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कावेरी विवाद का जिन्न फिर आया बाहर

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कावेरी विवाद का जिन्न फिर आया बाहरRuralWaterFri, 05/04/2018 - 18:59


कावेरी नदीकावेरी नदी (फोटो साभार - विकिपीडिया)कावेरी विवाद का जिन्न एक बार फिर बाहर आता मालूम पड़ रहा है वजह है सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करने के प्रति केन्द्र सरकार की उदासीनता। विगत दिनों जल विवाद पर तेवर तल्ख करते हुए कोर्ट ने केन्द्र सरकार को फटकार लगाया है। विवाद पर कड़ा रुख अख्तियार करते हुए यह आदेश दिया कि तमिलनाडु को तत्काल 2 टीएमसी पानी छोड़ा जाये। आदेश का पालन न होने पर कोर्ट ने कठोर कार्रवाई करने की भी चेतावनी दी है।

मालूम हो कि कोर्ट ने फरवरी में कावेरी जल विवाद पर राज्यों के बीच जल बँटवारे के सम्बन्ध में फैसला सुनाया था। फैसले में प्रभावित राज्यों के बीच केन्द्र द्वारा जल बँटवारे के लिये एक स्कीम बनाने की बात कही गई थी। इसके लिये कोर्ट ने सरकार को एक माह का समय दिया था। अवधि के बीत जाने के बाद तमिलनाडु ने पिटीशन फाइल कर सुप्रीम कोर्ट से इस मामले में हस्तक्षेप करने का आग्रह किया था।

इस मसले पर कोर्ट ने केन्द्र सरकार को 3 मई तक जवाब दाखिल करने का आदेश दिया था। पर सरकार ने इस दिशा में कोई पहल नहीं की। इस मामले की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने केन्द्र सरकार फटकार लगाया और 8 मई तक जवाब दाखिल करने को आदेश दिया है। हालांकि कोर्ट में सरकार का पक्ष रखते हुए भारत के अटॉर्नी जनरल के के. वेणुगोपाल ने स्कीम न बन पाने का कारण प्रधानमंत्री एवं मंत्रिमंडल के सहयोगियों के कर्नाटक चुनाव में व्यस्त होना बताया। उन्होंने मामले की सुनवाई के लिये कोर्ट से 12 मई के बाद की तारीख मुकर्रर करने की गुजारिश की लेकिन कोर्ट ने इनकार कर दिया।

कोर्ट में तमिलनाडु का पक्ष रख रहे काउंसल शेखर नफडे ने कहा कि गर्मी बढ़ने के साथ ही तमिलनाडु में कावेरी जल बँटवारा को लेकर भी लोगों में रोष बढ़ रहा है इसलिये मसले को जल्द सुलझाया जाना चाहिए। नफडे द्वारा दिये गए तर्कों को सही ठहराते हुए कोर्ट ने केन्द्र से कहा कि वह अपनी जिम्मेवारी से भाग नहीं सकता और उसे जल बँटवारे लिये स्कीम बनानी ही होगी।

मालूम हो कि कावेरी जल विवाद पर 16 फरवरी को फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने कहा था कि पानी पर किसी भी स्टेट का मालिकाना हक नहीं बनता है। जल देश की सम्पत्ति है। फैसला सुनते हुए कोर्ट ने कर्नाटक को बिलिगुंडलू डैम से तमिलनाडु को 177.25 टीएमसी पानी छोड़ने आदेश दिया था।

बंगलुरु में पानी की माँग को देखते हुए कोर्ट ने तमिलनाडु के हिस्से से 14.75 टीएमसी पानी की कटौती कर दी थी वहीं कर्नाटक के हिस्से में इतने ही हिस्से की बढ़ोत्तरी का आदेश दिया था। कावेरी नदी कर्नाटक के कुर्ग जिले में स्थित ब्रम्हगिरी पर्वत से निकलती है और तमिलनाडु, केरल और पांडिचेरी होते हुए सागर में समा जाती है। कावेरी बेसिन में कर्नाटक का 32 हजार वर्ग किलोमीटर और तमिलनाडु का 44 हजार वर्ग किलोमीटर का इलाका आता है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कर्नाटक को 284.75 तमिलनाडु को 404.25 टीएमसी, केरल को 30 टीएमसी और पुदुचेरी को 7 टीएमसी पानी मिलेगा। कोर्ट का यह फैसला 15 साल के लिये लागू रहेगा। इस जल विवाद की शुरुआत 19 शताब्दी के अन्त में अंग्रेजी शासन के दौरान हुई। शताब्दी के अन्त में मद्रास प्रेसीडेंसी और मैसूर के राजा के बीच उपजे इस विवाद को 1924 में सुलझाया गया।

लेकिन 1956 में तमिलनाडु और कर्नाटक के अलग हो जाने पर यह फिर सिर उठाने लगा और राज्यों के बीच कोई समझौता नहीं हो सका। इस विवाद ने और तूल पकड़ा जब केरल और पुदुचेरी भी इसमें शामिल हो गए। 1976 में चारों राज्यों के बीच समझौता हुआ लेकिन विवाद नहीं सुलझ पाया। अन्ततः विवाद के निपटारे के लिये केन्द्र सरकार ने 1990 में कावेरी जल विवाद ट्रिब्यूनल बनाया। ट्रिब्यूनल ने 2007 में फैसला सुनाया था लेकिन इसे न मानते हुए कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी।

क्या है विवाद

एक अनुमान के तहत कावेरी में 740 टीएमसी पानी इस्तेमाल के लिये उपलब्ध है जो नदी के एरिया में पड़ने वाले चारों राज्यों से इकठ्ठा होता है। विवाद की वजह है कर्नाटक और तमिलनाडु के इलाकों से नदी में डाले जाने वाली पानी और बँटवारे में मिलने वाले पानी की मात्रा में भिन्नता। उपलब्ध आँकड़े के अनुसार कर्नाटक नदी में 462 टीएमसी पानी डालता है जबकि उसे 270 टीएमसी पानी ही मिल पता था। तमिलनाडु 227 टीएमसी पानी डालता है जबकि उसे उपयोग के लिये 419 टीएमसी पानी मिलता था। केरल 51 टीएमसी पानी डालता है जबकि उसे 30 टीएमसी पानी इस्तेमाल के लिये मिलता था।

कर्नाटक की आपत्ति यह थी कि नदी में ज्यादा पानी डालने के बाद भी उसे तमिलनाडु से काम पानी इस्तेमाल करने की इजाजत क्यों दी गई है। ट्रिब्यूनल ने भी अपने फैसले में तमिलनाडु को 192 टीएमसी पानी इस्तेमाल करने की इजाजत दी थी जो कर्नाटक से ज्यादा थी। इसी मुद्दे को लेकर तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल ने ट्रिब्यूनल के फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

कावेरी फैक्ट फाइल

कावेरी कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल से होते हुए पुदुचेरी के कराइकल के पास पहुँचकर समुद्र में मिल जाती है।

नदी कुल 800 मीटर की दूरी तय करती है और कर्नाटक के कुर्ग इलाके से निकलती है जो पश्चिमी घाट में पड़ता है।

 

 

 

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सावधान अब और भी घातक हो सकता है डेंगू

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सावधान अब और भी घातक हो सकता है डेंगू RuralWaterMon, 05/07/2018 - 18:42

एडीज एजिप्टीएडीज एजिप्टी (फोटो साभार - विकिपीडिया)यदि आपके पति डेंगू से ग्रसित हैं तो सावधान हो जाइए क्योंकि यह आपको भी प्रभावित कर सकता है। जी हाँ ऐसा सम्भव है। पिछले दिनों ब्रिटेन में जब डेंगू से ग्रसित इटैलियन आदमी के सीमेन का परीक्षण किया गया तो उसमें डेंगू के वायरस पाये गए। डेंगू के मरीज के सीमेन में इस बीमारी के वायरस पाये जाने की विश्व में यह पहली घटना है।

यूरो-सर्विलांस नामक जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि डेंगू से प्रभावित आदमी के थाईलैंड दौरे से लौटने के बाद उसमें इस बीमारी के लक्षण पाये गए। प्रभावित व्यक्ति का इलाज 9 दिनों तक किये जाने के बाद भी जब बीमारी के लक्षण पूरी तरह नहीं गए तब उसके यूरिन और सीमेन का सैम्पल नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शियस डिजीजेज (National Institute of Allergy and Infectious Diseases) में परीक्षण के लिये भेजा गया।

इंस्टीट्यूट के वायरोलॉजी डिपार्टमेंट (Virology Department) में जब सीमेन का परीक्षण किया गया तो उसमें डेंगू के वायरस पाये गए। इतना ही नहीं प्रभावित के सीमेन में पाये जाने वाले कुल वायरस की संख्या 27 थी। इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने इस जानकारी के बाद जब और गम्भीरता से परीक्षण किया तो पाया कि सीमेन में वायरस कुल 37 दिनों तक कार्यशील अवस्था में रहे।

वैज्ञानिकों ने डेंगू वायरस सम्बन्धी इस रहस्योद्घाटन के बाद इसकी तुलना जीका से की है। जीका भी डेंगू की तरह ही मच्छर के काटने से होता है। इस बीमारी से प्रभावित पुरुष के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने पर महिलाएँ भी इससे प्रभावित हो जाती हैं। हाल में ही न्यू इंग्लैंड जर्नल फॉर मेडिसिन (New England Journal for Medicine) में प्रकाशित एक रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की गई है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (center for disease control and prevention) से जुड़े वैज्ञानिकों ने इस बात का पता लगाने के लिये, जीका से प्रभावित 184 लोगों के सीमेन का सैम्पल इकट्ठा किया और उनमें कई पॉजिटिव पाये गए। जीका वायरस से प्रभावित महिलाओं के गर्भ में पल रहे बच्चे भी इस बीमारी की चपेट में आ जाते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि जीका की तरह डेंगू भी भविष्य में सेक्सुअली ट्रांस्मिटेड डिजीज (sexually transmitted diseases) की श्रेणी में आ सकता है।

डेंगू के वायरस का वाहक मादा एडीज एजिप्टी (Aedes Aegypti) नामक मच्छर होती हैं। इन मच्छरों के काटने से लोग डेंगू वायरस से प्रभावित हो जाते हैं। भारत के लिये इस रिसर्च में सामने आये परिणाम दुखदायी हो सकते हैं।

केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय (Central Health and Family Welfare Ministry) द्वारा जारी किये गए आँकड़े के अनुसार पिछले दस सालों में 2017 में डेंगू की चपेट में सबसे ज्यादा लोग आये। पिछले साल डेढ़ लाख से ज्यादा लोगों के प्रभावित होने के बाद भी इस बीमारी से होने वाली मौतों की संख्या 300 थी। डेंगू के वायरस चार प्रकार के होते हैं जिनकी कोडिंग एक से चार तक की संख्या में की गई है।

भारत में ज्यादातर मामले डेंगू तीन और चार टाइप के होते हैं जो कि साधारणतः कम खतरनाक होते हैं। डेंगू वन टाइप सबसे ज्यादा खतरनाक होता है जिसमें खून की उल्टियाँ और हैमरेज तक होने की सम्भावना रहती है। डेंगू के सामान्य लक्षण हैं कमजोरी, बॉडी में रैशेज आना, कमर और शरीर के अन्य जोड़ों में दर्द, उल्टी आना, हृदय गति में अनियमितता आदि। डेंगू के केस अब सालों भर आते रहते हैं। हालांकि बरसात के मौसम में मच्छरों का प्रकोप बढ़ने के साथ ही इसके मरीजों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हो जाती है।

केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के ताजा आँकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि 2018 में अब तक डेंगू के 5600 से ज्यादा मामले रिपोर्ट किये जा चुके हैं। अब तक तमिलनाडु में 1450 से ज्यादा मामले रिपोर्ट किये जा चुके हैं जो देश में सबसे ज्यादा है। डेंगू के बढ़ते केसेज का सम्बन्ध जलवायु परिवर्तन से भी है।

प्राकृतिक संसाधनों के नित हो रहे दोहन और मानवजनित मशीनीकरण का असर लोगों के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है। शहर तो शहर गाँवों का वातावरण भी दूषित होता जा रहा है। मौसम का मिजाज भी बिल्कुल अप्रत्याशित हो गया है जो विभिन्न रोगों के वायरस आदि को जन्म दे रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) भी मौसम में हो रहे बदलाव को रोगों के पनपने का कारण मानता है। डेंगू का वायरस इस बीमारी से प्रभावित लोगों के बोन मैरो को भी प्रभावित कर रहा है। यह लोगों की लाल और सफेद रक्त कणिका दोनों को ही प्रभावित करता है। इन रक्त कणिकाओं के प्रभावित होने से व्यक्ति का शरीर कमजोर हो जाता है प्लेटलेट्स (Platelets) की संख्या कम हो जाती है। इसी वजह से डेंगू से प्रभावित व्यक्ति की मौत तक हो जाती है।


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Submitted by AMIT KUMAR (not verified) on Tue, 05/08/2018 - 16:48

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KOI BHI SIKYAT NHI SB SHI HAI

Submitted by adv ydv (not verified) on Sun, 05/20/2018 - 21:04

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जैव विविधता है भारत की धरोहर

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जैव विविधता है भारत की धरोहर editorialSat, 06/09/2018 - 13:18


अन्तरराष्ट्रीय जैव विविधता दिवस, 22 मई 2018 पर विशेष

जैवविविधताजैवविविधता (फोटो साभार - आस्कआईआईटीयन्स)जिस तरह से आज पूरी दुनिया वैश्विक प्रदूषण से जूझ रही है और कृषि क्षेत्र में उत्पादन का संकट बढ़ रहा है, उससे जैवविविधता का महत्त्व बढ़ गया है। लिहाजा, हमें जैविक कृषि को बढ़ावा देने के साथ ही बची हुई प्रजातियों के संरक्षण की जरूरत है क्योंकि 50 से अधिक प्रजातियाँ प्रतिदिन विलुप्त होती जा रही हैं।यह भारत समेत पूरी दुनिया के लिये चिन्ता का विषय है। शायद इसीलिये नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस जर्नल (National Academy of Science Journal) में छपे शोध पत्र में धरती पर जैविक विनाश को लेकर आगाह किया गया है।

करीब साढ़े चार अरब वर्ष की हो चुकी यह धरती अब तक पाँच महाविनाश देख चुकी है। विनाश के इस क्रम में लाखों जीवों और वनस्पितियों की प्रजातियाँ नष्ट हुईं। पाँचवाँ कहर जो पृथ्वी पर बरपा था उसने डायनासोर जैसे महाकाय प्राणी का भी अन्त कर दिया था। इस शोध पत्र में दावा किया गया है कि अब धरती छठे विनाश के दौर में प्रवेश कर चुकी है। इसका अन्त भयावह होगा क्योंकि अब पक्षियों से लेकर जिराफ तक हजारों जानवरों की प्रजातियों की संख्या कम होती जा रही है।

वैज्ञानिकों ने जानवरों की घटती संख्या को वैश्विक महामारी करार देते हुए इसे छठे महाविनाश का हिस्सा बताया है। बीते पाँच महाविनाश प्राकृतिक घटना माने जाते रहे हैं लेकिन वैज्ञानिक छठे महाविनाश की वजह, बड़ी संख्या में जानवरों के भौगोलिक क्षेत्र छिन जाने और पारिस्थितिकी तंत्र का बिगड़ना बता रहे हैं।

स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफसर पाल आर इहरीच और रोडोल्फो डिरजो नाम के जिन दो वैज्ञानिकों ने यह शोध तैयार किया है उनकी गणना पद्धति वही है जिसे इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कंजर्वेशन ऑफ नेचर (International Union of Conservation of Nature) जैसी संस्था अपनाती है। इसकी रिपोर्ट के मुताबिक 41 हजार 415 पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की प्रजातियाँ खतरे में हैं।

इहरीच और रोडोल्फो के शोध पत्र के मुताबिक धरती के 30 प्रतिशत कशेरूकीय प्राणी विलुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें स्तनपायी, पक्षी, सरीसृप और उभयचर प्राणी शामिल हैं। इस ह्रास के क्रम में चीतों की संख्या 7000 और ओरांगउटांग 5000 ही बचे हैं। इससे पहले के हुए पाँच महाविनाश प्राकृतिक होने के कारण धीमी गति के थे परन्तु छठा विनाश मानव निर्मित है इसलिये इसकी गति बहुत तेज है। ऐसे में यदि तीसरा विश्व युद्ध होता है तो विनाश की गति तांडव का रूप ले सकती है।

इस लिहाज से इस विनाश की चपेट में केवल जीव-जगत की प्रजातियाँ ही नहीं बल्कि अनेक मानव प्रजातियाँ, सभ्यताएँ और संस्कृतियाँ भी आएँगी। शोध पत्र की चेतावनी पर गम्भीर बहस और उसे रोकने के उपाय को अमल में लाया जाना जरूरी है। परन्तु जलवायु परिवर्तन को लेकर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के रवैए से ऐसा मालूम पड़ता है कि दुनिया के सभी महत्त्वपूर्ण देश शायद ही इसे गम्भीरता से लेंगे।

छठा महाविनाश मानव निर्मित बताया जा रहा है इसलिये हम मानव का प्रकृति में हस्तक्षेप कितना है इसकी पड़ताल कर लेते हैं। एक समय था जब मनुष्य वन्य पशुओं के भय से गुफाओं और पेड़ों पर आश्रय ढूँढता फिरता था लेकिन ज्यो-ज्यों मानव प्रगति करता गया प्राणियों का स्वामी बनने की उसकी चाह बढ़ती गई। इसी चाहत का परिणाम है कि पशु असुरक्षित होते गए।

वन्य जीव विशेषज्ञों ने ताजा आँकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकला है कि पिछली तीन शताब्दियों में मनुष्य ने अपने निजी हितों की रक्षा के लिये लगभग 200 जीव-जन्तुओं का अस्तित्व ही मिटा दिया। भारत में वर्तमान में करीब 140 जीव-जंतु संकटग्रस्त अवस्था में हैं। ये संकेत वन्य प्राणियों की सुरक्षा की गारंटी देने वाले राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य और चिड़ियाघरों की सम्पूर्ण व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं?

आँकड़े बताते हैं कि पंचांग (कैलेण्डर) के शुरू होने से 18वीं सदी तक प्रत्येक 55 वर्षों में एक वन्य पशु की प्रजाति लुप्त होती रही। वहीं, 18वीं से 20वीं सदी के बीच प्रत्येक 18 माह में एक वन्य प्राणी की प्रजाति नष्ट हो रही है जिन्हें पैदा करना मनुष्य के बस की बात नहीं। वैज्ञानिक क्लोन पद्धति से डायनासोर को धरती पर फिर से अवतरित करने की कोशिश में जुटे हैं, लेकिन अभी इस प्रयोग में कामयाबी नहीं मिली है।

क्लोन पद्धति से भेड़ का निर्माण कर लेने के बाद से वैज्ञानिक इस अहंकार में हैं कि वह लुप्त हो चुकी प्रजातियों को फिर से अस्तित्व में ले आएँगे। चीन ने क्लोन पद्धति से दो बन्दरों के निर्माण का दावा किया है। बावजूद इसके इतिहास गवाह है कि मनुष्य कभी प्रकृति से जीत नहीं पाया है। मनुष्य यदि अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों के अहंकार से बाहर नहीं निकला तो विनाश का आना लगभग तय है। प्रत्येक प्राणी का पारिस्थितिकी तंत्र, खाद्य शृंखला और जैवविविधता की दृष्टि से विशेष महत्त्व होता है जिसे कम करके नहीं आँका जाना चाहिए। क्योंकि इसी पारिस्थितिकी तंत्र और खाद्य शृंखला पर मनुष्य का अस्तित्व टिका है।

भारत में फिरंगियों द्वारा किये गए निर्दोष प्राणियों के शिकार की फेहरिस्त भले ही लम्बी हो पर उनके संरक्षण की पैरवी भी उन्हीं ने की थी। 1907 में पहली बार सर माइकल कीन ने जंगलों को प्राणी अभयारण्य बनाए जाने पर विचार किया जिसे सर जॉन हिबेट ने इसे खारिज कर दिया था। फिर इआर स्टेवान्स ने 1916 में कालागढ़ के जंगल को प्राणी अभयारण्य में तब्दील करने का विचार रखा किन्तु कमिश्नर विन्डम के जबरदस्त विरोध के कारण मामला फिर ठंडे बस्ते में बन्द हो गया।

1934 में गवर्नर सर माल्कम हैली ने कालागढ़ के जंगल को कानूनी संरक्षण देते हुए राष्ट्रीय प्राणी उद्यान बनाने की बात कही। हैली ने मेजर जिम कॉर्बेट से परामर्श करते हुए इसकी सीमाएँ निर्धारित की और 1935 में यूनाईटेड प्रोविंस (वर्तमान उत्तर-प्रदेश एवं उत्तराखंड) नेशनल पार्क एक्ट पारित हुआ और यह अभयारण्य भारत का पहला राष्ट्रीय वन्य प्राणी उद्यान बना। यह हैली के प्रयत्नों से बना था इसलिये इसका नाम ‘हैली नेशनल पार्क’ रखा गया। बाद में उत्तर प्रदेश सरकार ने जिम कॉर्बेट की याद में इसका नाम ‘कॉर्बेट नेशनल पार्क’ रख दिया। इस तरह से भारत में राष्ट्रीय उद्यानों की बुनियाद फिरंगियों ने रखी।

भारत का आधिपत्य दुनिया के मात्र 2.4 प्रतिशत भू-भाग पर है। बावजूद इसके यह दुनिया की सभी ज्ञात प्रजातियों के सात से आठ प्रतिशत हिस्से का निवास स्थान है जिसमें पेड़-पौधों की 45 हजार और जीवों की 91 हजार प्रजातियाँ शामिल हैं। पेड़-पौधों और जीवों की प्रजातियों की संख्या भारत की जैवविविधता की दृष्टि से सम्पन्नता को दर्शाती है।

खेती की बात करें तो कुछ दशकों से पैदावार बढ़ाने के लिये रसायनों के प्रयोग इतने बढ़ गए हैं कि कृषि आश्रित जैवविविधता को बड़ी हानि पहुँची है। आज हालात इतने बदतर हो गए हैं कि प्रतिदिन 50 से अधिक कृषि प्रजातियाँ नष्ट हो रही हैं। हरित क्रान्ति ने हमारी अनाज से सम्बन्धित जरूरतों की पूर्ति तो की पर रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के प्रयोग ने भूमि की सेहत खराब कर दी। इसका प्रतिफल यह हुआ कि कई अनाज की प्रजातियाँ नष्ट हो गईं। अब फसल की उत्पादकता बढ़ाने के बहाने जीएम बीजों का प्रयोग भी जैवविविधता को नष्ट करने की प्रक्रिया को बढ़ा सकता है।

वर्तमान में जिस रफ्तार से वनों की कटाई चल रही है उससे तय है कि 2125 तक जलावन की लकड़ी की भीषण समस्या पैदा होगी। आँकड़े बताते हैं कि प्रतिवर्ष करीब 33 करोड़ टन लकड़ी का इस्तेमाल ईंधन के रूप में होता है। देश की अधिकांश ग्रामीण आबादी ईंधन के लिये लकड़ी पर निर्भर है।

केन्द्र सरकार की उज्ज्वला योजना ईंधन के लिये लकड़ी पर निर्भरता को कम करने के लिये एक कारगर उपाय साबित हो सकती है। इसके अलावा सरकार को वनों के निकट स्थित गाँवों में ईंधन की समस्या दूर करने के लिये गोबर गैस संयंत्र लगाने और प्रत्येक घर तक विद्युत कनेक्शन पहुँचाने पर भी बल देने की जरूरत है।

पालतू पशु इन्हीं वनों में घास चरते हैं अतः यह ग्रामीणों को सस्ती दरों पर उपलब्ध कराई जानी चाहिए। घास की कटाई गाँव के मजदूरों से कराई जानी चाहिए ताकि गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले ग्रामीण और उनके परिवार के भरण-पोषण के लिये धन सुलभ हो सके। ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि इन उपायों से बड़ी मात्रा में जैवविविधता का संरक्षण होगा।

एक समय हमारे यहाँ चावल की अस्सी हजार किस्में थीं लेकिन अब इनमें से कितनी शेष रह गई हैं इसके आँकड़े कृषि विभाग के पास नहीं हैं। जिस तरह सिक्किम पूर्ण रूप से जैविक खेती करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है इससे अन्य राज्यों को प्रेरणा लेने की जरूरत है। कृषि भूमि को बंजर होने से बचाने के लिये भी जैविक खेती को बढ़ावा देने की जरूरत है।

मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़, देश के ऐसे राज्य हैं जहाँ सबसे अधिक वन और प्राणी संरक्षण स्थल हैं। प्रदेश के वनों का 11 फीसदी से अधिक क्षेत्र उद्यानों और अभयारण्यों के लिये सुरक्षित है। ये वन विंध्य-कैमूर पर्वत के अन्तिम छोर तक यानि दमोह से सागर तक, मुरैना में चंबल और कुँवारी नदियों के बीहड़ों से लेकर कूनो नदी के जंगल तक, शिवपुरी का पठारी क्षेत्र, नर्मदा के दक्षिण में पूर्वी सीमा से लेकर पश्चिमी सीमा बस्तर तक फैले हुए हैं।

देश में सबसे ज्यादा वन और प्राणियों को संरक्षण देने का दावा करने वाले ये राज्य, वन संरक्षण अधिनियम 1980 का उल्लंघन भी धड़ल्ले से कर रहे हैं। साफ है कि जैवविविधता पर संकट गहराया हुआ है। जैवविविधता बनाए रखने के लिये जैविक खेती को भी बढ़ावा देना होगा जिससे कृषि सम्बन्धी जैवविविधता नष्ट न हो।

 

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Submitted by Anil Kumar Agrawal (not verified) on Sun, 06/03/2018 - 23:05

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Aaj jungle nahi laga sakte to bagan lagana jaruri hai.

