<b>ਹਰੀ ਕ੍ਰਾਂਤੀ ਕੀ ਸੀ?</b>ਸੱਤਰਵਿਆਂ ਦੌਰਾਨ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਅਮਰੀਕੀ ਦਿਸ਼ਾ ਨਿਰਦੇਸ਼ਾ ਵਿੱਚ ਰਾਕ ਫੈਲਰ ਅਤੇ ਫੋਰਡ ਫਾਊਂਡੇਸ਼ਨ ਨਾਲ ਮਿਲ ਕੇ ਦੇਸ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਅਸਲੋਂ ਹੀ ਨਿਵੇਕਲੀ ਖੇਤੀ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਨੂੰ ਲਾਗੂ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਨਾਮ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਹਰੀ ਕ੍ਰਾਂਤੀ। ਇਸ ਖੇਤੀ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਤਹਿਤ ਰਵਾਇਤੀ ਖੇਤੀ ਢੰਗਾ ਨੂੰ ਰੱਦ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਅਤੇ ਖੇਤੀ ਉਤਪਾਦਨ ਵਧਾਉਣ ਲਈ ਰਸਾਇਣਾਂ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਨੂੰ ਪ੍ਰਵਾਨਗੀ ਮਿਲ ਗਈ। ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਦੇਸ ਵਿੱਚ ਹੌਲੀ-ਹੌਲੀ ਰਵਾਇਤੀ ਖੇਤੀ ਦੀ ਥਾਂ ਰਸਾਇਣਕ ਖੇਤੀ ਨੇ ਮੱਲ ਲਈ। ਜੇ ਸੱਚ ਕਿਹਾ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਦੇਸ਼ ਵਿੱਚ ਰਵਾਇਤੀ ਖੇਤੀ ਦਾ ਕਤਲ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਖੇਤੀ ਪ੍ਰਬੰਧ ਨੂੰ ਹੀ ਹਰੀ ਕ੍ਰਾਂਤੀ ਦੇ ਨਾਂਅ ਨਾਲ ਵਡਿਆਇਆ ਗਿਆ ਹੈ।<br></br> <b>ਹਰੀ ਕ੍ਰਾਂਤੀ ਦੀ ਲੋੜ?</b><br></br>15 ਅਗਸਤ 1947 ਨੂੰ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਆਜ਼ਾਦ ਹੁੰਦਿਆਂ ਹੀ ਸਰਕਾਰ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਦੇਸ਼ ਵਿੱਚ ਭਾਰੀ ਗਿਣਤੀ 'ਚ ਭੁੱਖਮਰੀ ਦੇ ਸ਼ਿਕਾਰ ਲੋਕਾਂ ਲਈ ਲੋੜੀਂਦਾ ਅੰਨ ਜੁਟਾਉਣ ਦੀ ਵਿਕਰਾਲ ਸਮੱਸਿਆ ਨਾਲ ਹੋਣ ਲੱਗਾ। ਦੇਸ਼ ਦੀਆਂ ਖੇਤੀ ਹਾਲਤਾਂ ਐਸੀਆਂ ਨਹੀਂ ਸਨ ਕਿ ਦੇਸ਼ ਆਪਣੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਪੇਟ ਭਰ ਅੰਨ ਹੀ ਮੁਹਈਆ ਕਰਵਾ ਸਕਦਾ। ਅਜਿਹੇ ਹਾਲਾਤਾਂ ਵਿੱਚ ਸਮੇਂ ਦੀਆਂ ਸਕਕਾਰਾਂ ਨੂੰ ਪੀ ਐਲ 480 ਸਮਝੌਤੇ ਤਹਿਤ ਅਮਰੀਕਾ ਤੋਂ ਅਨਾਜ ਖਰੀਦਣਾ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਪਰ ਜਲਦੀ ਹੀ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਇਹ ਅਹਿਸਾਸ ਹੋ ਗਿਆ ਕਿ ਦੇਸ਼ ਦੀਆਂ ਭੋਜਨ ਲੋੜਾਂ ਪੂਰੀਆਂ ਕਰਨ ਦੀ ਇਹ ਕੋਈ ਟਿਕਾਊ ਜੁਗਤ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਸੋ ਇੱਕ ਟਿਕਾਊ ਹੱਲ ਦੀ ਤਲਾਸ਼ ਵਿੱਚ ਜੁਟੀ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਅਮਰੀਕੀ ਦਿਸ਼ਾ ਨਿਰਦੇਸ਼ਾਂ 'ਤੇ ਚਲਦਿਆਂ ਦੇਸ਼ ਨੂੰ ਅਨਾਜ ਪੱਖੋਂ ਆਤਮ ਨਿਰਭਰ ਬਣਾਉਣ ਲਈ ਰਾਕ ਫੈਲਰ ਅਤੇ ਫੋਰਡ ਫਾਂਊਡੇਸ਼ਨ ਨਾਲ ਮਿਲ ਕੇ ਹਰੀ ਕ੍ਰਾਂਤੀ ਦੀ ਨੀਂਹ ਰੱਖ ਦਿੱਤੀ।<br></br><b>ਰਸਾਇਣਕ ਖੇਤੀ ਦੀ ਸ਼ੁਰੂਆਤ</b><br></br>
ਹਰੀ ਕ੍ਰਾਂਤੀ ਦੇ ਪਿਛੋਕੜ ਵਿੱਚ ਰਸਾਇਣਕ ਖੇਤੀ ਦਾ ਕਰੂਪ ਚਿਹਰਾ
