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बाढ़ का बेटा

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Author: 
रामवृक्ष बेनीपुरी
जब बाढ़ अपने ओज पर होती, वह बिसेसर को नाव पर बिठाकर चल पड़ते चौर की ओर! दिन में ही नहीं; अंधेरी रात को भी। ‘डरना मत बेटे, बाढ़ में देवी-देवता होते हैं, भूत-पिशाच नहीं।’ जब नाव बीच चौर में पहुँचती, बूढ़ा पतवार चलाना छोड़ देता, नाव को स्थिर कर देता और उसकी मांगी पर जाल लिए खड़ा होकर पानी की ओर एकटक घूरता! नाव धीरे-धीरे आप ही फिसल रही और बूढ़ा पानी की ओर इस तरह देख रहा होता, मानो अपनी नजर उसके भीतर तक घुसा देना चाहता हो! उस समय उसकी सूरत-लगता, नाव की मांगी पर तांबे की मूर्ति खड़ी है - निस्पंद निर्निमेष!‘बाढ़ आ रही है,’ सुकिया ने कहा। बिसेसर ने जरा सिर उठाकर उसकी ओर देखा और फिर अपने जाल की मरम्मत में लगा रहा।

बाढ़ आ रही है - क्या बिसेसर यह नहीं जानता? आज चार दिनों से जो उमस-उमस रही, उत्तर ओर, हिमालय की तराई में जो लगातार बिजली चमकती रही, बादल गरजते रहे, वे क्या सूचना नहीं देते थे कि बाढ़ आएगी ही।

बाढ़ उसके लिए कोई नई चीज है?
बचपन से ही वह बाढ़ देखता आया है। देखता आया है, उससे खेलता आया है।

बीच चौर में है उसका यह गांव। चार महीने तक तो यह एक टापू ही बना रहता है और कहीं वर्षा से बाढ़ आती हो, यहां तो सूखे से भी बाढ़ आती रही है।

गांव सूखा, खेत सूखे, तालाब सूखे, नाले सूखे; कि एक दिन अचानक शोर मचा, बाढ़ आई, बाढ़ आई!

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पानी में घुलता जहर

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Author: 
बी.के.त्यागी एवं डॉ. अनुराग शर्मा

हम जानते हैं कि जल का मुख्य स्रोत बारिश है, चाहें वह नदी हो या नहर या जमीन के नीचे मौजूद पानी का अथाह भंडार। सभी स्रोतों में जल की आपूर्ति बारिश ही करती है। बारिश के पानी को संचय करने के पारंपरिक ज्ञान को हम भुला बैठे थे और आज फिर उस ओर लौट रहे हैं। भारत में भारी बारिश लगभग 100 घंटों में हो जाती है, यानी साल के 8,760 घंटों में हमें सिर्फ 100 घंटों में बरसे पानी से ही काम चलाना है। आज औद्योगिकरण और गहन कृषि तथा शहरीकरण के चलते हमने नदियों और भूजल का अंधाधुंध दोहन किया है।

उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में जल प्रबंधन को लेकर दो मुख्य बदलाव आए हैं। पहला तो यह कि राज्य ने पानी उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली, जिससे कई विपरीत परिस्थितियां उत्पन्न हुई, जैसे समुदायों ने, परिवारों ने, जो पहले पानी के प्रबंधन और संरक्षण की पहली ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते थे, उन्होंने पानी को बचाने से अपना पल्ला ही झाड़ लिया।

दूसरा, मुख्य बदलाव यह आया कि पहले जैसे बारिश के पानी और बाढ़ के पानी का संचय कर उपयोग में लाया जाता था, उसके विपरीत सतही पानी (मुख्यतः नदियों) और भूजल पर हमारी निर्भरता बढ़ी।

यह बदलाव इसलिए आए क्योंकि उपनिवेशवाद के दिनों में अंग्रेजों ने पानी पर केंद्रीकृत अधिकार जमाया और उसे उद्योगों के विकास और मनचाही खेती के लिए उपयोग में लिया। आजादी के बाद की सरकारें भी इस नीति को ऐसे अपना कर चलाती रहीं।

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सूप बोलय तो बोलय चलनी, जेह मा बहत्तर छेद

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भूजल प्रबंधन संबंधी उ.प्र. के इन चुनिंदा शासकीय निर्देशों पर निगाह डालें, तो ये वाकई कितने अच्छे हैं! किंतु ये कागज पर से कब उतरेंगे, इसकी अभी भी प्रतीक्षा है। छोटी नदियों के पुनर्जीवन के नाम उन्हें जेसीबी से खोदकर नदी से नाला बनाया जा रहा है। जरूरत यह है कि उत्तर प्रदेश पहले खुद को पानीदार बनाए, तब दूसरों का रास्ता रोकने की धमकी दे। अपने दायित्व की पूर्ति किए बगैर, दूसरे को दायित्व पूर्ति की सीख देना वाजिब नहीं।एक कहावत है- “गरीब की जोरू, सकल गांव कै भौजाई।’’जब देश के महामहिम से लेकर भाजपा-कांग्रेस के महामहिम तक नई नवेली पार्टी की दिल्ली सरकार को धमकाने में लगे थे, तो भला उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई मंत्री श्री शिवपाल यादव कैसे चूकते! उन्होंने भी लगे हाथ गंगा में हाथ धो डाला। उन्होंने दिल्ली सरकार को हिदायत दी कि वह यमुना में प्रदूषण रोके नहीं, वरना वह गंगनहर के जरिए दिल्ली को मिल रहे गंगाजल की आपूर्ति रोक देंगे।