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मछलियों के बदले मिलेगा प्लास्टिक

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मछलियों के बदले मिलेगा प्लास्टिकeditorialSat, 06/09/2018 - 14:54


विश्व पर्यावरण दिवस, 05 जून, 2018 पर विशेष

विश्व पर्यावरण दिवसविश्व पर्यावरण दिवसयह ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ हमारे लिये खास है क्योंकि इसकी मेजबानी इस बार भारत के कन्धों पर है। इस वर्ष का थीम ‘बीट प्लास्टिक पॉल्यूशन’ (Beat Plastic Pollution) पर आधारित है। इस थीम का मूल उद्देश्य सिंगल यूज्ड (Single Used) प्लास्टिक के इस्तेमाल को कम करना है जो समुद्री सतह पर प्लास्टिक कचरे के जमाव का मूल कारण है।संयुक्त राष्ट्र द्वारा सौंपी गई इस मेजबानी के कई मायने हैं जैसे पर्यावरण सम्बन्धी मसलों पर विश्व में भारत की बढ़ती पहुँच, देश में बढ़ता प्लास्टिक का इस्तेमाल और सिंगल यूज्ड प्लास्टिक के पुनर्चक्रण (recycling) में विश्व स्तर पर भारत का बढ़ता कद आदि।

इस वर्ष के थीम पर आने से पहले भारत द्वारा विश्व स्तर पर पर्यावरण को सम्पोषित करने की पहल की चर्चा न करना बेमानी होगी। संयुक्त राष्ट्र द्वारा 5 जून, 1972 को स्विटजरलैंड में आयोजित पहले पर्यावरणीय सम्मेलन में मेजबान राष्ट्र के प्रधानमंत्री ‘ओलफ पाल्मे’ को छोड़कर वहाँ पहुँचने वाली एक मात्र राष्ट्राध्यक्ष इंदिरा गाँधी थीं और यही सम्मेलन विश्व पर्यावरण दिवस की नींव बना। सम्मेलन में इंदिरा गाँधी का जाना पर्यावरणीय मसलों पर भारत की सजगता को दर्शाता है।

अब हम बात करते हैं ‘बीट प्लास्टिक पॉल्यूशन’ थीम की। क्या आपको मालूम है कि हर वर्ष 13 मिलियन टन प्लास्टिक समुद्र की सतह पर जमा हो रहा है। यह आँकड़ा इतना बड़ा है कि अगर इसी गति से समुद्र में प्लास्टिक कचरे का फैलाव होता रहा तो कुछ ही सालों में यह ‘बीच’ तक भी अपनी पहुँच बना लेगा। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी आँकड़े के अनुसार प्रति मिनट एक ट्रक प्लास्टिक कचरा समुद्र में डम्प किया जाता है जिसका 50 प्रतिशत हिस्सा सिंगल यूज्ड प्लास्टिक होता है।

समुद्री सतह में जमा होने वाले इन कचरों का प्रभाव समुद्र के पारिस्थितिकी पर पड़ रहा है। प्लास्टिक बायोडिग्रेडेबल नहीं होता इसीलिये यह हजारों वर्ष अपनी अवस्था में परिवर्तन किये बिना मौजूद रहता है। समुद्री जल की लवणीयता के कारण यह छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट जाता है जिसे मछलियाँ या अन्य समुद्री जीव उन्हें आसानी से निगल लेते हैं। शोध बताते हैं कि समुद्री जीवों द्वारा निगला गया यह प्लास्टिक उनके प्रजनन क्षमता को प्रभावित करने के साथ ही उनकी जीवन प्रत्याशा को भी घटाता है।

प्लास्टिक कचरा समुद्र की सतह पर उगने वाले विभिन्न प्रकार के शैवालों के लिये भी घातक है। यह सूर्य की किरणों को बाधित करता है जो शैवालों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। चूँकि, मनुष्य के आहार का एक अभिन्न हिस्सा समुद्री जीवों और अन्य प्रकार के समुद्री उत्पाद से मिलता है इसीलिये प्लास्टिक के हानिकारक प्रभाव से वह भी बच नहीं सकता है। इससे साफ है कि प्लास्टिक कचरे को समुद्र के सतह पर जमा होने से रोकना कितना महत्वपूर्ण है। यूनाइटेड नेशंस एनवायरनमेंट प्रोग्राम (UNEP) के अनुसार समुद्री प्रदूषण से प्रतिवर्ष 13 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हो रहा है।

विश्व स्तर पर जारी किये गये आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 2002 से 2016 के बीच दुनिया में प्लास्टिक के उत्पादन में 135 मिलियन मीट्रिक टन की बढ़ोत्तरी हुई है। वर्ष 2002 में प्लास्टिक का उत्पादन 200 मिलियन मीट्रिक टन था वह 2016 में बढ़कर 335 मिलियन मीट्रिक टन हो गया। विश्व के कुल प्लास्टिक उत्पादन का 23 प्रतिशत से अधिक हिस्सा चीन अकेले ही उत्पादित करता है। इस तरह चीन विश्व का सबसे बड़ा प्लास्टिक उत्पादक है।

प्लास्टिक उत्पादन में भारत का स्थान चीन की तुलना में अभी काफी पीछे है। लेकिन फिक्की द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं की पिछले कुछ वर्षों से प्लास्टिक उत्पादन में भारत प्रतिवर्ष 16 प्रतिशत की दर से वृद्धि कर रहा है। या यूँ कहें कि भारत विश्व में प्लास्टिक उत्पादन करने वाले अग्रणी राष्ट्रों की श्रेणी में शामिल होने की ओर अग्रसर है। इतना ही नहीं देश में प्लास्टिक के सामान की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिये भारत को प्रतिवर्ष चीन से बड़ी मात्रा में इसका आयात भी करना पड़ता है।

देश में प्लास्टिक की खपत के वर्तमान ट्रेंड से यह मालूम होता है कि यहाँ कुल प्लास्टिक उपभोग का 24 प्रतिशत हिस्सा पैकेजिंग के लिये इस्तेमाल होता है। वहीं 23 प्रतिशत हिस्सा कृषि क्षेत्र के जरूरी सामान या उपकरणों के निर्माण में, इलेक्ट्रॉनिक सामान के निर्माण में 16 प्रतिशत, घरेलू सामान के निर्माण में 10 प्रतिशत, निर्माण क्षेत्र में 8 प्रतिशत, ट्रांसपोर्ट में 4 प्रतिशत, फर्नीचर में एक प्रतिशत और अन्य जरूरी चीजों के निर्माण में 14 प्रतिशत हिस्से का इस्तेमाल होता है। ऊपर दिये गये आँकड़ों से साफ है कि प्लास्टिक की सबसे ज्यादा खपत पैकेजिंग क्षेत्र में है। पानी, अन्य पेय पदार्थ, खाद्य समाग्री, कॉस्मेटिक आदि की पैकेजिंग पूरी तरह ‘पेट’ (Polyethylene Terephthalate) जो सिंगल यूज्ड प्लास्टिक है पर निर्भर है। पेट प्लास्टिक का इस्तेमाल भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में तेजी से बढ़ रहा है जिसके कारण समुद्र तल में इसका जमाव तेजी से बढ़ता जा रहा है।

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के अनुसार अगर प्लास्टिक के इस्तेमाल में कमी नहीं की गई तो 2050 तक समुद्र में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक भर जाएगा। हालांकि, विश्व की तुलना में भारत में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति प्लास्टिक का इस्तेमाल काफी कम है। भारत में यह आँकड़ा महज 11 किलोग्राम है वहीं विश्व में 28 किलोग्राम है। लेकिन भारत की जनसंख्या के बड़े आकार को देखते हुए यह आँकड़ा काफी बड़ा हो जाता है। इतना ही नहीं समुद्र तटीय क्षेत्रों में बसने वाली जनसंख्या के मामले में भी भारत का चीन के बाद दूसरा नम्बर है।

भारत में कुल 18.75 करोड़ लोग तटीय क्षेत्र में निवास करते हैं वहीं चीन में यह 26.29 करोड़ है। इससे साफ है कि भारत का समुद्री कचरे में योगदान कम नहीं है। समूचे भारत में प्रतिवर्ष 56 लाख मीट्रिक टन प्लास्टिक कचरे का उत्पादन होता है जिसका एक बड़ा हिस्सा नदी-नालों के माध्यम से समुद्र में जाता है। अतः भारत को भी इस समस्या के प्रति सचेत होने की जरुरत है।

समुद्र में बढ़ रहे प्लास्टिक के जमाव ने पूरे विश्व का ध्यान प्लास्टिक कचरे के प्रबन्धन की तरफ खींचा है। अमेरिका के कई राज्यों सहित विश्व के कई अग्रणी देशों ने सिंगल यूज्ड प्लास्टिक पर क्रमिक रूप से प्रतिबन्धित करना प्रारम्भ कर दिया है। भारत ने भी इस दिशा में प्रयास शुरू तो किया है लेकिन यहाँ कोई ठोस नियम नहीं है। नियम के तौर पर यह 50 माइक्रॉन से कम मोटाई वाले पॉलिथीन के इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध लगाया गया है लेकिन यह नाकाफी साबित हो रहा है। विश्व में फ्रांस ऐसा पहला देश है जिसने 2016 में सिंगल यूज्ड प्लास्टिक को प्रतिबन्धित करने के साथ ही 2025 तक इस तरह के सभी इस्तेमाल को पूरी तरह बन्द करने का निर्णय लिया है। युगांडा ने तो 2008 में ही प्लास्टिक बैग्स के इस्तेमाल को पूरी तरह प्रतिबन्धित कर दिया था।

जापान, यूरोप के कई देश, अमेरिका सहित भारत आदि ने इस समस्या से निपटने के लिये पेट प्लास्टिक के रीसाइक्लिंग पर जोर देना शुरू किया है। भारत ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रगति किया है। सेंट्रल पॉल्यूशन बोर्ड द्वारा पिछले वर्ष जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार भारत देश में प्रतिवर्ष उत्पादित कुल सिंगल यूज्ड प्लास्टिक के 90 प्रतिशत हिस्से की रीसाइक्लिंग कर लेता है जो विश्व में सर्वाधिक है। सेंट्रल पॉल्यूशन बोर्ड के अनुसार कुल सिंगल यूज्ड प्लास्टिक का 65 प्रतिशत हिस्सा पंजीकृत कम्पनियों द्वारा, 15 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र और 10 घरेलू उद्योग से जुड़े फर्म्स द्वारा रीसाइकिल किया जाता है। वहीं जापान में रीसाइक्लिंग का यह प्रतिशत 72, यूरोप में 43 और अमेरिका में 31 प्रतिशत है।

भारत को विश्व पर्यावरण दिवस 2018 के लिये मिली मेजबानी की एक बड़ी वजह इसके पेट प्लास्टिक को रीसाइकिल करने की क्षमता भी है। इस वर्ष फरवरी में मेजबानी की घोषणा करते हुए संयुक्त राष्ट के अंडर सेक्रेटरी सह पर्यावरणीय शाखा के हेड एरिक सोल्हेम ने भारत के सिंगल यूज्ड प्लास्टिक के रीसाइकिल करने की क्षमता की प्रशंसा की थी। अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत को इस अवसर का भरपूर इस्तेमाल कर समुद्र की पारिस्थितिकी को अक्षुण्ण बनाये रखने में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए।

 

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Submitted by maryrosie (not verified) on Wed, 07/11/2018 - 22:56

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यह कुछ मूल्यवान युक्तियों के साथ एक महान छोटी पोस्ट है। मैं पूरी तरह सहमत हूँ। जिस तरह से आप जो चीजें करते हैं उसमें जुनून और सगाई लाते हैं, वे वास्तव में लाइव पर अपना दृष्टिकोण बदल सकते हैं।

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बन्द करो गंगा पर बाँधों का निर्माण - स्वामी सानंद

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बन्द करो गंगा पर बाँधों का निर्माण - स्वामी सानंदeditorialSun, 07/01/2018 - 13:02


स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंदस्वामी ज्ञानस्वरूप सानंदसाल 2005-06 में जैसे ही उत्तराखण्ड की सभी नदियों पर बाँध बनाने की सूचना फैली वैसे वरिष्ठ भू-वैज्ञानिक प्रो. जीडी अग्रवाल अब के स्वामी सानंद ने उत्तरकाशी के केदारघाट पर तम्बू गाड़ दिया था और इन्हें पर्यावरण विरोधी करार देते हुए इनके निर्माण को बन्द करने की माँग की थी।

भारी जन समर्थन लिये अग्रवाल का यह अनशन एक माह तक चला और अन्ततोगत्वा लगभग एक दर्जन ऐसी निर्माणाधीन जलविद्युत परियोजनाएँ सरकार को बन्द करनी पड़ी। अब फिर पिछले एक सप्ताह से स्वामी सानंद हरिद्वार स्थित मातृसदन में चार सूत्री माँगों को लेकर अनशन पर बैठ गए हैं। कहा कि वे तब तक साँस नहीं लेंगे जब तक उनकी माँगों का निराकरण नहीं होगा। यही नहीं उन्होंने इस बाबत प्रधानमंत्री को भी चिट्ठी लिखी है।

बता दें कि सरकार ने गंगा और उसकी सहायक नदियों पर फिर से बाँध बनाने की कवायद शुरू कर दी है। इधर स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद का कहना है कि चुनाव के वक्त पीएम नरेंद्र मोदी ने अपने को माँ गंगा का बेटा कहकर गंगा की रक्षा करने की बात कही थी। किन्तु गंगा संरक्षण विधेयक आज तक पारित नहीं हुआ है। इससे क्षुब्ध होकर प्रो. अग्रवाल 22 जून से गंगा की रक्षा के लिये हरिद्वार में अनशन पर बैठ गए हैं।

प्रो. अग्रवाल मानते हैं कि पीएम मोदी के गंगा की रक्षा की बात कहने पर उन्हें खुशी हुई थी, किन्तु चार साल बाद भी गंगा की रक्षा करने की बजाय गंगा के स्वास्थ्य खराब करने का काम किया जा रहा है। उन्होंने पीएम को पत्र लिखकर यह माँग की है कि अलकनंदा नदी पर बनी विष्णुगाड़ पीपलकोटी बाँध, मन्दाकिनी नदी पर फाटा व्योंग, सिंगोली भटवाड़ी पर हो रहे निर्माण को बन्द किया जाये। उन्होंने बाँध और खनन के विरोध में उपवास शुरू कर दिया है और प्राण त्यागने तक इसे जारी रखने की चेतावनी भी दी है।

गौरतलब है कि, स्वामी सानंद ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र प्रेषित कर यह सवाल उठाया है कि केन्द्र सरकार ने गंगा पर बाँध निर्माण और खनन के प्रबन्धन के लिये वर्ष 2014 में बनी कमेटी द्वारा रिपोर्ट सौंप दिये जाने के बाद भी उसे सार्वजनिक क्यों नहीं किया? यह पत्र उन्होंने प्रधानमंत्री को 24 फरवरी को भेजा था लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) से कोई जवाब न मिलने पर स्वामी सानंद ने नाराजगी जताई।

करोड़ों रुपए खर्च कर चलाए जा रहे नमामि गंगे जैसी योजनाओं पर भी इन्होंने सवाल उठाया है। उनका कहना है कि सरकार और सरकारी मण्डलियाँ (संस्थाएँ) गंगा जी व पर्यावरण का जानबूझकर अहित करने में जुटी हुई हैं। उनकी माँग है कि गंगा महासभा की ओर से प्रस्तावित अधिनियम ड्रॉफ्ट 2012 पर तुरन्त संसद में चर्चा हो या फिर इस विषय पर अध्यादेश लाकर इसे तुरन्त लागू किया जाये। इसके अलावा अलकनंदा, धौलीगंगा, नंदाकिनी, पिंडर, मंदाकिनी पर निर्माणाधीन व प्रस्तावित जल विद्युत परियोजनाओं को तुरन्त निरस्त किया जाये। इसके साथ ही इन्होंने विभिन्न परियोजनाओं की बली चढ़ने वाले दुर्लभ प्रजाति के पेड़ों की कटान पर रोक लगाने और नदियों में हो रहे अवैध खनन पर त्वरित प्रतिबन्ध लगाने की भी माँग की है। उनका कहना है कि उन्हें माँ गंगा के लिये यदि इस उपवास बाबत प्राण त्यागने पड़े तो उन्हें कोई मलाल नहीं है। वे कहते हैं कि प्रधानमंत्री ने गंगा को माँ कहा है इसलिये उन्हें भी माँ की रक्षा के लिये कड़े कदम उठाने चाहिए।

आईआईटीयन्स फॉर होली गंगा का समर्थन

इधर प्रोफेसर जी डी अग्रवाल के समर्थन में देश भर के आईआईटीयन्स एकत्र हो गए हैं। उन्होंने बाकायदा आईआईटीयन्स फॉर होली गंगा नाम से संगठन का निर्माण किया है। वे भी प्रो. अग्रवाल के समर्थन में देश भर में अभियान चलाएँगे। उन्होंने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा है कि सरकार आईआईटी कंसोर्टियम की सिफारिशों को लागू करे और गंगा नदी के प्राकृतिक प्रवाह को सुनिश्चित करे। इस हेतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जल संसाधन मंत्री नितिन गडकरी को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है। उन्होंने उत्तराखण्ड में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बन रही सभी पनबिजली और सुरंग परियोजनाओं के निर्माण को तत्काल बन्द करने की गुहार भी लगाई है।

आईआईटीयन्स फॉर होली गंगा ने केन्द्र के एनडीए सरकार के चार साल के कार्यकाल के दौरान गंगा संरक्षण का काम अधूरा रहने पर असन्तोष प्रकट किया है। उन्होंने कहा कि पर्यावरण और वन मंत्रालय ने 2010 में सात भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) का एक कंसोर्टियम बनाया था। इस कंसोर्टियम को गंगा नदी बेसिन पर्यावरण प्रबन्धन योजना (जीआरबी ईएमपी) बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी। इस कंसोर्टियम में आईआईटी बॉम्बे, दिल्ली, गुवाहाटी, कानपुर, खड़गपुर, मद्रास और रुड़की के लोग शामिल थे।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की ओर से तैयार और सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट में गंगा नदी बेसिन पर्यावरण प्रबन्धन योजना (जीआरबी ईएमपी) को विकसित करने के लिये रणनीति, विभिन्न सूचनाएँ और उनके विश्लेषण के साथ सुझाव की विस्तृत चर्चा की गई है। रिपोर्ट में सबसे ज्यादा जोर गोमुख से ऋषिकेश तक ऊपरी गंगा नदी सेगमेंट के प्राकृतिक प्रवाह को सुनिश्चित करने पर दिया गया है।

आईआईटीयन्स फॉर होली गंगा के अध्यक्ष यतिन्दर पाल सिंह सूरी ने केन्द्र सरकार से आईआईटी कंसोर्टियम की रिपोर्ट को सार्वजनिक कर इसे लागू करने की माँग भी की है। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार के चार साल पूरे हो गए हैं, लेकिन उत्तराखण्ड में पवित्र गंगा नदी के संरक्षण के लिये कोई सार्थक प्रयास नहीं दिख रहा, जो बेहद दुखदायी है। यहाँ तक कि प्रस्तावित गंगा अधिनियम भी अब तक नहीं बन पाया है।

श्री सूरी ने बताया कि उत्तराखण्ड में गंगा नदी पर पनबिजली परियोजनाओं और सुरंगों के निर्माण की वजह से नदी के प्रवाह का बड़ा हिस्सा प्रभावित हो रहा है और फैलाव भी संकुचित होता जा रहा है। राजमार्ग और चारधाम यात्रा के लिये चार लेन की सड़कों का निर्माण हालात को और बिगाड़ रहा है। अब गोमुख से ऋषिकेश तक महज 294 किलोमीटर नदी का केवल छोटा हिस्सा प्राकृतिक और प्राचीन रूप में बहता है।

आईआईटीयन्स फॉर होली गंगा के कार्यकारी सचिव एस के गुप्ता ने कहा कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री नितिन गडकरी से सुप्रसिद्ध पर्यावरण वैज्ञानिक और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर के पर्यावरण विज्ञान के 86 वर्षीय पूर्व प्रोफेसर जी डी अग्रवाल (स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद) की माँग को मान लेने के लिये गुजारिश करते हैं।

आईआईटीयन्स फॉर होली गंगा के कार्यकारी सदस्य पारितोष त्यागी का कहना है कि इस क्षेत्र की विभिन्न नदियों पर मौजूदा और प्रस्तावित जल विद्युत परियोजनाओं से नदी घाटी को होने वाली क्षति अपूरणीय होगी। उन्होंने कहा कि गंगा नदी के प्राकृतिक प्रवाह पर नियंत्रण बहुमूल्य पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट करने के साथ-साथ गंगाजल को भी प्रदूषित कर रहा है।

स्वामी सानंद ने उपवास करने के पूर्व पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर कई महत्त्वपूर्ण सवाल खड़े किये हैं। उन्होंने कहा कि सन 2000-01 में टिहरी और अन्य बाँधों को लेकर मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में एक कमेटी बनी थी, वे भी उस कमेटी के सदस्य थे। तब भी उन्होंने इन बाँधों के निर्माण पर सवाल उठाया था लेकिन कमेटी ने उस पर गौर नहीं किया तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। वे कहते हैं कि वे तब से अब तक उन्हीं सवालों के साथ खड़े हैं। उनके अनुसार यदि कमेटी उनकी बात मान लेती तो उत्तराखण्ड में आज पर्यावरण का इतना विनाशकारी स्वरूप हमारे सामने नहीं होता।

वर्ष 2001 में मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में बनी कमेटी के समक्ष स्वामी सानंद द्वारा पत्र के माध्यम से उठाए गए सवालों को हम अक्षरशः प्रस्तुत कर रहे हैं।

मुरली मनोहर जोशी समिति की रिपोर्ट हिन्दू समाज के विरुद्ध एवं षडयंत्र और दण्डनीय अपराध (डॉ. गुरूदास अग्रवाल, समिति सदस्य)

(1) टिहरी बाँध के भूकम्प सम्बन्धी खतरों और गंगाजी की प्रदूषण नाशिनी क्षमता पर दुष्प्रभावों का आकलन कर बाँध निर्माण को आगे बढ़ाने या न बढ़ाने के बारे में अनुशंसा देने के लिये माननीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा अप्रैल 2001 में गठित इस समिति ने जनवरी 2002 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। उक्त रिपोर्ट की ‘सूचना का अधिकार अधिनियम’ (RTI) के अन्तर्गत प्राप्त प्रति में पेज सख्या 28, 29, 30 गायब हैं। पृष्ठ 26 पर समिति का सर्ग 7.0 ‘निष्कर्ष और अनुशंसा’ है, पृष्ठ 27 पर सर्ग 8.0 ‘आभार-प्रदर्शन’ और पृष्ठ 31 पर ‘सन्दर्भ’ (References) पृष्ठ 28, 29, 30 पर क्या था, पता नहीं। निम्न विचार और विवेचना इस अपूर्ण रिपोर्ट पर ही आधारित हैं पर पृष्ठ 27 पर ‘आभार-प्रदर्शन’ आ जाने से माना जा सकता है कि गायब पृष्ठों पर निष्कर्ष, अनुशंसा या अन्य कोई महत्त्वपूर्ण सामग्री नहीं रही होगी।

(2) गंगाजल की प्रदूषणनाशिनी क्षमता के बारे में पृष्ठ 26 पर दिये निष्कर्ष बेहद अधूरे, अर्थहीन और हिन्दू समाज के लिये ही नहीं अपितु गंगा जी के लिये भी अपमानजनक है। जैसाकि नीचे देखा जा सकता हैः


(क) पैरा 4 गंगाजल के विशिष्ट गुणों को मात्र आस्था और अप्रामाणिक के रूप में मानता है- नकारता नहीं तो स्वीकारता भी नहीं, जैसा कि पेज पर it is conceivable वाक्यांश से स्पष्ट है। निष्कर्ष के रूप में यह अर्थहीन है।


(ख) पैरा 5 में गंगाजल, विशेषतया ऋषिकेश से ऊपर के गंगाजल की ‘प्रदूषण-क्षमता’ पर गहन और विशद वैज्ञानिक अध्ययन की तात्कालिक और त्वरित अध्ययन की अनुशंसा की गई है। पर ऐसे अध्ययन की स्पष्ट रूप रेखा न दिये जाने और ऐसे अध्ययन के निर्णायक निष्कर्ष मिलने तक बाँध पर आगे का काम रोक देने की बात न देने से यह अनुशंसा निपट अधूरी है। और इसमें NEERI Proposal की बात कहकर (जो Annexure के रूप में पेज 125 से 137 में दिया गया है) तो सारा गुड़-गोबर कर दिया है। NEERI के इस प्रस्ताव में अपने पेज 3 के अन्तिम पैरा में गंगाजल की विलक्षण प्रदूषणनाशिनी क्षमता को तो स्वीकारा गया है पर इस विलक्षण क्षमता के आकलन और अध्ययन के लिये आवश्यक वैज्ञानिक समझ/सामर्थ्य और मानसिक समर्पण दोनों ही के अभाव में लगभग 50 लाख लागत का यह प्रस्ताव अपने Scope of work में और विशेषतया Work Plan में बेहद अधकचरा है। इसमें प्रदूषणनाशिनी क्षमता क्या होती है और इसका आकलन या मापन कैसे किया जाएगा इसका कोई जिक्र नहीं। यह तो एक सामान्य जल-गुणवत्ता आकलन और जैविक अध्ययन का प्रस्ताव है और समिति के उद्देश्यों के लिये अर्थहीन है। रिपोर्ट से यह भी पता नहीं चलता कि यह अध्ययन हुआ भी या नहीं और इसके परिणाम मिले बिना समिति ने इस विषय में अपनी अनुशंसा क्या और किस आधार पर की।


(ग) पैरा 7 की अन्तिम अनुशंसा जो कुछ थोड़ा सा ‘अविरल’ प्रवाह बनाए रखने के अर्थ में है उतनी ही अधूरी, अनिश्चय-भरी और अर्थहीन है जितनी पैरा 4, 5 की ऊपर विवेचित अनुशंसा हैं।


(घ) सब मिलाकर पृष्ठ 26 के निष्कर्ष पूरी तरह अधूरे और अर्थहीन हैं और अनुशंसा का सच पूछें तो कोई है ही नहीं। रिपोर्ट हिन्दू समाज की आस्था और गंगा जी के प्रति अपमानजनक भी है क्योंकि वह गंगा जी को विशिष्ट स्थान न देकर उन्हें सामान्य नदियों के समकक्ष रखना चाहती है।

(3) कमेटी की 28-04-01 की बैठक में गंगाजल की प्रदूषण-विनाशिनी क्षमता के प्रश्न पर विचार करने और इस विषय पर अपनी अनुशंसा देने के लिये एक उपसमिति गठित की गई थी। इस उपसमिति के सदस्यों की सूची तो रिपोर्ट में लगी है पर 29-04-01 को लगभग 7 घंटे तक चली इस उपसमिति के सत्र में हुई चर्चा या निष्कर्षों के बारे में कोई विवरण नहीं। सम्भवतः वे पृष्ठ हमें RTI के अन्तर्गत प्रति देते समय निकाल दिये गए या शायद सरकार को भी नहीं दिये गए (हमारी प्रति में पृष्ठ 87 के बाद पृष्ठ 93 के बीच 5 के बदले केवल 2 पृष्ठ हैं- तीन नदारद हैं)। मैं (गुरूदास अग्रवाल) इस उपसमिति का अध्यक्ष था और मैंने इसकी चर्चाओं के निष्कर्ष और अनुशंसा अपने हाथ से 30-04-01 को माननीय जोशी जी को सौंपा था - उन्हें रिपोर्ट में जाने क्यों सम्मिलित नहीं किया गया। मैं चाहुँगा कि माननीय जोशी जी मेरे हाथ से लिखे निष्कर्ष-अनुशंसा को मूल रूप में हिन्दू समाज के समक्ष प्रस्तुत कराएँ।

