीमताल झील का बांध भी इनमें एक है। सौ साल से ज्यादा पुराने इस बांध की सेहत ठीक नही है। इससे जल रिसाव हो रहा है। विधायक राम सिंह कैड़ा ने विस के विशेष सत्र में तारांकित प्रश्न के जरिए वह मसला उठाया। विधायक कैड़ा ने कहा कि भीमताल झील का बांध जीर्ण-शीर्ण स्थिति में है। इसके टूटने से न सिर्फ झील के विलुप्त होने बल्कि आस-पास के लोगों को भी खतरा हो सकता है। उन्होंने झील के रख-रखाव और बांध पुनर्निर्माण के सम्बन्ध में सरकार से जानना चाहा। विधायक करन माहरा, प्रीतम सिंह ने भी इसके साथ ही अन्य बांधों को लेकर अनुपूरक प्रश्न उठाए। सिंचाई मंत्री सतपाल महाराज ने कहा कि सरकार के पास यही जानकारी है कि भीमताल झील का बांध सौ साल से ज्यादा पुराना है। बांध से जल रिसाव हो रहा है, मगर बांध किनारे बसे लोगों को कोई खतरा नहीं है। समस्या के निदान को राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान के जरिए कार्रवाई चल रही है। इस कड़ी में गोल्डन आइसोटोप मुहैया कराने को भाभा अनुसंधान केन्द्र से सम्पर्क किया गया है।
 
उन्होंने बताया कि भीमताल समेत सभी बांधों को लेकर डैम सेफ्टी रिव्यू पैनल बनाया जा रहा है। इसमें राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान के साथ ही अन्य संस्थानों के विशेषज्ञ शामिल रहेंगे। यह पैनल बांधों का अध्ययन कर उनकी रिपोर्ट सरकार को सौंपेगा।

विशेस सत्रः 24 हाइड्रो प्रोजेक्ट पर 1500 करोड़ का जलकर
 
जल संसाधनों की प्रचुरता वाले उत्तराखंड में अब जल विद्युत उत्पादन को पानी के उपयोग पर सम्बन्धित कम्पनियों को जलकर देना होगा। सरकार ने पाँच मेगावाट व इससे कम क्षमता के हाइड्रो प्रोजेक्ट को छोड़कर शेष जल विद्युत परियोजनाओं से जलकर वसूलने का निर्णय लिया है। इसके लिए दर निर्धारण के साथ ही 24 परियोजनाओं पर 1577.41 करोड़ का जलकर अधिरोपित किया गया है।
 
विधानसभा के विशेष सत्र में मंगलवार को विधायक धन सिंह नेगी की ओर से पूछे गए अतारांकित प्रश्न के जवाब में सिंचाई मंत्री सतपाल महाराज ने उक्त जानकारी दी है। उन्होंने बताया कि दो माह पहले जलविद्युत उत्पादन को जल के उपयोग पर जलकर लगाने के सम्बन्ध में अधिसूचना जारी की गई। जलकर से राज्य में स्थित पाँच मेगावाट और उससे कम क्षमता की जल विद्युत परियोजनाओं को छूट दी गई है। शेष सभी पर जलकर अधिरोपित किया जा रहा है।
 
सिंचाई मंत्री ने बताया कि राज्य में जलविद्युत उत्पादनरत सभी चिन्हित 24 जल विद्युत परियोजनाओं पर जल उपयोग के आंकड़ों के आधार पर 1577.41 करोड़ का जलकर लगाया गया है। इसके सापेक्ष जलकर के रूप में राज्य को नवम्बर 2019 तक 392.94 करोड रुपए मिल चुके हैं। शेष राशि भी जल प्राप्त हो जाएंगी।
 
जलकर का निर्धारण

उपलब्ध हेड

दर (प्रति घन मीटर)

30 मीटर तक

दो पैसे

31-60 मीटर

पांच पैसे

61-90 मीटर

सात पैसे

90 मीटर से ज्यादा

10 पैसे


 






 

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बदलते मौसम में निरंतर सूखते हिमालयी जल स्रोतों (झरनों) के पुनरुद्वार हेतु वैज्ञानिक समाधान 

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बदलते मौसम में निरंतर सूखते हिमालयी जल स्रोतों (झरनों) के पुनरुद्वार हेतु वैज्ञानिक समाधान HindiWaterWed, 01/08/2020 - 16:19
Source
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान क्षेत्रीय केंद्र, जम्मू, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान रुड़की और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी

सारांश

एक अनुमान के अनुसार हिमालयी क्षेत्र की 50 मिलियन जनसंख्या हिमालयी क्षेत्रों में निकलने वाले स्थानीय प्राकृतिक जल स्रोतों (झरनों) पर प्रत्यक्ष रूप से तथा देश की 200 मिलियन आबादी अप्रत्यक्ष रूप से इन प्राकृतिक जल स्रोतों पर निर्भर है। ये प्राकृतिक जल स्रोत पहाड़ी क्षेत्रों के लोगों की प्यास तो बुझाते ही हैं, साथ ही हिमालयी क्षेत्रों से निकलने वाली महत्वपूर्ण नदियों में शुष्क काल में सतत जलप्रवाह बनाये रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। पिछले दो दशकों में हिमालयी राज्यों में स्थित शहरों में तेजी से फैलाव हुआ है, जिसके कारण इन क्षेत्रों में अंधाधुंध नयी इमारतों का निर्माण, सड़कों का कटान, टनलों का निर्माण, बिजली उत्पादन हेतु बांधों का निर्माण, इत्यादि गतिविधियां तीव्र गति से बढ़ी हैं। जिस कारण भूमिगत जल के जलविज्ञान तंत्र को काफी क्षति पहुंची है। परिणामस्वरुप इन हिमालय क्षेत्रों के जल स्रोतों के जल प्रवाह में काफी कमी आयी है। काफी बारहमासी स्रोत तो बरसाती बन कर रह गए हैं, जबकि कुछ तो पूर्ण रूप से सुख गए हैं।

राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की पिछले कुछ वर्षों से इन हिमालयी क्षेत्रों के परंपरागत जल स्रोतों के भूमिगत जल-विज्ञान को समझने हेतु गहन शोध कर रहा है। ताकि इनके पुनरुद्धार हेतु एक व्यवस्थित वैज्ञानीय आधार की ठोस रणनीति विकसित की जा सके। वर्तमान समय में राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की के जम्मू स्थित पश्चिम हिमालय क्षेत्रीय केंद्र द्वारा जम्मू और कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश हिमालयी राज्यों के परमपरागत जलस्रोतों के पुनरुद्धार हेतु विभिन्न परियोजनाएं चलायी जा रही हैं। इन परियोजनाओं में संस्थान द्वारा विकसित की गयी। हिमालयी प्राकृतिक जल स्रोतों (झरनों) के पुनरुद्धार हेतु छह कदम प्रणाली को कार्यन्वित किया जा रहा है। इसके मुख्य कदम ‘‘जल स्रोतों का मानचित्रण’’, निगरानी एवं आकड़े सृजन, संवेदनशील झरनों का चिन्हीकरण, झरना जलग्रहण क्षेत्र का मानचित्रण, मौसम परिवर्तन हेतु अनुकूल उपाय एवं क्षमता निर्माण हेतु पैरा-हाइड्रोलॉजिस्ट तैयार करना है। अब तक हिमाचल प्रदेश में बहने वाली रावी नदी के जलग्रहण क्षेत्र में निकलने वाले लगभग 400 जलस्रोत जियोटैग कर लगभग 40 से ज्यादा मापदंडो, जो कि जलस्रोत के जलविज्ञान, भौगोलिक, जल उपभोग प्रकार, आश्रित मानवों एवं पशुओं की संख्या, जलस्रोत का भूमि उपयोग, जल गुणवत्ता मापदंड, जलस्रोत की वर्तमान स्थति, इत्यादि तैयार कर लिए गए हैं।

कुंजी शब्द:हिमालयी जल स्रोत (झरने), झरना जलग्रहण क्षेत्र, रावी नदी जलग्रहण क्षेत्र, जल गुणवत्ता

Abstract

The undulating topography in the Himalayan region makes it economically nonviable to use water from rivers flowing in deep valleys. Also, glaciers are quite far from the lower Himalayan region (most populated area), and use of melt water from these is infeasible, if not impossible. Thus, people of Himalayan region are completely dependent on natural springs for their water demand. It is estimated that 50 million people of Himalayan region are directly dependent on mountain springs and about 200 million from all over India are also dependent on these natural water sources. Not only does these natural water springs quench the thirst of the people of the mountainous regions, but they also play an important role in maintaining continuous water flow during the lean season in the rivers originating in the Himalayan region. These Himalayan water sources are known by different local names in different Himalayan states like Chashma and Naag in Jammu and Kashmir, Naadu, Panihar, and Baoli in Himachal Pradesh. Naula and Dhara in Uttarakhand and Dhara in North-Eastern states.

In the last two decades, the cities in the Himalayan region have expanded rapidly, leading to construction  of  buildings and dams, cutting of roads, tunnels, etc. due to which aquifers are severely damaged. As a result, there has been a significant decrease in spring discharge in the Himalayan region and many perennial springs have become seasonal, while some have completely dried up. The intensity of the problem arising from their drying can be gauged from the fact that NITI AAYOG, which is considered as ‘think tank’ of Govt. of India setup a working
group in year 2017 to develop strategies for the revival of these critical water resources. National Institute of Hydrology, Roorkee has been engaged in intensive research for the last few years to understand the hydrological system of groundwater of these traditional water resources in Himalayan region to develop a concrete scientific strategy for their revival. At present, various projects are being carried out by the Western Himalayan Regional Centre, Jammu, a regional centre of National Institute of Hydrology, Roorkee for inventorization and revival of these traditional water resources of two Himalayan states i.e. Jammu and Kashmir and Himachal Pradesh. In these projects, a "Six-step methodology for Revival of Himalayan Springs" is being implemented by the institute. This methodology involves mapping and geotagging of Himalayan springs, monitoring and data generation, identification of vulnerable springs, mapping of springshed, adaptive measures to combat the climate change and creation of para-hydro-geologist for capacity building. About 350 springs in Ravi River catchment of Himachal Pradesh have been geo-tagged and the information on more than 40 parameters related to hydrology, geology, water use, population of dependent humans and cattle, land use of water sources, water quality, present status of springs, etc. have been collated. Apart of this, recharge areas of select springs in Baanganga River catchment of Jammu & Kashmir have been mapped and adaptive solutions have been prepared for their sustainable development.

Key words: Himalayan springs, springshed, Ravi River, catchment, water quality

परिचय

हिमालयी जल स्रोत हिमालयी क्षेत्र के 40 मिलियन से अधिक निवासियों के लिए पीने के पानी का मुख्य स्रोत हैं। इस कारण से, इस क्षेत्र के गाँव प्राकृतिक जल स्रोतों के आसपास बसे हुए हैं (रावत इत्यादि, 2005)। हिमालयी जल स्रोत प्राकृतिक संरचनाएं हैं और इसलिए स्थानीय समुदाय के लिए एक आम जल स्रोत है (महामुनि और उपासनी डी, 2011)। इसके अलावा, ये जल स्रोत कई नदियों का जीवन हैं और शायद ही कोई नदी हो, जिसे प्राकृतिक जल स्रोतों द्वारा नहीं खिलाया जाता है। इसलिए ये जल स्रोत नदी पर निर्भर कई सूक्ष्म आवासों की जीवन रेखा हैं। हालांकि हिमालयी जल स्रोत पहाड़ी क्षेत्रों में एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन हैं, परन्तु पिछले कुछ दशकों से क्षेत्र में तेज़ी से फैलाव और अनियोजित शहरी विकास के कारण इन जल स्रोतों के पुनर्भरण क्षेत्र को बदल दिया है। इन मानवजनित गतिविधियों से आंतरिक हाइड्रोलॉजिकल प्रणाली का विनाश होता है। उदाहरण के लिए, वल्दिया एवं भर्तरिया (1989) ने कुमाऊं हिमालय क्षेत्र में 35 साल की अवधि (1951 से 1986) में जल स्रोतों के जल प्रवाह में 40% की कमी की पहचान की है। महामुनि और कुलकर्णी (2012) के अनुसार पूर्वोत्तर के राज्यों के 8,000 गाँवों में पानी की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है। इस हिमालयी क्षेत्र में पानी की भारी कमी के कारण महिलाओं और बच्चों को पानी के लिए लंबी कतार देखी जा सकती है। पहाड़ी महिलाएं और बच्चे रोजाना लगभग आधे दिन सिर्फ पानी ही एकत्रित करते रहते हैं।

भारत के हिमालयी राज्यों की अधिकांश आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की माँग शहरी क्षेत्रों की तुलना में बहुत अधिक है। इसके अलावा, पानी की आपूर्ति और खपत के बीच असंतुलन है। हिमालयी राज्यों की जल मांग को पूरा करने में पारंपरिक जल संसाधनों के महत्व को ध्यान में रखते हुए, नीति आयोग, भारत सरकार ने पारंपरिक जल संसाधनों के विकास और उचित देखभाल के पूरे हिमालय क्षेत्र में इन प्राकृतिक जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने हेतु एक मिशन चलाने पर जोर दिया है। वर्तमान समय में राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की के जम्मू स्थित पश्चिम हिमालय क्षेत्रीय केंद्र द्वारा जम्मू एवं कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश हिमालयी राज्यों के परमपरागत जलस्रोतों के पुनरुद्धार हेतु विभिन्न परियोजनाएं चलायी जा रही हैं। इन परियोजनाओं में संस्थान द्वारा विकसित की गयी ‘‘हिमालयी प्राकृतिक जल स्रोतों (झरनो) के पुनरुद्धार हेतु छह कदम प्रणाली’’ को कार्यान्वित किया जा रहा है। इसके मुख्य कदम ‘‘जल स्रोतों का मानचित्रण’’, निगरानी एवं आकड़े सृजन, संवेदनशील झरनों का चिन्हीकरण, झरना जलग्रहण क्षेत्र का मानचित्रण, मौसम परिवर्तन हेतु अनुकूल उपाय एवं क्षमता निर्माण हेतु पैरा-हाइड्रोलॉजिस्ट तैयार करना है। 

क्रियाविधि हिमालयी जल स्रोत का पुनरुद्धार समय की आवश्यकता है और इस बहुमूल्य संसाधन के लोक ज्ञान को बढ़ाने वाले वैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर ठोस योजना की आवश्यकता है। विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के विभिन्न वैज्ञानिकों के पिछले अनुभव के आधार पर, यह महसूस किया जाता है कि पूरे हिमालयी क्षेत्र में जल स्रोतों की स्थिति कमोबेश एक जैसी है। सभी जल स्रोत के जल प्रवाह में निंरतर कमी आ रही हैं, हालांकि सूखने की दर जगह-जगह भिन्न हो सकती है। इसलिए, उनका पुनरुद्धार भी पूरे हिमालयी क्षेत्र में एक ही रणनीति के बाद हासिल किया जा सकता है। वर्तमान अध्ययन में, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रूड़की संस्थान द्वारा विकसित की गयी ‘‘हिमालयी प्राकृतिक जल स्रोतों (झरनों) के पुनरुद्धार हेतु छह कदम प्रणाली’’ का कदमवार विवरण निम्लिखित है।

  1. जल स्रोतों का मानचित्रण 
  2. डेटा मॉनिटरिंग सिस्टम का विकास 
  3. जल प्रवाह मात्रा एवं गुणवत्ता के दृष्टिकोण से सवंदेनशील जल स्रोतों का चिन्हीकरण 
  4. जल स्रोतों के जलसंग्रहण क्षेत्र की पहचान 
  5. मौसम परिवर्तन हेतु अनुकूली रणनीतियों का विकास 
  6. ग्रामीण स्तर पर स्थानीय जल स्रोतों के प्रबंधन के लिए पैरा-हाइड्रोलॉजिस्ट तैयार करना 

जल स्रोतों का मानचित्रण

हिमालय क्षेत्र में जल स्रोतों पर वैज्ञानिक आकड़ों की कमी के कारण हिमालयी जल स्रोतों को हमारी नीति में अभी तक उचित महत्व नहीं मिल सका है। स्थानीय लोग अपने दैनिक जीवन में उनके महत्व को समझते हैं लेकिन आसानी से उपलब्ध जानकारी की कमी के कारण, इन जल स्रोतों को हमेशा नीति स्तर के साथ-साथ कार्यान्वन स्तर पर भी उपेक्षा का सामना करना पड़ा। मानचित्रण, जल स्रोतों के जिओ-टैगिंग के साथ जल स्रोतों पर प्राथमिक डेटाबेस के निर्माण की दिशा में एक कदम है। विभिन्न जलविज्ञानीय जानकारी जैसे कि अधिकतम और न्यूनतम जल प्रवाह, स्रोत के पानी की रासायनिक विशेषताओं, आश्रितों की आबादी, भूविज्ञान और क्षेत्र का भू-उपयोग, आदि सर्वेक्षणकर्ता द्वारा भरे गए प्रश्नावली के माध्यम से जानकारी एकत्र करना बहुत महत्वपूर्ण है। सभी एकत्रित जानकारी वेब-पोर्टल पर आसानी से उपलब्ध होगी और इसे ऑनलाइन अध्यनन किया जा सकता है। हिमालयी जल स्रोतों की ऐसी मैपिंग हिमाचल प्रदेश की रावी नदी के जलग्रहण क्षेत्र में की गई है और इसे चित्र 1 में दर्शाया गया है।

2.2 डाटा मॉनिटरिंग सिस्टम

हिमालयी जल स्रोतों के दृष्टिकोण से, इनके जल प्रवाह मापन सबसे महत्वपूर्ण है। यह स्रोत को जल आपूर्ति करने वाले जलभृत (aquifer) की प्रकृति पर त्वरित जानकारी देता है। इसलिए, जल प्रवाह बुनियादी आकड़ा है, जिसे समय-समय पर मापा जा सकता है; महीने में कम से कम एक बार तो अवश्य इसके अलावा, मौसम संबंधी मापदंड जैसे कि वर्षा, तापमान, सापेक्षिक आर्द्रता आदि ऐसे अन्य आकड़े हैं, जिनका उपयोग स्रोत की पुनर्भरण और जल निष्कासन प्रक्रियाओं को मॉडल करने के लिए किया जा सकता है। विभिन्न जलवायु क्षेत्रों में निकलने वाले जल स्रोतों की दीर्घकालिक निगरानी, इन जल स्रोतों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए काफी सहायक हो सकती है। इसके अलावा, जल स्रोतों के पानी के बेहतर प्रबंधन के लिए आस-पास के क्षेत्रों के जनसांख्यिकीय डेटा की समय-समय पर निगरानी की जानी चाहिए। वर्तमान अध्ययन में, अलग-अलग जलवायु परिवेश में निकलने वाले जल स्रोतों की पुनर्भरण-जल निष्काशन प्रक्रिया की बेहतर समझ के लिए रावी नदी के जलग्रहण क्षेत्र के पांच डेटा संग्रह स्टेशन बनाये गए है।

2.3 जल प्रवाह मात्रा एवं गुणवत्ता के दृष्टिकोण से सवंदेनशील जल स्रोतों का चिन्हीकरण

पूरे हिमालय में अक्सर हर गाँव एक जल स्रोत के पास स्थित है और कुछ गाँवों में एक से अधिक जल स्रोत हैं। किसी भी गांव की समृद्धि उस पर निर्भर करता है कि उसके पास कितने जल स्रोत हैं। इन जल स्रोतों में जल प्रवाह कम होने से ग्रामीणों के बीच उनके पीने की पूर्ति और कभी-कभी सिंचाई की मांग के बीच संघर्ष भी हो सकता है। जब एक जल स्रोत सूख जाता है, लोग पानी लाने के लिए अधिक दूरी तय करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप पहाड़ी क्षेत्रों से प्रवास होता है। इस स्थिति का मुकाबला किया जा सकता है, अगर जल प्रवाह मात्रा एवं गुणवत्ता के दृष्टिकोण से सवंदेनशील जल स्रोतों का चिन्हीकरण समय पर किया जाये। ऐसे जल स्रोतों का पुनरुद्धार संबंधित सरकारी विभाग के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए। ऐतिहासिक डेटाबेस के आधार पर, उनके पुनरुद्धार और प्रबंधन के लिए एक उचित योजना और प्रोटोकॉल तैयार किया जा सकता है। वर्तमान अध्ययन स्थानीय पानी की मांग से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों के आधार पर हिमालयी जल स्रोतों की रैंकिंग की वकालत करता है। एक जल स्रोत जो एक बड़ी आबादी के लिए एकल स्रोत है, निश्चित रूप से वन क्षेत्र में उभरने वाले जल स्रोत की तुलना में सवंदेनशील जल स्रोतों की तालिका में उच्च रैंकिंग होगा। इसके अलावा, जल प्रवाह में परिवर्तनशीलता, पानी की गुणवत्ता के पैरामीटर, जल माँग आदि ऐसे अन्य मुद्दे हो सकते हैं, जिन्हें रैंकिंग के दौरान वरीयता दी जा सकती है।

2.4 जल स्रोतों के जलसंग्रहण क्षेत्र की पहचान

जल स्रोतों के जलसंग्रहण क्षेत्र की पहचान जल स्रोतों के जल विज्ञानीय अध्यनन में सबसे महत्वपूर्ण कदम है। जलसंग्रहण क्षेत्र की पहचान करना एक बहु-विषयक तकनीक है जिसमें मुख्य रूप से हाइड्रो-जियोलॉजिकल, रासायनिक और आइसोटोपिक तकनीक से निर्गत परिणामों का विश्लेषण शामिल हैं। भूमिगत स्तर पर पानी की आवाजाही को समझने के लिए लिथोलॉजी, फ्रैक्चर, डिप और स्ट्राइक, ढलान और लिनियमेंट वाले बहुत ही महीन पैमाने के भूगर्भीय मानचित्र की आवश्यकता होती है। जल श्रोत के पानी का रासायनिक विश्लेषण भूमिगत जल के सम्पर्क में आने वाली चट्टान का एक बहुत स्पष्ट संकेतक है। जल स्रोत के पानी में मौजूद किसी भी रासायनिक पदार्थों का अनुपात जलभृत में पानी के अवधारण समय के बारे में एक अच्छा अनुमान देता है। पुनर्भरण और भूमिगत जल के निवास समय (राय इत्यादि, 2011) को समझने के लिए हाइड्रोलॉजिकल शोध के लिए समस्थानिकों का उपयोग 1960 के दशक में शुरू किया गया था। विश्व स्तर पर, कई अध्ययनों ने अपने शोध उद्देश्य के लिए अलग-अलग समस्थानिक का उपयोग किया है। समस्थानिक तकनीक इस सिद्वांत पर काम करती है कि वायुमंडल में निरंतर वाष्पीकरण और संघनन प्रक्रिया के कारण हल्के एवं भारी समस्थानिक का अनुपात बदलता रहता है। ऊंचाई बढ़ने के साथ जल हल्के समस्थानिक में तो सम्रृद्ध होता रहता लेकिन भारी समस्थानिक में क्षीण होता रहता है। प्रयायवरणीय आइसोटोप (हाइड्रोजन एवं ऑक्सीज़न) से लोकल मेटोरिक वाटर लाइन के माध्यम से भूमिगत जल के स्रोत का पता लगाया जा सकता है (चित्र 2)। जबकि अलटीटूड इफ़ेक्ट से पुनर्भरण क्षेत्र की ऊँचाई का अनुमान लगाया जा सकता है (चित्र 3)। इसके अलावा, ट्रिटियम (3) का उपयोग भूजल की उम्र को मापने के लिए किया जाता है और इस तरह पानी के निवास समय को मैप किया जा सकता है। जल पुनर्भरण क्षेत्र के सीमांकन के लिए भूगर्भीय सर्वेक्षण सबसे अहम् है (चित्र 2)।

