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ਬੀਜ ਉਤਪਾਦਨ ਨਾਲ ਵਧੀ ਆਤਮ-ਨਿਰਭਰਤਾ

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Author: 
ਰਾਮ ਕੁਮਾਰ ਦੂਬੇ

ਹੜ੍ਹ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਖੇਤਰਾਂ ਵਿੱਚ ਖ਼ਾਸ ਕਰਕੇ ਮਹਿਲਾ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੀ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡੀ ਸਮਸਿਆ ਗੁਣਵੱਤਾ ਪੂਰਨ ਬੀਜਾਂ ਦੀ ਉਪਲਬਧਤਾ ਸਮੇਂ ਤੇ ਨਾ ਹੋਣਾ ਹੈ। ਚਿਕਨੀਆ ਡੀਹ ਦੀ ਸ਼ਕੁੰਤਲਾ ਨੇ ਬੀਜ ਉਤਪਾਦਨ ਕਰਕੇ ਨਾ ਸਿਰਫ਼ ਆਪਣੀ ਆਤਮ ਨਿਰਭਰਤਾ ਵਧਾਈ ਹੈ ਬਲਕਿ ਹੋਰ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਫਾਇਦਾ ਪਹੁੰਚਾਇਆ ਹੈ। ਜਨਪਦ ਸੰਤ ਕਬੀਰ ਨਗਰ ਦੇ ਮੇਹਦਾਵਲ ਵਿਕਾਸ ਖੰਡ ਦਾ ਗ੍ਰਾਮ ਪੰਚਾਇਤ ਚਿਕਨੀਆ ਡੀਹ ਹੜ੍ਹ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਖੇਤਰ ਹੈ। ਨੇੜੇ ਹੀ ਸਥਿਤ ਬਖਿਰਾ ਝੀਲ ਨਾਲ ਜੁੜੇ ਹੋਏ ਦੂਧੀਆ ਤਾਲਾਬ ਦੇ ਓਵਰਫਲੋ ਹੋਣ ਦੀ ਸਥਿਤੀ ਵਿੱਚ ਪਿੰਡ ਦੇ ਜ਼ਿਆਦਾਤਰ ਖੇਤ ਹਰ ਸਾਲ ਡੁੱਬ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਖ਼ਰੀਫ਼ ਦੀ ਫ਼ਸਲ ਬਰਬਾਦ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਬਹੁਤ ਵਾਰ ਤਾਂ ਸਥਿਤੀ ਇਹ ਬਣਦੀ ਹੈ ਕਿ ਰਬੀ ਦੀ ਖੇਤੀ ਵੀ ਸਮੇਂ ਤੇ ਨਹੀ ਹੋ ਪਾਉਂਦੀ ਹੈ। ਸੀਵਾਨ ਦਾ ਲਗਭਗ 25 ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਤ ਭਾਗ ਮਾਰਚ-ਅਪ੍ਰੈਲ ਤੱਕ ਡੁਬਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ।

ਚਿਕਨੀਆ ਡੀਹ ਵਿੱਚ ਪਿਛੜੀ ਜਾਤੀ ਨਾਲ ਸੰਬੰਧਿਤ ਛੋਟੀ ਜੋਤ ਵਾਲੇ ਕਿਸਾਨ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ। ਹੜ੍ਹ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਖੇਤਰ ਹੋਣ ਦੇ ਕਾਰਨ ਜ਼ਿਆਦਾਤਰ ਪੁਰਸ਼ ਤਾਂ ਆਜੀਵਿਕਾ ਦੀ ਭਾਲ ਵਿੱਚ ਬਾਹਰ ਚਲੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ, ਪਿਛੇ ਰਹਿ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ ਮਹਿਲਾਵਾਂ, ਜਿੰਨਾਂ ਨੂੰ ਪਰਿਵਾਰ ਨੂੰ ਚਲਾਉਣ ਲਈ ਜ਼ਿਆਦਾ ਮੁਸ਼ਕਿਲਾਂ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ।