(4) मेरी अध्यक्षता वाले उपसमूह का निष्कर्ष और मेरी अपनी स्पष्ट अनुशंसा थी कि गंगाजल की विलक्षण प्रदूषणनाशिनी क्षमता पर गहन अध्ययन और शोध का कार्य 6 मास के भीतर पूरा करा लिया जाये और ऐसे अध्ययन के स्पष्ट और निर्णायक परिणाम मिलने तक बाँध पर आगे का कार्य स्थगित कर दिया जाये। इस अनुशंसा का 30-04-01 की बैठक में श्री माशेलकर और ठाटे ने मुखर विरोध किया और ठाटे ने यह कहते हुए कि यदि काम एक मिनट के लिये भी बन्द करने की बात हों तो वह कमेटी पर काम नहीं करेंगे और अपना त्यागपत्र समिति के अध्यक्ष जोशी को सौंप दिया। इस पर श्री माशेलकर और माननीय जोशी जी ठाटे को मनाने में लग गए पर उनकी ‘ना मानूँ ना मानूँ’ जारी रही और अन्य सदस्य बस देखते रहे। जब इस तमाशे को चलते 45 मिनट हो गए तो इससे आजिज आकर कि यदि काम बन्द होने की स्थिति में ठाटे समिति में भाग लेने को तैयार नहीं तो काम न रोके जाने की स्थिति में मैं समिति के कार्य में भाग नहीं लूँगा। (यद्यपि इससे पहले मैंने ऐसा कभी नहीं कहा था, पर यदि काम आगे चलता रहे तो समिति की चर्चा चलाते रहना क्या हिन्दू समाज को धोखा देना, भुलावे में रखना नहीं था) कहते हुए मैंने अपना हाथ से लिखा तीन लाइन का सशर्त त्यागपत्र माननीय जोशी जी को सौंप दिया। जोशी जी का (और इस सारे तमाशे का) मन्तव्य स्पष्ट हो गया, जब मेरा त्यागपत्र हाथ में आते ही जोशी जी ने ‘अरे मुझे तो संसद की बैठक में जाना है’कहते हुए मीटिंग समाप्त कर बाहर चले गए उसके बाद मुझे उस त्यागपत्र की स्वीकृति/अस्वीकृति की कोई सूचना न मिलने और जोशी-माशेलकर-ठाटे तिकड़ी का खेल और अन्य सभी सदस्यों की असहायता देख लेने के बाद, उसके बाद की बैठकों में मेरे जाने का तो प्रश्न था ही नहीं। जहाँ तक मुझे ज्ञात हैं, समिति की ड्रॉफ्ट या अन्तिम रिपोर्ट मुझे दिखाने, उन पर मेरी राय या हस्ताक्षर लेने का कोई प्रयास नहीं किया गया (माशेलकर जैसे गंगा-विरोधी के होते, ऐसा भला होता भी क्यों कर!)। समिति की उपलब्ध रिपोर्ट न 30-04-2001 की बैठक में हुए इस तमाशे का जिक्र करती है न मेरे त्यागपत्र का जो स्वयं उन्होंने अपने हाथ में पकड़ा था। या तो वे इस सब का सत्य हिन्दू समाज के सामने प्रत्यक्ष रखें या हाथ में गंगा जल लेकर, गंगा जी की सौगन्ध खाकर मेरे त्याग पत्र की बात नकारें।

(4) यदि श्री दिलीप बिस्वास, डॉ. आर. एन. सिंह, और डॉ. यू. के. चौधरी को छोड़ दिया जाये जो विषय के जानकार होते हुए भी अन्ततः डरपोक सरकारी कर्मचारी थे जिनके लिये माँ गंगा और हिन्दू समाज के हितों से कहीं पहले उनके अपने स्वार्थ (Career) आते थे, तो पूरी समिति में जल गुणवत्ता और गंगाजल की प्रदूषणनाशिनी क्षमता की बात समझने वाले केवल दो ही सदस्य थे - मैं और प्रोफेसर शिवा जी राव। हम दोनों के हस्ताक्षर रहित (और प्रो. शिवा जी राव की तो स्पष्ट असहमति लिखित में होते हुए) यह रिपोर्ट कैसी होगी आप स्वयं समझ सकते हैं।

(5) यह रिपोर्ट और पूरा काण्ड, सर्व श्री जोशी जी/ माशेलकर/ ठाटे की तिकड़ी का माँ गंगा और हिन्दू समाज के विरूद्ध षडयंत्र और दण्डनीय अपराध है।

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Submitted by Anonymous (not verified) on Wed, 07/11/2018 - 19:39

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बहुत अच्छा, मुझे लगता है कि मुझे वह ज्ञान मिला जो मुझे चाहिए था। मैं आपकी पोस्ट में कुछ जानकारी देख और देखूंगा। धन्यवाद     fanfiction

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जल भंडारण के आँकड़ों की कवायद

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जल भंडारण के आँकड़ों की कवायदeditorialThu, 07/19/2018 - 18:28
Source
सैंड्रप

भाखड़ा ब्यास प्रबंध बोर्डभाखड़ा ब्यास प्रबंध बोर्ड

यह लेख भारत के विभिन्न जलाशयों में जल उपलब्धता के बारे में की जा रही रिपोर्टिंग के तरीके पर केन्द्रित है जिसमें पर्याप्त सुधार की आवश्यकता है। देश के जलाशयों के बारे में सरकार अथवा मीडिया द्वारा की जाने वाली रिपोर्ट, सेंट्रल वाटर कमीशन (Central Water Commission, CWC) द्वारा हर हफ्ते जारी की जाने वाली बुलेटिन पर आधारित होती है। इस रिपोर्ट में देश के महज 91 जलाशयों में जल की उपलब्धता की सूचना दी जाती है। वहीं राज्यों द्वारा जारी की जाने वाली रिपोर्ट से 3863 जलाशयों में उपलब्ध पानी के बारे में सूचना प्राप्त होती है।

हालांकि राज्यों द्वारा जारी रिपोर्ट भी देश में जल उपलब्धता की पूरी तस्वीर नहीं पेश कर पाती। कारण है यह रिपोर्ट सिर्फ सतह के ऊपर उपलब्ध जल से सम्बन्धित होती है जिसमें, भूजल एक्वीफर्स, मिट्टी में नमी और बड़ी संख्या में छोटे जलाशयों में उपलब्ध जल से सम्बन्धित आँकड़े शामिल नहीं होते। फिर भी यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि राज्यों द्वारा जारी की जाने वाली रिपोर्ट सीडब्ल्यूसी की रिपोर्ट की तुलना में ज्यादा सटीक सूचना देती है।

केन्द्र सरकार

सेंट्रल वाटर कमीशन, जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा कायाकल्प मंत्रालय (Ministry of Water Resource, River Development and Ganga Rejuvenation) के अन्तर्गत कार्य करता है। यह अपनी वेबसाइट पर साप्ताहिक रिपोर्ट जारी करता है। रिपोर्ट के साथ डिस्क्लेमर भी होता है जिसमें यह लिखा होता है कि दिये गये विवरण राज्यों और परियोजना अधिकारियों द्वारा उपलब्ध कराए गये विवरण पर आधारित हैं। सेंट्रल वाटर कमीशन द्वारा उपलब्ध कराया गया आँकड़ा 18 राज्यों और 12 नदी बेसिन क्षेत्र पर बने कुल 91 बड़े जलाशयों पर आधारित होता है। इन जलाशयों की जल-ग्रहण क्षमता 161.993 बिलियन क्यूबिक मीटर है। इसके अलावा सीडब्ल्यूसी की फ्लड मॉनिटरिंग और फोरकास्टिंग वेबसाइट, 60 इनफ्लो फोरकास्टिंग साइट्स को भी कवर करता है जो डैम और बाँधों से सम्बन्धित हैं। मानसून के समय ऐसी आशा की जाती है कि वेबसाइट पर हर घंटे का अपडेट उपलब्ध हो लेकिन अमूमन ऐसा हो नहीं पाता है।


उत्तरी भारत

हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान भाखड़ा व्यास प्रबन्ध बोर्ड, भाखड़ा, पोंग और पंडोह डैम के जल-ग्रहण, जल निकास और पानी के लेवल की प्रतिदिन निगरानी के लिये उत्तरदायी है। इन तीनों डैम की जल संग्रहण क्षमता 16.162 बिलियन क्यूबिक मीटर है जिसमें भाखड़ा 7551 एमसीएम, पोंग 8570 एमसीएम और पंडोह का हिस्सा 41 एमसीएम है। भाखड़ा और पोंग भी सीडब्ल्यूसी के साप्ताहिक बुलेटिन का हिस्सा हैं। इसके अलावा भाखड़ा और पोंग डैम में पानी के लेवल और उसे रिलीज करने सम्बन्धी तुलनात्मक आँकड़ा भी हर महीने सीडब्ल्यूसी द्वारा जारी किया जाता है।

उत्तर प्रदेश

यहाँ प्रदेश भर की 20 नदियों के कुल 81 स्थानों का आँकड़ा, टेबुलर बुलेटिन के रूप में प्रतिदिन डेली फ्लड बुलेटिन 2018के नाम से जारी किया जाता है। यह आँकड़ा सिंचाई एवं जल संसाधन विभाग जारी करता है। इस टेबल में बायीं तरफ जलाशयों में पानी की उपलब्धता से सम्बन्धित आँकड़ा भी होता है। उत्तर प्रदेश का फ्लड मैनेजमेंट इफॉर्मेशन सिस्टम सेंटर यही आँकड़ा अपने वेब पेज पर भी जारी करता है।

पश्चिमी भारत

राजस्थान-इस राज्य के जल संसाधन विभाग की वेबसाइट पर जल संग्रहण सम्बन्धी सूचना डाटा रूम सेक्शन पर उपलब्ध है लेकिन यह कार्यरत नहीं है।

गुजरात-नर्मदा जल संसाधन और जल वितरण विभाग की वेबसाइट पर एक्सेल शीट में डाटा बैंक ऑप्शन के साथ 203 जलाशयों के जल-स्तर से सम्बन्धित आँकड़ा उपलब्ध है। इन सभी डैमों की कुल जल संग्रहण क्षमता 15,760.17 एमसीएम है। इसके अलावा इस वेबसाइट पर सरदार सरोवर प्रोजेक्ट के बारे में भी सूचना उपलब्ध है। इस प्रोजेक्ट की स्टोरेज क्षमता 9460 एमसीएम है। इस तरह गुजरात की कुल जल संग्रहण क्षमता 25.22 बीसीएम है जबकि वर्तमान में यह 20.33 बीसीएम है। गुजरात के सभी 204 जलाशयों में से 10 सीडब्ल्यूसी द्वारा जारी बुलेटिन की लिस्ट में शामिल हैं। इन दस जलाशयों की वर्तमान जल संग्रहण क्षमता 17.191 बीसीएम है। नर्मदा जल संसाधन और जल वितरण विभाग की वेबसाइट पर मौजूद एक्सेल शीट में इन 17 बड़े जलाशयों की कुल जल संग्रहण क्षमता 12932 एमसीएम है। इसी तरह इस वेबसाइट पर एक अलग पेज बनाया गया है जिस पर जिलों और स्कीम के अनुसार आँकड़े प्रतिशत में उपलब्ध हैं। यही सूचनाएँ राज्य के फ्लड कंट्रोल सेल पेज पर भी उपलब्ध हैं जिसे हर दिन अपडेट किया जाता है। इस वेबसाइट के आर्काइव पेज पर बहुत ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है।

मध्य प्रदेश-यहाँ भी डेली रिजर्वायर बुलेटिन प्रदेश के जल संसाधन विभाग द्वारा प्रतिदिन जारी किया जाता है जो 168 जलाशयों में उपलब्ध जल की मात्रा पर आधारित होता है। इन सभी जलाशयों की जल संग्रहण क्षमता 36.415 बीसीएम है। सेंट्रल वाटर कमीशन द्वारा प्रतिदिन जारी किये जाने वाले आँकड़ों में इनमें से कुल 6 जलाशयों को शामिल किया जाता है। इन डैमों की कुल स्टोरेज क्षमता 27.318 बिलियन क्यूबिक मीटर है। इन जलाशयों में जल की उपलब्धता से सम्बंधित सूचना को प्रदेश के वेबसाइट पर रोज अपडेट किया जाता है।

महाराष्ट्र-राज्य के जल संसाधन विभाग द्वारा जारी बुलेटिन में 140 बड़े, 274 मध्यम और 2849 छोटी परियोजनाओं से जुड़े आँकड़ों को शामिल किया जाता है। इन बड़ी, मध्यम और छोटी परियोजनाओं की जल संग्रहण क्षमता क्रमशः 29.13 बीसीएम, 5.40 बीसीएम और 6.34 बीसीएम है। वहीं इनकी कुल जल संग्रहण क्षमता 40.87 बीसीएम है। प्रदेश के जल संसाधन विभाग द्वारा जारी बुलेटिन में 103 बड़े जलाशयों के आँकड़े अलग-अलग जारी किये जाते हैं जबकि बाकी जलाशयों से सम्बन्धित आँकड़े क्षेत्रवार या समेकित रूप से जारी किये जाते हैं। सीडब्ल्यूसी की वेबसाइट पर महाराष्ट्र के 17 बड़े जलाशयों में पानी की उपलब्धता से सम्बन्धित आँकड़े जारी किये जाते हैं जिनकी जल संग्रहण क्षमता 14.073 बीसीएम है। प्रदेश की वेबसाइट पर एक अलग पेज बनाया गया है जिस पर राज्य के जलाशयों में वर्तमान समय में उपलब्ध जल के बारे में जानकारी दी जाती है। इस पेज को प्रवाह नाम दिया गया है जिस पर जलाशयों के रियल टाइम लोकेशन मैप और पानी के इस्तेमाल के बारे में भी ग्राफ के माध्यम से जानकारी दी जाती है।

प्रवाहराज्य सरकारें
गोवा-इस राज्य के जल संसाधन विभाग द्वारा हर वर्ष जून की पहली तारीख से 15 नदियों और 5 जलाशयों में जल की उपलब्धता के सम्बन्ध में जानकारी दी जाती है। जल छोड़ने और उसकी वर्तमान स्थिति की जानकारी देने के लिये वेबसाइट पर इन्फोग्राफिक्स का इस्तेमाल किया जाता है। ये आँकड़े प्रतिदिन जारी किये जाते हैं। राज्य के 5 जलाशयों की कुल जल संग्रहण क्षमता 300.85 एमसीएम है।


तेलंगाना-प्रदेश के 8 जलाशयों में जल की उपलब्धता के बारे में हैदराबाद मेट्रोपोलिटन वाटर सप्लाई एंड सीवरेज बोर्ड प्रतिदिन आँकड़े जारी करता है जिनकी जल संग्रहण क्षमता 16.65 बीसीएम है। इनमें से केवल दो जलाशयों नागार्जुन सागर और श्रीशैलम में उपलब्ध पानी की जानकारी सीडब्ल्यूसी की वेबसाइट पर दी जाती है। इन दोनों जलाशयों की कुल जल संग्रहण क्षमता 15.13 बीसीएम है। इसके अलावा रिजर्वायर स्टोरेज मॉनिटरिंग सिस्टम नाम के वेब पेज पर राज्य के 59 बड़े और 73 मीडियम जलाशयों के बारे में भी जानकारी दी जाती है लेकिन उसे रोज अपडेट नहीं किया जाता। हैदराबाद मेट्रोपोलिटन वाटर सप्लाई एंड सीवरेज बोर्ड की साइट पर कृष्णा, गोदावरी और पेन्नार नदी बेसिन में स्थित बड़े, मध्यम और छोटे कुल 173 जलाशयों की लिस्टिंग की गई है। तेलंगाना वाटर रिसोर्स इन्फॉर्मेशन सिस्टम के अन्तर्गत हाइड्रोमेट डाटा में रिजर्वायर लेवल डाटा का विकल्प मौजूद है लेकिन यह तत्काल कारगर नहीं है। फिर भी यहाँ राज्य के जल संसाधन के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध है।

आन्ध्र प्रदेश-राज्य के जल संसाधन विभाग द्वारा 28 बड़े और 65 मध्यम कोटि के जलाशयों के बारे में वेबसाइट के माध्यम से जानकारी उपलब्ध कराई जाती है। वेबसाइट पर इन जलाशयों की कुल जल संग्रहण क्षमता 23.1 बीसीएम बताई गई है जिसमें श्रीशैलम, नागार्जुन सागर और सोमसिला जलाशय भी शामिल हैं। इन तीनों जलाशयों की आन्ध्र प्रदेश में कुल जल संग्रहण क्षमता 17.12 बीसीएम है जिसे सीडब्ल्यूसी के बुलेटिन में भी इस्तेमाल किया जाता है। इस जानकारी को प्रदेश की वेबसाइट पर अपडेट नहीं किया गया है। इसी तरह आन्ध्र प्रदेश वाटर इन्फॉर्मेशन एंड मैनेजमेंट सिस्टम प्रदेश के 86 बड़े और मध्यम आकार के जलाशयों के बारे में सूचना जारी करता है जिनकी कुल जल संग्रहण क्षमता 27.23 बीसीएम है। ऐसा लगता है कि वेबसाइट को हमेशा अपडेट किया जाता है। यहाँ भी श्रीशैलम, नागार्जुन सागर और सोमसिला जलाशय की कुल जल संग्रहण क्षमता को शामिल किया गया है।

कर्नाटक-राज्य के 13 जलाशयों की कुल जल संग्रहण क्षमता 23.4 बीसीएम है। इन जलाशयों में उपलब्ध जल की स्थिति की निगरानी कर्नाटक स्टेट नैचुरल डिजास्टर मॉनिटरिंग सेंटर द्वारा हर दिन की जाती है। केवल वाराही जलाशय को छोड़कर जिसकी जल संग्रहण क्षमता 228.54 एमसीएम है सभी 12 जलाशयों को सीडब्ल्यूसी की बुलेटिन में शामिल किया जाता है। सीडब्ल्यूसी की बुलेटिन में शामिल किये जाने वाले इन जलाशयों की जल संग्रहण क्षमता 19.4 बीसीएम है। वाणी विलास सागर और गेरुसोप्पा नामक दो जलाशयों की जल संग्रहण क्षमता को सीडब्ल्यूसी की बुलेटिन में शामिल किया जाता है जबकि इनके सम्बन्ध में कर्नाटक की वेबसाइट पर जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। इन दोनों जलाशयों की कुल जल संग्रहण क्षमता 932 एमसीएम है।

जलाशयों में जलस्तर की सूचनातमिलनाडु-राज्य के जल संसाधन विभाग की वेबसाइट पर एक लिंक उपलब्ध है जिस पर रोजाना यहाँ के 20 जलाशयों में जल की उपलब्धता से सम्बन्धित आँकड़े अपडेट किये जाते हैं। इन जलाशयों की जल संग्रहण क्षमता 5.97 बीसीएम है। इन जलाशयों में से 6 को सीडब्ल्यूसी द्वारा जारी बुलेटिन में शामिल किया जाता है जिनकी जल संग्रहण क्षमता 4.38 बीसीएम है। इसके अलावा वाटर रिसोर्सेज आर्गेनाईजेशन की वेबसाइट पर तमिलनाडु के जलाशयों की तस्वीर और मैप भी दिखते हैं।

केरल-स्टेट लोड डिस्पैच सेंटर, केरल वेबसाइट प्रदेश के 16 जलाशयों के बारे में रोजाना जानकारी उपलब्ध कराता है। इन जलाशयों की जल संग्रहण क्षमता 3.45 बीसीएम है। सीडब्ल्यूसी की बुलेटिन में इनमें से केवल तीन जलाशयों को शामिल किया गया है जिनकी जल संग्रहण क्षमता 2.93 बीसीएम है। इन तीनों के अलावा तीन अन्य जलाशयों को भी सीडब्ल्यूसी की बुलेटिन में शामिल किया गया है जिनकी जल संग्रहण क्षमता 904 एमसीएम है। इन जलाशयों से सम्बन्धित डाटा केरल के स्टेट लोड डिस्पैच सेंटर द्वारा उपलब्ध नहीं कराया जाता है।

ईस्ट इंडिया

छत्तीसगढ़-राज्य के जल संसाधन विभाग की वेबसाइट के रिजर्वायर डाटा सेक्शन में 43 जलाशयों के बारे में प्रतिदिन जानकारी अपडेट की जाती है। इन जलाशयों की जल संग्रहण क्षमता 6.33 बीसीएम है। इनमें से केवल मिनीमाता बांगो और रविशंकर सागर जलाशयों से सम्बन्धित जानकारी सीडब्ल्यूसी की बुलेटिन में शामिल की जाती है। इन जलाशयों की जल संग्रहण क्षमता 3.66 बीसीएम है।

झारखण्ड-राज्य के जल संसधान विभाग की वेबसाइट पर वाटर लेवल्स ऑफ रिजर्वायर सेक्शन में 46 जलाशयों की लिस्ट दी गई है। परन्तु इनके सम्बन्ध में जानकारी वहाँ उपलब्ध नहीं है इसीलिये नीचे दिये गये टेबल में इसे शामिल नहीं किया गया है। राज्य सरकार द्वारा प्रदेश के जलाशयों में पानी की स्थिति की जानकारी उपलब्ध कराने के लिये एक एप भी विकसित किया गया है लेकिन इसे एक्सेस करने की छूट केवल जल संसाधन विभाग के कर्मचारियों और ऑफिसर्स तक ही सीमित है।

ओडिशा-जल संसाधन विभाग की वेबसाइट पर मानसून 2018 के नाम से एक वेबपेज बनाया गया है जहाँ राज्य के 7 बड़े जलाशयों में पानी की स्थिति के बारे में सूचना उपलब्ध होती है। इन सभी जलाशयों के सम्बन्ध में सीडब्ल्यूसी की वेबसाइट द्वारा भी जानकारी उपलब्ध कराई जाती है। इन जलाशयों की जल संग्रहण क्षमता 15.328 बीसीएम है।

जलाशयों की स्थितिदक्षिण भारत
बिहार-राज्य का जल संसाधन विभाग अपनी वेबसाइट पर प्रतिदिन 23 जलाशयों में जल उपलब्धता के सम्बन्ध में जानकारी अपडेट करता है। इन जलाशयों की कुल जल संग्रहण क्षमता 949.8 एमसीएम है।

पश्चिम बंगाल-राज्य का इरीगेशन एंड वाटरवेज डिपार्टमेंट अपनी वेबसाइट पर 13 जलाशयों के जल-स्तर की रिपोर्ट प्रतिदिन जारी करता है। परन्तु वेबसाइट पर जारी इस रिपोर्ट में जलाशयों की जल संग्रहण क्षमता के बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाती है। यह जानकारी हमारे लिये बेकार है क्योंकि यह रिपोर्ट जलाशयों की जल संग्रहण क्षमता पर आधारित है।
 

 

 

उत्तर भारत

सीडब्ल्यूसी बुलेटिन में शामिल जलाशयों के अतिरिक्त अन्य जलाशय

क्रम

राज्य/एजेंसी

जलाशयों की संख्या

भंडारण क्षमता (बीसीएम)

जलाशयों की संख्या

भंडारण क्षमता

1.

बीबीएम

3

16.162

1

0.041

पश्चिम भारत

2.

गुजरात

204

20.33

194

3.14

3.

मध्य प्रदेश

168

36.415

162

9.10

4.

महाराष्ट्र

3246

40.87

3229

26.80

5.

गोवा

5

0.30

5

0.30

दक्षिण भारत

6.

तेलंगाना

8

16.65

6

1.52

7.

आन्ध्र प्रदेश

86

27.23

83

10.11

8.

कर्नाटक

13

23.40

1

0.23

9.

तमिलनाडु

20

5.97

14

1.59

10.

केरल

16

3.54

13

0.61

पूर्वी भारत

11.

छत्तीसगढ़

43

6.33

41

2.67

12.

उड़ीसा

7

15.33

0

0

13.

बिहार

23

0.95

23

0.95

14.

