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पर्यावरण सुधार के प्रति भारत की प्रतिबद्धता

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Author: 
राजकुमार कुम्भज
Source: 
सर्वोदय प्रेस सर्विस, नवम्बर 2015
.जलवायु परिवर्तन के संकट को देखते हुए भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ को भरोसा दिलाया है कि वह वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 33 से 35 फीसदी तक कटौती करेगा। इसके अलावा अपनी अक्षय ऊर्जा उत्पादन क्षमता में 40 फीसदी तक का इज़ाफा करेगा।

ग़ौरतलब है इसी वर्ष 30 नवम्बर से 11 दिसम्बर तक पेरिस में होने वाले विश्व जलवायु सम्मेलन के पूर्व दुनिया के सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन में कमी के अपने-अपने लक्ष्य प्रस्तुत करने हैं। भारत का मौजूदा लक्ष्य सन् 2020 तक 20 से 25 फीसदी कमी का था जो सन् 2010 तक 12 फीसदी पाया जा चुका है।

पेरिस के विश्व जलवायु सम्मेलन में विश्व पर्यावरण सन्धि सम्पन्न हो जाने की प्रबल सम्भावना है। भारत पहले से ही कहता रहा है कार्बन उत्सर्जन की अधिक मात्रा के चलते विकसित देशों की ज़िम्मेदारी ज्यादा है।

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बाल दिवस, पर्यावरण और बच्चे

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बाल दिवस, 14 नवम्बर 2015 पर विशेष


.हम बच्चे को अधिक-से-अधिक शिक्षा देकर जागरूक बना रहे हैं, बेहतर जिन्दगी जीने की सीख दे रहे हैं या फिर अच्छा पैसा कमाने के लिये तैयारी करवा रहे हैं।

उम्मीदों, सपनों, चुहलताओं और समाज व देश का भविष्य बनने को आतुर बच्चों के लिये यह बाल दिवस महज एक खेल का दिन नहीं है, यह संकट सामने खड़ा है कि वे जब बड़े होंगे या उनका वंश आगे बढ़ेगा तो वे किस दुनिया में साँस लेंगे, किस तरह का पानी पीएँगे, उनकी बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल समाज की खुशहाली के लिये होगा या फिर मानवता को बचाने के लिये संघर्षरत रहेंगे।

हमारी शिक्षा की भाषा, समाजिक विज्ञान व विज्ञान की पुस्तकों का बड़ा हिस्सा अतीती को याद करने का होता है लेकिन आज जरूरत है कि उनमें भविष्य की दुनिया पर विमर्श हो। बाल मन और जिज्ञासा एक-दूसरे के पूरक शब्द ही हैं।

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पानी के अभाव में कुपोषित होते बच्चे

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1. राजाराम मोहन राय आन्दोलन के कारण बाल विवाह पर रोक लगी।
2. इसके बाद बाल दिवस पर देश भर में चिन्ता व्यक्त की जाती रही।
3. मगर बाल मजदूरी, कुपोषण, गन्दे पानी के सेवन से मौत को गले लगाना जैसी समस्या बच्चों के सामने आये दिन मुँहबाये खड़ी ही नजर आती हैं।
4. आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में सर्वाधिक बच्चे शौच के बाद शौच पोंछने के लिये पत्थर और पत्ते का ही सहारा लेते हैं।

.देशभर में लाखों बच्चे ऐसे हैं जो दो जून की रोटी के लिये मोहताज ही नहीं बल्कि उनके के लिये प्रकृति प्रदत्त ‘पानी’ भी मय्यसर नहीं होता। यह हालात तब जब देश भर में सत्तासीन लोग बार-बार ऐसी दुहाई देने से नहीं थकते कि बच्चों को उचित सुरक्षा, बाल पोषण जैसी सरकार की विशेष योजना ही नहीं अपितु बाल विकास के लिये अलग से मंत्रालय भी है।

हालात इस कदर है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सर्वाधिक बच्चे पानी के अभाव में शौच के बाद शौच पोंछने के लिये पत्थर और पत्ते का सहारा लेते हुए दिखाई देते हैं।

