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नदी संस्कृति में निहित गंगा निर्देश

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नदियों को मां का संवैधानिक दर्जा प्राप्त होते ही नदी जीवन समृद्धि के सारे अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाएंगे। नदियों से लेने-देने की सीमा स्वतः परिभाषित हो जाएगी। हम कह सकेंगे कि नदी मां से किसी भी संतान को उतना और तब तक ही लेने का हक है, जितना कि एक शिशु को अपनी मां से दूध। दुनिया के किसी भी संविधान की निगाह में मां बिक्री की वस्तु नहीं हैं। अतः नदियों को बेचना संविधान का उल्लंघन होगा। नदी भूमि-जल आदि की बिक्री पर कानूनी रोक स्वतः लागू हो जाएगी।“मैं आया नहीं हूं, मुझे गंगा मां ने बुलाया है।’’ “मां गंगा जैसा निर्देश देगी, मैं वैसा करुंगा।’’ क्रमशः अपनी उम्मीदवारी नामांकन से पहले और जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा बनारस में दिए उक्त दो बयानों से गंगा की शुभेच्छु संतानों को बहुत उम्मीदें बंधी होगी। नदियों हेतु एक अलग मंत्रालय बनाने की खबर से एक वर्ग की उम्मीदें और बढ़ी हैं, तो दूसरा वर्ग इसे नदी जोड़ के एजेंडे की पूर्ति की हठधर्मिता का कदम मानकर चिंतित भी है। मैं समझता हूं कि ढांचागत व्यवस्था से पहले जरूरत नीतिगत स्पष्टता की है। समग्र नदी नीति बने बगैर योजना, कार्यक्रम, कानून, ढांचे.. सभी कुछ पहले की तरह फिर कर्ज बढ़ाने और संघर्ष लाने वाले साबित होंगे।

शुभ के लिए लाभ ही भारतीयता


अतः जरूरी है कि सरकार पहले नदी पुनर्जीवन नीति, बांध निर्माण नीति और कचरा प्रबंधन नीति पारित करने संबंधी लंबित मांगों की पूर्ति की स्पष्ट पहल करे, तब ढांचागत व्यवस्था के बारे में सोचे।

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नदी सूखने से रोजी पर संकट

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सदानीरा दुधी विगत कुछ बरसों से बरसाती नदी बन गई है। गरमी आते ही जवाब देने लगती है। इस साल अभी दुधी की पतली धार चल रही है। पलिया पिपरिया में यह दिखती है लेकिन नीचे परसवाड़ा में कुछ जगह डबरे भरे हैं, धार टूट गई है। इस नदी के किनारे रहने वाले रज्झर अब इन डबरों और कीचड़ में मछली पकड़ते हुए दिखाई देते हैं। इस नदी में पहले मछलियां मिलती थी और रज्झर समुदाय के लोगों का यह पोषण का मुख्य स्रोत हुआ करती थी। अब जब नदी सूख गई है, बहुत मुश्किल है।“पहले हम दुधी नदी में मच्छी पकड़ते थे, अब नदी सूख गई। खकरा और माहुल के पत्तों से दोना-पत्तल बनाते थे, अब उनका चलन कम हो गया। जंगलों से महुआ-गुल्ली, तेंदू, अचार लाते थे, वे अब नहीं मिलते। ऐसे में हमारा रोजी-रोटी का संकट बढ़ रहा है।” यह कहना है पलिया पिपरिया के रज्झर समुदाय के लोगों का।

होशंगाबाद जिले की बनखेड़ी तहसील के पलिया पिपरिया गांव में नदी किनारे रज्झर मोहल्ला है। इस मोहल्ला के ज्यादातर बुजुर्ग और बच्चे करीब 20 साल पहले तक दुधी नदी में मछली पकड़ते थे।

सदानीरा दुधी विगत कुछ बरसों से बरसाती नदी बन गई है। गरमी आते ही जवाब देने लगती है। इस साल अभी दुधी की पतली धार चल रही है। पलिया पिपरिया में यह दिखती है लेकिन नीचे परसवाड़ा में कुछ जगह डबरे भरे हैं, धार टूट गई है। इस नदी के किनारे रहने वाले रज्झर अब इन डबरों और कीचड़ में मछली पकड़ते हुए दिखाई देते हैं।

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. . . और टूट गया पानी का गढ़

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Author: 
राजकुमार भारद्वाज

एक जमाना था जब पानी की गुणवत्ता के चलते यहां पैदा होने वाले गन्ने, गाजर और प्याज की दिल्ली की आजादपुर सब्जी मंडी में सर्वाधिक मांग होती थी। मंडी के व्यापारी गांव में आकर खेत में खड़ी फसल का सौदा कर लेते थे। उधर, गांव की थली से भरत के लिए उठाए जा रहे रेत से थली में खेत 50-50 फुट के गड्ढे हो गए हैं। परिणामत: थली में पानी का चोआ एकदम ऊपर आ गया है। गांव मार में है, पानी की कमी गांव को मार रही है तो थली में रेत उठाने से निकलने वाला पानी वहां खेती को चौपट कर रहा है।