यमुना दिल्ली से होकर उत्तर प्रदेश में जाती है। अतः उनका कहना निःसंदेह वाजिब माना जाता, गर उन्होंने उत्तर प्रदेश के हिस्से की यमुना को साफ रखने के लिए कुछ सटीक प्रयास किए होते।

यह सही है कि यमुना में सबसे ज्यादा सीवेज प्रदूषण दिल्ली ही डालती है।

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भूजल

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Author: 
डी.सी शर्मा और के.के. रॉय
Source: 
इंटर कोऑपरेशन
भूजल एक गतिशील स्रोत है। लेकिन यह असीमित नहीं है इसकी मात्रा तथा गुणवत्ता एक स्थान से दूसरे स्थान तथा जलवायु के अनुसार परिवर्तित होती रहती है। जल पटल का उतार-चढ़ाव भूजल भंडारों में परिवर्तन को दर्शाता है। भूजल भंडारों में वर्षा उपरांत पुनर्भरण से तथा तालाबों, नहरों तथा सिंचाई से रिसाव द्वारा वृद्धि होने पर जल पटल ऊपर आ जाता है। इसी प्रकार भूजल भंडारों से पम्पों द्वारा पानी निकालने से तथा भूजल के बाह्य प्रवाह के कारण जल पटल में गिरावट हो जाती है।धरती की सतह के नीचे भूजल लगभग हरेक जगह पर कम या अधिक मात्रा में उपलब्ध है। एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी पर लगभग 20 लाख घन मील आयतन में भूजल समाया हुआ है और इसका लगभग आधा भाग पृथ्वी की सतह से केवल एक मील की गहराई में ही व्याप्त है। वर्षा के मौसम के बाद जल का एक भाग जमीनी सतह के नीचे विभिन्न प्रकार की कठोर और नरम चट्टानों में दरारों, तरेड़ों तथा चट्टानों के कणों के मध्य रिक्त स्थानों में एकत्र हो जाता है। यह जल ही भूजल कहलाता है।

भूजल का विश्लेषण


पृथ्वी की सतह के नीचे चट्टानों में उपलब्ध समस्त रिक्त स्थान जब जल से पूर्ण रूप से भर जाते हैं तो वह क्षेत्र संतृप्त क्षेत्र कहलाता है। इस संतृप्त क्षेत्र की ऊपरी सतह ‘जल पटल’ (वाटर टेबल) कहलाती है।

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तबाही के कारखाने

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Author: 
विनोद कुमार
Source: 
जनसत्ता (रविवारी), 23 फरवरी 2014
आदिवासियों को आज भी मनुष्य से एक दर्जा नीचे का जीव माना जाता है। वे तो शुरू से विकास की खाद बनते रहे हैं। अंग्रेजों ने यही किया। देशी हुक्मरानों ने यही किया और अलग राज्य बनने के बाद आदिवासी मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में चल रही सरकारें भी यही कर रही हैं। इसे ही समाजशास्त्री के नेतृत्व में चल रही सरकारें भी यही कर रही हैं। इसे ही समाजशास्त्री आंतरिक उपनिवेशवादी शोषण कहते हैं और इससे लगता है कि आदवासी जनता को अभी मुक्ति नहीं।पूर्वी सिंहभूम के हरे-भरे चांडिल क्षेत्र में स्पंज आयरन कारखानों की चिमनियों से निकलता खतरनाक धुआं वहां के जन-जीवन पर घने कोहरे की तरह छाता जा रहा है। स्पंज आयरन कारखानों की चिमनियों से निकलने वाली गैसों में सल्फर और नाइट्रोजन ऑक्साइड प्रमुख हैं।

इसके अलावा उन गैसों में केडियम, क्रोमियम, आर्सेनिक, मैगनीज, सीसा, पारा जैसे खतरनाक तत्वों के बारीक कण भी मौजूद होते हैं, जो हवा के साथ मिल कर जहरीली गैसों में बदल जाते और बहुत आसानी से सांस के साथ मानव शरीर में पहुंच जाते हैं। वे युद्ध में प्रयुक्त होने वाले रासायनिक जहरीली गैसों से कम खतरनाक नहीं होते, फर्क सिर्फ इतना है कि उससे मौत तत्काल नहीं होती, लोग तिल-तिल कर मरते हैं। लेकिन इसकी चिंता न कारखाना मालिकों को है और न सरकार को।

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बैगाओं की बेंवर खेती से मिलता है संतुलित भोजन

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बेंवर खेती जैविक, हवा और पानी के अनुकूल और मिश्रित है। यह सुरक्षित खेती भी है कि चूंकि इसमें मिश्रित खेती होती है अगर एक फसल मार खा गई तो दूसरी से इसकी पूर्ति हो जाती है। इसमें कीट प्रकोप का खतरा भी नहीं रहता। इसमें रासायनिक खाद की जरूरत नहीं होती। यह खेती संयुक्त परिवार की तरह है। एक फसल दूसरी की प्रतिस्पर्धी नहीं है बल्कि उनमें सहकार है। एक से दूसरी को मदद मिलती है। मक्के के बड़े पौधे कुलथी को हवा से गिरने से बचाते हैं।मध्य प्रदेश के डिण्डौरी जिले के बैगा आदिवासी पीढ़ियों से बेंवर खेती करते आ रहे हैं। घने जंगलों के बीच बसे और आदिम जनजाति में शुमार बैगाओं की अनोखी बेंवर खेती उनकी पहचान है। इससे उन्हें दाल, चावल, रोटी, हरी सब्जियां और फल मिलते हैं। कड़ी मेहनत करने वाले बैगाओं को पौष्टिक संतुलित भोजन मिलता है। हालांकि बेंवर पर रोक और बाजार के प्रभाव में बैगा एकल फसलों की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन बीज विरासत अभियान बैगाओं को बेंवर को प्रोत्साहित कर रहा हैं।