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स्वच्छ भारत मिशन : मूल्यांकन और सर्वे के बहाने केन्द्र जाँचेगी राज्यों की हकीक़त

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विश्व शौचालय दिवस, 19 नवम्बर 2015 पर विशेष


.रायपुर। स्वच्छ भारत मिशन अभियान के तहत केन्द्र सरकार अब मूल्यांकन और सर्वे के बहाने राज्य सरकारों की हकीक़त जाँचेगी। इसके लिये देश के 75 शहरों का चयन किया गया है। इसमें छत्तीसगढ़ से दुर्ग और रायपुर के नाम शामिल है। सर्वे के आधार पर अच्छा काम करने वाले शहरों को पुरस्कृत भी किया जाएगा।

केन्द्र के इस सर्वे में ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। इसके लिये शहरों में 60 फीसदी अंक दिये जाएँगे। इस स्थिति में रायपुर और दुर्ग को परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।

रायपुर और दुर्ग शहर में लगभग 50 फीसदी वार्डों में डोर-टू-डोर कचरा एकत्र किया जा रहा है, लेकिन कचरा निपटान के लिये अभी तक कोई भी ठोस व्यवस्था नहीं बनी है।

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जलवायु परिवर्तन से निपटने में पनबिजली एक 'झूठा समाधान'

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Author: 
मीनाक्षी अरोड़ा और गैरी वॉक्नर

सन्दर्भ : कोप 21


.पनबिजली परियोजनाओं के लिये बनने वाले बड़े बाँधों से निकलने वाली मीथेन समस्या ने पिछले 15 सालों के दौरान अन्तरराष्ट्रीय खबरों में हालांकि थोड़ी-बहुत जगह जरूर बनाई है। पर इसके ठीक उलट ‘कोप’ या अन्य पर्यावरण की नई चर्चाओं में मज़बूती से पनबिजली को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये हल के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जिससे बड़े बाँधों से मीथेन उत्सर्जन और पर्यावरणीय प्रभाव की बहस को बेमानी कर दिया गया है।

इससे अब चिन्ता का मुद्दा यह निकलता है कि पनबिजली जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये वाकई एक हल है या सिर्फ भ्रम? क्या जलवायु परिवर्तन कम करने के लिये पनबिजली परियोजनाओं की तरफ बढ़ना क्या सही है?

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भारतीय रेल का पानी अब ‘प्रभू’ भरोसे

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.आरके एसोसिएट्स और वृंदावन फुड प्रोडक्ट के नाम सम्भव है कि आपने नहीं सुना होगा लेकिन इसके मालिक श्याम बिहारी अग्रवाल 2012 से लगभग सभी राजधानी और शताब्दी ट्रेनों में कैटरिंग का काम करते रहे हैं। इन पर आरोप है कि इन्होंने रेल नीर के नाम पर ट्रेन में सस्ता पानी बाँट कर मोटी कमाई की।

देश के महत्त्वपूर्ण ट्रेनों में रेल नीर के आपूर्ति से जुड़े भ्रष्टाचार का पर्दाफ़ाश करने के लिये की गई छापेमारी में 27 करोड़ की नकदी बरामद हुई थी। जिसमें चार लाख रुपए जाली निकले थे। अग्रवाल छत्तीसगढ़ के दुर्ग का रहने वाला है, 2004 के आस-पास वह छोटा-मोटा ठेकेदार था और धीरे-धीरे उसकी कम्पनी 500 करोड़ की हो गई।

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महापर्व में भी गंगा तट से वंचित हैं बिहार के गंगावासी

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Author: 
अमरनाथ
.बिहार का सबसे बड़ा पर्व छठ आरम्भ हो गया है। पटना के गंगाघाट जगमग कर रहे हैं। सफाई,रोशनी और सुरक्षा के इन्तजामों में नगर निगम, पुलिस और प्रशासन मुस्तैद है। परन्तु इन छठ घाटों पर गंगा का पानी नहीं, शहर की मोरियों का गन्दा पानी है। गंगा को शहर के पास लाने के लिये हाईकोर्ट के निर्देश पर नहर खोदी गई थी।