सीडब्ल्यूसी

91

161.99

91

161.99

कुल

 

3863

219.05

नोट- ऊपर दिये गये अधिकांश विवरण में जल संग्रहण क्षमता का मतलब जलाशयों में उपलब्ध वर्तमान जलस्तर से है। केवल उन्हीं केसेज में कुल जल संग्रहण क्षमता का जिक्र किया गया है   जिनके आँकड़े वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं थे। जिन जलाशयों की जल संग्रहण क्षमता की जानकारी वेबसाइट पर नहीं दी गई है उन्हें ऊपर दिये गये टेबल में शामिल नहीं किया गया है।

 

 

निष्कर्ष

इन 12 राज्यों और उनकी बीबीएमबी वेबसाइट के माध्यम से 3863 जलाशयों में जल की उपलब्धता के सम्बन्ध में जानकारी जुटाई जा सकती है। सीडब्ल्यूसी की वेबसाइट पर जारी होने वाले साप्ताहिक बुलेटिन में सिर्फ 91 जलाशयों के सम्बन्ध में जानकारी होती है। जैसा कि पहले ही कहा गया है भारत में जल की उपलब्धता की यह पूरी तस्वीर नहीं है क्योंकि इसमें काफी सारे बड़े-छोटे जलाशयों, भूजल एक्वीफर और मिट्टी में उपलब्ध नमी को शामिल नहीं किया गया है। अतः हमें देश में पानी की उपलब्धता से सम्बन्धित वर्तमान सूचना तंत्र को और भी व्यापक बनाने की जरुरत है जिसमें ऊपर दिये गये सभी पानी के स्रोतों को शामिल किया जा सके। फिर भी राज्यों की वेबसाइट पर उपलब्ध 3863 जलाशयों से सम्बन्धित सूचना, सीडब्ल्यूसी की वेबसाइट पर उपलब्ध 91 जलाशयों पर आधारित साप्ताहिक रिपोर्ट की तुलना में देश में पानी की उपलब्धता की बेहतर तस्वीर पेश करती है। इस रिपोर्ट के माध्यम से हम आशा करते हैं कि मीडिया, पॉलिसी मेकर्स, सरकारी एजेंसियां और सीडब्ल्यूसी भी अब जल संग्रहण के बारे में ज्यादा विस्तृत जानकारी उपलब्ध करा पाएँगे।

संकलन:हिमांशु ठक्कर, भीम सिंह रावत
Email: bhim.sandrp@gmail.com

 

 

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गंगा के उद्गम में हरे पेड़ों को बचाने की मुहिम

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गंगा के उद्गम में हरे पेड़ों को बचाने की मुहिमeditorialSun, 07/22/2018 - 18:28


रक्षा सूत्र आन्दोलनरक्षा सूत्र आन्दोलन“ऊँचाई पर पेड़ रहेंगे, नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे।” “चाहे जो मजबूरी होगी, सड़क सुक्की, जसपुर, झाला ही रहेगी”के नारों के साथ 18 जुलाई, 2018 को भागीरथी के उद्गम में बसे सुक्की, जसपुर, पुराली, झाला के लोगों ने रैली निकालकर प्रसिद्ध गाँधीवादी और इन्दिरा गाँधी पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित राधा बहन, जसपुर की प्रधान मीना रौतेला, समाज सेविका हिमला डंगवाल के नेतृत्व में पेड़ों पर रक्षा-सूत्र बाँधे गए। इसकी अध्यक्षता सुक्की गाँव की मीना राणा ने की।

राधा बहन ने कहा कि हिमालय क्षेत्र की जलवायु और मौसम में हो रहे परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिये सघन वनों की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि सीमान्त क्षेत्रों में रह रहे लोगों की खुशहाली, आजीविका संवर्धन और पलायन रोकने के लिये पर्यावरण और विकास के बीच में सामंजस्य जरूरी है।

इस दौरान सुक्की और जसपुर दो स्थानों पर हुई बैठक में जिला पंचायत के सदस्य जितेन्द्र सिंह राणा ,क्षेत्र पंचायत सदस्य धर्मेन्द्र सिंह राणा, झाला गाँव के पूर्व प्रधान विजय सिंह रौतैला, पूर्व प्रधान किशन सिंह, पूर्व प्रधान शुलोचना देवी, मोहन सिंह राणा, पूर्व प्रधान गोविन्द सिंह राणा आदि ने सुक्की-बैंड से जसपुर, झाला राष्ट्रीय राजमार्ग को यथावत रखने की माँग की है। इन्होंने सुक्की-बैंड से झाला तक प्रस्तावित ऑलवेदर रोड के निर्माण का विरोध करते हुए कहा कि यहाँ से हजारों देवदार जैसी दुर्लभ प्रजातियों पर खतरा है। इसके साथ ही यह क्षेत्र कस्तूरी मृग जैसे वन्य जीवों की अनेकों प्रजातियों का एक सुरक्षित स्थान है।


पेड़ों को बचाने का प्रयासपेड़ों को बचाने का प्रयासयहाँ बहुत गहरे में बह रही भागीरथी नदी के आर- पार खड़ी चट्टानें और बड़े भूस्खलन का क्षेत्र बनता जा रहा है। इसलिये यह प्रस्तावित मार्ग जैव विविधता और पर्यावरण को भारी क्षति पहुँचाएगा। यहाँ लोगों का कहना है कि उन्होंने आजादी के बाद सीमान्त क्षेत्र तक सड़क पहुँचाने के लिये अपनी पुस्तैनी जमीन, चारागाह और जंगल निःशुल्क सरकार को दिये हैं। इस सम्बन्ध में लोगो ने केन्द्र सरकार से लेकर जिलाधिकारी उत्तरकाशी तक पत्र भेजा है।

लोग यहाँ बहुत चिन्तित हैं कि उन्होंने वर्षों से अपनी पसीने की कमाई तथा बैंकों से कर्ज लेकर होटल, ढाबे, सेब के बगीचे तैयार किये हैं। यहाँ पर वे आलू, रामदाना राजमा सब्जियाँ उगाकर कमाई करते हैं। इसके कारण लोग यहाँ से पलायन नहीं करते हैं। ऑलवेदर रोड के नाम पर राष्ट्रीय राजमार्ग को चौड़ा करने से सुक्की, जसपुर, पुराली, झाला के लोग विकास की मुख्य धारा से अलग-थलग पड़ जाएँगे और उनके कृषि उत्पादों की ब्रिकी पर प्रभाव पड़ेगा। होटल पर्यटकों और तीर्थ-यात्रियों के बिना सुनसान हो जाएँगे।

नैनीताल से सामाजिक कार्यकर्ता इस्लाम हुसैन ने कहा कि पर्यावरण की दृष्टि से सेब आदि पेड़ों के विकास व संरक्षण के लिये देवदार जैसे पेड़ सामने होने चाहिये। उन्होंने कहा कि पेड़-पौधों को जीवित प्राणियों की तरह जीने का अधिकार है। यह बात केवल हम नहीं बल्कि पिछले दिनों नैनीताल के उच्च न्यायालय ने भी कही है। इसलिये देवदार के पेड़ों की रक्षा के साथ वन्य जीवों की सुरक्षा का दायित्व भी राज्य सरकार का है। रक्षा सूत्र आन्दोलन के प्रेरक सुरेश भाई ने कहा कि स्थानीय लोग अपनी आजीविका की चिन्ता के साथ यहाँ सुक्की बैंड से जांगला तक हजारों देवदार के पेड़ों के कटान का विरोध करने लगे हैं। यहाँ ऑलवेदर रोड के नाम पर 6-7 हजार से अधिक पेड़ों को काटने के लिये चिन्हित किया गया है। यदि इनको काटा गया तो एक पेड़ दस छोटे-बड़े पेड़ों को नुकसान पहुँचाएगा इसका सीधा अर्थ है लगभग एक लाख वनस्पतियाँ प्रभावित होंगी। इसके अलावा वन्य जीवों का नुकसान है। इसका जायजा वन्य जीव संस्थान को भी लेना चाहिये। जिसकी रक्षा करना सरकार की जिम्मेदारी है।


वृक्ष बचाने के लिये सामने आईं महिलाएँवृक्ष बचाने के लिये सामने आईं महिलाएँइन हरे देवदार के पेड़ों को बचाने के लिये लोग जसपुर से पुराली बगोरी, हर्षिल, मुखवा से जांगला तक नई ऑलवेदर रोड बनाने की माँग कर रहे हैं। यहाँ बहुत ही न्यूनतम पेड़ और ढालदार चट्टान है। इसके साथ ही इस नये स्थान पर कोई बर्फीले तूफान का भय नहीं है। स्थानीय लोगों का कहना है कि जसपुर से झाला, धराली, जांगला तक बने गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग को भी अधिकतम 7 मीटर तक चौड़ा करने से ही हजारों देवदार के पेड़ बचाये जा सकते हैं। इसके नजदीक गोमुख ग्लेशियर है। इस सम्बन्ध में हर्षिल की ग्राम प्रधान बसंती नेगी ने भी प्रधानमंत्री जी को पत्र भेजा है।

यहाँ लोगों ने भविष्य में प्रसिद्ध पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, वन्य जीव संस्थान, कॉमन कॉज के प्रतिनिधियों को बुलाने की पेशकश की है। इसके साथ ही स्थानीय लोगों और पर्यावरणविदों की माँग के अनुसार एक जन सुनवाई आयोजित करने की पहल भी की जा रही है। इस अवसर पर गाँव के लोग भारी संख्या में उपस्थित रहे, जिसमें सामाजिक कार्यकर्ता बी.वी. मार्थण्ड, महेन्द्र सिंह, नत्थी सिंह, विजय सिंह, सुन्दरा देवी, बिमला देवी, हेमा देवी, कमला देवी, रीता बहन, युद्धवीर सिंह आदि दर्जनों लोगों ने अपने विचार व्यक्त किये।

 

 

 

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आईआईएम कोझिकोड और जल स्वावलम्बन

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आईआईएम कोझिकोड और जल स्वावलम्बनeditorialWed, 07/25/2018 - 17:36
Source
द वाटर कैचर्स, 2017
आईआईएम कोझिकोडकेरल का कोझिकोड सघन वर्षा का क्षेत्र है। साल में 300 मिलीमीटर से ज्यादा वर्षा होती है। लेकिन, कोझिकोड में नए जमाने की पढ़ाई करने के लिये बनाए गए व्यावसायिक संस्थान को फिर भी पानी की समस्या रहती थी। कोझिकोड आईआईएम को जब अपने कैम्पस में पानी की किल्लत दूर करने की जरूरत महसूस हुई तब उन्हें नए जमाने की कोई तकनीकी समझ नहीं आई। उन्होंने पानी बचाने के परम्परागत तरीकों को अपनाना ही बेहतर समझा।

आईआईएम कोझिकोड कैम्पस में जल संरक्षण का पहला प्रयास साल 2000 में शुरू हुआ। उन्हें मालूम हो गया था कि किसी बाहरी स्रोत से उनकी पानी की जरूरतें पूरी नहीं होंगी इसीलिये इसे संस्थान के कैम्पस से ही पूरा करने का प्रयास शुरू किया गया। कैम्पस 96 एकड़ में फैला है।

कैम्पस, कोझिकोड के ऐसे इलाके में बसा है जहाँ भूमि समतल नहीं है। यह एक पहाड़ी इलाका है। यहाँ चार सौ लोग स्थायी तौर पर रहते हैं और नियमित आने जाने वाले लोग अलग हैं। आदमी के अलावा यहाँ पेड़-पौधों और घास के मैदान को भी नियमित तौर पर पानी की जरूरत रहती थी ताकि कैम्पस की सुन्दरता में कोई कमी न रहे। कुल मिलाकर रोजाना करीब एक लाख लीटर पानी की जरूरत थी।

पानी की कमी को पूरा करने के लिये जो योजना बनाई गई उसके तहत तय किया गया कि कैम्पस के पानी को ही रेनवाटर हार्वेस्टिंग तकनीक के जरिए रोका जाएगा। इसके साथ ही यह भी तय किया गया कि कैम्पस से निकलने वाले गन्दे पानी का शोधन करके उसे दोबारा इस्तेमाल करने लायक बनाया जाये। अब करीब डेढ़ दशक बाद आज आप आईआईएम कोझिकोड को देखेंगे तो महसूस करेंगे कि नए जमाने के व्यावसायिक भवनों को इसी तरह अपना पानी बचाना चाहिए।

सम्भवत: आईआईएम कोझिकोड, केरल का पहला और इकलौता ऐसा संस्थान है जिसने इतने बड़े स्तर पर अपना पानी बचाने का काम किया है। बावजूद इसके यह नहीं कहा जा सकता कि आईआईएम अपना सारा पानी बचा लेता है। लेकिन यह जरूर है कि यहाँ दो तिहाई वर्षाजल संचयन आसानी से कर लिया जाता है। जहाँ यह कैम्पस बना है वहाँ का सारा पानी रोक पाना सम्भव भी नहीं है क्योंकि पहाड़ी से नीचे आने वाला कुछ पानी बहकर बाहर चला ही जाता है।

केरल में बहुत से ऐसे शिक्षण संस्थान हैं जिनके पास बड़े कैम्पस हैं लेकिन वो अपना पानी पैदा नहीं करते हैं। आईआईएम कोझिकोड इस मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो चुका है। उसने इसके उपाय किये। सबसे पहले वर्षाजल संचयन के लिये एक 1.5 एकड़ का तालाब बनाया। यह तालाब दोहरा फायदा देता है। इससे भूजल रिचार्ज होने के साथ-साथ फरवरी तक कैम्पस की पानी की जरूरतों को पूरा किया जाता है। जहाँ तक पहाड़ी से आने वाले पानी का सवाल है उसे सीधे कैम्पस तक नहीं लाया जा सकता था इसीलिये उस पानी को रोकने के उद्देश्य से आस-पास के इलाकों में वर्षाजल संचय करने की योजना बनाई गई। आसपास के कुछ एकड़ जमीन में यह पानी इकट्ठा होता है जो कैचमेंट एरिया की तरह काम करता है।

इस कैचमेंट में इकट्ठा होने वाला पानी बड़े तालाब को रिचार्ज करने का काम करता है। तालाब ओवरफ्लो न हो जाये इसके लिये तालाब की मेड़बंदी की गई है। इसके बावजूद यह सम्भव नहीं है कि पहाड़ी इलाके से जब पानी नीचे की तरफ आता है तो सारा-का-सारा पानी रोक लिया जाये इसीलिये कैम्पस से बाहर जाने वाले पानी को एक नहर में भेज दिया जाता है। तालाब में जो पानी इकट्ठा होता है उसे एक पम्प के जरिए पहाड़ी पर बनाई गई टंकी में चढ़ाया जाता है। यही पानी घरेलू इस्तेमाल सहित पीने के लिये प्रयोग में लाया जाता है। चूँकि, कैम्पस बनने के साथ ही वर्षाजल संरक्षण की योजना भी बना ली गई थी इसीलिये छतों को इस प्रकार से बनाया गया है कि वर्षा के पानी के साथ पत्ते बहकर न आएँ।

सवाल यह उठता है कि एक सरकारी संस्थान ने इतनी बुद्धिमानी का काम भला कैसे कर लिया? संस्थान के सिविल इंजीनियर राजीव वर्मा कहते हैं कि ये टीम वर्क का प्रभाव है। इसे आप सामूहिक सोच का परिणाम भी कह सकते हैं। उस वक्त हमारे जो डायरेक्टर थे उनका नाम अमरलाल कालरो था। वो एक खुले दिमाग के आदमी थे और नए विचारों का हमेशा स्वागत करते थे। हमें उस वक्त पानी मिलने की कहीं से कोई खास उम्मीद भी नहीं थी। इसलिये हमने वर्षाजल संरक्षण पर विचार किया और नतीजा आपके सामने है।

उस वक्त जब पहाड़ी से नीचे आने वाले पानी के संरक्षण के बारे में विचार किया गया तो भूमि के कटाव का खतरा एक बड़ी समस्या थी क्योंकि वर्षाजल पहाड़ी से सीधे ढलान पर आता था। पहाड़ी की ऊँचाई करीब 80 मीटर है। आईआईएम के सभी भवन यहाँ तक कि स्टाफ क्वार्टर भी पहाड़ी पर ही हैं। कैम्पस में पहुँचने के लिये जो सड़कें बनाई गई थीं उससे भी मिट्टी के कटाव का खतरा पैदा हो गया था। इसीलिये वर्षाजल संरक्षण के काम में लगे लोगों ने पहाड़ी पर कंटूर लाइन बनाना शुरू किया। पहाड़ी पर जो खड्डे पहले से थे उन्हें सुधारा गया और कुछ नए खड्डे भी तैयार किये गए जो पानी को रोकने का काम करते थे।

ऐसे कई अन्य प्रयोग किये गए जिससे बहते पानी को रोका जा सके और उसका साल भर इस्तेमाल किया जा सके। इसके अलावा कैम्पस में स्थित घास का मैदान एक ऐसी विशेषता है जो आज आईआईएम कोझिकोड की पहचान बन गया है। पहाड़ी पर बने इस कैम्पस का घास का मैदान आज लोगों के लिये आकर्षण का केन्द्र है। इस घास के मैदान को बनाने और बचाने की कहानी भी बड़ी सुझबूझ भरी है।

कैम्पस में घास का मैदान बनाने के लिये जमीन पर पहले जूट की चटाई बिछाई गई और फिर घास की एक खास प्रजाति लगाई गई। जूट की चटाई बिछाने का मकसद ये था कि बारिश में मिट्टी के बहाव को रोका जा सके जिससे घास तथा मैदान दोनों सुरक्षित रहें। यह प्रयोग तो सफल रहा लेकिन एक समस्या थी। घास की जिस प्रजाति का चुनाव किया गया था गर्मियों में उसकी नियमित सिंचाई करनी पड़ती थी। महीने में दो बार। यह पानी का अतिरिक्त खर्च था जो कैम्पस की जरूरतों को पूरा करने में मुश्किल पैदा कर रहा था। इसीलिये घास की ऐसी प्रजाति लगाई गई जिसे गर्मियों में भी बहुत कम पानी की जरूरत पड़ती थी। समय के साथ जूट की चटाई जमीन में समा गई और आईआईएम कैम्पस एक हरे-भरे कैम्पस के रूप में जाना जाने लगा।

सिर्फ 80 लाख रुपए की लागत से बनाई गई ये व्यवस्था आज केरल ही नहीं बल्कि पूरे देश के व्यावसायिक संस्थानों के लिये एक मिसाल है।

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जहाँ चाह वहाँ राह

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जहाँ चाह वहाँ राहeditorialFri, 07/27/2018 - 18:30

सौर ऊर्जादिल्ली सरकार ने, हाल ही में, किसानों की आय में तीन से पाँच गुना तक इजाफा करने के लिये मुख्यमंत्री किसान आय बढ़ोत्तरी योजना को मंजूरी दी है। इस अनूठी योजना के अन्तर्गत किसान के एक एकड़ खेत के अधिकतम एक तिहाई हिस्से पर सोलर पैनल लगाए जाएँगे और बिजली पैदा की जाएगी।

सोलर पैनल लगाने वाली कम्पनी से दिल्ली सरकार का अनुबन्ध होगा और वह इस योजना के तहत पैदा होने वाली बिजली को चार रुपए प्रति यूनिट की दर से दिल्ली सरकार के विभिन्न विभागों के साथ ही आम जनता को भी बेचेगी। सोलर पैनल लगाने का पूरा खर्च कम्पनी द्वारा वहन किया जाएगा। किसानों को इस पर आने वाले खर्चे से पूर्णतः मुक्त रखा जाएगा।

दिल्ली सरकार का मानना है कि एक एकड़ जमीन से किसान को हर साल बीस से तीस हजार रुपयों तक की आय होती है। जमीन के एक तिहाई हिस्से पर सोलर पैनल लगाने से किसान को होने वाले नुकसान की भरपाई सरकार उन्हें किराया देकर करेगी। इस योजना के तहत किसानों को सालाना एक लाख रुपया किराए के रूप में प्राप्त होगा।

साफ है कि योजना किसानों के लिये घाटे का नहीं बल्कि फायदे का सौदा है। वे पहले की तरह ही अपनी जमीन के दो तिहाई हिस्से पर फसल उगाने के लिये स्वतंत्र होंगे। सरकार द्वारा जमीन के इस टुकड़े से होने वाली अनुमानित आय में सालाना मात्र दस हजार रुपए की कमी आएगी। इस तरह उन्हें तीस हजार की जगह एक लाख बीस हजार प्राप्त होंगे अर्थात आय में चार गुना बढ़ोत्तरी होगी।

दिल्ली सरकार का मानना है कि चूँकि सोलर पैनल जमीन से साढ़े तीन मीटर की ऊँचाई पर लगाए जाएँगे इसलिये उनकी जमीन बेकार नहीं जाएगी। सोलर पैनल लगाने से खेती के काम में कोई खास व्यवधान नहीं आएगा और किसान जमीन के उस हिस्से से भी उत्पादन ले सकेंगे। इस तरह यह किसानों के लिये अतिरिक्त आय होगी जो अन्ततः उनकी सालाना आमदनी को बढ़ाएगी।

ज्ञातव्य है कि मौजूदा समय में दिल्ली सरकार नौ रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीदती है। और इसका बोझ अन्ततः दिल्ली की जनता को उठाना होता है। इस नई व्यवस्था के कारण लोगों को नौ रुपए की जगह चार रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली मिलेगी जिससे उन्हें प्रति यूनिट पाँच रुपए की बचत होगी। राज्य सरकार के सभी विभागों को भी इसी दर पर बिजली प्राप्त होगी जिससे सरकार को हर साल 400 से 500 करोड़ रुपए की बचत होगी।

पिछले कई सालों से किसानों की आय बढ़ाने के लिये अनेक प्रयास किये जाते रहे हैं। खेती की लागत का हिसाब-किताब लगाया जाता रहा है। क्या जोड़ें और क्या घटाएँ पर खूब माथापच्ची होती रही है। न्यूनतम समर्थन मूल्य क्या हो इस विषय पर अर्थशास्त्री से लेकर मंत्रालय, नौकरशाही और जन-प्रतिनिधि शिद्दत से बहस करते रहे हैं पर सर्वमान्य लागत फार्मूला या देय समर्थन मूल्य हमेशा विवादास्पद ही रहा है।

अनेक लोग पक्ष में तो अनेक विपक्ष में दलील देते रहे हैं। यह सही है कि किसानों को लाभ पहुँचाने के लिये अनेक उपाय सुझाए तथा लागू किये जाते रहे हैं। उन सब अवदानों के बावजूद किसान कभी कर्ज के चक्रव्यूह का भेदन नहीं कर पाता है। कर्ज माफी का फार्मूला भी सालाना कार्यक्रम बनता नजर आता है। सारी कसरत के बावजूद कोई भी प्रस्ताव या निर्णय किसान की न्यूनतम आय सुनिश्चित नहीं कर पाया है। उनके पलायन को भी कम नहीं कर पाया है। खेती से होते मोहभंग को कम नहीं कर पाया और माली हालत में अपेक्षित सुधार नहीं ला पाया है।

लगता है कि दिल्ली सरकार ने एक साथ दो लक्ष्यों का सफलतापूर्वक भेदन किया है। महंगी बिजली का विकल्प खोजकर न केवल अपना खर्च कम किया है वरन दिल्ली की जनता से टैक्स के रूप में वसूले पैसों की भी चिन्ता की है। यह बहुत कम प्रकरणों में ही होता है। दूसरे, दिल्ली सरकार ने अपने राज्य के किसानों की सालाना आय को सुनिश्चित किया है। यह आय हर साल कम-से-कम एक लाख रुपए अवश्य होगी और उन्हें मानसून की बेरुखी के कारण होने वाले नुकसान से बचाएगी। पुख्ता रक्षा कवच उपलब्ध कराएगी और आत्महत्या के आँकड़े को कम करेगी।

लगता है दिल्ली के मुख्यमंत्री किसान आय बढ़ोत्तरी योजना की अवधारणा भारत की परम्परागत खेती की उस मूल अवधारणा से प्रेरित है जिसमें मानसून पर निर्भर अनिश्चित खेती को सुनिश्चित आय देने वाले काम से जोड़ा जाता था। पहले ये काम पशुपालन हुआ करता था। अब समय बदल गया है। गोचर खत्म हो गए हैं। खेती में काम आने वाले जानवर अप्रासंगिक हो गए हैं। इसी वजह से सोलर पैनल के माध्यम से आय जुटाने का नया रास्ता इजाद किया गया है।

एक बात और, दिल्ली सरकार की इस नवाचारी योजना ने खेती पर मानसून की बेरुखी से होने वाले खतरे पर चोट नहीं की है। अच्छा होता, इस योजना के साथ-साथ मानसून की बेरुखी पर चोट करने वाली योजना का भी आगाज होता। अर्थात ऐसी योजना, जिसके अन्तर्गत कम-से-कम खरीफ की फसल की शत-प्रतिशत सुरक्षा की बात, हर खेत को पानी की बात और निरापद खेती (आर्गेनिक खेती) से जोड़कर आगे बढ़ाई होती। लगता है, इस बिन्दु पर किसानों से सीधी बात होनी चाहिए। समाधान वहीं से निकलेगा। निरापद खेती का भी आगाज वहीं से होगा। असम्भव कुछ भी नहीं है। आइडिया कभी भी किसी के मोहताज नहीं रहे बस अन्दर से चाह होनी चाहिए। इसी कारण कहा जाता है, ‘जहाँ चाह वहाँ राह।’सम्भवतः इसी आधार पर दुष्यन्त आसमान में छेद करने के लिये जोर से पत्थर उछालने की पैरवी करते हैं।

अन्त में कहा जा सकता है कि दिल्ली सरकार के किसान आय बढ़ोत्तरी योजना से किसानों की एक लाख रुपए सालाना आमदनी सुनिश्चित हुई है, सम्भवतः उत्पादन की चुनौती बाकी है।

 

 

 

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उत्तर का “टांका” दक्षिण में

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उत्तर का “टांका” दक्षिण मेंeditorialFri, 07/27/2018 - 18:43
Source
द वाटर कैचर्स, 2017
थुम्बे बाँध की वजह से नेत्रावती नदी और खारा हो गईउत्तर भारत के राजस्थान और गुजरात में टांका बहुत प्रचलित और प्राचीन नाम है। टांका भूजल संरक्षण का एक साधन है। लेकिन दक्षिण के किसी राज्य में टांका दिख जाये तो क्या आश्चर्य नहीं होगा? टांका अगर उस राज्य में दिखे जहाँ औसत 4000 मिलीलीटर सालाना वर्षा होती है तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। जब यह किसी पुराने गिरजाघर में दिख जाये तो उसके बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ जाना लाजमी है। यह समझने की जरूरत बढ़ जाती है कि आखिर किसने और क्यों यहाँ टांका बनाया होगा?

संत फिदलिस मठ, एक फ्रेंच चर्च मठ है जिसकी स्थापना 1526 में हुई थी। हालांकि अब ये मठ और इसमें बना चर्च उपयोग में नहीं है फिर भी हम जिस टांका की चर्चा कर रहे हैं वो इसी ईसाई मठ में है। इसे इस ईसाई मठ में बनाना इसलिये भी आश्चर्यजनक लगता है क्योंकि चर्च के बगल में ही नेत्रावती नदी बहती है। चर्च और मठ को यहाँ से अबाध जल मिल सकता था फिर उन्होंने उस तकनीक पर जल संरक्षण की योजना क्यों बनाई जो बहुत कम वर्षा वाले क्षेत्रों में बनाई जाती है?