बैगाओं के तीज-त्यौहार खेती पर आधारित हैं। जब खेती ठीक से नहीं होती तो वे त्यौहार भी ठीक से नहीं मना पाते। बीज विरासत अभियान के प्रमुख नरेश विश्वास कहते हैं कि अगर बैगाओं की फसल नहीं होती तो वे त्यौहार व नाचा भी नहीं करते हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से बेंवर व मिश्रित खेती ने उनकी जीवन में बदलाव आ गया है। उनके पास खुद के बीज और खुद का अनाज होने लगा है।

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फिर भी मैली यमुना

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Author: 
पंकज चतुर्वेदी
Source: 
नेशनल दुनिया, 07 मार्च 2014
दिल्ली से लेकर यू.पी तक यमुना की स्थिति एक गंदे नाले जैसी हो गई है। नदी की सफाई के लिए 6500 करोड़ से ज्यादा की रकम खर्च की जा चुकी है। पर हालात पहले जैसे ही बदतर हैं। इसी मुद्दे पर फोकस कर रहे हैं। पंकज चतुर्वेदी।

एक सपना कमानवेल्थ खेलों के पहले दिखाया गया था कि अक्टूबर, 2010 तक लंदन की टेम्स नदी की ही तरह देश की राजधानी दिल्ली में वजीराबाद से लेकर ओखला तक शानदार लैंडस्केप, बगीचे होंगे, नीला जल कल-कल कर बहता होगा, पक्षियों और मछलियों की रिहाईश होगी। लेकिन कॉमनवेल्थ खेल तो बदबू मारती, कचरे व सीवर के पानी से लबरेज यमुना के तट पर ही हुए।उत्तर प्रदेश सरकार ने दिल्ली को पत्र लिखकर धमका दिया है कि यदि यमुना में गंदगी घोलना बंद नहीं किया तो राजधानी का गंगाजल रोक देंगे। हालांकि दिल्ली सरकार ने इस पत्र को कतई गंभीरता से नहीं लिया है, न ही इस पर कोई प्रतिक्रिया दी है। लेकिन यह तय है कि जब कभी यमुना का मसला उठता है तो सरकार बड़े-बड़े वायदे करती है पर क्रियान्वयन के स्तर पर कुछ नहीं होता है।

सफाई के नाम पर


इसी साल फरवरी के अंतिम हफ्ते में शरद यादव की अगुवाई वाली संसदीय समिति ने कहा कि यमुना सफाई के नाम पर व्यय हुए 6500 करोड़ रूपए बेकार ही गए हैं क्योंकि नदी पहले से भी ज्यादा गंदी हो चुकी है।

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नर्मदा-क्षिप्रा पाइप लिंक : दावे, वादे और इरादे

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जिस मालवा में ‘पग-पग रोटी, पग-पग नीर’ के संरक्षण की कहावत चलती है; जिस मध्य प्रदेश में स्वावलंबन के नारों पर खर्च कम नहीं हुआ; उसी मध्य प्रदेश में क्षिप्रा को सदानीरा बनाने के बेहतर, कम खर्चीले और स्वावलंबी विकल्पों को अपनाने की जगह पाइप लाइन लिंक की क्या जरूरत थी? यदि पाइप लाइनों से ही नदियों को सदानीरा बनाया जा सकता, तो अब तक देश की सभी नदियां सदानीरा हो गईं होती। अगर पाइप लाइन से ही सभी को पानी पिलाया जा सकता, तो फिर जल संकट होता ही नहीं। 25 फरवरी, 2014 को पूर्व उप प्रधानमंत्री व भाजपा नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी ने नर्मदा-क्षिप्रा लिंक को मालवा को समर्पित कर दिया। 23 से 25 फरवरी, तीन दिनों तक अखबारों में इस पाइप लाइन लिंक के एक पेजी विज्ञापन चमकते रहे। दिलचस्प है कि इससे चुनावी लाभ मिलने की संभावना को लेकर जहां एक ओर मालवा के भाजपा नेताओं में उत्साह का परिदृश्य है तो दूसरी ओर निमाड़ के किसानों द्वारा इस लिंक का संचालन और उद्घाटन रोकने को लेकर उच्च न्यायालय में गुहार की चित्र।

किसानों का विरोध है कि निमाड़ की नहरों का काम रोककर इस पाइप लाइन परियोजना को आगे बढ़ाया जा रहा है। बड़वानी स्थित मंथन अध्ययन केन्द्र के मुताबिक इस परियोजना का पैसा भी ओंकारेश्वर नहर परियोजना से लिया गया है।

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अविरल-निर्मल एवं सजला गोमती की जरूरत क्यों