करीब सौ फीट चौड़ी (30.48 मीटर) करीब सात किलोमीटर नहर का निर्माण नमामि गंगे कार्यक्रम में शामिल था। करीब तीन माह के अथक प्रयास के बाद 17 जुलाई को गंगा की धारा इस नहर से होकर प्रवाहित भी हुई थी। अगले दिन गंगा की अविरल धारा को देखने के लिये कई घाटों पर लोगों की भीड़ उमड़ी थी। पर बरसात के बाद नहर के मुहाने जाम हो गए और उसमें गंगा का पानी आना बन्द हो गया।

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पर्यावरण के लिये खतरनाक अक्वाफार्मिंग

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Author: 
मनोरमा सिंह
Source: 
पब्लिक एजेंडा, अगस्त 2014
.आन्ध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले का कोनासीमा इलाका गोदावरी नदी की दो शाखाओं के बीच बसा गहरी हरियाली, घने नारियल के पेड़ों और धान के खेतों का इलाक़ा है जिसके एक ओर बंगाल की खाड़ी है।

लेकिन धीरे-धीरे यहाँ की तस्वीर बदल रही है पिछले दो साल में बहुत से धान के खेत खारे पानी के जलाशयों में तब्दील हो गए हैं जिनमें समुद्री मछलियों, झींगा और समुद्री पौधों की खेती या अक्वा फार्मिंग की जा रही है।

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आधुनिक शौचलयों के कारण बिगड़ता पर्यावरण व बढ़ता प्रदूषण

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विश्व शौचालय दिवस, 19 नवम्बर 2015 पर विशेष


.मनवजाति तरक्की के साथ-साथ अपने लिये विशेष दिन भी तय कर रही है। अब 19 नवम्बर को ‘विश्व शौचालय’ दिवस है। क्या शौच के बारे में कहना कोई नई बात है? नहीं! परन्तु यदि नई बात है तो शौच और स्वच्छता को लेकर।

क्या कारण है कि जैसे-जैसे जनसंख्या का बढ़ना हुआ वैसे-वैसे शौच और स्वच्छता की समस्या गहराती गई। यहाँ हम उत्तराखण्ड हिमालयी राज्य को लेकर परम्परागत शौचालय से सम्बन्धित कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं।

भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण के एक अध्ययन में बताया गया है कि 20 लाख वर्ष पहले से ही हिमालय की तलहटी वाले क्षेत्र शिवालिक में कपि मानव थे। वे तन्दुरस्ती के साथ-साथ समझदार भी थे।

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फ्लश शौचालय और जल शुद्धि

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विश्व शौचालय दिवस, 19 नवम्बर 2015 पर विशेष


.आधुनिक फ्लश शौचालय स्वच्छ्ता की दृष्टि से एकमात्र विकल्प बनता जा रहा है। इस दृष्टि से ही इसे प्रचारित और प्रोत्साहित किया जा रहा है। खासकर शहरों के शुष्क शौचालयों का विकल्प देकर फ्लश शौचालय ने शहरी मल प्रबन्धन आसान भी बना है और एक बड़े सफाई कामगार को मैला ढोने अस्वच्छ काम से मुक्ति दिलाने का प्रशंसनीय कार्य किया।

किन्तु हर कार्य के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्ष होते हैं। कालान्तर में अनुभव के आधार पर जब ये दोनों पक्ष उद्घाटित हो जाते हैं, तो नकारात्मक प्रभावों के निराकरण के लिये नए प्रयासों और चिन्तन की आवश्यकता पैदा हो जाती है।

असल में स्वछता जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य को ज़्यादा तर्क सम्मत बनाते रहने की सतत आवश्यकता है। इसके लिये हमें गन्दगी या मल के अर्थ समझ लेना बहुत जरूरी है।

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क्या आप जॉन स्नो को जानते हैं

