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भूकम्प और भारतीय धर्म विज्ञान

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Author: 
ज्ञानेन्द्र रावत
.बीते दिनों नेपाल में लामजंग में आए विनाशकारी भूकम्प ने इस बहस को और बल प्रदान किया है कि आखिर भूकम्प का कारण क्या है और इसका भारतीय धर्म विज्ञान से क्या सम्बन्ध है। अब यह साबित हो चुका है और उदाहरणों से भी स्पष्ट है कि विज्ञान का चिन्तन किस प्रकार भारतीय ऋषि चिन्तन के इर्द-गिर्द घूम रहा है।

पाश्चात्य विज्ञान की यह सबसे बड़ी भूल है कि पश्चिमी विद्वान-वैज्ञानिक भूकम्प के कारणों को ‘प्लेट टेक्टॉनिक सिद्धान्त’के आधार पर लगातार अनुसन्धान एवं भविष्यवाणी करने में जुटे हैं। यह कितना हास्यास्पद है कि गैलेक्टिक सिविलाइजेशन में पृथ्वी को अलग कर सिर्फ उसके प्लेटों के खिसकने के आधार पर नासा, यू.एस. जियोलॉजिकल सर्वे एवं भारत समेत विश्व की कई भूकम्प पर अनुसन्धान करने वाली संस्थाएँ कार्य कर रही हैं।

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नेपाल आपदा : हिमालय विकास के मॉडल पर पुनर्विचार का समय

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Author: 
सुरेश भाई
.25 अप्रैल को 7.9 तीव्रता के महाविनाशकारी भूकम्प ने नेपाल को बुरी तरह प्रभावित तो किया ही है, लेकिन भारत के उत्त रप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, सिक्किम, उत्तराखण्ड तथा साथ में लगे पड़ोसी देश चीन आदि को भी जान माल की हानि हुई है। पूरे दक्षिण एशियाई हिमालय क्षेत्र में बाढ़, भूकम्प की घटनाएँ पिछले 30 वर्षों में कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं।

इससे सचेत रहने के लिये भूगर्भविदों ने प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से भी अलग-अलग जोन बनाकर दुनिया की सरकारों को बता रखा है कि कहाँ-कहाँ पर खतरे अधिक होने की सम्भावना है। हिमालय क्षेत्र मे अन्धाधुन्ध पर्यटन के नाम पर बहुमंजिले इमारतों का निर्माण, सड़कों का चौड़ीकरण, वनों का कटान, विकास के नाम पर बड़े-बड़े बाँधों, जलाशयों और सुरंगों के निर्माण में प्रयोग हो रहे विस्फोटों से हिमालय की रीढ़ काँपती रहती है।

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भूकम्प की भाषा समझें

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Author: 
अरुण कुमार त्रिपाठी
.भूकम्प की भाषा विनाश की होती है लेकिन अगर हम उसे समझ सकते हैं तो उसमें से जीवन को निकाल सकते हैं। हमारी दिक्कत यह है कि विज्ञान अभी तक भूकम्प का पूर्वानुमान लगा नहीं सका है और उसके बाद की भाषा को समझ कर कोई एहतियात बरत नहीं पा रहे हैं।

हम व्यवस्था और आधुनिकता के स्तर पर महज राहत करना जानते हैं और उसके बाद यह भूल जाते हैं कि यहाँ कभी भूकम्प आया था जो आगे भी आ सकता है। वास्तव में हम प्राकृतिक आपदा के बारे में महज प्रबन्धन सम्बन्धी संस्थाएँ बना सके हैं लेकिन उसके बारे में रोकथाम और उससे जुड़ा जनमत बनाने की कोई तरकीब नहीं निकाल सके हैं।

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फिर जल-सत्याग्रह

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Author: 
विमल भाई
.मध्य प्रदेश के घोघलगाँव में जल सत्याग्रह को आज लेख लिखने तक 20 दिन हो गए। सत्याग्रहियों के पैर गल रहे हैं, लगातार खुजली हो रही है। बुखार की शिकायत लगातार बनी हुई है। खून पैरों से रिसने लगा है। किन्तु ओंकारेश्वर बाँध प्रभावितों में अपने अधिकारों के लिये उत्साह में कमी नहीं हुई। सत्याग्रह स्थल पर एकदा, गोल सैलानी, सकतापुर, टोकी, केलवा, खुर्द, केलवा बुजर्ग, कामनाखेड़ा आदि डूब प्रभावित गाँवों के लोग लगातार पहुँच कर अपना समर्थन व्यक्त कर रहे हैं।