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Author: 
डॉ. वेंकटेश दत्ता

कभी टेम्स नदी एक विशाल एवं प्रदूषित नाले में तब्दील हो चुकी थी। लेकिन जागरूकता और अनुशासन के जरिए आज यह सब नदियों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गई है। हमें भी यह सोचना होगा कि गोमती नदी आखिर कैसे अपना पुराना स्वरूप और प्रतिष्ठा वापस प्राप्त कर सकती है। इसके लिए निश्चय ही तात्कालिक उपाय पर्याप्त एवं प्रभावकारी नहीं हो सकते, क्योंकि रोग के निदान तथा उपचार से अधिक उससे बचाव की अधिक आवश्यकता है। जो संपूर्ण जीवन शैली द्वारा निर्धारित होता है।

गोमती अपने जल से भारत के सबसे बड़े एवं उपजाऊ समतल बेसिन में रहने वाले उ.प्र. के लाखों लोगों का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूपों से पालन एवं भरण-पोषण हजारों सालों से करती आ रही है। इन भौतिक सम्पदाओं के अतिरिक्त गोमती वेद-पुराण, उपनिषद आदि ग्रन्थों द्वारा प्रतिष्ठित अनादि काल से मोक्षदायिनी उद्घोषित हो चुकी है।

जिस देश में गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, सिन्धु तथा कावेरी के पवित्र जल के सन्निधान की प्रत्येक जल में कामना रहती है, उस देश में नदियां असहाय सी अपनी रक्षा के लिए देश की जनता का मुख देख रही हैं। दुर्भाग्यवश आज धरती पर जल की मात्रा का तो निरंतर ह्रास हो ही रहा है, साथ ही शुद्ध जल की मात्रा अत्यंत अपर्याप्त है।

जल के परंपरागत स्रोत विशेषतः मानवकृत धर्म के परिणामस्वरूप उत्खनित तालाब, कुएँ, बावली आदि नष्टप्राय हैं। पर्वतों से छेड़छाड़ के कारण निर्झर-स्रोतों में भी न्यूनता आई है।

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विश्व जल दिवस : ऊर्जा से पानी और पानी से बचेगी ऊर्जा

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संयंत्रों से निकलने वाले गर्म पानी के भीतर का पूरा जैविक तंत्र नष्ट हो जाता है। पानी की शुद्धता के लिए जरूरी मछलियां, दूसरे जीव व वनस्पति ही नहीं, आसपास की मिट्टी की गुणवत्ता तथा खेती भी संकटग्रस्त हो जाती है। सिर्फ इतना नहीं, थर्मल पावर प्लांट से निकलने वाले आर्सेनिक, पारा, सीसा जैसे खतरनाक रसायन पूरा जीवन ही नष्ट कर देते हैं। अमेरिका के थर्मल पावर संयंत्रों से 120 मिलियन टन कचरा छोड़ने का आंकड़ा है। भारत की सरकार ऐसे आंकड़ों को शायद ही कभी बताना चाहे।भारतीय जल पर बात करने के पारंपरिक दिवस और बहुत हैं; अक्षय तृतीया, गंगा दशहरा, कजरी तीज, देवउठनी एकादशी, कार्तिक पूर्णिमा, मकर सक्रान्ति आदि आदि। 22 मार्च अंतरराष्ट्रीय जल दिवस है, तो बात क्यूं न अंतरराष्ट्रीय ही की जाए। भारत के नए विज्ञापनों में पानी की बचत के नुस्खे मुंह, बर्तन, गाड़ी धोते वक्त नल खुला रखने के बजाए मग-बाल्टी के उपयोग तथा अनुशासित सिंचाई तक सीमित रहते हैं। यह हम सब जानते है। किंतु आपको यह जानकर अच्छा लगेगा कि इस मामले में अंतरराष्ट्रीय नजरिया बेहद बुनियादी है और ज्यादा व्यापक भी।

वे मानते हैं कि पानी.. ऊर्जा है और ऊर्जा.. पानी। यदि पानी बचाना है तो ऊर्जा बचाओ। यदि ऊर्जा बचानी है तो पानी की बचत करना सीखो। बिजली के कम खपत वाले फ्रिज, बल्ब, मोटरें उपयोग करो। पेट्रोल की बजाए प्राकृतिक गैस से कार चलाओ।

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पार्टियां अनसुना न करें लोकादेश का जलादेश

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शोषण, प्रदूषण और अतिक्रमण नई चुनौतियां बनकर हमें डरा रहे हैं। इन नई चुनौतियों से निपटने के लिए जरूरी है कि नदी की जमीन को चिन्हित व अधिसूचित किया जाए। रिवर-सीवर अलग हों। औद्योगिक कचरे पर लगाम लगे। ठोस कचरे के पुनः उपयोग का काम प्राथमिकता पर आए। प्रवाह का मार्ग बाधा मुक्त करने तथा नदी जल व रेत का अति दोहन रोकने की बात जोर-शोर से उठाई जाए। जल सुरक्षा अधिनियम बने। नदी जलग्रहण क्षेत्र विकास सुनिश्चित हो।पार्टी, पार्टी और पार्टी! पार्टिंयों के उम्मीदवार, पार्टिंयों के घोषणापत्र, पार्टिंयों का ही राज! पार्टियां चाहें, तो कानून; न चाहें, तो जनता का हित बेमतलब! पार्टी फर्स्ट; वोटर लास्ट। 6 राष्ट्रीय, 47 राज्य स्तरीय.. कुल पंजीकृत 1616; भारत लोकतंत्र है कि पार्टीतंत्र?