अप्रैल 2014 में पूज्य पिताजी श्री गणपत राय भारद्वाज का निधन हुआ तो तकरीबन डेढ़ दशक बाद अपने घर, गांव में लगातार 13 दिन रहने का अवसर मिला। पिछले एक दशक में गांव जब भी गया तो एक- दो दिन रुककर वापस आ जाता था। गांव काफी बदल गया है, इस बात का अहसास इतने लंबे समय तक गांव में रहने के बाद हुआ। खुद पर थोड़ी शर्म भी आई कि गांव, गंवई पर नियमित लेखन करता हूं, और बहुत वाचालता से जगह-जगह गांव के मुद्दों पर बात करता हूं, लेकिन अपने ही गांव के सवालों को नहीं जानता।

शिक्षा संस्थानों के लिए हरियाणा भर में विख्यात मेरे ऐतिहासिक गांव हसनगढ़ में अब बर्गर, पेट्टीज, अंडा, चाउमिन, मोमोज और मांसाहार की दुकान खुली हैं। एक दुकान पर पेस्ट्री भी रखी दिखाई दी। पहले बर्फी, जलेबी, घेवर और समोसा बनाने वाली हलवाइयों की तीन-चार परंपरागत दुकानें थी। पहले दिन लगा कि मेरा गांव भी हरियाणा के दूसरे हजारों गांवों जैसा हो रहा है।

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कितनी शुभ नदी जोड़

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लाभ के दावे


सूखे इलाकों में बिना बाधा पेयजल की आपूर्ति का दावा एक गरीब को भी कितना महंगा पड़ेगा, पब्लिक प्राइवेट परियोजनाओं के अनुभवों से यह स्पष्ट है। हम क्यों भूल जाते हैं कि पीने के पानी का संकट तो श्रीनगर, सोलन, अल्मोड़ा, मसूरी, धामी जी, अटगांव, रानौली से लेकर सबसे ज्यादा वर्षा वाले चेरापूंजी में भी है। जाहिर है कि संकट की वजह पानी की कमी नहीं, पानी का कुप्रबंधन है। नदी जोड़ इस कुप्रबंधन को और बढ़ाएगी। पानी प्रबंधन का सामुदायिक स्वावलंबन घटेगा।कहा गया है कि नदी जोड़ परियोजना से जल सुरक्षा सुनिश्चित होगी। नदियां जुड़ने से राष्ट्रीय एकता बढ़ेगी। पेयजल व स्वास्थ्य में बेहतरी होगी। 60 करोड़ लोगों को बिना बाधा पानी की आपूर्ति संभव होगी। बाढ़-सुखाड़ से मुक्ति मिलेगी। 1500 लाख एकड़ अतिरिक्त भूमि पर सिंचाई हो सकेगी। इससे उपज बढ़ेगी।

बाढ़-सुखाड़ की वजह से नष्ट होने वाली 2500 बिलियन रुपए की उपज नष्ट होने से बच जाएगी। 15 हजार किलोमीटर लंबा राष्ट्रीय जल यातायात मार्ग तैयार होगा। परिणामस्वरूप सड़कों पर दबाव कम होगा; ईंधन खपत में कमी आएगी और प्रदूषण नियंत्रित होगा। बनने वाले बांधों से 60 हजार मेगावाट प्रदूषण मुक्त बिजली बनेगी। यह बिजली औद्योगिक विकास को गति मिलने में सहायक होगी। इससे रोजगार का बड़ा क्षेत्र विकसित होगा।

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मनरेगा में रोग

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Author: 
मनोज राय
Source: 
जनसत्ता (रविवारी), 25 मई 2014
गरीब बेरोजगारों को सौ दिन की न्यूनतम रोजगार योजना छलावा साबित हो रही है। नीति निर्माण और क्रियान्वयन में खामियों से भरी इस योजना को सबसे बड़ा झटका भ्रष्टाचार ने दिया है। क्यों और कैसे यह कार्यक्रम अपने लक्ष्य से भटका, इसकी पड़ताल कर रहे हैं मनोज राय।

