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तालाब हैं तो गांव हैं

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Author: 
उमेश यादव
Source: 
पंचायतनामा, 19 - 25 नवंबर 2012
लहना गांव का मुख्य तालाबझारखंड की कुल आबादी का 80 प्रतिशत कृषि एवं इससे संबंधित कार्यों पर निर्भर है। जबकि कृषि योग्य भूमि कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 48 प्रतिशत ही है। इसमें भी सिंचाई सुविधा महज 10 प्रतिशत पर ही उपलब्ध है। जबकि राष्ट्रीय औसत 40 प्रतिशत है। रबी में तो यह और घट जाता है। यानी 90 प्रतिशत से अधिक कृषि वर्षा पर आधारित है। जिस साल बारिश अच्छी हुई उस साल ठीक-ठाक उत्पादन होता है और जिस साल बारिश नहीं हुई, उस साल स्थिति चिंताजनक हो जाती है। पलायन एवं बेरोजगारी बढ़ जाती है।

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जलसंग्रह में मनरेगा का है योगदान

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Author: 
पंचायतनामा टीम
Source: 
पंचायतनामा, 19 - 25 नवंबर 2012
बोकारो जिले के एक गांव में मनरेगा के तहत बना तालाबबोकारो जिले के एक गांव में मनरेगा के तहत बना तालाबजल संग्रह में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम की योजनाओं का भरपूर योगदान है। पूरे झारखंड में मनरेगा के जरिये एक लाख से ज्यादा तालाब एवं बांध बनाये गये हैं। लगभग 79 हजार सिंचाई कूपों का निर्माण हुआ है। चूंकि मनरेगा मजदूर के हित पर आधारित है, इसलिए इसके निर्माण कार्य बिना मशीन के किया जाता है। ऐसे में तालाबों या बांधों की संरचना भी बहुत छोटी होती है। निर्माण के दौरान तालाब के मानकों पर ध्यान नहीं दिया जाता है। इससे इसकी जल संचयन क्षमता कम होती है। साल भर पानी नहीं रहता है। लेकिन मानसून के चार महीनों में जल को रोकने का काम ये तालाब जरूर करते हैं। जल को रोकने का भी अच्छा फायदा होता है। इससे भूमिगत जलस्तर में वृद्धि होती है।

मनरेगा के तालाबों का सिंचाई में उतना योगदान नहीं हैं, लेकिन कुओं ने तो पूरा परिदृश्य ही बदल दिया है। सिर्फ मनरेगा के कुएं से एक लाख हेक्टेयर भू-भाग पर सिंचाई की सुविधा पिछले दो सालों में बहाल हुई है। इन कुओं ने रबी फसलों के आच्छादन को बढ़ा दिया है। इन कुओं से सब्जियों की खेती भी अच्छी हो रही है। पूरे राज्य में सबसे ज्यादा कुएं गढ़वा, देवघर एवं चतरा में बने हैं। जबकि कुआं निर्माण में साहिबगंज, कोडरमा एवं जामताड़ा पिछड़ गये हैं।

न होने दें तालाबों का अतिक्रमण

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Author: 
पंचायतनामा टीम
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पंचायतनामा, 19 - 25 नवंबर 2012
तालाब का न केवल मनुष्य बल्कि धरती के विभित्र जीव-जंतुओं के जीवन में बड़ा योगदान है। इसके बिना जीवन संकट से घिर जाता है। ऐसे में तालाब को बचाने के लिए आप आगे आयें। किसी भी परिस्थिति में तालाबों का अतिक्रमण न होने दें। आप इसके खिलाफ लडें.। तालाब अतिक्रमणकारियों के खिलाफ आप शासन-प्रशासन के पास शिकायत करें। इससे भी बात न बने तो कोर्ट से गुहार लगायें। भारत का उच्चतम न्यायालय आपके साथ है। जगपाल सिंह एवं अन्य बनाम पंजाब सरकार (सिविल अपील संख्या 1132/2011), एचएल तिवारी बनाम कमला देवी (एआइआर 2001 एससी 3215) आदि विभित्र मुकदमों में सुनवाई के दौरान भारत के उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि तालाब को भरकर उस पर भवन या उससे संबंधित किसी प्रकार का निर्माण कार्य नहीं किया जा सकता है। ग्रामसभा एवं पंचायत की जमीन को निजी या व्यावसायिक उद्यम के लिए नहीं दिया जा सकता है। यदि राज्य सरकारें और अन्य प्राधिकार ऐसा करते हैं तो वह पूर्णत: गैरकानूनी है। कोर्ट का मानना है कि तालाब संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त आजीविका के अधिकार को संपोषित करता है।

जगपाल सिंह एवं अन्य बनाम पंजाब सरकार मामले की सुनवाई के बाद 28 जनवरी 2011 को उच्चतम न्यायालय ने सभी राज्यों के मुख्य सचिव को निर्देश जारी किया है। इसके तहत राज्यों को तालाबों का अतिक्रमण रोकने के लिए त्वरित एवं कड़ी कार्रवाई करना है। इसके साथ ही समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट को यह बताना है कि तालाबों का अतिक्रमण रोकने के लिए उन्होंने क्या-क्या कदम उठाये हैं। तो देर किस बात की। उठ खड़ा होइये तालाब बचाने के लिए।