2.5 अनुकूली रणनीतियों का विकास

हिमालयी जल स्रोत स्थानीय समुदायों की संपत्ति हैं, इसलिए परियोजना के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उपयोगकर्ताओं के साथ प्रभावी संचार आवश्यक है। सहभागी ग्रामीण मूल्यांकन, वर्ष भर में उनकी पानी की जरूरतों के पैटर्न को समझने एवं जनसांख्यिकी/मनोवैज्ञानिक प्रोफ़ाइल जानने के लिए एक बहुत ही प्रभावकारी साधन है। एक बार जल मांग का सही मूल्याकंन हो जाने पर स्रोत से जल उपल्बधता एवं स्थानीय जल मांग का मॉडूल तैयार कर स्रोत के सतत विकास हेतु रणनीति तैयार की जा सकती है। इस तरह की मांग-आपूर्ति मॉड्यूल किसी भी जल स्रोत के लिए निर्भर गांव की वर्ष की मांग के दौर से मेल खाने के लिए जल भंडारण की आवश्यकता को जानने के लिए सहायक होगा। भंडारण टैंक को भरने के लिए जल स्रोत की क्षमता का अनुमान परियोजना के तहत निगरानी किए गए आंकड़ों से लगाया जा सकता है। यदि जल स्रोत की कम जल प्रवाह क्षमता के कारण न्यूनतम भंडारण संभव नहीं है, तो जल श्रोत के पुनर्भरण क्षेत्र में अधिक से अधिक वर्षा जल को भूमिगत जल में पहुंचाने हेतु जल संरक्षण उपायों को लागू करने की आवश्यकता है।

2.6 ग्राम स्तर पर जल स्रोतों के प्रबंधन के लिए पैरा-हाइड्रोलॉजिस्ट का तैयार करना

प्रत्येक हिमालयी जल स्रोत विकास एवं प्रवन्धन परियोजना में विभिन्न स्तरों पर क्षमता निर्माण अत्यंत ही आवश्यक है। पैरा-हाइड्रोलॉजिस्ट का प्रशिक्षण न केवल सामुदायिक स्वयंसेवकों को मानचित्रण और माप के कौशल को उजागर करता है, बल्कि संबंधित समुदायों के साथ बातचीत को उत्प्रेरित करेगा, और इन स्थानों में जल पुनर्भरण उपायों के कार्यान्वयन पर ज्ञान साझा करने और निर्णयों को प्रोत्साहित करेगा। पैरा-हाइड्रोलॉजिस्ट के निर्माण का उद्देश्य परियोजना के पूरा होने के बाद भी विकसित तकनीकी का प्रसार करना और अन्य इलाकों में लागू करना है। यह वह तरीका है जिसके माध्यम से पूरे हिमालयी जल स्रोतों की देखभाल एवं उनका उचित प्रबंधन किया जा सकता है।

निष्कर्ष

राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की संस्थान द्वारा विकसित की गयी ‘‘हिमालयी जल स्रोतों (झरनों) के पुनरुद्धार हेतु छह कदम प्रणाली’’ के तहत जल स्रोतों की जिओ-टैगिंग, डाटा मॉनिटरिंग सिस्टम, जल प्रवाह मात्रा एवं गुणवत्ता के दृष्टिकोण से सवंदेनशील जल स्रोतों का चिन्हीकरण, जल स्रोतों के जलसंग्रहण क्षेत्र की पहचान, अनुकूली रणनीतियों का विकास और पैरा-हाइड्रोलॉजिस्ट तैयार करना सहित छह चरण पद्धति शामिल है। जल स्रोतों के प्रभावी प्रबंधन के लिए जल स्रोतों के पुनर्भरण क्षेत्र में जल संरक्षण उपायों को लागू करने के लिए कार्यदायी संस्थाओं का प्रभावी भागेदारी सुनिश्चित करना नितांत आवश्यक है। विकसित पद्धति को हिमालयी राज्य के अन्य हिस्सों में दोहराया जा सकता है क्योंकि इस पूरे हिमालयी राज्य में स्थानीय समुदाय के लिए ये जल स्रोत पानी के एकमात्र स्रोत हैं। पानी के भरोसेमंद स्रोतों के रूप में इन जल स्रोतों को बदलने के लिए अधिक से अधिक अंतर्दृश्टि प्रदान करने का एक प्रयास है। इस प्रकार, यह जल क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान होगा। जल स्रोतों पर इन्वेंट्री निश्चित रूप से उन्हें बढ़ती पानी की मांग से मेल खाने के लिए दीर्घकालिक जलापूर्ति योजना तैयार करने में मदद करेगी। इसके अलावा, पानी की गुणवत्ता के आंकड़े भी विभाग द्वारा पर्याप्त उपचार गतिविधियों को बनाने में मदद करेंगे। हिमालयी जल स्रोतों (झरनों) के पुनरुद्धार हेतु छह कदम प्रणाली निश्चित रूप से हिमालयी जल स्रोतों के प्रवाह को बढ़ाने के उपायों के बेहतर संयोजन की योजना बनाने में उनकी मदद करेगा। इसके अलावा, परियोजना के पूरा होने के बाद भी जल स्रोतों प्रवाह के आंकड़ों की निरंतर निगरानी से स्थानीय समुदायों को इन क्षेत्रों में कम से कम प्रतिकूल प्रभाव के साथ अपने विस्तार की गतिविधियों की योजना बनाने में मदद मिलेगी। हिमालयी जल स्रोतों डेटा बेस उनके भविष्य के वैज्ञानिक अध्ययन की योजना के लिए विभिन्न संस्थानों/विश्वविद्यालयों/संगठनों के वैज्ञानिकों/शोधकर्ताओं के लिए सहायक होगा। इसके अलावा, गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) और समुदाय आधारित संगठन (सीबीओ) इस परियोजना से प्राप्त ज्ञान का उपयोग करके अपने कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से निष्पादित कर सकते हैं।

References

  • Mahamuni, K., and Upasani, D. (2011). Springs: A common source of a common resource. In: Sustaining Commons: Sustaining Our Future. In: Thirteenth Biennial Conference of the International Association for the Study of the Commons (IASC-2011). 
  • Rai, S.P., Kumar, B., Arora, M. and Singh, R.D. (2011). Isotopic characterization of snow, ice and glacial melt in the Western Himalayas, India Isotopes in Hydrology, Marine Ecosystems and Climate Change Studies Proceedings of an International Symposium, Monaco, 27 March –1 April 2011. 
  • Rawat, S. S., Sharma, H. C., Bhar, A. K. and Singh, P. K. (2005). Hydrological study of springs of Uttaranchal for sustainable development. In: International Conference on Recent advances in water resources development and management, Vol. (1), pp: 603-613. 
  • Valdiya, K.S. and Bartarya, S.K. (1989). Diminishing discharges of mountain springs in a part of Kumaun Himalaya. Current Science 58(8): 417-426.
     
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जल जीवन मिशन के लिए यूपी, बिहार और पश्चिम बंगाल चुनौती 

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जल जीवन मिशन के लिए यूपी, बिहार और पश्चिम बंगाल चुनौती HindiWaterThu, 01/09/2020 - 10:38
Source
हिंदुस्तान, 09 जनवरी 2019

रामनारायण श्रीवास्तव, हिंदुस्तान, 09 जनवरी 2019

मोदी सरकार दो के सबसे महत्वाकांक्षी ‘जलजीवन मिशन’ के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्स सबसे बड़ी चुनौती हैं। इन राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में इस समय दो फीसदी से भी कम घरों तक नल से जल की आपूर्ति हो पा रही है।

3.60 लाख करोड़ रुपये की भारी भरकम राशि वाली इस परियोजना से 2024 तक देश के सभी 17.87 करोड़ घरों तक नल से स्वच्छ जल की आपूर्ति की जानी है। अभी केवल 3.28 करोड़ घरों तक ही नल से पानी पहुंचाया जा  रहा है। मिशन के सामने बड़े राज्यांे की चुनौतियां ज्यादा हैं। जल संसाधन मंत्रालय की संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट के मुताबिक पश्चिम बंगाल में 1.31 फीसदी घरों तक ही नल से जल आपूर्ति हो रही है। 

उत्तर प्रदेश में 1.33 फीसद और बिहार में 1.88 फीसदी ग्रामीण घरों में नल से पानी उपलब्ध है। आबादी के हिसाब से देखा जाए तो बिहार की 9.94 करोड़ ग्रामीण आबादी में 1.16 करोड़ लोगों (11.71 फीसदी) तक ही नल का जल पहुंच पा रहा है। उत्तर प्रदेश में 16.73 करोड़ ग्रामीण आबादी में 2.53 करोड़ लोगों (15.15 फीसदी) को ही नल का जल उपलब्ध है। 

सिक्किम सबसे आगे

ग्रामीण घरों मंे नल से जल उपलब्ध कराने में सिक्किम (99.34 फीसदी) सबसे आगे हैं। गुजरात में 78.46 फीसदी, हिमाचल प्रदेश में 56.27 फीसदी, हरियाणा में 53.74 फीसदी और पंजाब में 53.28 फीसदी घरों तक नल से पेयजल पहुंच रहा है। उत्तराखंउ में 71.93 लाख ग्रामीण आबादी में से 53 लाख आबादी को, झारखंड में 2.73 करोड़ ग्रामीण आबादी में से 69 लाख लोगों को ही नल से जल की उपलब्धता है। 

हर व्यक्ति को 55 लीटर पानी

‘जलजीवन मिशन’ को पांच साल में पूरा किया जाना है। इसमें ग्रामीण क्षेत्र में हर घर को नल से जल की आपूर्ति करना है। इसमें हर रोज तीन घंटे पानी प्रदान करना है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को 55 लीटर पानी उपलब्ध कराया जा सके। हालांकि, कुछ राज्यों ने इससे भी ज्यादा पानी उपलब्ध कराने की बात कही है। इसमें तेलंगाना ने अपने ‘मिशन भागीरथ’ के तहत रोज 100 लीटर पानी की उपलब्धता का लक्ष्य रखा है।

साल दर साल बढ़ेगी परियोजना

साल 2019-20 में 36 हजार करोड़ से इसे 30 फीसदी घरों तक 5.36 करोड़ कनेक्शन दिए जाएंगे। 2020-21 तक 60 हजार करोड़ से 45 फीसदी घरों को कवर कर आठ करोड़ कनेक्शन कर दिए जाने हैं। 2021-22 में एक लाख करोड़ जारी कर 12.51 करोड़ कनेक्शन कर 70 फीसदी घरों तक पहुंच बनाई जाएगी। 2022-23 में 84 हजार करोड़ व 2023-24 में अस्सी हजार करोड़ रुपये दिए जाएंगे। 15.19 करोड़ व 17.87 करोड़ कनेक्शन देकर शत प्रतिशत कवरेज होगा।

चार स्तरीय संरचना

‘जलजीवन मिशन’ के लिए चार स्तरीय संरचना बनाई गई है। राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय  जल जीवन, राज्य पर राज्य जल एवं स्वच्छता मिशन, जिला स्तर पर जिला जल एवं स्वच्छता मिशन और ग्राम पंचायत स्तर पर पानी समिति व ग्राम जल स्वच्छता समिति।

राज्यों को मद्द

केंद्र शासित राज्यों को शत प्रतिशत, हिमालयी व पूर्वोत्तर राज्यों को 90ः10 और अन्य राज्यों को 50ः50 के अनुपात में राशि मुहैया होगी। पांच साल में 3.60 लाख करोड़ राशि की व्यवस्था की गई है, जिसमें केंद्र दो लाख आठ हजार 652 करोड़ रुपये देगी।

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बारिश की एक-एक बूँद है बेशकीमतीः वर्षा जल संचयन

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बारिश की एक-एक बूँद है बेशकीमतीः वर्षा जल संचयन HindiWaterThu, 01/09/2020 - 11:56
Source
जलविहार कॉलोनी राजसं., रुड़की और राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की

सारांश

जल द्वारा प्रदत्त बहुत से उपहारों में से एक अनमोल एवं महत्वपूर्ण भेंट है और सभी प्राणियों के जीवन का मुख्य आधार है। बढ़ते औद्योगीकरण, जनसंख्या विस्फोट और बदलती जीवनशैली के कारण वर्तमान युग में मनुष्य जल का अंधाधुंध दोहन कर रहा है तथा उसे लगातार दूषित कर रहा है, जिसकी वजह से भयावह स्थिति उत्पन्न हो गयी है। वर्तमान प्रति व्यक्ति उपयोगी मीठे पानी की उपलब्धता के आधार पर हमारे देश को IPCC ने वाटर स्ट्रेस्ड श्रेणी में रखा है। अगर पानी की गुणवत्ता को उपलब्धता के साथ जोड़ दिया जाए तो वर्तमान स्थिति अकल्पनीय हो जाती है। अतः जल संरक्षण वर्तमान समय की मांग ही नहीं जरूरत भी है और अगर हमने इस विषय को गंभीरता से नहीं लिया, तो वह दिन दूर नहीं जब हमें पीने का पानी भी नसीब नहीं होगा। जल के बहुत से स्रोतों में से वर्षा जल एक मुख्य स्त्रोत है तथा इसके संरक्षण को वर्षा जल संचयन कहा जाता है। वर्षा जल संचयन को ही  "वर्षा जल संग्रहण" या रेन वाटर हार्वेस्टिंग (Rain Water Harvesting) कहा जाता है। वर्षा जल संचयन एक सरल तकनीक है जो कि बहुत लाभकारी है और इसमें बहुत कम लागत लगती है। वर्षा के जल का अधिक से अधिक संचयन करके ही हम जल की समस्या से निज़ात पा सकते हैं। इस तकनीक में वर्षा जल को एकत्र कर, उसे नलियों के द्वारा एक भंडारण क्षेत्र में ले जाया जाता है, जहां से ये जल या तो घरेलु उपभोग के काम आता है या भूजल पुनर्भरण के लिए उपयोग किया जाता है।

Abstract

"Water" is one of the most valuable gift among many offered by God and is the mainstay of the lives of all beings. In the present era, humans are exploiting water indiscriminately and continuously polluting it. Then in such a terrible situation, if we do not think about water conservation, then the day is not far, when there would not be water for drinking. Of the many sources of water, rainwater is a major source and its conservation is called rainwater harvesting. The process of storing or using rainwater through a particular means is called "rainwater harvesting". Rainwater harvesting is done in various ways through roof top rainwater harvesting, small scale dams, bunds,  trenches, etc. In rainwater harvesting, the rainwater falling on the roofs of houses, schools and offices is collected in the tanks made of aluminum, iron or concrete and used for domestic use or is connected to the groundwater recharge structure for enhancing the groundwater level. A small dam or "check dam" is a barrier made of mud, stone or  cement-aggregate, which is constructed across a drainage ditch/channel to lower the velocity of flow and tie up the excess water in the rain, so that this water can be used during or after the rainy season and this will also increase the ground water level. Implementing rainwater harvesting techniques directly benefits our country and ultimately citizens by reducing the demand on the municipal and public water supply, along with reducing run-off, erosion, and contamination of surface water.

प्राचीन भारत में जल संचयन

इतिहास बताता है कि प्राचीन भारत में बाढ़ और सूखा दोनों नियमित रूप से होते थे। शायद इसीलिए देश के प्रत्येक क्षेत्र की अपनी पारंपरिक जल संचयन तकनीक थी, जो क्षेत्रों की भौगोलिक ख़ासियत और सांस्कृतिक विशिष्टता को दर्शाती है। इन सभी तकनीकों में अंतर्निहित मूल अवधारणा यह है कि जब भी और जहाँ भी बारिश हो, वहां उस वर्षा जल को किसी भी माध्यम से संचयित कर लिया जाये। पुरातात्विक साक्ष्य से पता चलता है कि प्राचीन भारत में जल संरक्षण की प्रथा बहुत ही महत्वपूर्ण थी। खुदाई से पता चलता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के शहरों में जल संचयन और जल निकासी की बेहतरीन व्यवस्था थी। दो मौसमी नदियों के बीच ढलान पर बसाई गई धोलावीरा की बस्ती जल अभियांत्रिकी का एक बेहतरीन उदाहरण है। इस पुरातन नगर में 16 से ज्यादा अलग अलग परिमाण के जलाशय बनाए गए थे। चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी जल संचयन प्रणालियों का उपयोग करते हुए सिंचाई का उल्लेख किया गया है। इलाहाबाद के पास श्रृंगवेरपुरा में एक परिष्कृत जल संचयन प्रणाली थी, जो गंगा नदी के जल प्रवाहकों को संग्रहीत करने के लिए भूमि की प्राकृतिक ढलान का उपयोग करती थी। चोल राजा करिकला ने सिंचाई के लिए पानी निकालने के लिए कावेरी नदी के पार ग्रैंड एनीकट या कल्लनई का निर्माण किया (जो आज भी कार्यात्मक है) जबकि भोपाल के राजा भोज ने उस समय भारत में सबसे बड़ी कृत्रिम झील का निर्माण किया था। इस तरह बहुत सी रचनाएं जैसे तालाब, कुआँ, बांधी, बावड़ी, टंका आदि प्राचीन समय से ही भारत में प्रयोग में लाई जा रही हैं और तब जल संरक्षण का कार्य समुदाय स्तर पर आधारित होता था, परन्तु समय के साथ जैसे-जैसे हम भूजल का इस्तेमाल करने लगे, जल संरक्षण की ये विधाएं धीरे-धीरे हम भूलते चले गए हैं। उचित रखरखाव के अभाव में धीरे धीरे इनका अस्तित्व ही समाप्त हो गया और अतिक्रमण ने रही सही कसर भी निकाल दी। आज हमें जो जल की समस्या से रूबरू होना पड़ रहा है, वह इसी उपेक्षा का नतीजा है। इसलिए बदलते हुए आज के परिपेक्ष्य में प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्तर पर जल संरक्षण करने की आवश्यकता है। 

वर्षा जल संचयन प्रणाली के महत्वपूर्ण घटक

वर्षा जल संचयन प्रणाली में विभिन्न चरण के अनुसर उनके घटकों को क्रमबद्ध किया गया है। किसी भी ‘वर्षा जल संचयन‘ या ‘वर्षा जल संग्रहण‘ (Rain Water Harvesting) की डिज़ाइन निम्न कारकों पर निर्भर करती है, जैसे- उस क्षेत्र की जलवायु, औसत वार्षिक वर्षा, उपलब्ध वार्षिक जल तथा उस स्थान पर जल का कितना उपभोग है या उसकी कितनी आवश्यकता है।

1. उपलब्ध वार्षिक जल की गणना (Calculation of available annual water):वर्षा जल संचयन की रचना निर्धारित करने में औसत वार्षिक वर्षा का प्रतिरूप तथा उपलब्ध वार्षिक जल महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उन स्थानों पर जहां औसत वार्षिक वर्षा बहुत अधिक है, वहां इस तकनीक की आवश्यकता नहीं पड़ती है, वहीं इसके विपरीत उन स्थानों पर जहां औसत वार्षिक वर्षा बहुत कम होती है, आर्थिक दृष्टिकोण से वहां भी बहुत बड़े पैमाने पर इन रचनाओं की योजना उचित नहीं है। इस स्थिती में उपलब्ध वार्षिक जल की मात्रा के अनुसार ही वर्षा जल संचयन की रचना की जाती है तथा इसकी गणना निम्नलिखित समीकरण द्वारा की जाती है ।

उपलब्ध वार्षिक जल = औसत वार्षिक वर्षा x रन ऑफ गुणांक x जलग्रहण क्षेत्र का क्षेत्रफल

2. जलग्रहण क्षेत्र या कैचमेंट क्षेत्र (Catchment area):वर्षा जल संचयन प्रणाली में जलग्रहण क्षेत्र या कैचमेंट क्षेत्र वह स्थान होता है, जो बारिश के जल को सीधे प्राप्त करता है और इस संचयन प्रणाली को जल प्रदान करता है । यह या तो घरों, विद्यालयों, कार्यालयों, व किसी भी इमारत की छत हो सकती हैं या खुला मैदान या बागीचा हो सकता है । यह इस प्रणाली का एक महत्वपूर्ण घटक है क्योंकि संग्रह जल की मात्रा व गुणवत्ता दोनों ही जलग्रहण क्षेत्र या कैचमेंट क्षेत्र के क्षेत्रफल तथा जलग्रहण क्षेत्र की बनावट पर निर्भर करता है । मुख्यतः चिकनी व एकसमान सतह वाला जलग्रहण क्षेत्र श्रेष्ठ होता है, इसलिए जलग्रहण क्षेत्र या कैचमेंट क्षेत्र के डिजाइन में, धातु की चादरें, सिरेमिक टाइलें, रॉक स्लेट और फेरो सीमेंट आदि का प्रयोग किया जाता है। वर्तमान में गैल्वनाइजिंग स्टील की चादरें, उपयोग में लाई जा रही हैं क्योंकि जस्ता यौगिकों के साथ कोटिंग हुई गैल्वेनाइज्ड स्टील की चादरों को जंग से बचाती है ।

3.उपयुक्त स्थानःसामान्यत: वर्षाजल संग्रहण कहीं भी किया जा सकता है, परन्तु इसके लिये वे स्थल सर्वथा उपयुक्त होते हैं जहाँ पर जल का बहाव तेज होता है और वर्षाजल शीघ्रता से बह जाता है। इस प्रकार वर्षाजल संग्रहण निम्नलिखित स्थानों के लिए सर्वथा उपयुक्त होता हैः-

  • कम भूजल वाले स्थल,
  • दूषित भूजल वाले स्थल/प्रदूषित जल वाले स्थल,
  • पर्वतीय/विषम जल वाले स्थल,
  • सूखा या बाढ़ प्रभावित स्थल,
  • अधिक खनिज व खारा पानी वाले स्थल
  • वे स्थान जहाँ पानी व बिजली महंगी है

वर्षा जल संचयन के तरीके (Method of Rainwater Harvesting) 

वर्षा जल संचयन करने के बहुत से तरीके हैं। इनमें से कुछ तरीके वर्षा जल का संचयन करने में बहुत ही कारगर साबित हुए हैं। संचयन किए हुए वर्षा जल को हम घरेलू उपयोग में ला सकते हैं और कुछ तरीकों से बचाए हुए पानी का हम औद्योगिक क्षेत्रो में भी उपयोग कर सकते हैं।