वृक्षों की रक्षा हेतु जनचेतना की बेहद जरूरत
विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
देश में वृक्ष बचाने की दिशा में चिपको व अप्पिको आन्दोलनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। इतिहास गवाह है कि ये आन्दोलन जहाँ देश में वृक्षों के व्यापारिक कटान पर रोक के उदाहरण बने, वहीं विभिन्न विकास परियोजनाओं के लिए वृक्षों के कटान में कमी लाने के प्रमुख कारण भी बने। लेकिन उसके बावजूद आज देश में वनों की जो दयनीय स्थिति है, को लेकर हमारे पर्यावरणविद वन, वन्य जीव और पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर खासे चिन्तित हैं।
कारण यह है कि देश में वन, वृक्ष, वन्यजीव लगातार घटते चले जा रहे हैं और पर्यावरण का संकट दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। विडम्बना देखिए कि सरकारें वृक्षा-रोपण करने का दावा करते नहीं थकतीं। जबकि हालत यह है कि इस हेतु आवंटित राशि अधिकांशतः सरकारी मशीनरी की उदर पूर्ति में ही खप जाती है।
पर्यावरण रक्षा हेतु आन्दोलन की जरूरत
बिल्कुल रेगिस्तान में जिस तरह शुतुरमुर्ग रेत में सिर छिपा कर रेतीले तूफान के प्रति आश्वस्त हो जाता है और अंततः एक प्रवंचनापूर्ण मृत्यु को प्राप्त होता है, कुछ ऐसी ही स्थिति पर्यावरण के सन्दर्भ में हमारी है। हम दावे कुछ भी करें, असलियत यह है कि दुनिया में पर्यावरण चौकसी के मामले में हम पिछड़े हैं। विडम्बना तो यह है कि लिथुआनिया जैसा देश इस मामले में शीर्ष स्थान पर है। देखा जाए तो पर्यावरणीय सूचकांक में भारत समूची दुनिया में 24वें स्थान पर है।
दुनिया के 70 देशों के पर्यावरणीय लोकतन्त्र सूचकांक में हमारे देश का 24वां स्थान यह साबित करता है कि पर्यावरणीय जागरूकता के मामले में हमारी स्थिति क्या है।
मैगी नूडल्स के बहाने पर्यावरण के प्रश्न
विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
मैगी नूडल्स में सीसा यानी लेड की अधिक मात्रा को लेकर उठा बवाल, बाजार का खेल है या स्थिति सचमुच, इतनी खतरनाक है? इस प्रश्न का उत्तर तो चल रही जाँच और बाजार में नूडल्स के नए ब्राण्ड आने के बाद ही पता चलेगा। फिलहाल, माँग हो रही है कि इस जाँच का विस्तार सभी प्रसंस्करित खाद्य पदार्थों को लेकर हो। जाँच, कार्रवाई और उसे सार्वजनिक करने की नियमित प्रक्रिया बने। यह सब ठीक है; यह हो। किन्तु यहाँ उठाने लायक व्यापक चित्र भिन्न है।