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Author: 
पूजा सिंह

विश्व शौचालय दिवस, 19 नवम्बर 2015 पर विशेष


.यह सच है कि जॉन स्नो इतने लोकप्रिय नहीं हैं कि उनके बारे में बगैर गूगल किये कोई बात की जाये लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जन स्वास्थ्य और सार्वजनिक साफ-सफाई (शौचालयों समेत) को लेकर होने वाली कोई भी बात बगैर जॉन स्नो के पूरी नहीं हो सकती।

सन् 1813 में जन्मे ब्रिटिश चिकित्सक जॉन स्नो ही वह पहले व्यक्ति थे जिनके अध्ययनों ने दुनिया भर में पानी की व्यवस्था, शौचालयों की साफ-सफाई और जलजनित बीमारियों के बारे में पारम्परिक समझ को पूरी तरह बदल दिया।

कॉलरा (ऐसा डायरिया जो कुछ घंटों में जान भी ले सकता है) से उनकी पहली मुठभेड़ सन् 1831 में हुई जब वह न्यू कैसल के सर्जन विलियम हार्डकैसल के यहाँ प्रशिक्षु के रूप में काम कर रहे थे। सन् 1937 तक वह अपनी पढ़ाई खत्म कर वेस्टमिंस्टर हॉस्पिटल में नौकरी शुरू कर चुके थे। इस बीच सन् 1849 और 1854 में लन्दन पर दो बार कॉलरा का कहर बरपा जिसमें बड़ी संख्या में लोगों की जानें गईं।

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शान्ति के लिये भी जरूरी है 'पेरिस जलवायु-सम्मेलन'की सफलता

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Author: 
केसर
.पवित्र जुम्मे का दिन शुक्रवार कलंकित हुआ है। तेरह नवम्बर 2015 अब इतिहास का हिस्सा है। दुनिया के सबसे खूबसूरत शहरों में शुमार पेरिस इस्लामी जिहाद का युद्ध मैदान बन चुका है। आतंकी कत्लेआम की भयावहता से हम सब आहत महसूस कर रहे हैं, साथ ही आईएसआईएस की बर्बरता गुस्सा भी दिला रहा है।

पूरी दुनिया एकजुट है आतंकवाद के बर्बर और हिंसक हमले के खिलाफ। इसी वातावरण के बीच 'पेरिस जलवायु शिखर सम्मेलन'होना है। लगता ऐसा है कि तीस नवम्बर से ग्यारह दिसम्बर तक चलने वाला 'पेरिस जलवायु-सम्मेलन'निराशा, बेबसी और क्रोध में फँस सकता है। पर जरूरी यह है कि शान्ति और विवेक से आतंकी-बर्बरता का जवाब भी दिया जाये और जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों का सही जवाब भी खोजा जाये।

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उत्तर तलाशता जलवायु प्रश्न

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.पृथ्वी, एक अनोखा, किन्तु छोटा सा ग्रह है। अभी इसके बारे में ही हमारा विज्ञान अधूरा है। ऐसे में एक अन्तरिक्ष के बारे में सम्पूर्ण जानकारी का दावा करना या फिर जाने और कितने अन्तरिक्ष हैं; यह कहना, इंसान के लिये दूर की कौड़ी है।

सम्पूर्ण प्रकृति को समझने का दावा तो हम कर ही नहीं सकते; फिर भी हम कैसे मूर्ख हैं कि प्रकृति को समझे बगैर, उसे अपने अनुकूल ढालने की कोशिश में लगे हैं। कोई आसमान से बारिश कराने की कोशिश करने में लगा है, तो कोई प्रकृति द्वारा प्रदत्त हवा, पानी को बदलने की कोशिश में! क्या ताज्जुब की बात है कि इंसान ने मान लिया है कि वह प्रकृति के साथ जैसे चाहे व्यवहार करने के लिये स्वतंत्र है।

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नीली मौत मरती मेघालय की नदियाँ