झारखंड में मनरेगा के कुओं की जिलावार विवरण

जिला का नाम

स्वीकृत कूप

निर्मित कूप

पूर्वी सिंहभूम

3204

2173

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तालाब खुदाई में लें सरकारी मदद

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Source: 
पंचायतनामा, 19 - 25 नवंबर 2012
तालाब एवं कुएं की महत्ता से हम सभी वाकिफ हैं। हममें से कई लोग तालाब एवं कूप निर्माण कराना चाहते भी हैं, लेकिन पैसे के अभाव में हमारी योजनाएं फेल हो जाती है। ऐसे में निराश होने की जरूरत नहीं है। विभित्र प्रकार की नकारात्मकताएं होने के बाद भी कुछ चीजें साकारात्मक भी है जिसके जरिये स्थिति को बदला जा सकता है। सरकार के ग्रामीण विकास, कृषि, मत्स्य, जल संसाधन, वन आदि विभागों के पास तालाब एवं कूप निर्माण की कई योजनाएं हैं। इसकी मदद लेकर हम तालाब एवं कूप निर्माण के सपने को साकार कर सकते हैं। ग्रामीण विकास विभाग के पास सबसे बड़ा फंड मनरेगा है जिसके जरिये तालाब एवं कुआं दोनों निर्माण कार्य करा सकते हैं।

ग्रामीण विकास, कृषि एवं गत्रा, मत्स्य, वन व जल संसाधन विभाग के पास है योजनाएं। प्रस्तुत है विभिन्न विभागों की मुख्य योजनाएं -

वन विभाग


वन विभाग भी गांवों में तालाब खुदवाता है। इसमें कुछ काम मनरेगा से होता है और कुछ काम विभाग की अपनी पौधरोपण योजना से। अब पौधरोपण की हर सरकारी योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए वन विभाग को कुछ आरंभिक कार्य करवाने होते हैं। इस कार्य को तकनीकी भाषा में इंट्री प्वाइंट कहते हैं। इंट्री प्वाइंट के तहत ग्रामीणों की सहमति से उनके लिए योजनाएं ली जाती हैं। इसमें चापानल, कुआं, चेकडैम एवं तालाब शामिल हैं। आपके गांव के आसपास यदि वनभूमि है तो इसमें पौधरोपण के लिए विभाग के जिलास्तरीय कार्यालय में संपर्क करें। पौधरोपण की योजना अपने गांव-पंचायत के लिए स्वीकृत कराएं और उसमें इंट्री प्वाइंट के तहत तालाब बनवा सकते हैं।

ग्रामीण विकास विभाग


मनरेगा : महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) ग्रामीण विकास विभाग की मुख्य योजना है। इसके तहत विभित्र प्रकार के तालाब एवं कुएं का भी निर्माण कराया जाता है। इसमें शतप्रतिशत राशि सरकार से मिलती है। इस योजना अब तक बड़े पैमाने पर कुएं का निर्माण झारखंड में कराया भी गया है। योजना ग्रामसभा बनाती है।

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गांव की एटीएम हैं तालाब

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Author: 
पंकज कुमार सिंह
Source: 
पंचायतनामा, 19 - 25 नवंबर 2012
सामान्य खेतों में जहां साल भर खूब मेहनत के बावजूद फसल उत्पादन से अच्छी आय नहीं होती है, वहीं तालाब बनवा कर मछलीपालन अधिक लाभकारी है। बिहार में बेगूसराय के किसान जयशंकर कुमार को मात्र 38 कट्ठे की जमीन पर तालाब से चार से छह लाख रुपये सालाना आय हो रही है। जयशंकर की तरह ही राज्य के कई किसान अब सामान्य खेती के बदले समेकित खेती करने लगे हैं। समेकित खेती के लिए तालाब जरूरी है। बिहार में कृषि और मत्स्यपालन के क्षेत्र में तालाब के माध्यम से प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हो सकती है।

तालाब किसानों के आय का अच्छा स्त्रोत है। इसमें जल भंडारण से आसपास की जमीन का जल स्तर रिचार्ज होता है। सिंचाई की सुविधा मिलती है। मछली उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने में तालाब की बड़ी भूमिका है। नये तालाब बनाने और पुराने तालाब के जीर्णोद्धार के लिए किसानों को अनुदान दिये जा रहे हैं। तालाब का उपयोग मछली उत्पादन के साथ ही पानी फल सिंघाड़ा और मखाना उत्पादन के लिए किया जा सकता है। बिहार में 80 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में तालाब हैं। तालाब की संख्या लगभग 75 हजार है। नौ हजार हेक्टेयर में मन या गोखुर झील है। 25 हजार हेक्टेयर में जलाशय हैं। पांच लाख हेक्टेयर में आर्द्र जल चौर हैं। 3200 किलोमीटर सदाबहार नदियां हैं। राज्य में तालाब, नदी, चौर और मन इतने अधिक होने के बावजूद मछली उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं है। अभी एक वर्ष में राज्य 5.20 लाख टन मछली की खपत होती है, जबकि उत्पादन मात्र तीन लाख टन के आसपास होती है। लगभग चालीस प्रतिशत मछली आंध्रप्रदेश और पश्चितम बंगाल से आयात करना पड़ता है। बिहार में प्रति वर्ष दूसरे राज्यों से डेढ़ से दो लाख टन मछली आयात की जाती है।

