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साफ माथे का पानी

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Author: 
सिराज केसर/मीनाक्षी अरोड़ा
Source: 
कादम्बिनी, जून 2012

आज का विज्ञान और तकनीकी की बात करने वाला नदियों से अलग-थलग पड़ा यह समाज जल-चक्र को ही नकार रहा है। इस नई सोच का मानना है कि नदियां व्यर्थ में ही पानी समुद्र में बहा रही हैं। ये लोग भूल रहे हैं कि समुद्र में पानी बहाना भी जल-चक्र का एक बड़ा हिस्सा है। नदी जोड़ परियोजना पर्यावरण भी नष्ट करेगी और भूगोल भी। नदियों को मोड़-मोड़ कर उल्टा बहाने की कोशिश की गई तो आने वाली पीढ़ियां शायद ही हमें माफ कर पाएंगी।

दृष्टि, दृष्टिकोण, दर्शन, विचार और उसकी धारा में पानी खो रहा है। पानी के अकाल से पहले माथे का अकाल हो चुका है; अच्छे कामों और विचारों का अकाल हो चुका है। नदी समाजों से खुद को जोड़ने की बजाय सरकारें समाज को नदियों से दूर करना चाहती है। आजादी से अब तक की सरकारी योजनाओं में सबसे खतरनाक और अव्यावहारिक नदी-जोड़ योजना की कोशिश हो रही है। भूगोल को कुछ लोग ‘ठीक’ करना चाहते हैं। कानून से पर्यावरण बचाना और पेड़ लगाना चाहते हैं। बड़े-बड़े बांध बांधकर लोगों की प्यास बुझाना चाहते हैं। कहना ना होगा कि ये बड़े- बड़े विचार लोगों की प्यास तो बिल्कुल नहीं बुझा पा रहे हैं। उदाहरणों के लिये इतिहास में ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। अभी पिछले साल ही मध्य प्रदेश के कई शहरों में पानी के वितरण के लिए सीआरपीएफ लगानी पड़ी। नदी की बाढ़ से ज्यादा माथे की बाढ़ दुखदायी बन गई है।

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