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.जहाँ मेघों का डेरा है, वहाँ मेघ से बरसने वाली हर एक अमृत बूँदों को सहेज कर समाज तक पहुँचाने के लिये प्रकृति ने नदियों का जाल भी दिया है। कभी समाज के जीवन की रेखा कही जाने वाली मेघालय की नदियाँ अब मौत बाँट रही हैं। एक-एक कर नदियाँ लुप्त हो रही हैं, उनमें मिलने वाली मछलियाँ नदारत हैं और इलाके की बड़ी आबादी पेट के कैंसर का शिकार हो रही हैं।

इतने पर भी सरकारी महकमे कहते हैं कि अभी इतना प्रदूषण नहीं हैं। इन दिनों मेघालय से बाहर बांग्लादेश की ओर जाने वाली दो बड़ी नदियों लुका और मिंतदू का पानी पूरी तरह नीला हो गया है। सनद रहे कि इस इलाके की नदियों के पानी का रंग साफ या फिर गंदला सा होता है।

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फ्लश टॉयलेट की गन्दगी बनाम सूखे शौचालयों की पवित्रता

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Author: 
अमरनाथ
.‘हर घर में शौचालय अपना, यही है हमारा सपना’का सरकारी नारा अक्सर सुनाई पड़ता है। सपने को साकार करने में विभिन्न सरकारें अपनी ओर से तत्पर भी हैं। पर अगर हर घर में शौचालय बन गए तो स्वच्छता के लिहाज से बहुत बुरा होगा क्योंकि प्रचलित ढंग के शौचालयों से मानव-मल का निपटारा नहीं होता।

महज खुले में मल त्याग करने से छुटकारा मिल जाती है और शौचालयों में एकत्र मानवमल आखिरकार जलस्रोतों को मैला करता है। तकनीकी विकास के आधुनिक दौर में भी मानव मल का निपटारा एक बड़ी समस्या बना हुआ है। ऐसे में बरबस गाँधीजी की सीख ‘मल पर मिटटी’की याद आती है। उस तकनीक के आधार पर बिहार के बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में खास किस्म के शौचालयों का विकास हुआ जिसके परिष्कृत रूप को ‘इकोसेन’ कहा जा सकता है।

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क्या पेरिस सम्मेलन से बदलाव आएगा

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.अगले हफ्ते फ्रांस की राजधानी पेरिस में 30 नवम्बर से आगामी 11 दिसम्बर तक होने वाले जलवायु शिखर सम्मेलन से पर्यावरण में हो रहे प्रदूषण को कम करने और कार्बन उर्त्सजन को कम करने की दिशा में दुनिया को खासी उम्मीदें हैं। वह बात दीगर है कि पिछले दिनों पेरिस में हुए आतंकी हमले ने समूची दुनिया को हिला दिया है।

यही नहीं इस हमले ने समूची दुनिया को आतंक के खिलाफ एकजुट हो लड़ने की प्रेरणा भी दी है, इसमें भी दो राय नहीं है। हमले के बावजूद फ्रांस का पेरिस में होने वाले जलवायु शिखर सम्मेलन के हर हाल में आयोजन करने का निर्णय न केवल प्रशंसनीय है बल्कि वह अभूतपूर्व भी है।

आतंकी हमले के बावजूद जबकि फ्रांस में आगामी तीन माह के लिये आपातकाल लागू है, फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का पर्यावरण सम्मेलन करने का फैसला इस बात का सबूत है कि वह पर्यावरण के प्रति गम्भीर रूप से कितने चिन्तित हैं।

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दुुनिया की छत से देखें जलवायु परिवर्तन

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.आगामी पेरिस जलवायु सम्मेलन से पूर्व अभी देश, विकासशील और विकसित के बीच बँटे नजर आ रहे हैं। बँटवारे का आधार आर्थिक है और माँग का आधार भी। किन्तु क्या प्रकृति से साथ व्यवहार का आधार आर्थिक हो सकता है?