घोघलगाँव के जल सत्याग्रहियों को देखने जब सरकारी डॉक्टर्स की टीम पहुँची और उन्होंनेे जल सत्याग्रहियों के स्वास्थ्य की जाँच की। उन्होंने देखा कि जल सत्याग्रहियों के पैर गल गए हैं और खून आ रहा है। सरकारी डॉक्टर्स ने इलाज का आग्रह किया तो सत्यग्रहियों ने कहा कि हमारा इलाज सरकार के पास है वो हमारी माँगे पूरी करे। हमारा इलाज हो जाएगा इसके अलावा हम कोई इलाज नहीं लेंगे। बात सही है। न्यायपूर्ण है।

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भूकम्प से निपटने को क्या तैयार हैं हम

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Author: 
ज्ञानेन्द्र रावत
.बीते दिनों 25 अप्रैल को नेपाल में राजधानी काठमाण्डू से 80 किलोमीटर दूर लामजंग में आए 7.9 तीव्रता वाले विनाशकारी भूकम्प से और उसके दूसरे दिन 6.5 और 6.7 तीव्रता वाले भूकम्प से अब तक 4000 से अधिक मौतें हो चुकी हैं, 6500 से अधिक लोग घायल हैं और 3000 से अधिक लोग विभिन्न अस्पतालों में भर्ती हैं। सम्पत्ति का कितना नुकसान हुआ है, इसका आकलन कर पाना अभी जल्दबाजी होगी। वहाँ आपातकाल लागू कर दिया गया है। राहत कार्य शुरू हो चुके हैं।

भारत ने एनडीआरएफ की टीमें नेपाल रवाना कर दी हैं और इस आपदा की घड़ी में भारत हर सम्भव सहायता देने को कटिबद्ध है। भारत ने वायुसेना के 13 विमान, एयर इण्डिया व जेट एयरवेज के तीन नागरिक विमान, छह एमआई 17 हेलीकॉप्टर, दो हल्के हेलीकॉप्टर, एक हजार से अधिक प्रशिक्षित सैन्यकर्मी टनों खाद्य सामग्री के साथ राहत कार्य हेतु नेपाल भेज दिये हैं।

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हिमालय बचाने की मुहिम

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Author: 
सुरेश भाई
हिमालयी क्षेत्र के लिये अलग मन्त्रालय अवश्य होना चाहिये, लेकिन हिमालयी क्षेत्र में किस प्रकार का विकास मॉडल लागू हो, इसके उपाय हिमालय लोकनीति के माध्यम से सुझाए जा रहे हैं।

.सभी कहते हैं कि हिमालय नहीं रहेगा तो, देश नहीं रहेगा, इस प्रकार हिमालय बचाओ! देश बचाओ! केवल नारा नहीं है, यह भावी विकास नीतियों को दिशाहीन होने से बचाने का भी एक रास्ता है। इसी तरह चिपको आन्दोलन में पहाड़ की महिलाओं ने कहा कि ‘मिट्टी, पानी और बयार! जिन्दा रहने के आधार!’और आगे चलकर रक्षासूत्र आन्दोलन का नारा है कि ‘ऊँचाई पर पेड़ रहेंगे! नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे!’, ये तमाम निर्देशन पहाड़ के लोगों ने देशवासियों को दिये हैं।

‘‘धार ऐंचपाणी, ढाल पर डाला, बिजली बणावा खाला-खाला!’’इसका अर्थ यह है कि चोटी पर पानी पहुँचना चाहिए, ढालदार पहाड़ियों पर चौड़ी पत्ती के वृक्ष लगे और इन पहाड़ियों के बीच से आ रहे नदी, नालों के पानी से घराट और नहरें बनाकर बिजली एवं सिंचाई की व्यवस्था की जाए। इसको ध्यान में रखते हुए हिमालयी क्षेत्रों में रह रहे लोगों, सामाजिक अभियानों तथा आक्रामक विकास नीति को चुनौती देने वाले कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों ने कई बार हिमालय नीति के लिये केन्द्र सरकार पर दबाव बनाया है।

