तालाब हैं तो गांव हैं
जलसंग्रह में मनरेगा का है योगदान
मनरेगा के तालाबों का सिंचाई में उतना योगदान नहीं हैं, लेकिन कुओं ने तो पूरा परिदृश्य ही बदल दिया है। सिर्फ मनरेगा के कुएं से एक लाख हेक्टेयर भू-भाग पर सिंचाई की सुविधा पिछले दो सालों में बहाल हुई है। इन कुओं ने रबी फसलों के आच्छादन को बढ़ा दिया है। इन कुओं से सब्जियों की खेती भी अच्छी हो रही है। पूरे राज्य में सबसे ज्यादा कुएं गढ़वा, देवघर एवं चतरा में बने हैं। जबकि कुआं निर्माण में साहिबगंज, कोडरमा एवं जामताड़ा पिछड़ गये हैं।
न होने दें तालाबों का अतिक्रमण
जगपाल सिंह एवं अन्य बनाम पंजाब सरकार मामले की सुनवाई के बाद 28 जनवरी 2011 को उच्चतम न्यायालय ने सभी राज्यों के मुख्य सचिव को निर्देश जारी किया है। इसके तहत राज्यों को तालाबों का अतिक्रमण रोकने के लिए त्वरित एवं कड़ी कार्रवाई करना है। इसके साथ ही समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट को यह बताना है कि तालाबों का अतिक्रमण रोकने के लिए उन्होंने क्या-क्या कदम उठाये हैं। तो देर किस बात की। उठ खड़ा होइये तालाब बचाने के लिए।
झारखंड में मनरेगा के कुओं की जिलावार विवरण
जिला का नाम | स्वीकृत कूप | निर्मित कूप |
पूर्वी सिंहभूम | 3204 | 2173 |
तालाब खुदाई में लें सरकारी मदद
ग्रामीण विकास, कृषि एवं गत्रा, मत्स्य, वन व जल संसाधन विभाग के पास है योजनाएं। प्रस्तुत है विभिन्न विभागों की मुख्य योजनाएं -
वन विभाग
वन विभाग भी गांवों में तालाब खुदवाता है। इसमें कुछ काम मनरेगा से होता है और कुछ काम विभाग की अपनी पौधरोपण योजना से। अब पौधरोपण की हर सरकारी योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए वन विभाग को कुछ आरंभिक कार्य करवाने होते हैं। इस कार्य को तकनीकी भाषा में इंट्री प्वाइंट कहते हैं। इंट्री प्वाइंट के तहत ग्रामीणों की सहमति से उनके लिए योजनाएं ली जाती हैं। इसमें चापानल, कुआं, चेकडैम एवं तालाब शामिल हैं। आपके गांव के आसपास यदि वनभूमि है तो इसमें पौधरोपण के लिए विभाग के जिलास्तरीय कार्यालय में संपर्क करें। पौधरोपण की योजना अपने गांव-पंचायत के लिए स्वीकृत कराएं और उसमें इंट्री प्वाइंट के तहत तालाब बनवा सकते हैं।
ग्रामीण विकास विभाग
मनरेगा : महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) ग्रामीण विकास विभाग की मुख्य योजना है। इसके तहत विभित्र प्रकार के तालाब एवं कुएं का भी निर्माण कराया जाता है। इसमें शतप्रतिशत राशि सरकार से मिलती है। इस योजना अब तक बड़े पैमाने पर कुएं का निर्माण झारखंड में कराया भी गया है। योजना ग्रामसभा बनाती है।
गांव की एटीएम हैं तालाब
तालाब किसानों के आय का अच्छा स्त्रोत है। इसमें जल भंडारण से आसपास की जमीन का जल स्तर रिचार्ज होता है। सिंचाई की सुविधा मिलती है। मछली उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने में तालाब की बड़ी भूमिका है। नये तालाब बनाने और पुराने तालाब के जीर्णोद्धार के लिए किसानों को अनुदान दिये जा रहे हैं। तालाब का उपयोग मछली उत्पादन के साथ ही पानी फल सिंघाड़ा और मखाना उत्पादन के लिए किया जा सकता है। बिहार में 80 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में तालाब हैं। तालाब की संख्या लगभग 75 हजार है। नौ हजार हेक्टेयर में मन या गोखुर झील है। 