  1. छत के पानी का एकत्रीकरण (Roof Top Water Harvesting): वर्षा जल संचयन या वर्षा जल संग्रहण की इस प्रणाली में घर, विद्यालयों व कार्यालयों के छतों पर गिरने वाले वर्षा जल को एल्युमिनियम, आयरन या कंक्रीट की बनी टंकियों में एकत्रित कर घरेलू प्रयोग में लाया जाता है या भूजल रिचार्ज संरचना से जोड़ कर भूजल स्तर को बढ़ाने में प्रयोग किया जाता है। यह पानी स्वच्छ होता है, जो थोड़ा बहुत ब्लीचिंग पाउडर मिलाने के बाद पूर्ण तरीके से उपयोग में लाया जा सकता है। जलग्रहण क्षेत्र के किनारों के एक तरफ़ ढाल पर नाली का निर्माण किया जाता है जो जलग्रहण क्षेत्र में इकट्ठे हुए जल को जाली से होते हुए संग्रहण टंकी (Storage tank) तक पहुँचाने का कार्य करती है। ये नालिया अर्धगोलाकार, आयताकार या किसी भी आकार की हो सकती हैं। प्रायः ये नालियां गैल्वेनाइज्ड आयरन शीट (जीआई) या पॉलीविनाइल क्लोराइड (पीवीसी) PVC की बनी होती हैं। किन्ही किन्ही स्थानों पर बांस या सुपारी के तनों को ऊर्ध्वाधर काट कर नाली का आकार दिया जाता है। वर्षा की तीव्रता, परिमाण, और जलग्रहण क्षेत्र के क्षेत्रफल के अनुरूप ही, वर्षा जल को बाहर निकालने के लिए नालियों के व्यास का निर्धारण करते हैं। कुछ वर्षा जल संचयन तकनीकों में, पानी में उपस्थित प्रदूषकों, मुख्यत: सस्पेंडेड सोलीड्स को हटाने के लिए फिल्टर्स का भी प्रयोग किया जाता है।
  2. बांध/लघु बांध (Small Scale Dam): बांधों के माध्यम से भी वर्षा के जल को बहुत ही बड़े पैमाने में रोका जाता है जिसे गर्मी के महीनों में या पानी की कमी होने पर कृषि, बिजली उत्पादन और नालियों के माध्यम से घरेलू उपयोग में भी प्रयोग में लाया जाता है। लघु बांध या "चेकडैम" मिट्टी, पत्थर या सीमेंट-रोड़ी का बना हुआ एक ऐसा अवरोध होता है, जिसे किसी भी झरने या नाले के जल प्रवाह की आड़ी दिशा में बनाया जाता है। लघु बांध का प्रमुख उद्देश्य बारिश के अतिरिक्त जल को बांधना होता है, जिससे कि यह पानी बरसात के समय या उसके बाद भी प्रयोग में आ सके और इससे भूजल का स्तर भी बढ़ता रहे। जल संरक्षण के मामले में बांध बहुत उपयोगी साबित हुए हैं इसलिए भारत में कई बांधों का निर्माण किया गया है और साथ ही नए बांध भी बनाए जा रहे हैं।
  3. जल संग्रह जलाशय (Water Collection Reservoirs): जमीन पर किसी संरचना का निर्माण कर, जिसमें जल को एकत्र किया जा सके, जल संग्रह जलाशय कहलाता है। इस प्रक्रिया में बारिश के पानी को तालाबों और छोटे- छोटे पानी के स्रोतों में जमा किया जाता है। इस तरीके से जमा किए हुए जल को ज्यादातर कृषि के कार्यों में लगाया जाता है क्योंकि यह जल वर्तमान परिदृश्य में समान्यतः दूषित होता है। इन संरचनाओ में बंड (Bund) व ट्रेंच (Trench) महत्वपूर्ण हैं ।
  4. भूमिगत टैंक (Underground Tanks):भूमिगत टैंक भी वर्षा जल संचयन करने का एक उत्तम तरीका है जिसके माध्यम से हम भूमि के अंदर पानी को संरक्षित रख सकते हैं। इस प्रक्रिया में वर्षा जल को एक भूमिगत गड्ढे में संग्रह किया जाता है जिससे भूमिगत जल की मात्रा बढ़ जाती है। साधारण रूप से भूमि के ऊपर बहने वाला जल सूर्य की गर्मी या आधिक तापमान के कारण भाप बन कर उड़ जाता है और हम उसे उपयोग में नहीं ला पाते हैं, परंतु इस तरीके में हम ज्यादा से ज्यादा पानी को मिट्टी के अंदर बचा कर रख पाते हैं। यह तरीका बहुत ही मददगार साबित हुआ है, क्योंकि मिट्टी के अंदर का पानी आसानी से नहीं सूखता है और लंबे समय तक पंप के माध्यम से हम उसका उपयोग कर सकते हैं।

वर्षा जल संचयन प्रणाली में दूषित पदार्थों

प्रायः वर्षा जल रासायनिक दूषित पदाथो से मुक्त होता है, अगर छत ठीक से स्थापित हो तथा उसे नियमित रूप से साफ किया जाता हो। आमतौर पर पूरी तरह प्रदूषण मुक्त एक छत बनाना मुश्किल है, परन्तु छत और नालियों की नियमित सफाई, सूक्ष्मजीवों की मात्रा को काफ़ी हद तक कम कर देता है। वायुमंडलीय गैसों के वर्षाजल में घुलने के कारण उसका चभ थोड़ा अम्लीय (6 से कम) होता है, जिसके लिए आधा टेबल चम्मच बेकिंग सोडा को प्रति 2000 लीटर में मिलाया जाता है जिससे वर्षा जल का pH ≈ 7 हो जाता है। वर्षाजल कभी कभी बैक्टीरिया, वायरस, प्रोटोजोआ व अन्य हानिकारक सूक्ष्म जीवों से भी दूषित होता है, जिसको क्लोरीन डोसिंग, अल्ट्रा वायलेट (यूवी) शोधन, ओजोन उपचार आदि विधियों से शोधन किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त एकत्रित पानी को कम से कम 5 मिनट तक उबालकर भी पीने के उपयोग में लाया जा सकता है।

वर्षा जल संचयन के लाभ 

वर्तमान समय में गंभीर जल संकट की स्थिति में नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों में ‘रेन-वाटर हार्वेस्टिंग‘ समान रूप से उपयोगी हैं तथा गहराते जल संकट से मुक्ति पाने का एक प्रमाणित माध्यम हैं। इस तकनीक के बहुत से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभ हैं,

  1. वर्षा जल संग्रहण के द्वारा भूजल/सरकार द्वारा जलापूर्ति पर निर्भरता कम हो जाती है तथा गिरते भूजल स्तर को ऊपर उठाया जा सकता है।
  2. वर्षा जल संग्रहण से जहाँ जलस्रोत नहीं हैं वहाँ पर भी कृषि कार्य सम्भव हो जाता है।
  3. वर्षा जल संग्रहण से जल के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता आ जाती है व अन्य स्रोतों पर निर्भरता कम हो जाती है।
  4. वर्षा जल संग्रहण से प्राप्त जल हर प्रकार के घातक लवणों आदि से मुक्त होता है और इस तरह से इससे हमे उच्च गुणवत्ता एवं रसायनमुक्त शुद्ध जल की प्राप्ति होती है।
  5. वर्षा जल संग्रहण के द्वारा जलापूर्ति न्यूनतम लागत में संभव हो जाती है।
  6. वर्षा जल संग्रहण के द्वारा बाढ़ के वेग पर नियंत्रण से मृदा अपरदन कम से कम किया जा सकता है।
  7. वर्षा जल संग्रहण, जल के मुख्य स्रोत का काम करता है तथा इसके द्वारा सभी जीवों को समुचित मात्रा में जल उपलब्ध कराया जा सकता है।
  8. ज़मीन के अन्दर संग्रहीत जल का वाष्पीकरण नहीं होता है अतः पानी के समाप्त होने की सम्भावना कम ही रहती है।

    References 

    • Kalimuthu A., 2016. A Practical Guide on Roof Top Rainwater Harvesting. Water Sanitation and Hygiene Institute, Tamil Nadu. 
    • IRICEN, 2006. Rainwater Harvesting. Indian Railways Institute of Civil Engineering, Pune. 
    • U.S.E.P.A., 2013. Rainwater Harvesting: Conservation, Credits, Codes, and Cost. United States Environmental Protection Agency, Washington. 
    • Mechell J., Kniffen B., Lesiker B., Kingman D., Jaber F., Alexander R., Clayton B., 2009. Rainwater harvesting: System planning. Texas AgriLife Extension Service, College Station, Texas. 
    • Gold A., Goo R., Hair L., Arazan N., 2010. Rainwater Harvesting: Policies, Programs, and Practices for Water Supply Sustainability. Low Impact Development 2010: Redefining Water in the City Conference, April 11-14, 2010, San Francisco, California, United States. American Society of Civil Engineers. 

     

    E-mail: sujata.iitr@gmail.comrsingh.nih@gmail.com

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मध्य गंगा घाटी में घटता भू-जल विकास स्तर: समस्याएं एवं समाधान

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मध्य गंगा घाटी में घटता भू-जल विकास स्तर: समस्याएं एवं समाधानHindiWaterFri, 01/10/2020 - 10:26
Source
अमरनाथ मिश्र पी.जी. कालेज, दूबेछपरा, बलिया (उ.प्र.) और अ.प्र.ब. राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अगस्त्यमुनि, रुद्रप्रयाग, उत्तराखण्ड,

सारांश 

पृथ्वी तल के नीचे स्थित किसी भूगर्भिक स्तर की सभी रिक्तियों में विद्यमान जल को भू-जल कहा जाता है। अपने देश में लगभग 300 लाख हेक्टोमीटर भू-जल उपलब्ध है, जिसका लगभग 80 प्रतिशत हम उपयोग कर चुके हैं। यदि भू-जल विकास स्तर की दृष्टि से देखा जाए तो अपना देश धूमिल सम्भावना क्षेत्र से गुजर रहा है, जो शीघ्र ही सम्भावनाविहीन क्षेत्र के अन्तर्गत आ जायेगा। यही स्थिति मध्य गंगा घाटी के उ.प्र. के जिलों में एवं अध्ययन हेतु चयनित उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के 10 जिलों (आजमगढ़, मऊ, बलिया, जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, वाराणसी, संत रविदासनगर, मिर्जापुर एवं सोनभद्र) की है। उत्तर प्रदेश में भू-जल का वार्षिक पुनर्भरण 68757 मिलियन घनमीटर शुद्ध दोहन 49483 मिलियन घनमीटर एवं भू-जल विकास 72.17 प्रतिशत है। यदि मध्य गंगा घाटी के नगरीय क्षेत्रों में भू-जल दोहन की स्थिति को देखा जाए तो यह खतरनाक स्थिति पर पहुंच चुका है। केन्द्रीय भू-जल बोर्ड की ताजा रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में अलीगढ़, मुरादाबाद, गाजियाबाद, मेरठ, लखनऊ, बरेली, वाराणसी, प्रयागराज, कानपुर एवं आगरा जल दोहन में नगरीय क्षेत्रों में शीर्ष पर है, जहां भू-जल दोहन की दर क्रमशः 373, 308, 203, 246, 239, 232, 201, 149, 102 एवं 93 प्रतिशत पर पहुंच चुकी है, जबकि सुरक्षित सीमा मात्र 70 प्रतिशत है। इस प्रकार अध्ययन क्षेत्र में निकट भविष्य में घोर जल संकट उत्पन्न हो सकता है। अतः इस संकट से बचने हेतु इस क्षेत्र के लिए एक समन्वित जल विकास आयोजना क्रियान्वित करने की आवश्यकता है। मुख्य शब्द-भूमिगत जल, भू-जल, भू-जल पुनर्भरण, भू-जल विकास स्तर, भू-जल उपलब्धता, भू-जल उपभोग, संरक्षण।

Abstract

The water present in all the vacancies of a geological level below the earth plane is called ground water.
There are about 300 lakh hectometers of ground water available in our country, about 80 percent of  which we have used. If seen from the point of view of ground water development level, then our country is passing through a foggy possibility area, which will soon fall under the possibility less area. The same situation is in the districts of Uttar Pradesh in the Middle Ganga Valley and 10 districts (Azamgarh, Mau, Ballia, Jaunpur, Ghazipur, Chandauli, Varanasi, Sant Ravida Nagar, Mirzapur and Sonbhadra) of Purvanchal in Uttar Pradesh selected for study. The annual recharge of ground water in Uttar Pradesh in 68757 millions cubic meters. Net exploitation is 49483 million cubic meters and ground water  development is 72.17 percent. If the under ground water exploitation of state is seen in the urban areas of the Middle Ganga Valley, then it has reached a dangerous situation. According to the latest report of central ground water board. Aligarh, Moradabad, Ghaziabad, Meerut, Lucknow,  Barelly,  Varanasi,  Prayagraj, Kanpur and Agra are at the top in Urban areas in water tapping in Uttar Pradesh, where the rate of ground water exploitation are 373, 308, 203, 246, 239, 232, 201, 149, 102 and 93 respectively reached. While the safe limit is only 70 percent. Thus, a severe water crisis may arise in the study area in the near future. Therefore, to avoid this crisis, there is a need to implement an integrated water development plan for this area. 

The main objective of the study is to present suggestions for the solution of problems arising from the exploitation of ground water by highlighting the availability of ground water, consumption and ground water development level of selected 10 districts of the Middle Ganga Valley.

In the presented study, analysis of ground water data obtained from secondary sources using analytical and critical method mechanisms has been completed.

प्रस्तावना 

हम जानते हैं कि जल सृष्टि का आदि तत्व है। वह न केवल जीवन को धारण करता है, बल्कि स्वयं जीवन प्राण है। जल से ही जीवन की उत्पत्ति हुई। तभी से जल प्राण के जैसे ही समाहित हो गया, जैसे मनुष्य की शिराओं में अनजाने ही रक्त प्रवेश कर जाता है। हमारी पृथ्वी पर जो जल विद्यमान है, उसमें से मात्र 0.8 प्रतिशत जल ही पीने योग्य है। शेष 97.4 प्रतिशत जल खारा जल के रूप में समुद्रों एवं 1.8 प्रतिशत जल ध्रुवों पर बर्फ के रूप में विद्यमान है। प्रकृति में विद्यमान 1.5 विलियन क्यूसेक किमी जल में से मात्र 15500 से 19000 बिलियन लीटर जल ही प्रति वर्ष मानवीय उपयोग हेतु उपलब्ध है। इस तरह एक तिहाई जनसंख्या शुद्ध जल से वंचित है और सन 2025 तक कुल 48 देशों की 2.4 बिलियन जनसंख्या तथा सन 2050 तक 54 देशों की 4 बिलियन जनसंख्या को पेयजल संकट का सामना करना पड़ेगा, जो कुल जनसंख्या का 40 प्रतिशत होगा। यदि वर्तमान जल संकट को देखा जाए तो विश्व की 1.1 बिलियन जनसंख्या को पर्याप्त जल आपूर्ति नहीं हो पा रही है। इस तरह विश्व के प्रत्येक 6 व्यक्तियों में से 1 व्यक्ति जल संकट से जूझ रहा है। यदि भारत के संदर्भ में जल उपलब्धता को देखा जाए तो सन 1951 में 40 करोड़ जनसंख्या के लिए 5000 घनमीटर जल प्रति व्यक्ति, प्रति वर्ष उपलब्ध था जबकि सन 2001 में 110 करोड़ जनसंख्या के लिए जल उपलब्धता घटकर 2000 घनमीटर प्रति व्यक्ति, प्रति वर्ष हो गई। एक अनुमान के अनुसार 2025 में 139 करोड़ जनसंख्या के लिए प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष मात्र 1500 घनमीटर जल उपलब्ध होगा, जबकि सन 2050 में 160 करोड़ जनसंख्या के लिए मात्र 1000 घनमीटर प्रति व्यक्ति, प्रति वर्ष उपलब्ध होगा, जो घोर जल संकट की ओर इंगित करता है। वाटर एड इण्डिया एवं अन्य स्रोतों के अनुसार 2000 से 2010 के मध्य भारत में भू-जल दोहन 23 प्रतिशत बढ़ा है। भारत भू-जल का तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक है, जो कुल वैश्विक भू-जल निर्यात का 12 प्रतिशत है। विश्व में प्राप्त कुल भू-जल का 24 प्रतिशत अकेले भारत उपयोग करता है। इस प्रकार भू-जल उपयोग में विश्व में भारत का प्रथम स्थान है। अपने देश के लगभग 1 अरब लोग पानी से कमी वाले क्षेत्रों में रहते हैं, जिनमें से 60 करोड़ लोग तो गम्भीर संकट वाले क्षेत्रों में हैं। उनके लिए 88 प्रतिशत घरों के निकट स्वच्छ जल प्राप्त नहीं है, जबकि 75 प्रतिशत घरों के परिसर में पीने का पानी नहीं है। 70 प्रतिशत पीने का पानी दूषित है और तय मात्रा से 70 प्रतिशत अधिक जल का उपयोग किया जा रहा है। सन 2030 तक 21 नगर डेन्जर जोन में आ जायेंगे। अपने देश में 1170 मिलीमीटर औसत वर्षा होती है, जिसमें से 6 प्रतिशत ही हम संचित कर पाते हैं और 91 प्रमुख जलाशयों में क्षमता का 25 प्रतिशत ही जल बचा है। 

अध्ययन का उद्देश्य 

प्रस्तुत अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य मध्य गंगा घाटी के चयनित 10 जनपदों (आजमगढ़, मऊ, बलिया, जौनपुर, गाजीपुर, चन्दौली, वाराणसी, संत रविदासनगर, मिर्जापुर एवं सोनभद्र) के भूमिगत जल की उपलब्धता, उपभोग एवं भू-जल विकास स्तर को प्रकाश में लाते हुए भू-जल दोहन से उत्पन्न समस्याओं को सामने लाकर इनके समाधान हेतु सुझाव प्रस्तुत करना है। 

अध्ययन की विधितंत्र 

प्रस्तुत अध्ययन में विश्लेषणात्मक एवं विवेचनात्मक विधि तंत्रों का प्रयोग करते हुए द्वितीयक स्रोतों से प्राप्त भू-जल आंकड़ों का विश्लेषण कर एवं उनकी विवेचना कर तथा मानचित्र तैयार कर अध्ययन को पूर्णता प्रदान की गई है। 

विश्लेषण एवं व्याख्या 

पृथ्वी तल के नीचे स्थित किसी भूगर्भ स्तर की सभी रिक्तियों में विद्य़मान जल को भू-जल कहा जाता है। भू-जल वर्षा की मात्रा एवं गति, वर्षा के समय वाष्पीकरण की मात्रा, तापमान, भूमि का ढाल, वायु की शुष्कता, शैलों की सरंध्रता एवं अभेद्यता, वनस्पति आवरण एवं मृदा जल की अवशोषण की क्षमता से नियंत्रित होता है। प्रकृति में उपलब्ध कुल जल संसाधन का 11.58 प्रतिशत भू-जल से तथा सम्पूर्ण जलीय राशि में शुद्ध जलीय भाग का 22.21 प्रतिशत है। पृथ्वी पर विद्यमान जल की कुल मात्रा 138,41,20000 घन किमी है, जिसमें से 80,00042 घन किमी ही भू-जल है। वर्तमान समय में अपने देश में लगभग 300 लाख हेक्टेयर मीटर भू-जल उपलब्ध है, जिसका लगभग 80 प्रतिशत हम उपयोग कर चुके हैं, अर्थात 240 लाख हेक्टेयर मीटर भू-जल का उपयोग किया जा चुका है। इस दृष्टि से देखा जाए तो भविष्य में स्थिति खतरनाक हो सकती है और जल संकट उत्पन्न हो सकता है। क्योंकि जिस गति से भू-जल का दोहन हो रहा है, उस गति से पुनर्भरण नहीं हो रहा है। क्योंकि वन-विनाश एवं जलवायु परिवर्तन के चलते दिन-प्रतिदिन वर्षा की मात्रा कम होती जा रही है। यदि भू-जल विकास स्तर को देखा जाये तो 65 प्रतिशत से कम दोहन वाले क्षेत्रों को सुरक्षित क्षेत्र, 65 से 85 प्रतिशत दोहन वाले क्षेत्र को धूमिल सम्भावना क्षेत्र, 85 से 100 प्रतिशत दोहन वाले क्षेत्र को सम्भावना विहीन क्षेत्र एवं 100 प्रतिशत से अधिक दोहन वाले क्षेत्र को अति दोहन क्षेत्र के अंतर्गत रखा जाता है।

यदि भू-जल विकास स्तर की दृष्टि से देखा जाए तो अपना देश धूमिल सम्भावना क्षेत्र से गुजर रहा है और शीघ्र ही सम्भावना विहीन क्षेत्र के अन्तर्गत आने की तरफ अग्रसर है। ऐसी स्थिति में अपने देश में घोर जल संकट की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। खासतौर से भू-जल शोषण की स्थिति तो और भयावह होती जा रही है। आज देश का एक बहुत बड़ा भू-भाग भू-जल संसाधनों की दृष्टि से अंधकारमय क्षेत्र (Dark Zone) का शिकार हो चुका है। कारण कि जल विदोहन भू-जल पुनर्भरण की अपेक्षा अधिक हो रहा है। (गुर्जर एवं जाट, 2007, पृ. 154)

भू-जल भण्डार के विकास स्तर को ज्ञात करने हेतु निम्नांकित सूत्र का सहारा लिया जाता है -  

यहाँ इस तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है कि उपलब्ध शुद्ध भू-जल भण्डार का मान, सकल (वार्षिक) भू-जल भण्डार का 85 प्रतिशत होता है, तो इसे धूमिल क्षेत्र के अन्तर्गत रखा जाता है। भू-जल विकास की दर ज्ञात करने हेतु विगत कई वर्षों से भू-जल उपयोग की सकल वृद्धि का औसत मान ज्ञात किया जाता रहा है। इस औसत को ही ‘‘भू-जल विकास दर’’ कहा जाता है। भू-जल विकास स्तर से ही भविष्य हेतु भू-जल विकास की सम्भावनाओं की मात्रा एवं दिशा ज्ञात की जाती है। भू-जल दोहन की स्थिति से बचाव हेतु भू-जल दोहन स्तर के आधार पर भू-जल विकास स्तर को चार भागों में विभक्त किया जाता है-

तालिका-1 भू-जल विकास स्तर का मापन

उपर्युक्त मानदण्डों के आधार पर अध्ययन क्षेत्र मध्य गंगा घाटी के चयनित 10 जनपदों का भू-जल विकास स्तर ज्ञात किया गया है, जो तालिका-2 से स्पष्ट है। 

तालिका-2 जनपदवार भूमिगत जल उपलब्धता (मिलियन घनमीटर)