रोजगार गारंटी योजना के संदर्भ में इसे गड्ढा खोदने के उदाहरण के जरिए समझा जा सकता है। इस काम में हर लाभार्थी के लिए एक निश्चित आकार का गड्ढा खोदना अनिवार्य कर दिया जाता है। इसमें महिलाओं और पुरुषों को एक समान लक्ष्य दिया जाता है। जाहिर है कि महिलाओं और पुरुषों की शारीरिक कार्य-क्षमता अलग-अलग होती है। इसलिए एक निश्चित समयावधि में जितना काम एक पुरुष कर पाएगा उतना कार्य एक महिला के लिए करना मुश्किल है। इस वजह से महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कम मजदूरी मिल रही है।महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, जिसे संक्षेप में मनरेगा के नाम से जाना जाता है, गरीब जनता के साथ छलावा साबित हो रही है। बारीकी से देखने पर साफ हो जाता है कि सौ दिन के न्यूनतम रोजगार का कार्यक्रम सौ दिन के अधिकतम रोजगार योजना में बदल गया है। अफसरशाही और भ्रष्टाचार जैसे बिमारियां इस योजना में पलीता लगा चुकी हैं। हो सकता है केंद्र में आने वाली राजग सरकार इस योजना में कोई सुधार करे, बदले या खत्म ही कर दे। लेकिन यूपीए-दो की इस योजना की कमियां सामने आ चुकी हैं।

मनमोहन सरकार के कृषि मंत्री की अध्यक्षता वाले मंत्रिमंडल समूह की अनुशंसा पर मनरेगा में कार्य अवधि की संख्या बढ़ाकर सौ से डेढ़ सौ दिन किया गया था, लेकिन यहां भी गड़बड़ी की गई। प्रचार ऐसे किया गया जैसे यह व्यवस्था पूरे देश के लिए हो, जबकि यह प्रावधान सिर्फ आदिवासी और प्राकृतिक आपदाओं की मार झेलने वाले इलाकों के लिए हुआ।

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वर्तमान में छिपा है भविष्य

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Author: 
चिन्मय मिश्र
Source: 
सर्वोदय प्रेस सर्विस, मई 2014

5 जून पर्यावरण दिवस पर विशेष


कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा फिर भी मानव ने न चेताजब अंतिम वृक्ष काट दिया गया होगा
जब आखिरी नदी विषैली हो चुकी होगी
जब अंतिम मछली पकड़ी जा चुकी होगी
तभी तुम्हें अहसास होगा
कि पैसे खाए नहीं जा सकते

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उत्तराखंड त्रासदीः क्या हुआ, क्या बाकी

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Author: 
प्रदीप सती
Source: 
तहलका, मई 2014
उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय इलाकों में बादल के कहर ने आपदा प्रबंधन तंत्र के दावों और वादों की धज्जियां उड़ा दी। संकट को भापने, बचाव के उपाय, जानकारियों का आदान-प्रदान तथा राहत के मोर्चे पर तंत्र पूरी तरह असफल रहा। 16 जून को आपदा का एक साल पूरा हो जाएगा। ऐसे में आपदा प्रबंधन तंत्र की ओर निगाहें जाना स्वाभाविक है।केदारघाटी समेत उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय इलाकों में बीते साल जो प्राकृतिक आपदा आई थी उसके असर की भयावहता के लिए आपदा प्रबंधन तंत्र को भी काफी हद तक जिम्मेदार माना गया था। इसने संकट को भांपने में शुरुआती चूक तो की ही, बचाव और राहत के मोर्चे पर भी यह बुरी तरह पस्त पड़ गया था।

इस भयानक आपदा को हुए अब साल भर होने को है। केदारनाथ सहित उत्तराखंड के चारों धामों की यात्रा शुरू होने वाली है। इसलिए सरकार और खास तौर पर उसके आपदा प्रबंधन तंत्र की तैयारियों की तरफ निगाहें टिकना स्वाभाविक है। उम्मीद की जा रही है कि इतनी बड़ी आपदा से सबक सीखकर प्रदेश सरकार का आपदा प्रबंधन विभाग अब पहले से बेहतर तरीके से तैयार होगा।

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भारत में जल संचय की परंपराएं

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास'
Source: 
पानी, समाज और सरकार (किताब)
पृथ्वी, जल का आश्रय है। जल का सूक्ष्य रूप ही प्राण है। मन, जलीय तत्वों अर्थात विचारों का समुद्र है। वाणी की सरसता और जीवों में आर्द्रता का कारण भी जल ही है। आंखों की देखने की ताकत और उसकी सरसता का कारण भी जल है। जल, कानों का सहवासी है। जल का निवास धरती पर है। अंतरिक्ष में जल व्याप्त है। समुद्र, जल का आधार है तथा समुद्र से ही, जल वाष्प बनकर वर्षा के रूप में धरती पर आता है उपर्युक्त सभी विवरण, तत्कालीन समाज को, पानी के बारे में वैज्ञानिक जानकारी देते प्रतीत होते हैं।पानी, समाज और सरकार के रिश्तों की यह कहानी बहुत पुरानी है। इस कहानी का पहला पात्र जो पानी से जुड़ा वो निश्चय ही आदमी रहा होगा। कबीले, राजे-महाराजे, बादशाह और सरकारें बाद में आई। जहां तक भारत का प्रश्न है तो लगता है कि भारत में सबसे पहले ऋषि, मुनि और समाज के योग-क्षेम से जुड़े विद्वानों ने ही इस रिश्ते को कायम करने और आगे ले जाने का काम किया होगा।