यह चित्र बदलना होगा। यह चित्र असवैंधानिक है। संविधान व्यक्ति को चुनाव लड़ने का अधिकार देता है, पार्टी या पक्ष को नहीं। कोई बताए कि भारत के संविधान में इस बाबत् पार्टी या पक्ष का नाम कहां लिखा है? मालूम नहीं, चुनाव आयोग किस संविधान के तहत् पार्टियों को पंजीकृत करता है और चुनाव में दलगत उम्मीदवारी की अनुमति देता है? महात्मा गांधी ने तो काग्रेस को बर्खास्त करने की बात बहुत पहले कह दी थी। कायदे से संविधान लागू होते ही सभी राजनैतिक दलों को बर्खास्त हो जाना चाहिए था।

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कचरे में सिमटता भारत

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Source: 
सत्यमेव जयते, 15 मार्च 2014

आज पृथ्वी अपनी प्राकृतिक रूप खोती जा रही है। जहां देखो वहां कूड़े के ढेर व बेतरतीब फैले कचरे ने इसके सौंदर्य को नष्ट कर दिया है। विश्व में बढ़ती जनसंख्या तथा औद्योगीकरण एवं शहरीकरण में तेजी से वृद्धि के साथ-साथ ठोस अपशिष्ट पदार्थों द्वारा उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी विकराल होती जा रही है।
इस खबर के स्रोत का लिंक: 

http://www.youtube.com

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बढ़ता जल संकट मानवता के लिए चेतावनी

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Author: 
राम शिरोमणि शुक्ल
Source: 
नेशनल दुनिया, 24 मार्च 2014

जल संकट नई बात नहीं है। यह लगातार बढ़ता जा रहा है। विकास के चाहे जितने बड़े-बड़े दावें किए जा रहे हों पर अब भी भारत के ही विभिन्न इलाकों में पानी का विकराल संकट है। लोगों को कई किलोमीटर दूर जाकर वहां से पीने के लिए पानी ले आना पड़ता है। कई इलाकों में जल स्तर इतना नीचे चला जा रहा है कि उसे खोज पाना मुश्किल होता जा रहा है। जहां पानी मिल भी जा रहा है वह इतना खराब होता है कि उससे कपड़े तक नहीं धोए जा सकते, पीने लायक तो वह कतई होता ही नहीं है।

संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट में आगाह किया गया है कि आने वाले समय में जल संकट गहरा जाएगा। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सन 2025 तक दुनिया की करीब 3.4 अरब जनसंख्या गंभीर जल संकट से जुझ रही होगी। यह संकट अगले 25 सालों में और भी गहरा हो जाएगा। यह इतना गहरा हो जाएगा कि पानी के लिए लोग एक दूसरे की जान के दुश्मन हो जाएंगे। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जल संकट का सबसे खराब असर दक्षिण एशिया खासकर भारत पर पड़ सकता है। ऐसा यहां की भौगोलिक स्थितियों के कारण होगा।

वैसे तो यह रिपोर्ट जल दिवस के विशेष संदर्भ में तैयार और जारी की गई है लेकिन इसके कालातीत महत्व को समझने की आवश्यकता है।

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घोषणापत्रों में अर्थाभास और पर्यावास

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दरअसल, प्राकृतिक संसाधनों का व्यवसायीकरण रोकना, अंधाधुंध कारपोरेट मुनाफे पर लगाम लगाना है। अतः इसमें किसी पार्टी की रुचि नहीं। आम आदमी पार्टी ने व्यवसायिक उपयोग की स्थिति में मुनाफे में स्थानीय समुदाय के हिस्से की जो बात कही है, वह भी एक तरह से व्यावसायीकरण की गारंटी ही है। भाजपा ने तीन पी में लोगों को जोड़कर पीपुल-पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का पासा फेंककर भी गारंटी यही दी है। एनसीपी पानी के निजीकरण को रोकने की बात करती है। सीपीएम भी निजीकरण के हक में नहीं।कहने को आप घोषणापत्र को आप एक ऐसी चूहेदानी कह सकते हैं जिसमें वोटरों को शिकंजे में लेने के लिए वायदों का ऐसा करारा पापड़ लगाया जाता है, जो चखने से पहले ही टूट जाता है और चूहेदानी से बाहर निकलने के रास्ते बंद हो जाते हैं। सच है कि आजकल पार्टियों के घोषणापत्र नेता नहीं, कुछ किराए के विशेषज्ञ बनाते हैं। वोटर तो दूर, स्वयं पार्टियों के उम्मीदवार भी इन्हें ठीक से नहीं पढ़ते। कई बार पार्टिंयों के दिग्गज नेताओं तक को घोषणापत्रों में शामिल वायदों और उनके प्रभावों को लेकर पूरी-पूरी जानकारी नहीं होती।

वे नहीं जानते कि किए गए वायदे कैसे पूरे होंगे? धन कहां से आएगा? व्यवस्था क्या बनेगी? इसीलिए ऐसा होता है कि सत्ता में आने पर दल घोषणापत्रों में शामिल कई वायदों से कन्नी काट जाते हैं और कई ऐसे बेहद महत्वपूर्ण निर्णय कर डालते हैं, जो घोषणापत्र में होते ही नहीं। घोषणापत्रों में किए वायदों की पूर्ति की बाध्यता की कोई कानूनी छड़ी अभी भी वोटर के हाथ नहीं हैं। किंतु इन बातों का मतलब यह कतई नहीं कि घोषणापत्र बेमतलब है।