अध्ययन से यह तथ्य प्राप्त हुआ है कि उत्तर प्रदेश में वर्ष 2000 के अनुसार शुद्ध जल पुनर्भरण 70183 मिलियन घनमीटर, शुद्ध जल निकास 48784 मिलियन घनमीटर एवं भू-जल विकास स्तर 69.51 प्रतिशत है। तालिका-2 के अवलोकन से स्पष्ट है कि आजमगढ़, मऊ, बलिया, जौनपुर, गाजीपुर, चन्दौली, वाराणसी, संत रविदास नगर, मिर्जापुर एवं सोनभद्र जनपदों में से वर्ष 2004 की अपेक्षा 2011 में जौनपुर, गाजीपुर, वाराणसी, संत रविदास नगर, मिर्जापुर एवं सोनभद्र जनपदों में भू-जल विकास स्तर में वृद्धि हुई है, जो क्रमशः 11.62, 3.11, 13.1, 16.42, 13.62 एवं 0.24 प्रतिशत है। जबकि आजमगढ़, मऊ, बलिया एवं चंदौली जनपदों में भू-जल विकास स्तर में गिरावट आयी है, जो क्रमशः 6.6, 10.61, 4.06 एवं 3.69 प्रतिशत है। इस तरह स्पष्ट है कि अध्ययन क्षेत्र में भू-जल विकास की दृष्टि से भू-जल की उपलब्धता एवं उपभोग की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती है और भविष्य में घोर जल संकट की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। अध्ययन क्षेत्र के 10 जनपदों-आजमगढ़, मऊ, बलिया, जौनपुर, गाजीपुर, चन्दौली, वाराणसी, संत रविदास नगर, मिर्जापुर एवं सोनभद्र में वर्ष 2004 में शुद्ध जल पुनर्भरण क्रमशः 1507, 498, 962, 1437, 1216, 699, 516, 331, 495 एवं 279 मिलियन घनमीटर था, जो 2011 में परिवर्तित होकर क्रमशः 1329, 483, 890, 1243, 1251, 717, 486, 400, 578 एवं 211 मिलियन घनमीटर हो गया। शुद्ध जल विकास इन जनपदों में 2004 में क्रमशः 1090, 401, 676, 1112, 795, 292, 378, 266, 241 एवं 120 मिलियन घनमीटर था जो कि 2011 में परिवर्तित होकर क्रमशः 865, 338, 589, 1106, 856, 273, 419, 370, 361 एवं 91 मिलियन घनमीटर हो गया। इन तथ्यों के आधार पर अध्ययन क्षेत्र का भू-जल स्तर ज्ञात किया गया है, जो वर्ष 2004 में क्रमशः 72.30, 80.51, 70.30, 77.36, 65.34, 41.77, 73.18, 75.83, 48.72 एवं 42.88 था, जो वर्ष 2011 में परिवर्तित होकर क्रमशः 65.70, 69.90, 66.24, 88.98, 68.45, 38.02, 86.28, 92.25, 62.38 एवं 43.12 प्रतिशत हो गया। उपर्युक्त तथ्यों के अनुसार जिन क्षेत्रों में भू-जल विकास का स्तर 85 प्रतिशत से अधिक (जैसे-वाराणसी, जौनपुर एवं संत रविदास नगर) है, उन जिलों में भू-जल दोहन के लिए पूर्णतः प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। इसी तरह धूमिल सम्भावना क्षेत्र (अर्द्धक्रान्तिक) जैसे-आजमगढ़, मऊ, बलिया एवं गाजीपुर जनपदों में भू-जल विकास कार्यों को संतुलित किया जाना चाहिए। संतुलन का उद्देश्य 85 प्रतिशत क्षेत्र से अधिक दोहन की स्थिति को नियोजित विकास द्वारा निर्मित नहीं होने देना है। जबकि चन्दौली एवं सोनभद्र जनपद अभी भी सुरक्षित क्षेत्र में हैं। इस तरह भू-जल विकास स्तर की दृष्टि से जौनपुर, वाराणसी एवं संत रविदास नगर सम्भावना विहीन क्षेत्र (Dark Zone) में आते हैं, जहाँ जल विदोहन करना प्रकृति के साथ खिलवाड़ होगा। जबकि आजमगढ़, मऊ, बलिया एवं गाजीपुर जनपद धूमिल सम्भावना क्षेत्र में आते हैं, जिन्हें संक्रमित क्षेत्र या ‘ग्रे क्षेत्र’ भी कहा जा सकता है। सम्भावना विहीन क्षेत्रों एवं धूमिल सम्भावना क्षेत्रों की स्थिति अत्यंत भयावह हो सकती है। क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में भूमि की विद्यमान नमी शीघ्र ही समाप्त हो जायेगी, जिससे क्षेत्र के सम्पूर्ण बायोमास भी समाप्ति के कगार पर पहुंचकर क्षेत्र को बंजर बना सकता है। 

भू-जल संकट के कारण एवं समस्याएं 

भू-जल का वर्तमान संकट मानव की भोगवादी प्रवृत्ति, विलासितापूर्ण जीवन, शोषणपरक नीति तथा जल का अनियंत्रित एवं अनियोजित उपभोग है, जिसके चलते एक तरफ जहां जल की बर्बादी से जल संकट की स्थिति उत्पन्न होती जा रही है, वहीं दूसरी तरफ जल प्रदूषण में तेजी से वृद्धि हो रही है। हम अपने स्वार्थ में प्राकृतिक संसाधनों का इस तरह दोहन एवं शोषण कर रहे हैं कि या तो वे समाप्ति के कगार पर हैं या भविष्य में समाप्त हो जायेंगे। जल संकट का विशेष सामाजिक पहलू भी है। विभिन्न सामाजिक स्तर पर जीवन यापन करने वाले लोगों के जल उपभोग की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। यही नहीं हमारी सामाजिक सोच भी जल संकट के लिए जिम्मेदार है। सामरिक दृष्टि से देखा जाए, तो जल स्रोतों का विशेष महत्व है और वह दिन दूर नहीं जब जल के लिए ही युद्ध लड़ा जाएगा और इसकी शुरूआत तो जल विवाद के रूप में हो भी चुकी है। इस प्रकार जल संकट हमारे लिए एक गम्भीर चुनौती है और आगे आने वाले वर्षों में यह चुनौती गम्भीर रूप धारण करेगी तथा स्थानीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जल विवाद उत्पन्न होगा। अतः जल संकट एवं जल विवाद को दूर करने हेतु प्रादेशिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आपसी मतभेदों को भुलाकर सार्थक पहल करनी होगी। यदि देखा जाय तो जल का अनियोजित एवं अनियंत्रित उपयोग ही जल संकट का मुख्य कारण है। वर्तमान जल संकट को देखते हुए जल का संरक्षण आवश्यक है। जिसमें जन-जन की सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी। जीवनदायिनी जल को यदि नहीं बचाया गया तो मानव का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा। कारण कि भू-जल का अधिक उपयोग कृषि कार्यों में सिंचाई हेतु ही होता है। एक अध्ययन के अनुसार गेहूं की खेती 25 प्रतिशत तक भू-जल के नीचे जाने का जिम्मेदार है। कुल वैश्विक सिंचाई 40 प्रतिशत के लिए एवं चावल की खेती 17 प्रतिशत भू-जल के नीचे जाने के लिए जिम्मेदार है। 1 पाउण्ड कपास के उत्पादन के लिए भारत में 17200 गैलन पानी लगता है, 1 किग्रा सतावड़ी के उत्पादन हेतु वैश्विक स्तर पर 215 ली. भू-जल खर्च होता है। फूलों के उत्पादन के लिए भी अधिक भू-जल लगता है। इन सभी कारणों से भू-जल में निरन्तर गिरावट हो रही है। इस तरह भू-जल में गिरावट के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैंः- 

  1. वर्षा वितरण में असमानता एवं वर्षा में कमी का होना। 
  2. अधिकांश क्षेत्रों में सतही जल का अभाव। 
  3. पेयजल आपूर्ति हेतु भू-जल का अधिक दोहन। 
  4. सिंचाई हेतु भू-जल का अत्यधिक दोहन। 
  5. उद्योगों हेतु भू-जल का अत्यधिक दोहन एवं शोषण।

वाटर एड की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार भू-जल के नीचे जाने का एक प्रमुख कारण विश्व के कुछ सर्वाधिक गरीब देशों द्वारा निर्यात के लिए वस्तुओं का उत्पादन है। इतना ही नहीं कई क्षेत्रों में सिंचाई के लिए भूमिगत एक्वीफर का प्रयोग किया जाता है और इस एक्वीफर से निकलने वाले भू-जल की मात्रा बहुत अधिक होती है, जिससे कुंए एवं पम्प भी सूख जाते हैं। बीते दशक में भू-जल के दोहन में 22 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, क्योंकि भारत-23 प्रतिशत, चीन-102 प्रतिशत एवं अमेरिका-31 प्रतिशत न भू-जल की मांग को व्यापक पैमाने पर बढ़ाया है। 

भू-जल की कमी से उत्पन्न समस्याएं 

  1. भू-जल के अत्यधिक दोहन एवं शोषण से आयी गिरावट से निम्नलिखित समस्याए उत्पन्न हो रही हैंः- 
  2. भू-जल स्तर का निरन्तर नीचे की तरफ खिसकना। 
  3. भू-जल में प्रदूषण की मात्रा में वृद्धि। 
  4. पेयजल आपूर्ति की समस्या में वृद्धि। 
  5. सिंचाई जल की कमी से कृषि पर प्रभाव। 
  6. भू-जल की गुणवत्ता में कमी। 
  7. भू-जल का अत्यधिक लवणतायुक्त होना। 
  8. भू-जल अत्यधिक नीचे सरकने के कारण हैण्डपम्प, ट्यूबवेल आदि से भू-जल नहीं आने के कारण पेयजल आपूर्ति का घोर संकट उत्पन्न होना। 
  9. नगरीय एवं औद्योगिक क्षेत्रों में भू-जल की कमी एवं जल का प्रदूषित होना। 
  10. आबादी वाले क्षेत्रों में जल आपूर्ति की कमी का होना। 

समस्याओं के समाधान हेतु सुझाव

भू-जल समस्या का एकमात्र समाधान भू-जल में हो रही कमी को रोकना है, चाहे कृषि क्षेत्र हो, औद्योगिक क्षेत्र हो, नगरीय क्षेत्र हो, घरेलू क्षेत्र हो या अन्य कोई क्षेत्र हो। प्रत्येक जगह पर भू-जल के अनियंत्रित एवं अतिशय दोहन तथा शोषण एवं उपयोग पर रोक लगाना आवश्यक है। साथ ही वर्षा जल का संचयन कर वर्षा जल को व्यर्थ न बहने से रोककर भूमिगत जल कृत्रिम पुनर्भरण की अनिवार्यता लागू करनी होगी। इसके अतिरिक्त खेतों में वर्षा जल को मेढ़बन्दी से रोककर भूमि के अन्दर जल के पुनर्भरण पर बल प्रदान करना होगा। पुराने पेयजल स्रोतों जैसे-कुआँ, तालाब एवं हैण्डपम्प के प्रयोग को बढ़ावा देना होगा और सबसे आवश्यक यह भी है कि जल ग्रहण क्षेत्रों में अधिक से अधिक वृक्षारोपण किया जाए ताकि प्राकृतिक रूप से जल का पुनर्भरण होता रहे। साथ ही साथ एक राष्ट्रीय भू-जल दोहन नीति लागू करने की भी आवश्यकता है। आज आवश्यकता इस बात की भी है कि हम जहां हैं, वहीं से जल संरक्षण की बात सोचें। नदी, तालाबों, तालों, नालों एवं झरनों आदि को सूखने से बचाना होगा। नदियों को सतत प्रवाही बनाना होगा। वर्षा जल का संचयन करना होगा और सबसे आवश्यक है कि अपने उपभोग की प्रवृत्ति को बदलना होगा। इसके साथ ही साथ हमें जल संरक्षण हेतु निम्नांकित सिद्धान्तों/उपायों को भी अपनाना होगा- 

  1. बचत प्रक्रिया को अपनाना होगा। 
  2. बर्बादी को रोकना होगा। 
  3. विकल्प की खोज करनी होगी। 
  4. सुरक्षित एवं संरक्षित उपयोग करना होगा। 
  5. जल को प्रदूषण से बचाना होगा। 
  6. वर्षा जल का अधिक से अधिक संचयन करना होगा। 
  7. जल सम्पूर्ति की सुरक्षित एवं संचयित प्रक्रिया अपनानी होगी। 
  8. नदियों पर चेक डैम बनाकर जल को रोकना होगा। 
  9. भूमिगत जल को चिरकाल तक स्थायी रखना होगा। 
  10. कुल वर्षा जल का 31 प्रतिशत जल धरती के अन्दर प्रवेश कराने की व्यवस्था करनी होगी। 
  11. रेन वाटर हार्वेस्टिंग (वर्षा जल संचयन) को बढ़ावा देना होगा। 
  12. लोगों को जल संचयन एवं संरक्षण के प्रति जागरूक करना होगा। 
  13. भू-जल रिचार्ज हेतु वन क्षेत्र का निरन्तर विस्तार करना होगा और इसके तहत मैदानी भाग में 33 प्रतिशत और पहाड़ी भाग में 55 प्रतिशत भूमि को वन-वृक्षों से आच्छादित करना होगा।

संदर्भ

  • कुमार, देवाशीष (2005), ‘‘आने वाले समय में भू-जल की खोज एवं मांगः एक बड़ी चुनौती’’, विज्ञान, विज्ञान परिषद, प्रयागराज, वर्ष-90, अंक-12, पृ0-25 एवं 26.
  • गुर्जर, राम कुमार एवं जाट, बी0सी0 (2007), ‘‘जल संसाधन भूगोल’’, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, पृ0 34-35.
  • जोशी, दीप (2006), ‘‘भूमिगत जल स्तर में सुधार न हुआ तो स्थिति विकट होगी’’, विज्ञान, विज्ञान परिषद, प्रयागराज, वर्ष-1992, अंक-3, पृ0 43-44.
  • प्रभात खबर, (हिन्दी दैनिक समाचार पत्र), 24 मार्च, 2019, पटना, पृ0 10.
  • वाटर एड इण्डिया की रिपोर्ट।
  • Reddy, J.R. (1986), "A Text Book of Hydrology and Water Resources", Delhi. 
  • Raghunathan, H.M. (1985), "Hydrology", Wiley Eastern Ltd. 
  • Singh, S.P. (1984), "Development and Management of Ground Water Resources of Jaunpur District", National Geography, the Allahabad Geographical Society, Allahabad, Vol. XIX, No.2. 
  • Integrated Water Resource Development (1999), "A Plan for Action Report of the National Commission for Integrated Water Resources Development." Vol. I Published by Govt. of India, Ministry of Water Resources, New Delhi. 

Email - drakdwivedi@gmail.com, Email:drgkpathakgeo@gmail.com

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मानकों पर नहीं सीईटीपी तो यमुना को कैसे साफ होगी

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मानकों पर नहीं सीईटीपी तो यमुना को कैसे साफ होगीHindiWaterFri, 01/10/2020 - 10:51
Source
हिन्दुस्तान, 10 जनवरी 2020

फोटो - India Today

प्रभात कुमार, हिन्दुस्तान, 10 जनवरी, 2020

यमुना को प्रदूषणमुक्त करने के लिए राजधानी में 13 एकीकृत जलशोधन सयंत्र (सीईटीपी) लगाए गए ताकि उद्योगों से निकलने वाला केमिकल युक्त दूषित पानी व कचरा नदी में न जाने पाए। लेकिन इनमें से अधिकांश सीईटीपी तय मानकों पर काम नहीं रहा है। इससे न सिर्फ यमुना बल्कि भूजल भी प्रदूषित हो रहा है।

दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (डीपीसीसी) ने हाल ही में यमुना निगरानी समिति के समक्ष पेश रिपोर्ट में यह जानकारी दी है। डीपीसीसी के अनुसार, 17 औद्योगिक क्षेत्रों के लिए लगे 13 सीईटीपी की गत अक्टूबर में जाँच की गई। महज दो सीईटीपी तय मानकों के हिसाब से मिले।

प्रयोगशाला तक नहीं

दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति ने रिपोर्ट में कहा है कि सीईटीपी की हर माह नियमित जाँच के लिए दिल्ली राज्य औद्योगिक और बुनियादी ढाँचा विकसित विकास निगम (डीएसआईआईडीसी) के पास प्रयोगशाला तक नहीं है। जब कभी डीएसआईआईडीसी को जाँच कराना होता है तो वह डीपीसीसी की प्रयोगशाला में नमूने भेजता है।

धन की व्यवस्था हो

यमुना निगरानी समिति ने डीएसआईआईडीसी के प्रबंध निदेशक को धन की व्यवस्था करने को कहा है ताकि नीरी की रिपोर्ट आने पर सीईटीपी के अपग्रेशन का काम तेजी से हो।

नीरी करेगा समीक्षा

डीएसआईआईडीसी के प्रबंधन निदेशक ने बताया कि सभी 13 सीईटीपी की कार्य प्रणाली की समीक्षा और अध्ययन का जिम्मा राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (नीरी) को दिया गया है। नीरी सीईटीपी के समुचित परिचालन, इसके अपग्रेडेशन, कीचड़ प्रबंधन और रेट्रोपिटिंग करने को लेकर योजना भी बनाएगी। इसमें दो साल का वक्त लगेगा। हालांकि डीएसआईआईडीसी के प्रबंधन निदेशक ने समिति को भरोसा दिया कि वहप्रयाग करेंगे कि इसमें समय कम किया जा सके।

क्षमता से काफी कम काम कम रहे

डीपीसीसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सभी 13 सीईटीपी की 212 मिलियन गैलन प्रतिदिन औद्योगिक (एमएलडी) कचरा शोधित करने की क्षमता है लेकिन सीईटीपी में शोधन के लिए महज 79 एमएलडी कचरा ही आ रहा है। रिपोर्ट के अनुसार सभी सीईटीपी अपनी क्षमता से काफी कम काम कर रहे हैं। सीईटीपी के पास शोध के बाद औद्योगिक कचरा के निस्तारण के लिए किसी तरह का प्रबंध नहीं है। शोधन के बाद एक से 2 एमएलडी को छोड़कर बाकी को ऐसे ही नाले में बहा दिया जाता है।

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पानी की वजह से गुजरात में सबसे ज्यादा हत्याएं, बिहार दूसरे नंबर पर 

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पानी की वजह से गुजरात में सबसे ज्यादा हत्याएं, बिहार दूसरे नंबर पर HindiWaterFri, 01/10/2020 - 16:24

पानी को जीवन का आधार माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि धरती पर जीवन की उत्पत्ति पानी से ही हुई है। इसीलिए मंगल गृह पर भी जीवन की तलाश के लिए पहले पानी को तलाशा जा रहा है, क्योंकि पानी से ही हवा है, बारिश है, ग्लेशियर हैं और सदानीरा नदियां भी हैं। वनस्पतियों और पेड़-पौधों में प्राण भी जल ही फूंकता है। इसीलिए विभिन्न सभ्यताएं भी नदियों के किनारे ही पनपी हैं, लेकिन किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि भारत जैसे पानीदार देश को पानी की किल्लत का सामना भी करना पड़ सकता है और पानी की किल्लत इतनी विकराल हो जाएगी कि प्राण देने वाला जल ही मौत का कारण बन जाएगा। जिसमें गुजरात पहले नंबर पर है, जबकि पानी के कारण हत्याओं में बिहार दूसरे नंबर पर है। 

अभी तक हम सुनते आए थे कि जल प्रदूषण के कारण देश में हर साल करीब 6.4 लाख लोगों की मौत हो जाती है। 60 करोड़ लोगों को स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं हो पाता है, लेकिन जल संकट लोगों की कल्पना से कई अधिक विकराल रूप धारण कर चुका है। देश के विभिन्न शहरों में लड़ाई-झगड़े होते हैं, विशेषकर गर्मियों के मौसम में। कई जगह नौबत खून-खराबे तक आ जाती है। सबसे बुरा हाल तो गुजरात और बिहार का है, जहां सरकार वादे तो कई करती है, लेकिन धरातल पर आंकड़ें अभी की सभी सरकारों की पोल रहे हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट की बात करें तो बिहार में पानी को लेकर 228 आपराधिक घटनाएं दर्ज की गई, जिनसें 327 लोग पीड़ित हैं, जबकि दिल्ली और चंड़ीगढ़ में एक एक, पश्चिम बंगाल में दो, मध्य प्रदेश में सात, केरल में एक, झारखंड में तीन, हिमाचल में एक, आंध्र प्रदेश में 12, गुजरात में 32, तमिलनाडु में 39, कर्नाटक में 53, हरियाणा में 56, और उत्तर प्रदेश में 79 मामले दर्ज किए गए हैं। वहीं महाराष्ट्र में 255 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से 285 लोग पीड़ित हैं। वर्ष 2018 तक कोर्ट में 3028 मामले लंबित हैं। हालाकि कोलकाता से स्पष्टीकरण मांगा गया है।

राष्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2018 की रिपोर्ट बनाती है कि वर्ष 2017 में पानी के कारण 432 आपराधिक घटनाएं दर्ज की गई थी, जो वर्ष 2018 में बढ़कर 838 हो गई। इनमें से वर्ष 2018 में पानी को लेकर हुए विभिन्न झगड़ों में 92 लोगों की हत्याएं भी कर दी गई थीं। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2018 में गुजरात में 18 हत्याएं हुईं, जो कि सबसे ज्यादा हैं, जबकि बिहार पानी के कारण हत्याओं के मामले में दूसरे नंबर पर है। यहां 15 हत्याएं हुई थीं। तो वहीं महाराष्ट्र में 14, उत्तर प्रदेश में 12, राजस्थान में 10, झारखंड में 10, देश की राजधानी में एक, तमिलनाडु में एक, मध्य प्रदेश में दो, तेलंगाना में दो, पंजाब में तीन और कर्नाटक में 4 हत्याएं हुई थीं। वर्ष 2018 में 40 लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जिनमें 10 महिलाएं थीं। 

देश में बढ़ता जल संकट चर्चा का विषय है, लेकिन इस पर अभी भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। नतीजतन गर्मियों में देश में त्राहि त्राहि मच जाती है। सरकार टैंकरों से पानी सप्लाई करवाती है। समस्या ज्यादा बढ़ने पर पानी के टैंकरों और तालाबों के पास पुलिस तैनात की जाती है। अब तो जल संरक्षण के लिए जलशक्ति मंत्रालय का गठन कर दिया गया, लेकिन अभी भी जल को संरक्षित नहीं दिया गया तो निकट भविष्य में जल के कारण होने वाले झगड़ों की संख्या बढ़ने की संभावना है। कहीं ये राष्ट्रीय के साथ ही वैश्विक समस्या बनकर न उभरे।

लेखक - हिमांशु भट्ट

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खतरे में जयसमंद झील (Aisamand Lake) की बेशकीमती देशी मछलियाँ, संरक्षण बेहद जरुरी 

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खतरे में जयसमंद झील (Aisamand Lake) की बेशकीमती देशी मछलियाँ, संरक्षण बेहद जरुरी HindiWaterSat, 01/11/2020 - 09:39

जयसमंद झीलजयसमंद झील।

एशिया की दूसरी सबसे बड़ी मीठे जल की कृत्रिम झील “जयसमंद” राजस्थान प्रदेश की अरावली पर्वत श्रृंखलाओं के दक्षिण-पूर्व उदयपुर जिला मुख्यालय से करीब 51 कि.मी. दूर उदयपुर-सलूम्बर मार्ग पर स्थित है l प्राकृतिक सौंदर्य से लबरेज यह झील राजस्थान के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है, जो ढेबर झील नाम से भी जाती है l 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में गोमती नदी के आर-पार बने एक संगमरमर के बांध द्वारा निर्मित यह विशाल झील अपने प्राकृतिक परिवेश व बाँध की स्थापत्य कला की सुन्दरता से परिपूर्ण, वर्षों से पर्यटकों का आकर्षण का महत्वपूर्ण स्थान बनी हुई है l लबालब होने पर इसका क्षेत्रफल लगभग 87 वर्ग कि.मी. तक फैल जाता है l घने वनों से आच्छादित करीब सात छोटे-बड़े टापू इसमें मौजूद हैं, जो इसकी खूबसूरती को और बढाते हैं l इसकी जल भराव क्षमता लगभग 14 हजार 650 एमसीएफटी हैl  वहीं इसकी अधिकतम गहराई करीब 102 फीट है l यह सालों में कभी-कभार ही छलकती है, परंतु जब भी छलकती है तो कमाल की छलकती है l इस दृश्य को कैमारे में कैद करने व देखने हजारों लोग कोसों दूर चले आतें हैं l  