25 हजार हेक्टेयर में जलाशय हैं। पांच लाख हेक्टेयर में आर्द्र जल चौर हैं। 3200 किलोमीटर सदाबहार नदियां हैं। राज्य में तालाब, नदी, चौर और मन इतने अधिक होने के बावजूद मछली उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं है। अभी एक वर्ष में राज्य 5.20 लाख टन मछली की खपत होती है, जबकि उत्पादन मात्र तीन लाख टन के आसपास होती है। लगभग चालीस प्रतिशत मछली आंध्रप्रदेश और पश्चितम बंगाल से आयात करना पड़ता है। बिहार में प्रति वर्ष दूसरे राज्यों से डेढ़ से दो लाख टन मछली आयात की जाती है।
मुजफ्फरपुर के मतलूपुर में 85 एकड़ में बने 30 तालाब
मुजफ्फरपुर के मतलूपुर में इतिहास रचने की तैयारी हो रही है। यहां चवर की जमीन पर मछली पालन के लिए तालाब बनाये गये हैं। 85 एकड़ में एक साथ तीस तालाब बने हैं। इसके लिए 24 किसान साथ आये हैं। इन सभी ने अपनी जमीन दी है। प्रोजेक्ट में सबसे अधिक जमीन पूसा विवि के पूर्व कुलपति डॉ गोपालजी त्रिवेदी की है। यह बिहार में अपनी तरह का पहला प्रोजेक्ट है। इसके मैनेजर फिसरीज में बैचलर की डिग्री लेनेवाले शिवराज हैं, जो पूरे प्रोजेक्ट की जिम्मेवारी को संभाल रहे हैं। मछली पालन के अलावा यहां ट्रेनिंग सेंटर बनाये जाने की योजना है, जिसमें मछली पालन की ट्रेनिंग दी जायेगी।
गया शहर की संस्कृति को सहेजते हैं तालाब
संस्कृति नगर गया शहर को ‘तालाबों का शहर’ कहा जाता है। यूं गया कई मायने में न केवल देश के अंदर बल्कि दुनिया में अपनी पहचान रखता है। यह सनातन के साथ बौद्ध धर्मावलंबियों का भी विशेष केंद्र है। 88 बसंत देख चुके शहर के वयोवृद्ध साहित्यकार गोवर्धन प्रसाद सदय की माने तो 100-100 मीटर की दूरी पर यहां तालाब थे। बाद में 51 तालाब रह गये जिसके बारे में हाल के लोगों को भी पता है। पर शहर के फैलाव, बढ़ती जनसंख्या व बढ़ते बिजनेस के स्कोप ने कई तालाब के अस्तित्व को मिटा दिया। तालाब यहां के संस्कृति की गाथा कहते हैं। गया आग्नेय चट्टान के पहाड़ी से घिरा क्षेत्र है। कर्क रेखा भी गया के पास से ही होकर गुजरी है। इस कारण यह गरम क्षेत्र है। पहाड़ी क्षेत्र से घिरे होने के कारण पानी की भी कमी है। शायद इसी कारण लाजिक के तहत यहां के पुराने वाशिंदों ने जलाशयों की बहुलता को तरजीह दिया। तालाब व कुंड खुदवाये। आहर, पोखर व पइन की खुदाई करायी। जलजमाव से जलस्तर बना रहेगा। इससे नमी बनेगी। यह हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता का ही परिचायक है।
स्थानीय निकायों में बच्चों की भागीदारी
पंजाब की रक्ताभ छठी नदी
पंजाब, फारसी के शब्द पंज और आब यानी पांच नदियों के पानी के संयोग से मिलकर बना है। यह माना जाता है कि दक्षिण एशिया की शुरुआती सभ्यता का विकास यहीं हुआ था।
महान वाश यात्रा
नदियों को मिले ‘नैचुरल मदर’ का संवैधानिक दर्जा