भारत में जलय संचय की पुरानी प्रणालियों और परंपराओं का इतिहास लगभग 5000 साल पुराना है। पानी और समाज के संबंधों की कहानी का सबसे अधिक पुराना और पुख्ता प्रमाण वैदिक साहित्य में मिलता है। इस विवरण के अनुसार हजारों साल पहले, भारतीय मनीषियों ने वैदिक साहित्य में पानी की महिमा; जो समाज के लिए अर्जित किए जा रहे ज्ञान, पानी के प्रति सम्मान, नजरिए, जनहित एवं योग-क्षेम से जुड़ी है; का वर्णन किया है।

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जल संकट

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास'
Source: 
पानी, समाज और सरकार (किताब)

पिछले कुछ सालों में जल संकट में, बढ़ता प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे जुड़ गए हैं। विभिन्न मंचों पर हो रही बहस में इन मुद्दों को अच्छा खासा महत्व भी मिलने लगा है। कुछ लोग सतही जल के प्रदूषण पर की जाने वाली बहस को और आगे ले जाते हैं और कहते हैं कि पानी, खासकर जमीन के नीचे के पानी में, प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। नए-नए इलाकों में उसका विस्तार हो रहा है और पानी की रासायनिक जांच से, उसमें नए-नए किस्म के रसायनों के मौजूद होने के प्रमाण सामने आ रहे हैं।

हम सब को आंकड़े और पानी से जुड़े विशेषज्ञ तथा अर्थशास्त्री बता रहे हैं कि जल संकट विश्वव्यापी है। अनुमान है कि पूरी दुनिया में लगभग 1.2 अरब लोगों को पीने के लिए शुद्ध पानी नहीं मिलता और लगभग 2.6 अरब लोग सेनिटेशन सुविधा से महरूम हैं। विकासशील देशों में लगभग 80 प्रतिशत लोगों की बीमारियों का सीधा संबंध अपर्याप्त साफ पानी और सेनिटेशन की कमी से जुड़ा है। इसके कारण हर साल लगभग 18 लाख बच्चों की अकाल मृत्यु हो जाती है। इस विश्वव्यापी जल संकट की तह में पानी के प्रबंध की खामियों सहित अनेक कारण हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की ‘वैश्विक भ्रष्टाचार रिपोर्ट 2008’ के अनुसार सारी दुनिया में पानी से जुड़ी सेवाओं में भ्रष्टाचार के कारण लगभग 10 से 30 प्रतिशत तक राशि की हेराफेरी होती है। इस गति से भ्रष्टाचार बढ़ने के कारण अगले 10 साल में पानी का कनेक्शन मिलने में लगभग 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी संभव है।

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राम तेरी गंगा मैली

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
Source: 
पानी, समाज और सरकार (किताब)
गंगा नदी का बरसों पुराना, धार्मिक पहलू है जो करोड़ों भारतीयों की आस्था के मूल में शताब्दियों से रचा-बसा है। इन भारतीयों की नजर में यह पवित्र नदी भगवान शंकर की जटाओं से निकली है और इसे स्वर्ग से धरती पर लाने के लिए राजा भागीरथ ने भागीरथी प्रयास किया था। यह पवित्र एवं पावन नदी है। इसमें स्नान करने से जीवन पवित्र होता है तथा अस्थियां विसर्जित करने से मोक्ष मिलता है। पूरी दुनिया में शायद ही कोई ऐसी नदी होगी जिसके बारे में जनमानस तथा धर्मग्रंथों में इस प्रकार की मान्यताएं तथा विश्वास वर्णित हों।कई साल पहले राजकपूर ने ‘राम तेरी गंगा मैली’नाम की एक फिल्म बनाई थी। सब जानते है कि राजकपूर बहुत ही कल्पनाशील कलाकार, कुशल चितेरे और जगजाहिर फिल्म निर्माता थे। विषयों पर उनकी पकड़ अद्भुत थी और बात कहने का उनका अलग अंदाज़ था। इसलिए यह कहना कठिन है कि उस फिल्म की कहानी, केवल और केवल, फिल्म की हीरोइन की कहानी थी या करोड़ों भारतीयों के मन में रची बसी गंगा समेत देश की नदियों की दुर्दशा की। उस फिल्म की मदद से राजकपूर ने जो संदेश दिया था वह दोनों अर्थात फिल्म की हीरोइन पर और गंगा समेत देश की नदियों पर, पूरी तरह लागू है। दोनों की दुर्गति की कहानी एक ही है।