एक लाइन में जवाब चाहिए तो जवाब है खारा पानी। गर्मियों के मौसम में अक्सर ऐसा होता है कि समुद्र का पानी नदी के पानी को भी खारा कर देता है। सम्भवत: इसी कारण से उस समय टांका पद्धति को अपनाने की जरूरत महसूस की गई जब चर्च को पानी का कोई संकट नहीं था। हालांकि फादर ओथो कुछ और ही कारण बताते हैं। फादर ओथो का कहना है कि उस वक्त कुआँ मठ से बहुत नीचे था। जाहिर है, वहाँ से पानी खींचकर लाने में दिक्कत होती थी। सम्भवत: इसीलिये उन्होंने मीठे पानी के लिये टांका को चुना होगा।

लेकिन फादर भी खारे पानी की समस्या से इनकार नहीं करते हैं। वो जिस कुएँ का जिक्र करते हैं उसमें जमा होने वाला पानी इस्तेमाल के लायक नहीं बचा है। मानसून के दिनों में भी उसका पानी काला ही रहता है। कुएँ के पानी की खराबी के लिये यहाँ नदी जल से होने वाली सिंचाई जिम्मेदार है। फादर कार्नालियस जो कि कभी इस चर्च के प्रमुख रहे हैं वो कहते हैं कि हम लोग गर्मियों के दिनों में नारियल के बागानों की सिंचाई के लिये नदी का पानी इस्तेमाल करते थे। उस वक्त गर्मियों में नदी का पानी खारा हो जाता था। यही पानी कुएँ में भी पहुँचता था और धीरे-धीरे कुएँ का पानी इस्तेमाल के लायक नहीं रहा।

बहरहाल, चर्च में टांका का प्रवेश 1930 में हुआ जब चर्च की मरम्मत की जा रही थी। एक यूरोपीय पुजारी फादर सिम्फोरियन ने इसे डिजाइन किया था। जब चर्च का पुनर्निर्माण शुरू हुआ तो बरामदे में जो तहखाना था उसे ही टांका में परिवर्तित कर दिया गया। यह टांका 20 फुट लम्बा, नौ फुट चौड़ा और 12 फुट ऊँचा था। इस टांके में करीब 60,000 लीटर पानी इकट्ठा किया जा सकता है। दीवारों पर लगी लोहे की नालियों के जरिए छत का पानी इस टांका तक पहुँचाया जाता है। क्योंकि उस समय यहाँ बिजली की सुविधा उपलब्ध नहीं थी इसीलिये शौचालय और स्नानघर ऐसी जगह बनाए गए कि पानी को पम्प करने की जरूरत ही न पड़े। सत्तर अस्सी सालों बाद इतना बदलाव जरूर हुआ है कि अब पुरानी लोहे की पाइपों को पीवीसी पाइप से बदल दिया गया है लेकिन टांका अभी भी सही सलामत है और काम करता है।

टांका में जो पानी इकट्ठा होता है उसका इस्तेमाल कैसे और किस रूप में किया जाता था इसकी बहुत जानकारी आज उपलब्ध नहीं है। फादर कार्नालिस कहते हैं कि इसका उपयोग पीने के अलावा बाकी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिये किया जाता था। इसकी एक वजह ये भी थी कि छत के पानी को टांका में पहुँचाने से पहले उसके फिल्टर करने की कोई व्यवस्था नहीं थी। डाक्टर कार्नालिस अपने बीते दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि मैं यहाँ छात्र रहा हूँ। जिन दिनों मैं यहाँ पढ़ता था हमें नहाने के लिये सिर्फ एक बाल्टी पानी दिया जाता था। हम बाल्टियों में पानी भरकर ले जाते थे।हालांकि अब मोटर लग गई है और बाल्टियों में पानी भरकर ले जाने की जरूरत नहीं है।

लेकिन नेत्रावती के खारे पानी की समस्या सुधरने की बजाय बिगड़ती ही जा रही है। दशकों पहले नदी का पानी मार्च के बाद ही समुद्र का पानी नदी की तरफ आ जाता था और नदी का पानी खारा हो जाता था। लेकिन जब से थुम्बे बाँध बना है नदी का पानी कभी-कभी जनवरी से पहले भी खारा हो जाता है।

चर्च में पीने और खाना बनाने के लिये पानी आसपास के दूसरे स्रोतों से लाया जाता है लेकिन वह भी बहुत विश्वसनीय नहीं है। इस बात की पूरी सम्भावना है कि भविष्य में पानी की समस्या और विकराल होगी। इस समस्या से निपटने के लिये चर्च ने एक और 25 हजार लीटर का अतिरिक्त टैंक बना लिया है। चर्च के पदाधिकारियों का कहना है कि जिस दिन हमें लगेगा कि अब पानी का कोई और स्रोत हमारे पास नहीं बचा हम वर्षाजल को इस टैंक की तरफ मोड़ देंगे।

इन प्रयासों से उनके लिये सबसे बड़ा सबक यही है कि वर्षाजल की एक बूँद भी बर्बाद मत होने दो। अगर उस पानी को पीने के लिये नहीं सहेज सकते तो बाकी दूसरे कामों के लिये इस जल को संरक्षित करो। यह प्रयोग दूसरे लोग भी कर सकते हैं। वर्षाजल का इस्तेमाल भूजल और बिजली दोनों की बचत करेगा।

मलनाड इलाके में टांका के जरिए वर्षाजल संरक्षण का यह सम्भवत: इकलौता उदाहरण है लेकिन इसे पूरे तटीय कर्नाटक में इस्तेमाल किया जा सकता है। मलनाड इलाके में पीने के पानी का जबरदस्त संकट रहता है। हर साल जिला प्रशासन पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिये अच्छी खासी धनराशि खर्च करता है। बड़े औद्योगिक घराने, व्यावसायिक संस्थान चाहें तो बहुत कम खर्चे में अपने लिये मीठे पानी का इन्तजाम कर सकते हैं।

अगर कोई 60 हजार लीटर का टांका बनाता है तो साल में 4 लाख से 6 लाख लीटर पानी इकट्ठा कर सकता है। भले ही वर्षा बहुत होती हो लेकिन पानी का संरक्षण न किया जाये तो वर्षाजल बहकर दूर समंदर में समा जाता है। इसके लिये जनता में भी जागरण पैदा करना चाहिए ताकि वो अपना पानी संरक्षित कर सके।

अच्छी बात ये है कि जिला प्रशासन को भी अब ये बात महसूस हो रही है कि भले ही यह वर्षा क्षेत्र हो लेकिन पानी का संकट दूर करना है तो वर्षाजल को संरक्षित करने के अलावा और कोई उपाय नहीं है। अब गाँवों और विद्यालयों में सरकारी योजनाओं के तहत वर्षाजल संरक्षण की योजनाएँ लागू की जा रही हैं। आज के प्रयास निश्चित रूप से स्वागत योग्य हैं लेकिन दशकों पहले चर्च के उपाय की उपयोगिता को कम करके नहीं आँका जा सकता।


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क्यों बारहमासी हो गया जल रुदन (Perennial water crisis in India)

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क्यों बारहमासी हो गया जल रुदन (Perennial water crisis in India)UrbanWaterThu, 10/12/2017 - 16:45

पानीपानीसमाचार कह रहे हैं कि अभी चौमासा बीता भी नहीं कि देश के कई हिस्सों से पानी की कमी को लेकर रुदन शुरू हो गया है। देश के कई बड़े तालाब व झीलों ने अभी से पानी की कमी के संकेत देने शुरू कर दिये हैं। हकीकत यह है कि पानी को लेकर रुदन चौमासे से पहले भी था, चौमासे के दौरान भी और अब आगे यह चौमासे के बाद भी जारी रहने वाला है। यह अब बारहमासी क्रम है; मगर क्यों? आइए, सोचें।

मौसम विभाग कह रहा है कि इस रुदन का मुख्य कारण भारत के 59 फीसदी हिस्से में पिछले वर्ष की तुलना में कम बारिश का होना है। पंजाब, हरियाणा से लेकर ओड़िशा, केरल और अंडमान तक तथा उत्तराखण्ड, यूपी से लेकर पूर्वोत्तर भारत के कई इलाकों में औसत के 08 से लेकर 36 प्रतिशत तक कम बारिश हुई है।

अध्ययनकर्ता कह रहे हैं कि कहीं पानी की कमी, तो कहीं डूब का यह संकट आसमान से नहीं बरसा; इसे बड़े बाँधों और पानी का व्यावसायीकरण करने वाली कम्पनियों ने मिलकर पैदा किया है। 37,500 हेक्टेयर भूमि सरदार सरोवर बाँध की डूब में आने के कारण रो रही है, तो 40,000 किसान अपनी जड़ों से बेदखल कर दिये जाने के कारण रो रहा है। नर्मदा किनारे के 12,000 मछुआरे इसलिये रो रहे हैं कि प्रधानमंत्री श्री मोदी जी द्वारा डाली भटभुट बाँध की नींव उनकी आजीविका पर कुठाराघात की नींव साबित होगी।

कुछ आरोप लगा रहे हैं कि आर.ओ. और बोतलबन्द कम्पनियों की मिलीभगत के कारण कई नगरों में जलापूर्ति के अवधि अभी से घटा दी गई है। आपूर्तिकर्ता स्थानीय निकायों द्वारा आपूर्ति किये जल में सीवेज की दुर्गन्ध और गन्दगी की अनदेखी लोगों को पीने और रसोई के लिये बोतलबन्द पानी खरीदने को विवश कर रही है। बीते कुछ महीनों में दिल्ली जल बोर्ड की आपूर्ति की गुणवत्ता, बोतलबन्द पानी की बढ़ती बिक्री और ई-प्याऊ का बढ़ता चलन इसका प्रमाण है।

किसान की सुनो (Listen to farmer)


किसान कह रहा है - ''भैया, सिर्फ कुछ कम पानी बरसने से किसान नहीं रोता; किसान रोता है गलत समय पर वर्षा होने या न होने से। हम सब 20 जून से ही तैयारी किये बैठे थे; पहली फुहार गिरी 04 जुलाई को। धान की रोपाई 15 जुलाई तक हो जानी थी। 10-12 जून को अच्छी बारिश हुई। हमने रोपाई भी कर दी। किन्तु इसके बाद अगले 20 दिन बारिश ऐसे गायब हुई, जैसे गधे के सिर से सींग। पाँच मिनट कभी बरस भी गया, तो उसने उमस और खरपतवार बढ़ाने के अलावा क्या किया?

धरती से पानी खींचकर किसी तरह धान बचाया, तो खेतों में मूँग, उड़द और तिल से ज्यादा खर-पतवार की बढ़वार दिखाई दी। दिन-रात मेहनत कर खर-पतवार से निजात पाई। जितनी फसल नहीं होगी; उतनी तो श्रम लागत चली गई। आषाढ़ में तेज बारिश और सावन में धीमी वर्षा की झड़ी का चलन रहा है। किन्तु इस जून 15 से 25 जून के बीच फसल में फूल आने के ऐन मौके पर ऐसी बारिश हुई कि ज्यादातर फूल बारिश में बह गए। फसल क्या होती, खाक!

खरीफ की ज्यादातर फसलों को तैयार होने में कम-से-कम तीन महीने तो चाहिए ही होते हैं। फसलों के लिये भादों की काली घटाएँ जरूरी होती हैं। यह भी ख्याल रहे कि यदि तेज धूप आश्विन से पहले आ गई, तो फसल समय से पहले पक जाएगी; दाने अविकसित और कमजोर रह जाएँगे। इस साल यही हुआ। इस साल अगस्त अन्त में ही कास में फूल आ गए। कास फूलना, बारिश की विदाई का संकेत है; लिहाजा, तेज धूप ने सितम्बर मध्य में ही फसल पका दी। नतीजा यह हुआ कि फसलों में फलियाँ थीं, किन्तु दाने बेहद कमजोर और इतने हल्के कि कई किसानों ने उसकी कटाई-पिटाई में मेहनत लगाने से अच्छा उसे खेत में जुतवा देना ही बेहतर समझा।

पिछली साल फसल तैयार होने पर तीन दिन लगातार ऐसा पानी बरसा था कि दाने फसल में लगे-लगे ही सड़ गए थे। इस साल रही-सही कसर ‘नेफेड’ ने पूरी कर दी। सरकार से उड़द का न्यूनतम बिक्री मूल्य रुपए 5200 प्रति क्विंटल तय घोषित किया। ‘नेफेड’ ने ऐन मौके पर रुपए 4000 प्रति क्विंटल की दर से अपना पिछला स्टाॅक बाजार में उतार दिया। ऐसे में किसान की उड़द न्यूनतम बिक्री मूल्य पर कौन खरीदता? किसान, रुपए 3200 से 3400 रुपए प्रति क्विंटल उड़द बेचने को विवश हुआ। अब बताइए कि किसान रोेये न तो क्या करे?''

अनुचित नजरिया (Unfair treatment)


दुर्भाग्यपूर्ण है कि जल रुदन करने वालों के आँसू पोछने के नाम पर बिहार की सरकार हर वर्ष बाढ़ राहत बाँटने में रुचि रखती है, तो छत्तीसगढ़ सरकार ने किसानों को सूखा बोनस देने का शिगूफा छेड़ा है। अखिलेश यादव ने गत वर्ष बुन्देलखण्ड में दूध और घी बाँटकर सूखा राहत का नगाड़ा पीटा। मोदी जी ने सरदार सरोवर बाँध की ऊँचाई को डेढ़ गुना से अधिक कर देने में सब समाधान देखा; साथ ही बाँध लोकापर्ण अभिभाषण में यह धमकी भी दी कि सरदार सरोवर बाँध के काम में बाधा डालने वालों का कच्चा चिट्ठा उनके पास है। किसी लोकतंत्र में किसी प्रधानमंत्री द्वारा दी यह धमकी कितनी लोकतांत्रिक है; आप सोचें।

वर्षाजल संचयन की अनदेखी क्यों? (Why rain water harvesting ignore?)


मेरा कहना है कि यह सही है कि कभी कम तो कभी अधिक वर्षा, वर्षा वितरण में गड़बड़ी और अनिश्चितता, बाँध, खनन, बैराज, पानी व्यावसायीकरण और हमारी सरकारों की कुनीतियों आदि ने मिलकर भारत में पानी के लिये रोने का माहौल तैयार कर दिया है। यहाँ मौलिक प्रश्न यह है कि समाधान पेश करते हम यह क्यों भूल जाते हैं कि भारत में अभी भी दुनिया के कई देशों से ज्यादा बारिश होती है; कमी है तो सिर्फ यह कि भारत अपनी खोपड़ी पर बरसे पानी का मात्र 15 प्रतिशत ही संचित कर पा रहा। शहरीकरण की अंधी दौड़ में शामिल होकर भारत लम्बी उम्र जी चुके लाखों पेड़ों, जल संरचनाओं, छोटी वनस्पति और वन्य जीव विविधता का नाश करने में लगा है, सो अलग।

सच्चाई यह है कि भारत में वर्षाजल संचयन का यह आँकड़ा जैसे ही कुल वर्षाजल के 40 प्रतिशत के आसपास पहुँचेगा, जल रुदन के ज्यादातर कारण स्वतः समाप्त हो जाएँगे। मृदा अपरदन पर नियंत्रण भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं। दूसरे मोर्चे पर देखें तो भारत की धरती पर हरियाली और कार्बन अवशोषण की अन्य प्रणालियों की उपस्थिति जैसे-जैसे बढ़ती जाएगी, तापमान वृद्धि और मौसम में बदलाव का खतरा उसी रफ्तार से कम होता जाएगा। निस्सन्देह, कार्बन उत्सर्जन की रफ्तार और आवश्यकता से अधिक उपभोग पर लगाम लगाना तो जरूरी है ही।

क्या कोई सुनेगा? (Will any listen)


भारत के प्रधानमंत्री, सभी राज्यों के सिंचाई मंत्रियों तथा खुद हर जल उपभोक्ता को समझना होगा कि बड़े बाँध और नदी जोड़ परियोजना जैसे कदम ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसे नारे का समर्थन नहीं करते। ये कदम, कुछ के विनाश की कीमत पर अन्य के विकास के हामी है। सैंड्रप के सूत्र बताते हैं कि बिजली मंत्रालय की संयुक्त सचिव अर्चना अग्रवाल ने नए बिजली मंत्री श्री आर के सिंह को कुर्सी सम्भालने के अगले दिन ही एक प्रस्तुति के माध्यम से बताया - ''सर, मंत्रालय को समझना चाहिए कि जलविद्युत परियोजनाएँ व्यावहारिक नहीं है।... हमें सम्पूर्णता में देखना होगा।''क्या कोई सुनेगा?

उपभोक्ता अपने हाथ में ले जल प्रबन्धन (Consumers take their own water management)


पानी के मामले में इस वक्त सबसे ज्यादा सुनवाई बिजली-पानी कम्पनियों और कर्जदाता एजेंसियों की है। यदि मैं कहूँ कि अब भारत के पानी प्रबन्धन की सरकारी योजना इन्हीं के निर्देश पर बनाई जाती है, तो गलत न होगा। खामियाजा हम सभी देख ही रहे हैं। अब समय आ गया है कि हम चेतें; समझें कि बड़ी जल संरचना का मतलब है बड़ा खर्च, कर्ज, बड़ा खतरा और परावलम्बन; छोटी जल संरचना का मतलब है छोटा खर्च, न्यूनतम खतरा और स्वावलम्बन। किसी जोहड़, एनीकेट और मेड़बंदी के कारण किसी बड़े विनाश की खबर आपने कभी नहीं सुनी होगी; जबकि बाँध, बैराज और तटबन्धों के कारण मौत, विस्थापन, बेरोजगारी, रुदन और आक्रोश के किस्से अब भारत में आम हैं। मैं फिर लिखता हूँ कि यदि बाँधों से ही जल संकट का समाधान सम्भव होता, तो महाराष्ट्र में पानी की कमी के कारण मौतें कभी न होतीं।

वक्त आ गया है कि जल उपभोग करने वाले हम, सरकार की ओर ताकना छोड़कर अपने पानी का प्रबन्धन खुद अपने हाथ में ले लें। इस मामले में हम उपभोक्ताओं को अपनी क्षमता पर शंका करने का कोई प्रश्न ही नहीं है। जरूरत है तो उचित और एकजुट पहल की। उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कच्छ से लेकर दक्षिण भारत तक उठाकर देख लीजिए; तमाम उलटबासियों के बावजूद, भारत के जो भाग आज भी पानी के मामले में सुखी हैं, वहाँ के समुदायों ने यही किया है। यह वक्त का तकाजा भी है और बारहमासी होते रुदन से निजात का रास्ता भी।


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पहाड़ की विरासत - नौला-धारा (Heritage of pahad : Naula-Dhara)

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पहाड़ की विरासत - नौला-धारा (Heritage of pahad : Naula-Dhara)UrbanWaterWed, 10/18/2017 - 16:06
Source
इण्डिया वाटर पोर्टल (हिन्दी)



हिमालयी क्षेत्र सदियों से पानी, पहाड़ों, नदियों, जलवायु, जैवविविधता एवं वृहत्त सांस्कृतिक विविधता का मूल रहा है। लेकिन गंगा-यमुना नदियों का उद्गम स्थल उत्तराखण्ड, जो समस्त उत्तर भारत को सिंचता है, आज खुद प्यासा है।यहाँ पानी का मुख्य माध्यम प्राकृतिक जल स्रोत है। जो वनाच्छादन की कमी, वर्षा का अनियमित वितरण एवं अनियंत्रित विकास प्रक्रिया के कारण सूखते जा रहे हैं। ऐसे में जब जलागम की पाइप लाइनें, स्वजल द्वारा लगाए गए हैण्डपम्प से पानी मिलना बन्द हो जाता है, तब लोगों का ध्यान प्राकृतिक स्रोतों की ओर जाता है। जो आज मरणासन्न की स्थिति में हैं।

उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल, अल्मोड़ा, बागेश्वर जिलों में चिराग संस्था के माध्यम से एवं अर्घ्यम, एक्वाडेम, पीएसआई सस्थाओं के सहयोग से प्राकृतिक जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने का काम किया जा रहा है। इस काम में स्थानीय लोगों की भागीदारी को बढ़ाने के साथ महिला नेतृत्व आधारित जल समितियों का निर्माण किया गया है। जिसके माध्यम से नौले के जलग्रहण क्षेत्र में खाल, चेकडैम, कन्टूर ट्रेंच, एवं वृक्षारोपण का काम किया जा रहा है। इसके साथ ही जल की गुणवत्ता की जाँच एवं भूजल प्रबन्धन, एवं स्रोत सम्बन्धित जागरुकता बढ़ाने का काम किया जा रहा है। संस्था द्वारा पिछले कुछ सालों मेें लगभग 53 जल समितियों के माध्यम से 90 से अधिक जल स्रोतों पर काम किया गया। जिनमें जनसहयोग एवं जनभागीदारी के माध्यम से नौलों, पनेरों और धारों पर गाँवोें में जल संवाद स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। जंगलों में वृक्षारोपण, वनाग्नि, पर्यावरण संरक्षण आदि के कार्यों को समिति के माध्यम से किया जा रहा है।

प्रस्तुत डाक्यूमेंट्री में प्राकृतिक जल स्रोत की उपयोगिता के साथ उनकी वर्तमान दशा एवं उस क्षेत्र में किये गए सामुदायिक प्रयासों को दिखाने का प्रयास किया गया है।

विशेष आभार- श्री केसर सिंह, चिराग संस्था
निर्माता- इण्डिया वाटर पोर्टल (हिन्दी)
निर्देशक - डाॅ. मुकेश बोरा
शोध एवं कैमरा- वैशाली मांगलिया, मृदुल पांडगरे
सम्पादन- विवेक पांडे


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प्रदूषण से बढ़ती मौतें (Pollution causing more deaths)

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प्रदूषण से बढ़ती मौतें (Pollution causing more deaths)UrbanWaterSat, 10/21/2017 - 16:07

वायु प्रदूषणवायु प्रदूषणलांसेट मेडिकल जर्नल की रिपोर्ट को मानें तो भारत की आबो-हवा इतनी दूषित हो गई है कि सर्वाधिक मौतों का कारण बन रही है। इस रिपोर्ट के मुताबिक 2015 में भारत में करीब 25 लाख लोगों की मौत प्रदूषण जनित बीमारियों की वजह से हुई है। विश्व के अन्य किसी देश में इतनी मौतें प्रदूषण के कारण नहीं हुई है।

भारत के बाद चीन का स्थान है, यहाँ 18 लाख लोग प्रदूषण से मरे हैं। इस शोध से पता चला है कि प्रदूषण से हुई मौतों में से अधिकांश मौतें असंक्रामक रोगों से हुई हैं। इनमें दिल व हृदयाघात, मधुमेह, रक्तचाप, अस्थमा, दमा और फेफड़ों में कैंसर जैसे रोग शामिल हैं।

प्रदूषण जनित बीमारियों और देख-रेख का खर्च भी बहुत अधिक है। हर साल करीब 46 खरब डॉलर का नुकसान इसके कारण होता है। यह विश्व अर्थव्यवस्था का 6.2 प्रतिशत है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान नई दिल्ली व इकहान स्कूल ऑफ मेडिसीन के अध्ययन के अनुसार 92 प्रतिशत मौतें निम्न व मध्य आमदनी वाले देशों में होती हैं। जिनमें भारत भी शामिल है। हालांकि इन रिपोर्टों के आँकड़े कितने विश्वसनीय हैं, एकाएक कुछ कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि एक ही समय विरोधाभासी रिपोर्टें भी आई हैं।

इसके पहले अमेरिकी संस्था ‘हेल्थ इफेक्टस इंस्टीट्यूट‘ (एचईआई) के शोध के अनुसार दुनिया में वायु प्रदूषण के चलते 2015 में लगभग 42 लाख लोग अकाल मौत मरे हैं। इनमें से 11 लाख भारत के और इतने ही चीन के हैं। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि दुनिया की करीब 92 प्रतिशत आबादी प्रदूषित हवा में साँस ले रही है। नतीजतन वायु प्रदूषण दुनिया में पाँचवाँ मौत का सबसे बड़ा कारण बन रहा है।

चिकित्सा विशेषज्ञ भी मानते हैं कि वायु प्रदूषण कैंसर, हृदय रोग, क्षय रोग, अस्थमा, दमा और साँस सम्बन्धी बीमारियों का प्रमुख कारक है। चीन ने इस समस्या से निपटने के लिये देशव्यापी उपाय शुरू कर दिये हैं, वही भारत का पूरा तंत्र केवल दिल्ली की हवा शुद्ध करने में लगा है। उसमें भी सफलता नहीं मिल रही है। न्यायालय ने वायु और ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण के लिये दिल्ली एवं एनसीआर क्षेत्र में पटाखों की बिक्री पर रोक लगाई थी, लेकिन इस पर कार्यपालिका शत-प्रतिशत अमल नहीं कर पाई।

आईआईटी कानपुर के एक अध्ययन के अनुसार 30 प्रतिशत प्रदूषण देशभर में डीजल पेट्रोल से चलने वाले वाहनों से होता है। इसके बाद 26 प्रतिशत कोयले के कारण हो रहा है। दिवाली पर चलने वाले पटाखों से महज 5 फीसदी ही प्रदूषण होता है। पर्यावरण संरक्षण के लिये काम करने वाली संस्था ग्रीनपीस का मानना है कि 12 लाख भारतीय हर साल वायु प्रदूषण के कारण मरते हैं। यह रिपोर्ट देश के 168 शहरों की वायु की गुणवत्ता का आकलन करके तैयार की गई है। सबसे ज्यादा हानिकारक वाहनों से निकलने वाला धुआँ होता है। इससे निकली गैसें और कण वातावरण में प्रदूषण की मात्रा को 40 से 60 प्रतिशत तक बढ़ा देते हैं।

भारत में ध्वनि प्रदूषण के लिये भारी और हल्के वाहनों की बड़ी संख्या भी जिम्मेवार हैं। ध्वनि प्रदूषण का सामान्य स्तर 50 डेसिबल होता है। लेकिन भारत में इसका स्तर 100 डेसिबल तक है। दिन में यह प्रदूषण 75 डेसिबल बना रहता है, जो कान और मस्तिष्क के लिये बेहद खतरनाक है। कार का हॉर्न 110 डेसिबल ध्वनि उत्पन्न करता है, जो सामान्य ध्वनि से दोगुनी है। 130 से 135 डेसिबल की ध्वनि से शरीर में दर्द, घबराहट और उल्टी की शिकायत बन जाती है। लम्बे समय तक 150 डेसिबल ध्वनि तरंगें यदि शरीर से टकराती हैं तो ये मनुष्य की धड़कनें बड़ा देती हैं। इससे रक्तचाप बढ़ने का खतरा खड़ा हो जाता है।

भारत में जो जल उपलब्ध है, उसका 80 प्रतिशत हिस्सा प्रदूषित है। हैरानी में डालने वाली यह जानकारी वाटर एड नामक संस्था ने दी है। पानी में इस प्रदूषण का कारण देश में बढ़ता शहरीकरण और औद्योगिकीकरण है। आबादी का घनत्व भी जल प्रदूषण को बढ़ाने का काम कर रहा है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट के मुताबिक भारत की आर्थिक राजधानी मुम्बई में प्रति वर्ग किमी 31,700 लोग रहते हैं। शहरों पर इस तरह से आबादी का बोझ बढ़ना विकास के असन्तुलन को दर्शाता है। इस कारण अपशिष्ट पदार्थ नदियों, नहरों, तालाबों व अन्य जलस्रोतों में बहाए जा रहे हैं। इससे जल में रहने वाले जीव-जन्तुओं और पौधों पर तो बुरा प्रभाव पड़ता ही है, इन स्रोतों का जल पीने योग्य भी नहीं रह जाता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का मानना है कि जल प्रदूषण में 75 से 80 फीसदी भूमिका घरों से सीवेज के जरिए निकलने वाले मल-मूत्र की है।

केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड देश के 121 शहरों में वायु प्रदूषण का आकलन करता है। इसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक देवास, कोझिकोड व तिरुपति को अपवाद स्वरूप छोड़कर बाकी सभी शहरों में प्रदूषण एक बड़ी समस्या के रूप में अवतरित हो रहा है। इस प्रदूषण की मुख्य वजह तथाकथित वाहन क्रान्ति है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का दावा है कि डीजल और केरोसिन से पैदा होने वाले प्रदूषण से ही दिल्ली में एक तिहाई बच्चे साँस की बीमारी की जकड़ में हैं। 20 फीसदी बच्चे मधुमेह जैसी लाइलाज बीमारी की चपेट में हैं। इस खतरनाक हालात से रूबरू होने के बावजूद दिल्ली व अन्य राज्य सरकारें ऐसी नीतियाँ अपना रही हैं, जिससे प्रदूषण को नियंत्रित किये बिना औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिलता रहे। यही कारण है कि डीजल वाहनों का चलन लगातार बढ़ रहा है।

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 31 अक्टूबर 2016 को जारी एक शोध रिपोर्ट के अनुसार लगभग 30 करोड़ बच्चे बाहरी वातावरण की इतनी ज्यादा विषैली हवा के सम्पर्क में आते हैं कि उससे उन्हें गम्भीर शारीरिक दुष्प्रभाव झेलने पड़ते हैं। उनके विकसित हो रहे मस्तिष्क पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। दुनिया में 7 में से 1 बच्चा ऐसी बाहरी हवा में साँस लेता है, जो अन्तरराष्ट्रीय मानकों से कम-से-कम 6 गुना अधिक दूषित है। इस रिपोर्ट के मुताबिक यूनिसेफ के कार्यकारी निदेशक एंथनी लेक ने दावा किया है कि हर साल पाँच साल से कम उम्र के 6 लाख बच्चों की मौत वायु प्रदूषण से हो जाती है। प्रदूषणकारी तत्व न केवल बालकों के फेफड़ों को नुकसान पहुँचाते हैं, बल्कि उनके मस्तिष्क को भी स्थायी नुकसान पहुँचा सकते हैं।