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दिल्ली दिल वालों की, पानी पैसे वालों का

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दिल्ली की किसी सरकार को कभी चिंता नहीं रही कि जिस दिल्ली में आजादी के वक्त लगभग 350 तालाब थे; झीलें, बावड़ियां और हजारों कुएं थे। उनमें से बचे-खुचे जल ढांचों को बचाकर रखा जाए। जिस यमुना तट के मोटे स्पंजनुमा रेतीले एक्यूफर में आधी दिल्ली को पानी पिलाने की क्षमता लायक पानी संजोकर रखने की क्षमता है, उसे शुद्ध, कब्जामुक्त व संजोकर रखने की चिंता भी कभी नहीं की। वहां उसने अक्षरधाम मंदिर, खेलगांव, माॅल, मेट्रो माॅल, डिपो और क्वार्टर बना दिए।दिल्ली एक परजीवी शहर है। खाना-पानी-आबोहवा-बिजली.... जीवन जीने की हर जरूरी चीज के लिए वह दूसरे राज्यों पर निर्भर है। अब चूंकि दिल्ली के पास पैसा है। अतः वह निश्चिंत है कि उसे जो चाहिए, वह पैसे से सब कुछ खरीद लेगा। इसीलिए दिल्ली खुमारी में रहती है। पिछले विधानसभा चुनाव में दिल्ली के वोटरों ने अपनी यह खुमारी तोड़ी जरूर; बिजली-पानी पर रियायत के वादे पर सियासत में नया बुलबुला भी पैदा किया, लेकिन दिल्ली को सस्ता, शुद्ध और पर्याप्त पानी पिलाने का इंतजाम करने से पहले ही यह बुलबुला फूट गया। केजरीवाल सरकार ने इस्तीफा दे दिया।

आम आदमी पार्टी की इस सरकार ने रियायती बिल का जो फार्मूला पेश किया, उस पर हम आज भी जितनी चाहे बहस कर सकते हैं। किंतु हकीकत यही है कि अभी दिल्ली को सस्ता पानी पिलाने के दो ही स्रोत है - भूजल और यमुना जल। इन्हें शुद्ध और समृद्ध किए बगैर दिल्ली को सस्ता और शुद्ध पानी असंभव है।

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ਭਾਰਤ ਦਾ ਭੁੱਲਿਆ-ਵਿਸਰਿਆ ਗੌ-ਵੰਸ਼: ਬਿਲਾਹੀ ਗਊ