गंगा की सफाई की कहानी सन 1985 में शुरू हुई। गंगा एक्शन प्लान (जी.ए.पी.) बना जिसे सरकारी शब्दावली में फेज वन अर्थात प्रथम चरण कहा गया। केन्द्र सरकार की इस योजना का मकसद नदी के पानी की गुणवत्ता में सुधार करना था।

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पारंपरिक तालाबों की उपेक्षा

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Author: 
एलसी अनुरागी
Source: 
डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 01 जून 2014
बुंदेलखंड में तो कृषि व उद्योग तालाबों पर निर्भर है, फिर भी तालाबों के रखरखाव और संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। तालाबों पर अतिक्रमण किया जा रहा है, उनको पाटकर बस्तियां बनाई जा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद उत्तर प्रदेश में तालाब, पोखर, झील, कुआं आदि की खोजबीन की गई तो बुंदेलखंड में दो हजार 963 तालाब व कुएं गायब पाए गए। चार हजार 263 तालाबों पर अवैध कब्जे हैं।आयुर्वेद में जल को दवा बताया गया है। बुंदेलखंड के उन क्षेत्रों में जहां नदियों का अभाव रहा, वहां तालाबों का निर्माण किया गया। महोबा के चंदेली तालाब, चरखारी रियासत के तालाब और बुंदेलखंड के अन्य तालाब इलाके की खेतीबारी में सराहनीय योगदान देते रहे हैं। समय रहते इनका संरक्षण किया जाना चाहिए। वर्तमान में बुंदेलखंड ही क्यों, समूचा विश्व जल संकट का सामना कर रहा है।

एशिया में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश से लेकर अफ्रीका में केन्या, इथियोपिया और सूडान तक हर देश साफ पानी की कमी से जूझ रहा है। अपने देश में राजस्थान के जैसलमेर और अन्य रेगिस्तानी इलाकों में पानी आदमी की जान से भी ज्यादा कीमती हो जाता है। महिलाओं को पांच-छह किमी दूर से सिर पर रखकर पानी लाना पड़ता है।

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पृथ्वी के जीवन अस्तित्व पर मंडराता खतरा

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Author: 
बुद्ध प्रकाश
Source: 
डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 05 जून 2014

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष


आज विश्व की आबादी का छठा हिस्सा शुद्ध पेयजल की समस्या से जूझ रहा है। सांस लेने के लिए शुद्ध हवा कम पड़ने लगी है। प्रदूषित जल पीने से असाध्य बीमारियों का लगातार प्रकोप बढ़ता जा रहा है। जिससे हैजा, आंत्रशोध, पीलिया, मोतीझरा, ब्लड कैंसर, त्वचा कैंसर, हड्डी रोग, हृदय एवं गुर्दे के रोग सैकड़ों नागरिकों को चपेट में लेते हैं। वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण जीव अपने परिवेश से विस्थापित हो रहे हैं। विश्व में प्रतिवर्ष 1.1 करोड़ हे. वन काटा जाता है। जिसमें भारत में प्रतिवर्ष 10 लाख हे. वनों की कटाई धड़ल्ले से हो रही है।जनसंख्या की विस्फोटक बाढ़ और मनुष्य की भौतिक जीवनशैली ने मिलकर प्राकृतिक संसाधनों का इतना अंधाधुंध दोहन किया व आर्थिक विकास का माध्यम बनाया कि विश्व में गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हो रहीं हैं।

शहरीकरण व औद्योगीकरण में अनियंत्रित वृद्धि, जंगलों का नष्ट होना, कल-कारखानों से धुआं उगलती चिमनियों से प्रवाहित कार्बन डाइऑक्साइड, कचरे से भरी नदियां, रासायनिक गैसों से भरा प्रदूषित वातावरण, सड़कों पर वाहनों की भरमार, लाउड स्पीकरों की कर्कश ध्वनि, रासायनिक हथियारों का परीक्षण एवं संचालन आदि ने पर्यावरणी समस्याओं को उत्पन्न करके मानव को आशंकित कर दिया है, जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरण असंतुलन के कारण पृथ्वी पर जीवन अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है।

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निर्मल धारा

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Author: 
अरुण तिवारी और ओम प्रकाश
Source: 
नेशनल दुनिया, 08 जून 2014

गंगा दशहरा पर विशेष


नदी महज बहते पानी का लंबा प्रवाह भर नहीं बल्कि यह हमारे जीवन से गहरी जुड़ी हैं। केंद्र में आई नई सरकार ने गंगा सहित देश की कई प्रमुख नदियों की स्वच्छता के लिए सार्थक पहल की बात कही है। हालांकि पूर्व में भी इस तरह की कुछ कोशिशें हुई हैं पर उनका हासिल सिफर रहा है। इसी मुद्दे पर वरिष्ठ पत्रकार अरुण तिवारी और ओम प्रकाश की स्टोरी