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मुजफ्फरपुर के मतलूपुर में 85 एकड़ में बने 30 तालाब

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Author: 
शैलेंद्र
Source: 
पंचायतनामा, 19 - 25 नवंबर 2012
मतलूपुर के किसानों का तालाबमतलूपुर के किसानों का तालाबमछलीपालन की दिशा में बड़ा प्रयास मुजफ्फरपुर में बंदरा प्रखंड के मतलूपुर के किसानों ने किया है। यहां 85 एकड़ भूमि पर एक साथ मछलीपालन किया जायेगा। इसमें 24 किसानों की भूमि शामिल है। इसकी शुरुआत हो गयी है। तालाब बन गये हैं। दो तालाबों में मछलीपालन का काम शुरू हो चुका है। बाकी में फरवरी तक मछलीपालन शुरू हो जायेगा। यह बिहार का अभी तक का सबसे बड़ा प्रोजेक्ट माना जा रहा है, जब यहां से पूरी तरह से मछली उत्पादन शुरू हो जायेगा। बिहार के साथ अन्य प्रदेशों में यहां की मछली जाने लगेगी। पूसा विवि के पूर्व कुलपति गोपाल जी त्रिवेदी के मार्गदर्शन में इस प्रोजेक्ट पर काम हो रहा है।

मुजफ्फरपुर के मतलूपुर में इतिहास रचने की तैयारी हो रही है। यहां चवर की जमीन पर मछली पालन के लिए तालाब बनाये गये हैं। 85 एकड़ में एक साथ तीस तालाब बने हैं। इसके लिए 24 किसान साथ आये हैं। इन सभी ने अपनी जमीन दी है। प्रोजेक्ट में सबसे अधिक जमीन पूसा विवि के पूर्व कुलपति डॉ गोपालजी त्रिवेदी की है। यह बिहार में अपनी तरह का पहला प्रोजेक्ट है। इसके मैनेजर फिसरीज में बैचलर की डिग्री लेनेवाले शिवराज हैं, जो पूरे प्रोजेक्ट की जिम्मेवारी को संभाल रहे हैं। मछली पालन के अलावा यहां ट्रेनिंग सेंटर बनाये जाने की योजना है, जिसमें मछली पालन की ट्रेनिंग दी जायेगी।

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गया शहर की संस्कृति को सहेजते हैं तालाब

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Author: 
कंचन
Source: 
पंचायतनामा, 19 - 25 नवंबर 2012
किसी भी जिले या शहर की संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने का एक कारक तालाब भी है। इससे वहां की खूबसूरती भी बढ़ती है। युगो-युगों से नगर के समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के रूप में तालाबों को स्वीकार किया गया है। इतिहास गवाह रहा है कि मानव सभ्यता का विकास किसी नदी के किनारे ही हुआ है। भारतीय सभ्यता संस्कृति का शैशव काल यानी सिंधु घाटी सभ्यता के मोहनजोदड़ो से प्राप्त विशाल स्नानागार इतिहास में जिसकी चर्चा ‘सुदर्शन तड़ाग’ के रूप में की गयी है। बाद के समय में निर्मित असंख्य तालाब हमारे जन-जीवन में तालाबों की भूमिका को रेखांकित करती है।

संस्कृति नगर गया शहर को ‘तालाबों का शहर’ कहा जाता है। यूं गया कई मायने में न केवल देश के अंदर बल्कि दुनिया में अपनी पहचान रखता है। यह सनातन के साथ बौद्ध धर्मावलंबियों का भी विशेष केंद्र है। 88 बसंत देख चुके शहर के वयोवृद्ध साहित्यकार गोवर्धन प्रसाद सदय की माने तो 100-100 मीटर की दूरी पर यहां तालाब थे। बाद में 51 तालाब रह गये जिसके बारे में हाल के लोगों को भी पता है। पर शहर के फैलाव, बढ़ती जनसंख्या व बढ़ते बिजनेस के स्कोप ने कई तालाब के अस्तित्व को मिटा दिया। तालाब यहां के संस्कृति की गाथा कहते हैं। गया आग्नेय चट्टान के पहाड़ी से घिरा क्षेत्र है। कर्क रेखा भी गया के पास से ही होकर गुजरी है। इस कारण यह गरम क्षेत्र है। पहाड़ी क्षेत्र से घिरे होने के कारण पानी की भी कमी है। शायद इसी कारण लाजिक के तहत यहां के पुराने वाशिंदों ने जलाशयों की बहुलता को तरजीह दिया। तालाब व कुंड खुदवाये। आहर, पोखर व पइन की खुदाई करायी। जलजमाव से जलस्तर बना रहेगा। इससे नमी बनेगी। यह हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता का ही परिचायक है।

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स्थानीय निकायों में बच्चों की भागीदारी