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फ्लोराइड से जंग में खामोश जीत

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मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ जिले में एक संगठन अकेले दम पर फ्लोराइड के खिलाफ जंग छेड़े हुये है और उसे इसमें खासी सफलता भी मिल रही है।

कालीबाईमध्य प्रदेश के झाबुआ जिले का जिक्र आते ही दिमाग में एक छवि कौंधती है। तीर कमान थामे अल्पवस्त्रों में आधुनिक संस्कृति से दूर रहने वाले भील और भिलाला जनजाति के लोग। लेकिन झाबुआ जिला मुख्यालय पहुँचकर यह छवि काफी हद तक ध्वस्त हो चुकी होती है। आधुनिक संस्कृति अब इन दूरदराज गाँवों तक पहुँच चुकी है। लोगों की नैसर्गिक निश्छलता के सिवा कमोबेश सभी चीजें बदल चुकी हैं। नहीं बदली है तो स्वास्थ्य के मोर्चे पर बदहाली। सरकारी प्रयासों से संचार के साधन तो विकसित हो गये हैं लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर जागरूकता की कमी ने राह रोक रखी है। खासतौर पर पानी में फ्लोराइड की अधिकता व उससे होने वाले नुकसान जैसी अपेक्षाकृत वैज्ञानिक समस्याओं को लेकर जागरूकता पैदा करना तो अवश्य टेढ़ी खीर रही होगी।

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कोयले के खिलाफ जंग में पीछे नहीं हटेंगे: लिलियाना

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मीनाक्षी अरोरा और पीटर हैरिसन

कोलम्बिया में ऑपन पिट कोल माइनकई खतरे आए बावजूद इसके लिलियाना गुरेरो, बोकास दि सेनिजा वाटरकीपर हार मानने को तैयार नहीं है। कोलम्बिया में कोयला कम्पनियों ने पर्यावरण के साथ-साथ मानव जाति के लिये जो खतरा पैदा कर दिया है उसके खिलाफ जंग जारी रहेगी चाहे लाख तूफान आएं कदम पीछे नहीं हटेंगे।

पुरानी कहावत है, ‘छोटे पैकेट में बड़ा धमाका’। कोलम्बिया की लिलियाना बस ऐसा ही एक डायनामाइट है। कोलम्बिया के उत्तरी तट पर बैरेनकिला की एक तंग और व्यस्त गली में उसका ऑफिस है जहाँ से वो अपना काम करती है। गुरेरो ने पूरी तरह मन बना लिया है कि वो देश में विनाशलीला खेलने वाली कोल माफिया कम्पनियों को रोकने में अपनी पूरी ताकत झोंक देगी भले ही उसकी जिन्दगी दाँव पर क्यों न लग जाय।

यह कोई संयोग नहीं है कि कोलम्बिया लातीनी अमरीका में कोयले का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है। ‘यू.एस. एनर्जी इन्फॉर्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन’ के मुताबिक पर्यावरण कार्यकर्ताओं को मरवाने में भी ब्राजील के बाद कोलम्बिया दूसरे नम्बर पर है। जैसा कि वाटरकीपर एलायंस के अध्यक्ष रॉबर्ट जूनियर कैनेडी कहते हैं, “जहाँ कहीं भी कोल माफिया कम्पनियों को पाओगे, वहाँ लोकतंत्र की मौत देखोगे”शायद कोलम्बिया से ज्यादा विनाशलीला और कहीं नहीं देखोगे।

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राष्ट्रीय फ्लोरोसिस रोकथाम एवं नियंत्रण कार्यक्रम का मूल्यांकन

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Author: 
डॉ. प्रीति गुप्ता व प्रेमविजय पाटिल