मूल चित्र यह है कि सीसे की अधिक मात्रा में उपस्थिति चाहे मैगी नूडल्स में हो अथवा हवा, पानी और मिट्टी में; सेहत के लिये नुकसानदेह तो वह सभी जगह है। जिस तरह किसी खाद्य पदार्थ के दूषित होने के कारण हम बीमार पड़ते अथवा मरते हैं, उसी तरह मिलावटी/असन्तुलित रासायनिक वाली मिट्टी, हवा और पानी के कारण भी हम मर और बीमार पड़ ही रहे हैं।
खतरनाक स्तर पर कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन
विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
5 जून को हर साल पूरी दुनिया में अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण दिवस एक रस्म अदायगी के तौर पर मनाया जाता है। रस्म अदायगी इसलिये क्योंकि पिछले 20 साल से दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण को लेकर काफी बातें, सम्मेलन, सेमिनार आदि हुए और लगातार हो भी रहे हैं लेकिन ज़मीनी स्तर पर हालत नहीं बदले या ये कहें की हालात बहुत ख़राब हो गए हैं।
कार्बन उत्सर्जन कम होने के बजाय बढ़ा है इसके साथ ही दुनिया भर में कई तरह का प्रदूषण भी बढ़ा है। भयंकर वायु प्रदूषण के कारण हालात तो यहाँ तक हो गए हैं कि दुनिया भर के कई शहर रहने लायक ही नहीं बचे हैं। अधिकांश नदियाँ, तालाब, पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। कथित विकास पर्यावरण को हर दिन, हर समय, हर जगह लील रहा है। प्रकृति को नुकसान पहुँचाने के परिणाम भी अब दिखने लगे हैं जब पिछले दिनों नेपाल में आए विनाशकारी भूकम्प में 8000 से अधिक लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी और इसके साथ ही भारी जान-माल का नुकसान भी हुआ।
नदिया धीरे बहो
विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
इस पर्यावरण दिवस पुरबियातान फेम लोकगायिका चन्दन तिवारी की पहल
नदी के मर्म को समझने, उससे रिश्ता बनाने की संगीतमय गुहार
पाँच जून को पर्यावरण दिवस के मौके पर अपने उद्यम व उद्यमिता से एक छोटी कोशिश लोकगायिका चन्दन तिवारी भी कर रही हैं। साधारण संसाधनों से साधारण फलक पर यह असाधारण कोशिश जैसी है। चन्दन पर्यावरण बचाने के लिये अपनी विधा संगीत का उपयोग कर और उसका सहारा लेकर लोगों से नदी की स्थिति जानने, उससे आत्मीय रिश्ता बनाने और उसे बचाने की अपील करेंगी।