उपभोग और प्रकृति को नुकसान की दृष्टि से देखें तो यह दायित्व निश्चय ही विकसित कहे जाने वाले देशों का ज्यादा है, किन्तु इस लेख के माध्यम से मैं यह रेखांकित करना चाहता हूँ कि मानव उत्पत्ति के मूल स्थान के लिहाज से यह दायित्व सबसे ज्यादा हम हिमालयी देशों का है; कारण कि सृष्टि में मानव की उत्पत्ति सबसे पहले हिमालय की गोद में बसे वर्तमान तिब्बत में ही हुई। आज मानव उत्पत्ति का यह क्षेत्र ही संकट में है।

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जल निधियों में कूड़ा भरने से डूब गया चेन्नई

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.नवम्बर-2015 में जब दीपावली सिर पर थी और पूरे देश से मानसून विदा हो चुका था, भारत के दक्षिणी राज्यों के कुछ हिस्सों में उत्तर-पश्चिमी मानसून ने तबाही मचा दी। आटोमोबाईल, इलेक्ट्रॉनिक्स व चमड़ा उद्योग के लिये दुनिया भर में नाम कमाने वाला चेन्नई शहर पन्द्रह दिनों तक गहरे पानी में डूबा रहा है।

जिन सड़कों पर वाहनों की भीड़ के कारण पैर रखने को जगह नहीं होती, वहाँ आज नाव चल रही हैं। 70 से ज्यादा लोग मारे गए हैं व अब बदबू, संक्रामक रोग और गन्दगी ने इस महानगर के लोगों का जीना दुश्वार कर दिया है। मद्रास या चेन्नई समुद्र तट पर है और यहाँ साल भर बारिश होती है।

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यूनियन कार्बाइड के कचरे से प्रदूषित भूजल

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भोपाल गैस कांड पर विशेष


.आज से 31 साल पहले दुनिया की सबसे भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना (भोपाल गैस कांड) में हजारों लोगों की मौतें हुई थीं और हजारों लोग जिन्दगी भर पीछा न छोड़ने वाली बीमारियों से पीड़ित हो गए लेकिन अब भी हालात नहीं सुधरे हैं।

यूनियन कार्बाइड कारखाने में जमा कई टन कचरे की वजह से आसपास (करीब चार किमी की परिधि) में रहने वाले लोगों के जिन्दगी पर अब भी इसका बुरा साया बरकरार है। कचरे के जमीन में रिसने से यहाँ का भूजल इतनी बुरी तरह प्रदूषित हो चुका है कि यहाँ हर दिन एक व्यक्ति गम्भीर बीमारियों की चपेट में आ रहा है।

यहाँ के पानी की जाँच में खतरनाक तत्व मिले हैं और यह पानी प्रतिबन्धित भी कर दिया है लेकिन वैकल्पिक व्यवस्था नहीं होने से लोगों को यही पानी पीने को मजबूर होना पड़ रहा है।

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जानलेवा कचरे का अधूरा निपटान

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Author: 
पूजा सिंह

भोपाल गैस कांड पर विशेष


सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने का घातक कचरा पीथमपुर में निपटाया जाना शुरू कर दिया गया है लेकिन पर्यावरणविद और विशेषज्ञ मानते हैं कि यह कचरा स्थानीय पर्यावरण को बहुत अधिक हानि पहुँचा सकता है।

.सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद यूनियन कार्बाइड कारखाने का विषाक्त कचरा निपटाने की प्रक्रिया इन्दौर के निकट पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र में शुरू कर दी गई है। लेकिन विषय विशेषज्ञों का कहना है कि कचरा निपटाने के लिये समुचित मानकों का ध्यान नहीं रखा जा रहा है जो आसपास की आबादी के लिये घातक हो सकता है।

दरअसल यूनियन कार्बाइड का जहरीला कचरा तीन दशक बाद भी विवाद का विषय बना हुआ है। इस कचरे को दुनिया का कोई भी देश अपने यहाँ निपटाने को तैयार नहीं है। हालांकि बीच में जर्मनी की एजेंसी जीईजेड इस कचरे को जर्मनी ले जाकर कुशलतापूर्वक नष्ट करने को तैयार थी लेकिन बाद में अज्ञात कारणों से उससे करार नहीं हो सका।

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