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ਭਾਰਤ ਵੰਨ-ਸੁਵੰਨਤਾ ਭਰਪੂਰ ਦੇਸ਼ ਹੈ। ਕੁਦਰਤੀ ਸੋਮਿਆਂ ਦੀ ਵੰਨ-ਸੁਵੰਨਤਾ ਦੇ ਧਨੀ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਵਿੱਚ ਬਨਸਪਤੀਆਂ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਜੀਵ-ਜੰਤੂਆਂ, ਸੂਖ਼ਮ ਜੀਵਾਂ ਦੀਆਂ ਅਨੇਕ ਜਾਤੀਆਂ-ਪ੍ਰਜਾਤੀਆਂ ਪਾਈਆਂ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ। ਭਾਰਤ ਦਾ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਤੀ ਪ੍ਰਤਿ ਪ੍ਰੇਮ ਇਸੇ ਗੱਲ ਤੋਂ ਜ਼ਾਹਿਰ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਕਿਸ ਤਰਾਂ ਇਸ ਦੇਸ਼ ਵਿੱਚ ਬਨਸਪਤੀ ਅਤੇ ਜੀਵ-ਜੰਤੂਆਂ ਨੂੰ ਵੀ ਆਸਥਾ ਦਾ ਇੱਕ ਕੇਂਦਰ ਵੀ ਮੰਨਿਆ ਗਿਆ ਹੈ। ਇਸ ਦਾ ਇੱਕ ਢੁੱਕਵਾਂ ਉਦਾਹਰਣ ਭਾਰਤ ਦਾ ਪਸ਼ੂਆਂ ਪਰ੍ਤੀ ਪ੍ਰੇਮ ਹੈ।
ਭਾਰਤ ਮੁੱਖ ਤੌਰ 'ਤੇ ਇੱਕ ਖੇਤੀ ਪ੍ਰਧਾਨ ਦੇਸ਼ ਹੈ ਪਰ ਇਸਦੇ ਨਾਲ-ਨਾਲ ਪਸ਼ੂ-ਪਾਲਣ ਵੀ ਹਮੇਸ਼ਾ ਤੋਂ ਹੀ ਇਸਦਾ ਇੱਕ ਅਟੁੱਟ ਹਿੱਸਾ ਹੈ। ਅਸੀਂ ਜੋ ਪਸ਼ੂਧਨ ਪਾਲਦੇ ਸੀ ਉਸ ਵਿੱਚ ਵੀ ਬੜੀ ਵੰਨ-ਸੁਵੰਨਤਾ ਰਹੀ ਹੈ। ਗਾਂ, ਮੱਝ, ਬੱਕਰੀਆਂ ਹਰ ਇੱਕ ਪ੍ਰਜਾਤੀ ਦੀਆਂ ਕਈ-ਕਈ ਨਸਲਾਂ ਹਨ। ਇਹ ਸਭ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਆਪਣੇ-ਆਪਣੇ ਇਲਾਕਿਆਂ ਦੇ ਵਾਤਾਵਰਣ ਅਨੁਕੂਲ ਢਲੀਆਂ ਹੋਈਆਂ ਹਨ।
ਸਰਕਾਰ ਵੀ ਜਿਸ ਤਰਾਂ ਦੁੱਧ ਉਤਪਾਦਨ ਨੂੰ ਇੱਕ ਵਾਧੂ ਆਮਦਨ ਸ੍ਰੋਤ ਦੇ ਤੌਰ 'ਤੇ ਪ੍ਰੋਤਸ਼ਾਹਿਤ ਕਰਦੀ ਆਈ ਹੈ, ਉਸ ਨਾਲ ਭਾਰਤ ਵਿੱਚ ਕੋਈ ਸ਼ੱਕ ਨਹੀਂ ਕਿ ਦੁੱਧ ਉਤਪਾਦਨ ਤਾਂ ਵਧਿਆ ਹੈ ਪਰ ਅਸੀਂ ਇਸਦੀ ਇੱਕ ਵੱਡੀ ਕੀਮਤ ਵੀ ਚੁਕਾ ਰਹੇ ਹਾਂ। ਜੱਗ-ਜ਼ਾਹਿਰ ਹੈ ਕਿ ਕਿਸ ਤਰਾਂ ਭਾਰਤ ਵਿੱਚ ਦੁੱਧ ਵਿੱਚ ਮਿਲਾਵਟ ਇੱਕ ਗੰਭੀਰ ਮੁੱਦਾ ਵਜੋਂ ਉੱਭਰ ਰਹੀ ਹੈ। ਇਹ ਵਰਤਾਰਾ ਦੁੱਧ ਦੀ ਨਿਰੰਤਰ ਵਧਦੀ ਮੰਗ ਨੂੰ ਦਰਸਾਉਂਦਾ ਹੈ। ਪ੍ਰਸ਼ਾਸਨ ਦੁਆਰਾ ਦੁੱਧ ਉਤਪਾਦਨ ਲਈ ਕੀਤੇ ਜਾ ਰਹੇ ਉਪਰਾਲਿਆਂ ਤਹਿਤ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ਵਧੇਰੇ ਦੁੱਧ ਲਈ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਨਸਲਾਂ ਦੇ ਪਸ਼ੂ ਪਾਲਣ ਲਈ ਨਿਰੰਤਰ ਉਤਸ਼ਾਹਿਤ ਕੀਤਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਇਸ ਸਭ ਦਾ ਨਤੀਜੇ ਵਜੋਂ ਭਾਰਤੀ ਨਸਲਾਂ ਦੇ ਪਸ਼ੂਆਾਂ ਦੀ ਭਾਰੀ ਅਣਦੇਖੀ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ।
ਬਾਵਜੂਦ ਇਸਦੇ ਕਿ ਸਾਡੇ ਵਾਤਾਵਰਣ ਪਰ੍ਤੀ ਸਹਿਣਸ਼ੀਲ ਦੇਸੀ ਨਸਲਾਂ ਦੇ ਪਸ਼ੂ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਪਸ਼ੂਆਂ ਦੇ ਮੁਕਾਬਲੇ ਬਹੁਤ ਘੱਟ ਖਰਚ ਵਿੱਚ ਪਾਲੇ ਜਾ ਸਕਦੇ ਹਨ। ਸਰਕਾਰਾਂ ਵੱਲੋਂ ਦੇਸ਼ ਵਿੱਚ ਸਾਡੇ ਵਾਤਾਵਰਣ ਤੋਂ ਓਪਰੇ ਅਤੇ ਦੇਖ-ਭਾਲ ਪੱਖੋਂ ਕਿਤੇ ਵੱਧ ਖਰਚੀਲੇ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਪਸ਼ੂ ਪਾਲਣ ਲਈ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ਉਤਸ਼ਾਹਿਤ ਕਰਨ ਹਿੱਤ ਅਨੇਕਾਂ ਯਤਨ ਕੀਤੇ ਜਾ ਰਹੇ ਹਨ। ਹਾਲਾਂਕਿ ਗੁਣਵੱਤਾ ਪੱਖੋਂ ਭਾਰਤੀ ਨਸਲ ਦੀਆਂ ਗਾਵਾਂ ਦਾ ਏ-2 ਦੁੱਧ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਨਸਲ ਦੀਆਂ ਗਾਵਾਂ ਦੇ ਏ-1 ਦੁੱਧ ਤੋਂ ਕਈ ਗੁਣਾ ਸਿਹਤਮੰਦ ਹੈ। ਮੌਜੂਦਾ ਸਮੇਂ ਏ-1 ਅਤੇ ਏ-2 ਦੁੱਧ ਦਾ ਮੁੱਦਾ ਦੁਨੀਆ ਭਰ ਵਿੱਚ ਚਰਚਾ ਦਾ ਵਿਸ਼ਾ ਬਣਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ।

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लापोड़िया

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लोकसभा टीवी, 25 फरवरी 2014

जयपुर-अजमेर राजमार्ग पर दूदू से 25 किलोमीटर की दूरी पर राजस्थान के सूखाग्रस्त इलाके का एक गांव है - लापोड़िया। यह गांव ग्रामवासियों के सामुहिक प्रयास की बदौलत आशा की किरणें बिखेर रहा है। धरती की पुकार को किसी ने सुना या ना सुना हो..... लेकिन लापोड़िया गांव के लोगों ने जरूर सुना है।
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कितना जहरीला ‘ड्रैगन’ का विकास