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कोई लौटा दे वो बीते दिन

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.मध्य प्रदेश जंगल, खनिज सम्पदा, प्राकृतिक संसाधनों तथा अन्य मामलों में भी अर्से से 'सम्पन्न’ रहा है। कमोबेश पानी प्रबन्धन की परम्पराओं के मामले में भी इस राज्य का 'भाग्य’ काफी प्रबल रहा है। आखिर ऐसी कौन-सी प्रमुख तकनीक रही है - जो मध्य प्रदेश में नहीं रही होगी। यह इस राज्य के लिये गर्व की बात है कि क्षिप्रा नदी में अभी भी 2300 से 2600 साल पुराने ऐसे सिक्के मिल रहे हैं, जो सन्देश देते थे- जिन्दगी, समृद्धता और विकास के लिये जरूरी है कि पानी को रोका जाए..!

यहाँ पानी के अनेक चमत्कार मौजूद हैं - बरसों से झाबुआ, धार, खरगोन का आदिवासी समाज ईश्वर द्वारा दी गई समझ से बिना इंजन या कोई मोटर के पानी को पहाड़ पर ले जाता है और रबी की फसल ले लेता है। सदियों पहले माण्डव के सत्ता पुरुषों ने तीन से पाँच लाख की आबादी को वर्षा की नन्हीं बूँदों को रोककर आबाद रख रखा था- लेकिन, आज यह अफसोस है कि तमाम सुविधाओं के बावजूद यहाँ 15 में 10 हजार की आबादी को पानी ठीक से नसीब नहीं हो पा रहा है।

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जलवायु परिवर्तन से बढ़ रहा धरती पर संकट

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Author: 
ज्ञानेन्द्र रावत
.आज जीवनदायिनी प्रकृति और उसके द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा उपयोग और भौतिक सुख-संसाधनों की चाहत की अंधी दौड़ के चलते न केवल प्रदूषण बढ़ा है बल्कि अन्धाधुन्ध प्रदूषण के कारण जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है मानवीय स्वार्थ जो प्रदूषण का जनक है।

महात्मा गाँधी ने इस बारे में करीब एक शताब्दी पहले कहा था- ‘‘धरती सभी मनुष्यों एवं प्राणियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम है, परन्तु किसी की तृष्णा को शान्त नहीं कर सकती।’’गाँधी जी का कथन बिल्कुल सही है और यह भी कि मनुष्य की तृष्णा, विषय वासनाएँ आग में घी के समान निरन्तर बढ़ती रहती हैं।

उपभोक्तावाद के नशे में एक-एक तृष्णा पूर्ति पर नई-नई तृष्णाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। हमारे ऋषियों ने इस अनुभव से भोग की मर्यादा बाँध त्याग को महत्व दिया।

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नदियों को उनका अधिकार वापस देना होगा-राजेन्द्र सिंह

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Author: 
अमरनाथ

नदी संवाद यात्रा -2


.कमला के तट पर बड़ा शहर है। झंझारपुर यह मिथिलांचल की राजनीति का केन्द्र भी है। यहाँ जलपुरुष राजेन्द्र सिंह ने ‘नदियों के अधिकार’का मामला उठाया। उन्होंने कहा कि नदियों की विनाशलीला से बचने और नदियों को सूखने से बचाने के लिये उनका अधिकार वापस लौटाना होगा।

नदी क्षेत्र का विस्तार उसकी मूल धारा से लेकर वहाँ तक होता है, जहाँ तक उसका पानी जाता है। इस अति बाढ़ प्रवण और बाढ़ प्रवण क्षेत्र में कायदे से कोई निर्माण कार्य नहीं होना चाहिए और अगर अनिवार्य हो तो ध्यान रखना चाहिए कि नदी के स्वाभाविक प्रवाह में अड़चन न आए। परन्तु लोगों ने उन क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया है। इसे रोकना और हटाना होगा।

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भूले नहीं कि एक माँ गंगा भी है

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.लोग कहते हैं कि भारतीय संस्कृति, अप्रतिम है। किन्तु क्या इसके वर्तमान को हम अप्रतिम कह सकते हैं? माँ और सन्तान का रिश्ता, हर पल स्नेह और सुरक्षा के साथ जिया जाने वाला रिश्ता है। क्या आज हम इस रिश्ते को हर पल स्नेह और साझी सुरक्षा के साथ जी रहे हैं?