कहना न होगा कि नदी की निर्मलता और अविरलता सिर्फ पानी, पर्यावरण, ग्रामीण विकास और ऊर्जा मंत्रालय का विषय नहीं है; यह उद्योग, नगर विकास, कृषि, खाद्य प्रसंस्करण, रोजगार, पर्यटन, गैर परंपरागत ऊर्जा और संस्कृति मंत्रालय के बीच भी आपसी समन्वय की मांग करता है। नदी की निर्मल कथा टुकड़े-टुकड़े में लिखी तो जा सकती है, सोची नहीं जा सकती। कोई नदी एक अलग टुकड़ा नहीं होती। नदी सिर्फ पानी भी नहीं होती। नदी एक पूरी समग्र और जीवंत प्रणाली होती है। अतः इसकी निर्मलता लौटाने का संकल्प करने वालों की सोच में समग्रता और दिल में जीवंतता का होना जरूरी है। नदी हजारों वर्षों की भौगोलिक उथल-पुथल का परिणाम होती है। अतः नदियों को उनका मूल प्रवाह और गुणवत्ता लौटाना भी बरस-दो बरस का काम नहीं हो सकता। हां, संकल्प निर्मल हो, सोच समग्र हो, कार्ययोजना ईमानदार और सुस्पष्ट हो, शातत्य सुनिश्चित हो, तो कोई भी पीढ़ी अपने जीवनकाल में किसी एक नदी को मृत्युशय्या से उठाकर उसके पैरों पर चला सकती है। इसकी गारंटी है। दर असल ऐसे प्रयासों को धन से पहले धुन की जरूरत होती है। नदी को प्रोजेक्ट बाद में, वह कोशिश पहले चाहिए, जो पेट जाए को मां के बिना बेचैन कर दे।

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मेरा पानी तेरा पानी

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
Source: 
पानी, समाज और सरकार (किताब)
आजादी मिलने के बाद भारत का संविधान लिखा गया। सन 1987 में देश की पहली राष्ट्रीय जलनीति लागू हुई। पर संविधान एवं राष्ट्रीय जलनीति में भारत की पुरानी परंपराओं, प्रणालियों और जल-संस्कृति या पानी के बंटवारे की समाज द्वारा संचालित पद्धतियों और प्रणालियों की झलक नहीं दिखती। देश में प्रजातंत्र के लागू होने के बाद भी पानी के प्रबंध में प्रजा या समाज के स्थान पर तंत्र और पानी के पूरे केनवास पर केवल सरकार का ही अस्तित्व; प्रभुत्व एवं अधिकार दिखता है खैर अब इस बीत चुके किस्से को अधिक तूल नहीं दिया जाना चाहिए।भारत में अंग्रेजों के सत्ता संभालने के बाद, पानी से जुड़ी भारत की पुरानी समझ, परंपराओं, प्रणालियों और संस्कृति की अनदेखी हुई। इस अनदेखी के कारण उनका ह्रास हुआ और यूरोप की ठंडी एवं पूरी तरह भिन्न जलवायु में विकसित जल विज्ञान, जल संचय तथा पानी के बंटवारे से जुड़ी समझ ने देश में अपनी जगह बनाना शुरू किया। गुलाम देश में, मैकाले की शिक्षा प्रणाली द्वारा प्रशिक्षित पीढ़ियां तैयार हुईं और उन पीढ़ियों ने अपने विदेशी मालिकों की छत्रछाया में विदेशों में प्रचलित जल संरचनाओं को, पानी के बंटवारे के मॉडल को प्रगति और उपयुक्तता का पर्याय माना। यूरोप तथा अमेरिका में प्रचलित जल बंटवारे की फिलासफी को आधुनिक एवं प्रगतिशील सिद्धांत के रूप में सर्वोपरि माना और अपनाया। इसी दौर में, विदेश की हर चीज अच्छी का सोच विकसित हुआ। उस दौर में इंग्लैंड रिटर्न का ठप्पा किसी को भी अतिविशिष्ट बनाने के लिए पर्याप्त था।

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निजी क्षेत्र का योगदान

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
Source: 
पानी, समाज और सरकार (किताब)

पूरे देश में वित्तीय सहयोग देने भामाशाहों की बाढ़ आई है। उनके द्वारा दो प्रकार से मदद दी जा रही हैं पहले तरीका पानी से जुड़ी सेवाओं का सीधा-सीधा निजीकरण का हैं इस तरीके में बीओटी का या इंतजाम करने का है। दूसरे तरीके में वित्तीय संस्थाएं खासकर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं, पर्याप्त कर्ज के साथ खास किस्म की शर्तें जोड़ रही हैं। कई लोगों को लगता है कि इन शर्तों के पालन के बाद, सारा वाटर सेक्टर बाजार में तब्दील हो जाएगा। सेक्टर की समस्याओं पर गौर करने के लिए, सरकार और समाज के बीच, जल नियामक आयोग बनाए जा रहे हैं।