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जिस चीनी विकास की दुहाई देते हम नहीं थक रहे, उसी चीन के बीजिंग, शंघाई और ग्वांगझो जैसे नामी शहरों के बाशिंदे प्रदूषण की वजह से गंभीर बीमारियों के बड़े पैमाने पर शिकार बन रहे हैं। चीन के गांसू प्रांत के लांझू शहर पर औद्योगीकरण इस कदर हावी है कि लांझू चीन के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शुमार हो गया है। लांझू शहर को आपूर्ति किए जा रहे पेयजल में बेंजीन की मात्रा सामान्य से 20 गुना अधिक पाई गई यानी एक लीटर पानी में 200 मिलीग्राम! बेंजीन की इतनी अधिक मात्रा सीधे-सीधे कैंसर को न्योता है।

जनप्रतिनिधित्व को राजयोग या राजभोग समझने का राजरोग जहर है। ऐसा राजरोगी बनने के लिए वोट को मजहब में बांटना जहर है। ईर्ष्या करना जहर है। अन्याय व हिंसा जहर है। दूसरे से कर्ज लेकर पी जाना जहर है। जरूरत से ज्यादा किया गया भोजन जहर है। ठीक इसी तरह किसी भी संज्ञा या सर्वनाम का जरूरत से ज्यादा किया गया दोहन भी एक दिन जहर ही साबित होता है। ये सभी बातें हमारी आने वाली सरकार को अभी से अच्छी तरह रट लेनी चाहिए; वरना राजनीति जहरीली हो चाहे न हो, यह धरती जहरीली जरूर हो जाएगी। यह बात खासतौर पर नरेन्द्र मोदी जी को तो अच्छी तरह समझ ही लेनी चाहिए। खासतौर पर नरेन्द्र मोदी जी को इसलिए कहा जा रहा है कि अगले प्रधानमंत्री वही होंगे।

राहुल गांधी जी भले ही यह कह रहे हों कि यदि हम हिंदू-मुसलमां होकर लड़ने की बजाए पूरी शक्ति से काम में लग जाएं, तो अगले कुछ सालों में चीन को पीछे छोड़ देंगे; लेकिन आने वाली सरकार को यह जिद्द नहीं करनी चाहिए।

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धरती के धीरज की परीक्षा मत लीजिए, प्लीज

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22 अप्रैल - पृथ्वी दिवस पर विशेष


आज संकट साझा है... पूरी धरती का है; अतः प्रयास भी सभी को साझे करने होंगे। समझना होगा कि अर्थव्यवस्था को वैश्विक करने से नहीं, बल्कि ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की पुरातन भारतीय अवधारणा को लागू करने से ही धरती और इसकी संतानों की सांसें सुरक्षित रहेंगी। यह नहीं चलने वाला कि विकसित देशों को साफ रखने के लिए वह अपना कचरा विकासशील देशों में बहाए। निजी जरूरतों को घटाए और भोग की जीवनशैली को बदले बगैर इस भूमिका को बदला नहीं जा सकता है। प्रकृति हमारी हर जरूरत को पूरा कर सकती है, लेकिन लालच किसी एक का भी नहीं।मनुस्मृति के प्रलय खंड में प्रलय आने से पूर्व लंबे समय तक अग्नि वर्षा और फिर सैकड़ों वर्ष तक बारिश ही बारिश का जिक्र किया गया है। क्या वैसे ही लक्षणों की शुरुआत हो चुकी है? ‘अलनीनो’ नामक डाकिए के जरिए भेजी पृथ्वी की चिट्ठी का ताजा संदेशा तो यही है और मूंगा भित्तियों के अस्तित्व पर मंडराते संकट का संकेत भी यही। अलग-अलग डाकियों से धरती ऐसे संदेशें भेजती ही रहती हैं। अब जरा जल्दी-जल्दी भेज रही है। हम ही हैं कि उन्हें अनसुना करने से बाज नहीं आ रहे। हमें चाहिए कि धरती के धीरज की और परीक्षा न लें। उसकी डाक सुनें भी और तद्नुसार बेहतर कल के लिए कुछ अच्छा गुने भी।

यदि जीवन संचार के प्रथम माध्यम का ही नाश होना शुरू हो जाए, तो समझ लेना चाहिए कि अंत का प्रारंभ हो चुका है। यदि इस सदी में 1.4 से 5.8 डिग्री सेल्सियस तक वैश्विक तापमान वृद्धि की रिपोर्ट सच हो गई और अगले एक दशक में 10 फीसदी आधिक वर्षा का आकलन झूठा सिद्ध नहीं हुआ, तो समुद्रों का जलस्तर 90 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा; तटवर्ती इलााके डूब जाएंगे।

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कचरे में सिमटता भारत

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सत्यमेव जयते, 15 मार्च 2014

आज पृथ्वी अपनी प्राकृतिक रूप खोती जा रही है। जहां देखो वहां कूड़े के ढेर व बेतरतीब फैले कचरे ने इसके सौंदर्य को नष्ट कर दिया है। विश्व में बढ़ती जनसंख्या तथा औद्योगीकरण एवं शहरीकरण में तेजी से वृद्धि के साथ-साथ ठोस अपशिष्ट पदार्थों द्वारा उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी विकराल होती जा रही है।
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