इस स्नेहिल रिश्ते के बीच के अनौपचारिक बन्धन को प्रगाढ़ करना तो दूर, हम इस रिश्ते के औपचारिक दायित्व की पूर्ति से भी भागते हुए दिखाई नहीं दे रहे? बेटियों के पास तो माँ के लिये हर पल समय है; किन्तु हम बेटों के पास दायित्व से दूर भागने के लिये लाख बहाने हैं।

कभी-कभी मुझे खुद अपराध बोध होता है कि माँ, मेरी भी प्राथमिकता सूची में ही नहीं है; न जन्म देने वाली माँ और न पालने-पोषने में सहायक बनने वाली हमारी अन्य माताएँ।

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आयरन, फ्लोराइड एवं आर्सेनिक मुक्त जल उपलब्ध करना चुनौती : नीतीश

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Author: 
कुमार कृष्णन
.पटना।मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार ने आज मुख्यमन्त्री सचिवालय संवाद में 210.75 करोड़ रूपये की 315 ग्रामीण पाइप जलापूर्ति एवं सौर्यचालित मिनी पाइप जलापूर्ति योजना का शिलान्यास/उद्घाटन करते हुए कहा कि हर इन्सान को स्वच्छ जल मिलना चाहिये। मुख्यमन्त्री ने कहा कि स्वच्छता एक व्यापक विषय है। स्वच्छ पेयजल इसका हिस्सा है। हर इन्सान को स्वच्छ जल मिलना चाहिये। आजादी के इतने दिनों के बाद भी हम अपने देश के नागरिकों को अभी तक स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं करा पाये हैं, यह सोचनीय विषय है। उन्होंने कहा कि देश में कई जगहों पर पानी में आयरन, फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा अधिक रहती है।

बिहार में भी बहुत जगहों पर पानी में आयरन, फ्लोराइड एवं आर्सेनिक की मात्रा अधिक है। सरकार का प्रयास है कि लोगों को आयरन, फ्लोराइड एवं आर्सेनिक मुक्त पेयजल मिले। उन्होंने कहा कि 2010 में जब हमने विकास यात्रा के दौरान मुँगेर जिला के खैरा गाँव का दौरा किया था तो पूरा का पूरा गाँव फ्लोराइड से प्रभावित था।

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बाढ़, सूखा और नदी

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Author: 
अनुपम मिश्र
Source: 
कादम्बिनी, मई 2015
बाढ़ और सूखा कोई नई बात नहीं है। सदियों से हमारा समाज इनके साथ रहना सीख चुका था और इनसे निपटने के लिए उसने अपनी देसी तकनीक भी तैयार कर ली थी जो प्रकृति और नदियों को साथ लेकर चलती थी। लेकिन दिक्कत तब हुई जब हमने प्रकृति और नदियों की उपेक्षा शुरू की, उन्हें बाँधना शुरू किया। इसके बाद से ही बाढ़ और सूखे ने विभीषिका का रूप लेना शुरू कर दिया।
.अकाल और बाढ़ अकेले नहींं आते। इनसे बहुत पहले अच्छे विचारों का भी अकाल पड़ने लगता है। इसी तरह बाढ़ से पहले बुरे विचारों की बाढ़ आ जाती है। ये केवल विचार तक सीमित नहींं रहते, ये काम में भी बदल जाते हैं। बुरे काम होने लगते हैं और बुरे काम अकाल और बाढ़ दोनों की तैयारी को बढ़ावा देने लगते हैं।

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छत्तीसगढ़ में फ्लोराइड से अब 574 गाँव संकट में