नौ साल का सफर, नहीं चल पाये अढ़ाई कोस



.इन्दौर। भारत सरकार ने 2008-09 में देश में फ्लोरोसिस की रोकथाम एवं नियंत्रण के उद्देश्य से राष्ट्रीय फ्लोरोसिस रोकथाम एवं नियंत्रण कार्यक्रम (एनपीपीसीएफ) की शुरुआत की थी। अभी तक यह कार्यक्रम चरणबद्ध तरीके से 18 राज्यों के 111 जिलों तक विस्तारित किया जा चुका है। भले ही ये राष्ट्रीय कार्यक्रम नौ सालों से चल रहा हो लेकिन मैदानी हकीकत ये है कि अभी तक मध्य प्रदेश सहित सभी 18 राज्यों में स्थिति चिन्ताजनक है।

आज भी फ्लोरोसिस के लिये इस बात की मशीन से जाँच करके अन्य बीमारियों की तरह पुष्टि करना मुश्किल हैै। राष्ट्रीय कार्यक्रम के तहत कहीं मशीनें उपलब्ध हैं, तो कहीं मशीन चलाने वाले ही नहीं है। कुछ जगह ऐसी भी है जहाँ आज तक मशीन ही नहीं पहुँची है। ऐसे में ये राष्ट्रीय कार्यक्रम अपने उद्देश्य से बहुत दूर रह गया है।

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सिमटती नदियाँ, संकट में मानव सभ्यता

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.बहुत पुरानी बात है, हमारे देश में एक नदी थी सिंधु। इस नदी की घाटी में खुदाई हुई तो मोहन जोदड़ों नाम का शहर मिला, ऐसा शहर जो बताता था कि हमारे पूर्वजों के पूर्वज बेहद सभ्य व सुसंस्कृत थे और नदियों से उनका शरीर-श्वांस का रिश्ता था। नदियों के किनारे समाज विकसित हुआ, बस्ती, खेती, मिट्टी व अनाज का प्रयोग, अग्नि का इस्तेमाल के अन्वेषण हुए।

मन्दिर व तीर्थ नदी के किनारे बसे, ज्ञान व आध्यात्म का पाठ इन्हीं नदियों की लहरों के साथ दुनिया भर में फैला। कह सकते हैं कि भारत की सांस्कृतिक व भावात्मक एकता का सम्वेत स्वर इन नदियों से ही उभरता है। इंसान मशीनों की खोज करता रहा, अपने सुख-सुविधाओं व कम समय में ज्यादा काम की जुगत तलाशता रहा और इसी आपाधापी में सरस्वती जैसी नदी गुम हो गई। गंगा व यमुना पर अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया।

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प्राकृतिक जलस्रोतों पर आत्मनिर्भर वनवासी समाज

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Author: 
डॉ दीपक आचार्य

.विश्व विख्यात विज्ञान शोध पत्रिका लांसेट (2012) में प्रकाशित एक शोध रपट के अनुसार विकासशील देशों में 5 वर्ष से कम उम्र के करीब आठ लाख बच्चों की मृत्यु की एक मात्र वजह शुद्ध पेयजल के अभाव में डायरिया जैसी बीमारियों का होना है। यानी, शुद्ध पेयजल आपूर्ति के अभाव में प्रतिदिन 2000 से ज्यादा बच्चों की मृत्यु हो जाना चिन्ताजनक विषय है।

यूनिसेफ की 2013 की एक स्टडी के अनुसार डायरिया जैसी जल जनित बीमारियों से भारत समेत कुल 5 देशों में 5 वर्ष की उम्र तक होने वाली कुल मौतों में से आधी मौतें सिर्फ भारत और नाइजीरिया जैसे 2 देशों में हो जाती है। इसमें से करीब 24% बच्चों की मृत्यु भारत देश में आँकी गई।

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इंजीनियरिंग में हमेशा विकल्प है : स्वामी सानंद