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Author: 
आर. कुमार
मध्यप्रदेश के सीहोर जिले के 15 पंचायतों में समर्थन संस्था ने वाटर एड एवं सेव द चिल्ड्रेन के सहयोग से बच्चों के वॉश अधिकार पर पंचायतों को संवेदनशील करने का कार्य किया है। इसमें गांव में पंचायत एवं अन्य स्थानीय संस्थाओं और समितियों के प्रतिनिधियों के सामने बच्चों के शामिल करते हुए बाल अधिकारों पर बाल संवाद आयोजित किया जाता है। इसमें बच्चे गांव, स्कूल, आंगनवाड़ी एवं घर से जुड़ी समस्याओं, खासतौर से पानी और स्वच्छता के मुद्दे पर अपनी बात रखते हैं। त्रिस्तरीय पंचायतराज लागू होने से पंचायतों में वंचित समुदाय एवं महिलाओं के लिए कोई जगह नहीं थी। पर जब संवैधानिक प्रावधानों के बाद चुनाव हुए तब बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं महिलाएं पंचायतों एवं नगरीय निकायों में जनप्रतिनिधि बनकर सामने आए। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं महिलाओं की तरह ही समाज का एक ऐसा समूह है, जिसकी आवाज को कोई महत्व नहीं दिया जाता। यह समूह है बच्चों का। शाला में शौचालय, मध्यान्ह भोजन, आंगनवाड़ी एवं शाला में पेयजल की व्यवस्था, खेल का साफ मैदान, घर में एवं गलियों में सफाई, स्वास्थ्य एवं शिक्षा आदि से जुड़ी समस्या का समाधान बच्चे अपनी प्राथमिकता के आधार पर कराना चाहते हैं, जिसे पूरा करने में पंचायतें बड़ी भूमिका निभा सकती हैं। बच्चों से जुड़ी समस्याओं के समाधान एवं उनकी जरूरतों के लिए बनाए जाने वाले नियमों, व्यवस्थाओं एवं कानूनों में बच्चों की सहभागिता का अधिकार दिए जाने को लेकर कई राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय संधियां एवं समझौते हुए हैं, पर उस पर अमल नहीं होता।

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पंजाब की रक्ताभ छठी नदी

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Author: 
कश्मीर उप्पल
Source: 
जनसत्ता, 4 नवंबर 2012
पांच नदियों से घिरे पंजाब का अतीत जितना सुखद है वर्तमान उतना ही दुखद। अपनी उपजाऊ भूमि और उन्नत खेती की वजह से यह इलाका सदियों से खुशहाल रहा। लेकिन भारत-पाक बंटवारे के साथ ही इसकी उपजाऊ भूमि भी टुकड़ों में बंट गई। यह विभाजन रेखा पंजाब के लिए मुसीबत साबित हुई। इसकी दास्तान बता रहे हैं कश्मीर उप्पल।

पांचों दोआबों का भौगोलिक मानचित्रपांचों दोआबों का भौगोलिक मानचित्रपंजाब, फारसी के शब्द पंज और आब यानी पांच नदियों के पानी के संयोग से मिलकर बना है। यह माना जाता है कि दक्षिण एशिया की शुरुआती सभ्यता का विकास यहीं हुआ था।

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महान वाश यात्रा

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Author: 
राजीव चन्देल
निर्मल भारत यात्रा के उद्घाटन पर प्रेस को सम्बोधित करते हुएनिर्मल भारत यात्रा के उद्घाटन पर प्रेस को सम्बोधित करते हुएनिर्मल भारत यात्रा। यह लगभग 500 लोगों द्वारा पूरी की गई 2000 किलोमीटर की एक रोमांचक यात्रा थी। यह यात्रा. पाँच राज्यों- वर्धा (महाराष्ट्र), इंदौर (मध्य प्रदेश), कोटा (राजस्थान), ग्वालियर (मध्य प्रदेश), गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) और बेतिया (बिहार) के छह बड़े कस्बों से होकर गुजरी। प्रत्येक कस्बे में यात्रा के पड़ाव के दौरान एक काफी बड़े मौदान में

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नदियों को मिले ‘नैचुरल मदर’ का संवैधानिक दर्जा

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यदि हम नाम बदलकर अमानीशाह या नजफगढ़ नाला बना दी गई क्रमशः जयपुर की द्रव्यवती व अलवर से बहकर दिल्ली आने वाली साबी जैसी नदियों की बात छोड़ दें, तो आज भी भारत में कोई नदी ऐसी नहीं है कि जिसे मां मानकर पूजा या आराधना न की जाती हो। ब्रह्मपुत्र, नद्य के रूप में पूज्य है ही। यह बात और है कि हम भारतीय नदियों को मानते मां है, लेकिन उनका उपयोग मैला ढोने वाली मालगाड़ी की तरह करते हैं।

भारत की राष्ट्रीय जलनीति का पुनर्संशोधित प्रारूप भले ही पानी को ‘आर्थिक वस्तु’ के रूप में बिक्री हेतु स्थापित करना चाहता हो, लेकिन भारतीय धार्मिक आस्था पानी को आज भी इन्द्र-वरूण आदि के रूप में ही पूज्य और पवित्र मानती है। इस आस्था का व्यापक आधार भारत का परंपरागत ज्ञान तंत्र और उसका विज्ञान है। आप भारतीय वेद, पुराण, उपनिषद...कोई भी ग्रंथ उठाकर देख लीजिए इस ज्ञानतंत्र और उसके विज्ञान ने पानी की बूंद, बादल, हिम, बादल या किसी अन्य स्वरूप को ’एच2ओ’ कहकर कभी संबोंधित नहीं किया। क्योंकि वह जानता था कि पानी के जिस स्वरूप को हम देखते हैं, वह सिर्फ ’एच2ओ’ है ही नहीं। यदि पानी सिर्फ ’एच2ओ’ होता, तो सिंथेटिक रक्त बना लेने वाला आधुनिक विज्ञान कभी का पानी बना चुका होता।