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Author: 
शिरीष खरे
केन्द्र ने किया तलब, कहा- बनाओ कार्ययोजना, पिलाओं साफ पानी
.रायपुर।छत्तीसगढ़ के 17 जिलों के पानी में फ्लोराइड की अधिकता की बात राज्य सरकार ने मान ली है। राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक अब राज्य के 574 गाँवों में फ्लोराइड की अधिकता की वजह से फ्लोरोसिस की बीमारी बढ़ रही है। फ्लोरोसिस से लेागों के शरीर पर घातक प्रभाव पड़ रहा है। इससे असमय की बच्चों से लेकर बुजुर्गों की हड्डियाँ और दाँत कमजोर हो रहे हैं। हालाँकि राज्य सरकार बड़े पैमाने पर छत्तीसगढ़ में फ्लोराइड की अधिकता की बात तो मानती है, लेकिन इसके रोकथाम के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठा पा रही है।

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प्रदूषण ने लगाई पानी में आग

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बेलंदूर की घटना बंगलूरू के लिए चेतावनी है कि यदि अब तालाबों पर अतिक्रमण व उनमें गन्दगी घोलना बंद नहीं किया गया तो आज जो छोटी सी चिंगारी दिख रही है, वह कभी भी बड़ी ज्वाला बन सकती है, जिसमें जल-संकट, बीमारियाँ, पर्यावरण असन्तुलन की लपटें होंगी।

यह सारी दुनिया में सम्भवतया भारत में ही हुआ, जब एक बड़े से तालाब से पहले चार-चारफुट ऊँचे झाग बाहर निकले व सड़क पर छा गए और देखते ही देखते उसके बीच आग की लपट उठी व कई मिनट तक दूर तक सुलगती रही। बदबू, झाग से हैरान, परेशान लोग समझ नहीं पा रहे थे कि यह अजूबा है या प्राकृतिक त्रासदी, यह कोई दैवीय घटना है या वैज्ञानिक प्रक्रिया। बहरहाल बस यही बात सामने आई है कि कभी समाज को जीवन देने वाले तालाब के नैसर्गिक ढाँचे से की गई छेड़-छाड़ व उसमें बेपनाह जहर मिलाने से नाराज तालाब ने ही इन चिंगारियों के जरिये समाज को चेताया है। इतने गम्भीर मसले पर अभी तक तो बस कागजी शेर दहाड़ रहे हैं, लाल बस्ते में बँधे घोड़े कड़बड़-कड़बड़ कर रहे हैं।

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एनसीआर का पानी, नदी और ग्रीन ट्रिब्युनल

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दिल्ली में प्रदूषित यमुनाराष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का दायरा फैला; आबादी बढी; साथ-साथ पर्यावरण की चिन्ता की लकीरें भी। कहना न होगा कि पानी और नदी के मोर्चे पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली ने काफी कुछ खोया है। दिल्ली, पानी के मामले में एक परजीवी शहर है। नोएडा और गुड़गाँव के कदम भी इस पराश्रिता की ओर बढ़ चुके हैं और ग्रेटर नोएडा के पानी में प्रदूषण से पैदा कैंसर के मरीज। साबी नदी का नाम हमने नजफगढ़ नाला रख ही दिया है। हिंडन और यमुना, को भी इसी दिशा में जाते प्रवाह हैं। चेत गये हाथों ने गुहार लगाई। लगाई गुहार को नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल का भरोसा मिला। इस भरोसे ने उम्मीद जगाई है और चेतना भी। सम्भव है कि इससे हमारा स्वार्थ शर्मा जाये और हमारी नदियाँ जिन्दा हो जायें; हमारा भू-जल लौट आये।

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ताकि गंगा भी न मांग ले इच्छा मृत्यु

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आज गंगा दशहरा है। 28 मई, दिन गुरुवार, पंचाग के हिसाब से ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि ! श्री काशीविश्वनाथ की कलशयात्रा का पवित्र दिन। कभी इसी दिन बिन्दुसर के तट पर राजा भगीरथ का तप सफल हुआ। पृथ्वी पर गंगा अवतरित हुई। ‘‘ग अव्ययं गमयति इति गंगा’’ - जो स्वर्ग ले जाये, वह गंगा है।