यूनिसेफ ने सेटेलाइट इमेजरी का हवाला देकर लगभग 2 अरब बच्चों के ऐसे दूषित क्षेत्रों में रहने का दावा किया है, जहाँ बाहरी वातावरण की हवा विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों से कहीं अधिक खराब है। रिपोर्ट में बताया गया है कि वाहनों से निकलने वाला धुआँ, जीवाश्म ईंधन, धूल, जली हुई सामग्री के अवशेष और अन्य वायु व जलजनित प्रदूषक तत्वों के कारण हवा जहरीली होती है। ऐसे प्रदूषित वातावरण में रहने को मजबूर सर्वाधिक बच्चे दक्षिण एशिया में रहते हैं। इनकी संख्या लगभग 62 करोड़ है। इसके बाद अफ्रीका में 52 करोड़ और पश्चिम एशिया व प्रशान्त क्षेत्र में प्रदूषित इलाकों में रहने वाले बच्चों की संख्या 45 करोड़ है।

यूनिसेफ के शोध में घरों के भीतर जो वायु प्रदूषण के कारक हैं, उनकी भी पड़ताल की गई है। भोजन पकाने और गरम करने के लिये कोयला, केरोसिन और लकड़ी के जलाने से घर के भीतर यह प्रदूषण फैलता है। इसके बच्चों के सम्पर्क में आने से निमोनिया और साँस लेने सम्बन्धी रोग पैदा होते हैं। 5 साल से कम उम्र के 10 बच्चों में से एक की मौत की वजह यही प्रदूषणजनित रोग होता है। घरेलू वायु प्रदूषण से बच्चे ज्यादा प्रभावित होते हैं, क्योंकि इस समय उनके फेफड़े, मस्तिष्क और रोग-प्रतिरोधक क्षमता विकसित अवस्था में होते हैं और उनका श्वसन तंत्र कमजोर होता है। साफ है, वायु प्रदूषण बच्चों की सेहत के लिये गम्भीर खतरे के रूप में उभरा है।

दुनिया अब तक यह मानकर चल रही है कि वाहनों से होने वाले प्रदूषण को कम करने में पेड़-पौधे अहम भूमिका निभाते हैं, क्योंकि ये अपने भोजन बनाने की प्रक्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं और प्राणवायु अर्थात ऑक्सीजन छोड़ते हैं। यह बात अपनी जगह सही है, लेकिन नए शोध से जो तथ्य सामने आया है वह चौंकाने वाला है। दरअसल बढ़ते वायु प्रदूषण से पेड़-पौधों में कार्बन सोचने की क्षमता घट रही है। वाहनों की अधिक आवाजाही वाले क्षेत्र में कार्बन सोखने की पेड़ों की क्षमता 36.75 फीसदी रह गई है। यह हकीकत देहरादून स्थित वन अनुसन्धान संस्थान के ताजा अध्ययन से सामने आई है।

जलवायु परिवर्तन व वन प्रभाव आकलन श्रेणी के वैज्ञानिक डॉ. हुकूम सिंह के मुताबिक वाहनों के प्रदूषण से पेड़-पौधों पर पड़ रहे असर को जानने के लिये ‘फोटो सिंथेसिस एनालाइजर‘ से कार्बन सोखने की स्थिति का पता लगाया गया है। इससे पता चला कि पौधों की पत्तियाँ अधिक प्रदूषण वाले क्षेत्रों में प्रदूषण से ढँक गई हैं। ऐसी स्थिति में पत्तियों के छिद्र बन्द पाये गए जिनके माध्यम से पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया कर कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं। ऐसे में जंगलों का घटना वायु प्रदूषण को और बढ़ाने का काम करेंगे। दरअसल भारत को प्रदूषण मुक्त बनाना है तो विकास का ग्रामों की ओर विकेन्द्रीकरण करना होगा।


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बिहार बाढ़ - राहत देने में भेदभाव और भ्रष्टाचार (Bihar floods - discrimination and corruption in relieving)

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बिहार बाढ़ - राहत देने में भेदभाव और भ्रष्टाचार (Bihar floods - discrimination and corruption in relieving)UrbanWaterSun, 10/22/2017 - 15:38

बाढ़ तो उतर गई लेकिन संकट नहींबाढ़ तो उतर गई लेकिन संकट नहींबिहार में बाढ़ के बाद जलजनित बीमारियों की महामारी फैलने की हालत है। हर दूसरे घर में कोई-न-कोई बीमार है। लेकिन स्वास्थ्य और स्वच्छता के इन्तजाम कहीं नजर नहीं आते। इस बार बाढ़ के दौरान बचाव और राहत के इन्तजामों में सरकार की घोर विफलता उजागर हुई। बाढ़ पूर्व तैयारी कागजों में सीमटी नजर आई तो बाढ़ के बाद सरकारी सहायता और मुआवजा देने में सहज मानवीय संवेदना के बजाय कागजी खानापूरी का जोर है।

यह दयनीय स्थिति कुछ गैर सरकारी संगठनों द्वारा छोटे से सर्वेक्षण से उजागर हुई है जो सर्वाधिक बाढ़ग्रस्त अररिया और किशनगंज जिलों के छोटे से इलाके में संचालित की गई। गाँवों में पेयजल उपलब्ध कराने और स्वच्छता का कोई इन्तजाम नहीं किया गया है। लोग बाढ़ के गन्दले पानी वाले चापाकलों का इस्तेमाल कर रहे हैं। कहीं भी क्लोरीन की टीकिया नहीं बँटी। कहीं भी ब्लीचिंग पाउडर या डीडीटी आदि का छिड़काव नहीं हुआ।

शौचालयों के अभाव में महिलाओं में असुरक्षा की भावना है, तो गन्दगी फैलने से बीमारियों का अंदेशा अलग से है। कहीं भी चिकित्सा शिविर की व्यवस्था नहीं हुई। जहाँ पीएचसी हैं वहाँ भी उन तक पहुँचने के रास्ते टूट जाने से बेकार हैं। सर्वेक्षण टोली 63 गाँवों में गई, उनमें 20 गर्भवती महिलाएँ मिलीं जिन्हें तत्काल चिकित्सा सहायता की जरूरत है।

राहत सामग्री का वितरण जितना भी हुआ, आमतौर पर पंचायतीराज संस्थानों के सदस्यों के माध्यम से हुआ और इसमें स्थानीय स्तर पर दबंग समुदायों की चली। अधिकतर राहत वितरण केन्द्र दबंग समुदायों के इलाके में थे। राहत की पात्रता के बारे में भ्रम फैलाए गए और आधार कार्ड, वोटर कार्ड या राशन कार्ड माँगे गए। दलित, आदिवासी और मुसलमानों के साथ भेदभाव के मामले बहुत ही प्रछन्न रहे। उल्लेखनीय है कि किशनगंज और अररिया जिलों में दलित और मुसलमान के अलावा आदिवासी आबादी भी अच्छी खासी है। दलित वाच के राजेश कुमार बताते हैं कि मृतकों को घोषित मुआवजा देने में विभिन्न कागजात माँगे जा रहे हैं, इसलिये इसका लाभ पीड़ित लोगों को नहीं मिल पा रहा।

दोनों जिलों के सात प्रखण्डों के 24 पंचायतों के 63 गाँवों में 31 अगस्त से 12 सितम्बर के बीच सर्वेक्षण किया गया। नेशनल दलित वाच, नेशनल कैम्पेन ऑन दलित ह्यूमन राइट, आल इण्डिया दलित महिला अधिकार मंच और जन जागरण शक्ति संगठन की साझा सर्वेक्षण टोली जिन गाँवों में गई उनमें से किसी में भी सरकारी बचाव दल नहीं पहुँचा था। नुकसानों का जायजा लेने के लिये भी कोई टीम नहीं आई। सर्वेक्षण के दौरान मिली जानकारी का निचोड़ है कि बाढ़ आने के तीन-चार दिन बाद तथाकथित राहत कैम्प खोले गए और उन्हें दो तीन-दिन में बन्द भी कर दिया गया।

बाढ़ में फँसे लोगों को बचाकर शरणस्थल तक ले जाने का कोई इन्तजाम नहीं था। कुछ लोगों ने केले के तने से बने नावों का सहारा लिया, कुछ ने निजी नावों को भाड़ा देकर बाढ़ के पानी से बाहर निकलने का इन्तजाम किया। कुछ पैदल चलते हुए, डूबते-उतराते हुए ऊँची जगह पर पहुँचे। राहत कैम्पों को तथाकथित कहने का आशय यह है कि राहत वितरण करने की जगह को ही राहत शिविर कहा गया, पीड़ितों को आश्रय देने का कोई इन्तजाम वहाँ नहीं था। वैसे राहत कैम्पों का विवरण सरकारी तौर पर उपलब्ध जानकारी में नहीं दी गई है। अधिकतर लोगों ने आरम्भिक तीन चार दिन बाढ़ के पानी में गुजारे। बिहारी टोला के आदिवासी निवासियों ने बताया कि वे स्वयं चलकर चार किलोमीटर दूर सड़क पर पहुँचे और वहाँ सात दिन बिताए। उनकी सहायता के लिये कोई नहीं आया।

इस छोटे से इलाके में बाढ़ से 105 जानें गईं जिसमें 71 मुसलमान और 17 दलित थे। लगभग 13 हजार मवेशी मारे गए जिसमें गाय, भैंस, बकरी, सुअर आदि शामिल हैं। जो मवेशी बचे हैं, उनमें भी बीमारियाँ फैल गई हैं। लगभग 70 प्रतिशत फसल बर्बाद हो गई है। करीब 30 प्रतिशत घर पूरी तरह नष्ट हो गए हैं। बाकी बहुत सारे घरों को व्यापक क्षति हुई है। बाढ़ में अधिकतर लोगों के घर में रखा अनाज नष्ट हो गया। राशन कार्ड नष्ट हो जाने से सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लाभ मिलने में भी कठिनाई हो रही है।

राहत के तौर पर मिलने वाले सूखे अनाज के पैकेट में ढुलाई खर्च के नाम पर वजन में कटौती की शिकायतें आम हैं। नुकसान के आकलन की सूची में नाम जोड़ने के लिये घूस माँगे जा रहे हैं। इन सबके अलावा बाढ़ के दौरान पूरे क्षेत्र में सभी प्रकार के कामकाज बन्द रहे। तकरीबन 10 से 15 दिनों का काम नष्ट हो गया है। लेकिन उसके बाद भी बहुत सीमित मात्रा में कामकाज होने के आसार हैं। इसलिये बड़े पैमाने पर मजदूरों का पलायन अवश्यम्भावी है।

सरकारी आँकड़ों से वस्तुस्थिति स्पष्ट नहीं होती, फिर भी उन पर गौर करने से कई चीजें स्पष्ट होती हैं। सरकारी आँकड़े के अनुसार इस बार राज्य के 19 जिलों में बाढ़ आई जिसमें 514 लोगों की जान चली गई। बचाव कार्यों कुल 52 टीमें लगाई गईं जिनमें एनडीआरएफ की 28, एसडीआरएफ की 16 और सेना की 7 टीमों को मिलाकर 2248 कर्मी बचाव कार्य में लगे। साथ ही कुल 280 नावें बचाव कार्यों में तैनात की गईं। बाढ़ प्रभावित इलाके का बड़ा फैलाव देखते हुए यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि बचाव कार्य की खानापूरी हुई, वास्तव में पीड़ित लोगों तक बचाव दल पहुँच ही नहीं पाया।

आँकड़ों के अनुसार, कुल 8 लाख 54 हजार 936 लोगों को बचाकर सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया गया, लेकिन राहत शिविरों में केवल 4 लाख 21 हजार 824 लोग रहे। तो प्रश्न स्वाभाविक है कि बाकी लोग कहाँ चले गए? वैसे कुल राहत शिविरों की संख्या और स्थान उपलब्ध नहीं है। सामुदायिक रसोई, सूखा राहत पैकेट के वितरण और मुआवजा आदि के ब्यौरा भी सरकारी तौर पर सार्वजनिक किया गया है। जिनमें प्रश्नों की गुंजाईश है।

सुरक्षित जगह जाते बाढ़ प्रभावितदिलचस्प यह है कि मुख्यमंत्री नीतिश कुमार राहत शिविरों की स्थिति का मुआयना करने पूर्णिया जिले में जिस शिविर में पहुँचे, वह आदिवासी बच्चियों का विद्यालय और छात्रावास है। उस दिन वहाँ उपस्थित एनएपीएम के महेन्द्र यादव बताते हैं कि वहाँ सड़क के किनारे शरण लिये लोगों को बुलाकर भीड़ जरूर इकट्ठा कर ली गई थी जो मुख्यमंत्री के वापस जाने के बाद छँट गई। महज यहीं नहीं, सरकारी तंत्र केवल तभी सक्रिय हुआ जब मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने हवाई सर्वेक्षण कर लिया। मुख्यमंत्री के तीन हवाई सर्वेक्षणों और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सर्वेक्षण के बाद हालत यह है कि राहत और मुआवजा की घोषणाओं को सरल तरीके से अमल में लाने के बजाय सरकारी अधिकारी विभिन्न प्रकार के दस्तावेज माँग रहे हैं।जिस बाढ़ में लोगों को अपनी जान और खाने का अनाज बचाना सम्भव नहीं हो पाया, उसमें विभिन्न दस्तावेज कैसे बच पाया होगा, इसे सोचने वाला कोई नहीं। दलित वाच के राजेश बताते हैं कि पीड़ित आबादी को तीन महीने का राशन देने की जरूरत है क्योंकि उनके पास खाने के लिये कुछ नहीं बचा।

उल्लेखनीय है कि इस बार बचाव और राहत कार्यों के बारे में राजधानी से निकलने वाले अखबारों में भी केवल खानापूरी हुई। हवाई दौरों की खबरें अधिक छपी, जमीनी हकीकत अखबारों से भी गायब रही। इसका एक कारण तो यह समझ आता है कि मुख्य विपक्षी पार्टी पहले से घोषित रैली की तैयारी में व्यस्त थी और पक्ष-विपक्ष के बीच दूसरे मामलों को लेकर आरोप-प्रत्यारोप चलते रहे।

गौरतलब है कि पूरे बाढ़ के दौरान केवल पप्पू यादव लोकसभा सदस्य समस्याग्रस्त इलाकों में देखे गए। इस बार की बाढ़ के दौरान हालत देखकर बरबस 2005 की बाढ़ की याद आती है जब राजनीतिक पार्टियों की ओर से राहत शिविर लगाए गए थे और बाढ़ पीड़ितों को खिचड़ी खिलाने की प्रतियोगिता सी चल रही थी। यूनिसेफ जैसी बड़ी गैर सरकारी संस्थाएँ भी सक्रिय थीं। कारण साफ था कि उस वर्ष विधानसभा के चुनाव होने वाले थे। बाद में भी नीतिश सरकार ने अपने कार्यकाल के पहले वर्ष बाढ़ग्रस्त इलाके के सभी गरीब परिवारों को दो क्विंटल चावल देने की घोषणा की जिस पर अमल भी हुआ क्योंकि सर्वोच्च स्तर से निगरानी हो रही थी। इस बार सन्नाटा छाया रहा है।

बहरहाल, बाढ़ पूर्व तैयारियों से लेकर सदा की भाँति इस साल भी विभिन्न दिशा-निर्देश जारी हुए थे। जमीनी स्तर पर कोई तैयारी नहीं देखकर एनएपीएम ने अप्रैल महीने से ही जारी सारे दिशा-निर्देशों और नियमावलियों को एकत्र कर एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करा दिया है। इससे हुआ यह है कि बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के लोगों को राहत और मुआवजा के बारे में अपने अधिकारों की जानकारी हो गई है। और राहत, मुआवजे की माँग लेकर जगह-जगह आन्दोलन आरम्भ हो रहे हैं। हालांकि स्थानीय स्तर पर आजीविका के अवसर नष्ट होने से कामकाजी आबादी इन आन्दोलनों के झंझट में पड़ने के बजाय दिल्ली-पंजाब जाने की जुगत में है। स्थानीय स्तर के सरकारी अधिकारी राहत और मुआवजे के बँटवारे की खानापूरी करने में लगे हैं। राहत और मुआवजे को लेकर प्रखण्ड अधिकारियों के साथ मारपीट की घटनाएँ हो रही हैं।


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बॉन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से बदलाव आएगा (Bonn Climate Change Conference)

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बॉन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से बदलाव आएगा (Bonn Climate Change Conference)RuralWaterMon, 11/06/2017 - 13:23

कॉप 23कॉप 23बॉन में 6 नवम्बर से आगामी 17 नवम्बर तक चलने वाले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से पर्यावरण में हो रहे प्रदूषण और कार्बन उर्त्सजन को कम करने की दिशा में दुनिया को खासी उम्मीदें हैं। हो भी क्यों न क्योंकि पेरिस सम्मेलन में दुनिया के तकरीब 190 देशों ने वैश्विक तापमान बढ़ोत्तरी को दो डिग्री के नीचे हासिल करने पर सहमति व्यक्त की थी।

दरअसल बॉन सम्मेलन का मकसद ही पेरिस में जिन मुद्दों पर सहमति बनी थी, उन पर अब क्रियान्वयन करने का है। यानी उसके क्रियान्वयन के लिये बॉन में पहल की जानी है। इसमें सबसे अहम यह है कि सन 2021 तक वैश्विक तापमान बढ़ोत्तरी को दो डिग्री के नीचे ही सीमित रखा जाये। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मौजूदा दौर में जिस तेजी से दुनिया चल रही है, उससे तापमान बढ़ोत्तरी 3 से 3.5 डिग्री तक होने की प्रबल आशंका है।

असलियत में यह समूची दुनिया के लिये बहुत बड़ा खतरा है जिससे निपटना बेहद जरूरी है। गौरतलब यह है कि पेरिस सम्मेलन में तापमान बढ़ोत्तरी की आदर्श स्थिति 1.5 डिग्री की सुझाई गई है। यदि दुनिया के देश ऐसा कर पाने में कामयाब हो पाते हैं तो यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी या इसे यदि यूँ कहें कि यह एक अजूबा होगा तो कुछ गलत नहीं होगा। वैसे मौजूदा हालात तो इसकी कतई गवाही नहीं देते। इसका सबसे बड़ा कारण है कि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा का खतरनाक स्तर तक पहुँच जाना है। यह खतरनाक संकेत है। इससे समूची दुनिया चिन्तित है।

इसीलिये बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र तक को इस बाबत चेतावनी देने को मजबूर होना पड़ा कि अगर जल्द कदम नहीं उठाए गए तो हालात भयावह होंगे जिनका मुकाबला कर पाना आसान नहीं होगा। दरअसल इस बाबत विश्व मौसम संगठन की वार्षिक रिपोर्ट को नजरअन्दाज करना तबाही को आमंत्रण देने जैसा ही है।

संगठन की इस वार्षिक रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि पेरिस जलवायु सम्मेलन में हुए समझौते में तय किये गए लक्ष्यों को हासिल करने के लिये तुरन्त प्रभावी कार्रवाई की जरूरत है। उसके अनुसार मानव गतिविधियों और मजबूत अलनीनो की वजह से कार्बन डाइऑक्साइड का वैश्विक स्तर 2015 के 400 पीपीएम से बढ़कर 2016 में रिकॉर्ड 403.3 पीपीएम तक पहुँच गया है। इसमें हो रही बढ़ोत्तरी पर अंकुश लगना समय की माँग है।

यदि कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों में त्वरित कटौती नहीं हुई तो सदी के अन्त तक तापमान बढ़ोत्तरी खतरनाक स्तर तक पहुँच जाएगी। इस बारे में विश्व मौसम संगठन के प्रमुख पेटरेरी टालास कहते हैं कि यह पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते के तहत तय किये गए लक्ष्य से ऊपर होगा। क्योंकि अब 50 लाख साल पहले जैसे हालात बन रहे हैं।

असल में पिछली बार धरती पर इस तरह के हालात 30 से 50 लाख साल पहले बने थे। उस समय समुद्र का स्तर आज के मुकाबले 20 मीटर ऊँचा था। इसलिये कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उर्त्सजन के स्तर को कम किये जाने की जरूरत है। क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा जितनी अधिक होगी, वायुमण्डल में ऊष्मा अवशोषित करने की क्षमता उतनी ही अधिक होगी।

कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अधिक होने पर वायुमण्डल में ऊष्मा जमा होने लगती है जिससे तापमान में बढ़ोत्तरी होती है। कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में ऊष्मा को बनाए रखती है। नतीजतन अधिक सर्दी नहीं पड़ती है। यही वजह है कि विश्व के तापमान में कमी लाने के लिये पेरिस में दुनिया के तकरीब 190 देशों ने पिछले साल किये समझौते में तय किया कि विकसित देश कार्बन उर्त्सजन के प्रसार में कमी लाएँगे व विकासशील देशों की मदद करेंगे।

असलियत यह है कि बॉन सम्मेलन में दुनिया के देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उर्त्सजन में कमी लाने के लिये अपने-अपने लक्ष्य घोषित करने होंगे। प्रत्येक पाँच साल में उनकी समीक्षा होगी। फिर नए सिरे से उनको निर्धारित किया जाएगा। खुशी की बात यह है कि दुनिया के 148 देश उत्सर्जन में कमी लाने के लिये तैयार हैं। लेकिन दुख इस बात का है कि अभी भी कुछेक देश इसके लिये तैयार नहीं हैं। और-तो-और अभी तक उन्होंने इसके लिये जरूरी लक्ष्य तक निर्धारित नहीं किये हैं।

यह बेहद चिन्तनीय है। जहाँ तक धनी देशों द्वारा गरीब देशों को इस खतरे से निपटने के लिये आर्थिक मदद देने के लिये 2020 तक 100 अरब डॉलर का हरित कोष बनाने का सवाल है, अभी तक इस कोष में बहुत कम राशि ही आ सकी है। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन से होने वाली क्षति को लेकर पेरिस में सहमति बनी थी लेकिन उसके लिये कैसा तंत्र स्थापित किया जाये इस बारे में अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका है।

इसी तरह जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिये गरीब और विकासशील देशों को कम कीमत पर तकनीक देने का सवाल है, इस पर भी अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका है, विकासशील और गरीब देशों को तकनीक मिलने की बात तो दीगर है। इसके लिये भी सर्वमान्य स्थापित तंत्र की जरूरत होगी।

कोयला आधारित ऊर्जा के स्थान पर सौर ऊर्जा और उद्योगों में अक्षय ऊर्जा के उपयोग के सवाल पर सहमति भी सबसे बड़ा मुद्दा है। क्योंकि दुनिया में खासकर अमेरिका में अक्षय ऊर्जा क्षेत्र ने रोजगार के अवसरों के मामले में जैव ईंधन क्षेत्र को पछाड़ दिया है। अक्षय ऊर्जा से सम्बन्धित उद्योगों में 2016 में पूरी दुनिया में तकरीब 81 लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया। यह अच्छा संकेत है। जाहिर है इसका भी निर्णय बॉन में होना है।

अब इतना तो साफ है और इसमें कोई सन्देह भी नहीं है कि दुनिया में कार्बन उत्सर्जन के मामले में अमेरिका शीर्ष पर है और दुनिया में कार्बन उर्त्सजन के मामले में उसकी हिस्सेदारी 16.4 टन है जबकि इस मामले में रूस का योगदान 12.4 टन, जापान 10.4 टन, चीन 7.1 टन, यूरोप 7.4 टन और भारत का योगदान 1.6 टन है। वह भले इसके क्रियान्वयन की दिशा में ना नुकुर करे, यह खुशी की बात है कि भारत, चीन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, कनाडा सहित दुनिया के अधिकांश देश अमेरिका की परवाह किये बिना पेरिस समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता स्पष्ट कर चुके हैं।

दिसम्बर 2016 में मराखेज में यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज की बैठक में तकरीब 200 देशों ने न केवल पेरिस समझौते का स्वागत किया बल्कि उन्होंने समझौते के क्रियान्वयन की दिशा में अपनी प्रतिबद्धता भी जाहिर की है। जी-7 के देशों के नेता भी इसका समर्थन कर चुके हैं।

अमेरिका के अन्दर भी ट्र्ंप प्रशासन पर दबाव है कि वह ग्लोबल वार्मिंग से लड़ाई में अपना सहयोग जारी रखे। यहाँ तक कि गूगल, इन्टेल, माइक्रोसॉफ्ट, नेशनल ग्रिड, नोवांटिस कॉरपोशन, शेल, यूनीलीवर, रियो टिंटो, वॉलमार्ट, एपल, बीपी, डूपोंट आदि जानी-मानी कम्पनियाँ भी इसके समर्थन में हैं और उन्होंने इस बाबत ट्रंप प्रशासन से पत्र लिखकर अपील भी की है कि वह पेरिस समझौते में अपना सहयोग जारी रखें। यही नहीं कैलीफोर्निया, न्यूयार्क, ओरेगन सहित वहाँ के नौ राज्यों के गवर्नरों, लॉस एंजिलिस, सैन फ्रांसिस्को, न्यूयार्क, सिएटल आदि महानगरों के मेयरों तक ने पेरिस समझौते का समर्थन किया है और ट्रंप प्रशासन से अनुरोध किया है कि वह पेरिस समझौते से खुद को अलग न करे। इससे बेरोजगारी में बढ़ोत्तरी होगी। संयुक्त राष्ट्र भी चेता चुका है कि पेरिस समझौते का समर्थन न करना आत्मघाती कदम होगा।

जहाँ तक भारत का सवाल है, भारत की प्रतिबद्धता तो पेरिस समझौते के अनुपालन की दिशा में जगजाहिर है। वह चाहे अक्षय ऊर्जा का क्षेत्र हो, एलईडी बल्बों, बिजली के उपकरणों की स्टार रेटिंग हो, वनीकरण हो या फिर ग्रीन बिल्डिंग का मुद्दा हो, वह तेजी से इस ओर प्रयासरत है।

इन मामलों में भारत बराबर दावे-दर-दावे करता रहा है। हाँ इनके क्रियान्वयन का सवाल जरूर सन्देहों के घेरे में है। बॉन पर दुनिया की निगाहें टिकी हैं। सभी को यह उम्मीद है कि बॉन में दुनिया के देश जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अपने संकल्पों पर प्रतिबद्धता जाहिर करेंगे। यदि ऐसा होता है तो निश्चित ही पर्यावरण के सन्दर्भ में अच्छे परिणाम मानव जीवन के लिये अच्छे संकेत होंगे।


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एक बहस - छत्तीसगढ़ भूजल प्रतिबन्ध (farmers are denied groundwater extraction)

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एक बहस - छत्तीसगढ़ भूजल प्रतिबन्ध (farmers are denied groundwater extraction)RuralWaterSat, 11/11/2017 - 16:07

छत्तीसगढ़ में किसानों को भूजल के इस्तेमाल पर प्रतिबन्धछत्तीसगढ़ में किसानों को भूजल के इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध05 नवम्बर 2017 को एक एजेंसी के हवाले से छपी एक खबर के मुताबिक, छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने रबी की फसलों के लिये भूजल के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। राज्य सरकार ने छत्तीसगढ़ में धान की खेती पर प्रतिबन्ध का भी आदेश जारी कर दिया गया है। छत्तीसगढ़ किसान सभा इसका कड़ा विरोध कर रही है।

भूजल सुरक्षा की दृष्टि से देखेें, तो पहली नजर में उक्त दोनों कदम उचित लगते हैं। छत्तीसगढ़ राज्य गंगा, ब्राह्मणी, महानदी, नर्मदा और गोदावरी नदियों के बेसिन में पड़ता है। छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा यानी 56.15 प्रतिशत भूभाग अकेले महानदी बेसिन का हिस्सा है। छत्तीसगढ़ राज्य सरकार के जलसंसाधन विभाग की वेबसाइट के मुताबिक 1,35,097 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले छत्तीसगढ़ राज्य से प्रवाहित होने वाले सतही जल की मात्रा जहाँ 4,82,960 लाख क्यूबिक मीटर है।

अन्तरराज्यीय समझौतों के हिसाब से छत्तीसगढ़ में उपयोगी सतही जल की उपलब्धता 4,17,200 लाख क्यूबिक मीटर है; वहीं भूजल उपलब्धता का आँकड़ा 1,45,480 लाख क्यूबिक मीटर का है। छत्तीसगढ़ राज्य सरकार के जलसंसाधन विभाग की वेबसाइट पर ब्लॉकवार उपलब्धता के हिसाब से देखें तो छत्तीसगढ़ में 1,36,848 लाख क्यूबिक मीटर भूजल ही उपलब्ध है।

हालांकि, भूजल आँकड़े की यह भिन्नता सन्देह पैदा करती है, किन्तु उक्त आँकड़ों का सीधा सन्देश यही है कि छत्तीसगढ़ के पास फिलहाल उसके भूजल की तुलना में लगभग तीन गुना अधिक सतही जल है। छत्तीसगढ़ अभी 1,82,249 लाख क्यूबिक यानी अपने उपलब्धता के आधे से भी कम सतही जल का उपयोग कर रहा है। लिहाजा, छत्तीसगढ़ को भूजल की तुलना में अपने सतही जल का उपयोग ज्यादा करना चाहिए। किन्तु इसका यह सन्देश कतई नहीं है कि छत्तीसगढ़ में रबी की फसल के दौरान भूजल की सिंचाई पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए। क्यों?