लोकराग के सौजन्य व सहयोग से चन्दन ने ‘नदिया धीरे बहो...’ नाम से एक नई संगीत शृंखला को तैयार किया है, जिसका पहला शीर्षक गीत वह पर्यावरण दिवस पाँच जून को ऑनलाइन माध्यम से देश तथा देश के बाहर विभिन्न स्थानों पर जनता के बीच लोकार्पित कीं। इस गीत के बोल हैं- अब कौन सुनेगा तेरी आह रे नदिया धीरे बहो...।इस गीत की रचना बिहार के पश्चिम चम्पारण के बगहा के रहने वाले मुरारी शरण जी ने की है।
नदी जोड़ परियोजना को प्राथमिकता
विज्ञप्ति के अनुसार, केन-बेतवा परियोजना का तेजी से कार्यान्वयन होगा। दमन गंगा-पिंजल की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार की गई है। पार-तापी-नर्मदा लिंक की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट को अन्तिम रूप दिया जा रहा है। महानदी-गोदावरी बाढ़ नियन्त्रण परियोजना शुरू की गई है। बिहार की दो परियोजनाएँ- बूढ़ी गण्डक नून बाया लिंक और कोसी मेची लिंक की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट पूरी की गई है।
नदी पुराण
वैज्ञानिक बताते हैं कि प्रत्येक नदी प्राकृतिक जलचक्र का अभिन्न अंग है। उसके जन्म के लिये बरसात या बर्फ के पिघलने से मिला पानी जिम्मेदार होता है। उसका मार्ग ढ़ालू जमीन पर बहता पानी, भूमि कटाव की मदद से तय करता है। ग्लेशियरों से निकली नदियों को छोड़कर बाकी नदियों में बरसात बाद बहने वाला पानी ज़मीन के नीचे से मिलता है।
जैविक खेती से बदलती जिन्दगी
यह कहानी है जयप्पा की, जो कृष्णागिरी जिले के तली गाँव का रहने वाला है। उसके पास 3 एकड़ जमीन है। यह जमीन पथरीली व रेतीली है। वह 15 साल से अपने खेत में रासायनिक खाद का इस्तेमाल नहीं करता है। पूरी तरह जैविक खेती करते हैं, प्राकृतिक व केंचुआ खाद पर आधारित है।
पर्यावरण बचाने हेतु हमें भी कुछ करना होगा
इसका सबसे बड़ा कारण मानवीय स्वार्थ है जो प्रदूषण का जनक है जिसने खुद उसे भयंकर विपत्तियों के जाल में उलझाकर रख दिया है। उससे बाहर निकल पाना मानव के बूते के बाहर की बात है।
पर्यावरण के लिये खतरा है बोतलबन्द पानी
वहीं दिल्ली में घर पर नलों से आने वाले एक हजार लीटर पानी के दाम बामुश्किल चार रुपए होता है, जो पानी नेताजी पी रहे थे उसके दाम सरकारी सप्लाई के पानी से शायद चार हजार गुणा ज्यादा है, लेकिन स्वच्छ, नियमित पानी की माँग करने के बनिस्पत दाम करने के लिये हल्ला-गुल्ला करने वाले असल में बोतलबन्द पानी की उस विपणन व्यवस्था के सहयात्री हैं जो जल जैसे प्राकृतिक संसाधन की बर्बादी, परिवेश में प्लास्टिक घेालने जैसे अपराध और जल के नाम पर जहर बाँटने का काम धड़ल्ले से वैध तरीके से कर रहे हैं।
जहाज महल सार्थक