पापों को धोने वाली गंगा अब मैली हो गई हैपापों को धोने वाली गंगा अब मैली हो गई हैपृथ्वी पर आते ही सबको सुखी, समृद्ध व शीतल कर दुखों से मुक्त करने के लिए सभी दिशाओं में विभक्त होकर सागर में जाकर पुनः जा मिलने को तत्पर एक विलक्षण अमृतप्रवाह! जो धारा अयोध्या के राजा सगर के शापित पुत्रों को पु़नर्जीवित करने राजा दिलीप के पुत्र, अंशुमान के पौत्र और श्रुत के पिता राजा भगीरथ के पीछे चली, वह भागीरथी के नाम से प्रतिष्ठित हुई। जो अलकापुरी की तरफ से उतरी, वह अलकनन्दा और तीसरी प्रमुख धारा ‘मंदार पुष्प सुपूजिताय’के नाम पर मंदाकिनी कहलाई। शेष धाराओं ने भी अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग नाम धारण किए। इन सभी ने मिलकर पंच प्रयाग बनाया। जब तक ये अपने-अपने अस्तित्व की परवाह करती रही, उतनी पूजनीय और परोपकारी नहीं बन सकी, जितना एकाकार होने के बाद गंगा बनकर हो गईं।

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पुरी में प्रदूषणः ऑक्सीजन की बहस

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Author: 
अरुण कुमार त्रिपाठी

सवाल अहम है कि एनजीटी के इस आदेश से निकला सन्देश क्या दूर तलक जाएगा? क्या बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड यानी बीओडी और डीओ के बहाने छिड़ी बहस किसी अच्छे नतीजे पर पहुँचेगी? क्या हम जल जीवों के लिए ऑक्सीजन की उपलब्धता बढ़ाकर उनकी ऑक्सीजन की माँग कम कर पाएँगे? या हम होटलों और व्यावसायियों की लॉबी के दबाव में दब कर तमाम मानक बदल देंगे? क्या हरिद्वार और उड़ीसा के प्रदूषण फैलाने वाले होटलों को सबक सिखाने का यह कदम पूरे देश पर असर डालेगा? निश्चित तौर पर पर्यावरण संरक्षण विरोधी इस माहौल में एनजीटी एक नया माहौल बनाएगा और नई चेतना का संचार करेगा?

एक हिन्दी फिल्म में खलनायक एक डायलॉग बोलता है- “हम तुम्हें लिक्विड ऑक्सीजन में डाल देंगे। लिक्विड तुम्हें जीने नहीं देगा और ऑक्सीजन तुम्हें मरने नहीं देगा।”कुछ इसी तरह की रोचक बहस बीओडी यानी बायो ऑक्सीजन डिमांड और डिजाल्व्ड ऑक्सीजन के मानकों के बारे उत्तराखंड से उड़ीसा तक चल रही है। राष्ट्रीय हरित पंचाट यानी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की जाँच में रंगे हाथों पकड़े जाने के बाद उड़ीसा के जिन 60 होटलों पर बंद होने की तलवार लटक रही है। उनकी दलील है कि 1986 का पर्यावरण संरक्षण अधिनियम बीओडी का स्तर 350 मिलीग्राम प्रति लीटर तक मान्य करता है। इसलिए उड़ीसा राज्य प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड का 75 मिली ग्राम प्रति लीटर का मानक बहुत सख्त है। इसके जवाब में बोर्ड की दलील थी कि केन्द्रीय कानून राज्य बोर्ड को अपने ढँग से मानक तय करने का अधिकार देता है।

इसलिए यह जानना भी जरूरी है कि बीओडी क्या है और इससे पानी की गुणवत्ता पर क्या असर पड़ता है।