कृत्रिम झीलों में से यह अव्वल दर्जे की झील है, जिसकी उर्वरता एवं उत्पादन क्षमता दोनों ही गजब की है l इसके जल में भरपूर फास्फोरस, कार्बनिक पदार्थ तथा विभिन्न प्रजाति की अनेक वनस्पतियाँ एवं तरह-तरह के कई छोटे-बड़े अकशेरुकी व हड्डी युक्त जीव बहुतायत में मौजूद हैं l इसमें नाना प्रकार के असंख्य विभिन्न प्रजाति के पादक व जंतु प्लवक ऐसे हैं जो मछलियों का प्रमुख आहार हैं l इस झील का पारिस्थितिकीय तंत्र स्थिर, सुदृढ़ एवं विशाल होने के साथ-साथ इसमें कई तरह की छोटी-बड़ी भोजन श्रृंखलाएं विद्यमान हैं, जो जीवों को जीवित रखने में सक्षम है l इसीलिए यह अव्वल दर्जे की युट्रोफिक झीलों की श्रेणी में शुमार है l फिलहाल यह झील प्रदूषण से मुक्त है, लेकिन अत्याधिक मानवीय गतिविधियां व हस्तक्षेप तथा इसमें स्थित व्यावसायिक होटल होने के कारण इसके प्रदूषित होने का संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता l  

जयसमंद झील (Aisamand Lake) न केवल पर्यटकों का आकर्षण का केंद्र है बल्कि इसके आस-पास व तट पर बसे कई गाँवों व गरीब तबके के आदिवासियों की जीवन रेखा भी है l हर साल लगभग 16 हजार हेक्टेयर से अधिक भूमि इस झील से सिंचित होती है, जिससे ये सालभर हर किस्म की कृषि उपज लेते रहतें हैं और इनको पर्याप्त आय हो जाती है l इसके अतिरिक्त, यह झील आदिवासियों अथवा मछुआरों के लिए दैनिक व सतत आमदनी और रोजगार का प्रमुख स्त्रोत भी है l क्योंकि इस झील का मत्स्य उत्पादन प्रतिवर्ष टनों में होता है l झील में कई प्रजाति की मछलियाँ हैं लेकिन व्यापारी महत्त्व की पंद्रह से बीस प्रजाति की मछलियाँ ऐसी हैं, जिनका स्वाद देश के अन्य जलाशयों की मछलियों से बिल्कुल भिन्न व ज्यादा स्वादिष्ट होने से इनकी बाजार में हर वक्त जबरदस्त मांग रहती है l इससे आदिवासी मछुआरों को इनसे भरपूर आमदनी होती है l भारतीय मेजर कार्प्स में सबसे ज्यादा कीमती कतला, रोहू और मृगल मछलियाँ हैं, लेकिन माइनर कार्प्स में लेबिओ और पुन्टिअस तथा लांचि और सिंगाड़ा जैसी परभक्षी मछलियों की मांग भी बाजार में अधिक होने से इनके अच्छे दाम मिल जाते है l ये मछलियाँ देश के कई राज्यों में ऊँचे दामों बिकती है l इस झील से पूर्व में 50 कि.ग्रा. से अधिक वजनी कतला मछलियाँ पकड़ी गई हैं l

चार दशक पूर्व किसी को यह मालूम नहीं था कि इस झील में अफ़्रीकी मूल की खतरनाक आक्रामक स्वभाव की तिलापिया नाम की मछलियाँ भी मौजूद हैं l ये कैसे और कब इस झील में प्रवेश कर गयी, इसकी सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है l सूत्रों की माने तो 80 दशक में इस झील में कार्प्स मछलियों के बीज छोड़ने के दौरान गलती से या अनजाने में इस खूंखार मछली के बीज भी विसर्जित हो गए l कारण जो भी रहा हो पर इसके बेतहासा आबादी के आतंक से व्यापारी महत्त्व की बेशकीमती देशी मछलियाँ जबरदस्त त्रस्त हैं, वहीं अब इनका अस्तित्व खतरे की जद में है l यद्यपि भारत में इस मछली के पालन पर फिशरीज़ रिसर्च कमेटी ऑफ इंडिया द्वारा 1959 से ही पूर्ण प्रतिबंध लगा रखा है, बावजूद कई राज्यों में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसकी मांग अधिक होने से इसका पालन बेधड़क हो रहा है l इसका उपयोग जलीय खरपतवार को ख़त्म करने के लिए भी अक्सर किया जाता है l 

तिलापिया मछलीतिलापिया मछली।

विदेशी मूल की इस मछली का आक्रामक स्वभाव होने से देशी मछलियाँ इससे डरी- डरी व दूर रहती हैं l यह जो भी मिले उसे खाकर ज़िंदा रह जाती है l अर्थात यह सर्वहारी मछली है l इसमें विपरीत परिस्थितियों में भी जीने की अद्भुत क्षमता होती है l इसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होने से इसके मरने के अवसर काफी कम होतें हैं l यह दो तीन महीनों में ही जल्द वयस्क व प्रजनन योग्य हो जाती है तथा साल में कई बार प्रजनन करती है l नर कई मादाओं के साथ प्रजनन करता है, जिससे इनकी आबादी तेजी से बढ़ जाती है l मादा पेंदे में घोंसला बना कर अंडे देती है l ये दूसरी प्रजाति की मछलियों के निषेचित अंडे व बच्चों को देखते ही खा जाती है, लेकिन ये अपने बच्चों को अपने मुंह में तब तक सुरक्षित रखती है जब तक ये तैरने के योग्य न हो जाए l इन्हीं वजह से तिलापिया ने इस झील में सालों साल अपनी आबादी को लगातार तेजी से बढाती गई l वहीं दूसरी ओर व्यापारी महत्त्व की बेशकीमती मछलियों के अंडे व बच्चों को खा जाने से इन मछलियों की आबादी साल दर साल कम होती ही गई l प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार इस झील के फिश केचेज में वर्ष 1990-91 में तिलापिया की आबादी लगभग न्यून अवस्था में थी, जो 1996-97 व 2012-13 में बढ़कर क्रमश: 54% व 82% की हो गई l  वहीं व्यापारिक महत्त्व की मछलियों की आबादी न्यूनतम स्तर आ गयी l उदयपुर स्थित मत्स्यिकीय महाविद्यालय के पूर्व डीन प्रो. एल. एल. शर्मा की जानकारी के अनुसार 2019 में इस झील के फिश केचेज में भारतीय मेजर व माइनर कार्प्स तथा परभक्षी मछलियों की कुल आबादी में 90% से अधिक तिलापिया मछलियों की हिस्सेदारी पायी गई, जो चिंताजनक है l ये आंकड़े चौंकाने वाले भी हैं और हेरत में डालने वोले भी l क्योंकि इस प्राकृतिक असंतुलन से जहां राज्य सरकार को प्रतिवर्ष लाखों का आर्थिक घाटा होता है l वहीं आदिवासी मछुआरों की आमदनी कई गुना कम हो जाती है l दूसरी ओर, इसकी बेतहासा आबादी होने से प्रकृति प्रेमियों व पर्यावरणविदों को देशी प्रजाति की मछलियों का इस झील से विलुप्त होने तथा जैव-विविधता को अत्यधिक नुकसान होने का भय है l 

तिलापिया बेतहासा आबादी से इन मछलियों के मध्य स्थान व भोजन के लिए आपस में संघर्ष होना स्वाभाविक है, जिसका प्रतिकूल असर इनके आकार व वजन पर पड़ा है l वजन व आकार दोनों के घटने से बाजार में इनका बहुत ही कम मूल्य आता है l जिससे सरकार व मछुआरों दोनों को आर्थिक नुकसान होता है l यदि समय रहते नहीं चेता गया तो आने वाले सालों में इस झील में इसका ही साम्राज्य हो जाएगा, जो और खतरनाक व भयावह स्थिति होगी l इसलिए समय रहते इस तिलापिया मछलियों की बढ़ती आबादी पर अंकुश लगाना बेहद जरुरी है l यद्यपि इस खरपतवार प्रजाति को जयसमंद से मुक्त करना असंभव ही नहीं नामुमकिन भी है l लेकिन इनको इनकी लारवल अवस्था में ही विशेष निर्मित जाल से पकड़ने पर इनकी बढ़ती आबादी पर एक हद तक अंकुश लग सकता है l अन्य वैज्ञानिक कारगर उपाय अपनाने से भी इस भयावह समस्या से थोड़ी राहत और मिल सकती है l लेकिन एक ओर चिंता जो सताती है वो यह कि कहीं ये मछलियाँ प्रदेश के अन्य बड़े जलाशयों में नहीं पंहुच जाए, जो और खतरनाक है l

एमेरिटस प्रो. शांतिलाल चौबीसा, प्राणीशास्त्री एवं लेखक, उदयपुरएमेरिटस प्रो. शांतिलाल चौबीसा, प्राणीशास्त्री एवं लेखक, उदयपुर

 

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वायु प्रदूषण से बढ़ता है सिजोफ्रेनिया का खतरा

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वायु प्रदूषण से बढ़ता है सिजोफ्रेनिया का खतराHindiWaterSat, 01/11/2020 - 10:44
Source
हिन्दुस्तान, 11 जनवरी 2020

फोटो - live hindustan

हिन्दुस्तान, 11 जनवरी, 2020

एक अध्ययन में पता चला है कि वायु प्रदूषण वाले क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों में सिजोफ्रेनिया होने का खतरा बढ़ने की सम्भावना अधिक होती है। हवा में मौजूद पार्टिकुलेट मैटर न सिर्फ शारीरिक नुकसान पहुँचाते हैं, बल्कि यह मानसिक सेहत को भी बिगाड़ सकते हैं।

यह अध्ययन अमरिकन मेडिकल एसोसिएशन नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है। इसमें आईसाइक नामक प्रोजेक्ट से आनुवंशिक डाटा का आंकलन किया। आईसाइक एक प्रोजेक्ट है, जो सबसे आम और गम्भीर मानसिक बीमारियों (जिनमें ऑटिज्म, बायपोलर डिसऑर्डर और डिप्रेशन शामिल हैं) के आधार और उपचार का पता लगाता है।

वायु प्रदूषण और मानसिक रोग में मजबूत सम्बन्ध

डेनमार्क को आरहुस यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने देश के पर्यावरण विज्ञान विभाग से वायु प्रदूषण पर आधारित जानकारी के साथ आईसाइक के डाटा को जोड़ा। बच्चों के बढ़ती उम्र के दौरान वायु प्रदूषण के सम्पर्क में आने से सिजोफ्रेनिया का खतरा बढ़ जाता है।

बचपन में प्रदूषित क्षेत्रों में रहना खतरनाक

प्रदूषित क्षेत्रों में रहने से, विशेष रूप से जीवन के शुरुआती दिनों में, मानसिक विकारों के होने की सम्भावना अधिक होती है। प्रदूषण के कम स्तर के सम्पर्क में आने वाले लोगों में इस रोग का खतरा लगभग दो प्रतिशत होता है। जबकि प्रदूषण के उच्च स्तर में रहने वालों को पांच फीसदी खतरा होता है।

 

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पूर्वी उत्तर प्रदेश में भूमिगत जल का गहराता संकट: समस्याएं एवं समाधान

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पूर्वी उत्तर प्रदेश में भूमिगत जल का गहराता संकट: समस्याएं एवं समाधानHindiWaterSat, 01/11/2020 - 11:07
Source
अमरनाथ मिश्र पी.जी. कालेज, दूबेछपरा, बलिया (उ.प्र.) और कुँवर सिंह पी.जी. कालेज, बलिया (उ.प्र.)

प्रतीकात्मक।

सारांश 

जल की उपलब्धता उसकी आपूर्ति एवं मांग पर निर्भर करती है। धरातल पर जलापूर्ति का प्रमुख स्रोत वर्षा है। जलवायु परिवर्तन के कारण पिछले कुछ वर्षों में वर्षा की मात्रा, आवृत्ति और वितरण में अनिश्चितता एवं अनियमितता में काफी वृद्धि हुई। दूसरी तरफ जनसंख्या, नगरीकरण एवं औद्योगिकीकरण में वृद्धि तथा बढ़ते जीवन स्तर के साथ जल की मांग में वृद्धि होती जा रही है। भारत में वर्ष 1951 में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 6000 घन मीटर वार्षिक थी, जो वर्ष 1955 में 5277, वर्ष 1990 में 1970, वर्ष 1999 में 1947 एवं अनुमानित रूप से वर्ष 2017 में 1600 घनमीटर रह गई है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2025 में 1350 घनमीटर प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता रह जाएगी। जबकि एक व्यक्ति को औसतन प्रति वर्ष 1700 घन मीटर से भी ज्यादा जल की आवश्यकता होती है। बढ़ते जीवन स्तर के साथ जल की प्रति व्यक्ति मांग में भी वृद्धि होती है। प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता घटती जा रही है। अध्ययन क्षेत्र में वर्ष 1996 की तुलना में वर्ष 2000 में विभिन्न जनपदों में भू-जल की उपलब्धता में वृद्धि हुई है। वर्ष 2000 की तुलना में वर्ष 2004 में भू-जल उपलब्धता में अधिकांश 27 में से 23 जनपदों में कमी आयी है। वर्ष 1996 के अनुसार अध्ययन क्षेत्र के एकमात्र जनपद गोण्डा में उपयोग की मात्रा 8000 लाख घनमीटर से अधिक थी, इस वर्ष में 2004 में जनपदों की संख्या बढ़कर 8 हो गई है। इस प्रकार जनपद स्तर पर उपयोग की मात्रा में लगातार वृद्धि भी हुई है। अध्ययन क्षेत्र में भूमिगत जल से सम्बन्धित समस्याओं को अति उपयोग एवं प्रदूषण जन्य समस्या के रूप में देखा जा सकता है। भूमिगत जल के समुचित-संतुलित उपयोग के लिए व्यापक स्तर पर जन-जागरण कार्यक्रमों को आयोजित करना, भूमिगत जल में आर्सेनिक की समस्या के समाधान के लिए जागरूकता और शोध तथा अनुसंधान कार्यों को बढ़ावा देना आवश्यक है।

मुख्य शब्द:-भूमिगत जल, शुद्ध वार्षिक पुनर्भरण, शुद्ध वार्षिक निकासी, दोहन, संरक्षण 

Abstract

The availability of water depends on its supply and demand. Rainfall is the major source of water supply on the ground. Uncertainty and irregularity in the amount, frequency and distribution of rainfall has increased considerably in the last few years due to climate change. On the other hand with the increase in population, urbanization and industrialization and increasing living standards, the demand for water is increasing. The per capita water availability in India in the year 1951 was 6000 cubic meters per annum, which has been reduced to 5277 in the year 1955, 1970 in the year 1990, 1947 in the year 1999 and 1600 cubic meters in the year 2017. According to an estimate, in the year 2025, there will be 1350 cubic meter per capita water availability. Whereas an individual requires more than 1700 cubic meters of water per year on an average. With increasing living standards, per capita demand for water also increases. Per capita water availability is decreasing. Availability of ground water has increased in different districts in the year 2000 as compared to the year 1996 in the study area. In comparison to the year 2000, in the year 2004, ground water availability has decreased in 23 districts out of 27 districts. According to the year 1996, Gonda, the only district of the study area, had more than 8000 lakh cubic meters, the number of districts has increased to 8 in 2004 in this year. Thus there has been a steady increase in the amount of usage at district level.  Problems related to ground water in the study area can be seen as a problem of overuse and pollution. It is necessary to conduct mass awareness programs for proper balanced use of ground water, awareness and
promotion of research and research work to solve the arsenic problem in ground water. 

प्रस्तावना

जल सभी प्रकार के जीवों के अस्तित्व के लिए परम आवश्यक तत्व है। मानव अपने शारीरिक क्रियाओं के संचालन, घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ औद्योगिक, कृषि मत्स्य-पालन, व्यापार आदि कार्यों के लिए जल का उपयोग एक संसाधन के रूप में करता है। एक संसाधन के रूप में जल की समुचित मात्रा एवं समान वितरण किसी भी क्षेत्र के विकास के लिए आवश्यक है। भारत जैसे कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देशों में कृषि विकास के लिए जल संसाधन के समुचित-संतुलित उपयोग का स्पष्ट महत्व है। ऐसी स्थिति में जब देश की कृषि व्यवस्था कहीं जलाधिक्य, तो कहीं जलाभाव की समस्या से ग्रस्त है, जल संसाधन का मात्रात्मक एवं गुणात्मक जानकारी, संरक्षण एवं प्रबन्धन का महत्व अधिक बढ़ जाता है। पृथ्वी के ऊपर सतह के नीचे पृष्ठीय चट्टानों की संधियों, छिद्रों, दरारों एवं अवशिष्ट रिक्त स्थानों में स्थित जल की मात्रा को भूमिगत जल कहा जाता है। भूमिगत जल का मुख्य स्रोत वर्षा जल है। भूमिगत जल की मात्रा पर वर्षा की प्राप्ति, चट्टानों की सरंध्रता व संरचना तथा धरातलीय स्वरूप आदि का प्रभाव होता है। पिछले अध्ययनों से स्पष्ट है कि पर्यावरण अवनयन के फलस्वरूप वर्षा की मात्रा और उसके अन्तःस्पन्दन की दर घटती जा रही है। जिससे भूमिगत जल की उपलब्धता घटती जा रही है। इस संदर्भ में प्रस्तुत शोध-पत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश में भूमिगत जल की उपलब्धता व उपयोग का स्थानिक-कालिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण एवं विवेचन प्रस्तुत करता है। प्रस्तुत अध्ययन से यह तथ्य सामने आया है कि अध्ययन क्षेत्र के सभी जनपदों में भूमिगत जल के उपयोग के प्रतिशत में लगातार वृद्धि हो रही है, जिसके चलते इस क्षेत्र में भूमिगत जल से संबंधित समस्याओं को अति उपयोग एवं प्रदूषणजन्य समस्या के रूप में देखा जा सकता है। एक तरफ जहां भूमिगत जल के वार्षिक पुनर्भरण मात्रा में कमी होती जा रही है, वहीं दूसरी तरफ बढ़ती जनसंख्या, औद्योगिकीकरण, नगरीकरण एवं बढ़ते जीवन स्तर से साथ मांग और उपयोग बढ़ता जा रहा है। कुछ क्षेत्रों में भूजल का उपयोग खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है, जिससे भूमि की धंसने की क्रिया भी प्रारम्भ हो गई है। अध्ययन क्षेत्र में भूमिगत जल से जुड़ी दूसरी महत्वपूर्ण समस्या भूजल में आर्सेनिक की बढ़ती मात्रा है, जिसका प्रभाव यहां के निवासियों के स्वास्थ्य पर पूरी तरह से दिखायी दे रहा है और इस क्षेत्र के लोग न केवल शारीरिक तथा मानसिक कठिनाईयों का सामना कर रहे हैं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से भी ये अलग-थलग होते जा रहे हैं। कृषि में प्रयुक्त कृत्रिम रसायनों का प्रभाव भी भूजल पर दृष्टिगोचर हो रहा है तथा औद्योगिक क्रियाओं एवं नगरीकरण से भी भूमिगत जल प्रदूषित होता जा रहा है। 

अध्ययन का उद्देश्य 

प्रस्तुत अध्ययन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. अध्ययन क्षेत्र में भूमिगत जल की उपलब्धता एवं उपयोग की विशेषताओं का स्थानिक एवं कालिक परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करना।
  2. अध्ययन क्षेत्र में भूमिगत जल की उपलब्धता व उपयोग से सम्बन्धित समस्याओं का स्थानिक एवं कालिक संदर्भ में वितरण स्पष्ट करना।
  3. अध्ययन क्षेत्र में भूमिगत जल की उपलब्धता व उपयोग सम्बन्धित समस्याओं के निराकरण हेतु सुझाव प्रस्तुत करना।

अध्ययन की विधि तंत्र 

प्रस्तुत अध्ययन पूर्वी उत्तर प्रदेश में भूमिगत जल की उपलब्धता, उपयोग, समस्याएं एवं संरक्षण, सांख्यिकीय डायरी-उत्तर प्रदेश से प्राप्त द्वितीयक आंकड़ों पर आधारित है। भूमिगत जल की विशेषताओं के अध्ययन हेतु तुलनात्मक एवं विश्लेषणात्मक विधि तंत्रों का उपयोग किया जाएगा। प्राप्त आंकड़ों की तुलना एवं विश्लेषण हेतु उपयुक्त सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग किया गया है। प्राप्त परिणामों को सारणी, आरेख एवं मानचित्र की सहायता से प्रस्तुत कर पूर्णता प्रदान की गयी है। 

अध्ययन क्षेत्र

अध्ययन क्षेत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश में भौगोलिक दृष्टि से 23o50’84’’ उत्तरी से 28o26’40’’ उत्तरी अक्षांश तथा 80o51’14’’ पूर्वी से 84o38’10’’ पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित है। अध्ययन क्षेत्र का सम्पूर्ण क्षेत्रफल 85844 वर्ग किमी है। यहां औसतन वार्षिक वर्षा 958.62 मिमी. प्राप्त होती है। यहां की सम्पूर्ण वार्षिक वर्षा 88.23 प्रतिशत भाग वर्ष के चार महीनों-जून से सितम्बर में प्राप्त होता है।

विश्लेषण एवं व्याख्या

अध्ययन क्षेत्र में भूमिगत जल की उपलब्धता, उपयोग, समस्याएं एवं संरक्षण का विश्लेषण एवं व्याख्या निम्नवत है- 

भूमिगत जल की उपलब्धता 

वर्षा का जल का भू-सतह के नीचे अन्तः निवेशन भूमिगत जल का प्रमुख स्रोत है। किसी क्षेत्र में अन्तः निवेशन की दर वर्षा की प्रकृति एवं गहनता तथा वातायन क्षेत्र का निर्माण करने वाली मृदा एवं शैली की पारगम्यता पर निर्भर करती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों में जल की शुद्ध पुनर्भरण क्षमता में भिन्नता है। वर्ष 1996 के अनुसार अध्ययन क्षेत्र के 20 जनपदों में काफी असमानता मिलती है। उच्च पुनर्भरण क्षमता (15000 लाख घनमीटर से अधिक) वाले जनपदों की संख्या चार है। इस उच्च पुनर्भरण क्षमता वाले जनपदों में गोंडा (21270), देवरिया (24850), इलाहाबाद अब प्रयागराज (15920), सुल्तानपुर (15220) है। मध्यम पुनर्भरण क्षमता (10000-15000 लाख घनमीटर) वाले जनपदों में बहराइच (13430), सिद्धार्थनगर (10120), बस्ती (14140), गोरखपुर (10550), महाराजगंज (14840), आजमगढ़ (11970), वाराणसी (11850), जौनपुर (12500), प्रतापगढ़ (10990) और गाजीपुर (10600)। निम्न पुनर्भरण क्षमता (5000-10000 लाख घन मीटर) वाले जनपदों की संख्या पांच है। जिनमें बलिया (9060), मऊ (5420), सोनभद्र (6930), अम्बेडकरनगर (12890) और फैजाबाद (6990) हैं। अति निम्न पुनर्भरण क्षमता (5000 लाख घनमीटर से कम) वाला एकमात्र जनपद-मिर्जापुर (4800) है।

वर्ष 2000 की गणना के अनुसार अध्ययन क्षेत्र के 27 जनपदों में भूमिगत जल के शुद्ध वार्षिक पुनर्भरण मात्रा में असमानता मिलती है। भू-जल के उच्च पुनर्भरण क्षमता (15000 लाख घनमीटर से अधिक) पांच जनपदों-कुशीनगर (15240), आजमगढ़ (15430), आजमगढ़ (15430), जौनपुर (16240), इलाहाबाद (15430) और सुल्तानपुर (17040) में मिलता है। मध्यम पुनर्भरण क्षमता (10000-15000 लाख घनमीटर) उपलब्धता नौ जनपदों-बलरामपुर (11380), सिद्धार्थनगर (10600), गोरखपुर (11550), महाराजगंज (14800), बलिया (11470), मिर्जापुर (10320), आजमगढ़ (13780) और गाजीपुर (14310) में मिलता है। निम्न उपलब्धता (5000-10000 लाख घनमीटर) वाले जनपदों की संख्या 11 है, जिसमें बहराइच (9440), श्रावस्ती (6170), मऊ (5760), चन्दौली (9330), वाराणसी (5670), सोनभद्र (8920), कौशाम्बी (6030), अम्बेडकर नगर (8440), फैजाबाद (8580) जनपद शामिल है। अति निम्न उपलब्धता (5000 लाख घनमीटर से कम) वाला एकमात्र जनपद संत रविदासनगर है। 