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याद आते हैं सतपुड़ा के जंगल और नदियां

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नदियों के लिए जंगल होना जरूरी है। जंगल और पेड़ ही पानी को थामकर रखते थे। यहां की नदियां और झरने सदाबहार थे। साल भर उनमें पानी रहता था। लेकिन अब न पेड़ हैं और न ही नदी में पानी। नदियों में पानी को स्पंज की तरह सोख कर रखने वाली रेत भी उठाई जा रही है। भूजल स्तर पहले ऊपर था, अब बहुत नीचे चला गया है। आधुनिक खेती, बांध, स्टॉपडेम, नलकूप खनन, बढ़ते औद्योगीकरण और शहरीकरण ने नदियों को खत्म कर दिया है।सतपुड़ा की बारहमासी सदानीरा नदियां अब धीरे-धीरे दम तोड़ रही हैं। इनमें से कई छोटी-बड़ी नदियां या तो सूख रही हैं या उनमें बहुत कम पानी बचा है। जो नदियां पहले साल भर अविरल बहती थीं, वे बरसाती नाला बनकर रह गई हैं। जिन में कभी पूरा आदमी डूब जाता था, उनमें डबरे भरे हुए हैं। जहां मछुआरे मछली पकड़ते थे, पशु-पक्षी पानी पीते थे, जनजीवन की चहल-पहल रहती थी, वहां आज रेत व सन्नाटा पसरा पड़ा है। नदी संस्कृति खत्म हो रही है। 70 बरस पार कर चुके सेवानिवृत्त शिक्षक फूलसिंह सिमोनिया सतपुड़ा अंचल को बहुत याद करते हैं। वे अपने शिक्षकीय कार्यकाल में अंचल के कई स्थानों में रहे और घूमे हैं। खंडवा, होशंगाबाद, छिंदवाड़ा, सिवनी और बैतूल जिलों में रहे हैं। इस दौरान उन्हें सतपुड़ा को नजदीक से देखने का मौका मिला।

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पानी पर पटकथा

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Author: 
अष्टभुजा शुक्ल
Source: 
कादम्बिनी, जून 2012
न तो पानी से साहित्य बच सकता है और न साहित्य से पानी। फिर भी साहित्य में पानी होना चाहिए और पानी में साहित्य। यदि साहित्य से पानी बचता तो इतना विपुल साहित्य रचे जाने के बावजूद आज हमें ऐसा जल संकट क्यों झेलना पड़ता। सच है कि पानी के बिना जीवन नहीं चल सकता तो जीवन के बिना पानी भी नहीं चल सकता।
जल को ही विधाता की आद्यासृष्टि माना गया है। जब सृष्टि में और कुछ नहीं रहता तब भी जल ही रहता है और सृष्टि में सब कुछ रहता है तो भी जल के ही कारण रहता है। इस पृथ्वी के नीचे भी जल ही है और जिस पृथ्वी के ऊपर यह जीवन है, उसके ऊपर के जलद पर्जन्य से ही जीवन अस्तित्व में है। पानी के दो पाटों के बीच ही जीवन का उद्भव और विकास होता है। अतः जीवन के लिए जल ही मौलिक तत्व है। किंतु इस जल को कथमपि बनाया नहीं जा सकता, इसे सिर्फ बचाया जा सकता है।हवा में मुक्का मारने पर लिखा जा चुका है, आसमां में सुराख करने पर लिखा जा चुका है, हथेली पर बाल उगाने पर लिखा जा चुका है, समय की शिला पर लिखने के प्रयास किए जा चुके हैं, बिना लिखे ही कोरे कागज को प्रिय के पास प्रेषित करने की भी परंपरा रही है, लेकिन हाहंत! आज मुझे पानी पर लिखना पड़ रहा है। उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए लिखने को तो पानी पर भी लिखा जा सकता है, लेकिन यदि पानी ही कागज, बोर्ड या कैनवास हो तो आप अलबेले से अलबेले लेखक की विवशता को समझ सकते हैं। फिर चाहे गुरुमुखी का ज्ञाता हो या ब्राह्मी का, खरोष्ठी में पारंगत हो या देवनागरी में, रोमन में धाराप्रवाह लिखता हो या फारसी में, आशुलिपिवाला हो या टंकणवाला, कंप्यूटरवाला हो या इंटरनेटवाला अथवा पुरानी मान्यताओं के सुरतरुवरशाखा लेखनी और सात समुद्रों की मसि बनाने वाले लेखक ही क्यों न रहे हों, इस पानी पर कोई भी लिपि टिक नहीं सकती।