जब हम जहाज महल में प्रवेश करते हैं तो इसका नाम सार्थक होता नजर आता है। इसके एक ओर मुंज तालाब है तो दूसरी ओर कपूर तालाब। मुंज तालाब का नाम धार के परमार शासकों में राजा मुंज के नाम पर है। वे तालाब बहुत रुचि के साथ बनाया करते थे। इस नाम से धार व उज्जैन में भी तालाब है। कपूर तालाब के बारे में किंवदन्ती है कि सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी की रानियों के स्नान के लिये यह तालाब काम में आता था। सुल्तान इसमें कपूर व अन्य जड़ी-बूटियाँ डलवाता था- ताकि इन रानियों के बाल सफेद नहीं होने पाए।
अब मानसरोवर का पानी बोतलबन्द करेंगे
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की चीन यात्रा के दौरान हुई घोषणाओं में यह खबर दब सी गई। प्रोजेक्ट कम्प्यूटर निर्माता डेल के एशिया प्रशान्त क्षेत्र के प्रमुख अमित मिधा की पत्नी वैशाली मिधा लगा रही हैं। इसकी घोषणा 16 मई को हुई। मानसरोवर का पानी अक्टूबर तक भारत में बिकने लगेगा। बोतलों के ढक्कन रूद्राक्ष के बने होंगे। बोतलों पर शिव स्त्रोत लिखें होंगे। अर्थात शिवभक्तों को आकर्षित करने के उपायों के साथ यह कम्पनी पानी के बाजार में उतर रही है। बंगलुरु से संचालित न्यूज पोर्टल ‘स्वराज्य’ ने 11 जून को इस बारे में पत्रकार सहाना सिंह की रपट प्रकाशित की है।
ਜੈਵਿਕ ਖਾਦ -ਜੈਵਿਕ ਜਸਤਾ ਜ਼ਿੰਕ
ਫਸਲਾਂ ਵਿੱਚ ਜਸਤੇ ਦੀ ਪੂਰਤੀ ਦੇ ਲਈ ਹੁਣ ਤੱਕ ਜ਼ਿੰਕ ਰਸਾਇਣਿਕ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਕੁਇੰਟਲਾਂ ਵਿੱਚ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਸੀ, ਪਰ ਹੁਣ ਜਸਤੇ ਦਾ ਨਵਾਂ ਜੈਵਿਕ ਰੂਪ ਹੈ ‘ਜੈਵਿਕ ਜਸਤਾ'<br></br>ਜ਼ਿੰਕ ਮਨੁੱਖ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਸੂਖ਼ਮ ਜੀਵਾਂ ਤੱਕ ਸਾਰੇ ਜੀਵਿਤ ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਦੇ ਲਈ ਮਹੱਤਵਪੂਰਨ ਪੋਸ਼ਕ ਤੱਤ ਹੈ। ਨਾਈਟ੍ਰੋਜਨ , ਫਾਸਫੋਰਸ ਅਤੇ ਪੋਟਾਸ਼ ਇਹ ਪ੍ਰਮੁੱਖ ਪੋ±ਕ ਤੱਤ ਹਨ ਅਤੇ ਸਲਫਰ, ਜ਼ਿੰਕ ਇਹ ਦੂਸਰੇ ਦਰਜੇ ਦੇ ਪੋਸ਼ਕ ਤੱਤ ਹਨ। ਫ਼ਸਲਾਂ ਨੂੰ ਇਹਨਾਂ ਦੀ ਬੜੀ ਘੱਟ ਮਾਤਰਾ ਵਿੱਚ ਜਰੂਰਤ ਹੁੰਦੀ ਹੈ, ਪਰ ਇਸਦੀ ਕਮੀ ਨਾਲ ਫ਼ਸਲਾਂ ਵਿੱਚ ਗੰਭੀਰ ਪਰਿਣਾਮ ਦਿਖਦੇ ਹਨ। ਕੁਦਰਤੀ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਪੱਥਰਾਂ ਅਤੇ ਖਣਿਜਾਂ ਵਿੱਚ ਜ਼ਿੰਕ ਪਾਇਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਹਨਾਂ ਦੇ ਟੁੱਟਣ ਕਰਕੇ ਮਿੱਟੀ ਬਣਨ ਦੀ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਆ ਵਿੱਚ ਜ਼ਿੰਕ ਮੁਕਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਪ੍ਰਾਣੀਆਂ ਅਤੇ ਪਸ਼ੂਆਂ ਦੇ ਮਲ- ਮੂਤਰ, ਕਾਰਬਨਿਕ ਖਾਦ ਆਦਿ ਤੋਂ ਜ਼ਿੰਕ ਮਿਲਦਾ ਹੈ। ਨਦੀਆਂ ਦੇ ਹੜ੍ਹ ਦੇ ਨਾਲ ਜ਼ਿੰਕ ਵਹਿ ਕੇ ਆਉਂਦਾ ਹੈ। ਜ਼ਿੰਕ ਘੁਲਣਸ਼ੀਲਤਾ ਅਤੇ ਉਪਲਬਧਤਾ ਮਿੱਟੀ ਦੀ ਨਮੀ ਅਤੇ ਪੀ ਐਚ ਉੱਪਰ ਨਿਰਭਰ ਹੈ। ਜ਼ਿੰਕ ਕੁੱਝ ਐਂਜ਼ਾਈਮ ਅਤੇ ਪ੍ਰੋਟੀਨ ਦਾ ਮੁੱਖ ਘਟਕ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਮੈਟਾਬੌਲਿਜ਼ਮ ਦੀ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਆ ਵਧੀਆ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਚੱਲਣ ਲਈ ਜ਼ਿੰਕ ਦੀ ਜਰੂਰਤ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਜ਼ਿੰਕ ਦੀ ਕਮੀ ਦਾ ਸਿੱਧਾ ਅਸਰ ਫਸਲਾਂ ਦੇ ਵਾਧੇ ਅਤੇ ਵਿਕਾਸ ਉੱਪਰ ਪੈਂਦਾ ਹੈ। ਕਲੋਰੋਫਿਲ ਤਿਆਰ ਹੋਣ ਵਿੱਚ ਇਹ ਉਪਯੋਗੀ ਹੈ। ਫਸਲਾਂ ਨੂੰ ਜ਼ਿੰਕ ਜੇਕਰ ਉੱਚਿਤ ਮਾਤਰਾ ਵਿੱਚ ਨਾ ਮਿਲੇ ਤਾਂ ਉਤਪਾਦਨ ਅਤੇ ਗੁਣਵੱਤਾ ਦੋਵੇਂ ਘਟਦੀਆਂ ਹਨ। ਜ਼ਿੰਕ ਪਰਾਗਕਣ ਤਿਆਰ ਹੋਣ ਵਿੱਚ ਮੱਦਦ ਕਰਦਾ ਹੈ।<br></br><b>ਜ਼ਿੰਕ ਦੀ ਕਮੀ ਦੇ ਲੱਛਣ</b><br></br>1) ਪੱਤੇ ਫਿੱਕੇ ਪੈਣ ਲੱਗਦੇ ਹਨ<br></br>2) ਹੇਠਲੇ ਪੱਤੇ ਪਹਿਲਾਂ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਹੁੰਦੇ ਹਨ<br></br>3) ਪੱਤਿਆਂ ਦਾ ਆਕਾਰ ਅਨਿਯਮਿਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ<br></br>4) ਫਸਲਾਂ ਦਾ ਵਾਧਾ ਰੁਕ ਜਾਂਦਾ ਹੈ<br></br>5) ਫਸਲਾਂ ਜ਼ਿਆਦਾ ਸੰਵੇਦਨਸ਼ੀਲ ਹੋ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ।<br></br>6) ਫਸਲਾਂ ਦੀ ਲੰਬਾਈ ਨਹੀਂ ਵਧਦੀ<br></br>7) ਜ਼ਿੰਕ ਦੀ ਕਮੀ ਨਾਲ ਫਸਲਾਂ ਵਿੱਚ ਵਾਧੇ ਦੇ ਲਈ ਜਰੂਰੀ ਕਾਰਬੋਹਾਈਡ੍ਰੇਟਸ, ਆਕਸਿਨਸ, ਕਲੋਰੋਫਿਲ ਅਤੇ ਹੋਰ ਘਟਕ ਉੱਚਿਤ ਮਾਤਰਾ ਵਿੱਚ ਤਿਆਰ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੇ। ਨਤੀਜੇ ਵਜੋਂ ਫਸਲਾਂ ਦੇ ਵਿਕਾਸ ਉੱਪਰ ਅਸਰ ਪੈ ਕੇ ਉਪਜ ਘਟਦੀ ਹੈ।<br></br>
ਸਮੁਦਾਇਆਂ ਦੁਆਰਾ ਸੰਰੱਖਿਅਣ - ਸਮੁਦਾਇ ਆਧਾਰਿਤ ਪ੍ਰਬੰਧਨ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟੀਕੋਣ
ਲੀ-ਬਰਡ ਨੇਪਾਲ ਵਿੱਚ ਸਮੁਦਾਇ ਆਧਾਰਿਤ ਜੈਵ ਵਿਭਿੰਨਤਾ ਪ੍ਰਬੰਧਨ ਤਰੀਕੇ ਰਾਹੀ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੀ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਖੇਤਾਂ ਵਿੱਚ ਹੀ ਅਨੁਵੰਸ਼ਿਕ ਸੰਸਾਧਨਾਂ ਨੂੰ ਵਰਤਣ ਅਤੇ ਸੰਭਾਲ ਵਿੱਚ ਮੱਦਦ ਕਰਨ ਦਾ ਕੰਮ ਕਰ ਰਹੀ ਹੈ। <br></br>ਅੱਜ, ਨੇਪਾਲ ਵਿੱਚ 11 ਹਜਾਰ ਤੋਂ ਜ਼ਿਆਦਾ ਖੇਤੀ ਪਰਿਵਾਰ ਸਥਾਨਕ ਬੀਜਾਂ ਨੂੰ ਬਹਾਲ ਕਰਨ ਅਤੇ ਸੰਭਾਲ ਵਿੱਚ ਲੱਗੇ ਹੋਏ ਹਨ। <br></br>ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੇ ਖੇਤਾਂ ਅਤੇ ਕੁਦਰਤੀ ਆਵਾਸਾਂ ਵਿੱਚ ਖੇਤੀ ਜੈਵ ਵਿਭਿੰਨਤਾ ਦਾ ਘਟਦੇ ਜਾਣਾ ਲਗਾਤਾਰ ਰਹਿਣ ਵਾਲੀਆਂ ਚੁਣੌਤੀਆਂ ਵਿੱਚੋ ਇੱਕ ਹੈ ਜਿਸਦਾ ਕਿਸਾਨ ਸਮੁਦਾਇ, ਖਾਸ ਕਰਕੇ ਨੇਪਾਲ ਜਿਹੇ ਵਿਕਾਸਸ਼ੀਲ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿੱਚ, ਸਾਹਮਣਾ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ। ਸਥਾਨਕ ਜੈਨੇਟਿਕ ਸਰੋਤਾਂ ਦੀ ਸੰਭਾਲ ਲਈ ਕੀਤੇ ਜਾ ਰਹੇ ਯਤਨ ਨਾਮਾਤਰ ਹਨ, ਜਦਕਿ ਨੇਪਾਲ ਦੀ ਸਰਕਾਰ ਅਤੇ ਕਈ ਸਮਾਜ ਸੇਵੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਖਾਧ ਉਤਪਾਦਨ ਵਿੱਚ ਸੁਧਾਰ ਕਰਨ ਲਈ ਸੁਧਰੇ ਹੋਏ ਅਤੇ ਹਾਈਬ੍ਰਿਡ ਬੀਜਾਂ ਨੂੰ ਪ੍ਰੋਤਸ਼ਾਹਿਤ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ। ਇਹ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੁਆਰਾ ਆਪਣੇ ਸਮੂਹਾਂ ਵਿੱਚ ਬੀਜਾਂ ਦੇ ਆਦਾਨ-ਪ੍ਰਦਾਨ ਕਰਨ ਅਤੇ ਬੀਜਾਂ ਨੂੰ ਬਚਾਉਣ ਦੀ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੀ ਪ੍ਰੰਪਰਿਕ ਰਵਾਇਤ ਨੂੰ ਖੋਰਾ ਲਾਉਣ ਵਾਲੀ ਗੱਲ ਹੈ।ਰਸਮੀ ਖੋਜ ਅਤੇ ਵਿਕਾਸ ਦੁਆਰਾ ਨਜ਼ਰਅੰਦਾਜ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ਇਸ ਵਿਭਿੰਨਤਾ ਤੱਕ ਆਪਣੀ ਪਹੁੰਚ ਬਣਾਏ ਰੱਖਣ ਲਈ ਆਪਣੇ ਨੈੱਟਵਰਕ ਉੱਪਰ ਹੀ ਭਰੋਸਾ ਕਰਨਾ ਹੋਵੇਗਾ।ਸਥਾਈ ਸਰੰਖਿਅਣ ਅਤੇ ਜੈਨੇਟਿਕ ਸ੍ਰੋਤਾਂ ਦੇ ਉਪਯੋਗ ਨੂੰ ਪ੍ਰੋਤਸ਼ਾਹਿਤ ਕਰਨ ਲਈ ਨੇਪਾਲ ਦੀ ਇੱਕ ਗੈਰ ਸਰਕਾਰੀ ਸੰਸਥਾ ਲੋਕਲ ਇਨੀਸ਼ੀਏਟਿਵਸ ਫਾਰ ਬਾਇਓਡਾਇਵਰਸਿਟੀ ਰਿਸਰਚ ਐਂਡ ਡਿਵਲਪਮੈਂਟ (ਲੀ-ਬਰਡ) 1990 ਦੇ ਦਸ਼ਕ ਦੇ ਅੰਤ ਤੋਂ ਨੇਪਾਲ ਦੇ ਵਿਭਿੰਨ ਇਲਾਕਿਆਂ ਵਿੱਚ ਸਮੁਦਾਇ ਆਧਾਰਿਤ ਜੈਵ ਵਿਭਿੰਨਤਾ ਪ੍ਰਬੰਧਨ ਨੂੰ ਪ੍ਰੋਤਸ਼ਾਹਿਤ ਕਰ ਰਹੀ ਹੈ। <br></br>
प्रदूषण ने लगाई पानी में आग
बेलंदूर की घटना बंगलूरू के लिए चेतावनी है कि यदि अब तालाबों पर अतिक्रमण व उनमें गन्दगी घोलना बंद नहीं किया गया तो आज जो छोटी सी चिंगारी दिख रही है, वह कभी भी बड़ी ज्वाला बन सकती है, जिसमें जल-संकट, बीमारियाँ, पर्यावरण असन्तुलन की लपटें होंगी।
यह सारी दुनिया में सम्भवतया भारत में ही हुआ, जब एक बड़े से तालाब से पहले चार-चारफुट ऊँचे झाग बाहर निकले व सड़क पर छा गए और देखते ही देखते उसके बीच आग की लपट उठी व कई मिनट तक दूर तक सुलगती रही। बदबू, झाग से हैरान, परेशान लोग समझ नहीं पा रहे थे कि यह अजूबा है या प्राकृतिक त्रासदी, यह कोई दैवीय घटना है या वैज्ञानिक प्रक्रिया। बहरहाल बस यही बात सामने आई है कि कभी समाज को जीवन देने वाले तालाब के नैसर्गिक ढाँचे से की गई छेड़-छाड़ व उसमें बेपनाह जहर मिलाने से नाराज तालाब ने ही इन चिंगारियों के जरिये समाज को चेताया है। इतने गम्भीर मसले पर अभी तक तो बस कागजी शेर दहाड़ रहे हैं, लाल बस्ते में बँधे घोड़े कड़बड़-कड़बड़ कर रहे हैं।एनसीआर का पानी, नदी और ग्रीन ट्रिब्युनल
क्या गंगा वाकई गंगा है