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‘स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद’ का 13वाँ कथन आपके समक्ष पठन, पाठन और प्रतिक्रिया के लिये प्रस्तुत है:


.गंगा पर टेस्टिंग के लिये मनेरी-भाली पर पहली परियोजना बनाना तय हुआ। आईआईटी, कानपुर की तरफ से मैं भी 15 दिन के लिये ट्रेनिंग पर गया था। तकनीक ट्रेनी के तौर पर मेरा नाम था। प्रबन्धन प्रशिक्षु के तौर पर जेएल बत्रा और अशोक मित्तल गए थे। जेएल बत्रा तब कानपुर आईआईटी में थे। वह आईआईएम, लखनऊ के पहले डायरेक्टर बने।

1978-79 में मैंने मनेरी-भाली का पर्यावरण देखा है। मेरे मन में प्रश्न उठता है कि तब मैंने विरोध क्यों नहीं किया? दरअसल, तब मुझे यह एहसास ही नहीं हुआ कि इससे गंगा सूख जाएगी। तब तक मैंने टनल प्रोजेक्ट नहीं देखा था। मैंने डैम प्रोजेक्ट देखे थे; भाखड़ा..रिहन्द देखे थे। मुझे लगता था कि पढ़ाई-वढ़ाई से ज्यादा, अनुभूति होती है। वह अनुभूति तब नहीं थी।

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जरूरी है भूकम्प से बचने के प्रयासों पर अमल

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.बीते रविवार को अफगानिस्तान में हिन्दूकुश की पहाड़ियों में 6.8 की तीव्रता वाले भूकम्प से खैबर पख्तूनख्वा और पंजाब प्रान्त के अलावा पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर, गिलगित-बालिस्तान, जम्मू कश्मीर, पंजाब, चंडीगढ़, हरियाणा और देश की राजधानी दिल्ली सहित समूचा उत्तर भारत दहल गया। वह तो गनीमत रही कि यह भूकम्प हिन्दूकुश की पहाड़ियों में 190 किलोमीटर नीचे से आया जिसके कारण केवल चार लोगों की मौत और 27 के घायल होने के अलावा जानमाल का अधिक नुकसान नहीं हुआ है।

अगर इस भूकम्प की गहराई कम होती, उस दशा में सतह पर उसकी तीव्रता उतनी ही ज्यादा होती। ऐसी स्थिति में विनाशलीला कितनी भयावह होती, उसकी कल्पना से ही दिल दहलने लगता है। इस बारे में यदि अमेरिकी भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग की मानें तो हिन्दूकुश का इलाका भूकम्प के लिहाज से सबसे खतरनाक जगहों में से एक है।

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सरकारी नलों से बह रहा है आर्सेनिक ‘स्लो प्वॉइजन’ (Partial success story: Arsenicosis continues in Bahraich)

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Author: 
आशीष तिवारी

.बहराइच…यूपी का वो जिला जो अपने खूबसूरत जंगलों और वाइल्ड लाइफ रिजर्व के लिये पूरे देश में जाना जाता है। यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता और कल-कल करती बहती सरयू नदी लोगों को अपनी ओर खींच लेती है। लेकिन ऐसी सुन्दरता के बीच एक अभिशाप भी इस जिले को है। वो है यहाँ के पानी में आर्सेनिक की मात्रा। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक जिले की 194 ग्राम पंचायत के 523 मजरों के पानी की 2013 में जाँच की गई थी। जाँच में जो तथ्य सामने आये वो हैरान करने वाले थे। जाँच में पाया गया कि 50 फीसदी से अधिक पानी में आर्सेनिक तत्व थे। जो अपनी तय मात्रा से काफी ज्यादा था।

जापान की यूनिवर्सिटी ऑफ मियाजॉकी और ईको फ्रेंड्स संस्था ने भी इस जिले के गाँवों में पानी में आर्सेनिक की जाँच की जो कि खतरनाक लेवल से ऊपर था।

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फ्लोरोसिस से उबर कर आगे बढ़ा मंडला (Mandla moving on after successfully eliminating fluorosis)

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.मध्य प्रदेश का मंडला जिला वर्षों तक एक रहस्यमय बीमारी का शिकार रहा। स्थानीय मीडिया की अनभिज्ञता और सरकारी जागरुकता की कमी ही थी जिसके चलते एक चिकित्सकीय परेशानी या बीमारी को देवी-देवता, अन्धविश्वास और ऊपरी प्रकोप से जोड़कर देखा जाता रहा। हुआ यह कि 80 के दशक और उसके बाद अचानक मंडला जिले के कुछ खास इलाकों में लोगों के हाथ-पैर अचानक टेढ़े होने लगे, उनकी गर्दन नीचे को झुककर सख्त हो गई और लगभग गाँव-के-गाँव दाँतों के पीलेपन की बीमारी से पीड़ित हो गए।

यह समस्या दरअसल पेयजल में फ्लोराइड की अधिकता की वजह से उत्पन्न हुई थी। दिक्कत यह थी कि उस वक्त तक मंडला जिला देश के फ्लोराइड मानचित्र पर मौजूद तक नहीं था।

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मध्य प्रदेश के भूजल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और उनका समाधान

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास’

.मध्य प्रदेश राज्य, भारत के मध्य भाग में बसा प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से समृद्ध प्रदेश है। इस प्रदेश की औसत बरसात 1160 मिलीमीटर है। उसके पूर्वी भाग में अधिक तो पश्चिमी भाग में अपेक्षाकृत कम पानी बरसता है। इसी प्रकार प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में दैनिक औसत तापमान में भी अन्तर है। बुन्देलखण्ड सहित प्रदेश का उत्तरी भाग अपेक्षाकृत अधिक गर्म है। मध्य प्रदेश से अनेक नदियाँ निकलती हैं। उनके कैचमेंट मध्य प्रदेश में भले ही स्थित हों पर शीघ्र ही उनका पानी अन्य प्रदेशों में पहुँच जाता है।

मध्य प्रदेश में रन-आफ के रूप में 81,719 घन हेक्टेयर मीटर और भूजल भण्डारों के रूप में 37.19 बिलियन घन हेक्टेयर मीटर पानी उपलब्ध है। मध्य प्रदेश, कृषि सांख्यिकी (2009-10) के अनुसार सतही और भूजल स्रोतों से शुद्ध सिंचित इलाका क्रमशः 21.37 और 43.69 लाख हेक्टेयर है।

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पैकेज की नहीं बेहतर प्रबन्ध की जरूरत है बुन्देलखण्ड को

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.और एक बार फिर बुन्देलखण्ड सूखे से बेहाल है। लोगों के पेट से उफन रही भूख-प्यास की आग पर सियासत की हांडी खदबदाने लगी हैं। जब आधा इलाका अपने गाँव-घरों से पलायन कर गया और जब लोग सरकार से सहयोग की आस लगाए थे, तभी मध्य प्रदेश में राज्य शासन के स्तर पर खुलासा किया जाता है कि सन 2008 से 2010 के बीच तीन साल में बुन्देलखण्ड की तकदीर बदलने के लिये दिये गए लगभग दो हजार करोड़ की राशि घोटालेबाजों ने अपनी जेब में डालकर कागजी राहत की धाराएँ बहा दी।

ठीक यही सुगबुगाहट उत्तर प्रदेश के हिस्से के बुन्देलखण्ड में भी है। विशेष पैकेज के नाम पर आये पैसे की बन्दरबाँट हुई व इलाका पहले से ज्यादा सूखा व वीरान हो गया। गोया यह खुलासा चार महीने पहले होता और फिर उससे आये अनुभवों पर काम होता।

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फ्लोराइड की अधिकता से अस्थि विकृति एवं पोषण आहार से सम्बन्ध