भारत की अर्थव्यवस्था में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण जैसे बदलावों के बीज सन् 1991 में पड़े। निजीकरण का पहला प्रयोग बिजली के क्षेत्र में हुआ। बिजली के क्षेत्र में निजीकरण के बाद संकट हल हुआ हो, व्यवस्था में आमूलचूल अंतर आया हो या विद्युत मंडलों के प्रति समाज का सोच बदल गया हो, ऐसा कई लोगों को नहीं लगता पर बदलाव के बाद बिजली का बिल जरूर बढ़ गया है।

बिजली के बाद, पानी के क्षेत्र के निजीकरण की शुरुआत हुई। सन 2002 में केन्द्र सरकार ने निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए जल नीति में प्रावधान बनाया। नेशनल वाटर पॉलिसी 2002 का यह प्रावधान, निजी क्षेत्र की भागीदारी की अवधारणा को मदद ही नहीं देता वरन नीतिगत ताकत और राष्ट्र की मूक सहमति भी देता है। इसलिए कहा जा सकता है कि देश-विदेश की वित्तीय एवं निजी संस्थाओं को प्रवेश और भागीदारी के लिए हरी झंडी दी जा चुकी है। पलक पांवड़े बिछाए जा चुके हैं और व्यवस्था में सुधार के लिए उतावलापन नजर आ रहा है।

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जल प्रदूषण

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
Source: 
पानी, समाज और सरकार (किताब)

ग्रामीण इलाकों में पानी की गुणवत्ता खराब करने या प्रदूषण फैलाने में खेती में लगने वाले हानिकारक रसायनों का योगदान है। ये रसायन पानी में घुलकर जमीन के नीचे स्थित एक्वीफरों में या सतही जल भंडरों में मिल जाते हैं। रासायनिक फर्टीलाइजरों, इन्सेक्टिसाइड्स और पेस्टीसाइड्स इत्यादि का सर्वाधिक इस्तेमाल सिंचित क्षेत्रों में ही होता है; इसलिए उन इलाकों की फसलों में इन हानिकारक रसायनों की उपस्थिति दर्ज होने लगी हैं यह बदलाव सेहत के लिए गंभीर खतरा बन रहा है।

पानी की गुणवत्ता और जल प्रदूषण का सरोकार रसायनशास्त्री या पर्यावरणविद सहित समाज के सभी संबंधित वर्गों के लिए समान रूप से उपयोगी है। हाल के सालों में तेजी से हो रहे बदलावों के कारण पानी की गुणवत्ता और जल प्रदूषण की समझ का प्रश्न, उसकी आपूर्ति से अधिक महत्वपूर्ण बनता जा रहा है। इसीलिए सभी देश प्रदूषण के परिप्रेक्ष्य में पानी की गुणवत्ता के मानक तय करते हैं, उन पर विद्वानों से बहस कराते हैं और लगातार अनुसंधान कर उन्हें परिमार्जित करते हैं।

मानकों में अंतर होने के बावजूद, यह प्रक्रिया भारत सहित सारी दुनिया में चलती है। भारत सरकार ने भी पेयजल, खेती, उद्योगों में काम आने वाले पानी की गुणवत्ता के मानक निर्धारित किए हैं। इन मानकों का पालन कराना और सही मानकों वाला पानी उपलब्ध कराना, आज के युग की सबसे बड़ी चुनौती और दायित्व है।

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जो पानी का मोल न समझे, सबसे बड़ा अनाड़ी है

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Author: 
राहुल राजेश
Source: 
डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 13 जून 2014
भारत में सन् 1997 में जलस्तर 550 क्यूबिक किलोमीटर था। लेकिन एक अनुमान के मुताबिक, सन् 2020 तक भारत में यह जलस्तर गिरकर 360 क्यूबिक किलोमीटर रह जाएगा। इतना ही नहीं, सन् 2050 तक भारत में यह जलस्तर और गिरकर महज सौ क्यूबिक किलोमीटर से भी कम हो जाएगा। यदि हम अभी से नहीं संभले तो मामला हाथ से निकल जाएगा। वैसे भी पहले ही बहुत देर हो चुकी है। नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर देश में कई राज्यों के बीच दशकों से विवाद चल ही रहा है। कहीं इस सदी के पूर्वाद्ध में ही देश में पानी के लिए गृहयुद्ध न छिड़ जाए!भारतीय मौसम विभाग के एक पूर्वानुमान के अनुसार, देश में इस वर्ष अलनीनो के कारण मॉनसून में सामान्य से कम वर्षा होगी और औसत तापमान भी ऊंचा बना रहेगा। जाहिर है, इस बार इसका असर कृषि और महंगाई के साथ-साथ पानी की उपलब्धता पर भी पड़ेगा।