इसी प्रकार वर्ष 2004 के अनुसार अध्ययन क्षेत्र में भू-जल की उच्च पुनर्भरण क्षमता (15000 लाख घनमीटर से अधिक) दो जनपदों-आजमगढ़ (15070) और सुल्तानपुर (15790) में मिलता है। मध्यम पुनर्भरण क्षमता (10000-15000 लाख घनमीटर) वाले जनपदों की संख्या 11 है, जिसमें बहराइच (12750), गोण्डा (14210), सिद्धार्थनगर (10450), गोरखपुर (13240) कुशीनगर (12440), महाराजगंज (11460), जौनपुर (14370), इलाहाबाद (10950), प्रतापगढ़ (11970), फैजाबाद (11010) और गाजीपुर (12160) जनपद शामिल हैं। निम्न पुनर्भरण क्षमता (5000-10000) वाले जनपदों की संख्या-8 है, जिसमें बलरामपुर (9470), बस्ती (8750), संत कबीरनगर (5390), देवरिया (8640), बलिया (9620), चन्दौली (6990), वाराणसी (5160) और अम्बेडकरनगर (9530) शामिल हैं। अति निम्न पुनर्भरण क्षमता (5000 लाख घनमीटर से कम) वाले जनपदों की संख्या 6 हो गई है, जिसमें श्रावस्ती (4250), मऊ (4980), सोनभद्र (2790), मिर्जापुर (4950), संत रविदासनगर (3510) और कौशाम्बी (4180) जनपद आते हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि अध्ययन क्षेत्र में वर्ष 1996 की तुलना में वर्ष 2000 में विभिन्न जनपदों में भू-जल की उपलब्धता में वृद्धि हुई है। वर्ष 2000 की तुलना में वर्ष 2004 में भू-जल उपलब्धता में अधिकांश 27 में से 23 जनपदों में कमी आयी है। 

भूमिगत जल की उपलब्धता में परिवर्तन 

अध्ययन क्षेत्र में भू-जल की उपलब्धता में विभिन्न वर्षों में परिवर्तन देखने को मिलता है। अध्ययन क्षेत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों में भूमिगत जल के शुद्ध वार्षिक पुनर्भरण मात्रा में काफी असमानता मिलती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में वर्ष 1996 की तुलना में वर्ष 2000 में बहराइच (29.70 प्रतिशत), गोण्डा (29.57 प्रतिशत), बस्ती (25.03 प्रतिशत), देवरिया (62.81 प्रतिशत), महाराजगंज (0.26 प्रतिशत), वाराणसी (52.15 प्रतिशत) और इलाहाबाद में (3.08 प्रतिशत) की कमी आई है जबकि सिद्धार्थनगर (7.8 प्रतिशत), बलिया (26.6 प्रतिशत), मऊ (6.27 प्रतिशत), आजमगढ़ (28.90 प्रतिशत), सोनभद्र (28.71 प्रतिशत), मिर्जापुर, सुल्तानपुर (11.96 प्रतिशत), अम्बेडकर नगर (6.97 प्रतिशत), फैजाबाद (22.75 प्रतिशत) और गाजीपुर में (35.0 प्रतिशत) की वृद्धि हुई है। उक्त अवधि में पूर्वी उत्तर प्रदेश में भूमिगत जल के शुद्ध वार्षिक पुनर्भरण मात्रा में कुल 21.63 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

अध्ययन क्षेत्र में वर्ष 2000 के आधार पर वर्ष 2004 में जनपद गोण्डा में 5.14 प्रतिशत, श्रावस्वती में 31.12 प्रतिशत, बलरामपुर में 16.78 प्रतिशत, सिद्धार्थनगर में 4.21 प्रतिशत, बस्ती में 17.45 प्रतिशत, संत कबीर नगर में 0.70 प्रतिशत, कुशीनगर में 18.37 प्रतिशत, देवरिया में 6.49 प्रतिशत, बलिया में 16.12 प्रतिशत, मऊ में 13.54 प्रतिशत, आजमगढ़ में 2.33 प्रतिशत, चन्दौली में 25.08 प्रतिशत, वाराणसी 9.0 प्रतिशत, सोनभद्र में 68.72, मिर्जापुर में 52.03, संत रविदासनगर में 19.31 प्रतिशत, जौनपुर में 11.57 प्रतिशत, इलाहाबाद में 29.30, कौशाम्बी में 30.67 प्रतिशत, प्रतापगढ़ में 13.13 प्रतिशत, सुल्तानपुर में 7.33 प्रतिशत और गाजीपुर में 15.02 प्रतिशत की कमी हुई है। जबकि बहराइच में 35.06 प्रतिशत, गोरखपुर में 11.63 प्रतिशत, अम्बेडकरनगर में 12.91 प्रतिशत और फैजाबाद में 28.32 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

भूमिगत जल का उपयोग 

अध्ययन क्षेत्र में भूमिगत जल उपयोग के स्वरूप में जनपद स्तर पर काफी असमानता मिलती है। साथ ही जनपद-स्तर पर उपयोग की मात्रा में लगातार वृद्धि भी हुई है। अध्ययन से प्राप्त तथ्यों के अनुसार वर्ष 1996 में शुद्ध निकासी की उच्च मात्रा (8000 लाख घनमीटर से अधिक) गोण्डा जनपद में, मध्यम (6000-8000 लाख घनमीटर) जौनपुर में और बहराइच में, निम्न (4000-6000 लाख घनमीटर के बीच) सिद्धार्थनगर, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, आजमगढ़, वाराणसी, इलाहाबाद, सुल्तानपुर और गाजीपुर तथा अति निम्न (4000 लाख घनमीटर से कम) उपयोग महाराजगंज, बलिया, मऊ, सोनभद्र, मिर्जापुर, प्रतापगढ़, अम्बेडकरनगर व फैजाबाद जनपद में मिलता है। 
अध्ययन क्षेत्र में वर्ष 2000 के आधार पर शुद्ध निकासी की उच्च मात्रा (8000 लाख घन मीटर से अधिक) भूमिगत जल उपयोग करने वाले जनपद में गोण्डा आजमगढ़, जौनपुर, मध्यम (6000-8000 लाख घनमीटर के बीच) बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, इलाहाबाद, सुल्तानपुर और गाजीपुर में निम्न (4000-6000 लाख घनमीटर) बहराइच, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, महाराजगंज, बलिया, प्रतापगढ़, अम्बेडकरनगर और फैजाबाद जनपद में तथा अति निम्न (4000 लाख घनमीटर से कम), श्रावस्ती, संत कबीरनगर, कुशीनगर, मऊ, चन्दौली, वाराणसी, सोनभद्र, मिर्जापुर, संत रविदासनगर और कौशाम्बी जनपद में प्राप्त होता है। 

इसी प्रकार वर्ष 2004 के आधार पर भूमिगत जल के शुद्ध निकासी की उच्च मात्रा (8000 लाख घनमीटर से अधिक) उपयोग करने वाले जनपद में गोण्डा, आजमगढ़, जौनपुर, मध्यम (6000-8000 लाख घनमीटर), बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, इलाहाबाद, सुल्तानपुर और गाजीपुर में, निम्न (4000-6000 लाख घनमीटर के बीच) बहराइच, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, महाराजगंज, बलिया, प्रतापगढ़, अम्बेडकर नगर और फैजाबाद जनपद में तथा अति निम्न (4000 लाख घनमीटर से कम) श्रावस्ती, संत कबीरनगर, चन्दौली, वाराणसी, सोनभद्र, मिर्जापुर, संत रविदासनगर और कौशाम्बी शामिल हैं। 

इस प्रकार स्पष्ट है कि अध्ययन क्षेत्र में भूमिगत जल के उपयोग की मात्रा में काफी परिवर्तन हुए हैं। वर्ष 1996 के अनुसार अध्ययन क्षेत्र के एकमात्र जनपद गोण्डा में उपयोग की मात्रा 8000 लाख घनमीटर से अधिक थी, इस वर्ग में 2004 में जनपदों की संख्या बढ़कर 8 हो गई है। इस प्रकार जनपद स्तर पर उपयोग की मात्रा में लगातार वृद्धि भी हुई है। 

भूमिगत जल उपयोग में परिवर्तन 

अध्ययन क्षेत्र के विभिन्न जनपदों में वर्ष 1996, 2000, 2004 में भूमिगत जल के उपयोग का प्रतिशत लगातार बढ़ता जा रहा है। अध्ययन क्षेत्र में 2000 की गणना के अनुसार भूमिगत जल के उपयोग का प्रतिशत उच्च (60 प्रतिशत से अधिक) पांच जनपदों-गोण्डा, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया और अम्बेडकर नगर में मिलता है, जबकि वर्ष 2004 में (60 प्रतिशत से अधिक) भूमिगत जल का उपयोग करने वाले जनपदों की संख्या बढ़कर 18 हो गई है। अध्ययन क्षेत्र के जनपदों-गोण्डा, बस्ती, देवरिया, मऊ, संत रविदास नगर, जौनपुर में भूमिगत जल के उपयोग का प्रतिशत 75 से अधिक हो गया है।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अध्ययन क्षेत्र के सभी जनपदों में भूमिगत जल उपयोग के प्रतिशत में लगातार वृद्धि हो रही है। 

भूमिगत जल की कमी से उत्पन्न समस्याएं

अध्ययन क्षेत्र में भूमिगत जल से सम्बन्धित समस्याओं को अति उपयोग एवं प्रदूषण जन्य समस्या के रूप में देखा जा सकता है। अध्ययन क्षेत्र में वर्षा की अनियमितता और अनिश्चितता के प्रभाव से भूमिगत जल के वार्षिक पुनर्भरण मात्रा में कमी होती जा रही है, वहीं बढ़ती जनसंख्या, औद्योगीकरण, नगरीकरण एवं बढ़ते जीवन स्तर के साथ मांग और उपयोग बढ़ता जा रहा है। अध्ययन क्षेत्र के कुशी नगर, महाराजगंज, चन्दौली, सोनभद्र और मिर्जापुर के अतिरिक्त शेष सभी जनपदों में भूमिगत जल के उपयोग की मात्रा उपलब्ध मात्रा के 50 प्रतिशत से अधिक हो गया है। कुछ जनपदों जैसे-देवरिया और मऊ में भू-जल का उपयोग खतरनाक स्तर (80 प्रतिशत से अधिक) तक पहुंच चुका है। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में अध्ययन क्षेत्र में भूमि धंसने की क्रिया में तेजी आयी है।

इसी प्रकार अध्ययन क्षेत्र में भूमिगत जल से जुड़ी दूसरी महत्वपूर्ण समस्या भू-जल में आर्सेनिक की बढ़ती मात्रा है। पिछले कुछ अध्ययनों (स्कूल ऑफ इन्वायरमेंटल स्टडीज, जादवपुर विश्वविद्यालय, पं.बं. और भू-जल विभाग, उत्तर प्रदेश) में यह तथ्य से स्पष्ट है कि अध्ययन क्षेत्र के गंगा के समीपवर्ती जनपदों-बलिया और गाजीपुर के भू-जल में आर्सेनिक अपने निर्धारित मात्रा से बहुत अधिक पाया गया है। जनपद-बलिया के द्वाबा क्षेत्र के लगभग 55 गांवों के भूमिगत जल में आर्सेनिक की निर्धारित मात्रा 50 पीपीएम से अधिक 100-200 पीपीएम होने की पुष्टि हो चुकी है। आर्सेनिक के प्रभाव से अब तक अकेले बलिया जनपद में 33 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। साथ ही पांच दर्जन से अधिक लोग आर्सेनिकोसिस नामक बीमारी से पीड़ित हैं। आर्सेनिक प्रभावित ग्रामों के लोग न सिर्फ शारीरिक और मानसिक कठिनाईयों का सामना कर रहे हैं बल्कि सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से भी ये लोग अलग-थलग होते जा रहे हैं। 

इन दो प्रमुख समस्याओं के अतिरिक्त कृषि में प्रयुक्त कृत्रिम रसायनों का प्रभाव भू-जल पर दिखाई दे रहा है। साथ ही कुछ सीमित क्षेत्र पर औद्योगिक क्रियाओं और नगरीकरण से जल में प्रदूषण की मात्रा बढ़ती जा रही है। भूमिगत जल का संरक्षण जल संसाधन के संदर्भ में सामान्यतः यह अवधारणा है कि जल प्रकृति प्रदत्त असीमित भण्डार है, जल के दुरुपयोग को बढ़ावा देती है। अध्ययन क्षेत्र एक कृषि प्रधान क्षेत्र है, इसके विकास में कृषि विकास की उच्च प्राथमिकता है। सिंचाई में भूमिगत जल का उपयोग सम्पूर्ण उपयोग का 70 प्रतिशत से अधिक है। पिछले दशकों में सिंचाई के लिए बड़े पैमाने पर भू-स्तरीय पम्पसेट और निजी पम्प सेटों को स्थापित कर भूमिगत जल का अनियंत्रित दोहन हुआ है। जिससे भूमिगत जल से सम्बन्धित समस्याओं का जन्म हुआ है। अतः अध्ययन क्षेत्र भूमिगत जल के संरक्षण के लिए निम्नलिखित तथ्यों पर ध्यान केन्द्रित करना आवश्यक है- 

  1. सम्पूर्ण अध्ययन क्षेत्र में व्यापक स्तर पर वनारोपण करना। 
  2. अध्ययन क्षेत्र के पुराने गड्ढे एवं तालाबों का जीर्णोद्धार करना। 
  3. कृषि में सिंचाई की तकनीक में सुधार कर भूमिगत जल के दुरुपयोग को कम करना। 
  4. दूषित जल को स्वच्छ करने के उपरान्त ही जल स्रोतों में मिलाना। 
  5. भूमिगत जल के समुचित-संतुलित उपयोग के लिए व्यापक स्तर पर जनजागरण कार्यक्रमों को आयोजित करना। 
  6. भूमिगत जल में आर्सेनिक की समस्या के समाधान के लिए जागरूकता और शोध तथा अनुसंधान कार्यों को बढ़ावा देना आवश्यक है।

Reference: 

  1. Bruce, J.P. and R.H.Clark (1966), : "Introduction to Hydrology", Pergamon Press. 
  2. Raghunathan, H.M. (1985), "Hydrology", Wiley Eastern Ltd. 
  3. Reddy, J.R.(1986), : "A Text Book of Hydrology and Water Resources", Delhi. 
  4. Integrated Water Resources Development (1999): "A Plan for Action Report of the National Commission for Integrated Water Resources Development", Vol.1, Published by Govt. of India, Ministry of Water Resources, New Delhi. 
  5. Annual Report (2004-05) of Ministry of Water Resources, Government of India. 
  6. Singh, S.P., (1984):"Development and Management of Ground Water Resources of Jaunpur District", National Gographer, the Allahabad Geographic Society, Allahabad, Vol. XIX, No.2,
  7. कुमार, देवाशीष (2005), ‘‘आने वाले समय में भू-जल की खोज एवं मांग: एक बड़ी चुनौती’’, विज्ञान, विज्ञान परिषद, प्रयागराज, वर्ष-90, अंक-12, पृ0 25-26. 
  8. गुर्जर, राम कुमार एवं जाट, बी0सी0 (2007), ‘‘जल संसाधन भूगोल’’, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, पृ0 34-35. 
  9. जोगी, दीप (2006), ‘‘भूमिगत जल स्तर में सुधार न हुआ तो स्थिति विकट होगी’’, विज्ञान, विज्ञान परिषद, प्रयाग, वर्ष-92, अंक-3, पृ0 43-44.

Email:- dr.sunilojha@gmail.com skchaturvedi2014@gmail.com

 

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जलवायु परिवर्तन: हिमालय की करीब 5,000 झीलों से बाढ़ का खतरा

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जलवायु परिवर्तन: हिमालय की करीब 5,000 झीलों से बाढ़ का खतराHindiWaterSat, 01/11/2020 - 12:21

प्रतीकात्मक।

वनों के कटान, विभिन्न मानवीय गतिविधियों और अधिक कार्बन उत्सर्जन के कारण विश्वभर में जलवायु परिवर्तन तेजी से बढ़ रहा है। जिस कारण असमय बारिश और बर्फबारी देखने को मिलती है। उपजाऊ जमीन बंजर होती जा रही है, तो वहीं अतिवृष्टि के कारण हर साल बाढ़ आती है, जिसमें जान-माल दोनों का ही बड़े पैमाने पर नुकसान होता है, लेकिन अब जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी क्षेत्रों से अब एक नया खतरा सामने आ रहा है। जिससे निकट भविष्य में बड़े पैमाने पर नुकसान होने की संभावना बनी हुई है।

वर्ष 2013 में केदारनाथ में आई आपदा (बाढ़) की विभीषिका के बारे में हर किसी को पता है। आपदा से केवल उत्तराखंड ही नहीं बल्कि पूरा विश्व प्रभावित हुआ था। हर जगह त्राहि-त्राहि मच गई थी। लोगों का मानना था कि बाढ़ बादल फटने से आई थी, जबकि कई लोग केदारनाथ मंदिर के पीछे कुछ किलोमीटर की दूरी पर, चोराबारी ग्लेशियर में बनी झील के टूटना भी आपदा का कारण मानते हैं, लेकिन वास्तव में आपदा का कारण प्रशासन की लापरवाही और ग्लोबल वार्मिंग था। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही झील का किनारा टूटा था और उस पानी से सब कुछ लील लिया। आपदा इतनी भयावह थी कि जख्म आज भी हरे हैं। हालाकि केदारनाथ के साथ ही विश्वभर के हिमालय क्षेत्रों में सुरक्षा की व्यवस्था पर जोर तो दिया जा रहा है, लेकिन ग्लोबल वार्मिंक को रोकने के प्रभावी कदम उठते नहीं दिख रहे हैं। जिस कारण अब फिर से हिमालयी क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा मंडराने लगा है। इसकी जानकारी पाॅट्सडैम यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन में दी है। इस शोधपत्र को प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेजमें प्रकाशित भी किया गया है।

शोध के लिए हिमालय के हिमनदों और हिमनदों के पिघलने से पड़ने वाले प्रभाव का पता लगाने के लिए उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों और स्थलाकृति की मदद से झीलों के माॅडल के लगभग 5.4 अरब सिमुलेशन तैयार किए हैं। जिससे पता चला कि झीलों के किनारे अस्थिर व कमजोर हो गए हैं। जिस कारण हिमालय क्षेत्र की करीब 5 हजार झीलों पर बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है। सबसे ज्यादा समस्या अधिक पानी वाली झीलें हैं, क्योंकि बाढ़ का अधिक खतरा इन्ही से है। शोधपत्र में जाॅर्ज वेह, ओलिवर कोरुप और एरियन वाल्ज ने से झीलों पर किए गए सिमुलेशन और उसके परिणाम के बारे में भी बताया कि हिमालाय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन का व्यापक असर पड़ रहा है। वर्ष 2003 से 2010 तक के आंकड़ें बताते हैं कि सिक्किम हिमालय में 85 नई झीलें सामने आई थीं। 

दरअसल हिमालयी क्षेत्रों में झीलें स्वतः ही बन जाती हैं। यहां झीलों का किनारे मोराइन से बनता है, जो कि प्राकृतिक तत्व होते हैं। असल में मोराइन में आकार में बड़े ब्लाॅक या बोल्डर से लेकर रेत और मिट्टी तक शामिल होते हैं। जिन्हें ग्लेश्यिर द्वारा फिर से जमा दिया जाता है, लेकिन ये बर्फ और चट्टाने काफी ढीली होती हैं और बर्फ पिघलने पर पानी का रास्ता देती हैं। पानी ज्यादा होने पर मोराइन टूट जाती है, और यही बाढ़ का कारण बनती हैं। अब ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने से भविष्य में पूर्वी हिमालय की हिमनद झीलों में बाढ़ का खतरा तीन गुना बढ़ गया है। मोराइन कमजोर पड़ने लगे हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि अधिक पानी वाली झीलों से खतरा ज्यादा है। ये हिमालय से नीचे आने वाली धाराओं में बाढ़ का खतरा बढ़ा देंगे। दरअसल विभिन्न धाराओं के माध्यम से ये पानी बड़ी नदियों में मिलेगा और मैदानी इलाकों में भी बाढ़ का कारण बन सकता है। जिससे करोड़ों लोग प्रभावित होंगे। इसलिए सरकार को ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए गंभीर होकर प्रयास करना होगा, साथ ही जनता को भी योगदान देना होगा। वरना वर्तमान में आरामदायक जीवन जीने के चक्कर में हम भविष्य के अपने जीवन को काल के गाल के झोंक देंगे। जिसकी कल्पना मात्र ही कर किसी को भयभीत कर सकती है। इसीलिए ये समय जागरुक होकर सामुहिक रूप से सकारात्मक प्रयास करने का है।

लेखक - हिमांशु भट्ट

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गांधी का प्रकृति चिन्तन

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गांधी का प्रकृति चिन्तनHindiWaterTue, 01/07/2020 - 11:34

महात्मा गांधी के प्रकृति चिन्तन से सम्बन्धित संदेश आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि उनके लेखों तथा विचारों में पर्यावरण सम्बन्धी दृष्टिबोध तथा पर्यावरण पर काम करने वालों के लिए कालजयी मार्गदर्शन मौजूद है इसलिये उपभोक्तावाद से त्रस्त अनेक लोग, गांधी दर्शन में मुक्ति तथा विकास का मार्ग खोज रहे हैं। आज से एक शताब्दी पूर्व 1909 में गांधीजी ने पश्चिमी समाज के आनन्द तथा समृद्धि की अंतहीन दौड़ को, समूची धरती तथा उसके संसाधनों के लिए गंभीर खतरा माना था। उनके लेखों को हिन्द स्वराज में संकलित किया गया है। इस पुस्तक में उन्होंने पश्चिमी समाज को, उनकी जीवनशैली के दुःप्रभावों के प्रति सचेत किया है। इसके साथ ही उन्होंने भारतवासियों से अनुरोध किया है कि वे भौतिक लाभों के लालच में न उलझें।

 