सवाल उठाते आंकड़े


भूजल उपलब्धता को लेकर खुद राज्य सरकार के आँकड़े कहते हैं कि छत्तीसगढ़ के 146 ब्लॉकों में से 138 ब्लॉक अभी भी सुरक्षित श्रेणी में है। गुरुर, बालोद, साजा धामधा, पाटन, धमतड़ी और बिहा ब्लॉक यानी कुछ छह ब्लॉक ही सेमी क्रिटिकल श्रेणी में हैं। छत्तीसगढ़ का कोई ब्लॉक क्रिटिकल (नाजुक) तथा ओवर ड्राफ्ट (अधिक जलनिकासी) वाली श्रेणी में दर्ज नहीं है। छत्तीसगढ़ अभी अपने उपलब्ध भूजल के 20 फीसदी से मामूली अधिक का ही इस्तेमाल कर रहा है। निस्सन्देह, इस 20 फीसदी में से अन्य क्षेत्रों द्वारा उपभोग की तुलना में करीब 65 फीसदी का उपयोग अकेले सिंचाई हेतु ही हो रहा है। किन्तु जब राज्य सरकार अपनी वेबसाइट पर यह आँकड़ा पेश करती है छत्तीसगढ़ के पास भावी कृषि विकास के लिये वर्तमान खपत के साढ़े चार गुना से अधिक यानी 1,06,692 लाख क्यूबिक मीटर भूजल उपलब्ध है, तो इसका एक सन्देश यह भी है कि छत्तीसगढ़ के कृषि क्षेत्र में कोई ‘वाटर इमरजेंसी’ नहीं है; न सतही जल सिंचाई की और न ही भूजल सिंचाई की।

ऐसे में इस प्रश्न का उठना स्वाभाविक है कि आखिर अन्य ऐसी क्या आपात स्थिति पैदा हो गई कि छत्तीसगढ़ शासन ने रबी फसल के लिये भूजल के उपयोग पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया? यदि यह प्रतिबन्ध सेमिक्रिटिकल ब्लॉक तथा भूगर्भ की एक निश्चित गहराई से नीचे न जाने की रोक तक सीमित होता, तो भी मान लिया जाता कि राज्य सरकार इन ब्लॉकों को भूजल के भावी संकट से बचाने के लिये कठोर, किन्तु दूरदर्शी कदम उठा रही है।

कितना व्यावहारिक प्रतिबन्ध?


इस प्रतिबन्ध की व्यावहारिकता से जुड़ा प्रश्न यह है कि क्या छत्तीसगढ़ शासन ने प्रदेश के हर खेत की नाली तक सतही जल पहुँचाने की अनुशासित सिंचाई प्रणाली को इतना विकसित कर लिया है कि भूजल पर प्रतिबन्ध की स्थिति में भी हर खेत में खेती सम्भव व लाभकर होगी? यदि नहीं, तो भविष्य में इसे भी नोटबंदी की तरह बिना तैयारी उठाया गया एक तुगलकी कदम करार दिया जाएगा।

कारपोरेट साँठगाँठ का आरोप


इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि या तो छत्तीसगढ़ सरकार की वेबसाइट पर पेश भूजल उपलब्धता और उपयोग के आँकड़े झूठे हैं अथवा जमीनी हकीकत वास्तव में भूजल संकट की है। यदि उक्त दोनों ही स्थितियाँ नहीं है, तो आकलनकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुँचेगे ही कि प्रतिबन्ध लगाने के पीछे छत्तीसगढ़ राज्य सरकार की नीयत कुछ और है। नीयत से जुड़ा एक तथ्य यह है कृषि की तुलना में उद्योग ज्यादा तेजी और गहराई से भूजल का दोहन करते हैं। यदि भूजल से रबी की सिंचाई प्रतिबन्धित की है, तो फिर अगले मानसून के आने से पहले तक औद्योगिक तथा व्यावसायिक मकसद हेतु भूजल उपयोग भी प्रतिबन्धित किया जाना चाहिए था। राज्य सरकार ने ऐसा नहीं किया। क्यों?

छत्तीसगढ़ किसान सभा के महासचिव ऋषि गुप्ता का आरोप है यह प्रतिबन्ध कारपोरेट हितों से प्रेरित है, जो चाहते हैं कि किसान खेती छोड़कर शहरों में सस्ते मजदूर के रूप में उपलब्ध हों। किसान सभा का मानना है कि इस प्रतिबन्ध से किसानों की हालत और गिरेगी; किसान, आत्महत्या को मजबूर होंगे। किसान सभा के नेता इस प्रतिबन्ध की एवज में 21 हजार रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से मुआवजे की माँग कर रहे हैं।

मुआवजा नहीं समाधान


मुआवजा, कभी भी किसी संकट का दीर्घकालिक समाधान नहीं होता। इसे हमेशा तात्कालिक राहत के रूप में ही लिया जाना चाहिए। किन्तु दुखद है कि मामला चाहे भूमि अधिग्रहण का हो अथवा बाढ़-सुखाड़ का, भारत के किसान संगठन, किसानों को मुआवजा दिलाकर ही सदैव सन्तुष्ट होते दिखे हैं। उन्हें समस्या की तह में जाना चाहिए और उसके समाधान के लिये पूरी मुस्तैदी व एकता के साथ सक्रिय होना चाहिए।

किसान और भूजल : दोनों की सुरक्षा जरूरी


उन्हें गौर करना चाहिए कि बहुत सम्भव है कि छत्तीसगढ़ शासन का यह फरमान, किसानों को सतही सिंचाई प्रणाली में पूरी तरह बाँधकर, भविष्य में सिंचाई के पानी के बदले मोटा शुल्क वसूलने के षडयंत्र की तैयारी का हिस्सा हो। नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजी हुकूमत ने भी कभी इसी मकसद से भारत में सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई और नहरी सिंचाई प्रणाली को विकसित किया था।

भारत में पानी का बाजार लगातार बढ़ रहा है। जलापूर्ति करने वाली कम्पनियाँ आज दुनिया की सबसे अमीर कम्पनियों में शुमार हैं। घोटाले बताते हैं कि पानी का अपना धन्धा बढ़ाने के लिये वे नौकरशाही व राजनेताओं को घूस देने से भी नहीं चूकते। भूलना नहीं चाहिए कि कभी इसी छत्तीसगढ़ में शिवनाथ नदी की मालिकी रेडियस नामक एक कम्पनी को सौंप दी गई थी। छत्तीसगढ़, भारत में ऐसा करने वाला प्रथम राज्य के रूप में दर्ज है। यूँ भी छत्तीसगढ़ के आसन्न विधानसभा चुनाव में चन्दे की दरकार को देखते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भूजल के इस प्रतिबन्ध के पीछे, प्रदेश की सिंचाई व्यवस्था को पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप (पीपीपी) के तहत मलाईदार साझेदारों को सौंपकर किसी की कुछ हासिल करने की बेताबी हो।

पहले पड़ताल, तब निर्णय


कहना न होगा कि भूजल उपयोग पर प्रतिबन्ध सम्बन्धी इस फरमान के पीछे छिपे असल एजेंडे की पड़ताल जरूरी है। यदि यह सचमुच कोई षडयंत्र अथवा षडयंत्र की तैयारी है, तो संगठनों को चाहिए कि वे जल व जलोपयोग सम्बन्धी जमीनी तथ्यों को सामने रखकर षडयंत्र का पर्दाफाश करें। यदि यह फरमान सचमुच सही समय पर अच्छी नीयत से जारी किया गया दूरदर्शी कदम हो, तो क्या किसान, क्या उद्योगपति, क्या व्यवसायी और क्या पानी के घरेलू उपभोक्ता... सभी को चाहिए कि वह भावी भूजल संकट से निपटने के लिये अपने-अपने हिस्से की तैयारी अभी से शुरू कर दें। यदि यह फरमान खेती के लिये अनुकूल सतही जल प्रणाली विकसित किये बिना जल्दबाजी में लिया गया एक अच्छा फरमान है, तो राज्य सरकार को चाहिए कि वह किसानों को इसके लिये तैयार होने का पूरा वक्त दे।

रही बात धान पर प्रतिबन्ध की, तो इस बात से भला कौन इनकार कर सकता है कि धान जैसी ज्यादा पानी पीने वाली फसलों को जलभराव से त्रस्त इलाकों में ले जाएँ तथा बाजरा, मक्का, मूँग उड़द और तिल जैसी कम पानी की फसलों को जलाभाव क्षेत्रों में ले आएँ। यह जलवायु परिवर्तन की भी माँग है और कृषि सुरक्षा की भी।


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अनुपम मिश्र - कहाँ गया उसे ढूँढो

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अनुपम मिश्र - कहाँ गया उसे ढूँढोRuralWaterFri, 12/15/2017 - 12:49
Source
सर्वोदय प्रेस सर्विस, दिसम्बर 2017

अनुपम मिश्रअनुपम मिश्रमुझे एक गीत की ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं

कहाँ गया उसे ढूँढो../
सुलगती धूप में छाँव के जैसा/
रेगिस्तान में गाँव के जैसा/
मन के घाव पर मरहम जैसा था वो/
कहाँ गया उसे ढूँढो...


पर वह तो अदृश्य में खो गया है। एक ऐसे अदृश्य में, जहाँ रोशनी नहीं पहुँचती। जब तक था, सबको रोशनी दी। सबको रोशन किया।क्या सूरज को कोई चिराग राह दिखा सकता है! जैसे सूरज अपनी राह खुद बनाता है, उसी तरह उसने अपनी राह बनाई। अपनी राह पर चला। बेबाक और पूरी निर्भीकता के साथ। वह एक खुली किताब था। और इसलिये उसकी लिखी सब पुस्तकों पर लिखा था- ‘इस पुस्तक की सामग्री का किसी भी रूप में उपयोग किया जा सकता है, स्रोत का उल्लेख करें तो अच्छा लगेगा।’

‘देश का पर्यावरण’, ‘हमारा पर्यावरण’ जैसी पुस्तकों का मूल सम्पादन अनिल अग्रवाल और सुनीता नारायण ने किया, पर परिवर्द्धित हिन्दी संस्करण का सम्पादन अनुपम जी ने ही किया। उस पर भी यही लिखा था। वे बहुत अच्छे अनुवादक थे। ‘गाँधी-मार्ग’ में छपे कई अनुवाद इसके प्रमाण हैं। मूल रचना की भावना अनुवाद में न मरे, तो वह अच्छा अनुवाद माना जाता है। पर अनुपम जी के अनुवाद के बाद मूल लेख पढ़ने की चाहत ही नहीं बनती थी।

मेरी पहली मुलाकात 1984-85 में हुई। वे ‘एक्सप्रेस बिल्डिंग’ से निकल रहे थे कि हम टकराए। वहीं खड़े-खड़े ‘भीनासर आन्दोलन’ के बारे में बातें हुईं। ‘गोचर-चरागाह विकास और पर्यावरण चेतना भीनासर आन्दोलन’ के नाम से चर्चित इस आन्दोलन की पूरी कहानी अनुपम ने सुनी। बस, तभी से दिल्ली में मेरा एक घर हो गया और बीकानेर-भीनासर में अनुपम जी का।

घर-बाहर मैं उनको अनुपम भैया कहता और वे मुझको शुभू भाई। हमारा यह भाईपा अन्त तक चलता रहा। शुरू के वर्षों में मेरा भी दिल्ली जाना लगा रहा और अनुपम का भीनासर (बीकानेर) आना। वे न होते तो प्रभाष जोशी, विष्णु चिंचालकर, महेंद्र कुमार (सप्रेस), अनिल अग्रवाल, रवि चोपड़ा, सुनीता नारायण, गाँधी शांति प्रतिष्ठान, गाँधी पीस सेंटर आदि से मेरा परिचय न होता। यह परिचय भी सामान्य परिचय न था। अधिकांश के साथ घरेलू सम्बन्ध बने।

स्वर्गीय प्रभाष जोशी तो जब भी बीकानेर आते, मेरी सह-धर्मिणी उषाजी को ऐसे आदेश देते जैसे वे ही इस घर के अग्रज हैं। अलबत्ता मैं अपनी मंजू भाभी से देवर-सा नहीं, गहरी औपचारिकता से बतियाता। बड़े भैया अमिताभजी, नंदिता जीजी से एक सहज दूरी रखता। हाँ, सरला अम्मा से पटती। वे माँ थीं और मैं बेटा। मैंने ‘मन्ना’ (अनुपम भाई के पिता) भवानी प्रसाद मिश्र को नहीं देखा। पर माँ से मेरी पटरी बैठ गई तो ‘मन्ना’ से भी बैठ ही जाती, ऐसा मैं सोचता।

वे देश के बड़े कवि थे और अनुपम उनके पुत्र थे, लेकिन उनका अपना व्यक्तित्व था। पिता की कोई छाप न अनुपम पर थी, न उस छाप को अनुपम ने भुनाया। वे बड़े कवि थे, अनुपम एक सुलझे हुए पर्यावरणविद! वे जानते थे कि जो कुछ देशज है, वही मेरी अपना है। वे कभी अपने को पर्यावरणविद कहलाना भी पसन्द नहीं करते थे। कहते थे कि हाँ, यह कह सकते हो कि मैं भी एक अदना-सा पर्यावरण कार्यकर्ता हूँ।‘सप्रेस’ के चिन्मय मिश्र लिखते हैं कि वे क्या थे, क्या नहीं, सबके अपने विश्लेषण हो सकते हैं। पर एक बात तय है कि वे सभी के थे और उसके हिस्से नहीं किये जा सकते।

सचमुच वे सबके थे और इसके हिस्से नहीं किये जा सकते। एक घटना की याद मुझे सताती है। शुभम उनका बेटा, जो आज तो नौजवान हो गया है, पर तब 3-4 साल का रहा होगा। उसे अपनी पीठ पर चढ़ाए वे हमारे चारागाह से आ रहे थे और बतला रहे थे कि जंगल के सारे प्राणी उसके सखा हैं। हिरण, खरगोश, लोमड़ी, बिल्ली, कुत्ते और चूहे सबसे मित्रता रखनी है। तुम अगली बार यहाँ आओ, तो इनसे दोस्ती करना। इनके साथ खेलना। शुभम मुस्कुरा भर रहा था और मुझे लग रहा था कि पीठ पर लादे, अपने सयाने होते जा रहे बेटे को पर्यावरण का एक पाठ ही पढ़ा दिया अनुपम ने।

ऐसी ही एक-दो घटनाओं की याद ताजा हो रही है। हम दोनों खाना खाकर हटे कि थाली खींच कर उठाने लगे अनुपम। मैंने कहा, भैया रहने दो। सबके साथ ये भी मांजली जाएँगी। पर अनुपम रुकने वाले नहीं थे। बोलेः सब मिल-जुलकर काम करेंगे भैया। देखो, कितने बर्तन हो गए। अकेला एक प्राणी कैसे सब करेगा!!

ऐसी ही एक घटना और। अनुपम अल-सुबह उठे। मैं भी। देखता हूँ कि रात में चली आँधी ने बरामदे को रेत से भर दिया है और अनुपम झाड़ू से रेत साफ कर रहे हैं। मैंने टोका, यह क्या कर रहे हो भैया। आप छोड़ें, हमारे लिये मुसीबत खड़ी न करें। कल हमें भी यही करना पड़ेगा। अनुपम कहाँ छोड़ने वाले थे।

ऐसे थे अनुपम। आज जो मुखौटे हम देखते हैं, ऐसा कोई मुखौटा उनके तईं नहीं था। वे सचमुच अनुपम थे। अनुपम भैया। मेरे अपने।

श्री शुभू पटवा स्वतंत्र पत्रकार, प्रौढ़ शिक्षा व पर्यावरण चेतना के लिये समर्पित चिंतक एवं लेखक हैं।


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Submitted by Prashant (not verified) on Fri, 12/15/2017 - 15:53

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समय बदल गया है, बदल गया हूँ  मैं भी पर आज भी कुछ स्वप्न ऐसे है जो मिटाये मिट्ते। ये सपने बचपन से ही मेरे मन में गहरे बैठे है अभी तक इनको  दिला पाया हूँ। अपने  जल-जंगल-जमीं का सम्मान करते देखना चाहता हूँ ,लोगों को कृषि एवं पर्यावरण का तरीका समझाना चाहता हूँ, बच्चों के बीच अनुपम मिश्र, सालिम अली जैसी शख्शियतें  लाना चाहता हूँ। अपने प्राकृतिक उपहारों को नष्ट न होने देना  चाहता हूँ पर कैसे ? मैं कभी जान नहीं पाया (थोड़ा-बहुत है मेरे दिमाग में  पर कभी असलियत में नहीं ला पाया )  कुछ सीखना चाहता हूँ , शायद मुझे कुछ लोगों की या कहूं गुरु की तलाश है। जिज्ञासा वश पूछ रहा हूँ क्या आप मेरी सहायता करेंगे ? आपकी जानकारी के लिए -मैं अभी स्नातक तृतीय वर्ष का छात्र हूँ। बिहार - झारखण्ड के बॉर्डर  के नजदीक मेरा घर है।

Submitted by chhaya (not verified) on Sat, 12/16/2017 - 20:10

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कोइ किताब इन्सान को पूरी तरह बदल दे,इतनी खुबसुरती से, 'आज भी खरे है तालाब' वो किताब है

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पर्यावरणीय अपराधों में कानूनी कार्रवाई की रफ्तार सुस्त

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पर्यावरणीय अपराधों में कानूनी कार्रवाई की रफ्तार सुस्तRuralWaterFri, 12/22/2017 - 15:41

बंगलुरु में चंदन की लकड़ी काटने के आरोप में गिरफ्तार युवकों को ले जाती पुलिसबंगलुरु में चंदन की लकड़ी काटने के आरोप में गिरफ्तार युवकों को ले जाती पुलिसपर्यावरण किसी भी सरकार के लिये कभी भी बहुत अहम नहीं रहा है। हर सरकार के लिये विकास प्राथमिकता रहा है। वह चाहे पर्यावरण की कीमत पर हो या दूसरी कीमतों पर।

किसी निजी या सरकारी प्रोजेक्ट के लिये पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलाना और तालाबों को पाटना तो खैर आम बात है।

पर्यावरण की इस तरह की अनदेखी का ही परिणाम है कि आज हम जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम झेल रहे हैं। समुद्र के किनारे बसे गाँव जलस्तर बढ़ने के कारण सागर में समा रहे हैं, तो समुद्र से दूर स्थित गाँवों में पानी की किल्लत दिनोंदिन बढ़ रही है। देश भर में बारिश का पैटर्न बदल रहा है। बुन्देलखण्ड और महाराष्ट्र के लातूर में पानी की किल्लत का भायवह रूप हम देख चुके हैं।

पर्यावरणीय अपराध को लेकर सरकार की अनदेखी की एक बानगी गृह मंत्रालय के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के वर्ष 2014 से पहले के आँकड़ों में भी देखी जा सकती है।

पर्यावरण और पानी जैसे संगीन मुद्दे को लेकर होने वाले अपराध के लिये वर्ष 2013 तक नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) अलग से कोई श्रेणी नहीं रखता था। इनसे जुड़े आपराधिक मामलों को ‘अन्य’ मामलों की श्रेणी में धकेल दिया जाता था।

ऐसा होने से इन मामलों पर न तो कभी पर्यावरणविदों कि नजर जाती थी और न ही इस विषय पर काम करने वाले संगठनों की। अन्य श्रेणी में रखे जाने के कारण यह भी पता नहीं चल पाता था कि एक वर्ष में पर्यावरण से जुड़े कितने आपराधिक मामले दर्ज हुए हैं। मसलन एनसीआरबी के मुताबिक, वर्ष 2013 में अन्य श्रेणी में भारत में कुल 10,67,024 मामले दर्ज किये गए थे। अब इसमें यह पता लगाना नामुमकिन है कि पर्यावरण से जुड़े कितने आपराधिक मामले वर्ष 2013 में दर्ज किये गए।

वर्ष 2014 से नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने वायु प्रदूषण, वन्यजीव के प्रति अपराध, पर्यावरण और पानी से जुड़े आपराधिक मामलों को एन्वायरनमेंटल ऑफेंस नाम की अलग श्रेणी में रखने का निर्णय लिया। अलग श्रेणी बनाए जाने से कम से कम सरकारी तौर पर यह पता चला है कि एक साल में पर्यावरण से जुड़े कितने आपराधिक मामले दर्ज हुए।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, वर्ष 2014 से पहले तक पर्यावरण से जुड़े आपराधिक मामलों को अन्य श्रेणी में रखा जाता था। हम लोग समय-समय पर नई-नई चीजें जोड़ते रहते हैं। इसी कड़ी में वर्ष 2014 से पर्यावरण से जुड़े अपराधों के लिये अलग श्रेणी बनाने का फैसला लिया गया।

अलग श्रेणी बनने से अब सीधे तौर पर पता चल पाता है कि पानी, हवा, वन व पर्यावरण से जुड़े अन्य मामलों में कितने आपराधिक केस हर साल दर्ज होते हैं।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 2014 में देश भर में पर्यावरणीय अपराध के कुल 5835 मामले दर्ज किये गए जिनमें से सबसे अधिक मामले राजस्थान में दर्ज किये गए। राजस्थान में कुल 2927 आपराधिक मामले दर्ज किये गए जो कुल मामलों का 50.2 प्रतिशत है। 1597 मामलों के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे और 249 मामलों के साथ कर्नाटक तीसरे पायदान पर रहा।

पर्यावरणीय अपराध में फॉरेस्ट एक्ट, वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट, एन्वायरनमेंट प्रोटेक्शन प्रोटेक्शन एक्ट, एयर एक्ट अधिनियम और वाटर एक्ट के तहत दर्ज किये गए मामले शामिल किये गए हैं।

एक्ट के अन्तर्गत दर्ज किये गए मामलों को अलग-अलग कर देखा जाये, तो फॉरेस्ट एक्ट के तहत सबसे अधिक 4901 मामले दर्ज किये गए। वाटर एक्ट के तहत कुल 15 मामले दर्ज किये गए हैं। एनसीआरबी के आँकड़े बताते हैं कि 5835 मामलों में कुल 8684 लोगों को दबोचा गया जिनमें से पानी से जुड़े अपराधों में गिरफ्तार होने वालों की संख्या 88 है।

वर्ष 2014 के बाद से पर्यावरण से जुड़े आपराधिक मामलों में गिरावट आई है, जो राहत देने वाली खबर है।

एनसीआरबी के आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 2015 में पर्यावरणीय अपराध के कुल 5156 मामले दर्ज किये गए, जो वर्ष 2014 की तुलना में करीब 700 कम हैं। इन मामलों में कुल 8034 लोगों को सलाखों के पीछे डाला गया। आँकड़ों के अनुसार वन अधिनियम के तहत 3968 मामले दर्ज किये गए। वहीं, वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के तहत 829, एन्वायरनमेंट प्रोटेक्शन एक्ट के अन्तर्गत 299, एयर पॉल्यूशन एक्ट में 50 और वाटर एक्ट में 10 मामले दर्ज हुए।

पर्यावरणीय अपराध के मामले में वर्ष 2015 में भी राजस्थान अव्वल रहा। राजस्थान में कुल 20174 दर्ज किये गए। 1779 मामलों के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे और 233 मामलों के साथ झारखण्ड तीसरे स्थान पर रहा। कर्नाटक में पर्यावरणीय अपराध के 211 और आन्ध्र प्रदेश में 181 मामले दर्ज किये गए।

वर्ष 2016 के आँकड़ों पर गौर करें, तो इस साल भी पर्यावरण से जुड़े अपराधों में कमी आई है लेकिन लम्बित मामले चिन्ता का सबब है। एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2016 में पर्यावरण से जुड़े कुल 4710 मामले दर्ज किये गए, जो पिछले वर्ष यानी वर्ष 2015 की तुलना में करीब 400 कम हैं, लेकिन वन्यजीवों के खिलाफ होने वाले अपराधों में बढ़ोत्तरी हुई है। वन्यजीवों पर अपराध को लेकर वर्ष 2015 में 829 मामले दर्ज किये गए थे। वर्ष 2016 में बढ़कर 852 पर पहुँच गए। हालांकि, अन्य मामलों मसलन वन सुरक्षा, पर्यावरण सुरक्षा और वायु प्रदूषण से जुड़े मामलों में कमी आई है।

पर्यावरण से जुड़े अपराधों में कमी निश्चित तौर पर राहत देने वाली खबर है लेकिन इन मामलों में अपराध साबित होने और सजा दिलाने के जो आँकड़े मिले हैं, वे चिन्ता में डालने वाले हैं। एनसीआरबी के ही आँकड़े बता रहे हैं कि इन अपराधों (सभी मिलाकर) से जुड़े 85.2 फीसद मामले लम्बित हैं। वायु प्रदूषण से जुड़े सबसे अधिक 98.6 मामले अब भी लम्बित हैं, जबकि पानी से जुड़े सबसे कम 79 फीसद मामले लम्बित बताए जा रहे हैं।

आँकड़े बताते हैं कि कुल दर्ज 4710 मामलों में गिरफ्तार 8387 लोगों में से 7289 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई। इनमें से 1138 लोग बरी हो गए।

गौरतलब है कि ये सभी मामले फॉरेस्ट एक्ट 1927, वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972, एन्वायरनमेंट प्रोटेक्शन एक्ट 1986, एयर एक्ट 1981 और वाटर एक्ट 1974 के तहत दर्ज किये गए हैं।