यदि हम नाम बदलकर अमानीशाह या नजफगढ़ नाला बना दी गई क्रमशः जयपुर की द्रव्यवती व अलवर से बहकर दिल्ली आने वाली साबी जैसी नदियों की बात छोड़ दें, तो आज भी भारत में कोई नदी ऐसी नहीं है कि जिसे मां मानकर पूजा या आराधना न की जाती हो। ब्रह्मपुत्र, नद्य के रूप में पूज्य है ही। यह बात और है कि हम भारतीय नदियों को मानते मां है, लेकिन उनका उपयोग मैला ढोने वाली मालगाड़ी की तरह करते हैं।
भारत की राष्ट्रीय जलनीति का पुनर्संशोधित प्रारूप भले ही पानी को ‘आर्थिक वस्तु’ के रूप में बिक्री हेतु स्थापित करना चाहता हो, लेकिन भारतीय धार्मिक आस्था पानी को आज भी इन्द्र-वरूण आदि के रूप में ही पूज्य और पवित्र मानती है। इस आस्था का व्यापक आधार भारत का परंपरागत ज्ञान तंत्र और उसका विज्ञान है। आप भारतीय वेद, पुराण, उपनिषद...कोई भी ग्रंथ उठाकर देख लीजिए इस ज्ञानतंत्र और उसके विज्ञान ने पानी की बूंद, बादल, हिम, बादल या किसी अन्य स्वरूप को ’एच2ओ’ कहकर कभी संबोंधित नहीं किया। क्योंकि वह जानता था कि पानी के जिस स्वरूप को हम देखते हैं, वह सिर्फ ’एच2ओ’ है ही नहीं। यदि पानी सिर्फ ’एच2ओ’ होता, तो सिंथेटिक रक्त बना लेने वाला आधुनिक विज्ञान कभी का पानी बना चुका होता।याद आते हैं सतपुड़ा के जंगल और नदियां
पानी पर पटकथा
जल को ही विधाता की आद्यासृष्टि माना गया है। जब सृष्टि में और कुछ नहीं रहता तब भी जल ही रहता है और सृष्टि में सब कुछ रहता है तो भी जल के ही कारण रहता है। इस पृथ्वी के नीचे भी जल ही है और जिस पृथ्वी के ऊपर यह जीवन है, उसके ऊपर के जलद पर्जन्य से ही जीवन अस्तित्व में है। पानी के दो पाटों के बीच ही जीवन का उद्भव और विकास होता है। अतः जीवन के लिए जल ही मौलिक तत्व है। किंतु इस जल को कथमपि बनाया नहीं जा सकता, इसे सिर्फ बचाया जा सकता है।हवा में मुक्का मारने पर लिखा जा चुका है, आसमां में सुराख करने पर लिखा जा चुका है, हथेली पर बाल उगाने पर लिखा जा चुका है, समय की शिला पर लिखने के प्रयास किए जा चुके हैं, बिना लिखे ही कोरे कागज को प्रिय के पास प्रेषित करने की भी परंपरा रही है, लेकिन हाहंत! आज मुझे पानी पर लिखना पड़ रहा है। उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए लिखने को तो पानी पर भी लिखा जा सकता है, लेकिन यदि पानी ही कागज, बोर्ड या कैनवास हो तो आप अलबेले से अलबेले लेखक की विवशता को समझ सकते हैं। फिर चाहे गुरुमुखी का ज्ञाता हो या ब्राह्मी का, खरोष्ठी में पारंगत हो या देवनागरी में, रोमन में धाराप्रवाह लिखता हो या फारसी में, आशुलिपिवाला हो या टंकणवाला, कंप्यूटरवाला हो या इंटरनेटवाला अथवा पुरानी मान्यताओं के सुरतरुवरशाखा लेखनी और सात समुद्रों की मसि बनाने वाले लेखक ही क्यों न रहे हों, इस पानी पर कोई भी लिपि टिक नहीं सकती।
बड़े बांध और छोटे तालाब
1950 में भारत के कुल सिंचित क्षेत्र की 17 प्रतिशत सिंचाई तालाबों से की जाती थी। ये तालाब सिंचाई के साथ-साथ भू-गर्भ के जलस्तर को भी बनाए रखते थे, इस बात के ठोस प्रमाण उपलब्ध हैं। सूदूर भूतकाल में तो 8 प्रतिशत से अधिक सिंचाई तालाबों से ही होती थी। तालाबों में पाए गए शिलालेख इसके जीते-जागते प्रमाण हैं। इस स्वावलम्बी सिंचाई योजना का अंग्रेजों ने जानबूझकर खत्म करने का जो षड़यंत्र रचा था, उसे स्वतंत्र भारत के योजनाकारों ने बरकरार रखा है और वर्तमान, जनविरोधी,ग्राम-गुलामी की सिंचाई योजना को तेजी से लागू किया है।