  • महात्मा गांधी जी के पर्यावरण से जुडें कुछ प्रसिद्ध उद्धरण निम्नानुसार हैं-
  • पृथ्वी, सभी व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त है किन्तु उनके लालच की पूर्ति के लिये नही।
  • पृथ्वी, वायु, भूमि तथा जल हमारे पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्तियाँ नहीं हैं। वे हमारे बच्चों की धरोहरें हैं। वे जैसी हमें मिली हैं वैसी ही उन्हें भावी पीढ़ियों को सौंपना होगा।
  • विश्व में एक नियमितता है। जो भी अस्तित्व में होता है उसके नियमन के लिए अपरिवर्तनशील नियम है। अन्धा नियम, किसी भी मनुष्य के व्यवहार को नियमित नहीं कर सकता।
  • हम, विश्व में वनों के प्रति जो कुछ कर रहे हैं वह केवल उसका प्रतिबिम्ब है, जो हम अपने तथा एक दूसरे के साथ करते हैं।
  • जब तक मानव-संस्कृति के भौतिक नियमों के केन्द्र में अहिंसा नहीं होगी, हम प्रकृति के विरुद्ध हिंसा को रोकने के लिए, पर्यावरण सम्बन्धी गतिविधियाँ नहीं चला सकते।
  • वन्य जीवन, वनों में कम हो रहा है किन्तु वह शहरों में बढ़ रहा है।
  • विकास का त्रुटिपूर्ण ढांचा, गांवों से शहरों की ओर पलायन को प्रोत्साहित करता है।
  • गांधीजी का दृष्टिकोण, पर्यावरण के प्रति व्यापक था। उन्होने देशवासियों से, तकनीकों के अन्धानुकरण के विरुद्ध, जागरूक होने का आवाहन किया था। उनका मानना था कि पश्चिम के जीवन स्तर की नकल करने से, पर्यावरण का संकट पनप सकता है। उनका मानना था कि यदि विश्व के अन्य देश भी आधुनिक तकनीकों के मौजूदा स्वरूप को स्वीकार करेंगे तो पृथ्वी के संसाधन नष्ट हो जायेंगे।

महात्मा गांधी का प्रकृति चिन्तन

महात्मा गांधी ने अपने प्रकृति चिन्तन में निम्न बिन्दुओं को महत्व दिया था-

1. ग्रामों की आत्मनिर्भरता - ग्राम स्वराज

2. कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन

3. आयातित उपभोक्ता वस्तुओं पर नियंत्रण

4. कृषि में सुधार,

5. अक्षय समाज,

6. आर्थिक समानता,

7. अंहिसा तथा जीवों के प्रति संवेदना तथा

8. स्वच्छता।

इक्कीसवी सदी का मनुष्य, महात्मा गांधी के प्रकृति चिन्तन के विपरीत, अपनी नियति खुद गढ़ रहा है। वह अंतरिक्ष में कालोनी, रोबो द्वारा चलित मशीनें, कम्प्यूटर जैसी बुद्धि का विकास करने के लिये लगातार प्रयासरत है। उपरोक्त नियति निर्धारण के कारण, विश्व में उपभोग की प्रवत्ति तथा विविध उत्पादनों में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है जिसके कारण, वैष्विक पर्यावरण तथा स्थानीय मौसम पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इसके उदाहरण हैं - वैश्विक ऊष्मता, ओजोन परत का हृास, अम्लीय वर्षा, समुद्र स्तर में वृद्धि, वायु, जल तथा भूमि संक्रमण और मरुस्थलों के क्षेत्रफल में हो रही वृद्धि। यह वही नियति है जिससे बचने की बात महात्मा गांधी ने अपने प्रकृति चिन्तन में कही है। गांधीजी की सोच, पर्यावरण के प्रति मैत्री पूर्ण थी। उस सोच में समाज के अंतिम व्यक्ति के हितों का ध्यान रखा गया है। उनका विश्‍वास था कि गरीबी और प्रदूषण एक दूसरे के पोषक हैं। गांधी जी का सरल जीवन का नुस्खा, प्राकृतिक साधनों के असीमित उपभोग तथा अंतहीन शोषण पर रोक लगाता है। यह उनके पर्यावरण सम्बन्धी सोच का सबसे बडा उदाहरण है। महात्मा गांधी की उपरोक्त सोच उस कालखंड में विकसित हुई जब वैज्ञानिक जगत भी पर्यावरण के कुप्रभावों से लगभग अपरिचित था। महात्मा गांधी के अनुसार गरीबों का शोषण रोकने के लिये बड़े-बड़े उद्योग-धन्धों और ग्रामोद्योगों को साथ साथ संचालित करना चाहिये।

ग्राम उद्योग को प्रोत्साहन

गांधी जी का कहना था कि जहाँ मानव श्रम द्वारा काम संभव नही हों तभी जन उपयोगी भारी भरकम कामों को मशीनों से कराया जावे। कार्य, राज्य की अधिकारिता में हों तथा जन-कल्याण उसका उद्देष्य हो। केन्द्रीकृत तथा विकेन्द्रीकृत तरीकों से उत्पादन किया जाए। आय तथा धन का वितरण समान हो तथा जन साधारण के हित साधे जा सकें। गांधी जी के अनुसार, मशीनीकरण तभी उपयोगी है जब काम करने वाले व्यक्तियों की संख्या कम तथा जल्दी कार्य पूरा करने की अनिवार्यता हो। भारत में मजदूरों की संख्या बहुत अधिक है इसलिए मशीनों का उपयोग हानिकारक है। इस सोच के कारण, वे, मशीनों के प्रति अत्याधिक रूचि के खिलाफ थे। वे, ऐसे उपकरणों के पक्षधर थे जो अनावश्यक मानव - श्रम को कम करते हैं। वे, विशाल उत्पादन नही, अपितु बहु-श्रमिक उत्पादन चाहते थे।

भारत में गरीबी, बेरोजगारी, आय की असमानता, भेद-भाव इत्यादि को देखते हुए गांधी जी ने चरखे के उपयोग को, प्रतीक के रुप में, प्रोत्साहित किया था। उनका उद्देष्य, खादी तथा ग्राम आधारित उद्योगों को प्रोत्साहित कर बेरोजगारी तथा गरीबी को कम करना था। गांधी जी का पूरा जीवन तथा उनके समस्त कार्य, मानवता के लिए पर्यावरण सम्बन्धी विरासत हैं। उन्होंने जीवन पर्यन्त, व्यक्तिगत जीवन शैली द्वारा, समग्र विकास की अवधारणा को प्रतिपादित किया। यद्यपि उनका लगभग सम्पूर्ण जीवन ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध संर्घष में बीता, किन्तु वे हमेषा प्रकृति तथा शान्ति से जुड़े रहे। उनकी ताकत, उनका आत्मबल था। उनका संदेश पर्यावरण संरक्षण तथा समग्र विकास आधारित था। उनके सन्देष, भारत ही नही अपित सम्पूर्ण विश्व के लिए आज भी उपयोगी हैं।

औद्योगीकरण एक अभिशाप

गांधीजी का सोचना था कि औधोगीकरण मानव जाति के लिए अभिषाप है। इससे लाखों नागरिकों को काम नहीं मिलेगा तथा प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होगी। आधुनिक विकास के कारण हुई पर्यावरणीय हानि की अनेक बार क्षतिपूर्ति संभव नहीं होती। गांधीजी का विष्वास था कि कुटीर उद्योग तथा ग्राम उद्योग हजारों लोगों को सुविधायें तथा संसाधन उपलब्ध कराते हैं। उन्हे बढ़ावा देने से अनेक लोगों को काम मिलता है तथा राष्ट्रीय आय बढ़ती है। गान्धीजी का सोच था कि जीवित मषीनों को मृत मषीनों से मुकाबला नहीं करना चाहिये। गांधीजी का ग्रामीण संसाधनों पर आधारित माडल पर्यावरण को न्यूनतम हानि पहुँचाता है। उसके उपयोग से हुई पर्यावरणीय हानि का नवीनीकरण या सुधार संभव है।

आर्थिक समानता

गांघीजी का आर्थिक समानता तथा सम्पत्ति के समान वितरण का सिद्धान्त इस अवधारणा पर आधारित था कि प्रत्येक व्यक्ति के पास उसकी प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन होंगे। उन्होंने सम्पत्ति के समान वितरण का व्यावहारिक तरीका बताया था। इस तरीके के अनुसार हर व्यक्ति को अपनी आवश्यकतायें न्यूनतम रखनी होंगी। दूसरों की गरीबी का ध्यान रखना होगा।

अहिंसा तथा जीवों के प्रति सम्वेदना

गांधीजी अनुभव करते थे कि हम प्रकृति के वरदानों का उपयोग तो कर सकते हैं किन्तु हमें उनको मारने का अधिकार नही है। गांधीजी यह भी मानते थे कि अहिंसा तथा सम्वेदना न केवल जीवों के प्रति बल्कि अजीवित या मृत पदार्थों के प्रति भी होना चाहिये। अजीवित पदार्थों का अतिदोहन जो लालच तथा ज्यादा लाभ के लिये किया जाता है वह जैवमण्डल को नुकसान पहुँचाता है। वह हिंसा है। इससे अन्य लोगों को जो उसका उपयोग करना चाहते हैं हानि होती है।

स्वच्छता

गांधीजी ने कहा था कि जीवन में स्वच्छता का स्थान सर्वोच्च है इसलिये गरीबी के कारण या उसकी आड़ में कोई भी शहर स्वच्छता की व्यवस्था से मुक्ति नहीं पा सकता। जो भी मनुष्य थूक कर वायु तथा जमीन को दूषित करता है या जमीन पर कचरा फेंकता है वह प्रकृति के विरुद्ध पाप करता है। हम स्नान करने में आनन्द महसूस करते हैं किन्तु कुआ जलाशय अथवा नदी को मल त्याग द्वारा गंदा करते हंै। हमें इन आदतों को पापाचार मानना चाहिये। हमारी उपरोक्त आदतों के कारण हमारे गांव तथा नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं। ऐसी अस्वच्छता बीमारियों का प्रसार करती हैं।

गांधीजी का पर्यावरणवाद नैतिक सिद्धान्तों पर आधारित था। गांधीजी का अपनी देह तथा दिमाग पर पूर्ण नियंत्रण था। इसलिए उन्होंने कभी भी ऐसा कोई उपदेश नही दिया जिसका वे अपने व्यक्तिगत जीवन में स्वयं पालन नहीं करते हों। यही उनका प्रकृति चिन्तन है।

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सेहत से खेल

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सेहत से खेलHindiWaterMon, 01/13/2020 - 20:40

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएई) की पर्यावरण निगरानी प्रयोगशाला में की गई जांच के परिणाम दो प्रकार की विसंगतियों को उजागर करते हैं। पहला, खाद्य उत्पादक कम्पनियां उन उत्पादों को खुले आम बेच रही हैं जिनमें पोषक तत्वों की मात्रा सेहत के लिए ठीक नहीं है। दूसरा, फूड इंडस्ट्री और नियामक एजेंसियों का गठजोड़ इस बेशर्म गोरखधंधे का समर्थन कर रहा है। ऐसे में फूड पैकेट्स पर लेबल लगाने और उन पर पोषक तत्वों की सही जानकारी देने के लिए भारत में एक मजबूत कानून की तत्काल जरूरत है।

गौरतलब है कि छह वर्ष पहले ही फूड पैकेट्स की उचित लेबलिंग की जरूरत महसूस कर ली गई थी। इसका मकसद ग्राहकों द्वारा खरीदे गए खाद्य पदार्थों के बारे में सभी जानकारियां देना था। मौजूदा फूड सेफ्टी स्टैंडडर्स (पैकेजिंग व लेबलिंग) रेगुलेशंस, 2011 बेहद कमजोर और अप्रभावी है। यहां तक कि नमक जैसे बुनियादी खाद्य पदार्थ के बारे में भी अनिवार्यतः जानकारियां नहीं दी जातीं। दरअसल, देखा जाए तो स्पष्ट तौर पर शक्तिशाली जंग फूड कारोबार और लालफीताशाही के दबाव के चलते कानून तंत्र को लागू करने में प्रगति नहीं हो रही है।

भारत खी खाद्य नियामक संस्था फूड सेफ्टी एंड स्टैडडर्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआई) ने दिल्ली हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद वर्ष 2013 में विशेषज्ञों की एक कमेटी गठित की थी। इस कमेटी का उद्देश्य स्कूलों में मौजूद जंक फूड का नियमन करना था। इस कमेटी में डॉक्टर, पोषण विज्ञानी (न्यूट्रिशनिस्ट), जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ, सिविल सोसाइटी और कारोबारी जगत के लोग शामिल थे। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट भी इसका हिस्सा था। इससे पहले उदय फाउंडेशन नाम की गैर-लाभकारी संस्था ने स्कूलों के आसपास जंग फूड की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के लिए जनहित याचिका दायर की थी। वर्ष 2014 में विशेषज्ञों की कमेटी ने कैलोरी, शुगर, वसा (फैट), सैचुरेटेड वसा और नमक के बारे में फूड पैकेट्स के सामने (एफओपी यानी फ्रंट ऑफ पैक) लेबलिंग करने का सुझाव दिया था। ये ग्राहकों को जानने में मदद करता कि वे जिस खाद्य पदार्थ का सेवन कर रहे हैं, उसमें कौन-सा तत्व कितनी मात्रा में मौजूद है।

लेकिन, ये रिपोर्ट ‘उपयुक्त’ नहीं थी, इसलिए वसा, नमक व शुगर की मात्रा और इससे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के मूल्यांकन के लिए अगले वर्ष यानी 2015 में एफएसएसएआई ने विशेषज्ञों की एक और कमेटी बनाई। 11 सदस्यीय इस कमेटी का अध्यक्ष प्रभाकरण को बनाया गया था। वह उस वक्त पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के उपाध्यक्ष थे। दो साल बाद इस कमेटी ने भी पूर्व में गठित कमेटी की अनुशंसाओं का समर्थन किया था। इस कमेटी ने पैकेटबंद और फास्ट फूड्स के सही आकार और जरूरी पोषक तत्वों की ठोस जानकारी देने का सुझाव दिया था।

अब आपको लगेगा कि इस कमेटी के सुझावों के बाद किसी तरह के टालमटोल की की सम्भावना ही नहीं थी। लेकिन ऐसा नहीं है। कमेटी के सुझाव के बाद एफएसएसएआई को फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड (लेबलिंग एंड डिस्प्ले) रेगुलेशन, 2018 लाने में एक साल लग गया। रेगुलेशन के ड्राफ्ट में नमक को अनिवार्य रूप से सोडियम क्लोराइड लिखने को कहा था, लेकिन फूड लेबल्स में अब भी नमक का जिक्र नहीं होता है। ड्राफ्ट में एफओपी का भी प्रावधान था, जो वैश्विक स्तर पर खाद्य पदार्थों में मौजूद तत्वों के बारे में जानकारी लेने का अहम तत्व है। प्रावधान के अनुसार, लेबल के ऊपरी हिस्से में कैलोरी, कुल वसा (फैट), कुल शुगर, ट्रांस फैट और नमक की मात्रा की जानकारी देनी थी और निचले हिस्से में लिखना था कि इन तत्वों का कितना प्रतिशत एक व्यक्ति के अच्छे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। एफएसएसएआई ने रिकमेंडेड डायटरी अलाउंस (आरडीए) में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 2,000 कैलोरी तय किया। ड्राफ्ट में ये भी प्रस्ताव दिया गया था कि जिन पोषक तत्वों की मात्रा प्रस्तावित परिणाम से ज्यादा हो, उन सभी पोषक तत्वों के नाम में लाल निशान लगाया जाए।

यह एक बड़ा आंदोलन था, क्योंकि इस अधिसूचना के लागू होने से वे नियम बदल जाते, जिसके चलते फूड कम्पनियां हमारी रसोईघरों व हमारे पेट पर राज करती हैं। इस ड्राफ्ट के जमीन पर उतरने से हमारे पास न केवल ये विकल्प होता कि हम फूड में मौजूद नमक, शुगर या वसा के बारे में जान पाते बल्कि हमें ये भी पता चलता कि हम रोज कितना आहार लें कि कैलोरी दिनभर में बर्न हो जाए। जाहिर सी बात है कि ये सब फूड इंडस्ट्री की नकेल कसने के लिए काफी था।

17 अगस्त, 2018 को सुरक्षित व स्वस्थ भोजन के लिए फूड लेबलिंग रेगुलेशन पर हुए एक राष्ट्रीय विमर्श में एफएसएसएआई के सीईओ पवन अग्रवाल ने कहा था, ‘इंडस्ट्री नहीं चाहती कि फूड में लगने वाले लेबल में खतरे का प्रतिनिधित्व करने वाला लाल निशान लगाया जाए।’

अतः वर्ष 2018 में तैयार किया गया ड्राफ्ट आगे का सफर तय नहीं कर पाया और ड्राफ्ट बनकर ही रह गया। ऐसे में एफएसएसएआई ने एक नया तरीका ईजाद करने के लिए तीसरी कमेटी गठित करने की घोषणा की। इस बार नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन के पूर्व डायरेक्टर बी, सेसिकरण को कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। लेकिन, आश्चर्यजनक रूप से इस कमेटी की अनुशंसाओं को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया।

आखिरकार, नियमन के लिए एफएसएसएआई ने जुलाई, 2019 में दूसरी बार ड्राफ्ट तैयार किया। हालांकि, ये ड्राफ्ट पिछले ड्राफ्ट के मुकाबले काफी कमजोर था। अब आपको लग रहा होगा कि मामला अपने मुकाम पर पहुंच गया, लेकिन नहीं ! नया ड्राफ्ट जो पहले की तुलना में काफी कमजोर है और आम लोगों के स्वास्थ्य के साथ गम्भीर रूप से समझौता करता है, वो भी सम्भवतः प्रभावशाली फूड इंडस्ट्री को स्वीकार्य नहीं है। इस ड्राफ्ट को लेकर अभी तक अधिसूचना जारी नहीं हुई है। आम लोगों के सुझाव के लिए एक ड्राफ्ट के जारी होने के बाद अधिसूचना जारी करने में दो महीने से ज्यादा वक्त नहीं लगना चाहिए। लेकिन, पांच महीने गुजर जाने के बाद भी अधिसूचना जारी नहीं की गई है। चर्चा है कि नियम में और ढील देने और कानून लाने में लेटलतीफी करने के लिए अब एक और नई कमेटी लाने की तैयारी चल रही है। इस तरह के टालमटोल से ये तो साफ है कि फूड बिजनेस का हमारे स्वास्थ्य से कोई वास्ता नहीं है, बल्कि यह कारोबार केवल और केवल कमाई करने के लिए किया जा रहा है।

जनस्वास्थ्य से खिलवाड़

फ्रंट ऑफ पैक (एफओपी) सुनिश्चित हो, इसके लिए कानून बनाने में कमेटी दर कमेटी बनाने की कहानी भले ही दुखद न हो लेकिन हास्यास्पद जरूर है। मिसाल के लिए, फूड सेफ्टी स्टैडर्ड (लेबलिंग एंड डिस्प्ले) रेगुलेशंस, 2019 में एफओपी लेबल पर प्रस्तावित तीन को पांच तरह के न्यूट्रिंएट्स के बदलाव प्रस्ताव रखा था। इसमें नमक की जगह सोडियम, टोटल फैट के साथ सैचुरेटेड फैट और कुल शुगर के साथ एडेड शुगर को शामिल किया गया है।

नमक हाइपरटेंशन को बढ़ावा देता है। इस साल तैयार किए गए ड्राफ्ट में नमक की जगह सोडियम लिखने का प्रस्ताव दिया गया है, जो फूड इंडस्ट्री के पक्ष में जाता है। लोगों को सोडियम और नमक के साथ उसके सम्बन्ध के बारे में बहुत कम जानकारी है। सोडियम में नमक की मात्रा कितनी है, इसका हिसाब कैसे लगाया जाए, इसकी जानकारी भी लोगों को कम ही है। मगर एफएसएसएआई ने ड्राफ्ट में पैकेट के पीछे और सामने सोडियम लिखने का ही प्रस्ताव दिया है।

एफओपी में कुल वसा की जगह सैचुरेटेड फैट का जिक्र करने को कहा गया है, ये भी फूड इंडस्ट्री के हक में ही है। पैकेटबंद खाने में वसा बुहत होता है, लेकिन उसमें अत्यधिक सैटुरेटेड फैट हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। ये समग्रता में समस्या का हल नहीं देता है बल्कि इससे ग्राहकों में भ्रम फैलेगा और उन्हें लगेगा कि सैचुरेटेड फैट के अलावा जो फैट है, वह नुकसानदेह नहीं है।

सैचुरेटेड फैट का हृदय रोग से गहरा सम्बन्ध है, जो वयस्क होने पर सामने आता है। लेकिन, टोटल फैट की अधिकता वाला खाद्य बहुत कम उम्र में ही समस्या की जड़ बन सकता है। दिल्ली के हमदर्द अस्पताल की शिशुरोग विभाग की प्रमुख रेखा हरीश कहती हैं, ‘इससे बच्चों में मोटापे का रोग हो सकता है। इसलिए फूड पैक्स में टोटल फैट के साथ सैचुरेटेड फैट का भी जिक्र किया जाना चाहिए।’ उन्होंने आगे कहा, ‘बचपन में मोटापा एक बड़ी चिंता बन गया है। एफएसएसएआई द्वारा स्वीकृत 2000 कैलोरी बच्चों के लिए बहुत ज्यादा है। इससे बच्चे काफी ज्यादा फैट और शुगर ग्रहण कर सकते हैं।’ अतः एफओपी में फैट के बारे में आधी जानकारी से बहुत फायदा नहीं होने वाला है। एफओपी से टोटल फैट हटाने से पहले एफएसएसएआई को यूके व दक्षिण कोरिया की तरह सैचुरेटेड फैट के बगल में इसे छापने की सम्भावनाएं तलाशनी चाहिए थी। सच कहे, तो ट्रांस फैट की जगह टोटल फैट लाना चाहिए क्योंकि ये पैक्ड व फास्ट फूड से बाहर हो रहा है। एफएसएसएआई ने घोषणा की है कि वर्ष 2022 तक औद्योगिक स्तर पर उत्पादित ट्रांस फैट को खत्म करेगा। अगर ड्राफ्ट की अधिसूचना जारी हो जाए, तो वर्ष 2020 त एफओपी पर लाल निशान लगाने का नियम लागू हो जाएगा।

संशोधित ड्राफ्ट में दूसरी चीज जो खत्म की जा रही है वह है टोटल शुगर को एडडे शुगर में बदलना। इसका मतलब है कि एफओपी लेबल में खाद्य पदार्थ में प्राकृतिक तौर पर पाए जाने वाले शुगर की जानकारी नहीं रहेगी। लेबल में उसी शुगर के बारे में जानकारी दी जाएगी, जिसका इस्तेमाल फूड प्रोसेसिंग के वक्त किया जाएगा। बात यहीं खत्म नहीं होती है। टोटल शुगर की जगह एडेड शुगर लिखा जाएगा, तो शुगर के लिए तय आरडीए में बदलाव नहीं होगा। वर्ष 2018 के ड्राफ्ट कुल शुगर की स्वीकृत मात्रा 50 ग्राम तय की गई थी। अब जो ड्राफ्ट तैयार किया गया है उसमें टोटल शुगर की मात्रा भी 50 ग्राम ही तय की गई है। यह टोटल शुगर के मुकाबले दोगुना है। दूसरे शब्दों में, केवल लाभ के लिए चल रहे खाद्य कारोबार का पूरा खेल गुमराह करने वाला और गलत जानकारी पर आधारित है।

दूसरी तरफ, संशोधित ड्राफ्ट में पेय पदार्थों को इससे छूट दी गई है जबकि पुराने ड्राफ्ट में 80 किलो कैलोरी से कम शुगर डालने का प्रावधान रखा गया था और इससे अधिक शुगर डालने पर एफओपी में लाल निशान लगाने की बात थी। 10-11 ग्राम एडेड शुगर वाला 100 मिलीलीटर का एक सॉफ्ट ड्रिंक, जिसमें 40 से 45 प्रतिशत एम्टी कैलोरी हो, अगर उसे छोटे आकार में बेचा जाए, तो लाल कोड से बचा जा सकता है। यह महज संयोग नहीं है कि इसी तर्ज पर 150-200 मिलीलीटर आकार का सॉफ्ट ड्रिंक्स भी अब बाजार में उपलब्ध हैं। नियामक संस्थाएं ये समझने में विफल रहीं कि अस्वास्थकर पेय पदार्थ का सेवन अगर कम मात्रा में किया जाए, तो वो स्वास्थ्यकर नहीं हो जाएगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन (साउथ-ईस्ट एशिया) के मुताबिक, प्रति 100 मिलीलीटर पानी-आधारित मसालेदार पेय पदार्थ में एडेड शुगर की मात्रा 2 ग्राम होने चाहिए, मगर एफएसएसएआई सॉफ्ट ड्रिंक में इस सीमा से पांच गुना ज्यादा एडेड शुगर डालने की अनुमति देने को तैयार है। अतिरिक्त शुगर होने के बावजूद एफओपी लेबल में लाल निशान नहीं लगाया जाएगा।