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत मामला दर्ज होने पर अपराधी को 5 साल की सजा व जुर्माना का प्रावधान है। वहीं, भारतीय वन अधिनियम 1927 के तहत अपराध साबित होने पर अपराधी को महज 6 महीने की सजा व 500 रुपए जुर्माना लगाया जाता है। वन्यजीवों के खिलाफ अपराध के मामलों में आरोप साबित होने पर अपराधी को 25 हजार रुपए जुर्माना और 3 साल की सजा हो सकती है। जल प्रदूषण के दोषियों को महज तीन महीने की कैद व मामूली जुर्माना का प्रावधान है। इस तरह हम देख सकते हैं कि पर्यावरणीय अपराधों की सजा कितनी हल्की-फुल्की है। हल्की सजा व जुर्माने का प्रावधान होने के कारण ही पर्यावरणीय अपराध करने वालों को भय नहीं रहता है।

पिछले साल यमुना डूब क्षेत्र में श्री श्री रविशंकर की संस्था आर्ट ऑफ लिविंग द्वारा अन्तरराष्ट्रीय सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजित किया जाना एक उदाहरण है। इस कार्यक्रम के कारण यमुना को भारी नुकसान होने की आंशका के बावजूद वहाँ भव्य आयोजन किया गया था। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने कहा था कि कार्यक्रम से यमुना को भारी नुकसान हुआ है और श्री श्री रविशंकर की संस्था पर 5 करोड़ रुपए जुर्माना लगाया था।

जंगलों में अवैध तरीके से अन्धाधुन्ध कटाई हो रही हैपर्यावरणीय अपराधों को लेकर एक बड़ी दिक्कत यह है कि ज्यादातर लोगों को नहीं पता कि किस तरह के अपराध इस श्रेणी में आते हैं। इस वजह से पर्यावरण के साथ खिलवाड़ होता रहता है और किसी को पता भी नहीं चलता है। मिसाल के तौर पर बिहार के गया के तालाबों को लिया जा सकता है। यहाँ के आधा दर्जन से अधिक तालाब पाट दिये गए हैं, लेकिन अब तक किसी ने कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई। सीवेज वेस्ट को प्राकृतिक तरीके से ट्रीट करने वाले ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स को अवैध तरीके से पाटकर वहाँ इमारतें बनाई जा रही हैं, लेकिन कहीं कोई हलचल नहीं हुई। ऐसे एक-दो नहीं दर्जनों मामले हैं।

यहाँ भी बता दें कि पर्यावरण संरक्षण व वन सुरक्षा से सम्बन्धित मामलों को सुलझाने के लिये सात साल पहले यानी 2010 में 18 अक्टूबर को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण का गठन किया गया था। पर्यावरण मंत्री हर्षवर्धन ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में कहा था कि इस साल जून तक राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में 3500 मामले विचाराधीन थे। इनमें प्राधिकरण के प्रधान बेंच में 1600, पुणे बेंच में 543, भोपाल बेंच में 256, चेन्नई बेंच में 799 और कोलकाता बेंच में 407 मामले विचाराधीन थे।

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल रूल्स 2011 की अनुच्छेद 18 के अनुसार प्राधिकरण में केस दायर होने के 6 महीने के भीतर मामले का निबटारा कर दिया जाना चाहिए।

पर्यावरणीय अपराधों की सुनवाई और सजा की रफ्तार में सुस्ती का ही परिणाम था कि कोलकाता के पर्यावरणविद सुभाष दत्ता को लगातार कई जनहित याचिकाएँ दायर करनी पड़ीं। इस वजह से कलकत्ता हाईकोर्ट को पृथक ग्रीन बेंच का गठन करना पड़ा। पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर सुभाष दत्ता अब तक करीब दो दर्जन जनहित याचिकाएँ सुप्रीम कोर्ट और कलकत्ता हाईकोर्ट में दायर कर चुके हैं।

सुभाष दत्ता का कहना है कि पर्यावरण से जुड़े अपराधों को लेकर पुलिस कभी भी गम्भीर नहीं रहती है।वह कहते हैं कि पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर जो भी कानून हैं, उनमें सजा के प्रावधान बेहद कमजोर हैं, इसलिये अपराधियों में किसी तरह का भय नहीं रहता है।

सुभाष दत्ता की बातों का समर्थन पर्यावरणविद सौमेंद्र मोहन घोष भी करते हैं। उन्होंने कहा, ‘पर्यावरण से जुड़े अपराधों को लेकर पुलिस महकमे में एक एंटी पॉल्यूशन सेल भी है, लेकिन यह सेल निष्क्रिय रहता है। यह केवल तभी सक्रिय होता है जब प्रदूषण नियंत्रण सप्ताह मनाया जाता है।’

उन्होंने कोलकाता में प्रदूषण से जुड़े मामलों में पुलिस के रवैए को लेकर अपना अनुभव साझा करते हुए कहा कि जब भी पुलिस के पास पर्यावरण से जुड़े अपराधों की शिकायत की जाती है, तो पुलिस का कहना होता है कि ऐसे मामले स्टेट पॉल्यूशन नियंत्रण बोर्ड के संज्ञान में लाये जाने चाहिए। वहीं दूसरे देशों में ऐसा नहीं होता है। वहाँ पुलिस पर्यावरणीय अपराधों को लेकर त्वरित कार्रवाई करती है।

घोष आगे कहते हैं, ‘अपने देश की पुलिस पर्यावरणीय अपराधों की संगीनता से बेखबर है और यही वजह है कि इस तरह के मामलों में पुलिस की कार्रवाई बेहद निराशाजनक होती है।’

विशेषज्ञों का कहना है कि केवल मामले दर्ज कर लेने और आरोपितों को गिरफ्तार किये जाने से कोई फायदा नहीं होने वाला है, इसके लिये कानून में भी आमुलचूल परिवर्तन की जरूरत है। कानून में सजा के सख्त प्रावधान लाये जाएँ, ताकि इस तरह के अपराध करने वालों को सीख मिले।

हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि मौजूदा कानून में सजा के जो भी प्रावधान हैं, अगर उनका भी कायदे से पालन किया जाये, तो फायदा पहुँचेगा।

सैंड्रप (साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम, रीवर्स एंड पीपल्स) के हिमांशु ठक्कर ने कहा, ‘हमारे देश में जो भी कानून हैं, अगर उनका भी पालन ईमानदारी से किया जाये, तो चीजें बदलेंगी। इस तरह के अपराधों में कमी आएगी और लोगों में जागरुकता भी फैलेगी।’

बहरहाल, पर्यावरण को लेकर होने वाले अपराधों को लेकर आम लोगों में जागरुकता की तो जरूरत है ही, साथ ही यह भी जरूरी है कि सरकार व पुलिस इसकी गम्भीरता को समझें। अन्य अपराधों की तरह ही पर्यावरणीय अपराधों को भी प्राथमिकता दी जाये और इससे जुड़े कानून में कठोर सजा के प्रावधान रखे जाएँ, ताकि पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। क्योंकि, पर्यावरण के नुकसान का असर मौजूदा पीढ़ी को जितना हो रहा है, उससे कहीं ज्यादा आने वाली पीढ़ी को होगा और इस तरह के नुकसान की भरपाई मुमकिन भी नहीं है।


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Submitted by Sandeep Kumar (not verified) on Thu, 02/15/2018 - 15:49

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Yes Sir, koi bhi govt. Prkriti ki trf dhyan nhi de rhi h.Aur Sir hmare desh mein ek yojna chl rhi h wo Narega. Narega mein kisi prkar ka koi kam nhi ho rha h, bs yojna e nam pr srkar pese end kr rhi h, aur m to khta hanu Sir govt. ko pryawrn bchane ke lia Narega mein kam krne wale sbhi mjduro ko 100 din rojgar mein prtek mjdur ko 100 plant lagane, aur unko bda krne ka kam diya jana chahiye. Aur unko pay bhi plants ki practkly ingury ke bad hi mile.ek mjdur-100 days-100 plants. In one village 100 worker- 10000 plants.

Submitted by Sandeep Kumar (not verified) on Thu, 02/15/2018 - 15:51

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Yes Sir, koi bhi govt. Prkriti ki trf dhyan nhi de rhi h.Aur Sir hmare desh mein ek yojna chl rhi h wo Narega. Narega mein kisi prkar ka koi kam nhi ho rha h, bs yojna e nam pr srkar pese end kr rhi h, aur m to khta hanu Sir govt. ko pryawrn bchane ke lia Narega mein kam krne wale sbhi mjduro ko 100 din rojgar mein prtek mjdur ko 100 plant lagane, aur unko bda krne ka kam diya jana chahiye. Aur unko pay bhi plants ki practkly ingury ke bad hi mile.ek mjdur-100 days-100 plants. In one village 100 worker- 10000 plants.

Submitted by Sandeep Kumar (not verified) on Thu, 02/15/2018 - 15:52

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Yes Sir, koi bhi govt. Prkriti ki trf dhyan nhi de rhi h.Aur Sir hmare desh mein ek yojna chl rhi h wo Narega. Narega mein kisi prkar ka koi kam nhi ho rha h, bs yojna e nam pr srkar pese end kr rhi h, aur m to khta hanu Sir govt. ko pryawrn bchane ke lia Narega mein kam krne wale sbhi mjduro ko 100 din rojgar mein prtek mjdur ko 100 plant lagane, aur unko bda krne ka kam diya jana chahiye. Aur unko pay bhi plants ki practkly ingury ke bad hi mile.ek mjdur-100 days-100 plants. In one village 100 worker- 10000 plants.

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विस्थापित तो कराह रहे, जनता के रहनुमा आराम फरमा रहे

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विस्थापित तो कराह रहे, जनता के रहनुमा आराम फरमा रहेRuralWaterSun, 12/24/2017 - 12:02

टिहरी बाँध की उँचाई बढ़ने से कुछ और गाँव डूब क्षेत्र में आएँगेटिहरी बाँध की उँचाई बढ़ने से कुछ और गाँव डूब क्षेत्र में आएँगेजिस पानी से एक सम्पूर्ण सभ्यता, संस्कृति जिन्दा थी, वही पानी उन लोगों को नसीब नहीं हो पा रहा है, जिसे उन्होंने देश के लिये कुर्बान किया था। ऐसी हालात उत्तराखण्ड के टिहरी बाँध विस्थापितों की बनी हुई है। वे अब पुनर्वास होकर नरक जैसी जिन्दगी जीने के लिये मजबूर हैं। जो सुहावने सपने उन्हें सरकारों ने टिहरी बाँध बनने पर दिखाई थी वे सभी सपने उनके सामने चकनाचूर हो गए हैं।

बता दें कि सन 1815 में टिहरी नरेश प्रद्युम्न शाह ने टिहरी की स्थापना भिलंगना और गंगा-भागीरथी के संगम पर इसलिये की कि वहाँ पर उनकी प्रजा कभी पानी और सिंचाई की समस्याओं के लिये नहीं तरसेगी। हुआ भी ऐसा ही। टिहरी की बासमती और आम के बागान इस बात के गवाह थे कि यहाँ पर एक समृद्ध सभ्यता रही होगी। किसे क्या मालूम कि 190 बरस बाद टिहरी के बाशिन्दों को बिजली उत्पादन के लिये आहुति देनी पड़ेगी।

टिहरीवासियों की छाती पर बने एशिया के इस सबसे बड़े बाँध के कारण विस्थापितों को मौजूदा समय में विस्थापित हुई जगह पर ‘पानी के लिये’ ही संघर्ष करना पड़ेगा। पीने के पानी की समस्या, सिंचाई की समस्या, पानी के संसाधनों पर डकैतों की धमकी जैसी पीड़ा विस्थापित टिहरीवासियों पर चौबीसों घंटे खड़ी रहती है। उन्हें जब अपनी जन्मभूमि की याद आती है तो वे टिहरी झील के किनारे जाकर आँसुओं के बूँदों से फिर से टिहरी को नमन करते यही पुकार लगाते हैं कि हे टिहरी की धरती हमने क्या बिगाड़ा था, जो अब ये दिन देखने पड़ रहे हैं।अगर सरकार की कसरत के अनुसार टिहरी बाँध के पानी को अब 825 मीटर ऊपर उठाया जाएगा तो फिर से सवा लाख लोग विस्थापित होंगे। वह भी पूर्व विस्थापितों के अनुसार मूलभूत समस्याओं का सामना करते हुए दिखेंगे।

एक तरफ सरकारें टिहरी बाँध को विकास का मॉडल बताकार दुनिया में ढिंढोरा पीट रही हैं और दूसरी तरफ बाँध के कारण विस्थापित हो चुके टिहरीवासी रात-दिन तिल-तिल करके जी रहे हैं। सत्ता में बैठे मठाधीशों को क्या मालूम कि बाँध विस्थापितों की कभी सुध लेनी पड़ती है।

बाँध से विद्युत उत्पादन भले अपेक्षा से बहुत कम हो रहा हो पर कम-से-कम टिहरी बाँध से हुए विस्थापितों व प्रभावितों की समस्याओं का समयबद्ध निराकरण तो होना ही चाहिए। हालात इस कदर है कि उत्तराखण्ड के गंगा-भागीरथी पर बना बहु प्रचारित टिहरी बाँध प्रभावित अभी भी पानी जैसे मुलभूत अधिकार के लिये तरस रहे हैं, उनकी सुविधाओं पर दबंगों का कब्जा हो रहा है। अर्थात बाँध बनने के 14 सालों बाद भी टिहरी बाँध के पुनर्वास की समस्याएँ बढ़ती ही जा रही हैं और मुख्यमंत्री श्री रावत ने केन्द्रीय बिजली मंत्री से टिहरी झील के पानी को 825 मीटर तक बढ़ाने का प्रस्ताव रख दिया है।

डूबती हुई टिहरीअगर ऐसा होता है तो सवा लाख लोग और विस्थापित होंगे। जबकि टिहरी बाँध विस्थापितों को पुनर्वास स्थलों जैसे हरिद्वार, पथरी, चौदहबीघा में अब तक पुनर्वास नीति के अनुसार मूलभूत सुविधाएँ नहीं मिल पा रही हैं। हरिद्वार जिले में पथरी भाग 1, 2, 3 व 4 में टिहरी विस्थापितों के लगभग 40 गाँवों के लोग पुनर्वासित हैं। इसी तरह सुमननगर विस्थापित क्षेत्र व रोशनाबाद विस्थापित क्षेत्र में भी भागीरथी, भिलंगना नदी घाटी के कितने ही गाँवों जैसे खांड, बड़कोट, सरोट, छाम, सयांसू आदि गाँवों से प्रभावितों को विकास का सपना दिखा कर लाया गया है। पर जो मूलभूत सामुदायिक सुविधाएँ अधिकार रूप में पुनर्वास के साथ ही उन्हें मिलनी चाहिए थी वह 37 साल बाद भी सरकार नहीं दे पाई।

इन विस्थापितों का जीवन दुष्कर होना इस मायने में कह सकते हैं कि भूमिधर अधिकार, स्वास्थ्य, प्राथमिक चिकित्सा, जच्चा-बच्चा केन्द्र, समुचित शिक्षा की व्यवस्था, व्यवस्थित यातायात आदि का अभाव पुनर्वासित स्थानों पर बना हुआ है। और-तो-और जिस बिजली उत्पादन के लिये लोगों ने आहुति दी थी वही बिजली की सुविधा उनसे दूर-दूर रखी गई है।

इस बाबत बिजली नीति के अनुसार 100 यूनिट बिजली मुफ्त मिलनी चाहिए थी, वह भी उन्हें नसीब नहीं हुई। सिंचाई के लिये पास में बहती गंगनहर से वे सिंचाई नहीं कर सकते। मंदिर, पितृकुट्टी, सड़क, गूल आदि की सुविधाएँ भी सालों बाद भी खड़ी दिखाई दे रही है। सुमननगर में भी सिंचाई व पीने के पानी की भयंकर समस्या है। जबकि मात्र एक किलोमीटर के दायरे में टिहरी बाँध से दिल्ली व उत्तर प्रदेश को पानी जा रहा है।

ज्ञात हो कि टिहरी बाँध से हो रहे 12 प्रतिशत मुफ्त बिजली के लाभ से प्रभावितों की समस्याओं का समाधान होना सम्भव है। इससे राज्य सरकार को प्रतिदिन आमदनी भी हो रही है। आज तक लगभग ढाई हजार करोड़ से ज्यादा की आमदनी टिहरी बाँध से राज्य सरकार को हो गई है। इससे ही टिहरी बाँध विस्थापितों के लिये खर्च करने का प्रावधान था। जो 37 वर्ष बाद भी विस्थापितों को नहीं मिल पा रहा है।

टिहरी विस्थापित जन कल्याण समिति के पूरण सिंह राणा, सोहन सिंह गुंसाई, राघवानंद जोशी, जयकिशन न्यूली, अतोल सिंह गुंसाई का कहना है कि विस्थापितों को मूलगाँव जैसा ‘संक्रमणी जेड ए श्रेणी क’ स्तर वाला भूमिधर अधिकार तुरन्त दिये जाएँ ताकि पुनर्वास स्थलों को राजस्व ग्राम घोषित किया जा सके। हरिद्वार के ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले टिहरी बाँध विस्थापितों की शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, सिंचाई व पेयजल और अन्य मूलभूत सुविधाएँ आज भी मुँह बाए खड़ी हैं।

टिहरी बाँधउनकी माँग है कि इन कार्यों के लिये टिहरी बाँध परियोजना से, जिसमें कोटेश्वर बाँध भी सम्मिलित है से मिलने वाली 12 प्रतिशत मुफ्त बिजली के पैसे का उपयोग किया जा सकता है। टिहरी बाँध से दिल्ली व उत्तर प्रदेश जाने वाली नहरों से बाँध प्रभावितों को पानी दिये जाने का प्रावधान होना चाहिए। इधर ऊर्जा मंत्रालय की विस्थापितों बाबत जलविद्युत नीति 2008 में प्रावधान है कि विस्थापितों को 10 साल तक 100 यूनिट मुफ्त बिजली या नकद सहायता राशि दी जानी चाहिए।

विस्थापितों के संसाधनों पर रसूखदारों का कब्जा


रोशनाबाद सामुदायिक भवन, प्राथमिक स्कूल इमारत पर किसी नवोदय नगर विकास समिति का कब्जा है। सड़क, सिंचाई व पीने के पानी का अभाव, स्वास्थ्य केन्द्र, स्कूल व गन्दे नाले की व्यवस्था नहीं है। पीने के पानी के कनेक्शन के लिये 5000 और हर महीने 300 रुपया विस्थापितों को देने होते हैं।

चंद्रमोहन पाण्डे सुपरिटेंडेंट इंजीनियर ने स्वीकार किया कि पुनर्वास विस्थापित क्षेत्र में समस्याओं का अम्बार है, अधिशासी अभियन्ता ने भी स्वीकार किया कि नवोदय नगर समिति ने सामुदायिक भवन एवं ओवर हेड टैंक पर कब्जा कर रखा हैै। कहा कि वे त्वरित गति से समाधान करवाने का प्रयास करेंगे। जबकि इस शिकायत पर नवोदय नगर समिति के कुछ लोगों ने अतुल गोसाई के प्लाट के पानी का नल उखाड़ कर अपने साथ ले गए और धमकाया कि यहाँ से चले जाओ।

टइन घटनाक्रमों की जानकारी पुनर्वास निदेशक श्रीमती मोनिका, टिहरी विधायक व कैबिनेट मंत्री धन सिंह नेगी, हरिद्वार के पूर्व विधायक अमरीश, प्रताप नगर के पूर्व विधायक विक्रम सिंह नेगी को है। मगर विस्थापितों की समस्या जस-की-तस बनी है।


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दक्षिण भारत का चिपको (Appiko movement in south india)

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दक्षिण भारत का चिपको (Appiko movement in south india)RuralWaterSun, 12/24/2017 - 12:23

दक्षिण भारत में पेड़ों के साथ खड़े अप्पिको आन्दोलन के लोगदक्षिण भारत में पेड़ों के साथ खड़े अप्पिको आन्दोलन के लोगचिपको आन्दोलन की तरह दक्षिण भारत के अप्पिको आन्दोलन को अब तीन दशक से ज्यादा हो गए हैं। दक्षिण भारत में पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने में इसका उल्लेखनीय योगदान है। देशी बीजों से लेकर वनों को बचाने का आन्दोलन लगातार कई रूपों में फैल रहा है।

हाल ही में मैं 15 सितम्बर को अप्पिको आन्दोलन के सूत्रधार पांडुरंग हेगड़े से मिला। सिरसी स्थित अप्पिको आन्दोलन के कार्यालय में उनसे मुलाकात और लम्बी बातचीत हुई। करीब 34 साल बीत गए, वे इस मिशन में लगातार सक्रिय हैं। अब वे अलग-अलग तरह से पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने की कोशिश कर रहे हैं।

80 के दशक में उभरे अप्पिको आन्दोलन में पांडुरंग हेगड़े जी की ही प्रमुख भूमिका रही है। एक जमाने में दिल्ली विश्वविद्यालय से सामाजिक कार्य में गोल्ड मेडलिस्ट रहे हैं। अपनी पढ़ाई के दौरान वे चिपको आन्दोलन में शामिल हुए और कई गाँवों में घूमे, कार्यकर्ताओं से मिले। चिपको के प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा से मिले। यही वह मोड़ था जिसने उनकी जिन्दगी की दिशा बदल दी। कुछ समय मध्य प्रदेश के दमोह में लोगों के बीच काम किया और अपने गाँव लौट आये। और जीवन में कुछ सार्थक करने की तलाश करने लगे।

कुछ साल बाहर रहने के बाद गाँव लौटे तो इलाके की तस्वीर बदली-बदली लगी। जंगल कम हो रहे हैं, हरे पेड़ कट रहे हैं। इससे पांडुरंग व्यथित हो गए, उन्हें उनका बचपन याद आ गया। उन्होंने अपने बचपन में इस इलाके में बहुत घना जंगल देखा था। हरे पेड़, शेर, हिरण, जंगली सुअर, जंगली भैंसा, बहुत से पक्षी और तरह-तरह की चिड़ियाँ देखी थीं। पर कुछ सालों के अन्तराल में इसमें कमी आई।

चिपको आन्दोलन के प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा के साथ पांडुरंग हेगड़ेइस सबको देखते हुए उन्होंने काली नदी के आसपास पदयात्रा की। उन्होंने देखा कि वहाँ जंगल की कटाई हो रही है। खनन किया जा रहा है। ग्रामीणों के साथ मिलकर कुछ करने का मन बनाया। सबसे पहले सलकानी गाँव के करीब डेढ सौ स्त्री-पुरूषों ने जंगल की पदयात्रा की। वहाँ वन विभाग के आदेश से पेड़ों को कुल्हाड़ी से काटा जा रहा था। लोगों ने उन्हें रोका, पेड़ों से चिपक गए और आखिरकार, वे पेड़ों को बचाने में सफल हुए। यह आन्दोलन जल्द ही जंगल की तरह फैल गया। सलकानी के आन्दोलन की चर्चा पड़ोसी सिद्दापुर तालुका और प्रदेश में दूसरे स्थानों तक पहुँच गई।

यह अनूठा आन्दोलन था, यह चिपको की तरह था। कन्नड़ भाषा में अप्पिको शब्द चिपको का ही पर्याय है। पांडुरंग जी ने बताया- हमारा उद्देश्य जंगल को बचाना है, जो हमारे जीने के लिये और समस्त जीवों के लिये जरूरी है। हमें सबका सहयोग चाहिए पर किसी का एकाधिकार नहीं। हम सरकार की वन नीति में बदलाव चाहते हैं, जो कृषि में सहायक हो। क्योंकि खेती ही देश के बहुसंख्यकों की जीविका का आधार है।

चिपको आन्दोलन हिमालय में 70 के दशक में उभरा था और देश-दुनिया में इसकी काफी चर्चा हुई थी। पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने का यह शायद देश में पहला आन्दोलन था। चिपको के प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा ने अप्पिको पर बनी फिल्म में चिपको की शुरुआत कैसे हुई, इसकी कहानी सुनाई है।

उन्होंने उस महिला से सवाल किया, जो सबसे पहले पेड़ को बचाने के लिये उससे चिपक गई थी, आप को यह विचार कैसे आया?

महिला ने जवाब दिया- कल्पना करें कि मैं अपने बच्चे के साथ जंगल जा रही हूँ और जंगल से भालू और शेर आ जाएँ। तब मैं उन्हें देखते ही अपने बच्चे को सीने लगा लूँगी और उसे बचा लूँगी। इसी प्रकार जब पेड़ों को काटने के लिये चिन्हित किया गया तो मैंने सोचा मैं उसे गले से गला लूँ, वे मुझे नहीं मारेंगे और पेड़ बच जाएँगे।इस तरह चिपको का विचार सभी जगह फैल गया।

चिपको से प्रभावित अप्पिको आन्दोलन भी कर्नाटक के सिरसी से होते हुए दक्षिण भारत में फैलने लगा। इसके लिये कई यात्राएँ की गईं, स्लाइड शो और नुक्कड़ नाटक किये गए। सागौन और यूकेलिप्टस के वृक्षारोपण का काफी विरोध किया गया। क्योंकि इससे जैव विविधता का नुकसान होता। यहाँ न केवल बहुत समृद्ध जैवविविधता है बल्कि सदानीरा पानी के स्रोत भी हैं।

अप्पिको आन्दोलन की सामूहिक चर्चाशुरुआती दौर में आन्दोलन को दबाने की कोशिश की, पर यह आन्दोलन जनता में बहुत लोकप्रिय हो चुका था और पूरी तरह अहिंसा पर आधारित था। जगह-जगह लोग पेड़ों से चिपक गए और उन्हें कटने से बचाया। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार ने हरे वृक्षों की कटाई पर कानूनी रोक लगाई, जो आन्दोलन की बड़ी सफलता थी। इसके अलावा, दूसरे दौर में लोगों ने अलग-अलग तरह से पेड़ लगाए।

इस आन्दोलन का विस्तार बड़े बाँधों का विरोध हुआ। इसके दबाव में केन्द्र सरकार ने माधव गाडगिल की अध्यक्षता में गाडगिल समिति बनाई। यहाँ हर साल अप्पिको की शुरुआत वाले दिन 8 सितम्बर को सह्याद्री दिवस मनाया जाता है।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि जो अप्पिको आन्दोलन कर्नाटक के पश्चिमी घाट में शुरू हुआ था, अब वह फैल गया है। इस आन्दोलन ने एक नारा दिया था उलीसू, बेलासू और बालूसू। यानी जंगल बचाओ, पेड़ लगाओ और उनका किफायत से इस्तेमाल करो।यह आन्दोलन आम लोगों और उनकी जरूरतों से जुड़ा है, यही कारण है कि इतने लम्बे समय तक चल रहा है। अप्पिको को इस इलाके में आई कई विनाशकारी परियोजनाओं को रोकने में सफलता मिली, कुछ में सफल नहीं भी हुए। लेकिन अप्पिको का दक्षिण भारत में वनों को बचाने के साथ पर्यावरण चेतना जगाने में अमूल्य योगदान हमेशा ही याद किया जाएगा।

शारावती घाटी


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