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बड़े बांध और छोटे तालाब

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Author: 
राजेंद्र सिंह
Source: 
कादम्बिनी, जून 2012
हमारे पूर्वज जानते थे कि तालाबों से जंगल और जमीन का पोषण होता है। भूमि के कटाव एवं नदियों के तल में मिट्टी के जमाव को रोकने में भी तालाब मददगार हैं, लेकिन बड़े बांधों के निर्माण की होड़ ने हमारी उस महान परंपरा को नष्ट कर दिया।
1950 में भारत के कुल सिंचित क्षेत्र की 17 प्रतिशत सिंचाई तालाबों से की जाती थी। ये तालाब सिंचाई के साथ-साथ भू-गर्भ के जलस्तर को भी बनाए रखते थे, इस बात के ठोस प्रमाण उपलब्ध हैं। सूदूर भूतकाल में तो 8 प्रतिशत से अधिक सिंचाई तालाबों से ही होती थी। तालाबों में पाए गए शिलालेख इसके जीते-जागते प्रमाण हैं। इस स्वावलम्बी सिंचाई योजना का अंग्रेजों ने जानबूझकर खत्म करने का जो षड़यंत्र रचा था, उसे स्वतंत्र भारत के योजनाकारों ने बरकरार रखा है और वर्तमान, जनविरोधी,ग्राम-गुलामी की सिंचाई योजना को तेजी से लागू किया है।किसी भी देश की प्रगति या अवनति में वहां की जल संपदा का काफी महत्व होता है। जल की उपलब्धि या प्रभाव के कारण ही बहुत सी सभ्यताएं एवं संस्कृतियां बनती और बिगड़ी हैं। इसलिए हमारे देश की सांस्कृतिक चेतना में जल का काफी ऊंचा स्थान रहा है। हमारे पूर्वज जानते थे कि तालाबों से जंगल व जमीन का पोषण होता है। भूमि के कटाव एवं नदियों के तल में मिट्टी के जमाव को रोकने में भी तालाब मददगार होते हैं। जल के प्रति एक विशेष प्रकार की चेतना और उपयोग करने की समझ उनकी थी। इस चेतना के कारण ही गांव के संगठन की सूझ-बूझ से गांव के सारे पानी को विधिवत उपयोग में लेने के लिए तालाब बनाए जाते थे। इन तालाबों से अकाल के समय भी पानी मिल जाता था। जैसा कि गांवों की व्यवस्था से संबंधित अन्य बातों में होता था, उसी तरह तालाब के निर्माण व रख-रखाव के लिए भी गाँववासी अपनी ग्राम सभा में सर्वसम्मति से कुछ कानून बनाते थे।

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लूट पानी की

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Author: 
विवेकानंद माथने
पानी जीवन, जीविका और प्रकृति चक्र का प्रमुख आधार है जो प्राकृतिक रूप से सर्वत्र उपलब्ध है और सजीव सृष्टि के लिए हवा और धूप की तरह ही प्रकृति ने उसे सबके लिए उपलब्ध कराया है, वह पानी, भारत में बाजार की वस्तु बन चुका है। अब यहां सतही जल और भूमि जल पर मालिकाना हक प्राप्त किया सकता है और उस हक को खरीदा-बेचा जा सकता है। अब की व्यापारी/कंपनी किसी नदी, जलाशय या भूमिजल का हक खरीद सकता है, उसका मालिक बन सकता है और उस हक को बेच सकता है।ग़ुलाम भारत की लूट की कहानी हम जानते ही हैं। अँग्रेज़ व्यापार करने के नाम से आये और भारत को ग़ुलाम बनाकर लूट करते रहे। आज़ादी की लड़ाई ने लोगों के मन में यह उम्मीद जगाई थी कि अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के बाद यह लूट समाप्त होगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भारत आज़ाद हुआ, लेकिन लूट जारी है, उसमें दिन-प्रतिदिन बढ़ोत्तरी ही हो रही है। इस लूट के स्वरूप में कुछ बदलाव हुआ है। लूट के लिए नए-नए रास्ते खोजे जा रहे हैं। श्रम के शोषण, औद्योगिक उत्पादन और सेवा उद्योग के माध्यम से की जानी वाली लूट के साथ-साथ अब देश के नैसर्गिक संसाधनों की खुली लूट भी की जा रही है। कोयला, खनिज, पेट्रोलियम, गैस, पानी, ज़मीन, जैव विविधता, जंगल आदि जैसी प्रकृति की देने को ही अब लूटा जा रहा है। इनमें से कई ऐसे स्रोत हैं, जिसके दोहन से वह हमेशा के लिए समाप्त होंगे।

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विदर्भ के जल संकट के कारण होंगे थर्मल पॉवर स्टेशन

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Source: 
ग्रीनपीस, 03 दिसम्बर 2012

ग्रीनपीस ने जारी की वैज्ञानिक रिपोर्ट, कहा सिंचाई क्षमता पर पड़ेगा बुरा असर, ऐसी योजनाओं पर तत्काल रोक