नए ड्राफ्ट में हालांकि कैलोरी की भी सामान्य मात्रा निर्धारित नहीं की है। अगर एक उत्पाद में केवल टोटल फैट और टोटल शुगर की तयशुदा मात्रा है व उसमें टोटल कैलोरी बहुत अधिक है, तो भी एफओपी पर लाल निशान लगाने से बच जाएगा। यह ड्राफ्ट कम्पनियों को नियम लागू करने के लिए तीन साल का वक्त देता है। पहले दो वर्षों तक कम्पनियां अपने उत्पादों में पोषक तत्व स्वीकृत मात्रा से 30 प्रतिशत अधिक रख सकती है और तीसरे साल में इन तत्वों को स्वीकृत मात्रा के स्तर पर लाएंगी। यानी अगर ये पता भी चल जाए कि पैकेटबंद भोजन खराब है और रेड कैटेगरी का है, तो भी फूड इंडस्ट्री के पास चीजों को ठीक करने का वक्त रहेगा। हीं, अगर ये ड्राफ्ट, ड्राफ्ट ही रह जाता है, तब तो अपना वक्त खुद तय करेंगे और हमें बुरा स्वास्थ्य व बुरा कानून मिलेगा।

दुनिया चेतावनी की ओर भारत में पहले ही देर हो चुकी है। गलत भोजन से स्वास्थ्य की चुनौतियों को देखते हुए उम्मीद की जा रही है कि एफएसएसएआई दुनियाभर में अपनाए जा रहे सर्वोत्तम तरीकों से सीखेगा। बहुत से देशों को यह समझ में आ गया है कि बहुत सारे लेबल्स काम नहीं करते। इसके बदले चेतावनी का लेबल सबसे कारगर विकल्प है। एक अन्य चिंता यह है कि पैकेट के सामने बहुत से आंकड़े, एक कंपोनेंट के लिए एफओपी पर लाल निशान उपभोक्ताओं को भ्रमित कर सकते हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि दूसरे कम्पोनेंट सीमा से ऊपर नहीं जाते। अगर यह हरे निशान में है तो हम हरे रंग के बॉक्स बनाम लाल रंग के बॉक्स के आधार पर निर्णय ले सकते हैं। इससे गलत संदेश जाएगा और भ्रम की स्थिति बनेगी।

एफएसएसएआई ने 2019 के मसौदे में एफओपी की लेबलिंग में रंग बढ़ाने का विकल्प खुला रखा था। इसलिए हरा जैसा रंग जो सकारात्मक संकेत देता है, भविष्य में शामिल किया जा सकता है। ऐसा लेबलिंग उपभोक्ता को मिश्रित संकेत देती है। इससे उपभोक्ता को मदद नहीं मिलती।

यही वजह है कि विभिन्न देश चेतावनी के स्तर को लेबलिंग में शामिल कर रहे हैं जो हर न्यूट्रिएंट में प्रमुखता से अंकित किया जाता है। यह विश्व का सबसे उत्तम तरीका है। चिली में अधिक कैलोरी और न्यूट्रिएंट्स वाले खाद्य पैकेट में चेतावनी का स्तर लाल और सफेद रंग के अष्टकोणीय चिन्ह के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। इस लेबल को समझना आसान है। इसमें आंकड़े अंकित नहीं होते, इसलिए गणना की जरूरत नहीं होती। इसमें लिखा होता है- ‘हाई इन शुगर’ या ‘हाई इन कैलोरी’। अगर किसी खाद्य पदार्थ में दो अवयवों का मात्रा अधिक है तो उसे दो अष्टकोणीय चिन्ह में प्रदर्शित किया जाता है। पहली नजर में इससे उपभोक्ता को यह चेतावनी मिलती है कि कोई उत्पाद स्वास्थ्य के लिए कितना हितकर या अहितकर है। चिली में चेतावनी के स्तर सर्वप्रथम 2016 में लागू किए गए थे। अडोल्फो इबान्येज विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर गियरमो परीजे बताते हैं, ‘चेतावनी का स्तर छह साल का बच्चा भी समझ सकता है। ये बहुत स्पष्ट, समझ में आने वाले और वह इच्छित संदेश देते हैं।’ यह बहुत प्रभावी और पोषण की जानकारी को आसानी से समझाते हैं।

अमरिका स्थित यूएनसी गिलिंग्स स्कूल ऑफ ग्लोबल पब्लिक हेल्थ में न्यूट्रिशन के प्रोफेसर बैरी पॉपकिन बताते हैं, चिली में इसके लागू होने के एक साल बाद कार्बोनेटेड बेवरजेस का प्रति व्यक्ति उपभोग 24.9 प्रतिशत कम हो गया। जो मांएं पहले लेबल को समझ नहीं पाती थीं।, अब वे लेबल के आंकड़ों को मार्गदर्शक के रूप में देखती हैं। उन्हें समझ में आ गया है कि अधिक लेबल वाला उत्पाद स्वास्थ्य के लिए ज्यादा ठीक नहीं है। चेतावनी के स्तर पेरू और कनाडा में भी लागू किए गए हैं। उरुग्वे, सिंगापुर, मैक्सिको और इजराइल भी इन्हें लागू करने के विभिन्न चरणों में हैं। चिली में चेतावनी बड़े आकार और पैकेट के सामने वाले हिस्से के बड़े भाग में होती है। यह पैक के दाई तरफ के ऊपरी हिस्से में होती है और काले रंग के लेबल में सफेद रंग का बोर्डर ध्यान खींचता है। इससे पैकेट में चेतावनी के स्तर की स्पष्टता से पहचान हो जाती है। इस तरह के लेबल भारत में भी सफल हो सकते हैं क्योंकि आबादी का बड़ा हिस्सा निरक्षर और अंग्रेजी पढ़ने में असमर्थ है। आमतौर पर पैकेटों में अंग्रेजी का ही इस्तेमाल किया जाता है। शाकाहारी और मांसाहारी भोजन में एफओपी लेबल काफी सफल रहे हैं। एफएसएसएआई वर्तमान नियमों के अनुसार, इसे लाल और हरे रंग के बिंदुओं से स्पष्ट करता है ताकि सूचना को समझना आसान हो लेकिन खाद्य नियामक अपने अनुभवों से सीखने को तैयार नहीं है।

हम क्या खाते हैं

एफएसएसएआई अपने खुद के नियमों को लागू करने में देरी कर सकता है लेकिन सीएसई ने उन्हीं नियमों का इस्तेमाल कर जाना कि हम क्या खा रहे हैं। अगर नियमों को लागू कर दिया जाता है तो क्या होगा और जो भोजन हम खा रहे हैं वह कितना उचित है? क्या तब इसे खाना ठीक रहेगा? या यह रेड होगा जो हमें बताएगा कि भोजन सुरक्षित नहीं है?

सीएसई द्वारा प्रयोगशाला में किए गए परीक्षण के नतीजे साफ बताते हैं कि सभी जंक फूड रेड फूड हैं चूंकि सभी पैकेटबंद भोजन में नमक और वसा की मात्रा अधिक है, इसलिए पैकेट में कम से कम दो लाल रंग के अष्टकोणीय चिन्ह होने चाहिए। वसा के लिए लाल होने वाली फ्राईज और नमक के लिए लाल होने वाले पिज्जा को छोड़कर, सभी फास्ट फूड नमक और वसा के लिए लाल होना चाहिए। यह महत्त्वपूर्ण है कि लाल निशान मैन्यू और रेस्तरां के डिस्प्ले बोर्ड पर प्रदर्शित किए जाते हैं।

सीएसई का विश्लेषण बताता है कि पैकेटबंद भोजन और फास्ट फूड में सीमा से कुई गुना अधिक वसा और नमक है। नमक का ही उदाहरण लें। एफएसएसएआई ने 100 ग्राम के चिप्स, नमकीन और नूडल्स में 0.25 ग्राम सोडियम की मात्रा निर्धारित की है। जबकि 100 ग्राम के सूप और फास्ड फूड के लिए 0.35 ग्राम सोडियम की सीमा निर्धारित की है। नोर क्लासिक थिक टोमेटो सूप में निर्धारित सीमा से 12 गुना अधिक नमक पाया गया है। हल्दीराम के नट क्रेकर में भी आठ गुना अधिक नमक मिला है। 100 ग्राम के चिप्स और नमकीन के लिए वसा की सीमा आठ ग्राम निर्धारित है लेकिन अधिकांश चिप्स और नमकीन में यह 2-6 गुना अधिक पाया गया है। मैकडोनल्ड्स के बिग स्पाइसी पनीर रैप, सबवे के पनीर टिक्का सैंडविच (6 इंच) और केएफसी हॉट विंग्स के चार पीस में दोगुना से अधिक वसा मिला है। 2019 का ड्राफ्ट फास्ड फूड में 25 प्रतिशत विचलन की बात कहता है लेकिन यह मात्रा उससे बहुत अधिक है।

यही वजह है फूड इंडस्ट्री आप तक जानकारी नहीं पहुंचने देना चाहती। और यही वजह है कि इंडस्ट्री ड्राफ्ट को लागू करने का विरोध कर रही है। उसकी रणनीति स्पष्ट है। वह चाहती है नई समिति बने और नियमों को और कमजोर कर दिया जाए। सेसिकरण की अध्यक्षता में 2018 में बनी कमेटी की रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है।

लेकिन इस कमेटी ने उद्योगों के हितों को ध्यान रखा है। यह कारोबार अंधेरे में काम करने में माहिर है। 16 सितम्बर, 2019 को न्यूयॉर्क टाइम्स में ‘ए शेडो इंडस्ट्री ग्रुप शेप्स फूड पॉलिसी अराउंड द वर्ल्ड’ शीर्षक से प्रकाशित लेख में खुलासा किया गया है कि किस तरह इंटरनेशनल लाइफ साइंसेस रिसर्च इंस्टीट्यूट बड़ी फूड बिजनेस करने वाली कम्पनियों के लिए सरकार के साथ लॉबिंग करता है। इसलिए आपको यह जानकर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि सेसिकरण इस संगठन के ट्रस्टी हैं इससे स्पष्ट होता है कि इन कम्पनियों की पहुंच कितनी व्यापक है। कमेटियों से लेकर सरकारी दफ्तरों तक में उनकी पैठ है। फूड इंडस्ट्री नहीं चाहती है कि ड्राफ्ट को लेकर उसका बयान लिया जाए। 27 जून, 2019 को इकॉनोमिक टाइम्स में प्रकाशित लेख में ऑल इंडिया फूड प्रोसेसर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष सुबोध जिंदल ने नियमों को न तो वैज्ञानिक माना और न ही व्यवहारिक। लेख में उनका बयान था, ‘पैकेटबंद भोजन में नमक, शुगर और वसा की मात्रा स्वाद की जरूरतों पर निर्भर करती है। यह उत्पादकों की पसंद नहीं है।’ जब सीएसई ने उनसे सम्पर्क किया जो उन्होंने टिप्पणी से इन्कार कर दिया। पेप्सिको इंडिया ने साधारण बयान दोहराया कि वह एक ‘कानून का पालन करने वाला कारपोरेट नागरिक है और वह भारत सरकार की ओर से बनाए गए सभी नियमों का पालन करेगा। इसमें लेबलिंग के नए नियम भी शामिल हैं।’

नेस्ले इंडिया ने सीएसई द्वारा भेजे गए ईमेल का पत्रिका छपने तक कोई जवाब नहीं दिया। हल्दीराम के नागपुर डिवीजन के ब्रांड मैनेजर साहिल सपरा ने भी टिप्पणी से इन्कार कर दिया। लेकिन तथ्य पूरी स्पष्टता से बोल रहे हैं। 2013 के बाद से जारी नियमों के जरिए उपभोक्ता को सूचित करने के प्रयासों को पूरी तरह नकार दिया गया है। अगर फूड इंडस्ट्री का काफी कुछ दाव पर लगा है तो लोगों का स्वास्थ्य उससे भी बड़े दाव पर है। एफएसएसएआई को स्वीकार करना होगा कि उद्योगों का हित हमारे स्वास्थ्य और कल्याण से बड़ा नहीं है। एक बेहतर और पूर्ण रूप से विकसित नियमों को तत्काल प्रभाव से लागू करने की जरूरत है।

(भव्या खुल्लर के इनपुर के साथ। अनिल अश्विनी शर्म भागीरथ और विवेक मिश्रा द्वारा अनुवादित)

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समय का हिमपात, होगा स्वरोजगार में साथ

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समय का हिमपात, होगा स्वरोजगार में साथHindiWaterMon, 01/13/2020 - 21:34

फोटो - live hindustan

बीस बरस पहले उतराखण्ड में ‘‘सेब’’ की फसल की खूब आमद थी, पर अब यहां लोग सेब की फसल यानि ‘‘सेब के बाग’’ को लगाने के लिए कई बार सोचते हैं। जी हां! ऐसा ही कुछ समय से प्रकृति में हो रहा था जो इस बार नहीं हुआ। आमतौर पर सेब की फसल का उत्पादन बर्फबारी पर ही टिका रहता है, सो पिछले 20 बरस से बर्फबारी कम ही हो रही थी। इस कारण लोग सेब की फसल से पलायन कर रहे हैं। कई काश्तकारो का कहना है कि सेब के पौध को फलोत्पादन तक बच्चे के जैसे पालना पड़ता है, फिर वह पांच साल के अन्तराल में फलोत्पादन ना करे तो उनकी मेहनत फिजूल ही जाती है। मगर इस बार की बर्फबारी से उनके चेहरे खिल उठे हैं कि उनके सेब के बाग इस साल अच्छे फलो का उत्पादन करेंगे। क्योंकि दिसम्बर में ही बर्फबारी जो हो गई और जनवरी के आरम्भ में बर्फ ने पहाड़ो पर सफेद चादर बिछा दी है।

ज्ञात हो कि हिमांचल से लगी यमुनाघाटी में लगभग 50 फीसदी लोगो की आजीविका सेब के बागानो पर ही निर्भर है। हिमांचल से आने वाली पाबर नदी, टौंस व यमुना नदी की घाटियों की जनसंख्या को जोड़ देंगे तो लगभग 10 लाख लोगो की आजीविका का स्रोत यहां ‘‘सेब’’ ही है। 20 साल से वे लोग अच्छी फसल सेब के बागानो से प्राप्त नहीं कर पाये। इस वर्ष के अन्त में यानि दिसम्बर माह में हुई अच्छी बर्फबारी से उद्यान मालिको के चेहरे खिल उठे है। वे विश्वास के साथ कह रहे हैं कि इस वर्ष सेब की अच्छी पैदावार होने वाली है। कह सकते हैं कि सेब और बर्फ का चोली-दामन का साथ है। बताते चलें कि उतराखण्ड व हिमांचल में सेब के अधिकांश बागान 1500 मी. से 2500 मी. तक की ऊंचाई पर ही स्थित है। इस दौरान कुदरत ने भी इस स्थिती पर बर्फबारी करके उद्यान से जुड़े लोगो के चेहरो की रंगत बढा दी है।

उल्लेखनीय हो कि उत्तराखंड मौसम विभाग ने भी स्पष्ट कर दिया कि इस दौरान उतराखण्ड की 2500 मीटर की ऊंचाई वाली पहाड़ियों ने एक से सात फीट तक बर्फ की चादर ओड़ दी है। इसलिए देहरादून, चकराता और मसूरी एवं धनौल्टी में भी हुई बर्फबारी को देखने पर्यटको की भीड़ जमा होने लगी है। राज्य के ऊपरी क्षेत्रों समेत बदरीनाथ, केदारनाथ धाम, हेमकुंड, गंगोत्री, यमुनोत्री, गोमुख और नेलांग घाटी में भी अच्छी बर्फबारी से भारी ठंड बढ़ गई है। देहरादून जिले के चकराता क्षेत्र के लोखंडी-लोहारी में मौसम का पहला हिमपात होने से लोगों के चेहरे खिल उठे हैं। ग्रामीणों ने सुबह से जारी बर्फबारी का मजा लिया। इसके अलावा मुंडाली, खंडबा, देववन, जाडी व मिडांल समेत आसपास क्षेत्र में बर्फबारी से क्षेत्र में ठंडक बढ़ गई है। उधर जम्मू-कश्मीर में भी एलओसी से सटे केरन, करनाह, माछिल, तंगधार और गुरेज में बर्फबारी के चलते हाईवे 72 घण्टे तक बंद रहा। यहां तीन दिनों से लगातार बर्फबारी हुई है। जहां लगभग 200 से ज्यादा पर्यटक बर्फ में फंस गये थे जिन्हे बाद में रेस्क्यू किया गया।

समय से हुई बर्फबारी

रुद्रप्रयाग जनपद के उच्च हिमालयी क्षेत्रों समेत अन्य ऊंचाई वाले इलाकों में जमकर बर्फबारी हो हुई। केदारनाथ, मदमहेश्वर, तुंगनाथ धाम में जमकर बर्फबारी हुई तो वहीं ऊखीमठ, चिरबटिया, हरियाली कांठा, राड़ीटाॅप समेत कई ऊंचाई वाली पहाड़ियों ने भी बर्फ की चादर ओढ़ ली है। मिनी स्विट्जरलैंड के नाम से विख्यात चोपता-दुगलबिट्टा ने भी पर्यटकों के स्वागत के लिए बर्फ की चादर बिछा दी है।  राज्य के अधिकांश स्थानों पर अधिकतम तापमान में गिरावट दर्ज की गयी। मौसम विभाग के निदेशक विक्रम सिंह ने बताया कि केदानाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री सहित 2500 मीटर और उससे अधिक ऊंचाई वाले स्थानों पर अभी एक फुट की बर्फबारी हुई है। मौसम की फिर से बर्फबारी करके निचले इलाकों तक पंहुचने की उम्मीद बन रही है। उन्होंने बताया कि आगे भी मौसम समय समय पर प्रकृति के अनुकूल बना रहेगा। 2500मी॰ के निचले हिस्सों जैसे हिमनगरी के पास कालामुनी और बेटुलीधार में तीन से 18 इंच बर्फबार हुई है। इसी तरह मुनस्यारी क्षेत्र से लगे इलाकों में जमकर बर्फबारी हुई। थल-मुनस्यारी हाईवे पर कालामुनी और बेटुलीधार की पहाड़ियां तीन 18इंच मोटी बर्फ की चादर से ढक गईं। खलिया में चार से 12इंच बर्फ गिरी है। अतएव मुनस्यारी में अधिकतम तापमान 8 डिग्री सेल्सियस तो न्यूनतम तापमान माइनस एक डिग्री पहुंच गया है। जो आगामी दो माह तक बना रहेगा। बर्फबारी देख पर्यटक तड़के अपने होटलों को छोड़ कालामुनि और बेटुलीधार जा पहुंचे। पर्यटकों ने बर्फबारी का जमकर आनंद उठाया। कालामुनि में पर्यटक बर्फ के गोले बनाकर खेलते नजर आए। बंगाल से आये मानस चटर्जी अपने परिवार के साथ मुनस्यारी पहुंचे हैं। वह खुद को किस्मत का धनी मानते हैं। उनका कहना है कि मुनस्यारी स्वर्ग से कम नहीं है। आज पहली बार उन्होंने सपरिवार बर्फबारी देखी है। उन्होंने परिवार के साथ बर्फबारी का लुत्फ लिया। हल्द्वानी से पहुंचे दीपक भी बर्फ को देखकर काफी खुश नजर आए। मुनस्यारी में हुई बर्फबारी से स्थानीय व्यापारी और होटल व्यावसायी भी गदगद हैं। उनका कहना है कि बर्फबारी शुरू होने के बाद मुनस्यारी में पर्यटक अधिक संख्या में आएंगे। इससे उनका व्यवसाय भी बढ़ेगा।

बर्फबारी का तात्पर्य

उतरकाशी की पूरी यमुनाघाटी और हर्षिल क्षेत्र तथा टिहरी की काणाताल, धनोल्टी आदि क्षेत्रो में ‘‘सेब बागान मालिक’’ इस दौरान की बर्फबारी से फूले नहीं समा रहे है। उद्यानपति अमरसिंह कफोला, उद्यान पण्डित कुन्दन सिंह पंवार, पं॰ शारदा, भरत सिंह राणा, ठाकुर महावीरचन्द आदि सैकड़ो काश्तकारो का कहना है कि पिछले 30 सालो में ऐसा नहीं कि बर्फबारी ना हुई हो, मगर पिछले कई वर्षो से बर्फबारी बेमौसमी हुई है। इस साल तो हिमपात ने काश्तकारो के अनुसार ही आगमन किया है। वे कहते हैं कि समय पर हिमपात होने से उनके सेब के बागान अब समय पर फूल देंगे, समय पर फल देंगे, फलोपदन भी अच्छा होगा और समय पर यह नगदी फल मंण्डी पंहुचेगा। उन्होने कहा कि जब जब समय पर हिमपात हुआ है तब तब सेब की अच्छी पैदावार हुई है। वे आगे बताते हैं कि समय पर हिमपात के कारण ओलावृष्टी भी ऐसे समय पर होगी जब फसल को काश्तकार समेट देंगे। वर्ना गलत समय पर हिमपात होने से फलो व फूलों को सर्वाधिक खतरा फिर ओलावृष्टी से होता है। यदि फलोत्पादन अच्छा भी होगा तो ओलावृष्टी से सौ फीसदी नुकसान हो जाता है। वे कहते हैं कि मौसम का चक्र भी बर्फबारी पर ही निर्भर रहता है।

उद्यानो के जानकारो का मानना है कि बर्फबारी का संबध सीधा फलों आदि की उपज पर होता है। विशेषकर सेब की फसल बावत। सेब की पौध को बारहमास पानी की आवश्यकता होती है। इसलिए भी सेब का उत्पादन करना भी उतना ही कठीन है। क्योंकि सेब की फसल यानि उतराखण्ड, हिमांचल, व जम्मू कश्मीर में ऊंचाई वाले क्षोत्रों में ही होती है। बर्फ भी इन्ही जगहो पर गिरती है। मगर इस मध्य हिमालय में ऊंचाई वाले स्थान पानी की आवश्यकता हेतु बर्फ व बरसात पर ही निर्भर रहते है। इसलिए यदि समय पर इन स्थानो पर हिमपात हो जाता है तो यहां यह हिमपात पेड़ो के लिए संजीवनी ही साबित होगी। और सेब के लिए तो समय का हिमपात मौसम का सन्तुलन तक बनाता है।
कुलमिलाकर समय पर हुए हिमपात ने हिमालय रीजन के लोगो के चेहरों पर रौनक खड़ी कर दी है। उद्याानो में फलोत्पादन की मात्रा बढेगी तो वहीं इस हिमालय में पर्यटको की आमाद भी बढेगी। फलस्वरूप इसके एक तरफ लोगो को रोजगार उपलब्ध होगा तो वहीं पर्यावरण का सन्तुलन भी बारहमास बना रहेगा।

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