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ਮੇਰੀ ਕਹਾਣੀ ਮੇਰੀ ਜ਼ੁਬਾਨੀ

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ਬਹੁਤ ਥੋੜ੍ਹੇ ਸਮੇਂ ਵਿੱਚ ਸੁਭਾਸ਼ ਸ਼ਰਮਾ ਨੇ ਜੈਵਿਕ ਖੇਤੀ ਨੂੰ ਆਤਮਸਾਤ ਕਰ ਲਿਆ ਹੈ। ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਨਿਰੀਖਣ, ਜਲ ਅਤੇ ਮਿੱਟੀ 'ਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਯੋਗ ਕਰਕੇ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕੀਤਾ ਹੋਇਆ ਗਿਆਨ ਅਤੁਲਨੀਯ ਹੈ। ਇਸੇ ਕਾਰਨ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਪ੍ਰਸ਼ੰਸਕਾਂ ਵਿੱਚ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਆਪਣਾ ਅਲੱਗ ਮੁਕਾਮ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਲਿਆ ਹੈ। ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਟਾਟਾ ਸਕਾਲਰਸ਼ਿਪ ਮਿਲੀ ਅਤੇ ਬਾਬਾ ਰਾਮਦੇਵ ਜੀ ਦੇ ਜੈਵਿਕ ਖੇਤੀ ਪ੍ਰਯੋਗ ਖੇਤਰ ਦੇ ਸਲਾਹਕਾਰ ਵੀ ਹਨ।

ਸੰਨ 1975 ਵਿੱਚ ਮੈਂ ਖੇਤੀ ਸ਼ੁਰੂ ਕੀਤੀ। ਉਸ ਸਮੇਂ ਮੈਂ ਖੇਤਾਂ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰੰਪਰਿਕ ਫ਼ਸਲਾਂ ਹੀ ਬੀਜਦਾ ਸੀ। ਜਵਾਰ, ਨਰਮ੍ਹਾ, ਅਰਹਰ, ਮੂੰਗ, ਕਣਕ, ਛੋਲੇ ਅਤੇ ਸਬਜ਼ੀਆਂ ਸਭ ਬੀਜਦਾ ਸੀ। ਉਹਨਾਂ ਦਿਨਾਂ ਵਿੱਚ ਮੈਂ ਰਸਾਇਣਿਕ ਖਾਦ ਅਤੇ ਕੀਟਨਾਸ਼ਕ ਦਵਾਈਆਂ ਦਾ ਭਰਪੂਰ ਪ੍ਰਯੋਗ ਕਰਦਾ ਸੀ। ਸੰਨ 1978 ਵਿੱਚ ਮੈਨੂੰ 14 ਕੁਇੰਟਲ ਨਰਮ੍ਹਾ, 10 ਕੁਇੰਟਲ ਅਰਹਰ, 200 ਕੁਇੰਟਲ ਸਬਜ਼ੀਆਂ, 15 ਕੁਇੰਟਲ ਕਣਕ, 10 ਕੁਇੰਟਲ ਛੋਲੇ ਪ੍ਰਤਿ ਏਕੜ ਮਿਲਦੇ ਸਨ। ਇਹ ਸਿਲਸਿਲਾ 1980 ਤੱਕ ਚਲਦਾ ਰਿਹਾ। 1983 ਵਿੱਚ ਮਹਾਂਰਾਸ਼ਟਰ ਸ਼ਾਸਨ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਸਨਮਾਨਿਤ ਵੀ ਕੀਤਾ ਪਰ 1987 ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਪੈਦਾਵਾਰ ਘਟ ਹੁੰਦੀ ਗਈ। 1990 ਤੋਂ 1994 ਤੱਕ ਖਰਚ ਵਧਦਾ ਗਿਆ ਅਤੇ ਪੈਦਾਵਾਰ ਘਟ ਹੁੰਦੀ ਗਈ। ਰਸਾਇਣਾਂ ਦੇ ਕਾਰਨ ਮਿੱਟੀ ਵਿੱਚ ਵਿਆਪਤ ਸੂਖ਼ਮ ਜੀਵਾਣੂ ਮਰਦੇ ਗਏ।

ਸਾਡੇ ਪਿੰਡ ਵਿੱਚ ਚਰਚਾ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋਈ ਕਿ ਇਸਦਾ ਬਦਲ ਕੀ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ? 1994 ਵਿੱਚ ਮੈਂ ਜੈਵਿਕ ਖੇਤੀ ਸ਼ੁਰੂ ਕੀਤੀ। ਪਰ ਰਸਾਇਣ ਬੰਦ ਨਹੀਂ ਕੀਤੇ। ਮੈਂ ਪ੍ਰਯੋਗ ਆਰੰਭ ਕੀਤੇ। 1 ਪਲਾਟ ਵਿੱਚ ਰਸਾਇਣਾਂ ਦੀਆਂ 4 ਬੋਰੀਆਂ ਅਤੇ ਦੂਸਰੇ ਵਿੱਚ 1 ਬੋਰੀ ਇਸਤੇਮਾਲ ਕੀਤੀ। ਮਜ਼ੇ ਦੀ ਗੱਲ ਇਂਹ ਹੋਈ ਕਿ ਦੋਵਾਂ ਪਲਾਟਾਂ ਵਿੱਚ ਪੈਦਾਵਾਰ ਇੱਕ ਸਮਾਨ ਰਹੀ। ਭਾਵ ਸਿੱਟਾ ਇਹ ਨਿਕਲਿਆ ਕਿ 3 ਬੋਰੀ ਰਸਾਇਣਿਕ ਖਾਦ ਜੋ ਮੈਂ ਦਿੱਤੀ ਸੀ ਉਹ ਫ਼ਿਜੂਲਖਰਚੀ ਸੀ। ਹੋਰ ਇੱਕ ਚੀਜ਼ ਮੈਂ ਪਾਈ ਕਿ ਉੱਥੇ ਉੱਗ ਰਹੇ ਚਾਰੇ ਨੂੰ ਮੈਂ ਜੇਕਰ ਜੈਵਿਕ ਖਾਦ ਦੇ ਕੰਮ ਵਿੱਚ ਲਵਾਂ ਤਾਂ ਮੈਨੂੰ 50 ਰੁਪਏ ਜ਼ਿਆਦਾ ਮਿਲਦੇ ਹਨ। ਦੂਸਰਾ ਮੇਰਾ ਪ੍ਰਯੋਗ ਸੀ ਕਿ ਜਿੱਥੇ ਮੈਂ ਜ਼ਿਆਦਾ ਕੀਟਨਾਸ਼ਕ ਛਿੜਕਦਾ ਸੀ ਉੱਥੇ ਪੈਦਾਵਾਰ ਘੱਟ ਮਿਲੀ ਅਤੇ ਜਿੱਥੇ ਕੀਟਨਾਸ਼ਕ ਪਾਏ ਹੀ ਨਹੀਂ ਸਨ ਉੱਥੇ ਪੈਦਾਵਾਰ ਦੁੱਗਣੀ ਮਿਲੀ।

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देवास : जहाँ खो गए हैं सैकड़ों तालाब

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Author: 
मनीष वैद्य
.मध्यप्रदेश में पानी के नाम पर एक बड़े गड़बड़-घोटाले का पर्दाफाश हुआ है। आश्चर्य है कि यहाँ तालाब के तालाब ही खो गए हैं। सरकारी दस्तावेजों में जहाँ तालाब दिखाए गए हैं, वहाँ पानी तो दूर कीचड़ तक नजर नहीं आ रहा है यानी पूरा सफेद झूठ। प्रशासनिक अमले को जब इसकी खबर लगी तो वह हक्का–बक्का रह गए। आनन–फानन में जाँच शुरू हुई। पहले ही दिन अधिकारियों के हाथ–पैर फूल गए। खेत–खेत घूमते रहे अधिकारी पर तालाबों का कहीं अता–पता नहीं चला। तीन दिन की जाँच में ही 107 तालाबों का सत्यापन किया तो पता लगा कि इनमें से 100 तालाब गुमशुदा हो गए हैं।

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आधुनिकता की भेंट चढ़े तालाब

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Author: 
कुमार कृष्ण
.पर्यावरण की रक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों व परम्पराओं का ही अंग है। अथर्ववेद में कहा भी गया है कि मनुष्य का स्वर्ग यहीं पृथ्वी पर है। यह जीवित संसार ही सभी मनुष्यों के लिए सबसे प्यारा स्थान है। यह प्रकृति की उदारता का ही आशीर्वाद है कि हम पृथ्वी पर बेहतर सोच और जज्‍बे के साथ जी रहे हैं।

प्राचीनतम संस्कृतियों में भारतीय वैदिक संस्कृति सबसे पुरातन संस्कृति है। वैदिक संस्कृति में शुरू से ही प्रकृति और पर्यावरण का अटूट रिश्ता है। प्राचीन संस्कृति में यज्ञ हवन की महत्ता थी जो पर्यावरण को शुद्ध करते थे।

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