किसी भी देश की प्रगति या अवनति में वहां की जल संपदा का काफी महत्व होता है। जल की उपलब्धि या प्रभाव के कारण ही बहुत सी सभ्यताएं एवं संस्कृतियां बनती और बिगड़ी हैं। इसलिए हमारे देश की सांस्कृतिक चेतना में जल का काफी ऊंचा स्थान रहा है। हमारे पूर्वज जानते थे कि तालाबों से जंगल व जमीन का पोषण होता है। भूमि के कटाव एवं नदियों के तल में मिट्टी के जमाव को रोकने में भी तालाब मददगार होते हैं। जल के प्रति एक विशेष प्रकार की चेतना और उपयोग करने की समझ उनकी थी। इस चेतना के कारण ही गांव के संगठन की सूझ-बूझ से गांव के सारे पानी को विधिवत उपयोग में लेने के लिए तालाब बनाए जाते थे। इन तालाबों से अकाल के समय भी पानी मिल जाता था। जैसा कि गांवों की व्यवस्था से संबंधित अन्य बातों में होता था, उसी तरह तालाब के निर्माण व रख-रखाव के लिए भी गाँववासी अपनी ग्राम सभा में सर्वसम्मति से कुछ कानून बनाते थे।
लूट पानी की
विदर्भ के जल संकट के कारण होंगे थर्मल पॉवर स्टेशन
ग्रीनपीस ने जारी की वैज्ञानिक रिपोर्ट, कहा सिंचाई क्षमता पर पड़ेगा बुरा असर, ऐसी योजनाओं पर तत्काल रोक
विदर्भ देश के सबसे पिछड़े इलाकों में माना जाता है। वहां पर देश के सबसे ज्यादा किसानों ने अत्महत्या की है। सिंचाई के समुचित प्रबंध न होना और मौसम का अनियमित होना विदर्भ के किसानों के दुख का सबसे बड़ा कारण है। पर सरकारों की कंपनी पक्षधर नीतियों ने किसानों के उपलब्ध जल में से ही कंपनियों को देना शुरू कर दिया है। सिंचाई को उपलब्ध होने वाला पानी कंपनियों को देने से किसानों का कृषि संकट बढ़ेगा ही। महाराष्ट्र सरकार के सिंचाई से हटाकर शहरी और औद्योगिक इस्तेमाल के लिए जल आवंटन का रास्ता विदर्भ के लिए खतरनाक साबित होगा। उस पर तुर्रा यह कि 123 थर्मल पॉवर प्लांट लगने हैं और सभी को बेशुमार पानी चाहिए। इस पूरी प्रक्रिया का सिंचाई परियोजनाओं पर बूरा असर पड़ेगा, बता रही है ग्रीनपीस की रिपोर्ट।
मुंबई, 3 दिसम्बर, 2012: ग्रीनपीस ने आज वर्धा व वैनगंगा नदी में जल उपलब्धता व थर्मल पावर प्लांट्स से इन नदियों पर होने वाले प्रभाव पर एक वैज्ञानिक रिपोर्ट (1) जारी करते हुए कहा कि विदर्भ क्षेत्र में चल रहे तापीय बिजली घरों द्वारा पानी की अतिरिक्त मांग करने से आने वाले दिनों में पूरे इलाके में जल संकट बढ़ जायेगा और सिंचाई व अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए पानी मिलना मुश्किल होगा।शौच सफाई में भी मुनाफे की ताक में कंपनियां
जिस तेजी से मात्र पिछले 6 महीनों में दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की जलापूर्ति में पीपीपी को लागू किया गया है; पनबिजली परियोजनाओं में निजी निवेश बढ़ा है, उससे तो नहीं लगता कि सरकारें पानी से जुड़े किसी भी क्षेत्र की जिम्मेदारी को अब अपने पास रखना चाहती हैं। जलापूर्ति क्षेत्र में पीपीपी घोटालों को लेकर जनविरोध है। सीवेज शोधन में जनविरोध शायद कम होगा, संभवतः इसी उम्मीद से सरकार ने तय किया है, कि जलापूर्ति में कोशिशें जारी रहें और सीवेज शोधन का जिम्मा पूरी तरह निजी को सौंप दिया जाये। वाह! शौच साफ करने में भी मुनाफा!