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Author: 
तपस चकमा, एस बी सिंह, पीवी राव एवं प्रदीप मेश्राम
Source: 
भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसन्धान पत्रिका, 01जून 2004

.भारत के विशेष क्षेत्रों में विगत कुछ वर्षों में फ्लोरोसिस एक नई जन-स्वास्थ्य समस्या के रूप में प्रकट हुई है। फ्लोरोसिस, लम्बे समय तक फ्लोराइड विषाक्तता के अन्तर्ग्रहण का एक रूप है जो फ्लोराइड की अत्यधिक मात्रा मुख्यतः पीने के पानी के माध्यम से ग्रहण किये जाने से होती है। इस अध्ययन के पूर्व मध्य प्रदेश का मंडला जिला देश के फ्लोराइड चिन्हित मानचित्र में नहीं था।

सन 1995 में पहली बार मध्य प्रदेश में इस केन्द्र द्वारा इस बीमारी की पहचान की गई। फ्लोराइड की अधिकता के कारण, समस्या की गम्भीरता एवं विस्तार का आकलन करने हेतु क्षेत्रीय जनजाति आयुर्विज्ञान अनुसन्धान केन्द्र (भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद), जबलपुर (मध्य प्रदेश) द्वारा मंडला जिला (मध्य प्रदेश) के 5 गाँवों (2263 व्यक्तियों) में यह अन्वेषण किया गया।

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समस्या यह कि नहर वोट दिलाती है, गंगा नहीं : स्वामी सानन्द

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स्वामी सानन्द गंगा संकल्प संवाद - 14वाँ कथन आपके समक्ष पठन, पाठन और प्रतिक्रिया के लिये प्रस्तुत है:

.1916 में जिस सरकार के राज्य में सूरज नहीं डूबता था। भारत में उसका गर्वनर बैठता था। फिर भी सरकार ने समझौता किया। आप याद कीजिए कि 1916 के गंगा समझौते में क्या हुआ था। 75 लोग थे; 35 सरकारी और 40 गैरसरकारी। केन्द्र, राज्य, इंजीनियरिंग, स्वास्थ्य... ये सभी प्रथम समूह में थे। गैरसरकारी में प्रजा, सन्त, सन्यासी, सामाजिक कार्यकर्ता और गंगा रिवर बेसिन के राजा-महाराजा थे। कौन नहीं था? एक तरह से सभी के प्रतिनिधि थे। सरकारी अधिकारी भी निश्चय करके हस्ताक्षर कर सके; समूह बैठकर निर्णय ले सके। किन्तु यह अब कैसे हो?

नहर वोट देती है, गंगा नहीं


हमने हरसम्भव कोशिश की। अविमुक्तेश्वरानन्द जी व मैंने कोशिश की कि कैसे गंगा मुद्दा बने। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के श्री मोहन भागवत जी से बात हुई, तो उन्होंने कहा कि इलेक्शन तक हमारी बात होगी। दरअसल, अब गंगा से हिंदू वोट नहीं मिलता।

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दबंग राघोपुर में कैंसर का कहर, बड़े-बड़ों पर कोई नहीं असर

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Author: 
अमरनाथ

.कैंसर से इस गाँव के पचासों आदमी मर चुके हैं। बीसों बीमार हैं। किसी का इलाज चल रहा है, कोई इलाज से थककर मौत के इन्तजार में पड़ा है। पानी दूषित है सभी जानते हैं। चमड़े की बीमारी फैल रही है। लोग सशंकित हैं। खेती-किसानी पर निर्भर ग्रामीण कैंसर का महंगा इलाज कराना बहुत दिनों तक सम्भव नहीं हो पाता। अजीब-सी दहशत फैली है। यह कोई नामालूम-सा गाँव नहीं है। राजधानी से सटे गंगा के पार बसे बहुचर्चित प्रखण्ड राघोपुर का गाँव है जुड़ावनपुर बरारी। बड़ा गाँव है। राघोपुर थाना इसी गाँव में है। दो ग्राम पंचायतें हैं। जुड़ावनपुर बरारी और जुड़ावनपुर करारी। दोनों की हालत एक जैसी है।