तेज गर्मी ने पहले ही दस्तक दे दी है और पानी की भारी किल्लत की संभावना अभी से सामने मुंह बाए खड़ी है। लेकिन पिछले दिनों की चुनावी सरगर्मी में इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया। वैसे भी किसी भी बड़ी या छोटी राजनीतिक पार्टी ने पानी को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया था। सरकारी या निजी स्तर पर भी पानी की बचत या किसी व्यापक जलसंरक्षण अभियान को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखाई दे रही है।

यों पानी की किल्लत अब एक वैश्विक समस्या बन चुकी है। इसलिए पूरे विश्व में जलसंरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से सन् 1993 में ही संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा ने 22 मार्च को विश्व जल दिवस घोषित किया था।

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पहाड़ी कोरवाओं की बेंवर खेती

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कोरवा आदिवासी की बेंवर खेतीछत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है लेकिन यहां ऐसे समुदाय भी हैं, जो धान की खेती नहीं करते। उनमें से एक समुदाय है पहाड़ी कोरवा। पहाड़ी कोरवा उन आदिम जनजाति में एक है जिनका जीवन पहाड़ों व जंगलों पर निर्भर है। यह आदिवासी पहाड़ों पर ही रहते हैं और इसलिए इन्हें पहाड़ी कोरवा कहते हैं। ये लोग बेंवर खेती करते हैं जिसमें सभी तरह के अनाज एक साथ मिलाकर बोते हैं।

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गाद तो हमारे ही माथे पर है

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हरनंदी कहिन, जून 2014
समाज और सरकार पारंपरिक जल-स्रोतों कुओं, बावड़ियों और तालाबों में गाद होने की बात करता है, जबकि हकीकत में गाद तो उन्हीें के माथे पर है। सदानीरा रहने वाली बावड़ी कुओं को बोरवेल और कचरे ने पाट दिया तो तालाबों को कंक्रीट का जंगल निगल गया। एक तरफ प्यास से बेहाल होकर अपने घर-गांव छोड़ते लोगों की हकीकत है तो दूसरी ओर पानी का अकूत भंडार! यदि जल संकट ग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर इंच खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है।अब तो देश के 32 फीसदी हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गर्मी के मौसम का इंतजार भी नहीं करना पड़ता है - बारहों महीने, तीसों दिन यहां जेठ ही रहता है। सरकार संसद में बता चुकी है कि देश की 11 फीसदी आबादी साफ पीने के पानी से महरूम है। दूसरी तरफ यदि कुछ दशक पहले पलट कर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्रोतों की मदद से ही खेत और गले दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे।

एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे,जब तक संभलते जब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्रोतों: तालाब, कुंए, बावड़ी की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। लेकिन एक बार फिर पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी ओर काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है।

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पानी की जंग

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Author: 
रवि शंकर
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जनसत्ता (रविवारी) 22 जून 2014
संसार इस समय जहां अधिक टिकाऊ भविष्य के निर्माण में व्यस्त है, वहीं पानी, खाद्य और ऊर्जा की पारस्परिक निर्भरता की चुनौतियां का सामना हमें करना पड़ रहा है। जल के बिना न तो हमारी प्रतिष्ठा बनती है और न गरीबी से हम छुटकारा पा सकते हैं। फिर भी शुद्ध पानी तक पहुंच और साफ-सफाई, संबंधी सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य तक पहुंचने में बहुतेरे देश अभी पीछे हैं। नतीजा सामने आ रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का संकट गहराने लगा है। पेयजल संकट से दुनिया का एक बड़ा हिस्सा जूझ रहा है।औद्योगीकरण की राह पर चलती दुनिया में साफ पानी का संकट कोने-कोने में पसर चुका है, जिससे पूरी दुनिया में पानी का संकट विकराल रूप ले चुका है। भले दुनिया विकास कर रही है, लेकिन साफ पानी मिलना कठिन हो रहा है। एशिया में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश से लेकर अफ्रीका में केन्या, इथियोपिया और सूडान जैसे देश साफ पानी की कमी से जूझ रहे हैं।

तीसरी दुनिया के देशों की खराब हालत के पीछे एक बड़ी वजह साफ पानी की कमी भी है। जब से जल संकट के बारे में विश्व में चर्चा शुरू हुई, एक जुमला चल निकला कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। सचमुच, अब पानी संबंधी चुनौतियां गंभीर हो गई हैं।

मतलब साफ है कि जिस तरह दुनिया लोगों और उनकी जरूरतों से भरती जा रही है, पानी के स्रोत खाली होते जा रहे हैं।

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