विदर्भ देश के सबसे पिछड़े इलाकों में माना जाता है। वहां पर देश के सबसे ज्यादा किसानों ने अत्महत्या की है। सिंचाई के समुचित प्रबंध न होना और मौसम का अनियमित होना विदर्भ के किसानों के दुख का सबसे बड़ा कारण है। पर सरकारों की कंपनी पक्षधर नीतियों ने किसानों के उपलब्ध जल में से ही कंपनियों को देना शुरू कर दिया है। सिंचाई को उपलब्ध होने वाला पानी कंपनियों को देने से किसानों का कृषि संकट बढ़ेगा ही। महाराष्ट्र सरकार के सिंचाई से हटाकर शहरी और औद्योगिक इस्तेमाल के लिए जल आवंटन का रास्ता विदर्भ के लिए खतरनाक साबित होगा। उस पर तुर्रा यह कि 123 थर्मल पॉवर प्लांट लगने हैं और सभी को बेशुमार पानी चाहिए। इस पूरी प्रक्रिया का सिंचाई परियोजनाओं पर बूरा असर पड़ेगा, बता रही है ग्रीनपीस की रिपोर्ट।

मुंबई, 3 दिसम्बर, 2012: ग्रीनपीस ने आज वर्धा व वैनगंगा नदी में जल उपलब्धता व थर्मल पावर प्लांट्स से इन नदियों पर होने वाले प्रभाव पर एक वैज्ञानिक रिपोर्ट (1) जारी करते हुए कहा कि विदर्भ क्षेत्र में चल रहे तापीय बिजली घरों द्वारा पानी की अतिरिक्त मांग करने से आने वाले दिनों में पूरे इलाके में जल संकट बढ़ जायेगा और सिंचाई व अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए पानी मिलना मुश्किल होगा।
इस खबर के स्रोत का लिंक: 

http://www.greenpeace.org

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शौच सफाई में भी मुनाफे की ताक में कंपनियां

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जिस तेजी से मात्र पिछले 6 महीनों में दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की जलापूर्ति में पीपीपी को लागू किया गया है; पनबिजली परियोजनाओं में निजी निवेश बढ़ा है, उससे तो नहीं लगता कि सरकारें पानी से जुड़े किसी भी क्षेत्र की जिम्मेदारी को अब अपने पास रखना चाहती हैं। जलापूर्ति क्षेत्र में पीपीपी घोटालों को लेकर जनविरोध है। सीवेज शोधन में जनविरोध शायद कम होगा, संभवतः इसी उम्मीद से सरकार ने तय किया है, कि जलापूर्ति में कोशिशें जारी रहें और सीवेज शोधन का जिम्मा पूरी तरह निजी को सौंप दिया जाये। वाह! शौच साफ करने में भी मुनाफा!

कोई पिता यदि संतान की देखरेख करने में कोताही बरते, तो संतान के बाबा को क्या करना चाहिए? वह थोड़े से पैसे देकर उसे किसी दुकानदार को सौंप दे और उससे अपेक्षा करे कि वह उसे बढ़िया खाना-पानी-संस्कार देगा, पढ़ाई-लिखाई करायेगा, बदले में संतान दुकानदार के मुनाफे में सहयोग करेगा या ठीक यह होगा कि बाबा.. संतान के पिता को सुधारे कि वह बाबा के पोते की ठीक से देखभाल करे?

यह एक गहरा प्रश्न है कि सरकारी तंत्र में सुधार करने की बजाय सरकारी जिम्मेदारियों को निजी तंत्र को सौंप देने का वर्तमान सरकारी रवैया कितना वाजिब है? फिलहाल आई आई टी टीम द्वारा प्रस्तुत राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन पर्यावरणीय प्रबंधन योजना का संकेत तो यही है। गंगा व दूसरी जलसंरचनाओं के प्रबंधन को लेकर हाल ही में आयोजित ’इंडिया वाटर इंपेक्ट समिट-2012’ में आये विदेशी कंपनियों के प्रतिनिधियों व तकनीकी विशेषज्ञों की बड़ी संख्या तथा योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के भाषण ने भी इसका स्पष्ट संकेत दिया।

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संकट में जल योद्धा बनीं बसंती

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Author: 
अंशु सिंह
Source: 
नेशनल दुनिया, 16 दिसंबर 2012
उत्तराखंडवासियों के लिए जीवनदायिनी मानी जाने वाली कोसी नदी और क्षेत्र के वनों पर मंडराते खतरे के बादल हटाने के लिए बसंती के अभियान ने रंग दिखाया।

अल्मोड़ा को पानी की जरूरत कोसी नदी से पूरी होती है। कोसी वर्षा पर निर्भर नदी है। गर्मियों में अक्सर इस नदी में जल का प्रवाह कम हो जाता है। उस पर से वन क्षेत्र में आई कमी से स्थिति बेहद गंभीर हो जाती है। बसंती इन तमाम समस्याओं को देख-समझ रही थीं। उन्हें महसूस हुआ कि अगर जंगलों की कटाई नहीं रोकी गई और जंगलों में लगने वाली आग को फैलने से नहीं रोका गया तो दस वर्ष में कोसी का अस्तित्व खत्म हो जाएगा।ऋषि कश्यप ने सहस्त्राब्दी पहले पानी और जंगलों के बीच सहजीवी रिश्ते की बात प्रतिपादित की थी। कहने का मतलब यह है कि अगर जंगल रहेंगे तभी नदी का अस्तित्व भी रहेगा। उत्तराखंड में कोसी नदी जीवनरेखा पानी जाती है लेकिन जंगलों की बेतहाशा कटाई और शहरीकरण ने पानी संग्रह करने के कई परंपरागत ढांचों को बर्बाद कर दिया। कई जल स्रोत सूख गए। इसका असर हुआ कि शहर से लेकर ग्रामीण इलाकों तक में जल संकट की स्थिति पैदा हो गई। लोगों की प्यास बुझाना मुश्किल होने लगा। हालांकि विपदा की इस घड़ी में बसंती नामक एक जल योद्धा ने नदी जल संरक्षण की कमान संभाली और जंगलों की रक्षा का प्रण किया।