पूरे इलाके में आर्सेनिकोसिस नामक बीमारी फैलने के लक्षण दिख रहे हैं। आर्सेनिक के लम्बे इस्तेमाल से होने वाले कैंसर का यह पहला चरण है। आर्सेनिक यहाँ के भूजल में है। इसक पता 2005 में ही चला। राज्य सरकार और यूनिसेफ को यह रिपोर्ट दी गई।

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36 वर्षों के बाद सरकारों ने ली सुध, फ्लोराइड ने सोनभद्र को किया अपाहिज

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Author: 
अनिल सिंदूर

विकास और विनाश की बिसात में फसा मानव
नागरिकों का टूटा भरोसा, हताशा के साथ झुझलाहट

.मानव द्वारा निर्मित विकास और विनाश अगर एक साथ देखना है तो फिर आप कहीं और मत जाएँ, देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश के दूसरे सबसे बड़े क्षेत्रफल वाले जनपद सोनभद्र आएँ जिसे देश की ऊर्जा की राजधानी कहते हैं। 40 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले 18,000 मेगावाट क्षमता के आधा दर्जन विद्युत तापगृह मौजूद हैं।

अगले पाँच वर्षों में रिलायंस, एस्सार जैसे कई निजी 20 हजार मेगावाट के अतिरिक्त विद्युत ताप गृह लगाए जाएँगे। बिरला का एल्युमिनियम, कार्बन और रसायन कारखाना यहाँ मौजूद है साथ ही यह क्षेत्र स्टोन माइनिंग के लिये भी मशहूर है। जिन्होंने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा जैसे राज्यों को गुलजार किया है।

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22 अप्रैल कैसे बना पृथ्वी दिवस

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22 अप्रैल 2016, पृथ्वी दिवस पर विशेष


.भारतीय कालगणना दुनिया में सबसे पुरानी है। इसके अनुसार, भारतीय नववर्ष का पहला दिन, सृष्टि रचना की शुरुआत का दिन है। आईआईटी, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. बिशन किशोर कहते हैं कि “यह एक तरह से पृथ्वी की जन्मदिन की तिथि है।तद्नुसार इस भारतीय नववर्ष पर अपनी पृथ्वी एक अरब, 97 करोड़, 29 लाख, 49 हजार, 104 वर्ष की हो गई।

वैदिक मानव सृष्टि सम्वत् के अनुसार, मानव उत्पत्ति इसके कुछ काल बाद यानी अब से एक अरब, 96 करोड़, आठ लाख, 53 हजार, 115 वर्ष पूर्व हुई। जाहिर है कि 22 अप्रैल, पृथ्वी का जन्म दिवस नहीं है। चार युग जब हजार बार बीत जाते हैं, तब ब्रह्मा जी का एक दिन होता है। इस एक दिन के शुरू में सृष्टि की रचना प्रारम्भ होती है और संध्या होते-होते प्रलय।

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आओ! धरती काम पर रख रही है

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22 अप्रैल, 2016 - पृथ्वी दिवस पर विशेष



पोर्टलैंड विश्वविद्यालय में पर्यावरणविद् पॉल हॉकेन का व्याख्यान


पॉल हॉकिनपॉल हॉकिनइस पीढ़ी के नौजवानों! यहां से डिग्री हासिल करने के बाद अब तुम्हे यह समझना है कि धरती पर मनुष्य होने का क्या मतलब है, वह भी ऐसे समय में जब यहां मौजूद पूरा तंत्र विनाश के गर्त में जा रहा है, आत्मा तक को हिला देने वाली स्थिति है –