कोई पिता यदि संतान की देखरेख करने में कोताही बरते, तो संतान के बाबा को क्या करना चाहिए? वह थोड़े से पैसे देकर उसे किसी दुकानदार को सौंप दे और उससे अपेक्षा करे कि वह उसे बढ़िया खाना-पानी-संस्कार देगा, पढ़ाई-लिखाई करायेगा, बदले में संतान दुकानदार के मुनाफे में सहयोग करेगा या ठीक यह होगा कि बाबा.. संतान के पिता को सुधारे कि वह बाबा के पोते की ठीक से देखभाल करे?यह एक गहरा प्रश्न है कि सरकारी तंत्र में सुधार करने की बजाय सरकारी जिम्मेदारियों को निजी तंत्र को सौंप देने का वर्तमान सरकारी रवैया कितना वाजिब है? फिलहाल आई आई टी टीम द्वारा प्रस्तुत राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन पर्यावरणीय प्रबंधन योजना का संकेत तो यही है। गंगा व दूसरी जलसंरचनाओं के प्रबंधन को लेकर हाल ही में आयोजित ’इंडिया वाटर इंपेक्ट समिट-2012’ में आये विदेशी कंपनियों के प्रतिनिधियों व तकनीकी विशेषज्ञों की बड़ी संख्या तथा योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के भाषण ने भी इसका स्पष्ट संकेत दिया।
संकट में जल योद्धा बनीं बसंती
अल्मोड़ा को पानी की जरूरत कोसी नदी से पूरी होती है। कोसी वर्षा पर निर्भर नदी है। गर्मियों में अक्सर इस नदी में जल का प्रवाह कम हो जाता है। उस पर से वन क्षेत्र में आई कमी से स्थिति बेहद गंभीर हो जाती है। बसंती इन तमाम समस्याओं को देख-समझ रही थीं। उन्हें महसूस हुआ कि अगर जंगलों की कटाई नहीं रोकी गई और जंगलों में लगने वाली आग को फैलने से नहीं रोका गया तो दस वर्ष में कोसी का अस्तित्व खत्म हो जाएगा।ऋषि कश्यप ने सहस्त्राब्दी पहले पानी और जंगलों के बीच सहजीवी रिश्ते की बात प्रतिपादित की थी। कहने का मतलब यह है कि अगर जंगल रहेंगे तभी नदी का अस्तित्व भी रहेगा। उत्तराखंड में कोसी नदी जीवनरेखा पानी जाती है लेकिन जंगलों की बेतहाशा कटाई और शहरीकरण ने पानी संग्रह करने के कई परंपरागत ढांचों को बर्बाद कर दिया। कई जल स्रोत सूख गए। इसका असर हुआ कि शहर से लेकर ग्रामीण इलाकों तक में जल संकट की स्थिति पैदा हो गई। लोगों की प्यास बुझाना मुश्किल होने लगा। हालांकि विपदा की इस घड़ी में बसंती नामक एक जल योद्धा ने नदी जल संरक्षण की कमान संभाली और जंगलों की रक्षा का प्रण किया।
कल्याण का अंत
अब इंडिया बुल्स छिनेगी नासिक के किसानों का पानी
सिंचाई विभाग से करार होने के पहले तक यह संभावना थी कि इंडिया बुल्स का मनपा प्रशासन के साथ पानी आपूर्ति का करार हो जाएगा। इस प्लांट को मंजूरी दिए जाने के दौरान यह तय हुआ था कि सिंचाई विभाग द्वारा जो पानी दैनंदिन जरूरतों के लिए मनपा प्रशासन को उपलब्ध कराया जाता है, उससे निकलने वाले मलजल (दूषित पानी) को फिल्टर कर पुनः बिजली उत्पादन के लिए इंडिया बुल्स के पॉवर प्लांट को दिया जाएगा।महाराष्ट्र में जहां एक ओर इंडिया बुल्स का जलवा बढ़ता जा रहा है, तो दूसरी ओर किसानों पर आफत आ रही है। इंडिया बुल्स अमरावती के किसानों के हक के पानी पर डाका डालने के बाद अब नासिक के खेतों के पानी पर भी डाका डालने जा रही है। यह सब सरकारी स्तर पर हो रहा है। सरकार कहती जरूर है कि पानी पर पहला हक किसानों और नागरिकों का है, लेकिन उसकी कथनी-करनी में जमीन और आसमान का अंतर है। इंडिया बुल्स के नासिक के निकट स्थापित हो रहे पॉवर प्लांट को पानी मुहैया कराने के लिए सिंचाई विभाग के साथ करार भी कर लिया है। सिंचाई विभाग को यह करार करने पर जहां 72 करोड़ रुपये मिले हैं, वहीं इससे नासिक महानगर पालिका को करारा झटका लगा है।