गंगा समग्र यात्रा के दौरान कानपुर में अपने भाषण में उमा भारती ने दो बातें कही थीं। उन्होंने दावा किया था कि सरकार बनते ही ये दोनों काम उनकी प्राथमिकता में होंगे। पहला, कानपुर के गंगा जल को आचमन के योग्य बनाएँगे और दूसरा यह कि गौ हत्या पर ऐसा कानून बनाया जाएगा कि असली गाय तो दूर कोई कागज पर बनी गाय को काटने की भी हिम्मत नहीं कर पायेगा। लेकिन यहाँ हम बात केवल गंगा की कर रहे हैं।
तो कानपुर से ही बात शुरू करते हैं, इन पंक्तियों के लेखक का दावा है कि कानपुर में गंगा जल है ही नहीं। तो फिर आचमन योग्य किस चीज को बनाया जाएगा? कानपुर, गंगा पथ का ऐसा अभागा शहर है जहाँ नाव पतवार से नहीं बाँस से चलती है।
आखिर क्या है भूजल पर गहराते भीषण संकट का हल
इस तरह भूजल बेसिन में पानी धीरे-धीरे कम होता जा रहा है और यदि यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में यह समस्या और विकराल रूप धारण कर लेगी। वर्ष 2003 से 2013 के बीच किये गए इस अध्ययन में खुलासा हुआ है कि समुद्र में ज्यादा पानी पहुँचने से यह समस्या और गम्भीर होती जा रही है। यदि इस पर तत्काल ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में भारत, चीन, अमेरिका और फ्रांस में बहुत बड़ी तादाद में लोग पानी के लिये तरस जाएँगे।
फ्लोराइड : विष का अविरल प्रवाह (Fluorosis in India: An Overview)
काल और स्थान (टाइम और स्पेस)
फ्लोराइड नामक विष और उससे होने वाली बीमारी फ्लोरोसिस के बारे में हमें 1930 में ही पता चल गया था। फ्लोरोसिस रोग का फैलाव देश के बड़े भू-भाग में हो चुका है और 19 राज्यों के लोग इसके चपेट में आ गए हैं। इसके भौगोलिक फैलाव और इससे होने वाली समस्या की गम्भीरता का आकलन मुमकिन होने के बावजूद अब तक हमारे पास इसके बारे में समुचित जानकारी नहीं है। देश में अब भी फ्लोराइड प्रभावित इलाकों की खोज हो रही है; परन्तु इसके फैलाव की सीमा रेखा खींचने का काम अभी बाकी है। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि यह कहीं और विद्यमान नहीं है।
बरसों से इसने पेयजल के जरिए मिलने वाले पोषण को नुकसान पहुँचाया है। फ्लोराइड प्रभावित इलाकों में लोग बड़ी तेजी से अपंग हो रहे हैं। आज वास्तव में उस इलाकों में रहने वाले लोग एक अलग मुल्क के बाशिंदे लगने लगे हैं। उस देश के सभी नागरिक भावनात्मक रूप से एक हो गए हैं, सभी ज़मीन से निकाला गया ऐसा पानी पीते हैं, जिसमें प्रति लीटर पानी में 1.5 मिलिग्राम (मि.ग्रा.) से भी ज्यादा फ्लोराइड है। यहाँ रहने वाले सभी लोग बीमार हैं।