पिछले तीस सालों में कोई ऐसा पेपर नहीं छपा जो मेरे इस बयान को झुठलाता हो। दरअसल धरती को जल्द से जल्द एक नए ऑपरेटिंग सिस्टम की जरूरत है और आप सब उसके प्रोग्रामर हैं।

पृथ्वी नाम का यह ग्रह कुछ ऑपरेटिंग निर्देशों के सेट के साथ अस्तित्व में आया था,जिनको शायद हमने भुला दिया है। इस सिस्टम के महत्वपूर्ण नियम कुछ इस तरह थे-

जैसे पानी,मिट्टी या हवा में जहर नहीं घोलना है, पृथ्वी पर भीड़ जमा नहीं करनी है, थर्मोस्टैट को छूना नहीं है लेकिन अब हमने इन सभी नियमों को ही तोड़ दिया है। बकमिन्स्टर फुलरने कहा था कि धरती का यह यान इतना बेहतर डिजाइन किया गया है कि कोई भी यह नहीं जान पाता कि हम सभी एक ही यान पर सवार हैं, यह यान ब्रह्मांड में एक लाख मील प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ रहा है, किसी सीटबेल्ट की ज़रूरत नहीं है, इस यान में कई कमरे और बेहतर स्वादिष्ट खाना भी मौजूद हैं-पर अफसोस! अब यह सब बदल रहा है।
इस खबर के स्रोत का लिंक: 
http://cforjustice.org/

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पृथ्वी दिवस (Earth day)

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Author: 
कृष्ण गोपाल 'व्यास’

22 अप्रैल, 2016 - पृथ्वी दिवस पर विशेष


.हर साल 22 अप्रैल को पूरी दुनिया में पृथ्वी दिवस मनाया जाता है। इस दिवस के प्रणेता अमरीकी सिनेटर गेलार्ड नेलसन हैं। गेलार्ड नेलसन ने, सबसे पहले, अमरीकी औद्योगिक विकास के कारण हो रहे पर्यावरणीय दुष्परिणामों पर अमेरिका का ध्यान आकर्षित किया था।

इसके लिये उन्होंने अमरीकी समाज को संगठित किया, विरोध प्रदर्शन एवं जनआन्दोलनों के लिये प्लेटफार्म उपलब्ध कराया। वे लोग जो सान्टा बारबरा तेल रिसाव, प्रदूषण फैलाती फैक्ट्रियों और पावर प्लांटों, अनुपचारित सीवर, नगरीय कचरे तथा खदानों से निकले बेकार मलबे के जहरीले ढ़ेर, कीटनाशकों, जैवविविधता की हानि तथा विलुप्त होती प्रजातियों के लिये अरसे से संघर्ष कर रहे थे, उन सब के लिये यह जीवनदायी हवा के झोंके के समान था।

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इस प्यास की पड़ताल जरूरी है

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22 अप्रैल 2016, पृथ्वी दिवस पर विशेष


.आज 22 अप्रैल है; अन्तरराष्ट्रीय माँ पृथ्वी का दिन। यह सच है कि 1960 के दशक में अमेरिका की औद्योगिक चिमनियों से उठते गन्दे धुएँ के खिलाफ आई जन-जागृति ही एक दिन ‘अन्तरराष्ट्रीय पृथ्वी दिवस’ की नींव बनी। यह भी सच है कि धरती को आये बुखार और परिणामस्वरूप बदलते मौसम में हरित गैसों के उत्सर्जन में हुई बेतहाशा बढ़ोत्तरी का बड़ा योगदान है।

इस बढ़ोत्तरी को घटोत्तरी में बदलने के लिये दिसम्बर, 2015 के पहले पखवाड़े में दुनिया के देश पेरिस में जुटे और एक समझौता हुआ। आज पेरिस जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर करने का भी दिन है। हस्ताक्षर होते ही यह समझौता सभी सम्बन्धित देशों पर लागू हो जाएगा।

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