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कल्याण का अंत

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Author: 
जयनंदन
Source: 
अभिव्यक्ति, 24 अक्टूबर 2004
कोचाई मंडल के जीवन में पानी ही पानी था। वह अपना समय ज़मीन पर कम और पानी पर ज़्यादा गुज़ारता था। वह अपने को पानी का पहरेदार कहता था और लोग उसे पानी का मेंढक कहते थे। पानी के अंदर या पानी के ऊपर कोई कारोबार चलाना हो तो कोचाई से उपयुक्त व्यक्ति दूसरा कोई नहीं हो सकता था। नदी में, तालाब में, समुद्र में कोई दुर्घटना हो जाए, कोचाई का झट बुलावा आ जाता। कहते हैं जो काम सेना के गोताखोरों से भी संभव नहीं हो पाता, उसे कोचाई कर डालता था।पता नहीं किस अर्जुन ने या किस राम ने अग्निबाण चलाया कि सौ वर्षों से भी ज्यादा उम्र वाला कल्याण तालाब सूख गया। इसके लगातार घट रहे जल स्तर को देखकर सारे बूढ़े-बुजुर्ग हैरान थे। बचपन से लेकर आज तक ऐसा उन्होंने कभी नहीं देखा था कि इस तालाब का अक्षय कोष तिल भर के लिए भी घट जाए। अगम, रहस्यमय, अनेक क्रियाओं की रंगशाला और जीवंतता, गतिशीलता व शीतलता का अमृत-कुंड आज जैसे किसी श्मशान में परिवर्तित हो गया था। कल्याण सूख गया, इससे शायद बहुतों का जीवन अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुआ होगा लेकिन प्रत्यक्ष रूप से इससे जो सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ, उसका नाम था कोचाई मंडल। कल्याण क्या सूखा जैसा उसके जीवन के सारे स्रोत ही सूख गए। कल्याण उसकी संजीवनी था, कर्म-स्थल था, ऊर्जा-स्रोत था और कुल जमा पूँजी था।
इस खबर के स्रोत का लिंक: 

http://www.abhivyakti-hindi.org

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अब इंडिया बुल्स छिनेगी नासिक के किसानों का पानी

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Author: 
प्रवीण महाजन
Source: 
चौथी दुनिया, 17 मार्च 2012
महाराष्ट्र में किसानों से पानी छिनकर कंपनियों को देना एक आम बात होता जा रहा है। पानी पर पहला हक किसानों और नागरिकों का ना होकर के कंपनियों का हो रहा है। अमरावती के किसानों के हक का पानी मारकर इंडिया बुल्स अब नासिक के खेतों के पानी पर डाका डालने जा रही है। पानी पर डाका डालने का खेल अमरावती के बाद अब नासिक और अहमदनगर में सिंचाई विभाग के मदद से खेला जाना है। इससे आने वाले दिनों में नासिक के किसानों और नागरिकों को बूंद-बूंद पानी के लिए तरसना पड़ सकता है। इंडिया बुल्स द्वारा किसानों के पानी पर डाका डालने के बारे में बता रहे हैं, प्रवीण महाजन।

सिंचाई विभाग से करार होने के पहले तक यह संभावना थी कि इंडिया बुल्स का मनपा प्रशासन के साथ पानी आपूर्ति का करार हो जाएगा। इस प्लांट को मंजूरी दिए जाने के दौरान यह तय हुआ था कि सिंचाई विभाग द्वारा जो पानी दैनंदिन जरूरतों के लिए मनपा प्रशासन को उपलब्ध कराया जाता है, उससे निकलने वाले मलजल (दूषित पानी) को फिल्टर कर पुनः बिजली उत्पादन के लिए इंडिया बुल्स के पॉवर प्लांट को दिया जाएगा।महाराष्ट्र में जहां एक ओर इंडिया बुल्स का जलवा बढ़ता जा रहा है, तो दूसरी ओर किसानों पर आफत आ रही है। इंडिया बुल्स अमरावती के किसानों के हक के पानी पर डाका डालने के बाद अब नासिक के खेतों के पानी पर भी डाका डालने जा रही है। यह सब सरकारी स्तर पर हो रहा है। सरकार कहती जरूर है कि पानी पर पहला हक किसानों और नागरिकों का है, लेकिन उसकी कथनी-करनी में जमीन और आसमान का अंतर है। इंडिया बुल्स के नासिक के निकट स्थापित हो रहे पॉवर प्लांट को पानी मुहैया कराने के लिए सिंचाई विभाग के साथ करार भी कर लिया है। सिंचाई विभाग को यह करार करने पर जहां 72 करोड़ रुपये मिले हैं, वहीं इससे नासिक महानगर पालिका को करारा झटका लगा है।
इस खबर के स्रोत का लिंक: 

http://mh.chauthiduniya.com

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